________________ द्वितीय स्थानपद [167 गोयमा! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवोए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेता मज्झे असु जोयणसएसु, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससतसहस्सा भवतीति मक्खातं / ते णं भोमेज्जणगरा बाहि बट्टा जहा ओहिओं भवणवण्णो (सु. 177) तहा भाणियम्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तस्थ गं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसं ति महिड्ढिया जहा प्रोहिया जाव (सु. 188) विहरंति / [160-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! दाक्षिणात्य पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [190-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर का एक सौ योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर बीच में जो आठ सौ योजन (प्रदेश) हैं, उनमें दाक्षिणात्य पिशाच देवों के तिरछे असंख्येय भूमिगृह-जैसे (भौमेय) लाखों नगरावास हैं, ऐसा कहा है / वे (भौमेय) नगर बाहर से गोल हैं, इत्यादि सब कथन जैसे (सू. 177 में) औधिक (सामान्य) भवनों का कहा, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्-'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए / इन (पूर्वोक्त नगरावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहे गए हैं / (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इन्हीं (स्थानों) में बहुत-से दाक्षिणात्य पिशाच देव निवास करते हैं, वे महद्धिक हैं', इत्यादि समग्र वर्णन जैसे (सू. 188 में) सामान्य वाणव्यन्तर देवों का किया है, तदनुसार यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति) तक करना चाहिए / [2] काले यस्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति महिड्ढीए (सु. 188) जाव पभासेमाणे / से गं तस्य तिरियमसंखेज्जाणं भोमेज्जगनगरावाससतसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चउण्हमग्गहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं प्रणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं सोलसण्हं प्रातरक्खदेवसाहस्सोणं प्रणेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य देवोण य प्राहेवच्चं (सु. 188) जाव विहरति / [160-2] इन्हीं (पूर्ववणित स्थानों) में पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल निवास करते हैं, जो महद्धिक है, (इत्यादि सब वर्णन सू. 188 के अनुसार) यावत् प्रभासित करता हुआ ('पभासेमागे') तक समझना चाहिए। वह (दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र काल) तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का 'प्राधिपत्य करता हुआ' यावत् 'विचरण करता है' (विहरति) तक (आगे का सारा कथन सू. 188 के अनुसार करना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org