________________ प्रथम प्रज्ञापनापन [115 प्रसाधनार्थ ये नाना प्रकार की विशिष्ट एवं विशिष्टतर उत्तरविक्रिया किया करते हैं। कुमारों की तरह ही इनके रूप, वेशभूषा, भाषा, आभूषण, शस्त्रास्त्र, यान एवं वाहन ठाठदार होते हैं / ये कुमारों के समान तीव्र अनुरागपरायण एवं क्रीड़ातत्पर होते हैं / वाणव्यन्तर देवों का स्वरूप-अन्तर का अर्थ है-अवकाश, आश्रय या जगह / जिन देवों का अन्तर (प्राश्रय), भवन, नगरावास आदि रूप हो, वे व्यन्तर कहलाते हैं। वाणव्यन्तर देवों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर और नीचे सौ-सौ योजन छोड़ कर शेष पाठ-सौ योजन-प्रमाण मध्यभाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं; तथा इनके आवास तीन लोकों में हैं; जैसे ऊर्ध्वलोक में इनके आवास पाण्डुकवन आदि में हैं। व्यन्तर शब्द का दूसरा अर्थ है--- मनुष्यों से जिनका अन्तर नहीं (विगत) हो, क्योंकि कई व्यन्तर चक्रवर्ती, वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवक की तरह सेवा करते हैं। अथवा जिनके पर्वतान्तर, कन्दरान्तर या वनान्तर आदि प्राश्रयरूप विविध अन्तर हों, वे व्यन्तर कहलाते हैं / अथवा वानमन्तर का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--वनों का अन्तर वनान्तर है, जो बनान्तरों में रहते हैं, वे वानमन्तर / वाणव्यन्तरों के किन्नर आदि आठ भेद हैं। किन्नर के दस भेद हैं-(१) किन्नर, (2) किम्पुरुष, (3) किम्पुरुषोत्तम, (4) किन्नरोत्तम, (5) हृदयंगम, (6) रूपशाली, (7) अनिन्दित, (8) मनोरम, (9) रतिप्रिय और (10) रतिश्रेष्ठ / किम्पुरुष भी दस प्रकार के होते हैं-(१) पुरुष, (2) सत्पुरुष, (3) महापुरुष, (4) पुरुषवृषभ, (5) पुरुषोत्तम, (6) अतिपुरुष, (7) महादेव, (8) मरुत, (9) मेरुप्रभ और (10) यशस्वन्त / महोरग भी दस प्रकार के होते हैं—(१) भुजग, (2) भोगशाली, (3) महाकाय, (4) अतिकाय, (5) स्कन्धशाली, (6) मनोरम, (7) महावेग, (8) महायक्ष, (9) मेरुकान्त और (10) भास्वन्त / गन्धर्व 12 प्रकार के होते हैं-(१) हाहा, (2) हूहू, (3) तुम्बरव, (4) नारद, (5) ऋषिवादिक, (6) भूतवादिक, (7) कादम्ब, (8) महाकदम्ब, (9) रैवत, (10) विश्वावसु, (11) गीतरति और (12) गीतयश / यक्ष तेरह प्रकार के होते हैं—(१) पूर्णभद्र, (2) मणिभद्र, (3) श्वेतभद्र, (4) हरितभद्र, (5) सुमनोभद्र, (6) व्यतिपातिकभद्र, (7) सुभद्र, (8) सर्वतोभद्र, (6) मनुष्ययक्ष, (10) वनाधिपति, (11) वनाहार, (12) रूपयक्ष और (13) यक्षोत्तम / राक्षस देव सात प्रकार के होते हैं-(१) भीम, (2) महाभीम, (3) विघ्न, (4) विनायक, (5) जलराक्षस, (6) राक्षस-राक्षस और (7) ब्रह्मराक्षस / भूत नौ प्रकार के होते हैं-(१) सुरूप, (2) प्रतिरूप, (3) अतिरूप, (4) भूतोत्तम, (5) स्कन्द, (6) महास्कन्द, (7) महावेग, (8) प्रतिच्छन्न और (8) आकाशग / पिशाच सोलह प्रकार के होते हैं-(१) कूष्माण्ड, (2) पटक, (3) सुजोष, (4) आह्निक, (5) काल, (6) महाकाल, (7) चोक्ष, (8) अचोक्ष, (9) तालपिशाच, (10) मुखरपिशाच, (11) अधस्तारक, (12) देह, (13) विदेह, (14) महादेह, (15) तृष्णीक और (16) वनपिशाच / ___ ज्योतिलक देवों का स्वरूप-जो लोक को धोतित--ज्योतित-प्रकाशित करते वे ज्योतिष्क कहलाते हैं / अथवा जो द्योतित करते हैं, वे ज्योतिष-विमान हैं, उन ज्योतिविमानों में रहने वाले देव ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। अथवा जो मस्तक के मुकुटों से आश्रित प्रभामण्डलसदृश सूर्यमण्डल आदि के द्वारा प्रकाश करते हैं, वे सूर्यादि ज्योतिष्कदेव कहलाते हैं। सूर्यदेव के मुकुट के अग्रभाग में सूर्य के आकार का, चन्द्रदेव के मुकुट के अग्रभाग में चन्द्र के आकार का, ग्रहदेव के मुकुट के अग्रभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org