________________ द्वितीय स्थापदन ] [ 135 [166 उ.] गौतम ! 1. (वे) ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में (होते हैं), अधोलोक में उसके एकदेशभाग में (होते हैं), और 3. तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीपिकानों में, गुजालिकामों में, सरोवरों में, सरोवर-पंक्तियों में, सर-सरपंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वत्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, और सभी जलाशयों तथा समस्त जलस्थानों में (होते हैं)। इन (सभी उपयुक्त स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रियों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से--(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं) और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं)। विवेचन-द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रिय जीवों के स्थानों की प्ररूपणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 163 से 166 तक) में क्रमश: द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। द्वीन्द्रियादि जीवों के तीनों लोकों की दष्टि से स्वस्थान-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय, इन चारों के सूत्रपाठ एक समान हैं। ये सभी ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग मेंअर्थात् -मेरुपर्वत आदि को वापी आदि में होते हैं। अधोलोक में भी उसके एकदेशभाग में, अर्थात्- अधोलौकिक वापी, कुप तालाब आदि में होते हैं तथा तिर्यग्लोक में भी कूप, तड़ाग, नदी आदि में होते हैं। तथा पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार उपपात, समुद्घात एवं स्वस्थान की अपेक्षा से द्वीन्द्रिय से सामान्य पंचेन्द्रिय तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।' नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा 167. कहि णं भंते ! नेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! नेरइया परिवति? ___ गोयमा ! सटाणेणं सत्तसु पुढवीसु / तं जहा-रयणपभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए, एत्थ णं गैरइयाणं चउरासीति णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-णक्खत्त-जोइसपहा मेद-बसा-पूय-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा; काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा णरगेसु वेपणानो, एत्थ णं णेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता। ___उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org