________________ 128] [प्रज्ञापनासूत्र अर्थात्-पंतालीस लाख योजन चौड़े दो कपाट हैं, जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर-अन्दर जो तेजस्कायिक हैं, उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया जाता हैं। इसकी स्थापना (प्राकृति) इस प्रकार हैअतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहारनय की दृष्टि से की गई है। समघात की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों का स्थान-समुद्घात की दृष्टि से ये सर्वलोक में होते हैं। इसका आशय यों समझना चाहिए-पूर्वोक्तस्वरूप वाले दोनों कपाटों के मध्य (अपान्तरालों) में जो सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादि जीव हैं, वे बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर प्रमाण और लम्बाई में उत्कृष्टतः लोकान्त तक अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाते हैं। जैसा कि अवगाहनासंस्थानपद में आगे कहा जाएगा *[प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात किये हुए पृथ्वीकायिक के तैजसशरीर की शारीरिक अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? [उ.] गौतम ! (उन की शरीरावगाहना) विस्तार और मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाण होती है, और लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट लोकान्तप्रमाण होती है। उसके पश्चात् वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि अपने उत्पत्तिदेश तक दण्डरूप में आत्मप्रदेशों को फैलाते हैं और अपान्तरालगति (विग्रहगति) में वर्तमान होते हुए वे बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक की आयु का वेदन करने के कारण बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम को धारण करते हैं / वे समुद्घात अवस्था में ही विग्रहगति में विद्यमान होते हैं तथा समुद्घात-गत जीव समस्त लोक को व्याप्त करते हैं। इस दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से इन्हें सर्वलोकव्यापी कहा गया है। दूसरे आचार्यों का कहना है- बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक जीव संख्या में बहुत अधिक होते हैं; क्योंकि एक-एक पर्याप्त के आश्रय से असंख्यात अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है। वे सूक्ष्मों में भी उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म तो सर्वत्र विद्यमान हैं / इसलिए बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक अपने-अपने भव के अन्त में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए समस्त लोक को आपूरित करते हैं / इसलिए इन्हें समग्र की दृष्टि से, समुद्घात की अपेक्षा सकल लोकव्यापी कहने में कोई दोष नहीं है।' ___ स्वस्थान की अपेक्षा से बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि पर्याप्तों के आश्रय से अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है। पर्याप्तों का स्थान मनुष्यक्षेत्र है, जो कि सम्पूर्ण लोक का असंख्यातवां भागमात्र है। इसलिए इन्हें लोक के असंख्यातवें भाग में कहना उचित ही है। * 'पुढवीकाइयस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प. ?' 'गोयमा ! सरीरपमाणमेत्तविक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं लोगतो।' —प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 76 में उद्धत 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक 75 से 77 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org