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णमो सम स भगवओ महावीरस्स
श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर. शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय
विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः ।। सकलागम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित
अभिधान राजेन्द्र कोष 卐 सप्तमो भागः ॥ [द्वितीय संस्करण]
-: प्रकाशक :शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार
परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव
श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज
के उपदेश से अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ
प्रदत्त द्रव्यसहाय से श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद.
卐 सर्व अधिकार प्रकाशक को स्वाधीन हैं फ़
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श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८
ईस्वी सन १९८६ मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१
(दो हजार पांचसो एक रुपये)
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प्राप्तिस्थान
श्री अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था C/o श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद.
मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी
नयन प्रि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-१
Prof. Sylvain Levi University of Paris :
After 5 years of Abhidhan Rajendra's continuous perusal, l can affirm that no real Indologist can dispense with a copy of this wonderful work. In its special compass, it surpasses even that jewel of lexicography, the Petersburg Dictionary. Here we have not only a complete register of words warranted by references and quotations, but a full survey of thoughts, beliefs, legends lying beyond the words. Whatever is the matter I bappen to deal with. I begin with consulting my Rajendra and I never fail to get some useful information. Shall we ever have anything alike in the field of Brahmanism and Buddhism ?
Prof. Siddheshwar Varma, M.A.- Professor of Sanskrit, Prince of Wales College, Jammu (Kashmir)
"The Abhidhan Rajendra in my opinion is a colossal work which reflects credit on Indian industry and scholarship. A special feature of the work is the rich bibliographical material hitherto absolutely unknown to the world."
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सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि- कलिकालसर्वज्ञकल्प- परमयोगिराज जगत्पूज्य गुरूदेव - प्रभुश्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष:
२
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तोलाराम हिम
दृप्त भ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत: । सङ्घस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ॥ १॥
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प्रकाशकीय निवेदन
कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागम रहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप, जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार प्रसार किया। साथ ही अनेक प्रन्थों का निर्माण किया-ग्रन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों का युगों युगों के लिये अदभूत प्रेरणा प्रदान की है।
बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र. ) से प्रकाशित की गई थी । प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया था । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुर तीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस ग्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ ।
इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् बिजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक परमपूज्य तीर्थ प्रभावक साहित्यमनिषी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं ।
वर्षो के बाद पुनः एक बार इस मन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है । इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज संयमवयःस्थविर मुनिराज श्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानंद विजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एव साध्वी मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं :
श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ - अहमदाबाद के ट्रस्टी मण्डल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला है ।
इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एवं महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है । नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है। न की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार ।
१ प्रवर्तिनी साध्वीजी गुरुणीजी प्रेमश्रीजी की शिष्या गुरुणीजी, रायश्रीजी की शिष्या साध्वीजी शिवश्रीजी की स्मृति में विदुषी साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संघ ।
२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.)
३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढी, श्री भाण्डवपुर तीर्थ (राज.)
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४ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ( त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात )
५ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद
६ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल
७ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा
८ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ धानेरा
९ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई ।
१० श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ नेनावा (गुजरात)
११ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, मंगलवा (राज.)
१२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ सियाणा (राज.)
१३ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ आकेली (राज.)
१४ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (राज.)
१५ श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट मद्रास
१६ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ वाघोडा (राजस्थान)
१७ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ इन्दौर
१८ श्री भांडवपुर में हनखेडा तीर्थ छरीपालक संघ समिति
१९ श्री राजेन्द्र जैन तपागच्छ संघ भीनमाल
२० श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर सुरत (थराद मित्र मंडळ)
२१ श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ, महीदपुर रोड (म. प्र. )
२२ श्री यतिन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर, बामनिया (म.प्र)
२३ श्री शांतीनाथजी गोडीदासजी जैन पेढी कुक्षी (म. प्र )
२४ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर, उज्जैन (म. प्र. )
२५ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन श्वेतांबर संघ रतलाम
२६ श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ, कोशेलाव
२७ श्री थराद जैन युवक संघ, आणंद
२८ भी भेसवाडा सिल्क मिल्स, भीवडी (महाराष्ट्र)
२९ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज.)
३० शाह नेमिचन्द, देवीचन्द, मीश्रीमल, कान्तिलाल, शुकनराज, फूलचन्द, राजु बेटापोता श्री लखमाजी बलदरिया, कोशेलाव (राज.)
३१ श्री मांगीलाल, फुटरमल, शांतिलाल, किशोरचन्द्र बेटापोता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुडाबालोतान (राज.)
३२ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज.)
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३३ श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र. )
३४ श्री चीमनलाल भीखालाल लाघाणी वासणवाला, धानेरा (गुजरात)
३५ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, वीरचंद, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापाता केनाजी में गलवा, ( राजस्थान )
३६ श्री अमरचन्द देशमल, तिलोकचन्द मीठालाल ओटमल घरमाजो पटियात घाणसा
३७ शाह मगराज सुखराज एन्ड क. मद्रास
३८ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटापोता हांसाजी रतनपुराबारा, मदिरा (राज.) ३९ कुंदनमल सुरेशकुमार जगदीशकुमार बेटापोता मिश्रीमल नथाजी बागरेचा, आहार
४० कुसलराज भूरमलजी बूटा, आहार (राजस्थान )
४१ चौधरी गेंदालाल गुलाबचन्दजो की धर्मपत्नी लीलाबहन सुपुत्र अशोककुमार, भाई मोतीलालजी, रिंगणांद ४२ कोठारी निर्मलाबेन धर्मपत्नी कोठारी सागरमलजी रंगलालजी छोटी सादडी वाला, उज्जैन
४३ श्री जेठमलजी सरेमलजी भीनमाल
४४ श्री सोहनराज डुंगरजी भीनमाल
४५ संघवी गगलदास हालचंदभाई और संघत्री भीखालाल मणोलाल अहमदाबाद
४६ शाह शांतीभाइ तालचदजी के सुपुत्र
केवलचंद, सुरेशकुमार, महेन्द्रकुमार, दिनेशकुमार, रमेशकुमार बेटापोता
छागाजो कासमगोत्रा राठोड हरजी (राजस्थान)
इनके अतिरक्त गाँव नगरों के महानुभावाने लाभ लिया है उन के नाम हैं.
भीनमाल, जोधपुर में गलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लार, विजयवाडा, मांडवला, घाणसा, आहेर, बाग, राणकपुर, उज्जैन, मेघनगर, जावरा में सवाडा, सुरा, सियाणा, कामता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी. पांथेडी, बम्बई. सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ कोशेलीव, थरराद, अहमदाबाद, लवाणा, दूधवा, आणंद, बासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलाल झाबुआ, टांडा, पारा, राजकोट, रिंगणेोद, (धार)
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इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्यश्री के सतत प्रयत्न से यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् ।
श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर स्तनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक पो. अहमदाबाद
२०४२ पोष सुद ७ ( गुरुसप्तमी)
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प्रकाशन रहा है, यह
निवेदक
श्री अभिधान राजेन्द्र केाष प्रकाशन संस्था
अहमदाबाद
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प्रासंगिक वक्तव्य
विश्वविख्यात अर्धमागधी प्राकृत महाकोश 'श्री अभिधान गजेन्द्र' की संरचना अपने आप में एक भगीरथ कार्य है । इस कोश का निर्माण करके विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने जैन जगत के साथ विश्वस्थ विद्वद् जगत पर महानतम उपकार किया है। विश्व में व्याप्त इस अलौकिक रचनाने गुरुदेव भीको विश्व पूज्यता प्रदान की है । श्रीमद् का नाम आज विश्वपुरुषों की श्रेणी में गिना जाता है ।
कोश के प्रथम संस्करण के संशोधक पूज्यपाद गुरुदेव श्री यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने लिखा है
'अभिधान राजेन्द्र' सुकोश रचा, जैन जैनेतर सब ही को जचा । विद्वानी जगजाहिर हुयी, यश पाया राजेन्द्र सुरिवरने ।।
विश्व के विभिन्न देश-प्रदेशों के अनेक विद्वानाने इस कोश को भूरि भूरि प्रशंसा की है । वे इस कोश को अपना महाप्राण मानते है ।
जितना बृहद्-कार्य यह कोश है: उतना ही भगीरथ कार्य इसका प्रकाशन भी है। यह विपुल अर्थसाध्य और अपार कष्ट-साभ्य है। इसकी प्रथमावृत्ति श्री जैन श्वेतांबर त्रिस्तुतिक संघ के विपुल अर्थ सहयोग से हमारे परम उपकारी साहित्य विशारद विद्याभूषण पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुपेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज एव' व्याख्यान वाचस्पति गभोर गणनायक पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के संशोधकत्व में श्री अभिधान राजेन्द्र कोश प्रचारक संस्था रतलाम से प्रकाशित हुई थी।
समय बीतता गया और धीरे धीरे इसकी सब प्रतियाँ समाप्त हो गयी । ग्रंथ अप्राप्य हो गया, पर इसकी माँग बरावर बनी रही । बढती हुई माँगने हमें इस कोश की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित करने की प्रेरणा दी; अतः अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ के आर्थिक सहयोग से अव यह दुर्लभ ग्रंथ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है । यह महाकोश जैन संघ की अपूर्व धरोहर है और राष्ट्र की असाधारण निधि हैं।
इस द्वितीयावृत्ति के प्रकाशन के पुनीत अवसर पर हम पूज्यपाद तीर्थप्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज जे। गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के प्रतिभा संपन्न शिष्य है और गुरू गच्छ के षष्ठम पट्टधर है - का स्मरण करना हम अपना परम कर्तव्य समझते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं । इस महाकोश की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित करने की प्रेरणा और शक्ति हमें उन पूज्यपादश्री के द्वारा प्राप्त हुई है। उन्होंने ही हमारे मनोबल और संकल्प वल को बढावा दिया है।
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साथ ही संयमवयःस्थविर मुनिराज श्री शांतिविजयजी महाराज आदि मुनिडमल तथा विदुषी साध्वी श्री गंभीरश्रीजी, साध्वीनी श्री लावण्यश्रीजी आदि साध्वी मंडल के द्वारा जो सहयोग हमें प्राप्त हुआ है, वह अबिस्मरणीय है ।
इसी के साथ थराद निवासी और अहमदाबाद के व्यवसायो परम गुरुभक्त जैनरत्न श्रेष्ठिवर्य श्री गगलदास हालचन्द्र भाइ का स्मरण करना भी हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं ? उनका अथक श्रम इस प्रकाशन के पीछे रहा हुआ है !
श्रीमान गगलभाइ लगभग पचास वर्ष से श्री संघ की विभिन्न गतिविधियों में भाग ले कर तन-मन-धन से अपना सक्रिय सहयोग समय समय पर देते रहे हैं !
दयानिधि परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सान्निध्य में मनाये गये श्रीमद् राजेन्द्रसूरि अर्द्ध शताब्दी उत्सव (मोहनखेड़ा तीर्थ ) में उत्सव समिति के अध्यक्ष पद का कार्य भार निष्ठापूर्वक सम्हाल कर आपने अपना अपूर्व योगदान दिया है ।
अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन सभा के अध्यक्ष पद के अतिरिक्त श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अहमदाबाद के अध्यक्ष पद, अखिल भारतीय सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय संघ के अध्यक्ष पद, श्री सुवर्णगिरि तीर्थ ट्रस्ट के अध्यक्ष पद, श्री यतीन्द्र भवन जैन धर्मशाला पालीताणा के अध्यक्ष पद एवं श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ भराद् के ट्रस्टी पद पर रह कर आप अपना अपूर्व योगदान सदा देते रहे हैं । श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेतांबर पेढी श्री मोहनखेडा तीर्थ के आप प्रमुख ट्रस्टी हैं ।
परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से श्रमण संघ की अध्यापन व्यवस्था में भी आपने अपना असाधारण योगदान दिया हैं। श्री संघ के विकास कार्यों इस प्रकार से सक्रिय सहयोग देने वाले श्रेष्ठिवर्य श्री गगलदासभाई के हम बहुत आभारी हैं ।
इस केाश के प्रकाशन में हमें आपका अविस्मरणीय सहयोग प्राप्त हुआ हैं । इसी प्रकार श्री सौधर्म वृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ ट्रस्ट के ट्रस्टी बंधुआं से भी हमें जो सहयोग प्राप्त हुआ है, वह अविस्मरणीय है । हम उन सबके आभारी हैं ।
यद्यपि इस कोश के द्वितीय प्रकाशन में सब प्रकार से सावधानी रखी गयी है, फिर भी यदि किमी प्रकार की कोई त्रुटि रह गयी हो, तो उसके लिए हम हार्दिक क्षमायाचना करते हैं । शुभम्
- प्रकाशक
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प्रशान्त वपुष श्रीमद् राजेन्द्रसूरि विद्यालङ्करणं सुधर्मशरण मिथ्यात्विनां दूषणं,
विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोघिबाजपदम् । सच्चारित्रनिधि दयाभरविधि प्रज्ञावता-मादिमम् ,
जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसुरिं नुमः ।। १ ।। धुर्यो यो दशसंख्यकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे,
सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बाधकः । शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिर्ध्यानी क्षमावारिधि
स्तं शान्तं करुणावतार-मनिशं राजेन्द्रसूरि नुमः ।। २ ।। वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहामञ्जुला,
संत्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा । बुद्धिोकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां,
लेोके सुप्रथिताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः ।। ३ ।। यः कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मनां,
मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे । जीर्णोद्धारमनेकजननिलयस्याचीकरच्छ्रावक
स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः ॥ ४ ॥ लोके यो विहरन् सदा स्ववचन र मिथो देहिनां,
दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत् । मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद् ,
देशोषद्रवनाशकं तमजिते राजेन्द्रसूरि नुमः ॥ ५ ॥ यो गङ्गाजलमिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराइ,
य य देशमलञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा । सच्छास्त्रामृतवाक्यवर्षणवशाद मेघवतं योऽधरन .
त सज्ज्ञानसुधानिधि कृतिनुतं राजेन्द्रसूरि नुमः ।।६।। तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः,
शास्त्रार्थेषु परान् विजित्य विविधैर्मानैस्तथा युक्तिमिः । शिष्यांस्तानकरात्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु
स्तं सूरिप्रवरं प्रशान्त-वपुष राजेन्द्रसूरिः नुमः ॥ ७ ॥ लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान् बहून् वीक्ष्य यो,
जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोडच बुद्धया चिरम् । मान् बोधियितुं सुखेन विशदान धर्मान्महामागधी -
काशं संव्यतनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरि नुमः ॥ ८ ॥ गुरुवरगुणराजिभ्राजितं सारभूतं,
___ परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेतद् । अनुभवति स सर्वो' सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मेहनाख्यः ॥ ९॥
-उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज
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द्वितीयावृत्ति
प्रस्तावना
अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ हेाता है ।
न की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है।
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है; परन्तु अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं।
सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लेोकोत्तर भावों को चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे। 'जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पठा।'
संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आस्रव और बन्ध । दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही सवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
__ जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे।
कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है: जैसे खान में रहे हए माने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है । मिट्री सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देने अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रुप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है । मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण का केई मिट्टी कहता है। ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्वलता प्रकट कर देती है।
कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं। ऐसे संसारो जीवों का ये कर्म प्रकृतियां विभाव परिणमन करा लेती हैं
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ज्ञानावरणीय कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव के उल्टी चाल चलाता है।
दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी के राजदर्शन से वचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है; अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है ।
मधुलित असि धार के समान है वेदनीय कर्म । यह जीव का क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असा दुःख का अनुभव भी उसे करना पडता है । इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन कराता है ।
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मोहनीय कर्म मदिरा के समान है । मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश - हवास खा बैठता है; इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पार्थो को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके संसार परिभ्रमण का मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकु' भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है ।
जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता; वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है । अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममकार जितना जितना घटना जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है । यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस महराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है। जीव को भेदविज्ञान से वचित रखनेवाला यही कर्म है । इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में अटकाये रखा है । और बेडी के समान है आयुष्य कर्म । इसने जीव को शरीर रुपी बेडी लगा दी है; जो अनादि से आज तक चली आ रही है एक बेडी टूटती है तो दूसरी पुनः तुरन्त लग जाती है। सजा की अवधि पूर्ण हुए बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीव की जन्म जन्म को केंद्र की अवधि पूरी नहीं होती; तब तक जीप मुक्ति की मौज नहीं पा सकता ।
नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पद पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिच और नरक गति में भ्रमण करता है।
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गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है । कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है. और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता हैं ।
इसी प्रकार अन्तराय कर्म है - राजा के खजांची के समान । खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुञ्जी खजांची के हाथ में होती है; अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता यह कार्य अन्तराय कर्म करता है । इसके प्रभाव से जीव का इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती । दान, लाभ, भोग, उपभेाग और वीर्य ( आत्मशक्ति ) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोब किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद ।
इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद पदद्रथ्य, नवतस्त्व, मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है । आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है
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संसारस्थ प्रत्येक जीव का स्वस्परूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । ' सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज', 'बुद्धं शरणं गच्छामि...... धम्मं सरणं गच्छामि । ' और ' केवलिपण्णत्तो धम्मं सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्ष के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है । इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है । धर्म की अपनी अलग विशेषता है।
यह जैन
परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है । प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्याद्वाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमेों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ प्रन्थों का अनुशोलन अत्यन्त आवश्यक है ।
आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुञ्जी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके ।
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ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध स्थागवृद्ध तपेोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया । वे दिव्य पुरुष थे उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्होंन जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्य श्री सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुब्जीनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चली रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी । वह कुञ्जी है - 'अभिधान राजेन्द्र ' । यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त ' अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट
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वस्तुतत्त्व जो 'अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं; वह कहीं नहीं है । यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है ।
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भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रही है । निघ'टु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। 'यास्क' की रचना 'निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दसंग्रह दृष्टिगोचर होता है । ये सब कोश गद्य लेखन में हैं ।
इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल । जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये । एक प्रकार है, एकार्थक काश और दूसरा प्रकार है - अनेकार्थक कोश ।
कात्यायन की ' नाममाला', वाचस्पति का ' शब्दार्णव', विक्रमादित्य का ' शब्दार्णव' भागुरी का ' त्रिकाण्ड ' और धन्त्रन्तरी का निघण्टुः इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध केशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' बहु प्रचलित है ।
धनपाल का ' पाइय लच्छी नाम माला ' २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है । इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने 'पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है ।
धनजयने 'धनन्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 6 , धर शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक बन जाते हैं- जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता हैं ।
इसी प्रकार धनञ्जयने ' अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के ' अभिधान चिन्तामणि ', संग्रह ' और ' देशी नाममाला' आदि कोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध हैं ।
"
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इसके अलावा 'शिलांछ कोश', ' नाम कोश', " शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला', 'नाम संग्रह ', ' शारदीय नाममाला ', ' शब्द रत्नाकर', 'अव्ययेकाक्षर नाममाला', ' शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह ', ' शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलोचन कोश', 'नानार्थ कोश', ' पंचवर्ग स ग्रह नाम माला', ' अपवर्ग नाम माला ', 'एकाक्षरी - नानार्थ कोश', " एकाक्षर नाममालिका', एकाक्षर कोश', " एकाक्षर नाममाला ', " द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', पाइय सहमहण्णव', 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक काश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं ।
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' अनेकार्थ संग्रह ', ' निघण्टु
इनमें से कई काश ग्रन्थ ' अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी। ' अभिधान राजेन्द्र' की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त काश प्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है । सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है; फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा ।
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श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्प्रभाकर-चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज।
ताला माशिमी विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥१॥
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' अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो को धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगमों को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है । इस महाकोश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म ' अ ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाप्रन्थ की वैज्ञानिकता है । उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है; इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं।
वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्यादवाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । तान सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं ।
वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है । इसमें धर्म-संकृति से संबंधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट - सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लेोक उद्धृत किये गये हैं । इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा ।
इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा प्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने गत के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोघे विहार किये; प्रतिष्ठा-अ'जनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । ऐसी विषम परिस्थिति में bra चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है । इस महाप्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्वत्रपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है ।
श्रीमद् विजय यशोदेवसूरिजी महाराज ' अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्त्ता के प्रति अपना भावाला प्रकट करते हुए लिखते हैं- आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र ) मेरा निकटतम सहचर है । साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है; इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है । मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) काश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा सकेत इस कोश की ओर ही होगा; जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है ।
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प्रस्तुत बृहद् विश्वकेश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए । बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ । जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हें त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है ! • अभिधान यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा ।
में इसके प्रकाशन की कोई आश्वस्त करते हुए कहा कि राजेन्द्र
,
श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में बसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है । गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया । उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके आवश्यकता पर जोर दिया ।
पुनर्मुद्रण की
इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है । इस महत्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया । आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ । प्रन्थ की छपाई गतिमान हुई; पर श्रेयांस बहुविघ्नानि की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था । प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर 新 मजबूर था । आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है ।
हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया दिल्ली ....... । उन्होंने इस चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् ने जो भी लिखा, व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल हर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया 1
श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ । देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए अस्थित हुए । पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से
गूंज उठा ।
की प्रकाशन संस्थाओंने
पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से स्वान्तः सुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि
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अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृति इस ' अभिधान राजेन्द्र ' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावेोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी । परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है ।
७
और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश ग्रन्थ पुनर्मुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है; यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है ।
इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है; फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. बृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री होराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं ।
इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है । प्रेसकार्य, करीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है । हम उन्हें नहीं भूल सकते ।
त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं । वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् ।
नेनावा ( बनासकांठा ) दिनांक २-१२-८५
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आचार्य जयन्तसेनसूरि
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श्री सौधर्म बृहत्तपागचीय पट्टावली र
-~~#eakeश्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहमूरि ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २६ श्रीसमुद्रसूरि
५१ श्रीमुनिसुन्दरसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २७ श्रीमानदेवसरि
५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ३ श्रीप्रनवस्वामी २८ श्रीविवुधप्रभसूरि ५३ श्रीसक्ष्मीसागरसूरि १ श्रीसय्यंभवस्वामी २६ श्रीजयानन्दसूरि ५४ श्रीसुमतिसाधुसूरि ५ श्रीयशोमप्रसूरि ३० श्रीरविप्रनसूरि
५५ श्रीहेमविमलसूरि श्रीसंभूतविजयजी ३१ श्रीयशोदेवसूरि
५६ श्रीमानन्दविमलसूरि ५ श्रीनबाहुस्वामी ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि
५७ श्रीविजयदानसूरि ७ श्रीस्थूलभस्वामी ३३ श्रीमानदेवसूरि श्रीआर्यसुहस्तीसूरि
५८ श्रीहीरविजयसूरि ३४ श्रीविमलचन्प्रसूरि श्रीग्रार्यमहागिरि ३५ श्रीउद्योतनसूरि
५६ श्रीविजयसेनसूरि श्रीसुस्थितसूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि
.. श्रीविजयदेवसूरि श्रीसुप्रतिबद्धमूरि ३७ श्रीदेवसूरि
श्रीविजयसिंहमूरि १. श्रीइन्प्रदिन्नसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि
६१ श्रीविजयप्रभसूरि ११ श्रीदिन्नसरि
..श्रीयशोभद्रसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि १२ श्रीसिंहगिरिसूरि
२ श्रीनेमिचन्मसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी
४. श्रीमुनिचन्प्रसूरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी
६४ श्रीविजयदेवेन्ससूरि ४१ श्रीअजितदेवसूरि
६५ श्रीविजयकल्याणसूरि १५ श्रीचन्मसूरिजी
४२ श्रीविजयसिंहसूरि १६ श्रीसामन्तनप्रसूरि
६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि
(श्रीसोमप्रनसरि १७ श्रीवृद्धदेवमूरि ४३ श्रीमणिरत्नसूरि
६७ श्रीविजयराजेन्ससूरि १८ श्रीप्रद्योतनसूरि
४४ श्रीजगच्चन्प्रसूरि ६८. श्री विजयधनचन्द्ररि १६ श्रीमानदेवसरि .....श्रीदेवेन्प्रसूरि
श्री विजयभूपेन्द्ररि २० श्रीमानतुङ्गसूरि ४५ श्रीविद्यानन्दसूरि
७० श्री विजययतीन्द्रसूरि २१ श्रीवीरसूरि
४६ श्रीधर्मघोषसूरि २२ श्रीजयदेवसूरि
७१ श्री विजयविद्याचन्द्ररि ४७ श्रीसोमप्रभसूरि २३ श्रीदेवामन्दसूरि ४८ श्रीसोमतिलकसरि
७२ वर्तमानाचार्य २४ श्रीविक्रमसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि
श्री विजयजयन्तसेनरि
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शुमा विजय मोबदविकी महान
सद विजय मासूरीश्वरजी महमान
उपायाव मोहनविजयजी महाराज
शसभूपेन्दhemail Ana
विजय यतीनदयाजी महाराज
उपाध्याय गुलामविजयजी महाराज
विजय विधाकामीजी महाराज
श्रीमद् विजय जयाजी मसाज
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主本本丰未未未未來生未来来来来来来来来去去去去去去去去去去去中生法律朱孝丰朱朱梓未半生半半半本书
आभार-प्रदर्शनम् ।
在本书者多多多多多多多多多多多去去去去去多买本书本本本素未未未老老本
सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-श्राबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान-प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराज-क्रियाशुभयुपकारक-श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य-गुरुदेव-जट्टारक श्री १००८ प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने श्रीअनिधानराजेन्द्र' प्राकृत. मागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्रीसियाणा नगर में संवत् १९४६ के पाश्विनशुक्लछितीया के दिन शुज लग्न में प्रारम्न किया। इस महान संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्यश्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराजने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् रए६० चैत्र-शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार ) दुआ ।
गवालियर-रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के दरमियान संवत् १९६३ पौष-शुक्ला १३ के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविज. यजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुथा कि-महुँम-गुरुदेव के निर्माण किये हुए 'यमिधानराजेन्ड' प्राकृत मागधी महा-कोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लान प्राप्त कर सकें, इसलिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्जुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचं. दजी रखबदासजीत्-नागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंदजीत्-निहालचंदजी, श्रादि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअजिधानराजेन्द्र-कार्यालय और श्रीजनप्रजाकर प्रिन्टिगप्रेस' स्वतन्त्र खोखना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का
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Aकाल
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समस्त-भार मर्हम-गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीम. विजयनूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदी ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य-मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुश्रा, जो सं० १९८१ चैत्र-वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त दुथा।
इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदनञ्जनकेसरीकलिकाल सिझान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-श्राचार्य-श्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय-श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवादेवाक-मुनिश्रीहुकुम विजयजी महाराज, सस्क्रियावान् -महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विधाजूषण-श्रीमद्विजयनूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्र विजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी-मुनिश्रीहिम्मतविजयजी, मुनिश्री-लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्री-हंस विजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी , आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर तन , मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय बाजारी है।
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.. जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन-कार्य में श्रार्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाकरी नामावली इस प्रकार है
श्रीसौधर्मवृत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा
श्रीसंघ-रतलाम ।
" जावरा।
श्रीसंघ-नाँगरोद। " वारोदा-बड़ा।
श्रीसंघ-राजगढ़।
, झाबुवा ।
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श्रीसंघ-बड़नगर ।
खाचरोद । मन्दसोर। सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। । नयागाम। , नीमच-सिटी।
संजीत। नारायणगढ़। परड़ावदा।
भीसंघ-सरसी।
मुंजाखेड़ी खरसोद-बड़ी। चीरोखा-बड़ा। मकरावन। बरडिया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दखाई। बड़ी-कड़ोद। धामणदा। राजोद ।
श्रीसंघ-भकणावदा। , कूकसी।
पालीराजपुर। रींगनोद। राणापुर। पारां। टांडा। बाग। खवासा। रंभापुर। अमला। बोरी। नानपुर।
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात
श्रीसंघ-अहमदाबाद। , वीरमगाम।
सूरत। साणंद।
श्रीसंघ-थिरपुर (धराद)। श्रीसंघ-डीमा । .. वाव।
" दूधवा। भोरोल।
खात्यम। धानेरा।
वासण। धोराजी।
जामनगर। खंभात।
पालनपुर।
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श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़
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श्रीसंघ-जोधपुर । " माहोर।
जालोर। भेंसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर। देवावस। विशनगढ़। मांडवला।
श्रीसंघ-भीनमाल । " सांचोर।
बागरा। धानपुर। माकोली। साथू। सियाणा काणोदर। देलंदर।
श्रीसंघ-शिवगंज।
कोरटा। फतापुरा। जोगापुरा। भारंदा। पोमावा। बीजापुर । बाली। खिमेल।
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श्रीसंघ-गोल। , साहेला।
मालासण।
धाणसा। बाकरा। मोदरा। पलवाड़। मेंगलवा। सूराणा। दाधाल। धनारी।
श्रीसंघ-मंडयारिया।
बलदूट। जावान। सिरोही। तिरोड़ी।
हरजी। " गुडाबालोतरा। " भूति।
तखतगढ़। सेदरिया। रोवाडा। भावरी।
श्रीसंघ-सांडेराव। " खुडाला।
राणी। खिमाड़ा। कोशीलाव। पावा। एंदला का गुड़ा। चाँणोद। हडसी। थाँवला। जोयला। काचोली।
इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण भाभारी है।
श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय.
रतलाम ( मालवा)
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अभिधानराजेन्दुः ।
शस्यकवल--शस्यकवल-पुं०। “सषोः-संयोगे सोऽग्रीष्मे" ॥८।४।२८६ ॥ इति मागध्यामूवलोपापवादः स स्थाने स
एवादशः । शस्यरूप कवले, प्रा०४ पाद। शकार
सामञ्च सामान्य-न० । “न्य-एय-न-आंत्रः" ८२६३॥ इति न्यस्थाने द्विरुक्तो नकारः। विशेषे, प्रा०४ पाद। शालश--सारस-पुं० । "रसोलशौ" ॥८।४।२८८ ॥ इत्युभ
यत्र सस्य शः रस्य लः । स्वनामख्याते पक्षिणि, प्रा०४ पाद। श-श-पुं० । तालुस्थानीय ऊष्मसंज्ञके वर्णे, मागध्याम् शौ
शुद-श्रुत-न० । “सर्वत्र लवरामचन्द्रे"HERI७६॥ इति रलुप् ।
शेष सौरसेनीवत्"॥८।४।३०२ ॥ इति न्यायात्तस्य दः। रसेन्याञ्च शस्य श एव प्राकृते तु सः। शी-ड । महादेवे,
"रसोर्लशी"॥८।४।२२८॥ इति पुनस्सस्य शः। आगमे, शब्द० । सूर्ये, शशाङ्के, रश्मी, महार्णवे, शिष्ये, वल्मीक, कच्छपे, भूपे च । स्वस्त्यर्थे, शातने, तनूकृती, शीते, सुख,
' प्रा०१ पाद। मङ्गले, शस्त्रे च । नपुं० । एका। "रसोलशौ"॥८॥४ सुपलिगढिद--सुपरिग्रथित-त्रि०। अत्यन्तमाबद्धे, “अम्म २८८ ॥ इति मागध्यां सकारस्थाने शकारादेशेन ये सकारा
एआए शुम्मिलाए सुपलिगढिदे भव" प्रा०४ पाद। दिशब्दाः प्राकृते दर्शयिष्यन्ते ते मागध्यां शकारादित्वेन स्व. यमभ्यूह्याः । प्रा०४ पाद ।
शुस्क-शुष्क-त्रि० । “शषोः संयोगे सोऽग्रीष्मे" ||२८६॥
अनेन षकारस्य सकारादेशः। शुस्कं। शोषमुपगते,प्रा०४पाद। शलिश-सदृश-त्रि० । प्राकृतशैल्या सदृशस्थाने सरिसं ।
शुस्तिद--सुस्थित-त्रि०। स्थ-र्थयोस्तः ।।८।४।२६१॥ इत्य"रसोलशौ" ॥८४२८८ ॥ इति उभयत्र शः। रस्य लः।
। उभयत्र शः। रस्य लः।। नेन स्थभागस्य स्तः । सुखन स्थिते, प्रा०४ पाद । तुल्ये, “शलिशं णिमं" प्रा० ४ पाद ।
शोभन-शोभन--त्रि० । “ रसोलशौ" ॥ ८।४।२८८ ॥ इति शस्तवाह-सार्थवाह--पुं० । “स्थ-र्थयोः स्तः" ॥८।४।२६१॥
प्राकृतलक्षणसम्पन्नस्य शस्य मागध्यां शः । शोभाकागिण, इति र्थभागस्य सकाराकान्तस्तकारः । सार्थाधिपती, प्रा०४ पाद । किं खु शोभणे वम्हणे शित्तिकलि लजाएप्रा०४ पाद।
लिग्गहे दिमे । प्रा।
444444444444444444444444444444444444 kaamaesaaaaaaaaloothoshamaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa
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RAMERARREARRAMANIRMIRRAHASRANAMMANIKHAKRENAAMKARANISARAI
इति श्रीमत्सौधर्मवृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वकल्पश्रीमद्भहारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १०७ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिशानराजेन्द्रे'
शकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ॥
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अनिघानराजेन्द्रः।
सानुवेधसोः ॥ ॥ नार्याश्लेषे मुखे षं स्या-त्पण्डितेऽपि षमादृतम् । षडूमिरहिते षः स्या-जालके भेषजे च षम् ॥१०॥ सुखदुःखसमः षो ना, वृषस्यन्ती सती च षा ॥११॥" एका०।
त्रिदिवे, पारोक्ष्ये, विभवे च । पुं० । सुख, अव्य० । रमायाम् , बत षकार
स्त्री० । अवसाने, गर्भमोते, मर्षणे च । नपुं०। श्रेष्ठाथै, त्रि। पका।"षकारस्त्रिदिवे पुंसि, पारोक्ष्ये विभवे तथा । षमव्ययं सुख स्यात्स्त्री, रमायां षा नपुंसके ॥ ८॥ अवसाने गर्भमोक्ष, मर्षणे च निरूप्यते । विशेष्यनिघ्नः षः शब्दः, श्रेष्ठार्थे
समुदाहृतः॥१०॥ एका०। (संस्कृतभिन्नासु भाषासु प्रायः प-पुं० । मूर्द्धस्थानीये ऊष्मसंझके वर्णे, एका० । पो-क । न पादयः शब्दाः सम्भवन्ति 'सर्वत्र '"शपोः सः" ॥८। पत्वम् । केश, गर्भविमोचने , मानवे , सर्वश्रेष्ठे विशे च ।। १।२६०॥ इति । अनेन सादेशादिति पादयः शब्दाः अत्रात्रि०। मेदनी । अतिरोषे, अपवर्ग, प्रक्षरे, सानौ, वेधसि, | भिधानेऽनुदाहााः ।) (बहुलम् ॥ ८॥१॥२॥ इत्यधिषडम्मिरहिते , सुखदुःखसमे, अनित्ये, नृपोत्तमे च । पुं० ।। कारात्प्राकृतसर्वसूत्राणां वैकल्पिकत्वेऽपि षकाराभावः प्रायः वृषस्यन्त्यां सत्यां च । स्त्रीगनाऱ्यांश्लेषे, मुखे, पण्डिते, जा- प्राकृतशब्देषु । मागध्याम्-" तिष्ठश्विष्ठः" ॥४॥२६॥ इति नके, भेषजे च । नपुं० एका"षोऽतिरोषेऽपवर्गे षः,प्रक्षरे, चिष्ठा देशे षकारमध्यः दृश्यते। चिष्ठो। चिष्ठदि।प्रा०४ पाद।)
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SAKSERMENTS
朱孝未来者卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡辛辛未辛未辛未辛未辛朱孝丰半不半半生未基本生半生生辛率
इति श्रीमत्प्सौधर्मवृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमद्भधारक-जैन श्वेताम्बराचार्य श्रीश्री१००८ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अभिधानराजेन्द्रे'
षकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
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: pogonous
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सकार
अभिधान राजेन्द्रः ।
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स-स- पुं० । दन्तस्थानीये ऊष्मसंज्ञके वर्णे, सो-ड- विष्णौ, सर्प, ईश्वरे बिगे च शब्द० साकार, गीरीपुत्रे प्रभअने, धर्महतौ च । देहकान्त्यां श्रियां च । स्त्री० । यका० । सोमे, सोमपाने, सूय्यै, पक्षिणि तापसे, वृपे सदानन्दे च । पुं० 1 यने धने यौवने - स्तुवृन्दे च । नपुं० । एका० । समासे साहित्यार्थस्य सहशब्दस्य स्थाने साऽऽदेशः । सूत्र ०१ श्रु०२ ०२ उ० । तच्छस्य प्रथमैकवचने स इति निर्देशे, नि० चू० १ उ० । दश० । तत्र सकारनिक्षेपमाह
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नामं ठवणसयारो, दब्बे भावे अ होइ नायव्वो । दये पसमाई, भावे जीवो तदुत्रउत्तो ॥ २२८ ॥ नामसकारः सकार इति नाम, स्थापनासकारः सकार इति स्थापना, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः - द्रव्यसकारो भावसकारश्च । तत्र द्रव्य इत्यागम नोश्रागम-शशरीर भव्यश रीर दुष्यतिरिक्रः प्रशंसादिविषयो द्रव्यसकारः भाव इति भावकारी जीवः तदुपयुक्तासकारोपयुक्तः सदुपयो मानन्यत्वादिति गाथाऽर्थः ।
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प्रकृतोपयोगी त्यागमनोद्यागमशशरीर भव्यशरीरा तिरि प्रशंसादिविषये व्यसकारमादनिमपसार, अत्थी भावे अ होइ उ सगारो । निदेसपसाए, अहिगारो इत्थ अन्भये ॥ २२६ ॥
निर्देशे प्रशंसायामस्तिभावे वेत्येतेष्वर्थेषु भवति तु सकारः । तत्र निर्देशे यथा-सोऽनन्तरमित्यादि, प्रशंसायां यथा सत्पु रूप इत्यादि अस्तिभावे यथासङ्गममुकमित्यादि । तत्र निर्देशप्रशंसायामिति निर्देशे सा च या सका रस्तेनाधिकारी उपाध्ययने प्रकान्त इति गाथाडथा।
तदेव दर्शयति-
।
।
जे भावा, दसवेया लिम्मि करण वमित्र जिसे हैं तेसिं समावणम्मि ति,जो भिक्खू भन्नइ स भिक्खू ३३० ये भावाः - पदार्थाः पृथिव्यादिसंरक्षणादयो दशवैकालिके प्रस्तुते शास्त्रे करीया अनुष्ठेया यरिताः कथिता जिन:- तीर्थकर गणधरैः तेषां भावानां समापन - यथाश कत्या (क्रि) इभ्यतो भावतथाऽऽचरणेन पर्यन्तनयमेन यो भिक्षुः तदर्थ यो भिक्षणशीलो न तृदरादिभरणार्थ भ
रायते स भिक्षुरिति । इतिशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः । 'स भिक्षु रित्यत्र निर्देशे सकार इति गाथाऽर्थः ।
प्रशंसायामाह -
परगमगाइ, भिक्खुत्रजीवी काउरामपोहं । अन्यगुणनिचो, होइ पसंसाइ उस भिक्खु ।। ३३१॥ चरकमरुकादीनामिति बरका:- परिवाजकविशेषाः म रुका:-चिव आदिशब्दान्पादिपरिम भिक्षेोपजीविनां भिक्षराशी लानाम गुरावस्वेनापोडं कृत्या अध्ययनगुणनियुक्तः प्रान्तशास्त्रनिष्यभूताध्य यनाभिहितगुणसमन्वितो भवति, प्रशंसायामवगम्यमानायां सद्धि-संश्चासौ भिक्षुश्च तत्तदन्यापोहेन सद्भिरिति गाथाऽर्थः । उक्तः सकारः । दश०१० ०। वायुतस्त्रे, जै०गा० । स्व-न० । स्वन्–ड । धने, श्रात्मनि ज्ञातौ च । पुं० - रमयेामीये आत्मनि चार्थेऽस्य सर्वनामता चाचण सांग -स्वाङ्ग - न० । शिरोऽधरादिषु स्वकीयैष्वङ्गेषु, “ जहा कुम्मो संगाई सए देहे समाहरे" सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० । समंड साऽण्ड वि० सहतइति साम् कीटिकादीनाम् अण्डैः सहिते, दशा० २ ० सअड्ड - स्वार्थ- पुं० | स्पप्रयोजन, “इह खलु माहाय अपगो सट्टा अगणिकार्य उज्जालेज वा ।" आचा० २ ० १ 'चू० २ ० १ उ० ।
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सार्थ
अन प्रयोजनेन सहितम् एका अर्थसहिते,
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सूत्र० २ ० ३ ० । सप्रयोजन, कल्प० ३ अधि० २ क्षण | समट्टिय सास्थिक- श्र० सहास्या वर्तते इति सारिका । अस्ना सहिते, पञ्चा० १६ विव० ।
- ।
सढ - शकट- पुं० | न० । शक - श्रटन् । यानभेदे, श्रसुरविशेषे. स्वल्पार्थे, वाच० । कगच-ज-त-द-पय-वां प्रायो लुकू" ॥ ८ । १ । १७७ ॥ अनेन ककारस्य लोपः । प्रा० । सनढं । " अवर्णो यश्रुतिः ॥ ८ । १ । १८० ॥ पूर्वोसूत्रेण कस्य लुक्यनेन वधुतिकः । स
।
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" सदाशकटकैटभे ढः ॥ ८१११६६॥ इत्यनेन य ढः । प्रा० । सण- स्वजन - पुं० । एकस्वरे श्वः स्वे" ॥ ३ । २ । ११४ ॥ अत्रैवरणाभावेऽस्मिपि यं लक्षणस्य प्रवृत्ती उत्त्रं स्यात् । साणो । आत्मीये, प्रा० २ पाद ।
अहु - शतकृत्यम्-अव्य०शतवादार्थे "कृत्वो - " || २ | १४८ ॥ अनेन कृत्यसो हुत्तमादेशः
।
प्रा० २ पाद ।
सइ सकृत् - अव्य० । एकवारे, द्वा० १६ द्वा० । नि० चू० ।
"
सकृद्-एकवारम् । श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ ० १ ३० । उप०।" [अस] वीयागोति स इति संसार्थसुमानसकृदनेश उच्चैत्रमान् सत्काराई उत्पन्न इति । शेषस्तथा असकृतीचे मंत्रे सर्व लोकादते पीनः पु इति । आचा० १० २ ० ३ उ०। सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु ०कदा कसका तावित्यर्थः । स०] सम
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सड
॥
सदा- अव्य० । इः सदादौ वा " अनेनाकारस्यत्वम् । सर्वस्मिन् काले
८ । १ । ७२ ॥ प्रा० १ पाद
स्मृति- श्री मरणं स्मृतिः इत् कृपादी" ॥८।१। १२८ ॥ इत्यनेनादेः 'ऋत इत्वम् । प्रा० | पर्वा ऽनुभूतार्थलम्बनप्रत्ययविशेषे नं० । विशे० । उपयोगलक्षये, सामायिकस्य स्मृत्य कर सामायिकस्य सम्बधिनी या स्मरणा स्मृतिरुपयोगला ० ६ ० संस्कारप्रयो घसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारवेद स्मृतिः स्था० २ ठा० ३ उ० | स्मृतिरवबोध इत्यनथान्तरम् । श्राचा० १ श्रु० १ ० १३० । सहति वा-मति त्ति वा पश्नत्ति वा सव्वमेयं आभिणियोहिपतेपि महिति ० ० १ अ० । वासनानन्तरं कुतश्चित्तादृशार्थदर्शनादिकारणात् संस्कारस्य प्रबोध यज्ज्ञानमुद्यते तदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा स्मृतिः। उक् च मे० " तदनन्तरं तदत्था, विश्वव जो उ वासणा जोगो । कालन्तरेण जं पुण, रणुसरणं धारणा सा उ ॥ २६९ ॥ " विशे० ।
( % ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथाऽनुभूतविषया सम्प्रमेोषः स्मृतिः स्मृता ( ६ ) ।
द्वा० ११ द्वा० ।
( व्याख्यातमिदम् ' जोग' शब्दे चतुर्थभाग १६२१ पृष्ठे ) अथैतेषु तावत् स्मरणं कारणगोचरस्वरूपैः प्ररूपयन्तितत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं स्मरणम् ।। ३ ।
तत्रेति प्राकृतभ्यः संस्कारप्रबोधसम्भूतत्वादिना गुन स्मरं निरयन्ति संस्कारस्याऽऽत्मशक्रिविशेषस्य प्रबोधात् फलदानामिमुक्यलक्षणात् सम्भूतमुत्पनमिति कारणनिरूपणम् । अनुभूतः प्रमाणमात्रेण परिच्छिन्नोऽर्थश्चेतना
रूपविषयो यस्येति विषयस्यावनम् । तदित्याकारं वित्तदित्युलेखयत्ता चास्य योग्यता उपेक्षयाSSख्यायि । यावता 'स्मरसि चैत्र ! कश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्र शशक्षा भोक्ष्यामहे ' इत्यादि स्मरये तच्छुग्दो खो नोपलक्ष्यत एकिमिदं स्मर तेषु कश्मीरेषु इति ताद्वा इति तच्छब्दो लेखमत्येव । न चैवं प्रत्यभिज्ञानेऽपि तत्प्रसङ्गः । तस्य स एवायमित्युलेखशेखरत्वात् । इति स्वरूपप्रतिपाधनम् ॥ ३ ॥
अत्रोदाहरन्तितीर्थकर विम्बमिति यथा ॥ ४ ॥
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3
4
दिति यत् मा प्रत्यक्षीकृतम् स्मृतम् प्रत्यभिज्ञातम् वितर्कितम् अनुमितम् भूतं या भगवतस्तीर्थकृती विम्बं प्रतिकृतिः तस्य परामर्शः इत्येवं प्रकारं तच्छदपराएं यद्विज्ञान तत्सर्वं स्मरणमित्यर्थः । ये तु योगाः स्मृतेरप्रामाण्यमध्यगीषत न ते साधु व्यधिषत । यतो यत्तावत् केचिदर्थजत्वादस्याः तदाम्नासिषुः तत्र हेतुः अभूदवृष्टिरुदेष्यति शकटम् ' इत्याद्यतीतानागतगोचरानुमानेन सम्यभिचारइत्यनुचित एवोच्चारयितुम् परे तु मेनिरेन स्मृतिः प्रमाणम् पूर्वाऽनुभव विषयोपदर्शनेनायें निविअनुभवपारतन्वात् । अनुमानानं सूत्पची परापेक्षम् सविषये तु खतम्भमेव स्मृतेरिव तस्मा
"
3
सइअकरण
पूर्वानुभवानुसन्धानेनार्थप्रतीत्यभावात् । तदुक्तम् - " पूर्वविज्ञानविषयं विज्ञानं स्मृतिरिष्यते । पूर्वज्ञानादिना तस्याः, प्रामाण्यं नावगम्यते ॥ १ ॥ तत्र यत्पूर्वविज्ञानं, तस्य प्रमाण्य मिष्यते। तदुपस्थानमात्रेण स्मृतेः स्याच्चरितार्थता ॥२॥ इति तदपि न पेशलम् । स्मृतेरप्युत्पत्तिमात्रे ऽनुभवसम्यपेक्षवात्तदतिसंस्कारादुत्पतेः । खविषयपरिच्छेदे - स्याः स्वातन्sयमेव । ननु नात्र स्वातन्त्र्यम् ; अस्याः पूर्वानुभवभावित भावभासनायामेवाभ्युद्यतत्वात् । एवं तहिं व्याप्तिप्रतिपादिप्रमाणप्रतिपन्नपदार्थापस्थापनमात्रे प्रवृत्तेरनुमानस्यापि कुतस्त्या स्वातन्त्र्यसङ्गतिः । अथ व्याप्तिग्राहके खानेयत्येन प्रतिपातनूनपाला नेयस्यविशेषेणानुमानेन परिअनुभवे भूयो विशेषशालिनः स्मरणे तु कतिपयैरेव वि स्फुरणसम्भवात् कुतो न स्वातन्त्र्यमिति चेत्, तर्हि शेर्विशिष्टस्य वस्तुना भानात् कुतो नास्यापि तस स्यात् । ननु तेऽपि विशेषानुभूती प्रत्यभुरेव । - न्यथा स्मरणमेव तन्न स्यात् इति चेत्, नियतदेशोऽपि पायको व्याप्तिधादिति प्रत्यभादेव अन्यथानुमानमेव तथ स्पात् इति किन चेतयसे अधत सबै सार्वादिकाः सार्वत्रिकाय पावकाः पुस्फुरुः अनुमाने तु स पवेकधकास्तीत्युमिति चेत्, ननूत्तरमपि तत्रोक्तमेव मा विस्मार्षीः । ननु नसर्वत्रैव कतिपयविशेषावसायव्याकुले स्मरणम् - विद्यादनुभूतरूपादिविशेषमपि तस्थात्पत्तेस्ततस्तत्र का गतिरिति चेत् । नैवम् । नहि रूपादय एव विशेषा वस्तुन किन्तु अनुभूयमानाऽपि न चासी स्मरणे का पिचकास्ति तस्याऽपि प्राचीनानुभवस्वनावतापतेः । कि
भूततेच भावस्य तत्र भाति । इति सिद्धमनुमानस्येव स्मरणस्याऽपि प्रामाण्यम् । न च तस्याप्रामाण्येऽनुमानस्याऽपि प्रामाण्यमुपापादि, सम्बन्धस्दाप्रमाणस्मरणसन्दर्शितस्यानुमानानङ्गत्वात्, संशयितलिङ्गवत् । न च प्राक्प्रवृत्तसम्बन्धप्रादिप्रमाणम्यापारोपस्थापनमात्रचरितार्थत्वा शास्य तत्र प्रामाण्येन प्रयोजनमिति वाच्यम् । अप्रमाएस्य तदुपस्थापनेऽपि सामर्थ्यासंभवात् । किञ्च-अपलब्धिहेतुत्वं प्रमाणलक्षणं लक्षयांचकडे । तश्च धारावाहिप्रत्यक्षस्येवास्याप्यक्षूणमीक्ष्यत एवेति किमन्यैरसत्प्रलापेरिति ॥ ४ ॥ रक्षा०३ परि० । सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु द्रष्टव्ये, द्वा० १६ द्वा० । श्राष० । अनुभूतवस्तुन उद्बोधकसहकारेण संस्काराधीने ज्ञानभेदे, वाच०। (स्मृतिसंस्कारयोरानन्तर्थ्यम् 'इस्सर' शब्दे द्वितीयभागे ६४१ पृष्ठे उक्तम् । ) समंदरद्वा-स्मृत्यन्तर्द्धा श्री० स्मृत्यन्तर्द्धने, स्मृते-रमरणस्य योजनशतादिरूपदिकपरिमाणविषयस्यान्तर्द्धा -- स्मृत्यन्तर्द्धानम्। किं मया परिगृहीतं कया वा मर्यादया व्रतमिशः स्मृत्यन्तर्द्धा पचा विष० स्मृतेत्येवमननुस्मरणमित्यर्थः । श्रा० । श्राव० ।
-
सइद्मकरण- स्मृत्यकरण - न० स्मृत्यन्तर्द्धाने, स्मृतेः-स्मरणस्य सामायिक विषयाया प्रकरणमना सेवनं स्मृत्यकरणम् । प्रचप्रमादावं स्मरति बहुतास्यां वेलायां मया सामायिकं कर्त्तव्यं कृतं न कृतं वेति, स्मृतिमूलं च मोक्षानुष्ठानम् । पञ्चा० १ विव० । उस० ।
"
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सहश्रणोयारण अभिधानराजेन्द्रः।
सउणपुव्व सहवाणोयारण-स्मृत्यनवतारण-न । स्मृतेः सामयिककर- सउञ्जोय-सोद्योत-त्रि० । सहोद्योतेन वस्त्वन्तरप्रकाशनेन णावसरविषयायाः कृत्यस्य वा सामयिकस्य प्रबलप्रमादयो- | वर्तन्त इति सोद्योतानि । स० । बहिर्विनिर्गतगादनवतारणमनुपस्थापनं मया कदा सामयिकं कर्तव्यं कृतं वस्तुस्तोमप्रकाशकरेषु, प्रज्ञा०२ पद । प्रत्यासन्नवस्तूद्योतके, वा मया सामयिकं नवत्येवरूपे स्मरणभ्रंशे, ध०२ अधि० । भ०२श०८ उ०। जं० । रा०स०। बहिर्व्यवस्थितप्रत्याससइआभास-स्मृत्याभास-पुं०। स्मरणाऽऽभासे, रत्ना०। । नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्योतसहिते, रा०। अथ परोक्षाभासं विवक्षवः, स्मरणाssभासं तावदाहुः
सउण-शकुन-पुंग लोमपक्षिभेदे, औ०। निचू शा। वि
वक्षितार्थसूचकनिमित्ते, नपुं०। पश्चा०७ विव० । पं०व०। अननुभूते वस्तुनि तदिति ज्ञानं स्मरणाभासम् ॥३१॥
. इदानी भाष्यकार: शकुनं प्रतिपादयन्नाहअमनुभूते प्रमाणमात्रेणानुपलब्धे ॥ ३१॥ . उदाहरन्ति
नन्दीतूरं पुण-स्स दंसणं संख पडहसदो य । । अननुभूते सुनिमण्डले तन्मुनिमण्डलमिति यथा॥३२॥
भिंगारछत्त चामर, धयप्पडागा पसत्थाई ॥ १०६॥ रत्ना० ६ परि०।
समणं संजय दंत, सुमणं मोयगा दहिं । सइंगाल-साङ्गार-न । चारित्रेन्धनधूमाङ्गारमिव यः करोति मीणं घंटे पडागं च,सिद्धमत्थं वियागरे ॥११०॥ भोजनविषयरागाग्नि सोङ्गार एवोच्यते तेन सह यद्वर्तते एता निगदसिद्धा । श्रोध०। पानकादि तत् साङ्गारम् । अङ्गारदोषविशिष्टे, भ०६श०७उ० । नन्दीतूर्यम्-द्वादशविधतूर्यसमुदायो युगपद्वाद्यमानः पू" रागेण सइंगालं दोषेण सधूमगं तिणेयव्वं" महा०३ अ०। मस्य-पूर्व कलशस्य दर्शनं शंखपटहयो:-शब्दश्च श्रूयमाण: सइंदिय-सेन्द्रिय-पुं० । इन्द्रियपर्याप्ते , स्था० २ ठा० २ उ०। भृङ्गारछत्रचामराणि प्रतीतानि, वाहनानि-हस्तितुरङ्गमासंसारिणि च । स्था० २ ठा० १ उ०। ('अणिदिय' शब्दे प्रथ
दीनि , यानानि-शिबिकादीनि एतानि प्रशस्तानि-शुभावमभागे ३३४ पृष्ठे दण्डक उक्तः।)
हानि श्रमण-लिङ्गमात्रधारिणं संयतं-षट्कायरक्षणे सम्यग्
यतं दान्तमिन्द्रियनोइन्द्रियदमनेन , सुमनस:-पुष्पाणि मोसइकरण--स्मृतिकरण-न। स्मृत्युत्पादे, पृ०१ उ०३ प्रक०।
दका दधि च प्रतीतं, मीनम्-मत्स्यं घण्टाम् एतासां च दृष्टा सइकाल-स्मृतिकाल--पु० । स्मर्य्यते यत्र भिक्षाकालः स
श्रुत्वा वा सिद्धं निष्पन्नमर्थ प्रयोजनं व्यागृणीयादिति । स्मृतिकालः । “सइकाले चरे भिक्खू" दश०५ १०१ उ०।। बृ०१ उ०२ प्रक०। सइज्झिता-देशी-वसतिप्रवेशिन्याम् , पिं०।
शकुनाशकुनयोरेव स्वरूपोद्देशमाहसडण--देशी-धान्यविशेषे, स्था।
णंदाइ सुहो सहो, भरिप्रो कलसो स्थ सुन्दरा पुरिसा । सइप-सैन्य-न । अाइदैत्यादौ च" ॥८।१ । १५१ ॥ इ- सुहजोगाई सउणो, कंदिअसहादि इअरो उ॥५॥ . त्यनेनैकारस्य अह इत्यादेशः । सइयं । सेनायां समवैति । श्र- नन्द्यादि-नन्दीप्रभृतिः तत्र नन्दी--द्वादशतूर्यनिर्घोषः, मिलिते हस्त्यश्वादौ, प्रा० । सेनायाः संघः । ष्य । सेना
तद्यथासमुदाये नं०।
“भंभामउंदमहल, कलंबझल्लरिहुडक्ककंसाला। सइन्भंस--स्मृतिभ्रंश--पुं० । स्मृत्यन्त ने, स्मृतेः-स्मरण- वीणा वसो पडहो, संखो पणवो अवारसमो ॥१॥" स्य योजनशतादिरूपदिकपरिमाणविषयस्यातिव्याकुलत्व
श्रादिशब्दात्--घण्टाशब्दादिग्रहः । तथा भृतो जलपरिपू. प्रमादित्वमत्यपाटवादिना अंशो ध्वंसः स्मृतिभ्रंशः । वि
र्णः कलशो घटः । अत्र व्यतिकरे सुन्दराकारनेपथ्या नराः शुस्मरणशीलतायाम् , प्रव०२०७ द्वार।
भयोगादिप्रशस्तचेष्टाप्रभृतिशुभचन्द्रनक्षत्रादि संबन्धादि वा
शकुनो'-विवक्षितार्थसिद्धिसूचकं निमित्तम् , क्रन्द्रितशब्दासइर--स्वैर--न० । “अइदैत्यादौ च" ॥८।१ । १५१ ॥ इत्यने
दि:-आक्रन्दध्वनिप्रतिषेधवचनप्रभृतिः, पुनः इतरोऽशुकन ह. नैकारस्य 'बाह' इत्यादेशः । सहरं । प्रा० । स्वच्छन्दे, व्य० | त्यर्थःषोडशकेऽपि"दार्वपि च शुद्धमिह य-मानीतं देवताद्युप
वनादेः । प्रगुण सारवदभिनव-मुच्चैर्ग्रन्थ्यादिरहितं च ॥१॥ सइरचारि-स्वैरचारिन्-त्रि०। उद्भ्रामके, वृ०१ उ०३ प्रका| सर्वत्र शकुनं पूर्व, ग्रहणादावत्र वर्तितव्यमिति । पूर्णकलशासइरिन्-स्वैरिन्-त्रि० । स्वेच्छाचारिणि, ग० १ अधि०। । दिरूप-श्चित्तोत्साहानुगः शकुनः ॥२॥" ध०२ अधि० । सइल-शैल-पुं० । पर्वते , " उच्छल्लन्ति समुहा, सइला नि
"गहदिणाउ मुहुत्तो, मुहुत्ता सउरणो बली । सउणाओ बलवं पतंति तं हलं नमथ" प्रा०४ पाद ।
लग्गं, ततो निमित्तं पहाणं तु ॥५०॥"॥९२६॥ द. पा“यावद् सइविप्पहूण-स्मृत्तिविग्रहीन-त्रि० । अपगतकर्त्तव्यविवेके,सू.
यातो गुरुं पृष्टा , शकुनस्तावदूचिवान् । ततस्ती सूरयोऽवो
चन् , भावी लामोऽद्य वां महान् ॥ ५२॥" आ००१ अ०। ०१ श्रु०५०१ उ०। सइसंजाय--सकृत्संजात-त्रि० एकवारं समुत्पन्ने, पञ्चा०३ सउणग-शकुनक-पुं०। पक्षिविशेषे, नि०० ५ उ० । विव०।
सउणपुच-शकुनपूर्व-न० । शकुनमूले, षो०५ विव०। सईण-देशी-धान्यविशेषे, स्था० ५ ठा०३ उ० । __ अस्य पुंस्त्वं चिन्त्यम् ।
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सउणबुद्धि
अभिधानराजेन्द्रः। सउणवुद्धि-शकुनवृद्धि-स्त्रीवासनिमित्तवर्द्धने शुभशकुनसस्वे, | स्थानेषु प्रयुक्ता नैषेधिकीशब्दाः, यद्वा-संयतीभिर्येषां पञ्चा० १२ विव०।
वक्ष्यमाण उपचारः प्रयुक्तस्ते सोपचारा उच्यन्ते । वृ०३ उ०। सउणरुय-शकुनरुत-न०। शकुनविचारे , शकुनरुतम् अत्र | सउवद्दव-सदुपद्रव-त्रि० । उपद्रवसहिते, तत्र तैः सदुपद्रवैशकुनपदं रुतपदं चोपलक्षणं तेन वसन्तराजाद्युक्तसंग्रहः । र्वाऽतिभूतो व्याप्तः । शा०१ श्रु०१०। गरािचेष्टादिग्बलादिपरिग्रहश्च । जं०२ वक्षः। स०। कल्प।। सदोपद्रव-पुं०। सर्वकालीने उपद्रवे, मा०१ श्रु०१०। मौ० ।हास्था।
सउह-सौध-न० । “ उः पौरादौ च" ॥८।१ । १६२ ।। सउणि-शनि-पुं० । स्त्री०। पक्षिणि , सूत्र०२ श्रु०२०। अत्रौकारस्योक्तलक्षणेन 'उ' इत्यादेशः। सुधानिर्मिते
औ० । ०। श्रा० क० । तं०। ६० । शकुनिः पक्षिविशे- पक्वगृहे, प्रा०१ पाद। षो लावकादिकः । सूत्र०२ श्रु०१०। क्लीवभेदे,प्रव०२४७ सं-सम-अव्य० । समन्तात् प्रकर्षेणेत्यर्थे, उत्त०११० । एद्वार। शकुर्निवेदोत्कटतया गृहचटकवत् प्रतिसेवनां क- कीभावे. स०प्र०१०पाहारा०। सम्यगथें, स०१ सम। रोति । वृ०४ उ०। प्रव०। करणे,पं० भा० । ववादिकरणेष्व
संकंत-संक्रान्त-त्रि०। प्रविष्ट, स्था। "दिव्वे संकंते भव" न्यतमे , उत्त०४०। कृष्णचतुर्दशीरात्रौ सदावस्थितं शकुनिनामकं करणम् । प्रा०म०१०। विश० । जं०। सूत्र
दिवि भवं दिव्यं स्वर्गगतवस्तुविषय संक्रान्तं तत्र देखे दुर्योधनराजमन्त्रिणि, पुं० । शा०१ श्रु०१६ अाचतुर्दशवि
प्रविष्टं भवतीति । स्था० ३ ठा० ३ उ०। पासु,स्त्री शकुनीपारगोऽपि द्विजो गर्हितो भवति । शकुनी
शङ्कमान-त्रि०। प्रतिमूढत्वाद् विपर्यस्तबुद्धौ, सूत्र०१ श्रुक शब्देन चतुर्दशविद्यास्थानानि गृह्यन्ते । वृ० ३ उ० । श्राव० । १०२ उ०। सउणिगणे-शकुनिगण-पुं० । पक्षिसमूहे , कल्प० १ अधि० संकंति-संक्रान्ति-स्त्री० । संक्रमणं संक्रान्तिः । दश० १०। ३क्षण।
संक्रमे, विशे। सउणिपोस-शकनिपोष-पुं०। पक्षिणो गुदे , "सउणिपोस । संकट्ट-संकष्ट-त्रि० । व्याप्ते, संथा० । रा०। पिटुंतरोरुपरिणया" इति । शकुनिपक्षिण इव पुरीषोत्स- संकृष्ट-त्रि० । विलिखिते, शा०१ श्रु०१ श्र०। में निलेपतया पोसन्ति पोसः-अपानदेशः । पुस-उ- संकड्डिय-संकर्षित-त्रि०ाक्षेत्रादाकर्षिते, स्था० ४ ठा० ४ उ०। त्सर्गे , पुसन्ति पुरीषमुत्सृजन्तीति व्युत्पत्तेः। तथा लब्ध- संकड-संकट-त्रिका संकीर्णे, प्रश्न०२ आश्र द्वार । अष्ट । परिणामतया पृष्ठं च प्रतीतम् अन्तरे च पृष्ठोदरयोरन्तराले
कल्प० स० पावित्यर्थः ऊरू चेति द्वन्द्वस्ते परिणता येषां ते श
संकणिज-शकूनीय-त्रि० । भयजनके, शा०१ श्रु. १ अ०। कुनिपोसपृष्ठान्तरोरुपरिणताः निष्ठान्तस्य परनिपातः । माघ।
संकप्प-संकल्प-पुं०। अध्यवसाये, आव०३०। परिणामे, सउणिय-शाकुनिक-पुं० । शकुनेन-श्येनादिना-मृगयां कु पं० चू० ३ कल्प । विकल्पे, भ० ६ श० ३ उ० । नि० । वन्ति इति शाकुनिकाः प्राकृतत्वाद्धस्वत्वम् । पक्षिव्याधे
सा०। प्रारम्भे, विशे० । सत्ता विचारे, कल्प०१ अधिक घु, प्रश्न. २ आश्र द्वार। शकुनिभिः पक्षिभिश्चरतीति शा
२क्षण । युक्तायुक्तविवेचने, शा०१ श्रु० १०। संकल्प
स्तु द्विधा भवति-कश्चिद् ध्यानात्मकोऽपरश्चिन्तात्मकः । कुनिकः । सूत्र०२७०२ १० ।
रा। प्रव०। चित्तस्वभाव, स्था०४ ठा० २ उ० । सउणिया-शकुनिका--स्त्री० । पक्षिण्याम् , शकुनिविकुर्बणा
(संकल्पः 'अट्टारसट्टाण' शब्दे प्रथमभागे २४६ पृष्ठे त्मिकायां परिव्राजकविद्यायाम् , व्य०१ उ०। “सुघराए स व्याख्यातः।) "संकप्पो संरंभो" भ०३ श०३ उ०। पं०भा०। उणिगाए भणिो " आव०१०। “सणिय त्ति" भण्य
संकप्पो उ इदाणि य, सो य पसत्थो य अप्पसत्थो य । ते या तु शकुनिका हितैव पक्षिणी सा कथम् "सउलिय" त्ति इत्येवमिहापि प्राकृतशैल्यामेवमङ्गीकृत्यायथार्थता । अनु० ।
एतेसि दोएहं पि, परूवणा होतिमा कमसो । सउत्तरोद-सोत्तरोष्ठ-पुं० । सह उत्तरौष्ठेन सोत्तरोष्ठस्तस्मि- दसणणाणचरित्ते, अणुपालणपत्थणा पसत्थो उ। न् । सश्मश्रुके, भ० १५ श०।
इंदियविसयकसाए-सु अपसत्थो उ संकप्पो। सउदय-सोदक-त्रि० । उदकेन सहिते, प्राचा०२ श्रु० १
दसणपभावकाई, सत्थाई कहमहं अहिलेजा। चू०२१०३ उ० । सह उदकेन वर्तत इति सोदकम् । उद
जा चिंतयतो एसो, संकप्पो दंसणे होति । कं भौमान्तरिक्षभेदादनेकप्रकारम् । दशा०१०।
दारंसउली-सौली-स्त्री० । महौषधिभेदे, ती०६ कल्प।
णाणतियारं न करे, कहं व णाणं अहं अहिलेजा। सउवाकोस-सोपक्रोश-पुं० । अप्रशस्तविनयभेदे, स्था०७ ठा० इति णाणे चारित्ते, सुद्धचरित्तो कहं होजा । ३ उ०।
उत्तरउत्तरिएहि व, चारित्तगुणेहि कह णु विभरेजा । सउवचार--सोपचार-त्रि० । उपचारसहिते , वृ० । ततस्ते ता. एसो तु चरित्तम्मी, संकप्पो सत्थगो भणितो। सां वसति-सोपचाराः प्रविशन्ति । सोपचारा नाम त्रिषु पं०भा० ३ कल्प । श्रासा। पं०चू। नि००। अष्ट० । गौ
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संकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
'संकम णमैथुने, प्रश्न । संकल्पो विकल्पस्तत्प्रभवत्वादस्य संकल्प | पगयंतरत्थदलियं, परिणमयइ तयणुभावे जं ॥१॥ इति नाम, उक्तं च-"काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात्किल | 'सो संकमुत्ति इह जीवो यद्वन्धनपरिणतो यस्याः प्रकृतेजायसे । न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मेन भविष्यसि ॥१॥" बन्धनेन-बन्धकत्वेन परिणतः। अनेन किलेदमावेद्यते-यदि इति । प्रश्न०४ श्राश्र० द्वार।
जीवस्तथारूपबन्धनपरिणामपरिणतो भवति ततः कर्मवर्गसंकप्पकय-संकल्पकृत-त्रि०। श्राकुट्टिकादिविहिते, "पा- णापुद्रला अपि कर्मरूपतया परिणमन्ते, नान्यथा, उनं चणातिवायपभितिसु, संकप्पकयेसु चरणविगमम्मि । आउद्दे "जीवपरिणामहेऊ, कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति। परिहारा, पुण पटुवणं तु मूलं ति।" पञ्चा०१६ विव०।। पोग्गलकम्मनिमित्तं, जीवो वि तहेव परिणमइ ॥१॥" संकप्पय-संकल्पज-पुं० । सङ्कल्पाजाते प्राणातिपाते, आ- अस्याक्षरगमनिका-जीवस्य सत्कात्परिणामादध्यवसायाया संकल्पजः मनसा संकल्पाद् द्वीन्द्रियादिप्राणिनां मां- खेतोः,जीवपरिणाम हेतुमाश्रित्येत्यर्थः। कर्मवर्गणान्तःपातिनो सास्थिचर्मनखवालदन्ताद्यर्थ व्यापादयतो भवति । श्राव. जीवखप्रदेशावगाढाः पुनलाः कर्मरूपतया ज्ञानावरणीयादि६०।
कर्मरूपतया परिणमन्ते।अथ जीवस्यापि तथारूपः परिणाम: संकप्पिय-संकल्पित-त्रि०ा आलोचित, विशे०।
कस्माद्भवतीति चेदुच्यते पुग्गले'त्यादि पुदलरूपं प्रारबद्धं कर्म संकम-संक्रम-पुं० । संक्रम्यते येन स संक्रमः। काष्ठचारे,(ना
विपाकोदयप्राप्तं तन्निमित्तं तत्सामर्थ्यादिति भावः। जीवो
पि तथैव प्रदेशावगाढकर्मवर्गणान्तःपातिपुद्रलकर्मरूपतापकादौ) नि०चू०१ उ० । जलगत्तपरिहाराय पाषाणकाष्ठरचिते (दश०५०१ उ०) विषमोत्तरणमार्गे, प्रश्न०१ श्राथद्वार ।
त्तिहेतुतयैव परिणमत इति । ' पोगण 'ति
प्रयोगेण सक्लेशसक्षितेन विशोधिसंहितेन वा वीर्यविशेषण "सकमेणं न गच्छेजा विजमाणो परकमे " दश० ५०
विवक्षिताया प्रकृतेरन्या प्रकृतिः प्रकृत्यन्तरं विवक्षितब१ उ० । ०। नि० चू० । जीवेन बध्यमानायाः कर्मप्रकृतेर
ध्यमानप्रकृतिव्यतिरिक्ताऽन्या प्रकृतिरित्यर्थः । तत्रस्थं दलि. नुभावन प्रकृत्यन्तरस्थवीर्यविशेषेण परिणमने, स्था।
कं तदनुभावेन बध्यमान कृतिस्वभाचन यत्परिणमयति चउब्बिहे संकमे परमत्ते, तं जहा-पगइसंकमे ठिइसकमे
परिणमनमापादयति, स संक्रम उच्यते एतदुक्तं भवतिअणुभागसंकमे पएससंकमे । (सू० २६६)
बध्यमानासु प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलिकं प्रक्षिप्य यो प्रकृति बध्नाति जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक बध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनम् , यच्च वीर्यविशेषेण यत्परिणमयति स संक्रमः । उक्तं च-" सो वा बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूपस्येतरेतररूपतया संकमो सि भन्नड , जब्बंधएपरिणो पोगणं । पययंत- परिणमनं तत्सर्वे संक्रमणमित्युच्यते । तत्र बध्यरत्थदलिय, परिणामह तदणुभावे जं ॥१॥" इति । तत्र प्रकृ. मानप्रकृतिष्यबध्यमानप्रकृतीनां संक्रमो यथा-सातवेदनीये तिसंक्रमः सामान्यलक्षणावगम्य एवेति, मूलप्रकृतीनामुत्त
बध्यमानेऽसातवेदनीयस्य, उच्चैर्गोत्रे वा नीचैर्गोत्रस्येत्यारप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणम् अपकर्षण वा प्रकृत्यन्तर- दि। बध्यमानानां परस्परं संक्रमो यथा-बध्यमाने मतिज्ञानास्थितौ था नयनं स स्थितिसंक्रम इति । उक्तं च (कर्मप्रकृती)- वरणीये बध्यमानमेव श्रुतज्ञानावरणं संक्रमयति, श्रुतज्ञाना"ठिइसंक्रमो त्ति वुश्चइ, मूलुत्तरपगइयो उ जा हि ठिई । उ- वरण वा बध्यमाने बध्यमानमेव मतिज्ञानावरणीयमित्यादि । व्वट्टिया व ओव-ट्टिया व पगई णिया वऽनं ॥२८॥" इति,
इह यत्प्रकृतिबन्धकत्वेन परिणत आत्मा तदनुभावेन प्रकअनुभागसंक्रमोऽप्येवमेव, यदाह (क०प्र०)
त्यन्तरस्थं दलिकं यत्परिणमयति स संक्रम इत्युक्तम् । "तत्थ टुपयं उब्ब-ट्टिया व श्रोषट्टिया व अविभागा।
एतच्च लक्षण दर्शनत्रिकव्यतिरेकेणान्यत्र द्रष्टव्यम् , दर्शअणुभागसंकमो ए-स अन्नपगई णिया वावि ॥१॥” इति,
नत्रिके पुनर्बन्धं विनाऽपि संक्रमोऽवगन्तव्यः । तथा चाहअट्ठपयं ति-अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम् , 'अविभाग' दुसु वेगे दिद्विदुर्ग, बंधेण विणा वि सुद्धदिहिस्स । त्ति अनुभागाः 'निय ' त्ति नीता इति । यत्कर्म- परिणामइ जीसे तं, पगईए पडिग्गहो एसा ॥२॥ द्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणम्यते स प्रदेशसंक्रमः ,
। 'दुसु'त्ति शुद्धदृष्टेः सम्यग्दृष्योः सम्यक्त्वसम्यग्मिउक्तञ्च-" जे दलियमनपगई, णिजइ सो संकमो
थ्यात्वयोराधारभूतयोमिथ्यात्वम् ,एकस्मिश्च सम्यक्त्वे सभ्य पएसस्स" इति , निधानं निहितं वा निधत्तम् , भावे
ग्गिध्यात्वं बन्धं विनापि संक्रामति । इयमत्र भावना-इह मिकर्मणि वा क्तप्रत्यये निपातनात् , उद्वर्तनापवर्तना-1.
ध्यात्वस्यैव बन्धोन सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोगयता मिथ्यावर्जितानां शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमु
त्वपुद्गला एव मदनकीद्रवस्थानीया औषधविशेषकल्पेनौपशच्यते, नितरां काचनं-बन्धनं निकाचितं-कर्मणः सर्वकर
मिकसम्यक्त्वानुगतेनविशोधिस्थानेन त्रिधा क्रियन्ते तद्यथाखानामयोग्यत्वेनावस्थापनम् । उक्तश्चोभयसंवादि-"संकमणं
शुद्धा अर्धविशुद्धा अविशुद्धाश्च । तत्र विशुद्धाः सम्यक्त्वम् , पि निहत्तीए, पत्थि सेसाणि वत्ति इयरस्स" इति । स्था०
अर्द्धविशुद्धाः सम्याग्मथ्यात्वम् , अविशुद्धा मिथ्यात्यम् । ४ ठा०२ उ०॥
तत्र विशुद्धसम्यगदृष्टिः सम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वयोः बन्धं सम्प्रत्युद्देशक्रमेण वनमवसरप्राप्तं संक्रमकरणम् । सं- बिनापि तत्र मिथ्यात्वं संक्रमयति , सभ्यग्मिथ्यात्वं च क्रमच प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपविषयभेदाच्चतुर्विधः । सम्यक्त्वे इति । तदेवमुक्तं संक्रमस्य सामान्य लक्षणम् । तत्र प्रथमतः संक्रमस्य सामान्य लक्षणमभिधातुकाम आह
सम्प्रति यासु प्रकृतिषु प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं संक्रमयति सो संकमो त्ति वुबइ ज बंधणपरिणो पोगेणं ।। तासां संज्ञान्तरमाह-'परिणामे' त्यादि यस्यां प्रकृती
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम अाधारभूतायां तत्प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक परिणमयति सर्वस्मिन्नप्यवस्थाविशेषेऽन्तरकरणावस्थायामन्यत्र वा इआधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति एषा प्रकृतिराधारभूता
त्यर्थः । सर्वैः प्रकारैः क्रमेणोत्क्रमेण वा संक्रमो ऽवगन्तपतग्रह इत्युच्यते । पतग्रह इव पतद्ग्रहः संक्रम्यमाणप्रकृ
व्यः । किं सर्वदेव ? नेत्याह-बन्धे बन्धकाले, न वन्यदा त्याधार इत्यर्थः।
यथोक्नं प्राक् । तदेवं संक्रमस्य सामान्यलक्षणविधिरपवादो
नियमश्चोक्तः। संक्रमलक्षणं च प्रागुक्तमतिप्रसक्तमिति तत्राऽपवादमाह
संप्रति यदुक्तं यस्याः प्रकृतेर्बन्धः सा प्रकृत्यन्तरदलिकसंमोहदगाउगमल-प्पगडीण न परोप्परम्मि संकमणं । | क्रमण प्रति पतदहाति तत्राण्वादमा संकमबंधदउच्च-दृणा (णव) लिगाईण करणाई ॥३॥ तिस प्रावलियाम समस-गियाम अपटिगाटा जल 'मोह' ति मोहद्विकं-दर्शनमोहनीयं, चारित्रमोहनीयं दुसु आवलियासु पढम-ठिइए सेसासु वि य वेदोशा च । तयोः परस्परं संक्रमो न भवति । तथाहि-न दर्शन- 'तिसु' त्ति-अन्तरकरणे कृते प्रथमस्थितौ, तिसृष्वामोहनीय चारित्रमोहनीये संक्रमयति, चारित्रमोहनीय वा बलिकासु समयोनासु सतीषु चत्वारोऽपि संज्वलना दर्शनमोहनीये। तथा श्रायूंषि चत्वार्यपि न परस्परं सं.
अपतद्ग्रहाः, पतङ्गहा न भवन्ति । एतदुक्तं भवतिकमयति, नापि मूलप्रकृतीः परस्परं संक्रमयति । तथा- चतुर्ध्वपि संज्वलनेषु प्रथमस्थितौ तिसृष्यावलिकासु हि-नशानावरणीये दर्शनावरणीयं संक्रमयति , नापिद- समयानावलिकात्रिकशेषायां सत्यां बध्यमानेष्वपि शनावरणीये ज्ञानावरणीयम् । एवं सर्वास्वपि मूलप्रकृ- नान्यत्प्रकृत्यन्तरदलिकं तेषु संक्रामति, तेन तदानीमपतद्तिषु भावनीयम् । अपि च-यस्मिन् दर्शनमोहनीये यो प्रहाः । तथाऽन्तरकरण कृते सति द्वयोरावलिकयोः प्रथमजन्तुरतिष्टते, स तदन्यत्र न संक्रमयति । यथा मिथ्या- | स्थितिसत्कयोः समयोनयोः सत्योर्वेदः पुरुषवेदः पतग्रहो टिर्मिथ्यात्वम् , सम्यग्मिध्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यात्वम् , स- | न भवति, न किमपि तत्र प्रकृत्यन्तरदलिकं संक्रामतीत्यर्थः । म्यगृष्टिः सम्यक्त्वम् , तथा सासादनाः सम्यग्मिथ्यादृष्ट- वेदश्चेह परुषवेद पव द्रष्टव्यः, न खीनपंसकवेदौ. तदानीं यश्च न किमपि दर्शनमोहनायं क्वापि संक्रमयन्ति , अवि- तयोर्बन्धाभावादेवापतद्ग्रहत्वसिद्धेः । अपि च-मिथ्यात्वे शुद्धदृष्टित्वात् । बन्धभावे हि दर्शनमोहनीयस्य संक्रमो वि. क्षपिते सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वशुद्धदृष्टरेव भवति , नाविशुद्धदृष्टः । अन्यच्च-परप्रकृतिसं- योश्च क्षपितयोः सम्यक्त्वस्योद्वलितयोस्तु सम्यक्त्वसम्यग्क्रान्तं दलिकमावलिकामात्रं कालं यावदुद्वर्तनादिसकलक- मिथ्यात्वयोमिथ्यात्वस्यापतहताऽनुक्नाऽपि द्रष्टव्या, न खरणायोग्यमवगन्तव्यं, न केवलं संक्रान्तमपि तु बन्धाद्याव. लु तत्रापि किंचित् संक्रामतीति । लिकागतमपि । तथा चाह- संकमे ' त्यादि संक्रमावलि
संप्रति साद्यनादिप्ररूपणामाहकागतम् , बन्धावलिकागतम् , उदयावलिकागतम् , उद्धतनावलिकागतम् , अादिशब्दादुपशान्तं मोहनीय दर्शनमो
साइप्रणाईधुवन-धुवा य सव्वधुवसंतकम्माणं । हनीयत्रिकरहितमित्येतानि सर्वाण्यप्यकरणानि सकलकर- साइयधुवा य सेसा, मिच्छावे यणीयनीएहिं ॥ ६ ॥ णायाग्यान्यवसेयानि । दर्शनत्रिकं तूपशान्तमपि संक्रमयति । 'साइ' त्ति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वनरकद्विकमनुजद्वितदेवं लक्षणापवादोऽभिहितः । सम्प्रति क्रमेणोत्क्रमेण बा
कदेवद्विवक्रियसप्तकाहारकसप्तकतीर्थकरोच्चैगोत्रलक्षणाविशेषण (षण) संक्रमे प्राप्ते सति नियममाह
श्चतुर्विशतिप्रकृतयोऽध्रुवसत्कर्माण प्रायुश्चतुष्टयं च । शेष
पुनस्त्रिंशदुत्तरं प्रकृतिशतं भ्रवसत्कर्म । ततोऽपि साता:अंतरकरणम्मि कए, चरित्तमोहेऽणुपुब्बिसंकमणं ।
सातवेदनीयनीचैर्गोत्रमिथ्यात्वरूपं चतुष्टयमपनीयते । ततः अन्नत्थ सेसिगाणं, च सव्वहिं सव्वहा बंधे ॥४॥ शेषस्य पविंशत्युत्तरप्रकृतिशतस्य साद्यादिरूपतया चतु'अंतरकरणम्मि' त्ति अन्तरकरणविधिरग्रे उपशमना
विधोऽपि संक्रमो भवति । तथाहि-अमूषां ध्रुवसत्प्रकृतीकरणाभिधानावसरे प्रतिपादयिष्यते, तत्रोपशमश्रेण्यां चा- |
नां संक्रमविषयप्रकृतिबन्धव्यवच्छेदे सति संक्रमो न भवरित्रमोहनीयोपशमनार्थमेकविंशतेः प्रकृतीनाम् , क्षपकश्रे
ति । ततः पुनरपि तासां संक्रमविषयप्रकृतीनां स्वबन्धहेतुण्यां पुनः कषायाष्टकक्षपणानन्तरं त्रयोदशप्रकृतीनामन्त
सम्पर्कतो बन्धारम्भे सति भवति, ततोऽसौ सादिः, तत्तद्वरकरणे कृते सति , चारित्रमोहे पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टय
न्धव्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः,अभव्यस्य भ्रवः कदालक्षणे । अत्र हि चारित्रमोहनीयग्रहरोनेता एव पञ्च प्र- चिदपि व्यवच्छेदाभावात् ,भव्यस्य पुनरध्रवः कालान्तरे व्यवकृतयो गृह्यन्ते, न शेषाः बन्धाभावात् । तत्रानुपूर्वीपरि- च्छेदसम्भवात् । शेषाश्चतुर्विंशतिप्रकृतयोऽध्वसत्कर्माणो मि पाट्या संक्रमणं भवति , न त्वनानुपूर्व्या । तथाहि-पुरुष- |
थ्यात्ववेदनीयनीचैर्गोत्रैः सह साद्यभ्रुवाः-साद्यध्रुवसंक्रमावेदं संज्वलनक्रोधादावेव संक्रमयति नान्यत्र ।संज्वलनक्रोध
अवगन्तव्याः । तथाहि-अध्रवसत्कर्मणामधवसत्कर्मत्वादेव मपि संज्वलनमानादावेव न तु पुरुषवेदे । संज्वलनमानमपि सज्वलनमायादावेव, न तु संज्वलनक्रोधादौ । संज्वलनमा
संक्रमः सादिरध्रवश्वावगन्तव्यः , सातासातवेदनीयनीचैयामपि संज्वलनलोभे एव , न तु संज्वलनमानादाविति ।
गोत्राणां तु परावर्तमानत्वात् । मिथ्यात्वस्य पुनः संक्रमौ 'अन्नत्थ त्ति अन्तरकरणादन्यत्र पश्चानामपि पुरुषवे- विशुद्धसम्यग्दृष्टः,विशुद्धसम्यग्दाष्टत्व च कादाराचरक, ततदादिप्रकृतीनां शेषाणां पुनः प्रकृतीलाम् ।' सव्वहिं ति! स्तस्याऽपि संकमः साद्यभव एव ।
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम साम्प्रतं पतद्ग्रहाणां साधनादिप्ररूपणामाह
ग्रहे मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्च नवविधदर्शनावरणीयबमिच्छत्तजढा य परि-ग्गहम्मि सव्वधवबंधपगईश्रो।। न्धका नवकमपि संक्रमयन्ति । अयं च नवकरूपः पतनेया चउचिगप्पा, साई अधुवा य सेसाओ॥७॥
प्रहः साधादिरूपतया चतुष्प्रकारः । तद्यथा-सादिरना
दिर्धवोऽध्रुवश्च । तथाहि-सम्यग्मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानेषु 'मिच्छत्त' ति मिथ्यात्वजढाः-मिथ्यात्वरहिताः सर्वा |
न भवति , ततः प्रतिपाते च-भवति , ततोऽसौ सादिः । अपि ध्रुषबन्धिन्यः प्रकृतयः-पश्चशानावरणीयानि, नव द
पदस्थानकमप्राप्तस्य पुनरनादिः । प्रवाधवाऽभव्यभव्यापे शनावरणीयानि, षोडश कषायाः, भय, जुगुप्सा, तेजस
क्षया । सथा सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानकादारभ्यासप्तकं, वर्णादिविंशतिः, अगुरुलघु उपघातं, निर्माणम् , अन्तरायपश्चकं चेति । एताः संक्रममधिकृत्य चतुर्विकल्पाःसा
पूर्वकरणस्यासंख्येयतमं भाग यावन्नवविधदर्शनावरणीयचनाविधवाध्रुवरूपचतुर्भेदा नया तथाहितासां समय
सत्कर्माणः षड्डिधदर्शनावरणीयबन्धकाः षट्रे नवकं संक्रमय
स्ति । अयं तुषटुरूपः पतग्रहः साद्यभ्रवः कायाचिकत्वात् । ष्टिसंख्यानां ध्रवसंबन्धिनीनामात्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छे
तथा-अपूर्वकरणस्य संख्येयतमे भागे निद्राप्रचलयोर्वन्धव्यदसमये पतग्रहत्वं न भवति, न किमपि प्रकृत्यन्तरदलिकं
वच्छेदे तत ऊर्ध्वं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमयं यातासु संक्रामतीत्यर्थः । पुनः स्वस्वबन्धहेतुसम्पर्कतो ब
वदुपशमश्रेण्यां नविधदर्शनावरणीयसत्कर्माणश्चतुर्विधदधारम्भे सति पतद्महत्वं भवति ततः सादिः, तत्तद्वन्ध
शनावरणीयबन्धकाश्चतुष्के नवकं संक्रमयन्ति । अयमपि च व्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, भ्रवाध्रवे अभव्यभ
चतुष्करूपः पतद्ग्रहः साद्यभ्रवः, कदाचिद्भावात् । अवकव्यापेक्षया । 'साई' इत्यादि शेषास्त्वनवबन्धिन्योऽयाशीति
रूपः संक्रमश्चतुष्पकारः । तद्यथा-सादिरनादि,वोऽधवसंख्याः प्रकृतयोऽध्रवबन्धित्वादेव (तासां) साद्य-व- श्व । तथाहि-सूक्ष्मसम्परायात्परतः उपशान्तमोहे न भपतद्ग्रहता भावनीया । मिथ्यात्वस्य पुनर्धवबन्धित्वेऽपि वति, ततः प्रतिपाते च भवति , ततोऽसौ सादिः । तयस्य सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे विद्यते स एव ते तत्र संक्र- स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्रवाधवावभव्यभव्यापेक्षया । मयति, नान्य इति तस्य साद्यध्रवपतद्ग्रहता द्रष्टव्या। क्षपकश्रेण्यां पुनरनिवृत्तिकरणाद्धायाः । संख्येयतमे भागे तदेवमेकैकप्रकृतीनां संक्रमस्य पतग्रहत्वस्य च सा
ऽवशिष्टे सति स्त्यानद्धित्रिकक्षयात् परतः सूक्ष्मसंपरायद्यनादिप्ररूपणा कृता । सम्प्रति प्रकृतिस्थानेषु तां
गुणस्थानकचरमसमयं यावत् पडिधदर्शनावरणीयसत्कर्माचिकीर्षुरतिदेशमाह
णश्चक्षुरादिदर्शनावरणीयचतुष्टयं बध्नन्तस्तस्मिन् दर्शनावपगईठाणे वि तहा, पडिग्गहो संकमो य बोधव्यो।
रणचतुष्के पर्दू संक्रमयन्ति । इमावपि संक्रमप
तग्रही , साद्यधुवी, कादाचिकत्वात् । अतः परं तु पढमंतिमपगईणं, पंचसु पंचएह दो वि भवे ॥८॥
न संक्रमो नापि पतग्रहत्यमिति । संप्रति वेदनी'पगईठाणे' ति यथैकैकस्याः प्रकृतेः प्रतहहत्वं संक्रमश्च
यगोत्रयोः संक्रमपतहत्वस्थानप्रतिपादनार्थमाह- असाधादिरूप उक्तस्तथा प्रकृतिस्थानेष्वपि बोद्धव्यः । द्वित्रा
नयरस्से ' त्यादि । वेदनीय गोत्रे चान्यतदीनां च प्रकृतीनां समुदायः प्रकृतिस्थानम् । तत्र प्रथम
रस्यां प्रकृती बध्यमानायामन्यतराऽबध्यमाना प्रकृतिः संतो मानावरणीयस्य तत्समानवक्तव्यत्वादन्तरायस्य च सं
कामति । तेन या यत्र संक्रामति सा तस्याः पतग्रहः । क्रमपतहत्वात् स्थानप्रतिपादनार्थमाह- पढमंतिमे 'त्यादि प्रथमप्रकृतेर्शानावरणीयस्य अन्तिमप्रकृतेरन्तराय
इतरा च संक्रमस्थानम् । तत्र सातबन्धकानां मिथ्याष्टिस्य सम्बन्धिनीनां प्रत्येक पञ्चानामपि प्रकृतीनां पञ्चस्वपि
प्रभृतीनां सूचमसम्परायपर्यन्तानां सातासातसत्कर्मणां सा
तवेदनीयं पतहहः असातं संक्रमस्थानम् । असातबन्धप्रकृतिषु द्वावपि संक्रमपतग्रभावौ भवतः । एतदुक्तं
कानां पुनर्मिथ्यादृष्टिप्रभृतीनां प्रमससंयतपर्यन्तानां साताभवति-मानावरणीयान्तराययोरेकैकं पञ्चप्रकृत्यात्मकं सातसत्कर्मणाम् असातवेदनीयं पतग्रहः, सातवेदनीयं तु स्थानं संक्रमे पतग्रहभावे च भवतीति । तौ
संक्रमस्थानम् इमौ च सातासातरूपी संक्रमपतग्राही साचेमौ संक्रमपतग्रहभावी साधादिरूपतया चतुष्प्रकारौ ।
द्यध्रवी भूयो भूयः परावृत्त्य (त्ति ) भावात् । तथा मितथाहि-उपशान्तमोहगुणस्थानके तयोरभावात् , ततः |
ध्यादृष्टिप्रभृतीनां सूक्ष्मसम्परायपर्यन्तानामुचैर्गोत्रबन्धकाप्रतिपाते च पुनः सम्भवात् सादी , तत्स्थानमप्राप्तस्य पुन
नामुष्चनीचैगोत्र । बन्ध । सत्कर्मणामुश्चोत्रं पतहहः, नीरनादी, ध्रवाधवता चाभव्यभव्यापेक्षया भावनीया ।
चैगोत्रं तु संक्रमस्थानम् । नीचैगोंत्रबन्धकानां तु मिथ्यासम्प्रति दर्शनावरणीयस्य संक्रमपदग्रहत्वस्थान- राष्टिसासादनानामुच्चनीचैर्गोत्रसत्कर्मणां नीचैर्गोत्रं पतङ्कप्रतिपादनार्थमाह
हः. उच्चैगोत्रं तु संक्रम्यमाणम् । (मस्थान ) इमावप्युनवगच्छकचउके, नवगं छकं च चउसु बिइयम्मि। वर्गोपनीचैर्गोत्ररूपी संक्रमपतही प्रागिव साद्यध्रवी भाअन्नयरस्सि (स्से) अन्नय-रा वि य वेयणीयगोएसु ॥३॥
वनीयो। 'नवग ति' द्वितीय दर्शनावरणीये नवकषट्चतुष्केषु
सम्प्रति मोहनीयस्य संक्रमपतहत्वस्थानप्रतिपादनावमयकं संक्रामति, षटुं च चतसृषु प्रकृतिषु । तेनेह वे
सरस्तंत्र प्रथमतः संक्रमासंक्रमस्थाननिर्देश चिकीर्षुराह-- संक्रमस्थाने । तचथा-नवकं, षटू च । त्रीणि पतग्रहस्था
अडचउरहियवीस, सत्तरसं सोलसं च पारसं । नानि, तद्यथा-मवर्क, षटुं, चतुष्कं च । तत्र नषकरूपे पत- वअियसंकमठाणा- होति तेवीसई मोहे ॥१०॥
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम 'अट्ट' ति अधाधिका चतुरधिका च विंशतिः अष्टाविं- पुंसकवेदे उपशान्ते एकविंशतिः द्वाविंशतिसत्कर्मणा वा शतिश्चतुर्विंशतिश्चेत्यर्थः। तथा सप्तदश षोडश पञ्चदश चे- सम्यक्त्वं न कापि संक्रामतीत्येकविंशतिः संक्रमे प्राप्यते । त्यमूनि स्थानानि वर्जयित्वा शेषाणि एकद्वित्रिचतुःपञ्च- यद्वा-क्षपकश्रेण्यां वर्तमानस्य क्षपकस्य यावदद्याप्यष्टौ षट्सप्ताटनवदशैकादशद्वादशत्रयोदशचतुर्दशाष्टादशैकोनविं- कषाया न क्षयमुपयान्ति तावदेकविंशतिः संक्रमे प्राप्यते । शतिविंशत्यकार्विशतिद्वाविंशतित्रयोविंशतिपञ्चविंशतिपाई- औपमिकसम्यग्दृऐः सम्बन्धिम्याः प्रागुक्तायाः एकविंशशतिसप्तविंशतिलक्षणानि प्रयोविंशतिसंख्यानि मोहनीये सं- तेः स्त्रीवेदे उपशान्ते सति शेषा विंशतिः संक्रामति । कमस्थानानि भवन्ति । तथाहि-अष्टाविंशतिसत्कर्मणो मि- यद्वा-क्षायिकसस्यग्दृऐरुपशमणि प्रतिपन्नस्य चारित्रच्यामिथ्यात्वं सम्यक्त्व-सम्यग्मिथ्यात्वयोः पतग्रह इति मोहनीयस्यान्तर करणे कृते लोभसंज्वलनस्यापि । प्रागुमिथ्यात्वव्यतिरिक्ताः शेषाः सप्तविंशतिः संक्रामन्ति । तत्र ऋयुक्तः संक्रमो न भवतीति तस्मिन्नपसारिते विंशतिः चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिप्रकृत्यात्मकं परस्परं संक्रामति
संक्रमे प्राप्यते । ततो नपुंसकवेदे उपशान्ते एकोनविंशसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः मिथ्यात्वे । तथा सम्यक्त्वे
तिः; स्त्रीवद उपशान्तेऽष्टादश औपशमिकसम्यगदृष्टरुपउद्वलिते सति सप्तविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यार्मिथ्यात्वं
शमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्काया विंशतेः पदसु नोकसम्यग्मिथ्यात्वस्य पतग्रह इति तद्वयतिरिकाः शेषाः षडि
पायेपूपशान्तेषु शेषाश्चतुर्दश संक्रान्ति । ततः पुरुषवेदे शतिः संक्रामन्ति । सम्यग्मिध्यात्वेऽप्युद्वलिते सति पवि
उपशान्ते त्रयोदश । यद्वा-क्षपकस्य क्षपकण्यां वर्तशतिसत्कर्मणः पञ्चविंशतिः । अथवा-अनादिमिथ्यादृष्टेः ष- मानस्य प्रागुक्ताया एकविंशतेरष्टसु कषायेषु क्षीणेषु शेषाविंशतिसत्कर्मणः पञ्चविंशतिः, मिथ्यात्वस्य संक्रमाभावात्। स्त्रयोदश संक्रामन्ति । तस्यैव क्षपकस्य चारित्रमोहनीयन हि तत् चारित्रमोहनीये संक्रामति , दर्शनमोहनीयचारि- स्यान्तरकरणे कृते संज्वलनलोभस्य प्रागुक्तयुक्नेः संक्रमो प्रमोहनीययोः परस्परं संक्रमाभावात् । अथवीपशमि- न भवतीति तस्मिन्नपसारिते शेषा द्वादश संक्रामन्ति । अकसम्यग्रहऐरष्टाविंशतिसत्कर्मणः सम्यक्त्वलाभादावलि- थवा-क्षायिकसम्यगदृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुक्लाकाया ऊर्द्ध वर्तमानस्य सम्यक्त्वे मिथ्यात्वसम्य- भ्योऽष्टादशभ्यः पदसु नोकषायेषूपशान्तेषु सत्सु शेषा द्वामिथ्यात्वयोः संक्रमः । तेन तत् पतह इति । त- दश संक्रामन्ति । ततः पुरुषवेद उपशान्ते एकादश । स्मिन्नपसारिते शेषा सप्तविंशतिः संकमे प्राप्यते । तस्यै
क्षपकस्य वा प्रागुक्ताभ्यो द्वादशभ्यो नपुंसकवेदे क्षीणे शव चौपशमिकसम्यग्रहोरष्टाविंशतिसत्कर्मण श्रावलिकाया
पा एकादश संक्रामन्ति । अथवीपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमअभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संका
श्रेण्यां प्रागुताभ्यस्त्रयोदशभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरमति । यतो मिथ्यात्वपुद्गला एव सम्यक्त्वानुगति (त)
णक्रोधद्विके उपशान्ते शेषा एकादश संक्रमे प्राप्यन्त । विशोधिप्रभावतः सम्यग्मिथ्यात्वलक्षण परिणामान्तरमापा- क्षपक श्रेण्यामेकादशभ्यः स्त्रीवेदे क्षीणे शेषा दश संक्रामदिताः । अभ्यप्रकृतिरूपतया परिणामान्तरापादनं च संक
न्ति । श्रोपशमिकसम्यग्दृष्टेवापशमश्रेण्यां वर्तमानस्यैकामः , संक्रमावलिकागतं च सकलकरणायोग्यमिति सम्य
दशभ्यः संचलनलोभे उपशान्ते शेषा दश संक्रामन्ति । कत्वलाभादावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानेन सम्यग्मिथ्या
क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुताभ्य ए. त्वं सम्यक्त्वे न संक्रम्यते, कि तु केवल मिथ्यात्वमेव
कादशभ्योऽप्रत्याख्यानावरणलक्षण क्रोधद्विक उपशान्ते शे. ततः सम्यग्मिध्यात्वेऽप्यपसारिते शेषा षडविंशतिः संक्रा- पा नव संक्रान्ति । तस्यैव संज्वलनक्रोधेऽप्युपशान्तेऽमति । चतुर्विशतिस्तु संक्रमे न प्राप्यते , यतश्चतुर्विंश
टी । अथवीपशभिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य तिसत्कर्मा सम्यग्दृष्टिमिथ्यात्वं गतः सन् यद्यप्यनन्तानु
प्रागुक्ताभ्यो दशभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे माबन्धिनो भूयोऽपि बध्नाति , तथापि तान् सतोऽपि न
नद्विके उपशान्ते शेषा अष्टौ संक्रामन्ति । तस्यैव संज्व-- संक्रमयति, बन्धावलिकागतस्य सर्वकरणायोग्यत्वात् ।
लनमाने उपशान्ते सप्त । क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां मिथ्यात्वं च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतग्रह इति त
वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्योऽधाभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानास्मिन्नपसारिते शेषा त्रयोविंशतिरेव संक्रामति । अथवा
धरणलक्षण मानद्विक उपशान्त शेषाः षट् संक्रामचतुर्विंशतिसत्कर्मणः सम्यग्दृष्टः सम्यक्त्वं मिथ्यात्वसम्य
न्ति । तस्यैव संज्वलनमान उपशान्त पञ्च । यद्वीपशमिथ्यात्वयोः पतद्ग्रह इति तस्मिन्नपसारिते शेषा त्रयो
मिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुक्राभ्यः सविशतिः संक्रामति । तस्यैव मिथ्यात्वे क्षषिते द्वाविंश- तभ्यः प्रकृतिभ्याऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मायातिः । अथवीपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य द्विक उपशान्ते शेषाः पञ्च संक्रामन्ति । तस्यैव संज्वलनमाचारित्रमोहनीयस्यान्तरकरणे कृते सति लोभसंज्वलन
यायामुपशान्तायां चतस्त्रः। अथवा-क्षायिकसम्यगरष्टेः क्षपस्यापि संक्रमो न भवति , “अन्तरकरणे कृते पुरुषवेद- कस्य प्रागुक्ताभ्यो दशभ्यः षट्सु नोकषायेषु क्षीणेषु शेषाश्चतसंज्वलनचतुष्टययोरानुपूर्त्या संक्रमो भवतीति वचनप्रामा- स्रः प्रकृतयः संक्रामस्ति। तस्यैव पुरुषवदे दीणे तिन अथवा ण्यात्, अनन्तानुवन्धिचतुष्टयस्य च विसंयोजितत्यादुप- क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमशेण्यां वर्तमानस्य प्रागुताभ्यः पञ्चशान्तत्वाद्वा संक्रमाभाषः। सम्यक्त्वं च मिथ्यात्वसम्य- भ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षण मायाद्विके उपशान्ते ग्मिथ्यात्वयोः पतग्रह इति संज्वलनलोभानन्तानुबन्धिचतुः शेषास्तिस्रःसंक्रामम्ति, तस्यैव संज्वलनमायायामुपशान्तायां
यसम्यक्त्वेष्वष्टाविंशतेरपीतेषु शेषा द्वाविंशतिः संक्राम- द्वे । अथवीपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुति । तस्यैत्रीपशामिकसम्गगहप्रेमपशमशेरायां वर्तमानस्य न- काभ्यश्चतसुभ्यः प्रकृतिभ्योऽप्रत्यास्यामप्रत्याख्यानासरला.
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
मंकम लोभद्विक उपशान्ते शेषे द्वे प्रकृती संक्रामतः । अथवा-क्षा- | सर्वदा एकविंशतिरूपे पतङ्गहे पञ्चविंशतिरेव संक्रामति। स यिकसम्यगूहः क्षपकस्य प्रागुक्ताभ्यस्तिसभ्यः संज्वलनक्रो- | म्यग्मिथ्याररपि शुद्धदृष्टित्वाभावाद्दशनत्रयस्य संक्रमाभाव धेक्षीणे वे संक्रामतः। तस्यैव संज्वलनमाने क्षीण एका तदेवं | इति अष्टाविंशतिसत्कर्मणः सप्तविंशतिसत्कर्मणो वा पञ्चविंपरिभाव्यमाने प्राविंशतिचतुर्विंशतिसप्तनशषोडशपश्चरश- शतिः। चतुर्विशतिसत्कर्मणः पुनरेकविंशतिः। द्वादशकषायपुलक्षणानि संक्रमस्थानानि न प्राप्यन्ते । इति प्रतिषिध्यन्ते । रुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगललक्षण सप्तदशप्रकृतिसमुदायसेषु च प्रतिषिद्धेषु शेषाणि त्रयोविंशतिसंख्यानि संक्रम- रूपे पतहहे संक्रामति । तदेवमुक्तौ सासादनसम्यग्मिध्याहस्थानान्यवगन्तव्यानि । पतेषु संक्रमस्थानेषु मध्ये पञ्चविंश- | ष्टी संप्रत्यविरतंदशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु संक्रमाणां तुल्यत्वातिप्रकृत्यात्मकं संक्रमस्थानम् । साधादिरूपतया चतुष्प्रका- त् युगपत्पतङ्गहा उच्यन्ते-तेषामविरतादीनामौपशमिकसरम् । तद्यथा-साधनादि भ्रवमध्रुवं च । तत्राष्टाविंशतिसत्क- म्यग्दृष्टीनां सम्यक्त्वलाभप्रथमसमयादारभ्य यावदावलिकामणः सम्यक्त्वसम्यग्मिध्यात्वयोरुद्वलितयोर्भवत् सादि. |
मात्रं तावत् सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतलहनैव भमादि मिथ्यारष्टेरनादि, अभवभ्रवता भव्याभब्यापेक्षया । शे
वति , न संक्रमः , इति शेषा बडिंशतिविरतानां द्वादशपाणि तु संक्रमस्थानानि साद्य-वाणिं, कादाचित्कत्वात्
कषायपुरुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगलसम्यक्त्वसम्यग्मिछता मोहनीय संक्रमासंक्रमस्थानप्ररूपणा ।
ध्यात्वरूपे एकोनविंशतिपतगृहे, देशविरताना प्रत्याख्या
नावरणसंज्वलनकषायपुरुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगलससम्प्रति पतहहापतहस्थानप्ररूपणार्थमाह
म्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वलक्षण पञ्चदशपतनहे, प्रमत्ताऽप्रमसोलस बारसगऽढग, वीसग तेवीसगा इगे छच्च । सानां संज्वलनचतुष्टयपुरुषवेदसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वभवञ्जिय मोहस्स पडि-ग्गहा उ अट्ठारस हवंति ॥ ११ ॥
यजुगुप्साऽन्यतरयुगलरूपे एकादशपतहे संक्रामति । ते
षामेवाऽविरतसम्यग्दृष्टयादीनामावलिकायाः परतः सम्य'सोलस' ति षोडश द्वादशाष्टौ विंशतियोविंशत्यादयश्च ग्मिथ्यात्वं संक्रमे पतग्रहे च लभ्यते इति सप्तविंशतिः षट् । तद्यथा-त्रयोविंशतिश्चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षडिशतिः प्रागुक्नेषु त्रिषु पतद्ग्रहेषु संक्रामति । तथा तेषामेवाविरतसप्तविंशतिरष्टाविंशतिश्च । एतानि स्थानानि वर्जयित्वा शषा- सम्यग्रहणुयादीनामनन्तानुबन्धिषूद्वलितेषु चतुर्विशतिसत्कएयेकद्वित्रिचतुः पञ्चषट्सप्तनवदशैकादशत्रयोदशचतुर्दशप
मणां क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सम्यक्त्वं पतह इति कृश्चदशसप्तदशाटादशैकोनविंशत्येकविंशतिद्वाविंशतिलक्षणानि
त्वा शेषा त्रयोविंशतिःप्रागुक्नेष्वेवैकोनविंशत्यादिषु त्रिषु पत. अष्टादश पतग्रहस्थानानि भवन्ति । तत्र कस्मिन् पतद्ग्रहे
रहेषु संक्रामति । ततो मिथ्यात्वे क्षपिते सति सम्यग्मिकाः प्रकृतयः संक्रामन्तीत्येतद्भाव्यते-तत्र मिथ्यारष्टेरपाधि
ध्यात्वं पतभावे न लभ्यते, मिथ्यात्वं च संक्रमे न लभ्यशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पत
ते । ततः शेषा द्वाविंशतिरविरतदेशविरतसंयतानां यथाग्रह इति तस्मिन्नपसारिते शेषा सप्तविंशतिमिथ्यात्वषोड
संख्यमष्टादशचतुदर्शदशरूपेषु पतनहषु संक्रामति । ततः शकषायाम्यतरवेदभयजुगुप्साहास्यरतियुगलारतिशोकयु
सम्यग्मिध्यात्वे तपिते सति सम्यग्मिध्यात्वस्य न संक्रमो गलान्यतरयुगललक्षणाया द्वाविंशती संकामति । तस्यैव स
नापि पतङ्कह इत्येकविंशतिरविरतादीनां यथासंख्यं सप्तरम्यक्त्व उद्वलिते सप्तविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यारमिथ्यात्वं
शत्रयोदशनवकरूपेषु पतग्रहषु संक्रामति । सम्प्रत्यौपशसम्यग्मिथ्यात्वस्य पतग्रह इति तस्मिन्नपसारिते शेषा षदविशतिःप्रागुक्तायां द्वाविंशतौ संक्रामति । तस्यैव मिथ्यादृष्टेः।
मिकसम्यग्दृऐरुपशमश्रेण्या वर्तमानस्य संक्रममाश्रित्य पत. सम्यग्मिथ्यात्व उद्वलित पदविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वे न
ग्रहविधिरुच्यते-चतुर्विंशतिसत्कर्मणः सम्यक्त्वं मिथ्याकिमपि संक्रामतीति न तत्कस्यचित्पतग्रह इति । तस्मिन् स्वसम्यग्मिध्यात्वयोः पतग्रह एवेति कृत्वा तस्मिन्नपसाप्रागुक्लाया द्वाविंशतेरपनीते शेषे एकविंशतिप्रकृतिसमुदा- रिते शेषा प्रयोविंशतिः पुंवंदसंज्वलनचतुष्टयसम्यक्त्वसयात्मके पतगृहे पञ्चविंशतिः। अथवाऽनादिमिथ्यारष्टेः म्यग्मिथ्यात्वरूपे सप्तकपतद्ग्रहे संक्रामति, तस्यैवोपशषविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वं न कापि संक्रामति, नापि त- मश्रेण्यां वर्तमानस्यान्तरकरणे कृते संज्वलनलोभस्य संजान्या प्रकृतिरित्याधाराधेयभावपरिभ्रष्टं मिथ्यात्वमपनीयते, क्रमो न भवति इति तस्मिन्नपसारिते शेषा द्वाविंशतिः ततः शेषा पञ्चविंशतिः प्रागुक्तायामेकविंशती संकामति । पूर्वोक्त एव सप्तकपतद्ग्रहे संक्रामति । तस्यैव नपुंसकवेदे तथा चतुर्षिशतिसत्कर्मा मिथ्यात्वं गतः सन् यद्यपि मिथ्या- उपशान्ते सप्तकपतगृहे एकविंशतिः । ततः स्त्रीवेदे उपत्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति,तथाऽपि बन्धा- शान्ते विंशतिः। ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिती समयोयलिकागतं सकलकरणायोग्यमिति कृत्वा सतीऽपि तान् न मावलिकाद्विकशेषायां " दुसु श्रावलियासु पढमठिईसु संक्रमयति । मिथ्यात्वं च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः प- सेसासुऽवि य वेदो।" इति वचनात् पुरुषवदः पतग्रहो सद्ग्रहस्ततोऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयमिथ्यात्ववर्जितः शेषात्र- न भवति । ततः प्रागुतात् सप्तकात्पुरुषवेदेऽपनीते शेषे योविंशतिप्रकृतयः प्रागुक्तायां द्वाविंशतौ संक्रामम्ति । तदेवं षटूरूपे पतद्ग्रहे प्रागुफ्ता विंशतिः संक्रामति । ततः षट्सुमिध्याराविंशतिपद्महे सप्तविंशतिषविंशतित्रयोविंश- नोकषायेषूपशान्तेषु शेषाश्चतुर्दश प्रकृतयः प्रागुक्त एव षटूतिसंक्रमाः। एकविंशतिपद्महे च पञ्चविशतिसंक्रम उक्तः , रूपे पतद्ग्रहे संक्रामन्ति । ताश्च तावत्संक्रामम्ति यावत्सशेषः संक्रमः पतग्रहो वाम संभवति । सासादनसम्यग्दृष्टस्तु | मयोनमावलिकाद्विकम् । ततः पुरुषवेदे उपशान्ते शेषाशुद्धराष्टिस्वाभावार्शममोहनीय त्रयस्य संक्रमाभावः ततोऽस्य ! खयोदश षटुरूप पतगहे संक्रामन्ति । ताश्च तत्र ताव
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संक्रम
द्यादन्तर्मुहूर्तम्। ततः संज्वलनकोधस्य प्रथमस्थियो समयोनालिका त्रिशेषायां संज्चलनक्रोधोऽपि 'तिसु - श्रावलियासु समऊ- शिवासु अपङग्गहा उ जला' इति वचनात् तद्मो न भवतीति प्रागुक्रात् पट्टात्तस्मिन्नपसारिते शेष पकरूपे पतग्रहे ता एव त्रयोदश संक्रामन्ति । ततो ऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधद्विक उपशान् शेषा एकादश प्रागुक्र एव पञ्चकपद्म संकामस्ति । ताश्च तायद्यावर समयोनायसिकाद्विकम् । संपलनको उपशान् शेषा दश प्रकृतयस्तस्य पञ्चकपलपदे तावत्संक्रामन्ति यावदन्तर्मुहूर्तम्। ततः संज्य लनमानस्य प्रथमस्थिती समयोनावलिकाधिकशेपायां संउपमानोऽपि तद्द्महो न भयतीति पञ्चका सस्मिन्नपनीते शेषे चतुष्करूपे पतद्ग्रहे ता एव दश प्रकृतयः संक्रामन्ति । ताथ तावद्यावत्समयोनमालिकाद्विकम् । ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणरूपे मानहिके उपशान्ते शेषा अही प्रकृतयचतुरकरूपे एव तद्महे संक्रामन्ति । ततः संज्वलनमाने उपशान्ते सप्त, ताश्च सप्त चतुष्करूपे कालं यावत्संक्रामन्ति । ततः सबलनमाथी समयोनालिकासि मायाऽपि पतमहो न मवतीति चतुष्कान्तस्यामपगताया शेषे त्रिकरूपे पतमदे पूर्वोक्राः सप्त संक्रामन्ति । ताश्चतायद्यापत् समयोगमाचखिकाद्विकम्। ततो ऽप्रत्यास्थानम त्याख्यानावरणलक्षणे मायाद्विके उपशान्ते शेषाः पञ्च प्रकृतखकरूपे पतद्महे संक्रामन्ति साथ तायद्यात्समयोनमायसिकाविकम् । ततः संज्यखनमायायामुपशान्तायां शेषाश्चतस्त्रः प्रकृतयः संक्रामन्ति । ताश्च तावद्याव दन्तर्मुहूर्तम् । ततोऽनिवृत्त यादसम्परायचरमसमयेऽप्रस्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे लोभद्विके उपशान्ते शेषे द्वे प्रकृती संक्रामतः । ते च मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वलक्षणे । नचैते संज्वलनलोभे संक्रामतः दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीययोः परस्परं संक्रमाभावात् । ततस्तस्यापि पतद्ग्रहता न भवतीति द्वयोरेव ते मे संक्रामतः । तत्र मिध्यात्वं स प्रयत्य सम्यग्मिथ्यात्वयोः सम्यग्मिध्यात्यं सम्यकावे । तदेवमौपशमिकसम्यग्दृष्टेरुपशमश्रेण्यां संक्रमपतद्द्महविधिरु| सम्मति क्षायिक सम्यगृहपशमयां संक्रम विधिरुच्यते तत्रानन्तानुपधचतुष्पदर्शनत्रिकरूपे सप्तके क्षपिते सति एकविंशतिसत्कर्मा सन् क्षायिकसम्यग्दृष्टि रामं प्रतिपद्यते तस्य चान् कालं यावत्पुरुपंचदज्यसनचतुष्टरूपे पञ्चरूपतदूहे एकविंशतिः सका मति । ततोऽन्तरकरणे कृते सति सत्यमलोभस्य संक्र मो न भवतीति एकविंशतेस्तस्मिन्नपनीते शेषा विंशतिः | पञ्चपत संक्रामति । सा चान्तर्मुहूर्त कालं यावत् । ततो नपुंसक वेदे उपशान्ते एकोनविंशतिः । साऽपि चान्तर्मुइर्त कालं यावत् । ततः स्त्रीधेदे उपशान्ते शेषा अष्टादश प्रकृतयस्तमिव पामन्ति ताथ तथ तात् पापतर्मुहुर्तम्। ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिती समोनालिकाद्विशेषायां पुरुषवेदः पतग्रहो न भवतीति पञ्चकामिति शेषे चतुष्करूपे पतदुग्रहे ता पवाष्टादेश प्रकृतयः संक्रामन्ति । ततः षट्सु नोकषायेषूपशान्तेषु
( १२ अभिधानराजेन्द्रः ।
,
प्रकृतयः
संकम
शेषा द्वादश प्रकृतयश्चतुष्करूपे एव तसिन् पत संक्रामन्ति । ताथ तावद्यावत्समयोनमालिकाद्विकम् । ततः पुरुषवेद उपशान्ते एकादश । ताश्चतुष्करूपे पतद्द्महे ताबसंक्रामन्ति यावन्तम्। ततः संज्यसनको धस्य प्रथ मस्थिती समयोनालिकापियां ज्वलनकोधोऽपि पद्मो न भवतीति चतुष्काचस्मिन्नपते शेषे त्रिकरू ये पतग्रहे ताः पूर्वोक्ला एकादश प्रकृतयः संक्रामन्ति । ताश्च तावद्यावत् समयोनमावलिकाद्विकम् । ततोऽस्यास्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे क्रोधाद्विके उपशान्ते शेषा नव प्रकृतयः पूर्वो एच विकरूपे पतिता यावत्समयोनमावलिकाद्विकम्। ततः संज्वलनको उपशा तेष्टी संक्रामन्ति साथ त्रिरूपे पद्म तावत्संक्राम ति यावदन्तर्मुहूर्तम्। ततः संज्यलनमानस्य प्रथमस्थिती समयोनापलिका त्रिकशेपायां सञ्चलनमानोऽपि तो न भवतीति विकासश्मिपनीने शेषे द्विकरूपे पद्मपूका श्रष्टौ प्रकृतयः संक्रामन्ति । ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् । ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मानके उपशान्ते शेषाः पद प्रकृतयो द्विकपद्दे संकामन्ति ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् । ततः संउपलनमाने उपशान्ते पश्च संक्रामन्ति साथ द्विकरूपे पद्म तावत् संक्रामन्ति या ततः संज्वलनमायायाः प्रथमस्थिती समयोनालिकाविशेषा संज्य लनमायाऽपि पतमहो न भवतीति द्विकारस्यामपगतायां शेष संपलनलोभ एकस्मिस्ताः पञ्च प्रकृतयः कामन्तीति साथ तायद्यावत् समयानावलिकाहिकम्। ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मायाद्विके उपशान्ते शेषा स्तिस्रः प्रकृतयः संज्वलनलोने संक्रामन्ति ताथ तावद्यावत् समयोनमासकाद्विकम्। ततः संज्वलनमायायामुपशान्ता यां शेषे द्वे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलो भलक्षणे प्रकृती
I
लोकमत ते चान्तमुहूर्त काले यावत् ततोनिवृत्तिवादर संपरायपुरास्थानकचरमसमये ते अयुपशान्त इति न किमपि कापि संमति तदेवं ज्ञादिकरूपशमयां संक्रमपतदूहविधिः संप्रतिक्षायिकसम् दृष्टेः, क्षपकश्रेण्यां संक्रमपतद्ग्रहविधिरभिधीयते तत्र क्षायि कसम्यगृष्टिविंशतिसत्कर्माक्षपको प्रतिपद्यते। तस्य चानिवृत्तिबादरसंप रायगुणस्थानं प्राप्तस्य पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टयरूपे पञ्चकपतद्ग्रह पथमत एकविंशतिप्रकृतयः संक्रा मन्ति । ततोऽष्टसु कषायेषु क्षीषु त्रयोदश, ताञ्चान्तर्मुहूर्ते कालं यावत् । ततोऽन्तरकरणे कृते सति संज्वलनलोभस्य संक्रमो न भवतीति शेषा द्वादश प्रकृतवस्तस्मिक्षेत्र पञ्चकपतद्ग्रहे संक्रामन्ति, ताश्चान्तर्मुहूर्त कालं यावत् । ततो न पुंसकवेदे की एकादश ता अपि अन्तर्मुहकाले याच त्। ततः खीये दश वा अन्र्तकालं यावत् तमिव पञ्चरूप पतग्रहे संक्रामन्ति ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिती समयो गायलिकाद्विकशेपाय पुरुषवेद: पत न भवतीति पञ्चातस्त्रिपनीते शेषे चतुष्करूपे पद्म ता एव दश संक्रामन्ति । ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलि काहिकम्। ततः पद नोकषायेषु शीरेषु शेषाश्चतस्रः प्रकृतयस्तस्मिन्नेव चतुष्करूपे पतद्महे संक्रामन्ति । ततः पुरु
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. : तत्समये च सैज्वलनक्रोधस्यापि पतग्रहता/ दशके प्रमत्ताप्रमत्तयोः, सप्तके श्रीपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशम भवाति तस्मिन्नपगते शेषार तिसृषु प्रकृतियु तिम्रः प्र- मश्रेण्यां वर्तमानस्य , अष्टादशके ऽविरतसम्यग्दृऐः एषा जनरः संक्रामन्ति, ताश्चान्तर्मुहूर्त काल यावत् । ततः सम
च द्वाविशतिनियमाम्मनुजगती भवति, नान्यत्र । नियमाच यानावलिकाद्विकन कालेन संज्वलनक्रोधः क्षीयते । तत्समये
दृष्टी द्विविधायां कृतायां सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरेष च संज्वलनमानस्याऽपि पतदग्रहता न भवतीति शेषया- सतोरित्यर्थः। द्वयोः प्रकृत्योंद्रे प्रकृती संक्रामतः , ते चान्तमुहर्त कालं यावत् । ततः समयोनालिकाद्विकेन कालेन संज्वलनमा
तेरसगनवसत्तम, सहारनपणगएकवीसामु। नोऽपि क्षीयत । तत्समयमेव च संज्वलनमायाया अपि
एकीमा संकमइ, सुद्धसालादणमीसेसु ॥ १६ ॥ पतग्रहन न भवति । तत एकस्यामेव संज्वलनलोभल- 'तरस' क्तित्रयादशकनवकसप्तकाशकपश्वकैकविशनिक्षणायां प्रकृती संपवलनमायालक्षणा एका प्रकृतिः संका- रूपषु पदम्पत हवेकशि प्रामाहा केषु जीष्यिमति , सा चान्तमुहर्ने कालं यावत् । तत श्रावलिकाद्विकेन स्वाद-शुदलासादमिश्रेषु शुद्ध विशुद्रपिषु अविरतसकालन संज्वलनमायाऽपिक्षीयते । तत उचन किमपि का. उस पवियु सामाइनामात्र प्रयोदशक देशविरतपि संक्रामति।
स्य, मनमत्ताप्रमत्तयोः, सप्तके श्रीपशमिकसम्यग्दृष्टेसम्प्रति यथोक्तरूपेषु पतद्ग्रहेषु प्रत्येकं संक्रमस्थानानि रुपशमश्रण्यां वर्तमानस्य , सप्तदशकेविरनसभ्यगटमि-- संकलयन्नाह
भ्रष्टेश्व, पञ्चके क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्त
मानस्य क्षपश्रण्यां वा एकविंशतो सासादनस्य रहछच्चीससत्तवीसा-ण संकमो होउ चउसु ठाणेसु ।
यराचार्यश्चतुर्विंशतिसत्कर्मा सन्नुपशमश्रेणीतः प्रतिपतन बावीसपन्नरसगे, एकारस इगुणवीसाए ॥१२॥ मिथ्यात्वाभिमुखः सासादन इष्यते, तम्मते सासादनस्यैक'छब्बीस'त्ति चतुषु स्थानषु पतदग्रहरूपेषु । तद्यथा- विंशतावकविंशतिः संक्रमेऽभिहिता अन्यथा पुनरनन्तानुद्वाविंशतो , पञ्चदशक , एकादशके, एकोनविंशती च ष- बन्ध्युदयसहितस्य सासादनस्यकविंशती पञ्चविंशतिरव संदिशतिसप्तविंशत्योः संक्रमो भवति । तत्र द्वाविंशती मि- क्रमे प्राप्यते । सा च प्रागवाला। ध्यादृष्टः, पञ्चदशके देशविरतस्य , एकादशके प्रमत्ताप्रम- एता अविसेसा सं-कमांत उवसामगे व खवगे वा। तयोः, एकोनविंशतो अविरतसभ्यग्रहः। .
उवसामगसु वीमा, य सनगे छकपणगे य ॥१७॥ सत्तरमएकवीसा-सु संकमा होइ पन्नवीसाए । 'पत्ता तिइत ऊन मविशेषाः सप्तदश संक्रमाः संक्रान्सि, नियमा चउसु गईसु, नियमा दिही कए तिबिहे ॥१३॥
उपशमक क्षपक बात निशतिः संक्रमयोग्या सप्तके पं
पञ्चक चौपशामक प्राप्यते । तत्रापि सप्तके पट्टे चौपशाम'ससरसति-सप्तदशकैकविंशत्योः पञ्चविंशतः संक्रमो कसम्यग्टएरुपशमश्रेण्या वर्तमानस्य पञ्चक क्षायिकसम्यगभवति । तत्र सप्तदशक मिश्रदृष्टेः, एकविंशती मिध्यादृष्टेः दृष्टेरुपशमश्रेण्याम्। सासादनस्य च । अयं च पञ्चविंशतेः सप्तदशकैकविंशत्योः
पंचसु एगुणवीसा, अट्ठारस पंचगे चउके य। संक्रमो नियमाचतस्वपि गतिषु प्राप्यते । नियमाच सप्तदशके सासादनकविंशतौ च पञ्चविंशतः संक्रमः त्रिविधा
चउदस छसु पगईसुं, तेरसगं छकपणगम्मि ॥१८॥ यां-त्रिप्रकारायां हटी दर्शनमोहनीय कृतायां वेदितव्यः। मि- 'पंचसु'सि-पञ्चके एकोनविंशतिः संक्रामति । साच ध्यादृष्टस्त्वेकविंशती पञ्चविंशतिसंक्रमोऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य । तथा तस्यैवाभवति । 'कए' इति 'तिविहे' इति च पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृ
टादश संक्रामन्ति पञ्चके चतुष्के च, तथा चतुर्दश षट्सु प्रतत्वात्।
कृतिषु । ताश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमान
स्य तथा प्रयोदशकं षट्के पश्चके च । तत्र पट्के श्रीपशमिकबावीसपनरसगे, सत्तगएकारसिगुणवीसासु ।
सम्यग्दष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य, पञ्चके क्षपकश्रेण्याम । तेवीसाए नियमा, पंच वि पंचिंदिएसु भवे ॥१४॥
पंच चउके वारस, एक्कारस पंचगे तिगचउक्के । 'बावीस' ति त्रयोविंशतः संक्रमो द्वाविंशतिपञ्चदशकस. सकैकादशकैकोनविंशतिरूपेषु पञ्चसु पतद्ग्रहेषु भवति । तत्र
दसगं चउक्कपणगे, नवगं च तिगम्मि बोधव्वं ॥१६॥ द्वाविंशतो मिथ्यादृष्टः , पञ्चदशके देशविरतस्य , सप्तके 'पंच'ति-पञ्चके चतुष्के च द्वादश संक्रामन्ति । ताश औपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य , एकदशके पञ्चक क्षपकश्रेण्यां,चतुष्के क्षायिकसम्यग्दृष्ऐरुपशमश्रेण्यांवप्रमसाप्रमसयोः , एकोनविंशतौ अविरतसम्यग्दृष्टेः । पता- र्तमानस्य । तथैकादश पञ्चके त्रिके चतुरके च संक्रामन्ति । नि च पञ्च पतद्ग्रहस्थानानि पश्चेन्द्रियेष्वेव भवन्ति । तत्र पञ्चके श्रीपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्या (वर्तमानचोद्दसगदसगसत्तग, अट्ठारसगे य होइ बावीसा ।
स्य, तपक श्रेण्यां)त्रिके चतुष्कच क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपश--
मश्रेण्यां च, तथा दशकं चतुष्के पञ्चके च संक्रामति । नियमा मणुयगईए, मियमा दिद्वीकए दुविहे ॥१५॥ सचौपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमधेण्यां वर्तमानस्य सपकों--- 'चोइस ' ति द्वाविंशतिः संक्रमयोग्या भवति, चतुर्दशके एयां च । तथा नवकं त्रिके बोद्धव्यम् । तथायिकसम्य - दशके सप्तकेऽष्टादशकेच । तत्र मतर्दशके देशविरतस्य, गएरुपशमशेरायां वर्तमानस्य ।
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संकम
अभिधानराजेन्द्रः। अटु दुगतिगचउक्के, सत्त चउक्के तिगे य बोधवा भसुभगदुर्भगदुःस्वरसुस्वरादेयानादेयायशःकीर्तियशःकीर्तिछक दुगम्मि नियमा, पंच तिंग एकगदुगे य ।।२०।।
निर्माणतीर्थकराणि च । एतदेव च तीर्थकरबज सूप
सरशनम् । अथवा-यशः कीर्तिरहितं युत्तरशतम् । तीर्थ"अनुत्ति अधौ द्विक त्रिक चतुष्के च संक्रामन्ति। तत्रद्विके
करयशकीर्तिरहितमेकोत्तरशतम् । व्युत्तरशतमेवाहारकन्त्रिक ज्ञायिकसम्यग्दृष्टरुपशमधेण्यां वर्तमानस्य, नतुष्क श्रीपशामकसम्यग्दृष्टः। तथा सप्तत्रिक चतुरुक व योद्धव्याः।
सप्तकरहितं पनवतिः। सैव तीर्थकररहिता पञ्चनवतिः।ताशात्रके चतुष्क चौपशामिकसम्यग्दृष्टरेवापशमश्ररायां व
थवा-यशकीर्तिरहिता पञ्चनवतिः। यश-कीर्तितीर्थकररहिता नमानस्य वदितव्याः । तथा षट्कं द्विके एव नियमाद्भवति ।
चतुर्नवतिःतीर्थकररहिता पञ्चनवतिरव देवगतिदेवानुपयोंजनच जायिकसम्यग्दृष्टरुपशघेण्यां वर्तमानस्य । तथा
रुद्वलितयोखिनवतिः। अथवा-नरकगतिनरकानुपूर्वीरहिता पञ्च त्रिके एकके द्विक च संक्रामन्ति । तत्र त्रिके औपश
त्रिनवनिः । घ्युत्तरशतान्नरकगतिनरकानुपूर्वीतियग्गतिमिकसम्यग्दृऐरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य । द्विक एकक च
तिर्यगानुपूर्वीपञ्चन्द्रियजातिवर्जशषजातिचतुष्टयस्थावरसूज्ञायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्याम् ।
दमसाधारणाऽऽतपोद्योतलक्षणासु त्रयोदशसु प्रकृतिषु क्षी
णासुः यशःकीर्ती चापनीतायामेकोननयतिर्भवति । संव चत्तारि तिगचउक्के, तिन्नि तिगे एक्कगे य बोधव्वा ।
तीर्थकररहिताऽपाशीतिः । त्रिनवतक्रियसप्तके उलिते दो दुसु एकाए वि य, एका एकाएँ बोधव्वा ।। २१ ।। नरकगतिनरकानुपूर्दोश्चोर्दालतयोः शेषा चतुशातिर्भव'चत्तारि' ति चतस्रस्त्रिके चतुष्के च संक्रामन्ति । तत्र
ति । मनुजगतिमनुजानुपूयोरुद्वलितयोद्वर्यशीतिः । अथवात्रिके औपमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य , चतु
पराणवतिः प्रागुक्तासु त्रयोदशसु प्रकृतिषु क्षीणासु यशःके क्षपक श्रेण्याम् । तथा तिस्रस्त्रिके एकके च बोद्धव्याः।
कीत चापनीतायां द्वयशीतिः । सैव तीर्थकररहिता एतत्र त्रिक क्षपकश्रेण्याम् । एकके क्षायिकसम्यग्दृछेरु
काशीतिः । एतानि नाम्नः संक्रमस्थानानि ।। पशमश्रेण्याम् । तथा द्वे प्रकृती द्वयोरेकस्यां च संक्रामतः ।
सम्प्रति पतहस्थानप्रतिपादनार्थमाहतत्र द्वयोः क्षपण्यामौपशमिकसम्यग्दृऐश्चोपशमशेगया- |
तेवीसपंचवीसा, छब्बीसा अदुवीसगुणतीसा। म् । एकस्यां तु क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्याम् । तथैकप्र- तीसेकतीसएगं, पडिग्गहा अट्ट नामस्स ॥ २४ ॥ कृतिरकस्यां वाद्धब्या, सा च क्षपकश्रेण्यामेव । एत- 'तेवीस' ति त्रयोविंशतिः, पञ्चविंशतिः, पइिंशतिः, श्रच पतग्रहेषु संक्रमस्थानसंकलने प्रागुनं सप्त पञ्च पतन
"टाविंशतिः, एकोनत्रिंशत् , त्रिंशत् , एकत्रिंशत् , एका चहेषु संक्रमस्थानसम्बन्धं पट्टकादौ प्रस्तार्य परिभावनीयम् ।।
त्यसो नाम्नः पतद्ग्रहस्थानानि भवन्तीति । सम्प्रति पतद्ग्रहेषु संक्रमस्थानसंकलने मार्गणोपायानाह
सम्प्रति काः? प्रकृतयः कुत्र संक्रामन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाहअणुपुब्धिऽणाणुपुची, झीणमझीणे य दिद्विमोहम्मि।
एकगदुगसयपणचउ, नउईता तेरसूणिया वाऽवि । उवसामगे य खबगे, य संकमे मग्गणोबाया ।।२२।।
परभवियबंधवोच्छे-य उपरि सेढीऍ एक्कस्स ॥ २५ ।। अणुपुरिव' ति पतद्ग्रहेषु संक्रम संक्रमस्थानसंकलनचि.
'एक्कग' ति पारभविकीनां--परभववेद्यानां नामग्रकृतीनां म्तायामते मार्गणोपायाः। तथाहि-किमिदं संक्रमस्थानमा
देवगतिप्रायोग्यकत्रिंशदादीनां बन्धव्यवच्छेदे सति उपारनुपूर्व्या संक्रमे उपपद्यतेऽनानुपूर्ध्या वोभयत्र चा?,तथा शीण
द्वयोरपि श्रेण्योरुपशमक्षपक श्रेणिरूपयोरेकस्यां यश कीर्तिदृष्टिमोहे पाहोश्विदक्षीणे उभयत्र वा? । तथोपशमके उत
लक्षणायां प्रकृती बध्यमानायामप्टौ संक्रमस्थानानि संक्राश्चित् क्षपके उभयत्र यति ? ।
मन्ति । तद्यथा-एकोत्तरशतं. युत्तरशतं, पञ्चनवतिः, चतदेवमुक्तो मोहनीयस्य प्रपञ्चतः संक्रमपतद्ग्रहविधिः।
तुर्नवतिः, 'ता' इति तान्यवानन्तरोदितानि चत्वारि संसंप्रति नामकर्मणोऽभिधीयते। तत्र द्वादशनामकर्मणः संक्रम.
क्रमस्थानानि प्रयोदशन्यूनानि चत्वारि भवन्ति । तद्यथास्थानानि । तथा चाह
श्रष्टाशीतिः , एकोननवतिः, यशीतिः , एकाशीतिश्चेति । तिदुगेगसयं छप्पण, चउतिगनउई य इगुणनउईया।। तत्र घ्युत्तरशतसत्कर्मणो यश कीर्तिर्वध्यमाना पतद्ग्रह अट्ठचउदुगेकसीई, संकमा बारस य छठे ।। २३ ॥
इति तस्यामुत्सारितायां शेष द्यत्तरशतं यशःकीर्तिपतङ्कहे 'तिदुगेगसय' ति षष्ठे नामकर्मणि द्वादश संक्रमस्थानानि । संक्रामति । एवमेव यत्तरशतसत्कर्मण पकोत्तरं शतम् । तद्यथा-व्युत्तरशतं , यत्तरशतम् , एकोत्तरशतं , पनवतिः, तथा पराणवतिसत्कर्मणा यश कीर्तिः पतग्रह इति तस्यापञ्चनवतिः ; चतुर्नवतिः, त्रिनवतिः, एकोननवतिः, अष्टा- मुत्सारितायां शेषा पञ्चनयतिः तस्यां यशःवीती संक्रा-- शीतिः , चतुरशीतिः , द्वयशीतिः, एकाशीतिश्चेति । तत्र
मति । एवमेव पञ्चनतिसत्कर्मणश्चतनवतिः। तथा व्युत्तरनाम्नः सर्वसंख्यया व्युत्तरं प्रकृतिशतम्।तद्यथा-गतिचतुप्रयं,
शतसत्कर्मास्त्रयोदशसु पूर्वोपु नामकर्मसु क्षीणषु सजातिपञ्चक,शरीरपञ्चकं, संघातपश्चकम् , बन्धनपञ्चदशकं ,
स्सु यश कीर्तिः पतयह इति तस्यामपगतायां शेषा एसंस्थानपटुं, संहननपटम् ,अङ्गोपाङ्गत्रय,वर्णपञ्चकं, गन्धद्वि
काननवतियशःकीती संत्रामति । यत्तरशतसत्कर्मणः पुनस्त्रकं, रसपत्र, स्पर्शाटकम् , अगुरु लघु,मानुपूचितुष्टयं, प-योदशसु क्षीणेष्वाशीतिः संक्रामति । पराणवतिसत्कर्मणस्तु गातोपधातोटासातगायोतविहायोगरिद्विकासस्थाय- | नामत्रयोदशके क्षीण द्वयशीतिः । पञ्चनबतिसत्कर्मण एकारबादरसूक्ष्मसाधारणप्रत्येकपर्याप्तापर्याप्तस्थिरास्थिरशुभाशु- । शीतिः॥
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम एकत्रिंशत्प्रकृतिसमुदायरूपे पतनहे चत्वारि संक्रम- करणसंयतानामाहारकद्विकसहितां प्रागुक्लां देवगतिप्रायोग्या __स्थानानि तथा चाह
त्रिंशतं बनतामाहारकसप्तकस्य बन्धावलिकायामनपगतिगदुगसयं छपंचग-नउई य जइस्स एकतीसाए ।
तायां पञ्चनवतिस्प्रिंशत्पतह संक्रामति । अथवा-पञ्चनव
तिसकमणामेकेन्द्रियादीनां द्वीन्द्रियादिप्रायोग्यामुयोतसएगंतसेदिजोगे,वञ्जिय तीसिगुणतीसासु ॥ २६ ॥ हितां प्रागुक्तां त्रिशतं बनना पश्चनर्वातत्रिशत्पतङ्हे सं'तिग' ति यंतरप्रमत्तस्यापूर्वकरणस्य च देवगतिपञ्चेन्द्रि- क्रामति । त्रिनवातसत्कर्मणां चतुरशीतिसत्कर्मणां यशीयजातिक्रियशरीरसमचतुरस्रसंस्थानवैश्विालापाङ्गदेवानु.
तिसत्कर्मणां चैकेन्द्रियादीनां विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गपूर्वीपराघातोच्छासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्ये
तिप्रायोग्यां प्रागुनामुच्छाससहितांत्रिंशतं बध्नतां यथाक्रकस्थिरशुभसुभगसुस्वरोदययशःकीर्तितैजसकामणवर्णादि
मं त्रिनवतिश्चतुरशीतिद्वयंशातिश्च त्रिंशत्पतद्दे संक्रामति । बतुष्कागुरुलघूपधातनिर्माणतीर्थकराहारकाद्विकलक्षणामेक
एकोनत्रिंशत्पतहेऽप्येतान्येव सप्त संक्रमस्थानानि । तत्र त्रिशतं बध्नतस्तस्याभेकत्रिंशति एकत्रिंशत्प्रकृतिसमुदायक-|
व्युत्तरशतसत्कर्मणामविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमससंयता. पेपतद्ग्रहे व्युत्तरशतं द्वगुत्तरशतं पसवतिः पञ्चनवतिरि- नां देवगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहितां देवतिदेवानुतिचत्वारि संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति । तत्र त्र्युनरशतं पूर्वीपञ्चन्द्रियजातिवैक्रियशरीरक्रियाङ्गोपाङ्गपगघातोच्छा तीर्थकराहारकयोबन्धावलिकायामपगतायामेकत्रिंशत्प्रकृति- सप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरान्य-- पतगृहे संक्रामति । तीर्थकरनाम्रः पुनर्बन्धावलिकायामन- तरशुभाशुभान्यतरसुभगसुस्वरादययशकीय॑यशःकीय॑न्यपगतायां धुत्तरशतम् । श्राहारकसप्तकस्य तु बन्धावलि- तरसमचतुरस्रसंस्थानतैजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघू-- कायामनपगतायां परवतिः। तीर्थकराहारकसप्तकयोः पुन- पघातनिर्माणतीर्थकरलक्षणामेकोनत्रिशतं बध्नतां व्युत्तरशतबन्धावलिकायामनपगतायां पञ्चनवतिः। 'एगते' त्यादि | मेकोनत्रिंशत्पनहे संक्रामति। एतेषामेवाविरतादीनां त्रयाणा एकान्तेन श्रेणियोग्यानि यानि संक्रमस्थानानि एकोत्तरशतच. प्रागुक्लामेकानत्रिंशतं बध्नतांतीर्थकरनामो बन्धावलिकायरतुर्नवत्येकोननवत्यष्टाशीत्येकाशीतिरूपाणि । एतानि हिश्रेणा- मनपगतायांद्वयुत्तरशतं तस्मिन्नेकोनत्रिंशत्पनहे संक्रामति । घेव वर्तमानेन यशाकीतावकस्यां बध्यमानायां संक्रम्पमाणा- अथवैकेन्द्रियादीनां द्वधुत्तरशतसत्कर्मणां द्वीन्द्रियादिप्रायोग्य नि प्राप्यन्त,नान्यत्र । ततस्तानि वर्जयित्वा शेषाणि व्युत्तरश
प्रागुक्लामेव त्रिंशतमुद्योतरहिवामेकानत्रिशतं बध्नतां कुत्ततद्वयत्तरशतषमबतिपश्चनवतित्रिनवतिचतुरशीति-घशी
ग्शतमेकोनत्रिंशत्पतग्रहे संक्राति । अविरतसम्यग्दृष्टिदेशतिरूपाणि त्रिंशत्पतञहे एकोनत्रिंशत्पतग्रहे च सप्त संक्रम
विरतप्रमत्तसंयतानां परमवतिसत्कर्मणां प्रागुनाया देवगातस्थानानि भवन्तिातत्र घ्युत्तरशतसत्कर्मणो देवस्य सम्यम्हटे
प्रायोग्यायास्त्रिंशत श्राहारकद्विकेऽपनीत तीर्थकरनानि च स्तैजसकामणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपधातनिर्माणपञ्चेन्द्रिय
तत्र प्रक्षिप्त सति या सातैकोनत्रिंशत् तां बध्नतां पर गव. जात्यौदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गसमचतुरनसंस्थानववर्षभनाराचसंहननमनुजगतिमनुजानुपूर्वीत्रसबादरपर्याप्तप्रत्ये
तिस्तस्मिन्त्रकोनत्रिंशत्पनहे संक्रामति । अथवा-नैरयिककस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरसुभगसुखरादेययशः
स्य तीर्थकरनामसत्कर्मणो मिथ्याऐरपर्याप्तावस्थायां वकीर्तिपराघाताच्छासप्रशस्तविहायोगतितीर्थकरलक्षणां म
तमानस्य मनुजगतिप्रायोग्यां मनुजगतिमनुजानुपूर्वीप नुजगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहितांत्रिशतं बध्नतस्त्र्युत्तर
चन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशतं तस्मिन् त्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति । द्वयुत्तरशतसत्कर्म
शुभान्यतरसुभगदुर्भगान्यतरादेयानादेयान्यतरयशकीर्त्ययरणोऽप्रमत्तसंयतस्यापूर्वकरणस्य वा देवगतिपञ्चेन्द्रियजाति
शःकीय॑न्यतरसंस्थानषट्कान्यतमसंस्थानसंहननपटान्यतयक्रियशरीरसमचतुरस्र संस्थानवैक्रियाङ्गोपाङ्गदेषानुपूर्वीप- ।
मसंहननवर्णादिवतुष्कागुरुलधूपघाततैजसकार्मणनिर्माणौगघातोच्छासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थि
दारिकशरीरीदारिकाङ्गोपाङ्गसुन्दरदुःस्वरान्यतरपराघातोरशुभसुभगसुस्वरादेययश कीर्तितैजसकार्मणवर्णादिचतुष्का- च्छासप्रशस्ताप्रशस्तान्यतरविहायोगतिलक्षणामेकोनत्रिंशतं गुरुलघूपघातनिर्माणाहारकद्विकलक्षणां देवगतिप्रायोग्यां त्रि- बध्नतः षण्णवतिरेकानविंशति संक्रामति । अविरतसम्यगहशतं बनतो शुत्तरशतं तस्मिन् विंशत्पतद्ग्रहे संक्रामात । ष्टीनां देशविरतानां प्रमत्तसंयतानां च षण्णवतिसत्कर्मणां अथवा-धुतरशतसत्कर्मणामेकेन्द्रियादीनामुयोतसहितां | प्रागुक्लां तीर्थकरनामसहितां देवगतिप्रायोग्यामेकोनत्रिंशतं द्वीन्द्रियादिवायोग्यां तैजसकार्मणागुरुलघूपघातनिर्माणव- बध्नतांतीर्थकरनामकर्मणो बन्धावलिकायामनपगतायामे को. णादिचतुष्कातिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी द्वीन्द्रियाद्यन्यतमजाति- नत्रिंशति पञ्चनवतिः संक्रामति । यद्वा-पञ्चनवतिसत्कसवादर पर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिराम्थतरशुभाशुभान्यतरदुर्भ- मणामेकेन्द्रियार्दानां द्वीन्द्रियादिप्रायोग्या प्रका या त्रिगदुःखरानादेययशाकीय यशःकीय॑न्तरौदारिकशरीरीदारि- शत् संवोधातरहितकानत्रिंशत् । तां बध्नतां तस्यानवे काङ्गोपाशान्यतमसंस्थानान्यतमसंहननाप्रशस्तविहायोगति- कोनत्रिशति पञ्चनवतिः संक्रामति । त्रिनवतिचतुरशीतपराघातोयोतोच्छासलक्षणां त्रिशतं बध्नतां पुत्तरशतं द्वयशीतया यथा त्रिंशत्पतऽभिहितास्तथैवात्राधिभावतस्मिन् त्रिंशत्पतगृहे संक्रामति । पायतिसत्कर्मणां नीयाः। देवनारकाणां मनुजगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहितां
अट्ठावीसाऍ विते, वासीइ तिसरबजिया पंच । मागुतां त्रिशतं बनता तस्मिन् त्रिंशत्पतदग्रहे पसवतिः संकामति । पश्चनवतिसत्कर्मणामप्रमत्ता- तेचिय वासीइजुया, सससु छ उइयजा ।। २७ ।।
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( १६ ). श्रभिधानराजेन्द्रः ।
संकम
ਕਾਲਜ
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'श्रद्वासा' ति अटाविंशतावपि तान्येव पूर्वोक्शा- गुरुलघुपघातनिर्माणवर्णादिचतुष्ककन्द्रियजातिहुण्डकसं निशीतियुतरशतवर्जितानि शेषाणि द्वबुत्तरशतपक्ष- स्थानीदारिकशरीरतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी स्थावर (बादर ) छतिपञ्चनवतित्रिनवतिचतुरशीतिरूपाणि पञ्च संक्रमस्था - पर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरदुर्भगानादेयानानि संक्रामन्ति । तत्र मिध्यादृष्टेर्नरकगतिप्रायोग्यां नरकगति नरकानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिवैक्रिय शरीर वैक्रियाङ्गोपाङ्गहुएडसंस्थानपरा घातोच्छ्रासाप्रशस्तविहायोगतित्रसवादरप
प्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरदुर्भगदुःस्वरानांदेयायशः कीर्तिवर्णादिचतुष्कागुरुलधूपघाततै जसकार्मण - निर्माणलक्षणां, तथा मिथ्यादृष्टेः सम्यग्टष्टेर्वा देव
योग्य तेजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघुपघातनिदेवगतिदेवानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजा तिवैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गौपारसमचतुरस्त्र संस्थानपराघाताच्छ्रास प्रशस्त विहायोगति - rearer पर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरसु - भगसुखरात्र्ययशः कीर्त्ययशः कीर्त्यन्यतरलक्षणामष्टाविंशति व
।
तो द्वयुत्तरशतसत्कर्मणो द्वयुत्सरशतमष्टाविंशतिपतद्महे संक्रामति । तथा मनुष्यस्य तीर्थकर नामसत्कर्मणः पूर्वमेव नरके कस्तो नरकाभिमुखस्य सतो मिथ्यात्वं प्रपन्नस्य नरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्रामष्टाविंशतिं वनतः परणवतिसत्कर्मणोऽष्टाविंशतिपतग्रहे षण्णवतिः संक्रामति । यथा द्वषुतरशतस्य भावना कृता तथा पञ्चनवतेरपि भावना कार्या केवलं द्वमुत्तरशतस्थाने पञ्चनवतिरित्युच्चारणीयम् । तथा मिथ्यादृष्टेनिनवतिसत्कर्मणो द वगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्लामष्टाविंशतिं बध्ननो बैकियसप्तकदेवगतिदेवानुपूर्वीणां बन्धावलिकायाः परतो वर्तमानस्य त्रिनयतिरष्टाविंशतौ संक्रामति । अथवा-पश्चमपतिसत्कर्मणो देवगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामेवाष्टाविंशति बनतो देवगतिदेवानुपूज्यन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशतो संक्रामति । त्रिनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टेर्नरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्कामष्टाविंशर्ति बनतो नरकगतिनरकानुपूर्वी वैक्रिय सप्तकानां बन्धावलिकायाः परसो वर्तमानस्य त्रिनयतिरष्टाविंशती संक्रामति । अथवा पञ्चनवतिसत्कर्मणो मिध्यादृष्टेर्नरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्कामष्टाविंशर्ति बघ्नतो नरकगति नरकानुपूव्यबन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशती संक्रामति । तथा त्रिनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टेर्देवगतिप्रायोग्यामष्टाविंशर्ति बनतो देवगतिदेवानुपूर्वीवैक्रिय सप्तकानां बन्धाबलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य चतुरशीतिरष्टाविंशती संक्रामति । अथवा त्रिनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टेर्नरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्शामष्टाविंशर्ति बघ्नतो नरकगतिनरकानुपूर्वीवैक्रिय सप्तकानां बन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य चतुरशीतिरष्टाविंशती संक्रामति । षड्विंशत्यादिपतद्प्रदेषु संक्रमस्थानाम्याह-' ते थिये' त्यादि शेषेषु षडिशतिपञ्चविंशतित्रयोविंशतिलक्षणेषु पतद्ग्रहेषु तान्येव पूर्वोक्रानि द्रथत्तरशतादीनि षण्णवतिरहितानि इयशीतियुतानि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति । तद्यथा - इयत्तरशतं पञ्चनवतिस्त्रिनवतिश्चतुरशीतिहर्षशीविश्व । तत्रैकेन्द्रियादीनां नैरायेकवर्जितानां इतरसत्कर्मणां पञ्चवति सत्कर्मणां च तैजसकार्मणा -
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यशः कीर्तिपराधातोच्छ्रासात पोद्योतान्यतररूपामेकेन्द्रिय-प्रायोग्यां विंशतिं बघ्नतां द्वषुत्तरशतं पञ्चनवतिश्चतस्यामेव द्विशती संक्रामति । तथा तेषामेवैकेन्द्रियादीनां देववजनां त्रिनवतिसत्कर्मणां देवनारकवजनां चतुरशीतिसत्कर्मणां च तामेव पूर्वोक्कां शिति बच्नतां त्रिनवतिचतुरशीतिश्च तस्यामेव पद्विशती संक्रामति । तथा तेषा मेवैकन्द्रियादीनां देवनारकमनुष्यवर्णानां व्यशीतिसत्कर्मणां तामेव पूर्वोक्शां षडिशति बध्नतां प्रशीतिस्तस्यामेव
ती संक्रामति । तथा पञ्चविंशतिपतद्ग्रहे तान्येव पञ्च संक्रमस्थानानि चिन्त्यन्ते तत्रैकेन्द्रियपर्याप्तप्रायोग्यां पूवामेव पडिशतिमातपेनोद्योतेन वा रहितां पञ्चविंशति बध्नतामेकद्वित्रिचतुरिन्द्रियादीनां द्वबुतरशतपञ्चनवतित्रिनवतिचतुरशीति द्वयशीति सत्कर्मणां यथासंख्यं तस्यामेव पचविंशती द्वयुत्तरशतं पञ्चनवतिः त्रिनवतिः चतुरशीतिः द्वयशीतिश्च संक्रामति । अथवा अपर्याप्तविकलेन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुजप्रायोग्यां तैजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणीन्द्रियाद्यन्यतमजाति हुण्डसंस्थान सेवार्त
संहननौ दारकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरदुर्भगानादेयायशः कीर्तिलक्षणां पञ्चविंशतिं बध्नतामेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिरश्चां हमुत्तरशतादिसत्कर्मणां पञ्चत्रिशतौ यत्तरशतादीनि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति । तथा पर्याप्त कै केन्द्रियप्रायोग्यां वर्णादिचतुष्कागुरुलधूपघातनिर्माण जसकार्मण हुएडसंस्थानौदारिकशरीरे कोन्द्रयजातितिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी बादरसुक्ष्मान्यतर स्थावर पर्याप्तप्रत्ये - कसाधारणान्यतरास्थिराशुभदुर्भगानादेयायशः कीर्तिलक्षणां प्रयोविंशर्ति बनतामेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिरक्षां द्वघुतरशतपञ्चनघतित्रिनवतिचतुरशीतिद्वषशीतिसत्कर्मणां यथासंक्यं द्वघुतरशतादीनि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति । तदेवमुक्तः प्रकृतिसंक्रमः । सम्प्रति स्थितिसंक्रमाभिधानावसरः । तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः। तद्यथा-भेदो विशेषलक्षगम् उत्कृष्टस्थितिसंक्रमणप्रमाणं जयम्यस्थितिसंक्रमप्रमां साद्यनादिप्ररूपणा स्वामित्वप्ररूपणा चेति । तत्र भेदविशेलक्षणयोः प्रतिपादनार्थमाहठिइसकमो ति बुचर, मूलुत्तरपगईउ य जा हि ठिई । उडिया उ-ट्टिया व पगई निया वऽयं ॥ २८ ॥ 'ठि' सि- इह ' मूलुत्तरपगईउ ।' इत्यत्र षष्ठयर्थे पञ्चमी । ततोऽयमर्थः - हि स्फुटं या स्थितिर्मूलप्रकृतीनामष्टसंस्यानामुसर प्रकृतीनां वाऽष्टपञ्चाशदधिकशतसंख्यानां सम्ब न्धिनी उद्वर्तिता हवभूता सती दीर्घीकृता, अपवर्तिता वा दीर्घीभूता सती स्वीकृता, अन्यां वा प्रकृतिं नीता पतद् ग्रहप्रकृतिस्थितिषु मध्ये नीत्वा निवेशिता स स्थितिसंक्रम उच्य ते । एतदुकं भवति द्विविधः स्थितिसंक्रमो मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमः, उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमश्च । तत्र मूलप्रकृतिस्थिति rasseenre: | तद्यथा- ज्ञानावरणीयस्य यावदन्तराय
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम स्य । उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमोऽपश्चाशदधिकशतधा । टीस्थितिकानां ज्येष्ठ उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः ‘ा (4) तद्यथा-मतिज्ञानावरणीयस्य श्रुतज्ञानावरणीयस्य यावद्वी लियदुगह' त्ति प्रावलिकाद्विकहीनः। तथाहि-स्थितिया र्यान्तरायस्य । 'तदेवं मूलुत्तरपगईउ' इत्यनेन भेद उक्तः। सती बन्धावलिकायामतीतायां सत्यां संक्रामति । तत्राप्यु'उपट्टिया व' इत्यादिना तु विशेषलक्षणं त्रिप्रकारम् । तत्र दयावलिका सकलकरणायोग्यति कृत्वोदयावलिकात उपरिकर्मपरमाणूनां इस्वस्थितिकालतामपहाय दीर्घकालतया तनी। ततो बन्धोत्कृष्टानां मतिज्ञानावरणीयानामुस्कृष्टः व्यवस्थापनमुहर्तना। कर्मपरमाणूनामेव दीर्घस्थितिकाल- स्थितिसंक्रमो बन्धावलिकाद्विकहीन एव प्राप्यते। - तामपहाय इस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापनमपवर्तना । य- होदयवतीनामनुदयवतीनां वा प्रकृतीनामुदयसमयादात्पुनः संक्रम्यमाणप्रकृतिस्थितीनां पतग्रहप्रकृतौ नीत्वा नि. रभ्यावालिकामात्रा स्थितिरुदयावलिकति पूर्वप्रन्थेषु वेशनं तत्प्रकृत्यन्तरनयनं, स्थितीनां चान्यत्र निवेशनं व्यवहियते । तथा यद्यपि 'तीसासत्तरिवत्ताखीसा' स्थितियुक्तानां परमाणुनामवसेयम् , स्थितेरन्यत्र नेतुमश- इत्यनेन ग्रन्थेनेह मिथ्यात्वस्य सप्ततिसागरोपमक्यत्वात् । इदं च विशेषलक्षणं सामान्यलक्षणे सत्येवाव- कोटीकोटीस्थितिकस्योत्कृष्टतः स्थितिसंक्रम आवलिगन्तव्यं, न सर्वथा तदपवादेन, तेन मूलप्रकृतीनां पर- काद्विकहीन उक्तस्तथाऽप्यन्तर्मुहूतोंमोऽवगन्तव्यः। यतो स्परं संक्रमप्रतिषेधात् , तासामन्यप्रकृत्यन्तरनयनलक्षणः मिथ्यात्वस्योत्कृष्टां स्थिति बद्धा जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त स्थितिसंक्रमो न भवति, किंतु-द्वावेष उद्धर्तनापवर्तनाल- | कालं यावन्मिथ्यात्वे एवावतिष्ठते । ततः सम्यक्त्वं प्रतिपय क्षणी संक्रमी । उत्तरप्रकृतीनां तु प्रयोऽपि संक्रमा द्रष्टव्याः। मिथ्यात्वस्य स्थितिमन्तर्मुहूर्तानां सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वे तदेवं भेदविशेषलक्षणे प्रतिपाद्य संप्रत्युत्कृष्टस्थितिसंक्रम- च संक्रमयति । ततोऽन्तर्मुहर्तोन एवास्योत्कृष्टः स्थितिसंपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह
क्रमः । वक्ष्यति च-मिच्छत्तमुक्कोसो' इत्यादि इह पुनर्यत्
सत्तरीत्युपादानं तदशेषाणामपि बन्धोत्ष्टानां प्रकृतीनां व्यातीसासत्तरि चत्ता-लीसा वीसुदहिकोडिकोडीणं ।
प्तिपुरःसरमविशेषणावलिकाद्विकहीनकृष्टस्थितिसंक्रमप्रद. जेड्डा प्रालिगदुगहा,सेसाण वि आलिगतिगृणो ॥२६॥ र्शनार्थम् । ससाण वि आलिगतिगूणो' सि शेषाणां से'तीस ' ति-दह सर्वासां प्रकृतीनां बन्धमाथित्योत्कृष्टा
क्रमोत्कृष्टानामावलिकात्रिकहीन उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः। त
थाहि-बन्धावलिकायामतीतायां सत्यामावलिकात-उपरिस्थितिः प्रागेव बन्धनकरणे प्रतिपादिता । अत्र पुनः सं
तनी स्थितिः सर्वाऽप्यन्यत्र प्रकृत्यन्तरे श्रावलिकाया उपरि क्रमे उत्कृष्टा स्थितिश्चिन्त्यमाना द्विधा प्राप्यते-बन्धोत्कृ
संक्रामति । तत्र च संक्रान्ता सती श्रावलिकामात्र कालं , संक्रमोत्कृष्टा च । तत्र या बन्धादेव केवलादुत्कृष्टा स्थितिलभ्यते सा बन्धोत्कृष्टा । या पुनर्बन्धेऽबन्धे वा सति
यावत्सकलकरणायोग्यति कृत्वा संक्रमावलिकायामतीतायां
सत्यामुदयावलिकात उरतनी स्थितिस्ततोऽप्यन्यत्र प्रकसंक्रमादुत्कृष्टा स्थितिर्भवति सा संक्रमोत्कृष्टा । तत्र यासा
त्यन्तरे संक्रामति । ततः संक्रमोत्कृष्टानामुत्कृष्टः मुत्तरप्रकृतीनां स्वस्खमूलप्रकृत्यपेक्षया स्थितेयूँनता न भव
स्थितिसंक्रम प्रावलिकात्रिकहीन एव । तद्यथा-नरकति, किंतु-तुल्यतैव, ता बन्धोत्कृषा शातव्याः । ताः सप्त
द्विकस्य विंशतिसागरोपमकोर्टाको प्रमाणामुत्कृष्टां स्थिनवतिसंख्याः । तद्यथा-शानावरणपञ्चकम् , दर्शनावरणनव
ति बद्धा बन्धावलिकायामतीतायां सत्याभावखिकात उपरिकम्, अन्तरायपञ्चकम्, आयुश्चतुष्टयम् , असातवदनीयम्,
तनी तां सर्वामपि स्थिति मनुजद्विकं बध्नन् तत्र नरकदिकम् , तिर्यग्द्विकम् , एकेन्द्रियजातिः, पञ्चेन्द्रियजातिः, तैजससप्तकम् , औदारिकसप्तकम् , वैक्रियसप्तकम् ,
मनुजद्विके संक्रमयति, तत्र च संक्रान्ता सती श्रानीलतिवर्जमशुभवर्णसप्तकम् , अगुरुलघु, पराघातम्, उ
वलिकामानं कालं यावत्सकलकरणायोग्येति कृत्वा सं
क्रमावलिकायामतिक्रान्तायां सत्यामुदयावलिकात उपरिपघातम्, उच्छासाऽऽतपोयोतानि, निर्माणम् ,षष्ठं संस्था
तनी तां सर्वामपि स्थिति देवद्विकं बध्नन् तत्र संक्रमयति । नम् , षष्ठं संहननम् , अशुभविहायोगतिः, स्थावरम् , त्रस.
एवमन्यासामपि संक्रमोत्कृष्टानामुत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः चतुष्कम्, अस्थिरषटुम् , नीचर्गोत्रम्, षोडश कषायाः, मिथ्यात्वं च । सर्वसंख्यया सप्तनवतिः । अत्र नरकतिर्य
शावलिकात्रिकहीनो भावनीयः। गायुषी यद्यपि स्वमूलप्रकृत्यपेक्षया तुल्यस्थितिके न भवतः,
तदेवं यासां प्रकृतीनां बन्धे सति संक्रमादुत्कृष्टा स्थिति तथाऽपि संक्रमोत्कृष्टत्वाभावाले बन्धोत्कृष्टे उक्ने । श्वेषा
वति, तासामेव तत् उत्कृष्टस्थितिसंक्रमपरिमाणमुक्तम् । स्त्वेकषष्टिप्रकृतयः संक्रमोत्कृष्टाःताश्चेमाः-सातवेदनीयम्,
सम्प्रति पुनर्यासां बन्धेन विना संक्रमादेव केवलादुत्कसम्यक्त्वम् , सम्यग्मिध्यात्वम्, नव नोकषायाः, आहारक
ष्टा स्थितिलभ्यते, तासामुत्कृष्टस्थितिसंक्रमप
रिमाणनिरूपणार्थमाहसप्तकम् , शुभवर्णाधेकादशकम् , नीलम् , तिक्रम् , देवद्विक्रम् , मनुजद्विकम् , द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयः, अन्तवर्जानि
मिच्छत्तस्सुकोसो, भिन्नमुहुत्तृणगो उ सम्मत्ते । संस्थानामि, अम्सवर्जानि संहनीनिं, प्रशस्तविहायोगतिः,
मिस्सेवको कोडा-कोडी आहारतित्थयरे ॥ ३०॥ सूधर्म, साधारणम् , अपर्याप्तम्, स्थिरशुभसुभगसुखरादेय
'मिच्छत्सस्स' ति-मिथ्यात्वस्योत्कृष्टः स्थितिसंक्रमो यश-कीर्तितीर्थकरोच्चैगोत्राणि च । तत्र बन्धोत्कृष्टानां म- भित्रमुहानोऽन्तर्मुहूर्तोनस्तथा सम्यक्त्वे सम्यक्त्वस्य मितिज्ञानावरणीयादिमिथ्यात्वषोडशकषायनरकद्विकादीनां यः थे मिश्रस्य चोत्कृष्टः स्थितिसंक्रमो भिन्नमुहर्तानः । तुथाक्रम त्रिंशत्सप्ततिचत्वारिंशदिशतिसागरोपमकोढीको- शब्दस्याधिकार्थसंसूचनादापलिकाद्विकहीनच वेदितव्यः ।
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम इयमत्र भावना-दर्शनमोहनीयत्रितयसत्कर्मा मिथ्यादृष्टि-| वा स्थितिवेदितव्या । तथाहि-संक्लेशादिकारणवशत उत्कृष्ठ रुत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमानो मिथ्यात्वस्योत्कृष्टां स्थिति ब- स्थिति बद्धा बन्धावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपध्वा ततोऽन्तमुहर्तमात्रानन्तरं मिथ्यात्वात् प्रतिपस्य वि- रितनी स्थितिमन्यत्र प्रकृत्यन्तरे संक्रयितुमारभते । ततो शुद्धिमासादयन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततो मिथ्यात्व- बन्धोत्कृष्टानामेकावलिकाहीना संक्रमकाले सर्वा स्थिस्योत्कृष्टां स्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणाम- तिः प्राप्यते । संक्रमोत्कृष्टानां पुनर्बन्धावलिकानां संक्रन्तर्मुहूर्तानां सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वे च संक्रमयति । सा मावलिकयोरतीतयोरुदयावलिकातः परतो वर्तमानां स्थिच संक्रान्ता सती संक्रमावलिकायामतीतायामुदया- तिमन्यत्र संक्रमयति । तेन संक्रमोत्कृष्टानामावलिकाहिबलिकात उपरितनी सम्यक्त्वस्थितिमपवर्तनाकरणेन कहीना संक्रमकाले सर्वा स्थितिरवाप्यते । अथायुषामुत्कृस्वस्थाने संक्रमयति । सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिमपि सं- या स्थितिः किं बन्धोत्कृष्टा उत संक्रमोत्कृष्टा ? उच्यते-बक्रमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी स- न्धोत्कृष्टव । तथा चाह-'अहाउगाण' मित्यादि आयुषामुत्कृ. म्यक्त्वे संक्रमयति अपवर्तयति च । तदेवं मिथ्यात्वस्या- टः स्थितिसंभवो बन्धोत्कृष्ट एव न संक्रमोत्कृष्टः, यतो नाम्तहानः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्त्वन्तर्मुहूर्तावलि- | युषां परस्परं संक्रमः “मोहदुगाउगमूलप्पगडीण न परोप्परकाद्विकहीन उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः । इह तीर्थकरस्याहारक | म्मि संकमण" इति वचनात् । 'साबाहठिईए' इत्यादि श्रासप्तकस्य चोत्कृष्टः स्थितिबन्धोऽन्तःसागरोपमकोटीको- युषां साबाधा अबाधासाहता या सर्वा स्थितिःसा यत्स्थितिटीप्रमाणः सत्कर्माऽप्येतेषामन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्र- रवगन्तव्या। केवलं "बंधुकोसाणं आवलिगणा ठिई जट्टिइ" माणमेव, ततः संशयः-किमेताः संक्रमोत्कृष्टा उत बन्धोत्क्र- इति वचनात् बन्धावलिकोना द्रष्टव्या । तथाहि-आयुर्वन्धे पा इति, तदपनोदार्थमाह-'अंतो कोडाकोडी' त्यादि आहार- प्रवर्तमान एव प्रथमसमये यद्बद्धं दलिकं तद्वन्धावलिकातीतं के आहारकसप्तके तीर्थकरे च संक्रमतः स्थितिसत्कर्म सदुद्वर्तयति । तत उद्वर्तनारूपसंक्रमे बन्धावलिकाना साबाअन्तःसागरोपमकोटीकाटी, अत एताः संक्रमोत्कृष्टाः । धा यत्स्थितिः प्राप्यते । अथवा-अपवर्तनाऽपि निर्याघातयद्यपि च बन्धेऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं स्थि- भाविन्यायुषो बन्धावलिकायामतीतायां सर्वदैव प्रवर्तते । तिसत्कर्माभिहितं, तथाऽपि बन्धोत्कृयायाः स्थितः सका- ततस्तामधिकृत्य यथोक्ता यत्स्थितिरवसेया। शात् संक्रमोत्कृष्टा स्थितिः सख्येयगुणा द्रष्टव्या । उक्नं च
तदेवमुक्तमुत्कृष्टस्थितिसंक्रमपरिमाणम् । सम्पति जघन्यचूर्णी-"बंट्टिईश्री संतकम्मट्टिई संखिजगुणा"। ननु नाम
स्थितिसंक्रमपरिमाणप्रतिपादनावसरः । जघन्यस्थितिसंक्रकर्मण उत्कृष्टा स्थितिविंशतिसागरोपमकाटीकोटीप्रमाणा |
मश्च द्विधा-स्वप्रकृती परप्रकृतौ च । तत्र स्वप्रकृती जघन्यतत श्राहारके तीर्थकरे च संक्रमादुत्कृष्टा स्थितिःप्राप्यमा
स्थितिसंक्रमप्रतिपादनार्थमाहणा बन्धावलिकोदयावलिकारहिता विशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणैव लभ्यते, कथमुच्यते तीर्थकराहारकयोः आवरणविग्घदंसण, चउक्कलोभतवेयगाऊणं । संक्रमतोऽप्युत्कृष्टा स्थितिरन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे- एगा ठिई जहनो, जट्ठिह समयाहिगावलिया ॥३२॥ ति? तदयुक्तमभिप्रायापरिक्षानात् । तथाहि-तीर्थकराहार
'आवरण' त्ति-पञ्चानां शानावरणीयप्रकृतीनां 'विग्य'त्ति कयोः प्रकृत्यन्तरस्य स्थितिः संक्रामति बन्धकाले नान्य
पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां, चतसृणां दर्शनावरणीयप्रकृतीनां दा, बन्धश्चानयोर्यथाक्रमं विशुद्धसम्यग्दृष्टः संयतस्य च ।
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणलक्षणानां, संज्वलनलोभविशुद्धसम्यग्दृष्टीनां संयतानां च स्थितिसत्कर्म सर्वेषाम
स्य, वेदकसम्यक्त्वस्य, चतुर्णा चायुषां, सर्वसंख्यया विंशपि कर्मणामायुर्वर्जानामन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं ना
तिप्रकृतीनाम् आत्मीयात्मीयसत्ताव्यवच्छेदसमये समयाधिकम् । ततः संक्रमोऽप्येतावन्मात्र एवं प्राप्यते नाधिक | धिकावलिकाशपायां स्थितावुदयावलिका सर्वकरणायोग्ये. इत्यदोषः ।
ति कृत्वोदयावलिकात उपरितनी समयमात्रा स्थितिरपवसम्प्रति सर्वासां प्रकृतीनां बन्धोत्कृष्टानां संक्रमोत्कृष्टानां तैनासंक्रमेणाधस्तने उदयावलिकात्रिभागे समयाधिके संवा संक्रमणकाले यावती स्थितिः प्राप्यते तावी निर्दिदि- क्रामति, तदा च सर्वस्थितिपरिमाणं समयाधिकावलिका।
तथा चाह-'जट्टिइ' इत्यादि। सव्वासि जट्टिइगो, सावलिगो सो अहाउगाणं तु ।।
निदादुगस्स एका, आवलिगद्गं असंखभागो य। बंधुकोसुक्कोसो, साबाहठिईए जट्ठिइगो ॥३१॥ जटिइहासच्छके, संखिजात्रो समाओ य ।। ३३ ॥ 'सव्वासिं' ति-सर्वासां प्रकृतीनां संक्रमो यत्स्थितिकः सं. 'निह' ति निद्राद्विकस्य-निद्राप्रचलालक्षणस्य जघन्यः क्रमणकाले या स्थितिर्विद्यते सा यत्स्थितिरित्युच्यते । सा स्थितिसंक्रमः स्वसंक्रमान्ते स्वस्थितरुपरितनी एका समययस्य संक्रमस्यास्ति स संक्रमो यत्स्थितिकः । या स्थितिर्वि | | मात्रा स्थितिः, सा श्रावलिकाया अधस्तने विभाग निक्षिप्यद्यते यस्याऽसौ इति बहुव्रीहिसमासाश्रयणात् । सालिक श्रा | ते। तदानी च यत्स्थितिः सर्वा स्थितिः श्रावलिकाद्विकं तृवलिकया सहितो द्रष्टव्यः। एतदुक्तं भवति-यःप्रागुक्तः संक्रमः तीयस्याश्चावलिकाया असंख्येयो भागः। अत्र वस्तुस्वभाव सावलिकया सहितः सन् यावान् भवति तावती सं- एष यन्निद्राद्विकस्यावलिकासंख्येयभागाधिकाऽवलिकाद्विक्रमकाले स्थितिरित्यर्थः । ततो बन्धोत्कृष्टानामावलिका- कशेषायां स्थितावुपरितनी समयमात्रैका स्थितिः संक्रामति, 'हीना, संक्रमोत्कृष्टानां स्वावलिकाद्धिकहीना संक्रमकाले स- न पुनर्मतिक्षानावरणीयादीनामिव समयाधिकावलिकाशे
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम पायामिति । सम्प्रति यासां परप्रकृतिषु संभवी जघन्य- ग्द्विकपञ्चन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयस्थावरसूक्ष्मसाधास्थितिसंक्रमस्साः प्रतिपादयति- हासच्छक्के ' इत्यादि, रणातपोद्द्योतवर्जाः शेषा नाना नवतिप्रकृतयः सातासातहास्येनोपलक्षितं षटुं हास्यषटुं हास्यरत्यरतिभयशोकजु- वेदनीयोश्चर्गोत्रनीचैर्गोत्राणि : पतासांसयौगिकेवलिचरमसगुप्सालक्षण, तस्य सपकेणापवर्तनाकरणेन संख्येयवर्ष- मये सर्वापवर्तनयाऽऽन्तर्मुहर्तिकी स्थितिर्भवति । सा चाप्रमाणा स्थितिः कृता । ततः सा स्वनिर्लेपनावसरे संज्व-| पवय॑माना उदयावलिकाराहिता, जघन्यस्थितिसंफ्रमः उम्सनक्रोधे प्रक्षिप्यमाणा जघन्यः स्थितिसंक्रमः।
यावलिकासकलकरणायोग्येति कृत्वा नापवय॑ते, तया थासोणमुहुत्ता जट्ठिा, जहन्नबंधो उ पुरिससंजलने । वलिकया सहिता अपवर्तनारूपजघन्यस्थिातसंक्रमकाले ताजविसगऊँणजुत्तो, आवलिगद्गृणो तत्तो ॥३४॥
सां यत्स्थितिः । नन्वासां प्रकृतीनामयोगिकैवलिनि समया
धिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानो जघन्यः स्थितिसंक्रमः 'सोणमुकुस' सि-संक्रमणकाले सैव संख्येयवर्षप्रमाणा कस्मान्नाभिधीयते, क्षीणकषाय. इव मतिज्ञानावरणीयादीस्थितिः सोनमुहूर्ना-अन्तर्मुहर्नेनाभ्यधिका यस्थितिः सर्वा नामिति? उच्यते-अयोगिकेवली भगवान् सकलसूक्ष्मबास्थितिः । तथाहि-अन्तरकरणे वर्तमानस्तां संख्येयवर्ष- दरयोगप्रयोगरहितो मेरुरिव निष्पकम्पा नैकमप्यष्टानां कप्रमाणां स्थिति संज्वलनक्रोधे संक्रमयति, अन्तरकरणे च रणानां मध्ये करणं प्रवर्तयति, निष्क्रियत्वात् । केवलमुदकर्मदलिकं न वि (वे) चते, किंतु-तत ऊर्ध्वम् , ततोऽन्तर- यप्राप्तानि वेदयते । ततः सयोगिकेवलिन एवैतासां जघकरणकाले नाभ्यधिका संख्येयवर्षप्रमाणा स्थितिहाँस्यषटू- न्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्यते । 'सेससियाणे त्यादि उक्तशेषास्य जघन्यस्थितिसंक्रमकाले यत्स्थितिः । 'जहन्नबंधो' गणां प्रकृतीनां स्त्यानचित्रिकमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वानन्ताइत्यादि, पुरुषवेदस्य संज्वलनानां च यो जघन्यः स्थितिब- नुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणनपुंसकत्रीवेदनरकशिक. न्धः प्रागुक्तः । तद्यथा-पुरुषवेदस्याष्टौ संवत्सराणि, संज्व- तिर्यद्विकपञ्चेन्द्रिय जातिवशेषजातिचतुष्टयस्थावरसूचमासमक्रोधस्य मासद्वयं, संज्वलनमानस्य मासः, संज्वलन- तपोद्योतसाधारणलक्षणानां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनामात्मीयामी. मायाया अर्धमासः, स एव जघन्यः स्थितिबन्धोऽबाधा- यक्षपणकाले यश्वरमः सक्षोभः पल्योपमासंख्येयभागमात्रः कालोनस्तेषां जघन्यः स्थितिसंक्रमः अबाधारहिता हि स्थि- स जघन्यः स्थितिसंक्रमः । यरिस्थतिकस्तु सर्वस्थितियुतिरन्यत्र संक्रामति, तत्रैव कर्मदलिकसंभवात् , 'अबाधाका. कस्तु स एवावलिकया सह युक्नो वेदितव्यः । अयमिह सलोना कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः इति वचनात् ,जघन्यस्थितिब- स्प्रदायः-स्त्रीनपुंसकवेदवर्जानां प्रकृतीनामेकामधस्तादावगधे चाऽवाधाऽन्तर्मुहुर्तप्रमाणा । न च जघन्यस्थिति- लिकां मुक्त्वा शेषमुपरितनं पस्योपमासंख्येयभागमा चरमसंक्रमणकालेऽबाधाकालमध्ये प्राग्बद्धं सत्कर्म प्राप्यते , खएडमन्यत्र संक्रमयति । ततस्तासां जघन्यस्थितिसंफ्रमकाले तस्य तदानीं सर्वस्याऽपि क्षीणत्वात् । ततोऽन्त- यस्थितिः स एव जघन्यस्थितिसंक्रम श्रावलिकयाऽभ्यधिको मुंतहीन पवैतेषां पुरुषवेदादीनां स्वस्खो जघन्यस्थिति- धेदितव्यः । स्त्रीनपुंसकवेदयोस्त्वन्तर्मुहुर्तेनाभ्यधिको यतस्त- . बन्धो जघन्यस्थितिसंक्रमः , तदानी चैतेषां यत्स्थितिः योश्चरमं स्थितिखण्डमन्तरकरणे स्थितः सन् संक्रमयति । सर्वा स्थितिः स्वकीयेनोनेनाबाधारूपान्तर्मुहूर्तलक्षणेन युक्तो- अन्तरकरणे च कर्मदलिकं न वि (वे) घेते, किंतु-तत ऽवाधाकालसहित इत्यर्थः , जघन्यः स्थितिबन्धः । ततः ऊर्द्धम् . अन्तरकरणं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । ततोऽन्तर्मुहुर्तपुनरण्यापलिकाद्विकेनोना हीनः सन् द्रष्टव्यः । एतदुक्तं भ- युक्ता जघन्यस्थितिसक्रमस्तयोर्यस्थितिरवसेया। शेषाणां पति-जपम्पस्थितिसंक्रमऽबाधाकालः प्रक्षिप्यते । तत्प्रक्षे- तु प्रकृतीनामन्तरकरण न भवति, ततस्तासामावलिकायुक्त पानन्तरं बालिकाधिकं ततोऽपसार्यते । तदुत्सारणे व कृ- एव यस्थितिः। से पावती स्थितिर्भवति, पतावती जघन्यस्थितिसंगम- । तदेवमुक्तं जघन्यस्थितिसंक्रमपरिमाणम् । सम्प्रति साधनाकाले सर्षा स्थितिः । श्रावलिकाद्विकं कस्मादुत्सार्यत इ. दिग्ररूपणावसरः । सा च द्विधा मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां ति बेदुच्यते-बन्धव्यवच्छेदानन्तरं बन्धावलिकायामतीता- च । तत्र मूलप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाहयां चरमसमयबद्धाः पुरुषवेदाविप्रकृतिलताः संक्रमायितुमा
मूलठिई अजहनो, सत्तएह तिहा चऊब्बिहो मोहे । रब्धाः । मावलिकामात्रेण च कालेन ताः संक्रम्यन्ते, संक्रमावलिकाचरमसमये च जघन्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्य
सेसविगप्पा तेसि, दुविगप्पा संकमे होति ।। ३६ ॥ ते । ततो बन्धापलिकासंक्रमावलिकारहित एवाबाधास- 'मूलठिह' ति-इह जघन्यादन्यत्सर्वमजघन्य यावदुत्कृष्टम् । हितो जघन्यः स्थितिबन्धो जंघन्यस्थितिसंक्रमकाले सर्वा
उत्कृष्टादन्यत्सर्वमपि यावजघन्यं तावदनुत्कृष्टम् । तत्र मो. स्थितिः।
हनीयवर्जानां सप्तानां कर्मणामजघन्यस्थितिसंक्रमविधा। सम्पति केषलिसकर्मणां जपन्यस्थितिसंक्रमप्ररूपणा
तद्यथा-अनाविधुवोऽधवश्च । तथाहि-शानावरणदर्शनामाह
बरणाम्तरायाणां क्षीणकषायस्य समयाधिकावलिकाशेषायां
स्थिती वर्तमानस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो भवति । नामजोगतियाण मंतो, महुचिभो सेसयाण पखास्स। गोत्रवेदनीयायुषां तु सयोगिकेवलिचरमसमयेऽन्तर्मुहूर्तप्रमा. भागो भसंखियतमो, जडिएगो मालिगाइ सह ॥३५ ।। ण भावलिकारहितो जघन्यः स्थितिसंक्रमः । स च सा'जोगतियाण' शि-योगिनि-सयोगिकेलिनि संक्रममा- दियश्च । तस्मादन्यः सर्वोऽपि स्थितिसंक्रमोऽजघन्यः । भित्यान्तः-पर्यम्तो यासां ता योग्यन्तिकाः नरककितिर्य- सबानादिः प्रयोऽभण्यानां भव्यानामभ्रवः । 'चउम्विहो
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( २० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संकम
मोहे 'ति मोहे मोदनीयेऽजन्यः स्थितिसंक्रमचतुर्विधः । तद्यथा-सादिरनादिवोऽभवन्ध । तथाहि मोदनीयस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमः सूक्ष्म संपरायस्य क्षपकस्य समयाधिकालिकायां शेषायां स्थिती, ततोऽसी सादिरधवध । तस्माच्च जघन्यादन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः । स च क्षायिकसम्यग्रुपशान्तमोहगुणस्थानके न भवति, ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, अभी भयाभयापेक्षया शेपविकल्पा
जघन्यलक्षणास्तेषां कर्मणां संक्रमे संक्रमविषये विविकया भवन्ति । तद्यथा-खाद्योऽवध तथाहि-
स्थिति बध्नाति स एवोत्कृष्टं स्थितिसममं करोति, उत्कृष्टां व स्थिति बध्नाति उत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमानः । न बोत्कृष्टः संज्ञेशः सर्वदेव लभ्यते, किं त्वन्तरा उतरा, शेषकालं त्वनुत्कृष्टः । तत एतौ द्वावपि साचभयो । जघन्यश्च साद्यभ्रवः प्रागेव भावितः ।
सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां साधनादिप्ररूपणार्थमाहधुवसंतकम्मिगाणं, तिहा चउद्धा चरितमोहासं । अजह सेसेसु य, दुहेतरासि च सम्वत्य ॥ ३७ ॥ 'ध्रुव' शि-ध्रुवं सत्कर्म यासां ता ध्रुवसत्कर्मिकास्त्रिंशदुत्तरशतसंख्याः । तथाहि नरकद्विकमनुजद्विकदेवद्विकक्रिय सप्तकाहारक सप्तकतीर्थकरनाम सम्यक्त्वसम्यमिध्यात्वगोत्रायुधतुष्टयलक्षणा अष्टाविंशतिसंख्या अभवत्कर्मिकाः प्रकृतयस्ता अष्टपञ्चाशदधिकात् शतादपनीयते । ततः शेर्पा विशदुत्तरमेव शतं भवसत्कर्मिकाणां भवति । तस्मादपि चारित्रमोहनीयप्रकृतयः पञ्चविंशतिसंख्या अपनीयन्ते, तासां पृथग्वक्ष्यमाणत्वात् । ततः शेषस्य पञ्चोत्तरशतस्य स्ववक्षपणपर्यवसाने जघन्यः स्थितिसंक्रमो भवति स च सादिरभव ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः । स चाऽनादिः, अवभ्रुवौ भव्याभव्यापेक्षया । चारित्रमोहनीयप्रकृतीनां पञ्चविंशतिसंख्यानामजघन्यः स्थितिसंक्रमश्चतुर्धा । तद्यथासादिरनादिर्धयोऽभवच । तथाहि उपशमश्रेण्यामुपशान्ती सत्यां संक्रमाभावः उपशमयेषितः प्रयय न पुनरप्यजघन्यं स्थितिसंक्रममारभते ततोऽसी सादिः तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, पुनरनादिः, अभ्रवधुवी भण्याभव्यापेक्षया । ' सेसेसु य दुहा ' शेषेषूत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्येषु द्विधा प्ररूपणा कर्त्तव्या । तद्यथा-सादिरधवध तत्रोत् टानुत्कृष्टयोर्यथा मूलप्रकृतिषु भावना कृता तथाऽत्रापि कर्त्तव्या । जघन्यस्थितिसंक्रमः स्वस्वक्षयावसरे प्राप्यते, ततोऽसी सादिव 'वरासि' मित्यादि इतरासामध
,
सत्कर्मणां पूर्वोकानामष्टाविंशतिसंख्यानां सर्वत्रापि सबैष्वपि जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टेषु द्विधा प्ररूपणा कर्तव्या । तद्यथा-सादिरध्रुवश्च । सा च साद्यध्रुवताऽभुवसत्कमेवादेव परिभावनीया ।
सम्प्रति क्रमप्राप्तं स्वामित्वमभिधानीयम् । तथा
स्थितिसंक्रमस्वामित्वं जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामित्वं न तत्रोत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्यामित्यं प्रतिपिपास्वराहधाओ उकोसो, जार्मि गंतुरा बलिगं परभो ।
संकम
उकोससामिओ से कमाउ जातिं दुर्ग तासि ॥ ३८ ॥ 'बंधाओ ' चि-यासां प्रकृतीनां बन्धात्-बन्धनात् उत्कृष्टस्थितिबन्धो भवति तासां ते पवोत्कृस्थितिबन्धका देवमेरविकतिर्यक्र्मनुष्याः'गंतूल आलिगं परओ' सि बन्धाऽऽबलिया-प्रतिकस्य परतः बन्धावलिकायामतीतायामि त्यर्थः । उत्कृष्टस्वामिनः उत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामिन उत्कृष्टां स्थिति संक्रमयन्तीत्यर्थः । यासां पुनः प्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः संक्रमेण प्राप्यते तासां द्विकं बन्धावलिकाक मालिकालचणं गत्वाऽतिक्रम्य परत स्वामिन ग्यावलिकासंक्रमावलियोरतीतयोरुत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्था
6
मिनो भवन्तीत्यर्थः ।
सम्यक्त्यसम्यग्मिथ्यात्वयोरुत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामिनमादतस्संतकभिगो - घिऊस उकोसगं
,
तो । सम्मत्तमीसगाणं श्रवलिया सुद्धदिट्ठी उ ॥ ३६ ॥ 'तस्संतकम्मिगो' त्ति तत्सत्कर्मा-सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वत्कर्मा मिथ्यादृष्टिरुत्कृष्टां स्थितिं सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां बद्ध्वा ततोऽन्तर्मुहूर्तादनन्तरं मिथ्यास्यात् प्रतिपत्य सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ततोऽसीति । सम्यग्दृष्टिरन्तर्मुहूर्तानामुत्कृष्ट्रां मिथ्यात्वस्थितिं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः संक्रमयति ततः संमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनीं सम्यक्त्वस्थितिमपचनाकरणेन स्वस्थाने संक्रमयति । सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिमपि संक्रमालिकायामतीतायामुयापलिकात उपरितनसम्यक्त्वे संक्रमयति अपवर्तयति च तत एवं ति
सामपि दर्शनमोदनीषप्रकृतीनामुइष्टस्थितिसंक्रमस्वामी
"
सम्यग्दष्टिरेवेति ।
तदेवयुक्त उत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामी, संप्रति जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाह
दंसणचकविग्घा - रणं समयाहिमालिगा छउमो । निदाणाबलिगदुगे, आवलियमसंखतमसेसे ॥ ४० ॥ 'दंसण' सि-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणीयानां 'विघ' ति पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां पञ्चानां च ज्ञानावरणीयप्रकृतीनां जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी 'उमो' ति क्षीणपापवीतरागच्ठ्वस्थः स्वगुरुस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषे वर्तमानः । तथा निद्रयोर्निद्राप्रचलयोः स एव क्षीणरूपाववीतरागच्छग्रस्थो द्वयोरावलिकयोः शेषयोस्तृतीयस्याश्चापलिकाया असंख्येयतमे भागे शेष - र्तमानो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति ।
वेदसम्यक्त्वस्य जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाहसमग्राहिगालिगाए, सेसाए वेयगस्स कयकरखे । सक्खवगचरमखंडग, संकुमखा दिडिमोहाय ॥ ४१ ॥ 'समय' ति-दर्शनमोहनीयक्षपको मनुष्यो जघन्यतोऽपि व
दुपरि वर्तमानो मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वे क्षपयित्वा सम्यक्त्वं च सर्वापषर्तमयाऽपवर्त्य सम्यक्त्वं वेदयमानस्ततः सम्यक्त्वे क्षपितशेषे सति कश्चितसृणां गतीनामन्यत - मस्यां व्रतौ प्रयाति । ततुतिकानामन्यतमः सम्यकस्यस्प समयाधिकावलिकाशेपाय स्थिती वर्तमानः कथक
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संकम
रणो' ति कृतकरणः क्षपणकरणेऽभ्युद्यतो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति ॥ मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमा सत्यादिष्टमोहयोमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः क्षपणकाले यश्चरमखराडं संतुभणं सर्वापयर्तनेापवर्त्य परस्थाने परयोपमासंख्येयभागमात्रपरमखण्डे प्रक्षेपणं तत्र वर्तमानो मनुष्योऽविरतसम्यदृष्टिदेशविरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति ।
( at ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
समउत्तरालिगाए, लोभे सेसाऍ सुडुमरागस्स । पदमकसायाण विसं - जोषण संखोभणाए उ ।। ४२ ।। 'समउलरे' ति सूक्ष्म सम्परायस्य स्वगुणस्थानकस्य समयाधिकवनिकाशेपायां स्थिती वर्तमानस्य लोभ लोभस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो भवति । इदमिह तात्पर्यम्-सूक्ष्मसम्परायः स्वगुणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थिती वर्तमानो लोभसत्क अचम्यस्थितिसंक्रमस्वामी भयति ॥ अनन्तानुबन्धिनां जयम्यस्थितिसंक्रमस्यामिनमाद-
पढमे स्थादि प्रथम कपाचाणामनन्तानुबन्धिनां विसयोजने -विनाशने या चरमा पल्योपमासंख्येयभागमात्रा संक्षोभरणा प्रक्षेपणं तत्र वर्तमानश्चतुर्गतिकानामन्यतमः सम्यगडष्टिर्जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति ।
चरिमसजोगे जा अ स्थितासि सो व सगाणं तु । aareकमेण अनिय - द्विवायरो वेयगो वेए ॥ ४३ ॥
'बरिम' सि-या सयोग्यन्तिकाः प्रकृतयश्चतुर्नवतिसंक्याः प्रागुक्रास्तासां स एव सयोगिकेवली चरमापवर्तने वर्तमानो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति ॥ प्रकृतीन जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाह-' सेसगाण' मित्यादि, शेपाणां स्त्यानर्द्धित्रिकनामत्रयोदशकाष्टकषायनयनोकषायसंस्लगकोधमानमायाक्षणानां पदकृतीनां क्षप मेरा पणपरिपाठ्या चरमे पत्योपमासंस्थेयभागादिमात्रे सोभणे वर्तमानोऽनिवृत्तिवाद जघन्यस्थितिसंक्रमस्थामी भवति यो बेदे ति बेदको मेवे वेदस्य ज घम्यस्थितिसंक्रमस्वामी । इयमंत्र भावना - पुरुषवेदोवये वर्तमानः पुरुषवेदस्य, स्त्रीवेदोदये वर्तमानः श्रीवेदस्य नपुंसकवेदोदये वर्तमानो नपुंसक वेदस्यानिवृलियादरसं परायधरमसंकर्म कुर्वन् जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी वेदितव्यः अन्येन हि वेदेन क्षपकश्रेणिमारु ढस्यान्यस्य वेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमो न लभ्यते । तथाहि-येन वेदेन क्षपकश्रेणिमारोहति तस्य वेदस्योदयोदीर खापवर्तनादिभिः स्थिते पुङ्गलाश्ध बहवः परिसदन्ति । ततो यद्यपि नपुंसकवेदेन सपकले प्रपत्रः खीवेदमपुंसकवेदी युगपत्क्षपयति, तथापि नपुंसकवेदस्यैव जमम्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्यते, न श्रीवेदस्य उददी रणयोरभावात् । स्त्रीवेदेन च प्रतिपक्षो नपुंसकवेदक्षयानन्तरमन्तर्मुहूर्तेन कालेन स्त्रीवेदं क्षपयति । एतावता कामोदयादराभ्यां बड़ी स्थितिस्त्पति । यद्यपि च पुरुषवेदेमाऽपि प्रतिपन्नस्यैतावान् कालो लभ्यते तथाऽपि तस्य freeरके उदयोदीरणे न भवत इति श्री
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मंकम वेदप्रतिपन्नस्यैव स्त्रीवेदस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो नशेपस्य तथा पुरुषवेदेन पति प्रपो हास्यादिपक्षयानन्तरं पुरुषवेदं क्षपयति अन्यथा तु हास्यादिषटुसहितम् । उदितस्य च वेदस्योदीरणाऽपि प्रवर्तते इति बी स्थितिस्त्रुट्यति । पुरुषवेदस्यापि पुरुषवेदारूढस्यैव च धन्यस्थितिसंक्रमो न शेषस्य ।
तदेवमुक्तः स्थितिसंक्रमः सम्प्रत्यनुभागसंक्रमा - भिधानावसरः, तत्र चैतेऽर्थाधिकारास्तद्यथा-भेद-रूपकप्ररूपणा, विशेषरूपणा, उत्कृष्टानुमा गसंक्रमप्रमाणप्ररूपणा, जघन्यानुभागसंक्रममारामरूपणा, साधनादित्ररूपणा स्वामिस्वं चेति । तत्र प्ररूपणार्थमाहमृलुचरपगइगतो अणुभागे संकमो जहा बंधे। फङ्कगनिंदेसो सिं, सब्वेयरघायऽघाईणं ॥। ४४ ।। 'सर' चि- अनुभागेऽनुभागविषये संक्रमो मूलांतरतिगतः । किमुकं भवति ? - द्विधाऽनुभाग संक्रमस्तद्यथा-मूप्रकृत्यनुभाग संक्रमः, उत्तरप्रकृत्यनुभागसंकमध ते च मूलोसरप्रकृतिभेदा यथा बन्धेऽभिहितास्तथात्रापि इष्टव्याः । कृता भेदप्ररूपणा स्पर्धकप्ररूपणार्थमाह-फडुगे' त्यादि आसां सर्वघातिनीनां देशघातिनीनामघातिनीमां प्रकृतीनां स्पर्धकनिर्देशः स्पर्धकप्ररूपणा यथा शतके कृता तथात्राऽपि कर्तव्या । तथापि किंन्विदुच्यते- तब केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरणाद्यद्वादशकपायनिद्रापञ्चकमिध्यात्वतानां विनिकृतीनां रसस्पर्धकानि सर्व घातीनि सर्व स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयन्तीति सर्वघातीनि तानि च ताम्रभाजनयत् निश्ािणि घृतवत् खिग्धानि प्राज्ञापचनुप्रदेशोपचितानि स्फटिकाअहारचातीय निर्मलानि । उक्तं च - " जो घाएर सविसयं सयले सो होइ सव्वधाइरसो । सो निच्छिडो मिद्धांत फलिम्भहरविमला १ ॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानावरणचतुरचतुरयधिदर्शनावरणसंज्वलन - चतुष्टयनयनोपायान्तरायपञ्चलक्षणानां पञ्चविंशतिसंस्यानां देशघातिप्रकृतीनाम् ( देशपातिप्ररूपणा देसपाइरादे चतुर्थभागे २६२८ हे मता) वेदनीयायुन मगोत्राणां सम्बन्धिन एकादशोत्तरप्रकृतितस्थाघातिनो रसस्पर्धकान्ययातीनि वेदितव्यानि केवलं वेद्यमान सर्वधातिरसस्पर्धकसम्बन्धात्तान्यपि सर्वपातीनि भवन्ति । यथेह लोके स्वयमचौराणामपि चीरसम्बन्धाचीरता । उक्त - " जाण न विसन घाइ-त्तम्मि ताणं पि सव्वधाइरसो । जाय पाइसगासे या चोरया हो ॥ १ ॥ "
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सम्मति दर्शनमोहनीयस्य स्पर्धकमरूपणार्थमाहसब्वेसु देसघासु, सम्मत्तं तदुवरिं तु वा मिस्सं । दारुसमायस्मार्थ-ततमो मिमुपमओ ॥४५॥ 'सरस' सि-हद दर्शनमोहनीयस्य सत्कर्मद्विविधानि रसस्पर्धकानि । तद्यथा देशघातीनि सर्वघातीनि च । तत्र यानि देशघाती स्पर्धकानि एकस्थानकरसोपेतानि द्वि
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(२२) संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम स्थामकरसोपतानि च । तेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वं तदुवरितु ति जघन्यानुभागसंक्रमप्रमाणप्रतिपादनार्थमाह-मंदो' बा मिस्सं' यत्र देशघातीनि स्पर्धकानि निष्ठितानि तत उ
ति सम्यक्त्वस्य पुरुषवेदस्य संज्वलनानां चैकस्थानके परि सम्यग्मिथ्यात्वस्य स्पर्धकानि भवन्ति । तानि च स
रसे संक्रामति मन्दो जघन्योऽनुभागसंक्रमो वेदितव्यः । एघातीनि विस्थानकरसोपेतानि च तानि सम्यग्मिथ्या- तदुक्तं भवति-सम्यक्त्वस्य सर्वविशुद्ध एकस्थानको रस्वस्य स्पर्धकानि तावद् द्रष्टव्यानि यावत् 'दारुसमाण- सो यदा संक्रामति तदा तस्य जघन्योऽनुभागसंक्रमः , स्साणततमो ति'दारुसमान इति द्विस्थानको रसस्तस्य पुरुषवेदसंज्वलनानां च क्षपणकाले यानि समयोनाबलिकासम्बन्धिना स्पर्धकानामनन्ततमो भागो गतो भवति । ततो द्विकबद्धानि स्पर्धकानि एकस्थानरसोपेतानि तानि यदा संया सम्यग्मिध्यात्वस्य स्पर्धकानि निष्ठां यान्ति, ततः प्रभृ- कामन्ति तदा स तेषां जघन्योऽनुभागसंक्रमः । ' सेसासु' ति द्विस्थानकत्रिस्थानकचतुःस्थानकरसोपेतानि स्पर्धकानि इत्यादि शेषासनव्यतिरिकासु सर्वासु प्रकृतिषु सर्वघातिनि सीएयपि मिथ्यात्वस्य द्रष्टव्यानि ।
द्विस्थानकरसोपेते स्पर्धके संक्रम्यमाणो जघन्योऽनुभागसंकता स्पर्धकप्ररूपणा । सम्प्रति विशेषलक्षणप्ररूपणार्थमाह
क्रमो बेदितव्यः। इदमत्र तात्पर्यम्-सम्यक्त्वपुरुषवेदसंज्वल
नचतुएयव्यतिरिक्तानां शेषप्रकृतीनां घातित्वमाश्रित्य सर्वतत्थद्वपयं उब-ट्टिया व प्रोवट्टिया व अविभागा।
घातीनि, स्थानमाश्रित्य द्विस्थानकरसोपेतानि मन्दानुभाषाअणुभागसंकमो ए-स अन्नपगई निया वावि ॥४६॥ नि यानि रसस्पर्धकानि तानि यदा संक्रामन्ति तदा सता'तस्थ'सि-तत्रानुभागसंक्रमेयपदं याथात्म्यनिर्धारणमिदम्- सांजघन्योऽनुभागसंक्रमः । इह यद्यपि मतिश्रुतावधिमनःयदुत उद्धर्तिताः प्रभूतीकृताः, यद्वा-अपवर्तिता ह्रस्वीकृता पर्यायज्ञानावरणचचुरचक्षुरवधिदर्शनावरणान्तरायपञ्चकाअथवाऽम्यां प्रकृति नीता अन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणमिताः
नामकस्थानकोऽपि रसो बन्धे प्राप्यते तथाऽपि क्षयकाअविभागा अनुभागाः । एष सर्वोऽप्यनुभागसंक्रमः । तत्र लेऽपि प्राग्बो द्विस्थानकोऽपि रसः संक्रामति , नैकमूलप्रकृतीमामुद्वर्तनापवर्तनारूपी द्वावेव संक्रमौ नान्यप्रक- स्थानकः केवल इति जघन्यसंक्रमविषयतया नैतेषामेकतिनयनरूपः संक्रमः, तासां परस्परं संक्रमाभावात् । उत्तर- स्थानकरस उक्तः। प्रकृतीनां तु त्रयोऽपि संक्रमाः।
तदेवमुक्तं जघन्यानुभागसंक्रमपरिमाणम् । सम्प्रति सातदेवमुक्तं विशेषलक्षणम् । सम्प्रत्युत्कृष्टानुभागसंक्रम
धनादिप्ररूपणा कर्तव्या । सा च विधा-मूलप्रकृतिसाद्यप्रमाणप्रतिपादनार्थमाह
नादिप्ररूपणा उत्तरप्रकृतिसाधनादिमरूपणा च । तत्र मूलप्रदुबिहपमाणे जेट्ठो, सम्मत्ते देसघाइहाणा।
कृतीनां साद्यमादिप्ररूपणार्थमाहनरतिरियाऊ आयब-मिस्से वि य सम्बधाइम्मि॥४७॥
अजहमो तिमि तिहा, मोहस्स चउबिहो अहाउस्स । 'दुषिहे' सि-विविधे प्रमाणे स्थानप्रमाणे घातित्वप्रमाणे
एवमणकोसो से-सगाण तिविहो अणुकोसो।। ४१॥ व ज्येष्ठ उत्कृष्ठोऽनुभागसंक्रमः सम्यक्त्वस्य देशघातिमिद्विस्थानके रसस्पर्धके संक्रम्यमाणे वेदितव्यः । एत- सेसा मूलप्पगइसु, दुविहा अह उत्तरासु अजहलो । दुकं भवति-सम्यक्त्वस्य धातित्वमाश्रिते देशघातिस्था- सत्तरसम्म चउद्धा, तिविकप्पो सोलसएहं तु ॥ ५० ॥ नमाश्रित्य सर्वोत्कृष्टद्विस्थानकरसोपेतं स्पर्धकपटलं यदा
'अजहो' ति-ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायलक्षणानां त्रसंक्रामति तदा तस्योत्कृष्टोऽनुभागसंक्रम इति नरायु
याणां कर्मणामजघन्योऽनुभागनिधा त्रिप्रकारस्तद्यथा-अना. स्तिर्यगायुरातपसम्यग्मिथ्यात्वानां स्थान प्रतीत्य सर्वोत्कृष्ट
विरधवो,ध्वश्च । तथाहि-क्षीणकषायस्यैतेषां कर्मणां समद्विस्थानकरसोपेतघातित्वमाश्रित्य सर्वघातिनि रसस्पके उत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमः। अत्रापीय भावना-नरतिर्य
याधिकापलिकाशेषायां स्थितौ जघन्यानुभागसंक्रमो भषगायुरातपसम्यग्मिथ्यात्वानां सर्वोत्कृष्टद्विस्थानकरसोपेतं
ति,सच सादिरधयश्च । ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः स चासर्वघातिरसस्पर्धकं यदा संक्रामति तदा स तेषामुत्कृष्टोऽनु- मादिःमध्यध्रयो भव्याऽभव्यपक्षया । मोहनीयस्याजघन्योभागसंक्रमः । अत्र नरतिर्यगायुरातपानां "दुतिचउढाणा उ. ऽनुभागसंक्रमश्चतुर्विधः। तद्यथा-सादिरनादिर्धवोऽभूवश्व । ससा उ" इति वचनात् द्वित्रिचतुःस्थानकरससंभवेऽपि यत् | तथाहि-सूक्ष्मसंपरायस्य क्षपकस्य मोहनीयस्य समयाद्विस्थानकरसस्पर्धकस्यैव संक्रमे उत्कृष्टोऽनुभागसंक्रम उ-1 धिकापलिकाशेषायां स्थितो जघन्योऽनुभागसंक्रमो भवति । का , स एवं शापयति-पतेषां कर्मणां तथा स्वाभाव्या- सच सादिरप्रयश्च । ततोऽन्यः सोऽप्यजघन्यः, स व क्षादेव त्रिस्थानकचतुःस्थानकरसस्पर्धकानामुद्वर्तनापवर्तनाप्र
यिकसम्यग्दृष्टरुपशमधेण्यां वर्तमानस्योपशान्तमोगुणस्थाकृत्यम्तरनयनरूपत्रिप्रकारोऽपि संक्रमो न भवतीति ।
नके न भवति । उपशाम्तमोगुणस्थानकाच्य प्रतियततः सेसासु चउट्ठाणे, मंदो संमत्तपुरिससंजलणे ।
सतः पुनरपि भवति, ततोऽसौ सादिः । तत्स्थानमप्राप्तस्य एगहाणे सेसा-सु सव्वघाइम्मि दुट्ठाणे ॥ ४८॥ पुनरनादिः। ध्रुवाध्रुवौ पूर्ववत् । मायुषस्त्वनुत्कष्टोऽनुभागसं'सेसासु'त्ति-शेषाणामुक्तव्यतिरिकानां प्रकृतीनां स्थान- | कमचतुर्विधः। तद्यथा-सादिरनादियोऽवधा तथाहिमाधिस्य सर्वोत्कृष्टश्चतुःस्थानको घातित्वमाश्रिस्य सर्व- अप्रमत्तो देवायुष उकामनुभागं बड़ा बम्पावलिकायाः घाती रसो यदा संक्रामति तदा स तासामुत्कृष्टोऽनु- परतः संक्रमयितुमारभते तंब. तावत्सकमयति पाषदनुभागलंकमः । तदेवमुक्तमुत्कृष्टानुभागसंक्रमप्रमाणम् । सम्म- सरसुरभषे स्थितस्य प्रयस्रियत्सागरोपमाएयतिकामम्ति
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम श्रावलिकामात्रा स्थितिरवतिष्ठते । ततोऽन्योऽनुभागसंक्रम
वच्छेदकाले उत्कृष्टमनुभागं बध्नाति, बद्धा च बन्धावलिआयुषः सर्वोऽप्यनुत्कष्टः। स च साऽऽदिः। तत्स्थानमप्राप्तस्य
कायामतीतायां संक्रमयितुमारभते । तं च तावत्संक्रमयति पुनरनादिः । धवाधवावभव्यभव्यापेक्षया । शेषाणां नाम
यावत्सयोगिकेवलिचरमसमयः । ततः क्षपकसयोगिकेवगोत्रवेदनीयानामनुस्कृष्टोऽनुभागसंक्रमस्त्रिविधस्त्रिप्रकारः ।
लिवर्जस्य शेषस्यानुकृष्ट एवानुभाग पतासां संक्रामति । तद्यथा-अनादिरधयो ध्रवश्च । तथाहि-सूदमसम्परायेण
तस्य चादिन विद्यत इत्यनादिः, ध्वाधवा अभव्यभव्यापेक्षक्षपकेण स्वगुणस्थानकस्य चरमसमये तेषां नामगोत्रवे
या । 'अहेत्यादि' अथ शब्दस्तथाविधार्थे । नवकस्य-उद्यो दनीयानां सर्वोत्कृष्टोऽनुभागो बध्यते । बन्धावलिका
तवजर्षभनाराचसंहननौदारिकसप्तकलक्षणस्यानुत्कृष्टोऽनुभा यामतीतायां यावत्सयोगिचरमसमयस्तावत्संक्रामति । गसंक्रमश्चतुर्विधः । तद्यथा-सादिरनादिर्धवोऽधवश्च । तसच सादिर-वश्च । ततोऽन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः । स थाहि-पतेषामुद्योतवर्जानामष्टानां कर्मणाम् सम्यग्दृष्टिदेवोचानादिः, आदरभावात् । धवाऽधवौ पूर्ववत् । उक्त- ऽत्यन्तविशुद्धपरिणाम उत्कृष्टमनुभागं बद्धा बन्धावलिकायाशेषेषु विकल्पेषु द्विधा प्ररूपणा कर्तव्या । तद्यथा-सादि- | मतीतायां संक्रामति । उद्योतनाम्नः पुनः सप्तमनरकपृथिरध्वश्ध । तत्र चतुर्णा घातिकर्मणाम उत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्ये- व्यां वर्तमानो नैरयिको मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपत्तुकापु जघन्यः सादिरध्वश्च भावित एव । उत्कृष्टः कदाचिन्मि- म उत्कृष्टमनुभागबन्धं करोति । ततो बन्धावलिकायामतीध्यारभिवति, अन्यदा तु तस्याप्यनुत्कृष्ठः, अत एतौ सा- तायां संक्रमयति । तं च जघन्येनान्तर्मुहर्तमुत्कर्षतो द्वे षट्चधवौ । शेषाणां चतुर्णामघातिकर्मणां जघन्याजघन्योत्कृष्टेषु षष्टी सागरोपमाणां यावत् । इह यद्यपि सप्तमनरकपृथिव्यां मध्ये उत्कृष्टो भावित एव । जघन्यः सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्यैकेन्द्रिय चरमेऽन्तर्मुहर्तेऽवश्यं मिथ्यात्वं गच्छति यथाऽप्यग्रतने स्य हतप्रभूतानुभागसत्कर्मणो लभ्यते, नान्यस्य । प्रभूतानु
भवेऽन्तर्मुहर्तानन्तरं यः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते स इह गृभागसत्कर्मघाताभावेत तस्याप्यजघन्यः।तत पतावपि सा- ह्यते । ततोऽपान्तराले स्तोको मिथ्यात्वकालो भवन्नपि चिर द्यध्रुवौ । कृता मूलप्रकृतीनां साधनादिप्ररूपणा ॥ सम्प्रत्युत्त- न्तनग्रन्थेषु न विवक्षित इत्यस्माभिरपि द्वे षषष्टी सागरोरप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाह- अहेत्यादि' उत्तरासू | पमाणां यावदित्युक्तम् । तत उत्कृष्टात्प्रतिपतितस्यानुस्कृष्टः । सरप्रकतिषु मध्ये सप्तदशानां कर्मणामनन्तानुबन्धिचतुष्टय- | स च साऽऽदिः। तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । ध्वाधवौ भसंज्वलनचतुष्टयनवनोकषायलक्षणानामजघन्योऽनुभागसंक्र- व्याभव्यापेक्षया । 'एयासि' मित्यादि एतासां सप्तदशषोमश्चतुर्धा । तद्यथा-सादिरनादिर्धवोऽध्वश्च । तथाहि- डशषत्रिंशन्नवकरूपाणां प्रकृतीनामुक्तशेषा विकल्पा उक्तएतेषामनन्तानुबन्धिवर्जानां त्रयोदशकर्मणां स्वस्वक्षयपर्य- सप्तदशादिव्यतिरिक्तानां च शेषप्रकृतीनामशीतिसंख्याना वसानावसरे जघन्यस्थितिसंक्रमकाले जघन्योऽनुभागसंक्र- सर्वेऽप्युत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्या' द्विविकल्पा द्विप्रकाग मः प्राप्यते । अनन्तानुबन्धिनां पुनरुद्वलनासंक्रमेणोद्वल्य ज्ञातव्याः। तद्यथा-सादयोऽध्रवाश्च । तथाहि-सप्तदशानां षाभूयोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययतो बद्धानां बन्धावलिकायामतीता- डशानां चोत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमो मिथ्यादृष्टरुत्कृष्ट संक्लेयां द्वितीयावलिकायाः प्रथमसमये जघन्योऽनुभागसंक्रमः, शे वर्तमानस्य प्राप्यते । शेषकालं तु तस्याप्यनुत्कृष्ठ एव । एतदन्यः पुनः सर्वोऽप्येतासां सप्तदशप्रकृतीनामजघन्यः । अत एव ता द्वावपि साद्यध्रवी जघन्यो भावित एव । तथा स चोपशमश्रेण्यामुपशान्तानामेतासां न भवति ततः प्रति- षत्रिंशत्प्रकृतीनां नवकस्य च जघन्याऽनुभागसंक्रमः सूपाते च भवति, ततोऽसौ सादिः । तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनर
मैकेन्द्रिये हतप्रभूतानुभागसत्कर्मणि प्राप्यते । प्रभूतानादिः । अध्रवधवी भव्याभव्यापेक्षया। तथा पञ्चविधज्ञा- नुभागसत्कर्मघाताभावे तु तस्मिन्नप्यजघन्यस्तत एतौ सानावरणस्त्यानिित्रकवर्जे षड्दर्शनावरणपञ्चविधनान्तराय- घधवौ । उत्कृष्टो भावित एव । शेषाणां प्रकृतीनां सहिनि पलक्षणानां षोडशकर्मणामजघन्योऽनुभागसंक्रमणिविकल्प- नेन्द्रिये पर्याप्ते शुभानां वैक्रियसप्तकदेवद्विकोथैर्गोत्रातत्रिप्रकारस्तद्यथा-अनादिर-वो ध्रुवश्च । तथाहि-पतेषां पतीर्थकराहारकसप्तकमनुजद्विकनरकायुर्वजशषायुस्त्रयरूपाषोडशकर्मणां जघन्यानुभागसंक्रमः क्षीणकषायस्य खगुणगु- णां चतुर्विंशतिसंख्यानां विशुद्धावशुभानां च स्त्यानद्धित्रिणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानस्य कासातवदनीयदर्शनमोहनीयत्रितयाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानाप्राप्यते । ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः तस्य चादिर्न विद्यते वरणकषायनरकायुर्नरकतिकतिर्यग्द्विकपञ्चन्द्रिजातिवर्जइत्यनादिः । अध्वध्रुवी भव्याऽभव्यापेक्षया ॥ ५० ॥ शेषजातिचतुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहननाऽशुभव-- तिविहो छत्तीसाए, ऽणुक्कोसोऽह नवगस्स य चउद्धा ।
दिनवकाप्रशस्तविहायोगत्युपघातस्थावरदशकनीचैर्गोएयासि सेसाऽसे-सगाण सव्वे य दुविगप्पा ॥ ५१ ।।
प्ररूपाणां षट्पञ्चाशत्संख्यानां संक्शे उत्कृष्टो
उनुभागबन्धो लभ्यते । शेषकालं त्वनुत्कृष्टः एवं संक्रमोऽपि । 'तिविहो' त्ति सातवेदनीयपश्चेन्द्रियजातितैजससप्तक
तत एतौ साद्यध्वौ । जघन्योऽनुभागसंक्रमः पुनः सूक्ष्मैकेन्द्रिसमचतुरस्रसंस्थानशुक्ललोहितहारिद्रसुरभिगम्धकषायाम्ल
ये हतप्रभूतानुभागसत्कर्मणि प्राप्यते । प्रभूतानुभागसत्कर्ममधुरमृदुलघूष्णशीत ( निग्धोष्ण ) लक्षणशुभवर्णाधेका
घाताभावे तु तस्मिन्नप्यजघन्यः । तत एतावपि साद्यध्रयो । दशकागुरुलघूच्छासपराघातप्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशकनिर्माणलक्षणानां षट्त्रिंशत्प्रकतीनामुत्कष्टोऽनुभागसंक्रम- कृता साधनादिप्ररूपणा । सम्प्रति स्वामित्वं वक्तव्यम् । त्रिविधस्त्रिप्रकारः। तद्यथा-अनादिर्धवोऽधवश्व । तथा- तश द्विधा उत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामित्वं, जवन्यानुभागसंहि-त्रासां पत्रिंशत्प्रकृतीनां सपक आत्मीयात्मीयबन्धव्य- क्रमस्वामित्वं च। तत्रोत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामित्वमभिधि
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( २४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संकम
त्सुस्तत्कालप्रमाणनियमनार्थमिदमाहउकोसगं पबंधिय, आवलियमइच्छिऊण उक्कोसं । जावं न घाण तगं, संकमइ य आहुतो ॥५२॥ 'उकोसमं' ति-- मिथ्यादृष्टिरुत्कृष्टमनुभागं वज्रा तत श्रावलिकामतिक्रम्यः बन्धावलिकायाः परत इत्यर्थः । तमुत्कृष्टमनुभागं संक्रमयति तावद्यावन्न विनाशयति । कियन्तं कालं यावत्पुनर्न विनाशयतीति चेदुच्यते श्रा मुहूर्तान्तः श्रन्तर्मुइर्ते यावदित्यर्थः । परतो मिथ्यादृष्टिः शुभप्रकृतीनामनुभागं संक्शन अशुभप्रकृतीनां तु विशुद्धयाऽवश्यं विनाशयति । सम्प्रति स्वामी प्रतिपाद्यते - असुभाणं अमयरो, सुहुम अपजतगाइ मिच्छो य । जय असंखवासा-- उए य मणुश्रववाए य ॥ ५३ ॥ 'असुभाणं ' ति - श्रशुभानां प्रकृतीनां पञ्चविधज्ञानावरनवविधदर्शनावरणाखातवेदमीयाष्टाविंशतिविधमोहनीयनरकद्विकतिर्यद्विपञ्चेन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्ज संहनन नीलकृष्ण दुरभिगन्धतिक्तकटुकरूक्षशीतकर्कश गुरूपघाता प्रशस्तविहायो गतिस्थावरसूक्ष्म - साधारणापर्याप्तास्थिराशुभदुर्भगदुः स्वरानादेयायशः कीर्तिनी - चैत्रपञ्चविधान्तराय लक्षणानामष्टाशीतिसंख्यानामन्यतरः सूक्ष्मापर्यातादिः, आदिशब्दात्-- पर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तापर्यातबादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंशिसंशितिर्यकृपञ्चेन्द्रियमनुष्यदेवनारकपरिग्रहः । तत एतेषामन्यतमो मिध्यादृष्टिरुत्कृष्टमनुभागसंक्रमं करोति । कंबलमसंख्येयवर्षायुषो मनुष्यति - रक्षो ये च देवाः स्वभवाच्च्युता मनुष्येषूत्पद्यन्ते तांश्च मनुयोपपातान् श्रानतप्रमुखान् देवान् वर्जयित्वा । एते हि मिथ्यादृष्टयोऽपि नाशुभप्रकृतीनामुक्तस्वरूपाणामुत्कृष्टमनुभागं बध्नम्ति, तीव्र संक्लेशाभावात् । ततश्चोत्कृष्टानुभागलंक्रमाभाव इति तेषां वर्जनम् । सव्वत्थायावुञ्ज-यमणुयगइपंचगाण आऊणं । समयाहिगालिगा से --सग तिं सेसाण जोगंता ॥ ५४ ॥ 'सम्वत्थ' ति — सर्वत्र--सर्वेषु सूक्ष्मापर्याप्तादिषु नैरयिकपर्यवसानेषु असंख्येयवर्षायुस्तिर्यग्मनुष्येषु मनुष्योपपातेषु च देवेषु मानतादिषु मिथ्यादृष्टिषु सम्यग्दृष्टिषु वा । श्रातपस्योद्योतस्य मनुजगतिपञ्चकस्य मनुजगतिमनुजानुपूयदारिकद्विकवर्षभनाराच संहननलक्षणस्य अत्रीदारिकद्विकग्रहणादशैदारिकसप्तकं गृह्यते, तथा विवक्षणात् । ततः सर्व संख्यया द्वादशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमो वे. दितम्यः । तथाहि - सम्यग्दृष्टिः शुभमनुभागं न विनाशयति, किं तु विशेषतो द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां यावत् परिपालयति । तत उत्कर्षत एतावन्तं कालं यावदुत्कृष्टमनुभागमविनाश्य पञ्चात्सर्वत्र यथायोग्यमुत्पद्यते । ततो मिथ्यादृष्टिष्वप्यनन्तरोक्तप्रकृतीनामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमो ऽन्तर्मुइसे कालं यावदवाप्यते । मिथ्यादृष्टिनैव बध्यते । ततो न तत्र तयोरुत्कृष्टानुभागसंक्रमाभावः । मिथ्यात्वाच्च प्रतिपत्य सम्यक्त्वं गते सभ्यगावपि प्राप्यते । न च सम्यग्दृष्टिः सन् तयोरुत्कृष्टमनुभागं विनाशयति, शुभप्रकृतित्वात् ततो द्वे भी अपि
तपोद्योतयोश्चोत्कृष्टोऽनुभागो
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संक्रम
सागरोपमाणां यावदुत्कर्षतस्तयोस्तत्र संक्रमो द्रष्टव्यः । तथा चतुर्णामायुषामुत्कृष्टमनुभागं वडा बन्धावलिकायामतीतायां यावत्स्मयाधिकावलिका शेषा तावदुत्कृष्टानुभागसंक्रमः प्राप्यते । शेषाणां तु शुभप्रकृतीनां सातावेदनीयदेवद्विकपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रिय सप्तकाहारकलप्त कतैजससप्तकसमचतुरस्र संस्थानशुक्ललोहितहारिद्रवर्णसुरभिगन्धकषायाम्लमधुररसम्मृदुलघुस्निग्धोष्ण स्पर्शप्रशस्तविहायोगत्यु - च्छ्रासागुरुलघुपराधातत्र सादिदशनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्रल
क्षणानां चतुःपञ्चाशत्संख्यानामात्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छेदस मये उत्कृष्टमनुभागं बच्चा बन्धावलिकायाः परतस्तावदुत्कृष्टमनुभागं संक्रमयति यावत्सयोगिकेवलिचरमसमयः । तथा चैतासां प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभाग संक्रमस्वामिनः प्रायो ऽपूर्वकरणादयः सयोगिकेवलिपर्यवसाना द्रष्टव्याः । तदेवमुक्त उत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामी, संप्रति जघन्यानुभागसंक्रमस्वामिनं प्रतिपिपादयिषुर्जघन्यानुभाग
संक्रमसम्भवपरिज्ञानार्थमाह
खवगस्संतरकरणे, अकए घाई सुहुमकम्मुवरिं । केवलिणोऽणंतगुणं, असमिश्र सेस सुभाणं ।। ५५ ।। 'खवगस्स' सि- यावद्द्याप्यन्तरकरणं न विधीयते तावत्क्षपकस्य सर्वघातिनीनां देशघातिनीनां च प्रकृतीनां सम्बम्धी अनुभागः सूक्ष्मैकेन्द्रिय सत्कादनुभागसत्कर्मणो ऽनन्तगुणो भवति । अन्तरकरणे तु कृते सति सूक्ष्मैकेन्द्रियस्यापि सत्कादनुभागसत्कर्मणो हीनो भवति । तथा शेषाणामप्यघातिनीनामशुभप्रकृतीनामसात वेदनीयप्रथमवर्ज संस्थानप्रथम वर्ज संहनन कृष्ण नीलवुरभिगन्धतिक्तक दुगुरुकर्कशरूक्षशीतोपघाताप्रशस्तविहायोगति दुर्भगदुःखरानादेयास्थिराशुभपर्याप्तायशः कीर्तिनीचैर्गोत्रलक्षणानां त्रिंशत्संख्यानां केवलिनोऽनुभागसत्कर्म असंशिपञ्चेन्द्रियसत्कादनुभागसत्कर्मयोऽनन्तगुणं वेदितव्यम् । तथा च सति सर्वघातिनीनां देशघातिनीनां च प्रकृतीनां जघन्यानुभागसंक्रमसम्भवः क्षपकस्यान्तरकरणे कृते सति वेदितव्यः । शेषाणां त्वशुभप्र कृतीनामुक्तरूपाणां जघन्यानुभागसंक्रमसंभवः, न सयोगिकेवलिनि, किं तु इतसत्कर्मणः सूक्ष्मैकेन्द्रियादेः, तस्यैव वक्ष्यमाणत्वात् ।
इह 'संकमई य श्रामुडुसंतो' इति वचनात्सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा किलान्तर्मुहूर्तात्परतः सर्वप्रकृतीना
मनुभागद्यातं कुर्वन्तीति प्रसक्तम्-तत्रापवादमाहसम्मद्दिट्ठी न हाइ, सुभाणुभागे असम्माद्दिट्ठी वि । सम्मतमीसगाणं, उक्कोसं वजिया खवणं ॥ ५६ ॥ 'सम्महिट्ठि' सि-इह याः शुभप्रकृतयः सातबेदनीयदेवह्निकमनुजद्विकपञ्चेन्द्रियजातिप्रथम संस्थानप्रथम संहन मौदारिकवैकिय सप्तकाहार कसप्तक तेजस सप्तकशुभवर्णाचेकादशकागुरुलघूपधातोला सातपोद्योतप्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशकनिर्माणतीर्थकरोबैगोंत्रलक्षणाः पवष्टिसंख्यास्तासां स
सामपि शुभमनुभागमुत्कर्षतो हे पदवी सागरोपमाणां यावत्सम्यगर्मि विनाशयति । असम्यगृष्टिर्मिथ्यादृष्टिः । अपिशब्दात्सम्भण्डष्टि सम्यग्मिथ्यात्वयोरुत्कृष्टमनुभाग
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संकम
न विनाशयति । क्षपणं - क्षपणकालं वर्जयित्वा । एतदुक्तं भवति -- क्षपणकाले सम्यग्दष्टिरपि सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरुत्कृष्टमनुभागं विनाशयति तेन क्षपणको वर्ज्यते । तथा चोतं पञ्चसंग्रहम्लटीकायाम्" सम्पन्ष्टयो मि
श्यारष्ट्रयश्च
सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्नोत्कृष्टमनुभागं विनाशयन्ति अपि तु रूपकः सम्यग्दृष्टिर्विनाशपति उभयोरपि दृष्ट्योरिति " मिध्यादृष्टिः पुनः सर्वासामपि शुभप्रकृतीनां संज्ञेयेनाशुभप्रकृतीनां तु विशुपान्तर्मुइतत्परत उत्कृष्टमनुभागमवश्यं विनाशयति ।
तदेवं जघन्यानुभासक्रमस्वामित्वप्रतिपादनाय भावना कृता । सम्प्रति जघन्यानुभागसंक्रमस्वामित्वमेवाहअंतरकरणा उवरिं, जहनठिइसकमो उ जस्स जहिं । घाई नियगचरम- रसखंडे दिडिमोहदुगे ।। ५७ ।। 'अंतरकरण' ति अन्तरकरणादूर्ध्व घातिकर्मप्रकृतीनां मध्येयस्याः प्रकृतेर्यत्र गुणस्थानके जघन्यस्थितिसंक्रम उक्तः, तस्यास्तत्र जघन्यानुभागसंक्रमोऽपि वेदितव्यः प भवति - अन्तरकरणे कृते सति अनिवृत्तिवाद संपरायक्षपको नवनोकषायसंज्वलनचतुष्टयानां क्षपणक्रमेण जघम्यस्थितिसंक्रमकाले जघन्यानुभागसंक्रमं करोति, मानापरपञ्चकान्तरायपञ्चकच दुरच सुरधिकेवलदर्शनावरणनिद्राप्रचलारूपदर्शनापरपदानां क्षीणकषायः समयाधिकालिकाषायां स्थितौ वर्तमानो जघन्यानुभागसंक्रम क. रोति 'नियमे यादि दर्शनमोदनीयद्विकस्य सम्पत्यसम्म ध्यात्वरूपस्थापकाले निजकचरमरसखण्डे आत्मीयात्मीयचरमरस खड] संक्रमणकाले जघन्यानुभागक्रमो भवति । आऊ जणाठि, बंधिय जाव स्थि संकमो ताब । उम्बलयतिरसंजो - यथा य पढमालियं गंतुं ॥ ५८ ॥ 'आऊपसि चतुर्णामप्यायुजन्य स्थिति बढ़ा, जयम्यां हि स्थिति बध्नन् जघन्यमनुभागं वध्नातीति जघन्यस्थितिब्रहम् । ततो जयम्यां स्थिति बड़ा बन्धावति कायाः परतस्तावज्जघन्यानुभाग संक्रमयति यावत्समयाधिकालिका शेषा भवति । ततो जघन्यां स्थिति बद्धा याबदस्ति संक्रमस्तावज्जघन्यानुभाग संक्रमः प्राप्यते । तथा नरकद्विकमनुजद्विकदेषद्विक वैक्रिय सप्तकाहारक सप्तकोचैर्गोत्रलइदानामेकनि प्रकृतीनां तीर्थकरवानाध [च] जयम्यमनुभाग बड़ा प्रथमापतिकां बन्धावलिकाल गत्वाऽतिक्रम्य बन्धावलिकायाः परतः इत्यर्थः । जघन्यमनुभार्ग संक्रमपति का समयतीति बेच्यते-पेयकदेवद्विकनरकद्विकानामसंशिपञ्चेन्द्रियः, मनुष्यद्विकोगों प्रयोः सूचमभिगोः आहारक सप्तकस्यामतः तीर्थकरस्या विरतसम्यदति, अनानुपधात्कृतसम्म यादृष्टि संक्रमयतीति ।
( २५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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साय सुमहय-तकम्मिगो तस्स हेट्ठो जाव । बंध तावं ए-िदिओ वयेगिंदि वाऽवि ॥ ५६ ॥ 'सेसाथ' सि-उक्तशेषाणां शुभानामशुभानाम् प्रकृतीनां सप्रतियानां यः केन्द्रियो वायुकाधिकोऽनिकायकोपा कमी विनाशितं प्रभूतमनुभागसरक
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संकम
र्म येन स इतसत्कर्मा, स तस्यारमसत्कस्यानुभागसत्कर्मसोधस्तात्। ततः स्तोकतर मित्यर्थः, अनुभागं तापघ्नाति यावदेकेन्द्रियस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा एकेन्द्रियभवे वर्तमानोऽकेन्द्रियति स एव इतसत्कर्मा एकेन्द्रियो ऽन्यस्मिन डी न्द्रियादिभवे वर्तमानो यावदन्यं वृहत्तरमनुभागं न बध्नाति तावसमेव जघन्यमनुभागं संक्रमयति ।
तदेवमुक्तोऽनुभागसंक्रमः । सम्प्रति प्रदेशसंक्रमाभिधानावसरः । तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः, तद्यथा - सामान्यलभदेः साधनादिरूप प्रदेशस्वामी जघन्य प्रदेशसंक्रमस्वामी च । तत्र सामाम्यलक्षणप्रतिपादनार्थमाह
जं दलियम पग, निजइ सो संकमो परसस्स । उच्चलयो विज्झाओ, महापवतो गुणो सच्चो ॥६०॥ जं'ति' - यत्संक्रमप्रायोग्यं दलिकं कर्मद्रव्यम् अन्यप्रकृति नीयेत अन्यप्रकृतिरूपतया परिणम्यते स प्रदेशसंक्रमः । उक्कं सामान्यलक्षणम् ॥ सम्प्रति भेदमाद उल इत्यादि। प्रदेशसंक्रमः पञ्चधा । तद्यथा— उहलनासंक्रमः विध्यातसंक्रमः यथाप्रवृत्तसंक्रमः गुणसंक्रमः सर्वसंकमध तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात्प्रथमत उछलनासंक्रमस्य लक्षणमभिधीयते इहानन्तानुबन्धिचएयसम्यक्त्यसम्य
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मिथ्यात्वदेवद्विकनरकद्विकवैकियसप्तकाहारकखप्तकमनुजद्विको लक्षणानां सप्तविंशतिप्रकृतीनां प्रथमतः पल्पोपमासंपेषभागमार्थ स्थितिखण्डममुहूर्तेन कालेनोत्किरति । ततः पुनरपि द्वितीयं स्थितिखण्ड पल्योपमासंख्येयभागमात्रमेव केवलं प्रथमात् स्थितिबण्डात् विशेषहीनमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोरिकरति । ततोऽपि तृतीयं स्थितिखण्ड पत्योपमासंब्वेयभागमात्रम् द्वितीयादस्थि तिखण्डान् विशेषहीनमन्तर्गुइन कालेनोरिति । एवं पत्योपमासंख्येय भागमात्राणि स्थितिखण्डानि पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् स्थितिखण्डाद्विशेषहीनानि तावद्वाप्यानि यावत् द्विचरमं स्थितिखण्डम् सर्वाण्यपि च तानि प्रत्येकमस्तर्मुहूर्तेन कालेनोस्कीले इह च द्विधा प्ररूपणा शन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च । तत्रानन्तरोपनिधया प्रथमस्थितिखण्डस्य प्रभूता स्थितिः । ततो द्वितीयस्य विशेषहीना । ततोऽपि तृतीयस्य विशेषहीना । पर्ष यावद् द्विचरमं स्थितिखण्डम् कृताऽनन्तरोपनिषा प्ररूपया ॥ संप्रति परम्परोपनिधया क्रियते—-तत्र प्रथमस्थितिखरडापेक्षया कानिचित् स्थितिखण्डानि स्थित्यपेक्षयासंख्येयभागहीनानि कानिचित्संख्येयभागहीमानि कानिचित्
पेयगुणहीनानि कानिचिदसंख्येयगुरु दीनानि । यहा तु प्रदेशपरिमाणं वियते, तदा प्रथमस्थितिखरडा द्वितीयं स्थितिखण्डं दलिकापेक्षया विशेषाधिकम् । ततोऽपि तृतीयं विशेषाधिकम् एवं तावद्वाच्यं यावत् द्विचरमं स्थितिखण्डम् । इयमनन्तरोपनिधा परम्परोपनिधा पुनरियम् प्रथमात् स्थितिखण्डाइलिकमपेक्ष्य किंचिदसंक्येयभागाधिकम् किं. चित्संख्येयभागाधिकम्, किंचित्संबंद यगुणाधिकम्, किंचिदसंयगुणाधिकम् स्थितिखण्डानां चोत्करणविधिरयम्प्रथमसमये लोकं किमुरिति द्वितीये सम
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वार्थ:
संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम यगुणम् । ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । एवं ताव- द्रष्टव्या । अविरतिश्चानन्तमपि कालं यावद्भवति, ततो निद्वाच्यं यावदन्तर्मुहूर्तस्य चरमसमयः । गुणकारश्चात्र प- यममाह-'पल्लभागे असंखतमे' पल्योपमस्यासंख्येयतल्योपमासंख्येयभागलक्षणो वेदितव्यः । एवं सर्वेष्यपि स्थि- मेन भागन-सर्वमुद्वलयतीत्यर्थः । तिखण्डेषु द्रष्टव्यम् । दलिकं चोत्कीर्य क्क प्रक्षिप्यत इति चे- अंतोमुत्तमद्धं, पल्लासंखिञ्जमित्तठिइखंडं । दुच्यते-किंचित्स्वस्थाने किंचित्परस्थाने । तत्र कियत्प्रक्षि
उकिरइ पुणो वि तहा, उणूणमसंखगुणहं जा ॥ ६२॥ प्यत इति विशेषतो निरूप्यते-प्रथमे स्थितिखण्डे प्रथमसमये यत्कर्मदलिकमन्यप्रकृतिषु प्रक्षिपति तत् स्तोकम् । य
'अंतोमुहुत्तं' ति-अन्तर्मुहूर्तप्रमाणामद्धां यावदन्तर्मुहूर्तेनत् स्वस्थान पवाधस्तात्प्रक्षिप्यते तत्ततोऽसंख्येयगुणम् ।
कालेनेत्यर्थः। पल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डमुत्किर
ति । एष विधिः प्रथमखण्डस्य ॥ ततः पुनरपि तथा तेनैव ततोऽपि द्वितीयसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते तदसंख्येयगु
प्रकारेणान्तर्मुहर्तेन कालेनाम्यत् पल्योपमासंख्येभागमा णम् । परप्रकृतिषु पुनर्यत् प्रक्षिप्यते तत्प्रथमसमयपरस्थानप्रक्षिप्ताद्विशेषहीनम् । तृतीयसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते
खण्डं पूर्वस्मादूनमूनतरमुत्किरति । एवं तावद्वाच्यं यावद् तत् द्वितीयसमयस्वस्थानप्रक्षिप्तादसंख्येयगुणम् । यत्पुनः--
द्विचरमं स्थितिखण्डम् । तच्च प्रथमस्थितिखण्डापेक्षयापरप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते,तत् द्वितीयसमयपरस्थानप्रक्षिप्ताद्विशे
ऽसख्येयगुणहीनम्। पहीनम् । एवं तावद्वाच्यं यावदन्तर्मुहर्तचरमसमयः । एवं स
__ तं दलियं सत्थाणे, समए समए असंखगुणियाए । वैयपिस्थितिखण्डेषु विचरमस्थितिखण्डपर्यवसानेषुवाच्य
सेढीए परठाणे विसेसहाणीऍ संछुभइ ॥ ६३॥ म्।सम्प्रति चरमखण्डस्य विधिरुच्यते-चरमस्थितिखण्डं द्वि
'तं' ति-तदुत्कीर्यमाणं दलिकं समय समये स्वस्थाने प्रचरमस्थितिखण्डापेक्षयाऽसंख्येयगुण तदपि चरमस्थितिख
संख्येयगुणितया श्रेण्या संखुभते-प्रक्षिपति । यत्पुनः परएडमन्तर्मुहर्तेन कालनोत्कीयते । तस्य च यत्प्रदेशाग्रं तदु
स्थाने परप्रकृती तद्विशेषहान्या । तद्यथा-प्रथमसमये यत् प... दयावलिकागतं मुक्त्वा शेष सर्वे परस्थाने प्रक्षिपति । त
रप्रकृती प्रक्षिपति तत् स्तोकम् । यत्पुनः स्वस्थाने पवाथैवम्-प्रथमसमये स्तोक, द्वितीये समयेऽसंख्येयगुणं, ततो- धस्तात् प्रक्षिप्यते, तत्ततोऽसंख्येयगुणम् । ततोऽपि द्वितीऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् , एवं यावश्चरमसमयः ।
यसमये यत् स्वस्थाने प्रक्षिप्यते तदसंख्येयगुणम् । परप्रचरमसमये तु यत्परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते दलिकं स सर्वसंक्रम
कृतिषु पुनर्यत् प्रक्षिप्यते तत्प्रथमसमये परस्थानप्रक्षिप्ताउच्यते । तत्र यावत्प्रमाणं विचरमस्थितिखराडसत्कं कर्म- द्विशेषहीनम् । एवं तावत्पतिसमय वाच्यं यावदन्तर्महर्तदलिकं चरमसमय परप्रकृतिषु संक्रमयति, तावत्प्रमाणंचे- स्य चरमसमयः । एष प्रथमस्थितिखण्डस्योत्करणविधिः । चरमस्थितिखण्डस्य कर्मदालिकं प्रतिसमयमपहियते ताई
। एवमन्येषामपि द्रष्टव्यम् । तच्चरम स्थितिस्वरडमसंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवर्पिणीभिनि- जं दुचरमस्स चरिमे, अन्नं संकमा तेण सव्वं पि। लेपीभवति पचा कालतो मार्गणा । क्षेत्रतः पुनरियम्-याव- अंगुलअसंखभागे-ण हीरए एस उव्वलणा ।। ६४॥ स्प्रमाणं विचरमस्थितिखण्डसत्कं कर्मदलिकं परप्रकृतिषु 'ज' ति-द्विचरमस्थितिखण्डस्य चरमसमये यत् कर्मदलिसंक्रमयति , सावत्प्रमाणं कर्मवलिकं चरमस्थितिखण्डस्य कमन्यां प्रकृति संक्रमयति , तेन मानेन तावत्प्रमाणेन सत्कमेकत्रापहियते, अन्यत्र एक आकाशप्रवेशः । एवम- बलिकेनेत्यर्थः । यदि चरमं स्थितिखण्डमपहियते, ततः पहियमाणं परमस्थितिखण्डमकुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशे- कालतोऽसंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते क्षेत्रतः रसंक्येयतमेन भागेनापड़ियते । अकुलस्यासंख्येयतमे भागे पुनरगुलमात्रक्षेत्रासंख्येयतमेन भागेन । एषा प्रागुक्ला द्विपाचन्त भाकाशप्रवेशास्तावन्ति चरमस्थितिस्वराडे यथोक्लम- चरमस्थितिखण्डं यावदाहारकसप्तकस्योलना । भाणानि स्वरानि भवन्तीत्यर्थः । यावत्प्रमाणं पुनर्विचर
सम्प्रति चरमस्थितिखण्डकस्य वक्तव्यतामाहमस्थितिखण्डसत्कं कर्मवलिकं स्वस्थाने संक्रमयति , ताप
चरममसंखिजगुणं, अणुसमयमसंखगुणियसेढीए । त्यमाणं चेच्चरमस्थितिखएजस्थ कर्मदलिकं प्रतिसमयमपहियते तर्हि तच्चरम स्थितिखण्डं पल्योपमासंख्येयभा
देइपरत्थाणे ए-वं संछुभतीणि(एव)मविकसिणो ॥६५॥ गमात्रगतैः समयैर्निर्लेपीभवति ।
'चरम' ति-द्विचरमस्थितिखण्डाधरम स्थितिखण्डं स्थि
त्यपेक्षयाऽसंख्येयगुणम् । तथा तस्य चरमखण्डस्य यत्प्रदेतदेवमुक्तसवलनासंक्रमलक्षणम् । सम्प्रत्येतदेव लक्षणं योजयबाहारकसप्तकस्योवलनासंक्रमकारकमाह
शाग्रं तवुदयावलिकागतं मुक्त्वा शेषं परस्थाने परप्रक
तिषु । अनुसमयम्-प्रतिसमयम् असंख्येयगुणनया श्रेण्या माहारतरण भिन्नम-हुत्सा अविरहगमो पउध्वलए ।
प्रक्षिपति । तद्यथा-प्रथमसमये स्तोकम् , द्वितीयसमयेऽसंजा अविरतो त्ति उपल-पल्लभागे भसंखतमे ॥६१॥ क्येयगुणम् , तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । एवं यावच्चरम'पाहार' सि-आहारकसप्तकसत्कर्माऽपिरतिषिरत्यभावं समयः । एवममुना प्रकारेण परप्रकृती प्रक्षिप्यमाणानां प्रगतः सन् अन्तर्मुहर्तात्परत आहारकतनुम् , इहाहारक- कृतीनाम् । अपिः सम्भावने । चरमसमये यः कृत्स्नसंक्रमो महणेनाहारकसप्तकं गृहीतं द्रष्टव्यम् । तत पाहारकसप्त
भवति स सर्वसंक्रमः। एतेन सर्वसंक्रमस्य लक्षण प्रतिपाकम् । 'पउब्बलए ' ति प्रोक्लयति । कियता पुनः का- दितं द्रष्टव्यम् । लेनोइलयतीति चेदुच्यते-यावदविरतिस्तावद्यलयति ।। सम्पति बेदकसम्यक्त्यादीनामुखलनासंक्रमकारकानाहएतेनाविरतिप्रत्यया भाहारकसप्तकस्योबलना प्रतिपादिता एवं मिच्छादिद्वि-स्स बेयगं मीसगं ततो पच्छा।
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संकम ___ अभिधानराजेन्द्रः।
संकम एगिदियस्स सुरदुग-मश्रो स वेउब्बिनिरयदुगं ॥६६॥
त्कुमारादयः । संहननषदसमचतुरनवर्जसंस्थानपञ्चकनपुंस'एवं' ति-अष्टाविंशतिसत्कर्मा मिथ्यादृष्टिः प्रथमत एवमु.
कवेदमनुजद्विकौदारिकसप्तकतिर्यगेकान्तयोग्यस्थाबरादिप्रपदर्शितेन प्रकारेण सम्यक्त्वमुद्वलयति, ततः सम्यग्मि
कृतिदशकदुर्भगादित्रिकनीचैर्गोत्राप्रशस्तविहायोगतिप्रकृतीध्यात्वम् । तथा एकेन्द्रियाहारकसप्तकरहिता या नामक
नां स्वसंख्येयवर्षायुषः । एवं यस्य यत् यत् कर्म भवप्रत्ययतो भणः पञ्चनवतिप्रकृतयस्तत्सत्कर्मा देवगतिदेयानुपूव्यौ पूर्वो
गुणप्रत्ययतो वा न बन्धमायाति तत्तत्तस्य तस्य विध्यातसं. क्लेन विधिना युगपद्वलयति ततोऽनन्तरं वैक्रियसप्तकं नर
क्रमयोग्य वेदितव्यम् । दलिकप्रमाणनिरूपणार्थमिदमाह
'अंगुले' त्यादि यावत्प्रमाणं कर्मदलिकं प्रथमसमये विध्याकद्विकं च युगपदुद्रलयति ।
तसक्रमेण परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते, तेन मानेन शेषस्य दलिसहमतसेगो उत्तम-मयो य नरदगभहानिय द्विम्मि ।
कस्यापहारे क्रियमाणेऽङ्गलस्यासंख्येयतमेन भागेनापहारो छत्तीसाए नियगे, संजोयणदिट्ठिजुयले य ।। ६७॥ भवति । इयमत्र भावना-यावत्प्रमाणं प्रथमसमये कर्मदलिक 'सुहुम' ति-सूक्ष्मप्रसस्तैजस्कायिको वायुकायिकश्च । उत्त.
विध्यातसंक्रमेण प्रकृत्यन्तरे प्रक्षिप्यते, तावत्प्रमाणैः स्वराडैः मं गोत्रमुच्चैर्गोत्रम् । प्रथमतः पूर्वोक्नेन विधिनोवलयति ।
शेष सर्वमपि तत्प्रकृतिगतं दलिकमपहियमाणमङ्गलमात्रस्य सतो नरविकं-मनुजगतिमनुजानुपूलक्षणम् । तदेवं मि
क्षेत्रस्यासंख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्संध्यारष्टरुदलना प्रतिपादिता ॥ सम्प्रति सम्यग्दृष्टः प्रतिपा
ख्याकैरपहियते । इदं क्षेत्रतो निरूपणम् । कालतस्त्वसंख्ये
याभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहारः । अयं च विध्यातसंक्रमः चते-'अहानियहिम्मि छत्तीसाए' ति अथशब्दोऽधिकागन्तरसूचकः । किमिदमधिकारान्तरमिति चेदुच्यते-प्रा
प्रायो यथाप्रवृत्तसंक्रमावसाने वेदितव्यः। (गुणसंक्रमस्य नीनां प्रकृतीनामुखलना पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण का
लक्षण 'गुणसंकम' शब्दे तृतीयभागे ६३० पृष्ठे गतम् ।) लेन भवति यथायोगं मिथ्यादृष्टेश्व, वक्ष्यमाणानां चान्तर्मु- सम्प्रति यथाप्रवृत्तसंक्रामस्य लक्षणं प्रतिपादयतिइर्तेन कालेन सम्यग्दृष्टीनां चेत्यधिकारान्तरता । अनिवृ
बंधे अहापवत्तो. परित्तिो वा प्रबंधे वि॥६६॥ सावनिवृत्तबादरसम्पराये षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामुलना । एतदु तं भवति-अनिवृत्तिबावरसम्परायःक्षपकः स्त्यानक्षित्रिकना- 'बंधे'इत्यादि,ध्रुवबन्धिनीनां प्रकृतीनां बन्धे सति यथाप्रवृत्तमत्रयोदशकाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकनवनोक- संक्रमः प्रवर्तते । परिसिो वा इति, परि'त्ति अनेन परावपायसंज्वलनक्रोधमानमायालक्षणाः षद्भिशत्प्रकृतीः स्वस्वक्षः। तमानाः प्रकतय उच्यन्ते । तासामबम्धेऽपि प्रास्तां बम्धेपणकालेऽन्तर्मुहूर्तेन कालेनोवलयति। 'नियगे' इत्यादि,निज- इत्यपिशब्दार्थः, यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति । इयमत्र भावनाके-आत्मीये क्षपके-स्वक्षपके,अविरतसम्यग्दृष्टयादावित्यर्थः।। सर्वेषामपि संसारस्थानमसुमतां ध्रुवबन्धिनीनां बन्धे परावसंयोजनदृष्टियुगले च । अत्र षष्ठयर्थे सप्तमी, संयोजनानाम- र्तमानप्रकृतीनां तु स्वस्खभषबन्धयोग्यानां बम्धेऽवन्धे वा मन्तानुबन्धिना रष्टियुगलस्य च मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयो- यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति । श्व पूर्वोक्नविधिनोवलनाऽन्तर्मुहूर्तेन कालेनाषगन्तव्या।
सांप्रतमेतैरेषोलनासंक्रमविध्यातसंक्रमगुतदेषमुलनासंक्रम उक्तः । सम्प्रति विध्यातसंक्रमस्य लक्ष
णसंक्रमयथाप्रवृत्तसंक्रमरपहारकालएमाह
स्याल्पबहुत्वमभिधीयतेजासि न बंधो गुणभव-पच्चयो तासि होह विन्भायो। भंगुलभसंखभागो, ववहारो तेण सेसस्स ॥ ६८ ।।
थोवोवहारकालो, गुणसंकमणेण संखगुणणाए।
सेसस्स हापवत्ते, विज्झाए उब्बलणनामे ॥ ७० ॥ 'जासि'ति-यासां प्रकृतीनां गुणप्रत्ययतो भवप्रत्ययतो षा बन्धो न भवति तासां विध्यातसंक्रमोऽवसेयः। कास्ता | 'थोषो' सि-उबलनासंक्रमाभिधानाषसरे यस्पागभिहितंच. भषप्रत्ययतो गुणप्रत्ययतो वा बन्धं नायान्तीति चेदुच्यते- रमखण्डं तच्छेषमित्युच्यते । तस्य शेषस्य यदि गुणसंकबह या मिथ्याष्टिगुणस्थानान्ताः षोडश प्रकृतयस्तासां सा- ममानेनापहारः क्रियते, ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण कालेन सकसादनाविषु गुणप्रत्ययतो बम्धो न भवति । सासादनान्तानां लमपि तदपहियते । ततो गुणसंक्रमेणापहारकालः सर्वपश्चविंशतिप्रकृतीनां सम्यग्मिध्यारष्टयादिषु, अविरतसम्य- स्तोकः । ततो यथाप्रवृत्तसंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः । गायन्तानां दशानां देशविरतादिषु, देशविरतान्तानां च यतस्तदेव चरमखएवं यदि यथाप्रवृत्तसंक्रमेणापहियते चतरुण प्रमत्तादिषु, प्रमत्तान्तानां षधामप्रमत्तादिषु, गुण- सहि पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेनापहियते । ततो प्रत्ययतो बन्धो न भवति। ततस्तासांतत्र तत्रविध्यातसंक्रमः | विध्यातसंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः । यतस्तदेव च प्रवर्तते। तथा बैक्रियसप्तकदेवद्विकनरकद्विकैकेन्द्रियद्वीन्द्रिय. रमत्रराड यदि विध्यातसंक्रमेणापहियते ततोऽसंख्येयाभिश्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिस्थावरसूचमसाधारणापर्याप्ताऽतप- रुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते। ततोऽप्युद्धलनासंक्रमेणालक्षणानां विंशतिप्रकृतीनां नैरयिका मिथ्यात्वादिरूपे देती। पहारकालोऽसंख्येयगुणः । तथाहि-तदेव चरमखएई विद्यमानेऽपि भवप्रत्ययतो बन्धका न भवन्ति । नरकटिकदे- विचरमस्थितिखण्डस्य चरमसमये यत्परप्रकृती प्रक्षिप्यते परिकक्रियसप्तकशित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्तसाधा- तेन मानेन चेदपहियते , ततोऽतिप्रभूताभिरसंख्येयोत्सरणानां सप्तदशमकृतीनां समस्ता अपि देवा भषप्रत्ययतो बन्ध- पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते। ततः पाश्चात्यादयमद्वलनासंकानोपजायन्ते। एकेन्द्रियजास्यातपस्थावरमानामपितु सन-। क्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः।
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(२) अभिधान राजेन्द्रः ।
संकम
इह प्राग्यथाप्रवृत्तसंक्रमस्य कालो नोक्तः, उद्वलनासंक्रमेsपि यद् द्विचरमं स्थितिखण्डं तस्य चरमसमये स्वस्थामे कर्मलि प्रक्षिप्यते तेन मानेन शेषस्य परमस्थितिखण्डस्यापहारकालो मोक्तस्ततस्तन्निंरूपणार्थमाहपद्मासंखियभागेण - हापवतेय सेसगऽवहारो । उब्वलणेण वि धिषुगो अणुइचाए उ जे उदय ॥ ७१ ॥ 'पक्ष' सिउद्बलनासंक्रमे यच्चरमं स्थितिखण्डं तस्य यदि यथाप्रवृत्तसंक्रममानेनापहारः क्रियते, तहिं पत्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन निःशेषतोऽपदारो भवति ।
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नासंक्रमेणापि द्विचरमस्थितिखण्डकस्य चरमसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते दलिकं तेन मानेन चरमस्थितिचडस्पापहारकालः पत्योपमासंपेपभागलक्षणो बेदितयः । तत पती द्वापि तुल्यो । इहान्योऽपि षष्ठः स्तदुकसंक्रमोऽस्ति परं नासौ संक्रमकरणे सम्बध्यते करणलक्षणासम्भवात् । करणं हि सलेश्यं वीर्यमुच्यते । अथ चलेश्वातीतोऽपि भगवानयोगिकेवली चिरमसमये द्विसप्ततिकृती स्तियुकमेव संक्रमयति । अपि च स्तिबुकसंक्रमेण संक्रान्तं दलिकं न सर्वथा पतप्रकृतिरूपतया परिणमते, ततो नासौ संक्रमे संबध्यते । परमेषोऽपि संक्रम इति संक्रम प्रस्तावाचनचयनिरूपणार्थमाह-'प्रिबुगो' इत्यादि अनुया अनुप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदसिकं सजातीयप्रकृतादयप्राप्तायां समानकालस्थित सेक्रमयति संक्रमय्य चानुभवति, यथा मनुजगताबुदयप्राप्तायां शेषं गतित्रयम् एकेन्द्रियजाती जातिचतुष्टयमिस्यादि स स्तिबुकसंक्रमः । एष एव व प्रदेशानुभवः । तदेव लक्षणं भेदय । सम्प्रति साधनादिरूपणा क संध्या तत्र मूलप्रकृतीनां परस्परं संक्रमो न भवति, तत उत्तरप्रकृतीनामेव साधनाविप्ररूपणार्थमाह
ध्रुवसंक्रमभजलो, णुकोसो तासि वा विवजिनु । आवरथनवगविधं, भोरालियसत्तगं चैव ॥ ७२ ॥ साइयमाह उद्धा, सेसविगप्पा य सेसगाणं च । सम्बविगप्पा नेया, साई अधुवा पएसम्मि ॥ ७३ ॥ 'पुवसंक्रम'भि प्रायुक्रानां ध्रुवसत्कर्मणां परित्युतरा तसंख्यानामजघन्यः प्रदेशसमचतु चतुष्यकारः । तथया - सादिरनादिर्भषोऽपश्य तत्र क्षतिकर्माणो वश्यमादलक्षणः क्षपणार्थमभ्युद्यतो अवसत्कर्मकृतीनां सर्वासामपि जघन्यं प्रदेश संक्रमं करोति, स च सादिरनुवन्ध । ततोऽभ्यः सर्वोऽप्यजघन्यः । स चोपशमश्रेण्यां बन्धव्यव
ये सति सर्वासामपि प्रकृतीनां न भवति, ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ साऽऽदिः, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरमादिः । भवाभवावभव्यभव्यापेक्षया । अनुत्कृष्टोऽपि प्रदेशसंक्रमो भवसत्कर्मप्रकृतीनां चतुर्षा । किं सर्वासां नेत्याह- आवरणनवकं ज्ञानावरणपश्चकदर्शनावरणचतुष्टययम् तथाऽन्तरायपच कमीदारिकतर्फबा शेषस्य पश्नोचरप्रकृतिचतस्य । तथाहि--सर्वासामपि महतीनां गुणितकमथे वच्यमाणलक्षणे क्षणार्थमभ्युद्यते उएक प्रवेशक्रमः प्राप्यते, नाम्प्रच ततोऽसी सादिः । त
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संकम स्मादन्यः सर्वो ऽप्यनुत्कृष्टः स चोपशमश्रेण्यां व्यवच्यते ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ साऽऽदिः- तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः । भवाधवावभव्यभव्यापेक्षया ।' सेसे' त्यादि शेषविकल्पाः पचत्तरशतस्य जघन्य उत्कृष्ट वरणीयाद्येकविंशतिकृतीनां जघन्वोत्कृष्टाः सादयोऽधवाश्च । तत्र पश्चोत्तरशतस्य जघन्य उत्कृष्टब्ध साथभवतयाँ भावित एव ज्ञानावरणीयादीनां प्रदेश
क्रमो गुणितकर्माशे मिथ्यादृष्टौ कदाचिज्ञभ्यते, शेषकाल स्थनुत्कृष्टः । तत एतौ द्वावपि साद्यभ्रुवौ । जघन्यस्तु साधुवतया भावित एव । शेषप्रकृतीनां च सर्वेऽप्युत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्यायम्पविकल्पाअध्रुवसत्कर्मत्वात् मिध्यात्वभ्रुवसत्कर्मणोऽपि सदैव पतद्द्महाप्राप्तेन चैर्गोत्र साता सातावेदनीथानां तु परावर्तमानत्यात् सादयोऽधवाश्वापगन्तव्याः । तदेवं कृता साधनादिप्ररूपणा | साम्प्रतमुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमस्यामित्यमभिधातव्यम् । तच गुणितकर्मा लभ्यत इति तत्रिरूपणार्थमाह
जो बायरतसकाले कम्महिं तु पुढवीए । बायर (रि) पचाप अत्तगदीहेयरद्वासु ॥ ७४ ॥ जोगकसा उकोसो, बहुसो नियमवि आठवर्थ व जोगअणुवरि-ठिइनिसेगं बहुं किच्चा ।। ७५ ॥ ' जो वायर ' ति-इह द्विधा त्रसाः - सूक्ष्माः बादराय । तथ बादरा जीन्द्रियादयः, सुरुमास्तेजोवायुकायिकाः । तत्र सूचमत्रसव्यवच्छेदार्थ बादरहणम् । बादरजसानां द्वीन्द्रियादीनां यः कार्यस्थितिकालः पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकद्विसहस्र सागरोपमममा तेनोनां कर्मस्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां यावत् पृथियां] बाद बाहरपृथिवीकायभधेषु खित्वा । कथं वित्त आह-' पज्जतापज्जत्तगदीहेयरद्धासु ' ति दीर्घेतरा - वाभ्यां पर्याप्तापर्यातयोर्यथासंख्येन योजना । ततोऽयमर्थःदीर्घा पर्याप्तभवेषु, इतराऽद्धं स्तोकाद्धमपर्याप्तभषेषु । प्रभूतेषु पर्याप्तभषेषु स्तोकेषु चापर्याप्तभयेषु स्थित्वेत्यर्थः । तथा बहुशो ऽनेकवारम् । योगकषायोत्कृष्ट उत्कृष्टेषु योगस्थानेषु उत्कृष्टेषु च काषायिकेषु संज्ञेशपरिणामेषु वर्तित्वा । इह केन्द्रियेभ्यो बादरपृथिवीकायस्थ प्रभूतमायुस्तेनान्यथ
"
तस्य प्रभूतकर्मपुङ्गलोपादानम् । बलवत्तया च तस्याती बेदमासहिष्णुत्वम् तेन तस्य प्रभूतकर्मपुलपरिसाठो न मयतीति बावरपृथिवीका चिकमहम् अपर्याप्तभव व परिपूर्णकायस्थिति परिग्रहार्थम् । तेषां खापर्यातकभवानां स्लोकानां पर्यातकमवानां च प्रभूतानां मह प्रभूतकर्मपुत्रलपरिसाडाभाषप्राप्त्यर्थम् अन्यथा हि निरन्तरमुत्पद्यमानब्रियमाणेषु महषः पुत्राः परिसठन्ति न च तेन प्रयोजनम् उत्कृष्टेषु च योगस्थानेषु वर्तमानः प्रभूतं प्रभूतं कर्मदलिमादते, उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामखोत्कृष्टां स्थिति बध्नाति प्रभूतां बोद्धर्तयति स्तोकं चापवर्तयति, अतो योगरूपायत्कृचम् । नियम' स्यादि नित्यं सर्वकार्य मये भये आयुर्वन्धकाते जयम्पे योगे वर्तमान आयुधे त्या उत्कृदि प्रायोन्ये धोने वर्तमानः प्रभूतानायुपुकार आपसे, तथा स्वामान्याच्च ज्ञानावरणीय
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( २६ ) संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम प्रभूतान पुनलान् परिसाटयति । न च तेन प्रयोजनम् , अतो।
सम्प्रति स्वामित्वमभिधीयतेजघन्ययोगग्रहणम् । तथोपरितनीषु स्थितिषु निषेकं कर्मदलिकन्यासरूपं बहु स्वभूमिकानुसारेणातिशयेन प्रभूतं
तत्तो उव्वट्टित्ता, आवलिगासमयतब्भवत्थस्स । कृत्वा । एवं यादरपृथ्वीकायिकेषु मध्ये पूर्वकोटिपृथक्त्वा
आवरणविग्घचोदस-गोरालियसत्त उक्कोसो ॥ ७९ ॥ भ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयन्यूनाः सप्ततिसागरोपमकोटी- 'तत्तो' त्ति-स गणितकौशस्ततः सप्तमपृथ्वीरूपान्नरकाकोटीः संसृत्य ततो विनिर्गच्छति, विनिर्गत्य च बादरत्रसका- दुवस्य पर्याप्तपश्चेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नस्ततस्तद्भवस्थयेषु द्वीन्द्रियादिषु मध्ये समुत्पद्यते ।
स्य तस्मिन् पर्याप्तसंक्षिपञ्चेन्द्रियभवे तिष्ठतः प्रथमावलिबायरतसेसु तका-लमेवमंते य सत्तमखिईए ।
काया उपरितने चरमे समये झानावरणपञ्चकदर्शनावरसब्बलहुं पजत्तो, जोगकसायाहिश्रो बहुसो ।। ७६ ।।
चतुष्टयान्तरायपञ्चकौदारिकसप्तकलक्षणानामेकविंशतिप्रकृ
तीनामुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति । एतासां हि कर्मप्रक'बायर' ति एवं पूर्वोक्नेन विधिना-"पजत्तापजत्तग-दोहे
तीनां नारकमवचरमसमये उत्कृष्टयोगवशात् प्रभूतं कर्मयरद्धासु॥ जोगकसाउकोसो,बहुसो निश्चमवि पाउबन्धं च । दलिकमात्रम् । तच्च बन्धावलिकायामतीतायां संक्रमयजोगजहमणुवरि-विइनिसेग बहुं किश्या ॥१॥” इत्येवंरूपण | ति, नान्यथा । अन्यत्र चैतावत् प्रभूतं कर्मदलिकं न प्राबादरत्रसेषु तत्काल बादरत्रसकायस्थितिकालं पूर्वकोटि- प्यत इति 'श्रावलिगासमयतम्भवत्थस्स' इत्युपात्तम् । पृथक्त्वाभ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयप्रमाणं परिभ्रम्य या
कम्मचउके असुभा-ण बज्झमाणीण सुहुसरागते । बतो वारन् सप्तमी नरकपृथिवीं गन्तुं योग्यो भवति तावतो वारान् गत्वा अन्तिमे सप्तमपृथिवीनारकभवे वर्तमानः ।
संछोभणम्मि नियगे, चउवीसाए नियट्टिस्स ।। ८०॥ इह दीर्घजीवित्वं योगकषायोत्कटता च लभ्यत इति याव- 'कम्मचउक्के ति-कर्मचतुष्के दर्शनावरण्वेदनीयनामगोत्र सम्भवसप्तमनरकपृथ्वीगमनग्रहणम् । तथा सप्तमपृथ्वी- लक्षण या अशुभाः सूक्ष्मसम्परायावस्थायामबध्यमानाः प्रकृनारकभवे सर्वलघुपर्याप्तः सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो नारकेभ्यः तयो निद्राद्विकासातवेदनीयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहशीघ्रं पर्याप्तभावमुपगतः । इहापर्याप्तापेक्षया पर्याप्तस्य ननाशुभवर्णादिनवकोपघाताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तास्थियोगोऽसंख्येयगुणो भवति । तथा च सति तस्यातीव प्रभू- रासुभगदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनीचैर्गोत्रलक्षणा द्वातकर्मपुद्रलोपादानसम्भवः । तेन चेह प्रयोजनमिति सर्व- त्रिंशत्प्रकृतयस्तासां गुणितकर्माशस्य क्षपकस्य सूक्ष्मसम्परालघुपर्याप्त इत्युक्तम् । बहुशश्चानेकवारं च तस्मिन् भवे वर्त- यस्यान्त चरमसमये उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । तथाऽनिमानो योगकषायाधिक उत्कृष्टानि योगस्थानानि उत्कृष्टांश्च वृत्तियादरस्य गुणितकर्माशस्य क्षपकस्य मध्यमकषायाष्टककाषायिकान् परिणामविशेषान् गच्छन् ।
स्त्यानचित्रिकतिर्यग्द्विकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मसाधारजोगजवमझ उवरिं, मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे ।
एनोकषायषट्करूपाणां चतुर्विशतिप्रकृतीनाम् आत्मीये श्रा
स्मीये चरमसंक्षोभेचरमसंफ्रमे उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । तिचरिमदुचरिमसमए, पूरित्तु कसायउक्कस्सं ॥ ७७ ।।
तत्तो अणंतरागय-समयादुक्कस्स सायबंधद्धं ।। जोगुक्कोसं चरिमदु-चरिमे समए य चरिमसमयम्मि । संपुष्पगुणियकम्मो, पगयं तेणेह सामित्ते ।। ७८ ॥
बंधिय असायबंधा, लिगंतसमयम्मि सायस्स ॥१॥
'तत्तो'त्ति ततो नरकभवादनन्तरभवे समागतःप्रथमसमया. 'जोग 'त्ति-योगयवमध्यस्योपरि अष्टसामायिकानां यो
दारभ्य सातवेदनीयमुत्कृष्टां बन्धाऽद्धाम्; उत्कृष्ट बन्धकाल गस्थानानामुपरीत्यर्थः । अन्तर्मुहूर्त कालं यावत् स्थित्वा जी
यावदित्यर्थः । बद्धा असातवेदनीयं बद्धमारभते । ततोsवितावसानेऽन्तर्मुहर्ते आयुषः शेषे । एतदुक्तं भवति-भ
सातवेदनीयस्य बन्धावलिकान्तसमये सातवेदनीयं सकन्तर्मुहूर्तावशेषे आयुषि योगयवमध्यस्योपरि असंख्येयगु
लमपि बन्धापलिकातीतं भवतीतिकृत्वा तस्मिन् समयेणवृद्धथाऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् प्रवर्धमानो भूत्वा । ततः
उसातवेदनीये बध्यमाने सातं यथाप्रवृत्तसंक्रमे संक्रमयतः किमित्याह-'तिचरिम' स्यादि प्रयश्चरमा यस्मात्स त्रिचरमः
सातस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। यत श्रारभ्यान्तिमः समयस्तृतीयो भवति; सत्रिचरम इत्यर्थः।
संछोभणाएँ दोएह, मोहाणं वेयगस्स खणसेसे । तस्मिन् भवस्य त्रिचरमे द्विचरमे च समषे वर्तमान उत्कृष्ट काषायिकं सक्लेशस्थानं पूरयित्वा चरमे द्विचरमे च समये
उप्पाइय सम्मत्तं, मिच्छत्तगए तमतमाए ॥ ८२॥ योगस्थानमपि चोत्कृष्ट पूरयित्वा । इहोत्कृष्टो योग उत्कृष्टश्च 'संछोभणाए'त्ति-क्षपकस्य द्वयोर्मोहनीययोमिथ्यात्वसम्यसक्लशो युगपदेकमेव समयं यावत् प्राप्यते, नाधिकमिति ग्मिथ्यात्वरूपयोरात्मीयात्मीयचरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमणोविषमसमयतया उत्कृष्टयागोत्कृष्टकषायस्थानग्रहणम् । त्रि- स्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । तथा क्षणशेषे ऽन्तर्मुहूर्तावचरमे द्विचरमे च समये उत्कृष्टसंक्लेशग्रहणं प्रभूतोद्वर्तना- शेषे आयुषि तमस्तमाऽभिधानायां सप्तमपृथिव्यां वर्तमान स्वल्पापवर्तनाभावनार्थ, द्विचरमे चरमे च समये उत्कृष्टयो- औपशमिकं सम्यक्त्वमुत्पाद्य दीर्घेण च गुणसंक्रमकालन गग्रहणं परिपूर्णप्रदेशोपचयसम्भवार्थम् । स इत्थंभूतो नार- वेदकसम्यक्त्वपुजं समापूर्य सम्यक्त्वात् प्रतिपतितो मिकभवस्य चरमसमये वर्तमानः सम्पूर्णगुणितकर्माशो भव- ध्यात्वं च प्रतिपद्य तत्प्रथमसमय एवं वेदकसम्यक्त्वस्य ति, तेन च सम्पूर्णगुणितकर्माशेन इहोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमस्था- मिथ्यात्वे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमं करोति । मित्वे प्रकृतमाधिकारः । तदेवमुक्को गुणितकोशः।
भिन्नमुहत्ते सेसे, तच्चरमावस्सगाणि किच्चेत्थ ।
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संकम
संजोयणा विसंजोयगस्स संघोभला एसिं ॥ ८३ ॥ 'भिन्नमुडुते' तिसगुणितकमशः सप्तमपृथिव्यां वर्तमानो भिन्नमुहूर्तावशेषे आयुषि तस्मिन् भवे यानि चरमाबश्यकानि" जोगजवमज्झतवरिं मुजीविषसा तिचरिमरिमसमए पूरितु फसायउस्सं ॥ १॥" इत्यादिलानि तानि कृत्या तस्वास्थ सप्तमपृथिव्या उत्य सभ्यत्वं चोत्पादकसम्वष्टिः सन् संयोजनान् श्रनन्तानुबन्धिनो विसयोजयति बिसंयोजना रुपया तत एषामनाधि चरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेणोत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । ईसायागयपुरिस स्स इथियाए य अनुवासाए । मासहुम्भहिए, नपुंसगे सव्वसंकमये ।। ८४ ।।
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ईसाणागय' ति - ईशानदेवो गुणितकर्माशः संक्लेशपरि यामेकेन्द्रियायोग्यं वनम् नपुंसकवेदं भूयो भूयो बद्ध्वा तत ईशानाच्युतः सन् स्त्री वा पुरुषो वा जातः । ततो मासपृथकत्वाभ्यधिकेष्वष्टसु वर्षेष्यतिक्रान्तेषु ज्ञपणायोचतते । तस्य नपुंसकवेदं क्षपयतश्चरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेण नपुंसक वेदस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति ।
"
( ३० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
इत्थी भोगभूमिसु जीवियवासाय संखियाणि तत्र । हस्सठि देवता, सम्बलहुं सम्यो । ८५ ।। हत्थी' ति-भोगभूमिषु भूयो भूयोऽसंस्थेवण यायत् स्त्रीचेदं बद्धा ततः पल्योपमासंख्येयभागे गते सति अकालमृत्युना मृत्या स्यस्थिति वर्षसहस्रप्रमाण देवायुषो वद्ध्वा देवत्वेनोत्पन्नः । तत्रापि तमेव स्त्रीवेदमापूर्व स्वायुः पर्यन्ते मनुजेषु मध्येऽन्यतरवेदसद्दितो जातः । ततो लघु- शीघ्रं क्षपणायोद्यतः । ततः ' इत्थीए 'त्ति तस्य श्रीवेदस्य नृपणसमये चरमसंज्ञामे सर्वसंक्रमेोत्कृष्टः प्र देशो भवति। रवमेव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमत्कृष्टश्च प्रदेशसंक्रमः केवलज्ञानेनोपलब्धो नान्यथेत्येपैव युक्तिरत्रानुसर्तव्या न युक्त्वन्तराणि युक्त्यन्तराणां चिरतनप्रथेषु दर्शनतो निर्मूलतयान्यथाऽपि कर्तुं शक्यत्यात् । एवमुत्तरचापि यथायोगं तथैव कलशांनेनोपलम्भादित्युत्तरमनुसरणीयम् ।
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9
,
वरिसवरित्थि पूरिय सम्मत्तमसंखवासियं लहियं । गंता मिच्छत्तमत्रो जहदेवट्टिई भोचा ॥ ८६ ॥ 'बरिसवर' सि वर्ष नपुंसक वेदः तमीशानदेवलोके प्र भूतकालमापूर्व भूयो भूयो बन्धेन दशिकान्तरसंक्रमणेन च स्वायुःक्षये ततश्च्युत्वा संख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समागत्य पुनरसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्रासंख्येयवर्षाचियावत् श्रीवेदमापूर्य ततोऽसंश्येय वर्षाणि यावत् सम्यक्त्वं लब्ध्या-आस्वाद्य तद्धेतुकं च पुरुषवेदं तावन्ति वर्षाणि यावत् बध्नन् तत्र स्त्रीवेदनपुंसक - बेदयोईसिकं निरन्तरं संक्रमयति। ततः पल्पोपमासंक्येयभागमात्रं सर्वाः प्रमाणं जीवित्वा पर्यन्ते मि थ्यात्वमासाद्य ततो जघन्यस्थितिषु दशवर्षसहस्रप्रमाणस्थितिषु देवेषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्र समुत्पन्नः सन् अन्तर्मुहुसैन कालेन सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ।
संकम
आगंतु लहु पुरिसं संभमाणस्स पुरिसवेयस्स । तस्सेव सगे कोह-स्स माणमायाणमवि कसियो॥८॥ 'आगंतु 'ति ततो देवभवाच्या मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो माससप्तकाभ्यधिकेच वयतिक्रान्तेषु लघुश्री पायोधततेादक भावलिकामिकाले पुरुष तरतीब लोकमितिकृत्या परपरित्यज्य शेषश्य चरमसोमे प्रवेशक्रमो बेदितव्यः तथा तस्यैष पुरुषवेदोत्कट प्रदेश संक्रमस्वामिनः संज्चलनक्रोधस्य संसारे परिभ्रमता उपश्थितस्य क्षपणकाले प्रकृत्यतरदलिकानां गुणसंक्रमेण प्रधुरीकृतस्य स्वकेमात्मीये परमसंतोमे उत्कृष्टः प्रवेशसंक्रमो भवति । अत्रापि बम्धव्यवच्छेदक आयलिकाद्विकेन कालेन यद्वतममुकाया शेषस्य चरमसंक्षोभ उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो द्रष्टय्यः । एवं मानमावयोरपि बाध्यम् ।
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"
चउरुवसमित्तु खिणं, लोभसां सकमस्ते । सुभधुवबंधिगनामा, खावलिगं गंतु बंधता ॥ ८८ ॥ 'चउर'त्ति - श्रनेकमणेन चतुरो वारान् यावन्मोहनीयसुपशमन्य चतुर्थोपशमनानन्तरं शीघ्रमेव रूपप्रतिश्रस्य तस्यैव गुणितफर्माशस्य स्वसंक्रमस्यान्ते चरमसंशेने इत्यर्थः । संज्वलनसोभयशः कस्योः प्रदेशसंक्रमो भवति । इहोपशमश्रेणि प्रतिपश्शेन सता प्रकृत्यन्तरदलिकानां प्रभूतानां गुणसंक्रमेण तत्र प्रक्षेपात् द्वे अपि संज्वलनलोभयशःकीविकृती निरन्तरमापूर्वेते, तत उपशमश्रेणिग्रहणम् संसारं च परिभ्रमता जन्तुना मोहनीयस्य चतुर एव वारान् यावदुपशमः क्रियते, न पञ्चममपि वारम्, ततश्चतुरुपशमच्येत्युक्रम् । तथा संज्वलनलोभस्य चरमसंशोमो:न्तरकरणनरनसमये द्रष्टव्यः न परतः परतस्तस्य सेक्रमाभावात् । अन्तरकरणम्मि कर चरितमेोहेऽणुपुव्विसंकमणं " इति वचनात् । यशः कीर्तिरपूर्वकरणगुणस्थानके प्रकृतिबन्धव्यमये गन्तव्य पर तस्तस्याः संक्रमस्याभावात् । ' सुभे त्यादियावचन्धिन्यो नामप्रकृतयस्तै जससप्तक शुद्ध लोहितहारिपुरभिगन्धकपायास्तमधुरमृदु लघुखिग्धाच्या गुरुलघुनिर्माणल क्षणा विंशतिसंख्याः तासां चतुष्कृत्वो मोहनीयोपशमानतबन्धान्ताद्बन्धव्यवच्छेदाध्यमावलिक गनुमाि कायाः परतो यश-कीर्ती प्रक्षिप्यमाणानामुत्कृष्टः प्रदेशक्रमो लभ्यते । गुणक्रमेण संक्रान्तं प्रकृत्यन्तरदलिकमावलिकायामतीतायां सत्यामन्यत्र योग्य भवति, नान्यथेत्यत उक्तम्- “आवलियं गंतु बंधता " इति । निसमा यधिरसुभा सम्मद्दिस्सि सुभधुवाओ वि । सुभसंघयणजयाओ, बत्तीससयोदहिचियाओ ॥ ८६ ॥ 'निसम' सिधिलक्षणपर्शसमये स्थिरशुभनामनी - ये भवति यथाऽनन्तरं शुभप्रवन्धिनामग्रहतीनामन्तर्गतस्य स्निग्धस्पर्शस्योत्कृष्टप्रदेश संक्रमभावना - ता तथैतयोरपि स्थिरशुभनाम्नोरवगम्यम्या । एते च स्थिरशुभनामनी अभवबन्धित्वात् पृथगुपाते 'सम्मदिट्टि स्से' त्यादि सम्यग्धर्वाः शुभभुषवन्धिन्यः पञ्चेन्द्रियजाति
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संकम
( ३१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
समचतुरस्रसंस्थानपराधातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येक सुभगसुखरादेयलक्षणा द्वादश प्रकृतयः शुभसंहननयुता वज्रर्षभनाराचसंहनन सहिताः वज्रर्षभनारावं हि देवभवे नारकभवे वा वर्तमानाः सम्यग्दृष्टयो नम्ति, न मनुजतिर्यग्भवे, तत्र वर्तमानानां सम्यग्रहटीनां देवगतिप्रायोग्यबन्धसम्भवेन संहननबन्धासम्भवात् । ततो नैतत्सम्यग्दृष्टेः शुभध्रुवबन्धीति पृथगुपात्तम् । तथा द्वात्रिंशदधिकसागरोपमशतचिताः । तथाहि--पद्मष्टिसागरोपमाणि यावत्सम्यक्त्वमनुपालयन् पता बध्नाति । ततोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् सम्यग्मिथ्यात्वमनुभूय पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततो भूयोऽपि सम्यक्त्वमनुभवन् षद्षष्टिसागरोपमाणि यावदेताः प्रकृतीर्बध्नातीति । तदेवं द्वात्रिंशदभ्यधिकं सागरोपमशतं यावत् सम्यग्दृष्टिध्रुवा आपूर्य, बज्रर्षभनाराचसंहननं तु मनुष्यभवहीनं यथासम्भवमुत्कृष्टं कालमापूर्य, ततः सम्यग्दृष्टेर्भुवा अपूर्वकरणगुणस्थानके बन्धव्यवच्छेदानन्तरमावलिकामात्रं कालमतिक्रम्य यशः कीर्ती संक्रमयतस्तासामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः, तदानीं प्रकृत्यन्तरदलिकानामप्यतिप्रभूतानां गुणसंक्रमेण लब्धानां संक्रमावलिकातिक्रान्तत्वेन संक्रमसंभवात् । वज्रर्षभनाराच संहननस्य तु देवभवाच्च्युतः सन् सम्यग्दृष्टिर्देवगतिप्रायोग्यं बध्नन् श्रावलिकामात्रं कालमतिक्रम्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमं करोति ।
पूरित पुव्वकोडी - पुहुतसंछभगस्स निरयदुगं । देवगईनवगस्स य, सगबंधतालिगं गंतुं ॥ ६० ॥ 'पूरितु' ति-नरकद्विकम् - नरकगतिनरकानुपूर्वी लक्षणं पूर्वकोटीपृथक्त्वं यावत्पूरयित्वा, सप्तसु पूर्वकोट्पायुष्केसु तिर्यभवेषु भूयो भूयो बद्धेत्यर्थः। ततोऽष्टमभषे मनुष्यो भूत्वा क्षप कश्रेणि प्रतिपन्नोऽन्यत्र तन्नरकद्विकं संक्रमयन् खरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेण तस्योत्कृष्टं प्रदेशसंक्रमं करोति । तथा देवगतिनवर्क - देवगतिदेवानुपूर्वीवैक्रिय सप्तक लक्षणं यदा पूर्वकोटिपृथक्त्वं यावदापूर्याष्टमभवे क्षपकश्रेणि प्रतिपद्मः सन् स्वकबन्धान्तात् स्वबन्धव्यवच्छेदादनन्तरमावलिकामा का लमतिक्रम्य यशः कीर्ती प्रक्षिपति तदा तस्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति । तदानीं हि प्रकृत्यन्तरदलिकानामपि गुणसंक्रमेलग्धानां संक्रमावलिकातिक्रान्तत्वेन संक्रमः प्राप्यत इति कृत्वा ।
सव्वचिरं सम्मत्तं, अणुपालिय पूरइत्तु मनुयदुगं । सत्तमखिइनिग्गइए, पढमे समए नरदुगस्स ॥ ६१ ॥ 'सव्वचिरं' ति- सर्वचिरं सर्वोत्कृष्टं कालमन्तर्मुहूर्तोनानि, प्र. यत्रिशत्सागरोपमाणीत्यर्थः सम्यक्त्वमनुपालय नारकः सप्तमक्षितौ वर्तमानः सम्यक्त्वप्रत्ययं तावन्तं कालं मनुजद्विकं - मनुजगतिमनुजानुपूर्वीलक्षणमापूर्य – बढा चरमेऽ तर्मुहूर्ते मिथ्यात्वं गतः । ततस्तन्निमित्तं तिर्यद्विकं तस्य बनतो गुणित कर्माशस्य सप्तमपृथिव्याः सकाशाद्विनिर्गतस्य प्रथमसमये एव मनुजद्विकं यथाप्रवृत्तसंक्रमेण तस्मिन् तिर्यद्विके बध्यमाने संक्रमयतस्तस्य मनुजद्विकस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति । भावस्तआभाया, युज्जोया
नपुंसगसमायो ।
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संकम
आहारगतित्थयरं, थिरसममुक्कस्स समकालं ॥ ६२ ॥ 'धावर 'ति-स्थावरनाम तथा तजातिः-स्थावरजातिः एकेन्द्रियजातिरित्यर्थः । तथा आतपनाम-उद्योतनाम । एताचतस्रः प्रकृतयो नपुंसकसमा ः- नपुंसक वेदस्येव श्रासामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो; भावनीय इत्यर्थः । तथा श्राहारकसप्तकं तीर्थकरनाम च स्थिरसमं वक्तव्यम् । केवलं तदुत्कृष्टस्वकबन्धकालं यावदापूरणीयमभिधातव्यम् । इयमत्र भावना - आहारकसप्तकं तीर्थकरनाम चोत्कृष्टं स्वयन्धकालं यावंदापूर्य तत्राहारकसप्तकस्य स्वबन्धकाल उत्कृष्टो देशोनां पूर्वकोटी यावत्संयममनुपालयतो यावानप्रमत्तताकालस्तावान् सर्वो वेदितव्यः । तीर्थकरनाम्नश्च स्वबन्धकाल उत्कृष्टो देशोन पूर्व कोटीद्वयाभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । तत एतावन्तं कालं यावदापूर्य क्षपकश्रेणिं प्रतिपक्षो यदा बन्धव्यवच्छेदादनन्तरमावलिकामात्रं कालमतिक्रम्य यशः कीर्ती संक्रमयति, तदा तयोरुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः ।
चउरुवसमित्त मोहं, मिच्छत्तगयस्स नीयबन्धंतो । उच्चागोउक्कोसो, तत्तो लहु सिज्झत्रो होइ ॥ ६३ ॥
'चउ' ति - इद्द मोहोपशमं कुर्वन् उचैर्गोत्रमेव बध्नाति, न नीचैर्गोत्रम् | नीचैर्गोत्रसत्कानि च दलिकानि गुणसंक्रमेणोचैर्गोत्रे संक्रमयति । ततश्चतुष्कृत्वो मोहोपशमग्रहणमवश्यं कर्तव्यम् । तत्र चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमयन् उचैर्गोत्रं चबध्नन् तत्र नीचैर्गोत्रं गुणसंक्रमेण संक्रमयति । चतुष्कृत्वश्व मोहोपशमः किल भवद्वयेन भवति । ततस्तृतीये भवे मिथ्यात्वं गतः सन् नीचैर्गोत्रं बध्नाति तच्च बध्नन् तत्रोचैत्रं संक्रमयति । ततः पुनरपि सम्यक्त्वमासाद्योच्चै - गोत्रं बध्नन् तत्र नीचैर्गोत्रं संक्रमयति । एवं भूयो भूय उवैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रं च बध्नतो नीचैर्गोत्रबन्धव्यवच्छेदानन्तरं शीघ्रमेष सिद्धिं गन्तुकामस्य नीचैर्गोत्रबन्धचरमसमये उचैत्रस्य गुणसंक्रमेण बन्धेन चोपचितीकृतस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति ।
तदेवमुत्कृष्ट प्रदेशसमस्वामित्वम् । सम्प्रति जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वमभिधानीयम् । तच्च प्रायः क्षपितकमशे प्राप्यत इति तस्यैव स्वरूपमाहपद्मासंखियभागो - कम्मठिइमच्छिश्रो निगोएसु । सुमे समबियजोग्गं, जहन्नयं कटु निग्गम्म ॥ ६५ ॥ जोग्गे ससंखवारे, सम्मत्तं लभिय देसविरयं च । भक्खुतो विरई, संजोयणहा य तइवारे ।। ६५ ॥ उरुवसमित मोहं, लहुं खवेंतो भवे खवियकम्मो । पाएण तहिं पगयं, पडुच्च काई वि सविसेसं ॥६६॥ 'पक्ष'ति यो जीवः पत्योपमासंख्येयभागम्यूनां कर्मस्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां यावत् पल्योपमासंख्येयभागहीनं सप्ततिसागरोपमकोटी कोटीप्रमाणं कालं यावदित्यर्थः । सूक्ष्मनिगोदेषु सूक्ष्मानन्तकायिकेषु मध्ये उषिस्वा । सूक्ष्मनिगोदा हि स्वल्पायुषो भवन्ति, ततस्तेषां प्रभूतजन्ममरणभाषेन वेदनातीनां प्रभूतपुङ्गलपरिसाट उपजायते । अपि ब - सूक्ष्मनिगोदजीवानां मन्दयोगता म
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम न्दकपायत्वं च भवति । ततोऽभिनवकर्मपुद्गलोपादानमपि इत्यर्थः । अवधियुगले-अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणरूपे तेषां स्तोकतरमेव प्राप्यत इति सूक्ष्मनिगोद ( जीवानां | स्वस्वबन्धव्यवच्छेदसमये जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । मन्दयोग) ग्रहणम् "अभवियजोग्गं जहन्नयं कट्ट निग्गम" अवधिज्ञानमवधिदर्शनं चोत्पादयतः प्रवलक्षयोपशमभावतो. ति प्रभव्यप्रायोग्यं जघन्यम् अभव्यप्रायोग्यजघन्यकल्प ऽवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोरतीय रुक्षाः कर्मपुद्रला प्रदेशसञ्चयं कृत्वा ततः सूक्ष्मनिगोदेभ्यो निर्गत्य योग्येषु- जायन्ते । ततो बन्धव्यवच्छेदकालेऽपि प्रभूताः परिसटन्ति । सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतियोग्येषु असेषु मध्ये उत्प
तथा च सति जघन्यः प्रदेशसंक्रमो न लभ्यत इति तं विणे' य एल्योपमासंख्येयभागमध्ये संख्यातीतान् वारान् याव
त्युक्तम् । 'निदे' स्यादि निद्राद्विकं-निद्राप्रथलारूपम् , अ. त् सम्यक्त्वं स्वल्पकालिकी देशविरतिं च लब्ध्वा । कथं
न्तरायपश्चकं, हास्यचतुष्क-हास्यरतिभयजुगुप्सालक्षणम्, लब्ध्वेति चेदुच्यते-सूक्ष्मनिगोदेभ्यो निर्गत्य बादरपृथ्वी- एतासामेकादशप्रकृतीनां स्वबन्धान्तसमये यथाप्रवृससंक्रकायेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततोऽन्तर्मुहर्तेन कालेन विनिर्गत्य |
मेण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । निद्राद्विकहास्यचतुष्टमनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्राऽपि शी
ययोर्बन्धव्यवच्छदानन्तरं गुणसंक्रमेण संक्रमो जायते । ततः प्रमेव माससप्तकानन्तरं योनिविनिर्गमनेन जातः । ततोs
प्रभूतं दलिकं लभ्यते । अन्तरायपञ्चकस्य बन्धव्यवच्छेदानवार्षिक: सन् संयम प्रतिपन्नः । ततो देशोनां पूर्वकोटीं |
न्तरं संक्रम एव न भवति, पतझहाप्राप्तः, ततो बन्धान्तयावत् संयममनुपाल्य स्तोकावशषे जीविते सति मिथ्या
समयग्रहणम्। स्वं प्रतिपक्षस्ततो मिथ्यात्वेनैव कालगतः सन् दशवर्ष- सायस्सऽणुवसमित्ता, असायबंधणचरिमबंधते । सहनप्रमाणस्थितिषु देवेषु मध्ये देवत्वेनोपजातः । ततोऽ
खवणाए लोभस्स वि, अपुव्वकरणालिगाअंते ।। ६८। म्तर्मुहर्तमात्रे गते सति सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । ततो दश
'सायस्स' ति-अनुपशमय्य-मोहनीयोपशममकृत्वा, उपवर्षसहस्राणि जीवित्वा तावन्तं च कालं सम्यक्त्वमनुपाल्य पर्यवसानावसरे मिथ्यात्वेन कालगतः सन् बादरपृथिवी
शमश्रेणिमकृत्वेत्यर्थः । असातबन्धानां मध्ये यश्चरमोऽ
सातबन्धस्तस्यान्तिमे समये वर्तमानस्य क्षपणायोद्यतस्य कायिकेषु मध्ये समुत्पन्नः । ततोऽन्तर्मुहूर्तेन ततोऽप्युद्दे
सातस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । परतो हि सातस्य त्य मनुष्येषु मध्ये समुत्पद्यते । ततः पुनरपि सम्यक्त्वं वा
पतग्रहता भवति, न संक्रमः । 'खवणाए' इत्यादि मोहदेशविरतिं वा सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते । एवं देवमनु
नीयोपशममकृत्वा क्षपणायोद्यतस्यापूर्वकरणाद्धायाः प्रथमा. ष्यभवेषु सम्यक्त्वादि गृहन् मुश्चंश्च तावद्वक्तव्यतो यावत् पल्योपमासण्येयभागमध्ये संख्यातीतान् वारान् यावत् स
वलिकाया अन्तसमये संज्वलनलोभस्य जघन्यः प्रदेशसंम्यक्त्वलाभः स्वल्पकालिकश्च देशविरतिलाभो भवति । इह
क्रमः । परतो गुणसंक्रमे लब्धस्यातिप्रभूतस्य दलिकस्य यदा यदा सम्यक्त्वाविप्रतिपत्तिस्तदा तदा बहुप्रदेशाः प्रक
संक्रमावलिकातिक्रान्तत्वेन संक्रमसम्भवात् जघन्यप्रदेशतीरल्पप्रदेशाः करोति । ततो बहुशः सम्यक्त्वादिप्रतिपत्ति
संक्रमाभावः। ग्रहणम् । एतेषु च सम्यक्त्वादियोग्येषु भवेषु मध्येऽष्टौ भयरच्छावद्विदुर्ग, गालिय थीवेयथीणगिद्धितिगे । वारान् सर्वविरति प्रतिपद्यते तावत् एव वारान् । अष्टौ वारा
सगखवणहापवत्त-संते एमेव मिच्छत्ते ॥ ६ ॥ नित्यर्थः । विसंयोजनहा-अनन्तानुबन्धिविघातको भूत्वा । तथा चतुरो वारान्मोहनीयमुपशमय्य ततोऽन्यस्मिन् भवे
'भयर' त्ति-सागरोपमाणां दे षषष्टी यावत्सम्यक्त्वमनुलघु-शीघ्र कर्माणि क्षपयन क्षपितकोश इत्यभिधीयते । पालयन् स्त्रीवेदस्त्यानक्षित्रिकलक्षणाश्चतस्रः प्रकृतीर्गालपतेन च क्षपितकर्माशेनेह जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वे चि
यित्वा तासा सम्बन्धि प्रभूतं कर्मदलिकं परिसाव्य किम्त्यमाने प्रायेण-बाहुल्येन प्रकृतमधिकारः । काश्वित्पुनः
श्चिच्छेषाणां सतीनां तासां क्षपणाय समभ्युपतस्थ यथाप्रकृतीरधिकृत्य सविशेषं भणिष्यामि । •
प्रवृत्त करणान्तिमसमये विध्यातसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसं
क्रमो भवति । परतोऽपूर्वकरणे गुणसंक्रमेण पभूतकर्मदलितत्र जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वमाह
कसंक्रमसम्भवात् जघन्यप्रदेशसंक्रमो म लभ्यत इति यथाप्रावरणसत्तगम्मि उ, सहोहिणा तं विणोहिजुयलम्मि । प्रवृत्तकरणान्तसमयग्रहणम् । 'एमेव मिच्छत्त' इति एवनिदादुगतराइय-हासचउक्के य बंधते ॥ १७ ॥
मेव पूर्वोक्नेनैव प्रकारेण मिथ्यात्वस्य जघन्यः प्रवेशसंक्रमो
ऽवगन्तव्यः । तद्यथा-वे षषष्टी सागरोपमाणां यावत्स'आवरण' त्ति-अवधिना सह वर्तते यो जीवः तस्य अव. म्यक्त्वमनुपाल्य तावन्तं कालं मिथ्यात्वं गालयित्वा किश्चिविज्ञानावरणरहितं ज्ञानावरणचतुष्टयम् , अवधिदर्शनाव- च्छेषस्य मिथ्यात्वस्य क्षपणाय समुद्यतस्य स्वकीययथारणरहितं वर्शनावरणत्रयम् , एतासां सप्तानां प्रकृतीनामा- प्रवृत्तकरणान्तसमये वर्तमानस्य विध्यातसंक्रमेण मिथ्यात्व स्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छेदसमये यथाप्रवृत्तसक्रमेण जघन्यः स्य जघन्यः प्रदेशसंकमो भवति, परतो गुणसक्रमः प्रवर्तते, प्रदेशसंक्रमो भवति । अवधिज्ञानमुत्पादयन् प्रभूतान् कर्म- तेन सन प्राप्यते। पुद्रलान् परिसाटयति स्म । तत एतासां स्वस्वबन्धव्यव
हस्सगुणसंकमद्धा-ऍ पूरयित्ता समीससम्मत्तं । च्छेदसमये स्तोका एव पुदलाः प्राप्यन्ते । अत्रापि च
चिरसम्मत्ता मिच्छ-सगयस्सुव्वलणथोगो सिं ॥१०॥ जघन्यप्रदेशसंक्रमेणाधिकारः, ततोऽवधिना सह यो वर्ततइत्युक्तम् । तथा वमवधि विनाऽवधिज्ञानावधिदर्शनरहित । 'हस्स'सि-सम्यक्त्वमुत्पाद इस्वया गुणसंक्रमाऽद्धया स्तो
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संकम अभिधानराजेन्द्रः।
संकम ककालेन; गुणसंक्रमेणत्यर्थः । समिश्रं सम्यक्त्वं सम्यक्त्व- समुद्यतेन क्षपणश्रेणि प्रतिपन्नेन स्वस्वबन्धचरसमये । सम्यग्मिथ्यात्वे इत्यर्थः । मिथ्यात्वदलेन पूरयित्वा-श्रापूर्य- 'घोलमाणेण' ति जघन्ययोगिना यददं दलिकं तस्य चिरेण प्रभूतेन कालेन सम्यक्त्वान्मिथ्यात्वं गतस्य द्वेष- चरमसंक्षाभ जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । तथाहि
पष्टी: सागरोपमाणां यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्य: मिथ्यात्वं ग- श्रासां चतसृणामपि प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदसमय रामतस्येत्यर्थः । पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन ते सम्य- योनाबलिकाद्विकबद्धं मुक्त्वाऽन्यत् प्रदेशसत्कर्म न विक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे उद्वलयतः स्तोके उद्वलनसंक्रम तयो- द्यते । तदपि च प्रतिसमयं संक्रमण क्षयमुपगच्छति । ताजघन्यः प्रदेशसंक्रमो हिचरमखण्डस्य चरमसमय सम्य- वत् यायचरमसमयबद्धस्यासंख्ययो भागः शेषो भवति । फत्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्यद्दलिकं परस्थाने मिथ्यात्वप्रकृति- ततस्तं सर्घसंक्रमण संक्रमयतो जघन्यः प्रदेशसंक्रमः।' अरूप प्रक्षिप्यते स तयोर्जघन्यः; प्रदेशसंक्रम इत्यर्थः ।
सारण समा अरई य सोगो य' त्ति अरतिशोकावसात
समी असातवेदनीयस्येवारतिशोकयार्जघन्यः प्रदशसंक्रमा संजोयणाण चतुरुव-समित्तु संजोजइत्तु अप्पद्धं ।
भावनीय इत्यर्थः। अयरच्छावट्ठिदुगं, पालियसकहप्पवर्तते ॥ १०१॥
बेउम्बिकारसगं,उबलियं बंधिऊण अप्पड़े । 'सजायणाण' त्ति-चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य, च. तुष्कृत्वो मोहनीयोपशमनेन किं प्रयोजनमिति चदुच्यते
जिट्ठठिई निरयाओ, उच्चट्टित्ता अबंधित्तु ।। १०४ ।। प्रभूतपुदलपरिसाटः। तथाहि-चारित्रमोहनीयप्रकृतीनामु
थावरगयस्स चिरउ--व्यलणो एयस्स एव उच्चस्स । पशमं कुर्वन् स्थितिघातरसघातगुणश्रेरिणगुणसंक्रमैः प्रभू- मणुयदुगस्स य तेउसु,बाउसु वा मुहमबद्धाणं ॥१०॥ तान् पुद्गलान् परिसाटयतीति । ततश्चतुष्कृत्वो मोहनीयो
'वब्य'त्ति दवद्विकनरकविकक्रियसप्तकलक्षणं चैक्रियपशमं कृत्वा मिथ्यात्वं गच्छति । मिथ्यात्यं गतश्च सन् :
कादशकम् एकन्द्रियभवे उद्धर्तमानेनोद्वलितं पुनरपि पश्चन्द्रिअल्पाद्धाम्-अल्पं कालं यावत् संयोजनान् संयोज्यानन्ता
यत्वमुपागतेन सता, अल्पाऽद्धाम-अम्पकालम् : अन्तर्मुहूर्तनुबन्धिनो बद्धा , तदानी च चारित्रमोहनीयदलिकं स्वल्प
कालं यावदित्यर्थः । बद्धा, तना ज्यष्ठस्थितिरुपस्थितिमेव विद्यते , चतुष्कृत्वो मोहोपशमकाले तस्य स्थिति
स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिक इत्यर्थः । सप्तमनरकपृथिव्यां घातादिभिर्घातितत्वात् । ततोऽनन्तानुबन्धिनो बध्नन् तेषु
भारको जातः । ततस्तावन्तं कालं यावत् यथायोग तद्वैक्रियैयथाप्रवृत्तसंक्रमेण स्ताकमेव चारित्रमोहनीयदलकं संक्र
कादशकमनुभूय ततो नरकादुदवृत्य पश्चन्द्रियतियशु मध्ये मयति । ततोऽन्तर्मुहूर्ते गते सति पुनरपि सम्यक्त्वं प्रति
समुत्पन्नः । तत्र च तक्रियैकादशकमबद्धा स्थावरेण्यकेपद्यते । तच व षषष्टी सागरापमाणां यावदनुपाल्यानन्ता
न्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः । तस्य चिरोद्वलनया पल्यापमानुवन्धिनां क्षपणाय समुद्यतते । तस्य स्वकयथाप्रवृत्तकर- संख्येयभागमात्रेण कालेनोद्वलनया तदुद्रलयतो यत् द्विणान्तसमये तषामनन्तानुबन्धिनां विध्यातसंक्रमेण जघ
चरमखण्डस्य चरमसमये प्रकृत्यन्तरे दलिकं संक्रामति , न्यः प्रदेशसंक्रमा भवति । परतोऽपूर्वकरणे गुणसंक्रमः प्र
स तस्य वैक्रियैकादशकस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः ।' एवर्तते इति स न प्राप्यते।
यस्से' त्यादि एतस्यैवानन्तरोक्लस्य जीवस्य पूर्वोतन विअट्ठकसायासाए, य असुमधुवबन्धि अस्थिरतिगे य । धिना तेजोवायुषु मध्ये समागतस्य सूक्ष्मैकेन्द्रियभवे वर्तसव्वलहुं खवणाए, अहापवत्तस्स चरिमम्मि १०२।।
मानेन यद्बद्धमुच्चर्गोत्रं मनुजद्विकं च-मनुजगतिमनुजानु
पूर्वीलक्षणम् । ते चिराद्वलनयाद्वलयतो द्विचरमखण्डस्य 'अट्ट' ति-अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणरूपा अष्टौ कषा- चरमसमये परप्रकृतो यद्दलिक संक्राति स तयोर्जघयाः , असातवेदनीयम् , अशुभध्रुवन्धिन्यः कुवर्णादिनद- भ्यः प्रदशसंक्रमः । इयमत्र भावना-मनुजद्विकमुच्चैर्गोत्रं कोपघातरूपाः, अस्थिरत्रिकम्-अस्थिराशुभायशः कीर्तिसं- च प्रथमतस्तेजोवायुभव वर्तमानेनाद्वलितं, पुनरपि सूक्ष्मैशम् , पतासां द्वाविंशतिप्रकृतीनां कषायाष्टकरहितानाम् ।। केन्द्रियभवमुपागतनान्तर्मुहूर्त यावद्वद्धम्। ततः पञ्चन्द्रि'सब्बलहुं' ति सर्वेभ्योऽध्येभ्यः शीघ्रमेव क्षपणायोत्थित- यभवं गत्या सप्तमनरकपृथिव्यामुत्कृष्टस्थितिको नारको स्य मासपृथक्त्वाभ्यधिकेषु अष्टसु वर्षेष्वतिकान्तेषु; क्षप- जातः । तत उहत्य पञ्चेन्द्रियतिर्यतु मध्य समुत्पन्नः । एणायोद्यतस्येत्यर्थः । अष्टौ कषायान् प्रति देशानां पूर्वको
तावन्तं च कालमबद्धा प्रदेशसंक्रमेण चानुभूय तेजोवाटी यावत् संयममनुपाल्य । पञ्चसंग्रहे पुनः सर्वा अप्येताः युषु मध्ये समागतः। तस्य मनुजद्विकोच्चैर्गोत्र चिरोलप्रकृतीरधिकृत्य देशानां पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्ये- नयोद्वलयतो द्विचरमखण्डस्य चरमसमय परप्रकृती यस्युक्तम् । क्षपकश्रेणि प्रतिपत्रस्य यथाप्रवृत्तकरणचरमस- इ(लिक)लं संक्रामति स तयोर्जघन्यः प्रदेशसंक्रमः। मय कषायाष्टकस्य विध्यातसंक्रमेण शेषाणां यथाप्रवृत्तसंक्रमण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति ।
हस्सं कालं बंधिय, विरो आहारसत्तगं गंतुं । पुरिसे संजलणतिगे, य घोलमाणेण चरमबद्धस्स ।
अविरई महुब्बलंत-स्स, जा थोवउव्वलणा ।। १०६ ॥
'हस्सं 'ति-हस्वं कालं-स्ताकं कालं यावत् विरतोऽप्रमत्तसगभंतिमे असाए-ण समा अरई य सोगो य ॥१०३।।।
संयतः सन् श्राहारकसप्तकं बद्धा कर्मोदयपरिणतिवशात् 'पुरिसे' ति-पुरिसे' इत्यादौ षष्ठयर्थे सप्तमी । पुरुष- पुनरप्यविरतिं गतः । ततोऽन्तर्मुहूर्तात्परतो महोद्वलनया बदस्य संज्वलनत्रिकस्य च क्रोधमानमायारूपस्य क्षपणाय चिरोद्वलनया पल्योपमासंख्येयभागप्रमागोन कालनोतुलन
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संकम
योवलयतः सतो या स्तोकोद्रलना द्विचरमखण्डस्य चरमसमये यत्कर्म दलिकं पर प्रकृतिषु प्रक्षिप्यते सा स्तोकोद्धलना, सा आहारकस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः ।
( ३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तपसि उदही- स चउपन्नाहियं अधित्ता । अंते खहप्पवत्तक–रणस्स उओयतिरियदुगे ॥ १०७ ॥
6
तेवसिय ति-त्रिषष्ट्यधिकमुदधिशतं सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्योपमाधिकं च यावत् स क्षपितकमशः सर्वजघन्यतिर्यद्विकोद्योतसत्कर्मा उद्योततिर्यग् द्विकमवा यथाप्रवृत्तकरणस्यान्ते चरमसमय उद्योततिafgarrisor प्रदेशसंक्रमं करोति I कथं त्रिषयधिकं सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्याधिकं च यावदबद्वेति चेदुच्यते - स क्षपितकर्मी शस्त्रिपल्योपमायुष्केषु मजषु मध्ये समुत्पन्नस्तत्र देवद्विकमेव बध्नाति न तियद्विकम् नाप्युद्योतम् । तत्र चान्तर्मुहूर्ते शेषे सत्यायुषि सम्यक्त्वमवाप्य ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्व एवं पल्पोपमस्थितिको देवो जातः । ततोऽप्यप्रतिपतितसम्यक्त्वा देभवात् व्युत्क्त्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः । ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन सम्यत्वेन सहित एकत्रित्सागरोपमस्थितिको ग्रैवेयकेषु मध्ये देवो जातः । तत्र चोत्पश्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तादृवं मिथ्यात्वं गतः । ततोऽन्तर्मुहूर्तावशेषे आयुषि पुनरपि सम्यक लभते । ततो द्वे पदपष्ट सागरोपमासां यावन्मनुध्यानुत्तरसुरादिषु सम्यक्त्वमनुपालय तस्याः सम्यक्त्वाऽडाया श्रन्तर्मुहर्ते शेष शीघ्रमेव क्षपणाय समुद्यतः । ततोऽ जिन विधिना त्रिपष्टयधिकं सागरोपमाणां शतं चतुष्पत्याधिकं च यावत्तिर्यग्विकमुद्योतं व बन्धरहितं भवतीति ।
इमविगलिदियजग्गा, अनु प पज्जत्तगेण सह तेसिं । तिरियइसमें नवरं, पंचासीउदहिसयं तु ॥ १०८ ॥ ' इति - एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय योग्य अष्टी या प्रकृतयः एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरातपसूक्ष्मसाधारणलक्षणाः। तासामपर्यासहितानां नाना प्रकृती तिर्यग्गतिसमे वक्तव्यम् | नवरमंत्र पञ्चाशीत्यधिकं सागरोपमशतं चतुष्पपाधिकं याति चक्रन्यम् कथमेतावन्तं काले या बन्ध इति चेदुपते-दद मिशद्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकः पष्ठपृथिव्यां नारको जातः । तत्राप्यन्तर्मुआयुषि सम्यक्त्वं प्राप्तवान् । ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्व एव मनुष्यो जातः ततस्तेनाप्रतिपतितेन सभ्यकत्वेन देशविरतिमनुपालय चनुपत्यापमस्थितिकः साधर्मदेवलाक देवो जातः । ततस्तेनाप्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन सह देवभवाच्च्युत्वा मनुष्यो जातः । तस्मिश्च मनुष्यभवे संयममनुपायवेयध्येकशरसागरोपमस्थितिको देवो जातः । तत्र योत्स्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तादृवं मिथ्यात्वं गतः। ततोन्तर्मुहूतांशेावृषि भूयोऽपि सम्प्रतिपद्यते त तो पदवी सागरोपमा वापत् सम्यक्त्वमनुपालय 'तस्याः सम्यक्त्वाद्धाया अन्तर्मुहर्ते शेषे क्षपणाय समुद्यतदेव पाशीत्यधिक सागरोपमशनं चनुत्याधिकं यावत्पूर्वोक्तानां नवप्रकृतीनां बन्धाभावः ।
संकमण छत्तीसाऍ सुभाणं, सेडिमारुहियसेसमविहहिं ।
कट्टु जहनं खवणं, अपुष्वकरणालिया अंते ॥ १०६ ॥ 'छत्तीसार ' त्ति श्रेणिमनारुह्योपशमश्रेणिमकृत्वा शेषैर्विधिभिः क्षपितर पनि शुभकृतीनां पञ्चेन्द्रियजातिसमचतुरख संस्था नवजर्षभनाराचसंहननतेजस सतप्रशस्तविहायोगति शुक्ललोहितद्वारिद्रसुरभिगन्धकषायाम्लमधुर मृदुलघुस्निग्धोष्णागुरुलघुपराघातोच्छ्वासत्रसादिदशक निर्माणलक्षणानां जघन्यं प्रदेशानं कृत्वा चपलायोत्थितस्य क्षपित कर्माशस्थापूर्वक र ण सत्कायाः प्रथमावलि - काया अन्ते चरमसमये तासां जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । तत ऊभ्यं तु गुणक्रमेण लब्धस्यातिप्रभूतस्य दलिकस्व सक्रमालिकातिक्रान्तस्येन संक्रमसम्भवात् स न प्राप्यते । पञ्चसंग्रहे तु वज्रर्षभनाराचवर्जितानां शेषाणां पञ्चत्रिंशत्कृतीनामेवा पूर्वकरणप्रथमावलिकान्ते जघन्यः प्रदेशसंक्रम उक्तः । वज्रर्षभनाराच संहननस्य तु स्वबन्धव्यवच्छेदसमये इति । सम्मदिबिजोग्गा - सोलसर व अशुभपगईं । श्रीवेण सरिसगं, नवरं पढमं तिपल्लेसु ॥ ११० ॥ 'सम्मदिट्टि' सि सम्यग्रेरपोग्यानां पोडशानामशुभग्रहतीनां प्रथमसंस्थानप्रथमच जसदनमास्तविहायोगतिदुर्भगदुःखरानादेयनपुंसक वेदनी च गोत्र लक्षणानां स्त्रीवेदेन सदृशं वक्तव्यम् । यथा प्राकू स्त्रीवेदस्य जघन्यप्रदेश संक्रमभावना कृता तथाऽत्रापि कर्तव्या । नवरमेतासां जघन्यप्रदेश संक्रमस्वामी प्रथमं त्रिपल्योपमायुष्केषु मनुष्येषु मध्ये समुत्पक्ष वस्यः धर्तावशेषे वायुषि प्राप्तसम्यक्त्वः । शेषं तथैव वक्तव्यम् ।
नरतिरियाण तिपल्ल संते ओरालियम्स पाउरगा । तित्थयरस य बंधा जहस्रमो मालिगं गंतु ॥ १११ ॥ 'नर' निरतिरक्षां त्रिपल्योपमस्यान्तं श्रीवारिकस्य प्रायोग्याः प्रकृतयो जघन्य प्रदेशसंक्रमयोग्याः । इयमत्र भाबना जीयः सवन्यजीवांपेक्षा सर्वजधन्यदारिकसत्कर्मा सन् त्रिपल्योपमायुष्केषु तिर्यङ्मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः, तस्योदारिकससकमनुभवतो विध्या पर प्रकृती संक्रमयतथ स्थायुपश्रमसमये तस्वीदारिकसत कस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति । श्रदारिकस्य प्रायोग्या इत्यादारिक सप्तकम् । 'तित्थयरस्से' त्यादि तीर्थंकरनामकर्मणो बन्धं कुर्वता यत्प्रथमसमये बद्धं दलिकं तत् बन्धावलिकातीतं सत् यदा परप्रकृतिषु यथाप्रवृत्तसंकमेरा संक्रमयति तदा तीर्थकरनानो जघन्यः प्रदेश संकमो भवति । तदेवमुक्तः प्रदेशसंक्रमः । तदुक्की व समर्पितं संक्रमकरणम् । क० प्र० ३ प्रक० । ( भवाद् भवान्तरं संक्रामन् किमायुः प्रकरोति इति ' आउ' शब्दे द्वितीयभागे १८ पृष्ठ उक्तम् । )
संक्रमण संक्रमन०
प्रकृत्यादिरूपतया व्य
वस्थाप्यते येन तत्संक्रमणम् । क० प्र० १ प्रक० । असत्तादेः सादी मे विशेष संक्रान्ती, विशे० प्रा० । नि०चु० । संथा० । आक्रमणे, आव० ४ श्र० । पर्यटने, सूत्र० १
।
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संकमण
अभिधानराजेन्द्रः। श्रु०४१०२ उ०। पिपीलिकामत्कुणादीनां स्फुटितस्य गमने, | संकलिय--संकलित-त्रि। अनुबद्धे, अनु० । सूत्र।
सक्रमणम् । चारित्र, संकलिया-संकलिका-स्त्री० । अन्तादिपदयोः सङ्कलनात्सङ्कलिप्राचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०।
का। आदानपदाख्य सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चदशे अध्ययने, सूत्र०। संक्रमणकाल-संक्रमणकाल-पुं० । अवान्तरसंक्रान्तिसमये,
अस्याध्ययनस्यान्तादिपदयोः संकलनात्संकलिकेति नाम कुप्रा० क०१०।
वते तस्या अपि नामादिकश्चतुर्दा निक्षेपो विधेयः। तत्रापि संक्रममाण-संक्रामत-त्रि० । गच्छति, स्था० २ ठा०४ उ०। द्रव्यसङ्कलिका निगडादौ भावसङ्कलना तूत्तरोत्सरविशिष्टाज। जी०। सम्-एकीभावेन क्रामन् गच्छन् । संगच्छ- ध्यवसायसङ्कलनमिदमेव वाऽध्ययनम् , आद्यन्तपदयोः समाने , जी० ३ प्रति०१ अधि०१3०।
कलनादिति । सूत्र०१ श्रु० १५१०। संकमुकिट्टिइ-संक्रमोत्कृष्टस्थिति-स्त्री०। संक्रमोत्कृष्टस्थिः | संका-शङ्का-स्त्री। शङ्कनं शङ्का । संशयकरणे, आतु।सन्देहे, तिभेदे , या बन्धादेव केवलादुत्कृष्टा स्थितिलभ्यते । क० प्र० ध.२ अधि० जीवादितत्त्वेषु अस्ति न वेति संशयकरणे,०२ २ प्रक०। पं० सं०।
अधिनि०चूचउराकाव्यलाभगवदहत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मा संकर-संकर-पुं० । भिन्नजातीयानां मीलके, सूत्र०१ श्रु०। स्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात्सम्यगवधार्यमा११०१ उ० । वृ० । विशे० । कन्यानयनीयनगरस्य स्वनाम- णेषु संशये, आव० ६ ० । शङ्का भगवदर्हत्प्रणीतेषु पदार्थेषु ख्याते श्रावकाणां प्रतिपने राजनि, ती०५० कल्प। सांकर्ये, धमोस्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात् सम्यगनवसंकीर्णत्वे , विशे। संमीलनशीले , वृ०४ उ०। संकीर्यते धार्यमाणेषु संशयः, किमेवं स्यान्नैवमिति । यदाहुः-संशयकसंपिण्ड्य संकरण वा संपिण्डनं संकरः । गौणपरिग्रहे, प्रश्न रणं शङ्केति । सा च शङ्का द्विविधा-देशशङ्का, सर्वशङ्का च । दे५ आश्र० द्वार।
शशङ्का-देशविषया; जीवाद्यन्यतमपदार्थंकदेशगोचरेत्यर्थः । संकरगायत्ती-शङ्करगायत्री-स्त्री० । रुद्रप्रतिपादिकायां यथाऽस्ति जीवः केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो बा, सप्रदेशोऽप्रदेगायध्याम् , “तन्महेशाय विद्महे वाग्विशुद्धाय धीमहि त
शो वेति । सर्वशङ्का-सर्वविषया यथाऽस्ति वा धर्मो नास्ति मो रुद्रः प्रचोदयात्" । गा।
वेति । इयं च द्विधाऽपि शङ्का भगवदहत्प्रणीतप्रवचनेऽप्रत्य
यरूपा सम्यक्त्वं दूषयतीत्यतीचारः । केवलागमगम्या असंकरदस-शङ्करदृष्य-न०। संकर इह प्रस्तावातृणभस्मगो
पि हि पदार्था अस्मदादिप्रमाणपरीक्षानिरपेक्षा प्राप्तप्रणेतमयाजारादिमीलक उत्कुरुटिका इति यावत् , तत्र दृष्यं वस्त्रं कत्वान्न सन्देग्धं योग्याः, यत्रापि मतिदौर्बल्यादिभिर्मोहवसंकरदूष्यम्। अत्यन्तनिकृष्टे निरुपयोगिनि लोकैरुत्सृष्टे वस्त्रे, शात् कचन संशयो भवति तत्राऽप्यप्रतिहतेयमर्गला। उत्त०१२ १०।
यथासंकरपुर-शङ्करपुर-म० । लक्ष्मणावतीसविधे स्वनामख्याते
"कत्थ य महदुब्बल्ले-णं तम्विहायरियविरहशो वाऽवि । दुर्गरक्षिते पुरे, विक्रमे १३६० संवत्सरे लक्ष्मणावतीहम्मीर- न य गहणत्तणेण य, नाणावरणोदयेणं च ॥१॥ श्रीसुरत्राणसमदीनः शङ्करपुरदुर्गोपयोगिपाषाणग्रहणार्थ प्र- हेऊदाहरणासं-भषे य सह सुठुन बुज्झज्जा । तोली पातयित्वा कपाटसंपुटमग्रहीत् । ती० ३४ कल्प। सब्वन्नुमयमवितह, तहाऽवि तं चिंतए महमं ॥२॥ संकरसमय-शहरसमय-पुं०। भिन्नजातीयानां मीलकस्यैक- अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जुगप्पवरा। वाक्यतायाम् , यथा-वाममार्गादावनाचारप्रवृत्तावपि गुप्ति- जिअरागदोसमोहा, अनन्नहा वाइणो तेणं ॥३॥" करणमिति । सूत्र०१श्रु०१०१ उ०।
_ यथा चसंकरसामि-शङ्करस्वामिन-पुं०। नयनमनसोरपि प्राप्यकारि- "सूत्रोक्तस्यैकस्या-प्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः । स्ववादिनि स्वनामख्याते दार्शनिकविदुषि, 0 सम्म । मिथ्यादृष्टिः सूत्रं, हि नः प्रमाणं जिनाभिहितम् ॥१॥ संकरिय-शार्य-न० । परस्परानुविद्यरूपतायाम् , अने०१
एकस्मिन्नप्यर्थः, सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति नष्टः ।
मिथ्या च दर्शनं तत् ,सचादिहेतुर्भगवतीनाम्।।"प्रव०६द्वार। अधि०।
(शकाव्याख्या 'मिच्छहिट्ठि' शब्दे ६ भागे २७५ पृष्ठे गता।) संकरिसख-शर्षण-पुं० । नवमे बलदेवे, तिः। ती । स०। संकरी-शङ्करी-स्त्री० । विद्याभेदे, या हि पठितमात्रा एव दा.
