________________ 124 } [प्रज्ञापनासूत्र ४-तिर्यग्लोक में प्रवटों (कुओं) में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (चौकोर बावड़ियों), पुष्करिणियों (गोलाकार बावड़ियों या पुष्कर= कमल वाली बावड़ियों) में, दीपिकानों (लम्बी बावड़ियों, सरल-छोटी नदियों) में, गुंजालिकाओं (टेढ़ीमेढ़ी बावड़ियों) में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरासरःपंक्तियों (नाली द्वारा जिनमें कुए का जल बहता है, ऐसे पंक्तिबद्ध तालाबों में), बिलों में (स्वाभाविक बनी हुई छोटी कुइओं में), पंक्तिबद्ध बिलों में, उज्झरों में (पर्वतीय जलस्रोतों में), निर्भरों (झरनों) में, गड्ढों में, पोखरों में, वनों (क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा समस्त जलाशयों में और जलस्थानों में (इनके स्थान) हैं। इन (पूर्वोक्त) स्थानों में बादर-अप्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा से (भो वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं / 152. कहि णं भंते ! बादरग्राउक्काइयाणं प्रपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! जत्थेव बादराउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरनाउक्काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [152 प्र.] भगवन् ! बादर-प्रकायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [152 उ.] गौतम ! जहाँ बादर-अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं, वहीं बादरअप्कायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं / 153. कहि णं भंते ! सुहुमनाउक्काइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा! सुहुमनाउक्काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा प्रबिसेसा प्रणाणत्ता सव्वलोयपरियावष्णगा पन्नत्ता समणाउसो ! [153 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? (153 प्र.] गौतम ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं, वे सभी एक प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषतारहित- सामान्य या भेदरहित) हैं, नानात्व से रहित हैं, और आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं। विवेचन-प्रकायिकों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 151 से 153 तक) में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक प्रकायिकों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात, इन तीनों अपेक्षओं से स्थानों का निरूपण किया गया है / 'घणोदधिवलएस' इत्यादि शब्दों की व्याख्या-'घणोदधिवलएसु' = स्व-स्वपृथ्वी-पर्यन्त प्रदेश को वेष्टित करने वाले वलयाकारों में / 'पायालेसु'-वलयामुख आदि पातालकलशों में / क्योंकि उनमें भी दूसरे में देशतः त्रिभाग में और तीसरे में विभाग में सर्वात्मना जल का सद्भाव रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org