________________ 134 [प्रज्ञापनासूत्र उपपात की अपेक्षा से—(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। 165. कहि णं भंते ! चरिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेस सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सब्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु 3 / / एस्थ णं चरिंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता। उववाएणं लोयरस असंखेज्जइमागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [165 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [165 उ.] गौतम ! 1. (वे) उर्ध्वलोक में-उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 2. अधोलोक में-उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 3. तिर्यग्लोक में-कूपों में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं में, गुजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सरपंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वप्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और समस्त जलाशयों में तथा सभी जलस्थानों में (होते हैं / ) इन (पूर्वोक्त सभी स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा क के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं)। 166. कहि णं भंते ! पंचिदियाणं पज्जत्ताऽपत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदोसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएस जलढाणेसु 3, एत्थ णं पंचेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [166 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org