संसयकरणं संका, कंखा अमोमदंसणग्गाहो।। सदासीसखीपरिवारभूत्वाऽऽदेशं करोति, अन्तिकमागतं
संतम्मि वि वितिगिच्छा, सिझेणं मे अयं अट्ठो॥२४॥ प्रस्यनीकं निवारयति , दूरस्थस्याऽपि बेष्टितं पृटा सती
संसयण-संसयो करणं-क्रिया,संसयस्स करणं संसयकरणकथयति । उत्त०१३ मा
मिस्थाह-जमिदं संसयकरणं किमिदं वहाणत्यंतरभूतं उता
पत्थंतरमिति ? । गुरुराह-णमिदमस्थन्तरभूतं घडस्स दंडासंकल-यल-1०। "श्टाले खः कः" ॥८।१।१८६॥ इत्य.
दयो जहा, इदं तु पणत्थंतरं अंगुलियचक्रकरणवत् , जमेनात्र खस्य ककारादेशः। संकलं । प्रा० । इस्त्यन्तुके , प्र.
दिदं संसयकरणं स एव संका, संकणं संका; चित्तासंकेत्यर्थः, ०५ संव० शार।
सा दुविहा-देसे, सब्वे य । देसे जहा तुले जीवसे कहमेगे संकला-स्टाला-सीन भयोमयनिगडे, सूत्र १९०५म०
भब्वा, एगे अभन्दा अहवा-पगेणं-परमाणुणा पगे मागासपदेसे पुणो पुणो वि परमाणू तस्येवागासपदेसे मन
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संका अभिधानराजेन्द्रः।
संकियपडि. गाहति । ण य परमाणू : परमाणुतो सुहुमतरो भवति । ण संकावय-शङ्कापद-त्रि० । किमेतन्मदारब्धमनुष्ठानं निष्फलं य आयपमाणे अण्णावगाहं पयच्छति । कद्दमेयं ति एवमादि- स्यादित्येवंभतो विकल्पः-शा, तस्याः पदं निमित्तकारदेसे संका। 'सव्वसंक' ति सव्वं दुवालसंग गणिपिडगं णम् । आईतप्रोक्तेष्वत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागममाहोपाययभासाणिबद्ध माणुए तं कुसलकप्पियं होजा । वर्थे संशीती, प्राचा०१ श्रु०५ अ०१ उ० । संकिणो असंकिरो य दोसगुणदीवणथं उदाहरणंजहा, ते पेया पाया दारगा । एगस्स गिवतिणो पस
संकास-संकाश-त्रि० । सदृशे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । उत्त। बियपुत्ता भजा मता । तेण य अराणा घरिणी कता । तीए
| प्रशा। वि पुत्तो जाओ । ते दो वि लेहसालाए पढंति । भोयणकाले संकासिया--शाशिका--स्त्री० । स्थविरात् श्रीगुप्ताचाय आगता । दोराह वि गिराहतो मिट्ठाणमासकणफोडिया र्यानिर्गतस्य चारणगणस्य तृतीयशाखायाम् , कल्प। पेया दिना । तत्थ मुयमातिओ चिंतेड,मच्छिया इमा ससंकि
ओ पियति । तस्स संकाए बग्गुलिया वाही जातो मतो य । संकिट्ट-संक्लिष्ट-त्रि० । संकीर्णे, बृ०१ उ०३ प्रक० । वितिओ चिंतेति-ण मम माता मच्छियाओ देति णिस्सकितो पिवति जीवितो य । तम्हा संका ण कायब्बा। णिस्सं
| संकिट्ठवियारभूमि-संक्लिष्टविचारभमि-मी० । संयतानां सं. कितेण भवियब्वं । सके त्ति दारं गतानि००१उ०। श्रा
यतीनां चैकस्यामेव संहाभूमी, वृ०१ उ०३ प्रक० । सूत्र० दश। जीत। संथा० । दर्श० । ग०।
संकिप-संकीर्म-त्रि० । व्याप्ते, प्रज्ञा०२ पद । विशे० । मिश्रशङ्कायामुदाहरणं पेयापायिनः
त्वे, विशे। भ० । “एएसि हत्थीण, थोवं थोवं तु जोड "नार्याः कुत्रापि कस्याश्चि-दारको द्वौ बभूवतुः ।
तणु हराइ हत्थी । रुवेण व सीलण व, सो संकिरापो त्ति सपनीतनुभूरेको, द्वितीयश्चात्मभूईयोः ॥१॥
| नेयम्वो ॥१॥” इति वचनात् संकीर्णनाम्नि हस्तिविशेषे, पुं०।
स्था०४ ठा०२ उ० । शबलीकृतचारित्रे, वृ० ३ उ० । स्वपप्राप्तयोर्लेखशालायां, माषपेयामदत्त सा।
क्षपरपक्षव्याकुले क्षेत्रे, नपुं० । भ०२५ श०७ उ०। अचिन्तयत्सपत्नीभूः, पेयाऽसौ मक्षिकान्विता ॥२॥ इत्याशङ्की वमन्नित्यं, बल्गुलीव्याधिना मृतः।
संकिय-शति-त्रि० । एकभावविषयसंशयसंयुक्ने, स्था० ४ द्वितीयोऽचिन्तयन्माता, न प्रयच्छति मक्षिकाः॥३॥
ठा० ३ उ० । शंसयक्रोडीकृते, वृ०२ उ० । शङ्किते, शङ्कानिःशङ्कितो जीवितोऽसौ, संजातो भोगभाजनम् ॥४॥"
योग्ये वागुरादिके, सूत्र०१ श्रु. १ ० २ उ० । शङ्कितो
देशतः सर्वतो वा । संशयवति, स्था० ३ ठा०४ उ० । सूत्र। श्रा० क० ६ ० ।
सम्भाविताधाकर्मादिदोषयुक्ने भक्कादिके, ग० १ अधि० । संकाठाण-शङ्कास्थान-न० । शङ्काविषये स्थाने, उत्तः ।
प्राचा। प्राधाकर्मादिशङ्काकलुषितो यदनाद्यादत्ते तच्छ्" संकाठाणाणि सव्वाणि, वजिजा पणिहाणवं" । उत्त. तिम् । ध०३ अधिः । जी० । पञ्चा० । प्रव० । शङ्कितं न १६ अ० ।
विमः किमिदमुद्गमादिदोषयुक्तं, किं वा-नेत्येवमाशङ्कास्पदीसंकामण--संक्रामण--न । प्रस्तुतप्रमेये , स्था० । संक्रा- भूतम् । दश० ८ ०। पिं०। (तत्र शङ्कितपदव्याख्या 'एसमण-प्रस्तुतप्रमेयेऽप्रस्तुतग्रमेयस्य प्रवेशन; प्रमेयान्तर्गमन
णा' शब्दे, तृतीयभागे ५४ पृष्ठे गता।) मित्यर्थः । अथवा-प्रतिवादिमते आत्मनः संक्रामण; परमता.
किंबहुनेति, उपदेशसर्वस्वमाहभ्यनुज्ञानमित्यर्थः । तदेव दोष इति । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पम्मि संकिअं । संकामणी-संक्रामणी-स्त्री० । संक्रमणकारके विद्याभेदे, शा० १ श्रु० १६ अ०।
दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४४॥ संकामिय--संकामित-त्रिशस्वस्थानात् परस्थानं नीते, भाव०
यद्भवेद्भक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनायाकल्पनीयधर्मवि४ अ० । स्था० । संकामिय' नि संक्रामित विभक्त्रिवचना
षय इत्यर्थः, किम् ?-शङ्कितं न विद्मः किमिदमुद्गमादिदोषयुक्तं
किं वा नेत्याशङ्कास्पदीभूतंः तवित्थंभूतमसति कल्पनीद्यन्तरतया परिणामितं तदनुयोगो यथा- साहूण व
यनिश्चये ददती प्रत्याचक्षीत । न मम कल्पते ताशमिति न्दणेणं नासति पाचं, असंकिया भावा ' इह साधूना
सूत्रार्थः ॥४४॥ दश०८०। मित्यतस्याः षष्ठथाः साधुभ्यः सकाशादित्येवंलक्षणं पश्चमीत्वेन विपरिणामं कृत्वा अशङ्किता भाषा भवन्तीति संकियगणणोवगा-शङ्कितगणणोपगा-स्त्री० । प्रत्युपेक्षणाभेएतत्पदं सम्बन्धनीयम् । तथा"अच्छंचा जे न भुअंति,न से चा दे, ध० । तथा शङ्किता चासौ गणना च शङ्कितगणना ता
त्ति बुवाई" इत्यत्र सूत्रे न स त्यागीत्युच्यते इत्येकवचनस्य मुपगच्छति या प्रत्युपेक्षणा सा शङ्कितगणनोपगा तां न कुबहुवचनतया परिणामं कृत्वा न ते त्यागिन उच्यन्ते इत्येवं र्यात् । अयं भावः-पुरिमादयः कियन्तो जाता इति शङ्कायां पदघटना कार्येति । स्था० १० ठा० ३ उ०।
तगणना करोति यः प्रमादी भवति पूर्वमित्थंभूता प्रत्युपेक्षणा
न कर्तव्येति स्थितम् । ध० ३ अधिक। सेकामेजमाण--संक्रम्यमाण--त्रि० । हस्तादिना संक्रम कार्यमाणे , स्था० ३ ठा० १ उ०।
संकियपडिसेवणा-शङ्कितप्रतिसेवना-स्त्री०।" जं संके
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संकिपfro
संकुल
सं समावजे " इति वचनात् । एषणीयेऽप्यनेषणीयतया श- संकिलेस -संक्लेश-पुं० । असमाधौ पा० । रागादिलक्षणे ङ्किते प्रतिसेवनायाम्, स्था० १० ठा० ३ उ० । संकि लिड - संक्लिष्ट – त्रि० संक्लेशवति, प्रश्न०२ श्र०द्वारा।
चित्तमालिन्ये, पञ्चा० १५ विव० । श्राव० । तीवरागादिसंवेदने अरतौ, पं० सू० १ सूत्र । स्था० ।
स्था० ।
इदाणीं संकिलिङ्कं भस्ति
जं तु संकिलिडं, तं सणिमित्तं व हो अणिमित्तं । जं तं सणिमित्तं पुण, तस्सुप्पत्ती तिधा होति ॥ १८ ॥ जं ति णितिं ति पूर्वाभिहितं । तुशब्दो संकिलिट्ठविसेसणो । तस्स संकिलिट्ठस्स दुविहा उप्पत्ती - सम्मित्ता, अमिताय । णिमित्तं देऊ कारणं वक्खमाणरसरूवो । प्रणिमित्तं निरहेतुकं । जं तं सणिमित्तं तस्सुप्पत्ती ; बाहिरधत्थुमवेक्ख तिविद्दा भवति । पुनरवधारणे । चोदग आह - सु कम्मं चेव तस्स णिमितं किम बाहिरणिमित्तं घोसिज्जति ।
( ३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
श्राचार्थ्याह
कामं कम्म णिमित्तं, उदयो णत्थि उदयश्री तव्वजो । तह विय बाहिरवत्थं, होति णिमित्तं तिमं तिविधं ॥ १६ ॥ कामं अनुमतार्थे, किमनुमन्यते ? - कर्म णिमिलो उदमेत्यर्थः । न इति प्रतिषेधे, उदयः कर्म्मवज्जो न भवतीत्यर्थः । तथाऽपि कश्चिद्वाह्यवस्त्वषेो कम्मोदयो भवतीत्यथेः । इदं तिविधं बाह्यनिमित्तम् उच्यते ।
स वा सोऊ, दहुं सरितं व पुष्वधुताई। सखिमितणिमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे व ॥ २० ॥ गीतादि विसयसहं सोउं, आर्लिंगणादि स्थीरूवं वा वहुं, पुग्वकीलियाणि वा सरिउ, पतेहिं कारणेहिं सििमत्तो मोहुन । प्रणिमितो पुरा, पुणसहो अणिमित्तविसेस | किमुदओ प्रहारेणं सरीरोववेया । चसदो भेद प्रदर्शने । नि० धू० १ ३० । संकिलिङकम्म-संक्लिष्टकर्मन् - न० | छेत्रभेदनादिके दुष्कमणि, जी० १ प्रति० ।
-
संकिलिङकाल - संक्लिष्टकाल - पुं० । गीतार्थसंविग्नरहिते का"किलिकालो नाम जम्मि काले गीयरथसंविग्गा नडस्थि संकिलिकालः " । पं० खू० ४ कल्प० ।
संकि लिट्टलेस्सा- संक्लिष्ट लेश्या--स्त्री० । संक्लेशहेती लेश्या - याम्, स्था०३ ठा० ४ उ० । (ता संक्लिष्टा लेश्याः 'लेसा ' शब्दे षष्ठे भागे ६८७ पृष्ठे गताः । ) संकिलिङ्कायार-संक्लिष्टाचार -- पुं० । संसर्गवशात् स्थापितादिभोजिमि व्य० ६ उ० ।
संकिलिस्समाण--संक्लिश्यमान- त्रि० । अविशुद्धिं गच्छति, भ० १३ श० १ ३० । उपशमश्रेणीतः प्रत्यवमाने, भ० २५
정영
१०
तिविहे संकिलेसे पत्ते, तं जहा - णाणसंकिलेसे, दंसण संकिलेसे, चरितसंकिलेसे ॥ ( सू० १६५ + )
ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः संक्लिश्यमानपरिणाम निबन्धनो ज्ञानादिसंक्लेशो, ज्ञानादिशुजिलक्षणो विशुद्धयमानपरिणामहेतुकस्तद संक्लेशः । स्था० ३ ठा० ४ उ० |
दसविहे संकिलेसे पत्ते । तं जहा - उवहिसंकिले से उवस्सयसंकिलेसे कसायसंकिलेसे भत्तपाणसंकिलेसे मसंकिलेसे वतिसंकिलेसे कायसंकिलेसे नाणसंकिले से दंसणसंकिलेसे चरितसंकिलेसे || ( सू० ७३६ + )
'दसे त्यादि संक्लेशः - असमाधिरुपधीयते - उपप्रभ्यते संयमः संयमशरीरं वा येन स उपधिर्वस्त्रादिः तद्विपयः संक्लेश उपधिसंक्लेशः । एवमन्यत्रापि नवरम् ' उवस्सय ' ति उपाश्रयो वसतिस्तथा कषाया एव कषायैर्वा संक्लेशः कषाय संक्लेशः । तथा भक्तपानाश्रितः संक्लेशो भक्तपानसंक्लेशः । तथा मनसि मनसो वा संक्लेशः, वाचा संक्लेशः, कायमाश्रित्य संक्लेश इति विग्रहः । तथा ज्ञानस्य संक्लेशोऽविशुसूयमानता स ज्ञानसंक्लेशः । एवं दर्शनचारित्रयोरपीति । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
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संकिलेसमाणय-संक्लिश्यमानक- पुं० । उपशमश्रेण्याः प्रतिपततः संयमभेदे, स्था० २ ठा० १ उ० ।
संकृ-शत्रु-पुं० । कीलके, आ० म० १ अ० | कल्प० । संकुइय-संकुचित न० । संकुचनं संकुचितम् । गात्रसंकोचकरणे, दश० ४ ० । ० म० । ८० । शिखरीकृत्य संकोघनमुपगते, त्रि० जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । संकुइयपसारिय--संकुचितप्रसारित न० । नाट्यनेवे 'प्रा० म० १ अ० । जं० ।
संकुक- शंकुक - पुं० । शत्रुका विद्याप्रधाने बैताख्यपर्वतस्योत्तरश्रेण्यां विद्याधरनिकाये, प्रा० चू० १ ० । बैताख्यपर्वतस्योत्तरश्रेण्यां विद्याधरनिकायविशेषाणां विद्यायाम्, स्त्री० । आ० सू० १ अ० ।
संकुचेमाण- संकुचयत् श्रि० । हस्तपादादिसंकोचनतः संकोचं गच्छति, भाषा० १ ० ६ ० ४ उ० ।
संकुडिय - संकुटित - त्रि० । संकुचिते, जं० २ पक्ष० । “संकुडियवलितरङ्गपरिषेडियंगमंगा " संकुटितं -घलीलक्षण तरङ्गैः प रिवेष्टितं च येषां ते तथा। भ० ७ श० ६ उ० ।
संकुल- संकुल- त्रि० । व्याप्ते, अष्ट० २२ अष्ट० । स्वनाम क्या प्रामे, संकुलो नाम प्रामस्तत्र जिनदत्तनामा श्रावकस्तस्य भा र्या विनिमतिः । पिं० ।
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(३८) अभिधानराजेन्द्रः।
संख ग्रामवर्णकश्चत्थम्-तत्र च ग्राम कोद्वा रालकाश्च प्राचु- संकोय-संकोच--पुनस्कारे,प्रा०क० । द्रव्यभावसंकोचनम् । येणोत्पद्यते इति तेषामेव कुरं गृहे गृहे भिक्षार्थमटन्तः सा
द्रव्यसंकोचनम्-करशिरःपादादिसंकोचः , भावसंकोचनम्धयो लभन्ते । वसतिरपि स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता समभूत
मनस एकाग्रता । द्रव्यसंकोचः पालकस्य । भावसंकोचोऽलादिगुणैरतिरमणीया कल्पनीया च प्राप्यते। स्वाध्यायोऽपि
नुत्तरदेवानाम् । उभयसंकोचः शम्बस्य । उभयाभावः शून्यः। तत्र बसतामविघ्नमभिवर्द्धते, केवलं शाल्योदनो न प्राप्यते
आ० क०१०। इति म केचनापि सूरयो भरेण तत्रावतिष्ठन्ते । पि० । (विशेषश्चात्रस्यः श्राधाकम्म' शब्द द्वितीयभागे ४० संख-शङ्ख:-पुं०"शषोः सः"दा४।३०६॥ इति शस्य सः।प्रान पृष्ठे गतः।)
समुद्रोद्भवे (प्रशा०१ पद । ) वृत्ते दीर्घाकृती, ( नि० चू०
१७ उ०1) जलचरप्राणिविशेष, नि० चू०१ उ० । कम्बुनि, संकेय-संकेत-त्रि०। केतं-चिह्न केतेन सह वर्तत इति
स्था० ६ ठा०३ उभौला उत्त० । प्रश्न । वासुदेवस्य पाश्च संकेतम् । सचिह्न, श्राव० ६ ० । स्था।
जन्यः शंखः । उत्स०१० अ० । शंखः पाश्चजन्यो द्वादशयोजसंकेयपञ्चक्खाण-संकेतप्रत्याख्यान-न० । प्रत्याख्याने, ध०। नविस्तारध्वनिः । प्रव० २१२ द्वार। श्रा०म० । उत्तरा अष्ठमुष्टिप्रन्ध्यादिचिह्नोपलक्षितं सङ्केतं, तच्च श्राषकः पौ- जं०। प्रश्न | नं0 "परिट्ठिया संखसुत्ति व्व।" प्रा०२ पाद। रुष्यादिप्रत्याख्यानं कृत्वा क्षत्रादौ गतो गृहे वा तिष्ठन् श्राचा । श्रा० म० । अनु० । अक्षिप्रत्यासन्नावयवविशेष, भोजनप्राप्तेः प्राक् प्रत्याख्यानरहितो मा भूवमित्यङ्गष्टादि
मा०१७०८ अ० । एकोनविंशतितमे महाग्रहे , स्था० २ कं सङ्केतं करोति ' यावदङ्गुष्ठं मुष्टिं ग्रन्थि (वा) न मुश्चा- अ० ३ उ० । कल्प० । चं० प्र० । सू० प्र० । मि , गृहं वान प्रविशामि, खेदबिन्दवो यावन्न शुष्यन्ति , दो संखा । (सूत्र) स्था० २ ठा०३ उ०। एतावन्तो वा उच्छासा यावन्न भवन्ति , जलादिमश्चिकायां यावदेते बिन्दवो न शुष्यन्ति, दीपो वा यावन्न निर्वाति
वैशालीनगरीवास्तव्ये सिद्धार्थराजमित्र, श्रा० म०१०। तावन्न भुञ्ज इति । ध०२ अधिक।
आ० चूछ। लवणसमुद्रस्य वेलारक्षके स्वनामख्याते वेलन्ध
रनागराजे, जम्बूद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तात् द्वाचत्वारिंशद्योइदानी सङ्केतद्वारविस्तरार्थप्रतिपादनायाऽऽह
जनाम्यवगाह्य लवणसमुद्रे सखस्य वेलन्धरनागराजस्यावाअंगुट्ठमुद्विगंठी-घरसेउस्सासथिवुगजोइक्खे ।
सपर्वते, स्था०४ ठा०२ उ०। (संखस्य वेलन्धरनागराजस्य
तदावासभूतस्य पर्वतस्य च वक्तव्यता लवणसमुद्द' शब्दे ६ भणियं संकेयमेयं, धीरेहि अणंतनाणीहिं ॥ १५७८ ॥
भागे ६४५ पृष्ठे गता।) स्वनामख्याते श्रावस्तीवास्तव्ये श्रावके, अङ्गुष्ठश्च मुष्टिश्चेत्यादिद्वन्दः , अष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदो- स्था । शंखशतको श्रावस्तीश्रावकौ, ययोरीदृशी वक्तव्यतासछासस्तियुकज्योतिष्कान तान् चिहं कृत्वा यत् क्रियते किल श्रावस्त्यां कोष्ठके चैत्ये भगवानेकदा विहरति स्म, शप्रत्याख्यानं तत् भणितम्-उक्तं सङ्केतमेतत् , कैः ? धीरेः | लादिश्रमणोपासकाश्चागतं भगवन्तं विशाय वन्दितुमागताः। अनन्तशानिभिरिति गाथासमासार्थः । अवयवत्थो पुण-केतं ततो निवर्तमानांस्तान् शंखः खल्वाख्याति स्म-यथा भोनाम चिंधं, सह केतेन सङ्केतं; सचिह्नमित्यर्थः । 'साधू साव
देवानांप्रिया ! विपुलमशनाधुपस्कारयत ततस्तत्परिभुजानाः गोवा पुग्ने वि पञ्चकखाण किंचि चिराहं अभिगिणहति , पाक्षिकं पर्व कुर्वाणा विहरिष्यामः । ततस्ते तत्प्रतिपेदिरे, जाव एवं ताबाधं ण जिमेमि' ति ताणिमाणि चिंधाणि
पुनः शङ्खोऽचिन्तयत्-न श्रेयो मेऽशनादिभुञ्जानस्य पाक्षिकअंगुटमुट्ठिगंठिघरसेऊसासथिबुगदीवगाणि । तत्थ ताव सा- पौषधं प्रतिजाग्रतो विहर्नु,श्रेयस्तु मे पौषधशालायां पौषधिकवगो पोरुसीपच्च क्खाइतो ताथे छत्तं गतो, घरे वा ठि- स्य मुक्ताभरणशस्त्रादेः शान्तवेषस्य विहर्त्तम्।अथ स्वगृहे गत्वा तो ण ताव जेमेति, ताथे रण किर वट्टति अपच्चक्खाणस्स
उत्पलाभिधानस्वभार्याया वार्ता निवेद्य पौषधशालायां पौषअच्छितुं तदा अंगुट्टचिंधं करेति, जाव ण मुयामि ताव न
धमकार्षीत् । इतश्च तेऽशनाद्युपस्कारयांचाः, एकत्र च समअमेमि सि, जाव वा गठिण मुयामि, जाव घरंण पविसामि,
वेयुः शङ्ख प्रतीक्षमाणास्तस्थुः । ततोऽनागच्छति शङ्ख पुष्क
लीनामा श्रमणोपासकः शतक इत्यपरनामा शंखस्याकारणाजाव सेश्रो ण णस्सति, जाव वा एवतिया उस्सासा, पाणि
थतगृहं जगाम । श्रागतस्य चोत्पला श्रावकोचितप्रतिपति यमंचिताए वा, जाव एत्तिया थिबुगा उस्सासबिंदू थिबुगा
चकार । ततः पौषधशालायां स विवेश, ईर्यापथिकी प्रतिच. वा, जाव एस दीवगो जलति ताव अहं ण भुंजामि त्ति ।
काम । शङ्गमभ्युवाच-यदुतोपस्कृतं तदशनादि तद् गच्छामः न केवलं भत्ते असु वि अभिग्गहविसेसमु संकेतं भव
श्रावकसमवाय, भुज्महे तदशनादि, प्रतिजागृमः पाक्षिकति । एवं ताव सावयस्स, साधुस्स वि पुस्मे पश्चक्याणे
पौषधम्।तत उपाच शङ्क:-अहं हि पौषधिको नागमिष्यामीति। कि अपचक्वाणी अच्छउ ? तम्हा तेण वि कातव्वं सङ्के
ततःपुष्कली गत्वा श्रावकाणांतग्निविवेद । ते तु तदनुबुभुजिरे, तमिति । व्याख्यातं सङ्केतद्वारम् । श्राव ६०।
शास्तु प्राप्तः पौषधमपारयित्वैव पारगतपादपनर्माणपतनार्थ संकोडना-संकोटना-स्त्री० । गात्रसंकोचने, प्रश्न. ३ पाश्र० प्रतस्थौ। प्रणिपत्य च समुचितदेशे उपविषेश। इतरेऽपि भगव. द्वार । विपा।
म्तं वदित्वा धर्म व श्रुत्वा शंखान्तिकं गत्वा एषमूचुः
सुण्ठु स्वं देवानांप्रिय ! अस्मान् हीलयसि, ततस्तान् भसंकोडिय--संकोटित-त्रि० । संकोचिते, प्रश्न० ३ आश्रद्वार।
गवान् जगाव-मा भो यूयं शाहीलयत शङ्को बदलनीयः, मा०चू०।
यतोऽयं प्रियधर्मा धर्मा च । तथा सुष्ष्ट्रिजागरिकां जाग
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संख
संख
अभिधानराजेन्द्रः। रित इत्यादि । स्था०६ठा०३ उ० प्रा० क०मा०म०।। आपुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागआ० चू०। कल्प।
च्छित्ता पोसहसालं अणुपविसइ पोसहसालं अणुपविसित्ता तेणं कालणं तेणं समयेणं सावत्थी नाम नगरी पोसहसाल पमञ्जइ,पोसहसालं पमजित्ता उच्चारपासवणभूहोत्था । वनो, कोद्रए चेहए वनभो. तत्थ णं सा- मि पडिलेहेइ,उच्चारपासवणभूमि पडिलेहित्ता दन्भसंथारगं वत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परि- संथरति, दम्भसंथारगं संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, वसंति अड्डा० जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवाजाव | दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी० जाच पक्विविहरंति । तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम | यं पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ । तए णं ते समणोवासगा भारिया होत्था । सुकुमाल जाव सुरूवा समणोवासिया जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साइं गिहाई तेणेव उवागच्छइ, अभिगयजीवाजीवा० जाव विहरइ । तत्थ णं सावत्थीए उवागच्छित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खनगरीए पोक्खली नाम समणोवासए परिवसइ अड्डे अभि- डाति, उवक्खडावेत्ता अन्त्रमन्ने सद्दावेंति, अन्नमन्ने सद्दागयजाव विहरइ । तेणं कालणं तेणं समएणं सामी समो- वेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं सढे परिसा निग्गया०जाव पज्जुवासइ । तए णं ते समणो- से विउले असणपाणखाइमसाइमे उवक्खडाविए , संबासगा इमीसे जहा पालभियाए०जाव पज्जुवासइ । तए खे य णं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ । तं सेयं खं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य म- खलु देवाणुप्पिया! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेहति०धम्मकहा. जाव परिसा पडिगया । तए णं ते सम- |
तए । तए णं से पोक्खली समणोवासए, ते समणोवागोवासगा समणस्स भगवश्री महावीरस्स अतिय धम्म सए य एवं वयासी-अच्छद णं तुज्झे देवाणुप्पिया! सु. सोचा निसम्म हडतुड० समर्ण भगवं महावीरं वंदइ न- निव्वुया वीसत्था अहानं संखं समणोवासगं सद्दावेमिमंसह बंदिसा नमंसित्ता पसिणाई पुच्छति । पसिणाई पु- ति कह तेसिं समणोवासगाणं अंतियाअो पडिनिक्खमति, च्छित्ता अट्टाई परियादियंति, भट्ठाई परियादियि- पडिनिक्खमित्ता सावत्थीए नगरीए मज मज्झेणं जेता उहाए उद्वेति, उद्वित्ता समणस्स भगवओ व संखस्स समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, महावीरस्स अंतियातो कोट्टयाओ चेइयाओ पडि- उवागच्छित्ता संखस्स समणोवासंगस्स गिहं अणुपविनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता से जेणेव सावत्थी न-दे। तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलि सगरी तेणेव पहारेत्थगमणाए । ( मू०-४३७ +) मणोवासयं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठ. आसतए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए य एवं णाओ अब्भुटेइ अन्भुद्वित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अ. वयासी-तुझे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं णुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदति नमसति खाइमं साइमं उवक्खडावेह, तए णं अम्हे तं विपुलं अस- | वंदित्ता नमंसित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतित्ता एवं णं पाणं खाइमं साइमं प्रासाएमाणा विस्साएमाणा पारेभुंजे वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोमाणा परिभाएमाणा पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा वि- | यणं ? , तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समहरिस्सामो । तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणो- पोवासियं एवं वयासी-कहनं देवाणुप्पिए ! संखे वासगस्स एयमढे विणएणं पडिसुणंति । तए णं तस्स समणोवासए ? , तए णं सा उप्पला समणोवासिया संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अब्भथिए. जाव पोक्खलि समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवा.. समुप्पजित्था नो खलु मे सेयं तं विउलं असणं०जाव सा णुप्पिया! संखे समणोबासए पोसहसालाए पोसहिए इमं अस्साएमाणस्स०४ पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स बंभयारी • जाव विहरइ । तए णं से पोक्खली स-- विहरित्तए । सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभ- मणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए चारिस्स उम्मुकमणिसुवनस्स ववगयमालावनगविलेव- तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता गमणागमणाए णस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अविइयस्स दम्भसं- पडिक्कमइ गच्छइ गच्छित्ता संखं समणोवासगं वंदति थारोवगयस्स पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरित- नमसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु ए ति कडु एवं संपेहेति, संपेहित्ता जेणेव सावत्थी नगरी | देवाणुप्पिया! अम्हेहिं से विउले असण जाव साइमे जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समणोवासिया तेणेव उ- उवक्खडाविए तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! तं विबागच्छह, उवागच्छित्ता उप्पलं समणोवासियं पापुच्छह, उलं असणं . जाव साइमं आसाएमाणा . जाव प
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( ४०) संख
अभिधानराजेन्द्र डिजागरमाया विहरामो। तए णं से संखे समणो- सालाए० जाव विहरिए, तं सुट्ठ मं तुम देवाणुप्पिया! वासए पोक्खलि समणोवासगं एवं वयासी-णो खलु अम्हं हीलसि । अजो त्ति समणे भगवं महावीरे ते सकप्पइ देवाणुप्पिया! तं विउलं असणं पाणं खाइमं मोवासए एवं वयासी-माण अजओ! तुज्झे संखं समणोसाइम आसाएमाणस्स . जाव पडिजागरमाणस्स विह- वासगं हीलह निंदह खिंसह गरहह अवमन्त्रह । संखे णं रित्तए, कप्पइ मे पोसहसालाए पोसहियस्स . जाव वि-- समणोवासए पियधम्मे चेव दढयम्मे चेव सुदक्खु जागरियं हरित्तए, तं छंदेणं देवाणुप्पिया! तुम्भे तं विउलं अस- जागरिए (सू०-४३८) णं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाब विहरइ । तए- 'आसाएमाण' ति ईषत्स्वादयन्तो यहु च त्यजन्तः णं से पोक्खली समणोवासगे संखस्स समणोवासगस्स इजुखण्डादेरिव — विस्साएमाण ' ति विशेषेण स्वाअंतियानो पोसहसालारो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता
दयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः सार्जूरादेरिव 'परिभाएमाण' त्ति सावत्थिनगरि मज्झमझेणं जेणेव ते समणोवासगा ते
ददतः 'परिभुंजेमाण' ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरिस्प
जन्तः, एतेषां च पदानां वार्समानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीमेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते समणोवासए एवं क्या
तप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या । ततश्च तालमशनाचास्वादितषसी-एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोस- न्तः सन्तः 'पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा बिहरिस्साहसालाए पोसहिए • जाव विहरइ, तं छदेणं देवाणुप्पि
मो' ति पले-अर्द्धमासि भवं पाक्षिकं पौषधम्-अन्याया! तुझे विउलं असणपाणखाइमसाइमे • जाव वि-|
पारपौषधं प्रतिजाप्रतः-अनुपालयन्तः विहरिष्यामः-स्था
स्यामः । यहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्समानिकप्रहरह। संखे णं समणोवासए नो इम्बमागच्छइ । तए णं
त्ययोपादानं नोजनानन्तरमेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदते समणोवासगा तं विउलं असणपाणखाइमसाइमे शनार्थम् । एवमुत्तरत्राऽपि गमनिका कार्येत्येके । अन्ये तु आसाएमाणा • जाव विहरति । तए णं तस्स संखस्स व्याचक्षते-दह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठान, तब वेधा-इष्टजसमणोवासगस्स पुश्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं नभोजनानादिरूपमाहारादिपौषधरूपंचतत्र शंखः इष्टजनजागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पअिस्था-सेयं खलु
भोजनदानरूपं पौषधं कर्तुकामः सन् यदुनवांस्तदर्शयतेदमु
कम्-'तपणं अम्हे तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं भस्सामे कळ जाव जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नम
एमाणा' इत्यादि, पुनश्च राष्ट्र एष संगविशेषवशादाचपौषधसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तभो पडिनियत्तस्स पक्खियं
विनिवृत्तमनाः द्वितीयपौषधं चिकीर्षुर्यचिन्तितास्तदर्शयते. पोसहं पारित्तए ति का एवं संपेहेति एवं संपेहेत्ता कलं. दमुक्तम्-'नो खलु मे सेयं त' मित्यादि, 'एगस्स भविश्यजाव जलंते पोसहसालामो पडिनिक्खमति पडिनिक्षमित्ता स्स' सि एकस्य-बाह्यसहायापेक्षया केबलस्य अद्वितीयस्य
तथाषिधक्रोधादिसहायापेक्षया केबलस्यैव । न बैकस्येति सुप्पाबेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए सयानो गिहाम्रो
भणनादेकाकिन एव पौषधशालायर्या पौषधं कक्षु करपत - पडिनिक्खमति, सयाभो गिहामो पडिनिक्खमित्तापादवि
त्यवधारणीयम् , एतस्य चरितानुवादरूपत्वात् , तथा प्रस्थाहारचारेणं सावत्थि नगरिं मझ मज्मेणं जाव पज्जुवा- म्तरे बहूनां श्रावकाणां पौषधशालायां मिलनभवणादोषासति, अभिगमो नऽस्थि । तए णं ते समणोवासगा कल्लं
भावारपरस्परेण स्मारणादिविशिष्टगुणसम्भवाब्वेति । 'गपादु जाव जलते रहाया कयवलिकम्मा • जाय सरीरा
मणाऽऽगमणाए पडिकमा' तिईयोपथिकी प्रतिक्रामतीत्य
थः। देणं' ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयायेति । 'पुसएहिं २ गेहेहितो पडिनिक्खमंति सएहिं०२ मित्ता एगय
व्यरत्तापरत्तकालसमयसि' कि पूर्वरात्रश्च-राः पूर्वो भागः भो मिलायंति एगयभो मिलायंति एगय . ता सेसं जहा अपगता राभिरपररात्रः, सच पूर्वरात्रापरराषस्तहलक्षण: पढम. जाव पज्जुवासंति । तए णं समणे भगवं कालसमयो यः स तथा तत्र ' धम्मजागरियं' ति धमहावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य धम्मकहा • जाव
र्माय धर्मचिम्तया या जागरिका-जागरण धर्मजाग
रिका ता 'पारितपसिल कटु एवं संपेहेर' सि-पारयितुंभाणाए भाराहए भवति । तए णं ते समणोवास
पारं तुम् एव सम्प्रेक्षते-स्यालोषयति, किमिस्याहगा समणस्स भगवभो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा
इति कर्तुम् पतस्यैषार्थस्य करणायेति । 'अभिगमो इरिथ' निसम्म हडतुडा उड्डाए उठेति उलेत्ता समणं भगवं| त्ति पचप्रकारः पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्पस्य, सचित्तावित्रमहावीरं वदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखा ज्याणां विमोचनीयानामभावाविति । 'जहा पदम ति यथा ते समणोबासए तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागरिछत्ता
षामेव प्रथमनिर्गमस्तथा-द्वितीयमिर्गमोऽपि वाध्य इत्यर्थः ।
भ०१२ २०१उ०प०र० स० । महलीसह प्रमजिते संखं समणोवासयं एवं बयासी-तुम देवाणुप्पिया! हिजा
काशीराजे,हा०१९०० । (महिल' शब्दे षष्ठे भम्हेहि अप्पणा चेव एवं पयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया!
भागे १५८ पृष्ठेऽस्य वक्तव्यता गता।) शखः काशीवर्धनो विउलं असणं जाव विहरिस्सामो । तए णं तुमं पोसह- | वाराणसीमगरीसम्बन्धिजनपदवृद्धिकर इत्यर्थः । अयं ।
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( ४१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संख
न प्रतीतः केवलमलकाभिधानो राजा वाराणस्यां भगवता प्राजितोऽन्तदासु भूयते स यदि परं नामान्तरेणार्य भवतीति । स्था०८ ठा० ३ उ० । हरिकेशबलसाधोः पूर्वभवजीवस्य सोमदेवपुरोहितस्य प्रज्ञापके मथुराराज्यमुपभुज्य प्रमजिते स्वनामयते राजनि उस०] १२ प्र० । हस्तिनापुरनगरवासिनि स्वनामस्याने हयधावके, ०४ तस्व श्रा० चू० । वैताख्यपर्वतस्योत्तरथेः सुरस्याया नगर्य्या राजनि स्वनामख्याते विद्याधरेन्द्रे, ती० ६ कल्प । स्वनामरुपाते महानिधी, जं० ॥
विहीगाडगविही, कम्पस्स य चउब्बिहस्स उप्पत्ती । संखे महाणिहिम्मि, तुडियंगाणं च सव्वेसिं ॥ ६ ॥
जं० ३ वक्ष० । ति० । दर्श० । ती० । ( नवनिधिवक्तव्यता ' सिद्धि' शब्दे चतुर्थभागे २१५१ पृष्ठे गता । ) ऋषभदेवस्य शतपुत्राणां तृतीये पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानया इति पाण्या चक्रवर्तिविजये स्था० ८ डा० उ० अरिनेः पूर्वभवजीये स्वनामख्याते राजनि, उत्त० १२ अ० ।
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संख्य त्रि० | संख्यानं संख्या तामईतीति संख्यः । 'वडादेर्यः ||६|४|१७८ || इति यप्रत्ययः । संख्याते, कर्म०५ कर्म० । संक्यायत इति संख्यः पक्षमाखर्त्ययनादिप्रमिते काले, विशे० । संग्रामे, पृ० ३ उ० ।
सांख्य-पुं० संख्यानं संख्या विवेकस्तां वेतीति सांख्यः । कपिलशिष्ये, सू० १ ० ० उ० सांचया प्रा-शेषपिचितात्, प्रधानादेव केवलात् कार्यभेदाः प्रयम्ले तपा पवभावतः॥७॥ यदशेषाभिर्महदादिकार्य प्रासजनिकाभिरात्मभूताभिः शक्तिभिः प्रचितं युक्तं सरबरजस्तमसां साम्यावस्थालक्षणं प्रधानम्, तत एव महदादयः कार्यभेदाः प्रवर्तन्त इति कापिलाः प्रधानादेये' स्यवधारणं कालपुरुषादिव्यवच्छेदार्थ, ' केवलादि ति वचन सेश्वरसांख्योपकल्पितेश्वरनिराकरणार्थम् 'प्रवर्तन्ते' इति साक्षात्पारम्पर्येण उत्पद्यन्त इस्वर्थः तथाहि तेषां प्रक्रिया प्रधानाद-बुद्धिः प्रथममुत्पद्यते, बुजेश्वाहंकार, अहंकारात्पश्ञ्च तन्मात्राणि शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मक नीति, इन्द्रियाणि चैकादशोत्पद्यन्ते - पश्च बु·
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द्रियाणि श्रोतृत्वकचतुर्जिहा प्राणलक्षणानि, पञ्च कर्मेद्रियादिवाक्पाणिपादपापहानिका
ति पञ्चभ्यस्तस्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि शब्दादाकारा स्प द्वायु:, रूपान्तेजः, रसादापः, गन्धास्पृथिवीति । तदुक्तमीनर्मदांतोऽहङ्कारस्तस्माङ्गणा पोडशकः । तस्मादपि पोका पश्चभ्यः पश्च भूतानि ॥२२॥' अत्र - महामिति बुद्ध्यभिधानम्, बुद्धिश्च घटः पट इत्यध्यवसायल पारसुभगोऽहं दर्शनीय इत्याद्यभिधानस्यरूपः । ममस्तु संकरूपलक्षणम्, तद्यथा- कश्चिद्वदुः शृणोतिप्रामान्तरे भोजनमस्तीति तत्र तस्य कः स्वाद्यास्यामीति किं तदधि स्यात दुग्धमित्येवं संकल्पः स्यात्
मन इतिहारमनसां परस्परं विशेषोऽन्त यः महदादयः प्रधानपुरुष बेति पश्चविशतिरेषां तस्थानि यथोक्तम्- "पञ्चविंशतितस्वशेो यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मु.
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संख
राडी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः ॥ १ ॥” इति । महदादयश्च कार्यभेदाः प्रधानात्प्रवर्त्तमाना न कारणादत्यन्तभेदिनो भवन्ति बौद्धाद्यभिमता इव कार्यभेदाः किं तु प्रधानरूपात्मान एव त्रैगुत्यादिना प्रकृत्यात्मकत्वात् तथाहि यदात्मकं कारण कार्य पि तदात्मकमेव यथा कृस्तन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः रा शुक्ल उपलभ्यते, एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम्। तथा बुद्ध्यहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मकं व्यक्तमपि त्रिगुणात्मकमुपलभ्यते, त स्मात्तद्रूपम्। किंच अविवेकि। तथाहि इमे सत्वादयः 'इदं च मह दादिकं व्यक्तमिति पृथग् न शक्यते कर्तुं किं तु "ये गुणास्तथ शं यद् व्यक्तं ते गुणा" इति । तथोभयमपि विषयो भोग्यस्वभावत्वात्। सामान्यं च सर्वपुरुषाणां भोग्यत्वात्पराय नात्मकं च सुखदुःखं मोहाऽवेदकत्वात् । प्रसवधमि च । तथाहि प्रधानं बुद्धिं जनयति, साऽप्यहंकारं सोऽपि तन्मात्राणि - इन्द्रियाणि बेकादश-तम्माचाणि महाभूतानि जनयन्तीति व स्मात्त्रैगुण्यादिरूपेण तद्रूपा एव कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते। यथोक्तम् - "त्रिगुणमविवेकिविषयः, सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मिव्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान्। ११ (सायकारि०) इति । श्रथ यदि तद्रूपा एवं कार्यभेदाः कथं शास्त्रे व्यक्काव्यक्रायोपपर्णनम्। "हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियम कमाधितं लिङ्गम् सायपरतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमय्यम्" |१०|(कारिका) इति किपमा शोभेत अयमर्थ:हेतुमत्कारणमेव । तथाहि प्रधानेन हेतुमती बुद्धिः, श्र हङ्कारो बुद्धया हेतुमान् पञ्च तन्मात्राणि एकादश चेन्द्रियाणि हेतुमन्ति अहंकारण भूतानि तम्मात्रै धनत्येवमय कुलधितस्यानुत्पत्तेः। तथा' व्यक्तमनित्यमुत्पत्तिधर्मकत्वात् । तद्विपयामयम् प्रधानपुरुषोदिषि भूमि वारिस यंत्र व्याप्तितया यथा वर्तेत न तथा व्यक्तं वर्त्तत इति तदव्याचिया संसारकाले त्रयोदशविधेनारेऐन र संयुक्तं सूक्ष्मशरीराधितं व्यक्रम सारिनवेमध्य तस्य विभुत्वेन सकियत्वायोगात् यकारादिभेदेन खानेकविध व्यमुपलभ्यते मध्यक्रम तस्यैकस्यैव सकललोकीकरणत्वात् । श्रश्रितं च व्यक्तं यद्यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात्, नत्येवमव्यक्तम् अकार्यत्वात्तस्य । लयं गच्छ तीति इति कृत्याच व्यहम्। तथाहि--प्रलयकाले भूतानि तम्मात्रेषु लीयन्ते तन्मात्रायादि चकारे सोड पिबुद्धी । साऽपि प्रधाने । नत्वेषमव्यक्तं क्वचिदपि लयं गच्छ तीति । लीनं वा अव्यक्तलक्षणमर्थ गमयति व्यहं कार्यत्वानित्यक्रमकार्यस्यात् तस्य साददस्पर्शरूपरसगन्धात्मकत्वात् नत्वेवमध्यरात्र शब्दादीनामनुपलब्धेः । अपि च यथा पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्तं सदा कारणाय तत्यात्परतम्त्रम्, नैषमध्यक्रमकारणाधीनत्वात्सर्वदा तस्येति । नः परमार्थतस्तयेऽपि प्रकृतिविकारभेदेन तयोर्भेदाविरोधात् । तथाहि स्वभावतरूपेण प्रकृतिरूपादि काराः । [सम्बरजस्तमसा तू कडा तुकडत्यविशेषाधि
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महदादिमेन वियतइति कारमा कार्यरत ति प्रतिज्ञातं भवति । लम्म०१ कायड (३ गाथाध्यायायाम् )। इदानीमकारकवाचिमताभिधित्सया33चकार चेव स न दि
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( ४२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
एवं अकारो अप्पा, एवं ते उ पगब्भिया ॥ १३॥ कुर्वमिति स्वतन्त्रः कर्ताभिधीयते श्रात्मनश्यामूर्तत्वानित्यस्वात्सर्वस्यापित्वा कर्तुत्वानुपपत्तिः एव हेतोः काराय तृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति । पूर्वश्वशब्दोऽतीतानागतकर्तृस्वनिषेधको द्वितीयः समुच्चयार्थः । ततश्वात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते नाप्ययं प्रवर्तयति । यद्यपि च खितिक्रियां मुद्राप्रतिविम्योहयन्यायेन ( अपास्फटिकन्यायेन च भुजिकियां करोति तथापि समस्त) याकर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतद्दर्शयति-' सब्वं कुब्वं विजति सर्वो परिस्पन्दारिका देशादेशान्तरमाविलक्षणां क्रियां कुर्यात्मा न विद्यते सर्वव्यापित्वेनात्येन चाकाशस्पेयात्मनो निष्क्रियत्वमिति । तथा चोकम् 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा सांख्यनिदर्शने' इति । एवमनेन प्रकारेणात्माऽ कारक इति ते सांख्याः तुराः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाइ-ते पुनः सांख्या एवं प्रगल्भिताः प्रगल्भवन्तो धाष्टर्यवन्तः सन्तो भूयो भूयस्तच तच प्रतिपादयन्ति यथा "प्रकृति: करोति पुरुष उपभुङ्क्ते तथा बुद्धपध्यवसितमर्थ पुरुषश्वेतयते इत्याच कारवादिमतमिति । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । ( 'कज्जका रणभाव' शब्दे तृतीयभागे १०० पृष्ठे सरकार्यवाद उक्तः) सांख्यदर्शनप्रतिक्षेपः - अशुद्धद्रव्यास्तिक सांख्यमतप्रतिक्षेपकस्तु पर्यायास्तिकः प्राह-यदुक्तं कापिलैः “प्रधानादेव महवादिकार्यविशेषाः प्रवर्तन्ते" इति । तत्र यदि महदायः कार्यविशेषाः प्रधानस्वभाषा एव कथमेषां कार्यतया ततः प्रवृत्ति
तत्र
न हि यह यतोऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्ये कारणं बेति अयपदेष्टुं युक्तं, कार्यकारणयोनित्वात् अन्यथा हि एवं कारणं कार्य च' इत्यसंकीर्ण व्यवस्थोत्सीदेत्। ततश्च यदुक्तं प्रकृतिकारणिके:-" मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव भूतेन्द्रियलक्षणस्य षोडशकगणस्य कार्यत्वमेव, महदहङ्कारतन्मात्राणां च पूर्वो सरापेक्षया कार्यत्यकार " इति तत्स्यात् बेश्वरकृष्णः-- "मूलप्रकृतिर विकृति-मेहाचा प्रकृतिथिकृतयः सप्त पोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्म विकृतिः पुरुषः ||३||" (सांयका० ) इति यतः सर्वेषां परस्परमव्यतिरे काकार्यत्वं कारणत्वं वा प्रसज्येत् सम्यापेक्षत्वाद्वा कार्य कारणभावस्यापेक्षणीयस्य रूपान्तरस्य वाऽभाषात् । पुरुषबदन] प्रकृतित्वं विकृतित्वं या सर्वेषां स्यात् । अन्यथा पुरुषस्यापि प्रकृतिविकारव्यपदेशप्रसक्तिः । उक्तं च- " यदेष दधि तत् शीरं, यत् क्षीरं तद्दधीति च । वदता विंध्यवासित्वं, क्यापितं विन्ध्यवासिना ॥ १ ॥” इति । ' हेतुमस्वादिति धर्मा सङ्गिविपरीतमध्यक्रम्' इत्येतदपि बालप्रलापमनुकरोति । न हि पचतोऽयतिरिक्रस्वभावं ततो विपरीतं युकं वैपरीत्यरूपान्तरसत्वात् अन्यथा भेदव्यवहारोच्छेदम इति । सत्वरजस्तमसो सम्पानां च परस्परभेदाभ्युपगमो नि निमितो भवेतब्ध विश्वस्यैकरूपत्वात् सहोत्पत्तिविनाशप्रसङ्गः अदम्यवस्थितेर भिम योगक्षेमल सत्यादिति रूपाव्यतिरेकावू अव्यक्तमपि हेतुमदादिधर्मासप्रिस व्यस्वरूपवत् हेतुमस्याविधर्मकलापाध्यासितं वा व्यक्क्रम् अव्यक्तरूपाव्यतिरेकातत्त्वरूपयत् अन्यथाऽतिप्रसक्तिः । अपि -स्वयव्यतिरेकनिबन्धनः कार्यकारणभावः प्रसन्न धानादिभ्यो महासुरस्यवगमविन्धनः अन्ययो व्यतिरेको
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संख
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या प्रतीतिगोचरः सिद्धः प्रधानान्महान्महतो ऽहङ्कारः इत्यादि प्रक्रिया सिद्धिसौधशिखरमध्यास्त । तस्मान्निबन्धनएवायं प्रधानादिभ्यो महायुत्पत्तिप्रक्रमः। न च नित्यस्प हेतुभावः संगतः यतः प्रधानान्महदादीनामुत्पत्तिः स्यानिस्वस्थ क्रम योगपचाभ्यामर्थक्रियाविरोधादिति प्रतिपादयि च्यमाणत्वात् । अथ नास्माभिरपूर्वस्वभावोत्पत्या कार्यकारणभावोऽभ्युपगतः यतो रूपाऽभेदादसौ विरुध्यते । किं तु प्रधानं महदादिरूपेण परिणतिमुपगच्छति, सर्पः कुण्डलादिरूपेऐति प्रधानं महदादिकारणम् इति यदश्यते मह दादयस्तु तत्परिणामरूपाचा सत्कार्यव्यपदेशमासादयन्ति । न व परिणामोभेदेऽपि विरोधमनुभवति एकवस्वधिष्ठानत्वात्तस्येति, असभ्यगेतत्परिणामासिद्धेः । तथाहि श्रसौपूर्वरूपप्रच्युतैर्भवेदप्रच्युतेर्वेति कल्पनाद्वयम् । तत्र यद्यप्रच्युतेरिति पक्षापासांकडाद्यवस्थायामपियुषत्वाच बस्योपलब्धिप्रसङ्गः अथ प्रच्युतिरिति पदावरूपा निप्रसक्रिरिति पूर्वकं स्वभावान्तरं निरुप नमिति न कस्यचित्परिणामः सिद्ध्येत् । अपि च-तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भियते स चैकदेशेन सर्वात्मना वा ? न तावदेकदेशेन एकस्यैकदेशासम्भवात्, नाऽपि सर्वामना पूर्वपदार्थविनाशेन पदार्थान्तरोत्पादप्रसङ्गात् । श्रती न तस्यैवान्यथात्वं युक्रं तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्धनत्यात् । व्यथस्थितस्य धर्मिणो धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरमादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते नतु स्वभावान्यथात्वमिति चेत्, असदेतत् । यतः प्रच्यवमान उत्पद्यमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा धर्मिण्यवस्थिते तस्य तिरोभावाविर्भाषासम्भवात् । तथाहि पस्मिन् वर्तमाने यो व्यावर्तते स ततो मिठो यथा घंटेऽनुवर्त्तमाने ततो व्यावर्त्यमानः पटः, व्यावर्त्तते च धर्मिण्यसुषमानेऽप्याविभषतिरोभावासी धर्मकलाप इति कथमसौ ततो न भिन्न इति । धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परितो नाम ? यतो नार्थान्तरभूतयोः कटपटयोरुत्पादविनाशेऽचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवत्यतिप्रसङ्गात् श्रन्यथा चैतन्यमपि परिणामि स्यात् । तत्सम्ययोर्धर्मोत्पादविनाशात् तस्याऽसाभ्युपगम्यते नान्यस्येति वेत्स दलतोः सम्बन्धाभावेन तत्सम्बन्धित्वायोगात् । तथाहि-म्बन्धो भवन् सतो वा भवेदसतो वा भवेदिति कल्पनाद्वयम् । म तावत् सतः समधिगताशेपस्वभावस्यान्यानपेक्षतया - चिदपि पारसन्ध्यासम्भवात् । नाप्यसतः, सर्वोपाख्याविरहिततथा तस्य कचिदाश्रितत्वानुपपत्तेः नहि शशविषाणादिः कचिदप्याश्रित उपलब्धः । नच व्यतिरिक्तधर्मान्तरोत्पादबिनाशे सति परिणामो भवद्भिर्व्यवस्थापितः, किं तर्हि ? यत्रास्मभूतैकस्वभावानुवृत्तिः श्रवस्थाभेदश्च तत्रैव तद्व्यवस्था । मय धर्मिणः सकाशाद्धर्मयोर्व्यतिरेके सति एकस्वभावानुवृत्तिरस्ति यतो धयैव तयोरेक आत्मा स च व्यतिरिक्त इति नारमभूतेभावानुवृतिः न मियामोत्पद्यमानधर्मयव्यतिरिको धर्मी उपलब्धिप्राप्तो दृग्गोचरमवतरति कस्यचिदिति ताडोल वहारविषयतेय अथ अनर्थान्तर भूत इति पक्षः कियते। तथाऽप्येकस्माजपरूपाद व्यतिरित्वारो भाषा 35 विर्भावयतोर्थम्योई योरप्येवं
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संख अभिधानराजेन्द्रः।
संख धमिस्वरूपवदिति केन रूपेण धर्मी परिणतः स्यात् धर्मों | स्तुसद्भावासिद्धेः । यदपि 'भेदानामन्षयदर्शनात्प्रधानास्तित्व वा? अवस्थातुश्च धर्मिणः सकाशाव्यतिरेकाद्धर्मयोरवस्था- म्' उनम् तत्र हेतोरसिद्धत्वं, नहि शब्दादिलक्षणं व्यक्तं सुखातृस्वरूपवन निवृत्तिः, नापि प्रादुर्भावः, धर्माभ्यां च धर्मिणो द्यन्वितं सिद्धं सुखादीनां शानरूपत्वाच्छन्दादीनां च तद्रूपऽनन्यत्वात् धर्मस्वरूपवत् । अपूर्वस्य चोत्पादः पूर्वस्य चं वि. विकलत्वान्न सुखाद्यन्वितत्वम् । तथा च प्रयोगः।येशानरूपनाश इति नकस्य कस्यचित्परिणतिः सिद्धयेदिति, न परिणा
विकला न ते सुखाद्यात्मकाः,यथा-परोपगत पात्मा । बानमवशादपि साङ्ख्यानां कार्यकारणभावब्यवहारस्संगच्छते।
रूपविकलाश्च शब्दादय इति व्यापकानुपलब्धिः अथज्ञानमसम्म०१ काण्ड । (न च परिणामप्रसाधकं प्रमाणं क्षणिकम
यत्वेन सुखादिरूपत्वस्य व्याप्तियदि सिद्धा भवेत् तदा तन्नि क्षणिकं वा सम्भवतीत्यादि, साथमतप्रदर्शनं तत्प्रतिक्षेपश्च
(द्धि) वर्तमानं सुखादिमयत्वमादाय निवर्तेत; न च सा सिद्धा 'कजकारणभाव' शब्दे तृतीयभागे १८८ पृष्ठे गतः ।)
पुरुषस्यैव संविद्रपत्वेनेष्टेरिति, असदेतत् सुखादीनां स्वसंततः 'शक्लस्य शक्यकरणाद्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः। सत्कार्य
वेदनरूपतया स्पष्टमनुभूयमानत्वात् । तथाहि-स्पष्टेयं सुखावादे च कारणभावस्याघटमानत्वात् 'कारणभावाद्' इत्यय
दीनां प्रीतिपरितापादिरूपेण शब्दादिविषयसमिधाने असमप्यनैकान्तिकः । अथवा-कार्यत्वासंम्भवस्य सतः प्राक
निधाने च प्रकाशान्तरनिरपेक्षा प्रकाशात्मिका स्वसंवित्तिः। प्रतिपादितत्वदासत्कार्यवाद एव चौपादानग्रहणादिनियमस्य
यव प्रकाशान्तरनिरपेक्ष सातादिरूपतया स्वयं सिद्धिमवतयुज्यमानत्वात् 'उपादानग्रहणाद्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य सा
रति तज्ज्ञानं, संवेदनं, चैतन्यं, सुखमित्यादिभिः पर्यायैरध्यविपर्ययसाधनाविरुद्धता। श्रथ यदि असदेवोत्पद्यत' इति भिधीयते । न च सुखादीनामन्येन संवेदनमाऽनुभवादनुभवभवतां मतं तत् कथं सदसतोरुत्पादः सूत्रे प्रतिषिद्धः। उक्तं रूपता प्रथते, तत्संवेदनस्यासातादिरूपताप्रसक्तेः स्वयमच तत्र-"अनुत्पन्नाश्च महामतेः सर्वधर्मा सदसतोरनुत्पन्न
तदात्मकत्वात् । तथाहि-योगिनोऽनुमानवतो वा परकीय स्वादिति," न, वस्तूनां पूर्वापरकोटिशून्यक्षणमात्रावस्थायी
सुखादिकं संवेदयतो न सातादिरूपता,अन्यथा योग्यादयोऽ. खभाव एवं उत्पाद उच्यते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तम्मात्रजिज्ञा- पि साक्षात् सुखानुभाविन इवातुरादयः स्युर्योग्यादिवद्वा सायां, न पुनर्वैभाषिकपरिकल्पिता जातिः संस्कृतलक्षणा प्र- अन्येषामप्यनुग्रहोपघातौ न स्याताम् अविशेषात्। संवेदनस्य तिषेत्स्यमानत्वात्तस्याः। नापि वैशेषिकादिपरिकल्पितसत्ता
च सातादिरूपत्वाभ्युपगमे संविद्रपत्वं सुखादेः सिद्धम् । इद
मेव हि सुखं दुःखं च नः 'यत्सातमसातं च संवेदनम् ' इति समवायः स्वकारणसमवायो वा तयोरपि निषेत्स्यमान
नानकान्तिकता हेतोः। नाप्यसिद्धता, सर्वेषां बाह्यार्थवादिना त्वात् , नित्यत्वात् तयोः परमतेन, नित्यस्य च जन्मानुपपत्तेः,
संविद्परहितत्वस्य शम्दादिषु सिद्धत्वात् । विज्ञानवादिउक्तं च-'सत्ता स्थकारणाश्लेष-करणात्कारणं किल ।सा सत्ता सच सम्बन्धो, नित्यौ कार्यमथेह किम् ॥१॥इति ।स एवमा
मताभ्युपगमोऽन्यथा प्रसज्येत । तथा चेष्टसिद्धिरेव । विरु
द्धताऽप्यस्य हेतोर्न सम्भवति सपने भावात्। न च यथा स्मक उत्पादो नाऽसना तादात्म्येन सम्बध्यते, सदसतोर्विरो
बहिर्देशावस्थितनीलादिसभिधानवशाइनीलादिस्वरूपमपि धात् । नासत् सद्भवति । नापि सता पूर्वभाविना सम्बध्यते।
संवेदन नीलनिर्भास संवेधते तथा बाह्यसुखाघुपधानसामतस्य पूर्वमसत्वात्कल्पनाबुद्धया तु केवलमसता वस्तु संबध्य
•वसातादिरूपमपि साताविरूपं लख्यते तेन संवेदनस्य ते, नह्यसनाम किंचिदस्ति यदुत्पत्तिमाविशेत्। 'असदुत्पद्यत'
सातादिरूपत्वेऽपि न सुखादीनां संविद्रपत्वं सिध्यति अतोऽ. इति तु कल्पनाविरचितव्यवहारमात्रम् । कल्पनाबी तु प्र
नैकान्तिकता हेतोरिति वक्तव्यम् , अभ्यास-प्रकृतिविशेषत तिनियतपदार्थानन्तरोपलब्धस्य रूपस्योपलब्धिलक्षणप्राप्त
एकस्मिन्नपि त्रिगुणात्मके वस्तुनि प्रीस्याचाकारप्रतिनियतगु: स्योत्पत्स्यवस्थातः प्रागनुपलब्धिः तदेवमुत्पत्तेः प्राकार्यस्य न
णोपलब्धिदर्शनात् । तथाहि-भाषमाषशन मचाङ्गनादिषु कासस्वं धर्मः, नाऽप्यसत्त्वं धर्मस्यैवाभावात् । अपि च-पयः
मुकादीनां जातिविशेषाच्च करभादीनां केषाशित्प्रतिनिप्रभृतिषु कारणेषु भ्यादिकं कार्यमस्तीति यधुच्यते तदा यताः प्रीत्यादयः सम्भवन्ति न सर्वेषाम् , एतच शब्दादीनां वक्तव्य-किं व्यक्तिरूपेण तत्तत्र सद, अथ शक्तिरूपेण , तत्र सुखादिरूपत्वान्न युक्त, सर्वेषामभिन्नवस्तुविषयत्वानीलादियदि व्यक्तिरूपेण इति पक्षा, सन युक्तः-पीराघवस्थायामपि विषयसंवित्सिवत्प्रत्येक चित्रा संवित्प्रसज्येत । अथ यद्यपि दण्यादीनां स्वरूपेणोपलब्धिप्रसङ्गात् ।नापि शक्तिरूपेण,यतः त्रयात्मक वस्तु तथाऽप्यष्टादिलक्षणसहकारिवशास्किचितद्रपं दध्यादेः कार्यानुपलब्धिलक्षणप्राप्तात् किमन्यद्, श्रा देव कस्यचिदरूपमाभाति न सर्वे सर्वस्य,असदेतत् तदाका. होश्वित् तदेव ?, यदि तदेव तदा पूर्वमेयोपलब्धिप्रसनो - रशून्यत्वाववस्त्वालम्बनप्रतीतिप्रसक्नेः। तथाहि-ध्याकारं त. ध्यादेः । अथाम्यदिति पक्षस्तदा कारणात्मनि कार्यमस्तीस्य द्वस्तु एकाकाराश्च संविदः संवेद्यन्त इति कथम् अनालम्बनाभ्युपगमस्स्यको भवेत् कार्यान्नितनोःशक्त्यभिधानस्य पदा- स्ता न भवन्ति? प्रयोगः-यद् यदाकार संवेदनं न भवति म र्थान्तरस्य सद्भावाभ्युपगमात् ,तथाहि-यदेवाविर्भूतविशिष्ट. सत्तद्विषय, यथा चक्षुर्मानं न शब्दविषयम् , यात्मकवस्त्वारसवीर्यविपाकादिगुणसमन्वितं पदार्थस्वरूपं तदेव वध्यादिकं कारशून्याभ यथोक्ताः संविद इति व्यापकानुपलब्धिः । कार्यमुच्यते-क्षीरावस्थायां च तदुपलब्धिलक्षणप्राप्तमनुपल- तथापि-तद्विषयत्वेऽतिप्रसङ्गापत्सिर्मिपर्यये वा बाधकं प्रमाभ्यमानमसवयवहारविषयत्वमवतरति । यथान्यच्छक्तिरूपं णम् । नच यथा प्रत्यक्षेण गृहीतेऽपि सर्वात्मना वस्तुम्याभ्यातत्कार्यमेव न भवतिनच अन्यस्य भावेऽन्यत्सद्भवति अति- साविषशात् कचिदेव क्षणिकवादी निश्चयोत्पत्तिन सर्वत्र प्रसङ्गात् । नव-उपचारकस्पनया तव्यपदेशसावेऽपि ब- तरादिवलादेकाकारा संविदेण्यतीत्यभिधातुं क्षम. - स्तुव्यवस्था, शब्दस्य वस्तुप्रतिबन्धाभावात् । तद्भावेऽपि व- णिकादिविकल्पस्याऽपि परमार्थतो वस्तुविषयत्वानभ्युपग
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(४४)
अभिधानराजेन्द्रः। भाद्वस्तुनो विकल्पागोचरत्वात्परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात् ।। राष्ट्रान्तोऽपि साध्यसाधनविकलः एकजात्यन्वयस्यैककारणतथाविधतत् प्राप्तिहेतुतया तु तस्य प्रामाण्यम् । उक्तं च-लि- प्रभवत्वस्य च तत्राऽप्यसिद्धत्वात्। न चैकं मृत्पिण्डादिक कलिनिधियोरेवं, पारंपर्येण वस्तुनि । प्रतिबन्धानदाभास- कारणं मृदादिजातिश्चैकानुगता तत्र सिद्धति वक्तव्यं यतोऽ शून्ययोरप्यबन्धनम् ॥१॥” इति परैस्तु परमार्थत एव व- नैकोऽवयवी मृत्पिण्डादिरस्ति एकदेशावरणे सर्वाऽवरणस्तुविषयत्वमिष्टं प्रीत्यादिप्रतिपत्तीनाम् अन्यथा सुखाद्यात्म- प्रसङ्गात् । नाऽप्येका जातिः, प्रतिव्यक्ति प्रतिभासभेवादिति नां शब्दादीनामनुभवात्सुखानुभवख्यातिरित्येतदसतं स्या- प्रतिपादितत्वात्प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च । त् । सुखादिसंविदां च सविकल्पकत्वान किंचिदनिश्चितं 'समन्वयाद्' इस्यस्य हेताः पुरुषैश्वानकान्तिकत्वम् । रूपमस्तीति सर्वात्मनाऽनुभवख्यातिप्रसक्तिः। यतः स्वार्थ- तथाहि-चेतनत्वादिधमैरन्विताः पुमांसोऽभीष्टाः । नच प्रतिपत्तिनिश्चयानामियमेव यत्तनिश्चयनं नाम । यदपि प्रसा- तथाविधैककारणपूर्वकास्त इभ्यन्ते । नच चेतनाद्यन्वितत्वं दतापदैन्याधुपलम्भात्सुखाद्यन्वितत्वं सिद्ध शब्दादी
पुरुषाणां गौणं यतोऽचेतनादिव्यावृत्ताः सर्व एव पुरुषाः, नामि त्यभिहितं, तदनकान्तिकम् । तथाहि-योगिनां प्रक
अतोऽर्थान्तरव्यावृत्तिरूपा चैतन्यादिजातिस्त-दनुगामिनी तिव्यतिरिक्तं पुरुष भावयतां तमालम्ब्य प्रकर्षप्राप्तयोगानां
कल्पिता, न तु तात्विकी समस्तीति वक्तव्यम् , अन्यत्रापि प्रसादः प्रादुर्भवति प्रीतिच, अप्राप्तयोगानां तद्द्यततरमप
समानत्वात्-यतः शब्दादिष्वप्यमुख्यं सुखा-घन्वितत्यमसश्यतामुग आविर्भवति। जडमतीनां च प्रकृत्यावरण प्रादुर्भ
त्यप्येककारणपूर्वकत्वे पुरुषेष्विव भविष्यतीति कथं नानैकायति । न च परैः पुरुषत्रिगुणात्मकोऽभीष्ट इति 'प्रसाद
न्तिकत्वं हेतोः । मूलप्रकृत्यवस्थायां च सत्वरजस्तमोलक्षणा तापदेन्यादिकार्योपलब्धेः' इत्यस्य कथं नानैकान्तिकता।
गुणाः, गुणत्वऽचेतनाऽभोक्तृत्वादिभिरन्विताः प्रधानपुरुषानच साल्पात्प्रीत्यादीनि प्रादुर्भवन्ति न पुरुषादिति वा
श्व नित्यत्वादिभिरन्वितास्तथाभूतैककारणपूर्वकाश्च न भव. व्यं शम्दादिष्वप्यस्य समानत्वात्, सङ्कल्पमात्रभावित्वे च सु- न्तीत्यनैकान्तिकत्वमेव । तदेवं 'समन्वयाद'इत्यस्य हेतोरसिस्वादयो बाह्या न स्युः सङ्कल्पस्य संविदूपत्वात् । बाह्यविष
द्धविरुद्धानकान्तिकदोषदुष्टत्वान्न प्रधानप्रसाधकत्वम्। अनेनैयोपधानमन्तरेणाऽपि पुरुषवर्शने प्रीत्याधुत्पत्तिदर्शनात्।'वा
वन्यायेन परिमाणात्'शक्रितः प्रवृत्तेः कार्यकारणभावाद्वैश्व. ह्यसुखाद्युपधानबलात्सातादिरूपं संबेदनस्य'इत्यपि सव्यभि
रूप्यस्याविभागादित्यादिकानामपि न प्रधानाऽस्तित्वसाधकचारमेव इष्टानिष्टविकल्पादनाबाधितबाह्यविषयसविधान प्र
त्वम्।तथाहि-साध्यविपर्यये च बाधकप्रमाणाप्रदर्शनात्सर्वेऽ सिमेव हि सुखादिसंबेदनं कथं तत्परोपधानमेव युक्तम् ।।
प्येतेऽनैकान्तिकाः। नहि प्रधानाण्यस्य हेतोरभावेन परिमानच मनोऽपि त्रिगुणं तदुपधानवशात्तदाविर्भवतीति वक्त
णादीनां विरोधः सिखः। तथाहि-यदि तावत्कारणमात्रस्या व्यम् , 'यदेव हि प्रकाशान्तरनिरपेक्ष स्वयं सिद्धम्' इत्यादिना
ऽस्तित्वमत्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यता मास्माकं कारण. संविदूपत्वस्य तत्र साधितत्वात् अतः 'समन्षयादिस्यसिखो
मन्तरेण कार्यस्योत्पादोऽ-भीष्टः, नच कारणमात्रस्य 'प्रधातुः। मेकान्तिकच प्रधानाण्येन कारणेन हेतोः कचि
नमिति'माम कारणे किंचिद्वाध्यते । अथ प्रेक्षात्कारणमस्ति दप्यम्बयासिखेः। तथाहि-व्यापि नित्यमेक त्रिगुणात्मकं का
यद् व्यक्तं नियतपरिमाणमुत्पादयति शक्तितश्च प्रवर्तत रणं साधयितुमिध, नर्वभूतेन कारणेन हेतोः प्रतिबन्धः |
इति साध्यते तदाउनैकान्तिकता, बिनाऽपि हि प्रेक्षायता प्रसिद्धःमि-बाऽयं नियमः यदात्मकं कार्य कारणमपि तदा- विधात्रा स्वहेतुसामर्थ्यात्प्रतिनियतपरिमाणावियुक्तस्योपग्मकमेष,तयोदात्तथाहि-हेतुमदादिभिर्धमयुक्त व्यक्तम
स्यविरोधात्। न च प्रधान प्रेक्षाघरकारण युक्तम् अचेतनत्वात् भ्युपगम्यते तविपरीतं चाऽव्यक्तमिति कथं न कार्यकार
तस्य प्रेक्षायाधचेतनापर्यायत्वात्। अपि च-शक्लितःप्रदत्तेः' एयार्भवादनैकान्तिको हेतुः १, धर्मिविशेषविपरीतसाधनाधि
इत्यनेन किमव्यतिरिकशक्तिमत्कारणं साध्यते, आहोश्विरखोऽध्ययं हेतु तथाहि-एको नित्यत्रिगुणात्मकः कारणभूतो
यतिक्किानेकशक्तिसम्बन्धि तदेकत्वादिधर्मकलापाण्याधर्मी साधयितमिष्टस्तद्विपरीतश्चानेकोऽनित्यश्चततः सिशः।
सितमिति कल्पनाइयम् । तत्र यद्याचा कल्पना तदा सिरमासादयति,यतो व्यक्तं नैकया त्रिगुणात्मिकया स्वात्मभूतया।
साधनं कारणमात्रस्य ततः सियभ्युपगमात् । द्वितीयायां जास्या समन्वितमुपलभ्यते, किं तर्हि, भनेकत्यानित्यत्वा
हेतोरनैकास्तिकता, तथाभूतेन कचिदप्यम्धयासितुचा. दिधर्मकलापोपेतमेष, प्रतः कार्यस्यानित्यत्वाऽनेकत्वाविध
सिखो यतोमविभिनशक्कियोगारकस्यचित् कचित्कार्ये कार मांन्वयदर्शनात्कारणमपि तथैवाऽनुमीयते । कमयोगपचा- णस्य प्रवृत्तिः सिद्धा स्वात्मभूतत्वाच्छकीनाम् निरन्धयधिभ्यामर्थक्रियाविरोधात नित्यस्य कारणत्वं कारणभेदकत्तस्था- नाशाषष्टग्धत्वात् सर्वभाषानां कचिदपि लयासिखे, अधि
कार्यविध्यस्थ भम्यथा नितुकत्वमसात्,नेकरूपस्या- भागावैश्वरूपस्येत्ययमपि हेतुरसिखः,लयो हि भवन् पूर्षस्थऽपि कारणत्वमिति विपर्ययसिशिप्रसक्लेम मित्यैकरूपप्रधान
भावापगमे वा भवेत् , मनपगमे षा', यचापः पलस्तवा मिरविशिः। यदि तुमनित्यानेकरूपे कारणे प्रधानम् इति संहा
न्षयविनाशमसाः। द्वितीयस्तदा लयाऽनुपपत्तिः, यतो मा. भियत तदा भविषाद एष। यद्यपि सत् सदि' त्येकरूपेण विकलं स्वरूप विभ्रतः कस्यचिलायो मामाप्तिप्रसादतिविर'म पषाऽयमिति'च स्थिरेण स्वभावेनानुगता अध्यषसीयन्ते अमिदं पररूपरतः अविभागो फैश्वरप्यं 'चेति । विशाषा कसपनामानेन भाषास्तथाऽपि मेषामेकजात्यन्षयः स्वस्वभा- एते देतषः प्रधानत्वभावस्वकारणशक्तिभवतः कार्यस्य पपश्यस्थिततया देशकालशक्तिप्रतिभासादिभेदात् , नापि रिमाणाविरूपेण वैविध्यस्य कार्यकारणभाषाविना बोपपद्य
ये कमात्पत्तिमा तथैष प्रतिभासनात् । 'प्रतिभासभेवश्च मानत्वात् । तथाहि-प्रधान यदि व्यक्तस्य कारणं भवेत्तवा मामान भिनत्सि'इत्यसकृत्प्रतिपादितम्।'मृद्धिकारादिवत्'इति । सर्वमेव विश्व तत्स्वरूपबत्तदात्मकत्वादेकमेव द्रव्यं स्यात् ,
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( ४५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संख
ततश्च ' बुद्धिरेका एकोऽहंकारः पञ्च तन्मात्राणी ' त्यादिकः परिमाविभागो सङ्गतः स्यादिति निष्परिमाणमेव जग स्स्यात् । तथा प्रधानहेत्वभावे एव प्रातन्यायेन अमेन श किर्न क्रिया इत्यादिना घटादिकरणे कुम्भकारादीनां शक्रितः प्रवृत्तिरुपपद्यते, कार्यकारविभागोऽपि प्रधानंदत्यभावे एव युक्ो नतु तत्सद्भावे इति प्रा प्रतिपादिनम् । प्रधानसद्भावे वैश्वरूयमनुपपत्तिक्रमेच, सर्वस्य जगतः तन्मयत्वेन तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसक्लेस्तदविभागो दूरोत्सारित एवेति न कुतश्चिद्धेतोः प्रधानसिद्धिः ।
"
"
यदपि प्रधानविकारबुडव्यतिरिकं चैतन्यमात्मनो रूप ल्पयन्ति " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् " इत्यागमात्पुरुषश्च शुभाशुभकर्मफलस्य प्रधानोपनीतस्य भोक्ता न तु कर्त्ता सकलजगत्परिणतिरूपायाः प्रकृतेरेव कर्तृत्वाभ्युपगमात् । प्रमाणयन्ति चात्र यत्संघातरूपं वस्तु तत्परार्थे दृष्टुं यथाशयनाशनायगादि संघातरूपाथ चक्षुरादय इति स्वभावदतुः यश्वासी परः स श्रात्मेति सामर्थ्यात्सिद्धम् । अत्र च 'चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् ' इत्यादिवदता चैतन्यं नित्यैकरूपमिति प्रतिज्ञातम् तस्प नित्यैकरूपात्पुरुषादयतिरित्वात् अध्यक्षविरुद्धं चेदं रूपादिवियां स्फुटं स्वसंविस्था मित्रस्वरूपाययमादेकरूपत्वे स्वात्मनोऽनेकविधार्थस्य भो क्तृत्वाभ्युपगमो विरुद्ध आसज्येत। अभोक्त्रवथाव्यतिरिक्त बाङ्गोत्रयस्थायाः न च दिक्षादियोगादविरोधो freeशुभूषादीनां परस्परतो ऽभिन्नानामुत्पादैरात्मनोऽप्युत्पादप्रसङ्गः तासां तदव्यतिरेकात्, व्यतिरेके च 'तस्य ताः' इति सम्बन्धानुपपत्तिरुपकारस्य तत्रियम्धनस्याभावात् भाषे वा तत्राऽपि भेदाभेदषिकल्पाभ्यामनवस्था-तदुत्पत्तिप्रसङ्गतो दिशाद्यभावान्न भोक्तृत्वम्, प्रयोयो वस्य चापव्यवस्थानिबन्धनं नास्ति मासी शातात. ङ्गावेन व्यवस्थाप्यः पाकयेन नाच भो स्वव्यवस्था निबन्धनं पुरुषस्य दिदि इतिकारणानुपलविधः । नचायमसिखों हेतुरिति प्रतिपादितम् । कर्तृत्वाभाaritraमपि तस्य न युक्तम् न ह्यकृतस्य कर्मणः फलं कश्चिदुपभुङ्क्ते अकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । न च पुरुषस्य कर्मा कर्तुत्वऽपि प्रकृतिरस्याऽभिलषितमर्थमुपनयतीत्यसो भोभवति यतो नासामप्यचेतना सती शुभाशुभकर्मणां कभ युक्ता येनाऽसौ कर्मफलं पुरुषस्य सम्पादयेत् । अथ यथा पबन्धयोः परस्परसंबन्धात्यवृत्तिस्तथा महदादिलि तनपुरष सम्बन्धांचेतनापरिय धर्मादिषु कार्येषु अध्यवसायं करोतीत्यदोष एवायम् -"पुरुषस्य दर्शनार्थं पार्थ तथा प्रधानस्य पदधदुभयोरपि संयोगात् तत्कृतः सर्गः ॥ २१ ॥ " (सायका० ) इति । असत् यतो यदि प्रकृतिरकृतस्याऽपि कर्म्मणः फलमभिलषितमुपनयति तदा सर्वदा सर्वस्य पुंसोऽभिलषितार्थसिद्धिः किमिति न स्यात् । न च तत्कारणस्य धर्मस्याभावान्नासाविति वक्तव्यम्, यतो धर्मस्वाऽपि प्रकृतिकार्यतया तदव्यतिरेकात्सदेव भाष इति । सर्वदा सर्वस्याऽभिलषितफलप्राप्तिप्रसक्तिः । अपि चयद्यभिलषितं फलं प्रकृतिरुपनयति तदा नानिएं प्रयच्छेत् न हि कब्धिनिमभिलषति किच- उपनयतु नाम प्रकृतिः फलं तथापि भोक्तृत्वं पुंसोऽयुक्तमधिकारित्वान्नहि सुखदुः
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संव
खादिनाऽादपरितापादिरूपं विकारमनुपनीयमानस्य भो क्तृत्वमस्याकाशवत् सङ्गतमान च प्रकृतिरस्योपकारिणी श्र धिकृतात्मन्युपकारस्य कर्तुमशक्यत्वाद्, विकारित्वानित्य स्वहानिप्रसक्रिः ः श्रतावदस्थ्यस्याऽनित्यत्वलक्षणत्वात्तस्यापि विकारित्यवश्यंभावित्यात् । अथन विकापारम भोक्तृत्वमि, कि त बुद्धयसितस्यार्थस्य प्रतिषि योदयन्यायेन संचेतनात् तथाहि पुदिकान्मत्र विस्वकं द्वितीय स्वच्यारोहनि देव भोक्तृत् मस्य नतु विकारापत्तिः न च पुरुषप्रतिविम्यमात्र संकारता वपि स्वरूपप्रच्युतिमान् दणवदविचलितस्वरूपत्वात् श्र संदेतत् यतो बुद्धिदर्पणारूढमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंसि संक्रामत् ततो व्यतिरिक्रमन्यतिरिकं येति वायम् । यदि अव्यतिरिक्तमिति पक्षस्तदा तदेवोदय व्यपयोगित्वं पुंसः प्रसज्येत उदयादियोगिप्रतिबिम्बाव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवत् । अथ व्यतिरिक्रमित्यभ्युपगमस्तदा न भोक्ता न भोकल स्थातस्तस्य कस्यचिद्विशेषस्याऽभावात् । न चार्थप्रतिबिम्बसम्बन्धात्तस्य भोक्तृत्वं युक्तमनुपकार्योपकारकयोः सम्बन्धासिद्धेः उपकारकल्पनाया अपि भेदाभेदविकल्पतोऽनुपपतेः ।
अपि च- पुरुषस्य दिदृक्षां प्रधानं यदि जानीयात्तदा पुरुपार्थे प्रति प्रवृत्तिर्युक्ा स्यात् नचैवं तस्य जरूपत्वात् सत्य पि चेतनावत्सम्बन्धे न पङ्बन्धदृष्टान्तादप्रवृत्तिर्युक्तिमती यतोऽन्धो यद्यपि मार्ग नोपलभते तथापि पि क्षामसी वेति तस्य चेतनास्वात् न चैवं प्रधानं पुरुषचिवक्षामवगच्छति तस्याचेतनावस्थेत जडरूपत्वात् । नच तयोनित्यत्वेन परस्परमनुपकारिणोः पदम्वन्धवत्सम्बन्धोप युक्तः । अथ प्रधानं पुरुषस्य 'दिक्षामवगच्छतीत्यभ्युपगम्यते, तथा सति भोक्तृत्वमपि तस्य प्रसज्यते करणशस्य भुजि क्रियावेदकत्वाविरोधात् न च य एकं जानाति तेनापरमपि ज्ञातव्यमित्ययं न नियमो यतः प्रधानस्य कर्तृत्वे भोक्तृत्वम पि नियतसम्धीति तं चक्रम् यतो यदि प्रधानस्य बुद्धिम स्वमङ्गीक्रियते तदा पुरुषवश्चैतन्यप्रसङ्गो बुद्ध्यादीनां चैतन्यपर्यायत्वात् यतो यत् प्रकाशात्मतया अपरंप्रकाशनिरपेक्ष ख संविदितरूपं चकास्ति तत् चैतन्यमुच्यते, तद्यदि बुद्धेरपि समस्ति चिपा सा किमिति न भवेत् । न च यथोबुद्धिव्यतिरेणापरं तम्यमुपलक्षयामः, यतस्तद्वपतिरितस्य पुरुषस्य सिद्धिर्भवत् (सम्म) (विशेष बुद्धि शब्दे पचममा १३२७ पृष्ठे मता ) पदपि पराराइयः" इत्याद्युम्, तत्राधेयातिशयो वा परः साध्यत्वेनाभिप्रेतः, यद्वा- अविकार्यनाधेयातिशयः, श्राहोस्वित्सामान्येन चक्षुरादीनां पार्थ्यमात्रं साध्यत्वेनाभिप्रेतमिति विकल्पत्रयम् । तत्र यदि प्रथमः पक्षः स न युक्तः, सिद्धसाध्यतादोषाss. प्रातत्वाद यतोऽस्माभिरपि विज्ञानोपकारित्वेनाभ्युपगता एव चक्षुरादयः "चक्षुः प्रतीत्य रूपादि-चोत्पद्यते, चतुर्विज्ञानम्" इत्यादिवचनात् । अथ द्वितीयः पक्षोऽङ्गीक्रियते तदा देतोतिलक दोषः विकापकारित्वेन रानाध्यविपर्ययेण दृष्टान्ते हेतोर्व्याप्तत्वप्रतीतेः । तथाहि अविकारिण्यतिशयस्याधातुमशक्यत्वाच्छ्यनाशनादयोऽनित्यस्यैवो पकारिणो युक्तानामित्यस्येति कथं न तद्धिता, यदि पुनः सामान्य आवेषा नाधेयातिशयविशेषमपास्प पारा
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संख अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि yमात्रं साध्यत इत्ययं पक्षः कक्षीक्रियते तदापि सिद्धसाध्य- द्रियमाणः 'संखडिमनादरयन्नित्यर्थः। एतदुक्तं भवतितैव, चक्षुरादीनां विज्ञानोपकारित्वेनेष्टत्वात् । न च चित्तमपि यत्रैवासौ संखडिः स्यात्तत्र न गन्तव्यमिति , क चाऽसौ साध्यधर्मित्वनोपात्तमित्यपरस्य तद्वयतिरिक्तस्य परत्वमत्रा- स्यादिति दर्शयति, तद्यथा-ग्रामे वा प्राचुर्येण प्रामधभिप्रेतं,चित्तादिव्यतिरेकिणाऽपरस्याविकारिण उपकार्यत्वा. मोपेतत्वात् , करादिगम्यो वा ग्रामः, नास्मिन् करोऽस्तीसम्भयात् , चस्पालोक-मनस्काराणामपरचक्षुरादिकदम्ब ति नकर, धूलिप्राकारोपेतं खेटं , कपट-कुनगरं, सर्वकोपकारित्वस्याऽन्यायप्राप्तत्वात । विज्ञानस्य वा अनेककार- तो योजनात्परेण स्थितग्राम-मडम्ब पत्तनं-यस्य जलस्थ. णकतोपकाराध्यासितस्य संहतत्वं कल्पितमविरुद्धमेति ना लपथयोरन्यतरण पर्याहारप्रवेशः, आकर:-तानादरुत्पत्तिअसाध्ये तोरप्यसिद्धता सङ्गच्छते? तन्न सांख्योपकल्पित. स्थान , द्रोणमुखं यस्य जलस्थलपथावुभावपि, निगमाबैतम्यरूपं; कल्पितचैतन्यरूपस्य नित्यस्यात्मनः कुतश्चित्सि. वाणजस्तेषां स्थान नैगमम् , अाश्रमं यत्तीर्थस्थानं, राद्धिः । तत्र अशुद्धद्रव्यास्तिकमतावलम्बिसांख्यदर्शनपरिक- जधानी-यत्र राजा स्वयं तिष्ठति , सन्निवेशो यत्र प्रभूताल्पितपदार्थसिद्धिरिति पर्यायास्तिकमतम् । सम्म०१ काण्ड ३
नां भाण्डानां प्रवेश इति, तत्रैतेषु स्थानेषु संखडि ज्ञात्वा गाथाडीका । औ० । विशे० । सूत्र०। आचा० । स्या० ।
संखडिप्रतिशया न गमनम् अभिसंधारयेत्-न पर्यालो
चयेत् । किमिति ?, यतः केवली ब्रूयात्-आदानमेसंखडि--संखडि-खो० । संखड्यन्ते प्राणिना यस्यां सा । अने.
तत्-कर्मोपादानमेतदिति । पाठान्तरं वा ' श्राययणमेकसस्वव्यापत्तिहेतौ, औ० । आचा। जीतः । स्था० ।
यंति' श्रायतनं-स्थानमेतद्दोषाणां यत्संखडीगमनमिति । माहारावपाकस्थाने, श्राचा० १०६ अ०१ उ०।
कथं दोषाणामायतनमिति दर्शयति- संखडि संखडिसंस्कृति-स्त्री० । श्रोदनपाके, कल्प०३ अधिक ह क्षण । सं.
पडियाए' त्ति-या या संखडिस्तां ताम्-अभिसबरिष्ट्वा न गच्छेत् । दश० ७ ० । (संखड्यन्ते प्राणिनः
न्धारयतः-तत्प्रतिक्षया गच्छतः साधोरवश्यमेतषां मध्ये इति व्याख्या तवर्णनं च 'भासा' शब्दे पश्चमभागे १५४७ उन्यतमो दोषः स्यात् , तद्यथा-श्राधाकर्म वा श्रीहेपृष्ठे गतम् ।)
शिकंवा मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा उद्यतकं वा आच्छेसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयणमेराए सं
द्य वा अनिसृष्टं वा अभ्याहृतं वेति , एतेषां दो
षाणामन्यतमदोषदुष्टं भुञ्जीत, स हि प्रकरणकर्तवमभिखडि नच्चा संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ।
सन्धारयेत्-यथाऽयं यतिमत्प्रकरणमुद्दिश्यहायातः, तदस्य से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाईणं संखडि नच्चा पडीणं मया येन केनचित्प्रकारेण देयमित्यभिसन्धायाधाऽकर्मादि गच्छे अणादायमाणे , पडीणं संखडि नच्चा पाईणं ग- विदध्यादिति । यदि वा-यो हि लोलुपतया संखडिप्रतिक्षच्छे अणाढायमाणे , दाहिणं संखडिं नच्चा उदीणं गच्छे
या गच्छेत् स तत एवाऽऽधाकर्माद्यपि भुञ्जीतेति । अणाढायमाणे , उईणं संखडि नच्चा दाहिणं गच्छे अ
किञ्च संखडिनिमित्तमागच्छतः साधूनुद्दिश्य गृहस्थ एय
म्भूता वसताः कुर्यादित्याहणाढायमाणे जत्थेव सा संखडी सिया । तं जहा-गामंसि वा
असंजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाश्रो महल्लियदुनगरसि वा खेडंसि वा कव्वडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणं
वारियाओ कुजा, महल्लियदुवारियाओ खुडियदुवारियासि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आस
ओ कुजा, समाओ सिजाओ विसमाओ कुजा, विसमंसि वा समिवेसंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडिं
माओ सिजाओ समाओ कुजा , पवायामो सिज्जामो संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए, केवली
निवायाओ कुजा, निवायाश्रो सिज्जाभो पवायाभो कुव्या-आयाणमेय संखडि संखडिपडियाए अभिधारे--
जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्स हरियाणि छिदिय माणे आहाकम्मियं वा उद्दसियं वा मीसजायं वा की
छिदिय दालिय दालिय संथारगं संथारिजा, एस बिलुंगयगडं वा पामिचं वा अच्छिजं वा अणि सिटुं वा अभि
यामो सिज्जाए । तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंहडं वा आहङ दिञ्जमाणं भुजिजा । (सू०-१३ ४)
खडि वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडियाए नो 'से भिक्ख वे' त्यादि स भिक्षुः परं प्रकर्षणार्द्धयोजन
अभिसंधारिजा गमणाए, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स० जाव मात्रे क्षेत्र संखज्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनी यत्र सा संखडिस्तां ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया नाभिसंधारयेत्-न पर्या- सया जए (सू०-१३) त्ति बेमि । लोचयेसत्र गमनमिति ; न तत्र गच्छेदिति यावत् । असंयतः-गृहस्थः स च धावकः प्रकृतिभद्रको वा स्यायदि पुनामेषु परिपाट्या पूर्वप्रवृत्तं गमनं तत्र च त् , तत्राऽसौ साधुप्रतिक्षया क्षुद्रद्वारा:-सङ्कटद्वाराः ससंखडि परिज्ञाय यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह- से भिक्खू त्यस्ता महाद्वाराः कुर्यात् , व्यत्ययं वा कार्यापेक्षया कुर्याव' त्यादि-स भिक्षुर्यदि प्राचीनां पूर्वस्यां दिशि संखर्डि त् , तथा समाः शय्या-वसतया विषमाः सागारिकाजानीयात्ततः प्रतीचीनम्-अपरदिग्भागं गच्छेत् , अथ पातभयात् कुर्यात् , साधुसमाधानार्थ वा व्यस्ययं कुर्याप्रतीचीनां जानीयात्ततः प्राचीनं गच्छेत् , पवमुत्तर- त्, तथा प्रवाताः शय्याः शीतभयाभिवाताः कुर्यात् , ग्रीप्राऽपि व्यत्ययो योजनीयः । कथं गच्छेत् ?-'अना- मकालापेक्षया वा व्यत्ययं विध्यादिति । तथाऽन्तः-म
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( ४७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संखडि
ध्ये उपाश्रयस्य बहियां हरितानि दिवादिश्वाविदार्य विदार्य उपाश्रयं संस्कुर्यात्, संस्तारकं वा संस्तारयेत्, गृहस्थानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्यात् । यचैष- साधुः श य्यायाः संस्कारे विधातव्ये ' विलुंगयामो' प्ति-निर्ग्रन्थः अकिञ्चन इत्यतः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव संस्कारयेदित्युपसंहरति, तस्मात् तथाप्रकाराम् अनेकोष संख विज्ञाय सा पुरःसंखडिः पश्चात्संखडि भवेत्, जातनामकरणविवाहाऽऽदिका - पुरः संखडि:, तथा मृतकसंचडि:-पश्चात्सडिरिति यदि वा पुर:-अन्तःसंडिर्भविष्यति अतोऽनागतमेव यायात्सा हस्थः संस्कुर्यात्, वृत्ता वा संखडिरतोऽत्र तच्छेषोपभोगाव साधवः समागच्छेयुरिति । सर्वधा सर्प संखडसेखडिप्रतिज्ञया नोऽभिसंधारयेत्-न पर्यालोचयेनगनक्रियामिति एवं तस्य भिक्षोः सामयं सम्पूर्णता भिक्षुभाषस्य यत्सर्वथा संखडिवर्जनमिति । श्राचा० २ ० १ चू०
3
१ ० २ उ० ।
अस्य चायमभिसम्वन्धः- इहानन्तरोदेशके दोपसम्भवारसंखडिगमनं निषिद्धं प्रकारान्तरेणाऽपि तद्गतानेव दो
बानाह
.
से एगओ अभयरं संखडि श्रसित्ता पिबित्ता छाड्डज वा बमिज वा ते वा से नो सम्मं परिणामिजा अन्नपरेवा से दुषणे रोगायंके समुप्पजिज्जा, केवली बूयाआयाणमेयं । ( सू० १४ ) इह खलु भिक्खू गाहावई हिं वा गाहावाणीहि वा परिवायएहिं या परिवाइयाहिं वा एगज्जेस पाठ भो पनिस्सं हुरत्था वा उपस्सर्व पडिलेहेमायो नो लभिजा तमेष उबस्सयं सम्मिस्सीभावमावजिअ अश्रमणे वा से मते विप्परियासियर इत्वग्ग वा लिने वा तं भिक्खु उपसंकमियाभासतो समय ! आहे भारामंसि वा आहे उपस्सयंसि वा राम्रो वा विवाले वा गामधम्मनियंतियं कडु रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टामो से भ सातिजिजा, अकरणिअं वयं संखाए एए प्रयाणा ( श्रायतयाणि ) संति संविजमाया पञ्चवाया मति हा से संजए नियंठे तप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखदिवाख संखपिडियाए नो अभिसंधारिजा गमखाए। (०-१५)
,
समिक्षुः एकदा-कदाचिद् एकचरो या अन्यतराम्-काशि पुरा पश्चात्संखांड या संखडिमिति संघडिम कम् प्रास्याद्य-भुक्त्या तथा पीत्या शिखरिणीदुग्धादि तच्चातिलोलुपतया रसगृद्धयाऽऽहारितं सत् 'छडेज वा' छर्दि विध्यात्, कदाचिच्चापरिणतं तद्विशूचिकां कुर्यात्, अन्यतरी या रोग:-कुठादिकः तस्याशुजीवितापहारी शू लादिकः समुत्पद्येत, केवली - सर्वशो ब्रूयात्, यथा एतत् संखडीक्रम दानं कमपादानं वर्त्तत इति यथैतदादानं भवति तथा दर्शपति ति संवदिस्थानेऽस्मिन् वा
संखदि
,
भवेऽमी अपायाः, श्रमुमिकास्तु दुर्गतिगमनादयः - शब्दो वाक्यालङ्कारे, भिक्षणशीलो भिक्षुः स गृहपतिभिस्तद्भा भियां परियाज परिवाजका सार्वमेकम् एकवाक्यतया सम्प्रधार्य भो - इत्यामन्त्रणे एतानामन्त्रय चैतदर्शयति-संखडिगतस्य लोलुपतया सर्व संभाव्यत इत्यततिमि ति सीधुम अन्यद्वा प्रसन्नादिकं पातु पीत्वा ततः 'दुरवस्था वा बहिनी निर्गत्योपाध्यं याचेत, पदा च प्रत्युपेक्षमाणो विवक्षितमुपाश्रयं न लभेत ततस्तमेवोपाश्रयं यत्राऽसौ संखडिस्तत्राऽन्यत्र वा गृहस्थपरिवजिकादिभिर्मिश्रीभावमापद्येत । तत्र चासावन्यमना मत्तो गृहस्थादिको विपर्यासीभूत श्रात्मानं न स्मरति स वा भिक्षुरात्मानं न स्मरेत् अस्मरणाचैव चिन्तयेद्यथाऽहं गृह प यदि वा शरीरे विपर्यासीभूतः अभ्युपपन्नः जी
"
वा नपुंसके वा । सा च स्त्री नपुंसको वा तं भिक्षुम् उपक्रम्य आसनीभूष व्यात्, तद्यथा-आयुष्मन् ! भ्रमण ! - या सबैकान्तमहं प्रार्थयामि तद्यथा आरामे योपाध्ये या काल रात्री या विकाले वा मि ग्रामः-विषयपभोगगतैर्व्यापारैर्नियन्त्रितं कृत्वा, तद्यथा-मम त्वया विप्रियं न विधेयं, प्रत्यहमहमनुसर्पणीयेति एवमादिभिर्नियम्य ग्रामासन्ने वा कुत्रचिद्रहसि मिथुनं - दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम् ब्रह्मेति तस्य धर्माः - तद्वता व्यापारास्तेषां 'परियारणा' यासेवना तथा 'अट्टामो' ति प्रवत्तममु भवति - साधुमुद्दिश्य रहसि मैथुनप्रार्थनां काचित्कुर्यात् तां चैकः
ः कश्चिदेकाकी वा 'साइजेज ' ति श्रभ्युपगच्छेत्, अकरणीयमेतद् एवं संख्याय - ज्ञात्वा संखडिगमनं न कुर्याद् । यस्मादेतानि प्रायतनानि कर्मपादानकारणानि सन्तिभवन्ति संचीयमानानि प्रतिक्षणमुपचीयमानानि । इदमुक्कं भवति--अन्यान्यपि कर्मोपादानकारणानि भवेयुः यत एचमादिकाः ः प्रत्यपाया भवन्ति तस्मादसी संयतो निर्ग्रन्थस्तयाप्रकारों से पुरःसंदिपश्चात्संडिया सं स्वामितिया नाभिसंधारयेद् गमनाथ गन्तुं न पर्या लोचयेदित्यर्थः ।
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तथा
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अन्नगरि संखार्ड सुच्चा निसम्म संपहावर उस्सुयभ्रूण अप्पाणेणं, धुवा संखडी नो संचार तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसिय बेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा से तत्थ काले अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहिला आहारं माहारिजा । ( सू० - १६ ) ।
स भिक्षुरन्यतरां पुरः संखडि पश्चात्संखडि वा श्रुत्वाऽन्यतः स्वतो वा निशम्य निश्चित्य कुतश्चिद्धेतोस्ततस्तदभिमुखं स
धातुकभूतेनात्मना । यथा-ममात्र भविष्यत्यद्भुतभूर्त भोज्यं, यतस्तत्र ध्रुवा - निश्चिता संखडिरस्ति, 'नो संचाए' ति न शक्नोति तत्र संखडिग्रामे इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः संखडिरद्दितेभ्यः ' सामुयाणियं ति भैक्षं, किम्भूतम् ? -
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( ४८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संड
एषणीयम् आधाकर्मादिदोषरहितं ' वेसियं ' ति केवलरजोहरणादिवेषाल्लब्धमुत्पादनादिदोषरहितम् एवम्भूतं पिएडपातम् - आहारं परिगृह्माभ्यवहसुं न शक्नोतीति सम्बमध्वः । तत्र चाऽसौ मातृस्थानं संस्पृशेत्, तस्य मातृस्थानं संभाब्येत, कथं ! - यद्यपीतरकुलाहारप्रतिज्ञया गतो, नचासौ तमभ्यवहर्तुमलं पूर्वोक्तया नीत्या, ततोऽसौ संखडिमेव ग
त्। एवं च मातृस्थानं तस्य संभाव्येत, तस्मान्नैवं कुर्याद- पेशिकामुष्मिकापायभयात् संखडिग्रामगमनं न विदध्याfafa | यथा च कुर्यात्तथाऽऽह-स भिक्षुः तत्र संखडिनिवेशे कालेनानुप्रविश्य तत्रेतरेतरेभ्यो गृहेभ्यः उग्रकुलादिभ्यः सामुदानिक - समुद्रानं - भिक्षा तत्र भवं सामुदानिकम् एषणीयं- प्रासुकं वैषिकं केवलघेषावाप्तं धात्रीपिण्डादिरहितं पिण्डपातं प्रतिगृह्याहारमाहारयेदिति ।
पुनरपि संखडिविशेषमधिकृत्याह-
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिजा गामं बा०जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा ०जाव रायहाणिसि वा संखडी सिया तं पि य गामं वा जाव० रायहाणि वा संखार्ड संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमाए । केवली बूया- श्रयाणमेयं, आइन्नाऽवमाणं संखडिं अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अकंतपुब्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुब्वे भवइ, पाएस वा पाए श्रावडियपुब्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुब्वे भवइ, काए वा काए संखोभियपुव्वे भवह, दंडेण वा अट्ठी वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुब्वेण वा भवह, सीओदएण वा उस्सित्तपुब्वे भवइ, रयसा वा परिघासिय पुव्वे भवइ, असणिजे वा परिभ्रुत्तपुब्वे भवइनसिं वा दिजमाणे पडिग्गाहियपुव्वे भवइ । तम्हा से संजए नियंठे तहष्पगारं श्राइनावमाणं संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । (सू०१७)
स भिक्षुर्यदि पुनरेवम्भूतं ग्रामादिकं जानीयात्, तद्यथाग्रामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा संखडिर्भविष्यति, तत्र च चरकादयोऽपरे वा भिक्षाचराः स्युरतस्तदपि ग्रामादिकं संखडिप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनाय न तत्र गमनं कुर्यादित्यर्थः । तद्भतांश्च दोषान् सूत्रेणैवाह - केवली ब्रूयाद्यथैतदादानं कर्मोपादानं वर्तत इति दर्शयति-सा च संखडि: आकीर्णा वा भवेत् चरका दिभिः सङ्कुला अवमा-हीना शतस्योपस्कृतेः पञ्चशतोपस्थानादिति, तां चाकीर्णामवमां चानुप्रविशतोऽमी दोषाः, तद्यथा - पादेनापरस्य पाद आक्रान्तो भवेत्, हस्तेन वा हस्तः सञ्चालितो भवेत्, पात्रेण वा भाजनन वा पात्र भाजनमापतितपूर्वे भवेत्, शिरसा वा शिरः संघट्टितं भवेत्, कायेनापरस्य चरकादेः काय: सोभितपूर्वो भवेदिति । स च चकादिरारुषितः कलहं कुर्यात्, कुपितेनच तेन दण्डेनास्थमा वा मुष्टिना वा लोष्ठेन वा कपालेन वा साधुर भिहतपूर्वी भवेत्, तथा शीतोदकेन वा कश्चित्सिञ्चेत्, रजसा वा परिधर्षितो वा भवेत् । एते तावत्सङ्कीर्णदोषाः । श्रवमदो
संखडि
पाश्वामी अनेषणीयपरिभोगो भवेत्, स्तोकस्य संस्कृतत्वात्प्रभूतत्वाचार्थिनां; प्रकरणकारस्यायमाशयः स्याद् यथा मत्प्रकर मुद्दिश्यैते समायातास्तत एतेभ्यो मया यथाकथञ्चिदेयमित्यभिसन्धिनाऽऽधाकर्माद्यपि कुर्याद्, अतोऽनेषणीपरिभोगः स्यादिति । कदाचिद्वा दात्राऽम्यस्मै दातुमभिarise, asarस्मै दीयमानमम्तराले साधुगृहीयात् तस्मादेतान् दोषानभिसम्प्रधार्य संयतो निर्ब्रन्थस्तथा प्रकारामाकीर्णमवमां संखडि विहाय संखडिप्रतिज्ञया नाभिसम्धारयेद् गमनायेति । श्राचा० २ ० १ ० १ ० ३ उ० । इहानन्तरोद्देशके संखडिगतो विधिरभिहितस्तदिहाऽपि तच्छ्रेषविधेः प्रतिपादनार्थमाह
पन्नस्स
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा • जाव समाणे से जं पुण जाजा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहे वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्सिंगपणगदगमट्टियमकडासंताण्या बहवे तत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति ( उवागच्छंति ) तत्थाइना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए नो वायणपुच्छणपरियणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, से एवं नचा तहप्पारं पुरेसंखर्डि वा पच्छासंखर्डि वा संखर्डि संखडिपडिश्राए नो अभिसंधारिजा गमणाए । इयं वा मच्छाइयं वा ० जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिजा मंसासे मग्गा अप्पा पाणा • जाव संताणगा नो जत्थ बहवे समण ०जाव उवागमिस्संति अप्पाइमा वित्ती पश्नस्स निक्खमणपवेसाए पन्नस्स वायणपुच्छणपरियगुणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखर्डिवा ० जाव अभिसंधारिजा गमणाए । (सू०-२२ )
स भिक्षुः कचिद्रामादौ भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् यथेषम्भूतां संखडि जानीयात् तत्प्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद् गमनायेत्यन्ते क्रिया । यादृग्भूतां च संखार्ड न गन्तव्यं तां दर्शयति- मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मांसादिका तामिति । इदमुक्तं भवति - मांसनिवृत्ति कर्तुकामाः पूर्णायां वा निवृत्तौ मांसप्रचुरं संखडि कुर्युः तत्र कश्चित्स्वजनादिस्तदनुरूपमेव किञ्चिन्नयेत्, तश्च नीयमानं दृष्ट्वा न तत्र गन्तव्यं तत्र दोषान् वक्ष्यतीति । तथा मत्स्या आदौ प्रधानं यस्यां सा तथा, एवं मांसखलमिति, यत्र संखडिनिमित्तं मांसं छिवा छित्त्वा शोष्यते शुष्कं वा पुञ्चीकृतमास्ते तत्तथा क्रिया पूर्ववत् । एवं मत्स्यखलमपीति । तथा-' आहे 'ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते, • पहें ' ति वध्वा नीयमानाया यत्पितृगृहभोजनमिति 'हिंगोलं' ति मृतकभक्तं, यक्षादियात्राभोजनं वा, 'संमेल ति परिजनसन्मानभ गोष्टीभक्तं वा,
तदेवम्भूतां संख
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संखडि अभिधानराजेन्द्र।
संखडि डि सात्वा तत्र च केनचित्स्वजनादिना तन्निमित्तमेव । गोवियतो वा विडियो तिगामाया। किश्चिद् हियमाण-नीयमानं प्रेक्ष्य तत्र भिक्षार्थ न गच्छेद् ,
' संखडिएगमणेगा, दिवसेहितहेब पुरिसेहिं ॥ ६६३ ।। यतस्तत्र गच्छतो गतस्य च दोषाः सम्भवन्ति । तांश्च दशयति-गच्छतस्तावदन्तरा-अन्तराले तस्य भिक्षा मार्गाः
रात्री वा दिवसतो वा संखड्यां गमने चत्वारोऽनुद्धाताः पन्थानो बहवः प्राणाः-प्राणिनः पतङ्गादयो येषु ते तथा,
प्रायश्चित्तम् । सा च संखडी दिवसैः पुरुपैश्च एका अनेका च तथा बहुबीजा बहुद्दरिता बहुवश्याया बहूदका बहुत्तिङ्गप
भवति । नकोदकमृत्तिकामर्कटसन्तानकाः। प्राप्तस्य च तत्र संखडि
___ इदमेव स्पष्टयतिस्थाने बहवः श्रमणब्राह्मणाऽतिथिकृपणवनीपका उपागता एगो एगदिवसियं, एगो ऽणेगाहियं च कुजाहि । उपागमिष्यन्ति तथोपागच्छन्ति च। तत्राकीर्णा चरका- ऽणेगाव एगदिवसि तु, ऽणेगाव अणेगदिवसि तु ।६६४। दिभिः-वृत्तिः-वर्तनम् अतो न तत्र प्राशस्य निष्क्रम- एकः पुरुषः एकदैवसिकी संखड़ी कुर्यात् , एकोऽनेकाहिणप्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, नापि प्राशस्य वाचना-प्रच्छना- कामनेकदेवसिकीम् , अनेके पुरुषाः संभूयैकदैवसिकीम् , परिवर्तनाऽनुप्रेक्षा-धर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिः कल्पते, न तत्र
अनेके पुरुषा अनेकदैवसिकी संखडिं कुर्वन्ति । जनाकीणे गीतवादित्रसम्भवात् स्वाध्यायादिक्रियाः प्रवर्तन्त इति भावः। स भिक्षुरेवं गच्छगतापेक्षया बहुदोषां तथाप्रकारां
एकेका सा दुविहा, पुरसंखडि पच्छसंग्खडी घेव। मांसप्रधानादिकां पुरःसंखडि पश्चात्संखडि वा ज्ञात्वा तत्प्र- पुवावरसूरम्मि, अहवा वि दिसाविभागणं ।। ६६५ ।। तिक्षया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति । साम्प्रतमपवादमाह
एकैका-एकदैवसिकी अनेकदैवसिकी च संखडिः प्र. स भिक्षुरध्वनि क्षीणो ग्लानोत्थितस्तपश्चरणकर्षितो चा:- त्येकं द्विविधा--पुरःसंखडी, पश्चात्संखडी च । या पूर्वसूर्यघमौदर्य वा प्रेक्ष्य दुर्लभद्रव्यार्थी वा स यदि पुनरेवं पूर्वदिनविभागमध्यासीने रवौ क्रियते सा पूर्वसंखडी, या जानीयात्-मांसादिकमित्यादि पूर्ववदालापका यावदन्तरा पुनरपरसूर्ये सा पश्चात्संखडी । अथवा-दिग्विभागेनानयोः अन्तराले 'से' तस्य भिक्षार्गच्छतो मार्गा अल्पप्राणा -1 पुरम्पश्चाद्विभागो विज्ञेयः । या विवक्षितग्रामादेः सकाशात् ल्पबीजा अल्पहरिता इत्यादि व्यत्ययेन पूनवदालापकः । पूर्वस्यां दिशि भवति सा पूर्वसंखडी, या तु तस्यैवापरस्यां तदेवमल्पदोषां संखडिं शात्वा मांसादिदोपरिहरणसमर्थः। दिशि सा पश्चात्संखडी । सति कारणे तत्प्रतिशयाऽभिसन्धारयन्नमनायति । आचा०
अत्र प्रायश्चित्तमाह२ श्रु०१ चू० १ १०४ उ० ।
दुविहाएँ वि चउगुरू, विसेसिया भिक्खमादिणं गमणे । संखडिप्रलोकनाय न गच्छेत् । सूत्रम्
गुरुगादिव जा अपयं, पुरिसेगअगदिणरातो ॥६६६॥ संखडिं वा संखडिपडियातिए(एतुं) एत्तए ।। ४८ ॥
द्विविधायामपि अनन्तरोतायां सखड्यां गमने चतुर्गुरुकाः अथाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाह
पते च भिक्षुप्रभृतीनां तपःकालविशषिताः,भिक्षास्तपसा कादुविहाऽवाता उ विहे, वुत्ता ते होञ्ज संखडीए तु।
लेन च लघवः, वृषभस्य तपसा लघवः, उपाध्यायस्य कालेन तत्थ दिया विन कप्पति,किमु राती एस संबंधो ॥॥ लघवः, श्राचार्यस्य तपसा कालेन च गुरवः । अथवा चतुर्गु'दुविहे'त्ति अध्वनि गच्छतां संयमात्मविराधनाभेदाद द्धि- रुकमादी कृत्वा एकानेकपुरुपकृतकानेकदैवसिकसंखडीपुराविधाः प्रत्यपाया उक्नाः, संखड्यामपि गच्छृतां त एव प्र
त्री गच्छतः स्वपदं यावत् वेदितव्यम् । तद्यथा-भिक्षुरेकपत्यपाया भवेयुः अतस्तत्र दिवाऽपि गन्तुं न करपते. किमुत रुषकतामेकदैवसिकी संखडि ब्रजति चतुर्गुरवः, एकपुरुषकरात्री, एष सम्बन्धः। अनेन सम्बन्धेनायातस्यऽस्य (सू.४८)
ताकदैवलियां बदलघवः, अनेकपुरुषकृतानकदैवसिक्यां व्याख्या-'संखडिवे' ति वाशब्दान्न कल्पते इत्यादि पदान्य
छदः, ५नं चिक्षुविषयमुक्तम् । वृषभस्य पदलघुकादारब्धं मूनुवर्तनीयानि । तद्यथा-न केवलमध्वानं रात्रौ वा विकाले ले, उपाध्यायस्य पड्गुरुकादारब्धमनवस्थाप्य, श्राचार्यस्य वा गन्तुं न कल्पते, किन्तु-संखडिमपि रात्रौ वा धिकाले वा
छेदादाररुधं पाराश्चिके निष्ठामुपयाति । संखडिप्रतिशया एतुं-गन्तुं न कल्पते, एष सूत्रसंक्षेपार्थः ।
प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमेवाहअथ भाष्यकारो विस्तरार्थ विभणिषुराह
पायरियगमण गुरुगा,वसभाण असारणम्पि चउलगा संखंडिअँति आऊ-णि जियाणं संखडी स खलु वुच्चइ।। दोएह वि दोणि वि गुरुगा,वसभपलाततरे सुद्धा॥१६७॥ तप्पडिआऍण गम्मति,अन्नत्थ गते सिया गमणंहह। प्राचार्यस्य संखड्यां गच्छाम इति वाणस्य चत्वारो गुर. समिति-सामस्त्येन खण्ड्यन्ते-ताड्यन्ते जीवानां वनस्प वः, तमेवं ब्रुवाणं वृषभा न वारयन्ति चतुर्लघुकाः । अथातिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्येण यत्र प्रकरणविशेषे सा खलु सं- चार्येण संखडी वजाम इत्युक्ते वृषभा अपि वजाम इति भणखडिरित्युच्यते। 'सूरेभ्यः' इत्यौणादिक इप्रत्ययः, पृषोदरा- न्ति ततो द्वयोरपि वृषभाचार्ययोः चत्वारो मासास्ते द्वयेपि दित्वादनुस्वारलोपः। तां 'संखडिजति जहिं पाऊणि जियाण गुरुकाः कर्त्तव्याः,वृषभाणामपि चतुर्गुरुका भवन्तीति भावः। संखर्डि' तत्प्रतिक्षया संखडिमहंगमिष्यामीत्येवलक्षणया गन्तुं | अथ वृषभैारिता अप्याचार्या बलमोडिकया गच्छन्ति तत. न कल्पते । एवं त्रुवता सूत्रणेदं सूचितम्-अन्यार्थमपरकार्य- | स्ते प्राचार्याः प्रायश्चित्ते लग्नाः । इतरे वृषभास्तु शुद्धा न निमित्तं संखडिग्रामं तस्य संखपामपि गमनं स्यादिति। प्रायश्चित्तभाज इति ।
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संवडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि सम्बेसि गमणे गुरुगा, आयरियअवारणे भवे गुरुगा। त्वा यथाविभवं शरदि संखडिं करोति । पञ्चमादिषु वसभे गीतागीए, लहुगा गुरुगा य लहुगो य ॥६६॥
कोऽप्युत्कृष्टद्रव्यलुब्धो गुरुन् संखडिगमनार्थ विज्ञपयति ।
गुरवो ब्रुवते-आर्य! न कल्पते संखडिं गन्तुम् । यदि सर्वेऽपि साधवो भणन्ति संखड्यां गच्छाम इति ततस्तषां चत्वारो गुरुकाः, आचार्यस्तान वारयति ततो गुरु
ततोऽसौ मायया ब्रवीतिकाः । वृषभो न बारयति चतुर्लघवः, गीतार्थो भिक्षु न बार
अत्थि य में पुवादिट्ठा, चिरदिट्ठा ते अवस्सदहव्वा । यति लघुको मासः।
मायागमणे गुरुगा, तहेव गामाऽणुगामम्मि ॥१००३।। एगस्स अणगाण व, छंदेण पहाविया तु ते संता। सन्ति म पूर्वहष्टाः-पूर्वपरिचिताः सुहृदादयस्ते च चिरशाः वत्तमवत्तं सुच्चा, नियत्तणे होंति चउगुरुगा || 888 ||
प्रभृतकालतस्तषां मिलितानामभवदिति भावः । अत इदानीएकस्याऽऽचार्यादेरनेकेषां वा बहूनां छेदेनाऽभिप्रायेण ते
मवश्यं दृष्टव्यास्ते मया; एवं मायया गुरून् आपृच्छय यदि संखज्या उपरि प्रधाविताः सन्तो वृत्तां वा संखडिं श्रुत्वा
गच्छति तदा गुरुको मासः । प्रामानुग्नामेऽपि विहरता संखयदि निवर्तन्ते ततश्चतुर्गुरुका भवन्ति ।
डि श्रुत्वा गच्छतां तथैव मासगुरुकम्।
इदमेव व्याचष्टेवेलाए दिवसेहि, वत्तमवत्तं निसम्म पञ्चेति ।
गामाणुगामियं वा, रीयंता सो उ संखडि तुरियं । होहिद अमुगं दिवसं,सा पुण अन्नम्मि पक्खम्मिा१०००
छोति वसतिकाले, गाम तेसि पि दोसा तु ॥१००४॥ बेलया दिवसैर्वा प्रतिनियतां संखडीश्रुत्वा प्रस्थिताः,गच्छ
ग्रामानुग्रामिक वा रीयमाणा-विहरन्तः काऽपि ग्रामे संखद्रिश्वापान्तराले श्रुता, यथा-सा संखडी वृत्ता-समाप्ता,अवृ.
हिं श्रुत्वा ये त्वरितं गच्छन्ति. सति या भिक्षाकाले तं प्राम सा वा अन्यस्यां वेलायामन्यस्मिन् दिवसे भाविनी एवं वृत्ता.
परित्यजन्ति , परित्यज्य च संखडियामं गच्छन्ति तेषाममवृत्तां वा निशम्य-श्रुत्वा प्रत्यायान्ति-प्रतिनिवर्तन्ते । यथा
पि दोषा यक्ष्यमाणा भवन्ति । कैश्चिदपि साधुभिः श्रुतम्-यथा अमुकगृहे पूर्वावलायो स. खडिर्भविष्यति ततस्ते पात्राण्यदग्राह्य तस्यां गन्तुं प्रस्थिताः,
गन्तुमणा अन्नदिसिं,अन्नदिसिं ते वयंति संखडिनिमिर्त। अपान्तराले च तैः श्रुतम्-अतिक्रान्ता संखडी वा श्राकर्मि- मलग्गामें अपंडिय-वसमा गच्छति तदढाए ।१००१ तं यथा नाऽपि तत्र बेला एवं श्रुत्वा पतिनिवर्तन्ते ।दिवसम- भिक्षाचर्यायामन्यस्यां दिशि गन्तुमनसः संखडि श्रुत्काधिकृत्य पुनरित्थं 'होहिह'इत्यादि पश्चार्द्धम्।कचिद् ग्रामे स्थि- तनिमित्तमन्यस्यां दिशि बजन्ति, मूलग्रामे तदर्थ संबङितैः श्रुतम्-अमुकग्रामे अमुकदिवसे पश्चमीप्रभृतिके संखड्डी | तोर्गच्छन्ति । भविष्यति, इत्याकर्य ते ग्रामं प्रस्थिताः, तत्र गच्छद्भिरन्तरा एतेषु सर्वेष्वपि गमनप्रकारेषु दोषानुपनिदर्शयिपुराहश्रुतम्-यथा वृत्ता सा संखडी न भविष्यति वा । कथमित्याह
एगाहि अणेगाहि, दिवा व रातो व गंतुपडिसिद्धं । 'सा पुण अन्नम्मि पक्खम्मि' त्ति यस्यां पञ्चम्यां भाविनी
आणादिणो य दोसा,विराहणा पंथिपत्ते य ।।१००६॥ संखडी साधुभिः श्रुता सा पुनरम्यस्मिन् अतीते अनागते वा पते भूता वा भविष्यति च, न तत्पक्षवर्तिनीति भावः।
एकाहिकीमनेकाहिकी या तां संखडि गन्तुं दिवा रात्री अथ संखडी कथं कुत्र वा भवतीत्युच्यते
प्रतिपद्धम् , यदि गच्छति तत पाशादया दोषाः, विराधना
च संयमात्मविषया पथि वर्तमानानां तत्र प्राप्तानां च भवति । आदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहिया य महिमाए।
तत्र पथि वर्तमानानां भावदोमनभिधित्सुराहतोसलिविसए विष्णव-णट्ठा तह होति गमणं वा ।१००१॥
मिच्छत्ते उड्डाहो, विराहणा होति संजमायाए । आदेशः-संखडिविषये दृष्टान्तः-तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडाग नाम सरः। तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽप्याहिकां
रीयादि संजमम्मि य, छक्कायअचक्खुर्विसयम्मि।१००७१ महिमां करोति । तत्रोत्कृष्ठावगाहिमादिधान्यस्यादानं ग्रह
संखडिं गच्छतः साधून दृष्ट्वा यथा भद्रका मिथ्यात्वे स्थिरणं कार्यम्।तदर्थ कोऽपि लुब्धो गन्तुमिच्छति। ततः स गुरूणां तरा भवेयुः, उहाहो भवेत् । तथा संयमात्मविराधना भविज्ञापनां संखडिगमनार्थ करोति । प्राचार्यो वारयतिातथा- वति । संयमविराधना गत्री गच्छन् ईर्यादिसमितीनं शोधऽपि यदि गमनं करोति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं दोषाश्च वक्त-|
यति, अचक्षुर्विपये च गच्छतां पकायविराधना । श्रात्मव्याः। इति पुरातनगाथासमासार्थः ।
विराधना तु पुरस्ताद्वक्ष्यते । अथैनामेव विवृणोति
अथ मिथ्यात्यो-हाहद्वारे व्याच - सेलपुरे (इ)सि तलाग-म्मि होति लद्वाहियामहामहिमा।। जीदादोसनियत्ता, वयंति लूहेति तजिया भोजे । कोंमलमेत्तपभासे, अब्बुयपाईणवाहम्मि ॥१००२॥ थिरकरणं मिच्छत्ते, तप्पक्खियखाभणा चेव ॥१००८॥ तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्ष महता लोको यात्-अहो अमी श्रमणा जिह्वादोपनिवृत्ता-रसविच्छनाष्टाहिकाया महती महिमा भवति । तथा कुण्डल- गृद्धिरहिता अपि रुक्षवल्लचणकादिभिराहारैस्तर्जिताः सन्तः मैत्रनाम्नो वाणव्यन्तरस्य यात्रायां भरुकच्छपरिसरवर्ती प्रतिभोज्याध-संखड़िहतोर्गच्छन्तीत्युवाहो भवेत् । तथा यथैभूयान लोकः संखडिं करोति। प्रभास वा तीर्थे अर्बुद वा पर्व | तदर्मापामसत्यं तथा अन्यदपि मिथ्यामलपितमिति मिथ्यात्वे तयात्रायां संखडिः क्रियते । प्राचीनवाहः सरस्वत्या सम्बद्धः स्थिरीकरणं भवति । एवं च तत्पाक्षिका साधुमानिनः थावपूर्यदिगभिमुखप्रवाहः , तत्रानन्दपुरवास्तव्यो लोको ग- कास्तेषां क्षोभणा मिथ्यादृष्टिभिः सम्यक्त्वाचालना भवति।
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संखटि
( १ ) अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि अथाऽऽत्मविराधनामाह--
तुभ्यं न शृङ्गारण दत्ता, उदकेन वा कल्पेति भावः । न च वाले तेणे तह सा-वते य विसमे य खाणुकंटे य। । न वयं पैत्रिकी-पितृपरम्परागता । अतः किं नु नाम अतिवअकम्हाँ भयचसमुत्था, रत्तेमादी भवे दोसा ॥१००६।।
हुकोऽवकाशस्त्वया गृहीतः, एवं कलहो भवति । रात्री संखडिगमे व्यालः-सर्पस्तेन दश्येत । स्तेनैरुपकरण- तत्थ य अतितूडेतो, संविट्ठो वा छिवेज इत्थीओ।। मपहियेत, श्वापदैः सिंहादिभिरुपद्रयेत, विषमे च निम्नो- इच्छमणिच्छे दोसा,मुत्तमभुत्ते य फासादी ।। १०१४॥ बते प्रपतेत् । स्थाणुना वा कण्टकेन या विध्येत । अकस्मा- तत्र वनादौ कोऽपि साधुरतिगच्छन्निगच्छन् वा समुयं या स्वयमात्मसमुत्थं भवति । रात्रावेवमादयो दोषा भ.
पवियो वा स्त्री स्पृशेत् , तत आत्मपरोभयसमुत्था दोषाः । घेयुः। एवं तावत्पथि गच्छतां दोपा अभिहिताः।
तत्र च यदि नाम विरतिको प्रतिसेवितुमिच्छति तदा अथ तत्र प्रार्थनामाह
संयमविराधना, अथ नेच्छति ततः सा उड़ाई कुर्यात् । स्त्रीवसहीए जे दोसा, परउत्थियतजणाएँ विलधम्मे । पांच स्पर्शादिषु तथा पातोद्यगीतशब्दान् स्त्रीसम्बन्धिनआतोजगीतसद्दे, इत्थीसद्दे य सविकारे ॥१०१०॥
च हसितकूजितादिशब्दान् श्रुत्वा भुक्ताभुक्तसमुत्धा दोषाः । वसतेः सम्बन्धिनो ये प्राधाकादयो दोषास्ते लगन्ति,
भूयोऽपि दोषदर्शनार्थमाहपरतीथिकाश्च तत्र गतानां तर्जनां कुर्वन्ति । विलधर्मो नाम
आवासगसज्झाए, पडिलेहणे भुंजणे य भासाए । एकस्यामेव वसतौ गृहस्थैः सम संवासः तत्रैकत्रावस्थाने वीयारे गेलने, जा जहि आरोवणा भणिया॥१०१५॥ तत्र संखडं स्यात् । तत्र च संखड्यामातोघगीतशब्दान स्त्री- आवश्यके स्वाध्याये प्रत्युपेक्षणायां भोजने च भाषायां शब्दाँश्च सविकारान् श्रुत्वा चशब्दादविरतिकाः अलंकृताः विचारे ग्लानरवे च या यत्रारोपणा भणिता सा तत्रारा स्मृतिकरणादयो दोपाः । इति द्वारगाथासमासार्थः।। तव्येति द्वारगाथासमासार्थः । साम्प्रतमेनामेव विवृणोति
___साम्प्रतमेनामेव प्रतिपदं विवृणोतिमाहाकम्मियमादी, मंडवगादीसु होति अमणुन्ना ।
आवासगं तत्थ करेन्ति दोसा, रुक्खे अब्भावासे, उवरि दोसे परूविस्सं ॥१०११॥ सज्झाएँ एमेव य पेहणम्मि । संखडीवी दानश्राद्धो यथाभद्रको वा साधूनां निमित्तमा
उहुंच वारेंतमवारणे य, धार्मिकान् कारयेत् । आदिशब्दाचायन्तिकादिपरिग्रहः ।
आरोवणा ताणि अकुव्वतो जा ॥१०१६ ।। तेषु मण्डपेषु आदिशब्दात्पणकुटीप्रभृतिषु डाले-अवकाशे वा बसन्ति, तत्र वसतां ये दोषास्तानुपरिष्टादस्मिन्नेव सूत्रे| तत्र गृहस्थः सह वसन्तो यद्यावश्यक स्वाध्यायं चा कुप्ररूपयिष्यामि।
र्वन्ति तदा त कर्णकटुका नाम पते इति गमयन्ति, उचका__ परार्थिकद्वारं भजनाद्वारमाह
न्या कुर्वन्ति, पवमादयो दोषाः । प्रत्युपेक्षणायामप्येवमेवोड़
श्वकान् कुर्वन्ति । यदि वार्यन्ते अन्यकुलैः सह संखडं कुर्युः । . इंदियमुंडे मा किं-चि देह मा ण डहेज साहूणं । अथ न चायन्ते ततो भगवत्प्रवचनस्य भक्तिः कृता न स्यात् ।
पेहासोभादीसु य, असंखडं हेतुवादो य ॥१०१२ ॥ अथतहापभयादावश्यकादीनि न कुर्वन्ति ततस्तान्यकुर्वतो संखडी श्रुत्वा शाक्यशैवभागयतादयः परतीथिकाः समा- | या काचिदारोपणा सा द्रष्टव्या । तद्यथा-कायोत्सर्ग न यातास्ते साधून तर्जयन्त इत्थं त्रुवते इन्द्रियपहा-मुण्डा अ..
करोति, वन्दनकं न ददातिस्तुतिप्रदानं न करोति, सूत्रपौरुषी मी संखडिप्राप्ताः श्रमणाः मा किश्चिद् चूत किमप्यमीयांस- न करोति, सर्वप्वपि मासलघु। अर्थपौरुष न करोति मासम्मुखं विरूपकं भापणीयं (णे) युप्मान् अमी तपस्विन प्राक- गुरू! जघन्यमुपधिने प्रत्युपक्षते रात्रिन्दिवपञ्चकम् । मध्यम पाः सन्तः शापेन दहयुः, एवं तर्जनामसहमाना अपरिणता-1
न प्रत्युपेक्षते मासलघु । उत्कृष्ट न प्रत्युपेक्षते चतुर्लघु। स्तैस्सद्द संखडं कुर्युः । तथा प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणां कुर्वतो दृष्टा शोभा वा स्वल्पकलुषादिना पानकन विधीयमानां रष्ट्वा प्रा- ज मंडलिं भजइ तत्थ मासो, दिशब्दात्-संयतभाषया भापमाणान् श्रुत्वा परतीथिका मारस्थिभासासु य एवमेवं । उश्वकान् कुर्वन्ति । तत्र तथैव संखडं भवत्, हेतुना या ते
चत्तारि मासा खलु मण्डलीए , परतीर्थिका बाद मार्गययुः। बठरशिरशिखरा एते न किमपि जानन्तीत्यादि।
उड्डाहाँ भासासमिए वि एवं ॥१०१७ ।। विलधर्मद्वारमाह
भोजनं कुर्वन् सागारिमिति मत्वा यत् मण्डली सिंगारेण ण दिया, न य तुम्भं पेतिगी सभा एसा।
भनक्तितत्र मासलघु, अगारस्थभाषासु भाष्यमाणासु पव
मेव मासलघु । अथैतत्प्रायश्चित्तभयान्मएडल्यां समुद्दिशअतिबहुमो ओगासो,गहितेण तु सो कलह एवं ।१०१३॥ न्ति तदा चत्वारो मासलघवः । उडाहश्च प्रवचनापधानो एवं साधारण सभादौ पिण्डीभूय साधयो गृहस्थाश्च यदेक- मण्डल्यां समुशन भवति । एवं भापासमितऽपि मन्तव्यम् । त्रावतिष्ठन्ते स विलधर्मः, रोन वसतां साधुभिः प्रभूतेऽव- संयतभाषया भाषमाणस्य चत्वारो लघुमासा भवन्तीरित काशे मिलिते सति गृहस्था छुपते-भो श्रमणाः पया सभा- भावः ।
तथा
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संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि थोवे थणे गंधजुते अभावे,
ने अब्याप्रियमाणे प्रदेशे पूर्वोक्लनीत्या षडपि काया विराविअस्स दबारगताण दोसा ।
ध्यन्ते । अपावृते च तम स्तेनाः श्वानश्चानेके उपद्रवं वि
दधति। आवातसयोगगया य दोसा,
उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा, करंत कुव्वं परितावणादी ॥१०१८ ॥
पढंति चित्ताभिणया बहूणि । विचारभूमौ गतानां स्तोके-स्वल्पे थने-कलुषे गन्धयुते दुर्गन्धिनि द्रवे अभाव वा सर्वथैव द्रव्यस्य दोषा अवर्मवा
कीलंति मत्ता य अमत्तगा य, दभक्तपानप्रतिषेधादयो भवन्ति । तथा पुरुषादीनामापाते
तस्थित्थिपुंसा सुअलंकिता य ॥१०२२॥ संलोके संझां-कायिकी वा कुर्वति तदा तद्गता दोषाः। यथा यत्रोद्याने उन्मत्ता विचित्रवेषा विविधवस्त्रादिनेपथ्यपीठिकायां विचारकल्पिकद्वारे उक्तास्तथा द्रष्टव्याः। अथैत- धारिणश्चित्राभिनया नानाप्रकारहस्ताद्यभिनया यहूनि शदोषभयात् कायिकी वा संहां वा न करोति किंतु धारयति कारकाव्यानि पठन्ति । तथा मत्ता अमत्ता वा तत्र स्त्रीपुरुतदा परितापनादुःखमूर्छादयो दोषाः ।
षाः सुष्ठु वस्त्राभरणैरलंकृताः सन्तः क्रीडन्ति । गिलाणतो तत्थतिभुंजणेण,
आसे रहे गोरहगे य चित्ते, उच्चारमादीण तु संनिरोधा।
तत्थाभिरूढा उ गणे य केइ । अगुत्तसेज्जासु व सप्लिवासा,
विचित्तरूवा पुरिसा लल्लंता, उड्डाहँ कुब्बन्ति मकुव्वतोय ॥१०१६ ॥
हरंति चित्ताणि विकोवियाणं ॥१०२३ ॥ तत्र संखड्यामुत्कृष्टद्रव्यलोभादतिमात्रभोजने, यद्वा-सा
तत्रोद्याने केचित्पुरुषा अश्वान् अपरे रथान् तदगारिकाकीर्णतया तत्रोच्चारादीनां सन्निरोधात् ग्लानो भवेत् ।
न्ये गोरथकान्-कहोडकान् केचिञ्चित्राणि नानाप्रकाराअथवा-अगुप्ता-असंवृता याः शय्या-वसतयस्तासु स
णि युग्यादीनि यानानि डगडानि च यानविशेषरूपाण्यधिरूनिवासाद् ग्लानत्वमुपजायते । प्रतिथयशीतलतया भक्तस्या
ढाः सन्तो विचित्ररूपाः पुरुषाः श्रेष्ठिपुत्रादयो लालन्तः जीर्यमाणत्वात् । स च ग्लानो यदि तत्रोच्चारप्रश्रवणादि
क्रीडन्तो विकोविदानामगीतार्थानां चित्तानि हरन्ति । करोति तदा सागारिका उडाहं कुर्युः । अथ न करोति प
ततश्च भुक्ताऽभुक्नसमुत्था दोषाःरितापनादयो दोषाः।
सामिद्धिसंदसणवावडेण , अथैतद्दोषभयाद् ग्रामादहिर्वसन्ति ततः को दोषः
विप्पस्सता तेसि परेसि मोक्खे । स्यादिति प्रश्नावकाशमाशङ्कथाह
तस्थित्थिऽपातम्मि समंततेण, बहिता य रुक्खमूले, छकाया साणतेणपडिणीए ।।
भिक्खावियारादिसु दुप्पयारं ॥ १०२४ ॥ मत्तुं-मत्तविउव्वण, वाहणजाणे सतीकरणं ॥१०२०॥
समृद्धया-वस्त्राभरणादिरूपया समिति सामस्त्येन यहग्रामादेवहिवृक्षमूले आकाशं वा पृथिनीकाया-सचित्तरजः- शनमवलोकनं तत्र व्यापृतेन इदं पश्यामि इदं च पश्यामीति प्रभृतिकः, अकायः-स्नेहकणिकादिस्तेजस्कायो-विद्युदादि- व्याक्षिप्तचेतसां सदा तेषां परेषां श्रेष्ठिप्रभृतीनां यानवाहर्वायुकायो-महावातादिनस्पति कायो-विक्षितवृक्षसक्नतः नादीनि मुख्यानि विविधमनेकप्रकारं पश्यतां सूत्रार्थयोः अल्पफलादिः त्रसकायो-वृक्षनिश्रितद्वीन्द्रियादिरूपः सम्भव- परिमन्थः कृतः स्यादिति शेषः । तत्र च स्त्रीपुति,पते षद्कायास्तत्र तिष्ठतां विराध्यन्ते । असंवृते च तत्र- रुषैः समन्ततः । अपाते' देशीपदत्वात् आकणे भिक्षायां स्थानां भाजनमपहरेयुस्तेना उपद्रवेयुः। प्रत्यनीको वा विजनं विचारभूमौ श्रादिशब्दाद्विकारभूम्यादी च दुष्प्रचारं भवमत्वा हन्याद्वा मारयेद्वा । तथा मत्ता-मदिरामदभाविताः ति, यत एते दोषाः अतः संखड्यां न गन्तव्यम् । उन्मत्ता-मन्मथोन्मादयुक्ता-विटा इत्यर्थः, ते विकुर्बणां भूष
अथ परः प्राहणादिभिरलङ्करणं विधाय तत्रागच्छन्ति । वाहनानि-हस्त्य- दोसेहिं एत्तिएहिं, अगेएहता चेव लग्गिमो अम्हे । वादीनि यानानि-शिबिकारथादीनि तानि दृष्ट्वा भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणम् । अभुक्तभोगिनां तु कौतुकमुपजायते इति
गेहासु य भुजातु य,ण य दोस जहा तहा सुणसु१०२५॥ नियुक्तिगाथासमासार्थः।
संखडिगमने यावन्त एते षट् दोषा उक्नाः पतावद्भिः वयं अथैनामेव विवृणोति
संखडिभक्कमगृहाना एव गच्छामः, ततो न कार्यमस्माकं मा होज अंतो इति दोसजालं,
ग्रामादिमध्यासनेन । सूरिराह-वयं संखडिभक्तं गृहीमो वा
भुज्महे वा नच दोषाः पूर्वोक्ता यथा भवन्ति तथाऽभिधी__ तो जाति दूरं बहिरुक्खमूले ।
यमानं शृणु । इयं पुरातनी गाथा। अभुञ्जमाणे तहि गंतुकाया,
अथैनामेव व्याख्यानयतिअवाउडे तेणसुणे य ऽणेगे ॥१०२१॥ अपरिग्गहित प्रमुत्ते, जति दोसा एत्तिया पसजंती। प्रामाभ्यन्तरे षसतामित्यनन्तरोक्नं दोषजाल मा भूदित्यभि- इत्थं गते सुविहिया, वसंतु रने प्रणाहारा ॥१०२६ ॥ सन्धाय ततो प्रामावहिरे वृक्षमूले याति, तत्र वा भुशामा- परःप्राऽऽह-अपरिगृहीते अभुक्नेऽपि च संखडिभक्त यथे
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संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि तावन्तो दोषाः पथि गच्छतां ग्रामादेमध्ये बहिश्च तिष्ठ
अथैनामेव गाथां व्याचष्टेतां भवन्ति ; तत इत्थमेवं व्यवस्थिते सम्प्रति सुविहिता
वासाविहारखतं, वच्चंताणंऽतरा जहिं भोजं । अनाहाराः सन्तोऽरण्ये वसन्तु ।
अत्तद्विताणं तहिं, भिक्खमडताण कप्पेजा ॥१०३१ ।। गुरुराहहोहिंति न वा दोसा,ते जाण जिणो ण चेव छउमन्थो ।
वर्षाविहारो नाम वर्षावासस्तत्प्रायोग्य क्षेत्र व्रजतामन्तरा पाणियसदेण उवा-हणो से वेभलो मुयति ॥१०२७॥
पथि यत्र भोज्यं-संखडी भवति । आह चूर्षिकृत्-"भोज्जन्ति
वा संखडि त्ति वा एगटुं"तत्र ग्रामादावन्याथें स्थितानां साहे नोदक ? नायं नियमो; यत्-संखडि गच्छतामवश्यमन
थैमत्र स्थितानां न तु संखडिनिमित्तं गृहपरिपाट्या च भिक्षान्तरोक्का दोषा भवन्ति, कारण यतनया गच्छतस्तेषामस
मटतां संखडिं गत्वा भक्तपानं ग्रहीतुं कल्पते। म्भवात् । ततस्ते दोषा भविष्यन्ति वा न वेत्येतत् जिनो
कुत इति चदुच्यतेक्लिनैव छनस्थो भवाडशो वेत्ति, अतो यदुक्तं भवता इत्थं गते सुविहिता अरण्यं गत्वा वसन्तु तदेतदज्ञानविज़
नत्थि पवत्तणदोसो, पडिवाडी पडित मोण वाइप्ला । म्भितम् । यतः पानीयशब्देनोपानही वा विद्ध, मूर्यो मुश्च
परसंसट्ठ अविलं-बियं च गएहति अणिसमा ॥१०३२।। ति,यो भूखों भवति स एवं मुञ्चतीतिभावः।एवं भवानपि सं- नास्ति तत्र संखड्यां गममे प्रवर्त्तमाना दोषाः परिपाटया खडिगमनमात्रे दोषोपदर्शनं श्रुत्वा यदेवं ग्रामादीन् परित्यज्य पतित-प्राप्तावसरं यतस्तत्र भनपानं गृह्णाति न तदेवकं गृहअरण्ये वासमयुपगच्छति, तत्ते नमधचक्रवर्ति हृदयम् ।। मुद्दिश्य गत्वेति । मो इति पादपूरणे । न वा सा संखड़ी श्रा. अपि च
कीर्णा जनाकुला परसंसृष्टं च गृहस्थादिपरिवेषणनिमित्तं दोसे चेव विमग्गह,पुण दोसित्तेण णिच्चमुज्जुत्ता। हस्तो वा मात्रकं वा संसृष्टम् , अवलम्बितं च तत्र प्राप्ताः ण हि होति सप्पलोट्ठी,जीवितुकामस्स सेताए।।१०२८॥
सन्तो गृह्णन्ति । भिक्षावेलायां गमनात्तत्क्षणादेव भक्तपानं ल. हे नोदक! गुणद्वेषित्वेन यूयं नित्यमुद्युक्ताः सन्तो गुणा
भन्ते न पुनरुपविष्टाः प्रतीक्षन्ते इति भावः । न्वेषणबुद्धया दोषानेव विमार्गयथ न गुणान् । भवन्ति तद्वशा
किंचअपि कचिदस्मिन् जगति ये दोषानेव केवलान् पश्यन्ति न
संतन्ने ववराधा, कजम्मि जतो णिदंसबजेसु । गुणनिवहम् । उक्तं च-"गुणोच्छिते सत्यपि स्वप्रभूते, दोषेषु जो पुण जतणारहितो,गुणा वि दोसायते तस्स।।१०३३।। यवस्तु महान् खलानाम् । कमेलकः कलिवनं प्रविश्य, प्रती- सन्ति-विद्यन्ते अन्येऽप्यनेषणीयग्रहणादयोऽपराधाः। येषु क्षते कण्टकजालमव ॥९॥"यतो न हि-नैव सर्पलुब्धिः सर्प- कायें ज्ञानादौ यतः प्रयत्नं कुर्वन् प्रतिसेवमानाऽपि न दोषग्राहकत्वं जीवितुकामस्य पुरुषस्य श्रेयसे भवति, किंतु प्र- वान् भवति । यः पुनर्यतनारहितः प्रवर्तते तस्य गुणोऽपि त्युत मरणाय । एवं भवतोऽपि संयमगुणान्वेषणबुद्धया दोषायते-दोष इव मन्तव्यः। अरण्यवसनम् ; तन्न श्रेयसे सम्पद्यते,प्रत्युताहाराभावेनात- असहस्सऽप्पडिकारे, अच्छेज ततो ण कोइ अवराधो । ध्यानादिपरिणामसम्भवात्कन्दमूलफलादिभक्षणाद्वा तस्यैव
सप्पडिकारे अजतो,दप्पो ण व दोस वी दोसा।।१०३४॥ संयमस्योपघातं जनयति ।
आह यद्येवं ततो निरूप्यतां कथमत्र दोषा भवन्ति कथं | अशठस्य-रागद्वेषरहितस्याप्रतीकारे प्रतिसेवनां विना नावान भवन्तीत्युच्यते
स्त्यन्यो यस्य प्रतीकार इत्येवलक्षण अर्थ-संखडिगमनादौ भमति उ चेव गमणे, इति दोसा दप्पतो य जहि गंतुं ।
यतमानस्य यतनां कुर्वतो न कोऽप्यपराधो भवति । यस्तु स कमगहण भुंजणे य,न होंति दोसा अदप्पणं ॥ १०२६॥
प्रतीकारे परिहर्तुं शक्ये अर्थ अयतो-न यतनां करोति-सवंत
तस्य द्वयोरप्ययतनादर्पयोर्दोषा भवन्ति-कर्मबन्ध इत्यर्थः । भएयतेऽत्र प्रतिवचनम्-यद्ययं व्याकुट्टिकया संखड्यां गच्छति दर्षतश्च गुरुग्लानादिकारलाभावेन यत्र गत्वा गृह्णाति
यत एवमतःभुक्ने वा तत्राऽनन्तरोक्का दोषा मन्तव्याः । अथ क्रमेण निद्दोसा आइना, दोसवती संखडी यऽणाइम्मा | गृहपरिपाट्या संखडिगृहं प्राप्तः, ततस्तत्र ग्रहणं भोजनं घा
सुत्तमणाइपाए, तस्स विहाणा इमे होंति १०३५॥ कुर्वाणस्य न दोषा भवन्ति । अदर्पण वा पुटालम्बनेन संखडिप्रतिज्ञयाऽपि गच्छतो न दोषा भवन्ति ।
निर्दोषा-वक्ष्यमाणदोषरहिता संखडी श्राचीर्णा साधूनां इदमेव भावयति
गन्तुं कल्पनीया, या तु दोषवती सा अनाची । तत्र पडिलेहियं च खेतं , पंथे गामे य भिक्खवेलाए।
सूत्रमनाचीर्णामेवावतरति, न तत्र संखडिप्रतिक्षया रात्री वा
विकाले वा गन्तव्यम् । तस्याश्चानाचीर्णाया अभी भेदा गामाणुगामियम्मि य,जहि पायोग्गं तहिं लभते ।१०३०)
भवन्ति । मासकल्पस्य वर्षावासस्य वा योग्य क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं गन्तुं प्रस्थितानां पथि मागें वर्तमानानां यद्वा तस्मिन्नेव ग्रा
तानवादमे प्राप्तानां संखडिरुपस्थिता । उभयत्राऽपि यदि भिक्षावे
जावंतिया पगणिया, सक्खेत्ताऽखत्तवाहिराहारा । लायां भक्तपानं प्राप्यते तदा कल्पते गन्तुम् । ग्रामाऽनुग्रा- अविसुद्धपंथगमणा, सपञ्चवाया य भेदा य ॥ १०३६ ।। मिकेऽप्यनियतविहरतां यत्र भिक्षावेलायां प्रायोग्य प्राप्यते यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावदातव्यमित्यतत्र प्रहीतुं लभते नान्यति ।
भिप्रायेण यस्यां दीयते सा यावन्तिका । दश शाक्याः, द
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संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखति श परिवाजकाः, दश श्वेतपटाः, एवमादिगणनया यत्र दीयते दसणवादे लहगा, सेसा वादेसु चउगुरू होंति । सा प्रगणिता।'सक्खत्ते'त्ति सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनी
जीवियचरित्तभेदा,विसचरगादीहि गुरु काउं॥१०४१॥ 'खेत्ते' त्ति सचित्तप्रथिव्यादावक्षेत्रे अस्थायडल स्थिता वा। 'बाहिर' ति । सक्राशयोजना क्षेत्रवहिर्वत्तिनी, आधारा नाम
कायैः-पृथिव्यादिभिरविशुद्धः एष मार्गा यस्याः संखडेः सा चरकपरिवाजकादिभिराकुला, अविशुद्धन पृथिव्यप्कायादि
तथा, अस्यां च कायनिष्पन्नं प्रायश्चित्तं प्रत्यपायाश्च द्विविसंसक्लेन पथा गमनं यस्यां साऽविशुद्धपथगमना । यत्र स्तेन
धाः । पथि वर्तमानस्य, तस्य प्राप्तस्य च । तत्र पथि श्वापश्वापदादयो दर्शनादिविषयाश्च प्रन्यपाया भवति सा सप्रत्य
दस्तेनकण्टकादयः , तत्र प्राप्तस्व तु त्रिविधाः प्रत्यपाया पाया। सा च जीवितभेदाथ चरणभदाय वा भवेदिति द्वारगा
भवन्ति । दर्शनब्रह्मवतादिषु भेदात् । ततः संखडिं गतस्य चरथासमासार्थः।
कशाक्यादिभिया ग्रहणे दर्शनापायः, चरिकातापसीप्र
भृतिभिरन्याभिर्वा मत्तप्रमत्तादिस्त्रीभिर्ब्रह्ममतापायः । श्रा__ अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोति
स्मापायस्तु पूर्वोक्त एव हस्तभङ्गादिकाः, एवंविधास्तत्सआचंडाला पढमा, वितिया पासंडजातिणामेहिं । हिता सप्रत्यपायाः। अत्र च दर्शनापाये चतुर्लघुकाः । शेषेषु सक्वत्ते जा सकोसं, अखत्ते पुढविमाईसु ॥१०३७।।
स्तेनश्वापदादिषु ब्रह्मवतात्मविषयेषु प्रत्यपायेषु चतुर्गु
रखो भवन्ति । तथा सौगतोपासकादिदोषदु संखडिप्रथमा यावन्तिकी; सा आ चण्डालात् यावन्तः केचन नटि.
नघाचीर्णा, एतद्विपरीता आचीगणेति । काकार्पटिकादयो भिक्षाचरा यावदपश्चिमश्चाण्डालास्तावतां
द्वितीये पदे एतैः कारणैः संखडिमपि गच्छेतदातव्यमितिलक्षणा । द्वितीया प्रगणिता प्रकर्षण पापण्डिनो जात्या नाम्ना वा गणयित्वा यत्र दीयते । तत्र जाति प्रतीत्य कप्पइ गिलाणगऽट्ठा , संखडिगमणं दिवा व रातो या। गणना-दश भौताः,दश भागवताः,दश श्वेताम्बरा इत्यादिनाम
दवम्मि लब्भमाणे,गुरुउवदेसो त्ति वत्तन्वं ।।१०४२॥ प्रतीस्य गणना, यथा-श्रमुकः श्वेतपट: अमुकश्च रक्तपट इत्या- |
ग्लानार्थ संखडिगमनं दिवा वा रात्रौ या कल्पते । तत्र च दि । स्वक्षत्रसंखडी नाम या सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरे भवति। अक्षेत्रसंखडी तु या सचित्तवनस्पतिकायादिष्वनन्तरं वा
द्रव्ये ग्लानप्रायोग्ये लभमाने यावन्मानं ग्लानस्योपयुप्रतिष्ठिता।
ज्यते तावति प्रमाणप्राप्ते सति प्रतिषेधयन्ति । यद्यसौ दाता
बृयात्-किमिति न गृह्णीथ ? ततो वक्तव्य-भणनीयम् , गुरुएतामु गच्छतः प्रायश्चित्तमाह
बैंद्यस्तस्योपदेशोऽयम्-यदेतावतः प्रमाणादृर्व ग्लानस्य जावंतिगाएँ लहुगा, चउगुरु पगणीऍ लहुग सक्खेत्ते । पथ्यादिकं न दातव्यम् । मीसग सचित्ताणंतर, परंपरे कायपच्छित्तं ॥ १०३८ ॥
इदमेव भावयतियावन्तिकायां चतुर्लघवः, प्रगणितायां चतुर्गुरवः, स्वक्षेत्र- पुचि ता सक्खेत्तं, असंखडीसंखडीसु वा जतति । संखज्यां गच्छतश्चतुर्लघु, अक्षेत्रसंखड्यां मिश्रसचित्तान- पडिक्सममलम्भंते,तो वच्चति संखडी जत्थ ॥१०४३।। न्तरपरम्परप्रतिष्ठितायां कायप्रायश्चित्तम् । तत्र पृथिव्यादिषु
ग्लानस्य प्रायोग्यं पूर्व तावत् स्वक्षेत्रे-स्वग्रामे असंप्रत्येकवनस्पतिपर्यन्तेषु मिश्रेषु परम्परप्रतिष्ठितायां लघुपश्च
खड्यां गवेषयितव्यम्-यचसंखड्यां न प्राप्यते, ततः स्वकम् , अनर रप्रतिष्ठितायां मासलघु । पतेष्वेव सचित्तेषु
ग्राम एव याः संखड्यस्तासु यतते । तदभाव प्रतिवृषभग्रामेपरम्परप्रतिष्ठितायां मासलघु, अनन्तरप्रतिष्ठितायां चतु
प्यपि, ततः संखड्यामपि । अथ तत्राऽपि न लभ्यते यत्र लघु अनन्तरवनस्पतिषु च । तान्येव प्रायश्चित्तानि गुरु
ग्रामादौ संखडी भवति तत्र व्रजन्ति । ताश्च संखड्यो काणि कर्तव्यानि ।
द्विधा-सम्यग्दर्शनभाविताः, तीर्थविषयाश्च । तत्र प्रबहि बुडिअङ्कजोयण, गुरुगादी सत्तहिं भवे सपदं। थममाद्यासु गन्तव्यम् । चरगादी आइमा, चउगुरु हत्थाइभंगो य ॥२०३३॥
यत श्राहक्षेत्राद्वहिः संखड्यां गच्छतश्चतुर्लघु, ततः परमर्द्धयोजन- उजितणायसंखडि-सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु । वृद्धथा चतुर्गुरुकमादौ सप्तभिवृद्धिभिः स्वपदं पागश्चिकम् । सम्मत्तभाविएसुं,ण हुंति मिच्छत्तदोसाओ ॥१०४४॥ तद्यथा-क्षेत्रबहिरड़योजने चतुर्गुरु , योजने पद्दलघु । सा- उज्जयन्ते ज्ञातसंखडे सिद्धशिलायाम् एवमादिषु सम्यचयोजने षड्गुरु, द्वयोर्योजनयोश्छदः, भर्द्धतृतीययोजनेषु कत्वभाविनेषु तीर्थेषु याः प्रतिवर्ष यात्राः संखडयो मूलम् , त्रिषु योजनेषु नवमम् ,अर्द्धचतुर्थयोजनेषु पाराञ्चिक
भवन्ति; तासु गच्छतो मिथ्यात्वस्थिरीकरणादयो दोषा म,तथा या च परिव्राजककार्पटिकादिभिराकुला सा पाकी
न भवन्ति । र्णा,तां गच्छतश्चतुर्गुरुकम् । तत्र चातिसम्मन हस्तपादपा.
एतेसिं असईए, इतरीओं वयंति तत्थिमा यतणा । त्राणां भङ्गो भवत्।
पुट्ठो अतिकमिस्सं कुणति व अमावदेसं तु ॥१०४५।। अथाऽविशुद्धपथगमनादीनि द्वाराणि व्याख्याति
पलेषां सम्यक्त्वभावितानामभावे इतरा अपि मिथ्यात्वकाएहिं विमुद्धपहा, सावयतेणा पहे पवायाओ।
भाविततीर्थविषयाः संखडीर्वजन्ति । तत्र व गच्छत इयं दंसगाभवता वा, तिविधा पुण होंति पत्तस्स ।१०४० यतमा-यदि केनाऽपि पृच्छयन्ते-किं संखडी गमिष्यथे
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ए
संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि ति?, ततः पृष्टः सन्नेवं ब्रूयात्-अतिक्रमिष्याम्यहं संखडी- कस्याऽपि ग्रहणं कर्तव्यम् । एवं तावत्साधूनां प्रवेशे लभ्यमप्रतो गमिष्यामीत्यर्थः । अथवा-अन्यापदेशं करोति । श्र- माने विधिरुक्तः । व्यक्तमपि प्रतिवचनं ब्रूते इति भावः।
अथ यत्र साधवः प्रवेश न लभन्ते तद्विषयं विधिमाहतहियं पुर्व गंतुं, अप्पोगासासु ठाति वसहीसु । न वि लम्भत पवेसो, साधूणं लग्भए स्थ अजाणं । जेय भविपक्कदोसा,णणेति ते तत्थ अगिलाये॥१०४६॥
वावारण पडिकिरणा,पडिच्छणा चेव अजाय।।१०५०॥ तत्र-संचडिग्रामे पूर्वमेव गत्वा या अल्पावकाशा बसत
यत्र-अन्तःपुरादौ नाऽपि नैव साधूनां प्रबेशो लभ्यते; किं. यस्तासु तिष्ठन्ति, विस्तीर्णावकाशासु पुनः स्थितानां गृह
तु लभ्यते तत्रार्यिकाणां प्रवेशः । कर्मकर्तर्यय प्रयोगः । स्थादिभिः पश्चादागतैः सह त एयासंखडाच्यो दोषाः, ये च ततः षष्ठीविभक्तिरदुष्टा,, तत्रार्यिकाखां व्यापारणा विधेया। तत्राविपकदोषा इन्द्रियकषायान् ग्रहीतुमसमर्था अपि
ततस्ता अन्तःपुरादी प्रविश्य प्रज्ञापयन्ति । तथाऽपि चेत् "केचिदेष" आहचूर्थिकृत्--"अविपक्कदोसा नाम जे अस
प्रवेशो न लभते, ततः अन्तःपौरकरणनिम्ना आर्यिका ग्लामरथा निगिरिहउं इंदियकसाए" अधिको विषया पा तत्रा- नप्रायोग्यं गृहीत्या साधूनां पात्रेषु परिकिरन्ति । तत आर्यिलंकृतस्त्रीदर्शनादिसमुत्थदोषपरिजिहीक्याऽन्यग्लानकार्या- | काणां हस्तात् ग्लानप्रायोग्य प्रतीच्छन्ति । भावेन निर्गच्छन्ति ।
इदमेव स्पष्टयतिअथ ग्लानस्य प्रायोग्यग्रहणे विधिमाह
अलब्भमाणे जतिणं पवेसे, विणा वि भोभासितसंथवेहिं,
अन्तोउरे इन्भघरेसु वाऽवि । जं लब्भती तत्थ तु जोग्गदव्वं ।
उजाणमाईसु व संठियाणं, गिलाणभुत्तुवरियं वि (साहू),
अजाउ कारेंति जतिप्पवेसं ॥ १०५१ ॥ न भंजमाणा वि अतिकमति ॥१०४७॥
राजादीनामन्तःपुरे या अन्यगृहेषु वा यतीनां प्रवेश अलअघभाषणमवभाषितं याचनमित्यर्थः, संस्तवन-संस्त- भ्यमाने उद्यानाविषु वा यतीनां प्रवेश अलभ्यमाने उचानायो दातुर्गुणविकत्थनम् तेन सहात्मना सम्बन्धविकत्थनं या दिषु वा संस्थितानां साधूनामनागन्तुकानामित्यर्थः,आर्यास्ततासां विनाऽपि तत्र संखड्यां यत्प्रीतियोग्यद्रव्यं लभ्यते यतीनां प्रवेश कारयन्ति । कथमिति चेकुच्यते-ता आर्यितत्प्रथमतो ग्लानेन, तन्मध्यागुतं तत उद्वरितं भुजाना का अन्तःपुरादौ गत्वा प्रज्ञापयन्ति-यथैते भगवतो महातअपि साधषो, नाऽतिक्रामन्ति-न भगवदासां बिलुम्पन्ति । पखिनो निःस्पृहायतेभ्यो दत्तं बहुफलं भवति, एवमादिप्रक्षाभोभासियं जं तु गिलाणगट्ठा,
पनया यदा तानि कुलानि भाषितानि भवन्ति, तदा साधवः
प्रविशन्ति । तं माणपत्तं तु णिवारयति ।
अथ तथाऽपि प्रवेशो न लभ्यते ततः किंकर्तव्यमित्याहतुम्भे व भले व जया नु बेंति ।
पुराणमाईसु व खीणवेंति, भुजेत्थ ता कप्पति णऽमहा तु॥१०४८॥
गिहत्थभाणेसु सयं व तानो। यत् पुनः प्रायोग्यद्रव्यं ग्लानार्थमवभाषितम् , तथदा मान- अगारिसका जतिसत्तएही, प्राप्तपैचोपविष्टपथ्यमात्र प्राप्तं भवति तदा निवारयन्ति ,
दुट्ठोवभोगेहि य माणवेति ॥१०५२॥ पर्याप्तमायुष्मताचता अतः परं ग्लानस्य नोपयोक्ष्यते, एवमुक्ने यदा ते गृहस्था एवं ध्रुवते-यूयं वा अन्ये
आर्यिका गृहस्थभाजनेषु ग्लानप्रायोग्यं गृहीत्वा पुराणावा साधयो भुअन्तु तदा ग्लानयोग्य प्रमाणादधिकमपि प्र
दिभिर्गृहस्थैः साधुसमीपं नाययन्ति; प्रापयन्तीत्यर्थः । श्य हीतुं कल्पते, नान्यथा।
ताशो गृहस्थो न प्राप्यते ततः स्वयमेव ताः आर्यिका गृहइदमेव स्फुटतरमाह
स्थभाजनेषु गृहीत्वा साधुसमीपं नयन्ति । तथाऽगारिणः
शकां कुर्युः-नूनमेता गृहस्थभाजनेष्वेवंविधमुत्कृष्टद्रव्यं गृदिणे दिणे दाहिसि थोवथोवं,
हीत्या केषांचिदविरतिकानां प्रयच्छन्ति ततो यतीनां सदीहाउया तेण ण गिएिहमो पिंह ।
कानि याम्यधस्तातुपभोग्यानि-असम्भोग्यानि भाजनानि उ. णो हावइस्सामि गिलाणगस्स,
पहतानीत्यर्थः तेषु गृहीत्वा साधूनां समीपमानाययन्ति वा । तुझेव ता गिण्हह गएहणे वा ॥ १०४६॥
तेसामभावा अहवा वि संका, भो!भाषक! ग्लानस्य दीर्घा-चिरकालस्थायिनी रुक-रोगः
गिएहति भाणेसु सएसु ताओ । समस्ति प्रतो दिने दिने इदं ग्लानयोग्यद्रव्यं दास्यति तेन
अभोइमाणेमु उ तेसि भोगो, कारणेन बयमिदं न गृहीमः। ततो यदि ते गृहस्था ब्रुवते गारत्थि तेसेव व भोगिसुं वा ॥१०५३ ॥ वयं प्रतिदिनं ग्लानस्य प्रायोग्यं न हापयिष्यामः यूयम- तेषां संयतभाजनानामभावात्। अथवा--तेषु गृहमाणेषु पिच तावत्प्रसाद कृत्वा गृहीत एवमुक्के प्रमाणप्राप्तादधि-| गृहस्थानां सङ्का भवेत् । एतानि संयममाजमानि; तदवश्य
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संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखडि मेताः संयतानां प्रयतानां प्रयच्छन्ति । अतस्ता आर्यिकाः | चार्यास्तं शैक्ष भणन्ति-एते वृषभास्ते सहायाः पूर्वमभवन् अस्वकेषु भाजनेषु गृहन्ति । ततः साधवोऽसंभोग्यभाजनेषु भिहिता इति भावः । ते तस्य शैक्षस्य हिता मातृवदननुकूला गृहीत्वा तस्य प्रायोग्यद्रव्यस्य भोगं कुर्वते । असंभोग्यभा. सन्तो दीपयन्ति । दीपयित्वा च ततस्तं गृहीत्वा ब्रजन्ति । जनाभावे गृहस्थभाजनेषु । अथ तान्यपि न सन्ति ततः
पुवोदितं दोसगणं च तं तु, तेष्वेव संयतीभाजनेषु भुजते। अथ संयतीनां तैर्भाजनैः शीघ्र प्रयोजनं ततः सम्भोगिकेष्वपि भाजनेषु प्रक्षिप्यते ।
वजेंति सजाइजुतं जतीए । पवं तावत् ग्लाननिमित्तं यथा गृह्यते तथा भणितम् ।
संपुग्नमेवं तु भवे गणित्तं , अथ संखडीगमने कारणान्तराण्याह
जं कंखियाणं पविणेति कंखं ॥१०५८ ।। श्रद्धाण निग्गयादी, पविसंता वावि अहव ओमम्मि ।। पूर्वोदित-प्राग्भणितं शय्या वसतिः तदाऽविभिर्युतं सम्बउपधिस्स गहणलिंपण-भावम्मि य तं पि जयणाए१०५४)
द्धं दोषगणं यतनया प्रागुक्तलक्षणया वर्जयन्ति । अथ किमेवं
शैक्षस्यानुवर्तनां कृत्वा संखडिगमनेनाचार्या अनुजानन्तीअध्वनो निर्गता आदिशब्दादशिवादिनिर्गता वा अध्वनि वा
स्थाह-सम्पूर्णमसंखडमेवं विदधानस्याचार्यस्य गणित्वप्राचाप्रविशन्तः, अथवा अवमे दुर्भिक्षे संखार्ड गच्छेयुः। अथवा
र्यकं भवति । यत्काक्लिताना-संखडिगमनाधभिलाषवतां शियत्र ग्रामादौ संखडिस्तत्रोपधिवस्त्रपात्रादिकः सुलभस्तस्य
घ्याणां का प्रकर्षेण तदीप्सितसम्पादनलक्षणात् विनयति ग्रहणार्थ गन्तव्यम् । पात्रकाणि वा लेपनीयानि सन्ति, तत्र
स्फेटयति। उक्तं च दशाश्रुतस्कान्धे गणिसंपवर्णनाप्रक्रमे-'कंच लेपः प्रचुरः सुप्रापश्च भावो वा शैक्षस्य संखडिगमने स
खियस्स कंखं पविणित्ता भवई' ति । वृ० १ उ० ३ प्रक। मुत्पन्नः । एतैः कारणैस्तदपि संखडिगमनं यतनया कर्तव्य
(उद्दिश्य भोज्यसंखडिर्भवेत् तत्र विधिः 'सागारिय' शब्दे मिति संग्रगाथासमासार्थः।
वक्ष्यते) ( संखड्यां भक्तं गृहीत्वा भक्ष्यत उद्गाले श्रागते साम्प्रतमेनामेव विवृणोति
इति कर्तव्यता 'उग्गाल'शब्दे द्वितीयभागे ७३० पृष्ठे उक्का।) पविट्ठकामा व विहं महंतं ,
जे भिस्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाविनिग्गया वाऽवि ततोऽथवो मे।
इमं वा साइमं वा पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजइ ।।१३।। अप्पायणट्ठा य सरीरगाणं,
जे भिक्खू संखडिपलोश्रण इत्यादि संखडि'त्ति पाउश्रा
णि जम्मि जीवाणं संखडिजंति सा संखडी संखडिसामिअत्ता वयंती खलु संखडीओ ॥ १०५५॥
णा अणुमातो तम्मि रसवतीए पविसित्ताओ श्राणाति, पविहम्-अध्वानं महान्तं-विप्रकृष्ट प्रवेष्टुकामास्ततो वा|
लोइउ भणाति-इतो इतो पयच्छादिति एस पलोयणा। जो अध्वनो निर्गता जनपदं प्राप्ताः, अथवा-अवमे-दुर्भिक्षे चि- एवं गेराहति असणाति तस्स मासलहूं। नि० चू० ३ उ०। रमटन्तोऽपि न पर्याप्तं लभन्ते , अतस्ते शरीरेण दुर्बला श्रा
गाहाहारलुब्धाः, तत्र यानि कुत्सितत्वात् शरीरकाणि तेषामप्यारानार्थमार्ताः-प्रथमद्वितीयपरीषहपीडिताः, अथवा-प्राप्ताः
एसमणाइमा खलु, तव्विवरीता तु होति आइप्या । रागद्वषरहिताः, यद्वा-भीमो भीमसेन इति न्यायात् जा कोयी भत्तणं, पाणेणं पलोयणं कारे ॥४०॥ आत्तो-गृहीतः सूत्रार्थो यैस्ते श्रात्तगीतार्थाः संबडी बजन्ति।
एस जावंतिया तिदोसदुट्टा भाणातिमो जावियादिवत्थं व पत्तं व तहिं सुलभं,
दोलविष्पमुक्का आइमा कोइसवी श्राइमाए भणाति-तुज्झेप. णाणादिसंपिंडियवाणितेसु ।
लोपद्दजं एत्थ रुश्चतितं अत्थउ, सेसं मरुगादीण पयच्छामि । पवित्तिसंघत्थकुलादिकजे,
गाहालेवं व घिच्छाम अतो वयंति ॥ १०५६॥ । तं जो उ पलोइजा, गण्हेजा आयइज्ज वा भिक्खू । तत्र क्षेत्र नानाप्रकारेभ्यो दक्षिणापथादिदिग्भ्यो वस्त्रादिवि
सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ४१॥ क्रयार्थ समागत्य पिण्डिता मिलिता ये वणिजस्तेषु वस्त्रं वा एवं भणितो जो तं पलोएज गेण्हेज आदिपज वा सो पात्रं वा सुलभम् । अथग-तत्र क्षेत्र प्राप्ताः कुलादिकार्याणि प्राणाभंगे पद्दति, अणवत्थं करेति , मिच्छत्तं जाणेति , कुलगणसंघप्रयोजनानि वर्तयिष्यामः, लेपं वा तत्र प्राप्ताः आयसंजमविराहणं च पावति । सन्तो ग्रहीष्यामः श्रत एवंविधपुटमालम्ब्य संखड़ी नजन्ति । पुग्वं पलोतिते गहिते वा इमे दोसा । पडिणीयगाहासेहं विदित्ता अतितिव्वभावं,
पडिणीयविसक्खेवा, तत्थ अमत्थ वापि तमिस्सा । गीया गुरुं विष्णवयंति तत्थ ।
मरुगादीण पोसो,अधिकरणुक्कोस वित्तचयो ॥४२॥ जे ते सहाया मभर्विसु पुचि,
साधुणा जपलोइयं भत्तपाणगं तत्थ पडीणीनो उवासगादि दीवेसु ते तस्स हिता वयन्ति ।। १०५७॥ घिसं खिवेज। साधुणीसाए वा वा पविठ्ठो अमत्थ वा कोवि वि शैक्षमभिनवप्रवजितमतितीवभावं संखडिग्रामगमने अती- सं पक्खिवेजा। अस्थते य ठवणादोसा मरुगादयः संखडीभतीवाभिलाषं विदित्वा गीतार्था गुरुं विज्ञपयन्ति,तत भा- | सामियस्स पवुटुं भोगेच्छति । समणाण पुष्वं दरी उक्कास
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संखडि अभिधानराजेन्द्रः।
संखय वा ठविय ति अगारदाहं वा करेज, साहुं वा पदुट्ठो हणेज । अचित्तेण केसवेण पुट्ठो-भयवं अरिट्टनेमी, सामिणो भविअसुईपहिं वा छिकंति उप्फोसेज अहिगरणं भवति । सो वा स्सस्स अरिहो पासस्स पडिमा चिट्रा। नियदेवयावसरे संखडिसामिश्रोधीयारेसु अभुंजतेसुसंजयाणं पदुसेज रिक्को तुम पूरसि । तेण ते निरुवहवं व जयसिरी य होहिति । तं मे विसचयो जानो होज्जति । अधवा-धिज्जाइयाणं दाउं - सोऊण विराहुणा सत्त मासे तिन्नि दिवसा अप्पिया य नागजावेद एताणट्टा वित्तचो मे अस्थिगो जाश्री त्ति । भव कार- रापण । तो महसवपुव्वं प्राणिता नियदेवयावसरे - णं जेण पलोइजा।
वित्रा पूएउमाढत्तो तिकाल विहिणा । तो तीए राहवणोगाहा
दगेणं अहिसित्ते सयलसिन्ने नियत्तेसु जरारोगसोगाइअसिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे भए व गेलखे। विग्यसु समच्छीअं विराहुणो सेनं । कमेष पराजिनो जराअद्धाण रोधए वाजतणाए लोयणं कुजा ॥४३॥
सिंधू । लोहासुरगयासुरवाणा राइणो अनिजिया । तप्प
भिवं धरणिंदपउमावईसन्निदेसण य सयलविग्घहारिणी इमा जयणा। गाहा
सयलरिद्धिजणणी य सा पडिमा संजाया ठवित्रा तत्थेव संइत्थेण आदिसिंते, अणावडंतो प्रणाभिडंतोय। ।
खपुरे । कालंतरेण पच्छन्त्रीहश्रा, कमेण संखकृवंतरे पयडी
हुा । अज जाव चेइहरे सयलसंघण पूजा, पूरेड य अणेदिस्सऽस्ममुहो भणति,होजा णे कञ्जममुएणं ॥४४॥
गविहे पब्बए तुरुकरायाणो वि तत्थ महिम करिति । “संहत्थेण ण दापति इअोर ति अथावडतो श्रणाभितो उ
खपुरट्रियमुत्ती,कामियतित्थं जिणेसरोपासो। तस्स य समए फासणदोसपरिहरखत्थं णाश्रो णतो अराणतो मुहं पलोपत्ता
श्रा णता अण्णता मुह पलाएत्ता कप्पे,लिहियो गीयाणुसारेणं ॥१॥" ती०२ कल्प । प्रा०क। सणियं भणाति,अमुगेण दहिमादिणा कजं होतव्वं । तं च गकछवग्गहकर पपीय पलिटुं पजत्तं दवं पलोएति । नि०
संखमाल-शंखमाल-पुं० । सुखमसुखममयां जाते कल्पद्रुमचू०३ उ०।
जातिविशेषे , जं० २ वक्षः। संखडिकरण-संखडिकरण-ना परमाने उपस्कृते,व्य०१उ०। संखय-संस्कृत-त्रि० । संस्क्रियत इति संस्कृतम् । तद्वर्तयितुं संखडग-शंखनक-पुं० । लघुशङ्खषु, जी०१ प्रति। प्रक्षा। बोटयितुं संधातु वा शक्ये , उत्त० । सम्प्रति संस्कृतप्रतिनि० चूछ।
षेधादसंस्कृतं विज्ञायत इति संस्कृतशब्दस्य निक्षेपो वासंखणाम-शंखनाम-पुं० । स्वनामख्याते महाग्रहे, कल्प०१
च्यः, तत्र च यद्यपि समित्युपसर्गोऽप्यस्ति तथापि धात्व
थद्योतकत्वात्तस्य करणस्यैव चात्र धात्वर्थात्तदेव निक्षामाअधि० ६ क्षण । सू० प्र०। ( स च ' महग्गह' शब्दे षष्ठे भागे दर्शितः)।
नियुक्तिकृत् । उत्त०४०। (असंस्कृतस्य व्याख्या 'श्र
. संस्खय' शब्दे, प्रथमभागे ८१६ पृष्ठे गता।) (द्रव्यस्य कथा संखतल--शंखतल-न० । शंखस्योपरितने भागे,जी० ३ प्रति०
'धण' शब्दे, चतुर्थभागे २६४५ पृष्ठ गता।) (करणस्य व्या४ अधि० । रा० । शंखतलेन कम्बुरूपेण विमलेन पङ्कादिरहि. ख्या 'करण' शब्दे, तृतीयभागे ३५६ पृष्ठे गता।) तेन सनिकाशः शंकाशः सदृशो यः सः । स्था० ६ ठा० ३ उ०।
इदानी कर्मणामबनध्यतामभिदधत् प्रकृतमेवार्थ शंखतसबिमलणिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासे ' इति-विमलं-विगतमलं
द्रढयितुमाहयत् शंखतलं शास्योपरितनभागो यश्च निर्मलो दधिधनो घनीभूतं
तेणे जहा संधिमुहं गहीए, दधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरश्च तद्वत् प्रकाशःप्रतिमता यस्य सकम्मुणा किञ्चइ पावकारी । तत्तथा। जी०३ प्रति०४ अधि०॥"संखदलविमलसरिणगा
एवं पया पिच्छ इहं च लोए, " शस्त्रस्य यद्दल खण्डं तलं वा रूपं विमलं तत्सन्निकाशः सदृशो यः स तथा । भ०१५ श०।
कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि ॥३॥ संखधमग-शंखध्मक-पुं० । शंख ध्मात्या ये जेमम्ति यदन्यः
स्तेनः-चौरः यथेति दृष्टान्तोपदर्शने, सन्धिः-क्षत्रं तस्य कोऽपि नागच्छतीति । वानप्रस्थभेदे, औ०। नि०० भ०।
मुखमिव मुख-द्वारं तस्मिन् गृहीतः-आत्तः स्वकर्मणा-श्रासंखपाणिलेह-शंखपाणिरेख-पुं० । शंखाङ्कितहस्ततले , जी०
स्मीयानुष्ठानन, किम् ?-कृत्यते-छिद्यते, पापकारी-पातक
निमित्तानुष्ठानसेवी । कथं पुनरसौ कृत्यत इति चेद्-अत्रो३ प्रति०४ अधि०। प्रश्न।
च्यते सम्प्रदाय:-" एगम्मि नयरे एगो चोरो, तेण अभिजसंखपुर-शंखपुर-नास्वनामख्याते नगरे, ती । पुब्धि किर
तो घरगस्स फलगचियस्स पागारकविसीसगसग्निहं स्वतं नवमो पडिवासुदेवो जरासिंघो रायगिहाश्रो समग्गसिन्न- खणियं । खत्ताणि अणेगागाराणि-कलसागिई नंदावत्तसंसंभारेण नवमस्स वासुदेवस्स कराहस्सय विग्गहत्थं पच्छि
ठियं पउमागिई पुरिसागिई च । सो यतं कविसीसगसंमदिसंचलिमो,कण्हो वि समग्गसागग्गीए बारवईओ निग्गं. ठियं खत्तं खणतो घरसामिए णिवेइयो। ततो तेष्ण श्रद्धतूण संमुहं तस्स गो । विसयसीमाए तत्थ भयवयाऽरिट्ट- पविठ्ठो पाएसु गहितो । मा पविट्ठो संतो पहरणेण पहरिनेमिणा पंचजमो संखो पूरिश्रो । तत्थ संखेसरं नाम नयर स्सति ति, पच्छा चोरेण वि बाहिरत्येण हत्थे गहिरो । सो मिथिटुं । तो संखस्स निनाएण खुभिपण जरासंधेण जरा- तेहि दोहि वि बलवंतेहि उभयहा कहिज्जमाणो सयंकिभिहाणं कुलदेवयं पाराहिता विउब्विया विरिहणो बाल- यपागारकविसीसगेहि फालिज्जमाणो अत्ताणो विलविति" जरातपखाससासरोगेहि य पीडियं नियसेनं दिटुं । पाउली। एवममुनवोदाहरणदर्शितन्यायेन प्रजाः-हे प्राणिनः ! पे
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( ८ )
संखय
च्छ' ति प्रेक्षध्वम् प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययः, एतच्च यत्राऽपि नोच्यते तत्राऽपि भावनीयम् । इह - अस्मिन् लोकेजन्मनि वास्तां परलोक इत्यपिशब्दार्थः कृतानां स्वयंविरचितानां कर्मणां ज्ञानावरणादीनां न मोक्षः न मुक्तिः, ईश्वरादेरपि तद्विमोचनं प्रत्यसामर्थ्यात्, अन्यथा सकलसित्वाद्यापतेः । इदमुकं भवति यथासार्थमाया प्रवृत्तः स्वहतेनेय रात्रसननात्मकोपायेन कृत्यते, न तस्य स्व. कृतकर्मणो विमुक्तिः, एवमन्यस्याऽपि तत्तदनुष्ठानतोऽशुभकारिणो न ततो विमुक्तिः, किन्तु तदिहापि विपच्यत पवेति । पठ्यते च--" एवं पया पेच्च इदं च " ति इहापि कृत्यत इति, संबध्यते, कृत्यत इव कृत्यते तथाविधवाधानुभवमेन काऽसौ प्रजा, क.-प्रेत्य परभये, इ वेति-- इहलोके किमिति प्रेत्येत्युच्यते-- यावता रद्द कृतमिवापगतमत आह-यत् कृतानां कर्मणां मोक्षो नास्ति, इह परत्र वा वेद्यमेवावश्यं कर्मेति । श्रहवा एवं पयापेच्च इहं पि लोप, कम्मुखो पीहति तो कयाती" एवं प्रजा ! आ मन्त्रपदमेतत् प्रेत्ये लोके च यतः प्रासिनः कृत्यन्ते 'तो' इति ततो हेतोः कदाचित् कस्मिंश्चित्काले नेति निषेधे 'कमुणो' ति कर्म्मणे प्रस्तावाद् कुत्सितानुष्ठानाय स्पृहयेत्-ना मिलापमपि कुर्या आस्तां तत्करमित्याकृतम्, तमिल
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"
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अभिधानराजेन्द्रः ।
स्वाऽपि दोषत्वात् । तथा च वृद्धा:--" एगम्मि नपरे एगेण चोरेण रतिं दुरवगाढे पासाए आरोढुं विमग्गेण खतं कथं सुबहुं च दग्वजायं गीतियं शिवधरं संपावियं पहायाद रयणीय रहाय समालबासो तत्थ गतो । को किं भासति सि जाणणस्थं जह ताबऽज्जलोगो मं ण याणिस्स ता पुणो वि पुरुषट्टिए बोरिस्सामीति संपहारिकण तम य खाये गयो । तत्थ य लोगो यह मिलित संयति दुरारोहे पासा आरोपमग्गेण व कर्म कई च खुप खतबारे पट्टि पुणो य सह दबेण णिग्गश्रोति । सो सुगेउं इरिलितो चिंतेर सच्यमेयं । किहऽहं पण निग्गतो सि ?, अपणो उदरं च कपिलोप समुहं पलोपति सो य रायनिउलेहिं पुरिसेहिं कुसलेहिं जाणितो, रायो उपतो सासितो य " एवं पापकर्मणामभिलषणमपि सदोषमिति न विदधीतेति सूत्रार्थः ।
।
इह कृतानां कर्मणामबध्यत्वमुक्तम्-तत्र च कदाचित् स्वागत एव सम्मुक्तिर्भविष्यति, अमुली या विभवामी धनादिषद् भोषयन्त इति कथमन्येत मतद
संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेति कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधन उवैति । ४ । पाठान्तरेऽपि पापकर्मस्पृह सदोषमिति निषिद्धम् - स्तत्राऽपि स्यादेतत्-- यथेह सर्व साधारणं तथाऽमुष्मिनपि भविष्यत्यत श्राह संसारसूत्रम् । संसरणं-- संसार:तेषु तेषुचावचेषु पर्यटनं तम् आपन्नः प्राप्तः परस्य-प्रास्मम्यतिरिकस्य पुत्रकलत्रादेः अर्थात् इति अर्थ-प्रयोज नमाश्रित्य साधारणम् । 'जं च ' ति चस्य वाशब्दार्थत्वादभिक्रमत्याच्च साधारणं वा यदात्मनां येषां तद्भविष्यतीत्यभिसन्धिपूर्वकं करोति--निर्वर्त्तयति भवान्, क
संवय
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मेहेतुत्वात् कर्म, क्रियत इति वा कर्म-कृप्यादि कर्म्मतस्यै घ कृष्यादेः 'ते' - तव हे कृष्यादिकर्मकर्त्तः ! तस्य परार्थस्य साधारणस्य वा तुशब्दोऽपिशब्दार्थः प्रास्तामात्मनिमित्तं कृतस्येत्यभिप्रायः वेदनं वेदो विपाकः तत्तत्कर्मफलानुभवनं तत्काले न-- इति निषेधे, अवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव बान्धवा-- स्वजनाः- यदर्थ तत्कर्म कृतवान् करोषि वा, ते बान्धवतां बन्धुभावं तद्विभजनापनयनादिना' उवैति ति उपयन्तीति, यतश्चैवमतस्तदुपरि प्रेमादिप्रमादपरिहारतो धर्म एवावहितेन भाग्यम्, तथाविधामीtoiesवणिग्वत् । तथा च वृद्धा:-" एगम्मि नयरे एगो वाणियगो अंतराssवणेसुं ववहरह, पगा आभीरी उज्जुगा दो रुपए घेरा कप्पासनिमित्तमुषडिया कप्पासो व तथा समन्धो महति तेरावा मस्स वस्स दो यारातोलेउं कप्पासो दिनो। सा जागह-दोरह वि रुवमाण दिजोति । सा पोलयं बंधिऊण गया। प
तेति - एस रूबगो मुद्दा लद्धो । ततो श्रहं एवं उवभुंजामि । तेरा तस्स अवगस्स समियं धर्य गुलो चिकिति परे विसजिद भरा संता- पुणे कवजासि सि । तार कपा पुरा। जामाउगो से सवयंसो श्रागतो । सो ताए परिबेखितो सो जिरं गतो वाशियो प तो भोगतो। सो ताप परिबेसितो साभाविण म तेरा । भगति - किं न कया घयाउरा ?, ताप भरणति कया परं जामापण सवयंसेस खाइया । सो वितेति पेष्ठ जारिस कथं मया सा बराई आभीरी से परनिमितं अप्पा अमेय संजोरथो सो सर्वतो सरीरविता ग्गितो गिम्दो व बहुति सो माला फक्स
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रचितो एगस्स रुक्खस्स हेट्ठा बीसमति । साहू य तेणोगाग भिक्लासिमितं जाति तेरा सो भएराति भगवं ! पत्थरुखच्छायाए विस्सम मया समाग ति । साहुणा भयं तुरियं मयत वणिण भणियं किं भयवं ! कोऽवि परकज्जेणावि गच्छ ?, साहुला भणियंजहा तुम चिय भजानिमित्तं किसिस्ससि। “समर्मीय स्पृष्टः "तेरोष एकवयरोग संबुद्धो भवति-मयर्थ तुम्हे कत्थ अच्छह ?, तेण भरणा - उज्जाणे । ततो तं साहु कयपज्जत्तियं जाणिऊण तस्स सगासं गतो, धम्मं सोउं भगति-पव्ययामि जाब सय श्रापुच्छिऊणं । गतो यियं घरं बंधवं भज्जं च भणइ - जहा श्रवणे ववहरतस्स तुच्छो लाभगो तो दिसाचाणि करेस्सामि दो व सत्थवाहा, तत्थेगो मुल्लभंडं दाऊण सुहेण इट्ठपुरं पावे, तत्थ विढन्ते किंचि गिरइति । बीओ न किंचि मुल्लभंड देति, पुष्ष विच विलुपेति तं कमरे सह वच्चामि सणयिं पढमेण सह वच्चसु। तेहिं सो समसुराणा तो बंधुसहितो गजा तेहि भगवति कयरो सत्यषाहो भ ति-परलोगसत्यवादी एस साह असोमवार - विट्टो पिणं भंडे ववहाराषे । पपण सह निव्वाणपणं जामि ति पव्वतो" यथा चार्य वणिक स्वजनस्वतत्त्वमालोचयन् ज्यां प्रत्याहतः तथाचैरपि विवेकिमितितव्यम् ।
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तथा व वाचकः
"गामात दुःखादितस्तथा स्वजनपरिवृतोऽतीय
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संख्य
कराति करुणं सवा शो उसी ॥ १ ॥ माता भ्राता भगिनी, भार्या पुत्रस्तथा च मित्राणि । मनन्ति ते यदि रुज, स्वजनबलं किं वृथा वहसि १ ॥ २ ॥ रोगहरणेऽप्ययाः प्रत्युत धर्मस्य ते तु विद्मकराः । मरणाश्च न रक्षन्ति, स्वजनपराभ्यां किमभ्यधिकम् ? ॥ ३ ॥ तस्मात् स्वजनस्यार्थे, यदिहाकार्य करोषि निर्लज्ज ! | भोकव्यं तस्य फलं परलोकगतेन ते मूढ aun तस्मात् स्वजनस्योपरि परिहाथ निभूषा धर्म कुरुष्व यत्नाद्यत्परलोकस्य पथ्यदनम् ॥ ५ ॥ " इति सूत्रार्थः ।
इत्थं तावत् स्वकृतकर्मभ्यः स्वजनान्न मुक्तिरित्युक्तम् ; अधुना तु द्रव्यमेव तन्मुक्तये भविष्यतीति कस्यचिदाशयः स्यादत आह
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वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्थ । दीवप्पणट्टे व भतमोदे, नेवाउयं दडुमदङ्कुमेव ॥ ५ ॥ मिलेन-द्रचिणेन त्रार्थ-स्वकृतकर्मणोरक्ष न लभते न प्रा प्रोति इति कीटक -प्रमत्तः--मचादिप्रमादः १'इमम्मि ति अस्मिन्ननुभूयमानतया प्रत्यक्ष एव लोके जन्मनि, 'अदुवे 'ति अथवा परत्रेति - परभवे, कथं पुनरिहापि जन्मनि न त्राणाय ? अत्रोच्यते बृद्धसम्प्रदायः" एगो किल राया इदमद्दाईप कदि उसने अन्तपुरे नि गच्छते घोसणं घोसाबेह जहा सब्बे पुरिसा नयरातो निग्गच्छंतु । तत्थ पुरोहियपुत्तो रायवल्लभो बेसाघरमणुपविट्ठो घोऽषि णणिग्गतो। सो रायपुरिसेहिं गहितो | तेण वलभेण न तेसि किंचि दाऊण अप्पा विमोहतो | बप्पायमाणो विषईतो रायसगासमुदितो राणा वि बज्मो भयो। पच्छा पुरोहिओ उषट्ठितो भणति सम्यस्सं पि य देमि मा मारिउ, सोडविण मुझो, सूलाए भिनो ।” उत्त० ४ अ० । (द्वीपशब्दव्यता दीव' शब्दे चतुर्थभागे २५४१ पृष्ठे गता । ) भुज्ञानात्मकात् दृष्ट्राऽपि वित्तादिव्यासहितस्तदावरीदयादद्रव भवति, तथा च न केवलं स्वतस्त्राणाय वित्तं न भवति किन्तु कथञ्चित् भाडेतुं सम्यग्दर्शनादिकमप्यथातमुपहन्तीति सूत्रार्थः ।
( ५६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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एवं धनादिकमेव सकलकल्याणकारि भविष्यतीत्याशङ्कायां तस्य कुगतिहेतुत्वं कर्म्मणधावन्ध्यत्वमुपदर्थ यत् कृत्यं तदाह-सूत्रम् )
सुते भावी परिबुद्धजीवी, नो विस्ससे पंडिय सुपथे। घोरा मुहुत्ता अवलं सरीरं, भारंडपक्खीव चर ऽप्पमत्तो | ६ |
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सुप्तेषु - द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु धर्म्म प्रत्यजाप्रत्सु, चः पादपूरणे, शब्दः समाहारेतरेतरयोगसमुच्चयावधारणपादपूरणाधिकवचनादिष्विति वचनात् अपिः सम्भावने, ततोयमर्थ:-सुतेष्वप्यास्तां जाप्रत्सु च ( उत्त० ४ ० ) ( पडिबुद्धजीबी इत्यस्य व्याख्या 'पडिबुद्धजीवि ' [ ] शब्दे पञ्चमभागे ३२१ पृष्ठे गता ) ( अगडदत्तस्य कथा tirrer प्रथमभागे १५५ पृष्ठे गता । ), म विश्वस्यात् प्रमाविति गम्यते, किमुकं भवति --
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संखय
"
हुजन प्रवृत्तिदर्शनान्नैते ऽनर्थकारिण इति न विश्रम्भवान् भवेत्, 'पण्डितः ' प्राग्वत्, आशु शीघ्रमुचितकर्त्तव्येषु यतितव्यमिति प्रज्ञा- बुद्धिरस्येति श्राशुमशः किमिति आशुमशः १ यतो पूर्णयन्तीति घोराः- निरनुकम्पाः सततमपिप्राचिनां प्राणापहारित्वात् क पते - मुसी' कालविशेषाः कदाचिच्छारीरबलाद घोरा प्रप्यमी न प्रमविच्यन्तीत्यत आह-' अबलं ' बलविरहितं न मृत्युदायिनो मुहूर्त्तान् प्रति सामर्थ्यवत् किं तत् ? - शरीरम् एवं तर्हि किं कृत्यमित्याह -'भारण्डपक्वीय पर मोहति पतत्यनेनेति पक्षः सोऽस्यास्तीति पक्षी भारण्डवासी पक्षी व भारण्डपक्षी सद्प्रमत्तश्चरति तथा स्वमपि प्रमादरहितश्वर-विद्दितानुष्ठानमासेबख, अन्यथा हि यथाऽस्य भारण्डप क्षिणः पश्यन्तरेण सहान्तर्वर्त्तिसाधारणचरणसम्भवात् स्वल्पमपि प्रमाद्यतोऽवश्यमेव मृत्युः तथा तथापि संयमजीविताद् एव प्रमाद्यत इति सूषाऽर्थः । श्रमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाहचरे पयाई परिसंकमायो,
जं किंचि पास इह मनमाणो । लाभंतरे जीविय बृहत्ता,
पच्छा परिणायमलाबधंसी ॥ ७ ॥
' -
"
"
चरेत् - गच्छेत् पदानि - पादविक्षेपरूपाणि परिशङ्कमान:- अपाये विगणयन् किमित्येवमत आइ यक्तिचिद्गृहस्थसंस्तपाद्यत्यमपि पाशमिव पार्थ संयमप्रवृत्ति प्रति स्वातन्त्र्योपरोधितया मम्यमानी - जानानः यद्वा चरेदिति - संयमाध्वनि यायात् किं कुर्वन् ? -पदानि खानानि धर्म्मस्थति गम्यते तानि च मूलगुणादीनि परिशङ्कमानो-मा ममेह प्रवर्तमानस्य मूलगुणेषु मालिन्यं स्खलना या भविष्यतीति परिभाषयन् प्रवर्त्तेत । 'अं किंचि 'ति यत्किञ्चिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमा लिम्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन पाशमिव पाशं मन्यमानः तदयमुभयत्राभिप्रायः यथा मारण्डपक्षी अपरसाधारणान्तर्वर्त्तिचरणतया पदानि परिशङ्कमान एव चरति यत्किञ्चिदवरकादिकमपि पार्थ मन्यमानः तथाऽ प्रमत्तश्चरेत् । ननु यदि परिशङ्कमानश्वरेतर्हि सर्वथा जीविनिरपेच प्रवर्तितव्यं तत्सापेक्षतायां हि कदाचिंकथचिशेषसम्भव इत्याशङ्कयाह- लाभतरे स्वादि वृत्तार्द्धम् । सम्भने लाभ:- अपूपधप्राप्तिः अन्तरं विशेषः, लाभश्वासावन्तरं च लाभान्तरं तस्मिन् सतीत्यर्थः । किमुक्तं भवति ? - यावद्विशिष्टविशिष्टतरसम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रावातिरितः सम्भवति तावदिदं जीवितं प्राणधारणात्मकं 'बृंहपित्वा अपानोपयोगादिना वृद्धि नीत्याभावे प्रायस्तदुपक्रमणसम्भवादित्यमुक्रम 'खुदा पिवासा व वाही य ति वचनात् तादीनामप्युपक्रमणकारणत्वेनाभिधाना
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महत्व दथित्वेति व्यायेयम्, अन्यथा संस्कृतं जीवितमिति विरुध्यत इति भावनीयम् ततः किमित्याहपश्चात् सामविशेषायुतरकालं परिचायसि सर्वप्रका रैरवबुध्य यथेदं नेदानीं प्राग्वत्सम्यग्दर्शनादिविशेषहेतुः तथा च नातो निर्जरा । न हि चरमा व्याधिना
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संखय अभिधानराजेन्द्रः।
संखय वा अभिभूतं तत् तथाविधधर्माधान प्रति समर्थम् , उक्नं च समयविदः-"सम्बत्थ संजमं स-जमातो अप्पाणमेव हि-"जरा जाव ण पालेति,वाही जाव ण वहति । जार्विदिया रक्खिज्जा । मुखद अहवायातो, पुणोऽवि सोही ण या विण हायति, ताव धम्म समायरे ॥१॥" एवं परिक्षया प- रती ॥१॥" अत्रोदाहरणमाह-प्रश्वो यथा शिक्षितो-बल्गरिक्षाय ततः प्रत्याख्यानपरिक्षया च भक्तं प्रत्याख्याय, स- नसबनधावनादिशिक्षा ग्राहितोवृणोति-आच्छादयति शरीरर्वथा जीवितनिरपेक्षो भूत्वेति भावः । मलयदत्यन्तमात्मनि कमिति वर्म-अश्वतनुत्राणं तद्धरणशीलो वर्मधारी, शिक्षिलीनतया मलः-अष्टप्रकारं कर्म तदपध्वंसत इत्येवंशीला, तश्चासौ वर्मधारी च शिक्षितवर्मधारी, अनेन शिक्षमलापध्वंसी-मलविनाशकृत् , स्यादिदि शेषः । ततो या- कतन्त्रतयाऽस्य स्वातन्त्र्यापोहमाह-ततोऽयमर्थः-यथा अश्वः वल्लाभं देहधारणमपि गुणायैवेति भावः । यद्वा-जीवितं खातन्त्र्यविरहात्प्रवर्तमानः समरशिरसि न वैरिभिरुपहबृहयित्वा लाभान्तरे-ताभविच्छेदेऽन्तर्बहिश्च मलाश्रयत्वा- न्यत इति तन्मुक्निमामोति , स्वतन्त्रस्तु प्रथममशिक्षितो मल:-औदारिकशरीरं तदपध्वंसी स्यात्, कोऽर्थः-जी- रणमवाप्तस्तैरुपहन्यते । अत्र च सम्प्रदायः-"एगेण राइवितं त्यजेद् । इदमुक्कं भवति-अयमस्यैको हि गुणो मानुष्य- णा दोरह वि कुलपुत्ताण दो मासा दिक्षा सिक्खावणपोसणमवाप्प लभ्यते धर्म इति भावयन् यावदितस्तल्लाभःतावदिदं स्था तत्थेगो कालोचिएण जवसजोगासपेण संरक्खमाणोधाबृहयेत् ,लाभविच्छेदं सम्भाव्य संलेखनादिविधानतस्त्यजेत् । वियलालियवग्गियाइयातो कलातो सिक्खावेह। बीओ को (उत्त०) (इह च यावल्लाभधारणे मण्डिकचौरोदाहरणम् एयस्स इट्टजवसजोगासणं दाहिदत्ति घरटे बाहेर प तु 'मंडिय' शब्दे षष्ठे भागे २१ पृष्ठे व्याख्यातम् ।) दृष्टान्ता- सिक्खावेर, सेसं अप्पणा भुंजति । संगामकाले उहिए नुवादपूर्वकोऽयमिहोपनयः-यथाऽयमकार्यकार्यपि मण्डि- ते रक्षा वुत्ता-तेसु चेवास्सेसु आरोढुं झत्ति आगच्छह, संको यावलाभ मूलदेवनपतिना धारितः तथा धर्मार्थिनाऽपि | पत्ता, भणिया बराइणा-पविसह संगाम । तत्थ पढमोड संयमोपहतिहेतुकमपि जीवितं निर्जरालाभमभिलषता तमा- सो सिक्खागुणतणतो सारहियमणुवट्टमाणो संगामपारतो भं यावद्धार्यमिति । न च तद्धारणे संयमोपरोध एव, यथा- जातो , दुइचो विसिटुसिक्खाभावतोऽसम्भावभावणाभाऽऽगमं हि प्रवृत्तस्य तत्तदुपष्टम्भकमेवेति भावनीयम् , इस्य- वियत्तणो गोधूमजंतगजुत्त इव तत्थेव भमिउमाढत्तो। तं लं प्रसनेनेति सूत्रार्थः।
च परा उवलक्खेडं हयसारहिं काऊण गृहीतवन्तः । दृष्टासम्प्रति यदुक्तं जीवितं हयित्वा मलापध्वंसी स्या
न्तानुवादपूर्वकोऽयमुपनयः-यथाऽसावश्वः तथा धर्मादिति तर्तिक स्वातन्त्र्यत एव उतान्यथेत्याह
यपि स्वातन्त्र्यविरहितो मुक्तिमवामोति, अत एव च पू
वाणि-उनपरिमाणानि वर्षाणि-वत्सराणि " कालात्यछंदं णिरोहेण उवेति मुक्खं,
न्तसंयोगे द्वितीया" (पा०२-३-५), किमित्याह-'चर' आसे जहा सिक्खियवम्मधारी ।
इति सततमागमोक्कक्रियामासेवस्व , कथम् ?-अप्रमत्तःपुखाइ वासाइ चर ऽप्पमत्तो,
गुरुपारतन्ध्यापहारिप्रमादपरिहर्ता, 'तम्ह' ति तस्मात्
अप्रमादचरणादेव, मन्यते-जानाति जीवादीनिति मुनिःतम्हा मुणी खिप्पमुवेति मुक्खं ॥८॥
तपस्वी क्षिप्रं-शीघ्रम् उपैति मोहम् । ननु छन्दोनिरोधोऽपि छन्दो-चशस्तस्य निरोधः छन्दोनिरोधः-स्वच्छन्दतानि- तस्वतोऽप्रमादात्मक एवेति कथं न पुनरुक्तदोषः। , उच्यवेधः तेन उपैति-उपयाति मोक्ष-मुक्तिम् । किमुक्तं भव
ते-अप्रमाद एवादरः कार्य इति ख्यापनार्थत्वादध्ययति ?-गुरुपरतन्त्रतया स्वाग्रहाग्रहयोगितां विना तत्र नार्थोज्जीवनार्थत्वाचास्य न पौनरुक्त्यमिति भावनीयम् । पू. प्रवर्तमानोऽपि संक्लेशविकल इति न कर्मबन्धमाक , र्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति किन्त्वविकलचरणतया तन्निर्जरणमेवामोति, अप्रवर्तमा- दर्शनार्थमुक्तमिति सूत्रार्थः । मोऽपि चाहारादिष्याप्रहप्रहाकुलकुलितचेताः 'छट्टमद- ननु यदि छन्दोनिरोधेन मुक्तिः-अयमन्त्यकाल एव तर्हि समे ' स्याविषचनादनम्तसंसारिताद्यनर्थभागेव भवति । त- विधीयतामित्याशङ्कयाह, यद्वा यदि पश्चान्मलापध्वंसी स्यात् रसर्वथा तत्परतन्त्रेणव मुमुक्षुणा भाग्य, तस्यैव सम्यग्- तदेव छन्दोनिरोधादिकमपि तद्धेतुभूतमस्त्वत आहशानादिसकलकल्याणहेतुत्वाद् । उक्तं च-"णाणस्स होड़ स पुन्यमेवं गण लमेज पच्छा, भागी, थिरयरतो सणे चरिते य । धमा आवकहाए,
एसोवमा सासयवाइयाणं । गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" यद्वा-छन्दसा--गुवभिप्रा.
विसीदति सिढिले आउयम्मि, येण निरोधः-आहारादिपरिहाररूपः छन्दोनिरोधः तेनैवोक्त. म्यायतो मुक्त्यवाप्तिः, तत्तद्वस्तुविषयाभिलाषात्मिका इच्छा
कालोचणीए सरीरस्स भेए ।।६॥ पा छन्दः तनिरोधेन मुकिः, तस्या पर तद्विवन्धकत्वात् ,
स इति-यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् यः प्रथममेवाप्रमतथा व लोकिका अप्याहु:-" श्लोकार्थेन हि तवये, य-। सतया भावितमतिन भवति स तदात्मकं छन्दोनिरोधम् दुकं प्रथकोरिभिः । तृष्णा व सत् (चेस) परित्यक्ता प्राप्त 'पुव्यमेवं' ति पर्व शब्दस्यानोपमार्थत्वात्पूर्वमिवान्स्यकालाचपरमं पदम् ॥१॥" अथवा--छन्दो खेद पागम इत्यन- त् मलापध्वंससमयाद्वा प्रभावितमतित्वात् न लभेत्-न र्थान्तरम् , ततः छन्दसा ' आणाए प्राणाए चिय चरण' प्राप्नुयात् । सम्भावने लिए। सतम्ब लाभसम्भावनाऽपिन मित्यादिमा निरोषः--इन्द्रियादिनिमहात्मकः छन्दोनिरोधः समस्ति, किं पुनस्तल्लाभ इति । पश्चात्-अम्त्यकाले मलातेनोपैति मोक्षं न तु सर्वथा जीवितं प्रत्यनपेक्षसया । तथा| पध्वंससमये बा, 'एसोबम' ति एषा-अनन्तरमभिहित
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संख्य
स्वरूपा उप-सामीप्येन मीयते परिषस्वयं-प्रसिद्धया अपरमप्रसिद्ध वस्त्वनयेत्युपमा, केषां ? - शाश्वता इव वदितुं शीलमेषामिति शाश्वतवादिनः, उष्ट्रको शिवत्" कयुपमाने" ( पा०३-२-१६) इति णिनिः तेषां शायद नाम्, आत्मनि मृत्युमनियतकालभाविनमपश्यताम्, इदमि डाकृतम्- यो हि इन्दोनिरोधमुत्तरकालमेव करिष्यामीति व क्रिसोऽवश्यं शाम्यतवादी स चैयं प्रशाप्यते यथा भद्र ! इदानीं भवतस्तत्कालात्पूर्वमसाबुक्कहेतुतो न समस्ति, तथोत्तरकालमप्यसी प्रमादिनस्तव न भवितेति । यदिवा एषा — उपमेति - उपेत्युपयोगपूर्वकं मेति ज्ञानमुपमा - सम्प्रधारणा यदुत पश्चाद्धमें करिष्यामः इति शाश्वतयादिनां निरुपमायुषाम् । ये निरुपक्रमायुकतथा शाश्वतमिवात्मानं मन्यन्ते तेषां तापि न तु जलबुद्बुदसमानायुषाम् तथा चासावुत्तरकासमपि इन्दोनिरोधमाप्नुवन् विषीदति-कथमहमहतसुकृतः सम्प्रत्यनर्वाक - पारं भवाम्भोधि भ्राम्यन् भवियामीत्येवमात्मकं वैराग्यमनुभवति । कदा ? -शिथिलयति-आत्मप्रदेशान् मुञ्चति आयुषि मनुष्यभवोपादियाकर्माणि 'कालोवसीयस कालेन मृत्युना खस्थितिय लक्षणेन वा खयमेनोपनीतः उपदोकितः सस्मिन् इस्याह- शरीरस्य औदारिककायात्मकस्य भेदे - सर्वपरिशातः पृथग्भावे तदिदमैदम्पर्यम् आदित एव न प्रमादयद्भिर्भाव्यम् तथा चाह" गमनं किमय किं वः कदापि या सर्वथा धुवं कापि ? इति जानन्नपि मूढस्तथाऽपि मो हात्सुखं शेते ॥ १ ॥ " इति सूत्रार्थः ।
"
,
किं पुनः पूर्वमिव पश्चादपि छन्दोनिरोधं न लभत इत्याहखिप्पं न सकेइ विवेगमेउं,
तन्हा समुद्वाय पहाय कामे ।
9
समेच लाभ समता महेसी,
( ६१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
आयाणरक्सी चरमप्पमचो ॥ १० ॥
"
क्षिप्रं तत्क्षण एव न शक्नोति न समर्थो भवति, किं क म :- तुं गन्तुं प्राप्तुमिति यावत् कम् - विवेकं इयतो बहिः सङ्गपरित्यागरूपं भावतस्तु कषायपरिहारात्म कम्, न कृतपरिकर्म्मा झगिति तत्परित्यागं कर्तुमलम् । अत्रोदाहरणं ब्राह्मणी - " एगो मरुतो परदेसं गंतून साहापारतो होऊण सवियमागतो, तर मरुते खपलालितो त्ति काउं दारिका दत्ता । सो य लोए दक्खिणातो लहति, परे विभवे वहति तेरा तीसे भारियाए सुबहुँ अलंकारं कारियं । सा विश्वमंडिया अच्छर । तेख भरण -- एस पच्चंतगामो, ता तुमं पयाणि श्राभरणगाणि विहि पव्वणीषु श्राविधाहि कहिं चोरा उवगच्छेज्जा तो सुहं गोविज्जति । सा भराइ अहं ताए बेलाए सिग्धमेव श्रवस्लं ति । अनया तत्थ चोरा पडिया, तमेव खि
मंडियाहिं अनुपविट्ठा, सा तेहिं सालंकिया 'गहिया, साय पणीयभीषयता मेसोपचितपाणिपादा सकेर - माथि जय, ततो चारेहिं तीसे इरथे बेन्नू अबशीया, गेरिहउं च निग्गया । " एवमन्योऽपि प्रागकृतपरिकर्म्मा म तत्काल एव विवेकमेतुं शक्नोति, मलापध्वंसतस्तु तथा सति दूरापास्त पयेसि न च वाह१६
संखय
,
1
"
तत्राप्यभिधेयम् आश्चर्यरूपत्वादस्य न होतीभावा बद्दवः सम्भवन्ति यत एवं तस्मात् सम् इति-सम्यक प्रवृत्त्या उत्थायेति च पश्चाच्छन्दो नित्स्याम त्यालस्यत्यागेनोद्यमं विधाय, तथा पहाय कामे त्ति प्रकर्षेण - मनसाऽपि तदचिन्तनात्मकेन हित्वा त्यक्त्वा कामान- इच्छादनात्मकान् समेत्य-सम्पात्मा लोकं स मस्त प्राणिसमूहं • कया !-समतया सममित्रता क्वचिदरद्विष्टतयेति यावत्, तथा च महर्षिः सन् महःएकान्तोत्यरूपत्वान्मोक्षस्त मिच्छ्तीत्येवंशीलो मद्वैषी या किमुरुं भवति:- विषयाभिलाषबिगमानिनिदानः सन् त्मानं रक्षत्यपायेभ्यः कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील आत्मरक्षी, यद्वा आदीयते स्वीक्रियते आत्महितमनेनेत्यादानः-संयमः तद्रक्षी 'चरमप्पतो ' त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततश्वाप्रमत्तः प्रमादरहितः इह च प्रमादपरिहाराऽपरिहारपोरैहिकमुदाहरणं वणिग्महिला । तत्र च सम्प्रदायः- एगा वणिगमहिला पत्थपतिया सरीरस्सापरा दासभयगकम्मकरे सिजजिभियोगेस न नियोजयति, न य तेलिं कालोववन्नं जहिच्छ आहारं भ िया देति ते सच्चे नट्टा कम्मतपरिहासीय भिषपरि दाणी । आगतो वानिय एवंवि परिचय पच्छा ते विच्छूदा अतु पुखरेति लाप गण ! तेरा तीसे णियगा भसन्ति - जइ अप्पां रक्खइ ता परिमित्ति, ताए यऽमुणियपरमत्थाए दुग्गयकनगाए सोउं नियगा भरायति रक्खामि (क्विहिर ) अप्पगं सा तेरा विवाहिया, गतो वाणिज्जेणं । साऽवि दासभयगकम्मकरादी संदेसं दाउ तेसिं पुव्धरिहकाइकाले भोय देइ, महुराहि च वायाहिं उच्छाहेर, भदं च तेसिं अकालपरिह देखियगसरीरसुरसापरा । एवमप्यासे रवंतीय भत्ता दयागयो। सो पचि परिसरा तुझे तेरा सम्सामिणी कया ।" इत्थं तावदिच गुणायाप्रमादो दोषाय च प्रमादः, श्रास्तामन्यजन्मनीत्यभिप्रायेणावैवैहिकोदाहरणानिधानमिति परिभावनीयमिति सूत्रार्थः । प्रमादमूलं च रागद्वेषाचिति सोपायं तत्परिहारमाहमोहगुणे जयंत
"
,
-
अगरूवा समयं चतं ।
फासा फुसंती असमंजसं च
"
य तेसु भिक्खु मणसा उस्ले ॥ ११ ॥ मंदा य फासा बहुलोभणिजा, तहप्पगारेतु मयं ण कुजा ।
रक्खेज कोई विणएज मार्ग
,
'मायं गं सेवेज पहिज लोहं ।। १२ ।।
मुहुर्मुहुः - वारं वारम्, सततप्रवृत्युपलक्षणमेतत्, मोहयवि जानानमपि जन्तुमाकुलपति प्रवर्त्तयति चान्ययेति मोदः तस्य गुणा मोहगुणाः तदुपकारिणः शब्दादयः ताम् जयन्तम् - श्रभिभवन्तम्, किमुक्तं भवति?- अविच्छेदतलम् या कथञ्चम्मोहनीयात्यन्तोदयत एकदा तैः पराजितमपि पुनः पुनस्तचयं प्रति प्रवर्तमानं न तु त तएव विमुक्तसंयत्रोद्योगम्, अनेकरूपाः - अनेकमिति-अ
"
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संखय
अभिधानराजेन्द्रः। नेकविधं परुषविपमसंस्थानादिभेदं रूपं-स्वरूपमेषामिति - एए अहम्मुत्ति दुगंछमाणो, नेकरूपाः, श्रमणं चरन्तं प्राग्वत् , 'फास' ति स्पृशन्ति
कंखे गुणो जाव सरीरमेए ॥ १३ ॥ तिबेमि । स्वानि स्थानीन्द्रियाणि गृह्यमाणतया इति स्पर्शाः-शब्दा
'ये' इति अनिर्दिष्टस्वरूपाः, संस्कृता इति न तात्विकशुद्धिदयते स्पशन्ति-गृह्यमाणतयैव सम्बध्नन्ति, असमन्जसम्
मन्तः किन्तूपचरितवृत्तयः, यता-संस्कृतागमप्ररूपकत्वेन ममनुफुलमिति क्रियाविशेषणमेतत् , चशब्दोऽवधारणे
संस्कृता,यथा सौगताः,ते हि स्वागमे मिरम्पयोच्छेदमाभिधाअसमञ्जसमेष , अथवा--स्पर्शनविषयाः-स्पशीः स्पृशन्ति,
य पुनस्तेनैव निर्वाहमपश्यन्तः परमार्थतोऽन्धयिद्रव्यरूपमेव स्पोपादानं चास्यैव दुर्जयत्वाद्वयापित्वाच, न तेषु-स्पर्श
सन्तानमुपकरुपयांबभूवुः, सांख्याकान्तनिस्यतामुक्त्या पुमिपुर-मुनिः , मनसा उपलक्षणत्वास वाचा कायेन च ,
तस्वतः परिणामरूपा चै (पाषे)व पुनराविर्भावतिरोभावावुयहाऽपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वान्मनसाऽपि प्रास्तां बाचा
क्तवम्तो, यथा वा-"उक्रानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भाकायेन पा , 'पसे' त्ति प्रदूष्येत् प्रद्विष्याद्वा । किमुक्तंभयति ?-कर्कशसंस्तारकादिस्पर्शादी हन्तोपतापिता षयमे
षितानि च । सापेक्षनिरपेक्षाणि, ऋषिवाक्यान्यनेकशः ॥१॥" नेनेति च चिन्तयेत् नैव वा वदेत्परिहरेद्वा तमिति । " मं
इति वचननिषेधनसम्भवादिभिरुपस्कृतस्मत्यादिशात्रा म
म्यादयः,मत एव'तुच्छत्ति तुच्छा यरच्छाभिधायितया निःवाये" ति सूत्रम् , तथा मन्दायन्तीति मन्दाः-हिताहित
साराः 'परप्पबार'त्ति परेच ते स्वतीथिकव्यतिरिक्ततया विषेकिनमपि जनमन्यतां नयन्तीति कृत्वा , चशब्दः पूर्वा
प्रवादिनश्च परप्रवादिनः, ते किमित्याह-'पेजदोसाणुगया' पंक्षया समुच्चये , स्पर्शाः प्राग्वच्छब्दादयः , बहून् लोभय
प्रेमद्वेषाभ्यामनुगताः प्रेमद्वेषानुगताः, तथाहि-सर्वथा संवाम्ति--विमोहयन्तीति बहुलोभनीयाः अन्यत्रापि (कृत्यल्युटो
दिनि भगवद्वचसि निरन्वयोच्छेदैकान्तनित्यत्वादिकल्पनंबहुलम् ) इति वचनात् कर्त्तयनीयः, अनेनात्याक्षपकत्वमुक्त
वचननिषेधनसम्भावनादि वा न रागद्वेषाभ्यां विनेति भावम् , 'तहप्पगारेसु' त्ति अपेर्गम्यमानत्वात्तथाप्रकारेष्वपि ब
नीयम् , अत एव च 'परज्झ' त्ति देशीपदत्वात्परवशा रागद्वेहुलोभनीयेष्वपि मृदुमधुररसादिषु मनः--चितं न
षग्रहग्रस्तमानसतया न ते स्वतन्त्राः। यदि त एवंविधास्तकुर्यात् , अथवा-धातूनामनेकार्थत्वान्न निवेशयेत् । यद्वा
तः किमित्याह-एते इति-अहन्मतबाह्याः, अधर्महेतुसङ्कल्पात्मकमेव मनः , ततो मन इति सङ्कल्पमपि न
त्वावधर्मः, 'इति' त्यमुनालेखन 'दुगछमाणो' त्ति जुगुकुर्यात्--न विदध्यात् , प्रास्तां तत्प्रवृत्तिमिति । अथ
प्समानः उन्मार्गानुयायिनोऽमी इति तत्स्वरूपमवधारयन् , वा--मन्दबुद्धित्वान्मन्दगमनत्वाद्वा मन्दा:--खियः ता एव
न तु निन्दन , निन्दायाः सर्वत्र निषेधात् , तदेवंविधव स्पर्शप्रधानत्वात् स्पर्शाः, ततश्च मन्दाश्च ताः स्पर्शाः, बहूनां
किं कुर्यादित्याह-काङ्क्षत् अभिलषेत् गुणान-सम्यकामिना लोभनीयाः--गृद्धिजनका बहुलोभनीया यास्ता
ग्दर्शनचारित्रात्मकान् भगवदागमाभिहितान् , किं सु' तहप्पगारेसु ' त्ति लिङ्गव्यत्ययात्तथाप्रकारासु
नियतकालमेवोतान्यथेत्याह-यावच्छरीरात्-औदारिकाबहुलोभनीयासु मनोऽपि न कुर्याद् , इह च स्त्रीणामेव बहु
त्पश्चप्रकाराद्वा भेदः-पृथग्भावः शरीरभेदो, मरणं विमुक्कितरापायहेतुत्वादित्थमुच्यते, तथा चाह-" स्पर्शेन्द्रियप्रस
वेति यावद् , अनेमेहैव समुत्थान कामप्रहाणादि च तत्त्वतः, काश्च, बलवन्तो मदोत्कटाः । हस्तिबन्धकिसंरक्का , बध्यन्ते
अन्यत्र तु संवृत्तिमदित्युक्तम्, एवं च काहात्मकसम्यक्त्वामत्तवारणाः ॥१॥” इति । एवं च पूर्वसूत्रेण द्वेषस्य परिहार तिचारपरिहाराभिधानतः सम्यक्त्वशुद्धिति सूचार्यः ॥१३॥ उक्तः, अनेन च रागस्य , स तु कथं भवतीत्यत आह--र- इति परिसमाप्ती, प्रवीमीति पूर्ववत् । उक्रोऽनुगमः। सम्मति क्षयेत्-निवारयेत् , कम् ?-क्रोधम्-अप्रीतिलक्षणं, वि
नयाः ते च पूर्ववत् । उत्स०४०। नयत्-अपनयेत् मानम्-अहङ्कारात्मकम् , मायां-परवचनबुद्धिरूपां न कुर्यात्, प्रजयात्-परित्यजेत् लोभम्अभिष्वास्वभावम् , तथा व क्रोधमानयोढेषात्मकत्वान्मा
ण व संखयमाहु जीविय, तह विष बालजणो पगम्भह । यालोभयोश्च रागरूपत्वासनिग्रह एव तत्परिहतिरिति भाव- काले पापेहि मिजती,इति संखाय मुणीण मजती ।२१॥ नीयम् । अथवा-स्पर्शपरिहारमभिदधता, चतुर्थव्रतमुक्तम् ,
न च-नैव जीवितम्--मायुष्कं कालपर्यायेण श्रुटितं तब 'अयंभचेरं घोरं पमायं दुरहिटगं' ति वचनान्महाप्र
सत् पुनः 'सत्य' मिति संस्कर्नु-तन्तुबत्सन्धातुं शक्यमादरूपस्याब्रह्मणो निरोधकदिति , तदभिधानाद्धिसादि
ते इत्येवमाहुस्तद्विदः, तथाऽपि एवमपि व्यवस्थिते बालःनिरोधोऽप्युक्त एवेति , अनेनार्थतो मूलगुणाभिधानम् , रक्षे.
अझो जनः प्रगल्भते पापं कुर्वन् धृष्टो मवति , असदनुत् क्रोधमित्यादिना च पिण्डादिकमयच्छते यच्छने वा न क
ठानरतोऽपि न लज्जत इति, स चैवम्भूतो बालस्तैपायवशगो भवेदित्युत्तरगुणोक्निरिति सूत्रद्वयार्थः।
रसदनुष्ठानापादितैः पापैः कर्मभिः मीयते-तद्यत इत्येसम्प्रति यदुनं-'तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे' इत्यादि,
वं परिच्छिचते, मीयते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकरतत्कदाचिच्चरकादिष्वपि भवेत् , अत आह-यद्वैतावता चारित्रशुद्धिरुता, सा च न सम्यक्त्वविशुद्धिमपहायातस्त
दिति, एवं संख्याय-सात्वा मुनिः-यथावस्थितपदादर्थमिदमाह
र्थानां वेत्ता न माद्यतीति तेष्वसदनुष्ठानेष्यहं शोभनः करें
त्येवं प्रगल्भमानो मदं न करोति । सूत्र. १ धु० २५० जे संखया तुच्छपरप्पवादी,
२ उ०। ('छदेणेति (२२)' सूत्रं तव्याख्या च' छंद' शम्दे ते पेजदोसाणुगया परज्झा।
तृतीयभागे १३४० पृष्ठे गता।)
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संखा
संखराय
अभिधानराजेन्द्रः। संखराय-शंखराज-पुं० । वाराणस्यां खनामख्याते राजनि, । तं जहा-आगमओ य नो भागमो य. जाव जायो हि मल्लितीर्थकृता सह प्रवजितः । स्था० ७ ठा०३ उ०। णयसरीरभविअसरीरवइरिता दव्वसंखा १, से किं तं जा"संखयरिसी"ती।
णय०२तिविहा परमत्ता, तं जहा-एगभविए बद्धाउर अभिसंखवण-शखवर्ण-पुं० । विशे महाग्रहे, स्था० । कल्प० । सू०
मुहणामगोत्ते अ । एगभविए णं भंते ! एगभविए त्ति प्र०।०प्र०।
कालो केवच्चिरं होइ ? , जहम्मेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं दो संखवन्ना। (सू०-80x) स्था० २ ठा०३ उ०। पुव्वकोडीबिद्धाउए णं भंते ! बद्धाउए त्ति कालो केवचिरं संखवमाभ-शंखवर्णाभ-पुं० । एकविंशतितमे महाग्रहे, होइ ?, जहम्मेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुब्बकोडीतिभागं । स्था।
अभिमुहनामगोए णं भंते ! अभिमुहनामगोए त्ति कालो दो संखवमाभा । (५०-६०x) स्था० २ ठा० ३ उ०।
केवच्चिरं होइ ?, जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । संखवर-शंखवर-पुं०। द्वीपभेदे, अनु। “संखवरे दीवम्मि, |
इयाणि को णो कं संखं इच्छह-तत्थ णेगमसंगहववहारा संखे संखप्पभे य दो देवा । (५८)" दी।
तिविहं संखं इच्छंति ,तं जहा–एगभविभं बद्धाउभं
अभिमुहनामगोत्तं च । उज्जुसुमो दुविहं संखं इच्छर , तं संखवरसमुह-शंखवरसमद्र-पुं० । शंखवरद्वीपस्यामितः स-|
जहा-बद्धवाउभं च अभिमुहनामगोत्तं च । तिएिण सहनया मुद्रे, “संखवरसमुह अभिवानो। मणिप्पभे मणिहिसेए दो। देवा" द्वी०।
अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छति । से तं जाणयसरीरभविसंखवायण-शंखवादन-न० । शंखध्मानकरणे, नि००१
असरीरवइरित्ता दब्बसंखा। से तं नो भागमभो दव्वसंखा। उ०। (शंखवादनं कल्पते न वेति 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे |
से तं दव्वसंखा । (सू०-१५०४) षष्ठ भाग ३५६ पृष्ठे उक्नम् ।)
संख्यान-संख्या, संख्यायतेऽनयेति वा संख्या, सैव प्रसंखवाल-शंखपाल-पुं० । धरणस्य नागकुमारस्य चतुर्थे
माणं संख्याप्रमाणम् । इह च संख्याशब्देन संख्याशलोकपाले, भूतानन्दस्य चतुर्थे लोकपाले च । स्था०४ ठा०१
अयोईयोरपि ग्रहणं द्रष्टव्यम् , प्राकृतमधिकृत्य समानउ० । धरणनागकुमारेन्द्रस्योत्तरदिगलोकपाले, भ० ३
शब्दांभिधेयत्वात् , गौशब्देन पशुभूम्यादिवत् । उक्नं चश०८ उ० । स्था० । कालोदायिप्रभूतिष्यन्ययूथिकेष्वन्यतमे
"गौशब्दः पशुभूम्यप्सु, वाग्दिगर्थप्रयोगवान् । मन्दप्रयोगे (भ०७०१० उ०।) सनामयाते भाजीविकोपासके, भ.
रष्टयम्बु-बजस्वर्गाभिधायकः ॥१॥" एवमिहापि संखा ८श०५ उ०।
इति प्राकृतोक्की संख्या शंखाश्च प्रतीयन्ते, ततो द्वयस्या
ऽपि प्रहणम् । एवं च नामस्थापनाद्रव्यादिविचारेऽपि संखा-संख्या-सी० । संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः प. प्रक्रान्ते संख्या शंखा या यत्र घटन्ते,तत्तत्र प्रस्तावशेन स्वयदार्था येन तज्ज्ञान संख्येत्युच्यते । सूत्र०१ भु०१३ म०।
मेव योज्यमिति । 'से किं तं नामसंखे' त्यादि, सर्व पूर्वासम्यक च्याप्यते-प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या । प्रज्ञायाम् ,
भिहितनामावश्यकादिविचारानुसारतः स्वयमेव भावनीयं आचा०१ श्रु०६०४ उ०। सूत्र० । संख्यानं-संख्या । प- यावत् 'जाणयसरीरभविसरीरबारिते दव्यसंखे तिविहे रिच्छेदे, सूत्र०१७० १२५०। एकाविण्यवहारोती, सम्म पएणते' इत्यादि, ह यो जीवो मृत्वाऽनन्तरभवे शंखेषु ३ काण्ड । गणनायाम्, मा०पू०१० । मा० म०। उत्पत्स्यते स तेवषद्धायुष्कोऽपि जन्मदिनादारभ्य एकभअनु० । सूच० । विशे।
विकः स शंख उच्यते , यत्र भये वर्तते स एवैको भवः शंसंख्याप्रमाणं विवरीषुराह
खेपत्पत्तेरन्तरेऽस्तीति कृत्वा, एवं शंखप्रायोग्यम् । बद्धमा
युष्कं येन स बद्धायुष्का , शंखभवप्राप्तानां जन्तूनां ये से किं तं संखप्पमाणे', संखप्पमाणे भट्ठविहे पपणते, अवश्यमुदयमागच्छतस्ते द्वीन्द्रियजात्यादिनीचैर्गोत्राख्ये श्रतं जहा-नामसंखा, ठवणसंखा, दव्वसंखा, भोव- भिमुखे जघन्यतः समयेनोत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव व्यवम्मसंखा, परिमाणसंखा, जाणणासंखा, गणणासं- धानात् । उदयाभिमुखप्राप्त
धानात् । उदयाभिमुखप्राप्त नाम्गोत्रे कर्मणी यस्य सोऽभिमुखा, भावसंखा । से किं तं नामसंखा ?, नामसंखा ज
स्वनामगोत्रः , तदेष त्रिविधोऽपि भावशस्त्रताकारणत्वात्
शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्को द्रव्यशंख उच्यते , यद्येवं स्स मं जीवस्स वा० जाव से तं नामसंखा । से किं तं
द्विभविकत्रिभविकचतुर्भविकादिरपि कस्मान्नेत्थं ग्यपदिठवणसंखा !, ठवणसंखा १, जम्मं कट्ठकम्मे वा पोत्थ- श्यत इति चेत् , नैवं , तस्यातिव्यवहितत्वेन भावकारणकम्मे वा. जाव से ते ठवणसंखा । नामठवणाणं को तानभ्युपगमात् , तत्कारणस्यैव द्रव्यत्वाद् । इदानी त्रिपइविसेसो ?, नाम (पाएणं) भावकहियं, ठवणा |
पा विधमधि शंखं कालतः क्रमेण निरूपयन्नाह- एगभषिए
| भंते ! 'इत्यादि , एकभविकः शंखो भदन्त ! एकभविइत्तरिया वा होजा, भावकहिया वा होजा । से
| कइति व्यपदेशेन कालतः कियश्चिरं भवतीति ।मत्रोत्तरम्किं तं दबसंखा १, दव्वसंखा दुविहा पएणत्ता, 'जहमेण 'मित्यादि , इदमुक्कं भवति-पृथिव्याचन्यतर
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संवा अभिधानराजेन्द्रः।
संचित्तविउ. भवेऽन्तर्मुहूर्त जीवित्वा योऽनन्तरं शंखेषत्पद्यते सोऽन्त- यथा वर्गः-संख्यानं यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः ' सदशति मुहर्तमेकभविकः शंखो भवति , यस्तु मत्स्याद्यन्यतमभवे राशिघात' इति वचनात् ७, 'घणो य'त्ति घनः संख्यानं यपूर्वकोटी जीवित्वैतेषूत्पद्यते तस्य पूर्वकोटिरेकभविकत्वे था द्वयोधनोऽष्टौ समत्रिराशिहति' रिति पचनात् ८, लभ्यते, अत्र चार्मुहूर्तादपि हीनं जन्तूनामायुरेव नास्ती- ' वग्गवग्गो 'त्ति वर्गस्य वर्गो वर्गवर्गः , स च ति जयपदेऽन्तर्मुहूर्तग्रहणम् । यस्तु पूर्वकोट्यधिकायुष्कः संख्यानं यथा योर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णा धर्गः षोडशेति , सोऽसंख्यातवर्षायुष्कत्वाइवेष्वेवोत्पद्यते न शंखेष्वित्युत्कृ- अपिशब्दः समुच्चये ६ , कप्पे य' सिं गाथाधिकटपदे पूर्वकोटयुपादानम् , श्रायुर्वन्धं च प्राणिनोऽनुभूयमाना- म् , तत्र कल्पः-छेदः क्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं संख्यानं युषो जमन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्ते शेष एव कुर्वन्त्युत्कृष्टतस्तु पूर्वको कल्प एव यत्पाटयां काकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति, इह टित्रिभाग एव न परत इति बद्धायुष्कस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त- च परिकादीनां केषाश्चिदुदाहरणानि मन्दबुद्धीनां दुरवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीत्रिभाग उक्तः । श्राभिमुख्य स्वासन्नतायां गमानि भविष्यन्त्यतो न प्रदर्शितानीति १० । स्था०.१० सत्यामुपपद्यते अतोऽभिमुखनामगोत्रस्य जघन्यतः समय ठा० ३ उ०। उत्कृष्टतस्त्वन्तर्मुहूर्त काल उक्तः, यथोक्नकालात् परतत्र
संखादत्तिय-संख्यादत्तिक-पुं०।संख्याप्रधानाः परिमिता योऽपि भावतंत्रता प्रतिपद्यन्त इति भावः ॥ इदानी नैगमादिनयानां मध्ये को नयो यथोक्कत्रिविधशंखस्य मध्ये कं
एव दत्तयः सकृद् भक्तादिक्षेपलक्षाद् ग्राह्या यस्य स संख्यादशंखमिच्छतीति विचार्यते-तत्र नैगमसंग्रहव्यवहाराः स्थू
त्तिकः । स्था०५ ठा०१उ। भ० । सूत्र० । १० । पलाष्टित्वात् विविधमपि शंखमिच्छन्ति । दृश्यते हि स्थूलह
रिमितभिक्षाप्रमाणेषु अभिग्रहविशेषधारकेषु साधुषु, स्था० शां कारणे कार्योपचारं कृत्वा इत्थं व्यपदेशप्रवृत्तिः , यथा
. ५ ठा० १ उ०। राज्याईकुमारे राजशब्दस्य, घृतप्रक्षेपयोग्य घटे घृतघटश- संखाय-संख्याय-अव्य०। सम्यग् ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०१ थु०२ ब्दस्यत्यादि , ऋजुसूत्र एभ्यो विशुद्धत्वादाद्यस्यातिव्यवहि- अ०२ उ०ा अवधार्येत्यर्थे, आचा० १ श्रु०६ अ०५ ८०। सूत्र० । तत्वेनातिप्रसङ्गभयाद् द्विविधमेवेच्छति, शब्दादयस्तु विशुद्धतरत्वाद् द्वितीयमप्यतिव्यवहितं मन्यन्ते , अतोऽतिप्रसङ्ग
संस्त्यान-न० । 'स्त्यै' संघाते इति सम्-स्त्यक-"समः स्त्यः निवृत्त्यर्थमकं चरममेवच्छन्ति । अनु० । व्य० । श्रा० म० ।
खाः"॥८॥४॥१५॥ इति स्त्यास्थाने खा । "क-ग-च सूत्र० । संख्याया अपि वस्तुगतान्वयव्यतिरेकानुविधाना
ज-तव-प-य-वां प्रायो लुक ॥ ८।१ । १७७ ॥ भावो नासिद्धः । सम्म० ३ काण्ड ।
इति तलोपः । “अवर्णो यश्रुतिः" ॥८। १ । १८०॥
इति यः । घनीभूते , प्रा० १ पाद । संखाईय-संख्यातीत-त्रि० । संख्यानं-संख्या तामतीता श्र
संखायण-शंखायन-पुं० । शंखर्षिगोत्रापत्ये, सू०प्र १० पातिक्रान्ताः संख्यातीताः । असंख्येयेषु, विशे० । श्रा० म० । विपा।
हु० । चं० प्र० ज०।
संखार-संस्कार-पुंगवासनायाम् , अष्ट०१ अष्ट० । वैशेषिकसंखाईयगुण-संख्यातीतगुण-त्रि० । संख्यातगुणेषु, विशे० ।
सम्मतगुणभेदे, संस्कारस्य वेगभावनास्थितिस्थापकभेदात्त्रै संखाण-संख्यान-न० । संख्यायते--गण्यतेऽनेनेति सं- विध्येऽपि संस्कारत्वं जात्यपेक्षया एकत्वाच्छौौदार्यादीनां ख्यानम् । गणिते, स्था०४ ठा०३ उ० । गुणितस्कन्धे.नि०१। चावान्तभावान्नाधिक्यम् । स्या०। श्रु० ३ वर्ग ३ अ.। औ० । विशे० । शा० । कल्प० । स्था०। संखालग्ग-शंखालग्न-त्रि०। शंखयोरक्षिप्रत्यासमावयवषि
| शेषयोः सम्बद्ध, क्षा० १ श्रु०८१०। दसविहे संखाणे पप्पत्ते, तं जहा-"परिकम्मं १ ववहारो २,रज्जू३ रासी४ कलासवन्ने५ य । जावंतावतिवग्गो७, संखावई-संखावती-स्त्री० । जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मध्यमना गवग्गो वि॥१॥ कप्पे य०१०" ण्डे कुरुजाङ्गलजनपदे स्वनामख्यातायां नगर्याम , ती
६ कल्प। (सू० ७४७)
संखित्त-संक्षिप्त-पुं० । इस्वतां गते, चं०प्र०१ पाहु।भ०। 'दसेत्यादि ''परिकम्म' गाहा, परिकर्म-संकलिताद्यनेकविधं गणितशप्रसिद्धं तेन यत्संख्ययस्य संख्यान-परिग
लघूकृते, स्था० ३ ठा०३ उ०। औ०। जं० । रा०। संगृहीणनं तदपि परिकर्मेत्युच्यते १, एवं सर्वत्रेति, व्यवहार:-).
| ते, पं० सं० १ द्वार । नि०। णीव्यवहारादिः पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेकधार, ' रज्जु' त्ति संखित्तविउलतेउलेस्स-संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य-त्रि०। संरज्ज्वा यत्संख्यानं तद्रज्जुरभिधीयते, तच्च क्षेत्रगणितम् ३ , | क्षिप्ता शरीरान्तर्गतत्वेन इस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अ'रासि'त्ति धान्यादरुत्करस्तद्विषयं संख्यान राशिः,स च पा- नेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्याविट्यां राशिव्यवहार इति प्रसिद्धः४, 'कलासवन्ने य' ति कला- शिएतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा । नाम्-अंशानां सवर्णनं सवर्णः सवर्णः-सदृशीकरणं य- सू० प्र०१ पाहु० । विपा०रा० । शरीरान्तीनतेजोलेश्याके, स्मिन् संख्याने तत्कलासवर्णम ५ . ( यावत्तावत | भा ('तेउलेस्सा' शब्दे ४ भागे २३४६ पृष्ठे अत्र विस्तरोगतः।) वक्तव्यता 'जावंतावं' शब्दे चतुर्थभागे १५५७ पृष्ठे गता ।) (अस्य व्याख्या 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे १०१८पृष्ठे गता)
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संखिय अभिधानराजेन्द्रः।
संखेज्जय संखिय--शांखिक-पुं०। शंखवादनशिल्पमेषामिति शांखिकाः, | तह चम्मरक्ख य ॥१॥ भुयरुक्खे हिंगुरुक्खे,लवंगरुखे य होह शंखा वा विद्यते येषां माङ्गल्यचन्दनाधारभूतास्त शांखिकाः ।
बोद्धव्वे । पूयफली खजूरी, बोद्धव्या नालिएरी य ॥२॥"
'जे यावन्ने तहप्पगारे' त्ति ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा वृक्षशा० १ श्रु० १ ० । चन्दनगर्भहस्तेषु माङ्गल्यकारिषु,
विशेषास्ते संख्यातजीविका इति प्रक्रमः । भ० ८ शंखवादकेषु च । भ०६ श० ३३ उ० । कल्प० । औ० ।
श०३ उ०। श्रा० चू०।
संखेज्जय-संख्येयक-न० । गणनासंख्याभेदे, अनु। संखिया-शांखिका--स्त्री० । लघुशंखे, जी०३ प्रति०४ अधि। नि० चू० । जं० । रा० । इस्वशंख , भ० ५ श० ४
से किं तं संखेज्जए ?, संखेजए तिविहे परमत्ते, तं जहाउ०रा० ।
जहमए उक्कोसए अजहएणमणुक्कोसए । (सू० १५०x) संखुड-रम्-धा० । क्रीडायाम् , "रमेः संखुडु-खडोब्भाव-कि- सा च संख्ययकादिभेदभिन्ना, तद्यथा-संख्येयकम् , असंलिकिञ्च-कोट्टुम-मोट्टाय-णीसरवेल्लाः" ॥४१६८॥ अनेन
ख्येयकम् , अनन्तकम् । तत्र संख्येयकं जघन्यादिभदात्त्रिविवैकल्पिकः संखुड्डादेशः । संखुडा । रमते ! प्रा० ४ पाद।।
धम् । अनु। संखुभिय-संक्षुभित-त्रि० । महामत्स्यमकराद्यनेकजलजन्तु
संख्येयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतः
__ तत्स्वरूपनिरूपणार्थमाहजातिसम्मईन प्रविलोडिते, स०।।
जहप्पयं संखेजयं केवइ होइ?, दो रूवयं,तेणं परं असंखेज-संखय-त्रि० । संख्यायत इति संख्येयः। संख्याहे, पा० |
जहाणमणुक्कोसयाई ठाणाई० जाव उक्कोसयं संखेञ्जयं न म. १० । विशे० । नं० । स० । कर्म । संख्यातवर्षसहस्र, प्रश्न०१आश्र० द्वार।
पावइ । (सू० १५०४)
'जहरणयं संखजयं केवइय' मित्यादि अत्र जघन्यं संख्येसंखेजकाल-संख्येयकाल-पुं०। समयादिके शीर्षप्रहेलिकाप
यकं द्वौ, ततः परं त्रिचतुरादिकं सर्वमप्यजघन्योत्कृष्ट यावर्यन्ते काले, जी०१ प्रति०। ('काल' शब्दे तृतीयभागे ४७०
दुत्कृष्टं न प्राप्नोति । पृष्ठे व्याख्यातम् ।)
तत्र कियत्पुनरुत्कृष्ट संख्येयकं भवतीति विनेयेन पृष्टे संखेजकालसमय-संख्येयकालसमय--पुं० । कालः कृष्णो- विस्तरेण तस्य प्ररूपयिष्यमाणत्यादित्थमाहऽपि स्यात् समय प्राचारोऽपि स्यादतः कालश्चासौ
उक्कोसयं संखेजय केवइ होइ?, उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स समयश्चेति कालसमयः । संख्येयो वर्षप्रमाणतः स चासौ कालसमयश्च संख्येयकावसमयः । दशवर्षसह
परूवणं करिस्सामि-से जहानामए पल्ले सिमा एगं जोसादिके समये, स्था० २ ठा०२ उ०।
यणसयसहस्सं आयामविक्खेभेणं तिमि जोयणसयसहसंखेजकालसमयदिइय-संख्येयकालसमयस्थितिक-त्रि०। स्साई सोलस सहस्साई दोमि अ सत्तावीसे जोयणसए तिकालः कृष्णोऽपि स्यात् समय श्राचारोऽपि स्यादतः लिअकोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धं कालश्वासी समयश्चेति कालसमयः। संख्येयो वर्षप्रमाणतः अंगुलं च किंचि विससाहिश्र परिक्खवेणं पामते, से णं स यस्यां सा संख्येयकालसमया स्थितिरवस्थानं येषां ते पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए,तो ण तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसंख्येयकालसमयस्थितिकाः । दशवर्षसहस्रादिस्थितिकेषु,
समुदाणं उद्धारो घेप्पइ, एगो दीवे एगो समुद्दे एवं पस्था० २ ठा० २ उ० । ( ' असंखेज्जकालसमयट्ठिय' शब्दे प्रथमभागे ८२० पृष्ठे अस्य दण्डकमुक्तम् ।)
क्खिप्पमाणेणंरजावइया दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं असंखेजजीविय-संख्यातजीविक-पुं० । संख्याता जीवा येषु- |
प्फुस्मा एस णं एवइए खत्ते पल्ले (अाइट्ठा) पढमा सलागा, सन्ति ते संख्यातजीविकाः। संख्यातजीवपरिगृहीतेषुवनस्प
. एवइआणं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिया तहावि उतिषु, भ०।
कोसयं संखेजयं न पावइ,जहा को दिटुंतो? से जहानासे किं तं संखेजजीविया,गोयमा! संखेजजीविया श्र
मए मंचे सिमा आमलगाणं भरिए तत्थ एगे पामलए गविहा पमत्ता, तं जहा-ताले तमाले तक्कलि तेतलिज
पक्वित्त सेऽवि माते अमेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माते अग्ने हा परमवणाए जाव नालिएरि जे यावर तहप्पगारा ।
ऽवि पक्खिसे सेऽवि माते एवं पक्खिप्पमाणेणं एवं से तं संखेजजीविया । (सू० ३२४४)
पक्खिप्पमाणणं होही सेऽवि श्रामलए जंसि पक्खित्ते 'संखजजीविय' त्ति संख्याता जीवा येषु सन्ति ते सं
से मंचए भरिजिहिइ जे तत्थ आमलए न माहिए । ख्यातजीविकाः,एवमन्यदपि पदवयम् । 'जहा पम्मवणाए'त्ति
| (सू० १५०४)
. यथा-प्रशापनायां तथा-इदं सूत्रमध्येयम्-'ताले तमाले त उत्कृष्टस्य संख्येयकस्य प्ररूपणां करिष्यामि, तदेवाह-तद्यकलि, तेतलिसालेय सालकल्लाण । सरले जायह केना,कंदलि| था नाम कश्चित्पल्यः स्यात् , कियम्मान इत्याह-मायामविष्क
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( ६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संग्वेज्जय
9
"
"
म्भाभ्यां योजनशतसहस्रं, परिधिना तु "परिही तिलक्खसोलस, सहस् य सयसत्तबीऽडिया कोखतिय अवीसं, धणुसय तेरंगुलऽद्धहियं ॥ १ ॥ " इति गाथाप्रतिपादितमानो: जम्बूद्वीपप्रमाण इति भावः । श्रयं चाधस्ताद्योजनसहस्रमगड पथ्यः रक्षप्रभापूथिव्या रनकार्ड मि स्वा वज्रकाण्डे प्रतिष्ठित इत्यर्थः स प्रमाणः परयो जम्बूद्वीपवेदिकात उपरि सप्रशिखः सिद्धार्थानां सर्षपाणां भ्रियते हि मित्यादि इदमुकं भवति ते सर्पपा असत्कल्पनया देवादिना समुत्क्षिप्य एको द्वीपे एकः समुद्र इत्येयं सर्वेऽपि प्रक्षिप्यन्ते यत्र च द्वीपे समुद्रे वा ते इत्थं प्रक्षिप्यमाणा निष्ठां यान्ति तत्पर्यवसानो जम्बूद्वीपादिरनवस्थितपत्यः कल्प्यते श्रत एवाह- एस एवइसे पति बावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सर्षपैः अफु'त्ति व्याप्ता इत्यर्थः, एतदेतावत्प्रमाणं क्षेत्रमनवस्थितपयः सर्षपभृतो बुद्धया परिकल्पत इत्यर्थः । ततः किमित्याह -' पढमा सलाग ' त्ति ततः शलाकापल्ये प्रथमशलाका - एकः सर्षपः प्रक्षिप्यत इत्यर्थः, 'एवइयाएं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिय ' त्ति लोक्यन्ते - केवलिना दृश्यन्त इति लोका-व्याख्यानादिह वक्ष्यमाणाः शलाकाः पल्यरूपा गृह्यन्ते, ते चैकदशशतसहस्रलक्ष कोटिप्रकारेण संलपितुमशक्या असंलप्याः प्रतिबहव इत्यर्थः, यधोक शलाकानामसत्कल्पनया भृताः- पूरितास्तथाऽप्युत्कृष्टं सं-ख्येयकं न प्राप्नोति श्राकण्ठपूरिता श्रपि हि लोकरूढ्या भृता उच्यन्ते, न चैतावतैवोत्कृष्टं संख्येयकं सम्पद्यते, किंतु यदा सप्रशिखतया तथा ते भ्रियन्ते यथा नैको उप सर्वपक्षापरो माति तदा तद्भवतीति भावः । ननु सविता सर्वथा अभूतमपि लोके किं मृतमुच्यते ?, सत्यं प्रोव्यन एव तथा यात्रार्थे दृष्टान्तं ददर्शयिपुराह-यथा कोऽत्र दृष्टान्तः ? इति शिष्येण पृष्ठे सत्युत्तरमाह - तद्यथानाम कश्चिन्मञ्चः स्यात् स चामलकानां भृत इति शिखामन्तरेणापि लोकेन व्यपदिश्यते, अथ च तत्रैकमामलकं प्रक्षिप्तं तन्मातमपरमपि प्रक्षिप्तं तदपि मातमन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मासमेयमपरापरैः प्रक्षिष्यमाणैः भविष्यति तदामलकं येनासौ मञ्चो भरिष्यति, यश्च तदुउत्तरकालं तत्र मञ्चे न मास्यति, इत्थं चात्राप्यपरापरैर्यथोक्तशलाकारूपैः प्रक्षितैर्यदा संलपितुमशक्या प्रतिवद्दवः सप्रशिखाः पल्या असत्कल्पनया भृता भवन्ति तदोत्कृष्टुं संख्येयकं भवतीत्यध्याहारो द्रष्टव्य इति तावदक्षरा भावार्थस्त्वयम् पूर्वनिदर्शितस्वरूपादनवस्थितपल्यादपरेऽपि जम्बूद्वीपप्रमाणा योजनसहस्रायगादास्त्रयः पल्या बुद्धधा कल्प्यन्ते, तत्र प्रथमः शलाकापल्यो, द्वितीयः प्रतिशलाकापल्यस्तृतीयो महाशलाका पल्यः । तत्रानवस्थितपल्यो भृतः शलाकापल्ये च प्रथमा शलाका प्रक्षिप्तेति पूर्वमा दर्शितम् ; तदनन्तरं पुनरप्यनवस्थितपल्य सर्षपाः समुत्क्षिप्यैको द्वीप एकः समुद्रत्वे प्रतिनिष्ठिकापल्य द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते सर्वपाश्च प्रक्षिप्यमाण यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहतरोऽनवस्थित पल्यः सर्षपभृतः परिकल्प्यते अस एवायमनवस्थित पल्य उच्यते, अवस्थित पल्यरूपाभावात्,
1
"
,
संखेज्जय
पुनः सोऽप्युपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रशिष्यते. शलाकापल्ये च तृतीया शलाका प्रक्षिष्यंत, ते च सर्षपाः प्रक्षिप्यमाणा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहत्तमोऽनवस्थितपल्यः सर्षपभृतः परिकल्प्यते । पुनः सोऽप्युत्क्षिप्य तेनैव क्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते शलाकापल्ये व चतुर्थी शलाका प्रक्षिप्यते पर्व यथोत्तरं वृद्धस्यानवस्थितपल्यस्य भरणरिकीकरणक्रमेण तावद् वाच्यं यावदेकरालाका प्रक्षेपेण शलाकापोते, अपरां शलाकां न प्रतीच्छति, ततोऽनवस्थितपल्यो भृतोऽपि नोत्क्षिप्यते, किंतु शलाकापल्य एवोद्धियते, अयमप्यनवस्थितपल्याक्रान्तक्षेत्रात्परत एकैकसर्षपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते यदा च निष्ठितो भवति तदा प्रतिशलाकापल्यलक्षणे तृतीये पल्ये प्रथमा प्रतिशलाका प्रतिप्यते, ततोनवस्थितपल्यः समुत्क्षिप्य शलाकापल्ये निष्ठास्थानात्परतस्तेनैव क्रमेण निक्षिप्यते निष्ठिते च तस्मिन् शलाकापत्ये शलाका प्रक्षिप्यते इत्यं पुनरप्यनवस्थित पल्यपूररेचनक्रमेण शलाका शलाकानां भ्रियते ततोऽमयस्थितशला कापल्ययोर्भृतयोः शलाकापल्य एवोत्क्षिप्य पूवक्रमेणैव निक्षिप्यते, प्रतिशलाकापल्ये च द्वितीया प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्यः समुद्धृत्य शलाकापल्यनिष्ठास्थानात्परतस्तेनैवन्यायेन प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च शलाका प्रक्षिप्यते, एवमनवस्थितपत्यस्योपक्षेपकर्मग शलाकापल्यः शलाकानां भरणीयः । शलाकापल्यस्य तू
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,
3
पविधिना प्रतिशलाकापत्थः प्रतिशलाकानां पूरणीयः, यदा च प्रतिशलाकापल्यः शलाकापल्यो ऽनवस्थितपवध प्रयोऽपि भृता भवन्ति तदा प्रतिशलाकापल्य एयोत्क्षिप्य द्वीपसमुद्रेषु तथैव प्रक्षिप्यते निष्ठिते च तस्मिन् महाशलाकापल्ये प्रथमा महाशलाका प्रक्षिप्यते, ततः शलाकापल्य उत्क्षिप्य तथैच प्रक्षिप्यते, प्रतिशलाकापल्ये च प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्य उत्क्षिप्य तथैव प्रक्षिप्यते शलाकापत्ये च शलाका प्रतिष्यते, एवमनवस्थित पल्पोत्पप्रक्षेपक्रमेण शलाकापल्यो भरणीयः, शलाकापल्योद्धरविकिरण विधिना प्रतिशला कापल्यः पूरणीयः प्रतिशलाकापल्योत्पाटनप्रक्षेपणाभ्यां महाशलाकापल्यः पूरयितव्यः । यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्टुं संख्येयकं रूपाधिकं भवति । इह यथोक्तेषु चतुर्षु पत्येषु ये सर्षपा ये चानवस्थितपल्यशला कापल्यप्रतिशलाकापल्योत्क्षेपप्रक्षेपक्रमेण द्वीपसमुद्रा व्याप्ता एतावत्संख्यमुत्कृष्टसंख्येयकमेकेन सर्षपरूपेण समधिकं सम्पद्यत इति भावः । एतावद्भिश्च सर्षपैरसंलप्या लोकाः * शलाकापल्यलक्षणान्पिवेति सूत्रमविरोधेन भावनीयम् । इदं चादुत्कृष्टं संख्यकम् जघन्यं तु धी, जघन्योरकष्टयोआन्तराले यानि संख्यास्थानानि तत्सर्वमजघन्योत्कृष्टम. आगमे च यत्र कचिदविशेषितं संस्थेयक करोति त सर्वत्राजन्योर इम्म्बएं सन्धेयकमित्थमे रूपयते शीर्षप्रदेशिकान्तराशिभ्यो ऽतिबहूनां समातिक्रान्तत्वात् प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यत्वादिति । उ त्रिविधं संख्यकम् अनु 'लोक' शब्दो यः
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संखेज्जय अभिधानराजेन्द्रः।
संखेज्जय सम्प्रति संख्येयकादिद्वारं प्रचिकटयिषुराह
संख्यातकं, पुनस्त्रिचतुरादिकमनेकप्रकारं भवति। कियद् दूर संखिजेगमसंख, परित्तजुत्तनियपयजुयं तिबिहं ।
यावन्मध्यमं भवतीत्याह-'जा गुरुयं' ति यावदित्यवधी
गुरुकमुत्कृष्ट सर्वोपरिवर्ति संख्यातकं प्राप्नोति इति शेषः । एवमणंतं पि तिहा, जहन्नमज्झुक्कसा सव्वे ॥ ७१॥
अथेदमेव गुरुकं संख्यातकं कथं विशेयमित्याह-इदमधुपतावन्त एत इति संख्यानं संख्येयम् " य एश्चातः "(५- नैव वक्ष्यमाणस्वरूपं गुरुकं संख्यातकं शेयमिति शेषः । कया? १-२८) इति यप्रत्ययः । तच्चैकमेकमेव भवति नापरे श्र- जम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पल्य(प्र)रूपखया जम्बूनाम्ना वृक्षणोपल संख्येयादेरिव परीत्तादयो मूलभेदस्वरूपा भेदा अस्य वि- क्षितो द्वापो जम्बूद्वीपस्तेन जम्बूद्वीपेन प्रमाणमियत्तावधारद्यन्त इति भावः । न संख्यामहतीत्यसंख्य "दण्डादिभ्यो यः" | णं येषां ते जम्बूद्वीपप्रमाणकास्ते च ते चत्वार-श्चतुःसंख्याः (६-४-१७६) इति यप्रत्ययः । असंख्येयकं तत्पुनः परीतं पल्याश्च धान्यपल्या इव जम्बूद्वीपप्रमाणकचतुष्पल्यास्तेषां च युक्तं च निजपदं स्वकीयपदमसंख्येयकलक्षणम् , तश्च प- प्रकृष्टरूपा प्ररूपणा व्यावर्णना तया। एतदुक्तं भवति । यथारीत्तयुक्तनिजपदानि च तैयुक्तं-समन्वितं सत् । किमित्याह- जम्बुद्वीपो लक्षयोजनप्रमाण एवमेतेऽप्यायामविष्कम्भाभ्यां त्रिविधं-त्रिप्रकारं भवति । यथा-परीत्तासंख्येयकं , युक्ता- प्रत्येकं लक्षयोजनप्रमाणा वृत्ताकारत्वाच्च परिधिना-"पसंख्येयकम् , असंख्यातासंख्येयकमित्युक्तं त्रिधाऽसंख्येय- रिहीति लक्ख खोलस,सहस्स दो य सयसत्तवीसहिया । कोकम् ॥अधुना त्रिविधमनन्तकमाह-'एवमणतं पि तिह' सि सतिय अट्टवीसं, धणुसयतेरंगुलद्धहियं ॥१॥” इति गाथाभिएवमनेनानन्तरप्रदर्शितप्रकारेण परीत्तयुक्तनिजपदयुक्तलक्ष- हितप्रमाणोपेताः । उक्तं च धीमदनुयोगद्वारसूत्रे-"जहन्नयं सेनानन्तमपि-अनन्तकमपि न केवलमसंख्येयकमित्यपि- संखिजय कित्तिल्लियं होइ ? दो रुवाई तेण परं अजहन्नमशब्दार्थः । त्रिधा त्रिप्रकारं वेदितव्यम् , तद्यथा-प- णुक्कोसयं ठाणाई जाव उक्कोसयं संखिजयं न व पाव। रीत्तानन्तकं , युक्नानन्तकम् , अनन्तानन्तकमित्येवमेतानि | उक्कोसयं सखिज्जयं कित्तियं होइ?, उक्कोसयस्स संखिजयसमुदितानि सप्तापि पदानि पुनरेकैकशस्त्रिरूपाणि भव- स्स परूवणं करिस्सामि, से जहानामए पल्ले सिया पगं जान्तीति दर्शयितुमाह-"जहन्नमझुक्कसा सब्वे" त्तिं प्राकृत- यणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं तिनि जोयससयसहस्सास्वाल्लिङ्गव्यत्ययाजघन्यमध्यमोत्कृष्टानि-जघन्यमध्यमोत्कृष्ट- ई सोलससहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिनि य भेदभिन्नानि सर्वाणि-समस्तानि एकैकशः सप्तापि पदानि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई श्रद्धंगुलं च वेदितव्यानीत्यर्थः । तथाहि-जघन्यसंख्येयकं , मध्यमसं- किंचि विसेसाहियं परिक्खेवणं"ततो जम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पख्येयकम् , उत्कृष्टसंख्येयकम् । तथा जघन्यपरीत्तासंख्येयकं, ल्यप्ररूपणयेदमुत्कृष्टसंख्यातकं प्ररूपयिष्यत इति भावः॥७२॥ मध्यमपरीत्तासंख्येयकम् ,उत्कृष्टपरीत्तासंख्येयकम् । जघन्य
अथैते चत्वारोऽपि पल्याः किनामान इत्येतदाहयुक्तासंख्येयकं , मध्यमयुक्नासंख्येयकम् , उत्कृष्टयुक्तासंख्येयकम् । जघन्यासंख्यातासंख्येयक, मध्यमासंख्यातासंख्येय
पल्लाणवट्टियसला-गपडिसलागमहासलागक्खा । कम् , उत्कृष्टासंख्यातासंख्येयकम् । तथा जघन्यपरीत्तान- जोयणसहसोगाढा, सवेइयंता ससिहभरिया ॥ ७३ ।। न्तकं , मध्यमपरीत्तानन्तकम् , उत्कृष्टपरीत्तानन्तकम् , जघ. धान्यपल्य इव पल्याः कल्प्यन्ते,तेच जम्बूद्वीपप्रमाणाः किंन्ययुक्तानन्तकं, मध्यमयुक्नानन्तकम् , उत्कृष्टयुक्तानन्तकम् । नामान इत्याह-'श्रणवट्ठिये' त्यादि यथोत्तरं वर्धमानस्वभावतजघन्यानन्तानन्तकं, मध्यमानन्तानन्तकम् , उत्कृष्टानन्ता- याऽवस्थितरूपाभावादनवस्थित एवोच्यते। तथह शलाका-ए नन्तकम् । तदेवं संख्यातकं त्रिधा, असंख्यातमनन्तकं च कैकसर्षपप्रक्षेपलक्षणास्ताभिः शलाकाभिभ्रियमाणत्वात्पनवधा भवतीति ॥ ७१ ॥
ल्योऽपि शलाका । तथा प्रतिशलाकाभिनिष्पन्नत्वात्प्रतिशलातदेवं संख्येयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतस्त- का, महाशलाकाभिर्निवृत्तत्वान्महाशलाका । तत एषां द्वन्द्वेत्स्वरूपं निरुरूपयिषुः संख्यातकं त्रिधेति यदुद्दिष्टं
ऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहालाकास्ता इत्थम्भूता तद्विवृण्वन्नाह
आख्या संशा येषां तेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाका
महाशलाकाख्याः । त एव विशिष्यन्ते-योजनसहस्रं तु लह संखिजं दुच्चिय, अश्रो परं मज्झिमं तु जा गुरुयं ।
व्यवगाढा । इदमुक्तं भवति-रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथम जंबुद्दीवपमाणय, चउपल्लपरूवणाइ इमं ।। ७२ ।। योजनसहनप्रमाणे रत्नकाण्ड भित्त्वा द्वितीये वज्रकारडे प्रइहैकको गणनसंख्यां न लभते, यत एकस्मिन् घटा
तिष्ठिता इति । पुनस्त एव विशिष्यन्ते-'सवेइयंत' त्ति वज्रदौ दृष्ट घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीति
मय्या अष्टयोजनोच्छायाश्चत्वार्यष्टौ द्वादश योजनान्युपरिमरुत्पद्यते , नैकसंख्याविषयत्वेन । अथवा-दानसमर्पणादि
ध्याधोविस्तृताया जन्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या व्यवहारकाले एक वस्तु प्रायो न कश्चिद्गणयति , अतोऽसं
द्विगन्यूतोच्छ्रितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन व्यवहार्यत्वावल्पत्वाद्वा नैको गणनसंख्यां लभते,तस्माद् द्वि
जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरिवेदिकेति; पद्मवरवेदिकेप्रभृतिरेव गणनसंख्या । अत एवाह-संख्येयं संख्यातकं
त्यर्थः । द्विगन्यूतोच्छ्रिता पञ्चधनुःशततिस्तीर्णा गवाक्षलघु जघन्यं हस्वं , चियशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , यदाहुः ।
हेमकिङ्किणीजालघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविश्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः प्राकृतलक्षण-"ण चेष चिय च धक्रीडास्थानमुभयतो वनस्त्रएडवती तस्या अन्तः-पर्यवअवधारणे" (८२-८४) द्वावेव, नैकः पूर्वोदितयुक्तः । सानमप्रभाग इति यावत् वेदिकान्तः, ततश्च सह वेदिअतः परमेतस्माद् द्विकभूतजघन्यसंख्यातकादूर्व,मध्यमं तु.] कान्तेन वर्तन्त इति सवेदिकान्ताः । ते च कथं सर्षपै
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संखेज्जय
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ता इत्याह- 'ससिह भरिय' त्ति सह शिखयोच्छ्रयलक्षण्या व र्तन्त इति सशिखाः, ततः सशिखं यथाभवति तथा सपेताः पूरिताः सविताः कर्तव्या इति शेषः। अयमत्राशयः एतेषां व्यापतिस्वरूपाणां चतुर्णामपि पश्यानां मध्याद्यो यथावसरं सर्पः पूर्यते से योजनसहस्रावगाडा दूर्ध्वं समधिकाप्रयोजनोच्छ्रितवेदिकान्तं पूरयित्वा तदुपरि ता वर्द्धनीया यावदेकोऽपि सर्पषो नायतिष्ठत इति । श्रत्र सर्वे सवेदिकान्ताः सशिखभृताश्च कर्त्तव्या इति सामा न्योक्तावपि प्रथममनवस्थित पल्य एव भृतः करणीयः, शेषास्तु यथावसरमेवेति मन्तव्यमिति ॥ ७३ ॥
अधुना तस्थानवस्थितपत्यस्य जम्बूद्वीपप्रमाणस्य सर्पपैर्भूतस्य यद्विधेयं तदाह
( ६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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ता दी दहसु इक्कि - कसरिसवं खिविय निट्ठिए पढमे । पड व तदं चिय, पुरा भरिए तम्मि तह खीखे ||७४|| ततः सर्पपभरणानन्तरमसत्कल्पनया केननिदानवेन वा वामकरतले धृत्वा द्वीपोदधिषु द्वीपसमुद्रेषु एकैकं सर्प-सरिया निष्ठित भूते अथवा निष्ठापिते रिते प्रथमेऽनवस्थित पल्ये, कोऽर्थः ? एक सर्व झीपे प्रक्षिपति, पफमुदधी पुनरप्येकं द्वीपे एकमुदधी एवं प्रतिद्वीपं प्रत्युदधि चैकैकं सर्पपं प्रतिक्षिपन्नसौ देवो वा दानवो वा तावद्गतो यावदनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति । ततः किं विधेयमित्याह- 'पढमं वे' त्यादि द्वीपे समुद्रेदा पत्रासावनवस्थिनतो भवति तद्न्तं 'वियनि स मानवस्थितपत्पस्य निष्ठाकारी द्वीपः समुद्रो वाऽन्तः पर्यवसान प्रमाणतया यस्य द्वितीयानवस्थित पल्यस्य स तदन्तस्तं द्वितीयानस्थित पल्प प्रमाणाभिधायकं विशेषणंमिदम् ततस्तदन्तमेव वियशब्दस्यावधारणार्थत्वाद्विलींतथा तावत्प्रमाणमेवेत्यर्थः । प्रथममिवाद्यपत्यमिवेत्युपमानेन द्वितीयमनवस्थितपत्यमपि सहस्त्रयोजनावगाढमट्रयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिवेदिकोपशोभितं सशिखं सर्षपैभृतं कु र्यादिति सूचयति । ततः प्रथमानवस्थितपत्यमिव तदन्तमेव पुनर्भूयो वृतैः सर्षपैः पूरिते तस्मिन् हितीयानवस्थितपस्ये तथा तेन प्रकारेण निक्षिप्तचरमसर्पपपादेरमत एकः सर्वपो द्वीपे एकः समुद्रे, इत्यादिना क्षीणे निष्ठिते सति द्वितीयानवस्थितपल्ये ।
ततः किं विधेयमित्याह
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खिप्पे सलागपल्ले, गुसरिसको इय सल्लागखवणेणं । पुत्रो वीओ व तत्र, पुबि पि तम्मि उद्धरिए ||७५|| क्षिप्यते - निधीयते शलाकापल्ये द्वितीये शलाकासंज्ञक एकसंख्य एव सर्षपः, स च नानवस्थित पल्प खत्कः, कि स्वम्य पवेत्यवसीयते, 'पुरा भरि स्मितही इति सूत्रा वयवस्य सामस्त्यरिक्तीकरणप्रतिपादनपरत्वात् । श्रन्ये त्वनवस्थितपत्य एष क्षिप्यते इत्याचक्षते तु केव लिनो विदन्तीति याद किमिति द्वितीय एवं निष्ठिते सत्येकस्य सर्वपस्य शलाकापल्ये प्रक्षेपणमभिहितं याचना प्रथमपत्येऽपि निष्ठिते तकस्य सर्वपस्य प्रक्षेप युये इतिम् अभिप्रायापरिज्ञानात् यतोऽन
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संखेजय वस्थितपश्वस्य शलाकाभिरेवासी पूरणीयः प्रथमथ लक्षयोजनविस्तृतायेनावस्थितपरिणामतथाऽनवस्थित एव न भवतीत्यतो द्वितीयाद्यनवस्थित पत्यशलाका एव तत्र प्र पमर्हन्तीति । न चैतत् स्वमनीषिकाविजृम्भितम्, यदुक्तमनु योगद्वारे" से पत्रे सिद्धस्थानं भरत सिद्धत्थपहिं दीवसमुद्दाणं उद्धारे धिप्पर एगे दीवे एगे समुहे पंगे दीचे पगे समुंद एवं माहिखिप्यमारोह जावया से समुद्दा तेहि सिपदि अधा एस से एव खिसे पले असे सिद्धस्थाएं भरि ए त तेहि सिद्धादि दीवसमुद्दा उचारे पि
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इ एगे दीवे एगे समुद्दे एगे दीवे एगे समुद्दे एवं विप्यमारोहिं विप्यमादि जावया दसमुद्दा तेहि सिद्धत्थहि अफुन्ना एस णं एवइए खिते पल्ले पढमा लागा " इति । यक्ष "पण " इत्यादिना गाथायां प्रथमस्थानवस्थितव्यपदेशो ऽसी योग्यतामात्रेण राज्याकुमारस्य राजव्यपदेशवत् द्रष्टव्यः । इय सलागखवणेपुनो वीओ यत्ति' इत्यमुना पूर्वप्रदर्शितशलाकाक्षपणप्रकारेण द्वितीयश्च शलाकापल्यः पूर्णो भृतो भवति सशिख इति यावत् । इयमंत्र भावना - ततो यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष द्वितीयपल्यो निष्ठां गतस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूवत्सः पूर्वते ततस्तं तावत्प्रमाणं पयमुपायत तो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुच्ये सर्प प्रति पेत् यावदसी निष्ठितो भवति ततो द्वितीया शलाका सर्परूपा शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते ततोऽपि यस्मिन् दीपे समुद्रे वा स एष तृतीयोऽनवस्थितपल्यो निष्ठितस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्यमाणः पुनरन्यः पयः परिकल्प्यते पूर्ववत्सरापूर्यते ततस्तं माप ल्यमुत्पाटय ततो निष्ठितस्थानात्परतो द्वीपसमुद्वेष्वेकैकं सप्रक्षिपेत् यावदसी निष्ठितो भवति । ततस्तृतीया स पेपरूपा शलाका शलाकापत्ये प्रक्षिप्यते एवमनेन क्रमे पुनः पुनरनयस्थितपत्यस्य सर्पपभरीिकरसकेक संपेपरूपाभिः शाकाभिः शलाकापल्यो यपोक्रममाणः सशिखाकस्तावत्पूरयितव्यो यावत्तत्रैकोऽप्यन्यः सर्पपो नमातीति । बीओ पति इत्यत्र शब्दात्पूर्वपरिपाटागतोऽनवस्थिता सर्वपैरापूरणीयः । ततः किं विधेयमित्याह- 'तो पुढ पिव तम्मि उद्धरिए' त्ति ततः शलाकापपूर्वपरिपाटथागतानवस्थितपल्या पूरणानन्तरं पूर्वम न् शलाकापल्ये उद्धृते सति ।
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खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहि वयं भरसु । तेहिं इयं हि य, तुरियं जा फिर फुडा चउरो ।। ७६ ।। क्षीणे च निर्लेपे सति सर्षपरूपा शलाका तृतीये प्रतिशलाकापल्ये प्रक्षिप्यते हतीषमागमनिका भावार्थरत्वयम्ततः शलाकापल्यापूरणानन्तरं तं शलाकापल्यं वामकरतले कृ रवा पूर्वानवस्थितमसपाकाद्-द्वीपात् समुद्रा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्र के सर्पये प्रतिक्षिपदी नि ष्ठितो भवति । ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्षप्ररूपा प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनन्तरोक्को ऽनवस्थित पल्य उत्पाटय
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ते, ततः शलाकापल्य सर्वपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्वे प्रक्षिपेत् यावदसीनिःशेषतो रिको भवति । ततः शलाका पवे पुनरपि सपरूपा एका शलाका प्रक्षिप्यते ततोऽनन्तरोकानवस्थितपस्परमसर्षपाकान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्ततमनपित्वा ततः परतः पुनरप्येकैकं - तिद्वीपं प्रतिसमुच प्रपेद्यावदसी निष्ठितो भयति ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते । एवमपरापरानयस्थितपस्यापूरयरिकीकरणलब्ध फेकसपर्वदा श लाकापल्प आपूरितो भवति पूर्वपरिपाट्या सामवस्थितप ल्यस्तदा शलाकापल्यमुत्पाटय प्राक्तनानवस्थितपल्यचरमसर्वपाकान्ताद् श्रीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीप प्रतिसमु इं चैकैक सर्प प्रतिपेत् यावदसी निर्लेपो भवति । ततः प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपत्यमुत्पाटयानन्तररिकीकृत शलाका पत्यचरमसर्षपाकान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्प प्रक्षिपेत् यावदसी निष्ठितो भवति । ततः पुनरपि शलाकापल्ये सर्वपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते, यत्र चासौ द्वीपे समुद्रे या निष्ठितस्तावत्प्रमाखविस्तरात्मकमनवस्थितपल्यं सर्वपैरापूर्य ततः परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्प प्रतिपद्यावदसी निष्ठितो भवति । ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका सर्पपरूपा प्रक्षिप्यते, एवमनेन - मेण तावन्ये यावत् त्रयोऽपि प्रतिशलाका पत्यशलाकाप ल्यानवस्थितपत्याः परिपूर्णमापूरिता भवन्ति । ततः प्रतिशलाकापत्यमुत्पाटय निष्ठितस्थानात्परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्प प्रतिपेद्यावदसी निष्ठितो भवति । ततो महाशलाकापल्य एका सर्षपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते, ततः शलाकापल्यमुत्पाटय प्रतिशलाकापल्यगतचरम सर्वपाक्रान्ताद् द्वीपात समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्वप प्रक्षिपेद्यावदसौ निष्ठितो भवति । ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपत्यमुत्पाटयेत् उत्पाटय च शलाकापश्य मत चरमसर्पपाक्रान्ताद् द्वीपात्समु दादा परतो द्वीपसमुच्येकैकं सर्व प्रक्षिपस्ताय यावदस निःशेषतो रिको भवति । ततः शलाकापये प्रथमा शलाका प्रक्षिप्यते । ततोऽनन्तरोक्लानवस्थित पल्यगतचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तत्पर्यन्तविस्तरा स्मको नवस्थितपस्यः कल्पयित्वा सर्पदेशपूर्यते ततस्तं समुत्पाटय ततो निष्ठितस्थानात्परतो द्वीपसमुद्वेष्वेकैकं सर्व प्रक्षिपेद्यावदसौ ( निष्ठितो ) निर्लेपो भवति । ततो द्वितीया शलाका इलाका पत्ये प्रक्षिप्यते एवं शलाकापल्य
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पूरणीयः । एवमापूरणोत्पाटनप्रक्षेपपरम्परया तावद्वक्लव्यं यायन्महाशलाकापल्पप्रतिशलाका पल्पशलाकापल्यानावस्थि तपत्याः सर्वेऽपि परिपूर्णशिखायुक्ताः समापूरिता भवन्ति । एतदेव निगमयग्राह एवं पदमेहि' इत्यादि, एवमनेन प्रदर्शितक्रमेण प्रथमैरनवस्थितपल्पेद्वितीयमेव द्वितीयकं शलाकापल्यं भरस्य पूरय, तेथ द्वितीयस्थानवर्तिभिः शलाकापश्यैस्तृतीर्थ प्रतिशलाकापा मरख, तेस प्रतिशलाकापल्यैः, तुर्यम् - चतुर्थ महाशलाकापल्यं तावद्भरस्व यावत् किलेण्यासाबाद संसूचकः स्फुटा व्याप्ताः सशिला१८
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( ६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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संखेज्जय
ता इति यावद्यत्यारचतुःसंख्याः अनवस्थितशला कामविश लाकामहाशलाकाख्याः पल्या भवन्तीति ।
ततश्चतुर्णी पल्यानां पूर्णत्वे यत्सम्पद्यते तदाऽऽहपदमतिपन्नुद्धरिया, बीबुदहीपलचउसरिसवाए थ । सच्चो वि एमरासी, रूसो परमसंखिर्ज ।। ७७ ।।
प्रथमम् आर्य यत्त्रिपत्यं पत्यत्रयमनवस्थितमाकाप्रतिशलाकाख्यं तेनोद्धृता एकैक सर्षपप्रक्षेपेण व्याप्ताः प्रथमंत्रिपल्योद्धृताः क एत इत्याह-द्वीपोदधयो, न केवलं द्वीपोदधयः पत्यचनुष्कसर्षपाय किं भवतीत्वाह-सर्वोऽपि समस्तोऽध्येषोऽनन्तरोक्तः - सर्षपव्याप्तद्वीपसमुद्रपल्यच तुष्कगतः सर्वपलक्षणो राशिः संघातो रूपोनः- एकेन सर्वपरूपेण रहितः सन् परमसंख्येयमुत्कृसंख्यातकं भवतीति । तदेवं तावदिद मुत्कृष्टसंश्येयकम् जन्तु हो, जोरपोखराले यानि संख्यास्थानानि सर्वाणि मध्यमं संदेयकमिति सा मर्थ्यादुक्तं भवति । सिद्धान्ते यत्र क्वचित् संख्यातग्रहणं करोति तत्र सर्वत्रापि मध्यमं संख्येयकं द्रष्टव्यम् | यदुक्लमनुयोगद्वारचूर्णै- "सिद्धन्ते य जत्थ जत्थ संखिजगगहसं, तत्थ तस्थ अजनमकोसर्व दटुवंति। इदं बोर संख्येयकमित्थमेव प्ररूपयितुं शक्यते द्विकादिदशशत सहखल कोट्यादिशीर्षप्रहेलिकान्तरातिभ्योऽतिबहुना समतिक्रान्तत्येन प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यत्वात् । यदाडुः प्रसि द्धसिद्धान्तसन्दोहविवरणप्रकर णकरण प्रमाणप्रथनावाप्तसुधांशुधामधवलयशः प्रसरधवलित सकलवसुन्धरावलयश्रीहरिभद्रसूरिपादा अनुयोगद्वारटीकायाम् " जंबुद्दीवप्पमाणमे सा बचारि पज्ञा पढमो पपिनो, पीओ सलागापो,
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श्री डिसलागापनो, बडत्यत्रो महाखलागापल्लो पर च उरो वि रयणप्पहपुढवीए पढमं रयणकंडं जोयणसहस्सावगाहं भिन्तू विइए वयरकंडे पट्टिया इमा ठवणा (०००० ) एए ठविया । एगो गणणं न उवेह दुष्पभिई संखं ति काउं, तत्थ पढमे श्रणवट्टियपल्ले दो सरिसवा पक्खित्ता एयं जहन्नगं जिगं ततो गुत्तरही तिनि चउरो पंच० जाव सो पुगो असरसयं न पडिप्रति ताहे असम्भावयं पहुच वुश्चति । तं को वि देवो दावो उक्वित्तं वामकरयले काउं ते सरिसवे जंबुद्दीवाइ (ए) एगं दीवे एगं समुद्दे पक्खिविजा • जाव निट्टिया । ताहे सलागापले एगो सरिसवो छूढो जत्थ निट्ठियो तेण सह आरिलपहिं दीवसमुद्देहिं पुणो श्रनो पल्लो आइजर, सो वि सरिसवाणं भरियो । तो परश्रो एकेक दीवसमुद्देसु पवितेस निद्वाविध तंत्र सलागापले विश्या सल्लागा पक्खिता । एवं पट्टियज्ञकरणकमेव सलावग्गणं करोति, तेण सलागापलो सखागारा भरिओ कमागतो अणवडियो वि तो सलागापल्लो सलागं न पडिच्छर ति कार्ड सो वेव निट्टियद्वाणाओं परओ पुष्वकमेण उक्खिसो पक्ति मिट्टियो य तो पडिसलागापने पदमा
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लागा ख़ुदा तो अवद्वियो उक्खितो निट्टियट्ठाणाओ पर पुम्बकमेण पलितो विडिओ य तो सलागापले सलागा पक्खित्ता एवं अरणं असं प्रणवडिण्य आरिनिकिरतेय जादे पुणो सलागापलो भरियो
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संखेवियदसा
तथा
( ७० ) संखेज्जय
अभिधानराजेन्द्रः। अणवढिओ य, ताहे पुणो सलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो निटिओ य पुव्वक्कमेण, ताहे पडिसलागा- " जिरणे भोणमत्तेत्रो, कविलो पाणिणं दया। पल्ल विहया पडिसलागा छूढा । एवं भाइरणनिकिरणेण बिहस्सई रविस्सासो, पंचालो थीसु महवं ॥२॥" जाहे तिन्नि वि पडिसलागसलागणवाट्टियपल्लो य भरि- आ० क०१०। प्रा० म०। प्रा० चू०।। श्रोताहे पंडिसलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो नि- संखेवो-संक्षेपत:-श्रव्य० । संक्षिप्तभविकजनानुकम्पायाम्, ट्टिो य ताहे महासलागापल्ले पढमा सलागा छूढा ।। ताह सलागापल्लो उक्खित्तो पक्विपमाणो निट्टिो य,। ताहे पडिसलागापल्ले सलागा पक्खित्ता ताह. अणवट्टि
। संखेवण-संक्षेपण-न० । संकोचने, गृहशय्यास्थानादेः परतो ओ उक्खित्तो पक्खित्तो य; ताहे सलागापल्ले सलागा प
निषेधरूपे च । ध०२ अधि० । गोचराभिग्रहरूप संकोचे, क्खित्ता । एवं पाइरणनिकिकरणकमेण ताव कायव्यं जाव प
प्रव०६ द्वार। रम्परेण महासलागपडिसलागसलागणवट्टियपल्लो यच संखेवपिडियत्थ-संक्षेपपिण्डितार्थ-पुं० । संक्षेपेण समासेन; उरो वि भरिया । ताहे उक्कोसमइच्छियं, इत्थ जावड्या - सामान्यरूपतयेत्यर्थः, पिण्डित एकत्र मीलितस्तात्पर्यमात्रणपट्ठियपल्लसलागपल्लपडिसलागपल्लेण य दीवसमुद्दा उ- व्यवस्थितोऽर्थोऽभिधेयं यस्य सः । संक्षिप्तार्थे, पिं० । दरिया, जे उ चउपल्लट्टिया सरिसवा एस सव्वो वि एत- संखेवरुइ-संक्षेपरुचि-स्त्री० । संक्षेपः संग्रहस्तत्र रुचिः-संक्षेप्पमाणो रासी एगरूवूणो उक्कोसयं संखिज्जयं हवइ , ज-|
परुचिः। उपशमाविपदत्रयविषयिण्यां रुचौ , तद्वति च । हन्नुक्कोसट्ठाणमज्झे जे ठाणा ते सव्वे पत्तेयं अजहरणमणु
त्रि०।ध०२ अधि० । प्रशा०। कोसया संखिज्जया भणियब्वा । सिद्धते य जत्थ जत्थ संखिजग्गाहणं कयं तत्थ तत्थ सव्वं अजहन्नमनुक्कोसयं दटुव्वं ।
संक्षेपरुचिमाहएवं संखजगे परूविए सीसो पुच्छइ-भगवं ! किमेएणं अण- अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो । पट्ठियपल्लसलागपडिसलागाईहि य दीवसमुद्दद्धारगहणण य
अविसारओ पवयणं,अणभिग्गहिलो य सेसेसु ॥१२॥ उक्कोससंखिज्जपरूवणा किज्जइ ?, गुरू भणइ-नऽथि अनो संखिजगस्स परूवणोवानो ति" ॥७७॥ कर्म० ४ कर्म० ।
'अणभिग्गहि य' इत्यादि, नाभिगृहीता कुत्सिता दृष्टियेन
सोऽनभिगृहीतकुदृष्टिः, अविशारदः प्रवचने-जिनप्रणीते शेषे संखेजवित्थड-संख्येयविस्तत-त्रि० । संख्येययोजनप्रमाण
पुच कपिलादिप्रणीतेषु प्रवचनेषु, अनभिगृहीतो न विद्यते विस्तृतं विस्तारो येषां ते । संख्येययोजनप्रमाणविस्तृतेषु, श्राभिमुख्येन उपादेयतया गृहीतं ग्रहणमस्येत्यनभिगृहीतः। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०।
पूर्वमनभिगृहीतकुदृष्टिरित्यनेन परदर्शनान्तरपरिग्रहः । प्रति
षिद्धोऽनेन परदर्शनपरिक्षानमात्रमपि निषिद्धमिति विशेषः, सेखेव-संक्षेप-पुंगसंक्षेपणं संक्षेपः। विश०समासे,स्था०५ठा०
स इत्थंभूतः संक्षेपरुचिरिति ज्ञातव्यः । प्रशा०१ पद । ३ उ०। आचा। संग्रहे, उत्त०२८ अ० । स्था० । अवान्तरभेदापरिग्रहे, नयो। विस्ताराभव, ग०१ अधि० श्रा०म०। सखावयदसा-सचापकदशा-खा० । दशाध्ययनप्र
संखेवियदसा-संक्षेपिकदशा-स्त्री० । दशाध्ययनप्रतिबद्ध प्रसमन्ताद दुष्कर्मणां क्षेपो यत्र सःसंक्षेपः । स्तोकाक्षरे सामा- न्थविशेष, स्था। यिके.द्वादशालार्थपिण्डनात् , (श्रा० क०१०) तत्र महार्थ संखेवियदसाणं दस अज्झयणा पासा, तं जहा-खुस्याप्यस्य स्तोकाक्षरत्वात् । विश०।।
डिया विमाणपविभत्ती १ महल्लिया विमाणपविभत्ती २ अथ संक्षेपे आत्रेयकथा
अंगचूलिवा ३ वग्गचूलिया ४ विवाहचूलिया ५ अरुणो" नगर्या श्रीविशालायां, जितशत्रुर्महीपतिः।
बवाते ६ वरुणोदवाते ७ गरुलोववाते ८ वेलंधरोववाते है ऋषयस्तत्र चत्वारः, स्वस्वशास्त्राणि चक्रिरे ॥१॥ उपत्याहुर्नृपं सर्वे, राजन् ! शास्त्राणिनः शणु।
वेसमणोववाते १०॥ (सू० ७५५४)। राजोचे मानमेषां किं, लक्षालक्षति तेऽभ्यधुः ॥ २॥ संक्षेपिकदशा अप्यनषगतवरूपा पष, तदध्ययनानां पुनसोऽवदन क्षमः श्रोतुं, राज्यं सीदति मे यतः।
रयमर्थ:-'खुडिए' त्यादि, इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविसंक्षिपद्भिस्ततः सर्वैरर्द्धार्धादि क्रमेण तैः॥३॥ भजनं यत्राध्ययने तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थ यावश्चतुर्भिरप्येकः, श्लोकश्चक्रे स चैषकः
तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थमतः खुल्लिकाविमानप्रविभक्रिमहती जीसे भोजनमात्रेयः कपिलः प्राणिनां दया।
विमानप्रविभक्तिरिति । अङ्गस्य--आचारादेश्चूलिकाबृहस्पतिरविश्वासः, पञ्चालः स्त्रीषु माईवम् ॥४॥
यथाऽऽचारस्यानेकविधा, इहोतानुक्तार्थसंपाहिका चूलिताजाऽप्यणोदेव, यस्मिन् सामायिकेऽप्यहो ।
का, ' वग्गचूलिय' त्ति इह च वर्ग:-अध्ययनादिसमूहो चतुर्दशानां पूर्वाणां, संक्षिप्यार्थोऽस्ति पिण्डितः ॥ ५॥"
यथा अन्तकृद्दशास्वप्टी वर्गास्तस्य चूलिका वर्गचूलिका ।
'विषाहचूलिय' ति व्याख्या-भगवती तस्याश्चूलिका एतदेवाह
व्याण्याचूलिका । स्था० १० ठा० ३ उ० । (अरुणोप"सयसाहस्सा गंथा, सहस्स पंच य दिविट्टमेगं वा।।
पात इत्यस्य व्याख्या " अरुणोवषाय " शब्दे प्रथमभागे ठावा एगसिलोए, संखेवो एस नायव्वो ॥ १॥" । ७६६ पृष्ठ गता।)
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संखेसरपासणाह
अभिधानराजेन्द्रः।
संगमथेर संखसरपासणाह-शंखेश्वरपार्श्वनाथ-पुं०। शंखेश्वरपुराधि- ण मेरुचूलायां जगामोत्तरवैक्रियेण वेति १, अत्र मौलेनेति ष्ठिते पार्श्वनाथपरमेश्वरे, प्रतिः।
विज्ञायते उत्तरवैक्रियस्यैतावत्कालमवस्थानाभावात् , यत्तु संग-सङ्ग-पुं० । सज्यन्त इति सङ्गाः । मातृपित्रादिसम्बन्धे मौल शरीरं विमानाद्वहिर्न निर्गच्छतीति वचस्तत्प्रायिककर्मोपादानहेतुषु, सूत्र०१ श्रु० ३ ० २ उ०। माता
मिति बोध्यम् । ही० ३ प्रका० । पितृपुत्रकलत्रादिजनिते धनधान्याहिरण्यादिजनिते सङ्गे , संगमथेर-सङ्गमस्थविर-पुं० । कोलकिनगरे नित्यवासिनि स्वआचा०१ ध्रु०६ १०५ उ० । प्राणिनामासक्नौ कर्मानुषते, नामख्याते स्थविरे, श्राव. ४०। प्रा० चू० । दर्श० । आचा०१श्रु०५१०६ उ०। रागद्वषाभ्यां सम्बन्धे, प्रा०
('णितियवास' शब्दे चतुर्थभागे २०७० पृष्ठे कथोका।) चा। पुत्रपौत्रादिजनिते सम्बन्धे, कामानुषते च। प्राचा०
श्रीसङ्गमसूरिकथा पुनरेवम्१७०६० २ उ० । सबाह्याभ्यन्तरसंबन्धे, सूत्र०२ श्रु० १०। उत्त०। स्था०। सम्पर्के, पश्चा०२ विव०। परिग्रहे,
" इह सिरिसंगमसूरी, दूरीकयसयलगुरुंपमायभरो। श्रा० क०४ श्र०। संगच्छते वशीभवति जीवो यस्मात् स
अन्नाणदारुदारुणद-बहुयवहसरिससमयधरो॥१॥ सङ्गः । बन्धने , उत्त०२०नि०चू० । संगती, ध०१ पइ समयमुत्तरुत्तर-विसुद्धपरिणामहणियपावोहो। अधिकाग०।
नगनगरगाममाइसु, नवकप्पपकप्पियविहारो ॥२॥ संगह-संगति-स्त्री० । मित्रत्वे,शा०१श्रु०१०। सूत्र०। सम्यक आइतिब्वपवरसद्धा-बसपरिणयसुद्धभावचारित्तो। स्वपरिणामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सा
जंघाबलपरिहीणो, कुल्लागपुरम्मि विहियठिई ॥३॥ संगतिः। नियतौ,सूत्र०१श्रु०११०२उ०। एकत्वे,अष्ट०१५अष्ट। वहृते दुम्भिक्खे , कयजणदुक्खे कयावि सो भगवं । संगहय-साङ्गतिक-त्रि० । सङ्गतं विद्यते यस्याऽसौ साग- पवयणमायापरिपा-लणुजयं उज्जयविहारं ॥४॥ तिकः । परिचिते , स्था०४ ठा० ३ उ०। सम्यक स्वपरि- आहिंडिय बहुदेसं, अवधारिय सयलदेसबहुभासं । णामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवन सा सङ्गति- सीहं नामऽणगारं, गणाहिवत्ते निरुवेइ ॥५॥ नियतिस्तस्यां भवं सातिकम्। नियतिकृते सुखदुःखा- भणर् य ज वि महायस,सयमवितं पुणसि सयलकरणिज्ज। दिके, सूत्र०१ श्रु०११०२ उ०।
पायारु त्ति विचिंतिय, इय बुच्चसि तह वि अम्हेहि ॥ ६॥ संगझा(गज्झा)ण-संगध्यान-न० । सने परित्यक्तेऽपि पुनः
उल्लसिरपवरसद्धो, चरणभर दुद्धरं धरिज सया। सनध्याने राजीमत्यां रथनेमेरिव नागिला प्रति भवदेवस्येव सीयतं सीसगणं, मिउमहुरगिराहि सारिजा ॥७॥ वा ध्याने, पातु।
जोसंगंथ-संग्रन्थ-पुं० । स्वजनस्याऽपि स्वजने पितृव्यपुत्रश्या- जीहाए वि लिहतो, न भद्दो जत्थ सारणा नास्थि । • लादिके, प्राचा० १ श्रु०२ १०१ उ०।
दंडेण वि ताडतो, स भद्दश्रो सारणा जत्थ ॥८॥ संगत-सङ्गन्तक-पुं०। दासे, प्रा० चू०४ १०।
जह सीसा निकतइ, कोई सरणागयाण जंतूर्ण । संगपरिमा-सङ्गपरिज्ञा-स्त्री० । सङ्गः परिग्रहः तस्य परिक्षा | एवं सारणियाणं, आयरिश्र असारश्री गच्छे ॥६॥ प्रत्याख्यानम् । सङ्गप्रत्याख्याने , आ० क०।
तथाअत्रोदाहरणम्
दव्वार अपडिबद्धो, अममो विहरिज्ज विविहदेसेसु । "णयरी अचंपनामा, जिणदेवे सत्यवाह अहिछत्ता। अनिययविहारया जं, जईण सुत्ते विणिहिट्ठा ॥१०॥ अडवी अ तेण अगणी, सावयसंगाण वोसिरणा ॥१॥
तथाहिचम्पायां जिनदेवाख्यः, श्रावकः सार्थपोऽभवत् ।
अनिए य वासो समुदाण चरिया , प्रतस्थे घोषणापूर्व-महिच्छत्रां पुरी प्रति ॥२॥
अन्नायउंछं पयरिक्कया य। स भिल्लेलुण्ठितः सार्थो-ऽनश्यत् श्राद्धोऽटवीं ययौ ।
अप्पोबही कलहविवज्जणा य, पृष्ठे व्याघ्रः पुरोवहि-रभितोऽभि प्रपा ततः॥३॥
विहारचरिया इसिंणं पसत्था ॥ ११॥ अपश्यन् शरण सोऽथ, भावलिङ्गं प्रपन्नवान् ।
इच्चाइ कहिय वुत्तो, सो एवं वच्छ विहर अन्नत्थ । कृतसामायिकः काया-त्सर्गस्थः श्वापदा हतः॥४॥ अन्तकृत्केवली भूत्वा, सिद्धिसौख्यमवाप सः॥५॥
मा ओमे इत्थ ठिो, सीसगणो एस सीइजा ॥ १२॥ श्रा० क०४ अ०।
एगागी वि अहे पुण , पहीणजंघावल्लो अबलदेहो ।
अनलो विहरिउमन्न-स्थ तो इहं चेव ठाइस्सं ॥१३॥ संगम-सङ्गम-पुं० । मीलने, दर्श०४ तत्त्व । नदीमीलके, शा०
इय भणिय मुणी वुत्ता; वच्छा सच्छा सया सयाकालं । १ श्रु० १ श्र० । उत्त । स्था०। (अत्र सङ्गमस्थविरकथा
कुलबहुनापण इमं , मा मुंचिज्जह कयावि तुमे ॥ १४ ॥ 'एगचरियापरीसह' शब्दे तृतीयभागे पृष्ठे उक्ला ।) शालिभद्रस्यानुत्तरोपपातिकदशोक्नस्य पूर्वभवजीवे स्वना- तिन्नुच्चिय भवजलही, एयपसाया सुहेण तुम्भेहिं । मख्याते वत्सपाले , आव०१०। प्रा० म० । तथा सङ्ग- संपर इमिणा सर्जि, कुणह विहारं महाभागा? ॥ १५ ॥ मकसुरः सुरेशेन निकाशितः स भवधारणीयेन शरीरे इह सुणिय सुमुणिवइणो,ते मुणिणो सूरिचरण्ठवियसिरा।
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(७२) संगमथेर अभिधानराजेन्द्रः।
संगरिगाफल मुंचता गुरु विरहु-स्थ सो य उत्पन्नभंसुभरं ॥१६॥ तो पञ्चक्खीहोउ, एवं वुत्तो स देवीए ॥ ३८ ॥ पडिपुत्रमन्नुभररु-द्ध कंठउढुिंतगग्गरगिरिला ।
हा दुट्ठ! सेह ! निन्नेह, देहगेहाइमुक्कपडिबंधे । गुरुवयणं पडिकूखिउ; मचयंता दुक्खसंतत्ता ॥ १७ ॥ मुणिनाहम्मि इमम्मि वि, एवं चिंतेसि निल्लज्ज ॥ ३६॥ कहमवि नमिउं गुरुणो, प्रवराहपए खमाविउ नियए ।
वसहिविहारकमेणं, पुणो वि इत्थट्ठियं सुगुरुमेयं ।
पाविट्ठ! दुट्ट धम्मिट्ट-मन्नसी सिढिलचारित्तं ॥४०॥ श्रोमाइदोसरहिए, देसे पत्ता विहारेणं ॥१८॥
हा अंतपंतभोयण-परं पि कप्पेसि मुद्धरसगिद्धं । संगमगुरू वि खितं, नवभागी काउ कायनिरविक्खो।
धिद्धी लद्धिसमिद्धं, पि दीवजुत्तं पयपेसि ॥४१॥ वीसु बसहीगोयर-विवारभूमाइसु' जएर ॥ १६ ॥
दवाइदोसवसओ, वीयपट्टिएँ विसुद्धसद्धाए। सुभिक्खे गुरुपासे कयावि सीहेण पेसिश्री दत्तो। भावचरित्तपवित्ते, किह अवमनसि इमे गुरुणो ? ॥ ४२ ॥ सो पुव्ववसहिसंठिय-सूरिं दटुं विचिंतेह ॥२०॥
इय अणुसिट्ठो सो दे-वयाइसंजायगुरुयअणुतायो । कारणवसान कीरह खित्ते अवरावरे जइ विहारो।
गुरुपयलग्गो खामइ, पुणो पुणो निययमवराहं ॥४३॥ नवनववसहिविहारो, कीस एपहिं परिचत्तो ॥२१॥
आलोइयाइयारो, दत्तो गुरुदत्तविहियपच्छित्तो।
विणउज्जुश्रो सुनिम्मल-चारित्ताराहगो जाश्रो ॥४४॥ ता एस सिढिलचरणो, खणं पिन खमो इमेण संवासो ।
संगमसूरी वि चिरं, विहिसेवावल्लिपल्लवणमेहो। एवं चिंतिय वीसु, समीयवसहीइ सो ठाइ ॥ २२ ॥
निरुवमसमाहिजुत्तो, सुगई पत्तो गयकिलेसो ॥ ४५ ।। भिक्खासमए गुरुणा, सह हिंडतो विसिटमाहारं ।
इत्थं विशुद्धविधिसेवनतत्परस्य, दुभिक्खवसा अलह-तो य जाश्रो कसिणवयणो ॥२३॥
श्रीसङ्गमस्य सुगुरोश्चरितं निशम्य । तं तह निए वि सूरी, कम्मि वि ईसरगिहे गो तत्थ । द्रव्यादिदोषनिहता अपि साधुलोकाः, रेवदोसणेगा, सया रुयंतो सिसू अस्थि ॥ २४ ॥
श्रद्धां विधत्त चरणे प्रवरां पवित्रे ॥४६॥" सो दाउं चप्युडियं, गुरुणा भणिो य बाल मा रुयसु । इति सङ्गमसूरिकथा। ध०र० ३ अधि०२ लक्षः। गुरुतयं असहंती, झड त्ति सा रेवई नट्ठा ॥ २५ ॥ संगय-सङ्गत-त्रि० । उपपन्ने, चं० प्र० २० पाहु० । स्था० । जाओ बालो सुत्थो, तजणगो गहियमोयग पत्तो।
ज्ञा० । सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं सङ्गतम् । श्रागुरुणा करुणानिहिणा, दवाविया ते उ दत्तस्स ॥ २६ ॥
चा०१७०१ ०३ उ० । जी०। औ०। उचिते, शा०१श्रु० अह मुणिपहुणा भणिय, तं गच्छसु दत्तसंपयं घसहिं । १० । उपपत्तिभिरबाधिते, प्रश्न०२ संब० द्वार । अहयं पि आगमिस्सं, पडिपुग्नं काउ समुयाण ॥ २७ ॥ स० । रा० । व्याप्ते, द्वा०१७ द्वा० । सजत-गमनम् । सवि. सहगिहमेगमिमिणा, भिराउमह दंसियं सयं अहुणा ।
लासे चंक्रमणे, सू० प्र०२० पाहु० । “ संगयगयहसियभसेसेसु गमी दत्तो, इय चिंतंतो गो वसहि ॥ २८॥
णियचेट्टिय" सङ्गत-सुश्लिएं यद्गतं-गमनं हंसगमनवत्
हसितं हसनं कपोलविकासि प्रेम सन्दर्शि च भणित भणनं गुरुणो वि अंतपंतं, गहिउं सुचिरेण आगया वसहिं ।
गम्भीरं मन्मथोद्दीपनं चेष्टितं-चेष्टनम् । जी० ३ प्रति०४ पन्नगविलनाएणं, भुजंति तय समयविहिणा ॥ २६ ॥
अधि० । विपा०। आवस्सयवेलाए, आलोइय सूरिणो समुवविट्ठा । सो निसयतो गुरुणा, आलोइसु सम्ममिय वुत्तो ॥ ३०॥
संगयपास-सङ्गतपार्श्व-त्रि । सङ्गतौ देहप्रमाणोचितौ पावों
येषां ते तथा । जी०३ प्रति०४ अधि० । देहप्रमाणोचितपासभण तुम्भेहिं चिय,सह परिभमिश्रो म्हि किमिहविडयेपि|MOT शाह गुरू सिसुविसयं, सुहुमं नणु धाइपिंडं ति ॥ ३१॥
संगयय-सङ्गतक-पुं० । उज्जयिन्यां नगों देविलसुते, आव० दत्तो तश्री दुरप्पा, अणप्पसंकष्पकप्पणाभिहो ।
४०। ('सव्वकामविरई' शब्दे कथां वक्ष्ये।) बिंबुक्कडकड्डयगिरा-इँ मुणिवरं पइ इमं भणइ ॥ ३२॥
संगर-संगर-न । समरे, पाइ० ना० । सङ्केते, 'सङ्गर' तिसराईसरिसवमित्ताणि, परच्छिद्दाणि पिच्छसि । अप्पणो विल्लमित्ताणि, पासंतो विन पाससि ॥ ३३॥
केतोऽभिधीयते । श्रोघ०। इय भणिय गओ एसो, नियवसहि तयणु तस्स सिक्खत्थं।
संगरिगाफल-साङ्गरिकाफल-न० । बब्बूलफले, सेना प्रवपुरदेवयाइ सिग्घ, विउब्वियं दुहिणं गरुयं ॥ ३४॥
चनसारोद्धारस्य तृतीयशतकस्य त्रयस्त्रिंशत्तमगाथायाः 'सं.
