________________ 140 ] [प्रज्ञापनासूत्र 171. कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! पंकप्पभाए पुढवीए वीसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठारसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं दस गिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / तेणं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्षत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणलेवणतला असई वीसा परम: दुग्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा प्रसुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणामो, एस्थ गं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे पंकप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वणणं पण्णत्ता समणाउसो ! / ते णं निच्चं भीता निच्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं उम्विग्गा निच्च परममसहं संबद्ध परगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति / [171 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [171 उ.] गौतम! एक लाख बीस हजार योजन मोटी पंकप्रभापृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन भाग अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन भाग छोड़ कर, बीच के एक लाख अठारह हजार योजन प्रदेश में, पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के दस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा है। वे नरक (नारकावास) अन्दर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छरे के आकार से युक्त, सदा अन्धकार से व्याप्त: ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित: मेद, चर्बी. मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त तलवाले, अपवित्र, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, कापोतरंग की (धधकती) अग्नि के वर्ण-सदृश, कठोरस्पर्शयुक्त हैं अतएव अत्यन्त दुःसह एवं अशुभ हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं; जहाँ कि पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान बताए गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नरकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं) और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); जहाँ पंकप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं; जो काले, काली प्रभावाले, गम्भीर रोमहर्षक, भयंकर, उत्त्रासजनक एवं परम कृष्णवर्ण के कहे गए हैं। हे आयुष्मन श्रमणो ! वे नारक (वहाँ) सदैव भयभीत, सदा त्रस्त, नित्य परस्पर त्रासित, नित्य उद्विग्न और सदैव सम्बद्ध (निरन्तर) अतीव अशुभ नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। 172. कहि णं भंते ! धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! धमप्पभाए पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org