________________ [141 द्वितीय स्थानपद प्रोगाहित्ता हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं धूमप्पभापुढविनेरइयाणं तिन्नि निरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं णरगा अंतो बट्टा बाहि चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्षत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वौसा परमबिभगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा प्रसुभा गरगेसु वेयणानो, एत्य णं धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे धमप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णणं पण्णत्ता समणाउसो / ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उद्विग्गा णिच्चं परममसहं संबद्ध णरगभयं पच्चणुभवमाणा बिहरंति / [172 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ (किस प्रदेश में) कहे हैं ? / [172 उ.] गौतम ! एक लाख अठारह हजार योजन मोटी धूमप्रभापृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन को अवगाहन (पार) करके, नीचे के एक हजार योजन (क्षेत्र) को छोड़ कर बीच के एक लाख सोलह हजार योजन प्रदेश में, धूमप्रभापृथ्वी के नारकों के तीन लाख नारकावास हैं, ऐसा कहा है। वे नरक (नारकावास) भीतर से गोल और बाहर से चौकोर हैं, नीचे से छुरे के-से आकार के तीक्ष्ण हैं, (वे) सदैव गाढ अन्धकार से (पूर्ण रहते हैं); वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से दूर हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं। अतः वे नरक अत्यन्त अपवित्र, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, कापोत रंग की जाज्वल्यमान अग्नि के वर्ण के समान, कठोरस्पर्श वाले दुःसह एवं अशुभ हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के अख्सयातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, (तथा) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, जहाँ उन (नरकावासों) में धूमप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक रहते हैं, जो काले, काली कान्तिवाले, गंभीर रोमाञ्चकारी, भयानक, उत्त्रासदायक, वर्ण से परम कृष्ण कहे गए हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रासित, नित्य उद्विग्न और सदैव अविच्छिन्नरूप से परम अशुभ नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं। 173. कहि णं भंते ! तमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा! तभप्पभाए पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हिट्ठा वि एगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे चोद्दसत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं तमप्पभापुढविनेरइयाणं एगे पंचूणे परगावाससतसहस्से हवंतीति मक्खातं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org