गरिगाइम्मि अप्पडिए ' एतत्पदव्याख्याने श्रीपानन्दसूफुडफुट्टमाणबंभ-इभंडरवविरसजलहरारावं ।
रिणा-सङ्गरिकादौ अपतिते पतिते तु द्विदलदोषससो निसुणंतो भयभर-खलंतवयणो भणइ सूरिं ॥ ३५ ॥
म्भवान्न कल्पते घोलादि इत्युक्तमस्ति, एतदुक्तिबलात् सांगभयवं! बीहेमि अह, श्राह गुरुएहि मम सयासम्मि।
रिकाफलं बबूलफलमपि द्विदलत्वेन खरतरैरभ्युपगम्यते, स भणइ तिमिरभरण, दिसि विदिसि नेव पिच्छामि ॥३६॥
आनन्दसूरिश्व बडगच्छायः श्रूयते, तेन तदुक्तं कथमात्मनां दीवसिहं व जलंति, नय खेलेणं नियंगुलिं काउं । प्रमाणं नास्तीति ? प्रश्नेऽत्रोत्तरम्-आनन्दसूरिकृतग्रन्थस्तु दंसेऊण य गुरुणा, सो बुत्तो वच्छ ! एहि इओ ॥ ३७॥ | अद्य यावद् दृष्टो नास्ति, तेन तदर्शने तद्विषयविचारो युक्तितं वठु स दुप्पा, जंप दीवो वि अस्थि किमिमस्स?।। मानान्यथेति ॥ २६१ ॥ सेन० ३ उल्ला।
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संगल अभिधानराजेन्द्रः।
संगह संगल-सम घद-धा० । संघटने, “समो गलः" ॥ ८।४।। श्रुतोपादाने, स्था०५ठा०३ उ० । व्य। संग्रहणं संग्रहः । ११३ ॥ अनेन सम्पूर्वस्य घटतेवैकल्पिको गलादेशः। संग- व्यसनादौ सहायकरणे, स्था० १० ठा०३ उ० । शिष्यास लह । संघटते । प्रा०४ पाद ।
संग्रहणे, प्रति० । पं० भा०। संगलिया-सङ्गलिका-स्त्री० । कलिकायाम् , अणुः । दब्वे भावे संगहों, दवे आहारमादिएहिं तु । संगह-संग्रह-पुं० । संग्रहणं संग्रहः । स्वीकरणे,स्था० ८ ठा०३
सिक्खावणमगिलाप, गेलम्मे यावि करणं तु ॥ उ० । संग्रहो द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । तत्र द्रव्यत्तः-आहा
भावम्मि संगहो खलु, गाणादी तत्तु होति बोधब्बो । रोपध्यादीनाम् , भावतः सूत्राएँ । व्य० ३ उ०।
जह बट्टावेउं वा, गच्छं तु उवायकुसले तु ॥ सम्प्रति संग्रहकुशलो व्याख्येयस्ततः संग्रहप्ररूपणार्थमाह
संसारभउद्विग्गो, संविग्गो सोऽवि होति णायचो । दव्वे भावे संगहों , दव्वे ऊ उक्खहारमादी उ ।
एतेसिं तु पदाणं, चउभंगा होंति एकेके ।
तदुभयविसारदो खलु, न संगहे कुसलों एत्थ चउभंगो। साहिजादी भावे, परूवणा तस्सिमा होइ ॥ १५० ॥
तदुभयवाए कुसले, एत्थं पि तु होति चउभंगा ॥ संग्रहो द्विधा-द्रव्ये, भावे च । तत्र द्रव्ये-उक्षा
तदुभयसंविग्गेहि वि, चउभंगो एव होति कायव्यो । दिकः , आहारादिकश्च । उक्षा-बलीवर्दः । भावे भावविषयः साहाय्यादिकस्य भावसंग्रहस्य इयं-वक्ष्यमाखा भव
एवं गुणजातियस्स, पब्यावेउं तु कप्पति तु ॥ ति प्ररूपणा।
पवावेंतों भणिचा । पं० भा०१ कल्प। तामेवाह
" दवे भावे संगहों, दब्वे आहारवत्थमादीहि । साहिअवयण वायण-अणुभासण देसकालसंसमरण ।
भावे गाणादीहि तु, संगेएहति संगहो तेणं " (पं० भा०
५ कल्प । ) इत्युक्तलक्षणायां गौणानुशायाम् , नं० । उग्राअणुकंपणमणुसासण-पूयणमभंतरं करणं ॥ १५१ ॥
दिक्षत्रियसंघे, ति। संधुंजणसंभोगे, भत्तोवहिअनमन्नसंवासो।
उग्गा भोगा रायम-खत्तिया संगहो भवे चउहा । संगहकुसल गुणनिही,अणुकरणकारावणनिसग्गो।१५२ आरक्खि (ग) गुरुवयंसा, सेसाश्रो खत्तिया होति ।। 'साहिलं' सहायकृत्यकरणं वचनमाभाषितस्य इच्छाकार- ति। संगृह्णाति सामान्यरूपतया सर्ववस्तु क्रोडीकरोतीति भणनम्,अथवा-अभिग्रहस्य-गृहीतमौनव्रतस्थ वचनविषयेन संग्रहः । ग०२ अधि०। अष्ट । स्था० । अनु० । सूत्र० । केनाऽप्याभाषणं कृते तस्योत्तरभणनं वचनं 'वायण' त्ति (अत्रत्या व्याण्या 'जार' शब्दे चतुर्थभागे १४३८ पृष्ठे गता।) वाचनया कान्ते गुरौ साधूनां ददाति वाचनम् । अनुभाषपं नाम-आचार्येण भाषिते पश्चाद्वाषणं, न पुनः प्रधानीभू
संगहियपिडियत्थं, संगहवयणं समासतो विति । याचार्यभाषणादग्रेऽवभाषते । देशकालसंस्मरणं नाम अस्मि
सम-श्राभिमुख्येन गृहीत उपात्तः संगृहीतः, पिण्डित एकन देश अस्मिन् काले च कर्तव्यमिदं ग्लानादीनामिति विशा- जातिमापनः अर्थों विषयो यस्य तत्संगृहीतपिरिडतार्थम् । य यद्देशे यत्काले स्मारयत्याचार्याणां ग्लानादीनामनुकम्पनं- संग्रहस्य वचनं संग्रहवचनं समासतः संक्षेपेण अवते तीर्थकदुःखार्सस्यानुकम्पाकरणं बालवृद्धासहायान् यथादेशकाल- रगणधराः। किमुक्तं भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः, मनुकम्पते इति भावः। (अनुशासनस्य व्याख्या 'अणुसासण' शब्दव्युत्पत्तिश्चैवम्-संगृह्वाति अशेषविशेषविरोधनद्वारेण शब्दे प्रथमभागे ४२१ पृष्ठे गता।) पूजनं नाम यथाक्रमं गुर्वादी सामान्यरूपतया समस्तं जगदादत्ते इति संग्रहः । प्रा० नामाहारादिसम्पादनविनयकरणम् ,यदि वा-ज्ञानाचारादिषु म०१०। पञ्चस्वाचारादिषु यथायोगमुद्यच्छतामुपवृंहणम् ,अभ्यन्तरक
अथ संग्रहनयं विवृणोतिरणं नाम-द्वयोः साध्वोर्गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे कुलादिका
संग्रहो द्विविधो ज्ञेयः, सामान्याच्च विशेषतः। यनिमित्तं परस्परमुल्लपतोस्तृतीयस्योपशुश्रूषोर्बहिष्करणम् । अथवा-यदिष्टः सन्नभ्यन्तरे गत्वा तत् गच्छादि
द्रव्याणि चाविरोधीनि, यथा जीवाः समे समाः॥१२॥ प्रयोजनं ब्रूते पतदभ्यन्तरकरणम् । यदि वा-तेन सह ये संगृह्णातीति संग्रहः , अथवा-संगृह्यते अनेन साबाघभावं मन्यन्ते तानपि तथाऽनुवर्तयति यथा तं तेजस्वि- मान्यविशेषाविति संग्रहः , स च द्विविधः-द्विप्रकानमभिमन्यन्ते पतवम्यन्तरकरणम् ॥१५१॥ संभोजनं नाम-य- रस्तयोरेकः सामान्यौधात् सामान्यसंग्रहः ,१ द्वितीयो सभोगिकैः सह भोजनसंयोगः, 'भत्तोवहीति' यदि भक्तमुप- विशेषाद् व्यक्तर्विशेषसंग्रहः २, इत्थं द्विमेवः । अथानयोः धि वा संभोगयति । किमुक्तं भवति-ययस्योपकारकं भक्तम- प्रत्येकमदाहरणे द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि अविरोधीनि पधिर्वा तत्स्वयमुत्पाद्य तस्मै ददाति ततो गृह्णाति परस्परविरोधरहितानीत्यर्थः। एकद्रव्यसनावे द्रव्यषटूमेव वा तथा ' अन्नमचं संवासे ' इति साम्भोगिकैः प्राप्यते इति प्रथमोदाहरणम् , यथा स जीवाः सर्वे:परस्परमेकत्र वसनमेतानि कुर्वाणः संग्रहकुशलः ।। विरोधिनो जीवा हि संसृतिविषयिणः सिद्धिविषयिणश्चानव्य० ३ उ०। (अन्यदव 'संगह कुसल'शब्दे वक्ष्यते।) न्ता वर्तन्ते । तेषां निरुक्रिः-जीवति चैतम्यादिति जीवः । संगृहातीति संग्रहः । संग्राहके, व्य०३३० । शिष्याण अथ च जीव प्राणधारणे, सत्र प्राणा विधा-द्रव्य-भावभेदा
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संगह
त् । तत्र च द्रव्यप्राणा दश, भावप्राणाश्चत्वारः १ मोक्षप्रासौ यद्यपि द्रव्यप्राणानां कर्मजन्यानां सर्वथा क्षयस्तथाऽ पि जीवनलक्षणा जीवस्य भावप्राणाः सहचारिणः कर्मासद्भावेऽपि भवन्ति सिद्धानामपि जीवत्वात् भावप्राणा भवन्ति, श्रतो मुक्ताः संसारिणश्च जीवाः । मुक्ताः पुनः पञ्चदशभेदाः, संसारिणो देवनारकतिर्यङ्मनुष्य भेदाच्चतुर्द्धा तत्रातिमभेदयोः पभेदाः तत्रापि मनुष्यस्य पञ्चाशशक्षण एक एव भेदः तिर एकस्मादारभ्य पञ्च यावत् । अभेदादेकाक्षइ पक्षज्य क्षचतुरक्षपाभेदात् पञ्च भवन्ति। एवं भेदतोऽपि जीवाः सबै अविरोधिनः समाविशेषसंग्रहा अथ संग्रहरूपमुपयन्ति सामान्यमात्रग्राही परामर्थः संग्रह इति सामान्यमात्रमशेषविशेषरहितम् । स तु इप्यरथादिकं रातीत्येवंशील समेकीभावेन विशेषराशि गृह्णातीति संग्रहः। श्रयमर्थः- स्वजातेर्दृष्टेष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया बहवं स संग्रह इति अनुभेदानादर्शयन्ति, अनुभविकल्पः परः अपरश्चेति । तत्र परसंग्रहमाद्दुःअशेषविशेषेोदासीन्यं भजमानाः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रह इति परामर्श इति अमेयोजनीयमुदाहरति विश्वमेकं सदविशेषादिति 'बधे' ति - मि हि सदिति ज्ञानानिधानानुवृचिलिङ्गानुमिति सत्ताकल्पकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते ।
( ७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
अथ संग्रहनयमेवं दर्शयन्नाहसंग्रहभेदकव्यवहारोऽपि द्विविधः स्मृतः । जीवाजीवौ यथा द्रव्यं, जीवाः संसारिणः शिवाः || १३ || संग्रहस्य नयस्य यो भेदको विषयस्तस्य दर्शकः स व्यवहारनयः कथ्यते, व्यवहियते संग्रह विषयोऽनेनेति दयबहारः सोऽपि द्विविधः द्विप्रकारः स्मृतः कथितः, तस्यै ब-पूर्वोदितस्य महनयस्य मेयस्यापि भावनाव्यापत एकः सामान्यसंग्रहमेव कव्यवहारः १, द्वितीयो विशे.
संग्रह भेदव्यवहारः २अथ तयोरुदाहरणे तत्राद्यस्योदाहृतिर्यथा जीवाजीयो इय्यम् । अत्र जीवस्य वेत 'नस्य जीवस्याचेतनस्य संप्रहसामान्यविषयत्वाद् द्रव्यमिति एकैव संज्ञा । कथम्?, द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छतीति त्रिकालानुयायी यो वस्त्वंशस्तद् द्रव्यमिति व्युत्पश्या स्वगुणपूयययस्येोभयोरपि जीवाजीईयपदं साधारणमित्यर्था जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारः १, अथ जीवा संसारिण, सियासत्र जीवानामन्तानां येत म्यतां संसारित्वं विशेषवारा असो द्वितीय भेदः विशेष संग्रह भेदव्यवहारः २ पयमुत्तरोतरविवक्षया सामान्यविशेषवस्वं भावनीयम् ० ६ ० ( संघहस्वरूपोपवर्णनं 'राय' शब्दे चतुर्थभागे १८५६ पृष्ठे |
गतम् । )
प्रकारान्तरेण संग्रह पतिसंग्रहः संगृहीतस्प पिडितस्य च निश्वयः । संगृहीतं परा जातिः, पिण्डितं च परा स्मृता ।। २२ ॥ संग्रह इति-संगृहीतस्य पिडितस्य च निश्वयः - हस्तत्र संगृहीतं परा सर्वव्यापिका जातिमतापाता म
संगह
"
हासामान्यमिति यावत् पिडितं त्वपरा देशव्यापिका - जातिद्वेष्यत्वादिसामान्यमिति यावत् । यद्यप्येतदुभयथाहिरवं प्रत्येकप्राहिण्ययासप्रत्येकमादित्य चाननुगतं तथाऽपि सामान्यमात्राभ्युपगमप्रवचैकदेशबोधत्वं संपनयत्यमिति लक्षणं बोध्यम् संग अपसिंगच समासो विंति ति सुस्वारस्याचेत्यमुनिक गमाद्यपगतार्थपर्व संग्रहश्व विशेषविनिमको शुद्धयपथविनिर्मात्यादि यथासम्भवमुपादेयस्तेन न प्रस्थले सामान्यविधयाऽसंग्रद्वात्तत्स्थलप्रदर्शित संग्रह नये ऽव्याप्तिरित्यादिकं बोध्यम् ।" अर्थानां सर्वैकदेशग्रहणं संग्रहः " इति तस्वार्थमाण्यम् । अत्र सर्व सामान्यम् एकदेशस्य विशेषस्तयोर्महणं संग्रहः सामान्यैकशेषस्वीकार इत्यर्थः । श्रयं हि घटादीनां भवनानर्थान्तरत्वाद्भावांश एव च प्रत्यक्षादिप्रमाण वृत्तेस्तमात्रत्वमेव स्वीकुरुते, घटादिविशेषविकल्पस्त्यविचोपजनित एवेति मन्यते तद्वषावृत्तिव्यवहारोऽप्यस्य प्रतियोगिसापेक्षत्वेन कल्पना मूल एवायं चाऽशुद्ध संग्रहविषय एव तदवान्तरभेदास्तु यत् यत् सामान्यान्तर्भावेन विधिव्यवहारं प्रवर्तयन्ति तत्तत्सामान्येकशेषस्वीकारिणो द्रष्टव्याः, तादृशतादृशसंग्रहनयविचारे च तत्तदवान्तरधर्माकारतिनिधितं मतिज्ञानमपि जायत एच, रूपविशेषवान्मणि पद्मराग इत्युपदेशार्थप्रतिसन्धानानन्तरं चाक्षुषोपयोगे पझरागाकारमिव प्रत्यक्षमिति कार्यविशेषादपि तद्विशेष इति विक
संग्रहावान्तरभेदैरेव संप्रायार्थव्यवहारभेदमुपदर्शयतिएक द्वित्रिचतुःपञ्चषभेदा जीवगोचराः । भेदाभ्यामस्य सामान्य-विशेषाभ्यामुदीरिताः ॥ २३ ॥ एकेति चेतनत्वेन जीव एका, प्रसस्थावराभ्यां द्विविधः, पुंवेद १ श्रीवेद २ नपुंसकयेदेखिविधः देवमनुष्यतिर्यग्नाएकगतिभेदैश्चतुर्विधः, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्पञ्चविधः, पृथ्वीकाया कायतेजस्कायवायुकायवनस्पतिकायत्रसकायभेदात् चविधः इत्येयं येजीवगोचराः संग्रहमकारा उदीरिताः सिद्धा
नयस्य सामान्यविशेषाभ्यां सामान्य संग्रह विशेष संग्रद्दलक्षणाभ्यां भेदाभ्यामवगन्तव्याः ।
नैगमव्यवहारयोरपेक्षया यथाऽस्य शुद्ध तथा उपचारा विशेषाथ, नैगमव्यवहारयोः । इष्टा बनेन नेप्यन्ते, शुद्धार्थपचपातिना ॥ २४ ॥ उपचारा इति-उपचाराः गीयद्वारा विशेषात इयावृत्तिरूपा नैगमव्यवहारयोरिष्टाः शुद्धार्थपक्षपातिना एसमयापेक्षया विषय कर्षाभिमानिना हि निश्चितमनेन संग्रहनयेन मेध्यन्ते, तथा च-नैगमव्यवहारसंमतोपचार विशे पानवलम्बित्वादस्य शुद्धा स्वसमयावधितोपचारविशेपयोः चयनेनाऽपि नापोत इति भावः । नयो० । स्वा० सम्म । अत्यर्थमा धनमेलने, अनुसं ऽनेनेति संग्रहः । " पुनानि घः ॥ ५ । ३ । १३० ॥ इति करणे घ (म्) प्रत्ययः। संग्राहके, पं० [सं० १ द्वार।
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संगहएकय अभिधानराजेन्द्रः।
संगहाण संगहएकय-संग्रहैकक-पुं० । पककरूपे संग्रहे, स्था०४ ठा०२ संगहज्माण-संग्रहध्यान-नासंग्रहोऽत्यर्थमतृष्णया धनमेलनं
उ० । ( व्याख्या 'एक्केक' शब्दे तृतीयभाग १ पृष्ठे गता।) तस्य ध्यानम् । मध्यमवणिजि इव धनसंग्रहाध्यवसाये, संगहकाय-संग्रहकाय-पुं० । संग्रहण-संग्रहः, स एव कायः | अनु। संग्रहकायः । कायभेदे, आव०५०।
संगहट्टया-संग्रहार्थता-स्त्री० । संग्रहः-शिष्याणां श्रुतोपादानं संगहकुसल-संग्रहकुशल-पुं० । उपध्यादिना साधूनां संग्रह- स एवार्थः प्रयोजनं तद्भावस्तत्त्वम् । संग्रह एवार्थों यस्य करणनिपुणे, व्यः । स च (संग्रहकुशलः) पुनः कथंभूत स संग्रहार्थः । स्था०५ ठा० ३ उ० । कथं नु नामैते शिइत्याह-संग्रहानुगता ये गुणास्तेषां निधिरिव गुणनिधिः, प्याः सूत्रार्थसंग्राहकाः सम्पत्स्यन्ते इत्येवरूपे संग्रहनिमित्ते, तथा-अनुकरण नाम-यत्सीवनलपादि कुर्वन्तं रटा ब्रूते- श्रा० म०१ अ०। इच्छाकारेण तवेदमहं करिष्यामि कुरुते वा, कारापणं या न यत्स्वयं करणे अकुशलानन्यानपीच्छाकारेण कारापयति
संगहाण-संग्रहस्थान-न० । संग्रहो शानादीनां शिष्याणां वा तस्मिन् निसर्गः स्वभावो यस्य सोऽनुकरणकारापणनिस- तस्य स्थानानि-हेतवः सग्रहस्थानानि शानाशष्ययाः सग्रहगः , इत्थंभूतस्तस्य स्वभावो यदि अनभ्यर्थित एव करोति
। हहेतौ, ग०१ अधिः । स्था। कारयति चेति भावः।
संग्रहस्थानसूत्रम्सम्प्रति कतिपयपदव्याख्यानार्थमाह
आयरियउवज्झायस्सणं गणंसि सत्तसंगहठाणा पम्मत्ता, वयणे तु अभिग्गहिय-स्स केणऽवी तस्स उत्तरं कुणति ।।
तं जहा-आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा संजा जयणाए किएहं, ते उ गुरुम्मी वयणं देइ ॥१५३॥
पउंजित्ता भवति,एवं जधा पंचट्ठाणेजाव आयरियउवज्झावचने-वचनविषये अभिग्रहिकस्य-गृहीताऽभिग्रहप्रतिपअमौनव्रतस्येत्यर्थः । केनापि प्रश्ने कृते सति तस्योत्तरं यद्
एगणंसि आपुच्छियचारी यावि भवति नो प्रणापुच्छियचाभणत्येष वचनसंग्रहकुशलः । पश्चार्द्ध सुगमम् ।
री यावि भवति । पायरियउवज्झाए गणसि अणुप्पन्नाई उसाहूणं अगुभासइ, आयरिएणं तु भासिए संते । वगरणाई सम्मं उप्पाइत्ता भवति,आयरियउवज्झाए गणंसि सारेयायरियाणं, देसे काले गिलाणादि ॥१५४ ॥ पुव्वुप्पन्नाई उवकरणाई सम्मं सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति अत्र साधूनामिति पदं पश्चात् गाथायां सम्बध्यते ।
णो असम्म सारक्खत्ता संगोवित्ता भवइ । आयरियउवशेषपदव्याख्यानार्थमाइ
ज्झायस्स णं गणंसि सत्त असंगहठाणा पहलत्ता, तं जहादुक्खत्ते अणुकंपा, अणुसासणभञ्जमाणरक्खो वा।
आयरियउवज्झाए गणंसि आणं वा धारणं वा नो सम्म जो वा जहुत्तकारी, अणुसासणकिच्चमेयं तु ॥ १५५ ।।
पउंजित्ता भवति, एवं०जाव उवगरणाणं नो सम्मं सारइयमपि व्याख्यातार्था । ( व्य० ) (अभ्यन्तकरणम् 'अभं | क्खेत्ता संगोवेत्ता भवति । (सू० ५४४) सरकरण' शब्दे प्रथमभागे व्याख्यातम् ।) संभुञ्जण संभोगे-णभुजएजस्स कारगं भत्तं ।
'आयरिए' त्यादि, प्राचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वः तं घेत्तुमप्पणा से, देइ एमेव उवहिं पि ॥ १५६ ॥ कर्मधारयो घा। गणे गच्छे संग्रहो ज्ञानादीनां शिष्याणां वातसंभोजनं नाम-यत्संभोगेन योजयति । साम्भोगिकैः सहै- स्य स्थानानि-हेतवः संग्रहस्थानानि , आचार्योपाध्यायो का भुले इति । तथा यद्यस्य कारकम्-उपकारकं भक्तं तदा- गणे आशा वा-विधिविषयमावेशं धारणां वा-निषेधविस्मना गृहीत्वा तस्मै ददाति । एवमेवोपधिमपि उपधिरपि षयमादेशमेवं सम्यक प्रयोक्का भवति, एवं हि सानादिसंयो यस्योपकारकस्तं स्वयमुत्पाद्य तस्मै ददाति ।
प्रहः शिष्यसंग्रहो वा स्याद् , अन्यथा तद्रंश एवेति प्रतीतम्। पतेन 'संभोगे भत्तोवहीति' व्याख्यातं परस्प
यतः-"जहि नत्थि सारणा बा-रणाय पडिचोयणा य गच्छरमेकत्र संवासः सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातः। म्मि । सो उ अगच्छो गच्छो,मोत्तव्यो संजमत्थीहिं ॥१॥ " अणुकरण सिव्वणले-वणादिअणुभासणा उ दुम्मेहो। इति । ' एवं जहा पंचट्ठाणे त्ति ' तच्चेदम्- आयरिएरिसो तस्स निसप्मा, भणियं एरिससहावो ॥१५७।।
यउवभाए णं गर्णसि अहाराहणियाए कितिकम्मं पउंजिअनुकरण नाम-सीवनलेपनादि स्वयं किचित् कुर्वन्तं दृष्टा
त्ता भवति २ आयरियउवज्माए गं गणसि जे सुयपज्जवजाइच्छाकारेणानुशाप्य करोति । तथा दुर्मेधसि स्वयं सीव
ते धारे ते काले काले सम्म अणुप्पवाइत्ता भवइ ३ आयमलेपनादि कर्तुमनुजानाति, स्वयं तावत्करोत्येव किंत्वन्या- रियउवज्झाए णं गणसि गिलाणसेहवेश्रावच्चं सम्मं श्रनपि भाषते । यथा कुरुतैतस्य महानुभागस्यैतत्करणम् । म्भुट्टित्ता भवा४ायरियउबज्झाए णं गणसि आपुच्छिईरशस्तस्यानुकरणे कारापणे च निसर्गः स्वभावः । “जं यचारी यावि हवा, नो प्रणापुच्छियचारी ५, स्थानद्वर्य भणियं" ति किमुक्तं भवतीत्यर्थः-ईरशस्वभाव उक्तः त्विहैवेति , व्याख्या तु सुकरैव, नवरमाप्रच्छनं गच्छस्य , संग्रहकुशलः । ब्य० ३ उ०। ( उपग्रहकुशलः 'उबग्गहकुश- यत उनम्-"सीसे जा आमंते, पडिच्छगा तेण बाहिरं ल' शब्दे द्वितीयभागे व्याख्यातः।)
भावं । अह इयरे तो सीसा, तेव समत्तम्मि गच्छति ॥१॥
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संगहहाण अभिधानराजेन्द्र।।
संगारसमय तरुणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहीण किरकम्मं । मूलग- इए उद्देसए. जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमति । पत्तसरिसगा, परिभूया वच्चिमो थेरा ॥२॥” इति ।
(सू०-६३५) तथा-'अणुप्पनाई' ति अनुत्पन्नानि-अलब्धानि उपकरणानि बस्नपात्रादीनि सम्यग्-एषणादिशुचया ' उत्पा
'देवेण' मित्यादि, 'तासिं बोदीणं अंतर' प्ति तेषां दयिता' सम्पादनशीलो भवति, संरक्षयिता-उपायेन चौ
विकुम्वितशरीराणामन्तराणि ' एवं जहा अट्ठमसए ' रादिभ्यः सोपयिता-अल्पसागरिककरणेन मलिनतार
इत्यादि अनेन यत्सूचितं तदिदम्-'पापण वा हत्येण वा क्षणेन वेति । एवं संग्रहस्थानविपर्ययभूतमसंग्रहसूत्रमपि भा
अंगुलियाए वा सिलागाए वा कट्टेण वा किलिंचेण या बनीयमिति । स्था०७०३ उ०।
प्रामुसमाणे वा प्रालिहमाणे वा विलिहमाण वा अन्नय
रेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आछिदमाणे वा विञ्छिसंगहणी-संग्रहणी-खी। संग्रहगाथायाम् , स०।
बमाणे वा अगणिकापण वा समोडहमाणे वा तेसिं जीवसंगहदाण-संग्रहदान-न० । दानभेदे, संग्रहणं संग्रहो व्यस-] प्पएसाणं आवाहं वा वाबाई वा करेइ छविच्छेयं वा उनादी सहायकरणं तदर्थ दानं संग्रहदानम् । अथवा-भेदा
प्पाएर?, णो दणटे सम?' ति व्याख्या चास्य प्राग्वत् । हानमपि संग्रह उच्यते, पाहच-'अभ्युदये व्यसने वा,
भ०१८ श०७ उ०। (रथमुशलसंग्रामवक्तव्यता 'रहमुसल' यत् किंचिहीयते सहायार्थम् । तत्संग्रहतोऽभिमतं, मुनि
शब्दे षष्ठे भागे गता। ) ( देवासुरसंग्रामवलाध्यता भिर्दानं न मोक्षाय ॥३॥ इति । स्था० १० ठा० ३ उ०।। 'देवासुरसंगाम' शब्दे चतुर्थभागे उका।) संगहपरिमा-संग्रहपरिज्ञा-स्त्री० । संग्रहः स्वीकरणं तत्र प
संग्रामकाल-संग्रामकाल-पुं०। परानीकयुद्धावसरे, सूत्र०१
भु०३१०३ उ०। रिक्षानं नामाभिधानम् । मष्टम्यां गणिसम्पदि,स्था०८ ठा०३। उ० दशा०। (संग्रहप्रतिक्षायाः व्याख्या गणिसंपया' शम्दे
संगामरह-संग्रामरथ-पुं० । संग्रामयोग्ये रथे, यस्योपरि प्रावतीयभागे ५२६ पृष्ठादारभ्य द्रष्टव्या ।)
कारानुकारिणी कटीप्रमाणा फलकमयी वेदिका क्रियते
यत्रासद्वैः संग्रामः क्रियते । अनु० । । संगहसुत्त-संग्रहस्त्र-1०। प्रभूतार्थसंग्राहके सूत्रे, सूत्र० १ संगामसंकड--सग्रामसक्ट-न । संग्रामसहने, प्रश्न. ३
आध० द्वार। संगहाभास-संग्रहाभास-पुं० । अयथार्थसंग्रहनये, रला. ७
संगामसीस-संग्रामशीर्ष-न० । संग्राममूर्धनि, प्राचा०१७०६ परि०। ( सत्ताद्वैतं कुर्वाणः ‘णय' शम्दे बतुर्थभागे १९०३ १०३ उ०। “एस संगामसीसे वियाहिए।" संग्रामशिरसि पृष्ठे व्याख्यातः।)
परानीकनिशिताष्टकृपाणानि यत्र प्रभासचलितोद्यतसूर्यसंगहिय-संग्रहीत-म० । भावे का प्रत्ययः । सामान्याभिमु- विडद्भुतविद्युनयनचमत्कृतिकारिणि कृतकरणेऽपि सुस्येन प्राणे अनुगमे, सर्वव्यक्तिधनुगतस्य सामान्यस्य प्र
भटचित्तविकारं न विद्यते एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते तिपादने,विशे० । अनु । प्रा० चू०। बढीकृते, अं० ३ वक्षः।
परिकर्मतः मतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्यादतो यो मरणशिष्यत्वेनाभिते, आभिमुख्येन गृहीते, प्रा० म०१ मा मा०
काले न मुह्यते स पारगामी । आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०। चू० । प्राश्रिते, स्था०८ ठा० ३ उ०।
संगामिय-संग्रामिक-त्रि०। संग्रामप्रयोजने, स्था० ५ ठा०१
उभामा। संगहवग्गहणिरय-संग्रहोपग्रहनिरत-
त्रिसंग्रह उपदेशादिमा,उपग्रहो वनादिना, व्यत्यय इत्यन्ये तत्र निरतः। संग्रहो
संगामिया-सांग्रामिकी-स्त्री० या संग्रामकाले समुपस्थिते
सामन्तादीनां शापनार्थ वाद्यते । कृष्णवासुदेवस्य भेया॑म् , पग्रहयोरासक्ने, पं०४द्वार।
मा०चू०१०। विशे० । श्रा० म०। मंगाम-मंगाम-पु० । रणशिरसि , सूत्र. १ भु०३०१ - र-401 सोते. सत्र ११० १ ० १ उ० । उ० । स्था० । भाचा० । प्रश्न । महजनसमक्षकलहे,
भा०प०मा०म०। १० । स्थानमा० । आचा। तं० । संग्रामे इता देवलोकं यान्ति । भ०७ श० ६ उ०।
संगारा-सङ्गारा-स्त्री० । प्रव्रज्याभेदे, 'संगारमलिणाते, सत्तदेवे णं मंते ! महाडिए जाब महे सक्से रूब- विधाकासि जह तु संगारं।' पं०भा०१ कल्प । पं० चू। सहस्सं विउन्वित्ता पभू भन्नमन्नेयं सद्धिं संगाम सं-संगारदत-सङ्गारदत्त-त्रि० । सहारः-सङ्केतः स दत्तो यस्य गामित्तए १. ता पभ । तानो संभंते ! बोंदीमो शैक्षस्य स संगारदसः। श्राहिताझेराकृतिगणत्वात् कान्तस्य किं एगजीवाडाभो भणेगजीवफुडामो?, गोयमा!
परनिपातः । कृतसङ्केते शिष्यादिके, पृ० ३ उ०।
संगारपवजा-सङ्गारप्रव्रज्या-स्त्री० । प्रवज्याभेदे, स्था। एगजीवकुडामो यो प्रणेगजीवफुडाभो । तासि शं भंते!
('पवजा' शब्दे पश्चमभागे ७३० पृष्ठे व्याख्या गता।) बोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा प्रणेगजीवफुमा १ ,
संगारसमय-सङ्गारसमय-पुं०। सकारः सङ्केतस्तपः सगोयमा! एगजीवफुडा नो प्रणेगजीवफुडा । पुरिसेणं |
मयः सङ्गारसमयः । सङ्केतरूपे समयभेदे , सूत्र० १ ०१ मंते ! अंतरेणं हत्थेण वा एवं जहा अदुमसए त- भ०१०।
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संगास अभिधानराजेन्द्रः।
संघ संगास-सङ्काश-त्रि० । सरशे, उत्त० ३४ अ०। छायाविशेष, कर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति प्रा० म०१०।
भवति । यदाह-" श्रद्धालुतां धाति पदार्थचिन्तना-द्धनानि
पात्रेषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना-दथापि संगिय-स्वाङ्गिक-न० । परिभुक्तप्राये, स्था० ४ ठा० ३ उ०।
तं श्रावकमाहुरञ्जसा ॥१॥” इति एवं श्राविका अपि । स्था०४ आचा।
ठा०४ उ० प्रा० म० । “तित्थयरे तित्थयरे, तित्थं पुण संगिया-सङ्गिता-स्त्री० । सको यस्यास्ति स सङ्गी तद्भाव- जाण गोयमा! संघ ।” महा० ४ अ०। स्तत्ता । द्रव्यादिषु सत्सङ्गे, भ० २ श०५ उ० ।
संघावज्ञाप्रतिक्षेपःसंगिल-सङ्ग-पुं०। समुदाये, व्य०१ उ० । शा० ।
तित्थयरवंदणिज्जं, संघं पि खिवेइ कोइ अइबालो। संगिति-संगेल्लि-पुं० । अन्योऽन्यं हस्तावलम्बे, शा० १ श्रु० नत्थी संघो एसो, भणिो आसायगो कप्पे ।। ८१॥ ३ अ०।
तीर्थकरवन्दनीयं-सर्वशवन्यं 'नमो तित्थस्से' ति भणनात्
संघमपि साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाश्च ज्ञानादिगुणरूपं न संगोवंग-साङ्गोपाङ्ग-त्रि० । शिक्षा १ कल्प २ व्याकरण३ नि
केवलमाचार्यादीत्यपेरर्थः, क्षिपति-तिरस्कुरुते कोऽपि करुक्त ४ छन्दो ५ ज्योतिष्कानयन ६ लक्षणानि षडपाङ्गानि त
श्चिदेकस्त्वितरोऽन्योऽपि प्राकृतस्वभावः अतिबालो-महाव्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्त इति साङ्गोपाङ्गाः । अ- मूर्खः , कथं क्षिपतीत्यत आह-न नास्ति विद्यते संघ उक्तनु०। अलोपाइसहितेषु, " संगोवंगा वेया" तत्राङ्गानि शि
रूपः एष संक्षेपको भणित उक्तश्चाशातनाकारकः कल्पे-छक्षा १ कल्पं २ व्याकरणम् ३ छन्दः ४ ज्योतिः५ निरुक्तञ्च ६,
दग्रन्थ इति गाथाऽर्थः।। उपानानि-अक्षार्थविस्ताररूपाणि । कल्प०१ अधि०१ क्षण।
कल्पभणितमेवाहसंगोवित्ता-सङ्गोपयित-त्रि०। क्षेमस्थानप्रापयितरि, स्था०७
अक्कोसतज्जणाई, संघमहिक्खिवइ संघपडिणीओ। ठा०३ उ०।
अन्ने वि अस्थि संघा-ण सियालणतिकमाईणं ॥२॥ संगोवेमाणी-सङ्गोपयन्ती-खी० । वस्त्राच्छादनगर्भगृहप्रवे
अाक्रोशतर्जनादिभिः संघ-साध्वादिवर्गमधिक्षिपति-निराशनादिभिः क्षेमप्रापिकायाम् , विपा० १ २०२०। करोति संघप्रत्यनीकः-प्रवचनप्रतिकूलः, तत्राकोशो दुष्टवासंघ-सा-पुं० । साते, व्य० ३ उ० । गुणसंघाते, व्य०३ | ग्भणनं तर्जनं तु-किमनेन सिद्धयतीति, एवमादि भणितिरा
दिग्रहणाद्यथौचित्यविनयाद्यकरणग्रहो विभक्तिलोपाश्चेत्थं निउ०। समुदाये, जी०३ प्रति०४ अधि। प्रशा। गारा।
देशः । एवं च बदन् संघं क्षिपतीत्याह-अन्येऽपि-परे न केवल. औ०। कीटिकादिगणसमुदाये,स्था०५ ठा०१ उ०। भ० । कु
मयं साध्वादिवर्ग इत्यपेरर्थः । सन्ति-विद्यन्ते संघसमाग्रहण लसमुदायो गणः, पालुकापर्यन्तः संघः । पं० १०१ द्वार।
केषामित्याह-'सियालसतिकमाईणं' तत्र शृगालः प्रतीतः सम्यग्दर्शनाविसमुचितमाणिगणे साधुसाध्वीधावकश्रावि
णतिकः देशीभाषया कालिकरवः, श्रादिशब्दाच्छेष जन्तुपरिकारूपे (संघा०१ प्रस्ता०१अधि०। प्रव० । ध०) गुंगर
प्रहः । मकारोत्रालाक्षणिक इति गाथाऽर्थः । लपात्रभूते (पं०व०१ द्वार।) सत्त्वसमूहे, स्था।
पुनरपि संघस्य पूज्यतां दर्शयन्निदमाहचडबिहे संघे पसत्ते, तं जहा-समणा सममीश्रो साव
उग्घाडणा भएण, सुयकेवलिणा वि मंनिओ संघो । गा सावियानो । (मू० ३६३)
पुव्वाणं परिवाडिं, देहि भणंतो महासइणा ॥८३॥ संघो-गुणरत्नपात्रभूतसत्वसमूहः, तत्र श्राम्यन्ति-तप- उद्घाटना-समयभाषया संघाहिष्करणलक्षणा तस्या भस्यन्तीति श्रमणाः । अथवा-सह मनसा शोभनेन निदानप- यं तेन अनुस्वारश्च पूर्ववत् , श्रुतकेवलिनाऽपि चतुर्दशपूर्वरिणामलक्षणपापरहितेन चेतसा वर्तन्त इति समनसस्त- धरेण न केवलं तीर्थकरेणेत्यपेरर्थः मानितः-पूजितः संघः था समान-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो येषां ते सम- प्रतीतः । पूर्वेषां समयप्रसिद्धानां परिपाटी पाठरूपां देहि नसः । उक्तश्व-" तो समणो जड सुमणो, भावेण य जान प्रयच्छ शिष्येभ्य इत्यध्याहारः भणन्-ब्रुवन् , किंविशिष्टन होइ पावमणो । सयण य जणे य समो, समो य माणाव- महाशयिना-अचिन्त्यशक्तिना। अत्र च 'कगचजे' त्यादिना माणेसुं ॥१॥" अथवा-समिति-समतायां शत्रुमित्रादिष्व- तकारलोपे स्वरे प्रकृतिलोपसंधय इत्यनेन तकाराकारलोपे णन्ति-प्रवर्तन्त इति समणाः । श्राह च-"नऽस्थि य सि कोर रूपमिदम् । इदमिहतत्वं किल श्रीवीरस्वामिनो मोक्षे गतस्य वेसो, पिरो व सब्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो,एसो | दुष्कालो महान् संवृत्तः, सोऽपि साधुवर्ग एकत्र मिलितो अन्नोऽवि पन्जाओ ॥१॥" इति, प्राकृततया सर्वत्र 'समण' भणितं च परस्परं कस्य किमागच्छति सूत्रं ?, यावत् न त्ति। एवं समणीओ, तथा शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्राव- कस्याऽपि पूर्वाणि समागच्छन्ति , ततः श्रावकैर्विज्ञाते काः, उक्तश्च-" अवाप्तदृष्टयादिविशुद्धसम्पत् , परं समाचार भणितं यथा कुत्र साम्प्रतं पूर्वाणि सन्ति ?, तैः भणितम् मनुप्रभातम् । शृणोति यः साधुजनादतन्द्र-स्तं श्रावकं प्रा- भद्रबाहुस्वामिनि । ततः सर्वसमसमुदायेन पर्यालोच्य प्रेहुरमी जिनेन्द्राः ॥१॥” इति । अथवा-श्रान्ति पचन्ति त. षितस्तत्समीपे साधुसवाटकः,गत्वा प्रणम्य च तेन भणिताः स्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति थाः, तथा वपन्ति-गुणवत्सप्त सूरयो यथा सुशिष्याणां पूर्वपरिपार्टी प्रयच्छत । तैस्तूक्तं साक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वा, तथा किरन्ति-क्लिष्ट- म्प्रतं वयं महाप्राणध्यानाशक्तास्ततो न तां दातुं शक्का इ
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(८) अभिधानराजेन्द्रः ।
संघ
त्युक्तः समागतः साधुसङ्घाटकः, संघसमीपे कथितं तद्वचः । ततो भूयोऽपि प्रेषितो यः संघवचो न कुरुते तस्य किं विधीयते पापी तथा ते म्-वत्संघो भवति तददं करोमित्युक्ते प्रेषितानि स्थूलभद्रप्रमुखानि सुशिष्या पञ्चतनीति गाथाऽर्थः ।
मदुन वर्ष संघ निराकुर्मः किं त्वास्माकीनः संघो नास्पेषामिति ये मन्येरन् तान् प्रत्याह
अम्हास चिय संघो, अत्ताणं न उण लक्खणा भावा । नेवं वोतुं जुनं छउमत्यागं जम्रो भणियं ॥ ८४ ॥ अस्माकमेव संघः श्रन्येषाम् श्रपरेषां न पुनर्लक्षणाभावात् ज्ञानाद्यसत्तातः नैवमित्थं वक्तुम् गदितुं युक्तं-संगतं छद्मस्थानामतीन्द्रियज्ञानाभावयतां यतो- यस्मात् भणितम् उक्तम् इति गाथार्थः । जीवा० १४ अधि० । ( संघगुणस्य वक्तव्यता 'परिणाम' शब्दे पञ्चमभागे ६१२ पृष्ठे गता । ) एवं स्थिते जीयोपदेशमाह
संघस्सोवरि वेयण, कयामि भणसु जाव पडिकुट्ठे | जुचा तत्थ करवयल-मम्मि भावो ण संपतं ॥ ८६ ॥ प्रकाटाथी । जीवा० १४ अधि० ।
सत्तीऍ संघ, विसेसपूआउ बहुगुणा एसा । जं एस सुए भणिओ, तित्थयराणंतरो संघो ||११३४॥ विभवोचितया किमित्यविशेषपूजायाः दिगादिगतायाः सकाशाद्बहुगुणा एषा संघपूजा, वि. षय महत्त्वादेतदाह-यदेष श्रुते भणितः - आगमे उक्तः तीर्थकरानन्तरः संघ इत्यतो महानेष इति माथाऽर्थः ।
एतदेवाह
गुणसमुदाओ संघो पतिस्थं ति होंति एगड्डा । तित्थयरोऽवि एवं रामए गुरुभावओ चेव । ११३५॥
गुणसमुदायः संघ अनेकप्राणिस्थसम्यग्दर्शनात्मक स्वात्प्रचचनं तीर्थमिति भवन्त्ये कार्यिका एवमादयोऽस्य शब्दा इति तीर्थकरोऽपि ये संघ तीर्थसंशिनं नमति धर्मथादौ गुरुभावत एव ' नमस्तीर्थाये' ति वचनादेतदेवमिति गाथाऽर्थः ।
अत्रैवोपपश्यन्तरमाह
तप्पुव्विा अरहया, पूरअपूया य विषयकम्मं च । कपकियो वि जह कहं, कहे गए वहा तिरथं।। ११३६ ।।
तत्पूर्विका - तीर्थपूर्विका श्रर्द्धन्तः तदुक्काऽनुष्ठानफलत्वात्पूजितपूजा चेति भगवता पूजितपूजत्वाल्लोकस्य विनयकमे च कृतज्ञताधर्म्मगर्भ कृतं भवति । यद्वा - किमन्येन कृत. कृत्योऽपि स भगवान् यथा कथां कथयति धर्मसम्बन्धिनीमिति तथा सी तीर्थकरनामकम्मोदयादेविवृतेरिति गाथाऽर्थः ।
मिश्रम्मी, त्थि तयं जं न पूइ होइ । भवणे व पूयणि, गुणठाणं वा तो अणं ।।११३७॥
संघ
एतस्मिन् संघे पूजिते नास्ति तद्वस्तु यक्ष पूजितमभिमन्दितं भवति । किमित्यत आह-भुवनेऽपि सर्वत्र पूज्यं पूजनीयं न गुणस्थानं कल्याणतस्ततः संघादन्यदिति गा
चा
तापरिणामो, हंदि महाविसय एव मुभिव्वो । तसपुचच्च वि हु, देवयमाहवाएयं । ११३८ ॥ तत्पूजापरिणामः- संघपूजा परिणामः 'हन्दि' महाविषय एव मन्तव्यः, संघस्य महत्वात्तद्देशपूजातो ऽप्येकत्वेन सर्वपूजाभावे देवतादेशादिपूजोदाहरणेनेति गाचाऽर्थः । पं० व० ४ द्वार। (पूर्वोल्लिखितगाथानां विवर्णनं पञ्चाशकटीकायां कृतं तच तृतीयभागे १२७३ पृष्ठे दर्शितम् । )
अथ संघ मुकुटोपमया वर्तयन् गाथाइयमाह गुतीसमिगुणड्डो, संजम तवनियमकख्यकममउडो । सम्मत्तनागदंसण, तिरियण संपावियमहग्घो ॥ ११६ ॥
,
तत्र तावन्मुकुटस्वरूप भएयते 'गुत्तीसमिति गोपनं गुप्त रानां प्रतिश्रयसुवर्णेन संधिमीलनम् सम्-सा मस्त्येन इतिः-गमन समितिः, मेलापको मणिरत्नसुवर्णानां यत्र सा समितिः गुतिश्च समितिश्च गुझिसमिती, गुप्तिसमित्योर्गुणगुप्तिमितिगुणस्तेन आयो महान्, मुकुटो हिज्वरविपापहारादिमणिसंपर्काद्गुणाढ्यो भवति पुनः कथंभूतः संजमतवनियमकण्यकयमउडो 'ति संयतप नियमस्थानी त्रिप्रकारमर्जुनरतपनीयकारक नकं तेन कृतो निर्मितः सेर्लोपात्मुकुट विशेषं ' मउडो' ति मुकुट इति विशेष्यकम् 'सम्मत्तनागदंसणतिरियणसंपाविय' त्ति कथंभूतो मुकुटः १ सम्यक्वज्ञानदर्शनतुल्यत्रिरत्नप्रापितः शिखरत्रये हि रत्नत्रयात मुकुटम बति । अथया - प्राकृतत्वात्प्रापितशब्दस्य परनिपातात् संप्रापितत्रिरत्नः, यत एव हि संप्रापितः त्रिरत्नोऽत एवमहार्घ्य:- महामूल्य: 'पश्च्चोहय' ति पाठे त्रिभी रत्नैः प्रत्योपितैः परिकर्मितैर्महार्घ्यः एवंविधस्तावन्मुकुटः तेन संघ उपमीयते। तथाहि गुतिसमितो गुणाख्यो थामेका गुणवान् संजमतपोनियमैः कनकस्थानीयैः कृतो- निर्वर्तितः संघमुकुटो मुकुट इव मुकटः शिरसा धार्यत इति भावः । 'सम्मत्तनादंसण 'सि सम्यक्त्वज्ञाने प्रतीते, 'दंसण शिक्षण, रश्यते सम्यक परिज्ञायते साधनेनेति दर्शनं चारित्रमनेकार्थत्यातून ततः सम्यानचा त्रिरूपजित्नसंमापितशिखर, तथा महाष्योऽर्थयितुम् अशक्यः ॥ ११६ ॥
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अथेतरमुकुटात्संघमुकुटस्याधिक्यमाह
संघो सदयार्थ सदेवमणुयासुरम्म लोगम्मि | दुलहतरी विसुद्ध अविद्धो तो महामउडो ॥११७॥
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इतरमुकुटः सुप्राप एच संघमुकुटध सेन्द्राणामपि देवान सदेवमनुजासुरेऽपि च लोके दुर्लभतरः, विसुद्धोति विशु संघमुकुटो विशुद्धात् ततः संघकुटायो महानपि मुकुट सुलभ बालतपस्यपियाऽपि
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संघ अभिधानराजेन्द्र:।
संघ व्यन्तरत्वनरेन्द्रत्वसद्भावे तल्लाभात् । 'अविसुद्धोतो महामउ- बाह्य पद्दिधम् , यदुक्तम् “ अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपण डो' त्ति अविशुद्ध एव स मुकुटस्तत्प्राप्तावनुरागादिभिर्माना- रसत्यागः । कायक्लेशः संली-नतेति बाह्य तपः प्रोक्तम् ॥१॥" विवृद्धिहेतुत्वेन महाकर्मापचयनिबन्धनत्वात् । ततो महामुकु- प्राभ्यन्तरमपि षोढा, यत उक्तम्-" प्रायश्चित्तध्याने, वैयाटः संघमुकुटापेक्षया सर्वप्रकारैरशुद्ध एवेत्यर्थः॥११७॥ संथा। वृत्त्यविनयावथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः षट्-प्रकासम्प्रति तीर्थकरानन्तरं सक्तः पूज्य इति परिभावयन् रमाभ्यन्तरं भवति ॥२॥" संयमश्च तपांसि च संयमतसंघस्य नगररूपकेण स्तवमाह
पांसि तुम्बं च पराश्च-अरकाः तुम्बाराः संयमतपस्येव
यथासंख्यं तुम्बारा यस्य तत्तथा तस्मै संयमतपस्तुम्बाराय गुणभवणगहणसुयरयण-भरियदंसणविसुद्धरत्थागा।
नमः । सूत्रे षष्ठी प्राकृतलक्षणाच्चतुर्थ्यर्थे वेदितव्या । उक्त संघनगर ! भई ते, अक्खडचरित्तपागारा ॥४॥
च-"छट्ठिविहत्तीप, भन्नइ चउत्थी' तथा-' सम्मत्तपारि'गुणभवणे' त्यादि-गुणा इह उत्तरगुणा गृह्यन्ते, मूलगु- यल्लस्स ' सम्यक्त्वमेव पारियलं-बाह्यपृष्ठस्य बाह्याणानामग्रे चारित्रशब्देन गृह्यमाणत्वात् , ते चोत्तरगुणाः-पि- भ्रमियस्य तत्तथा तस्मै नमः, गाथा व्याख्यातम् । तथा एडविशुद्धधादयो, यत उक्तम्-"पिंडस्स जा विसोही, समि- न विद्यते प्रति-अनुरूपं समानं चक्रं यस्य तदप्रतिचक्र, ईश्रो भावणा तवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहाऽवि य,उत्तर- चरकादिचरसमानमित्यर्थः, तस्य जयो भवतु सदागुण मो वियाणाहि॥शा" त एव भवनानि तैर्गहन-गुपिलं प्र- सर्वकालं, संघश्चक्रमिव संघचकं तस्य । चुरत्वादुत्तरगुणानां गुणभवनगहनं, संघनगरमभिसम्बध्यते, | सम्प्रति संघस्यैव मार्गगामितया रथरूपकेण स्तवमभितस्याऽऽमन्त्रण हे गुणभवनगहन !,तथा श्रुतरत्नभृत ! श्रुता- धित्सुराहन्येव प्राचारादीनि निरुपमसुखहेतुत्वाद्रत्नानि श्रुतरत्नानि तै
भई सीलपडागू-सियस्स तवनियमतुरयजुत्तस्स । {तं-पूरितं तस्यामन्त्रणं हे श्रुतरत्नभृत ! तथा दर्शनविशुद्धरथ्याक!-इह दर्शनं-प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलि
संघरहस्स भगवओ, सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥६॥ अगम्यात्मपरिणामरूपं सम्यग्दर्शनमिति गृह्यते, तश्च क्षायि- भद्र-कल्याण संघरथस्य भगवतो भवत्विति योगा, कादिभेदात् त्रिधा,तद्यथा-क्षायिकं,क्षायोपशमिकमौपशमिकं किंविशिएस्य सत इत्याह--शीलोच्छुितपताकस्य शीलच । उक्तं च-“सम्मत्तं पि यतिविहं, खोवसमियं तहोवस- मेव-अष्टादशशीलाङ्गसहस्ररूपमुच्छ्रिता पताका यस्य समियं च । सायं चे" ति तत्र त्रिविधस्याऽपि दर्शनमोहनीयस्य तथा, भार्योढादेराकृतिगणतया तन्मध्यपाठाभ्युपगमादुच्छ्रिशयेण-निर्मूलमपगमेन निवृत्त क्षायिकम् , उदयावलिकाप्रवि- तशब्दस्य परनिपातः, प्राकृतशैल्या वा, न हि प्राकृते विएस्यांशस्य क्षयेण शेषस्य तूपशमेन निर्वृत्त क्षायोपशमिक- शेषणपूर्वापरनिपातनियमोऽस्ति, यथा कथञ्चित्पूर्वर्षिप्रणीम् , उदयापलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षये सति शेषस्य भस्म- तेषु वाक्येषु विशेषणनिपातदर्शनात् , तपोनियमतुरङ्गयु कछमाग्नेरिषानुदेकावस्था उपशमः तेन निवृत्तमौपशमिकम्।। क्लस्य-तपःसंयमाश्वयुक्तस्य, तथा स्वाध्यायः-पञ्चविधः, माह-ौपशमिकक्षायोपशमिकयोः कः प्रतिविशेषः?,उच्यते | तद्यथा-वाचना प्रच्छना परावर्त्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा च, क्षायोपशमिके तवाधारकस्य कर्मणः प्रदेशतोऽनुभवोऽस्ति न स्वाध्याय एव सन्--शोभनो नन्दिघोषो द्वादशविधतूर्यनित्यौपशमिके इति । दर्शनमेवासारमिथ्यात्वादिकचवररहिता नादो यस्य स तथा तस्य, 'सज्झायसुनेमिघोसस्से' ति विशुद्धरध्या यस्य तत्तथा,तस्यामन्त्रणं हे वर्शनविशुद्धरथ्या- कचित्पाठः, तत्र-स्वाध्यायः एव शोभनो नेमिघोषो यक!' सेोपः सम्बोधने इस्वो वे ति प्राकृतलक्षणसूत्रे स्येति द्रष्टव्यम् , इह शीलाङ्गप्ररूपणे सत्यपि तपोनियमप्रवाशब्दस्य लल्यानुसारेण दीर्घत्वसूचना (र्थत्वा) त् दीर्घ- रूपणं तयोः प्रधानपरलोकाङ्गत्वण्यापनार्थम् । अस्ति चायं निर्देशः, यथा "गोयमा!" इत्यत्र, संघ:-चातुर्मः श्रमणादि- म्यायो यदुत--सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषासंघातः स नगरमिष संघनगरं 'व्याघ्रादिभिर्गीणैस्तवनुक्का- भिधानं क्रियते, यथा-ब्राह्मणा पायाता वशिष्ठोऽव्यायात विति' समासो, यथा पुरुषो व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः, तस्या- इति, पवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयम् । मन्त्रण हे संघनगर! भद्रं-कल्याणं ते-तव भवतु, अखण्ड- संघस्यैव लोकमध्यवर्तिनोऽपि लोकधर्मासंश्लेषतः पनरूपचारित्रप्राकार ! चारित्रं-मूलगुणाः अखण्डम्-अविराधि- केण स्तवं प्रतिपादयितुमाहतं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथा 'मांसादिषु चेति' प्राकृ
कम्मरयजलोहविणि--ग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स । तलक्षणत्वात् चारित्रशब्दस्यादौ हस्वः, तस्यामन्त्रणं हे -
पंचमहव्वयथिरक-नियस्स गुणकेसरालस्स ।। ७॥ खण्डचारित्रप्राकार ! दीर्घत्वं प्रागिव । भूयोऽपि संघस्यैव संसारोच्छेदकारित्वाश्चक्ररूपकेण
सावगजणमहुअरिपरि-वुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । स्तवमाह
संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स ॥८॥ संजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत्तपारियल्लस्स ।
कर्म-शानावरणाद्यष्टप्रकारं तदेव जीवस्य गुण्डनेन मा
लिन्यापादनाद्रजो भण्यते, कर्मरज पव जन्मकारणत्वाअप्पडिचक्कस्स जो, होउ सया संघचक्कस्स ॥ ५॥ जलौघः तस्माद्विनिर्गत इव विनिर्गतः कर्मरजोजलौघसंयमः-सप्तदशप्रकारः, यदुक्तम्-" पश्चाश्रवाद्विरमण,पञ्चे- विनिर्गतः तस्य, इह पनं जलौघाद्विनिर्गतं सुप्रतीतं, जन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चे-ति संयमः | लौघस्योपरि तस्य व्यवस्थितत्वात् , संघस्तु कर्मरजोसप्तदशमेदः॥१॥" तपो द्विधा-बाह्यम्, पाभ्यन्तरं च । तत्र- जलौघाद्विनिर्गतोऽल्पसंसारत्वादवसेयः, तथा च-मविर
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संघ
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सम्यगदरण्यपापुलपरावर्तमान एव संसारः अत एव विनिर्गत इवेति व्याख्यातं न तु साक्षाद्विनिर्गतः, अद्यापि संसारित्वात् तथा श्रुतरत्नमेव दीर्घो नालो यस्य स तथा तस्य दीर्घनालतया च श्रुतरत्नस्य रूपं क रजोजीतः सद्विनिर्गतः तथा पञ्च महावतान्येब-माहातिपातादिधिरमल्लक्षणानि स्थिरा टढा कर्णिका- avertent यस्य तत्तथा तस्य, तथा गुणाः-उत्तरगुया त एव पञ्चमहाव्रतरूपक शिंकापरिकर भूतत्वात् केसराव गुणकेसराः ते विद्यन्ते यस्य तत्तथा तस्य अत्र 'मतुबत्थम्मि मुस्जिद आलं इ म त य इति प्राकृतलक्षणात् मत्वर्थे आलप्रत्ययः । तथा ये अभ्युपेतसम्यक्त्वाः प्रतिपन्धाता अपि प्रतिदिवस पतिभ्यः सा धूनामगारिणां चोत्तरोत्तरविशिष्टगुणप्रतिपत्तिहेतोः सामाचारों यन्ति ते भावका उलं "संपत्तदंसणा प यदि जया सुगेई य सामापारि परमं जो खलु तं सावगं बिंति ॥ १ ॥ " श्रावकाश्च ते जनाश्च श्रावकजनाः स एव मधुकर्षः तामिः परिवृतस्व तस्य तथा-जिन
"
तेजोजस्य जिन एव सकलजगत्प्रकाशकतया सूर्यभास्कर इस जिनसूर्यस्तस्य तेजो विशिधर्मदेशाना तेन बुद्धस्य तथा श्रम्यन्तीति श्रमणा 'नन्द्यादिभ्योउनः || २१५२ ॥ इति कर्त्तयनप्रत्ययः श्राम्यन्ति तपस्यन्ति, किमुकं भवति प्रज्यारम्भदिवसादारभ्य सफलसाययोगविरता गुरुपदेशादाप्रासोपरमाद्यथाशक्त्यनशनादि तपश्चरन्ति । उक्कं च - "यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु
तपश्चति शुद्धात्मा श्रमणोऽसी प्रकीर्तितः॥१॥" अमानां गणः श्रमणगणः स एव सहस्रं पत्राणां यस्य तत् भ्रमरागणसहस्रपत्रं तस्य ( श्रीसंघपद्मस्य भई भवतु ) ।
भूयोऽपि संघस्यैव सोमतया चन्द्ररूपकेण स्तवममिधित्सुराह—
(८०) अभिधानराजेन्द्रः ।
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तवसंजममयलंड, किरियराहुमहदुद्धरिस निचं । जय संघचंद ! निम्मल - सम्मत्तविसुद्ध जोएहागा ॥ ६ ॥ तपश्च संयमश्च तपःसंयमं समाहारो द्वन्द्वः तपःसंयममेय मृगलानं सुगरूपं चि यस्य तस्यामन्य देत पःसंयममुगलान तथा न विद्यन्ते ऽनभ्युपगमात् परलोकविषया क्रिया येषां ते अक्रियाः - नास्तिकाः त एव जिनचचनशशाङ्कप्रसनपाययत्वादामुखमिवाकिरा सं तेन दुष्य- अनभिभवनीयः तस्यामन्त्र कराडुमुदुष्य संपचन्द्र इव संघचन्द्रः त ! " स्यामन्त्रणं हेसंघचन्द्र ! तथा निर्मलं - मिथ्यात्वमलरहितं यत्सम्यक्त्वं तदेव विशुद्धा ज्योत्स्ना यस्य स तथा, 'शेषाद्वा' ॥ ७ । ३ । १७५ ॥ इति कः प्रत्ययः । तस्यामन्त्रणं हे निर्मलसम्पत्ववियुज्योत्स्नाक! दीर्घत्वं प्राणिव प्राकृतसक्षणादयसेयम् नित्यं सर्वकालं जय - सकलपरदशनतारकेभ्यो ऽतिशयवान् भय यद्यपि भगवान् संघचन्द्रः सदैव जपन् वर्त्तते तथाऽपीत्थं स्तोतुरभिधानं कु शलमनीषाकायप्रवृत्तिकारणमित्यनुष्टम् ।
पुनरपि संघस्येय प्रकाशकतया सूर्यरूपके स्वयमादपरतित्थियगहपहना - सगस्स तबतेयदिनलेसस्स ।
संघ
नाजयस्स जए, भहं दमसंघसूरस्स ॥ १० ॥
परतीर्थिकाः कपिलकणभक्षापादयुगतादिमतावलम्बिनः व एव महाः तेषां या प्रभा एकेकदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फूर्तिमा तामनन्त नयस कुलप्रवचनसमुत्थविशिष्टज्ञानभास्करप्रभावितानेन नाशयति- अपनयतीति परतीर्थकग्रहप्रभानाशकः तस्य, तथा तपस्तेज एष दीप्ता-उज्ज्वला लेश्या - भास्वरता यस्य स तथा तस्य तपस्तेजोदीतलेश्वस्य, तथा ज्ञानमेवोद्योतो वस्तुविषयः प्रकाशो यस्य स तथा तस्य ज्ञानोद्द्योतस्य, जगति - लोके भद्रं-- कल्याणं, भवत्विति शेषः, दमः-उपशमः तत्प्रधानः संघः सूर्य इस संघसूर्यः तस्य दमसंघसूर्यस्य ।
सम्मति संघस्यैवाक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण स्तवं चिकीराह
भधिवेलापरि-गयस्स सज्झायजोगमगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ, संघसमुहस्स दस्स ॥ ११ ॥ संघ एव समुद्रः संघसमुद्रः तस्य भई भवत्विति क्रिया शेषः । किंविष्टिस्य सत इत्याह-घृतिवेलापरिगतस्य - धृतिः - मूलोत्तरगुणविषयः प्रतिदिवसमु रसहमान श्रात्मपरिणामविशेषः सैव बेला- जलवृद्धिलक्षणा तया परिगतस्य, तथा स्वाध्याययोग एव कर्म्मविदारणक्षमशक्तिसमन्विततया मफर इच मकरो यस्मिन् सतथा तस्य, तथा अक्षोभ्यस्य परीषद्धोपसर्गसम्भवेऽपि
कम्पस्य भगवतः समत्रैश्वर्यरूपपशोधर्मप्रयत्नधीसम्भारसमन्वितस्य रुन्दस्य - विस्तीर्णस्य ।
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भूयोऽपि संघस्यैव सदास्यायितया मेरुरूपकेण लबमाइसम्मदंसणदश्वर - दढरूढगाढावगाढपेढस्स । धम्मवररयणमंडिअ - चामीयरमेहलागस्स ॥ १२ ॥ नियमूसिकणवासिला बलु अलजलंतचिचकूटस्स | नंदणवणमणहरसुरभि - सीलगंधुयुमायस्स ।। १२ ।। जीवदयासुंदरकं दरुद्भियमुणिवरमईदइअस्स | हे उस धाउपगलं - तरयणदित्तासहिगुहस्स ॥ १४ ॥ संवरजलपगलियउ - ज्झरपविरायमाणहारस्स । सावगजण उररवं- तमोरनच्चंतकुहरस्स ॥ १५ ॥ विश्यनयपवर शिवर- फुरंतविज्युअलंत सिहरस्स । विविहगुणकप्परुक्खग - फल भरकुसुमाउलवणस्स ॥ १६ ॥ नाणवररयणदिष्पं-तर्कतयेरुलियविमलचूलस्स | वंदामि विपणओ, संघमहामंदरगिरिस्त ।। १७ ।। गाथाषट्केन सम्बन्धः । सम्यक - अविपरीतं दर्शनं-तस्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गतया सारत्वादरवजमिव सम्यग्दर्शनवरच तदेव र किम् क चिरप्ररु गाई- निविमवगाढं निम पीढं प्रथम भूमिका यस्य स तथा इद्द मन्दरगिरिपक्षे वज्रमयं पीठं डादिविशेष
सुप्रतीतम्, संघमन्दरगिरिपते तु सम्यग्दर्शनवरयमर्थ पीडं ढं शङ्कादिशुषिररहिततथा परतीर्थिक वासनाजलेना
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संघ
( 52 ) अभिधानराजेन्द्रः ।
षु
स्तःप्रवेशाभावतथालयितुमशक्यम् प्रतिसमयं विशुउद्यमानतया प्राध्यवसायेषु चिरकालं वर्त्तनात् गाढं तीव्रतत्त्वविषयरुच्यात्मकत्वाद्, अवगाढं जीवादिषु पदार्थेसम्यगवबोधरूपतया प्रविष्टं तं वन्दे । सूत्रे प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे पछी बदाह पाणिनिःस्वकृतदि तीयार्थे षष्ठी' अथवा सम्बन्धविवक्षया षष्ठी; यथा माषारामश्नीयादित्यत्र यद्वा-इत्थम्भूतस्य संघमन्दर गिरेर्यत् मा. हात्म्यं तद् बन्दे इति महात्म्यशब्दाध्याहारापेक्षवा पडी, तथा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, स एव वररत्नमरिडता चामीकरमेखला यस्य स धर्म्मवररत्नमण्डितचामीकरमेखलाकः, 'शेषाद्वा' || ७|३ | १७५ ॥ इति कः प्रत्ययः तस्य, इद्द धर्मों द्विधा-मूलगुणरूपः, उत्तरगुणरूपश्च । तत्रोत्तरगुणरूपो रत्नानि, मूलगुणरूपस्तु मेखला, न खलु मूलगुणरूपधर्मात्मकचामीकरमेखला विशिष्टोत्तरगुणरूपवररत्नविभूषणविकला शोभते तदस्य व्यवहितः प्रयोगः । ततश्चायअर्थः- नियम एव इन्द्रियनोइन्द्रियदमरूपाः कनकशिलातलानि तेषु उच्छ्रितानि - उज्ज्वलन्ति ज्वलन्ति चित्तान्येव कूटानि यस्मिन् स तथा तस्य इह मन्दरगिरौ कूटाना
तत्वमुज्या भासुरत्यं च सुप्रतीतम्, संघमन्दरगिरिपक्षे तु चित्ररूपाणि कूटान्तानि अशुभाच्यवसायप रित्यागादुज्ज्वलानि प्रतिसमयं कर्ममलविगमात् ज्वलन्ति उत्तरोत्तरसूत्रार्थस्मरणेन सुरवात् तथा नन्दन्ति सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तनन्दनं चनम् - अशोक सहकारादिपादचन्दनं च नन्दनवन, लतावितानगतविविधफलपुष्पप्रचालसंकुलतया मनो हरतीति मनोहरं सिहादिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः, नन्दनवनं च तन्मनोहरं च तस्य सुरभिस्वभाश्री यो गन्धस्तेन उद्भावः श्रापूर्व, उमापशन्न आपूर्वपर्यायः, यत उक्तमभिमानचिह्नेन - " पडिहत्थमुदुमायं श्र हिरे इयं च जा आउरो " तस्य संघमन्दगिरिषले तु- नन्दनं-सन्तोषः, तथाहि तत्र स्थिताः साधवो नन्दन्तितत्त्वविषिधामर्षैषध्यादिलब्धिसङ्कुलतया मनोहरं तस्य सुरभिः शीलमेघ गन्धः तेन व्याप्तस्य, अथवा - मनोहरत्वं सुरभिशीलनन्धविशेष द्रष्टव्यम् जीवदया एव सुन्दराणि स्वपरनिर्वृतिया कन्दराणि तपस्विनामावासभूतत्वात् तथा लोकेऽपि प्रीतम् 'अदिसान्ययस्थितः तपस्वी' ति जीवदया सुन्दरकन्दराणि तेषु ये उत्- प्राबल्येन कर्मशत्रुजयं प्रति दर्पिता उद्दर्पिता मुनिवरा एव शाक्यादिमृगपराजयात् मृगेन्द्राः तैराकीरण - व्याप्तस्तस्य, तथा मन्दरगि रेगुहासु निष्यन्दवति चन्द्रकान्तादीनि रत्नानि भवन्ति क नकादिधात साधीषधयः, संधमन्दरगिरिपतु अन्यउपतिरेकला हेतवस्तेषां शतानि हेतुशतानि हेतुशतानि साम्येय घातयः, युक्तिम्युवासेन तेषां स्वरूपेण भास्वरस्वात् तथा प्रगलन्ति निष्यन्दमानानि ज्ञायोपशमिकाचस्यन्दित्वात् श्रुतरत्नानि दीप्ताः जाज्वल्यमाना श्रोषधयःश्रमषैषध्यादयो गुहासु - व्याख्यानशालारूपासु यस्य स तथा तस्य संरा--प्राणातिपातादिरूपपात्यानं तदेव कर्ममलप्रक्षालनात् सांसारिकतृडपनोदकारित्वात् परिणामसुन्दरत्याच्च परजतमिव संवरबरजलं तस्य प्रग
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संघ
लितः - सातत्येन व्यूढः उज्झरः - प्रवाहः स एव प्रविराजमानो हारो यस्य स तथा श्रावकजना एव स्तुतिस्तोप्रस्वाध्यायविधानमुखरतया प्रचुरा रवन्तो मयूराः तेनृत्यतीच कुहराणि – जिनमण्डपादिरूपाणि यस्य स तथा तस्य, विनयेन नता नियता मे प्रवरमुनिवरा त एव स्फु रन्त्यो विद्युतो विनयनतप्रवरमुनिवरस्फुरद्विद्युतः ताभिउलन्ति मासमानानि शिखराणि यस्य स तथा तस्य RE शिखरस्थानीयाः प्रावचनिका विशिष्टा श्राचार्यादयो इटव्याः विनयनतानां च प्रवरमुनिवराणां विद्युता रूपये विनयादिरूपेण तपसा तेषां भासुरत्वात् तथा विविधा गुणा येषां ते विविधगुणाः विशेषणान्यथानुपपत्या साधयो गृह्यन्ते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् परमानन्दरूपसुखहेतुधर्मफलदानाच्च कल्पवृक्षा इव विविधगुणकल्पवृक्षकाः, प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययः तेषां च यः फलभरो यानि च कुसुमानि तैराकुलानि वनानि यस्य स तथा तस्य, इह फलभरस्थानीयो मूलोत्तरगुणरूपो धर्मः, कुसुमानि नानाप्रकारा ऋद्धयः, वनानि तु गच्छाः । तथा ज्ञानमेव परनिर्वृतिहेतुत्वात् वरं रत्नं ज्ञानवररत्नं तदेव दीप्यमाना कान्ता विमला वैडूर्यमयी चूडा यस्य स तथा तत्र मन्दरपक्षे बैर्वमथी चूडा कान्ता विमला सुप्रतीता, संघमन्दरप तु कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद्विमला यधावस्थितजीयादिपदार्थस्वरूपोपलम्भात्मकत्वात् तस्य इत्थंभूतस्य संघ महामन्दर गिरेर्यन्माहात्म्यं तद्विनयप्रणतो वन्दे । तदेवं संघस्यानेकधा स्तवोऽभिहितः। नं० । “दुष्पसहो सूरी फग्गुसिरीअजा नाइलो सावश्र सव्वसिरी साविया एस श्रपच्छिमो यो वरदे भारदे वासे अस्थमेहि।” ती० २० कल्प ही० । (संघव्यवहारः 'ववहार' देठे भागे ११२) श्रीवज्रस्वामिना पटविद्यया संघः सुभिक्षदेशे नीतः, तत्र संघः किं चतुर्विधः, साधुसाध्वी मात्र समुदायो वा ? पटविद्या चकरूपेति ? प्रश्नो प्रोत्तरम् परिशिष्ट पर्यायुक्रवज्र स्वामिसम्बन्धानुसारेण चतुर्विधोऽवसीयते, न तु साधुवावरूप एव तथा यथा चक्रवर्त्तिचर्मरत्नद्विवक्षितषिस्तारः पटो भवति सा पटविद्येति ॥ ३५१ ॥ सेन० ३ उल्ला० । अथ वार्षिककृत्यानि यथा-संघार्चनादीनि बहुविधानि यतः श्राद्वारे प्रतिपादितानि गायत्रा
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- पावरसं संयच्च १ साइम्मिश्रण २ जतिगं ३ ||१|| जिद्दिवणं ४ जिराध-बुडी ५ महपूत्र ६ धम्मजागरिया ७ सुधा व उजव तल तित्थपहायया सोही १० ॥ २ ॥ " तत्र संघपूजायां निजविभवाद्यनुसारेशादबहुमानाभ्यां साधुसाध्वीयोग्यमाधाकर्मादिदोपरहितं खकम्बल पानोपान्डडकासूची कण्टककर्षण कागद कुम्पकलेखनीपुस्तकादिकं श्रीगुरुभ्यो दले पहित्यसूत्रम्" प च पुच कंवल पाय दंड संधार सिजे अर्थ किचि - उई ॥१॥ प्रातिद्वारिकापीठफलकपट्टिकाद्यपि संयमीपकारि सर्व साधुभ्यः श्रद्धया देयम् । सूपादीनामुपकरण तु श्रीकरपे उक्क्रम्-यथा-"अलसाई बधाई, सुखाई चक्रगा तिमि " अशनादीनि वस्त्रादीनि सूच्यादीनि चेति त्रीणि चतुष्कानि सङ्कलनया द्वारा यथा-अशनं १ पान २ ख
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(८२). संघ अभिधानराजेन्द्रः।
संघयण दिमं ३ स्वादिमं ४, वस्त्रं १ पात्रं २ कम्बलं ३ पादप्रोग्छनम्४, मंगवसुदेवहिण्डीग्रन्थस्य प्रथमखराडोऽनेन रचितः। जै० ॥ सूची १ पिप्पलको २ नखच्छेदनकं ३ कर्णशोधनकं ४ चेति । संघधम्म-संघधर्म-पुं० । संघधर्मो गोष्ठीसमाचारः,आईताएवं भावकश्राविकारूपसंघमपि यथाशक्रि सभक्तिप
नां वा गुणसमुदायरूपश्चतुर्वर्णो वा संघस्तधर्मस्तत्समारिधापनकादिना सत्करोति, यथोचितं च देवगुर्वादिगुण
चारः । धर्मभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ०। गायकान् याचकादीनपि । संघार्चा हि उत्कृष्टादिभेदात् त्रिधा--तत्रोत्कृष्टा सर्वपरिधापनेन, जघन्येन जघन्या-सूत्र- संघपउम-संघपब-न० । लोकमध्यवर्तित्वेऽपि लोकधांसंमात्रादिना, एकद्वपादेर्वा, शेषा मध्यमा । तत्राधिकव्यय- श्लेषतः पद्मरूपतां गते संघे, नं० । नेऽशक्नोऽपि प्रतिवर्ष गुरुभ्यो मुखवस्त्रादिमात्रं द्वित्रादि-संघपालिय-संघपालित-पुं० । स्थविरस्य आर्यवृद्धस्य गीतश्राद्धेभ्यः पूगादीनि दवा संघा कृत्यं भक्त्या सत्याप
| मगांत्रे स्वनामख्याते शिष्ये , कल्प० २ अधि०८ क्षण । यति, निःस्वस्य तावताऽपि महाफलत्वात् , शक्त्या च "धरं च संघवालिय-गोयमगुत्तं पणिवयामि"। कल्पक क्रियमाणेयं महागुणकरी । यतः पञ्चाशके-“ सत्तीइ- ति । संघपूजा, विसेसपूजा च बहुगुणा एसा । जं एस सुए,
संघपाहणग-संघप्रापूर्णक-पुं० । कुलगणसंघस्थविरेषु, कुभणिो , तित्थयराणंतरो संघो ॥१॥” इति संघार्चा
लगणसंघरा संघपाहुणा भरणति । नि००४ उ०। विधिः १ । ध०२ अधिक।
संघमझयार-संघमध्यकार-पुं० । कारशब्दोऽत्र रूपमात्रे संघ-संघट्ट-पुंगा जहाचप्रमाणे उदके, ओघ० । गा यस्मिन्
। इति । संघाभ्यन्तरे, व्य० ३ उ०। काले उत्तरतां पावतलादारभ्य जाया अई बुडति स -1,
संघयण-संहनन-न० । अस्थिसंचये, पजऋषभायुपमाने उघट्टः । १०४ उ० । स्था० । स्पर्श, रा० । ध०।
पमेये शक्तिविशेष, स्था० ६ ठा० ३ उ०। संघढ़ती-संघयन्ती-स्त्री० । षदकायान् शेषशरीरावयवनय छबिहे संघयणे परमत्ते, तं जहा-बतिरोसभणारायसंस्पृशन्त्याम् , पि०।
घयणे उसभणारायसंघयणे नारायसंघयणे अद्धनारासंघट्टण-संघट्टन-न । प्रविधिना स्पर्शने, आव० ४०।
यसंघयणे खीलियासंघयणे छेवडसंघयणे ।। (सू०४६४) मनाक स्पर्शने, ग०२ अधि। अन्योऽयं गात्रैः संहतीकरणे,
__संहननम्-अस्थिसंचयः,वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः,शक्तिविशेष भ० ५ श०६ उ० । जीवानां संघट्टने प्रायश्चित्तम् । महा०
इस्यन्ये । तत्र वजं-कीलिका ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः नाराय:१चू० । “नो संघहेजा नो णं परिभुजेज्जा" महा०१०।
उभयतो मर्कटबन्धः,यत्रद्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन ब. संघट्टे पारश्चियं । महा०१चू० ।
जयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि सदसंघसुमिणसा-संघट्टसुमिनसा-स्त्री० । वल्लीभेदे, प्रशा०१ स्थित्रितयभेदिकीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति तवज
ऋषभनाराचे प्रथमम् , यत्र तु कीलिका नास्ति तद्
ऋषभनाराचं द्वितीयम् , यत्र तूभयोमर्कटबन्धः एव तन्नासंघट्टिय-संघट्टित-त्रि० । मनाक् स्पृष्टे, आय०४ अ०। ध०।
राचं तृतीयम् , यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपार्वे कीसंघर्षिते, भ० १६ श०३ उ० । श्राचा।
लिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थम् , कीलिकाविद्धास्थिद्वयसञ्चितं संघड-संघट-त्रि० । निरन्तरे, प्राचा०१ श्रु०४ अ०४ उ० । कीलिकाख्यं पञ्चमम् । अस्थिद्वयपर्यन्तस्पर्शनलक्षणां सेसंघडणा-संघटना-स्त्री० । रचनायाम , सूत्र० १ श्रु०१० वामार्स सेवामागतमिति सघात षष्ठम् । शक्तिविशेषपक्षे त्ववं
विधवार्वादेरिव दृढत्वं संहननमिति । इह गाथे--"वज्ज
रिसभनारायं, पढमं वीयं च रिसभनारायं । नाराय - संघडदंसिन-संघटदर्शिन-त्रि० । निरन्तरदर्शिनि, प्राचा०१
द्धनारा-य कीलिया तह य छेवटुं॥ १॥ रिसहो य होइ पट्टो, ध्रु०४ अ०४ उ०।
बज्जं पुण स्त्रीलियं वियाणाहि । उभो मकडबंध , नारायं संघडिय-संघटित--त्रि० । सम्यग्घटिते परस्परं स्नेहेन सम्ब-| तं वियाणाहि ॥२॥" स्था०६ ठा० ३ उ०। द्धे, ( वयस्यादौ) उत्त० १४ अ०।।
सम्प्रति संहनननाम पडियमभिधित्सुर्गाथायुगलमाहसंघडियव्य-संघटितव्य-त्रि० । अप्राप्तेषु वस्तुषु कार्ययोगे,
संघयणमट्ठिनिचो, तं छद्धा वारिसहनारायं । स्था०८ ठा० ३ उ०।
तह रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं ॥ ३७ ॥ संपतिलगमूरि--संघतिलकसूरि--पुं० । रुद्रपालीयगच्छे गुण
कीलिहछेवढे इह, रिसहो पट्टो य कीलियावजं । शखरसूरिशिष्ये, येन विक्रमीय १४४२ संवत्सरे सम्यक्त्वस
उभो मक्कडबंधो, नारायं इममुरालंगे ॥३८॥ तत्युपरि टीका कृता । जै०१०।
सहभ्यम्ते--दृढीक्रियन्ते शरीरपुरला येन तत् संहननं संघथेर-संघस्थविर--पुं० । संघकार्ये आप्रष्टव्ये स्थविरभेदे, पं०
तथास्थिनिचयः कीलिकादिरूपाणामस्थनां निचयो रभा०५ कल्प । पं० चू०।
चनाविशेषोऽस्थिनिचयः। तत्संहननं पधा षट्प्रकारैर्भसंघदासखमासमण--संघदासक्षमाश्रमण-पुं०। पश्चकल्पभा- वति । तद्यथा--बजऋषभनाराचं, तथा ऋषभनाराथमिध्यनिर्मातरि स्वनामख्याते प्राचार्य, पं० भा० ५ कल्प । हानुस्वारोऽलाक्षणिकः , नाराचम् , अर्धनाराचं, कीलिका
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संघाड
संघयण
अभिधानराजेन्द्रः। सेवार्तम् । इह प्रवचने ऋषभं ऋषभशब्देन परिवेष्टनपट्ट संघयणजुय-संहननयुत-त्रि० । विशिष्टशरीरसामर्थ्यरूपेण उच्यते , वजं वज्रशब्देन कीलिकाऽभिधीयते , नाराचं
| संहननेन युते, स च व्याख्यानादिषु न श्राम्यतीति तस्वम् , माराचशब्देनोभयतो मर्कटबन्धो भण्यते । इदमस्थिनिचयात्मकं संहननमौदारिकाले औदारिकशरीर एव, नान्येषु |
पञ्चमः सूरिगुणः । प्रव० ६५ द्वार । ग०। शरीरेषु, तेषामस्थिरहितत्वादिति गाथायुगलाक्षरार्थः । संघयणणाम-संहनननामन्-न। संहन्यन्ते धातूनामनेकाभावार्थः पुनरयम्-इह द्वयोरस्थ्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन | र्थत्वात्-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गलाः कपाटादयो लोहपट्टिकाबद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरित- दिनेव येन तत्संहननं, तदेव नाम संहनननाम । नामकर्मदस्थित्रयभेदिकीलिकास्यं वजनामकमस्थि यत्र भवति । भेदे, कर्म०१ कर्म० । पं० सं० । प्रश्न । श्रा०। तद्वनऋषभनाराचम् ,तन्निबन्धनं नाम वज्रऋषभनाराच- संघरह-संघरथ-पुं० । मार्गगामितया रथरूपकेणोपमिते सानाम । यत्पुनः कीलिकारहितं संहमनं तत् ऋषभमाराचं, | धुसाध्वीश्रावकश्राविकारू समुदाये, नं०। तनिबन्धनं नाम ऋषभनाराचनाम । यत्र पुनर्मर्कटबन्धः केवलो भवति न पुनः कीलिका भवति ऋषभसं
संघरिस-संघर्ष-पुं० । निर्मथने, प्रशा० १ पद । शः पट्टश्च तमाराचं, तनिबन्धनं नाम नाराचनाम । यत्र सषारसममण-सघषगमन-न।'
संघरिसममण-संघर्षगमन-न । श्रावकयोः काशीघ्रगतिरित्वेकपार्थेन मर्कटबन्धो द्वितीयपावेन च कीलिका भवति तिस्पर्धया गमने, जीत। तवर्धनाराचं तनिबन्धनं नामार्धनाराचनाम । यत्र पुनर- परिमसमटिय-संघर्षसमत्थित-
त्रिभरण्यादिकाष्ठनिमेंस्थानि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्कीलिकासंहननं तमिबन्धनं नाम कीलिकानाम । यत्र तु परस्परं पर्य
| थनसमुद्भूते (अनौ, ) प्रमा० १ पद । तस्पर्शलक्षण सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति नेहाभ्यव- | सघवद्धण-संघवद्धन-न० । स्वनाम
संघवद्धण-संघवर्द्धन-न० । स्वनामख्याते मगरे, आ.चू० हारतैलाभ्यविश्रामणादिरूपां च परिशीलनां नित्यमपेक्षते | ४ अ०। तत्सेवार्त, तनिवन्धनं नाम सेवार्तनाम । यद्वा 'छेवटुं' ति संघववहार-संघव्यवहार-पुं० । संघन छेत्तव्ये व्यवहारे, व्य. दकारस्य लुप्तस्येह दर्शनाच्छेवानामस्थिपर्यन्ताबां वृत्तं प- ३ उ०। ('ववहार' शब्दे षष्ठभागे १६८ पृष्ठे उक्त एषः ।) रस्परं सम्बन्धघटनालक्षणं धर्तनं वृत्तिपत्र च्छेदवृत्त, संघवेयाव-संघवयावृत्य-न०। संघकार्यकरणे, औ०। कीलिकापट्टमर्कटबन्धरहितमस्थिपर्यन्तमात्रसंस्पर्शिषष्ठमिस्पर्थः । ततो यदुदयात् शरीरे बजऋषभनाराचसंहननं
संघसमुह-संघसमद्र-पुं० प्रक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण रुपिते, भवति तवजऋषभनाराचसंहनननामकर्मेति । एवमृषभना
संघ, नं०। राचादिष्यपि वाच्यमिति ॥ ३७॥ ३८॥ कर्म १ कर्मः। संघसम्मय-संघसम्मत-त्रि० । साधुसाध्वीश्रावकश्राधिकारूउत्त० । विशे० । प्रव० । प्राचा० । प्रज्ञा । जं०। जी०। पस्य चतुर्विधस्य संघस्यामिमते, ध०३ अधिक। पं० सं० । पं० भा० । पं० चू०। स०। (के कुत्रोपपद्य किं संघसूर-संघसूर्य-पुं०। प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण रूपिते,मं०। संहनना भवन्तीत्युक्तम् ' उपवाय' शब्दे द्वितीयभागे)
संघाहम-संघातिम-त्रि०। संघातेन निवृत्तं संघातिमम् परअसुरकुमारा णं भंते ! किंसंघयणा परमत्ता, गोयमा ! स्परतः पुष्पमालादिसंघातेनोपजायमाने, स्था० ४ ठा० ४ छएहं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी णेव छिराणेव एहारू
उ० । संघातिम-यत् पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालप्रदेशेन सं
योज्यते । जी०३ प्रति०४ अधिक।संघातिमं तु यत्परस्परतो जे पोग्गला इट्टा कंता पिया मणुला मणामा मणाभिरामा ते
नालसंघातनेन संघात्यते। भ०६श०३३ उ०मा० । कञ्चुतेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति । एवं० जाव थणिय
सिषपणपाए पारणमात । एव० जाव थाणय- कवत बहुवस्त्रादिखण्डसंघातनिष्पने (अनु० । दश । नि० कुमाराणं । पुढवीकाइया णं भंते ! किं संघयणी परमत्ता, चू०।) चोलकादौ, प्राचा०२ श्रु०२ चू० ४ ०। गोयमा! छेवट्ठसंघयणी पपत्ता, एवं० जाव संमच्छिम- संघाइय-संघातित-त्रि० । मिथो गात्रैः पिण्डीकृते, ध०२ अ. पंचिंदियतिरिक्खजोणिय त्ति, गम्भवतिया छव्विहसंघ- धि०। अन्योऽन्यं गात्रैरेकत्र लगिते,प्राव०४अापाचून यणी, सम्मुच्छिममणुस्सा छेवसंघयणी. गम्भवति- संघाएंत-संघातयत-त्रि० । अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् कुर्वति, यमणुस्सा छविहे संघयणे पपत्ते, तं जहा-असु- भ०५।०६ उ० । रकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य (सू०
संघाड-संघाट-पुं० । पुष्पाकीणे, जी. ३ प्रति०४ अधिक। १५५+) स० १५५ सम०।
जं० । प्रकारे, संघाड त्ति वा तय सि वा रागाए ति वा ए
गटुं ति । वृ० १ उ०३ प्रक० । युग्मे, संघाटशब्दो युग्मवाची। नामकर्मभेदे, प्रशा० २३ पद । (पृथ्वीकायिका 'पुढवीका- यथा साधुसंघाट इति । जं. १ वक्षः। इयाss' दिशब्देषु ते कति संहननवन्त इति उक्तम् ।)
संघात-पुं० । संहनने, आ० म०१०। समूहे, अनु। संघयणछक-संहननषदक-नका वजऋषभ १ नाराचऋषभ २| विश। पाव० । तीर्थादिषु सम्मिलितजनसंघातवत् संघानाराच ३ अर्डनाराच ४ कीलिका ५ सेवार्तसंहननाख्ये तः । अनु० । संमिश्रे, प्रा०म०१० । शाताध्ययने, स० संहननषद्के, कर्म०२ कर्म०।
। १८ सम०।
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( ८४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संघाडकरण
संघाडकरण - संघातकरण - न० । श्रदारिकवैक्रियाहारकरूपाणां शरीराणां संघाते, आ० म० १ अ० । श्रा० चू० । संघाडग - संघाटक- न० । युग्मे, रा० जी० । जलजबीजफलविशेषे, शा० १ ० १ ० । संघाडगणाय-संघटकज्ञात - न० । संघाटकं श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धनबन्धत्वम् । इदं चाभीष्टार्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमिति । ज्ञाताधर्मकथाया द्वितीयाध्ययने ज्ञा० १ श्रु० १ ० । ( 'संघाडग' शब्दस्य वक्तव्यता 'धरा' शब्दे चतुर्थभागे २६४५ पृष्ठे द्रष्टव्या । ) संघाडपरिसाट - संघातपरिशाट - पुं० । संघातसंमिश्रे परिशाटे, आ० म० १ अ० ।
संघाडी - संघाटी-स्त्री० । उत्तरीयविशेषे, स्था० ४ ठा० १३० ॥ विशे० | साधूपकरणविशेषे, बृ० । ( संघाटी कतिविधा इति ' उवहि ' शब्दे द्वितीयभाग १०६३ पृष्ठे गतम् । ) संघाटीं दीर्घसूत्रां करोति-
जे भिक्खु वा भिक्खुणी वा अप्पणो संघाडीए दीहसुसायं करेइ करतं वा साइजइ ॥ १३ ॥
जे ते संघाडिबंधणसुत्ता ते दीहा ण कायव्वा । अध दीहे करेति तो मासलहुं, आणादिणो य दोसा ।
गाहा-
जे भिक्खु दीहाई, कुआ संघाडिसुत्तगाई तु । सो आणाणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ३३ ॥ अच्छणे सम्मद्दा, पडिलेहा चैव गरूवाणं । सुतत्थतदुभय, पलिमंथो होति दीहेसु ॥ ३४ ॥ अच्छसं गाम-कट्टणं तत्थ सम्मद्दा गाम पंडिलेह दोसो - गरूवणणदोसो य भवति । मूढेसु श्रोमोहंतस्स वालंतस्स य सुत्तस्थपतिमंथो । जम्हा एते दोसा तम्हा इमं पमाये । गाहा-
चतुरंगुलप्पमाणा, तम्हा संघाडित्तगं कुखा ।
जहमेण तिमि बंधा, उक्कोसेणं तु छन्भणिता ||३५|| चउरंगुलप्पमाणा का यव्वा छच्चधा दोसु वि दिसासु तेसिं मूले इमेरिलो पडिबंधो ।
गाहा...
सउणगपातसरिच्छा, उ पासगा तिमि अंतमज्येगो । तञ्जातेण गहेजा, मोत्तूण य होति पडिलहा ॥ ३६ ॥ सउणगो-पक्खी तस्स जारिलो पडिपातो भवति तारिसो कायव्वो, तज्जाएण उरिण्यं उरिणपण खोमियं खोमिण जया पडिलेहेति तदा ते बंधे मोनू ।
गाहा
वितियपदम्मिय बुड्डी, एगयगेलास विसमवोच्छेए । एतेहि कारणेहिं दीहे वि हु सुत्तए कुञ्ज ॥ ३७ ॥ बुट्टीते दीद्दे बंधिउंन सक्केइ । पूर्ववत् ॥ नि० चू० ५ उ० । सूत्रम्---
जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं देइ देइतं वा
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संघाडी
साइज || ३० ॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं पडिच्छ पडिच्छतं वा साइजइ ॥ ३१ ॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं देइ देईतं वा साइजइ ||३२|| जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं पडिच्छर पडिच्छन्तं वा साइजह ॥ ३३ ॥ जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडियं देह देतं वा साइज || ३४ ॥ जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडियं पडिच्छर पडिच्छंतं वा साइज ।। ३५ ।। जे भिक्खू णितियस्स संघाडियं देह देतं वा साइज || ३६ || जे भिक्खू णितियस्स संघाडियं पडिच्छर पडिच्छंतं वा साइजइ ॥ ३७ ॥ जे भिक्खू संसत्तस्स संघाडियं देएइ देतं वा साइजइ ॥ ३८ ॥ जे भिक्खू संसत्तस्स संघाडिगं पडिच्छर पडिच्छंतं वा साइजइ ॥ ३६ ॥
दस सुत्ता, गाणदंसणचरित्ताण पासट्ठितो पासत्थो श्रोसरणो दोसो । ओसरणो उ यो वा संजमे तसिसरणो, कुच्छि यसीलो कुसीलो । बहुदोसो संसत्तो दुव्वाईप असुयत्तो गिति । एतेसि संघाडयं देति पडिच्छति वा तस्ललहुँ ।
गाहा
पासत्थोसम्माणं, कुसीलसंसत्तणितियवासीणं । जे भिक्खू संघाडं, दिजा हवा पडिच्छेजा ॥ २६९ ॥ से आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, णो दिजा यो परिच्छेजा ॥ २६२ ॥ ते ति-संघाडपण इमा चारितविराहणा ।
गाद्दा-
अविशुद्धस्स तु गहणे, आवजण अगहिते य अधिकरणं । अप्पच्चओ गिहीणं, किं ण हु दिट्ठो जतीणं पि ॥ २६३ ॥ साहू तेण संघाडएण समं हिडतो जेण दोसेणासुद्धे गेरहति तमावज्जति । श्रह साहू ण गेरहति तो पासत्थस्स श्रचियत्तं कलहं वा करेति, साहुणा अपडिसिद्धे पास थेण गहिते जति साहू तुसिणीओ अच्छति एत्थ अणुमतिदोसो भवति । श्रप्पञ्चश्रो गिद्दीणं भवति । इमं च भणेजा किं तत्थ कारणं दुविधो धम्मो कहितो एवं भणिए ।
गाहा
जति अच्छति तुसिणीओ, भणति त एवं पि देसि धम्मो ।
सातणा सुमहती, सो चिय कलहो तु पडिघाते ।। २६४ ॥ पासत्थेण श्रत्थि जर साधू तुसिणीश्रो अच्छति - गुमति वा करेति तो सुमहती श्रसायणा, दीहं च संसारं व्विति । श्रहवा- साधू भगति ण वट्टति पासत्थवय च पडिधापति; ताहे पासत्थो चिंतेतिमं श्रभामेति सो चैव कलहो । पासत्थाईया इमेण दोसे परिहरंति ।
गाहा—
पासत्थोसमीणं, कुसीलसंसत्तणितियवासीणं । उग्गमउप्पाद ए-सणाए संसग्गमविराधे ॥ २६५ ॥
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संघाडी अभिधानराजेन्द्रः।
संघाडी प्रहाछंदो जहा से अप्पणो छंदो अभिप्पाश्रो तहा।। दाणाई संसग्गी, सइ कतपडिसिद्ध लहुय आउट्टे । पनवेति, उग्गमदोसा सोलस, उप्पादणादोसा सोलस,
| सम्भावे ति आउद्दे,ऽसुद्धे गुरुगो तु तेण परं ॥२७॥ दस एसणादोसा, संविग्गा पुण इमेण विधिणा परिहरंति ।
एते आहरातीए एक्कासीतिए भंगेहि साधयंतो चारितं सा गाहा
हेति । एवं अत्थेण पडिसिद्धे पासत्थातियाणं संघाडगस्स उग्गमउप्पायणए-सणाए तिएहं पि तिकरणविसुद्धं ।
वस्थातियाण दाण करेति । एस संसग्गी सइ पक्कसि संसग्गि पासत्थोसामाणं,कुसीलणितिए वि. एमेव ॥ २६६ ॥ करेति, पडिसिद्धो पचोइनो श्राउट्टो मासलहुँ से पच्छित्तं । मणउग्गम आहाराऽऽ-दीय तिया तिमि तिकरणविसुद्धा। सम्भावे त्ति आउद्देति । एवं वितियवाराए वि मासलहु । तएक्कासीती भंगा, सीलंगगमेण तव्वा ।। २६७ ॥
तियवाराए आउदृस्स मासलहु, तेण परं चउत्थवाराए णि
यमा असुद्धेति मायायी प्राउट्टस्स मासगुरुं । 'तिमि' त्ति आहारउवहिसेजा,तिमि करणा तिकरणा तेहिं
"मायी तिक्खुत्तो" त्ति अस्य व्याख्या । गाहासुखं तिकरणसुद्धं । एयरस पुव्वद्धस्स इमा वक्खाणगाहा ॥२६६।। माणाऽऽतितिय उग्गमादितियं-आहारादितियं । एते
तिक्खुतो तिमि मासा, आउटुंते गुरू उ तेण परं । तिमि तिया। तिकरणदोसा उग्गमदोसासोलस, उप्पायणा- अविसुद्धं तं वीसुं, कारेंति जो भुंजते गुरुगा ॥२७६ ॥ दोसा सोलस, दस एसणादोसा संविग्गेण पुण इमेण तिरिण वारा तिक्खुत्तो तिरिण वारा पाउस॒तस्स एकासीती भंगा कायव्वा ।
तिरिण मासलहुं । तिरहं वाराणं परेण तेण परं चउगाहा
स्थवाराए णियमा माई, प्राउटुंते मायाणिप्फलं मासगुरूं। पाहारादीय तिया, तिमि तिकरणविसुद्धा ।
'अविसुद्धे'चउगुरुगा अस्य व्याख्या-अविसुद्ध गाहवंएकासीती भंगा, सीलंगगमेण तव्वा ।। २६८।।
सो पासत्थसंसग्गकारी जति आलोयणं ण पडिच्छितो -
विसुखो तं प्रणाउटुंतं वीसुं करेति, वीसु-भोगमित्यर्थः । जो पाहारोवहिज्जा पयस्स हेवा उग्गामादितिय मणा
तं मरणो साधू संभुंजति तस्स चउगुरुगं । चोदग पाहदितिय एयस्स वि हेट्ठा करणतियं इमा बच्चारणा । कम्हा पढमवितियततियवारासु मासलहुं चउत्थवाराए गाहा
मासगुरूं। पाहार उग्गमेणं, अविसुद्धं ण गिण्हें गिराहावे ।
आयरिओ आह । गाहागएइंतं अणुजाणइ, एवं वायाएँ काएणं ॥ २६६ ।।
सति दो वि सिय अमायी,ततियासेवी तु णियमो मायी। एमेवणव विकप्पा, उप्पातणएसणाएँ णव चेव ।
सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो ।। २७७॥ एते तिलि उणव ए-सणे वि माहारे भंगातु ॥२७०॥
सह पढमधारातो वितियवारा सिता मातीति सिता सविउं
जाव, जति अमाती तो मासलहुं । अह माती तो मासगुरूं, एमेवोवधिसेजा, एकेकं सत्तवीस भंगा तु ।
तेण परं णियमा माती तेण मासगुरूं । पच्छचं कंठं । एते तिमि वि मिलिता, एक्कासीती भवे भंगा ॥२७१॥
"दूरे साधारणं काउं" ति अस्य व्याख्या । गाहा-- आहारं उग्गमेण असुख मणेण गेएहति ण गेराहावेति गेराहतं
समणुमेसु विदेसं, गतेसु अप्यागता तर्हि पच्छा । ग्णाणुमायति एते मणेण तिमि,वायाए तिमि,कारण वि तिमि
ते वसहिं गंतुमणा, पुच्छति तेहिं मणुमातुं ॥ २७८ ।। एते णव उग्गमेण । तहा उप्पादणाए विणव,एसणाए वि णव। एते सत्तावीसं आहारे । उपकरणे सेजाए वि सत्तावीसं ।
कयाइ संभोतिया साहू विदेसं गता, असे य संति ये अमा. सवे पकासीती । जहा एते वायालीसं अवराहे एक्कासीती.
ओ विदेसाओ तं चेव गच्छमागता। जे ते विदेसं गता तेहि ए परिहरति एवं पासत्थे अहाईवे कुसीले संसत्ते णिति
आगंतुपहिण दिट्ठा। ते वि आगंतुगा तं चेव देसं गंतुकामा प, अधिसहायो-भोसराणे पतेसि संघाडगं तिकरणविसो- पुच्छति । अस्थि केयि तेहि अस्माकं संभोड्या एवं पुरुछति। कीए ण देजा, ण पडिच्छेज्जा एकासीतीए य भंग विगप्पेदि
गाहापरिहरेजा।
अत्थि त्ति होति लहुओ, कयाइ ओसमभुजणे दोसा । गाहा
पत्थि ति लहुओ तंडण,ण खत्तकहणं व पाहुमं ।२७६/ एताई साहेतो, चरणं साहेति संसो पत्थि । आयरितो जह भणति अस्थि तो मासलहुँ, कताति ओएतेहि भसुद्धेहि, चारित्तेदं वियाणाहि ॥ २७२ ॥ सप्मीभूता होज्जा ताहे गुरुवयणाओ संभुञ्जमाणा ओसरणपडिसेवे पडिसेहो, संविग्गे दाणमातितिक्खुत्तो।
भुत्तदोसे पावेज । श्रह वि गुरू भणति-पत्थि,तह वि मास. अविसुद्धे चउगुरुगा, दूरे साधारणं काउं ॥ २७३ ।।
लहुं, यतः गुरुषयणाश्रो तेहिं सद्धिं संभोग ण करेति, ताणं
अपत्तियं असंखडदोसाग य मासकप्पजोगे खेत्ते कहेंति - पासत्यादिकुसीले, पडिसिद्धे जो तु तेहि संसग्गी ।
च पाहुमं करेंति । जम्हा पते दोसा तम्हा आयरिएण इमं पडिसिज्झति एसो खलु, पडिसेवे होति पडिसेहो।२७४॥ भाणियव्यं ।
मध्ये एकासीती पासत्थे अहाच संघाडगं तिकरणामपनि
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(at) अभिधान राजेन्द्रः ।
संघाडी
गाहा
सि तदा सममा, भुंजध दव्वादिप्रेहि पेहित्ता । एवं मंडणदोसा न होंति अमप्रदोसा य ॥ २८० ॥ दव्वतकालभावेहि पडिलेहेता भुंजेजह एवं साधारणे सम्पदोसा परिहरिया भवति । कारणा देख वा पडि च्छेज वा ।
गाहा
सिवे मोयरिए, रायद्दुट्टे भए व गेलो । श्रद्धाणरोध वा, देखा अधवा पडिच्छेजा ॥ २८१ ॥ असिये फारसे रमानी, एमागिअस्स बहुं दोसगु जागिता पासत्थसंघाडकं, पासत्थस्स वा संघाडकं - पासत्थस्स वा संघाडगो भवति । श्रपुच्छंतो रायपउट्ठे राययज्ञमेव समास घेण्पति भए वितिय सहाम्रो भवति । गेल पडिवर सहाओ रोघणिमण्डा पि कारदेहि सम्बन्ध पाल्मादिजया जांदे मासलप सो ताहे जति वा पडिच्छ्रेजति वा । नि० ० ५ उ० । संघाटिम संघातिम सिंघानिष्याचे ० १ ० १३
अ० । यत्परस्परतो नालसंघातेन संघात्यते । रा० । नि० चू० । संघाडिय - संपादित - त्रि० सम्यम् घाटिताः परस्परस्नेहेन सम्बद्धाः । वयस्यादिषु उत्त० १४ अ० । संघा० । संघाटिक - वि० सहचारिणि जं० २० संघादुद्देस - संघाद्युद्देश- पुं० । संघोपाश्रयालम्बने, पञ्चा० १७ विव० ।
1
संघाय - संघात - पुं० । संघात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते पुनला येन तत्संघातम् । शरीरत्वपरिणतानां पुलानामन्योन्यसधिधानेन व्यवस्थापने, प्र० २१६ द्वार नि० ० आचा० वज्रर्षभनाराचलक्षणे संहनने, स्था० ८ ठा० ३ उ० । श्र० । उच्छ्रये, श्राव० ५ अ० । अनु० । उत्करे, श्राव० १ ० । समूहे. संघाताद्विधा-पवासामक्षराणां च तत्र पर्यवस घाता अनन्ताः, अक्षरसंघाताः संख्या:, (आवाराङ्गादिश देषु 'अक्सर' शब्दे च प्रतिपादिताः ) वृ० १ ० १ प्रक० । एकीभावेनाधिके गात्रसंकोचने श्राचा० १. ०
3
१ श्र० ५ उ० । ' गइइंदियकाए' इत्यादिगाथाप्रतिपादितद्वाकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्थाप्येकदेशी यो नरकगत्यादिकस्तत्र जीवादिमार्गणा या क्रियते स संघ तः । श्रुतभेदे, कर्म० १ कर्म । संघायकरण - संघातकरण - न० । श्रातानवितानी भूततन्तुसंघातेन पटस्यैव करणे, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० । विशे० । ० सं० |
संघाणा - संघातना - स्त्री० । धर्माधर्मास्तिकायनभः प्रदेशानां परस्परं संहत्यावस्थाने, विशे० । पक्खविगलो नि प डितो तस्संघायानिमित्त उवगरला कोकासी नगरगतो । आ० म० १ श्र० । संघावणाम संघातनाम न० संघात्यन्ते प्रत्येकं शरीरपकप्रायोग्यः पुत्राः परयन्ते येन तत्संघातं तदेव नाम संघातनाम | कर्म० १ कर्म । नामकर्मभेदे, श्रा० । संघायपरिसाडकरण- संघातपरिशा टकरण - न० । शकटाच
संचय वयवसंघातने, अवयवपरिशाटने च । सूत्र० १ ० १ अ० १ उ० ।
संघायवि मोयग - संघातविमोचक – पुं० । रागद्वेषात्मकाद् गु
3
संघाताद् विमोचके व्य० ३ ३० रागद्वेषविमुक्तः श्राहारादिकं ददत्सु रागाकारी, तद्विपरीतेषु द्वेषाकारीत्यर्थः । अत एव भवति समः सर्वजीवानां स इत्थम्भूतो न प्रमालीकर्तुं शक्यते श्रुतोपदेशेन व्यवहरणात् । व्य० ३ उ० । संघाय समास - संघातसमास-पुं० । द्वयादिगत्याद्यवयवमार्गणायाम्, कर्म० १ कर्म० ।
संघापारभास संघाचारभाष्य- १० चैत्यमुनियन्दनविषयविधिप्रतिपादके शान्त्याचार्यकृते भाष्यग्रन्थे, संघा० । तस्योपरि वृत्तिः देवेन्द्रसूरिकृताऽस्ति तदुपमेोपसंहार योरयं पाठः ।
--
9
3
'देवेन्द्रवृन्दस्तुतपादपद्मः स्वर्भूर्भुवः श्रीवरके खिसा । सन्देहसम्दोहरजः समीरः स वः शिवायास्तु जिनेन्द्रवीरः ॥ १ ॥ चैत्यमुनियनप्रति भाष्यविवृते यथासुतं किञ्चित् । संघस्याचारविधि, वदये स्वपरोपकाराय ॥ २ ॥ " संघा० १ अधि० १ प्रस्ता० ।
" इति श्रीसंघस्य प्रतिदिनमवश्यं कृतनिधौ, स्वधर्मानुष्ठाने प्रकटमधिकारः प्रथमकः । सदानां विदितविधिवद्वन्दनवरः बुतादास्नीयाच्च प्रकृतिविवृतिः पारगमनम् ॥ १३८॥" - इति देवेन्द्रसूरिविरचितायां श्रीसंघाचारभाष्यटीकायां चैत्यवन्दनाधिकारः प्रथमः समाप्तः । संघा० १ अधि० ३ प्रस्ता० ।
-
संघावारविधि - संघाचारविधि - पुं० संघस्याचारविधिःत्यमुनिचन्दनप्रभृतौ संघाचारप्रकारे, संघा० १ अधि० ३
प्रस्ता० ।
1
संधार-संहार पुं० " हो पोऽनुस्वारात् " १२६४॥ - - । ॥ इति हस्य घः । संघारो । संहारो । प्रा० । बहुजनक्षये, तं० । संधिज्ञ संघातयत् श्रि० परस्परं मिलिते, "राया पुरोहितो वा, संधिज्ञातो नगरस्मि दो वि जणा" व्य०१ उ० । श्रा० चू०| संचय सञ्चयित त्रि० सः सञ्जातमेषामिति सञ्चयि। सञ्चयः ताः, तारकादिदर्शनादितच् प्रत्ययः । येषां मासानां परतः ससमासादिकं याययुत्कर्षतोऽशीतितमं मासानां प्राथमि शास्तेषु व्य० १ उ० ।
"
सामायिक त्रि० पृततैलगुडाभ्येषु बहुकालरक्षितुमशक्येषु द्रव्ये, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण । संचय सञ्चय- पुं० संग्रहे, "तस कट्ठ तेल घय महु, बरथाई तं ख संवत्रो बहुहा ” तृणकाष्ठतैलघृतमधुवनादीनामादिशब्दाद् दुखपालादीनां संग्रहरूपः सचयो बहुधा यः नृ० १३० १ प्रक० | स्था० । सूक्ष्मसिक्थाद्यवयवपरिवासे, पृ० १ ० २ प्रक० । (तृतीयभागे ६७२ पृष्ठे 'गोयरचरिया' शब्दे कालाविक्रान्तभोजनप्रस्तावे यो निषिद्धः ) ( पडणा शब्देऽपि निषिद्धः । सञ्चये मम्मदगुदाहरणम् ।
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(८७) अभिधानराजेन्द्रः ।
संचय
दश० ३ अ० । सञ्चीयत इति सञ्चयः । गौणपरिग्रहे, प्रश्न० ५ संव० द्वार ।
संचयग्ग-सञ्चयाग्र- न० । सञ्चितस्य द्रव्यस्योपरि भागे, श्राचा० १ ० ६ श्र० २ उ० । उपरि स्थापिते तृणादिपूलि - ते, नि० चू० १३० ।
श्राव० ।
संगम सञ्छन्न- त्रि० । जलेनान्तरिते, जं० ४ वक्ष० । रा० 'पम्म साले' मानि जलेनान्तरितानि विमृणालान यासु ताः । इद्द बिसमृणालशब्दात् पत्रासि पश्चिमीपत्राणि द्रष्टव्यानि विसानि - कन्दाः मृणालानपद्मनालाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० । व्याप्ते, शा० १ श्रु० २ श्र० । उत्त० ।
संपद- संभद्रव्य – त्रि० । परिच्छेदविशेषकलिते,
-
।
।
संचयमास - संञ्चयमास पुं० । प्रायश्चित्तापत्तितो यावन्तो मासाः शिष्येणासेवितास्तेषु मासेषु नि० ० २० ४० संचरंत सञ्चरत् - त्रि० । भ्रमति, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार । संचरण सम्चरण- न० भ्रमणे, सूत्र० १० १२ ५० । संचाइय-शुक्र-त्रि० समर्थ, २० ३ ० २३० संपाय- शक्-धा० । मर्पणे, शकधातोः सचायादेश संचाएह । शक्नोति । स्था० १० ठा० ३ उ० । आचा० । ज्ञा० । संचार-सञ्चार-पुं० | द्वारापद्वारेर्जनप्रवेशनिर्गमे, डा० १ संजई संपती- श्री० साध्याम्, पृ० १३०३ प्रक | । । २ श्र० । कुड्यादौ संचरणे, त्रि० । सञ्चरके, बृ० ६ उ० । संजम संयम पुं० संयमनं संयमः भावे अत्रप्रत्ययः । "संचारसम-सश्चारसम- पुं० । वंशतन्त्र्यादिभिर्गृहीते स्वरे, जमदंसणलेसा" संयमनं सम्यगुपरमणं सावद्ययोगादिति संयमः, यद्वा-संयम्यते नियमत आत्मा पापव्यापारसम्भारादनेनेति संयमः “ संनिव्युपाद्यमः " ( ५-३-२५ ) इति सू
०
स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
संचाल - सञ्चार-पुं० गात्रविचलनप्रकारे । संचालण-संचालन - न० । विघट्टने, नि० ० ७ उ० । पर्यालोचने, शा० १ ० १ ० ।
संचालिजमा सञ्चाल्यमान- त्रि० । स्थानात् स्थानान्तरनयनेन चाल्यमाने, शा० १० ८ अ० । संचितय-सचिन्तन-न० सम्पका चिन्तनायाम्, उत्त०
३२ अ० ।
"
संचिजमाण-सचीयमान- त्रि० । प्रतिक्षणमुपचीयमाने, आचा० २ ० १ चू० १ ० ३ उ० ।
संचिge - संस्थान - न० । कालस्थितौ भ० १२ ० है उ० । अवस्थितिकाले, भ० ८ श० २ ० । ( स च सर्वेषां जीवानामिति ' कार्यट्टि ' शब्दे तृतीयभागे उक्लः । ) संचिणिता - सञ्चित्य - अव्य० । उपचित्येत्यर्थे, सूत्र० २ ध्रु० २ अ०१ उ० ।
प्रत्ययः । यदि वा शोभना यमाः प्राणातिपातानृतभाषणादचादानब्रह्मपरिग्रहरिमा अस्मिमिति संयमश्चारित्रम् | कर्म० ४ कर्म० " देयों जः " ॥ ८ । १ । २४५ ॥ बलाधिकारात्सोपसर्गस्याऽनादेरपि यकारस्य जकारादेशः । प्रा०। सम्यक् पापेभ्य उपरमणम्। चारित्रे, उत्त० २८ श्र० । संथा० । सम् एकीभावेन यमः संयमः । उपरमे ० ३ ० संयमनं संयमः । हिंसादिनिवृती, स्था०५ डा० उ० प्र० स० सर्वसाधारम्भनिवृत्ती, चाचा० १० २ ० ५ ० मनोवाक्कापविशुद्धा घोपरमे, दर्श० ५ तस्व । पृथिव्यादिरक्षणे, स्था० ४ ठा० १ उ० । प्रश्न० । पञ्चाश्रवविरमणादी, उत्त० १ ० । संधा० । प्रय० । प्राणातिपाताद्यकरणे, “पश्चाश्रयादरम यनिग्रहः कषायजयः। दण्डयविरतिथे ति संयमः सप्तदशभेदः ।" स्था० ३ ठा० ३ उ० । प्राणिदयायाम्, कल्प० १ अ धि० ६ क्षण | शा० | सर्वविरत्यङ्गीकारे, तु० । सम्यगनुष्ठाने, आ० म० १ ० | चारित्रसामायिके, विशे० । भ० । 'सामायिकादिरूपे चारित्रे, आ० म० १ ० । ग० । पृथिव्यादिविषयेभ्यः संघट्टपरितापनोपद्रवणेभ्य उपरमे, स्था० ७ ठा० ३ उ० | दया संयमो लज्जा जुगुप्सा श्रच्छलना तितिक्षाऽहिंसा येकार्थिकानि संयमस्य उत्त० ३ ० । ( एषां पदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने) ( सरागवीतरागसंयमौ समेदोवरितधम्म म्ये दुतीयभाने १९४६ पृष्ठे व्याख्याती ।) (पञ्चविधसंयमस्य व्याख्या असमारंभमा
संचित सञ्चिन्वत्- भि० बज्नति प्र० ३ ० द्वार संचिय सचित० राशीकृते स्था० ३ ० १ ३० ।
शब्दे प्रथमभागे ८४१ पृष्ठे गता) अधिसंयमस्य दशविधसंयमस्य च व्याख्या असमारंभमा शब्दे ' प्रथमभागे ८४२ पृष्ठे गता । )
व्य० ३ उ० ।
संछिपासोय- संधिनस्रोतस् त्रि० सम्यक् छिन्नानि अपनीता
संजम
निभावस्रोतांसि संवृतत्वात् कर्माद्वाराणि येन स तथा । द्रव्यस्रोतोभ्यो विषयेन्द्रियप्रवृत्तिभ्यो भावस्रोतोभ्यः शब्दा दिषु शुभाशुभेषु रागद्वेषोत्पत्या विमुक्रे सूत्र० १०
१६ श्र० ।
संछोभ--संतोभ- पुं० । संक्रामणे, वृ० १३०२ प्रक० । प्रक्षेपे,
व्य० है उ० ।
संयोग संचोभक- ५० प्रक्षेपके ० २४० । संछोभयसंचोभयन० पराव, पृ० १४०३ प्रक० संछोभपरंपरय-संचोभपरम्परक न० । परम्परया स्थानान्तरसंक्रमणे, वृ० ३ ३० ।
संजय - संजय पुं० मृषावादायुपरतिमति मोक्षसाधके, प्रश्न० । १ संव० द्वार ।
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चउब्विद्दे संजमे परायचे, तं जहा मयसेजमे वतिसंजमे कायसंजमे उवगरण संजमे । ( सू० ३१३+ )
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संजम
संजम
अभिधानराजेन्द्रः। मनोवाकायनामकुशलत्वेन निरोधाः कुशलत्वेन तूदीर्णा
सप्तविधः संयमःनि संयमाः । उपकरणसंयमो महामूल्यवस्त्रादिपरिहारः पु- सत्तविधे संयमे पएणत्ते , तं जहा-पुढविकायितसंजमे स्तकवनगचर्मपश्चकपरिहारो वा । तत्र-चर्मपञ्चकमिदम्
जाव तसकायितसंजमे अजीवकायसंजमे। (सू०-५७१+) "अयएलगाविमहिसी-मिगाण अजिणं तु पंचम होइ ।
'सत्तविहे' इत्यादि , सुगम नवरं संयमः-पृथिव्यातलिया खल्लगबद्धे, कोसगकत्ती य बीयं तु ॥५॥" इति ।
दिविषयेभ्यः संघट्टपरितापोऽपद्रावणेभ्यः उपरमः, 'अजीस्था०४ ठा०२ उ०।
बकायसंजमे' त्ति अजीवकायानां-पुस्तकादीनां ग्रहणपपंचविहे संजमे पएणते, तं जहा-सामाइयसंजमे छेदो- रिभोगोपरमः । स्था०७ ठा०३ उ०। सर्वसंवरण , बढावणियसंजमे परिहारविसुद्धियसंजमे सुहमसंपरायसं
शा०१ श्रु०१०। दर्श० । मौनीन्द्रोक्त सप्तदसरूपऽनुष्ठाने, जमे अहक्खायचरित्तसंजमे । (सू० ४२८)
स्था०३ ठा०२ उ०।।
दशविधः संयमःसंयमनं संयमः, पापोपरम इत्यर्थः । तत्र-समो- दसविधे संजमे पलत्ते , तं जहा-पुढविकाइयसंजमे, रागादिरहितः तस्य आयो गमनं प्रवृत्तिरित्यर्थः, समायः समाय एव, समाय भवं, समायेन निवृत्तं, स
जाव वणस्सइकाइयसंजमे, वेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे मायस्य विकारोंऽशो वा समायो वा, प्रयोजनमस्येति सा- घउरिदियसंजमे पंचेंदियसंजमे अजीवकायसंजमे । (मू० मायिकम् , उक्तं च-"रागहोसविरहिनो, समो क्ति भयणं ७०६+) स्था० १० ठा०३ उ० । भउ ति गमणं ति । समगमणं ति समारो, स एव सामान्य
सप्तदशविधसंयमप्रतिपादनायाऽऽहनाम ॥१॥ महवा भवं समाए, निव्वतं तेण तम्मयं वा- पुढवि दग अगणि मारुय , वि । जंतप्पभोयणं वा, तेरा व सामाइयं नेयं ॥२॥” इति,
वणस्सइ वि ति चउ पणिदि अञ्जीवो । अथवा समानि-ज्ञानादीनि तेषु तैर्वा अयनमयः समायः स पब सामायिकमिति, प्रवादि च-"अहवा समार स
पेहुप्पेहपमज्जणस्म-सनाणचरणाइतेसु तेहि वा । अयणं प्रभो समाओ,
परिट्ठवण मणो बई काए ॥१॥ स एव सामाइयं नाम ॥ १॥” इति, अथवा समस्य
" पुढवाइयाण जाष य, पंचेंदिय संजमो भवे तेसि । रागादिरहितस्याऽऽयो-गुणानां लाभः समानां वा-शाना
संघहणाइ न करे,तिविहेणं करणजोएणं ॥१॥ दीनामायः समायः स एव सामायिकम् , अभाणि च-"अह
अजीबेहि विजेहि, गहिपहि असंजमो हृयह जाणो । या समस्स भाओ, गुणाण लाभो ति जो समाभो सो ।
जह पोत्थदूसपणए, तणपणए चम्मपणए य ॥२॥ महवा समाणमाओ, णेनो सामायं नाम ॥१॥” इति,
गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडफलए तहा छिवाडी य । अथवा साग्नि-मैश्यां साम्रा बा भयस्तस्य वा माया सा
एयं पोत्थयपणय, पएणतं बीयराएहिं ॥३॥ मायः स एव सामायिकम् , अभ्यधायि च-"महवा साम
बाहापुडुत्तेहिं , गंडीपोत्थो उ तुझगो दीहो। मेली, तत्थ भो तेण व ति सामानो। महषा सामस्सा
कच्छवि अंते तणुमो , मज्झे पिडुलो मुणेयवो ॥४॥ भो, लाभो, सामाइयं नाम ॥१॥” इति सावधयोगविर
बउरंगुलदीहो या, बहागिह मुट्ठिपोत्थो महवा । तिरूपं सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, छेवा- चउरंगुलदीहो चिय, चउरस्सो वावि विराणेभो ॥ ५ ॥ दिविशेषैस्तु विशिष्यमाणमर्थतः शम्दतश्च नानास्वं भज- संपुडो दुगमाई, फलगायोच्छ छिवाडिमेत्ताहे। ते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवापति
तणुपत्तू सियरूयो, होह छिवाडी बुहा वेति ॥ ६॥ ठते सामायिकमिति । तच द्विधा-इत्यरकालिके, याषजी- दीहो वा हस्सो घा, जो पिछलो होह अप्पयाडल्ले । विकं च । तत्रेत्वरकालिकं सर्वेषु प्रथमपश्रिमतीर्थकरती- तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ७॥ थेवनारोपितम्रतस्य , याधज्जीविकं तु मध्यमधिदेह- दुविहं व दूसपणयं , समासमो तं पि होइ नायव्वं । तीर्थकरतीर्थेषु भवति इति , तेषूपस्थापनाऽभावादिति, अप्परिलहियपणर्य , दुष्पडिलेह व विएण्यं ॥८॥ सामायिकं च तत्संयमश्चेत्येवं सर्वत्र वाक्य का- अप्पडिलेहियदसे , तूली उपहाणगे व नायव्यं । यमिति । ( स्था० ) ( छेदोपस्थापनिकण्याच्या थे- गंडबहाणा लिंगणि, मसूरए चेष पोत्तमए ॥६॥ भोयट्ठावणिय' शब्दे तृतीयभागे १३५६ पृष्ठे गता । ) पल्हषि कोयवि पाषा-रणवए तहा यदादिगालीनो। ( परिहारषिशुद्धिकव्याख्या ' परिहारविसुनिय ' शब्ने दुप्पडिलेहियदूसे, एवं बीयं भवे पणय ॥१०॥ पञ्चमभागे ६६१ पृष्ठे गता।) (सूचमसंपरायण्याच्या 'सुहु- पल्हषि हत्पत्थरणं, कोयषो रूपपरिमो परमो। मसंपराय' शब्दे यक्ष्यते ।) अथशब्दो यथार्थः, यथैवा- बढिगालि धोयपोती, सेसपसिद्धा भवे भेया ॥ ११ ॥ कषायतयेत्यर्थः, पाण्यातम्--अभिहितम् , भयाख्यातं त- तणपणय पुण भणियं, जिणेहि जियरायदोसमोहेहिं। देष संयमः अथाख्यातसंयमः । (स्था०)ह सप्तदशप्रका- साली बीही कोइव-रालग रगणे तणाईच ॥ १२ ॥ रसंयमस्याचा नव भेदाः संगृहीताः, एकेन्द्रियसंयमग्रहणे- मलपलगाविमहिसी-मिगाणमरणं च पंचमं हो। न पृथिव्यादिसंयमपञ्चकस्य गृहीतत्वादिति । स्था०५ ठा०२ तलिगा जागवझे , कोसगकत्ती य बीयं तु ॥ १३ ॥ उ०। (पधिसयमध्याख्या 'असमारंभमाण' शदे प्रथ- मापिपरहिरमाई, तारन गिराहा असंजमो साह। मभागे ८४१ पृष्ठे गता।)
ढाणाइ जत्थ येते , पेहपमज्जितु तस्य करे ॥ १४ ॥
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(4) अभिधानराजेन्द्रः ।
संजम
एसा पेडुषपेहा, पुणो य दुबिद्दा उ होइ नायब्वा । बाबारावावारे, वावारे जह उ गामस्स ॥ १५ ॥
सो विखोइ अब्बाधारे जहा विशस्तं । किं एवं तु क्वासि दुविहाय वेत्थ अहिगारो ॥ १६ ॥ eterodra तहि यं, संभोइयसीयमाण चोएर । बोहरं पि, पावयणीयम्मि कजम्मि ॥ १७ ॥
वावार उक्खा, न वि चोपई गिहिं तु सीयंतं । कश्मेसु बहुबिसुं, संजम एसो उवेकखाए ॥ १८ ॥ पायें सामारिए, अपमता व संजमो हो । ते क्षेत्र मते, सागारियसेजमो होइ ॥ १८ ॥ पारोहिं संसतं, असं पाणमया वि अविसुद्धं । उबगरणपसमा होजादि ॥ २० ॥ तं परियबीए, अवहट्टु संजमो भये एसो । अकुसलमणवइरोहे, कुसलास उदीरणं जं तु ॥ २१ ॥ मणव संजम यसो, काय पुरा जं अवस्सकज्जम्मि । गमागमसंभवई, तोडतो कुसर सम्मं ॥ २२ ॥ तव कुम्मस्स व सुसमाहियपाणिपायकायस्स । इवई व कायजमा, विद्वतस्सेव साहुस्य ॥ २३ ॥ आव० ४ प्र० । चाचा० । सूत्र० । संथा० नं० । श्रघ० । प्रा० चू० ।
सचरसव संबमे पाने, तं जहा पुढचीकायसंजमे भाउकाय जमे उकायसंजमे वाउकायसंजमे वयस्सङ्गकायसंजमे बेइंदियजमे तेईदियसंजमे चउरिदियसंजमे पंचिदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उवेहासंजमे भवहछुसंजमे पमजणासंजमे मणसंजमे वहसंजमे कायसंजमे [सू० १७५] स०१७ सम० । (धम्म' शब्दे वृतीयभागे १११ पृष्ठे अनेकविधसंयमानां व्याक्या गता । )
अं नागादीयं सव्वं पुख होइ संजमो नियमा । जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्ययं होइ ॥ ४२ ॥ बृ० २ उ० ( " कुकुप संजमस्त पलिमंधू " इति 'पलिमंथु' शब्दे पचमभागे ७२५ पृष्ठे व्याख्यातम् । ) ( संयममाश्रित्य पदस्थानपतितत्वम् ' श्रागमषवहारि' शब्दे द्वितीयभागे ७१० पृष्ठे व्याख्यातम् । )
संयमफलम् - संजमेणं मंते ! जीवे किं जणया १, संजमेण असहयणंनगया ।। २६ ।।
,
हे भगवन् ! संयमेन जीवः किं जनयति ?, गुरुराह-संयमेनअहस्कंन विद्यते पार्थ पस्मिन् तत् अनंदकं तस्य भाषोsनंहस्कत्वं तज्जनयति संयमेन प्रभव-निरोधं जनयति इत्यर्थः ॥ २६ ॥ उत्त० २६ अ० । (संयमप्रेमरूपणम् कितिकम्म' शब्दे दतीमा ५०७ हे व्याख्यातम् । ) संजमकरण-संयमकरण-१० पश्चाभवविरमणादिगुण करणे,
6
उत्त० १३ अ० |
संजमकुसल - संगमकुशल- पुं० । पृथिव्यादिसंयमकुशले, व्य०॥
२३
संजमकुसल
उपसंहारमाह(आयाकुसालो एसो) संजमकुसलं अतो उ वोच्छामि । पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे जो भवे कुसलो ।। १३२ ।। श्रत ऊर्ध्वं संयम कुशलं वक्ष्यामि । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपृथिव्यादिसंयमे, पुढवि दग अगणि मारुष, बस्स विि
उ परिषि अजीबो पेये पण परिणमणो वई का' ॥ १ ॥ इत्येवंरूपे सप्तदशे - सप्तदशप्रकारे यो भवति कुशल संयमतः ।
प्रकारान्तरेण संयमकुशलमाह
"
श्रहवा गहणे निसिर- एस से जानिसेज उवही य । आहारे वि य सतिमं, पसत्थजोगे य जुजंगया ॥ १३३॥ इंदियकसायनिगह पिहियासव जोगवाणमञ्जीयो । संजमकुसल गुणनिही, तिविहकरणभावसुविसुद्धो ॥ १३४॥ अथवेति - संयमस्यैव प्रकारान्तरोपदर्शने, ग्रहणे प्रदाने निसरसे पचणायां गवेषणादिभेदभिन्नायां शय्या निषधोप ध्याहारविषयायां निषद्यायां सम्यगुपयुक्तः संयमकुशलः । किंमुक्कं भवतिय उपकरणमारमाददानो निशिपित्या प्रतिलेख्य ममा च गृह्णाति निक्षिपति था। एतेन प्रशासंयमः प्र मार्जनासंयमश्वोक्तः । एतद्ग्रहणात्तज्जातीयाः शेषा प्रप्युपेशादिसंयमा गृहीता इष्टव्याः । तथा वः शय्यामुपधिमाहा रं उद्मोत्पादनेषाशुद्धं गृहाति संयोजनादियांपरहितं च भुजे स्थानाद्यपि कुर्यायः प्रत्युपेक्ष्य प्रमा व करोति स संयमकुशलः । अत्र निषद्याग्रहणेन स्थानादिगृहीतम् । तथा य एतेषु सर्वेष्वपि संयमेषु कर्त्तव्येषु स्मृतिमान् स संयमकुराल, स्मृतिमूलमनुष्ठानमवितथ मिति वचनात् तथा यस्य प्रशस्तयोगस्य शुभमनोवाक्कायरूपस्य योजना व्यापारणम् । किमुक्तं भवति प्रशस्तानां मनोषाकाययोगानामपवर्जनं प्रशस्तानां मनोषाशाययोगानामभियोजनं संयमकुशलः। तथा इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि
6
"
4.
,
पायां- क्रोधादीन यो नाति तथा घोचादीनि न स्वविषये व्यापारयति श्रोत्रादिविषयमासेषु शुभाशुभेषु - ब्दादिष्वर्थेषु रागद्वेषौ न विधत्ते, क्रोधादीनप्युदयितुः प्रवृतान् निरुणद्धि, उदयमासांथ बिफलीकरोति तथा प्राश्रवाणि प्राणातिपातादिलक्षणानि पिदधाति, योगं - म मोबाकायलख्मप्रशस्तं ध्यानं चा तत्परिहारेण - स्तं धर्म शुक्रं तत्र सीमा आश्रितोऽनिगृहितचलीतया तत्र प्रवृत्त इत्यर्थः । एष संयमकुशलः । कथम्भूतः स
वाह-गुणनिधिः संयमानुगता मे गुणास्तेषां निधिरिव गुणनिधिः तैः परिपूर्ण इति भावः । तथा त्रिविधेन प्रकारेणमनोवा कापलचणेन विशुद्ध मनसाऽप्यसंयमानभावात् भाषेन च परिणामेन विशुद्ध, इह लोकाचा स्वात् विकरणभावविशुद्धः ।
अस्यैव गाथाइयस्य व्याख्यानार्थमाहगियर पडिलेडं, पमजिओ तह च निसिर याऽवि । उवउतो एसाए, अनिसओ व बवहारे ।। १३५ ।। एए सब्वेसुं, जो पम्हुस्सते तु सो सतिमं । जुज पसत्यमेव तु मयभासा कायजोगं तु || १३६ ॥
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संजम कुसल
सोइंदियाइयाणं निम्गहणं चेत्र तह कसाया । पाणातिवाइयाणं, संवरणं, आसवाणं च ॥ १३७ ॥ झा अपसत्थ य, पसत्थभाणे य जोगमल्लीणो । संजमसलो एसो, सुविसुद्धो तिविहकरणेण ॥१३८॥ गाथाचतुष्टयमपि गतार्थम् नवरम् 'उपडतो पणा'त्यादि । उपयुक्त पायाम् किं विषयायामित्याह यानि पद्योपध्याहारे, शय्या - उपाश्रयः निषद्या--पीठफलकादिरूपा स्थानादिरूपनिषद्या व्याख्यानं तु प्र पधि: पात्रनियोगादिराहारोऽशनादिरूपः समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् तद्विषयायामित्यर्थः । 'झाणे अपसत्थे' त्यादि ध्यानं द्विधा - अप्रशस्तं प्रशस्तं च । अप्रशस्तम् श्रार्त्त, रौद्रं च । प्रशस्तम्-धर्म्म, शुक्तं च । तत्र प्रशस्ते ध्याने-धर्मशुक्लरूपे चशन्दो भिषक्रमः प्रशस्तं योगमालीनः सुविसुद्धो तिथिद्दकरणं ति उपलक्षयमेतत् । भावेनापि स विसुद्धः, शेष सुगमम् । उक्तः संयमकुशलः । व्य० ३ उ० । संजमघाइय-संयमघातिक - त्रि० । संयमोपधातिके, प्रब०
9
२६७ द्वार । संजमपायग-संयमघातक संयमविनाशके
४ श्र० ।
(10) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
9
संजमचरय--संयमचरक प्रि० । सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायिनि, दश० १० अ० । संजमजमगुण-संयमार्जवगुण त्रि० संयमाचो गुलो स्थ तत् । संयमऋजुभावाजे ०६०। संजमजाया-संयमयात्रा - स्त्री० । संयमप्रवृत्तौ प्रश्न० १ सं८० द्वार संयमानुपासने सू० २०१० संजमजायामायावत्तिय संयमयात्रामात्रावृत्तिक-त्रि० । संयमयात्रा संयमानुपासनं सैय मात्रा आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रामात्रा तदर्थं वृत्तिः प्रवृत्तिर्यत्राहारे स संयमयात्रामात्रावृत्तिकः संयमपालनमात्र आहारा २०७ २०१० संयमयात्रामात्राप्रत्यय-त्रि० संयमात्रामात्राप्रत्ययो यत्र । संयमयात्रार्थे श्राहारादौ भ० ७ श० १३० । सूत्र० । संजमजीविय- संयम जीवित न० । संयमवन्तया जीवने, श्राचा०| संयमजीवितं तद् दुष्प्रतिबृंहणीयं कामानुषक्रजनान्तर्वर्तिना दुःखेन निष्प्रत्यूहः संयमः प्रतिपाल्य इति । श्राचा० १ ० २ अ०५ उ० ।
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भाव०
सेजमजोग - संयमयोग- पुं० । चरणव्यापारे, पञ्चा०१२ विष० । कुशलव्यापारे, पं० ० ४ द्वार । आ० चू० । समिति गुप्तिरूपे आचरणे, प्र० १०१ द्वार । दर्श० । संजमजोखि- संयमयोनि श्री० संयमस्य सर्वसंवरस्वभाव स्य देशविरतिरूपस्य सोत्पत्तिस्थाने शुभमनचाकायच्यापारे, दर्श० ५ तत्व |
संजय भारवहण ० संजमs - संयमार्थ- पुं०। संयमः प्रेक्षोत्प्रेक्षाप्रमार्जनादिलक्षणतदर्थम् संयमनिमिते ६० उ०
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संजमद्वारा संगमस्थान-१० संयमः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्म सम्पराययथाख्यातरूपः
तदेव स्थानम् । श्राचा० १ श्रु० २ ० १ उ० । पं० भा० । ज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामात्मकेऽध्यवसायविशेषे व्य० १ उ० | अष्ट० नि० चू० । पिं० ( " संजमट्ठाणं ति वा अभावसां ति वा परिणामद्वाणं ति" इति 'ठाण' शब्दे चतुर्थभागे १६६४ पृष्ठे व्याख्यातम् 1 )
संजमामापात संयमस्थानापातन० चरणविशेषाप्रतिपाते, पश्चा० १६ विष० ।
संजमण-संयमन- न० । सप्तदशप्रकारसंयमकरणे, आचा० १ श्रु० ५ ० ३ उ० । रज्जुनिगडादिभिर्बन्धने, श्राव० ४ श्र० । संजमत्तिय - संयमत्रिक- न० । परिहारविशुद्धिक सूक्ष्मसम्पराययथास्यातचारित्र लक्षणे संयमत्रये, कल्प० १ अधि०७ । संजमधुवजोग जुत्ता-संयमभवयोगयुक्ता श्री० संपा चरणं तस्मिन् ध्रुवो नित्यो योगः-समाधिस्तता सन्ततोपयुक्तायाम्, उत्त० १ ० । व्य० । चरणे नित्यं समाध्युपयुक्ततायाम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० । दशा० । प्रथमायामाचारसंपदि, " संजमधुवजोगजुते याऽवि भवति" 'संयमे स्वादि संयमो नाम चरणं तस्य ये भुवा अवश्यं कर्त्तव्यत्वात् योगाः प्रतिलेखना खाध्यायादयः तैर्युक्तो भवति । अथवासंयमः सप्तदशप्रकारः पञ्चाश्रवाद्विरमणमित्यादिकः, तस्मिन न भुवो नित्यो योगो-व्यापारो यस्य स संयमध्रुवयोगयुक्तः । अथवा संयमे भयो नित्यो योगो यस्य स संयमधूवयोगदात् ज्ञानादिष्यपि नित्योपयोगः अपिशब्दग्रहणात्परमपि योजयति इत्येका १ । दशा० ४ ० । संजमपरिपालय- संयमपरिपालन १० । अहिंसाचाराधने, पञ्चा० ७ विव० ।
संजमबहुल - संयमबहुल वि० संक्मम्-अथवविरमशादिकं बहूनि - बहुसंख्यं यथाभवत्येवं लाति गृह्णातीति विशुद्धविशुद्धतरं पुनः पुनः संयमं कुर्वन्तीति संयमबहुलाः, मयूरव्यंसकादित्यात् समासः पृथिव्यादिसंरक्षण०३० द्वार पदिया बहुत प्रभूतः संयमी येषां ते संयमलाः । संयमप्रचुरेषु, प्रश्न०३ सेव० द्वार । संयमेन पृथ्यादिसंरक्षणलक्षणेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा । संयमो वा बहुलः प्रचुरो यस्य स तथा । प्रचुरतरसंयमे, स्था० ४ ठा० १ उ० । संजम भट्ट - संयम भ्रष्ट - त्रि० । दूरीकृतचारित्रगुणे, ग०२ अधि० संजमभउब्वेयणकर - संयम भयोइजनकर--त्रि०। सेयमाद्भयम् भीतिमुद्वेजनं चलने कुर्वन्तीत्येवंशीलं यत् तत् । संयमभयोब्रेजनशीले, भ० ६ श० ३३७० ।
संजमभारवहया संयमभारवहमार्थता श्री संयम पद
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संजमभारवहण. अभिधानराजेन्द्रः।
संजय भारस्तस्य वहन-पालनं स एवार्थः संयमभारवहनार्थस्त-संजमोवगरण-संयमोपकरण-न । संयममात्रार्थे साधूपकरद्रावस्तता । संयमपरिपालननिमित्ते विनयभेदे, भ० ७ | णे. श्राचा०११०२ १०५ उ० । श०१ उ०।
संजमोवघाइ(न)-संयमोपघातिन-त्रि०। सचित्तपृथिव्यादिके संजमलअट्ठ-संयमलजार्थ--पुं०। संयमार्थे लज्जार्थः।संयमरूप
भिक्षादात्री यत्र स्थिता अध उपरि च फलादि संघट्टयति लजार्थे, दश।
तादृशे स्थानादौ, ध० ३ अधिक। जं पि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । संजय-संयत-त्रिका सम्-एकीभावेन यतः संयतः क्रियायां प्र. तं पि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरति य ॥१६॥ यत्नवान् । श्राव०३ अायम उपरमे । संयच्छति स्म सर्वसा. दश० ६ अ० । (अस्या गाथाया व्याख्या 'वयछक्क' शब्दे |
वद्ययोगभ्यः सम्यगुपरमते स्मेति संयतः। नं०। आचा० । षष्ठभागे गता।)
सम्यग्गच्छति स्मेति संयतः 'गत्यर्थाकमें' ति कः । कर्म०२ संजमविग्धकर-संयमविघ्नकर-पुं० । संयमविघातकारिणि,
कर्म।पं० सं०। दर्शक यम उपरमे । सम्-सम्यग्यतः संयतः।
साधी, पा० । श्राचा० । सूत्र० । प्राण्युपमर्दानिवृत्ते, सूत्र०१ सूत्र०१ श्रु० ३ १०१ उ० ।
धृ०२१०३ उ० । सावधव्यापारेभ्यो निवर्तिते, उत्त० १२ संयमविराहणा-संयमविराधना-स्त्री०। मूलोत्तरगुणविराध
अ०। व्य० । ध० । सर्वविरते, स्था०४ ठा०४ उ० । सासनायाम् , नि० चू० १६ उ०।
म्यग् यतमाने , प्राचा० १ थु० १ ० २ उ० । संजमवुड़ि-संयमवृद्धि-त्रि० । संयमैधने, व्य०१उ०। सम्-सामास्त्येन यतः संयतः । सप्तदशप्रकारसंयमोपेते,
पा०। सम्यगुपयुक्ने, प्राचा०२०१चू०१०६उचाउत्त। संजमसामायारी-संयमसामाचारी-स्त्री विनयभेदे,प्रव०६५
संयमतोऽकरणीयेषु योगेषु सम्यक्प्रयत्नपरे , प्रा० चू. ५ द्वार । व्य।
अ० । सर्वदा-सर्वकालं यतः संयतः। पापानुष्ठानान्नितत्र संयमसामाचारीमाह
वृत्ते, सूत्र० १ श्रु० १२ १० । स्था० । दश । औ० । संजममायरति सयं,परं च गाहेति संजमं नियमा।
षट्कायरक्षणोपायरक्षण सम्यग्यते, वृ०१ उ० २ प्रक० । - सीयंते थिरिकरणं, उजयचरणं च उवव्हा ॥ २६४ ॥ प्रा०म० । इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवति, आचा०२ थु० १ 'स्वयं संयममाचरति, परं च नियमात् संयम प्राहयति ।
चू०१०६ उ० । निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपे सं
यमं प्रतिपन्ने, भ० २५ श०७ उ० । दश । प्रश्न। तथा संयमविषये सीदति स्थिरीकरणम् , उद्यतचरणं तु
. उपवृहयति । एषा संयमसामाचारी । व्य० १० उ०।
संजया दुविहा परमत्ता,तं जहा-पमत्तसंजया,अपमत्तसंजया संजमाऽणुदायि--संयमानुष्ठायिन-त्रिका संयमानुष्ठानकर्तरि, यं । तत्थ ण जे अपमत्तसंजया ते णो प्रायरंभा,णो परारंभा - आचा०१ श्रु०५१०३ उ० ।
जाव अणारंभा। तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुई जोगं संजमायहेउ-संयमात्महेतु-पुं०। संयमस्य पृथिव्यादिसंरक्षण- पडुच्च णो आयारंभा णो परारम्भा णो तदुभयारम्भा, अरूपस्यात्मनः स्वशरीरस्य संयमरूपस्य वाऽऽत्मनः हेतुर्निमि णारम्भा चेव । असुभजोगं पडच पायारंभा वि, त्तम् । संयमात्महेतुः । संयमात्मनिमित्ते, पश्चा० १३ विव०। परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा एवं जंबू । संयमायहेतु-पुं० । संयमस्य संयमलाभस्य हेतुर्निमित्तम् ।
दुप्पसहो जाव बकुसकुसीलेहिं तित्थं पवदिसमइ जहा संयमप्राप्तिनिमित्ते, पश्चा० १३ विव० ।
विवाहपन्नत्तीए । अङ्ग। संजमासंजम-संयमासंजम-पुं० । द्विःस्वभावात् देशसंयमे,
पश्च संयताःस्था०४ठा०४०। संजमित्ता-संयम्य-श्रव्य० । संयमनं कृत्वेत्यर्थे , सूत्र. १
कति ण भंते ! संजया पएणत्ता ?, गोयमा ! श्रु०१०१०
पंच संजया पण्णता, तं जहा-सामाइयसंजए छेदोवट्ठोसंजमुत्तम-संयमोत्तम-त्रि० । सर्वविरतौ, स०। प्रधानसंयमे, | वणियसंजए परिहारविसुद्धियसंजए सुहुमसंपरायसंजए स।
अहक्खायसंजए । सामाइयसंजए णं भंते ! कतिविहे पसंजमुत्तर-संयमोत्तर-त्रि० । संयमेन देशविरतिलक्षणेन ध- पत्ते , गोयमा! दुविहे पसते, तं जहा-इत्तरिए य, मेण उत्सरः प्रधानः । परिपूर्णसंयमे, उत्त०५०। आवकहिए य । छेप्रोवट्ठावणियसंजए णं पुच्छा , गोसंजमेरिया-संयमेा -स्त्री० । सप्तदशविधसंयमानुष्ठाने,
'यमा ! दुविहे पएणत्ते , तं जहा-सातियारे य निरतिअसंख्ययेषु संयमस्थानेषु एकस्मात् संयमस्थानादपरसं
यारे य , परिहारविसुद्धियर्सजए पुच्छा , गोयमा ! दुयमस्थानगमने, प्राचा०२ श्रु० १ चू० ३ १०१ उ०। संजमोच्छाहनिच्छिय-संयमोत्साहनिश्चित-त्रि० । संयमे
विहे पामते, तं जहा-णिब्बिसमाणए य, निविदुकाइए उत्साहो वीर्य निश्चितोऽवश्यंभाषी येषां ते संयमोत्साहनिः
य । सुहुमसंपराए पुच्छा, गोयमा! दुविहे पएणसे, तं श्चिताः। सर्पविरति प्रति निर्माते, स०।
जहा-संकिलिस्समाणए य, विसुद्धमाणए य | अहक्खा
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(१२) संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय यसंजए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पत्ते, तं जहा-छउ- लोभलक्षणकषायसूक्ष्मकिट्टिकाः वेदयन् यो वर्तत इति , शेष मत्थे य, केवली य । “सामाइयम्मि उकए, चाउआमंभ
कराव्यम्॥४॥'उबसंत' गाहा, अयमर्थः-उपशान्त मो
हनीये कर्मणि क्षीणे वा यश्छन्नस्थो जिनो या वर्तते स णुत्तरं धम्मं । तिविहेण फासयंतो, सामाइयसंजो स खलु |
यथाख्यातसंयतः खल्विति ॥५॥ ॥१॥ छेत्तूण उ परियागं, पोराणं जो ठवेह अप्पाणं ।
दद्वारेधम्मम्मि पंचजामे, छेदोवट्ठावणो स खलु ॥ २॥ परिह- सामाइयसंजए ण मंते ! किं सवेदए होजा, अवेदए रह जो विसुद्धं, तु पंचयामं अणुसरं धर्म । तिविहेण | होजा?, गोयमा! सवेदए वा होजा, अवेदए वा होजा। फासयंतो, परिहारियसंजमो स खलु ॥ ३ ॥ लोभाणु- जइ सवेदए एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं, एवं वेययंतो, जो खलु उवसाममो व खवो वा। सो सुहुम- छेदोवट्ठावणियसंजए वि, परिहारविसुद्धियसंजो जसंपराभो, अहखाया ऊणभो किंचि ॥ ४॥ उवसंते हा पुलाओ, सुहुमसंपरायसंजो अहक्खायसंजो य खीणम्मि व, जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि । छउम- जहा नियंठो॥२॥सामाइयसंजए णं भंते ! किं सरागे होत्थो र जिणो वा, अहखानो संजमो स खलु ॥ ५॥" आ वीयरागे होला ?, गोयमा सरागे होजा, नो वीयरा(सू०-७०६)।
गे होजा । एवं सुहुमसंपरायसंजए , महक्खायसंजए ज'कति णं भंते' इत्यादि , 'सामाझ्यसंजए.' ति सा- | हा नियंठे ॥ ३॥ सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे मायिकं नाम चारित्रविशेषस्तत्प्रधानस्तेन वा संयतः सा
होजा अद्वियकप्पे होआ ?, गोयमा! ठियकप्पे वा होमायिकसंयतः, एवमन्येऽपि । 'इत्तरिए य'ति इत्वरस्यभाविष्यपदेशाम्तरत्वेनाल्पकालिकस्य सामायिकस्यास्ति
आ अद्वियकप्पे वा होजा। छेदोवट्ठावणियसंजए पुच्छा, स्वादित्वरिका, स चारोपयिष्यमाणमहाव्रतः प्रथमपश्चिम- गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा, नो अडियकप्पे होजा, एवं तीर्थकरसाधु, 'आवकहिए य ' ति यावत्कथिकस्य- परिहारविसुद्धियसंजए वि , सेसा जहा सामाइयसंजए । भाषिव्यपदेशान्तराभावाद् यावज्जीविकस्य सामायिकस्या
सामाइयसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे स्तित्वाचावकथिकः, स च मध्यमजिनमहाविदेहजिनसंबन्धी साधुः , साइयारे य' सि सातिचारस्य यदारो
पा होज्जा कप्पातीते वा होजा?, गोयमा! जिणकप्पे प्यते तत्सातिचारमेव छेदोपस्थापनीयं, तद्योगात्साधुरपि
वा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं । छेदोवसातिचार एव । एवं निरतिसारख्छेदोपस्थापनीययोगानि- हावणिभो परिहारविसुद्धियो य जहा बउसो , सेसा जरतिचारः, सब शैक्षस्य पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरतीर्थसं- हा नियंठे ॥ ४ ।। (सू०-७८७ ) ॥ सामाइयसंजए णं काम्ती था, छेदोपस्थापनीयसाधुश्च प्रथमपश्चिमतीर्थयो
भंते ! किं पुलाए होज्जा बउसे०जाव सिणाए होज्जा ?, रख भवतीति, 'णिब्धिसमाणए य' ति परिहारिकतपस्तपस्थम् निठिबटुकाइए य' ति निर्विशमानकानुचरक - |
गोयमा! पुलाए वा होज्जा बउसे . जाव कसायकुत्यर्थः, 'संकिलिस्समाणए य" ति उपशमश्रेणीतः प्रव्यव
सीले वा होजा, नो नियंठे होज्जा नो सिणाए होमानः 'विसुखमाणए य' ति उपशमश्रेणी क्षपकणीं पा आ, एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धियसंजए समारोहन , 'छउमत्थे य केषली व' ति व्यकम् । अथ ण भंते ! पुच्छा , गोयमा! नो पुलाए नो बउसे नो सामायिकसंयतादीनां स्वरूपं गाथाभिराह-' सामाइयम्मि
सामाइयाम्म | पडिसेवणाकुसीले होज्जा, कसायकुसीले होजा नो निउ' गाहा, सामायिक एवं प्रतिपने न तु छेवोपस्थापनी. यादौ चतुर्यामम्-चतुर्महानतम् अनुत्तर धर्मम्
यंठे होआ नो सिणाए होआ, एवं सुहुमसंपराए वि। भ्रमणधर्ममित्यर्थः, त्रिविधेम-मनःप्रभृतिना फास- महक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा ! नो पुलाए होज्जा पंतो' ति स्पृशन्-पालयन् यो वर्तते इति शेषः सामा- जाव नो कसायकुसीले होज्जा नियंठे वा होजा सिणाए यिकसंयतः स खलु-निश्चितमित्यर्थः । अनया व गाथ
पा होजशासामाइयसंजए णं भैते ! किं पडिसवए होया यावत्कधिकसामायिकसयतः उक्तः । इत्यरसामायिकसं
ज्जा अपडिसेवए होज्जा, गोयमा! पडिसेवए वा होयतस्तु स्वयं वाच्यः ॥१॥'खेलूण' गाहा, करख्या,,बरं छेदोषडाषणे 'तिबेदन-पूर्वपर्यायच्छेदेन उपस्थाप- ज्जा भपडिसेवए वा होज्जा। जइ पडिसेवए होज्जा किं
व्रतेषु यत्र तच्छेदोपस्थापनं तयोगाच्छेवोपस्थापना, भ- मूलगुणपडिसेवए होजा सेसं जहा पुलागस्स, जहा सानया च गाथया सातिचार इतर द्वितीयसंयत उका माझ्यसंजए एवं छेदोवड्डावणिए वि। परिहारविसुद्धियसंज॥२॥'परिहरर' गाहा, परिहरति-निर्षिशमानकादिभेदं
ए पुच्छा ?, गोयमा ! नो पडिसेवए होजा अपडिसेवए होरुप पासवते यः साधुः, किं कुर्वन् ? इत्याह विशुखमेव पश्चयामम्-मनुत्तरं धर्म निषिधेन स्पृशन , परिहारिक
ज्जा एवं • जाव अक्खायसंजए ॥ ६॥ सामाइयसंजए संयतः स खरिषति, पश्चयाममित्यनेम व प्रथमचरमतीर्थ- ण मत कातसु नाणसु हाज्जा, गायमा दासु पोरेव तत्ससामाह ॥ ३॥ 'लोभाणु ' गाहा, लोभायन्- वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा , एवं जहा
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संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाई भयणाए, एवं०
च नाणाई भयणाए जहा णागुहेसए'ति, इह च शानोद्देशजाव सुहमसंपराए,अहक्खायसंजयस्स पंच नाणाई भय
कः-अएमशतद्वितीयोद्देशकस्य मानवक्तव्यतार्थमवान्तरप्र
करण, भजना पुनः केवलियथाख्यातचारित्रिणः केवलज्ञानं गाए जहा नाणुद्देसए । सामाइयसंजए ण भंते ! केव
छन्मस्थवीतरागयथाख्यातचारित्रिणोद्वे वा त्रीणि या चत्वातियं सुयं अहिजेजा ?, गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवय- रिया सानानि भवन्तीत्येवंरूपा । श्रुताधिकारे यथाख्याणमायाओ जहा कसायकुसीले, एवं छेदोवद्यावणिए वि, तसंयतो यदि निग्रन्थस्तदाऽष्टप्रवचनमात्रादि चतुर्दशपूपरिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा, गोयमा ! जहनेणं नव
न्तिं श्रुतम् , यदि तु स्नातकस्तदा श्रुतातीतोऽत एवाह
'जहनेणं अट्ठ पवयणमायाओ' इत्यादि । मस्स पुवस्स ततियं मायारवत्थु उक्कोसेणं असंपुन्नाई दस पुब्वाइं अहिजेजा , सुहुमसंपरायसंजए जहा सा
कालद्वारेमाइयसंजए | अहक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा! जहणं
सामाइयसंजए णं भंते ! किं भोसप्पिणीकाले होभट्ट पवयणमायामो उक्कोसेणं चोद्दस पुव्वाइं अहिजेजा
आ, उस्सप्पिणीकाले होजा, नो प्रोसप्पिणी नो उसुयवतिरित्ते वा होजा॥७॥सामाइयसंजए णं भंते ! किंति- स्सप्पिणीकाले होला ?, गोयमा ! भोसप्पिणीकाले स्थे होजा प्रतित्थे होजा?.गोयमा! तित्थे वा होगा जहा पउसे, एवं छेदोवट्ठावणिए वि, नवरं जम्मणं संअतित्थे वा होजा , जहा कसायकुसीले छेदोवट्ठावणिए तिभावं (च) पडुच्च चउसु वि पलिभागेसु नऽस्थि, परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए , सेसा जहा सामा- साहरणं पडुच्च अन्नयरे पडिभागे होजा, सेसं तं चेव । इयसंजए ॥८॥ सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलिंगे परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोयमा! ओसप्पिणीकाले वा होजा अबलिंगे होज्जा गिहिलिंगे होजा, जहा पुलाए, होजा, उस्सप्पिणीकाले वा होजा, नो प्रोसप्पिणीएवं छेदोवडावणिए वि । परिहारविसुद्धियसंजए ण भंते!| नो उस्सप्पिणीकाले होजा, जइ ओसप्पिणीकाले किं पुच्छा, गोयमा! दवलिंगं पि भावलिंग पि पडुच्च । होला जहा पुलाओ, उस्सप्पिणीकालेऽवि जहा पुसलिंगे होज्जा नो भनालिगे होज्जा नो गिहिलिंगे लाओ , सुहुमसंपराइयो जहा नियंठो, एवं अहवाहोज्जा, सेसा जहा सामाइयसंजए ॥8॥ सामाइयसंजए| भो वि ॥१२॥ (सू०-७८६) सामाइयसंजए णं भंते ! थी भंते ! कतिसु सररिसु होज्जा, गोयमा ! तिसु
कालगए समाणे किं गतिं गच्छति ?, गोयमा ! देवगति षा चउसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले , एवं छेदो- गच्छति । देवगतिं गच्छमाणे किं भवणवासीसु उववज्जेजा, बढावणिए बि, सेसा जहा पुलाए ॥१०॥ सामाइयसंजए| वाणमंतरेसु उववजेजा,जोइसिएसु उववज्जेजा, वेमाणिएणं भते ! किं कम्मभूमीए होजा कम्मभूमीए होजा, सु उववजेजा, गोयमा ! यो भवणवासीसु उववजेजा भोयमा! जम्मणं संतिभावं च पडुप कम्मभूमीए नो
जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परिहारविअकम्मभूमीए जहा बउसे, एवं छेदोबड्डावणिए वि, परि- सुद्धिए जहा पुलाए । मुहुमसंपराए जहा नियंठे । अहक्खाहारविसुद्धिए य जहा पुलाए , सेसा जहा सामाइयसंजए
ए पुच्छा, गोयमा! एवं महक्खायसंजए वि० जाव अज॥ ११ ॥ (सू० ७८८)
हममणुकोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववज्जेजा, अत्थे गतिए
सिझति • जाप अंतं करेंति । सामाइयसंजए णं भंते ! सामायिकसयतःसवेदकोऽपि भवेदवेदकोपि भवेत् ,नवमगु-देखलोगोस उवबजमाणे किं इंदत्ताए उववजति पुच्छा, णस्थानके हिघेदस्योपशमःक्षयो षा भवति, नवमगुणस्थानकं च यावत्सामायिकसंयतोऽपि ग्यपदिश्यते । 'जहा क-|
गोयमा अबिराहणं पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले । एवं सायकुसीले ' ति सामायिकसंयतः सवेदनिवेदोऽपि स्या- छेदोबट्ठावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए ।सेसा त् , अधेदस्तु क्षीणोपशाम्तवेद इत्यर्थः। 'परिहारविसुद्धिय- जहा नियंठे। सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उवसंजए जहा पुलागो' ति पुरुषवेदो वा पुरुषनपुंसकवेदो वा
बजमाणस्स केवतियं कालं ठिती णं परमत्ता ?, गोयमा ! स्यादित्यर्थः, 'सुहमसंपराये' त्यादौ 'जहा नियंठो' सि | क्षीणोपशान्तवेदत्वेनावेदक इत्यर्थः । एवमन्यान्यप्यतिदेश
जहनेणं दो पलिभोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, सूत्राण्यनन्तरोदेशकानुसारेण स्वयमवगन्तब्यानीति । क- एवं छेदोवट्ठावणिए वि, परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोपद्वारे- णो अट्टियकप्पे' ति अस्थितकल्पो हि मध्य- यमा ! जहन्नेणं दो पलिओवमाई उक्कोसेणं अट्ठारस सामजिनमहाविदेहजिनतीर्थेषु भवति , तत्र व छेदोपस्थाप
गरोवमाई, सेसाणं जहा नियंठस्स ॥१३॥ [सू० ७६०] । मीय नास्तीति । चारित्रद्वारमाश्रित्येदमुक्तम्-' सामाइयसंजए णं भंते ! किं पुलाए' इत्यादि , पुलाकादिपरि
सामाइयसंजयस्सणं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पमत्ता, पामस्थ चारित्रत्वात्। शानद्वारे-'अहक्खायसंजयस्स पं-1 गोयमा! असंखेा संजमढाणा पसत्ता, एवं० जाव परि
२४
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(१४) संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय हारविसुद्धियस्स । सुहमसंपराइयसंजयस्स पुच्छा, गो- | संजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं उक्कोसयमा! असंखेजा अंतोमुहत्तिया संजमट्ठाणा पमत्ता। गा चरित्तपज्जवा दोएह वि तुला अनंतगणा, मदअहक्खायसंजयस्स पुच्छा, गोयमा! एगे अजहन्नमणु- मसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, कोसए संजमट्ठाणे, एएसिणं भंते ! सामाइयछेदोवट्ठावणि- तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपजवा अणंतगुणा, अहयपरिहारविसुद्धियसुहुमसंपरायहक्खायसंजयाणं संजम- क्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपञ्जवा अणंतद्वाणाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! गुणा॥१॥ सामाइयसंजए णं भंते! किं सजोगी होजा,अ. सव्वत्थोवे महक्खायसंजयस्स एगे अजहन्नमणुक्कोसए सं- जोगी होजा?, गोयमा! सजोगी, जहा पुलाए, एवं जाव जमट्ठाणे महुमसंपरायसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठा- सुहुमसंपरायसंजए, अहक्खाए जहा सिणाए ॥१६॥ साणा असंखेजगुणा परिहारविसुद्धियसंजयस्स संजमट्ठाणा | माइयसंजए णं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा अणागारोवअसंखेअगुणा, सासाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणियसंजयस्स | | उत्ते होजा?, गोयमा! सागारोवउत्ते जहा पुलाए एवं जाव य एएसिणं संजमट्ठाणा दोण्ह वि तुल्ला असंखजगुणा अहक्खाए, नवरं सुहुमसंपराए सागारोवउत्ते होजा, नो ॥१४॥ (सू० ७६१) सामाइयसंजयस्स णं भंते ! अणागारोवउत्ते होजा॥१७॥ सामाइयसंजए णं भंते ! किं केवाया चरित्तपजवा परमत्ता, गोयमा! अणंता चरित्त- सकसायी होजा अकसायी होजा, गोयमा सकसायी पजवा पमत्ता, एवंजाब अहक्खायसंजयस्स । सामाइय- होज्जा; नो अकसायी होजा, जहा कसायकुसीले । एवं संजए णं भंते ! सामाइयसंजयस्स सट्ठाणसभिगासे ण च- छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। सुहुमरित्तपञ्जवेहिं किं हीणे तुल्ले अब्भहिए?, गोयमा! सिय
संपरागसंजए पुच्छा, गोयमा ! सकसायी होजा नो अहोणे छट्ठाणवडिए । सामाइयसंजए णं भंते ! छेदोवट्ठाव
कसायी होजा, जइ सकसायी होजा से णं भंते ! कतिसु णियसंजयस्स परट्ठाणसभिगासेणं चरित्तपअबेहिं पुच्छा ,
कसायेसु होला ?, गोयमा! एगम्मि संजलणलोभे होजा, गोयमा ! सिय हीणे छहाणवडिए, एवं परिहारविमुद्धिय
अहक्खायसंजए जहा नियंठे॥१८॥सामाइयसंजए णं भंते! स्स वि । सामाइयसैजए णं भंते ! सुहुमसंपरागसंजयस्स
किं सलेस्से होजा अलेस्से होजा, गोयमा ! सलेस्से परट्ठाणसभिगासे ण चरित्तपजवे पुच्छा, गोयमा! हीणे नो
होजा जहा कसायकुसीले । एवं छेदोवट्ठावणिए वि । परितुले नो अभाहिए अणंतगुणहीणे, एवं अहक्खायसंजयस्स
हारविसुद्धिए जहा पुलाए । सुहुमसंपराए जहा नियंठे । वि। एवं छेदोवट्ठावणिए वि,हेडिल्लेसु तिसु वि समं छट्ठाणव
अहक्खाए जहा सिणाए। नवरं जइ सलेस्से होजा एगाए डिए उवरिल्लेसु दोसु तहेव हीणे, जहा छेदोवट्ठावणिए तहा
सुक्कलेस्साए होजा ॥१३॥(सू०-७६२) परिहारविसुद्धिए वि | सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! सामा
'एवं छोवट्ठावणिए वि' त्ति, अनेन बकुशसमानः काइयसंजयस्स परट्ठाणे पुच्छा, गोयमा! नो हीणे नो तुल्ले
लतश्छदोपस्थापनीयसंयत उक्नः । तत्र च बकुशस्य उत्सअन्भहिए अणंतगुणमब्भाहिए एवं छेप्रोवट्ठावणियपरिहा- पिण्यवसपिणीव्यतिरिक्लकाले जन्मतः सद्भावतश्च सुषरविसुद्धिएसु वि समं सट्ठाणे सिय हीणे नो तुल्ले सिय अब्भ
मसुषमादिप्रतिभागत्रये निषेधोऽभिहितः, दुषमसुषमाप्र
तिभागे च विधिः । छेदोपस्थापनीयसंयतस्य तु तत्राऽपि नि हिए,जइ होणे अणंतगुणहीणे अह अब्भहिए अणंतगुणम
पेधार्थमाह-'नवर' मित्यादि । संयमस्थानद्वारे-- सुहुभहिए, सुहुमसंपरायसंजयस्स अहक्खायसंजयस्स परट्ठाणे
मसंपराये' त्यादौ ' असंखजा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाण' पुच्छा, गोयमा! हीणे नो तुल्ले नो अब्भहिए अणंतगुणही- त्ति अन्तर्मुहुर्ते भवानि आन्तर्मुहर्तिकानि, अन्तर्मुहर्तप्रण,अहक्खाए हेडिल्लाणं चउण्ह वि नो हीणे नो तुल्ले अन्भ- माणा हि तदद्धा, तस्याश्च प्रतिसमयं चरणविशुद्धिविशेषहिए अणंतगुणमब्भहिए सहाणे नो हीणे तुल्ले नो अब्भाहिए
भावादसंख्ययानि तानि भवन्ति, यथाख्याते त्वेकमेव, त
दद्धायाश्चरणविशुद्धेनिर्विशेषत्वादिति । संयमस्थानास्पबहुएएसि ण भंते ! सामाइयछेदोवट्ठावणियपरिहारविसुद्धि
त्वचिन्तायां तु किलासद्भावस्थापनया समस्तानि संयमयसुहुमसंपरायअहक्खायसंजयाणं जहन्नुकोसगाणं चरित्त
स्थानान्येकविंशतिः, तत्रैकमुपरितनं यथाख्यातस्य, ततापजवाणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! | ऽधस्तनानि चत्वारि सूक्ष्मसंपरायस्य, तानि च तस्मादसामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं
संख्ययगुणानि दृश्यानि, तेभ्योऽधश्चत्वारि परिहत्याभ्या
न्यपी परिहारिकस्य, तानि च पूर्वेभ्योऽसंख्ययगुणानि जहन्नगा चरित्तपज्जवा दोएह वि तुल्ला सव्वत्थोवा परि
दृश्यानि । ततः परिहतानि यानि चत्वार्यष्टौ च पूर्वोक्ताहारविसुद्धियसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपञ्जवा अणतगुणा नि तेभ्योऽन्यानि चत्वारीत्येवं तानि षोडश सानातस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपजवा अनंतगुणा सामाइय- यिकच्छदोपस्थापनीयसंयतयोः, पूर्वेभ्यश्चतान्यसंख्यातगु
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( १५) संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय णानीति । सन्निकरद्वारे-'सामाइयसंजमे णं भंते ! सामा- मो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तमुहर्त तदुत्तरकालं तदव्यवइयसंजयस्से' त्यादौ सिय हीणे ' ति असंख्यातानि च्छेदात् , अवस्थितपरिणामस्तु जघन्यन समयम् , उपतस्य संयमस्थानानि , तत्र च यदैको हीनशुद्धिकेऽन्य- शमाऽद्धायाः प्रथमसमयानन्तरमव मरणात् , 'उकासगं स्त्वितरत्र वर्तते तदैको हीनोऽन्यस्त्वभ्यधिकः, यदा तु- देसूणा पुवकाडि 'त्ति एतच्च प्राग्वद्भावनीयमिति । समाने संयमस्थाने वर्तते तदा तुल्ये , हीनाधिक
बन्धद्वारेवे च पदस्थानपतितत्वं स्यादत एवाऽऽह-छट्ठाणवडि- सामाइयसंजए णं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ ?, प' त्ति उपयोगद्वारे-सामायिकसंयतादीनां पुलाकवदुप- गोयमा ! सत्तविहबंधइ वा अट्ठविहबंधए वा एवं जहा बयोगद्वयं भवति । सूक्ष्मसम्परायसंयतस्य तु विशेषोपदर्शना
उसे , एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहुमसंपरागसंजए थमाह-'नवरं सुहुमसंपराइए' इत्यादि , सूक्ष्मसम्परायः साकारोपयुफ्तस्तथास्वभावत्वादिति । लेश्याद्वारे-यथाख्या
पुच्छा, गोयमा ! आउयमोहाणिज्जवजारो छ कम्मप्पगतसंयतः स्नातकसमान उक्तः । स्नातकश्च सलेश्यो वा स्या
डीओ बंधति,अहक्खाए संजए जहा सिणाए।।२१।।सामाइदलेश्यो वा । यदि सलेश्यस्तदा परमशुक्ललेश्यः स्यादित्येव- यसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ?,गोयमा! मुक्तः । यथाण्यातसंयतस्य तु निग्रन्थत्वापेक्षया निर्विशेष
नियम अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेति, एवं जाव० सुहुमसंणापि शुक्ललेश्या स्यादतोऽस्य विशेषस्याभिधानार्थमाह'पवरं जह' इत्यादि।
पराए । अहक्खाए पुच्छा , गोयमा ! सत्तविहवेयए परिणामद्वारे
वा चउबिहवेयए वा, सत्तविहवेदमाणे मोहणिजबसामाइयसंजए णं भंते ! किं वड्डमाणपरिणामे होजा,
आओ सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेति , चत्तारि वेदेमाणे हीयमाणपरिणामे होजा,अववियपरिणामे वा होजा?.गो- वेयणिजाओ य नामगोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेयमा बढमाणपरिणामे जहा पुलाए । एवं०जाव परिहा
| देति ॥२२॥ सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगरविसुद्धिए । सुहुमसंपराए पुच्छा, गोयमा ! वड्डमाणप
डीओ उदीरेति ? , गोयमा ! सत्तविह जहा यउसो , रिणामे वा होजा हीयमाणपरिणामे वा होता. नो अव- एवं जाव परिहारविसुद्धिए । सुहमसंपराए पुच्छा, गोट्ठियपरिणामे होआ। अहक्खाए जहा नियंठे । सामाइ- यमा! छब्बिह उदीरए वा पंचविह उदीरए वा, छ उयसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वडमाणपरिणामे होआ?, दीरमाणे पाउयवेयणिज्जवज्जायो छ कम्मप्पगडीओ उगोयमा ! जलेणं एकं समयं जहा पुलाए । एवं० जाव दीरेइ, पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिजमोहणिज्जवजारो परिहारविसुद्धिए वि । सुहमसंपरागसंजए णं भंते ! के- पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेइ । अहक्खायसंजए पुच्छा , वतियं कालं वडमाणपरिणामे होला ?, गोयमा ! ज
गोयमा ! पंचविह उदीरए वा दुविह उदीरए वा अणुहनेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । केवतियं कालं
दीरए वा, पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जबजात्रो सेसं हीयमाणपरिणामे एवं चेव । अहक्खायसंजए णं भंते ! |
जहा नियंठस्स।।२३।(सू०७६४)।सामाइयसंजए ण भंते ! केवतियं कालं बड्माणपरिणामे होजा ? , गोयमा !
सामाइयसंजयत्तं जहमाणे किं जहति किं उवसंपञ्जति ?, जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं कैवतियं कालं
गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति छेदोवट्ठावणियसंजय वा अवट्ठियपरिणामे होजा?, गोयमा ! जहन्नेणं एकं समयं
सुहमसंपरागसंजयं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंउक्कोसेणं देसूणा पुन्चकोडी ॥२०॥ (सू०-७६३)।
पज्जति । छेप्रोबट्ठावणिए पुच्छा,गोयमा ! छेओवट्ठावणिय'सुहुमसंपराए' इत्यादौ, 'बढमाणपरिणामे वा होजा ही
संजयत्तं जहति सामाइयसंजत्तं जहति परिहारविमुद्धियत्तं यमाए परिणामे वा होजा नो अवट्रियपरिणाम होज' त्ति जहति सुहमसंजमं वा उपसंपज्जति असंजमं वा उपसंपज्जति सूक्ष्मसंपरायसंयतः श्रेणिं समारोहन वर्द्धमानपरिणामस्त- संजमासंजमं वा उपसंपज्जति । परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोतो भ्रस्यन् हीयमानपरिणामः , अवस्थितपरिणामस्त्वसौन
| यमा! परिहारविसुद्धियसंजयत्तं जहति, छेदोबट्ठावणियभवति , गुणस्थानकस्वभावादिति । तथा 'सुहमसंपरायसंजए णं भंते ! कवइयं काल ' इत्यादी' जहन्नेणं एकं स
संजय वा असंजमं वा उवसंपञ्जति । सुहुमसंपराए पुच्छा, मय' ति सूक्ष्मसंपरायस्य जघन्यती वर्द्धमानपरिणाम एकं गोयमा ! सुहमसंपरायसंजयत्तं जहति सामाइयसंजय समयं प्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणात् , ' उक्कोसेणं अतो- वा छेदोवद्यावणियसंजयं वा अहक्खायसंजयं वा मुहुत्तं' ति तहुणस्थानकस्यैतावत्प्रमाणत्वात् , एवं तस्य
असंजमं वा उपसंपज्जइ । अहक्खायसंजए ण हीयमानपरिणामोऽपि भावनीय इति । तथा 'अहक्खायसंजए गभंते !' इत्यादी 'जहन्नणं अंतोमुहुत उकासे
पुच्छा , गोयमा ! अहक्खायसंजयत्तं जहति सुरण पि अंतोमुहुर्स' ति यो यथाख्यातसंयतः केवलज्ञानमु
हुमसंपरायसंजयं वा असंजयं वा सिद्धिगति वा उपसंत्पादयिष्यति यश्व शैलेशीप्रतिपन्नस्तस्य वर्द्धमानपरिणा- पजति ॥ २४ ॥ ( सू० ७६५ ) सामाइयसंजए णं
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( ६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संजय
भंते ! किं सन्नावउसे होज्जा नो सन्नोवउत्ते होजा १, गोयमा ! सन्नोवउत्ते जहा बाउसो, एवं० जाव परिहारविसुद्धिए, सुहुमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए ।। २५ ।। सामाइयसंजए गं भंते ! किं महारए होजा, अनाहारए होआ, जहा पुलाए, एवं ०जाव सुहुमसंपराय, महत्खायसंजए जहा सिखाए ॥ २६ ॥ सामाइमसंजय गं भंते ! कति भवग्गहणाई होजा १, गो
! होणं एकं समयं उकोसे अट्ठ, एवं वेदोबडाबथिएऽबि । परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोयमा ! जहसेणं एकं समयं उक्कोसेणं तिन्नि, एवं० जाव अहक्खाए ||२७|| [सू०-७६६]
'सुडुमसंपराए' इत्यादौ ' आउयमोहणिज्जवज्जाश्रो छ कम्मपगडीओ बंध' ति सूक्ष्मसम्पराय संयतो ह्यायुर्न बध्नाति अप्रमत्तान्तत्वात्तद्वन्धस्य, मोहनीयं च यादरकषायोदयाभावाच बध्नातीति तद्वर्जाः षट् कर्म्मप्रकृतीनातीति । वेदद्वारे - ' अहक्खाये' त्यादौ सत्तविहवेयर वा
व्हिवेयप व ' सि यथाख्यातसंयतो निर्ग्रन्थावस्थायां 'माहवज्ज' सि मोहवजीनां सप्तानां कर्म्मप्रकृतीनां वेदको मोहनीयस्योपशान्तत्वात् क्षीणत्वाद्वा, स्नातकावस्थायां तु चतसृणामेव, घातिकर्म्मप्रकृतीनां तस्य क्षीणत्वात् । उपलम्पद्धानद्वारे -' सामाइयसंजर ण 'मित्यादि, सामायिकसंयतः सामायिकसंयतत्वं त्यजति, छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते, चतुर्यामधर्म्मात्पञ्चयामधर्म्मसंक्रमे पार्श्वनाथशि यवत्, शिष्यको वा महावतारोपणे, सूक्ष्मसंप रायसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणिप्रतिपत्तितः असंयमादिर्वा भवेद्भावप्रतिपातादिति । तथा छेदोपस्थापनीय संयतश्छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते, यथाऽऽदिदेवतीर्थसाधुः अजितस्वामितीर्थे प्रतिपद्यमानः, परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते, छेदोपस्थापनीयवत एव परिहारविशुद्धिसंयमस्य योग्यत्वादिति । तथा परिहारविशुद्धिकसंयतः परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं त्यजन् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते पुनर्गच्छाद्याश्रयणात्, असंयमं वा प्रतिपद्यते देवत्वोत्पत्ताविति । तथा सूक्ष्मसम्पराय संयतः सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं श्रेणीप्रतिपातेन त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते, यदि पूर्व सामायिकसंयतो भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते, यदि पूर्व छेदोपस्थापनीयसंयतो भवेत् यथाख्यातसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणीसमारोहणत इति, तथा यथाक्यातसंयतो यथाख्यातसंयतत्वं त्यजन् श्रेणिप्रतिपतनात् सूक्ष्मसम्पराय संयतत्वं प्रतिपद्यते असंयमं वा प्रतिपद्यते, उपशान्तमोहत्वे मरणात् देबोत्पत्तौ सिद्धिगति वोपसम्पद्यते स्नातकत्वे सतीति ।
- आकर्षद्वारे
सामाइयर्सजयस्स गं भंते ! एगभवग्गहणीया केवतिया मागरिसा पण्णत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं जहा बउसस्स,
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संजय छेदोवडावणियस्स पुच्छा गोयमा ! जहमेणं एकं उकोसेणं बीसपुहुतं । परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहणं एक, उक्कोसेणं तिमि । सुडुमसंपरायस्स पुच्छा, गोयमा ! जहमेणं एक्कं, उनकोसेणं चत्तारि । अहक्खायस्स पुच्छा, गोयमा ! अहमेणं एक्कं, उनकोसे दोमि । सामाइयसंजयस्स णं मंते ! नाखाभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहा बउसे । छेदोवडाबयियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहमेणं दोनि, उक्को सेणं उबरिं नवयहं सयाणं अन्तोसहस्सस्स परिहारविसुद्वियस्स जहमेणं दोभि, उकोसेयं सत्त । सुहुमसंपरायस्स जहणं दोभि, उक्कोसेणं नव । महक्खाग्रस्त जहनेणं दोन, उक्कोसेणं पंच । ( ० – ७६७ )
'छेदोवट्ठावणीयस्से' त्यादौ 'बीसपुष्टुतं' ति छेदोपस्थानीयस्योत्कर्षतो विंशतिपृथक्त्वं पञ्चषादिविंशतयः श्राकर्षाणां भवन्ति, परिहारविसुद्धियस्से' त्यादौ ' उक्कोसेणं तिन्नित्ति परिहारविसुद्धिकसंयतत्वं त्रीन् वारान् एकत्र भवे उत्कतः प्रतिपद्यते, 'सुडुमसंपरायस्से' त्यादौ ' उक्कोसेण चत्तारि' सि एकत्र भवे उपशमश्रेणीद्वयसंभवेन प्रत्येकं संक्तिश्यमानविशुद्धयमानलक्षणसूक्ष्म संपरायद्वयभावाश्चतस्रः प्रतिपत्तयः सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं भवन्ति, ' अहक्खाये ' स्यादौ ' उक्कोसे दोनि' ति उपशमश्रेणीद्वयसम्भवादिति । नानाभवग्रहाऽऽकर्षाधिकारे 'छेश्रोवट्ठावणीयस्से' त्यादौ 'उक्कोसें उवरि नवराहं सयाणं श्रन्तो सहस्स' ति कथम्? किलेss भवग्रह पविशतय आकर्षाणां भवन्ति, ताश्रष्टाभिर्भवैर्गुणिता नव शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति । इदं च संभवमात्रमाश्रित्य संख्याविशेष प्रदर्शनमतोऽन्यथाऽपि यथा नव शतान्यधिकानि भवन्ति तथा कार्यम् । 'परिवार विशुद्धियस्से' स्यादौ 'उक्कोसणं सत्त' ति कथम् ?, एकत्र भवे तेषां त्रयाणामुक्लत्वात् भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र भवे त्रयं द्वितीये इयं तृतीये इयमित्यादिषिकल्पतः सप्ताऽऽकर्षाः परिहारविशुद्धिकस्येति । 'सुडुम संपरायस्से' त्यादौ ' उक्कोसें नयति कथम् ?, सूक्ष्म संपराक स्यैकत्र भवे आकर्षचतुष्कस्योक्तत्वाद्भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र चत्वारो द्वितीयेऽपि चत्वारस्तृतीये चैक इत्येवं नवेति । ' अहखाए' इत्यादी' उक्को से पंचसि, कथम् ? यथाख्यात संयतस्यैकत्र भये द्वावाकर्षो द्वितीये ब द्वावेकत्र चैक इत्येव पञ्चेति ।
कालद्वारे
सामाइय संजय गं भंते ! कालओ केवश्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी, एवं छेदोवडावणिए वि । परिहारविसुद्धिए जहभेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देभ्रूणएहिं एगूणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी, सुहुमसंपराए जहा नियंठे, अहम्खाए जहा सामाइयसंजए ।
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संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय सामाइयसंजया णं भंते ! कालो केवच्चिरं होइ ? ,गो- वा दो वा तिनि वा उक्कोसेणं वावट्ठसयं अट्टत्तरसयं खयमा! सम्बद्धा, छेदोवट्ठावणिएसु पुच्छा ?, गोयमा! मगाणं च उप्पन्नं उवसामगाणं, पुवपडिवमए पडुच्च जहन्नेणं अड्डाइजाई वाससयाई उक्कोसेणं पन्नासं सागरो- जहन्नेणं कोडिपुडुत्तं उक्कोसेणं वि कोडिपुहुत्तं । एएसि णं वमकोडिसयसहस्साई । परिहारविसुद्धीए पुच्छा, गोयमा! | भंते ! सामाइयछेओवट्ठावणियपरिहारविसुद्धियसुहमसंपजहमणं देसूणाई दो वाससयाई उक्कोसेणं देसूणाश्रो दो रायग्रहक्खायसंजयाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया', पुन्चकोडीभो। सुहमसंपरागसंजया णं भंते ! पुच्छा , गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहमसंपरायसंजया परिहारविसुगोयमा! जहमेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं , द्धियसंजया संखेज्जगुणा अहक्खायसंजया संखेजगुणा अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया ॥ २६ ॥ सामा- छेप्रोचट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा सामाइयसंजया संइयसंजयस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होई, खेजगुणा ॥ ३६ ॥ (सू०-७६८) गोयमा ! जहणं जहा पुलागस्स एवंजाव अहक्खाय- 'सामाइय' इत्यादौ सामायिकप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरसंजयस्स । सामाइयसंजयस्स भंते ! पुच्छा, गोयमा! मेव मरणादेकः समयः , 'उकोसणं देसूणएहि नहिं वानऽस्थि अंतरं । छेदोवट्ठावणियपुच्छा, गोयमा ! जहणं
सेहिं ऊणिया पुवकोडि'त्ति यदुक्तं तद्गर्भसमयादारभ्या
बसेयम् , अन्यथा जन्मदिनापेक्षयाऽष्टवर्षोनिकैव सा भवतेवढि वाससहस्साई उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमको
तीति , 'परिहारविसुद्धिए जहन्नणं पकं समय ' ति मरडाकाडीमो,परिहारविसुद्धियस्म पुच्छा? गोयमा! जहन्नेणं | णापेक्षमेतत् , 'उकोसेण देसूणएहिं ' ति , अस्थायमर्थःचउरासीय वाससहस्साई उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमको- देशोननववर्षजन्मपर्यायेण केनापि पूर्वकोट्ययुषा प्रमज्या डाकोडीमो सुहुमसंपरायाणं जहा नियंठाणं । अहक्खा
प्रतिपन्ना , तस्य च विंशतिवर्षप्रवज्यापर्यायस्य दृष्टिवादो
ऽनुज्ञातस्ततश्चासौ परिहारविशुद्धिकं प्रतिपन्नः, तच्चाष्टायाणं जहा सामाइयसंजयाणं ॥३०॥ सामाइयसंजयस्स णं
दशमासमानमप्यविच्छिन्नतत्परिणामेन तेनाजन्म पालितमिभंते ! कति समुग्घाया पसत्ता ? , गोयमा ! छ समुग्धा- | त्येवमेकोनत्रिंशद्वर्षोनां पूर्वकोटिं यावत्तत्स्यादिति , ' अहया पञ्चचा तं जहा-कसायकुसीलस्स । एवं छेदोवट्ठाव- क्वाए जहा सामाझ्यसंजए 'त्ति तत्र जघन्यत एकं सणियस्स वि । परिहारबिसुद्धियस्स जहा पुलागस्स । सुहु
मयम् उपशमावस्थायां मरणात् , उत्कर्षतो देशोना पूर्व
कोटी , स्नातकयथाख्यातापेक्षयेति । पृथक्त्वेन कालचिन्तामसंपरागस्स जहा नियंठस्स । अहक्खायस्स जहा सि
यां 'छेत्रोवट्ठावणिए' इत्यादि , तत्रोत्सर्पिण्यामादितीर्थकणायस्स ।। ३१ ॥ सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं रस्य तीर्थ यावच्छेदोस्थापनीयं प्रभवतीति , तीर्थ च संखेजहभागे होछा असंखेञ्जइभागे पुच्छा , गोयमा !
तस्य सार्द्ध वर्षशते भवतीत्यत उक्तम्-' अहारजाई'
इत्यादि , तथाऽवसपिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेनो संखेजइ जहा पुलाए, एवं० जाव सुहुमसंपराए ।
दोपस्थापनीयं प्रवर्तते तच पश्चाशत्सागरोपमकोटीलक्षा अहक्खायसंजए जहा सिणाए ॥ ३२ ॥ सामाइयसंजए इत्यतः 'उकोसेणं पन्नास' मित्याधुक्तमिति । परिहारविशुणं भंते ! लोगस्स किं संखेजइभागं फुसइ जहेव होजा द्धिककालो जघन्येन 'देसूणाई दो वाससयाई' ति, कथम् !, तहेव फुसइ ॥ ३३ ॥ सामाइयसंजए यं भंते! कयरम्मि उत्सपिण्यामाद्यस्य जिनस्य समीपे कश्चिद्वर्षशतायुः परि
हारविशुद्धिक प्रतिपमस्तस्यान्तिके तज्जीवितान्तेऽन्यो वर्षभावे होला ?, गोयमा ! उपसमिए भावे होजा, एवं
शतायुग्व नतः परतो न तस्य प्रतिपत्तिरस्तीत्येवं वे वर्षशते, जाव सुहमसंपराए । प्रहक्खायसंपराए पुच्छा, गोयमा! तयोश्च प्रत्येकमेकोनत्रिशतिवर्षेषु गतेषु तत्प्रतिपत्तिरित्येउवसमिए वा खइए वा भावे होजा ॥३४॥ सामाइयसं- वमयपश्चाशता वर्षेन्यूने ते इति-देशोने इत्युक्तम् , एतश्च टीजयाणं भंते ! एगसमएणं केवतिया होजा?, गोयमा ! काकारव्याख्यानम् , चूर्णिकारव्याख्यानमप्येवमेव, किन्त्वधपडिवजमाणए य पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव नि
सपिण्यन्तिमजिनापेक्षमिति विशेषः । ' उक्कोसेणं देसूणाओ
दो पुवकोडीनो' त्ति , कथम् ?, अवसपिण्यामावितीर्थरवसेसं । छेदोवट्ठावणिया पुच्छा , गोयमा ! पडिवजमा- |
करस्यान्तिके पूर्वकोट्यायुः कश्चित्परिहारविशुद्धिकं प्रतिपए पडुच सिय अस्थि, सिय नऽस्थि,जइ अस्थि जहमेणं पन्नस्तस्यान्तिके तज्जीवितान्तेऽन्यस्तारश एव तत्प्रतिपत्रएको वा दो वा तिमि वा उकोसेणं सयपुहुत्तं , पुन्वए- इत्येवं पूर्वकोटीद्वयं तथैव देशोनं परिहारविशुद्धिकसंडिवन्नए पहुच सिय, अस्थि सिय नऽस्थि , जइ अस्थि यतत्वं स्यादिति । अन्तरद्वारे-'छेश्रोपट्टावणिए' स्यादौ जजहमण कोडिसयपुहुतं उकासेण वि कोडिसयपुहु, प
होणं तेवट्टि वाससहस्साई' ति, कथम्?, अवसपिण्यां दुरिहारविसुद्रिया जहा पुलागा। सुहुमसंपराया जहा नियंठा।
रुषमा यावच्छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते, ततस्तस्या एवैकविंश
तिवर्षसहनमानायामेकान्तदुष्षमायामुत्सर्पिण्याश्चैकान्तदुअहमखायसंजयाणं पुच्छा , गोयमा! पडिवजमाणए प
षमायां च तत्प्रमाणायामेव तदभावः स्यात्, एवं बैकबसिय अस्थि सिय नऽस्थि, जइ अस्थि जहणं एको विशतिवर्षसहस्रमानत्रयेण त्रिषप्रियर्षसहस्राणामन्तरमिति ।
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संजय
उक्कोंसणं अट्ठारससागरोयपकोडाकीओ' ति किलो- | पियां चतुर्विंशतितमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयं प्रवर्त्तते, नथ सुषममानिसमात्रय क्रमेण द्वित्रिचतुः सागरोयमकोटीकोटीमा मासुमा दित्रये क्रमेण चतुखिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीतप्राये प्रथमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तत इत्येवं यो दोपस्थापनीयस्यान्तरं भवति । पच्चेह किश्चिन पूर्यते यच पूर्वसूत्रे ऽतिरिच्यते तदल्पत्वान्न विवक्षितमिति । 'परिहारविसुदिवसे त्यादि परिहारविशुद्धिकसंवतस्यातरं जघन्यं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि कथम् अवसि या दुष्पमैकान्तदुष्पमयोरुत्सर्पिर या चैकान्तदुष्षमा दुष्पमयोः प्रत्येकमेकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणत्वेन चतुरशीतिवर्षसहस्राणां भवति तत्र च परिहारविशुद्धिकं न भवतीति कृत्वा जघन्यमन्तरं तस्य यथोक्तं स्यात्, यश्चेहान्तिमजिनानन्तरो दुष्पमायां परिहारसिद्धिकालो पोत्
यसमायां परिहारविशुद्धिकप्रतिपत्तिकालात्पूर्वः कालो नासो विपक्षितापादिति उनको अट्ठारससागरो यमकोडाकोडीओ ति येोपस्थापनीयोत्कृष्टान्तरददस्य भावना कार्येति । परिणामद्वारे दोषद्वायलिये इत्यादी
जहां फोडी उनको पि कोडीसपु ति. देवीपस्था पनी पसंयत परिचामादिकर म्याधित्य संभवति जयन्तु तत्सम्यग् नावश्यत दुष्मन्तं भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तद्द्वयस्य भावाद्विशतिरेव तयादितीर्थक राणां यस्तीर्थकालस्तदपेक्षयैव समवसेयम्, कोटीशतपृथकत्वं च जघन्यमल्पतरमुत्कृष्टं च बहुतरमिति । श्रल्पबहुवारे सवयीवा सुमपराजयति स्तोत्थानफालस्य निर्व्रम्यनुपम शतप्रमाणत्वानेयां, परिहारविशुद्धियसंजया संखेज्ज्गुण' ति तत्कालस्य बहुत्वात् पुलाकतुल्यत्वेन च सहस्त्रपृथक्त्व मानत्वानेपाम् अवापसंजया संजगु नि कोटीपृथ कत्यमानत्वात्तेषां छेदोवद्वावरिणयसंजया संखे जगुण 'त्ति कोटीत पृथक्त्वमानतया तेषामुक्तत्वात्, सामाइयसंजाति पापकुशीतुल्यतया कोटीसहस्रपृथक्त्वमानयेनेत्य०२५०७ ३०
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( =) अभिधानराजेन्द्रः ।
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जीवा से ते!' इत्यादि संयति स्म सर्वसाध योगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति सा अर्थात् निरवद्ययोगेषु चारित्रपरिणामस्फातिहेतुषु वर्त्तते स्म इति संयताः सत्यनि त्याकर्मका' दिति कर्त्तरि कप्रत्ययः, हिंसादिपापस्थाननिवृत्ता इत्यर्थः । तद्विपरीता असंयताः। हिंसादीनां देशतो नि. वृत्ताः संयतासंयताः श्रितयप्रतिषेधविषयः सिद्धा करामिति चेत् उच्यते उक्रमिह संयमो नाम निरवद्येतरोमप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः ततः संयतादिपर्यायो योगाश्रयः सि डाश्च भगवन्तो योगाऽतीताः शरीरमनसोऽभावादतस्त्रितयप्रतिषेधविषयाः एवं च सामान्यतो जीवपदे चतुि घटते । तथा चाह-' गोयमे' स्यादि, गौतम ! जीवाः संयता अपि साधूनां संयतत्वात्, असंयता अपि नैरयिकादीनामसंयतत्वात् संयतासंयता श्रपि पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुध्याणां च देशतः संयमस्य भावात्, नोसंयतनो संयतनासंवतायता अपि सिद्धानां त्रयस्थापि प्रतिषेधात्। यतुविंशतिमा अामाद'संयते' त्यादि, संयता श्रसंयता मिश्रकाश्य-संयतासंयता जी वास्तथैव मनुष्याध किमुलं भवति पदे मनुष्यपदे एतानि श्रपि पदानि घटते नतु न पटले परमेतत् सूत्रम् अन्यथा जीपतियप्रतिषेधरूपं च
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यथातथा संयतरहिता उपय तिषेधरहिताश्च तिर्यञ्चः - तिर्यकूपञ्चेन्द्रियाः । श्राह-कथं संय
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जीवा से भंते! किं संजया, असंजया, संजया संजया, नोजया, नो संजया, नोसंजयासंजया ?, गोयमा ! जीवा संजया वि १, संजया वि २, संजया संजया वि ३, नोसंजया, नोअसंजया, नोसंजयाजया वि४नेरा ते पुच्छा, गोपमा ! नेरइया नो संजया असंजया नोसंजयासंजया नो नोसंजय नोअसंजयने संजयाजया, एवं० जाव चउरिदियपंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोगि ता नो संजता असंजता वि संजतासंजता वि नो नोसंजतनो
पददितास्ति पञ्चेन्द्रियाः यावता तेषामपि संयतत्यमुपपद्यते एव तथाहि संयताचे नाम निरवद्येतरयोगवृत्तिनिवृत्यात्मकं ते च निरवद्येतरयोगेषु प्रवृत्तिनिवृणी तिरक्षामपि सम्भवतः यतश्वरमकालेऽपि चतुर्विधस्याप्याहारस्य प्रत्याख्यानं कृत्वा शुभेषु योगेषु वर्त्तमाना दृश्यन्ते । श्र न्यच्च सिद्धान्ते तत्र तत्र प्रदेशे महाव्रतान्यप्यात्मन्यारोपयन्तः ध्यन्ते, उक्कं चतिरिया चरिचं निवारितं सहय अह पु तेसि सुव्य बहुवा चिय, महग्ययारो समय ॥ १ ॥ " तदेतदयुकं सम्यग्वस्तुतस्यापरिज्ञानात् संयनरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपमान्तरचारित्र परिणामानुषकमवगन्तव्यं न शेर्पा, न च तेषां चतुर्विधाहारप्रत्ययान नामपि महाव्रतान्यारोपयतां भयप्रत्ययादेव चरणपरिणाम उपजायते स पिचिन्तामणि मनुष्यमय एव यदि परं कर्मक्षयोपशमाद् भवति नान्यथा, अत एवायमतिदुभो गीयते भगवद्भिः । अथ कथमवसीयते न तिरश्चां तथा बेष्टमानानामध्यान्तरधारित्रपरिणामः ? उच्यते केवलहानाद्यश्रवणात्, यदि हि तिरश्चामपि चरणपरिणामस्तम्भवेत् तत् कचित् कदाचित् कस्यचिदुत्कर्षतो भावतो मनःपर्यायानं केवलज्ञानं या ध्येत तयोश्चारित्रपरिणामनिष
जनजताजता वि, मनुस्सा पुच्छा, गोयमामसा संजता वि संजता वि संजतासंजता वि, नो-नोसजतनोयात् न च भूयते तस्मादवसीयते न तेषां चारिचयजनजताजता वाणमंतर जोतिसिय नेपालिया जहा [रिणामः । महम्ययसम्भावे, वि चरणपरिणामसं.
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उक्तं च- “म
संजय
नेरइया, सिद्धाणं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा नो संजता १, नो असंजता २, नो संजतासंजता ३, नो संजतनो संजतनोसं जतासंजता ४ गाहा "संजय भसंजय भी सगा व जीवा
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तहेव मणुया य । संजतरहिया तिरिया, सेसा अस्संजता होंति ।। १ ।।" (सू० ३१६ ) । संजयपयं समत्तं ||३२||
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संजय भयो तेर्सिन केवल संभूपरिणामो ॥१॥" तद्भाषाऽभावात् संयमपदरहिताः, शेषाः संसारस्था असंयताः - असंयतपत्र सहिता भवन्ति, न शेषपदसहिताः प्रज्ञा ३२ पद । संयताश्चतुर्द्धा, असंविग्नाः गीतार्थाः, संविग्नाः गीतार्थाः गीतार्थाः संविग्नाः, असंविग्नाः अगीतार्थाश्च । बृ० १७० २प्रक० | वीरेण सद प्रब्रजिते खनामख्याते राजपुत्रे, स्था० ८ डा० ३ उ० । स्वनामख्याते काम्पिल्यराजे, ती० २४
कल्प | उत्त० |
सञ्जयशब्दनिक्षेपायाह निर्युकिकृत्
निक्खेवो संजइअम्मि चउन्विहे दुविहो उ होइ दव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमओ य सो तिविहो । २६ २ | जाणगसरीरभविए, तबइरिते य से पुणो तिविहो । एगभवियबद्धाउय, अभिमुहओ नामगोए य || ३६३ ॥ संजयनामं गोयं, वेतो भावसंजओ होइ ।
तत्तो समुट्ठियमि, अज्झयणं संजजं ति ॥ ३६४ ॥ गाथाश्रयं व्याख्यातप्रायम् नवरं 'णिक्खेवो संजइजम्मिति निपन्यासः सायने अर्थात्-पस्येति गम्यते। तथा च तृतीयगाथायां 'संजय नामं गोयं घेतो' इत्युक्तं 'तत' इति सञ्जयादभिधेयभूतात् समुत्थितम् उत्पन्नम् इदम् अध्ययनं सञ्जर्यीयमिति, तस्माद्धेतोरुच्यत इति गाथाश्रयार्थः । इत्युको नामनिष्पन्ननिक्षेपः ।
( ६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे सति भवस्वतः सूत्रानुगं सूत्रधारणीयं तचेदम्
कंपिल्ले नयरे राया, उदिन्नबलवाहणे |
नामें संजओ नाम, मिगव्वं उवनिग्गए ॥ १ ॥ काम्पियनगरे राजा नृपतिरुदी
उद्याबले चतु बागादिकस्य सोऽयमुदा हनः । यद्वा बलं शरीरसामर्थ्य बाहनं गजाश्वादि पदात्युपलक्षणं चैतत् स च नाम्ना - अभिधानेन सञ्जयः नाम इति प्राकाश्ये ततोऽयमर्थः संजयः इति नाम्ना प्रसिद्धां मृगयां मृगयां प्रतीति शेषः, उप-सामीप्येन निर्गतो निष्क्रान्त उपनि र्गतस्तत एव नगरादिति शेषः । इति सूत्रार्थः ।
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स च कीडग् विनिर्गतः, किश्च कृतवानित्याहहयाणीए गयाणी, रहाणीए तहेव य । पायताणी महवा, सव्वच परिवारिए । २ ॥ मिए भित्ता हयगओ, कंपिल्लुआ केसरे । भीए संते मिए तत्थ, वहेइ रसमुच्छिए ॥ ३ ॥
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पाठसिद्धम्, नवरं पदातीनां समूहः पादातं तस्यानीकंकटकं पादातानीकं तेन सुध्यत्ययः प्र एवं पूर्वयांप, महता दृत्समासेन मृगान् शिपया 'कंपिल्लु कसरि ति तस्यैव काम्पिल्यस्य नगरस्य सम्यधिनि केशर नाम्न्युधाने भीतान् - त्रस्तान् सतो मितान् -परमितान् ततेषु मृगेषु मध्ये 'बदेशि व्यथति
संजय
हन्ति वा शरैरिति गम्यते रसः -- तम्पिशितास्वादस्तत्र मूदिवो रसति इति सूत्रद्वयार्थः ।
अमुमेवार्थ सूत्र स्पर्शिक नियुक्त्या स्पष्टयितुमाहकंपिलपुरवरम्मि अ नामेवं संजय नरपरिंदो ।
सो से ए सहिओ, नासीरं निग्गओ कयाइ ॥ ३६५॥ हयमारुढो राया, मिए छुहित्ता केसरुजाये ।
ते तत्थ उत्तत्थे, महेर रसमुच्छि संतो ।। २६६ ।। गाथाद्वयं प्रतीतमेच, नपरमिह नासीरं-मृगयां प्रति उस्वस्तान् प्रतिभीतानिति गाधाइयार्थः ।
अत्रान्तरे यदभूत्तदाह सूत्रकृत्अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे । सज्झायाणजुतो, धम्मभाणं झियायः ॥ ४ ॥ अप्फोवमंडनम्मी, कायई झवियासवे । तस्सागर मिए पासं, बहेई से नराऽहिये ॥ ५ ॥
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अथ - अनन्तरं केशरे उद्यानेऽनगारस्तपोधनः स्वाध्यायः -- अनुप्रेक्षणादिभ्यांनधर्मध्यानादि ताभ्यां यु-यथाकाले तदासेवकतया सहितः स्वाध्याययानोत एव धर्मध्यानम्-- आशाविजयादि भियायति ध्यायति चिन्तयति क १- अप्फोवडवम्मि " तिवृचाचाकी, तथा च वृद्धाः अष्फोय' इति किमु भ पति-आरती गुदगुल्मलता इत्यर्थः म एडपे - नागवल्ल्यादिसम्बन्धिनि ध्यायति धर्मध्यानमिति गम्यते, पुनरभिधानमतिशयस्यापकम् अमिय लिपिया निर्मूलिता साधवाः कर्मचग्धदेतो हिंसा न स तथा तस्य इत्युक्तविशेषणान्वितस्यामगारस्य पार्श्वसमीपमिति सम्बन्धः, श्रागतान् प्राप्तान् भृगान् 'बहेद्द ' ति विध्यति हन्ति वा स इति सञ्जयनामा नराधिपः- राजेति सूत्रद्वयार्थः ।
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अमुमेवार्थ सविशेषमाह नियुक्लिड
अह केसरमुजणे, नामे गद्दभालि अणगारो ।
फोवमंडवम्मि अ, कायइ काणं विप्रदोसो | ३६७ |
'अहे ' ति गाथा व्याख्यातप्रायैव । नवरं नाम्ना श्रभिधानेन गामेत्यर्थः ऋषियति पिता क मदेतुभूता हिंसादयो येन स तथा ।
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पुनस्तत्र यदभूत्तदाह
सगो राया, खिप्पमागम्म सो तहिं ।
हुए मिए उपासित्ता, अणगारं तत्थ पासइ ॥ ६ ॥
श्रथ-अनन्तरम् अश्वगतः - तुरगारूढो राजा क्षिप्रं - शीघ्रमागत्य 'स' इति सञ्जयनामा तस्मिन् यत्र मण्डपेस भगवान ध्यायति हतान् विनाशितान् वान् तुशब्द एवकारार्थस्ततो मृगानेव; न पुनरनगारमित्यर्थः ' पालित' त्ति ह वा अनगारं - साधुं तत्र इति--तस्मिन्नेव स्थाने पश्यतीति सूत्रार्थः ।
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संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय ततः किमसावकादित्याह
त्ति मुनिरत्र रश्यत इत्यसाचपि मया विद्धो भविष्यतीत्याअह राया तत्थ संमंतो, अणागारो मणाऽऽहो ।
कुलत्वमापना, भणति च-वक्तिच हा इति खदे, यथेदा
नीम् इसिबज्झाए' त्ति ऋषिहत्यया मनागपि लिप्तोऽहं-स्व. मए उ मंदपुमेणं, रसगिद्धेण घंतुणा ॥ ७॥
ल्पनैव न स्पृष्टः 'तुम्भ' ति तव शरणागतोऽस्मि त्वामेष आसं विसआइत्ता णं, मणगारस्स सो निवो। शरणम्--याश्रये प्रतिपञोऽस्मि, ततश्च निर्धाक्षीः माविणएणं वहई पाए, भगवं ! इत्थ मे खमे ॥ ८॥ निषेधे, 'मि' इति मा तेजसा तपोजनितेनेति गम्यते, इति अह मोणेण सो भगवं, श्रणगारो भागमस्सिभो।
गाथाचतुष्टयार्थः।
इत्थं तेनोक्ते यन्मुनिरुक्तांस्तवाहरायाणं न पडिमंतेइ, तमो राया भयभो ॥ ६ ॥
अभयो पत्थिवा! तुझं, अभयदाया भवाहि य । संजमो प्रहमस्सीति, भगवं ! वाहिराहि मे ।
अणिचे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसजसि ॥११॥ कुद्धे तेएण मणगारे, दहिजा नरकोडिभो ॥ १० ॥
जया सव्वं परिचज्ज, गंतव्वमवसस्स ते । अथ राजा तत्र इति-तदर्शने सति संभ्रान्तः भयव्याकुलो, यथाऽनगारो-मुनिर्मनागिति-स्तोकेनैव पाहतः
अणिचे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसजसि ॥१२॥ विनाशितः, तदासन्नमृगहननादित्यभिप्रायः, मया तु मन्द- जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं ।। पुण्येन रसगृद्धेन-रसमूर्छितेन 'घंतुण' ति घातुकेन ।
जत्थ तं मुझसी राय, पिञ्चत्थं नाव बुज्झसी ॥१३ ।। हननशीलेनेत्यर्थः । ततश्च अश्व--तुरगं विसज्य--वि
दाराणि य मुया चेव, मित्ता य तह बंधवा । मुच्य ‘णं' प्राग्वत् , अनगारस्य--उक्तस्यैव सः सञ्जयनामा नृपः : विनयेन-उचितप्रतिपत्तिरूपेण धन्दते-स्तौति
जीवंतमणुजीवंति, मयं नाणुव्वयंति य ॥ १४॥ पादी-चरणी, अत्यादरख्यापकं चैतत् , पादावपि तस्य भ- नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमक्खिया । गवतः स्तवनीयाविति, वक्ति च--यथा भगवन् ! अत्र ए
पियरो अतहा पुत्ते, बंधू रायं ! तवं चरे ॥ १५ ॥ तस्मिन् मृगव्ये, मम अपराधमिति शेषः, क्षमस्व-सहस्व । अथ इत्यनन्तरं मौनेन वाग्निरोधात्मकेन 'सो' त्ति
तो तेणऽजिए दव्वे, दारे य परिरक्खिए । स गर्दभालिनामा भगवान् अनगारः ध्यान-धर्म- कीलतं ऽन्ने नरा राय, हद्वतुट्ठमलंकिया ॥ १६ ॥ ध्यानम् आश्रितः--स्थितः राजानं नपं न प्रतिमन्त्रयते न तेणावि जं कयं कम्म, मुहं वा जइ वा दुई । प्रतिवक्ति, यथाऽहं क्षमिष्ये नवेति,. ततः तत्प्रतिवचनाभा
कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं ॥ १७॥ यतोऽवश्यमयं क्रुद्ध इति न किमपि मां प्रभाषते इति रा
'अभो ' ति अभयं--भयाभावः पार्थिव ! मृपते ! जा भयतः--अतीव भयत्रस्तो, यथा न ज्ञायते किमसौ
आकारोऽलाक्षणिकः, कस्य ?--'तुम्भ' ति तब, न कक्रुद्धः करिष्यतीति । उक्नवांश्च यथा--संजयः-सञ्जयनामा
श्चित्वां दहतीति भावः, इत्थं समास्त्रास्योपदेशमाह-अभयराजाऽहमस्मि, मा भूनीच एवायमिति सुतरां कोपः इत्ये
दाता च-प्राणिनां त्राणकर्ता भवाहि य 'सि भव-यथाहि तदभिधानमिति, इति अस्माद्धेतोभगवन् ! 'वाहराहि' त्ति
भवता मृत्युभयमेवमन्येषामपीति भावः, चशब्दो योजितः ब्याहर-संभाषय मे इति; सुब्ब्यस्ययान्माम् , अथाऽपि स्या.
एव, अमुमेवार्थ सहेतुकं व्यतिरेकद्वारेणाह--अनित्ये अशात्-किमेवं भवान् भयद्रुत इत्याह-क्रुद्धः--कुपितः तेज
श्वत जीवलोके प्राणिगणे, किमिति परिप्रश्ने, हिंसायां प्रासा तपोमाहात्म्यजनितेन तेजोलेश्यादिना अनगारः मुनिः
णिवधरूपायां प्रसजसि अभिष्वक्नो भवसि ?, जीवलोकदहेस् भस्मसात्कुर्यात् नरकोटीः, पास्तां शतं सहस्र घेति ।
स्य ह्यनित्यत्वे भवानप्यनित्यस्तत्किमिति--केन हेतुना स्वअतोऽत्यन्तभय द्रुतोऽहमिति सूत्रचतुष्टयार्थः ।
ल्पदिनकृते पापमित्थमुपार्जयसि ?, नैवेदमुचितमिति भावः। इदमेष व्यक्नीकर्तुमाह नियुक्तिकृत्
इत्थं हिंसात्यागमुपदिश्य राज्यपरित्यागोपदेशमाह-यदा स. अह आसगो राया, तं पासिब संभमागो तत्थ ।
4 कोशान्तःपुरादि परित्यज्य-इहैव विमुच्य गन्तव्यं भवा -
न्तरमिति शेषः, तदपि न स्ववशस्य किन्तु अवशस्य--अ. भणइ अहा जह इपिंह,इसिवज्झाए मणालित्तो ॥३६॥
स्वतन्त्रस्य ते-तव, वसति ?-अनित्ये जीवलोके, ततः किं वीसज्जिऊण प्रासं, अह अणगारस्स एइ सो पासं । राज्ये-नृपतित्वे प्रसजति ?, राज्यपरित्याग एव युक्त इति
भावः, पाठान्तरतश्च किं हिंसायां प्रसजसि?, इह च पुनर्वविणएण वंदिऊणं, अवराहं ते खमावेइ ।। ३६६ ॥
चनमादरातिशयख्यापनार्थमिति पुनरुक्तता। जीवलोका:अह मोणमस्सिो सो, अणगारो नरवई न वाहरइ ।
नित्यत्वमेव भावयितुमाह-जीवितम्-श्रायुः चः समुश्चये , तस्स तवतयभीओ, इणमटुं सो उदाहरइ ।। ४०० ॥ एवेति पूरणे , रूपं च-पिशितादिपुष्टस्य शरीरशोभात्मकं
विद्युतः संपातः संपातः-चलनचमत्कारो विद्युत्सम्पाकंपिल्लपुराहिवई, नामेणं संजो अहं राया।
तस्तद्वच्चञ्चलम्-अतीवाऽस्थिरं विधत्सम्पातचञ्चलं यत्र तुज्म सरणागन्नोऽम्हि,निद्दहिहा मा मि तेएणं ॥४०॥ जीवित रूपेच 'तं' ति त्वं मुह्यसि मोहं विधत्से मूढगाथाचतुष्टयं स्पटनेव । नवरं तं 'पासिय संभपागतो' | श्च हिंसादौ प्रसजसीति भावः राजन् : वृपते : प्रेत्यार्थ पर
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संजय अभिधानराजेन्द्रः।
संजय लोकप्रयोजनं नायबुध्यसे , किमुक्तं भवति ?-जानास्यपि न किं हिंसाइ पसजसि, जाणन्तो अप्पणा दक्ख।।४०१।। किं पुनस्तत्करणमिति । तथा दाराश्च-कलत्राणि प्राकृतत्वा.
सव्वमिणं चइऊणं, अवस्सं जया य होइ गन्तव्यं । नपुंसकनिर्देशः, सुताश्चैव मित्राणि च प्रतीतान्येव, तथा बान्धवाः-स्वजनाः जीवन्तम् अनुजीवन्ति-तदुपार्जितवि
कि भोगसुं रसञ्जसि, किंपागफलोवमनिभेसुं ॥४०२।। साधुपभोगत उपजीवन्ति, मृतं ' णाणुव्वयंति य' त्ति चश- सोऊण य सो धम्म, तस्सऽणगारम्स अंतिए राया। ब्दस्यापिशब्दार्थत्वादनुव्रजन्त्यपि न, किं पुनः सह यास्य- अणगारो पबइओ, रजं चहउं गुणसमग्गं ॥ ४०३ ।। न्तीति,तदनेन दागदीनामपि कृतघ्नतया न तेष्वास्था विधा
व्याख्यातप्रायमेव , नवरं 'अप्पणो दुक्खे' ति प्रात्मनो य धर्मे उदासितव्यमित्युक्नमिति । इदं च सूत्रं चिरन्तनवृत्तिकृता न व्याख्यातं, प्रत्यन्तरेषु च दृश्यत इत्यस्माभिरुनीतम्।
दुःखमिति दुःखजनक मरणमिति शेषः , 'किंपागफलोवपुनस्तत्प्रतिबन्धनिराकरणायाह-'नीहरंति त्ति निस्सारय
मणिमेसुं' ति किंपाकफलोपमा निभा-छाया येषां ते तथान्ति मृतम् इति-गतायुषं पुत्राः-सुताः पितरं-जनकं परम
आपातमधुरत्वपरिणतिदारुणत्वाभ्यां, तथा अनगारः श्रदुःखिताः-अतिशयसञ्जातदुःखा अपि, किं पुनर्ये न तथा
विद्यमानगृहो , जात इति शेषः, स च शाक्यादिरपि दुःखमाज इति भावः, पितरोऽपि तथा पुत्रान् , 'बंधु'
संभवेदत आह' पब्वइनो' त्ति प्रकर्षेण-विषयाभिष्यङ्गादिति बन्धवश्व बन्धूनिति शेषः। अतश्च किंकृत्यमित्याह
परिहाररूपेण वजितो-निष्क्रान्तः प्रवजितो; भावभिक्षुरिराजन् ! तप उपलक्षणत्वाद्दानादि चरे:-श्रासेवस्वेति । अप- ति यावत् , तथा गुणा:-कामगुणा मनोशशब्दावय शिश्यरञ्च ततो' त्ति मृतनिःसारणादनन्तरं तेन इति-मित्र
दियो वा तैः समय-सम्पूर्ण गुणसमग्रमिति गाथात्रयार्थः । पित्रादिना अर्जिते-विढपिते द्रव्य-वित्ते दारेषु च-कलत्रेषु स चैवं गृहीतप्रवज्योऽधिगतहयोपादेयविभागो दर्शावच परिरक्षितेषु-सर्वापायपरिपालितेषु, उभयत्रार्थत्वादेक- धचक्रवालसामाचारीरतश्चानियतविहारितया विहरन् तवचनं, क्रीडन्ति-विलसन्ति तेनैव-वित्तेन दारैश्चति गम्यते, थाविधसन्निवेशमाजगाम, तत्र च तस्य यदभूत्तदाहअन्ये-अपरे राजन् ! ' हट्टतुट्ठभलंकिय' ति हयाः-बहिः- चिच्चा रहूं पव्वइओ, खत्तिो परिभासई । पुलकादिमन्तः तुष्टाः-श्रान्तरप्रीतिभाजः अलंकृताः-विभू
जहा ते दीसई रूवं, पसन्नं ते तहा मणो ।। २० ।। षिताः, यत ईरशी भवस्थितिस्ततो राजन् ! तपश्चरेरिति मध्यदीपकत्वादनन्तरसूत्रोक्नेन सम्बन्धः । मृतस्य च को
किनामे किंगुत्ते, कस्सट्टाए व माहणे?। वृत्तान्त इत्याह-तेनापि मृतेन यत् कृतम्-अनुष्ठीतं कर्म शुभं
कहं पडियरसी बुद्धे, ?, कहं विणीय ति वुच्चसि ॥२१॥ वा पुण्यप्रकृतिरूपं,यद्वा-सुखं वा-सुखहेतुः यदिवेति-अथवा- त्यक्त्वा राष्ट्र प्रामनगरादिसमुदायं प्रवजितः प्रतिपन्नदुःख-दुःखहेतुः, पापकृत्यात्मकमित्यर्थः । कर्मणा तेन सुख- दीक्षः क्षत्रियः-क्षत्रजातिरनिर्दिछनामा परिभाषते, सञ्जइतुना दुःखहेतुना वा, उत्तरत्र तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् भि- यमुनिमित्युपस्कारः, स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत् नक्रमत्वाश्च तेनैव, न तु दुःखपरिरक्षितेनापि द्रव्यादिना ततश्च्युतः क्षत्रियकुलेऽजनि, सत्र च कुतश्चित्तथाविधनिसंयुक्तः-सहितः गच्छति-याति परम्-अन्य भवं-जन्म,यतश्च मित्ततः स्मृतपूर्वजन्मा तत एव चोत्पन्नवैराग्यः प्रत्रज्यां शुभाशुभयोरेवानुयायिता ततः शुभहेतुं तप एव चरेरिति गृहीतवान् । गृहीतप्रवज्यश्च विहरन् सञ्जयमुनि दृष्णा भावः, इति सूत्रसप्तकार्थः ।
तद्विमार्थमिदमुक्तवान् , यथा ते दृश्यते-अवलोक्यते ___ ततस्तद्वचः श्रुत्वा राजा किमचेष्टतेत्याह
रूपम्-श्राकृतिः प्रसन्नं विकाररहितं ते-तब तथा-तेनैव
प्रकारेण प्रसन्नमिति प्रक्रमः, किं तत् ? मनः-चिन, न सोऊण तस्स सो धम्म, अणगारस्स अंतिए ।
ह्यन्तः कलुषतायां बहिरण्यवं प्रसन्नतासम्भवः, तथा किमहया संवेगनिव्वेयं, समावनो नराहिवो ॥१८॥ नाम-किमभिधानः किंगोत्र:-किमन्वयः कस्सट्टाए व' त्ति संजो चइउं रजं, निक्खंतो जिणसासणे ।
कस्मै वा अर्याय-प्रयोजनाय 'माहणे ' इति मा वधीत्यवं
रूपं मनो वाक क्रिया च यस्यासौ माहनः, सर्चे धातवः गद्दभालिस्स भगवओ, अणगारस्स अंतिए ॥ १६ ॥
पचादिषु दृश्यन्त ' इति वचनात्पचादित्वादच , स चैवंविधः श्रत्वा-श्राकार्य तस्य इत्यनगारस्य स 'स' इति-सञ्जयाभि- प्रवजित पव सम्भवत्यतः किंवा प्रयोजनमहिश्य प्रव्रजितः धानो राजा धर्मम्-उक्तरूपम् अनगारस्य-भिक्षाः अन्तिक- कथं-केन प्रकारेण प्रतिवरसि-सेवसे, कान् ? बुद्धान् श्रासमीपे 'महय' त्ति महता श्रादरेणति शेषः, सुव्यत्ययेन
चार्यादीन् , कथं विणीय' ति विनीत:-विनयवानित्युच्यत चा महत , संवेगनिर्वेदं तत्र संवेगो-मोक्षाभिलापो निर्वेदः- इति सूत्रद्वयार्थः । संसारोद्विग्नता समापन्न:-प्राप्तः नराधिपः राजा सञ्जयः।
सञ्जयमुनिराहसञ्जयनामा' चइउं' त्यक्त्वा राज्यं-राष्ट्राधिपत्यरूपं नि- संजयो नाम नामेणं. तहा गुत्तण गोयमो। एकान्तः-प्रवजितः जिनशासने-अर्हद्दर्शने, न तु सुगतादि
गद्दभाली ममायरिया, विजाचरणपारगा ॥ २२॥ देशितेऽसद्दर्शने एवेति भावः , गर्दभालेः-गर्दभालिनाम्नी
यदुक्तं त्वया किनामा त्वमिति , तत्र संजयो नामभगवतोऽनगारस्यान्तिक इति सूत्रद्वयार्थः।।
नाम्ना, यश्चावाचः किंगोत्रः ? इति, तत्राह-तथा गोत्रए सूत्रनवकोक्लमेवार्थ स्पयितुमाह नियुक्तिकृत्- अन्वयेन गौतमः, उभयत्राहमिति गम्यते, शेषप्रश्नत्रयप्रतिअभयं तनावई, जलबब्वयसंनिभे प्रमाणुस्से।। वचनमाह-गर्दभालयः गर्दभाल्यभिधाना मम
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मोपदेशकत्यादिना विद्यतेऽनया तस्यमिति विद्या-त ज्ञानं तथा चर्यत इति चरणं चारित्रं विद्या च चरणं च विद्याचरणे तयोः पारगाः -- पर्यन्तगामिनो विद्याचरणपारगाः, एवं च वदतोऽयमाशयः -- यथा गर्दभालिभि धर्माचा विद्यार्जनानिवर्तितोऽहं विद्याचरणपरत्वाच
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निवृत्ती मुक्लिक्षणं फलमुक्रम् ततस्तदर्थं मानोऽस्मि यथा च तदुपदेशस्तथा गुरून् प्रति चरामि, तदुपदेशा सेवनाच विनीत इति सूत्रार्थः ।
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इत्थं विमृश्य तद्गुणबहुमानाकृष्टचेता अपृटोऽपि क्षत्रिय इदमाह-airi अकिरि विणयं, अन्नाणं च महामुखी । एहि उहि ठाहि, मेयने किं प्रभासई ॥ २३ ॥ क्रिया अस्तीत्येवंरूपा, लिङ्गव्यत्ययान्नपुंसकनिर्देशः, अक्रिया तद्विपरीता, विनयः -- नमस्कार करणादिः, लिङ्गव्यत्ययः प्राग्यत् तथा ज्ञानं वस्तुतस्यामस्तद्भः स मुच्चये, महामुने ! सम्प्रतिपत्तिगुरूपरिचर्यादि करणतः प्रशस्ययते ! एतैः क्रियादिभिश्चतुर्भिः तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा जन्तव इति स्थानानि मिथ्याऽध्यवसायाधारभूतानि तैः मेयसे' त्ति, मीयत इति मेयं ज्ञेयं जीवादिवस्तु तज्जानन्तीति मेषशाः क्रियादिभिर्भिः स्यानेः स्वस्याभिप्रायकल्पितैर्वस्तुतस्यपरिदिन इति यावत् किम् इति कुत्सितं 'पभासद'त्ति प्रकर्षेण भाषन्ते प्रभाषन्ते, विचाराक्षमात्वात् तथाहि क्रियादिनस्तक्रियावि शिष्टमात्मानं मन्यमाना श्रपि तस्य सदा विभुत्वाविभुत्वकर्तुत्वाकर्तृत्वादिभिउक्रं हि वाकया वादिनो नाम देशमात्मनोऽस्तित्वं प्रत्यवितः किन्तु स farरविभुः कर्त्ताsकर्त्ता क्रियावानितरो मूर्त्तिमान् मूर्त्तिरि.
माथापीतवस्तेऽस्ति माता पिता लाकुशलकर्मवैफल्यं न न सन्ति गतय इत्येवं प्रतिशाध । इह
विभुत्वं व्यापित्वम्, तच्चात्मनो न घटते, शरीर एव तनियमानो उत्पासुखदुधर्माधर्मसंस्कारा नवाऽऽत्मगुणा इति वचनाद्गुणधर्माचयापित्वं तथा च द्वीपान्त रगतदेवतादृष्टकृष्टमणिमुकादीनां नेदागमनं स्यादिति
( १०२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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विभिन्नदेशस्याप्ययस्कान्तादेयःप्रभृतिषस्वादि शनामधर्मयोरपि शरीरमाव्यापित्वेऽपि तद्वद्विप्रकृष्टस्त्वाकर्षकत्वादिति न तावद्विभुरात्मा युज्यते । तथाऽविसुरम्यष्ठपर्यायधिष्ठानां वैरिष्यत तेषां सकलशरीरम्या पिचैतन्यासत्वम् तदसत्वाच्च पशरीरावयवेषु शखादिभेदादौ वेदनानुभवासम्भवो नचैतद् दृष्टमिष्टं वा एवं सर्वदा कर्तृत्वादिकमपि यथा न युज्यते तथा स्वधिया वाच्यम् १ | ये त्वक्रियावादिनस्तेऽस्तीति क्रियाविशिष्टमास्मानं नेत्येव अस्तित्व या शरीरेण सत्यान्यस्थाभ्यामिति एकस्य शरीरावस्थिती न क दायित्मरतिः अम्मनः शरीरानपत्येनावस्थित्या तथा मुक्त्यभावाद्यनेकदा शरीरास्यस्य तु शरीरवा तस्य वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तस्मादयक्रभ्य एवेति । कियायादि कथञ्चिदामेराकारान्तरामा
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संजय
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वेन तदभावस्यैवावशिष्यमाणत्वत् येऽप्युपस्यनन्तरमात्मनः प्रलयमिच्छन्ति तेषामपि तदस्तित्वाभ्युपगमेऽध्यपरितपरलोकायसम्भवात् तस्वतस्तदसत्वमेवेत्यक्रियाबादित्यम् उक्तं हि वाचकैः-"ये पुनराक्रियायादिनामात्मैव नास्ति, न वाचव्यः शरीरे साये प्रति उ स्पस्यनन्तरप्रलयस्वभावको या काद विशेषमूढा एवे 'ति, श्रमीषां तु विचाराक्षमत्वमात्माऽस्तित्वस्य प्राक् प्रत्यक्षानुमानलक्षणप्रमाणद्वयसमधिगम्यत्वन साधनात्, तस्य च शरीरात्कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नरूपतया तत्र तत्र वव्ये (पत्येन खापितत्वात् इरिकपक्षस्य तु सामुच्छेदिकविव्यतायामेवोन्मूखितत्वादिति २ । विनयवादिनो विनयादेव मुक्तिमिच्छ यत उक्तम्- " वैनयिकवादिनो नाम येषां सुरासुरनृपतपस्विकरितुरगहरिणगोमहिष्यजाविकश्यशृगालजलचरकपोत काकोलूकपटप्रवृतिभ्यो नमस्कार करणान् रानाशोऽभिप्रेत ना भवति नान्यथेत्यभ्यवसिताः एतेऽपि न विचारसहिष्णयो न हि नियात्रादिहापि विशिष्टानुष्ठानविकलाभिलपितार्थावातिरवलोक्यते, नाऽपि वैषां विनयार्हत्वं येन पारीकियोता भवेत् तथाहि लोकसमययेदेषु गुणाभ्यधिकस्यैव विनयार्द्धत्वमिति प्रसिद्धिः, गुणास्तु तस्वतो ध्यानानुष्ठानात्मका एव न च सुरादीनामज्ञानाश्रवाविरमणादिदोष दूषितानामेतेष्वन्यतरस्याऽपि गुणस्य सम्भव इति कथं यदृच्छया विधीयमानस्य तस्य श्रेयाहेतुतेति । ज्ञानयादिनाथ जगत् थि अन्यैः प्रकृतिपुरुषात्मकमपव्यादिपभेदम्, तदपरैश्चतुरार्य सत्यात्मकम्, इतरैर्विज्ञानमयम्, अन्यैस्तु शून्यमेव इत्यनेकधाभिन्नाः पन्थानः, तथाऽऽत्माऽपि नित्यानित्यादिभेदतो ऽनेकधैवोच्यते, तत्को ह्येतद्वेद किं चाने
"
3
ज्ञानेन ? अपवर्गेत्यनुपयेोनित्वात् ज्ञानस्य के क तप एधानुष्ठेयं न हि कष्टं विनेष्टसिद्धिः, तथा चाह'अशानिका नाम येषामियमुपधृतिः यचेद ज्ञानाधिगमयासोऽपवर्गप्रति कोपवाप्यते इति विचारासहत्यं येषां विज्ञानरहितस्य मह सोऽपि कस्य तिर्यग्नारकादीनामिवापय प्रत्यहेतुत्वात् तदन्तरण अततउपसर्गादीनामपि स्वरूपापराकविरमसम्भवादिति । एषां च क्रियावादिनामुत्तरोत्तरंभदत्तोऽनेकविधत्वम् उवाचकेषां मलषु चतुर्षु क पेष्ववस्थितेषु तद्भेदाः सुबहवोऽवनिरुह शाखा प्रशाखानिकरयवगन्तव्याः" तत्र तामशीतं विवादिनाम्, अक्रियावादिनश्च चतुरशीतिसंख्याः, अज्ञानिकाः सप्तषष्टिविधाः, वैनयिकवादिनो द्वात्रिंशत्, एवं त्रिषष्ट्यधिकशतत्र सवामी विचारात्कुत्सितं प्रभाषन्ते इति स्थितमिति सूत्रार्थः ।
न चैतत्स्वाभिप्रायेणैवोच्यते, किन्तु - इह पाउकरे बुके, नायए परिनिब्बुडे । विजाचरणसंपत्रे, सधे सच्चपरकमे || २४ ॥ 'इड' इति तत्पादिवादिनः किं प्रभाषन्ते इत्येवं रूपं 'पाकरे' सिमाकार्षीत्प्रकटितवान् बुद्ध- अवगत
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तत्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः- जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा स वह प्रस्तावान्महावीर एव, परिनिर्वृतः कषायानलविध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतो विद्याचरणाभ्यामर्थात् ज्ञायिकज्ञानचारिषाभ्यां सम्पन्नो-युक्त विद्याचरणसम्पन्नोऽस एव सत्यः सत्यवाकू, तथा सत्यः -- श्रवितथस्तात्त्विकत्वेन परे भाववस्तेषामाक्रम् आक्रमः-अभिभो यस्यासौ सत्यपराक्रम इति सूत्रार्थः ।
तेषां च फलमाह --
पडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गदं गच्छति, चरित्ता धम्ममारियं ॥ २५ ॥ पतन्ति गच्छन्ति नरके सीमन्तकादी धोरे नित्यान्धकागदिना भयानके ये नराः उपलक्षणत्वात्स्य्यादयो वा पातयति नरकादिषु जन्तुमिति पापं तच्च हिंसाद्यनेकधा, इह न्यसत्मरूपवतरक अनुष्ठानुं शीलमेषामिति पापकारिः। येन भवति ते किमाह-दिव्यां देवलोकगति शब्दः पुनर सच पूर्वेभ्यो विशेषद्योतकः गच्छन्ति--यान्ति चरित्वा -- श्रासेव्य धर्मः -- श्रुतधर्मादिः अनेकविधः इह च सत्यप्ररूपसारूपः श्रुतधर्म एव तम् आर्य-प्राम्यत् तदयमभिप्रायः असत्प्ररूपणापरिहारेण सत्प्ररूपणापरेणैव च भवता भ वितव्यम् इति सूत्रार्थ
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कथं पुनरमी पापकारिण इत्याह-मायाबुइयमेयं तु मुसाभासा निरस्थिया । संजममाणोऽवि अहं, वसामि इरियामि य ॥ २६ ॥
( १०३) अभिधान राजेन्द्रः ।
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"
माया- शाउन 'मायकम् एतत् यदनन्तरं क्रियादिवादिभिरुक्तं, तुः एवकारार्थी भिन्नक्रमश्च मायोशमेव तत्पा-अलीका भाषा निर्धकासम्यमभिधेया तत " एव च संजममाणोऽवि ति अपि एवकारास्ततः संयमेव-उपरमन्नेव तदुकत्यारीनादितः अदम इत्यात्मनिर्देश विशेषतः तत्स्थिरीकरणार्थम् उक्तं हि ठियंतो ठाव परं "ति, वसामिविष्ठामि उपाश्रय इति शेषः, इरियामि यत्ति रे च गच्छामि च गोचरचर्यादिष्विति सूत्रार्थः ।
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इदमपि सूत्रं प्रायो न दृश्यते । कुतः पुनस्त्वं तदुक्त्या कर्णगादिभ्यः संया अनन्तराभावे चतुर्भिः स्थानैर्मे यज्ञाः किं प्रभाषन्ते इति तत्कुत इत्याह-
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सब्वे ते विइया म मिच्छादिट्ठी अथारिया | विजमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पगं ॥ २७ ॥ सर्वे निरवशेषाः ते क्रियादिवादिनः विदिताः - ज्ञाता मम, यथाऽमी, 'मिच्छादिट्ठि ति मिथ्या विपरीता परलोकात्मा पलापित्वेन दृष्टिमतिमिवायः तत एव अनार्या - अनार्यकर्मप्रयुताः कथं पुनस्त एवंविधास्ते विदिता इत्याह-विद्यमाने सति परलोके - अन्यजन्मनि सम्यग् श्रविपरीतं जानामि श्रवगच्छामि' अपगं 'ति - स्मानं ततः परलोकात्मनोः सम्यग्वेदनात् ममैवंविधत्वेन
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संजय
विदितास्ततोऽहं तदुक्त्याकर्णनादितः संयच्छामि किं प्रभापकाश्चैत इति सूत्रार्थः ।
कथं पुनस्त्वमात्मानमन्यजन्मनि जानासीत्याहहमासी महापाणे, जुइमं वरिससमे |
जा सा पाली महापाली, दिव्वा वरिससोवमा ||२८|| से चुए बंभलोगाओ, माणुस्सं भवमागए । अप्पणो य परेसिं च, आउं जागे जहा तहा ॥ २६ ॥ 'अमासि सि अहमभूयं महाप्राणे- महाप्राणनाम्नि ब्रह्मलोक विमाने द्युतिमान् दीप्तिमान् वरिसतोष तिव
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विना उपमा-दृष्टान्तो यस्याउसी वर्षशतोपमो मयूरव्यंसकादित्वात्समासः ततोऽयमर्थः यथेह वर्षशतजीवी इदानीं परिपूर्णायुरुच्यते, एवमइमपि तत्र परिपूर्णायुरभूचम् । तथाहि या सा पालिरिव पालिः- जीवितजलधारणायस्थितिः सा बोत्तर महाराष्दोपादानादिह पल्पोपमप्रमाणा, महापाली सागरोपमप्रमाणा, तस्या एव महस्वात् दिवि भया दिव्या वर्षशतेनोपमा यस्याः सा वर्षशतोपमा, यथाहि वर्षशतमिह परमायुः तथा तत्र महापाली उत्त तोऽपि हि तत्र सागरोपमेरेवायुरुपनीयते, न तूत्सर्पिण्यादिभिः, अथवा " योजनं विस्तृतः पल्य-स्तथा योजनमुद्वितः । सप्तरात्रप्ररूदानां केशामाणां स पूरितः ॥ १ ॥ ततो वर्षशते पूर्णे, एकैकं केशमुद्धरेत् । क्षीयते येन कालेन तत्पल्योपममुच्यते ॥ २ ॥ " इति वचनाद्वर्षशतैः केशोदारहेतुभिरुपमा अर्थात् पश्यविषया यस्याः सा पमा द्विविधाऽपि स्थितिः सागरोपमस्यापि पत्योप मनिष्पाद्यत्वात् तत्र मम महापाली दिव्या भवस्थितिरासीदित्युपस्कार, असा वर्षशतोपमायुरभूयमिति भावः । 'से' इति - श्रथ स्थितिपरिपालनादनन्तरं च्युतः -- भ्रष्टः ब्रह्मलोकात् पञ्चमकल्पात् मानुष्यं मानुष्य सम्बन्धि अर्थ-जम्म श्रागतः - श्रायातः । इत्थमात्मनो जातिस्मरणलक्षणमतिशयमाख्यायातिशयान्तरमाह श्रात्मनश्च परेषां वा श्रायु:जीवितं जाने यथा येन प्रकारे स्थितमिति गम्यते तथा तेनैव प्रकारेण न त्वन्यथेत्यभिप्रायः, इति सूत्रद्वयार्थः । इत्यं प्रसङ्गतः परितोषतश्चापृष्टमपि स्ववृत्तान्तमाद्योपदेच्दुमाह
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नागारु च छेदं च परिवजिओ । अड्डा जे अ सव्वत्था, इह विज्ञामसंचरे ।। ३० ।। नानेति श्रनेकधा रुचि च प्रक्रमात्क्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषं छन्दश्व-स्वमतिकल्पितमभिप्रायम्, इहाऽपि नानेति सम्बन्धादनेकविधं परिवर्जयेत् परित्यजेत् संयत: यतिः। तथा अनर्थदेतो ये च सर्वार्थाः अशेषहिंसादयो गम्यमानत्वात्तान् वर्जयेदिति सम्बन्धः, यद्वा- 'सउत्थे व्याकारस्थानामित्यात्सर्वत्र दाि निष्प्रयोजना ये च व्यापारा इति गम्यते तान् परिवर्जयेत् इतीत्येवंरूप] विद्यां सम्यग्ज्ञानरूपामयिति-लीकृत्य सञ्चरेः त्वं सम्यक् संयमाध्वनि यायाः, इति सूत्रार्थः ।
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अन्यश्च
पडिक्कमामि पसिणाणं, परमंतेहि वा पुणो ।
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(१०४ ) श्रभिधान्दराजेन्द्रः ।
संजय
हो ओ अहो रायं, इइ विजातवं चरे ॥ ३१ ॥ प्रतीपं क्रमामि प्रतिक्रमामि -- प्रतिनिवर्त्ते, केभ्यः ? - 'पसिणां' ति सुव्यत्ययात् प्रश्नेभ्यः- शुभाशुभसूचकेभ्योऽङ्गुष्ठप्रश्नादिभ्यः अन्येभ्यो वा साधिकरणेभ्यः, तथा परे गृहस्थास्तेषां मन्त्राः परमन्त्राः- तत्कार्यालोचनरूपास्तेभ्यः, वा समुच्चये, पुनः विशेषणे, विशेषेण परमन्त्रेभ्यः प्रतिक्रमामि, अतिसावद्यत्वात्तेषां सोपस्कारत्वात्सूत्रस्यामुनाऽभिप्रायेण यः संयमं प्रत्युत्थानवान् सः श्रहो इति विस्मये उत्थितः धर्म प्रत्युद्यतः । कश्चिदेव हि महात्मैवविधः सम्भवति अहोरात्रम् अहर्निशम् इति- इत्येतदनन्तरोक्तं 'विज' त्ति विद्वान् जानन् 'तवं' ति श्रवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य तप एव न तु प्रश्नादि चरे:- श्रासेवस्वेति सूत्रार्थः । पुनस्तत्स्थिरीकरणार्थमाह
जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्धे चेयसा ।
ताई पाउकरे, बुद्धे, तं नाणं जिणसास ॥ ३२ ॥ यच मे इति मां पृच्छसि प्रश्नयसि काले प्रस्तावे सम्यग्बुट्रेन अविपरीतबोधवता चेतसा-चिसेन, लक्षणे तृतीया, 'ता' इति सूत्रत्वात्तत्' पाउकरे' त्ति प्रादुष्करोमि प्रकटीकरोमि प्रतिपादयामीति यावत् बुद्धः - अवगतसकलवस्तुतस्वः । कुतः पुनर्बुद्धोऽस्म्यत श्राह तदिति यत्किञ्चिदिह जगति प्रचरति ज्ञानं - यथाविधवस्त्ववबोधरूपं तज्जिनशासनेऽस्तीति गम्यते, ततोऽहं तत्र स्थितः इति तत्प्रसादाद् बुद्धोऽस्मीत्यभिप्रायः, इह च यतस्त्वं सम्यग्बुद्धेन चेतसा पृच्छस्यतः प्रतिक्रान्तप्रशनादिरप्यहं यत्पृच्छसि तत्प्रादुष्करोमीत्यतः पृच्छ यथेच्छ - मित्यैदम्पर्यार्थः । अथवा श्रत एव लक्ष्यते यथा 'अप्पणी यपरेसिं च' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञतामवगम्य सञ्जयमुनिनाऽसौ पृष्टः कियन्ममायुरिति ततोऽसौ प्राह-यश्च त्वं मां कालविपयं पृच्छसि तत्प्रादुष्कृतवान् बुद्ध:- सर्वशोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने व्यवच्छेदफलत्वाजिनशासन एव न त्वन्यस्मिन् सुगतादिशासने, तो जिनशासन एव यता विधेयो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीषे, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः । पुनरुपदेष्टुमाहकिरियं च रोए धीरो, व्यकिरियं परिवञ्जए । दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्नो, धम्मं चरसु दुच्चरं ॥ ३३ ॥ क्रियांच अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां वा रोचयेत् तथा तथा भावनातो यथाऽसावात्मने रुचिता जायते तथा विदध्यात् धीरः -- मिथ्यादृग्भिरक्षो*यः । तथा श्रक्रियां नास्त्यात्मेत्यादिकां मिध्यादृक्परिकल्पिततत्तदनुष्ठानरूपां वा परिवर्जयेत्-परिहरेत् । ततश्च दृष्ट्वा सम्यग्दर्शनात्मिकया हेतुभूतया ' दिट्टिसंपन्नो 'ति 'धीर्हष्टिः शेमुषी धिषणा ' इति शाब्दिकश्रुतेर्दृष्टिः- बुद्धिः, साह प्रस्तावात्सम्यग्ज्ञानात्मिका तथा सम्पन्नो-युक्लोस्विनः एवं च सम्यग्दर्शनज्ञानान्वितः सन् धर्म-वारित्रधर्म चर - श्रासेवस्व सुदुश्चरम् - श्रत्यन्तदुरनुष्ठेयमिति सूत्राथः ।
पुनः क्षत्रियमुनिरेव सज्जयमुनिं महापुरुषोंदाहरणैः स्थिरीकर्तुमाहएयं वयं सुच्चा, अत्थधम्मो सोहियं ।
For Private
संजय
भरोऽवि भारहं वासं, चिच्चा कामाइँ पव्व ॥ ३४ ॥ सगरोऽवि सागरंतं, भरहवासं नराहियो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिब्बुडे ॥ ३५ ॥ चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डियो । पव्वज्जमन्भुवगओ, मघवं नाम महाजसो || ३६ ॥ सकुमारो मस्सिदो, चक्कबट्टी महिड्डियो । पुतं रजे वित्ताणं, सोऽवि राया तवं चरे ।। ३७ ॥ चहत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डियो । संती संतिकरो लोए, पत्तो गहमणुत्तरं ॥ ३८ ॥ इक्खागरायवसहो, कुंथूनाम नरेसरो । fararaकित्ती धिमं, मुक्खं गओ अणुत्तरं ||३६|| सागरतं जहित्ता गं, भरहवासं नरेसरो ।
अ अ अयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४० ॥ चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डियो । चिच्चा य उत्तमे भोए, महापउमो दमं चरे ।। ४१ ।। एगच्छत्तं पसाहित्ता, महिं माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुस्सिदो, पत्तो गहमणुत्तरं ॥ ४२ ॥ अनि रायसहस्सेहिं, सुपरिच्चाई दमं चरे । जयनामो जिक्खायं, पत्तो गइमरणुत्तरं ॥ ४३ ॥ दसपर मुइयं, चइत्ता गं मुणी चरे । दस भद्दो निक्खंतो, सक्खं सकेण चोश्रो ॥ ४४ ॥ ( नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोओ । जहित्ता रजं वइदेही, सामन्ने पज्जुवद्वि ॥ ) प्रक्षिप्ता --
करकंडू कलिंगाणं, पंचालाण य दुम्नुहो ।
मी राया विदेहाणं, गंधाराण य नगई ॥ ४५ ॥ एए नरिंदेवसभा, निक्खता जिणसास । पुत्रजे वित्ता, सामन्ने पज्जुवट्टिया || ४६ ।। सोवीररायवसभो, चइत्ता अ मुणी चरे । उदायो पव्वइओ, पत्तो गमणुत्तरं ॥ ४७ ॥ ata कासिया वि, से सच्चपरक्कमो । कामभोगे परिचज्ज, पहले कम्ममहावणं ॥ ४८ ॥ ata विजया, अट्टा कित्तिपव्वए । रजं तु गुणसमिद्धं, पयहित्तु महायसो ॥ ४६ ॥ agri तवं किच्चा, अव्यक्खि तेण चेयसा । महाबलो रायरिसी, हाय सिरसा सिरं ॥ ५० ॥ सूत्राणि सप्तदश । पतत्-- अनन्तरोक्तं पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं तच्च तत् पद्यते-- गभ्यतेऽनेनार्थ इति पदं च पुण्यपदं, पुण्यस्य वा पदं स्थानं पुण्यपदं क्रियादिवादिस्वरूपनानारुचिपरिवर्जनाद्यावेदकं शब्दसन्दर्भ श्रुत्वा - आकर्य अत इति श्रर्थः - स्वर्गापवर्गादिः धर्मः तदुपायभूतः श्रुतधर्मादि
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(१०५) संजय अभिधामराजेन्द्रः।
संजय स्ताभ्यामुपशोभितं--विभूषितमर्थधर्मोपशोभितं भरतोऽपि | जीवितनिरपेक्षमिति योऽर्थः, 'सिरं' ति शिर व शिरः सर्वभरतनामा चक्रपोप, अपिशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये | जगदुपरिवर्तितया मोक्षः, पठ्यते च-'श्रादाय सिरसो सि'भार' ति प्रारुतत्वाद्धारतं वर्ष--क्षेत्रं त्यक्त्वा 'का- रिं'ति, अत्रच पादाय-प्रहीत्वा शिरःश्रियं सर्वोत्तमा केमाई' ति चस्य गम्यमानत्वात् कामांश्च विषयान् प्राकृत- घललक्ष्मी परिनिवृत इति शेषः, इति सप्तदशसूत्रार्थः। त्यानपुंसकनिर्देशः, 'पव्वए'त्ति प्रावाजीत् । 'सगरीवी'
इत्थं महापुरुषोदाहरणेानपूर्वकक्रियास्यादि सर्वमपि स्पएं, नवरं सागरान्तं-समुद्रपर्यन्तं दि
माहात्म्यमभिधायोपदेष्टुमाहनये, अन्यत्र तु हिमवत्पर्यन्तमित्युपस्कारः, तथा ऐश्वर्यम् पार्श्वयादि केवलं परिपूर्णमनन्यसाधारणं वा
कहं धीरो अहेऊहिं, उम्मत्तो व्ध महिं चरे। दयया संयमेन परिनिर्वृतः इहैव विध्यातकषायानलत्या- एए विसेसमादाय, सूरा दढपरकमा ॥ ५१ ।। कछीतीभूतो मुक्तो वा । तथा--' अरो य ' त्ति अरनामा
कथ-केन प्रकारेण धीरः उतरूपः अहेतुभि:-क्रियावाद्याच तीर्थकच्चक्रवती 'अरयं' ति रतस्य रजसो पाऽभाव
दिपरिकल्पितकुहेतुभिः उन्मत्त इब--ग्रहगृहीत इय तास्विरूपमरतमरजो वा, पाठान्तरतः-अरसंवा कारादिरसा
कवस्त्वपलपनेनालजालभाषितया महीं--पृथ्वी चरेत्--- भावं, प्राप्तः-गतो गतिमनुतरां-मुनिमित्यर्थः । तथा मेत् ? नैव चरेदित्यर्थः, किमिति ?, ये एते-अनन्तरोदिता त्यक्त्योत्तमान् भोगानिति, पुनस्त्यक्त्वेत्यभिधानं भिन्नवा
भरतादयः विशेषम्-विशिष्टतां गम्यमानरवान्मिध्यादर्शमेभ्यो क्यत्वादपौनरुक्त्य, महापनः महापानामा 'चरे' ति श्रा
जिनशासनस्य श्रादाय--गृहीत्वा मनसि सम्प्रधायति याचरत् । तथा एकं छत्रं--नृपतिचिह्नमस्यामित्येकच्छत्रा तां, वत् शूरा ढपराक्रमा एतदेवाश्रितवन्त इति शेषः । अयमकोऽर्थः ?--अविद्यमानद्वितीयनृपति महीं--पृथ्वी प्रसाध्य- भिप्रायः-यथेते महात्मानो विशेषमादाय कुवादिपरिकल्पि. घशीकृत्वेति सम्बन्धः, 'माणनिसूरणो' त्ति हप्तारात्यहङ्का- तक्रियावाद्यादिदर्शनपरिहारतो जिनशासन एव निश्चितमरविनाशक: मनुष्येन्द्रः इति चकी। तथा 'अग्नितो' ति -
तयोऽभूवस्तथा भवताऽपि धीरेण सताऽस्मिन्नेव मिश्रितं न्धितः-यक्तः 'सुपारचाई'त्ति सुष्ठु-शोभनेन प्रकारेण राज्या-चेतो विधेयमिति सत्रार्थः। विपरित्यजतीत्येवं शीलः सुपरित्यागी दम-जिनाण्यातमिति सम्बन्धः, 'चरि' ति अचारीञ्चरित्या च जयमामा चक्री
किनति शेषः प्राप्तो गतिमनुसराम् । तथा शार्णा नाम देशस्तद्र
अचंतनियाणखमा, एसा मे भासिया बई। ज्य-तदाधिपत्यं मुदितं सकलोपद्रवविरहितं प्रमोदयत् त्य
अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति प्रणागया ।। ५२ ॥ त्या णः 'प्राग्बत् 'चरे' ति अचारीत् , अप्रतिबद्धविहारतया विस्तषानित्यर्थः, साक्षाच्छऋण चोदितः-अधिक- अत्यन्तम्-अतिशयेन निदानः-कारणैः, कोऽर्थः ? हेतुविभूतिदर्शनेन धर्म प्रति प्रेरितः। तथा मिष्फ्रान्ताः प्रवजि- भिर्न तु परप्रत्ययेनेय, क्षमा--युक्ताऽत्यन्तनिदानक्षमा, यद्वातो निकम्य च भ्रामण्ये--भ्रमणभाव पर्युपस्थिताः तदनु- निदानं-कर्ममलशोधनं तस्मिन् क्षमा--समर्था एषा-अन. धानं प्रत्युचताः अभूवनिति शेषः । तथा सौवीरेषु राजवृ- न्तरोक्का, पाठान्तरत:-सर्वा-अशेषा सत्या वा मे मया भाचभा--तत्कालभाषिनृपतिप्रधानत्वात्सौवीरराजवृषभः 'चे- षिता, अनयासीकृतया अतीवुः-तीर्णवन्तः तरन्ति एकेउच' ति त्यक्त्वा राज्यमिति शेषः प्राग्वत् , मुनिः- अपरे, पाठान्तरतोऽन्ये, सम्प्रत्यपि तत्कालापेक्षया क्षेत्रा
काल्यावस्थादेवी सन् 'चरे' तिप्रचारीत्, कोऽसौ ?- न्तरापेक्षया वेत्थममिधानमिति,तथा तरिष्यन्ति अनागता:• उदायणो' लि उदायननामा प्रवजितः, चरित्वा च किमि
भाविनो, भवोदधिमिति सर्वत्र शेष इति सूत्रार्थः । स्थाह-प्राप्तो गतिमनुलराम् । तथैव--तेनैव प्रकारेण काशीराजः काशीमण्डलाधिपतिः श्रेयसि--अतिप्रशस्ये सत्ये
__ यतचैवमतःसंयमे पराक्रमः--सामध्ये यस्याऽसौ श्रेयःसत्यपराक्रमः कह धीरे अहेऊहिं, अदायं परियावसे । पहणे ' ति प्राहन्--महतधाम् कर्म महावनमिवातिग
सम्बसंगविणिम्मुक्को,सिद्धे भवइ नीरए।।५३।। सिबेमि । अमतया कर्ममहावनम् । तथैव विजयः इति विजयनामा 'प्रणाकिसिपम्वए' ति, पार्षवाद अनार्स:--प्रार्सध्या- कथं धीरोऽहेतुभिः प्रादाय-गृहीत्वा , क्रियादियादिमविकलः कीर्त्या-दीनानाथादिदानोत्थया प्रसिश्योपलक्षितः मतमिति शेषः,पर्यावसेत् परीति-सर्वप्रकारमावसेत् तत्रैवसन् , यद्वा--मना --सकलदोषविगमतोऽबाधिता की- निलीयेत् , नैव तत्राभिनिविटो भवेदिति भावः । पठ्यते चतिरस्येस्यनार्मकीर्तिः सन् , पठ्यते च-'प्राणट्टा किरपब्वाई' 'अत्ताणं परियावसि'तिमात्मानं पर्यावासयेद, अहेतुभिः ति, मामा--भागमोऽर्थशब्दस्य हेतुवचमस्याऽपि दर्शना- कथमात्मानमहेत्वावास पुर्यात् , नैव कुर्यादित्यर्थः । किं वर्थों-हंतुरस्याः सा तथाविधा प्राकृतिरर्थान्मुनिवेपा- पुनरिरथमकरणे फलमित्याह सर्वे-निरवशेषाः सजन्तिकरिमका यत्र तदाशार्थाकृति यथा भवत्येवं प्रावाजीद् गुणैः- मणा सम्बध्यन्ते जम्तव एभिरिति समाः द्रव्यतो द्रविराज्यगुणैः शब्दादिभिर्वा समचं-सम्पर्ण गुणसमृखं, पूर्वत्र णादयो भाषतस्तु मिथ्यात्वरूपत्वादेत एव क्रियाविवादातुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वाधवाहतसम्बन्धत्वाच्च गुणसम्- स्तैर्विनिर्मुक्तो--विरक्षितः सर्वसङ्गविमिर्मुकः सन् सिजो अमपि । तथा 'भदाय' जि पार्षस्वाद मादित-गृहीतवां- भवति मीरजाः, तदनेमाहेतुपरिहारस्य सम्यग्वानोतुस्खेन स्तमनेन स्वीकृतवार शिरसेप शिरसा-शिरःप्रयानमेव । सिजत्वं फलमुक्तमिति सूत्रार्थः ।
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संजय
इत्थं तमनुशास्य गोविवक्षितात्रय शेषअपचयतां त्वा निक्रित्
( १०६) अभिधानराजेन्द्रः ।
काऊ तवचरणं, मणि वासाखि सो धुयकिलेसो । तं ठाणं संपतो, जे संपता न सोयंति ॥ ४०४ ॥
सुगमैव, नवरं भुताः- अपनीताः क्लिश्यम्त्येषु सत्सु जन्तव इति क्लेशाः - रागादयो येन स धुतल्लेशो यत्सम्प्राप्ता न शोजन्ते, शोकहेतुशारीरमानसः सापादिति गाथार्थ इति परिसमाप्तौ ब्रवीमि पूर्ववत् । उस० १८ अ० । ऋषभदेवस्य पुत्राणां शतकाभ्यन्तरवर्तिनि चतुर्नवतितमे पुत्रे श० ५ उ० आ० खू० । स० । पं० सं० । कल्प० १ अधि० ७ क्षण । संजयभद - संजयभद्र- पुं० सायनुकूले संपते, ००
११ उ० ।
संजयविरयपचक्खायपावकम्म- संयतविरतप्रत्याख्यातपापकर्मन् पुं० । सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशमकारसंयम पेतः, विविधमनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः संयथाऽसी वितब्ध तथा प्रतिहतं स्थितिहासतो - स्थिभेदेन विनाशितं प्रत्याख्यातं भवतः पुनाबेन निरा कर्म-ज्ञानावरणीयादि येन स तथा पुनः कर्मधारयः । सुसंयते, ध० ३ अधि० । दश० संजयाऽऽभास - संयताभासु पुं० । संयतवदवभासमाने असंयते, आचा० १ ० २ ० १ ३० ।
संजया संजय - संयतासंयत- पुं० । देशविरते
३ उ० | नं० ॥
,
,
संजलकसायसंगय-संज्वलनकषायसङ्गत- त्रि० । अल्पतकल्पकपायो, पञ्च०१७ विव संजलगतिग-संज्वलनत्रिक-१० मनमायारूपे कपायये, कर्म० २ कर्म० । संजलखा-संज्वलना- बी० हानादिगुलोद्दीपनायाम् उत्त
१ श्र० ।
।
संजाबय-संज्ञापक त्रिवि अनु संजाय संज्ञात भि० उत्पन्ने श्री० हेत्वभावतः । ।
भ० ६ शब्
संजल --संज्वलन - पुं० । ईषज्ज्वचनात्संज्यलनाः, सपदि ज्वलनाद वा संज्वलनाः परीग्रहादिसंपाते चारित्रिणमपि ज्वलयन्तीति संज्वलनाः । अल्पतरेषु क्रोधादिषु कषायेषु, विशे० । स्था० पोपपनिपाते पतिमध्यम समय येव तेन संवलनाः स्मृताः ते वारः क्रोधमानमायाल त्येष , चत्वारः भाः । कर्म० १ कर्म० । श्राष० ।
अथ ' संजला उदय इत्यादिनिर्बुद्धिगाथोत्तरार्धव्याख्यामाह
संजुता हि० पादयेतद् न सभ्येत पूर्वसन्धमपि च पुनस्तहुये सर्व तद् भ्रश्यतीति । न हि नैव यथास्यातमात्रोपघातिक सं ज्वलनाः किन्तु शेषचारित्राणामपि देशोपघातिनो भवन्ति यतस्तेषामुदये तदपि शेषचारित्रं सातिबारं भवति, इति गाथार्थः ॥ १२४६ ॥ १२४७ ॥ १२४८ ॥ विशे० । सूत्र० । संज्वलयति दीपयति सर्वसावद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पाते या संज्वलति दीप्यत इति संज्वलनः । स्था० ४ ठा० १ ० । प्रतिक्षरोपणे, दशा० १ ० । Mo म० । सूत्र० । मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलने, २०१२
ईसि सराहं वा, संपाए वा परीसहाई । जलयाओ संजलखा, नाहक्वायं तद्दयम्मि ।। १२४६ ॥ कसायमहक्खायं, जं संजलगोदए न तं तेणं । लम्भह लद्धं च पुणो,भस्सइ सवं तदयम्म । १२४७ | न हुनवरिमहखाओ, बधाइयो सेमचरणदेसं पि । घातितागमुदए, होइ जो साइयारं तं ।। १२५८॥ इद संशब्दस्य प्रयोऽथ तथथा-ईपालनात् संज्यलगा अथवा वराहं भगति ज्वलनात् ज्वलना, ' ' , यदि वा परिषहादिसम्पाते बारिभिषित संयमनाः, तदुदये यथास्यात चारित्रं न भवति । कुतस्तबुदये तद् न भवति इत्याह-'काय' मित्यादि ''ति यस्मादकषायं यथाख्यातमुच्यते, तेन करणेन संज्वलन
संजायतिव्वसद्ध-सञ्जाततीव्रश्रद्ध-त्रि० । समुत्पन्नोत्कटगुरुeat, पञ्चा० २ विष० ।
जायस-साथ जि०जा०प्र० १ पाहु० । ० ।
संजीवणी सञ्जीवनी-श्री० जीवितदाभ्याम् सूत्र० १०
"
५ अ० २३० ॥
"
संजय संयुग - १० संग्रामे मागे मूल दे उदाहृते सम्पुरापालनक संजुत्त--संयुक्त--त्रि० मिश्रिते कमाल
तो गच्छ उ परभवं । ' उत्त० १८ श्र० । संबजे, उत० १ ० । संजुत्तदव्बसम्मत्त-संयुक्तद्रव्यसम्यक्त्व--० । द्वयोव्ययोः संयोगो गुणान्तराधानाय गोषमय उपभो
यः शर्करयोरिव तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् । द्रव्यसम्यक्त्वभेदे,
उस० २८ अ० ।
संजुतसंजोग संयुसंयोग-०' संजोग राणेणे संयोगभेदे, उत० १ ० । । संजुनाहिगरण- संयुक्राधिकरण-पुं० अधिक्रियते नरकादि ध्वननेत्यधिकरणं वासः उदूखलमुशलशिला पुत्रक गोधूमयन्त्रादिसंयुक्तमर्थक्रियाकरणयोग्यम्, संयुक्तं च तदधिकरणेचेति समासः । श्राव० ६ श्र० । उपा० । श्रा० । पञ्चा०। तूणीरधनुर्मुशलो दूखलघरट्टादिके, ध० २०२ अधि० । संजुता हिगरख्या संयुक्ताधिकरणता श्री० अधिक्रियते प्रा. स्माऽनेनेत्यधिकरणम् । उादिसंयुक्रं खार्थक्रिया ०२ अघि० । 'संसदिगर संयुक्रम-प्रक्रियाकरणममधिकरणम् - उदूखलमुशलादि, तदतिचारहेतुत्वादतिचारोहिंस्र प्रदाननिवृत्तिविषयः, यतोऽसौ साक्षाद्यद्यपि लिं
-w
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संजुत्ताहिक अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग शकटादिकं न समर्पयति परेषां तथापि तेन संयुक्तेन | गोहिं गोमिए महिसीहिं महिसए ऊरणीहि ऊरणीए उ-- तेऽयाचित्वाऽप्यर्थक्रियां कुर्वन्ति विसंयुक्त तु तस्मिस्त
हीहि उडीवाले, से तं सचित्ते। से किं तं अचित्ते, अचित्ते स्वत एव विनिवारिता भवन्ति ॥४॥ अर्थक्रियाकरणक्षमे चतुर्थेऽतिचारे, उपा० १० । संयुक्ना
छत्तेण छत्ती दंडेण दंडी पडेण पडी घडण घडी कडेधिकरणम्--अधिक्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणम् ,
| ण कडी, से तं अचिने । से किं तं मीसए?, मीसए हलेणं वास्तूदूखलशिलापुत्रकगोधूमयन्त्रकादि संयुतम् अर्थ- हालिए सगडेणं सागडिए रहेणं रहिए नावाए नाविए कियाकरणयोग्यम् , संयुक्त च तदधिकरण चेति समासः । से तं दब्बसंजोगे । से किं तं खित्तसंजोगे १,२ भारहे एर'एत्थ सामाचारी--सावगेण संजुत्ताणि चेव सगडादीनि न
वए हेमए एरमवए हरिवासए रम्मगवासए देवकुरुए उधरेतब्वाणि, एवं वासीपरसुमादिविभासा ।' उपभोगपरिभोगातिरेक' इति उपभोगपरिभोगशब्दार्थो निरूपित एष तद |
त्तरकुरुए पुम्वविदेहए अवरविदेहए, अहवा-मागहे मालतिरेकः । एत्थ वि सामायारी-उवभोगातिरित्तं जदि तेला- वए सोरदुए मरहट्ठए कुंकणए, से तं खेत्तसंजोगे । से किं मलए बहुए गेएहति ततो बहुगा राहायगा वचंति तस्स लो- तं कालसंजोगे?, २सुसमसुसमाए सुसमाए सुसमदुसमाए लियाए, भएहविण्हायगा रहायति, पत्थ पूतरगा पाउकाय. बधो, एवं पुष्फतंबोलमादिविभासा, एवं ण वहति । का
दुसमसुसमाए दुसमाए दुसमदुसमाए । अहवा-पावसए विधी सावगस्स उवभोगे रहाणे?, घरे रहायवं णऽस्थि ता.
