________________ द्वितीय स्थानपद [157 (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से (उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, जहाँ कि बहुत से दाक्षिणात्य नागकुमार देव निवास करते हैं, जो मद्धिक हैं; (इत्यादि शेष समग्र वर्णन) यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) तरु (सू. 177 के अनुसार समझना चाहिए।) [2] धरणे यऽत्थ णागकुमारिदे णागकुमारराया परिवसति महिड्ढोए जाव (सु. 178) पभासेमाणे / से गं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं प्रणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउम्बोसाए पायरक्खदेवसाहस्सीणं असि च बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे विहरति / [182-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणेन्द्र निवास करता है, जो कि महद्धिक है, (इत्यादि समग्र वर्णन) यावत् प्रभासित करता हुमा ('पभासमाणे') तक (सू. 178-2 के अनुसार समझना चाहिए / ) वहाँ वह (धरणेन्द्र) चवालीस लाख भवनावासों का, छह हजार सामानिकों का, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सैन्यों का, सात सेनाधिपति देवों का, चौवीस हजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से दाक्षिणात्य नागकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुमा विचरण करता है। 183. [1] कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्य णं उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं (सु. 182 [1]) जाव विहरति / [183-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के स्थान कहा कह गए ह / भगवन् / उत्तरादशा के नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [183-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, समेरुपर्वत के उत्तर में, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, वहाँ उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के चालीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल हैं, शेष सारा वर्णन दाक्षिणात्य नागकुमारों के वर्णन, सू. 182.1 के अनुसार यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) (तक समझ लेना चाहिए / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org