________________ 146 ] [प्रज्ञापनासून में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों एवं जल के स्थानों में; इन (सभी पूर्वोक्त स्थलों) में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के स्थानों की प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र (सू. 175) में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। इसमें प्रयुक्त शब्दों का स्पष्टीकरण पहले ही किया जा चुका है / मनुष्यों के स्थानों की प्ररूपणा 176. कहि णं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसतसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदोवेसु, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [176 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [176 उ.] गौतम ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर पैंतालीस लाख योजनों में, ढाई द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में, और छप्पन अन्तर्वीपों में; इन स्थलों में पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन-मनुष्यों के स्थानों को प्ररूपणा-प्रस्तुतसूत्र (सू. 176) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। समदघात की अपेक्षा से सर्वलोक में--समुद्घात की अपेक्षा से पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्य सर्वलोक में होते हैं, कह कथन केवलिसमुद्धात की अपेक्षा से सम्भव है।' सर्व भवनवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा 177. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झिमअट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं भवणवासोणं देवाणं सत्त भवणकोडीयो बावरिं च भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org