वासारत्तए सरदए हेमंतए वसंतए गिम्हए, से तं कालर्सधे तेशामलएहिं सीसं घंसित्ता सम्बे साडेतर्ण ताहेतडागा- जोगे। से किं तं भावसंजोगे?, २ दुविहे पप्मत्ते,तं जहा
इतर निविट्ठो अंजलिहिं एहाति । एवं जेसु य पुप्फेसु पसत्थेम,अपसत्थेपासे किं तं पसत्थे?,२ नाणेणं नाणी पुष्फकुंथुगाणि ताणि परिहरति । आव० ६ ०। दसणेणं दसणी चरित्तेणं चरित्ती, से तं पसत्थे। से किसे संजुद्ध-देशी-सस्पन्दे, दे० ना०८ वर्ग : गाथा।
अपसत्थे १, २ कोहेणं कोही माणेणं माणी मायाए मायी संजुय-संयुग-पुं० । संग्राम, व्य०१ उ०।
लोहेणं लोही । से तं अपसत्थे । से तं भावसंजोगे। से तं संयुत-त्रि० । बहुविधैर्यअनादिभिः सहिते, उत्त० १२ अ संजोए थे। संजूह-संयूथ-न० । निकायविशेषे, अनुयोगभेवे , भ०१५ संयोगः-सम्बन्धः,स चतुर्विधः प्राप्तः, तद्यथा-द्रव्यसंयोग श। हावादस्याष्टाशीतिसूत्रेषु सप्तमे सूत्रे,स०१४७ समन इत्यादि , सर्वे सूत्रसितमेव, नवरं-सचित्तद्रव्यसंयोगेन सातं युक्तार्थ यूथं पदानां पदयोर्वा समूहः संयूथं; समास गावोऽस्य सन्तीति गोमामित्यादि । अचित्तद्रव्यसंयोगेन इत्यर्थः । स्था० १० ठा० ३ उ० । सूत्र।
क्षत्रमस्यास्तीति शात्रीत्यादि, मिभद्रव्यसंयोगेन हलेन व्यसंजोइत्ता-संयोज्य-अव्य० । संयोगं कृत्वेत्यर्थे,स्था०१० ठा। बहराति हालिक इत्यादि । अत्र हलादीनामचेतनत्याद्रसंजोइम-संयोगिम-त्रि० । संयोगिमं च संयोगस्तेन निर्वृत्तः
लीवर्दानां संचतनत्यान्मिभद्रव्यता भावनीया । क्षेत्रसंयो
गाधिकारे भरते जातो भरते वाऽस्य निवास इति तत्र "भावादिमः" ॥६४ा२१॥ इतीमप्रत्ययः । संयोगनिष्पन्ने,हैमा
जातः ( का० ५०७ ) “सोऽस्य निवास" इति षा:संजोग-संयोग-पुं०। संयुज्यते संयोजनं वा संयोगः । प्रा
प्रत्यये भारतः । एवं शेषेप्यपि भावना कार्या । काचा० १७०२५०१ उ०। समुचितो योगः | पं० सू०१ लसंयोगाधिकारे सुषमसुषमायां जात इति “ सप्तमी सूत्र । "मादेयों जः"॥८।१।२४५ ।। इति यस्य जः । पञ्चम्यन्ते जनः "(का. १०६६१)। इति इप्रत्यये सुषमप्रा० । परस्परोचितपदार्थानां योगे, औ०। जीवस्य सम्ब- सुषमजः एवं सुषमजादिष्वपि भावनीयम् । भावसंयोगाधिन्धे, भाचा०१ श्रु००१ उ०। उत्त। नानाभवेषु पु
कारे भावः-पर्यायः, स च द्विधा-प्रशस्तो शानादिरप्रशप्रकलत्रमित्रशरीरादिसम्बन्धे, श्रातु। आचा० । सूत्र० । स्तश्च क्रोधादिः, शेष सुगमम् । इदमपि संप्रयोगप्रधानतया विशे। उत्त । पुत्रकलत्रमित्रादिजनिते सम्बन्धे, प्राचा प्रवृत्तत्वानौणाद्भिद्यत इति । । अनु। १ श्रु०४ अ० १ उ० । सम्बन्धे, सूत्र. २ श्रु० १ ० । सम्प्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्न निक्षेपस्य सूत्रस्पर्शिकनियुको केनचित्सह सम्बन्धे, आव०४ अ० । पित्रादिभिः सार्द्ध श्व प्रस्ताव इति मन्यमानः संयोग इत्याचं पदं स्पृशनिक्षे सम्बन्धे, दर्श०४ तत्व । ममत्वकृते सम्बन्धे, प्राचा० १ प्तुमाह नियुक्तिकृत्श्रु०२ १०६ उ० । अप्राप्तिपूर्विकायां प्राप्ती, सम्म० ३ का- संजोगे निक्खेवो, छको दुविहो उ दब्वसंजोगे । राडा भाचा
संजुत्तगसंजोगो, नायवियरेयरो चेव ॥ ३०॥ संयोगभेदाः
संयोग इति-संयोगविषयः निक्षेपः म्यासः, षट्परिमाणमसे कि तं संजोए णं, संजोगे चउविहे पमत्ते,तं जहा- स्येति पदकः प्राग्वत्कन् , एतनेदाश्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रदबसंजोगे खत्तसंजोगे कालसंजोगे भावसंजोगे ? । से कि
कालभावाः, प्रसिद्धत्वादुत्तरत्र व्याख्यानत उनीयमानत्वान
नोक्ताः,(अत्रत्या वक्तव्यता वक्खाण' शब्दे 'णामणय' शम्ने ठतं दव्वसंजोगे ?, दब्बसंजोगें तिविहे पप्सत्ते, तं जहा
वणाणय'शब्दे च उक्ना)उक्तं पूज्यैः-"श्रागरोशिय मइस-वसचित्ते अचित्ते मीसए । से किं तं सचित्ते, सचित्ते- त्थुकिरियाफलामिडाणाई। प्रागारमयं सव्वं, जमणागारं तय
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१०८). संजोग अभिधानराजेन्द्र
संजोग मऽस्थि ॥१॥ण पराणुमयं वत्थु, अगाराभावो खपुष्पं । संयुक्तकसंयोगः अनन्तराभिहितस्वरूपः सचित्तादीनां सउबलमव्वषहारा, भावाभो साणगारं च ॥ २॥" द्रव्यनय चित्साचित्समिश्राणां भवति द्रव्याणाम् । अमीषामुदाहरभाह-"यथानामादिनाकारं, विना संवेद्यते तथा । ना55- जाम्याह-'दुममणुसुवरणमा'ति'अत्र मकास्यालाक्षणि कारोऽपि विना द्रव्यं, सर्वे द्रव्यात्मकं सतः॥१॥" तथा- कत्वात् सुख्यत्ययाच माणुसुषर्णादीनां प्रत्येकं चाविशयहि-द्रव्यमेव मृदादिनिखिलस्थासकोशकुशूलकुटकपालाचा. सम्बन्धात्सचित्तद्रव्याणां द्रुमादीनाम् , अचित्तद्रग्याणामकारानुयायि वस्तु सत् , तस्यैव तत्तदाकारानुयायिनः स- एषादीनां सुवणाँदीनां च, मिधद्रव्यस्य तु सन्ततिकर्मणोदोधविषयत्वात् , स्थासकोशाधाकाराणां तु मृद्रव्यातिरे- पलक्षितस्य जीवस्य । अत्र चाऽरवादीनां सुवर्णादीनामित्युकिणां कदाचिदनुपलम्भात् , तमोत्पादादिसकलविकारविर- दाहरणद्वयमचित्तद्रव्याणां सवित्तमिभद्रव्यापेक्षया भूयस्त्वहितं तथा तथाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं सम्मूछित- ख्यापनार्थम् । एतयस्त्वं च जीवेभ्यः पुद्रलामामनन्तगुसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं द्रव्यमगृहीततरङ्गाविप्रभेदस्तिमितसरः- णत्वात् । उक्तं च-"जीवा पोग्गलसमया, दव्वपएसा य सलिलयत् , माह च
पजवा चेव । थोबाऽणताणता , विसेसमहिया दुवेऽणता ।। "दव्यपरिलाममेतं, मोलणागारदरिसणं किं तं।
॥१॥" इति , अनेन च सचित्तादेः संयोगद्रव्यस्य प्रविउप्पायव्ययरहियं, दव्वं चिय निधियारं ति ॥१॥
ध्यात् संयुक्तकसंयोगस्य त्रैविध्यमुक्तमिति गाथार्थः ॥ ३ ॥ आविम्भावतिरोभा-वमेतपरिणामकारणमचिन्तं ।
तत्र हुमादीनां सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोगं णि बहुरूवं पि य, मडो व्व संतरावासो ॥२॥"
विवरीतुमाह(भावनयम्यास्या ‘भावणय' शब्दे पश्चमभागे गता।)।
मूले कंदे खंधे, तया य साले पवालपत्तेहिं । परमार्थतस्त्वयम्-संविष्टिय सर्वाऽपि विषयाणां व्यव- पुप्फफले बीएहि भ, संजुत्तो होइ दुममाई ॥ ३२॥ स्थितिः। संवेदनं च नामावि, विकलं नानुभूयते । तथाहि- मूले कन्दे स्कन्धे इति सर्वत्र सूत्रत्वात् , तृतीयाथै स"घटोऽयमिति नामैतत् , पृथबुभ्नादिनाऽऽकृतिः।
प्तमी। ततश्च मूलेन-अधःप्रसर्पिणा स्वावयवेन कन्देनमृदयं भवनं भावो, घटे ट्रं चतुष्टयम् ॥१॥
तेनैव मूलस्कन्धान्तराखवर्तिना स्कन्धेन-स्थडेन त्वचा-छ. तत्राऽपि नाम माकार-माकारो नाम नो विना।
विरूपया 'साले' ति एकारोऽलाक्षणिकः, ततः शालाती विना नापि चान्योऽन्य-मुत्तरावपि संस्थितौ ॥२॥
प्रवालपत्रैः शाखापल्लवपलाशैः , फले इत्यत्राप्येकारस्तथैव ,
ततः पुष्पफलबांजैश्च प्रसिद्धैरेव संयुक्तः-सम्बद्धो भवति । मयूराण्डरसे यव-वर्णा नीलादयः स्थिताः ।
'दुममाइ' ति मकारोऽलाक्षणिकः ततो दुमादिः, आदिसर्वेऽप्यन्योऽन्यमुन्मिश्रा-स्तद्वन्नामादयो घटे ॥३॥"
शब्दाद्-गुच्छगुल्मादिश्व संयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः । स हि इत्थं चैनत् परस्परसव्यपेक्षितयैषाशेषनयानां सम्य- प्रथममुद्रच्छन्नङ्कुरात्मकः पृथिव्याः संयुक्त एव मूलेन संयुग्मयत्वात् , इतरथा उत्पादव्ययौव्ययुक्तं सदिति ज्यते , ततो मूलसंयुक्तक एव कन्दन , कन्दसंयुक्त प्रत्यक्षाविप्रमाणप्रतीतसल्लक्षणानुपपत्तेश्च । किश्व-शब्दावपि एष स्कन्धेनं एवं स्वशाखाप्रथालपुष्पफलबीपि घटावेर्नामादिभेवरूपेणैव घटाग्थें बुद्धिपरिणामो जायते, पूर्वसंयुक्त एवोत्तरोत्तरैः संयुज्यते इति भावनीयम् । नन्वेइस्यतोऽपि नामादिचतरूपतेव सर्वस्य बस्तुनः । उक्नं चंद्रमावर्द्रव्यत्वात् संयुक्तकसंयोगस्य च गुणस्वात्कथं दुप-" नामादिभेवसह-स्थ बुद्धिपरिणामभावो णिययं ।
मादिरेव स इति , अत्रोच्यते--धर्मधर्मिणोः कश्चियनअंबत्थु अस्थि लोए, बउपजायं तयं सम्वं ॥१॥" ततश्च"चतुष्काभ्यधिकस्येह, म्यासो योऽन्यस्य दयते । पतद
म्यत्वादेवमुक्कमित्यदोषः। एवमुत्तरभेश्योरपीति गाथार्थः॥३२॥ न्तर्गतः सोऽपि, सातव्यो धीधनान्वितैः ॥१॥" इत्यलं
प्रवादीनामचित्तसंयुक्तकद्रव्यसंयोग स्पष्टयितुमाह-- प्रसनेन ॥ सम्प्रति नियुक्तिरनुधि (नि) यते । तत्र नाम
एगरस एगवले, एगे गंधे तहा दुफासे श्र। खापने भागमतो नोभागमतश्व शरीरभव्यशरीररूपश्च परमाणू खंधेहि अ, दुपएसाईहि णायव्वो ॥ ३३ ॥ बग्यसंयोगः सुगम इति मन्यानो व्यतिरिक्तद्रव्यसंयोगम
पक:-अद्वितीयस्तिकादिरसान्यतमो रसोऽस्येति एकरसा, भिधातुमाह-द्विविधस्विति द्विविध एव, द्रव्येण द्रव्यस्य
तथैकः कृष्णादिवर्णान्यतमो वर्णोऽस्येति एकवर्णः , एवम् वा, समिति सस्तो योगः संयोगः । संयोगद्वैविध्यमेवाह- एकगन्धः-सुगन्धीतरान्यतरगन्धान्वितः, 'एगे' इत्येकारसंयुक्रमेव संयुक्तकम्-मन्येन संश्लिष्ट, तस्य संयोगा-व स्यालक्षणिकत्वात् , तथा द्वौ वाविरुशी खिग्धशीताचास्वन्तरसम्बन्धः संयुक्तकसयोगो सातव्यः । इतरेतर इति स्मकी स्पीवस्येति द्विस्पर्शः । चशम्नः स्वगतानन्तभेदोपइतरेतरसंयोगः । चः समुपये । एवः अवधारणे । इत्थमेव लक्षकः । क एवंविधः, इत्याह--परमः-तदम्यसूचमतरास. विषिष एष संयोग इति गाथासमासार्थः ॥ ३० ॥
म्भवात् प्रकर्षवान् स चासावणुश्व परमाणुः, उपलक्षणत्वाद विस्तरार्थ त्वभिधित्सुः “यथोद्देश मिर्देश" इति न्यायतः काणुकाविश्व, स्कम्धध--स्कन्धशम्याभिधेयैः, कैरिस्याहसंयुक्तकसंयोगं भेदेनाह
द्वौ प्रदेशाधारम्भकावस्येति द्विप्रदेशो-घणुकः, स आदिये
षां त्रिप्रदेशादीनामचित्तमहास्कन्धपर्यन्तानां ते तथा तैः-चसंजुसगसंजोगो, सञ्चित्तादीण होइ दव्वाणं।
शब्दात्परमाएवम्तन्तरादिभिश्च , संयुश्यमान इति गदममणुसुवममाई, संतइकम्मेण जीवस्स ।। ३१ ।। म्यते। विशेयः विशेषण--संख्यातासंख्याताना
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संजोग
"
3
भावनात्मकेनावयः पाठान्तरतो शतव्यः अचिनसंयुक्तकसंयोग इति प्रक्रम:, श्रयमर्थः - " कारणमेव तदस्यं, सूक्ष्मो नित्य भवति परमाणुः एकरस, हिस्प शः कार्यलि १॥" इत्येयलक्षणः परमानुदापका रिस्कन्धपरिणतिमनुभवति तदा रसादिसंयुक्त एव डाणुकादिभिः स्कन्धः संयुज्यते यदा वा तिनादिपरिणतिमपहाय कटुकत्वादिपरिकर्ति प्रतिपद्यते सदा व दिभिः संयुक्त एष कटुकत्वादिना संयुज्यते इति संयुक्तयोग उच्यते । अत्र व कृष्णपरमाणुः कृष्णत्वमपहाय नीलत्वं प्रतिपद्यत इत्येको भङ्गः एवं रक्तत्वं पीतत्वं शुक्लत्वं चेति चत्वारः । तथाऽयमेव रसपञ्चकगन्धद्वयाविरुद्धस्पशैतारतम्यजनितेश स्वस्थान एव द्विगुणकृष्णत्वादिभिः परमाण्वन्तरद्विदेशादिभिध योजनाद्विःसंख्यातासंख्यातानन्वात्मिकां भङ्गरचनामचाप्रोति एवं वर्णासररसस्पर्शगन्धस्यगततारतम्ययुक्ोऽपि तथा द्विप्रदेशादि। यथ-बदरसंगधफासा, पोगलांच इत्यादिसूत्रेषु वर्णस्यादित्येनदर्शनेऽपि रसस्य प्रथमत उपादानं तदनानुपूर्व्या अपि व्याख्यात्वेन मायाबन्धानुलोम्येन वेति भावनीयम् सुपोदीनां च प्राच्यवर्णका संयुक्तानामेष विशिष्टवर्णकादिभिः संयोगोऽचिसंयुक्तकसंयोग उक्तानुसारेण सुज्ञान एवेति निर्युकृता न व्याख्यात इति गाथार्थः ।
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( १०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
·
दृष्टान्तपूर्वकं सम्ततिकर्मणा जीवस्य मिश्रसंयुकथ्यसंयोगीकर्तुमाह
जह भाऊ कणगाई, सभावसंजोयसंजुवा हुंति । इम संतइकम्मेणं, प्रणाइसंजुत्तमो जीवी ।। ३४ ॥
यथा इति उदाहरोपन्यासार्थः, यथा धातवः कनकारियो निभूता मृदादयः कणगाइ ति सूत्रत्वात्कनकादिभिः आदिशब्दात्ताघ्रादिभिश्व, किमित्याह - स्वभावेन संयोगःप्रकृतीश्वराद्यर्थान्तरव्यापारानपेक्षयोपखानुरूप सम्बन्धस्तेन संयुक्ता- मिश्रिताः स्वभावसंयोगसंयुताः भवन्ति - विद्यन्ते इतीत्य मुनैवार्थान्तरनिरपेक्षत्वलक्षणेन प्रकारेण सम्ततिः - उत्तरोत्तर निरन्तरोत्पत्तिरूपः प्रवाहस्तयोपलक्षितं कर्मज्ञानावरणादिसन्ततिकर्म तेन न विद्यते आदि:- प्राथम्य मस्येत्यनादिः स चेह कमात्संयोगस्तेन 'स' मिति ' अरोरा गयाणं इमं व तं चसि विभयणमजुतं ' इत्यागमाद्विभागाभावतो युक्तः शिष्टादिसंसद, यहा संयोगा संयुकं ततोऽनादिसंयुक्रमस्येति अनादिका जीवति जीविष्यति जीवितवांश्चेति जीवः मिश्रसंयुक्तक
प्र
संयोग इति प्रक्रमः भवति जीवो धनन्तकर्माणुवर्गणाभिरावेष्टितप्रवेष्टितोऽपि न स्वरूपं चैतन्यमतिवर्तते यातम् कर्माण इति तदयुक्तया शोऽसी संयुकमियं ततोऽस्य कर्मप्रदेशान्तरे - योगो मिक्ष संयुक्तकद्रव्यसंयोग उच्यते । इह च जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातुकनकादिसंयोगदृष्टान्तद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्मसंयोगस्याभावख्यापना- ।
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संजोग र्थम्, अन्यथा मुक्त्यनुष्ठान वैफल्या पत्तेरिति भावनीयमिति गाथार्थः । उक्ता संयुक्तकसंयोगः ।
इतरेतरसंयोगमाह -
इयरेयर संजोगो, परमारपूर्ण तहा परसाणं । अभिपेयमभिपेश्रो, अभिलावो चेव संबंधो ||३५|| इतरेतरस्य - परस्परस्य संयोगो-घटना इतरेतरसंयोगः परमाणूनाम् उक्तरूपाणां तथा प्रकर्षेण सूक्ष्मातिशयलक्षणेन विश्यन्ते कथयन्त इति प्रवेशा:-धर्मस्तिकायादिसम्ब धितो निर्विभागा भागास्तेषाम् 'अभिपेत भिप्रेतः, इतरेतरसंयोग इति योज्यते, एवमुत्तरत्रापि अभिप्रेतत्वं चास्य अभिप्रेतविषयत्वाद् एतद्विपरीतोऽनभिप्रेत अ मिलते-अभिमुख्येन मुच्यनेनाभिवाचकः शब्दस्तद्विषयत्वात् अभिलापः । वः समुच्चये । एवः अवधारणे । सम्बन्धशब्दानन्तरं चैती योज्यो, ततः सम्बन्धनं सम्बन्धः, स चैवं स्वस्वामित्वादिरनेकधा वक्ष्यमाणः । एतावद पचायामितरेतरसंयोग इति चावधारणस्यार्थ इति गाथासमासार्थः ।
परमान संयोगमाह
दुविहो परमाणू व य संठाणखंध चेव । ठाणे पंचविहो, दुविहो पुरा होइ खंधेनुं ।। ३६ ।। ही विधी प्रकारावस्थेत विभेदः कोऽसी १-परमानाम् इति परमासम्बन्धी प्रमादितरेतरसंयोगो भवति च पूरणे। कथं द्विविध इत्याह-संबंधो सन्तिष्ठतेऽनेन रूपेण पुङ्गलात्मकं वस्त्विति संस्थानम्-आका रविशेषः ततस्तमाश्रित्य, स्कन्धतः स्कन्धमाश्रित्य । चः समुच्चयेः मेायधारणे द्विविधस्याऽपि प्रत्येकं भेदाना- संस्थाने संस्थानविषयः पञ्चविधः पञ्चप्रकारः द्विविधःद्विप्रकारः पुनःशब्द वाक्यान्तरोपन्यासे भवति, स्कन्धेषु स्कन्धविषय इति गाथार्थः ।
इह व संस्थानस्कन्धभेदद्वारक एवायमितरेतरसंयोगभेद इति तदभिधानमुचितं, तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायतः संस्थानभेदाभिधानप्रस्तावे ऽप्यल्पवक्तव्यत्वात् स्कन्धमेवं हेतुभेदद्वारेण33
"
2
परमापुग्ला खलु दुखि बहुगा य संहता संता । निव्वत्तयति खंधं तं संठाणं श्रत्थित्थं ||३७|| परमाणुपुङ्गलौ खलु छौ वा बहव एव बहुकाः - त्रिप्रभृतयः, ते च परमाणुपुङ्गलाः संता:- एक पिण्डतामापक्षाः सन्तीि वर्तयन्ति - जनयन्ति, किमित्याह-स्कन्धं द्व्यणुकादिकम्. अनेन च द्विपरमाणुजन्यतया बहुपरमाणु जन्यत्वेन च स्कन् स्य द्विभेदमुक्तम् दो विशेष द्योतयति, सायम्हहरू स्निग्धो या एकगुणः सम्बध्यमानी द्विगुणाधि नैव स्वस्वरूपापेक्षया सम्बध्यते नतु समगुणेनैकगुणाधिकनवा किमु भवति एक गुस्नग्ध गुणस्नग्धन सम्बध्यते, त्रिगुणस्निग्धः पञ्चगुण स्निग्धेन, पञ्चगुणस्निग्धः सप्तगुण स्निग्धेनेत्यादि । तथा द्विगुणस्निग्धश्चतुर्गुणस्निग्धेन, चतुर्गुगम्निग्धः पडगगस्निरधेनेत्यादि एवमेकगुणकक्ष
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(१९०) संजोग अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग त्रिगुणरूक्षण, त्रिगुणरूक्षः पश्चगुणरूक्षेणत्यादि, तथा विगु- ते, हापि तथैवोपदर्शयिष्यते, ततः प्रतरघन इति निर्देश: गरूक्षश्चतुर्गुणरूक्षण, चतुर्गुणरूक्षः षड्गुणरूक्षणत्यादि, एवं प्राप्तः, अल्पाक्षरत्वातु घनशब्दस्य पूर्वनिपातः, । ततश्चैक द्विगुणाधिकसम्बन्धो भावनीयः, नत्वेकगुणस्निग्धः एकगुण- परिमण्डलादि प्रतरं धनं च, भवतीति गम्यते । तथा प्रबिग्धेन विगुणस्निग्धन या सम्बध्यते,द्विगुणस्निग्धो द्विगुण- थमम्-प्राचं वर्जयति-त्यजतीति प्रथमवर्ज-परिमण्डनिम्न त्रिगुणस्निग्धेन वा यावदनन्तगुणस्निग्धोऽप्यनन्तगु: लरहितं वृत्ताविसंस्थानचतुष्कमित्यर्थः । भोयपएसे य' णबिग्धेत समगुणेनैकगुणाधिकेन वा । एवमेकगुणरूक्ष एक- त्ति प्रोजःप्रदेश च विषमसंख्यपरमाणुकं 'जुम्मे य' ति गुणको विगुणरूक्षेण वा,द्विगुणरूक्षो द्विगुणरूक्षेण त्रिगुण- प्रक्रमाद् युग्मप्रदेशं च , उभयत्र वः समुच्चये। हच घनकोण पायाषवनम्तगुणरूक्षोऽप्यनन्तगुणरूक्षण समगुणेनै- प्रतरभेदमय वृत्तावीत्थं भियते, ततः प्रतरवृत्तमोजःप्रदेश कगुणाधिकेन बेति । अन्ये त्याहु:-एकगुणादिस्वस्थानापेक्ष- युग्मप्रदेश च, तथा घनवृत्तमोजःप्रदेश युग्मप्रदेशच, एवं या द्विगुणेन रुपाधिकेन सम्बभ्यत इति । अयमत्र विशेषः ख. इयनादिष्वपि चतुर्विधं भावनीयम् । परिमण्डलं वर्जनीय लुशब्देन सूच्यते, तथा चैककस्य स्वस्थानापेक्षया द्विगुणो च, समसंक्यागुम्वेव तस्य सम्भवेनैवंविधभेदासम्भवात् , द्विक एव,सच रूपाधिकत्रिक एव इति त्रिगुणेनैवैकगुणस्य तथा च द्विविधमव परिमण्डलमिति गाथार्थः। सम्बन्धः । तथा द्विगुणस्य पञ्चगुणेन, त्रिगुणस्य सप्तगुणेन,
इह व परिमण्डलादि प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्ट च, तत्रोत्कृष्ट चतुर्गुणस्य नवगुणेन, पञ्चगुणस्यैकादशगुणेनेत्यादि । उक्तं च
सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसंख्यप्रदेशाषगादं वेत्येकरूपत"सममियाह बंधी, न होर समलुक्खया वि य न हो।।
याऽनुक्रमपि सम्प्रदायाजमातुं शक्यमिति तदुपेक्ष्य जबेमाइनिखलक्ख-तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥"
घन्यं तु प्रतिभेदमन्यान्यरूपतया न तथेति तदुपदर्शनार्थमाहतथा"दोण्ह जहएणगुणाणं, निद्धाणं तह य लुक्खव्वाण ।
पंचग वारसगं खलु, सत्तग वत्तीसगं तु वदृम्मि । एगाहिए वि य गुणं, ण होति बंधस्स परिणामो ॥२॥ तिय छक्कग पणतीसा, चत्तारि य हुँति तंसम्मि॥३०॥ णिशविउणाहिएणं, बंधो निद्धस्स होइ दब्बस्स ।
नव चेव तहा चउरो, सत्तावीसा य अट्ठ चउरंसे । लुक्खपिउणाहिएण य, लुक्खस्स समागमं पप्प ॥ ३॥" स्निग्धरूक्षपरस्परबन्धविचारणायां तु समगुणयोर्विषमगु
तिगदुगपचरसेऽवि य, छच्चेव य पायए हुंति ॥ ४०॥ णयोर्वा जघन्यवर्जयोर्बन्धपरिणतिरिति विशेषः । तथा चा- पणयालीसा वारस, छब्भेया पाययम्मि संठाणे । ह-" बझंति णिद्धलुक्खा,विसमगुणा अहव समगुणा जे- वीसा चत्तालीसा, परिमंडलि हुँति संठाणे ॥४१॥ वि । जितु जहन्नगुणे, बज्झती पोग्गला एवं ॥१॥" इत्यादि, येन विशेषेण संस्थानात् स्कन्धस्य भेदेनोपादानं तमाविष्क- आसामर्थः स्पष्ट एव. नवरमायते षड्भदाभिधानमव्यापितुमाह-' तं संठाणं' ति प्राकृतत्वादेवं पाठः, तस्य-स्कन्धस्य
त्वेन प्रागनुद्दिष्टस्यापि श्रेणिगतभेदद्वयस्याधिकस्य तत्र संस्थानम्-आकारस्तत्संस्थानम् , अनेन-हृदि विवर्तमानतया सम्भवात् , तथा परिमण्डलादित्वेऽपि संस्थानानां वृत्तादिप्रत्यक्षेण परिमण्डलादिनाऽनन्तगेनप्रकारेणत्यमित्थं तिष्ठति भेदानामोजःप्रदेशप्रतरादीनामनन्तरोहिएत्वात् प्रत्यासत्तिइत्थस्थं, न तथा अनित्थंस्थम्, अनेन नियतपरिमण्डलाद्यन्य
न्यायेन यथाक्रमं पञ्चकादिभिः प्रथममुपदर्शनं , पश्चात् तराकारं संस्थानं शेषोनियताऽऽकारस्तु स्कन्ध इत्यनयोर्वि
परिमण्डलभेदवयस्य । तत्रीजःप्रदेशप्रतरवृत्तं. पञ्चाणुनिशेष इत्युक्तं भवति । श्राह-स्कन्धानामपि परस्परं बन्धोऽस्ति
पन्नं पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च तत्रैकाऽणुरन्तरेव स्थाप्यते, यदुक्तम्-“एमेव य खंधाणं, दुपएसाईण बंधपरिणामो” त्ति
चतसृषु पूर्वादिदिचु चैकैकः स्थापना १- . . अतः किं न तेषामपीतरेतरसंयोग इहोक्तः?, उच्यते-उक्त एव,
युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशप्रदेश, द्वादश. तेषां प्रदेशसद्भावात् , प्रदेशानां च 'इयरेयरसंजोगो, परमा
प्रदेशावगादं च, तत्र हि चतुर्यु प्रदेशेषु
निरन्तरमन्तश्चतुरोऽणूनिधाय तत्परि- . सूर्ण तहा पएसाणं' इत्यनेन तदभिधानादिति' गाथार्थः॥३७॥ संस्थानभेदानाह
क्षेपणाष्टौ स्थाप्यन्ते , स्थापना २, ..
श्रोजःप्रदेश धनवृत्तं सप्तप्रदेश, सप्तप्रदेशा- .. . . परिमंडले य वडे, तसे चउरंसमायए चेव ।
वगाढं च , तश्चैवं तत्रैव पञ्चप्रदेशे . . घणपयर पढमवजं, ओयपएसे य जुम्मे य ॥ ३८॥ प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्याणोरुपरिष्टादधस्ताश्चकैकोऽणुरब'लिङ्गं व्यभिचार्यपि' इति प्राकृतलक्षणात् सर्वत्र लिङ्गव्यत्य- स्थाप्यते, ततो द्वयसहिताः पञ्च सप्त भवन्ति ३, युग्मप्रयः, ततः परिमण्डल, प्रक्रमात् संस्थानमेवमुत्तरत्राऽपि, तश्च देशं घनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेश द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाढं च , बहिर्वृत्ततास्थितप्रदेशजनितमन्तः शुषिरम् , यथा बलकस्य तत्र प्रतरवृत्तोपदर्शितद्वादशप्रदेशोपरि द्वादशान्ये, तदुपरि चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुच्चये । वृत्तं तदेवान्तः शुषिरवि- चत्वारोऽधस्ताच्च तावन्त एवाणवः स्थाप्याः, पते मीलिता रहितं यथा कुलालचक्रस्य, यत्रं त्रिकोणं,यथा शृङ्गाटकस्य द्वात्रिंशद्भवन्ति ४ । ओजःप्रदेश प्रतरव्यत्रं त्रिप्रदेश चतुरनं-चतुष्कोणं, यथा कुम्भिकायाः, श्रायतं-दीर्घ, यथा | त्रिप्रदेशावगादं च । तत्र च तिर्यग्निरन्तरमणुद्वयं विन्यस्याऽ दण्डस्य । चः पूर्वभेदापेक्षया समुच्चये । एव अवधारणे । तत
द्यस्याध एकोऽणुः स्थाप्यः, स्थापना १- । । इयत एव संस्थानभेदाः, घणपयर'त्ति घनं च प्रतरं च घनप्रतरं युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यत्रं षट्प्रदेश, पदप्रदेशा- || प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, सर्वत्र च प्रतरपूर्वक एव घनः प्ररूप्य-। वगाढंच, तत्र च तिर्यग्निरन्तरं षयोऽणवः स्थाप्यन्ते ततः
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एकश्चेति ॥
संजोग अभिधानराजेन्द्र।
संजोग प्रापस्याधस्तावध ऊर्श्वभावेन द्वयं द्वितीयस्य वध एकोड. स्थाप्याः,ततो द्विगुणाः षद् द्वादश भवन्ति ६। (घनपरिमणुः स्थाप्यः , स्थापना १-100 ओजःप्रदेश घन- एडलस्थापना' परिणाम' शब्दे पश्चमभागे ५६ पृष्ठे ध्यनं पचत्रिंशत्प्रदेश पञ्च/
त्रिंशत्प्रदेशावगा.
गता ।) न चैतान्यतीन्द्रियत्वेनातिशायिगम्यस्थात् सर्वथाऽ. हंच,तत्र च तिर्यनिरन्तराग पाडणवोग्यस्य.
नुभवमारोपयितुं शक्यन्ते, स्थापनादिद्वारेण च कथञ्चिच्छन्ते तेषां चाधोऽधःक्रमेण तिर्यगेष चत्वारखयो द्वावेकश्वाणुः
क्यानीति तथैव दर्शितानीति गाथात्रयभावार्थः ।
उक्तः परभाणूनामितरसंयोगः । सम्प्रति तमेव प्रदेशा000000
नामाहस्थाप्यन्ते, स्थापना
धम्माइपएसाणं, पंचएह उ जो पएससंजोगो। तिएह पुण प्रणाईभो, साईनो होति दुएहं तु ॥ ४२॥ धर्मादीनां-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां प्रदेशाः-उक्लक
पा धर्मादिनदेशास्तेषां पश्चानाम् इति सम्बन्धिमा धर्माभस्य च प्रतरस्योपरि सर्वपतिष्वन्त्या
दीनां पञ्चसंख्यत्वेन पञ्चसंख्यानाम् , तुः पुनरर्थः , संयोग म्स्यपरमाणुपरिहारे
इति गम्यते । स च श्रुतत्वाद्धर्मादिभिः स्कन्धैस्तथा तदन्तबदश, तथैव तेषा
गैतैर्देशैः प्रदेशान्तरैश्च सजातीयेतरैः, असौ किमित्याह-प्र
देशानां संयोगः प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगाल्यः प्रदेशसंयोगः, मुपर्युपरि षद् त्रय
उच्यते इति शेषः । अस्यैव विभागमाह-त्रयाणां पुनः, पुन:क्रमेणाणवः स्थाप्याः, तेषां स्थापना शब्दस्य विशेषद्योतकत्वात् धर्माधर्माकाशप्रदेशानां धर्माइति मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति ३, दिभिरेव त्रिभिस्तेषामेव देशैः प्रदेशान्तरैश्च प्रकृतत्वादि
तरेतरसंयोगः अनादिः-श्रादिविकलः सदा संयुक्तत्वादेषाम् , युग्मप्रदेश घनत्र्यनं चतुष्प्रदेश चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्रच प्रतरध्यन एव त्रिप्रदेशे एकतरस्योपर्येकोऽणुर्दीयते , सादिकः-श्रादियुक्तो भवति द्वयोः पारिशेष्याजीवप्रदेशपुततो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति ४। ओजःप्रदेश दलप्रदेशयोः, तथाहि-संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते संसारिजीवप्रतरचतुरनं नवप्रदेशं नवप्रदेशावगाढं च । तत्र च
प्रदशाः कर्मपुद्गलप्रदेशाश्च परस्परं धर्मादिप्रदेशैश्च सह, तु
शब्दो विशेष चातयति । स चायं जीवप्रदेशानां धर्मादित्रतिर्यग्निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिनः, पतयः-स्थाप्याः । स्थापना १
यदेशप्रदेशापेक्षया पुद्गलस्कन्धाधपेक्षया च सादिसंयोगः, युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरन-चतुष्प्रदेशं चतुष्प्रदेशाव
धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षया वनादिः पुद्गलप्रदेशानामपि धर्मागाढंच, तत्र व तिर्यग्निरन्तरं द्विप्रदेशे पती
विस्कन्धत्रयापेक्षयाऽनादिः, शेषापेक्षया तु सादिः । इह 1000 स्थाप्येते, स्थापना- भोजःप्रदेशं धनच
च धर्मादिस्कन्धानां तद्देशानां च यः परस्पर संरतुझं सप्तविंशतिप्रदेशं सप्तविंशतिप्रवेशावगाढं च,
योगः स न प्रदेशसंयोगमन्तरेणेति तदभिधानत एवोक्तो तत्रच नवप्रदेशस्य प्रतरचतुरनस्यैवाध उपरिव तथैव नवन
मन्तव्यः । अप्रदेशस्थ तु परमाणोर्धर्मादिभिः संयोग याणवःस्थाप्याः,ततत्रिगुणा नव सप्तविंशतिर्भवति ३, युग्म
उक्तानुसारतः सुझान एव इति नोक्त इति गाथार्थः । प्रदेश घनचतुरनम् अप्रदेशमष्टप्रदेशावगाडंच। तत्र चतु
उक्त प्रदेशानामितरेतरसंयोगः, सम्प्रत्यभिप्रेतानभिप्रेतभेप्रदेशस्य प्रतरस्यैवोपरि चत्वारोऽम्ये स्थाप्याः, ततो द्विगु
दरूपं तमेवाहपाश्चत्वारोऽष्टौ भवम्ति ४ा मोजःप्रदेश घेण्यायतं त्रिम
अभिपेयमणभिपेभो, पंचसु विसएसु होइ नायव्यो । देश-त्रिप्रदेशावगाढं च । तत्र च तिर्यग् निरन्तराखयो:णवः स्थायाः। स्थापना १,00युग्मप्रदेशं श्रेण्या
अणुलोमोऽभिप्पेभो,मणभिप्पेश्रो अं पडिलोमो॥४३॥ यतं द्विप्रदेश-विदेशाषगादं च । तत्र च तथैवाणुवयं न्य
'अभिपेय' ति अभिप्रेतः अनभिप्पेओ' त्ति चस्य गम्यस्यते, स्थापना २- भोजः प्रदेश प्रतरायतं पश्चदश
मानत्वादनभिप्रेतच, प्रक्रमादितरेतरसंयोगः। किमिल्याह
पञ्चसु विषयेषु शब्दादिपञ्चकगोचरे , अर्थादिन्द्रियमनसा प्रदेश पञ्चदशप्रदेशावगाडं च । तत्र प्राग्वत् पक्तित्रये पश पञ्चाणवः स्थाप्याः, स्थापना ३-गगगगगन
तहहणप्रवृत्ती ग्राह्यग्राहकभावः, स चाभिप्रेतार्थविषयोऽ युग्मप्रदेश प्रतरायतं षट्प्रदेश पदम-
भिप्रेतः, अनभिप्रेतार्थविषयस्त्वनभिप्रेतो भवति-सातव्यः। 1010
आह-प्रस्त्वेषांभिप्रेतानभिप्रेतार्थविषयत्वेनाभिप्रेतः अनदेशावगाढं च, तत्र च प्राग्वत् पति
भिप्रेतश्चेतरेतरसंयोगः , अभिप्रेतानभिप्रेतार्थी तु काविति, द्वये प्रयत्रयोऽणवः स्थायाः स्थापना ४-1 अत्रोच्यते-अनुलोम इति इन्द्रियाणां प्रमोदहेतुतयाऽनुकूभोजःप्रदेशं घनायतं पश्चचत्वारिंशत्प्रदशं 100 लश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्रेतः, अनभिप्रेतश्च प्रतिलोम उक्त पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं च । तत्र पञ्चदशप्रदेशस्य प्रत- विपरीतकाकस्वरादिरिति गाथार्थः। रायतस्यैवाध उपरि च तथैव पञ्चदश पञ्चदशाणवः स्था- इह गाथापश्चार्द्धन मनोनिरपक्षप्रवृत्त्यभावेऽपीन्द्रियाणां प्रा. प्याः, ततत्रिगुणाः पञ्चदश पञ्चचत्वारिंशद्भवन्ति ५, यु- धान्यमाश्रित्य तदपेक्षयाऽभिप्रेतोऽनभिप्रेतवार्थः उक्तः, ग्मप्रदेशं घनायतं द्वादशप्रदेशं द्वादशप्रदेशावगाढं च। तत्र सम्प्रति मनोऽपेक्षया तमेवाहच पदप्रदेशस्य प्रतरायतस्यैवोपरि तथैव तावन्तोऽणवः । सव्वा ओसहजुत्ती, गंधज्जुत्ती य भोयणविही य ।
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संजोग अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग रागविहि गीयवाइय-विही अभिप्पेयमणुलोमो ॥४४॥ त्वाद् अर्थाद् द्विकग्रहणेनाभिलाप्यद्वयमेव गृह्यते,तत्र द्विकसं
योगो यथा-सच सच तो,त्रिकसंयोगो यथा-सच तोचते, सर्वाः-समस्ताः, कोऽर्थः १-इन्द्रियाणामनुकूलाः प्रतिकू
अत्र तीच ते वेत्युक्ने स च स च तथा सच तो चेस्य नुक्कावलावामस्य धौषधयुक्त्यादिभिः प्रत्येकं सम्बन्धः । ततश्च
प्येकत्राभिलाष्यार्थडयमन्यत्र चामिलाप्यार्थत्रयं सह प्रतीयते औषधादीनाम्-अगुरुकुङमादीनां सजिकाराजिकादीनां व
अभिलापसंयोगवं चास्याभिलापद्वारकत्वादभिलाप्येन सह गुरुयो-दो पनानि समविषमविभागनीतयो पा औषधयुक्तयः
प्रतीतेः। तृतीयमाह-मक्षरे व अक्षराणि च अक्षराणि तेषां गन्धाना-पद्रव्याणां श्रीखण्डादीनां लशुनादीनां च युक्त
संयोगः अक्षरसंयोगः, समादिर्यस्योदात्तापशेषवर्णधर्मसंयः गन्धपुतयः.ताच, भोजनस्य अन्नस्य विधयः-शाख्यो
योगस्य सोऽयमक्षरसंयोगादिकः,मकारोऽलाक्षणिकः । तत्रा. दनादयः कोद्ववभक्कादयश्च भेदाः भोजनविधयः ते च,
शरयोः संयोगो यथा-करति,अक्षराणां संयोगो यथा-श्रीरि 'रागविहिगीयवाइयविहि' ति सूत्रत्वाद्वचनव्यत्यये राग
ति । उदात्ताविवर्णधर्मसंयोगास्तु स्थधिया भावनीयाः । विधयश्च गीतवावित्रविधयश्च रागविधिगीतयावित्रविधयः।
मस्याप्यभिलापसंयोगत्वं वर्णादीनां कश्चिदभिलापानन्यतत्र रजनं रागः-कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनं तद्विध
स्वेन तदात्मकत्वात् ,यद्वाऽक्षरसंयोग इस्यनेन सर्वोऽपि व्यक्ष यः-निग्धत्वादयो कक्षत्वादयश्च । गीतबादित्रविधयः इति,
नसंयोग उत,मादिशब्देन त्वर्थसंयोगः, एतद्विशेषणं च द्विअत्र विधिशमस्योभयत्र योगात् , गीतं गानं तद्विधयः
कसंयोगादिरिति योजनीयम् । अन्यत् प्राग्वत्।द्रव्यसंयोगत्वं कोकिलावतानुकारित्वादयः काकस्वरानुविधायित्वादयश्च,
चास्याभिलापस्य द्रव्यत्वात्,द्रव्यत्वं चास्य स्पर्शवस्पेन गुणापावित्रम्-मातोचम् , इह चोपचारात्तद्ध्वनिः तद्विधयो
श्रयत्वात्ावच्यति हि-"गुणाणमासमो दवं"ति न च स्पर्शमृवादिखमाः केवलकरटिकादिस्वनाथ । चशब्दो नृत्तादि
षत्वमसिद्ध प्रतिघातजनकत्वात् ,तथाहि-यत् प्रतिघातजनक विधिसमुपयार्थः । पते किमित्याह-अभिप्पेयं ' ति अभि
तत्स्पर्शवत् इष्ट,यथा लोष्टादि,प्रतिघातजनकश्च शमः,अन्यप्रेतार्था उच्यन्ते, कीरशाः सन्त इत्याह-अनुलोमाः, कोऽर्थः? शुभा अशुभा वा मनोऽनुकूलतया प्रतिभासमानाः, पतेनैतद.
था-तथाविधशम्यश्रुतावनुभवसिद्धश्रोत्रान्तःपीडाया असप्याह-ययैत एष देशकालावस्थादिवशतो विचित्राभिसन्धिः
म्भवाविति गाथार्थः तया जन्तूनां मनसोऽननुलोमाः सन्तोऽनभिप्रेतोऽर्थः । इत्थं उक्तोऽभिलापविषय इतरेतरसंयोगः सम्प्रति सम्बव्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिमाश्रित्येन्द्रियापेक्षया मनोऽपेक्ष धनयोगरूपस्य तस्यावसरः, सोऽपि या च भेदेनाभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थों व्याख्यातः, अथवाऽन
द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र न्तरगाथापभानाविशेषेणेन्द्रियाणां मनसचानुकूलोऽभि
द्रव्यसंयोगसम्बन्धमाहप्रेतोऽर्थः इतरस्वनभिप्रेत उक्तः । एतद्वाथयाऽपि स एव संबंधणसंजोगो, संच्चित्ताचित्तमीसओ चेव । विशेषतो दर्शित इति व्याख्येयम् । अत्र च सर्वा इति सर्व
दुपयाइ हिरमाई, रहतुरगाई भ बहुहा उ॥४६॥ प्रकारा अनुलोमा इति चेन्द्रियमनसामनुकूलाः शेषं प्राग्वत् । उपेक्षणीयस्य विहानभिधानं न यस्य कस्यचिन्मतेनान
सम्बध्यते प्रावो ममेदमित्यादिबुद्धिताऽनेनास्मिन् पाssभिप्रेत एक तस्यान्तर्भावादिति गाथार्थः ।
त्माऽविधेन कर्मणा सहेति सम्बन्धनः, स चाऽसौ संयोगश्च
सम्बन्धनसंयोगः, 'सच्चित्ताचित्तमीसो चेव' ति प्राग्वत् उलोऽभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूप इतरेतरसंयोगः, सुपो लुकि सचित्तोऽचित्तो मिश्रकः । चः समुच्चये । एषः साम्प्रतममुमेवाभिलापविषयमाह
भेदावधारणे । यथाक्रममुदाहरणान्याह-द्विपदेत्यादिना, अभिलावे संजोगो, दम्वे खित्ते भ कालभावे । ।
सचिसे द्विपदादिः, आदिशब्दाच्चतुष्पदापदपरिग्रहः । तत्र दुगसंजोगाईभो, अक्खरसंजोयमाईभो॥४५॥
च द्विपदसंयोगा यथा-पुत्री, चतुष्पदसंयोगो यथा-गोमा
न् , अपदसंयोगो यथा-पनसवान् । अचिसे हिरण्यादिः , अभिलापः उक्लस्वरूपः, तद्विषयः संयोगः प्रक्रमादभि- आदिशब्दान्मणिमुक्तादिग्रहः, स च हिरण्यवानित्यादि मिश्रे लापेतरेतरसंयोगः । अयं च त्रिधा सम्भवति, तत्रैकोऽ- रथयोजितस्तुरगः मध्यपदलोपे रथतुरगस्तदादिः, श्राभिलापस्याभिलाप्येन, द्वितीयोऽभिलाप्यस्याऽभिलाप्यान्त- दिशब्दाच्छकटवृषभादिपरिग्रहः । स च रथिक इत्यादि । चः रेण, तृतीयो वर्णस्य वर्णान्तरेण । तत्राद्योऽभिलाप्यस्य द्रव्या. समुचये । बहुधा तु इति बहुप्रकार एव, तुशब्दस्यैवकारार्थदिभेदेन चतुर्विधत्वाद् द्रव्ये इति द्रव्यविषयः, स चार्थाद् घ. त्वात् ,इह च सचित्तविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगोऽपि सचिटाविशब्दस्य पृथुबुध्नोदरायाकारपरिणतद्व्येण वाच्यवाच- त इत्यादि सर्वत्र भावनीयम् । आह-यदि सचित्तादिविषयकभावलक्षण सम्बन्धः, एवं क्षेत्रे च क्षेत्रविषयः,आकाशध्व. स्वादसौ सचित्तादिरिति ब्यपदिश्यते,एवं सत्यात्मन् एवाsमेरषगाहवानलक्षणक्षेत्रेण कालभाषे इति समाहारवन्धः,ततः
सौ तैः सह, तत उभयनिष्ठत्वात्तेनापि किं न व्यपदिश्यते ?, काले कालविषयः समयादिश्रुतेर्वर्तनादिव्यत्येन कालपदा
उच्यते-यवाहारादिवदसाधारणेनैव व्यपदेशः, प्रात्मनश्च थेन, भावे व भाषविषय श्रीदयिकादिवचसो मनुष्यत्वादि
सर्वैरप्यमीभिरसाविति तस्य साधारणत्वान्न तेनेह व्यपदेपर्यायेण, चशब्दोऽत्र पूर्वत्रच समुचये। द्वितीयमाह-विक
शः पृथिव्यादिभिरिवारस्येति न दोषः, एवमुत्तरत्रापि, स्य संयोगो द्विकसंयोगः स प्रादिर्यस्थ त्रिकसंयोगादेः सो- इति गाथार्थः। ऽयं द्विकसंयोगादिकः । इहाभिलापसंयोगस्य त्रिविधत्वाद
अमुमेव क्षेत्रकालभावविषयमभिधित्सुतत्र चाचस्यानन्तरमेवोकत्वात् तृतीयस्य चाभिधास्थमान- खेले काले य तहा, दुबह वि दुविहो उ होइ संजोगो ।
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संजोग अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग भावम्मि होइ विहो, पाएसे चेवणाएसे ॥४७॥ । निराधार एवं प्ररूपणार्थ विवक्षितो यथा-सर्वभायप्रक्षेत्रे-क्षेत्रविषयः, काले च-कालविषयच, तथा इति-तेना
धानः क्षायिको भावः । अनयोरपि भेदानाह-एकैकानामप्रसिजप्रकारेण द्वयोरपि इति-अनयोरेव क्षेत्रकालयोः
इत्यर्पितव्यवहारः । अनर्पितव्यबहारश्च पुनस्त्रिविधः, कथ
मित्याह-मत्ताण' ति आर्षवाद-श्रात्मनि परस्मिन् तयोद्विविधः द्विभेदः, शब्दो 'भावम्मि' इत्यत्र योक्ष्यते, भवति
रात्मपरयोरुभयं तस्मिश्च, विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषसंयोगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगः । नच शेत्रे काले इत्युक्ने
यत्रैविध्येनानयोस्वैविध्यम् , हाप्यादेशभेदाभिधानबारेण इयोरपीति पौनरुक्त्याद् दुष्ट, लोकेऽपि हस्तिन्यश्व च यो
सम्बन्धनसंयोगस्य भेद उक्नो भवति, तत्र चामर्पितस्य रपिराको रधिरित्येवंविधप्रयोगदर्शनाद् । भाये च भावधि
प्ररूपणामात्रसस्वेऽप्यर्पितप्रतिपक्षत्वेनैवात्रोपादानम् , तो षयश्च, संयोग इति संरकः, भवति द्विविधः । कथं क्षेत्रादिदैविध्यम् ? इत्याह-मापसे चेवऽणाएसे' त्ति ( स्य
वस्तुतस्तस्यासवान तेन कस्यचित्संयोगसम्भव इति न तपदस्य व्याख्या 'माएस' शब्दे द्वितीयभागे ४५ पृष्ट गता।)
नेदेन संयोगभेदः । अर्पितस्य स्वास्मपरोभयार्पितभेदतत्री
विध्यात् तनेदेन विविधः सम्बन्धनसंयोग इति गाथार्थः । अत्र क्षेत्रकालगतयोदिशानादेशयोरल्पवक्तव्यत्वेन सम्प्र
सत्राऽऽत्मार्पितसम्बन्धनसंयोगमाहदायादपि सुज्ञानत्वात् तद्विषयः सम्बन्धनसंयोगोऽपि सुशान एवेति मत्वा भावगतादेशानादेशषिषयं तमाभधित्सुरु- भोवसमिए य खइए, खोवसमिए य पारिणामे य । कहेतोरेव प्रथममनादेशविषय भेक्त माह
एसो चउम्विहो खलु, नायब्वो अत्तसंजोगो ॥ ५० ॥ मोदाम भोवसमिए, खइए य तहा खोवसमिए य ।। औपशमिके चस्य भिन्नक्रमत्वात् क्षायिके च क्षायोपशपरिणामसभिवाए, छबिहो हो प्रणाएसो ॥४८॥
मिके च सर्वत्र सम्यक्त्वादिरूप जीवस्य (स्व) भावे तसत्रोदयः-शुभानां तीर्थकरनामादिप्रकृतीनाम् अशुभानां
था तेनागमोक्नप्रकारेण चस्याऽस्याऽपि भिन्नक्रमत्वात् परि
णामे च जीवत्वाधात्मके च सर्वत्र संयोग इति प्रक्रमः । पमिथ्यात्वादीनां विपाकतोऽनुभवनं तेन निर्वृतः औदायिकः कधि-'उदयिए'त्ति पठ्यते, तत्र च-पदावसानवर्तिन
पठ्यते च-'स्वयोवसमिए य पारिणामे य' ति स्पष्टमेव ,
एषः-अनन्तरोक्त औपशमिकादिसंयोगः चतुर्विधः-चतुष्प्रएकारस्थ गुरुत्वेऽपि विकल्पतो लघुत्वानुशानात् नात्र छदोभाः । उक्तं हि-“इहियारा बिंदुजुया,एओ सुद्धा पया
कारः, खलु-निश्चितं सातव्यः-अवयोशष्यः, आत्मसंयोगः
इस्यात्मार्पितसम्बन्धनसंयोगः । अत्र यात्मशम्वेनार्पितभाष बलाणम्मि । रहवंजणसंजोए, परम्मि लहुणो विभासाए
एव धर्मधर्मिणोः कश्चिदनन्यवादुक्तः । तथा च पखाः॥१॥" विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्युदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निर्वृत्त औपशमिका, क्षया-कर्मणा
'एए हिजीषमया भवंति, एएसु भावेसु जीयोऽमनोहमत्यन्तोब्छेदः तेन निर्वृत्तः क्षायिकाः स च, तथा क्षयश्व
बा' तदात्मक इत्यर्थः, भोपशमिकादिभावानां च प्रागनाप्रभाष उड्यावस्थस्य उपशमश्च-विष्कम्भितोदयत्वं तदम्यस्य
देशतोक्तावप्यादेशत्वेनाभिधानं सम्यक्त्वादिविशेषनिष्ठत्थेक्षयोपशमी ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः स च, परीति
नविवक्षितत्वाद् भाषसामान्यापेक्षया वेति गाथार्थः । सर्वप्रकारं नमन-जीवानामजीवानां च जीवत्वादिस्वरूपानु
किचभवनं प्रति महीभवनं परिणामः, एदोद्रलोपा विसर्जनीयस्य' जो सभिवाइमो खलु, भावो उदएण वञ्जिभो होइ। तिषिसलोपः,समिति संदतरूपतया नीति-नियतं पतनं,ग
इकारससंजोगो, एसो चिय अत्तसंजोगो ॥५१॥ प्रकाऽर्था-एका वर्तन,सन्निपातः-श्रीदयिकादिभावानामे बयापिसंयोगः, यः सर्वत्र समुच्चये । इत्थं षद् विधा:-प्रका
यः सानिपातिकः खलुः-वाक्यालकारे,भाषः उदयम, औदसमस्पेति पविधो भवति अनादेशः सामान्यं, सामान्यत्वं
यिकभावेन वर्जितः-रहितो भवति , एकादश-एकादशसबीदयिकादीनां गतिकषायादिविशेषेष्वनुवृत्तिधर्मकत्वाद् ।
झ्याः संयोगा-द्वयादिमीलनात्मका यस्मिन् स एकादअनादेशस्य पविधषे तद्विषयः संयोगोऽपि परिध इत्युक्तं
शसंयोगः , सूचकत्वात् सूत्रस्यैतद्विषयो यः संयोगः, पभवति, इति गाथार्थः ।
षोऽपि, न केवलमोपशमिकादिसंयोगः, इत्यपिशब्दार्थः । चः इदानीमादेशविषयं तमेव भेवत माह
पूरणे , आत्मसंयोगः-माग्ववात्मार्पितसंयोगः , एकादश सं
योगावं भवन्ति-प्रौपशमिकमायिकक्षायोपशमिकपारिभाएसो पुण दुविहो, अप्पिभववहारऽणप्पिभो चेव ।
णामिकामां चतुर्णा षद् विकसंयोगाश्चत्वारत्रिकसंयोगा इकिको पुण तिविहो, अत्ताण परे तदुभए य ॥४६॥ एकचतुष्कसंयोगः, एते घ मीलिता एकादश इति गाथार्थः । भादेशः-अभिहितरूपः, पुनःशयो विशेषणे,द्विषिधा-द्वि.
वाद्यार्षितसम्बन्धनसंयोगमाहभेदः,कमिस्याह-'अप्पियववहारऽणप्पिमोव 'तिव्यपहारदोऽर महकमणिम्यायेनोभयत्र सम्बध्यते, ततश्चा
लेसा कसायवेयण, वेभो अभाणमिच्छ मीसं च। पित इति व्यवहारो यस्मिन् सोऽपमर्पितव्यबहारः,मयूरन्य
जावइया मोदइया, सम्वो सो बाहिरो जोगो ॥५१॥ सकादित्वात् समासा,मनर्पितम्यवहारस्तु तद्विपरीताता- लेश्या-लेश्याध्ययमेऽभिधास्यमानाः , कषायाध-वश्यमापितो नाम शापिकाविर्भावः साधारे भापति हाताऽयमि- णावना ब-सातासातानुभवात्मिका करायवेदनं, प्रास्पादिपेण बाममस्येत्यादिक्षपेण वा बचमण्यापारण कतत्वाहिलोपः , बेधः पुंस्त्र्युभयाभिलाचाऽभिव्यङ्गया , अपमा स्थापितः । अनर्पिवस्तु परतुनः साधारणस्पेऽपि | मिथ्यायोश्यषतामसदध्यवसायात्मकं सत्शानमयज्ञानम्
२५
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संजोग
( १९४) संजोग
अभिधानराजेन्द्रः। उनं हि-"जह दुग्वयणमवयणं, कुच्छियसील असीलम- धनसंयोगः, खलु-निश्चितं भणित-उलो, गणधरादिभिरिति सईए । भसह तह नाण पिहु, मिच्छहिटिस्स अनाणं ॥१॥" गम्यते, अनेन च गुरुपारतन्यमाविष्करोति, तम् इतिअत एव मिथ्यात्वोदयभावीवादस्यौदायिकत्वं, तहलिके- द्वितीयमादेश कीर्तये संशब्दये 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानघु चार्णितत्वविवक्षया बाह्यार्पितत्वमिति भावनीयम् । मिथ्ये. वद् वा' (पा०३-३-१३१ । इति भविष्यत्सामीप्ये लट् , भ. ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य मिथ्यात्वम-अशुखदलिकस्वरूपं, हम् इत्यात्मनिर्देशः , समासेन-संक्षेगेणेति गाथार्थः, मिथं-शुद्धाशुद्धदलिकस्वभावं, चशम्दः शेषौदायिकभे
तत्र तावदात्मसंयोगमाहदसमुच्चये । श्रत पवोपसंहारमाह-यावन्तो यत्परिमाणा ओदइय प्रोबसमिए, खइए य तहा खभोवसमिए य।
औदयिकाः, भावा इति गम्यते, प्रक्रमादेतद्विषयो यः संयोगः सर्वः निर्विशेषः, सः बाह्यः परः तद्विषयत्वाद्, बा
परिणामसभिवाए, म छब्बिहो अत्तसंजोगो ॥ ५५॥ ह्यसंयोग इति प्रकृतक्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमि
औदयिके-औदयिकविषये, एवम् औपशमिके चकाकत्यात्सम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति शेषः । इहापि बाह्यश
यिके तथा क्षायोपशामके च परिणामसचिपाते च सर्वत्र ब्देन प्राग्वद् बाह्यार्पित उक्तः । श्राह-'भावा भवन्ति जीव
संयोग इति प्रक्रमः, तत एष पविधः पदभेदः, आत्मभिःम्यौदयिकाः पारिणामिकाश्चैव' इति वचनादौदयिकोऽपि
प्रात्मरूपैः संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः भात्मसंयोगः जीवभावत्वेन जीवार्पित एवेति कथं बाधे कर्मस्यर्पित इति ।
न चैषामेकैकेनात्मनः संयोगः सम्भवति, अपितु-द्वाभ्यां अत्रोच्यते-कर्मानुभवनमुदयः, अनुभवनं चानुभवितरि
पिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिर्वा । तत्र द्वाभ्यां क्षायिकेण सम्यक्त्वेजीवेऽनुभूयमाने च कर्मणि स्थितम् , तत्र यदाऽनुभवितरि
नशानेन वा पारिणामिकेन च जीवत्वेन, त्रिभिरौदयिजीवे विवक्ष्यते तदोदयः जीवगतो लेश्यादिपरिणामः प्रयो
केन देवगत्यादिना क्षायोपशमिकेन मत्यादिना पारिणाजनमस्येत्यौदयिकः कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणो वि
मिकेन च जीवत्वेन, चतुर्भिस्त्रिभिरे (बमे) व चतुर्थेपाक एव तमाश्रित्य कर्मणि बाह्येऽर्पितत्वमिहोदयिकभाव
नौपशमिकेन क्षायिकेप का सम्यक्त्वेन, पञ्चभिर्यदा क्षायिकस्थोक्लम् , यदा त्वनुभूयमानस्थतया विवक्ष्यते तदादये क
सम्यग्रधिरेवोपशमश्रणिमारोहति तदौदयिकेन मनुष्यत्वेन, मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणे भव औदयिको लेश्याक
क्षायिकेण सम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमिपायाविरूपो जीवपरिणामः, तदाश्रयणेन चोच्यते भावा
केन चारित्रेण पारिणामिकेन जीवत्वेनेति , अत्र च त्रिकभवन्ति जीवस्यौदयिका इत्यादि । इहापि चादेशान्तरेण
भनक एकः, चतुष्कभक्ती च द्वावते त्रयोऽपि गतिचतुएयभावक्ष्यति 'छब्बिहो अत्तसंजोगो' ति सर्वः स इति चैक- विन इति गतिचतुष्टयेन भिद्यमाना द्वादश भवन्ति । उक्तं चवचनं बाह्यसयोगस्य विधीयमानतया प्राधान्यात् प्रधाना- "श्रीवाय खोवसमो, तो पुग्ण पारिणामिश्रो भावो। नुयायित्वाच्च व्यवहाराणामिति गाथार्थः ।
एसो पढमवियप्यो, देवाणं होइ नायब्वो ॥१॥ उभयापितसम्बन्धनसंयोगमाह
प्रोदाय खोवसमो, ओवसमियपारिणामिश्रो बीओ।
उदायखझ्यपरिणामिय, सइओवसमो भव ताओ ॥२॥ जो सनिवाइओ खलु, भावो उदएण मीसिनो होइ ।
पए चेव वियप्पा, खरतिरिणरएसु हुँति बोद्धव्या। .. पनारससंजोगो, सब्बो सो मीसिओ जोगो ॥ ५३॥ एए सब्वे मिलिया, वारस होती भवे भया॥३॥"
यः सानिपातिकः खलु भावः उदयेन श्रीदयिकभावेन मि- पञ्चभिर्मनुष्यस्यैव, तस्यैव तथोपशमश्रेण्यारम्भकत्वात् , श्रितः संयुतो भवति, कियत्संख्य इत्याह--पश्चदश संयोगा
तस्यामेव च तत्सम्भवात् । तथा चाह-"श्रोदहए श्रावअस्मिन्निति पञ्चदशसंयोगः सर्वः सः, किमित्याह-आत्म
समिप, खोवसमिए खए य परिणामे । उवसमसेढिगयस्स, कर्मणोमिश्नत्वात्तदर्पितभावा अप्यौदयिकसहितौपशमिका
एस वियप्पो मुणयब्वो ॥१॥" अन्यथाऽपि च त्रिभिः सेदयो मिश्राः, ततस्तद्विषयत्वात्संयोगोऽपि मिश्रः, स एव
भवति, तद्यथा-ौदयिकेन मनुष्यत्वेन क्षायिकेण ज्ञानेन मिश्रको योगः, प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगो शेय इति शेषः ।
पारिणामिकेन जीवत्वेन,अयं च केवलिनाम् । उक्तं हि-"उदते च पञ्चदश संयोगा औदयिकममुञ्चता औपशमिकादि
इय वायपरिणामिय भावा होति केवलीण तु।" प्रागुक्त
भावोभयेन च सिद्धानामेव, उक्त हि-" खाइय तह परिपञ्चकस्य द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगतः कार्याः । तत्रचस्वारो द्विकसंयोगाः षद् त्रिकसंयोगाश्चत्वारश्चतुष्कसयोगा
णामा, सिद्धाणं होति नायब्वा" पवं चैते पञ्चकत्रिकद्विकएकः पञ्चकसंयोगः, पते च मीलिताः पञ्चदश, भावना तु
संयोगभङ्गास्त्रयः पूर्वे च द्वादशेति मीलिताः पश्चदश सम्भ
वन्ति । एत एव चाविरुद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश तत्र वक्ष्यमाणा इति गाथार्थः ।।
तत्राच्यन्ते । तथा चाहुः-"एप संजोएणं, भावा पारस पुनरात्मसंयोगादीनेव प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः
होति नायब्वा । केवलिसिद्धवसमसे-द्विपसु सव्वासु य गप्रस्तावनामाह
सु॥१॥" आह-एवं सानिपातिकेनैवात्मनः सदा संवीओऽवि य एसो, अत्ताणे बाहिरे तदुभए य। योगसम्भवात् कथं षड्विधत्वमात्मसंयोगस्य ?, उच्यते
सहभावित्वेऽपि भावानां यदैकस्य प्राधान्यं विवश्यते तदैसंजोगो खलु भणियो, तं कित्तेऽहं समासेणं ।। ५४ ॥
केनाप्यात्मसंयोगसम्भव इत्यदोष इति गाथार्थः । द्वितीयोऽपि च न केवलमेक एव इत्यपि शब्दार्थः । चः पूरणे । मादेशः--प्रकारः, प्रस्तावात् प्ररूपणीयः, कीरश
बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहइत्याह-मात्मनि बार तदुभयस्मिथ, संयोग इति सम्ब- | नामम्मि अखिचम्मि भ, नायब्बो बाहिरो य संजोगो।
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( १९५) अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग
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काले बाहिरो खलु, मीसोऽवि य तदुभए होइ ॥ ५६ ॥ नाम्ना - वस्त्वभिधायिध्वनिस्वभावेन, चकारात् द्रव्येण क्षेत्रेण चाकारादेशात्मकेन प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी । प्रकृतत्वात् संयोगः किमित्याह - ज्ञातव्यः वाह्यविषयत्वाद् बाह्यः । तुः पुनरर्थः । संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः, कान इति चस्य गम्यमानत्वात् कालेन च समयाऽऽचलिकादिना तत एव संयोगो बाह्यसम्बन्धनसंयोगः खलु निधितं हा तव्य इति योज्यम् । इदमिदम्पर्यम् यः पुरुषादेर्देवदत्तादिनाम्ना सम्बन्धोऽयं देवदत्त इत्यादिः, द्रव्येण च दण्डीस्यादिः, क्षेत्रसारण्यजो नगरज इत्यादि कालेन दिनी रजनिज इत्यादि, स सर्वो नामादिभिर्बाह्यरेवेति बाह्यः सम्बन्धनसंयोगः । भावेन तु संयोग आत्मसंयोगत्वेनोक्ल एव, भवितुरनन्यत्वात् भावस्य, अन्यथा तस्याभावत्वप्रसङ्गः इतीह तस्यानभिधानम् । तथा कालेन बाह्य इति च भिन्नवाक्यताकरणं केषाञ्चिन्मतेन कालस्या सत्यख्यापनार्थम्, यथा-नाम्नि, क्षेत्र इति च विषयसप्तम्येव, यो हि येन सह भवति सतद्विषय एवेति कृत्वा । आह-नाम्नोऽप्यभिलापत्वात् सद्विषयोऽपि संयोगोऽभिलाषसंयोगः, स खोल एवेति कथं म पौनरुक्त्यम् १, उच्यते श्रभिलापसामान्यविषयोऽभिलापसंयोगः, अयं तु सम्बन्धनसंयोगस्य प्रकृतत्वात् तस्य व सकषायजीवसम्बन्धित्वात् । वक्ष्यति हि " संबंधणसंयोगो, कसायबलस्स छोइ जीवस्स"सि, कस्यचिद्याभ्यप्यभिष्वङ्ग सम्भवादभिष्वङ्गदेत्यभिलापविषय एवेति न पीनरुक्त्यम् । 'मीसोवियति अपिः पुनरर्थे च पूरणे। ततो मिश्र विषयत्वान्मिथः सम्बन्धनसंयोगः पुनर्ज्ञातव्यः यः कीडगित्पाद 'भय' ति प्राग्वत्तदुभयत्वेन आत्मवाद्यलक्षणेन तदुभयस्मिन् बोलरूप एव भवति, यः संयोग इति शेषः, यथा-क्रोधी देवदत्तः, क्रोधी कौन्तिको, मानी सौराष्ट्रः, कोश्री वासन्तिका, अत्र क्रोधादिभिदधिकभावान्तर्गतस्येनात्मरूपैर्नामादिभिस्त्वात्मनोऽन्यत्वेन बाह्यरूपैः संयोग इत्युभयसम्बन्धनसंयोग उच्यते नन्वेवं न कदाचिद्यामादिविकलेरीयकादिकादिरहितैर्ग नामादिभिरात्मनः संयोग इति सर्वदोभयसम्बन्धनसंयोग एव प्राप्तः, सस्वमेतत् किन्तु वक्तुरभिप्राय वैचिन्यात्कदाचिदीयिकादिभिः कदाचिग्रामादिभिः कदाचिदुभयेन संयोगवियति नारमपरोभयसम्बन्धनसंयोगत्रयविरोध इति गाथार्थः ।
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प्रकारान्तरेण बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाह
आयरियसीस पुत्तो, पिया व जगणी व होइ प्या च । भजा पर सीउ, तमुखखायाऽऽयवे चेव ॥ ५७ ॥
किस्यभिप्याप्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारं चरत्याचारयति वा परान् आचर्यते वा मुक्त्यर्थिभिराम्यत इति आचार्यः अन्यत्रापीति वचनात् कर्मस्वप्रत्यययः। तथा शासितुं शक्यः शिष्यः, पुनाति पितुराचारानुवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः पाति- रक्षस्यपत्यमिति पिता, स च जनयति प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी, सा च भवति बाह्य सम्बन्धनसंयोगविषयत्वात् बाह्यसम्बन्धनसंयोग इति वृक्षः । इदं च सर्वत्र योज्यम् । दोग्धि च केवलं जनम स्त
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संजोग न्यार्थमिति दुहिता ततश्व "दुहितरि धो दिलोपथ" इति वचनादादेर्धत्वे दिलोपे च " उवूत् सुपुष्पोत्सवत्युकहितृषु" इति वचनात् उत ऊश्वे च धूया, सा च चकारत्रयं पूरणे । स्त्रियते - पोष्यते भर्त्रेति भार्या, पाति-रक्षति तामिति पतिः, स्त्यायते धातूनामनेकार्थत्वात् कठिनीभवत्यस्मिन् जलादीति शीतम् उपति- दहति जन्तुमिति उच्यंसमयति खेदयति जनलोचनानीति तमः श्रीखादिको सन्' उम्र सिर्पत्वादुद्योतयतीति उद्योतः पचादित्वादच छपति विनप्ति वाऽऽतपमिति छाया, आ-समन्तात्तपति सन्तापयति जगदिति आतपः शब्दो राज भृत्याद्यनुक्राशेषसम्बन्धि समुच्चये लानुपपत्ती च स र्वत्र नैरुक्तो विधिः । सुपश्च यत्राश्रवणं तत्र प्राग्वल्लुक । इदमत्रैदम्पर्यम् - आचार्यः शिष्यादम्यत्वेन वाह्यः, ततो यस्तेन शिष्यस्य संयोगः- शिष्य इत्युरिवश्यमाचार्यमादिपति यस्याऽयं शिष्य इत्याच्याक्षेपकभावः स वा नेति कृत्वा बाह्यसम्बन्धनसंयोगः, ततस्तद्विषय श्राचार्योऽप्युपचारात्तथोच्यते । एवं शिष्योऽप्याचार्यादन्यत्वेन वाथः । तेनाप्याचार्यस्य यः संयोगः- आचार्य इत्युक्रवश्यं शिष्यमाशिपति यस्यायमाचार्य त्याच्याक्षेपकभावरूप सोऽपि बाधेनेति कृत्या याह्यसम्बन्धनसंयोगः तद्विषयः शिष्योऽप्युपचारात् तथोच्यते । एवं पुत्रत्रिदिष्यि भावनीयम् । सर्वत्र सामान्येन परस्पराक्षेप्याक्षेपकभावः सम्बन्धनः । विशेषनिरूपणायां त्वाचार्यशिष्य भार्यापतीनामुपकार्योपकारकभावः, पितृपुत्रजननदि जन्यजनकभावः, शीतोष्णादीनां च विरोधः सम्बन्धः । अत एव च विशेषाद् द्रव्यसंयोगत्वेऽप्यस्य भेदेनोपादानमिति माघार्थः । उत० १ श्र० ।
सह जायगाहमित्ता, नाई माया पिईहि संबद्धा । ससुरकुलं संजोगो, तिष्पि उ मेत्तादयो धट्ठो ॥ सहजातकाः सुइदो मित्राणि पासवर्ड तकाः सहपांशुकीडितका सहदारदर्शिनश्वेति ज्ञातवीमातृमातृकुल संबाधेत्यर्थः । तत्र मातृकुलसंदडा-मातामहादयः पिलापितृम्यपितामहादयः,
रकुलसंयोगोऽभिधीयते । किमुक्तं भवति श्वशुरकुलपाशिका ये केचित् श्वशुरश्वधृश्यालकादयस्तेषां संबन्धः संयोग उच्यते । वृ० १ उ०२ प्रक० । सम्प्रति संयोगप्रक्रमेऽप्याचार्यशिष्य मूलत्वादनुयोगस्य तयोः स्वरूपमाह -
आयरियों तारिसओ, जारिसओ नवरि हुआ सो चैव । प्रायरियस्स वि सीसो सरिसो सब्देहि वि गुवेहिं ॥ ५८ ॥ आचार्यः ताः तथाविधः, यादृशः क इत्याह-याडशो नवरमिति यदि परं भवेत् ' स चेव' ति चः पूरणे, स एवआचार्य एव किमु भवति : आचार्यस्याचार्य एवाम्यः सो भवति न पुनरनाचार्य आचार्यगुणानामन्यत्राविद्यमानत्वात् मह्याचार्यादन्यः पद्विशत्कृष्यगपिगुसमन्वित इहास्ति, तत्समन्वितत्वे त्वन्योऽपि तस्वत प्राचार्यः एवेति । अथ करते पराद्गुणाः १, उच्च- प्रत्येकं चतुष्यकारा अष्टी गणसम्पत्ि
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संजोग .
संजोग
अभिधानराजेन्द्रः। पत्रिंशद्भवन्ति तत्र वाचारादिचतुर्विधविनयमीलनात् ,उक्तं स्वयं मानतोऽन्येषां न कथनतो निर्गमना निर्यापणा ४,५ च" भट्ठबिहा गणिसंपर, चउग्गुणा मवरि होति बत्तीसा । मतिसम्पत् भवग्रहहापायधारणारूपा चतुर्जा, अवग्रहाविणमो य चउम्भेमो, छत्तीस गुणा हतेए" ॥१॥ तत्राष्टी दयश्च तत्र तत्र प्रपञ्चिता एवेति न विनियन्ते ६ । प्रयोगणि-सम्पद इमा-प्राचारसम्पत् १श्रुतसम्पत्शरीरसम्प- गमतिसम्पचतुर्धा--आत्मपुरुषक्षेत्रवस्तुविज्ञानास्मिका, तत् ३ वचनसम्पत् ४ वाचनासम्पत् ५ मतिसम्पत् ६ प्र- त्राऽऽत्मज्ञानं बादादिव्यापारकाले किममु प्रतिवादिनं जेतुं योगमतिसम्पत् ७ संग्रहपरिकासम्पत् ८, तथा चाह- मम शक्विरस्ति न वा ? इस्यालोचनम्, पुरुषशानं-किमयं "मायारसुयसरीरे, बयणे वायणमती पतोगमती । एएसु प्रतिवादी पुरुषः सांख्यः सौगतोऽन्यो वा ?, तथा प्रतिसंपया खलु , अमिया संगहपरिक्षा" ॥१॥ तत्र चाचार- भादिमानितरो वेति परिभावनम् २, क्षेत्रज्ञानं-किमिदं मासम्पत् चतुर्धा-संयमभूषयोगयुक्तता १भसम्प्रग्रहता २ याबहुलमन्यथा वा १, तथा साधुभिरभावितं भाषितं वा अनियतवृत्तिः ३ वृद्धशीलता चेति ४, तत्र संयमः-वरणं नगरादीति विमर्शनम् ३, वस्तुमान-किमिदं रासस्मिन् ध्रुवो-नित्यो योगः-समाधिस्तद्युक्तता, कोऽर्थः? जाऽमात्यादि सभासदादि वा वस्तु-दारुणमदारुणं सन्ततोपयुक्तता संयमध्रुवयोगयुक्तता १, असम्यग्रहः-स- भद्रकमभद्रकं बेति निरूपणम् ४, ७, संग्रहपरिक्षा तु मन्तात् प्रकर्वेण जात्यादिप्रकृष्टतालक्षणेन प्रहणम्-श्रा- बालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रहणलक्षणैका १ निस्मनोऽवधारणं सम्प्रग्रहस्तदभावोऽसम्पग्रहः, जात्यायनु- पद्यादिमालिन्यपरिहाराय फलकपीठोपादानाऽऽत्मिका द्विरिसक्ततेत्यर्थः २, अनियतवृत्तिः अनियतविहाररूपा ३, तीया २ यथासमयमेव स्वाध्यायोपधिसमुत्पादनप्रत्युवृद्धशीलता-वपुषि मनसि च निभृतस्वभावता निर्विका- पेक्षणभिक्षादिकरणात्मिका तृतीया ३ प्रवाजकाध्यारतेति यावत् ४, १। श्रुतसम्पचतुर्धा-बहुश्रुतता १ प- पकरवाधिकादिगुरूणामुपधिवहनधिधामणसंपूजनाभ्युत्थारिचितसूत्रता २ विचित्रसूत्रता ३ घोषविशुद्धिकरणता ४ नदण्डकोपादानादिरूपा चतुर्थीति ४, ८। इत्युक्ता अष्टौच , तत्र बहुश्रुतसा-युगप्रधानागमता १परिचितसूत्रता- चतुर्गुणा भाचारादिगणिसम्पदः । विनयस्तृत्तरत्राचार्यविउत्क्रमक्रमवाचनादिभिः स्थिरसूत्रता २ विचित्रसूत्रता-स्व- नयप्रस्तावेऽभिधास्यते, इति गतं प्रासङ्गिकम् । प्रकृतमुच्यतेपरसमयविविधोत्सर्गापवादादिवेदिता ३ घोषविशुद्धिकर- तत्राचार्यस्य स्वरूपमभिहितं, शिष्यस्याह--आचार्यस्य, णता-उदात्तानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायिता ४, २।श- अपिर्मिनक्रमः, ततः शिष्योऽपि, न केवलमाचार्यस्तारशो रीरसम्पत् चतुर्धा-प्रारोहपरिणाहयुक्तता १ अनवत्राप्यता २ यादृशो नवरं स एवेति वचनादाचार्य इत्यपिशब्दार्थः; सपरिपूर्णेन्द्रियता ३ स्थिरसंहननसा च ४, इह च-मारोहो-दै. दृशः-तुल्या, सरपि न कतिपयैरेव, कैः ?-गुणः-साधारणैः ध्ये परिणाहो-विस्तरः ताभ्यां तुल्याभ्यां युक्ता आरोहपरि- क्षान्त्यादिभिरिति गम्यते । यद्वा लक्षणे तृतीया, ततः सर्वैणाहयुक्तता १ अविद्यमानमवत्राप्यम्-भवत्रपणं-लज्जनं य. रपि स्वगुगलक्षितः शिष्य आचार्यस्य सदृश इति योज्यम्, स्य सोऽयमनवाथ्यः, यद्वा-अवत्रापयितुं-लज्जयितुमईःश- सारश्यं च स्वगुणमाहात्म्यविभूषित उभयोरपि यथोक्लान्धक्यो वाऽवत्राप्यो-लजनीयःन तथाऽनवत्राप्यस्तायोऽनय र्थयुक्त (त्व) मेव, अथवाऽऽचार्यस्यापीति अपरेषकाराप्राप्यता २ उभयत्राहीनसर्वाङ्गत्वं हेतुः, परिपूर्णेन्द्रियता- र्थत्वात् स्वगुणोपलक्षितः शिष्यः सदृश एव--अनुरूप अनुपहतचक्षुरादिकरणता ३ स्थिरसंहननता-तपःप्रभृति- एव, अनुरूपार्थस्याऽपि सहशशब्दस्य दर्शनात् , यथाऽsपुशक्तियुक्तता ४,३ । वचनसम्पञ्चतुर्भेदा-प्रादेयवचनता १ स्मसदृशं कुर्याः; कुलानुरूपमित्यर्थः । अननुरूपस्तु तस्वतोमधुरबचनता २ भनिधितषचनता ३ असन्दिग्धवचमता ४॥ शिष्य एवेति भावः । अथ के अमी शिष्यगुणाः १, उच्यसत्र प्रादेयवचनता-सकलजनमाधवाक्यता मधुरं-रसवद्य- न्ते-“भाववियाणणमण्य-तणा उ भत्ती गुरूण बहुमायो । दर्थतो विशिष्टार्थवत्तया-अर्थावगाढत्वेन शब्दतश्चापरुष- वक्वत्तं दक्विएण, सील कुलमुजमो लज्जा ॥ १ ॥ स्वसौस्वर्यगाम्भीर्यादिगुणोपेतत्वेन श्रोतुरावादमुपजनयति सुस्सूसा पडिपुच्छा, सुगणं गहण च ईहणमवाश्रो । धरणं तदेवविधं वचनं यस्य स तथा तगावो मधुरवचनता २चनि- करणं सम्मं, पमाई होति सीसगुणा ॥ २ ॥ " इति चितवचनता रागाचकलुषितवचनता३असंदिग्धवचनता प- गाथार्थः । रिस्फुटवचनता ४,४ावाचमासम्पञ्चतुर्धा-विदिवोद्देशनं १
इत्थमनुयोगोपयोगित्वादाचार्यशिष्ययोः स्वरूपमुक्तं, विदित्वा समुद्देशने २ परिनिर्वाप्य वाचना ३ अर्थनिर्यापणेति
प्रकारान्तरेणोभयसम्बन्धनसंयोगमाह४, तत्र विदित्योद्देशने विदित्वा समुदेशने मात्वा परिणामकत्वादिगुणोपेतं शिष्यं यद् यस्व योग्य तस्य तदेवोद्दि
एवं नाणे चरणे, सामित्ते अप्पणो उ (य) पिउणो त्ति । शति समुदिशति वा , अपरिणामिकादावपकघटनिहितज- मझ कुलेश्यमस्स य, अह यं अम्भितरो मिति ॥५६।। लोदाहरणतो दोषसम्भवात् २, परीति-सर्वप्रकार निर्वा- एवम्--मनन्तरोतबाह्यसंयोगवदाक्षेप्याक्षेपकभावेन हानेपयतो निरो निर्दग्धादिषु भूशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गम- | मानविषयः चरणे-चरणविषयः, भात्मन उभयसम्बन्धनसंयता-पूर्वदत्तालापकादि सर्वात्मना स्वात्मनि परिणमयतः योगो सातव्य इति वृद्धाः । अत्र भावना-मानेनारमभूतेन शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणलक्षणं कालं प्रतीक्ष्य श- संयोगो, मानमित्युक्लिनिराश्रयस्य निर्विषयस्य च शामस्या अत्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना- सम्भवाववश्य शानिन यं चाऽऽक्षिपतीति, सामाक्षिप्तेन च पत्रप्रदानं परिनिर्वाप्यवाचना ३, अर्थः-स्त्राभिधेयं ब- येन वाोन सवारकः संयोग इत्युभयसंयोगः । एवं चरणेस्तु तस्य निरिति-भृशं यापना-निर्वाहला पूर्वापरसाङ्गत्येन नाप्यात्मभूतेमोक्रवत्सदाक्षिप्तेन चर्यमाणेन च बाब संयोगः
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संजोग अभिधानराजेन्द्रः।
संजीग इत्युभयसम्बन्धनसंयोगः । अयमाक्षेप्याऽऽक्षेपकभावे उभ- प्रस्थज्ञानस्येव प्रत्ययत उभयसंयोगः । श्राह-उक्त एव झायसम्बन्धनसंयोग उक्तः । अमुमेव प्रकारान्तरेणाह-स्वामि- नस्योभयसंयोगः तत् किं पुनरुच्यते ?. सत्यम् , उक्तः स खेन सामित्वविषयः, उभयसम्बन्धनसंयोग इति प्रक्रमः। सत्राक्षेप्याक्षेपकभावेन , इह त्वेकस्यापि वस्तुन उपाधिभेदेकिंरूप ? इत्याह-पात्मना-मम चः पूरण, पितुः-जनकस्य नानकसम्बन्धसम्भवल्यापनाय जन्यजनकभावेनोच्यते इति पुत्र इति गम्यते, एवंविधोल्लेखव्यङ्गये , अत्रात्मनः पित्रा स. न दोषः । उभयसम्बन्धनसंयोगमेव पुनः स्वस्वामिभावनाहहात्मकद्वारकः स्वस्वामिभावलक्षणः सम्बन्धः, तत्पुत्रेण | दिखते-उपचीवन्ते पगलरिति देहा:-कायाः ते च यद्धापरद्वारका, मम पितुरयं, पुत्र इति पितद्वारेणासाविति - इहजन्मनि जीवन सम्बद्धा मुक्का-अन्यजन्मनि तेनैवोज्झिताः, स्था तत उभयद्वारकत्वादुधयविषयसंयोग उभयसम्बन्धसं. अनयोर्द्वन्द्वे बद्धमुक्काः ,'माइपितिसुयार' ति 'णो जयोगः, इति शब्दो मम पितुः पिता, मम भ्रातुः पुत्रः, मम सशसोर्लोपे आर्षत्वाच्च 'लोपे दीर्घः' इति दीर्घत्वस्यादासस्य कम्बल इत्येवंप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्यालेखक- भावे पितृमातृसुतादयः। प्रादिशब्दात् भ्रातभगिन्यादयो, सूचकः, अनेन लौकिके स्वामित्य उभयसम्बन्धनसंयोग उ. बद्धमुक्ता इत्यत्रापि योज्यते। चशब्दोऽयं पूर्वश्च समुच्चये। कः । लोकोत्तरमेवाह-मम कुले नागेन्द्रादावयं साध्वादि- एत च किमित्याह-'भवंति' त्ति जायन्ते , प्राग्यवुभयसरिति गम्यते । यद्वा कुलमव कुलकं तस्य चःसमुचये यो- म्बग्धमसंयोगाः,जीवस्येति गम्यते । इयमत्र भावना-बद्धाक्यते, ततोऽहमेव महकम् अभ्यन्तरः अस्मि-भवामि । च- देहा मात्रादयश्चात्मरूपाः, तत्र देहात्मनोः क्षीरनीरवदन्या:शहादयं च साध्वादिरित्येवंविधोलेखद्वयव्ययः । एषोऽ- न्यानुगतत्वेन मात्रादयश्चात्यन्तस्नेहविषयतयाऽऽत्मवद्र. प्युभयसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धाः। अत्र हि मच्छब्दवाच्य- श्यमानत्वेन , मुक्तास्तूभयेऽपि बाह्याः । तत्र देहा आत्मनः स्य कुमेन सहात्मद्वारकः स्वस्वामिभावसम्बन्धः, कुलान्त
पृथग्भूतत्वेन, मात्रादयश्च तथाविधस्नेहाविषयतयाऽऽत्मवतिना च साध्यादिना परद्वारको, मम कुलेऽयमिति कुल
ददृश्यमानत्वेन, अतो देहैर्मात्रादिभिश्च बद्धमुक्तः स्वस्खामिद्वारकत्वावस्य, ततोऽयमपि प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः। भावलक्षणसम्बन्धो जीवस्योभयसम्बन्धनसंयोगः । श्राहइहापि इतिशब्दोऽयं मम गुरोः साध्वादिरित्यायेवंप्रकारस- देहादयो मुक्ताश्च स्वस्वामिविषयाश्चेति विरुद्धमेतत् , पवमेबन्धान्तरब्यञ्जकान्योल्लेखसूचकार्थः। इह चोलखद्वयाभि- तद् , यदि भावतोऽपि मुक्ताः स्युः, अथ भावतोऽप्यहमेषां धानमेकत्राप्यनेकोलेखसम्मवख्यापनार्थमिति गाथार्थः।। स्वामी ममैत स्वमिति भावाभावान्मुक्ता एव ते,नन्वेवमैहिकपुनरम्यथा तमेवाह
ध्यप्यमीष्वपरापरोपयोगवत आत्मनो न सततमेवं भावोऽपञ्चयो य बहुविहो, निव्यित्ती पच्चयो जिणस्सेव ।
स्तीति कथं तेनपि तद्विषयता ? , अथ तेष्वेवं भावा
भावेऽपि व्युत्सर्गाकरणतस्तद्विषयत्वम् , एतदिहापि सदेहा य बद्धमुका, माइपिइसुआइ अहवंति ॥ ६॥
मानं, व्युत्सर्गीकरणत एव तद्विषयत्वस्यहापि विवक्षितत्याप्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः-शानकारणं घटादिः, स- दिति गाथार्थः। प्रथा निरालम्बनशानाभावेन तदविनाभावित्वात् झानस्य ,
इत्थमनेकधा सम्बन्धनसंयोग उक्तः, अयं च कीरशस्य कततस्तमाश्रित्य , चकारात् शानतश्च-शानं चाश्रित्य बहु
स्य भवतीत्याहविधः-बहुप्रकारः, प्रक्रमादात्मनो यः संयोगः स उभयसबन्धनसंयोगः , सबहुत्वं च प्रत्ययानां तद्विशिष्टज्ञानानां
__संबंधणसंजोगो, कसायबहुलस्स होइ जीवस्स । ब बहुविधत्वात्। तथा च वृद्धाः-घटं प्रतीत्य घटकानं,पटं प्र- पहुणोबा अपहुस्स व,मज्झं ति ममञ्जमाणस्स ॥६१॥ तीत्य पटनानम् , एषमादीनि प्रत्ययात् नानानि भवन्ति । त
सम्बन्धनसंयोगः उक्नरूपः, कपाया:-क्रोधादयस्तैहुलथाबसति शाननात्मद्वारको ममेदं शानमिति प्रत्ययेन प
स्य-व्याप्तस्य, प्रभूतकषायस्येत्यर्थः, भवति-जायते, करद्वारको, मम हानस्यायं विषय इति शानद्वारकत्वात्तस्य ,
स्य-जीवस्य, पुनः कीदृशम्य ?-प्रभवति-सम्बन्धिवतत उभयविषयत्वादुमयसम्बन्धनसंयोगः । श्राह-एवं के
स्तु तत्र तत्र स्वकृत्ये नियोक्रं समर्थों भवतीति प्रभुस्तबलिनोऽप्युभयसंयोग एवेति । अत्रोच्यते-निर्वृत्ति:-इत्युत्त
स्य वा अप्रभार्या उक्तविपरीतस्य, वाशब्दो समुच्ये, उस्वकारस्य भिन्नमत्वान्नित्तिरेव-सकलाधरणक्षया- भयोरपि संयोगसाम्यं प्रति कारणमाह-'मज्झं ति ममजमादुत्पत्तिरेष प्रत्ययों जिनस्य, जिनसम्बन्धिज्ञानस्येति गम्य- णस्स' ति ममे नगरजनपदादीति ममत्वमाचरतः, इदते। इदमाकृतम्-छपस्थज्ञानं हि मत्यादिकं लब्धिरुपत- मुक्तं भवति-सत्यसति वा मत्सम्बन्धतया बाह्यवस्तुनि योत्पम्नमप्युपयोगरूपतायां बाह्यमपि घटादिकमपेक्षते । त- | तत्वतोऽभिवत एव सम्बन्धनसंयोगः, अनेन च काका कथाहि-घटं प्रतीत्य घटज्ञानं , पटं प्रतीत्य पटझानं, केव- षायबहुलत्वे हेतुरुक्तः, कषायबहुलस्येति च ब्रुवता कषालिनस्तुमान लब्धिरूपतयोत्पन्नं पुनरुपयोगरूपतां प्रति न- | यद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य कर्मबन्धहेतुत्वं ख्यापितं भवबाह्यं घटादिकमपेक्षते, तज्ज्ञानस्योत्पत्तिसमकालमेय सक- ति, पाह-मिथ्यात्वादयो हि बन्धहेतवः, तत्कथं कषायलातीतानागतदूरान्तरितस्थूलसूत्मार्थयाथात्म्यवेदितयैवोप- सत्तामात्रेणैव तद्धेतुख्यापनम् ?, उच्यते, तेषामेव तत्र प्रायोगभावात् । यदुक्तम्-उभयावरणाईतो, केबलवरणाणद- धान्यात् , तत्प्राधान्यं च तत्तारतम्येनैव यन्धतारम्यात् । सणसहायो । जाणा पासइय जिणी, सव्वं यं सया- उक्तं च-" जइ भागगया मत्ता, रागाईणं तहा चउक्कम्मे" (कालं ॥१॥" ततः केवलज्ञानस्य सर्वत्र सततोपयोगेन ति, बाहुल्यापेक्षं च शुक्ला बलाकेन्यादिवत् कषायबहुलस्य नोपयोग प्रति बाह्यापेक्षेति निवृत्तिरेच प्रत्ययः , ततो न छ- जीवस्येत्युच्यते, ततोऽकषायहेतुकत्वेऽप्यौपशमिकादिभावे
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संजोग
नामादिसंयोगानामपि च शीतोष्णादिविरोधिसंयोगानां सम्बन्धनसंयोगत्वं न विरुध्यते । श्राह-एवमभितानभिप्रेतसंयोगयोरपि ततः सवायजीवविषयस्यात् सम्बन्धनसंयोगत्वप्राप्तिः सत्वं, तथापीन्द्रियमनसोः साक्षात्तावुक्र, श्रयं तु जीवस्येति न दोषः । श्रन्यस्त्वाह-संयुक्तकसंयोगोऽपि द्विष्ठत्येनेतरेतरस्यैव तथेतरेतरसंयोगोऽ पि स्वपरथः संयुत्वात् सर्ववस्तुनः संयुक्रस्येवेति नानयोः प्रतिविशेषः, एवमेतत् तथाऽप्येकस्कन्धताऽऽपश्नद्रव्यविषयेः संयुसंयोगः इतरेतरसंयोगस्तु तथाऽन्यथा च तत्र परमाणुयोगस्तथा प्रदेशादिस्तु प्रायो यथेति युक्त एव तयोर्भेदः । एवं तर्हि परमाणु संयोगस्य संयुक्त योगादभेदोऽस्तुमयोरपि एकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयत्वात् अयमपि न दोषः यतो निष्पाद्यमानविषय इतरेतरसंयोगः, परिमण्डलादिसंस्थितद्रव्यस्य तेनैव (वि) निष्पाद्यमानन्यात् संयुसंयोगस्तु प्रा यो निष्यविषयः निष्णनं हि मूलादिरूपेणादिइयं कन्दादिमा वृज्यते इत्यस्त्वनयोशेष इति गाथार्थः । इत्थं सम्बन्धनसंयोगः स्वरूपत उक्तः सम्प्रति तस्यैव फलतः प्ररूपणापूर्वकं विप्रमुक्तस्येति प्रकृतसूत्रपा ख्यानयन् यथा ततो विप्रमुक्ता भवन्ति यश्च तेषां फलं तदाह
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( ११८ ) अभिधानरराजेन्द्रः । दिनक्षेपमपिशिष्टमतिदेष्टुमाह
संबंधण संजोगो, संसाराम्रो अणुनरवासो ।
तं वित्तु विष्पमुक्का, माइपिइसुबह य हवंति ।। ६२ ।। सम्बन्धनसंयोगः उक्तरूपः, संसरन्त्यस्मिन् कर्मवशवजन्तव इति संसारस्तस्मात् न विद्यते उत्तर-पारगमनमस्मिन् सतीत्यनुत्तरः, स चासौ वासश्च - श्रवस्थानमनुत्तरणवासः, अनुत्तरया सहेतुत्वादायुर्धृतमित्यादिवदनुसरणवासः, अथवा अनुत्तरणवासो 'ति श्रात्मनः पारतन्त्र्यहेतुतया पाश्चत् पाशः ततोऽनुत्तरणश्वासी पाशश्व अनुत्तरणपाशः, उभयत्र च सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः अनेन संसारावस्थितिः पारवश्यं वा सम्बन्धनसंयोगस्यार्धतः फलमुक्रम् सम्पर्धि धनसंयोगम्, अदविषयं मात्रादिविषयं द्विधाय निश्यति यावत् किमित्याह-विमुक्तत्वादनम्रो सम्बन्धनसंयोगादेव के ते साधयः-अनगारा, तेन किमित्याह-मुः ततः संसारात्त
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तस्य तेन हेतुना, अनेन च गाथापश्चार्धेन सम्बन्धच्छेदनलक्षणेन प्रकारेण विप्रमुक्ता भवन्ति तेषां च फलं मुक्तिरिस्पर्धत उकं भवति वच्च विप्रमुकस्येत्येकमपि माइती बहुवचनं तदेवधमिक्षाः पूज्यत्यस्थापनार्थमिति गाथार्थः ।
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जो इत्यादि मूलगायो पतिसंयुक्त कसंयोगेतरेतरसंयोगभेदतो द्विविधं द्रव्यसंयोगं निरूप्य तत्र संयुक्तकसंयोगं सचित्तादिभेदतस्त्रिविधम्, इतरेतरसंयातु परमादेशाभिताननियेत मिलापसम्वधा नतः षडिधमभिधाय सम्बन्धनसंयोग एव च साक्षात् कसम्बन्धनिबन्धनतया संसारहेतुरिति तत् त्याज्यतां च । तिपादनन्यमिति मन्वानः त्रा
"
संबंधण संजोगे, खित्ताईणं विभासों जा भणिया । खिलाइ संजोगो, सो व विभासियो ।। ६२ ।। सम्बन्धनसंयोगे देषादीनाम् आदिशब्दात् कालमाप रिग्रहः, विविधा अदेशानादेशादिमेदादनेकदा भाषा वि भाषा, या इति प्रस्तुतपरामर्श माताषु क्षेत्रादिविषयः संयोगः प्रथमद्वारगाथा सूचितः । स चैवं विभाषितव्यः । तुः पूरणे। संयोगत्वं चात्र विभाषाया वखनरूपत्वाद्वनपर्यायाणां कथञ्चिद्वाच्यादभेदख्यापनार्थमुक्रम्।
संजोग
ततोऽयमर्थ:-सम्बन्धनसंयोगविषयक्षेत्राि
योगस्वरूपमुक्रम् इहापि तदेव वयं चकारस्यानुसया संयुतकसंयोगः सम्भवन्त इतरेतरसंयोग शेरभेदाश्च वाच्याः । तत्र क्षेत्रस्य संयुक्तकसंयोगो यथा -जम्बूद्वीपः स्वप्रदेश संयुक्तक एव लवणसमुद्रेण युज्यते, इतरेतरसंयोगः प्रदेशानामेव परस्परं धर्मातिकायादित्रदेशेर्वा संयोगः । एवं कालभावयोरपि नेयमिति गाथार्थः । होत्या सम्बन्धनसंयोग एव साक्षापयोगी तु तदुपकारितया तेषामपि कथञ्चिस्याज्यतया च शिष्यमति व्युत्पादनाय चोपन्यास इति भावनीयम् । उक्तः संयोगः, तबभिधानाच्च व्याख्यातं प्रथमसूत्रम् ॥१ ॥ उत्त० १ ० । कथं संयोगासिद्धत्वम्येनोदोषदुः महतो हेतु स्था उच्यते - तद्ग्राहक प्रमाणाभावात् बाधकप्रमाणोपपत्तेश्च !' तथाहि संख्यापरिमाणानि पृथक संयोगविभागी परत्वापरत्वे कर्म च रूप (द्रव्य) समवायाश्चानुपाणि (बैशे०११) इति वचनात् श्ययस्तुसमवेतस्य परे प्रत्यक्षप्रा हात्वमभ्युपगतम् । न च निरन्तरोत्पन्नवस्तुइयप्रतिभाका svrक्षप्रतिपत्ती तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगो बहिरूपतां विभ्राणः प्रतिभाति माथि कल्पना वस्तुद्वयं यथोक्तं विहाय, शब्दोल्लेलं चान्तरमपरं वर्णाकृत्यक्षराकाररहितं संयोगस्वरूपमुद्भाति । तदेषमुपलप्राप्तस्य संयोगस्यानुपलब्धेरभावः शशविषाणवत्तेन यदाहोदयतकरा :- "यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेदा क्षेत्रबीजदाद निर्विशिष्टत्वात् सर्वदेवादिकार्य कुन यम् तस्मात् सर्वदा कार्यानारम्भात्
"
ती कारणान्तरसापेक्षापि यथा मृत्पिण्डादिसामग्री घटादिकरणे कुलाला दिसापेक्षा योऽसी क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् । किञ्च - असी संयोगो ययाविशेषभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽन् रत्न प्रत्यक्षसिद्ध एव तथादिकचित्केचित्संयुक्त इययोरेव इन्ययोः संयोगमुपलमते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम् । किञ्च दूरतरवर्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि धने निरन्तररूपाऽवसायिनी - मासादयतिः शेषं मिथ्याबुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न कचिदुपजायते नानुभूतगदर्शनस्य गवये 'गौतिविभ्रमो भवति । तस्मादवश्यं संयोगरुपीयुषम मतभ्यः । तथा—'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिषेधवाक्येन न कुण्डले प्रतिषिध्यते, नापि चैत्रः तयोरन्यत्र देशादी सत्वात् । तस्मात्रस्य कुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते ।
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संजोग अभिधानराजेन्द्रः।
संजोग तथा चैत्रः कुण्डली इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्र- म्यत्वादसौ तत्सम्बन्धी , अक्षणिकत्वे जनकत्यविरोधस्य कुण्डलयोरन्यतरविधानम् , तयोः सिद्धत्वात् । पा- प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । क्षणिकत्वेऽपि तयोरेकसामरिशेच्यात् संयोगविधानम् । तस्मादस्त्येव संयोगः" इति । ग्यधीना नैरन्तर्योत्पत्तिरेव, नापरसंयोग इति 'रचनावस्वाद' सनिरस्तं एव्यम् । संयुक्तद्रव्यस्वरूपावभासव्यतिरेकेणा- इति अत्र हेतोर्विशेषणस्य संयोगविशेषस्य रचनालक्षणस्यापरस्य संयोगस्य प्रत्यक्ष निर्विकल्पके सविकल्पके | सिद्धेः तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धिरिति स्वरूपासिद्धत्वम् । पाऽप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् । न च संयुक्तप्रत्यया- सम्म०१ काण्ड। म्यथानुपपस्या संयोगकल्पनोपपत्रा, निरस्तरावस्थयो
संजोगवियोगतो य लम्भइ जहा दो महुरातो दाहिणा,उत्तरेव भाषयोः संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वात् । यावच्च तस्या
राय । तत्थुत्तरातो वाणियतो दक्खिणं गतो, तत्थ एगो मषस्थायां संयोगजनकत्वेन संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन ताविप्येते , तावत्संयोगमन्तरेण संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन तद्वि
वाणियगो तप्पडिमो तेण से पाहुसं कयं । ताहे ते निरंतर
ते मित्ता जाया, अम्हं थिरतरा पीती होउ ति जइ अम्हं पु. पयो कि नेव्येते !, किं पारम्पर्येण ?, न च साम्तरे बने
तो धूया य जाय तो संजोगं करिस्सामो। ताहे दक्षिण निरस्तरावभासिमी बुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवपूर्विका
उत्तरस्स घूया बरिया,दिवाणि यालाणि,पत्थंतरे दक्षिणमहुस्खलरप्रस्थयस्वेमानुपचरितत्वात् । न चैत्रः कुण्डली ' -
रा,वाणिो मतो,पुत्तो से तम्मि ठाण ठितो।अक्षया सो रहाई, स्थादौत्रसम्बन्धि कुण्डलं निषिध्यते विधीयते वा, न सं- चउदिसिं चत्तारि सोनिया कलसा ठविया तास बाहिरो. योगः। म च सम्बन्धव्यतिरेकेण चैत्रस्य कुण्डलसम्बन्धानु- प्पिया। ताणं बाहिं तंबिया,ताण याहिं मट्टिया।अक्षा य रहाणपपत्तिरिति गहुं शक्यम् , यतश्चत्रकुण्डलयोः किं सम्बन्धि- विही गया । ततो तस्स पुरतो पुवाए दिसाए सोवनियो मोः स सम्बन्धः , उत-असम्बन्धिनोः , नासम्बन्धि- कलसो नट्ठो । एवं चउदिसि पि,एवं सम्वे नट्ठा,उट्टियस्स रहा. नाः हिमवद्विन्ध्ययोरियासंबन्धिनोः सम्बन्धानुपपत्तेः । गपीदं वि नटुं, तस्स अधिती जाया । जाव घरं पविट्ठो ताहे न चासम्बन्धिनोभित्रसम्बन्धेन तदभित्र सम्बन्धित्वं भोयणबिडी उबटुचिया, ताहे सोवरिणयरुप्पमयाणि थाशक्य विधातुम् । विरुद्धधर्मभ्यासेन भेदात् । नापि भि- लाणि रयाणि, तत्थ एकेक भायणं नासिउमारखं, सो य सम् । तत्सद्भावेऽपि तयोः स्वरूपेणासम्बन्धित्वप्रसवात्। पेच्छति नासते जा वि से मूलपत्ती सा वि णासिउमारता। भिवस्य तत्कृतोपकारमन्तरेण तत्सम्बन्धित्वायोगात् । ताहे तेण गहिया,जत्तिय गहियं तत्तियं ठियं, सेसं नट्टै ततोततोऽपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्रसङ्गात् । सम्बन्धिनोस्तु गतो सिरिघरं जो पर सो वि रित्तो । जं पि निहासम्बन्धपरिकल्पनं व्यर्थम् , सम्बन्धमन्तरेणापि तयोः एपउत्तं तं पि नटुं । ज पि आभरणं तं पिनऽस्थि । ज पि बुस्वत एव सम्बन्धिस्वरूपत्वात् । यसूक्तम्-' विशिष्टावस्था- विपउत्तं तेवि भणन्ति-तुमं न याणामो,जो चि दासीवग्गो सो व्यतिरेकेण क्षितिबीजोदकादीनां नारजनकत्वम्' सा च वि नट्ठो । ताहे चिंतेह। पब्वयामि । पब्वइतो सामाइयाणिविशिष्टावस्था तेषां संयोगरूपा शक्तिः । तदसादरम् । यतो पकारस अंगाणि पढियाणि । ततो तेण खंडेण हत्थगएण यथा विशिष्टावस्थायुक्ताः क्षित्यादयः संयोगमुत्पादयन्ति , कोऊण हिंडा, जइ पेच्छेन्जामि विहरंता उत्तरमतथा तदवस्थायुक्ता प्रहारादिकमपि कार्य निष्पादयिष्य
हुरं गतो । ताणि वि रयणाणि ससुरकुलं गयाणि, ते य कन्तीति व्यर्थे संयोगशक्तस्तदन्तरालवर्तिन्याः परिकल्पनम् । लसा,तहा हि सो उत्तरमाहुरो वाणितो उवगिजंतो अन्नया अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकला- कयाई मज्जई, तस्स मजमाणस्स ते कलसा गया।ताहेसा ते पः प्रवर्तत इति निबन्धः, तर्हि संयोगशक्त्युत्पादनऽप्य- हिंचेव पमज्जितो,भोयणवेलाए सव्वं भोयणभंडं उपट्टियं सो. परसयोगशक्तिव्यतिरेकेण नासौ प्रवर्तत इत्यपरा संयो- वि साहू भिक्खं अडतो तं घरं पविट्ठो । तत्थ सत्यवाहस्स गशक्रिः परिकल्पनीया, तत्राप्यपरेत्यनवस्था । अथ ताम- धूया पदमजोब्बणे वट्टमाणी वीयणय गहाय अच्छा । ताहे न्तरेणाऽपि शक्तिमुत्पादयन्ति, तर्हि कार्यमपि तामन्तरे
सा साहु तं भोयणभड पेच्छह । सत्थवाहेण भिक्सा नीवारादिकं निवर्तयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्नेः तद- णाषिया । गहिए चि अच्छई, ताहे पुच्छई-किं भय ! एय म्तरालयसिम्याः कल्पनम् । न व विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण
चडि पलोवेह । ताहे सो भणई-न मम चडीए पोयणं । एपृथिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निर्वर्तयितुं क्षमाः, तथाऽभ्यु- यं भोयणभंडगं पलाएमि । ततो पुच्छई-कतो एयरस प्रापगमे सर्वदा तनिर्सिनप्रसादरादेरण्यनवरतोत्पत्तिप्र- गमो ?, सो भणइ-अजयपज्जयागयं , तेण भणिय-सम्भावं सक्तः । न चाम्यतरकर्मादिसव्यपेक्षाः संयोगमुत्पादयन्ति | साह, तेण भणिय-मम एहायतस्स एवं चेय रहाणविही क्षित्यादय इति नायं दोषः , कर्मोत्पत्तावपि संयोगपक्षो- उबट्ठिया । एवं सब्यो वि जमणवेलाए भोयणविही सिरिक्रदूषणस्य सर्वस्य तुल्यत्वात् । तस्मादेकसामध्यधीनवि- घराण विभरियाणि दिवाणि अदिट्रपुब्वा य वाणियगा श्राशिवात्पत्तिमत्पदार्थव्यतिरेकेण नापरः संयोगः । तस्य वा- णित्ता देति । काहे सोभणा-पयं सव्वं मम श्रासि सो पुच्छर धकप्रमाणविषयत्वात् , साधकप्रमाणाभावाच । यस्तु 'सं- रह ताहे साहु-कई । गहाणादि जान पत्तियसि भोयणपत्ती पके द्रव्ये पते 'इति, 'अनयोर्वाऽयं संयोगः' इति व्यपदेशः, खडं पेच्छ जाव ढोइयं चड त्ति लग्गं पिउणो नाम साहा। ता. स भेदाम्तरप्रतिक्षेपाऽप्रतिक्षेपाभ्यां तथाऽवस्थोत्पन्नवस्तु- हे नायं एस सो जामानो,ताहे सो उट्टित्ता अवयासेऊण परुप्रयनिवन्धन एव, नातोऽपरस्य संयोगस्य सिद्धिः । नचा- तो पच्छा भणई । पयं सव्यं तव तदवत्थं अच्छई । एसा क्षणिकरके तयोः स सम्बन्धी युक्तः । तत् सम्बग्धस्य स- पुवदिचा चेडी पडिच्छसुत्ति। सो भण-पुरिसो या पुरवं मषायस्य निषिद्धत्वात् , निषेत्स्यमानत्वाच्च । न च तज- कामभोगे विप्पजहई, कामभोगा बा पुवं पुरिसं विप्पजई
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( १२० ). अभिधानराजेन्द्रः ।
संजोग
ति । ताहे सो वि संवेगमावो मर्म पि यमेव पिप्पजहिसंति ति पव्वतो । तत्थ पगेण वि विप्पोगेण लई एगेण संजोगेण सामाध्यं लई ति । ' ० म० १ ० । " अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम् । अधुना पृथि वी नास्ति, संयोगाः खलु दुर्लभाः " ॥ ९ ॥ गा० । संजोगगम - संयोगगम-त्रि० । संयोगगमं संयोगतो गमः प्रकारो यस्य तत्तथा । व्य० १ उ० । संयोगतो ऽनेकप्रकारे, व्य० १ उ० ।
संजोग (ख)- संयोगार्थिन् जि० संयुश्यते संयोजनं वा प्र योजनं सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी । तत्र धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदराजभार्यादिसंयोगस्तेनार्थी तत्प्रयोजनः। अथ बारादादिविषयः संयोगो मातापित्रादिभिषनार्थी सं योगप्रयोजिनि, व्य० ५ उ० ।
संजोगदिपाटि - संयोग ष्टष्टपाठिन् - पुं० । संयोग औषधद्रव्यमीलनप्रयोगस्तद्विषयो दृष्टः पाठचिकित्साशाखाक्ययविशेवो ये सः श्रार्षत्वाद् इन्प्रत्यः । पृ० १ उ०२ प्रक० । क्रियाशास्त्रयोर्निपुगे यो हानेकान् संयोगान् व्यापार्यमाणान् दृष्टवान् यश्च तत्पाठं पठितवान् ताशे, व्य०५३० । संजोगमूला- संयोगमूला श्री० संयोगो नानाभवेषु पुत्र[क][मंत्ररीरादिसम्बन्धरूपः स एव मूल यासां ताः संयोगमूलाः । संयोगकारणीभूतायां श्रियाम् भ्रातु संजोगरय-संयोगरत भि० पुत्रकलत्रमित्रादिजनितसम्ब न्धरते, आचा० १ ० ४ ० १३० । संजोगसंबंध-संयोगसम्बन्ध-पुं० । संयोगस्य संबन्धोऽभिलाषः । नानाभवेषु पुत्रकलत्र मित्र शरीरादिसम्बन्धेच्छ्रायाम्, अतु० ।
संजोशिव-संयोनिक- वि० सह योग्युत्पत्तिस्थानेन वर्तते इति संयोनिकः । संसारिणि, स्था० २ डा० १ उ० । संजोता - संयोजयिता- पुं० । संयोगं कारयितरि, स्था० ६
ठा० ३ उ० ।
संजीपणा संयोजना- बी० लोभात् द्रव्यस्य मडका - ईष्यान्तरेणादिना बसतेरिस्तव योजनं संयोजमा । ध० ३ अधि० । संयोजनं संयोजना | उत्कर्ष तोत्पादनार्थे द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण मीलने, प्रष० ६३ द्वार | पं० ० पिं० मांदेर्गुणान्तरोत्पादनीयस्यान्तरमीलने प ० १२ विष० । प्राणायाः प्रथमे दोषे, यथा-शीरचितादि इव्यं समीक्ष्य रसलीयेन भुझे ०२४० । जीत० नि० ० । पिं० ।
संप्रति संयोजनामेव व्याचिस्यासुः प्रथमतस्तस्था मि
संजोयणा
विधा तथा पहिरन्तब्ध तब यदा भिक्षार्थमेव हिरुडमानः सन् क्षीरादिकं खण्डादिभिः सह रसगृद्धया रसविशेषोत्पादनाय संयोजयति पषा बाह्या-बद्दिर्भवा संयोजना एनामेव स्पष्टं भावयति - खीरदहिवडर-लेमे गुडसपिडालुके ।
तो उ तिहा पाए, लंबणवणे विभासा उ ||६३७|| शब्दधिपान प्रतीतानां कट्टरस्य तीमनोम्मिश्रतडिकारूपस्य देशविशेषप्रसिद्धस्य लाने सति तथा गुडसटिक मालुङ्गानां प्राप्ती सत्यां रसा रसविशेषोत्पादनायाः सह संयोजना परकरोति -
可
हिरेव भिक्षामटम् एषा माझा द्रव्यसंयोजना । अभ्यन्तरा, पुसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति तथा चाह अन्तस्तु श्रभ्यन्तरा, पुनः संयोजना त्रिधा त्रिप्रकारा, तयथा-पात्रे सम्बने पदने च मधरं सम्बनं कवलः, ततोऽ स्यास्त्रिविधाया अपि विभाषा–व्याख्या कर्तव्या । सा चैवं यत् द्रव्यं पश्य इव्यस्य रसविशेषाधापितसेन सह पत्र रसगुडघा संयोजयति, यथा--सुकुमारिकादिकं खण्डादिनासह पंषापात्रे ऽभ्यन्तरा संयोजना, यदा तु हस्तगतमेव चलतोत्पाटितसुकुमारिकादि सरडादिना सह सं योजयति तदा कबलेऽभ्यन्तरा संयोजना । यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनकं प्रक्षिपति, यद्वा-मण्डकादिकं पूर्व प्रक्षिप्य पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपति एषा बहने भ्यन्तरा संयोजना । एषा च द्रव्यसंयोजना समस्ताऽप्यप्ररास्ता यतोऽनयाऽऽत्मानं रागद्वेषाभ्यां संयोजयति ।
I
"
तथा बामेव दो काम ह संजोयखाए दोसो, जो संजोए मतपाएं तु । दवाई रसहे, वाघाओ तस्सिमो होइ ॥ ६३८ ॥ संयोजनायां प्रागुक्तस्वरूपायामयं दोषः - दब्बाइरसदेउ ति अत्रार्थत्वादादिशब्दस्य व्यत्यासेन योजना । ततोऽयमर्थः- द्रव्यस्य सुकुमारिकानेः रसद्देतो:-रसविशेषोत्पादाय प्रदिशब्दादुमगन्धादिनिमितं च यो भ पार्न चानुकूलद्रव्येण सराडादिना सह संयोजयति तस्य साधोरथं वश्यमाणः व्याघातः दीर्घदुः खोपनि पातरूपी भवति ।
"
तमेव भाषपद भावसंयोजनामप्याह-संजोयणा उ भावे, संजोएऊण ताणि दब्बाई । संजोयर कम्मे, कम्मेण भर्व तो दुक्खं ।। ६३६ ।। तानि हि सुकुमारिकाडादीनि इम्याणि रसपा संयोजयनात्मानममशयात्मभावेन संयोजपति, पक्षा भाषे भावविषया संयोजना ततलानि इत्यादि तथा संयोज्यात्मनि कर्म ज्ञानावरणपादिक संयोजयति सम्बध्नाति कर्मणा च संयोजयति भवं दीर्घतरं संसारं तस्माच भवाद्दीर्घतर संसाररूपात् दु:खम्-अनातं संयोजयति, ततो यो द्रव्यसंयोजन क
पमाह
दब्वे भावे संजो भगा उ दब्बे तुहा उ महि अंतो । भिक्खं चि हिंडतो, संजोयं तम्मि बाहिरिया ।। ६३६ ।। संयोजना द्विधा तथा इष्यविषया भावेमायविषया तत्र ध्यविषया संयोजना हिरोति तस्येत्यमनन्तकालसंवेद्यो दुःखनिपात इति ।
। द्रव्ये -
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(१२१) संजोयणा अभिधानराजेन्द्रः।
संजोयणा सम्प्रत्यस्था पप ग्यसयोजनाया अपवादमाह- । प्रतिकुश्शनाप्रायश्चित्तमपि न प्रतिसेवनातः पृथगुपपन्न पत्तेय पउरलम्भे, भुतुबरिए य सेसगमणऽट्ठा ।
यतः प्रतिकुश्चनानाम-माया । तथा चोक्तम्-" पलि
उंचणं ति य माय ति य नियहि ति य एगट्टा इति ।" दिडो संजोगो खलु, मह कमो तस्सिमो होइ॥६४०॥ माया च प्रतिसेवना ततः एकमेव प्रतिसेवनप्रायश्चित्तमुपपप्रत्येकम्-एकैकं साधुसंघाटकम् प्रति प्रचुरलाभे- तिमत् न शषाणि त्रीणि संयोजनादीनि पृथक प्रायश्चित्तानि, पिपुलताविप्राप्ती सत्यां यदि कथमपि भुङ्ग सति
अन्यथैवमतिप्रसमापयते । तथाहि-संयोजनादीनि त्रीणि पः-समुपये शेषम्-उद्धरितं भवति, ततस्तस्य शे
प्रायश्चित्तानि प्रतिसेवना रूपाणि भवन्स्यपि प्रतिसेवमा भपस्व निर्गममार्थ :-अनुशातस्तीर्थकरादिभिः खलु
वन्ति । ततः प्रतिसेवनाऽपि म प्रतिसेवना स्यात् विशेषासंयोगः, उद्धरितं हि घृतादिन खण्डादिकमम्तरण मण्ड
भावात् । भनिई चेतनस्मादेकमेव प्रायश्रि प्रतिसेवनान कादिभिरपि सह भोकुं शक्यते प्रायस्वप्तत्वात् ,मच प- शेषाणीति। रिष्ठापनं युक, घृताविपरितापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि एवं बोरकेनाऽऽक्षिते प्रकपणापृथकरवे सूरिहत्तरमाहकीटिकादिसरवण्यापाससम्मनपचरप्रायश्चित्तसम्भवात् एगाहिगारिगाण वि, नाथ केलिया र दिजंति । सत उद्धरिततादिमिर्गमनाथै बरादिभिरपि तस्य सं
पालोयणाविही विय,इस नाणचउपहं पि ॥१३८॥ योजनंग दोचाय, एष तावदयमपवादः संयोजनायाः ।
ऐकाधिकारिकाणि नाम एकस्मिन् शय्यातरपिण्डादावधिअथाम्योऽपि तस्य संयोगस्यायं वयमाणः क्रमो-भवन
कतदोषेऽनालोचिते एवं यानि शेषदोषसमुस्थितानि प्रायपरिपाटीरूपो भवति।
श्चितानि ताम्यैकाधिकारिकाणि-एकाधिकारे मवान्यैकातमेवाह
धिकारिकाणि अध्यात्मादित्यादिकणिति व्युत्पत्तः,तेषामप्यैरसहेउं पडिसिद्धो, संयोगो कप्पए गिलाणड्डा ।
काधिकारिकाणां नानात्वं, न पुनरैकाधिकारिकतया एकत्यजस्स बमभत्तछंदो, सुहोचिनोऽभाविभो जो या६४१।।
मिति महानाय तदर्थ संयोजनाप्रायश्चिरं पृथगुच्यते । रसदेतोः-सया रसविशेषोत्पादनाय संयोगः प्रति
मामात्वमेव गाथाद्वयेन दर्शयतिपिस्तीर्थकरादिभिः, यावता पुनः स एव संयोगो सेज्जातरपिएडे य, उदउने खलु तहा अभिहडे य। जलानार्थ-लामसजीकरलाई कल्पते, यद्वा-यस्य
प्राहाको यतहा, सत्त उ सागारिए मासा ॥१३६॥ अभाच्छन्द-भक्कारोचकः, यश्च सुखोचितो राज
केनापि साधुना प्रथमतः शय्यातरपिण्ड उपभुक्तः तस्मिन्नपुत्रादिः यमाचाप्यभाविता-बसजातसम्यक्परिणामः शै
नाखोचित एव तदनन्तरमुदकामासेवितं, ततोऽभ्याइतं, कस्तस्य निमित्तं कल्पते। उक्तं संयोजनाद्वारम् । पि०॥
तदनम्तरमाधाकमिकम् , पतानि चत्वार्यप्यैकाधिकारिकाज्या पं०५०। महा० । ०। प्राचा। अनन्तानुब
णि अधिकृत एव शय्यातरपिण्डदोषे प्रनालोचिते शेषदोषधिकषतिपु० सं०३वार। संयोज्यते-सम्बध्यतेऽने
प्रायश्चित्तानां संभवात् । पतेषां चैकाधिकारिकाणामपि नाकसंस्थैर्भवैर्जन्तयो यैस्ते संयोजनाः। संयोजयत्यात्मनोऽन
नात्वं नतु शय्यातरपिरहे एव शेषाण्यम्तर्भवन्ति । ततः सतमपिकालमिति "रस्यादिभ्यः कर्तरि"इस्यनटि प्रत्यये सं.
रियपि पृथगालोचनीयानि न केवल एवैकः शय्यातरपिण्ड योजना । कर्म०५ कर्मा "संजोयसाए कसाया भवादिसंजो. यणातोप"मा० म०१ मा एकजातीयातिचारमील
इति परिमानाय संयोजना दर्श्यते तत्र शय्यातरपिण्डे मास
लघु, उदकाऽपि मासलघु । खप्रामादाहतेऽपि मासलघु । मा-प्राण्यावरपिराडो गृहीतः सो धुनकाहस्तादि
माधाकर्मिमके चत्वारो गुरुमासाः । "गुरुगा पाहय" इति मा सौम्यवृत्तः सोऽप्याधार्मिकः तत्र परप्रायश्चित्तं तत्संयो जनाप्रायश्चित्तम् संयोजनोच्यते । स्था०४ ठा०१उ० । कर्थ
वचनात् । एवं शय्यातरपिण्डे अधिकते सयोजनाप्रायश्चित
सप्त मासास्तथाचाह-" सत्त उ सागारिए मासा" सागासंयोजना पृथक प्रायश्चित्तमुध्यते । अधुना संयोजनाप्राय
रिको माम-शय्यातरस्तस्मिम्सागारिके-सागारिकपिण्डेममिस क्रम्पम् । अस्मिन्च व्याख्याते यतः प्रकपणापू
चिकते एकाधिकारिकाणामपि मानावात् संयोजनाप्रायअच्वमिस्खेतपिशारं म्याक्यात द्रष्टव्यम्।
श्चित्तं सप्त मासाः। तत्र चोवका संयोजनाऽऽदीनां भेवानां प्रकपणापृथक्त्व
रमो माहाकम्मे, उदउल्ने खलु तहा अभिहडे य । माक्षिपनाहपडिसवणं विया खटु, संजोगाऽऽरोवणा न दिअंति ।
दसमास रायपिंडे, उग्गमदोसादियो चेव ।। १४०॥
केनापि प्रथमतो राजपिण्ड उपभुक्तस्ततस्तेनैव राजपिण्डे माया वियपडिसेवा, आइप्पसंगो य इति एकं ॥१३७॥
उपभुक्त भनालोचित एष प्राधाकर्मिकमुपभुक्रं तदनन्तरमुदहप्रायाबतं सर्वमुत्पद्यते, प्रतिसेवनातो, खलु मूलगुण- काई ततोऽभ्याइतमेषमेताम्यपि चत्वार्यकाधिकारिकाणि, गुणप्रतिसेषवाम् , उत्तरगुणप्रतिसेवना वा विना कापि अधिकृत एवं-राजपिण्डदोष शेषदोषाणां सम्भवात् । एतेप्रायश्चित्तस्य संभवः "पडिसेवियम्मि विजाइ पच्छित्तं पांच नानात्वमिति पुथगालोचनायो सयोजना वयम्तेबहरहाउ परिसेहो " इति पचनात्, ततः संयो- राजपिएडे चत्वारो गुरुमासाः, भाषाकर्मिकेऽपि चत्वारो जनाप्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तं च प्रतिसेवनामम्तरेगा
गुरुमासोः । उदका लघुमासः । अभ्याहतेऽपि लघुम भवतीति तयोः सम्प्रति प्रतिसेवनायामेषान्तर्भावः ।
मासः इत्यधिकते राजपिण्डे उदमदोषादिना उगमदोषण १. पुस्तकान्तरे-'मानावयापितविपश्य माणसं चउयह पि'। । भावियम्दादुत्पादनादोषणादोषेण चशब्दावम्येम व
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संजीपणा
यथासंभवं संयोजनायां दश मासाः प्रायश्चित्तम् एवमनया दिशा होपसंयोजनात्, संयोजनाप्रायश्चित्तमवसातय्यम् । एवं संयोजनायामनुमतायां मा भूदारोपणाशङ्केति कस्मिन्नपि तीर्थे कति मासा दीयन्ते प्रायथितमिति परिज्ञानाय संयोअनात् आरोपणाप्रायश्चित्तं पृथकृतम्, 'झालोयणा विही वि. य'ति । यद्यथा प्रतिसेवितं तत्तथैवालोचयितव्यम् । न तु मायया प्रतिकुञ्चनीयमन्यथा मायया प्रतिकुञ्चनेन मायाप्रत्ययमधिकं मासगुरुं प्राप्नोतीत्येवं ज्ञापितः सन् यथा प्रतिसे वितमालोचयते । तत श्रालोचनाविधिरपि सम्यग्ज्ञापितः स्यात्, अपिशब्दादेवं ज्ञापितो यदा मायया अन्यथा भालोचयते तदा आरोपणायां क्रियमाणायां यत्र मासलघु आमषति तत्र मासगुरु प्रदातव्यमिति ज्ञापनार्थमारोपातः प्रतिकृचना-प्रतिकृनायायधिस मिर्च कृतमिति उक्रेन प्रकारेण चतुमपि प्राधिकानां नामात्यमिति उ संयोजनाप्रायश्चिती यतः प्ररूपणापृथक्त्वमिति द्वार मप्युक्तम् । व्य० १ उ० ।
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संजोयणादोस- संयोजनादोषदुष्ट त्रि । संयोजना इव्यस्य गुणविशेषार्थं स्यान्तरेण योजन सेव दोषस्तेन यत् । स्यान्तरसंयोगदोष ०७०१० संजोगणाहिगरणिया-संयोजनाधिकरणिकी-स्त्री० । संयोजमे हलगरविषकूटया पूर्वनिर्वर्त्तितानां मीलनं तदे याधिकरक्रिया संयोजनाधिकरणकिया। अधिकरशिक्याः क्रियाया भेदे, भ० ३ ० ३ ० । संझच्छेयावरण-सन्ध्याच्छेदावरण-पुं०। संभ्याच्छेदः-समध्याविभागः स वियते येन स सन्ध्यादावरणः। चन्द्रे, व्य० ७ ० ।
संप्पम-संध्याप्रभ-१० शलोकपालस्य सोमस्य विमाने,
( १२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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भ० ३ श० ७ उ० ।
संकम्भराग-सन्ध्याभ्रराग- पुं० । वर्षासु सन्ध्यासमयभाविनि अवरागे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं० । प्रशा० । संझा-सन्ध्या-श्री०क-म-ए-नो व्यञ्जने ॥ ८ ॥ १२५ ॥ अमेमात्र नकारस्यानुस्वारः । संझा । प्रा० । सायंकाले, महा० १७ पद ४ उ० जी० ।
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संकापडिकमण मणो ! बंदिउं जाप णिज्जाए णिसीहियाप असुजाणह मे मिउग्गहमि' स्यादि तृतीयं वन्दनकाध्ययनम् ॥ ३ ॥ ' बतारि मङ्गलं, इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे देवसिनो इच्छामि पकिमि रिक्षादिचार० 'इच्छामि परिमिताम सिजाए०' इत्यादि चतुर्थे प्रतिक्रमणाध्ययनम् ॥ ४ ॥ 'इच्छामिठामि काउ' राइदेव० १७५ इच्छामि हामि का उस्सगं, जो मे देवसिको भरमारो कम कारओ बाइओ माणसिनो उस्तो उम्मग्गो प्रकप्पो करणिजो दुराबवितो अणायारो अभियो सागपाडोना इससे परिसाचरिते सुप सामादपतिगुती उकसाचार्य, पंचमया
तिने चढरा सिक्वावयास पारसवि इस्स साबगधम्मस्स, ऊं खंडि जं विराहिय तस्स मिच्छामि तुकडं । राइदेव० ३ | १०-तस्स उत्तरीकरणेणं, पा यतिकरणं, विसोहीकर विसीकरणे, पाचार्य कम्मां निग्धायणद्वार ठामि काउस्सग्गं ॥ १ ॥ अत्थ ऊससिपणं नीससिए कासि जंभारपणं उहुए वायनसमो भ्रमली दुष्टं पित्तमुच्छार ॥ १ ॥ सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं, सुडुमेहिं बेलसंचालेहिं, सुडुमेहिं दिट्टिसंचालेहिं ॥ २ ॥ एवमाइपहि आगारेहिं अभग्यो, अविराहिओ, हुज मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ जाव अरिहंता ं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ॥ ४ ॥ ताथ कार्य डाग मोगे भाग अप्पा बोसिरामि ॥ ५ ॥ सव्वलोए अरिहंतवेइआएं, करेमि काउस्सग्गं ॥ १ ॥ वंदणवतिआप पूणवत्तिश्चाप सकारवत्तिभाए सम्माणबत्ति आप बोहिलाभवत्तित्राप निरुवसग्गवसिनाए ॥ २ ॥ सखाए मेहाए धिईप धारणाए अणुप्पेहार वढमाणीप ठामि काउस्सगं ॥ ३ ॥ अत्थ० । "दुक्खरवरीबड्डे, धावडे
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भरद्देरवयविदेदे, धम्मारगरे नम॑सामि ॥ १ ॥ तमतिमिरपडलवियं-ससुरगणनमसि । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिअमोहजालस्स ॥ २ ॥ आजरामरसोगपणा सणस्थ, कल्लापुक्कसविसालसुद्दाबहस । को देवनगिरिस,
धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥ ३ ॥ सिद्धे भो ! पयश्रो गमो जिसमए नंदी सया संजमे । देवं नायरसम्भूद्मभावच्चिए ॥ लोगो जत्थ पट्टि जगमिगं तेलुकमच्चासुरं । धम्मो पद सासओ विजय धम्मुत्तरं बड्डड ॥ ॥ ॥ 'सुस्त भगवो करेमि काठस्सम्यं दवतिप्राप० । सिद्धाणं बुद्धाएं, पारगयां परंपरगयां । लोग्गमुषगयाणं, नमो सया सम्बसिद्धा ॥ १ ॥ जो देवा देवदेवनमसन्ति ।
संभागव सन्ध्यागत १० । यत्र नक्षत्रे सूर्योऽनन्तरेखास्पति तादृशे नक्षत्रे, आ० म० १ अ० । यत्र नक्षत्रे सूर्यस्तिष्ठति तस्माचतुर्दशं पञ्चदशं वा नक्षत्रं सन्ध्यागतमित्यन्ये, विशे० । जीत० । पं० ब० । नि० ० । ६० प० । संकालुराग-सन्ध्यानुराग-५० सम्ध्यारागे, । "संभालुरागवसणा बाउकुमारा मुख्यब्वा " महा० २ पद संकापडिकमण सन्ध्या प्रतिक्रमण - न० प्रतिक्रमणभेदे, सेन० । सम्भ्यामतिक्रमणे पडावश्यकसूत्राणि कामीति प्रक्षः, अत्रोत्तरम् - " नमो अरिहंताणमित्यादि सम्पूर्णनमस्कारः करेमि भंते! लामाइनं ' इत्यादितः 'अप्पां बोसिरामी यस्तं प्रथमं सामायिकाध्ययनम् ॥ १ ॥ 'लोगोगरे' स्यादितः सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु इत्यन्तं द्वितीयं चतुर्विंशतिस्तचाध्ययनम् ||२|| इच्छामि समास
तं देवदेवमहि, सिरसा बंदे महावीरं ॥ २ ॥ इको वि नमुकारो, जिणबरबसइस्ल ममाणस्स । संसारसागराम्रो, तारे नरेनारिया ॥ ३ ॥ लिसिहरे, दिसा ना मिलीदिना जस्त धम्मचक्र अरिनिर्मामि ॥ ४ ॥
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(१२३) संभापडिक्कमण - अभिधानराजेन्द्रः।
संठाण चत्तारि अट्ठ दस दो य, बंदिया जिणवरा ! चउव्वीसं। | सखेजा नो असंखेजा अणंता । वट्टा णं भंते ! संठाणा परमट्ठनिटिअट्ठा, सिद्धा ! सिद्धिं मम दिसंतु ॥५॥
एवं चव एवं०जाव अणित्थंथा एवं पएसट्ठाए वि। (७२४+) वेत्रावच्चगराणं संतिगराणं इच्छामि खमासमणो अम्भुडिओ मि अम्भितरदेवसिअं खामेउं ? इच्छं खामेमि
'करणं भंते' इत्यादि, संस्थानानि-स्कन्धाकाराः 'अदेवसि जं किंचि अपत्ति परपत्तिअं भत्ते पाणे
णित्थंथे ' सि इत्थम्-अनेन प्रकारेण परिमण्डलादिना
तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थं ; परिमण्डलादिविणए वेत्रावच्चे आलावे संलाये उच्चासणे समासणे
व्यतिरिक्तमित्यर्थः, 'परिमण्डला णं भंते ! संठाण ' ति अंतरभासाए उवरिभासाए ज किंचि मज्झ विणयपरिहीणं
परिमण्डलसस्थानवन्ति भदन्त ! द्रव्याणीत्यर्थः ‘दव्वट्ठयासुहुमं वा बायरं वा तुम्भे जाणह अहं न जाणामि तस्स मिच्छा मि दुकडं । 'इच्छामि खमासमणो ! पिनं च मे
प' ति द्रव्यरूपमर्थमाश्रित्येत्यर्थः 'पएसट्टयाए' ति
प्रदेशरूपमर्थमाश्रित्येत्यर्थः । भ० २५ श०३ उ०। (एतेषामजंभे' इत्यादि पश्चमं कायोत्सर्गाध्ययनम् ॥५॥ 'उग्गए सूरे ममुकारसाहनं पच्चक्खामी' त्यादि सर्वाण्यपि प्रत्याख्यान
ल्पाबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शम्दे प्रथमभागे १६६३ पृष्ठे गतम्।) सूत्राणि षष्ठं प्रत्याख्यानाध्ययनम् ॥६॥च इमानि प्रति
रत्नप्रभाचपेक्षया संस्थानप्ररूणामाहक्रमणे षडावश्यकसूत्राणि परम्परया यानीति ॥५१॥ कति ण भंते ! संठाणा पत्ता , गोयमा ! पंच संठासेन०३ उहा।
णा पम्पत्ता । परिमण्डले जाव भायते । परिमण्डला गं संझाराइ-सन्ध्यारात्रि-स्त्री० । सन्ध्या येन राजते-शोभते
भंते ! संठाणा किं संखेजा असंखेजा अणता ?, गोयदीप्यतेऽनेन सन्ध्यारात्रिः। रजन्याम् , नि० चू०१६ उ०।
मा! नो संखेजा, नो असंखेजा, अणंता । बट्टा णं भंते संझाविगम-सन्ध्याविगम-पुं० । रात्री, नि० चू०१६ उ० ।
सठाणा किं संखेजा. १ एवं चेव एवं जाव आयता । संझाविराग-सन्ध्याविराग-पुं० । सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिररूपत्वाद् रागः सन्ध्याविरागः।सध्यासमये,जी० ३ प्रतिक
इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमण्डला संठा४अधिक।
णा किं संखेजा असंखेज्जा अणंता ? , गोयमा ! नो संटक-संटर-पुं०। प्रबन्धसम्बन्धे, प्राचा०१६०२१०१ संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता । वट्टा णं भंते ! संउ.विशे०।
ठाणा किं संखेजा असंखेजा एवं चेव, एवं जाव आसंठवण-संस्थापन-म० । संस्करणे , विशे० । सूत्र।
यया । सकरप्पभाए णं मंते ! पुढवीए परिमण्डला संसंठवणा-संस्थापना-स्त्री० । संस्कारे, पं० व०२ द्वार ।। ठाणा एवं चेव एवं०ज्ञाव आयया । एवं०जाव अहे सत्तवसतेः संस्कारकरणे,ध० । तस्यामपि नियुक्ता भणन्ति-घ- माए । सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमण्डला संठाणा एवं यमकुशलाः संस्थापनाकर्मणि कर्तव्ये सप्राभृतिकाया
| चेव एवं जाव अच्चुए। गेविजगविमाणा णं भंते ! मपि बसतो कारणतः स्थिताः स्वकीयमुपकरणं प्रयत्नेन संरक्षन्ति यावत्प्राभृतिका क्रियते तावदेकस्मिन् पावें ति
परिमडलसंठाणा एवं चेव एवं अणुसरविमाणेसु वि , ष्ठन्ति । ध०३ अधिः । पुनरपि योगोत्क्षेपे,पं०चू० ४ कल्प ।
एवं ईसिपम्भाराए वि ॥ जत्थ णं भंते ! एगे संठाठा)विभ-संस्थापित-त्रि० । “वाऽन्ययोत्खातादायदा- परिमंडले संठाणे जवमज्झे तत्थ परिमंडला संठाणा तः"॥।१।६७॥ इस्याकारस्याऽकारः । संस्थाप्रापिते,प्रा० ।
कि संखेजा असंखेजा भयंता ?, गोयमा ! नो संठवित्तए-संस्थापयितुम-प्रव्य० । गृहस्थभावेन द्रब्यलि
संखेजा नो असंखेजा, भयंता । वहा ण भंते ! संठाणा काठच्यावयितुमित्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०२ १०१ उ०। किं संखेजा असंखेजा चेव, एवं जाव प्रायता । जत्थ णं संठाण-संस्थान-न० । संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं भंते ! एगे बढे संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा वस्त्विति संस्थानम् । उत्त० १० । आकारविशेष एवं चेव बट्टा संठाणा एवं चेत्र, एवं जाव भायता । एवं मुखवृत्त्या पुद्रलरचनाकारे, आव०४ ०। दर्श। अत्य- एकेकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा । जत्थ ण भंते ! इते रचमाविशेष, प्रा० म०१०। विशे० । स० । औ०।
मीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले संठाणे जवमस्था० । अनु०।०प्र० । अनु० । भ०।
ज्झे तत्थ ण परिमंडला संठाणा किं संखेा०। पुच्छा , आकृतिविशेषाः संस्थानानि तानि च जीवाजीवसम्बन्धि-|
गोयमा! नो संखेजा नो असंखेज्जा अणंता । बट्टा गं त्वेन विधा भवन्ति तत्रेहाजीवसम्बन्धीनि तावदाह
भंते ! संठाणा किं संखेजा० पुच्छा गोयमा ! नो संखेजा कति णं मंते! संठाणा पल्पसा १. गोयमा ! नो असंखेजा भयंता, एवं चेव जाव भायता । जत्थणं छ संठाणा पमत्ता, तं जहा-परिमंडले बड्डे से चउरंसे भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीर एगे बड़े संठाये जवप्रायते मणिरथंथे । परिमंडला णं भंते ! संठाणा दबट्ठ- मज्झे तस्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेजा. १ पुच्छा पाए कि संखेजा असंखेजा प्रणता ?, गोयमा ! नो गोयमा ! नो संखेजा नो प्रसंखेजा अणंता ।
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संठाय अभिधानराजेन्द्रः।
संठाण पहा संठाया एवं व जाव भायता । एवं पुणरवि एके से पयरतंसे से दविहे पत्ता,तं जहा-मोयपएसिए केणं संठाणेणं पंच विचारेयव्वा जहेव हेडिना जाव मा य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से भोयपएसिए से यता णं एवं • जाव महेससमाए एवं कप्पेसु वि० जाव जह० तिपएसिए तिपएसोगाढे ५० उक्कोसेसं प्रणतईसीपम्भाराए पुढवीए । ( सू०७२५)
पएसिए असंखेजपएसोगाडे । तत्थ णं जे से जुम्मपए'करण' मित्यादि, ह षष्ठसंस्थानस्य तदम्यसंयोगनि- सिए से जहमेशं छप्पएसिए छप्पएसोगावे प०, उक्कोसेशं पनत्वेनाविवक्षणात् पश्रेत्युतम् । अथ प्रकारान्तरेण ता
अणंतपएसिए असंखेजपएसोगावे प० । तत्थ सं जे से भ्याइ-'जस्थ ण' मिस्यावि,किल सर्वोऽप्ययं लोकः परिमएडलसंस्थानद्रव्यैनिरन्तरं म्याप्तस्तत्र च कल्पनया यानि या
पणतंसे से दुबिहे प०, तं जहा-प्रोपपएसिए जुम्मपएसिनि तुल्यप्रदेशावगाहीनि तुल्यप्रदेशानि तुल्यवर्णादिपर्यवाणि
एय । तस्थ णं जे से बोयपएसिए से जहणं पणतीसपए परिमण्डलसंस्थानवम्ति द्रव्याणि तानि तान्येकपङ्कयां सिए पणतीसपएसोगाटे उकोसणं भयंतपएसिए । स्थाप्यम्ते , एकमेकैकजातीयवेकैकपडयामौत्तराधर्येण नि- तस्थ पंजे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउप्पएसिए - क्षिप्यमाणेचस्पास्वभाबाद पवाकारः परिमण्डलसंस्था
उप्पएसोगाडे प.उकोणतपएसिए तंव ॥चउरबसमुदायो भवति । तत्र किल जघन्यप्रदेशिकद्रव्याणां वस्तु समावेन स्तोकस्वादाचा पट्टिईसा ततः शेषाणां क्रमेणा
से शं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए । पुच्छा, गोयमा! बहुतरवादीदीर्घतरा, ततः परेषां क्रमेणास्पतरत्वात् इस्व.| उरंसे संठाणे दुविहे प० भेदो जहेब वहस्स. जाव तत्व इस्वतरैव यावदुत्तरप्रदेशानामस्पतमरखेन इवतमेस्येवं तुल्यै- थं जे से मोयपएसिए से जहन्नेणं नवपएसिए नवपएसोस्तदम्यैध परिमण्डलम्यैर्यवाकारं क्षेत्र निष्पाचत इति इद
गाडे प०,उकोसेणं मणंतपएसिए मसंखेजपएसोगावे प०॥ मेवाभित्योच्यते-'जय' लि पत्र देशे 'एगे' सि एकं परिमंरले सिपरिमण्डल-संस्थानं वर्तत इति गम्यते, जवमझ'सि
तत्थ णं जे से जुम्मपदेसिए से जहन्नेणं चउपएसिए चउयवस्येव मध्य-मध्यभागो यस्य विपुलत्वसाधाद यवम- पएसोगाढे प०, उकोसेणं मणंतपएसिए तंव । तत्थ ज्या यवाकारमित्यर्थः । तत्र यवमध्ये परिमण्डलसंस्थानानि. णं जे से घणचउरसे से दुविहे पप्पत्ता, तं जहा-भोयपएपवाकारनिर्वकपरिमण्डलसंस्थानग्यतिरिक्तानि कि संख्या. सिए जुम्मपएसिए य । तत्थ संजे से मोयपएसिए से जतानि ? इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं त्वनन्तानि यवाकारनिर्व
हन्नेणं सत्तावीसइपएसिए सत्तावीसतिपएसोगादे, उक्कोकेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात् तदपेक्षया च यषाकारनिष्पादका. मामनम्तगुणहीनत्वादिति । पूर्वोक्लामेव संस्थानप्ररूपणां र
सेणं अणंतपएसिए तहेव । तस्थ जे से जुम्मपएसिए से जस्नप्रभादिभेदेनाह-'जत्थे' त्यादि सूत्रसिद्धम् ।
हन्नणं अदुपएसिए अदुपएसोगारे परमत्ता, उक्को मणअथ संस्थानान्येव प्रदेशतोऽवगाहतश्च निरूपयमाह- | तपएसिए तहेव । मायए णं भंते । संठाणे कतिपदेसिए बड़े से भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे कतिपएसोगाढे १०, गोयमा! भायए णं संठाणे तिवि पसत्ता', गोयमा! बढे संठाणे दुविहे पत्ता , घणवड्ढे हे परमत्ता, तं जहा-सेदिमायते पयरायते घणायते । तत्थ य पयरवड़े य । तस्थ णं जे से पयरवड़े से दुविहे परमत्ता, णं जे से सेहिमायते से दुविहे पलता, ते जहा-पोयपएतं जहा-भोयपएसे य जुम्मापासे य । तत्थ णं जे से मोय सिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ ण जे ओयप० से जह पएसिए से जहमेणं पंचपएसिए पंचपएसोगाढे उक्कोसेणे तिपएसिए तिपएसोगादे उक्को० अणंतपए तं चेव, तअणंतपएसिए असंखेजपएसोगादे । तत्थ णं जे से स्थ ण जे से जुम्मपएसे से जह• दुपएसिए दुपएसोगाडे, जुम्मपएसिए से जहनेणं बारसपएसिए वारसपएसो- उक्कोसेणं भयंता तदेव । तत्थ पंजे से पयरायते से दुगादे उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगादे । त- विहे प०, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य । तस्थ ण जे से घणबहे से दुबिहे पमत्ता, तं जहा-मोयपए- स्थ णं जे से भोयपएसिए से जहन्नेणं पन्नरसपएसिए सिए य जुम्मपएसिए य । तत्थ णं जे से भोयपए- पन्नरसपएसोगादे, उक्कोसेणं भयंता तहेव । तत्थ गं सिए से जह सत्तपएसिए सत्सपएसोगाढे प०, उक्को- जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए छप्पएसोगावे सेणं भणंतपएसिए असंखेजपएसोगादे पमता, तत्थ | उक्कोसणं अणंता तहेव । तत्थ णं जे से गणायते से दु. शंजे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बत्तीसपएसिए विहे प० तं जहा-भोयपएसिए जुम्मपएसिए । तत्थ वं बत्तीसपएसोगाढे प०, उक्कोसेणं भगतपएसिए - जे से भोयपएसिए से जहन्नेणं पणयालीसपएसिए पणसंखेजपएसोगाढे ।। तंसे गं भंते ! संठाणे कतिपदेसि- यालीसपएसोगावे उक्कोसणं भयंत तदेव । तत्थ गंजे से एकतिपदेसोगावे प०१, गोयमा! तसे गं ठाणे दु. जुम्मपएसिए से जह बारसपएसिए वारसपएसोगावे उबि पहले जहा-पणतसे य पयरतंसे य । तत्थ ण जे कोसणं भयंत.वहेव ।। परिमंडले णं भंते । संठा
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( १२५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संठाव
से कतिपदेखिए है, पुच्छा, गोषमा ! परिमंडले खंडादुविहे पत्ते, तं जहा - घणपरिमंडले य, पयरपरि मंडले य, तत्थ णं जे से पयरपरिमंडले से जहन्त्रेणं वीसतिपदेसिए बीसइपएसोगाढे, उक्कोसे णं असंतपदे • तहेव । तत्भ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेणं चत्तालीसतिपदेसिए चत्तालीसपएसोगाढे सत्ता, उद्योग अयं तपएसिए असंखेजपरसोगाढे पद्मत्ता । (सू०-७२६ )
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* बड़े मित्यादि पर पूर्वमा रह तु कस्मात्तश्यायेन वृतादिना क्रमेण तानि नियन्ते, उच्यते - वृत्तादीनि चत्वार्यपि प्रत्येकं समसंख्यविषमसंरूपप्रदेशाम्यतस्तत्साधम्यतेषां पूर्वमुपन्यासः परिमएडलस्य पुनरेतदभावात्पथाद् विचित्पाठा सूत्रगतेरिति ' घणषट्टे 'ति सर्वत्र समं घनवृशं मोदकवत् 'पयरवट्टे ति बाहल्यतो होने दे तर मडलपत् श्रो areer' ति विषमसंख्य प्रदेशनिष्पत्रं 'जुम्मपपसिए चि समसंख्य प्रदेशनिष्पन्नं, 'तत्थ णं जे से प्रोयपसिए पयरबड्ढे से जहन्नेणं पंचपएसिए' इत्यादि, इत्थं पञ्चप्रदेशाबगाई, पञ्चाशुकात्मकमित्यर्थः, उत्कर्षेणानतप्रदेशिकम संख्येयप्रदेशावगाढं लोकस्याप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्, 'जे से जुम्मपरसे से जमे वारसपपसिए' इति एतस्य स्थापना 'जे से प्रोयपपसिए घण्वट्टे से जहनेणं सतपएलिए सतपरसोगाडे ' ति एतस्य स्थापना - अस्य मध्यपरमाणोरुपस्थापितोऽधिकइत्येयं समप्रदेशिकं धनतं भवतीति जे से मपपलिए से जम्ने बतीसरपरसिए' इत्यादि एतस्य स्थापना - अस्य वोपरीशएव प्रतरः स्थाप्यस्ततः सर्वे चतुर्विंशतिस्ततः प्रतरद्वयस्य मध्यानां चतुर्णामुपर्यन्ये चत्वारोऽधमेत्येवं द्वात्रिश्शदिति प्रयमस्मे–'जे से भोपपपसिए से जहणं तिपयसिप' ति ग्रस्य स्थापना- 'जे से जुम्मपदसिय से जह श्रेणं हृप्परसिए' ति अस्य स्थापना -जे से प्रोपलिए से जहमेणं पणतीसपदसिए' सि, अस्य स्थापना- अस्य पश्च प्रदेशिकस्तरस्योपरि प्रदेशिकः एतस्याप्युपरि षद्म देशिका एतस्याप्युपरि त्रिदेशिक प्रहरः एतस्याप्युपर्येका प्रदेश दीयते इत्येवं पञ्चभिशत् प्रदेश इति 'जे से जुम्मपर सिए से जहमें उप्पयसिप' सि, अस्य स्थापना-अप्रैस्योपरि प्रदेशो दीयत इत्येवं चत्वार इति तुजे से सेसि सि जेसे म प्रसिए से उप्यसि सि से एसिए से जन्मे सत्तावीसपपसिप' त्ति, एवमेतस्य मयप्रदेशिकप्रतरस्योपर्यन्यदपि प्रतरद्वयं स्थाप्यतइत्ये शतिप्रदेशिकं चतुरनं भवतीति 'जे से जुम्मपएसए से जहमें अट्ठपसिए' इत्येवमस्योपर्यन्यश्वतुष्प्रदेशिकप्रतरो free इत्येवमप्रदेशिकं स्यादिति । प्रायतसूत्रे - ' सेढि - आय' सि एवायतं प्रदेश तरा विष्कम्भीयादिरूपं धमायतं बाह्रस्यविष्कम्भोपेतअनेकरूपम्, तत्र भेट्यायतमोजः प्रदेशिकं जघन्यं जिदेखि तम्-१ तदेष युग्मप्रदेशिकं द्विपदेशिकं तच्चैवं 'जे से ओषपपसिए ले जहन्ने पारसपरसिए
३२
4
,
संठाल
ति, एवं तदेव युग्मप्रदेशिकं जघन्यं षट्प्रदेशिकम् । तथैचैवम्एवं घनायतमोजः प्रदेशिकं जघन्यं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिकं त चैवम् - अस्योपर्यन्यत् प्रतरद्वयं स्थाप्यत इत्येवं पञ्चत्वारिंशत्प्रदेशिकं जघन्यजःप्रदेशिकं धमायतं भवति । संदेष युग्मप्रदेशिकं द्वादशप्रदेशिकम् । तच्चैवम्-एतस्य पद् प्रदेशिकस्योपरि षद् प्रदेशिक एवान्यः प्रतरः स्थाप्यते ततो द्वादशप्रदेशिकं भवतीति ' परिमंडलेणमि' त्यादि इह प्रोजोयुग्मभेदी नम्मरूपत्वेनैकरूपत्वात्परिमण्डलस्येति तत्र प्रतरपरिमण्डल प्रदेश भवति तस्थापना- एतस्योपरिविशतिप्रदेशि अस्मिन् प्रत से चत्वारिशदेशिकं धनपरिमण्डलं भवतीति । अनन्तरं परिमण्डलं प्ररूपितम् । भ० २५ श० ३ ३० । साङ्गोपाङ्गचिचारे, जं० ३ यक्ष० । दर्श० । सू० प्र० प्रा० म० । प्रा० चू०| परिमण्डलादिसंख्यानानां संस्थेपासंख्येयत्यविचारा 'परम' शब्दे तृतीयभागे ११३७ पृष्ठे गतः । ) संस्थानभेदानाद
कवि णं भंते ! संठाणे पनते १, गोवमा ! छम्विहे संठाणे पात्ता । तं जहा - समचउरंसे १ खिग्गोहपरिमण्डले२ साइए ३ बामणे ४ खुञ्जे५ हुंडे६ । रइया खं भंते ! किंठायी पता है, गोयमा इंडसंठायी पता, असुरकुमारा किंसंठाणी पाचा ? गोगमा, समचउरंसठायसंठिया पता एवं जान पविषकुमारा पुढची मधूरवेऊ संठाणा परबत्ता, भाऊ थिबुयसंठाया पन्ना, सूहकलावसंठाणा पन्नता, वाऊ पडागाठाणा पन्ना, बस्स नाखासंठासंठिया पन्नता, बेईदियतेईदियचउरिंदमचें दियतिरिक्खा हुंडठाया परखचा, गृम्भवक्कंतिया छब्बिसंठाणा संमुच्छिममणुस्सा हुंडर्सठाणसंठिया पन्नचा, गम्भवक्कंतियाणं मनुस्सा - महा संठाया पछता, जहा असुरकुमारा त बायतरजोइसियनेमाथिया वि[०-१५५+]
'विधेयं भवे संठायेत्यादि तत्र मानोम्मानणायानि अन्युवाम्यमतिरिति ङ्गोपाङ्गानि च पस्मिन् शरीरसंस्थाने तत्समचतुरख संस्थानं, तथा नामित उपरि सर्वावयवाश्वतुरा -लक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यक्ष भवति तम्य प्रोधसंस्थानम्, तथा नाभितोऽधः सर्वावपदाश्चतुरखा लापादिसंवादिनो यस्योपरि व नुक म मयति तत्सादिसंस्थानम् तथा प्रवाहस्तपादाय स चतुरखायुक्ा पत्र संक्षिप्तं विकृतं च मध्येको तत्
,
संस्थानम्, तथा यज्ञाणयुक्रं कोई चतुरख लक्षणोपेतं प्रीवाद्यवयवहस्तपादं च तज्ञांमनम्, तथा यत्र हस्तपादाथवयवाः बहुप्रायाः प्रमाणविसंवादिनश्च तजुण्डमित्युच्यते । स० १५५ सम० । ( ' धम्म ' शब्दे चतुर्थभागे २६७१ पृष्ठे गता वक्तव्यता ।) (पृथिवीकायिकादीनां संस्थानानि पृथिव्यादिषु शब्देषु ।)
कृतयुग्मादिभेदेन संस्थानमाह
परिमंडले ते ठाणे दण्डयाए कि जुम्मे
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संठाण अभिधानराजेन्द्रः।
संठाण तेश्रोए दावरजुम्मे कलियोए?, गोयमा! नो कडजुम्मे को संठाणा पुच्छा, गोयमा! भोघादेसेणं कडजुम्मपएसोगातेयोए णो दावरजुम्मे, कलियोए । वडेण भंते ! संठा- ढा नो तेयोगपएसोगाढा नो दावरजुम्मपएसोगाढा मो ण दम्बड्याए एवं चेव एवं० जाव प्रायते । परिमंडला-| कलिप्रोगपएसोगाढा, विहाणादसेणं कडजुम्मपएसोगाणं भंते ! संठाणा दबट्ठयाए किं कडजुम्मा तेयोया दा- | विजाब कलिप्रोगपएसोगाढा वि । परिमंडले शं भंते ! बरजुम्भा कलियोगा पुच्छा , गोयमा ! भोघादेसेणं | संठाणे किं कडजुम्मसमयठितीए तेयोगसमयठिीए सिय काजुम्मा सिय तेश्रोगा सिय दावरजुम्मा सिय दावरजुम्मसमयठितीए कलिभोगसमयठितीए ?, गोयमा! कलियोगा , विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा नो तेश्रोगानो सिय कडजुम्मसमयठितीए जाब सिय कलिभोगसमयठिदावरजुम्मा, कलिभोगा, एवं जाव भायता ।। परिमंडले तीए एवंजाब प्रायते । परिमंडलाणं भंते ! संठाणा किं णं भंते ! संठाणे पएसट्टयाए किं कडजुम्मे ? पुच्छा , कडजुम्मसमयठितीया पुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं सिय गोयमा ! सिय कडजुम्मे सिय तेयोगे सिय दावरजुम्मे काजुम्मसमयठितीया. जाब सिय कलिभोगसमयठिसिप कलियोए, एवं० जाव आयते । परिमंडला णं भंते ! | तीया, विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयठितीया वि. जाद संठाणा पएसइयाए किं कडजुम्मा ? पुच्छा , गोयमा ! | कलियोगसमयठितीया वि, एवंजाब भायता । परिमंभोघादेसेणं सिय कडजुम्मा०जाव सिय कलियोगा, विहा- डले णं भंते ! संठाणे कालवभपज्जवेहिं किं कडजुम्मे० लादेसेणं कडजुम्मा वि तेोगा वि दावरजुम्मा वि कलि- जाव सिय कलियोगे ?,गोयमा! सिय कडजुम्मे एवं एएमोगा वि एवं० जाव आयता॥परिमंडले ण भंते ! सं- णं अभिलावेणं जहेव ठितीए एवं नीलवन्नपञ्जवेहिं एवं ठाणे किंकडजुम्मपएसोगाढे जाव कलियोगपएसोगाढे?, | पंचहिं वहिं दोहिं गंधेहिं पंचहिं रसेहिं अट्ठहिं फासेहि गोयमा! कडजुम्मपएसोगाढे, णो तेयोगपएसोगाढे नो| जाव लुक्खफासपञ्जवेहिं । (सू०--७२७) दावरजुम्मपएसोगाढे नो कलियोगपएसोगाढे ॥ वट्टे ण | 'परिमंडले' त्यादि, परिमण्डल द्रव्यार्थतयैकमेव द्रव्यं , न भंते ! ठाणे किं कड जुम्मे ? पुच्छा, गोयमा ! सिय क-| हि परिमण्डलस्यैकस्य चतुष्कापहारोऽस्तीत्येकत्वचिन्ताउजुम्मपदेसोगाढे सिय तेयोगपएसोगाडे नो दावरजुम्मप
यां न कृतयुग्मादिव्यपदेशः, किन्तु-कल्योजव्यपदेश एव, एसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे । तं से णं भंते ! सं
यदा तु पृथक्त्वचिन्ता सदा कदाचिदेतावन्ति तानि परिम
एडलामि भवन्ति यायतां चतुष्कापहारेण विच्छेदता भवति ठाणे पुच्छा, गोयमा! सिय कडजुम्मपएसो-|
कदाचित्पुनस्त्रीण्यधिकानि भवन्ति कदाचिद् कदाचिदगादे सिय तेयोगपएसोगाढे सिय दावरजुम्मष- कमधिकमित्यत एवाह-'परिमंडला णं भंत !' इत्यादिदेसोगाढे , नो कलिश्रोगपएसोगाढे । चतुरंसे
'श्रोधादेसेण' ति सामान्यतः, विहाणादेसणं' ति विधाग भंते ! संठाणे जहा बड्डे तहा चउरंसे वि । प्रायए णं
नादशो यत्समुदितानामप्येकैकस्यादेशनं तेन च कल्योजते
वेति । अथ प्रदेशार्थचिम्तां कुर्वनाह- परिमंडलेण' मिभंते ! पुच्छा , गोयमा! सिय कडजुम्मपएसोगाढे जाव
त्यादि, तत्र परिमण्डलं संस्थाने प्रदेशार्थतवा विंशस्यासिय कलिभोगपएसोगाढे । परिमंडला णं भंते ! संठाणा दिबु क्षेत्रप्रदेशेषु ये प्रदेशाः परिमण्डलसंस्थानमिष्पादकिं कडजुम्मपएसोगाढा तेयोगपएसोगाढा ! पुच्छा , काव्यवस्थितास्तदपेशयेत्यर्थः, सिय कडजुम्मे 'त्ति तत्प्रगोयमा! श्रोधादेसेण वि विहाणदेसेण वि कड
देशानां चतुष्कापहारेणापहियणाणानां चतुष्पर्यवसितत्वे
कृतयुग्मं तत्स्यात् , यदा त्रिपर्यवसानं तत्तदा योजः, एवं जम्मपएसोगाढा, णो तेयोगपएसोगाढा , नो दावर
द्वाएरं कल्योजश्चेति, यस्मादेकत्रापि प्रदेश बहयोऽणवोऽ जुम्मपएसोगाढा , नो कलियोगपएसोगाढा । वट्टा गं वगाहन्द इति । अथावगाहप्रदेशनिरूपणायाह- परिमंभंते ! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढा पुच्छा , ले' त्यादि, 'कडजुम्मपएसोगा' ति यस्मात् परिमण्डल गोयमा ! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा नो तेयोग
जघन्यतो विशतिप्रवेशावगाढमुझं विंशतेश्च चतुष्कापहारे पएसोगाढा नो दावरजुम्मपएसोगाढा नो कलियोग
चतुरुपर्यवसितत्वं भवति , एवं परिमण्डलान्तरेऽपीति ।
'बहेण' मित्यादि, ‘सिय कडजुम्मपएसोगाढे , ति पएसोगाढा वि । संसाणं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मा
यत्प्रतरवृत्तं शादशप्रदेशिकं यच्च घनवृत्तं शात्रिंशत्प्रदेपुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा णो |
शिकमुक्तं तच्चतुष्कापहारे चतुरप्रत्वात्कृतयुग्मप्रदेशातेयोगपएसोगाढा नो दावरजुम्मपएसोगाढा नो क- वगाढं ' सिय तेओयपएसोगाडे' ति यह घनलियोगपएसोगाढा, विहाणादेसेणं कडजम्मपएसोगाढा
वृत्तं सप्तप्रदेशिकमुक्तं तत्व्यग्रत्वात्व्योजःप्रवेशावगाद 'सिय
कलिओयपएसोगाढ ' ति यत्प्रतरवृत्तं पञ्चप्रदेशिकमुयोगपएसोगाढा नो दावरजुम्मपएसोगाढा नो कलि
क्नं तदेकाग्रत्वात्कल्योजःप्रदेशावगादमिति ॥ 'तंसेण"मियोगपएसोगाढा | चउरंसा जहा बट्टा। आयया णं भंते ! त्यादि, 'सिय कडजुम्मपएसोगाढे' ति यद् घनध्यनं चतुष्प
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( १२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संठाप
4
6
देशिकं तत्कृतयुग्मप्रदेशावगाढम् ' 'सियतेोगपरसोगादे सि यत् प्रतरत्र्यसं- त्रिप्रदेशावगाढं घनश्यनं च पञ्चत्रिंशप्रदेशाचा प्रत्यायोज प्रदेशावगाढं सिय दायर जुम्मसोगात्तरपदेशिकमुक्तद् त्वाद् द्वापरप्रदेशावगाढमिति ॥ चदरसेणमित्यादि, 'जहा वट्टे'सि' सिय कम्मपरसोगादे सिय तेोयपरसोगाडे सिय कलियोयपरसोगाडे इत्यर्थः तत्प्रतरचतुर चतुष्प्रदेशिकं धनचतुरस्रं चाटुप्रदेशिकमुक्कं तचतुरप्रत्वायुग्मदेशाचा, तथा पद्धनचतुरसविशतिप्रदेशिकमुक्तं तय प्रत्यायोजः प्रदेशावगाढं, तथा यत्प्रतरचतुरस्रं यप्रदेशिक तदेकाप्रत्यात् कल्योजः प्रदेशावगादमिति । 'भाषण'मित्यादि 'सिपकडजुम्मपदखोगाडे' सि यद् घनायतं द्वादशदेशिकमुक्तं तरतयुग्मप्रदेशावगाढं यावत्करणात्- 'सियतेश्रोयपपसो गाढे सिय दावरजुम्मपरसोगाढे'त्ति ह श्यम्, तत्र च यत् श्रेण्यायतं त्रिप्रदेशावगाढं यच्च प्रतरायतं पञ्चदशदेशिकमुक्रं तयप्रत्यायोजः प्रदेशावगाढम् पत्पुनः श्रेयायतं द्विदेशिकं यच्च प्रतरायतं षट्प्रदेशिकं तद् यग्रत्वाद् द्वापरयुग्मप्रदेशावागाढं, 'सिय कलिप्रोयपरसोगाढे' ति यद् घनायतं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिकं तदेकाग्रत्वात्कल्योजः प्रदेशावगाढमिति । एवमेकत्वेन प्रदेशावगाढमाश्रित्य संस्वानामि चिन्तितानि अथ पृथक्त्वेन तानि तथैव सिंगक-संस्थानपट्कन० समचतुरस्रम्यग्रोधपरिम'परिमंडलाण' मित्यादि 'ओघासणं वि'त्ति सामान्यतः समः स्ताम्यपि परिमण्डलानीत्यर्थः विहाणादेव एकेर्क परिमण्डलस्यर्थः कृतयुग्मप्रदेशावगाडायेवराति चत्वारिंशत्मभूतप्रदेशावगाहित्येन कृत्वा से पामिति 'बहाव' मित्यादि, 'ओघादेसेणं कडजुम्मपपलोगाढे' सि वृतसंस्थानाः स्कन्धाः सामान्येन चिम्यमानाः कृतयुग्मप्रदेशाषनादाः सर्वे ai प्रदेशानां मीलने चतुष्कापहारे तत्स्वभावत्वेन चतुष्पर्यसितत्वात् विधानादेन परदेशाथगादयः शेषाबगाढा भवन्ति, यथा पूर्वोक्तेषु पञ्चसप्तादिषु जघन्यवृत्तभेदेषु चतुष्कापहारे प्रयापशिता मारित एवं सर्वेपि तेषु व स्तुस्वभावत्वाद्, असे मित्यादि । एवं उपनादिस्थानात्यपि भावनीयानि एकत्वपृथक्त्वाभ्यां संस्थानानि चिन्तितानि । अथ ताभ्यामेव कालतो भावतस्य तानि चापरिमंडले' मियाद अयमर्थः - परिमण्डलेन संस्थानेन परिणताः स्कन्धाः कियन्तं कालं तिष्ठन्ति ? किं चतुष्कापहारेण तत्कालस्य स - मयाश्चतुरमा भवन्ति त्रिइयेकामा वा १, उच्यते, सर्वे संभवन्तीति । इह चैता बुद्धोक्ताः संग्रहगाथाः
एडलसादिवामनकुब्जहुराडसंस्थानानां समुदाये, कर्म०
"परिमंडले १२ से ३ धरापपरपड, ओयपसे जुम्मे ॥ १ ॥ पंच य वारसयं खलु, सत्त य वलीसयं च वट्टम्मि | तियकक्कयपणतीसा, बउरो य हवंति तंसम्मि ॥ २ ॥ नव वेष तहा चउरो, सत्तावीसा य श्रट्ठ चउरसे । तिगदुगपचरर्स से सेव य सायद होति ॥ २ ॥ पालीसा बारस म्या आययम्मि ढाये। परिमंडलम्मि बीसा, बत्ता य भवे परसर्ग ॥ ४ ॥ सम्ये विभाययम, हसु परिमंडलम जेसे दायर सेसे ॥ ५ ॥" इति ।
संठाणपरिणय
भ० २५ श० ३ उ० । (इन्द्रियाणां संस्थानम् । 'इंदिय ' शब्दे द्वितीयभागे ५४८ पृष्ठे उक्तम् ।) (नैरयिकाणां तथा नरकपृथियीनां संस्थानानि सरग' शब्दे चतुर्थभागे १२०७ - नि।) (शरीराणां संस्थानानि 'सरीर' शब्दे वक्ष्यते ।) (वनस्पतिजीवानां संस्थानम् ' वणप्फर' शब्दे षष्ठभागे उक्तम् । ) मृगशिरोनक्षत्रे च । सू० प्र० १२ पाडु० ।
संठायकप्प संस्थानकन्प-पुं० संस्थानरूपे करपे, पं० भा० - ।
दारं ।
दंसण-गाग-चरिते, तवे य तह भावणा तु समितीसु । छहं पि तिप्पगार, सद्दह संठाण संघणता ॥ सद्दइति सम्मदंसण, भयरति परूवणं च कुयमाणो । ठाकप्प एसो, एवं सेसा वी शेयं ॥
संठा कप्प एसो, भणितो तु समासतो जिणक्खाओ || पं० भा० ५ कल्प |
संठाणगसंकमण - संस्थानकसंक्रमण - न० । पिपीलिकादीमामण्डादिसञ्चलने, सण्ठागसमये पिपीलियगमकोडगादी भरति नि००१३४०
1
२ कर्म० ।
संठाऽज्झषण संस्थानाध्ययन-१० अनुसरीपपातिकद शानां पञ्चमाध्ययने, स्था० १० ठा० ३ उ० । संठायथाम-संस्थाननामन्न० संतिष्ठते विशिष्टावयवर। चनात्मकया शरीराकृत्या जन्तवो भवति येन तत्संस्थानं तदेव नाम संस्थाननाम । समयतुरखादिसंस्थानकारणे नामकर्मभदे, कर्म० १ कर्म० । संस्थानमाकारविशेषस्तेष्वेव
संघातितपदेबीदारिकादिषु पुत्रले संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उद्यात्मादुर्भवति तत्संस्थाननाम । पं० [सं० ३
द्वार। भा० प्रथ० । प्रज्ञा०
से किं तं संठाणणामे संठारणामे पंचविहे पत्ते, तं जहा - परिमंगलसंठाण यामे वसंठाणणामे तंस संठाणणा मे चउरंससठाणयामे भायतठायामे से तं संठावणामे | अनु० ।
निर्वृतिमेरे, म० १६ श०८ उ० । (साच पञ्चविधा 'णिग्वति' शब्दे चतुर्थभागे २१२० पृष्ठे दर्शिता । ) संठापरिणय-संस्थानपरिणत - पुं० । संस्थानरूपतया परि रातेपुते, प्रज्ञा०|
आपण बेष संठागणिष्यति संस्थाननिशि-श्री०
संठापरिणया पंचविधा पष्पत्ता, तं जहा - परिमण्ड लसंठाणपरिणया वट्टसंठाणपरिणया तंससंठाणपरिणया चउरंसठाणपरिणया आययसंठायपरियया । प्रज्ञा० १ पद ।
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ान
(१२) अभिधानराजेन्द्रः ।
संठायपरिणाम- संस्थानपरिणाम - ० संस्थानचे परिणा मे ० २३ प ( अत्रत्वं सूत्रम् 'परिणाम' शब्दे पचमभागे ५६५ पृष्ठे उक्तम् । )
www
संoायविचय- संस्थानविषय- न० । संस्थानानि लोकद्वीपसमुद्राप्रकृतयः विचीयन्ते नियन्ते पर्यालोच्यन्ते er यस्त्रिस्तत् संस्थानविवयम् । धर्मध्यानभेदे, घ० । संस्था मेोकाकाशस्येच धर्माधर्माजीचानां समचतुरादि अजीवानां परिमण्डलादि कालस्य मनुष्यक्षेत्राकृति ०३ अधि० मी० । संठावंत संस्थापयत् वि० अविनाशयति नि०० १७० संठि - संस्थिति- श्री० [व्यवस्थायाम् पं० प्र० १ पाहु० ।
1
सू० प्र० । ० ।
संठिय-संस्थित भि० विशिष्टसंस्थानपति ०१०१
1
1
अ० । उपा० । स्वप्रमाणतया स्थिते, सूत्र० १ ० ३ ० १ उ० | सम्यक् स्वप्रमाणतया स्थितः संस्थित इति व्युत्पत्तेः ।' जी०प्र० [अ०] स्था० [सं० श्री० [स्यवस्थिते [अ०] [१०] १३० रा० "डिदिगुण "स [प] स्वप्रमाणतया स्थिती संस्थिती सुसिलो गुढी गुल्फी गुलुक येषां ते तथा । जी० ३ प्रति० ४ अधि०। सं०] । रा० । प्रश्न० । संस्थाने, नं० 1 प्रकारे, रा० । जं०।
प्रश्न० ।
खंड पडन डे बने ०३ क्ष संर्डस- सन्दंश-पुं० । अयस्कारोपकरणे, शोध० ग्रा० म० । संडंसतुंड - सन्दंशतुण्ड - पुं० । सन्दंशाकारं तुण्डं येषां ते त था। संदेशाकारमुखेषु पक्षिषु ० १ ० ० संडप्पवायगुहा - षण्डप्रपातगुहा- स्त्री० । ' खंडप्पवायगुहा शब्दे उक्तेऽर्थे, आ० क० १ ० ।
संडासग - सन्देशक- पुं० । श्रयस्कारस्य लोहग्रहणदण्डे, विशे० ० ० नि० ० ० जानुनापारूपकोसप्रयाकलिते जानुसंदेश, ततो जिनकल्पिकस्पोक निविष्टस्य जानुसंदेशकादारभ्य पुतादृष्टं व छादयित्वा रुक
।
स्योपरि यावता न प्राप्यते एतावत्तदीयकल्पस्य दैर्घ्यप्रमाणम्, अयं च संदेशक उच्यते । दृ० ३ उ० । नाशिकाकेशोत्पाटने, सूत्र० २ श्रु० २ ० । संडिज्म सनि० बालीडास्थाने इ००१
उ० ।
संडिल - शाण्डिल्य ५० मन्दिपुरमतिषयेषु जनपदेषु प्रशा०१ पद । नन्दिपुरं नगरं शारडल्या शाण्डिल्या वा देशः । ०२७५ द्वार कौशिकगोत्रे श्यामाशिष्ये नं० - शिष्ये, कल्प०२ दशपुरनगरे स्व
-
नामख्याते ब्राह्मणे, उत्त० १३ अ० । संडेय - पाण्डेय पुं० [पण्डपुषे, पण्डे स औ० ० संडेवग संडेवक पुं० [पाषाणादरम्यस्मिन् पाषाणादी पादविक्षेपे, स च द्विविधः- तथातः, इतरश्च । श्रन्यत ग्रामीय तत्र
संतकावाय निहितः। घोष० । ( स एकैकख्प्रिविध इति संतार रामा १७४०)
संद-पय-पुं० तृतीयदोवर्तिनि महामोहकर्मणि ध० ३ अधि० | 'सकारपच्चन्तरियो डकारों सकारप्रत्यन्तरितो डफार इति प्रतिपतस्य प्राकृतरीत्या संस्कृ ते तु पयढ इति भावः । वृ० ४ ४० अ० । (पंड शब्दे पचमभागे तणमुक्रम्)
पण्ड-म० । एडे, बने, जं० ३ बक्ष० । झाप० । संबद्ध सभ० ० ० संसदधम्मियकथे' संनद्धः समाहबद्धः कशाबन्धनतो बर्मितो धर्मतया कृतोऽङ्गे निवेशनात् कवचः कटो पेन स तथा । भ० ७ ० ६ ० । मो० जी० ।
संशयपास समपार्श्वभि० सतायो यो ममन्ती पार्थी प्रतीतौ येषां ते तथा। सममितपार्श्वदेशे प्रश्न०४ प्राश्र०
द्वार ।
संखाहपट्ट-संनाहपट्ट पुं० बिहारे उपधेः शरीरेण सह ब धना उपधी ० ३४० संगमसन्निभ०
उ० १२० संख्यत्ति-संज्ञप्ति खी० । महतौ प्रतिबोधने, स्था० १० ठा०
३ उ० ।
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न यत्र
संत - शान्त - त्रि० । क्रोधाद्यवाधित, यो० किं० क्रोधविकाररहिते, द्वा० २० द्वा० । डा० । उत्त० । पं० य० । अन्तईश्या ( कल्प० १ अधि० ६ क्षण ) उपशमवति, राग न द्वेपमोहीम काचिदिच्छा रसः स शान्तो विदितो मुनीनां सर्वेषु भावेषु समः प्रदिष्टः " षो० १४ विव० । भाषा० । इन्द्रियमो इन्द्रियैः शमं प्राप्ते, शाबा० १ ० १ ० १ ० ।। ( पसंतरस ' शब्दे पञ्चममागे उययमुक्त)
श्रान्त- त्रि० । सामान्येन भ्रमार्ते, डा० १ ० १ ० - ल्प० । प्रा० चू० । देहतः खिने, बिशे० । डा० ।
3
सत् चि०विद्यमाने ०१०१००।यत्ते, भ० ६ श० ३३ उ० । मुमी, साधी, बिशे० । स्था० । आ० म० । नि० ० । भ० । शोभ सू० १ श्र० १० अ० । शा० । आव० । सौम्यमूर्ती, डा० १५०५ श्र० । प्रशस्ते, उत्पादव्ययभौग्ययुक्तं सदिति । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । आचा० ।
प्रात्य
4
स्वान्त-नः । अन्तःकरणे, अष्ट० ३ अष्ट० । संतसंतकज्जयाय सदसद्कार्यवाद - कः कचित्तः कार्यस्योत्पाद जैनसंमतः अत प्रथमभागे २०२ पृष्ठे ) संतकज्जवाब - सत्कार्यवाद – पुं० [प्रानुत्पतेः सत्कार्यमित्येवं वादे, सूत्र० १ भु १ अ १३० 1 भावा० । ( ' भूगोल ' राणे पचममा पातम् )
।
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संतकम्म संतकम्म- सत्कर्मन्न० उपप्राप्तस्य कर्मणस्वतायाम्,
क० प्र० ।
9
सम्प्रति सत्ताभिधानावसरः, तत्र चेमेऽर्थाधिकाराः । तद्यथा - मेद, साधनादिप्ररूपणा, स्वामित्वं चेति । तथ भेदनिरूपणार्थमाहमृदुत्तरपद्दगयं, चउहिं संतकम्ममवि नेयं । धुवमवगाईयं अट्ठाई मूलपई ॥ १ ॥ 'मनुर' सत्कर्मद्विधा मूलप्रकृतिमतम्, उत्तरप्रकृतिगतं च तत्र मूलप्रकृतिकार तथा ज्ञानावरणीयम् दर्शनावरणीयमित्यादि उत्तरप्रकृतिगतमष्टपाशदधिकशतप्रकारम् तद्यथा मतिज्ञानावरणीयमित्यादि । पुनरेकैकं चतुर्विधम् तद्यथा प्रकृतिसत्कर्म स्थितिसत्कर्म - भागसत्कर्म, प्रदेशसत्कर्म च । तदेवमुक्तो भेदः । सम्प्रति साद्यनादिप्ररूपणार्थमाह- 'धुवे' त्यादि अष्टानां मूलप्रकृतीनां सत्कर्म त्रिधा तद्यथा-वमभ्रवमनादि च । तथानाद सदैव भावात् प्रवाभवताऽभव्यभव्यपेक्षया । सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां साधनादिरूपणार्थमाहदिदुिगागमति, तद्युचोदसगं च तित्थगरमुचं । दुबिई पटमकसाया होंति चउद्धा तिहा सेसा ॥२॥ 'दिद्विदुग' सि टिकिं सम्यक्त्वसम्यकृमिध्यात्वरूपं, आपि चत्वारि 'ग' ति मनुष्यद्विकं देवद्विकं नरकद्विकं किं च तनुचतुर्दशकं वैक्रियसतकाहारकसतकरूपम्, तथा तीर्थकर नामगोत्रं च एतासामष्टाविंशतिप्रकृतीनां सत्कर्म द्विविधं द्विप्रकारं तथासादि, अब साभयंता चाभ्रुवसत्कर्मत्वादवया तथा प्रथमपाया अनन्तानुबन्धिनः सत्कर्मापेक्षया चतुर्विधाः, तद्यथा-सादयोsनादयो ध्रुवा, अध्रुवाच । तथाहि -ते सम्यग्दृष्टिना प्रथममुङ्गलिताः ततो मिथ्यात्वं गतेन यदा भूयोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययेन बध्यन्ते तदा सादयः । तत्स्थानमप्राप्तह्य पुमरमादयः । ध्रुवाभ्रुवता पूर्ववत् । तथा शेषाः पशि तिशत सस्याः प्रकृतयः सत्कर्मापेक्षया त्रिधा - त्रिप्रकाराः, तथा अनादयो ध्रुवा अध्रुवाच । तत्रानादित्वं ध्रुवसकर्मत्वात् भयाभयतापूर्ववत्
( १२६ )
'अभिधानराजेन्द्रः ।
3
"
देता साधनापि
प्रति स्वामित्वं य उपम् । तच्च द्विधा - एकेक प्रकृति, प्रकृतिस्थानगतं यस प्रकृतिगतं स्वामित्वमभिधित्सुराह उमर्थता चउदस, दुचरमसमयम्मि अस्थि दो निद्दा । बद्धाणि ताव श्राउ-णि वेइयाई ति जा कसिणं || ३ || 'मत्थेत 'सि- ज्ञानाबरपञ्चकान्तरायपञ्चकदर्शनावरणपातु प्रकृतयः स्थान्ताः क्षीणकायवीतरा स्थगुणस्थानकं ग्रात्सत्यो भवन्तीत्यर्थः । पररास्तासामभाषः । एवमुचरत्राप्युपस्थानकात्परतोऽमायो बेदितव्यः । तथा द्वे निद्रे क्षीणकषायवीतरागढ़ स्थगुणस्थानकचिरमसमर्थ पावत्सयोलः आबि मि तावत्सति यावत्कृत्खं निरवशेष बेदितानि न भवन्ति । तिसु मिच्छनियमा, अहो मइय
३३
संतकम्म
आसाणे सम्मत्तं, नियमा सम्मं दससु भजं ॥४॥ 'तिसु'ति षिषु गुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टिसासादन सम्यग्मि थ्यादृष्टिलक्षणेषु नियमादवश्यंतया मिथ्यात्वं सत्-विद्यमान म् शेषेषु पुनरगुणस्थानकेषु उपशान्तमोगुराख्यानप वसानेषु भाज्यम् । तथाहि प्रतिसाद ि से न भवति उपशान्ते तु भवति श्रीमोहादिषु पुनस्तस्थाव श्यमभावः । तथा प्रासादने सासादने सम्यक नियमांद स्ति । दशसु पुनर्गुणस्थानकेषु मिध्यादृष्ट्याद्युपशान्तमोहगुगास्थानक पर्यवसानेषु भाज्यं कदाचिद्भवति कदाचि भवतीत्यर्थः । तथाहि मिथ्याहावमध्ये न भवति मध्येऽपि क चिद्भवति कदाचिच। तथा सम्यगृमिध्यात्वं कियत्कालं सम्यक्त्वे उद्वलिते ऽपि भवति, ततस्तत्रापि तद्भाज्यम् । श्र विरतादिषु पुनः क्षपकेषु न भवति, उपशमकेषु तु भवति, अतस्तत्रापि तद्भाज्यम् ।
बिय तपसु मिस्सं नियमा ठायनवगम्मि भगणिअं । संजोयाउ नियमा, दुसु पंचसु होइ भइयन्त्रं ॥ ५ ॥ "वियति द्वितीय तृतीये च गुणस्थानंक मिश्र सम्यगृमिध्यानमस्ति यतः साखाइनो नियमादाविंशतिसकर्मैव भवति, सम्यमिध्यादृष्टि सम्पभूमिध्यात्वं विना न भवति, ततः सासादने सम्यग्मिथ्यादृष्टौ च सम्यग्मिथ्यात्वमवश्यमस्ति स्थाननय के गुणस्थानकमय के मिध्यारयषि। -: रतसम्पष्पादी उपशान्तगुरुस्थानकान्ते भजनीयं कक्षाचिमवति कदाचित्र मयति भावना व प्रागुकारे - यमेय कर्त्तव्या सुगमायात्। तथा संयोजनाअनु ईयोर्मध्यादृष्टिसासादननियमाद्भवन्ति यत तावश्य मनुधन यानाति पञ्चसु पुनर्गुथानकेषु सम्प मिथ्यादृयादिष्यप्रमत्त संयत पर्यन्तेषु भजनीयाः । यदि उठलितास्ततो न सन्ति, इतरथा तु सन्तीत्यर्थः ।
-
सवगानिपट्टि अद्धा, संखिजा होति भट्ट विकसाया । निरयतिरियतेरसगं, निद्दा निद्दातिगेणुवरि ॥ ६ ॥
' खवग' ति-क्षपकस्य अनिवृत्तिबादरसम्परायाद्वाया यावत् संख्येया भागास्तावत् अष्टावपि अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्ञाः कषायाः सन्ति । परतो न विद्यन्ते, क्षीणत्वात् । उपशमश्रेणिमधिकृत्य पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् सम्तो दिव्याः | निरयतिकान्तायोग्य नामत्रयोदशकं नरकद्विकतिर्यगृद्धि कैक द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरातपोद्घातसूक्ष्मसाधारणरूपं निद्रानिद्वात्रिके - - ए सह संयुक्तं कषायाष्ट्रक क्षयादुपरि स्थितिखण्डेषु सहस्रेषु तेषु सत्सु युगपत्यमेति ततो यावन्न याति वत् सत्, क्षये च सति श्रसत् । उपशमश्रेण्यां पुनरेताः प्रकृतयउपशान्तमोगुणस्थानकं यावत् स
त्यो वेदितव्याः ।
अमिरथी समं वा दासच्छकं च पुरिससंजलगा । पत्तेर्ग तस्स कमा, तणुरागंतो ति लोभो य ॥ ७ ॥ अमित्थी ति - पूर्वोक्तप्रकृतिषे। डशकक्षायादनन्तरं संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सत्सु नपुंसकवेदः क्षीयते, यायच नीयते तावत् सन् । ततः पुनरपि स्थिति
"
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संतकम्म
यु
षु संख्येयेषु गतेषु सत्सु स्त्रीवेदः क्षीयते, सोऽपि यावत्क्षयं न याति तावत्सन् एवं स्त्रीवेदेन पुरुषवेदेन वा क्षपकश्रेणि प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम्। नपुंसकवेदेन प्रतिपन्नस्य तु स्वेदनपुंसकवेदी युगपत्यमुपगच्छतः यान यमुपगच्छतस्तावत्सन्ती । उपशमणिमधिकृत्य पुनरुपशान्तमोगुणस्थानकं यावत्सन्ती ततः पानन्तरं संख्येयेषु स्थितियेषु मंतेषु सत्सु हास्यादि गपत्क्षयमुपयाति ततः समयोनावलिकाद्विकातिक्रमे पुरुपवेदः पुरुषवेदन क्षपकं प्रतिपक्षस्य द्रव्यम् । स्त्रीयेन देन या क्षपण प्रतिपन्नस्य पुनः पु रुपयेदो हास्यादि च युगपक्षीयते ततः पुरुषानन्तरं संख्येयेषु स्थितिखण्डषु गतेषु सत्सु संज्वलनक्रोधः क्षयमुपयाति । ततः पुनरपि संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सत्सु संज्वलनमानः । ततोऽपि संख्येयेषु स्थिति खराडेषु गतेषु संज्यसनमाया यायच्च दास्यादिकृतः नोपयान्ति तावत् - सत्यः । ' तणुरागंतो त्ति लोभो य' लोभः संचलनलोमोवायत्तनुरागान्तः सूक्ष्मसंयगुस्थानका न्तः तावत् सन् वेदितव्यः, परतोऽसन् । उपशमश्रेणिमधिकृत्य पुनस्यादिप्रकृतयः सर्वा अपि उपशान्तमोह गुराख्यायावत् सोऽसयाः । मनुयगइजाइतसवा परं च पजत्नसुभग आए । जसकिती सित्वरं देवसिउ च मणुयाणं ॥ ८ ॥ भवचरिमस्स मयम्मि उ, तम्मग्गिल्लसमयम्मि सेसा उ । आहारगतित्थयरा, भञ्जा दुसु नऽऽत्थि तित्थयरं ॥६॥ 'मनुबाई' त्यादि मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसवादरपर्यासुभगादेय यशः कीर्तिती र्थक रान्यतरवेदनी योच्चैर्गोत्रमनुष्या यूरूपा द्वादश प्रकृतयो भवचरमसमये सन्ति श्रयोगिकेवलिचरमसमयं यावत् विद्यन्ते परतोऽसत्य इत्यर्थः । शेषाः पुनरुव्यतिरिकाः सर्वा अपि व्यशीतिसंख्याः 'तम्मगलसमयम्मिति भवचरमसमयपाश्चात्य समयेऽयोगिकेबलिद्विचरमसमये इत्यर्थः, सत्यो भवन्ति, चरमसमये त्व-' सत्यः । श्राहारकतीर्थकरनामनी सर्वेष्वपि गुणस्थानकेषु भा स्थे । द्वयोः-पुनर्गुणस्थानकयोः सासादनसम्यभूमिध्यादृष्टि कपयोरतीर्थकरनामनयमावलीकर नाम सत्कर्मणः स्वभावत एवोरूपे गुणस्थानकद्विके गमनासम्भवात् । तदेवमुक्रमे कैकप्रभृति सत्कर्म । सम्प्रति प्रकृतिस्थान सत्कर्मप्ररूपणार्थमाह
-
"
( १३०) 'अभिधानराजेन्द्रः ।
पढमचरिमाणमेगं, छन्नव चत्तारि वीयगे तिन्नि । वेणाउयगोए - सु दोन्नि एगो त्ति दो होंति ॥ १० ॥ 'पदम' ति-प्रथमचरमयोर्ज्ञानावरणान्तराययोरेकैकं पञ्चमकृत्यात्मकं स्थानम् । तब एकपायचरमसमयं यावत्सत् परतोऽसत् । तथा द्वितीय दर्शनावरणीये त्रीणि प्रकृतिस्थानानि तद्यथा - षट् नव चतस्रः । तत्र सकलदर्शनाचरणीयप्रकृतिसमुदायो नव । ताश्च नव प्रकृतय उपशम"मिधित्य उपशान्तमोगुणस्थानके यावत् सत्यः ।
पश्रेणिमधिकृत्य पुनरनिवृत्तिवादसम्परायााया थायत् संश्येयभागास्तावत्सत्यः परतः स्त्यानपि
,
संतकम्म
भवन्ति । ताश्च तावत्सत्यो यावत् क्षीणकषायस्य द्विबरमसमयः । तस्मिन् द्विवरसमये निद्रालेयते । ततश्चरमसमये चतस्र एव सत्यः । ता अपि तत्र arefood | तथा वेदनीयायुर्गोत्राणां द्रे प्रकृतिस्थाने तथ था द्वे एका च । तत्र वेदनीयस्य यावदेकं न क्षीणं तावत् खत्यी । एकस्मिंस्तु ही एका गोत्रस्य यापन शीतम् उलितं तावत् सत्य - पाउल पुनरेका सती। आयुषस्तु याबद्वजमायुनोदेति तावत् महती सत्य उदिते तु तस्मिन् मानं क्षीणमिति एका प्रकृतिः ।
1
सम्प्रति मोहनीयस्य प्रकृतिसत्कर्मस्थानप्रतिपादनार्थमाहएगाइ जाव पंचग- मिक्कारस बार तेरसिंगवीसा । वियतिय चउरो छस त अवीसा य मोहस्स ॥। ११॥ 'पगाइ'ति मोहनीयस्य पञ्चदशप्रकृतिसत्कर्मख्यानामामिति था एका द्वे तिस्रः चतस्रः पञ्च एकादश द्वादश त्रयोदश एकर्षिशतिः द्वाविंशतिः त्रयोविंशतिः स्तुतिः पतिः सप्तविंशतिराविंशतिखेति । एतानि सुखावबोधार्थ गाथावैपायन्त मोहनीयस्य सर्वप्रकृतिसमुदायो विंशतिः। उतिः। ततोऽपि सम्यङ्गमिया उलिते पदिशति अथवा अनादिमध्याप विशतिः। अष्टाविंशतिरनन्तानुबन्धिये तु विंशतिः । ततो मिथ्यात्वे क्षीणे त्रयोविंशतिः । ततः सम्यगमिष्याचे ही द्वाविंशतिः । ततः सम्य एकविंशतिः । ततोऽष्टसु कषायेषु क्षीणेषु त्रयोदश । ततो नपुंसकवेदे क्षीणे द्वादश । ततः स्त्रीवेदे क्षीणे एकादश । ततः पदसु मोकषायेषु क्षीणेषु पञ्च । ततः पुरुष चतस्रः । ततः संज्वलनक्रोधे क्षीणे तिस्रः । ततः संज्वलनमाने क्षीणे द्वे । संज्वलनमायायां च क्षीणायामेका । सम्प्रत्येतानि प्रकृतिसत्कर्मखानानि गुणस्थानकेषु विचिन्तयन्नाह -
"
तिभेग तिगं पणगं, पणगं पणगं च पणगमह दोनि । दस तिनि दोष मिच्छा-इगेसु जावोवसंतो ति ॥ १२ ॥ 'तिन्नग' त्ति - यावदुपशान्तमोहगुणस्थानकं तावन्मिथ्याहपादिषु गुणस्थानकेषु यथासंख्यं व्यादीनि प्रकृतिसत्क र्मस्थानानि भवन्ति । तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके श्रीणि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि तद्यथा - अष्टाविंशतिः सप्तर्षिशतिः पदिशति । एतानि प्रामेव भावितानि । सासा दनसम्यग्टष्टिगुणस्थानके एकं प्रकृतिसत्कर्मस्थानमष्टाविं -शतिरूपम्। सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुरुस्थान के श्री प्रकृतिकर्मस्थानानि तद्यथा-महाविंशतिः सप्तविशतिि शति योऽशविंशतिसत्कर्मा सन् सम्यगमिध्यात्वं ग तस्तमाश्रित्याष्टाविशति वेग पुनर्मिथ्यादिना सता पूर्व सम्यक्त्वमुद्वलितं ततः सप्तविंशतिसत्कर्मणा सता सभ्यगमिध्यात्यमनुभवितुमारब्धं तं प्रति सप्ततिः। चतुर्थशतिसत्कर्मणां सम्यग्मिथ्या प्रतीत्य पुनश्चतुर्विंशतिः प्राप्यते। तथाऽविरत सम्यगुणस्थानके कृतित् स्थानानि तद्यथाः शितियोि
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संतकम्म
शक्तिः ज्ञातिः एकविंशति। तत्राविशतिरोपशमि कम्यायोपशमिकसम्यग्दष्टेर्वा प्राविशतिसत्क मेनानुबन्धिये वेदकसम्यम्ह ऐरी पशमिकसम्प
"
चतुर्विद्यतिः | बेदकसम्यग्टनिध्याप तिः । तस्यैव सम्यगमिष्यापि द्वाविंशतिः । क्षायिकसम्यग्टरेकविंशतिः। तथा देशविरतिगुस्थानके प प्रकृतिखत्कर्मस्थानानि तानि च पूर्वोक्लाम्पेचप्रमनसेबतगुणस्थानके । तान्येव चाप्रमत्तसंयतगुणस्थानके । 'अ द दोष अनन्तरम् अपूर्वक र स्थानके द्वे मह तिखाने, तद्यथा चतुर्विंशतिरेकविंशति । तत्रोपरामश्रेणि प्रतिपचस्य चतुर्विंशतिः शान्दिमधिकृत्य द्वयोरपि श्रेण्योरेकविंशतिः । तथा अनिवृत्तिबादरसम्परायणस्थानके दराप्रकृतिसत्कर्मस्थानामि तद्यया चतुर्विंशतिः एकविंशतिः त्रयोदश द्वादश एकादश पञ्च चतस्रः तिस्रः द्वे एका च । तत्र चतुर्विंशतिरुपशमश्रेणिम धिकृत्य विंशतिः क्षायिकसम्पन्ऐई योरपियोः शेषाणि पुनः क्षपकश्रेण्यां तानि च प्रागेव भावितानि सूक्ष्मसउपरायमुपस्थानके त्रीणि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि तथाचतुर्विंशतिः एकविंशतिः एका च । तत्र चतुर्विंशतिरौपशमिकसम्यहं एकविंशतिका वाषिकसम्पदः एते च 'अपि प्रकृतिसत्कर्मस्थान उपरायाम्, एका चाक
3
एगे छोसु दुगं, पंचसु चत्तारि अट्टगं दोसु । कमसो तीसु चउकं, छत्तु अजोगम्मि ठाणाणि ॥ १५ ॥ 'एगे 'ति – एकस्मिन्मिथ्यादृष्टिलक्षणे गुणस्थानके षट् प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि तद्यथा-व्युत्तरशतं पराणवतिः पञ्चनवतिः त्रिनवतिः चतुरशीतिः द्वयशीतिः । ननु पराणवतिस्तीर्थकर नामसहिता भवति ततः सा कथं मिथ्याहहो प्राप्यते, उच्यते-इद कश्चित् नरकेषु बापवात्सम्यक्त्वं प्राप्य तन्निमित्तं तीर्थकरनामकर्म यवान
9
-
याम् । तथा द्वे प्रकृतिसत्कर्मस्थाने उपशान्तमोहगुण-रकाभिमुखः सन् सम्यक्त्वं त्यक्त्वा मिथ्यादृष्टिर्जातः स्थानके तथा चतुर्विंशतिरेकविंशतिधपते अि ततो नरके उत्पन्नः सन् अन्तर्मुहसानन्तरं पुनरपि सम्यप्रागिव भावनीये । त्वं प्रतिपद्यते, ततोऽन्तर्मुहूर्ड्स कालं यावत् पराणयतिर्मिथ्यादृष्टौ प्राप्यते, आहारकसप्तकतीर्थकरनामसत्कर्मा च मिध्यात्वं न प्रतिपद्यते। उक्रंच - 'उभए संतिन मिच्छो' इति ततयुत्तरशतं मिथ्याप्राप्यते । तथा-इयोः सासादन सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानको प्रकृतिसकर्मस्थान तथा दस्युरतं पश्ञ्चनयति तथा-पचसुश्रविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकप्रभृतिषु श्रपूर्वकरणगुणस्थानकान्तेषु चत्वारि चत्वारि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि । तथायुतं दृष्युत्तरशतं पतिः पञ्चनवतिः। शेपाणि क्षपकामे केन्द्रियादी व संभवन्तीति कृत्वा न प्राप्यन्ते । तथा द्वयोरनिवृत्तिबादर सूक्ष्म सम्परायलक्षणयोर्गुणस्थानकयोरष्टकम्, अष्टौ प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि । तद्यथा
तर युतरशतं पतिः पतिः नयतिः एकोननवतिः पतिः पशीतिश्च । तत्रानिवृलियादरस्यादिमानि चत्वारि उपशमश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां वा यावन्न भयोदशकं क्षीयते, शेषाणि पुनः क्षपकश्रेण्यामेव । सूक्ष्मसपरायस्यादिवमानि चत्वारि उपशमश्रेण्यां शेषाणि तु क्षपकश्रेण्याम् । तथा त्रिषु उपशान्तमोद्दक्षीणमोहसयोगिके बलिलशयेषु गुणस्थानकेषु चत्वारि घरपारि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि भवति। तत्रोपशान्तमो इमानि चत्वारि व्युत्तरशतं पवतिः पञ्चनवतिः । क्षीणमोहसयोगिकेवलि
पुनरमूनि तद्यथा नवतिः एकोननवतिः व्यशीतिः - शीतिब्ध जोगमाया' अयोगिकेवलिनि पद्मकृतिसत्कर्म स्थानानि तद्यथा-नवतिः एकोननवतिः उपशीतिः इत्थशीतिः नय अो बेति एतेषामादिमानचत्वारि प्रयोगकेवसिद्धिचरमसमर्थ यात्, चरमसमयेतु
و
,
(१३) अभिधानराजेन्द्रः ।
9
सम्प्रति मतान्तरमाह-संखीणदिट्टिमोहे, केई पणवीस पि इच्छति । संजोयणाय पच्छा, नासंसि उपसमं च ।। १३ ।। 'संखीण 'सि केचिदाचार्याः पञ्चविंशतिलक्षणमपि प्रकृतिखत्कर्मस्थानमिति से प्रथमतो मोद नमोहनीपति संतीचे सति पानानुधन नाशमिति । ततस्तन्मतेन दर्शनमोहनतययेति पञ्चविंशतिरूपमपि प्रकृतिसत्कर्मस्थान माध्य येथे तिमिह कस्मान्नाभ्युपगम्यते ?, उच्यतेविरोधात् यदाह पूर्ति तं नि मिला तेरा न इच्छुजर " ति । तथा त एवाचार्यास्तेषामगन्तानुषन्धिनामुपशमं चेच्छन्ति नान्ये परमार्थवेदिनः । अत एव च प्रागमन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽस्माभिमा सम्प्रति नामकर्मणः प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि प्रतिपिपापदयिषुराह-तिदुगसमं छप्पंचग, तिग नउई नउई गुणनउई । तिग दुगाहिगासि, नव अट्ट व नाम ठायाई ॥१४॥ ' विदुगस ' ति नामकर्मणो द्वादश प्रकृति सत्कर्मस्थानानि तद्यथा ज्युसर तर पक्षतिः पश्चमयतिः नियतिः नवतिः एकोननवतिः चतुरशीतिः व्यशीतिःशीतिः नय अचेति । तत्र सर्वनामकर्म प्रकृतिसमुदाय तदेव तीर्थकर पुतरम्युमेबाहार सप्तक रहित पदावलिः।
9
संतकम्म
।
सैव तीर्थकररहिता पञ्चनवतिः । पञ्चनयतिरेष देवद्विकरहिता नरकद्विकरहिता वा त्रिनवतिः । तथायुत्तरशतमेष नामत्रयोदशकरहितं नवतिः सैव तीर्थकररहिता एकोननवतिः 1 तथा त्रिनवतिर्नरकद्विकवैक्रिय सप्तकरहिता देवद्विकवैक्रिय सप्तकरहिता वा चतुरशीतिः । षक्षवतिस्त्रयोदशरहिता प्रयशीतिः द्वयशीतः पञ्चनवतियोदशरहिता अथवा चतु रीतिरिद्दिता दूधशीतिः । मनुजगतिपद्रियजातित्रसवादपर्वाससुभगादेशः कीर्तितीर्थकररूपा नय ता एव तीर्थकररहिता श्रष्टौ ।
मतान्येव प्रकृतिखत्कथानकेषु चिन्तयन्नाह -
,
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(१३२) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म तीर्थकराउतीर्थकरौ प्रतीत्य द्वे अन्तिमे प्रकृतिसत्कर्म- | अणुदयबंधपराणं, समऊणा जट्टिई जेहूँ ॥१७॥ स्थान । तदेवमुक्तं प्रकृतिसत्कर्म । सम्प्रति स्थि
'जेटुठिइ' त्ति-यासां प्रकृतीनां सह युगपत् बन्धोदयौ भवतः तिसत्कर्म वक्तव्यम् । तत्र प्रयोऽर्थाधिकाराः, तद्यथा
कासा युगपद्धन्धोदयौ भवतः इति चेदुच्यते-झानावरणपश्चभेदः साधनादिप्ररूपणा स्वामित्वं चेति । तत्र भेद:
कदर्शनावरणचतुष्प्रयासातवेदनीयमिथ्यात्वषोडशकषायपञ्चेप्रागिव । साधनादिप्ररूपणा च द्विधा-मूलप्रकृतिविपया,
न्द्रियजातितेजससप्तकहुण्डसंस्थानवर्णादिविंशत्यगुरुलघुपउत्तरप्रकृतिविषया च । तत्र प्रथमतो मूलप्रकृतिविषयां
राघातोच्छ्रासाप्रशस्तविहायोगत्युद्योतत्रसबादरपर्याप्तप्रत्यसाद्यनादिप्ररूपणां चिकीर्षुराह
कास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माणनीचैर्गोत्रमूलठिई अजहन्नं, तिहा चउद्धा य पढमगकसाया।
पञ्चविधान्तरायाणां तिर्यङ्मनुष्यानधिकृत्य वैक्रियसप्तकतित्थयरुब्बलणायुग-वजाणि तिहा दुहागुत्तं।।१६।।। स्य सर्वसंख्यया षडशीतिप्रकृतीनाम् तासां ज्येष्ठमुत्कृष्ट'मूलठि 'त्ति मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म अजघन्य विधा- स्थितिसत्कर्म ज्येष्ठस्थितिबन्धसमम् उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमात्रिप्रकारम् । तद्यथा-अनादि ध्रुवमध्रुवं च । तथाहि-मू- णं भवति । तासां हि उत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भेऽबाधाकालेऽपि लप्रकृतीनां जघन्य स्थितिसत्कर्म खखक्षयपर्यवसाने स
प्राग्बद्धं दलिकं प्राप्यते । न च तासां प्रथमस्थितिरन्यत्र स्तिमयमात्रैकस्थित्यवशेषे भवति, तच्च सादि, अध्रुवं च । ततो
बुकसंक्रमेण संक्रामति , उदयवतीत्वात् । ततस्तासाममुत्कृऽन्यत्सर्वमजघन्य , तच्चानादि , सदैव भावात् । ध्रवाध्र
एस्थितिबन्धप्रमाणमुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म प्राप्यते । अनुदय
बन्धपराणां समयोना ज्येष्ठा स्थितिज्येष्ठमुत्कर्ष स्थितिसत्कबता पूर्ववत् । उत्कृष्टमनुत्कृष्टं च साधव द्वयोरपि पर्याये
म । तत्रानुदये उदयाभावे पर उत्कृष्टः स्थितिबन्धो यासां ता णानेकशो भवनात् । कृता मूलप्रकृतीनां साधनादिप्ररूप
अनुदयबन्धपराः निद्रापञ्चकनरकतिकतिर्यग्द्विकौदारिकसणा , सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां क्रियते-च उद्धा य ' इत्यादि
प्सकैकन्द्रियजातिसेवार्तसंहननातपस्थावररूपाविंशतिसंख्या. अत्र षष्ठयर्थे प्रथमा , ततोऽयमर्थः-प्रथमकषायाणामन
स्तासां समयोना उत्कृष्टा स्थितिरुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म । तन्तानुबन्धिनामजघन्य स्थितिसत्कर्म चतुर्धा चतुःप्रकारं ,
थाहि-एतासामुत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भे यधप्यबाधाकालेऽपि तद्यथा-सादि अनादि ध्रुवमध्वं च । तथाद्वि-एषां जघ
प्राग्बद्धं दलिकमस्ति तथापि प्रथमस्थिति तासामुदयवतीन्य स्थितिसत्कर्म स्वक्षयोपान्त्यसमये स्वरूपापेक्षया सम
षु मध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति । तेन तया प्रथमस्थियमात्रैकस्थितिरूपम् , अन्यथा तु द्विसमयमानं, तच्च सा
त्या समयमात्रया ऊना उत्कृष्टा स्थितिरुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म। धनवं ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यं , तदपि चोद्वलितानां भूयो
अथोच्येत-कथं निद्रादीनामनुदये सति बन्धेनोत्कृष्टा स्थिबन्धे साऽऽदि,तत्स्थानमप्रानानां पुनरनादि, धवाधघता पू- तिःप्राप्यते ?, उच्यते-उत्कृष्टो हि स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशे बंवत् । तथा-तीर्थकरनामोद्वलनयोग्यत्रयोविंशस्यायुश्चतुष्ट- भवति । न चोत्कृष्ट संकेशे वर्तमानस्य निद्रापञ्चकोश्ययवर्जितानां शेषाणां षडिशल्यधिकशतसंख्यानां प्रकृतीना
सम्भवः नरकद्विकस्य तिर्यश्चो मनुष्या वा उत्कृष्टस्थितिमजघन्य स्थितिसत्कर्म विधा, तद्यथा-अनादि ध्रवमध्र
बन्धकाः । न च तेषां नरकद्विकोदयः सम्भवतीति वं च । तथाहि-एतेषां जघन्य स्थितिसत्कर्म स्वस्वक्षयप
शेषकर्मणां तु देवा नारका वा यथायोगमुत्कृष्टस्थितिबयवसाने उदयवतीनां समयमात्रैकस्थितिरूपम् ,अनुदयवती.
न्धकाः । न च तेषु तेषामुदयो घटते। नां स्वरूपतः समयमात्रैकस्थितिकम् । अन्यथा तु द्विसम- संकमो दीहाणं, सहालिगाए उ आगमो संतो।। यमात्रम् , तच्च साद्यध्वम् । ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यं तच्चा- समऊणमणुदयाणं, उभयासि जट्ठिई तुल्ला ।।१८।। नादि , सदैव भावात् । ध्रवाऽध्रयता पूर्ववत् । 'दुहागुत्तं'
'संकमनी' त्ति यासां प्रकृतीनां सेक्रमत उत्कृष्टं स्थिति। अनुक्तम्-उक्तप्रकृतीनामुत्कृष्धानुत्कएजघन्यरूपं तीर्थकर
तिसत्कर्म प्राप्यते, न बन्धतः, उदयोऽपि च विद्यते तासां नामोद्वलनयोग्यदद्विकनरकद्विकमनुजद्विकवैक्रियसप्तका--
संक्रमतो दीर्घाणां संक्रमवशलब्धोत्कृष्ठस्थितिकानां य श्राहारकसप्तकोच्चैर्गोत्रसम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वरूपत्रयोविंश-- गमः संक्रमण पावलिकाद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसमागमः स त्यायुश्चतुएयानां जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टरूपं विकल्प- श्रावलिकया उदयावलिकया सह उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म । चतुष्टयं द्विधा-द्विप्रकार, तद्यथा-सादि, अनवं च । तथा
पतदुक्तं भवति-सातं वेदयमानः कश्चिदसातमुत्कृष्टस्थितिकं हि-उक्नप्रकृतीनामुत्कृष्टमनुत्कृष्टं च स्थितिसत्कर्म पयोय- बध्नाति । तच्च बढ़ा सातं बढे लग्नः । असातवेदनीय णानेकशा भवति । ततो द्वितयमपीदं साद्यध्वम् । जघन्य
च बन्धावलिकातीतं सत श्रावलिकात् उपरितनं सकलच प्रागेव भावितम् । तीर्थकरनामादीनां वाध्वसत्कर्मत्वा- |
मपि पावलिकाद्विकहीनं त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाण च्चत्वारोऽपि विकल्पाः साद्यध्रवा अवसेयाः। मूलप्रकृतीनां | स्थितिसत्कर्म तस्मिन् सातवेदनीये वेद्यमाने बध्यमाने च उचानुक्नं जघन्यमुत्कृष्टमनुत्कृष्टं च द्विप्रकारं प्रागेव चोक्तम् ।
दयावलिकाया उपरिष्टात् संक्रमयति । ततस्तया उदयावतंदवं कृता साद्यनादिग्ररूपणा । सम्पति स्वामित्वं वक्त
लिकया सहितः संक्रमणावलिकाद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसमाव्यम्तच्च द्विधा उत्कृष्टस्थितिसत्कर्मस्वामित्वं जघन्यस्थि
गमः सातवेदनीयस्योत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म । एवं नवनोकतिसत्कर्मस्वामित्वं च । तत्र प्रथम उत्कृष्टस्थितिसत्क
पायमनुजगतिप्रथमसंहननपश्चकप्रथमसंस्थानपञ्चकप्रशस्तमस्वामित्वमाह
विहायोगतिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेययशाकीयुश्चैर्गोत्राणाजेट्ठठिई बंधसमं, जेहूं बंधोदया उ जासि सह । ।
मष्टाविंशतिप्रकृतीनामावलिकाद्धिकहीनः स्वस्वसजातीयोत्कृ
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(१३३) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म स्थितिसमागमः उदयापलिकया सहित उत्कृष्टं स्थि- कृतयो बन्धे उदये च व्यवच्छिन्ने सति अन्यत्र संक्रमण तिसत्कर्म भावनीयम् । सम्यक्त्वस्य पुनरन्तर्मुहूर्तोन उत्क- क्षयं नीयम्ते, तेन एतासां य एव चरमसंक्रमः स एव जएस्थितिसमागम उदयापलिकया सहित उत्कृष्ट स्थि- घन्य स्थितिसत्कर्म । उक्तं च-"हासाइपुरिसकोहा-दि तिन्नि तिसत्कर्म । तथाहि-मिथ्यात्वस्योत्कृहां स्थिति बद्धा संजलण जेण बन्धुदये । वोच्छिन्ने संकई , तेण तत्रैव च मिथ्यात्वेऽन्तर्मुहर्त स्थित्वा ततः सम्यक्त्वं इहं संकमो चरिमो ॥१॥" जघन्य स्थितिसत्कमति प्रतिपद्यते । तस्मिश्च प्रतिपन्ने सति मिथ्यात्वस्यो- सम्बन्धः । शेषाणां पुनरुदयवतीनां सानावरणस्कृष्टां स्थितिम्-श्रावलिकात उपरितनी स्थिति-तथापि पञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयवेदकसम्यक्त्वसंज्वनलोभायुश्चतुसंख्ययाऽन्तर्मुहूर्तोनसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां स- टयनपुंसकवेदनीवेदसातासातवेदनीयोचर्गोत्रमनुजगतिकलामपि सम्यक्त्वे उदयावलिकात उपरि संक्रमयति । पञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकौर्तितीर्थकततोऽन्तर्मुहान एवोत्कृएस्थितिसमागम उदयावलिकया रान्तरायपश्चकरूपाणां प्रकृतीनां चतुर्विंशत्संख्यानां सहितः सम्यक्त्वस्योत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म । यासां पुनः प्रकृ- स्वस्खक्षयपर्यवसानसमये या एका समयमात्रा स्थितिः तीनां संक्रमत उत्कृष्ट स्थितिः प्राप्यते, नच संक्रमकाले उद- सा जघन्य स्थितिसत्कर्म । अनुदयवतीनां पुनः योऽस्ति, तासां संक्रमकालेऽनुदयानां तायवेव पूर्वोक्तं स्थि- प्रकृतीनां स्वस्वक्षयोपान्त्यसमये या स्वरूपापेक्षया तिसत्कर्म समयोनमयगन्तव्यम्, पावलिकाद्विकहीनोत्कृष्ट- समयमात्रा स्थितिरन्यथा तु द्विसमयमात्रकाला, सा जघन्य स्थितिसमागम प्रावलिकया सहितः समयोनस्तासामुस्कृष्ट स्थितिसत्कर्म । अनुदयवतीनां हि चरमसमये स्तिबुकस्थितिसत्कर्मेत्यर्थः । तथाहि-कश्चिम्मनुष्य उत्कृष्ट संक्शष- संक्रमणोदयवतीषु प्रकृतिषु मध्ये प्रक्षिपति; तत्स्वरूपण शादुत्कृष्टां नरकगतिस्थिति बद्धा परिणामपरावर्तनेन देवग- चानुभवति; तेन चरसमये तासां दलिकं स्वरूपेण न तिं बघुमारब्धवान, तस्यां च देवगतौ बध्यमानायामावलि- प्राप्यते,किं तु पररूपेण । अत उक्तम्-'उपान्त्यसमये स्वरूपाकाया उपरि नरकस्थिति बन्धावलिकातीताम् उदयावलि- पेक्षया समयमात्रा अन्यथा तु द्विसमयमात्रकालेति ।' काया उपरितनी सकलामपि विंशतिसागरोपमकोटीकोटी- सम्प्रति सामान्येन सर्पकर्मणां जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामी प्रमाणां संक्रमयति । प्रथमा च स्थितिः समयमात्रा देवगतेः प्रतिपाद्यते-तत्रानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रिकस्य चाविरतासत्का मनुजगतौ वेधमानायां स्तिबुकसंक्रमेण संक्रामति । त अदिरंप्रमत्तपर्यन्तो यथासंभवं जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामी। तमतया समयमात्रया स्थित्या ऊन पावलिकयाऽभ्यधिक प्रा. नारकतिर्यग्देवायुषां नारकतिर्यग्देवाः स्वस्वभवचरमसमये बलिकाधिकहीगोत्कृष्ठस्थितिसमागमो देवगतरुत्कृषं स्थिति- वर्तमानाः । कषायाएकस्त्यानईित्रिकनामत्रयोदशकनवनोसकर्म । एष द्वित्रिचतुरिन्द्रियजास्याहारकसप्तकमवुजानुपू- कषायसंज्वलनत्रिकरूपाणां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामनिवृत्तियावीदेवानुपधीसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणतीर्थकराख्यानामपि षोड- दरसम्परायः। संस्वलनलोभस्य सूक्ष्मसंपरायः । भानावरशप्रकृतीनां यथोक्तमानमुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म भावनीयम् । स. णपश्चकदर्शनावरणषट्रान्तरायपश्चकानां क्षीणकषायः, शेम्यमिथ्यात्वस्य पुनरन्तर्मुहान उत्कृष्टस्थितिसमागम मा पाणां पश्चनवतिसंख्यानामयोगिकेवली जघन्यस्थितिसत्कबलिकयाऽभ्यधिकसमयोन उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म वाच्यम् , मस्वामी । तदेवमुकं जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामित्वम् । तव सम्यक्त्वोक्तभावानुसारेण भावनीयम् , 'उमयासि
सम्प्रति स्थितिभेदनरूपणार्थमाहजीईई तुझ'ति उभयोषामुदयवतीनामनुदयवतीनां च प्र- __ठिइसंतवाणाई, नियगुक्कस्सा हि थावरजहन्न । कृतीनां संक्रमोत्कृष्टस्थितीनां संक्रमकाले यत्स्थितिः सर्वा |
नेरंतरेण हेडा, खवणाइसु संतराई पि ॥२०॥ स्थितिस्तुल्या। यतोऽनुदयवतीनामपि तदानीं प्रथमस्थितिः स्तिचुकसंक्रमेणोदयवतीषु संक्रम्यमासाऽपि वलिकरहिता
'ठिासंतवाणाई ' ति सर्वेषां कर्मणां स्वकीयात्स्वकीयादुविद्यते एव । न हि कालः संक्रमायितुं शक्यते, किं तु तत्स्थं स्कृष्टात् स्थितिस्थानात् समयमात्रादारम्याधस्तात्तापवदलिकमेव । ततः प्रथमस्थितिगतवलिकसंक्रान्तावपि दलि
तरीतव्यं यावत् स्थावरजघन्यम् एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्य करहिता प्रथमा स्थितिः तदानीं विद्यत एवेति कत्या उभयी
स्थितिसत्कर्म । एतावता स्थितिकण्डके यावन्तः समयाषामपि यत्स्थितिः तुल्या । यश्च यासा प्रकृतीनामुत्कृष्टां स्तावन्ति स्थितिस्थानानि नानाजीवापेक्षया निरन्तरेणस्थिति बध्नाति, यश्च यासूत्कृष्ट स्थिति संक्रमयति, स नैरन्तर्येण लभ्यन्ते । तद्यथा-उत्कृष्टा स्थितिरेकं स्थितितासामुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मस्वामी । तदेवमुक्तमुत्कृष्ठस्थितिस- स्थानम् । समयोना उत्कृष्ट स्थितिद्धितीय स्थितिस्थानम्। स्कर्मस्वामित्वम् ।
द्विसमयोना उत्कृष्टा स्थितिस्तृतीय स्थिति स्थानम् । सम्प्रति जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामित्वमाह
एवं तावद्वाच्यं यावदेकेन्द्रियप्रायोग्यं जघन्य स्थितिस
कर्म । एकेन्द्रियप्रायोग्याश्च जघन्यस्थितिसत्कर्मणोऽधस्ता संजलणतिगे सत्तसु, य नोकसाएसु सकमजहन्नो । त् क्षपणादिषु क्षपणे उबलने च सान्तराणि स्थितिस्थासेसाण ठिई एगा, दुसमयकाला अणुदयाणं ॥ १६ ॥
नानि लभ्यन्ते । अपिशब्दानिरन्तराणि च । कथमिति
चेदुच्यते-एकेन्द्रियप्रायोग्यजघन्यस्थितिसत्कर्मण उप'संजलणतिगे'ति-संज्वलनत्रिकस्य-क्रोधमानमायारूपस्य | रितनाग्रिमभागात्पल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डं खसप्तानां च नो कषायाणां पुरुषवेदहास्यादिषटूरूपाणां जघन्य- | ण्डयितुमारभते । खण्डनारम्भप्रथमसमयादारभ्य च समये स्थितिसत्कर्म जघन्यस्थितिसंक्रमो वेदितव्यः । एता हि प्र-। समयेऽस्तादुद्यवतीनामनुभावनानुदयवतीनां स्तिबुक
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संतकम्म
संक्रमण समयमात्रा समयमात्रा स्थितिः क्षीयते । ततः प्रतिसमयं स्थितिविशेषा लभ्यते तद्यथा-तरस्थावरप्रायोग्यं जघन्यं स्थितिसत्कर्म प्रथमसमयेऽतिक्रान्ते समयहीनं द्वितीये समयेऽतिक्रान्ते सिमहीनम् । तृतीये समयेऽतिक्रान्ते त्रिसमयदीनमित्यादि । सन्तसेन च कालेन तस्थिति एडपति तत एतावती स्थितिर्युगपदेव त्रुटितेति कृत्यात निरन्तराणि स्थितिस्थानामि लभ्यन्ते । ततः पुनरपि द्वितीयं पयोपमासंकपेयभागमाचमन्तर्मुहूर्तमात्रेण खण्डयति । तत्रापि प्रति समयमधः समयमात्र समयमात्रस्थितियापेक्षा निरन्तराणि स्थितिस्थानानि पूर्वप्रकारेण लभ्यन्ते । द्वितीये व स्थिति खराडे खडिते सति पुनरपि पश्योपमासंस्वेयभागमात्रा स्थितिडुंगपदेव त्रुटितेति न भूयोऽप्यन्त निरन्तराणि स्थितिस्थानानि लभ्यन्ते एवं तावद्वाच्यं यावदावलिकाशेषा भवति। साऽपि चापलिका उद्यतीनामनुभवेनानुदयवतीनां स्तिबुकसंक्रमेण समये समये क्षयमुपयाति ताबधावदेका स्थितिः । ततोऽमूनि आपलिकामात्र समयप्रमायानि स्थितिस्थानानि निरन्तराणि लभ्यन्ते । तदेषं स्थितिस्थानमेवोपदर्शनमपि कृतम्।
सम्प्रत्यनुभाग सत्कर्मप्ररूपणार्थमाहसंकमसममभागे, नचरेि जहनं तु देसाईगं । खोकसाग, एगड्डायम्मि देसहरं ।। २१ ।। मणनाणे दुट्ठायं, देसहरं सामि गोयसम्मले । भावयविग्धसोलसग किट्टवेय सगंते ॥ २२ ॥ 'संकमसममि' स्यादि अनुभागसंक्रमेण तुल्यमनुभागसस्कर्म स्यम् पतति यथाऽनुभागको स्थानम स्वयविपाशुभाशुभत्व खाद्यनादित्वस्यामित्यानि प्राक प्रतिपादितानि तथैवात्राप्यनुभाग सत्कर्मणि वक्तव्यामि । नबरमयं विशेषो यदुत देशघातिनीनां हास्याविषवर्जितानां मतिभुतावधिज्ञानावरच कुचकुरधिदर्शनावरणसंबलमचतुष्यथेत्रिकान्त रायपश्चकरूपाणामष्टादशप्रकृतीनां ज धन्यानुभाग सत्कर्मस्थानमधिकृत्य एकस्थानीयं घातिसंशामधिकृत्य देशहरं देशघाति वेदितव्यम् । मन:पर्ययज्ञानाबरणे पुनर्जघन्यमनुभागसत्कर्मस्थानमधिकृत्य द्विस्थानं, घा तिसंज्ञामधिकृत्य देशघाति । इहोत्कृष्टानुभाग सत्कर्मस्वामिन उत्कृष्ठानुभाग संक्रमस्वामिन एव वेदितव्याः । जघन्यानुभागः कर्मस्वामिनः पुनराह - 'सामियो' स्यादि । सभ्य कायज्ञानावरपञ्चकार पन्तरायपश्चरूपकृतिपोडकरूपसंचलन सोमाय स्वस्थातिसमये वर्तमानाद्यन्यानुभागसत्कर्मस्वामिनो वेदितव्याः । अवैध विशेषमाह
"
१३४) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
मासुवचक्षु अचम् सुयसमरस जेस्सि । परमो हिस्सोहिदुगं, मणनाथं बिउलनायस्स ॥ २३ ॥ 'मह'ति मतिज्ञानावरणतज्ञानावर बदनावर नाणानां समासस्य सकलभूतपणाम दशपूर्वरस्येत्यर्थः । ज्धकस्य उत्कृष्ठता वर्तमानस्य जघन्यमनुभागसत्कर्म इदमत्र तात्पर्यम्-म
-
संतकम्म तिज्ञानावरणादीनां चतसृणां प्रकृतीनामुत्कृष्टश्रुतार्थसम्पअतुर्वशपूर्वधरो जघन्यानुभागसत्कर्मस्वामी वेदितव्यः । तथा परमावधिज्ञानेनावधिकिमवधिज्ञानावरणावधिदर्शगावरणरूपं जयम्यानुभागसत्कर्म भवति । त अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावर योजघन्यानुभाग सत्कर्मस्वामी परमावधियुक्रो बेदितव्यः । तथा मनोज्ञानं मनःपर्यायज्ञानावरणं जघम्यानुभागसत्कर्म विपुलमनःपर्यायज्ञानिनोऽन्तयम, खामित्यभावना अवधिज्ञानात् ।
.
सहितस्य हि प्रभूतोऽनुभागः प्रलयमुपवतीति पर मोहिस्से' त्याद्युक्तम् | शेषाणां तु प्रकृतीनां य एव जघन्यानुभागसंक्रमस्वामिनस्त एव जघन्यानुभाग सत्कर्मणोऽपि
व्रष्टव्याः ।
इदानीमनुभाग सत्कर्मस्थानभेदप्ररूपणार्थमाहबंधहयहयहउप्प - तिगाणि कमलो असंखगुणियाणि । उदयोदरिया- होंति अणुभागठायाणि ॥ २४ ॥ बंधनानुमानस्थानानि विधा
3
सिकामि इतोत्पतिकानि इतहतोत्पत्तिकानि त बम्धादुत्पतिर्येषां तानि बम्धोत्पत्तिकानि । तानि चासंख्येलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि तद्धेतूनाम संख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् तथा उद्वर्तनावर्तमाकरणवशतो बुद्धिहानिभ्यामन्यथा ऽन्यथा याम्यनुभागस्थानानि - चित्र्यभाजि भवन्ति तानि इतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते । इतात्घातात् पूर्वावस्थाविनाशरूपादुत्पत्तिर्येषां तानि इतोत्पत्तिकानि तानि च पूर्वेभ्यो ऽसंख्येयगुणानि एकस्मिन् बग्धोत्पत्तिस्थाने नानाजीयापेक्षयानापर्तना भ्यामसंख्येयभेदकरणात् । यानि पुनः स्थितिमान - सघातेन चान्यथाऽन्यथाभवनादनुभागस्थानानि जायन्ते । तानि च इतइतोरपतिकाम्युच्यन्ते । इते उनापवर्त नाभ्यां पाते सति भूयोऽपि इतात् स्थितिघातेन रसधासेन या पायादुत्पतियां तानि इतइतोत्पतिकानि । तानि पोर्तमापर्तनाजन्येभ्योऽचये। संप्रत्यशरयोजना क्रियते यानि उद्यत उदीरणात प्रतिसमयं तयसम्भवात् अभ्यथाऽभ्ययानुभागस्थानानि जायन्ते तानि वर्जयित्वा शेषाणि बम्धोत्पत्तिकादीनि अनुभागस्थामानि क्रमशोऽसंक्येयगुणानि वक्ष्यामि उदयोदीरणाजम्यानि कस्मात इति वेष्यते-परमात्यो - वीरणयोः प्रवर्त्तमानयोर्नियमात् बन्धोद्वर्तनापवर्तनास्थितिघातरस घातजन्यानामन्यतमाम्यवश्य सम्भवन्ति तत्र उपयोगीराजम्यानि तत्रैवान्तः प्रविशन्तीति न पृथक क्रियते ।
1
"
"
तदेवमुक्रमनुभागसरकर्म I सम्पति प्रवेशल कर्म सेऽर्थाधिकाराः, तद्यथामेव साधनादिमरूपणा, स्वामित्वं चेति । तत्र भेदः प्राग्वत् । सम्प्रति लायनादिरूपणा कर्त्तव्या सा थ द्विधा मूलप्रकृतिषिधया उपकृतिभिषा च तम मूलप्रकृतिविषयोचीराह
"
समय अज तिथिई सेसा हुद्दा पदसम्मि मूलपगई भाउ, साई अधुवा व सध्ये वि ।। ९५ ।।
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संतकम्म
"
''ति श्रायुर्वनां सप्तानां मूलप्रकृतीनामजघन्य प्रदे सत्कर्म त्रिवि त्रिप्रकारम्, तथथा अनादि अ च। तत्र शपितकर्माशस्य आयुर्वजांना सप्तानां कर्मणां स्वस्वक्षयावसरे वरमस्थितौ वर्त्तमानस्य जघन्यं प्रदेशसत्कर्म । तसाच ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यम्, तच्चानादि, सदैव सद्भावात् । भवाभवताऽभव्यभव्यापेक्षया । ऐसा दुद्द ' शेषा विकल्पा उत्कृष्ठानुत्कृष्टजघन्यरूपा शिधाद्विकाराः तद्यथा-सायोऽपाथ तत्रोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मगुणितकर्माशस्य मिथ्याः सप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य प्राप्यते । शेषकार्य तु तस्याप्यनुत्कृ ततो द्वे अपि साथप्रये। जघन्यं तुभाषितमेव तथा आयुषः सर्वेऽपि विकल्प जघन्या जघन्यरूपाः सादयोऽभुवाश्व, अवसत्कर्मत्वात् । सम्प्रत्युतरप्रकृतीरधिकृत्य साधनादिरूप चिकीर्षुराहबापालाशुकसं, पडवीससया जहण चउतिविहं । होइह यह चउद्धा अजहन्नमभासियं दुविहं ।। २६ ।। 'बायाल ति सात वेदनीयसंज्वलनचतुष्टय पुरुषवेदपञ्चन्द्रियजातितेजस सप्तकप्रथम संस्थानप्रथम संहननशुभवर्याशुभवर्णाचेकादशका गुरुलघुपराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतिप्रसवादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिर शुभसुभगसुखरादेवयशःकीर्तिनिर्माणरूपाणां द्विचत्वारिंशत्यकृतीनामनुत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म चतुर्विधम् । तद्यथा साधनादि भुषमभुवं च तद्यथा-वज्रर्षभनाराचवर्णानां शेषाणामेकचत्वारिंशत्प्रकृतीनां
परूयां स्वस्वयम्धान्तसमये गुणकर्माशस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति, तचेकसामयिकमिति कृत्वा सायम् । ततोभ्यत्सर्वमनुत्कृष्टम् तदपि च द्वितीये समये भवत्सादि। तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादि भयाभये पूर्वपत्मा राचसंहननस्य तु सप्तमपृथिव्यां सम्यग्दष्टेर्नारकस्य मिथ्यास्वगन्तुकामस्योत्एं सत्कर्म तथ्य साद्ययं ततोऽम्यदनुत्कृष्टं तदपि च द्वितीये समये भवत्सादि । तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादि भवाध्वे पूर्ववत् अनन्तानुबन्धियश-कीर्ति संज्यलगलोभवर्जितानां चतुर्विंशत्यधिकशतक्यानां भवसत्कर्म प्रकृतीनामजघन्यं प्रदेश सत्कर्म त्रिविधम् । तद्यथाधनादि भयम् अयं च तथाहि एतासां पितकर्मोरास्य स्वस्त्वक्षयचरमसमये जधन्य प्रदेशसत्कर्म तच्चेकसामयिकमिति कृत्या साद्यभुव च। ततोऽन्यद जघन्यम्,
थानादि सदैव सद्भावात् दावता] पूर्ववत्। चतिविहं' ति यथासंख्येन योजनीयम्, द्विचत्वारिंशत्प्रकृतीनामनुत्कृष्टं चतुर्विधं भुवसत्कर्मणां चाजघन्य विविधमिति । तथाऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयसंज्वलन लोभ कीर्तिप
( १३५ ) अभिधान राजेन्द्रः । संतकम्म करयस्यान्तिमसमये जघन्ये प्रदेशसत्कर्म सामयि कमिति कृत्वा खाद्य च। ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यम् तदपि यानिवृत्तिकरणप्रथमसमये गुणसंक्रमेण प्रभूतस्य दलिकस्य प्राप्यमाणत्वात् श्रजघन्यं भवत् सादि, तत्स्थानमप्राप्तस्य I पुनरनादि । ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत् । 'अभासियं दुविहं ' ति श्रभाषितम्- अनुक्तं सर्वासां प्रकृतीनां द्विविधं द्विप्रकारमवग स्तव्यम् । तद्यथा-सा विचार कृतीनामभाषितं जघन्यमजन्यमुत्कृष्टं च तत्रोत्रं द्विकारं भा वितमेव । जघन्याजघन्यता च वक्ष्यमाणं स्वामित्वमवलोक्य स्वयमेव भावनीया सत्कर्मणां च चतुर्दिशतिशत संस्थानामभाषितमुत्कृष्टमनुत्कृष्टुं जघन्यं च । तत्र जघन्यं भावितमेव । उत्कृष्टानुकृष्ठे मिथ्यादृष्टौ गुणितकर्माशे प्राप्येते । ततो अपि साधुवे एवमनन्तानुबन्धिसंज्वलनसोमयशः कीर्तीनामपि उत्कृष्ट भावनीये जघन्ये तु मा चितमेव शेषाणां चाभ्रवसत्कर्मणां चत्वारोऽपि विकल्पाः खाद्या असाकर्मत्यादयसेयाः ।
प्रकृतीनामजप प्रदेशसत्कर्म चतुर्विधम्। तद्यथासादि, अनादि, अयम्, अभ्रयं च तथाहि अनन्तानुबन्धिना मुलके क्षपितकर्माथे यदा शेषीभूता एका स्थितिर्भवति तथा जयन्ये प्रवेशसत्कर्म । तचैकसामयिकमिति कृत्या साद्य ततोऽन्यत्सर्वमजयम्यम् । तनम ध्यात्वप्रत्ययेन भूयोऽपि बध्यमानानां सादि, तत्स्थानमप्राशस्य पुनरनादि । भवाभवे पूर्वषत् । यशः कीर्तनभयोः पुनः पितमस्य कृपणायोद्यतस्य यथाप्रवृत्ति
तदेवं कृता साधनादिप्ररूपणा सम्यति स्वामित्वं य व्यम् । तच शिधा उत्कृष्टप्रदेश सत्कर्मस्यामित्यं जघन्य प्रदेश सत्कर्मस्वामित्वं च । तत्रोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्वामित्वमाहपुन्नगुणियकम्मो, पएसउक्कस्ससंतसामी उ
,
66
तस्सेव उ उपिविग्गियस्स कासिं चि वहिं ॥ २७॥ संपुन सिउत्कृष्टदेशसत्कर्मस्वामी सम्पूर्णगुतिकमशः सप्तमपृथिव्यां नारककारमसमये वर्तमान प्रायः स सामपि प्रकृतीनामवगन्तव्यः कासांनिःप्रकृतीत स्यैव सम्पूर्णगुणित फर्मास्य सप्तमपृथिव्या विनिर्गतस्योपरिष्टात् विशेषोऽस्ति ततस्तमहं वर्णयामि पर्तयिष्यामि । ' वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा " ( पा०-३३-३१३ ) इति ( श्रीसि० - ३ - ४ -८४) भविष्यति वर्तमानः । प्रतिज्ञातमेवा55मिच्छने मीसम्म प संपक्खितम्मि मीस सुद्धा वरसवरस्स उ ईसा - गस्स चरमम्मि सयम्मि ||२८|| 'मिच्ड' ति सप्रागभिहितस्वरूप - समपृथिव्या उद्धृत्य तिर्यसूत्पन्नः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः, तत्र सम्यक्त्वं प्राप्य सप्तकक्षप पाय शीघ्रमभ्युद्यतः । ततो यस्मिन् समये मिध्यात्वं स म्यग्मिथ्यात्वे सर्वसंक्रमेण प्रक्षिपति तस्मिन्समये सम्यङ्गमिध्यात्वस्योत्कृष्टुं प्रदेशसत्कर्म । तदपि च सम्यङ्मिथ्यात्वं यस्मिन् समये सर्वसंक्रमेण सम्यक्त्ये प्रक्षिपति तस्मिन् समये सम्पत्वस्योत्कृष्ट प्रदेशसरकर्म अक्षरयोजना स्वियम् - मिध्यात्वे मिले च यथासयंमिश्र स
यो
व प्रक्षिप्ते सति तयोर्मिश्रशुद्धयोः मिश्रसम्यक्त्वप्रदेशसत्कर्म भवति । तथा स द गुतकर्माशो नारकस्तिर्यग्भूत्या कश्चिदीशानदेवो जातः । सोऽपि च तत्रातिशिष्टो भूत्वा भूयो भूयो नपुंसकयेदं यध्नाति । तदानीं च तस्य स्वभवान्तसमये वर्तमानस्य वर्षवरस्य नपुंसकस्योत्कृएं प्रदेशसरकर्म
"
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( १३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संतकम्म
ईसा पूरित्ता, नपुंसगंतो असंखवासासु । पल्लासंखियभागे - पूरिए इथिवेयस्स ॥ २६ ॥
'ईसाणे'त्ति – ईशानदेवलोके उक्तप्रकारेण नपुंसक वेदमापूर्य नपुंसकवेदस्योत्कृष्टं प्रवेशसंचयं कृत्वा ततः संख्ये वर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पद्य पुनरसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्र च तेन संक्लिष्टेन भूत्वा पल्योपमा संख्येयभागमात्रेण कालेन पूरिते स्त्रीवेदे बन्धेन नपुंसकवेददलिकसंक्रमेण च प्रभूतमापूरिते स्त्रीवेदे सति तदानीं तस्य वेदस्योत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म भवति ।
पुरिसस्स पुरिससंकम-पएसउक्कस्स सामिगस्सेव । इत्थी जं पुरा समयं संपक्खित्ता हवइ ताहे ॥ ३० ॥ 'पुरिसस्स'त्ति - पुरुषस्य पुरुषवेदस्योत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म उत्कृष्टपुरुषवेदसंक्रमस्वामिन एव वेदितव्यम्, पतदुक्तं भवति य एवोत्कृष्ट पुरुषवेदसंक्रमस्वामी स एवोत्कृष्टपुरुषयेदप्रदेश सत्कर्मस्वाम्यपि वेदितव्यः । नवरं यं समयं यस्मि - न् समये स्त्रीवेदं पुरुषवेदे संप्रक्षेप्ता भवति संक्रमयति ' ताहे ' तदानीं पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी ।
तस्सेव उ संजलखा, पुरिसाइकमेण सव्वसंकोभे । चउरुवसमित्तु खिष्पं, रागंते सायउच्च जसा ॥ ३१ ॥ 'तस्सेव'न्ति-य एव पुरुषवेदोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म स्वामी तस्यैव संज्वलनाश्चत्वारः क्रोधादयः क्रमेण पुरुषवेदादिसत्कदलिक सर्वसंक्षोभे उत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मणो भवन्ति । इयमंत्र भावना-य एव पुरुषवेदोत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्वामी यदा पुरुपवेदं सर्वसंक्रमेण संज्वलनक्रोधे संक्रमयति तदा संज्वलनक्रोधोत्कृष्टप्रदेश सत्कर्मस्वामी । स एव यदा संज्वलनक्रोधं सर्वसंक्रमेण माने संक्रमयति तदा संज्वलनमानोस्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी । स एव संज्वलनमानं सर्वसंक्रमेण संज्वलनमायायां संक्रमयति तदा संज्वलन - मायोत्कृष्टप्रदेश सत्कर्मस्वामी । स एव यदा सेज्वलनमायां सर्वसंक्रमेण संज्वलनलोभ संक्रमयति तदा संज्वलनलोभोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी । तथा चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य गुणितकर्माशः शीघ्रं क्षपणायोत्थितस्तस्य सूक्ष्म संपराय गुणस्थानकचरमसमये वर्तमानस्य सातावेदनीयोगत्रयशः कीर्तीनामुत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म । यस्मादेतासु प्रकृतिषु श्रेण्यामारूढः सन् गुणसंक्रमेण प्रभूतान्यशुभकृतिदलिकानि संक्रमयति । ततः सूक्ष्म सम्परायचरमसमये पतासामुत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म प्राप्यते । उक्तं च--" चउरुवसामिय मोहं, जसुच्चसायाण सुहुमखवगंते । जं असुभपगइदलिया-ण, संकमो होइ एयासु ॥ १ ॥ "
देवनिरिया उगाणं, जोगुकस्सेहिं जेट्ठगद्धाए ।
बद्धाणि ताव जावं, पढमे समए उदित्राणि ॥ ३२ ॥ 'देवनिरियाउगां' ति - देवनारकायुषोरुत्कृष्टैर्योगैरुत्कृष्ट्या च बन्धाऽद्धया द्वयोः सतोस्तावदुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्यते, यावत्प्रथमे समये उदीर्णे उदयप्राप्ते भवतः । किमुक्तं भवति — बन्धादारभ्योदय प्रथमसमयं यावद्देवनारकायुषोरक्लमकारेण द्वयोरुत्कृष्टुं प्रदेशसत्कर्म भवति ।
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संतकम्म
सेसाउगाणि नियगे-सु चेव आगम्म पुव्वकोडीए । सायबहुलस्स अचिरा, बंधते जाव नो बड्डे ॥ ३३ ॥ 'सेसाउगाणि 'ति शेषायुषी - तिर्यङ्मनुष्यायुषी । 'पुव्वकोडीए' ति पूर्वकोट्यो पलक्षिते पूर्वकोटिप्रमाणे उत्कृष्टया बन्धाऽद्धया उत्कृष्टयोंगैर्वद्धे । बद्धा च निजकेषु भवेषु निजनिजभवे समागत्य, सातबहुलः सन् ते श्रायुषी यथायोगमनुभवति । सुखितस्य हि न भूयांस आयुःपुङ्गलाः परिसन्तीति कृत्वा सातग्रहणं कृतम् । ततोऽचिरात् बन्धान्ते इति उत्पत्तिसमयादूर्ध्वमन्तर्मुहूर्त्त मात्रमेव स्थित्वा मर्तुकामो जातः सन् उत्कृष्टया बन्धाऽड्या उत्कृष्टैश्व योगेरन्यत् पारभविकं समानजातीयं मनुष्यो मनुष्यायुः तिर्यङ् च तिर्यगाथुर्यध्नाति । ततो बन्धान्तसमये यावन्नाद्याप्यपवर्तयति तावन्तस्य सातबहुलस्य मनुष्यस्य सतो मनुष्यायुषः तिरश्चः (च) सतस्तिर्यगायुष उत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म भवति । यतस्तस्य तदानीं स्वभवायुः किञ्चिदूनं परभवायुश्च समानजातीयं परिपूर्णलिकमस्तीति कृत्वा, बन्धान्तरं चायुर्वेद्यमानं द्वितीये समयेऽपवर्त्तयिष्यति, ततः उक्कं बन्धान्ते इति ।
पूरित्तु पुव्वकोडी, पुडुत्तनारगदुगस्स बंधते । एवं पल्लतिगंते, वेउब्वियसेसनवगस्मि ॥ ३४ ॥ 'पूरितु' चि-पूर्व कोटीपृथक्त्वं पूर्वकोटीसप्तकं यावत् संक्लिष्टाध्यवसायवशेन नरकद्विकं नरकगतिनर कानुपूर्वीलक्षणं भूयोभूय आपूर्य बन्धेन निचितं कृत्वा नरकाभिमुखो बन्धान्तसमये नरकद्विकस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी । तथा एवम् अनेनैव प्रकारेण पूर्वकोटिपृथक्त्वं यावत् भोगभूमिषु मध्ये पल्योपमत्रयं च यावद्विशुद्धाध्यवसायवशेन वैक्रियैकादशकात् नरकद्विकेऽपनीते शेषे यद्वैक्रियनवकं देवद्विकं वैक्रिय सप्तकं चेत्यर्थः । तत् बन्धेनापूर्य देवत्वाभिमुखस्तासां देवद्विकवैक्रियसतकरूपाणां नवप्रकृतीनामुत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मस्वामी ।
तमतमगो सव्वल, सम्मत्तं लभिय सव्वचिरमद्धं । पूरित्ता मणुयदुगं, स वज्जरिसहं सबंधते ।। ३५ । 'तमतमगो' ति-तमस्तमगः सप्तमपृथ्वीनारकः । सर्वलघुअतिक्षिप्रं जन्मानन्तरमन्तर्मुहूर्ते गते सतीत्यर्थः । सम्यक्त्वं लब्ध्वा ।' सवचिरम' ति श्रतिदीर्घ कालं यावत् सम्यक्त्वमनुपालयन् मनुष्यद्विके वजर्षभनाराचसंहननं च बन्धेनापूर्य यतोऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं यास्यति तस्मिन् समये बन्धाऽद्धाचरमभूते तयोर्मनुष्य द्विकवज्रर्षभनाराच संहननयोरुत्कृष्टुं प्रदेशसत्कर्म भवति ।
सम्मद्दिधुिवाणं, वत्ती सुदहीसर्य चउक्खुत्तो । उवसामइत्तु मोहं, खवेंतगे नियगबंधंते ।। ३६ ॥
' सम्महिडि ' सि-याः प्रकृतयः सम्यग्दृष्टीनां बन्धमाश्रिस्य भुषाः पश्चेन्द्रियजातिसमचतुरस्र संस्थानपरा घातोच्छ्वासप्रशस्त विहायोगतित्रसबादपर्याप्तप्रत्येक सुखरसुभगादेयरूपण प्रादश तास द्वात्रिंशदधिक सागरोपमाणां शतं यावद्वन्धे. नोपचितानां चतुः कृत्बः चतुरो वारान् मोहनीयं चोपशमथ्य । मोहनीयं हि उपशमयन् प्रभूतानि दलिकानि गुणसंक्रमेण
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(१३७) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म संक्रमयतीति कृत्वा चतुःकृत्यो मोहोपशमग्रहणम् । ततःक्ष- | प्रदेशसत्कर्म । एतच्च सामान्येनोक्तम् , अत्रैव विशेषमाहपणायोद्यतस्य निजबन्धन्यवच्छेदकाले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म 'दिहिदुगे' त्यादि द्वात्रिंशदधिकं सागरोपमाणां शतं यावत् भवति।
सम्यक्त्वमनुपाल्य पश्चान्मिथ्यात्वं गतो मन्दोलनया च पधुवबंधीण सुभाणं, सुभथिराणं च नवरि सिग्घयरं। । ल्योपमासंख्येयभागमात्रप्रमाणया सम्यक्त्वमिश्रे उद्वलयितु
मारभते स्म । उद्वलयश्च तहलिकं मिथ्यात्वे संक्रमयति । सतित्थगराहारगतणू, तेत्तीसुदही विरचिया य ॥ ३७॥
वसंक्रमेण चावलिकाया उपरितनं सकलमपि बलिकं संक'धुवबंधीण'सि-याः शुभध्रुवबन्धिन्यः प्रकृतयस्तैजसस
मितम् श्रावलिकागतं च दलिकं स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति सकशुभवर्णाधेकादशकगुरुलघुनिर्माणरूपा विंशतिप्रकृतयः
संक्रमयतश्च यदैका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थातासां शुभस्थिरयोश्च पूर्वोक्नेन प्रकारेणोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म
ना, अन्यथा तु द्विसमयमात्रावस्थाना, तदा तयोः सम्यभावनीयम् । नवरं चतुःकृत्यो मोहनीयोपशमनानन्तरं शीघ्रतर
पत्वमिश्रयोर्जघन्य प्रदेशसत्कर्म । क्षपणायोद्यतस्येति वक्तव्यं शेषं तथैव । तथा तीर्थकरनाम्नो गुणितकोशेन देशोनपूर्वकोटिधिकाधिकानि प्रयस्त्रिंशत्सा
अंतिमलोभजसाणं,मोहं अणुवसमइत्तु खीणाणं । गरोपमाणि यावद्धन्धेन पूरितस्य स्वबन्धास्तसमये उत्कृष्ट नेयं महापवत्त-करणस्स चरमम्मि समयम्मि ॥४१॥ प्रदेशसत्कर्म माहारकतनोराहारकसप्तकस्य तु विरचितस्य
'अन्तिम' ति-अम्तिमलोभः-संज्वलनलोभः ततः सज्वलदेशोनपूर्वकोर्टि यावत् भूयो भूयो बन्धेनोपचितस्य स्वबन्ध
नलोभयशःकीयॊश्चतुरो वारान् मोहनीयमनुपशमय्य-मोहव्यवच्छेदसमये उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म ।।
स्योपशमं कृत्वा; उपशमश्रेणिमकृत्वेत्यर्थः । शेषाभिः क्षपिततुला नपुंसवेए , णेगिंदियथावरायवुज्जोया। कर्माशक्रियाभिः क्षीणयोर्यथाप्रवृत्तकरणचरमसमये जघन्य विगलमुहमचिया विय, नरतिरिय चिरञ्जिया होति।३८
प्रदेशसत्कर्म शेयम् । मोहनीयोपशमे हि क्रियमाणे गुणसंक्र
मेण प्रभूतं दलिकमवाप्यंत , न च तेन प्रयोजनमिति कृत्या 'तुल' ति-नपुंसकषेदेन तुल्या एकेद्रियजातिस्थावरा- मोहनीयोपशमनप्रतिषेधः। तपोद्योता दितव्याः। यथा नपुंसकवेवस्य ईशानदेवभव
वेउन्विकारसगं, खणबंधगतेउनरयजिट्ठठिई। चरमसमये उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मोळं तथा पतेषामपि द्रष्टव्यमित्यर्थः । विकलत्रिक द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिरूपं, सूक्ष्मात्रिकं |
उव्वद्वित्तु अबंधिय, एगेंदिगए चिरुव्वलणे ॥ ४२ ॥ सूत्रमापर्याप्वसाधारणरूपं या पूर्वकोटिपृथक्त्वं यावत् 'वेउब्धिकारसगं' ति-नरकदिकदेवद्विकवैक्रियसप्तकरूतिर्यमनुष्यभवरजितं भवति, तदा स्वबन्धान्तसमये पं वैक्रियकादशकं पूर्व पपितकर्मीशेनोद्वलितम् ,ततो भूयोतेषां तिर्यक्मनुष्याणां तद्विकलत्रिकादिकमुत्कृष्टप्रदेशसत्कर्म
ऽप्यन्तर्मुहर्त कालं यावद्वद्धम् । ततो ज्येष्ठस्थिती नरके:भवति । सदेवमुक्तमुत्कष्टप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वम् ।
प्रतिष्ठानाभिधाने नरके जातः । तत्र च सता तेन तत् __सम्पति जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वमाह
वैक्रियकादशकं त्रयसिंशत्सागरोपमाणि यावत् विपाकतः खवियं सबम्मि पगर्य, जहन्नगे नियगसंतकम्म॑ते । ।
संक्रमतश्च यथायोगमनुभूतम् । ततो नरकातुल्य तिर्यकप
ञ्चेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः। तत्र च वैक्रियैकादशकस्य भूयोखणसंजोइय संजो-यणाण चिरसम्मकालंते ॥ ३६॥
ऽपि बन्धो न कृतः, तथाविधाध्यवसायाभावात् । तत एके 'षियंति-जघम्ये-जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वे प्रकृतमधि- न्द्रियो जातः । स च तबैक्रियकादशक चिरोवलनया उकारः । क्षपितकोशेन । सूत्रे चात्र सप्तमी तृतीयाथै बेदित- दूलयितुं लग्नः। चिरोखलनया चोदलयतः सतो यदेकर ज्या। नियगसंतकम्मते' ति स्वस्वसत्ताचरमसमये । स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थाना, अन्यथा तु एवं तावत्सर्वकर्मणां सामान्येनोक्तम् । सम्प्रति पुनर्येषां कर्मणां | द्विसमयमात्रावस्थाना शेषीभवति तदा तस्य क्रियैकादशक विशेषोऽस्तितानि पृथगेवाह-खणे' स्यादिह पितकर्मा- स्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म । शेन सम्यारष्टिना सता अनन्तानुबन्धिन उदलिताः । ततः
मणुयदुगुच्चागोए, सुहुमखणबद्धगेसु सुहुमतसे । पुनरपि मिथ्यात्वं गतेनान्तर्मुहर्ते कालं यावदनन्तानुबन्धिनो बद्धाः। ततो भूयोऽपि सम्यक्त्वं प्रतिपमःतच्च सम्यक्त्वं
तित्थयराहारतणु, अप्पद्धा बंधिया सुचिरं ॥४३॥ देषरधी सागरोपमाणां यावदनुपाल्य क्षपणार्थमभ्युद्य
'मणुय' त्ति-मनुष्यद्विकमुर्गोत्रं च पूर्व सूधमत्रसेन तस्तस्यानन्तानुबन्धिन सपयतो यवा एका स्थितिः स्वरूपा
क्षपितकाशनोदलितम् , ततः 'सुहुमखणबद्धगेसु' ति पेक्षया समयमात्रावस्थाना अन्यथा तु द्विसमयावस्थाना शे
सूक्ष्मेण सूदमैकेन्द्रियेण पृथिव्यादिना सता क्षणमन्तर्मुहूर्तबीभवति तदा तेषां जघन्य प्रदेशसत्कर्म ।
कालं यावत् भूयोऽपि बद्धम् । ततः सूक्ष्मत्रसेषु तेजोवा
यषु मध्ये समुत्पनः । तत्र च चिरोद्वलनया उद्वलयितं लग्नः उज्वलमाणीणं उ-ज्वलणा एगहिद दुसामइगा।
उलयतश्च यदा तेषामेका स्थिति समयमात्रावस्थाना शदिद्विदुगे वत्तीसे, उदहिसए पालिए पच्छा ॥ ४०॥ पीभवति तदा तयोर्मनुष्यद्धिकोच्चैर्गोत्रयोः सूबमक्षणबद्धयो'उम्पलमाणीणं' ति-उबल्यमानानां त्रयोविंशतिप्रकृतीना- घन्य प्रदेशसत्कर्म । तथा तीर्थकरनाम 'अप्पद्धावधिमुखलनकाले बा एका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्राव- य' ति' मपं कालं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि सातिलाना, अन्यथा तु द्विसमयमात्रावस्थाना, सातासां जघन्यं रेकाणि यावद्धा केवली जातः। ततः 'सुचिरं' ति प्र
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(१३८) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म भूतं कालं देशोनपूर्वकोटिरूपं यावत् केवलिपर्याय परि-| संजलणतिगे चवं, अहिगाणि य मालिगाएँ समएहिं । पाल्यायोगिकेवलिनः सतः क्षपितकौशस्य चरसमये ब-|
। दुसमयहीणहिँ गुणा-णि जोगठाणाणि कसिणाणि४५) समानस्य तीर्थकरनाम्नो जघन्य प्रदेशसत्कर्म । अन्ये तु
संजलणतिगे' सि-सज्वलनत्रिके क्रोधमानमायारूपे, ए. मुषते-तीर्थकरनाम्नः क्षपितकौशन तत्प्रायोग्यजघन्ययो
वं पूर्वोक्न प्रकारेण स्पर्धकानि बाच्यानि । इयमत्र भाषगिमा प्रथमसमये या लता बद्धा सा जघन्य प्रदेशस
मा-क्रोधादीनां प्रथमस्थितिर्यापदावलिकाशेषान भवति स्कर्म । 'माहारतणु' ति आहारकतनपलक्षितमाहारक
तावत् स्थितिघाते रसधातबन्धोदयोवीरमाः प्रवर्तते । सप्तकम् । 'अप्पडा बंधिय'ति अल्पकालं बढ़ा मिथ्यात्वं गतः, ततः 'सुचिर'ति चिरोखलनया उलयतः सतो
प्रापलिकाशेषायां तु प्रथमस्थितौ व्यवच्छिद्यन्ते, ततोऽनम्तयदा एका स्थितिईिसमयमात्रावस्थामा शेषीभवति तदा
रसमये समयोनाबलिकागतं समयद्वयोनाबलिकाद्विकबर तस्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म । तदेवमुक्तं जघन्यप्रदेशसत्कर्म
च सम्वस्ति, अन्यत् सर्व क्षीणं तत्र समयोनाबलिकाग
तस्य दलिकस्य स्पर्धकभावना यथा प्राक कृता स्वामित्वम् । सम्मति प्रदेशसरकर्मस्थानप्ररूपणार्थ
तथाऽत्रापि कर्तव्या, यच समयदयोनालिकाधिकवच
बलिकमस्ति तस्याम्यथा स्पर्धकभाषना क्रियते पूर्वप्रकारस्पर्धकप्ररूपणामाह
पात्र स्पर्वकस्वरूपस्याप्राप्यमाणत्वात् । अयोध्येत कथं चरमावलियपविड्डा, गुणसेढी जासिमत्थि न य उदभो।
स्थितिमातरसघातबम्धोदयोदीरणाव्यबच्छेदानन्तरसमये स भावलिगा समयसमा, तासिं खलु फहगाई तु ।। ४४ ॥ मयदयोनापलिकातिकबद्धमेव दलिकमस्ति शेषमिति 'चरमावलिय'ति-घरमा-सर्वान्तिमा या क्षपणकाले भाव. कायते ?, उच्यते-हचरमसमयक्रोधादिवेदकेन यहवंदलिका तां प्रविष्टा गुणश्रेणिर्यासां प्रकृतीनामस्ति न च उ- लिकं तदधावलिकातीतम् भावलिकामात्रेण कालेन निरषदयः तासां स्त्यानर्वित्रिकमिथ्यात्वाचद्वादशकषायनरक- शेष संक्रमयति । तथा च सति प्रावलिकाचरमसमये स्वरूविकतिर्यद्विकपश्चेन्द्रियजातिवर्जजातिचतुपयातपोधात- पापेक्षयाऽकर्मी भवति । विचरमसमयवेदकेन यद्वयं तदपि स्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपाणामेकोनत्रिंशसंख्यानामावलि- च बन्धावलिकायामतीतायामन्येनापलिकामात्रेण कालेन से कायां यावन्तः समयास्तावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति । ख- क्रमयति पावलिकायाश्चरमसमये अकर्मी भवति । एवं यलुशब्दो पाक्यालकारे । तुरषकारार्थः । प्रावलिकासम- कर्म यस्मिन् समये बळ तत्तस्मात्समयादारभ्य द्वितीयाययसमाऽन्यैवेत्यर्थः । इयमत्र भावना-प्रभव्यप्रायोग्यजघन्य- लिकाचरमसमयेऽकर्मी भवति । तथा च सति बम्धाचभाप्रदेशसरकर्मयुक्तासेषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्र च सर्वविरतिं वप्रथमसमये समयडयोनाबलिकाद्विकवचमेव सत्प्राप्यते, न देशविरति खानेकशी लग्भ्या चतुरश्चधारान् मोहनीयमुपशम. शेषम् । तथाहि-तस्वताऽसंख्यातसमयात्मिकाऽध्यावलिका व्य भूयोऽप्येकेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पनः । तत्र व पस्योपमासं- किलासत्कल्पनया चतुःसमयात्मिका कल्प्यते । ततो बन्धाक्येयभागमा कालं यावत् स्थित्या मनुष्येषु मध्ये स- विष्यषच्छवचरमसमयावर्याक एमे समय यदुवंतवम्धाषमुत्पना, तापक्षपणायामभ्युतः । तस्य परमे स्थितिख- लिकायां चतुःसमयात्मिकायामतीतायाम् अभ्यया चतु:समएउपगते सति घरमावलिका स्तिबुकसंक्रमेण जीय- यात्मिकया भावलिकया अन्यत्र संक्रम्यमाणं घरमसमये माणायां यदा एका स्थितिहिसमयमात्रायस्थाना शेषीभव- बन्धादिव्यवच्छेदसमयरूपे सर्वथा स्वरूपेण म प्राप्यते, 4ति तदा सर्वमजयन्यं यत् प्रदेशसत्कर्म तत् न्यत्र सर्वात्मना संक्रमितत्वात् । सप्तमे समय यवं तचतु:प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । तत एकस्मिन् परमाणौ समयात्मिकायामावलिकायामतिक्रान्तायामम्यया चतु:प्रक्षिप्ते सति अन्यत्-द्वितीय प्रदेशसत्कर्मस्थानं समयात्मिकया अन्यत्र संक्रम्यमाणं बन्धादिष्यवच्छेवानन्तभवति । ततो श्योः परमारयोः प्रक्षिप्तयोरम्य- रसमये स्वरूपेण न प्राप्यते, सर्वात्मनाम्यत्र संक्रमितस्थात, नृतीय प्रदेशसत्कर्मस्थानं त्रिषु परमाणुषु प्रक्षिप्तषु अन्यत् । शेषषष्ठादिसमयषचं तु प्राप्यते । ततो बन्धादी व्यवच्छिन्ने पबमकैकपरमाणुप्रक्षेपण प्रदेशसत्कर्मस्थानानि नानाजीपा- सति अनन्तरसमये समयस्यानाबलिकाद्विकपमेव सत् पेक्षायामम्तानि तापद्वाच्यानि यापत्तस्मिभेष परमे प्राप्यते नाम्यविति । तत्र बन्धादिव्यवच्छदसमये जघन्यस्थितिविशेषे गुणितकोशस्योत्कर्ष प्रदेशसत्कर्मस्थानं
योगिना सता ययं तस्य बन्धावलिकायामतीतायामभ्यया भवति । अत ऊर्ध्वमन्यत्प्रदेशसत्कर्मस्थानं न
भापलिकयाऽम्यत्र संक्रम्यमाणस्य चरमसमये यरसंक्रमप्राप्यते तत इदमेकं स्पर्धकम् । इदं तु घर- यिष्यतिम तापसंक्रमयति तत् संज्वलनक्रोधस्य जघन्य मस्थितिमधिकृत्य । एवं योश्चरमस्थित्योद्वितीय स्पर्ध- प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । एवं द्वितीययोगस्थानवर्तिना बम्धादिकं वक्तव्यम् । तिसृषु च स्थितिषु वतीयम् । एवं तापता- व्यवच्छेदसमये यहवं तस्यापि दलिक परमसमये द्वितीय व्यं यावत्समयोनाबलिकासमयप्रमाणामि स्पर्धकानि भव- प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । एवं तापवाव्यं यावदुत्कृष्टयोगस्थानस्ति । तथा घरमस्थितिघातस्य परमं प्रक्षेपमादि हत्या धर्तिमा सता बधादिग्यवच्छेदसमय यवलं तस्य दलि. पभानुपा प्रदेशसत्कर्मस्थानानि यथोत्तरं पगामि ताब- रमसमये सर्वोत्कएमन्तिम प्रदेशसरकर्मस्थानम् । एवं जपवाव्यानि यापवास्मीयमास्मीयमुस्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म । तत ग्य योगस्थानमादित्वा याचम्ति योगस्थानानि भवन्ति पताषवेतदपि सफलस्थितिगतं यथासम्भवमेकं स्पर्धक ताबन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानाम्यपि परमसमये प्राप्यम्ते, वविपश्यते । तत पतेम स्पर्धकेन सहापलिकासमयप्रमाणानि मेकं स्पर्धकम् । एवं बम्धाविष्यषच्छेदधिचरमसमय जघन्यस्पर्धकानि भवन्ति ।
| योगादिना पवध्यते तत्रापि द्वितीयावतिकावरमसमये
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(१३६) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म प्रागिव तापन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानानि भावनीयानि । केवलं वदेकं स्पर्धकम् । द्वितीयस्थिती बक्षीणायां प्रथमस्थिस्थितियभाषीनि तानि प्रतिपत्तव्यानि, बन्धादिव्यवच्छे- तो शेषीभूतायो समयमात्रायां द्वितीय स्पर्धकमिति । एबचरमसमये पद्धस्यापि दलिकस्य तदानीं हिसमयस्थिति- बं प्रकारद्वयन खीवस्यापि स्पर्धकद्वयं भावनीयम् । पुकस्य प्राप्यमाणत्वात् । इवं द्वितीय स्पर्धकम् । एवं ब- रुषषेवस्य पुनः स्पर्धकद्वयमेवं भावनीयम्-उदयचरमसधादिम्यषच्छेदधिचरमसमये जघन्ययोगादिना यध्यते मये जघन्य प्रदेशसत्कर्म भादि कृत्वा नानाजीवापेक्षया पकै. तत्रापि द्वितीयावलिकावरसमये प्रागिष तावम्ति कपरमाणुवृद्धचा निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थानानि तापताप्रदेशसत्कर्मस्थानानि भवन्ति । नवरं स्थितित्रयभाषीनि च्यानि यावद्गुणितकौशस्योस्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । तानि भावनीयानि, तदानी बग्धादिव्यवच्छेदचरमसमयब- एतानि सर्वारयनन्तानि । एताम्येकं स्पर्धकम् । उदयचरअसत्कस्यापि दलिकस्य त्रिसमयस्थितिकस्य प्राप्यमाणत्वा- मसमये च द्वितीयस्थिती चरमखराडे संक्रम्यमाणे सर्वजत्वं वतीय स्पर्धकम् । एवं समयद्वयोनावलिकाद्विके या- घन्यं प्रदेशसत्कर्मस्थानमादि कृत्वा प्रागिव द्वितीय स्पर्धक बन्तः समयास्तापम्ति स्पर्धकानि भवन्ति । तत आह-'- वाच्यम् । किंच-'अहिगा पुरिसस्स' ति पुरुषवेदस्याधिहिगाणि यभापलिगाए' इत्यादि । योगस्थानानि कृत्स्नानि कान्यपि स्पर्धकानि भवन्ति । कियन्ति भयन्तीति चेदुच्यतेसमस्तानि समुदायकरूपतया विवक्षितानि सकलयोगस्थान
'घेउ श्रावलिया' इत्यादि, अत्र दे मावलिके इस्यत्र तृतीसमुदाय इत्यर्थः । मावलिकागतैः समयैः समयदयहीनैर्गु
यार्थे प्रथमा । 'जोगट्ठारोहिं कसिणेहिं ' इति भत्र तु तृतीया एयन्ते गुणिते सति यावन्तः सकलयोगस्थानसमुदायास्ताव- प्रथमार्थे ततोऽयमर्थः-कृत्नानि योगस्थानानि; सकलयोम्ति प्रथमस्थितौ व्यवच्छिन्नायामधिकानि स्पर्धकानि भव
गस्थानसमुदाय इत्यर्थः । द्वभ्यामापलिकाभ्यां द्विसमयन्ति । तथाहि-बन्धादिम्यवच्छेदानन्तरसमये समयद्वयोना
हीनाभ्याम् प्रावलिकाद्विकसमयैर्विरूपहीनैरित्यर्थः, गुण्यबलिकाद्विकसमयप्रमाणानि स्पर्धकानि प्राप्यन्ते । एतचान
न्ते गुणिते च सति यावन्तः सकलयोगस्थानसमुदायास्ताम्तरमेष भाषितम् । बन्धादिव्यवच्छेदादृर्व च प्रथमस्थिति
वन्ति स्पर्धकान्यधिकानि भवन्ति , समयदयहीनावलिराबलिकामात्रा तिष्ठति,ततस्तस्थामावलिकामात्रायां प्रथम
काद्विकसमयप्रमाणानि अधिकानि भवन्तीत्यर्थः । तथाहिस्थिती संक्रमेण व्यवच्छिद्यमानायां परत प्रापलिकासमय
पुरुषवेदस्य बन्धोदयादिव्यवच्छेदे सति समययोनावप्रमाणानि स्पर्धकानि अन्यत्र संक्रमेण व्यवच्छिद्यन्ते प्रत लिकाद्विकपद्धं पुरुषवेदस्य दलिकं वियते । ततोऽवेदकएव च तानि पृथकन गुण्यन्ते । ततस्तेषु व्यवच्छिन्नेषु प्र
स्य सतः संज्वलनत्रिकोकप्रकारेण योगस्थानापेक्षया समथमस्थिती व व्यवच्छिन्नायां शेषाणि समयदयोनावलिका. यदयहीनापलिकाधिकसमयप्रमाणानि स्पर्धकानि वाध्यानि। समयप्रमाणाम्येषाधिकानि प्राप्यन्ते, नाम्यानीति ।
सम्प्रत्युक्तानां वक्ष्यमाणामांच स्पर्धकानां सामान्यरूपं लवेएसु फहगदुर्ग, महिगा पुरिसस्स बेड भावलिया। क्षणमाहदुसमयहीणा गुणिया, जोगट्ठाणेहि कसिणे हिं ॥४६॥ सब्बजहमाढतं, खंधुत्तरभो निरन्तरं उप्पि। 'बेपसु' चि-बेदेषु स्त्रीवेवपुरुषवेदनसकवेदेषु प्रत्येक एग उबलमाणी, लोभजसा नोकसायाणं ॥४७॥
स्पर्धके भवतः । कथमिति चेद, उच्यते-कचिजन्तुरभ- 'सवजहन्न'ति-सर्वजघन्यात् प्रदेशसत्कर्मस्थानादारग्धबसिद्धिकमायोग्यजघन्यप्रदेशसत्कर्मा त्रसेषु मध्ये समुत्पम्मः मेकैकेन कर्मस्कन्धेनोत्तरतः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तरोत्तरेण तत्र देशविरतिं सर्वविरति च बहुशो लम्ध्या चतुरश्च वारान् निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थानजाल तायनेय यावत् 'उप्पि' मोहनीयमुपशमग्य द्वाविंशवधिकं व सागरोपमाणां शतं उपरितनं सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानं भवति । इयमत्र यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्याप्रतिपतितसम्यक्त्यो नपुंसकवेदन भावना-सर्वजघन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानादारभ्य योगस्थानापेशपकणिमाढा, ततो नपुंसकवेदस्य प्रथमस्थिती द्विश्चर- क्षया एकैकेन कर्मस्कन्धेन वृतानि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि निमसमये वर्तमाने उपरितनस्थितिखण्डमम्यत्र संक्रमितम् ,त. रम्तराणि तावतव्यानि यावदुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानं भथा सति उपरितनी स्थितिः सर्वात्मना मिलोपीकृता। ततः | पति । एकैककर्मस्कन्धेनोत्तरत इति चोक्तं योगस्थानषशलप्रथमस्थितौ चरमसमये सर्वजघन्य यत् प्रदेशसत्कर्म तत् प्र. ग्धस्पर्धकापेक्षया , अन्यथा “घरमावलियपविटे" त्यादी थमं प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । तत एकस्मिन् परमाणौ प्रक्षिप्त स- पानि स्पर्धकान्युक्तानि तेष्वेकैकेन प्रदेशनषोत्तरोत्तर वृद्धिः ति द्वितीय प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । परमाणुग्यमक्षेपे व तृती- प्राप्यते इतिातदेषमुक्तं सामान्येन लक्षण स्पर्धकानाम् । सम्प्र. पम् । एवं नानाजीवापेक्षया पकैकपरमाणुवृखपा प्रदेशसत्क- स्युवल्यमानप्रकृतीनां स्पर्धकप्ररूपणार्थमाह-'एग उम्बलमामस्थानानि अनन्तानि तापदाच्यानि यावाणितकौशस्यो. पी' एक स्पर्धकमुखल्यमानमरुतीनां प्रयोविंशतिसंख्यामाम् । कई प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । एवमेकं स्पर्धकम् । ततो तत्र सम्यक्त्वस्य भावना क्रियते-प्रभव्यप्रायोग्यजयम्यद्वितीयस्थिती घरमखएडे संक्रम्यमाणे चरमसमये पूर्षों- स्थितिसत्कर्मा असेषु मध्ये समुत्पनस्तत्र सम्यक्त्वं देशविकप्रकारेण सर्वजघन्य यत्प्रवेशसरकर्मस्थानं तत् मा- रति पानेकवारान् लावा बतुरच बारान् मोहनीयमुपशदिकत्या मानाजीवापेक्षया यथासम्भवमुत्तरोत्तरपस्या मथ्य द्वात्रिंशदधिकं व लागारोपमाण शतं पावत्सम्यक्त्वनिरन्तर प्रदेशसरकर्मस्थानानि तायवाच्यामि याबद्रणितक- मनुपाख्य मिथ्यात्वं गतः,ततभिरोगलनया सम्यक्त्वमुखलमौशस्योको प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । तामि द्वितीय स्पर्धकम्।। पतो पदाबरमखएर संक्रान्तम् एकाचशेषा उदयापलिका अथवा-पावत्मथमा स्थितिद्वितीया च स्थितिर्षियते ता. तिष्ठति, तामपि स्तिबुकसंक्रमेण सिध्यात्वे संक्रमयति ।
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(१४०) संतकम्म अभिधानराजेन्द्रः।
संतकम्म संक्रमयतश्च या एका स्थितिचिसमयमात्रावस्थाना शेषी- कृतम् , तदपि च क्रमेण यथासम्भवमुदयोदीरणाम्यां क्षयभूता यवाऽवतिष्ठते तवा सम्यक्त्वस्य सा जघन्य प्रदेशस- मुपगच्छत्तावद्वक्तव्य यावदेका स्थितिः शेषीभवति । तस्यां कर्मस्थानम् । ततो नानाजीवापेक्षया एकैकप्रदेशवृद्धपा प्र- व क्षपितकोशस्य सर्वजघन्य यत्प्रदेशसत्कर्म तत्प्रथम देशसत्कर्मस्थानानि तावनेतन्यानि यावद् गुणितकौशस्यो- स्थानम् , तत एकस्मिन् परमाणौ प्रक्षिप्ते सति द्वितीय स्कृषं प्रवेशसत्कर्मस्थानं भवति । इदमेकं स्पर्धकम् । एवं प्रदेशसत्कर्मस्थामम् , एवमेकैकपरमाणुवृद्धा निरन्तराणि सम्यग्मिथ्यात्वस्यापि एवमेव च शेषाणामप्युखलनयोग्यानां प्रदेशसत्कर्मस्थानानि ताबद्वाच्यानि याषद्गुणितकौशस्य बैंक्रियैकादशकाहारकसप्तकोच्चैर्गोत्रमनुष्यद्धिकरूपाणां प्रक- सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । इदमेकं स्पर्धकम् । द्वयोश्च तीनाम् । नवरं तासां द्वात्रिंशदधिकसागरोपमशतप्रमाणः स. स्थित्योः शेषीभूतयोरुकप्रकारेण द्वितीय स्पर्धकम् । तिसृषु म्यक्त्वकाला मूलत एव न वक्तव्यः। लाभजस त्यादि स्थितिषु शेषीभूतासु तृतीय स्पर्धकम् । एवं क्षीणकषायाऽसम्ज्वलनलोभयशाकीयोरपि एक स्पर्धकम् तथाहि-स एवा
खासमीकते सत्कर्मणि यावन्तः स्थितिविशेषास्तापन्ति स्पभवसिद्धिकप्रायोग्यजघन्यस्थितिसत्कर्मा प्रसेषु मध्ये समु- धकानि याच्यानि । चरमस्य च स्थितिघातस्य चरम प्रक्षेत्पनः । तत्र चतुःकृत्वो मोहोपशममन्तरेण शेषाभिः क्षपित- पमादौ कृत्वा पचानुपूर्त्या प्रदेशसत्कर्मस्थानानि यथोत्तरं काँशक्रियाभिः कर्मदलिकं प्रभूतं क्षपयित्वा चिरकालं च
वृद्धानि तावद्वक्लव्यानि यावदात्मीयमात्मीयं सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसंयममनुपाल्य क्षपणायोत्थितः । तस्य यथाप्रवृत्तकरण- सत्कर्म तावदेतदपि सकलनिजनिजस्थितिगतं यथासम्भवचरमसमये जघन्य प्रदेशसत्कर्म । ततस्तस्मादारभ्य नाना- मेकैक स्पर्धकं द्रव्यम् । ततस्तेनाधिकानि स्थितिघातव्यवजीवापेक्षया एकैकप्रदेशवृद्धया निरन्तराणि प्रदेशसत्कर्म- च्छेदात् परतः क्षीणकवायाखासमयसमानि स्पर्धकानि भ. स्थानानि तावद्वाच्यानि यावद् गुणितकोशस्योत्कृष्ट प्रदे- बन्ति । निद्राप्रचलयोस्तु विचरमस्थितिमधिकृत्य स्पर्धकाशसत्कर्मस्थानम् , एवमेकं सज्वलनलोभयशःकीयोः स्पर्ध- निबाच्यानि, चरमसमये तइलिकस्यामाप्यमाणत्वात् । तत कम् पक्षामपि च नोकपायाणां प्रत्येकमेकैकं स्पर्धकम् ,तदपि | एकेन हीनानि तस्य स्पर्धकानि एव्यानि । बैखम्-स पवाभविसिद्धिकप्रायोग्यजघन्यप्रदेशसत्कर्मा प्रसेषु
सेलेसिसंतिगाणं, उदयवईणं तु तेण कालणं । मध्ये समुत्पन्नः। तत्र सम्यक्त्वं देशविरति चानेको लध्या चतुरच बाराममोहनीयमुपशमय्य स्त्रीवेदनपुंसकवेदी
तुम्मा गहियाई, सेसाणं एगऊणाई॥ ४६॥ व भूयो भूयो बन्धेन हास्यादिदलिकसक्रमेण च प्रभू- 'सेलेसि' ति-शैलेसी-अयोग्यवस्था तस्याः सत्ता यासा तमापूर्य मनुष्यो जातस्तत्र चिरकाल संयममनुपाल्य क्ष- प्रकृतीनां ताः शैलेशीसत्ताकाः । ताच विधा, तद्यथा-उव्यपणायोस्थितः । तस्य चरमखण्डबरमसमये यद्विद्यमानं प्र- वस्योऽनुदयवस्यथ । तत्रोदयबत्यो मनुष्यगतिमनुष्यायुःप. स्येकं षमा नोकषायाणां प्रदेशसत्कर्म तत्सर्वे जघन्यम् । तत- भेन्द्रियजातित्रससुभगादेयपर्याप्तबादयशःकीर्तितीर्थकरोथै स्तस्मादारभ्य नानाजीवापेक्षया एकैकप्रदेशवृद्धथा निरन्त- गोत्रसातासातान्यतरवेदनीयरूपा द्वादश । तासां प्रकराणि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि अनन्तानि तावद्वाच्यानि या- तीनां तेनायोगिकालेन तुल्यानि स्पर्धकानि एकैपर मुणितकोशस्योत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्म,। एवमेकं पण नो-|
केनाधिकानि भवन्ति । अयोगिकाले यावन्तः समयाकषायाणां प्रत्येक स्पर्धकम् ।
स्तावन्ति स्पर्धकानि एकेनाधिकानि भवन्तीत्यर्थः । कथसम्पति मोहनीयवर्जामा घातिकर्मणां स्पर्धकनिरूपणा- मिति चेदुच्यते-प्रयोगिकेवलिनश्चरमसमये क्षपितकर्मामाह
शमधिकृत्य यत्सर्वजघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानम् , तत् प्रथठिइखंडगविच्छेया, खीणकसायस्स सेसकालसमा । मे स्थानम् । तत एकस्मिन परमाणी प्रक्षिप्ते सति द्वितीएगहियाँ घाईणं, निदापयलाख हिचेकं ।। ४८॥ |
ये प्रदेशसत्कर्मस्थानम् । एवं नानाजीवापेक्षया एकैकप्रदेश
वृत्या तावत्प्रदेशसत्कर्मस्थानानि द्रष्टव्यानि यावगुणित'ठिखंडग' ति-क्षीणकषायस्य स्थितिखएडव्यवच्छेदात्
कौशस्य सर्वोत्कृष्वं प्रदेशसत्कर्मस्थानम् , इदमेकं स्पर्धस्थितिघातव्यवच्छेदात् परतो यः शेषकालस्तिष्ठति तत्स
कम् । तत एवमेव द्वयोः स्थित्योः शेषीभूतयोद्वितीय स्पमानि शेषकालसमयसमानि स्पर्धकानि एकाधिकानि घाति
धकम् । तिसषु स्थितिषु तृतीयम् । एवं निरन्तरं तापकर्मणां भवन्ति। निद्राप्रचलयोस्तु हिन्या-परित्यज्य एवं.चरम
| दवगन्तव्यम् , यावदयोगिप्रथमसमयः । तथा सयोगिकेवस्थितिगतं स्पर्धक, शेषाणि याच्यानि, निद्राप्रचलयो उद्
लिचरमसमये चरमस्थितिखण्डसत्कं चरमप्रक्षेपमाविं याभावात् स्वस्वरूपेण चरमसमये दलिकं न प्राप्यते, कि तु- कत्था यावदात्मीयमात्मीय सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तायदेपरप्रकृतिरूपण, तेन तयोरेकं स्पर्धकं बरमस्थितिगतं | तदपि सकलस्वस्वस्थितिगतमेकैकं' स्पर्धक द्रष्टव्यम् । परित्यज्यते । स्पर्धकानां चेयं भावना-क्षीणकषायाऽखायाः ततोऽयोगिकेवलिगुणस्थानके यावन्तः समयास्तावन्ति स्पसंख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिश्च संख्येयतमेऽन्तर्मुहू- कानि एकाधिकामि उदयवतीनां प्रकृतीनां प्रत्येकं भवन्ति, तेप्रमाणे भागेऽवतिष्ठमाने ज्ञानावरणपश्चकदर्शनावरणचतु- शेषाणां त्वनुदयवतीनां प्रकृतीनां इयशीतिसंस्थानां ताबध्यान्तरायपञ्चकानां स्थितिसत्कर्मसर्वापवर्तनयापवर्त्य क्षी- ति स्पर्धकान्येकेन हीनानि भवन्ति । यतस्ता अयोगिकेवणकषायाखासमं करोति । निद्राप्रचलयोस्त्वेकसमयहीनम् । लिचरमसमये उदययतीषु मध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रअत्र च कारणं प्रागेवोक्तम् तदानीं च स्थितिघातादयो । म्यन्ते । ततस्तासां चरमसमयगतं स्पर्धकं न प्राप्यत इति निवृत्ताः । यदपि च क्षीणकषायादासमं स्थितिसत्कर्म । तेन हीनानि तासां स्पर्धकानि भवन्ति । इह यद्यपि म
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अभिधानराजेन्द्रः।
संतत्त नुष्यगत्यादीनाम् 'एग उठवलमाणी' इत्यनेन ग्रन्थेन प्रागेव | प्रकृतिबन्धव्यवच्छेदे सति उपशान्तमोहगुणस्थानकात् स्पर्धकप्ररूपणा कृता तथापि इहापि तासां स्पर्धकानि- | प्रतिपाते भूयोऽपि बन्धारम्भप्रथमसमये , स हि तदानी न प्राप्यन्त इति भूय उपादानम् । एवं करणेष्वपि बन्धनादिषु | भूयस्कारो वक्तं शक्यते , नाप्यल्पतरः, नाप्यवस्थितः , यथासम्भवं स्पर्धकानि वाच्यानि ।
तल्लक्षणायोगात् , ततोऽसाववक्तव्य इत्युच्यते , भूयस्कातथा चाह
रादिनाम्ना वक्नुमशक्यत्वात् । एवमुत्तरप्रकृतीरधिकृत्य क्षासंभवतो ठाणाई, कम्मपएसेहि होंति नेयाई । नावरणीयादीनां वेदनीयवर्जानामवक्तव्यो भावनीयः । वेदकरणेसु य उदयम्मि य, अणुमाणणेव मेएणं ॥५०॥
नीयस्य त्ववक्तव्यो न सम्भवति , तस्य हि सर्वथा बन्ध
व्यवच्छेदः सयोगिकेवलिचरसमये । न च ततः प्रतिपातो 'संभवतो' ति सम्भवमाश्रित्य स्थानानि प्रदेशसत्कर्म- येन भूयो बन्धः प्रवर्त्तमानः प्रथमसमयेऽवकन्यः स्यात् । स्थानानि करणेषु बन्धनादिषु उदये च कर्मप्रदेशेभ्यः कर्म- तदेवं मूलप्रकृतीरधिकृत्य वक्तव्यवर्जाः शेषास्त्रयः प्रकाराः, प्रदेशानधिकृत्य यानि-शातव्यानि । कथमित्याह-ए- उत्तरप्रकृतीस्त्वधिकृत्य चत्वारोऽपि प्रकाराः सम्भवन्ति । यमुपदर्शितेन एतेन-प्रागुनेन अनुमानेन प्रकारेण झा- यथा च बन्धे चत्वारोऽपि प्रकारा भाविताः। एवं संक्रमे तव्यानि । तथाहि-बन्धनकरण जघन्य योगस्थानमादि कृ- उर्सनायामपवर्तनायामुदीरणायामुपशमनाबामुदये सत्तास्वा यावदुत्कृष्टयोगस्थानम् एतावन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानानि यां च प्रकृतिस्थानेषु स्थित्यनुभागप्रदेशस्थानेषु च यथाबन्धमाश्रित्य प्राप्यन्ते, तावन्ति चैकं स्पर्धकम् एवं संक्र- योग स्वयमेव भावनीयाः। मणादिष्वपि प्रत्येकं यथायोग भावनीयम् ।
करणोदयसंताणं, सामित्तोघेहिसेसगं नेयं । करणोदयसंताणं, पगइट्ठाणेसु सेसगतिगे य।
गइयाइमग्गणासुं, संभवप्रो सु१ आगमिय ।। ५३ ॥ भूयकारप्पयरा, अवाटुआ तह अवत्तवा ॥ ५१ ।। 'करणोदयसंताणं' ति-अष्टानां करणानामुदयसत्तयोश्च 'करणोदयसंताणं' ति-अष्टानां करणानामुदयसत्तयो- यदुक्तं प्रत्येकं सप्रपञ्चं स्वरूपं तत् श्रोधस्वामित्वमुच्यते । श्व प्रकृतिस्थानेषु 'सेसगतिगे यत्ति' शेषके च त्रिके स्थि- 'सामित्तोधेहिं ' ति द्वितीयार्थे तृतीया , व्यक्त्यपेक्षया च स्यनुभागप्रदेशरूपे प्रत्येकं चत्वारो विकल्पा पातव्याः। बहुवचनम् । ततश्च तानि ओघस्वामित्वानि यथोक्तकरणाष्टतपथा-भूषस्कारः, अल्पतरः, अवस्थितः, अवनव्यश्च । कोदयसत्तास्वरूपाणि सुष्ठु आगम्य परिभाव्य शेषकएतेषां चतुर्णा लक्षणमिदम्
मपि हातव्यम् । क सातव्यमित्याह-गत्यादिषु चतुर्दशसु
मार्गणास्थानेषु । कथमित्याह-सम्भवतो यथासम्भवति एगादहिगे पढमो, एगाई ऊणगम्मि विभो उ ।
घटते तथैव, नाऽन्यथा। तचियमेत्तो तइयो, पढमे समये अवतब्बो॥५२॥ बंधोदीरणसंकम-संतुदयाणं जहन्नगाईहिं । 'एगावहिगे' सिनह बन्धमाभिस्य भावना क्रियते । संवेहो पगइठिई, अणुभागपएसओ नेत्रो ॥५४॥ बन्धी वि-मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च । तत्र मूल
__ 'बंधोदीरण' त्ति-बन्धोदीरणासंक्रमसतोदयरूपाणां पश्चानां प्रकृतीनां बन्धः कदाचित् अष्टानाम्, कदाचित्सप्तानाम् , कदाचित् षण्णाम् , कदाचिदेकस्याः । तत्र यदा स्तोकाः
पदार्थानां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्र. प्रकृतीराबध्नन् परिणामविशेषतो भूयसीः प्रकृतीनाति,
देशानधिकृस्य जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टैः सम्बन्धः परस्प
रमेककालमागमाविरोधेन मीलनम् । यथा शानावरणीयस्य यथा सप्त बढा अष्टौ बध्नाति, यद्वा-पद् एकां च बला सप्त, तदा स बन्धो भूयस्कारः । तथा चाह-'एगा
जघन्य स्थितिबन्धे जघन्योऽनुभागबन्धः,जघन्यः प्रदेशबन्ध: दहिगे पढमो' एकादिभिरेकद्वियादिभिः प्रकृतिभिरधिके
भजधन्याः स्थित्युदीरणासंक्रमसत्तोदया इत्यादिरूपं, तबन्धे प्रथमः प्रकारो भवति, भूयस्कारो बन्धो भवतीत्य
त्पूर्षापरी सुष्टु परिभाब्य शातव्यम्। क० प्र०१० प्रक० । र्थः । यदा तु प्रभूताः प्रकृतीबंध्नन् परिणामविशेषतः
पं० सं०। स्तोका बजुमारभते, यथाऽष्टी बद्धा सप्त बध्नाति , सप्त | संतगुणनासग-सद्गुणनाशक-पुं०। गुणापालके, प्रश्न०२ वा बद्धा षट् षड्वा बद्धा एकां, तदानीं स बन्धोऽल्पतरः। आश्रद्वार। तथा चाह-एगाई ऊणगम्मि बिश्रो उ' एकादिभिरे
र- संतचित्त-शान्तचित्त-त्रिका उपशान्तमनसि, पो० ११ विव०। कद्विव्यादिभिः प्रकृतिभिरूने बन्धे द्वितीयः प्रकारः अल्पतर इत्यर्थः। तथा स एव भयस्कारोऽल्पतरोधा नि-संतच्छण-सन्तक्षण-न०। समेकीभावेन तक्षण, सत्र. १ तीयादिषु समयेषु तावन्मात्रतया प्रवर्तमानोऽवस्थित इति | श्रु०५ १०१ उ०। व्यपदेशं लभते । तथा चाह- तत्तियमेत्तो तहो' ता- | संतञ्जण-संतर्जन-न० । विग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यबन्मात्रस्तृतीयोऽवस्थित इत्यर्थः । एते त्रयोऽपि प्रकारा
एत अयाजप प्रकारा तीत्यादिरूपे राज्यव्यवहार्यभेदे , स्था० ३ ठा० ३ उ० । मूलप्रकृतीनां सम्भवन्ति । चतुर्थस्तु न सम्भवति । न हि मूलप्रकृतीनां सर्षासां बन्धव्यवच्छेदे सति भूयोऽपि बन्धः
संतति-सन्तति-स्त्री० । सन्ताने, विशे० । उत्तरोत्तरनिरन्तसम्भवति येन चतुर्थों बन्धः स्यात् । तत उत्तरप्रकृतीर
रोत्पत्तिरूपप्रवाहे, उत्त०१०। धिकस्य स वेदितव्यः । यथा मोहनीयस्य तद्वतसर्वोत्तर- संतत्त-संतप्त-त्रि० । समन्तात् तप्ते, सूत्र०१९०३ १०१ उ०।
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संति
संतत्ततव(म्)
अभिधानराजेन्द्र। संतत्ततव(स)-सन्तप्ततपस्-पुंगमाहारादिनिमित्तं तपःकारि- संतरुत्तर-सान्तरोत्तर-त्रिका मान्तरः सौत्रकल्पः,उत्तर और्णि णि, पं० २०५द्वार।
कस्ताभ्यां सहितः सान्तरोत्तरः। सौगौर्णिकाभ्यां प्रावृते, कसंतपय-सत्पद-न। सच तत्पदं च सत्पदम् । विद्यमानार्थे ल्प०३ अधि०६ क्षण । भाषा। पवे, विशे।
संतसंगम-सत्सङ्गम-पुं० । सत्पुरुषसम्पर्क, पो०१३ विव० । संतपयपरवणया-सत्पदप्ररूपणता-स्त्री०सच तत्पदं च सरपर संतसण-संत्रसन-१० । पालमाप्ती, उत्त०१ प० । उलेगे , तस्प प्रापणं सरपदप्ररूपणम् । गत्याविद्वारेषु विचारणम्। त.
उत्त०२०। मावस्तता कस्मिन् गत्यादिद्वारे इदं सदीत्येवं सतो विचमान- संतसार--सरसार-पि० । शोभमसारे, सूत्र०२४० १०। स्यायस्य गत्यादिद्वारेषुप्ररूपणायाम, विशा पा०म०मा० | संतसोय-शान्तश्रोतस्-पि० । शान्तप्रवाहे, प्रा०११ द्वा।
०।०। अनु० । इह स्तम्भकुम्भादीनि पदानि सदर्थविष- संता-शान्ता-खी० पुपाबस्य शासनदेव्याम् , प्रवासाच पाणि पश्यन्ते, स्वरशृङ्गव्योमकुसुमादीनि त्वसवर्थविषयाणि,
सुवर्णवर्णा गजबाहना चतुर्भुजा बरदाशस्त्रयुक्तदक्षिणकसमानुपादिपदानि किं स्तम्भादिपदानीव सदर्थविषया
ज्या शूलाभययुक्तवामहस्तया च । प्रब० २७ द्वार। एयाहोश्चिन् खरविषाणादिपदवत् असदर्थगोचराणीत्येतप्रथम पर्यालोचयितव्यं तथाऽनुपूर्व्यादिपदाभिधेयद्रव्याणां
संताचल-सदचेल-पु०। सद्भिौरखेला सदलाः । जिप्रमाणं संख्यास्वरूपं प्ररूपणीयम् । अनु० । प्रा० म० । नेभ्योऽन्येषु साधुष, पश्चा०१७ विष (तस्वं घोक्तम् 'श्रसंतप्प-सं-तप--धा। सम्यक दुःखे, "संतपे " ||१४०॥ चेल' शब्दे प्रथमभागे १८८ पृष्ठे ।) इति मजादेशाभावे-संतप्पड । प्रा०४ पाद।
संताण--सन्तान-पुं० । तन्तुजाले, प्राचा० १ भु०५०६ संतबुद्धि-सद्धि-स्त्री०। शोभनोऽयमित्येवं रूपायां शोभ- उ०। आव०। पं०व०। आ० ० । प्रवाहे, भाष० ४ नायां बुजौ, हा० २६ अष्ट।
अ०। औ०। गुणानां समभागसन्ततानवरतप्रवृत्ती, विश०। संतमस-संतमम्-न० । अन्धकारे, 'संतमसं अंधकारं' पाइ० | संताणकर-सत्त्राणकर-त्रि० । मार्तजनपरित्राणकारिणि, ना०४६ गाथा । ('अंधकार' शब्दे प्रथमभागे १०५ पृष्ठे | वृ०१ उ०२ प्रक० । अस्य स्थित्यादिनिरूपणमुक्क्रम् ।)
संताणभेद--सन्तानभेद--पुं । सन्तानश्चासौ भेदश्च संतान - संतय-सन्तत-त्रि० । व्याप्ते,उत्त०२ १० । निरन्तराले, विशे०।
दः । क्षणप्रवाहविशेष, हा० १४ अष्ट० । श्राचा । निरन्तरे, पाइ० ना०८७ गाथा ।
संताभाव-सद्भाव-पुं० । सद्भावे सन्ति साधवः परंन संतर-सान्तर-न० । सहान्तरेण व्यवधानेन वर्तते इति सा
धर्मकथादिषु कुशला इत्येवंरूपे विद्यमानस्यार्थस्याभावे , न्तरः । सव्यवधाने, उत्त०५०। स्वस्वकृते त्रिकालावस्था- व्य०६ उ०। ने, वृ०२ उ०। (सान्तरं निरन्तरं वा उपपद्यन्ते इति उक्तम् । संताव-सन्ताप-पुं० । मानसे क्लेशे, मा० म०१०। "उववाय' शब्दे द्वितीयभागे ६१७ पृष्ठे)
'संतावणिचए' संतापः एकत्र शोकादिकतोऽन्यत्र चामिसंतरण-सन्तरण-ज० । नद्यादेः पारगमने, अष्ट० २१ अष्ट । कृतो नित्यं यत्र स संतापनित्यकः । प्रश्न० ३ भाभ० द्वार। भाव। ('दीसतार' शब्दे चतुर्थभागे १७३८ पृष्ठे सन्त- | संतावणकिच्छ-सन्तापनकच्छ-1०1" यामध्यो कि रणविधिदर्शितः।)
यहमुष्णं घृतं पिबेत् । व्यहमुणं पिम्मू, यामुष्ण पिषेत् संतरणिरन्तरा-सान्तरनिरन्तरा-स्त्री० । यासां कर्मप्रकृतीनां
पयः ॥१॥" इत्येवंरूपे तपोभेरे, शा० १२ द्वा०। जघन्यतः समयमात्रमुत्कर्षतः समयादारभ्य नैरन्तर्येणान्तर्मु
न्तमु संतावणी-सन्तापनी-स्त्री० । सम्तापयतीति संतापनी । मरइतस्योपर्यपि असंण्येयकालं यावत्तारशीषु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वार।
ककुम्भ्याम् , सूत्र० १ श्रु०५०२७०। संतरणोपाय-सन्तरणोपाय-पुं० । पारंगमनोपाये, अष्ट. २२
संतासंतसत्ति-सदसच्छक्ति-पुं० । सद्भावनासकावेन पाsअष्ट।
शक्त, तत्र सद्भावो न लब्धमनं प्रान्तं तेन धामीभूतोऽस
द्भावो यथातृप्ति भक्ष्यस्यैवाभावः स तथा क्षामीभूतो बिसंतरयणदित्ति--सदरत्नदीप्ति-स्त्री०। सद्रस्नस्य जात्यरत्नस्य
हर्तुमशक्नुवन् । व्य०४ उ०। । स्वभावत एव पारमृत्पुटपाकायभावेऽपि भास्थररूपस्य या दीप्तिः । सद्रत्नप्रकाशे, षो० ११ विव०।
संति-शान्ति-स्त्री० । मोक्षे, स्था०८ठा०३ उ०। सूत्र०।कसंतरा-सान्तरा-स्त्री० । यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमा
मदाहोपशमे, सूत्र०१ श्रु० ३ ० ४ उ० । अशेषशो
परमे, सूत्र०१थु०१४ अ०क्रोधजये , सत्र.११०१६ प्रबन्धस्तासु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३द्वार । (पताच 'कम्म'
अ०। द्रोहविरती, प्रश्न०१ संव० द्वार। शमनं-शान्तिः |मशब्दे तृतीयभागे २६६ पृष्ठ दर्शिताः।)
हिंसायाम् ,आचा०१७०६०५ उ०। शान्तिः-उपशमप्रसंतरित्तए-सन्तरितुम्-अव्य० । भूयः प्रत्यागन्तुमित्यर्थे, सा
शमसंवेगनिदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यग्दर्शन-- अत्येन नावादिना तरितुमित्यर्थे, वृ०४ उ० ।
। ज्ञानचरणकलापैः शान्तिरुच्यते । निरायाधमोक्षास्यशान्ति
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संति अभिधानराजेन्द्रः।
संति माप्तिकारणत्वात् तस्य । आचा०१श्रु०१०७ उ०। - बनः पूर्वदत्तकन्याया भ्रातृभिरुत्प्रवाजितः कर्मपरिणतिशेषकर्मापगमे मोते, आचा०१६०२ १०४ उ०। मिथ्या- पशेन सा मया परिणीता । तेन मया सर्वक्षप्रणीतनिस्वादिदावालनविध्मापनात् सामायिके, प्रा० म०१०। मित्तानुसारेण प्रलोकितम् यथा-सप्तमे विषसे पोतशान्तियोगात् तदात्मकत्वात् कर्तृकत्वाद्वा शान्तिरिति । | नाधिपतेरुपरि विद्युत्पातो भविष्यति । एवं तेन नैमित्तिकेतथा गर्भस्थे पूर्वोत्पन्ना शिवशान्तिरभूदिति शान्तिः । नोक्ने एकेन मन्त्रिणा भणितम्-यथा महाराज! समुद्रमध्ये घ.२ अधि। मा० म०। भरते वर्षे वर्तमानावसर्पिण्यां वाहनान्तर्भवद्भिः सप्तदिवसात् यावत् स्थेयम्, तत्र विद्युन्नजाते षोडशे तीर्थकरे, प्रा० चू०१०।
परा भवति । अन्येन मन्त्रिणा भणित-दैवयोगोऽन्यथा कर्तुन इदानी शानस्यात्मकत्वात् शान्तिः तत्र सर्व एव तीर्थकृत तीर्यते यत उक्तम्-"धारिजह इन्तो सा-गरो विकलोलभित्र एवं रूपा प्रतो विशेषमाह
कुलसेलो । न हु अन्नजम्मनिम्मित्र-सुहासुद्दो कम्मपरिणा
मो" ॥१॥ अपरेण मन्त्रिणा भणितम्-पोतनाधिपतेर्वधोजातो असिवोवसमो, गन्भगते तेण संति जिणो॥
नेन समाविष्टो न पुनः श्रीविजयराजस्य ततः सप्तमदिवसापूर्व महवशिवमासीत् भगवति तु गर्भगते जातः अशिवोप
त्यावदपरः कोऽपि पोतनाधिपतिर्विधीयते; सर्वैरप्युक्तमशमस्तेन कारणेन शान्तिजिनः । प्रा० म०२०। अनु०।
यमुपायः साधुः, मयोक्तं मज्जीवितरक्षाकृतेऽपरजीवषयः प्रव० । ति। प्रा० चू०। स० । “ स्मरणं यस्य सत्त्वानां,
कथं क्रियते सर्वैरुक्तं तर्हि यक्षप्रतिमाया राज्याभिषेकः कितीवपापौघशान्तये । उत्कृष्टगुणरूपाय , तस्मै श्रीशान्तये
यते, एवं मन्त्रयित्वा सर्वैरपि यक्षप्रतिमा पोतनपुरराज्येनमः॥१॥" श्रा०। ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे सम्पू
ऽभिषिक्ला, सप्तदिवसान् यावत् मया पौषधागारे गस्था णोऽधिकार उक्तः।)
पौषधा एव कृताः। सप्तमदिवसमध्याह्नसमये गगनमागेंडक. चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महडिओ।
स्मान् मेघः समुत्पन्नः, स्फुरिता विद्युल्लता, इतस्ततः परिभ्रसन्ती संतिकरे लोए, पत्तो गइमणुत्तरं ॥३८॥ म्य यक्षप्रतिमा विनाशिता, अष्टमे दिवसे चाहं पौषधशापुनः शान्तिः शान्तिनाथः प्रस्तावात्पञ्चमश्चक्री अनुत्तरां
लातो निर्गत्य क्षेमेण स्वभवने समायातः, तं नैमित्तिकं कमगति प्राप्तः मोक्ष प्राप्तः। कथम्भूतः शान्तिः?, लोके शान्तिकरः
करनादिभिः पूजितवान् । पुनरहं नागरिकैः पोतनराज्ये भशामित करोतीति शान्तिकरः इति विशेषणेन तीर्थरत्वं प्र
भिषिक्तः, तदिदमस्मिन्नगरे विविधमहोत्सवकारणमिति श्री.
विजयेनोक्नेऽमिततेजाः प्राह-अषिसम्बादनिमित्तं शोभनो तिपादितं पोरशस्तीर्थकरःशान्तिनाथो, मोक्षं जगाम इत्यर्थः। किंकल्या भारत पास त्यक्त्वा भरतस्य भारतं भरतक्षेत्र.
रक्षणोपाय इत्युक्त्वा अमिततेजोराजःस्वस्थान गतवान् । श्र
ग्यदा भीविजयराजः सुतारया समं बने रन्तुं गतः सुतासंपग्धिपासम् इति-राज्यवासम् । कीरशः शान्तिः,पकवी महर्डिका इत्यनेन शाम्तेचकवर्षि तीर्थकरवंब
स्या तत्र कनकामृगो रएः श्रीविजयस्योक्तं स्वामिन् ! ममैनं प्रतिपादितम् ॥ ३८॥
मृगमानीय देहि । मम क्रीडाथै भविष्यति । ततः श्रीविज
पराजा तमाहणार्थ स्वयमेव प्रधावितो, नो मृगस्तत्अत्र शान्तिनाथरात-बिजम्धीपे भरतक्षेत्र वैताख्यप
पृष्टिं राजा न स्यजति कियन्ती भुवं गत्वा उत्पतितो मृगः, बते रथ पुरचक्रचालनामनगरमस्ति । तब राजा ममिततेजा
तावता सुतारा कुर्कुटसण दटा पूञ्चकार । अहं कुर्कुटपरिषसति । तस्य सुतारा नानी भागिनी पर्तते । साब पो
सण पाहा मिय! मात्रायस्वति श्रुत्वा श्रीविजयस्त्वरितनाऽधिपतिना श्रीविजयराजेन परिणीताम्यदाऽमितते.
तं पश्चादापात:तायता सुतारा पश्चत्वमुपागता । राजा जोराजः पोतनपुरे भीषिजयसुतारादर्शनार्थ गतः। मेहते
शोकपरपसस्तया समं चितायां प्रविष्टः, उहीप्तो ज्वलनः प्रमुदितमुच्छितपताकं सर्वमपि पुरं विशेषता राजकुलम् ।
ताक्ता स्तोकबेलायां समागतौ द्वौ विद्याधरौ । तत्र एततो विस्मितलोचनोऽमिततेजोराजो गगनतलादुत्तीर्णःग
के सलिलमभिमध्य चिता सिक्का वैतालिनी विद्या नष्टा, तश्च राजभवनमभ्युत्थानादिसत्कृतः भीविजयेन कृतमुचितं
राजा स्वस्थो जातो बभाण च-किमिदमिति ?, विद्याकरणीयमुपविष्टः सिंहासनेऽमिततेजोराजः पप्रच्छ नगरो
धराभ्यां भणितमाषाममिततेजसः स्वकीयो जिमवन्दनत्सवकारणम्। यतः श्रीविजय एष प्राह-यथा इतोऽएमे विषसे मदन्तिके एको नैमित्तकः समायाता, मवनुशाते सिंहा
निमित्तमाकाशमागें भ्रमन्तौ अशनिघोषषिद्याधरेणापसमे उपविष्टः पृष्टश्च मया किमागमनप्रयोजनम्, तत
हियमाणायाः सुतारायाः आक्रन्दशब्दं श्रुतवन्तौ तन्मोस्तेन भणितं महाराज ! मया निमित्तमवलोकितं यथा
बनार्थमाषाभ्यां युद्धमारब्धम् । ततः सुतारया च प्रोक्नमलं पोतनाधिपतेरुपरि इतो दिवसात्सप्तमे विषसे मध्याहसमये
युद्धन पथा महाराजः श्रीविजयो वैतालिनीविद्यामोहितो विद्युत्पतिष्यति । इदं च कर्णकटुकं वचः श्रुत्वा मन्त्रिणा
जीषिन परित्यजति तथा तदुद्याने गत्या शीघ्रं कुरुभणितं तदानीं तवोपरि किं पतिष्यति?, तेनोनं मा कु
ताम् । तत भाषामिहायातौ दृष्टस्त्वं वैतालिन्या समं चिताप्यत यथा मयोपलब्धं निति तथा भवतां कथितं न रूढः । अभिमन्य जलेन सिक्का चिता न सा दुवैतालिनी। चात्र मम कोऽपि भाषदोषोऽस्ति । ममोपरि तस्मिन् विध- स्वस्थावस्थस्थमुत्थित इति । अपहृतां सुतारां ज्ञात्वा विषमः से हिरण्यवृष्टिः पतिष्यति । मया भणितं त्वयैतन्निमित्तं क श्रीविजयो राजा भणितश्च ताभ्यां राजन् ! खेद मा कुरु, स पठितम् १ तेन भणितं मया त्रिपृष्ठषासुदेवभ्रात्रचलबलदेव- पापः कयास्यति? इत्यादिवचनैः श्रीविजयराजानमाश्वास्य दीक्षासमये पित्रा समं मयाऽपि प्रवज्या गृहीता तत्रानेकशा | तौ विद्याधरौ अमिततेजःसमीपं गतौ। ततोऽमिततेजप्रेषित नाण्ययनं कुर्वताश्यानिमित्तमध्यधीतम् । ततोऽहं प्राप्तयो विद्याधररचितविमानः स श्रीविजयोऽपि अमिततेजःसमीपं
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(१४४) संति
अभिधानराजेन्द्रः। गतः। अमिततेजःश्रीविजयाभ्यां ससैन्याभ्यां गत्वा तन्नगरं | नं वन्दित्वा गतौ स्वस्वस्थानम् । अन्यदा अमिततेजःश्रीविजवेष्टितमशनिघोषान्तिके दूतः प्रेषितः तयोरागमनं श्रुत्वा - याभ्यामुद्यानगताभ्यां चारणश्रमणाभ्यामवधिज्ञानेन ज्ञात्वा शनिघोषो नष्टः उत्पन्न केवलस्य अचलस्य समीपे गतः। अमि- उक्तम्-यथा पदविंशतिदिनानि भवतोयोरप्यायुः ततततेजाश्रीषिजयावपि तत्पृष्ठतस्तत्रायातौ, सर्वेऽपि गतम- स्ताभ्यां मेरी गत्वा कृतोऽष्टाहिकामहोत्सवः स्वस्वराज्ये सराशावन्ति। एकेन अमिततेजोविद्याधरण सुतारापि च गत्वा स्वस्वपुत्रौ अभिषिच्य जगन्नन्दनमुनिसमीपे संयमतमानीता। लब्धावसरेणाशनिघोषेण भणितं न मया दुष्ट- मादाय पादपोपगमनमनशनं च विहितम् । विधिना कालं कभावेन सुतारा अपहता किं तु विद्या साधयित्वा गच्छता त्या प्राणते कल्पे विंशतिसागरोपमायुर्देवत्वेनोत्पन्नौ ततश्च्यु मया इयं रश, पूर्वस्नेहेन इमां त्यक्रं न शक्नोमीति वैता- तौरव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे रमणीविजये शीताया महानद्या लिन्या विद्यया श्रीविजयं मोहयित्वा सुतारां गृहीत्वा खन- दक्षिणकूले सुभगायां नगर्या प्रेमसागरस्य राज्ञो वसुन्धरागरे गतः । नास्याः शीलभङ्गमकार्ष तथापि ममात्रार्थे योऽप- उनसुन्दर्योर्महागर्भ क्रमेण कुमारत्वेनोत्पनी अमिततेजोजीराधः सक्षन्तव्य इत्याकर्ण्य अमिततजसा भणितम्-भगवन् ! योऽपराजितनामा, श्रीविजयजीवोऽनन्तवीर्यनामा जातः । किं पुनः कारणमेतस्य अस्यां स्नेहोऽभूत्। ततोऽचलकेवली तत्रापि प्रतिशत्रुरिदमिता व्यापाद्य क्रमेण बलदेवं वासुदेवकथयति-मगधदेशेऽचलग्रामे धरणीजढो नाम विप्रस्त- त्वमापत्रौ । तयोश्च पिता प्रवज्याविधानेन मृत्वाऽसुरकुमास्य कपिला नाम चेटी तस्याः पुत्रः कपिलो नाम, तेन कर्ण- रेन्द्रत्वेनोत्पन्नः । अनन्तवीर्यस्तु कालं कृत्वा द्विचश्रवणमात्रेण विद्या शिक्षिता, गतश्च देशान्तरे "रत्नपुरं" नाम त्वारिंशत्सहस्रवर्षायुर्नारकः प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नः, चमरश्च नगरम् । तत्र कस्यचिदुपाध्यायस्य मठे गतः उपाध्यायेन पृष्टः पुत्रस्नेहेन तत्र गत्वा वेदनोपशमं चकार । सोऽपि संविग्नः कस्त्वम् ?, कुत भागतः?, कपिलेनोक्तमचलग्रामे धरणीजढ- सम्यक सहते। अपराजितो बलदेवो भ्रातृविरहदुःखितो विप्रसुतः कपिलनामाऽहं विद्यार्थी अत्रायातस्तव समीपमि- निक्षिप्तपुत्रराज्यो जगद्धरगणधरसमीपे निष्कान्तः । शुद्धा ति । उपाध्यायेन स बहुमानं स्वगृहे रक्षितः, विद्यामध्याप्य प्रव्रज्यां परिपाल्य अच्युतेन्द्रत्वेनोत्पन्नः । अनन्तवीर्यस्तु, खपुत्री तस्य दत्ता सत्यभामा नाम्नी । अन्यदा वर्षाकाले स नरकादुद्धृत्य वैताढये विद्याधरत्वेनोत्पन्नः अच्युतेन्द्रेण कपिलो रात्री स्ववस्त्राणि कक्षायां कृत्वा वर्षस्येव मेघे स्वगृ- प्रतिबोधितोऽसौ प्रव्रज्यां गृहीत्वाऽच्युतकल्पे इन्द्रः सामाहद्वारे समायातः। सत्यभामा च श्रयं स्तिमितवस्त्रो भ
निकत्वेनोत्पन्नः । अपराजितोऽच्युतेन्द्रस्ततश्च्युत्त्वा इहैव जविष्यतीति चिन्तयन्ती अपराणि वस्त्राणि गृहीत्वा गृह
म्बूद्वीपे शीतामहानदीदक्षिणकूले मालावतीविजये रत्नद्वारे सन्मुखमायाता । कपिलेन तस्या उनम् , अस्ति मम प्र.
