________________ द्वितीय स्थानपद | 123 प्राकाशप्रदेशों में ये (एक) हैं, उन्हीं में दूसरे हैं / अत: वे सभी सूक्ष्म पृथ्वीकायिक उपपात, समुद्घात और स्वस्थान, इन तीनों अपेक्षाओं से सर्वलोकव्यापी हैं।' कठिन शब्दों के विशेष प्रर्थ--'भवणेस' = भवनपतियों के रहने के भवनों में, भवनपत्यडेसु' = भवनों के प्रस्तटों यानी भवनभूमिकाओं में (भवनों के बीच के भागों-अन्तरालों में) / "णिरएसु निरयावलिकासु'--नरकों (प्रकीर्णक नरकावासों) में, तथा आवली रूप से स्थित नरकवासों में 1 कप्पेस' =कल्पों-सौधर्मादि बारह देवलोकों में / 'विमाणेस-वेयकसम्बन्धी प्रकीर्णक विमानों में। 'टकेस' = छिन्न टंकों (एक भाग कटे हुए पर्वतों) में / 'कटेसु' = कूटों-पर्वत के शिखरों में / 'सेलेस' शैलों-शिखरहीन पर्वतों में / 'विजयेस' = विजयों-कच्छादि विजयों में / 'वक्खारेसु' = विद्युत्प्रभ आदि वक्षस्कार पर्वतों में / 'वेलासु' =समुद्रादि के जल की तटवर्ती रमणभूमियों में / 'वेदिकासु'-जम्बूद्वीप की जगती प्रादि से सम्बन्धित वेदिकानों में / 'तोरणेसु' = विजय आदि द्वारों में, द्वारादि सम्बन्धी तोरणों में / 'दीवेसु समुद्देसुण्क' = समस्त द्वीपों और समस्त समुद्रों में / यहाँ 'एक' शब्द 'चार' संख्या का द्योतक है, ऐसा किन्हीं विद्वानों का अभिप्राय है / अप्कायिकों के स्थानों का निरूपण 151. कहि णं भंते ! बादरमाउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदधीसु सत्तसु घणोदधिवलएसु 1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु 2 / उढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु 3 / तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वायोसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सन्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु 4 / एल्थ गं बादरभाउक्काइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [151 प्र.] भगवन् ! बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए है ? [151 उ.] गौतम ! (1) स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनोदधियों में और सात घनोदधि-वलयों में उनके स्थान हैं। २-अधोलोक में---पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में हैं। ३-ऊर्ध्वलोक में--कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों (प्रावलीबद्ध विमानों) में, विमानों के प्रस्तटों (मध्यवर्ती स्थानों) में हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 73-74 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 73 (ख) पण्णवणासुत्त मूलपाठ-टिप्पण पृ. 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org