________________ 142 ] [ प्रज्ञापनासूत्र ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्खत्तजोइसप्पहा मेद-बसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिविखल्ललिताणुलेवणतला असुई बीसा परमभिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा नरगेसु वेदणामो, एस्थ णं तमध्यभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उवधाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे तमप्पमापुढविणेरइया परिवसंति / काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उब्धिग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्ध नरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति / [173 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [173 उ.] गौतम ! एक लाख सोलह हजार योजन मोटी तमःप्रभापृथ्वी के ऊपर का एक हजार योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन (प्रदेश) छोड़कर मध्य में एक लाख चौदह हजार योजन (प्रदेश) में, वहाँ तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पांच कम एक लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक (नारकावास) भीतर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छुरे के (आकार केसे तीक्ष्ण) संस्थान से युक्त हैं। वे सदैव (घने) अंधेरे से (भरे होते हैं,) वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों के प्रकाश से वंचित हैं, उनके तल मेद, वसा, मवाद की मोटी परत, रक्त और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं, अतएव वे अपवित्र, बीभत्स, अतिदुर्गन्धित, कर्कश स्पर्शयुक्त, दुःसह एवं अशुभ या सुखरहित (असुख)नरक हैं; इन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं। इन (नरकावासों) में तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नरकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); जहाँ कि बहुत-से तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक निवास करते हैं / (वे नैरयिक) काले, काली प्रभा वाले, गम्भीरलोमहर्षक, भयानक, उत्त्रासदायक, वर्ण से अतीव कृष्ण कहे गए हैं। हे प्रायुष्मन् श्रमणो! वे (वहाँ) सदैव भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य त्रासित, सदैव उद्विग्न, नित्य परम अशुभ तत्सम्बद्ध नरकभय का सतत प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं / 174. कहि णं भंते ! तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तमतमाए पुढवीए अट्ठोत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई प्रोगाहिता हिट्ठा वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई वज्जेत्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु, एत्थ णं तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं पंचदिसि पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया पण्णत्ता, तं जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org