संचयापुर्या क्षेमंकरो राजा; तस्य भार्या रत्नमाला, तयोः भावो येन वस्त्राणि न स्तिम्यन्ति , तावता विद्युत्प्रकाशे
पुत्रो वज्रायुधाभिधानो जातः।इतश्च श्रीविजयजीवो देवायुरतया स नग्नो दृष्टः । ज्ञातं चायं नग्न एव समायातो वस्त्रा
प्रतिष्ठितम् । अन्यदा पौषधशालायां स्थितो बजायुधो देवेणि कक्षायां च निहितवानित्यवश्यमयं हीनकुल इति सा क
न्द्रेण प्रशंसितः, यथाऽयं वज्रायुधो धर्माचालयितुं न शक्यते पिले मन्दस्नेहा जाता। अन्यदा धरणिजढो विप्रस्तत्र कपिलसमीपे समायातः, सत्यभामा च पितापुत्रयोर्विरुद्धमाचार
देवैर्दानवैश्च । तत एको देवस्तवाक्यमश्रद्दधानः पारापतरूपं दृष्टा परमार्थ पृष्टो धरलिजदविप्रः। तेन यथार्थ कथितं तच्छु.
विकुर्व्य भयभ्रान्तो वजायुधमाश्रितः। वजायुध! तव शरणं
ममास्तु इति मनुष्यभाषयोवाच । वज्रायुधेन तस्य शरणं त्वोद्विग्ना सत्यभामा कामभोगेभ्यो निर्विराणा प्रम्रज्यानहणनिमित्तं पृष्ठः कपिलः, न मुञ्चत्येष कपिलः तदा इयं
दत्तम् , स्थितस्तदन्तिके पारापतः । तदनन्तरं तत्रैवाग. गता तन्निवासिश्रीषेणराजसमीपं बभाण च । भो राजन् !
तो लावकः । तेनापि भणितम्-यथा महासत्त्व - मां कपिलसमीपान्मोचय,येनाहं दीक्षां गृह्णामि । राज्ञा कपि
एष मया सुधाक्लान्तेन प्राप्तः, ततो मुचनमन्यथा नास्ति लस्योक्तम् ,कपिलो न मन्यते । राक्षा पुनस्तस्या उक्नं,तावत् त्वं
मम जीवितमिति । ततस्तद्ववनमाकर्ण्य बजायुधेन भाणिमम गृहे तिष्ठ यावत् कपिल बोधयामीति । अन्यदा स राजा
तं न युक्तं शरणागतसमर्पणम् । तथापि न युक्तमेतत् , यतः
"हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करे सप्पाणे । अप्पाणं दिस्वपुत्री गणिकानिमित्तं युध्यमानौ दृष्टा वैराग्येण विषं भक्षितवान् । ततः सिंहनन्दिताऽभिनन्दितानाम्न्यौ श्रीषेणनृप
वसाण,क एस नासेर अप्पाणाश"यथा जीवितं तव प्रिय स, स्य भार्ये कपिलस्य भार्या सत्यभामा च विषप्रयोगेण का
र्वेषामपि जीवानां तथैवास्ति,एनं भयभ्रान्तं दीनं व्यापादयिलं गताः । चत्वारोऽप्यमी जीवा देवकुरुषु युगलत्वेनोत्पन्नाः।।
तुं तव न युक्तम् । धर्म कुरु । पापं मुश्च ।लावकः प्रतिभणतिततः सौधर्मे कल्पे गताः । ततश्च्युत्वा श्रीषणजीवोऽमितते- राजन्नहं बुभुक्षितः न मे मनसि धर्मस्तिष्ठति । ततः पुनजा जातः । अभिनन्दिता जीवः श्रीविजयो जाता,सत्यभामा रपि भणितं राक्षा-भो महासत्व ! यदि बुभुक्षितस्त्वं ततोऽ जीवः सुतारा जाता, स कपिलजीवस्तिर्यग्भवेषु चिरकालं न्यत्तव मांसं ददामि । लावकः प्रतिभणति-स्वयं व्यापादिभ्रान्त्वा कचित्तथाविधमनुष्ठानं कृत्वाऽशनिघोषः समुत्प- तजीवमांसाश्यस्म्यहं न च रोचते मह्य परव्यापादितमांनः । सुतारां च सत्यभामाब्राह्मणीजीवं दृष्ट्रा पूर्वस्नेहेन अप- सम् ।राशा भणितम्-यावन्मात्रेण पारापतस्तुलति तावन्माहत्य गतः । पुनरप्यमिततेजसा पृष्टं भगवन्नह किं भविको न मांसं वदामि । सोऽप्यवदत् यदि त्वं स्वदेहादुत्कीर्य मांस वा?, अचलकेवलिना कथितं त्वम्?, भविकः, इतश्च नवमे भवे | ददासि तदाऽहं मुश्वामि तद्राज्ञा प्रतिपन्नं ततस्तुष्टो लावतीर्थकरो भविष्यसि,एषोऽपि श्रीविजयस्तव गणधरो भविष्य- का। राक्षा च तुला पानायिता एकस्मिन् पाश्र्वे पारापतः ति । तत एतदाकामिततेजाश्रीविजयनृपौ अचलकेवलि- । प्रक्षिप्तः, एकस्मिन् पावें स्ववेहादुत्कीर्णमांसारोपो पि
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(१५५) संति अभिधानराजेन्द्रः।
संसिलसम हितः। राजा यथा यथा तत्र मांसं प्रक्षिपति तथा तथा अन्य संतिस्स ण परहयो नउइगणा नउहगणहरा होत्था । त्र पार्वे पारापतो गुरुतरो देवमायया भवति । राजा पुनः
(सू०६०+) पुनः स्वदेहमांसमन्यत्र क्षिपति । तं दृष्टा राजलोकः समस्तो | हाहारवं चकार । पारापतपार्थे गुरुभारमवेक्ष्य स्वासपा
शान्तिनाथस्येह नवतिर्गणा गणधराश्चोक्ताः। अवश्यके तुश्र्वे राजा स्वयमारूढः। एतादृशं वज्रायुधस्य सत्त्वं हटा
पञ्चनवतिरजितस्य त्रिंशतु शान्तरुक्तास्तदिदमपि मताविस्मितो देवः स्वं रूपं प्रकटीकृत्य प्रकामं स्तुत्वा च स्वस्था
न्तरमिति । स०६० सम०। नं गतवान् । अन्यदा बज्रायुधसहस्रायुधौ पितापुत्री क्षेम- संतिस्स णं अरहयो एगृणनउइ अजासाहस्सिभो उको. करगणधरसमीपे जातवैराग्यो सहस्रायुधसुतं बलि राज्ये :- सिया अजियासंपया होत्था। [मू० ८६+] भिषिच्य प्रवज्यापर्यायं च परिपाल्य पादपोपगमनविधिना
इह शान्तिजिनस्यैकोननवोत्तरार्यिकासहस्राण्युक्लान्यावकालं कृत्वा द्वावपि जनावुपरितनप्रैवेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिको अहमिन्द्रदेवी जाती अहमिन्द्रसौख्यमनुभूय
श्यके त्वेकषष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्ते इति
मतान्तरमेतदिति । स०८६ सम। ततश्च्युतौ इहैव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविजये पुराडरीकिरायां नगर्यो घनरथो राजा तस्य द्वे महादेव्यो पना- संतिस्स णं अरहयो तेणउइचतुद्दसपुब्बिसया होत्था । वती मनोरमती च तयोर्गर्भ जाती, बनायुधो मेघरथः,
[सू०६३४] स०६२ सम० । सहस्रायुधो दृढरथश्चेति वृद्धिं गतौ । ततः कृतं ताभ्यां कलाग्रहणं तौ द्वौ राज्य स्थापयित्वा घनरथः स्वयं दीक्षां
श्रान्ति-स्त्री० । पापोपशमहेतौ अध्ययनपद्धती, उत्त० गृहीत्वा केवलशानमुत्पाद्य तीर्थकरो जातः । तयोर्मेघरथ- १२ अ०1 रथयोः पूर्वभवाभ्यासतो जिनधर्मदक्षताऽभूत् । अधिग
संतिकम्म--शान्तिकर्मन-न० । दुरितोपशमक्रियायाम् , भ० तजीवाजीवादिभावौ तौ सुश्रावको जातौ । अन्यदा पितुतीर्थकरस्य समीपे द्वावपि जनौ निजपुत्रं राज्येऽभिषिच्य
११ श०११ उ०। अग्निकारिकादिके (प्रश्न०२ भाद्वार।)
ग्रहोपशमनार्थे बलिकरणादिके,स्था०५ ठा०३ उ० । विनोपप्रमजितौ । तत्राऽधीतसूत्राऽर्थन मेघरथेन विंशतिस्थानः समर्जितं तीर्थकरनामगोत्रं , दृढरथेन शुद्ध चारि
शमकर्मणि,शा०१श्रु०१०। होमादिके, स्था०८ ठा०३ उ० । प्रमाराधितम् । बावपि संलेखनाविधिना कालं कृत्वाऽनु- संतिकम्मत-शान्तिकान्त-न। शान्तिकर्मगृहे, यत्र शान्ति.
रोपपातिकेषु देवेषु उत्पनी, तत्र सर्वार्थसिद्धविमानेऽन- कर्म क्रियते । प्राचा०२ श्रु० १५० २ १०२ उ०। गेलं सुखमनुभूय मेघरथकुमारस्ततश्च्युत्वा इहैव जम्बूद्वीपे
संतिगय-शान्तिगत-त्रि०। पूर्वोक्तप्रकारां शान्ति गताःभरते क्षेत्रे हस्तिनागपुरे विश्वसेनस्य राज्ञोऽचिरादेव्याः
प्राप्ताः शान्तिगताः । शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः । शाकृषी भाद्रपदकृष्णसप्तम्यां चतुर्दशस्वमसूचितः पुत्रत्वेनो
नदर्शनचारित्राख्येषु मोक्षमार्गे स्थितेषु , प्राचा० १७० १ स्पम्नः । पुनः पयेष्ठकृष्ण त्रयोदशीदिने जन्मास्यसंजातः । चतुःषष्टिसुरेन्द्ररपि जन्माभिषेकः कृतः । उचितसमये गर्भस्थ
अ०७ उ01 चास्मिन् भगवति सर्वदेशेषु शान्तिर्जातेति शान्तिरिति नाम
संतिगर-शान्तिकर-पुं० । जुद्रोपद्रवेषु शान्तिकृत्सु, ल। कृतं मातापितृभ्याम् । क्रमेणासौ सर्वकलाकुशलो जातः, संतिगिह-शान्तिगृह-नका शान्तिकर्मस्थाने, भ०३ श०७ उ० यौवन प्राप्तः, विवाहितः प्रवरराजकन्याः, क्रमेण राज्ये
संतिघर-शान्तिगृह-न । शान्तिकर्मस्थाने, कल्प०१अधिक स्थापितः, पित्रा चारित्रं गृहीतं, शान्तेश्चक्रवर्तिपदवी समायाता, उत्पमानि चतुर्दश रत्नानि, साधितं भरतम् , षट्
४क्षण । यत्र राक्षां शान्तिकर्म होमादि क्रियते । स्था० ५ खरराज्य परिपाल्य उचितावसरे स्वयं संबुद्धोऽपि लोका
ठा०१उ। स्तिकामरैः प्रतियोधितः, सांवत्सारं दानं दत्त्वा ज्येष्ठकृष्ण- संतिचंदगणि-शान्तिचन्द्रगणिन्-पुं० । अजितशान्तिस्तवषचतुर्दश्यां चक्रिभोगांस्त्यक्त्वा निष्क्रान्तः । चतुर्थानसमन्वि- | ठोपाटीकयोः कर्तरि सकलचन्द्रवाचकशिष्ये, तेन च तस्य उद्यतविहारं कुर्वतः पौषशुद्धनवम्यां केवलज्ञानं समु- तौ ग्रन्थी १६५१ विक्रमसंवत्सरे विरचितौ, जै०१०। त्पन्नम् , देवैः समवसरणं कृतं, भगवता धर्मदेशना प्रारब्धा, संतिजल-शान्तिजल-न० । शान्त्यर्थ मन्त्रपाठपूर्वकं मस्तके प्रवाजिता गणधराः , प्रतियोधिता बहवः प्राणिनः । क्रमेण वित्य भरतक्षेत्रे योधिबीजमुप्त्या क्षीणसर्वकर्माशो ज्येष्ठ
दातव्ये जले, शान्तिपानीये, ध०२ अधिक। कृष्णप्रयोदश्यां मोक्षं गत इति। अस्य भगवतः कुमारत्वे संतिणाह-शान्तिनाथ--पुं०। शान्तितीर्थकृति, प्रष०२७ शार। पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि, माण्डलिकत्येऽपि पञ्चविंशतिवर्ष
संतिणिव्वाण-शान्तिनिर्वाण-न । शान्तिः-कर्मदाहोपशमसहस्राणि , चक्रित्वे पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि, श्रामण्ये व पञ्चविंशतिवर्षसहमाणि दीक्षापर्यायं सायुश्च वर्षलक्षमेकं
स्तेन च निर्वाणं-मोक्षपदं-सर्वद्वन्द्वापगमरूपम् । भष्टकर्मजातमिति । उत्त०१८१०।
क्षयरूपे मोक्षे, सूत्र०१ श्रु० ३ १०४ उ०।
संतिम-संतीर्ण--त्रि० । मुक्ने, सूत्र०१ श्रु०२ अ. ३ उ० । संती भरहा चत्तालीसं घराई उई उत्तेणं होत्था। मंतिमसम-सन्तीर्णसम-त्रि०। सांसारिकसुखस्य दुःखमय(सू०८४०x) स०४० सम।
। त्वद्ररि मुक्तपाये, सूत्र०१ श्रु०२ अ. ३ उ०।
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(१४६) संतिथय अभिधानराजेन्द्रः।
संधव संतिथय-शान्तिस्तव-पुं० । शान्त्यर्थ देवस्तवपाठे, ध०२ अधि०। | संथर-संस्तर-पुं० । द्रव्यादिरहितकाले, दर्श० ४ तत्त्व । संतिदास-शान्तिदास-पुं० । धर्मसंग्रहवृत्तिकृतो मान- संथरंत-संस्तरत्-त्रिवाविवक्षितानुष्ठानवाहनसमर्थे,व्य०२७०। विजयस्य धर्मसंग्रहवृत्तिकरणप्रार्थके, ध० ३ अधि० । संथरण-संस्तरण-न० । प्रासुकैषणीयाहारादिप्राप्ती साधूनां (शान्तिदासस्य वृत्तं 'धम्मसंगह' शब्दे चतुर्थभागे २७३२ | निर्वाहे, ध०२ अधि०। (अत्रत्या व्याख्या 'ठवणाकुल शब्दे पृष्ठे गतम् ।)
चतुर्थभागे १६६० पृष्ठे गता । ) ( त्रिविध संस्तरणम्संतिदेवया-शान्तिदेवता-स्त्री०। शान्तिसुरे, शान्तिकारियां जघन्यं , मध्यमम् , उत्कृष्टं च । तत्राऽऽचार्यादीनामाचारः देवतायाम् , पञ्चा० १६ विव०।
'अइसेस' शब्द प्रथमभागे २३ पृष्ठे गतः।) संस्तारककरणे , संतिविजय-शान्तिविजय-पुं०। धर्मसंग्रहवृत्तिकारकमानवि
सूत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०।
संथरमाण-संस्तरत-त्रिविद्यमाने, 'संथरमाणेहिंजणवपहि' जयसूरिगुरौ विजयानन्दसूरिशिष्ये, ध०३ अधिक।
आचा०२ श्रु०१चू०३०१उ० प्रतिपन्नप्रतिमापरिपालनक्षमे, संतिविरह-शान्तिविरति-स्त्री० । शान्तिरुपशमः क्रोधजयस्त
संस्तरन् नाम उच्यते-यः सूत्रोक्नविधिना प्रतिमाप्रतिपत्तिप्रधाना प्राणातिपातिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः। क्रोधज- योग्यतामुपगतःमासिक्यादीनां च प्रतिमानांमध्ये या प्रतिमा यार्थ विरमणे, सूत्र०२ श्रु०१०।
प्रतिपन्नस्तां सम्यकपरिपालयितुं क्षमस्तस्य संस्तरतो विधिः। संतिसूरि-शान्तिसूरि-पुं० । थारापद्रीयगच्छे विजयसिंहसूरि बृ०१ उ०२ प्रक०। शिष्ये, वादतुष्टेन भोजराजेनास्मै 'वादिवेताल' इति विरुदम- संथव-संस्तव-पुं० । संस्तवनं संस्तवः । दातुर्गुणविकत्थने, तेन र्पितमनेनैव उत्तराध्ययनटीका रचिता, या पाई टीकेति प्र- सहात्मनः सम्बन्धविकत्थने च । वृ० १ उ० ३ प्रक०।. सिद्धा। दिगम्बरविजेता देवसूरिरस्यैव विद्याशिष्य आसीत् । | परिचये, प्रत्यासत्तौ , सूत्र०१ श्रु०४ अ० १ उ०। स्नेहे, वीरसूरि-शालिभद्रसूरि-सर्वदेवसूरयश्चीत त्रयः पट्टशिष्या उत्त०५०। सूत्र० । स्वरूपज्ञानादुत्पन्ने परिचये, उत्त०
आसन् । विक्रमीय १०६६ वर्षे अयं स्वर्गतः । जै० इ०।। २८ ०। एकासने स्थित्वा परिचये, उत्त० १६ अ० । संतिसेणीय-शान्तिश्रेणिक-पुं० । स्थविरस्यायशिष्यस्य प्र- अभिष्वले, सूत्र. १ श्रु०२ १०२ उ०। कामसम्बन्धे,सूत्र०१ थमे शिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण ।
श्रु०२१०३ उागृहगमनालापदानसंप्रीणनादिरूपे परिचये,
सूत्र०१ श्रु०४ अ० १ उ०। सहसंवासे, सूत्र०१ श्रु०६० संतुयट्ट-सन्त्वग्वर्त-त्रि० । शयिते, शा०१ श्रु०१३ अ०।
दर्श०। वृ० । एकत्र संवासात् परस्परालापादिजनिते परिचये, संतयण-सन्त्ववर्तन-न० । सम्यक्त्वग्वर्तने शयने, व्य० ध०२ अधि० । अभ्यासे,आव०१०। श्रा० । संवासजनिते ५ उ०।
परिचये, सहवासभोजनालापादिलक्षणे स्नहे,आव०६०। संतोदत्त-शान्तोदात्त-पुं० । शान्तस्तथाविधेन्द्रियकषायवि- श्रा०चू। सूत्र०ा पश्चा०। निजपटप्रदर्शनेन लोकावर्जने, पिं०।
प्रव०। कारविकलः, उदात्तः-उच्चोच्चतराद्याचरणस्थितिबद्धचित्त
संस्तवपिण्डो न ग्राह्यः। सांप्रतं संस्तवपरिहारमाहस्ततः शान्त श्वासावुदात्तश्च शान्तोदात्तः। श्रद्धानुष्ठानसाध नपरे सूक्ष्मभावसंयुक्त तत्त्वसंवेदनानुगे, यो० वि० । द्वा०।। गिहिणोजे पव्वइएण दिट्ठा,अपव्यइएण व संथुया हविजा। संतोस-संतोष-पुं० । अल्पेच्छायाम्, स्था० १० ठा० ३ उ०। तेसिं इहलोयफलट्ठयाए,जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥१०॥ संतुष्यौ, पश्चा० १ विव० । द्वा० । सर्वद्वन्द्वोपरमरूपे, सूत्र.२ गृहिणः-गृहस्था ये प्रव्रजितेन गृहीतदीक्षण दृष्टा उपलक्ष०६ अ०।"संतोषः परमं सौख्यम्"। हा०२६ अष्ट। रणत्वात्परिचिताश्च अप्रवजितेन वा गृहस्थावस्थेन सह सं" विश्वस्यापि स वल्लभा गुणगणस्तं संश्रयत्यन्वहं, स्तुताः परिचिता भवेयुगृहिणो य इति संबन्धः 'तेसि' ति तेनेयं समलंकृता वसुमती तस्मै नमः संततम् ॥ तस्मा- तैरुभयावस्थयोः परिचितैगृहिभिरिहलौकिकफलार्थ-वस्त्रपादन्यतमः समस्ति न परस्तस्यानुगा कामधुक तस्मिन्नाश्र- त्रादिलाभनिमित्तं यः संस्तवं-परिचयं न करोति स भिक्षुयतां यसांसि दधते संतोषभाक् यः सदा ॥१॥" ध०र०१ रिति सूत्रार्थः । उत्त०१६ अ०। अधि० ११ गुण।
पुरे संथवं करेसंतोसि(ण)-सन्तोषिन-पुंग येन केनचित् संतुष्टे प्रवीतरागे, जो भिक्ख परे संथवं करेह करतं वा साइजइ ॥२३७॥ सूत्र०१ श्रु०१२ अ०।
संथवो-थुती अदत्ते दाणे पुब्बं संथवो, दिखे पच्छा संथवो संथड-संस्तृत-त्रि० । कृतसंस्तारे, प्राचा०२ श्रु०१ चू०१ जोतं करेति सातिजति वा तस्स मासलहुं । अहवा-सयणे अ०३उ०।
पुब्वपच्छसंथवं करेति । संथडिय-संस्तृत-त्रि० । समय, तदिवस पर्याप्तभोजिनि च ।
अत्र नियुक्तिमाहबृ०४ उ०।
दब्वे खत्ते काले, भावम्मि य संथवो मुणेयव्यो । संथणण-संस्तनन-न । अत्यर्थ सशब्दनिःश्वासे, सूत्र.१ अत्तपरतदुभए वा, एकेको सो पुणो दुविधो ।। २३८॥ ध्रु०२ अ०३ उ०॥
साहू अात्मसंस्तवं करोति, साहू उभयस्स वि संस्तवं क
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(two) अभिधानराजेन्द्रः ।
संभव
रोति । श्रहवा - श्रात्मना संस्तवं करोति इति श्रात्मसंस्तवः । साहू गिद्दति यस आत्मस्तयः, गिद्दत्यो साधु पुणति एस परस्तवः, दो वि परोप्परं पस उभयस्तवः । एतेसि एक्केको पुरा दुबि संतासंतो व ।
दम्बे खेलेकाले संघवो हमो गाहादव्वे पुट्ठमपुट्ठो, परिहीणधणा तु पुव्वयंती उ । खत्तेकतरा खेत्ता, कम्मि व तो दिक्खितो काले ॥ २३६ ॥ व्यथवा परेण पुचो तुम सो इसरो धामं विभयाति । सो पुरा तहा संतो वा असंतो वा पुच्छितो भणाति मुगणामधेयं तुम इस्सरं ग याणसि तो एवं भणति परिहीणधणा पब्वयंति त्ति परिहणिधणो-दरिद्रेत्यर्थः, एषं परे
दियो समुन्नुतो परं शि कार्ड अप्पा पि णाति यथा भवानैश्वयुक्त तथा अहमप्यासीत् । त्तसंचय कततो तुमचे सरिसम्यतोई अथवा प्रथमवसिष णिविस्समाणो वा । भावे संथषो दुषिहो-सयणे, वय य । सयणे ताव इमो । गाहा
सपणे कस्स सरिसओ, आमं तुसिसीऍ पुच्चई को वा । माउणाणिमितं वय आउट्टियो वाऽवि ।। २४० ॥ केरा पुच्चो जो सो इंदरतमाया पव्यतितो सो तुम सरिसो दीससि । सेो भवा-श्रमं सिणोत भवति वा को परिसानि पुच्छति । इदानि यथो अदि दांये पुरेति, उाणिमित्तं बरं मे भा हिलो वा देदिति । दावेव वा दतेय भारादितो पच्छा ययसंधयं करेति । एस संचेपो भणितो हा विस्थाये संवभणियस्स वा इमं वक्खाणं ।
रथयथयो हमो चउसद्विष्पगारो । गाहाभाई रखयथावर, दुपदचतुष्पद सहेब कृषियं वा । बउवी चडवी, तियदुगदसहा अयेगविधं । २४१ ॥ धरणादियाणं कुवियपज्जवसाणां छरहं पच्छदेणं जहासंवं संखा भणिता ।
गाहा
घाणि चतुम्बी, जब गोहुम सालि बीहि सङ्घीय कोदव अथवा कंगू, राजग तिल मुग्ग मासा प ॥ २४२॥ किंगू अल्पतरशिरा रासकः ।
गाहा
असि हिरिमंथतिपुडग, विष्फावसलिसिद रायमासाय इक्खू मसूर तुवरी, कुलत्थ तह धायगकलाया ॥ २४३ ॥ अवसी मालवे प्रसिद्धा, हेरिमंथा बट्टरागं, तिपुडालगा चणगा, शिल्फावा वज्ञा, अलिसिदा बबलगा, रायमाला पंडरच लगा, धारणा कुंकुंभरी, बहुचरागा ।
गाहा
रयणाई चडवी, सुबयत पुर्तपुरयतखोहाई । सीसगहिरष्पपासा - बेरमणमोचियपबालो ॥ २४४ ॥
संघव
संखतिखिसा गुलु दाइँ वत्थामिलाइँ कट्ठाई । तह दंत धम्मवाला, गंधा दम्बोसहाई च ॥ २४५॥ रथतं रूप्पं हिरं रूपका पाषाणा स्फटिकादयः मणिः सूरद्रकांतादयः, तिणिसा रुक्खकट्ठा अगलुं - अगरुं यानि न लायरले शीतानि अमिलातानि पत्राणि कट्टा शाकादिस्तम्भा दंता इत्यादीनां, चम्मा वग्धाणं, वाला चमरीणं, गं. धकृत गंधा एक गंधे, औषधं त्वं बहुव्यसमुदाया बीच।
त्रिविधं थावरं । गाहाभूमिघरतरुगणादी, तिविधं पुरा धावरं समासेणं । कारवमाणुस दुविधं पुण होति दुषयं तु ॥ २४६ ॥ भूमी घरं केलाघरं खातमियमुभयं तिविधं, तरुगणा-आनवणारामादि दुपयं दुविधं होदि अरगबद्धं मानुसं च । दविधं चतुष्पदं गादा
-
गावी महिसी उड्डी, अय एलग आस आसतरगा य । घोडग महम हत्थी, चतुष्पदा होति दसधा तु ॥२४७॥
शासतरगा अस्सतरी ।
कुप्पोषकरणं यासाविगाहा
खाणाविवि करणं, लक्खणकुष्पं समासतो होति । चतुसपिंगारोतं एवं भणितो भवे अत्थो || २४८ ॥ कुप्पोवकरणं णाणाविहं श्ररोगलक्खणं तच कंसभंड लोभांडं ताम्रमयं मृन्मयादि व २।४।२।४ व्ह३|२| १० | १ | एव सर्वोपि संपिरितः चतुःषष्टिप्रकारोऽभिहितः । आत्मपर संस्तयोपसंहारनिमित्तमिदमाह चतुसट्ठिपगारे, जाध व अद्वेण उवचितोसि ति । किं श्रप्पसंथवेणं, कातण एमेव अहयं पी ॥ २४६॥ यथा त्वं चतुःषष्टिप्रकारेणोपपेतस्तथाऽहमप्यासं किं वामस्तयेनेति १ ।
"
इयाणि खेत्तसंस्तयोपेतं । गाहाहा साहू देसी, एगग्गामेगणगरवत्थे य । ओखेचा अहं मो पुच्ची || २५० ॥ जड़ भणति लोइयं तू, पुष्षं खेत्तं तर्हि भवे गुरुगा । आरुह तं अम्ह वि, जिणजम्मादी तर्हि लड़ो। २५१। गहिला पुष्तिो कम्मि ऐसे अजी उप्पो साइ भवतिकुरुते गिडी भगति-म्हसा देसी गामगर
गहिया पुच्छि कहिं गामम्मि ति साहू भणति कुरुखेएवं जर लोह पुराणखेत्तं भणति तो चतुगुरं, लोउतरे भो।
दाणी कालधयो गिड़िया पुि पव्यतितो भणाति गाहा
वयम्मिय जम्मे परिवाओ वि मम्भ एवतियो । मयणसमत्थ शिविट्टो, शिव्विसमाणो पसूतो वा।। २५२ ॥ ओ मे जम्मो पवज्जाए वा एवतितो मयणसमत्थो वा
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( १४८८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संथव
पव्वतो सिविट्ठो परिणीओ सिव्विसमाणो विवाहदिणे ठविष पसूयपुतो जाओ । इदाणिं णिस्साकतं जाओ। नि० चू० २३० ।
गाद्दा
सुवितो नियमा, चतुव्विधे संथवम्मि संतम्मि । मोनू सयणसंथव, तं सेवं तम्मि आणादी || २६३॥ सुत्तणिवातो दव्वादिचतुव्विहे संथवे संतम्मि मासलहुँ, मोत्तरा सयणसंथवं सयणसंथवे पुरा इमं पुरिससथवे चहूं इत्थीसंथवे चउगरुं, चउग्वि षि दव्वातिए संथवे आणादिया दोसा, कारणे पुण संथवं करेज्जति ।
गाहा
अधिकरण-रायदुट्ठे, गेलपद्धारा - संभमभए वा । पुरिसित्थीसंबंधे, समणाणं संजतीणं च ॥ २६४ ॥ गिहृत्थेण समं अधिकरणमुप्परणं तस्स उवसमण्ट्टाए पु चतुव्विहं पि दव्वातियं संतं करोति, पच्छा असंतं पि । एवं राय वि उवसमता गिलाणोसहणिमित्तं वा श्रद्धा संभ्रमभसु, संताणट्टया वा 'पुरिसित्थि ' त्ति एएहिं काररोहिं संजताण संजंतीण वा ।
'पुरिसित्थि 'त्ति संबंधो भवेज वयणसयणक्रम प्रदर्शनार्थ
इदमाह । गाहा -
वयसंथवसंतेणं, पुव्वधुणे पुरिससंथवे तत्तो । णातित्थिगतेणं वा, भाइयवज्रं च इतरेणं ॥ २६५ ॥ पुवि वयसंथवेणं संतणं, पच्छा पुरिससंधवेगं पुव्वावरें संतें ततो पच्छा खातित्थिगतें संतें ततो भाइयवज्जं इतरेण पच्छा संथवेणं संतेणं ततो पच्छा वयणादि असंतेण ।
गाहा
पुब्वे अवरे य पदे, एसेव गमो उ होइ समणीणं । जह समणाणं गुरुई, इत्थी तह तासि पुरिसा उ॥ २६६॥ संजतीं एसेव गमो, जहा समणाणं इत्थी गुरुगा, तहासमणीयं पुरिसा गुरुगा ।
सूत्रं
जे भिक्खू समाणे वा वसमासे वा गामाणुगामं दुइञ्जमाणे पुरे संधुतियाणि वा पच्छा संथुइयाणि वा कुलाई पुव्वामेव अणुपवेसित्ता पच्छा वा भिक्खायरिया अणुपविस पवितं वा साइजइ ॥ ३८ ॥
समाणो नाम समवेतः अप्रवसितः को सो बुडावासः वसमा को उड़बद्धिए अट्टमासे वासावासं व एवमं एयं णयविहं विहारैतो वसमाणे भण्णति, अनु-पश्चादभावे गामातोश्रो गामो श्रणुगामो दोसु पाएलु सिसिरगिम्हेसु वारिजति त्ति इज्जति । पुरे संधुता मातापितादी, पच्छा संधुता सुसराती, कुलशब्दः प्रत्येकं भिक्खाकालातो पुवि प्राप्त भिक्खाका ले इत्यर्थः । अनुप्रवेशो पच्छा भिक्खाकाले अतिक्रांतेत्यर्थः । एवं अप्राप्तं श्रतिक्रांते वा पविसंतं साइज्जति अनुमोदते मासलडुं ' से ' पच्हित्तं । एस सुत्तत्यो । नि० चू० २ ३० । *पं० चू० | दर्श० । व्य० ।
For Private
संस्तवनं व्याख्यानयतिसुत्ते थे य उत्तमो उ, गाय भावियप्पा | जच्चन्निय याऽवि विसुद्धभावो, संते गुणेवं पविकत्थयंतो ॥ ४७ ॥
संथव
सूत्रेण अर्थेन च एष उत्तमः प्रधानः परिपूर्णः, सूत्रस्यार्थस्य चावदातस्यास्य संभवात् । तथा आगाढा मज्ञा येषु व्याप्रियते न या काचन तान्यागाढप्रज्ञानि शास्त्राणि तेषु भावि तात्मा तात्पर्यग्राहितया तत्रातीव निष्पन्नमतिरिति भावः । तथा जात्या सकलजनप्रशस्ययान्वितो - युक्तो जात्यन्वितः, त था विशुद्धः - खपरसंसारनिस्तारैकतानतयाऽवदातो भावःअभिप्रायो यस्य स विशुद्धभावः एवंभूतो गुणान् गणधारिणः शिष्या अपरे च प्रकर्षतो हर्षातिरेकलक्षणतो विकत्थयन्ते श्लाध्यन्ते । व्य० ३ उ० । संस्तवः परिचयः तस्याभिवङ्गहेतुत्वात् । द्वाविंशे परिग्रहे, प्रश्न० ५ श्राश्र० द्वार । सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा वसमा वा गामाणुगामं वा दुइमा से जं पुण जाणेजा गामं वा०जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा० जाव रायहाणिसि वा संगतियस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंधुया वाप विसंति, तं जहा - गाहावई वा०जाव कम्मकरी वा तहप्पगाराई कुलाई णो पुव्वामेव भत्ताए वा क्खिमिज्ज वा विसिज वा, केवली ब्रूया - श्रायाणामेयं, पुरा पेहाए तस्स परो अट्ठा असणं वा पार्ण वा खाइमं वा साइमं वा उबकरेजवा उवक्खडेज वा अह भिक्खू णं पुत्रोवदिट्ठा० ४ जंणो तहृप्पगाराई कुलाई पुव्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज वा क्खिमिज वा २ से तमायाय एगंतमवकमिजा २, अावागमसंलोए चिट्ठेज्जा, से तत्थ कालेयं
पविञ्जा २ तत्थेतरेतरेहिं कुलेहिं सामुदाखियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेजा, सिया से परो काले अपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवकरेज वा उबक्खडेज वा । तं गति तुसिणीतो उवेहेजा आहडमेवं पच्चाइक्खिसामि माइट्ठाणं संफासे, खो एवं करेजा से पुव्वामेव श्रालोएजा उसोत वा भगिणित्ति वा णो खलु मे कप्पति ग्रहाम्मियं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोत्तए वा पायए वा मा उवकरेहि मा उवक्खदेहि से सेवं वयं तस्स परो आहाकम्मियं असणं वा० ४ उवक्खडावित्ता ग्रह दलएजा तहप्पगारं असणं वा० ४ अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेजा । ( सू० ५० )
समिक्षुर्यत् पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा ग्रामं वा यावद्राजधानी वा अस्मिश्च ग्रामादौ सन्ति-विद्यन्ते कस्यचिद्भिक्षोः पूर्वसंस्तुताः पितृव्यादयः, पश्चात्संस्तुता वा श्वशुरादयः, ते
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संथव अभिधानरांजेन्द्रः।
संथवपिंड च सत्र बद्धगृहाः प्रबन्धेन प्रतिवसन्ति ते चामी गृहपतिर्वा | मातापित्रादिरूपतया यः संस्तवः-परिचयः स पूर्यसंस्तवो यावत्कर्मकरी वा तथाप्रकाराणि च कुलानि भक्तपा- मात्रादीनां पूर्वकालभावित्वात् । यस्तु श्वश्रूश्वशुरादिरूप नायर्थ न प्रविशेनापि निष्कामेत् । स्वमनीषिकापरिहारार्थ- या संस्तवः स पश्चात्संस्तवः । श्वश्रवादीनां पश्चात्कालमाह-केवली श्रूयात्-कर्मोपादानमेतत् किमिति ?,यतः पू.
भावित्वात् । तत्र साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् गहिभिः सह संयमेवैतत्प्रत्युपेक्षेत-पर्यालोचयेत् , यथैतस्य भिक्षोः कृते परो
स्तवसंबन्ध-परिचय घटनम् पूर्व-पूर्वकालभाविमात्रादिरूपतगृहस्थोशनाद्यर्थम् उपकुर्यात्-दौकयेत् उपकरणजातम्
या पश्चाद्वा पश्चात्कलभाविश्ववादिरूपतया वा करोति । 'उवक्खडेज' ति तदशनादि पचेद्वेति । अथ-अनन्तरं भि
कथमित्याहखूणां पूर्वोपविष्टमेतत्प्रतिशादि, यथानो तथाप्रकाराणि स्वज प्रायवयं परवयं, नाउं संबंध एतयणुरूवं । नसम्बन्धीनि कुलानि पूर्वमेवभिक्षाकालादारत एव भक्ताद्यर्थ मम माया ऍरिसिया, ससा य धूया व नत्ताई ॥ ४८३ ।। प्रविशेद्वा निष्क्रामेद्वति । यद्विधेयं तहर्शयति-से तमादाये'
इह साधुभिक्षार्थ गृहे प्रविष्टः सन्नाहारलम्पटतया श्रात्ति स-साधुः पतत्-स्व जनकुलम् श्रादाय-ज्ञात्वा केनचित्स्व
स्मवयः परवयश्च ज्ञात्वा तदनुरूपं क्योऽनुरूपं संबध्नाति,यदि अनेनाशात एवैकान्तमपक्रामेद्, अपक्रम्य च स्वजनाद्यनापातेऽनालोके च तिष्ठेत् , स च तत्र स्वजनसम्बद्धप्रामादी
सा बयोवृद्धा स्वयं च मध्यमवयास्ततो ममेरशी माताऽभूदिकालेन-भिक्षायसरेणानुप्रविशत्, अनुप्रविश्य च इतरेतरे
ति ब्रूते । यदि पुनः साऽपि मध्यमवयास्तत ईदृशी मम खभ्यः कुलेभ्यः-स्वजनरहितेभ्यः 'एसियं' ति-एषणीयम्
साऽभूदिति वदति । अथ वालयास्ततो दुहिता नप्ता वे
त्यादि। उन्नमादिदोषरहितं 'वेसिय' ति घेषमात्रावयाप्तमुत्पादनादिदोषरहितं पिण्डपात-भिक्षाम् पषित्वा-अन्विष्य एवंभूतं
संप्रत्यस्यैव पूर्वरूपसंबन्धसंस्तवस्योदाहरणमाहप्रासैषणादोषरहितमाहारमाहारयेदिति । आचा० ( उत्पा
अद्धिइ दिट्ठीपएहव, पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी । दनादोषाः ग्रासैषरणादोषाश्च स्वस्वस्थानादवगन्तव्याः।) थणखेवो संबंधो, विहवासुण्हाइदाणं च ॥ ४८७ ।। प्रासैषणादिदोषरहितः सन्नाहारमाहारयोदिति । अथ क- कोऽपि साधुभिक्षार्थ प्रविष्टः कांचिनिजमातृसमानां स्त्रीमहाचिदेवं स्यात्, स परः-गृहस्थः कालेनानुप्रविष्टस्या
वेक्ष्य आहारादिलम्पटतया मातृस्थानेनाधृत्या दृष्टिप्रमपि भिक्षोराधाकर्मिकमशनादि विध्यात् , तश्च कश्चित्सा
वम्-ईषदश्वविमोचनं करोति । ततः 'पुच्छ ' त्ति । धुस्तूष्णींभावनोत्प्रेक्षेत , किमर्थम् ? , श्राहृतमेव प्रत्याख्या
सा स्त्री पृच्छति-किं त्वमधृतो दृश्यस ? इति । स्यामीति , एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैवं कुर्यात् ,
ततः साधोः कथनम् । मम ईदृशी त्वत्सदृशी जनन्यभूयथा च कुर्यात्तदर्शयति स पूर्वमेव आलोकयेत्-दत्तो
दिति । अत्र दोषानाह-ततस्तया मातृत्वप्रकटनार्थ साधुपयोगो भवेत् , दृष्ट्वा चाहारं संस्क्रियमाणमेवं वदेद्-य
मुखे स्तनप्रक्षेपः क्रियते । परस्परं च संबन्धः नेहवृद्धिरूपो था अमुक! इति वा भगिनि ! इति वा न खलु मम क
जायते । तथा विधवा स्नुषादिवानं च करोति मृतपुत्रस्य ल्पत आधार्मिक आहारो भोक्नु वा पातुं वाऽतस्तदर्थ
स्थाने अयं मे पुत्र इति बुद्धया स्वस्नुषादानं कुर्यात् । श्रायत्नो न विधेयः । अथैवं वदतोऽपि पर आधाकर्मादि कु
दिशब्दात्स्नेहधशतो दास्यादिदानं च । उक्नं पूर्वसंबन्धिसंर्यात्ततो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ श्राचा०२ श्रु०
स्तवोदाहरणम् । एवं पश्चात्संबन्धिसंस्तवोदाहरणमपि १ चू० १ अ०६ उ० । कर्तरि प्रत्यये । त्रि० । संस्तावके,
भवानीयम्। शा०१ श्रु०१६ अ०।
संप्रति पुनः पश्चात्संबन्धिसंस्तये दोषानाहसंथवदाण-संस्तवदान-न० । परिचयकरणे , व्य०७ उ० ।
पच्छा संथवदोसा, सासूविहवादिधूयदाणं च । संथवपिंड-संस्तवपिएड-पुं० । पूर्व जननीजनकादिद्वारेण पश्वास श्वभूस्वनादिद्वारेणात्मपरिचयानुरूपं सम्बन्धं भि
भा ममेरिसि च्चिय,सजो घाओ व(य)भंगो वा ॥४८८।। क्षार्थ घटयता प्राो पिण्डे, जीत० । ध०।
पश्रात्संबन्धिसंस्तवे इमे दोषाः-श्वश्रूरीदृशी ममाऽऽसीसंस्तबद्वारमाह
दित्युक्ते सा विधवाया आदिशकदात् कुरण्डादिरूपायाः दविहो उ संथवो खलु, संबंधीवयणसंथवो चेव ।
सुताया दानं करोति, तथा भार्या ममेदृश्यभवदित्युक्त एकेको वि य दुविहो, पुत्वं पच्छा य नायवो ॥४८४॥
यदि ईर्ष्यालुस्तद्भर्ता समीपे च वर्तते तदा मम भार्याऽनेन
स्वभार्या कल्पितति विचिन्त्य साधोर्घातं कुर्यात् । अथाद्विविधः खलु संस्तवः, तद्यथा-परिचयरूपः, श्लाघारूपश्च ।
लुस्तद्भर्ता न भवति, समीप वा न वर्सते: तदा भार्याऽहमनेन सत्र परिचयरूपः सम्बन्धिसंस्तवः, श्लाघारूपो वचनसंस्तवः।
कल्पितत्युन्मत्ता भार्यव समाचरन्ती चित्तक्षोभमापादयेत् तत्र संबन्धिनो-मात्रादयः, श्वश्र्वादयश्च । तद्रूपतया यः सं
ततो व्रतभङ्गः। स्तषः स संबन्धिसंस्तवः । वचनं श्लाघा तपो यः संस्तवः स पचनसंस्तवः । एकैकोऽपि च द्विधा । तद्यथा 'पुटिव पच्छा
एवं तावत्पूर्वसम्बन्धिसंस्तवस्य पश्चात्संबन्धिसंस्तय'त्ति पूर्वसंस्तवः, पश्चास्तवश्च ।
वस्य च प्रत्येकमसाधारणान् दोषानभिधाय संतत्र संबन्धिसंस्तवस्य द्विविधस्यापि स्वरूपमाह
प्रत्युभयोरपि साधारणानभिधित्सुराहमायपिइपुव्यसंथव, सासूसुसराइयाण पच्छा उ ।
मायावी चडुयारी, अम्हं ओहावणं कुणइ एसो। गिहिसंथवसंबंधं, करेइ पुव्वं च पच्छा वा ॥४८॥ निच्छुभणाई पंतो, करिज भद्देसु पडिबंधो ॥ ४६६ ।।
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संघefe
अतिरनिया 55वि कुर्वन्यायाची पोऽस्माकमार्ज मानिमितं चाटूनि करोतीति निन्दा तथाऽस्माकं स्वस्य का पेटिकप्रायस्य जनन्यादिकल्पनेनापभ्राजनं विधते, ततः प विचिन्त्य प्रान्तः स्वनिकारानादि करोति । अथ ते गृहिणो भद्रा भवेयुस्तर्हि तेषु भद्रेषु साधोरुपरि प्रतिबन्धो प्रतिबन्धे च सत्याधाकर्मादिकं करवा दद्यादिति । विविधोऽपि सम्बन्धि संस्तवः ।
"
( १५०) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
अथ वचनसंस्तचस्य पूर्वरूपस्य लक्षणमाहगुणसंथवे, संताऽसंतेय जो णिजाहि । दावारमदिश्रम्मी सो पुर्व संथवो हव ।। ४६० ॥ गुणाः श्रदायांतयः तेषां यः सपचनसंघातस्तेन सत्यरूपेणासत्वरूपेण वा साधुत महाशबदले सति दातारं स्तूयात् स एष पूर्वसंस्त भवति ।
"
अस्यैवं दर्शयति
एसोसो जस्स गुणा, वियरंति अबारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुणिमो, पश्चनखं अज दिट्ठोऽसि ॥ ४६१ ॥ सुगमम् | नवरं, 'इहरा' इतरथा, इदानीं दर्शनात् पूर्वमित्यर्थः ।
सम्प्रति पश्चाद्रूपस्य बच्चनसंस्तवस्य लक्षणमाहगुणसंथवे पच्छा, संतासंतेय जो खिजाहि ।
दायारं दिम्मि, सो पच्छा संथवो होइ ।। ४६२ ॥ दसे भक्तादौ सति पश्चात् दातारं गुणसंस्तषेण सत्यरूपेणासत्यरूपेण वा या साधुः स्यात् एष पश्चात्संस्तयो भवति ।
संप्रति तस्यैषोशेवं दर्शयति-विमलीकय ह च जहत्थया बियरिया गुणा तुकं । भासि पुरा मे संका, संपय निस्संकियं जाये ।। ४६३ ।। भिक्षार्थं प्रविष्टः साधुमहारी दातारं विथा-नि
दर्शनेन त्वया विमलीकृते नः चचुषी तथा यथार्थास्तवगुणाः सर्वत्रापि विवरिताः । तथा पुरा पूर्व मे शङ्का ब्रासीत् पादक गुणः भूयते स किं तादृश पोतान्यादश इति । संप्रति तु त्वयि डे निःशङ्कितं मे हृदयं जातम् । उक्तं संस्तबद्वारम् । पिं० ।
संचार संस्तार पुं० संस्तरति साधवोऽस्मिमिति संस्तारः उपाभये, व्य० ४ ४० संस्तीयते भूपीडे विस्तारायातुभिरिति संस्तारः । पर्यन्तक्रियां कुर्बनिर्वर्भादिविस्तरणे, संचा०।
अथैकोनविंशत्या गाथाभिः संस्तारकमाहात्म्यमेवाहभूहग्गह जहन कमाण अश्माययं च बजाये । मज्ञायं च पडागा, तह संधारो सुबिहियायं ॥ ३ ॥
' जाएं' ति यथा यकृतानां पराभूतानां निराक तानां पित्रासिकाशात् भागमलभमानानां राजाम भूमि-विभूतिला महतोबा देवा दिवाननिष्काशितानां पुनरिन्द्रादिमडीकरणेन वर्गखान
संधार
लाभः राज्ञां वा स्वराज्याभिर्द्धाटितानां पुनर्मिंत्रादिबलदलमीलनेन स्वराज्यप्राप्तिः, मन्त्रिणां वा स्वपदव्यावितानां पुना राशा व्यावर्जनेन स्वमुद्रावाप्तिः, श्रेष्ठिनां वा स्वनगरानिर्वा सितानां महाजनसमावर्जनेन पुनः खपुरप्रवेशेन श्रेष्ठिविद्वेति तथा संसारका प्रमोदाय 'भूरगहणं जगा ' ति पाठ भूमि-मादानं प्रथमतो दीक्षामा ले मग्नस्य भावो नाभ्यं तेषां माम्यानां सरजस्कानां प्रथमभस्मावगुण्ठनं तेषां यथैवेति यथा तथा संस्तारकः । 'अवमा'ति' अति दकारलोपत् 'अर्थ' ति जातम् 'अ' ति-काव्यम् अवमानकं च पूजन च न वयं पाये येषां ते अवधा निर्दोषासोषां निदूषणानां केनापि प्रत्यनीकेनापि तद्द्व्यलीकानां यथाऽयं पारहारिक इति और इति अभिमर इति इति सीताशुभद्रागामिषति ततोऽपि स्वयमेव - प्रदेशमा प्रतीतिदानेनोसारित कलङ्कानाम् । अयमान च तोषाय 'ववज्झाणं व' पाठे पूर्ववदकारलोपे 'अवज्भाणं 'ति भवति, तत्र अवध्यानां बधानर्ह्राणामपि विद्वेषिनतो वज्रस्वेन स्थापितानां सुदर्शनसुजातादीनामिव देवतामातिहार्यतो निराकृतवध्यत्वदोषाणाम् अयमानकं दधानादिनरेन्द्रैर्यथा प्रीतये तथाऽयं संस्तारक इति 'मझाएं व पडाग' सि यथा मज्ञानां मनकमनादीनामिव 'उजेि सीगिरिलो पारमि । पुबई मच्छिमशो, दूरिकाबिया फलिम प' इत्येतस्मिबन्धे अनक उज्जयिनीतो त्या प्रतिवर्ष मारिसकमलपताकामवहतवान् श्रपहरतश्च यथा तस्य तोच तथा संस्तारक इति गाथार्थः । वेरुलिय व मणी, गोसीसगचंदणं व गंधाणं ।
जह व रपयेसु वयरं, तह संथारो सुविहियाखं ॥ ४ ॥ यथा मणीनां सूर्यादिमणीनां मध्ये विषापहाररोगोपशमादिमा सातिशयगुणेन चैर्यमणिः सर्वोत्तमस्तथाऽयमपि। 'गोसीसगयंद व गंधाणं ति यथा गोशीपकचन्दनं निर्विकारत्वेन निम्लरिगन्धान मधेषु मध्ये प्रशस्यते तथान्यमपि यद्यपि कस्तूरिकाया अपि सातिशययम्धोऽस्ति तथापि सर्व निकृष्टवर्णा समला च, तथा यद्यपि धनसारः सारतरवर्णस्तथाप्य स्थायिगन्धो दुर्वर्णासार संसर्गभाक् ख, अतो न तयोर्गन्धः प्रशस्यते 'ज व रयये परे ति यथा रत्नेषु इन्द्रनीलक केतनादिषु मध्ये महामूल्यत्वेन प्रशस्यते वजह "स्य तं जाय रयणमादिश्रो मिउलो । घोषं तु महस, विकासविश्रप्यस्स वि बहुं च ॥ १ ॥ झवा कायमणिस्स य सुमहलस्थावि कागिणी मुर्ख । बयरस उ अप्पल्स षि, मुलं होही सयसहस्सं ॥ २ ॥ बेoलिय व मणी, गोलीसं चंद व गंधां । जहर पर तह संधारी सुविहियाएं ॥ ४ ॥ " मधामधीनां सूर्यादिमीमध्ये विषापहाररोगोपशमादिना खातिय तथा उपमपीति गाथार्थः ।
पुरिसमरपुंडरी भरहा इव सम्बपुरिससीहार्य | महिला भगवईमी, जियजयवीओ जयम्मि जहा।। ५४ ॥ 'पुरिसबरस पुरषायां मध्ये परः पुरुषवर पुरुषयांमध्ये पुण्डरीकमिव-कमलमित्र यथा पुरा जा
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(१५१) अभिधानराजेन्द्रः ।
संधार
जसे चपगतं न पडेन लिप्यते नापि जलेन, किंतु जलपरिवत्र्येव भवति एवमद्दोंऽपि तीर्थंकरः कामैर्जातो भोगैमुपगतो न कामेो नापि भोगे, किंतु त्रिभुव नोपर्येव जातः । पुण्डरीकमातपत्रं पुरुषवराणां पुण्डरीकमि- आप जिपं निवारयति, अऽपि कम्तपनिवारणसमर्थत्वासनोपमीयते । यदि वा पुण्डरीकश्चिमकः पुरुषवराणां मध्ये पुरावरीक हम यथास केनापि प जातीयेन न पराभूयते पचमहौऽपि त्रिषष्ठ्यधिकैखिभिः पारिकतेन न कदापि पराभूयत इति बचाई स safaमस्तथा संस्तारको ऽपीति ' महिलाख भगवईओ 'ति यथा महिलानां मध्ये भगवत्यः पूज्या जिनजनन्यो जिनमातरखिभुवनस्यापि चतुःषहरपीन्द्रायां पूज्यत्वात् सत्यत्याच सर्वोत्तमा जगति - त्रिभुवने तथाऽयमिति ।
वंसायं जिणवंसो, सव्वकुलाणं च सावयकुलाई । सिद्धिमई गई मुतिसम्बोक्सा ।। ६ ।।
वंशानाम् अन्वयानां मध्ये यथा जिनवंशः प्रधानं तथा सकुलानामुप्राविकुलानां मध्ये श्रावककुलं प्रधानं धर्ममूलबीजत्वात् तथा सर्वगतीनां नारकतिर्यगमरामरवन मन्ये सर्वश्रेष्ठ सिविगतिः
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"
पुनरागमनाभावात् तथा मुसु-सिद्धि सर्व संसारिकाणां मये साधपर्यवखित्वा समम् । यदाह (औ०)"चित्य मासा से सुनो व सम्बदेवा । सिखाएं सो अय्याबाई उपगया ॥ १३ ॥ तत्थ य जरजम्मणे सा, रोगॅसोगतन्हाबुहाइयविमुको । साइमपावसाणं, कालमांतं सुहं लहई ॥ १ ॥ " यथा तत् प्रधानं तथाऽयमपि । धम्माणं व अहिंसा, जयवयवयणाण साहुवयणाणि । जियवमयं वसणं सुद्धी दंसणं व जहा ॥ ७ ॥ यथा धर्माणां दानादीनां मध्ये अहिंसा रक्षा प्रसस्थावरजीवानामुखमा यतस्तां विनान्योऽप्रमाणमेव उब
" न तद्दानं न तद् ध्यानं, न तज्ज्ञानं न ततपः ।
न सा दीक्षा न सा भिक्षा, दया यत्र न विद्यते ॥ १ ॥ " तथा हारिभद्राएके
"सेका मता मुख्या स्वर्गमोप्रसाधनी । अहिंसैका अस्याः संरक्षणार्थं च, न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥ ५ ॥ " (अस्य व्याक्या अहिंसा शब्दे )
किंच
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एकं चिय इत्थ वयं, निहिडुं जिणवरेहि ँ सब्वेहिं । पाणश्वायविरमण - मवसेसा तस्स रक्खट्ठा ॥ ३ ॥ किं ताए पढिचाए, पयकोडीए पलालभूयाए । जस्थितियं न नायं, परस्स पीडा न कायष्वा ॥४॥” इति । यथा सर्वधर्माणामहिसा तथाऽयमिति
'सिजनपचनानां मध्ये यथा साधुवचमानि असत्यखल्यामुपायचनपरित्यागेन सत्यासत्यामृषारू पाणि निपाणि । यत आह ( विशेषावश्यके ) -
"साहिय सयाम, संतो गुणा पचत्था था। सम्बिपरीता मोसा, मांसा जातमयसहाया ॥ ३७५ ॥
संधार
अगिया जातिसु विति, सहोचि केली असचमुसा। या सभेयलक्खा, सोदाहरणा मुगधव्या ॥ ३७६ ॥ तत्र सत्या दशप्रकारा दर्श्यतेजणव व १ संमय २ ठवणा ३, नामे ४ रूये ५ पहुच्च सब्बे य ६ । ववहार ७ भाव ८ जोगे ६,
व समे ओवम्म १० सच्चे य ॥ १.
66
( प्रज्ञा० ११ पद १६५ सूत्र )
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तत्र जनपदसत्यं यथा उदकार्थे कोइलादिदेशरुल्या प इति वचनम् १, सम्मतसत्यं यथा-समानेपि पो पालादीनामपि तत्वेनारविन्दमेव पहुजमुच्यते न कुबलयादीनि २, स्थापनासत्यं - जिनप्रतिमादिषु जिनादिव्यपदेशः ३, नामसत्यं यथाकुलमचयपि कुलवन इत्युच्यते ७, रूपसत्यं यथा भावतोऽथमोऽपि तदूपधारी अत्य प्रतीतसत्यं यथा अनामिका कनिष्ठां प्रतीत्य दीर्घेत्युच्यते, सैव मध्यमां प्रतीत्य इस्वति ६, व्यवहारसत्यं यथा गिरिगततृणादिषु दह्यमानेषु व्यवहाराद्विरिद्यत इति ७ भावसर यथा सत्यपि पशुत्वभावोत्कट गुला केति ८ योगसत्यं यथा दण्डयोगाद्दण्डी इत्यादि ६ उपमासस्वं यथा समुद्रवत्तडाग इत्यादि १०, असत्यभाषाभेदाः १० ' कोहे १ माणे २ माया ३, लोभे ४ पिजे ५ तहेव दोसे य६ । हास ७ भए ८ अक्वाइय ६, उबधाइय ६ निस्सिए १० दसमा ॥ १॥ ( प्रशा० ११ पद १६५ सूत्र ) क्रोधनिश्रिता - क्रोधाभिभूतोऽदासमपि दासं भणति १, माननिचिता श्रल्पधनीऽपि पृष्टः सन्नात्मोत्कर्षेणाननुभूतमपि विभवादि अनुभूतमिति प्रकाशयति २ मायानिश्रिता परस्य वञ्चनार्थे नात्रकाणि योजयति कूटकर्य कथयति स्वकीयं कयाकं प्रशंसयति परकीयं निन्दति इन्द्रजालिकदेशक संबध्नाति ३ लोभनिश्रिता तुम्धनन्दस्येव सुवर्णमपि लोहंमतः अज्ञानां दायकानां रत्नमपि पाषाएं कमपि पट्टसूत्रमपि स इति भणति ४ प्रेमनिचितामेव दयेति ५ दोषनिधितः तीर्थंकरादीनामपिनं करोति ६ दास्यनिश्रितःहान सार्थवाहमकालगतमपि सार्थवाहिन्या अतः कालगतः इति भवति ७ भयनिश्चिता खामिनमस्कारादि म येन कर्मकरोऽहमिति कोऽहमिति वा पति राजपुउपगृहीतचोरो वा पदति नाई बीरो यथा हिख्यायिका - कल्पितकथा धूर्त्ताक्यायिका कमण्डलुमध्ये बरामाखानप्रतो दिसम्बर धास्ती इत्यादि उपघातनिभिता अचीरमपि चीरं ततेोति महाराजकत्वादिति ब्राह्मणो न हन्तव्यः, गौरव शेजवान पस्या घातयति, संर्वजीवा न हन्तव्या इति वक्तव्यम्, १० सत्यासत्यभाषामेषा १० उपन्न विनय २ मीसित जीव ४ मजीवे य जीवजीवे य ६ । तह मीसा अयंता७, परिसद अाय अजा १० ॥ १॥ ( प्रज्ञा० ११ पद १६५ सूत्र ) उत्पन्न मिश्रा यथा व्यवहारे कस्यचित्समुत्पन्नं द्वितीयो पतिअनेन पश्चशतानि विटिपितानि एवं दश दारका जातात्यादि विगतमित्र मार्गे स्तोकेऽपि व्यतीते बहुतरं गतमिति २ उत्पन्नविगतमा अमुकपुरे यथा दस दारका जाता दरा चतुर्जा बिगता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिकभावे ३ जीवमीस चि-अजीपजीवमिमं यथा तस्मिन्नेव मिराशी जी
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( १५२ ). अभिधामराजेन्द्रः ।
संधार
भा
बराशिरिति ५ 'जीवाजीवमीसए' चि जीवाजीवविषयं मिश्र यथा तस्मिन्नेव जीविमृतकृमिराशौ प्रमाणजीषा मृता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिका व ६ । अनन्तमिश्रा यथा-वनस्पतिपत्राणि अनन्तानि न तु जवादि यतः सर्वोऽपि यणोऽनन्त इति पदतः प्रत्येकमिश्रा सर्वोऽपि यणः प्रत्येकमिश्र इति मिश्रा अजा कालः घटिकाइये तिष्ठति रात्रिः पतिता अनुदिते. ऽपि आदित्येवदति उत्तिष्ठति बहि टिकाइयं चडितम् श्रद्धाद्धमिश्रा प्रहरद्वयेऽपि श्रवदिते वदति प्रहरइयं चढितमिति २०, असल्यामुपाभाषामेवा १२१ भाष यही २ जायणि ३ तह ४ प ५ पचासी भासाद, मासा इच्छानुलोमा य ७ ॥ १॥ अभिग्गहियो मालाभासा य अभिग्गहम्मि बोधव्या । संसयकरणी भासा १०, बागड ११यागडा १०१११६२तणी-देवदत्त १, आशापनी काजपरस्स पवन्तणी, जहा अमुगं करेहि २, जायसी कर सिरस देदिति पराि पुच्ची अज्ञातस्य संविग्नस्य या अर्थस्य यथा को जीवो मोक्षो वा कथं वा धर्म्मो भवति ४ पद्मवणी शिष्यस्य उपदेशः पाणि पहा न नियन्ता भवन्ति दोहा जया रोगाव
माइयपद्मवणी, पद्मन्ता वीयरागेहिं ५ ॥१॥' प्रत्याख्यानी यामानस्य श्रदित्सा मेऽतो मां मोयचस्येत्यादि प्रत्याख्यानरूपा६ भाषा इच्छानुलोमा च प्रतिपादयितुर्या इच्छा तद्नुलोमा तदनुकूला, यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति बचः ७ अनभिगृहीता अर्थानभिप्रदेश या उच् स्थादिवत् भाषा पानिमहेश बोन्या अर्थमभिगृहा पोच्य ते घटादिवत् संशया अनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरशी, यथा-से पुरुषलचणवाजिषु वर्तमान इति१० व्याकृता लोकप्रीतशब्दाची अव्याकृता गम्भीरशब्दार्था मम्माक्षरयुक्त वा अविभाषितार्था ॥१२॥ इतिरि शामेधानां साधूनां साधुव्यवस्थितानां वचनानिजनपदचनानां सामान्यजनवचनानां मध्ये शोभन्ते यतः। 'अविसंवादनयोगः, कायमनोवागजिता चैव सत्यं विधं त-जिनवरवचनेऽस्तिनान्यत्र ॥ १ ॥ ' इति । यथा-संस्तारकः 'जिनवयणं व सुईणं' ति श्रूयन्त इति श्रुतयः श्रुतीनां म ये था जिन तीर्थकर बचनमषिसंपादित ससस्य हिततया व प्रधानम् । तथाहि"अविसंवादयोग कायमनोवागजिता देव ।
I
चतुर्थत जिनपरपचनेऽस्ति नान्यत्र ॥ १ ॥ सुलहा सुरलोयसिरी, रसापरमेदसा मही सुखदा । निजहरु जिरणसुई जहा दुलहा ॥२॥ रिभयपय खरसरला, मिच्छ्रियरतिरिच्छसगर परिणामा । मणनिव्वाणीविणिजो यण नीहारिणी जं च ॥ ३ ॥ नारयतिरियनरामर-संसारयसम्यक्खरोगाएं । जिवण गमो सह-मलक्खणपवग्ग सुहियकयफलये ||४|| तथाऽयमपीति सुद्धीत शोध सृजित यशुद्धिः भावशुद्धायादिका 'रजोहमडी, कमखो जह मलकलंक की सम्भाव
सो, होहिति जलानलाइ चा । १।' भावशुद्धिस्तु सत्यमस्य कु चारित्राणि इति जलाभ्याविशुद्धी मध्ये यथा दर्शनं यथा
संधार ज्ञातसम्यक्त्वं पुनर्मिथ्यात्वागमनात् तन्महती शुद्धिस्तथाऽयमपीति भावः ।
कला अक्षुदो, देवारां दुई तिहुययम्मि | बत्तीसं देविंदा, जं तं कार्यंति एगमगा ॥ ८ ॥ कल्याणमारोग्यमणति गच्छतीति कल्याणं निरुकं यथा प्रमोदाय तथाऽयमपीति । यद्धि कल्याणहेतुत्वात्कल्याणवत् दह शान्तिकर्माविस्तारकप्रतिपत्ती तु कम्मोपशमः। अभ्यु दयो यथेये राज्याभिषेकादिप्रीतये यथा भवति तथा स्वर्गापगमात्य संस्तारकस्येति षोऽप्यभ्युदयः । 'बी' ततोऽपि देवेन्द्रः तत्र देशकल्पाः पि शन्ति । भावनाधिपाः चन्द्रादित्यो व जम्बूद्वीपजी एते द्वात्रिं शत् । शेषज्योतिष्केन्द्रव्यन्तरेन्द्राश्च तत्परिवार कल्पत्वादल्प fastorea न गणिताः 'जं तं ति'यं तं संस्तारकं ध्यायन्ति स्मरन्ति 'पगमसि' एकाग्रमनसः सन्त इत्यर्थः ।
लद्धं तु तए एयं, पंडियमरणं तु जिणवरक्खायं । इंतू कम्मम, सिद्धिपडागा तुमे लद्धा ॥ ६ ॥ लब्धं प्राप्तं तुरवधारणे 'तप'ति त्वया हि क्षपक ! 'एयं'ति पडितमरणं संस्तारकप्रतिरूपं विशेष्यत्येनाभ्याहरणीय पण्डितमरणमुत्तमार्थप्रतिपत्तिरूपं त्वया प्राप्तमेवेत्यर्थः । कथंभूतं तदिति जिनवराख्यातं तीर्थंकरभणितम् । किं कृत्वेत्याह-' इंतूण हत्वा --- विनाश्य 'कम्मम ति कर्म्मारयेव मनः सुधः कमशोटाचत्वारिंशत्प्रकृतिरूपस्तं 'सिपिडागसि सिद्धिः सुखहेतुवादाराधनायाः पताकेव पताका सिद्धिरेव पताका मोक्षपताका सा त्वया प्राप्तेत्यर्थः ।
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भाणाय परमसुकं, नाथायं केवलं जहा नायां । परनिव्वाणं व तहा, कमेण भणियं जिणवरेहिं ॥ १० ॥ 'कणा' ति ध्यायन्ते स्पहेतुभिः सर्पन्त इति व्यामानि रौद्रार्त्तधर्म्मशुक्तरूपाणि तत्राचानां त्रयाणामिहाउपयोगात् चतुर्थमेव स्वरूप प्रार्थयते। तथाहि'सुखं च उपोयारे पातविषक्के स. वियागमय अविवाशमरिए अनियडी २, समनिफिरिए अपडिवाई ४ 'सुचना उबडतो, साथम्मिय जम्म सविवारं भायाची पद सरागो उ |१| सुयनाणे उवउत्सो, अत्थम्म य वंजणम्मि अवियानिवद्विजयसपुय्या, धीयं सुकं गियरागो।२१, अथ संकमहापंजरासंकर्म, जोगमय पढमे भा
अत्थ
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नागेन विजोगे जोगे यथा पढ बी जोगम्म कमिवी, तहयं च कायोगे चतुर्थजोगिणो । पढमं वीर्य च मासाई झायंति पुजागा उप संतेहि कलापहिं की च महासुणी ६ वीयस्स तइयस्स वि अंतरा य केवलनामुप्पा भी पुछाया पुण्ये केव जाणिना खीणमोहा झियायन्ति केवली दुभी उत्तरा ७ सिभिकामो जीवो कार्य जोगे निरंभ ताहे तर सुमङस्लासमिरलाला व तत्थ य दुसमयद्विश्यं कम्मं परमसाहरिया मरियं अभिवही जो
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(१५३) अभिधानराजेन्द्रः ।
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गमिरोहे य पुण्यपश्नोगेण चतुत्थं समुच्छिन्नकिरियमप्पाडवा - | यमाणं ।' पढमबीया उ सक्काए तइयं परमसुक्कए । परिक्षेत्र कार्य विवाहियं ॥१॥ अणुत्तरेहिं वेदेहि पदमचीहि गर । उपरिजेहि झादि सिरक नीरो वं ॥२॥ अष्पेदा चव्विाश्रयायाणयेहा असुभालुप्पेहा श्रणतवत्तियागुप्पेहा विपरिणामा गुप्पेहा। जहत्थं ग्रास तइअं वा य पिक्खर संसारस्य असु. भतं अत सम्यभावपिपरियामियं रसाथि बतारि जाविवेग दिउसो अब समाजगविवेगं vिeer | बिउस्सग्गे सब्धो वहिमाइविउस्सग्गं करे। अन्य विमानो न पीहर न चलह असंमोहे सुद्दोषमे प्रत्येन स चि आलंबितारितं जहा ती मुती म ति इत्येवं चतुःप्रकारे शुक्रे यथा प्रथमं द्वितीयमेशतीत तृतीयं परमशौकिक-परमशुक्लध्यानप्रधानं तथा शानानां मतियुताषधिमनःपर्यायकेवलज्ञानानां मध्ये यथा केवलज्ञाने प्रधान तथा सुखानामि यध्याहारो दृश्यः, यथा सुखानां मध्ये परिनिर्व क्षयरूपं मोक्षं प्रधानम् इति तायदेषाने प्राधान्यमत्येव परं तथापि " क्रमेण भवियं जिथवरेहि" इति मयन ग्रन्थकार एषामुत्तरोत्तर प्राधान्यमप्याह यतस्तात्पर शीयमेव प्रधानं तत्सद्भावे च केवलाने तीति ततः केवलज्ञानं प्रधानम् । केषलिनोऽपि पञ्चाशीतिकर्मप्रकृतिसताकत्वात् ततोऽपि परं निर्माण पश्चाशीतिकर्मप्रकृतिवात् मोक्षं प्रधानतरं क्रमेण परिपाटया यथा जिनवरैर्भणितं तथा ऽयं संस्तारक इति गाथाभावार्थः ।
सबुतमलाभार्थ, सामर्थ चे लाभ मति । परमुतमतित्थयरो, परमगई परमसिद्धि चि ।। ११ ।। सर्वेषामुत्तमाः समाः ते च ते लाभाय सर्वोत्तमलाभा सम्यक्त्यदेशविरतिलाभरूपाः, तस्याप्ती संसारपरिकरणात् तेषामपि लाभानां मध्ये श्रामण्यमेव चारित्रमेष लाभं मम्यन्ते विद्वांसः, तत्मासाचेच मोक्षगमनात्। उम्म माया संदिति पत्तेथे चारिजयादिति, तिसम ते चारितं ||१||" इति आस्तां संस्तारकलाभोत्तमः ससमलाभानां भ्रामरयमेव तायला मम्यते, यथा सर्वोचमः पुरुषेषु मध्ये तीर्थकरः, यथा च परमगतिः - सर्वोत्तमगतिः । 'परमसिद्धि' सि-सिद्धयस्ताषद् - अणिमा, गरिमा लघिमा,
निमा, बशिमाचा अपि भवन्ति, अत आह-परमा बासी सिद्धि परमसिद्धि', गती विषये उत्तमा सर्वकर्मक्षयरूपा यथा निम्मातिस्तथाऽयमिति ।
मूलं तह संजमो वा, परलो गरयाण कट्ठकम्माणं । सब्बुतमलाभाणं, सामनं चैव मति ।। १२ ।। परलोको भवान्तरं तस्य हिते रतानां भवान्तरमस्तीति श्रद्धामयताम्, अथवा आत्मव्यतिरिक्रः परलोका सर्वलोकस तुसमूहस्तस्य हिते रतानां साधून, कष्टं मिथ्यात्वादि कर्म्मणां विलसितशेषपापानां जीवानां मोत सम्पदाह
"एदिवस अस्थि व कालम पत्रामध्य कहमषि कया केई, जीवा पाविति तसभावं ॥ १ ॥ तत्थ मरतं तत्थ बि, सुइ सि तं तत्थ वि य सुहखितं । जालारोग चिरजीवितं च महदुलई ॥ २ ॥
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तत्य वि बहुसुहकम्मोद धम्मेवि हुआ जा बुद्धी । तो वि जियाण न सुलहो, जिणवयणुवपसगो सगुरु ॥ ३ ॥ तो हिरमोहिमज्ये, पडियर व सकलसामगि दुलई पि लहिय तह वि य, मूलं धम्मस्स सम्मतं ॥ ४ ॥ इति मूलसम्यच दुधाप्यम्, 'त' ति तथा संधारित्रं दुर्लभं वाशब्दाज्ज्ञानं च एषोऽपि तावन्महान् लाभः परं तथापि सर्वोत्तमलाभानामेषां श्रामण्यमेव विशिष्टलाभं मन्यन्ते विवेकिनः । यत आह-" सम्मतं श्राचरित-स्स हुज भयणाय नियमसो नऽस्थी जो पुरा परित्तो तस्स हु नियमेण सम्मतं ॥ १॥ तत्रैव-भ्रामण्यदेशंबिरतिरूप एव सं. स्तारक प्राप्तिरिति गाथाभावार्थः ।
साथ सुक्कलेसा, नियमाणं बंभचेरवासो य । गुतीसमी गुणार्थ, मूलं तह संजमो व तो ॥ १३ ॥ 'लेसा' तिलेश्वानां कृष्णनीलकापोततेजः पद्मानां म ध्येयथा लश्या उमा 'नियमाति-नियमानां विरमणानां मध्ये यथा ब्रह्मचर्यवास उत्तमजनशक्यः - "ब्रह्मचर्यव्रतं पोरं, शरैश्च न तु कातरेः । करिपर्यासमुद्राखं करिभिर्न तु रासभैः ॥१३" कि -"देवदावगंधा, उपखरवखसकि मरा । भवारिं नर्मसन्ति, डुकरं करोति याशा "गुती समी गुणाति तथा यथा गुझिसमित्यो गुफानां सप्तविंशतिय तिगुणानां मध्ये उत्तमे प्रधाने तथा संयमोपायलक्षणं यन्मूल मोक्षकारणं ततः सतोऽपि ज्ञानाभावे मुरभाषा - दिति । तिसृभिधाभिः भ्रामरयस्यापि प्राधान्यमुकं किमुत्तरसंस्तारकस्येति । सबुतमतित्थाणं, तित्थयरपया सियं जह य तित्थं । अभिसे व सुराणं, तह संथारो सुविहियाएं ||१४|| 'सम्युन' ति यथा लौकिकानां प्रभासप्रयागादीनां श्रीपन तथा लोकोत्तराणामप्यापदादितीर्थानां मध्ये तीर्थकरप्रकाशित प्रकटितं तीर्थ यथा ज्ञानादिचतुर्विधसंघो पा प्रथम गणधरो वा तथाऽयमपीति अभिसेड म्य सुरागं ति-अभिषेको वा अभिनयोपदेयानां यथा राज्याभिषेकरूपः तथाऽयमपीति ।
सियकलसकमलसुत्थि - नंदावत्तवरमल्लदामाणं । तेसि पि मंगलायं, संथारो मंगलं अहियं ।। १५ ।। शितः शुभ्रः कलशो विवाहादावुत्सवे यो मङ्गपते तस्यैव माङ्गलिकत्वात् मलिकमले व स्वस्तिकमन्दाया परमाल्यदाम च शितलकमलक्ष्यस्तिकनम्दावर्तरमापदामानि तेपानेवानि च लोके मायतया रुद्राणि तथापि तेषामपि मला मध्ये संस्तारको अधिक मङ्गलमिति भावः ।
तवमग्गर्नियम, जिणवरनाथा विसुद्धपत्यथा। जं निव्वहंति पुरिसा, संथारगदिमारूढा ॥ १६ ॥ 'तब अग्गि' - अष्टप्रकारं कर्म तापयतीति तपः, रूप एषाशिस्तपोऽग्निः नियमाथ प्रताम्यनिमहविशेषाध 'सूर' सि शूराः - सुभटाः तथा चार्षम् "बत्तारि सूरा पता संजातिसरे समरे शरारे रे ति सूरो अरिहंता, तब अगारा, बायस बेसमये दुसरे वासुदेवे तथ तपोऽग्मी दाहकत्वेन नियमेषु तेषु अभिम
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( १५४)
अभिधानराजेन्द्रः ।
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विशेषेषु वा नवकर्मानादानभूतेषु शूरा अकातराचारित्रिण इत्यर्थः, 'जिवरमाण ' सि-जिनवराणां ज्ञानं सामान्यतः समुपदेशक विशेषतः अज्ञानादिरूपं वा येषां मोहराजवि जयनीतिप्रदर्शकत्वाद्येषां ते तथा विपत्थ पियदनं शेवलं भवान्तरानुयायित्वात् सम्यकरवं येषान्ते विशुद्धपश्यदमाः, के पवंविधा इत्याह 'जे निव्यति पुरिस' ये पुरुषा निर्वहन्ति मोहराजविजयं कर्के संस्तारकजन्माका सन्तः पोधा अपि नानाविधमहर युद्धकौश स्पाभिहताराभ्यवसायशरीरारोग्यता वसंघात तापकाग्नितैतानियमा
बने
या शूराः सुभटा रग दीक्षा कक्षाः 'जिरावरनारा 'त्ति-जिनवराणां जयस्वामिनां वराज्ञाकारिणः जिनवरज्ञाना वा 'बिसुपति पदमा गृहीतकृतरिकादिशंवलाः ये पचिधा पोधा भवन्ति ते गजेन्द्रस्कन्धमाका सन्तः जयं निर्वहन्ति रिपुधा जयन्तीति माचार्थः । परमत्थे परमतुलं, परमाययणं ति परमकप्पो त्ति । परमुत्तमतिरथयरो, परमगई परमसिद्धि नि ।। १७ ।। परमाथै मोके पर ग्रतुनातिक्रान्तं संसारिकल शरी कारणं' परमाययणं' ति परममायतनं स्थानं ज्ञानादीनामेतदित्यर्थः । 'परमकप्पो' ति स्थविरादीनामेव प्रधानक यः पर्यम्तकृत्यविधिः संस्तारक इत्यर्थः । 'परमुत्तमतिरथपरो परम परमसिद्धि' सि पूर्ववत्।
ता एवं तुमि ल जिवयणामयविभूसियं देहं । धम्मरयस्सिय सय, पढिया भुवयम्मि वसुहारा ।। १० ।। 'ता इति' तावत् 'पयं' ति एतत् 'तुमि' ति त्वया संस्तारकाकडे ''ति प्राप्यविभूतियं देवें" ति हे क्षपक! एतदस्मिन्नवसरे जिनवचनामृतेन जिनोपदेशं साधय। सर्वकुभूतिमूर्द्धाविघातकेन विभूषितं देहं शरीरं प्राप्तम् तजिधम्मपदस्सिय'ति धर्मरत्नराक्षिता यु. का पाठान्तरेण 'अम्मर थिम्मिय' ति धर्मविष्या दिता 'धम्मरपणा धावा. ते इति सेभवने देदे वसुधारेव पतिता सर्वकार्यसिद्धिहेतुत्वात् । अत्रार्थ भावार्थ: यथा कश्वापि पुरुषवतो सुधा पातः सर्वतोऽपि निषुगीतार्थनियमकमुखात् नियच नामृतभवतस्यास्यामवस्थायां भवतीति जानीहीति भावः । पता उत्तमपुरिसा है, कलाणपरंपरा परमदिष्या । पावयसाधुधीरा, कर्म च ते सप्पुरिसा ! ||१६|| 'पद्म' ति प्राप्ता संपादिता हे उत्तमपुरुष का प्राप्तेति 'काय' शिकल्याणपरंपरा मानुपपदार्थसि
लाभात् 'पावपणलाइ सि प्रवचनं यन्ति जानन्ति प्रायचनाः प्रावचनाथ से साधवध प्रावचनसाधवः प्रायच्चनसाधर्मामध्ये धीर इव धीरः तस्य संबोधनं मावचनसाधुधीर ''तिक परिक्रमपि समीहितं स
कार्यमित्ययाहार 'ते' या अनि उत्तमाप्रतिपत्स्वीकारात् दे सत्पुरुष ! इति गाथार्थः । समतनाथ दंसथ- वररयथा नायतेयसंजुता । चारितसुद्धसीला, तिरयणमाला तुमे लद्धा ॥ २० ॥
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'समत्तनाण ति' समाप्तं गतमज्ञानं मिथ्यात्बोपगमाद्यस्य ल समाप्ताऽज्ञानस्तस्य संबोधनं समाप्ताज्ञान ! दीर्घत्वं सर्व्वत्र प्राकृतत्वाद् 'दंसणवररयण ' ति हे दर्शनवररक्ष! प्रवरसम्यक्त्वरज्ञ!, अथवा सम्यक्त्वस्य वररचन अनेन कृत्या दर्शनस्य सम्यकस्यप्रधाना रचना-विि यो येन स समासज्ञानदर्शनवररचनः तस्य संबोधन समाज्ञानदर्शनगररचन ! तचना चैवं तथाहि
"एगविह दुविह तिविहं, वउहा पंचविह दसविई सम्मं । दयाकारगाई, उपसमभेपछि वा सम्मं ॥ १ ॥ एगविहं सम्म भिि तिविहं तं सइयाई, अहवा विदु कारगाई य ॥ २ ॥ सम्मत्त मीसमिs - रुकम्मलयो भांति तं खयं । मिष्ठुखघोषसमासाद्योषति ॥३॥ मिसमार उवसम्मतं मति समयन्नू । तं उबसमसेढीए, उबसमसम्मनलाभे वा ॥ ४ ॥ विहियाझणं कुण, कारगमिह रोयगं तु सहहणं । fasseट्टी दीवर, जं पत्ते दीवगं तं तु ॥ ५ ॥ खइयाई सासायण, सहियं तं चविहं तु विशेयं । पतं समन्तभंगे, मितापकिय तु ॥ ६ ॥ बेगसम्मतं पुरा, एयं विव पंचहा विसिहि । सम्मत चरिमपोग्गल बेलकाले तयं होइ ॥ ७ ॥ वयं चिप पंचविसाऽभिगममेयश्री इसहा अहवा निस्सारु, इबाइ जमागमे भणियं ॥ ८ ॥ " अयमेवार्थ आयें दर्शनात् ॥ सम्म समाइयंतिषिद्धं ब उपसमियं खानोव समियं । ऋहवा तिषिद्धं सम्म सामाइयं कार रोययं दीप कारगे जहा खाइर्ड्स रोयसेशियाईसंच दीव अभयसिद्धियमिच्छादिसिया मसि जिस था । अभवसिद्धियस्स कहं ?, ऊं सा एगारस अंगाई पढद्द न य सहहह धम्मं च कहेई एवं दीवगं । अहबा-निसग्गसम्मइंसणं अभियमसम्मसणं च । निसग्गसम्म हंसणंनिसर्गः स्वभावः परिणाम इत्यनर्थान्तरं जं उवसममंतरेण वि गिरहद्द तं निसग्गसम्महंस, अहिगमसम्म जीवा इयपरथे उपमेयर ज्ञान तेजसा युको ज्ञानतेजः संयुक्तस्य संबोधने देशानायुक्त ! प्रनष्टमोहान्धकार ! बारिकसुखसील ' चारित्रेण निरतिचारतया शुद्धः शीलः समाचारो यस्य स चारित्रशुखशीलस्तस्य संबोधनं हे चारित्रशुद्धशील 1 'तिरयणमाल ति त्रिरक्षमाल ! ज्ञानदर्शनचारित्ररूप रत्नत्रयमाला स्वयैव लब्धा माता, रत्नमाला पि समाप्ताऽहानतिमिराचैव ये समासाना च दर्शनयरमा समा ताज्ञानदर्शनचरमा ज्ञान परीक्षाहेतुकज्ञानतेजःसमग्यिता चारित्रशीला शुभाच सुद्धा त्रासादिदोषरहिता प्रशस्यत इति गाथार्थः ।
सुविहितगुण वित्थारं, संचारं जे लईति सप्पुरिसा है। सि जियोयसारं रमायाहरणं कर्म होइ ॥ २१ ॥ हे सुविहितगुण ! कोभवानुष्ठानगुण विस्तारं व्यावति 1 व्याययमानम् अनेकातिशयप्रकार संस्तारं ये पुरुषभन्ते तेषां जीवलोकसारं रत्नाभरणं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं कृतं भवति इति तताऽयमिति जानीहि अहि 'ति
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लोयसार' मिति पाठे त्रिज्ञानादिरत्नाभरणमात्मनः कृतं भवतीत्यर्थः ।
तं तिरथं तुमें लई, जं पवरं सब्बजीबलोगम्मि । भूयो जत्थ विरा, निब्बाणामयुत्तरं पत्ता ॥ २२ ॥ तं तीचे मासतीर्थयागादिसकिलोमपदादि व्यतीर्थव्यतिरिहं भावतीचे त्वया लब्धं प्राप्तं यत्र तीचे नाताः क्षालितकर्ममलपटला मुनिवरा निर्वाणसुखं मोक्षसुखमनुत्तरं प्राप्ता इति । द्रव्यतीर्थे देहाद्युपशमतृष्णाव्यवच्छेदमलमशासनात्सुखं भवति अत्र तु भावती पा निग्रहसकलकल्मषमलप्रक्षालना निर्व्वाणसुखमिति । आसवसंवरनिअर, तिमि वि अत्था समाहिया जत्थ । तं तित्थं ति भयंति, सीलव्वयवद्धसोवाणा ॥ २३ ॥ अथ तीर्थशब्दस्य व्युत्पति तीर्थकर पवाह-त्रिषु विहतीति त्रिस्थं, के ते त्रय इत्याह-'ग्रासव संघरनिज्जर'ति श्राश्रवाणाम्इन्द्रियाणां समाधानं हितेषु प्रवृत्तिरहितेषु निवृत्तिः । तत्रार्थ
मेवा 'इदियकसा' ख्यादि चत्वारिंशत्मसिया एव४२५था कषायशब्देन षोडश कषाया नव नोकषाया एते पञ्चविंशतिः, योगशब्देन 'सबं मोसं मी समित्यादि योगाः पञ्चदश प्राश्रवमेदाः पञ्चसप्ततिः संबर संबर: 'खमिह गुत्ती परीसहेत्यादि ५७ तथा गुप्तिशब्देन मनोगुप्त्याचाः ३ ब्रह्मचर्यगुप्तयो ६ भावनाशब्देनानित्याचा १२ महावतानां २५ 'कंदप्यदेव किविस २ अभियोग ३ श्रसुरा य ४ संमोहो ' इति शुभभाबनानां विपक्षत्वेनाशुभभावना अपि गृह्यन्ते तदा संवरभेवाः ६६ संवरत्वं'च कन्दष्यदीनां परिज्ञानात् वेभ्यः कारणेभ्य एते भवन्ति तत्परिहारेण'निर'ति निर्जर निर्जरा तपः त द्वादशधा प्रसिजमेव। आश्रवश्च संवरश्ध निर्जरा च श्र पसंचरनिर्जराः प्राकृतत्वाभिहितोपः 'तिथि वि'सि पते प्र योगार्थाः 'समाधि' समाधियुः कृताः समाहताबा मीलिताः यत्र तत् त्रिस्यं तीर्थ या भगतो विवेकिनः 'सीसमयबजसोबाण 'सि शीलताम्येष बचान सोपानानि यैस्ते शीलवत सोपानाः । कस्य एतत् त्रिस्थस्य तीर्थस्प ते तथाविधाः सम्तो भणन्तो विवेकिनियामनुतरं प्राप्ता इति पूर्वगाथातः संबध्यत इति गायार्थः ।
1
भंजिय परीसह, उत्तमसंजमवलेय संजुत्ता ।
4
गुणीस मिठो, संजमत नियमजोगतमयो । समय समाहियमयो, दंसयनाये भययमयो ||२६|| 'गुसीसमि' सि गोपनं गुप्तिर्मनोबा कायनिरोधलक्षणा समयम समितिः भावेपणादनिकेपपारिहापनिकालया पश्चप्रकारा गुतिश्व समिति सिमती ताभ्यामुपेतो युक्तो गुतिसमित्युपेतः संजमतयनियम' ति संयम:पश्चाभवविरमणलक्षणः, तपो- द्वादशविधं नियमा-अभिमहविशेषा:'डविचरा निश्चिराचरगा' इत्यादिका पो गा मनोवाक्कायनिरोधा, सेजमा तपथ नियम योगाध संयमतपोनियम योगातैः पुरुं मनो यस्य स संयमतपोनियमयोगयुक्रमनाः सुमपिहितमना भ्रमणस्तपसि वेदव समाहितमनाः सुमतिचित 'इंसनाये' सिद सम्यक्त्वं ज्ञानं सत्यादिकं दर्शनं चहा च दर्शनज्ञानम् समाहारत्वादेकवचनं तस्मिन् न विद्यते सम्पजन्यान इति है पकयेन समाधिमा त्रिभुवनस्य राज्यमिच याम्यमो यस्य स समयमा कामः सा वीर्यवान मुक्तिर्षा प्राप्यते से समर्थित्वमपि संताचं प्रतिपद्यते इति शेष इति गाथार्थ तं
जति कम्मरहिया, निब्यायमणुत्तरं रजं ॥ २४ ॥ कथं नाम कि कुतीत्याह भेजिय'चा प पहच- परीषद सेनाम् उत्तमसंयमयन युक्राः सन्तो भुअन्ति कर्मरहिता निर्माणमनुत्तरं विशिष्टं राज्यमित्यर्थः । तिहुयणरजसमाहिं, पत्तो सि तुमं पि समयकप्पम्मि । रक्ताभिसेयमतुलं, बिउलफलं लोएँ विहरति ।। २५ ।। त्रिभुवनस्य राज्यं त्रिभुवनराज्य समाधानं समभिः, त्रिभुवनराज्यस्य समाधिः त्रिभुवनराज्यसमाथितम्। तत्र समाधिराधा धम्मचिता पर समायेषिये श्वेषदत्तरिस४। ओडी सण ५ माये य ६,मणपाय ७ केवले || १ || नाणे य ८ दंसणे वेव लीमरये १० समुच्यचा समुप्पो, सिमा
"
"
।
(१४४) अभिधानाजेन्द्रः ।
"
संचार प्राप्तोऽसि 'समयकमिति विचारणार्या क्रियमाणायां किमिति राज्येनोपमितमित्युच्यते, 'रखा उफ लोहित' यथा क्षत्रिया राज्याभिषे
विपुहिक सुखफलं प्राप्य लोके जानपरलोकमध्ये प्रमुषिसात्मनो विहरन्ति विविध बेचते विजृम्भते तेरा भिषेकतुल्यमतु चारित्रं दधानास्तावत्साधवो विहरन्ति स्वया तु संस्तारकमाश्रयता त्रिभुवनाधिपत्यसमाधिः समायभाषया प्राप्त इति गाथार्थः ।
अभिनंद मे हिययं, तुझे मोक्खस्स साहयोबाओ । जं लदो संधारी, सुपुरिसपरमत्थसंधारी ।। २६ ।। अथ शपकस्य गुरुरात्मोत्कर्षदर्शनेन समुत्पादयति पक ! भवानमिति मीतं करोति मे मदीयं हृदयं यतः कारणात् 'तुम्भे मोक्लस्स'ति त्वया मोक्षस्य अपुनर्भवस्य सा धनोपायः आत्मशान्तिसाधनोपायः कृतः। यत्-स्मात्कारयात् लब्धः - प्राप्तः संस्तीर्यते विस्तीर्यते यस्मिन् जीवदयादद संतारकः-सत्पुरुषपरमार्थदानादिस्तस्य संस्तरो विस्तारइति महान प्रमोद इति गाथार्थः । देवाऽवि देवलोए, जंता बहुविधाएँ सोक्लाई । संचारं पिता, आसयसमाथि चति ॥ २७ ॥ देवा अपि देवलोके व्यवस्थित अपि वाना ि धानि सुखानि संस्तारकगतं साधुधर्मानुभूताराधनं वा संतारकगुणान्या चिन्तयन्तरम्प्रासमश्यामि मुि परित्यजन्ति त्वद्गुणावेतो मर्षिवादभ्युत्थानादि कुन्तीति गाथार्थः ।
चंद व पेच्छणिओ, सूरो इव तेयसो बि दिष्यंतो । धावंत गुणवंत, हिमवंत महंत विक्खाओ ॥ २८ ॥ प्रथाङ्गीकृतसंस्तारक रूपकः क च शोभा-सीपतायां चन्द्रवत् प्रेक्षणीयः, तपस्तेजसाऽपि सूरतेजा भवति धनवानिय सर्वस्याप्याश्रपः बासि पूज्यो भवति, हिमवानिव महस्वत्यभ्यां यातः-सिद्ध इत्यर्थः ।
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संपार
संथार
अभिधानराजेन्द्रः। तथा
यः पुनः पानभूतो योग्यो निर्मायः संघिग्नः कृतसंलेखना मेरु व पब्वयाणं, सयंभुरमणु व सव्वउदहीणं । सन् मालोचना गुरुसमीपे कृत्वा चारोहति संस्तारकमिति । चंदो इव ताराणं, तह संथारो सुविहियाणं ।। ३०॥ जो पुण सणसुद्धो, मायचरित्तो करेइ सामनं । मेकरिव-पर्वतानां मध्ये यथा मेकः प्रशस्यः, स्वयंभूरमणो य
भारुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो॥३५॥ था गाम्भीर्यगुरुत्वाभ्यां प्रशस्यते, चन्द्रश्च यथा तारकाणां म
यः पुनः साधुः श्रावको वा 'दंसणे' सि दर्शमेश सम्यक्त्वेन ज्ये प्रकाशकतया शोभते, तथा संस्तारकः सुविहितानां शो
सप्तपधिभेदभियन-गुरो-निर्मलःते चामी सप्तपष्टिमेवा:भनानुष्ठानानां भवतीत्यर्थः।।
"खउसरहणं तिलिगं३,दसवेयण१०तिसुद्धि३पंचगयदोस५। भख केरिसस्स मणिमो, संथारो केरिसे व भोगासे ।
भट्ठपभाषण ८ भूसण ५, रक्षण ५ पंचयिह संथुर्त ॥ १॥ उक्खंभिगस्स करणे, एवं ता इस्थिमो नाउं ॥३१॥ छबिहजयणारंमा ६, भावेण ६ भावियं ठाणं ५। अथ तत्स्थः भोता गुरुं पृच्छति भो प्रभो!भण-कथय कीरश- यह सत्तसडिलक्षण, भेयविसुखं बसम्मतं ॥२॥ स्य क्षपकस्य भणिता प्रतिपादितः संस्तारकः! कीशो वाऽ- (चउसइहण ति)बकाशः भूप्रदेशे प्रामनगरादी वा गन्धर्वनाट्यशालादिषि
परमस्थसंथवो बलु, मुणियपरमस्थ जार जणमिसेवा। बर्जिते ? उक्लंभिगस्स करणि' ति यथा कस्मिंश्चिद् - बावन्नकुविट्ठीण य, बजणमिह चतुहसइहणं॥३॥ दादोजीणे पतितुकामे वा उत्प्राबल्येन स्तम्भनम् उत्तम्भनम्, जीवाफ्यस्थाणं, सम्मपयाईहि अडेहि पाहि । उत्तम्भ एवं उत्तम्भिकः, स्वाथै इकण्प्रत्ययः, उत्तम्भिकस्य बुद्धाण वि पुण पुण स-बण चिंतणं संथयो होइ ॥४॥ भाष उत्तम्भिकरवम् तस्य उत्तम्भिकस्य-अषष्टम्भनकस्य प्रति गीयस्थचरित्तीणं, सेवाबहुमाणविणयपरिसुद्धा। स्तम्भवारकादेःकरणे वतीयार्थत्वात्सप्तम्याः, तत उत्तम्भि
तत्ताव बोहजोगा सम्मत निम्मलं कुणा ॥५॥ कस्य करणेन पहादी स्थैर्ये विधीयते तथा साधोरपि उत्त
पावसदसणाणं, निरहगया सत्थमन्नउत्थीणं । भ्यते स्थिरीक्रियते जीवो मुक्तिकारणेषु येन-पर्यन्ताराध- उम्मग्गुषएसेहि, पला वि भालिजाए सम्मं ॥६॥ मालक्षणेन तस्य विधाने करणेन वा यथा परमार्थसाधना- मोहिज्जा मंदई, कुविद्धिसत्थेहि गुविलसहेहि। मोक्षसाधना भवति । एवं 'ता' इति-पतत् तावदिति भाषा- दूरेण धज्जियव्वा, तेणइ नेसुद्धबुद्धीर्ण ॥७॥ कमेच्छामो बाच्छां कुर्मो शातुमिति गाथार्थः।
परमागमसुस्सूसा, अणुरागो धम्मसाहणे परमो। . हायति जस्स जोगा, जरा य विविहा य हुंति भायंका । जिणगुरुवेयावचे, नियमो सम्मत्तलिंगा ।।। भारुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो ॥३२॥ तरुणो सुहोवविट्ठो, रागी पि य पणदणी जुनो सो उ। अपशिष्यः पृच्छति-कदा संस्तारकः क्रियते?, तबाह साल- इच्छा जह सुरगीयं, तोहिया समयमुस्सूला ॥६॥ बरेव"काई अधिति अतुवा महीहं, तवोषहाणे सुयउज्जमि
कतारुत्तिनविमो, घयपुग्ने भुत्तुमिच्छर खुहियो। सं। गणं बनाए भइसारबिस्स,सालंयसेवी समुसोक्ख ॥
जहता सदण्डाणे, मणुराओ धम्मराउ लि ॥१०॥ २॥"यदा तुताम्यालम्बानानि न भवन्ति क्षीणबलस्वात् रोगाच- पूयाइए जिणाणं, गुरूण विस्सामणाइएहि विहे। मिभूतस्वात् त्वाकान्तस्वात्तदैव चिन्तयति 'जो देहवेसेण
नियमो अंगीकारो, वेयाषणे जहासत्ती ॥ ११ ॥ बदो यजामो,सिलिप्पा सोकर कज। जो दुबलो संतवि.
बसविणय ति य अरिहं-त सिद्धचेश्यसुए य धम्मे य । भोसतो ,म तंतु सीलति बिसन्नदार" इतिहायति'दीयन्ते मायरिय उवज्झाप, पावयणे देसण वावि ॥१२॥ हानि प्राप्नुवन्ति यस्य योगाः संयमग्यापारास्शुटितबलत्वात्
अरिहंता विहरंता, सिद्धा कम्मक्खया सिवं पत्ता। "जरा यति जराबार्डके सर्वरूपाविवलाऽपहारका भव
साहुबग्गेय वेइय, सुरा तु सामाइयाईयं ॥ १३ ॥ म्ति' विधिहा यति मायक' सि विविधा-भनेकप्रकारा धम्मो चरित्तधम्मो, माहारो तस्स साहुबग्गो ति। भवन्ति माताः सचोघातिनःशूलादिका रोगाः-स्फेदयितु- पायरियउवज्झाया, विसेसगुणसंपया जुत्ता ॥ १४ ॥ मरामयाःमतःकारणादिहलोकनिरपेक्षया मारोहति भणीक- पवयणमसेससंघो, सणमिच्छति इत्थ सम्म । रोति संस्तारकं तस्य सुषिराखो मिरतिचारः संस्तारकाति। पिणमो सणमेसि, कायम्या चेव एयं तु ॥ १५ ॥ जो गारवेध मत्तो, निच्छा मालापणं गुरुसगासे ।
भत्ती गुमाणो व-भजणण मासणमवन्नवायस्स ।
भासायणपरिहारो, सणविणो समासेणं ॥१६॥ भावहई संथारं,प्रविसुशे तस्स संथारो ॥३३॥
भची परिवती, बहुमाणो मणसि निझरा पीई। यः साधुगौरषेण अशिरससातलक्षणेन मापति स्म मत्तो.
पाजणणं च तेसिं, असेसगुणकित्तणाईहिं ॥१७॥ पंवान् मेचतिनाभिलपति पडीतुमालोचना गुवसकाशे-गुरु
उहाहगोषणाई, भणियं मासणमवषायस्स । समीपे, यतः "लजाप गारबेजपासुपमएण पावि दुचरि
भासायणपरिहरण, उचियासणसेषणाईयं ॥१८॥ थे। जानकरिति गुरुगते पारागा [ति ॥१॥" इति
मणषायाकापणं, सुग्रीसम्मत्तसोरणा तस्थ । महत्वा मालोचना यः संस्तारकमारोहति तस्याविशुद्धः मणमुखी जिणजियमय-बजामसारमणुयलोयं ॥१६॥ संस्तारक इसि गाथार्थः।
तिस्थकरबलारादे, रोण मउम सिज्मा तिसुशिक्ति। जो पुण पत्तम्भूमो, करेइ पालापणं गुरुसकासे । कज परयेयम्त, देसविसेस तिषयसुखी ॥२०॥ भारुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो ॥३४॥ | विज्जतो मिजतो, पीलीजतो वि उम्झमाणो वि।
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संधार
।। २२ ॥
जिणवजदेवयाणं, जनमइलो तस्स तरसुद्धी ॥ २१ ॥ पंचगयं दोसंति, दूसिजइ जेहि मंतदोसा य । कायदा, परतित्थि पथ पंचेया) देवगुरुतत्तविसया, अच्छिन्नच्छित्तिसंसश्रो संका । खाई संदेहो, ( होई) मुणिजम्मि वि दुगंछा ॥ २३ ॥ गुणकित्तणं पसंसा, पयवयकरणं च संथवं । ( पभावण ति)
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सम्म सह सामन्ये पभायगो हो सो पिसि निति ॥ ५५ ॥ पावयणी धम्मकही, बाई नमित्तिश्रां तवस्सी य । विजासिद्धो कोई अद्वेव पभावगा भणिया ॥ २६ ॥ कालोचितधरो, पाचवी तित्थबाहगो सुरो । पडियाहियो धम्की दिन्नू ॥ २७ ॥ वाई य वायकुशलो, रायदुवारे वि लद्धमाहप्पो ।
मिति निमिनि ॥ २८ ॥ जिएमयमुमार्चितो, चिखिम भए तपस्सी । सिद्धति विज्ञातो विउचियन्तु ॥ २६ ॥ संघाइकज्जसाहग, चुन्नंजराजोगमंतसिद्धो उ । भूयत्थसत्थगंधी, जिएसा देसश्रो सुकवी ॥ ३० ॥ ( भूसरा ति)
सम्मणभूणाई, को
थिरया पभाषणावि य, भाषत्थं तेसि वोच्छामि ॥ ३१ ॥ चरणाई, किरियाको
तत्थ षि सेवा सययं, संविग्गिजणारा संसग्गी ॥ ३२ ॥ भक्ती प्रायरकरणं, अहोबिय जिबरिव साहूणं । भिरया सम्म पभाषणुस्लप्पयाकरणं ॥ ३३ ॥ (क)
हिययगयं सम्मनं, लखिजर अहि तारें पंचेध । उपसमसंगो तह, निव्यरूप अस्थि २४ ॥ श्रवरा षि मते, कोहारगुहओ बियाहियोपसमो । संवेगो मोक पर, अहिलासो भवविरोंगो य ॥ ३५ ॥ निष्येधो वागित्तं तुरियंसंधारयात्य हिस्स या अस्थिकं पंचओ बयदे ।। ३६ ।। (छवियद्द जयति ) परतित्थत देवाय महिय बेह
(१४३) अभियानकेन्द्रः।
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जं छविद्दववहारं न कुणइ सा छविवहा जयणा ॥ ३७ ॥ वंदनमंसणं वा वाणप्रयाणम्मि मेसि बज्जेइ ।
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घाला संसार्थ पुण्यमागो न करे ३८ ॥
करजो सिरनामणवंदयं य इह यं ख बायाएँ नमोकारो नर्मसमावसाय ॥ ३६ ॥ गरपिपियरस मिट्टासरापारा जज्ज सेजाएं। दाणं तं चिय बहुसो, श्रसुप्याणं मुखी बिंति ॥ ४० ॥ पण संभाषण, कुसलं वासागयं च झालायो । संवासो पुरुसं सुद्द दुहगुणदोसपडिपुच्छा ॥ ४१ ॥ (आगार )
या गणबलदेव, गुरुनिग्गद्दावतिछेयमाईहिं । श्रागारेहिं भज्जर, संमत्तं मज्झ न कयाइ ॥ ४२ ॥ (ति)
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संधार
देहलहुं मुखफलं दंसणमूलं दढम्म धम्मदुमो । भंतु दंसणदारं, न पवेसो धम्मनयरम्मि ॥ ४३ ॥ नंद बयासाची, सीदम्म सुप्यामि । सम्मतमहाधरणी आधारो लोग सुयसीलगुन्नर दंसणपरभाष हुं धर्द । मूलुत्तर गुणरयणा, दंसण अक्खयनिद्दाणं च ॥ ४५ ॥ (डाति)
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अथ जिओ तहनियों का भुता व पुनावा। अस्थि निवातस्सोवा व डागा ॥ ४६ ॥ अपसोसम्म त चित्तगाईदि जीवो अस्थि अवस्सं, पश्चक्खो नादिट्ठीं ॥४७॥ दयानिधो उपाय
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पुव्यकयाणुसरणओ, पज्जाया तस्स उ अणिया ॥ ४८ ॥ कला सुहाउदा कम्मा करवायजोगमाईहिं । मिचक्कचीवर, सामग्गिया कुलालं य ॥ ४६ ॥ भुंजइ सयं कथाई, परकयभोगी .... अकस्स नत्थि भोगा, अन्नह मुक्खे वि सो हुज्जा ॥५०॥ सम्मत्तनावरण, संपुन मुक्यसाहवाओ । ता इव जत्तो जुत्तो, ससत्तिश्रो नायुतत्ताणं ॥ ५१ ॥ इत्येवंप्रकारेण दर्शनेन शुद्धो निरतिचारः ' श्रायपरितोति आयभूतं निरतिचारतया चारित्रं यस्य स आयचरित्रो हृदयारित्यात् प्राकृतत्वादासार गृहीतचारित्रः करोति पालयति धाम - भ्रमणमाम् श्ररोहति संस्तारं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारः ।
जो रागदोसरहियो, तिगुत्तिगुत्तो तिसन्नमयरहिओ । भारुद संचार सुविसुद्धो तस्स संधारो ॥ ३६ ॥ यः साधुः रागद्वेषाभ्यां रहितः तिसृभिर्मगोवा क्षणाभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः तथा त्रिभिर्मायाशल्यनिदानशल्यमियादर्शनशमंदे रहित आरइति संस्तारं सुविशुद्धस्त स्य संस्तारकः ।
तिहि गारपेहि रहिओ, तिदंडपडिमोयगो पहियकिणी रुह संधारे, सुविसुद्ध तस्स संधारी ॥ ३७ ॥ त्रिभिगौरयैः ऋद्धिरससातलक्षणै रहितः त्रयाणां मनोवाक्कालक्षणानां परिमोचकः प्रतिमांचको वा प्रथितकीर्त्तिः ण्यातमसिद्धिः प्ररोहति संस्तारकं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारकः ।
विसाय महणो, चउर्दि पिगहाहि विरहिओ निर्थ । भारुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो ॥ ३८ ॥ चतुर्विधानां क्रोधमानमायाला भरूपाणां कषायाणां मथनोविनाशकः चतुर्विधायन तथा राजकथादेशकालज्ञामिविरहितो नित्यं सदाकालम्, आरोहति संस्तारकं सुविस्तस्य संस्तारक इति । पंचमहव्ययकलिभो, पंचसु समिईमु सुद्ध आउत्तो ।
रुह संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो ॥ ३६ ॥ पञ्चभिः कलित-युःपञ्चदिमतिषु सुष्ठतिशयेनायुक्तः आरोहति संस्तारकं सुविशुद्धस्त स्य संस्तारक इति ।
काया विरो, सनमयट्ठागविरहियमईयो । आरुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संधारी ॥ ४० ॥
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संधार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार षाणां कायानां समाहारः षट्कायं तस्मात् पद्कायात् | साधुपदं प्रतिपम्नः सन् तस्मिन्नेव भषे प्रायः कर्म क्षपतदारम्भात् यिरतो-निवृत्तस्तथा सप्तभ्यो भयस्थानेभ्य । यति । अनुसमयं तस्मिन्सुपर्यन्ताराधनासमयैर्युतौ विहपरलोकादानाकाजीविकामरणाश्लोकलक्षणेभ्यो वि- शेषेणोक्तिः तस्यामवस्थायां विशेषतः क्षपणात् , लाभप्ररहिता मतिर्यस्य स सप्तभयस्थानविरहितमतिका भारो- श्नस्य गुरुणा निर्वचनं दत्तम् । हति संस्तारं सुषिशुद्धस्तस्य संस्तारः ।
अथ सौक्यस्य उत्तरमाहप्रमाणजढो, कम्मट्टविहस्स ख(व)मणहेतु ति। तणसंथारनियमो, वि मुणियरो भट्टरागमयमोहो। मारोदर संथारं, सुविसुद्धो होइ संथारो ॥४१॥
जं पापहात्तिसुई, न चकवडी वितं लमह ॥४७॥ मभिजातिकुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभरूपैर्मदस्थानैर्जत
तणसंस्तारके कर्कशे वर्भावितणमये निपन्नः सुप्तः तृण
संस्तारकमिपमा अतस्तुणसंस्ताकस्यातिकर्कशत्यमुक्तं, परं हत्याकोऽयमदस्थानजढः ' कम्मट्टविहस्स ' ति प्राकृतस्वात् कर्मशब्दस्य पूर्वनिपातः , ततोऽष्टविधकर्मणा
स मुनिवरस्तुण संस्तारकमिपनोऽपि सुप्तोऽपि भृटो रागआपणमविधकर्मक्षपणं तस्य हेतुमारोहति संस्तार
मदमोहो यस्य स भएरागमबमोहः यत्प्राप्तो निर्लोभत्वेन सु
मुक्तिसुर्ण मोक्षसुखं वा लेशतः परमानन्दमयं। संसुषिराजस्तस्य संस्तारः।
तोषमित्यर्थः, 'म चकवडी वि' ति म चक्रवर्त्यपि तन्मभते; नवर्षभचेरगुत्तो, उज्जुत्तो दसबिहे समणधम्मे ।
..............."त्यर्थः । यदाह-"तुएपर्थमन्त्रमिह यत्प्रणधिमारहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो ।। ४२ ॥ प्रयासं,संत्रासदोषकलुषो नृपतिस्तु भुक्त। ........" नपसुषसत्याविषु ब्रह्मचर्यगुप्तिषु गुप्तः नवब्रह्मचर्यगुप्तः ।। यनिर्भयः प्रशमसौख्यरतश्च भुङ्क्ते ॥१॥" ॥४७॥ तथा-उपुक्त उद्यमवान् दशविधक्षान्त्यादिके श्रमणधम्म एवं
निप्पुरिसनाडगम्मि व, न सा रई तह सहत्थवित्थारे । विधः समारोहति संस्तारं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारः।
जिणवयणम्मि विसाले, हेउसहस्सोवगूढम्म ॥४८॥ अथ संस्तारकस्थं क्षपकमालोक्य शिष्यो गुरुं पृच्छति गा- |
देवानां संबन्धिनि नाटके सा रतिर्न भवति । कथंभूते निजपु. थावयेन । भगवन् ! संस्तारकस्थस्य मुनेः कीदृशो लाभा की
रुषनाटके निजपुरुषा नाटककारः स्वस्वामिनः सातं बुध्यशश्व सुखमिति तदेव गाथाद्वयेनाह
न्ते, ततस्तत्सुरा नाटकपात्राणि विकुर्वन्ति 'तह सहत्थविजुत्तस्स उत्त)त्तिमद्वे, मलियकसायस्स निव्वियारस्स । स्थारि'त्ति तथा देवा वैक्रियलम्ध्या स्वहस्ताभ्यां पात्राणि निभण केरिसओ लाभो, संथारगयस्स समणस्स ॥४३॥ एकाश्य द्वात्रिंशद्विधं नाटकं विस्तारयन्ति,परमात्मेच्छयाऽपि युक्तस्य-व्यवस्थितस्य च उत्तमार्थेऽनशनप्रतिपत्तिरूपे मलि
विरचिते तस्मिन् न सा रतिर्न तत्सुखम् , जिनबचने विशाले तकषायस्य अधःकृतकषायस्य अत एव निर्विकारस्य को
विस्तीणे हेतुसहस्रोपगूढे-हेतुसहस्रयुक्ने क्षपकेण धूयमाणेपादिविकाररहितस्य भण-कथय कीदृशो लाभो भवति सं
मनसि धार्यमाणे च यत् सुखं या रतिरित्यर्थः । अथषा-नि
प्पुरिसनाडगम्मि' त्ति निर्गता-रहिताः पुरुषा यस्सिनाटके स्तारगतस्य श्रमणस्य । जुत्तस्स उत्ति(त्त)मढे, मलियकसायस्स निम्वियारस्स ।
तनिष्पुरुषं तस्मिन्निष्पुरुषनाटके केवलनीपात्रमये नाटके
स्वहस्तविस्तारखेच्छासंचारितहस्तादिलये न सा रतिर्न तत् भण केरिसं च य सुख, संथारगयस्स समणस्स ॥४४॥
सुखम् । केवलखीनाटके हि सर्वविषयाविर्भावके रागिणा'जुत्तस्सेति' पादद्वयं तथैव भण-ब्रूहि कीदृशं च सौख्यं मतवव रतिर्भवति पर तस्मिन्नपि सा रतिर्न भवति या जिनसंस्तारकगतस्य श्रमणस्य ।।
वचने रतिर्भवति इति तात्पर्यार्थः । गुरुरपि गाथाद्वयेन क्रमेणोत्तरमाह
जं रागदोसमइयं, सुक्खं जं होइ विसयमइयं च । पढमिल्लगम्मि दिवसे, संथारगयस्स जो हवइ लाभो ।
अणुहवइ चकबट्टी, न होइ तं वीयरागस्स ||४|| को दाणि तस्स सका, काउं अग्घं अणग्घस्स ॥४५॥
यत्सुख रागमयं-पुत्रकलत्रादिस्नेहमयं देषमर्ग-शत्रुविना'पढमिल्लगम्मि' त्ति-प्रथमकेऽपि दिवसे संस्थारकगतस्य- शसंभवं, यश्च सुखं 'बिसयमय ' ति शब्दादिविषयसंभयंसंस्तारके व्यवस्थितस्य साधोर्यो लाभो भवतिको दाणि' त्ति
चतुःषष्टिसहस्रललनापरिचारणामयमनुभवति चक्रवर्ती भक इदानी निरतिशयिनि काले तस्य लाभस्व'सक्कति समर्थः
कति तत्सुख मोहमयम्,बीतरागस्य-गतरागद्वेषमोहत्वान्महा. पटुः स्यात् 'काउ' ति कर्तुमर्घमनर्घस्य-अर्धगोचरातीतस्य ।
मुनेः तद्धि सुख क्षणविनश्वरं महर्षेस्तु परमसंतोषसुखसंभ्रजो संखिञ्जभवद्विइ, सब् पि खवेइ सो तहिं कम्मं । तत्वान्न तत्किचिदित्यर्थः। अणुसमयं साहुपये, साहू वुत्तो तहिं समए ।। ४६॥ मा होइ वासगणया, न तत्थ वरिसाणि परिगणिजंति । यः साधुः । संखिजभट्ठिा ' ति संख्याता संख्यायु
बहवे गच्छं बुच्छा, जम्मणमरणं च ते कुत्ता ॥५०॥ लक्षणा भये-एकस्मिन् भधे एकजन्मस्थितिकः- गुरुःशिष्यान् प्रति भणति-भो वत्सा! मा भवथ वर्षगणकीअसंण्यातवर्षायुषा हि चारित्रप्रतीतिरपि न भवतीति सं- यता स्तोकेनापि कालेन ये इमेऽईन्तस्ते पुरासरीकवत्पख्यातवर्षस्थितिकत्वमुक्तम् , 'सव्वं पि खयह सो तहिक- रमार्थसाधका भवन्ति, न तत्र वर्षाणि गण्यम्ते, यदुताग्म' ति सर्वमपि क्षपयति-निर्जरयति स साधुस्तत्र तस्मि- नेन बहूनि वर्षाणि दीक्षा कृताऽनेन स्तोकानीति । यतो बहयो संस्तारके व्यवस्थितः , प्रथमसंहननवत्प्रकृष्टाराधनः क्ष- ऽपि गच्छवासमुषिताश्चिरं कालं यावच्छवासं रुतबम्तो पयति अष्टप्रकारमपि कर्म । अयं प्रतिसमयं स साधुः | पि प्रबलप्रमादतया "जयन्तराजर्षियत्"पार्श्वस्थतया विहस्य
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार जन्ममरणरूपं संसारमतिशयेन तुला मग्नाः क्षुप्ता वा संसार- वीसं कोडीसहियं, श्रआयामं कह प्राणुपुव्वीए । सागरे वुड़िता इत्यर्थः ।
गिरिकंदरनवगंतु, पाउवगमणं मह करे ॥ ३॥" पच्छा वि ते पयावा, खिप्पं काहिंति अप्पणो पत्थं । वर्षाकाले रात्री तपश्विप्रविचित्रादिकं 'सुटु' ति सुएतिजे पच्छिमम्मि काले, मरंति संथारमारूढा ॥५१॥
शयेन कृत्वा हेमन्तशीतकालादी संस्तारकः कर्तव्यो निरापपश्चादपि पर्यन्तसमयेऽपि उद्यतविहारितया “सेलकवत्"
दि आयुषि च पूर्यमाणे आपदि चतुष्पदायुषि वा 'पारुहा' उद्यतमरणेन"अईनकवत्" साधवः पूर्व-प्रथममेव वा पुण्डरी
आरोहति करोति संस्तारकं सर्वास्ववस्थास्विति गाथार्थः। कगजसुकुमालवदुद्यतविहारेण पूर्व वा उद्यतमरणेनावन्तीसु- अथ कैः कैरभ्युद्यतमरणविधिर्विहित इति तान् द्वात्रिंशकुमारवत् । अथवा-'पयावा' इति-प्रपाताद्वा खदोषनिन्दा
ता गाथाकलापेनाहगोलक्षणात् क्षिप्रं-शीघ्रं करिष्यन्ति प्रात्मनः पथ्यं-हितम् । श्रासी य पोयणपुर, अजा नामेण पुप्फचूल ति। के ते आत्मनो हितं विधास्यन्तीत्याह-'पच्छिमम्मि'त्ति ये तीसे धम्मायरिओ,पविस्सुत्रो अभियापुत्तो ॥ ५५ ॥ पश्चिमेऽपि काले 'मरन्ति'त्ति नियन्ते संस्तारकारूढाः सन्तो
"गंगाए तडे पुष्फभई नाम नयरमि" त्यावश्यकर्णिका विहितानशना इत्यर्थः।
पुनस्तस्यैव नामान्तरं संभाव्यते । आसीत्पोतनपुरे मार्यिका अथ कीशो वाऽवकाशे संस्तारकः कर्तव्य इति प्रश्न
पुष्पचूलेति, तस्या धर्माचार्यः-धर्मगुरुः प्रकर्षेण विभुता स्य निर्वचनमाह
प्रविश्रुतो विख्यातः अग्निकापुत्रः सूरिरिति । न वि कारणं तणमओ,संथारो न वि य फासुया भूमी।
सो गंगमुत्तरंतो, सरसा उस्सारिओ य नावाए। अप्पा खलु संथारो, हवइ विसुद्धो चरित्तम्मि ॥ ५२॥
पडिवना उत्तमटुं, तेण वि आराहियं मरणं ॥ ५६ ॥ नापि-नैव कारच-निमित्तं तृणमयः संस्तारकः पर्यन्ताराध
अन्यदाऽभिनवदीक्षितायाः पुष्पचूलायाः केवलोत्पत्ताधानस्य कारणं नापि प्रासुका निरया भूमिः तर्हि किंनिमित्त
त्मानं निन्दन तया भणितो भगवतामपि गङ्गामुत्तरता केमित्याह-'अप्पा खलु' त्ति-श्रात्मा खलु-निश्चयेन संस्तारको
बलमुत्पत्स्यते, ततोऽसौ झटित्येव गङ्गायां नाघमारूढः ।त. भवति विशुद्धो निर्मलः 'चरित्तम्मि' त्ति-चारित्रे निर्मले,
त्रच नगराधिष्ठातृदेवता सूरिभक्का । नदीदेवता तु तस्याः निरतिचारे इत्यर्थः।
प्रत्यनीका । तया चिन्तितं-मदीयवैरिण्या गुरुरयं मारयितअथ कीरशस्य कस्मिन् काले इत्युभयनिर्वचनमाह
व्यः इति चिन्तयन्ती एवं विधत्ते, "जेणं जेणं पासेणं विलग्गनिश्चं ति तस्स भावु-ज्जुयस्स जत्थ व जहिं व संथारो।
ति तं बुद्दा सो'माझे ठिो सव्वा पाणी घुडा तेहिं नायिएजो होइ महक्खाया, विहारमन्भुजमो लुक्खो॥ ५३॥
हि पाणीए छूढो देवयाए तिसूलेणं विद्धो, नाणं उप्पन्नं वेनित्यं-सर्वदा तस्य-क्षपकस्य 'भावुज्जुयस्स' ति भावतो हिं महिमा कया पयागं ति तत्थ जायं तित्थं ।” संपूर्णकथा निर्मायस्याऽप्रमादिनः कृतालोचनस्य 'जस्थवति यत्रैव क्षेत्रे
आवश्यकचूर्णितो शेया। अधुनाऽक्षरयोजना-स गङ्गामुत्तरन् प्रामनगरादौ, यत माह "बक्खुयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे
सहसा तत्क्षणादेव नाविकेनाचार्य उत्सारितः, पातितः,प्रसुनिश्चलमणाणं । गामम्मि जणाने, सुभेऽरम्नम्मि न बिसे- तिपन्न उत्समार्थ; तेनापि मरणमाराधितम् । सो ॥१॥" 'जहिं ' ति यस्मिन्बा काले विवसनिशांदी हेम
पंचमहव्वयकलिया, पंच सया अजिया सुपुरिसाणं । न्तप्रीष्मादी वा, यदाह-'काले वि सो थिय जहिं, जोगस
नयरम्मि कुंभकारे, करगम्मि निवेसिया तइया ॥५७।। माहाणमुत्तम लहा । न तु दिवसमिसावेला, (इ) नियमणं झाइयो भणियं ॥१॥' अथवा-जाहिं' ति वर्भतृणकुसुमशि
पचमहावतकलितानि पञ्चशतानि 'अजिय' ति प्राकृतलातलतूलिकादौ यो भवति 'अहक्खाय' ति यथा च जिन
स्वादर्वितानि-पीडितानि प्राकृतत्वादेव वा अर्जितानि रावचनप्ररूपकः 'विहारमम्भुज मो' ति विहारमुद्यतविहारं
गादिभिः सत्पुरुषाणां 'नयरम्मि' कुम्भकारोपकारस्य लाक्षि द्वादशसांवत्सरिकमभ्युद्यतः कृतसंलेखनः, अत एव कृतसं
णिकरवान् नगरे कुम्भकारे कटके 'निवेसिय' त्तिनिवेशिता
नि'अंतम्मि' ति अग्रेतनगाथायां संबन्धः, यन्त्रे-माणके । लेखनात्वा वृक्षः क्षीणधातुत्वादस्थिचर्मावनद्धशरीरो, भावतः कषायपरिहारेण इति; द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च - __एगूण पंच सया, वाएण पराजिएण रुटेणं । पकस्य शुद्धिरुता।
जंतम्मि पावमइणा, छुन्नाछुन्ना अणुकमणं ॥५॥ अथ यथाविधि तपो विधाय यस्मिन् काले संस्तारको | एकोनानि पञ्च शतानि स्कन्दकाचार्यशिष्याणां, वादे पराविधेय इति तमाह
जितेन रुष्टेन कलकाभिधद्विजातिना पापमतिना जुराणासुवासारत्तम्मि तवं, चित्तविचित्ताइ सुट्ट काऊण । राणाः पिष्टाः अनुक्रमेण-परिपाट्या । हेमंते संथारं, आरुहई सव्वऽवत्थासु ॥ ५४ ॥
निम्मम निरहंकारा, निययसरीरे वि अप्पडीबद्धा । पूर्व तावद्गुरुमनुज्ञाप्य
ते वि तह छुआमाणा, पडिवना उत्तमं अटुं ।। ५६ ॥ "चत्तारि बिचित्ताई, विगई निज्जूहियाइ चत्तारि । निर्ममा-ममत्वरहिताः निर्गताहंकारा:-निजदेहेसंवच्छरे य दुन्नी, एगंतरियं च पायाम ॥१॥
प्यप्रतिबजाः-प्रतिबन्धरहिताः तेऽपि, तथा तेनैव प्रनाऽइविसिट्टो य तवो, छम्मासे परिमियं च आयाम । कारेण 'छुजमाण' त्ति शुद्यमानाः-पीज्यमनाः अन्न वि य छम्मासे, हाइ विगिटुं तवोक्कम्मं ॥२॥ प्रतिपन्ना उत्तमाथैमिति।
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(१६०) अभिधान राजेन्द्रः ।
संधार
दंडोति विस्सुयजसो, पडिमा दसधारओ ठिम्रो धम्मं । जाके नयरे, सरेहि विद्धो य सुरगीओ ॥ ६० ॥ द इति नाम्ना मुनिर्विधुतयशा विख्यातकीर्त 'पडिमा दसures' सि तृतीय सप्तरात्रंदिवलक्षणदशमभिक्षु प्रतिमाधारका स्थित प्रतिमां-कायोत्सर्गे यमुनाङ्के उद्याने नगरेमथुरामा विजः । यमुनाराज तत्पदातिभिश्व 'सुरगी' देवैर्गीतस्तद्गुणगानेन । जियम नियम, निययसरीरे व अप्पडीबद्धो । सोsवि तह विज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं श्रहं ॥ ६१ ॥ जिनवचमे निश्चिता मतिर्यस्याऽसी जिनवचननिश्चितमतिकः, तथा निजकशरीरेऽपि अप्रतिषद्धः प्रतिबन्धमुक्तः सोऽपि तथा विध्यमानोऽपि प्रतिपन्न उत्तमार्यम् । भावार्थः कथागस्यः, स चायम् - " महुरा नथरी जउणावकं उज्जाणं अवरेण जडणार कुप्परो दिन्नो । तथा दंडो अणगारो आया । सो राया नितणे दिट्ठो, तो रोसेण श्रसिणा सी तापिच्छा समि पदस्सकाले म सिखो देवास महिमा करणं, सक्कागमं । पालएणं तस्स वि रन्नो अधिई जावा, जेण, मासिओ के जापव्ययसि तो मुसि पययश्धेरा अंतिए अभिमा मिटर जमि वा संभरामिता न जिमेमि, जइ दूरे जिमिओ ता सगं पि विििचम । एवं किर तेरा भगवया एगमवि दिवस नाहारियं । तस्स विदव्वावई दंडयस्स भावावई एवं दृढधम्मया कायव्या । आसी सुकोसलरिसी, चाउम्मासस्स पारणादिवसे । ओरुद्दमाणो य नगे, खइयो छुहियाऍ वग्धीए ॥ ६२ ॥ श्रासीद्-अभूत्सुकोसलर्षिश्चातुर्मासस्य पारणकदिने 'प्रोहमासोय नमेति पञ्चम्यर्थे सप्तमी नगावतरन् 'सइओ छुहियाए 'ति क्षोभया बुभुक्षितया व्याघ्रथा ।
सेहिको
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धणियबद्धकच्छो, पद्मकखाणम्मिसु आउत | सो वि तह खजमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अहं ॥ ६३ ॥ त्यान्तरहृदयावष्टम्भेन धनिता अत्यर्थ बहा कक्षाप्रतिशयेन स धृतिधनितचकः प्रत्याख्याने ऽनशनप्रतिपति सुष्टुतिये युक्तः उपयोगवान् सोऽपि भगवान् तथा प्रतिपक्ष उत्तमार्थम् ।
उज्जेणी नवरीए, अवंतिनामेण विस्सुओं आसी । पाउवगमणनिवन्नो, मुसाणमज्झेण एगंते ।। ६४ ।।
पित्यांनगमयन्तिनानाविधुतः "अतीसुकुमार" इति ख्यात आसीत् । पादप इवोपगमनमवस्थानं तेन पादपोपगमननिपन्नः सुतः पादयोपगमनभिपन्नः 'मुसारामल्केण' त्ति महाकालाख्यश्मशाने 'पगते' सि निर्जनप्रदेशे ।
तिथि रमणी च भालुका उडिया विकसि सो वि तह खजमाणो, पडिवनो उत्तमं अङ्कं ॥ ६५ ॥ 'तिथि रयणीय' जिनसमुदाय पचारात् ' चहउं ' त्यक्त्वा स्वशरीरमित्यध्याहारः' अथवाव्यावयितुं क्षारयितुं रुधिरादि रात्रिंदिवं मार्गे च गच्छतोऽति
संधार
सुकुमारत्यात् दधिरभावात् तन्नाटा' मालुका श्टगाली 'उट्टिया वि' ति उत्थिता 'कहंतीति' कर्षयति सान्प्रादि । यत उक्तम् 'लोद्दियगंधेणं सिवा श्रागमं सिवा पगं पायं खाइ, एकं पि लुगाणि पढने जानुगाणि बीच ऊरू, तर पोई कालगओ विस्तरेणावश्यक पैरय सेयम्। सोऽप्यवतिसुकुमारस्तथा खाद्यमानः प्रतिपक्ष उत्तमार्थमिति । जल्ल मलपंकधारी, आहारो सीलसंजमगुणाणं । भाजीरयो य गीभो, कचियो सरवयम्मि ।। ६६ ।। पाति लगतच जोरजोमात्र मल-कठिनीभूतः प ल एव स्वेदेनाभूतः जलश्ध मलश्च पङ्कश्ध तान् निष्प्रतिकर्मतया धारयतीत्येवंशीको जमलपङ्कधारी पुनः किंभूतः आधार स्थानं केषां शीलसंयमगुणानां शीलमष्टादशभा ब्रह्मचर्यम् असशीलाङ्गानि वा संयमः सप्तदशधा गुणाः सप्तर्चिशत्यनगारगुणाः शीलं च संयम गुणाश्च शीलसंयम गुणास्तेषाम् 'आजीरो य' ति आजीर जि-संग्राम रयति प्रेरयति क्षपयति जयतीति यावत् श्र जीरो राज्यावस्थायां शत्रुभिः सह भ्रम कर्मभिः सदेति 'गीश्री' त्ति गीतः प्रसिद्धः गीतार्थश्च 'आग्गीउ' ति पाठे प्राकृतत्वात् अग्ने राशोऽयमाग्नेयः । यत आह-' रोहेडगम्मि सती, हो वि कोवेण अग्गिनिवदह । तं वेयणमहियासिय, पडिवो उत्तमं ॥१॥ कलियो सर मिति कार्त्तिकार्य इति नाम्ना सरवणसंनिवेशे यो महात्मा यात इति ।
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रोहेडगम्मि नयरे, आहारं फासूयं गवेसंतो । कोण खंतिए, भिन्नो सचिप्पहारेण । ६७ ।।
स च भगवान् रोहेडकपुरे प्रासुकमाहारं गवेषयन् राज्यावस्थापराजेन केनापि शत्रियेण कोपेन शक्तिप्रद्वारे ि प्रहरणविशेषेण भिन्नो विदारितः ।
ततोऽनन्तरं स महर्षिः किं कृतवानित्याहएते मगवार, विधि बंडिले चयह देहं । सो वि तह विज्झमाणो, पाडवओो उत्तमं भङ्कं ॥ ६८ ॥ एकान्ते दुष्टपशुभ्यानस्यापदस्यादिवर्जिते मनापा धर्मध्याने व्याघातकागजरहिते बस्ती पुकले स्थरिले संस्तारककरणप्रायोग्ये 'भूखण्डे त्यजति मुञ्चति व्युत्सृजति स्वयमेव देई निजशरीरम् 'य' इति पाठे हंसऽपि महासत्वस्तथा विध्यमानस्तेन शक्त्या ताज्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् । ( ' पाडली ' स्यादि गाथाश्रयम् 'धमसीह ' शब्दे चतुर्थभागे २७३४ पृष्ठे गतम् | ) ( चाणक्यः इङ्गिनीमर प्रतिपक्ष इति इंगिणीमरणशब्दे द्वितीयभागे ५३२ पृष्ठे गतम् । )
अगुलोमपूया, अह सो सतुंजभो उहद देहं । सो वि तह उज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं श्रद्धं ॥ ७२ ॥ अनुलोमा - अनुकूला पूजनाऽनुलोमपूजना तथा अनुलोमपूजनवा कृष्णा गुरुप्रभृतिसुरभिपोत्क्षेपदाहण्याजेन गोवा'कंकरीता सुबन्धुः दद्दति देई शरीरम् सोऽपि तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् ।
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार एतत्संवादिगाथेयम्
नामेण सीहसेखो, वारण पराजिओ रिट्ठो ॥८१।। गुट्टे पाओवगओ, सुबंधुणा गोमये पलिवियम्मि । तस्य शिष्य श्रासीद्गणधरः प्राचार्यः, नानासूत्रार्थगृहीडझंतो चाणको, पडिवन्नो उत्तमं अटुं ॥७३॥ तपेयालः-अनेकसूत्रार्थपरिशातविचारः नाम्ना सिंहसेना, अथ गाथात्रयेण संबन्धः।
तेन च 'वापणं' ति वादन-स्वदर्शनस्थापनलक्षणेन पराजितः
पराभग्नः रिष्टः-रिटामात्यो वादे उपस्थितः सन्नित्यर्थः । कायंदीनयरीए, राया नामेण अमयघोसो त्ति ।
अह सो निराणुकंपो, अग्गि दाऊण सुविहियपसंते । तत्तो सुयस्स रजं, दाऊणं अह चरे धम्मं ॥७४॥
सो वि तह डझमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अट्ठ ।। ८२॥ काकन्यां नगर्यां राजा नाम्ना " अमृतघोष" इति, ततः स राजा सुतस्य-पुत्रस्य राज्यं दत्त्वाऽथ चरेदनुतिष्ठेत् धर्म
अथ स रिटः पापिष्ठः 'निरागुकंपो' त्ति निर्गतघृणः 'अचारित्रप्रतिपत्तिलक्षणम् ।
गि दाऊण' ति अग्निं-वैश्वानरं दापयित्वा दत्वा वा सुवि
हितानां-साधूनां पश्यत्युपाश्रयति वेति विहितोपाश्रयः सुवि आहिंडिऊण वसुहं, सुत्तत्थविसारो सुयरहस्सो ।
हियपसुत्ते'त्ति पाठे सुविहितेऽप्यप्रसुप्तेऽपि दहतीत्यध्याहारः। काइंदी चेव पुरि, अह संपत्तो विगयसोगो ॥७॥ सोपिसिंहसनाचार्यस्तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थमिति । आहिएडय-परिभ्रम्य विहृत्येत्यर्थः वसुधां सूत्रार्थविशारदो
कुरुदत्तो वि कुमारो, संबलिफालि व्य अग्गिणा दड्डो । विचक्षणः, यत एव सूत्रार्थविशारदोऽत एव श्रुतरहस्यः श्रुतनिकषः काकन्दीमेव पुरीमथ विहरन्नुद्यतविहारेण संप्राप्तः
सो वि तह डज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अटुं । ८३॥ विगतशोकः-परित्यक्तदैन्यभाव इति ।
"कुरुदत्तः” कुरुदत्तनामाऽपि इभ्यपुत्रर्षिः संबलिफालि व्व' नामेण चंडवेगो, अह सो पडिछिदई तयं देहं ।
त्ति शाल्मली वृक्षविशेषस्तस्य फालिवत्-तस्य शाखावत् श्रसो वि तह छिजमाणो, पडिवनो उत्तमं अटुं ॥७६।।
ग्निना दग्धः, सा हि निःसारत्वादग्निना झटित्येव दह्यते । सो
ऽपि तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् । अस्य भावार्थोंsनाम्ना चण्डवेगः पूर्वापराद्धो मन्त्री अन्यो वा कोऽपि संप
पि दर्श्यते । तथाहि-"हत्थिणाउरे नयरे कुरुदत्तसुश्रो नाम मोऽथ स प्रत्यनीकस्तकं राजर्षिदेह-शरीरं प्रतिछिनत्ति
इब्भपुत्तो,स तहारूवाणं थेराण अंत पब्वहो। वहुस्सुओ सद्विधाकरोति । सोऽपि भगवानमृतघोषस्तथा छिद्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् । ( संथा.) (अथ 'कोसंवी' त्यादिगाथा
मणो कयाइ एगल्लविहारं पडिम पडियन्नो । सो साएयस्स 'ललियघडा' शब्दे पष्ठभागे गता।)
नयरस्स अदूरसामंते आगो। विहरंतो चरिमा श्रोगाढा पो
रिसी। तत्थेव पडिम ठिश्रो चश्चरे, तत्थ य एमाओ गावीश्रो जलमज्झे ओगाढा, नईएँ पूरेण निम्ममसरीरा।। हरियाओ तेणेहिं । तेण श्रोगासेण नीयाश्रो जाय तह वि हु जलदहमज्झे, पडिवन्नो उत्तमं अटुं ।।७।। मग्गमाणा उट्टिया श्रागया, दिट्ठो साहू। तत्थ दुवे पंततश्च तेषां भगवतां पादपोपगमनिकावतामकाले वृष्टिप्रा
था। पच्छा ते न जाणति कयरेण नीयाअो । ते साहुं पुच्छति.
सो भगवं न वाहरइ । तेहिं पउट्टहिं सीसे पट्टिया पालि दुर्भावानदी पूरेणायाता । नदीपूरेण च महता वहता काप्ठे
बंधेऊण बियगाो अंगारि चित्तूरण सीसे छूढा । तेण भगवशय्याऽस्य जलमध्ये श्रोगाढा-विक्षिप्ता तत्र च निर्भमा-श
या सम्ममहियासियं ।" ('श्रासी' इत्यादि गाथा 'चिलाई रीरेऽपि ममत्ववर्जितस्तथापि हु:-स्फुटं 'जलदहमज्झि' त्ति अकालागतनदीपूरेणोद्यमानो जलहद-समुद्रं प्रापितः । ततो
पुत्त' शब्दे तृतीयभागे ११९२ पृष्ठे गता।) जलइवमध्येऽपि उत्तमार्थ प्रतिपन्नः।
आसी गयसुकुमालो, अल्लयचम्मं व कीलयसएहिं । अथ गाथाचतुष्टयेन संबन्धः
धरणियले उब्बिद्धो, तेण वि आराहियं मरणं ॥५॥ पासी कुणालनगरे, राया नामेण वेसमणदासो। श्रासीद्गजसुकुमाल इभ्यपुत्रः,कुरुदत्तन्यायेन गृहीतवतः स. तस्स अमच्चो रिट्ठो, मिच्छादीट्ठी अहिनिविट्ठो ॥७६।। कलाधीतधुतः एकल्लविहारप्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गस्थस्तेआसीद्-अभूत् कुणालनगरे-उज्जयिन्यामित्यर्थः , राजा
नैव प्रकारेण कुटिकैः पृष्टो गोगमनमार्गों न गदितवानिति गनाम्ना वैधमणदासः तस्य राज्ञः श्रमास्यो-मन्त्री रिष्टो-रिष्टा
जसुकुमारस्य शरीरमार्द्रचर्मवत्कीलकशतैस्ताडयित्वा धरभिधानः मिथ्यादृष्टिर्जिनशासनप्रत्यनीकः अभिनिविष्टः
णितले महीपीठे उद्विद्धः, तेनापि भगवता मरणमाराधितं सर्वक्षमतं प्रति द्वेषवान् समभूदित्यर्थः ।
प्राणसमाप्ति यावच्च धर्मध्यानवान् जात इति तात्पर्यार्थः । तत्थ य मुणिवरवसभो,गणिपिडगधरो तहऽऽसि आयरियो। मंखलिणा वि अरहओ, सीसा तेयस्स उग्गया दहा। नामेण उसभसेणो, सुयसागरपारगो धीरो ||८|| ते वि तह डझमाणा, पडिवन्ना उत्तम अहूँ ॥८६॥ तत्र-तस्यामुज्जयिन्यां मुनिवरवृषभः प्रधानाचार्यः गणि- 'मंखलिणा वि' त्ति-पुत्रशब्दलोपान्मङ्कलिपुत्रेणापि गोशापिटकधरो द्वादशाङ्गधारी, तथा आसीदाचार्यः नाम्ना'उस-|
लकेन अर्हतो महावीरशिष्यो सुनक्षत्रसर्वानुभूती 'तेयस्स भसेण 'त्ति-वृषभसेनः श्रुतसागरपारगः-सर्वश्रुताम्भो-| उग्गय ' त्ति तेजसस्तेजोलेश्याया 'उग्गया दह' त्ति उग्रधितीरगामी धीरः-परीषहसहनसमर्थः।
तया-तीव्रतया दग्धौ-भस्मीकृतो, तौ तथा दह्यमानी तस्साऽऽसी य गणहरो, नाणासुत्तत्थगहियपेयालो। । प्रतिपन्नावुत्तमार्थमिति, इत्येते दृष्टान्ता बहवः प्रसिद्धा एव ।
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार शास्त्रप्रसिद्धत्वान्न दर्शिताः पर्यायमात्रनिदर्शने हेतुत्वात्मा- प्रायश्चित्साभिधायकं व्युत्सृजाम्यात्मानं दुष्कर्मकारिणतरम्भस्य।
दनुमतित्यागेन च । अथ त्रयस्त्रिंशदाशातना दर्श्यन्तेअथ गाथाद्वयन संबन्धः।
"पुरो पञ्चासन्ने, गंता चिट्टण निसीयणागमणे । परिजाणइ त्तिगुत्तो , जावजीवाएँ तिविहमाहारं । आलोयण पडिसुणगे, पुवालवणे य आलोए ॥१॥ संघसमवायमझे, सागारं गुरुनिअोगेणं ॥ ८७ ॥ तह उबदंसनिमंतण, खद्धयणे तहा अपडिसुणणे । अहवा समाहिहेडं, करेइ सो पाणगस्स आहारं । खद्धत्ति य तत्थ तए, किं तु मत जायना सुमणे ॥२॥ तो पाणगं पि पच्छा, वोसिरइ मुणी जहाकाल ॥८॥ णो सरसि कह छित्ता, परिसंभित्ता अणुट्टिया य कहा। परिजानाति-ज्ञपरिक्षया प्रत्याख्याति त्रिगुप्तो-मनोवाकाय
संथारपायघट्टण, चिठुच्च समासणी यावि ॥३॥" गुप्तः 'जावजीवाए' त्ति यावज्जीवं सर्चमपि चतुर्विधमण्या- प्रथमगाथायां चतुर्दश, द्वितीयायामेकादश, तृतीयायामष्टी हारं, क प्रत्याख्याति ?-गुरुसमीपे। कथमिव प्रत्याख्यातीत्या- चेति । तत्र गुरोः पुरतो निष्कारण गमनं शिष्यस्य १ पााह-भवचरिमं पच्चक्खामि च उब्बि पि श्राहारं, असणं पा- भ्यामपि गमनं २ पृष्ठतोऽप्यासन्नगुरुगमनं निःश्वासक्षुत् (च) गं खाइमं साइमं अन्नत्थऽणाभोगेण सहसागारणं वोसिरामि' श्लेष्मपातादिप्रसङ्गात् ३ एवं पुरतः४पार्श्वतः५ पृष्ठतश्च स्थानकिमकाक्यव प्रत्याख्याति उत कानपि साक्षिणः कृत्वैत्याह- मधएवं निपदनम् । श्राचार्येण सहोच्चारभूमि गतस्याचार्यासंघसमवायमध्ये-संघसभामध्ये 'सागारं गुरुनिश्रोगण ति ए प्रथममेवागमनम्१०आचार्येण सह बहिर्गतस्य शिष्यस्य पुनतत्पदमग्रतनगाथायां संबध्यते । ततः किमित्याह-अथवा स निवृत्तस्याचार्यात्प्रथममेव गमनागमनलोचनम् , ११ तत्रामाधिहतु-समाधिनिमित्तं 'सागारं गुरुनिओगेण ति' एतत्प. चार्यः कः स्वपिति जागर्ति वेति गुरोः पृच्छतोऽपि जानदम् आकारचतुएययुक्तं तदेवाह-'भवचरिमं करेमि' कोऽर्थः तापि शिष्यणाप्रति श्रवणम् १२ गुरोरालापनीयस्य शिगुरुनियोगेन-गुशिया स पानकस्याहारे प्रथमतः पूर्वमुत्क- ध्यण प्रथममालापनम् १३ भिक्षामानीय पूर्व शैक्षस्य पुरत लं कगति तो पाणगं पि' त्ति ततोऽनन्तरं पानकर्माप प- आलोच्य पश्चाद् गुरोरालोचनम् १४ भिक्षामानीय प्रथममेव श्चात्पर्यन्तसमये व्युत्सृजति , यथाकाल-यथावसरं ज्ञात्वा- शिष्यस्योपदय पश्चाद् गुरोर्दर्शनम् १५ भिक्षामानीय शैक्ष 'अह कयमंजलिपणा भणइ' त्ति पदमुत्कलितमेव । अथ निमन्ध्य गुरोनिमन्त्रणम् ,१६गुरुमनापृच्छ्य शैक्षाणां यथारुक्षपकः कृताञ्जलिः प्राकृतत्वान्मकारागमश्च रचिताञ्जलिको- चि प्रभूताहारदानम् ,शक्षण भिक्षामानीय गुरवे यत्किचिरकः प्रणतः सन् भणति ।
द्वा स्वयं स्निग्धमधुरमनाशाहारशाकादीनां वर्णरसगन्धरसयच्च भति तदाह
स्पर्शवतां च द्रव्याणां स्वयमुपभोगः१८दिवापि अप्रतिश्रयणम् खामइ सव्यसंघ, संवगं सेसगाण कुणमाणो।
१६ गुरोः पुरता वहिः कर्कशस्यांच्चैःस्वरस्य च विशेपेणामणुवइकाएहि पुरा, कयकारियअणमए वाऽवि।।८।।
भणनम् २० गुरोाहरति यत्र तत्र स्थितन शयितन या शिक्षमयति-मयति सर्वसंघ-साधुसाध्वीश्रावक श्राविकारूपं
प्यण प्रतिवचनदानम् ,पाहत बहिः सन्निहितीभूय मस्तकन कुर्वन् क्षमर्यात संवर्गति संवर्ग मोक्षाभिलापम् । यत आह.
बन्द इति वदता गुरुवचःधातव्यमगुरुणा आहुतशिष्यस्य • सिद्धी य दवलागा सुकुलुप्पत्ती य होइ संबंगा' शिष्यका
किमिति वचनम् २२ गुरुं प्रति शिप्यस्य सत्वंकारः,२३ गुणामपि मुनीनां कुर्वाणः कथं क्षमयति 'मणुबइजोगहि पु
रुणा ग्लानादिययावृत्यादि कुर्वित्त्यादिएस्त्वमेव किं न कुरूपे
इति त्वमलस इत्युक्त त्वमप्यलस इति च शिष्यस्य जातबरा' इति-मनावाग्यागाभ्यामुपलक्षणत्वात्काययागन च पुर' ति पूर्वकृतानपराधान् न केवलं मगोवाकाययोगः 'कय.
चनम् २४ गुरुः धर्म कथयति-साधूक्तं भगवद्भिरिति
अननुमोदमानस्यापहतमनस्त्वम् २५ न स्मरसि त्यमनमर्थ काग्यिअणुमण वाऽवि' त्ति तृतीयाविभक्तियहुवचनलापात्
नायमर्थः संभवतीति शिष्यस्य वचनम् २६ न एवमेतदिति कृतकारितानुमतिभिः अपिवाशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात्
अन्तराले शिप्यस्य वचनम् २७ इयं भिक्षावला-भोजक्षमयत्यपीत्यर्थः ।
नंवला इत्यादिना शिष्यण पर्पद्भेदनम् ,२८ प्राचार्येण धर्ममच अवराहपया, एम खमावमि अञ्ज निस्मल्लो।
कथां कृतायामनुत्थितायामेव पर्षदि स्वस्य पाटवादिशापनाअम्मापिउणा सरिमा, सव्व वि खमंतु मे जीवा ॥१०॥ य शिष्यण सविशपधर्मकथनम् २६ गुरौ धर्मकथां कथयि'सब अवगहपय 'त्ति-प्राकृतत्वात्पुंलिङ्गनिर्देशः, सर्वा- प्यामीति शिष्यण कथन वा गुगः शय्यासंस्तारकादिकस्य पा रायपगधपदानि श्राशाननारूपाणि एप-अहं 'खमावीम' दन घट्टनमननुशाप्य हस्तन स्पर्शनं घट्टयित्या स्पृष्ट्वा वा अक्षाक्षमयामि पूर्वगाथायां संबन्धः क्षमयतीत्युक्तम् । तत्र संघस्य भणम् ३०गुरोः शय्यासंस्तारकादौ स्थान निषदनं शयनं वेति भुख्यो गुरुः, नद्विपयाश्च त्रयस्त्रिंशदाशातनाः ताश्च द्वादशा- ३१ गुराः पुरत उच्चासने शिष्यस्योपवेशनम् ३२ समासने वत्तकृतकम्भपूर्व क्षमयितव्याः,अनाभरायत-अपराधक्षामगा।
गुरुपवेशनम् ३३ एतास्तावद् गुरुविषया 'जंवा' इत्यादिकाः कुळन् रजाहरणार्यारन्यस्तमस्तका विनयां भगति-'खाम- पुनश्चतुर्दश कवलस्यैव सूत्रस्य विषया अपि सामान्यतस्त्रयमीन्गादि देवासकव्यतिक्रममवश्यकराययोगविगधनारू- त्रिंशत् क्षमयति इत्यमुना प्रकारेणाचार्योपाध्यायसाधुसाध्वीपमपगधम , अवामपन्यादि 'जो में अध्याग कश्रा इत्येत- श्रावकश्राविकारूपं चतुर्विध सवं मनोवाकायकृतकारितानुपयन बकायाद्याचारनिवदनारमालोचना प्रायश्चि----- मनिभिः सर्वापगधपदानि क्षमयामि-मर्षयामि एप प्रत्यक्षवसमचर्य मानिसमायोतिकमगाई.- नी श्रयास्मिन्नहनि निःशल्या-मायामिथ्यादर्शनिदानशल्य
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(१६३) संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार रहितः कृताऽऽलोचन इत्यर्थः। (अतः परम् 'अम्मापिउणो गकत्वमुपगतेन प्रादुर्भूताः,'दुक्खपरिकिलसकरि'त्ति दुःखप. सरिस' त्ति (संथा०) पव्याख्या 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे | रिक्लेशकरीवेदनाः 'समणुभूओ'त्ति समनुभवति स्म समनु१५३६ पृष्ठे गता।)
भूतः 'अणतखुत्तो' त्ति अनन्तकृत्वोऽनन्तेषु भवेष्वित्यर्थः । धीरपुरिसपन्नत्तं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं ।
तिरियगई अणुपत्तो , भीममहावयणा अणोयारे । धन्ना सिलायलगया, साहिंती उत्तमं अटुं ।। ६१॥ जम्मणमरणरहट्टे , अणंतखुत्तो परिब्भमित्रो ।।६।। अथ गुरवः क्षपकमनुशासयन्ति, हे वत्स ! धीरपुरुषप्रज्ञप्तं तिर्यग्गतिमनुप्राप्तः भीमाश्च-भयानकाः महतीः वेदना-मतीर्थकरणगधरादिदेशितं सत्पुरुषनिषेवितं पुण्डरीकादि- हाघेदनाः भीमाश्च ता महावेदनाश्च भीममहावेदना-वधमहापुरुषाचीर्ण परमधोरं क्लीबैरनुचरं धन्या एव शालि- वेधदहनाङ्कनिर्वृषणगलकर्तनकर्णच्छेदपुच्छच्छेदतृष्णाक्षुधाभद्रादिन्यायेन साधयन्ति निष्ठां प्रापयन्ति उत्तमार्थ विशि- भारवहनादिकाः 'अणोयारे' त्ति अनाक अलब्धपारे अपार टाराधनम्।
पर्यन्ते जन्ममरणारघट्टे संसारेऽनन्तकृत्वः परिभ्रान्तः-पतामेवानुशासनां चतुर्गतिकसांसारिकपरिभ्रमणं
यटित इत्यर्थः। दर्शयति
सुविहिय ! अईयकाले, अणंतकालं तु आगयगएणं । नारयगइ-तिरियगइ-माणुसदेवत्तणे वसंतेणं ।
जम्मणमरणमणतं , अणंतखुत्तो समणुभूत्रो ॥६६॥ जं पत्तं सुहदुक्खं, तं अणुचिंते अणनमणो ॥ १२ ॥
हे सुविहित! अस्मिन्संसारे चातुर्गतिकेऽतीते काले व्यतीनरकगतिश्च तिर्यग्गतिश्च मानुषाश्च देवाश्च नरकगतितिर्य
डायाम् अनन्तकालं 'तु' त्ति अपिशब्दार्थ, ततोऽयमों न ग्गतिमानुषदेवास्तेषां भावो नरकगतितिर्यग्गतिमानुषदेवत्वं
केवलं संख्यातं कालं किं त्वनन्तकालपपि आगतगत काले तस्मिन्नरकगतितिर्यग्गतिमानुषदेवत्वे वसता सता यत्प्राप्तं
कृत्वा गमनेन पुनः परिभ्रमणनेत्यर्थः, 'जम्मणमरणमणतं'तिसुख दुःखं च सुखदुःखं तत् अनुचिन्तय-स्मर ' अणन्न
प्राकृतत्वादेकवचनं जन्ममरणान्यनन्तानि । एकपरिपाट्यामणो' त्ति एकाग्रचित्त इत्यर्थः।
ऽपि अनन्तानि भवन्तीत्याह-'अणतखुत्तो' त्ति-अनन्ता. नरएसु वेयणाओ, अणोवमाअो असायबहुलाओ। न्यपि । अनन्ता परिपाटी कथम् ?, निगोदेवनन्तकालमुषिकायनिमित्तं पत्तो, अणंतखुत्तो बहुविहाओ ।। ६३ ॥
त्वा ततस्त्रसत्वं प्राप्य पुनः तेष्वेवानन्तकालमुषित्वा नरकेषु वेदनाः-शीतोष्णदंशक्षुत्पिपासादाहज्वरशोकभयक
एवमनयैव परिपाटया अनन्तकृत्वोऽपि अनन्तानीत्थण्डुपारवश्यरूपा दशप्रकाराः । यत उक्तं च "अच्छिनिमी
मनुभूत इत्यर्थः। लणमित्तं, नऽथि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए नेरइयाणं,
नत्थि भयं मरणसम, जम्मणसरिसं न विजए दक्खं । दुक्खसयाई अविस्सामं ॥१॥ अाइसीयं अइउन्हं, अइतन्हा जम्मणमरणायंकं, छिंद ममत्तं सरीराभो ।। ६७॥ अइखुहा अइसयं च । नरए नेरइयाण, वयणसयसंपगाढाणं नास्ति भयं मरणसम-मृत्यूतुल्यं , यत श्राह-'सब्वे ॥२॥''अणोवमाअो'त्ति अनुपमा-उपमातीताः अशातबहुला:- जीवा पियाउया अप्पियवहा (सुयसाया) दुक्खपडिकूला। दुःखप्रचुराः 'कायनिमित्तं पत्तो' ति वैक्रियादेः शरीरयो- सव्वे जीविउकामा सवसि जीवियं पियं ति ॥ १ ॥ गात्त्राप्ता बहुविधाः तप्तत्रपुपानतप्तायोमयस्त्रीपुत्तलिकासमा. किंच-" तृणायाऽपि न मन्यन्ते, सुतदारार्थसंपदः । जीवि लिङ्गनकूटशाल्मलिशिखरारोपणचरणशिरःसमाकर्षणायो- तार्थ नरास्तेन , तेषामायुरतिप्रियम् ॥१॥" तथा जन्मघनघातनवज्रमयमुद्रनिकरप्रहरणवज्रविनिर्मितनिशितवा- सदृशं दुःख न विद्यते । यतः-" सूईहिं अग्गिवन्नाहि, संस्यादितक्षणक्षतक्षारोष्णतैलनिक्षेपणकुन्तादिपोतनभ्राष्टभर्ज- भिन्नस्स य जंतुणो । जावइयं गोयमा । दुःक्खं , गम्भे अनयन्त्रपीडनक्रकचपाटनवैक्रियानेककङ्कोलूकनकुलसर्पवृश्चि टुगुणं तो ॥१॥ गम्भाश्रो निस्सरंतस्स , जोणीतनिपीकश्वमार्जारव्याघ्रसिंहादिकदर्थनाकदम्बपुष्पाकारवज्रवासु- लणे । सयसाहसियं दुक्खं, कोडाकोडीगुणं पि वा ॥२॥" कावतारणासिपत्रवनप्रवेशनवैतरणीनदीलावनपरस्परयोध-- जन्ममरणात जन्ममरणे अातङ्कहेतुत्वात् ममत्वं छिन्धिनादिका वेदनाः नानाप्रकाराः शरीरभावात् । अशरीरि- नाशय ममत्वं शरीरात् , शरीरे ममत्ववतानि भवन्तीणां सिद्धानां सर्वथाऽपि तासामभावादिति । अथ किय- त्यर्थः। तीर्चेलास्ताः प्राप्ता इत्याह-'अणंतखुत्तो' त्ति-अनन्त
अतश्च किं भाषयकृ(त्वा)त्वः-अनन्तवेला इत्यर्थः।।
अनं इमं सरीरं, अन्नो जीवो त्ति निच्छयमई उ । देवत्ते मणुयत्ते, पराभिोगत्तणं उवगएणं ।
दुक्खपरि किलेसकरि, छिंद ममत्तं सारीरामओ ॥८॥ दुक्खपरिकिलेसकर, अणंतखुत्तो समणुभूओ ॥१४॥ अन्यदेतच्छरीरम् अन्यश्च जीवः शरीराद् व्यतिरिक्त इति न केवल नरकत्वे एव वेदनाः समनुभूताः , किं तु देव
निश्चयमतिकः सन् दुःखपरिक्लेशकारि ' ममत्तं ' ति प्राकत्वमानुषत्वेऽपि समनुभूताः । देवत्वे तावदीर्ण्याविषादपरपरि
तत्वान्ममत्व मूर्छा छिन्धि-नाशयत्यर्थः । भवप्रेक्षताभियोगिकत्ववज्रताडनादिका, मनुजत्वे मयटकुण्ट
यतः कारणात्टुण्टपङ्गवधिरान्धदुःस्वरदुर्भगहीनदीनदारिद्रयोपद्रवरोग- जावंति केइ दुक्खा, सारीरा माणसा य संसारे । शोकेष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगजन्मजरामरणादिकाः पराभियो- पत्तो अणंतखुत्तो, कायस्स ममेतिदोसाणं ॥६॥
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संधार
यावन्तिकानि च दुःखानि शारीराणि मानसानि च संसारे वर्तते तानि तानि प्रकृतिनिर्देश: सर्वत्र अनन्तकृत्वः कायस्य - देहस्य ममत्वभावेनेत्यर्थः । तम्हा सरीरमाई, सभितरबाहिरं निरविसेस |
( १९४) अभिधान राजेन्द्रः ।
छिंद ममत्तं सुविहिय, जइ इच्छसि उत्तमं अहं ॥ १०० ॥ तस्मात् कारणात् शरीरादिना सहाभ्यन्तरबाह्येन वर्त्तते इति सवाह्याभ्यन्तरम् तथाभ्यन्तरं रूपायनिदानादि बाह्यमुपधिस्वजनपरिवारादिकं निरविशेषं- परिपूर्ण छिन्धि - विदारयस प्रतियन् हे सुविहित उरारोधन ! यदि इच्छसिवास मोक्षमिति तात्पर्यार्थः ।
विशेषतः पुनः उत्तमार्थ संघक्षामणामाहजगआहारो संघो, सब्बो मह खमड निरविसेस पि । अहमव खमामि सुद्धो, गुणसंघायस्स संघस्स ॥ १०१ ॥
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जगतो--लोकस्य दुर्गती पततः आधारः - श्रालम्बनं सेयः संघात दुर्गतिपातो न भवतीत्यर्थः सर्वोऽपि साधुसाध्यीआयकथविकालक्षणः ' मह खमसि मम क्षमय निरविशेषमप्यपराधजातम् । श्रहमपि क्षमामि - क्षमां करोमि गुणसंघातस्य - गुणसमुदायस्य सत्कमपराधजातमित्यर्थः ।
पूर्वमपि संघक्षामणा सर्वजीवराशिक्षामणा च कृतेति पुनरपि किंचित्सनामग्राहमाहआयरिय उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगखे य । जे मे कथा कसायाच्ये विविण खामेमि ॥ १०२ ॥ ॥ सव्यस्त समयसंघ-स्स भगवओ अंजलि करिय सीसे । सव्वं खमावत्ता, खमामि सम्वस्स अह पि ।। १०३ ।। सव्वस्त जीवरासि - स्स भाव धम्मो निहियनियचित्ते । सव्वं खमावइत्ता, अयं पि खमामि सव्वेसिं ॥ १०४ ॥ गाधात्रयमपि प्रतिक्रमणायनमसिद्धत्वा विवृतम् । इइ खामियाइयारो अणुतरं तवसमा हिमारूडो । परफोडतो विहरइ, बहुभवबाहाकयं कम्मं ॥ १०५ ॥ 'इति' सर्व संघ सर्व जीवरा शिक्षामितातिचारः सन् अनुत्त-प्रधानां तपःसमाधि मोर लोगया तयमदि डिआ नो परलोगया तयमदिडिया, नो किि सिलो गट्टयाए तवमहिट्ठिजा, नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिडिजा इत्येवंरूपां चतुर्विधामपि तपसि परमखमाथिमारूढः उत्कृष्टाराधनाकर बज्रकक्षा प्रस्फोटयन् विनाशयन चिरतिवर्णते किमित्यत आह वाहाक मं' ति - बहवश्च ते भवाश्च बहुभवास्तेषां बाधा-निरन्तरं परिभ्रमणेन संकटं बहुभवबाधा बहुभवबाधया कृतं किं कर्म तत्प्रस्फोटयति विनाशयति इत्यर्थः ।
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तदेव फोड विशेषेवितृगोतिजंबद्धमसंखेजा - हि असुहभवस्यसहस्सकोडीए । एमममएगा वह संधारं आरुहंतो य ॥१०६ ॥
संथार
यत्कर्म बद्धम् श्रसंख्याताभिरशुभभवशतसहस्रकोटिभिः असुदति विभकिलोपा पापकृतिरूपं या तत् कम्मे एकसमयेनापि हरित संस्तारकमारुदनित्यर्थः ।
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भवविहारिणो सा, विग्घंकरीवेयणा समुट्ठेइ ।
तीसे विझवणार, अणुस दिवि निजगा ॥ १०७॥ इत्थम् - श्रमुना प्रकारेण तपोविहारिणः - अनशनरूपतपधारिणः सा पूर्ववतिचतुर्गतिकमयभाविनी विकरी धर्मध्यानविघातक वेदना समुत्तिष्ठति प्रादुर्भवति । ततस्तवेदनाया विध्यापनार्थम् उपशमनार्थमनुशास्ति 'दिति' ति ददति नियमका-गीतार्थगुरव इत्यर्थः । केनोल्लखेन ते ददतीत्याह
जइ ताव ते मुणिवरा, आरोवियवित्थ अपरिकम्मा । गिरिप भार विलग्गा, बहुसावयसंकडं भीमं ॥ १०८ ॥ यदि तावत्ते मुनिवृषभाः सुकोशलादयः श्रारोवियवित्थर' त्ति- आरोपितो-नियोजित आत्मनि श्राराधनाविस्तरो यैस्ते श्रारोपितविस्तराः ' अपरिकम्म ' त्ति सर्वथा शरीरपरिकर्मणा वर्जितत्वादपरिकर्माणः 'गिरिभार' त्ति प्राकृतखाद् द्वितीयैकवचनसोपात् गिरिमाम्भारं पर्वतनितम्बं विल ग्रां कथंभूतमित्याह-बहूनि च तानि स्वापदशतानि च सिंहव्याघ्रादीनि तैः संकटं व्याप्तमत एव भीमं भीषणाकारम् । तत्र किं कुर्व्वन्तीत्याहataणबद्धकच्छा, अणुत्तरविहारिणो समक्खाया । सावयदाढगया वि हु, साहिंती उत्तमं अहं ॥ १०६ ॥ यदि ते एकाकिनोऽपि श्रसहाया श्रपि ' धीधणियबद्धकच्छ ' त्ति घृत्या-चित्तस्वास्थ्येन धनितम् अत्यर्थ बद्धा - कृता श्राराधनारूपा कक्षा-प्रतिज्ञा परिकरो वा यैस्ते घृतधनितदाः एव जिनशासने ते अनुत्तरविहारिणः सतबद्धकक्षाः, माख्याताः - कथिताः पूर्वमुनिभिरिति अध्याहारः । 'सावयदाढगया विहुति श्वापदयोपगता अपि व्याघ्रादिश्वापद ईष्ट्या निष्ठुरपीडापरिगता अपि साधयन्ति-निष्पादयन्ति उसमार्थे न ध्यानात् अस्यन्ते, वेदनाम्याता अपि निर्यामकविवर्जिता श्रपीत्यर्थः ।
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किं पुण अणगारसहा - यगेहि संगयमणेहि धीरेहिं । न हु नित्थरिज इमो, संथारो उत्तिमम्मि ॥ ११० ॥ हे क्षपक! यदि तावत्तैरपि दुर्गोपसर्गमाप्तैरप्यसद्वायैरप्ययं संस्तारको निस्तीस किं पुनर्युग्माहरनगार सहायक निर्या मकगुरुयुक्तैः धीरैर्बुद्धिमद्भिः संगतमनोभिर्विशेषोपसर्गसंसर्गरतिर सिद्धान्तं श्रुत्वा निर्याम गुरुमुखनिःसृतत या संगतं युक्रमाध्यानरहितं मनो येषां ते संगतमनमस्तेः संगतमनोभिः निश्चल हुनेनिरिज इमो 'त्ति निस्तीर्यते पर्यन्ते प्राप्यते 'इमो' अयं संस्तारकः काका अक्षरयोजना, किं न निस्तीर्यते अपि तु निस्तीर्यत एव उत्तमायें उत्तमार्थविषये इति ।
उच्छडसरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नं ति । धम्मस्य कारणे सुवि-हिया सरीरं पिवति ॥ १११ ॥
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार उच्छडितं त्यक्तं शरीरगृहं यैस्ते उच्छडितशरीरगृहाः-परि- णसहस्रप्रचण्डेन, तथा ग्रीष्मे उपलक्षणत्याच्छिशिरों-मस्यक्तदेहभवनाः,केनोखेनैवंविधा इत्याह-'अन्नो जीवो सरी हाहिमपाते चन्द्रणेवातिशीतलेश्याया दाहकत्वेन तेनारमन्नंति' सि-अन्यः शुभाशुभफलभोक्ता जीवस्तयतिरिक्त पि तप्तायमिति शीतयुक्तायामित्यर्थः । अथवा ' सूरण शरीरमन्यदिति चिन्तय, मा शरीरप्रतिबन्धं कुरु भाटक
व चंदेण व 'त्ति विशेषण साधोरेव । कथंभूतेन चित्रण? सूगृहकल्पत्वाच्छरीरस्य । यतो धर्मस्य कारणे-धर्मनिमित्तं
येणेव किरणसहस्रप्रचण्डेन तपस्तेजसा विराजमानेन, चसुविहिताः शरीरमप्यास्तां पुत्रकलत्रादि 'छइंति' त्ति त्यज
न्द्रेणेव सौम्यचन्द्रिकाभ्यधिकेन मनौवाकायसौम्यतासुभगेन न्तीत्यर्थः।
कोपादिपरिहारतोऽतिशीतक्षेश्येनेत्यर्थः । अथ गुरुरेव क्षपकस्य संस्तारगुणमाह
लोगविजयं करेंतेण, झाणोवोगचित्तेणं । पोराण य पच्चन्ना, याओ अहियासिऊण वियणाभो । परिसुद्धनाणदंसण--विभूइमंतेण चित्तेणं ॥११॥ कम्मकलंकलबल्ली, विहुणइ संथारमारूढो ।। ११२ ॥
लोकः-कषायलोकस्तस्य विजयो लोकविजयस्तं कुर्वता पुरातना-रोगज्वरादिवेदनाः-प्रत्युत्पन्नाः-वर्तमानाः तु
कपायान् जितवता तेन महात्मना 'भाणाव आगचित्तणं' त्पिपासादिकाः देवमनुजतिर्यकृतोपसर्गरूपा वा अधिरुह्य ति ध्यानोपयोग-विशिथ्यानाभ्यासे चित्तं यस्य स ध्यानोप सम्यक सोढा 'कम्मकलकलवल्ली' ति कम्मैव कलं-कश्मलम- योगचित्तस्तेन, पुनः किं विशिष्टेन?-'परिसुद्धनाणदंसणविभूशुभवस्तु तस्य वल्लीव वल्ली-तत्संतानः कर्मकलङ्कलवल्ली इमंतण' त्ति परिसुद्धशानदर्शनविभूतिमता केवलशानकेवलश्रेणीः कर्मतापना 'विहणइ'त्ति संस्तारकमारूढः क्षपको | दर्शनयुक्तनेत्यर्थः । 'चित्ते ति चित्रेख विधानसाधुना । योधः अन्योऽपि य एवंविधो हस्त्यारूढा भवति सोऽपि च
किं तेन कृतमित्याहश्रीरकुशेन त्रोटयति ।
चंदगविज्झ लद्धं, केवलसरिसं समाउपरिहीणं । विशेषेण वेदनासहनस्य गुणमाह
उत्तमलेसाणुगओ, पडिबन्नो उत्तमं अटुं ॥१२०॥ जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं ।
तेन महात्मना चन्द्रकवध्यं-राधावेधं लब्धं-प्राप्तम् ,कतं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।। ११३॥ थंभूतमित्याह-'केवलिसरिसंति केवलज्ञाननिमित्तम् ।यथा प्रकटाव।
कोऽपि राधावेधं कृत्या सर्वोत्कर्षजयी भवति, एवं कोऽपि एतदेव पुनर्व्यक्तीकरोति
कवलशानलाभाद्राधावेधकल्पोपने समाउपरिहाणं ' तिअट्ठविहकम्ममूलं, बहुएहि भवेहि अजियं पावं ।
कवलज्ञानेन सम-सह आयुः-परिक्षीणं परिसमाप्तं के
वलज्ञानेन सह मोक्षं गत इत्यर्थः, 'उत्तमलेसाणुगो' त्ति तन्नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ।।११४॥
उत्तमलश्यानुगतः-शुक्ललेश्यासमन्वितः प्रतिपन्न उत्तमार्थ अष्टप्रकारकर्ममूलमष्टकर्महेतुकं बहुभिर्भवैरर्जित-सं
मोक्षमिति । चितं पापं शानी-ज्ञानवान् त्रिभिर्मनोवाकायगुप्तः क्षिपति
अथ शास्त्रकारः संस्तारकं प्रतिपृच्छन् प्रार्थयन्नाहप्रेरयति उच्छासमात्रणापि कालेन ।
एवं मए अभिथुया, संथारगइंदखंधमारूढा । अथ संस्तारकरणस्य फलमाह
सुसमणनरिंदचंदा, सुहसंकमणं ममं किंतु ॥१२१॥ एवं मरिऊण धीरा, संथारम्मि उ गुरुप्पसत्थम्मि ।
एवम्-अमुना प्रकारेण मया अभिष्टुता-विशिष्टगुणोत्कीवइयभवेण व तेण च,सिज्झित्ता खीणकम्मरया ॥११५॥
खनन व्यावर्मिता महर्षयः कथंभूताः?संस्तारकगजेन्द्रस्कन्धएवम्-अमुना प्रकारेण मृत्वो-प्राणत्यागं कृत्वा धीराः-सु- मारूढाः-संस्तारकद्विपेन्द्राधिरोहिणः के ते इत्याह-'सुसमभटाः 'संथारम्मि उ' त्ति संस्तारके गुरौ-महति 'पसथम्मि' रणनरिंद' ति सुथमणा एव नरेन्द्राः सामान्यराजास्तेत्ति गुणः सर्वोत्तमैः प्रशस्ते, तृतीयभवेन सामान्याराधना- षामपि चन्द्रा इव चन्द्रा बलदेववासुदेवचक्रवर्तिनस्ते यां तेनैव भवनोत्कृष्टाराधनायां कृतायां 'सिज्झिज्ज' त्ति सुश्रमणनरन्द्रचन्द्राः · सुहसंकमणं ' ति सुखस्य-मुसिद्धार्थाः-निष्ठितार्था भवेयुः क्षीणकर्मरजसः-क्षीणक
क्तिरूपस्य वा विशिष्टपुण्यप्रकृतिरूपस्य संक्रमण-संमकचवरा इत्यर्थः । (संथा०) (संघस्य मुकुटोपमया क्रान्ति संसारदुःखादशुभाद्वा निस्तारणेन मम दिन्तु ददत वर्णनं 'संघ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ७८ पृष्ठे गतम् । ) अथ नरेन्द्रचन्द्रा अपि रणशिरसि गजेन्द्रस्कन्धाधिरूढा संस्तारकग्रन्थमुपसंजिहीर्युग्रन्थकारश्चित्रमहर्षिदृष्टान्तमुप--
लब्धजयपताकास्तल्लोकमागधजनानां विपुलं जीविताई दर्शयन् गाथात्रयमाह-यथा चित्रेण भवगता ब्रह्मदत्तपूर्व
प्रीतिदान ददति, इति तैरुपमा कृतेति भद्रं भवतु । संथा० । भवमात्रा प्रधानाराधना विहिता तथैव विधयेति । कथंभू- अर्द्धतृतीयसहस्रप्रमाणे, प्राचा० २ १०१ चू० २ अ० तेन तेन विहितेत्याह-'उभंतेरा व' त्ति दह्यमानेनेव दह्य- ३ उ० । ग० । ध० । कम्बलास्तरणे, विश० । दर्भसंस्तारमानेन व ग्रीष्मे-घर्मत 'कालसिलाए' ति कालशिलायो कादी, श्रातु० । उत्त० । फलककम्बलादौ, उत्त०१७ मरणार्थ पादपोपगमनशिलायाम् । कथंभूतायां 'कविल्लभू- अ० । श्राचा० । लघुतरे शयन, औ० । रा० । पं० भा०। याए' त्ति कविल्लभूतायां, कविल्लकं-मण्डकपचनिका तद्वत्त- ज्ञा० । पं० २० । स्था० ।। शायामित्याह-सूरण व त्ति सूर्येण वा भास्करण, कथंभूतन
साण्डसपरिकर्मणः संस्तारकग्रहणम्किरणसाहस्सपयंडेण ' त्ति दीर्घत्वं प्राकृतप्रभयं, किर- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकखज्जा संथारगं ए
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार सित्तए से जं पुण संथारयं जाणज्जा सअंडं जाव स- जाइज्जा, तं जहा-पुढविसिसं वा कट्ठसिलं वा अहासंसंताणगं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेजा १, थडमेव, तस्स लाभे संते संबसिज्जा, तरस अलाभे उकुसे भिक्ख वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारयं जा- डुए वा विहरिआ, चउत्था पडिमा ॥ ४ ॥ (सू०१०२) णेजा अप्पडं जाव संताणगरुयं तहप्पगारं लाभे संते इच्चेयाणं चरणहं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे णो पडिगाहेजा २, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तं चेव० जाव अन्नोऽन्नसमाहीए एवं च णं विहरति । अप्पंडं नाव अप्पसंताणगं लहुयं अपाडिहारियं (सू०१०३) तहप्पणारं सजा संथारयं लाभे संते णो पडिगाहे- इत्येतानि-पूर्वोक्तानि आयतनादीनि दोषरहितस्थानानि क. जा ३ , से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथा
सतिगतानि संस्तारकगतानि च उपातिक्रम्य-परिहत्य वक्ष्य.
माणांश्च दोषान् परिहत्य संस्तारको ग्राह्य इति दर्शयतिरगं जाणजा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुयं पाडिहा- अथ-पानन्तर्ये स भावभिक्षुर्जानीयात् प्राभिः-करणभूतारियं नो अहाबद्धं तहप्पगारे लाभे संते नो पडिगाहेजा ४, पिश्चतसृभिः प्रतिमाभिः अभिग्रहविशेषभूताभिः संस्तारकसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जा- मन्येष्टुम् । ताश्चमा:-उद्दिष्ट १ प्रेक्ष्य २ तस्यैव३ यथासंस्तृतणिजा अप्पंडं जाव संताणगं लहूयं पाडिहारियं
४ रूपाः, तत्रोहिया फलहकादीनामन्यतमहीष्यामि १, यदेव
प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि तता ग्रहीष्यामि नान्यदिति द्विअहाबद्धं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहेजा ।
तीया प्रतिमा २, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे (सू०६६)
भवति ततो ग्रहीष्यामि नान्यत श्रानीय तत्र शयिष्यम भिक्षुर्यदि फलहकादिसंस्तारकमेषिनुमभिकातयेत् , इति तृतीया ३, तदपि फलहकादिकं यदि यथा संस्तृतनश्चैवंभूतं जानीयात् , तद्यथा-प्रथमसूत्रे साण्डादि- मेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी प्रतिमा ४ स्वात्संयमविराधनादोपः १, द्वितीयसूत्रे गुरुत्वादुत्क्षेपणा- प्रासु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोर्गच्छनिर्गतानामग्रहः, दावात्मविराधनादिदोषः २, तृतीयसूत्रेऽप्रतिहारकत्वात्त- उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतम्रोडत्परित्यागादिदोषः ३, चतुर्थसूत्रे स्वबद्धत्वास इन्धनादिप- पि कल्पन्त इति । एताश्च यथाक्रमं सूरैर्दर्शयति--तत्र लिमन्थदोषः ५ पञ्चमसूत्रे त्वल्पाण्डं यावदल्पसन्तानकल
खल्विमा प्रथमा प्रतिमा, तद्यथा--उद्दिश्याद्दिश्यक्कडादीघुपातिहारिकावबद्ध वात्सर्वदोषविप्रमुक्कत्वात्संस्तारको ग्रा
नामन्यतमबहीष्यामीत्येवं यस्याभिग्रहः सोऽपरलाभेऽपि हा इति सूत्रपञ्चकसमुदायार्थः ५।
न प्रति गृह्णीयादिति । शेष कराव्यं नवरं कठिन-वंशकटादि साम्प्रतं संस्तारकमुद्दिश्याभिग्रहविशेषानाह
जन्तुकं-- तृणविशेपोत्पन्न परकं-येन तृणविशेषण पुष्पाणि इच्चेयाइं आयतणाई उवाइकम-अह भिक्खू जाणिज्जा
अथ्यन्ते 'मोरगं' ति मयूरपिच्छनिष्पन्नं 'कुश्चग' ति येन कृ
चकाः क्रियन्ते, एते चैवभूताः संस्तारका अनूपदेशे साइमाइं चउहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए, तत्थ खलु इमा
दिभूम्याम्तरणार्थमनुज्ञाता इति । अत्रापि पूर्ववत्सर्वे भपढमा पडिमा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय उ. णनीयम् , यदि परं तमिकडादिकं ' संस्तारकं दृष्ट्वा या२ संथारंग जाइजा , तं जहा-इकडं वा कढिणं वा जंतुयं चत नाहष्टमिति । एवं तृतीया ऽपि नेया, इयांस्तु विशेषः वा परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं
गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि वसतिदाँतव संस्तारकं प्रवा पिप्पलगं वा पलालगं वा, से पुवामेव आलोइजा श्रा
यच्छति ततो गृह्णाति, तदभाव उत्कुटुको चा निषण्णो वा
पद्मासनादिना सर्वरात्रमास्त इति एतदपि सुगमम् , केवउसो तिवा भगिणी० दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं संथारय ?
लमस्यामय विशेषः-यदि शिलादिसंस्तारकं यथासंस्तृतं तहप्पगारं संथारगं स्यं वा णं जाइज्जा परो वा देज्जा शयनयोग्यं लभते ततः शेते नान्यथेति । किञ्च-'इच्चेया' इफासुयं एसणिज्जं जाव पडिगाहेजा पढमा पडिमा ।
त्यादि । श्रासां चतसृणां प्रतिमानामन्यतरां प्रतिपद्यमानो (मू० १००) अहावरा दुचा, पडिमा-से भिक्खू वा भि०
न्यमपरप्रतिमाप्रतिपन्न साधुं न हीलयेद् , यस्मात्ते सर्वे -
पि जिनाज्ञांमाश्रित्य समाधिना वर्तन्त इति । श्राचा० २ पेहाए संथारगं जाइजा, तं जहा-गाहावई वा कम्मकरि वा
थु०१ चू०२ १०३ उ० । व्य० । से पुब्बामेव आलोइजा-आउसो ! त्ति वा भइ० ! दाहिसि
ऋतुबद्धिकं शय्यासंस्तारकं पर्युषणायाः परं नयति । मै ?, जाव पडिगाहिजा, दुच्चा पडिमा ॥२॥ अहावरा
ऋतुबद्धे संस्तारकमाहतचा पडिमा-से भिक्खू वा भि० जस्सुवस्सए संवसिजा जे से य अहालहुस्सगं सेजासंथारगं गवनेजा जं चकिया तत्थ अहासमन्नागए, तं जहा-इकडे इ वा जाव पलाले एगणं हत्थेणं उगिझ जाव एगाहं वा दुयाह इ वा तस्स लाभे संबसिजा तस्सालाभे उकुडुए वा नेस- वा तियाहं वा अद्धाणं परिवहिनए एस मे हेमंतगिम्हाजिए वा विहरिजा तच्चा पडिमा।।३।। (मू०१०१) अहा- सु भविस्सह ॥२॥ से अहालहुस्सगं सेजासंथारयं गवे बरा चउत्था पडिमा भिक्खू वा०अहागंथडमेव संथारगं सज्जा जं चक्किया एगेणं हत्थेणं उगिझ ० जाव
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( १६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संधार
संधार
गाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा श्रद्धाणं परिवहिनए एस मे वासावासेसु भविस्स ॥ ३ ॥ से अहालहुस्सगं सेजासंथारयं गवेसेजा जं चक्किया एगेणं उगि
परिसाडी सिरेयर एसो बुच्छं अपरिसाडी ॥ ६ ॥ द्विविधः समासेन संक्षेपेण संस्तारकस्तद्यथा परिशादिः, अपरिशाधि तत्र परिशारितिधा-सुषिरः इतरथ ।
ज्झ ०जाब एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा चउयाहं इतरो नाम - अभुषिरः । श्रत ऊर्ध्वमपरिशार्टि वक्ष्ये ।
या पंचाई या दूरमवि अद्वासं परिवहितए एस मे बुड्डावासासु भविस्सति ॥ ४ ॥
सोऽधिकृतो भिक्षुर्यथा लघुस्वकम् - अनेकान्तलघुकं वीणाग्रहणग्राह्यं शय्या - सर्वाङ्गिका संस्तारको ऽर्द्ध तृतीयहस्तदीर्घः स्तब्धत्याङ्गलानि विस्ती अथवा तत्पुरुषः समासः -- शय्या एव संस्तारकः शय्यासंस्तारकः तृणमयं पट्टमयं वा गवेषयेत् । तत्र यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेनावगृह्य यावदेकार्ड वा उपदं या त्यई वा अध्यानं गच्छन् परियोढुं तत् गृह्णीयात् एष मे वर्षावासे भविष्यति । एष वर्षासूत्रस्यार्थः ॥ ३ ॥ एवं हेमन्तीसुत्रार्थी वृद्धापास पार्थश्च भावनीयः । नयरं जावाससूत्रे चतुरई या पचाई वेत्यधिकं वक्तव्यम् ।
अधुना निशिचितर:
सो पुरा उउम्मि पेप्पर, संधारो वासे बुबासे वा । ठाणं फलगादिवा, उउम्मि वासासु य दुवेऽवि ॥ ७ ॥ स पुनः संस्तारकः स्थानं स्थानरूपम् ऋतुबडे काले वृद्धावासे च यथानुरूपे गृह्यते तद्यथाकाले अ काश गृह्यते वर्षावासे वृद्धावासे च निवासस्थानेऽपि तथा ऋतुबद्धे काले ऊर्णादिमयं संस्तारकं परिगृह्य पुरुषविशेष ग्लानादिकमपेक्ष्य फलकादि वा वर्षावासे द्विकावपि द्वापि संस्तारकी बदमाशीयात्।
उप दुविहगहने, लहुगो लहूगा व दोस आणादी । झामियहियवक्खे, संघट्टणमादिपसिमंधो ॥ ८ ॥ द्विविधा संस्तारकः परिशादिरूपः, अपरिशादिरूपक्ष | तत्र परिशादिरूपो द्विविधः भूषिरा अपि तत्र शाल्यादि पलालतृणमयो झुषिरः, कुशकाशादिरूपः प्रभुषिरः । परिशादिरूपो द्विविधः- एकाङ्गिकः, अनेकाङ्गिकश्च । एकाङ्गिकोऽपि द्विविधः - संघातितः, संघातितश्च । तत्र संघातित एकफलात्मकः, अ संघातितो-द्वयादिफल संघातात्मकः । अनेकाक्रिका कधिकारात्मकः तत्र यदि ऋतु - ऋषिरं परिशादिसंस्तारकं गृह्णाति तदा तस्य प्रावधि ल घुको मासः, झुषिरं गृहतश्चत्वारो लघुकाः, अपरिशाटिमपि गृहतस्थारो लघुकाः, न केवलं प्रायचिकि दोषाः । तथा यद्यग्निना ध्यायते तदापि प्रायश्चित्तं त्वारो लघुकाः, व्याक्षेपेण वा स्तेनैरपहृते चतुर्लघुकम्, अपरिशादी ज्यामित हृत वा मासलघुः ततोऽयं संस्तारकं मृगयमाणानां सूत्रार्थपलिमन्थः । तथा तस्मिन्संस्तारक ये प्राणजातयः श्रागन्तुकास्तदुद्भूता वा तान् संघट्टयति, अप द्रावयति च ततस्तन्निष्पन्नं तस्य प्रायश्चित्तमित्येष गाथार्थः ।
सांप्रतमेनामेव भाष्यकृत् विवृणोतिपरिसाडि अपरिसाडी, दुविहो संथारओ समासेणं ।
प्रतिज्ञातमेव करोतिएगंग गंगी संघातिम एतरो व एगंगी । असिरगहणे लहुगो, चउरो लहुगा य सेसेसु ॥ १० ॥ श्रपरिशारिर्द्विधा एकाङ्गिकः, अनेकाङ्गिकश्च । तत्रैकाङ्गिको द्विधा-संघातिमः इतरश्य अमीषां व्याख्याने प्रागेव कृतम् । तत्रापिरस्य संस्तारस्य महने प्रायश्चित्तं लघुको मासः । शेषेषु भुपिरसंघाते इतरेकाशिका नैकाक्रिकेषु प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः ।
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लघुका व कामियम्मिय, हरिए वि व होंति अपरिसाडिम्मि परिसाडिम्म व लघुगी, आणादिविराहया चेव ।। ११ ।। अनि ज्यामिते अपरिशादी सेनेव तमिले प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुका भवन्ति । परिशाटी ध्यामिते हृते वा प्रत्येकं लघुको मासः, श्राशादयश्च दोषाः । तथा विराधना च संयमस्य ।
तामेवाभिधित्सुराह -
विक्खेवो सुनादिसु आगंतुतदुब्भवेण घट्टादी । पलिमंथो पुष मंथिअति संजमो जयं । १२ ॥ अन्यसंस्तारकमार्गणे सूत्रादिषु सूत्रेष्वर्थेषु च विक्षेपोव्याघातः; परिमन्थ इत्यर्थः । तथा ये तत्रागन्तुकाः प्राणाः कीटिकाइयों ये च तदुद्भवा मरणादयस्तेषां यत् घट्टनादितमितमपि प्रायश्चित्तम् । इदानीं परिमन्थो याख्येयः । स च पूर्वमेव 'विक्खेवो सुत्तादिसु ' इत्यादिना प्रथेनोक्तः । अथ कस्मात् व्यापेक्षो घट्टनादि वा परिमन्थइत्युच्यते तत आइएतेन कारगेन येन संयम उपलक्षणं सूत्रमधे मध्यते तेन परिमन्ध इति ।
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तुम्हा उन पेचो, उम्मि दुविहो व एस संधारो | एवं सुतं फलं सुत्तनिवाओ उकारणितो ॥ १३ ॥ यस्मादेते दोषास्तस्मात्तवदेकद्विविधोऽ प्येष परिशायपरिसादिरूपः संस्थारो न महतः । अत्र पर आप सति सूत्रमफलं सूत्रे मास्तर कस्यानुज्ञानाद् आचार्य शाह-निपातः कारणिक:कारणवशात्प्रवृत्तः ।
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तदेव कारणमुपदर्शयतिसुचनिवातो तो देते गिला व उत्तम य । चिक्खपायहरिए, फलमाणि वि कारणे जाते ॥ १४ ॥ सूत्रस्य निपातो निपतनमवकाश इति भावः । देशे-देशविशेषे तथा ग्लाने उसमा च तथा कमे प्राणजाने भूमी संस तथा हरितकाये एवंरूपे कार जाते सति फलकान्यपि गृह्यन्ते । फलकरूपोऽप्यपरिशाटिः संस्तारको गृह्यत इति गाथासंक्षेपार्थः ।
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(१६८) संचार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतस्तृणेषु दोसो' इत्यस्य तस्य कोमलतया समाधिभावात् ।असति-अविद्यमाने वस्त्रव्याख्यामाह
रूपे संस्तारके अझुषिराणि कुशवश्चकप्रभृतीनि मृग्यन्ते । असिवादिकारणगवा, उवही कुच्छण अजीरगभया वा।
अथ तानि स्वराणि, यदि वा-न सन्ति तदा झुषिराण्यपि अझुसिरमसंधिबीए, एकमुहे भंगसोलसंग ॥ १५॥
शाल्यादिपलालमयान्यानेतव्यानि । अशिवादिभिः कारणैस्तत्र प्रदेशे गता ये वर्षारात्रे तद्दिवसं मलियाई, अपरिमिय सयं तुयट्टजयणाए। पानीयेन प्लाव्यन्ते यथा सिन्धुविषयः। अथवा-तत्र देशे उभयदृ उठ्ठिए उ, चंकमणविजकज्जे वा ॥१६॥ स्वभावतः यतः प्रखरा भूमिस्ततो रात्रौ शीतलवातसंपर्क
तदिवसं-प्रतिदिवस मलितानि-तृणान्युत्सायन्ते अन्यानि सोऽवश्यायः पतनतो वा जलप्लाविते च सा भूमिरुपजा
च समानीयन्तेतानि वा परिमितानि गृह्यन्ते,यथा समाधिर्भयते । अथवा-आसन्नीभूतेन पानीयेन तमबकाशमप्राप्नुव
वति तथा सकृत्-एकवारं तुयट्टानि-प्रस्तारितामि तिष्ठन्ति ताऽपि भूमिः स्विद्यति । तत्रोपधेः कोथनं मा भूत् वा मा
तत्र यतनया करणम्।उभयं नाम-उच्चारःप्रस्रवणं च तदर्थमुअजीर्णेन ग्लान्यमित्युपधिकोथनभयादजीर्णकभयाद्वा तृणा
त्थिते ग्लाने उत्तमार्थे वा अन्यो निषीदति । किं कारणमिति नि गृह्णन्ति साधवस्तानि च अमु.। षिराणि असंधीनि अबीजानि
चेत्प्राणिदयार्थम् , अन्यथा शुषिरभावतस्तत्रागन्तुकाःमा1511 SISSIL
णास्तृणान्युपलीयेरन् स तावन्निषीदति यावत्स तत्र प्रत्याच। पतान्येकमुखानि क्रियन्ते । ISISIS Isssis
गच्छति । एवं चंक्रमणार्थमप्युत्थिते, प्रवातार्थ वा बहिर्नियत्र च अधिरे असंधी अ-SISssisi |SSS गत, वैद्यकार्य वा बहिनीते यावत्स प्रत्यानीयते तावदन्यो बीजे एकमुखरूपेषु चतुषु पदे
निषीदति; तस्मिन्नागते स उत्तिष्ठति । अथवा-स गुरूणाJuss/1555sissssss षु भनषोडशकम्-षोडशभङ्गाः। --
मपि पूज्य इति तस्मिन् पूर्वोक्तकारणरुत्थिते तत्रान्यस्य । तत्राऽझुषिरादिव्याख्यानार्थमाह--
निषदनं न कल्पते ततस्तेषां तृणानामुपरि हस्तः कर्त्तव्यः 1 कुसमादि अझुसिराई, असंधञ्चीयाइ एक उ मुहाई।
एतदेवाहदेसीपोरपमाणा, पढिलेहा तिन्नि वेहासं ॥ १६ ॥ अन्नो निसिजइ तहि, पाणियदट्ठाऍ तत्थ हत्थो वा । कुशादीनि--कुश-वच्चकप्रभृतीनि तृणानि अझुषिराणि- निक्कारणमगिलाणे, दोसा ते चेव य विकप्पा ॥२०॥ श्रसंधीनि अबीजानि--बीजातीतानि भवन्ति तानि एकमु- अन्यस्तत्र संस्तारके प्राणिदयार्थ निषीदति, हस्तो वा तत्र खामि कर्तव्यानि । तत्र भक्षोडशकमध्ये यत्र भङ्गे - क्रियते।अत्र भावना प्रागेव कृता । एतैः कारणैर्य थोक्लरूपः संघिराणि तत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, बीजेषु प्रत्ये
स्तारक ऋतुबद्धे काले । निष्कारणम् देशादिकारणमन्तरेण केषु पञ्चरात्रिन्दिवानि लघुकानि, अनन्तकायिकेषु अग्लाने अग्लानस्य तृणमयसंस्तारकग्रहणे त एवं पूर्वोक्का गुरुकाणि, शेषेषु भङ्गषु मासलघु, प्रथमे भने गृहन्तः शुद्धाः। दोषाः विकल्पो, विकल्पदोषश्च । विकल्पग्रहणेन विकल्प'देसीपोरे' त्यादि देशीत्यङ्गुष्ठोऽभिधीयते , तस्य यत्पर्व प्रकल्पावपि सूचितौ। तत्प्रमाणानि जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां च तृणानि
तेषां व्याख्यानमाहभवन्ति । इयमत्र भावना-अङ्गुष्ठस्य यत्पर्व तत्राङ्गल्यग्राणि अत्थरणवज्जितो उ, कप्पो पकप्पो उ होति पट्टदगं । स्थापयित्वा यावद्भिस्तृणैर्मुष्टिरापूर्यते तावन्ति मुष्टिप्रमाणानि जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां च तृणानि भव
तिप्पभिई तु विकप्पो, अकारणे चेव तणभोगो॥२१॥ न्ति, तेषां च तृणानां प्रत्युपेक्षास्तिस्रः । तद्यथा-प्रभाते, म
पास्तरणवर्जितः-कल्पः । किमुक्तं भवति-यद् जिनकध्याके, अपराह्न च । यदा व भिक्षादौ गच्छन्ति तदा विहाय- ल्पिका अनवस्तृते रात्रावुत्कुटुकास्तिष्ठन्ति एष कल्प इत्यसि कुर्वन्ति ।
भिधीयते । तत्पुनः पट्टद्विकं भवति; संस्तारोत्तरपट्टयोरुपरि साम्प्रतमेतदेव किंचिद व्याचिख्यासुराह-- यत्सुप्यते इत्यर्थः । एष भवति प्रकल्पः । यानि पुननिप्रभृअंगुट्ठपोरमेत्ता, जिणाण थेराण होंति समासो।
तीनि संस्तारके प्रस्तारयति एष विकल्पः । यब अभूमीऍ विरल्लेउ, अवणे तु पमजए भूमि ॥ १७॥ ।
कारणे कारणमन्तरेण तृणानां भोगः क्रियते एषोऽपि अङ्गुष्ठपर्वमात्राणि-अङ्गुष्टपर्वपरिमितमुष्टिप्रमाणानि जिना
विकल्पः। नां--निजकल्पिकानां स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां भव- अथवा अन्यथा कल्प-प्रकल्पव्याख्यानमाहन्ति, तैश्च तृणैः संस्तारक श्रास्तीर्यमाणस्तावद्भिर्भवति या. अहवा अझुसिरगहणे,कप्पो पकप्पो उ को सिरे वि। वत्सण्डासः, (संदेशकः ) तानि च भूमौ विरल्य-शयनार्थ सुसिरे य अझुसिरे वा,होइ विकप्पो अकजम्मि ॥२२॥ विरलीकृत्य भूमि प्रमाजयति ।
अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने यत्कारणे समापतिते प्रभुसम्प्रति 'गलम्म उत्तिमंट्ट य ' इति व्याख्यानार्थमाह
विराणि तणानि गृहाति एष कल्पः यत्पुनः कार्य समापगेलने उत्तिमद्वे, उस्सग्गे तु वत्थसंथारो।
तिते झुषिराण्यपि तणानि गृह्णाति एष प्रकल्पः । यत्पुनः असतीऍ अझसिराई, खरा सतीए उ झुमिरा वि॥१८॥ अकार्ये झुषिराणि मझुषिराणि या गृहाति एष भवति यो नाम ग्लानी यो वा प्रतिपन्नोत्तमार्थः-कृतानशनप्रन्या- विकल्पः । एवं तावतृणानामृतुबद्धे काले कारणे गृहीतानां ख्यानः तस्मिन् द्वयऽपि संस्तार उत्सर्गतो वस्त्ररूपः क्रियते यतनाका ।
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार सम्पति कारणैरेव ऋतुबद्धे काले फलकरूपस्य
भिक्खं अडतो उ दुए वि एसे । संस्तारकस्य ग्रहणं, यतनां चाऽऽह
लाभे सहूए वि दुए वि घेत्तुं, जह कारणे तणाई, उउबद्धम्मि उ हवंति गहियाई।
लाभासती एगदुवे व हावे ॥ २७॥ तह फलगाणि वि गेएहे,चिक्खलादीहिंकजेहिं ॥२३॥
सूत्रं च अर्थ च द्वावपि कृत्वा भिक्षामटन् द्वावप्येषयेयथा कारणे-देशादिलक्षणे ऋतुबद्ध काले तृणानि गृही- त्-गवेषयेत् । तद्यथा-भिक्षां संस्तारकं च तत्र लाभे तानि भवन्ति, तथा ऋतुबद्ध एव काले चिक्खल्लादिभिः सति समर्थो द्वापि गृहीत्वा प्रत्यागच्छति , लाभेऽसति कारादिशदात्प्राणसंसक्तिहरितकायपरिग्रहः फलकान्यपि भिक्षां गतस्य संस्तारकाभावे एक सूत्रमर्थ वा, यदि घागृह्वाति ।
द्वावपि हापयति संस्तारकगवेषणेन। तत्र यतनामाह
दुल्लभो सेजसंथारो, उदुबंम्मि कारणे । अझुसिरमविद्धमफुडिय, अगरुयअणिसट्ठवीणगहणेणं ।
मग्गणम्मि विही एसो, भणितो खत्तकालतो ॥२८॥ आयासजमें गुरुगा, सेसाणं संजमे दोसा ॥ २४ ॥
ऋतुबद्ध काले कारण समापतिते दुर्लभे शय्यासंम्ताअधिरो अषिररहितोऽविद्यो-घेधरहितोऽस्फुटितोऽरा-| रके यन्मार्गणं तत्र क्षेत्रतः कालतश्च विधिरेष भणितः, जितोऽगुरुको-गुरुभारहिताऽनिसृष्टः-प्रातिहारिकः एते- अनेन विधिना नान्यथेति । षां च पश्चानां पदानां द्वात्रिंशद्भङ्गाः। ते च प्रागिव प्रस्ता
वर्षासु संस्तारग्रहणम्रतः स्वयं ज्ञातव्याः । अत्र यः प्रथमतः सोऽनुशातस्तत्र दोपाभावात् , अयं लघुकः शेषदोषविनिर्मुक्तश्च । ततो यथा|
उउबद्धे कारणम्मि, अगेण्हणे लहुगगुरुगवासासु । वीपालघुकत्वात् दक्षिणहस्तेन मुख-विवक्षितं स्थानं
उउबद्धे जं भणिय, तं चेव य सेसयं वोच्छं ॥ २६ ।। नीयते एषमेषोऽपि । तथा चाह-वीणाग्रहणेन यत्नतः तत्र.... ऋतुबद्धे काले कारणे सति यदि संस्तारकं न गृह्णाति या नीयते इति वाक्यशेषः । शेषा एकत्रिंशत् भगा नानु- तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, वर्षामु पुनरवश्य प्रहीज्ञाताः । तत्र गुरुके आत्मविराधनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं च- तव्यः संस्तारकस्तत्र सूत्रस्याग्रहणे चत्वारो गुरुकाः। ततुर्गुरुकम् । संयमविराधना पुनरेवं भवति । गुरुके हस्तात्प-| था या ऋतुबद्ध काले यतना भणिता गवेषणादी सा बतिते एकेन्द्रियादीनामुपघातोऽत्र स्वस्थानप्रायश्चित्तं शेषेषु र्षास्वपि द्रष्टव्या शेष बच्यामि। संयमदोषाः-सैयमविराधना । ततस्तत्र प्रत्येक प्रायश्चित्तं
प्रतिक्षात्मेव करोति-- चत्वारो लघुकाः।
वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो । अझुसिरमादिपएहिं, जाणिसटुं तु पंचिमा भयणा।
मणिकुट्टिमभूमिए वि,तमगेएहणे चउगुरू आणा॥३०॥ अह संथडपासुढे, विपञ्जए होंति चउलहुगा ॥ २५ ॥ अधिरादिभिः पदैरारभ्य यावदनिसृष्टमिति पश्चम पर्व
वर्षासु यदि मणिकुट्टिमायां भूमौ वसन्ति तथापि संस्तार
कोऽपरिशाटिः फलकरूपोऽवश्यं ग्रहीमव्यः, तमगृहति प्रायतेषु पञ्चसु पसु प्रथमभहरूपेषु इय-वक्ष्यमाणा भजमा
विसं चत्वारो गुरुकाः, तथा प्राशा उपलक्षणमतदनवस्थाविकल्पना । तामेवाह-'मह संथड' इत्यादि शय्यातरेण
दयश्च दोषाः। य उपाश्रयो दत्तस्तस्मिन् यो यथाऽवस्तृतः प्रथमभकरूपः संस्तारकः स प्रहीतव्यः, तदभावे पार्श्वेन कृतस्तस्याप्यभावे
किं कारणमत पाह-- ऊर्द्धकृतः, एवं क्रमेण यतनया ग्रहणं कर्त्तव्यम् । यदि पुन- पाणा सीयल कुंथ, उप्पायगदीहगोम्हिसिसुनागे। विपर्यासेन गृहाति तदा विपर्यस्ते गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं च- पणए य उवहिकुच्छण,मलउदकवहो अजिमादी ॥३१॥ त्वारो लघुकाः।
कालस्य शीतलतया भूमौ प्राणाः सम्मूर्छन्ति । के ते भंतोवस्सय पाहि, निवेसना वाडिसाहिए गामे । |
इत्याह-कुन्थवः प्रतीता, उत्पादका नाम-ये भूमि भित्त्वा सखेत्ततो अन्नगामे, खेत्तवहिं वा अवोच्चत्थं ।। २६ ॥ । मुत्तिष्ठन्ति दीर्घाः-सस्तेभ्य आत्मविराधना । गोम्मी नाम एवमन्तरुपाश्रयस्य यदि संस्तारकं फलकरूपं न लभते | कर्णशृगाली शिशुनागः-अलसः तथा शीतलायां भूमी पनकः तदा बहिरूपाश्रयस्य तथैव ग्रहीतव्यः, तथाऽप्यलाभे, नेनैव संजायते । उपधावपि पनकः संमूर्छति । तथा उपधेः शीतलक्रमेण निषदनादानेतव्यः, तत्राप्यसति वाटकात् , तत्राप्य
मूमिस्पर्शतः कोथनसंभवः । तथा स चेह धूलिलगनं मललाभ साहीतः, तत्राप्यसति दुरादपि प्राममध्यादानेतव्यो, संभवः, ततो हिण्डमानस्य वर्षे पतति उदकवधा-अप्काप्राममध्यऽप्यसति क्षेत्रान्तस्तरक्षेत्रमध्यभागात् अन्य ग्रामा
यविराधना । तथा उपधेर्मलिनत्वेनारतिसम्भवे निद्राया अ. दानतव्यः, तत्राप्यसति क्षेत्राहिष्ठोऽप्यानेयः । एवमवि- लाभतोऽजीर्णत्वसंभवः । भादिग्रहणात्-ततो ग्लानत्वं तदपर्यस्तमानयनं कर्तव्यम् । यदि पुनः सति लाभे विपर्य- नन्तरं चिकित्साकरणेत्यादिपरिग्रहः। स्तमानयति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः।
तम्हा खलु घेत्तव्बो, तत्थ इमे पंच वणिया भेया। सम्प्रत्यानयनयतनामाह
गहणे य अणुपवणे , एगंगियअकुयपाउग्गे ॥३२॥ मुत्तं च भत्थं च दुवे विकाउं,
यस्मादेतेषां तस्मावश्यं फलकरूपः संस्तारको ग्रहीत
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( १७०) अभिधानराजेन्द्र
संधार
व्यः, तत्र च ग्रहणे इमे - बंदयमाणाः पञ्च वर्णिता भेदाः । सानेवारी अनुज्ञापनायामेकाहि अकु प्रायोग्य च । तत्र प्रथमतो ग्रहणद्वारमाहगहणं च जाणएणं, सेजाकप्पो उ जेण समहीतो । उस्सग्गववाहिं, सो गहणे कपिओ होइ ||३३||
येन समधीतः - सम्यगधीतः शय्याकल्पः शय्याग्रहविधिः तेन जानता ग्रहणं संस्तारकस्य कर्त्तव्यम् । य पादाभ्यां महले कल्पिको योग्या भवति । गतं ग्रहणद्वारम् ।
तः
इदानीमनुज्ञापने या यतना तामाहअणुवणाएँ जयणा, गहिते जयणा य होति कायव्वा । अणुवणाऍ लद्धे, वेंति पडिहारियं एयं ॥ ३४ ॥ अनुज्ञापनायां यतना गृहीते यतना कर्तव्या । तत्राशायामियम्-सधे संस्तार संस्मारकं प्रातिहारिकं ग्रहीष्यामो यावत्प्रयोजनं तायद्धरिष्यामः पचात्समर्पयिष्याम इति ।
कालं च वेइ तर्हि, बेइ य परिसाडिवजमप्यहिमो । Sणुष्व जयों ऐसा, गहिय जपणा इमा होति ॥ ३५ ॥ यदा संस्तारको लब्धो भवति तदूर तत्र कालं स्थापयति एतावन्तं कालं धरिष्यामः, तथा ब्रूते - एष संस्तारको जराजीर्णतया परिशादिरूपस्तमेने वयं ग्रहीष्यामः तत्र निय घातेनैतावता कालेन यत्परिशटति तन्मुक्त्वा शेषमर्पयिष्यामः । एवं यदि प्रतिपद्यते तदा गृह्यते, अथ न प्रतिपद्यते तदा न ग्रहीतश्यः किं त्वभ्यो याच्यते । अथान्यो याच्यमानो नलभ्यते तदा स एव प्रतिगृह्यते केवलं परिशादौ यतना विधेया । एषा अनुज्ञापने यतना । गृहीते यतना इयं वक्ष्यमाणा भवति ।
तामेवादकीसं पुणयन्त्र, चेति ममं जा हि तुं भवे सुनो। अनुगस्स सो विसुनो, ताहे घरम्मि जाहि ॥ ३६ ॥ कहि एत्थ चेव ठाणे, पासे उवरिं व तस्स पुंजस्स । अवातरथेव थच्यो, ते विहु नीवलगा अम् ||३७|| गृहीत संस्तारके पुनः पृच्छति कार्यसमासी कस्य पुनरपयितव्य एप संस्तारकः ? एवमुक्ते स यदि ब्रूते म मैव समर्पयितव्यः इति, तदा वक्तव्यं यदा त्वं भवति भू न्यः । किमुकं भवति - यदा यूयं न दृश्यध्वे तदा कस्य समर्पणीयः ? एवमुक् स ब्रूयादमुकस्य । ततो भूयोऽपि वक्रव्यम् सोऽपि यदा शून्यो भवति न दृश्यते इत्यर्थः तदा कस्मै समर्पणीयः ? | अथ ब्रूयादत्रैव गृहे स्थापयेत् ततः पुनरपि पृच्छेत् कतरस्मियकाशे स्थापनीयः पचमु यदि सध्या याऽवकाशान् गृहीतोऽय स्थान स्थायत् यदि यावदेत् अयस्थाने प्रदेश अथवा यतोऽवकाशात् गृहीतस्तस्य पार्श्वे, अथवा अस्थ पुञ्जस्योपरि स्थापयेत् । यदिवा-यत्र यूथं नयथ तत्रैव तिष्ठतु, यता यस्योपाश्रये यूयं वसथ सोऽपि हु-निश्चितम् अस्माकं निजकः । किं बहुना यत्र वदति तत्र नीत्वा स्थापयितव्यः ।
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संधार
एसा गहिए जयणा, एतो गेरहंतए उ बुच्छामि । एगो थिय गच्छे संघाडो गएहति गहितो ||३८|| अनन्तदिता गृहीते चतना तत नां वक्ष्यामि । प्रतिज्ञातमेव करोति--गच्छ पुनरेक एव संघाटः श्रभिग्रहिकः संस्तारकं गृह्णाति न शेषोऽन्यथा व्यवस्थापत्तेः ।
अभिग्गहियस्स सती, वीसुं गहणे पमिच्छिउं सव्वे । दाऊण तिन्नि गुरुयो, गिरहँति सेसे जहा ॥ ३६ ॥ अभिप्रकियामा संघटकान ह प्रवर्त्तते । इयमत्र भावना - एकैकः संघाटकः प्रत्येकमेकैकं संस्तारकं मार्गपति, अभ्यधिकाश्रयः संस्तारका आचार्यस्य योग्या सूम्यन्त तथापि सेव मार्ग गृह यता यावत्कार्य समाप्तौ क स्थापयितव्य इति । एवं विष्वक् ग्रहणे सर्वान् संस्तारकान्प्रतीच्छप प्रतिगृह्य श्रीन् संस्तारकान सुरोश्या शेषानन्यान् यथावृद्धं गृहन्ति। इयमंत्र सामाचारी-अभिग्रहिक संघटन प्रत्येकं प्रत्येक संघाटकेरानीतानां यानानीतानां या मध्यान् श्रीन् संस्तारकान् प्रवर्त्तको दत्त्वा शेषाणां रत्नाधिकतया सं. स्तारकान् भाजयन्ति तानपि तथैव गृह्णन्ति ।
गाण उ णाणतं, सगणेयरभिग्गहीण श्रन्नगणे | दिडो भासण लढे, मन्नाउ पत्र ॥ ४० ॥ अनेकानां स्वगतरामग्रहिकाणां यनानात्वं प्रतिविशेषां यश्चाम्यगणेन सह वा समुदायेन संस्तारकान मा गयतामाभवद्ववहारनानात्वं तत् वक्ष्ये । तत्र पञ्च द्वाराणि, तद्यथा - दृष्ट्रद्वारमवभाषं नाम - याचनं तद् द्वारं, लब्धद्वारमभाषणं - मानयाचनं तद्द्वारं, प्रभुद्वारं च ।
दिट्ठादिए एत्थं एकेके होतिमे उ इन्भेया । द अहाभावे - वाचि सोउं च तस्सेव ॥ ४१ ॥ विष्परिणाम कहणा, वोच्छिन्ने चेत्र तिपडिसिद्धे य । एएसि तु विसे वृच्छामि महाणुपुथ्वी ॥ ४२ ॥
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sery rhy द्वारेषु मध्ये एकैकस्मिन् द्वारे इमे वक्ष्यमाणाः षड्भेदा भवन्ति । तद्यथा--ति द्वारं, यथा-भावनेति द्वारं तस्य वा वचनतः श्रुत्येति द्वारं, विपरिणामनद्वारं, कथनद्वारं व्यवच्छ्चिद्वारं च । एतेषां तु द्वाराणां यथा नुपूर्व्या क्रमेण विशेषं वक्ष्यामि । यदपि च दृष्टादिषु द्वारनानात्यं तदपि यथावसरं वक्ष्यते ।
संथारं देहंतं, सहीणपभ्रं तु पेसिओ पढमो । ता परियरि ओभासिय लम्भमायेति ॥ ४३ ॥ मानसंस्तारकं फलकरूपं परूपं या देहान्तं देहप्रमाणम्, भुम् न विद्यते स्वाधीनस्तत्कालप्रत्यासन्नः प्रभुर्यस्य स तथा तमखाधीनप्रभुं दा कम ति कस्यैष संस्तारकः ?, स प्राह-अमुकस्य, परमिदानीमत्र स न तिष्ठति । ततः संघाटकश्चिन्तयति-यदा संस्तारकस्वामी समागमिष्यति तदा माथिष्ये इति विचिन्त्य प्रसरतिप्रतिनियतायागच्छतीत्यर्थः । ततः प्रतिनिवृत्त
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( १७१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संधार दाम्यदाषिते याचिते संस्तारकं साधे वसतिमानयति ।
अत्रैवापान्तराले पक्रप्यशेषमाह-
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संधारो दिट्ठो न य तस्स पभू लघुगों अकरणें गुरुं । कहिए व अकहिए वा अण्येण वि आणितो तस्स ॥ ४४ ॥ यदा संस्तारकं प्रेक्ष्य तस्य स्वामिनमा यसती प्रत्यागतस्तदा तेन गुरुणामाचार्यायां कथनीयम् - यथा दृष्टः संस्तारको न च तस्य संस्तारकस्य यः प्रभुः स उपलब्ध इति । एवं चेन्नालोचयति तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः । तथा कथिते श्रकथिते गुरु पद्यथन संघटनामुकस्य गृहे संस्कारको मुकेन संघाटकेन दृष्टः परं स्वामी नोपलब्ध इति न याचितस्तस्माद्वयं याचित्वा नयाम इति विचिन्त्य तत्र गत्वा स्वामिनमनुज्ञाप्य श्रानीतस्तथापि येन पूर्व दृष्टस्तस्याऽऽभवति न पाश्चात्यसंघाटस्य । तदेवं 'दट्ठूऐति' व्याख्यातम् ।
वा
इदानीं यथाभावेनेति व्याख्यानयतिबिति उ नदि, श्रभावेणं तु लद्धमाणेति । पुरिमस्सेव उस खलु केई साहारखं बेंति || ४५||
प्रथम संपाठके संस्तारकं दृष्ट्रा स्वामिनमनुपलभ्य चाचिस्यैष यसतो प्रत्यागते द्वितीयः संघाटको भावोऽस्थेन पूर्व दृइत्यजानानो यथाभावे तमन्यदृष्टं संस्तारकं स्वामिनमनुज्ञाप्य लब्ध्वा समानयति स कस्याऽऽभवतीति चेदत आह- स खलु नियमात्पूर्वस्य संघाटकस्य येन पूर्व हटो, न पाश्चात्यस्य येन लब्धः समानीतः, किं तु उभयोरपि संघटयोराभवनमधिकृत्य साधारणं यते। गर्त यथामावेनेति द्वारम् ।
इदानीं तस्यैव वचनतः सुखेति द्वारव्यानार्थमाहतो उ गुरुसगासे, विगडिजंतं मुझेतु संधारं । मुत्थ मए दिट्ठो, हिंडतो वासीसंतं ॥ ४६ ॥ तृतीयः संघटक प्रथमेन संघाटकेन कापि संस्तारकं दृष्ट्रा स्वामिनमनुपलभ्य पसती प्रत्यागतेन गुरुसका आयायस्य समीपे दृष्टो मया संस्तारकः परं स्वामी न दृष्टस्तत आगतं न याचिये इति संस्तारकं विद्यमानमालोच्य मावा दिवा मित्रांनोऽम्यस्य संघाटकस्य शास्ति - कथयति यथा श्रमुकत्र मया दृष्टः परं स्वामी नास्ति इति न याचितः स्वामिन्यागते याचिष्यामि एवं शिक्ष्यमाणं श्रुत्वा-
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गंतूय तहिं जायर, लक्ष्म्मी बेति अम्ह एस विही । अन्नदिडो न कप्पर, दिडो एसो उ अनुगेणं ॥ ४७ ॥ मा दिजसि तस्सेयं, पडिसिर्द्धतम्मि एस मज्भं तु ।
यो धम्काए, आउऊस तं पुत्रं ॥ ४८ ॥ संधारगदाग फला- दिलोभि पेति देहि संधारं । अतिथि व वारो, पढ़ियेऊस तं मयं ॥ ४६ ॥ गत्वा तत्र संस्तारकस्वामिने संस्तारकं वाचन
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संधार
याचित्वा लब्धे तं परिणामयति । यथा एषोऽस्माकं विधिराचारो योऽन्येन दृष्टो दृष्ट्रा च संस्तारकस्थामिने पायिष्ये - त्यध्यवसितः सोऽन्यस्य न कल्पते एष च संस्तारकोऽन्येन दृष्टस्ततस्त्वं मम प्रियतया तस्य याच्यमानस्य संस्तारकममुं दद्याः, ततस्तस्मिन् प्रतिषिद्धे एष मम भविष्यति । श्रत्रेयमाभवनचिन्ता यदि विपरिणामकरणे त्वब्धस्ततस्तस्य नाऽऽभवति किं तु पूर्वस्यैव संघाटस्य अथवा द्वितीयो विपरिणामनप्रकारस्तमाह- गुरुसकाशे कथ्यमानमन्यस्य या संघाटस्य शिष्यमा संस्तारकं त्वाऽन्यः संघारकस्तत्र गत्वा संस्तारकस्वामिनं पूर्वकथवा धर्मकथाकथनेनावृस्यामानुकूल कृत्य पचाद्विपरिवामयति कथमित्याह- संधारगदायेत्यादि संस्तारकस्वामिनं पूर्वसंस्तारकदानफलादिलभितं ते घाटकं वाचमान श्रीस्वारान्यतिथिध्य तदनन्तरं मम संस्तारकं देहि एवं विपरिणामकरणो लब्धः स पूर्वस्यैव संघाटकस्याऽऽभवति न पाश्चात्यस्य । अत्र प्रायश्चित्तविधिमाह
एवं विपरिणामिऍग, लभती लहुगा य होंति सगणिच्चे । अन्नगरि गुरुगा, मायनिमित्तं भवे गुरुगो ।। ५० ।। एवम् उक्रेन प्रकारेण विपरिमितेन खामिना यदि लभते स्वगणसत्कसाधुस्तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, अन्यगण सत् चत्वारों गुरुकाः। तथा स्वगणसत्को वा अन्य गएको वा विपरिणम्य लब्ध्वा यदि पृष्ठः सन् विपरिणामनमपलपति तदा मायानिमित्तो- मायाप्रत्ययो भवत्यधिको गुरुको मासः ।
सम्प्रति व्यवच्छिन्नद्वारमाह
पुण जे दिडो, अन्नो लद्धो उ तेण संथारो । छिन्नो दुवरि भावो, ताहे जो लभति तस्सेवं ॥ ५१ ॥ अथ पुनर्येन संघाटकेन दृष्टः संस्तारकस्तेनान्यो लब्धः संस्तारकस्तस्य पूर्वदृष्टस्यापरि भावोऽध्ययसायनि वच्छिन्नस्तता या पश्चात् लभते तस्यैव स भवति नेतरस्य । गर्त उपद्वारम् ।
अधुना विप्रतिषिद्धद्वारमादअहवादितिथि पारा, उमग्गितो न विय तेग लड़ो उ । भावे छिन्नमछिन्ने, अन्नो जो हवइ तस्सेव ॥ ५२ ॥ अथवा येन दृष्टस्तेन याचितः परं न लब्धो द्वितीयमपि वारं याचितो न लब्धस्तृतीयमपि वारं न लब्धस्तत एवं त्रीन् वारान् याचितो न च तेन लब्धस्ततस्तस्योपरि यदि तस्य संघाटकस्य भावो व्यवच्छिन्नो, यदिवा-न व्यवच्छिन्नस्तथा योऽस्यो लभते तस्याऽऽभवति न पूर्वघाटकस्य संद पभिरिः समासे प्रथमं द्वारम् ।
अधुनाऽपभाषितद्वारमाह
एवं ता दिट्ठम्मी, ओभासितके वि होंति छच्चेव । सोउं अभावेण व विपरिणामे य धम्म कहा || ५३|| वोच्छिन्नम्म व भावे, अन्नो वऽन्नस्स जस्स देखाहि । एए खलु भेषा, मोहासणे" होंनि बोद्धव्या ॥ ५४ ॥
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(१७२ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
संचार
एवमुक्रेन प्रकारेण उष्टे-वारे पर भेदाः प्रकाशिता एव भाषितेऽपि षड् भेदा भवन्ति - ज्ञातव्याः । तद्यथा--प्रधर्मत्वेति द्वारे द्वितीयं यथामायेनेति द्वारं तृती विपरिणामद्वारं चतुर्थ धम्कचाद्वारं पञ्चमं व्यवच्छिन्नशारं षष्ठमन्यो या तस्पति द्वारम् । तत्र पते खलु षड् मेदा अवभाषणे भवन्ति षोजन्याः ।
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प्रथमद्वारव्याच्यानार्थमाह
श्रभासिते अलद्धे, अव्वोच्छिन्ने य तस्स मावे उ । सोउं अपो भासद, लद्धोऽतप्पुरिइस्स ।। ५५ ।। संघाटकेन भिक्षामटता संस्तारकस्वामी व संस्तारकं याचितः परं न लब्धः, अथ च तस्य-संघाटकस्य संस्तारकोपरि भाषोऽद्यापि न च व्यवच्यते तेन च संघाटन गुरुसमीपमागत्यालोचितो यथा अमुकस्य गुद्दे संस्तारको याचितश्च परं न लब्धः द्वितीयं वारं याचिष्यते एवमवमपिते अलब्धे अव्यवहिग्ने च तस्य संस्तारकस्योपरि माये विकटनं भुत्वा अन्यः संघाटकस्तत्र गत्वा याचते लभते, , स लब्धो नीतः सन् कस्याऽऽभवतीत्यत श्राह - पूर्वस्य । येन पूर्वमवभाषितोऽपि न लब्धस्तस्पाऽऽभवति, तद्विषयभावाप्यवच्छेदात्रेतरस्य ।
साथि जहा दिडे, अह भावादीणि जाव वोच्छिन्ने । दाराई जोएज, छडे सेसं तु बुच्छामि ॥ ५६ ॥
शेषाणि यथा भावादीनि चत्वारि द्वाराणि यावद् व्यवबिद्वारम् यथा रऐवारे पूर्व भावितानि तथा योजयेत्। तद्यथा-एकेन संघाटेन भिक्षामा कापि सं स्तारको हो याचितश्च परं न लभ, द्वितीयः संघाटको यथाभावेन तत्र गत्वा तं संस्तारकमानयति स पूर्वसंघाटकस्थाssभवति, न येनानीतस्तस्य । अन्ये तु ब्रुवते--द्वयोरपि संघाकयोराभनमधिकृत्य साधारणमिति गतं यथाभावद्वारम् ॥ २ ॥ अधुना विपरिणामद्वारमुच्यते गुरुसमीपे विकथ्यमानमन्यस्य कथ्यमानं याचितमलब्धं संस्तारकं मां सम्प्रति देहि, अत्रापि पूर्वस्यैव संघाटकस्य स आमयति न पेनानीतस्तस्य । गर्त विपरिणामद्वारम् ॥ ३॥ सप्रतिधर्मकथाद्वारमुच्यते - प्रेतनेन संघाटकेन याचिते अबधे चाम्यसंघाटकस्तत्र गत्वा तं संस्तारकस्यामिनं धम्मंकथाकथनेन समाकर्ण्य याचते संस्तारकम् स तथा लब्ध्वानीतः सन् पूर्व संघाटकस्याऽऽभवति न येन पश्चादामीतस्तस्येति । धर्मकाद्वारम् ॥ ४ ॥ अधुना व्यव निभावद्वारमुध्यते प्रथमसंघाटकेन संस्तारको पाचितो न] [लम्धस्ततस्तद्विषये भावो व्यवच्छिन्नः गुरुसमीपे च गत्वा तथैवालोचितं यथा अमुकस्य गृहे संस्तारको दृष्टो याचितश्च परं न लब्धः, स तिष्ठतु द्वितीयं वारं न कोऽपि याचिभ्यते । एवं पयनिं मा हात्या योऽपसंघाटको याचते, लभते च स च तस्याऽऽभवति न पूर्वस्य । तदेवं योजितानि पथाभावादीनि चत्वार्यपि द्वाराणि ॥ ५ ॥ अत ऊमाह द्वारे अन्यो वाऽन्यस्येति लक्षणे विशेषोऽस्ति तं वक्ष्यामि ।
संधार
प्रतिज्ञातमेष करोति ।
अच्छि अभो, सो वा अनं तु जइ से देजाहि । कप्पर जो उ पणइतो, तेण व श्रभेण व न कप्पइ || ५७ ॥ येग प्रथमसंघाटन संस्तारको रहो याचिता नलधस्तस्य तद्विषये भावे अहि-अव्यय अन्येन संघाटकेन तत्र गत्वा याचिते अन्यो मनुष्योऽपसेस्तारकं यदि दद्यात्, यदि वा स एव संस्तारकस्वामी अन्यं संस्तारकं दद्यात् तदा 'से-तस्य कल्पते । यस्तु प्रयतो याचितः संस्तारकः स तेन स्वामिना अपेन वा मनुष्येण दीयमानो न कल्पते । गतमयभाषितद्वारम् ।
अधुना लब्धद्वारमाह
लद्दारे चेवं, जोए जहसंभवं तु दाराई । जतियमेत्तो विसेसो, तं बुच्छामी समासेणं ॥ ५८॥ लब्धद्वारेऽप्येवमुक्रमकारेण त्वादीनि द्वाराणि यथासंभवं योजयेत् । यावन्मात्रश्च विशेषस्तावन्मात्रं तं विशेष समासेन वदये ।
तत्र प्रथमं । श्रुत्वेति द्वारमधिकृत्य विशेषमाहओभासिग्मि लडे, भांति न तरामि इरिह नेउं जो । अच्छउ नेहामो पुख, कल्ले वा पिच्छिहामो नि ॥ ५६ ॥ प्रथम संघाडेन कापि संस्तारको दृष्टो याचितो लब्धंश्ध, तस्मिन् श्रवभाषिते लब्धे च साधवो भणन्ति न शक्नुमः संप्रति मिक्षामन्तः संस्तारकं नेतुम् ततस्तिष्ठतु पा च्यामः । एतच गुरुसमीपे समागत्य तेन संघाटकेनालोचितम् तच श्रुत्वा अन्यो याचते लभते च स श्रानीतः सन् पूर्वपाकस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य । अपरः संघाटको प्रेतनसंघाटकवृत्तान्तमविदित्वा यथाभावेन गत्वा याचते तेनाप्यानीतः पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति न तस्य । अपरे द्वयोरपि तं साधारणमाचते ।
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विपरिणामद्वारं साक्षादाह
नवरि श्रमो श्रागतो, तेण वि सो चैत्र पणयितो तत्थ । दिओ अमस्स तो बी(वि) परिणामेह तह चैव ॥ ६०॥ प्रथमसंघाटन संस्तारके याचिते लक्ष्येनेतुमशक्यतथा तथैव मुनयरि-केवलमन्यः संघाटक आवतनापि तत्र स एव संस्तारका प्रथितो याचितः। संस्कारकस्वामिनो दशो ऽन्यस्य ततस्तथैव तं विपरिणामयति, यथा सर्वदेवाएं तय प्रियस्ततो मयि सति मि
मुचितं तस्माद्यदि स श्रागच्छति तर्हि तस्य प्रतिषिध्य पश्चान्मम दातव्य इति । एवं यदि विपरिणम्यानीतो भवति ततः पूर्वतमस्वाऽऽभवति, नेतरस्य तदेवमुक्रं विपरिणामद्वारम् । अधुना धर्मकथाद्वारम्-तथैव प्रथम संपादकेन सं स्तारके याचिते लब्धे नेतुमशक्यतया तत्रैव मुझे अन्यसंघाटकस्तत्र समागत्य तं संस्तारकं याचितवान् । ततः संस्तारकामिनोस्। ततो धर्मकथाकथनस्तमाय ब्रूते यथा तस्य प्रतिषिध्यायं संस्तारको मह्यं देयः । एवमानीतः पूर्वसंपादकस्य स आभयति, नेतरस्य । तथा
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संथार
येन प्रथम संघाटन संस्तारको याचितो लब्धः श्रुतश्च तस्य तद्विषये भावः कुतश्चित्कारणात् व्यय अभ्या शठभावेन याचितो लब्धश्च तस्याऽऽभवति, न प्रथमसंघाटस्य तस्य तद्विषयभावव्यवच्छेदात् । तथा प्रथमसंघाटकेन संस्तारके याचिते लब्धे नेतुमशक्यतया तत्रैव मुक्त अन्यः संघाटकस्तत्र समागत्य संस्तारकं याचते । तत्र यदि अन्यो मनुष्योऽन्यं संस्तारकं दद्यात् स वा प्रथमसंघाटवाचि तोऽन्यं तदा स तस्य कल्पते । यः पुनः प्रणयितः स तेनान्येन वा दीयमानो न कल्पते ।
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( १७३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा च विपरिणामद्वारमुक्त्वा शेषद्वाराणामतिदेशमाह-अहभावोऽऽलोयणध-म्मकहण वोच्छिन्नमन्नदाराणि । नेयाणि तहा चैव उ, जदेव उ छट्टदारम्मि ।। ६१ ।। यथाभावद्वारम्, 'आलोयण' त्ति-पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् आलोचना खेति द्वारं धर्मकथनद्वारं व्ययद्वारमन्यद्वारं चेति पञ्च द्वाराणि यथैवावभाषितद्वारेऽमि हितानि तथैव ज्ञेयानि पहुं तु विपरिणामद्वारं साक्षादुम् । गतं लब्धद्वारम् ।
इदानीं संज्ञाविकद्वारमाद
सराय वि एचिय, दारा नवरं इमं तु नावचं । आरिणामिहितो, गेएहह संधारयं अज ! ॥ ६२ ॥ सुद्धदसमीठिपाणं, बेति य घेच्छामि तद्दिणं चेव । नायfit परिष्ातो, मए उ संधारतो भंते ! ॥ ६३ ॥ याम्येव श्रुताऽऽदीनि पद द्वाराणि लग्धद्वाराभिहितानि एताम्येय संज्ञातिकद्वारेऽपि इय्यामि नयरं भाषायां यज्ञानात्वं तदिदं वच्यमाणम् । तदेषाऽऽह-' आयरिपणे' स्यादि आचार्येणाभिहितः आर्य संस्ताकं एवमु कः सन् संज्ञातिकानां गृहमागच्छन् दृष्टः संस्तारको याचितो लब्धश्च । अथवा संज्ञातिकैरयाचितैरेव स उक्लो गृहाण संस्तारकम् ततस्तेनोक्रम्-परिमन् दिवसे संस्तारके स्व"तुमारभ्यते तस्मिन् दिवसे नेष्यामः, आचार्यश्वशु म्यां तत्र स्थितः स आगत्य शुद्धशमीस्थितानां गुरुणामन्ते यूरो आलोचयति भदन्त । मया हातिगृहे संस्तारकः प्र तितो निभालितस्तिष्ठति । ततो यत्र दिने संस्तारके स्वप्स्यते तदिवसमेव तस्मिन्नेव दिने प्रहीष्यामः । एवमालोचितं वा अन्य याचते लभते च स ज्ञानीतः पूर्वसंघाटकस्याssवति न येनानीतस्तस्य । गतं श्रुत्वा अपरः संघाटकोमेशन संघटकान्तमनयहाय वचाभावेन गत्या याच ते लभते च स तेनानीतः पूर्वसंघाटकरूपाऽऽभवति न तस्य । अपरे तु द्वयोरपि संपादकयोस्तं साधारणमाचक्षते । यथाभावद्वारमपि गतम् ।
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इदानीं साक्षाद्विपरिणामद्वारमाहविपरीणामे तह विय, अन्नो गंतूण तत्थ नायगिहं । आसअवरो मेहर, मिचो भयो वि मं चोनुं ।। ६४ ।।
वि तस्स नियगा, देहिह अन्नं च तस्स मम दाउं । दुल्लभलामणा उं-ठियम्मि दाणं हवति सुद्धं ॥ ६५॥
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संधार
सन्नायगिहो अन्नो, न गेरहए तेरा असममातो । सति विहवे सत्तीए, सो वि हुन वि तेण निव्विसति ।। ६६ ।। तेन साधुना मया भदन्त ! ज्ञातगृहे संस्तारकः प्रतिशप्तोऽस्ति ततस्तस्मिन्नेव दिने समानेष्यते, इत्यालोचितं श्रुवा अन्य श्रासन्नतरो. मित्ररूपो वा ज्ञातिगृहं गत्वा तत्र तथैव संस्तारकस्यामि विपरिणामपति स चान्यो यिपरिणम्य गृह्णाति हर्दयमाणमुत्या वाह वी' त्यादि अन्येऽपि च तस्य निजकाः संस्तारकं दास्यन्ति । यदि वा ममामुं संस्तारकं दत्वा तस्यान्यं संस्तारकं दयाः । अथवा अस्माद अशोवृत्तिजीविनि यद् दुसभदानं दीयते तद्भवति शुद्धमिहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तत्वात् । तथा स्वज्ञातगृहे ऽन्योऽसंज्ञातिकस्तेन संस्तारकस्था मिना असमनुज्ञातो न गृह्णाति । श्रहं पुनः संज्ञातिकस्ततोया शय्यामेकवारमनुज्ञातस्थापि संस्तारकस्य प्रये, तथा सति विभवे यदि वा विभवाभावेऽपि पि संज्ञातिस्तेनात्मीयेन संज्ञातिकेन विना न निर्विशति उपभुङ्क्ते भक्तपान संस्तारकादि तस्मान्मम दातव्य एष संस्तारक इति । एवं विपरिणम्यानीतः पूर्वसंघाटस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य । गतं विपरिणामद्वारम् ॥ अधुना धर्मकथाद्वारमुच्यते तथैपालोचनामाकन्या संघाटकस्त त्रागत्य धर्मकथामारभते, ततो धर्म्मकथया तमत्यन्तमावउसे संस्तारकं याचते स धर्मकथाश्रवणोपरोधतो न निपेंशन इति तस्मै दत्तवान् सोऽपि पूर्वसंघारस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य । गतं धर्म्मद्वारम् ॥ संप्रति व्यवच्छिन्नद्वारमाह, भावना - तस्य संज्ञातिकस्य याचितसंस्तारकविपये भावः कुतधित्कारणतो व्योम्पेन संघाटकेनाभावेन याचित्वा समानीतः। स येनानीतस्तस्याऽभवति, न] पूर्वसंज्ञातिकस्य अन्यद्वार भावना स्वियम् पूर्वप्रकारे तेन संज्ञातिकेन गुरूणामन्तिके विकटने कृते तत् श्रुत्वा श्रन्यः संघाटकस्तत्र गत्या संस्तारकं वाचते तथान्यो मनुष्योम्यं संस्तारकं यदि ददाति यदि वा स एव पूर्वसंघाटकयाचितः संस्तारकस्वामी परमभ्यं संस्तारकं तदा कल्पते । पूर्व याचितस्त्वनेनान्येन वा दीयमानो न कल्पते ।
तथा चाऽऽह
साथि य दाराणि, तह वि य बुद्धिए भासणीयाई । उद्दारे वि तहा, नवरं उदम्मि नाय ।। ६७ ।। शेषाण्यपि विपरिणामजानि त्वादीनि द्वाराणि तथैव प्रा गुरूप्रकारेव तथा परिभाव्य भाषणीयानि तानि च तथैव भाषितानि गर्त संज्ञाविकद्वारम् इदानीमद्वारमा ह - ऊर्द्धद्वारेऽपि तथा पूर्वोक्तप्रकारेण द्वाराणि षडपि श्रुत्वादीनि योजनीयानि नरम-कारणे नानात्वम् । तदेव भावयतिआऊण न तिथे, वासस्स य आगमं तु नाऊणं । मा उल्लेख हु छम्मे, ठवेइ असो व मग्गेजा ॥ ६८ ॥ संघाटन कापि गृहे संस्तारको दो, पाचितो सध आनेतुमपि व्यवसितः परं वर्षस्य श्रागमम् - आगमनं
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(१७४) संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार ज्ञात्वा माऽपान्तराले वर्ष पतेदिति कृत्वा मानेतुं तीर्ण:
अपभुम्मि लहू आणा, एगतरपदोसतो जं च ।। ७३ ॥ शक्तः । तया मा वर्षेणात्र प्रस्तारित आर्दीक्रियेत । तथा मा अन्यः संघाटकः समागत्य मार्गयेत्-याचेत इति छन्ने
तयोः पितापुत्रयोर्मध्ये यः प्रभुतरस्तेन यस्य दत्तस्तस्याऽऽ प्रदेशे कुज्ये-अवष्टभ्य ऊकृतस्ततो गुरुसमीपे समागत्य
भवति । अथ द्वावपि प्रभू ताभ्यामपि संभूय यस्य. दत्तस्तविकटयति, तच्च श्रुत्वा अन्य उपत्य-आगस्य याचते स च
स्याऽऽभवति, यस्य तु प्रतिषिद्धस्तस्य नाऽभवति । अथातेनानीतः पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य । गतं
प्रभुणादत्तं गृह्णाति, गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे, तदा तस्य
प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवः, तथा आशादयो दोषाः । यच्च श्रुत्वा द्वारम् ।
एकतरप्रद्वेषत आपद्यते प्रायश्चित्तं तदपि तस्य द्रष्टव्यम् । इदानीं यथाभावद्वारं विवक्षुराह
एकतरप्रद्वेषो नाम-यः प्रभुः स संयतस्य-बोपरि प्रवर्ष पुच्छाए नाणतं, केणुद्धकयं तु पुच्छियमसिटे। यायात्, येन वा अप्रभुणा सता दत्तस्तस्य । अन्नासढमाणीयं, पि पुरिल्लो केइ साहार ।। ६६॥ अहवा दोमि वि पहुणो, ताहे साहारणं तु दोएहं पि । यथाभावद्वारे पृच्छायां नानात्वं , किं तदिति चेत् ? । उ- विप्परिणामादीणि उ, सेसाणि तहेव भासेज्जा १७४|| च्यते-अन्यः संघाटकस्तत्र यथाभावेन गतस्तेन ऊकृ
अथवा द्वावपि पितापुत्रौ प्रभू, द्वाभ्यामपि च पृथक पृथक तं संस्तारकं हवा चिन्तितम्-किं नामैष संयतेन ऊकृत
द्वयोः संघाटकयोरनुज्ञातः, तदा तयोर्द्वयोरपि संघाटकयोः उत गृहस्थेन ?, यथाभावत एवं तेन संशयेन पृष्टः-केना
साधारणमाचक्षते संस्तारकम् । तर यथाभावे विशयो यमूढाकृत इति?, गृहस्थैश्च न किमपि शिष्ट-कथितम् , त
दर्शितः । शेषाणि तु विपरिणामादीनि पश्चापि द्वाराणि तोऽन्येन संघाटकेनाशठेन संस्तारको याचितो लब्ध-श्रा
तथैव भावनीयानि यथा प्रागभिहितानि । नीतश्च । तथाऽन्येनाशठेनानीतमपि संस्तारकं पूर्वस्य संघारकस्याऽऽभवन्तमाचक्षते, केचित् पुनर्द्वयोरपि संघाटकयोः
साम्प्रतमुपसंहारमाह-- साधारणम् । अथ पृष्टे गृहस्थैराख्यातं गृहोतेनोझुकृतः, एसो विही उ भणितो, जहियं संघाडएहि मग्गंति । यथाभावेन याचितो लब्धश्च सोऽप्यानीतः पूर्वसंघाटस्या- संघाडे अलभंतो, ताहे वंदेण मग्गंति ।। ७५ ।। ऽऽभवति । अपर तु द्वयोरपि साधारणमाहुः ।
यत्र संघाटकैः प्रत्येकं प्रत्येकं संस्तारका मृग्यन्त तत्र एप छन्ने उड्डो व कतो, संथारो जइ वि सो अहाभावा । प्रत्यकं प्रत्येकमानीतानां संस्तारकाणामाभवनव्यवहारवितत्थ वि सामायारी, पुच्छिजा इतरहा सहुतो ॥७०॥
पया विधिरुक्तः, यत्र पुनरेकैकः संघाटको न लभते तदा यद्यपि संस्तारो यथाभावात-यथाभावेन ग्रहस्थैः छन्ने। वृन्दसाध्यान कार्याणि वृन्दनः कर्तव्यानीति न्यायात् संघाप्रदेशे ऊर्जीकतो शायते चैतत्तथापि तत्रयं सामाचारी
टकैरलभमाने वृन्देन-समुदायेन मार्गयन्ति । गृहस्थाऽवश्यमुक्तप्रकारेण पृच्छ्यते , इतरथा-पृच्छाकरणा
तत्र विधिमतिदेशत आहभावे प्रायश्चित्तं लघुको मासः । गतं यथाभावद्वारम् ।
वंदेणं तह चेव य, गहणुलवणाइतो विही एसो । विपरिणामेन धर्मकथाव्यवच्छिन्नभावान्यद्वाराणि पूर्ववत् भावनीयानि।
नवरं पुण नाणतं, अप्पणए होइ णायव्वं ।। ७६ ॥ तथा चाह
वृन्दनापि मार्गणे तथैव तेनैव प्रकारण ग्रहणे अनुज्ञाचनासेसाई तह चेव य, विपरीणामाइया दाराई। यामादिशब्दादर्पणे च विधिरेष प्राभिहितो द्रष्टव्या नवर बुद्धीऍ विभासेजा, एत्तो वुच्छं पभूदारं ॥७॥
पुनरर्पण भवति नानात्वं ज्ञातव्यम् । शेषाणि-विपरिणामादीनि द्वाराणि बुद्धया यथा प्रागभि
तदेवाऽऽहहितानि तथैव परिभाव्य विभाषेत-प्रतिपादयेत् । मतमू- सव्वे वि दिहरूबे, करेहि पुन्नम्मि अम्ह एगयरो । कृतद्वारम् । श्रत ऊर्ध्वं प्रभुद्वारं वक्ष्यामि ।
अमो वा वाघाए, अप्पहिति ज भणसि तस्स ।। ७७ ।। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
सस्तारकस्वामिनं प्रति उच्यते-सर्वानप्यस्मान् दृएरूपान्पभुदारे वी एवं, नवरं पुस तत्थ होइ अहभावे । । दृएमृतीन् कुरू अस्माकमेकतरः पूर्णे वर्षाकाल संस्तारकं एगेण पुत्तों जॉइओ, विइएण पिया उ तस्सेव।।७२।। । युष्माकमर्पयिष्यति । अथास्माकमतेषां कश्वनापि व्याघाता प्रभुद्वारेऽपि एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण श्रुत्वादीनि षद द्वाराणि
भवेत्तदा अन्योऽपि यत्तं भणसि तस्य समर्पयिष्यति । झेयानि ; नवरं पुनस्तत्र प्रभुद्वारे यथाभावलक्षणे अ- एवं ता सग्गामे, असती आणज्ज अमगामातो। बान्तरभेदे नानात्वं भवति । एकन संघाटकेन यथाभा- सुत्तत्थे काल मग्गइ भिक्खं तु अडमाणो ।। ७८ ॥ चेन पुत्रो याचितः, एकेन तस्यैव पिता, द्वाभ्यामपि दत्तः
एवमुक्तपक र वत्स्वग्राम संस्तारकानयने विधिरुक्तः, स कस्याऽऽभवति?।
असति-स्वग्रामे संस्तारकस्याभाव अन्यग्रामादपि श्रानयेत् । तत पाह
कथमित्याह--सूत्रार्थी कृत्वा सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषीं च जो पभुतरो तेसिं, अहवा दोहिं पि जस्स दिन्नं तु। कृत्वा भिक्षामटन् संस्तारकं मार्गयति । यदि पुनरम्यग्रा
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार मेऽपि प्रत्येक संघाटकस्यालाभस्तदा अर्थपौरुषी हापयि- एगगियादिदादारा, एत्तो उडू पवक्खामि ॥ ८४ ॥ स्वा तत्र वृन्देन गत्वा याच्यते। ..
एवम्-उक्नप्रकारेण साधूनामनुज्ञापनायां भणितायामेतत् अद्दिद्वे सामिम्मि उ, वसिउं आणेइ विइयदिवसम्मि । अनुशापनालक्षणं द्वारमिह परिसमाप्तम् , श्रत ऊर्दु तु एसक्खेत्तम्मि उ असते, प्राणयणं खेत्तबहियातो ॥७॥ काङ्गिकादीनि द्वाराणि प्रवक्ष्यामि । यदि स्वग्रामे न दृश्यते संस्तारको, दृश्यमानो वा न लभ्यते
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतितदा स्वक्षेत्राद् द्विगव्यूतप्रमाणे वा, तत्रापि न लभ्यते तदा अ. असंघातिमेव फलग, घेत्तव्यं तस्स असति संघाई। न्यप्रामे गत्वा याचनीयः। अथ न दृश्यते तत्र संस्तारक
दोमादि तस्स असती,गण्हेज अहाकडा कं(बी)ठी|८|| स्थामी तदा गृहे उषित्वा द्वितीयदिवसे संस्तारकमनुशाप्य गृहीत्वा समागच्छति । अथ स्वक्षेत्रे न लभ्यते तदा स्वक्षेत्रे
पूर्वमसंघातिममेव फलकं ग्रहीतव्यम् , तस्यासत्यभावे संस्तारकस्याभावे स्वक्षेत्रावहिष्ठादप्यानयनं संस्तारकस्य
संघातिमम् । किंविशिष्टमित्याह-द्वयादिफलकात्मकं-द्विद्वित्रिदिनमध्ये कर्त्तव्यम् ।
फलकात्मकम् , श्रादिशब्दात्-त्रिफलकात्मकं चतुः
फलकात्मकं वा गृह्णीयादिति योगः । तस्य फलकसंघासब्वेहि आगएहिं, दाउं गुरुणो उ सेसे जहवुड्डू।
तात्मकस्य संस्तारकस्याभावे यथाकृताः कराठी(म्बी)गृह्णीसंथारे घेत्तूणं, ओगासे होइऽणुन्नवणा ॥८॥ यात् , गृहीत्वा तन्मयः संस्तारका विधीयते । तत्र या नमसर्वैरपि संघाटकैः परपरतरग्रामेभ्यः समागतैः सं
न्तिकं व्यस्ताः सान्तराः क्रियन्ते, निरन्तराभिः प्राणजातेस्तारकपरिपूर्णतायां सत्यां त्रय उत्कृष्टाः संस्तारका गुरा
विराधनात् , एतच्च फलकेष्वपि द्रष्टव्यम् । र्दातव्याः, ततः शेषैर्यथावृद्ध-यथारत्नाधिकतया ग्रही
तथा चाहतव्याः । तान्संस्तारकान् गृहीत्वा तदनन्तरमवकाशे भवत्य
दोमादिसंतराणि उ, करे इमा तत्थ ऊऽनमंतेहिं । नुज्ञापना । एतावता ग्रहणमिति द्वारं समाप्तमनुशापनाद्वारंसमापतितमित्यावेदितम् ।
संघरिसेणऽप्लोमं, पाणादिविराहणा हुजा ॥८६॥ जो पुत्रमणुप्मवितो, पेसिजंतेण होति ओगाढो ।
द्वयादीनि फलकानि नमनशीलानि सान्तराणि करोति ।
किमर्थमित्याह-तत्र द्वयादिफलकात्मके; संस्तारकेऽनमद्भिः हेडिल्ले सुत्तम्मी,तस्सावसरो इहं पत्तो ॥८॥
फलकैरन्योन्यं संस्तारके प्राणादीनां विराधना भवेत्। प्राणा यः पर्वमधस्तने प्रथमे पिण्डसूत्रे प्रेष्यमाणेनावकाशोऽनु- द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः,श्रादिशब्दाद-जीवादिपरिग्रहः ।गतमकाज्ञापितस्तस्यावसर इह प्राप्तस्ततः स भएयते ।
निकद्वारम्।इदानीमकुचद्वारम् । कुच्-स्यन्दने । न कुचतीत्यनाऊण सुद्धभावं, थेरा वियरंति तं तु प्रोगासं।
कुचः, इगुपान्त्यलक्षणः कप्रत्ययः । यस्तथा बजः सन् न सेसाणि वि जो जस्स उ, पाउग्गो तस्स तं देंति ॥२॥ स्यन्दते सोऽकुचग्राह्यः । यस्तु कुचबन्धनः स परिहार्यः । तत्र प्रेष्यमाणस्यावकाशमनुशापयतः स्थविरा-प्राचार्याः
तथा चाह शुद्ध भावं ज्ञात्वा तमेवावकाशं वितरन्ति-अनुजानते, शेषा- कुयबंधणम्मि लहुगा, विराहणा होइ संजमायाए। णामपि योऽवकाशे यस्य साधोः प्रायोग्यस्ततस्तस्येदं सिदिलिजंतम्मि जहा, विराहणा होइ पाणाणं ।।८।। ददति।
पवडिञ्ज व दुब्बद्धे, विराहणा तत्थ होइ आयाए । अत्र विधिमाह
जम्हा एए दोसा, तम्हा उ कुयं न बंधेजा ।। ८८॥ खेलनिवातपवाते, कालगिलाणे य सेहपडियरए ।
कुचं-शिथिलं बन्धनं यस्य तस्मिन् कुचबन्धन संस्तारके समविसमे पडिपुच्छा, आसंखडिए अणुस्मवणा ॥३॥
गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तथा विराधना भवति यस्य खेलः-श्लेष्मा प्रस्यन्दते स गुरुन् अनुज्ञापयति-भग- संयम, आत्मनि च । यतस्तस्मिन् शैथिल्यमाने शिथिलबन्धबन् ! श्लेष्मा पतति ततोऽन्यदवकाशान्तरमनुजानीत नतया प्रस्यन्दमाने प्राणानां विराधना भवति । एपा संयमततस्तस्मादन्योऽवकाशो दातव्यः। तथा निवाते धर्मे निपी- विधना दुर्बद्धे स तस्मात् प्रपंतत् , तत्र भवत्यात्मविराधना । ज्यमानो यदि प्रवातमनुज्ञापयति तर्हि तस्य प्रवातो दात- यस्मादते दोषाः तस्मात् यथा कुचं-शिथिलं भवेत् , तथा व्यः।प्रवातेन पीड्यमानस्य निवातः कालग्रहीति द्वारमूलम- न बध्नीयार्तिक तु गाढवन्धनवद्धं कुर्यात् । नुज्ञापयति । स तत्र स्थाप्यते ग्लानस्य समीपे शैक्षस्य प्रति
तद्दिवसं पडिलेहा, ईसी उक्खेत्तु हेतु उवरिं च । चारकः शिक्षाद्वयं ग्राहयित्वा शैक्षकस्य समीपे समविषमायां भूमौ यस्य पार्वाणि दुःखयति सोऽध्यास्यायां भूमौ
रयहरणेणं भंडं, अंके भूमीऍ वा काउं ।। ८६ ॥ स्थाप्यते,योऽयं पुनः पुनः प्रतिपृच्छति स तस्य पार्श्वे प्रासं.
तद्दिवसं-प्रतिदिवसं दिने दिने इत्यर्थः । भाण्ड संस्तारखडिकः सूत्रधारकस्य पार्श्वे, एवमनुज्ञापना साधूनां भवति ।
कादिलक्षणमीपत् उत्क्षिप्य अङ्क-उत्सङ्गे भूमौ वा कृत्या प्राचार्येण च शुद्धभावमवगम्य तथैवानुशायते ।
अध उपरि च रजोहरणेन तस्य प्रत्युपेक्षा कर्त्तव्या । अथ उपसंहारमाह
एवं तु दोस्मि वारा, पडिलेहा तस्स होइ कायव्वा । एवमणुमवणाए, एयं दारं इहं परिसमत्तं ।
सव्वे बंधे मुत्तुं, पडिलेहा तस्स कायया ॥६॥
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संचार एवम्-उक्नेन प्रकारेण द्वौ वारी प्रातरपराढे च तस्य संस्ता- | तेर्सि पि जया गहणं,तं पि हु एमेव संबंधो ॥६८०॥ रकस्य प्रत्युपेक्षा भवति कर्तव्या । पक्षस्य पक्षस्यान्ते पुनः
अथ रत्नाधिकक्रमेणोपधिं गृहीत्वा ततस्ते स्वस्वसंस्तारकसर्वान् बन्धान मुक्त्वा-छोटयित्वा प्रत्युपेक्षा भवति कर्त
भूमिषु स्थापयन्तिातेषामपि च संस्तारकाणां यदा प्रहणं तदा ग्या । गतमकुषद्वारम् ।
तदप्येवमेव यथारत्नाधिकं कर्तव्यमेष पूर्वसूत्रेण संबन्धः,अअधुना प्रायोग्यद्वारमाइ
नेन संबन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य-२०) व्याख्या-कल्पते निउग्गममादी सुद्धो, गहणादी जाव वमितो एसो। ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा यथारत्नाधिकं शय्यासंस्तारका
न् प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। एसो खलु पायोग्गा, हेट्ठिमसुत्ते व जो भणितो॥ ०१॥
अथेदमेव सूत्रं विवरीषुराहय उद्गमादिदोषशुद्ध-उद्गमोत्पादनादिदोषविशुद्धो यो पा
सेजासंथारो वा, सेजा वसही उ ठाणसंथारो । एषोऽनन्तरमुपवर्णितो ग्रहणादौ ग्रहणेऽनुशापनायां बद्ध एकालिकोऽकुचश्च । यदि वा-यो भणितोऽधस्तन
पुष्वएहम्मि उगहणं,अगिएहणं लहुग आणादी ।६८१॥ सूत्रे-ऋतुबद्धप्रत्येकसूत्रे द्वात्रिंशद्भलेषु मध्ये प्रथमभक
संस्तारो नाम शय्या-वसतिस्तस्यां यत् स्थानं शयनयोवर्ती एष खलु प्रायोग्यो वेदितव्यः ।
ग्यावकाशलक्षणं स शय्यासंस्तारक उच्यते । तस्य च शय्या
संस्तारकस्य उपाश्रयं प्राप्तैः पूर्वाह्नवेलायामेव ग्रहणं कर्त्तकजम्मि समत्तम्मि, अप्पयव्यो अणप्पिणे लहुगा।
व्यम् , अग्रहणे मासलघु प्रायश्चित्तमाशादयश्च दोषाः। प्राणादीया दोसा, बिइयं उठाणहियदड्ढो ॥१२॥ चोयगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं । कार्य समाप्ते सति नियमात् संस्तारकोऽर्पयितव्यः ।। संयम शायविराहणा,वियायगहणे य जे दोसा ॥६८२॥ अनपणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः , आशादयश्च अत्र नोदकः पृच्छां करोति-यदि पूर्वाह्न एव ग्राम प्राप्तास्त. दोषाः । अपापि द्वितीयपदमपवादपदम् । यदि रोगस्यो- तस्तदैव शय्यासंस्तारकमपि गृह्णन्तु, वयमप्येतत्प्रतिपद्यामहे स्थानं प्रवर्तेत, स्तेनैर्वाऽपहृतोऽग्निना वा कथमपि दग्धस्त
ततो बहिरेव समुद्दिश्य चरमपौरुषीप्रत्युपेक्षणं कृत्वा स्वाध्या दा नार्पणमिति । तदेवं भावितं वर्षावाससूत्रम् ।
यं च विधाय कालवेलायां ग्राम प्रविशन्तु । सूरिराह-'दोस' संप्रति वृद्धावाससूत्रभावनार्थमाह
त्ति-बहि आनानां बहवो दोषाः । कथमित्याह-मण्डलीबुडावासे चेवं, गहणादिपदा उ होंति नायव्वा । ।
बन्धे चिलिमिलिकां दत्त्वा मण्डलीरचनया भोजले वि
धीयमानो कुतूहलेन सागारिकाणामागमनं भवति, तैः सनाणत्तखेत्तकाले, अप्पडिहारी य सो नियमा॥१३॥
हासंखडे क्रियमाणे संयमात्मविराधना । अकाले वसतेग्रहणे वृद्धावासेऽप्येवं-पूर्वोक्नेन प्रकारेण ग्रहणादीनि पदानि ये दोषा भवन्ति, तनिष्पन्न प्रायश्चित्तं भवतीति द्वारगाथाससातव्यानि भवन्ति । किमुक्तं भवति । यथा प्राक वर्षा- मासार्थः। घासे ग्रहणानुशापनकाङ्गिकाकुचप्रायोग्यलक्षणानि पश्च
सांप्रतमेनामेय विवरीषुराह- . द्वाराण्यभिहितानि, तथा-वृद्धावासेऽप्यनुगन्तव्यानि । तु
अइभारेण व इरियं, न सोहए कंटगाइ आयाए । शब्दो विशेषसे । स चैतद्विशिनष्टि-वृद्धावासे ऋतुबद्धेऽप्येष
भत्तद्विय वोसरिया, अतितुं एवं जढा दोसा ॥६८३॥ एव विधिरिति, नवरमत्र नानात्वं क्षेत्रे काले च तथा नियमादप्रतिहारी स वृद्धावासयोग्यः संस्तारको ग्रही
परः प्राह-भक्तवेलायां प्राप्तस्तावत्प्रथमतो भक्तं प्रहीततष्यः ।
व्यमन्यथा वेलातिक्रमे भक्तपानलाभो न भवेत् , ततो भसंप्रत्येतदेव सुस्पष्टं विभावयिषुराह
नपानं गृहीत्वा वसतिं गवेषयित्वा यदि तदानीमेव तत्र
प्रवेशः क्रियते तदा भक्तपानोपकरणसत्के योऽतिभारस्तेन काले जा पंचाई, परेण वा खेत्तं जाव वत्तीसा। वाशब्दस्योक्नसमुच्चयार्थतया बुभुक्षातृष्णापरितापनया चोअप्पडिहारी असती, मंगलमादीसु पुव्वुत्ता ॥ १४ ॥ पयोगमप्रयच्छन्तः संयमेर्या न शोधयेयुः। श्रात्मनि कण्टकाइह वर्षावासे सस्तारकस्यानयने कालत उत्कर्षण त्री
दिकं न पश्येयुः।एवं च यथाक्रम संयमात्मविराधना।ततो भ
क्लार्थितव्युत्सृष्टाः-पूर्व भक्कार्थिता बहिरेव समुद्दिष्टास्ततो व्युणि दिनान्युक्तानि, अत्र तु वृद्धावासे काले-कालमधिकृस्य यावत्पश्चा-पञ्च दिनानि, ततः परेण वा श्रानयनं
सृष्टाः कृतपुरीषप्रस्रवणोत्सर्गाः सन्तो प्राममतियन्तु प्रविशद्रष्टव्यम् । क्षेत्रतो यावत् द्वात्रिंशत् योजनानि । तथा अप्र
न्तु । एवं हि दोषाः संयमात्मविराधनालक्षणाः परित्यक्ता तिहारिणोऽसत्यभावे संस्तारकस्य यानि मङ्गलादीनि
भवन्ति । पूर्वमुक्तानि तानि प्रयोक्तव्यानि । व्य०८ उ०।
अथाऽऽचार्यः प्रत्युत्तरयतिरत्नाधिकाशया रत्नाधिकार्थाय शय्यासंस्तारग्रहणम्
आयरियवयणदोसा, दुविहा नियमा उ संजमायाए । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए
वच्चह को वा सामी, असंखडं मंडलीए वा ॥६८४॥
आचार्यस्य वचनमिदम्-त्वदुक्कनीत्या बहिर्भुआनानां नियसेञ्जासंथारए पडिगाहित्तए ॥ २० ॥
माद् द्विविधाः संयमात्मविराधनादोषा भवन्ति। तथा हि-तै. अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह
स्तद् भक्तपानमानीतं,सागारिकाश्च कुतूहलवशाद् तद्दर्शनार्थजइ तु जहक्कमेणं, उवहीसंथारएसु उवयंति ।
मागतास्ततो यदि तावन्तं कालं भक्तपानं धारयन्तस्ति
मालाया।
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संधार
शन्ति तदा भारेण महती परितापना भवेत् सुषार्थयोश्च परिहानिरुपजायेत । अथ सागारिकान् ब्रुवते -- जत यूयं ततोऽधिकरणं भवति । श्रथवा - सागारिका एयमुच्यमाना वीरम् कोऽस्य वृक्षस्य देवकुलस्य या स्वामी यो वाऽस्माकं संमुखं जतीति पचमखडे सेः सह संजाते तच भाजनभेदादयो दोषाः । प्रथमडल्यां रचितायां सागारिका: समागच्छन्ति ततो महातमुद्दा कुर्युः ।
अमुमेवार्थ सविशेषमाह
भत्तट्ठियाँ सज्झाए, पडिलहण रतिगेरहणे जं व । पुथ्वग्रहम्मतु महणं परिहरिया ते भवे दोसा ।। ६८५॥ भक्तार्थिना मण्डल्यां भोजनं स्वाध्यायं प्रत्युपेक्षता वा क्रियमाणां विलोक्येति उड्डादं उडुं वक्रं वा ब्रुवीरन्, त प्रापि तथैवाडिदोषः । अथ ते सागारिकाः प्रद्विप्राः सन्तो यसति न प्रयच्छन्ति ततोऽपरं ग्रामं गच्छेयुः । त अव विकाने प्राप्ताः सन्तो रात्री बसवितोयझोपजालमापद्यन्ते तनिष्पन्नं प्रायश्वितम् अतः पूर्याए यसते कर्त्तव्यम् तता ते पूर्वोक्ता दोषाः परिहता भवन्ति ।
( १७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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किंचकोतूहल आगमणं, संखोहे अकंटगमणादी
ते चैव संखडादी, वसहिं व न देंति जं चनं ॥ ६८६ मण्डल्यां सागारिकाः कुलेनागमनं कुर्युः तत्र करयापि संपतस्य संक्षोभ भक्तपानस्य कण्टगमादिकमोतोगमनप्रभृतिकं भवेत् । अथया को उप्यसहिष्णुयात् किमेर्म प्रति कथयत, तत एवासंखडादयो दोषाः । अथ सागारिकमिति कृत्वा अभुक्ता एव भक्तपानव्यग्रहस्ता प्रामं प्रषिशन्ति तत्र च प्रैः सममसंखडं कृतं तत्र ते वसति न प्रय*छेयुः, अन्यानपि च ददतो निवारयेयुः । एवं च तत्र मिबसतावप्राप्यमाणायां यदन्यदोषजातमासज्जते तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् ।
श्रथ वसत्यभावादकृतभोजना एवान्यं ग्रामं गच्छेयुस्तत हमे दोषा:
भारेण वेयणाय, अनपेहा खाणुमाइए दोसे । इरिवाइस जमम्मी, परिगलमागे छकाया ।। ६८७ ॥ भक्तपानस्योपकरणस्य च संबन्धिनां भारेण वेदना भवेत्, तथा च स्थाणुकण्टकादीन् दोषानमपेक्षतश्चात्मविराधना यत्पुनरीयया प्रशोधन सा संयमविराधना परिगलति भरुपाने पकायविराधना
तत्र प्राप्तान् दोषानभिधित्सुराहपविणमग्गठाणे, बेसित्धिदुगुछिए व सुखे य । सज्झाए संधारे, उच्चारे चेव पासवये ।। ६८८ ॥ अन्यस्मिन् प्रामे विकालवेलायां प्रवेश कृते वसतेर्मार्गणे परस्परस्फिटितानामाकारम महानधिकरणदोषो भवति के श्यामी (चा) पाटके अकारादिस्थाने या जुगुप्सितां वक्ष्यमाणं दोषजातम् । शून्यगृहादौ वा प्रत्युपेक्षितायां संस्ता
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संधार
रकमुश्चारं प्रत्रयणं कुर्वतां च बहवो दोषा भवन्तीति द्वारगाथासमासार्थः ।
अथैनामेव विवृणोति -
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साव दुविहा, विराहणा जा य उबहिणा उ विणा । गुम्मियगबाहराणा, गोगादी चमया रचि ॥६८॥ विकाश (स्वा) पद्मयं भवति तेनाधि शरीरापहारिणः, उपकरणापहारिध। ते तदानीमन्ति उपधानपहले या तेन विना यप्रासेवनादिका संयमविराधना तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । अथवा-स प्रत्य प्रदेश ग्रामस्ततस्तत्र बद्धस्थानकगमका आरक्षि पुरुषाः स्तेनादीनमिलीयमानान् रक्षन्ति ततो विकाल वेलायां प्राप्तानां स्तेना श्रमी इति बुद्धया ग्रहणाहननादि - कं कुर्युः । श्रथवा विकाले प्रविशन्तो गवादिभिः पादप्रदारादिकां चमदनामासादयन्ति । पते रात्री प्राप्तानां दोषाः । किच
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फिडिताऽन्नान्नोऽऽगारण, वेणा रतिं दिया व पंथम्म । मसाणाइयेसकुच्छिय तदोवणं सगा जं च ।। ६६० ॥ विकाले वसतिगवेषणार्थ पृथकू २ गतास्ततः स्फिटि ताः -- परस्परपरिभ्रष्टाः सन्तोऽन्योन्यमाकारणं-- व्याहरणं कुर्युः स्वातच त्या रात्री मुषितुमभिलषेयुः दिया या द्वितीये दिवसे पथि मार्गे गच्छतः स्तेनका मुषेयुः । नादयो या रात्री वसतिगवेषणार्थे पर्यटन्तस्तान् उपबेयुः।' बेसकुच्यिति राम्री च वसतिमन्वेषयन्तः किमेतद् गृदं येश्यापाटकस्य प्रत्यासन्ननुतनेति । यद्वा-कि
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चर्मकारकादिजुगुप्सितकुला सन्नमा होश्विन्नेति । एवं जनास्ते वेश्यापाटकास प्रतिथये वसेयः। तता सोको ब्रूयात् श्रहो तपोवनमध्यासते जितेन्द्रिया अभी महर्षय इति । अथ जुगुप्सितस्थानासन्ने स्थितास्ततो लोका ब्रुवीरन् स्वस्थानं मूषिकाः समागता एतेऽप्येवं जानीया इति भावः 'जं
शिप रात्री अन्योन्यालपने अकायानयनादिकमपि करणं तनिष्पर्ण प्रायश्वितम् तथा तथोपा रात्र - ताः सन्तः काले भूमिर्न प्रत्युपेक्षितेति कृत्वा यदि स्वाध्यायं न कुर्वन्ति ततस्त्रार्थनाशादयो दोषाः अथ कुर्वन्ति ततः सामाचारीविराधमा ।
अथ संस्तारकद्वारं व्याख्यातिअप्पडिले हियकंटा, विलं व संधारगम्मि आयाए । छकायाण विराहण, विलीय सहमहाभावो ॥ ६६१ ॥ अमत्युपेक्षितायां बसती कटका भवेयुदितं सर्पादिबन्धि ततः संस्तार के प्रस्तीर्षमा आत्मनि विना भावतः पथिभ्याइयो दोषाः, पदकायास्तत्र भवेयुः तेषां - स्तारकेनाकम्यमाणानां विराधना भवति पिली वा-जुगु प्सितं वा विक्यादिकं तत्र भवेत् ततः शस्य - गुप्सया अन्यथाभावो - निष्क्रमणाभिप्रायो भवेत् । अथोच्चारप्रवणद्वारद्वयं युगपदाहखागकंटगवाला, विलम्मि जइ वोसिरिज आयाए । संजम छकाया, गमणे पत्ते अहंते य ॥ ६६२ ॥
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मंधार
(१७८) संथार
अभिधानराजेन्द्र।। अप्रत्युपेक्षिते प्रतिश्रये स्थाणुकण्टकव्याला भवेयुस्तदा- भयं ततस्तत्र गत्वा समुद्दिशन्ति । अथारण्यं सभयं यमनिकुले-विलसमाकुले वा प्रदेशे यदि व्युन्सृजति तेन आत्म- समीपे एवं यः प्रच्छन्नप्रदेशस्तत्र समुद्देशनं कर्तव्यम । विराधना । अथ पृथिव्यादिषट्कायवति भूभागे व्युत्सृजति अथ प्रच्छन्नस्थानं नास्ति ततस्तत्रैव शून्यगृहादी कमटकेषु ततः संयमविराधना । एते द्वे अपि विराधने 'गमणे' त्ति शुक्ललेपन सबाह्याभ्यन्तरं लिप्तेषु कांस्यकादकाकाग्पु समुसंज्ञाकायिकीव्युत्सर्जनार्थ वा गच्छतः । 'पत्ते' ति संज्ञा- विशन्ति । कुरुचावसमुद्देशनानन्तरं पादप्रक्षालनादिका - भुवं-कायिकीभुवं वा प्राप्तस्य 'अइंते य' त्ति संज्ञां कायि- हुना द्रवेण कर्त्तव्याः। समुद्दिशन्तश्च सान्तराः-सावकाशाः की वा व्युत्सृज्य भूयोऽपि वसतिं प्रविशतो यथासंभवं वृहदन्तराला उपविशन्ति । एवं कृत्वा बहिरेव संशादि व्यमन्तव्ये ।
त्सृज्य ततो ग्राम प्रविशन्ति, प्रविष्टाश्च या पूर्व भिक्षां हिअथ विराधनाभयान्न व्युत्सृजति तत इमे दोषाः
एडमानैर्वसतिः प्रत्युपेक्षिता तस्यां वसन्ति । मुत्तनिरोहे चक्खं, बच्चनिरोघण जीवियं जहइ ।
कथमित्याह--
कोदृग सभा व पुव्वं, कालवियारादि भूमिपडिलेहा। उड्डनिरोहे कोर्ट, गेलन्नं वा भवे तिसु वि ॥ ६६३॥
पच्छा अतिति रत्तिं, अहवण पत्ता निसिं चेव ॥६६८।। मूत्रनिरोधे विधीयमाने चक्षुरुपहन्यते । वर्चः--पुरीष तस्य निरोधेन जीवितं परित्यजति । अचिरादेव मरण- कोटक--श्रावासविशेषः, सभा प्रतीता, एवमादिकं यत्पूर्व भवतीत्यर्थः । ऊर्ध्व-वमनं तस्य निरोधे कुष्ठ भवति । ग्लानं भिक्षां पर्यटद्भिः प्रत्युपक्षितं तत्र कालग्रहणयोग्यां भूमि या सामान्यतो मान्द्य त्रिष्वपि सूत्रपुरीषवमनेषु निरुध्यमा- विचारस्य च--संज्ञायाः, श्रादिशब्दात् कायिक्याश्च भूमि नेषु भवेत्।
सूर्ये ध्रियमाण एव प्रत्युपक्षन्ते । ततः पश्चात्सर्वेऽपि वसयत एते दोषाः अतः
तो रात्री प्रदोषसमरे अतियन्ति' अहवण'त्ति अथवा न ।
साधवो निशायामेव प्राप्ता भवेयुः। पढमविइयाएँ तम्हा, गमणं पडिलेहणाएँ वेसो य । पुवठिया जइ गच्छं, ठवेतु बाहिं इमे तिन्नि ॥ ६६४॥
ततः को विधिरित्याहतस्मात्प्रथमद्वितीयस्यां वा पौरुष्यां विवक्षितग्रामे ग
गोम्मियभेसणसमणा,निब्भयवहिठाण वसहिपडिलेहा। मनं कृत्वा ततो घसतेः प्रत्युपेक्षणा प्रवेशश्च तस्यां कर्त्त- सुन्नघरपुवमणिए, कंचुग तह दारुदंडेणं ॥ ६६६ ।।. व्यः । कथमित्याह-यदि तत्र केऽपि साधवः पूर्वस्थिताः स
गुल्मेन-समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः-स्थानरक्षपालास्त न्ति तदा सर्वेऽपि प्रविशन्ति । अथ न सन्ति पूर्वस्थितास्त
यदि भीषण-वित्रासनं कुर्वन्ति ततो वक्तव्यं श्रमणा वयं न स्न. तो गच्छं क्वचित् वृक्षादरधो बहिः स्थापयित्वा इमे ईदृशा
नाः यदि रात्री वासा निर्भयो भवति तदा'ठाण'त्ति । वहिग्व स्त्रयः साधवो ग्रामं प्रविशन्ति ।
गच्छ्रस्तावदवस्थानं करोति , वृषभास्तु वसतिप्रत्युपक्षणार्थ परिणयवषगीयत्था, हयसंका पुंछचिलिमिलीदारे। ग्रामं प्रविशन्ति तत्र च शून्यगृहं पूर्वभणितन विधिना प्रत्युतिनि दुवे एको वा, वसहीपेहट्ठया पविसे ॥ ६६५ ॥ पेक्ष्य सर्पादिपतनभयात् गोपालकं परिधाय दामदगंडन प्रोगीतार्था परिणतवयसः अत एव हृतशङ्का-अशङ्कनी
छनकेन वसतिमुपरिशस्फोटयन्ति ततो गच्छः प्रविशति । याः ते गुरुमापृच्छय दण्डनोञ्छनकं चिलिमिलीदवरकांश्च
अथ संस्तारकग्रहणविधिमाह-- गृहीत्वा त्रयो जनास्तदभावे द्वौ जनौ तदप्राप्तावेको वा
संथारगभूमितिगं, आयरिए सेसगाण एकेकं । वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ ग्रामं प्रविशति । ततो वसतिं गृही
रुंदाऍ पुप्फकिन्ना, मंडलिया पावली इतरे ॥७००।। स्वा प्रमृज्य च चिलिमिलिकां च दत्त्वा सबालवृद्धमपि गच्छं तत्र प्रवेशयति ।
'पायरिए ' नि षष्ठीमप्तम्यार) प्रत्यभदादाचार्यस्य योग्य अथ बिकालवेलायां न प्रवेष्टव्यमिति यदुक्तं तदपबदनाह- संस्तारभूमित्रयं प्रथमता निरूपणीयम् । तत्रका निवाता सं. विइयं ताहे पत्ता, एए व ततो उवस्सयं न लभे। स्तारकभूमिरपरा प्रकाता, अनिवातप्रवाता च शपागां सासुन्नघरदेउले वा, उजाणे वा अपरिभोगे ।। ६६६ ।।
धूनां योग्यामकैकां संस्तारभूमिमन्वेषयेत् । इह वसतिरित्र
धा-विस्तीरा , क्षुल्लिका, प्रमाणयुक्ता च । तत्र रुन्दा नाम द्वितीयपदमत्राभिधीयते-तदानी विकालबेलायामय प्राप्ताः,
विस्तीर्णाः घङ्घशालादिरित्यर्थः । तस्यां पुष्पायकीराणाः पुसयद्वा-प्रगे-प्रभाते प्राप्ताः परमुपाश्रयं न लभन्त तता विकाले
करबदवकीय अनियतकमा अयथार्थाः स्वपन्ति, येन सा. प्रविंशयुः प्रभातमाताश्च दिवा शून्यगृहे देवकुले या उद्याने
गारिकारणामवकाशो न भवति । अथ नलिका तता मध्ये या अपरिभोग्य-जनोपभोगरहिते तिष्ठन्ति तत्रैव च समुद्दे
पात्रकाणि कृत्वा मरालिकाकारेण पाश्वतः शरत । इतरा शनं कुर्वन्ति ।
नाम प्रमाणयुक्ता तस्यामावल्या पङ्क्त्या स्वपन्ति । आवाय चिलिमिणीए, रन्ने वा निब्भये समुदिसणं ।
अत्रैव विधिविपर्यास प्रायश्चित्तमाहसभये पच्छमासइ, कमढगकुरुयावसंतरिया ॥ ६६७ ।। अथ शून्यगृहादी सागरिकाणामपि यतो भवति ततः
सीसं इतो य पादा, इहं च मे वंधिया इहं मज्झ । चिलिमिलिकां दत्त्वा समुद्देष्टव्यम् । अरएवं या यदि नि- जइ अगहियसंथारो,भणेइ लहुगो हिकरणादी ॥७०१॥
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संधार
इतो मे शीर्षमितः पादौ भविष्यतः । इह च मे वादका भाजनानि वा स्थाप्यन्ते, एवं यद्यगृहीतसंस्तारक श्रारमीषयाच्या भराति, विष्टिकादिकं च स्थापयति तदा सघुमासः प्रायश्चित्तम् अधिकरणादया दोषा भवन्ति । अ धिकरणं नाम द्वितीयोऽपि साधुरेवमेव ब्रूयात् ममाप्यत्रैव शीर्षादि भविष्यतीति । ततश्चास्थिभङ्गादयो दोषाः ।
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(१७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
यत एवमतः
संथारग्गहणीए, वेंटियउक्खेवणं तु कायव्वं । संधारी घेतब्बो, मायामयविष्यमुकेणं ॥ ७०२ ॥ 'संथारग्गहणीप' त्ति अर्षत्वात् स्त्रीत्वं, संस्तारक ग्रहणकाले मिस्टिकाया उत्क्षेपणं कर्त्तव्यम् येन सुखरायां भुवि संस्तारका विभकं शक्यन्ते स च संस्तारको यो यस्मै साधवे दीयते स तेन मायामदविप्रमुक्तेन ग्रहीतव्यः । माया नाम सतीयों ममात्रैयाका प्रयच्छत इत्यादि सुन्दर तरावकाशलोभेनासङ्गतकारणनिवेदनलक्षणा, मदोऽहंकारः, अहो अहममुष्मादपि गरीयान् येन मे शोभना संस्तारकभूमिः प्रदत्तेति
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अथ किमर्थं संस्तारक ग्रहणकाले विरिटका उत्क्षिप्यन्ते ? । उच्यतेसमविसमा न पास, दुक्खं व टियम्मि ठायई अन्नो । व संखडादी, विणयो अममत्तया चेव ॥७०३ ॥ विटिका यदि नोत्क्षिप्यन्ते, तदा गणावच्छेदिकादिसंस्तारकान् विभजमानः समविषमाणि स्थानानि न पश्यति अवकाशानित्यर्थः । तथा एकस्मिन्साथी विष्टिकासहित पू ये स्थिते सति अन्यो न तिष्ठतिखातुं न शक्नोतीति भावः । अपि च-विष्टिका सूरिक्षप्तासु असंखडादयो दोषा मै भयन्ति । यधारनाधिकं च संस्तारकग्रहणे विनयः कृतो भवति । श्रममता च ममत्वं संस्तारकभूमिविषयं परिहतं भवति । अतः साधुभिः स्वस्पोपकरणे प्रत्युपेक्षिते, उपाश्रये च प्रमार्जिते सूरिभिर्वक्रव्यम्श्रार्या ! उत्क्षिपत स्वा वेण्टिकाः, एवमुक्ते यो नोक्षिपति तस्य मासलघु । अथ बेरिटका समुत्क्षिप्यमाणासु कश्चिदिमां मायां कुर्यात् ।
संथारग्गहणीए, कंटगवीयारपासवणधम्मे | पयलायणमासगुरु, सेसेसु वि मासियं लहुगं ॥ ७०४ ॥ संस्तारक ग्रहणकाले समसुन्दरभूमिलाभेन कटकोदरमह संप्रति करिष्यामि विचारं वा संपा बहिर्गमिष्यामि, या शब्यातरादेरने कथयिष्यामि इत्यादि ब्रूयात् । प्रवलायनं स्वपनमिदानीं विदध्यात्। एवं शेषेषु कण्टकादिषु मायाभेदेषु मासलघुकम् । अथ कण्टकादिपदानि विवृणोति -
दुक्खं ठियोग निअर, नियाणुधारण पेल्लिउं सका | जो विवहि, तं पिय नेहामि इति मंता ।।७०५ ॥ संधारभूमिलुडो, भणे चंदे अंत ! गिरितो । संचारगभूमीओ, कंटकमहमुद्धरामे ||७०६ ||
संधार
कोऽपि समन्दरे अवकाश संस्तारकं कर्तुकामस्तत्र था परः कोऽपि साधुः स्थितः - उपविष्टशे वर्त्तते, स च दुःखं दुःयेन नीयते अन्यत्र स्थाप्यते नानुपायेन कटोरादिव्याजमन्तरेण प्रेरयितुं शक्यः योऽपि इति मदीय कराकमपनेष्यति तमप्यई शास्वामीति मत्या संस्तारक भूमि लुब्धो भगति - भदन्त ! इह संस्तारकभूमी छन्देन स्वाभिप्रायेण गृहीत श्रहं पुनरत्र कण्टकमेनमुद्धरामीति, एवं मायाकरणे मासलघु प्रायश्चितम् ।
अथ सद्भावादेव कण्टको लग्नस्तत्र किमित्यत आहलग्गे वहियासम्मि, कंटए उक्खिये विभे । मकिञ्चगमवणेत्ता, कमाये गए मर्म पि ॥७०७|| वा इति अथवा सद्भावेनैव तस्य कण्टको लग्नः, स चानधिस दुमशक्यः । ततो बेटिकामन्येनार क्षेपयेत् उत्क्षिप्य च भूयात् मदीपकण्टकमपनीय क्रमागतं ममापि योग्यं सेस्तारकं गृह्णीत । एष शुद्धः ।
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अथ विचारादीनतिदिशग्राह
एमेव व बीयारे, उज, अगुज्जू तदेव पासवसे । धम्महालक्खेण व आवज मासियं मायी ||७०८ || एवमेव विचारविषयेऽपि ऋजुरनृजुश्च वक्तव्यः, मायी श्र मायी चेत्यर्थः । तथैव प्रस्रवणद्वारेऽपि विभाषा कर्तव्या । धर्मकथाया वा लक्ष्याजेन कश्चित् क्रमागतस्तारकं व्यत्यासं करोति सोऽपि मायी मायावानिति कृत्वा मासिकं लघुक्रमापद्यते । श्रथ सद्भावतो धर्मकथां करोति ततः शुद्ध
एव ।
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अपि च तदानीं सद्भावतो धर्मकथायां विधीयमानायाममी गुणाःदुविबुद्धिमल सड्डा सजायरेयराणं च । तित्थवियडिपभावण, असारियं चेत्र कहते ।। ७०६ || श्रोतॄणां दुर्विदग्धा - विपरीतशास्त्रपल्लवग्राहिणी बुद्धिस्तस्या मलनं मर्दनं कृतं भवति । शय्यातरस्य इतरेषां च भाना पता भवति धर्मश्रवणानन्तरं च पु
ज्यां प्रतिपद्यमानेषु तीर्थस्य विवृद्धिः कृता भवति। - भावना व प्रवचनस्य जायते । अहो विजयते जैनेन्द्रशासनं, यंत्रेदृशी धर्मकथा लब्धिसंपन्ना इति । येऽपि च सागारिका बहिधमंश्रवणव्याक्षिप्ताः सन्तः--प्रतिश्रयमध्ये न प्रविशेयुः, ततश्च साधूनामुपकरणं प्रत्यु - पेश्यमाणानामखागारिकं भवति एवंमंत गुणा धर्मे क थयति भवन्ति ।
अथ प्रचलायनद्वारं भावयति
मा पयल गिरह संथा - रंगं ति पयलाइए वि जड़ बुत्तो । को नाम न निगियहइ, खणमेचं तेरा गुरुच्चो सो १७१०॥ गावच्छेदिकादिना कश्चित्सलायमानां भणितः मा प्रचलायस्व गृहाण संस्तारकमित्युक्तोऽपि यद्यसौ प्रचलायते ततो ज्ञातव्यं शठ एषः । कुत इत्याह-को नाम महानिद्रालुरपि क्षणमात्रं यावता संस्तारको गृह्यते तावन्मात्रकाले निद्रां निगृह्णाति स तु तावन्तमपि कालं निद्रानिरोधमकुर्वाणः परिस्फुटं मायाषी मन्तव्यः प्रत
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(१००) अभिधानराजेन्द्रः |
संधार
एव' से ' तस्य तीव्रतरमायाविनो मासगुरु प्रायश्चित्तम्। अथ संस्तारकग्रहणे विधिमाह
वित्थिन्नकुट्टिमतले, डहराए विसमए य घेप्पते । होइ अहाराइणियं राखियाते इमे होंति ।। ७११ ॥ विस्तीर्णायां वा डहरायां वा संपूर्णयां बसतौ कुट्टिमतले विषमे वा भूभागे पधारनाधिक संस्तारको गृह्यते । ते च रत्नाधिका इमे भवन्ति ।
उवसंपज गिलाणे, परित्तखमए अवाउडियथेरे । तेरा परं वित्थसे, परियाए मोति मे तिमि ॥ ७१२ || प्रथमतो गुरूणां संस्तारकत्रयं दत्त्वा ततो यो ज्ञानाद्यर्थमुपसंपदं प्रतिपन्नस्तस्य संस्तारको दातव्यः, ततो ग्लानस्य, ततः परीत्तोपधेः, ततः क्षपकस्य, ततः अपावृतकस्य श्रपावृतेन मया सकलाऽपि रजनी गमनीयेत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहस्य, तदनन्तरं स्थविरस्य - श्रुतेन वयसा वा वृद्धस्य ततः परं विस्ती प्रति पर्यायेण रत्नाधिककमेरा संस्तारको ग्रहीतव्यः परं मुक्त्वा श्रमन् त्रीन् क्षुल्लकशैक्षवैयावृत्यकरान् वक्ष्यमाणगाथायामभिधास्यमानान् । श्राह उपसंपन्नग्लानादीनां क्रियतां प्रथमं संस्तारकप्रदानेनानुग्रहः, यस्तु तपस्वी विपुलां निर्जरामभिलषन् स्वयमेवापावृतेन मया स्थातव्यमित्येवमभिगृह्णाति तस्य किमर्थ स्थविरादिभ्यः प्रथमं संस्तारको दीयते ।
कार्म सफामकिचा, अभिम्गहो नो बलाभियोगे । तगुसाहारसहे, तहवि निवाए व ठावेंति ।। ७१३ ।। काममनुमतमिदं स्वकामेन - खकीयया एव इच्छया कृत्यः कर्त्तव्योऽभिश्रो न तु क्लाभियोगेन परं तथापि न तु साधारखंडेतोः शरीरस्य शीतोपद्रयसंरक्षण निमित्तं निषा प्रदेश तं स्थापयन्ति ।
कुत इति चेदित्याह - अन्नोकारेण विनिज्जरा जा, न सा भवे तस्स विवञ्जए । जहा तपस्सी धुणुते तवेर्ण,
कम्मं तहा जाय तयोऽनुमंता ।। ७१४ ॥ अन्योन्यकारो नाम -- परस्परं वैयावश्यकरणं तेन या निर्जरा विशिष्टकर्मक्षयरूपा सा तस्य अन्योन्यकारस्य विपर्ययेण - व्यतिरेकेण न भवति । यथा किल तपस्वी तपसा कर्म- ज्ञानावरणादि धुनोति, तथा यस्तस्य साहाय्यकरणेन तदीयतपसोऽनुमन्ता तमपि तथैव कर्मक्षयकारिणं जानीहि
तो मानाभिप्रदिकस्यानुपदविधानम् । अथ यदुक्रममून श्री मुक्त्वेति तस्य व्याख्यानार्थमाहवीहंत एक खुट्टे वैयावकरे सेहो (जस्त) पासम्म । विसमऽप्यतिभि गुरु इतर महियम्मि गेर्हति । ७१५।
कस्वभावादेव विभ्यन् भवति ततो यहि थाप्यमानः कूजितरुदितादि कुर्यात् अतो यस्तं परिवर्तयति तस्य समीपस्थाप्य वृत्कग्लानस्य प्रतिवर कः स ग्लानपार्श्वे क्रियते । शैक्षो यस्य पार्श्वे भिक्षां गृह्णा
संधार
ति तस्थान्तिके स्थापनीयः । तथा विषमे वा अल्पे वा संकीर्णे प्रतिश्रये श्रीन् संस्तारकान् गुरूणां दत्त्वा तत इतरे उपसंपन्नादयो गुरुभिगृहीते सति संस्तारकत्र्य यश्रीलक्रमेण गृहन्ति] एप संग्रहाथासमासार्थः ।
अथास्या एव पूर्वार्द्ध विभावयिपुराह
वीज वाहिँ ठवितो उ खुट्टो, तेणाइगं मो व अजग्गरा वे । सारेइ जो तं उभयं च नेई, तस्सेच पासम्मि करेंति तं तु७१६
को यदि स्थापितः सन् अजागरणशीलवासी बहिः सुप्तः स न केनापि स्थापित प्रतिकमवेलायामपि न जागृयात्, ततो यस्तं तुल्लकं सारयति भिक्षां ग्राहयति उभयं च संज्ञाकायिकी सायं तदीयं यो नयति परिष्ठापयति तस्यैव पार्श्वेतं कुर्वन्ति ।
संथारगं जो इतरं व मत्तं,
उपमादी व करे तस्स । गाड़ सेहं खलु जो य मेरं,
करेन्ति तम्सेव उतं समासे ।। ७१७ ।।
ग्लानस्य संस्तारकं यः करोति इतरद्वा संयुत्सर्जनं यो ग्लानं कारयति मात्र या परिष्ठापयति, उपरावर्त्तना दीनि वा तस्य ग्लानस्य यः करोति तं वैयावृत्यकरं तस्यैव पार्श्वे स्थापयन्ति यो या शैक्षं मेरां समाचारों ग्राहयति तं तस्यैव सकाशे कुर्वन्ति ।
पर्वत वसती तावद्विधिरुक्त अ संकीय विधिमभिधित्सुराद्द
समविसमा धेरा, आवलिया तत्थ अप्पयो इच्छा । खलपपायनिवाए, पाहुणए जं विहिग्गहणं ॥ ७१८ ।। संकीर्णायां वसतौ सर्वत्रापि संस्तारणीयेन पुनर्विषम इति कृत्वा कश्चिदप्यवकाशस्थान्यो मोक्तव्यः । तत आयलिया पहुंचा यथारत्वाधिकं विभज्यमाना संस्तारक भूमिः स्थविराणां वृजानां समा वा समागच्छेद्विपमा वा तत्र विषमायां तेषामात्मीया इच्छा । कोऽर्थः यदि सहिष्णुतया विषमेऽपि संस्तारयितुं शक्नुयन्ति ततस्तत्रैव संस्तारयन्ति । अथ असहिष्णवस्तदा सर्मा भूमिमनुज्ञापयन्ति । 'खेल' त्ति यस्य खेलः स्यन्दते तस्य मध्ये अवकाशः समावातस्तेन विधि अवकाशे या संस्तारकः सोऽनुशाप नीयः यः पित्तलः स प्रयाते स्थापित यो वातूला स नियाते। एतयोः परस्परं संस्तारकपरावत भवति । प्राक आचार्यादिः समागतः तस्याऽपि यद्विपमान संस्तारक ग्रहणं तदनुज्ञातमिति पुरातनगाथासमासार्थः । अनामेव विभावयिषुरादविसमो मे संथारो, गाढ़ापासा में एत्थ भजंति । को देख मज् ठा, समं ति तरुणा सर्व वैति ।। ७१६।। संस्तारकभूमिः स्थविराणां विषमा तरुद्वानां समा याता । यः स्थवि असहिष्णुयात् विषमो मे महीयः संस्तारका पार्श्वणि चात्र विषमे शयानस्य गाढं मम भज्यन्ते, अतः को नाम महां समं स्थानं दद्यादिति । ततो ये तरुणास्ते
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संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार स्वयमेव गुरुभिरनुक्का युवते-अस्माकमवकाशे यूयं श्रथ 'पाहुणए जं विहिग्गहणं' ति पदं व्याख्यातुमाहसंस्तारयत।
रायणिो आयरिओ, आयरियस्सेव अकमइ ठाणं । जइ पुण अच्छिअंता, न दिति ठाणं बला न दावेंति ।
इतरो वसभट्ठाए, ठायइ जे ते व दो एगो ।। ७२४ ।। देंति तह पुच्छणादी, बहिभावा संखडं मा वा ॥७२०॥
यदि प्राघुर्मक श्राचार्यो रवाधिकस्ततोऽसावाचार्यस्यैव स्था. यदि पुनस्तरुणाः समं भूभागमयमाना अपि न प्रय- नमवकाशमाक्रामति । वास्तव्याचार्यस्थाने संस्तारयतीत्यच्छन्ति, ततो वृषभा सूरयो वा न तैर्बलाहापयन्ति । मा ब- र्थः । इतरो वास्तव्याचार्यो वृषभस्योपाध्यायस्य वा अवलादाप्यमानास्ते बहिर्भाव गच्छेयुः, असंखडं वा कुर्यः । स्थ- काशे तिष्ठति संस्तारयति । अथाचार्यसत्कं संस्तारकत्रयं तविराश्च तत्र विषमे ऽवकाशे पादपोछनादिकं ददति, येन न्मध्यादेकस्मिन् प्राघूर्णकाचार्यः प्रसुप्तः 'जे ते वा दो एग' सुखेनैव संस्तारयितुं शक्यते ।
त्ति । ततो यौ तौ द्वाववशिष्यमाणो संस्तारको तयोरेकखेलद्वारमाह।
स्मिन् वास्तव्याचार्यः संस्तारयति । मज्झम्मि ठाओ मम एस जातो,
ओमे पुण आयरिओ, वसभो मासे अणंतरे वसभो। पासंदए निच्च ममं च खेलो।
संछोभपरंपरो, चरिमं सेई व मोत्तूणं ।। ७२५ ॥
अथाऽसौ प्राघूर्णक आचार्यः अवमपर्यायलघुस्ततो वृषभबाओ सरावस्स य नऽत्थि एत्थं,
स्याबकाशे संस्तारयति । वृषभस्तु तदनन्तरमवमरात्रिसिविजखेलेण य मा हु सुत्ते ।। ७२१॥
कस्थाने स्वपिति । एवं संस्तारकाणां संघो परंपरकः परंपश्लेष्मलो घूयात्-मम तावदेष स्थायः-अवका- रया स्थानान्तरसंक्रमणरूपस्तावन्मन्तव्यौ यावद् द्विचरमः शो मध्ये संजातः, मम च खेलः-श्लेष्मा नित्यं प्रस्यन्दते ।। साधुः। यस्तु चरमः सर्वपाश्चात्यावकाशशायी तं शैक्ष अत्र चोभयतोऽपि पार्श्ववर्तिसंस्तारकाकीरणे शरावस्य- च मुक्त्वा तयोः संस्तारको नान्यत्र संक्रामयितव्य इति खेलमल्लकस्य नास्त्यवकाशः । अत्र संस्तारयन् अहं भावः। प्रत्यासत्रसुप्तान् शेषसाधूनपि मा श्लेष्मणा सिञ्चयमिति
इदमेव व्याचष्टेततो यस्य विविक्ते प्रदेशे संस्तारकः स तस्यात्मीयमबकाशं प्रयच्छति।
चरिमो बहिं न कीरइ, सेहं न सहायगा विहुयलं ति । प्रघातनिवातद्वारमाह
रंगिद्विपुरिसनायं, सव्वे तत्थेव मावेति ॥७२६॥ निदंण विंदामि य उद्धरेख,
चरमः-प्रत्यन्तवर्ती बहिर्न क्रियते । शैक्षमपि सहायकान्
शिक्षाप्राहकान् न विहुगलन्ति-न स्फाटयति,बहिनिष्काश्यमा . को मे पवायम्मिदएज भूमि ।
नौ हि तो बहिर्नावगच्छतः, बहिरवगमनतः प्रतिगमनासीएण वारण य मज्झ बाहिं,
दीनि कुर्याताम् । अतः संस्तारक संक्षिप्य तथा प्रस्तारणीयः,
यथा तयोरपि चरमशैक्षयोः संस्तारको प्रतिश्रयमध्य एव पू. न पञ्चए अन्न महऽसमाह ॥ ७२२ ॥
येताम् । तथा चात्र रङ्गे ये बुद्धिमन्तः पुरुषास्तीतः कर्तव्यः। पित्तलो ध्यात्-महमिह निवाते संस्तारयन् उद्धरेण- यथा रणभूमी पूर्व प्राकृतजनैराकीायामपि ये राजामाधर्मोपतापेन निद्रा न विन्दामिन लभे, अतः को नाम प्र- त्यश्रेष्ठिप्रभृतयः प्रधानपुरुषाः पश्चादागच्छन्ति तेषामुपवेबाते भूमिका बचात् । अथानन्तरमन्यो पातलः स आह- शनयोग्यानवकाशान् दत्त्वा संक्षिप्ततरावकाशस्थापनेन प्राघूयात्, शीतेन पातेन पीज्यमानस्य मम बहिः सुप्तस्यानं न| गुपविष्टा अपि तत्रैव मापय्यन्ते । एवमस्माकमपि प्राधर्मका पच्यते-न जीर्यति । तत एतौ परस्परं संस्तारकं परिव- प्रधानपुरुषकरूपस्ततस्तेषां यथायोग्यमवकाशान् दत्वा - सयतः । वह संग्रहगाथायां खेलप्रपातनिवातग्रहणमुपलक्षणं षभाः संस्तारकभूमीः संक्षिप्य प्रयच्छन्तः सपूर्वानपि सातेनेदमभिधीयते।
धून तत्रैव मापयन्तीति । वृ० ३ उ० । जो एति एकं न उ एकलेणं,
प्रातिहारिक शय्यासंस्तारमनर्पयित्वा न ..
