Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 168 ] [ प्रज्ञापनासूत्र 161. [1] उत्तरिल्लाणं पुच्छा। गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया (सु. 160 [1]) तहेव उत्तरिल्लाणं पि / नवरं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं / [161-1 प्र.] भगवन् ! उत्तर दिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उत्तर दिशा के पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [161-1 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 161-1 में) दक्षिण दिशा के पिशाच देवों का वर्णन किया है, वैसे ही उत्तर दिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना चाहिए। विशेष यह है कि (इनके नगरावास) मेरुपर्वत के उत्तर में हैं। [2] महाकाले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति जाव (सु. 160 [2]) विहरति / [161-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (उत्तर दिशा का) पिशाचेन्द्र पिशाचराज-- महाकाल निवास करता है, (जिसका सारा वर्णन) यावत् 'विचरण करता है' (विहरति) तक, सू. 160-2 के अनुसार (समझना चाहिए।) 162. एवं जहा पिसायाणं (सु. 186-190) तहा भूयाणं पि जाब गंधव्वाणं / णवरं इंदेसु णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूव-पडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्द-माणिभद्दा, रक्खसाणं भीम-महाभीमा, किण्णराणं किण्णर-किपुरिसा, किपुरिसाणं सप्पुरिस-महापुरिसा, महोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधव्वाणं गीतरती-गीतजसे जाब (सु. 188) विहरति / काले य महाकाले 1 सुरूव पडिरूव 2 पुण्णभद्दे य / प्रमरवइ माणिभद्दे 3 भीमे य तहा महामीमे 4 // 146 // किण्णर किंपुरिसे खलु 5 सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे 6 / अइकाय महाकाए 7 गीयरई चेव गीतजसे 8 / / 150 / / [162] इस प्रकार जैसे (सू. 189-160 में) (दक्षिण और उत्तर दिशा के) पिशाचों और उनके इन्द्रों (के स्थानों) का वर्णन किया गया, उसी तरह भूत देवों का यावत् गन्धों तक का वर्णन समझना चाहिए / विशेष—इनके इन्द्रों में इस प्रकार से भेद (अन्तर) कहना चाहिए। यथा--भूतों के (दो इन्द्र)-सुरूप और प्रतिरूप, यक्षों के (दो इन्द्र)-पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के (दो इन्द्र)-भीम और महाभीम, किन्नरों के (दो इन्द्र)-किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के (दो इन्द्र) सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के (दो इन्द्र)-अतिकाय और महाकाय तथा गन्धर्वो के (दो इन्द्र)-गीतरति और गीतयश; (आगे का इनका सारा वर्णन) सूत्र 188 के अनुसार, यावत् 'विचरण करता है, (विहरति)' तक समझ लेना चाहिए। [संग्रहगाथाओं का अर्थ--] (आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो-दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार है)-१. काल और महाकाल, 2. सुरूप और प्रतिरूप, 3. पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, 4. भीम तथा महाभीम, 5. किन्नर और किम्पुरुष, 6. सत्पुरुष और महापुरुष, 7. अतिकाय और महाकाय तथा 8. गीतरति और गीतयश / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org