________________ 132] [प्रज्ञापनासूत्र [161 उ.] गौतम ! जहाँ बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से--(वे) सर्वलोक में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से (भी) सर्वलोक में हैं; (किन्तु) स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 162. कहिणं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जतगाण य ठाणा पण्णता? गोयमा ! सुहमवणस्सइकाइया जे य पज्जतगाजे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा प्रणाणता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णता समणाउसो! / ___ [162 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [162 उ. गौतम ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, विशेषता से रहित हैं, नानात्व से भी रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोक में व्याप्त कहे गए हैं। विवेचन-वनस्पतिकायिकों के स्थानों की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में बादर-सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक-भेदों के स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है। पर्याप्त-बादरवनस्पतिकायिकों के स्थान जहां जल होता है, वहाँ वनस्पति अवश्य होती है, इस दृष्टि से समस्त जलस्थानों में पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव होते हैं। उपपात की अपेक्षा से वे सर्वलोक में हैं, क्योंकि उनके स्वस्थान धनोदधि ग्रादि हैं, उनमें शवाल आदि बादरनिगोद के जीव होते हैं। सूक्ष्मनिगोद जीवों की भवस्थिति अन्तमुहर्त की ही होती है, तत्पश्चात् वे बादर पर्याप्तनिगोदों में उत्पन्न होकर बादर निगोदपर्याप्त की आयु का वेदन करते हुए सुविशुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक नाम पा लेते हैं; उपपात की अपेक्षा से (वे) समस्त काल और समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं / __ समुद्घात की अपेक्षा से भी वे सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि जब बादरनिगोद सूक्ष्मनिगोदसम्बन्धी आय का बन्ध करके और आयु के अन्त में मारणान्तिकसमुद्घात करके प्रात्मप्रदेशों को उत्पत्तिदेश तक फैलाते हैं, तब तक उनकी पर्याप्तबादरनिगोद की आयु क्षीण नहीं होती। अतएव वे उस समय भी बादर पर्याप्तनिगोद ही रहते हैं और समुद्घातावस्था में वे समस्तलोक में व्याप्त होते हैं / इस दृष्टि से कहा गया है कि बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में व्याप्त होते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि धनोदधि आदि पूर्वोक्त सभी स्थान मिल कर भी लोक के असंख्यातवें भागमात्र में ही हैं।" 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 78 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org