गम्तव्यम्ठवेंति तं सूरगहस्स पासे ।
नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं एकम्मि खंभम्मि न मत्तहत्थी,
सेआसंथारयं पायाए अपडिहा संपव्वएत्तए ॥ २५ ॥ ___वज्झन्ति वग्घा न य पंजरे दो ॥७२३॥
अस्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याहयः एका असंखशिका-कलहनशीलः इत्यर्थः, तमेकेन सह नयोजयन्ति, किंतु यः शूरो प्राहका-कलहाविकुर्वता शि
अविदिममतरगिहे, परिकहणमियं पदिम मिह जोगो । को कर्तुं समर्थः तस्य पाबें तं स्थापयन्ति, यतः एकस्मिन्
निग्गमणं वसभाणं, बहिं व वत्तं इमं अंतो ॥६१६।। भालीनस्तम्भे ही मत्तहस्तिनी नषध्येते, परस्परं भर:- अन्तरगृहे यत्परिकथनमुपदेशप्रदानं तश्यतीर्ण तीर्थकरैनसंभषात् । एवमेकस्मिन् पञ्जरे जो व्याघी न प्रक्षिप्येते। । हपतिनाथाननुज्ञातम् । इदमपि मातिहारिकं शय्यासंस्तार
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संधार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार कस्य प्रत्यर्पणमवत्तमनुज्ञात मिस्ययं योगः-संघम्धः । यद्वा-1 वोच्छेदे लहुगुरुगा, नयणे डहणे य दोस वी लहगा। निमित्तं प्रतिथयात् बयोपि सूत्रयोः समाम-तुल्यम् । अथ.
छिदिणिग्गयादलंभ, पावे सयं चतु णियत्ता ॥२४॥ पा-पूर्वसूत्र प्रतिश्नयाहिर्भिक्षायां निर्गतस्य धर्मकथनं भकल्पनेत्युक्तम , पुनरन्तः प्रतिथयमध्ये संस्तारकस्य
तस्यैकस्य साधास्तस्यैबैकस्य द्रव्यस्य व्यवच्छन चतुर्लघु, यमिक्षपणं तत्कसपत इन्यत्र प्रतिपद्यते । अनेन संबन्धेनाया-- अनेक साधूनामन्यद्रव्याणां च व्यवच्छंद चतुर्गुरु । संस्तानस्यास्य (सूत्रस्य.२५) व्याण्या-नो कल्पते निर्ग्रन्थानां या रकम्य कल्पस्थकरन्यत्र नयन बहने च द्यापि चतुर्लघवः । मिमधीमापा प्रतिहरण प्रतिहार:-प्रत्यर्पण तमहतीति प्रातिः | व्यवच्छेदकरणाच्च संस्तारकादरलाभ विहम-अध्धा तमिहारिक, शय्या का सर्वाङ्गीणा संस्तारका तृतीयहस्लमानः | र्गता यत्परितापनावि प्राप्नुवन्ति स्वयं या निवृतास्तत्र प्राशय्यानकतारकं नवादाय-गृहीत्या कार्यममाप्तौ अप्रतिह- प्लाः संस्तारकादिकमलभमामा यां थिराधनामासादयन्ति स्यार्पणमफरया संमप्रजितुं प्रामाम्तरं मिहतुंमिति सूत्रार्थः । तन्त्रिपनं प्रायश्चित्तम् ।। सिजा संथारो य, परिसाडी अपरिसाडिमा होई। माइस्स होति गुरुगो,जति एकतो भागऽप्पिए दामा। परिसाडि कारणम्मि,भणप्पिणामो सोभाणादी।।२०।। अह होंति भएणममे ते चव य अप्पिणे सुद्धा ॥१२॥ शय्या संस्तारको था-परि शाटी, अपरिशाटी न भवति । मायिना-मायायिनी गुरुको मासा भर्यात, कथं पुनर्मा यां परिशारीणाविमयः, अपरिशाटी फलकादिमयः । तत्र प- कांगतीत्याह यमचैकन एकस्माद् प्रहादनकैः साधुभिग्नंक रिणाठी संस्तारका कारगावशारतुद्ध गृहीता भयत् , तं संस्तारका पानीतास्तमा 'भाग' सि प्रत्यर्पणकालत मासकर पूणे मनयित्या जता मासलधु, माशाचा पृथगभागीकृतेषु य मान्मीयं भागं नत्रय प्रहीतव्य इति दोषाः।
करया लषां मध्य प्रक्षिपति, नाम्मना तत्र नयतिः एषमापते बा अपरे
यी भगन्यते । अस्य च य अनयित संस्तारकदापास्त सर्वे सोचा गत सि लहुगा, अप्पत्तियगुरुग जं च वोच्छेभो ।
ऽपि मन्तव्याः । अथाम्यभ्या गृहभ्य मानीताः संस्ताका
भवन्ति तदापि मायाकरण त एव नापाः । तस्माचता गृहाफप्पडखनणणय, डह लहु लहुगा य गुरुगा य ॥६२१।। दानीतः प्रविधिना प्रत्यर्पण शुम इति संग्रहगाथासमासंस्तारकस्यामिमा भुतं संस्तारकमनर्पयिन्या गतास्त सार्थः। संयताः । पथं श्रुत्वा यदि प्रीतिकं करोति, अनर्पित ऽप्यनु
प्रथनामेव विवृणातिग्रह एषामाकमिति ततश्चातुन घयः । अथामीतिकं करो
संथारे य गमणग, भयणऽढविहा उ होइ कायव्या । नि मदीयानि तानि हरितानि विनाशिनानि ति, तदा अचमुग्यः । यदि तद्रष्यस्थान्यद्रव्यस्य था व्यवच्छवः |
पुरिसे घरसंथार, एगमणंग तिसु पदेसु ॥ २६ ॥ तथापि चतुर्गुरुकम् । प्रथया-तस्मिन्सस्तारके शून्य 'क- संस्तारक गृहामाण एकानेकपदाभ्यामएविधा भजना कपट्ट' ति बालकानि खलन्त मासलघु । अथान्यत्र तं नय- संध्या भवति , श्री भका इत्यर्थः सा चंतपु त्रिपु पदेषु । मिल सतावतुर्लघु । अनी प्रक्षिप्य दहन्ति चतुर्लघवः । दह्य- तद्यथा-पुरुष गृह संस्तारकं च । एतेषु एकानकपदाभ्यामाने च तस्मिसम्येषां प्रागाजातीयानां विराधना भवत मनी भड़ाः । यथा एकन साधुना एकस्माद् गृहादकः संस्ता तभिष्य प्रायश्चित्तम् ।
रक पानीतः । एकेन एकस्माद् अनके। एकन अनकतथा प्रीतिकपदं व्याचऐ
भ्यो गृहभ्यः एकः । एकन अनकेभ्यो गृहेभ्यः अनके संदिअंते वि तया णि-च्छा ण अलभेसु मे तिणेत्तमं ।
स्तारका पानीताः एवं एकन साधुना चत्वारो भका ल
ब्धाः । अनेकैरपि साधुभिरवमेव चत्वारो लभ्यन्त । सर्वकयका जणभोगं, काऊण कर्हि गया सच्छा ।।२२।। संख्ययैते अटो भङ्गाः । प्रहणकाले निर्देशमपि दीयमानं तदानीं नेच्छति स्म । अ
आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणते वि। निष्पन्नमभिकाय मासकल्पे पूर्स 'भ'-भवतामर्पयिष्याम इति भणनपूर्वकं नीत्वा । सांप्रतं कृतकार्या विहितान्यप्रयोज
वोच्चत्थमायिसहिए, दोसा य अणप्पिऽणतम्मि।।६२७|| नाः शून्यं जनभाग्य कृत्वा कुत्रचित् ग्रामे नगर वा गताः, संस्ताकस्य पानयन या भजना-अपभङ्गी भणिता ताम'सच्छ' ति । नैपातिकपदं कुत्सायां वर्त्तत, या पुनस्ते दुईए- व भजनां संस्तारकमर्पयतोऽपि भवति , यथैवानीतस्तथैव धर्माणा गता इत्यर्थः।
प्रत्यर्पयितव्य इति भावः । अथ विपर्यस्तं प्रत्यर्पयति न अथ 'कम्पखलण' इत्यादि विवृणोति
या सर्वथैवार्पयति ततो विपर्यस्ते मायासहिते अनपति
च दोषा व्यवच्छदादयो भवन्ति । तत्र ये आद्याश्चत्वारो कप्पट्ठखेलणतुम-दृणे य लहुगा य होइ गुरुगो य । भास्तषु यथैव गृह्णन्ति तथैवार्पयन्ति । पञ्चमभङ्गे ग्रहणइत्थीपुरिसतुयट्ट, लहुगा गुरुगा प्रणायारे ।। ६२३ ॥ काल अस्माकमन्यतरः समर्पयिष्यतीत्येष विधिर्निहितनत्र संस्थारक कल्पस्थकानि खेलन्त लघुका मासः । अथ स्तता यद्यकः प्रत्यर्थयति, तदा विपर्यस्तं भवति । अgतान्येय त्यग्घर्तयन्ति गुरुको मासः। अथ मद्दती स्त्री महा- मभङ्ग एकः साधुः प्रत्यर्पयितुं प्रस्थितः, अपरश्चिन्तयति न्पुरुषो वा त्यग्यतयति चतुर्लघु । अथ एतावनाचारमाच- मदीया अपि तृणकम्बिकास्तत्रैवानेतव्या इति कृत्वा तदीरतस्तदा चतुर्गुरुकाः।
यानां तृणादीनां मध्य प्रक्षिपति; एषा माया भण्यते । स
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संधार
(१८३) संधार
अभिधानराजेन्द्रः। सम भा तृतीयमग या कम्बिकास्तृणानि या एकस्मिन् गृह |
अथ नियुक्त्या विस्तारयितुमाहअर्पयताउनणं भवति । यत एत दोषास्तस्मात्पृथक पृथक सागारिसंत विकरणे, परिसाडि अपरिसाडियं चेव । सर्वंगपि प्रत्यर्पणीयाः । कारंग पुनर्विपरीतमर्पयति ।
तम्मि वि सो चेव गमो,पच्छित्तुस्सग्गप्रववाए ॥७३२।। नंदय कारगमाहविइयपयझामित वा, दसुट्ठाण व बोधिकभए वा ।
सागारिकसत्कस्य संस्तारकस्य विकर कन्या गन्तव्यम् ।
सच परिशाटी, अपरिशाटी चति द्विविधः । तत्रापि स पय अद्भाणमीसए वा, संछोवपधाविते तुरियं ।। ६२८॥
प्रायश्चित्तात्सर्गापवावंषु गमा मन्तव्यः । हिनीयपद सम्तारको ध्यामिता भवत् , वंशात्याने या सं.
अधिकरण चम दोषाःकतारकस्वामी कुत्रापि गत इति न ज्ञायत । बाधिकभये संस्तारकम्थामी साधा धा नपाः, मध्यसार्थका था सार्थ
किड तुभट्टण बाले,णयणे उहणे य होइ तह चव । स्त्वरितं प्रधायिता भयत् , यावत् संस्तारकं प्रत्यर्पयति विकरणपासुटुं वा , फलगतणेसुं तु साहरणं ।।७३३।। तायत् सार्थो दुरं गच्छति, अपर सार्थो दुर्लभः ।
बालानां-कल्पस्थकानां क्रीन त्यग्यतन अन्यत्र नयने एतेहि कारणेहिं, वचने कोऽपि तस्स उणिवेदे ।। बदापास्तथैव भयन्ति , सता यिकरण कर्मव्यम् । कामअप्पाहंति व सागा-रियाइ असदप्मसाहूणं ॥ ६२६ ॥
स्याह-फलकस्य पार्श्वनः स्थापनमूर्जकरणं या तृगषु पतः कारणः न प्रत्ययेयुः, अध्वशीर्वक च स्यरितं घ
सहरणम्-एकत्र मीलनं,तुशब्दात्कम्बिकासु बन्धनच्छोटनम
तद्धिकरणम् । जतामकः कोऽपि साधुस्वा तस्य संस्तारकस्यामिनो निये.
इदमेव व्याण्यातिदति-श्रमकास्मन्कुल संस्तारकः प्रत्यार्पणीयः ।अन्यसाधूनामसत्यभावे सागारिकादीन् ' अप्पाहनि' संविशन्ति । एवं
पुंजे वा पासे वा, उरि पुंजेसु विकरणतणेसुं । संस्तारकाऽमुकस्याप्पणीयः एप तृण कम्बिकासु यिधिसक्तः ।
फलगं जत्ती गहियं, वाहाए विकरणं कुआ ॥ ७३४ ॥ एमेव गमा नियमा, फलएसु त्रि होइ आणुपुवीए ।
यानि तृणाणि पुआत् गृहीतानि तानि पुञ्ज पय निक्षपणीया. चउरा लहगा माई, य नऽस्थि एयं तु नाणत्तं ॥६३०॥
नि, यानि पावतस्तानि पार्थ स्थापनीयानि, एवं सृगापु बि
करणं भवति । फलकं यता गृहीतं तत्रय नीत्या यदि पावनः एष एव गमा नियमात् फलकेष्वपि भानुपूठा वक्तव्या भयनि , नवरं प्रायश्चित विशषः । फल
स्थापितमासीलदा पाय, अथाई स्थापितमासीत्तत ऊई
स्थाप्यताकाम्यका अपि यता गृहीतास्तत्र बन्धात् छाटायल्या कमयस्य सम्तारकस्याप्रत्यारण चतुर्लघुकः । मायि
निक्षपणीयाः । अथ व्याघांतन तत्र नतुं न पार्यन्त तदा तत्रना यथा सुगपु कम्यिकासु घा अपगस्तृगणकम्बिकाः
थ स्थापयित्या नियमाद्धिकरण कुर्यात् ।। प्रक्षिप्यन्त तथा फलकानां नास्ति प्रक्षपति भावः । एतन्नानान्धमत्र मन्तव्यम् । ०३ उ।
वितियमहसंथडे रा, देसुट्ठाणादिसूबकमु ।। सागारिकसत्कं संस्ताग्मादाय विकरणं कृत्या न संप्रजितुं। एएहि कारणहि, सुद्धा अविकरणकरण वि ॥७३॥ कल्पत
द्वितीयपंद यथासंस्तृत विकरणं न कुर्यात् । न च प्रायनो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियमंतियं श्चित्तमाप्नुयात् यथासंम्तृतं नाम-निष्प्रकम्पचम्पसञ्जासंथारगं आयाए अहिकरणं कट्ट संपवइत्तए (सू०२३) |
कपट्टादि देशान्थादिषु पूर्वसूत्रोक्लषु कार्येषु विकरणं
न कुर्यात् । एतैः कारणः-विकिरणाकरणऽपि शुद्धः । अस्य संबन्धमाहसंथारगअहिगारो, अहवा पडिहारिगा उ सागारी ।
वृ०३ उ०।
सागारिकसंस्तारकं सागारिकसत्कं बहिनयनिनीहरिमो अणीहा-रिमो य इति एस संबंधो ॥७३१।। संस्तारकस्याधिकारोऽयमनुवर्तत इदमपि संस्तारक
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं सज्जासंथारयं सूत्रमारभ्यत । अथवा-पूर्वसूत्र प्रातिहारिकः संस्तारक
आयाए अधिकरणं कट्ट अणप्पणित्ता संपव्ययति संपन्यउक्तः , अत्र तु सागारिकसत्काऽभिधीयते । यद्वा-निहारि- यंतं वा साइजइ ॥ ५६ ॥ माऽनिहारिमश्चति द्विधा संस्तारकः, तत्र निर्हरणमन्य- अधिकरणं गाम-जं संजतण कयं नगाण वा संथरण कंत्र नयनम् , निवृत्ती निहारिमः अन्यत्र नीत्वा प्रत्य- बीण या बंधी फलगरस वा श्रावणं एवं च णं अष्फोडित्ता पणीय इत्यर्थः । तद्विपरीताऽनिहारिमः । तत्र निहारि- अप्पणित्ता बर्यात मासलहु । इमा णिज्जत्ती पडिगाहा । म उक्तः । इह पुननिर्वारिम उच्यते , एष संबन्धः । दोसु सिसिरगिम्हासु गहर्जात वा दामु वा पदसु रिइजअथास्य सूत्रस्थ (२३) व्याख्या-न कल्पत निर्ग्रन्थानां ति, अविकरण इमे दोसा। किड्तुयट्टणगाहा । कप्पटुगाणं वा निग्रन्थीनां वा सागारिकः शय्यातरस्तस्य सत्क किडणं , तुअगं थीपुरिसाणं । तुयट्टणे अणायारसवणं शय्यासंस्तारकमादाय-गृहीत्वा, अधिकरण कृत्या अधि- श्रमत्थ वाहणं डहणं वा, पंतसुचव दोसा, पच्छित्तं च पूकरणं नाम-यत् साधुना करणं कृतं तृणानां प्रस्तरणं चंवत् । फलगस्स विकरण पाल्लियं करोति, उड़ाहं वा करेइ, कम्बिकानां बन्धनं फलकस्य स्थापनं तदनपनीय संप्रव- तणेसु साहारण कंबीसु बंधणं छोडण वा। पुंजाणं जितु-विहर्तुमिति सूत्रार्थः ।
सा गाहा । जे तणा पुंजातो गहिता ते पुंज वयब्बा ।
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( १८४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संधार
जे पासातो गहिता ते तर्हि ठवेयव्वा । जं वा जतो गहियं तं तहिं ठवेयव्वं ति । कंबीमादीफलगं जतो पवेसातो गहितं तर्हि ठवेयव्वं । मासकप्पे वा पुराणे अंतरा बाघाते उप्पले यिमावकरणं कायव्वं, ण करेजा विकरणं वा करेजा पावेजा पच्छित्तं । वितियपदगाहा । अहासंखड णाम - णिष्पकंपं पट्टादि । शेषं पूर्ववत् । नि० ० २७० । जे भिक्खू सागारियसंतियं सेजासंथारयं पचप्पिणित्ता दोच्चं पि अणुविय अहाठि अहाठतं वा साइजइ ||२४|| जे भिक्खू पडिहारियं वा सागारियसंतियं सेजासंथारयं पच्चपिणित्ता दोच्चं पि श्रणुष्मविय हिडेति 'अहितं वा साइजइ ॥ २५ ॥
सेज्जा एव संथारओ सेज्जासंथारओ, अहवा— सेजा-सsiगिना, संथारो अरिज हत्थो । अथवा सेजा वसही संथारगां पुण पडिसारिमितरो वा । सामिणो अप्पेडं भणगुणता पुणो अधिट्ठेति परिभुंजति तस्स मासलहुँ । सेज्जासंथारगगाद्दा-परिसाडि अपरिसाडी पिज्जायमाणा - पेडं गता श्रवस उणेहिं पश्चागता सो य संथारओ तहेव अच्छति, तं दोघं अणगुरवेत्ता पुणो अधिट्ठेति परिभुंजति भासलहुं, आणाइमा य दोला । नि० चू० ५ उ० ।
सांप्रतं प्रातिहारकसंस्तारकप्रत्यर्पणे विधिमाह
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिजा संथारगं पचप्पतिए, से जं पुण संथारगं जाणिजा सचंडं० जाव - ससंताययं तहप्पगार संथारगं नो पच्चप्पिणिजा । ( सू० १०४ ) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिजा संथारगं पचप्पियत्तए, से जं पुण संथारगं जाणिजा समप्पंड •जाब ससंतायगं तहपगारं संथारगं पडिलेहिय, पडिलेहिय पमजिय २ श्रायाविय २ विहुणिय २ तभो संजयामेव पचपिणिजा । ( सू० १०५ )
' से ' इत्यादि स भिक्षुः प्रातिहारिकं संस्तारकं यदि प्रत्यर्पयितुमभिकाङ्गेदेवंभूतं जानीयात् तद्यथा--गृहकोकि लकाण्डकसंबद्धमप्रत्युपेक्षणयोग्यं ततो न प्रत्यर्पयेदिति । किश्च -' से ' इत्यादि सुगमम् । श्रचा० २ ० १ ० २ अ० ३ ० ।
प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारमन्यसरकं द्वितीयमप्यवग्रहमननुज्ञाप्य न कल्पते
यो कप्पर णिग्गंथाण वा विग्गंथीय वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेजासंथारगं दोच्चं पि उग्गहं
सविता बहिया खीहरित्तए । कप्पइ विग्गंथाय वा ग्गिंथीय वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेजासंथारगं दोच्चं पि उग्गहं श्रणुरयवित्ता महिया बीहरि - ए || ६ || यो कप्पति विरगंधाण वा णिग्गंधीय वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं पच्चपिता दोच्चं पितमेव उग्गहं श्रणुष्यवेत्ता महिडि
For Private
संधार
ए । कप्पति णिग्गंथाण वा ग्गिंथीण वा सेज्जासंथारयं पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेजासंथारयं पचपिशित्ता दोच्चं पि उग्गहं अगुणवत्ता अहिट्ठित्तए
॥ ७ ॥ ( व्य ० )
अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहसंथारसु पए-सु अंतरा छत्तदंडकत्तिले । जंगमथेरे जयणा, अणुकंपरिहे समक्खाया ॥ १२६ ॥ दो वणवण, भणिया इमिगा वि दोच्च सुवणा । नियउग्गहम्मि पढमं वियहं तु परोग्गहे सुतं ॥ १२७॥ संस्तार के पूर्व सूत्रेष्वधिकृतेषु श्रन्तरा छत्रदण्डकृत्तिचत्रिजङ्गमस्थविरे समस्तस्याऽपि गच्छस्थानुकम्पार्धे यतना अननन्तरसूत्रेण समाख्याता ॥ १२६ ॥ संप्रति पुनः संस्तारको 5मेन सूत्रेण भएयते एष सूत्रसंबन्धः । अथवा अन्यथासूत्र संबन्धस्तमेवाह - ' दोघं वे ' स्यादि द्वितीयावप्रहानुज्ञापना जङ्गमस्थविरस्यानन्तरसूत्रेण भणिता । इयमपि सूत्रेणाभिधीयमाना द्वितीयावप्रद्दानुज्ञापना । ततः द्वितीयावग्रहहानुज्ञापन प्रस्तावादिदं सूत्रं पूर्वसूत्रादनन्तरमुक्तम्, नवरं प्रथममनन्तरसूत्रं निजकस्यात्मीयस्योपकरणस्यावग्रहे अनुज्ञापनाविषयम् । द्वितीयमधिकृतं तु सूत्रं परस्य परकीयस्य शय्यातरसत्कस्यान्यसत्कस्य वा इत्यर्थः, अवग्रहे श्रनुहापनायामेवमनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या । नो क रुपते निर्मन्थानां वा निर्मन्थीनां वा प्रातिहारिकं शय्यासस्तारकं शय्या दातृसत्कमन्यसत्कं वा द्वितीयमप्यवग्रहमन
शाप्य बहिर्विहर्तु नवरमनुज्ञाप्य पुनः कल्पते इति सूत्रसंशेपार्थः । व्य० ८ उ० ।
जे भिक्खु वा भिक्खुणी वा पाडिहारियं सेजासंथारंगं दोषं पि श्रणुष्पवेत्ता बाहिं बीयार यीतं वा साइअइ ॥५२॥ जे भिक्खु वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं सेजासंथारयं दोषं पि श्रणुष्यवित्ता बाहिं बीयार यीयंत वा साइआइ ।। ५३ ।।
पाडिहारिको प्रत्यर्पणीयो म लेजातरस्स वा संतिओतं जदि पुराणे मासकप्पे दोडचं अणुण्णवेत्ता अंतोहितो बाहिं गीणेति बाहिंतो वा अंतो अतिणीति तहाऽवि मासल, एस सुत्तरथो ।
इमा गिज्जुती । गाहापरिसाडिमपरिसाडी, सागरियसंतियं व पडिहारि । दोषमणसवेत्ता, अंतो बहि खेति आणादी || १४६५|| कुलातितणसंधारण परिभुजमाणे जस्स किंचि परि सडति सो परिसाडी, बंसकपिमादी अपरिसाडी । दोषं अगुणवत्ता जो ऐति तस्स आणा अणबत्यादी दोला भवंति | बोदगाह - सुत्ते भरतस्स वि मासल तं शिकार, आयार्थ्याह-विकारणे सुतं । अरथो तु का रणे विधि दरिति ।
अविधी हमे दोसा । गाहा
ताई तयफलगाते, तेयाहडगाणि अप्पयो वाऽवि ।
Personal Use Only
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( १८५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संधार
चिंता गहियाई, सिवाणि तहा य असिवाणि ॥ ४६६ ॥ से तफलगा तस्स तेणाइडा वा अप्पा वा तेणाह - डेसु जिंतेसु अंतरे पुग्वसामी दठ्ठे गहितेसु साधू पुति जति कति जस्स ते कति या तो उभा चिदोखा, तम्हा दोसपरिहरणार्थ विही भगत-परिलैवेठिताएं तो मास मासा तो मासकका ऊ पति तत्तफलमा मेहंतु अह स लम्भति अण्णामं वयंतु । श्रह तेसु असिवादिकारणा स्थितो सिदेखि फलादी इमा विही
गाहा
असवस्तयगमणे, अणपुच्छा णत्थि किंचि तव्वं । जो यति भयापुच्छा, तरथ उ दोसा इमे होंति॥४६७॥ सपरिकथेचे अएण उपस्वयं वयंता अशापुच्छार न किंविथ अनापुष्प नास्ति किचिन्नेयमिति । जो युग अणपुच्छार देति तस्सिमे दोसा ।
गाद्दा
कम्मे तेा फलगा, सिट्ठे अमुगस्स तस्स गहणादी | विति व सो भी गिरलोगमुट्टाहो ||४६८ || दिट्ठे सिट्ठे गहि-ए कट्टण (व) बहारववह रिते । उड्डाय विभंगे, उद्दवणे चैव विव्विसए ||४६६॥ लडुबो लगा गुरुगा, बल्ल छग्गुरुगछेदमूलदुर्ग |
हवा व सिम्मिय, एसेव उ संकणे लहुया ।। ५०० | निस्संकियम्मि गुरुगा, एगमयेगे य गहयमाईया | अणवटुप्पो दोसुं, दोसु य पारंचिश्रो होति ॥ ५०१ ॥
साइडाणाच्छादिता पुण्यसामिया विट्ठा साहू पुच्छितो-कस्ले तराफलगा ? | साहू भगति - अमुगस्स सर मे कहरामाईचा दोसा ग्रह एवेति सो भीतो संतो साह तो पचगिरहोसो परितोषः तस्मिन् संभाब्यत इति प्रत्यंगिरा लोगे वि उड्डाहो साधो प परदव्यावहारिणों चि । गहणादिपदस्स इमा वक्वा-तणफलया भाच्छादेति तेणाइड पिजमायो पुरुषलामिणादि पुछिपण साहुणा सिद्धं अमुगस्स । सो रा
|
पुरिसेहि हत्थे गहिरं कहिवहारमेव नि पुण्यसामिया सर्व वराहन्ति दुतं भवति । वारियार तुमारजे पुच्छाकडे ति जिते उद्वेषिधाय पकपर्व । उदिते विव्विस एकं पदं । पते चउ परेपfogi | मालडुगादि, मालगुरुं मोतुं गिरहबति पच्छवक्खा - अहवेत्ययं निपातः अविशब्दः खस्स इमा प्रकाराची । सिट्टे अनाक्याते एसेव तु तेयो नि संकिते लहुगा, निस्संकिते एस तेयो ति बउगुरुगा । तस्सेवेगस्स अणगाण अलि साहू गहणादी ।
इमे दोसा गाडा -
ये गहिलेकडे विकडे कडेवनहारगवहरिए । उड्डाहे य विभंगे, उद्दवणे चेव शिब्बिसए ।। ५०२ ।। एका दोए पि पच्चिसं । तेणाहजादी
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संधार
तणफलयाणं श्रणापुच्छार भयणे पुब्वसामिणो द तणफलपाणि साहुस वा गह कथं विकोपा स्वं चौर इति विको साहुस्स रायपुर कर्त साहू ते रायपुरिये प्रती कति सि किसा चैव पदा तं चैव पच्छित्तं । शिष्यः प्राह-किमस्तीद्दशसंभवः ? । श्राचाय्र्याह ।
गाहा
दंतपुरे हरणं, तेणाहडवच्चगादिसु तणेसु । छावण मीराकरणे, अत्थरणत्थं तु चंपादी ||५०३ || दैतपुरे दंतवक्क श्राख्यानकं प्रसिद्धं । तद्यथा-तत्र तेनाइडप्यगादिसु तवे संभव भये तानि पुनः किमर्थ साधवो नयेति उच्यते हावयनिमित्तं वा मीराकर या मेराकरणमित्यर्थः । परथरणार्थ था। फलगा वि मीराकरण पत्थरनिमित्तं ते पुरा चंपपट्टादी नयंति इह्मणीं ।
गाद्दा
अतेणहडाणयणे, लडुओ लहुगा य होंति सद्धम्मि । अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेदपस अगा सेसे || ५०४ ॥ भाणिपब्या असातवा अदि नेति अणापुच्छार तरेसु लहुगो अप्पण से सिहं तुज्झ चया तणफलया साधूहि बाहिं नीणिता हु एत्थ लहुगा । अगुग्गहो ति एत्थ विच उलहुगा अप्पत्तियम्मि गुरुगा वोच्छेदं वा करेज । तस्स साधुस्स तव्वस्सन्नस्स वा पसजणा । सेसेति असिंपि साधू असणादियाण य दव्वाणं य वोच्छेदो।
सराफलगविशेषञ्चापनार्थमाह । गाहा
एसेव गमो खियमा, फलएसु वि होति श्रणुपुन्त्रीए । वरं यायचं, चतुरो लडुगा जहम्मपदे ॥४०५॥ पुण जो तणेसु विधी भणितो फलगेसु षि एसो चेव विधी । नवरं नाचतुरोग जस्थत मासलाई तत्फलगेच भवतीत्यर्थः ।
गाहा
वितियं पहुव्विस, राष्ट्ठितसुमतप्पणमब्भे । संधारअगणिभंगे, दुखभसंधारए जतया ||५० ६ ॥ अपुच्छा वि सेखासंधारणपभू निम्बितोनट्ठो वा उट्ठितो । उषसितो वा सुमो पविसितो मतो वा अ पोवा जातो, संधावारता वा पहिलो प्रतिमेति अग्भये या नेति विलयभंगे वा नेति, दुल्लभसंधारण वा जताए नेति ।
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इमा सा जतणा गाहा
तम्मि तु श्रसधीणा वा, परिचरितुं वा सहीण वक्खिते । पुष्वावरसंकासुव ययंति अंतो व बाहिं वा ।। ५०७॥ गिहसंधारयामी जदा असहायो तथा नयेति । सहयो या पडिचरितुं जया मतदानपेति पुण्यसंभार अवरसंभार वा तो वा बाहि, बाहितो वा तो नयति ।
जे भिक्खू पाडिहारियसंतियं वा सेजासंधारयं दोषं
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( १८६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संधार
गीर्णेतं वा साइज ॥ ५४ ॥
पिश्रवत्ता बाहि यी जे भिक्खू पाडिहारियं सेजासंधार आयात अपरिह संपव्ययति संपव्ययंतं वा साइज ।। ५५ ।।
आदाय गृहीया
सम्यि गीभावेण प्रति संप्रवजति तस्स मासल हुं एस सुतस्था । हामीबिया
परिहरिण पडिहारि उ भातावतंडगेऊ । अप्पमपि संपथ्य सम्मगमयं तु ||४०|| मासकये पुणे माये अपन तीत्यर्थः सम्यकमा जति जगती सम्म पनी प्रजनं ।
संगो बिहा गाड़ा
अहवा से
अपरि
सेजा संथारो उ, परिसाडी अपरिसाडियो होति । परिसाडि कारणम्मी, अपि मासो मायादी | ५०६ सोयागत ति लहुगा, अप्पत्ति य गुरुग जं च बोच्छेदो । सब्यंगी संजा, अजतियहत्थों संथारगां । जा एवं संचारको साडी य । उदुद्धे परिसाडी कार घेप्पति तं मासक गर्दनस्य मासल धागा मा इमे चरण दासुतं तेग संथारगसामिणो जहा से संजना संधार लगता चला परियां से भति । किं व संजतारा विषेण स भवति । वि अग्गो अहं एयं पतिर यि बल अह उत्पत्तियं करेंतिता इमे सुधा हारिता विलासिता या बउगुरु जं arogi करेति तस्स वा श्राहस या साहस, तद्दव्यस्स या प्रणवव्यस्त वा पन्थ बिउगुरुगं । अहया सम्म सं धारये कामास अतिमास गुरु अनतिमा अ इस गाय जा विरादया तरिणफर च पच्छितं ।
गाडा-
-
कप्पलगेण य, डहरो लहुगा लग अन्य ॥ ५ १० ॥ खेलतुयय लगी होति गुरुगी य । इत्थी पुरिसतुयट्टे, हे, लहुगा गुरुगा अणायारे ।। ५११ ।। दिवंते व तदा णिच्छिण अलभसु भेत्ति त्तसं कतकजा जणभोगं, कां तू कहिं ? गया सच्छा ।।५१२ ।। संथारेगमरेगे, भयडविधा तु होति कायव्या । पुरिसे घरसंघारे, एगमगे य पत्तेगो ।। ५१३ ॥ आणणे जा जयणा, सा जयणा होति अपिंते वि । बोचरमावसहिते, दोसा य अणपितम्मि ।। ५१४ ।। वितियपदमा मिते वा, देसुट्ठाणे व बांधिगादीसुं । अद्वारा सीमर वा सच्छ व पधावितो तुरितं ।।५१५।। १- मग्भच्छ। इति पाठान्तरम्, बृहत्कल्पनाये इमा गाधाः ।
मंधार
एतेहि कारणेहिं वते को वि तस्स तु णिवेदे । अप्पात व सागा- रिवाद साधू ॥ ५१६ ।। एव गमो खियमा, फलगाण वि होति आणुपुवीए ।
चतुरो लहुया मायी, य णत्थि एयं तु णाणत्तं || ५१७|| परिसामिपरिसाडिय, सागारियसंतियं तु संधारं । अधिकरणं कायं दूतिअंतम्मि भयादी ।। ५१८ ॥ किडवाले, गयये उहणे य होति तह चेव । विकरणपापा, फलगतये तु साहरणं ॥ १६ ॥ पुंज पाने व गहि जे जहितं नहि उबेतव्यं । फलगंजतो गहित, बाहाए वि कुरणं कजा ।। ५२० ।। पुष्य गतार्थ सम्मि सुरंग संधारगे पुरिसित्धीसु तु पदेसु ल | भगायारमाबरतेसु बउगुरुगं । अडवा साउं गते इमं फसवणं भज । विजंत यि गाहा-गहलकामेच्हि पुराण मासकां सुति । एवं भणि कमे
[
गं करेंऊ कहि ति के गामं नगरं याति पुनः शब्दो यति निद कि पुरा गागरे या गतेत्यर्थः । संधाग्गस्स गहणकाले हमा बिही। संधार गाहा धामा गारोग अहिया काव्या
साघरमा डुगा एगो संथागे पढमा भंगा। एयं अट्ट भंगा कार्यव्या । 'गमग पलेगे' लि एगभग एगगी गगनु या मा धाररूपनगेसु बसेस एस विधी मना-मो तेस पिभी आप गाहा अभिजा अविका भंगभरणा कता अभियांत विमा व अविहा भंगभरणा कातव्या । अधिघरी अत्येति मायं वा करेति न या अतिवादयो दोसा भयंति। जे पढमा बतारि भंगा तिसु जं हत्थे गहणं तव अमित पंचमभंगे महणाले अरे अहित सिएस विधी न कोथं भवति । भंगे एगो साधू पच्चपिओ पिनो सहमतीश्रो नम्याचा मान स्म नेच्छति नेत्ति एवं माया भवति । सत्तमभंग ततियभंगे वा प्रहारकंबीयां तगा एगघरे समस्स अं संभवति जम्हा एते दोसा तम्हा सच्चेहि सव्वीसुं २ - asar | कारणे पुरा विवरीत पेनि न अप्पेति वा । इमेय ते कारणा । गाहा— वितिषपदमवासंघड, देगुडा व बांहिगादीसुं । श्रद्धाणसीए वा सत्था व पधावितो तुरियं ॥ ५२१ ॥ सो संथा भामित जांग वा सो संधागामी को विगत हामी साथ या मं श्रद्धाणसीस वा सम्भो लद्धो तुरितं पहाथितो जाब पि निनाय सन्धान फित
*
कारहि गाहा-न पञ्चपति । विकर पुण करैति । श्रम साधू सत् वर्यति । एगो साधू तस्सेव निवेदयति सत्यो तु रितं धावितां तेन नी नु यं संधारयं आक्षद
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(१८७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संधार
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या साधू हि संधार अमुगे फुले अपेक्ष अति साइ सागारियाही अपदेति संथा यं अपज णिषेवणं वा करेजह | एस तराकंबीं विधी भणिता। एसेब कमी गाहा फल व सबो एसो विधी वरं विससो पहिलं बडलहुगा । मायी तणस्थी जहा तपे कंची या अपये तथा कंदीओ पतिहा फलगाएं स्थि पक्यो । मि० चू० २७० । संप्रति निविस्तरःपरिसामिपरिसाडी, पुष्वं भणिया इमं तु नायतं । परिहारिय सागारिप तं तो देति ॥ १२८॥ परिक्षा या संस्तारको भवति पाथापरिणादिः । पती ज्ञायपि पूर्वमस्मिवादमादेश के भणितादिस्य मा. नात्या-प्रतिहारिकं सागारिकातरसंस्तारकमन्तः पिते।
एतदेव सविस्तरं भावयतिपरिसाडीपडिसेहो, पुरुद्वारो य बच्छितो पुष्यं । अप्परिसाम्गिह, बासासु व बच्चि वियमा ।। १२६ ।। पूर्व परिशादेः शय्यासंस्तारकस्य प्रतिषेधः तो थान कपने परिशादि शय्यासंस्तारक इति । ततः पुनदवारोउपवादः पूर्वमेव वर्णिती यथा ऋतुबद्धे काले निष्कारणं संस्तारकाम करायले तथा पूर्वमेव वर्णितं यथा वर्षासु काले नियमाचपरिशाडे शय्यासंस्तारकस्य मह कर्त्तव्यमिति ।
पुष्पम्म त मासे, वासावासे वि संभव सुतं । सस्थेयगवेसे असती तं चैव ।। १३० ।। : अन्तर्मामस्य नगरस्य वा मध्य पूर्णे मासे वा बहिरबस्थातुकाममिदमधिकृतं सूत्रं भवति । यथा न कल्पन्ते अभ्य तराणि दणफलकानि तानि तानि माय बहि
मिति । तत्र प्रथमतस्तत्रैव वहिः प्रदेशे अन्यत्र तृणफलकामियं शय्यासंस्तारकं गयेषयेत् । असति-बहिः संस्तारकस्यालभ्यमानत्वेनाभावे तमेव सागारिकसर कम म्य सत्कं या शय्यासंस्तारकमनुतापयेत् यथा यहियाचितः शय्या स्तारका परं न ततो यूयमनुजानीयात्मीयं संस्तारकं येन बहिर्नयाम इति । यदि नानुज्ञापयति तदा तृणमयसं स्तारकविषये प्रीतिं मासलघु, फलकमयसंस्तारकविप्रायश्चित्तं पये चतुर्लघु ।
अत्रैवापवादमधिकृत्य विकल्पानाह
अवा अवस्थेत व्ययम्म दव्यमि किं भजे पदमं । णयणं सममावा, विवअतो वा जहुत्तातो ॥। १३१ ।। अथयेत्यधिकृत्य प्रकारान्तरोपवने यदि निय मातं संस्तारकद्रव्यं बद्दितव्यं न शक्यते तद्विना मोक्षसाधनं कर्तुमिति, तर्हि प्रथमतः किं कर्त्तव्यं नयनं समनुशा वा । श्राचार्य आह- अवश्यं नयनलक्षणे अपवादे प्राप्ते पूर्य नयने कर्त्तव्यम् पाशापना यदि वा पूर्वमनुपना कर्त्तव्या पञ्चाम्यनम् । विपर्ययो वा यथोक्तः । किमुक् भवति ?, नापि पूर्वमनुज्ञापयेत् नापि नीत्वा पश्चादनुज्ञापयत्
"
संधार
ततः पूर्वमनुज्ञापनं पश्चापनमित्येकाम्यो भङ्गः एष च भङ्गस्तदा इदथ्यो यदा ये होगा मासकर परिगतास्ते अन्तः सन्ति बहिन विद्यन्ते हि फलकाम्यतुशाप्यमानाम्यपि न लभ्यन्ते तथा अभ्यन्तराणि येषां सस्कानि तायाप्य नीयन्ते। अथान्तरशिवाकान मनमुयातिमत्यासम्मो न च बहिस्णफलकादीनि ल म्यन्ते तदा पूर्वनयमं पधारनुज्ञापनं यथा पहिचान तृणफलकादीनि परं न लब्धानि ततो युष्मदीयाम्येय तत्र मीतामस्यस्माकं ताम्यनुजानीत पक्ष तु करतोहिरवश्यं गन्तव्यं हि फलकादीनि न लभ्यन्ते नय लागि बिना साधवः संस्तरीतुं शक्नुवन्ति । नतु येषामभ्यतराणि तृफलकादीनि ते अनुजानन्तः संभावयनयामनुज्ञाप्यम् तेषु हितेषु तेषामभिनिवातदान पूर्वममुखा परं नापि नीत्वा पञ्चानुज्ञापनमिति । तदेवं पूर्णमासकप पूर्ण वर्षाका विधिवत एवमपि प्रयम्।
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तथा चाह
एमेव मम्मि वि, बसहीबाधाएँ अमसंकमणे । वासवासति संथारो सुत्तनिदेसो ।। १३२ ।। एवमेव अमेय प्रकारेण पूरा मासकथम् - पमित्याह-बसते सति उपाश्रयाभाष सति उपासयाभावे गन्तव्यमवश्यं जातम् यत्रस्तारकालाम पूर्वप्रकारण संवतारकी नेतब्यः, पर सूनदेश :- एव सूत्रविषय इति भावः ।
तत्र पूर्वनयमं पश्चादनुज्ञापनमिति भङ्गमधिकृत्य विधिमाह
नीहरि संथारं, पासवोच्चारभूमिभिक्खादी | गच्छेदवाव (स)कार्य करे इमा तत्थ रुपया १३३
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aft कारणवशतः पूर्वमनुज्ञाप्य तृणफलकादिमयः संस्तारको बहिनीता परियासतेघां च बहियां वसनि गत्या तत्र संस्तारकोऽननुमाप्य नीत्या स्थापित व्यापारपरित्यागेन नियमतः पश्चादनुशापना कर्त्तव्या । श्रथ मीरा प्रणभूमिसुधारभूमिं भिवानी वा गद् अथया स्वाध्यायं करोति तंत्रयं वक्ष्यमा आरोपणा प्रायश्चितम् । तामेवाहएएच पी तणेसु लहुगो व लडुगफलगेसु । रायम्हणे, चउगुरुगा होंति खातव्या ।। १३४ || एतेषु प्रस्रवणभूम्यादिषु चतुर्षु स्थानेष्वननुज्ञाप्य प्रवृत्ती दषु-दरामसंस्तारकविषये प्रायश्चितं लघु माखः । फलकेषु विषय चत्वारो सघुकाः। राजनिि दानां सुफलकादीनामनुज्ञाप्य प्रचत्वारी गुरुका भय न्ति ज्ञातव्याः ।
at aur निग्गंथाण वा निगंधीण वा पुन्त्रामेव श्रोमहं गिहिचा तो पच्छा अशुभ || १० | कप्पर निधाय वा निग्गंधी या पुण्यामेव ओगई श्रणुन्नवेत्ता तच पच्छा भोगिरिहत्तर मह पुरा एवं जा
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मंधार
(१८८) संथार
अभिधानराजेन्द्रः। णेजा इह खनु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे
किमित्याहपाडिहारिए सेआसंथारए त्तिकह एवएहं कप्पइ पुवामेव
ताणि विउ न कप्पंती,अणणुप्मवियम्मि लहगमासोउ। प्रोग्गाहं ओगिरिहत्ता तो पच्छा अणुन्नवेत्तए मा व
इत्तरियं पिन कप्पड़, तम्हा उ अजातितोगहणं।।१३८॥ हउं अञ्जोवइ अणुलोमेणं अणुलोमयब्बे सिया इति ।११।
तान्यपि अननुशापिते स्वामिनि ग्रहीतुं न कल्पन्ते । यदि पु.
नरननुशाप्य गृह्णाति तदा प्रायश्चित्तं लघुको मासः । कस्मा. अस्य सूत्रस्य संबन्धमाह
देवमत आह-यस्मादित्वरमपि-क्षणमात्रमपीत्यर्थः, अवनउग्गहसमणुमासु, सेज्जासंथारएसु य तहेव ।
हणमयाचितं न कल्पते । उक्तं च-" इत्तरियं पि न कप्पड , अणुवत्तंतेसु भवे, पंते अणुलोमवति सुत्तं ॥१३॥
अविदिनं बलु परोग्गहादीसु । चिट्ठिन्तु निसीयातुं, तुवट्टरतुं
च (तइयव्यय) रक्खणट्ठाए ॥१॥" अवग्रहः संस्तारकाश्च स्वामिना अनुज्ञाताः, श्रवग्रहीत
तथा अननुशापने तिष्ठत इमे च दोषाःघ्याः, इत्युत्सर्गत उपदेशस्तदेवमवग्रहसमनुशासु शय्यासंस्तारकेषु तथैव समनुशातव्येष्वनुवर्तमानेष्विदमिति सूत्रं
जावंतियदोसो वा, अदत्तनिच्छुभणदिवसरातो वा । समनुशातसंस्तारकादिग्रहणविषये भवति । अपवादतोऽननु
एए दोसे पावइ, दिनवियारे वि ठायतो ॥ १३६ ।। ज्ञाप्य संस्तारकग्रहणे यदि संस्तारकस्वामी प्रान्तो रुो भ- अननुझाते दत्तविचारोऽपि यदि तिष्ठति तदा यावन्तिकघेत; तस्मिन्प्रान्ते अनुलोमवा वक्तव्या, अनेन संबन्धेनाया. दोषस्तथा 'अदत्ते' क्ति-अदत्तदानग्रहदोषश्चोपजायते। तथा तस्यास्य व्याख्या--न' कल्पते निर्ग्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा कदाचित् स सभादिस्वामी प्रान्तो घूयात् केनामीषामत्र स्थान प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं सर्वात्मना अर्पयित्वा द्वितीय
दत्तं नह्यमीषां योग्यमिति । ततो रुष्टः सन् दिवसे रात्री मप्यवग्रहमननुशाप्य, अधिष्ठातुम् अनुज्ञाप्य पुनः कल्पते
वा निष्काशनं कुर्यात् । तस्माद्दत्तविचारेऽप्यननुशाप्य तिष्ठन् एवं सागारिकसत्केऽपि शय्यासंस्तारके द्वावालापको वक्त
एतान् दोषान्मामोति; तस्मात्तत्रापि पूर्वमनुशाप्य पश्चात्कव्यौ । तथा न करपते निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमे
ल्पते स्थातुम् । एवं सति यावन्तिकदोषो न भवति । स्वामिवावग्रहमवगहीतुं ततः पश्चादनुशापयितुम् । कल्पते निम्र
सत्कं कृत्वा तदनुज्ञापनाददत्तादानं निष्काशनं च न न्धानां वा निर्ग्रन्वीनां या पूर्वमेवावग्रहमनुशापयितुं पश्चा
भवतीति। दषग्रहीतुमिति । अथ पुनरेतत् जानीयात्-इह खलु निम्र.
किंतु अदिनवियारे, कोहारादीसु जत्थ तणफलगा। म्थानां या निर्ग्रन्थीनां वा न सुलभः शय्यासंस्तारक इति रक्खिअंते तहियं, अणणुनाए य ठायति ॥१४॥ कृत्वा एवमेव-अमुमा प्रकारेण । णमिति वाक्यालंकारे। कल्प. आस्तां दत्तविचारे अनुवापनमन्तरेण न तिष्ठन्ति प्रागुते पूर्वमघावग्रहमवग्रहीतुं ततः पश्चादनुशापयितुम् । तत्रैव दोषसंभवात्। किंतु-प्रदत्तविचारेष्वपि । गाथायामेकवचकारणे शय्यासंस्तारकस्वामिना सह संयतानां कलहे श्रा- नमपिशब्दलोपश्चार्षत्वात् । न दत्तो विचारप्रदेशो यत्र ताचार्याः संयतान् घुषते-'भो! आर्या ! द्विविधा कुरुत द्वा.
म्यदत्तविचाराणि तेष्वपि, केष्वित्याह-कोष्ठागारादिषु कोबपि कुरुत एकं बसति प्रतिगृह्णीथ अपरे परुषाणि भाषध्वे,
ष्ठागारं धान्यस्य तृणादीनां वा आदिशब्दात्-चतुःशालातस्मात् क्षमभ्वमित्येवं वचसा अनुलोमेन--अनुकूलेनानु- दीनि । तथा देवकुलं गोष्ठिकादीनां वा गृहाणि, यत्र गोलोमयितव्यः स्यादिति।
ष्ठिकादयः समवायं कुर्वन्ति तानि। दत्तविचाराणि भवसेजासंथारदुर्ग, अणुस्सवेऊण ठायमाणस्स । न्ति प्रवत्तविचाराणि गृह्यन्ते, तेषु कोष्ठागाराविषु यत्र येषु लहुगो लहुगो लहुगा,आखादी निच्छुभणपंतो ।।१३६।।
तुणफलकानि रक्ष्यन्ते । तथाहि-प्रतीतमेतत्कोष्ठागारादि
घुमा कोऽपि किमपि हार्षीरिति प्राहरिकमोचन्नेन तृणाशय्यासंस्तारकद्विकं परिशाट्यपरिशाटिरूपं शालादिषु चा- नि फलकानि धान्यानि च प्रयत्नेन रक्ष्यन्ते । पग्रहमननुज्ञाप्य तिष्ठतः प्रायश्चित्तं लघुकादि । तद्यथा-शा
तत्र तेवननुज्ञातेषु साधयो न तिष्ठन्ति । किमर्थमिति चेलाविषयग्रहमननुज्ञाप्य तिष्ठतां लघुको मासः । परिशाटौ दत पाहमासलघु, अपरिशाटी चत्वारो लघुकाः । तथा आज्ञादयः
दोसाण रक्खणड्डा, चोएइ निरत्थयं ततो सुत्तं । पाशाभादयो दोषाः । तथा सांप्रतं कोऽपि रुष्टः सन् निछुभणं-निष्काशनं कुर्यात् ।
भन्नइ कारणियं खलु, इमे य ते कारणाहुति ॥१४१॥
दोषाणां प्रायश्चित्तप्रसङ्गतो भनादिरूपाणां रक्षणार्थ-रक्षएवमदिपवियारे, दिपबियारे वि सभपवादीसुं।
णाय तत्र न तिष्ठन्ति । अत्र परश्वोदयति-यपेयं ततः सूत्रम्तणफलगाणुमाया, कप्पडियादीण जत्थ भवो ॥१३७।। 'बह खलु निग्गंथाण वा निग्गथीण वा नो खलु भे पाडिएवमदत्तषिचारे शालादौ द्रव्यम् । दत्तषिचारं नाम यत्र हारिप' स्यादि निरर्थकमाविषयत्वात् , सूत्रे हि अनुहाकार्पटिकादिर्न कोऽपि धार्यते तप, सभा या प्रपाषा मराज
पनमन्तरेणापि पूर्वमनुशामिति । सूरिराह-भण्यते-उपको षा याम्यपि च तत्र तृणफलकादीनि ताम्यप्यनुशा
तरं दीयते। इव च खलु सूत्रं कारणिक-कारणैर्निर्वृत्तम् तानि । तथा चाह-यत्र कार्पटिकादीनां तृणफलकादीन्यनु
तानि च कारणानि इमानि-वक्ष्यमाणानि भवन्ति । हातानि भवन्ति तेष्वपि दत्तषिचारेषु सभाप्रपाविषु यानि
ताम्येषाहदणफलकादीनि ताम्यपि।
अद्धाणे भट्ठाहिय, भोमसिवगामाणुगामियबियाले ।
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संधार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार तेणा सावयमसगा, सीयं वा संदुरहियासं ॥१४२॥ । एवं याचितो यदि ददाति ततः सुन्दरम् । अथ न ददाति अध्वनि-मार्गे गताः साधवः तत्रान्यत्र याचिता वसतिः,
तदाऽनुलोमेन वचसा अनुलोमयितव्यः । धर्मकथा तस्य कपरं न लब्धा । अथवा-अष्टाहिकां द्रएमागताः । यदि वा
ध्यते, निमित्तादिकं वा प्रयुज्यते । तथाप्यददति परुषमपि ग्लानादीनां कारणेन । यदिवा-अवमौदर्यमशिवं वा भवि
वक्तव्यम् । कथमित्याह-निरस्तानां-निष्काशितानामस्माध्यतीत्यन्यदेशं प्रस्थिता विकाले प्राप्ताः । अथवा-ग्रामानु
कं ये स्तेनकश्वापदादिभिरुपधिशरीरमरणदोषा जायेरन् मा ग्राम विहरन्ति । व्यतिकृष्टमन्तरमपान्तराले इति कृत्वा सा
ते तवाप्युपरि पतयुरिति ।। र्थवशेन वा निशि-विकाले प्राप्ताः, अन्या च वसति रो
एतदेव सविस्तरमभिधित्सुराहचते । वसतिमन्तरेण च स्तेनभयं वा स्वापदभयं का मशका जड़ देइ सुंदरं तु, अह उ वएजाहि नीति मज्झ गिहा । वा दुरध्यासाः, शीतं वा दुरध्यासं पतति, यथा उत्तरापथे । अन्नत्थ वसहि मग्गह,तहियं अणुसहिमादीणि।।१४८।। वर्ष वा घनं निपतन् तिष्ठति । तत पतैः कारणैरदृष्टेऽप्यधि
यदि 'विले व घसिउँ नागा' इत्यादि भणनानन्तरं वसति कृतवसतिस्वामिनि मा-यथा अन्ये पथिकाः कार्पटिका वा
ददाति ततः सुन्दरम् । अथ वदेत् मम गृहान्निर्गच्छुततिष्ठन्ति तथैव कायिक्यादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य पूर्वमवग्रहं गृ
अन्यत्र वसतिं याचध्वमिति तदा तत्रानुशिष्टयादीनि किहीत्वा पश्चाद् वसतिखामिनपनुशापयति ।
यन्ते; अनुशिष्टिः-अनुशासनं क्रियते । श्रादिशब्दात-धर्मएतदेव सविशेषमाह
कथा कथ्यते इति परिग्रहः । एएहि कारणेहि, पुव्वं पेहेतु दिट्ठ गुमाए । अणुलोमणं सजाती, सजाइमेवेति तह वि उ अठते । ताहे अयंति दिढे, इमा उ जयणा तहिं होइ ॥१४३॥ अभियोगनिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो॥१४६॥ एतैः-अनन्तरोदितैः कारणैः पूर्वमुच्चारादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य तथा अनुलोमेन वचसा अनुलोमनं कर्त्तव्यम् । अथ तथादृष्टः परिजनोऽनुज्ञाप्यते । ततस्तस्यां वसतावायान्ति सा
पि न ददाति तर्हि सजातिः सजातिमनुकूलयतीति न्यायधवस्तत्र दृष्टे परिजने इयं वक्ष्यमाणा यतना भवति ।
मङ्गीकृत्य ये तस्य स्वजना यानि च मित्राणि तैरनुनयितव्यः । .तामेवाह
तथाप्यतिष्ठति अभियोगो मन्त्रादिना कर्तव्यः, निमित्तं वा
प्रयोक्तव्यम् , बन्धनं वा सर्वैरपि साधुभिस्तस्य कर्तव्यम् । पेहे उच्चारभृमादी, ठायंती वोत्तु परिजणं ।
ततः प्रभाते व्यवहारः कर्तव्यः । अत्थाओ जाव सो एई, जाचीहामो तमागयं ॥१४४।।
मा णो छित्रसु भाणाई, मा भिंदिस्ससि णोऽजत!। प्रेक्ष्य-प्रत्युपेक्ष्य उच्चारभूम्यादि परिजनमुक्त्वा साधव
दुहतो वायँ वोलेंति, थेरा वारेति संजए ॥ १५ ॥ स्तत्र तिष्ठन्ति-कथमुक्त्वेत्यत आह-श्रास्महे तावत् या
यदि साधूनां भाण्डक बहिर्नेतुं व्यवसितस्तदा स भण्यवत्स गृहस्वामी समागच्छति ततस्तमागतं याचिष्यामहे ।।
ते । मानः-अस्माकं भाजनानि स्पृश, हे अयत ? मा वा नों. स चागतो येन विधिना समनुज्ञापयितव्यस्तं विधिमाह
ऽस्माकं भाजनानि भिन्धि । यदि पुनस्तं संयता निर्द्धर्मादिवयं वमं च णाऊणं, वयंते वग्गुवादियो ।
वचोभिराकोशन्ति तदा स्थविरा श्राचार्याः संयतान् चारसभंडा वेयरे सेजं, अप्फदंती निरंतरं॥१४॥
यन्ति । प्राचार्या द्विधातो वाचं कुर्युः, एकं तावत् वसति
प्रतिगृह्णीथ, द्वितीयं परुषाणि भाषध्वे । तस्मान्मा एवं भणत; वयो वराण च गृहस्वामिनो ज्ञात्वा वल्गु शोभनं वदन्तीत्ये। यत्करोति तत् क्षमध्वमिति । वंशीला वल्गुवादिनो वसतिस्वामिनं वक्ष्यमाणं वदन्ति । इ
__ अहवा वेंति अम्हे ते, सहामो एस ते बली। तरे च सभाण्डाः सोपकरणाः सन्तो निरन्तरं वसतिमास्पन्दन्ते व्याप्नुन्ति ।
न सहेजाऽवराहं ते, तेण होज न ते खमं ॥ १५१॥ कथं वदन्तीत्यत आह
अथवा इदं त्रुवते-वयं तवापराधं सहामहे, एष पुनर्बली
यान् तवापराधं न सहेत । असहिष्णुना वा तेन यत्क्रियेत अब्भासत्थं गंतू-ण पुच्छए दूरएत्तिमा जयणा।
तन्न ते क्षेमं भवेत् । तद्दिसमेत्तपडिच्छण, पत्ते य कहेंति सम्भावं ॥१४६॥
एवमुक्तो यदि सोऽतिरोषेण न तिष्ठति, निष्काशयति, प्रयदि अभ्यासस्थो-निकटवर्ती भवति तदा गत्वा वसति- हारी धावति, तदा स बलीयान् यत्करोति तहर्शयतिस्वामिनं पृच्छति । अथ दूरप्राप्तस्तत्रेयं यतना। तां दिशमा- सो य रुट्ठो व उद्वित्ता, खभं कुटुं व कंपए। गच्छतः प्रतीक्षण कर्त्तव्यम् प्राप्ते च तस्मिन् सद्भावं कथय
पुव्वं वा नातिमित्तेहि, तं गति पहऍ वा ॥ १५२ ।। न्ति यथा बहिः स्तेनादिभयात् युष्माकमुपाश्रये वयं स्स्थिताः, तथेदं वदन्ति ।
स बलीयान् रुष्ट इव, न तु परमार्थतो रुष्ट उत्थाय स्त
म्भ वा कुड्यं वा मुष्टिप्रहारेण कम्पयति । कम्पयश्च ब्रूते-एविले व वसिउं नागा,(पातो)गच्छामो तज्जणा निरत्थाणं ।
वं शिरः पातयिष्यामि, यदि न स्थास्यसि । एतच पर्यन्ते बहि दोसा जाते मा,होजा तुज्झवि अहोसजा।।१४७॥
उच्यते, अन्यथा पूर्वमेव शातिभिर्मित्रैर्वा प्रभुणा तं गमयन्ति, विले नागा इव वयं युष्मदुपाश्रये उषित्वा प्रातर्गच्छाम | तथाऽप्यतिष्ठत्यनन्तरोदितं क्रियते । व्य०८ उ०॥
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(१९०) संथार अभिधानराजेन्द्रः।
संथार संस्तारको विप्रण्टः स्यात् तदावग्रहीं
रुकं, ग्लानस्थापने कालेन गुरुकं , चतुर्थपदे-श्रव्यक्तस्थापइह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पडिहारिए वा
नात्मके द्वाभ्यामपि-तपःकालाभ्यां लघुकम् । सागारियसंतिए वा सेजासंथारए परिब्भटे सिया,से य अ
तत्र दोषानुपदर्शयति
मिच्छत्तबहुगवारण-भडाण मरणं तिरिक्खमणुयाम्। णुगवेसियब्बे सिया,से य अणुगवेसमाणे लभेजा। तस्सव अणुप्पदायब्बे सिया, से अ अणुगवेसमाणे णा लभेजा।
आएसबालनिके--यणे य सुन्ने भवे दोसा ॥ ६३६ ।। एवं से कप्पइ दोच्चं पि उग्गहं प्रोगिरिहत्ता परिहारं प
बलिधम्मकहाकिड्डा-पमजणा चरिमणा य पाहुडिया। रिहरित्तए ॥२८॥
खंधारअगणि भंगे, मालवतेणा एमाइया ॥४०॥
गाथाद्वयं पीठिकायां सविस्तर व्याख्यातम् । यत एते दोषा अथास्य (सूत्रस्य ) संवन्धमाह
अतो वसतिः शून्या न कर्त्तव्या, न वा बाली ग्लानोऽव्यक्तो दोरहेगयरं णटुं, गवेसिउँ पुचसामिणो देंति । वा वसतिपालः स्थापनीयः । अपमादट्ठा अहिए, हिए य सुत्तस्स आरंभो ॥६३६॥ संथारविप्पणासो, एवं खु भविञ्जतीति चोएति । द्वयोः-प्रातिहारिकसागारिकयोः परिशाट्यपरिशाटिनोर्वा सुत्तं होइ य अफलं, अह सफलं उभयहा दोसा ।६४१॥ संस्तारकयोरेकतरं संस्तारकं नष्ट गवेषयित्वा पूर्वस्वामिनः नादयति-परः प्रेरयति, एवं खुः-अवधारणे सुरक्षित क्रिप्रयच्छन्ति । अतः अहते-अनट प्रमादार्थ, हृते च गवेषणा- यमाणे संस्तारकस्य विप्रणाशो न विद्यते । तथा च सेजा दिसामाचारीप्रदर्शनार्थमस्य सूत्रस्यारम्भः क्रियते। अनेन संथारए विप्पणस्सिन्जा' इत्यादिलक्षणं सूत्रमफलं भवति । संवन्धनायातस्यास्य (२८) व्याख्या-इहास्मिन् मौनीन्द्रे प्रव- अथ सूत्रं सफलं मन्यध्वे ततो बालादिदीपरहितो वसतिचने स्थितानां खलुक्यालंकारे निग्रन्थानां चा निर्ग्रन्थीनां पालः स्थापनीयः इति यदुक्तं तदफलं प्राप्नोति । एवमुभयथा या प्रातिहारिको वा सागारिकसत्को वा शय्यासंस्तारको ऽपि दोषा भवन्ति । विप्रणश्यत्-विविधैः प्रकारैः प्रकर्षण रक्षमाणोऽपि नश्यतास
सूरिगह-यथा द्वयमपि सफलं भवति तथाऽभिधीयतेचानुगवेषयितव्यो विप्रणाशानन्तरं पृष्ठन एव गवेषयितव्यः स्यात्-भवेत् । स चानुगवेष्यमाणा लश्चत, तस्यैव-संस्ता
निजंताऽणिजंतो , पायावणणीणितोऽवहीरेजा। रकस्वामिनः प्रतिदातव्यः-प्रत्यर्पणीयः स्यात् । स चानुग- तेणऽगणिउदगसंभम-बोहिकभयरट्ठउट्ठाणे ॥ ६४२ ।। येष्यमाणा नो लभ्यत, तत एवं 'से' तस्य कल्पते द्वितीय प्रत्यर्पणार्थ नीयमानः संस्तारको राजपुरुपैरन्तराऽपहियेमप्यवग्रहमनुज्ञाप्य । एकं तावत्प्रथमं यदा गृहीतस्तदाऽनु
त 'श्राणितो 'त्ति गृहपतिगृहादानीयमानो वा राजपुरुज्ञापितः, ततो विप्रनष्टः सन् गवेष्यमाणोऽपि यदा न लब्ध
पैलादपहियत । आतापनमाताप संस्तार कस्य प्रदानं तदस्तदा संस्तारकस्वामिनः कथिते सति यदसावन्यं संस्ता- थ वा बहिर्निष्काशितः केनापि हियत , स्तनाग्म्युदकसंभ्ररकं ददाति , यद्वा स एव संस्तारकस्वामिना मृग्यमाणो मेपु वा बोधिकभय वा राष्ट्रस्य देशस्य यदुत्थानम्-उद्वसीलब्धः , ततस्तद्विषयं द्वितीयमवग्रहमनुज्ञाप्य परिहारं
रहार- भवन तत्र हियेत ।। धारणापरिभोगलक्षणं परिहत्तु धातूनामनेकार्थत्वात्कर्तुमिति सूत्राथः।
पडिसहेण व लदो, पडिलेहणमादिविरहिते गहणं । . अथ नियुक्तिविस्तरः
अणुसिट्ठी धम्मकहा, वल्लमो वा निमिन ४३।।
प्रतिपधो नाम संस्तारको माय॑माणस्तेन स्वामिना संथारो नासिहिती, वसहीपालम्ल मग्गणा होति ।
नाहं प्रयच्छामीति भवत् प्रतिपिद्धस्ततः स केनचित् सुन्नाई उ विभासा, जहेब हेडा तहेव इ ।। ६३७ ॥
भद्रकेणानुशिष्टः-किं न प्रयच्छसीति ?, स प्राह-विशून्यायां वसतौ कृतायां संस्तारको नश्यतीति प्रथमत प्रणाशभयात् । इतरो ब्रवीति-नामीपां हस्ताद्विएव वसतिः शून्या कर्त्तव्या येनासोन नश्यति। अतः एवात्र
प्रणश्यति , एवंविधन प्रतिषधेन बा लब्धः स प्रयलेन यसतिपालस्य मार्गणा भवति । कथमित्याह-'सुन्नाई' इत्या
रक्ष्यमाणोऽपि प्रत्युपेक्षणानिमित्तं बहितिः , साधुश्च दि यथैवाधस्तात्पीटिकायां शय्याकल्पिकद्वारे 'सुन्न बाल- विस्मृतरजोहरणार्थ मध्ये प्रविष्टः । स चोकृष्णाऽयमिति कृगिलाण' इत्यादिका विभाषा कृता तथैवेहापि मन्तब्या।
न्या विरहितं मन्या केनापि गृहीतः। श्रादिग्रहणादुपाश्रय
स्यान्तः राजयनभन दृष्टा बलमोटिकया ग्रहणं कृतम् । एवं स्थानान्यार्थ पुनरिदमाह
विप्रनऐ सति येन हृतस्तस्य पार्वान्मागयितव्यः । श्रथ मापदमम्मि य चउलहगा, सेसेसुं मासियं तु नाणतं । । र्गितोऽपि न ददाति ततोऽनुशिष्टिः क्रियते । तथाप्यप्रयदोहि गुरू एकेणं, चउत्थपऍ दोहि वी लहुगा ॥१३॥ च्छति धर्मकथा कर्तव्या। एवमप्यददाने यो द्रमकस्तस्य प्रथम स्थान वसतेः शून्यताकरणलक्षणे चतुर्लघुकाः, द्वाभ्यां
तापन क्रियते । यस्तु राजवल्लभः स निमित्तेनावर्तनीयः। तपःकालाभ्यां गुरुकाः । शेषेषु-वालग्नानाध्यक्तस्थाप
कथं पुनरनुशिष्टिः क्रियते इत्युच्यतेनलक्षणेषु त्रिपु लघुमासिकम् । तत्र बालस्थापने तपसा गु- दिन्नो भवबिहेणे-व एस णारिहसि णे ण दा जो ।
अथ
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संधार अभिधानराजेन्द्रः।
संधार अन्नो वि ताव देयो, देजाणमजाणताऽऽणीय ॥४४॥ ते भोगिकादयो भणयुः, गच्छत यूयं वयं संस्तारकं संय एष भवता संस्तारको गृहीतः स भवद्विधनव शिष्ट- स्तारकस्वामिनं समर्पयिष्यामः, इति एप विधिप सपुरुषेण दत्तस्तता ‘णे'-अस्माकं न नाहसि दातुम् , अताऽपि स्तारके मन्तव्यः । अढऐ इदं वषयमाणं भवति । ताबद्भवता संस्तारको देयः किं पुनयोऽन्यदत्तः । ततः अ
अथैनामेव गाथां व्याचलेजानता जानता वा आनीतमतोऽस्माकं प्रयच्छ ।
खताइसिट्टे दिते, महत्तरकिच्चकरभोइए वाऽवि । एवम् अनुशिष्टी यदि न प्रयच्छति ततोऽयं विधिः- देसारक्खियमचे, करणे निवे मा गुरू दंडो।। ६५०॥ मंतनिमित्तं पुण रा-यवल्लभे दमगभेसणमदेंते ।
'खंत 'त्ति-पितरि तदानीमनन्तरोक्लनीत्या शिष्टे-कथिते धम्मकहा पुण दोसु वि,जति अवराहो दुहा वाहिओ९४५ ऽप्यददाने महत्तरस्य-ग्रामप्रधानपुरुषस्य कथयन्ति । कृत्यराजवल्लभ अददति,मन्त्री निमित्तं वा प्रयोक्तव्यम्। द्रमकस्य करो-ग्रामकृत्ये नियुक्तो भोगिको-ग्रामस्वामी तयोर्वा कतु भेषणं कर्तव्यम् । धर्मकथा पुनद्धयोरपि द्रमकराजबल्ल
थयन्ति । देशारक्षिका-महावलाधिकृतः,अमात्यो-राजमन्त्री भयाः प्रयुज्यते, यथा यतयः-साधयस्तेषामुपकरणापहारा
तयोर्वा यथाक्रम निवेद्यते । तथाप्यददाने करण ऽपि निवद्यपराधो हि इह लोके परलोक वाऽहितो भवति ।
दयन्ति । नृपस्य तु न निवद्यते, मा गुरुगरीयान् सर्वस्वइदमेव व्यनक्ति
हारणादिको दण्डो भवदिति कृत्वा । अन्नं पि ताव तेन्नं, इहपरलोके य पारिणाम हियं । एए उ दवावंती, अहव भणज्जा स कस्स दायव्यो। परतो जायितलद्धं, किं पुण मन्नुप्पहरणेसुं ॥६४६॥
अमुकस्स त्ति य भणिए,बच्चह तस्स प्पणिस्सामो॥६५१|| अन्यदपि प्राकृत जनविषयमपि यस्तैन्यं तत्तादिह परलोके
एते भोगिकादयो यदि दापयन्ति तता लएम् । अथवा-ते चा परिणामे ऽहितं भवति । किं पुनः परतो याचितं यल्लब्ध
भणयुः-स संस्तारकः कस्य दातव्य इति । ततः साधुभिरताप ह्रियमाण मन्युप्रहरणेषु साधुषु । मन्युः-क्रोधस्त
मुकस्यति भणित ते बुवंत-व्रजत यूयं, बयेमेव तस्यार्प
यिष्याम इति । प्रहरणास्तदायुधा एव ऋषयः । ततस्तेषां हियमाणमिहपरलोकयोः सुतरामहितं भवति ।
जति सिं कजसमत्ती, वयंति इहरा उ घेत्तु संथारं । एवमप्युक्तो याद न दद्यात् ततः
दितु णाते चवं, अदिट्ठ णाए इमा जयणा ।। ६५२ ।। खते व भूणए वा, भोइगजामातुगे असइ साहे । यदि 'सिं' तपां साधूनां तेन संस्तारकग कार्यसमाप्तिः संसिम्मि य ज कुणइ, सो मग्गणदाणववहारो॥१४७।।
जाता मासकल्पश्च पूर्णस्तता भागिकादिभिर्विसर्जिता वज'खंत' त्ति-पिता तेन गृहीते पुत्रस्य निवेद्यते, भ्रूणकः-पुत्र
न्ति, इतरथा-संस्तारककायें असमाप्त. अपूगर्गे मासकल्पेतं स्तन गृहीते पिता प्रज्ञाप्यते । यद्वा-या तस्य भोजिका
वा अन्य वा संस्तारकं गृहीत्वा परिभुञ्जते । एवं दृष्ट संस्ताभार्या,यो वा जामाता ताभ्यामसी भाणयितव्यः । 'असइसा
रके शात वा स्नेने विधिसक्तः । हे 'त्ति सर्वथाऽपि यदि न ददाति तदा महत्तरादीनां निव
अदृष्ट अज्ञाते चैवं यतना भवति-- द्यत । तस्य शिष्टे कथिते यदसौ महत्तरादिः करोति त
विजादीहि गवेसण, अदिद्वे भोइयम्स वा कहिंति । प्रमाणम् । एवं प्रनएस्य संस्तारकस्य मार्गणा, एवमप्यलभ्य- जो भद्दो गवसति, पंते अणुसिट्टिमाईणि ।। ६५३ ।। माने प्रान्तस्य संस्तारकस्वामिनो 'दाण निवेदन दीयते, व्य
विद्यादिभिः संस्तारकम्य गवेपणा कर्तव्या । अथ न वहारो वा करणं प्रविश्य कर्त्तव्य इति संग्रहगाथासमासार्थः।
सन्ति विद्यादयस्ततोऽदृष्टऽशात स्तेने भोगिकस्य कथयअथैनामेव विवृणोति
न्ति । तता यो भद्रको भवति स स्वयमेव गयेषयति, यस्तु भृणगगहिते खतं, भणाइ खंतगहिते य से पुत्तं । प्रान्तः स स्वयं न गंवश्यति ततस्तत्रानुशिष्टयादीनि पदानि असति त्ति न देमाणे,कुणति दवावेति बलवाओ।ह४८॥ प्रयोक्तव्यानि । एपा पुगतनगाथा। भ्रणकन गृहीते खन्त-पितरं भणति-प्रज्ञापयति । खन्तेन
अत एनां व्याख्यानयनितु गृहीते ' से ' तस्य पुत्र भणति । उपलक्षणमिदं तेन भो- आभोगिणिए पसिणे-ण देवयाए निमित्ततो वाऽधि । जिकादीनपि भागात ' असइ' सि एतद्ग्रहणपदं व्या- एवं नाए जयणा, सा चिय खंतादि जा राया ॥१५४|| चट 'न दमाण' ति एवमप्यददान भोगिकादेः निवेद्यते । ततो
श्राभांगिनी नाम विद्या सा भरायते, या परिजापिता सती यदसौ बन्धनरोधनादि करोति दापयति वा तत्प्रमाणम् ।
मानसं परिच्छदमुत्पादयति । सा यद्यस्ति ततस्तया येन सं. भोइय व उत्तरोत्तर, नेयव्वं जाव ऽपच्छिमो राया।
स्तारका गृहीतः स श्राभोग्यत । एवं प्रश्नावस्याप्रश्नादाणं विसञ्जणं वा, विट्ठमदिटे इमं होइ ॥ ६४६ ॥ दिना देवतया या क्षपकप्रएव्यन निमित्तन वा अविसंवादिप्रथम भोगिकस्य निवेद्यते, यद्यसौ न दापयति ततो यस्तत्र नातं स्तन जानन्ति । एवं शाते सति सेव यतना कर्तव्या, देशारक्षिकः स ज्ञाप्यते । एवमुत्तरोत्तरं तावन्नेतन्यं यावद- या खन्तादिगृहीते संस्तारके भणिता । एतपामभावे विधिपश्चिमी राजा । ततो 'दाण' ति भोगिकादयश्चौरसकाशाद् गृ. माह-यावदपश्चिमो राजा।। हीत्वा साधूनां संस्तारकं दद्युः । विसज्जणं व' ति यद्वा विजादसई भोइय, विकहण केण गहिरो न जाणीमो । भाजिका-भार्या । भोगिक:-अश्वर चक. ।
दीहो हु रायहन्थो, भद्दो आम ति मग्गयते ।। ६५५ ।।
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संधार
विद्यादीनामभावे न ज्ञायते केनापि गृहीत इति, ततो भोगिकादीनां कथयन्ति । संस्तारकोऽस्माकं नष्टो वर्त्तते, यूयं तं पयत । भोगिक ग्राहकेनहीतः साधवो व ब्रुवते न जानीमो वयम् । भोगिकः प्राह-अज्ञायमानं कथं गवेषयामि । साधुभिर्वप्य दीर्घो हि राजस्तो भयति, तेन द्वि गरेष्यमाणः सुखेनेव स्तेक प्राप्यते । ततो यो भद्रको भवति व आमं सत्यमिदमिति भणित्या मार्गयति । प्रान्तः पुनरिदमाह
जाख जेर्स हडो सो, कत्थति मग्गामि से अजातो । इति पंते असिद्धी, धम्मनिमित्ताइ तह चैव ॥ ६५६ ॥ यः प्रान्तः स ब्रूयात् जानीत पूर्व पेनासी संस्तारको हृतः । अशातेन तु कुत्राहं मार्गयामि । श्रशकवदन्धवद्वा इति शान्ते भुषा अशिष्टिधर्मकथानिमित्तानि तथैव प्रवोक्रल्पम् ।
असती य मेसणं वा भीया या भोइयस्स व भएखं । साहिति दारमूले, पडिणीए इमेसु पि मेआ || ६५७॥ अथ नास्ति तत्र भोगिकः अस्ति वा परं न दापयति, सदा साधवो मे कुर्वन्ति ततो भीता या भोगिकस्थ वा भयेन द्वारमूले संहरति, संस्तारकं स्थापयन्तीत्यर्थः । वस्तु प्रत्यनीकः स एतेष्यपि पृथिव्यादिषु कामेषु पृथिव्यादिषु कायेषु प्रक्षिपेत् । यद्यस्माकं न जातस्तत एतेषामपि मा भूदिति कृत्या पप पुरातन गाथासमासार्थः । अथैनामेव व्याख्याति-
( १८२) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
भोइयमादी सती अहवा ते वि चिंति जयपुर । मुरहीहाम्रो सकओ, किह लोगमयाह जागता ।।६५८|| भोगादीनामभावे तेषु वा संस्तारकमदापयत्सु साधयो बहुजनस्य पुरतो ते वयं लोकमभिजानन्तः स्वकार्ये कथं मुह्यामहे, यदि लोकस्य नष्टं विनष्टं विस्मृतं वा जानीमस्ततः कथमात्मीयं न शास्याम इति भावः । अतो यद्यस्माकं संस्तारकं नाथ ततो वर्ष जनपुरतस्तं हस्ते गृहीत्वा दापयिष्यामः ।
अथ यूयं न प्रतीच्छ्थ ततःपेडुग तंदुलपव्यय भीया सारंति भोगस्सेते ।
साहित्थि साहरंति व दोराह वि मा होउ पडिणीए । ६५६ | तन्दुला द्विधा क्रियन्ते - एके 'पेहुणमिश्रिताः, अपरे केवसाः एव पेडु नाम-मपि तत एकः साधुः साधूनां मध्यादपसरति गृहबांध भति। युष्माकं मध्यादेकः किमप्युपकर ततो ते सति स साधुरागत्य - सति युक्त्या सर्वेऽपि तिष्ठन्तु स्थितेषु च स नैमित्तिकसामुदकं तेषामञ्जली ददाति । येन च साधुना तत् गृह्यमाणं दृष्टुं स तन्दुलान् प्रयच्छन् येन गृहीतं तत्र पेहुणमिश्रितान् ददाति । ततो नैमित्तिकसाधुस्तानि पेहुणानि दृष्ट्वा भति, अनेन गृतमिति । एवं प्रत्यये उत्पन्ने भीरान्तियति । नूनमेते एवं ज्ञात्वा भोगिकस्य कथयिष्यन्ति एवं विचिन्त्य स्वहस्तेन प्रतिश्रयद्वारमूले संस्तारकं स्थापयन्ति । प्रनीकता वा द्वयोरपि वर्गयोरस्माकममीषां च मा भूदिति बुद्धया एतेषु संहरन्ति ।
संथार
पुढवी आउकाए, अगणिस्सइतसेसु साहरछ । पित्तूस य दायचो, अदिट्ठे दिडे य दो पि ॥६६॥ कश्चित्प्रत्यनीकः चिनीकः साधुसामाचारीकोविदः सचित्तपृथिव्यस्कायवनस्पतित्रसेषु प्रक्षितेन प्रहीष्यतीति बुवा तेषु आगादे या गतीयां प्रतिपति । यद्यप्येतेषु प्रक्षिप्तस्तथापि ततो गृहीत्वा संस्तारकस्वामिनो दातव्यः । श्रथ प्रयत्नेन गवेषितोऽपि न कुत्रापि दृष्टः । यद्वा-स प्रत्यनीकतया न ददाति ततो 'दोघं पित्ति द्वितीयमपि चारमवग्रहमंनुज्ञापयेत् । परः प्राह-यथाऽहं भवामि तथा द्वितीयावग्रहः अनुज्ञापनीयः । कथमिति यस संस्तारकस्वामी म ज्ञाप्यते; यया नष्टः संस्तारकः, किं तु गत्वा भणितव्यं देहि तं संस्तारकमिदानीमेव द्वितीयोऽपग्रह उच्यते ।
गुरुराद्द
"
दित पडिणित्ता, जयणाए भद्दतो विसखेति । मग्गते यताए, उवहिग्महणे ततो वाओ ।। ६६१ ॥ दृष्टान्तो नाम गोदकेन स्वमल्या योऽभिप्राय दृष्टः प्रतिहत्य निक्षेप्य संस्तारकस्वामिनो यतनया सद्भावः कथनीयः । कथिते च भद्रको विसर्जयति गच्छत नाहं किंचिदपि भणामि । यः प्रान्तः स संस्तारकं मार्गयति, तत्रानुशिष्टिः कर्त्तव्या । श्रथ नेच्छति तदा यतनया प्रान्तोपधिदतव्यः । श्रथ बलादेव सारोपधिग्रहणं करोति ततो राजविवादः कार्यः ।
अनुमेवार्थे व्याख्याति परवयणाऽऽउडे, संथारं देहि तं तु गुरु एवं आह भणति पंतो, तेयं दाणं न वा दाहं ॥६६२ ॥ परः प्रेरकस्तस्य वचनमत्र भवति 'आउट्टेउ ' ति धर्मकथया संस्तारकस्वामी श्रावर्त्य याच्यते । तं संस्तारकं नियजं प्रयच्छ । गुरुराह एवं मायया याचमानस्य चतुर्गुरुकम् । भद्रकप्रान्तकृताश्च दोषा भवन्ति । प्रान्तो भति आनयत संस्तारकं ततो दास्यामि काना । किं च
दितो विन गहि किं सुहसेजो इयाणि संजाओ । हियनो वा नूणं, अथकजायाऍ थवयामो ॥ ६६३ ॥ दीयमानोऽपि तदानीं यो न गृहीतः किमसौ संस्तारक इदानीं सुखशय्यः संजातः । अनया अथक्कयाञ्चया अका प्रार्थनया तयामः स्तवं कुर्मः स नूनं हतो या म
या ।
भदो पुण अग्गह, जातो वा वि विपरिणामेजा | किं फुडमेवंसीसह इमो हु अने वि संधारा ||६६४|| यः पुनर्भद्रकः स साधुषु अग्रहणमनादरं कुर्यात् यो बा जानाति संस्तारको तीन देति स सम्यदर्शनाः
,
भिमुखो विपरिणमेत् श्रहो मायाविनोऽमी । विपरिणतो ब्रूयात्- किं स्फुटमेवास्माकं न शिष्यतेन कथ्यते यथा संस्कारको गए, किमेवं मायया याच्यते । इमो रिति प्रत्यक्षमुपलभ्यमाना अन्येऽपि संस्तारकाः सन्ति ।
इह चोयगदितं पडितुं सिस्सते य सम्भायो ।
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( १६३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संधार
भद्दी सो मम नट्टो, मग्गामि न तो पुणेो दाहं ।। ६६५ ।। इतिः पुरः प्रदर्शने, एवं भद्रकप्रान्तदोषोपदर्शनेन नोदकष्टान्तं पराभिप्रायं प्रतिहन्य तस्वमुच्यते । तस्य--संस्तारकस्वामिनः सद्भावः शिष्यते निवेद्यते । निवेदिते च भद्रको भ णति--स संस्तारको मम नष्टो न युष्माकम् अद्य प्रभृति नाहं मार्गयामि लब्धं तु तं पुनरपि युष्मभ्यं दास्यामि ।
तुझे वि ताव मग्गह, अहं पि भूसेमि मग्गह व अष्टमं । नट्टे वितुन्भ लट्ठा, वदंति पंतेऽणुसिद्धादी || ६६६ ॥
यूयमपि तावत्तं संस्तारकं मार्गयत, श्रहमपि तं ' भुसे - मिति - गवेषयामि । अथ युष्माकं चरितं संस्तारकेण प्रयोजनं तदा यावदसौ लभ्यते तावदन्यं मार्गयत । यस्तु प्रान्तः स सद्भावे कथिते भणति - नष्टेऽपि संस्तारके यूयं मम नष्टाः, यतो जानीथ ततः संस्तारकं मार्गयत ।
इयं यतना
मोल्लं णत्थि ऽहिरमा, उवधिं मे देहपंतदायखया । अनं वदंति फलगं, जयणाए मग्गिउं तस्स ॥ ६६७ ॥
हिरण्या वयं नास्ति मूल्यम् । स ब्रूयात् उपधिं प्रयच्छ । ततो येन साधुना स संस्तारक श्रानीतः तस्य सत्कमन्तप्रान्तमुपकरणं दर्शनीयम् । श्रभ्यं वा फलकं यतनया मार्गयित्वा ददाति । तत्र प्रथमतः शुद्धम् । तदमावे पश्चकपरिहाया राजकुले वा गत्वा व्यवहारः क्रियते । दत्त्वा दातुमनीश्वर इति एतेन ' अग्गहृदाणं व ववद्दारो' ति पदं व्याख्यातम् ।
सव्त्रे वि तत्थ रुंभति, भद्दो मुल्लेख जाव अवरहे । एगं ठगमणं, सो वि य जा अट्टमं काउं ॥ ६६८ ॥ कोऽपि राजवल्लभाविः सर्वानपि साधून तत्र निरुणदि, ततो यदि कश्चिद्यथाभद्रको मूल्येन मोचयति स न प्रतिषेद्धव्यः । अथ प्रतिषेधं कुर्वन्ति तदा चतुर्गुरु । अथ नास्ति मोचयिता ततोऽपरा यावत् सर्वेऽपि सबालवृद्धास्तिष्ठन्ति यदि न मुञ्चति तत एक क्षपकादिकं स्थापयित्वा शेषाः सर्वेऽपि गच्छन्ति । सोऽपीदृशः स्थाप्यते योऽष्टमं कर्तुं समर्थो भवति । असमर्थस्थापन चतुर्गुरु । ततोऽसावष्टमं कृत्वा पलायते ।
लद्धे तीरियकज, तस्सेवऽप्पंति श्रहव झुंजंति । पशु लद्धेवऽसमत्तं, दोच्चोग्गहो तस्स मूलाउ ||६६६ || लब्धे संस्तारके यदि तीरितकार्याः समाप्तप्रयोजनास्ततस्त स्यैव संस्तारकस्वामिनोऽर्पयन्ति । अथ कार्यमसमाप्तं ततो भुञ्जते । अथ प्रभुणा - संस्तारकस्वामिना साधूनां च कार्यमद्याप्य समाप्तं ततस्तस्य मूलाद्यद्वितीयं वा स चावप्रोऽनुज्ञाप्यते एष सूत्रोक्को द्वितीयोऽवग्रहः ।
अथ द्वितीय पदमाह -
वितियं पनिसिए, हुट्ठिय सुष्ममय मणप्पज्झे । असह्य रायदुट्ठे, वोहिकभयमद्धसीसे वा ।। ६७० ॥ द्वितीयपदमत्र भवति-संस्तारकेण कार्य समाप्तम्, योऽपि
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संधार
संस्तारकस्य प्रभुः स राज्ञा निर्विषय श्राज्ञप्तः, देशभक्रे वा नष्टः, दुर्भिक्षे वा उत्थित उद्वसितः, ' सुन्ने' ति सपुत्रदारः कुत्राप्यामन्त्रितः सन् गतो गृहं शून्यं संजातम्, मृतो वाकालगतः । एतानि गृहस्थकारणानि । श्रमूनि तु संयतकारणानि । स साधुरसहिष्णुर्न शक्नोति गवेषयितुम्, राजद्वि वोधिकभये वा श्रध्वशीर्षके वा सार्थवशतः एतैः कारणै— विप्रनष्टं शय्यासंस्तारकं न गवेषयेत् न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् । वृ० ३ उ० ।
विप्रनएं शय्या संस्तारकं गवेषयेत्
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाडिहारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं विप्पणट्ठे ण गवेसइ न गवेसंतं वा साइअइ ॥ ५७ ॥ जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं वा सेजासंथारयं विप्पणडुंगवेसह ण नवेसंतं वा सातिजइ । ५८ |
वि इति विधीए प इति प्रकारेण पक्खिजमाणो णट्टो विपडो शेषं पूर्ववत् । नि० चू० ३ उ० । ( यस्मिन दिवसे निग्रन्थाः शय्या संस्तारकं विप्रजहति तत्रापरे आगच्छेयुः, तत्रावग्रहः ' उग्गद्द ' शब्दे द्वितीयभागे ७१५ पृष्ठ उक्तः । ) ( रात्रावपि संस्तारको ग्राह्य इति 'राइभोयण' शब्दे षष्ठभागे उक्तम् । )
साम्प्रतं वसती वसतां विधिमधिकृत्याह - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे वा पुव्वामेव परणस्स उच्चारपासवणभूमिं पडिले हिज्जा, केवली बूया - आयाणमेयं अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए से भिक्खू वा भिक्खुणी वा राओ वा वियाले वा उच्चार पासव परिडुबेमाणे पयलेज वा पवडेज वा से तत्थ पयलमाणे वा पयडमाणे वा हत्थं वा पायं वा०जाव लूसिज वा पाखाणि वा ४ ० जाव ववशेविखा । अह भिक्खु णं पुच्चोवदिट्ठा जं पुव्वामेव पष्पस्स उच्चारप/सवणभूमिं पडिले - हिजा । ( सू० १०६ )
' से ' इत्यादि सुगमं नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत विकाले प्रायणादिभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इति ।
साम्प्रतं संस्तारकभूमिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा श्रभिकखेजा सेजासंधारंगभूमि पडिले हित्तए रामत्थ श्रयरिएण वा उवज्झाए - ण वा० जाव गणावच्छ्रेण वा बाले वा बुड्डेण वा सेहेण वा गिलायेण वा आएसेय वा अंतेय वा मज्झेण वा समेय वा विसमेण वा पवारण वा शिवाय वातश्री संजयामेव पडिलेहिय २ पमजिय २ तो संजयामेव बहुफासुर्य सेज संथारगं संथरेजा । ( सू० १०७ )
स भिक्षुराचार्योपाध्यायादिभिः स्वीकृतां भूमिं मुक्त्वा - म्यां स्वसंस्तरणाय प्रत्युपेक्षेत, शेष सुगमम् । नवरमादेशः - प्राधूर्णक इति, तथाऽन्तेन वेत्यादीनां पदानां तृतीया सप्तम्यर्थ इति ।
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इदानीं शयनविधिमधिकृत्याह
सेखसंचार
सेक्स या भिक्खुणी या बहुफा संथरित्ता अभिकंखेखा बहुफासुए सेजासंथारए दुरूहित्तए, सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफागुए सेजासंधारण दुरूहमा पुव्वामेव सनीसोपरियं कार्य पाए व पमजिय
मजिय तता संजयामेव बहुफासुए सेजासंथारगे दुरूहेजा, दुरूहित्ता तओ संजयामेव बहुफासुए सेजासंथारए सएजा (०-१०८ )
6
से इत्यादि ' स्पष्टम् ।
( ११४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
इदानीं सुपिधमधिकृत्याह
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा बहुफामु सेजासंधारए सयमाणे यो अमरस हरणं दरथं पाए पायं कारण कार्य आसाएजा से अवासायमाये तो संजयामेव बहुफासुए संधारण सजा से भिक्खु वा भिक्खुणी वा उस्ससमाणे वा णीससमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वातणिसम्गं वा करेमाणे पु-ब्वामेव आसयं वा पोसयं वा पाणिला परिपेहित्ता तो संजयामेव ऊससेज वा० जाब बायणिसग्गं वा करेजा । ( सू० १०६ )
•
'से' इत्यादि निगदसिद्धम् । इयमंत्र भावना - स्वपद्भिर्हस्तमात्रव्यवहितसंस्तारः स्वय्यमिति । एवं निःश्व सितादिविधानार्थे नवरम् आसवति श्रास्यं 'पोसयं वा' इत्यधिष्ठानमिति । श्राचा० २ ० १ चू० २ अ० ३ उ० |
तत्र च लब्धायां वसतौ को विधिरित्यत आहकोदुगसभा य पुवि कालवियाराइभूमिपढिलेहा । पच्छा अतिरनि, पत्ता वा ते भवे रतिं ||२००|| कोष्ठकः- आवासविशेषः सभा प्रतीता कोष्टकसभा वसतौ प्रागेव काले तिलभूमि प्रत्युपेक्षन्ते यत्र कालो गुलते। तथा 'वियारभूमिपडिलेहा ' विचारभूमि:संज्ञाकाधिका भूमिस्तस्याथ प्रायुपेक्षा क्रियते तत एवं प्रत्युयविकाले सीरितिपश्चाच्छेषाः साधवो रात्रौ प्रविशन्ति । पत्ता वा ते भवे रति 'ति यदा पुनस्त आगच्छन्त एव कथमपि रात्रावेव प्राप्तास्तदा रात्रावधि प्रविशन्ति ।
·
तत्र च प्रविशताम्
सुम्मियस समया, खिन्भ रहिठाण वसहिपडिलेहा सुत्रधरपुष्पभणियं कंचुग तह दारुदंडेखं ||२०१॥ गुल्मिका:स्थानक रक्षपाला 'भेसणं' ति यदि ते कथञ्चित् श्रासयन्ति ततश्चेदं वक्तव्ये यदुत श्रमणा वयं न चौराः । 'निब्भय'त्ति - श्रथ तु स सन्निवेशो निर्भय एव भवेत्तदा बहिलि बहिरेव गच्स्ताव निति, वृषभास्तु वस जिसे कविशिष्टाऽसौ यसतिराम्यध्य
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संधार
ते म्याद पूर्वोक्रम कंचुग तह द
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विराटनं किम्बुकं परिधाय सर्वपतममवाद
पुनम पसतिमुपरि प्रस्फोटयन्ति श्वविशति ।
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ततः को विधिः स्वापे ?संधारगभूमितिगं, आयरियाणं तु सेसमायेगा । रुंदाऍ पुप्फइना, मंडलिया आवली इयरे ॥ २०२॥ संस्तारक भूमित्रयमाचार्याणां निरूप्यते, एका निवाता संस्तारक भूमिरन्या प्रवाता अन्या निवातप्रवाता। 'सेसगाणेसिसाधूनामका संस्तारक भूमिर्दीयते दापनि पची वसतिस्तिी भवति ततः पुष्पावकणः स्वपन्ति पुष्पप्रकरयदयथायथं स्वपन्ति येव सागारिकावकाशो न भवति । 'मंडलिय' ति श्रथाली वसतिः पुत्रिका भवति ततो मध्ये पत्रकाि कृत्वा मण्डल्याः पार्श्वे स्वपन्ति । अवलिय ति - प्रमाणयुक्तायां वसतौ श्रावपापक्त्या स्वपन्ति ' इयरे' त्ति- तुल्लिकाप्रमाणयुक्तयोर्वसत्योरयं विधिः । संथारग्गहणाए, बेंटिउक्खेवणं तु कायव्वं । संधारी घेतयो, मायामयविष्यमुकेणं ।। २०३ ॥
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,
संस्तारकग्रहणाय संस्तारक भूमिग्रह एकाले, एतदुक्तं भवतियदा स्थविरादिः संस्तारक भूमिविभजनं करोति तदा साधुभिः किं कर्त्तव्यमत टि
स्तार
या उपभिवेटलिकास्तासां सर्वैरेव सत्यात्मीयानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन सुखेनैव दृष्टायां भुवि विभजितुं संस्तारकाः शक्यन्ते । स च संस्तारको यो यस्मै साधवे दीयते स कथं तेन इत्याह-मायामविप्रमुक्तेन न माया का पता मेदना मदःअदद्वार: कार्यों यदुताहमस्यापि पूज्यो येन मम शोभना सं कभूत्तेति । "जह रतिं श्रागया ताहे कालं न गेरइति, निज्जुक्ती संगहणीश्रो य सणि गुणैति, मा बेसित्थिदुर्गुछदो दोसा होदिति कायिकां तर ति उचाप जगणार जर पुरा कालभूमी पडिलेहिया ताई कालं ि ति यदि कति भनसुद्धो न पहिलेहिया वा बसही ताहे निज्जुत्तीओ गुर्खेति । पदमपोरिसिं काऊं बहुपा पुरणाए पोरिसीए गुरुसगासं गंतू भांतिइस्लामिसमासादिजाब विचार निसीदिशा म स्थपण यंदामि खमासमा बहुपडिपुरा पोरिसी अनुजायद राईसंधारखं सांई पदम कारणभूमिपति ताहे जस्थ संथारगभूमी तत्थ वयंति । ताहे उद्दिम्मि उयोग करें मजेता उद्दीष दोरवं उच्छति ताहे संथारगपट्टचं उत्तरपट्टयं च पडिलेहित्ता दो वि. एत्थ लासाऊ उपेति ताई संधारणभूमि पडिसेति ताहे सेधारयं श्रच्छुरंति सउत्तरपट्टे । तत्थ य लग्गा मुद्दपोतिचा उपरि कार्यपात दे रहर - ध्येय वामपाले ठवेंति, पुणो संधारण चढतो भण्इ-जेदुजा पुरतो बिताएं अनुजाज्जद | पुणे सामाइति कहिएं सोव एस ताय कमरे ।
.
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संधार
इदानीं गाथा व्याख्यायते
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पोरिसि श्रपुच्छणया, सामाइय उभय कायपडिलेहा । साहणिय दुवे पट्टे, पमभूमि जो पाए । २०४ ॥ पौerri नियुक्तीर्गुणयित्वा ' आपुच्छण 'ति - श्राचार्यसमीपे मुखयत्रिकां प्रतिलेखयित्वा भणति बहुपडिपुराणा पोरिसी 'संविशन संस्तारके तिमीति सामाति. सामायिकं वारत्रयमाकृष्य स्वपिति । ' उभयं ति-संशाकायिकोपयोगं कृत्वा 'कायपडिलेड ' सि-सकलं कार्य प्रमृज्य ' साहणिश्न दुबे पट्टे ' सि-साहणिय - एकत्र लाएता दुवे पट्टे - उत्तरपट्टो संधारपट्टो अ, तत ऊर्वोः स्वापयति । पमभूमि जो पाओ सि-पादी यतस्तेन भूमिं प्रमृज्य ततः सोत्तरपट्ट संस्तारकं मुञ्चति । अस्याश्च सामाचार्य गाथायां संबन्धो न कृतः किन्तु स्वबुदधा यथाक्रमेण व्याख्येयाः ।
( १६५ ) अभिधानदराजेन्द्रः ।
,
एमसी संस्तारकमारोहन कि भनीत्याहअगुजाराह संचार, बाहुवा वामपासे । कुक्कुडपायपसारणें अतरंत पमअए भूमि || २०५ ।। अनुजानीध्वं संस्तारकम् पुना वाहूपधानेन वामपार्श्वे न स्वपिति । 'कुक्कुडिपायपसारणं ति यथा कुक्कुटी पादावाकाशे प्रथमं प्रसारयती एवं साधुनाऽप्याकाशे पादौ प्रथममशक्नुवता प्रसारणीयौ ।' अतरतो' त्ति-यश - काशव्यवस्थितायां पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तापम 'जर भूमि ति भुवं प्रसृज्य पादौ स्थापयति ।
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4
संकोए संडास, उच्चत्तंते य कायपडिलेहा । दब्वाई उपयोगं, खिस्सासनिरंभणा लोयं ॥ २०६ ॥ यदा तु पुनः सङ्कोचपति पादौ तदा 'संडास 'ति संईशम् ऊरुसन्धि प्रमृज्य सङ्कोचयति उपय उदासी साधुः कार्य प्रमार्जपति यमस्य स्वपती विधिरः । यदा पुनः कारिकार्यमुत्सित सतदा किं क रोतीत्याह-वाई उपभोगं ' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भातोपयोगं ददाति तत्र यतः कोऽई जिता क्षेत्रः किमुपरितन्यत्र वा फालतः किमिये रात्रिर्दि या ?, भावतः कायिकादिना पीडितोऽहं न वेति पवमुपयोगे इतेऽपि यदा निद्रयाऽभिभूयते तदा विस्वासनि भए' ति निःश्वासं निरुकि नासिकां ढं गृह्णाति निःवासनिरोधार्थं ततोऽपगतायां निद्रायां आली विमा लोकं पश्यति द्वारम् |
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-
यतः
दारं जा पडिले, ते मए दोषि सावए तिथि । जय चिरं तो दारे, भांठावे परि ॥२०७॥ तदाऽसौ द्वारं यावत् प्रत्युपेक्षयन् प्रमार्जयन् प्रजति, एवमसौ निर्गच्छति, तत्र च यदि स्तेनभयं भवति ततः 'दोरिग ' ति द्वौ साधू निर्गच्छतः, तयोरेको द्वारे तिष्ठति अन्यः कायिकां व्युत्सृजति । 'सावर तिरिए ' ति श्वापदभये सति यः साधय उतिष्ठन्ति तथैको द्वारे द्विति
संथारपोरसी
श्रन्यः कायिकां व्युत्सृजति, अन्यस्तत्समीपे रक्षपालस्तिष्ठति जति यचिरेति यदि च चिरं तस्य तो जातं ततो योऽसीद्वारे व्यवस्थितः साधुः सोऽवारे स्थापयित्वा साधु पुनधासी व्युत्सृजन्तं पडिअरति लि प्रतिजागर्त्ति ।
"
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आगम्म पडिकतो अणुपेहे जाव चोइस वि पुब्बे । परिहारिण जा तिगाहा, निद्दप माओ जढो एवं ॥ २०८ ॥ खोऽपि साधुः काविकां व्युत्सृज्य आगत्य वसतो 'पडि तो 'थिको प्रतिकान्तः सन् अनु गुणनं करोति । कियद् दूरं यावदत श्राह - जाव बोहस वि पुग्वे ' यावश्चतुर्दश पूर्वाणि समाप्तानि । यश्च साधुः सूक्ष्मानप्राएलब्धिसंपनः अन शोति तक परि हाणि जा तिगाहा ' परिहाण्या गुणयति स्तोकं स्तोकतरमिति यावद्गाथात्रयं जघन्येन यद्वा तद्वा परिगुण्यति शैक्षोऽपि । एवं ते विधी निद्राप्रमाद जदो परि स्पो भवति ।
"
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अतरंतो व निवजे, असंथरंतो अ पाउणे एकं । गद्दभदितेणं, दो तिमि बहू जह समाही ॥ २०६ ॥ अथासी गाथात्रयमपि गुयितुं न शक्रांति ततः ग ज्जे 'ति ततः स्वपित्येवेति । असंथरंतो अ ' ति उत्सर्गतस्तावत्प्रावरणरहितः स्वपिति । अथ न शक्नोति यापयितुमात्मानं ततोऽसंस्तरमाः प्रावृयोति एक कल्पं हो श्रीन् वा । तथाऽपि यदि शीतेन बाध्यते तदा बाह्यतोऽप्रावृतः कायोत्सर्ग करोति । ततश्च शीतव्याप्तोऽभ्यन्तरं प्रविशति । तत्र प्रविष्टोऽनिवासमिति मन्यते तत्रापि स्थातुमनुवन् गृहाति एवं श्री श्रीस्सापद्यावत्समाधान जतम् । अत्र च गर्दभदृष्टान्तः, 'जदा मिछगद्दभो भगुरूमारेण आरुषिरण सो पनि ताई जोि अरणस्स भारो सो वि बडाविजर, अप्पा आरोदति । जाहे नातिदूरं गया ताहे अप्पणा उत्तरति, ताई सो जाहाति - उत्तरितो मम भारो त्ति तुरियतरं पाविश्र । पer] असे प्रवण ताई सो सिग्य पहाबियो । एयं साहू व शिवाय मसुदे अच्छति जाय र तिं, एस विही, श्रववापस जहा वा समाधी होति तद्दा काव्यं । संगारवितिश्रवसद्दि ' सि व्याख्यातम् । श्रोघ० । त्रि० । संस्तारकत्र्त्तरि, प्रब० ७१ द्वा० ।
संचार संस्तारक पुं० संस्तीर्यते भूपीठ शयालुभिरिति संस्तारः स एव संस्तारकः । पर्यन्तक्रियां कुर्यद्भिर्भादिविस्तरणे तरिकायाप्रतिपादन प्रकीर्णक, संथा
हस्तमाने (अनु) लघुतरे श०१०५
अ० । स्था० । घ० ।
संधारगपाग संस्तारकप्रकीर्णक संस्तारकप्रतिपादके प्रकीर्णकप्रन्थे, संथा० । संथारपोरसी-संस्तारपौरुषी-स्त्री० । “साधुविभ्रामणाद्यैश्च, निशाद्यप्रहरे गते। गुर्वादेशादिविधिना, संस्तारे शयने तथा ॥१॥" संस्तरे शयनयोग्ये रात्रद्वितीयप्रहरे, ध० ३. अधि० ।
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संथारपोरसी . अभिधानराजेन्द्रः।
নম্বঘা ( 'संथार' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव तद्विधिरुतः।) । अत्थेसु दोसु तिसु वा, सामनभिहाणओ उ संदिद्धं । संथारप्पलोड-संस्तारप्रलोकिन-त्रि० । शिशयिषोर्गुरोः स-| जह सिंधवंत मागाय. अथवत्तयि मंटेटो॥ स्तारप्रेक्षणं कर्तरि, कथं संस्तारः कृतः कात्र त्रुटिरिति
यस्मिन्नर्थे ऽभिधीयमाने द्वयोस्त्रिषु सामान्याभिधानतः सं. द्रष्टरि शिष्ये, प्राचा०१ श्रु०५ १०४ उ० ।
देह उपजायते तत्संदिग्धं, यथा-सैन्धवमानयेत्युक्ने किमसंथारुत्तरपट्ट-संस्तारोत्तरपट्ट-पुं० । संस्तारकोत्तरपट्टयोईन्द्वे श्वस्य ग्रहणमाहोश्वित् पुरुषस्य , उताहो लवणस्यत्यर्थव"संथारुत्तरपट्टो, अहाइजा य ायया हत्था । दोरहं पि. हुत्वे सन्देहः । वृ०१ उ०१ प्रक०। “ संदिचं संसहअं" वित्थारो, हत्थो चउरंगुले चेव ॥१॥” ५० ३ अधिक। पाइ० ना० १८५ गाथा। संथीण-संस्त्यान-न० । विनाशे, सम्म० ३ काण्ड । । संदिसाविय-संदिश्य-श्रव्याअनुज्ञाप्येत्यर्थे, पं०व०२द्वार। संथुय-संस्तुत-त्रि० । विनयविषयत्वेन परिचिते,सतगुणो- संदिसाविऊण-संदेश्य-श्रव्य०।संदिशन्तमनुजानन्तमाचार्यकीर्तनादिभिः सम्यक्स्तुते च । उन०१०। पुं० । संयु- मनुप्रयुज्य संदिशत यूयं मां येन पारयामीत्येवमनुज्ञाप्येत्यर्थे, तकरमुद्राविशेषवृन्दे, जं०२ वक्षः । उत्त० । त्रि० । सम्बद्धे,
पञ्चा०५ विव०। सूत्र०१ श्रु०१२ अ० । दर्शनभाषणादिभिः परिचिते, प्रश्न संदिहाण-संदिहान-त्रि० । संशयाने, विशे। ४ संव. द्वार । भिक्षोः पुरः संस्तुताः भ्रातृव्यादयः, पश्चात् ।
संदीण-संदीन-त्रि० । संदीयते जलप्लावनात् क्षयमाप्नोतीसंस्तुताः श्वशुरकुलसम्बद्धाः । आचा०२ ध्रु०१ चू०१० ४ उ०।
ति संदीनः । उत्त०४ अ०। यो हि पक्षमासादुदकेन प्लाव्य-'
ते तस्मिन् द्वीपभेदे, प्राचा० १ श्रु० ६ ०२ उ० । संदट्ट-संदष्ट-त्रि० । “टस्यानुष्ट्रेपासंदष्टे" ॥ ८ । २ । ३४॥ अत्रानुष्टेष्टासन्दष्टग्रहणात् एकारस्य टकार एव । चुराण
| संदुम-प्रदीप-धा० । प्रज्वालने, “प्रदीपेस्तेअव-संदुम-सन्धुव्व सन्दहो । संदष्टे, प्रा० ।“ संदष्टो देशमशकै-स्त्रासं द्वेषं न
काभुत्ताः॥।४।१५२ ॥ अनेन प्रदीप्यतेः संदुमादेशः वा ब्रजेत् । न वारयदुपेक्षत, सर्वाहारप्रियत्ववित् ॥१॥"
संदुमइ । प्रदीप्यते । प्रा०४ पाद । प्रा० म०१०।
संदमित्र-संदीप्त-त्रि० । “संदुमिश्रं ऊसिकिअं" पाइ० ना० संदय-देशी-संलग्गे, दे० ना०८ वर्ग १८ गाथा । १६ गाथा। संदन-स्यन्दन-पुं० । रथविशेषे, प्रश्न०५ संव० द्वार | द्वि- संदेव-देशी-सीमायाम् , दे० ना० ८ वर्ग ७ गाथा। विधो रथः सांप्रामिको, देवयानरथश्च । प्रश्न०१ आश्र० संदेस-संदेश-पुं०। भाषकान्तरेण देशान्तरस्थस्य भणने, शा० द्वार । "संदणो रहो" पाइ० ना० २२३ गाथा। अतीतोत्स- १ श्रु०६०। अपभ्रंशे स्वार्थे उप्रत्ययः । प्रा०। पिण्यां भारते जाते प्रयोविंशतितमे तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार। संदेह-संदेह-पुं० । दोलायमानतायाम् , दर्श०५ तत्त्व । प्रासंदभ--संदर्भ-पुं०। सूत्रण ग्रन्थने, स्था० ४ ठा०४ उ० । चा संशये, आचा० ११०५०१ उ०। आ० म०॥
संदोह-संदोह-पुं० । निकुरम्बे, को० । सारे, श्राव० ६ ० । संदभिय-संदर्भित-त्रि० । स्नेहरज्जुभिग्रंथिते, स्था० ४ संधणा-संधना-स्त्री० । अभिसन्धनायाम् , प्रार्थनायाम् , ठा०३ उ०।
सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ०। संधानकरण, व्य० । संदमाणिया-स्यन्दमानिका-स्त्री० पुरुषस्य स्वप्रमाणावका
संधनास्थानमाहशदायिनि दीर्थे जम्पानविशेष, रा०। जी० । भ०। औ० । रज्जुयमादि अछिन्नं, कंचुयमादी य छिन्नसंधणया। शा० । अनु । जं० । दशा । शिबिकायाम् , औ० । सूत्र० । सेदिदुर्ग अच्छिन्नं, अपुचगहणं तु भावम्मि ॥ ३३ ॥ संदाण-क-धा० । अवएम्भकरणे, "निष्टम्भावष्टम्भे णिट्ठ- संधना-संधानकरण, सा द्विधा-द्रव्यसंधना, भावसंधना ह-संदाणं" ॥८।४। ६७ ॥ अनेनावष्टम्भविषयस्य कृत्रो च । द्रव्यसंधना द्विधा-छिन्नसंधना, अच्छिन्नसंधना च । तत्र वैकल्पिकः संदाण इत्यादेशः । संदाणइ-अवष्टम्भं करो- रज्जुकादिकमच्छिन्नं यत् वलयति एषा अच्छिन्ना द्रव्यसंधतीति । प्रा०४ पाद।
ना । कञ्चुकादीनां छिन्नसंधनता कञ्चुकादयो बन्योन्यखसंदाणि-संदाणित-त्रि० । बन्धिते, " बद्धं संदाणि एडमीलनतः संघीयन्त ततस्ते छिन्नसंधनाः । भावसंधनापि निअलिअंच" पाइ० ना० १६७ गाथा ।
द्विधा-छिन्नसंधना, अछिन्नसंधना च । तत्राच्छिन्नसंधना
श्रेणिद्विकम् , उपश्रमश्रेणिः, क्षपकश्रेणिश्च । तथापशमश्रेसंदिद्व-संदिष्ट-पुं० । गुरुणाऽभिहिते, कथिते, निरूपिते,
गयां प्रविष्टो यदाऽनन्तानुबन्धिप्रभृतिमोहनीयमुपशमयितुं पञ्चा० १३ विव० । श्रा० म० । उत्त० । संदेशिते , नपुं० ।
तथा यतते, यथा सर्व मोहनीयमुपशमयति, तदा भवत्यु" संदिट्ट अप्पाहिअं" पाइ० ना० १८५ गाथा।
पशमणिरछिन्नसैधना क्षपकण्यामपि दर्शनसप्तकक्षसंदिद्ध-संदिग्ध-त्रि० । अनिश्चिते सकलसंशयादिदोषसहि
यानन्तरं कषायाष्टकादि क्षपयितुं प्रवृत्तो नियमादाकेवलते, स्था० ६ ठा० ३ उ० । सैन्धवशब्दवत् लवणपटघोटकाद्य- प्राप्तन निवर्तते ततः क्षपकणिरप्यच्छिन्नसंधना । 'अपुब्बा नकार्थसंशयकारिणि, प्रा० म०१०।
गहणं तु भावम्मि' इति प्रशस्तेषु भावेषु वर्तमानो यदपूर्व
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( १६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संघणा
भावं संदधाति एषा उत्पन्ना मावसंधना शुभभावसंघनस्यास्यन्नित्वात् ।
( भाष्यम्) इयं पुनश्छिन्न संघना
"
मीत दयं गयस्स मीसगमणे पुणो छिन्नं । अपसत्थपसत्थं वा, भावे पगयं तु छिनेण ॥ ३४ ॥ हिम्नाभावे संघनामिथः क्षायोपशमिको भावः । तस्मात् मिश्रात् क्षायोपशमिकभाषात् यदा श्रीदधिकभावं संक्रामन्ति तदा तस्य श्रदयिकं गतस्य छिन्नभावसंधना भावान्तरे संक्रान्तत्वात् । तथा तस्मादौदयिकभावात् यदा पुनमिश्रगमनं भवति मिश्र भार्य संक्रामति तदापि दिनभावबंधना एवं शेयपि भावेषु यथायोगं भावनीयम्। अथवा द्विविधा छिन्नभाव संघना - प्रशस्ता, अप्रशस्ता च । तत्र यदा प्रशस्ते चरणादिभावे स्थितः सन् तथाविधकम यवशतोऽप्रशस्तमचरणमा संक्रामति तदा प्रशस्ता निभा यसंधना [अ] प्रकृतमधिकारः विधेन भावसंधान तत्राप्रशस्तेन । तथाहि प्रायश्चित्तस्थानं तदा प्रतिसेवतो, बदा प्रस्ताद्भावादप्रशस्तं मार्च संक्रान्तो भवति तदेवं स्थानमिनि० रूपणा | व्य० | स्था० । श्राचा० । ग्रहणे गुणने, चू० १ संदोह संदोह पुं० निकुरम्बे, "संदोहो निकुरंबो" पा०
उ० ।
ना० १६ गाथा ।
"
संधाय सन्धान-न० पाटितसीच चाचा०१ ० ६ ०३ उ० । मीलने, आचा०१ श्रु० ३ ०३ उ० । अर्जे सन्धियोग्ये, पं०० ४ कल्प | सूत्रादेः प्रदेशान्तरे नष्टस्य मीलने श्र० म० १ ० | आत्मना सद्दाविच्छेदेन संघट्टने, (अचार) - घाणाख्याते नानाव्यसंयोगजे रस्थे साचा० १ ० १ अ० १ ० संघानं निम्बकविकानामसनिमि तत्वाद् वर्ज्यम् । ध०२ अधि०। ('संघावण' इत्यस्य व्याख्या 'उपभोगपरिभोगपरिणाम शब्दे द्वितीयभागे २०१ पृष्ठे गता) विस्तृतस्य पुनरनुसन्धाने, पञ्चा० १२ विष० । संघावण - संन्धावन - न० । पौनःपुन्येन गमने श्राचा०१ श्रु० १ ० १ उ० ।
"
1
संधि - सन्धि-पुं० । सुरङ्गादौ, सन्धानं सन्धिः कर्मसन्ततिः । ६० सम्धीयते इति वा भवात् भवान्तरमनेनेति सन्धिः । अष्टप्रकारे कम्मसन्ततिरूपेऽर्थे 'अंद्देरथ मए संधी भोसिए एवमणत्थसंधी दुज्झोसिए भवति श्राचा० १ ४० ५ ०२३०००० संथा द्रव्यतो विवरे, भावतः कर्मविवरे, धाचा० । सन्धिव्यतो, भावश्च । तत्र द्रव्यतः कुक्यादिविवरं भावतः कर्म्मविवरम्, तत्र दर्शनमोहनीयं यदुदीर्णे तत्क्षीणं थेपमुपशान्तमित्ययं सम्यक्त्वावाप्तिलक्ष्णो भावसन्धिः, यदि वा ज्ञानावरणीयं विशिष्टतायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं सम्यग्ज्ञानावाप्तिलक्षणः सन्धिः । श्रथवा चारित्रमोहनीमक्षयोपशमात्मकः सन्धिस्तं ज्ञात्या न प्रमादः श्रेयानिति यथाहि लोकस्य चारकाद्यवरुद्धस्य कुड्यनिगडादीनां सधि-दिशात्योपलभ्य न प्रमादः श्रेयान् एवं मुमुक्षोरपि
.3
५०
संधिवाल कर्मवियरमासाद्य यमपि पुत्रफलसंसारसुखन्यामोहो न श्रेयसे भवतीति । यदि वा सन्धानं सन्धिः स च भाबसन्धीनदर्शनचारित्राध्यवसायस्य कम्मोदयात् प
१
तः पुनः सन्धानं मीलनम् एतरक्षायोपशमिकादिलोकस्य विभक्तिपरिणामाद्वा लोके शानदर्शनचारित्रार्ह भावसन्धि ज्ञात्वा तदनुरणप्रतिपालनायै विधेयमिति । यदि वा-सन्धिः - अवसरो धर्मानुष्ठानस्य तं ज्ञात्वा लोकस्य भूतग्रामस्य दुःखोत्पादनानुष्ठानं न कुर्यात् सर्वत्रारोपम्यं समाचरेदिति । चाचा० अ० अ०३०' धीत्यादि अि चक्षितकका अध्यका धालंबो, यथा पश्य मृगधापति एवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतत्क्रियायोगे अप्ययं सन्धिरिति प्रथमा कृवेति' अब 'मिति प्रत्यक्षपण सीन्द्रियनिर्वृत्तिभ्रः अवसरी मिध्यात्व क्षयानुदयलक्षणो वा सम्यक्त्वापातितुभूतकर्मविवरलक्षणः संन्धिः शुभाध्यवसायसन्धानभूतो वा सन्धिरित्येनं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्भगवानित्यतः क्षणमप्येकं न प्रमादयेत् न विषादमगेो भूयात् । चाचा० १ श्रु० ५ श्र० २ उ० 1 " तेणावि संधिव सं एच्या " -संधि दिदं विवरम् । संधिशानायरणादिकर्मविवररूपं नापि नैव ज्ञात्वा अशात्वेत्यर्थः । णं वाक्यालंकारे यथा जीवकर्म्मणोः संधिः- भिन्नत्वं भवति तथा ज्ञात्वा मोक्षार्थ प्रवृसा इत्यर्थः । संधिद्विविधः- द्रव्यसंधिः- कुख्यादेः भाषसंधिः कर्मविवररूपस्तमुत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञानं वा संधिस्तं ज्ञात्वा प्रवृत्ताः । सूत्र० दी० १ श्रु० २ श्र० १० । फलकद्रयापान्तरालदेशे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० ॥ जं० ॥
3
० म० । संधाने प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । अङ्गुल्याद्यस्थिमेलापकस्थाने, सं० जानुपरादि सूत्र० १ ० १५० गृहद्वयान्तराले उत्त० २० श्र० । सन्निकर्षे, प्रश्न० २ संघ० द्वार | पं० चू० । खात्रे, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । चोरखा भित्तिसन्धौ च । श्राचा० २ ० १ चू० १ ० ६ उ० । विप्रतिपत्तौ संस्थायाम्, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार | संधि - देशी - दुर्गन्धे, दे० ना० ८ वर्ग८ गाथा | संधिकरण सन्धिकरण-न० खात्रच्छेदे स्थूलमुपायाविर तेरतिचारे, उपा० १ ० ।
संधिच्छेयग- सन्धिच्छेदक- पुं०। मात्रखानके, प्रश्न०३ प्राध० द्वार आ० म० सन्धिच्छेदका ये गृहमिनिसन्धि विहार यन्ति । शा० १ ० १८ श्र० । विपा० । संधिच्छेययस सन्धिच्छेद करव १० समावे खननत्वे, सूत्र० २ श्रु० २ ० । शा० ।
संधिदोस सन्धिदोष-पुं० । विशिष्टसंदितये, सन्ध्यभावे च । श्र० म० १ ० । विशे० । यत्र सन्धिप्राप्तौ तं न करोति दुएं या करोति तत्र सन्धिदोषः । अनु० । संधिबन्धण - सन्धिबन्धन - न० । जानुकूर्परादिषु सन्धिषु संयमने, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार ।
संधिवाल - सन्धिपाल- पुं० । राज्यसन्धिरक्षके, शा० १ श्रु० १
अ० | कल्प० । भ०
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संधिमरण
संधिमग्ग-सन्धिमार्ग-पुं० । मर्मस्थाने, आ० म० १ ० । संधिमुह सन्धिमुख० बाद्वारे उत्त० ४ ०
संधिरण - सं (घी) धिरण- पुं० । पितामहकृत स्वाभिधाने देवदसम्भयेऽधिकात्रे, ती० ३५ क संधुक्क-प्र-दीप-धा० । प्रज्वाले, " प्रदीपेस्तेअव - संदुम-सखाता ८४ १५२ ते संधुकादेशः।
सन्धुका | प्रदीप्यते । प्रा० ४ पाद । संधुकिम प्रदी०ि उद्दीपिते, "संधुषिक उदीधि"
पाइ० ना० १६ गाथा ।
संधेमाण-सन्दधान - त्रि० । सन्धानं कुर्वाणे, आचा० १ श्रु०
६ अ० ३ उ० ।
( १६८) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
||श
संधेयव्य-सन्धातव्य(-त्रि० । जोडनीये, “ जं रोव छिन्दियव्वं संघेयां च सिवियत्र्यं च । तं होति श्रधाकड जहरण्यं मज्झिमुकोसं ॥ १ ॥ " नि० चू० १ उ० । संपचा सम्पद्-स्त्री० प्राकृते "त्रियामादविद्युत ६५ || इति ना अन्त्यभ्यञ्जनस्य । संपत्तौ प्रा० ९ पाद । संपइ सम्प्रति-अध्यात्मवादः ॥ ८१ । २०६ ॥ इति तस्य न डः । इदानींतनकाले, प्रा० "इह संपर इसिंह " पाइ० ना० ६७ गाथा । सम्प्रतिज्ञातत्वात् सप्रतिः । स्वनामख्याते
31
संप्रतिनृपतिदृष्टान्तमाह
कोसेबाहारकते, अजमुहत्थीय दमगपच्या
अव्वले सामा- इस रो घरे जातो ।। ११२७॥ कायामादार आर्यसुहस्तिनामन्तिके इमकेण
"
।
ज्या गृहीतास सेनाय्य सामायिकेन सुत्या राशो गृहे जात इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगभ्यः । बद-कीनपरी अदन्धी समोसढो तया समागच्छति। प्रथपमेन दम ते दिडा तांबे से भ जायति वैदि भणियं अहं आयरिया जाति तां सो गया आयरिसमा आयरिया उघडत्ता, तहिं खातं एस पवयण उग्गद्दे वह्निद्दिति । तां भणियां अति पव्वयसि तो दिजए भतं । सो भगइ-पब्यामिति । ताई पवारतो सामाइयं कारिडं । तेण श्रतिसमुद्दि | तो कालगतो । तस्स श्रव्यत्तसामाइयस्स पभावेग कुणालकुमारस्स धस्स रनो पुसा जातो को कुणालोकाति-पालि सोगसिरी राया तस्सा। तस्म कुमारभसी की दवा | सांय अरियो रखा हो विसजितशीमधीयतां कुमारः ' असंवत्तिय संह ररागो उट्ठितस्स माइसबत्तीए क तं. अधीयतां कुमारः । सयमेव तत्तलोद्दार अच्छी - जियाणि सुरक्षा गामो से दिल्ली स पुत्तस्स रजत्थी । श्रागतो पाडलिपुत्ते श्रसोगसिरिणी - यतिरिगंधव्यं करे । श्राउट्टो राया भण्इ-मग्गिजंते अभिरुयं ति । ते भण्यिं
,
संप
19
चंदगुपतोयं, बिंदुसारस्स नतु । असोगसिरियो पुसो, अंधी जायति काक ि ॥ १ ॥ चन्द्रगुप्तस्य राशः प्रपौत्रो बिन्दुसारस्य नृपतेर्नप्ता पौश्र, अशोकश्रियो नृपस्य पुत्रः, कुणालनामा अन्धः काकणीं राज्यं याचते । तो राइणा भणितो- किं ते घस्स मणिपुनरस मे कयति । राहो मखियं-दिते पुल आदि हम मे संपजाओ पुत्तोत्ति, ते चेव नामं कथं । तम्रो संघहिश्रो दिन्नं रखं तेण संपइराच्या उज्जेणि आयकार्ड यो सो तत्थणि अवि सब्बे पच्चतरायाणो वसीकया । तसो विउ सिरि मुंज किंच
66
अधीगमनं ददई सरपंच पुच्या कणा पावयम्मिय भती, तो जाता संपतीरराणो " ॥ जीवन्तस्वामिवन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन
66
आग
मनम्
1 तत्र च रथयात्रायां राजाङ्गदेशे रथपुरतः स्थितानार्थान् सुदस्तिगुरून् र नृपतेजीतिस्मरणम् । ततस्तंत्र गत्वा गुरुपदकमलमभिवन्द्य पृच्छा कृता । भगवन् ! अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम् ?, सूरिराह राज्यादिकम् । असौ संभ्रान्तः प्रगृहीताञ्जलिरानन्दोदकपूरपूरितनयनयुगलः प्राह - भगवन् ! एवमेवेदं परमदं भवद्भिः कुत्रापि दृष्टपूर्वो नवेति ? । ततः सूरयः उपयुज्य कथयन्ति महाराज पूर्वपूर्वमद य आसीदित्यादि । ततोऽसौ परमं संवेगमास्तदन्तिके सम्यग्दर्शनमूखं पञ्चाशुत्रतमयं आपकधर्ममयं प्रपद्मवान्। ततश्चैव प्रवचने संप्रतिराजस्य भक्तिः संजाता । किंच-"जवमज्झमुरियवंसे, दाणावणि विवणिदारसंलोए । तसजीव पडिक्कमत्रो, पभावओो समणसंघस्स ॥ १ ॥ " यथा यवो मध्यभागे पृथुलः श्रादावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि । तथाहि चन्द्रगुप्तस्तावद् बहुलवाहनादिविभूत्या विभूषित श्रासीत् । ततो बिन्दुसारो बृहत्तरस्ततोऽयशोकश्रीसमस्ततः संप्रतिः सर्वोत्कृष्टः । ततो भूयोऽपि तथैव हामिचसातव्या एवं यचमध्यकश्यः संप्रतिपतिरासीत् । तेन च राशा द्वारसंलोके चतुर्ष्वपि नगरद्वारेषु दानं प्रयर्तितम् 'शिथियणि सिह इतरा आपणास् यः इत्युच्यन्त ये तु यद्वाये आपणान् व्यवहरन्ति ते वणिजः । ये पुनरापणेन विना - प्यर्द्धस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः । एतेषु तेन राहा साधूनां वादिकं दापितम् स च राजा वश्यमानीत्या सजीवप्रतिकामका प्रभावकध अमसंघस्यासीत् । अथ 'दाणाचदिबियरिति भापयतिओदरियम दारे- सुचउसु महाणसे स कारेइ । गितातेि भौयण, पुच्छा
"
य सुन्ने य ॥ ११२८ ॥ दरिको दमकः पूर्वभवे भूत्या मृतः सन्निदायात इत्यात्मीयं वृत्तान्तमनुसारन् नगरस्य चतुर्षु द्वारेषु स राजा सत्राकारमहानसानि कारयति । ततो दीनानाथारिको लोको यस्तत्र निर्णयन या प्रविशन्वा ममिच्छति स सर्वो भोजनं कार्यते यच्छेषमुद्ररति वन्महानसिकानामापति। ततो दक्षा ते महान्न सिकाः
"
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पृष्टाः, यदस्माकं दीनादिभ्यो ददतामवशिष्यते तेन यूयं किं कुरुथ तैलम् अस्माकं गृहे उपयुज्यते । नृपतिराह-यनादिभिरभु तपः साधूनां दातव्यम् । एतदेवाद
( १६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
साहू देह एयं श्रहं में दाहामि तत्तियं मोल्लं ।
च्छंति घरे घेतं, समणे मम रायपिंडो चि ॥ ११२६ ॥ साधूनामेतद्भक्लपानं प्रयच्छत, अहं 'भे' भवतां तावन्मात्रं मूल्यं दास्यामि । यतो मम गृहे श्रमणा राजपिण्ड इति कृत्वा महीतुं नेच्छन्ति ।
एमेव तिलगोलिय - पूर्विय मोरंडदुस्सिए चेव । जं देह तस्समोल्लं, दलामि पुच्छा य महगिरिणो ११३० यमेय तैलिकाले गोलिका मथितविक्रविका तक्रादिकं, अपलिका अपूपादिकं, मोरएडका:- तिलादिमोदकास्त द्विक्रयिकास्तिलादिमोदकान्। दौष्यका वस्त्राणि च दायिता । कथमित्याह यतैलतकादि एवं साधूनां दस्थ तस्य मूल्यमई भवतां प्रयच्छामि तत श्राहारवस्त्रादौ किमपीप्सिते लभ्यमाने श्रीमहागिरिंर्यसुहस्तिनं पृच्छति । श्रार्य ! प्रचुरमाहारयखादिकं प्राप्यते ? ततो जानन्त्यायः राज्ञा लोका प्रवर्त्तितो भवेत् ।
अजसुहत्थिममत्ते, अणुरायाधम्मतो जो देति । संभोगवी सुकरणं, तक्ख आउट्टणनियत्ती ।। ११३१ ।। अर्थमुद्रस्ती जानानो ऽप्यनेवसीयमात्मीयशिष्यममत्वेन भणति क्षमाश्रमण ! अनुराजधर्मतो राजधर्ममनुवर्तमानः एष जनः एवं यथेप्सितमाहारादिकं प्रयच्छति । तत श्रार्यमहागिरिणा भणितम् - आचार्य ! त्वमपि ईदृशो बहुश्रुतो भूत्वा यद्येवमात्मीयशिष्यममत्वेनेत्थं ब्रवीषि ततो मम तव चाद्य प्रभृति विसंभोगो - नैकत्र मण्डल्यां समुदेशनादिव्यवहार इत्येवं विसंयोगस्यायिष्करणमभयत् । ततः सुहस्ती चिन्तयति मायाभावादेवमनेपणीयमाहारजातं साधवो ग्राहिताः, स्वयमपि चानेषणीयं भुक्तम् । अपरं चेदानीमहमित्थमुपलम्भयामि तदेतन्मम द्वितीयं बालस्य मन्दत्वमित्यापन्नम् । अथवा-नाचापि किमपि विनएं भूयोऽप्यहमेतस्मादधत्यतिक्रमामीति विचिन्त्य तत्क्षणादेवावर्तनमभवत् ततो धावलो चनां दत्त्वा स्वापराधं सम्यक् क्षामयित्वा तस्या प्रकल्पतिसेवनायास्तस्य निवृत्तिरभूत्, ततो भूयोऽपि तयोः संभोगिकत्वमभवत् ।
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अथ सजीवप्रतिक्रामक इत्यस्य भावार्थमाहसो राजाज्वंतिवती समणार्थ भावतो सुविहितायं । पचंतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं ।। ११३२ ॥ संप्रतिनामा राजा अवन्तीश्रमानां अवन्तीश्रमणानां श्रावकपतधारी अभयदिति शेषः । ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-हितानां शोभनानुष्ठानानां ततस्तेन राज्ञा ये केचित् प्रात्यन्तिकाः प्रत्यन्तदशाधिपतयां राजामस्ते सर्वेऽपि शब्दायिताः ।
स
संप
ततः किं कृतवानित्याद
कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं । अप्पाहिताय बहुसो, समणां भद्दगा होह | ११३३॥ कथितञ्च तेषां प्रात्यन्तिकराजानां तेन विस्तरतो धर्मः, माहिताय ते सम्यक्त्वं ततः स्वदेशगता अपि ते बहुशस्तेन राशा संदिष्टाः, यथा श्रमणानां भद्रका भक्तिमन्तो भवत ।
अथ कथमसौ श्रमणसंघप्रभावको जात इत्याहअजाणे अणुजाती, पुप्फारुहणाइ ओकिरणगाई । पूयं च चेहयाणं, ते वि सरजेस कारिति ॥ ११३४॥ अनुवानं रथयात्रा तत्राप्यसी सुपतिरनुपाति जिकादिसहितो रथेन सह हिण्डते । तत्र पुष्पारोपणम् आदिशब्दात् माल्यगन्धचूर्णामरणारोप च करोति, 'उकिरण'गाई' ति रथपुरतो विविधफलानि खाद्यकानि पत्रसीनियोरिकरणानि करोति आद निशी
य
तो विविफलवत्थमादी यर करे सि । अषां तानां यानां भगवद्विम्बानां पूजनं महतां विच्छद्दनं करोति तेऽपि च राजान एवंमेव स्वराज्येषु रथयात्रामहोत्सयादिकं कारयन्ति । इदं च से राजानः संशतिनृपतिना भणिताः ।
जति मं जागृह सामि, समयागं पणमहा सुविदिया। दब्बे मे न कर्ज, एवं स्तु पिवं कुह म ।। ११२५ ।। यदि मां स्वामिनं यूयं जानीथ मन्यध्ये ततः श्रमणेभ्यः सुचितेभ्यः प्रणमतता भवत द्रव्ये ददाम्येनार्थेन मेन कार्य कियेतदेव भ्रममनादिकं मम प्रियं तदेव यूयं कुरुत ।
वीसज्जियाय तेणं, समयं घोसावणं सरजेसुं । साहू सुहविहारा, जाता पचतिया देसा ।। ११२६ ।। एवं तेन राज्ञा शिक्षां दत्त्वा विसर्जिताः, ततस्तेषां स्वराज्येषु गमनं तत्र च तैः स्वदेशेषु सर्वत्राप्यमातिघोष कारितं चैत्यगृहाणि च कारितानि तथा प्रात्यन्तिका दे शाः साधूनां सुखविहाराः संजाताः । कथमिति चेदुच्यतेतेन संप्रतिना साधवो भणिताः - भगवन्तः ! एतान् प्रत्यस्वदेशान् गत्वा धर्मका प्रतियोध्यमानाः पसापुभिरक्रम् राजन्नात्र साधूनामाहारवस्त्रपात्रादेभः । ततः किमभूदित्याहसमणभडभाविएसुं, तेसुं जे सणादी | साहू सुहं विहरिया, तेणं वि य भद्दगा ते उ ॥ ११३७॥ श्रमविषधारिभिर्भटैरेषणादिभिः शुद्ध माहारादिग्रहणं कुबरीः साधुविधिना भाषितेषु तेषु राखेषु साधवः सु विद्रुताः । तत एव च संप्रतिनुपतिकाला प्रत्यन्तदेशा भ द्रकाः संजाताः ।
इदमेव स्पयति-
उदिमजोहाउल सिद्धसेणापढिद्वितो सिजिससेधो ।
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समंततो साहुप्पयारे,
अकासि अंधे दविले व घारे ।। ११३८ ।
उद प्रचला ये योधास्तैराकुलासंकीण सिद्धा प्रतिष्ठित सर्वत्राप्यप्रतिहता समा यस्य स तथा अत एव संपग्गह- सम्प्रग्रह-पुं० श्रात्मनो जायायुत्करूपम खा० निर्जितशत्रु सैन्यः स्वनृपतिः विधः स संप्रतिमामा पार्थिवः अन्धान् विहान शब्दान्महाराष्श न् कुडुकादीन् प्रत्यन्तदेशान् घोरान् प्रत्यपायबहुलान् समततः साधुसुखप्रचारान् साधूनां सुखविहारानकात्-कृतवान् | बृ० १ उ० ३ प्रक० । विशे० । नि० चू० । कल्प० । दर्शनशुद्ध
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जय जय नादिवायर !, परोवयारिकपश्ञ्चल ! मुंद ! | गुरुकरुणारससायर !, नमो नमो तुज्झ पायां ॥ २६ ॥ दारिदश्रमुहसमु दमज्झनियतजतुपायाखं । गुरुकरुणारससायर !, नमो नमो तुज्झ पाएं ॥ २७ ॥ सग्गापवग्गमग्गा - गुलग्गजणसत्थवाहपायाणं । गुरुकरुणारससायर !, नमो नमो तुज्झ पायाणं ॥ २८ ॥
कुससवरकल सकुलिसकमलाइ लगवाएं। गुरुकरुणारससायर !, नमो नमो तुझ पायाणं ॥ २६ ॥ हम थोडे सो गुरुयो हिमं गाव सांगतो सत्य विनियरजे, रद्दजत्ताओ पवत्तेइ ॥ ३० ॥ जद्द सुमरिय रंकत्तं - सत्तागारा कराविया तेरी । जह बोहिया अराजा, तहा निसीहाउ नेयव्यं ॥ ३१ ॥ जिएसास पभाविय सुदरं गुरुम्सुमाग सो संपइनरनाहो, जाओ वेमाणिश्रो सुसुरो ॥ ३२ ॥ इत्यधिकार्य धर्मविचारं संप्रतिभूपतिवृत्तमुदारम् । सद्गुरुमहताखिलबहुमान भजनात बहुमानम् ३३" संपइक्खि- साम्प्रतेक्षिन् - पुं० । बाले, अपरिणामद्रष्टुरि सूत्र ० १ श्रु०५ श्र० २ उ० ।
"
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संपइएण -- सम्प्रकीर्ण- त्रि० । रमणीयतया व्याप्ते, रा० । संपउन- सम्प्रयुक्त चि० सम्बये स्था० ४ डा० १७० व्यापृते, संगते, स्था० ८ ठा० ३ उ० । प्रवर्त्तिते, स्था० ६ ठा० ३ उ० । समन्विते, सूत्र० २ श्रु० ७ श्र० । व्यापारिते, शा० १ ० १ श्र० । श्र० । योजिते , शा० १ ध्रु० १ ० । श्रविरुद्धतया प्रवर्त्तिते, जं० १ वक्ष० । संपयोग सम्प्रयोग-पुं० सम्पदे खा० ४ डा० १ ० । सूत्र० । प्रवर्त्तने, शा० १ ० १८ श्र० । सम्यगग्रतो वा प्रयोगः सम्प्रयोगः । अकल्पिते यांगे, दश० १ ० । सस्पर्क, प्रश्न० ४ संव० द्वार । आ० म० । श्राव० । संपर्क - सम्पर्क - पुं० | सङ्गमे, आ० म० १ ० । संपक्खालग-संप्रक्षालक-पुं० । वानप्रस्थभेदे, मृत्तिकाद्याघपूर्वकं ये अक्षालयन्ति ते संचालका उच्यन्ते नि० श्रु० ३ वर्ग ३ अ० । श्री० । संपखालिय- सम्प्रचालित शालित सर्वपापले घ० ३ अधि० भ० ।
1
संपगाढ सम्प्रगाढ त्रि० अभ्युपपने, “बिलेखिय मेव पगाढा” सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । व्याप्ते सूत्र० २ ० ६
( २०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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3
संपत्थिय
अ० | सम्प नारकतिनरामरमेदेन प्रगाढा:- प्रक व्यवस्थिता इति । सूत्र० १ ० १२ श्र० । असो, सूत्र० १ श्रु० ५ ० २३० ।
८ ठा० ३ उ० ।
संपज सम्पद्धा० सम्पती "सिदांज २२४॥ श्रनेनात्रान्त्यस्य द्विरुक्को जकारादेशः । सम्पद्यते । प्रा० ४ पाद ।
संपजण सम्पञ्जन - न० । रसपुष्टिजनने, सूत्र० १ ध्रु० ७ श्र० । संपट्टिय सम्प्रस्थित त्रि० सम्प्रयाते प्रा० १५ पर श्री "येडिकडिगादयो सम्पडिया" आ० १ ० संपडि - देशी- लब्धे, दे० ना० ८ वर्ग १४ गाथा । संपडिलेहियन्त्र सम्प्रत्युपेचितव्य सम्यक प्रतिलेख तव्ये, दश० १ ०
संपडिवाइय - सम्प्रतिपादित - त्रि० । स्थापिते, "धम्मे संपडिवाइओ" दश० २ अ० ।
संपदिय - संप्रणदित त्रि० । सम्यक् श्रोतृमनोहारितया प्रका सर्वकाल नदितं सम्प्रादितम् । सम्यक कुर्वति, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । प्रज्ञा० ।
संपणा- देशी घृतपूरा गोधूम गाथा संपणोलिय - सम्प्रणुद्य-श्रव्य० । भाजनस्थं प्रेर्येत्यर्थे, द्रव्या० । संपण - सम्पन्न - त्रि० । युक्ते, उत्त० १ ० । सूत्र० । स्था० । घ० । श्रतुः । समन्विते, आव० ४ श्र० । उपेते, जं० २
वक्ष० ।
संपदोहला सम्पनदीहदा श्री० विवक्षिता भोगसंपा नन्दसंप्राप्तायामन्तर्वत्म्याम्, विपा० १ श्रु० २ श्र० । संपधा-देशी पृतपूरार्थगोधूमपि दे० ना० वर्ग गाथा संपण्णाय - सम्प्रज्ञात- त्रि० । सम्यक् प्रज्ञानप्रतिपादके समाधिभेदे, सम्यक् संशयविपर्ययध्यानाध्यवसायरहितत्वेन प्रशायते प्रकर्षेण ज्ञायते भव्यस्य स्वरूपं येन स सम्प्रज्ञात उच्यते । द्वा० २० द्वा० । (सम्प्रज्ञातस्य व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२
उक्ला ।)
9
संपत्त - सम्प्राप्त - त्रि० । संलग्ने, आ० म० १ ० । समागते, शा० १ ० १ अ० । उत्त० । शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते, दश० ५ ० १ उ० । संपत्ति सम्पति स्त्री० यथेोकार्थसम्पादने २०३०१० विभवसमागमे ३० १२ द्वा० । “सम्प्राप्ति विपत्ति का र्याणां द्विविधा स्मृता। संप्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु विपत्ति दि पर्ययः ॥ १ ॥ नि० चू० १५ उ० । 'विलिंगेण लिंगणीए संपत्ति जर निग्गच्छई तो मूढो' बृ० ३ उ० । प्राप्ती, पञ्चा० १६ विव० । अपूर्वलाभ, पो० १२ विव० ॥ भ० । संपत्थिय सम्प्रस्थित त्रि० सम्प्रस्थानकाले प्रयाते व्य०१ उ० । शीघ्र, दे० ना० ८ वर्ग ११ गाथा |
"
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संपदागम
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( २०१ ) अभिधानराजेन्द्रः । संरापइय० संपदागम- सम्पदागम-पुं० सम्पत्तिसम्सी, सम्पदागमः संपराइय-सांपरायिक शि० संपराया बाइकपायास्तेभ्य श्रागतं साम्परायिकम् । तज्जीवोपमर्दकत्वेन वैरानुषङ्गितयामदुष्कृतकारिभिः पापविधायिभिर्वध्यमाने कर्मणि सू० १ श्रु० ८ अ० ।
सदनुष्ठानलक्षणम्, तत एव शुभभावपुण्यसिद्धेः । द्वा० २३
द्वा० ।
संपधारणा - संप्रधारणा- स्त्री० । घारणाव्यवहारे, व्य०।- "जदापहारंजी तम्हा कारण तेनायच्या संधार था।” तथा यस्मात्सम्प्रधार्य सम्यक प्रकर्षेणावधार्य व्यवहारं प्रयुङ्क्ते तस्मात्कारणा शिष्येण संप्रधारणा भवति बा
व्या । व्य० १० उ० ।
-
संपभूमिय सम्प्रभूमित भि० सोन्याचे पूर्वासितेप० पय्येण समन्ततः प्रकर्षेण भूषिते,
वृ० १ उ० ३ प्रक० ।
संपम अय-संप्रमृज्य अन्य प्रास्पेश्यर्थे, कल्प०३
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--
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धि० ६ क्षण ।
संपमिअमाण - संपरिमृजत् - त्रि० । सम्यग् परि समन्तात् ६स्तपादादीनवयवान् तक्षिपस्थानानि वा रजोद्दरणाविना
मृजति, श्राचा० १ ०५ ० ४ उ० । संपर्व साम्प्रतम् - अव्य० । वर्त्तमानक्षणभाविनि पृक्ते, विशे० । शब्दनये, अस्य द्वितीयनाम साम्प्रतवस्त्वाश्रयणात् साम्प्रतम् । यथा षोऽपि ऋसूत्रनय इव साम्प्रतमेव वस्त्वभ्युपगच्छति नाप्यतीतमनागतं नापि वर्त्तमानमपि परकीयम्।
आ० म० १ अ० । श्राचा० ।
संपयकालीय-सांप्रतकालीन भि० वर्तमाने, विशे० । संपयगाहि-साम्प्रतग्राहिन् - पुं० । वर्त्तमानैकलक्षणवस्तुप्राहिपि, विशे० ।
संपपदीय - सम्पदीन-वि० सम्पहिते, स० ३ सम० । संपया-सम्पदा - स्त्री० | सम्पन्नतायाम्, उस० [अ० स्था० ३ ठा० १ उ० । उक्त० । व्य० । समृद्धी, शा० १ ०११ ० चकारके अर्थविभ्रामस्थाने, संपा०] १ अधि० १ प्रस्ता० । संपयाथ सम्प्रदानन० सम्पत्या दाने यस् तत्सम्प्रदानम्। दावा कर्माऽभिप्रेतघटादिग्रहीतरि विशे सत्कृत्य सम्यग्वा प्रदीयत यस्मै तत्संप्रदानम् । तच्च त्रिविधं तद्यथा दीयतांमधे बहुत भविष्यतीत्या दिवचनप्रपञ्चन किञ्चित् प्रेरकं यथा बटुर्ब्राह्मणः । अपरं स्थिस्थप्रेकमपि दामस्य परिभोगाभ्यामनुमोदकं भवति । यथा मुनिः साधुः । श्रन्यसु पुष्पाद्यनिषेधकम् - यथाऽईप्रतिमादेः । आ० म० १ ० । झा० चू० । सम्यगर्थिभ्यो दाने, आ० म० १ अ० । विशे० । अनु० । संपयामूल सम्पदामूल-१००० संपयापय-सम्प्रदा (प) नन० कृत्य प्राप्यते यस्मै उपरम्य वा परमेतत्संप्रदायनम संप्रदानं या । चतुर्थी कारके, “उत्थी संपयावणे " चतुर्थी सम्प्रदाने भवति यथा भिक्षवे भिक्षां दापयति ददाति वा ।
,
स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
५१
1
संपराइयबंध-सांपरायिकवन्ध-पुं० संपति-संसारं पर्वटति पभिरिति साम्परायाः कषायास्तेषु भवं साम्परायिकं कर्म, तस्य यो बन्धः स साम्परायिकबन्धः । कषायप्रत्यये बन्ध, भ० ।
०
,
संपराइयं णं भंते ! कम्मं किं नेरइयो बंधर, तिरिखजोणी बंध जाय देवी बंध १ गोयमा ! नेरओ विबंध तिरिक्खजोगीओ पि गंध तिरिक्खजोगिणी विबंध, मणुस्सो वि बंधर, मणुस्सी वि बंधर, देवो वि बंध, देवी वि बंधइ ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंध, पुरिसो बंधह, तहेच जाव नो इत्थी नो पुरिसो नो नपुंसश्रो बंधइ १, गोयमा ! इत्थी वि बंधह पुरिसो वि बंधइ ०जाब नपुंसगो वि बंधर । श्रह वेए य अगवेदो य बंध, अह वे य श्रवयवेया यति । जइ भेते! अवगयवेदो य बं बगयपेदा व बंधति तं भंते किं इत्थी पच्छाकडी - घर पुरिसपाको घर एवं जहेब ईरियामहिया बंधगस्स तच निरवसेस •जाब अहवा इत्थी पच्छाकडा व पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति । तं भंते ! किं बंधी गंध बंधिस्सर १ बंधी बंधर न बंधिस्सइ २ बंधी न बंधबंधिस्स ३ बंधी न बंधन बंधिस्स ४१, गोयमा अत्थे गतिए बंधी बंद बंधिस्स १ भये गतिए बंधी बंध न बंधिस्सइ २ अत्थेगतिए बंधी न बंधह बंधिस्सइ ३ अत्थे गतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४ ॥ तं भंते! किं साइयं सपञ्जवसियं बन्ध ? पुच्छा तहेव, गोयमा ! साइयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधर, अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधह, णो चेवं साइयं अपयसि तं ते किं देवं पंधर, एवं जहेव ईरियावहिया बंधगस्स ०जाव सव्वेणं सव्वं बंध | (०-३४२ )
'संपइयं ण' मित्यादि, 'कि नेरहओ' इत्यादयः सप्त प्रक्षाः, उत्तराणि च सप्तैव एतेषु च मनुष्यमानुषीयः पश्च साम्परायिकबन्धका एवं सकषायत्वात् मनुष्यमानुयौ तु सकषायित्वे सति साम्परायिकं बध्नीतां न पुनरम्यति । साम्परायिकबन्धमेव उपाय नाह तं भंते । किं इत्थी' त्यादि, इह रुयादयो विवक्षितैकत्यबहुत्याः षद् सर्वदा साम्परायिकं बध्नन्ति अपगतवेद कदाचिदेव तस्य कादाचित्कत्वात् । ततश्च स्यादयः केचला बध्नन्ति अपगतयसहितास। तता पापद
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(२०२) संपराइय. अभिधानराजेन्द्रः।
संपसारय सहितास्तदोच्यते अथवैते ध्यादयो बध्नन्ति अपगतवेदश्च, | औ० । भ० । सेवागतनानाधिधपरिवारोपेते , पा० म० १ तस्यैकस्यापि सम्भवात् । अर्थवते स्त्र्यादयो बध्नन्ति अप- | अ०भ० । सम्यक परिवारिते, परिकरभावेन परिकरिगतवदाश्च, तेषां बद्नामगि सम्भवात् , अपगतवेदश्च सा- ते , भ० २ श०५ उ०। झाकावेष्टिते, सूत्र० १ श्रु०७० म्परायिकबन्धको बेदत्रये उपशान्त क्षीण वा यावद्यथा- संपलग्ग-संप्रलन-त्रि० । योचु समारब्धे, विपा० १ श्रु०३ ख्यातं न प्राप्नोति तावल्लभ्यत इति , इह च पूर्वप्रतिपन्न
अ०रा०। प्रतिपद्यमानकविवक्षा न कृता, द्वयोरप्येकत्वबहुत्वयोर्भा
संपलियालग-सम्पलिस्थालक-न। बल्लादिफलीना पाके, वेन निर्विशेषत्वात् । तथाहि-अपगतबंदत्वे साम्परायिकबन्धोऽल्पकालीन एवं तत्र च योऽपगतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः
- आचा०२ श्रु०१ चू० ११०। साम्परायिकं बध्नात्यसादेकोऽनेको वा स्यात् , एवं प्रति
संपलिय-सम्पलित-पुं०। आर्यकालकशिष्ये,कल्प० २ अधिक पद्यमानकोऽपीति । अथ साम्परायिककर्मबन्धमेव का- ८ क्षण । गोयमगुत्तकुमारं, सम्पलियं तह य भयं वंदे' लत्रयेण विकल्पयन्नाह-'तं भंते ! किमि' त्यादि इह च पू. कल्प०२ अधि०८ क्षण । नपुं० । मुद्रादीनां विध्वस्तफले, बोक्लिष्वासु विकल्पेवाद्याश्चत्वार एष सम्भवन्ति नेतरे, आचा०२ श्रु०१चू०१०१० उ०। .. . जीवानां साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन 'न बंधी' त्य
संपलियंक-सम्पर्यडू-पुं० । पद्मासने, औ०। स्यानुपपद्यमानत्वात् , तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी यथाख्यातासंग्राप्तोपशमकक्षपकावसानः स हि पूर्व बद्धवान्
संपलियंकणिसम्म-समपर्यङ्कनिषाल-त्रि०ापनासनसन्निविष्ट, वर्तमानकाले तु बध्नाति अनागतकालापेक्षया तु भन्त्स्य
रा० भ०। ति । द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान् संपवत्तमाण--संप्रवर्तमान-त्रि० । व्याप्रियमाणे, पश्चा०८ वर्तमानकाल तु बध्नाति भाविमोहक्षयापेक्षया तु न भन्त्स्य | विव०। ति २। तृतीयः पुनरूपशान्तमोहत्वात् पूर्व बद्धवान् उपशा- | संपवयमाण-सम्प्रव्रजत्-त्रि०। सम्यक्-प्रव्रज्यामभ्युपगच्छन्तमाहत्वे न बध्नाति तस्माच्युतः पुनर्भन्त्स्यनीति ३ । च- ति, आचा०१ श्रु०५० । सम्यक प्रबजने, नि० चू०२ तुर्थस्तु माहक्षयात्पूर्व साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये
। उ० । सम्-एकीभावेन प्रव्रजति, नि० चू०२ उ०। न बध्नाति न च भन्स्यतीति । साम्परायिककर्मबन्धमेवाथित्याह-'त' मित्यादि, 'साइयं वा सपज्जवसिय यंघा'
संपवेयण--सम्प्रवेतन--न० । कम्पने, आचा०२ श्रु०४ चू० । त्ति-उपशाम्तमोहताया च्युतःपुनरुपशान्त मोहतां क्षीणमो-संपसार-सम्प्रसार-पुं० । सम्-एकीभावेन किमप्युद्दिश्य हतां वा प्रतिपत्स्यमामः, 'श्रणाइयं वा सपज्जवसियं बंधईत्ति एकत्र मीलने, समवाये, श्रा०म० १.१०। श्रादितः क्षपकापेक्षमिदम् , 'अणाइयं वा अपजवसियं बंधर'
| संपसारण-सम्प्रसारण--न । पर्यालोचने, प्राचा० १७०५ त्ति-पतचाभव्यापकं, 'नो चेवण साइयं अपज्जवसियं बंधर' त्ति सादिसाम्परायिकबन्धो हि मोहोपशमाच्युतस्यैव
। अ०४ उ० । सूत्र भवति , तस्य चावश्यं मोक्षयायित्वासाम्परायिकबन्धस्य
| संपसारय-सम्प्रसारक-पुं०। देववृत्यर्थकाण्डाविसूचककथाव्यवस्लेटसम्भवः ततन साटिरपर्यवसान सामायि- विस्तारके, सूत्र०१ श्रु०२ १०२ उ० । कुशीलभेदे, निचूक कबन्धोऽस्तीति । भ०८ श०८ उ०।
जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संपसारयं वंदइ वदंतं वा संपराइया-साम्परायिका-स्त्री सम्परायाः-कषायास्तेषु भ- साइजइ ।। ५७ ॥ जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संपसारयं बा साम्परायिकी । पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपायां जी- | पसंसइ पसंसंतं वा साइजइ ।। ५८ ॥ बव्यापारस्याविवक्षणावजीवक्रियायाम् , साच सूरमसंपरा- जो संपसारयं इत्यादि द्वे सूत्रे गिहीणं कज्जाणं गुरुलाघयात्तानां गुणस्थानकवर्ता भवति । स्था०२ ठा० १ उ० । वेणं संपसारतो संपसारातो। संपराय-सम्पराय-पुं० । सम्परायन्ति भृशं पर्यटन्त्यस्मिन्
गाहा। जन्तव इति सम्परायः । संसार , उत्त० २० अ० । सूत्र० ।
अस्संजयाण भिक्खू , कजे अस्संजमप्पवत्तेसु । कपायोदये, आ० म०१०। स्था० । दर्श० । उत्त०। सं- जो देती सामत्थं, संपसारतो उ नायब्बो ॥ १०१॥ ग्राम,ज्ञा०१०६०। दश०। बादरकपाय, सूत्र०१ श्रु० जो भिक्खू असंजमकज्जपबत्ताणं पुच्छताण अपुच्छताणं ८० । विश० । अनु०।
या समत्थयं वंदति सो एवं इमं वा कोहि एत्थ बह दोसा संपरिखित्त-सम्परिक्षिप्त- त्रिवेष्टिते, स्था० ३ ठा०४ उन जहाहं भणामि, भट्ठा करहि त्ति । एवं करेंतो स परतो भ
वति । ते य इम असंजमकजा गिहीणं; संपरिखित्तु-सम्परिक्षिप्य-अव्य० । परिवार्येत्यर्थे, स्था० ५
गाहा। ठा०२ उ०।
गिहिणिग्गमणपर्वसे, आवाहविवाहविक्कयकए वा। संपरिवड-संपरिवृत-त्रि। सम्यक नायकैकचित्ताराधनप- गुरुलाघवं कहेंत, गिहिणो खलु संपसारीओ ॥१०२॥ रतया परिवृत , रा० । सम्यक् आराधकभावं बिभ्राणैः गिहिणं असंजयाणं गिहा दिसि जत्ताए वा णिग्गमण परिवृत , रा० । सम्यक् परिवाररीत्या परिवृते , रा० । दति, गिहिजत्ता वा आगयस्स या पंवसं दति, श्राबाहो
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संपसारय अभिधामराजेन्द्रः।
संपुलकिच्छ विडियालभणयं सुहं दिवसं कहेति, मा वा एयस्स देहि | सम्प्रातर-अव्य० । प्रातः-प्रभातं तेन समं प्रातः सम्प्रातः । इमस्स वा देहि, विवाहपडलमादिएहि जोतिसगंथेहि
प्रभातसमकाले, स्था० ३ ठा०१०। विवाहवलं देति, अग्घकंडमादिपहिं गंथेहिं इमं दब्वं वि
संपायणा-सम्पादना-स्त्री० । निर्वर्सनायाम् , पश्चा० १३ किणाहि इमं वा कियाहि पबमादिपसु कज्जेसु गिहीणं गुरुलाघवं कहतो संपसारत्तणं पावति । नि०० १३ उ०।।
विव।
संपाविउकाम-सम्प्राप्तुकाम-त्रि० । प्राप्तुमनसि,"सिद्धिगरसंपहारित्थ-सम्प्रहारितवत-त्रि० । विकल्पितधति, 'संपहा
नामधिजं ठाणं संपाविउकामेण" स०१४ सम० । प्राप्तुमरिच गमणाए 'शा०१ ०१ मा
ना न तु तत्प्राप्तस्याकारणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणाससंपहारिय-संप्रधार्य-अन्याशात्वेत्यर्थे, प्राचा०२४०
भवात् । प्राप्तुकाम इति च यदुच्यते तदुपचारादन्यथा हि १०२०१०। समालोचितवति, चूषक २ श्रु० १ निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति ' मोक्षे भवे म. . .
व सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तम 'इति वचनात् । भ०१
श०१ उ०। संपहाषण-सम्प्रधावन-न० । सम्यगौत्सुक्येन धावने ,
संपाविय-सम्प्रापित-त्रि०। नीते, प्रश्न १माश्रद्वार। . प्राचा०२ श्रु०१चू०११०३ उ०।
संपासंग-देशी-दीर्धे, दे० ना०८ वर्ग ११ गाथा। संपट्ठि-सम्प्रहृष्ट-त्रि० । हर्षिते, उत्त० १५ १०।
संपिंडण-सम्पिएडन-नासमूहे,ौनमोदकादिवन्धने,पि० । संपहित्ता-सम्पिधाय-अव्या स्थगयित्वेस्यथे, स. ३०
संपिंडिय-सम्पिण्डित-त्रि० । अविच्छिन्ने, प्रय०२द्वार । ए. सम।
कतः पिएडीभूते, जी०२ प्रति०४ अधि। औ०रा० । संपा-देशी-काम्च्याम् 'दे० ना०८ वर्ग २ गाथा ।
जंग। मिलिते, शा० १७० १० । सम्यक पुखीकते, संपाइन् सम्पातिन्-पुं० । सम्पतितुमुत्प्लुस्योत्प्लुत्य गन्तु- उत्त०१४ ०। मागन्तुं वा शीलं येषां ते सम्पातिनः जीवाः । मक्षिकाभ्र- संपिंडियकरण-सम्पिण्डितकरण-न० । अव्यवच्छिन्ने ,प्रव० मरपतनमशकपक्षिवातादिकेषु प्राणिषु, प्राचा० १ ० १ २द्वार। . अ०४ उ०।।
संपिणद्ध-सम्पिनद्ध-त्रि० । बछे, जं. २ वक्षः। संपाइअव--सम्पादितवत-त्रि० । “भवद्भगवतोः" |२६
संपील-सम्पीड-पुं० । संघाते, उत्त० ३२ १०। अस्य काचिकत्वात् नकारस्य मकारादेशः । संपातं कृतयति, संपाइअवं सीसो । प्रा०४ पाद ।
संपुच्छण-सम्प्रश्न-पुं०। सम्प्रश्नः सायद्यो गृहस्थविषयः ।
रागाचर्य कीशो वाऽहमित्यादिरूपे साधुना(दश०३१०।) संपाइम-सम्पातिम-पुं० । सम्पातनशीलेषु शलभादिषु प्रा
गृहस्थगृहे कुशलादिप्रच्छने , आत्मीयशरीरावयवप्रच्छने .णिषु, सूत्र.१ श्रु०७०
च । सूत्र० १ श्रु० ६ ० नरैरुदन्तवहने, व्य०२ उ०। संपाउप्पायक-सम्पातोत्पादक-पुं०। सम्पातानामनर्थमील
नथमाल-| संपच्छिया-सम्मोच्छिका-खी० । पादादिलूपिकायां सम्माकानामुत्पादकः सम्पातोत्पादकः । अष्टादशे गौणपरिग्रहे, | जिंकायाम् , शा०१ श्रु०७०। प्रश्न०५ आश्रद्वार।
संपुंजिऊण-सम्पूज्य-श्रव्य० । सम्मानयित्वेत्यर्थे , पञ्चा० ८ संपागड-सम्प्रकट-त्रि०। गीतार्थसमक्षे, स्था० ४ ठा० १
विव०। उ०प्राधा .
संपुडाग-सम्पुटक-पुं०।द्वयोर्वस्तुनोरेका समावेशे, व्य. संपागडप्रकिप-सम्प्रकटाकृत्य-पुं० । सम्प्रकटानि प्रवचनो-७० कटान प्रवचना ७ उ०।
.. . पघातनिरपेक्षतया समस्तजनप्रत्यक्षाण्यकृत्यानि मूलोत्तरगु- संपडफलय-सम्पुटफलक-पुं०। पुस्तकपञ्चकान्तर्गतेऽन्यतणप्रतिसेवनारूपाणि यस्य स तथा । सम्प्रकटप्रतिसेविनि,
मपुस्तके, “संपुडगो तुगमाई फलगा पोत्थं" संपुटफलको बृ०३ उ०।
यत्र यादीनि फलकानि भवन्ति । षणिग्जनस्योद्धारनिसंपागडपडिसेविन-सम्प्रकटप्रतिसेविन्-० । सम्प्रकटमेव क्षेपादिरूपे संपुटकाख्ये करणविशेष, स्था० ४ ठा०२ उ०। गीतार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसेवते मूलगुणान् उत्तरगुणान् वा का प्राव । नि०यू०। दर्पतः कल्पेन बेति सम्प्रकटप्रतिसवी । स्था० ४ ठा०२ संपडिय-सम्पटित-त्रि० । सम्पुटं संजातमस्येति सम्पुटिउ० । सम्प्रकटमगीतार्थसमक्षमकल्प्यभक्कादिप्रतिसेवितुं शील यस्य सः । स्था०४ ठा०२ उ० । प्रवचनोपघातनिर-| My
भक्कादप्रातसवितु ताः, तारकादिदर्शनादितः प्रत्ययः । आद्यन्तकृतसम्पुटे, पेक्षतयैव मूलोत्तरगुणप्रतिसेवक, आव० ३ अ०नि० चू ण्या -सम्पर्या-त्रि०। समग्रे, प्रति० । आया। उत्त। संपाडणहेत-सम्पादनहेत-पुं० संपादनार्थे, पञ्चा०६ विवा विशाला संपाय-सम्पात-०। आगमने, पश्चा० ६ विव० । चलने, संपुषणकिच्छ-सम्पूर्णकृच्छु-न० । चतुर्गुणिते पादकृच्छतपउत्त०२०
। सि, पादच्छत्वे तत:--" एकभक्तो न नकेन, तथैवायाचि
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(२०४) संपुगणकिच्छ अभिधानराजेन्द्रः।
संबंधसंबंधि तेन च । उपवासेन चैकेन, पावकृच्छ विधीयते ॥१॥" इति
संम्बन्ध इति चिन्तया संबन्धविधिमेव सम्पूर्णकृच्छ पुनरेतदेव चतुर्गुणितमिति । द्वा० १२ द्वा० ।
तावदुपदर्शयतिसंपुषणगुण-सम्पूर्णगण-त्रि० । विशुद्धज्ञानादिगुण, जी. सुत्ते सुत्तं वज्झति, अंतिमपुप्फे व वज्झती तंसे । १ प्रतिः ।
ता (इय) सुत्तातो सुत्तं, अत्थाओ वा भवे सुतं ॥१॥ संपुम्मघोस-सम्पूर्णघोष-त्रि० । सम्पूर्णो घोषः शब्दो यत्र त- इह संबन्धोऽनेकधा भवति । यथा पुष्पेषु प्रध्यमानेषु त्तथा । पूर्णशब्दसहिते, कल्प०१ अधि० ३ क्षण।
यदा सूत्रं तन्तुनिष्ठितं भवति तदा तस्य यदाचं सूत्रम् तद्यसंपुरमदोहला-सम्पूर्णदोहदा-स्त्री० । अभिलषितार्थपूरणे,भ०
दि सहशाधिकारकं भवति तदा सूत्रात् सूर्य प्रश्नातीत्यु
च्यते । कापि पुनरर्थादपरं सूत्रं संबध्यते। बावशब्दोपादा१ श०३ उ० । कल्प० । समस्तवाञ्छितार्थपूरणे, परिपूर्नाम
नाकाप्यदर्थस्य संबन्धः क्रियते । पृ०४ उ० । संबन्धनोरथायामन्तर्वम्याम् , विपा०१ श्रु०२०।
स्तु द्विधा-उपायोपेयभाषलक्षणः, गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च । तत्र संपुस्मनाणकरण-संपूर्णज्ञानकरण-न० सर्वविरतिप्रतिपत्ति
प्रथमस्तर्कानुसारिणः प्रति । स चायम्-वचनरूपापनं शा
खमिदमुपायः, उपयं-सम्यगेतच्छास्त्रार्थपरिहानं मुक्लिपदं तोऽखण्डे, प्राप्तवचमानुपालने च । पश्चा० ६ विव० ।
वा तस्याप्यतः पारंपर्येण प्राप्तेः । श्रद्धानुसारिणस्तु प्रति गु. संपुल-सम्पुल-पुं० । स्वनामख्याते दधिवाहननृपकञ्चुकिनि, रुपर्वक्रमलक्षणसंबन्धः, तत्क्रमश्वायम्-प्रथमं हि घनाघनपप्रा०क०२० प्रा०म०।
टल इवातिप्रसारिणि पटुतरोज्जृम्भमाणस्वरकिरणनिकरप्र
काशसंकाशकमनीयकेवलालोकन्यकारिणि घनघातिकर्मनिच संपूयण-सम्पूजन-न० । वस्त्रपात्रादिना पूजने, सूत्र.१७०
ये प्रचण्डप्रभजनप्रसारिणवाध्यामलशुभध्यानेन प्रलयमा१००।
पादित निःशेषयथावस्थितजीवाजीवादिपदार्थसार्थावभासिसंपेहण-सम्प्रेक्षण-न० । पर्यालोचने, हा० १ श्रु०१०। नि निःसपने समुत्पने केवलज्ञानालोके नाकिनगरगुरुतरउत्त० । आचा।
विशुजसमृद्धिसंभारतिरस्कारकारिण्यामपापायां नगर्यो स. संपेहा--सम्प्रेक्षा-स्त्री० । पर्यालोचनायाम् , आचा० १७०२
कललोकलोचनामन्दानन्दोत्सवकारिनिरुपमप्राकारत्रयोदा.
सितसमवसरणमध्यभागव्यवस्थापितविचित्ररत्नखण्डसचिअ०२ उ०।
तसिंहासनोपविष्टेन विशिष्टमहामातिहार्याविपरमाईन्त्यससंफाली-वेशी-पनौ, दे० मा० ८ वर्ग ५ गाथा।
मृद्धिमहिम्ना भगवता श्रीमन्महावीरेण सुरासुरकिन्नरनरे
श्वरनिकरपरिकरितायां परिषदि प्रवचमसारभूताः सर्वेऽपि संफास-संस्पर्श-पुं० । “ लुप्त य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां|
पदार्था अर्थतो निवेदिताः , तदनु प्रवचनाधिपतिसुधर्मस्खादीर्घः " ॥१॥४३॥ अनेनात्र लुप्तसकारस्यादेः स्वरस्य दीर्घः।। मिना त एव सूत्रतो रचिताः ," मत्थं भासा भरहा , सुसंस्पर्शः। संफासो। प्रा० । सो, प्राचा०१७०५ १०४ तं गंथंति गणहरा निउणं" इत्यार्षवचनात् , तदनु जम्बूउ। असकृदनीषद्धा स्पर्श, दश०४ अ०।
स्वामिप्रभषशय्यंभवयशोभद्संभूतविजयभद्रबाहुस्थूलभद्रसंब-साम्ब-पुं० । अम्बया पार्वत्या सहित इति । उमया स
महागिरिसुहस्तिस्वातिश्यामार्यप्रभृतिभिः सरिभिः स्वकीहित शिवे, अन्तः।
यस्वकीयसूत्रेषु, विस्तृततरविस्वततमविस्तृतेपनियध्यमा
ना भव्यजनेभ्यश्च प्रकाश्यमाना एतावतां भूमिकां यावदा. शाम्ब-पुं० । कृष्णवासुदेवस्य जाम्बवतीगर्भसम्भूते पुत्रे,
नीताः ततस्तेभ्योऽपि सूत्रेभ्य ऐक्युगीनमन्दमेधसामवयोअन्त० । श्रा० क०। प्रा०चू०। नि० चू०। “द्वारवत्यामभूत् धाय संक्षिप्यास्मिन् प्रकरणे अन्योपकारकरण धर्माय महीपुर्यो, वासुदेवो महीपतिः। तस्य पालकशाम्बाचा, बभूवु- यस च भवतीत्यधिगतपरमार्थानामविवादो धादिनामति बहवः सुताः॥१॥" प्रव०२द्वार । विशे० । प्रा०म०।।
परोपकाररसिकान्तःकरणप्राकालिकश्रुतधराभिहितश्रुतमशत्रुञ्जयस्तोत्रमध्ये शाम्बप्रद्युम्नाभ्यां सहाशी कोटयः सि
नुस्मरता मया समुद्वियन्ते , इस्यवं परंपरया सर्वधिम्मूलद्धाः कथितास्सन्ति, केचन सार्चकोटित्रयं कथयन्त्यत्र
मिदं प्रकरणमर्थमाश्रित्य न पुनर्मया नूतनं किंचिदा सूध्यनिर्णयः प्रसाध इति, प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-श्रीशत्रुञ्जय
ते, इत्यवदातबुद्धीनामिदमुपादेयं भवतीति । प्रथ०१ द्वार। महात्म्यानुसारेण श्रीशत्रुञ्जये शाम्बप्रद्युम्नाभ्यां सह साकोटित्रयं सिद्धमिति ज्ञायते ॥ १२॥ सेन०४ उल्ला कुन्थु
संबंधण-सम्बन्धन-न । सम्बन्धे, उत्त०१०। नाम्नः सप्तदशतीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये, प्रव०८द्वार। स० संबंधणसंजोगसम्बन्धनसंयोग-पुं० । संबध्यते प्रायो ममेदसंबंध-सम्बन्ध-पुं० । सक्ने, प्राचा०१श्रु०३१०१ उ० । संयोगे,
मित्यादिबुद्धितोऽनेनास्मिन् धात्माष्टविधेम कर्मणा संहति
संबन्धः स चासी संयोगश्च संम्बन्धनसंयोगः। संयोगभेदे, पं०प०४ द्वार । द्वयोः संश्लेषे, स्था०१० ठा०३ उ०। 'द्विष्ठस
उत्त०७० (स च 'संजोग' शुभेऽस्मिन्नेव भाग ११४ पृष्ठ म्बन्धसंवित्ति-करूपप्रवेदनात् । द्वयोः स्वरूपग्रहणे, सति
दर्शितः ।) बद्धीकरणे, स्था०४ ठा०१ उ०। सम्बन्धवेदनम् ॥१॥" इति वचनात् । स्था० । अनन्तरसूश्रादिभिः सह योजने , व्य० ५ उ० । ( संबन्धस्य व्याख्या संबंधसंबंधि-सम्बन्धसम्बन्धिन-त्रि० । श्वशुरपाक्षिकादिस'बक्खाण' शब्ने षष्ठभागे गता।
| रके, विपा० १ ०२ भ०।
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(२०५) संबन्धसमकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
संबुद्ध संबंधसमकप्प-सम्बन्धसमकल्प-पुं०। सम्-एकीभावेन पर- धामणायाम् , श्री० । प्रात्मनः पादौ संबाधस्परोपकार्योपकारितया च बद्धाः-पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैःस- यति, नि० चू०४ उ०।। म्बद्धा गृहस्थास्तैः समस्तुल्यः कल्पो व्यवहारोऽनुष्ठानं जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अप्पणो पाए संबाहेज वा येषां ते । सम्बद्धसमकल्पगृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठानेषु साधुषु, पलिमद्देज वा संबाइंतं वा पलिमइतं वा साइजइ ॥१६॥ सूत्र०१०३०३ उ०।
सति प्रशंसा सोमणा बाहा संबाहा-सा चउसंबंधि-सम्बन्धिन-त्रि० । पुत्रपौत्राणां श्वशुरादिषु, कल्प०१ बिहा अट्ठिसुहा मंससुहा मज्जासुहा तयासुद्दा सा अधि०५क्षण । विपा० । औ० । सम्बन्धिनो मातृपक्षीयाः।
गुरुमाइयाण विद्याले संबाधा भवति । जो पुण भ०३ श०१ उ० । संबन्धी स्वजनः । ०१ उ०२ प्रक० ।
अजरत्ते पच्छिमरत्ते दिवसतो वा अणगसो संवाधेति सा संबन्धिनस्तासामेव संयतीनां नालबद्धा वा भ्रातृ
परिमहा भरणति । नि० चू०३ उ० । आचाहा। विधासम्बन्धयुक्ता इत्यर्थः, श्वशुरकुलानां वा । वृ० १ उ० ३
मणे सकृन्मर्दने, नि० चू०१ उ० । पर्वतदुर्गे , संबाधशम्दाप्रक० । श्वशुरपुत्रश्वशुरादयः । व्य०५ उ० । शा० । देवरा
थै, संबाधनं चाद्रिशृङ्गे, सूत्र०२ श्रु०२०। दिषु, औ०।
| संबाहि जावंत-सम्बाधयत्-त्रि० । विश्रामणां कारयति, नि०
चू०१८ उ०। संबद्ध-सम्बद्ध-त्रि० । सम्-एकीभावेन परस्परोपकारितया
या संबाहित-सम्बाधित-त्रि० । सम्-एकीभावेन बाधिताः-पीच बद्धाः सम्बद्धाः। पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैः सम्बद्धषु गृह- डिताः। संपीडितेषु , सूत्र०१०५०२ उ०। स्थादिषु, सूत्र०१ श्रु०१०४ उ० । लग्ने, विश० । नं०।
संबाहिय-सम्बाधित-त्रि०। हस्ताभ्यां कृतोपपीडनसेवे,पिं०। संबद्धसम-सम्बद्धसम-पुं० । सम्बद्धा गृहस्थास्तैस्समस्तुल्यः।
संबिद्ध-सम्बिद्ध-त्रि० । सम्यग् ताडिते, प्राचा० १ श्रु०५ गृहस्थतुल्ये, सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ०।
अ० ३ उ०। संबमुणि-साम्बमुनि-पुकानागन्द्रकुलाय जम्बूगुरुकृताजनश- संविद्धपह-सम्बिद्धपथ-पुं० । सम्यक बिद्धस्ताडितः सुरणः तकटीकावृत्तिकारके,वैक्रमीयसंवत्सरे १०२५ दुर्गकश्रावकd.
पन्थाः मोक्षमार्गो शानदर्शनचारित्रास्यो-येन स तथा । हपरणयाऽनेन टीका कृता । जै० इ० ।
प्रयातपथे, प्राचा०१ श्रु०५ अ०३ उ० । संबल-शम्बल--न० । पथ्यदने, संथा० । प्रा० चू० । शा० । संबिल्लिय-सम्बेल्लित-त्रि० । संवृत्ते, जं०१ वक्ष०1"संवेलियस्वनामख्याते नागकुमारे, प्रा० म०१० (तत्कथा 'कंब- ग्गसिरया"संवेल्लिताप्रशिरोजा संवेल्लित संवृतमग्रं ययां खल' शब्दे तृतीयभागे १७६ पृष्ठे दर्शिना।)
रकर्मकरणाते सम्मेलिताप्राः, शिरोजाः केशा यासांतास्त
था। जी०३ प्रति०४ अधि। संबलिफालि-शाल्मलीफालि-स्त्री० । शाल्मलीशाखायाम् ,
संबुक्क-सम्बक-पुं० । शखे, स्था० ४ ठा०२ उ० । प्रशा। संथा।
उत्तः । स्वनामख्याते अवन्तिसविधे खेटे , 'अवन्तीनामजसंबसाहस--शाम्बसाहस-न । शाम्बनाम्नः कृष्णवासुदेवपुत्र
णवए तत्स्थ य सम्बुक्के नाम खडे ' महा०२०। स्य साहसे, प्रा० क०१०। ('अणुभाग' शब्द प्रथमभागे संबकवडा-शंम्बकवृत्ता-स्त्री०। शम्बूकः शङ्खस्तद्वच्छवकथा गता।1)
भ्रमिवदित्यर्थः, या वृत्ता सा शम्बूकवृत्ता । गोचरचर्याभदे, संबाह-सम्बाध-पुं० । यात्रासमागतप्रभूतजनविशषे, व्य०१ स्था०६ ठा० ३ उ० । इयं च द्वेधा तत्र यस्यां क्षेत्रवउ० जी० । प्रशा० । नि० चू० । संबाधो नाम यत्र कृषीवल- हिर्भागाच्छवृत्तत्वगत्या घटन क्षेत्रमध्यभागमायाति सालोकोऽन्यत्र कर्षणं कृत्वा वाणग्वर्णो वा वाणिज्यं कृत्वा- भ्यन्तरशम्बूका, यस्यां तु मध्यभागादहिर्याति सा बहिःशउन्यत्र पर्वतादिषु विषमेषु स्थानेषु संबोदुमिति कणादि- म्बूकेति । स्था०६ ठा०३ उ० । ध० । ग० । दशा० । उत्त० । कं समुद्घ कोष्ठागारादी च प्रक्षिप्य वसति । वृ० १ उ० दश० । करप० । २ प्रक० । प्रभूतचातुर्वर्ण्यनिवासे , उत्त० ३४ अ० । संबुज्झमाण-संबुद्धयमान-पुं० । संसारपाताय प्रमाद इत्येपर्वतनितम्बादिदुर्गे, औ० । बहुप्रकारनोकसङ्कीर्ण- यमवगच्छति , आचा। सम्यक श्रुतचारित्राण्यं धर्म वा स्थानविशेष, अनु० । सोभणबाहा संवाहा सा चब्धिहा ।। भावसन्धि वा बुद्धधमान, । विहितानुष्ठाने ,सूत्र० १ २०१० नि० चू०३ उ० । बा| समभूमी कृर्षि कृत्वा येषु दुर्गभू
अ०। सम्वुद्धमानका भवन्ति, तद्यथा-स्वयम्बुद्धाः प्रत्येकमिभूतषु धान्यादिकृषीवलाः संहवन्ति रक्षार्थमिति स संबा
बुद्धाः बुद्धबाधिताश्च । प्राचा०१ २०८०३ उ । यथोपधः । स्था०१ठा। नि० चू०। कल्प० । संबाही संवाद, दिएधर्म सम्यगवबुध्यमान, आचा०१ श्रु०४ १०२ उ०। वसंति जहि पब्वयाइविसमसु । वृ० १ उ०२ प्रक० ।।
संवुद्ध-सम्बुद्ध-त्रि०। विदितविषयस्वभाव सम्यग्दृष्टी, दण. यात्रासमागतप्रभूतजननिवेश, जी०३ प्रति०४ अधिक।
२०ा योपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवति, स०१ सम०। उत्त। संवाहण-सम्बाधन-न० । अङ्गपरिकर्मणि , प्रश्न० ५
सम्यग्ज्ञाततत्त्वे, उत्त०१० अ० । मिथ्यात्वापगमतोऽवगतआश्र० द्वार । शरीरस्याऽस्थिसुखत्यादिना नैपुण्येन ।
जीवाजीयादितत्त्व, उत्त०२ अ । हेयोपांदयापक्षणीयवस्तु -मई नविशेपे , स्था० ४ ठा० ४ उ० । यि- तस्वं विदितयति, भ.१२.१. उ०।
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संबुद्धा
संभाषय
संबुद्धा-सम्बुद्धा स्त्री० । अपरोपदेशमन्तरेण जायमाने प्रत्र- संभंतियनंदणय- सम्भ्रान्तिकवन्दनक - न० । सम्भ्रान्तिः सज्या "तिरथकरा" पं० भा० १ कप "सम्बुजो भरहो राया" पं० खू० १ कल्प ।
संबेच्चि -सम्बेलि - स्त्री० [ मालायाम्, शा० १ ० १ ० । सम्बेचिय-सम्बेलित त्रि० । संवृत्ते किञ्चिदाकुञ्चिते, जं० १ बक्ष० । संकोचिते, ज्ञा० १ ० १ ० ।
भ्रम औत्सुक्यं तथा निर्वृतं सम्भ्रातिकं यद् वदनं तत्तथा | औत्सुक्यजवन्दनक्रियायाम्, भ० १६ ० ५३० । संभग्ग- सम्मन्न त्रिचूर्ण उ० १००० सम्ममभिकुटपिटप कविस्तारो यस्य स तथा । भ० ३ ० ३ उ० ।
संबोह--संबोध--०। तस्य प्रबंध व नामस्थापना- संभम-सम्भ्रम-याकुलये, अनुसूत्र० । प्रमो
सुप्तस्य स
।
भावभेदात् चतुर्द्धा । तत्र नामस्थापने सुगमे । द्रव्ये विषये सुबोधनम् भावे-आयविषये मयधो दर्शनज्ञानचारित्रतपः संयमा द्रष्टव्याः । सूत्र० १० २ ० १ ३०/ ( ' बेयालिया ' शब्दे षष्ठभागे तदध्ययनोक्तः सम्बोध
उक्तः । )
9
( २०१) अभिधानराजेन्द्रः ।
संबोह सम्बोधन न०माने आ०म० अ० ( तीर्थकृतो लोकान्तिकदेवैः संबोधनं तित्थयर ' शब्दे ब २३०१)
4
संबोधि-संपरोधि--श्री० [सम्यग्यानचा
अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि आहियं । आचार्य पुरा एगेसि, दुखभेयं समुये ।। १७ ।। इओ विद्धसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा । दुलहा तहचाओ, जे धम्मठ्ठे बियागरे ॥ १८ ॥ मामनुष्याखानाम कुर्वन्ति तथाविधसामउपभाषायां वादिनामाख्यातम्। तद्यथा-रेषा पवतरोत्तरं स्थानमास्कन्दम्तोऽशेषकेशप्रहाणं कुर्वन्ति तथेदाईते प्रथमे इति मां गणधरादीनां स्वशिष्याणां वा मराघरादिभिराज्यातम्। तद्यथा-युगस मिलादिन्यायावाप्तः कथंचित्कर्मविवरात् योऽयं शरीरमुsarः सोऽकृतधर्मोपायैर सुमद्भिर्महासमुद्र प्रभ्रष्टनवत्युदुर्लभ भवति तथा बाक्रम नमिति दुर्लभ-मगाधसंसारविभ्रष्टम् मानुद्योतकतज्ञिताविलसितप्रतिमम् ॥ १ ॥" इत्यादि ॥ १७ ॥
अपि च-' इस्रो विद्धंसे' इत्यादि । इतः अमुष्मात् मानुष्यवात्समंत या विखमावस्याकृतपुण्यस्य पुनरस्मिन संसारे पर्यटतो बोधिः सम्यदर्शनावासि
ष्टतः अपार्धपुद्गल परावर्तकालेन यतो भवति, तथा दुर्ल भा पुरावा तथाभूता सम्यग्दर्शनप्राप्तियोग्य श्या - अन्तःकरणपरिणतिरकृतधर्माणामिति । यदिवा -- बी-मनुष्यशरीरं तदव्यकृतधर्मबीजानामा क्षेत्रकुलोत्पति सकलेन्द्रियसामध्यादिरूपं दुर्लभ भवति, जन्तूनां ये धर्म
याति ये धर्मप्रतिपत्ति योग्य इत्यर्थः तेषां त धाभूताच सुदुर्लभा भवतीति ॥ १०५॥ सूत्र० १० १५० संवाहियव्य-संबोधयितव्य० श्रामन्त्रस्थि०४
"
२ प्रक० ।
,
वासी सूत्र संभवता - सम्भवना श्री० संवासे ००४० संभरिय संस्मृत- त्रि० । चिन्तिते, हा० २७ अष्ट० 1 संभरिता - स्मृत्वा - अव्य० । अनुचिन्त्येत्यर्थे, स्था० ४ठा० १३०१ संभली - सम्भली - स्त्री० । वृतिकायाम्, व्य० ५ ७० । दे० ना० संभव-सम्भव-पुं०। उत्पाद भवने म०२० अ० अनु० | समुत्पनी, सूत्र०२०१०। शा० । संभवो सिया, उवति न वा एगट्ठा। प्रा०यू०२० सम्भवति प्रकर्षेण भ वन्ति चतुस्त्रिंशदतिशयगुणा यस्मिन् स सम्भवः । ०० १ अ० । ध० । प्रा० चू० । भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते तृतीये तीर्थकरे, प्र० ८ द्वार। ति० ।
संभवे भरा एमई पुब्वसयसहस्साई आगारमभे वसित्ता मुंडे जाव पव्वइए || (सू० ५६ + )
सम्भयस्यैकोपटि पूर्वलक्षाथि गृहस्थपर्याय होक्तः । आवश्यके तु चतुःपूर्वाऽङ्गाधिका सोक्लेति । स०५६ सम० । (अस्य सर्वोऽप्यधिकारः 'तिरधयर' शब्दे चतुर्थभागे २२४७ पूछ उ ) समुदाय समुपाविमो ऽयम इत्ये भेत्रे, खारी द्रोण इत्यादिर्नानुमानात्पृथक तथा हि खारी द्रोसुबती खारीत्यात्पूर्वोपलब्ध खारीवत् । समुदायेन समुदाय - मोsवगम इत्येवंलक्षणः संभवः, स च न प्रमाणान्तरम् । रत्ना० २ परि० । प्रष० । प्रसवचरायाम्, दे० ना० द वर्ग ४ गाथा ।
तौत्सुक्ये, हा० १ ० १ ० । संक्षोभे, जीत० प्र० । महिती श्री भगवत्समीपगमने वा सम्भ्रमादिके, व्य० ४ उ० । सर्वोत्कृष्टसम्भ्रमतो नामेह वनायक विषयबहुमानयापनपरा खनायोपदिकार्यसम्पादनाययातिस्वरिता प्रवृत्तिः । रा० । प्रा० म० । प्रश्न० । परचक्रादिभये, अनु० । सत्कारे, प्रा० म० १ ० । उदकाग्निस्त्याद्यागमसमुग्धेचा १
1
संभवंत संभवत् चि० वर्तमाने आचा० १ ० ६ ० ४ ० - - । संभवमाधित्यत्यर्थे, क० प्र० ९क० । संभवदेव-सम्भवदेव पुं० श्रावस्त्यसम्भवतीत्पतिमायाम्, श्रावस्त्यां श्रीसम्भवदेवो जागुलीविद्याधिपतिः । ती० ४३ कल्प |
-
ठा० ३ उ० ।
संत संभ्रान्त ष० व्याकुलीभूते ० १ ० १ ० संभवसमांतर-सम्भवसमनन्तर न० उत्पस्यनन्तरे पं०
आ० म० ।
संभंति संभ्रान्तिी० सम्म १६०२४०
-
व० ४ द्वार ।
संभालय संभागक नगरमे, “इथो
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নমায अभिधानराजेन्द्रः।
संभूतविजय "अचंदकुले सिरिवद्धमाणसूरिसीसजिणसरसूरीण सीसो पानि परस्परत एकरूपतामापनानि यस्य स तथा । श्रोत्रं सिरिअभयदेवसूरी गुज्जररबाए संभाणयहाणे विहरिमो।" चतुः-कार्यकारिपाच्चलूरूपतामापनं चक्षुरपि श्रोतकासी० ५२ कल्प।
र्यकारित्वात्तपतामापन्नमित्येवं संभिन्नानि श्रोतांसि ससंभार-सम्भार-पुं० । बहुद्रव्यसंयोगे , पृ०२ उ० । उपरिप्र- रियपि परस्परेन्द्रियाणि यस्याऽसौ संभिम्नश्रोता इति तेपद्रव्यस्त्वगेलाप्रभृतौ , सा. १६० १६ म० । आवश्य
भावः । इत्यत्रापि स एवार्थः । अथवा-द्वादशयोजन
स्य चक्रवर्तिकटस्य युगपद् ब्रुवाणस्य तत्तूर्यसंघातस्य था कतया कर्मणो विपाकानुभवने, घेदने, सूत्र०२४०७ म०।
युगपदास्फाल्यमानस्य संभिन्नान् लक्षणतोऽभिधानतश्च पमा० । सम्झियते धार्यते सम्भरण धा धारणं संभारः । षष्ठे
रस्परतो विभिनान् जननिवहसमुत्थान् शङ्काभेरीपणवढगौणपरिग्रहे, प्रश्न ५ माश्र० द्वार ।
कादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव सुबहून् शब्दान्यः शृणोति संभारघय-संभारघृत-न० । संभारो बहुद्रव्यसंयोगस्तत्म- स संभिन्मश्रीता । एवं च संभिन्नश्रोतृत्वलब्धिरपि ऋद्धि
धानं घृतं सम्भारघृतम् । बहुद्रव्यमिश्रित घृते, १०२ उ०। रेवेति । प्रा० चू०१०। समालखा-सम्भालना-खी० । अन्यत्राव्यापारणे , विशे। संभिष्पालाव-सम्भिनालाप-पुंगसम्बखभाषणे, द्वा०८ शान संभाव-लुभ-धाविमोहने,“लुभेः संभावः"111१५॥बने- संभिय-संभृत-त्रि० । संस्कृते, विशे। सम्यग्भृते, सूत्र.१
न लुभ्यतेः पाक्षिकः संभाव इत्यादेशासंभावहा लुभ्यते। प्रा। ध्रु० ६ ० । मा० म० । स्था। संभावि-धाग "सम्भावेरासाः" ३॥ ममेन संभाषय- संभु-शम्भु-पुं० । शिवे, को० ।
तःपाक्षिक प्रासादेशाभावे-सम्भावा । सम्भावयति । माला संभंजंत-सम्भुजान-त्रि० । एकमण्डल्यां सम्भोगं कुर्वाणे, संभावणस्थतक-संभावनार्थतर्क-पुं०। प्राकृतशेल्या अर्थ
नि० चू० १० उ०। संभाषनातर्कः । एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्याविरूपता, संभुंजण-सम्भोजन-न० । एकमण्डल्या भोजनादिव्यवहारे, दश०४०।
पं०भा०१ कल्प । एकमण्डल्यां सम्-एकीभूय भोजन, ०४ संभावणा-सम्भावना-खी०। अर्थालङ्कारभेदे, व्याकरणोक्ने ।
उसंभुंजणा तिविहा-लोइया,लोउत्तरिया,कुप्पावणिया। क्रियास योग्यताध्यवसाये लिन्थेभेके, उत्करकोटिकसंशय-
पं०चू०१कल्प । साम्भोगिकैः सह भोजन, व्य०३ उ०।
जिला-सम्भोक्तम-अव्य० । एकमण्डलीसमुहशादिना .. रूपेशानभेदे च । वाच । भाचा०।
व्यवहारयितुमित्यर्थे, वृ०४ उ० । स्था। संभास-संभाष-पुं०। परस्परालापे, २०१उ०३ प्रक० ।
संधुंजिय-सम्भुज्य-अध्य० । एकमण्डल्यां समुद्देशनादिव्यसाप-म० उचितकाले स्मरकथाभिर्जरपे, वहारं कत्वेत्यर्थे, पं० २०२द्वार। प्रव०१६६ द्वार । वश
संभुख-देशी-दुर्जने, दे०मा०५ वर्ग ७ गाश। संभासिय-संभाषिक-पुं०। समाप्तभाषाभ्यवहारिणि, व्य०
संभूत (य)-सम्भूत-त्रि० । सजाते, माचा० १७०६०१ ४ उ०।
उ०। प्राव । प्रश्न समुत्पने, सूत्र०१ भु०१०४ उ०॥ संभिष्य-संमिन-त्रि० । सम्-एकीभावेन भिन्ने, विशेष अब
सम्यक प्रतिपालनाय संचम्ने, प्राचा०१ ०२५०३ उ०। हुभेदमापके, औ० प्रव० । मा० चू०।
मिलित्वेस्य, अनेक बलदेववासुदेषयोः प्रथमे धर्माचार्य, संभिष्पवरणाखदंसणधर-संभिनवरज्ञानदर्शनधर-पुं०।- स०। ति० । ब्रह्मवत्तचक्रवर्तिजीवे , उत्त० १३ १०। भिन्ने सम्पूर्णे बरे श्रेष्ठ शानदर्शने धरन्ति येते तथा। केव- |
(सम्भूतकथा भवत्त ' शब्दे पचमभागे उक्ला।) लिषु , कल्प०१ अधि० ६ क्षण ।
यशोभद्रशिध्ये , " जसभइसीसो संभूतो संभूअस्स
धूलभर जाय सम्बेसि " मि० ०५ उ०। धीरजिनजीसंभिमवित्त-संभिनवृत्त-पुं० । अखण्डनीयखण्डितचारित्रे,
षस्य पूर्वभवविश्वभूते मक्षत्रियस्य दीक्षाप्राहके यती, दश०१०।
प्रा०म०१०। संभिषसोय-सम्भिनी()तस्-पुं० । सम्भिन्नान्-बहुभेदभिन्नान पृथक पृथक् श्टरावन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः। संभि
संभूत (य) विजय-सम्भूतविजय-पुं० । भद्रयाहुस्वामिनो न्नानि-शब्दन व्याप्तानि शब्दमाहीणि प्रत्येकं या शब्दादिषि
गुरुभ्रातरि स्थूलभद्रस्य शकटालपुत्रस्य दीक्षादातरि, स्था० षयैः श्रोतांसि सबैन्द्रियाणि येषां ते तथा। पी० । रा०।।
१.ठा०३ उ०। मा० चू० । नं० । कल्प० । (तवक्तव्यता मा० म० । ग०। लब्धिविशेषशालिषु, पा०।' दीर्घदशानामष्टमययन प्रोक्ता तत एवाषगन्तव्या, परन्स्विसंभिन्नसोय ' ति-यः सर्वतः सर्वैरपि शरीरदेशः दानी स प्रन्थ एव व्युच्छिन्नः।) "केवली. घरमा जम्बू-स्वा. शृणोति स संभिन्नश्रोता । अथवा-श्रोतांसीन्द्रियाणि म्यभूत् प्रभवप्रभूः । शय्यभषा यशोभद्रः, संभूतषिजयस्तसंभिन्नान्यकैकशः सर्पविषयैर्यस्य स तथा । एकतरेणापी- था ॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेवलिना हि षद् ॥१॥"श्रन्द्रियण समस्तापरेन्द्रियगम्यान्विषयाम्यो मुणस्यवगच्छति जमहागिरित्तए" मार्यमहागिरिजिनकल्पविच्छदऽपि जिस संभिन्नश्रोता इत्यर्थः । अथवा-श्रोतांसीन्द्रियाणि संभि- । नकल्पतुलनामकार्षात् । कल्प० २ अधि०८ क्षण । (अस्य
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(२०८) संभूतविजय अभिधानराजेन्द्रः।
संभोग शिष्यादिकुलं 'थेरावली' शब्दे चतुर्थभागे २३६६ पृष्ठ दर्शि-। तिशब्दा उपदर्शनार्थी, चकाराः समुच्चयार्थाः, तत्रोपलक्षणतम् ।) माढागोऽयं वीरस्य पदपष्टिसवत्सरे जातः स च स्वादअलिप्रग्रहस्य बन्दनादिकमपीह द्रष्टव्यं, तथाहि-साद्वाचत्वारिंशत् वर्षाणि गृहिपर्यायं ततः श्रामण्यपर्याय परि- म्भागिकानामन्यसाम्भोगिकानां वा संविग्नानां बन्दनक-प्रपाल्य युगप्रधानपदवीमुपगत्य नवतिवार्षिकः १५६ वीरसंव- णाममअलिप्रग्रहं नमः क्षमाश्रमणेभ्य इति भणनम् , अालोत्सरे स्वर्गतः । जै०१०।
चनासूत्रार्थनिमित्तनिषद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः। पार्श्वस्थासंभृतिविजय-संभृतिविजय-पुं० । स्वनामख्यातेऽनगारे अयं | देरेतानि कुबस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भाग्यश्चेति । तथा पूर्वभव प्रतिलाभ्य राजपुत्रो धनपतिनामा सुखेन सिद्धः।
'दायणे य' ति-दानं, तत्र साम्भोगिकः साम्भोगिकाय विपा०२ श्रु०७ अ०।।
(वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहासमर्थे साम्भोगिके) अन्यसंभोइत्तए-संभोक्तुम्-अव्य० । एकमण्डलीसमुद्देशादिना व्य.
साम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्ध, निष्कारण
विसाम्भोगिकस्य पार्श्वस्थाद, संयत्या वा तं यच्छवहारयितुमित्यर्थे, वृ०४ उ० । भोजनमण्डल्या निवेशयितुमि
स्तथैव सम्भाग्यो विसम्भोग्यश्चेति । तथा — निकाए त्यथै, स्था० २ ठा०१ उ०।
य' त्ति-निकाचनं छन्दनं - निमन्त्रणमित्यनर्थान्तरम् , संभोइय-साम्भोगिक-पुं० । सम्-एकत्र भोगो-भोजनं स
तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन स्थाध्यायन च म्भोगः, साधूनां समानसमाचारितया परस्परमुपध्यादिदा- साम्भोगिकः साम्भोगिकं निमन्त्रयन् शुद्धः, शेष नग्रहणसंव्यवहारलक्षणं. संविद्यते यस्य स साम्भोगिकः । तथैव । तथा 'अब्भुटाणे त्ति यावरे' त्ति-अभ्युत्थानस्था० ३ ठा०३ उ० । एकसामाचारीप्रविष्टे, प्राचा० १७० मासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगासम्भोगस्थानमित्यर्थः, त१चू०७ १०१ उ०। एकमण्डलिकादिके, स्था०.४ ठा०४ त्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादेः कुर्वैस्तथैयासम्भोग्यः, उपलक्षणउ०। प्रव०॥
स्वादभ्युत्थानस्य किङ्करतां च-प्राधूर्णकग्लानाद्यवस्थायां संभोएत्ता-सम्भोज्य-अव्या मिश्रयित्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०
किं विधामणादि करोमीत्येवं प्रश्नलक्षणां तथाऽभ्यासकरण१ चू० १ १०७ उ०।
पार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षण, तथा संभोग-संभोग-पुं० । सम्-पकीभूय समानसमाचाराणां अविभक्ति च-अपृथगभावलक्षणां कुर्वनशुद्धोऽसम्भोग्यसाधूनां भोजनं संभोगः । स० ११ सम० । एकमण्डल्यां
श्चापि । एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति, भोजने, उत्त०१६ अ०। ('विसंभोग' शब्दे षष्ठभागे पंई
तथा 'किरकम्मस्स य करणे 'त्ति-कृतिकर्म-वन्दनकं तविधः संभोग उपसंभोगश्चोक्तः।)
स्य करणं-विधानं तद्विधिना. कुर्वन् शुद्धः, इतरथा तथैदुवालसविहे संभोगे पामत्ता, तं जहा
बासम्भाग्यः । तत्र चायं विधिः-यः साधुर्वातन स्तब्ध
देह उत्थानादि: कर्तुमशक्तः स सूत्रमेयास्खलितादिगुणोपे"उबहिसु अभत्तपाणे, अंजलीपग्गहे ति य ।
तमुचारयति, एवमावतशिरोनमनादि यच्छनोति तत्करोदायणे य निकाए य, अब्भुट्ठाणेति आवरे ॥१॥ त्येवं चाशठप्रवृत्तिचन्दनविधिरिति भाव । तथा 'वेयावकिइकम्मस्स य करणे, वेआवञ्चकरणे इ य ।
शकरण इय' त्ति-चैयावृत्यम्-आहारोपधिदानादिना प्रश्र समोसरण संनिसिजा य, कहाए य पबन्धणे ॥२॥
वणादिमात्रकार्पण्यादिनाधिकरणापशमनेन साहाय्यदानेन
वोपष्टम्भकरण तस्मिश्च विषये सम्भागासम्भोगी भवत इ. सम्-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोगः |
ति । तथा 'समोसरणं' ति-जिननपनरथानुयानपट्टयात्रास चोपभ्यादिलक्षणविषयभेदात् द्वादशधा । तत्र 'उबही'
दिषु यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत्समवसरणम् । इह च त्यादिरूपकद्वयम् । तत्रापधिर्वस्त्रपात्रादिस्त साम्भोगिकः |
क्षत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रही भवति, वसतिमासाम्भोगिकेन सार्द्धमुगमोत्पादनैषणादोपैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः, |
श्रित्य साधारणाऽसाधारणश्चति । अनेन चान्येऽप्यवग्रहा अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः । प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो पारत्रयं यावत्स
उपलक्षिताः, ते चानेके, तद्यथा-वर्षावग्रह ऋतुबद्धावमागाहश्चतुर्थवलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि, विस
ग्रही वृद्धवासावग्रहश्चति । एकैकश्चार्य साधारणावग्रहः म्भागार्ह इति, विसम्भोगिकन-पार्श्वस्थादिना वा संयत्या
प्रत्येकावग्रहश्चति द्विधा । तत्र यत् क्षेत्र वर्षाकल्पाद्यर्थ युवा सार्द्धमुपधि शुद्धमशुद्धं या निष्कारणं गृह्णन् प्रेरितः, प्र
गपत् द्वयादिभिः साधुभिभिन्नगच्छस्थैरनुशाप्यत स साविपन्न प्रायश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरि म सम्भाग्यः । एव
धारणः, यतु क्षत्रक साधयाऽनुशाप्याश्रिताः स प्रत्यकामुपधः परिकम परिभोग वा कुर्वन् सम्भोग्यो विसम्भाग्य-.
वग्रह इति । एवं चैतववग्रहेषु प्राकुट्टया अनाभाव्यं सश्चति । उक्तं च-" एग व दो व तिन्नि व, श्राउटुंतस्स होइ
चित्तं शिष्यमचित्तं वा वस्त्रादि गृहन्ताऽनाभोगन च गृहीतं पच्छितं [आलोचयत इत्यर्थः ]। आउटुंते वि तश्री, परण
तदनर्पयन्तः समनोशा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्स्यतिराहं विसंभोगा ॥१॥" ति, 'सुब' त्ति-साम्भोगिकस्या
संभोग्याश्च । पार्श्वस्थादीनां चायग्रह पथ नास्ति तथापि न्यसांभागिकस्य वापसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रच्छनादिकं यदि तत् क्षत्रं क्षुल्लकमन्यत्रैव च संविमा निर्वहन्ति ततविधिना कुर्वन् तथा शुद्धः, तस्यैवाविधिनापसम्पन्नस्यानुप- स्तत क्षत्रं परिहरन्यव । अथ पावस्थादीनां क्षत्रं । सम्पन्नस्य वा पार्श्वस्थादर्वा खिया वा वाचनादि कुर्वस्तथैव स्तीर्ण संविग्नाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशचलायापार विसम्भाग्यः । तथा 'भत्तपाण' त्ति-उप- न्ति, चित्तादि च गृह्णन्ति, प्रार्याश्चत्तिनाऽपि न भवधिद्वारबदवसय, नवरामिह भोजनं दानं च परिकर्मपरिभाग- नीति । आह च-" समणुन्नमसमणुन, अदिन्नणाभव्ययोः स्थान वाच्यमिति । तथा 'अंजलीपरगह त्ति य' इंह गिरहमाण वा । सम्भोग वीसुकरणं, (पृथकरणमित्य
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( २०६ ) अभिधामराजेन्द्रः ।
संभोग
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र्थः ] इयरेय अर्लभ पेनंति ॥ १ ॥ [ इतरान् पावस्थादमित्यर्थः ।] तथा ' सन्निसिज्जा य'त्ति सन्निप या समविशेषः, सा व सम्भोगाऽसम्भोगकारणं भवति । तथाहि संधागत आचार्यो निषेधागतेन सम्भोगका यासह भूतपरिवर्तन करोति शुद्धः अथामनाशार्थस्थादिसाध्वी गृहस्थैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति । तथा श्र क्षनिषद्यां विनाऽनुयोगं कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तम् । तथा पद्यायामुपविष्टः सुषार्थी पृष्ठति प्रतिचाराद वासीचयर्ति, यदि तदा तथैवेति । तथा 'कहाए य पबंधणे 'त्तिकथा - वादादिका पञ्चधा, तस्याः प्रबन्धनं-प्रबन्धेन करणं कथाप्रबन्धनं, तत्र सम्भोगासम्भोगौ भवतः । तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन व्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थन स छलजातिविरहितो भूतार्थान्वेषणपरो वादः । स एव छलजा तिनिग्रहस्थानपरो जल्पः । यत्रैकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा । तथा प्रकीरीकथा चतु थ। सा बोत्सर्गकथा द्रव्यास्तिकनयकथा वा; तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति तत्राद्यास्तिस्रः कथाः श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती । चतुर्थवेलायां चालोचयन्नपि विसभोगाई इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थः । विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशक भाष्यादवसेय इति । स० १२ सम० । उत्त० । प्रत्यक्ष प्रत्येकं सम्भवः
जे निम्गन्धा व निगम्भीओ य संमेोइया गिया, नो एह कप्पा पारोपसं पाहिएक्कं संमोह विसंभो करेएप्प राई पचवं पाटिएकं संमोह विभ करेत्तए । जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा, तत्थेव एवं वएजाअहो अजो ! तुमाए सार्द्धं इमम्मि कारणम्मि पक् पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करोमि । से य पडितप्पेञ्ज, एवं से नो कप्प पचखं पाटिएकं संमोह विसंभोग करेत्तए, से य नो पडितप्पेजा । एवं से कप्पर पश्चक्खं पाडिएक संभोइयं विसंभोगं करेत्तए ॥ ३ ॥ जाओforest वा निग्गन्था वा संभोइया सिया, नो एहूं कप्पर पच्चक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, कयह एह पारोक्खं पाडिएवं संमोह विसंभोग करेचए । जत्थे ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेना, तस्थे व एवं एज- श्रहणं भन्ते ! अमुगीए अज्जाए सद्धि इमम्मि कारणम्मि पारोक्खं पाडिएकं संभोइ विभाग करेमि । साय से पडितप्पेज्जा, एवं से नो कप्पड़ पारोक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोग करेत्तए । सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पड़ पारोक्खं पाडिएकं संभोइय विसंभोग करेत्तए || ४ ॥
ये निर्धन्धा निर्भय सांभोगका बस्तेषां 'नो मिति पा फाप सांभोग
क
तु यत्रैव एवं वदत् 'अहो मिति पूर्ववत् । अहो आर्यलया
५३
संभोग
3
सार्द्धमस्मिन्कारणे प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकं विसम्भोगं क रोमि, एवमुक्ते यदि स परितप्यते मिथ्यादुष्कृतं न भूय एवं करिष्यामि एवं सति 'से' तस्य न कल्पते त्रयाणां प्रत्यक्षं प्रत्येकं सांभोगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुम् । अथ स न परितप्यते एवं सति 'से' तस्य कल्पने त्रयाणां प्रत्येकं साम्योगिकं विसाम्भोगिकं कर्तुमिति सूत्राक्षरार्थः ॥३॥ या निर्ग्रन्थ्यो निर्ग्रन्था वा साम्भोगिकाः स्युस्तंपां न कल्पते प्रत्यक्षं प्रत्येकं साम्भोगिकी विसंभोगां कर्तुम् । यत्रैव ता निर्ग्रन्थ्य आत्मीयानाचार्योपाध्यायान् पश्यन्ति तत्रैव एवं वदन्ति । श्रथ समिति वायालंकारे । भदन्त ! श्र मुकया सहास्मिन् कारणे समापतिते परोक्ष प्रत्येकं साम्भोगिकं विसंभोगं करोमि । सा च ' से ' तस्याः प्रयर्त्तिन्याः परितपति मिथ्या दुष्कृतप्रदानेनानुतपति सद्वा तदाख्यानमिति प्रत्याययति । एवं सति न कल्पते परोक्षं प्रत्येकं सांभोगिकं विसंभोगं कर्तुम् । श्रथ सा तस्याः प्रागुक्तप्रकारेण नानुपतिता एवं सति 'से तस्याः कल्पते परोक्षं प्रत्येकं संभोगं कर्तुमिति सूत्राक्षरार्थः ।
,
व्य० अ० ७ उ० ।
अ
अधुना भाष्यकार श्राह
संभोगो पुव्वत्तो, पत्तेयं पुरा वयंति पडिएकं । तप्पंते समणुमे, पडितप्पणमात पंतु ||४६|| संभोगः पूर्व निशीथा पनि प्रत्ये कं यो विसंभोगं करोति स तप्यते, यथा पंतन नाम शय्यातरर्रापण्डप्रतिसेवितो हा कष्टमेवं तप्यन्तमितरो ज्ञात्वाऽनुतप्यते, एप मम दोपण तप्यति तस्मात् प्रत्याययामि, यथाअसदेतत् यदहं शय्यातरं पिण्डं सेवितवान् । अथ स तु तदा saौ चिन्तयति मम दोषेणैप तप्यतु तस्मान् मिथ्यादुष्कृतं करोमि, एवं संविग्ने तप्यति यदनुतपनं तत् प्रतिपतनमिति । तदेवं भाष्यकृता विषमाणि सुत्राक्षराणि विवृतानि । संप्रति निविस्तरसागा रियगिहानिग्ग-ते य वडघरिए जंबुधरए य । धम्मियगुलवार, हरितालिते पदय ॥४७॥ सागारिके शय्यातरगृहान्निर्गते वटगृहिके जम्बूगृहिके वा असद् व्याख्यानेन विसंभोगः कृतः । इयमक्षरघटना । भायार्थस्त्वयम् एकस्मिन् नगर आचार्यस्य गृहक शय्यातरस्तस्मिन्नेव नगरे आर्यो जम्बूमहिको गृहस्थोऽस्ति ताभ्यां यजिम्मा कारितम् तयोश्च निर्मापतयोः द्वयोरपि गृहयोः कपोताः प्रविष्टास्ततोऽमङ्गलमिति मन्यमामौ तौ नमित्तिकं पृच्छतः । कथमतस्य दुर्निमित्तस्य व्याप
किस्को पट गृहकगृहम् । ततः कतिपयानि दिनानि स्थित्वा पश्चानिजनिजगताम् । सी परस्परं गृह संचरिती धादा अन्यस्मात् गच्छात् प्रापूाः समागताः तवां पास्ता
गृहिक प्रथस्य गृहास्यथमालिकामानीय प यात मन्यमानरुपय शनिसमस्था चार्यस्य समीपं गत्वा आलोचयन्ति । अस्माकं सांभगिकाः
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संभोग
शय्यातरपिण्डं भुञ्जते अस्माभिः कथमप्यपरोधवशादप्रीत्या प्रथमालिका भुक्का, एवं श्रुत्वाऽऽचार्योऽपि श्रविचिन्त्य य हि संभोग तं करोति तदा तसूत्रं पतति ।
( २१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा चाह भाष्यकारः
नवघरकवोतपविसण, दोयहं नेमित्ति जुगव पुच्छा य । मोस्स घराई, पविसध नेमित्ति भराई ॥ ४८ ॥ आसागम पढमा, भोत्नु लजाऍ गंतु गुरुकहणं । सो जा करेज वीसे, संभोगं एत्थ सुतं तु ॥ ४६ ॥
नयोयोः कपोतानां प्रविशनं ततो द्वयोरपि गृहस्वामिनमित्तिको भगतयोग्यस्य प्रविशताम् । तौ च प्रविष्टावन्यदा आदेशानां प्राघूर्णकानामागमस्ततो यास्तदूगुहिकस्य चटदिकगृहं प्रविष्टस्य गृहात्मालिका श्रानीता तां लज्जया भुक्त्वा ततो निर्गत्य गुरुसमीपं गत्वा गुरोः कथनं, स यद्यविचार्य विष्वक्संभोग तं करोति । तदा श्रत्र सूत्रमापतितं द्रष्टव्यम् । अत्र विचारो यदि तावित्वरं गृहपरिव] कृतवती तदा स जम्मूमुद्दिको शुध्यातर एव अथ यावत्कथिकस्तदा जम्बूगृहिक एव शय्यातरः ।
' धम्मिय 'ति अस्य व्याख्यानमाहधम्मितो देउलं तस्स, पालेइ जइ भयो । सोप संपट्टियं तत्थ लर्ड देखा जईस उ ॥ ५० ॥ किंचित् तत् धार्मिक पालयति, स च यतीनां भद्रकस्ततः संवद्धितमप्रकूरं तस्मिन् शय्यातरगृहे लब्धं साधूनामामी ददाति अत्रापि तथैव प्राकागमनं धार्मिकात् मथमालिका नयनमित्यादि सर्वे तथैव वाच्यम् ।
तस्य शय्यातरस्य
,
و
'गुलवाणिय' इत्यस्य व्याख्यानम्वाणियय गुलं तत्थ, विकिरांतो उ दंतए । तत्थ मो बाहिरे हुजा, अर्ड कच्छपुडेण वा ॥ ५१ ॥ शय्यातरगृहे स्थितो गुडवणिक् स तत्र गुडं विक्रीणन् साधूनां ददातियतरस्यापरिकायामामानि ततः पुरेाहित्यात समा च्छति स चाटन् यदा तदा वा साधूनां भिक्षां ददाति । ततः प्राचूर्णकागमनमित्यादि विभाषा ।
तथैव ' इरितोपलिप्तेः' इत्यस्य व्याख्यानम् — हरितोलिता कया सेजा, कारणे ते व संठिया ।
पसज्झा वसहिपालस्स, चेइयड्डा गणागए ॥ ५२ ॥ छिन्नानि वा हरितानि, छगणेन वसतिरधुनोपलिप्ता कृता, हरितानि तत्र परिसादितानि । तस्थामधुनोपलिताय पातितेषु वा हरितेषु साधवः कारणेन स्थिताः । श्रथवा पूर्वस्थितानां चैत्यवन्दनार्थ गए निर्गते पश्चात् वसतिपालस्य प्रसह्य बलात्कारेणोपलिप्ता कृता, हरितानि च पातितानि श्रत्रा क्सरे प्राघूर्णकाः समागतास्ते वसतिं दृष्ट्रा चिन्तयन्ति प्रतिच्या आचार्यस्य कथितम्। तेन यद्यपि चार्य विसंभोगः क्रियतं तदा श्रत्र सूत्रोपनिपातः ।
संभोग
' दीपों वे ' त्यस्य व्याख्यानम् - छिमाणि वा वि हरिताणि, पविट्ठो दीवएण वा । कमकजरस पहुडे, सो वि जाये दिये दिये ॥ ५२ ॥
यस्यां शय्यायां संयताः स्थिताः तत्र शय्यातरः केनापि कारन प्रदोषपकेन सह प्रषिस्ततो येन कार्ये समागतस्तत्कार्य कृत्वा निर्गतः, दीपस्तत्रैव विस्मृतः, तत्र च तस्मिन् दिवसे सांभोगिकाः समागताः । स च प्राघूर्णका बृद्दत्तरः शय्यातरस्य कृतकार्यस्य विस्मृतं दीपं जानाति दिने दिने सती दीपः कियते तथा गुरोः प्राघूर्यकेन कथितं स च विचिन्त्य विसंभोगं कृतवान् । अत्राप्यधिकृतसूत्रस्योपनिपातः ।
एतानि सन्ति तानि कारणानि । श्रत्र प्रायश्चित्तविधिमाह
दट्टु साह लहुओ, वीसु करेंताण लहुग आणादी । अद्धानिग्गयादी, दोहं गणभंडणं चैव ॥ ५४ ॥ यो सन्ति कारणान्यवेिष्य गुरोर्निवेदयति तस्य प्राय लघुको मासः कथितेऽपि यद्याचार्या न विवेचयन्ति श्रवि बेच्य च विसंभोगं कुर्वन्ति तदा तेषां विष्वक कुर्वतां चत्वारो लघुकाः । न केवलं प्रायश्चित्तं किं त्वाशाभङ्गादयश्च दोषाः। तथा अध्यादिनिर्गतानामादिशब्दादशिवादिकारपरिषद - योरपि गणयोर्भण्डनं च ।
9
एतदेव च स्पष्टुं भावयति - सोउं मणसंतानो, संतईए वि तुई । अनि ते विचति पजिया अएहि वा ।। ५५ ।। ये तेषां सांभोगासी तत्यातरपिण्डाद्यासेवा मनःसंतापः क्रियते, यथा तेन धर्म्मश्रद्धिकेनापि भवतां शय्यातरपिण्डाद्यकल्पिकमा सेवितमतोऽद्य प्रभृत्यस्माकं संत
त्रुट्य (स्तु) ति - पृथग्विभिन्न इत्यर्थः । ततो येऽन्ये तेषां सांभोगकास्तेऽपि तान् विवर्जयन्ति यतस्तेऽवसन्ना जामुकेनापिताः।
ततो वा अन्तो वा वि, तं सुच्चा इह निग्गया । वजेता जं तु पावेंति, निजरातो य हावित्ता ॥ ५६ ॥ ततस्ते विवर्जिता अध्वनिर्गता शिवादिकारणेन वा निताइ पत्र से पूर्वभागास्तिष्ठन्ति तत्र प्राप्तास्ततो यैरवि पातर पिण्डादिकमासेवितमित्याचार्याणां क थितं, तेभ्योऽन्येभ्यो वा श्रुत्वा यूयं पृथकृता इत्याकर्ण्य तं गर्जयित्वा यतः प्रथमद्वितीयपरीषाभ्यामनामादादि परितापनं प्राप्नुवन्ति । तनिष्पन्नमविवेच्य विसंभो - गकारं प्रायश्चित्तम् । 'निज्जरातो य हाविता इति तेषाम् अध्यादिनिर्गतानां ते वास्तया वैयावृत्रे कृत्वा निर्जरां प्राप्नुयुस्ते ततो हापिताः प्रभूतं चकर्म अविवेच्य न तर्कैर्वध्यते, यन्महता संसारण निस्तरीतुं शक्यंत
सेतो फजे, वा सेवियं जइ वितं अजेय । न हु कीरइ पारोक्खं, सहसा इति भंडणं हुआ ||५७॥
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संभोग
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यस्मादेते दोषास्तस्मात्कार्यतः कारणेन कार्ये वा कारणाभावे वा यद्यपि सेवितं तत् शय्यातरपिण्डादिकं तथा seeकार्येण एवमेव परोक्षं सहसा इत्येवं न विसंभोगः क्रिपते मा परस्परं योयोमेडन भूयादिति हेतोः । कथं विवेकः कर्त्तव्य इत्यत आहनिस्संकियं च कार्ड असंकनिचेपणा तहिं गमये । सुद्धेहिं कारणमणा - भोगजाणता दप्पतो दोयहँ || ५८ || तैः प्राघूर्ण कैस्ते प्रपुण्याः, को युष्माकं शय्यातरः १, कथ मे शय्यातरो न भवति ?, एवं निःशङ्कितं कृत्वा । अथ लजयान पृष्टासतो व निश्वय इति एवमाशङ्कानिवेदनायां कृतायां यस्याचार्यस्य कथितं तेन प्रेषितस्य संघाटस्य तत्र गमनं तेन व संघाटकेन गत्वा यत्तैः कथितम् । तत्तेन प्रव्यम्, ते गृह परिवर्त्तादि यथातथ्यं कथयन्ति । ततः संघाटो गत्वा निजसूरिसमीपं कथयति । एवमक्रियमाणे द्वयोर्गणयामेण्डनम् । तदेव पचाउँन भावयति सदि शुद्धैरप्यस्माभिः समं यूयं विसंभोगं कुरुथ । अथवा-कार
9
गृहपरिचत्तदिकमधिकृत्य तत् गृहीतम्। यदि या-अना भगतम् । अथवा द्वयोः प्रथमद्वितीय
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(att) अभिधान राजेन्द्रः ।
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योजनता दर्पतो गृहीतं, पुनः पश्चात् कृता शोधिः । श्रपि च यदि च निष्कारणेऽपि गृहीतं तथापि न युक्तं परोक्ष विसंभोगकरणम्। यदि वर्ष नानृता चामती क्रं विसं भोगकरणम् । अथ कारणे गृहीतं तदा वयं शुद्धा एव कथं विसंभोगकरणमेवं भण्डनं स्यात् ।
सांप्रतं 'कारण मनाभोगे' ति पत्रद्वयं व्याख्यानयतिकोण वा विगहियं, सागॉरपरियट्टतो व सो अहं । कारणमजाणतो वा महिये किं खचिकरणं तु ॥५६॥
कार्येण च गृहीतमस्माभिर्वापिशब्दो विकल्पने । तच्च कार्य मस्माकं स्वागारपरिवर्त्तः । अथवा कारणमजानता यदि गृहीतं तथापि किं कस्मात् परोक्षे शोधकर विसंभोगकरणम् ।
सम्प्रति 'जाणता दप्पतो ' इति व्याख्यानयतिजाणतेहि व दप्पा, घेत्तुं वट्टिउं कया सोही । तुज्झत्थ निइरवारा, पसीय भेंत कुसीलायं ।। ६० ।। जानद्भिरपि वा प्रथमद्वितीयपरीषहत्याजितो दर्पतो गृहीरा नृत्य कृताऽस्माभिः शोधिः तस्मात् यूपमेवात्र तिर्निरतिचारा भदन्त ! कुशीलानामस्माकं प्रसीदत्युपहासवचनमेतत् ।
पदमविश्य दप्पेणं, जं स आउरेहि तं महिये । दिट्ठताणि भवतो, जं विश्यपसु नित्तरहा ।। ६१ ॥ प्रथमद्वितीययोः परीपदोदयेन यत्तत्सर्वमायुमाभिस्तत् विस्मृतं दृष्टान्ता भवन्त इत्यर्थः, नीयते द्वितीपदेषु निस्तृष्णा इतिहासवचनम्। एवं भण्ड प्रवर्तते । यत एवं परोक्षे विसंभोगकरणे भण्डनदोषास्तम्मापनि विसंभोगं कर्तुम् ।
संभोग
अस्य सूत्रस्य व्याख्यानमाह
समए पचहारे, अवराहविभाविपस्स साहुस्स । आउट्टे गाउढे, पच्चक्खेणं विसंभोगो ।। ६२ ।। अस्मिन् सप्तमे व्यवहारस्यादेश के अपराधेन विभावितः परिभावितो यदि प्रत्यायते तदा तस्यापराधविभावि तस्य साधोरावृत्तस्य विसंभोग न कियते प्रायश्वितं पु नर्दीयते । अथ नावर्त्तते ततो वारत्रयं भरायते, श्रावर्त्तस्व महानुभाव !, एवमुक्तोऽपि यदि नावर्त्तते तदा तस्मिन्ननाबुत्ते प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षतया विसंभोगः क्रियते ।
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संभोगऽभिसंबंधे - आगतो केरिसेण सह नाओ । केरिसए पिसंभोगो भव सुखसु समासेयं ।। ६३ ।। एवमभिसंबन्धेन संभोगतः शिष्यः पृच्छति कीदृशेन सह संभोगो ज्ञेयः कीदृशेन सह विसंभोगः । सूरिराद्दभण्यते एतत्समासेन तत् त्वं भण्यमानं शृणु ।
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
डिसेहे पडिसेहो, संविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो । अविसुद्धे चतु गुरुया, दुरे साधारणं काउं ॥ ६४ ॥ प्रतिषिध्यते पार्थानि कल्पते इति निवार्यते इति प्रतिषेधः, असंविग्नः - पार्श्वस्थादिः भण्यते, तस्मिन् प्रतिषेधे संविग्ने दर्गादः प्रतिषेधः ।
कृत्य इति यदि कथमपि दानादि करोति तदा पर्क द्वौ त्रीन्वारान वार्यते। एकैकस्मिश्च वारे प्रायश्चित्तं मासलघु चारवारणेऽपि यदि भूपतेः सह दानादि क रोति तदासी अशुद्धः इति विभीगा क्रियते विसभोगिकं करोति, तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः । दूरे गतानां यदि केऽपि पृच्छन्ति यथा सत्यमस्माकं च सांभोगिकास्तत्र देशे इति ?, तदा साधारणं कृत्वा वक्रव्यम्यदा तदा सांभगिका अभवन् इदानीं पुनर्न जानीमः किमनुपालयन्ति सांगिक किंवा नेति । एष निगाथासमासार्थः ।
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साम्प्रतमेनामेव भाष्यकारो विवरीपुराहपासत्यादिकुसीले पडिसिद्धे जो उ तेसि संसगी । पडिसिज्झइ एसो खलु, पडिसेहे होइ पडिसेहो ||६५ || पार्श्वस्थादिके कुशीलस्थाने प्रतिषेधे यत्तेषां पावस्थादिस्थाने वर्त्तिनां संसगी प्रतिषेध्यते स च संसर्गी दानग्रहणाभ्यामव सातव्य एष भवति प्रतिषेधः । न चैप प्रतिषेधः ।
यत श्राह
सूर्यगढंगे एवं धम्मभय निकाचितं ।
कुसीले सया भिक्खू, नो य संसग्गियं वदे ॥ ६६ ॥ सूत्रां द्वितीये स्कन्धे धर्माऽध्ययने एवं निकाचितम्एवं नियपूर्वकं भणितम् । यथा सदा भिक्षुरकुशीला भवेद् नैव कुशीलैः सह संसर्गिकं व्रजेत् । दाणादीसंसग्गी, संघकते तिप्पडिसिद्धे लहुतो ।
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(२१२) संभोग अभिधानराजेन्द्रः।
संभोग आउट्टे उ असुद्ध, गुरुतो उ होइ तेण परं ।। ६७॥ | यत एवं दोषः तस्मात्सन्तीति न वक्तव्यम् । अथाचार्यो दानादिभिः संसर्गिः दानादिसंसर्गिस्तस्यां कृतायां
यात्-न सन्तीति तदापि मासो लघुकः, कस्मादिति चत् स प्रतिषिध्यते, आर्य ! कस्मात्पार्श्वस्थादिभिः समं संसगि
भण्डनदोषः । तथाहि-ते तत्र प्राप्तास्तेषां नास्ति केनापि गृ. करापि, एवं प्रतिपिद्धे यदि स आवर्तते तदा स सांभोगि
हीते, तैर्वास्तव्यसतमस्माकं ते सांभागिकास्ततस्ते प्राघूर्ण
का उक्ताः, कस्माद्वसती नोत्तीर्णाः ?, प्राघूर्णकैरक्नमस्माभिः क एवं कवलं तस्मिन्नावृत्ते प्रायश्चित्तं लघुको मासः ।
क्षमाश्रमणाः पृष्टाः, सन्त्यस्माकं तत्र सांभागिकास्तै रुक्तं न द्वितीयमपि वारं यदि करोति ततोऽपि मासलघु, अथ
सन्ति । एवं वास्तव्यानामप्रीतिर्जाता। किमस्माभिः कृतं तृतीयमपि वारं कराति आवर्तते च तदापि मासलघु, सद्भावतखि कृत्व श्रावृत्ते लघुको मासः। तेन परमिति तत
यद्वयं विसंभोगाः कृताः। तदनन्तरं परुपमपि भाषन्ते, ततो स्तृतीयवागत् परं यदि चतुर्थवारं संसर्गि करोति तदा
भण्डनम् । तथैव चाप्रीत्या मासप्रायोग्य वर्षाप्रायोग्यं वा न असौ अशुद्ध इति तस्य प्रायश्चित्तं गुरुको मासः ।
कथयन्ति , न च प्राघूर्णकत्वं कुर्युः । यस्मादेते दोपास्तस्माएतदेव स्पष्टतरमाह
दाचार्येणेवं वक्तव्यम्। तिक्खुत्तो मासलहू, आउट्टे गुरुगो मासो तेण परं।
आसि तया समणुष्पा, भुंजह दबाइएहि पेहित्ता। अविसुद्धे तं वीसुं , करोति जो मुंजती गुरुगा ॥६॥
एवं भंडणदोसा, न होंति अमणुन्नदोसा य ।। ७३ ।। त्रिकृत्व श्रावृत्ते प्रायश्चित्तं लघुको मासस्ततः परं भूयः
यदा अस्मात् देशात् निर्गतास्तदा समनाशाः सांभागिका संसर्गिकरणे सोऽविशुद्ध इति गुरुको मासः, तं च विष्वक
श्रासीरन् , इदानीं न जानीमः किमनुपालयन्ति । सांभाविसंभोगं करोति । योऽपि तं संभुक्ने तस्यापि प्रायश्चित्तं
गिकत्वं किं वा नति। केवल द्रव्यादिभिव्यतः क्षत्रतः काचत्वारो गुरुकाः।
लतो भावतश्च प्रेक्ष्य संभुमध्वमित्येवमाचार्येणोक्न न भण्डनअथ कस्मात् वारत्रयात् परं भूयः संसर्गिकृतो विसंभो
दोषाः, नाप्यमनोज्ञदोषा भवन्तीति । गः क्रियत इत्यत श्राह
नायमनाए आलो-यणा उ ऽणालोइए भये गुरुगा। सति दोमि वा वि होज, अमाई तु माइ तेण परं । गीयत्थे आलोयण, सुद्धमसुद्धं विगिचंति ।। ७४ ॥ सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो ॥६६॥ शाते अशाते वा सांभागे आलोचना दातव्या , तदनन्तरं सकृत्-एकवारं द्वौ त्रीन वारान् वा स्यादमायी, ततस्तु
तैः सह संभुञ्जत । यदि पुनरनालाचित परस्परं भुअंत तदा तीयात् वारात् परं संसर्गिकरणे मायी । अथ शुद्धस्य भव
भवन्ति चत्वारा गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । सा चालाचना गीति चरण मायासहित तु चरणभेदश्चरणाभावस्ततो विसभो
तार्थे दातव्या । 'सुद्धमसुद्धं विगिचंति' ति-शुद्धाशुद्धी बा गः क्रियते।
य उपधिस्त विचिन्वन्ति-पृथक कुर्वन्ति, विवच्य या निष्का
रण उद्गमादिभिरशुजा गृहीता यश्च कारण वा अयतनया तएवं पासत्थादिसु, संसग्गियवारिया य आएसा ।
योः परित्यागः कर्त्तव्यस्तनिष्पन्न प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यन्ते । समणुप्प वि ऽपरिच्छिते, विदेसमादी गते एवं ।।७०॥
एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। एवम्-उक्लेन प्रकारेण एषा दानग्रहणाभ्यां संसर्गिवारिता,
साम्प्रतमनामव विवरीपुः प्रथमतो ' नायमनाए ' इत्यएवं समनाशऽपि विदेशादागते अपरीक्षित संसर्गिवारिता
स्य व्याख्यानमाहद्रष्टव्या । तनापि सह संसर्गिः परीक्ष्य कर्त्तव्यो नान्यथेति
अविणद्वे संभोगे, नायमनाए य नासि पारिच्छा। भावः। संप्रति 'दूरे साहारण काउ' मित्यस्य विभावनार्थमाह
एन्थोवसंपयं खलु, सेहं वा ऽऽमज्ज प्राणादी ॥७॥
आर्यमहागिरः परतः सभागो विनए आसीत् , तदा ज्ञात समणुणेमु विदेस, गतेमु पच्छऽस्म होज अवसन्ना ।
अज्ञात वा नास्ति द्रव्यादिभिः परीक्षा,आर्यसुहस्तिशिष्यद्रते वि तहि गंतुमणा,अस्थि तहिं केइ मणुप्मा ।।७।। मकप्रवज्याप्रांतपांत्तप्रभृतित आगन विनष्टः संभागइति ज्ञान कस्याप्याचार्यस्य समनापु सांभोगिकपु विदेश गतेषु अज्ञात वा द्रव्यादिभिः परीक्षाऽऽलोचायतव्या । अनालापश्चादागत्य सांभोगिकाः कचित् भिक्षाद्यलाभनावसन्ना : चित च सह भुञ्जत । अथ सांभागिकाः सन्तः कथं न शायभवयुस्ततस्ते ऽपि तत्र विदेश गन्तुमनस प्राचार्य पृच्छन्ति, त यनाज्ञात इत्युच्यमानं शाभन तत आह-' एस्थायसंपयं सन्ति तत्र केचिदस्माकं मनाशाः सानोगिकाः।
खलु इत्यादि पूर्व ये उपसंपन्नास्त असमानीभूताः. अन्य
पश्चान्करप्युपसंपन्नाः। अथवा-पश्चादागत्य केचित् प्रवाजिअस्थि त्ति होइ लहुतो, कयाइ सणि भुंजणे दोमा।
तास्तताऽष्टपूर्वतया ते न शायन्त इत्यज्ञाता भवन्ति । गानऽस्थि वि लहुतो भंडण,न खित्तकहनेव पाहुणग।।७२।। थायामकवचन जानी । ततोऽयमर्थ:--पारादपि पूर्वदर्शनाएवमुक्ने यद्याचार्यों वदति सन्ति तत्र नः सांभागिकाः तदा दर्वाप पश्चादुपसंपत् शक्षत्वमासाद्य सामागिकानाप्रार्याश्च भवति तस्य लघुकी मासः। कि कारणमिति चदत मन्यज्ञानता भनि । तंदयं 'नायमनाए ' ति गतम् । आह-कदाचित्त अयसन्नीभूता भवेयुस्तं च प्राघूरीकास्तत्र इदानीम 'अालायगा इ' इति व्याख्यानर्यातगतास्तः सह भुअन्ति, भुजानानां च चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। महल्लयाए गछम्म, कारण अभिवादिहिं । १.--२५०।५।२१ : संसनियम-१४ प्रश्न. ४ मा वार। देमंऽनरागयाऽयोग, तन्थिमा जयणा भव ।। ७६ ।।
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(२१३) संभोग अभिधानराजेन्द्रः।
संभोग अतिमहत्तया गच्छस्य नास्त्येकत्र , संस्तरणं , यद्यस्ति वा पराह्ने काले बेलायामायान्ति । वास्तव्यैरपि नैधिकाशब्द अशिवादिभिः कारणदेशान्तरं गताः, पतैः कारणैर्बहवः श्रुत्वा अभ्युत्थानं कर्तव्यम् । वराडादीनामादिशब्दापात्रापृथक पृथक स्थिताः । तत्र पूर्वस्थितेषु पश्चादागतानां पर- दिपरिग्रहः, ग्रहणं कर्तव्यम् । कथमित्याह-एकवचनेन - स्परं यत्र मेलापको भवति तत्रेयं (वक्ष्यमाणा) यतना- | एडादिकं गृह्वामीत्येवंरूपेणैकेन वचनेन यदि समर्थयन्ति दोमि वि जइ गीयत्था, राइणिए तत्थ विगडणा पुव्वं ।।
तदा ग्रहीतव्याः । किं कारणमित्येतदुच्यते-वास्तव्येनाति
शयेन गृहीतमिति मन्यमानेन प्राघसकेन वास्तव्यागृहीते पच्छा इयरो वि दए, समाणतो छत्तछायातो ।।७७॥
मुक्त भाजनभेदो भवति । तेन पततः प्राणजातिविराधना अगीतार्थेन गीतार्थस्य पुरत आलोचयितव्यम् , यदि पुन- ततस्तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । तस्मादेकवचनेन दण्डादिविपि गीतार्थी ततोऽवमरत्नाधिकेन गुरुरत्नाधिकस्य पु- ग्रहणम् । वक्ष्यमाणकारणैः पुनरपवादतः कालवेलायां न रत भालोचयितव्यम् । अवमरत्नाधिकेनालोचिते पश्चादित प्रविशत् । रोऽपि अयमरत्नाधिकस्य पुरतः पालोचनां ददाति,यः पुनः
तान्येव कारणान्याह-- समानछायाकः स-अवमरत्नाधिकस्तत्र यः पश्चादाचायसमीपानिर्गतस्तस्य पुरतः प्रथममालोचयितव्य पश्चा
खुहुगविगिड्ढगामे, उपहं अवरएहे तपो तु पागे वि । दितरस्य समीपे तेन । यदि पुनरनालोचिते परस्परं भुञ्ज
पक्खित्तं मुत्तूणं, निक्खिवि उक्खित्तमोहेणं ॥८२ ॥ ते तदा प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चत्वारो गुरुकाः । एतेन ' श्र- तुल्लको प्रामे यत्र प्राप्तो वर्तते तत्र पर्याप्तं न भविष्यनालोप भये गुरुगा गायत्थे आलोयण' इति व्याख्या- तीति विचार्य दिवा विकृष्टमन्तरे ततः कृतभिक्षाकान् प्रातम्।
प्स्यामः । अथवाऽपराह बजतां तापस्तत एतैः कारणैः प्रासंप्रति 'सुखमसुद्धं विगिचंती' स्यस्य व्याख्यानमाह- गपि मातरपि प्रविशेत् । तत्र च नैषेधिकीशब्दं श्रुत्वा तन्मुखे निकारणे असुद्धो उ, कारणे वाऽणुवायतो ।
प्रक्षिप्तं तन्मुक्त्वा तत् गलनीयमित्यर्थः। यत उत्क्षिप्तलम्बने
वर्तते तत्पात्रे निक्षिप्य वास्तव्यैरभ्युत्थातव्यम् । अत्र यदि अंतिए उवहिं दो वि, तस्स सोहिं करेंति य ॥ ७८ ॥ प्राघूर्णकाः कृतपर्याप्ताः ततस्तैर्वक्तव्यं वा अभ्युनिष्ठत वयं य उपधिनिष्कारण-पुपालम्बनमन्तरेणोद्मादिभिर्दोषैरशु- कृतपर्याप्ताः समागताः। यदि वा-यस्य कस्यार्थः, स समं खो गृहीता, यश्च कारणेऽनुपायतोऽयतनया गृहीतस्त- भुङ्क्ते । अथ कदाचित् प्राघूर्णका न कृतपर्याप्ता भवेयुस्तदा मुपधि द्वावपि परित्यजतः । तस्य परस्परमालोचनाय येन तेषां दत्त्वा वास्तव्या अन्यत् गृहन्ति । अथ वास्तव्यैरतिदोषेण अशुद्धोपधिस्तत्प्रत्यपायमयतनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं शयेन पर्याप्ते लब्धे ते प्राघूरार्णका समागतास्ततो यदि तप्रतिपद्यते।
पोऽई प्रायश्चित्तमापन्नास्तदा ओघाऽऽलोचनया पालोच्य एवं तु विदेसत्थे, अयमनो खलु भवे सदेसत्थे।
तेः सम भुञ्जते, एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अभिणीवारीगादी, विणिग्गए गुरुसगासातो ।। ७६ ॥
साम्प्रतमनामेव विषमपदव्याख्यानतो व्याख्यानयति
'तत्र ओहणे' ति एनं ब्याचिख्यासुराहएवम्-उक्लेन प्रकारेण सलु विदेशस्थे यतना भणिता,
जइ उ तवं आवनो, जा भिमो महब होज नावन्नो। श्रयमन्यः खलु यतनाप्रकारः स्वदेशस्थे। तमेवाह-अभिनिवारिका प्रागुनस्वरूपा तया आदिशब्दादुपधिकार्येण स्प
तहियं ओहालोयण, तेण परेण विभागो उ ।।३।। चकयतीनां वा साराकरणेन गुरूपदेशतो गुरुसकाशाद्वि
वास्तव्यैर्भिक्षावेलामतिशयेन पर्याप्ते लब्धे यदि प्राघूसका: निर्गत विनिर्गमनैव प्रत्यागतैराचार्यपादमूले कस्यां वेलाया- समागच्छन्ति तदा यदि प्राघूर्णकास्तपोऽहं प्रायश्चित्तमामागन्तव्यम्।
पन्नाः, यावदद्यापि भिन्ना न भवन्ति छदादिकमप्राप्ता इत्यतामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकारो विवृणोति
र्थः । अथवा तपोऽहमपि प्रायश्चित्तं नापन्नाः, तदा ओघा
लोचनया आलोच्य तेः समं मण्डल्यां समुद्दिशन्ति । ततः अभिनिवारिऍ निग्गते, अहवा अन्नेण वाऽवि कजेणं ।।
समुद्देशानन्तरं परतो विभागालोचनयाऽऽलोच्य प्रायश्चित्तं विसणं समणुप्मेसुं, काले को वा विकालो तु ॥८॥ प्रतिपद्यन्ते । अथ छदादिकमापन्नास्ततो मराडल्या उत्कृष्य अभिनिवारिकया-प्रागुक्लस्वरूपया निर्गत, अन्येन वा उ- दीयते । पध्युत्पादादिना कार्येण निर्गते, भूयः समनोज्ञेषु सांभोगि- अथ वेलायां न प्राप्ताः कित्यनागाढायां पौरुष्यां प्राकेषु आचार्यपादमूले इत्यर्थः; विशनं-प्रवेशः काले कर्तव्यः।
तास्तत्र विधिमाहशिष्यः प्राह-कः कालः ।
अहवा भुत्तुन्वरियं, संखडि अन्नहि वा वि कब्जेहिं । सरिराह
तं सुत्ता पत्तेयं, इमे य पत्ता तहिं होजा ॥८४ ॥ भत्तट्टियावासग, सोहेउमति त्ति एत्थ अवररहे ।
अथवेति प्रकारान्तरे वास्तव्यभुक्नोद्वरितं वर्तते । अथवा अब्भुट्ठाणं दंडा-इयाण गहणेगवयणेणं ॥८१॥
संखड्यां निमन्त्रिताः श्राद्धादिभिर्वास्तव्यास्तत्र पर्याप्तं गृभक्कार्थितां कृत्वा यााग्रामेषु भिक्षामटित्या भोजनं च हीतमस्ति । यदि चाऽचार्याः कुलादिकार्यविनिर्गतास्तत् विधाय तदनन्तरमावश्यकमुचारादि शाधयित्वा पश्चाद- कियन्तं कालं प्रतीक्ष्य तद् योग्यं मण्डल्या भुक्तं प्रत्येकमुद्ध
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(२१४) संभोग अभिधानराजेन्द्रः।
संभोग रितमस्ति , इमे च प्राघूर्णकास्तश्रावसरे प्राप्ता भवेयुस्ततो जं एत्थ उ नाण, तमई वोच्छ समासेणं ॥६॥ वास्तम्या मैषेधिकांशब्द श्रुत्वा समुत्थाय भणन्ति ।
यो निम्रन्थस्य सूचस्य ज्याप्यागम TRI , पब एक गमो अंजह भुत्ता अम्हे, जे वा इच्छंति भुत्तु सह भोजं।
निर्ग्रन्थीनामपि सूत्रे भवति-बातम्याच पदमामासव्वं व तेसि दाउं, अन्नं गेयहंति वत्थव्वा ॥५॥ त्वं तदहं समासेन बाये। भुव. यूयं भुक्ता यो वा इच्छति अभुक्तर्यास्तव्यैः सह तदेव विवशुः प्रथमतः समुत्थापपतिभोज्यं स तैः सह भुङ्क्ते अथ प्राघुर्णकानां न पश्चाद्भागे
किं कारणं परोक्ख, संभोगो तासु की पीई । परिपूर्ण जातं ततः सर्व तेषां प्राघूर्णकानां दत्वा वास्तव्या अन्यत् गृहन्ति।
पाएण ताहि तुच्छा, पवन मंडला ।। ६०॥ तिमि दिखे पाहुएणे, सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं ।
किं कारणं केन कारणेन तास संमती परोसंभो
गो विश्वक क्रियते ।। प्राचार्य मार-पिस्मारमापेण ता तरुणा जे सग्गामे, वत्थव्वा वाहि हिंडंति ॥ ८६॥
संयत्यस्तुच्छाः , ततः प्रत्यकं विसभोगकरणे भएडन युः । सर्वेषामागतानां त्रीणि दिनानि यावत्प्राधर्मकत्वं करणीयम् । अथ सर्वेषां कर्तुं न शक्नुवन्ति ततः सर्वेषामभावे बाल
दोमि वि ससंयतीया, गणियो एगस्स या दुरे पग्गा । वृजानां त्रीणि दिनानि, प्राघूर्णकत्वं कर्तव्यम् । ये तत्र वीसु करखम्मि ते चिय, कोयमादी उदाहरणा ।।६१॥ प्राघूर्णकानां तरुणास्ते स्वग्राम हिण्डन्ते ये तु वास्तव्यतरु- दौ गणिनावाचायौं समं पतिकी परस्पर सांभोगिकी। णास्ते उद्भ्रामकभिक्षाचर्यया बहिग्रामे हिण्डन्ते ।
अथवा-एकस्य द्वौ बगौ संपतवर्गः, संयतीवर्गश्वापारस्थ संघाडगसंजोगो, आगंतुगभद्दए तया हिंडे ।
स्वेक एव संयतवर्गः । ती पो पिसंभोगां कुरुतस्तां तैरेवरआगंतुका व बाहिं, वत्थन्वयभद्दए हिंडे | ८७॥
टकगृहिककपातप्रविशनाविरूपाबुदाहरणात् प्रागुक्लपकारे
ण विसंभोगां कुरुत इत्यर्थः।। यदि ग्रामवास्तव्या जना अागन्तुकभद्रकास्तदा प्राघूर्ण
कथमित्याहकानामेकैको वास्तव्येन समं संघाटकेन हिण्डते । इतरेवास्तव्यानां संघाटकसंयोगा उद्धरितास्ते बहिामे
पडिसेवितं तु नाउं, साहंती अप्पणा गुरुणं तु । उभ्रामकभिक्षाचर्यया ब्रजन्ति । अथ ग्रामवास्तव्या ते चिय वाहरिऊणं, पुच्छंति य दो वि सम्भावं ॥१२॥ जना वास्तव्यभद्रकास्ततो वास्तव्यानामेकैका-प्राघूर्ण- काश्चित संयत्यः कासासित्संयतीनां प्राधर्षकागतास्ताकेन समं हिरडते । ये तु प्राघूर्मकानां संघाटकसंयोगा श्र- भिश्च पूर्वप्रकारेण प्रथमालिका कृता, जाता शय्यातरधिकास्ते बहिरुभ्रामकभिक्षाचर्यया वजन्ति । उपधिचिन्ता
पिण्डाऽऽशङ्का । अथवा हरितोपलिप्तायां वसतौ स्थिताः, यामपि परस्परमालोचनायां दत्तायां यो गीतार्थेन उपधि
यदि वा-सदीपायां, ततस्ताभिरागस्य मिजप्रवर्तिम्याः करुत्पादितःस परिभुज्यते । यस्त्वगीतार्थेनोत्पादितस्तस्य प
थितम्। यथा--एताः शय्यातरपिण्डमासेवन्ते प्रतिदिवस रित्यागः करणीयः।
हरितापलिप्तायां वसतौ बसन्ति, सदीपायां चेति । सा सूत्रम्-“जे निग्गथा निग्गंधीओ य०" इत्यादि । अस्य प्रवर्तिनी तन्मुखात् प्रतिसेषितुमिति शात्या ताभिः सह गसंबन्धप्रतिपादनार्थमाह
त्वाऽऽत्मनो गुरूणां कथयति । तऽपि च गुरवो व्याहत्या मंडुगगतिसरिसो खलु, अहिगारो होइ विइयसुत्तस्स । कार्य द्वावपि संयतीवर्गों सद्भावं पृच्छन्ति केवलं यदि ता संपुडतो वा दोण्हं वि, होइ विसेसोवलंभो वा ॥८॥ एकगुरुप्रतिबद्धाः, अन्यथा दोषः । मण्डूका-शालूरः स यथा उत्प्लुत्य गच्छति, एवं निम्र
तथा चाह-- न्थसूत्रानिर्ग्रन्थीसूत्रं विसमिति मण्डूकगतिसरशं तत उ- जइ ताउ एगमेग, अहवा वी परगुरुं वाजाही। क्रम् । द्वितीयसूत्रस्याधिकारप्रस्तावो मण्डूकगतिसदृशः । त- अहवा वी परगुरुतो, पवत्तिणी तीसु वी गुरुगा ॥३॥ था 'सपुडतो वा'इत्यादि, यथा द्वे फलक एकसैपुट इत्यु
यदि यकाभिः प्रतिसेवितं शय्यातरपिण्डादि, यकाभिश्च च्यते, एवं निर्ग्रन्थसूत्रात् द्वितीयं निर्ग्रन्थीसूत्रं संपुटसह
प्रतिसेवितं ज्ञात्वा गुरुभ्यः कथित ता यदि एकैकमाचार्यशं भवति । तत उक्तं द्वयोरपि सूत्रयोः संपुटक इति नि
माश्रिताः, अथवा-प्रात्मीया अपि सस्यः शय्यातरपिण्डाग्रन्थसूत्रादनन्तरं निर्ग्रन्थीसूत्रमुक्तं भवति । विशेषापलम्भो वा इति । "जे निग्गंथा निग्गंधीओ य संभोगिया सिया"
द्यासेविन्यः परं गुरून् कुतश्चित्कारणात् बजेयुः प्रतिपन्नाः,
यदिवा--सा प्रवर्तिनी यत्संयतीभिः शय्यातरपिण्डाद्यासइत्यादि । यन्निर्ग्रन्थसूत्रमस्मात्तदनन्तरं निग्रंन्धीसूत्रं संपद्यते
वितं तासां परगुरुत उपसंपदं प्रतिपन्ना एतासु तिसृप्वपि ततः शिष्याणां विशेषीपलम्भो भवति । दूरव्यवधाने तु न
यद्याचार्यः स्वयं पृच्छति, कोऽत्र भूतार्थ ? , इति तदा स्यात्ततो भवति विशपापलम्भ इति कृत्या निर्ग्रन्थसूत्रादन
प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। न्तरं निग्रन्थीसूत्रमुक्तम् पवमनन संबन्धनायातस्यास्य(व्य०)
किं कारणमिति चेदत आह(सूत्रस्यस्यापि व्याख्या सहैवास्मिन्नेव भाग गता । ) संप्रति भाष्यकारः प्राह
भंडणदोसा हुँती, वगडासुत्तम्मि जे भणिय पुट्वि । एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्यो। सयमवि य वीसु करणे,गुरुगा-वावल्लया कलहो ।हमा
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संभोग
तासां तिसृणामपि स्वयं प्रने भनदोषा भवन्ति ब भणिताः पूर्व करपाश्यपने प्रथमादेशक बा
तासां स्वयं प्रच्छने त्रिषु स्थानेषु भरडनम् । तानि च प्रीति स्थानाम्यमृति-भ्रात्मनो ही गड़ीतपश्य तृतीयोऽन्याचार्या संपता संपत्वश्च एषो वा वर्गों गण्यत । भण्डनं पुनरेवं जायते ताः संयत्यः परकीयरूपाः पृष्टाः सत्यो युर्यथा जानीम पेन दुःखापिता । इहलोकसहायया विजया एवम संपतस्ताभिः सह कलहं कुर्युः संयतीनामपि परस्परं रडाराटिर्भयति । तथा अपर्तिनः साधयः पराचा समं परसंयते समं परसंमतीभिश्व समं रार्टि विभ्युः । चत एवं दोषास्तस्मात् द्वावपि तौ संयतीवर्गावात्मनः श्रात्मन आचार्यस्य स्वयमेव विष्यक कथयतः । यदि पुनस्ताः संयत्यः संभोगं कुर्वन्ति तदा तासां प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । कस्मादिति चेदत आह- चापल्यतः - चपलता दोषेण कलहः परस्परं भूयादिति हेतोः ।
( २१५ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
"
पतेयं भूषत्थं, दोयहं पिय गणइरो तुलेऊ । मिलिउं तक्खणदोसे, परिक्खितुं सुतनिद्देसो ॥ ६५ ॥ यत एवं दोषास्तस्मादात्मन आचार्यस्य कथनीयम् तो चरणधरो द्वयोरपि संयतीवर्गयोः प्रत्येकं भूतार्थ तुलत्वा सम्यग्विशाय तत एकत्र मिलित्वा तयोर्द्वयोरपि संयतीयगुणदोषान्परीचय निर्देशः कर्त्तव्यः स चार्य यदि नानुतपति ततस्तत्रय पत्र मिलिताः सं यतीनां परोक्ष विसंभोगं कुर्वन्ति । प्रत्यक्ष संयतीनां विसंभोगकरणे तुच्छतया कलहभावात् । व्य० ७ उ० । तओन कप्पति जिनए पंढए कीवर वाइए । (सू०-४X) बृ० ४ उ० ।
(' पचज्जा' शब्दे पश्चमभागे ७७२ पृष्ठे व्याख्यातमिदं सूत्रम् । ) - ( गणान्तरं संभोगप्रतिक्षयोपसंपद्यविहरणम् उपसंपया शब्दे द्वितीयभांग २०१६ पृष्ठे प्रतिपादितम्) - ( उपस्थापनाचामकृतायां संभोगे दोषाः ' जडु' शब्देऽर्थतो ४ भागे दर्शिताः । ) निर्ग्रन्थ्याः क्षताचारायाः प्रायश्चित्तमदस्या संभोगो न कर्त्तव्य इति ' खया'यार' शब्दे तृतीयभागे ७१७ पृठे उक्क्रम् ) ( श्रार्थसुहस्तिनो विसम्भोगः संप शब्देऽपि भांग उक्तः) (मिभिः स्थानैः साम्भोगिकं कुर्वन्नातिक्रामति इत्युक्तं ' विसंभोदय ' शब्द षष्ठे भागे ) (अम्यधिक सह सम्योगो न कार्य इति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४७७ पृष्ठे उक्तम् । ) तीर्थखान भोज्यम् स्वयूथ्यैश्च पार्श्वयादि भिः सदाऽसांभोग सही दवा मुजानानामर्थ विधिः । तद्यथा - 'से तत्थ भुंजमाणे' इत्यादि सुगमम्, इति वृत्तिलेशः । ध० ३ अधि० । ज्ञानादिसद्भाव हि द्वादशविधसभोगपरिहारों नोपपद्यते । यत श्राह भगवान् भद्रवा - हुलामी "अहाइहि दीयो दद्दीदि ज कम्मभूमिगा साहू । एगम्मि हीलियम्मी, ते सब्बे हीलिया होति ॥ १॥" दर्श०५ तत्त्व | संभोगकप्प-संभोगकल्प- पुं० । एकमण्डल्यां सह भोजनाचार पं० भा० ।
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संभोग कंप संभोगकप्पमेतो, वोच्छामि श्रहं समासेणं ॥ पुण्यभवितो विभागों, संभोगविहीर दोहि अरोहिं । दोसु विपसंगदोसा, सेसे अतिरेग पहवए || दसविहसन्तविहेहिं पुत्ते तेहि दोहि ठाणेहिं । दोसु विपसंगदोसा, व भुंजए अहसंभोई ॥ जम्हा तु ण णअंती, उग्गममादी उ जे भवें दोसा । एतेण अपरिभोगो, अमणुन्ने होति बोधव्व ॥ दारं
जं तत्थ तंतु, तस्थ ह वोच्छामि एतमतिरेगं । जे तु गुणा संभोग, ते क्ले ऽहं समासेणं ॥ अणुकंपा संग चेव, लाभालाभे वि दाता । दावदुवे गेलो, कंतारे चिए गुरू ॥ दारं । बालाशुकंपगडा अस अतरंतसंगडाट । दारं । asia. सलद्धि अलद्धी, तेसिं साहिएहयट्ठाए । दारं ।
उप्पर अहिगरणे, काहिंति वि ओसणं तु श्रविदाहि । गच्छे बहिभावे, उप्परधो हूं ति परिभूतो ॥ दारं ।
मज्यं अणेकभाणे, ति काउमाएस पेच्छती पुवि । जत्थ उ फुले महछे, लम्भति भिक्खा महली तु ॥ तम्हा उ दवदवस्स, पुवि गच्छामहं तु तं गेहूं । एते तु परिहरता, दोसा हु भवंति संभोगे । गेल गए तस्स हिंमंतू आणि तु अपरोहिं । भोक्खति य साहुवन्गो, कंतारे आखिर्य तु साहूहि ।
।
दारं ।
एमेव चिएवी, (दारं) गुरू वि एहति तु अन्नमन्नस्स । एको पुण परितम्मति, बाहिरभावं च गच्छेजा ॥ एते उ एवमादी, संभोगम्मि गुणा भवन्ती उ तम्हा खलु कायव्वो, संभोगगुणन्निएण सगं ॥ एताई ठाणाई, जो तु सहू होति उ पमादि ति । अति चि पे जे च तं वेति ।
सवाल खड्डा, तो तं उम्मंडलि करेंती तु । जदि उद्धृति वञ्जति, ताहे मेलेजति पुणे वि ॥ अह पुराचीती बहुसो खाउट्टए उसे दोर्स सतिलाभलद्धिजुत्तो, गिज्जूहंती तु तं ताहे ॥ यह मंदलाभली - जो तं गिज्जूहति अहत्थामं । सो वि सरंटेऊ, मेलिञ्जति मंडलीय तु ।। किं कारणं निज्जुहणा, जं साहूणं गुणुत्तरधराणं ।
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( २१६ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
संभोगकप
करोती बच्छतेय उ विज्जूहा तस्स ॥ एवं भारिए तु, जोगो सव्वस्स चेव गच्छस्स । aisai दितो, गते इत्थं इमो होति ।। जह गयकुलसंभृश्रो, गिरिकंदरसिमकडगडुगे । परिवहति परिततो, निययसरीरोगते दंते ॥ तह पत्रयणभत्तिगतो, साहम्मियवच्छलो असढभावो । परिवहति अपरिततो, खेत्तविसमकालदुग्गेसु ॥ जदि एक भायजिमिता, गिहियो वि यदीदमेतिया होंति । जिरावणमहिम्भूता, धम्मं मं श्रयाता ॥
किं पुण जगजीवसुहा-वहेण संभुंजिऊण समणें । सक्का हु एकमेको, यिओ वि वरिक्खितुं देहो || फेरिस वा वित्- संभुंजे ति वावि भवति । उग्गमसुद्ध गुंजे, तहा मसुद्धं ख जेजा । बोंदे महारादि, उग्गममाई असुद्ध मा भुंजे । जं पुण अपेहणादी, कालादीहिं उवहयं तु ।
सुद्धोवहिया, मासमयं एकदि तु बंधेजा । सर्वं तस्स तु, उवघातो मा हु सुद्धस्स ॥ सुद्धस्स जदी संघासेयं तु होति उवघातो । भसुद्धस्स वि, पावति सुद्धी तबमएणं ॥ उवघातोति मतं, संफासेण तु मता विसोही उ। - इच्छमेत सिद्धी ।
म
आहारस्य करणं संभोगस्तस्य प्रत्याययामेन उत्कृत्वेन पृथगाहारकरणेन जीवः किं फलं जनयति है, तब गुवाह हे शिष्य संभोगप्रत्यायामेन आलम्बनपामी स्मरोग्यस्मि इत्यादि कथनानि पयति धीरो मयति इत्यर्थः । निरालम्बनस्य च प्रायतार्था योगा भवन्ति । आयतो मोक्षः स
एतादृशा ये योगा मनोवाक्षापयोगाः भवति भ सन्तुष्यति, परस्य लाभ न आस्वादयति न चाभ्यति । ततश्च परस्य लाभाच तर्कयति मां दास्यतीति मनला न विकल्पयति, मो पति-परसा भावस्पां प्रकटीकरोति । पुनः परस्य सान प्रार्थयति मह्यं देहीति न पाचते। पत ह म अभि लपति परस्य लालसापूर्व पाति साथ परस्य सार्थ अणासापमाणे ' अनास्वादयन् अतर्कयन अभीमानः अप्रार्थमानः अनभिलषम् द्वितीय दुलरायानुपपच बि इरति अपरेभ्यः साया एथ उपाधीहत्य प्रवर्तते। पारशी स्थान हो प्रतिपद्य विहरति । अत्र हि पते या पक्षाची प्रतिपादिताः तत अनेकदेशीयशिष्याणां प्रतिबोधनार्थ पर्यापत्येन प्रतिपादिता ।
उत्त० २६ अ० ।
1
पसत्थे तु परिणामस्स अह रक्खणडाए । संभोगविही गमोते गमा गच्छे ।। रंगतं । पं० भा० ४ कल्प | पं० ० । चाण- संभोगप्रत्याख्यान - न० । खपरलाभमीलगः संम्भोगः, एकमण्डलीभोक्तृत्वमिति यो प्रत्याख्यानं जनकल्पादिप्रतिपस्या परिहा तार्थावस्थायां जिनकल्पाचा रग्रहणेन परिहा
6
-
संभोगवतिया सम्भोगप्रत्यया-श्री सम्भोगनिमकर्मसम्बन्धे मि भागे दर्शिता )
संमजग- सम्मजक- पुं० । उम्मज्जनस्यैचालयेन येनान्ति तेषु वानप्रस्थेषु भ० ११ ० ६ ० ।
तो वि विसोही, णत्थि अजीवस्स भावतो एसो । संमजण - सम्मार्जन- म० । पप्रच्छादिना (अनु० ) जलेन वा शोधने, भ० ११ श० ६ उ० । सम्मार्जन्या कचवरापनयने वसति प्रतिकर्मणि, व्य०४३० । संमजणी - सम्मार्जनी-स्त्री० । कचवरापनयनकारिकायाम्,
तो विसोही या परिणामवसेय जीवस्स ||
व्य० ४ उ० ।
समजिभ - सम्मानित भि० प्रमार्जनिकादिना (२०८ ०३३ उ० । ) अपहृतकत्रवरे, प्रज्ञा० १ पद। कल्प० । ज्ञा० । जी० । कचवरशोधिते, श्रा० म० १ ० । जी० । वस्त्रादिनाईतामपनयनीये, आचा० २ ० १ ० १ ० ४ उ० | संमजिया-सम्मार्जिका स्त्री० । गृहस्यान्तर्बहिश्च बहुकरिकावाहिकायाम्, शा० १ ० ७ अ० । संमह संमृष्ट भि० कचरापनयनेन ०१०१० औ०) प्रमार्जित अधि० भूमिकर्मादिना संस्कृते, ० १ ३० ।
एतत्फलम् -
।
खाणं भंते! जीवे किं जणयइ १, सम्भोगपच्च लंबाई खरे, निरालम्बणस्स य आयतभवन्ति । सएणं लाभेणं संतुस्सह, परलाभं इ नो तह नो पीहे नो पत्थेइ नो
।
आचा० २ श्रु० १ सू० २ - । “प्रादेर्मीलेः । " संमि (इल सम्मील- था० सङ्गमे, “प्रादेः ॥४॥ २३२ ॥ अनेन प्रादेः परस्य मीलेरम्यस्य वा द्वित्त्वम् । संमि लइ । संमिला। सम्मीलति । प्रा० ४ पाद ।
परस्त्र लाभं अणासाएमाणे अतकेमाणे संमुह-संमुचि- पुं० । जम्बूद्वीपे श्रागामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविप्रणभिलसमाणे दोचं सुहसि उबसम्परह ।। २२ ।।
यति पंष्ठ कुलकरे, स्था० १० ठा० ३ उ० । मुमिमरस- सम्मूमिमनुष्य पुं० मनुष्यदे, प्रज्ञा० १ पद । ( व्याख्या 'मनुस्स' शब्दे षष्ठे भागे द्रष्टव्या । )
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भोगप्रत्याख्यानेन एकमयां स्थित्या
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(२१७) अभिधानराजेन्द्रः।
संलेरणा संमत्त-संसक-पुं० । माण्डवगोत्रावान्तरगोत्रविशेषप्रवर्तके | पुनः संभाषणम् । भ०३श०१उ०। मुहुर्मुहुर्जल्पने, भ०३ पुरुष, स्था० ७ ठा० ३ उ०1 .
श०१उ०। प्रीत्या सह सकामसुहत्प्रत्यर्पणक्षमे परस्परसम्भा
षणे, जी०३ प्रति०४अधि० औ०।शा० । जं० । प्रियेण संमसमाण-सम्मृशत-त्रि० । सामस्त्येव स्पृशति, भ०८
सह सप्रमोद सकाम परस्परं संकथायाम् , चं० प्र० २० श०३ उ०।
पाहु०।१०। सू०प्र०। 'संलापो भाषणं मिथ' इति बचानात्। संमुह-सम्मुख-त्रि० अभिमुखे, सूत्र.१ भु०१५ ०। स्था०७ठा३ उ०। मिथःकथारूपे,ध०२ अधि० ('णिग्गथी' संमुहागय-सम्मुखागत-त्रि० सम्मुखं स्थिते, जं०१ वक्ष०ा शब्दे चतुर्थभागे २०४६ पृष्ठे सूत्रं तव्याख्या च गता।) संमुहीभूय-सम्मुखीभूत-त्रि० । अभिमुखीभूते, सूत्र०१ श्रु० लावकीव-संलापक्कीब-पुं० । सम्भाषणनपुंसके , संलाव१५ म।
कीवो जो अवस्ससंलवियब्बे परम्मुहो सलवति । नि. संमृद-सम्मूढ-त्रि० । समिति-भृशं मूढा वैचित्यमुपग- चू०४ उ०। ताः सम्मूढाः । उत्त०३ अामोहजालन मोहं गतेषु, तं०। संलिहण-संलेखन-न० । ईषल्लेखने, दश०८१०। संमोहभावणा-संमोहभावना-स्त्री०। पञ्चमभावनाभेदे, प्रव० संलिहणकप्प-संलेखनकल्प-पुं० । पात्राणां संलेखनपूर्वके७३ द्वार । ( व्याख्या पञ्चमभागे ' भावणा ' शब्दे
धावने, औ०। ( वक्तव्यता 'भोयण' शब्दे पञ्चमभागे द्रष्टव्या।
भोजनान्तेऽयं विधिरुतः।) गता।) संरंभ-संरम्भ-पुं०। विनाशसंकल्पे, भ० ३ श० ३ उ० ।
संलिहिताणं-संलिख्य-अन्य० । प्रदेशिन्या निरषयवं कृत्वेस्था० । विशे० । 'संकप्पो संरम्भो' प्राणातिपातं करोमीति
त्यर्थे, दश०५ ०२ उ०। या संकल्पोऽध्यवसायः स संरम्भः । श्राह च चर्णिकृत-संलिहिय-संलिख्य-अव्य० । निर्लिपीकृत्वेत्यर्थे, कल्प०३ पाणावायं करोमि ति जो संकप्पं करेह चिन्तयतीत्यर्थः । अधि० ६ क्षण । निरवयवं कृत्वेत्यर्थे,-आचा०२ श्रु.१० व्य०१ उ०। (पश्चमभागे 'पडिसेवणा' शब्दे ३३४ पृष्ठे एत- | १०४ उ०॥ त्प्रायश्चित्तमुक्तम्।) परजीवस्य विनाशनसमर्थ दुष्टविद्यानां संलिखित-त्रि०। संलेखनविधिना शोषिते, तच्च त्रिगुणने, उत्त २४० । इष्टानिष्टप्राप्तिपरिहाराय प्राणाति
धा-आहाराः, शरीरम् , उपधिश्च । ६० ३ उ० । पातादिसंकल्पावेशे, भाचा०१ श्रु०२१०५ उ०। विषया
संलीण-संलीन-त्रि० । एकाश्रयस्थे , दश० ३ ० । उत्त। दिषु तीवाभिलाषे, आतु। क्रोधे, “संरंभो अमरिसो मन्नू" |
| संवृते , प्रव०६ द्वार। पाइ० ना० १६१ गाथा।
संलीणया-संलीनता-स्त्री० । सलीनस्थ-संवृतस्य भावः संरंभझाण-संरम्भध्यान-न० । संरम्भो-विषयादिषु तीवा
सलीनता । पञ्चा० १६ विव० । अनोपानादि संवृत्य प्रवर्तभिलाषस्तस्य ध्यानम्। जनन्युपरोधतो व्रतं पालयतोऽपि वि.
ने, उस०३० अ० । दश । प्रव० । नं०। स० । सलीनता-गुबयाभिलाषिणः चुनककुमारस्येव दुर्ध्याने, प्रातु।
तता, सा चेन्द्रियकषाययोगविषया विविक्रशय्यासनता संरक्षण-संरक्षण-न०। सवैारणाद्यैरुपायै । करादिभ्यो नि- वेति चतुर्दा । ध०२ अधि० । ग० । उत्त। जविसस्य सलोपने, विशे० । सर्वोपायैः परित्राणे
अथ संलीनतामाहरौद्रभ्यानभेदे, स्था०४ ठा०१ उ०। आपदः संगोपने, शा०१ एगन्तमणावाए, इत्थीपसुविवजिए। शु०१४ मा परिपालने, भाव०१४ म० ।
सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥२८॥ संरक्खय-संरचक-पुं०। नानाव्यसनेभ्यः सनोपके, शा. १ एकान्त-जनैरनाकुले पुनरनापाते न विद्यते आपातः श्रु०१०।
स्त्रीपुरुषादीनामागमनं यत्र तत् अनापातं तस्मिन् पुनः संरोडणी-संरोहणी-स्त्री० । संरोहणकारिकायामौषभ्याम् ,
पशुपण्डकादिविवर्जिते पारामोद्यानशून्यगृहादिस्थाने शय
नासनसेवनया कृत्वा संलीनताख्यं तपो शेयमित्यर्थः । उमा०म०१०।
त०३४ अ०। संलप्प-संलप्य-त्रि० । संलपितुं शक्ये, अनु।
सर्लुचमाण-संलुच्यमान-त्रि० । इतश्चेतश्च भक्ष्यमाणे, मासंलवण-संलपन-न। मिथो भाषणे, स्था० ४ ठा० २ उ०।। चा०१ श्रु० ८ ०३ उ० । संलवमाण-संलपत-त्रि०। मिथो भाषमाणे, स्था०४ ठा०२ संलेह-संलेख-पुं० । कवलप्रयप्रमाणे शरीरावशोषणार्थमा
उ० । स्त्रियाम्-'संलवमाणी' । कल्प० १ अधि० ३ क्षण। हारे, वृ०५ उ०। संलवित्तए-संलपितुम्-अव्य० । पुनः पुनः संला.
| संलेहणा-संलेखना-स्त्री० । उबलने, प्राचा०१ भु०११०३ पं कर्तुमित्यर्थे, प्रतिः। उपा।
उ०। संलिख्यतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना । तपोवि
शेष, स्था०२ ठा०२ उ०। सूत्र०। शरीरशोषणायाम् ,प्रव०१ संलाव-संलाप-पुं०। भिन्नकथाद्यालापे,सूत्र०१७०४०१उ०।
द्वार । बागमोक्नेन विधिना शरीरायपकर्षणे ,प्रव० १३५ पुनः पुनर्जल्पने, शा०१भु०१६ अ०। प्राय। संलापः पुनः । द्वार । कषायशरीरकृशतायाम् ,का०१ श्रु०१०।१०।
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(२१८) संलेरणा अभिधानराजेन्द्रः।
संलेहणा आगमप्रसिद्धचरमानशनविधिक्रियायाम् , पश्चा०१ विव०।। नमस्कारमुखारयितुं न शक्नोति, तदेवमनया आनुपूसा जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च । व्य०१० उ०।
क्रमेण द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्टां संलेखनां कृत्वा गिरिकन्दर साम्प्रतं 'सलेहणा दुवालसवरिसे' ति चतुर्विंशदुत्तरशत- गत्वा उपलक्षणमेतदन्यदपि षट्कायोपमईरहितं विविक्तं तमं द्वारमाह
स्थानं गत्वा पादपोपगमनं, वाशब्दाद् भक्तपरिशाकिनीचत्तारि विचित्ताई, विगई निज्जूहियाइँ चत्तारि । मरण च प्रपद्यते । मध्यमा तु सलेखना पूर्वोक्तप्रकारेण द्वासंवच्छरे य दोन्नि, एगंतरियं च आयामं ॥९८२॥
दशभिर्मासैः,जघन्या च द्वादशभिः पक्षः परिभाषनीया।ब
प्रस्थाने मासान् पक्षाश्च स्थापयित्वा तपोयिधिः। प्रागिय निनाइविगिट्ठो य तवो, छम्मासे परिमिश्रं च आयाम ।
रवशेष उभयत्रापि भावनीय इति भावः । प्रव० १३४ द्वार । - अवरे वि य छम्मासे, होइ विगिटुं तवो कम्मं ॥१८॥
नि० चू० । स०। पं० २० । प्रा० चू। .. वासं कोडीसहियं, आयामं कह पाणुपुबीए । |
विस्मृतसंलेखनाविधिःगिरिकंदरं व गंतुं, पाउवगमणं पबजेई ॥१४॥ संलेहणा इहं खलु, तवकिरिया जिणवरेहि पम्मत्ता । 'चत्तारि विचित्ताई'इत्यादि गाथात्रयम् , संलेखने-संलेखना |
जं तीऍ संलिहिअइ, देहकसायाइ णिश्रमेणं ॥१३६६।। आगमोक्नेन विधिना शरीराद्यपकर्षणम् , सा च त्रिविधा-जधन्या पारमासिकी , मध्यमा संवत्सरप्रमाणा, उत्कृष्टा तु
सलेखना यह खलु प्रक्रम तपःक्रिया विचित्रा जिनवरैः द्वादश वर्षाणि । तत्रोत्कृष्टा तावदेवं प्रथमं चत्वारि वर्षाणि
प्रशप्ता । किमित्याह-यद्यस्मात्तया संलिख्यते कशीक्रियते विचित्राणि विचित्रतपांसि करोति । किमुक्नं भवति-चत्वारि
देहकषायादि बाह्यमान्तरं च नियमेनेति गाथार्थः । वर्षाणि यावत्कदाचिश्चतुर्थम् , कदाचित्षष्ठम् , कदाचिदष्टम
अतिप्रसङ्गपरिहारमाहमेवं दशमद्वादशादीन्यपि करोति,पारणकं च सर्वकामगुणिते.
आहेणं सव्व चिय-तवकिरिश्रा जइ वि एरिसी होइ । नोगमादिशुद्धेनाहारेण विधत्ते । ततः परमन्यानि चत्वारिवर्षाणि उक्नप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति, विकृति
तह विभइमाऽवसिट्ठा,धिप्पड़ जा चरिमकालम्मि१३६७ नियूंहितानि-विकृतिरहितानि । किमुक्तं भवति-विचित्रं ओघन सामान्येन सर्वैप तपःक्रिया आदित आरभ्य यद्यतपः कृत्वा पारणके निर्विकृतिकं भुङ्क्ते उत्कृष्टरसबर्ज पीडी देहकषायादिसलेखनात्मिका भवति तथापि चैषा च । ततः परतोऽन्ये द्वे च वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति, प्रस्तुताबशिष्टा गृह्यते, तपःक्रियया चरमकाले देहत्यागायेति एकान्तरं चतुर्थ कृत्वा प्राचाम्लेन पारयतीत्यर्थः । एव
गाथार्थः। मेतानि दशवर्षाणि गतानि । एकादशस्य तु वर्षस्या
एतदेवाहचान् षण्मासान् नातिविकृष्टं नातिगादं तपः करो
परिवालिऊण विहिणा, गणिमाइपयं जईणमित्रमुचि। ति । नातिविकृष्ट नाम तपश्चतुर्थ षष्ठं पाऽवसेयं नाष्टमादिके , पारणके तु परिमितं किश्चिदनोदरतास
अन्भुजओ विहारो,अहवा अब्भुज्जनं मरणं ॥१३६॥ म्पन्नमाचाम्लं करोति । ततः परमपरान् षण्मासान् वि
परिपाल्य विधिना सूत्रोक्नेन गण्याविपदम् आदिशब्दादकृष्टमष्टमदशमद्वादशादिकं तपः कर्म भवति, पारणके तु मा उपाध्यायादिपरिग्रहः, यतीनामुचितमिदं चरमकाले यदुताशीघ्रमेव मरण यासिषमिति कृत्वा परिपूर्मघ्राण्याऽऽचाम्लं
भ्युद्यतो बिहारो जिनकल्पादिरूपः, अथवा-अभ्युद्यतं मरण करोति, न पुनरूनोदरतयेति । द्वादशं तु वर्षे कोटीसहितं पादपोपगमनादीति गाथार्थः। निरन्तरमाचाम्लं करोतीत्यर्थः । उक्तं च निशीथचूली-'दु- एसो अविहारो विह, जम्हा संलेहखासमो चेव । बालसमं वरिसं निरन्तरं हायमाणं उसिणोदएण आयंबि
ताण विरुद्धो णमो, एत्थं संलेहणादारे ॥ १३६६ ॥ लं करेइ, तं कोडीसहियं भवद , जेणायंबिलस्स कोडी
। एष च विहारोऽभ्युद्यतः, यस्मात् संलेखनासमो वर्तते कोडीए मिलई' त्ति चतुर्थ कृत्वा आचाम्लेन पारयति, पुन
तत्तस्मात्र विरुद्धो योऽत्र प्रस्तुते सलेखनाद्वारे भरायमान चतुर्थ विधायाचाम्लेनैव पारयतीत्यादीन्यपि बहूनि मता
इति गाथार्थः। म्तराणि द्वादशस्य वर्षस्य विषये वीच्यन्ते, परं ग्रन्थगौरवभयानात्र लिखितानीति । इह च द्वादशे वर्षे भोजन
भणिऊण इमं पढमं, लेसुद्देसण पच्छो वोच्छं। कुर्वन् प्रतिदिनमेकैककवलहान्या ताबदूनोदरतां करोति दाराणुवायगं वित्र, सम्म अन्भुज मरणं ॥१३७०।। याबंदकं कवलमाहारयति । ततः शेषेषु दिनेषु क्रमश ए- भणित्वा एनमभ्युद्यतविहारेण प्रथम लेशाद्देशन--संक्षपेण केन सिक्थेनोनमेकं कवलमाहारयति, द्वाभ्यां सिक्थाभ्यां
पृष्ठतः-ऊर्य वक्ष्ये, द्वारानुपात्येव प्रस्तुतमित्यर्थः । सम्यक्त्रिभिः सिक्थैरवं यावदन्ते एकमेव सिक्थं भुक्ने , यथा सिद्धान्तनीत्याऽभ्युद्यतं मरणमिति गाथार्थः। दीपे समकालं तैलवर्तिक्षयो भवति, तथा शरीरायुषारपि
तत्र द्वारगाथामाहसमकं क्षयः स्यादिति हेतोः अपरं च-द्वादशस्य वर्षस्य पर्यतवर्तिनश्चतुरो मासान् यावदेकान्तरितं तैलगण्डषं चिरका
अव्वोच्छित्तीमण पं-चतुलणउवगरणमेव परिकम्मो। . लमसौ मुखे धारयति,ततः खलमल्लके भस्ममध्ये प्रक्षिप्य मु- तवसत्तसुएगत्ते, उबसग्गसहे अ बडरुक्खे ॥ १३७१ ॥ खमुष्णादकेन शोधयति । यदि पुनस्तलगण्डूषविधानं न का- अव्यवच्छित्तिमनः प्रयुक्ने, तथा पश्चानामाचार्यादीनां यते तदा रूक्षत्यात्तेन मुखयन्त्रभीलनसम्भव पर्यन्तसमये | तुलना स्वयोग्यविषया उपकरणमेवेति वक्तव्यमुचितं, परि
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(२१६) संलेहणा अभिधानराजेन्द्रः।
संलेहणा कर्मेन्द्रियादिजयः तपःसत्त्वश्रुतैकत्वे उपसर्गसहश्चेति । वासं कोडीसहियं, आयाम तह य प्राणुपुष्वीए। पञ्च भावना भवन्तीत्यर्थः । वटवृक्ष इत्यपवादात्तदेव प्रतिप.
संघयणादणुरूवं, एत्तो अट्ठाइ नियमेणं ॥१५७६।। चत इति गाथार्थः।
वर्षकोटीसहितमायाम तथा चानुपूर्व्या एवमेव संहननाचव्यासार्थमाह
नुरूपम् , अादिशब्दाद्-शक्त्यादिग्रहः,श्रत उक्तात्कालादीसो पुवावरकाले, जागरमाणे उ धम्मजागरिध।
दि पर्द्धप्रत्यर्द्धत्वानियमेन करोति,इह च कोटीसहितमित्येवं उत्तमपसत्थझाणे, हिपएण इमं विचिंतेइ ।। १३७२।। वृद्धा युवते-"पट्ठवणो य दिवसा, पञ्चक्खाणस्स निट्टवणस गणी वृद्धः सन् पूर्वापरकाले सुप्तः सुप्तोत्थितो वा रात्री
ओ य । जहियं समिति दोसि उ,तं भन्नइ कोडिसहियं तु॥१॥" जाग्रत् धर्मजागरिकां धर्मचिन्तां कुर्वन्नित्यर्थः, उत्तमप्रश
भावत्थो पुण इमस्स जत्थ पश्चक्खाणस्स कोणो कोणो य मि
लयह । कहीगोसे श्रावस्सए अब्भत्तट्टो गहियो, अहोरत्तं श्रस्तध्यानः प्रवृद्धशुभयोगहृदयेनेदं वक्ष्यमाणं वस्तु विचिन्त
स्थिऊण पच्छा पुणरवि अम्भ करेइ, बीयस्स पट्ठावणा पयतीति गाथार्थः।
ढमस्स निट्ठावणा एवं दो वि कोणा एगट्ट दो वि मिलिया । अणुपालिओ उ दीहो, परिआओ वायणा तहा दिया।
अट्ठमादिसु दुबहउ कोडिसहियं, जो चरिमदिधसो तस्स वि णिप्फाइमा य सीसा, मज्झं कि संपयं जुत्तं ॥१३७३।। एगा कोडी एवं प्रायविलनिम्विइयएगासणएगट्टाणाणि वि। अनुपालित एव दीर्घः पर्यायः प्रवज्यारूपः , वाचना त
अहवा इमो अण्णो विही-अभत्तट्टे कयं, आयंबिलेण पारिय था दत्ता उचितेभ्यः,निष्पादिताश्च शिष्याः, कृत ऋणमोक्षस्य
पुणरवि अभत्तटुं करेइ आयंबिलं च । एवं एगासणगामम किं साम्प्रतं युक्तमेतश्चिन्तयतीति गाथार्थः ।
ईहि वि संजोगा कायव्वा, शिब्विगतिगाइसु सम्बेसु स
रिसेसु य एत्थ आयंबिलेणाहिगारो"त्ति गाथार्थः । किंकिन्नु विहारेणा-भुञ्जएण विहरामणुत्तरगुणेणं ।
इत्थमसलेखनायां दोषमाहउअ अन्भुञ्जयसास-णेण विहिणा अणुमरामि।।१३७४।
देहम्मि असंलिहिए, सहसा धाऊहिं खिजमाणेहि। केन विहारेणाभ्युद्यतेन जिनकल्पादिना वा विहरामि?उत्तरगुणेनैतत्कालापेक्षया उताभ्युद्यतशासनेन विधिना सूत्रोक्ने
जायइ अझाणं, सरीरिणो चरमकालम्मि ॥१५७७॥ न अनुम्रिये इति गाथार्थः ।
देहे असंलिखिते सति सहसा धातुभिः क्षीयमाणैर्मासापारद्धा वोच्छित्ती, एण्हि उचियकरणा इहरमा उ।। दिभिर्जायते पार्सध्यानम्-असमाधिः शरीरिणश्वरमकाले· विरसावसाणऊणो, इत्थं दारस्स संपाओ ॥१३७५।।
मरणसमय इति गाथार्थः। प्रारब्धा व्यवस्थितिः प्रवज्यानिर्वहणमखण्डम् , इदानीमु
विहिणा उ थोवथोनं, खविजमाणेहिं संभवइ णेअं । चितकरणाद्भवति , इतरथा तु तदकरणे विरसावसानतः भवविडविवीअभूअं, इत्थ य जुत्ती इमाणे||१५७८।। कारणान्न प्रारब्धा व्यवस्थितिस्तन्यूनत्वादिति । अत्र द्वा- विधिना तु शास्त्रोक्लन स्तोकस्तोकं क्षयमाणैर्धातुभिः संरस्य व्यवस्थितिमनःसंजितस्य संपात इति गाथार्थः । पं० भवति नैतदातध्यानं भवविटपिबीजभूतमेतदत्र युक्तिरिय व०४ द्वार।
श्रेयाऽसंभवे इति गाथार्थः । संलेहणापुरस्सर-मेअं पाएण वा तयं पुन्धि ।
कथं जय इत्याहवोच्छं तओ कमेणं, समासोऽन्भुञ्जयं मरणं ।१५७३।
सइसुहभावेण तहा, थोवविवक्खत्तणेण णो वाहा । संलेखनापुरस्सरमेतत्प्रायशः पादपविशेष मुक्त्वा तत्ते पूर्व वक्ष्ये संलेखनाम् , ततः क्रमेणोक्तरूपेण समासतोऽभ्युद्यतम
जायइ बलेण महया, थेवस्सारंभभावाओ ॥१५७६।। रणं वक्ष्ये इति गाथार्थः।
सदा शुभभावस्य 'तथा' तेन संलेखनाप्रकारेण स्तोकचत्तारि विचित्ताई, विगईणिज्जूहिआई चत्तारि। । विपक्षत्वेन हेतुना न बाधा जायते कुत इत्याह-बलेन महता संवच्छरे उदोलि उ, एगंतरिक्षं च आयाम ॥१५७४॥
शुभभावेन तेन स्तोकस्य दुःखस्यारम्भभावादिति गाथार्थः । चतुरः संवत्सरान् विचित्राणि तपांसि करोति षष्ठादी
उवकमणं पुण एवं, सप्पडिआरं महाबलं णेयं । नि तथा विकृतिनियूढानि निर्विकृतिकानि चतुर पव, सं- उचिप्राणासंपायण,सइ सुहभावं विसेसेणं ॥१५८०॥ वत्सरौ द्वौ च तदूर्द्धमेकान्तरितमेवं च नियोगतः आयाम उपक्रमणमेवं धात्वादीनां सप्रतीकारं भूयो बृहणेन महातपः करोतीति गाथार्थः।
बलं शेयम् , अत्र उचिताशासंपादनेन सदा शुभभावमुपकणाइविगिट्ठो अतवो, छम्मासे परिमिश्र च आयाम । । मणं विशेषणति गाथार्थः । अमे वि अछम्मासे, होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥१५७५॥ थोवं उवक्कमिजं, बझं अभिंतरं च एअस्स । नातिविकृष्ट च तपः चतुर्थादि षण्मासान् करोति । तत जाइ इअ गोअरत्तं, तहा तहा समयभेएणं ॥१५८१॥ ऊर्द्ध परिमितं चायामं तत्पारणक इति तैलगण्डूषधारणं च, स्तोकमुपक्रमणीयम् , बाह्य मांसादि, श्राभ्यन्तरं च अशुभमुखभने अन्यान्यपि च परामासान् अत ऊर्ध्वं भवति विक- परिणामादि; एतस्योपक्रमणास्य याति एवं गोचरत्वं संलेटमधैव तपःकम्र्मेति गाथार्थः ।
नायाः तथा तथा समयभेदन-कालभेदेनेति गाथार्थः ।
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संलेहणा
(२२०) संलेहणा
अभिधानराजेन्द्रः। जुगवं तु खिविजंतं, उदग्गभावेण पायसो जीवं ।। अम्मत्था सुहजोगा, असंपमा पायसो जहासमयं । चावइ सुहजोगाओ, बहुगुरुसेग्मं च सुद्दडं ति॥१५८२॥ एसो इमस्स उचिमो,अमरणधम्मेहि निद्दिडो।।१५६०॥ युगपत्तु क्षेप्यमाणं तन्मांसादि उदग्रभावेण प्रचुरतया प्रा- अभ्यस्ताः शुभयोगाः औचित्येन असंपन्नाः यथागमं यशो जीवं, किमित्याह-च्यावयति शुभयोगात् सकाशात् । प्रायशो यथासमयं यथाकालमेषोऽप्यस्य मरणं योगस्योकिमिव कमित्याह-बहुगुरुसैन्यमिव सुभट च्यावयति जया- चितः समयः, अमरणधर्मभिर्वीतरागैनिर्दिषः सूत्रे इति दिति गाथार्थः।
गाथार्थः। पाहप्पवहणिमित्तं, एसा कह जुञ्जई जइजणस्स ।
यतश्चैवम्समभाववित्तिणो तह, समयत्यविरोहमो चेव ।।१५८३॥
ता भाराहेस इम, चरमं चरमगुणसाहर्ग सम्म । पाह-मात्मवधनिमित्तमेषा संलेखना कथं युज्यते ?, यति
सुहभाव विवड्डी खलु, एवमिह पवत्तमाणस्स ॥१५६१।। जनस्य समभाववृत्तेः सतः, तथा समतार्थविरोधतश्चैवेति यतश्चैवं तत्-तस्मादाराधयामः-संपादयामः एनं चरम गाथार्थः।
शुभयोग चरमगुणसाधकमाराधनानिष्पादक 'सम्यग्'माविरोधमाह
गमनीत्या, शुभभाववृद्धिःबलु कुशलाशयवृद्धिरित्यर्थः। ए. तिविहाऽतिवायकिरिया,अप्पपरोभयगया जो भणिया।
बमिह संलेखनायो प्रवर्तमानस्य सत इति गाथार्थः। बहुसो अणिडफलया, धीरेहि अणंतनाणीहि ॥१५८४॥ उचिए काले एसा, समयम्मि वि वसिमा जिणिदेहि । त्रिविधा प्रतिपातक्रिया , कथमित्याह-प्रात्मपरोभयग- तम्हा तभोण दुड्डा, विहिप्राणुट्ठाणमो चेव ॥१५॥२॥ ता यतो भणिता समये बहुशोऽनिष्टफलदेयं क्रिया धीरैर
उचित काले चरमे 'एषा' संलेखना 'समयेऽपि'-गमेऽपि .." नन्तशानिभिः सर्वरिति गाथार्थः।
वर्शिता 'जिनेन्द्रैः । तीर्थकरैर्यस्मात्तस्मान दुष्टा एषा । कुत भमाइ सच्चं एअं, ण उ एसा अप्पवहणिमित्तति । । इत्याह-विहितानुष्ठानत एव शास्रोतत्वादिति गाथार्थः। तल्लक्खणविरहाओ,विहिआणुट्ठाणभावेणं ॥ १५८५॥
भावमवि संलिहेई, जिणप्पणीएण झाणजोएणं । भएयते सत्यमेतत्त्रिविधातिपातक्रियेति, नत्वेषा संले
भूप्रत्थभावणाहिं, परिवइ बोहिमूलाई ॥१५६३॥ खना क्रिया प्रात्मवधनिमितेति । कुत इस्याह-तलक्षणवि
भावमप्यान्तरं संलिखति-वश करोति, जिनप्रणीतेनागमारहात्-आत्मवधक्रियालक्षणविरहात्, विरहश्च विहितानु
नुसारेण ध्यानयोगेन धर्मादिना भूतार्थभावनाभिश्च . ठानभावेन हेतुनेति गाथार्थः।
क्यमाणाभिः परिवर्खयति-वृद्धि नयति बोधिमलान्यवजा खलु पमत्तजोगा, णिमा रागाइदोससंसत्ता।
कारणानीति गाथार्थः।। प्राणाउ बहिन्भूआ,सा होइ अइवायकिरिय।१५८६।
. एतदेवाहया खलु प्रमत्तयोगात् सकाशात् नियमाद्रागाविदोषसंस
भावेइ भाविभप्या,विसेसमो नवरौं तम्मि कालम्मि । का स्वरूपतः पाहातो बहिर्भूता उच्छात्रा सा भवत्यतिपातक्रिया इदं लक्षणमस्या इति गाथार्थः ।
पयईए निग्गुणतं, संसारमहासमुदस्स ॥१५६४॥ . जा पुण एअविउत्ता, सुहभावविवडिणी नियमेणं ।
भावयति-मभ्येति भाषितात्मा सूत्रेण विशेषतोऽतिशयेन
नवरं तस्मिन्काले चरमे, किमित्याह-स्वभावेन निर्गुणत्वमसा होइ सुद्धकिरिया, तलक्खणजोगो चेव ॥१५८७।।
सारत्वं संसारमहासमुद्रस्य भवोदधेरिति गाथार्थः। या पुनरेतद्वियुक्ता क्रिया शुभभावविवर्द्धिनी च नियमेन अ.
जम्मजरामरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइयो । वश्यतया सा भवति शुद्धक्रिया कुतस्तल्लक्षणयोगत एंवति गाथार्थः।
जीवाण दुक्खहेऊ, कहुं रोबो य भवसमुद्दो ॥१५६५॥ पडिवजाइ अइमं जो, पायं किअकिच्चिमो उ इह जम्मे । जन्मजरामरणजलो बहुत्वादमीषामनादिमानित्यगाधः व्यसुहमरणा कियकिच्चो,तस्सेसा जायइ जहुत्ता ॥१५८८।।
सनश्वापदाकीर्णः अपकारित्वादमीषां जीवानां दुःखहेतुः प्रतिपद्यते चैनां संलेखनक्रियां यः प्रायः स कृतकृत्य एवेह
सामान्येन , कटरौद्रो-भयानको भवसमुद्र एवंभूत इति
गाथार्थः। जन्मनि निष्ठितार्थः सुभमरणेनात्र कृतकृत्यो यदि परं तस्यैषा जायते यथोक्ता संलेखना शुद्धक्रिया चति गाथार्थः । धमोऽहं जेण मए, अणोरपारम्मि नवरमेअंसि । मरणपडिपारभूत्रा, एसा एवं च ण मरणनिमित्ता।। भवसयसहस्सदुलहं, लद्धं सद्धम्मजाणंति ॥१५६६॥ जह गंडछेकिरित्राणी पायबिराहणारूवा ।।१५८६॥ धन्योऽहं सर्वथा येन मया 'अनर्वापारे ' महामहति मरणप्रतीकारभूतैषा एवं चोकन्यायान्न मरणनिमित्ता, नबरमेतस्मिन् भषसमुद्रे भवशतसहस्रदुर्लभमेकान्तेन पथा गण्डच्छेदक्रिया दुःखरूपाऽपि नात्मविराधनारूपति लब्धम्-प्राप्त सद्धर्मयानं-सजर्म एव यानपात्रमिति गाथार्थः।
गाथार्थः।
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संलेहणा
एअस्स पहावेगं पालिअंतस्य सह पवतेणं । जम्मंतरे व जीवा, पार्वति दुक्खदोगच्चं ।। १५६७॥
एतस्य प्रभावेण धर्मयानस्य पाल्यमानस्य सदा-सर्व्वकालं प्रयत्नेन विधिना जन्मान्तरेऽपि जीवाः प्राणिनः प्राप्नुपन्ति न किमित्याह-दुःखप्रधानं दीर्गवं दुर्गतिभावमिति गाथार्थः ।
(२२१) अभिधानराजेन्द्रः ।
चिंतामणी अवो, एयमपुच्चो व कप्परुक्खो ति । एवं परमो मंतो, एवं परमामयं एत्थ || १५६८ ।। चिन्तामणिरपूर्वोऽचिन्त्यमुक्तिसाधनादेतद्धर्मयानम्, अपूर्वकल्पवृक्ष इत्कल्पित फलदानात् एतत्परमो मोरागादिविषघातित्वात् एतत्परमामृतमत्रामरणाबन्ध्यहेतुत्वादिति गाथार्थः ।
"
"
इच्छेचडि गुरुमाईयं महानुभावासं । जेसि पहावे, पक्षं तह पालिश्रं चैव ॥ १५६६।।
इच्छामि वैषावृत्यं सम्यग् गुर्यादीनां महानुभावानाम थादिशब्दात्-सहायसाधुग्रहः, येषां प्रभावेणेदं धर्मयानं प्राप् मया, तथा पातितं चैवाविघ्नेनेति गाथार्थः ।
तेसि णमो तेसि णमो, भावेण पुणे पुणेो वि तेसि णमो । अणुवक पर हिअरया, जे एयं दिति जीवाणं ॥१६०० || तेभ्यो नमः, तेभ्यो नमः, भावेन अन्तःकरणेन पुनरपि तेभ्यो नम इति त्रियक्यम् अनुपहतपरहितरता गुरवो यत एतद्ददति जीवेभ्यो धर्म्मयानमिति गाथार्थः ।
नो इत्तो हिश्रम, विजइ वणे वि भव्वजीवाणं । जाइ अवि अजओ, उत्तरणं भवसमुद्दाओ ।। १६०१ ।। नातो धर्मयानाद्धितमन्यद्वस्तु विद्यते भुवनेऽपि त्रेलोक्ये. पि भव्य जीवानाम्, कुत इत्याह-जायते श्रत एव धर्मयानाद्यत उत्तरणं भवसमुद्रादिति गाथार्थः ।
एत्थ उ सव्वे ठाणा, तहतसंजोगदुक्खसयकलिया । रोदाबंधा अर्थात सव्वा पावा ।। १६०२ ।। अत्र तु भयसमुद्रे सर्वाधिखानानि देवलोकादीनि तथान्यसंयोगदुःखशत कलितानि योगावसाने विमानादीनि संयो. मदुत्वानीति प्रतीतम्, पानुबन्धयुक्तानि विपाकदारुणत्वादत्यन्तं सर्वथा पापान्यशोभनानीति गाथार्थः । किं एत्तो कट्टर, पत्ताणं कहिंचि मणु जम्मम्मि । जं इत्थवि होइ रई, अर्थतं दुक्खफलयमि ॥१६०३ ।।
किमतः कष्टतरमन्यत्प्राप्तानां कथंचित्कृच्छ्रेण मनुजजन्मन्यपि यदत्रापि भवति रतिः संसारसमुद्रे श्रत्यन्तं दुःखफलदे यथोभ्यायादिति गाधार्थः ।
भावनान्तरमाह
"
तह चे सुमभाचे भाव संवेगकारए सम्मं । पचपगन्मभूए, प्रकरण नियमासुफले ।। १६०४ ॥ ५६
संहा तचैव सूक्ष्मभावान निपुणपदार्थान् भावयति संवेगकारकान्प्रशस्त भाव जनकान् सम्यग् विधानेन प्रवचनगर्भभूतान् सारभूतानित्यर्थः, अकरण नियमादिशुद्धफलान्- आदिशब्दा दनुबन्धासपरिग्रह इति गाथार्थः ।
परसावजच्चावण - जोएणं तस्स जो सयं चाश्रो । संवेगसारगुरुमो, सो अकरण खियम रहेऊ ।। १६०५ ।। परसावद्यच्यावनयोगेन व्यापारेण तस्य यः स्वयं त्यागः सावद्यस्य किंभूत इत्याह- संवेगसारगुरुः- प्रशस्तभावप्रधानः सत्याग कर नियमबरहेतुः पापा करावय तुरिति गाथार्थः ।
परिमाणं पुण्दावरजोगसंग जं तं । हेमघडत्थाणी, सयाऽवि श्रिमेण इट्ठफलं ॥। १६०६ ॥ परिशुद्धमान समयशुद्धं पूर्वापरयोगसंपत् त्रिकोटी शुद्धं तत् हेमघट स्थानीयं वर्त्तते, सदाऽपि नियमेनेष्टफलमपवर्गसाधनानुबन्धीति गाथार्थः ।
जं पुरा अप्पडिस, मियमबघडतुन्नमोतयं येमं । फलमिचसाहगं चित्रण साणुबंधे सुहफलम्मि || १६०७॥ यत्पुनरपरि समयनीत्या गृन्मयघटतुल्यमसारं दि तत् शेयं फलमात्र साधकमेव, यथा कथंचिन्न सानुबन्धे शुभफले इतरवदिति गाथार्थः ।
धम्मम्मि अ अरे, सुमेगाभोगसंगए विति । आहेण च सव्वे, गरहापडिवक्खभावेण ॥। १६०८ ॥ धर्मे चातिचारानपवादान् सूक्ष्मान् स्वल्पान् अनाभोगसँगतानपि कथंचिदोघेन त्यजति सर्वान् सूत्रनीया प्रतिपद्यभावेन हेतुनेति गाथार्थः ।
सो चैव भावणाओ, कयाइदुल्ल सिविर परिणामो । पावर सेटिं केवल - मेव मश्र णो पुणो मरई || १६०६ ।। सचैव भावनाः सकाशात् कदाचितपरि णामः संप्राप्नोति श्रेणि तथा केवलम् । एवं मृतकेवलाया न पुनर्द्धियते कदाचिदपीति गाथार्थः । जर वि न पावद सेटि तदाऽपि संवेगभावखाजुतो ।
मेरा सुलदर, तहा य जियधम्मबोदि १६१० यद्यपि न प्राप्नोति श्रेणि कथमपि संवेगभावनायुक्तः, यन्नियमेन सुगतिं लभते अन्यजन्मनि, तथा जिनधर्म्मबोधि च लभत इति गाथार्थः ।
एतदेषाद
जमिह सुहभावणाए, अइसयभावेण भावियो जीयो । जम्मंतरेऽवि जायइ, एवंविभावजुत्तो ।। १६११ ।। यत् यस्मादिद शुभभावनया अतिशयभावेन भाषितो जीवा सुवासित इत्यर्थः, जन्मान्तरेऽप्यन्यत्र जायते एवंविधभावयुक्तश्च शुभभावयुक्त इति गाथार्थः ।
एसे बोहिलाभो, सुहभाववलेण जो उ जीवस्स ।
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संलेहाशा
संखेहषा
अभिधानराजेन्द्रः। पेचावि सुहो भावो,वासिमतिलतिल्लनाएणं ॥१६१२॥ सीहाइहि अभिभूभो, पायवगमणं करेइ थिरचित्तो । एष एव बोधिलाभो वर्तते । शुभभावयलेन वासनामाम
माउम्मि पहुप्पंते, विभाणिउं नवरं गीभत्थो॥१६२०॥ ाच एष जीवस्य प्रेत्यापि-जन्मान्तरेऽपि शुभो भावो भव- सिंहादिभिरभिभूतः सन् पादपगमनं करोति स्थिरति वासिततिलतैलज्ञानेन,तेषां हि तैलमपि सुगन्धि भवती- चित्तः कश्चिदायुषि प्रभवति सति विज्ञाय नवरं गीतार्थः ति गाथार्थः।
उपक्रममिति गाथार्थः। संलिहिऊणऽप्पाणं, एवं पञ्चप्पणिन्तु फलगाई। संघयणाभावाभो, इभ एवं काउँ जो उ असमत्थो । गुरुमाइए असम्म, खमाविऊ भावसुद्धीए ॥१६१३॥ सो पुण थेवयरागं, कालं संलेहणं काउं ।। १६२१ ॥ संलिख्यात्मानमेवं द्रव्यतो भावतश्च प्रत्ययं फलकादि
सहननाभावात् कारणादेवमेतत्कर्तुं योऽसमर्थः पादप्रातिहारिकं गुर्वादींश्च सम्यक समयित्वा यथाई भाव
पगमनं, स पुनः स्तोकतर कालं जीवितानुसारेण संलेखना शुद्धथा संवेगेनेति गाथार्थः ।
क्वत्वेति गाथार्थः। (पं०व०) (इकिनीमरणव्याख्यानम्
'इंगिणिमरण' शब्दे द्वितीयभागे ५३२ पृष्ठे गतम् ।) उबबूहिऊण सेसे, पडिबद्धं तम्मि तह विसेसेण ।
भत्तपरिमाए वि हु, आपब्वजं तु विअडणं देइ । धम्मे उज्जमिअव्वं, संजोगा इह वियोगंता ॥१६१४॥
पुब्धि सीअलगो विहु, पच्छा संजायसंवेगो ॥१६२६।। उपबृह्य ‘शेषान्' गुर्वादिभ्योऽन्यान् प्रतिबद्धान् , 'त
भक्तपरिक्षायामपि-तृतीयानशनरूपायाम् आप्रवज्यमेवस्मिन् स्वात्मनि तथा विशेषेणोपा, धमें 'उद्यमितव्यम् ।
प्रवज्याकालादेवारभ्य विकटनां ददाति, पूर्व शीतलोऽपि यत्नः कार्यः, संयोगा इह वियोगान्ताः, एवमुपबंधेति परलोकं प्रति पश्चात्तत्काले संजातसंधेगः-उत्पन्नसंवेग गाथार्थः।
इति गाथार्थः। अह वंदिऊण देवे, जहाविहिं सेसए अ गुरुमाई ।
वजह असंकिलिलु, विसेसो खवर भावणं एसो। पच्चक्खाइत्त तो, तयंतिगे सब्वमाहारं ॥१६१५॥ | उलसिअजीवविरियो. तो प्रभाग
उन्नसिअजीवविरियो, तमो अाराहणं लहइ।।१६२७॥ अथ वन्दित्वा देवान्-भगवतो यथाविधि-सम्यग् शेषां- | वर्जयति च 'संक्रिष्टाम्' अशुओं विशेषतो नवरं भावनामेषः श्व गुर्बादीन वन्दित्वा,प्रत्याख्याय ततः तदनन्तरं तदन्तिके | यथोक्तानशनी उजसितजीवधीर्यः सत्संवेगात् ततश्चागुरुसमीपे सर्वमाहारमिति गाथार्थः ।
राधनां लभते-प्रामोतीति गाथार्थः । समभावम्मि वि अप्पा,सम्म सिद्धंतभणिश्रमग्गेण । कंदप्पदेवकिब्बिस-अभिओगा आसुरा य संमोहा । गिरिकंदरं तु गंतुं, पायवगमणं अह करेइ ॥१६१६॥ एसा उ संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया।।१६२८।। समभावे स्थितात्मा स सम्यक् सिद्धान्तोक्लेन मार्गेण | कान्दर्पिकी, कैस्विषिकी, आभियोगिकी, आसुरी, संमोहनी निरीहः सन् गिरिकन्दरं तु गत्वा स्वयमेव पादपगमनमेव
च । कन्दर्यादीनामियमिति सर्वत्र भावनीयम् । एषा तु सक्ति करोति । पादपसमान उन्मेषाद्यभावादिति गाथार्थः।।
प्टा पश्चविधा भावना भणिता, तत्तत्स्वभावाभ्यासोभाषनेति
गाथार्थः। सव्वत्थापडिबद्धो,दण्डाययमाइठाणमिह ठाउं ।
जो संजो वि एआ-सु अप्पसत्थासु बट्टइ क्रईचि । जावजीवं चिट्ठइ, णिच्चिट्ठो पायव समाणो ॥१६१७॥ सर्वत्राप्रतिबद्धः समभावात् , दण्डायतादिस्थानमिह स्थि
सो तब्बिहेसु गच्छइ, सुरेसु भइभो चरणहीणो॥१६२६।। त्वा स्थण्डिले यावज्जीवं तिष्ठति महात्मा निश्चटः
यःसंयतोऽपि सन् व्यवहारत एताखप्रशस्तासु भावपादपसमान, उन्मेषाद्यभावादिति गाथार्थः ।
नासु वर्त्तते कथंचिद्भावप्राधान्यात्स तद्विधेषु गच्छति
सुरेषु-कन्दर्पादिप्रकारेषु भाज्यश्चरणहीनः सर्वथा तत्सपढभिल्लुगसंघयण, महाणुभावा करिति एवमिणं ।
ताविकलो द्रव्यचरणहीनश्चेति गाथार्थः । एमं सुहभावचित्र, णिच्चलपयकारणं परमं ॥१६१८॥ प्रथमसंहनेनेति योगतः महानुभावा-ऋषयः कुर्वन्त्ये- कंदप्पे कुकुइए, दवसीले आधि हासणपरे । वमेतदनशनं प्रायः शुभभाव एव, नान्ये, निश्चलपदकारणं विम्हावितो अ परं, कंदप्पं भावणं कुणई ॥ १६३० ।। परमं , निश्चलपदं, मोक्ष इति गाथार्थः।
कन्दर्पवान् कन्दर्पः एवं कौत्कुच्यः द्रुतदर्पशीलश्चापि णिव्याघाइयमेश्र, भणियं इह पक्कमाणुसारेणं । हासकरश्च, तथा विस्मापयंश्च परान् कान्दप्पी भावना संभवइ अइअरं पिहु,भणियमिणं वीरागेहिं।।१६१६।। करोतीति गाथार्थः। नियाघातवदेतत्पादपगमनं भणितम् । इह प्रक्रमानुसारेण
कन्दर्पवान् कान्दी भावनां करोतीत्युक्तं स च यथा हेतुना संभवति चतरदपि-सव्याघातवदेतत्, भरिगतमिदं
करोति तथाहवीतरागैस्तीर्थकररिति गाथार्थः।
कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अणिहमा य संलावा।
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संलेहणा
संलेहा
भभिवानराजेन्द्रः। कंदप्पकहाकहणं, कंदप्पुवएससंसा य ॥ १६३१॥ | धार्याणां ' गुरूणां सर्वसाधून सामान्येस, भाषमाणोऽवर्णम
लाघारूपं तथा मायी सामान्येन यः स कैरिधिकी भावना 'काकहकहस्से' ति“अन्यत्रापि सुपो भवन्ति" इति
तद्भावाभ्यासरूपां करोतीति गाथार्थ।। वतीयार्थे षष्ठी, कहकहकहेन हसन्त महासस्यर्थः । तथा कन्दर्पः-परिहासः स्वानुरूपेण अनिभूताच संलापाः,
बानाऽवर्णमाहगुर्जादिनाऽपि निष्ठुरखकोक्त्यादयः, तथा कन्दर्पकथाकथ- काया वया य ने चिम, चेव पमायअप्पमाया य । नं-कामकथाग्रहः, तथा कन्दप्पोपदेशो विधानद्वारेणेष कुर्षि- मोस्खाहियारिमाणं, जोइसजोणीहि किं फ१६३७। ति शंसा च प्रशंसा च कन्दर्पविषया यस्य स कम्पवान्
कायाः-पृथिव्यादयः, व्रतानि-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि , क्षेय इति गाथार्थः।
तान्येव भूयो भूयः, तथा त एव प्रमादाः-मद्यादयः, अप्रकौत्कुच्यवन्तमाह
मादाश्च तद्विपक्षभूताः तत्र तत्र कथ्यन्त इति पुनरुक्तदोषः, भूमुहणयणाइएहि, वयणेहि अ तेहि तेहि तहचिट्ठ। तथा मोक्षाधिकारिणां-साधूनां ज्योतिषयोनिभ्यां-ज्योति
षयोनिप्रवृत्तिभ्यां किं कृत्यं, न किञ्चिद्भवहेतुत्वादितिशाकुणइस जह कुकुभं चिन,हसइ परो अप्पणा अहसं१६३२
नावर्णवावा, इह कायादय पब यत्नेन परिपालनीया इति । भ्रमुखनयनादिभिर्देहावयवैर्वचनैश्च तैस्तैहासकारकैः तथा
तथा तदुपदेशः उपाधिभेदे तन्मा भूद्वि राधनेति ज्योतिःशाचेष्टां करोति कचित् तथाविधमोहदोषाद् यथा कुकु- खादि च शिष्यग्रहणपालनफलमित्यदुष्टफलमेव सूक्ष्मधिया चमेष-गात्रपरिस्पन्दवत् हसति परः-तद्दष्टा, आत्मना - भावनीयमिति गाथार्थः ।। हसन् , अभिभिन्नमुखराग इव य एवंविधः स कौत्कुच्यवा
कैवल्यवर्णमाह दारंनिति गाथार्थः
सव्वे विण पडिवोहे इ, णयाऽविसेसेस देइ उवएस । द्रुतदर्पशीलमाह
पडितप्पइण गुरूण वि,आयो इह णिटिअट्ठो उ।१६३०॥ भासह दुअं दुअंग-च्छई अदप्पिस व्व गोविसो सरए।
सर्वानपि प्राणिनो न प्रतिबोधयतीति न समवृत्तिनव वा सब्बडुअदुअकारी,फुट्ट व ठिो वि दप्पेणं ।।१६३३॥ विशेषेण ददात्युपदेशमपि तु गम्मीरगम्भीरतरदेशना
भेदन, तथा परितप्यते न गुरुभ्योऽपि दानादिना भास्तामभाषते द्रुतं द्रुतमसमीक्ष्य संभ्रमाद् वेगाद् गच्छति च द्रुतं
भ्यस्य शातः सन्नवमिति निष्ठितार्थ एवालौकिको गर्दा शद्रुतमेव, 'दर्पित इब' वर्णोद्धर इव 'गोवृषभो' बलीबर्दविशेषः |
ब्द एष इति कैवल्यवर्मवादः । नाभव्याः, काकटुकप्रायाश्च शरदि काल तथा सर्वद्रुततकारी असमीच्यकारीति यावत् भव्याः केनचित्प्रतिबोध्यन्ते उपायाभावादिति सर्वानपि न तथा स्फुटतीव तीवोद्रेकविशेषात् स्थितोऽपि 'वण' कुत्सि- प्रतिबोधयति, अत एवाविशेषेण न ददात्युपदेशं गुणगुरुत्यातबलरूंपण य इत्थंभूतः स द्रुतदर्पशील इति गाथार्थः । व गुरुभ्यो न परितप्यते साधुनिष्ठितार्थ इति गाथार्थः । हासकरद्वारमाह
धर्माचार्यावर्णमाहवेसवयणेहि हासं, जणयंतो अप्पणो परेसिं च । जचाइहिं अवमं, विहॉसइ वट्टइ णयावि भोवाए । अह हासणे त्ति भमइ,घयणोव्व छले णिअच्छंतो।१६३४। अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाई अणणुलोमो॥१६३६।। बेषवचनैस्तथा चित्ररूपैहासं जनयनात्मनः परेषां च द्रा- जात्यादिभिः सद्भिरसद्भिर्वा अवर्णमश्लाघारूपं विभाषणामथ हासन इति भएयते, हासकर इत्यर्थः ।' घतने इव' ते अनेकधा ब्रवीति , वर्तते नवाप्यवपाते-गुरुसेवावृत्ती भाण्ड इव 'छलानि' छिद्राणि 'नियच्छन्निति' गाथार्थः। तथा अहितः छिद्रप्रेक्षी गुरोरेव प्रकाशवादी-सर्वसमक्षं तविस्मापकद्वारमाह
घोषवादी अननुलोमः-प्रतिकूल इति धर्माचार्यावर्णवादः । सुरजालमाइएहि, तु विम्हयं कुणइ तन्विहजणस्स ।।
जात्यादयो धकारणमत्र गुणाः कल्याणकारणं, गुरु परिभवा
भिनिवेशादयस्त्वतिरौद्रा इति गाथार्थः । तेसु ण विम्हियइ सयं, आहट्टकुहेडएसुं च ।। १६३५ ॥
साध्ववर्णमाह दारं'सुरजालादिभिस्तु'इन्द्रजालिको विस्मयं करोति चित्तवि
अविसहणाऽतुरियगई,अखाणुवित्ती अवि गुरूण पि । भ्रमलक्षण तद्विधजनस्य-बालिशप्रायस्य, तेष्विन्द्रजालादिषु न विस्मयते विस्मयं स्वयं न करोत्यात्मना श्रा
खणमित्तपीइरोसा, गिहिवच्छलगा य संचइया।।१६४०॥ इत्तकुहटकेषु च पुनस्तथाविधग्राम्यलोकप्रतिबद्धेषु यः स
अविषहणा न सहन्ते कस्यचिदपि तु देशान्तरं यान्ति । विस्मापक इति गाथार्थः । उक्का कन्र्दपा भावना। .
अन्वरितगतयो मन्दगामिन इत्यर्थः । अननुवर्तिनः स्वप्रकृतिकैल्विपिकीमाह
निष्ठुराः अपि तु गुरुमपि प्रत्यास्तामन्यो जनः, तथा क्षणमा
त्रप्रीतिरोषाः तदेव रुपास्तदेव तुष्टा गृहिवत्सलाश्च स्वभावेन नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहणं ।।
संचयिनः सर्वसंग्रह परा इति साध्ववर्मवादः। इहाविषहणाः हासं अवठमाई, किबिसियं भावणं कुणइ ॥१६३६॥ परोपतापन, अत्वरितगतय ईयादिरक्षार्थमननुवर्तिनः अशानस्य-श्रुतरूपस्य 'केवलितां' वीतरागाणां 'धर्मा- संयमापेक्षया, क्षणमात्रमीतिरांपाः अल्पकषायतया, गृहिव
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(२२४) संलेहणा अभिधानराजेन्द्रः।
संलेहणा सला धर्मप्रतिपत्तये संचयवन्त उपकरणाभावे परलो
निमित्तमाहकाभावादिति गाथार्थः।
तिविहं होइ णिमित्तं, तीए पच्चुप्पण्यागयं चेव । मायिखरूपमाह दारं
एत्थ सुभासुभमेश्र, अहिगरणेतरविभासाए ॥१६४७।। गृहइ आयसहावं, छायइ अगुणे परस्स संते वि।
त्रिविधं भवति निमितं कालभेदेनेत्याह-अतीतं प्रत्युत्पन्नचोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो हवह मायी ॥ १६४१॥ मनागतं चैव,अतीतादिविषयत्वात्तस्य, अत्र शुभाशुभभेदमेगृहति-प्रच्छादयत्यात्मनः खभावं गुणाभावरूपमशोभनं
तल्लोके, कथमित्याह-अधिकरणेतरविभाषा यत्साधिकरणं छादयति गुणान्परस्यान्यस्य सतोऽपि विद्यमानानपि माया- तदशुभमिति गाथार्थः। दोषेण तथा चौर इव सर्वशङ्की खचित्तदोषेण गूढाचारः सर्वत्र एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आभिोगिरं बंधे । वस्तुनि भवति मायी जीव इति गाथार्थः । उक्ता कैस्विषिकी
बीअंगारवरहिओ, कुव्वइ पाराह उच्चं च॥१६४८॥ भावना।
एतानि भूतिकर्मादीनि गौरवार्थ-गौरवनिमित्तं कुर्वन् ऋ. माभियोगिकीमाह दारं- .
पिः भाभियोगिकम् अभियोगनिमित्तं बध्नाति कर्म देवताकोउन भूईकम्मे, पसिणा इअरे णिमित्तमाजीवी ।
धभियोगादि कृत्यमेतत् । द्वितीयमपवादपदनिमित्तम् , अत्र इटिरससायगुरुओ, अभिओगं भावणं कुणइ ॥१६४२॥ गौरवरहितः सनिस्पृह एव करोत्यतिशयशाने सत्येतत्स चैवं कौतुकं वक्ष्यमाणम् एवं भूतिकर्म एवं प्रश्नः, एवमितरः कुर्वन्नाराधको न विराधकः, उचंच गोत्रं बध्नातीति शेषः । प्रश्नाप्रश्न एव निमित्तम् आजीवति कौतुकाचाजीवकः
तीर्थोन्नतिकरणादिति गाथार्थः । उक्ता आभियोगिकी ऋतिरससातगुरुः सन्माभियोगां भावनां करोति, तथाविधा- भाना। भ्यासादिति गाथार्थः । पं० ब०४ द्वार । ( कौतुकस्व
साम्प्रतमासुरीमाहरूपनिरूपण 'कोउय' शब्दे तृतीयभागे ६६६ पृष्ठे गतम् ।) अणुबद्धविग्गहे वि अ, संसत्ततवो णिमित्तमाएसी।। भूतिकर्माण्याह
णिकिवणिराणुकंपो,आसुरिअंभावणं कुणई ॥१६४६।। भूइए अमट्टिाए, सुत्तण व होइ भूइकम्मं तु ।। अनुबद्धविग्रहः-सदा कलहशीलः , अपि च-संसक्ततपा वसहीसरीरभंडग-रक्खा अभियोगमाईआ ॥१६४४॥ आहारादिनिमित्तं तपःकारी , तथा निमित्तम्-अतीतादिभूत्या भस्मरूपया मृदा वाऽऽपांसुलक्षणया सूत्रेण वा प्र
भेदमाविशति । तथा निष्कृपा-कृपारहितः,तथा निरनुकम्पो
ऽनुकम्पारहितः अभ्यस्मिन् कम्पमानेऽपि । इत्यासुरीभावसिद्धेन भवति भूतिकर्म परिरयवेष्टनरूपम् । किमर्थमित्याह
नोपेतो भवतीति गाथार्थः । वसतिशरीरभण्डकरक्षेत्येतद्रक्षार्थमभियोगादय इति कृत्वा तेन कृतेन तद्रक्षा कर्तुमिति गाथार्थः ।
. व्यासार्थमाहप्रश्नस्वरूपमाह दारं
णिचं, बुग्गहसीलो, काऊण य णाणुतप्पई पच्छा। पणहाउ होइ पसिणं, जंपासइ वा सयं तु तं पसिणं । णय खामियो पसीअइ,अवराहीणं दुविएहं पि।१६५० अंगुट्ठोच्छिद्रुपए, दप्पणअसितोयकुडाई । १६४५॥ नित्यं व्युग्रहशीलः ?-सततं कलहस्वभावः, कृत्वा च प्रश्नस्तु भवति पाठादिरूपः प्रश्न इति यत्पश्यति कलह नानुतप्यते पश्चादिति न च क्षान्तः सन्नपराधिना स्वयमात्मना तुशब्दादन्ये च अत्रस्थाः प्रस्तुतं च स्तुते
प्रसीदति-प्रसादं गच्छति । अपराधिनोईयोः-स्वपक्षपस प्रश्न इति । क तदित्याह-अङ्गुष्ठोच्छिष्टपदे इत्यङ्गुष्ठपदे तु
रपक्षगतयोः कषायोदयादेवेत्येषोऽनुबद्धविग्रह इति शिष्टः कासारादिभक्षणेन एवं दर्पणे-नादर्श असो च-खड़े
गाथार्थः। तोये-उदके कुडे-भित्तौ प्रादिशब्दान्मदनफलादिपरिग्रहः,
संसक्कतपसमाह(पाठान्तरे-) क्रुद्धादिः क्रुद्धः प्रशान्तो वा पश्यति-कल्प- आहारउवहिसिजा-सु जस्स भावो उ निश्चसंसत्तो। विशेषादिति गाथार्थः।
भावोवहओ कुणइ अ, तवोवहाणं तयट्ठाए ॥१६५१॥ प्रश्नाप्रश्नमाह
आहारोपधिशय्यास्वोदनादिरूपासु यस्य भावस्तु-प्राशयः पसिणापसिणं सुमिणे, विआसिटुं कहेइ अमस्स। | 'नित्य संसक्तः'-सदा प्रतिबद्धः, भावोपहतः स एवंभूतः करोअहवा आईखणिए,घंटिअसिद्धिं परिकहेइ ।।१६४६ ॥ ति च तप उपधानम्-अनशनादि, तदर्थम्-आहाराद्यर्थे या प्रश्नाप्रश्नोऽयमेवंविधो भवति ; यः स्वप्ने विद्याशिष्ट-'वि- स संसक्तपा यतिरिति गाथार्थः । याकथितं सत्कथयत्यन्यस्मै शुभजीवितादि, अथवा-'श्राईख
निमित्तादेशनमाह दारंणि ए'त्ति । ईक्षणिका देवशा आख्यात्री लोकसिद्धा डोम्बी, तिविहँ निमित्तं एकि-क छव्विहं तं तु होइ विमेअं।' साऽपि घण्टिकाशिष्टं घण्टिकायां स्थित्वा घण्टिकयक्षेण क- अभिमाणाभिनिवेसा,वागरि आसुरं कुणई।१६५२॥ थितं परिकथयत्यष या प्रश्नाप्रश्नति गाथार्थः ।
त्रिविधं भवति निमित्तम्-कालभेदेन, पकै पड्डिधं लाभा१-तालव्या अपि दयाश्च शम्बशूकर पाशवः । अमरटीका ।
लाभसुखदुःखजीवितमरणविषयभेदेन तत्तु भयति विशेय
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(२३५) अभिधानराजेन्द्रः ।
म् । एतचाभिमानाभिनिवेशादित्यभिमानतीयतया व्याकृतं सदा सुरीं भावनां करोति तद्भावाभ्यासरूपत्वादिति गाथार्थः ।
निष्कृपमाह दारं
कमाईसतो, सुखिकिवो थावराइसत्तेसु ।
काउं च तप्पर, एरिसमो सिकियो हो । १६५३।। चङ्क्रमणादि - गमनासनादि तत्र सक्तः सन् कचित्सुनिष्कृपः सुष्ठु गतघृणः स्थावरादिसत्वेषु करोत्यजीवप्रतिपया कृत्या या धमणादिनानुतप्यते केनचिनोदितः सनेतारो निष्कृपो भवति, लिङ्गमेतदस्येति गाथार्थः । निरनुकम्पमाह दारं
जो उ परं कंपतं दण न कंपए करिणभावो । एसो रिपो पातो बीम रामेहिं ।। १६५४ ।। यस्तु परं कम्पमानं दृष्ट्रा कुतधिवेतुतः न कम्पते कठि नभावः सन् क्रूरतया एष पुनः निरनुकम्पो जीवः प्रज्ञप्तो वीतरागैरा तैरिति गाथार्थः । उक्ता आसुरी भावना ।
सांप्रतं संमोहनीमाइ दारंउम्मग्गदेसम-ग्गदूसओ मग्गविप्पडीवत्ती ।
मोहेण य मोहिता, संमोहणि भावणं कुणई ।। १६५५ ॥ उन्मार्गदेशकः वक्ष्यमाणः, एवं मार्गदूषकः एवं मार्गविप्रतिपत्तिः तथा मोहेन स्वगतेन तथा मोहयित्वा परं संमोहिनी भावनां करोति सद्भावाभ्यासरूपत्वादिति गाथार्थः ।
उम्मार्गदेशकमाद
नागा दुसतो, तब्बिवरी तु उद्दिसह मम्गं । उम्मग्गदेओ एस होइ अहिओ अ सपरेसिं ॥। १६५६ ॥ ज्ञानादीनि पयन्पारमार्थिकानि तद्विपरीतं तु पारमार्थि कचानविपरीतमवोद्दिशति मार्ग धम्मंसंबन्धिनमुन्मादेशक एष एवंभूतः भवत्यहितः, एवं परमार्थेन स्वपरयोईयोरपीति गायार्थः पं० ० ४ द्वार ( मार्गदूषकन्याख्या ' मग्गदूसग ' शब्दे षष्ठभागे ५८ पृष्ठे गता । )
●
मार्गविप्रतिपत्तिमाद
जो पुखतमेव सगं दूसिताऽपंडियो सतकाए । उम्मग्गं पडिवजह, विप्पडिवत्तेस मग्गस्स ।। १६५८ ।।
यः पुनस्तमेव मार्ग -- ज्ञानादि दूषयित्वा अपण्डितः सन् स्वतर्कया जातिरूपया देशे उन्मार्ग प्रतिपद्यते एष एव मार्गविप्रतिपत्तिरिति गाथार्थः ।
मोहमाह
तह तह उपहपमओ, मुज्झर गाणचरणंतरालेसु ।
हड्डी बहुविहा, दई जत्तो उ मोहो य ।। १६५६ ॥ तथा तथा चित्ररूपतया उपहतमतिः सन् मुह्यति ज्ञानचर. शान्तरालेषु मद्दनेषु ऋद्धीश्च बहुविधा दृष्ट्रा परतीर्थिकानां यतो मुह्यत्यासी मोद इति गाथार्थः ।
५७
मोहयत्वेति व्याचिख्यासुराद्द
जो पुण मोहेइ परं, सम्भावेणं च करभवेणं वा । समयंतरम्मि सो पुरा, मोहिला पेप्पर अयेणं ।। १६६० ।। यः पुनमति परमस्यं प्राणिने सद्भावेन वा ध्येय कैतवेन वा परिकल्पितेन समयान्तरे-परसमये मोहयतिख पुनरेवंभूतः प्राणी अनेन द्वाराथावयवेनेति गाथार्थः ।
6
आसां भावनानां फलमाह
हा
,
श्याम भारणाओ, भाविता देवदुगई जंति । तत्तो वि चुत्र संता, पडिति भवसागर मयंतं ॥ १६६१ ।। एता भावना भावयित्वा श्रवश्यं देवदुर्गतिं यान्ति प्राणिनः, ततस्तस्या अपि च्युताः सन्तः देवदुर्गतेः पर्यटन्ति भवसागरं - संसारसमुद्रमनन्तमिति गाथार्थः ।
प्रकृतोपयोगमाह-
एयाओं विसेसेणं, परिहरई चरणविग्घभूआओ | एभिरोह चिअ सम्मं चरणं पि पावे ।। १६६२॥ एता भावना विशेषेण परिहरति चरणविघ्नभूताः । एता इति एतनिरोधादेव कारणात्सम्यक्करणमपि प्राप्नोति प्रस्तुतानशनीति गाथार्थः ।
ह य चरणविरुद्धा, एचओ एत्थ चैव जं भणिश्रो । जो संजो वि भो, चरण विहणो अ इच्चाई | १६६३ । आह न चरणविरुद्धाः पता भावनाः, अषैष यद् भणितं अन्धे यः संयतेऽप्येतास्थित्यादि तथा मान्यश्चरपदीनश्वेत्यादि प्राणिति गाथार्थः ।
अत्रोत्तरम् -
वारणा चरणं एषासुं जं अकिलिट्टो वि । कोई कंदप्पाई, सेवइ उ खिच्छऍग एसुं || १६६४॥ व्यवहारनयाच्चरणम् एतासु भावनासु यदसंक्लिष्टोऽपि प्राणी कश्चित्कन्दर्पादीन् सेवते न तु निश्चयेन तेन वरणमेतास्थिति गाथार्थः ।
5
एतदेवाह - अखंड गुणट्ठाणं, इटुं एअस्स गियमंत्री चैव । सह उचिपचिनीए सुने जिओ इमं भणियं ।। १६६५ ।। अखण्डं गुणस्थानं निरतिचारमिष्टमेतस्यां नियमत एव निश्चययन यस्य सीचित्यप्रवृत्त्या हेतुभूतया सूत्रेऽपि यत इदं भणितं वज्रयमाणमिति गाथार्थः ।
"
किं तदित्याहजो जहवार्य न कुवर, मिच्छादिट्ठी तथ्यो को छो इ वट्टे अ मिच्छनं, परस्स संकं जमायो ।। १६६६ ।। यो यथावादं यथाऽऽगमं न करोति विद्दितं मिध्यादृष्टिस्तत एवंभूतोऽन्यः स श्वाशाविराधनादि विवर्जयति ब मिथ्यात्ववशादात्मनः परस्य शङ्कां जनयन्सदनुष्ठानविषयामिति गाथार्थः ।
"
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संलेहणा . अभिधानराजेन्द्रः।
संलेहणास्याद् यथावादमेव कन्दर्यादिकरणमित्याशङ्कयाह- ता धम्माऽपीडाए, देहसमाहिम्मि जमव्वं ॥१६७४॥ कंदप्पाई वाओ, न चेह चरणम्मि सुइ कहं चि । शुभध्यानाद्धर्मादेः धर्मों भवति तच्छुमध्यान देहसमाताए अ सेवणं पि हु, तह वायविराहगं चेव ॥१६६७।। धिसंभवं प्रायो वाहुल्येनास्मद्विधानाम् । यत पर्व तत्तस्माचकन्दविवादो नचहागमे चरणे चारित्रविषयः श्रूयते
उपीडया हेतुभूतया देहसमाधौ-शरीरसमाधाने यतितकचित्कस्मिंश्चित्सूत्रस्थाने, तत्तस्मादेतत्सेवनं कन्दर्पसेव
व्य-प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः। नमपि तद्वादविराधकं चारित्रवादविराधकमेवेति गाथार्थः । इहरहछे यवट्टम्मि य, संघयणे थिरधिईए रहिमस्स । एवं निश्चयनयेनैतदुक्तम्
देहस्स समाहीए, कत्तो सुहमाणभावो त्ति ॥१६७५॥ किंतु असंखिजआई, संजमठाणा जेण चरणे वि। इतरथा छेववर्तिनि संहनने सर्वजघन्य इत्यर्थः । स्थिरभणिया: जाइँ भेया, तेण न दोसो इहं कोइ ॥१६६८॥
धृत्या रहितस्य दुर्बलमनसः देहस्याऽसमाधौ संजाते सति किं त्वसंख्येयानि संयमस्थानानि तारतम्यभेदेन येन च
कुतः शुभध्यानभावो नैवेति गाथार्थः। रणेऽपि-चारित्रेऽपि भणितान्यागमे जातिभेदात्तज्जातिभेदेन
तयभावम्मि असुहा,जायइ लेसा वि तस्स णियमेणं । तेन कारणेन दोषा इह कश्चित्कन्ददौ तथाविधसंयम- तत्तो प परभवम्मि अ,तल्लेसेसुं तु उववाभो ॥१६७६॥ स्थानभावादिति गाथार्थः। ...
तदभावे च-शुभध्यानाभावे च अशुभा जायते लेश्याऽपि - प्रकृतयोजनामाह
तथाविधात्मपरिणामरूपा तस्य नियमेन देहासमाधिमतः एमाण विसेसेणं, तच्चाओ तेण होइ काययो ।
ततश्चाशुभलेश्यातः परभवे-जन्मान्तरेऽपि तल्लेश्यास्वेपुचि तु भाविप्राण वि, पच्छातावाइजोगेणं ॥१६६६॥
वोपपातो महाननर्थ इति गाथार्थः । एतासां भावनानां विशेषेण तत्त्यागो भवति तेन कर्त
तम्हा उ सुहं झाणं, पच्चक्खाणिस्स सव्वजत्तेयं ।। व्यो विवक्षिताऽनशनिना, पूर्वभावितानामपि सतीनां प
संपाडेअव्वं खलु, गीअत्थेणं सुप्राणाए ॥१६७७॥ श्चात्तापादियोगेन भवसारेणेति गाथार्थः।
यस्मादेवं तस्मात् शुभमेव ध्यानं प्रत्याख्यानिनः सर्वयत्ने कयमित्थ पसंगणं, पगयं वोच्च्छामि सव्वणयसुद्धं ।
न कवचज्ञातासंपादयितव्यं खलु नियोगतः गीतार्थेन श्रुतभत्तपरिमाए खलु, विहाणसेसं समासणं ॥१६७०॥
क्षेन-साधुनेति गाथार्थः। कृतमत्र प्रसकेन, प्रकृतं वक्ष्यामि । किंभूतं सर्वनय
सो वि अ अप्पडिबद्धो, दुल्लहलाभस्स विरइभावस्स । विशुद्धम्, किमित्याह-भक्तपरिक्षायाः खलु विधानशेषं यत्रोक्तं अप्पडिपडणत्थं वि अ,तं तं चिट्ठे करावेद ॥ १६७८ ।। तं समासेन-संक्षेपेणेति गाथार्थः। ..
सोऽपि च प्रत्याख्यानी अप्रतिबद्धः सर्वत्र दुर्लभलाभस्य वियडणअब्भुट्ठाणं, उचिअं संलेहणं च काऊण ।
दुर्लभप्राप्तेः विरतिभावस्य-चारित्रस्य अप्रतिपतनार्थमेव
चाशापरतन्त्रः सन् तां तां चेष्टां कारयति कवचादिरूपामिति पच्चक्खाइ ऑहारं, तिविहं चउव्यिहं वाऽवि ॥१६७१।।
गाथार्थः। विकटनां दत्त्वा तदन्वभ्युत्थानं संयमे उचितां संलेखना तह वि तया अद्दीणो,जिणवरवयणम्मि जायबहुमायो । च संहननादः कृत्वा प्रत्याख्यात्याहारं गुरुसमीप त्रिविधं
संसाराउ विरत्तो,जिणेहि पाराहओ भणिो ॥१६७६।। चतुर्विधं चापि यथासमाधाचमिति गाथार्थः। ।
तथापि तदा अदीनः सन् भावेन जिनवरवचने जातउव्वत्तइ परिअत्तह, सयममणावि कारवइ किंचि।
बहुमानः वचनैकनिष्ठः सन् संसाराद्विरक्तः संविग्नो जिजत्थऽसमत्थो नवरं, समाहिजणगं अपडिबद्धो ।१६७२। नैराराधको भणितः परमार्थत इति गाथार्थः। उद्वर्तते परावर्तते स्वयमात्मनैव अन्येनापि कारयति, किं
अत्रोपपत्तिमाहचित् वैयावृत्त्य करणे यत्रासमर्थो नवरं तत्कारयति , स
जंसो सया वि पायं,मणेण संविग्गपक्खिो चेव । माधिजनकं दयात्मनः अप्रतिबद्धः सन् सर्वत्रेति गाथार्थः।
इअरोउ विरइयणं,न लहइ चरमे वि कालम्मि॥१६८०॥ मेत्तादी सत्ताइसु, जिणिंदवयणेण तह य अच्चत्थं ।
यदसावेवंविधः सदापि प्रायः मनसा भावेन संविग्नाभावेइ तिव्वभावो, परमं संवेगमावतो ।। १६७३ ।। ।। क्षिक एवम् इतरस्त्वसंविग्नपाक्षिकः विरतिरत्नं-चारित्रं न मैत्र्यादीनि मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वादिषु स लभते न प्राप्नोति चरमकालेऽपीति गाथार्थः । त्वगुणाधिकस्य मानाविनेयेषु जिनेन्द्रवचनेन हेतुभूतेन तथा संविग्गपक्खिो पुण, अमत्थ पयट्टओ वि कारणं । चात्यर्थ नितरां भावयति तीवभावः सन् परमं संवेगमा
धम्मे चित्र तल्लिच्छो,ददरति स्थिव्य पुरिसम्मिा१६८१॥ पन्नः अतिशयेनान्तःकरण- इति गाथार्थः।
संविग्नपाक्षिकः पुनः शीतलविहारी अन्यत्र प्रवृत्तोऽपि . . देहसमाधौ यतितव्यमित्याह
कायादिभोगे कायेन प्रमादात् धर्म एव तल्लिप्सः तद्गसुहझाणाओ धम्मो, तं देहसमाहिसंभवं पायं ।
तचित्तः दृढरक्तस्त्रीवत् पुरुष । सा यथा कुलजा प्रापितभर्तृ
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( २२७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
हा
का कचिजातरागा कादाचित्कस्वल्पकालतत्प्राप्त्या दानादिक्रियाप्रवृत्ताऽपि तद्वतचिता पायेन युज्यते स्वपंच दा मादिक्रियाफलमाप्नोतीत्येवं संविग्नपाक्षिकोऽपि कायमात्रेणासमज प्रवृत्तो भावेन धर्म्मरको धार्मिक एव मन्तव्य इति गाथार्थः ।
,
ततो चित्र मायाओ, विमिचभूमम्मि चरमकालम्मि । उरिसर्विसेसे कोई विरई पि पावे ।। १६८२ ।। तत एव भाषात् धर्मविषयात् निमितभूते चरमकाले सति उत्कर्षविशेषेण शुभभाषस्य कश्चिद्विरतिमपि प्राप्नोति धन्य इति गाथार्थः ।
युक्तियुक्रमेतत्
जो पु किलिट्ठचित्तो, गिरवेक्खोऽयत्थदंडपडिबद्धो । लिंगोवघायकारी, ण लहइ सो चरमकाले वि ।। १६८३ ॥ यः पुनः क्लिष्टचित्तः सत्वनिरपेक्षः सर्वत्रानर्थदण्डप्रतिबद्धः तथा लिङ्गोपघातकारी तेन तेन प्रकारेण न लभते स षिरतिरत्नं चरमकालेऽपीति गाथार्थः ।
चोइ कहं समणो, किलिङ्कचित्ताइदोसवं होइ । गुरुकम्मपरिणईओ, पायं तह दव्वसमणो || १६८४ ॥ चोदयति चोदकः, कथं भ्रमणः संक्लिष्टचित्तादिदोषवान् भवतीति, उत्तरमत्र - गुरुकर्म्मपरिणतेर्भवति प्रायस्तथा बाहुल्येन द्रव्यश्रमणश्वेति गाथार्थः ।
तदेव समर्थयते—
गुरुकम्म पाओ, सो खलु पावो जो तनोऽयेगे । चोदसम्बधरा वि, असंतकार परिवर्तति ।। १६८५॥ गुरुकर्म्मणः सकाशात्प्रमादो भवति, स खलु पापोऽतिरौइः पततः प्रमादादने के चतुर्दशधरा अपि तिष्ठन्त्वन्ये अनन्तकाये परिवसन्ति वनस्पताविति गाथार्थः ।
किच
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दुक्खं लम्भर नागं नाणं लय भावणा दुक्खं । भाविमईवि जीवो, विसएस विरजई दुक्खं ।। १६८६ ॥ दुः लभ्यते ब्रा प्राप्यते यथास्थितपदार्था वसायि, तथा ज्ञानं लब्ध्वा प्राप्य भावना एवमेवैतदित्येवंरूपा दुःखं भवति । भाषितमतिरपि जीवः कथंचित् कर्मपरिणतिवशात् विषयेभ्यः शब्दादिभ्यो विश्यते अप रिवृत्तिरूपेण दुःखं तत्प्रवृत्तेः सात्मीभूतत्वादिति गाथार्थः । एवं गुरुकर्म्मपरिणतेः क्लिष्टचित्तादिभावो विरुद्धः, द्रव्य
भ्रमणमाह
अ उ पढमगं चित्र, चरित्तमोहक्खश्रवसमहीणा । पव्वा ण लहंती, पच्छा वि चरित परिणामं ॥ १६८७॥ अन्येतु प्रथममेव श्रादित आरभ्य चारित्रमोहक्षयोपशमहीनाश्चारित्रमन्तरेय प्रवजिताः द्रव्यत एवंभूताः इयत एवंभूताः सन्तो न लभते पश्चादपि तत्रैव विद्युतश्वारिचपरिणाम प्रव्रज्या स्तित्वरूपमिति गाथार्थः ।
संलेहणा
एतदेवाहमिच्छादिडीओ वि हु, केई इह होंति दव्वलिंगधरा । ता सिंह हुंती, किलिचिलाओ दोसा।। १६८८ || मिथ्यादृष्टयोsपि श्रपिशब्दादभव्या अपि केचनेह लोके शासने वा भवन्ति द्रव्यलिङ्गधारिणो विडम्बकप्रायाः, तत्तस्मासेषामेवंभूतानां कथं न भवन्ति ? भवन्त्येव लिष्टचिसादयो दोषाः प्रागुपन्यस्ता इति गाथार्थः । तत्रैव प्रक्रमे विधिशेषमाह -
एत्थ य आहारो खलु उपलक्खयमेव होह खायो । वोसिरह तच सव्वं, उवउत्तो भावसल्लं पि ।। १६८६ ॥ अत्र वानरानाधिकारे प्राहारः सतु परित्यागमधिकृत्योपलक्षणमेव भवति ज्ञातव्यः शेषस्यापि वस्तुनः । तथा चाहब्युजति परित्यजत्वसाधनशनी सर्व्वम् उपयुक्त सन् भावशल्पमपि सूक्ष्ममिध्यात्वादीनीति गाधार्थः । किंबहुना -
पिव अप्पा, संबेगाइस्याउ चरमकाले । मम विसुद्धभावो, जो सो आराहओ भणिओ ।। १६६० ।। अन्यमिवात्मानं प्राक्तनादात्मनः संवेगातिशयात् संवेगातिशयेन चरमकाले प्राणप्रयागकाले मन्यते शुद्धभावः सन् सर्वाऽसदभिनिवेशत्यागेन यः स श्राराधको भणितस्तीर्थकरगसुधरैरिति माचार्थः ।
अयमेव विशिष्यते-सव्वत्थापडिबद्धो, मज्झत्थो जीविए अ मरणे अ । चरणपरिणाम जुत्तो, जो सो आराहओ भगिओ ॥। १६६१ ॥ सर्वत्राप्रतिबद्धः इहलोके परलोके च, तथा मध्यस्थो जीविते मरणे च न मरणमभिपतिनाथ जीवितमित्यर्थः, वरणपरिणाम न तद्विकलः य एवंभूतः स धाराधको दि तस्तीर्थकर गणधरैरिति गाथार्थः ।
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अस्यैव फलमाह
सो तप्पभाव विम, खविडं तं पुण्यदुकडे कम्मं । जायद विशुद्धजम्मा, जोग्गो अ पुग्यो वि चरणस्स । १६६२ ॥ स एवंभूतस्वरप्रभायत एय चारिषपरिणामप्रभावादेव क्षपयित्वाभावमापाद्य तत्पूर्वकम्मे शीतलविहारजं जायते विशुद्धजन्मा -- जात्यादिदोषरहितः योग्यच पुनरपि तज्जन्मापेक्षया चरणस्येति गाथार्थः ।
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त्रिविको भवतीति मामाएसो अ होइ तिविहो, उकोसी मज्झिमो जो य लेसादारेण फुडं बोद्धामि विसेसमेएस || १६६३ ।। पर चाराथको भवति त्रिविधः वैविध्यमेवाह - उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । भावसापेक्षं वोत्कृष्टत्वादि यत एवमतो लेश्याद्वारेण - लेश्याङ्गीकरणेन स्फुटं प्रकटं वक्ष्यामि विशेषमेतेषामुत्कृष्टादिभेदानामिति गाथार्थः ।
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तत्र-
सुकाए लेसाए, उक्कोसगमसंगं परियमित्ता |
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संबच्छर
(२२८) संलेहणा
अभिधानराजेन्द्रः। जो मरइ सो हुणियमा, उक्कोसाराहो होइ॥१६६४॥ सिखो जन्मादिदोषरहितः-जन्मजरामरणादिरहितः संस्तिशुक्लाया लेश्यायाः सर्वोत्तमाया उत्कृष्टमंशकं विशुद्धं प
छति भगवान् सदाकालं-सर्वकालमेव नत्यभावी भवति यथारिणम्य-तद्भायमासाच यो म्रियते कश्चित्सत्त्वः स नियमा
उहुरन्ये-'प्रविध्यातदीपकल्पोपमो मोक्षः' इति गाथार्थः । देवोत्कृष्टाऽऽराधको भवति स्वल्पभवप्रश्च इति गाथार्थः।
पं०५०४द्वार। आव०॥धा ('पज्जुसवणा' शब्दे वर्षासुसं
लेखनाविधिः) मध्यमाऽऽराधकमाहजे सेसा सुक्काए, अंसा जे प्रावि पम्हलेसाए ।
संलेहणाझुसिय-संलेखनाझोषित-त्रि०।संलेखना-शरीरस्य ते पुण जो सो भणिो ,मज्झिमओ वीयरागेहि।।१६६५॥
तपसा कशीकरण तथा वा 'झूसिय' ति जुष्टाः सेविता ये ये शेषा उत्कृष्ट विहाय शुक्लायाः अंशाः-भेदाः, ये चापि
ते तथा । संलेखनास्यतपःकारिषु, भोघ०। .. पालेश्यायाः, सामान्येन तान् पुनर्विपरिणम्य यो नियते स |
संलेहणाझोसणा (झोसिय-संलेखनाजोषणा(झषित)जुष्टमध्यमो भणितो मध्यमाराधको वीतरागैर्जिनैरिति गाथार्थः।।
त्रि०ा संलेखनायां-कषायशरीरकृषीकरणे या जोषणा-प्रीतिः जघन्यमाराधकमाह
सेवा वा जुषी प्रीतिसेवनयोरिति वचनात् , तया तां वा
ये जुयाः सेवितास्ते तथा ' भूसिय ' ति झूषिताः तेओ लेसाए जे, अंसा अह नेओ जे परिणमित्ता।।
क्षीणा येते तथा । संलेखनातपःकारिषु, भ० ३ श० मरइ तो वि हुणेयो, जहामगाराहओ इत्थ ॥१६६६॥ ७ उ० । औ०। तेजोलेश्यायाः ये अंशाः-प्रधानाः,अथवा तान् यः परिणम्यां- | संलेहणासुय-संलेखनाश्रुत-न० । यत्र संलेखनायां त्रुऽशकान् कांश्चित् म्रियतेऽसावप्येवंभूतो शेयः, किंभूत - तं प्रतिपाद्यते तत् संलेखनाश्रुतम् । उक्तलक्षणसंलेखनास्याह-जघन्याराधकोऽत्र प्रवचन इति गाथार्थः। । प्रतिबद्धे उत्कालिकश्रुतविशेषे, पा०।। अस्यैव सुसंस्कृतभोजनलवणकल्पविशेषमाह
संलोग-संलोक-पुंसलोक्यत इति संलोकः।चतुर्दशरज्ज्वाएसो पुण सम्मत्ताऽऽ-इसंगो चेव होइ विश्लेओ। । स्मके लोके , भाव.२०। (लोकस्य ध्वाधवत्यविचारः ण उ लेस्सामित्तेणं,तं जमभब्वाण वि सुराणं ॥१६६७।। 'भूगोल ' शब्दे पश्चमभागे १६०१ पृष्ठे गतः ।) (लोके गोएष पुनर्लेश्याया द्वारोक्लाराधकः सम्यक्त्वादिसंगत एव- लानामसंख्येयत्वविचारः 'लोक' शब्दे षष्ठभागे ७०६ पृष्ठे सम्यक्त्वज्ञानतद्रावस्थायिचरणयक्त एव भवति विशेय गतः।) प्रकाशे, प्राचा० १श्र०११०२ उ० । संदर्शने . श्राराधको न तु लेश्यामात्रेण केवलेन पाराधकः । कुत - आचा० १७०१०३ उ०। त्याह-तत्'-लेश्यामात्र 'यत्' यस्मात् कारणात् अभव्या- संवग्ग-संवर्ग-पुं०संवर्यते इति संवर्गः।गुणिते, व्य० उ०। नामपि सुराणां भवति, यलेश्याश्च म्रियन्ते तम्लेश्या एवो
गुणने, नि० चू० १ उ०। त्पद्यन्ते इति गाथार्थः।
संवच्छर-संवत्सर-पुं० । “हस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले" आराधकगुणमाह
बारा२१॥ अनेनात्र हस्वात्परस्य सस्य छकारः। प्रा०। द्वादबाराहगो अ जीवो, तत्तो खविऊण दुक्कडं कम्म।
शमासात्मके वर्षे, प्रा०म०१अापश्चा"दो भयणा संवच्छजायइ विसुद्धजम्मा,जोग्गो वि पुणो विचरणस्स।१६६८ | रो' जं०२ वक्ष०ा कर्म० भ० ज्यो। अयनद्वयेन संवत्सरः। आराधकश्च जीवः तत श्राराधकत्वात् क्षपयित्वा दुष्कृतं तं० । अनु० । प्रा०म० । विशे० । अनु० । स्था। कर्म प्रमादजं झानावरणादि जन्मादिकुलाद्यपेक्षया योग्यस्य ता कति णं भंते !संवच्छरे आहिताति वदेजा , ता पंच पुनरपि चरणस्य तद्भावभाविन इति गाथार्थः ।
संवच्छरा आहितेति वदेजा, तं जहाणखत्तसंवच्छरे , आराधनाया एव प्रधानफलमाह
जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिच्छआराहिऊण एवं, सत्तभवाण सारो चेव ।
रसंवच्छरे । (सू०५४) तेलकमत्थअत्थो, गच्छइ सिद्धिं णिोगेणं ॥१६६६॥
'ता कइ ण ' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् , कति-किसङ्ख्याः आराध्यैवमुक्नप्रकार, किमित्याह-सप्ताष्टभवेभ्यः सप्ता
णमिति वाक्यालङ्कार, संवत्सरा श्राख्याता इति वदेत् ?, एजन्मभ्यः भारत एव त्रिषु वा चतुषु वा जन्मसु , किमित्याह-त्रैलोक्यमस्तकस्थ:-सकललोकचूडामणिभूतो ग
भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति प्राग्बत् , पश्च संवत्सरा
श्राख्याता इति वदेत् , तद्यथा-नक्षत्रसंवत्सरमित्यादि, तत्र च्छति सिद्धि-मुक्ति नियोगेनावश्यंतयति गाथार्थः ।
यावता कालेनाष्टाविंशत्याऽपि नक्षत्रैः सह क्रमेण योगपरिसतत्र च गतः सन्
माप्तिस्तावान् कालविशेषा द्वादशभिर्गुणितो नक्षत्रसंवत्ससव्वएणु सव्वदरिसी, निरुवमसुहसगंो य सो तत्थ । रः, उक्तं च-"मक्खत्तचंदजोगा बारसगुणिो य नक्वत्तो" जम्माइदोसरहिओ, चिट्ठइ भयवं सयाकालं ॥१७००॥ अत्र पुनरकोनितनक्षत्रपर्याययोग एका नक्षत्रमासः स च ससर्वज्ञः सर्वदशी नाचेतना गगनकल्पः तथा निरुपम- प्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तपणिभागा अहोरात्रसुखसंगतश्च सकलब्यावाधानिवृत्तेः स श्राराधको मुक्तः तत्र स्य, एप राशिर्यदा द्वादशभिगुण्यते तदा त्रीण्यहोरात्रश
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( २२६ ).. अभिधान राजेन्द्रः ।
संपर
संच्छर
तानि सप्तविंशत्यधिकानि एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा - होरात्रस्य एतावत्त्रमात्र पुगेप
मकं तत्पुरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः। युगस्य प्रमाणतुः संवत्सर प्रमाणसंवत्सरः लन यथावस्थितेनोपपेतः संवत्सरो लक्षण संवत्सरः । शनैश्वर निष्पादितः संवत्स रः शनैश्वरसंवत्सरः । शनैश्चरसंभवः । सू० प्र० १० पाहु० । नक्षत्रसंवत्सरो ' णक्खन्त संषच्छर ' शब्दे चतुर्थभागे १७६२ पृष्ठे उक्तः । ) ( युगसंवत्सरः 'जुग शब्दे चतुर्थभाग १५६७ पृष्ठे ।) (प्रमाणवत्सरः पमासंवर शब्दे पञ्चमभागे४७६ पृष्ठे उ) लक्षसंवत्स क्खण संवच्छर ' शब्द षष्ठभागे उक्तः । )
" तिनि अहोरतसया, छायट्ठा भक्खरो हघर वासो । तिनि सया पुण सट्ठी, कम्मो संयच्छरो होह ॥ १ ॥ तिन्नि श्रहोरत्तलया, चउपन्ना नियमसो हवइ चंदो । भागो य बारसेव या देव ॥ २ ॥ तिनि अहोरतसया, सत्तावीसा य होति नक्खत्ता । शाय भागा, सतकिय देश्य ॥ ३ ॥ तिथि मोरया, सीई देव होई अभिवडी । चोयालीसं भागा, बावद्विकरण छेपण ॥ ४ ॥ ” एताश्चतस्रोऽपि गाथाः सुगमाः । इदं च प्रतिसंवत्सरं रात्रिदिपरिमाणमपि वक्ष्यति परमिह प्रस्तावादुक्तम् । सम्प्र ति विशेषजनानुप्रहाय संघरसरसंख्यातो माससंख्या प्रश् तापमाणसंवच्छरे पंचविहे पत्ते, तं जहा - नक्खते चंदे धिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्तत्र ते-तत्र सूर्यसंवत्सरस्य परिमाणं - त्रीणि शतानि षट्षष्टय
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"
(
प्रमाण संवत्सरेऽत्र विशेषमाह
उडू आइचे अभिवडिए । ( सू० ५७ )
त्रयाणां शतानां षट्षष्ट्यधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धाः त्रिंशत् ३०, शेषाणि तिष्ठन्ति षद् ६, ते क्रियते, जाता द्वादश, ततो लब्धमेकं दिवसस्यार्द्धमेतावत्परिमाणः सूर्यमासा तथा कर्मसंवासरस्य परिमार्थ त्रीणि शतानि षष्यधिकानि रात्रिन्दिवानां तेषां द्वादशभिर्भागे हुने धाखिशरहोराणा प्रताप कर्म मासपरिमाणम्, तथा चन्द्रसरस्य परिमा भीरपहोरात्रतानि चतुष्पथाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य तत्र पायां शतानां चयाधिकानां द्वादशभिर्माते या एकोनविंशदोरात्राः, शेषाः तिष्ठन्ति पद अहोरात्राः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वापष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ३७२, येऽपि द्वादश द्वाषष्टिभागा उपरितनास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धा द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः, एतावश्चन्द्रमासपरिमाणम् । तथा नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि शतानि सप्तविंशत्यधिकानि रात्रिहियानामेकस्य व रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः। तत्र प्रयासां शतानां समधिकानां द्वादशभिर्भागो हिपते लम्धा सप्तविंशतिरहोरात्रा, शेषाखपस्तिष्ठन्ति, ततस्तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थे सप्तषषा गुरुयन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे २०१, येऽपि च उपरितना एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागास्तेऽपि तत्र प्रक्षिष्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके २५२, तेषां द्वादशभिर्भाग हृते लब्धा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, एतावन्नक्षत्र मासपरिमाणम् । तथा अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणं- प्रीणि रात्रन्दिशताति व्यशीत्यधिकानि चत्वारिंशद्वापष्टिभा गा रात्रिन्दिवस्य तत्र त्रयाणां शतानां व्यशीत्यधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तियहोरात्रा एकादश ते च चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थं चतुर्विंशत्युत्तरशतेन १२४ गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि १३६४, येऽपि चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद्वापष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थे द्वा गुरुयन्ते जाता अशीतिः । साऽनन्तरराशी प्रक्षिप्यते जातानि पानि द्विपञ्चाशदधिकानि १४५२, तेषां द्वादशभिर्भागा हियते, लब्ध
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'पमाये' त्यादिप्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रप्तः, तद्यथानक्षत्रसंवत्सर ऋतुसंवत्सरश्चन्द्र संवत्सरः श्रादित्यसंवत्सरोमितिसंवत्सर तत्र चन्द्राि राणां स्वरूपं मागेयोमिदानीमृत्य त्सरयोः स्वरूपमुच्यते - तत्र द्वे घटिके एको मुहूर्त्तस्त्रिशन्मुहर्ता अहोरात्रः पञ्च परिपूर्ण अहोरात्राः पणः श्री पक्षी मासो, द्वादश मासाः संवत्सरो, यस्मिश्च संवत्सरे त्रीणि शतानि पश्यधिकानि परिपूर्णम्यहोरात्राणां भवति पप ऋतुसंवत्सरः । ऋतवो लोकप्रसिद्धाः वसन्तादयः तत्प्रधानः संवत्सर ऋतुसंवत्सरः । अस्य चापरमपि नामद्वयमस्ति, तद्यथा कर्मसंवत्सरः, सवन संवत्सरः । तत्र कर्मलौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मवास लोको ह्नि प्रायः सर्वोऽप्यनेनैव संवत्सरेण व्यवहरति । तथा चैतद्गतमासमधिकृत्य-कम्मो निरंसया, मा सो ववहारकारगो लोए । ससानो संसयाए, ववहारे दुकरो] चिनुं ॥१॥ " तथा सवनं-कम् प्रेरयंप्रेरणे इति वचनात् तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसंवत्सर इत्यप्यस्य नाम, तथा चोकम् -
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"बे नालिया मुहुत्तो, सट्ठी उप नालिया अहोरतो । पनरस अहोरत्ता, पक्खो तीसं दिखा मासो ॥ १ ॥ संवच्छरो उ बारस, मासा पक्खा य ते चउव्वीस । तिने या सट्ठी, हवंति राईदियागं तु ॥ २ ॥ एसो उ कमी भणिश्रा, निश्रमा संवच्छरस्स कम्मस्स । कम्मो तिसावणो त्ति य, उउत्ति य तस्स नामाणि ॥३॥" तथा यावता कालेन षडपि प्रावृडादयः ऋतवः परिपूर्णाः प्रावृत्ता भवन्ति तावान् कालविशेष श्रादित्य संवत्सरः । उक्तं च"छप्पि उऊ वरियट्टा, एसो संवच्छरो उ आइयो" तत्र यद्यपि लोके पश्यहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक ऋतु: प्रसिद्धः तथापि परमार्थतः स एकपएपोराप्रमाणे वेदितव्यः, तथैवात्तरकालमव्यभिचारदर्शनात् श्रत एव चास्मिन् संवत्सरे त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि रात्रिन्दिवानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरं भवति तथा चान्यत्रापि पञ्चस्वपि संवत्सरेषु यथोक्तमेव रात्रिन्दिवानां परि
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माणमुक्तम्५८.
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( २३० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
बच्छर
मेकविंशत्युतरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरभागानाम्, एतावद भिवर्द्धितमासपरिमाणम्, तथा चोक्तम्
" श्राइथो खलु मासो, तीसं श्रद्धं च सावणो तीसं । चंदो एगुणतीस, बिसट्ठिभागा य बत्तीसं ॥ १ ॥ नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीसं भवे अहोरत्ता । साय एकवीसा, सत्तट्ठिकपण छेपण ॥ २ ॥ अभिवडिओ य मासो, एक्कतीसं भवे अहोरता । भागसयमगषीसं, बउवीससएण छेपणं ॥ ३॥” सम्प्रतिपतैरेव पारूपं युगं प संवत्सरात्मकं मासानधित्व प्रमीयते । तत्र युगं प्रादित स्वरूपं यदि सूर्यमासैर्विभज्यते ततः षष्टिः सूर्यमासा युगं भवति तथाहि मासे साहोरात्रा युगे बाहोरात्रासामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति । कथमेतदवसी यते इति चेत् उच्यते- इह युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवर्जितसंवत्सरी, एकैकस्मिश्च चन्द्रसंवत्सरेऽहोरात्राणां श्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि भवन्ति द्वादश च द्वाप ष्टिभागा अहोरात्रस्य ३५४ है तत एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोरात्राणां दश शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि २०६२
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शिष्य द्वाष्टिभागा अहोराषस्य में अभिपतिसंय सरे व पकेकस्मिन् अहोरात्राणां त्रीणि शतानि शीत्यधिकानि चत्वारिंशद्वापडिया अहोरात्रस्य ( तत एतद् द्वाभ्यां गुण्यने जातानि सप्तषष्ट्यधिकानि सप्तशतान्यहोरात्राणां पट्टिशतिश्च द्विषप्रभागा अहोरात्रस्य त देयं चन्द्रसंवत्सरचयाभिवर्द्धित संवत्सरद्वयाहोरात्रमीलने त्रिशदधिकान्यहोरात्राणामष्टादश शतानि सूर्यमासस्य च पूर्वोक्तरीत्या सार्द्धशिदोराचमानतेति तेन मांगे कृते स्पष्टमेव पटेलोभः । तथाहि श्रष्टादशशत्यास्त्रिंशदधिकाया अधकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्यधिका पदत्रिंशच्छती त्रिंशतश्चार्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने पष्टिः, एक एकपतेन पूर्वोरा भागे वे लभ्यंत पष्टिः तथा च युगमध्ये सूर्यमासाः षष्टिरिति स्थितम् । सावनस्य तु मासा एकषष्टः, त्रिंशद्दिनमानत्वाद् तस्य त्रिंशदधिकाया श्रष्टादशशत्यास्त्रिंशता भागे एकपटेर्लाभात् । चन्द्रमासा द्विपकोनविंशत्या अहोराचैरेको भागैरधिकमांसा, मदिनानां तैर्मागे च द्वामात् कथम् ?, त्रिंशदधिकाया श्रष्टादशशत्या द्विषष्टिभागकरणार्थ गुणकारे एकं लक्षं त्रयोदश सहस्राणि षष्ट्यधिकमेकं शतम् ११३१६६, चन्द्रमासस्यापि भागकरणाय द्विपट्या प कति गुणाति शिधिकाया अष्टादशशत्या भावः, तया भक्ते पूर्वोक्तराशी द्वापर्भा वात् चन्द्रमासा द्वापष्टिरिति । नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, कथमिति चेत्, नक्षत्रमासस्तावत् सप्तविंशत्या श्राहारा
कविंशत्या च सप्तष्टमार्थः) तत्र सविंशतिरोरात्राः सप्तपटिभागकरणार्थ सप्तपट्या गुण्यन्तं जातान्यश दश शतानि नवोत्तराणि १८०६, तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि २०३०, युगस्यापि सम्बन्धिनका प्रादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तुपच्या गुण्यन्त, जात ए
संपर
कोलः द्वाविंशतिः सहस्राणि पद शतानि दशोत्तराणि १२२६१० तेषामष्टादश मासकसषष्टिभागरूपैर्भागो हियते लब्धाः सप्तषष्टिर्भागाः ६७ । तथा यदि युगमभिपतिमासैः परिभज्यते तद अभिवर्द्धितमासा युगे भवन्ति सप्तपञ्चाशत् सप्त रात्रिन्दिवानि एकादश मुइस एकस्य च मुहूर्त्तस्य द्वाषष्टिभागास्त्रयोविंशतिः, तथाहि मितिमा सपरिमाणमेकशिरहोरामा कविशा
"
शतं चतुर्विशत्यधिकशत भागानामहोरात्रस्य तत एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विंशत्युत्तरशत भागकरणार्थे चतुर्विंशत्युत्तरेस शतेन गुरुयन्ते जातान्यष्टानि चतुश्चत्वारिंशद धिकानि २०४४ तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतं भागा तत्र प्रक्षिप्यते, जातान्ये कोनचत्वारिंशच्छताति पञ्चषश्यधिकानि३२६५, यानि युगे आहोराचाणामाद शतानि - दधिकानि १०३० साबितुर्दशत्युत्तरेण तेन जाते शक्तिः सहस्राणि शतानि वयधिकानि २६२० तत तेषामेकोनचत्वारिपपश्यधिकैरभिवर्द्धितमाससत्पतुर्विंशत्युतरशतभागरूपेर्भागो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः ' शेषाणि तिष्ठतिन तानि पशोत्तरात २२५ तेषामहाराश्रानयनाय चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो न्हियते लब्धानि सप्त रात्रिन्दिवानि शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाः सप्तचत्वारिंशत्, तत्र चतुर्भिर्भागैरेकस्य च भागस्य चतुर्मिशभा भवति तथाहिएकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशम्मुहूर्त्ता अहोरात्रे च चतुर्विंशत्युसरं शतं भागानां कल्पितमास्ते, ततस्तस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य त्रिंशता भागे हृते लब्धाश्चत्वारो भागाः एकस्य व भागस्य सत्काश्चत्वारस्त्रिंशद्भागास्तत्र ञ्चचत्वारिंशद्भागैरेकस्य च भागस्य सत्कैब्धतुर्दशभिरिंखशद्भागैरेको सन्धाः परिको भागः, एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश त्रिंशद्भागाः । किमुक् भवति ? - षट्चत्वारिंश त्रिशद्भागा एकस्य भागस्य सरकाः शेषास्तिष्ठन्ति ते च किल मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्युत्तरशतभागरूपास्ततः पचत्वारिंशतश्चतुर्विंशत्युत्तरशतस्य प पिते धार्त्तस्य द्वाभागात्रयोविंशतिः । उक्तं चैतदन्यत्रापि -
प
"तत्थ पडिमियमाणे पंच मारोदि* सम्बगशिपाई । मासेहि विभजंता, जइ मासा होति ते वोच्छं ॥१॥"
' तत्थे सि तत्र पंचहि मारोहिं ' तिपञ्चभिर्माने-मानसंवत्सरेः प्रावासरेरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः पूर्वगति: प्राकृतिसंख्यातस्वरूप प्रतिय माने प्रतिमाने मासूर्यादिमाः शेष सुगमम् । "आणखी मासा उस होत गट्ठी । चंद्रेण उ बावट्ठी. सत्तट्ठी होति नक्खते ॥ १ ॥ सतावरणं मासा, समय राईदिया हूँ श्रभिवंडे । इक्कारस य मुद्दत्ता, विभागाय तेवीसं ॥ २ ॥ " सू० प्र० १० पाहु० । यथा' संवत्सराणामादिर्वक्लव्य इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
ता कहते राणामादी आहिलेति वदेजा है, तथ
"
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(२३१) संवच्छर अभिधानराजेन्द्रः।
संवच्छर खलु इमे पंच संवच्छरे पएणत्ता, तंजहा-चंदे,चन्दे, अभि. | णक्खत्तेणं जोएति , ता पुणध्वसुणा, पुणव्वसुस्स दो चडिते, चंदे, अभिवतिते । ता एतेसि णं पंचएहं संवच्छराणं । | मुहुत्ता छप्पमं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावविभाग पढमस्स चंदस्स संबच्छरस्स के आदी माहितति वदेजा, च सत्तद्विधा छेत्ता सट्ठी चुरिणया भागा सेसा । ता ता जेणं पंचमस्स अभिवड्डितसंवच्छरस्स पजवसाणं से णं एएसि ण पंचएहं संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स आदी प्रणतरपुरक्खडे समए, के आदी आहितेति वदेजा, ताजेणं तच्चस्स अभिवतीसे णं किं पञ्जवसिते आहितेति वदेजा ?, ता जेणं दो-| ड्डितसंवच्छरस्स पञ्जवसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छचस्स आदी चंदसवंच्छरस्स से णं पढवस्स चंदसंवच्छर रस्स आदी प्रणतरपुरक्खडे समये, ता से णं किं पजपअवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च णं चंदे वसिते आहितेति वदेजा, ताजेणं चरिमस्स अभिकेणं णक्खत्तेणं जोएति?, ता उत्तराहिं प्रासादाहिं,उत्तराणं वडियसंवच्छरस्स आदी से ण चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स प्रासादाणं छदुवीस मुहुत्ता छदुवीसं च बावविभागा मुहु- पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये , तं समयं च णं चंदे तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छित्ता चउप्पमं चुरिण- केणं नक्खत्तेणं जोएति?,ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं या भागा सेसा, तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जो-| भासाहाणं चत्तालीसं मुहुत्ता चत्तालीसं चबा(ब)सद्विभागा एति ?, ता पुणब्बसुणा, पुणब्वसुस्स सोलस मुहुत्ता मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउसट्ठी चुअट्ठ य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभाग च सत्तट्ठिहा लिया भागा सेसा । तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं छेत्ता वीसं चुएिणया भागा सेसा । ता एएसि णं पंच- जोएति ? , ता पुणब्वसुणा, पुणव्वसुस्स अउणतीसं एहं संवच्छराणं दोच्चस्स णं.चंदसंघच्छरस्स के आदी मुहुत्ता एक्कवीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावविभागं आहितेति वदेज्जा १, ताजे णं पढमस्स चंदसंव- च सत्तद्विधा छेत्ता सीतालीसं चुलिया भागा सेसा, ता च्छरस्स पञ्जवसाणे से गं दोच्चस्स ण चंदसंवच्छरस्स एतेसि णं पंचएहं संवच्छराणं पञ्चमस्स अभिवट्टि आदी प्रणतरपुरक्खडे समये , ता से णं किं पञ्जवसिते | तसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा ?,ता जे णंचआहितेति वदेजा, ताजे णं तच्चस्स अभिवड्डियसं- उत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जबसाणे से णं पंचमस्स अवच्छरस्स आदी से णं दोच्चस्स संवच्छरस्स पञ्जवसाणे भिवतिसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये । ता-- अणंतरपच्छाकडे समये । तं समयं च ण चंदे केणं ण- से णं किं पञ्जवसिते माहितेति वदेजा १, ता जे णं पढक्खत्तणं जोएति ? , ता पुब्बाहि आसाढाहिं , पुब्वाणं मस्स चंदसंवच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवड्डित-- प्रासादाणं सत्त मुहुत्ता तेवमं च बावडिभागा मुहुत्तस्स संवच्छरस्स पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये । तं सबावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुमिया मयं च णं चंदे केणं णक्खत्तणं जोएति !, ता उत्तराहिं भागा सेसा, तं समयं च ण सूरे केणं णक्खत्तण जो- आसाढाहिं, उत्तराणं चरमसमये , तं समयं च णं सूरे एति ? , ता पुणध्वसुणा, पुणव्यसुस्स ण ब्रायालीस केण णक्वत्तेणं जोएति ?, ता पुस्सेणं, पुस्सस्स णं ए-- मुहत्ता पणतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च कवीस मुहत्ता तेतालीसं च बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स बावट्ठिसत्तद्विधा छेत्ता सत्त चुमिया भागा सेसा। ता एतेसि भागं सत्तट्ठिधा छेत्ता तेत्तीस चुएिणया भागा सेसा। ण पंचएहं संबच्छराणं तच्चस्स अभिवतिसंवच्छरस्स
। (सू० ७१)॥ एकारसम पाहुडं समत्तं ॥ के आदी आहिताति वदेजा, ता जेणं दोच्चस्स चंदसं- 'ता कहं त' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथं-केन प्रकारेवच्छरस्स पजबसाण से णं तच्चस्स अभिवहितसंव- ण भगवन् ! त्वया संवत्सराणामादिराख्यात इति वदेत् ?, च्छरस्स आदी प्रणतरपुरक्खडे समए । ता से णं किं भगवानाह-'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र-संक्रसरविचारपज्जवसिते आहितेति वदेजा, ता जे णं चउत्थस्स
विषये खल्विमे पश्च संवत्सराः प्राप्ताः , तद्यथा-चन्द्रश्च
न्द्रोऽभिवर्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितः , एतेषां च स्वरूप प्राचंदसंबच्छरस्स आदी से णं तच्चस्स अभिवतिसंवच्छ- गेवापदर्शितम् । भूयः प्रश्नयति-'ता एएसिगा' मित्यादि, रस्स पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए । तं समयं ता इति पूर्ववत् , एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथचणं चंद केणं नक्खत्तेणं जोएति', ता उत्तराहिं मस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य क आदिराण्यात इति वदेत् ?, आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुहत्ता तेरस य
भगवानाह-'ता ज ण ' मित्यादि, यत् पाश्चत्ययुगवर्तिनः
पञ्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्थ पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता
तस्मादनन्तरं पुरस्कृती-भावी यः समयः स प्रथमस्य चसत्तावीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं, न्द्रसंवत्सरस्यादिः , तैवं प्रथमसंवत्सरस्यादितिः । स
समता
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(२३२) मंबच्छर अभिधानराजेन्द्रः।
संबच्छर प्रति पर्यवसानसमयं पृच्छति-'ता से णं' इत्यादि , ता पर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् सप्तमुहर्तशतानि पञ्चषइति पूर्ववत् , स प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किं पर्यवसितः- एपधिकानि मुहानामेकमुहर्तगताश्च द्वाषधिभागाः पश्चनकिं पर्यवसान पाण्यात इति वदेत् ,भगवानाह-'ताजे पतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्ठिभागा: ण ' मित्यादि , यो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादिः-पा- । ७६५ । १५ । २५ । तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूदिसमयस्तस्मादनन्तरो यः पुरस्कृतः-प्रतीतसमयः स प्र- तैरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभाथमचान्द्रसंघत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः, 'तं समय गैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिशता सप्तपष्टिभागैः पुण्यः चण' मित्यादि, तस्मिश्चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये शुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि षट्चत्वारिचन्द्रः केन नक्षत्रेण सह योगं युनक्ति-करोति ? , भगवा- शदधिकानि एकस्य च मुहर्सस्य एकपश्चाशत् द्वाटभागा नाह-'ता उत्तराहि' इत्यादि , बह द्वादशभिः पौर्णमासी- एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकोनषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ७४६ । भिश्चान्द्रः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् द्वादश्यां पौ- ५१ ॥ ५६ । ततो भूयोऽप्येतस्मात् सप्तभिर्मुहर्तशतैश्चतुश्चत्वार्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं रिंशदधिकैरेकस्य च महतस्य चतुर्विशत्या द्वापएिभागैरेकचोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्रमत्रापि द्रष्टव्यम् ,तथैव गणितभा- स्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्पटया सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीबना कर्तव्या , एवं शेषसंवत्सरगतान्यादिपर्यवसानसूत्राणि निश्रा पर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितौ पश्चाद् द्वौ मुहायकस्य भावनीयानि यावत्प्राभृतपरिसमाप्तिः, नवरं गणितभावना च मुहूर्तस्य पइविंशतिभषष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभाक्रियते-तत्र द्वितीयसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विशतितमपौर्ण- गस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः २ । २६ । ६० । आगतं द्वितीमासीपरिसमाप्तौ , तत्र ध्रुवराशिः षट्पष्टिमुहर्ता ए- यचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाचत्वाकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाष्टिभाद्वापष्टिभागस्य एकः सप्तपष्टिभागः ६६-५-१ इत्येवं गा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शषाः. प्रमाणश्चतुर्विशत्या गुण्यते, जातानि पञ्चदश शतानि चतु- तथा तृतीयाभिवद्धितसंज्ञसवत्सरपरिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता रशीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वापष्टिभागानां पौर्णमासीभिस्ततो ध्रुवराशिः ६६ । ५। १ । सप्तत्रिंशता विशत्युत्तरं शतमेकस्य च द्वापष्टिभागस्य चतुर्विंशतिः गुण्यते, जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिः शतानि द्वाचत्वासप्तपष्टिभागाः १५८४ । १२० । २४ । तत एतस्मा- रिंशदधिकानि द्वापष्टिभागानां च पश्चाशीत्यधिकं शतं सप्तदष्टभिः मुहत्तशतैरकानविंशत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य पष्टिभागाः सप्तत्रिंशत् २४४२ । १८५ । ३७ ।तत एतभ्योऽटी चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य मुहत्तशतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पट्या सप्तपष्टिभागैरेकः परिपूर्णी नक्षत्रपर्यायः चतुर्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वापटिभागस्य पदपतिः शुद्धयति , ततः स्थितानि पश्चात्सप्त मुहूर्त शतानि पश्च- सप्तपष्टिभागा इत्यकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्यां गुणयित्वा पएपधिकानि मुहर्सगतानां च द्वापष्टिभागानां पश्च- शाध्यते, ततः स्थितानि पश्चादष्टौ मुहर्त शतानि चतुरुत्तनवतिरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य पश्चविंशतिः सप्तपष्टि- राणि मुहर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिंशदधिकं शतम् भागाः ७६५ । १५ । २५ । ततो 'मूले सत्तेव चोयाला' एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः । इत्यादि वचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तशतैरे- ८०४ । १३५। ३६ । तत एतेभ्यः सप्तभिमहतशतश्चतुःकस्य च मुहर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाप- सप्तत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य टिभागस्य पट्पष्टया सप्तपष्टिभागरभिजिदादीनि मूलप- च द्वाषष्टिभागस्य पदपटया सप्तपष्टिभागैरभिजिदादीनि पूर्वायन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततः स्थिताः पश्चात् द्वा- पाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि , स्थिताः पश्चादेकत्रिविंशतिमुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्याष्टो द्वांपष्टिभागा शन्मुहर्ता एकस्य च मुहूर्नस्याटचत्वारिंशद् द्वापटिभागा एएकस्य च द्वापष्टिभागस्य पदविंशतिः सप्तपष्टिभागाः
कस्य च द्वापष्टिभागस्य चत्वारिंशसप्तपटिभागाः ३१ । ॥ २२।८।६६॥ तत आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य ४८।४। तत आगतं तृतीयाभिवतिसंशसंवत्सरपर्यवपर्यवसानसमय पूर्वाषाढानक्षत्रस्य सप्त मुहर्ता एकस्य च सानसमये उत्तरापाढानक्षत्रस्य त्रयोदश महर्ता एकस्य च महतस्य त्रिपञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य द्वापष्टि- महतस्य त्रयोदश द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य भागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तपष्टिभागाः शेषाः, तदानी सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः, शपाः, तदानी च सूर्येण च सूर्यण युक्तस्य पुनर्वसोर्टाचत्वारिंशद् मुहर्ता एकस्य सम्प्रयुक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्व। मुर्ती एकस्य च मुहर्तस्य च मुहूर्तस्य पश्चत्रिंशत् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाष- पदपञ्चाशद द्वापष्टिभागाः, एकं च द्वापाएभाग सप्तपष्टिधा प्टिभागस्य सप्त सप्तपष्टिभागाः शेपाः, तथाहि-स एव छित्त्वा तस्य सत्काः पटिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहिध्रुवराशिः।६६।५।२ । चतुर्विशत्या गुणिना जातानि पञ्चद- स एव ध्रुवराशिः ६६।५।१। सप्तत्रिंशता गुपयन, जाश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहानां मुहर्तगतानां च द्वा- तानि मुहर्तानां चतुर्विंशतिः शतानि द्वाचवारिशदधिकानि पएिभागानां विंशत्युत्तरं शतम् पकस्य च द्वापष्टिभागस्य च- मुहर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां पश्चाशीधिकं शतम्। ए. तुर्विंशतिः सप्तपष्ठिभागाः।।१५८४॥ १२०।२४। तत एतस्माद- कस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तष्टिभागाः २४४२ । एभिः शतैरे कोनविंशत्यधिकैमुहानामकस्य च मुनस्य १८५ । ३७ । तत एतम्यः पूर्ववत् सकलनक्षत्रपर्यायपरिचतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरकस्य च द्वापष्टिभागस्य पटपट्या माणं द्विगुणं कृत्वा शोध्यत स्थितानि पश्चादी मुवनशता. सप्ततिभागः ।।८१६ । २४ । ६६ । एकः परिपूर्णी नक्षत्र-: नि चतुरुत्तगणि मुहत्तसकानां द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिश
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संवच्छर अभिधानराजेन्द्रः।
संवच्छर दधिकं शतम्, एकस्य च द्वापतिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्स-। टिभागस्य एकोनविंशतिः सप्तषष्टिभागाः । ७५८ । १२७ । तषष्टिभागाः८०४ । १३५ । ३६ । ततो भूय एतेभ्य एकोन- १६ । ततः सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकैमुहर्तानामेकविंशत्या मुहूर्तरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषण- स्य च मुहर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वापभागैरकस्य च द्वापटिभागस्य प्रयस्त्रिंशता सप्तपष्टिभागैः टिभागस्य पदमष्टया सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीन्यापर्यन्तानि पुष्यः शुद्धः , स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चा- नक्षत्राणि शुद्धानि , स्थिताः पश्चात् पञ्चदश महा एकशीत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानांच द्वाषधिभागानां द्विनवतिरेक स्य च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वापस्य च द्वाषधिभागस्य षट् सप्तपष्टिभागाः ७८५६२। ६ । हिभागस्य विंशतिः सप्तष्टिभागाः । १५ । ४० । २०1, तततो भूयोऽप्यतेभ्यः सप्तभिर्मुहर्सशतैश्चतुश्चत्वारिंशदधिकै- तागतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वाष- अस्य एकोनत्रिशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्नस्य एकविंशटिभागस्य पदपथ्या सप्तपष्टिभागैरश्लेषादीनि प्रापर्यन्ता. तिद्वापष्टिभागा एकस्य च द्वावष्ट्रिभागस्य सप्तचत्वारिंशनि शुद्धानि, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ता द्वाचत्वारिंशत् एकस्य च सप्तपष्टिभागाः शेषा इति, पञ्चमाभिवतिसंवत्सरपर्यवमुहर्तस्य पञ्च द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वापष्टिभागस्य सप्त स- सानं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये , ततो यदेसटिभागाः ४२ । ५। ७ । तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसं- व प्राक द्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमय चन्द्रनक्षत्रशमेव-सरपर्यवसानसमये सूर्येण सह संयुक्तस्य पुनर्वसोद्वी योगपरिमाण सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चालं तदेवान्यूनातिरिमुहविकस्य च मुहूर्नस्य षट् पञ्चाशद् द्वापष्टिभागा एकस्य क्लमत्रापि द्रव्यम् ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचितायां सूर्यच द्वापष्टिभागस्य षष्टिश्चूर्णिका भागाः शषाःतथा चतुर्थचा. प्रज्ञप्तिटीकायामेकादशं प्राभृतं समाप्तम् । न्द्रसंवत्सरपर्यवसानमकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासीपरिसमाप्ती,
तदेवमलमेकादशं प्राभृतम् , सम्प्रति द्वादशमुच्यते-तस्य ततः स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५॥ १॥ एकोनपञ्चाशता गुण्यते,
चायमाधिकारः , यथा 'कति संवत्सरा भवन्ति ' तद्विजातानि मुहूर्तानां द्वात्रिंशच्छतानि चतुरिंशदधिकानि
षय प्रश्नसूत्रमाहमुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके, एकस्य च द्वापष्टिभागस्य एकोनपञ्चाशत् सप्तपष्टि- ता कति ण संवच्छरा आहिताति वदेजा ?, तत्थ खलु भागाः ३२३४ । २४५ । ४६ । तत एतस्मात् , प्रागुक्तं सक- इमे पंच संबच्छरा पण्णता, तं जहा-णक्वते चंदे उलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते, ततः स्थि
आदिच्चे अभिवाहिते, ता एतेसि णं पंचएहं संवच्छतानि सप्त शतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहर्तानां मुहर्तसस्कानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतम् , एकस्य च द्वा
राणं पढमस्स नक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसतिषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् सप्तषष्टिभागाः ७७७ । १७०।
मुहत्तेणं ती०२ अहोरत्तेणं मिजमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं ५२ । ततः सप्तभिः शतैः चतुःसप्तत्यधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य आहितेति वदेज्जा ?, ता सत्तावीस राइंदियाई एक्कवीस च मुर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभाग- च सत्तविभागाराइंदिअस्स राइंदिअग्गेण आहितेति वदेजा स्य षट्पष्टया सप्तपष्टिभागैर्भूयोऽभिजिदादीनि पूर्वापाढापर्य
ता से ण केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता · तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात्पश्च मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशति षष्टिभांगा एकस्य च द्वापष्ट्रि
अट्ठसए एकूणवीसे मुहुत्ताणं सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे भागस्य त्रिपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः५।२१ । ५३ । तत श्रा- मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एएसि गं गत चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य
अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते संवच्छरे, ता से णं चन्द्रयुक्तस्य एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य
केवतिए राइंदियग्गणं आहिताति वदेजा ?, ता तिरिण चत्वारिंशद् द्वापष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्द
सत्तावीसे राइंदियसते एक्कावन्नं च सत्तट्ठिभांग राइदियस्स श सप्तपष्टिभागाः शेषाः , तदानीं च सूर्येण सह युक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहर्ता एकविंशतिषष्टिभा
राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा , ता से णं केवतिए गा मुहर्तस्य एकं च द्वापष्टिभागं सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता णव मुहुत्तसहस्सा सत्काः सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिका भागाः शेषाः , तथाहि- अट्ठ य बत्तीसे मुहुत्तसए छप्पन्नं च सत्तट्ठिभास एव ध्रवराशिः एकोनपश्चाशता गुण्यते , गुणयित्वा च मे महत्तस्स महत्तग्गेण आहितात वदज्जा । ततः प्रागुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते , स्थितानि सप्त मुहर्तशतानि सप्तसप्तयधिकानि
(सू० ७२४) मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतमेकस्य 'ता कइ संवच्छारा' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति संवत्सरा च द्वापष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः ७७७ । १७०। भगवन् ! त्वया श्राख्याता इति बदत?, भगवानाद्द-'त५२ । , तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुद्द्तरकस्य च मुह- त्रेत्यादि, तत्र-संवत्सरविचारविपये खल्विम पञ्च संतस्य त्रिचत्वारिंशता द्वापष्टिभागैरेकस्य च द्वापष्टिभागस्य वत्सराः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-' नक्षत्त ' त्यादि, पदैकदेशे त्रयस्त्रिंशता सप्तपष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः , स्थितानि पश्चा- पदसमुदायोपचारात् नक्षत्रसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सर ऋतुसंमुहर्तानां सप्त शतानि अष्टापञ्चाशदधिकानि मुहर्त सत्का- वन्सर अादित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः । एतपांच पनां च द्वापष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतम् ,एकस्य च द्वाप ञ्चानामपि संवत्सगाणां स्वरूप प्रांगोपवर्णितम् , ' ता पए
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संवच्छर अभिधानराजेन्द्रः।
संवच्छर सिण' मित्यादि प्रश्नमूत्रम्, 'ता' इति पूर्ववत् , एतेषां तातेपसमुहत्तसहस्साई, सत्त य उणाप मुहत्तसते सत्तापञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य स-1 को यो नक्षत्रमासः स त्रिंशन्मुहर्तप्रमाणेनाहोरात्रेण ग
वलं वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स वावविभागं च सत्तद्विधा छेत्ता एयमानः कियान रात्रिन्दिवाण रात्रिन्दिवपरिमाणना
पणपण्णं चुएिणया भागा मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, च्यात इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इ- ता केवतिए णं ते जुगप्पत्ते राइंदियग्गेणं माहितति वदेजा, ति पूर्ववत्, सप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि एकविंशतिश्च स- ता अद्वतीसं राईदियाई दस य मुहुत्ता चत्तारि य वावट्ठिभागे सर्याप्टभागा रात्रिन्दिवस्य रात्रिन्दिवाणाण्यात इति घदेत् , तथाहि-युगे नक्षत्रमासाः सप्तषधिरेतश्च प्रागेव.
मुहुत्तस्स वावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता दुवालस चुलिभावितम् , युग चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिशदधिका
या भागे राइंदियग्गेणं आहिताति वदेजा, ता से णं केवनि १८३०, ततस्तषां सप्तषटया भागे हते लब्धाः सप्तविंशति तिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता एक्कारस परणारहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः से मुहत्तसए चत्तारि य बावविभागं च सत्तट्ठिहा छेत्ता २७१ता से ण' मित्यादि, स नक्षत्रमासः कियान् मुह
दुबालस चुणिया भागे मुहत्तग्गणं माहितेति वदेजा, प्रेस-मुहर्तपरिमाणनाख्यात इति वदेत् ?, भगवानाह‘ता अट्टसए' इत्यादि, अष्टोत्तरशतान्येकोनविंशत्यधिकानि
ता केवतियं जुगेराइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, ता - मुह नामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तपष्टिभागाः
द्वारस तीसे राइंदियसते राइंदियग्गणं आहियाति वदेजा, ८१६।। मुहूर्ताप्रेणाख्यात इति वदेत् , तथाहि-नक्षत्र- ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहियाति वदेजा, ता मासपरिमाण सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एक- चउप्परमं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसताई मुहुत्तग्गेणं विंशतिः सप्तपष्टिभागाः, ततः सवर्णनार्थ सप्तविंशतिर
आहितेति वदेजा, ता से णं केवतिए बावद्विभागमुहुत्तप्यहोरात्राः सप्तषष्टया गुए पन्ते , गुणयित्वा चोपरितना एकविंशतिः सप्तपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि सप्तषष्टि
ग्गेणं आहितेंति वदेजा ?, ता चउत्तीसं सतसहस्साई अभागानामष्टादश शनानि त्रिंशदधिकानि १८३०, तानि मु
द्रुतीसं च बावद्विभागमुहुत्तसते बावट्ठिभागमुहुन्तग्गे अानियनाथ त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सह- | हितेति वदेजा, । (सू०७३) माणि नव शतानि मुहूर्तगतसप्तषष्टिभागानां ५४६००, तत पतेषां सप्तपष्टया भागो ह्रियत, लब्धानि अष्टौ शतान्ये
'ता' इति पूर्ववत् , कियत्-किंप्रमाणं ते-त्वया भगवकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तवि
न् ! 'नोयुग' नोशब्दो देशनिषेधवचन:, किञ्चिदनं युगमित्य. शतिः सप्तपष्टिभागा इति १६ । 'ता पस ण' मित्यादि,
थैः, रात्रिन्दिवाग्रण रात्रिन्दिवपरिमाणनाख्यात इति वदेतो, एषा अनन्तरमुका नक्षत्रमासरूपा श्रद्धा द्वादशकृत्वः कृता- |
भगवानाह-'ता सत्तरसे' त्यादि नोयुगं हि किश्चिदूनं युगं द्वादशभिर्वारगुणिता इत्यर्थः , नक्षत्रसंवत्सरो भवति ,
तच्च नक्षत्रादिपञ्चसंवत्सरपरिमाणमतो नक्षत्रादिपञ्चसंसम्पति सकलनक्षत्रसंवत्सरगतरात्रिन्दिवपरिमाणमहर्सपरि वत्सरपरिमाणानामेकत्र मीलने भवति यथोक्ता रात्रिदिवसमाणविषयप्रश्ननिर्यचनसूत्राण्याह--'ता से ण ' मित्यादि ख्या । तथाहि-नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीणि रात्रिन्दिवसुगम,नवरं रात्रिन्दिवचिन्तायां नक्षत्रमासरात्रिन्विवपरिमा- शतानि सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकपण मुहर्तचिन्तायां नक्षत्रमासमहर्न परिमाणं द्वादशभिगुणि- श्चाशत्सप्तपष्टिभागाः,चन्द्रसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्विवशता. तव्यं,ततो यथोक्का रात्रिन्दियसंख्या मुहूर्तसंख्या च भवति। | नि चतुष्पश्चाशदधिकानि द्वादश च द्वापष्टिभागा रात्रिन्दियसू० प्र० १२ पाहु.। (चन्द्रसंवत्सरविषयः 'चंदसंवच्छर' स्य ऋतुसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि षधिकानि, शब्दे तृतीयभाग १०६५ पृष्ठे गतः।)(तसंवत्सरविषयः' उउ- | सूर्यसंवत्सरस्य त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि रात्रिसंवच्छर'शब्द द्वितीयभागे ६८६ पृष्ठे गतः।) (आदित्यसंव- न्दिवानाम्, अभिवतिसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानित्सरविषयः 'सूरसंघच्छर' शब्दे वक्ष्यते ) ( अभिवद्धितसं- ज्यशीत्यधिकानि एकविंशतिश्च मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तवत्सरविषयः अभिवडिय ' शब्दे प्रथमभागे ७२७ स्याष्टादश द्वापष्टिभागाः, तत्र सर्वेषां रात्रिन्दियानामकत्र पृष्ठ गतः।)
मीलने जातानि सप्तदश शतानि नघत्यधिकानि, य च एकप,
ञ्चाशत्सप्तपटिभागा रात्रिन्दिवस्य ते मुहर्तकरणार्थ त्रिंशसम्प्रत्येते पश्च संवत्सरा एकत्र मीलिता यावत्प्रमाणा रात्रिन्दियपरिमाणन भवन्ति तावता निर्दिदिक्षुः
ता गुण्यन्ते,जातानि पञ्चदश शतानि त्रिंशदधिकानि १५३०
तेषां सप्तपष्टया भागो हिर्यत, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहर्ता प्रथमतः प्रश्नसूत्रमाह--
एकस्य च मुहर्तस्य षट्पञ्चाशत्सप्तपष्टिभागाः २२६९। ता केवतिय ते तो जुगेराईदियग्गणं आहितेति वदेजा?, ता मुहताश्च लब्धाः एकविंशती महर्तेपु मध्य प्रक्षिप्यन्ते, सत्तरस एकाणउते राईदियसत्ते एगृणवीसं च मुहत्तं च
जातास्त्रिचत्वारिंशमुहूर्तास्तत्र त्रिशता अहोरात्रो लब्ध सत्तावले वावट्ठिभागे मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा ।
इति जातान्यहोरात्राणां सप्तदश शतान्येकनवत्यधिकानि
१७६१, शवास्तिष्ठन्ति मुह त्रयोदश १३, यऽपि च द्वापष्टि छत्ता पणपामं चुएिणय। भागे राइंदिग्गेणं आहितेति वदे
भागा अहोरात्रस्य द्वादश तेऽपि मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता जा । ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, गुण्यम्त, जातानि त्रीणि शतानि फायधिकानि ३६०, तपां
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संच्छर
या भागो हियते, लब्धाः पञ्चमुहूर्त्तास्ते प्रागुक्तेषु । अयोदशसु मुहूर्त्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यन्ते, जाता अष्टादृश, शेषापञ्चाशद्वाभागा मुहस्य पिचपद पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्तस्य ते त्रैराशिकेन द्वाषष्टिभागा एवं क्रियन्ते यदि सप्तषष्ट्रया द्वाषष्टिभागा लभ्यन्ते ततः षट्पञ्चाशता सप्तषष्टिभागैः कियन्तो द्वाषष्टिभागा लभ्यन्ते -राशित्रयस्थापना ६७ । ६२ । ५६ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं जातानि चतुस्त्रिंशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि ३४७२, तेषामादिराशिना सप्तषष्ट्या भागो हियते, सम्धा एकपञ्चाशद्वाषष्टिमायाः ते च प्राक्रेषु पञ्चाशति द्वाषष्टिभागेष्वन्तः प्रक्षिप्यन्ते जातमेकोतरं शतं १०१, ततस्तन्मध्ये भिवर्धितसंवत्सरसत्काः उपरितना अष्टादश द्वाषदिमागाः प्रतिप्यन्ते जातमेकोनविंशत्यधिकं शतं द्वापष्टि भागानाम् ११६, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः । । द्वाष्टया द्वाषष्टिभागैरेको मुद्द
•
"
सम्ध, समावादश मुर्गेषु मध्ये प्रतिप्यते जाता एकोनविंशतिर्मुहूर्त्ताः १६, शेषाः सप्तपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा अवतिष्ठन्ते इति ता से एमित्यादिपरिमाविषय प्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगमं, रात्रिन्दिवपरिमाएस्य त्रिंशता गुढ्ने तदुपरि शेष मुहूर्तप्रक्षेपे च यथोक्तमुद्र - परिमाणसमागमात् या केवइ वे' इत्यादि ता इति पूर्ववत् कियता रात्रिदिवपरिमाणे तदेव नोयुगं युप्राप्तमाख्यातमिति वदेत् ? कियत्सु रात्रिन्दिवेषु प्रक्षितेषु तदेव मोयुगं परिपूर्ण युगं भवतीति भावः । भगवानाह - 'ता अतीसमित्यादि महाविशद् रात्रिन्दियानि इश • मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्य चत्करो द्वाषष्टिभागा एकं च द्वापष्ठभाग सप्तषष्टिधा छित्वा तस्य सत्का द्वादश चूर्णिका भागा इत्येतावता रात्रिन्दिवपरिमाणेन युगप्राप्तमाख्यातमिति यदेत् एतावत्सु रात्रिन्दिवादिषु प्रक्षिप्तेषु तत् नोथुगं परिपूर्ण युगं भवति इति भाषः सम्प्रति तदेव नोगे परिमाणात्मकं यावता मुहूर्त्तपरिमाणेन प्रक्षिप्त प रिपूर्ण युगं भवति तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-'ता से ण' मित्यादि सुगमं भगवानाह - 'ता इक्कारसे' त्यादि, इदं चाष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवानां त्रिंशता गुणनेन शेषमुहूतीदिप्रक्षेपे च ययां भवति भावार्थश्वायम् एतावति परिमाणे प्र पिप्लेमा मोयुगमुपरिपरिपरिमा गं भवतीति । सम्प्रति युगस्यैव रात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्तपरिमाणंच प्रतिपिपाश्र्ववनसूत्रापाहता तेइत्यादि सुगमम् अधुना समस्येव मुहगतापभागपरिज्ञानार्थ] प्रश्नसुषमाता से य' मित्यादि सुगमम् भगवानाह - 'ता चोत्तीस ' मित्यादि, रामधिकृत्य सुगमम् भाषार्थस्त्वयम् चतुष्पश्चा शन्मुहूर्त्त सहस्राणां नवशताधिकानां द्वापष्ट्या गुणनं क्रियते ततो यथांशा द्वाषष्टिभाग संख्या भवतीति ।
9
( २३५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
सम्पति दासी चन्द्रन्द्रादि) संवत्सरः सूर्य (यदि संवत्सरण सह समादिः समपर्यवसानो भवतीति जिज्ञासिषुः प्रश्नं करोति
ता कता गं एते आदिचचंदसंबरा समादीया समय
संच्छर
अवसिया आहितेति वदेजा १, ता सट्ठि एए आदिवमासा बावट्ठि एतेए चन्दमासा, एस से श्रद्धा छ खुत्तकडा दुबालसभयिता तीसं एते आदिश्वसंवच्छरा एक्कतीसं एते चंद संच्छरा, तता गं एते आदिच्चसंबच्छरा समादीया समपञ्जवसिया श्राहिताति वदेजा। ता कता गं एते आदिचउदसक्खता संवच्छ समादीया समपनवसिया आहितेति वदेआ १, ता सट्ठि एते आदिवा मासा एगई एते उडुमासा बाबा एते चंदमासा सच एते नक्खता मासा, एस यं श्रद्धा दुपालन खुकडा दुबालस भविता स एते आदिचा संपच्छरा एम एते उसंबध बाब एते चंदा संवछरा स ते नक्खसंवरा, तताणं एते श्रादिच उडुचंद गक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपजवनिया आहितेति वदेजा। ता फ ता यं एते अभिवमादिषउदराक्खता संबच्छरा समादी या समपअवसिता माहितेति वदेजा ?, ता सचाव मासा सत्तय अहोरता एकारस य मुहुत्ता तेवीसं बाब ट्ठिभागा मुहुत्तस्स एते अभिवद्धिता मासा सट्ठि एते प्रादिमासा एग एते उडुमासा बावट्ठि एते चंदमासा सस एते नक्खत्तमासा, एस गं श्रद्धा छप्पष्मसतखुतकडा दुबालस भविता सचसता चोचाला एते अभिवद्वित्ता संवच्छरा, सत्तसता असीता एते सं आदिचा संबच्छरा सतसता तेगउता एते यं उबरा अनुसता बहुतरा एते गं चंदा संवछरा, एकसचरी अनुसया एए गं नक्सा संतता यं एते अभिवङ्गितच्या दिखउडुचंदनवसता संबद्धरा समादीया समपञ्जवसिया माहिति वदेजा, ता यताए गं चंदे संच्छरे तिरिय चउप्पले राईदियसते दुबालस य बावद्विभागे राईदियस्स श्रहितेति वदेजा, ता अहातचे थं चंदे संबद्ध तिथि पउप्पए राईदिसते पंच व मुहचे पश्याच बावट्टिभागे मुमुत्तस्स आहितेति वदेजा । ( सू०७४ )
'ता कया ण' मित्यादि, सुगमं, भगवानाह 'ता सट्ठि' मि. त्यादि, ता इति पूर्ववत्, पते-- एकयुगवर्तिनः षष्टिः सूर्यमालाः पतेच एकयुगान्तर्वर्तिन एव द्वान्द्रमासाः एतावती श्रद्धा पद्कृत्वः कियत - षभिर्गुण्यते ततो द्वादशभिर्भश्यते द्वादशभिश्च भागे - हृते त्रिंशदेते सूर्य संवत्सरा भवन्ति एकत्रिंशदते चन्द्रसंवत्सराः, तदा पतायति कालेतिक्रान्तं पंत आदित्यचन्द्र संवत्सराः समादयः समप्रारम्भाः समपर्यवसिताः समपर्यवसाना श्राख्याता इति वदेत् समप र्यवसान । किमुक्कं भवति ?- एते चन्द्रसूर्यसंवत्सराः विवक्षि तस्यादौ समाः -- समप्रारम्भप्रारब्धाः सन्तस्तत श्रारभ्य पिसाने समयमाना भवन्ति तथाहि--एक स्मिन् युगे प्रयश्चन्द्रसंवत्सरा ही चाि
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(२३६) संबच्छर अभिधानराजेन्द्रः।
संबहमेह तौ च प्रत्येक प्रयोदशचन्द्रमासात्मकौ, ततः प्रथमयुगे प. श्वाशन्मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागा इति । तदेवं संवत्सरवक्तव्यश्च चन्द्रसंवत्सरा द्वौ च चन्द्रमासौ, द्वितीये युगे दश च- ता समपञ्चमुक्ता । सू०प्र०१२ पाहुचं० प्र०ाज्यो । जं०। न्द्रसंवत्सराश्चत्वारश्चन्द्रमासाः, एवं प्रतियुगं मासद्विक
(संवत्सरेषु चन्द्रसूर्यावृत्तय 'प्राउट्टि' शब्दे द्वितीयभागे ३० वृद्धपा षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिशचन्द्रसंवत्सरा
पृष्ठे उक्नाः ।) वर्षासु चातुर्मासिके ज्येष्ठावग्रहे, वश०२०। भवन्ति, 'ता कया ण' मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् , कदा
"संघत्सरं पावि परं पमाणं, घीअं च वासं न तहिं वसिजा" णमिति बाक्यालकारे प्रादिस्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः
दश०२ चू। समादिकाः समपर्यवसिता प्राण्याता इति वदेत् १, भगवानाह- ता सट्ठी' त्यादि, पटिरेते एकयुगान्तर्वर्तिनः, सवच्छरदान-सवत्सरदान-न० ।
संवच्छरदान-संवत्सरदान-न० । तीर्थकरस्य प्रवज्यासआदिस्यमासा एकषष्टिरेते ऋतुमासाः द्वाषष्टिरते चन्द्र
| मये संवत्सरपर्यन्तदाने, आचा। मासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा संवच्छरपडिलेहग-संवत्सरप्रतिलेखक-पुं० । जन्मदिनादारद्वादशकृत्वः कृता; द्वादशभिर्गुणिता इत्यर्थः, तदनन्तरं सं- | भ्य संवत्सरमहोत्सवपूर्वकं जन्मदिनमहोत्सवे , यत्र दिने वत्सरानयनाय द्वादशभिर्भक्का तत एवमेते षष्टिरादित्यसं- वर्ष वर्षे प्रति संख्याशापनार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते , शा०१ वत्सरा एकषष्टिरेते ऋतुसंवत्सरा द्वाषष्टिरेते चन्द्रसंवत्स-| श्रु०८१० । रा०। राः सप्तपष्टिरते नक्षत्रसंवत्सरास्तदा द्वादशयुगातिक्रमे इ
संवच्छरपरियाय-संवत्सरपर्याय-पुं०। संवत्सरमेकं यावत् त्यर्थः, एते श्रादित्य ऋतुचन्द्रनक्षत्रसंघत्सराः समादिकाः ,
पर्यायः प्रव्रज्यालक्षणो येषां ते संवत्सरपर्यायाः। वर्षेकप्रत्र समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् । एतदुक्तं भवति
जितेषु स०५३ सम। विवक्षितयुगस्यादावते चत्वारोऽपि समा:--समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत प्रारभ्य द्वादशयुगपर्यन्ते समपर्यवसाना |
संवच्छरवासर-संवत्सरवासर-पुं० । सांवत्सरिकदिने, संब. भवन्ति, अर्वाक चतुर्णामन्यतमस्यावश्यंभावेन कतिपयमा. सरवासरे पूगीफलसहितनाणकप्रभावना लान्ति न वा ? सानामधिकतया युगपत् सर्वेषां समपर्यवसानत्वासम्भवात्,
इति, प्रश्नः?, अत्रोत्तरम्-पूगीफलादिसहितं तथा रहितां वा 'ता कया ण ' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् , भगवानाङ्-'ता
प्रभावना लान्ति, पश्चाद् यस्मिन् ग्रामे या रीतिस्तदनुसत्ताबम' मित्यादि, सप्तपश्चाशन्मासाः सप्त अहोरात्रा |
सारेण प्रवर्तितव्यमिति ॥ १५२ ॥ सेन० ४ उल्ला० । एकादशमुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागा संवच्छरादि-संवत्सरादि-पुं० । संवत्सराणामादिः संवएतावत्प्रमाणा एते एकयुगान्तर्वर्तिनोऽभिवद्धितमासाः ष- त्सरादिः । संवत्सराणामादितिथौ,सू०प्र०१ पाहु०। . प्टिरते सूर्यमासाः एकषष्टिरेते ऋतुमासा द्वाषष्टिरेते चन्द्र
संवच्छरिय-सांवत्सरिक-त्रि० । संवत्सरे भवस्सांवत्सरिकः । मासाः सप्तपष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा
वार्षिक विशेकायद्यकं वर्ष प्रतिदिनं क्रियते, यथा-संवत्सरषट्पञ्चाशदधिकशतकृत्वः क्रियते, कृत्वा च द्वादशभिर्भज्य
पर्यन्तं तीर्थकृतः प्रव्रज्यावसरे दीयते दानम् । आ० चू०१ ते, द्वादशभिश्च भागे हृते चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशत
अ० प्रा०म० । संवत्सरस्यान्ते सांवत्सरिकम् । वर्षान्तोसंख्याः ७४४ पतेऽभिवतिसंवत्सराः, अशीत्यधिकस
द्भवे, प्रव० ३ द्वार। प्तशतसंख्याः ७८० एते आदित्यसंवत्सराः, त्रिनवत्यधिकसप्तशतसंख्याः ७६३ एते ऋतुसंवत्सराः, षडुत्तराष्ट्र
संवच्छरियपडिकमण-सांवत्सरिकप्रतिक्रमण-न० । पर्युषशतसंख्याः ८०६ पते चन्द्रसंवत्सराः, एकसप्तत्यधिकाष्टश- णापर्वान्तप्रतिक्रमणे, कल्प०१ अधि०१ क्षण। ('काउस्सतसंख्याः ८७१ नक्षत्रसंवत्सराः, तदा णमिति वाक्यालङ्का- ग्ग' 'पज्जुसणा' शब्दयोरनयोर्व्याख्या ) रे एतेऽभिवर्द्धितादित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादि- संव-संवर्त-पुं०। नगररोधके, वृ०३ उ० । संवतॊ नाम यत्र काः समपर्यवसिता श्राख्याता इति वदेत् , अवोंक क- नगजलदर्गादिषु यहां ग्रामाणां जनः संवर्तीभृय तिष्ठति।ज्ञा० स्यापि कतिपयमासाधिकत्वेन युगपत् सर्वेषां समपर्यव
१७०१अाभयत्रस्तजनसमवाये,उत्त०३४अणचौरधाटीभयेन सानत्वासम्भवात् । सम्प्रति यथोक्नमेव चन्द्रसंवत्सरपरि
बहवो ग्रामनायकाधिष्ठिता एकत्र स्थिताः सवर्तः । वृ०३ उन माणं गणितभेदमधिकृत्य प्रकारद्वयेनाह-'ता नयट्ठाए'
जाले, श्रा०म० १ अ० । वातविकुर्वणानिवर्तन्ते ! संवइत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् , नयार्थतया परतीथिकानामपि
तकवातमुपसंहरन्तीति भावः । रा०। सम्मतस्य नयस्य चिन्तया चन्द्रसंवत्सरस्त्रीएयहोरात्रशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि हापष्टिभागा अहोरात्रस्येत्या
संवदइत्ता-संवर्त्य-अव्य० । एकत्र स्थाने न्यस्येत्यर्थे, औ०। दिगख्यात इति वदत् , याथातथ्येन पुनश्चिन्त्यमानश्च
स्था । संकोच्ये, स्था०२ ठा० ४ उ०। न्द्रसंवत्सरस्त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतपश्चाशदधिकानि संवट्टण-संवर्तन-न० । विनाशने, अनु । मार्गमिलनस्थाने, पञ्च च मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशत् द्वापष्टिभागा शा०१०२० । संक्षपण, आचा०१०८०६उ०। इत्यवंप्रमाण श्राख्यात इति वदेत् , तत्राहोरात्रपरिमाण- 'संवट्टण अचित्ते सुवराणे कुंडलाइकरणं' नि० चू० १ उ० । मुभयत्रापि तावदेकरूपं , ये तूपरितना द्वादश द्वापष्टिभा
संवदृणिग्गय-संवर्तनिर्गत-त्रि०। मासमायोग्यक्षेत्रान्निर्गत्य गा रात्रिन्दिवस्य ते मुहर्तकरणार्थ त्रिशता गुण्यन्ते , जातानि त्रीणि शतानि पट्यधिकानि ३६० , तेषां द्वाप-! संवत्त स्थितपु.
संवत्त स्थितेपु. बृ०३ उ० । एया भागो न्हियते, लब्धाः पञ्च मुहूर्ताः, शास्तिष्ठन्ति प-संवट्टमेह-संवर्तमघ--पुं० पुष्कलसंवर्तके मेघे, आव०१०॥
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संवय
संवय - संवर्त्तक- पुं० । संवर्तनमपवर्णनं संवर्त्तः स एव संबर्त्तकः । उपक्रमे, स्था० ।
( २३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दोrt श्रायसंवge पराणते, तं जहा- मणुस्साखं चैव, पंचेदियति रिक्ख जोखियाणं चेत्र । स्था० ३ ठा० २ उ० । ( सू० ८५ X ) जं० ॥ नं० ।
1
संवट्टयवाय - संवर्त्तकवात-पुं० । संवर्तनस्वभावे, भ० १ ० १ उ० । वायुकायभेदे, भ० १ ० ४ उ० । रा० । श्रा० म० । संबद्ध - संवर्त्तित - त्रि० । “र्तस्याधूर्तादौ ८ | २|३०| अने मात्र संस्य इकारादेशः संवहियं पिएडीभूते, प्रा०मि० चू० । संकोचित, स्था० २ ठा० ४ उ० । संवट्टियावराह - संवर्त्तितापराध- पुं० । संवर्तिताः पिण्डीभूता अपराधा यत्र तत् संवर्त्तितापराधम् । बह्नपराधे, संचयितमासे, व्य० १ ३० । संवृते, दे० ना० ८ वर्ग १२ गाथा । संवडिय संवर्धित भोजनादिना वर्जित अनाथपुत्रके,
स्था० १० ठा ३ उ० ।
संचय - संवर्धन- ० 'स्पा' ॥ २३० ॥ इति धूर्तादिपर्युदासान टः । पिण्डीभवने, प्रा० २ पाद । संवर-संवर- पुं०|क-ग-व-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् ॥ ८११७७ इति स्वरात्परत्वाभावान्न लुक । प्रा० । संवरणं संवरः । आच्छादने विशे० संवियते कर्म कारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः । श्राश्रवनिरोधे, स्था० १ ठा० । प्रश्नव्याकरणेषु श्रहिंसादिशब्देषु, प्रश्न ०१ श्र०द्वार सम्म० । संवरस्योत्तरप्रकृतयः । द्रव्या० । स्था० । अथाश्रवप्रतिपक्षभूतसंवरस्वरूपमाह
एगे संचरेत्र)
संवियते कर्म कारादि येन परिसामेन संवरः श्रयनिरोध इत्यर्थः सच समितिगुप्तिधम्र्मानुप्रेक्षा परीषहचारित्ररूपः पञ्चभिराद्वादशद्वाविंशति-पञ्च भेदः, आह" समिई ५ गुत्ती ३ धम्मो १०
पेह १२ परीसहा चरितं च ५। सतावनं भैया, पतिगभेया संवरणे ॥६॥” ति अथवाऽयं द्विधा द्रव्यतो, भा वतश्व । इयतो जलमध्यगतनायादेरनवरतमविशजानां छिद्राणां तथाविधद्रव्ये स्थागनं संवरः भावतस्तु जीवयामात्कजलानामिन्द्रियादिािंसमित्यादिना निरोधनं संवर इति । स च द्विविधोऽपि संवरः सामान्यादेक इति । स्था० १ ठाणे संथा० । सूत्र० । पं० भा० श्राव० । स० । प्राणातिपातविरमणादौ श्र० । नं० । श्राचा० । सूत्र० । श्रशुभकर्मागमनिरोधे, श्राव० ४ श्र० । श्राअवद्वारप्रविशत् कर्म निरोधे, जीत फर्मानुपादाने ०५ सम० | सम्म० । श्रौ० । श्रा० । जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधने, स्था१ ५ ठा० २ उ० | चारित्रे, दश०५ श्र० २ उ० । इन्द्रियप्रायनिग्रहादि स्था० ० ० इन इन्द्रिय सङ्गोपने।। स्था० १० ठा० ३ उ० श्रा० म० संवरसिसिंदरस्यत्यक्षानुमानागमप्रसिद्धता न्यायानु
"
६०
संघर चैतन्यपरिणतः स्वात्मनि स्वसंवेदनाध्यक्ष सित्वाद् अन्यत्र तु तरभभवकार्यानुमेयत्वादागमस्य व तत्प्रतिपादकस्य प्रदर्शितत्वात् । सम्म० ३ काण्ड । कर्म्म० ।
पच संपद्वाराणि
पंच संवरदारा पत्ता, तं जहा सम्मत विरती अपमाश्री अकसातितमजोगि०-४१+)
तथा संवरणं जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधने सेवरस्तस्य द्वाराणि उपायाः संवरद्वाराणि, मिथ्यात्वादीनामाश्रवाणां क्रमेण विपर्ययाः सम्यक्त्वविरत्यप्रमादाकषायित्वा योगित्वलचणाः प्रथमाध्ययनषद् षाच्या इति । स्था०५ ठा०
२ उ० ।
पत्रविध:
+
पंचविहे संवरे पाते तं जहा सोइंदियसंवरे जाव फार्सिदियसंचरे (सू०-४२७) स्था० डा०२ ४० ।
पदविधः संप
छवि संवरे पत्ते, तं जहा -- सोइंदियसंवरे ०जाव फासिंदियसंवरे णो इंदियसंचरे । ( सू० -- ४८७+) स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
अष्टविधः संवरः -
वि संवरे पण, तं जहा सो इंदियसंवरे० जाव फासिंदियसंवरे मणसंवरे वयसंवरे कायसंवरे । ( सू० ५६८) स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
दसविहे संवरे पष्पत्ते, तं जहा सो इंदियसंवरे ० जात्र फासिदिपरे मशवकाप उपगरथसंवरे सम्म संबरे (०-७०६) स्था० १० ठा० १३० । प्रतिघाते, सूत्र० १ ० १ ० ३ उ० । संवरद्वारे प्रतिपक्षद्वारमाह
"
“वाणारसी कुटुग-पासे गोपालिभइसे य । नंदिसिरी पउमसिरी, रायगिहे सेणिए वीरे ॥ १ ॥ " " पुरे राजगृहे श्रीमद्वर्द्धमानप्रभोः पुरः । एका नाट्यविधि देवी, दर्शयित्वा ययौ ततः ॥ १ ॥ पतिः कैा, वास्तूचे काशिपतने। भद्रसेनाभिधो जीर्षुः श्रेष्ठी नन्दा च तत्प्रिया ॥ २ ॥ नन्दश्रीस्तत्सुता कन्या, तत्र चैत्ये च कोष्टके । श्रीपार्श्वः समवासार्थी नन्दश्रीः प्रावजत्ततः ॥ ३ ॥ दत्ता गोपालिकायाः सा, शिष्या तीव्रं तपो व्यधात् । पश्चाश्च वकुशा जाता, हस्तपादादिधावनात् ॥ ४ ॥ वार्यमाणा पृथकस्था तु तदनालोच्य सा मृतां । जुड़े हिमवदात्री श्रीदेवी पचहदेऽभवत् ॥ ४ ॥ सैपा नाट्यं व्यथादस्याः, फलमल्पम संवरात् ॥ श्राक०४०| स्तानिकाशोधकेषु व्य० २ उ० | अनेकशास्त्रशु द्विखुरे श्रटव्यपशौ प्रश्न० २ श्र० द्वार प्रज्ञा० । शा० । जं० । अभिनन्दनजिनस्य पितरि प्रव० १६
"
"
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) २३८ ) अभिधान राजेन्द्रः |
मंचर
द्वार । आय० । स० । भारते वर्षे भविष्यति तीर्थकरे "अट्ठारसां सपालिजीयो संघ एवीस संवरो दीवायणजीवो संवरो, ” ती० २० कल्प। स० - ञ्चदश्यां गौणानुज्ञायाम्, नं० | प्रब० । संवरजोग-संवरजोग - पुं० नूतनकर्मनिरोधः
योगो व्यापारः, संवरेण योगः सम्बन्धो नूतनकर्म निरोधव्यापारे, ध० ३ अधि० । उच्चारणा संवरजोगे " पा० ।
66
संवास
अष्टादशे संवसमाणी-संवसन्ती-स्त्री० । पुरुषेण सह संग्रासं कुर्वत्पा
म्, स्था०५ ठा० २४० ।
संवहण - संवहन- न० | क्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्ठान्प्रावेगृहादावानयने, उपा० १० । वृद्धस्य प्राम्यभाषायां संबोधनप्रयोज्य शब्दे, 'वृद्धं संवदति यो वरज्जा' आचा० १ ० २ ० ६ उ० । दश० ।
संवहणिय-सांवहनिक- त्रि० । संवहणं क्षेत्रप्रदिभ्यस्तृणकाधान्यादेादायानयनम् प्रयोजनइनिकम्मारवहनगन्ज्याम् उपा० १ ० ।
"
३ उ० । श्रा संवाया – देशी - नकुले, श्येने च । दे० ना०८ वर्ग ४७ । प्रच्छदपटे,
० १
संवरस्तपो
वा संवरयोगः ।
एसा महव्वय
संवरण- संवरण न० । संचरणे, विशे० आ० संरक्ष - । । । :
--
"
पं० ० ३ द्वार। सङ्गापने, स्था० १० ठा० च्छादने, बृ० २ उ० । निवारणे, बृ० ४ उ० बृ० १ उ० २ प्रक० | पर्यालोचने, शा० १ कपाटे, वृ० १ उ० ३ प्रक० । संवरणकरण- संवरणकरण १० प्रत्याख्यानप्रये, ४० २ अधि० ।
संवरण-संरणी स्त्री संपरकारिणि विद्या शा० १ श्रु० १६ श्र० ।
संबल-संरबहुल प्र० प्राणातिपाताचाभवद्वारनि
।
탕
रोधप्रचुरे, प्रश्न० ३ संव० द्वार । संवरभावणा-संवरभावना स्त्री० । संवरतस्वपर्यालोचने
प्रव० ६७ द्वार । ( संवरभावना 'भावणा' शब्दे पञ्चमभागे १५०८ पृष्ठे गता । ) संघरसंबुद्ध-संवरतत्र० प्राणातिपातादिपञ्चमदामको
।
--
पते, सूत्र० १ ० १ ० ४ उ० ।
संवरसमाहिपहल - संवरसमाबिहुल गुं । संवर इन्द्रि संवरसमाहिबहल-संवरसमाधिबहुलयविषये समाधित्नाकुलत्वं बहुलं प्रभूतं यस्य स तथा विध इति समासः । संवरसमाधिप्रचुरे, दश० २ ० । संवरसुय-संवरसुत - पुं० । श्रभिनन्दनजिन, “तिन्नेव सय सहस्सा अभिगंदरावरस्स सीखाएं। सम्बविरिवस्सा सिद्धत्तं संवरसुयस्स ॥ " ति० । संवरिय-संकृत स्थितेि ५० संपरिय श्राव० । " [लपवा]"तीर्षातिरेकान्तस्थूरीभवन्तौ निषिद्धी वलयैः कटकैर्बाह भुजी यस्याः सा तथा । भ० ६ ० ३३ उ० । संवरियदार - संवृतद्वार - त्रि० । संवृतानि स्थगितानि आधमद्वाराणि प्राणातिपातादीनि येन सः श्रच्छादितेन्द्र यद्वारे, बृ० ३ उ० । श्राव० ।
।
,
संवलि - संवलि - पुं० | वृक्षविशेषे, स्था० ५ डा० २ उ० । संयवहारिपचक्ख सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष न०सिंव्यवहारो बा "धारहित निवृत्ती प्रयोजनमस्पति साध्यवहारिकम् तश्च प्रत्यक्षं वेति बाह्यन्द्रियादिसामग्री सापेक्षत्वादपारमार्थिकेऽस्मदादिप्रत्यक्ष, रत्ना० ३ परि० ।
संवसरा मंचन न० श्रीभिः सार्द्धं परियांगे सू० १ ध्रु० ४ ० १ ३० | सहबातें, पं० भा० १कल्प | पं० चू० ।
·
गाथा ।
संवाय संवाद - ५० संवाद, रामादिविरहे यथावद् वद
ने, विशे० । धर्मकथाया व्याख्याने, सूत्र० १ ० १४ अ० । संवादिति चेतु संपात्ययस्याष्यकारात्यविशेषोऽस्माद दुष्टकारणात्ययात् सम्म
१ काण्ड । स्था० ।
संवास - संवःस - पुं० | सान्निध्ये, सूत्र० १ ० ४ ० १ ३० ॥ सम्भजनायाम्, आ० चू०४० । मैथुनार्थे संबसने, स्था० ४ ठा० ४ उ० । औ० । चिरं संवासे, स्था० ४ ठा० १ उ० । स्त्रीभिः सहैकत्र निवासे, सूत्र० १ ० ४ ० २ उ० । श्राचा० । संवासभेदानाह—
चविहे संवासे पमते, तं जहा - देवे खाममेगे देंबीए सर्दि संवास गछे, देवे गाममे बीएस संवागच्छेत्री साममेगे देवीए सहि संवासं गच्छेजा, छवी साममेगे पीए सद्धि] संवास गच्छेजा। छत्री (सू० २४८ + ) स्था० ४ ठा० १ उ० ।
संवासो दिव्यासुरराक्षसमानुषाणाम्
"
उवि संवासे पत्ते, तं जहा दिव्वे आसुरे रक्खसे माणुसे १। चउव्विहे संवासे पपत्ते, तं जहा- देवे नाममेगे देवीए सर्दि संवासं गच्छ देवे नाममेगे असुरी सद्धि संपास गछह, असुरे नाममेगे देवीए सर्दिवास ग च्छर, असुरे नाममेगे अमुरीए सद्धिं संवासं गच्छ २, चविहे संवासे पाने, तं जहा देवे साममे देवीए स दिवा गच्छ देवे नाममेगे रक्खसीए सर्दि संपा संवासं
"
.
गच्छर, रक्खसे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवास गच्छति । ४-३ । संवासेले तं जहा देवे नाममेगे देवीए सर्दि संवासं गच्छह, देवे नाममेगे मणुस्सीहिं सद्धिं संवासं गच्छ मस्से णाममेगे देवीहिं सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे मसीह सदि संवासं गच्छति । ४-४ । चउपि संवासे पत्ते, तं जहा असुरे नाममेगे असुरीहिं सद्धि संचासं
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संवास अभिधानसजेन्द्रः।
संत्रास गच्छइ, असुरे नाममेगे रक्खसीहिं सद्धिं संवासं गच्छइ० | होंति समणाण वसित दोसा किं-पुणेमारणिगिणिा८७ ४-५ । चउबिहे संवासे पलत्ते, तं जहा-असुरे नाममेगे उभभो दिट्ठमदिवे, दिपियारे य भवे खोमो । असुरीए सद्धिं संवासं गच्छह असुरे नागमेगे मणुस्सीए आयपरउभये दोसा,वितिए भंग न कप्पती बितियं४८८ सद्धिं संवासं गच्छइ०४-६ । चउबिहे संवासे परमत्ते; तं विहसुद्धदव्वदाणं, अद्धाणादिसु वएति एगत्थ । जहा-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छदार- एमेव ततियभंगे, अद्धाणे उवस्मयं तु लभे ॥ ४८६ ॥ क्खसे नाममेगे माणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ०॥
"चउबिहे संवास" त्यादि कण्ट्यं नवरं स्त्रिया सह संव- खड्डादिमज्झे समणी, सावयभयचिट्ठणादीसु ॥४६॥ सन-शयनं संवासः, द्यौः-स्वर्गस्तद्वासी देवोऽप्युपचाराद्
एमेव चरिमभंगे, दोसा जयणा सुदप्पमादीहिं । द्यौस्तत्र भवो दिव्यो वैमानिकसंबन्धीत्यर्थः । असुरस्यभवनपतिविशेषस्यायमासुर एवमितरौ,नवरं राक्षसो-व्यन्त
सभयम्मि मज्झेसमणी,निरवाए मरगतो एति॥४६१॥ रविशेषश्चतुर्भङ्गिकासूत्राणि देवासुरेत्येवमादिसंयोगतः षड् दुहतो वाघातो पुण, चउत्थभंगम्मि होति नायव्यो । भवन्ति । स्था०४ ठा०४ उ० । (संवास संभोगः 'संभोग'शब्द- एमेव य परपक्खे, पुब्बे अवरम्मि य पदम्मि ॥४६२॥ ऽस्मिन्नेव भागे २०६ पृष्ठे निषिद्धः।) षण्ढकः कलीयो वातिक
दुहतो वाघायम्मी, पुस्तो समणा तु मागतो समणी । इति प्रयो न कल्पन्त संवासयितम् । वृ० ४ उ०१प्रक०।
खुडाहि भणावेंति, कज्जे देयं ति दावेति ।। ४६३ ।। स्था० । प्राधाकर्मभोक्तृभिः सहैकत्र संवसने, पिं० । (आधाकर्मभोक्तृभिः सह संवासात् शुद्धाहारभोज्यपि श्रा- बितियभंगे समणीण उवधिवाघातो। ततियभंगे सधाकर्मभोजी द्रष्टव्य इति श्राधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे मणाण वचसा विभंगेसिमे दोसा । संचारते गाहा । पढम२१६ पृष्ठे गतम् ।)
भंगे उभये वि संचरिते वीसत्थादि पालावादिया य दोसंचलस्य सचेलिक्या सह संवासे प्रायश्चित्तम्--
सा किं पुण बितियततिय उभयणिगिन्ने य सविसेसा दोसा।
संजतो संजती वा चिंतेति-दिटुं अदिटुं मे अंगादाणादि - जे भिक्खू सचेले सचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा
सागारिया दिट्ठिपयारेणं चित्तक्खोभो भवति, खुभित्रो साइजइ ॥१६४॥ जे भिक्खू सचेले अचेलियाणं मज्झे सं- अणायारपडिसवणं करेजा । दुहओ वा गाहा । पुव्बद्धं कंवसइ संवसंतं वा साइजइ।।१६शाजे भिक्खू अचेले सचेलि
ठं, परपक्खो गिहत्थिअन्नतिथिणीना तसु एवं चव चउयाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइजइ॥१६६॥ जे भिक्खू
भंगो दोसा य बत्तब्वा । एगतर उभयपक्खे वा विवित्ते व
स्थाभाव खंडगपत्तदज्झचीवरहस्थपिहणादि जयणा काथव्वा अचेले अचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइजइ।१६७ सावयभयादीसु य संजाओ मज्झे छोढुं ठाणानी चतज्जा दुसंचला संजता सचेलाश्री संजतीश्रो चउभंगसूत्रं व्या- हतो वि अवेलाण पंथे इमा गमणे विही। दुहा वा गाहा । ख्ययं । चउसु वि भंगसु चउगुरुं तवकालपरिसिद्ध । अग्गतो साहू गच्छति पिटुतो समणीभो,जति संजतीश्रो किंगाहा
चि वत्तवाश्रो खुडेहि भणावेति । जं किंचि देयं तं पिखुहिं
चेव ववावेति ।सभए पण पिट्रो अग्गतो पासतो वा संजया जे भिक्खू य सचेलो, ठाणनिसीयणतुयट्टणं वा वि।।
गच्छति न दोसो । वियच उत्थेसु भंगेसु सवपयत्तण सबेतिजइ चलाणं, सो पावति प्राणमादीणि ॥४८४॥ जतीण वत्था दायव्वा । वीसत्थादी दोसा, चतुद्देमम्मि वनिया जे तु ।
गाहाते चव निरवसेसा , सचलमज्झे अचेलस्स ।। ४८५ ॥ समणाणं जो उ गमो, अट्ठहि सुत्तेहि वस्मितो एसो। कंठा।
सो चेव निरवसेसो, वत्तव्यो होइ समणीसं ॥ ४६४ ॥ कारणे वसेज
चउरो संजतिसुत्ता चउरो गिहत्यन्नतिथिणीपसु एते अट्ट। वितियपदमणप्पज्झे, गेलएणुवसग्गरोहगट्ठाणे । संजतीण वि संजतेसु चउरो सुत्नागिहत्थन्नतित्थीपसुबडसमणाणं असतीए, समणी पन्चाविते चेव ॥ ४८६ ॥| रो एसेव विवज्जासो दोसा य वत्तव्वा । नि० चू०११ उ० । अणप्पज्झ वसन्ज । गिलाण पडियरंतो बसेज्ज । उबसम्गे
नायकमनायकं वा संवासयति- . वा जहा सो रायकुमारो संगुत्तो रोहए या एक्कवसही ल- जे भिक्खणायगंवा प्रणायगं वा उवासगं बा-अणुवाखा, अलद्धाण पडियन्ना वा । संजयाण असति संजतिब-। सहीए वसेजा। अहवा दो विचम्म श्रद्धाण पवित्रा घ- -
। सगं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं रातिए-कसिणं वा रायं संसज्जा । अथवा समणाण असती ते समणीहिं भाया पिया वासावेइ संवासावंतं वा साइजइ ।। १२ । जे भिक्खू तं वा पव्वाविना सो वसेज्जा।
न पडियाइक्खेइ ण पडियाइक्खंतं वा साइलइ ॥ १३ ॥ गाहा
णायगा स्वजनो अणायगो-अस्वजनः उवासगो-श्रावकः एमेव वितियभंगे, कंतारादीसु उवहिवाघातो।
इयरी अणुवासगो अद्धं रानीए दो जामा, वा विकप्पेण ए
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(२४०) संवास अभिधानराजेन्द्रः।
संविग्ग गं वा जाम, चउरो जामा, कसिणराती, वा विकोण ति-| संका । किंच खूणं एयस्स गिहत्थस्स किंवर्ण जिजामा एगवसहीए संवासा पसाहिति भणाति, भाणं अपसितं, मायु संजएहिं । उहविप्रो गेराहणादिया दोसा पाथा भणुमोदेति, जो तंण पडिसेधति, भएणं वा पडिसेधत घेति । कोह सहो असहो वा अपुट्टधम्मी तं हिरणं जाणेपाणुमोदेति तस्स चउगुरुं। .
ता तं से हरिउ णासेज, एवं गमणगहणपक्षेवि । स गाहा
हिरमग जाणिता तं मिहत्थं भएणो कोर गिही हरेज णायगमणायगंवा, सावगमस्सावगं च जे भिक्ख ।
ताहे संजतासि किंकजंति, ताहे सो रायकुलं गतं कहेजा
संजएहि मे हिरण प्रासियाविय, तत्थ गेराहणादिया दोसा। अर्द्ध वा कसिंणं वा, रातिं तु संवसाणादी ॥१२६॥ आदिग्गहणातो वा उभय हरेज । जम्हा पते दोसा। प्राणाप्रवत्थिया दोसा।
तम्हा ण संवसेजा,खिप्पं णिक्खामते ततो ते उ । गाहासाधु उवासमाणो, उवासगो सो वती व अवती वा।
जे भिक्खूण निक्खामे, सोपावति प्राणमादीणि।१३२।। तो पुण णायग इतरो, एवऽणुवासे वि दो भंगा॥१२७।।
णिक्लमण णिष्फरणं तत आश्रयात् ते इति-गृहस्थाः सा
इहिं च तज्जा णिग्गच्छहिति। नि००८ उ०। (कारणे साधु उवासतीति उवासगो, थूलगपाणवहादिया य या
घसेवपीति निशीथप्रन्धादष्टमोद्देशकादबसेयम् ।) (अजेणं गहिता सो वती, हयरो अवती । सो दुविहो वि स
प्रत्यं बक्तव्यं ' ठाण ' शचे चतुर्थभागे १६६५ पृष्ठ । ) यणो, असयणो य । एवं अणुवासए वि दो भंगा; भंगा :
('णिग्गंधी ' शब्ने चतुर्थभागे २०४७ पृष्ठे च गतम् ) ति प्रकारा इत्यर्थः ।
वापकानां कर्षकाणामावासे , अन्नत्य किसिं करेत्ता इमं पुण सुतं । गाहा
अमत्थ बोदुं वसंति तं संवासं भएणति । नि० चू० १२ उ० । इतिथ पडुच्च सुतं, सहिरमसभोयणे व आवासो। संवासभय-संवासभद्रक-पुं० । संवासश्चिरं सह वासस्तजति णिस्सागयं जे वा,मेहुणणिसिभोयणं कुजा।१२८। स्मिन्भद्रकोऽहिंसकत्वात् संसारकारणनियोजकत्वाद् वेति जहारधी उवासगे संवसति, सइत्थीओ वा पुरिसो,अणि
संवासभद्रकः । संवासभद्रकारिणि, स्था०४ ठा० १ उ० । स्थीनो वा सहिरएणो,अहिरमो गहियपत्तपाणभोयणो एते संवासित्तए-संवासयितुम्-अव्य०। एकसमीपे पासयितुमिषा साधू वसहीए भाषासेति,रातो साधु वा पहुच भागता त्यर्थे, वृ०४ उ० । स्था० । संस्तारकमण्डल्यां निवेशयितुघसहिटिया मेहुणं करेति,रातो वा भुंजति । एपसु सुत्तणि- मित्यर्थे, स्था० २ ठा०१ उ०। बातो-ह । एतहासविप्पमुक्के पुरिसे- । पुण अद्धराईए एगं
संवाह-संवाह-पुं० । समभूमौ कृर्षि कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूथा जामं तिरिण वा जामा स भवति । गाहा
तेषु धान्यानि कृषीवलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति कृषीवलाना
धान्यरक्षार्थ निर्मितेषु समभूमितलेषु,स्थानेषु,स्था०१ ठा० । जति पत्ता तु निसीहे, एगे व णितेसु अलमपतरे ।
संविक्खमाण-संवीक्षमाण-त्रि० । समतया तमाणे, उत्सव एगतरमुभयतो वा, वाघातेणं तु अद्धणिसिं ॥१२६॥
२४ अ०। जह अद्धरत्ने वा एगम्मि वा जामे गते तेहि वा जाम-विग-संविग्न-पुं० मोक्षाभिलाषिणि, वृ०३ उ० श्रावका पं० हिं गतेहिं पत्ता हवेजा। एगतरं ति गिहत्था संजता वा,
व०। औपश्चा०।०म०। दर्शाध०व्या वक्ष्यमाउभय त्ति गिहत्था संजया य, एवं वाघायकारणेण वा श्र
गलक्षणसंबेगमझे, सूत्र०१ ध्रु०१०१ उ०। पश्चा० । यो प्पणो वा रातीए पए णिग्गच्छताण अडणिस्सादिसंभयो ।
वि०।ध०। उत्त्रस्ते, व्य०१ उ० । संविग्ना नाम उत्त्रस्ताभवति।
स्ते च द्विधा द्रव्यतो, भावतश्च । द्रव्यतः संविना मृगास्तेषां गिहिणा सह वसंताण इमे दोसा । गाहा
इतस्ततो वा बिभ्यतां प्रायः सदैवोत्रसमानत्वात्। भावससागारिय अधिकरणे, भासादोसा पबालमातंको ।। विना ये संसारादुत्त्रस्तमानसतया सदैव पूर्वरात्रादिष्वेतमाउयवाघातम्मि य,सपक्खपरपक्खतेणादी ॥१३०॥
श्चिन्तयन्ति । 'किं मे कडं किंवा मेऽस्थिसेस कि सकणिजं न
समायरामि' इत्यादि । व्य०१ उ०। (संविग्नस्य विशेषता किं वा णट्ठा एएहि , घाइतो गहणदोसगमणं वा ।
व्याख्या 'उस्सारकप्प' शब्दे द्वितीयभागे १९७६ पृष्ठे गता।) अमेणावि अवहिते, संकागहणादिया दोसा।।१३।। सविनो दब्बसंविग्गो, भावसंविग्गो। सब्बतो अवजस्स काइयसलां वोसिरति तो उद्गस्स अभावे कारणतो मो- बीहेति । उक्तंच-"मृगा यथा मृत्युभयस्य भीता, उद्विग्नयपमजणेण पायपमजणेण वा सागरियं भवति, आउज्जोए | वासे न लभन्ति निद्राम्। एवं बुधा ज्ञानविशेषबुद्धाः, संसारवणवणियादि अधिकरणं । अहवा णिताणिते चलणा- | भीता न लभन्ति निद्राम् ॥१॥" प्रा० चू०३ श्र०। श्राय। दिसंघट्टिते अधिकरणं कलहो हवेज । जति संजतिभा- पं०भा०। पं०चू। संसारभीरौ, पश्चा० १२ विव० । सामासाहिं भासति तो गिहत्था गेराहति । अह गारस्थिय- | चार्या सम्यगुथुक्ने, व्य०४ उ० । सम्यग् व्याप्ते वशीभूते , भासाए भासति तो असंजता वोलेंति । सो गिहत्थो सप्पेण | सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। उद्यतविहारिणि , नि० चू०४ खातो, प्रायंकण वा मतो, अध य कालेण वा मतो, ताहे| उ० । वृ०। प्राव।
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(२४१) संविग्गपक्खिय अभिधानराजेन्द्रः।
संवेग संविग्गपक्खिय-संविग्नपाक्षिक-पुं० । संविग्नाः सुसाधवः संवुड--संवृत-त्रि० । उपयुक्ते सत्साधी, दश०५ १० १३०। तेषां पक्षण चरति यः सः संविग्नपाक्षिक स्तेपां या पा- निरुवेन्द्रिये, पी० । सामान्येन प्राणातिपाताचाश्रयद्वारसक्षिकः पक्षप्राही संविग्नपाक्षिकः । सम्यक्त्वसंयमपरिपाल- बरोपेते, भ० ११ श० ११ उ० निरुद्धाश्रयद्वारे सर्वविरते, मासमर्थसंयतिपक्षपातेन प्रात्मनिस्तारके, दर्श०१ तत्व । भ० १६ श०६ उ०। उत्त । प्राचा० । मनायाकायगुप्ते, पश्चापं०५०। (अत्रत्यव्याख्या ' सलेहणा ' शब्दे 5- | सूत्र०१७०४०१ उ०। यमनियमरते, सूत्र० १० १ स्मिन्नेव भागे २१८ पृष्टे गता।)
अ०४ उ० । त्रिगुप्तिगुप्ते, सूत्र०१ श्रृ०२ १०३ उ० । उत्त०। अथ संविमपाक्षिकस्यैव किंचित् कर्तव्यं दर्शयलाह- ।
इन्द्रियनोइन्द्रियः संयत, सूत्र०१ १०१ १०४ उ०। (सं
वृतस्यानगारस्य क्रियाया विषयः 'अरणगार' शब्दे प्रथमभासम्मग्गमग्गसंप-ट्ठिाण साहूण कुणइ वच्छल्लं ।
ग २७२ पृष्ठ दर्शितः ।। समन्तत आवृत , चं० प्र०२० पामोसहभेसजेहि अ, सयमन्त्रेणं तु कारेइ ॥ ३॥
हु०। पार्श्वतः कटकुडमादिनाऽऽच्छादिते, उत्त०१ अ०। सम्मागमार्गसंप्रस्थिताना-सन्मुनिमार्गे सम्यक प्रवृत्तानां साधूनां-मुनीनां करोति-विधत्ते, स्वयम्-श्रात्मना वात्सल्य
धत्त, स्वयम्-श्रात्मना वात्सल्य संवुडकम्म-संवतकर्मन्-पुं० । संघृतानि-निरुद्धानि कर्मासमाधिसंपादनम् , अधिकारात् संविग्नपाक्षिकः,कैः? औषध
एयनुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यावर्शनाविरतिभैषज्यैः । तत्र श्रौषधानि-केवलद्रव्यरूपाणि बहिरुपयोगी
प्रमादकपाययोगरूपाणि चा यस्य स तथा। निरुद्धकर्मशि, निया भैषज्यानि सांयोगिकानि अन्त ग्याणि चा, चशब्दो- सत्र०१०२५०३ उ० । उनेकाम्यप्रकारसूचकः। तथाऽन्येनात्मव्यतिक्कन कारयति, तुशवात् कुर्यम्तमन्यमनुजानातीति गाथाछन्दः। ग०१- | सडचाारणा)-सतचार
'| संवुडचारि(ण)-संवृतचारिन-पुं०। यमनियमाशुपते शदमनधि०।द्वा०। “संविग्गोऽणुषएसं, ण तुष्भासिनं कद- स्क, सूत्र. १९०११०२ उ० । विवाग। जाणतो तम्मि तहा, अतहक्कारो उमिच्छत्तं ॥३॥" संयुडबहल-संवृतबहुल-त्रि०। प्राणातिपाताधाश्रयद्वारनिरो इति । द्वा०१द्वारा
धप्रचुर , प्रश्न० ३ सय द्वार । संविग्गभाविय-संविग्रभावित-त्रि० । उच्चतविहारिसंभाघि-संवृडधियडा-संपतविकृता-स्त्री० । संवृतविवृतोपमरूपे योते, णिचू०४ उ०।
निभदे , स्था० ३ ठा० १ उ० । प्रचा। संविग्गविहार संविनविहार-पुं० । संविनानुष्ठाने, भ०१श०
१० | संचुडा-संघृता-स्त्री० । घटिकालयवत् योनिभने , स्था० ३ ६ उ०।
ठा० १ उ० । प्रज्ञा। संविग्गविहारि(ण)-सविनविहारिण पुं० । संविग्नानुष्ठानक-बराबर-बतायत
| संबुडासंड-संधूतासंवृत-न । संवृतासंवृताः स्थगितास्थाग तरि उद्यतविहारिणि, भ० ११ श० १२ उ०।
| ताः परित्यक्तापरित्यक्ताः सायद्ययोगाः यस्मिन् सामायिके संविग्गसुहाभिगम-संविग्नसुखाभिगग--त्रि० । सविनैः सं- तत्संवृतासवृतम् । दशविरतिसामायिक , विश० । मा० सारभयोगाविर्भूतमोक्षाभिलारैरपकृष्यमाणरागतपाईका- म० । रकालुष्यरिदमेब जिनवचनं तस्यमित्ययं सुखेनावगम्यते | संवर-संघद्ध-पुं०। अव्युत्क्रान्ते, प्राचा० २०१० यत्तत् संविग्नसुखाभिगमनम् । संविग्नानां स्थावयाध, स-
वाघ, स- १०८ उ०।
01301 म्म०३ काण्ड।
संवेग--संवेग--पुं० । संवेजनं संधेगः । भ० १७ श०३ संविदत्त-समअिंत-त्रि० । सम्पादिते, पं० १०१ द्वार ।
उ० । सम्यग् घग उवंगः संवेगः । मा० १.४० । संवित्ति-संवित्ति-स्त्री० । शाने, प्रा०म० १ ० । स्था।
माक्षात्कण्ठ, मा० ० ४ ० । व्य० नरसुरसुखसंविधुणिय-संविधूय-श्रव्य० । प्रमध्येत्यर्थे, प्राचा०१९०६ परिहारण मोक्षसुखाभिलाषे, दश० १ ० । प्रध० । अ०८ उ०।
द्वाधा । संघा० । ध०। संथा। दर्श। भए । वि
रतिप्रतिपत्तिकारणभूते मोक्षाभिलाषाध्यवसाये , पश्चा० संविभागि(ण)-संविभागिन्-पुं० । संविभजति आनीताहा
५यिय० । दश । जी०। १० । उत्स० भाष० । अवश्यरमन्येभ्यः साधुभ्यः प्रार्थयतीत्येवंशीलो यः स संघिभागी।
भाधिनियवे, उत्स०२६ अ०। भयभये, भ०१ श०७ उ० । परेभ्यो दया भोक्लरि, उत्त० ११ म०।
वश० । स० । शुभाध्यबसायषिशष, पञ्चा० १५ बिषः । संविभाविऊण-संविभाव्य-प्रव्य० । पर्यालाच्यस्यर्थे, महा०
संयगलक्षणम्-"तथ्ये धम्म ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देखे रागद्वेष१ चू०।
मोहाविमुक्नं । साधी सर्वप्रन्थसंदर्भहीने, संगोऽसौ निश्च. संबिह-संविध-पुं० । भाजीविकोपासकभेदे, भ०८ श०५ उ०।। लो योऽनुरागः॥१॥" यो० वि०। ध० समुद्रपाना संसंबीत-संवीत-त्रि० । माकुले, सूत्र. १ श्रु० ३ ० २ उ०।।
यग, प्राप्ता सभिवमन्वयीत्" कि कन्या तंबौर पर्य
रहा हवम् नि, किम् ?, अहो इस्याश्का अशुभान कर्मसंवुभ्र-संवृत-त्रिका "उरत्यादौ" ॥८।१।१३१॥ इति प्रा
णामि पाएकं निर्याणम् , अशुभं प्रान्तं पश्यंत । उत्त. देत उस्यम् । संयुअं । निरुद्धे, मा०१पाद।
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संवेग
संवेगफलम् -
संवेग भंते! जीने किं जययहाँ संवेग अणु धम्मसर्द्ध जणयह, अणुतरा धम्मसद्वार संग हयमागच्छा अणन्ताखुबन्धिको मायमायालोमे खवेद, नवं च कम्म न बंधइ, तप्पच्चयं च गं मिच्छत्तविसोहिं काऊणं दंसणाराह भवइ । दंसणविसोहीए गं विसुद्धाए अत्थेगइए तेथे भग्गहखेण सिन्झर, सोहिएवं विमुद्धाए तच्च पुण भवग्गहणं नाइकमइ ।। १ ।।
शिष्यः पृच्छति - हे भदन्त ! हे पूज्य ! संवेगेन- मोक्षाभिलाषेण कृत्वा जीवः किं जनयति- किमुत्पादयति, तदा गुकराह हे शिष्य ! संवेगेन कृत्वा जीवोऽनुत्तरां प्रधानां धर्म श्रद्धां धर्मरुचि जनयति तया प्रधानया धर्मस्य श्रद्धया सं. बेगः मोक्षाभिलाषः 'हम्' इति शीघ्रमागच्कृति शानोति त तो नरकानुबन्धिनां नरकगतिदायिनोऽनन्तानुयधिक्रोधमा मायालोभान् चतुरोऽपि कषायान् पयति नये कर्मनबध्नाति तत्प्रत्ययाम् अनन्तानुयधि मिथ्यात्वविशुद्धिं सर्वथा मिथ्यात्वक्षतिं कृत्वा दर्शनाराधको भवति, ख्यायकशुद्धसम्यक्त्वस्य श्राराधको -निरतिचारपालको भवति ततः सम्यक्त्वविशुद्ध्या अतिनिर्मला अत्येकाचा सतेनेय भवनजम्मोपादानेन सिद्ध्यति-सिद्धिं प्राप्नोति । एकः पुनः सभ्यकत्वस्य निर्मलया विशुद्धया तृतीयं पुनर्भय नातिक्रामति इत्यनेन शुद्धख्यायकसम्यक्त्ववान् भवत्रयमध्ये मोक्षं व्रजत्येव । उत्त० २६ श्र० । जिनवचनभावितान्तःकरणतायाम्, दर्श०५ तत्त्व। संवेगो-भवविरागः निर्वेदा-मोक्षाभिलाष इति । (०) संवेगा-भयम् जिनप्रवचनानुसारिणो नरकेषु शीतोष्णादिसहरानिर्मित परस्यदीरितं च तिर्यक्षु भारारोपणाद्यनेकविधं मनुजेषु दारिद्रयादि देवेष्वपि ईर्ष्याविपादपरंप्रध्यत्वादि । ध० २ अधि० ।
( २४२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
संवेगे कथा | संवेगद्वारमाह
पाए मिचपने, धरामिने धयसिरी सुजाए य । पियं धम्मो रक्खुरी चैव दयय ।। १३०२ ॥ चंदजसा रायगिहे वारतपुरे अभयसेवारते | सुमारधुंधुमारे, अंगारवई य पजोए ।। १३०३ । "मित्र प्रभो नृपश्चापा-पूराक्षी व धारिणी । धनमित्रः सार्थवाहो, धनश्रीस्तस्य वल्लभा ॥ १ ॥ तस्योपपातिते पुत्रेोत् । अहां सुजातमस्येति, कुलेऽमुष्मिन् महर्द्धिक ॥ २ ॥ सुजात इति तस्याथ, द्वादशेऽह्नि कृताऽभिधा । साऽत्यन्तरूपयांस्तस्य, ललितं शिक्षत जनः ॥ ३ ॥ अमात्य धर्मोऽभूत् शियस्तस्य च शिषा । सा सुजातगुणान् श्रुत्वा, बोचहासी यथाऽमुना ॥ ४ ॥ यदैत्येष तदाऽऽख्येयं येन प्रेक्षे नवं स्मरम् । तेनाध्वनाऽन्यदाऽऽयात् स, प्रियङ्गाः पथितस्तया ॥ ५ ॥
"
संवेग
दृष्ट्राऽथ सा सपत्नीकं तं प्रियङ्कुरवोऽवदत् । धन्या साऽसौ प्रियो यस्या, रतेरिव मनोभवः ॥६॥ सुजातवेपमाधाय रिमा तद्विलासास्तदालापान् स्वसपत्नीषु कुर्वती ॥ ७ ॥ श्रमात्यश्व तदाऽऽयातोऽन्तःपुरं निध्वनीति सः । शनैरेत्य द्वारसंधी तो विक्षित ॥ ॥ सोऽथ दध्यौ नि मे ऽन्तः पुरं छत्रमेव तत् । सुजातं कारयामीति परं विमेति तत्पितुः ॥ ॥ मा भूततो विनाशो मे, राजमान्योऽस्ति येन सः । कूटं लेखं विधायाथ, राशो राजद्विषस्ततः ॥ १० ॥ पावाचयन् मन्त्री मित्रप्रभुनरेभ्वः । भोः सुजात ! त्वया घात्योऽर्द्धराज्यं दास्यते तव ॥ ११ ॥ कुपितोऽच नृपो लेख-हरान्यान् समादिशत्। मन्त्रिणा ते धृताः, पृथ्वीनाथोऽच दध्यिवान् ॥१२॥ लोकज्ञात हतेऽमुष्मिन् पुरक्षोभो भविष्यति ।
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मम तस्य च भूपस्य, प्रदास्यत्ययशां जनः ॥ १३ ॥ ततः प्रत्यन्तनगरे, 'अर (क्खू )री' ति नामनि । अस्ति माण्डलिकस्तत्र निजचन्द्रध्वजाभिधः ॥ १४ ॥ सुजातः प्रहितस्तत्र, विशिषैश्वर्यसंयुतः । राजांदेश समय स्वं चन्द्रध्वतनृपान्तिके ॥ १५ ॥ राजकार्यापदेशन कमि सोऽगात्र नृपोऽदर्शि राजादेशः समर्पितः ॥ १६ ॥ घास्यस्त्यपति दयावस्तु हनिष्यते। सह प्रतिदिनं तेन, खेलति स्म महीपतिः ॥ १७ ॥ रूपशील सदाचारान् दृष्ट्रा तस्य व्यचिन्तयत् । नूनमन्तः पुरयंस दोपाधिमाहितीयसी ॥ १८ ॥ ईदृग्रूपं कथं हन्मी - त्याख्यत्तस्याखिलं रहः । सुजातः स्माह यद्वेत्सि, तत् कुरुष्वाथ सोऽवदत् ॥ १६ ॥ न त्वां हन्मि रहस्तिष्ठ, दत्ता चन्द्रयशाः स्वसा । श्रस्ति त्वग्दोषणी साऽथ, तया सार्द्धं समस्ति सः ||२०|| सुजातस्यापि संक्रान्तो, रोगस्तत्सङ्गतो मना । सा तु तेनोपदेशौघैः, प्रबोध्य श्राविका कृता ॥ २१ ॥ सा दध्यौ मम सङ्गेन, सरुग् जातोऽयमप्यतः । संविग्नाऽनशनं चक्रे, तेनैव निरयाम्यत ॥ २२ ॥ देवोऽथ सोऽशासीद्, दृष्ट्वा नत्वा वदत्यसौ । किं कुर्मः सोऽपि संचालन ॥१३॥ जिवृक्षामि तं देवमुत्करिष्यते।
बायो-याने या पुरोपरि ॥ २४ ॥ शिलांस के महली, लोको व्याकुलः । धूप योऽस्ति रुष्टः सुरोऽसुरः ॥ २५ ॥ स तु दर्शयतु स्वं मे, येन प्राऽऽसादयामि तम् । देवोऽवदत् सुजातोऽयं, श्रावकः परमार्हतः ॥ २६ ॥ निर्दोषमपि तत्सर्व रयाम्यहम् । तं प्रसाद्यानयध्वं च ततो मुञ्चामि नान्यथा ॥ २७ ॥ राजांचे कास्ति देवोऽवग्, बाह्यांयाने नृपस्ततः । तत्र गत्वा सपौरोऽपि, क्षमयित्वा तमानयत् ॥ २८ ॥ शिलां संहत्य देवोऽगात्, सुजातः पितरौ पुनः 1 आपृच्छप व्रतमादत्त, पश्चान्तौ पितरावपि ॥ २६ ॥
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संवेग अभिधानराजेन्द्रः।
संवेयणी ते त्रयोऽपि शिवं प्रापु-मन्त्री राक्षा प्रवासितः । संवेगकरणथ-संवेगकरणार्थ--पुं० । संवेगहेतुषु भायेषु , स. सुजातस्य गुणान्मन्त्री, श्रुत्वा सर्वत्रगानिमान् ॥ ३०॥
१४७ समः। यथा नेत्रे तथा शीलं, यथा नासा तथाऽर्वजम् ।
संवेगपर--संवेगपर-पुं०। संविग्ने चारित्रिणि,पञ्चा० १६ विवा यथा रूपं तथा चित्तं, यथा शील तथा गुणाः ॥ ३१॥ ततश्च सोऽपि निर्विरणो, दध्यो पापं मया कृतम् । संवेगपरायण-संवेगपरायण-त्रि० । संवेगः संसारभयं मोगतो राजगृहे साधु-संनिधौ व्रतमात्तवान् ॥ ३२ ॥ क्षाभिलाषो वा परमयनं गमन येषु तानि संवेगपरायणानि । अभद्रहुश्रुतो भ्राम्यन् , पारत्तगपुरं ययौ ।
संगतात्पर्य केषु , पो० ८ विव०।। तत्रेशोऽभयसनोऽभू-न्मन्त्री वारसकः पुनः ॥ ३३ ॥
संगभावियमइ-संवेगभावितमति-पुं०। मोक्षाभिलाषत्वातद्गृहे धर्मघोषोऽगा-मन् भिक्षामुपाहरत् ।
सितमतिके, पञ्चा० १० विव० । जी। परमानं सखण्डाज्यं, बिन्दोः पाते न सोऽग्रहीत् ॥३४॥ चारतको गवाक्षस्थो, दध्यौ नैच्छदिदं कथम् ।
संवेगरसायणय-संवेगरसायनद-त्रि० । संवेगः संसारनिर्वेदो तावद्विन्दी लगन्ति स्म, मक्षिकास्ताश्च स्वादितुम् ॥३५॥ मोक्षानुरागोवा स एव रसायनममृतमजरामरनरत्वहेतुत्वात् गृहालिका समायासी-स्कृकलासश्च तां पुनः।
संवेगरसायनम् , तद्ददाति प्रयच्छतीति संवेगरसायनदः । ततस्तदर्थ मार्जारि-जिंघस तां पुनः शुनी ॥ ३६॥ संवेगोत्पादके, पञ्चा०२ विव० । एकः स्थाय्यपरो यायी, एकद्रव्यार्थिनास्तयोः ।
संवेगविसेसजोग-संवेगविशेषयोग-पुं०। भवभयातिशयसंबभूवास्फलनं पश्चा-त्कलिस्तत्स्वामिनोऽभवत् ॥३७॥
बन्धे, पञ्चा०१६ विव०। ततो बलं मेलयित्वा, चक्रे ताभ्यां महारणः। वारत्तकस्ततो दध्यो, स नैच्छत्कारणादतः ॥ ३८॥
संवेगवुद्धिजणग-संवेगवृद्धिजनक-त्रि० । मोक्षाभिलाषातिशइति ध्यायन सोऽपि जाति-मस्मरत् प्रतिबुद्धवान् ।
यकारिणि, पञ्चा०६ विव०। उपधि देवताऽयच्छ-द्वारत्तकमुनिस्ततः ॥ ३६॥ संवेगसमावण-संवेगसमापन्न-त्रि० । मोक्षसुखाभिलाषमेवासुसुमारपुरेऽयासी-द्विहरन् आमामनिश्रया।
नुगते, पं० व० ४ द्वार। धुन्धुमारो नृपस्तत्र, तस्याङ्गारवती सुता ॥ ४० ॥
संवेगसारगुरु-संवेगसारगुरु-पुं० । प्रशस्तभावप्रधाने, पं० व० सा परिवाजिकाधर्म-विचारे जितवत्यथ ।
५द्वार। सापल्यऽम क्षिपामीति,वैरात्मावाजिकाऽधमा ॥४॥ लिखित्वा चित्रफलके-ऽवन्त्यां प्रद्योतभतेः।
| संवेगसुद्धजोग-संवेगशुद्धयोग-पुं० । संवेगेन शुद्धव्यापारे , पेक्षयिष्ट स पप्रच्छ, साऽख्यद्वन्धोऽथ तत्कृते ॥ ४२॥ पं०व०३द्वार। प्रैषीद दूतं ततो धुन्धु-मारस्तमिदमुक्तवान् ।
संवेज-संवेद्य-त्रि० । संवेदनाहे, योगिनामेतदन्येषां श्रुतिगोविद्यावद्विनयेनैव, लम्यन्ते कन्यका अपि ॥४३॥ श्राख्यत् प्रतिगतो दूत-स्तत्तदुक्काधिकं प्रभोः ।
चर उपमाभावातो व्यक्तमभिधातुं न शक्यते । हा०३२अष्ट। कुपितः सोऽथ सर्वोघे-जागत्याऽयेष्टयत्पुरम् ॥४४॥ संवेध-संवेध-पुं०। संयोगे,व्य० १ उ० । (बन्धोदयसत्ताप्रवृत्ति धुन्धुमारोऽल्पसेनागो, बिभ्यन्नैमित्तिकं जगी।
स्थानानां परस्परं प्ररूपणा कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६५ पृष्ठे स ऊचे वीचय वक्ष्यामि, तद द्रष्टमथ सोऽगमत् ॥४५॥ 'पच्छित्त' शब्दे पश्चमभागे १५६ पृष्ठ पिस्तरत उक्ता।) कीडन्त्येकत्र डिम्भानि, भीषयामास वीक्ष्य सः ।
संवेयण-संवेदन-ना वस्तुस्वरूपपरामर्श,पो०१२विव०पुरोऽ. तत्र चास्त नागगृहे, वारत्तकमहाऋषिः ॥४६॥
वस्थित घटादौ विषय तद्भावेतराभावाध्यवसायरूपे विज्ञाने, प्रतिमास्थस्तत्र तानि, रुदति प्रययुर्भयात् ।
अंन०२ अधि०। णाणं ति वा संवेदणं ति वा अहिगमं ति वा वारत्तकोऽवदत्तानि. मा भैषुरिति संभ्रमात् ॥ ४७॥
वेयण त्ति वा भावो त्ति वा एगट्टा । श्रा०चू०१०। नं० । नैमित्तिकस्तदाकार्य, नृपस्याख्यन्न ते भयम् ।
प्राचा। अवस्कन्दमथो दत्त्वा, धृत्वा प्रद्योतभूपतिम् ॥ ४ ॥ धुन्धुमारोऽन्तराऽऽनीय, पुरद्वाराण्यबन्धयत् ।
संवेयणी-संवे(दग)जनी-स्त्री० । संवेगयति संवेगं करोतीति अथ प्रद्योतमूचे ते, किमातिथ्य विधीयताम् ॥ ४६॥ संवद्यते या संवेज्यते वा संवेग ग्राह्यते श्रोता अनयति संधेसोऽवदद्रोचत यत्ते, धुन्धुमारो ददौ ततः ।
गनी संवेदनी संवजनी वति । कथाभेदे, स्था० ४ ठा०२ उ० । महाभूत्याऽङ्गारवती, तया सार्द्धमथास्ति सः॥ ५० ॥ संवेयणीकहा चउविहा परमता,तं जहा-इहलोगसंवेयणी राजपाटीमथान्येद्यु-स्तत्र कुर्वन्नवन्तिराट् ।
परलोगसंवेयणी आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी दृष्ट्वा बलाल्पतामूचे, गृहीतोऽहं कथं प्रिये ! ॥५१॥ सा साधुवाक्यमाचल्यो, तन्मूलं स गतोऽवदत् ।
(सू०-२८२४) नैमित्तिकमुने! बन्दे, सस्माराथोपयुज्य सः॥ ५२ ॥ इहलोको मनुष्यजन्म तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहडिम्भाभयगिरं दत्ता, संवेगं परमं गताः।।
लोकसंवेगनी, सर्वमिदं मानुषत्वमसारमध्रुव कदलीस्तम्भसुजातो धर्मघोषश्च, तथा चन्द्रयशा अपि॥ ५३॥" समानमित्यादिरूपा,पवं परलोकसंवेदनी-देवाविभवस्वभावश्रा० क०४०।
कथनरूपा, देवा अपाऱ्यांविषादभयवियोगादिदुःखैरभिभूताः
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(२४४) संवेयणी अभिधानराजेन्द्रः।
संसहा किंपुनस्तिर्यगादय इति, श्रात्मशरीरसंवेगनी-यदेतदस्मदीयं दीयपिण्डैः सह सम्मीलिते, पृ. २ उ० । संसृट नाम शरीरमतवशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमि- भोकामन गृहीतं कृरादी हस्तः क्षिप्ता न तावन्मुख ति न प्रतिबन्धस्थानमित्यादिकथनरूपा, एवं परशरीरसंवे- क्षिपति तच्च लपालपकरणस्वभावमिति । स्था०३ टा०३ उ०। गनी । अथवा-परशरीरं-मृतकशरीरमिति । स्था०४ "असंस? संसट्टचय बोद्धव्यं । " दश । ठा०२ उ०।
संसद्वेण हत्थण, दबिए भायणेण वा । मता संवेजनी स्वान्य-देहेहप्रेत्यगोचरा ।
दिजमाणं पडिच्छेजा, जं तत्थेसणियं भवे ॥ ३६॥ यया संबेज्यते श्रोता, विपाकविरसत्वतः ॥ १३ ॥ मतेति-यया कथया विषाकविरसत्वतो विपाकवैर- |
संसएन हस्तेन-अन्नादिलिप्तेन तथा दा भाजनन या दीयस्यात् प्रदर्शितात् श्रोता संबेज्यते-संवगं ग्राह्यत; सा|
मानं प्रतीच्छत् गृह्णीयान्कि सामान्यन ? नल्याह-यत्तषणीय संवजनी स्वान्यदेहेहप्रेत्यगोचरा-स्वशरीरपरशरीरेहलोक-|
भवति,तदन्यदापरहितमित्यर्थः, इह च वृद्धसंप्रदायः “संस? परलोकविषया चतुर्विधा मता! द्वा०६ द्वा० ।
हत्थ संसटु मत्ते साबसस दम्बे,संसट्ट हन्थे संसंटू मत्ते गिर
वससे दवे, एवं अट्ट भंगा एत्थ पढमभङ्गो सबुत्तमो अन्नेसु संबल्लमाण--संवेष्टयत-त्रि० । “समोल्लः" ॥८।४।२२२ ।।
वि जत्थ साबसेस दव्य तत्थ घिष्पदण इयरेसु पच्छाकम्मअनन सम्पूर्वस्य द्विरुक्तो लकारः । सङ्कोचयति, प्रा०४ पाद ।। दोसाउ” ति सूत्रार्थः । दश० ५ अ० १ उ०। संवल्लिन-संवेष्टित-त्रि० । संवर्तिते, भ० १६ श०६ उ०।
संसहकप्पेण चरिज भिक्खू , मुकुलिते, " संवेल्लिअं मउलिअं” पाइ० ना०१८१ गाथा । सं|
तजायसंसट्ट जई जइजा ॥६॥ वृत, दे० ना०८ वर्ग १२ गाथा।
संसृएकल्पन-हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरत् भि- . संसइय-संशायत-त्रि० । कथमिदं स्यादित्येवं संशयशीले ,
चुरित्युपदेशः, अन्यथा पुरःकर्मादिदापात् । संसृष्टमव श्रा० म०१ अ०। दर्श० । संशयविषये, सूत्र०२ श्रु० २ विशिष्ट-तजातसंसृट इत्याम गारसादिसमानजाअ०।
तीयसंसृष्ट हस्तमात्रकादी यनियंतत-यत्नं कुर्यात् , श्रसंशयिक-त्रि०ा संशयेन निवृत्त मिथ्यात्वे,यद्वशाद्भगवदहदु.
तजातसंसृ संसर्जनादिदापादित्यननाएभङ्गसूचनम् । तद्य
था-"संसटे हत्थे संसट्टे मत्ते सावसंसे दब" इत्यादि, अत्र पदिएयपि जीवाजीवादितत्त्वेषु संशय उपजायते,यथा-न जा
प्रथमभङ्गः श्रेयान् , शवास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः । दश०२ ने किमिदं भगवदुक्तं धर्मास्तिकायादि सत्यमुतान्यथेति। कर्म० ४ कर्म० । संदिग्धे, “सदिद्ध संसइअं" पाइ० ना०
चू० । प्रा० चू० । प्रव० । रा० । पूर्वपरिचिते उद्भ्रामक,बृ०१
उ०३ प्रक० संम्लपिते, प्रव०५ द्वार । गोरससंश्लिष्ट भाजन १८५ गाथा।
प्रक्षिप्तत्वन गोरसरसेन परिणामित उदके, वृ० १ उ०२ संसग्ग--संसर्ग-पुं० । सम्यक् सर्गो योगः संसर्गः सम्यक् | प्रक० । (लेव' शब्द पष्ठभाग संसृष्टादकन लेपकरण संबन्ध, विशे। सूत्र० । सांगत्ये, सूत्र.१ थु० २ उ०। दर्शितम् ।) श्राव० । उत्त०। प्रश्न ।" गवाशनानां स गिरः शृणोति, संसदकप्पिय-संसष्टकल्पिक-पं० । संसृऐन खरगिटतनत्यर्थी वयं च राजन् ! मुनिपुङ्गयानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवताऽपि दृष्ट, हस्तभाजनादिना दीयमान कल्पिक कल्पयत् कल्पनीयमुचिसंसर्गजा दोपगुणा भवन्ति ॥२॥" आ००३ अ० (संसर्ग
तमभिग्रहविशेषाद्भलादि यस्य सः । तथाविधाभिग्रहविंशविशेषे दर्दुरकथा 'दद्दर' शब्द चतुर्थभाग २४५१ पृष्ठ
पधारके साधी, स्था० ५ ठा० १ उ० । सूत्र० । औ०। उक्ना । ) (पार्श्वस्थादिसंसर्गः 'किकम्म' शब्द ५१७ पृष्ट ३ | भागे निषिद्धः । संसर्गाद् गुणाऽगुणव्यवस्थाऽपि तत्रैव ।)
संसट्टचग्य-संसृष्टचरक-पुं० । संसएन खरगटतन इत्यादिना
दीयमानं संसृष्टमुच्यतः तच्चरति यः स तथा । संसृष्टकसंसग्गि-संसर्गि--पुं० । प्राकृतत्वात्संसर्गः । उत्त.१ अ०१ ल्पिक, प्रो। संगती, उत्त० १ अ०। संसक्ती,वृ०४ उ० प्रा० चूछ । कुशीलादिसंसर्गिनिषिद्धाः । व्य०७ उ०। पं०५०। मथुनसम्पर्क
मंमट्ठा-संसृष्टा-स्त्री० । भिक्षाभंद, नि० चू. १६ उ०। स्त्रीपुसंसर्गविशपरूपत्वात्संसर्गजत्वात् संसगिरित्युच्य-1 तम्मी या संसट्ठा, हत्थमत्तए इमा पढमभिक्खा।।७४७।। त । प्रश्न०४ आश्र द्वार।
' तम्मि ' त्ति प्राकृतत्वात् तासु भिक्षासु मध्य संसंसञ्जिय--संसर्जित--त्रि०। सामस्त्येन प्रगुणिने जीवन स्वप्र- सृष्टा हस्तमात्रकाभ्यां भवति । कोऽर्थः संसएन दशपु सम्बन्धिनि चारित्रमाहनीयादिकर्मणि, पञ्चा० ४
तक्रतीमनादिना खरण्टितन हस्तेन संष्टनयं च मात्रविव०।
करण कगटिकादिना गृह्णतः साधाः संमृष्टा नाम भिक्षा
भवति । इयं च द्वितीयाऽपि मूलगाधारक्रमापेक्षया प्रथमा। सम-संसृष्ट-त्रि० । खरण्टित,स्था०५ ठा० १ उ० । खरगट
अत्र च संसृपामसपसावशानरबशेषद्व्यरष्टा भङ्गाम्नेषु तन हस्ताांदना दीयमाने, सूत्र. २ थु० २० । अन्य- चाटमो भङ्गः-संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावश
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सं
संसत
अरहितं सरजस्काविभावितं वा कालो दुर्भिक्षादिः भाषाग्लानतादिरित्यादिभिः कारणैरुपस्थितैरल्पबहुत्वं पर्यालोच्य मीतार्थी गृहीयादिति ।
अथ कचिदाभोगात् संसक्रमागामिसोमवा गृहीतं तत्र विधिमाह
उष्णोदके,
नि०
सिगदगं भक्ति । कोसलविसयादिसु य दयाको सशोष से य आहम पटिग्गदे सिया से तं आया एतमरकमि णाविणस्सणभया सीतोदगे लुम्भति तम्मिय ओद भुत एतचकमिता आहे आरामंसि वा अहे उपसिवा तमाम पति या अप्पंडे अप्यमा अपपीए अप्यहरिए अप्पांसे अप्पोद पुतिंगपणगदगमट्टियम कडासंताणए विगिंचिय विगिंचिय उम्मीसे विसोहियत संजयामेव जिन वापीवाजं च णो संजाएजा भोत्तए वा पायए वा से तमायाय एतमवक मेजा । ( सू० १x )
गं । नि० चू० १ उ० । संसत्त--संसक्त- त्रि० । संबद्धे, ज्ञा० १०८० की | संकीर्णे, ०८ सम० । सप्रतिबन्ध, उत्त० २५ अ० । श्वापदविशेषे कल्प० १ अधि० ३ क्षण (निर्मन्ध्याः पात्रे उदकबिन्दुः पर्यापद्येत तत्र ग्रहणविधिः पाराग' शब्दे पञ्चमभागे ८२७ पृष्ठ उक्तः । ) द्वीन्द्रियादिजन्तुमिथे भक्तपाने, बृ० ३ उ० । ( यत्र देशे भक्तपानं संसज्जते तं देशं प्राप्तानां यतना'शिपमा ३६४ दि द्रव्ये, पिं० । " घांडचं लग्गे च संसत्तं पाइ० ना० २०१
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'से ग्राह' खादि सभा'' ति सहसा संसक्तादिकमाहारजानं कदाचिदनाभोगात् प्रतिगृह्णीयात्, स चानामप्रतिग्रहीतृपदद्वयाच योजनीय इति तम् एवंभूनमशुदमाहारमादाय एकान्तम् अपक्रामेद् गच्छेत् । तमपक्रम्य गत्येति यत्र सागारिकाणामनालीकमसंपतच भवति तदेकान्तमनेकधनि दर्शयति'अहे आरामंसि यं' ति श्रथारामे वा थोपाश्रये वा । अथशब्दः अनापातविशिष्टप्रदेशोपसंग्रहार्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः
गाथा।
गृहपार्थो वा तद्विशिनष्टि- अल्पाएंड अपशब्दो Sभाववचनः अपगताण्ड इत्यर्थः, एवमल्पवीज अपहरिते
पावश्याये वश्याय उदकसूक्ष्मतुषारः, अल्पोदके, तथाअतिपत्तिकामर्कट सन्तानके । तत्रोतिङ्गस्तुसाउदकविन्दुः (तत्युत्तरक्रिया संवन्ध ) पनकः - उल्लीविशेषः उदकप्रधाना मृत्तिका उदकमृत्तिफेति ममयविशेषस्तेषां संतान, परिवा मर्कटक सन्तानः कोलियकस्तदेव मण्डादिदोषरहिते आरामदि स्थगित्या प्राग्गृहीताहारस्य यत् संवि च्य विविच्य त्यक्त्वा त्यक्त्या क्रियाभ्यावृत्या अशुद्धस्य परि त्यागनि:शेषतामाह-मि वा धागा मुकसत्यसंपति सादितः प्रविशोध्य विशेोध्यापनीयपनीय ततस्तदनन्तरं शेषं शुद्धं परिज्ञाय सम्यग्यत एव भुञ्जीत पिसमितिवापास कडम्म हम्म जीव राहु कुलिओ इसिंह जद ए छलिजसि, भुंजतो रागदासेहिं ॥ ६ ॥ रागेण सइंगाल, दोखेगा सघूमने विजासाहि रामोस भुजा सिजरा पेही ॥ २ ॥ तथाहारादिकं पातुं भोक्तुं वा न शक्नुयात्प्राचुर्याीदशुधकरणासंभवाहा, समिताहारजानमादाय ए कान्तमपकामेपकम्य च तदाहारजातं परिष्टात्त्यंतदिति संबन्धः ।
यत्र च प्रतिष्ठापयेत्तद्दर्शयति
अहे कामधंडिस या असिमिया किना तुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा श्रायरंसि वा तहष्पगारं मि थंडिलंमि पडिलहिय पडिलहिय पमजिय पञ्जिय (०-१४)
संजय
इयत्तानामशेषास्तुभागन्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इति ।
प्रव० ६६ द्वार | सूत्र० । श्राचा० । पञ्चा० | प्रब० । आव० ।
ससियोदयोदकन०
पङ्गादिखभाजन से
( २४५ ) अभिपानराजेन्द्रः ।
23
संसग्रहणम्सेभिक्खू या भिक्खुणी वा गाहाले पिंडवायपडि या अपसमा से जं पुरा जांगल अस वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणएहिं वा बीएहिं या हरिए वा सने उम्मस्स सीओए वा ओमिनं रस वा परिपामियं वा तप्यमारं असमर्थ वा पा वा खाइमं वा साइमं वा परहत्थंसि वा परपास वा अफागु सति ममाये लाभ सिंते नो परिग्गहिजा (सू० १४ )
से' इति मागचंदनः प्रथमान्त निवर्त्तते । यः कश्विद्भिक्षणशीला भावभिक्षुः मूलोत्तरगुणधारी विविधारावी या साप्य स भावमदनादिभिः कारराहारह करोति तानि यानि पा
इरियट्टाए य संजमट्ठाए। तह पाणवत्तियाए छट्टु पुरा धम्मचिन्ताए ॥१॥" इत्याद्यमीषां मध्ये अन्यतमेनापि कारणेनाहारासन्पतिसुंदर फुलं तदनुप्रविष्टः किमर्थ ''विज्ञालाभस्तरथतिया अहमत्र भिक्षां लप्स्ये इति, स प्रविष्टः सन् यत्पुनरशनादि जानीयात् कथमिति प्राणिनिमादिभिरितरादिनिरुम्मि
श्रं शवलीभृतं तथा शीतोदकेन वा श्रवसक्तमात्रीकृतं रजसा वा सचित्तेन परिघासियं' ति परिगुण्डितं कियद्वा वचयति ?, तथाप्रकारम्पर्यज्ञानशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं परहस्त- दातृहस्त परपात्रे वा स्थितम् अमासुकं सचित्तमनेपणीयमाधाकम्मदिदीदुमित्येवं मन्यमानः स - भावभिक्षुः सत्यपि लाभ न प्रतिगृह्णीयादित्युत्सर्गतः अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रति गृह्णीयादपि । तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं क्षत्रं साधारणद्रव्यला६२
i
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द्रष्टव्या।)
संसत्त अभिधानराजेन्द्रः।
संसत 'अहे झामलिंसि.य' त्ति-अथानन्तर्यार्थः, वाशब्द
अथ भाष्यकृद्धिषमपदानि विकृणोतिउत्सरापेक्षया विकल्पार्थः, 'झामे' सि-दग्धं तस्मिन् वा
पाणग्गहणेण तसा, गहिया वीएहि सम्बवणकाओ । स्थरिडले अस्थिराशी या किट्टो-लोहादिमलस्तद्राशी वा तु. पराशौ वा गोमयराशी वा कियद्वा घच्यते इत्युपसंहरति
र यगहणा होति मही, तेऊ व ण संपरहाई ।। १८२ ।। अन्यतरराशी या तथाप्रकारे-पूर्वसदृश प्रासुके स्थरि डल ग
प्राणग्रहणेन असा गृहीताः, बीजग्रहणेन तु सर्वोऽपि धनत्वा तत्प्रत्युपेक्ष्यर अक्षणा प्रसृज्य २ रजोहरणादिना अत्रापि
स्पतिकायः सूचितः, रजोग्रहणेन च मही-पृथिवीकाद्विवचनमादरण्यापनार्थमिति प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपदाभ्यां स
यो गृहीतः, तेजस्कायो वा परस्थो म भवतीति कृत्वा वितभङ्गका भवन्ति, तद्यथा-अप्रत्यपेक्षितमप्रमार्जितम्१, प्रत्यु- वेचनादिकं तत्र न घटते । पेक्षितं प्रमार्जितम् २ प्रत्युपक्षितमप्रमार्जितम् ३ तत्राप्रत्युप- ते पुण आणि अंते, पडेज पुद्धि व संसिया दवे । चय प्रमृजन् स्थानात् स्थानसंक्रमणेन असान् विराधयति, प्रत्युपेक्ष्याप्यप्रमृजनागन्तुकपृथिवीकायादीन् विराधयतीति,
आगंतुगतब्भवा वा, आगंतहिं तिमं सुत्तं ।। १८३ ॥ चतुर्थभङ्गके तु चत्वारोऽमी, तद्यथा-दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमा- ते पुनस्त्रसादय पानीयमान वा भक्के पतेयः पूर्वे बा । तत्र र्जितम्४, दुष्प्रत्युपक्षितं सुप्रमार्जितम् ५ सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्र- द्रव्ये भक्तपाने संश्रितास्ते च द्विविधाः, श्रागन्तुकास्तदुद्भमार्जितम् ६ सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति स्थापना । तत्रैव वा वा । तत्रागन्तुकत्रसादिविषयमिदं प्रस्तुतसूत्र मन्तव्यम् । भूते सप्तमभायाते स्थण्डिले संयत एव सम्यगुपयुक्त एव अथ के तदुद्भवाः के वा आगन्तुका भवेयुरिल्याहशुद्धाशुजपुअभागपरिकल्पनया परिष्ठापयेत्-त्यजेदिति ।
रसया पणतो वसिया, होज प्रणागंतुगाण पुण सेसा। प्राचा०२ थु०१चू० १ ० १ उ० । ( औषधविधिधनव्यता · गोयरचरिया ' शब्दे तृतीयभागे ६६४ पृष्ठे
एमेव य आगंतुय, पणगविवजा भवे दुविहा ॥१८४॥
ये रसजाः-तक्रदधितीमनादिरसोत्पन्नाः कृम्यादयस्त्रसादभिक्षां गृह्णतः साधो पात्रे प्राणादि पतेयुः
यश्च पनकः स्यात् एते अनागन्तुकास्तदुद्भवा भवन्ति,न पुनः निग्गंथस्स य गाहाबइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पवि
शेषाः पृथिवीकायादयः। एवमेव च ये पनकवा द्विविधाः दुस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणे वा वीये वा रए वा परियाव
त्रसाः स्थावराश्च जीवास्ते सर्वेऽप्यागन्तुकाः संभवन्ति ।
सुत्तम्मि कड्डियम्मि, जयणा गहणं तु पडितों दट्ठव्यो । अन्जा । तं च संचाएइ विगिचित्तए वा विसोहित्तए वा त
लहगो अपिक्खणम्मि,प्राणादिविराहणा दुबिहा।१८५॥ तो संजतामेव मुंजेज वा पिवेज । तं च नो संचाएइ विगि
एवं सूत्रमुच्चार्य पदच्छेदं कृत्वा य एष सूत्रार्थो भणिचित्तए वा विसोहित्तए वा,तं नो अप्पणा भुंजेजा नो अ- तः एतत्सूत्रमाकर्षितमिति भण्यते । एवं सूत्रे आकर्षिते बेसिं अणुप्पदेजा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहिता | सति नियुक्तिविस्तर उच्यते-तेन साधुना यतनया भक्लपापमञ्जित्ता परिडवेयब्वे सिया ॥ ११ ॥
नस्य ग्रहण कर्तव्यम् । का पुनर्यतनत्याह-पूर्व गृहस्थहस्तअस्य संबन्धमाह
गतः पिण्डा निरीक्षणीयो यदि शुद्धस्ततो गृह्यते , एवं य
तनया गृहीतोऽपि प्रतिग्रह पतितो द्रष्टव्यः । यदि न प्रेबंतादियाण रत्ति, णिवारितं दिवसतो वि अत्थेणं ।
क्षते ततो लघुको मासः,आशादयश्च दोषाः। विराधना च द्वि वंतमणेसियगहणं, सिया पडिपक्खो सुत्तं ॥ १८१॥ विधा-तत्र संयमे प्रसादय उष्ण वा द्रव वा पतिता विरात्रौ वान्तादिपानं पूर्वसूत्र निवारितं दिवसतोऽप्यर्थेन वा- राध्यन्ते । श्रात्मविराधना तु मक्षिकादिसन्मि) भुक्ने बरितम् । अनेषणीयग्रहणमपि साधुभिर्जितमेव अतस्तदिह- ल्गुलीव्याधिर्मरणं वा भवेत् । तस्मात् प्रथममेव प्रतिग्रहपप्रतिषिध्यते, सिया उ पडिवक्खनो सुत्त' ति-स्याद् यतनया तितः पिण्डो द्रष्टव्यः। प्रतिपक्षता वा एतत् सूत्रं भवति अप्रतिपक्षतो वा । तत्र प्रति- अहिगारो ऽसंसत्ते, संकप्पादी तु देससंसक्को । पक्षतो यथा पूर्वसूत्रे रात्रौ वान्ताऽऽपानं निवारितम् , इदं तु
संसजिमं तु तहियं, ओदणसत्तदधिदवाई ॥१८६॥ दिवा अनेषणीयं बान्तं निवार्यते । अथ प्रतिपक्षतो यथा पू
अत एव यस्मिन् देशे प्रसप्राणादिभिः संसक्तं भक्तसूत्र बान्तं न वर्तते, प्रत्यापातुमित्युक्तम् , इहाप्यनेषणीय वान्तं न वर्तते ग्रहीतुमित्युच्यते । अनेन संवन्धेनायातस्या
पानं न भवति तत्रासंसक्ने अधिकारस्तस्मिन्नेव देशे विह
रणीयमिति भावः । यस्तु संसक्नं देशे संकल्पादीनि पदानि स्य (११सू०) व्याख्या-निर्ग्रन्थस्य गृह पतिकुल पिण्डपातप्र
करोति तस्य प्रायश्चित्तम् , तच्चात्तरत्र वक्ष्यते । तत्र च तिशया तु प्रविष्टस्यान्तः प्रतिगृहे प्राणा बा बीजानि वा
संसजिम संसक्तियोग्यमोदनसक्दधिद्रवादिकं द्रव्यं मरजा वा परि समन्तादापतेयुः, तच्च प्राणादिकं यदि शक्कोति
न्तव्यम्। विधवा विशोधयितुं या ततस्तत्प्राणजातादिकं लात्वा हस्तन गृहीत्या विशाध्य २ सर्वथैवापनीय ततः संयत एव
अथ संसक्तदेशे संकल्पादिपु प्रायश्चित्तमाहप्रयनपर एव भुजीत वा पिवेता, तच्च न शक्नोति विवक्तुं
संकप्पे पहभिंदण, पंथे पते तहेब आयो । या विशाधयितुं वा तन्मात्मना भुजीत, न वा अन्यपां चत्तारि छच्च लहु गुरु, सट्ठाणं चेव आवम ॥१८७॥ दद्यात् । एकान्ते बहुप्रासुके प्रदेशे प्रत्य पचय प्रमृज्य यस्मिन् विपये भक्तादिकं प्राणिभिः संसज्यत ता संकपरिष्टापयितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः ।
एपं-गमनानि प्रायः कति चतुर्लघु । यदा भदं कति च
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संसत्त
संसत्त
अभिधानराजेन्द्रः। तुर्गुरु संसक्तदेशस्य पन्थानं गच्छतः पहलघु , तं देशं तम्हा खलु दद्वव्यो, सुक्खग्गहणं अगेएहणे लहुगा । प्राप्तस्य षड्गुरु , तथैव द्वीन्द्रियादः संघट्टनादिकमाप
आणादिणो य दोसा,विराहणा जा भणियपुम्बि।१६२। नस्य स्वस्थानप्रायश्चित्तम् , तद्यथा-वीन्द्रिय संघट्टयति। चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, अपद्रावयति षड्लघु, द्वी
यत एते दोषास्तस्मात् खलु-नियमात् पात्रकपतितः
पिण्डा द्रष्टव्यः । संसक्ने च देशे शुष्कस्य कूरस्य पृथक न्द्रियाणां संघटनादिषु पदेषु चतुर्गुरुकादरब्धं षड्गुरुके तिष्ठति । चतुरिन्द्रियाणां संघट्टनादिषु षडलघुकादिकं छ
मात्रके ग्रहण कार्यम् । अथ पृथकन गृह्णाति ततश्चतुर्लघु
श्राक्षादयश्च दोषाः, विराधना च द्विधा संयमात्मविषया दान्तमिति ।
पूर्वमनन्तरमेव भणिता। (अ) सिवादिएहिं तु तहिं पविट्ठा,
इदमेव भावयतिसंसज्जिमाई परिवजयंति ।
संसञ्जिमम्मि देसे, मत्तगसक्खपडिलेहणा उवरि । भूइट्ठसंसजिमदव्वलंभे,
एवं ताव अणुएहे, उरहे कुसणं च उवरिं तु ॥१६३।। गेएहंतुवाएण इमेण जुत्ता ॥१८८ ॥
संसजिमे देश यः शुष्कपौद्गलिकोऽनुष्णो लभ्यते स अशिवादिभिः कारणैस्तत्र संसक्नदेशे प्रविष्टास्ततः संस- मात्रके गृहीत्वा प्रत्युपेक्ष्य यद्यसंसक्तस्तदा प्रतिग्रहोपरि क्षिजिमानि सदधिप्रभृतीनि द्रव्याणि परिवर्जयन्ति । अथ भू
प्यते, एवं तावदनुष्ण विधिरुक्तः । यः पुनरुष्णः कूरः कुसणं यिष्ठानि-प्रभूततराणि संसज्जिमद्रव्याणि लभ्यन्ते ततोऽ- वा तन्नियमादसंसक्तमिति कृत्वा प्रतिग्रहस्यैवोपरि गृह्यते । मुनोपायेन युक्ताः प्रयत्नपरा गृह्णन्ति ।
गुरुमादीण व जोग्गं, एगम्मितरम्म पेहिउं उवरि । गमणागमणे गहणे, पत्ते पडिए य होति पडिलेहा।
दोसु वि संसत्तेसुं, दुल्लहपुव्वेतरं पुच्छा ॥१६४।। अगहियदिदुविवजण, अह गिएहइ जं तमाभजे ॥१८६।। गुरुग्लानादीनां च योग्यमेकस्मिन् मात्रके गृह्यते , इतभक्तार्थ दायकमध्ये गमनं कुर्वन् कीटिकामण्डूकीप्रभृतिजन्तु- रस्मिन्-द्वितीये मात्रके संसक्तं प्रत्युपेक्ष्य प्रतिग्रहोपरि प्रसंसक्लायां भूमौ मा विराधनां कुर्यादिति सम्यग् निरीक्षणीयः, क्षिप्यते, एवं तावद्यत्रैकं भक्तं पानकं वा संसक्तं तत्र विएवमागमने भिक्षाया हस्तेन ग्रहणमबविलोकनीयम् । प्राप्त धिरुक्तः । यत्र तु द्वे श्रपि भनपानके संसक्ने तत्र यच दायके तदीयहस्तगतः पिण्डः प्रत्युपेक्षणीयः । पात्रे च द्भक्तं पानकं वा दुर्लभ तत्पूर्व गृह्णन्ति , इतरत्-सुलभं पपतितः प्रत्युपक्षितव्यः । ततो गृहीते त्रसादिकं प्राणजातं श्चाद् गृहन्ति । पश्यति ततस्तस्मिन् दृष्टे वर्जयति न गृह्णातीत्यर्थः । अथ एसा विही तु दिद्वे, आउट्टियगेण्हणे तु जं जत्थ । गृह्णाति ततो येन द्वीन्द्रियादिना संसक्तं गृहाति तन्निष्पन्न
अणॉभोगगहे विगिंचणे, खिप्पमवि चिंतियं जत्थ१६५ प्रायश्चित्तमापद्यते।
एष विधिदृष्टे गृह्यमाणे भणितः । अथाकुट्टिकया संसअथ पुनरेवं न प्रत्युपेक्षते तत इमे दोषाः
क्रं गृह्णन्ति ततो यद्यत्र द्वीन्द्रियपरितापनादिकं करोति पाणाइसंजमम्मि, आता मयमच्छिकंटकविसं वा ।। तत्तत्र प्राप्नोति । यथाऽनाभोगेन संसक्रं गृहीतं ततः क्षिमुइंगमच्छिविच्छुग, गोवालियमाइया उभए ॥१०॥ प्रमेव विवेचनम् । अथ क्षिप्रं न विनक्ति ततो यावत्पसंयमे त्रसम्राणपनकादयो विराध्यन्ते । आत्मविराधनायां
रिष्ठापयति तावत् यत्र यद्विनाशमश्नुते तन्निप्पन्नं घृतं मक्षिकासंमिथं भुङ्क्ते वल्गुलीव्याधिस्ततश्च क्रमेन मर
प्रायश्चित्तम्। णं भवेत् ,कण्टको वा विषं वासमागच्छेत् ।उभयविराधनायां
कः पुनः क्षिप्रकाल इत्याहमुइङ्गा-पियीलिका मक्षिकावृश्चिकगोपालिकादयों वा भ- सत्त पदा गम्मते, जावति कालेण तं भवे खिप्पं । वन्ति । गोपालिका अहिलोहिकाख्यो जीवविशेषः । एते हि कीरति वा तालाओ अयमविलंबिता सत्तं ॥१६॥ मक्षिका जीया भक्तेन सह भुक्ताः संयमीपघातमात्मनश्च
यावता कालेन सप्त पदानि गम्यन्त तत् क्षिप्रं मन्तव्यम् । मेधाद्युपघातं कुर्वन्ति।
यावता वा कालनाहृतमविलम्बितं सप्त तालाः क्रियन्त पवयणघातं च सिया, तं वियर्ड पिसियमट्टजातं वा। तावान् कालविशषः क्षिप्रम् । आदाणकिलेमऽजसे, दिलुतो सेट्टिकप्पट्ठो । १६१॥
तम्हा विविंचितव्वं, आसप्मे वसहिग्जयणाए । प्रवचनोपघाति वा स्यात्तद्विकटं पिशितं वा तत् स्याद्-भ- सागारिय उपहविए, पमन्जणा सत्तुगदवे य ॥१७॥ वेत् , अर्थजात वा सुवर्णसंकलिकामुद्रिकादिकं कश्चिद- तस्मात्तजन्तुसंसक्रमनन्तराकक्षिणकालमध्य एव विवेचनुकम्पया प्रत्यनीकतया ताबद्दद्यात् ,ततः पतितं पिण्डे प्रत्यु- नीयम् यदि च वसतिरासन्ना ततस्तत्र गत्वा परित्यक्तव्यम् , पक्षत तचाप्रत्युपच्य गृहीतं मन्दधर्मणः कस्याप्युत्मवाजतु- अथ दुरे वसतिस्तदा शन्यगृहादिपु यतनया परिष्ठापयति । कामस्यादानमाजीविकाकारणं भवति, तदादायोत्प्रव्रजतीत्य- अथ सागारिक पश्यति उपणे वा भृभाग स्थिती चा र्थः । अर्थजात च गृहीते साधूनां रक्षणादिके महान् परि- ऊर्जु स्थितः परिष्टापति तता वक्ष्यमाणं प्रायश्चित्तम् । क्लेशोऽयशो वा भवत् । तथा चात्र सिद्धिविराज्यपदापयि- यत्र च परिष्टाप्यते तत्र प्रर्माजना कर्तव्या । एवमादप्रकल्पस्थकोपलक्षितस्य काष्ठश्रष्टिना दृष्टान्तः । स चाव- नस्य विधिः । सक्तुद्रवस्य तत्रैवमेवाल्पसागारिक प्रमश्यकटीकाताऽवगन्तव्यः ।
ज्य छयायां परिष्टापन विधयम् ।
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(२४)
संस
इदमेवा
जावर काले वसहि उवेति जति ताव ते ण चिती ।
अभिधानराजेन्द्रः ।
पियमहमद, तो गंतुमवस्सए पट्टो || १६८ ॥ यायता कालेन पतिमुपैति तावता कालेन यदि ते प्राणिनां न दिशन्ति न विपश्यन्ति तद्वसति नीयते तदनु
मद्रयं यदि भवति ततः प्रतिश्रयं नेतव्यम् । किमुक्कं मयति-यमुष्णः कुरो वर्ष या संसकं ततः प्रतिश्रयं न मीयंत | मायावत्प्रतिश्रयं नीयते तावत्प्राणजातीया उष्णे इथे वा मरिष्यन्तीति कृत्वा । अथानुष्णमयं वा तत उपाअये गत्वाऽपचत- परिद्वापयेत परतुन या या परिद्वापनीयम् अथ दूरे तिस्त ऽनुष्णमपि शून्यगृहादिषु परिष्ठापयितव्यम् ।
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परादीसती दूरे को यति अंतरीभूते । उपमाया, यतिको शादीसु विकिरणं ॥ १६६ ॥ अथ शून्यगृहादीनि न सन्ति तता दूरे एकान्तं गत्वा यत्र कोयस्थितोस्या अन्तरितभूती या सागारिको न पश्यति
कुको भूखा प्रसृश्य छायायां वृत्तेः कासके प्रक्षिपति, निवृतेपि विकिरति परिष्ठापयतीत्यर्थः । पत्रमा सरका या परिठापनं कर्त्तव्यम् ।
सागारिऍ उठिए, अपमते य मासियं लहुगं । वोच्छेदुड्डाहादी, सागारियसेसए काया ।। २०० ॥ अथ सागारिके च पश्यति उष्णे या प्रदेशे भूत्वा स्थितो या ऊर्द्ध भूमेरमा वा परिष्ठापयति ततश्चतुर्ष्वपि लघुमासिकम् । सागारिके च पश्यति यदि भक्तं परिष्ठाप्यते तदा
भक्तपानेन व्याकुर्यात् शेष त्रिये परितः पृथिव्यादिकाया विराध्य
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श्रोणसत्तविही, सत्तू तद्दिकतादि जातिष्ठि । वसुं वसुं गहणं, चतुरादिदियादि एत्थ || २०१ ॥ इत्यमोदय संसकस्य विधि ससानां विधिरुच्यते यत्र सक्तवः संसक्ताः लभ्यन्ते तत्र नैव गृह्यन्ते । अथ संस्तरति ततस्तदिवसकृतान् सहुकान एहन्तीति दिशब्दा यस्तो द्वितीयतृतीयदिनकृतानपि सन् गृहन्ति चतुर्थतास्तु सं
येकत्र गृह्यन्ते तेषामयं प्रत्युपेक्षणाविधिः । रजस्त्राणम-/ धः प्रस्तीर्य तस्योपरि पात्रकम्बले कृत्वा तत्र सक्तवः प्रकीर्यन्त तत ऊर्ध्वमुख पात्रकबन्धं कृत्वा एकस्मिन्पार्श्वे नीत्या यास्तत्र कणिका लग्नास्ता उद्धृत्य कर प्रक्षिष्यन्तं । एवं प्रत्यभूतप्रत्युक्षन्ते ततः।
नव पहातो दिट्ठे, दिट्ठे असा उ होंति व चव । एवं नवगा तिमी, तेरा परं संथर उभे ।। २०२ ।। नव वाराः प्रत्युपेक्षणाः कृत्वा यदि प्राणजातीयानास्ततो भाव्यास्ते सक्तवः श्रथ दृष्टास्ततो भूयोऽप्यन्या नव वाराः प्रत्युपेक्षणा भवन्ति । तथापि यदि दृष्टास्ततः पुनराप नव वाराः प्रत्युपक्षन्ते । ततो ययेवं त्रिभिनवकैः शुद्धास्ततां भुञ्जनाम् । अथ न शुद्धास्तदा तान् ततः परं परिष्टापयेत् । अधासंस्तरान् शुद्धीभवन्ति ।
संसत्त
प्राणजातीयानां च परिठापन विधिरयम्आगरमादी असती, कप्परमादीसु सत्तुए उरणी । मिमले कडा य, काऊण दवं तु तत्थेव ॥ २०३॥ या करणिकाः प्रत्युपशमान रास्ता करादिषु प रिष्ठापनीयाः, इद्द घरद्वादिसमीपे प्रभूता यत्र तुषा भवग्लिस झाकर उच्यते तस्याभावे कर्ण्यादिषु श्लोकाम सन् मक्षिप्य तत्रोरधिका: स्थापयित्वा महिनावा प्रदेश स्थाप्यन्ते, यदि व द्रवभाजनं नास्ति ततो ये सक्तयः शुद्धा अलेपकृताश्च ते पिएडं कृत्वा भाजनस्यैकपार्श्वे स्थापयित्वा तत्रैव च प्रयं कृत्वा गृहीत्वा भुत ।
यत्र च काखिकं संसज्जते तत्रायं विधिःभायामसंससियोदगं बा
गिरति वा व्वितचाउलोदं । गिरथभास विहितार्थ
मतेव सोर्हेतुवरिं छुभंति ॥ १०४ ॥ आयामं संसृष्टपात्रकमुष्णोदकं वा त्रिवृतं वा प्राशुकी
या उष्णोदकं साहति । एतेषामभावेसंदेय का स्वभाजनेषु प्रत्युपेक्ष्य मात्र वा शोध यित्वा यद्यसंसकं तदा गृहोपरि प्रक्षिपन्ति ।
द्वितीयपदमाह
बियपद पेक्खणं तु, गेलाद्धारा श्रोगमादीसुं । सुक्खाये, दुभदव्येसु वी जयगा ॥२०५॥ द्वितीयपदे ग्लानाध्यायमादिषु कारणेष्वपेक्षणं-पिण्डस्याप्रत्युपेतमपि कुर्यात् नत्वादिकं द्विती guestster प्रहणे मन्तव्यम् । दुर्लभ वा द्रव्यं पश्चात् लेभ्यते ततः पूर्वमिति नास्ति तद्भाजनं यत्र पृथी जो शुक प्रणयोरेषा यतना कर्तव्या । एष संग्रहगाथा - समासार्थः । साम्यतंगनामेव विवृणोतिअचाउरसंमूढो, बेलातिक्रमति सीयले होइ सदगतिभेद अपेक्खमाणो वि ॥ २०६ ॥ कवितारत्वेन ग्लानत्वेन संमूढः संमाह समुद्रातमुपगतस्ततो यावरत्युपक्षति तायला अतिकामति । शीतलं यातायता का शुभागृहा नोबा, गृहीत वा पिएंड प्रत्युपेक्षणामकुर्वाणाऽपि शुध्यति तत्प्रायश्चितभाग न भवति । श्रमाणं पलितो वे लतिक मे चलितुमिच्छति भयं वा । एवं पहा, ओमो सति कालंवला वा ॥ २०७ ॥ अध्यन या सामाि प्रभूतभिक्षाचराकी यायच प्रयुतालाभिति सर्वः सार्थवतुमिच्छति, पृष्ठाभां गच्छतां भयं तत एवंपिकरप्रातरखापि पियादित्यर्थः । अयमेव प्रत्युपमानाला - शः कालः स्फिति । सूर्य वास्तभिते श्रथ स्थानं वा भिक्षाचराकीर्ण ततोऽप्रत्युपेक्षितमपि गृह्णीयात् ।
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कुञ्ज उपभोगं, पाणे दट्टू तं परिहरेआ ।
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ਸੰਸਾਰ
आण वा वि पेई, सुज्झर अतिसंभमा सो उ।। २०८ || पचनन्तरोकार प्रत्यु न भवति तत उपयोग कुर्यात् । कृते बापयोगे यदि प्राणिनः पश्यति ततस्तान् दृष्ट्रा भक्तपानं परिहरेत्। अथवा-यातुरं प्रेक्ष्य उपयोगमपि कुर्याद्वा न वा । अनुपयुआनोऽपीति संभ्रमादसौ साधुः शुद्ध्यति । यद्वाऽधस्तादुक्तस्तत्रोक्तः शुष्कौदनः पृथक् गृह्यते तश्राप्येतेष्वेव रानाध्यायशेषु कारणेषु द्वितीयपदं मन्तव्यम्
(२४) अभिधान राजेन्द्रः ।
तथा चाऽऽह-
वसुं पेप्पर अत-तगस्स वितियं दवं तु सोहेति । ते उ अक्खगहणं, तं पि य उहतरो पेहे ॥ २०६ ॥ अतरन्तगस्य ग्लानस्य योग्यं विष्वगेकस्मिन् मात्रके गृह्यते, द्वितीये च मात्रके गृह्यते द्रवं शोधयति । ततो यत्र शुष्की दनं पृथक गृह्यते ततः तृतीयमात्रकं नास्तीति कृत्वा शुकद्रवं तत्रैव प्रतिग्रहे गृह्णीयात् । ग्लानस्यापि यदोदनं द्वितीयाङ्गादिकमेकस्मिन् मात्रके गृहाति तदप्यु महीतव्यम्, इतरतु शीतलं प्रत्युपेक्षितं यद्यसंसक्तं ततो गृह्णीयादन्यथा तु नेति भावः ।
श्रद्धा श्रमे वा तहेव वेलातिवातियं गातुं । दुल्लभदवे व मा सिं, धोवणपियरोग होर्हिति ॥२१०॥ अध्वनियामा बेलामा अतिपातमपि अतिक्रम ज्ञात्वा तथैव शुष्कं विष्वग् न गृह्णीयात् । दुर्लभं वा तत्र ग्रामे द्रयं पानकं ततो मा'सिं' एषां साधूनां भाजनधावनपानेन भविष्यत इति कृत्वा पूर्वमात्रके द्रवं ग्रहीतं ततो नास्ति भाजनं यत्र शुष्कं पृथक गृयंत, श्रत एकत्रैव गृह्णीयात् । उमोदनविषयं द्वितीयपदम् ।
अथ पानकविषयमाह
उसने (देखे) मेलम्मदाय कक्खडे खिप्पं । इयराणि य अद्धा, कारणगहिते य जगणाए । २११ यथाकार आका जनितेपि संदेशे तथा तत्र गताः सन्तः संसक्रमपि पानकं गृह्णन्ति, गृहीत्वा ग्ला त्वे अध्वनि कर्कशे वा श्रयमे क्षिप्रं न परित्यजेयुरपि । तथाहि-ग्लानत्वे यावत्संसक्तं परिष्ठापयन्ति तावत् ग्लानस्य वेलातिक्रमो भवति, अध्वनि सार्थात्परिभ्रस्यन्ति, श्रवमौदर्ये निकालः स्फिटति ततो न परित्यजेदुः इतरा णि च सागारिकस्य पश्यतः परिष्ठापनं संसृत्यादीनि यानि पूर्वप्रतिषिद्धानि तान्यप्यध्वनि वर्त्तमानः कुर्यात् एपकारणे यतनया गृहीतस्य संसक्तस्य विवेचन विधिरवगन्तव्य इति संग्रहगाथासमासार्थः ।
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अथैनामेव विवृतिआगमणसं गिरहयं न य चिए खिप्पं । श्रम गिला वेला - विहम्मि सत्थो वहकमह ॥ २१२ ॥
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यथा श्राकुड़िया संसदेथे गमनं तथा तत्र गतः संस मपि गृहीयात् न च विविध्यात् परिष्ठापयेत् कुत इत्याह- अथ मे भिक्षाकालः स्फिटति ग्लान्ये वा ग्लानस्य बेला अति प्रियनि साथ निकामनि ततः
परित्यजेत्। ६३
संसत्त
अविवादिहि संससे, संकप्पादी पदा तु जह सुज्झे । सचाउल संसत्त सती तहा महणं ।। २१३|| अशिवादिभिः कारणैर्यथा संसक्ने देशे संकल्पादीनि पदानि कुर्वाणोऽपि शुद्धयति, तथा तत्र गतो यद्यसंसक्तं पानकं लभते ततः पातलो या संक्रं तथैव गृडीपात्
तेषां पुनगृहीतानामयं विधिःश्रवग्गहियं चीरं, गाल हेउं घणं तु गेरहंति ।
तह विय असुज्झमाणे असती श्रद्धा जया ४/२१४ | औपग्रहिकं धनं निष्यि परं तेषां संसपानकानां गालनातोर्गृह्णन्ति । तथापि गाल्यमानं यदि न शुद्धयति न या दुधापनादिकमपि लभ्यते ततो या प्रथमोदेशध्वनि गच्छतां तु 'वारफलय रक्खे ' इत्यादिना पानकयतना भणिता. सा कर्त्तव्या ।
अथ दधिविषयं विधिमाह
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संत गोरसायं य गाल व होइ परिभोगो । कोडिदुगलिंगमादी, तहि जयणा यो य संसत्तं ॥ २१५ ॥ यदि कापि संसनो गोरसो लभ्यते ततस्तस्य न गालनं न या परिभोगः कर्त्तव्यः किंतु कडलिंगमा को निविशांधिया च अविशोधिकोट्या भक्तपानग्रहणे यतितव्यं यावदाधाकर्मापि गृह्यते, अन्यलिङ्गमपि कृत्वा भपानमुत्पाद्यते न पुनः संसको गोरसो ग्रहीतव्यः ।
अथ 'इयर' इत्यादि पश्चार्ज प्यावडेसागारिय सव्वत्तो, णत्थि य छाया विहम्मि दूरे वा । बेला सरथो व चले, विसीययमये इजा ॥ २१६ ॥
ध्वनि गच्छतां सर्वतोऽपि सागारिकं छाया च तत्र नास्ति, अस्ति वा परं दूरे । तत्र च गच्छतां वेलाऽतिक्रामति, साथ या वसति तत्र उप भूभाग परिष्ठापयेत् । यत्र घोषित सामारिक वा शङ्कादयो दोषाः अपि पा स्थानं तत्र निषदनप्रमार्जने अपि न कुर्यात् । पृ० ५ उ० (संसनियुक्त्युक्रानि संसक्तद्रव्याणि 'भुजाभुज' शब्देऽस्माभिदर्शन) करसंविगुणानां कदाचित् पायांसंबन्धात् गौरवश्यञ्जनाच संक्रम् १० ५ श्र० । गुणैश्व दोषैश्च संसजंत मिश्रीभवतीति संसनः । प्रव० २ द्वार । संसक्त इव संसक्तः । पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वा श्रासाद्य संनिहितदोषगुणे, व्य० १३० ।
संसक्तलक्षणम्
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संसतोय आणि सो पुरा गोभत्तलंदए चेत्र । उच्च मच्चि, जं किंची हुब्भई सव्वं ॥ १ ॥ एमेव यमृजुर, दोसा व गुणा व जतिया केद । ते तमिव सन्निहिया, संसत्तो भन्नई तम्हा ||२॥ रायविगमाई, बहवाऽवि नदी जहा उ बहुरूवो ।
हवा मेलमी जो हलिरागाहहुन्न ||३|| एमेव जारिणं, सुद्धमसुद्धे वाऽवि संमिलइ | तारिओ मिश्र होही, संतो भाई तम्हा ॥ ४ ॥ आव० ३ अ० ।
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ममत
संप्रति संसक्तसूत्र यति: तच्च प्राग्वत् परिभावनीम् । अधुना संसक्तप्ररूपणामाह-' संसक्तः अलिन्द इव नट इव बहुरूपी नटरूपी एडक इव ज्ञातव्य इति शेषः । एतदेव विख्यासुराद
गोमताऽलिंदो व बहुरूपी नही
,
"
एलगो देव । तो सो दुविहो, अकिलिडो व इयरो वा ।। २६८ ।। गोभक्तयुक्तोऽलिन्दो गोभक्कालिन्दः स इव । किमुक्कं भवतियथा अलि गोसानि अव मित्यादि । सर्वमंत्र मिलितं भवतीति संसक्त उच्यते । यः मिलितः पार्थस्य भवति - विनषु मिलितः संविग्नसदृशः स संत इति । यथा वा मोरङ्गभूमी प्रविधानुसारतः तस करोति एवं बहुरूपनट इव सोऽपि पार्श्वस्थादिमिलितः पार्श्वस्थादिरूपं भजते, संविग्नमिलितः संविग्नरूममिति । यदिवा यथा एडको लाक्षारसे निमग्नः सन् लोहितवर्णो भवति, गुलिफाफुराडे निमन्तः सन् य इत्यादि । एवं पाश्ये स्थादिर्द्विधा तद्यथा-अडिए, इतरश्व-संवितः । तत्रासंक्लिटमाह
पासथे हाच्छंदे, कुसील ओसम्पमेव संसते । पियधम्मापयधम्म (चे) किलो मधे एसो २६६। पार्श्वगंध मितिः पार्श्वस्थः यथाग्छन् या कु शीले कुशीलः, अवसन्ने अवसन्नः संसक्त संसक्तः, तथा प्रियधर्म्मसु मिलितः प्रियधर्म्मा: एप संसक्लोऽसंक्लिष्टां
,
ज्ञातव्यः ।
( २५० ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
रानभाव |
संक्रिएमाह
"सं
पंचासवप्पसत्तो, जो खलु तिहि गावहि परिबद्धां । इन्थिगिहिसंक लिङ्की, संयता किलिडीसी ॥ २७० ॥ यः पञ्चादिप्रवृत तथा मिगरखैः-ऋद्धिरससानलक्षणैः प्रतियद्धः, तथा स्त्रीपुत्र प्रतिवृद्धः स संक्लिष्टः संसको ज्ञातव्यः । श्रस्य वा संक्लिप्रस्य प्रायश्चित्तविधिर्देशतः पार्श्वस्थस्येव वेदितव्यः । व्य० १३० । संसिद्धो "संसर्गवशात् स्थापितादिभांजी संक्लिएः संक्लिष्टाचारः । व्य० ३ उ० । (संसक्तस्य - हारो न देयो न वा ग्राह्य इति दाण' शब्द चतुर्थभाग २४६३ पृष्ठे उक्तम् । ) संसज्जुनि सकनिक्रीयापद्वितीयपूर्वादुद्धृते सम्मूच्छिम जीव संसक्किम भाज्याभोज्यप्रदनियुक्ति, संस उसहावीरचरिमे, सुरासुरनमंसिए पण मिऊणं । संखेव महत्वं भवामि निति ॥ १ ॥
+
या पुण्यीओ, अणीयस्स इमं सुत्रमुरं । संइम समुच्मि जीव जाणि ॥ २ ॥ संस० नि० । संसत्ततव-संमक्कतपस् - पुं० । श्राहारादिपूजासु नित्यं परियाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ । ( सू०-१४३ )
( अस्य सूत्रस्य व्याख्या 'लीगसार शब्द पष्ठभागे
9
संसथ
--
3
-
अथ संसकृतपसमाद्दआहारोपहिया-सु जस्स भावो उनि सन्तो । भाववहतो कुण, तवोवहाणं तदडाए । ४८७ ॥ आदारोपधिपूजासु यस्य भागः- परिणामो नित्यः सदा प्रतिबद्धः स एवं रसगौरवादिना भावेनोपहतः करोति तप- उपधानमनशनादिकं तदर्थमाहाराद्यर्थे यः स संसकृतपा इति । वृ० १३०२ प्रक० । ध० । संसत्ततवोकम्म-संसकृतपः कर्मन्न० आहारोपधिशय्यादिदिभावनधर स्था० ४ ० ४ ० संसदण - संशब्दन न० । उत्कीर्त्तने, श्राव० ४ श्र० । संसयम संसक पुं० संसर्पन्तीति संसर्पकाः । हादिवहिनकुलादिषु श्राचा० १ ० १ ० २ उ० । संसर्पणशीलेषु श्रहिनकुलादिषु वृ० १ ० १ प्रक० । पिपीलिकाकांष्ट्रादिषु श्राचा० १ ०१ श्र०८ उ० । नि० ० । संसपिदेशगमन ० ० १२ गाथा । संसय-संशय- पुं० । एकतरविशेषनिश्चयचिकीर्षोः किमिदमिति विमर्शरूपे, (विशे० । स्था०|) अनवधारितार्थज्ञाने, चं० प्र०१ पाहु० । दोलायमानमानसात्मके, उत्त० १ ० । नि० ० ० म० । अनिरितार्थमुभयवशायलवितया प्रवृत्ते ज्ञाने, ज्ञा० १ ० १ ० औ० रा० । नं० । किमित्यनवधारणार्थे प्रत्यय, सूत्र० १ ० १२ अ० । संशयं लक्षयन्तिसाधकबाधकप्रमाणाभावादनवस्थितानेककोटिसंस्पर्श ज्ञानं संशयः ॥ ११ ॥
उह्निरूयमानस्यात्पुरुषाने कांशीरयोः साधकबाधकप्रमाणानुपलम्भादनधारितनानां शावलम्विधि प्रतिषेधयोरसमर्थ संवेदनं संशय इत्यर्थः, समिति-समतत्सर्वतियुत्पत्तेः ॥ ६१
उदाहरन्ति
यथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा ॥ १२ ॥
1
व्यक्तम् । श्रयं च प्रत्यक्षविषय संशयः । परोक्षविषये तु यथा क्वाऽपि विपिनप्रदेशे शृङ्गमात्रदर्शनात् किं गौरये स्याद् गवयां वा ? इत्यादि ॥ १२ ॥ रत्ना० १ परि० । ० संशय विचारप्रवृपम् संशय द्विधार्थ संशयः, अनर्थसंशयश्च । तत्रार्थसंशया यथा, यदि वृष्ट्यादिसामग्री ततः संभवति सस्यनिष्पत्तिः, अनर्थसंशया यथाविप्रमिदं या भक्षयति स म्रियत । तत्रानर्थसंशयान्न कस्य चित्सचेतसः प्रवृत्तिरनर्थतः संशयस्यापि विभ्यत्वात्, अर्थसंशयस्तु प्रायाऽपि प्रवृत्पङ्गमनशङ्काया अभावात् फलस्य च दर्शनायुपस्यासजनित संशयोऽनर्थसंशय इति भवति प्रज्ञावतां प्रवृत्तिरिति न किंचिदनुपपन्नम् । आ०म० १ अ० । रत्ना० । आचा० । समयं परिमाण संसार परिभाव,
अपरि
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(२५१ ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
संसय गतां । ) नृणाम् | संशयक्षुण्ण चित्तानां कार्ये संशीतिरेव हि ॥ १ ॥ " शा० १ ० १६ श्र० ।
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संश्रय - पुं० । श्रश्रयणे, सूत्र० १ ० १० प्र० । संसयकरणी - संशयकरणी - स्त्री०/ संदेहजनिकायां भाषायाम्, संशयकरणी या एका वागनेकार्थाभिधायितया परस्य संयमुत्पादयति यथा-सैन्धवमानीयतामित्यत्र सेन्धवश लवरवपुरुषयाजिषु वर्तमान इति । प्रा० ११ पढ् दश० संथा० । ध० भ० ।
संसरंत संसरत् त्रि० परिभ्रमति भ्रातुः । संसरण - संस्मरण - न० । सकल्पिकस्त्र्यादिदर्शनतः स्मरणरूपे असंप्राप्तकामभेदे, दश० ६ श्र० ।
संसार-संसार - पुं० । संसरणं संसारः । भावे घञ्प्रत्ययः । श्र० म० ४ श्र० । भवाद्भवान्तरगमने, विशे० । नरकादिषु पुनः पुनभ्रमणे, विशे० । दुर्गतिभ्रमणे, सूत्र० १० ५ ० २ उ० आव० | दर्श० । ( एतत्संभवः 'परलोग' शब्दे पञ्चमभागे ५४२ पृष्ठे साधितः । ) तेषु तेषु उच्चावचेषु कुलेषु पर्यटने, उत्त० ३ श्र० । चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणे; स्था० ४ ठा० १ ३०| चतुर्गतिकमेदेन संसृती ० १ ० ६ ० ० सू० । दश० । स० । गतिषूत्पादे श्राचा० १ ० १ ० ७ उ० ।
संसार
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" स्यानिकायैकनिष्ठानां कार्यसिद्धिः परा- धानुपूर्व्युदयाद्भवान्तरसंक्रमणं, कालसंसारः, भावसंसारस्तु संसृतिस्वभाव श्रविकादिभावपरिणतिरूपः तत्र च प्रकृ तिस्थित्यनुभाग प्रदेशबन्धानां प्रदेशविपाकानुभवनम् ए इपादिका पश्चविधः संसारः अथवा उयादिकसंसार तथा अश्वास्तिनं प्रामाजगरं, पसन्ताद् श्रीष्मम् श्रधिकाोपशमिकमिति याथार्थः । आचा० १ श्रु० २ ० १ ३० |
"
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संसारो द्रव्यादिभेदाश्चतुर्धा - चवि संलारे पत्ते, तं जहा- दव्वसंसारे खेत्तसंसारे कालसंसारे भावसंसारे । ( सू० - २६१ ) ।
तब सरणम् इतत परिभ्रमर्थ संसार, तसे सारणास्त्रानुपयुक्त या वा जीवपुद्गललक्षशानां यथायोगं भ्रमयं द्रव्यसंसारः तेषामेव क्षेत्र-चतु देशात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसार, पत्र या क्षेत्रे संसारो व्यायायते तदेय क्षेत्रमभेदोपचारात् संसारो प थारसयतीगुणमित्यादि । कालस्य दिवसपक्षमासायमसंवत्सरादिलक्षणस्य संसर-चकन्यायेन पयोपमादिकालविशेषविशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कालसंसारः, पश्मिन् वा काले- पौरादिके संसारो व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यतेः श्रभेदायथा यापेक्षा करणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षति तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीवपुद्गलयोर्वा संसरणमाश्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिव्यं भावानां चयादीनां य
दीनां वा संसरणपरिणामो भावसंसार इति । स्था० ४ ठा० १ उ० । सूत्र० ।
लक्खणमेयं चैव उ, परस्स अखभागमेचा ते । निक्खमणे य पवेसो, एगा बीया वि एमेव ॥ ७ ॥ निक्समसकाले समयाई एत्थ श्रावलियभागो । तोमुडुतविरहो, उदहिसहस्साहिए दोसि ॥ ८ ॥ श्राचा०१ श्रु० १ अ०६ उ० | द्रव्यसंसारो व्यतिरिक्तो द्रव्यसंसृतिरूपः देशसेवारो येषु क्षेत्रेषु इय्या संसरति, का लसंसारः पस्मिन् काल इति गारकतिझरामरगांवचतुर्थ
नरकादि:
चविहे संसारे बसते, तं जहा- रतियसंसारे ०जाव देवसंसारे (०x२६४ )
'चउव्विद्दे ' इत्यादि, व्यक्तं किन्तु संसरण संसार:मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति । स्था० ४ ठा०२ उ० । दश० । सूत्र० । श्राचा० । नं० नि० चू० । संसारश्धतूरूपो गतिचतुष्कभेदात् पञ्चमकारा एकेन्द्रद्रया दिभेदात् पद्मकार पृथिव्यप्यभूतिभिर्भेदात् इति सेभाव्यते । नि० चू० २० उ० । श्राव० । नवभिः स्थानैः संसारं वर्त्तयन्ति । स्था० ।
जीवाणं नपहिं ठाणेहिं संसारं वर्त्ति या पति वा वतिस्संति वा, तं जहा - पुढविकाइयत्ताए० जाव पंचिदियकाइयचाए (सू० ६६६ +)
'यतिसुवति' संसरखं निर्वर्तितयन्तोऽनुभूतवन्तः, एचमन्यदपि । स्था० ६ ठा० ३ उ० । ( " अधुवे असोसयम्मि, संसार (प) - यम्मि दुक्खपउराए । किं नाम होज तं कम्म, जेणाहं दुग्गइं न गच्छेजा ॥ १ ॥ इति कपिल निर्वेदः 'कविल' शब्दे तृतीयभागे ३८८ पृष्ठे उक्तः ) संसारमुच्छेत्तुमना अष्टप्रकारं कर्म छेदयेत् । श्राचा० १ श्रु० २ श्र० १ उ० । "संसारम्मि अंते, अविलाजोणीएँ एक्कए सत्ता । हविवकुहियमाण, जोगीर मदेसम्म ॥१॥ " महा० ६ ०
।
संसारं ज्ञात्वा रतिं कुर्यात् संसार इति चतुर्थ भेदं व्याचिख्यासुराद्द
दुहरू दुक्खफलं दुहाणुबंधी विवणारूवं । संसारमसारं जा गिऊ न रई तहिं कुइ ।। ६२ ।।
इह तत्र संसारे रतिं न करोतीति योज्यम्-किं कृत्वा शात्या संसारम् किंविशिष्टम् ? दुःखरूपं जन्मजरामरणरोग?, शोकादित्येन दुःखखभावम्, तथा दुःखफलं जन्मान्तरे नरकादिदुःखभावात् दुःखानुबन्धीति दुःखानुबन्धिनं पुनः पुनर्दुःखसन्तानसंधानात् तथा विडम्बनायामिव जीवानी सुरनरनैरविकतिसुभगादुर्भगादीनि विचित्राणि रूपाणि यत्र विडम्बनारूपस्तमेवंविध संसार
"
सु
साराभावादसा हा अध्यनरत पूर्ति मन् कुरुते विदधाति श्रीदत्तवत् । तद्दृष्टान्तश्चायम्"पाउस कालेसिमिय, बहुसस्कृलागसंनिवेसम्मि
सि जिम्मरतो, सिरिदत्त सिद्धिपरपुती ॥ १ ॥ तस्सऽचविणे भजा, अब मरणमयुपत्ता संसारविरसमणी, तो सो इय चितिउं लग्गो ॥ २ ॥
"
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संसार अभिधानराजेन्द्रः
संसार सुरअन्नुन्नुहीरिय-साहावियवयणासमभिभूए ।
गुणिथुणणा श्रोसग्ग, जति जिया किमिह अच्छरियं ॥२७॥ नरयभवाम्म जियाण, निमेसमित्तं पि नस्थि सुहं ॥३॥ सिरिदत्तमुणिवरो वि हु, परियाय पालिऊण चिरकालं। छिदणभिदणबंधण-दुब्वहभरवहणमसुहदुक्खहि ।
अणसणविहिणा मरिउं, जाओ अमरो महासुके ॥२८॥ सययं संतत्तार्ण, तिरियाणं नाम कि सुक्खं ॥४॥
तो चविउ सापए, पुरम्मि सिरितिलयनयरसिट्ठिस्स । खंडियाखंडलवा-बचंचलं जीवियं इह नराणं ।
दयाह जसवईए, उयरे पुत्तो समुप्पन्नो ॥ २६ ॥ दुल्लहजसंजोगो महलकल्लोललोलतरो॥५॥
सो अट्ठममास जिण-धम्म जणणीइ निसुणमारणीए । ताव भरकंतसकुं-तपोयगलचंचलं च तरुणतं ।
गम्भदुई अमरसुह, निसामिउं संभरह जाई॥३०॥ इह संपयाउ संपा-संपायसमाउ सयकालं ॥६॥ तो भवविरत्तचित्तो, अभिग्गई लेइ जह मए समए । इय टाणिटुविओ-गजोगबहुरोगसोगपमुहेहिं ।
दिक्ख श्चिय गहियब्वा, नियमो पुण गेहवासस्स ॥ ३१॥ निश्चमंभिहमियाणं, मणुयाणं न सुहगंधो वि ॥७॥
कमसो जात्रो कयपउ-मनामश्रो तरुणभावमणुपत्तो। असरिसबमरिसईसा-विसायरोसाइमइलियमणेसु । चउनाणिगुरुसमीवे, गिरिहय दिक्खं गो मुक्खं ॥ ३२॥ अमरेसु वि अइफारो, दुहसंभारो वियंभे ॥८॥
श्रीदत्तचेष्टितमिति स्फुटफुल्लमल्लीता चउगइसंसारे, जियाण नूण न अस्थि इत्थ सुहं । वल्लीवितानविशदं विनिशम्य सम्यक। सयलसुहहेउदुइजल-हिसेउ जिणधम्ममुक्काणं ॥६॥
निःसंख्यदुःखनिकरप्रभवे भवेऽस्मिन्इय चिंतिय सिरिदत्तो, गिराहा दिक्खं कमेण संजाओ। नित्यं विरक्तमनसो भविनो भवन्तु ॥ ३३ ॥ गीयत्थो पडिवजा, एगलविहारबरपडिमं ॥१०॥
ध०७२ अधि० ३ लक्षः। कस्स य गामस्स बहि, पेयवणे अन्नया मिसाइ इमो ।
जइ उप्पजइ दुक्खं, दट्ठव्वो सहावयो नवरं । अणमिसनयणो वीरा-सणेण चिटुइ सुहज्माणो ॥११॥
किं किं मए न पत्तं, संसारं संसरंतेणं ॥ ६२॥ . इत्तो हरी पसंसइ, सिरिदत्तमुणी इमो सुरहिं पि। झाणाउ न चालिजा, खरपवणेहिं व अमरगिरी ॥ १२॥
संसारचकवाले, सव्वे वि य पुग्गला मए बहुसो। तं गिरमसदहतो, एगो अमरो समागो तस्थ ।
पाहारियाय परिणा-मिया य न पहंगो तत्तिं ॥६३।। काउं रक्खसरूवं, तं मुणिमुवसग्गए गाढं ॥१३॥
पातु०। चंदणन व वेढिय-सव्वंग डसह विसहरो होउं ।
णाणस्स देसणस्स य, सम्मत्तस्स य चरित्तजुत्तस्स । सुमणि तह अवि हत्थो, गलहत्था हस्थिरूपेणं ॥१४॥ जाला जडालजाला-कलावकलियं चउहिसिं जलणं;
जो काही उवओगं, संसाराओ विमुचिहिति ॥८॥ खरपवणेहि पडि-तु भामए अक्तूलं व ॥१५॥
आतु। करहयकंठकडारे-ण पंसुपूरेण पिहर सव्वत्तो।
निक्कसायस्स दंतस्स, सूरस्स ववसाइयो। विसमविसपसरचिंचा-य विछुए मुंचए तत्तो ॥१६॥
संसारपरिभीयस्स, पच्चक्खाणं सुहं भवे ॥२॥ अह मुणिणोऽभिप्पाय, अमरो जानियह प्रोहिनाणेण । ता चिंता साहू सा-हसिक्कमलो मणम्मि इमं ॥१७॥
पातु०। सहियउबसग्गवट्टो, तुज्झ इमो जीषसत्सकसषहो ।
संसारमावष्मपरस्स अट्ठा, सत्थावत्थाइ वयं, पायं पालेड सव्यो वि ॥ १८॥
साहारण जंच करेइ कम्म । इत्तो प्रणतगुणिया, सहिया वियणा तए परषसेण । रे जिय! इह भवगहणे,न उण गुणो को वि संजाओ ॥१६॥
कम्मस्स ते तस्स उ वेयकालो, ताधरिय धीरिमगुणं, खणं इमं वेयणं सहसु सम्म ।
न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥४॥ उत्त०४०। जेण लहुं भवजलहि, तरिउं पाविसि सिवं जीव !॥२०॥ णत्थि चाउरते संसारे, णेवं सन्न निवेसए । खामेसु सयलजीये, तुमं पितेसिं समेसु रे जीव!।
अस्थि चाउरते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥२३॥ सम्वत्थ कुणसु मित्ति, इमम्मि अमरे विसेसेण ॥२१॥
सूत्र०२ श्रु०६०। ('अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे ५२१ जो य तुमं कहिय भव-कारागाराउ खिवा किर अप्पं ।
पृष्ठे व्याख्यातैषा गाथा।) (यथा यथा रागद्वेषास्तथा तथा सो एस सुरो तुह जिय, परमसुही परमबंधू य ॥२२॥
संसारवृद्धिरिति किरियावाइ' शम्ने तृतीयभागे ५५ पृष्ठे किं तु इमो उवसग्गो, जह मह हरिसा य भवहरत्तेण ।
उपपादितम् ।) (संसारे कथं न पंचम्यादिति-' संसय ' तह तभवनिबंधण-मिमस्स इय मह मणम्मि ॥ २३ ॥
शब्देऽस्मिमेव भागे अनुपदमेवोक्तम् ।) महापि किश्चिमइय सुहभाषणधणसा-रवासियं मुणिमणं मुणे वि सुरो। तिपाद्यते, द्वाभ्यां स्थानाभ्यां संपनो-युक्तो नास्यागारंगयमिच्छत्तो पयडिय-नियरूयो नमिय य थुणा ॥२४॥ गेहमस्तीत्यनगार:-साधुः, नास्त्यादिरस्येत्यनादिकं तत् जय जयद! धम्मधुरी-ण!रीण भवगहणओ मुणिसुधीर । अवदर्ग-पर्यन्तस्तमास्ति यस्य सामान्यजीवापेक्षया तवनधीरिमनिज्जियमंदर !, धरविसहरनियरघरगरुड!॥२५॥ पदग्रं तत् दीर्घा अडा कालो यस्य तद् दीर्घावं तत् । तस्स तुह चरणकमल, कमलसरं सारस व अणुसरिमो ।। मकार आगमिका, दी| वाऽध्या-मागों यस्मिस्तहीजस्स सय देविंदो, बंदि व्य पसंसह गुणोहे ॥२६॥ _ध्वं तच्चतुरन्तं-चतुर्विभागं नरकादिगतिविभागेन, इय थुणिऊण मुणिवं, सुरलोय सुरथरो गो अहवा। । दीर्घत्वं प्रकटादित्वादिति, संसारकान्तारं-भवारण्यं
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( २५३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संसार
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व्यतिव्रजेद्-अतिक्रामेत् तद्यथाविद्यया चैव-ज्ञानेन चैव चरणेन चैव चरित्रे चैवेति संसारकान्तारयतिजन प्रति विद्याचरणयोर्योगपद्येनेव करणस्वमवगन्तव्यम् । स्था० २ ठा० १ उ० । ( त्रिभिः स्थानैः संपनगर संसारमतिक्रामति- इति अणगार शब्दे प्रथमभागे २६६ पृष्ठे गतम्) “जम् दुक्वं जरा दुफ्लं, रोगा • मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जस्थ कीसंति पाणि ॥१॥" तथा "तरदाइयस्स पार्क, कुरो बुद्दियरस भुज्जए भुख तिती। | दुक्खलय संपत्तं जरियमिव जगं कल
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यलेइ ।। १ ।। सूत्र० १ श्रु० ७ अ०
अनादिरेष संसाराअनादिरेष संसारो, नानागतिसमाश्रयः ।
पुद्गलानां परावर्त्ता, अत्रानन्तास्तथा गताः ॥ ७० ॥ अनादिः - अविद्यमानमूलारम्भः एषः- प्रत्यक्षत दृश्यमानः संसारो - भवः । कीदृश ?, इत्याह- नानागतिसमाअयः- नरकादित्रियपात्रं वर्तते तव पुलानाम्श्रदारिकादिवरूपाणां सर्वेषां परावर्त्ता-प्रहमोक्षात्मकाः श्रत्र – संसारे अनन्ता - अनन्तवारस्वभावास्तथा तेन समयप्रसिद्धप्रकारेण गता - श्रतीताः । केपामित्याह
सर्वेषामेव सच्चानां तत्स्वाभाव्यनियोगतः । नान्यथा विदेतेषां सूक्ष्मयुद्धया विभाव्यताम् ॥७५॥ सर्वेषामेव सत्त्वानां - प्राणिनाम् तत्स्वाभाव्यात्- अनन्तपुद्गलपरावर्त्त परिभ्रमणस्वभावता, तस्य नियोगो—ध्या पारस्तस्मात् । अत्रैव व्यतिरेकमाह--न- नैव अन्यथा-तखाभाज्यवियोगमन्तरेण संविद्-अवबोधो पटते तेषा म् अनन्तपुङ्गलपरावर्त्तानां सूक्ष्मयुद्धमा निपुणाभोगेन विभाव्यताम् अनुचिन्त्यतामेतत् । यो०बि० । चरणविहिंपचखामि जीवस्त्र उ सुहाव जं चरिता बहू जीवा, तिन्ना संसारसागरं ॥ १ ॥ उत्त० २० अ० ।
( ' चरणविद्दि ' शब्दे तृतीयभागे १९२८ पृष्ठे व्याख्यातैथा) (संसारो ऽशाश्वतस्तद्गतानां संसारियां स्वकृतकमैवशमानामितश्चेतश्च गमनादिति सूत्र० १० १२ अ० अनादिरेष संसार:
अणादियं परिन्नाय, अवदग्गेति वा पुणो । सासयमसासए वा, इति दिहिं न धारए ॥ २ ॥ सूत्र० २ श्रु० २ ० 1 ('श्रणायार' शब्दे प्रथमभागे २१६ पृष्ठे व्यापातैषा) यत्र कर्मयानि मानि संस रन्ति समसार्षुः संसरिष्यन्ति चेति संसारः । स्या० । उत० । नारकतिर्यद्मरामरलक्षणे मातापितृभार्यादिस्नेहलक्षणे व जगति, आचा० १ ० २ ० १.३० ।
एस संसारो ति पवुश्च मंदस्स श्रविजाणो । एप अजादिमाणिकलापः संसारः प्रोच्यते नातोऽन्यसानामुत्पत्तिप्रकारो ऽस्तीति । आचा० १ ० १ ० ० ( ' तल ' शब्दे चतुर्थभागे २२१६ पृष्ठेऽत्रत्यविस्तारो गतः )
૬૬
संसारपडिग्गह
सम्यग्दृष्टिमिध्यादृटेश्च समः संसारः - तथा "अंतोमुहुसामेतं पि" ति गाथया सम्मग्टटेन्यू नार्ध पुगलपरावर्त्तः संसार उत्कर्षतः प्रतिपादितोऽस्ति "जो अकिरियाबाई सौभविष्य अभवियो वा" इत्यादि दशारानुसा रेण तु सम्पदृष्टेः क्रियावादिनो मिपाकर्षती न्यूमिथ्यादृश्चोत्कर्षतो नपुङ्गपरायर्थः संखारः परं सोऽप्यागमान्तरानुसारेण न्यूनार्धपुङ्गलरूपोऽवसीयत । अत्र सम्यग्दृप्रेः क्रियावादिनो मिथ्यादृष्टेश्च कथं संसारसाम्यमिति ?, अत्र यद्यपि आपातमात्रेण साम्यमुक्रमस्ति तथापि सम्यग्रः कस्यचिदासातनाबलस्य विराधकस्येतावान् संसारो भवति नाम्यस्य क्रियावादिमिध्यादृष्टिसमुदाये तु कस्यचिल्लघुकर्मणः कारित्वमय इति कथं साम्यशङ्केति प्रतिभाति । तवं तु तत्त्वविद् ति इति ॥ २॥ तथा कस्यचिज्जागतोऽभिनिविष्टस्य संसारवृद्धिहेतुः कर्मबन्धो भूषानु तामिनिविस्व सम्मार्गानुपायिनो वा अजानत इति अत्र व्यवहारेण जानता कर्मग्धो भूयानित्यवसीयते ॥ ३ ॥ ही० ३ प्रका० ।
संसारकंतार- संसारकान्तार- पुं० । संसार एव कान्तारः -निजलः समयस्त्राणरहितोऽरण्य प्रदेशः। संसाराटव्याम्, सूत्र ०२ श्रु० ३ श्र० ।
संसारकलंकली भाव - संसारकलङ्कलीभाव - पुं० । असमञ्जसत्वे, श्री० ।
संसारकलंफली भावसम्भवगन्भवासही पर्व चमकता । (सू०४३ X )
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संसारे फलकुलीभावेन सत्येन पुनषा:- पीन:पुम्बेनोत्पादाः गर्भवासवस्तयश्च गर्भाधयनिवासास्तासां यः प्रविस्तरः स तथा तमतिक्रान्ता विस्तीर्थाः ओ० संसारचक्कवाल-संसारचक्रवाल- पुं० । संसार एव चक्रवालः, चक्रवालशब्दः समूदायें भपसमूहे, धातु सूत्र० १० प०॥ संसारजलहि- संसारजलधि-पुं० भवोदधी, पञ्चा०विष संसारण-संसारण- न० । ईषत्स्वस्थानात्स्थानान्तरनयेन चालमे, शा० १ ० ४ श्र० । संसारनिग्गुष्प संसारनैर्गुएव न० वैराग्यसाधने, पं० ०
३ द्वार ।
संसारतरु संसारतरु-पुं० कषायमूलके संसाररूपे वृते, आ चा९ । यतो नारकतिर्यग्झरामरगतिस्कन्धस्य गर्भनिषेककललार्बुदमांसपेश्यादि जन्मजरामरणसाम्यस्य दारिद्रयाद्यनेक व्यसनोपनिपातपत्रगद्दनस्य प्रियविप्रयोगप्रियसंप्रयोगार्थनाशाने कव्याधिशतपुष्पोपचितस्य शारीरमानसापचिततीमतरदुःखोपनिपातफलस्य संसारतरोः (मूलम् ) आचा०९ श्रु० २ ० १ ३० ।
संसारतरुवीय संसारतरुबीज न भवकारणे, भाव०
४ अ० ।
संसारपडिग्गह- संसारप्रतिग्रह - ५० दृष्टिवादान्तर्गतसि णिकापरिकर्मभेदे, स० १४७ सम० ।
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(२५४) संसारपडिया अभिधानराजेन्द्रः।
संसारमोयग संसारपडिवण--संसारप्रतिपन्न-पुं०। संसारं चतुर्गतिलक्षणं न्ते प्रतिषेधन्ति वा ते महापापकारिणः, ये पुनः प्रागुपाप्रतिपन्न, प्राचा०१ श्रु०४ अ०२ उ० ।
त्तपुण्यकर्मोदयवशतः सुखासिकामनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते न
ते व्यापादनीयाः, तेषां व्यापादने सुखानुभसंसारपयणुकरण-संसारप्रतनुकरण-त्रि० । संसारं-भवं प्र
बनियोगभावतोऽपकारसम्भवात् । न च परहिततनु-अल्पं करोति इति संसारप्रतनुकरणः । पञ्चा० ६ निरताः परापकृतये संरम्भमातम्वन्ते तदेतदयुक्तम् , पविव० । संसारक्षयकारके, “संसारपयणुकरणो, विरया- रोपकारो हि स एव सुधिया विधेयो य आत्मन उपकारकः। विरयाण एस खलु जोगा।" प्रतिः ।
न च परेषां व्यापादनेनोपकृतिकरणे भवतः कमप्युपकासंसारपबग--संसारप्रवर्धक-पुं०। दीर्घसंसारिणि, पं० २०१ रमीक्षामहे, यथाहि-परेषां व्यापादने को भवतः उपकारः?, द्वार।
किं पुण्यबन्ध उत कर्मक्षयः, तत्र न तावत्पुण्यबन्धः, संसारपारकंखि(ण)-संसारपारकाडिन-त्रि०।मोक्षाभिलाषुके,
परेषामन्तरायकरणात् , ते हि परे यदि भवता न व्या
पाद्यरंस्ततस्ते परान् सत्त्वान् व्यापाद्य पुण्यमुपार्जयेयुः, सूत्र० १ १०१ १०३ उ० ।
व्यापादिताश्च परवधे अप्रसक्का इति व्यापादनं पुण्योपार्जसंसारपारगामि(ण)--संसारपारगामिन्--त्रि० । भवतारके,ध०
नान्तरायकरणम् , न च पुण्योपार्जनान्तरायकृत् पुण्यमुपा३ अधि० । पा०।
जयति विरोधात् सर्वस्य पुण्यबन्धनसक्नेश्च। पतेन यदुक्तम्संसारभावणा--संसारभावना--स्त्री० । संसारतत्त्वपर्यालोचने,
'परिणामसुन्दरं च दुःखितसत्त्वानां व्यापादनमिति' तदप्रव० ७१ द्वार । ('भावणा' शब्द पञ्चमभागे १५०७ पृष्ठे सिद्धं द्रष्टव्यम् , पुण्योपार्जनान्तरायकरणेन परिणामसुगतैषा भावना ।)
न्दरत्वायोगात् । अथ कर्मक्षय इति पक्षः , ननु तत्कर्म संसारमंडल-संसारमण्डल-न० । संसारिजीवचऋवाले , किं सहेतुकमुताहेतुकम्? । सहेतुकमपि किमशानहतुकमुनासंसारमण्डलशब्देन परिभापितसंह सूचिता । भ० ५
हिंसाजन्यमुताहो बधजन्यम् ?, तत्र न तावदज्ञानहेतुकम् ,
अज्ञानहतुकतायां हिंसातो निवृत्त्यसंभवात् , यो हि श०५ उ०।
यनिमित्ता दोपः स तत्प्रतिपक्षस्यैवासेवायां निवर्तत, यथा संसारमोयग--संसारमोचक--पुं० । व्यापाद्योपकृतये दुःखिं
हिमजनितं शीतमनलासेवनेन, न चाज्ञानस्य हिंसा प्रतितसत्त्वव्यापादनमुपदिशति वादिनि, श्रा० । संसारमो- पक्षभूता , किंतु सम्यग्ज्ञानम् , तत्कथमज्ञानहेतुक कर्म चकानां व्यापाद्योपकृतये दुःखितसत्त्वव्यापादनमुपदिशता- हिंसातो विनिवर्तते ? , अथाहिंसाजन्यमिति यंदत् , तदपि मकुशलमार्गप्रवृत्तत्वमावदितं द्रष्टव्यम् , यतस्त एवमाहुः- न युक्तम् , एवं सति मुनानामपि कर्मबन्धप्रसक्तः, तेषामयत् परिणामसुन्दरं तदापातकटुकमपि परषामाधेयम् , हिंसकत्वात् । अथ हिंसाजन्यम् , यद्ययं तर्हि कथं हिंसात यथा रोगोपशमनमौषधम् , परिणामसुन्दरं च दुःखि- एव तस्य निवृत्तिः, न हि यत एव यस्य प्रादुर्भावः तत तसत्त्वानां व्यापादनमिति, तथाहि--कृमिकीटपतङ्गम
एव तस्य निवृत्तिर्भवितुमर्हति , विरोधात् , न खल्यजीशकलायकचटककुष्टिकमहादरिद्रान्धपङ्ग्वादयो दुःखित- प्रभवा रोगी मुहुरजीर्णकरणात् निवर्तते , ततः प्राजन्तवः पापकर्मोदयवशात्संसारसागरमभिप्लवन्ते, त
गिहिंसोत्पादितकर्मनिवृत्त्यर्थमवश्यमहिंसाऽऽसवनीया, उक्तं तस्तऽवश्यं तत्पापक्षपणाय परोपकरणैकरसिकमानसेन
च-"तम्हा पाणिवहा व-जियस्स कम्मरस खवणहेऊो। व्यापादनीयाः तेषां हि व्यापदने महादुःखमती
वहविरई कायब्बा, संवररूच त्ति नियमणं ॥२॥ " अथाहेयोपजायते , तीव्रदुःखवेदनाभिभववशाच्च प्राग् बद्धं तुकं न तर्हि तदस्ति, खरविषाणंवत् , तत्कथं दपगमाय पापकर्मोदीर्योदीर्यानुभवन्तः प्रतिक्षिपन्ति । स्यादेतत्-कि- प्राणिवधाद्यमो भवतः?, अथाहेतुकमप्यस्ति यथाऽऽकाशं , मत्र प्रमाणं यत्ते व्यापादयमानाः तीव्रवेदनाऽनुभवतः ताकाशस्यव तस्यापि न कथञ्चन बिनाश इत्यफलत्वात् प्राग्वङ्गं पापकर्मोदीयोंदर्य परिक्षिपन्ति न पुनरातरौद्र- न कार्यःप्राणिवधः । यदप्युक्तम्-'ये तु प्रागुपात्तपुण्यकर्मबध्यानोपगमतः प्रभूततरं पापमावजयन्तीति ?, उच्यते-यु शतः सुखासिकामनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते न ते व्यापादनीयाः, प्मसिद्धान्तानुगतमय नारकस्वरूपापदर्शकं वचः, तथाहि- इत्यादि , तदप्ययुक्त, यतः पुण्यपापक्षयान्मुक्तिः, ततो यथा नारका निरन्तरं परमाधार्मिकसुरैः ताडनभेदनोत्कर्तनशू- परपां पापक्षपणाय व्यापादने भवतः प्रवृत्तिः तथा पुण्यत्यारोपणाद्यनकप्रकारमुपहन्यमानाः परमाधार्मिकसुराभाव क्षपणायापि भवति । अथ पापं दुःखानुभवफले ततो परस्परोदीरिततीव्रवदना रौद्रध्यानापगता अपि प्राग्वद्ध- व्यापादनेन दुःखोत्पादनतः पापं क्षपयितुं शक्यं , पुण्यं तु मेव कर्म क्षपर्यान्त, नापूर्व पापमधिकतरमुपार्जयन्ति, ना- सातानुभवफले तत्कथं दुःखोत्पादनेन क्षपयितुं शक्यम् ?, रकायुबन्धासम्भवात् , तदसंभवश्वानन्तरं भूयः तत्रैवो- शातानुभवफलं हि कमें सातानुभवोत्पादनेनैव क्षपयितुं त्पादाभावाद्। अपि च-यत पव रौद्रध्यानोपगता अत शक्यम् , नान्यथा, तदपि न समीचीनं , यतो यत्पुण्य एव तेषां प्रभूततरप्राग्वज पापकर्मपरिक्षयः , तीवसंक्लशा- विशिष्ट वेदभवे वेदनीयं तन्मनुष्यादिभवव्यापादनेन प्रत्याभावात् , न खलु तीवलशाभावे परमाधार्मिकसुरा समीक्रियत , प्रत्यासमीकृतं च प्रायः स्वल्पकालवेचं भअपि तेषां कर्म क्षपयितुं शक्ताः ततो रौद्रादिध्यानमुपज- | वति , तत एवं पुण्यक्षपणस्यापि सम्भवात् कथं न व्यानयन्तोऽपि व्यापादका व्यापाद्यानामुपकारका एव । इत्थं पादनेन पुण्यपरिक्षयः ?, अथ व्यापादनानन्तरं विशित्रुच व्यापादनता तेपामुपकारसम्भव य तद्व्यापादनमुपेक्ष- । देवभवंदनीयः पुण्योदयः संदिग्धः कस्यचित्पापोदयस्या
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संसारमोपग
कर्त्तु
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पिसम्भवात् ततो न व्यापार पुरुषमभवतः मुचितम् । यद्येवमितरत्र कथं निश्वयः इतरत्रापि संदेह एव तथाविधदुःखितोऽपि यदि मायते तईि नरकः खामसभागी भवति, अमारिता सन् कदाचनापि प्रभूतसस्वय्यापादनेन पुण्यमुपायं विशिष्टदेवाधिभचभागी भवेत् ततो दुःखितानामपि व्यापादनं न भवतो वुम् । एवं च सति सन्दिग्धानैकान्तिकोऽपि हेतु व्यापादनस्य परिया मसुन्दरत्वसम्देदात् । युक्तम् पुष्मसिद्धान्त मार कस्वरूपोपदर्शकं वचः' इत्यादि तदप्यसमाधानं सम्यगमत्सिद्धान्तापरिवानाद्, अस्मत्सिद्धान्तेो नारक स्वरूपव्यावर्णना–नारकाणां परमाधार्मिकसुरोदीरितदुःखानां परस्परोदीरितदुःखानां वा वेदनातिशयभावतः समोहमुपायतानां नातीय परम संशां यथाऽच केपाञ्चि म्मानयानां सम्मूढानाम्, यथा हि-मानया लकुडादिप्रहारजर्ज रीकृतशिरः प्रत्यवयवा वेदनातिशयभावतः सम्मूढचेतना कृतशिरःप्रभृत्यवयवा नातीव परत्र संक्लिश्यमाना उपलभ्यन्ते, तथा नारका अपि सदैव द्रष्टव्याः ततः तथाविधतीसंशाभावान् नारकार्या नाभिनयप्रभूततरपापोपचयः। पंद्यवं सम्मोदो महोपकारी तथाहि-- सम्मोहयशान परत्रातीय संशः सीयवेदनाभावतथ प्राग्वपापकर्मपरिक्षयः स मोहश्च हिंस्रव्यापारादुपजायते, ततो हिंसका महोपकारिण इति सिद्धमस्मत्समीहितम् । तदयुक्तम्-हिंसकानां परपीडोत्पादनतः क्लिष्टकर्मबन्धप्रसक्तेः, न खलु पापस्य परपीडामतिरिवाम्यनिबन्धनमीक्षामहं यदि स्थात्तर्हि मुलानामपि पापबन्धप्रसङ्गः, तेषामहिंसकत्वात् मिश्र सचेतन मनसाऽपि परं व्यापादयितुमुत्सहतेपापयेोभिः सह प्रसन्न नं० । संसारविसग्ग-संसारपुत्सर्ग- पुं० ज्ञानावरणादिकर्मवम्भदेतूनां शामप्रत्यनीकत्वादीनां त्यागे श्र० । नारकापुकादिनां मिथ्यात्यादीनां त्यागे भ० २०५० संसारवृड्डि- संसारवृद्धि - स्त्री० । संसार परिवृद्धौ, ही० ३ प्रका०| संसारवेद संसारवेदिन् पुं० । यथापस्थित संसारतत्वात
ततः कथ
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( २५५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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रि, आचा० १ श्रु० ५ ० १ ० । संसारसंचिणकाल - संसारसंस्थानकाल- पुं० । संसारस्य भ. वाद् भवान्तरसञ्चरणलक्षणस्य संस्थानं भवस्थितिक्रिया त स्य कालः - श्रवसरः संसारसंस्थानकालः । श्रमुष्य जीयस्पातीतकाले कस्यां कस्यां गताययस्थाने, म० ।
जीवस्स णं भंते! तीतद्धाए आदिट्ठस्स कहविहे संसारसंचिकाले गोयमा ! चउब्बिहे संसारसंधिकाले पम्पत्ते, तं जहा - गरइयसंसारसंचिट्ठएकाले ति - रिक्सजोषसंसारसंचिकाले मणुस्सजोणियसंसार संचिकाले देवजोगियसंसारसंचिकाले य पते । नेरइयसंसारसंचिकाले गं भंते ! कतिविहे पत्ते १, गोयमा ! तिविहे पष्पत्ते, तं जहा -सुनकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले । तिरिक्ख जोणियसंसारपुच्छा, मोयमा ! दु
संसारसंचिएकाल विहे तं जहा असूनकाल व मिस्सकाले य । पत्ते, य, मगुस्सा य, देवाण व जहा नेरहयासं । एयस्स भंते! नेरइपसंसारसंचिगकालस्य मुनकालस्व असुनकालस्स मीसकालस्स व कमरे कमरेहिंतो अ प्यावा बहु या तुझे वा विसेसाहिर वा ? गोयमा सम्वत्थोवे असुन्नकाले मिस्सकाले भनंतगुणे, सुभकाले अंतगुणे | तिरिक्खजोणियाणं भन्ते ! गोयमा ! सव्वथोवे असुन्नकाले, मिस्सकाले अांतगुणे, मणुस्सदेवाण व जहा नेरइयाखं । एगस्स खं भन्ते ! नेरइस संसारसंचिट्ठणकालस्स • जाव देवसंसारसंचि
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० जाव विसेसाहिए वा १, गोयमा ! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिएकाले नेरइयसंसारसंचिकाले असंखेजगुणे देवसंसारसंचिठ्ठयकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोगिए अतगुणे । (सू०-२३)
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जीवस्स ण' मित्यादि व्यक्तं, नवरं किंविधस्य जीवस्य ? इत्याह-- आदि एस्य - अमुष्यनारकादेरित्येवं विशेषतस्य तीतद्वार' ति-अनादावती काले कतिविधःउपाधिभेदातिभेद, संसारस्य भावान्तरे संचरणलक्षणस्य संस्थानम् — अवस्थितिक्रिया तस्य कालः, -अघसरः संसारस्थानकाल, अमुष्य-जीवस्थातीतकाले क स्यां कस्यां गताववस्थानमासीत्? इत्यर्थः, अत्रोत्तरम् - चतुविधः, उपाधिभेदादिति भावः । तत्र नारकभवानुगसंसारास्थानकालस्त्रिधा -- शून्यकालः, अशून्यकालो, मिश्रका - श्येति तिरयां शून्यकालो नास्तीति तेषां द्विविधः, मनुष्यदेवानां त्रिविधो ऽप्यस्ति ग्रह च" सुनासुध मीसो, तिविहो संसारचिणाकालो तिरियाद सुनवजो सेसा होइ तिविहो वि ॥ १ ॥ 99 तत्रा शून्य कालस्तावदुच्यते, अशून्य कालस्वरूपपरिज्ञाने हि सतीतरी सुशानौ भविष्यत इति, तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये नारका वर्त्तन्ते तेषां मध्याद् यावन्न कश्चिदुद्वर्त्तते न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एव ते श्रासते स कालस्तान्नारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते । श्रह व " आइडलमायाणं, नेरइयां न जान पक्को षि उपर अन्नो वा, उववज्जर सो अन्नो उ ॥ १ ॥ " मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्वृत्ता यावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः । शून्यकालस्तु यदा त वादिसामयिक नारकाः सामस्त्येनोद्वृता भवन्ति नेकोऽपि तेषां शेषाऽस्ति स शून्यकाल इति । श्राह च
उट्टे एक्कम्मि वि, ता मीसो धरह जाय एकको वि। निज्ञेविरहि सम्पदि हमारोह सुमो उ ॥ ॥ १ " इदं च मिश्रनारकसंसारावस्थान कालचिन्तासूत्रं न तमेव वासमानिकनारकभवमङ्गीकृत्य प्रवृत्तम्, श्रपि तु वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्तरगमने सपत्तिमाश्रित्य यदि
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पुनस्तमेव नारकभवमङ्गीकृत्वेदं सूत्रं स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षा मिश्रकालस्थानन्तगुणता सूपोला न स्यात् । आइ
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संसारसंचिणकाल
संसारग भासग' शब्दे पञ्चमभागे उक्ताः । ) ( 'जीव' शब्दे चतुर्थमा १४२५ पृष्ठ च दर्शिताः ।
च - " एयं पुण ते जीवे, पडुश्च सुत्तं न तब्भवं चेव । जइ होज्ज तब्भवं तो, अनन्तकालो ण संभव ॥ १ ॥ " कस्मात् ? इति चेद् उच्यते ये वर्तमानका नारकास्ते संसारसागर-संसारसागर-पुं० संसर संसारस्तिर्यगर स्वायुष्ककालस्यान्ते उद्धर्त्तन्ते, असंङ्ख्यातमेव च तदायुः, अत उत्कर्षतो द्वादशमौहूर्त्तिका शून्यकालापेक्षया मिश्रका - सस्यानन्त गुणत्वाभावप्रसङ्गादिति ग्रह ब" किं कार
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माइट्ठा, रइया जे इमम्मि समयम्मि । ते ठिइकालस्संते जम्दा सच्चे खपिति ॥ १ ॥ इति 'सम्बन्धो अकाले सिनारकामुत्पादवार कालस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुद्र प्रमाणत्वात् 'मीसकाले 'सि-मिश्राच्या विवक्षितनारकजीवनिलेपना कालोऽशून्यकालापेक्षयाऽनन्तगुणो भवति यतोऽसौ नारकेतरेष्वागमनगमनकालः, स च त्रसवनस्पत्यादिस्थितिकालमिश्रितः सन्ननन्तगुणेो भवति प्रसवनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वात् स च नारकनिर्लेपनाकालो वनस्पतिकायस्थिनेरनन्तभागे वर्त्तत इति । उक्तं च-" थोवोअसुनकालो, सो उक्कोसेण बारसमुडुत्तो । तत्तो य असंतगुणो, मीसो निम्लेवणाकालो ॥१॥ आगमणगमकालो, तसाइतरुमीखियो अतगुणो ग्रह निज्ञेवणकालो अर्थतभागे वा ॥२॥ इति 'सुनकाले अतगुणे सि वैषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालमवस्थानात् एतदेवं वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालावस्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समय इति । उक्तं थ–“सुनो व अतगुणो सो पुरा पार्थ वस्था गयां । एयं चैव य नारय-- भवंतरं देलियं जेहूं ॥ १ ॥ इति । 'तिरिक्खजोगियाणं सव्वत्थोवे असुन्नकाले ' त्ति-स चान्तर्मुहूर्त्तमात्रः अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामुक्तस्तथाऽपि विकलेन्द्रियसम्मूदिमानामेवावसेयः तेषामेवान्तर्मुहूर्त्तमानस्य विरहकाल स्योक्तत्वात् यदाह - "भिन्नमुडु तो विगलि दिए समुदिमे वि स एव ।" एकेन्द्रियाणां त्वर्थनोपपातविरद्दाभावनाशून्यकालाभाव एव ब्रा - “ एगो असंखभागो, बट्टर उब्धट्टणोबवायम्मि । एगनिगोए नियं, एवं सेसेसु वि स एव ॥ १ ॥” पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयमसंखेजसि वचनाद्विरद्दाभाव इति 'मिस्स काले अंतगुण' ति-नारकवत् शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव यतो पार्तमानिकसाधारण वनस्पतीनां तत उदत्तानां स्थानमम्यन्नास्ति मणुरसदेवाएं जहा नेरइयाएं ति अशून्यकालस्यापि द्वादशमुहूर्त्त प्रमाणत्वात् अत्र गाथा
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एवं नरामराण चि तिरिया नपरि नरिथ सुधा जं निम्णयास तेसि भायणमनं तच्च नत्थि ॥ १ ॥ " भ० १ ० २ उ० ।
संसारसमाम्म - संसारसमापन्न - न० । संसरणं संसारो नारकतिर्यङ्गरामरभवानुभवलक्षणस्तं सम्यग् - एकीभावेनापन्नः संसारसमापन्नः । संसारवर्तिनि प्रज्ञा० १ पद । स्था० । संसारंभ समापनका:- प्रथिताः संसारसमापन काः । संसारिषु, स्था० २ ठा० १ उ० । भववर्तिषु, स्था० । ४ डा० २ उ० । संसारं चतुर्गविभ्रमरूपं सम्यग् -पकीभावेनापना एवं संखारसमापनका प्राकृतत्वारस्यार्थे क प्रत्ययः । संसारिषु जीवेषु प्रज्ञा० १२ पद । ( तद्भेदाः
( २५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कामरभवानुभवलक्षणः स एव भवस्थितिकायस्थितिभ्यामनेकधाऽवस्थानेनालन्धपारत्यात् सागर संसारसागरः । ल० । श्राव० । ६० प० । श्रतिगहनत्वात् सागरकल्पे संसारे, दर्श० ४ तत्त्व ।
संसाराडची महाकडिल संसाराटवी महाकडिल १० भवार। " रायगुरुगद्दने, पञ्चा० १५ विष० ।
संसारागुप्पेहा संसारानुप्रेचा स्त्री०|संसारस्य च गति षु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा । स्था० ३ ठा० १ उ० | ५० प० ॥ भ० । “ माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥१॥" इत्येवं संसारस्य चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा इति । धर्मध्यानभेदे, स्था० ४ ठा० १ उ० ।
संसाराभिदि संसराभिनन्दिन्- पुं० भयाभिनन्दिनि मुमु - । क्षौ, आ० म० १ ० ।
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संसारावस- संसारावेश-पुं० संसरणे, सूत्र "वथा प्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्य्यासा, निर्वाावेश हेतवः पः ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० १२ श्र० । - । संसारि(न्) - संसारिन् पुं० संसरणं संसारः, संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्ानां गमनं स एषामस्तीति संसारिणः । दश० २ ० विशे० । संसारो गतिचतुष्काविर्भावः सोऽस्ति येषां ते संसारिणः । द्रश्या० ५ अध्या० । संसा रमध्यवर्तिषु श्रमुक्तेषु द्रव्या० ६ अध्या० । संसारिकज - संसारिकार्य न० । गृहकार्ये, "जर मे हुआ पमाश्रो, इमस्स देहस्स इमाइ रयणीए । आहारमुवहिदेहं सद तिथिदेण बोसिरि" पतङ्गाधानुसारेण धान रात्रौ निद्रापगमे सांसारिककार्य कृत्वा सुप्यते तदा पुनगथोचारो विधीयते, किं वा प्राकू मार एव प्रमाणमिति प्रश्नः १ अतराजः शयनवेलायामे प्रत्याख्याने कृत्वा स्वपिति यात्री प्रमाणे भवति तदाहारप्रमुखं व्रजामि तस्माभिङ्गापगमेऽपि कश्चित्काचित्संसारकार्य करोति तदा प्रत्याख्यानभङ्गो न भवति इति ॥ ७४ ॥ सेन० ४ उल्ला० ।
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संसारिय सांसारिक ५० परस्परसंसरखशीनेषु सू०
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२ ० ७ ० । संसारो विद्यते येषु ते सांसारिकाः । संसारिषु, सूत्र० २ श्रु० ७ ० । संसारुतारण-संसारोत्तारण- न० । महाभीमभवभ्रमणपारगमने, पा० ।
संसारुतारथी संसारोचारणी श्री० संसारासारयति सु क्रियापकत्वेन निस्तारयतीति संसारोसारणी । तथाविधायां धर्मश्रुतौ उत्त० ३ अ० । संसाग-संसाधक-पुं०। दोलायके पृष्ठतः कुति धौ, वृ० ४ उ० ।
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संसारण अभिधानराजेन्द्रः।
संहारवाय संसाहण-संसाधन-न० ! गच्छतोऽनुवजने, दश ०१ भरणति । नि०चू०१५ उ० । 'संसेतिम तिला उरह, पाउ० । वदन्तं प्रति तत्साधनं साध्विस्येवं प्रशंसाकरणे,
णिपण सिणा जति, सीतोदगेण धोति तं संसेतिमं भरणशा० १ श्रु०१४ म० । ध० । अनुगमने, दे० ना० ८ वर्ग |
ति' नि० चू० १७ उ०। १६ गाथा।
संसेइय-संस-धा० । अधः पतने , “ संसहस-डिम्भौ " संसिच्चमाण-संसिच्यमान-त्रि० । मापूर्यमाणे , गर्भादग- ॥८।४। १६७ ॥ संसेरेतायादेशी वा, इति आदेशाभायेर्भान्तरमुपयाति संसारचक्रवालेऽरघघटीयन्त्रस्यायेन प
संसहानंसते । अधः पततीत्यर्थः। प्रा०४ पाद। र्यटति , प्राचा०१ श्रु० ३ म०२ उ० ।
| संसेय-संसेक-पुं० । जलसेके, स्था० ३ ठा० ३ उ० । संसिद्ध-संसिद्ध-त्रि० । सम्यग् निष्पादिते , सूत्र०२ श्रु०
संस्वेद-पुं० । शरीरप्रस्वदे, स्था० ७ ठा०३ उ० । भाचा । ३० मिश्चिततबलादिलिपसंसियेषो०७विवः। संसयय-संस्वदज-पुं०। संस्थेदाजाताः संस्येवजाः । यकमसर्वैः प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणैः प्रतिष्ठिते, विशे। स्कुणरुम्यादिषु, सूत्र०१०७ उ० । दश० । प्राचा० । "सानि
करीषादियिम्ध घूत्पद्यमानेषु पुणपिपीलिकाकृम्यादिषु, २०७०॥ अनेनात्रादेराकारस्य वैकल्पिकोऽदादेशः । संसिद्धि
सूत्र०२०७०। स्था। भो । संसिद्धिजे, प्रा०१पाद ।
संसोहण-संशोधन-न० । गात्रस्य सम्यक् शोधने, प्राचा०१ संसिय--संश्रित-त्रि० । प्रतिबद्ध रूपकाविद्रव्ये , अनु० । भु०म०४ उ०। माभिते , प्रश्न० ३ भाभा द्वार।
संसोहिय-संशोधित-त्रि० । सम्यक शोधिते, " संसोहियं संसिलेस-संश्लेष-पुं० । परस्परं सम्बन्धे, स्था० १० ठा० ३ | पाहमुवाहरंति" सम्यक् शोधितं पूर्वोत्तराविरुद्ध प्रश्नमुउ० । भाषा
दाहरन्ति । सूत्र० १ २०१४ म०। संसिलेसिया--संश्लेषिकी-स्त्री० । कर्मश्लेषजनम्याम् ,माचा०२
संहणमाण-संहन्यमान-त्रिका उत्सार्यमाणे, नि० चू०२० उ०। श्रु०२ चू० ६ ०।
संहणियफारिया-संहत्यकारिता-खी०। सम्भूय मिलितार्थसंसीइ-संशीति-स्त्री० । संदेहे, प्राचा० १ भु० ५ ०१
क्रियाकारितायाम् , शा० ११ द्वा। उ० चित्तभ्रान्तौ , सूत्र०१७० १२ म०।
संहत-संहत-त्रि० । पिण्डतामापन, उत्त० ११० । मिलिते, संसुद्ध-संशुद्ध-त्रि० । सम्-समस्त एवं संरक्षम् । मा०पू०
भ०१ श०६ उ० । मा०म० । अविरले, ओघ०। ५१०। सम्-सामस्त्येन शुजं संशुखम् । कपच्छेरतापकोरि
संहर-संहर-पुं० । संघाते, “ उप्पंको आप्पीलो , उक्कगे शुद्धत्वादेकान्ताकलके संशुद्ध, ध०३ अधिः। नियोंथे ।
पहयरो गणो पयरो । भोहो नियहो संघो , संघामो संउपा०२०। सामसत्येन शुद्ध, भ०११०० हा
हरो मिभरो ॥१८॥ संबोहो निउरंबो, भग निदाओ सभाषा सत्राकषायादिभिः पये सषपमिदोष.०।। मूहमामा" || पार०ना०१८ गाथा। प्रशबलचरण, स्था।
संहरण-संहरण-न । भारमयने, स्था० ४ ठा० ३ उ० । एगे संसुद्धे महाभूए पत्ते । (सू० ३७)
क्षेपणायाम् , पिं०। एकः संराख:-प्रशथलचरणः भकपायत्वात् यथाभूतः
सहरणचरियणिय-संहरणचरितनिबद्ध-नसहरणं चरमतारिखकः 'पते' ति-पात्रमिव पात्रमतिशयषत् सामादि
भरतशेत्रावर्षिणीतीर्थकरजन्माभिपकचरमबालभाषचरमगुणरत्नानां प्राप्तो षा गुणप्रकर्षमिति गम्यते । स्था०१ ठा।
पौधनबरमकामभागबरमनिष्क्रमगाचरमतपश्चरणचरमक्षा
मोत्पादचरमतीर्थप्रवर्तनचरमपरिनिर्वाणनियो नाट्यविधासंसुद्धणाणदंसणधर-संशुद्धज्ञानदर्शनधर-पुं० । केवलज्ञान
मेरा। दर्शनधारिणि, भ० २५ श० ६ उ० ।
संहरिय-सहत-१० । वामपा सचित्तेषु कृत्या रत्तने, पिं०। संसेइम-संसेकिम-न० । संसेकेन निवृत्तमिति संलेकिमम् ,
('एसणा' शये तृतीयभाग ५६ पटेभस्य बलथ्यता गता।) मरणिकाविपत्रशाकमुस्कास्य येन शीतलजलेन संसिच्यते।
काविपत्रशाकमुरकास्य यम शातलजलम सासच्यत। पेनस्तपापा कणाधी साधोरशनादिकं वार्यात तत्र शि तस्मिन् , स्था० ३ठा० ३३० । करप० । भरणिका- ज्यादिषा परि स्यात् तदन्यत्र सचिसे अधिसे या दिसंविधावनोदके , ग० २ अधि० । तिलधायनोदके, हिरवातेन याति तत्संहनम् । जीता भाचा० । उत्त०। प्राचा० २७० १. १०७ उ० । पिटोदके , दश ५ म० १० । तिलाति संसेतिम ति णायव्यं ।
सहरिस-संघर्ष-पुं० । स्पर्शायाम् , स्था० ३ ठा० ३ उ० । नि० चू०१५ ३० । संसेतिम वा णाम पिटर पाणी मा०पू०। नावेत्ता पिडियट्ठिया तिला तेण मोहलिजति तत्थ संहार--संहार-पुं० । पूर्वपर्यायात् प्रख्याध्य पर्यायान्तरेणभामा तिला ते संसेतिमा भमंति । मादिग्गहणेणं पि स्थापने, नं0। व्यापाराभियर्सने, सूत्र. १४०८० मझ किषि पतेणं कमेणं संसिज्जति तं पि संसेतिमं । संहारवाय-सहारवात-पुं० । प्रलयपाते, भने १ अधि० ।
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मंहिच
सकामगिजरा
संहिच्च- संहृत्य-श्रव्य०। सह सम्भूयेत्यर्थे, शा० १ श्रु० सकहा- सक्थि - न० । अनि, स० ३५ सम० । तीर्थकराणां ३ अ० । संहिय-संहित- त्रि० अविरले प्रश्न० ४ आध० द्वार। तं० । संहृत त्रि० संक्षिप्तमध्ये जं० २ ० ०
मनुजलोक निवृत्तानां सीनिअनीति | स०३५ सम ( विशेषस्तु जिल्सकहा ' शब्दे चतुर्थभागे १५०६ पृष्ठे गतः । )
संहिया संहिता स्त्री०
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प्रस्तावित पदोच्चारणे, प्रा० म० १ श्र० । दशा० । कल्प० । अनु० । उत्त० । ('वक्वाण' शब्दे षष्ठभागे ७७६ पृष्ठे संहिता विस्तरतो व्याख्याता । ) व्याख्यायाः प्रथमे लक्षणे, “ संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं; व्याख्याया लक्षणाणि षट् ॥ १ ॥ " तत्र संहिता " नो कल्पते " ( सू० १x ) इति निर्ब्रन्थानां निर्ग्रन्थीनां वा श्रं घा तालप्रलम्बमभिन्नं प्रतिग्रहीतुमिति । बृ० १३० १ प्रक० । सकंकटावडेंसग-सकङ्कटावतंसक पुं० सः संसे-शेखर शिरखाणभूतैयः स तथा काभ्यां युक्ते भ० ७ श० ६ उ० । जी० । सकंप - सकम्प - त्रि० । अदृढे, द्वा० ६ द्वा० । सककस्म सकार्कश्य त्रि० मा ग०१ अधि०। सकजमूढ --स्वकार्यमूढ - त्रि० । स्वस्वार्थमौढ्यगते, नं० । सक (ड) टलेव-सकटलेप-पुं० । द्विचक्रनाम्नि लेपभेदे, बृ०१३० १०] । ( व्याख्वाले शब्दे षष्ठमागे ६६३ पृष्ठ गताः ) सकणुय - सकरणुक - त्रि० । कणुकेन त्वगाद्यवयवेन यद्वर्त्तते तसथा । सत्वचि, श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ ० ८ ३० । सकष्ण - सकर्ण - त्रि० । श्रवणशक्तिसहिते, श्राव० १ ० । सकम्म-सकर्मन् - न० । वाले, सूत्र० १० ८० आत्मीये कर्म्मणि, ब्राह्मणस्य यजनादिकं पविधं कर्म स्वकर्म । उत्त० १४ श्र० । सम्म सीलस्स पुरो । हियस्स " उत्त० १४ श्र० । स्वव्यारे, व्य० ३ उ० । आत्मना बजे ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सूत्र० १० १२० । सकम्मफलभोगण - स्वकर्मफलभोजन न० स्वोपासकर्मकलभोगे, दश० ४ ० । सकम्मवीरिय- स्वकर्मवीर्य--न -- न० । स्वकर्मणां बालानां वीयम् । बालवीर्ये, सूत्र० १ ० ११ श्र० । सकल-- शकल - न० | खराडे, जं० २ वक्ष० । सकलचन्द्रगणि-सकलचन्द्रगणिन् - पुं० । जिनचन्द्रगणिशि
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समयसुन्दरगुरी, प्रतिष्ठाकल्यादिकानामनेकेषां प्रस्थानामयं कर्त्ताविक्रम १६६० सवत्सरे विद्यमान आसीजै० त् । इ० ।
( २५८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कपबशेख
सकवाड - सकपाट त्रि० । कपाटसहिते, व्य० ४ उ० । नि०चू०| सकसाय सकपाय चि खचित्पृथिव्याद्ययगुरडते, आ
चा० २ ० १ अ० ७ उ० ।
सकथा - स्त्री० । याज्ञिकसमयप्रसिद्धे उपकरण विशेषे नि० १ श्रु० १ वर्ग । भ० ।
सकाइय- सकायिक- पुं० । काययोगयुक्ते, प्रज्ञा० ३ पद ।
सकाम - सकाम त्रि० । समनोरथे, पञ्चा० १८ विव० । स्वकाम पुं० स्वकीयायामिच्छायाम् ०३ उ० ॥ सकामकिञ्च - सकामकृत्य - न० | स्वेच्छाचारितायाम्, सूत्र
२ श्रु० ६ ० ।
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सकामणि जरा-सकामनिर्जरा-श्री० निर्जरादे सेन० ४ उन्ना० । तथा—सरकपरिब्राजकतामयादिमध्यादीनां तपश्चरणायानां सकामनिर्जनजरा वा इति केचन वदन्ति तेषामकामनिर्जरैवेति सासरं प्रसाद्यमिति प्रश्न ये चरकपरिवाजका दिमिथ्यादृष्टोऽस्माकं कर्मक्षयो भवत्थिति घिया तपश्चरणाद्यज्ञानक कुन्ति तेषां तत्त्वार्थभाष्यवृत्तिसमयसारसूत्रवृत्ति योगशास्त्रस्यादिग्रन्थानुसारेण सकानिर्जरा भवतीति सम्भाव्यते यता योगशास्त्रचतु र्थप्रकाशवृत्तौ सकामनिर्जराया हेतुवाद्याभ्यन्तरमेवेन द्विविधं तपः प्रोक्तं, तत्र पद्मकारं वाद्यं तपः, वा
[च] बाह्यपेक्षयात्परप्रत्यक्षत्वात्कुती
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कार्यत्वाच्चेति तथा लोकप्रतीत्वात स्वा भिप्रायत्वाद्वाह्यत्यमिति वित्तमराव देशी तदनुसारेण विधवाह्यतपसः कृतीविकासेव्यमुक्तं परं सम्यग्रष्टिसकामनिर्जरापेक्षा तेषां स्तोका भवति यदुकं भगवत्यष्टमदमादेशक्रे' देसाराह भी लोकर्मी मोक्षमा
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स्याराधयतीत्यर्थः सम्यगाचरहितात्यारा ति, तया च मोक्षप्राप्तिर्न भवति, स्तोककर्माशिनिर्जरणात् भवत्यपि च भाषविशेषास्कलवीयविद्य दुम्" आपरो अ सेयं यरो बुद्धो य अव अनो या समभावभाविया लंदन संदेहो " ॥ १ ॥ इति यदि तेषामकामनाति तर्हि जी भंते! असंजय अधिरय अपदिपव्यापार इतो र च्वा देवे खिया गांधमा ! अत्येति देवे सिना अत्येति नो सिना से जाप इतो देवे सिश्रा ? गायमा ! जे इमे जीवा श्रकामतरहाए अकामदार अकामवासे अकामसीवायवसमसग श्रन्हाणगसेयजल मलकपरिदा अप्यतरं या भुरजतरं या कार्ल अप्पा परिकिलेस्संति, परिकिलेसिकालमासे कालं किच्चा अरण्यरेसु वाणमंतरेसु. देवता उपयसारो भवन्ति श्रीभगवतीप्रथमशनक प्रथमाइशीपपातिकबादी अकामनिर्जरा व्यन्तरेपा
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মামযিল্লা
अभिधानराजेन्द्रः। ६. कधितोऽस्ति, तत्कथं सङ्गच्छते, यतः-संग्रहण्यादी | या अमर्थदण्डप्रकृतिलक्षणया वर्तत इति सक्रिया । श्रमद'वरगपरिव्याय बंभलोगो जा' इति वचनात्पञ्चमदेवलोके एडप्रवर्तिकायां भाषायाम् , आचा०२ भु०१ ० ४ ० तेषामुत्पादस्य भणितत्वादिति विरोधापत्तः, हारिभद्रया- १ उ०। मपि"अगुकंपऽकामनिजर-बालत दाणविणयविम्भंगे । सकिलेस-संकेश--पुं०। विशुद्धिप्रतिपक्षे कालुष्ये , घो० १४ संजोगविप्पओगे, वसणूसवइडिसक्कारे ॥१॥” इत्यत्रा
विव० । श्राचा। कामनिर्जराबालतपसार्भेवयमणनं व्यर्थमेघ , एकेनाकामनिजरालक्षणेन चरितार्थत्वात् । तथा · चाहिं ठाणेहिं सकुंत-शकुन्त-पुं० । पक्षिणि, अनु० । जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा- सरागसंजमेणं
सरागसजमण | सकुंतपोय-शकुन्तपोत-पुं० । पक्षिशायके, स्था० २४० १ सेजमासंजमेण २ बालतबोकम्मेण अकामनिजराए
१ उ०। ४' एतवृत्तिलेशा-सकषायसंयमेन-सकषायचारित्रे वीतरागसंयमिनामायुषो बन्धाभावात् १. संयमासंयमस्य
| सकुहर-सकुहर-त्रि० । गुञ्जबंशतन्त्रीसम्प्रयुक्त, रा. द्विस्वभावत्वादेशसंयमः ३ बाला-मिथ्याशस्तेषां तपः- | सकेय--सकेत-पुं० । कितमिवासे इस्यस्य धातोः किस्यते उकर्म-तपःक्रिया बालतपःकर्म तेन ३, अकामेन-नि- | व्यतेऽस्मिन्निति धनि केतो-गृहमुच्यते, सह तेन वर्तत इति जरां प्रत्यनभिलाषेण निर्जराऽकामनिर्जरणातुर्बुभुक्षा- सहस्य सभावे सकेताः। गृहस्थेषु,प्रव०५ द्वार। दिसहनं यत्साऽकामनिर्जरा तथा इति, स्थानाङ्गसूत्रचतुर्थ
सकेयपच्चक्खाण-सकेतप्रत्याख्यान-न० । केतनं केतश्चिस्थामके तथा 'कामनिर्जरारूपा-त्पुण्याजन्तोः प्रजायते । स्थावरत्वं त्रसत्वं वा, तिर्यक्त्वं वा कथंचन ' ॥ १०८ ॥
हमष्ठग्रन्थिगृहादिकं स एव केतकः,सह केतकेन सकेतकम्। इत्यत्र पुण्यादिति पुरयं न पुण्यप्रतिबर्ष किन्तु लाघ
तश्च प्रत्याख्यानं चेति । ग्रन्थ्यादिसहिते प्रत्याख्यानभेदे,
पतश्च स्वार्थिकप्रत्ययोपादानात्साकेतमित्युच्यते । स्था०१० वरूप, तस्मात्स्थावरत्यादिकं प्राप्यते । तामलितापसादीनां तु शास्त्रेष्विन्द्रत्वादिप्राप्तिः कथिताऽस्ति, सा च सका
ठा० ३ उ० । स०। प्रव० । मनिउर्जरया भवति । यदुक्तं तत्वार्थभाष्यनवमाध्ययनवृत्तौ सकोरिंटमलदाम-सकोरिपटमान्यदामन-त्रि सह कोरिण्टअमरेषु तावदिन्द्रसामानिकादिस्थानानि प्रामोतीति । प्रधानैः कारिण्टकाभिधानकुसुमगुच्छर्माल्यवामभिः पुष्पमामनु या सकामा यमिना'-मिस्यत्र यदि यमिनी-यती- | लाभियत्तत्तथा ।भ०७श०६उसकोरिण्टकानि-कोरि नामेव सकामनिर्जरा प्रोच्यते श्रावकाणामविरतसम्य- | पुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि यत्र तत्तथा । कोरियठकमागयादीनां च का गतिरिति चेदुच्यते यमिनामिति ख्यदामयुलेषु, भ० ११ श०१० उ० । सामान्यतयोक्तेः श्रावकादीनामपि तारतम्येन द्वादशदेव
सकोव-सकोप-त्रि० । कुपिते, सूत्र० १७०५०२०। लोकादिदायका सकामा भवतीति ज्ञायते, श्राद्धादीनामित्यत्रादिशब्दादालतपखिनामपि कमिति चत, ऋणु, बालम- सक-शक-धा० । मर्षणे, "शकादीनां द्विषम् " २३०॥ 'समर्थ सन्मार्गप्रदान सकलकर्मक्षये वा, बालं च तत्तपश्च अनेनान्त्यस्य द्विस्वम् । सका। शक्रोति । प्रा० ४ पाद । बालतपः, तथाग्निप्रवेशभूगुगिरिप्रपतनादि कायक्रेशरूपं ,
शक्य-पि० । सो योग्ये, 40 ० ३७० । कायलेशश्च 'कायकिलसो संलीणयाये' त्यागमवचनादाशतपः, तब सकामनिर्जराहेतुरिति ॥ १०५ ॥ सेन शक-त्रि० ।" शक-मुक-ए-रुग्ण-मृदुरय को या" ४ उल्ला०।
॥८।२।२॥ इति संयुक्तस्य को या । प्रा० । शक्तिमति,नि० सकाममरण-सकाममरण-२० । पण्डितमरणे, उत्त०५०
चू०१४ उ.1 (विशेषार्थः 'मरण' शब्दे षष्ठे भागे उत।)
शक्र-पुं० । शकोतीति शमः । स्था० १०ठा०३ उ० । सीधर्म
कल्पेन्द्र, विश। उत्तअनु। सूत्र०। चं०प्र० । स्था। सकाय-सकाय-पुं० । सह कायो यस्य येन वा सकायः। प्र-1
कल्प० । उपागमा०म० स०। (शकस्य सौधर्मकल्प स्थाशा० १५ पद । पृथिव्यादिषधिकायविशिष्टे , स्था० २ नंतर शक्रः कथं कीरशाध्यवसायश्च तिति, इत्युक्त 'ठाण' ०४ उण
शले चतुर्थभागे १७०८ पृष्ठे।) स्वकाय--पुं० । स्वस्य कायः खकायः । प्रात्मनो देहे,मनु० ।
शकषर्णनमाहसकिञ्च-सकृत्य-न० । स्वाचारे कायोत्सर्गकरणादी, 40
तेणं कालेणं तेणं समएणं सके देविंदे देवराया वज२२ द्वारा
पाणी पुरंदरे सयकऊ सहस्सरखे मघवं पागसासणे दा
हिणलोगाहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे बत्तीसविमाणसयसकिरिय-सक्रिय-त्रि० कायिक्याविक्रियायुक्त, भौग०।। 'भन्थि दुसकिरिया अबंधगं किंचिषिगणुढाण' मिति वच
सहस्साहिबई भरयंबरवत्थधरे भालइभमालमउडे नवहेमनात्। मा० म०१०। साक्चानुष्ठाने, सूत्र०३४०४ चातापपपपललाषालाहजमाणगछ माहावृप मह
चारुचित्तचंचलकुंडलीवलिहिजमाणगले महिलिए महअ०। प्रशस्तमनोविनयभेदे, स्था०८ ठा० ३। सह किया| जुइए महापले महायसे महाणुभावे महासुक्षेमासुर
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मान, 'कप, शब्द वयते सामुधिं च
लम् ।)
सक्क
अभिधानराजेन्द्रः। बोंदी पलंबवणमालधरे, सोहम्मे कप्पे सोहम्मावडिंसए| दा 'सुहुमकायं ' ति-सूक्ष्मकायं हस्तादिकं वस्तु इति विमाणे सुहम्माए सभाए सकसि सीहासणंसि । से णं तत्थ
वृद्धाः, अन्ये त्वाहुः-'सुहुमकाय' ति-वस्त्रम्, 'अनि
ज्जूहित्त' त्ति-अपोह्य अदत्त्वा हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाबत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्साणं चउरासीए सामाणि
षमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति , अन्या तु असाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसमाणं, चउएहं लोगपा- सावद्येति । भ० ३ श०१ उ०। लाणं अट्ठएहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिएहं परिसाणं
शक्रमेवाधिकृत्य भवसिद्धिमावसत्तएहं अणीआणं सत्तएहं अणीपाहिवईणं चउएहं चउ- सके णं भंते ! देविदे देवराया किं भवसिद्धिए अभवरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहूणं सोहम्म- |
सिद्धिए सम्मादिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए एवं जहा पढमुद्देसए कप्पवासीणं वेमाणिप्राण देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरे
सणंकुमारे० जाव णो अचरिमे । (सू० ५६८४) वञ्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारे
'सक्केणं' मित्यादि 'पढमुहेसए ' ति-तृतीयशतके माणे पालेमाणे महया हयमट्टमीयवाइअतंतीतलतालतुडि- |
प्रथमोद्देशके । भ०१६ श०२ उ०। (शकः पूर्वभवे कार्तिकथेयघणमुइंगपडुपडहवाइयरवणं दिव्वाइ भोगभोगाई भुंज- ष्ठिरासीदिति तत्कथानकं 'कत्तिय' शब्द तृतीयभागे २१८ माणे विहरइ ॥ १४ ॥ कल्प०१ अधि०१क्षण । पृष्ठे उक्तम् ।)
शक्रः पुरुषस्य शिरश्छित्त्वा पूर्णयितुं च शक्नोति तथैव (शक्रस्य विकुर्वणा पूर्वभवश्च व्याख्यातः 'विउठवणा' | शब्दे षष्ठे भागे ।) ( शक्रस्य सुधर्मासभामृद्धिं च
पुनः कर्तुमिति दर्शयति-- अस्मिनेव भागे ' सुहम्मा' शब्दे वक्ष्यते ।) (शक्रस्य
पभूणं भंते ! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं पापारियानिकधिमानं , 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे ५८६ पृष्ठे णिणा असिणा छिदित्ता कमंडलुम्मि पक्खिवित्तए ?, हंता उक्तम् ।) (शक्रस्य वीरस्वामिन प्रति अवग्रहविषयप्रश्नः।
मिन प्रात अवग्रहविषयप्रश्नः पभू से कहमिदाणिं पकरेइ ?, गोयमा ! छिदिय छिदिय 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे ६६८ पृष्ठे गतः।)
च णं वा पक्खिवेजा, भिंदिय भिदिय च णं वा पशक्रस्य सम्यग्वादित्वं मिथ्यावादित्वं वा--
क्खिवेजा, कुट्टिय कुट्टिय च णं वा पक्खिवेजा, चुमिय सके पं भंते ! देविंदे देवराया किं सम्माबादी मिच्छा- चुम्मिय च णं वा पक्खिवेजा। तओ. पच्छा खिप्पामेव वादी ?, गोयमा! सम्मावादी, णो मिच्छावादी । सके पडिसंघाएज्जा णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि वि आभंते ! देविंदे देवराया किं सच्चं भासं भासइ , मोसं बाहं वा वाबाहं वा उप्पाएजा छविच्छेदं पुण करेंति ए भासं भासइ , सच्चामोसं भासं भासइ , असचा मोसं सुहुमं च णं पक्खिविजा । ( सू० ५३२ ) भासं भासद?, गोयमा! सच्चं पि भासं भासइ, जाव
'सपाणिण त्ति-स्वकपाणिना ‘से कहमियाणि पकरेह' असच्चा मोसं पि भासं भासइ । सक्के ण भंते ! देविंदे ति--यदि शक्रः शिरसः कमण्डल्वां प्रक्षेपण प्रभुः तत् देवराया कि सावजं भासं भासइ, प्रणवजं भासं भास- प्रक्षपणं कथं तदानीं करोति ?, उच्यते--' छिदिय छिइ?, गोयमा ! सावजं पि भासं भासइ , प्रणवज पि
दिय चण'ति-छित्त्वा छित्त्वा तुरप्रादिना कृष्माण्डादिकमिव भासं भासइ । से केणद्वेग भंते ! एवं बुच्चइ-सावजं पि
श्लदणखण्डीकृत्यत्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः । प्रतिपत्कमण्ड.
ल्वाम् भिदिय'त्ति--विदार्योर्ध्वपाटनेन शाटकादिकमिय,कु. • जाव अणवजं पि भासं भासइ ?, गोयमा ! जाहे ण
ट्टिय'त्ति--कुदृयित्वा उदृखलादौ तिलादिकमिव चुभिासक्के देविंदे देवराया सुहुमकार्य अणिजूहित्ता णं भासं य' त्ति--चूराणयित्वा शिलायां शिलापुत्रकादिना गन्धद्रभासह , ताहे णं सक्के देविदे देवराया सावजं भासं व्यादिकमिव, 'ततो पच्छ' त्ति--कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तभासह, जाहेण सक्के देविंदे देवराया सुहमकायं निज
रमित्यर्थः। 'पडिसंघाएज' त्ति-मीलयदित्यर्थः । 'सु
हुमं च णं पक्खियज' त्ति-कमण्डल्यामिति प्रकृतम् । हित्ता णं भासं भासइ, ताहे णं सक्के देविंदे देवराया अण
भ०१४ श०८ उ०। (शक्रस्योत्पातपर्वतवर्णनम् ' उपायपवजं भासं भासइ, से तेणद्वेणंजाब भासइ । (सू०५६८+)
व्वय' शब्दे द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठ गतम् । ) ( कस्मिसके ण 'मित्यादि , सम्यग् वदितुं शील--स्वभायो य- श्चित्कार्ये शक्रस्यशानसमीपे गमनम् , तयार्थिवाद च .स्य स सम्यग्यादी प्रायणासौ सम्यगेव वदतीति । स- सनत्कुमारेण न्यायः क्रियत इति ' पाउदभाव ' शब्द म्यग्वादशीलत्वेऽपि प्रमादारिना किमसौ चतुर्विधां भाषां पञ्चमभाग ८१८ पृष्ठे । ' विवाय ' शब्दे पप्ठभाग भाषते न वा ? इति प्रश्नयनाह-'सक्के ण' मित्यादि , च गतम्।) (शक्रस्य अहिल्यागमनं गौतमशापन सहस्रसत्या अपि भाषा कथंचिद् भाष्यमाणा सावद्या संभव- भगावाप्तिश्च 'महादेव' शब्दे पष्ठभागे १६३ पृष्ठ उक्ना । )(णतीति पुनः पृच्छति-'सकण' मित्यादि , सावज्ज' ति- मिपवजा' शब्दे चतुर्थभागे १८१२ पृष्ठे नभिशकयोः सहावयेन गहितकर्मणति सावद्या तां' जाहेणं' ति-य- संवादी दर्शितः।)
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सक अभिधानराजेन्द्र:
सकह शाक्य-पुं० । बौद्धश्रमणे, ना स्था। प्राचा० । सूत्र। स्वकर्मन्-न । प्रात्मीयकर्मणि, सत्र०१ श्रु० ७ ० । अनु० । पिं० । सुगतशिष्ये बौद्ध , प्रव० ६४ द्वार । सत्कर्मन्-न० । शोभनानि धार्मिकाणीत्यर्थः कर्माणि - सूत्र०। प्राचा०।
त्यानि । धार्मिककृत्येषु, ध०२ अधिः । सकम-संस्कृत-त्रि० । संस्कारयुक्त , प्रा०२ पाद । सकम्मकरण-सत्कर्मकरण--न० । धार्मिककर्मणां करणसककड-सत्कृत-त्रि० । सत्कारयुक्त, उत्त०२०। लक्षणे विशेषतो गृहधर्मे, ध० २ अधिः ।
सकम्मयट्ठाण-सत्कर्मतास्थान--न । सत्ताकर्मणि,प्राचा सकझय-शध्वज-पुं० । इन्द्रध्वजे , प्रा० म०१०।
१ श्रु०३ १०१ उ०। सक्कथय-शक्रस्तव-पुं० । जिनजन्मादिषु स्वविमानेषु तीर्थ- सक्कय-संस्कृत-न । “विंशत्यादेलुक" ॥८।१ । २८ । अनेप्रवृत्ते, ध०२ अधि।
नात्रानुस्वारस्य लुक । सक्कयं । प्रा० । मलयगिरिप्रभृतिव्याक
रणप्रणीतेन लक्षणन संस्कारमापादिते, वृ०१ उ०१ प्रक० । नमोत्थु णं अरिहंताणं , भगवंताणं ॥ १ ॥ श्राइग
ललिशप्प्रकृतिप्रत्ययादिविकारविकल्पनानिष्पन्ने वचने, राणं तित्थगराणं, सयं संबुद्धाणं ॥ २ ॥ पुरिसुत्तमा
सूत्र०२७०११०१ उ० । श्रा०चू० । स्त्रीणां संस्कृतेऽनणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीबाणं पुरिसवरगं- धिकारित्वात् प्राकृतः सिद्धान्तः कृतः । ध०१ अधि० । धहत्थीणं ॥३॥ लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिया- संस्कारिते , श्रा०चू०१ अ० । “सक्कएँ मत्ता विंदू अण्णसं लोगपईवाणं लोगपजोअगराणं ॥ ४ ॥ अभयद
भिधाणेण वा वि तं अत्थं " नि० चू०१ उ०।।
शाक्यक-पुं० । कल्किपुत्रदत्तराजसमकालिके वर्षान्तरयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं बोहि
राज, ति। याणं ॥ ५ ॥ धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं ध
सत्कृत-त्रि० । पूजिते, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । म्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कव
सकया-संस्कृता-स्त्री० । लटिलदशप्रकृतिप्रत्ययादिविकाहीणं ॥ ६ ॥ अप्पडिहयवरनाणदसणधराण वि
रविकल्पनानिष्पन्नायां भाषायाम् , स्था० ७ ठा० ३ उ० । अड्दछउमाणं ॥ ७ ॥ जिणाणं जावयाणं ति- सक्करप्पभा-शर्कराप्रभा-स्त्रीवाशर्कराणाम्-उपलखण्डानां प्रमाणं तारयाण बुद्धाणं घोहयार्ण मुत्ताणं मो- भा-प्रकाशनं स्वरूपणावस्थानं यस्यां सा। अनु० । गोत्रेण अगाणं ॥ ८ ॥ सव्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं सि- द्वितीयनरकपृथिव्याम् , स्था०७ ठा०३ उ०। जी०। प्रमा० ।
भ०। प्रव० । स०। यमयलमरुभमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभया
सकरप्पभाए ण भंते ! पुढवीए वत्तीसुत्तरजोयणसयस
हस्सबाहल्लाए उरि केवइयं प्रोगाहित्ता हेट्ठा वजेचा मगणं ॥॥"जे अभईया सिद्धा ,जे अ भविस्संति
ज्झे चेव केवइए केवइया णिरयावाससयसहस्सा पम्पत्ता?, ऽणागए काले । संपइ भबट्टमाणा, सव्वे तिविहेण
गोयमा ! सक्करप्पभाए ण पुढवीए बत्तीमुत्तरजीयणसयवंदामि" ॥१॥
सहस्सबाहल्लाए उवरिं एग जोयणसहसं वजेत्ता मज्झे सक्कदय-शक्रदत-पुछाशक्रादेशकारिणि, भ०५ श०४ उ०।।
तीसुत्तरजोयणसयसहस्से एत्थ णं सकरप्पभा पुढवींनेर सकपल-सक्रपन्य-पुं० । शक्राणाम्-इन्द्राणामर्चनीयः इयाणं पणवीसा नरयावाससयसहस्सा भवतीति मक्खायं । जन्मनात्राष्टमहाप्रातिहार्यादिसम्पादनेनेन्द्राणामपि अर्चनी- ते णं णरगा अंतोवट्टा जाव असुभा नरएसु वेयणा । ये, रत्ना० १ परि०।
जी. ३ प्रति०१उ०।। सकपुत्त-शाक्यपुत्र-पुं० । बीछे, “मृद्धी शय्या प्रातरुत्थाय
सकरा--शर्करा--स्त्री० । काशादिप्रभवे गुडविकारे, उत्त० १ पेया , भक्तं मध्ये पानकं चापराके। द्राक्षाखण्डं शर्करा
अ० ज० । जी०। सूत्र० । अनु० । लघूपलशकलरूपे, (जी. चार्द्धरात्रे , मोक्षश्चान्ते शक्यपुत्रेण रटः॥१॥" सूत्र०
१ प्रति० । प्रशा०1) कर्करके, जी० ३ प्रति० । घग्घरहे, १ श्रु० ३ १०४ उ०।
भ० १६ श०१ उ०। सक्कप्पभ-शक्रप्रभ-पुं० । शकस्योत्पादपर्वते , स्था० १ ठा० सकराभ-शर्कराभ-पुं० । गौतमगोत्रावान्तरगोत्रविशेषप्रवर्त३ उ01 ('उप्पायपब्वय' शब्दे द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठे 'सक- के ऋषी. तद्गोत्रजेषु पुरुषेषु च । स्था०८ ठा०३ उ० । सरोदेविंदस्स देबरराणो सक्कप्पमे उप्पायपव्यए इस जो- का - -01 शण वैधवणादिप्रत्यके वयणसहस्साई" इत्यादि प्रतिपादितम् ।)
चने, कल्प०१ अधि०४क्षण।। सकमह-शक्रमह-पु० । इन्द्रमई, व्य०१ उ० । नि० चू०। सकसिंह-शाक्यसिंह-पुं० । गौतमगोत्रे शुद्धोदनपुत्रे सप्तमसकम्म-सकर्मन्-त्रि० । लोकव्यापारप्रवृत्तेषु, स्था० ३ बुद्ध, ग०१ अधिक। का० ३ उ०।
सकह-सत्कथ-त्रि० । सती धर्मकथाऽभीमा यस्य स स
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(२६२) मकह अभिधानराजेन्द्रः।
सकाणुट्ठाण कथः । चतुर्थगुणविशिष्टे श्रावके, ध० १ अधि० । दर्श। __ अजमहागिरिचरियं, सुमरंतो कुणइ सकिरियं ।। १७ ।। अथ त्रयोदशस्य तत्कथाख्यगुणस्यावसरस्तं च
गुरोर्गच्छस्य चोन्नतिः-उत्सर्पणा धन्योऽयं गुरुर्गच्छो वा विषय ये दोपदर्शनद्वारेणाहनासह विवेगरयणं, असुहकहासंगकलुसियमणस्स ।।
यत्सान्निध्यादवंविधा दुष्करकारिणो दृश्यन्ते; इत्येवं जन
श्लाघारूपा तहेतुः-तत्कारण, तथा कृततीर्थप्रभावना-समुधम्मो विवेगसारु, ति सक्कहो हुन्ज धम्मत्थी ।। २०॥
त्पादितजिनशासनसाधुवादां साधुः-सुन्दरोऽयं जिनधर्मः नश्यति-अति विवेकरनं विवेकः-सदसवस्तुपरिज्ञानं स सर्वधर्मेषु वयमप्येनमेव कुर्म इत्येवमादेयत्वात्साधिकामिति एष रनम्-अज्ञानध्वान्तान्तकारित्वात् श्रशुभकथाः-स्था- भावः। निराशंस ऐहिकामुष्मिकाशंसादिप्रमुक्तः । तदुक्तदिकथास्तासु सा-श्रासनिस्तन कलुषित मन:-अन्तः- म्-" नो इहलोगट्टयाए, श्रायारमहिट्टिज्जा नो परलोकरणं यस्य स तथा तस्याशुभकथासङ्गकलुषितमनसः ।
गट्टयाए पायारमहिटिज्जा नो कित्तिवन्नसहसिलोगट्टयाए, इदमत्र तात्पर्यम्-विकथाप्रवृत्तो हि प्राणी न युक्तायुक्तं आयारमहिटिज्जा नन्नत्थ श्रारहंतिपहिं हेऊहिं आयाविवेचयति, स्वार्थहानिमपि न लक्षयतीति रोहणीवत् । रमहिटिज्ज" ति । आर्यमहागिरेभगवतश्चरितं वृतान्तं स्मधर्मः पुनर्षियकसार एव हिताहितावबाधप्रधान एव भवति,
रन् करोति सक्रियां भावसाधुरिति गाथाक्षरार्थः । ध० सावधारणत्वाद्वाक्यस्यतीत्यस्माद्धेतोः सत्या-शोभना तीर्थ- २०३ अधि०५ लक्षा करगणधरमहर्षिचरितगोचरा कथा-बचनव्यापारो यस्य
भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तवम्स सत्कथो भूयाद्-भवेत् धर्मार्थी-धर्मचरणाभिलाषुकः, येन धर्मरत्नाऽई: स्यादिति । ध०र०१ अधि०१३ गण ।
अजथूलभहस्स दो सीसा-अजमहागिरी, अज्जमहत्थी य। प्रय०। (पूर्वसूचितरोहिणीज्ञातं 'रोहिणी' शब्ने षष्ठभागे
महागिरी अजसुहत्थिस्स उवज्झाया, महागिरी गणं सुह५८३ पृष्ठे गतम् ।)
थिस्स दाऊण वोच्छिराणो जिणकप्पो ति, तहवि अपडिबसक्काणुट्ठाण-शक्यानुष्ठान-न० । संहनाद्यनुसारेण तप- द्धया होउति गच्छपडिबद्धा जिणकप्पपरिकम्म करेंतित वि श्राद्यनुष्ठाने , ध० र०।
हरता पाडलिपुत्तं गया, तत्थ वसुभूती सट्ठी; तेसि अंतिय संघयणादणुरूवं, आरंभइ सक्कमे वऽणुट्ठाणं ।
धम्म सोचा सावगो जाओ। सो प्राणया भणर अजसुहत्धि
भयवं ! मज्झ दिनो संसारनित्थरणोचाओ, मए सयणस्स बहुलाभमप्पछेयं, सुयसारविसारो सुजई ।। ११५ ॥
परिकहियं तं न तहा लग्गई । तुब्भे वि ता अणभिजोपणं गंसहननं-बापभनाराचादि, श्रादिशब्दाद्-द्रव्यक्षेत्रकाल
तूर्ण कद्देहि त्ति । सो गंतूण पकहिो । तत्थ य महागिरी भाषा गृह्यन्ते , तदनुरूपं-तदुचितमेवारमते सर्वमनुष्ठानं
पबिटो ते पट्टण सहसा उट्टियो। यसुभूती भणर-तुभषि श्री तपः-प्रतिमाकल्पादि यद्यस्मिन् संहननादौ निघाँटुं शक्यंत तदेवारभतऽधिकस्य निष्ठानयनाभाये प्रतिज्ञाभङ्ग
मे पायरिया ?, ताहे सुहत्थी तेसिं गुणसंथर्व करेइ, जहा
जिणकप्पो अतीतो तहावि एए एवं परिकम्मै करेंति । एवं संभवात् , कीरशं पुनरारभते?बहुलाभ, विशिष्टफलप्रापकम्
तसि चिरं कहिता अणुश्वयाणि य दाऊण गमो सुहत्थीं। अपच्छदं स्तोकव्ययम् , अल्पशब्दस्याभाववचनत्वात् संयमायाधमिति भावः, श्रुतसारथिशारदःसिद्धान्ततस्याभिशः |
तण वसुभूपणा जेमित्ता ते भणिया-जइ परिसी साहू एज
तो से तुम्भे उज्झतगाणि एवं करेजा, एवं दियणे महासुयतिर्भावसाधुरिति ।
फल भविस्सा । बीवियसे महागिरी भिक्खस्स पषिट्ठा, तं कथं पुनरेवंविधं स्यादित्याह
अपुव्यकरणं वळूण चिंतेह-यभो ४, पायं जहा णाभो जह तं घर पसाहइ, निवडइ अस्संजमे ददं न जभो ।
श्राहंति तहेव अम्भमित नियत्ता भणति-अजो! प्रणेसणा जणि उअमं बहूगी, विसेसकिरियं तहा बिढवा ।।११६।। कया। कण? तुम जेणसि की अभुडिओ, दोषि जणा पतियथा-यन प्रकारण तदधिकृतमनुष्ठानं बहु प्रसाधयति दिसं गया। तत्थ जियपरिमं बंदित्ता अजमहागिरी पलकपुनः पुनरावत, न निपति घाऽसंजमे-सावधक्रियायां कछ गया गयम्गपदगं यंदया । तस्स कहं एलगच्छं नाम ?, तं रदमस्यर्थ नैव यतोऽनुष्ठानात् । किमुक्तं भवति-अनुचितानु- पुब्धं दसराणपुर नगरमासी । तत्थ साथिया एगस्स मिच्छदिष्ठानपीडितो न पुनस्तत्करणायोत्सहेत कदाचिदामयसंभवे | हिस्स दिक्षा घेयालियं श्रावस्सयं करेति पववाह य । सो च चिकित्सायामसंयमस्तदकरणे चाविधिमृतस्य संयमान्त- भणइ-किं रति उहिता कोइ जेमेइ ?, एवं उपहसार, अरणरायः, श्रत पयानम्--"साहुनवा कायव्यो, जण मणोऽमं- या सो भण-अहं पि पच्च क्वामि, सा भणर-भंजिहिगलं न चितह । जग न इंदियहाणी, जण य 'जोगा न हायं- सि । सो भणर-कि भराणयाधि प्रहं रति उदृता अमेमि ?, ति॥२॥" इति । तथा निताद्यम संपादित करणमनो- दिनं । देषया चिंता सायियं उव्यासे मजणं उयालभामि। रथं बहनामम्यषां समानधार्मिकाणां शिण्याण शक्या- तरस भगिणी तस्थष बसाइ, तीसे 5षण रति पंडणय नुष्ठान हि बहना चिकापां संभवनि मेतरस्मिन्निति धिश- गहाय पागया । पच्चखानो। साबियाए बारिश्रो भणापक्रियामधिकतरानुष्ठान प्रतिमामासादिक, तथाशब्दः स- तुम्भनहिं माल पालेहि कि?, देवयाए पहारो दिराणा, दो मुच्चये; स यं योज्यते शक्ती सत्यां विशेष क्रियां चारभ- वि अश्छिगोलगा भूमीए परिया। सा मम अयसो हाहिति तेन तां निष्फलां विदधातीति ।
काउस्सगं ठियाभिवरत देषया भागया भण-किं साथिए, कथंभूनां पुनर्विशेषत्रियां करोतीस्याह
सा भण-मम एस अजसो ति, ताह भयवस्ल पलगस्स भगुरुगनछुअइहेर्ड, कयतित्थपभाषणं निरासंसो। पछीणि सपएसाणि तक्षणमारियरस प्राणेत्तालाइयाणि।
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(२६३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सकाणा
I
तो से सपती भएलगस्त जारिसाकिहियं सहो जाओ जो सिम्फु भएको सि एलकच्छ । अरणे भांति सो चेव राया, तांडे दस गणपुर एसएलकच्छं नामं जायं तत्थ गयग्गपयश्रो पव्व । तस्स उपपत्ती- तत्थव दसराणपुरे दसराणभद्दो राया । तस्स पंचस्याणि देवीगारोहो । एवं सो जाब्वगेण रूपेण य पडिबद्धो परिसं अराणस्स नत्थि त्ति । तेरी कालें तें समए भगवओो महावीरस्व इस समांसरसे ताहे सो वित तहा कल्ले वंदामि जहा केइ न अरण वंfargar | तं च कत्थियं सक्को गाऊ एह । इमो वि महया इहीए निग्गओ वंदिओ य सव्विङ्कीए । सक्का वि विगत अपि एकेके देते अट्ठवावीओ, एकेकार वावीए श्रट्ट पउमाई, एक्कक्कं प उप पत्ते व २ बीना एवं सो सि ही परावविलग्गी चाहि पाहि करे, तांदे तस्स हत्थिस्स दसरणकूडे पव्वर य पयाणि देव पहावेण उपाशामक गयपदयोति तो इस
|
1
"
भो तं पेच्छिऊण परिसा कश्री अम्हारिसाणमिद्धी ?, श्रहो कम्मो अहमपि करेमि ताई सो पञ्चवर एसा गयग्गपयगस्स उत्पत्ती । तत्थ महागिरीहि भन्तं पश्चखायं देवत्तं गया। सुहत्थी वि उज्जेणि जियपडिमं वंदया गया। उज्जाणे ठिया, भणिया य साहुगो-बसदि म ग्गहति । तत्थ एगो संघाडगो सुभद्दाए सिट्टिभज्जार घर भिक्खरस अग याताय को भगवंत, तेहिं भणि-सुथर बसदि मग्गामायाला रिसिया । तत्थ ठिया । अन्नया पोसकाले आयरिया नलिम्मिं अन्य परियति तीसे पुता अयंतिसु कुमाले सततले पासार बत्तीसाहि भज्जाहि समं उच ललते सुनिए मार्ग ति भूमध भूमीयं सुरांतो २ उदिएगो बाहिं निग्गओ । कत्थ परिसं ति जाईसरिया तेसि मूलं गो । साहह अहं अवंतिसुकुमालो तिनलिणिगुम्मे देवो आसि । तस्स उस्सुग्गी पव्यामि । असमत्थो य अहं सामन्नपरियागं पालेउं इंगिणि साहे मि ते विमाविला, तेरा पुष्यि लिनेछति समे
लोयं करोति । मासगियलिंगी इस सिदि रं । मसाणे कंधर कुंडगं तत्थ शतं पञ्चकखायें। सुकुमालपा पापहि लोहियगंधे सिवाए सपेल्लियाए श्रागम
। सिधा पग पायं खाया । एगं बिलगाणि । पढमे जामे जानुयाणि, बीपऊरू, तर पोहं कालगओ । गंधोदगपुष्कवासं, श्रार्यारियां श्रालीयणा । भज्जाएं परंपरं पुच्छा । आयपि कहियं सम्बिद्वीप सुराद्दाहिं समं गया मसाणं, वायएगा गुब्विणी नियता । तेसि पुत्तो तत्थ देवकुले करें यदि महाकाल जालपरियहिये। उत्तरसिया भगि पालिने सिम - स्सियतयो महागिरी ४ । श्राष० ४ श्र० । सकार सरकार०सम्मान ०१ ०६ क्षण | उश० । ज्ञा० । स्था० । घरमाभरणादिभिरभ्यर्चने, श्रा६० ५ ० | भक्तपानवस्त्रपात्रादीनां परतो योगे, श्राष० ४
ए
जन्य सो
सकार
,
अ० । स्था० । शा० । श्रर्थप्रदानादौ गुणकथने च । उत्त १० । पञ्चा० । प्रवरवस्त्रादिभिः पूजने स्था० १० ठा० ३ उ० । स्तवनवन्दनादौ स्था० ७ ठा० ३ उ० । ध० । स० । नि० । सूत्र० । प्रव० । पञ्चा० । श्रत्यादरकरणेन मादिना वा सम्माने स्था० ३ ठा० ३ उ० । अभ्यु त्थानासनदानवन्दनानुवजनादौ, श्राव०६ श्र० । श्रा० चू० । प्रवरादिभिः पूजन, स्था० १० डा० ३ ० विनया वन्दनादिना श्रादरकरणे प्रवरवस्त्रादिदाने च । 'सक्कारो पवरवत्थमाईद्दि' इति वचनात् । भ० ।
अथ नैरधिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाहअस्थि भंते! नेरइयाणं सकारेति वा सम्माणेति वा फिइकम्मे वा अष्टागेर वा अंजलिपम्गहेति वा आसखाभिग्गहेति वा आसणाणुप्पदायेति वा इंतस्स पच्चुग्ग
लाठियस्स पाया गच्छंतर पडसादया १, नो तिट्ठे समट्ठे । अस्थि भंते । असुरकुमारा! णं सकारेति वा सम्मायेति वा० जाव पडिसंसाहण्या वा ?, हंता अस्थि, एवं० जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइया • जाव चरिंदियाणं एएसिं जहा नेरइयाणं । श्रत्थि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं सकारेह बा० जाव पडिसंसाहण्या : हंता अस्थि, नो चेत्र णं आसवाभिगंदर या असणाणुप्पयायेद वा मनुस्सायं ० जाव बेमाथिया जहा असुरकुमाराणं (०४०७) 'रथ'मित्यादि सारे तिसारो - विनयाषु चन्दनादिनाऽकादिदानं या समारोप स्थमाहिति वचनात् 'सम्मारोह 'ति सम्मानः तथापि प्रतिपकर किस्मे 'सि कृतिकर्मबन्द कार्य कारणं या अभुद्वार पनि अभ्युत्थानं गौरदर्श रत्यागः 'अंजलिपगर व सिलीकरराम् 'आखणामिम्गहे प ति आखनाभिग्रह ए गीरव्यस्यासमानयनमुपविशति भवनम् 'आसणाप्यादति आसनानुदानं गीरण्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तर संचारणम् 'इंतस्स पच्चुग्गच्छणय' त्ति- आग
.
तो गौरव्यस्याभिमुखगमनं पिस्स पारायण तितो गौरव्यस्य संपत्ति गच्छंतरल पडिसाइि गोमनमिति अयं च विनय नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्यादिति । भ० १४ श० ३ ३० । दश० । श्री० । माझ्यादिभिरम्पर्थने पञ्चा० विष० विपा० आदरकर, भ०२० १३० | दशा० । नि० । श्रत्र सत्कार प्रस्तावात्सत्कारप्रतिपतभूतेन सत्कारण सामायिकं लभ्यं प्रतिपाद यति एगो धिजा तहाचा धर्म सोचा समलिपच ति परमवरोष्यरं पानी धिजाइणि ति गव्यमुव्यहर, मरिऊल अहाडगं भुतं । इतोय इलाबद्ध सत्यवादी पुतकामा श्रीसम्म सो
-
उपय
सरह महिला मना
"
देवलोगं गयाणि गरे इलादेवया, तं एगा विगत से जाओ,
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सकार
गार्म से कर्म इलापुसो सि इथरी विगो
तो
--
"
या लेखाकुले उप्पला, दोऽषि जोधणं पत्ताणि, भरणया ते सा लंगडी विट्ठा, पुष्षभवरागेण श्रभोषबलो, सामग्गिती वि ण लब्भद्द, जतिपय तुला त किरण सुवाणि भांति - एसा अह अजयशिडी, जर सिप्ये सिक्स अम्देहिं पिसमे हितो ते मो हिंडत सिसिओ य, ताहे विवाहणिमित्तं यो पेड करेहि समयतो पास गयाथि तरथ राया पेच्छर संतेपूरो, इलापुतो य खेडा उ करेह राया दिट्ठी वारियार, राया ण देह रायाण देते भए विति, साहुकाररावं बट्टति । भणिनो राइप करे फिर ससिहरे क कञ्जयं तस्थ बीलाओ, सो पाउभाउहर विधियात । तमोऽसिखेड गहत्थगन भागास उप्परता ते जीलगा पाउआणालियाहि पवे सेतव्या सत्त अग्गिमाइजेस तपाइ काऊण, जर फिडर तभ पडिओ सबहा
-
"
बजार, तेण कथं, राया दारियं पलोपा । लोपण कलकलो कम, ण य देव राया, राया व पेच्छुर, राया चिंतेजर मर तो अहं एयं दारियं परिणेमि । भणाण दि पुणो करेहि, पुणेोऽषि कथं तत्थऽचि पतिवियं पि बारा कथं, तत्थ बि ए विद्वं, चउत्थियाए बाराए भणिश्रो- पुणो करेहि। रंगो घिरतो, ताहे सो इलापुतो बंस
3
बिधि भोगा एस राया एशियाहिंण तितो, एताए रंगोषजीवियाए लग्गिउं मग्गर, एताए कारणा ममं मारेउमिच्छइ । सो य तत्थठियो एगन्ध सेडियरे साइयो पहिलाभिजाये पासति सम्यालंकाराहि थियाहिं, साहू य विरतण पलोयमाणे पेतां भरा अहो धन्या निःस्पृहा विषयेषु अपत्ये पि एस तत्थेव विरा गयस्व केवलगाये जप्यता दि बेी विरागो बिभासा, अग्गमहिसीए बि, रराणो वि पुणरावती जायाचिरागो विमासा । एवं ते बसारि विकेवली जाया, सिजाय । एवं असकारेण सामाइयं लम्भद्द ॥ ११ ॥ अहवा तिरथगरा देवासुरे सारे कमाये जहा मि स० [१] [अ०] (मरीचिवृत्तान्तम् मरीह प भागे १५९ पृष्ठे उक्तम् । ) संस्कार ५० "यारे
( २१४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
१२८३त्यनेनाधातुमारस्य
,
लुक । प्रा० । “कस्कयोर्नास्नि ||८||२४|| अत्र नामग्रहणाभाषे ऽस्मिन्नपि लक्ष्ये खकारादेशः स्यात् । प्रा० सम्-कृ- घञ् सुच । सतो गुणान्तराधानरूपे प्रतियाने यथा तारादेरनवेया उद्दीपननिशानमाजनादयः, श्रीयादे मातासम्पादनाय वैदिकमार्गेण मोक्षणादिः दर्पणासिकरादि स्मृतिहेती अनुमतिगुणमेवे, पुचियादिचतुष्पथे बेगा गुणे यथावस्थिततथा स्थापाप्रयोजके स्थितिस्थापनाव्ये गुरुमे, शास्त्राभ्यासजती व्याकरोदिशा शब्दानां साधनप्रकारे विमादीनां वैदिककमहत्वसाधने गर्भाधानादी कियाकला पे, पाके च वाच० 1 सम्म० । सकारकारण सरकारकारण न० । मादिभिः सम्मान
1
"
सकारपुरका०
'असंजयाय सकारं कारयामच्छे गरहिउमारये महा० ४ अ० ।
उपा० ७ सकारणिज- सत्कारणीय- त्रि० । आदरणीये अ० । बखादिना कयामत्यमिति जा पर्युपासनीये, जी० ३ प्रति०४ अधि० ॥ भ० । औ० । ० ।
सं० प्र० ।
सकारत-संस्कारत्व- अव्य०। संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वे, औ० ।
,
रा० ।
सकारपुरकारपरीसह सरकारपुरस्कारपरी पह पुं० सत्कारो बादिभिः पूजनं पुरस्कार:- अभ्युत्थानासनादिसंपादनम् यद्वा-सकलेच पाऽभ्युस्थानाऽनियादानादिरूपा प्रतिपतिरिह सरकारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः, ततस्ताबेवल पष वा परीषदः सत्कारपुरस्कार परीषदः । उत्त० २ अ० | आय० । प्रष० । प्रश्न० भ० । स० । सत्कारपु रस्काराभाषे वैभ्यवर्जने, तदनाकाङ्क्षत्वे च । स०२२ सम० । विशेषितब्रह्मचर्यस्य महातपस्विनः स्वपरसमयज्ञस्य वतुपरवादिविजयिनः प्रमाणभक्ति बहुमान संभ्रमासनप्रदानभक्तमानवस्त्रपात्राद्यतिसर्जनं न मे कश्चित्करोतीति णिधानपरिहरणे पं० [सं० २ द्वार । स वैयम्"उत्थाने पूजने दाने, न भवेदभिलाषुकः । सरकारे न दीनः स्यात् सत्कारे स्थान हर्षवान् ॥ १ ॥ " ध० ३ अधि०। "उत्थानं पूजनं दानं स्येारमपूजकः । मूि तो न भवेल्लब्धे, दाने सत्कारितो न च ॥ १ ॥ " ० म० १ ० आ० ०
कृषः
9
एतदेव सूत्रकृदाहअभिवाययमाणं सामी कुजा निर्मतयं ।
3
जे ताई पडिसेवंति, न तेसिं पीहए मुखी ॥ ३८ ॥ अभिवादनं शिरोनमनस्पर्शनादि पूर्वमभिवादयेत्यादि वचनम् अभ्युत्थानं ससम्भ्रममासनमोचनं स्वामीराजादिः कुर्यात् विदधीत निमन्त्रणम्य भा दीप महतयेत्यादिरूपम् 'ये' इति वदृध्याः परतीर्थिका बातानि अभिवादनानि प्रतिसेवन्ते श्रागमनिषिजन्यपि भजन्ते न तेभ्यः स्पृहयेत् - यथा सुलब्धजन्मानोऽमी य पवमेधैरभिवादनादिभिः सत्क्रियन्त इति मुनिः-नगार इति सूत्रार्थः ।
"
從業
कसाई श्रपिच्छे अण्णासि अलोलुए ।
रसेसु नागा नागुतपि परायर्थ ॥ ३६ ॥ उत्कः- उत्कण्ठितः सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील उत्कशायी न तथा अप्राकृतत्वादकषायी सर्वधनादित्यादिनिः कोऽर्थः १--न सत्कारादिकमकुर्वते कुव्यति, तत्सम्पती वा नाहङ्कारवान् भवति । यत उक्तम्पलिमंथमहं वियाणिया, जा वि य बंदणपूरणा इह ।
हमेस दुरुद्धरे, इति संखाइ मुखी य म अइ ॥ १ ॥ नया तदर्थ भ त या ि पाल्पा- स्लोका
धर्मोपकरणप्राप्तिमात्रविषयत्वेन न
तु सत्कारादिकामितया महती पस्याभावादित्य
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(२६५) सकारपुरका अभिधानराजेन्द्रः।
सविखिणिय माविद्यमामा वा इच्छा वाञ्छा था यस्येति अस्पेन्छः - सकारबंध-संस्कारबन्ध-पुं० । बौद्धमतप्रसिजे पुण्यापुण्या
छायाश्च कषायाम्तर्गनषेऽपि पुनरस्पत्याभिधान बहुत- विधर्मसमदाये, सत्र०१०१०१०। रदोषत्वोपदर्शनार्थम् । अत एव च-अज्ञातो जातिश्रुतादिभिः एषति-उम्छति अर्थात्-पिएडादीत्यज्ञातैषी, कुतः
सकारवंत-संस्कारवच-न० । संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वे , स० पुनरेवम् ?-यतः अलोलुपः-सरसौदनादिषु न लाम्प
३६ सम। व्यवान् , एवंविधोऽपि सरसाहारभोजिनोऽपरान् पीचय
सकारवत्तिय-संस्कारप्रत्यय-न। संस्कारार्थे , औ० । स्तुकदाचिदम्यथा स्यात्, अत माह-सरसेषु--रसवत्स्यो
स्याविगुणोप्रतिकरणे , स. २२ सम०। प्रबरबस्नाभरदनादिषु, पाठान्तरतो-रसेषु वा-मधुरादिषु नानु
णादिभिरभ्यर्चनाभिशे, ल। सत्कारनिमित्ते, सरकारच गृध्येत्-नाभिकाहां कुर्वीत, रसगृद्धिवर्जनोपदेशश्च तद्
प्रवरवस्त्राभरणादिभिरभ्यर्चनम् । ध०२ अधि०। प्रतिः। गृद्धित पष पालिशानामभिवादनादिस्पृहासम्भवात् , तथा सकारहज-सत्कारभाज्य-त्रि० । विद्वज्जनपूज्ये, व्य० ३ उ० नतेभ्यो--रसगृभ्यः स्पृहयेन्मुनिः, पाठान्तरतश्च-नानु- सकारासंसापभोग-सत्काराशंसाप्रयोग-पुं०। दशम प्रातयेत् तीर्थाम्तरीयान् नृपत्यादिभिः सक्रियमाणामवेक्ष्य, किमेतत्परित्यागेनाइमत्र प्रवजित १, इति प्रज्ञा--हेयोपा
शंसाप्रयोगभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ०। ('प्रासंसापभोग'
शब्दे द्वितीयभागे ४६६ पृष्ठे व्याख्यातः।) देवविवेचनात्मिका मतिस्तद्वान् , अनेन सत्कारकारिणि तोषं म्यरकारकारिणि च द्वेषमकुर्वताऽयं परीषहोऽभ्यासि
सकारिता-सत्कारयित्वा-अव्य० । वखादिना विनये , स्था०
१ठा। तव्य इत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ ३६॥
सकारिय--सत्कारित-त्रि० । फलवस्त्रादिदामतः संमानिते, अत्र 'प्राविधे' ति द्वारमनुसरन् सूत्रोक्लमर्थ व्यतिरेको-| दाहरणेन स्पष्टयन्नाह--
मा०१७०१०। कल्प० । ०। महुराइ ईददत्तो, पुरोहिश्रो साहुसेवभो सिड्डी । सकाल-संस्कार-पुं० । “हरिद्रादौ ला" ||४। २५४ ॥
अनेनात्र लकारादेशः । सपकालो । संस्करणे, प्रा०४ पाद । पासायविज पाउण, पायच्छेदिंदकीले य ॥ ११८ ॥
सकिरिया-सस्क्रिया-स्त्री० । सच्चेष्टायाम् , द्वा० १३ द्वा०। मथुरायामिन्द्रदत्तः पुरोहितः, साधुसेवकः श्रेष्ठी प्रासादविद्यापातनं, पादच्छवश्वेन्द्रकीले, वस्य' भिन्नकमत्वादिति
सक्कुच्छव-शकोत्सव--पुं० । इन्द्रमहे, प्रा० म०१०। गाथासंस्कारः ॥ ११६ ॥ एतदर्थश्च सम्प्रदायाबसेयः। सक्कुलिया-सष्कुलिका-स्त्री० । पिष्टमयपोलिकायाम् , आसवायम्--
चा०१९०१ १०५ उ० । दश। "चिरकालपट्टियाए महुराए वियत्तेण पुरोहिएणं पा
सक्कुलीकएण--सष्कुलकर्ण-पुं०। इयकर्णादिषु अन्यतमे सायगएण हेडेणं साधुस्स वचंतस्स पात्रो, मोलंबितो सीसे
अन्तर्वीपे , तत्रत्ये मनुष्ये च । प्रमा० १८ पद । स्था। कतो सिकाउं, सो य साधरण सिद्रिणा विट्टो तस्साम
प्रव० । जी० । कर्म । नं० । उत्त० । नि० चू० । ('अन्तरदीय' रिसो जामो । विटुं भो एएणं पावेणं, साहुस्स उरि पायो
शब्दे प्रथमभागे ६६ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ला ।) कतो ति, तेण पररणा कया--अषस्सं मए एयस्स पायो
सकेंद-शकेन्द्र-पुं० । सौधर्मदेवलोकेन्द्र, स्था०१० ठा०३ उन विश्यब्बो-तस्स छिहाणि मग्गह, अलभमानो अम्नया
आयरित्राण सगासे गंतूण बंदित्ता परिकहे। तेहि सकोस-सक्रोश-त्रि०। कोशसहिते, पृ. ३ उ० । तत्र भएणइ--का पुच्छा, अहियासेयम्बो सकारपुरस्कार- यत्क्रोशं तत्पूर्वासु विजु प्रत्येक सगव्यूतमूर्द्धमधश्वार्धक्रोपरीसहो । तेण भणिय--मए पारणा कपलिया, माय- शार्सप्रयोजनेन व समन्ततो प्रामाः सन्ति । व्य० १० उ०।। रिएहि भएगाह-एयस्स पुरोहियस्स किं घरे बाद, तेण
सक्ख-साच्य-न । परप्रत्ययाथै यथारवादिनि ,पिं०।स्व. भरणा-एयस्स पुरोहियस्स पासाभो कपल्लतो, तस्स पधेसणे रएणो भतं करेहि ति, तेहि भरणइ-जाहे राया प
| यंकरणतः शब्दार्थे , पश्चा०६ विवा। विसहतं पासायं ताहे तुम रायं हस्येण गहेऊण अब
सख्य-न० । सण्युर्भाषः । मित्रतायाम् , सौहार्द, वाच । सारिज्जासि जहा-पासामो पडति, ताहेऽहं पासायं वि-सरखं-साक्षात-भव्य०। "या स्वरे मश्व" ॥८।१।२४ ॥ जाए पारिस्सं । तेण तहा कय, सहिणा राया भणितो-ए- अस्य बहुलाधिकारीयत्वादन्यस्यापि व्यजनस्य मकारः । पण तुम्भे मारिया भासि, रुडेण रगणा पुरोहितो साव- प्रा०। समके , उत्त०२ मा अनुपचारे, द्वा० १० द्वा०। मस्स अपितो, तेण तस्स ईदकीले पायो कतो । पच्छा |
परिस्फुटे, उस०२०। छिन्न (मो ), एवं काउं इयरो विसजितो । तेण णाहियासितो सकारपुरफ्कारपरीसहो" इति । यथा तेन भाजेमा.
सक्खिय-साक्षिक-त्रि० । सदा परित्यागसाक्षिणि केवलिप्रसौन सोहोन तथा विधेय, किन्तु साधुषरसोडण्यः।
तिषि, दश । " ससक्खं न पिये भिक्खू" वश ५ पूर्वत्र भाषकपरीषहाभिधानमाचनयचतुपयमतेमेति
म०२ उ० । साक्षियकारिणि , प्रश्न०२ भाद्वार । मभावनीयम् । उनं हि प्राक-" तिरह पिणेगममतो, परीसहो
ज्यले , झा०१९०२५०। जाष उज्जसुत्तातो "ति, प्रचार पायो, विचार प्रासासखिंखिणिय-सकिरिणीक-भि । जुद्रघरिटकोपेते, उपा० दपातनविद्या । उत्त०२०।
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( २६६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
सक्खुड्ड
सगड
सक्खुड्ड-सक्षुद्र - त्रि० । चुद्रैर्मार्जारादिभिः सह वर्त्तमाने | इत्थीयं पुरिसं अवउडगबंधणं उक्खित्तं ० जाव घोसेणं अवबद्धसिंहादी, आचा० २ ० १ ० २ ० १ ३० । सग-शक--पुं० । अनार्यदेशभेदे, प्रचा १ पद । शकदेशनिवासिनि म्लेच्छ्रे, प्रज्ञा० १ पद प्रब० । ० । सूत्र० । मासवर्षानन्तरं वीरमोक्षाजाते उज्जयिनीपतौ ति० । ("ताई ५८३ पृष्ठे उक्तम् ।) 'परिनिध्यस्स अरहा तो उपपन्नो सगो राया ।' ति० । धूर्ताख्याने प्रतिपादितानां धूर्त्तानामधिपती, ग० २ श्रधि० ।
स्वक- त्रि० । आत्मीये, दर्श०४तस्व । श्र० म० । निजे, सूत्र ०१ ध्रु० ३ ० २३० | लोकरूढितः सौन्दर्ये, उत्त० १ ० । सप्त- त्रि० । खनामख्यातायां संख्यायाम्, कर्म० ५ कर्म० । सगउरल-सौदारिक- न० । श्रदारिकोपलक्षिते सप्तके, श्रीदारिकौदारिकबन्धनौ ४, दारिकतैजसबन्धनौ५, दारिकका
बन्धनौ६, दारिकतैजसकार्मण ७ इत्येवमादारिकोपलक्षिते सप्तके, कर्म०५ कर्म० । सगडभट्टिया-स्वकार्यभर्तृका - स्त्री० । लौकिकश्रुतभेदे, अनु० । सगड - शकट-न० । शक्नोति शक्यते वा धान्यादिकमनेन योतुमिति शकटम् । गन्डयाम् उत्त०५ श्र० । श्राव० । गन्ध्यादिके, सू० १ ० ७ ० । विपा० । आ० म० अनु०/ प्रश्न० । जं० रा० । श्री० ॥ भ० । स्कन्धावारनिवेशादिके, श्राचा०५ श्रु० १ चू० ३ अ० २ उ० । सुभद्रस्य गृहपतेर्भद्राकुक्षिसंभवे पुत्र, पुं० । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
एतदेव सूत्रकृद्दाह
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जंबू ! तेणं कालेणं तेयं समरणं साहंजनीनामं नयरी होत्था, रिद्धत्थिमियसमिद्धा । तीसे गं साइंजपीए बहिया उत्तरपुरछिमे दिसीभाए देवरमणे णामं उजाणे होत्था । तत्थ णं श्रमोहस्स जक्खस्स जक्खाssययणे होत्था पुराणे, तत्थ णं साहंजणीए गयरीए महचंदे नामं राया होत्या । महया०, तस्स णं महचंदस्स रो सुसेणे नामं अमचे होत्था । सामभेयदंडदाण० निग्गहकुसले, तत्थ गं साहंजणीए सुदंसणाणामं गथिया होत्था, वन्न तत्थ गं साहंजणीए नयte सुमहे नामं सत्थवाहे परिवसद्द अड्डे, तस्स गं सुभद्दस्त सत्थवाहस्स भद्दानामं भारिया होत्था मही० तस्स णं सुभद्दसत्यपुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तएसगडे नाम दार होत्था महीय० । तेणं कालेयं तेयं समयं समये भगवं महावीरे समोसरणं परिसा राया य frore धम्मो कहिश्रो, परिसा पडिगया । तेयं कालेयं तेयं समयं समणस्स भगवन महावीरस्स जेडे अंतेबासी० जाब रायमग्गमो गाढे तत्थ णं हत्थि श्रासे पुरिसे, तेचि णं पुराणं मज्झगए पासति एगं स
,
चिंता तहेव जाव भगवं वागरेति । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे छगलपुरे नामं गगरे होत्था, तत्थ सीहगिरिनामं राया होत्था महया । तत्थ रंग छगलपुरे गगरे छणिए नामं छगलीए परिवसति अड्डे० श्रहम्मिए •जाव दुष्पडियाणंदे, तस्स णं छणियस्स छगलियस्स बहवे प्रयाण य एलाय रोज्झाण य वसभाण य सस्याण य सूयराण य पसयाण य सिंघाण य हरिणाण य मयूराण य महिसाग य सतबद्धारा य सहस्सबद्धारा य जूहाणि वाडगंसि सन्निरुद्धाई चिट्ठति, अने य तत्थ बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा बहवे य अए ०जाव महिसे य सारक्खमाणा संगोवेमाणा चिट्ठति, अणे य से बहवे पुरिसा या य ०जाव गिहंसि निरुद्धा चिट्ठति । अन् य से बहवे पुरिसा दिनभइ० बहवे सयए य सहस्से य जीविया ववरोविंति मंसाई कप्पिणीकप्पियाई करेंति, छणियस्स छगलीयस्स उवर्णेति, अन्ने य से बहवे पुरिसाताई बहुयाई अमंसाई ०जाव महिसमंसाई तवएसु
कवल्लीसु य कंदूएसु य भजणेसु य इंगालेसु य तलं - ति य भर्जेति य सोल्लयंति य २ ततो रायमग्गंसि वित्ति कप्पे माणा विहरंति । अप्पणावि य गं से छनियर छा गलीए तेहि बहुविहमंसेहिं जाव महिसमंसेहिं सोल्लेहि य तलेहि य भजेहि य सुरं च ६ मासाएमाणे विहरंति । तते गं से छभिए य छगलीए य कम्मे प० वि० स० सुबहु पावकम्मं कलिकलुस समजिथिता सत्तवाससयाई परमाउयं पालइसा कालमासे कालं किच्चा चोत्थीए पृढबीए उक्कोसेणं दससागरोबमडिइएमु नेरइयत्ताए उबवन्ने । ( सू० २१)
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तते गं तस्स सुभद्दसत्थवाहस्स भद्दा भारिया ०जाव निंदुया यावि होत्था जाया दारगा विनिहायमावच्जति तते गं से छभीए छागले चोत्थीए पुढवीए अयंतरं उब्यट्टित्ता इद्देव साहंजणीए नयरीए सुभद्दस्त सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उबवले, तते यं सा भद्दा स त्थवाही अन्नया कयाइ वराहं मासा बहुपडिपुत्राणं दारगं पयाया; तर गं तं दारगं अम्मापियरो जायमेतं चेत्र सगस्स हेडातो ठावेंति, दोच्चं पि गि
हावेंति अणुपुत्रेणं सारक्रांति संगोर्वेति संबšति जहा उज्झिए ०जाब जम्हा णं श्रहं इमे दारए जायमे चैव सगस्स हेट्ठा ठाविए तम्हा गं होउ गं म्ह
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सगड अभिधानराजेन्द्रः।
सगडालनंदण एस दारए सगडे नामेणं, सेसं जहा उझियते ।। होऊणं दारगं सगडे नामेणं होऊणं दारिया सुदरिसणा सुभद्दे लवणसमुद्दे कालगते मायाऽवि कालगया । से नामेणं, तते णं से सगडे दारए उम्मुक्कबालभावे जोरणवि सयाओ गिहाओ निच्छूढे, तते ण से सगडे दारए गमणुपत्ते० भविस्सइ, तए णं सा सुदरिसणा वि दारिया सयातो गिहाओ निच्छूढे समाणे संघाडग तहेव. जाव उम्मुक्कबालभावा (विस्मय ) जोव्वणगमणुप्पत्ता रूवेण सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे याऽवि होत्था। य जोव्वणण य लावलेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा तते ण से सुसेणे अमच्च तं सगडं दारगं अन्नया या वि भविस्सइ । तए णं से सगडे दारए सुदरिसकयाई सुदरिसणाए गणियाए गिहाश्रो निच्छुभावेति, णाए रूवेण य जोब्बणण य लावएणेण य मुसुदंसणियं गणियं अभितरियं ठावेति, ठावित्ता सुदरि- च्छिए सुदरिसणाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग- माणे विहरिस्सति । तते णं से सगडे दारए अन्नया भागाई भुंजमाणे विहरति । तते ण से सगडे दारए कयाई सयमेव कूडगाहित्तं उवसंपजित्ता णं विहरिस्सति । सुदरिसणाए गिहाश्रो निच्छुढे समाणे अन्नत्थ क- तते णं से सगडे दारए कूडगाहे भविस्सइ अहम्मिएक स्थ वि सुतिं वा अलभ० अन्नया कयाई रहसियं जाव दुप्पडियाणंदे एयकम्मे० सुबहुं पावकम्मं समज्जिसुदरिसणागेई अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता सुदरिस- णित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । णरइयत्ताए उवबन्ने, संसारो तहेव० जाव पुढवीए, से णं इमं च णं सुसेणे अमच्चे रहाते. जाव विभूसाए ततो अणंतरं उबट्टित्ता वाणारसीए नयरीए मच्छत्ताए मगुस्सवग्गुराए जेणेव सुदरिसणागणियाए गेहे तेणे- उववन्जिहिति, से णं तत्थ णं मच्छबंधिएहिं वहिए तत्थेव व उवागच्छति तेणेव उवागच्छिइत्ता सगडं दारयं सु. वाणारसीए नयरीए सेद्विकुलंसि पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति । दंसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई झुंज- बोहिं बुज्झे० पव० सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सि. माणं पासइ पासित्ता प्रासुरुत्ते. जाव मिसमिसेमाणे झिहिति निक्खेबो दुहविवागाणं । (सू०-२३) विपा० तिवलियं भिउडि निडाले साहस सगडं दारयं पु- १ श्रु० ४ अ० । रिसेहिं गिराहाविति अढि० जाव महियं करेति अवउ- स्वकत-त्रिः। अनेकजन्मोपात्ते प्रात्मकृते फर्मणि, आचा० डगबंधणगं करेति करेत्ता जेणेव महचंदे राया तेणेय 1200 उ०।
। उवागाच्छता करयल० जाव एवं क्या- सगडभिज-स्वकृतभित्-त्रि० । स्वतकर्मणां भेत्तरि मासी--एवं खलु सामी ! सगडे दारए मम अंतेपुरंसि चा।" प्रायाणं सगडभिजे" भावदीयते गृह्यते भारमप्रदेशः भयरद्धे, तते ण से महचंदे राया सुसेणं अमच एवं वया- सह श्लिष्यते अप्रकारं कर्म येन तवादानं हिंसाचाश्रयता. सी-तुमं चेवणं देवाणुप्पिया! सगडस्स दारगस्स दंडं
रमादशपापस्थानरूप या तत्स्थितनिमित्तस्थात्, कषाया
या पादानं तभिरोशा स्थकृतभिवति । स्वकृतमनेकजम्मोबत्तेहि, तए णं से सुसेणे अमचे महचंदेणं रना
पातं कर्म भिनत्तीति स्वकृतभित्, यो वादानं कर्मण अम्भणुमाए समाणे सगडं दारय सुदरिसणं च ग
कषायादि निरुणशि सोऽपूर्वकर्मप्रतिषिप्रवेशः स्वरुतकणियं एएणं विहाणेणं बझ माणवेति , तं एवं मणां भेत्ता भवतीति भावः । प्राचा० १७०३ १०४ उ०। खल गोयमा! सगडे दारगे पोरा पुराणाणं० पश्च- | सगडमह-शकटमुख-न० । पुरिमतालनगरसमोपधाने, आ. गुम्भवमाणे विहरति । (सू० २२ । ) सगडे णं भंते ! म०१ १० । प्रा० चू। दारए कालगए कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववअिहि- सगडविहिपरिमाण-शकटविधिपरिमाण-न० । इयद्भिरेव ३१, सगडे गंदारए गोयमा! सत्तावएणं वासाई प- शकटैमया गभ्यमिति परिमाणकरणे, उपा०१०। ('भारमाउयं पालइत्ता अब तिभागावसेसे दिवसे एगं महं। णद'
पालापीरोणंद 'शब्ने द्वितीयभागे १०८ पृष्ठे सूत्रं गतम् ।) अभीमर्य तत्तसमजोइभूयं इस्थिपडिम अवयासाविते सगडवूह-शकटव्यूह-न। शकटाकृतिसैन्यरचनायाम् ,बा. समाणे कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए
१५०१०।०। भौ०। पुढवीए णरइयत्ताए उववञ्जिहिति, से णं सतो भणं
सगडाल--शकटाल-पुं०। स्थूलभद्रस्वामिपितरि नम्बराज
मन्त्रिणि, आव०४०। कल्प० । ति० । प्रा०क० । पृ० । तरं उबद्वित्ता रायगिहे गरे मातंगकुलंसि जुगलत्ताए।
| सगडालनंदण-शकटालनन्दन-पुं० । शकटालपुरे स्थूलभपचायाहिति, ततोणं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णि
| द्रस्थामिनि, करप०२ अधि०८ क्षण । मा०पू०। (धूलबत्तबारसगस्स इमं एयारूयं गोएणं नाम करिस्संति, तं भर' शब्ने चतुर्थभागऽस्य वर्णनम् २५१५ पृष्ठे उक्तम् । )
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लगडाहरण
सगडा (डदा) हरण- शकटोदाहरण - न० । शकटं यानं तेनोपलक्षितमुदाहरणं-कथानकं शकटोदाहरणम् । शकटदृष्टान्ते, पञ्चा०५ विष० ।
सगडी - शकटी- बी० । गन्डयाम्, २०१५ श० शा०] ध० रा० सगणिचिया-सगणीया स्त्री० । स्वगच्छ्रवासिन्यां शिष्यायाम, मि० खू० १ उ० । स्वगणसम्बन्धिन्यां शिष्यायाम्, स्था० ५ ठा० ३ उ० ।
सगतेषकम्म- सप्ततेजसकर्म्म १० तेजसकामेोपलक्षिते सप्तके, तैजसरी १ कार्मणशरीर २ ज
"
३, तैजसकार्मणबन्धन ४, कार्मणकार्मणबन्धन ५, तेजससंघातन ६, फार्मसंघातनरूपे ७ समूहे कर्म०५ कर्म० । सगर - सगर- ०। प्रजितस्थामिकालीने द्वितीयचर्तिनि स० ७२ सम० | आष० । ति० । स० | प्रब० । स्था० । उत्त० ।
(२६) अभिधान राजेन्द्रः ।
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?
सगरोऽवि सागरंतं, भरहं वासं नराऽऽद्दिवो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाइपरिनिब्बुओ ॥ ३५ ॥ हे मुने! सगरोऽपि समरनामा नराधिपोऽपि यथा-संघमेन परिनिवृत्तः कर्मभ्यो मुक्रः अत्र नराधिपदेन अपिशब्दात् द्वितीयव्यवस्धिकारात् अनुको उपचा ते, किं कृत्वा भरतवर्ष भरत क्षेत्रम् अर्थात् भरतक्षेत्रराज्यं त्यक्त्वा पुनः परिपूर्णम् एकरूपम् देवदित्वा त्यक्त्वा कीदृशं भरतवर्षम् सागरान्तम् - समुद्रान्तस हितं यत्पर्यतं यावत् विस्ती भरत क्षेत्र राज्यमित्यर्थः । अत्र सगरचक्रवर्त्तिदृशन्तः । तथाहि अयोध्यायां नगकुलोद्भवजितराः नृपोऽस्ति तस्य भार्या वि. जयानाम्नी अस्ति । सुमित्रनामा जितशत्रुसहोदरो युवराजो वर्तते । तस्य यशोमती नाम्नी भार्याऽस्ति । जितशत्रुराजेन विजानाम्याचतुर्दशमास्यमसूचितः पुत्रः प्रसूतः तस्य नाम अजित इति दत्तम्। स च द्वितीयस्तीर्थकर इति । सुमित्रयुवराजपल्या यशोमत्या सगरनामा द्वितीय
।
प्रसूतः । तौ द्वावपि यौवनं प्राप्ती पितृभ्यां कन्याः प— रायती कियता कालेन जितशत्रुराजेन निजे राज्ये - जितकुमार स्थापितः । सगरो यौवराज्ये स्थापितः सहो दरविजयसहितेन जितरानुपेण दीक्षा गृहीता अजितरा जेन च कियत् कालं राज्यं परिपाल्य तीर्थप्रवर्तनसमये स्वराज्ये सगरं स्थापयित्वा दीक्षा गृहीता । सगरस्तु उत्पचतुर्दशरत्नः साधितबद्खण्डभरतक्षेत्रे राज्यं पालयति । तस्य पुत्राः षष्टिसहस्रसंख्याका जाताः एकराश्युरात् । सर्वेषां तेषां मध्ये ज्येष्ठो जकुमारो वर्त्तते । (उत्त० ) ( सगरपु
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ज्ञानद्यानयनम् ' गङ्गाशब्दे, दतीयभागे पृष्ठे ) सगरचक्रवर्त्तिता श्री अजितनाथसमीपे दीक्षा गृहीता - मेण कर्मयं कृत्वा सगरः सिद्धः । अन्यदा भगीरथिना राम्रा कामी पृथ, भगवन् किं कारणं तत् जहुप्रमुखाः षष्टिसहस्रा भ्रातरः समकालं मरणं प्राप्ताः १, हामिना भणितम्- महाराज ! एकदा महान् संप मा समेत पर्वते प्रस्थितः। भएपशय अन्तिमं ग्रामं प्राप्तः तनिवासिना सर्वे अनाज अयमुपतो - यखनेन वस्त्रामधनहरणादिना च तत्प्रत्ययं तद्ग्रामवासि
सगुरुजोय
लोकैरशुभं कर्म बद्धम्, तदानीमेकेन प्रकृतिभद्रकेण कुम्भकारेलोकम्-मा उपद्रवत इमं तीर्थयात्रागतं जनम् । इतरस्यापि निरपराधस्य परिलेशन महापापस्य हेतुर्भवति किं पुनरेतस्प धार्मिकजनस्य । ततो ययेतस्य संघस्य स्वागतप्रतिपति क न शक्तास्तदा उपद्रवन्तु रक्षत इति भणित्वा कुम्भकारेख निवारितः स प्रामजनः । संघस्तत्र गतः । अन्यदा तद्ग्रामनिवासिना एकेन नरेण राजसन्निवेशे चौर्ये कृतम् । ततो राजनियुक् पुरुषः स भामो द्वारपिधानपूर्वकं ज्वालितः, तदा स कुम्भकारः साधुसिया ततो निष्कासित उपस्मिन् मा गतः, तत्र षष्टिसह सजना दग्धाः, उत्पन्ना विराविषये ऽन्तिम ग्राम कोइसित्वेन ताः कोद्रय एकत्र पुष्जीभूताः स्थिताः सन्ति, तत्रैकः करी समायातः तच्चरणेन ताः सर्वा अपि मईितास्ततो मृतास्ते नानाविधासु सुखदुःखमवरासु योनिषु सुचिरं परिभ्रम्य अनन्तरभये किञ्चित् शुभकर्म उपायसगरच क्रिसुतत्वेनोत्पन्नाः षष्टिसहस्रप्रमाणा अपि ते तकर्मशेषवशेन तादृशं मरणं व्यसनं प्राप्ताः । सोऽपि कुम्भकारस्तदा स्वायुःक्षये मृत्वा एकस्मिन् सनिवेशे धनसमृद्धो वणिग् जातः । तत्र कृतसुकृतः सञ्जातो मृत्या - रपतिस्तत्र शुभानुबन्धेन शुभकम्मोदयेन प्रतिपक्ष मुनिः शुद्धं धर्म च परिपाल्य ततो मृत्वा सुरलोकं गतः । ततश्च्युतस्त्वं जह्रुसुतो जातः । इदं भागीरथः श्रुत्वा संवेगमुपागतस्तमतिशयहानिनं नत्वा गतः स्वभवनम् इदं भगीरधिपृच्छा संविधानके प्रसकृत उक्तम् । इति सगरष्टान्तः ॥ ३५ ॥ उत्त० १८ अ० ।
सगराय शकराज पुं० [शकाव्यम्लेच्छ्जातीये राजनि यदा कालिकाचार्येण शका ग्रामीतास्तदा उज्जयिन्यां न गर्यो शको राजा जातः । व्य० १० उ० । सुगल-सकल-षि समस्ते, उत०५० शेषेषिशे० । नि० चू० । प्रज्ञा० ।
। ।
शकल- पुं । खराडे, एकभागे, स्वचि, वल्कले, वाय० । सगलजणसमक्ख-सकलजनसमक्ष -म० । समस्तलोकप्रकडे, जी० १ प्रति०।
सगलसुवणाथि (न्) -सकलभूतज्ञानिन् पुं० [सक-समस्तं चतुर्वशपूर्वात्मकं जानातीति सकलभूतानी चतुर्दशपूर्वधरे, पं० भा० १ कल्प | पं० ० सगलाएस-सकलादेश-पुं० । प्रतिपक्षानन्तधर्मात्मकवस्तुना कालादिभिरमेवकृति प्रधान्यादभेदोपचारा या योगन प्रतिपादके वचसि स्था० । सगीय स्वकीय-त्रि आत्मीयतावादी आ
,
"
आचा० ।
सगुखरस्सि सगुयरश्मि पुं० श्रात्मीयगुणश्मी भए०१८
अष्ट० ।
सगुरुभावगुरुपय-स्वगुर्वनुज्ञातगुरुपद पुं०। गुरुच्छनायकेनानुज्ञातं गुरुपदं यस्य सः । स्वाचार्येण समारोपिते गुरुपदवीके, ध० ३ अधि० । सगुरुजोयण- स्वगुरुयोजन १० । स्वगुरुभिरात्मीयज्योंजनः सम्बन्धः । आत्मीयैः सह चित् योगे योगे, पो० ३ बिब० ।
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(२६६) सग्ग . .. ' अभिधानराजेन्द्रः।
सचित्तचूडा सग्ग-सर्ग-पुं० । स्वर्गादिसृष्टौ, योबिं ।
द्वीन्द्रियादयस्तदभावादचराः-पृथिव्यावयः, ते जीवाश्च तेषां ' स्वक-पुं० । भात्मीये , उत्त० २०१०।
दया-रक्षणं तया सहितो-युक्तोऽन्वित इति । त्रसस्थावरहिस्वर्ग-पुं० । देवलोके, आव० ६०।" अविग्घेण सग्गं
साविरते, दर्श०४ तत्त्व। गमिस्सामो।" औ०। देवालये , दर्श०४ तस्व ।
सचाव-सचाप-त्रि० । सह चापं येषां ते सचापाः । जी०४ सग्गइ-सद्गति-स्त्री० । मोक्षगतौ , उत्त० २० ।
प्रति०३ अधिकारा। "क-ग-व-ज-त--प-य-वां प्रायो सग्गंथ--सद्ग्रन्थ-पुं०। संश्चासौ प्रथश्च सद्ग्रन्थः। शोभ
लुक" ॥८।१।१७७ ॥ अत्र प्रायोग्रहणान्न लुक । धानुष्केषु,
प्रा०। चापसहिते, "सचावसरपहरणावरणभरियजुखसजा. नग्रन्थे, उत्त० २५५० । परिग्रहपहिले, “सहिरनगा सग्गंथा
ण" ति-सह चापैः शरैश्च यानि प्रहरणानि कुन्तादीनि मा• अहिरनगा समणा।" वृ०१ उ०२ प्रक०।
परणानि च स्फुरकादीनि तेषां भरिता युद्धसज्जाश्चसग्गकंखिय-स्वर्गकाशिक-पुं० । स्वर्गे-देवलोके का
युद्धप्रगुणा येते तथा तेषाम् । भ०९ श० ३३ उ० । “सका-यस्यासौ स्वर्गकालिकः । स्वर्गगमनासक्तेषु, तं० । चावसरपहरणावरणभरियजोहजुद्धसज्ज" सह चापं शरैसग्गकामय-स्वर्गकामक-पुं० । स्वर्गे-देवलोके कामो यस्य र्यानि प्रहरणानि-खड्गादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि स स्वर्गकामः । स्वर्गगमनेच्छौ, तं।
तेषां भृतोऽत एव योजानां युद्धसज्जश्व-युद्धप्रगुखो यः स सग्गवार-स्वर्गद्वार-न० । अयोध्यायां सरयूतटे घट्टभेदे, तथा तम् । भ०१७ श० १६ उ०।
अयोध्यायां"सग्गवारन्ति पसिद्धमायनो "ती०१३कल्प।सचिट्ठ-सचेष्ट-त्रि० । सव्यापारे, आव० ३ ०।सग्गपिपासिय-स्वर्गपिपासित-पुं० । स्वर्गे-देवलोके पिपासा सचित्त-सचित्त-त्रि० । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तम् । प्राप्तऽवृप्तिर्यस्यासौ स्थर्गपिपासितः । स्वर्गगममसतृष्णे,तं०।।
जीवति, भाष०४०। चित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोऽवधा सग्गप्पभा-स्वर्गप्रभा-स्त्री० रुचकपर्षतस्य पश्चिमदिग्यास्त
नमिति पर्यायाः । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तम् । मा.
घ०१० सचेतने, सूत्र०२ श्रु०१०। 'जीवजुत्तं व्वं व्यायां दिकुमार्याम् , दी।
सचेयणं ।' मि० चू०१ उ० । सचेतनद्रव्ये, पश्चा० १० विष०। सम्गह-सग्रह-न० । प्रहाधिष्ठिते नक्षत्रे, विशः । यत् रग्रहे.
ध०। प्राय० । सूत्र अनु० । भ०। ('उपभोगपरिभोग' णाकान्तं तत्सग्रहम् । व्य०१ उ०। पं०प०। भौमाविकरग्र- शब्दे द्वितीयभागे ६०२ पृष्ठे सचित्ततालफलाद्यग्रहणम् । होपयुक्त नक्षत्रे, जीत० । (भत्रया वक्तव्यता' भाषसुद्धि' पलंब शब्दे पश्चमभागे ७१० पृष्ठे च उक्तम् ।) ('माम' शब्दे ---- . शम्ने पश्चमभागे उक्ला ।) क्रूरग्रहेणाकान्तं सग्रहम् । नि० द्वितीयभागे २८७ पृष्ठे संचित्ताऽऽम्रफलग्रहण निषिसम् ।) चू०२० उ०।
विद्यमानचैतम्ये, (सचित्तप्रतिमा 'उयासगपडिमा 'शध्ये स्वाग्रह-पुं० । स्वकीयाभिनिविशे भागमापारतन्त्र्ये, पञ्चा० द्वितीयभाग ११०६ पृष्ठ उता । ) पृथिव्यादिषु जीयेषु, पा१२ विषः।
तु०। (सचित्तानि दारुदण्डादीनि न गृहातीति 'वंड' शम्दे सग्गहजुत्त-स्वाग्रहयुक्त-त्रिकामशास्त्रीयानुष्ठानाभिनिवेशो- चतुर्थभागे २४२१ पृष्ठे प्रत्यपादि।) सचिनेनुखएडानि-प्रथ . पेते, पश्चा० १३ विव०।
पण्डितवानरगणिशिष्यपरिडताऽऽनन्दविजयगणिकृतप्रश्नी । सग्गापवग्गमग्गमग्गंत-स्वर्गापवर्गमार्गमार्गयत-त्रिका स्वव
यथा-करम्बके तके वा प्रक्षिप्त सचिन जीरकमचित्तीभव- गो-देवालयः अपवर्गो-मोक्षस्तयोर्मार्गः-पन्यास्त मार्ग
ति न था ?, यदि षा-प्रचितीभवति तर्हि घटिकाद्वयावा,
प्रहरत्रयाद्वा राज्यतिक्रमाद्वा, भवति ॥१॥ तथा रखयति-अन्वेषयति यः सः । स्वर्गमोक्षान्येषके,दर्श० ४ तस्व ।
राडानि छिनपर्वाणि सचित्तान्यचित्तानि या, घटिकाद्वयात् सग्गुण-सद्गुण-त्रि० । सन्तो-विद्यमामा गुणा यस्यासो
सचित्तपरिहारिगृहस्थस्य तु कल्पते न था!, अथैतयोः प्र. सद्गुणः । शोभनगुणे, ध०३ अधि० । । स्था। श्नयोर्यथाक्रमं प्रतिवचसी-करम्बकादौ क्षिप्त सचिसजीरकं सग्घ-श्लाध्य-त्रि० । प्रशस्ते , सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ०। प्रासुकं न भवतीति हातमस्ति ॥१॥ तथेचुखण्डानि छिनपर्वाविशे० । नि० चू०।
एयपि सचित्तानीनि ज्ञायते ॥१२॥ ही०२ प्रका० । शुष्कं लशुनं सघर-सगृह-त्रि० । सह गृहेण वर्तते इति सगृहः ।
सचिसं वाऽचित्तं वा श्रद्धीयत !, यद्यचि तर्हि तथाविध
कारणे तदषधं पार्षवर्गे कार्यते न वा इति ?, प्रश्नः, अत्रोगृहसहिते , नि० चू०१ उ० ।
तरम्-शुष्कलशुनमाचिसं सम्भाव्यते, तेन तथाविधकारणे स्वगृह-न० । स्वकीयगृहे, नि० चू० १ उ० ।
श्रार्षवर्गस्यापि करणे ऐकान्तिको निषेधो नास्तीति मन्तसघरमीसय-स्वग्रहमिश्रक-त्रि०ागृहस्य साधूनां चाथोंय नि- व्यम ॥५८॥ सन०१ उजा। पिते, वृ०१ उ०२ प्रक०।
सचित्तकम्म-सचित्रकर्मन-त्रि० । चित्रकर्मणा संयुक्ने, पृ०१ सचक-सचक्र-त्रि० । चक्रयोधिनि वासुदेवे,आव० १ १०।
उ०३ प्रक०। (सचित्रकर्मोपाश्रये न स्थातव्यमिति 'यसहि' स्वचक्र-न० । स्वकीयराज्यसैन्ये, स० ३१ सम० । प्राचा०।
शब्दे षष्ठभागे ६५३ । ६५४ पृष्ठं गतम् ।) सचराचरजीवदयासहिय-सचराचरजीवदयासहित-त्रि०ाच- सचित्तचूडा-सचित्रचूडा-स्त्री० । कुकुटचूलायाम् , नि० चू० रणं चरस्ततः सह चरेण-गमनेन वर्तन्त इति सचरा १ उ०।
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सचित्त लिक्वा
सचितणिक्खेवण- सचिन निक्षेपण न० सचितेषु ब्रह्मा
दिषु निक्षेपणम् श्रनादेरादानबुद्धया मातृस्थानतः अन्यत्र स्थापने, उपा० २ श्र० । ध० । श्राव० । ६० ।
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सचित्तदवियकप्प-सचितद्रव्यकल्प--पुं० । सचित्तद्रव्यसामाचार्याम् पं० भा० १ कल्प । सचिनपइडिय सचिचप्रतिष्ठितत्र सतिषु वर्तमा ने, नि० पृ० १ ० । (सचिन प्रतिष्ठितं गन्धं जिघ्रतीत्युकं गंध' शब्दे तृतीयभागे ७६६ पृष्ठे । ) सचिनपडिबद्ध - सचितप्रतिबद्ध-त्रि० । सह चित्तेन चेतनया वर्तते यस्तथोक्तस्तेन प्रतिबद्धः । सचित्तसम्बद्धे, ध०२ अधि०/ सचितपडिबद्धाहार--सचित्तप्रतिबद्धाऽऽहार-- पुं०/ सचिते वृक्षादौ प्रतिबद्धस्य गुम्दादेरभ्यवहरणे, सचित्तेऽस्थिके प्रतिबद्धे पक्केऽचेतने फलादिके, उपा० १ ० । श्राव० । कृतसचित्तव्याख्यानस्य कृततत्परिमाणस्य वा सचित्तमतिरिक्तमनोयोगादिनाऽभ्यवहरतः श्राहारे, ध०२ अधि० ।
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सचितपडिमा सचिनप्रतिमा स्त्री० सम्यां श्रावकप्रति मायाम्, सचित्ताहारान् परिहरतीति सप्तमी उपाशकप्रतिमा दर्शिता । ध० २ अधि० । सचितपरिष्मा - सचित्त (परि) प्रतिज्ञा स्त्री० सचिताहाररित्यागे ० ० ४० सचेतनाहारप्रतिज्ञातः भाकः सप्तमीप्रतिमेति । स० ११ सम० । सचितपेहण-- सचित्तपिधान- न० । सचित्तेन फलादिना स्थगने, पञ्चा० १ वि० । उस० । श्राष० । ६० । सचितरयम- सचित्तर जम्न० सचिनधुली, सचितरजोनाम-यवहारसमन्विता वातोद्धृतास्तिथ सचि तरजो वर्त्यते । व्य० ७ उ० प्र० । सचिचरससंजय-सचितरससंयुत वि० तत्काल पतितत्वेन सचेतनलादिरसोधि पञ्चा० १० वि० सचिनरुक्ख सचिन पुं० हरित, अशु
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( २७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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चू० १२ ४० प्राणहरानागतो दृष्ट्रा स्तम्भनविद्या नही पूरादिकं स्वस्नीयात् विद्याया अभावे फ्लायेत् पलायनासमर्थश्च श्रान्तो वा सचित्तवृक्षमप्यारोहेत् दोषः । सचितवृक्षमधिष्ठाय नाहारः कार्यः । जीन० | सचितविगह-सचिवकृति विकृतिषु सेन अप्रासुको दकमोदकादिकं सचित्तविकृतिमध्ये रयते - यमध्ये येति प्रश्नः १ अत्रोर-आजविधी सविनयकृतिवर्ज यन्मुखं क्षिप्यते तद् द्रव्यमध्ये गण्यते इति वचनास्प्रासुकनीरोष्णोदकतन्दुलधावनोदकादीनां सचित्तत्वाभा वाद्यनं मुमोदकमै पजलड़कनिर्विकृतनाभावाद्द्रव्यमध्ये तिथे कस्मिपि द्रव्ये पालिका होमपलिका लह-सतपुड कागडादिभेदेन भिन्ननामरस्यस्वात् पृथक पृथकव्यमध्ये गण्यते श्रप्रासुकजलमोदकादिकं तु सचित्तविकतिमध्ये गत्पते अथना केचन इयमध्येऽपि गणयन्तो दृश्यन्ते किञ्चरूप्यादिधातुशिलाकादिमुद् यमध्ये नगरायते रसास्वादभावात्॥६२॥ सेन०३ उ०
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सत्रेण
सचित्तमम्मिस्साऽऽहार- सचित्तसंमिश्राऽऽहार-पुं० । सखि - सेन संमिधः आहारः सचित्तमिश्राहारः। बल्ल्यादिपुष्पादिना संमिश्रे श्राहारे, आव० ६ श्र० । सचित्ताहार-सचित्ताहार - पुं० । पृथिव्यप्कायवनस्पतिजीवशरीराणां सचेतनानामभ्यवहरणे, उपा० १ ० आ० । सचित्ताहारः - सचित्तं चेतना संज्ञानमुपयोगोऽवधानमिति पर्यायाः सचिन थासाबाहार अंति समासः, सवितो वाऽऽ हारो यस्य सचित्तमाहारयतीति वा मूलकन्दलीकन्दकाईकादिसाधारणप्रत्येकतरुशरीराणि सचितानि सचितं पृधिव्यायाहारयतीति भावना तथा सचितप्रतिवदाहारो यथा वृक्षे प्रतिबद्धो गुन्दादि पक्कफलानि वा । तथा-अपकोभिक्षयमिदं प्रतीतं सचितसमिधाहार इति वा पाठान्तरम् - सचित्तेन सम्मिश्र श्राहारः सचित्तसम्मिश्राहारः, बल्ल्यादि पुष्पादि वा सम्मिश्रं तथा दुष्पकौषधिभक्षपता - दुष्पक्का - अस्विन्ना इत्यर्थः, तद्भक्षणता तथा तुच्छौपधिभक्षणता । श्राव० ६ अ० । ध० २० ।
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सथिनाहारवजण सचिताहारवर्जन् १० सचितारणपरित्याग, सचित्ताहारवर्जनप्रतिमा सप्तम्युपासकप्रतिमा । उपा० १ ० ॥
सचिव सचिव पुं० सहाये, पो० ४ विष० ।
सचेयस सचेतन त्रि० विवेकिनि खाचा० १ ० ३ ० १ उ० । अशस्त्रोपहते पृथिव्यादिचतुष्के,
शस्त्रोपहतानि च पृथिव्यऽप्तेजोवा युलक्षणानि चत्वारि भूतानि सचेतनानि श्रतः पराभिप्रायमा तेषां संतनत्यं सिसाधयिषुराह
किह सजीवाइँ मई, तलिङ्गाऽनिलावसाणाई | वोमं विमुत्तिभावा- दाधारो चेव न सजीवं ।। १७५२ ।। कथं पुनः सह जीवेन वर्त्तन्त इति सजीवानि भूतानि ? इति परस्य श्रमतिः स्यात् । श्रत्रोच्यते - तस्य जीवस्य लिङ्गं तल्लिनं तस्मात् तदुपलब्धेरित्यर्थः, सचेतनान्यनिलाबखानानि चत्वारि भूतानि व्योमपगतमूर्तिभावादाधार एव, न तु सजीवमिति ।
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ताित् इत्युक्रम्, तत्र पृथिव्याः सजक लिङ्गम् ? इत्याहजम्मजराजीवणमर - खरोहणाहारदोहलामयओ | रोगतिगच्छाईहि य, नारि ब्य सचेपणा तरवो।। १७५३ ।। सचेतनास्तरः- इति प्रतिक्षा जन्म-जरा-जीवन-मरण-क्षतसंरोहणा -ऽऽहार-दौहृदा-ऽऽमय-तचिकित्सादिसद्भावात् इति हेतुः । नारीवत्-इति दृष्टान्तः । श्रहनम्यनैकान्तिकोऽयम् अचेतनेष्यपि जन्मादिव्यपदेशार्थनात् तथा हि-' जातं तद् दधि इति व्यपदिश्यते, न चैतत् सचेतनम् तथा जीवितं विषम्मूर्त कु म्भकम् ' इत्यादि । अत्रोच्यते-घनस्पती सर्वाण्यपि सचेतनलिङ्गानि जन्मादन्युपलभ्यन्ते, अतो मनुष्येष्विव तानि तेषु निरुपचरितानि दध्यादौ तु प्रतिनियत एव कचिजातादिव्यपदेशो दृश्यते स बोपचारिक एचजातमिव जातं दधि, मृतमिव कुसुम्भकमित्यादि । मृतं
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(२७१) सचेयण
अभिधानराजेन्द्रः। वनस्पतेरेव सचेतनत्वसाधने हेत्वन्तराण्यप्याह
सत्थासत्थहयाओ, निजीवसजीवरूवाओ ।। २७५६ ॥ छिक्कपरोइया छिक-मेत्तसंकोयो कुलिंगो व्व ।
पृथिव्याद्यनिलान्तानि चत्वारि भूतानि जीवनिर्तितास्तप्रासयसंचाराओ, वियत्त वल्लीवियाणाई ॥१७५४॥ दाधारभूतास्तनव इति प्रतिज्ञा, श्रभ्रादिविकारादन्यत्वे ससम्मादयो य साव-प्पवोहसंकोयणाइभोऽभिमया । ति मूर्तजातित्वात् , गवादिशरीरवत् । अभ्रादिविकारस्तु बउलादो य सद्दा-इविसयकालोवलंभाप्रो ।१७५०
विनसापरिणतपुद्गलसंघातरूपत्वेनाचेतनत्वाद् वर्जितः।ता
श्व पृथिव्यादितनवः शस्त्रोपहता निर्जीवाः, अशस्त्रोपहतास्तु सचेतनाः स्पृष्टप्ररोदिकादयो वनस्पतयः, स्पृष्टमात्रसं
सजीवा वर्णगन्धरसादिलक्षणतः समवसेया इति । विशे०। कोचात् , कुलिङ्ग:-कीटादिस्तद्वत् । तथा, सचेतना चल्ल्यादयः , स्वरक्षार्थ वृत्ति-वृक्ष-वरण्डकाद्याश्रयं प्रति
सचेलय-सेचलक-पुं०। चेलान्विते, उत्त०२०। संचरणात् । तथा-शम्यादयश्चतनत्वेनाभिमताः, स्वाप- सचेलिया-सचेलिका-स्त्री०। सवस्त्रायां निर्ग्रन्थ्याम , स्था० प्रबोध-संकोचादिमरवात् , देवदत्तवत् । तथा , सचेत- ५ ठा०२ उ० । ना वकुलाऽशोककुरुबकविरहकचम्पकतिलकादयः , श
सच्च-सत्य-न० । सन्तः प्राणिनः पदार्थाः मुनयो वा तेभ्यो ब्दादिविषयकालोपलम्भात्-शब्दरूपगन्धरसस्पर्शविषया
हितं सत्यम् । पा० । आव० । स्था० । प्रथ० । सम्तो-मुनयः णां काले प्रस्तावे उपभोगस्य यथासंख्यमुपलम्भादित्यर्थः, यज्ञदत्तवदिति । एवं पूर्वमपि दौहृदादिलिङ्गेषु कूष्मा
पदार्था वा जीवादयस्तेषु यथासंख्य मुक्तिप्रापकत्वेन यथाव
स्थितवस्तुस्वरूपचिन्तनेन साधु-सत्यम् , यथा अस्ति जीवः एडीबीजपूरकादयो वनस्पतिविशेषाः पक्षीकर्तव्या इति । अथ सामान्येन तरूणां पृथ्वीविशेषाणां च विद्रु
सदसद्पो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविमादीनां सचेतनत्वसाधनायाऽऽह
कल्पनचिन्तनपरम् । प्रव० २२७ द्वार । पं० सं०। श्रा०चू।
'त्योऽचैत्ये" ॥८।२।१३॥ इति त्यस्य चः। प्रा० । यथावमंसंकुरो ब्व सामा-णजाइरूवंकुरोवलंभाओ ।
स्थितवस्तुस्वरूपकथने, त्रिविधं सत्यम्-मनोवाक्सत्यम् , तरुगणविदुमलवणो-वलादो सासयावत्था ।१७५६।
मनःकायसत्यम् , वाकायसत्यं चेति । ध०३ अधिक। तरुगणः , तथा विद्रुमलवणोपलादयश्च स्वाश्रयाव
चतुर्विधं सत्यम्स्थाः-स्वजन्मस्थानगताः सन्तश्चेतना । छिन्नानामप्यमीषां पुनस्तत्स्थान
'चउबिहे सच्चे पमत्ते, तं जहा-णामसच्चे ठावणासच्चे एव समानजातीयाङ्करोस्थानात् , अर्शो मांसारवत् । श्राह-ननु पृथिव्या
दवसच्चे भावसच्चे । (सू० ३०८) दिभूतानामिह संचेतनत्वं साधयितुमारब्धम् ,ततः पृथिव्या नामस्थापनासत्ये सुशाने द्रव्यसत्यमनुपयुक्तस्य सत्यमपिएवादी तत् साधयितुं युक्तम् ,तस्या एवादावुपन्यासात ,त- भावसत्यं तु यत् स्वपरानुपरोधेनोपयुक्तस्यति । स्था० ४ त्किमिति 'जम्मजराजीवण-' इत्यादिना तरूणामेवादी ठा०२ उ०। तत् साधितम् , पश्चात्तु विमलवणोपलादीनामिति ? चउबिहे सच्चे पएणत्ते, तं जहा-काउज्जुयया भासुसत्यम् , किन्तु पृथ्वीविकारतया पृथ्वीभूत एव तरू
ज्जुयया भावुज्जुयया अविसंवायणाजोगे । (मू०२५४x) णामन्तर्भावो लोकप्रसिद्धः, सुव्यक्तचैतम्यलिङ्गाश्च यथा त
( स्था० ४ ठा० १ उ० । ) सद्भ्यो हितं सत्यम्-अनलीकम , रवा न तथा लवणोपलजलादय इति तेषामेवादौ चैतन्यं
तच्चतुर्विधम् , यतोऽवाचि-"अविसंवादनयोगः, कायमनोसाधितमिति ।
वाजिह्मता चैव । सत्यं चतुर्विधं त-च जिनवरमतेऽअथोदकस्य सचेतनत्वं साधयितुमाह
स्ति नान्यत्र ॥१॥” इति । स्था०५ ठा०१ उ० । भूमिक्खयसाभाविय, संभवो ददुरो ब्व जलमुत्तं ।
दशविधं सत्यम्अहवा मच्छो व सभा-व वोमसंभूयपायाओ ॥१७५७।। दसविहे सच्चे पएणत्ते, तं जहा-'जणवय सम्मये ठेवण भौममम्भः सचेतनमुक्तम् , क्षतभूमिसजातीयस्वाभाविक- नामें रूवे पडुच्च सच्चे य । ववहार भाव जोगे, दसमे प्रोस्य तस्य संभवात् ,दर्दुरवत् अथवा-सचेतनमन्तरिक्षमम्भः,
वम्मसच्चे” य ॥१॥( स्था०) दसविहे सच्चामोसे पएणत्ते , अभ्रादिविकारस्वभावसंभूतपातात् ,मत्स्यवदिति । तेजोऽनिलावधिकृत्याऽऽह
तं जहा-उत्पन्नमीसते १, विगतमीसते २, उप्पएणविअपरप्पेरितिया,नियमियदिग्गमणोऽणिलो गो व्व । गतमीसते ३, जीवमीसए ४, अजीवमीसए ५, जीवाअनलो आहाराअो,विद्धिविगारोवलम्भाओ ॥१७५८॥ जीवमीसए ६, अणंतमीसए ७, परित्तमीसए ८, अद्धासात्मका वायुः, अपरप्रेरिततिर्यगनियमितदिग्गमनात् , मीसए है, अद्भुद्धामीसए १० । (सू० ०४१४) गोवत् । तथा-सात्मकं तेजः, आहारोपादानात् , तद्वृद्धौ 'दसविहे ' त्यादि , सन्तः-प्राणिनः पदार्था मुनयो वा विकारविशोपलम्भाञ्च, नरवत् । गाथावधानुलोम्याश्च व्य. तेभ्यो हितं सत्यं दशविधं तत्प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-' जणवत्ययनापन्यास इति ।
य' गाहा , 'जणवय' ति-सत्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बतवं पृथिव्यादीनां प्रत्येक सचेतनत्वं प्रसाध्येदानीं म्धनीयः , ततश्च-जनपदेषु-देशेषु यद्यदर्थवाचकतया रू_ सर्वेषां सामान्येन तत् साधयन्नाह
ढं दशान्तरऽपि तत्तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्यमतणवोष्णन्भाइविगा-रमुत जाइत्तोऽणिलंताई। वितथमिति जनपदसत्यम् , यथा कोकणादिषु पयः पिच्चं
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सथ
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नीरम् - उदकमित्यादि, सत्यत्वं चास्यादुष्टविवाहेतुत्वाआनाजनपदेष्विार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात् व्यवहारप्रवृत्तेः • एवं शेषेष्वपि भावना कार्येति । 'समय' ति-संमतं च तत् सत्यं वेति सम्मतसत्यं, तथाहि — कुमुद कुबलयो - पतामरसानां समाने पसम्भवे गोपालानामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति; अतस्तत्र संगततया पङ्कजशब्दः सत्यः यादवसत्यो ऽसंमतत्वादिति । 'ठवण ' शिखाप्यत इति स्थापना यलेप्यादिकर्मादादिविक स्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यम् यथा अजिनोऽपि जिनोऽयमनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति । 'नामे' सि -- नाम- अभिधानं तत्सत्यं नामसत्यम् यथा कुलमबअपि कुलवर्द्धन उच्यते, एवं धनवर्जन इति । रुबे सि - रूपापेक्षया सत्यं रूपसत्यम्, यथा प्रपञ्चयतिः प्रअजति रूपं धारयन् प्रवजित उच्यते, न चासत्यताऽस्येति । पच सय प्रितीत्य-आधिपत्यन्तरं सत्यं प्रतीत्य सत्यम्, यथा- अनामिकाया दीर्घत्वं ह्रस्वत्वं चेति, तथाहि तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणनिधाने तद्रूपमभिष्यश्यत इति सत्यता । ववहारति - व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यम्, तथा दह्यते गिरिः, गलति भाजनम्, अयं च गिरिगततृयादिदा व्यबहारः प्रवर्तते, उदके व गलति सतीति । 'भाव' सि-भायं भूषिकाविषयमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम्, यथा शुक्ला बलाकेति, सत्यपि हि पश्चवर्णसम्भवे शुक्लवर्णोत्कउत्पाद राजेति जोगे योगतः सम्बन्धः योगसत्यम्, यथा दण्डयोमा दण्ड, बोच्यत इति । दशममौपम्य सत्यमिति उपमैवौपम्य तेन सत्यमीपम्यसत्यं यथा समुद्रमतडागं देवोऽयं सत्यमिति, सर्वकारः प्रथमैकपचनार्थी द्रष्टव्य इहेति । (स्था० ) सत्यासत्ययोग मित्र वचनं तीति तदा इत्यादि, सत्यं च तन्मृषा चेति प्राकृतत्वात् सचामोतिउ व्यचमीस - उत्पन्नविषयं मिर्च- सत्याचा उत्पन्न मिश्रं तदेवोत्पन्नमिश्रकम्, यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिनच दश दारका उत्पन्ना इत्यभिदधतस्तम्न्यूनाधिकभावे व्ययहारतोऽस्य सत्यमृषात्वात् श्वस्ले शतं दास्यामीत्यभिधाय पश्चाशत्यपि इलायां लोके सुपात्यादावनुत्प
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यादव यामुपात्यसिडेः सर्वथाऽक्रियाभावेन स पंचा व्यत्ययाद्, एवं विगतादिष्वपि भावनीयमिति १, 'विगतमीसद विगतविष मिश्रकं विगतमिश्रकम वधकं प्राममधिकृत्यास्मिन र वृद्धा बिगता इत्यभि दधतो यूनाधिकभावे मिश्रमिति २ उपपन्नविगयमीसमिप विगतं च उत्पन्नधिगते मि कम् उत्पन्नधिगत मिश्रकम्, यथैकं पत्तनमधिकृत्यास्मिअद्य दश दारका जाताः दश च वृद्धा विगता इत्यभिदधतस्तम्भ्यूनाधिकभावइति ३ जीवमीसए नि-जीवविषयं मिर्ध सत्यासत्यं जीवमित्रम् यथा जीवनसूतकमिराशी जीवराशिरिति ४ अजीवमीस सि-जीवानाश्रित्य मिश्रमजीवमिश्रम्, यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतमिराशायीवराशििित ५ जीवाजीव मिस्सर -ि'जीवाजीव मिश्रकं जीवाजीव मिश्रकम् यथा तस्मि
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(२७२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सच
जीवन्मृतमिराशी प्रमाणनियमेतावन्तो जीवन्येतावन्तध मृता इत्यभिद्धतस्तम्भ्यूनाधिकत्वे ६, 'अतमी - अनन्तविषयं किमनन्तमिश्रकं यथा मूलकन्दा परी
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पत्रादिमत्यनन्तकायो ऽयमित्यभिदधतः ७, 'परितमिस्सर' ति- परीतविषयं मिश्रकं परीतमिश्रकं यथा अनन्तका यलेशषति परीने परीतोऽयमित्यभिदधतः ८ ' श्रद्धामिइस कालविषये सत्यासत्यं यथा कश्चित् कस्मैिश्चित्प्रयोजने सहायास्त्वरयन् परिणतप्राये वा वासरे एवं रजमी वर्तत इति प्रीति मीस दिवस रजनी वा तदेकदेशः प्रहरादिः अद्धाद्धाः तद्विषयं मिश्रकं सत्यासत्यम् अयायामिश्रकम् यथा कि
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जने प्रहरमात्र एष मध्याह्न इत्याह । स्था० १० ठा० ३ उ० । संथा०| प्रथ० । प्रश्न० । वचनविशेषे, शा० १ ०१ अ०] - aro । मृषावादविरतौ, प्रव० ६६ द्वार। स्था० । प्रश्न० | सर्वथा लोकपरिहरणे, दर्श० २ तव । स० । अवितथे, सूत्र० १५० १२ अ० सङ्गयो हितं सत्यम् सुगतिगमनादिसंवादनात् सर्वशोपदेशाच्च सत्यम् । तथ्ये, भावा० १५०८ श्र० ६ उ० । विशे० । शा० ।
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समिक्ष पंडिए तम्हा, पासजाइपहे बहू ।
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अप्पया सबेमेसेजा, मिर्ति भए कप्पर ||१२|| तस्मादज्ञानिनां मिथ्यात्वनां संसारभ्रमणत्वात् परितःतस्वशः श्रात्मना - स्वयमेव परोपदेशं विनैव सत्यमेषयेत्, सङ्गयो हितं सत्यम् अर्थात् संयमम् अभिपेत् पुनः पण्डितो भूतेषु पृथिव्यादिषु पदकायेषु मैत्री कल्पयेत् किं कृत्वा ?, बहून् पासजातिपथान् समीक्ष्य पाशाः पारवश्यहेतवः पुत्रफलादिसम्बन्धास्ते एव मोहहेतुतया एकेन्द्रियादिजातीनां पन्थानः पाशजातिपथास्तान् पाशजातिपथान् दृष्ट्वा यदा हि पुत्रकलत्रादिषु मोहं करोति तदा हि एकेन्द्रियत्वं जीवो बध्नाति । उत्त० ६ श्र० । सूत्र० । तर्हि तर्हि सुक्खायं से य सच्चे सुधाहिए । सया सचेण संपले, मित्ति भूएहिं कप्पए || ३ || रागद्वेषमोहानामकारणानामसंमशन सदस्यो
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या सत्यः स्वाख्यातः- तत्स्वरूपविद्भिः प्रतिपादितः । रागादयो धनुतकारणं ते च तस्य न सन्ति, अतः कारणाभाचारकार्याभाष इति कृत्या तो भूतार्थप्रतिपादकम् । तथा चोक्तम् - " वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते वचः । यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥ ननु च सर्वशत्यमन्तरेणापि देयोपादेयमापरिज्ञानादपि सत्यता भवत्येव । तथा चोक्तम्- " सर्व पश्यतु वा मावा, तस्यमि तु पश्यतु कीटर्स क्यापरिज्ञानं तस्य नः कोपयुज्यते ? ॥ १ ॥ " इत्याशङ्कयाह- सदा सर्वकालं सस्पेन - श्रवितथभाषणत्वेन संपन्नोऽसौ श्रवितथभाषणत्वं स सर्वशत्वे सति भवति नान्यथा । तथाहि - कीटसंख्यापरि ज्ञानासंभवे सर्वापरिज्ञानमाशयते तथा बोक्रम्- "स शेवाधाम क्षयमेव दूषितं स्यात् " इति सर्वश्रानाश्वासः, तस्मात्सर्वशत्वं तस्य भगवत एएव्यम्, अन्यथा तद्वचसः सदा सत्यता न स्यात् सत्यो वा संयमः सन्तः प्रानस्तेभ्यो हितत्वाद् अतस्तेन तपःप्रधा
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(२७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
मञ्च नेन संयमेन भूतार्थहितकारिणा सदा-सर्वकालं संपन्नो- न्ताया व्यापारयन् चेष्टमानो वा विधयेषु तपोध्यानादिषु युक्तः , एतद्गुणसंपन्नश्वासौ भूतेषु-जन्तुषु मैत्रीं-तद्रक्षण- 'एवं संवरमाणे' ति-उक्लवदेव मनः संवृण्वन्-मतापरतया भूतदयां कल्पयेत्-कुर्यात् । इदमुक्तं भवति-प- न्तरभ्यो निवर्तयन् प्राणातिपातादीन् वा प्रत्याचक्षाणो रमार्थतः स सर्ववस्तत्त्वदर्शितया यो भूतेषु मैत्री कल्प- जीव इति गम्यते , ' आणाए' त्ति-प्राशाया-झानायेत् , तथा चोक्तम्-"मातृवत्परदाराणि, परद्रव्याणि लोष्ट द्यासेवारूपजिनोपदेशस्य 'अाराहए' त्ति-बाराधकः-पाबत् । पात्मवत्सर्वभूतानि , यः पश्यति स पश्यति ॥१॥" लयिता भवतीति । भ०१ श० ३ उ०। ॥३॥सूत्र०१ श्रु०१५ १० । “ वरं कूपशताद्वापी , वरं वा
सचंसि परिचिढिसु । (सू०१४०x) पीशतारकतुः । घरं क्रतुशतात्पुत्रः , सत्यं पुत्रशताङ्करम्॥१॥" स्था०४ ठा०३ उ०।
सत्यमिति ऋतं तपः संयमो वा तत्र परिचिते स्थिरे तस्थुः
स्थितवन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता द्रव्या-तसधेसु वा प्रणव परं।
त्रातीत काले अनन्ता अपि सत्य तस्थुर्वर्तमाने पञ्चदशसु सत्येषु वाक्येषु यदमवयं-पीडानुत्पादकं वाक्यं सत् श्रेष्ठ स स्य-तदेव यरपरपीडानुत्पादकम् । यतः लोकेऽपि श्रूयते-वादः
कर्मभूमिषु संख्येयास्तिष्ठन्ति, अनागते अनन्ता अपि स्था
स्यन्ति । आचा०१ ध्रु० ४०३ उ० । स्यमादिप्रकारण तथाऽसस्येन कौशिकः "पतितो वधयुक्तन नरके तीवेदने"
अवितथोपदेपरि देवादिके,भ०१२श०८ उ०। श्री०। ('वियथा-" तहेष काणं काणि ति, पंडगं पंडग तिवा। वाहिनं
त्य' शब्दे षष्ठ भागे एतत्कथानकमुक्तम् ।) बाहिरोगि त्ति, चोरं चोरि ति नो बदे ॥१॥" सूत्र० दीपि०१ भु०६ मा राग सद्यो हितं सत्यम् । परमार्थे, यथावस्थि
सच्चमेव समभिजाणाहि सच्चस्स आणाए से उवाटिए तपदार्थनिरूपणे मोक्ष, तदुभयभूत संयम, सूत्र. १ श्रु०१२ मेहावी मारं तरइ । (सू०११८४) म०। उत्त० । स्था। नं० । व्य० । भ० । ध० । वृ० । स०। सभ्यो हितः सत्यः-संयमस्तमवापरब्यापारनिरपेक्षः सच्चम्मि धिई कुव्वहा (सू० ११२४)
समभिजानीहि---आसवनापरिक्षया समनुतिष्ठ,यदि वा-स'सच्चे' इत्यादि, सणे हितः सत्यः-संयमस्तत्र धृति स्यमेघ समभिजानीहि-गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिशानिर्वाहको भव। कुरुध्वं, सत्यो घा-मौनीन्द्रागमो यथावस्थितवस्तुस्वरू- यदि वा-सत्यः-श्रागमस्तत्परिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रतिपाविर्भावनात् । तत्र भगवदाज्ञायां धृति कुमार्गपरित्यागन पालनम् , किमर्थमतदिति चेदाह- सच्चस्स ' इत्यादि कुरुष्वमिति । प्राचा० १६० ३ १०२ उ०।
सत्यस्य श्रागमस्याज्ञयोपस्थितः सन् मेधायी मार-संसार तमेव सच्चं णीसकं जं जिणेहिं पवेइयं । (सू० १६२४)
तरति । श्राचा० १ श्रु० ३ ०३ उ० । शब्दानुशासनोपद'तमेव सच्चं' इत्यादि , यत्र कचित्स्वसमयपरसमय
शिते यथोक्तलक्षणेऽविपरीते वचने, प्रा० म०१०। (इदं शाचार्याभावात् सूचमव्यवहितातीन्द्रियपदार्थेषुभयसिद्धदृष्टा
च 'मुसावायवेरमरण' शब्दे पष्ठभागे ३२५ पृष्ठे विस्तरतः
प्रपश्चितम् ।) तसम्यग्हेत्वभावाच्च ज्ञानावरणीयोदयेन सम्यग्ज्ञानाभा. बेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावयेत् , यथा तदेवैकं
अथ द्वितीयवतलक्षणमाहसत्यम्-अबितथम् । श्राचा०१श्रु०५ १०५ उ०।
सर्वथा सर्वतोऽलीका-दप्रियाचाहितादपि। तत्सत्यतामेव दर्शयवाह
वचनाद्धि निवृत्तिर्या, वत्सत्यव्रतमुच्यते ॥४१॥ से नणं भंते ! तमेव सञ्चं णीसंकं, जिणेहि पवेइयं ?, हंता
सर्वतः क्रोधादिसकलप्रकारजनितात् अलीकाद्-असगोयमा! तमेव सञ्चं णीसंकंज जिणेहिं पवेदितं । (सू०३०) त्याच पुनरप्रियाद्-अप्रीतिकारिणः । तथा अहितादपि प्रा. 'से पूण' मित्यादि व्यक्तम् , नवरं तदेव न पुरुषान्तरैः यती अहितकारिणः न केवलम् अलीकादेवेत्यपिशब्दार्थः, प्रवेदितं रागाद्यपहतत्वेन तत्प्रवेदितस्यासत्यत्वसम्भवात् , एवंविधाद्वचनाद्या सर्वथा त्रिविधत्रिविधेन निवृत्तिर्विरसत्यम्-सूनृतं तच्च व्यावहारतोऽपि स्यादत आह-नि:
मण तत् सत्यं-सत्यवतमुच्यते जिनैरिति शेषः । ननु अशङ्कम्-अविद्यमानसन्देहमिति ।
लीकाद्वचनानिवृत्तिरित्यवास्तु सत्यव्रताधिकारात् किमअथ जिनप्रवेदितं सत्यमित्यभिप्रायवान् यादृशो भवति
प्रियाऽहितयांग्रहणं तयोरनधिकारात् ,इति चेत् : मैवं व्यवतदर्शयत्राह
हारतः सत्यस्यापि अप्रियस्याऽहितस्य च परमार्थतोऽसे नणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे एवं पकरेमाणे एवं
सत्यत्वात् , यथा-चौरं प्रति चौरस्त्वं, कुष्ठिनं प्रति कुष्ठी
त्वमिति,तदनियत्वान्न तथ्यम्-तथा च सूत्रम्-" तहेव काणं चिट्ठमाण एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति ?, हंता
काणत्ति,पंडगं पंडग त्ति श्र। वाहि वावि रागि ति, तसं गोयमा! एवं मणं धारेमाणे. जाव भवइ । (मू०३१)
चोरित्ति नो वए ॥१॥" अत एव पड् भापा अप्रशस्ता उसे नूण' मित्यादि व्यक्त्रम् , नवरं नूनं-निश्चितम् , वास्तथाहि-"हीलिअखिसिश्रफरसा, अलिपा तह गारह'एवं मणं धारेमाणे' चि तदेव सत्य निःशकं य- स्थिश्रा भासा । छठी पुण उवसंता-दिगरण उल्लाससंजणणी जिनैः प्रवेदितमित्यनेन प्रकारेण मनो-मानसमुत्पन्नं ॥१॥" इति तथा मृगयुभिः पृटस्यारण्ये मृगान् दृश्वतो मया सत धारयन-स्थिरीकर्वन् ' एवं पकरेमाणे' ति-उक्करू- मृगा दृष्टा इति तजन्तुघातहतुत्वान्न तथ्यम् । तथा चावं पेणानुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन-विदधानः 'एवं बिट्टेमाणे' ति- योगशास्त्र-"न सत्यमपि भाषेत, परपीडाकरं वचः। लोउक्लन्यायेन मनश्चेष्टयन् नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचि-। केपि श्रूयते यस्मात् , कौशिका नरकं गतः॥१॥" इति ।
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अभिधानराजेन्द्र ध०३ मधि०। प्राचा०। (सत्यवचने कालिकाचार्योदाहरणम् | जोगिणा भगिनो नाहडो, जत्थ गावीरक्षणाकुणतो 'उम्मग्गदेसणा' शब्दे द्वितीयभागे ८४५ पृष्ठे उक्तम् ।) रसदुग्धं कुलिसतरं पाससि तत्थ थिएईकाऊण ममं कअहोरात्रस्य दशमे मुहूसे, स०३० सम । ( सस्योऽसत्य- हिज्जासि । बालेण तह क्ति परिषरणं । अन्नया विपुजोश्चति चत्वारि पुरुषजातानि 'पुरिसजाय ' शब्दे पञ्चमभांग पण तं बढण जाणाविमं । जोगिणो दो षि गया तत्थ । तमो २०१८ पृष्ठ दर्शितानि ।)
लहुसविहाणेण अग्गि पज्जालिऊण तं रसक्खीरं तस्थ पक्खि. सार्च-त्रि० । सपूज्ये, अवितथे, जगत्पूजास्पदत्वात्तस्य । वित्ता जागिम्मि पयाहिण वितो, नाहरणावि पयक्खिणीकध०३ अधि० । प्रश्न ।
ओ अग्गी । कहिं चि जोगिगो चित्तविसि नाऊण दश-धा० । प्रेक्षणे, प्रा० । “दृशो निमच्छ-पेच्छावयच्छा. रायपुत्तेण सुमरिओ पंचनमुकारो! तप्पभाषण जोगी - वयज्झ-बज-सच्च-देक्खौअक्खावक्खाबनव-पुलो- पहवतो उक्विवित्र जलग खिसो नाहडेण, जामो सुपुल-निश्रावास-पासाः" ।।८।४।१८१ ।। अनेन दृशः घराणपुरिसी । तो चितिनं तेण अहो मंतस्स मास्थाने सच्चादेशः । सच्चा । पश्यति । प्रा० । (सत्यं । हप्पं । कहं नु तेसिं गुरुण एयस्स दायगाणं पच्चुवयकेन सह वक्तव्यम् इति 'भरह' शब्दे पश्चमभागे १४१६ | रिस्सामि त्ति आगंतुं पणया गुरुयो, सव्वं च तं सरूवं पृष्ठ गतम्।)
विएणतं । किंच श्राइसह त्ति भणियं , गुरुक्षयणाओ सच्चइ-सत्यकि-पुं० । निर्ग्रन्थीपुत्रे, स्था० ६ ठा०३ उ०। (त- उत्तुंगाई चउघीसं चेहआई कारिआई कमेण पत्तो परं स्य वक्तव्यता ‘णियंठिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे २०८६ पृष्ठे क
रजसिरिसेनसंभारेण गंतुं गहिरं पेइयं सटाणं । अनया थिता ।) या हि द्वादशस्तीर्थकृद भविष्यति । स । ती स्प
विनत्ता सिरिजजिगसूरिणो तेण, जहा भगवंतं किं शलोलुपे स्वनामख्याते पुत्रे, श्राचा०१ श्रु०३ अ० १ उ० ।
वि कजं आइसह जण तुझाणं मज्भ य कित्ती चिरकाल
पसरइत्ति । ता गुरूहि धेरणू चउहिं थणेहि जत्थ खीरं सच्चउर-सत्यपुर-न० । जम्बूद्वीपे भरतक्षत्रे मरुमण्डले स्व
झरह तं भूमि अब्भुदयकरं नाऊण तं ठाणं दंसि नामख्याते नगरे, ती।
रयो । तेण गुरुत्राएसणं सच्चउरे वीरमुक्खाओ छब्बी " पणमिय सिरिबीरजिणं, देवं सिरिबंभसंतिकयसेव।।
ससपहिं महंत कारिअं अभंलिहसिहरं चेइभं। तत्थ सञ्चउरतित्थकप्पं, जहासुग्रं किं पि जंमि ॥१॥
पइट्ठावित्रा पित्तलमई सिरिमहावीरपडिमा जजिगसू. सिरिनाहडनरवई, कारिअ जिणभवणिदेसदारुमए ।
रिहिं । जया पइट्ठाकरणत्थं पायरिया पट्टिा तया अंत. तरसवच्छरसहए, वीरजिणा जयउ सचउरे ॥२॥"
राले एगम्मि उत्तमलग्गे वहनामे नाहडरायपुयपुरिसइहेव जंबुद्दीवे दीवे भारह वासे मरुमंडले सच्चउरं नाम स्स विंझरायस्स आसाढरूढस्स मुत्तीए पट्टा कया । नयरं, तत्थ नाहडकारियं सिरिनज्जिगसूरिगणहरपट्टियं वीरम्मि लग्गे लग्गविसेसाउ मइच महीए जायाए पित्तलमयं सिरिवीरविवं चेहहरे अच्छइ । कहं नाहड- संखनामचिल्लएणं गुरुश्राएसाओ दंडधारण कूवो राहणा तं कारिश्रति । तस्स उप्पत्ती भरणइ । पुब्धि न- की अज्ज वि संखकृवो भसह । सो अराणया सुक्को वि डूलमंडलमंडणमंडोवरनयरस्स साभिं रायाणं बलवंतदि बासाहपरिणमाए पाणिपण भरिजा । तइए लग्गे दाइपहिं मारिऊण तं नयर अहिट्टियं । तस्स रराणो महादेवी वीरसामी पइटिओ । जम्मि य लग्गे धीरस्स पट्टा श्रावराणसत्ता पलाइत्ता बंभाणपुरं पत्ता । तत्थ य सा सय- कया तम्मि चेव लागे दुग्गासूअग्गामे बयणए गाम ललक्खणसंपुरणं दारयं पसूत्रा । तो नयरीए बाहि ए- च दुन्नि वीरपडिमाओ साहुसावयहत्थाए सि-- गत्थ रुक्ख तं बालयं झोलिश्रागयं ठावित्ता सयं तप्पासए श्रवासेहि पट्रियाओ। तं च वीरपडिम निश्चमश्चद राया। एवं ठिया । किंचि कम्मं काउमाढत्ता । तत्थ य नाहडएण जं विबं कारिअं तं च बंभतिजक्खेण सन्निहिदेवजोगेण समागया सिरिजज्जिगसूरिणो तरुच्छायं अपाडिहरण अहोनिसिं पज्जुवासिजद । सो अ पु. अपरावत्तमाणि दट्टण एस पुराणवंतो भावि त्ति क- वि घणदेवसिट्टिणो वसहो आसि, तेण धेगवईए नदीए पंलिऊण चिरं अवलाईता अच्छिश्रा । तीए रायपत्तीए श्रा- चसयसगडभरो कडिओ। सो तुट्ठो, तओ सिंट्टिणा चारिजगंतूण भणिश्रा सूरिणा-भयचं ! किं एस दारो कुल- लाऽऽइहे उं वैयणं दाऊण बड्डमाणगामवासिलोश्राणं समक्खणा कुलक्खयकरो दीसइ ? । सूरिहिं वुत्तं-भद्द ! एस प्पियं । ते य गामिल्लया गहियरिच्छा तस्स वसहस्स चिंतं महापुरिसा भविस्सइ, ता सवपयत्तेण पालणिज्जा । पिन कुणति, तओ सो अकामनिजराए मरिऊण वंतरेसु सू. सश्रा सा अणुकंपाए चइहरचिंताकरणे निउत्ता । गुणेहिं लपाणिनाम जक्खो जाओ। विभगनाणं पउंजिय विनाय पुव्वसो अदारो कयनाहडनामो गुरुमुहाओ पंचपरमेट्टिन- जम्मवइरो तम्मि गामे बद्धमच्छरो मारि बिउब्वेइ । तो अ. मोक्कारं सिक्खिडं सो अचवलत्तण गहिअधणुसरो अ- हमाणो गामो रहाउं कयबलिकम्मो धूअकबुच्छ अहत्थो भगइक्खयपट्टयस्स उबरि आगच्छइंते मूसए अमूढलक्खा जस्स देवस्स दाणवस्स या अम्हहिं किंपि अवरद्धं सो मरिसेमारइ । ता सावहिं चइहराश्रो निक्कालिओ । जणाण उत्ति । ता तेण जक्खण पुव्वभववसहस्सबुत्तंतो कहिओ। गावी या रक्खेइ । अन्नया केण वि जोगिणा पुरबाहिरे भ- तस्स वसहस्स अट्टिपुंजोवरि देउलं लापहिं कयं। तस्स पडिमा मंतण सा दिट्टो । बत्तीसलक्खणधरी त्ति विनासिश्रो । त- कारिया इंदसम्मो देव व्व उटिओ । तओ सो बद्धमाणगामो श्रो तेण सुवरणपुरिससाहणत्थं तमणुगच्छंतेण तस्स मायरं अटिअगामो त्ति पसिद्धो । जायं सिवं। कमेण दृइजतगताव अणुराणवि तत्थव ठिई कया । तो अवसरे तेण ससा भयव बद्धमाणसामी छउमत्थविहारेणं बिहरंतो वा
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- अभिधानराजेन्द्रः।
सबप्पवायपुश्व सारते तस्थ गामे पत्तो । गाममणुभाषितस्थेव देवउले रयः किऊण भग्गं मुग्गलबलं । सच्चउरसामी विम पिभो। प्रह णीए काउस्सग्गे ठिो । तेण मिच्छाविट्टिणा सुरेण भीमहा- तेरससयछप्पनधिकमवरिसे अल्लाउद्दीणसुरताणस्स करिणट्ठो सहस्थिपिसायनागरुधेहि उपसग्गित्ता सिरकन्ननासावंतमहः भाया लुक्खाननामधिज्जा दिल्लीपुरानी मंतिमाहबस्थिपिद्विधियाणमो विउम्बियानो। सम्वथा भवयं तमक्खाभ पेरिओ गुजरधरं पट्टिओ । चित्तकूडाहि समरसीहण भाऊण सो उपसंतो गीयनथुइमाईहिं पज्जुवासरा तप्पभिर दंड दाउ मेवाडदेसो तया रक्खिनो । तो हम्मीरजुव तस्स अक्खस्स बंभसंति त्ति नाम रूढं । सो य सचउरवीर- रामो मेवाडदेस मुहडासयाई नयराणि य भजिय प्राचाए पाहायिससेण निवेसह । इओ भ गुज्जरधराए पच्छिम. सापालीप पत्तो । करणदेवरायो अनट्ठो। सोमनाई च घणभागे पलहित्ति लयरी रिद्धिसमिद्धा । तत्थ सिलाइयो नाम घापण भजित्ता गर्नु परोविऊण ढिल्लीवामणथलीए गंतुं मंराया। सेख य रयणजडियकंकसीलु ण रंको नाम सिट्ठीप. डलिकरणे य दंडित्ता सोरयट्टे नियट्ठाणं पयट्टाविता श्राराभूत्रो। सो म कुषिो तम्बिग्गहपत्थं गज्जणवाहम्मीरस्स सावल्लीए आवासियो । गढमंदिरदेवकुलाईणि पज्जालेइ कपभूधर्ण दाऊस तस्स महंतं सम्न प्राणर। तम्मि अबसरे मेण सत्ससयदेसे संपत्तो। तो सच्चउरे तहेव भगाहवलहिनो चंदपपहसामिपडिमा अंबखित्तवालजुत्ता अहि- तेसु चक्केसु बज्जतेसु मिलिच्छदलं पलाणं । एवं अणेगाणि टायगवलेणं गयणपहेण अंबपट्टणं गया । रहाहिरूढा य दे- अवदाणाणि पुहवीमंडले सव्वश्रो खीरनाहस्स पभावाणि बयाबलणं वीरनाहपडिमा अदिट्टवत्तीए संचरंतीए प्रासी- वुच्चंति । श्रह अलंघणिजा भवियव्यय त्ति दूसमकालयपुराणे सिरिमालपुरमागया । अण्णं वि साइसया देवा विलसिपण केलिप्पिया वंतरा हवंति। गोमंसरुहिरछंटिए जहोचियं ठाणं गया । पुरदेवयाए सिरिबद्धमाणसूरीणं उ- अभवणाओ दूरीभवंति देवयाउ त्ति,असन्निहिए पमत्ते - प्पाश्रो जाणविभो । जत्थ भिक्खालद्धं खीरं रुहिरं होऊण हिट्ठायगे बंभसंतिजक्खम्मि अलाउदीणए रराणे सो चेव श्र. पुष खीरं होहिर तत्थ साहहिं ठायव्वं ति । तेण य सन्नेण णप्पमाहप्पो भयवं वीरसामी तेरसयसत्तस? विषकमाइचविकमाश्रो अहिं सपहि पणयालेहिं वरिसाणं गएहिं बलाहिं संवच्छरे दिल्लीए आणित्ता प्रासायणाभायणं कश्रो। काभंजिऊण सो राया मारियो । गो सट्टाणं हम्मीरो,तो अ- लंतरेण पुणरवि पडिमंतरपायडए भावो पारिहो भविएणया अन्नो गजणवई गुजरं भंजिउं तो चलंतो पत्तो स- स्सह । 'सच्चउरकप्पमेयं, निच्चं वायंतु महिमय अमेय । चउरे दससयहक्कासीए विक्कमवरिसे मिच्छरायो । दिटुं तत्थ बंछिश्रफलसिद्धिकए, सिरिजिणपहमरिणो भव्वा ॥ १॥' मनोहरं वीरभवणं पविट्ठो हणहण त्ति । तो गयउरजुत्तित्ता इति श्रीसत्यपुरकल्पः । ती० १६ कल्प । 'वीरसामी ताणि उ नेसमित्तं पि न चलिश्रो सट्टाणाश्रो। त- |
| सच्चणेमि-सत्यनेमि-पुं० । समुद्रविजयस्य राशः शिवादेश्रो बालसु जुत्तिएसु पुब्वभवरागेणं बंभसंतिणा अंगुलचउक्कं चालिश्रो सयं हकंते वि गज्जणवाइम्मि निब्बलीहोउंठिो
व्यामुत्पन्ने पुत्रे, अन्तः । (स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्यजगनाहो जाओ। विलक्खो मिलक्खुनाहो । तो घणघाएहिं
शत्रुजये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां चतुर्थे वर्गे नवमे अध्ययने ताडिभो सामी।लग्गंति घाया ओरोहसुंदरीण । तो खग्गप
प्रत्यपादि।) हारेसु विहलीभूएसु मच्छरेण तुरकेहि वीरस्स अंगुली कट्टि
सच्चपइम-सत्यप्रतिज्ञ-त्रि० । सत्यसन्धे , अङ्गीकृतपरिपाप्रातिं गहिऊण य ते पट्टिा। तो लग्गा पजलिश्रो तुरयाणं
लयितरि, श्राव०४ अ०। पुच्छा लग्गा य बलिश्रो मिच्छाणं पुच्छा। तो तरए छडित्ता सच्चपरक्कम-सत्यपराक्रम-
त्रिविहितवीर्य, उत्त०१८ अ०। पायचारिणो चेव पणट्ठा धम्म त्ति धरणीए पडिया। रहिमानं सच्चपरूवय-सत्यप्ररूपक-त्रि० । अवित थदेशके, जीवा०१ सुमरंता विलवंता दीणखीणसव्वबला नहंगणे अविट्ठवाणीए अधिक। भणिया । एवं वीरस्स अंगुली आणीता तुम्हेहिं जीवसंपए
सच्चप्पभा-सत्यप्रभा-स्त्री० । सत्यभामानामन्यां कृष्णस्याग्रपडिया , तो गज्जणाहिवई विम्हिश्रमणो सीसं धुणतो सिल्लारे श्राइसइ, जहा-एयमंगुलि बलिऊण तत्थेव ठावेह ।
महिष्याम् , स्था०८ ठा० ३ उ०। ( सा च मेमेरन्तिके प्रत्रतो भीएहि तेहिं पच्चारणीया सा लग्गा य मड त्ति सा
ज्य सिद्धा।) मिणो करे,तमच्छर पिच्छिय पुणो वि सम्वपुर्ण पि न मग्गं
सच्चप्पभाव-सत्यप्रभाव-त्रि०। प्रत्यक्षतो दृश्यमानप्रभुत्वे, ति तुरुका । तुट्ठो चउविहो समणसंघो वीरभवणे पूत्रामहिमागीयनवाइत्तदविणदाणेहिं पभावणं करेइ । श्र- सच्चप्पवाय-सत्यप्रवाद--न० । सत्यं संयमो वचनं प्रकर्षण नया बहुम्मि काले बोलीणे मालवाहिवइनरिंदो गुजरधरं- सप्रपञ्चं वदन्ति यत्रेति सत्यप्रवादम् । पूर्वे, नं० सत्यप्रधाद भंजिऊण सच्चउरसामीए पहुत्तो । तओ बंभसंतिणा पउरं नाम यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति । दश०१०। स०। सिन्नं विउव्विऊण भंजिओ तस्स बलं । तस्स ल्हास आ- तस्य पदपरिमाणमेका कोटी एकपदोना । स० १४७ समः । वासेसु उट्टिो धजग्गी । मालवाहिवई कोसो कुट्ठागाराइ छंटिल पणटो कागणासं । अह अन्नया तेरहसयश्रडयाले
सच्चप्पवायपुध-सत्यप्रवादपूर्व-नाषष्ठे पूर्वगतश्रुतभेदे,स्था० विकमसंवच्छरेण पबलेणं कप्पुरदलेणं दसति भजंते न
सच्चप्पवायपुवस्स णं दुवे वत्थू पसत्ता । (सू० १०६) यरे, गामेसु पलाणेसु, जिणभवणदुवारेसु ढक्किएसु, जोश्र- 'सच्चप्पवायेत्यादि, सद्भ्यो जीवेभ्यो हितः सत्यः-संणचउमझे बंभसंतिमाहप्पेणं अणाहयगहिरस्सरं तं- यमः सत्यवचनं वा स यत्र सभेदः सप्रतिपक्षश्च प्रकर्षेचकं वजंतं सोऊण सिरिसारंगदेवमहाराइणो भागमणं सं- । णोच्यतेऽभिधीयते तत् सत्यप्रवादं तच तत् पूर्वकं व सकल
औ०।
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सहव्यवायपुव
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श्रुतात् पूर्व क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्वम् तच षतत्परिमाणं च एका पदकोटी पदपदाधिका, तस्य द्वे - स्तुनी वस्तु च तद्विभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति । स्था० २
ठा० ४ उ० । स० ।
सबभाणु-सत्यभानु पुं० धम्मेजिनेन्द्रस्य पितरि ति ( समवायाङ्गे तु भानुरित्येव । )
.
(२७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
सच्चभामा - सत्यभामा - स्त्री० । स्वनामख्यातायां कृष्णाप्रमहिष्याम् आचा० १ ० ४ ० १ उ० । सचमेत-सत्यमन्त्र- पुं० । महत्यामध्यापदि महीने, "स पधानं महंतीय षि आयदीप जो अदीयो भवति - सो सामंतो" नि० ० २ उ० ।
सचमण जोग - सत्य मनोयोग- पुं० । मनोयोगभेदे, कर्म• ४ कर्म० । ( 'मजांग शब्दे भागे स्य व्याक्या
टव्या । )
सचमयप्पयोग - सत्यमनः प्रयोग- पुं० । सद्भूतार्थचिन्तन
9
निबन्धनस्य मनसः प्रयोगे भ० ५ ० ४ उ० । सचरत सत्यरत प्र० । सत्यप्रधाने, "अकोइसे सबरते
-
"
तबस्सी ।" सूत्र० १ श्रु० १० उ० । सचरित-सारित षि० । सञ्चरणे शोभनसंयमे प० ३ तख । सच्चवजोग-सत्यवाग्योग - पुं० । बाग्योगभेदे, कर्म० ४ कर्म० । ('जोग' शब्दे ष्ठ भागे ७५८ पृष्ठे स्वरूपमस्य द्रष्टयम् ।) सच्चवं - सत्यवत् - पुं० । त्रिंशत्तमेऽहोरात्रमुहूर्त्ते, खं० प्र०
१० पाहु० ।
सच्चाई - सत्यवती - स्त्री० । दर्शनपुरे दन्तवक्रराजभार्यायाम्,
श्राव० ४ अ० ।
सचवयण-सत्यवचन न० । सद्भ्यो- मुनिभ्यो गुणेभ्यः पदार्थेभ्यो वा हितं सत्यम् । श्राह च - " सवं हियं सयामिह संतो मुराउ गुणा पयत्था वा" सत्यं च तद्वचनञ्च सत्यवचनम् । प्रश्न० २ संय० द्वार । यथार्थवचने, दर्श० मृषावादविरती श्री० रा० स० (चतुरंशत् सत्यवचनस्यातिशयाः अहसेस रामे प्रथमभाने ३२ पृष्ठे दर्शिताः । )
9
सचवाइ- सत्यवादिन् पुं० अविरुद्धवरि दश०६०
"
३ उ० ।
सच्चवाय-- सत्यवाद- पुं० । सत्यो वादः सत्यवादः । तथ्यवादे, स्था० १० ठा० ३ उ० ।
3
समविय सत्यविद्वस् - पुं० संयमपालके पा० । सचवीरिय सत्यवीर्य पुं० । अभिनन्दनजिनस्ताय के “तिनेत्र सयलहस्सा अभिनंदण जिणवरस्स सीलाएं । सच्चचीरियथुयम्स, सिद्धत्था संवरसुयस्स ॥ " ति० । सचसंघ- सत्यसन्ध- पुं० सत्यप्रति आव० ४ श्र० ।
9
आ० म० ।
3
सवावाइ
सच्चसंहणणबंध - सत्यसंहननबन्ध-पुं० । सर्वेण सर्वस्य संहनलक्षणो बन्धः क्षीरनीरादीनामिवेति । सत्यसंनमधभेदे,
भ० श० ६ उ० ।
सच्चसेय- सत्यसेन पुं० देवतवर्षे भविष्यति त्रयोदशे जिने, प्रब० ७ द्वार |
सत्यमेव सत्यमेव त्रि० सेवायाः सफलीकरणात्। सेवाफलदे, हा० १ ० १ ०
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सभ्चा-सत्या श्री० भाषामेवे, विशे० (अत्रत्या व्याख्या 'भासा' शब्दे पश्चमभागे गता । )
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सच्चामोस सत्यामृषा अध्य० पत्र किञ्चित्सत्यं किञ्चिति मिश्रभाषायाम् भावा०२ भु० १ ०४ अ० १ ३० । औ० । दश०। (सत्यामृषावरूपता 'मासा' शब्दे पचमभागे १५२३ पृष्ठे द्रष्टव्या ।) ('सच' शब्देऽस्मिन्मेष भागे सूत्रं गतम् । )
"
अथ तृतीयाया दस भेदाः, यथा
"
' उत्पन्न १ वियग २ मीसग ३, जीव ४ अजीवे अ ५ जीवन जीवे ६ | तह मीसिया अता ७,
परित = श्रद्धाय ६ अजूजा १० ॥ १ ॥ "
,
अत्र मिश्रिताशब्दस्य प्रत्येकं योगानुत्पन्नमिश्रिता इत्यादि द्रष्टव्यम् ततब्ध-उत्पन्नमिश्रितानुपः सह संख्यापूर पार्थे यया सा उत्पन्नमिश्रिता । एवमन्यत्रापि यथायोगं भाग्यम् । तत्रोत्पन्नमिश्रिता क यथा- कश्मचिमा न्यूनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका जाता इत्यादि व्यवहरतः सत्यासत्या एव, श्वस्ते शतं दास्यामीत्युक्त्वा पञ्चाशत्यपि इसे लोके सुपात्यादर्शनात् अनुत्पन्नांश च मृषात्वव्यवहारात् १ । एवं मरणकथा विगतमिश्रिता २ । अकृतनिश्चये जातस्य मृतस्य च कृतपरिणामस्याभिधाने मिश्रकमिश्रिता उत्पन्नविगतमिश्रितेत्यर्थः, यथा - श्रद्य दश जाता मृवाश्चेति ३ । तथा बहूनां जीधानां स्तोकानां मृतानां शङ्खराङ्कनकादीनामेकत्र राशी ऐ जीयराशिमिति भाषणं जीवमिश्रिता ४ एवं प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु च जीवत्सु अजीयराशिरिति वाक्यम् ५ । तथा तस्मिन्नेव राशौ अकृतनिश्चये एतावन्ता जीवन्त एतावन्तश्च मृता इति श्रवधारणवाक्यं च जीवाजीवमिश्रिता ६ । तथा मूलकादि अनन्तकार्य तस्यैव स कैः परिपाकपत्रैरन्येन वा केनचिद्वनस्पति मिश्र वि लोक्य सर्वोऽप्येष अनन्तकाय इति वदतोऽनन्तमिश्रिता ७ । एवं प्रत्येकमन्तेन सह दा सर्वोऽपि प्रत्येक इति वदतः प्रत्येक मिश्रिता ८, श्रद्धा- कालः स चेद्द प्रस्तावात् दिवसो रात्रिर्वा गृह्यते सा मिश्रिता यया साऽद्धामिश्रितायथा कश्चित् कञ्चन त्वरयन् दिवसेऽपि रात्रिर्जातेति वदति तथा दिवसस्य रात्रेर्षा एकदेशीद्वार ar मिश्रिता यया साऽजाजामिश्रिता यथा प्रथमपीरुष्यामेव त्वरयमाणः कञ्चन वक्ति - शीघ्रा भव, मध्याह्ना जात इति १० । ध० ३ अधि० ।
सचावाइ सस्थावादिन् पुं० [सत्यं वदितुं शीलमस्येतिस
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सचावाइ
1
त्यवादी । सत्यवदनशीले, श्राचा० १० ८ ० १ ३० । समाहिद्विय-सत्याधिष्ठित भि० सत्येनापितथभापणेनाधिद्वितः समाधिः सत्याधिष्ठितः सत्यवचनव्याप्ते, पा० । सच्चिदाद- सच्चिदानन्द-पुं० । सत् - शुभं शाश्वतं वा चित्-ज्ञानं तस्य वआनन्दः सुखप्रकाशरूप प्राणि, अ०
--
१ अष्ट० ।
सच्चो वाय-सत्यावपात - त्रि० । सफलसेवे, शा० १ श्र० ८ अ० । भ० | सत्याभिलाषे, श्र० ।
सच्छंद - स्वच्छन्द - त्रि० । स्वम् आत्मीयं छन्दः - अभिप्रायो यस्याऽसी । व्य० १ ३० । स्वाभिप्राये, आ० म० १ श्र० । नं० । आष० । प्रव० । अनु० । शा० । श्रात्मच्छन्दसि व्य०६ उ० । स्ववशे, विपा० १ श्रु० २ श्र० । शा० । अनु० । सुरुचौ, स० । सच्छंदचारि-स्वच्छन्दचारिन् - त्रि० । कामरूपिणि, श्रा० म०
(२७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
१ अ० ।
सच्छंदमइ - स्वच्छन्दमति - त्रि० । स्वच्छन्दा स्ववशा स्ववशे या मतिरस्येति स्वतः निरल, विपा० १० २ श्र० । प्र० । ० ।
सच्छंदया- स्वच्छन्दता - स्त्री० | स्वाभिप्रायेण वर्त्तितायाम्,
व्य० १ उ० ।
सच्छेदयारिन्- स्वच्छन्द चारित्रि० स्वच्छन्देन स्वामि प्रायेण नतु जिनाशया चरतीति स्वच्छन्दचारी । यथाछन्दे, ग० १ अधि० ।
सच्छंदविगप्पिय-स्वच्छन्दविकल्पित-त्रि०|स्वच्छन्देन स्वा भिप्राये विकल्पितम् स्वेच्छाकल्पिते व्य०१० घा सच्छत्त सच्छत्र- त्रि० । छत्रेण सहिते, स० ३४ सम० । जी० । श्र० ।
सच्छाय (ह) -- सच्छाय - त्रि० । सती शोभना छाया निर्मलस्वरूपा येषां ते|रा० । “छायायां हो ऽकान्तौ वा" ॥८॥ १।२४६॥ अनेनान्त्ययकारस्य वैकल्पिको इकारादेशः । सच्चायम् । सच्छाहम् । प्रा० । जी० । शोभनच्छायेषु, जी० ३ प्रति०४ अधि० ।
सजल - सजल - त्रि० । जलसम्पूर्णे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । सजसा --सयशस् - स्त्री० । शीतलजिनस्य प्रथमशिष्यायाम्, ति० ।
सजाई - स्वजातीय- त्रि० । आत्मीयजातिविशिष्टे, आ० म०
१ अ० ।
सजित्था सजित्वा अव्य० शक्ति हत्येत्यर्थे नि००
१ उ० ।
सजीव सजीव प्र० कोट्यारोपितप्रत्यचे शा० १०१८ श्र० । श्र० । विपा० । मृतधात्वादीनां सहजस्वरूपापादने, जं० २ यक्ष० । स० । झा० ।
-
सजूह-स्वयूथ पुं० [स्वकीयनिक १० द्वार सजोग-संयोग-वि० संसारिति खा० २ ० ४ ० मनोवाक्कायात्म कैर्योगैः गैः सह वर्त्तमानेषु, नं० ।
1
७०
-
I
।
संजोग ( ख ) - सयोगिन् - त्रि० । सह योगैः कायव्यापारादिभिर्यः सः सयोगी । स्था० २ ठा० १ उ० सह योगेन वर्त्तन्ते ये ते संयोगा मनोषात स्वयन्ते स सयोगी पं० सं० २ द्वार मनोवाक्कायात्मक योगवर्नमा २० सजोगिकेवलिगुणद्वारा सयोगिकेवलिगुणस्थान-दश गुणस्थान, कर्म योगो वीर्य शक्तिरुत्साह पराक्रमइति पर्यायाः, स च मनीषाकाय लक्षणकरसभेदातिः लभते मनोयोगायोगः काययोगधति तथा यो कर्मकृती"परिणामालंबणग्गह-णकारणं तेरा लद्धनामतिगं । कज्जष्भासाबुन पसविसमीप ॥१॥ तत्र भगवतो मनोयोगो मनःपर्यायानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृएस्य सतो मनसे देशनात् तेहि भनि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायाननावापश्यन्ति - चितवत्याकारान्यथानुपपत्या लोकस्वरूपादिवाद्यमर्थमयगच्छन्तीति वायोगो धर्मदेशनादी काययोग निमन ङ्क्रमणादौ । ततोऽनेन योगत्रयेण सह वर्तत इति सयोगी । "खर्वादेरिन्" तीनप्रत्ययः केवलं केवलज्ञान केवलदर्शन च विद्यते यस्य स केवली । सयोगी चासौ केवली च सयोगिवली तस्य गुणस्थानं योगिके बलिगुरास्थानम् । कम् २ कर्म० | पं० [सं० । श्रा० चू० । प्रव० | दर्श० । सजोगिभवत्थ केवल नाग - सयोगिभवस्थकेवलज्ञान-नासहयोगैः काय व्यापारादिभिर्यः स सयोगी इन् समासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः । कायव्यापार सहितस्य भवस्थस्य केवलज्ञाने, स्था० ।
सज्ज
9
सजोगिभवत्थकेवलगासे दुविहे पते तं जहा परमस मयसजोगिभवत्थ केवलणाणे चेव, अपढमसमयस जोगिभवत्थकेवलणाणे देव | अहवा - चरिमसमय सजोगि भवत्थअचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलगाये केवलणाणे चैत्र, चेव । (सू० ७१+ )
सयोगी 'त्यादि प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य सः तथा एवं प्रथमा -द्वयादिसमयो यस्य स तथा, शेवं तथैव। 'अथवे ' त्यादि चरमः श्रन्त्यः- समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा शेषं तथैव । स्था० २ ठा० १ उ० ॥ सजोगिय—सयोनिक- त्रि० । सह योन्या उत्पत्तिस्थानेन वर्तन्ते इति सयोनिकाः । संसारिषु, स्था० २ ठा० १ ३० । सजोति-सज्योतिष् - त्रि० । सह ज्योतिषा – उद्यान वर्तत इति सज्योतिः साझिके सूत्र ०१ ०५ ० १०तिःसाग्निकमित्यर्थः । दश० ८ ० २ उ० ॥
सज-सज
- त्रि० । प्रगुणीभूते, शा० १ ० १६ अ० । ० । सद्यम् — श्रव्य० । शीघ्रे, श्रातुः । तत्काल वृ० १३०३ प्रक० । सर्ज - पुं० | वृक्षविशेषे, शा० १२० १६ अ० । विशेवस्थान | षड्ज - त्रि० षङ्ख्यो जातः षड्जः । अनु० । 'क-ग-र-डत-द-प-श-प-स-क- पामूर्ध्व लुक् ॥ २७७॥ अनेनात्र डकारस्य लुक् । सज्जो पडजो । प्रा० | स्वरभेद, "नासाता-जिहादा सिं
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(२७८) सज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
मज्जा यस्मा-तस्मात् पज इति स्मृतः" ॥१॥ अनु०। ('सर'
सजननेन तु शशाङ्ककौमुदी , शब्दे सर्वो वक्तव्यतां वक्ष्यामि।)
सङ्गरणवदहो महोत्सवः ॥ ४ ॥ सञ्जइ-सद्यति-पुं० । सत्साधौ , षो० १२ विवः ।
यद्यनुग्रहपरं सतां मनो, सजण-सज्जन-पुं० । “अन्त्यव्यञ्जनस्य" ॥८।१।११॥ इति
दुर्जनात किमपि नो भयं तदा । जकारस्य लुक । सज्जनः। सजणी। प्रा०। विशिष्टलोके,
सिंह एव तरसा वशीकृते, प्रश्न०३ श्राश्र०द्वार ।
किं भयं भुवि शृगालबालकात् ॥१०॥ नाम सजन इति त्रिवर्णकं, कर्णकोटरकुटुम्बि चद्भवेत् ।
खेदमेव तनुते जडात्मनां,
सज्जनस्य तु मुदं कवेः कृतिः। नोल्लसन्ति विषशक्तयस्तदा, दिव्यमन्त्रनिहताः खलोलयः ॥१॥
स्मेरता कुवलयेऽजपीडनं,
चन्द्रभासि भवतीति हि स्थितिः ॥ ११ ॥ स्यादली बलमिह प्रदर्शयेत् ,
न त्यजन्ति कवयः श्रुतश्रम, सअनेषु यदि सत्सु दुर्जनः ।
संमुदैव खलषीडनादपि। किं बलं नु तमसोऽपि वर्ण्यते ,
स्वोचिताचरणबद्धवृत्तयः, ___ यद्भवेदसति भानुमालिनि ॥ २॥
साधवः शमदमक्रियामिव ॥ १२॥ दुर्जनस्य रसना सनातनी ,
नव्यतन्त्ररचनं सतां रतेसंगतिं न परुषस्य मुश्चति ।
स्त्यज्यते न खलखेदतो बुधैः । सज्जनस्य तु सुधातिशायिनः,
नैव भारभयतो विमुच्यते, कोमलस्य वचनस्य केवलम् ॥३॥
शीतरक्षणपटीयसी पटी॥१३॥ या द्विजिहदलनाद्यनादरा
आगमे सति नवः श्रमो मदाद्याऽऽत्मनीह पुरुषोत्तमस्थितिः ।
अस्थितरिति खलेन दृष्यते । याऽप्यनन्तगतिरेतयेष्यते ,
नारिवह जलधौ प्रवेशकृत् , सज्जनस्य गरुडानुकारिता ॥४॥
___ सोऽयमित्यथ सतां सदुत्तरम् ॥ १४ ॥ सजनस्य विदुषां गुणग्रहे,
पूर्वपूर्वतनसूरिहीलना, दुषणे निविशते खलस्य धीः।
नो तथापि निहतेति दुर्जनः । चक्रवाकदृगहर्पतेर्युतौ ,
तातवागनुविधायिबालवघूकदृक् तमसि सङ्गमङ्गति ॥५॥
नयमित्यथ सतां सुभाषितम् ।। १५ ।। दुर्जनैरिह सतामुपक्रिया,
किं तथापि पलिमन्थमन्थरैतद्वचो विजयकीर्तिसंभवात् ।
रत्र साध्यमिति दुर्शनोदिते । व्यातनोति जिततापविप्लवां,
स्वान्ययोरुपकृतिनवा मतिवह्निरेव हि सुवर्णशुद्धताम् ॥ ६॥
चेति सज्जननयोकिरर्गला ॥ १६ ॥ या कलङ्किवसनन सक्षया,
सप्रसङ्गमिदमाद्यविंशिकोया कदापि न भुजङ्गसङ्गता।
पक्रमे मतिमतोपपादितम् । गोत्रभित्सदसि या न सासतां,
चारुतां व्रजति सज्जनस्थितिवाचि काचिदतिरिच्यते सुधा॥७॥
क्षतासु नियतं खलोनिषु ।। १७॥ दुर्जनोद्यमतपर्तुपूर्तिजा,
न्यायतन्त्रशतपत्रभानवे, तापतः श्रुतलता क्षयं व्रजेत् ।
लोकलोचनसुधाञ्जनत्विषे । नो भवेद्यदि गुणाम्बुवर्षिणी,
पापशैलसतकोटिमूर्तये, __ तत्र सजनकृपातपात्ययः ॥ ८॥
सअनाय सततं नमो नमः ॥ १८ ॥ तन्यते सुकविकीर्तिवारिधी,
भूषिते बहुगुणे तपागणे, दुर्जनन बडवानलव्यथा।
श्रीयुतैर्विजयदेवमूरिभिः।
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(२७६),
अभिधानराजेन्द्रः। भूमिसूरितिलकैरपि श्रिया,
तेष्वतोऽप्युपकृतिश्च भाविनी। पूरितैर्विजयसिंहसूरिभिः ॥ १६॥
किं च बालवचनानुभाषणाधामभास्वदधिकं निरामयं,
नुस्मृतिः परमबोधशालिनाम् ॥ २६॥ रामणीयकमपि प्रसृत्वरम् ।
अत्र पद्यमपि पाटिक क्वचिनाम कामकलशातिशायिना,
द्वर्तते च परिवर्तितं क्वचित् । मिष्टपूर्तिषु यदीयमश्चति ॥ २०॥
स्वान्ययोः स्मरणमात्रमुद्दिशंयैरुपेत्य विदुषां सतीर्थ्यतां,
स्तत्र नैव तु जनोऽपराध्यति ॥ ३० ॥ स्फीतजीतविजयाभिधानताम् ।
ख्यातिमेष्यति परामयं पुनः, धर्मकर्म विदधे जयन्ति ते,
सज्जनैरनुगृहीत एव च। श्रीनयादिविजयाभिधा बुधाः ॥ २१ ॥
किं न शङ्करशिरोनिवासतो, उद्यतैरहमपि प्रसद्य तै
निम्नगा सुविदिता सुरापगा ॥ ३१ ।। स्तर्कतन्त्रमधिकाशि पाठितः ।
यत्र स्याद्वादविद्या परमततिमिरध्वान्तसूर्याशुधारा, एष तेषु धुरि लेख्यतां ययौ,
निस्ताराजन्मसिन्धो शिवपदपदवीं प्राणिनो यान्ति यस्मात्। सद्गुणस्तु जगतां सतामपि ॥२२॥ अस्माकं किं च यस्माद्भवति शमरसैनित्यमाकण्ठतृप्ति, येषु येषु तदनुस्मृतिर्भवे
जैनेन्द्र शासनं तद्विलसति परमाऽऽनन्दकन्दाम्बुवाह: तेषु धावति च दर्शनेषु धीः।
॥ ३२ ॥ द्वा० ३२ द्वा० । यत्र यत्र मसदेति लभ्यते,
सञ्जमरण-सद्योमरण-न० । तात्कालिकमरणे, आव० ५ ० तत्र तत्र खलु पुष्पसौरभम् ॥ २३ ॥
सजमाण-सजमान--त्रि० । सङ्गमं कुर्वति, सूत्र. १ श्रु०१ तणैर्मुकुलितं रवे करैः,
अ०। श्रासक्ति कुर्वति, सूत्र०११०७ श्र० । नि० चू०। “स. शास्त्रपमामिह मन्मनोहूदात् ।
जमाणेहि विणिग्यायमाणाहि" प्राचा०२ श्रु० ३ चू०। उल्लसन्नयपरागसंगतं ,
सञ्जम्मदरिद्द-सजन्मदरिद्र-पुं० । आजन्मदरिद्रे, महा०२ चू०। सेव्यते सुजनषट्पदवजैः॥ २४ ॥
सजा-शय्या-स्त्री० । शरतेऽस्यामिति शय्या । प्रव० १२१ निर्गुणो बहुगुणैर्विराजिता
द्वार । वसती, आव०५०। शयने, स्था०५ ठा०२ उ० । स्तान् गुरूनुपकरोमि कैर्गुणैः ।
घशालादिरूपायां बसतो, स०२० सम० । प्रव० । वारिदस्य ददतो हि जीवनं,
संत्रा--स्त्री०।"शो अः" ॥८।२।८३॥ अनेनात्र सम्बलितस्य किं ददातु वत चातकार्भकः ॥२५॥
अकारस्य वैकल्पिको लुक। सज्जा। सराणा । ज्ञाने, प्रा. प्रस्तुतश्रमसमर्थितैर्नयै
२ पाद। ोग्यदानफलितैस्तु तद्यशः ।
सन्जिय-सज्जित-त्रि० । निष्पादिते, जी०३ प्रति ४ अधिक। यत्प्रसर्पति सतामनुग्रहा
वितानिते, औ०। देतदेव मम चेतसो मुदे ॥ २६ ॥
सञ्जोग-सद्योग-पुं० । सद्धर्मपरायणे, पो० । विव० । आसते जगति सज्जनाः शतं ,
सञ्जोगविग्घवजणया-सद्योगविघ्नवर्जनता-स्त्री०। सन्तश्च ते तैरुपैमि नु समं कमञ्जसा ।
योगाश्च धर्मव्यापाराः स्वाध्यायध्यानादयस्तेषु विघ्न उपरोधो किं न सन्ति गिरयः परः शता,
विघातस्तस्य वर्जना । सद्योगापरिहारे,पश्चा०५ विवाघोग मेरुरेव तु बिभर्तु मेदिनीम् ॥ २७ ॥
सज्जोगावंचग-सद्योगावश्चक-पुं० । “ सद्भिः कल्याण
सम्पन्न-दर्शनादपि पावन तथाऽऽवादनतो योग,आयो वञ्चतत्पदाम्बुरुहषट्पदः स च,
क उच्यते ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे प्रवञ्चकयोगे, षो० ६ विव० । ग्रन्थमेनमपि मुग्धधीय॑धाम्
सम-साध्य-त्रि० । “साध्वस-ध्य-ह्यां झः॥ ८।२६ ॥ इति यस्य भाग्यनिलयोऽजनि श्रियां,
ध्यस्य झः । सज्झ । प्रा० । शक्ये, पिं० । निवर्त्य स्वभावे,प्रा. __ सब पद्मविजयः सहोदरः ॥२८॥
म०१ अ०। अनुमानतः साध्ये,रत्ना० ३परि०। (अत्रत्या समत्त एव मृदुवुद्धयश्च ये,
र्या वक्तव्यता 'देउ' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे पदयते।)
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सज्यंतिय
सज्यंतिय-साधान्तिक पुं०- ब्रह्मचारिणि, पृ० ४ ४० । सज्यंतिया - साझान्तिका स्त्री० । भगिन्याम्, व्य० ३३० । सज्यंभराम सन्ध्याभ्रराग पुं० वर्षासु सन्ध्यासमयभाषिनि अक्षरा, रा० ।
( २८०) अभिधानराजेन्द्रः ।
www.
सज्झय- सध्वज-पुं० । कल्पपाले, वृ० ५ उ० । सज्भवपथ विदेस- साध्यवचननिर्देश-पुं०
साध्यत इति
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साध्यम्, उच्यत इति वचनम् अर्थः, यस्मात्स एवोच्यते।साध्यं वचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थस्तस्य निर्देश प्रतिज्ञा अनुमानफोटो प्रतियचने, दश० १ ० सज्झस - साध्वस-न० ।" साध्वस-ध्य-ह्यां भः ||२/२६ ॥ इति संयुक्तस्य ध्यस्य झः । सज्झलं । भये प्रा० २ पाद । सज्झाइय- स्वाध्यायिक-पुं० । अध्ययनम् अध्यायः शोभनो ऽध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यायिकः । स्वाध्याये श्रा६० ४ ० ।
"
,
सज्झाय सद्ध्यानन० शोभनध्याने ०१०। सज्झाय- स्वाध्याय- पुं०। श्रध्ययनम् - अध्यायः, शोभनोऽध्या
,
यः स्वाध्यायः, स एव स्वाध्यायः । श्राव० ४ ०। सुष्ठु श्रामर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः । स्था० २ ठा०२ उ० । सुष्ठु आ-मर्यादया - कालवेला परिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायः - अध्ययनं स्वाध्यायः । ध० ३ अधि० ।" साध्वसध्य-ह्यां झः ॥ ८ । २ । २६ ॥ इति ध्पस्य झः । प्रा० । अशुतविद्यादिस्मरणे नमस्कारपरायर्सने ६० २ अधि० अधीगुण संव द्वारा सूत्रपरुयाम् ग्राय०
99
४ श्र० ।
,
अधुना स्वाध्यायमाह -
यशु खलु वाचनादेरासेवनमत्र भवति विधिपूर्वम् । धर्मकथान्तं क्रमश - स्तत्स्वाध्यायो विनिर्दिष्टः ॥३॥ धनु – यत्पुनः खशब्दो वाक्यालङ्कारे पायनादेवांचाप्रझानुप्रेक्षादरासेवनमभिध्याच्या मर्यादा या प्रवचनक्रया सेवनं करणमत्र प्रक्रमे भवति जायते । विधिपूर्व-विधिमूलं धर्म्मकथान्तं धर्मकथा ऽवसानं क्रमश:क्रमेण तदासेवनं स्वाध्ययोऽपि पूर्वोक्तनिर्वचनो विनिर्दि
कथित इति। पो० १३ वि०" वारसंगो श्री, सभाओ कहिओ बुद्दे । तं उवहसंति जम्हा, उबझाया तेण वुश्चंत ॥ ३१६७ ॥ विशे० । ( व्याख्यातैपा गाथा' उवज्झाय' शब्दे द्वितीयभागे पर पृष्ठ । ) स्वाध्यायस्य भेदानाद्द
से किं तं सम्झाए है, सञ्झाए पंचविहे पप्पनेनं जहावायणा पडिपुच्छा परिश्रणा अणुप्पेहा धम्मका | से तं सम्झाए । ० २० औ० ।
'पंचविहे ' इत्यादि सुगमम् नवरं शोभनम् श्रा-मर्यादया श्रध्ययनं श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः, तत्र वक्त शिष्यस्तं प्रति गुरोः प्रयोजकभावो वाचना पाठममित्यर्थः, गुदीतपावनेनापि संशयात्पत्ती पुनः प्रय मिति पूर्वाभीतस्य सूत्रादेः शङ्कितादी प्रक्षः प्रति
सज्झाय प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्त्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः । सूत्रपदर्थेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षमा चिन्तनिकेत्यर्थः । एवमभ्यस्वभूतेन धर्मकथा विधेषेति धर्मस्य - १ -श्रुतरूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथेति । स्था० ५ ठा० ३० श्री० (पञ्चविधस्वाध्यायः पडिक शब्दे पञ्चमभागे २६ पृष्ठे व्याख्यातः) ( स्वाध्यायाचे कालवेसामगम् 'जोगविदि चतुर्थभाग १९७३ पृष्ठ उक्तम् । श्रस्वाध्याय विषयमाह -
एसो उसका तब्बजिउ (स) झाड तत्यिमा मेरा । कालपडिलेहणाए, गंडगमरुएहि दिट्ठेतो ॥ १३६१॥ एसो संयमघाताइओ पंचविहो असम्भाश्रो भणिश्रो ।
तेहिं वे पंच िबजियो सभाओं भवति । !
तस्थ
4
सि-तम्मि सराय काले इमा- वक्ष्यमाणा मेर' सि-सामाचारी - पडिमिन जाय पेला न भवति तावकालादिलेहणाए कयाए गहणकाले पत्ते गंडगदितो भविस्सर । गहिए सुद्धे काले पट्टवणवेलाए मरुयगदितो भविस्सतित्ति गाथार्थः ।
3
;
स्वाद बुद्धिः किमर्थं कालमहलम् । अत्रोच्यतेपंचविसावस्स जागा पेहर कालं । चरिमा चडभागवसे सियाइभूमिं तम्रो पेहे ।। १३६२ ।। पञ्चविधः संयमघातादिको स्वाध्यायः तत्परिज्ञानाथे प्रेक्षते कालं कालवेलां निरूपयतीत्यर्थः । कालो निरूपणीयः कालनिरूपणमन्तरेण न शायते पञ्चविधसंयमपातादिकम् -" कति ता चल हुगा, तम्हा कालपडिलेहणाए इमा सामाचारी- दिवसर्वारमपोरिसीए चटभागावसेसार कालग्गहणभूमिश्रो ततो पडिलेहियब्बा, श्रहवा-तम्रो उच्चारपासवसकालभूमी व " ति गाथार्थ । अहियासिवाई अंतो, आसव दूरे य तिन्नेव सहियासी, अंतो छ छच्च बाहिरओ ॥ १३६३॥ 'तो' तिनिवेस तिथि उच्चारादियासियर्थदिले आम दूरे व पडिले
-
डियाखिया एवं वेव तिथि पडिति । एवं त थंड पापि निवेगरस वर्ष चैव भवंति ए अहियासिया दूरयरे अहियासिया आसन्नयरे कायव्वा । एमेव य पासवणे, बारस चउवीसतिं तु पेहेता । कालरस य तिनि भने, अह सूरो अत्थमुवाई | १३६४। पासव कमेणं बारस एवं अनुरियमसंभतं उवउतो पडिलेहेत्ता पच्छा तिनि कालग्गहथंडिले पडिलेहति । जहरांग इत्थतरिए, 'ग्रह' ति-अनं. तडिपा जगातरमेव सूरो अत्यमेति तत श्रवस्सगं करे |
तस्सिमो विही
अह पुरा निव्वाषाओं, आवास तो करेति सम्बेऽवि । सड्ढाइकणवाघा-ययाइ पच्छा गुरू ठंति ।। १३६५ ॥
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सज्झाय अभिधानराजेन्द्रः।
सज्झाय अथेत्यानन्तर्ये, सूरत्थमणाणतरमेव श्रावस्सयं करेंति । आपुच्छणसंदिसावणकालपवेयणं च सव्वं तस्सेव करेंति । पुनर्विशेषणे, दुविहमावस्सगकरणं विससेइ-निवाघायं, एत्थ गंडगदिटुंतो.न भवह। इयरे उवउत्ता चिटुंति । वाघाइमं च । जदि निव्वाघायं ततो सब्वे गुरुसहिया श्रा- सुद्धे काले तत्थेव उवज्झायस्स पवेएंति ताहे दंडधरो वस्सय करेंति । अह गुरू सद्देसु धम्म कहेंति तो श्राव- बाहिं कालपडिचरो चिटुइ । इयरे दुइगा वि अंतो पस्सगस्स साहहिं सह करणिजस्स वाघाओ भवद । ज- विसंति , ताहे नीतिदंडधरो अतीति । तेण पट्टविए सज्झायं म्मि वा काले तं करणिज्जं तं-हासेंतस्स वाघाश्रो भएणइ करेंति। तो गुरू निसिज्जहरो य पच्छा चरित्तातियारजाणणट्ठा
निवाघाए पच्छद्धं, अस्यार्थःकाउस्सग्गं ठाहिंति ।
आपुच्छण किइकम्मे, आवासिय पडियरिय वाघाते । सेसा उ जहासत्ति, आपुच्छित्ताण ठंति सहाणे । । इंदियदिसा य तारा, वासमसज्झाइयं चेव ॥१३७१॥ सुत्तत्थकरणहेउं, आयरिएँ ठियम्मि देवसियं ॥१३६६॥
निव्याघाते दोन्नि जणा गुरुं श्रापुच्छति-कालं घेच्छामो ।
गुरुणा अणुराणाया 'कितिकम्म' ति-वंदणं काउं दंडगं सेसा साहू गुरुं श्रापुच्छित्ता गुरुगणस्स मग्गो
घेतं उवउत्ता आवासियमासज्जं करेन्ता पमज्जन्ता य आसन्ने दूरे आधाराइणियाए जं जस्स ठाण तं सट्ठाण ।
निग्गच्छति । अंतरे य जद पक्खलंति पडति वा बत्थादि तत्थ पडिक्कमंताणं इमा ठवणा । गुरू पच्छा ठायतो वा बिलग्गति कितिकम्मादि किंचि वितहं करेंति ततो मझेण गंतुं सट्टाणे ठायइ, जे वामश्रो ते अणंतरसम्वेण गं- कालवाघाओ। इमा कालभूमीपडियरणविही। इंदिपहिं तुं सटाणे ठायन्ति । जे दाहिणो अणंतरसम्घेण गंतुं ठायं- उवउत्ता पडियरंति ।' दिस' त्ति--जत्थ च चउरो वि ति, तं च अणागयं ठायंति सुत्तत्थसरणहेउं । तत्थ य पुब्वा- दिसा दीसंति । उडम्मि जइ तिन्नि तारा दीसंति । जइ मेव ठायता 'करोमि भंते ! सामाइयमिति' सुतं करेंति, प- पुण न उवउत्ता अणिट्ठो वा इंदियविसश्रो दिस' त्ति च्छा जाहे गुरू सामाइयं करेत्ता वोसिरामि त्ति भणित्ता दिसामोहो दिसाओ वा तारगाओ वा न दीसति वासं ठिया उस्सग, ताहे देवसियाइयारं चितंति । अन्ने भात
वा पडद। असज्झाइयं वा जायं तो कालवहो त्ति जाहे गुरू सामाइयं करेंति ताहे पुवटिया वि तं सामाइयं गाथार्थः। करेंति सेसं कंठं। जो हुज्ज़ उ असमत्थो, बालो वुड्डो गिलाणपरितंतो। जइ पुण गच्छंताणं, छीयं जोई ततो नियनेंति । सो विकहाइविरहिओ, अच्छिजा निर्धारापेही ॥१३६७॥ निवाघाए दोमि उ,अच्छंति दिसा निरिक्खंता१३७२ परिस्संतो पाहुणगादि सो वि सज्झायज्माणपरो अ- तेसिं चेव गुरुसमीवा कालभूमी गच्छंतागं अंतरे जइ च्छति । जाहे गुरू ठंति ताहे ते वि बालादिया ठायति एएण छीतं जोति वा फुसइ तो नितंति । एवमाइकारणेहि विहिणा।
अव्याहया ते दो वि निवाघापण कालभूमि गया। संडा
सगादिविहीए पजित्ता निसन्ना उद्धट्टिया वा एक्कको श्रावासगं तु काउं, जिणोवइ8 गुरूवएसेणं ।
दो दिसानो निरिक्खतो अच्छा त्ति गाथार्थः । तिमि थुई पडिलेहा,कालस्स इमा विही तत्थ ।।१३६८
किं च-तत्थ कालभूमीए ठिया-- जिणेहिं गणहराणं उवइटुं, ततो परंपरएण जाव अम्हं
सज्झायमाचंतता, कणगं दट्टण पमिनियत्तंति । गुरूवएसेण आगये, तं कार्ड आवस्सयं राणे तिरिण थुतीनो करिति । अहवा-एगा एगसिलोगिया, बितिया
पत्ते य दंडधारी , मा बोलं गंडए उवमा ।। १३७३ ।। बिसिलोइया, ततिया (त ) तियसिलोगिया । तेसिं सम- तत्थ सज्झायं (अ) करेंता अच्छन्ति, कालवेल च सीए कालपडिलेहणविही कायव्वा ।
पडियरेह । जाह गिम्हे तिरिण सिसिरे पंच वासासु सत्त अच्छउ ताव विही, इमो कालभेश्रो ताव वुमचा- कणगारंति (पडंति) पेच्छेज तहा विनियत्तंति । अह
निवाघाएणं पत्ता कालग्गहणवेला ताहे जो दंडधारी सो बिहो उ होइ कालो, वाघाइम एतरो य नायव्यो ।
अंतो पविसित्ता भणह-बहुपडिपुराणा कालबेला मा बोल वाघातो घंघसालाए, घट्टणं सडकहणं वा ।।१३६६। करेह, एत्थ गंडगोवमा पुब्बभणिया कजइ ति गाथार्थः । पुव्वद्धं कंठं । पच्छद्धस्स व्याख्या-जा अतिरित्ता आघोसिए बहूर्हि, सुयम्मि सेसेसु निवडए दंडो। वसही कप्पडिगसेविया य सा घंघसाला। ताए अति
अह तं बहूहि न सुयं,दंडिजइ गंडओ ताहे ॥१३७४।। ताणं घट्टणपडणाइ वाघायदोसो, सहकहणेण य बेला
जहा लोए गामादिदंडगण आघासिए बहुहिं सुए थेवेहिं इक्कमणदोसो त्ति । एवमादि ।
असुए गामादिठिउं अकरेंतस्स दंडो भवति । बहाई असुए वाघाए तइओ सिं, दिजइ तस्सेव ते निवेएंति । गंडस्स दंडो भवति । तहा इह पि उपसंहारेयब्वं । ततोइयरे पुच्छंति दुवे, जोगं कालस्स घेच्छामो ॥१३७०॥ दंडधरे निग्गए कालग्गही उट्टेइ त्ति गाथार्थः । तम्मि वाघातिमे दोरिण जे कालपडियरगा ते निग्गच्छति ।
सो य इमेरिसोतेसिं ततिो उवज्झायादि दिजद । ते कालग्गाहिणोपियधम्मो दधम्मो, संविग्गो चेवऽवजभीरू य ।
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( २८२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सज्झाय
भयो य अमीरू, कार्ल पडिलेहर साहू ॥ १३७५ ।। पियधम्मो ददधम्मो य एत्थ उभंगो । तत्थिमो पढमभंगो। मिच संसारभविग्गो संविग्गो । वजे पावं तस्स भीरू जहा तं न भवति तहा जयइ । एत्थ कालविहीजारागो खेदरणो । सतवंतो अभीरू। एरिसो साहू कालपडितेस्रो प्रतिजागरका ग्राहकति गाथार्थः । तेय तं परिंता मेरिकाकालो संकाय तहा, दो वि समप्पंति जह समं चैव । तह तं तुलेति काल, परिमंच दिसं असझाए।। १३७६ ।। संकाय घरतीय कालगमा तं कालसउभार य जं से पते दो वि समं जहा समप्यति तहा तं का तुति अवा-तिसु उत्तरादिषासु संभा गिद्धति 'चरिमं' अवरा अति तहाषि न दोसो त्ति गाथार्थः । श्राव० ४ श्र० ।
ततः कालस्य ग्रहणवेला वर्त्तते न वा ? इति तत्र च-कालबेलानिरूपये एप विधिरिति वक्ष्यमाणः
दुविहो य होइ कालो, वाघातिम एयरो य नायव्वो । वाघाओं पंपसालाऍ, पट्ट सङ्ग्रह वा ॥ ६२६ ।। द्विविधो भवति कालो - व्याघातकालः, इतरश्च - श्रव्याघातकालः । तत्र व्याघातकालं प्रतिपादयन्नाह - व्याघातः घट्ट शालायाम् अनाथमण्डपे दीर्घे, घड़ना-परस्परेण वैदेशिकैर्वा स्तम्भैर्वा सह निर्गच्छतः प्रविशतो वा तारशो व्याघातकालः । तथा श्राद्धकादीनां यत्राचायों धर्मकथां करोति सोऽपि व्याघातकालः । न तत्र कालग्रहगं भवति नापि कलावेला निरूपणार्थ प्रस्तुभमति ।
बापाने तसं दिजर तस्सेव ते निवेति । निव्वाघाते दुनिउ, पुच्छंती काल घेच्छामो ॥ ६४० ॥ एवं शालायां व्याघाते सति तृतीयस्तयो:- कालमाहिलोः उपाध्यायादिवियते येन तस्यैवायतो बाह्यत एव निवेदयन्ति सन्दिशापयन्ति च अथ निघतं भवतिम कश्चिद घशालायां धर्मकथादियां कालप्याघातः बैदे शिकादिव्याघातो वा ततश्च निर्व्याघाते सति द्वावेव निगच्छतः, एकः कालग्राहकः अपरो दण्डधारी, पुनश्च तौ पृच्छतः बहुत कालं गृह्णीयः- वेलां निरूपयाय इत्यर्थः तेषां च निर्गच्छतां यद्येते व्याघाता भवन्ति ततश्च निवसन्तेन गृहन्तिकालम् ।
के च ते व्याघाताः ? - मापुच्छ किकम्मं, भावस्सियखलियपडियाधायो । इंदियदिसा य तारा, वासमसज्झाइयं चत्र ॥ ६४१ ॥ जइ पुरा बच्चता, जी जोईच तो नियति । निम्याप दोष उ अच्छेति दिसा निरिक्खता ।। ६४२ ।। गोणादि कालभूमिए, होआ संसप्पगा व उद्वेजा । कविहसियावासविज्जु-कगजिए बावि उवघातो ||६४३ ॥
सज्झाय
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तथा
आपना नाम- आपुहिता गच्छन्ति दंड महाय म स्थपण वंदामि खमासमणो कालस्स वैलं निरूवेम । एवं व यदि न पृच्छन्ति ततो व्याघातो भवति न प्रायः कालः । अथाविनयेन वा पृच्छन्ति तथाऽपि व्याघात एव । कृतिकर्मच-यदि न कुर्वन्ति, अविनयेन या कुर्वन्ति - स्थिकां च यदि न करोति, अविनयेन या करोति स्थलने या गच्छतां यदि स्तम्भादी भपति पतनं यामन्यतमस्य यदि भवति एवमेभिघातो भवति । 'इंद्रिय शिवसेन्द्रियादीनामिन्द्रियाणां विषयास्ते अ मनुकूला भवन्ति ततो न गृह्यते । एतदुकं भवति- यदि हिन्दि मिधीत्येवमादि पति शमं तत एवं गन्धश्वाशुभो यदि भवति, यत्र गन्धस्तत्र रस इति, विरूपं पश्यति रूपं किचिद एवं सर्वत्र योजनीयं ततो निि तथा दिग्मोहश्च यदि भवति ततो न गृह्यते । तारकाश्च यदि पतन्ति, वर्षणं या यदि भवतिः तत एभिरनन्तरोक्तैर्व्याघातैः कालो न गृह्यते । अस्याध्यापिकं व यदि भवति तथा यदि पुनर्पूजां सुतं ज्योतिषां निः उद्द्योतो वा भवति ततो निवर्त्तन्ते यदा तु पुनरुलक्षणो व्याधातो न भवति तदा नि
घाते सति द्वावेव तदिनिरुपयन्ती मात्रम् । तथा एभिका कालभूमी गतानामुपघातो भवति । यदि तत्र का लमण्डलके गौरुपविष्टः आदिग्रहणाद- महिषादियां उपविष्ट भवति ततो व्याघातः तस्यां कालभूमी संसर्पगा:- पिपीलिकाय उत्तिरन् ततब्ध व्याघातः कदाचिद्धा क पिहसितं विरलयानरमुखसितं भवति । अथवा पिसि तम् - 'उदितयं वा दीसई' जलं वा विद्युत् वा भवति, उल्कापातो वा भवति, गर्जितध्वनियों श्रूयते, एभिः सर्वैव्याघातः कालस्य, न गृह्यत इत्यर्थः ।
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,
सम्झायमर्थिता, कणगं दण तो नियति । वेलाऍ दंडधारी, मा बोलं गंडए उनमा ।। ६४४ ॥
एवं ते कालवेला निरूपणार्थे निर्गताः स्वाध्यायमकुर्वाणा एकाग्राः कालवेला निरूपयन्ति । अथ तत्र कनकं पश्यन्ति ततः प्रतिनिवर्तन्ते । कनकपरिमाणं च वक्ष्यति - "तिपंचस'सेव घिसिसिरवास " इत्येवमादिना । अथ तन वर्त्तते तदा कालग्रहणवेलायां जातायां दण्डधारी प्रविश्य गुरुसमीपे कधयति बहुत कालमा वर्तमा वोलं कुरुत अल्पशीरवहितैश्च भवितव्यम् । अत्र च गण्डकदृष्टान्तः, यथा हि ग एडकः कस्मिश्चित्कारणे आपने उत्कुरुटिकायामारुह्य घोपयति ग्रामे इदं प्रत्यूषसि कर्त्तव्यम् । एवमसावपि दण्डधारी भणति - यदुत कालग्रहणवेला वर्त्तते ततश्च भवद्भिरपि गर्जितादिषूपयुक्तैर्भवितव्यमिति ।
अघोसिए बहू, सुम्मि सेसेसु निवडई दंडो ग्रह तं बहुहिं न सुयं, दंडिजइ गंडओ ताहे ।। ६४५॥ एवमाद्योषिते सति दण्डधारिया बहुभिश्वतं शेषाश्च स्लोकासी तम् ततश्च तेषामुपरि डो सूत्राधकरणं नानुज्ञायते। अधेशं तदा घोषितं ततश्च तस्यैव चारो पतितस्यैव स्वाध्यायनिरोधः क्रियते कथं गण्डकस्यैव ? यथा
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सज्झाय
गडकेनाघोषिते बहुभिग्रमीण सति ये स्लोफेने श्रुतं ते दराज्यन्ते, अथाघोषिते स्तोकैः श्रुतं बहुभिर्न श्रुतं ततो गराइ एच डी भितीति ।
( २८३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कालो सम्झाय तहा दो वि समप्यंति जह समं चेन । तह तं तुलंति कालं, चरिमदिसं वा असञ्झागं । । ६४६ ॥ तौ च प्रत्युपेक्षको कालः सन्ध्या च यथा द्वे अपि समकमेव समाप्ति व्रजतस्तथा तं कालं तुलयतः । एतदुक्तं भवति - यथा कालसमाप्तिर्भवति सन्ध्या च समाप्तिं याति तथा तुलयतः प्रत्युपेक्षको 'चरिमदिसं या सम्मागं' ति-परिमा- पश्चिमां दिग सन्ध्या-विगतसन्ध्या भवति यथा कालश्च समाप्यते तथा गृह्णन्ति ।
इदानीं किंविशिष्टेन पुनः कालः प्रतिजागरणीय ? इत्यत आहपियधम्मो दढम्मो, संविग्गो चेवऽवजभीरू य । खेयो य अभीरू, कालं पडिलेहए साहू || ६४७॥ प्रियः इष्टो धर्मोऽस्येति प्रियधम्म तथा दृढः- स्थिरो निलो धर्म पस्य स तथा संविग्गो मोसुखाभिलाषी, अवद्य भीरुः- पापभीरुः खेदशः - गीतार्थः था अभीरुः - सत्त्वसंपन्नः एवंविधः कालं कालग्रहणवेलां प्रत्युपेक्षते साधुः, एवंविधः कालवेलायाः प्रतिजागरणं करोति ।
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त
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इदानीं दण्डधारिणि घोषयित्वा निर्गते पुनश्च स द्वितीयः कालग्राही कालसंदिशनार्थे गुरोः समीपं प्रविशति । कथम् ?
उत्तपुब्वभणिए, अणपुच्छा खलियपडियवाघाते । घोसंतमूढसंकिय, इंदियविसए वि श्रमने ||६४८ ॥ 'सच प्रविशन् आयुक्त उपयुक्तः सन् प्रविशति । एतस्मिंश्व प्रवेश पूर्वोक्रमेव द्रष्टव्यं यतो निर्गच्छतो यो विधिः प्रविशतोऽपि स एव विधिरित्यत श्राह - पूर्वभणितमेतत् । अथ त्वनापृच्छयैव गुरुं कालं गृह्णाति ततश्चानापृच्छ्य गृहीतस्य कालस्य, एतदुक्तं भवति- गृहीतोऽप्यसौ न भवति । तथा स्खलितस्य सतः कालव्याघातः, पतितस्य व्याघातः कालस्य । एवं संजाते सति कालो न गृह्यते। तथा प्रविष्टस्य गुरुवन्दनाले केनचित्सह ज ल्पतः कालो व्याहन्यते । तथा मूढो यदि भवति श्रावसान विधिविषयसिन ददाति तथाऽपि व्याहन्यते कालः तथा शङ्कया न जानाति किमावर्त्ता दत्ता न वेत्यस्यामयस्यायां व्याहन्यते कालः। इन्द्रियविषयाश्च यद्यमनोज्ञा भवन्ति तथाऽपि कालो व्याहन्यते, छिन्धि भिन्धीत्येवं विधान् शब्दान् शृणोति । गन्धोऽनिष्टो यदि भवति य त्र गन्धस्तत्र रसोऽपि, विकरालं रूपं पश्यति, स्पर्शेन लेभिघातो करमापति एवंविधे सत्यामपि वेलायां न गृह्णाति कालम् ।
प्रविश्वास किं करोतीत्यत आह-निसीहिया नमोक्कारे, काउस्सग्गे य पंचमंगलए । पुव्वाउत्ता सब्बे, पट्ठवणच उक्कनातं ।। ६४६ ॥
,
सज्झाय
प्रविशां गुरुसमीपे कालसन्दिशनार्थे यदि निषेधिकां न करोति ततः कालो व्याहन्यते । नमस्कारं करोति-' नमो खमालमणाणं ', अथैवं न भणति ततः कालव्याघातो भवति । प्राप्तश्चेर्यापथिकाप्रत्ययं कायोबहियं व अवस्सं पडिक्कमति, जइ दूराश्रो जदि आसत्सर्गम् अष्टच्छ्रासं करोति, नमस्कारं च चिन्तयति, इरिया श्रो या श्रागतो, पुनरसौ नमस्कारेंणोत्सारयति - पञ्चमङ्गलकेनेत्यर्थः । पुनश्च संदिशापयित्वा कालग्रहणार्थे निर्गच्छति । निर्गन्ध जति आपस्सियं न करेइ चलति पद्धति वा जीयो या अंतरे बेजा एवमादीहिं उपहम्मद " इदानीं का समस्येलायां किं कर्म साधुभिः याह-'बाउ' पूर्वमेव दण्डधारिघोषणानन्तरमुपयुक्ताः सर्वे गर्जितादौ भवन्ति । उपयुक्ताश्च सन्तः कालग्रहणोत्तरकालं सर्वे स्वाध्यायमस्थापन कुर्वन्ति । उक्कनाणसं ति कालचतुष्कस्य यथा नानात्वं भवति तथा वक्ष्यामः कालचतुष्कम् एकः प्रादोषिका अपरोऽर्द्धरात्रिकः, अपरो वैरात्रिकः अपरा माभातिकः । एतश्च भाष्यकारों वक्ष्यति ।
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इदानीं कालं गृह्णतः को विधिरित्यत आहश्रोवावसेसियाए, सञ्झाए ठाइ उत्तराहुत्तो । चवीसगदुमपुष्यि-पुण्वग एकेकपदिसाए ||६५० || लोकावशेषायां सन्ध्यायां 'पुलो कालमंडल पमखित्ता ' निषेधिकां कृत्वा कालमण्डलके प्रविशति, ततश्चोतराभिमुखः कायोत्सर्ग करोति तस्मिथ पञ्चनमस्कारमोच्खासं चिन्तयति । पुनध नमस्कारेणोत्सार्थ मूक एव चतुर्दशति स्तवं "लोगस्सुज्जोयकरं " पठति मुखमध्ये, तथा ' दुमपुष्फिपुण्वर्गति-मपु""ति-मण्यपूर्वकं कहं नु कुज्जा सामन्नमित्यर्थः । एतच एकैकस्यां दिशि चतुर्विंशतिस्तवादि "सामन्नपुगपज्जत कर इंड धारी वि उत्तराभिमुदस्स डियरस वामपाले पुण्यदिसाअरिच्छं दंड भरे उपियो, पुणे तस्व दिसासुचलंतर पंडधारी व तदेष भ्रमति " । इदानीं स गृह्णन् कालं यद्येवं गृह्णाति ततो व्याहन्यते । कथमित्यत आह
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भातमदर्सकिय इंदियविसए य होइ अमसुले । बिंदु वीपरिणय, सगणे वा संकियं वियई । ६५१। भाषमाणः-- घोडसवारेण पठन् यदि कालं गृह्णाति ततो व्याहन्यते कालः । मूढो दिशि अध्ययने वा यदि भवति ततो व्याहन्यते कालः । शङ्कितो वा न जानाति किं मया हुमपुष्यका पठितान वेत्येवंविधायां शङ्कायां व्याहन्यते का लः। इन्द्रियविषयाथ अमनोहा: अशोभनाः सम्हारो यदि भवन्ति तती ब्याहन्यते कालः। 'सम मारह विस्सरं बालाई रोवर्स वा कर्म या पेच्छति पियायाई बीहावणयं, गंधे य दुरभिगंधे, रसो वि तत्थव जत्थ गंधो तत्थ रसो, फासो बिंदुलिट्टपहाराई' एवमेतेष्वमनोशेषु विषयेषु सत्सु व्याघातो भवति । तथा विन्दुर्यद्युपरि पतति शरीरस्योपधेर्या कालमण्डलके या ततो व्याहन्यते ।
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(२८४) सज्झाय अभिधानराजेन्द्रः।
सज्झाय तथा सुतं यदि भवति ततो व्याहन्यते । 'अपरिणत' इति । व्रजति, ततश्चैभिरनन्तरोदितैः कालस्य वधो-भङ्गो भवकालग्रहणभावोऽपगतोऽन्यचित्तो वा जातस्ततश्च ब्याहन्य- |
| तीति । ते कालः । तथा शङ्कितेनापि गर्जितादिना ब्याहन्यते कालः ।
आगम इरियावहिया, मंगल आवेयणं तु मरुनाय । कथम् ?, यकस्य साधोर्गर्जितादिशङ्का भवति ततो न व्याहन्यते कालः, द्वयोरपि शङ्किते न भज्यते कालः, त्रयाणां तु
सब्वेहि वि पट्टविऍहि, पच्छाकरणं अकरणं वा। ६५४ । यदि शङ्का गर्जितादिजनिता भवति ततो ब्याहन्यते । तच्च प्रागस्य च गुरुसमीपमीर्यापथिको प्रतिक्रामति । कायोखगणे-स्वगच्छे त्रयाणां यदि शङ्कितं भवति, न परगणे, त्सर्ग चाटोच्छासं पञ्चनमस्कारं चिन्तयति, तेनैव चोत्साततो व्याहन्यते।
रयति । मङ्गलमिति पञ्चनमस्कारम् उच्यते । तत ईर्यापथिइदानीमस्या एव गाथाया भाष्यकार:
का प्रतिक्रम्य गुरोः पावेदयति-निवेदयति कालमित्यर्थः । किञ्चिद्वयाख्यान (यन्ना) माह
अत्र मरुत्रो बंभणो तेनैव शातं-दृष्टान्तः । तं जहा-कम्हिइ
पट्टण धिज्जाइयाण राइणा दिन्नं, तेसिं च घोसावियं-जो मूढो व दिसऽज्झयणे, भासंतो वाऽवि गिएहइ न सुज्झे।।
सामन्नो सो गेराहउ आगंतूम भाग एत्थ, एवं हक्कारिए अन्नं च दिसझयणं, संकंतोऽणिट्ठविसयं वा ॥३०॥ जो श्रागतो तेण लदो भागो, जो पुण गामाइसु गतो मूढी यदा दिशि भवति अध्ययने वा तदा ब्याहन्यते ।
सो चुक्को । एवं साहू वि दंडधारिणो घोसिए भाषमाणो वा श्रोष्टसञ्चारेण यदि गृह्णाति कालं ततो न
जे उवउत्ता ठिया णिवेदिए य काले जेहिं सशुद्धयति । श्रन्यां वा दिशं संक्रान्तो मोहात् , अध्ययनं वा
ज्झाओ पटुवित्रो ताणं सज्झाओ दिजई । जे पुण विकहाऽन्यत् संक्रान्तं द्रमपुष्पिकां मुक्त्वा 'सामन्नपुब्बए गश्रो उ
दिणा ठिया ताणं सज्झायकरणं न दिजा । एतदेवाहत्तराए वा दिसाए दक्खिणं गतो' यद्वान्यां दिशं शङ्कमानः, ।
सर्वैः साधुभिः स्वाध्याय प्रस्थापिते सति पश्चात्तेभ्यः स्वा
ध्यायकरण दीयते। ये पुनः कालग्रहणवेलायामुपयुक्ता न अन्यद्वाऽध्ययन शङ्कमानो यदा भवति तदा न शुध्यति । |
स्थिताः न स्वाध्यायप्रस्थापनवेलायां निहिता भूतास्तभ्यः अनिष्टे-अशोभने वा शब्दादिविषयसन्निधाने व्याहन्यते ।
स्वाध्यायकरणं न दीयते। कालः, 'ततो श्रावस्सियं काऊण नीसरति कालमंडलायो' एवं गृहीतेऽपि काले यदि कालमण्डलकान्निगच्छन्नावश्य
इदानीं मरुककथानकमुपसंहरनाहकादि न करोति ततो व्याहन्वत एव काल इति।
सन्निहियाण वडारो, पट्टवियपमाय नो दम काल । किञ्च
बाहिठिए पडियरए, पविसइ ताहेब दंडधरो ॥६५५ ।। जो वच्चंतम्मि विही, आगच्छंतम्मि होइ सो चेव। सन्निहितानां त्रैविद्यत्राह्मणानां 'वडारो' वण्टकः श्राकजं एत्थं नाणत्तं, तमहं बुच्छं समासेणं ॥ ६५२॥ रणम्-श्राहानं यथासन्निहितानां, ये तु नागतास्तेषां न व
एटको-विभागो जातः । एवमत्रापि 'पट्टविय' त्ति-स्वाध्याय एव प्रथमं वसतेवजतो विधिरुतस्तद्यथा-" यदि कवि
यप्रस्थापनं यैः कृतं तेभ्यो दीयते स्वाध्यायः । ये पुनः प्रहसियं वा उक्का वा पति, गज्जति वा, एवमाईहिं उवघाओ गहियस्स वि कालस्स होइ, श्रागच्छंतस्स वसहिं'
मादिनस्तभ्यो न दीयते काल इति । काले गृहीते स्वाध्यायो ततश्च यो विधिर्वजतः कालभूमावुक्तः आगच्छतोऽपि पु
भवति । पुनश्च निवेदिते सति काले पुनर्बहिरम्यः प्रतिजानर्वसतौ स एव विधिर्भवति । यत्पुनरत्र वसती प्रविश
गरकः प्रेष्यते । पुनश्च तत्र बहिः स्थिते प्रतिजागरके सति तो नानात्वं-भेदस्तदहं नानात्वं वक्ष्ये समासतः-सं
ततो दण्डधारी प्रविशतीति । क्षेपण।
पदविय वंदिए य, ताहे पुच्छेइ किं सुयं भंते !। इदानीं नानात्वं प्रतिपादयन्नाह
ते वि य कहेंति सव्वं, जंजण सुयं व दिटुं वा ।। ६५६ ॥ निसीहिया नमुकारं, आसज्जावडणपडणजोइक्खे ।।
पुनश्चासौ प्रस्थापितस्वाध्यायो वन्दितगुरुश्च सन् तदा
साधन प्रच्छति दण्डधारी, यदुत-हे भदन्त ! भवतां मध्य अपमञ्जियभीए वा, छीए छिन्नेव कालवहो ॥ ६५३ ॥
केन किं श्रुतम् ?, तेऽपि च साधवः कथयन्ति सर्व यद्यन कालं गृहीत्वा गुरुसकाशे प्रविशन् यदि निषेधिकां न श्रुतं गर्जितादि, दृष्टं वा कपिमुखादि । करोति ततः कालव्याघातः, तथा ' नमोकारं ' नमो पुनश्च तत्र केषाञ्चिद्गर्जितादिशङ्का भवति ततश्च को खमासमणाण इत्येवं यदि न प्रविशन् भणति ततो गृहीतो- विधिरित्यत पाहऽपि कालो व्याहन्यते । तथा 'आसज्जासज्ज' इत्येवं तु यदि एकस्स दोगह वा सं-कियम्मि कीरइन कीरए तिराहं । न करोति ततो व्याहन्यते गृहीतोऽपि । तथा साधोः कस्यचिदावडण-अभिपडण कालो व्याहम्यते, पतनं लेष्ट्रा
सगणम्मि संकिए पइ-गणम्मि गंतुं न पुच्छति ॥६५७।। देरात्मनो वा, ज्योतिष्कस्पर्श वा व्याहन्यते । तथा यदि एकस्य गर्जितादिशङ्कित क्रियते स्वाध्यायः, द्वयोर्वा , त्रप्रमार्जयन् न प्रविशति ततश्च व्याहन्यते कालः । भीतः- याणां पुनर्जिताद्याशङ्कायां न क्रियते स्वाध्यायः । एवं यप्रस्ती वा यदि भवति तथाऽपि व्याहन्यते । सुते या दि स्वगणे शङ्का भवति। ततश्चैवंविधायां स्वगणे शङ्कायो ध्याहन्यते । छिनत्ति वा-यदि मार्जारश्वादिस्तिर्यक् छिन्दन् सत्या परगणे-अन्यगच्छे गया न पृच्छन्ति । किं कारणम् ?
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(२=५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
सज्झाय
यत इह कदाचित्स कालग्राहकः साधू रुधिरादिनाऽनायुल आसीत्, ततश्च देवता कालं शोधयितुं न ददाति । तत्र तु परगणे नेयम् । अथवा परगण एवं कदाचिदनायुक्तः कचि तितुम् तस्मात्परगखो न प्रमाणमिति । इदानीं यदुक्रमासीत् ' कालचतुष्के नानात्वं वक्ष्यामः तत्प्रदर्शयन्नाह - कालचके नाथ- चयं तु पादोसियम्मि सम्बे वि । समयं पचती, सेसेसुधर्म व विसमं वा ।। ६५८ ।। कालानां चतुष्के कालचतुष्कम् । तत्रैकः प्रादोषिका, द्वितीयो तो वैरात्रिका चतुर्थः प्राभातिकः काल इति । एतस्मिन् कालचतुष्के मते तत्र प्रदोषकाले सर्व एव समकं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति । शेषेषु तु त्रिषु कालेषु समकम् - एककाले स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति विषमं बान युगपज्ञा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्तीति ।
इदानी चतुर्णामपि कालादीनां कनकपतने सति यथा
व्याघातो भवति तथा प्रदर्शयन्नाह - ईदियमा उत्ताणं, हति कणगा उ सत्त उक्कोसं । वासासु यतिभि दिसा, उउबद्धे तारगा तिभि ||६५६ ||
-
इन्द्रियैः- श्रषणाऽऽदिभिरुपयुक्तानां प्रति व्याघातं कुर्वन्ति कालस्य कनका उत्कृष्टन सप्त । एतच्च वक्ष्यति । वासासुतिभि दिल ' ति वर्षासु वर्षाकाले प्राभातिके काले गृह्यमाणे तिसृषु दिक्षु यद्यालोकः शुधति चक्षुषो न कुयादिभिरन्तरितस्ततो गृह्यत एव कालः, अन्यथा व्याघात इति । एतद्विशेषविषयं द्रष्टव्यं शेषेषु चिष्याद्येषु कालेषु चतसृण्यपि दि आलोको यदि शुज ति ततो गृह्यते वर्षाकाले नान्यथा । एतच्च प्रकटीकरिष्यति । 'उपजे तारमा तिथि सि-शीतो कालोराधेषु त्रिषु कालेषु यदि मेघच्छन्नेऽपि तारकात्रयं दृश्यते ततः शुद्धयति कालग्रहणम् । यदि पुनस्तिस्रोऽपि न ततो न प्राह्यः प्राभातिस्तु काल वैश्यमानायामप्यकस्यामपि तारकायां गृह्यते कालः । वर्षाकाले त्वेकस्यामपि तारकायामदृश्यमानायां चत्वारोपिकाला गृह्यन्ते
से
इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याख्यानयतिकणगा हति कालं, तिपंचसन्तेव घिसिसिरवासे । उकाउ संरेहागा, रेहारहितो भये कणगो ।। ३१०॥ कनकाः प्रति कालं त्रयः पञ्च सप्त यथासंख्येन 'धिसिसिरवासे ' ग्रीष्मकाले त्रयः कनकाः कालं व्याघ्नन्ति, शिशिरकाले पञ्च मन्ति काले वर्षाकाले सह प्रति का लम् । इदानीमुल्काकनकयोर्लक्षणं प्रतिपादयन्नाह - उल्का सरेखा भवति । एतदुक्तं भवति - निपततो ज्योतिष्पिण्डस्य रेखायुक्तस्य उल्केत्याक्या । स एव च रेखारहितो ज्योतिष्पिड कमकोऽभिधीयते ।
सव्वेऽवि पढमजामे, दोनि उ बसभा उ आइमा जामा | तो होइ गुरूणं, चउत्थम्रो होइ सव्वेसिं ॥ ६६०॥ तस्मिंश्च प्रादोषिके काले गृहीते सति सर्व पत्र साभवः प्रथमयामं यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति । द्वौ त्वाद्यौ यामी ७२
सज्झाय
वृषभाणां भवतो गीतार्थानाम्। ते हि सूत्रार्थ चिन्तयन्तस्वायमतिक्रान्तं भवति तृतीया च पौरुष्पवतरति । ततस्ते देव काले हस्ति अहरतियं उवज्झायाणं दिसावेत्ता ततो कालं घेणं परिव उट्ठर्वेति, वंदणयं दाऊण भणन्ति - सुद्धो कालो, आयरिया भांति - तहसि, पच्छा ते वसभा सुयंति, आयरिनो वि बितियं उट्ठाबेला कालं पडियरावेद, ताहे एगवित्तो जाय देरसियरस कालरस - बेलफालो, तां तर अतित सो कालपडिलेहगो प्रायरियस डिसंदेसविता बेरलियं कालं वर । आयरियां वि कालरस परिशमिता सोचति । ताहे ज सोइयज्ञया साहू आसी से उट्ठेऊण घेरलियं सम्झायं क रेति जाय पाभाश्याला जाया । ततो गो साहू उवज्झायरस या अरणस्स वा संविसावer पाभाइयं कालं गेराहर, जहा नवराहं कालगह
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बेला पहुच्चति सम्झाए भारती व पुणो तां साहु सच्चे उद्वैति किह पुरा नव काला पडिहिज्जेति पदमो उवट्टियो कालग्गाहो तरल तिथि वाकालो उपहओ एम्म मंडल तो पुणो विति उट्ठे सो वितिए मंडलर तिनि बारा लेइ । तिस्स जदिन सुति ततो तर साह उर सोच लिए मंडल तिरिए धारा लेह, लितस्स जदि न सुमति तां भग्गो कालो | एत्थ लिताण साहू नव वाराऽवसाने पमा फुइति । ततो ती बेला पन्तितिरिय कालगाहिणो नऽत्थि, किं तु-दुवे चैव ततो इको पदम पदमकालमंडलए तिगिग धारा लेऊण ततो विलिए दो बारे गिराह । तता बितिनां साहू बीयप चेव कालमंडलए एकं वारं लेऊण ततो तइए मंडले तिनि वारातो गेराह । एवं च नव वारा हवंति । श्रहवा-पढमे चेव कालमंडलर एगां चुत्तारि वाराम्रो लेह बितिय पुण वितिए कालमंडलर दो वाराओ सह । सतिए तिमि वाराश्रो ले सो चेव घिति । एवं या दोर साहूणं नव वाराश्रो भवंति । अह एक्को चेव कालग्गाही ततो
वारण सो क्षेत्र पढमे तिन्नि बारा लेह । पुणो सो चैव वितिश्रो मंडले तिम्नि वारा लेइ । पुणो सो वेव ततिए मंडलए तिनि चैव वाराश्रो लेइ । एसो पाभाइयकालस्स विही । एवं च सति कालस्स पडिक्कमित्ता सुवंति । एगो न पडिक्कमति । सो अववारण कालं निवेदिस्सर ।
इदानीं यदुकं " वासासु य तिरिए दिल " ति
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तद्वयाख्यानयन्नाह भाष्यकारः
वासासु यतिष्ठि दिसा, हवंति पाभाइयम्मि कालम्मि । सेसेसुतीसु चउरो, उउम्मि चउरो चउदिसं पि॥ ३११ ।। वर्षासु तिस्रो दिशो यदि कुड्यादिभिस्तिरोहिता न भयन्ति ततः प्राभातिका कयते। शेषेषु त्रिषु कालेषु चतस्रोऽपि दिशो यदि कुड्यादिभिस्तिरोहिता न भवन्ति ततकाला है, माम्यथा उउम्मि चउरो चउदिसं पित्त ऋतुबद्धे काले चत्वारोऽपि काला गृह्य१- श्यं गाया गान्यकृत इति अङ्केषु वैपम्यम् ।
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सज्झाय अभिधानराजेन्द्रः।
सज्झाय ग्त, यदि चतोऽपि विशोऽतिरोहिता भवन्ति, नाम्यथा ।| सोधेब पि भवे, नाणसं उयरि सज्झाए ॥६६४|| एतदुक्तं भवति-पतषवपि विषु यद्यालोको भवति तत
य एव शयितव्ये विधिः पूर्वमेकानेकाना प्रत्युपेक्षकाणी प्रत्यारोऽपिकाला गृह्यन्ते ।।
व्यावर्णितो बलतिद्वारे स एवात्रापि एव्यः , नानात्वं यइदानीम् " उउबखे तारका तिरिण" ति व्याख्यायते
दिपरमिदं यदुत स्वाध्यायं कृत्वा स्वपम्तीति । मोघः । तिसु तिरिण तारगा उ, उदुम्मि पाभाइए अदिले वि। पं०प० । ध०मा००। बासासु अतारामा, चउरो छमे. निविडोऽवि ॥ ३१२ ।।
__स्वाध्यायविधिःत्रिषु-मायेषु कालेषु घनसंछादितेऽपि तुबखे काले स्थाध्याय-ति, अन्षयस्तूक्त एष , स्वाध्याय कियदि तारकास्तिस्रो श्यन्ते ततनयः काला प्राधा गृह्य- यत्काल कार्य इत्याह-पाचपौरुपीमिति-प्रथमपौरुषीं पादोन्त इति । 'पाभाइए अदिढे बि' सि-प्राभातिके काले नप्रहरं यावदित्यर्थः । अत्र विधिश्चैवं-बसतेईस्तशतावधि गृह्यमाणे तुबजे घनाच्छाविते यदि तारकात्रितयमपि न क्षेत्रं शोधयित्वा तत्रास्थिप्रमुखं पतितं विधिना परिष्ठाप्य रश्यते तथाऽपि गृह्यते काल इति, वर्षाकाले पुनधनाच्छा- वसति प्रवेश्यन्ति गुरव साधवः । यः पुनः कालग्राही स वितेऽपि प्रष्टतारा एष चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते । छन्ने मुखपत्रिकाप्रतिलेखनापूर्व वन्दनके दत्त्वा वसर्ति शुद्ध व न साधकाशे पते चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते । ' निविट्ठो कालं प्रवेदयति , ततश्चोपयुक्तः पूर्व वाचनाचार्यस्तवनुतदवि' ति-प्राभातिके त्वयं विशेष:-उपविष्टोऽपि छन्ने स्थाने नुशाताश्तरेऽपि सूत्रोक्नविधिना स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति, ऊर्द्धस्थानस्यासति गृहाति ।
यदुक्तं सर्वमेतद्यतिदिनचर्यायाम्एतदेव व्याख्यानयनाह
"हत्थसयं सोहिता, जाणित्ता पसवमिथिमाईणं । ठाणासति बिंदसुं, गेहइ विट्ठो वि पच्छिमं कालं।
परिठविध अट्ठिपमुहं , विहिणा बसहिं पवेइंति ॥१॥ पडियरइ बाहि एको, एक्को अंतडिओ गिराहे ॥६६१॥ जे उण कालग्गाही, ते पुत्ति पहिऊण किरकम्मं । स्थानस्याऽसति, पतदुक्तं भवति-यईस्थितोन शक्नोति प्र.
काउं वसहिं तत्तो, कालं सुद्धं पवेति ॥२॥ हीतुं कालं ततः स्थानाभावे सति तोयबिन्दुषु वा पतत्सु स.
सिखंतसिटुविहिणा , उवउत्तो पट्टवेह सपझायं । रसु गृह्णात्युपविष्टः पश्चिम-प्राभातिकं कालं तथा प्रतिजागर- पढम वाणायरिभो , तयणुराणाया तहा इअरे ॥३॥" णं करोति,बारि एको स्थितः। भोलिकापातादेरधस्तास्थितः इयं च मण्डली सूत्रविषयेति सूत्रमण्डलीत्युच्यते। सा साधुः, एकच साधुरम्तः-मध्ये स्थितो गृहाति कालमिति । खाद्यपौरुषीप्रमाणेति आधा पौरुष्यपि सूत्रपौरुषीत्युच्यते । इदानीं कः कालः कस्यां दिशि प्रथम गृखते ?,
इवानी तूपयोगकरणकाले स्वाध्यायं कुर्वन्तो गीतार्था एनां एतत्प्रदर्शयन्नाह
सत्यापयन्ति, यतस्तत्रैव-" उबोगकरणकाले, गीप्रथाज पामोसियऽट्टरते, उत्तरदिसि पुवपेहए कालं ।।
करेंति सज्झायं । सो सुत्तपोरिसीए , पायारो लिभो ते
हिं ॥१॥” इति । द्वितीया पौरुषी त्वर्थविषयेति शेयमित्यु बेरत्तियाम्म भयणा, पुवदिसा पच्छिमे काले ॥६६२॥
त्सर्गः, अपवादस्तु अगृहीतसूत्राणां बालानां वे अपि पौरुप्रादोषिकः अर्धरात्रिकश्च कालः द्वाषप्येतावुत्तरस्यां
ध्यौ सूत्रस्यैव, गृहीतसूत्राणां तु वे अप्यर्थस्येति, तदुक्तं तदिशि पूर्व-प्रथमं प्रत्युपेक्षते-गृहाति, ततः पूर्वादि
त्रैव-" उस्सग्गेणं पढमा छग्घडिमा सुत्तपोरिसी भणिविजु, वैरात्रिके-तृतीयकालें भजना-विकल्पः कदाचित्
श्रा। बिइया य अत्थविसया , निहिट्ठा दिट्ठसमरहिं ॥१॥ उत्तरस्यां पूर्व पूर्वस्यां वा, पुनः पश्चिमे-प्राभातिके
बिइअपयं बालाणं, अगहिश्रसुत्ताण दो वि सुनस्स । जे जहि काले पूर्वस्यां दिशि प्रथमं करोति कायोत्सर्ग ततः पुनर्द
असुत्तसारा, तेसिं दो चेव अस्थस्स ॥२॥” इति : च स्वाक्षिणादाविति ।
ध्यायो-वाचनापृच्छनापरिवर्सनाऽनुप्रेक्षाधर्मकथारूपः पञ्चसज्झायं काऊणं, पढमवितीयासु दोसु जागरणं ।
विधः । ध० ३ अधि०। “पडिकमंताणं पडिक्कमणकालं. अनं वाऽवि गुणंती, सुगंति कायंति वाऽमुद्धे ॥६६३॥ जाव सज्झायं करिजा दुवालसं" महा०१चू० । चतुष्काल एवं यदि शुद्धधति प्रादोषिकः कालस्ततः स्वाध्याय स्वाध्यायः कर्तव्यः । नि०चू०१६ उ०। (चतुष्कालस्वाध्यायव. कृत्वा प्रथमद्वितीयपौरुष्योर्जागरणं कुर्वन्ति साधवः । श्र- क्तव्यता 'पुच्छण' शब्दे पञ्चमभाग द्रष्टव्या।) (तथा थासौ प्रादोषिकः कालो न शुद्धस्ततः अन्यत्-उत्का- 'कालियसुय' शब्दे तृतीयभागे ५०० पृष्ठे द्रष्टव्या ।) लिकं गुणयन्ति शृण्वन्ति ध्यायन्ति, तथाऽशुद्धे सति,
पछविय वंदिए वा, ताहे पुच्छंति किं सुयं भंते !। एसिंह अववाओ भरणा--जति पाोसिश्री सुद्धो ततो अगरत्तिो, जद विन सुज्झा तह वितं चेव पवेयात्ता
ते वि य कहेंति सव्वं, जेण सुयं व दिटुं वा ॥१३६५॥ सज्झायं कुणति । एवं जा बेरत्तिो न सुज्झर ततो दंडधरेण पटुविए बंदिए, एवं सबेहि वि पट्टबिए पुच्छा अणुग्गहत्थं, जब अडरत्तिो सुद्धो तो तं चेव भवा-अजो ! केण किं दिटुं सुयं वा? दंडधरो पुच्छह अणो पवयइत्ता सज्झायं कुणति । एवं जा न पाभाइओ तो वा ते वि स ( ब ) कहेंति जति सव्वेहि वि भणिय-न तं चेव पवेयात्ता सज्झायं कुणंति । एवं द्रव्यक्षेत्रकालभाषा किंचि सुयं दिटुं वा, तो सुद्धे करति सज्झायं । श्रह एगेण ज्ञातव्या इति ।
वि किंचि विजुमादि फुडं दिटुं गजियादि वा सुयं तो अजो चेव य सयणविही, उणेगाणं वनिनो वसहिदारे। । सुद्ध न करेंति ति गाथार्थः ।
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सज्झाय अभिधान राजेन्द्र
समाय मह संकियं
हाधि पाभा काल गेएहति । वालाकाले पुण उरो वि इकस्स दोरह व सं-कियाम्म फोरइ न कीरती तिरहं । ।
काला अम्भारसंथरे तारासु प्रदीसंतासु विगेएहति ।
'बने निबिडो' सिमस्य प्याण्यासगणम्मि संकिए पर--गणं तु गंतुं न पुच्छति ।१३८६।।
ठाणासइ बिंदुसुम, गिएहं चिड्डो वि पच्छिमं कालं । जदि एगेण संविखं दिटुं सुयं था, तो कीरा साझाभो,
पडियर पहिं एको, एको [व] अंतडिमो गिरहे ।१३६२। दोरह वि संविखे कीरति, तिराहं विज्जुमाविषण संदेहेण | कीर सभामो, तिरहं प्रणाण संदेहे कीरद, सगणम्मि
जवि वि वसहिस्स बाहिं कालग्गाहिस्स डाभो मस्थि
ताहेमंतो छरणे उद्दिमो गएहति । मह उजाडियस्स विसंकिए परवयणामोऽसभाभो न कीर । खेत्तविभागण
तो ठामो नरिथ ताहे छरणे व मिथिट्ठो गिराहा। थातेसिं चेष असज्झाइयसंभयो।
हिडिनो विपको पडियर । वासबिंदु परंतीसुमि'जं पत्थं णाणतं तमहं वोच्छ समासेग्में 'ति-मस्यार्थ:- यमा अंतो ठिो गिराहा । तत्थ वि उद्घट्टिनो मिसरणो कालचउके पाण-त्तगं तु पामोसियम्मि सम्वे वि।
था । नवरं पडियरगो वि अंतो ठिमोवेष पश्यिरा। एस
पाभाइप गच्छुबग्गहवा अवधाविही। सेसा काला ठासमयं पट्टवयंती, सेसेसु समं च विसमं वा ॥१३८७॥
णासति न घेत्तब्वा, भाइराणतो धा जाणियव्वं । एवं सम्वं पात्रोसियकाले भणिय, याणि चउसु कालेसु 'कस्स कालस्स कं दिसमभिमुहेहि ठायब्व' मिति भाष्यतेकिंचि सामरणं किंचि विसेसियं भरपामि, पाश्रोसियं दं- पामोसि अङ्करत्ते, उत्तरदिसि पुब्बपेहए कालं । उधरं एकं मो सेसा सव्वे जुगवं पटुवैति, सेसेसु निसु
वेरत्तियम्मि भयणा, पुवदिसा पच्छिमे काले ॥१३६३॥ श्रद्धरसवेरत्तियपाभाइए य समं घा विसमं या पट्ठति ।
पाओसिए अहरत्तिए नियमा उत्तराभिमुहो ठाइ, 'वेरसिप किं चान्यत्
भयण' त्ति इच्छा उत्तराभिमुहो पुव्वाभिमुहो वा पाभाइए इंदियमाउत्ताणं, हणंति कणगा उ तिन्नि उक्कोसं । नियमा पुब्वाभिमुहो। वासासु य तिनि दिसा,उउबद्धे तारगा तिनि।१३८८।
इमाणि कालग्गहरणपरिमाणं भरणासुट्ट इंदियउवोगउवउत्तेहिं सम्वकाला पडिजागरियब्वा
कालचउकं उक्को-सएण जहतियं तु बोद्धव्वं । घेत्तव्या, कणगेसु कालसंस्खाको विसेसो भएणइ-तिरिण |
बीयपएणं तु दुगं, मायामयविप्पमुक्काणं ।। १३६४ ॥ गिम्हे उवहति त्ति, तेण उक्कोस भएणइ, चिरेण उवघा
उस्सग्गे उक्कोसेणं चत्तारि काला घेप्पंति । उस्सग्गे चेउत्ति, तेए सत्त (तिरिण) जहरणं सेसे मज्झिमं ।
व जहरणेण तिगं भवति । 'बितियपए ' ति-प्रववाओ, अस्य व्याख्या
नेण कालगं भवति, अमायाविनः करणे प्रगृह्यमाण
स्येत्यर्थः । अहवा-उकोसणं चउकं भवति । जहरणेण कणगा हणंति कालं,ति पंच सत्तेव गिम्हि सिसिरवासे ।
हाणिपदे तिगं भवति । एक्कम्मि अगहिए इत्यर्थः । बिउका उ सरेहागा, रेहारहितो भवे कणभो ॥१३८६॥ तिए हाणिपदे कर दुगं भवति । द्वयोरपहणत इत्यर्थः , कणगा गिम्हे तिनि सिसिरे पंच वासासु सत्त उबहणंति,
एवममायाविणो तिन्निपा अगिराहतस्स एको भवति । उक्का पुणेगाधि , अयं चासिं विसेसा-कणगो सएहरेहो।
अहवा-मायाविमुक्तस्य कारणे एकमपि कालमगृहतो न पगासरहिओ य, उका महंतरेहा पकासकारिणी य ।
दोषः, प्रायश्चित्तं न भवतीति गाथार्थः। अहवा-रेहारहियो विप्फुलिंगा पभाकरो उक्का चेव ।।
___ कह पुण कालचउकं ?, उच्यते
फिडियम्मि अङ्करते, कालं पित्तुं सुवंति जागरिया । 'वासासु तिरिण दिसा' अस्य व्याख्या
ताहे गुरू गुणंती, चउत्थि सव्वे गुरू सुबइ। १३६५॥ वासासु य तिन्नि दिसा,हवंति पाभाइयम्मि कालम्मि ।
पादोसियं कालं घेसु सव्वे सुत्तपोरिसिं का पुन्नपोसेसेसु तीसु चउरो,उडुम्मि चउरो चउदिसि पि ।१३६०।।
रिसीए सुत्तपाढी सुवैति । अत्यचितया उकालियपाढियो जत्थ ठिो वासाकाले तिन्नि वि दिसा पेक्खा तत्थ य जागरंति । जाव बहुरत्तो । ततो फिडिए अहरत्ते काल ठिो पाभाइयं कालं गेराहर, सेसेसु तिसु वि कालेसु घेत्तुं जागरिया सुवंति, ताहे गुरू उठूत्ता गुणेति । जाव वासासु ( उदुबद्धे सव्वेसु) जत्थ ठिो चउरो वि दि- चरिमो पत्तो। चरिमजामे सब्वे उद्वित्ता वेरत्तियं घेत्तुं साभाओ पेच्छह तत्थ ठिोऽवि गेराहा।
सज्झायं करेंति, ताहे गुरू सुवंति । पत्ते पाभाइयकाले 'उडुबद्धे तारगा तिन्नि' अस्य व्याख्या
जो पाभाइयं काले घेच्छिहिति सो कालस्स पडिक्कमिउं
पाभाइयकाल गेराहर । सेसा कालवेलाए पाभाइयकालस्स तिसु तिमि तारगाओ, उडुम्मि पाभातिए अदिदेवि ।
पडिकमंति । ततो पावस्सयं करेंति । एवं चउरो काला वासासु (य)तारगाओ,चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि ।१३६१ भवंति। तिसु कालेसु पाोसिए अड्डरत्तिए वेरत्तिए , जति तिरिण कहं ? , उच्यते-पाभाइए अगहिए सेसा तिनि ताराश्री जहरणेण पेच्छंति तो गिएहति । उडुबद्धे
तिन्नि। अहवावेव अम्भादिसंथडे जर वि एक पितारं न पिछति त- । गहियम्मि अङ्करते-वेरत्तिय अगहिए भवइ तिने।
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(२८८). सज्झाय अभिधानराजेन्द्रः।
सज्झाय वेरत्तिय अड्डरत्ते, अइ उवोगा भवे दुमि ॥१३६६।। एक्कस्स गिराहो छीयरुदादिहए संचिक्ख इति प्रहपडिजग्गियम्मि पढमे, वीयविवजा हवंति तिनेव ।
णाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिराहद, एवं तिरिण वारा तो
परं अण्णो अपणम्मि थंडिले तिरिण वाराउ, तस्स वि पाश्रोसिय वेरत्तिय,अइउवोगा उ दुमि भवे ।१३६७/
उवहए अपणो अपणम्मि थंडिले तिरिण बारा तिराई रत्तिए अगहिए सेसेसु तिसु गहिएसु तिरिण , अह- असई दोरिण जणा णव बारामो पूरेड । दोण्ह वि असती रतिए वा अगहिए तिरिण, दोरिण कहं, उच्यते, पाउ- ए एक्को चेष एव बाराभो पूर। थंडिलेसु वि भवसियनहरतिपसु गहिपसु सेसेसु दोरिण भये । अहवा- बानो, तिसु वोसु वा एक्कम्मि पा गिएहति । 'परवयणे पाउसियरलिए गहिए 4 योनि । महषा-पाउसियपा- खरमाई' अस्य व्याख्या 'चोपा खरो पच्छ' भारपसुप्रगहिएसुपोरिण, पत्थ थिकप्पे पाउसिए वेष
बोदक माह-जवि रुदति मणि कालबहो ततो खरेण अणुषहएण उपभोगमो सुपरियग्गिएण सम्बकालेण पद्धति रजिते बारहपरिसे उपहमउ, भरणसु विमणिट्ठादिय नदोसो । महवा-बेरत्तिए भारत्तिए मगहिए बोरिणामहः |
विसपसु एवं बेब कालबहो भवतु ? , पा-महारतियपाभाइयगहिएसुबोपिणा भाषा-घरतियपा
प्राचार्य माहभाइरसु गहिपसु, जवा एको तदा भएणतरं गेहा ।का
चोप्रग माणुसणि कालवहो सेसगाण उपहारो।। लचउककारणा इमे कालबउके गहणं उस्सग्गविही वेव । अहवा-पामोसिए गहिए उपहए भारतं घेनुं सज्झायं
पावासुभाइ पुष्बि, पत्रवणमणिच्छ उग्घाडे ।।२२६।। करेति । पाभावमो दिवसट्ठा घेत्तम्बोष । एवं कालचउ |
माणुससरे मणिद्वे कालवहो 'सेसग' ति-तिरिया विई, मणुषहए पामोसिए सुपश्यिग्गिए सव्यं रा पढ
तेसिं जामणिटो पहारसदो सुबह तो कालवंयो। ति । महरत्तिएण विरत्तिएण पतिविरलिएण विभाव
'पाषासिय' ति-मूलगाथायां योऽषयषः अस्य व्याख्या हएण सुपरियग्गिएण पाभाइय असुखे उद्दिष्टुं विषसमो वि
'पाषासुयाय' पच्छवं, जा पाभाश्यकालग्गहणलाए पढंति । कालचांक अग्गहणकारणा इमे-पाउसियं न
पावासियमज्जा पाणो गुण संभरति विवे दिवे रोपति, गिएहति असिबादिकारणो न सुज्झति षा, भारत्तियं
रुवणबेलाए पुषयरो कालो घेतव्यो। महषा-सा वि मगिएहति , कारणतो ण सुज्झति बा, पामोलिपण बा
पच्चूसे रोवेज्जा ताहे दिया गतुं परणविजा, परणवणसुपडियग्गिएण पदंति न गेएहति । घरत्तियं कारणो न मनिच्छाए उग्घाडणकाउस्सग्गो कीरा। गिएहंति न सुज्झाया। पामोसिय अहरण या पदंति, 'एबमादीणि ' ति अस्याषयस्य व्याल्यातिमि वा णो गएहति । पाभाइयं कारणो न गिराहा, न बीसरसहरुमंते, अव्वत्तगडिंभगम्मि मा गिरहे । सुज्झर वा, घरतिएणेव दिवसश्रो पढंति ।
गोसे दरपडपिए, छीए छीए तिगी पेहे ॥ २२७॥ द्याणि पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामि
मच्चायासेण जयंतं वीरसं भन्नद । तं उवहणए , जं पाभाइयकालम्मि उ, संचिक्खे तिमि छीयरुमाणि। पुण महुरसई घोलमाण च तं न उवहणति, जावपरवयणे खरमाई, पावासु य एवमादीणि ॥ १३६८ ।। मजंपिरं तामध्यतं , तं अप्पेण वि वीसरेण उवहणा । व्याख्यां त्वस्या भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति । तत्थ महतं उस्सुंभरोषणेण उवहणा, पाभाइयकालग्गहणपाभाइयम्मि काले गहणविही य , तत्थ गहणविही इमा- विही गया। याणिं पाभाइयपट्ठवणविही-'गोसे दर' नवकालबेलसेसे, उवग्गहियभट्ठया पडिकमई।
पच्छवं, 'गोसि' ति-उदितमादिध, दिसालोय करेता
पवेति । 'दरपट्ठविए' ति अडपट्टबिए जइ छीतादिणा न पडिकमई बेगो, नववारहए धुवमसज्झाओ ।।२२४॥
भग्गं पट्टवणं अपणो दिसालोय करेत्ता तत्थव पवेति । दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभववज्जणट्ठा
एवं ततियवाराए। मेहावीतराण य पलिभंगवज्जणट्ठा, एवं सम्बेसिमणुग्गहट्टा
दिसाबलोयकरणे इमं कारणनवकालग्गहणकाला पाभाइय अणुराणाया। अमओ नवका
पाइन्न पिसियमहिया, पेहिता तिमि तिमि ठाणाई। . लग्गहणबेलाहिं ससाहिं पाभाइयकालग्गाही कालस्स पडिकमति । सेसा वि तं बेलं पडिकमति वा न था। नववारहए काले, हउ त्ति पढमाइ न पढंति ॥१३६६।। एगो नियमान पडिकमा, जइ छीयरुदादिहि न सु- 'आदराणा पिसिय'त्ति-श्राइराण-पोग्गलं तं कागमादीहि ज्झा तो सो चेव रत्तिो सुपडियग्गिो होहिति त्ति प्राणीयं होजा , महिया वा पडिउमारद्धा, एवमाई एगट्टाणे सो वि पडिकंतेमु गुरुणा कालं निवेदित्ता अणुदिए सू- ततो वारा उवहए हत्थलयबाहि राणं ठाणं गंतुं पेहंति रिए कालस्स पडिक्कमति । जइ घेतो नववारे उवहओ पडिलेहेंति । पटुर्विति ति बुत्तं भवति । तत्थ वि पखुत्तविकालो तो नजइ धुवमसज्झाइयमथि त्ति न करेंति हिणा तिन्नि वारा पट्टवेति । एवं वितियठाणे वि असुखे तसरझाय।
ओ वि हत्थसयं अनं ठाणं गंतुं तिन्नि वारा पुखुत्तविहाणेण भववारगहणविही इमो-'सचिक्खे तिरिण छीतरुराणाणि '| पट्टवेति । जह सुद्धं तो करेंति सरझायं । नववारहए खुताइत्ति अस्य व्याख्या
णा णियमा अहो, (ततो) पढमाए पोरिसीए न करेंति सइकिक तिन्नि वारे, छीयाइहयम्मि गिराहई कालं । ज्झायमिति गाथार्थः। चोएइ खरो बारस, अणिदुविसए अकालवहो ॥२२॥ पट्टवियम्मि सिलोगे, छीए पडिलह तिन्नि अन्नत्थ ।
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.(२८६) समाय अभिधानराजेन्द्रः।
सज्झाय सोणिय मुत्तपुरीसे, घाणालोमं परिहरिजा ।। १४००॥ ___ अन्वितिगिट्ट-विगिटुंजह पाहुडमेव नो सुत्तं ॥ १८१ ॥ जदा पट्टवणाए तिनि अज्झयणा समत्ता, तदा उरिमेगो | व्यतिकृमिति खलु प्रकृतमनुवर्तनमस्ति दिकसूधासिलीगा कहियग्यो । तम्मि, समते पट्ठवणं समप्पर । विति व्यतिकृष्ट काले उद्धाटायां पौरुष्यामित्यर्थः, स्वाध्यायमुद्देष्ट्र यपादो गयस्थो।
वा कर्नु वति सूत्राक्षरार्थः। 'सोणिय' ति अस्य व्याख्या
संप्रति भाष्यविस्तर:पालोअम्मि चिलमिणी, गंधे अन्नत्थ गंतु पकरंति । लहुगा य सपक्खम्मी, गुरुगा परपक्खें उद्दिसंतस्स । वाघाइयकालम्मी, दंडग मरुभानवरि नत्थि।।१४०१॥ अंग सुयखधं वा, अज्झयणुद्देसथतिमाई ॥१८२॥ जत्थ सज्झायं करेंतेहिं सोणियवश्चिगा दीसंति तत्थ न
यदि विकृष्ठ-उद्घाटापौरुषीलक्षणे सपक्ष उद्दिशति संयतः; करेंति सज्झायं । कडगं चिलिमिलि वा अंतरे दातुं करेंति । संयतस्याहिशतीत्यर्थः। तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो जत्थ पुण सज्झायं चेव करेन्ताण मुत्सपुरीसकलेवरादीया
लघुकाः । परपक्षः-संयतस्य संयती, संयत्याः संयतस्तत्र ण गंधे भरणम्मि या असुभगंधे आगच्छंते तत्थ सरझायं संयतः संयत्या उद्दिशति, कारणे वा संयती संयतस्य तदा न करेंति । अराण पि बंधणसेहणादि आलोयं परिहरेज्जा । प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः । अथ किमुद्दिशत एवं प्रायश्चिएवं सब्वं निवाघाए काले भणिय । वाघाइमकाला वि एवं त्तमत पाह-श्रङ्गं श्रुतं स्कन्धमध्ययनमुद्देशं स्तुतिम् श्रादिचेव । नवरं गंडगमरुगदिटुंता न संभवति ।
शब्दात् (व्य०७ उ०)शब्दसम्बन्धम् । वृ०। (स्वाध्याये एएसामनयरे-ऽसज्झाए जो करेइ सज्झायं ।
प्रायश्चित्तम् 'थय' शब्दे चतुर्थभागे २३८३ पृष्ठे उनम् ।) सो आणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे ।। १४०२॥
अथ व्यतिकृष्ट काले उद्दिशतः पठता बा को दोषः, श्रत पाहनिगदसिद्धा। श्राव०४१०।
अट्ठहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो । से भयाकेणं अद्वेणं गोयमा! जे भिक्ख जावजीवाए अकालऽऽज्झाइणा सो उ,नाणायारो विराहितो॥१८४॥ अभिग्गहेणं चाउकालियं वायणाइ जहासत्तीए सज्झायं न
शानाचारोऽधा-अष्टप्रकारः 'काल विणए' इत्यादि प्रागुकरेजा, से णं कुसीले गए । अग्नं च जे केई जावजीवाभि
क्ललक्षणस्तेषु चाटसु शानाऽऽचारेषु मध्ये काले इत्यादिको
शानाचारः, सचाऽकालाध्यायिना ज्ञानाचारी विराधिता, ग्गहेण अपुध्वनाणाहिगमं करेजा तस्सासत्तीए पुव्वाहीयं
न केवलमयं दोषः किं वन्येऽपि। गुणेजा तस्स वि य असत्तीए पंचमंगलाणं अड्डाइजे सहस्से
तथा चाऽऽहपरावत्ते से भिक्खू पाराहगे, तं च नाणावरणं च खवइ । कालादिउवयारेणं, न विजा सिझते विणा । तिव्ययरेइ वा भवित्ताणं सिभेजा। महा०३ १०।।
देति रंधे अबद्धंसं, साव अम्मा व से तहिं ।। १८५॥ (अप्रत्या वक्तव्यता 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे ६०६ पृष्ठे
कालाद्युपचारेण विना विद्या न सिध्यति, न केवल न सिगता।)
ध्यति,किंतु-कालादिवैगुण्यलक्षणे रन्ध्र-छिद्रे सति साऽधि.
कृतविद्याधिष्ठात्री देवता अन्य वा तत्रावसरे अवध्वंसं , अहा णं पढमबीयपोरिसीए जइ णं कहाइ महया कारण
ददाति । एष दृष्टान्तः । अयमुपनया-व्यतिकृष्ट काले सूत्र बसेणं अवघडिगं वा सज्झायं न कयं तं तत्थ मिच्छुकडं उहिश्यमाने पठ्यमाने वा सूत्रं निर्जराफलदायितया तया न गिलाणस्स अन्नेसि निबिगइअं । महा० १ चू०। सिध्यति । न केवलं न सिध्यति, किन्तु-यया देवतया सूत्रमजेणं भिवम्व उभयं थंडिलाणि विहिणा गुरुपुरो संदि
धिष्ठितं सा कालातिक्रमेण पठनतोऽक्षाम्यन्ती प्रान्ता वा कासावित्ता णं पागणस्स य संचरेऊणं कालवेलं. जाव स
चिद्दवता अकाले पठनलक्षणं छिद्रमवाप्यावध्वंसं दद्यात् ।
श्रथ कथं ज्ञायते सूर्य देवतयाऽधिष्ठितमत श्राहज्झायं ण करेजा तस्स णं छटुं पायच्छित्तं । महा०१०।
सलक्खणमिदं मुत्ते, जेण सम्बएणुभासियं । (काल एवं स्वाध्यायः कर्तव्य इति 'आयार " शब्दे द्वितीयभागे ३४० पृष्ठे कालाचारप्रस्तावे उक्तम् ।)
सव्वं च लक्खणोवेयं, समहिटुंति देवया ॥ १८६ ॥ (अस्वाध्यायिके स्वाध्यायो न कर्तव्यः, तश्चास्वध्यायि
इदमधिकृतं सूत्रं सलक्षण येन कारणेन सर्वशेन भाषित कमात्मसमुत्थं परसमुत्थं चेति द्विविधम् ' असज्झा
सर्वमपि च लक्षणोपेतं वस्तु जगति देवताः समधितिष्ठन्ति इय' शब्द प्रथमभाग ८२७ पृष्ट व्याख्यातम् ।) (प्रतिपत्सु
ततो ज्ञायते सूत्रमपि देवताधिष्ठितम् ।
अन्यश्चस्वाध्यायो न कर्त्तव्य इत्युक्तम्--' असज्झाय' शब्दे प्रथमभागे ८३० पृष्ठे।)
जहा विजानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं ।
विजा भवति सा चेह, देसे काले य सिज्झइ ॥ १८७॥ व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायो न कर्तव्यः। सूत्रम्--
यथा विद्यानरेन्द्रस्य-विद्याचक्रवर्तिनो यत्किश्चिदपि भानो कप्पा निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वितिगिट्टे काले |
षितं (तत्) विद्या भवति । सा चेह जगति देशे काले या असज्झायं उद्दिसित्तए वा करेत्तए वा ॥१०॥
सिध्यति । न कालाऽऽद्युपचारमन्तरेण । तथा । अस्य संबन्धमाह--
जहा य चक्कियो चकं, पत्थिवेहिं वि पुजद । वितिगिट्टं खलु पगयं, एगंतरितो य होति उद्देसो। । ण वाऽवि कित्तणं तस्म, जत्थ तत्थ न जुजई ॥१८॥
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मज्झाय
यथा वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने । चक्रिणः चक्रवर्तिनश्च क्रम् - श्राशा पार्थिवैरपि सर्वैः युज्यते, न चापि तस्य यत्र तत्र वा कीर्तन - संशब्दनं युज्यते । उक्तो दृष्टान्तः ।
उपनयमाह
( २६० ) अभिधानराजेन्द्र
-
तहा अट्टगुणांवेया, जिसुनीकवा जति ।
पुजते न य सब्वस्थ, तीसे झाया उ जुज्जती ॥१६६॥ तथा तेन प्रकारेण इहजगति जिनस्य या सूत्रीता गुगोपेता वयमानित्याद्यगुणसमन्विता स वैरपि सुरासुरमनुजैः पूज्यते, न च सर्वत्र देशे काले वा तस्याध्यायिता, किन्तु पथक एवं देशे काले च । संप्रति लानेवाली गुलाबाहनिद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं ।
उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥ १६० ॥ निर्दोषं - द्वात्रिंशताऽपि दोषैर्विनिर्मुक्तं सारवत् बहर्थमधिकव्यवहारसूत्रवत् तीययतिलक्षणास्ते क्रमले कृतम् उपमालंकारांपेतम् उपनीतम् उपयो पचारं मितं परिमिताक्षरं मधुरं ललिताक्षरं पदाद्यात्मकतया श्रोत्रमनोहारि ।
,
3
पुब्वण्डे उपरण्डे य, अरहा जेण भासई ।
एसाऽवि देखणा अंगे, जं च पुव्युत्तकारणं ॥ १३१ ॥ येन कारमेन भगवान या पेन व भगवती दे शातिमादाय पीरुयां न पठनीयं नादेयम्। वच्च पूर्व-निशीथाध्ययने उकं कारणं तत्रीदाहरणं लक्षणं तस्मादयकाले पनी नायुदेव्यमिति । सन्ध्याकाले न पठनीयम्। यत आहरतीदिणाण मज्भेसु, उभो संझ रवी ।
चरंति गुज्झगा के इ, ते वासि तु खां सुतं ॥ १६२ ।। रात्रिदिन प्रातस्यायां विकालसंध्यायां सत्यर्थः । तथा उभयोरपि संध्ययोर्मध्याह्नसंध्यायामर्द्धरात्र संध्यायां चेत्यर्थः, येन कारणेन केचिद् गुह्यका व्यन्तरविशेषाश्वरन्ति परिभ्रमन्ति तेन कारणेन तासु चतसृष्वपि संध्यासुन श्रुतमुद्दिश्यते पठ्यते वा, मा भूत् छलनादोष इति
कृत्वा ।
श्राह यदि सन्ध्यासु गुह्यकाश्चरन्ति ततः कथमावश्यकं संध्यायां क्रियते । तत आह
जवहोमाssदिकजेसु, उभयो संझ सुरा । लांगेग भाविया तेरा, संझावासगदेखणा ।। १६२ ।। जपहोमादिकार्येषु उभयोः यः सुरागुका न भावितास्तिष्ठति तावद्वयमावश्यकं कुर्वतेषां तत्र व्यापृतत्वादावश्यकस्यापि च संध्याकृत्यरूपत्वात्तेन संध्यायामावश्यक दशना ।
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एते उ सपक्खम्मी, दोसा आणादओ समक्खाया । परपचसम्म धिराहरा दुहि बिसेष दितो ॥१६४॥ मनीष सदाः स्वपदिशतः श्राशादयो दोषाः समाख्याताः । तद्यथा श्राशा-तीर्थकरराज्ञा
सज्झाय
विराधिता भवति, अनवस्था तं दृष्ट्वा श्रन्येषामपि तथा करणात् मिथ्यात्वं, तीर्थकराशाभङ्गात् । विराधना द्विविधा-संय मविराधना, श्रात्मविराधना । तत्र संयमविराधना ज्ञानाचारविराधनात् आत्मविराधना देवतात् परप प्येते दोषाः केवलं या संयमविराधना सा ज्ञानासारयघातात्मिका, ब्रह्मघातात्मिका च ज्ञातव्या । तत्र द्विविधेन वि पेण द्रव्यविषेण भावविषेण च दृष्टान्तः । तत्र द्रव्यभावविषप्ररूपणार्थमाहदवबिसं खलु दुविहं, सहजं संजोइमं च तं बहुहा । एमेव भावविसं, सपेपणाचेय बहुदा ॥ १६५॥ इयवि खलु द्विविधं तद्यथा-सह संयोगिमंच सं योजन संयोगस्तन नि संयोगि भाषादिमः ६४.२१ इतीमप्रत्यय' । तच्च सहज, संयोगिमं च । बहुधा श्रनेकप्रकारमेवमेव अनेनैव प्रकारे विविध भाषितयथा-सहज संयोगमे च तच प्रत्येकं वचेतनम् च । बहुधा बहुप्रकारम् |
-
संप्रति सहजसंयोनिमष्यविषप्ररूपणार्थमाहसहजं सिंगियमादी, संजाइम घयमहुं च समभागं । दव्वविसं गविहं, एत्तो भावम्मि वृच्छामि ॥ १६६॥ सहजे विङ्गिकादि संयोगिमं घृतं मधु च समभा गम्। एतचेकैकमपि द्रव्यविषमनेकविधं द्रव्यम् ऊ भावे भावविषं वक्ष्यामि ।
प्रतिज्ञातमेव निर्वादयति
पुरिसस्स निमग्गविसे इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए । संजोइमो सपक्खे, दोष वि परपक्खनेवत्थो ॥१६७॥ पुरुषस्य निसर्गविष श्री निपथ्योपेता एवं खिया अि सहजं विषं पुमान् : पुरुषनेपथ्योपेतः । संयोगिमविषं द्वयोरपि संयतस्य संयत्याश्चेत्यर्थः । स्वपक्षः परपक्षनेपथ्यः, तद्यथासंयतस्य पुरुष नेपथ्योपेतः, निर्मथ्याः स्त्री, पुरुषनेपथ्य पेता ।
घाणरसपासतो वा, दव्वविसं वा सई ऽतिपातेइ । सम्बवियानुसारी, भावविसं दुअयं असई ॥ १६८॥ द्रव्यविषं घ्राणतो रसतः स्पर्शतो वा सकृदेकवारतो वा प्रतिपातयतिया-विभाषायाम् तदपि सदाि कं भवति । तथाहि द्रव्यविषं जीवितान्न व्यावयेदपीति, भावविषं पुनः सर्वविषयानुसारि पञ्चस्वपीन्द्रियविषयेषु संप्रापकत्वात्, तथा दुर्जयमल्पसत्वेन जेतुमशक्यत्वा नियमोच्छासकृदनेकवारमतिपातयति विनाशयति भावविषमूतानामनेकमरमाचात् ।
उपसंहारमाह
जम्दा एए दोमा, तम्दा उ सपकले समणसमणीहिं । उसो कायो, किमन्य पुरा कार उद्देसो १६६॥ यस्माद्विपचे ते दोपास्तस्मात् भ्रमराक्षमणीभ्यां स्वप उद्देशः कर्तव्यः संयतैः संयतानामुद्देशः कार्यः, संयतीभिः संयतीनामित्यर्थः । ततः प्रागुक्ता दोषा न भवन्ति । श्राह पर: किमत्र पुनः फार हुशः क्रियते ।
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सज्भार्य
अनुद्दिष्टं कस्मान्न पठ्यते ? तत्राईबहुमाणविणयाउ - सताति उद्देसतो गुणा होंति । पढमो एसो सच्चो, एसो वुच्छं चरणकालं ॥ २०० ॥ उद्देशे हि क्रियमाणे श्रुतस्य श्रुताधारस्य वा श्रध्यापकस्यो परि बहुमानमान्तरः प्रीतिविशेषो भवति, विनयश्च प्रयुक्तः स्यात्, आयुक्तता च महती भवति एते उद्देशतो गुणा भवति । एष सर्वोऽप्यङ्गादिविषय उद्देश प्रथमदशः अत तु स्वाध्यायकरणकालं वक्ष्ये ।
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प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
धयथुइधम्मक्खाणं, पुव्वुद्दि तु होइ संझाए । कालियँकाले इयरं, पुब्बुद्दिद्वं विगिट्ठे वि ।। २०१ ॥ स्तुतिर्धर्माण्याने या पूपदिष्टं संध्यायामपिपउनीयं भवति, कालिकं पुनः श्रुतं प्रथमायां पौरुण्यामुद्दिष्टं काले-प्रथमपीरूपी वरमपीरुपीय ना का इतर उत्कालिकं प्रथमाया पौराहित्यति ऽपि काले संध्यायामस्वाध्यायिकं च वर्जयित्वा पठ्यते । पत्ताण समुदेसो, अंगसुयक्संघ पुब्वमूरम्मि ।
इच्छा निसीहमादी, सेसादि व पछिमादीसुं ॥ २०२ ॥ अध्ययनमुद्देशं वा पठन्तो यदैव श्रवं प्राप्ता भवन्ति तदेव तस्याध्ययनस्याद्देशस्य वा समुदेशः क्रियते तस्क
या पूर्व उद्घाटठायामपि पारुष्यामनुज्ञायते येषामागाढा योगास्तेषां निशीथादीनामिच्छा प्रथमायां चरमायां या पीरुष्य तयामनुशा प्रवर्तते इति शेषादि अध्ययनान्युद्देशका वा दिवसस्य पश्चिमायां पौरुष्याम् श्रादिशब्दाद्रात्रेः प्रथमायां चरमायाञ्चानुज्ञायते ।
अनुज्ञामेवाधिकृत्य विशेषव्याख्यानमाहदिवसस पच्छिमार, निसिन्तु पढमाए पच्छिमाए वा । उद्देज्झमाण य रति गिसीहमादीसं ॥ २०३ ॥ उद्देशाध्ययनानां चानुशा दिवसस्य पश्चिमायाम्, निशि तु प्रथमायां पश्चिमायां या प्रपसंत निशी धादीनामागादयागानां दिवसस्य प्रथमायां पीयामनुज्ञानं न तु रात्री अयादिशब्दस्याधिकार्यसंस्तयत्यमुपदर्शयति
( २६१ ) अभिधानाजेन्द्रः ।
"
दिग्गहया इसका लिउत्तरज्वगणचुनमुनमादी । एएस भरमा पुव्वयहे याऽवि अवरहे || २०४ || आदिग्रहणादादिशब्दोपादानात् यानि दशवेकालिकोतराध्ययमक कल्पधुतादीनि अत्र शब्दादीपपातिका दिपरिग्रहः एतेषामनुशा भजिता विकल्पिता पूर्ण वा स्यादपराह्ने वा ।
"
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सांप्रतमङ्गश्रुतस्कन्धानामनुशाविधिमाहनंदीभाषणचुणे, उ विभासा होइ अंगवसंथे। मंगलसद्धाजणणं, सुयपूयाभत्तवोच्छेदो ।। २०५ ।। श्रङ्गे ते स्कन्धे च भवति । अनुशायां कर्त्तव्यायां नन्दीभाषणं ज्ञानपञ्चको चार चूरों व विभाषा-यदि भवग्लि वासाः शिरसि प्रक्षिष्यन्ते तदभावे केसराप । कस्मादेवमनुशा क्रियत इति चेत् , आनन्दीभाषणे वासनिक्षेप च गङ्गलं भवति । ज्ञानपञ्चकस्य भाव
सज्झाय मङ्गलत्वाद्वासनिक्षेपस्य च द्रव्यमङ्गलत्वात् । तथा अन्येषां परमश्रद्धाजननम्, यथैको 3 15मुकस्याङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्य चं पारगत श्राचार्येण चैवं सकलजनसमक्ष पूजितस्तस्माद्वयमपि गाढतरमुत्साहं कुर्म्म इति, तथा अध्ययनानां वा व्यव दोऽन्यथा नानुज्ञातमन्येषां दीयते इति यः स्यात् ।
अयापवादमाह
farer आयरिए, अंगसंधमुदितम् । मंगलसद्धाभयगो-श्वे य तह निट्ठिए चेव ।। २०६ ॥ स्वपक्ष उद्देशः कर्त्तव्यो न परपक्षे इत्युत्सर्गः । श्रत्र द्वितीपदम् अपवादपदं यदि प्रवर्तिम्याश्त् तं न वि द्यते तत श्राचार्यः परपक्षेऽपि संयतीरूप अ श्रुतस्कन्धं वा उपलक्षणमेतदध्ययनादिकं बोद्दिशति वास त्यपि तस्मिन् प्रवर्त्तिन्याः श्रुते श्राचार्यः संयत्या अ श्रुतस्कन्धं तस्कन्ध वा उदिशति । मङ्गलादीनि भवन्ति ततः स परमं ज्ञानपात्रमिति बुद्धिरुपजायते तथा यस्मादा वामिदमत आदरेण पठनीयमिति पाठविषया मद ती श्रद्धा भवति । तथा यदि पाठे प्रमादं करिष्यामि ततो न पठितमित्याचार्या रुप्येयुरिति भयम् तथा ममेद्माचायेंगौरवेणोद्दिष्टं तस्मादादरेण पठित्वा शीघ्रं समाप्तिं नयामित निडिए तथा निष्ठिने तस्क या समातिनी यथासंभवमेतैरेव कारणीभूतस्कन्धे वा श्राचाऽनुजानीयात् ।
एमेव संगती वा उद्दिसति संजयाण बिइयपदे । असतीऍ संजयाणं, अज्झयणाणं च वुच्छेदो ॥२०७॥ तत् विवक्षितं श्रुतं संयतानां न विद्यते, अध्ययनानां चायथा वच्छेदः स्यात्। ततो द्वितीयपदेनापवादपदेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे संवत्यपि संपतानामुद्दिशांत एवं ता उद्देसो अञ्झाओ वी न कप्पर विगिडे । दोग पहुति लगा, पिराइसा सेव पुत्ता।। २०८॥ एवमुक्रेन प्रकारेण तावदुदेशाभिहितो यथा व्यतिरे काले स न क्रियते अध्यायोऽप्यध्येयं द्वयोरपि लघुकं प्रायश्चित्तम्, विराधना च पूर्वोक्का, ज्ञानविराधना, आत्मविराधना च । तत्र ज्ञानविराधना ज्ञानाचार हननादात्मविराधना प्रान्तवानात् ।
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अश्यापवादमाह वितिगिट्ठे सागारि-याए कालगया असति वुच्छेदो । एवं कप्पड़ तहियं, किं ते दोसा न संती उ ॥ २०६ ॥ कदाचित्साधवः कारणेन सागारिकायां वसतौ स्थितास्तत्र परिचारणाशब्दान् श्रुत्वा यस्य यत्पराजितं स तस्परावर्त्तयति आदिशब्दात् अनेकादिष्यपि समापतत्प स्य यत्परार्जितं स तत् गुणयतीति परिग्रहस्तथा कालगतः संयत कारणे प्रतीक्षापति भवति तदा रात्री जागरणनिमित्तं यस्य यत्पराजितं स तत्परावर्तयति । तथा यस्य सकाशे तत् श्रुतमधीनं स कालगतोऽन्यत्र च तत् श्रुतं नास्ति, ततः संप्रति पठितं मा विस्मृतिं यायात्, अनुसोशलस्तव पचमेते कारीपदमधिकृत्य व्यतिकृऽपि काले स्वाध्यायः कल्पते । अत्र पर आह
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सज्मतय
तत्रापवादपदेन उपतिकृठेऽपि काले पढने कि ते दोषा - भादो न सन्ति न भवन्ति ।
अतरमाह
भाइ जेण जिरोहिं, असा या कारणे ताई | तो दोसो न सँजायइ, जयगाए तहि करेंतस्स ॥२१०॥ भरायते प्रत्रोत्सरं दीयते येन कारन जिनैः कारणे-सा गारिकादिलक्षये तानि पढनान्यनुज्ञातानि तस्मात् कार णात् रहस्यश्रुतस्यापि च यतनया वक्ष्यमाणलक्षण्या तसागारिकापत्यादी पाहता दोष- श्राकाङ्गादिलन संजायते।
( २८१) अभिधानराजेन्द्रः ।
तत्र यतनामाह
कालगयं मुनू, इमा अनुप्पेह दुम्बले जयणा । अभवसहि अगीते, असती तरथेऽणुच्चेयं ।। २११ ।। कालगत मुक्या शेषेषु कारणेभ्यनुप्रेक्षा दुर्बले हर्षवक्ष्यमाणा यतना । श्रन्यस्यां वसतौ गत्वा रहस्यश्रुतं प रावर्त्तयन्ति मा अगीते अगीतार्थस्य श्रुतश्रवणं भूयादिति दे तोः । अथान्य उपाश्रयो न विद्यते ततोऽन्यस्या वसतेरभावे तत्रैव तस्यामेव यानुशब्देन परावर्त्तयन्ति । कागतेऽपि यत्यन्तरे न यान्ति, किन्तु तत्रैव जागरणनिमित्तमनुध्द गुणयन्ति संयत्योऽप्यपवादपदेन सं तानां समीपं परावर्त्तयेर्वा न कश्चिद्दशेषः ८५०७ उ० । (व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायो न कल्पते इत्युक्तम् 'वायणा' शब्दे षष्ठभागे १०६४ पृष्ठे । ) स्वाध्यायहीनता नाम यदि प्राप्तायामपि कालवेलायां कालप्रतिक्रमणं करोति, अधि कता यद्यतिक्रान्तायामपि कालवेलायां काले प्रतिक्रामतिवन्दनादिक्रियां वा तदनुगतां हीनाधिकां करोति इत्यादि सर्यम् आलोया शब्दे द्वितीयभागे ४२० पृष्ठ उक्तम् । ) ( पूर्वोत्तरयाईयो दिशोः स्वाध्यायः समुद्देोऽनुज्ञातस्य इति दिया शब्दे चतुर्थभागे शब्दे चतुर्थभागे २५२७ पृष्ठ उक्तम्) (सवृत्या स्वाध्यायन क इत्युक्तम् ' सचित्त रुख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ।) क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः क्षेत्रे लब्धे तत्र स्वाध्यायं ये न कुर्वन्ति तेषां प्रायश्वितं मासकल्पम् । वृ० १ ३०२ प्रक० । ( सन्ध्यासु स्वाध्यायो न कर्त्तव्य इत्युक्तम् असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे ३० पृष्ठ । ) ( उदकतीरे स्वाध्यायो न कर्त्तव्य इति दगतीर ' शब्दे चतुर्थभाग २४४२ पृष्ठे उक्तम् । ) (रात्रौ संयतीनामुपाश्रयाऽतर स्वाध्यायकरणम् ' विहार' शब्दे षष्ठ भागे १३२७पृष्ठे रा त्रिविहार प्रस्ताव उक्तम् । ) ( यो भिक्षुः स्वाध्यायं कृत्वा प्रत्युपं न करोति तस्य प्रायश्चित्तम् विकहा 'शब्दे षष्ठे भाग १९२६ पृष्ठे गतम् । ) अनुराधारेवतीचित्रामृगशिरोनक्षत्रेषु स्वाध्यायाऽनुज्ञा उद्देश्य समुपदेशौ कुर्य्यात् । ६० प० | स्वाध्यायसमं तपो नास्ति । द० प० ।
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वारसविहम्मिविता, सम्भितरबाहिरे कुसलदिट्ठे । न वि अस्थिनविय होही, सज्झायसमं तवाकम्मं ॥ ८६ ॥ मेहा हुज न हुज व, जं मोहो उवसमेइ कम्माणं । उज्जो कायव्वो, गाणं अभिकखमाणेणं ॥ ६० ॥
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सज्झाय कम्ममसंखिञ्जभवं, खवेइ असयमेव उतो । बहुभये संचियं पि हु, सम्झाएयं खये खबइ ||३१|| सतिरिष्यसुरासुरनरो, सकिंनर महोरगो मगंधब्बो सब्दो उमत्थजणो, पडिपुच्छर केवलि लोए ||३२|| ० प० चन्दविभागपइसा । व्य० ।
स्वाध्यायगुणाः
पडणाई सम्झायं, वेरग्गनिबंध कुराइ विहिणा | पठनपूर्वभूतग्रहणमादिशब्दात्प्रच्छना परावर्तनानुप्रेक्षाधर्मकथा गृह्यन्ते, ततः पञ्चप्रकारमपि स्वाध्यायं करोति - किं विशिष्टम् वैराग्यनिबन्धनं विरागताकारणं विधिना शास्त्रां क्रेन श्यमधष्ठित् । तत्र पठनविधिः पर्यरतकामयम्भ तथा पादप्रसारणम् । वर्जयद्विकथां हास्यमधीयन् गुरुसfeat पृच्छाविधिरयम्-"स
नेव सिजागा कथा आगम्यां संता पुष्ि पंजलीउडो ॥ १ ॥” इति । ध० २०२ अधि ३ लक्ष० । व्य० । ( धर्मकथानां परावर्तनानुप्रेक्षा ' परियट्टा' शब्दे पञ्चमभागे ७२७ पृष्ठे गता । )
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स्वाध्यायफलम् -
सज्झाए भंते! जीवे किं जणयइ ?, सज्झाएणं नानापरवि कम्मं खवे ||१६||
हे भदन्त स्वाध्यायेन पचप्रकारेण जीव किं जनयति, गुरुराद हे शिष्य स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं कर्म छपयति । उत्त० २६ अ० ( दोषाविष्करणम् ' पाढयंत' शब्दे पचमा २५ पृष्ठे गतम्) स्वाध्यायादिदर्शनम् स्वाध्यायात्स्वभ्यस्तादिदर्शनम् जयमानमतिदेव तादर्शनं भवति तदाह-स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः " (२-४४) द्वा० २२ द्वा० । उत्त० ।
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से किं तं सकाए ? सम्झाए पंचहि पाने तं जहावायणा पडिपुच्छणा परियट्टा अणुप्पेहा धम्मक्रहा । सेतं सज्झाए (०८०२) २०२५ श० ७ उ० । मालवीय ऋष्यादीनां स्वाध्यायो मण्डल्यां कल्पते न वा ?, आगमोक्कयतीनां सांप्रतीनानामाचार्याणां भद्दारकाणां च स्वाध्यायो मण्डख्यां कल्पते, नवभ्येषां पार्तमानिकोपाध्यायादीनामिति वृद्धवादः ०२ प्रक० । मदादिखानाश्विनदिनानि सिद्धान्तानादिषु अ स्वाध्यायदिनानीति कृत्वा स्वज्यन्ते तद्वद "इंद" दिनमपि तेन हेतुना कथं न त्यज्यते ?, केचिच्च मतिनस्तद्दिनं त्य जन्ति श्रात्मनां का मर्यादा ?, "ईद" दिन श्रस्वाध्यायविषय पुरनाचरणमे निमित्तमवसीयते ०३ प्रक गुरुसनिधी पाश्चात्यप्रतिलेखनाकियां कुर्वाणाः धायाः स्वाध्यायमुपविश्य कुर्वन्ति ऊर्ध्वथा या स्वाध्यायं विदधति ॥ ही०२ प्रक० स्वाध्यायोऽपि किं हीनाssचारैः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्ताहाच्छन्द नित्यवासिभिः सर्व सह सर्व प्रति निराकृतः तालापादर्मिथ्यात्वंनुयादिति दर्श०४ साध्यमतिक्रमणस्वाध्यायप्रास्तवदरवेष्यपि स्वाध्यायप्रान्तेषु सम्पू नमस्कारः कथनीयो न चेति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् - यत्रा.
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सज्झाय
अभिधानराजेन्द्रः। देशद्वयं तत्र स्वाध्याये नमस्कारद्वयभणनम् , यत्र चैका- सदाण-स्वस्थान-न । श्रात्मीये स्थाने, यत्र हि स तिष्ठति , देशस्तत्रैक एव नमस्कारः पठनीय इति । साम्ध्यभति
बृ०४ उ० । भ० । च०प्र०। द्वादशसंख्यऽहोरात्रमुहूसे , कक्रमणस्वाध्यायप्रान्ते सम्पूर्णनमस्कारपठनं सामाचार्यादौ
ल्प०१ अधि०६ क्षण । सगट्ठाण सटाणं । नि० चू०१ उ०। न दृश्यते परम्परया तु दृश्यते, तेन तदपि मङ्गलरूपत्वाद
इहापत्तिरूपं प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुच्यते । जीता। दोषमेवति ॥८॥ सेन०१ उल्ला० । सामाचार्या नवमद्वारे कालग्रहणविधौ " गिलिउग्गिलिए" इति शब्देन किमुच्यते त.
सट्ठाणगसंकमण-स्वस्थानकसंक्रमण-नका पिपीलिकादर्दानासाक्षरं प्रसाद्यमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-मार्जारादिना मूषि
मण्डादिसंचालन, सट्टाणगसंकमणं पिपीलिगमकोडगादीणं कादौ "गिलितोदगिलित" इति गिलितस्सन्नुदिलितो वान्त.
भमति । नि० चू० १३ उ० । स्तस्मिन् कोऽर्थः ?-स्थानान्तर गिलित्वा वसतेः षष्टिहस्त
सट्टापट्टाणतर-स्वस्थानस्थानान्तर-न० । स्वस्थानात् पूर्वमध्ये श्रागत्य वान्त स्वाध्यायो न भवतीत्यभिप्राय आवश्य
पूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्य उत्पत्तिस्थानाकवृत्यादायस्तीति ॥१२॥ सेन०१ उल्ला० । प्रतिक्रमणहेतुगर्भे संख्याविशेषलक्षणात् गुणनीयादित्यर्थः स्थानान्तराणि । रात्रिकतिक्रमणविधौ रात्रिकप्रायश्चित्तकायोत्सर्गस्ततः
अनन्तरस्थान, स०८४ सम० । चैत्यवन्दन, ततः स्वाध्यायः, एवं पश्चात्प्रतिक्रमणादौ च- सद्राणसरिणगास-स्वस्थानसन्निकर्ष-पुं० । स्वम्-श्रात्मीयं त्वारि क्षमाश्रमणान्युक्तानि सन्ति एवं तु न क्रियते, तकि सजीतायं स्थानं पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं पुलाकादेः पुलायीजमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-यतिदिनचर्यादी स्वाध्याया- कादिभिरेव, तस्य सन्निकर्षः । स्वस्थानसंयोजने, भ० २५ दनु चत्वारि क्षमाश्रमणानि प्रोक्तानि, श्राद्धदिनकृत्यवृत्तिव- श०६ उ०। न्दारुवृत्त्यादौ तु स्वाध्यायादनु प्रतिक्रमणस्थापनमुक्तम् , सद्राणाऽऽरोवणा-स्वस्थानाऽऽरोपणा-स्त्री०। स्वकं स्थानं स्वततस्तानि स्वाध्यायात्पूर्व ज्ञायन्ते । अयं च विधिः ।
स्थानं, स्वस्थानस्यारोपणा स्वस्थानारोपणा। प्रतिसवमानस्य परम्परया बाहुल्यन क्रियमाणोऽस्ति । सामाचारीविशेषण । प्रतिसेवनीयस्थानस्यारोपणायाम् , नि० चू० १ उ० । चोभयथाऽपि अविरुद्धमेति ॥१२॥ सन० ३ उल्ला० ।
१०। सट्टि-पष्टि-स्त्री० । षडावृत्तायां दशसंख्यायाम् , प्रशा०२ पद । प्रणवपूर्वाणां मन्त्राणां जप, द्वा०२२ द्वा० । कुहणाख्यवनस्पतिभेदे, प्रशा०१ पद ।।
सद्वितंत-पष्टितन्त्र-न । कापिलीयशाखे, शा०१ श्रु०५ अ०॥
औ० । अनु० । नि० । पश्चात् पष्टितन्त्रं संवृतमवं कुतीर्थसज्झायजोग-स्वाध्याययोग-पुं० । वाचनाद्युपचारव्यापारे,
जातं तत्कपिलोपदिष्टमिति । श्रा० चू०१० ।( पठितदश०२ चू।
न्त्रात्पत्तिवृत्तान्तम् । कविल ' शब्द तृतीयभागे २८७ सज्झायज्झाणरय-स्वाध्यायध्यानरत-न०। स्वाध्याय एव तसा ध्यान स्वाध्यायध्यानं तत्र रतः । स्वाध्याये ध्याने च रते, सद्वितंतविसारय-पष्टितन्त्रविशारद-पुं० । षष्टितन्त्रं-कापिली दश०८ अ)
। यशास्त्र तत्र विशारदः-पण्डितः। सांख्यवत्तरि, कल्प सज्झायभमि--स्वाध्यायभूमि-स्त्री० | विचारभूमा, स भिक्षु अधि०१क्षण । औ०। बहिर्विचारभूमि संज्ञाव्युत्सर्गभूमि तथा विहारभूमि स्वाध्या- सदिभत्त-पष्टिभक्त-न० । उपवासविंशतो, "सर्द्धि भत्ताई अयभूमि तैरन्यतीथिकादिभिः सह दोषसम्भवान्न प्रविशत् ।। णसणाई छपत्ता" प्रतिदिन भोजनद्रव्यस्य त्यागात् त्रिशद्
आचा०२ थु०२ चू०३ अ० । अन्ययूथिकैः सह न प्रविशत् । दिनैः पणिभक्तानि त्यक्तानि भवन्ति । भ०२ श०१ उ० । नि० चू०२ उ०। (स्वाध्यायभूमिविषयः 'चरियापविट्ठ' सदिय-सनिक-त्रि० । षष्टिवर्षजाते, न० पट्यहोरात्रैः परिशब्द तृतीयभागे १९५६ पृष्ठे गतः।)
पच्यमानषु शालिषु, जं० ३ वक्षः। ध। सज्झायमुकजोग-स्वाध्यायमुक्तयोग-त्रि० । स्वाध्यायेन मु.
सद्रिहायण-पष्टिहायन-त्रि०। पष्टिायनाः सम्बत्सरा को योगो--व्यापारो यस्य सः स्वाध्यायमुनयोगः । स्वा
यस्य स पटिहायनः । षष्टिवर्षजाते , जी. ३ प्रति० १ ध्यायकारिणि, ग०३ अधि०।।
अधि०२ उ०। सज्झायवाय-स्वाध्यायवाद-पुं०। विशुद्ध पाठकोऽहमित्या
सड-सद्-धा। विशरणगत्यवसादनेषु, "सदपतोर्डः” ॥८॥४॥ दिक वादे, स०३० सम०। सज्झायसारणा-स्वाध्यायसारणा-स्त्री० । स्वाध्यायनिर्वाह- २१६॥ अनेनान्त्यस्य डकारः । सडइ । सीदति । प्रा०४ पाद । णायाम् , “गुरुपारतंतं विणो सज्झायसारणा चेव" प
। शट-धा । रुजा विशरणगत्यवसादनेषु, सडति । शटति । श्चा० १८ विव० । (अत्रत्या व्याख्या 'भिक्खुपडिमा' शब्दे
उत्त०५०। विशे पञ्चमभागे १५६८ । १५७७ पृष्ट गता।)
सडंगविय-षडङ्गविद-पुं० । पूर्वोक्तानि पडलानि विचारयसज्झिल्लग--सझिल्लक-पुं० । धर्मभ्रातरि, पं० २०३ द्वार। तीति षडङ्गवित् । कल्प० १ अधि०१क्षण । शिक्षादिविभ्राार, पिं० । वृ० । व्य० । भगिन्याम् , सझिल्लिका । चारके, औ० । नि० चू।। स्त्री० । पि०।
सडण-सटन-न० । कुष्ठादिनाऽगुल्यादेगलने, शा० १७०१ सम्ञासंज्ञा-स्त्री० "शो नः पैशाच्याम्"।८।४। ३०३॥ अ०। तं० । स्वत एव विशरण, प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। इति शस्य नः । सङ्कने, प्रा०४ पाद ।
सहल-शाद्वल-न। प्रत्यग्रहरिते तृणे, शा०१ १० ११०। ७४
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सड
सड्ड - श्राद्ध - पुं० | श्रद्धा - श्रद्धानं यस्मिन्नस्ति स श्राद्धः । श्रद्धेयवचने । स्था० ३ ठा० ३ उ० । तस्वं प्रति श्र द्धावति पञ्चा० ३ विव० । श्रद्धालौ, पञ्चा० १५ विय० । श्रावके, पञ्चा० ७ fare | धर्म्मलिप्सी,
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० २ ० १ ० | दर्शनश्रावके, प्रति० । श्राचा० । प्र० आ० क० । श्राद्धः - श्रद्धावान् दीक्षितस्यापि श्रद्वारहितस्याङ्गारमर्दकांदेरिव त्याज्यत्वात् । ध० ३ श्रfro | ( श्राद्धगुणाः 'धम्मरयण' शब्दे चतुर्थभागे २७२६ पृष्ठे वर्णिताः । ) श्रद्धया क्रियमाणे मृतेषु पित्रादिषु पिण्डदाने, " मृतानामपि जन्तूनां आईशिकारसम्यदीपस्य स्नेह सम्बर्द्धयेत् स्थि धम् ॥ १ ॥ " स्था० १ ठा० भ० । श्री० नि० । श्रद्धाः पाक्षिकदिनेsarचारान् कथयन्ति तत्र पष्ठं दिग्वतं दशमं च देशावकाशिकं कथितम् तदन्ये नाऽङ्गीकुर्वन्ति यद् व्रतद्वयं कथितमस्ति तदात्मश्राद्धैः कथितम् । यत्पष्ठत यावज्जीप्रत्यधिकं दशमं तु दिनप्रत्यविकमित्यपि नाकुति तत्र का युक्तिरिति ? प्रश्नः अत्रांतरम् श्रीश्रावश्यके श्रा वकव्रतांधिकारे देशावका शिकवनालापः कथितोऽस्ति सलिख्यते, यथा- 'दिसिव्ययगहिस्स दिसापरिमाणस्स पइदि परिमाणकर देखायगासि देसावगासिस् समणोवालपण इमे पंच श्रइचारा जाणिव्या न समापरिया से जागेव
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सहावा ३ रुवावाए ४ बहिश्रा पुग्गलक्खवे ५ दाल पकानुसारेण पष्ठदिग्वतस्य संक्षेपरूपदेशावका शिकं स्पतया शायते, तथा योगशास्त्राद्यनेकग्रन्थेषु पष्ठदिनतसंक्षेपरूपदेशाचकाशिर्फ कथितमस्ति तथा-उपासकदशा आनन्दतोचाराधिकारे सामाविकाि लापविस्तारो न कथित स्मारकेचन नाऽङ्गीकुर्वन्ति तत्तु तद्ज्ञानमेव, यतो व्रतोच्चारादी एवं पाठोऽस्ति - अभंते! देवाविश्राणं अंतिर पंचाग्वश्रं सत्तfararasi दुवालसविहं सावयधम्मं पडिवजिस्सामि महादेवापियामा पडिवे करे तथा मनोरानन्तरमेवं पाठोऽस्ति गाहा सम रास्स भगवश्री महावीरस्स अंतिए पंचाग्यं सत्त सिफ्लावर दुवालसविदं सावयधम्मं पडियार, पडि वजित्ता समग भगवं महावीरं वंदर नमसई' एतदालापकद्वये द्वादशवतोच्चाराङ्गीकारः कथं घटते ?, यदि देशाऽयकाशिक न भवति तर्हि पञ्चातीचाराः कथं कथिताः तस्मादानन्देन चत्वारितानि सि स्तराणि नोच्चरितानि यत्प्रतिदिनं वारं वारमुश्चार्यन्ते । पुनः संपतस्तदुरितान्येवेति यम् ॥ ७३ ॥ सेन०४ उज्ञा० । महाविदेदेषु धावा देशवनिस्ते उमयकालमावश्यकं कुवन्ति, किं वा यतिवत्कार समुत्पन्नं कुर्वन्तीति ? प्रश्नः, अत्रोत्तम" दलिय गय पश्विमाव
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श्र नामाश्री | दोराहे पण पाडकमणा, मज्झिमाणं तु दो पदमा ॥२॥ " इति सप्ततिशत स्थानक स्थगाथानुसारेण यदि यतीनां देवसिकरात्रिकप्रतिक्रमणद्वयकरणं प्रत्यहं दृश्यं न धावकार तत्करणे किं यमिति । १४ । सन० ४ उल्ला० ।
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( २६४ ) अभियान राजेन्द्रः ।
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सण
सडकय- श्राद्धकृत त्रि० । श्रावकविहिते, जी० १ प्रति० । सड्डा - श्रद्धा - स्त्री० । " श्रद्धर्द्धि-मूर्द्धाऽस्ये वा " ॥ ८।२। ४१ ॥ अनेनामात्यस्य संयुक्तधकारस्य द्वारा सहा सद्धा । प्रा० । रुची, उत०५ श्र० । अभिलाषे, शा० १ श्रु० ६ ० । ० । इच्छायाम्, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । शा० । मोक्षमार्गोद्यमेच्छायाम्, आचा० १ ० ३ ० ४० षुने, तिनेषु वा निजेडमिला, योषिति ००५ द्वार मिला दश०६
श्र० । श्रा० क० ।
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सङ्ग्राकहणावाधाय श्रद्धादिकथना व्याघात- पुं० धावकविधिधर्म्मपदार्थकथनविनाभावे, पं० २०२ द्वार | सड्डाण - श्रद्धान- पुं० तत्त्वेषु अनुष्ठानेषु वा निजेऽभिलाषे,
स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
सड्डि- श्राद्धिन्- पुं० । श्रद्धा मोक्षमार्गोद्यमेच्छा वर्त्तते यस्यासौ श्रद्धावान् । श्राचा० १ ० ३ ० ४ उ० । श्र द्वा-धर्मेच्छा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् । श्राचा० १ श्रु० ५ ० ५ उ० । नि० चू० । स्था० । श्रद्धावति, सूत्र० १० ११ अ० | पिं० । श्रावके, नि० चू० २ उ० ।
सूत्र० । कल्प० ।
सहिय श्राद्धिक वि००१ शरा द्धानं यस्मिन्नस्ति स श्राद्धः । श्रद्धयवचने, स्था० ३. ठा०
३ उ० ।
सड्डी-श्रद्धी- श्री० अविरलक्ष्य गृष्टिकायाम्, प०३३० ॥ । श्राविकायाम्, जी० १ प्रति० ।
सद-शठ-पुं० । “ ठोढः " ॥ ८ । १ । १६६ ॥ इति ठस्य ढः । सढो । प्रा० । धूर्ते, उत्त० ७ ० । स्तब्ध, ( पाइ० ना० २२५ गाथा । ) शठकर्मकारित्वात् । सूत्र० १ श्रु० २ श्र० ३ उ० । मिथ्याभाषिणि, उत्त० ३४ श्र० । विश्वस्त जनवञ्चके, उत्त० ७ श्र० । शठानुष्ठान, सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । स्था० । मायिनि प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । निकृतिमति मायोपेते, प्रश्न० ३ संव० द्वार | कैतवयुक्ते, स० ३ सम० । आ० म० । सडवंदण-शठवन्दन--० शाख्येन विश्रम्भार्थ वन्दनम् । शठं अशानादिव्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग्वन्दनम् । ध०२ अधि०। स्वनामख्याते विनिन्दनको पू०
विंशतितमं दोषमाहवीसंभाणमिणं, सम्भावजढे सटे हवइ एतं । कवति कयत्रयंति य, सदया वि य होंति एगड्डा ॥ विश्रम्भी विश्वासस्तस्य स्थानमिदं वदनकमेकस्मिन् यथावद्दीयमाने आयकादयो विश्वसन्तीत्यभिप्रायेणाद्य स द्भावरहिते अन्नवसना शिष्ये
भवति । बृ० ३ उ० । श्राव० । श्रा० चू० । सढा- शठा स्त्री० । जटायाम्, शा० १ ० १ ० । सण-शण-पुं० । वल्कलप्रधाने वनस्पतिविशेषे, शा० १ ०
६ श्र० प्र० । शणप्रभृतयः सप्तदश धान्यानि । श्रा० म० १ [अ० प्रा० त्वधानाले धान्यविशेषे २०६०७ ४०
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सण अभिधानराजेन्द्रः।
सणं कुमार उत्त। स्था० । तसुष्ये, न । शा०१ श्रु०१ अ०। सण- मारवृत्तान्तं स्वविद्याबलेन कथयितुं प्रवृत्ता । तदानी जातिभेदे, अनु।
कुमारो भयदाविषु पश्यत्सु तुरामेणापहतो महासणंकुमार-सनत्कुमार-पुं० । चतुर्थचक्रवर्तिनि, स० । प्रव०।।
टव्यां प्रविष्टः । द्वितीयदिनेऽपि तथैव धावतोऽश्वस्य
मध्याहसमयो जातः । धापिपासाकुलितेन श्रान्तेनातिनाव।
श्वेन निष्कासिता जिहा। कुमारस्तत उत्तीर्णः । सोऽ सखंकुमारो मणुस्सिदो, चक्कवट्टी महड्डिए ।
श्वस्तदानीमेव मृतः । कुमारस्ततः पादाभ्यामेव चलिपुत्तं रजे ठवेऊणं, सोऽवि राया तवं चरे ॥ ३७॥ ।
तः । तृषाकान्तश्च सर्वत्र जल गवेषयनपि न प्राप । ततो. अत्र सनत्कुमाररान्तः-अस्त्यत्र भरतक्षेत्रे कुरुजाङ्गल-1
दीर्घावधमेण सुकुमारत्वेन चात्यन्तमाकुलीभूतो दूजनपदे हस्तिनागपुरं नाम नगरम् । तत्राश्वसनो नाम
रदेशस्थितं सप्तच्छदं वृक्ष पश्यन् तदभिमुखं धावन्
कियत् कालानन्तरं तत्र प्राप्तः । बायायामुपविषः पराजा, तस्य भार्या सहदेवीनाम्नी । तयोः पुत्रश्चतुर्दश
तितश्च लोचने भ्रामयित्वा कुमारः । अत्रावसरे कुमारस्वमसूचितश्चतुर्थश्चक्रवर्ती सनत्कुमारो नाम । तस्य सरि
पुण्यानुभावेन वनवासिना यक्षेण जलमानीतम् । शिशिरशीकालिन्दीतनयेन महेन्द्रसिंहेन परममित्रेण समं कलाचार्य
तलजलेन सर्वा सिक्तः,आश्वासितश्च । लब्धचेतनेन च कुसमीपे सर्वकलाभ्यासो जातः । सनत्कुमारो यौवनमनुप्रा.
मारेण जलं पीतम्।पृष्टञ्च कस्त्वं ? कुतो वाऽऽनीतं जलमिदप्तः । अन्यदा बसन्तमासेऽनेकराजपुत्रनगरलोकसहितः |
म्?,तेन भणितम्-अहं यक्षोऽत्र निवासी|सलिलं चेदं मानससनत्कुमारः क्रीडार्थमुद्याने गतः, तत्राश्यक्रीडां कर्तुं सर्वे
रोवरादानीतम् । कुमारेणोक्तम्-यदि मां तदर्शयसि तदा तकुमाराः अश्वारूढाः स्वस्वमश्वं खेलयन्ति । सनत्कुमारोऽपि
मानसरोवरे प्रक्षालयामि तथा च महपुस्तत्तापमुपनयति । जलधिकझोलाभिधानं तुरङ्गमारूढः, समकालं सर्वैः कुमारैमुक्तस्ततो विपरीतशिक्षितेन कुमाराश्वेन तथा गतिः कृता
तच्छुत्या यक्षेण करतलसंपुटे गृहीत्वा नीतो मानसरोवरम् । यथा अपरकुमाराश्वाः प्राक पतिताः, कुमाराश्व
तत्र व्यसनापतितोऽयमिति कृत्वा ऋद्धन वैतात्यवासिना श्रस्तु अदृश्यीभूतः । ज्ञातवृत्तान्तो राजा सपरिकरस्त
सितयक्षेण समं कुमारस्य युद्धं जातम् ।तथाहि-यक्षेण प्रथम स्पृष्ठौ चलितः । अस्मिन्नवसरे प्रचण्डबायुर्वातुं लग्नः, तेन
मोटिततरुः प्रचण्डः पवनो मुक्तः । तेन नभस्तले बहुलधूतुरङ्गपदमार्गों भग्नः । महेन्द्रसिंहो राजाज्ञां मार्गयित्वा
ल्याऽन्धकारितम् । ततो विमुक्काऽहाऽट्टहासा ज्वलनज्वालाउन्मार्गेणैव कुमारमार्गणाय लग्नः, प्रविष्टो भीषणां महा
पिङ्गलकेशाः पिशाचा मुक्ताः। कुमारस्तर्मनाक न भीतिं गतः। टवी, तत्र भ्रमतस्तस्य वर्षमकमतिकान्तम् , एकस्मिन्
ततो नयनज्यालास्फुलिकं वर्षद्भिर्नागपाशः कुमारी यक्षण दिवसे गतः स्तोकं भूमिभागं तावत् , यावदेकं मह
बद्धः । जीर्णरज्जुबन्धनानीव तान् त्रोटयति स्म कुमारः । त्सरोवरं एवान् । तत्र कमलपरिमलमानातवान् । श्रुतवां
ततः करास्फालनपूर्व मुष्टिमुद्यम्य यक्षः समायातः । तावश्च मधुरगीतवेणुरबम् । यावन्महेन्द्रसिंहोऽग्ने गच्छति ता
ता मुष्टिप्रहारेण कुमारस्तं खण्डीकृतवान् । पुनर्यक्षः स्वयत्तरुणीगणमध्यसंस्थितं सनत्कुमारं दृष्टवान् । विस्मि
स्थीभूय गुरुमत्सरेण कुमारं घनप्रहारेण हतवान् । तत्प्रतमना महेन्द्रसिंहश्चिन्तयति-किं मया एष विभ्रमो दृश्य
हारातः कुमारश्छिन्नमूलद्रम इव भूमौ निपतितः। ततो यक्षते । किं वा सत्य एवायं सनत्कुमारः ?, यावदेवं चिन्त- ण दूरमुत्क्षिप्य गिरिवरः कुमारस्योपरि क्षिप्तः, तेन रढपीडि. यन् महेन्द्रसिंहस्तिष्ठति तावत्पठितमिदं वन्दिना--" जय तामोऽसौ निश्चेतना जाताअथ कियत्कालानन्तरं लब्धसंज्ञः श्राससेण! नहयल-मयक! कुरुभुवणलग्गणे खंभ! जय ति कुमारस्तेन समं बाहुयुद्धं चकार । कुमारेण करमुगराहतो हुयणनाह! सणं-कुमार! जय लद्धमाहप्प !॥२॥" ततो महे। यक्षः प्रचण्डवाताहचूत इव तथा भूमौ निपतितः यथा न्द्रसिंहः सनत्कुमारोऽयमिति निश्चितवान् । अथ प्रकामं | मृत इव रश्यते । परं देवत्वात्स न मृतः। श्रारार्टि कर्वाणः स प्रमुदितमनाः सनत्कुमारेण दादागच्छन् इष्टः सनत्कु
यक्षस्तथा नष्टो यथा पुनर्न दृष्टः । कौतुकान्नभस्यागतविद्यामागेऽप्युन्थायाभिमुखमाययौ । महेन्द्रसिंहः सनत्कुमार- धरैः पुष्पवृष्टिमुक्का । उक्नं च-जितो यक्षः कुमारेणेति । ततो पादयोः पतितः । सनत्कुमारेण समुत्थापितो गाढमालिङ्गि- मानससरसि यथेष्टं स्नात्वा उत्तीर्णः कुमारो यावत् स्तोक तश्च । द्वावपि प्रमुदितमनस्कौ विद्याधरदत्तासने उपविष्टौ । भूमिभागं गतः तावत्तत्र वनमध्यगता अष्टौ विद्याधरपुविद्याधरलोकश्च तयोः पावें उपविष्टः । अथानन्दजलपूरि- श्रीदृष्टवान् । ताभिरप्यसौ स्निग्धदृष्ट्या विलोकितः । कुतनयनेन सनत्कुमारेण भणितम्-मित्र ! कथमेकाक्येव मारेण चिन्तितम्-एताः कुतः समायाताः सन्ति,पृच्छाम्या. स्वमस्यामटव्यामागतः । कथं चात्र स्थितोऽहं त्वया शातः। सां स्वरूपमिति पृष्ठं कुमारेण । तासां समीपे गत्वा मधुरकिञ्च-करोति मद्विरहे मम पिता माता च । कथितः स! वाण्या कुतो भवत्य आगताः?, किमर्थमेतत् शून्यभरण्यवृत्तान्तो महेन्द्रसिंहेन । ततो महेन्द्रसिंहो वरविलासिनीभि- मलंकृतम् । ताभिर्भणितम्-महाभाग! इतो नातिदृरे प्रियसमज्जितः स्नापितश्च भोजन द्वाभ्यां सममेव कृतम् । भोज- अमाभिधाना अस्माकं पुरी अस्ति । स्वमपि तत्रैवागच्छति नावसान च महेन्द्रसिंहन-सनत्कुमारः पृष्टः--कुमार !
भणितः । किङ्करीदर्शितमार्गस्तासां नगरी प्राप्तः । कञ्चुकितदा षं तुरङ्गमेणापहतःक गतः ?, क स्थितश्च', कुत ए.
पुरुषैः राजभवनं नीतः । दृष्टश्च तन्नगरस्वामिना भानुवे ताशी ऋद्धिस्त्वया प्राप्ता?, सनत्कुमारेण चिन्तितं-न गराजेन अभ्युत्थानादिना सत्कृतश्च । उक्नं राबा-महाभाग! युक्त निजचरित्रकथनं निजमुखेनेति संक्षिप्ता स्वयं परि- त्वमेतासां ममायुकन्यानां वरो भव । पूर्व हि अत्रायातेन पीता खेचरेन्द्र पुत्री विपुलमतीनाम्नी स्वप्रिया सनत्कु- अर्चिमालिनाम्ना मुनिना एवमादिष्टम् योऽसिताक्षं यदं जे
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सर्णकुमार
यति स एतासां ती भविष्यति । ततस्यमेताः परिसथेति नृपतोक्ने कुमारेण संयति प्रतिपन्नम् राशा महामदः पूर्वकं विवाहः कृतः । कङ्कणं कुमारकरे बद्धम् सुतश्च ताभिः खाई रतिभवन कुमार निद्राविगम चात्मानं भूमौ पश्यति । किमेतदिति चिन्तित करवर्ड क च न पश्यति । ततः खिन्नमनाः कुमारस्ततो गन्तुं प्रवृत्तः । अरण्यमध्ये च गिरिवरशिखरे मणिमयस्तम्भप्रतिष्ठितं दिव्यभवनं दृष्टुं कुमारेण । चिन्तितम् - इदमपीन्द्रमायाजालप्राय भविष्यतीति । तदासन्ने यावद्गन्तुं प्रवृत्तः कुमारस्तावत् तद्भवनान्तः करुणस्वरेण रुदन्त्या एकस्या नार्याः शब्द श्रुतवान्। विस्तारः समभूमिमारूढः । रुदन्त्या तत्र एकया कन्यया भणितम् - कुरुजनपदनभस्तलमृगाङ्क ! स नकुमार ! भयान्तरेऽपि मम भर्ता भूषा इति वारं वारं भणन्ती पुनर्गाढं रोदितुं प्रवृत्ता । ततो रुदन्त्यैव तयाssसनं दत्तम् । तत्रोपविश्य कुमारस्तां पृष्टवान् सनत्कुमारेण स ह तव कः सम्बन्धः १, येन त्वं तमेवं स्मारयसि । सा प्राह-- मम स मनोरथमात्रेण भर्त्ता । कथमिति कुमारेणो
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साहब हि साकेतपुरस्यामिसुरचनामनरेन्द्रभार्यायाः चन्द्रयशःपुत्री अस्मि । श्रन्यदाऽहं यौवनं प्राप्ता । पत्रात राजकुमार चित्रपटरूपनीय द शितानि एकमपि चित्रपटरूपं मम न रोचते । एकदा सनकुमारचित्रपटरूम मे दर्शितम् तदत्यन्तं मेरुरु वे मांहिता चाहे तपमेव ध्यायन्ती स्पदे तिष्ठामि। तावदहमेकन विद्यार्थाना अमानीता स्वयं विकुर्वतेऽस्मिनाया मां यास कचित् गताऽस्ति । यावत्सा कन्या एवं वदन्त्यस्ति तावत् अशनिवेगसुतबज्रवेगेण विद्याधरेण तत्रागत्य सनत्कुमार उत्क्षिप्तो गगनमण्डले । सा च कन्या हा हा रवं कुर्वाणा मू
पराधीना निपतिता पृथिवीपीठे । तावदाकाशमागादागत्य सनत्कुमारेण स विद्या प्रहारेण व्यापादितः । सनत्कुमारेण तस्य वृत्तान्तः कथितः परिणीता च सा सुनन्दाभिधाना कन्या । साऽस्य स्त्रीरत्नं भवि व्यति । स्तोकवेलायां तत्र वज्रवेगविद्याधरभगिनी सन्ध्यावली समागता भ्रातरं व्यापादितं दृष्ट्रा कोपमुपागता। पुनरपीदं नैमित्तिकं वचः स्मृतिपथमागतम् - यथा तव भ्रातृवधकस्तव भर्त्ता भविष्यतीति मत्वा कुमारस्यैवंविशति यकार-अहमिह विवाहार्थमायाताऽस्मीतिनकुमार साय परिणीता अशन्तरे सनकुमारसमीप ही विद्याभ्यां
( २६६ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
पूर्व कुमारस्यं भणितम्-देव! अशाव द्यायल सातपुत्रमवृत्तान्तवया समेोदमायाति । ततश्चन्द्रमा गाभ्यामाया हरियन्द्रसेनाभिधानी निजपुत्री प्रषितों रहास संनाहश्च प्रेषितः । श्रावामस्मस्थिरी भवार्थः तदनन्तरं ततः समागती चन्द्रवेगभानुवेगौ सनत्कुमारस्य साहाय्याय सन्ध्याचल्या प्रतिविद्या वृत्ता । चन्द्रमासहित सनकुमा संग्रामाभिमुखं चलितः तावताऽशनिवेगः सेनावृतः समायातः तेन समं प्रथमं चन्द्रग विरका युवा ततः स्वयस्थितः
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सकुमार
सनत्कुमारः तेन अनि समं पोरं युद्धमा प्रथमं महोरगास्त्रं कुमारस्याभिमुखं मुक्कम्, तच्च कुमारेण मुष्टिनैव निहतम् । पुनस्तेन श्राग्नेयमस्त्रं मुक्तं, तत् कुमारेण वरुणास्त्रेनितम्। पुनस्ते पापमुक्तं कुमार लाखे प्रतिहतम् । ततो गृहीतधनुर्बाणान् मुञ्चन् कुमारस्तं निजमिव चकार । पुनर्गृहीतकरवालः स सनत्कुमारेण छिदक्षितता द्वितीयकरण बाहुयुद्धमिच्छतस्तस्वाभिमुखमायातस्य कुमारेण चक्रे शिरम् तदानीम् अशनिवेमविद्याधरलक्ष्मीरनेकपियाधरैः सहिता सनत्कुमा रेण संक्रान्ता । ततोऽशनिवेगचन्द्रवेगादिविद्याधरपरिवृतः सनत्कुमारो नभोमार्गाद्विद्याधररथेन समुत्तीर्य तदावासे पुनरायातः । दृष्टस्तत्र हर्षिताभ्यां सुनन्दा सन्ध्यावलीभ्याम् । उक्ताभ्याम् आर्यपुत्र ! स्वागतम् । अत्र च समस्त विद्याधरैः सनत्कुमारस्य राज्याभिषेकः कृतः । सुखेनात्र विचाधरराजसेवितः सनत्कुमारस्तिति । श्रन्यदा चन्द्रवेगेन विज्ञप्तः सनत्कुमारः, यथा - देव ! मम पूर्वमचिमानिनेवमादि एम्-यथेदं तव कन्याशतं भानुवेगस्य चाटुकन्याः यः परिष्यति सोऽवश्यं सनत्कुमारनामा चतुर्थी भविष्यति स इतो मासमध्ये मानसरोवरे समेष्यति । तत्र व्यसनापतितं सरसि स्नानम् असिताक्षो यक्षः पूर्वभववैरी द्रक्ष्यति । स पूर्वभवचैरी कथमिति सनत्कुमारेण पृष्ठे चन्द्रवेगो मुनिमुखश्रुतं तत्पूर्वभधनुतान्तं प्राह-अस्तिकाञ्चनपुरं नाम नगरम्। तत्रविक्रमयशोनामा राजा । तस्य पञ्चशतान्यन्तःपुर्यो वर्त्तन्ते । तत्र नागदत्तः सार्थवाहोऽस्ति तस्य रूपलासीभाग्यवचनगुणैः सुरसुन्दरीोऽधिका विष्णुश्री नाम भार्याऽस्ति सायदा विक्रमयशोराजेन दृष्टा मदनातुरेण तेन स्वान्तःपुरे दिशा ततो नागदत्तस्तथिन्तथा उम्मीभूत एवं विलप ति । हा चन्द्रानने ! क्व गता, दर्शनं मे देहीति विलपन् कालं नयति । विक्रमयशेोराजस्तु मुखकराजकार्यों गणितजनापवादस्तया विष्णुश्रिया सह अत्यन्तरति प्रसक्तः कालं नयति । पञ्चशतान्तःपुरीनामाद्धात अम्पदा ताभिः कार्मणादियोगेन विष्णुश्रीपादिता । ततो राजा तस्था मात्य शोकाजल नयनो मागद योग्यतीभूतां विष्णुश्री कलेवरं वह्निसात्कर्तुं न ददाति । ततो मन्त्रि भिर्नृपः कथमपि वञ्चयित्वा अरण्ये तत् कलेवरं त्यक्तम् । राजा च तत् कलेवरमपश्यन् परितापानीजनः स्थितः । मस्त्रिभिर्विचारितम् पर तरकलेवरदर्शनमस्तरे मरिष्यतीति नीत्या राक्षस्तत्कलेवरं दशितम् । राज्ञा तदानीं तत्कलेवरं गलत्पूतिनिवह नियत्कृमिजालं वायसकर्षित नयनयुगलं चण्डखगतुण्डख - तंदुर एवमात्मानं निन्दितुमार धम् । रे जीव ! यस्य कृते त्वया कुलशीलजातियशोलजाः परित्यक्ताः तस्यदृशी अवस्था जाता । ततो वैराग्यमार्ग प्राप्ती राजा राज्यं राष्ट्रं पुरं स्वजनवरी च परिहव सुव्रताचार्यसमीपे निष्कान्तः । तव धनुषामादिततश्चतुर्थषष्ठाष्टमादिविचिषतपः कर्मभिरात्मानं भावयन् प्रान्त संलेखनां - रवा सनत्कुमारदेवलोके गतः। ततश्च्युतोरखपुरसुतो जिनधर्मो जातः । स च जिनवचनभावितमनाः सम्य
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सणं कुमार अभिधानराजेन्द्रः।
सणं कुमार कत्वमूलं द्वादशविधं श्रावकधर्म पालयन् जिनेन्द्रपूजारतः
सनत्कुमारोऽपि प्रवर्द्धमानकोशबलसारो राज्यमनुपालयकालं गमयति । इतश्च स नागदत्तः प्रियाविरहदुःखितो ति । उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि नवनिधयश्च । कृता च तेषां भ्रान्तचित्तः आर्तध्यानपरिक्षिप्तशरीरो भूत्वा बहुतिर्य- पूजा । तदनन्तरं चक्ररत्नदर्शितमार्गो मागधवरदामप्रभासज्योनिषु भ्राम्या ततः सिंहपुरे नगरेऽग्निशर्मनामा द्विजो सिन्धुखण्डमपातादिक्रमेण भरतक्षेत्र साधितवान् । सनत्कुजातः । कालेन त्रिदण्डिवतं गृहीत्वा द्विमासक्षपणरतो मारः । हस्तिनागपुरे चक्रवर्तिपदवीं पलायन् यथेष्टं सुखानि रत्नपुरमागतः । तत्र हरिवाहनो नाम राजा तापसभक्त- भुते, शक्रेणावधिज्ञानप्रयोगात्तं पूर्वभवे स्वपदाधिरूढं ज्ञात्वा स्तेन तपस्वी आगतः श्रुतः । पारणकदिने राशा निमन्त्रितः महता हर्षेण वैश्रमणोऽनुज्ञप्तः । सनत्कुमारस्य राज्याभिस गृहमागतः । अत्रान्तर सजिनधर्मा नामा श्रावकस्तत्रा- पकं कुरु । इमं च हारं वनमाला छत्रं मुकुटं चामरयुगलं मतः। तं दृष्टा पूर्वभवजातवैरानुभावेन रोषारुणलोचनेन कुण्डलयुग दृष्ययुग सिंहासनञ्च पादपीठञ्च प्राभृतं कुरु । मुनिना एवमुक्तं राज्ञः , यदा त्वं मां भोजयसि तदाऽस्य शक्रेण तव वृत्तान्तः पृष्टोऽस्तीति घूयाः । वैश्रमणोऽपि श्रेष्ठिनः पृष्टी स्थालं विन्यस्य मां भोजय ? अन्यथा नाहं शक्रदत्तं गृहीत्वा गजपुरनगरे समागत्य तत् प्राभृतं चक्रिणः भोये । राज्ञोक्लमसौ श्रेष्ठी महान् वर्तते, ततोऽपरस्य पुरो मुक्तवान् , शक्रवचनं चोक्नवानिति । पुनः शक्रेण तिपुरुषस्य पृथौ त्वं भोजनं कुरु । स प्राह-एतस्य पृष्टा- लोत्तमारम्भे देवाङ्गने तत्र तदभिषेककरणाय प्रेषिते । चवव भोजनं करिष्ये । नापरस्येति राशा तापसानु- क्रिणोऽनुशा गृहीत्वा विकुर्वितयोजनप्रमाणमणिपाठोपरिररागण तत् प्रतिपन्नम् , राज्ञो वचनात् श्रेष्ठिना पृष्टी चितमणिमण्डपान्तःस्थापिते मणिसिंहासने कुमारं निवेश्य स्थालमारोपितम् । तापसेन तत्पृष्टौ दाहपूर्वकभोजनं कृतम् । कमककलशाहतक्षीरोदजलधाराभिर्धबलगीतानि गायन्तीश्रेष्ठिना पूर्वभवदुष्कर्मफलं ममोपस्थितमिति मन्यमा- देवीदेवाश्चाभ्यषिश्चन् । रम्भातिलोत्तमादेव्यौ तदानीं नृत्य नेन तत्सम्यक् सोढमिति स्थालीदाहेन तत्पृष्टौ क्षतं कुरुतः, महामहोत्सवेन कुमारमभिषिच्य वैश्रमणादयः स्वजातम् ततः स तापसस्तथा भुक्त्वा स्वस्थाने गतः, श्रेष्ठयपि लोकं जग्मुः, चक्रयपि भोगान् भुञ्जन् कालं गमयति । अस्वगृहे गत्वा स्वकुटुम्बवर्ग प्रतिबोध्य जैनदीक्षां जग्राह । भ्यदा सुधर्मसभायां सौधर्मेन्द्रः सिंहासन अनेकदेवदेवीततो नगरान्निर्गता गिरिशिखरे गत्वा अनशनमश्चचार । सेवितः स्थितोऽस्ति । अत्रान्तरे एक ईशानकल्पदेवः सौधपूर्वदिगभिमुखं मासाद्धे यावत्कायोत्सर्गेण स्थितः, एवं मेंन्द्रपार्वे आगतः । तस्य देहप्रभया सभास्थितः देवदेहशवास्वपि दिनु । ततः पृष्टिक्षते काकशिवादिभिर्भक्षितः प्रभाभरः सर्वतो नष्टः । श्रादित्योदय चन्द्रग्रहादय इव निष्प्रसम्यग् तत्पीडा सहमानो मृत्वा सौधर्मे कल्पे इन्द्रो जातः। भाः सर्वे सुरा जाताः । तस्मिन् पुनः स्वस्थाने गते देवैः स तापसोऽपि तस्यैव वाहनम् एरावणो जातः । ततश्च्यु- सौधम्र्मेन्द्रः पृष्टः । स्वामिन् ! केन कारणेन अस्य देवस्येहशी तोऽथ स एरावणो नरतियक्षु भ्रान्त्वाऽसिताक्षो जातः । श- प्रभा जाताऽस्ति । शक्रः प्राह-अनेन पूर्वभव आचाम्लवर्द्धकोऽपि ततश्च्युत्त्वा हस्तिनागपुरे सनत्कुमारः चक्री जातः। मानतपः साण्डं कृतम् तत्प्रभावादस्य देहे प्रभा ईदशी जाएवमसिताक्षयक्षस्य भवता सह वैरकारणमिति मुनिनाक्ने ताऽस्ति । देवैः पुनरिन्द्रः पृष्टः, अन्योऽपि कश्चिदीडशो दीप्तिमया तवान्तरवासनिमित्तं भानुवेग विसर्जयित्वा प्रिय- मानस्ति न बा?, इन्द्रेण भणितं यथा हस्तिनागपुरे कुरुवंसङ्गमपुरीनियशपूर्व तव भानुवेगेन कन्याः परिणायिताः। मु- शऽस्ति सनत्कुमारनामा चक्री, तस्य रूपं सर्वदेवेभ्योको मयैव कारणन त्वं तद्वने । एवं करिष्याम इति ऽप्यधिकमस्ति । इदं शक्रवचोऽश्रद्दधानी, विजयवैजयन्ती विचार्य तदा विद्याधरास्तत्कृतवन्तः । ततो विज्ञपयामि देवौ ब्राह्मणरूपी भागती, प्रतीहारेण मुक्तद्वारौ गृहान्तः प्रदेव ! मन्यस्व मे कन्याशतपाणिग्रहणम् ,ता अपि तत्र भवन्मु- विष्टौ,राजसमीपं गतौ । दृष्टश्च तैलाभ्यहं कुर्वन् राजा अतीख कमल पश्यन्ति । एवं भवत्विति कुमारेणोक्ने स चन्द्रवेगः व विस्मिती देवौ शक्रवर्णितरूपाधिकरूपं तौ पश्यन्ती कारण समं स्वनगरे गतः।तत्र कुमारेण कन्याशतं परिणी
राशा पृष्ठौ । किमर्थ भवन्तौ अत्रायातौ। तौ भणतः देव ! तम् । पुनरत्रागतश्च दशोतरण कन्याशतेन सह भोगान् भु- भवद्रपं त्रिभुवन वर्यते तदर्शनार्थ कौतुकेन श्रावामत्राक्ने कुमार अद्य पुनरेवमुक्नः कुमारण यथाद्य गन्तव्यं यत्रा
यातौं । तताऽतिरूपगर्वितन राशा तो उक्लो भो भो विप्रौ स्माभिर्यक्षो जितः। साम्प्रतमत्रायातस्य कुमारस्य पुरः प्रेक्षणं
युवां किं मद्रपं दृष्एं स्तोककालं प्रतीक्षेथा यावदहमास्थाकुर्वन्तीनामस्माकं कुमारपत्नीनां भवदर्शनं जातमिति ।
नसभामुपविशामि एवमस्त्विति प्रोच्य निर्गतौ द्विजी। चअत्रान्तरे रतिगृहशय्यात उत्थितः कुमारः महेन्द्रसिंहेन स- क्रयपि शीघ्र मजनं कृत्वा सर्वाङ्गोपाङ्गशृङ्गारं दधत् समें विद्याधरपरिवृता वैताड्यं गतः । अवसरं लब्ध्वा महे- भायां सिंहासने उपविष्टः । अकारितौ द्विजो ताभ्यां तदा न्द्रसिंहेन विज्ञप्तम् । कुमार ! तव जननीजनको त्वद्विरहातौ चक्रिरूपं दृष्ट्वा विषमाभ्यां भणितम्-अहो मनुष्याणां रूपदुःखन कालं गमयतः, ततस्तद्दर्शनप्रसादः क्रियताम् इति । लावण्ययौवनानि क्षणदृष्टनष्टानि । तयोजियोरेतद्वचः श्रुमहेन्द्रसिंहवचनानन्तरमेव महता गगनस्थितविद्याधरवि- त्या चक्रिणा भणितम् , भो किमेवं भवन्तौ विषलौ मम शरीमानहयगजादिवाहनारूढविद्याधरवृन्दसमन हस्तिनागपुरे रं निन्दतः । ताभ्यां भणितम्-महाराज ! देवानां रूपयौवनतेसंप्राप्तः कुमारः,पानन्दिताश्च जननीजनकनागरजनाः । ततो जांसि प्रथमवयस प्रारभ्य षण्मासशेषायःसमयं यावदवस्थिमहत्या विभूत्याऽश्वसनराजेन सनत्कुमारः स्वराज्येऽभि- | तानि भवन्ति,यावजीवं न हीयन्ति । भवतां शरीरे तु आश्चर्य पितः । महन्द्रसिंहश्च सेनापतिः कृतः । जननी जनकाभ्यां दृश्यतेायत्तद्रपलावण्यादिकं सांप्रतमेव दृएं नष्टम्। राज्ञा भणिस्थविराणामन्तिक प्रवज्यां गृहीत्वा स्वकार्यमनुष्ठितम्।। तम्-कथमेयं भवद्भ्यां झातम्ताभ्यां शक्रप्रशंसादिकः सर्वो
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(२६८) सणकुमार अभिधानगजेन्द्रः।
सहाबंधण ऽपि वृत्तान्तः कथितः। चक्रिणा तु केयूरादिविभूषितं बाहुयुग- तीयकल्पवेवाधिपे, स च कल्पः क कथं तहेव आधिपलं पश्यता हारादिविभूषितमपि स्ववक्षःस्थलं विवर्णमुपलक्ष्य त्यं करोतीति 'ठाण' शब्दे चतुर्थभागे १७१२ पृष्ठे उक्तचिन्तितम् । अहो अनित्यता संसारस्य,असारताशरीरस्य, ए | म् । ) दाक्षिणात्यानां सनत्कुमारकल्पस्यन्द्र, स्था० २ ठा० तावन्मात्रेणापि कालेन मच्छरीरस्य यौवनतेजांसि नष्टानि । ३ उ० । विपा। अयुक्तोऽस्मिन् भये प्रतिबन्धः, शरीरमोहोऽशानं, रूपयौव
सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए नाभिमानो मूखत्यं, भोगासेवनमुन्मादः, परिग्रहो ग्रह इव ।
अभवसिद्धिए सम्मद्दिट्ठी मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए - तत एतत्सर्व व्युत्सृज्य परलोकहितं संयम गृहामीति विचार्य चक्रिणा पुत्रः स्वराज्येऽभिषिक्तः स्वयं
णंतसंसारिए सुलभबोहिए दुल्लभबोहिए धाराहए विराहए संयमग्रहणाय उद्यतो जातः । तदानीं देवदेवीभ्यां भणितम्- चरिमे अचरिमे ?, गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंदे देवरा"अणुहरि धीर! तुमे, चरियं निययस्स पुब्यपुरिसस्स ।
या भवसिद्धिए, णो अभवसिद्धिए ,एवं सम्मद्दिट्ठी परि-- भरहमहानरवणो,तिहुश्रणविक्खायकित्तिस्स ॥१॥"इत्यायुक्त्वा दयौ गतौ । चक्रयपि तदानीमेव सर्व परिग्रहं परि- त्तसंसारिए सुलभबोहिए आराहए चरिमे पसत्थं नेयध्वं । स्यज्य विरताचार्यसमीपे प्रव्रजितः। ततः स्त्रीरत्नप्रमुखा- से केणऽट्ठणं भंते !, गोयमा ! सणंकुमारे देविंद देवराया णि सर्वरत्नानि, शषाश्च रमण्यः, सर्वेऽपि नरेन्द्राः,सर्वसैन्य- बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहणं सावयाणं बहूणं लोका नवनिधयश्च परामासान् यावत्तन्माग्नुलग्नाः । तेन
सावियाणं हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकं-- संयमिना सिंहावलोकनन्यायन दृष्टयाऽपि न विलोकिताः । षष्ठभनन भिक्षानिमित्तं गोचरप्रविष्टस्य प्रथममेव अजात
पिए निस्सेयसिए हियसुहनिस्सेसकामए, से तेणगुणं कं तस्य गृहस्थन दत्तं, तद्भक्तम् । द्वितीयदिवस च षष्ठमव गोयमा ! सणंकुमारे णं भवसिद्धिए० जाव णो अचरिमे । कृतं पारणके प्रान्तनीरसाहारकरणात्तस्यैते गंगा प्रादुर्भूताः। सणंकुमारस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरलो केवइयं कालं कराडूः १ ज्वरः२ कासश्वासः ४ स्वरभङ्गः ५ अक्षिदुःखम् ।
ठिई परमत्ता ?, गोयमा ! सत्त सागरोवमाई ठिई प-- ६ उदरव्यथा ७ एताः सप्त व्याधयः सप्तशतवर्षाणि यावदध्यासिता उग्रतपः कुर्वतस्तस्य आमषधी १ खेलौषधी
मत्ता । सणं भंते ! तो दवलोगाओ आउक्खएणं० जाव २ विप्पौषधी ३ जल्लोपधी ४ सौषधी ५ प्रभृतयो लब्धयः। कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सि-- सम्पन्नाः, तथाप्यसी स्वशरीरप्रतीकारं न करोति । पुनः निभट्रिति जाव अंतं करोहिरा (स.१४१+ शक्रेणकदा एवं प्रशंसितः, अहो पश्यन्तु देवाः सनत्कुमारस्य धीरत्वं, व्याधिकर्थितोऽप्ययं न स्वय पुःप्रतीकार
'भाराहए' त्ति-ज्ञानादीनामाराधयिता 'चरमे ' तिकारयति । एतदिन्द्रवचनमश्रद्दधानौ ताव देवी वैद्यरूंपण
चरम एव भवो यस्य प्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो
यस्य स,चरमभवो वा भविष्यति यस्य स चरमः, 'हियतस्य मुनेः समायातौ,णितवन्तौ च । भगनन् ? तव वपुष्या
कामपत्ति-हितं सुखनिबन्धनं वस्तु 'सुहकामए 'त्तिघांप्रतीकारं कुर्वः। सनत्कुमारस्तदानीं तूष्णीक एव स्थितः ।
सुख-शर्म' पत्थकामप' त्ति-पथ्य-दुःखत्राणम् , कस्मादपुनस्ताभ्यां भणितम्-तथैव मुनि नभाक् जातः। पुनः पुन
वमित्यत श्राह-'श्राणुकंपिए' त्ति-कृपावान् , अत एवाहस्तथैव तौ भणतः; तदा मुनिना भणितम्-भवन्ती किं
'निस्सयसिए' त्ति-निःश्रेयसं--मोक्षस्तत्र नियुक्त व नै:शरीरध्याधिस्फट को, किंवा-कर्मव्याधिस्फेट को ? ताभ्यां
श्रेयसिकः 'हियसुहनिस्सेसकामप' त्ति-हितं यत्सुखमभणितमावां शरीरव्याधिस्फेटको । तदानीं सनत्कुमारमुनि
दुःखानुबन्धमित्यर्थः, तन्निःशेषाणां सर्वेषां कामयंत वाना स्वमुखथू कृतेन घर्षिता स्वाङ्गुली कनकवर्णा दर्शिता;
ञ्छति यः स तथा । भ० ३ श०१ उ०। ( यद्यपि सनत्कुभणितञ्च-अहं स्वयमेव शरीरव्याधि स्फेटयामि, यदि म
मारे स्त्रीणामुत्पत्तिर्नास्ति तथापि याः सौधर्मोत्पन्नाः सहनशक्लिन स्यात्तदेति । युवां यदि संसारव्याधिस्फेटनस
समयाधिकपल्यापमादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीत. मी तदा तं स्फेटयतम्, तो दवा विस्मितमनस्कौ प्रकटि
देव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां भांगाय संपद्यन्ते इति 'पतस्वरूपी एवमूचतुः-भगवन् ! त्वमेव संसारव्याधिस्फेट
रियारणा' गब्द पञ्चमभागे ६३२ पृष्ठे गतम् ।) नसमर्थोऽसि, श्रावाभ्यां तु शक्रवचनमश्रद्दधानाभ्यामिहाग
सणंकुमारमाहिंदकप्प-सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्प-पुंस्वनामस्य त्वं परीक्षितो यादृशः शक्रेण वर्णितस्तादृश एवं त्वम
ख्याते कल्पे, स्था०४ ठा०४ उ० । ( अस्मिन् कल्पे कतिसीत्युक्त्वा प्रणम्य च स्वस्थानं गतौ । भगवान् सनत्कुमार
विधानि विमानानीति' विमाण' शब्दे षष्ठे भाग १-११ स्तु कुमारत्वे पञ्चाशद्वर्षसहस्राणि चक्रवर्तित्वे वर्षलक्षं
पृष्ठ गतम्।) श्रामण्य च वर्षल क्षमेकं परिपाल्य संमेतशैलशिखरं गतः।
सणंदिघोस-सनन्दिघोष-त्रि०ा सह नन्दिधो पो द्वादशतृयनितत्र शिलातले बालोचनाविधानपूर्वमासिकन भक्तन का
नादो यस्य सः । नन्दिघोषतुल्ये , जी०३ प्रति० ४ अधिक। लं कृत्वा सनकुमारकल्पे देवत्वेनोत्पन्नः, ततश्च्युतो महाविदेह वासे सेत्स्यति । इति सनत्कुमारदृष्टान्तः । ३७ ।
सणकप्पास-शणकास--पुं० । शणत्वचि, ' सणी वणस्सउत्त०१८ श्र० । ध० र०। स्था० । प्रव० । सनरकमार- तिजातो तस्स वा गोकव्वणिजो कप्पासो भराणति । निक प्रधानविमानकल्पः सनत्कुमारः । अनु० । तृतीय दवलो- चू०२ उ० । के , अनु । स्था। प्रज्ञा० । प्रव०। औ०। सः । ( तृ- मणबंधण-शणबन्धन-न० । शणपुष्पवृन्ते , औ०।
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सणय अभिधानराजेन्द्रः
मणियाण सणय-शणज-न० । शणादिवल्कजे, नि००१3०
डिवाच्च टेलुका सणिश्रमषगुढो । प्रा०।" मसिणं सणिसणसत्तरस-शणसप्तदशन-त्रि० । शणः सप्तदशो येषां बी- अमटुं" पाइ० ना० १५ गाथा । खादीनां तानि तथा । शणादिसप्तदशसंख्याकेषु धान्येषु , सणिश्रोग-शनियोग-पुं० । परस्य कुबुद्धिसुधुझ्यादिवाने मन० २ सव० द्वार।
शनैश्चरग्रहयोगे, उत्त० ३२ अ०। सणह-सनख-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे भविष्यति षष्ठे कु-सणिंचर -शनैश्चर-पुं० । महाग्रहभेदे, स्था। लकरे, समयायाने तु-सुमहनामाऽयम् । ति०।
दो सणिंचरा । स्था० २ ठा० ३ उ.। सणहप्पई-सनखपदी-स्त्री० । सनखपदपश्चन्द्रियतिर्यग्जा
सणिचारि(ण)-शनैश्चारिन-पुं० । शनैर्मन्दमुत्सुकत्याभावातिस्त्रियाम् , जी० २ प्रतिः।
च्चरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः । भ०६ श०७ उ० । यत्र सणाप्पय-सनखपद-पुं०। नखरेषु सिंहादिषु, स्था० ४
सुखमसुखमाकालः तत्रत्यमनुष्यजाती, जी० ३ प्रति० ४ ठा०४ उ० । सनखानि दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां
अधि०। ते श्वादयः प्राकृतत्वाच 'सणहप्पया' इति । जी०१ प्रति०।
सणिच्चर-शनैश्चर-पुं० । ताराग्रहभेदे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । सूत्र०। प्रश्न भ०। से किं तं सणहप्प(प्फ)या? सण. अणेगविहा परमत्ता,तं
| सणिच्छर-शनैश्चर-पुं० । " इत्सैन्धवशनैश्चरे" ॥८।१।१४६ ॥
अनेनात इस्वम् । सणिच्छरो। प्रा०। चतुर्थे महाग्रहविशेषे, जहा-सीहा बग्घा दीविया अच्छा मरच्छा परस्सरा सियाला
कल्प०१ अधि० ५ क्षण । चं० प्र० । स्था० । ज्योतिर्देवे, विडाला सुणगा कोलसुणगा कोकंतिया ससगा चित्तगा| प्रक्षा०२ पद । सूत्र० । औ० । प्रश्न । जं०।। चिल्लगा। जे यावामे तहप्पगारा । से तं सणहप्प(प्फ)या ।ते सणिच्छरसंवच्छर-शनैश्चरसंवत्सर-पुं०। शनैश्वरनिष्पादितः समासो दुविहा परमत्ता, तं जहा-समुच्छिमा य,गब्भव- संवत्सरः शनैश्चरसंवत्सरः । संवत्सरभेदे, चं० प्र० । कंतिया य । तत्थ णजे ते संमुच्छिमा ते सव्वे ण- ता सणिच्छरसंवच्छरे णं अट्ठावीसतिविहे पएणत्ते, पुंसगा, तत्थ णं जे ते गम्भवकंतिया ते तिविहा पगण- तं जहा-अभियी सवणे. जाव उत्तरासाढा । जं वा सणित्ता, तं जहा-इत्थी पुरिसा नपुंसगा । (सू० ३४४) च्छरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहिं सव्वं णक्खत्तमंडलं तथा सनखानि दीर्घनखपरिकलितानि पदानि वेषां ते
समाणेति । (सू० ५८४) सनखपदाः श्वादयः । प्राकृतत्वाच्च-सणहप्फया' इति
'ता सणिच्छरे' त्यादि तत्र शनैश्चरसंवत्सरोऽधाविंशतिसूत्रे निर्देशः, अधुना एतानेव एकखुरादीन् भेदतः क्रमेण प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-से किं त'मित्यादि, सुगम नवरं ये
विधः प्राप्तः, तद्यथा-अभिजित्-अभिजिच्छनैश्चरसवकेचिज्जीवभेदाः प्रतीतास्ते लोकतो वेदितव्याः ते समा
त्सरः, श्रवणः-श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः, एवं यावदुत्तरासो दुविहा पन्नत्ता ' इत्यादि सूत्रं प्राग्वद्भावनीयम् ,
षाढा-उत्तराषाढाशनैश्चरसंवत्सरः । तत्र यस्मिन् संवनवरमत्र जातिकुलकोटीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि
स्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सो दश भवन्तीति वदितव्यम् , अत्रापि च संमूच्छिमानां गर्भ
ऽभिजिच्छनैश्चरसंवत्सरः, श्रवणेन सह यस्मिन् संवत्सरे व्युत्क्रान्तिकानां च प्रत्येकं यच्छरीरादिद्वारेषु चिन्तनं यच्च
शनैश्चरो योगमुपादत्ते स श्रवणशनैश्चरसंवत्सरः । एवं सस्त्रीपुंनपुंसकानां परस्परमल्पबहुत्वं तज्जीवाभिगमटीकातो
र्वत्र भावनीयम् । 'जं वे' त्यादि, वाशब्दः प्रकारान्तरवाद्योत. वदितव्यम् । प्रज्ञा०१ पद ।
नाय तत्सर्व समस्तं नक्षत्रमण्डलं शनैश्चरी महाग्रहस्त्रिशता सणहमच्छ-सनखमत्स्य-पुं०। मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति० ।। 'सवत्सरा समापयात, पतावान् कालविशेषनिशद्वर्षप्रमाणः
शनैश्चरसंवत्सरः । चं० प्र० १० पाहु. । स्था० । सू० प्रशा०।
प्र० । जं०। सणहा-सनखा-खी० । नखोपलक्षितायां पिण्डिकायाम् , यस्यां पिशिडकायां बध्यमानायामन्लीनखा प्रोष्ठस्याधो
सणिधण-सनिधन-त्रि० । सक्षये, प्रश्न १ आश्रद्वार। लगन्ति सा सनखेत्युच्यते । भ० १५ श०।
सणिद्ध-स्निग्ध-त्रि० ।" स्निग्ध वादितौ" ॥८॥१६॥ सणाण-सज्ञान-न०। ज्ञानेन सहितम् । सम्यग्दृष्टिसहितेषु, इति स्निग्धे संयुक्तस्य नात्पूर्वोऽत् । सिणिद्धं । सणिद्धं । स्था०.२ठा०४ उ०।
स्नेहवति, प्रा०२ पाद । सणातण-सनातन-त्रि० । शाश्वते, द्रव्यार्थतया नित्ये, सूत्र० सणिमित्त-सनिमित्त--त्रि० । सह निमित्तेन उपादानकार२ श्रु०६ अ०।
णेन सहकारिकारणेन वा धर्तत इति सनिमित्तम् । सकासणाह-मनाथ-त्रि०ासस्वामिके, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० प्रा० म०। रणे, सूत्र०२ श्रु०१०। कर्म । सणाभि-सनाभि-त्रि० । बान्धवे, " बंधू सयणी सणाही य" सणिय-शनैस्-अव्य० । मन्दे, अशैव्ये च । “सणियं पाइना०१०१ गाथा ।
सणिय" श्राचा०२ श्रु० ३ चू०।। सणि-शनस-अव्य० । "शनैसो डिअम्" ॥ ८।२।१६८॥ सणियाण--सनिदान--त्रि० । सह निदानेन वर्त्तत इति इति स्वार्थ डिअं प्रत्ययः । अत्यगयाम् , प्रा०२पाद । । सनिदानः । भोगसारूपनिदानसहिते, सूत्र०१श्रु०१३ अन
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( ३००) मणह अभिधानरजिन्द्रः ।
सराणा संगह-स्नेह-पुं० । " स्नेहाग्यो" ।२। १०२ ॥ अने- कर्म०४ कर्म1 पं० सं० । नं। संज्ञा स्मृतिरवबोध इनात्र संयुक्तादन्तव्यञ्जनात्पूर्वस्याकारादशः । सणहो । नेहो। त्यनान्तरम् । श्राचा० १ श्रु० १ ० १ उ०। प्रीती, प्रा०२ पाद।
सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खाय-इहमेगेर्सिसपढ-म(पाद-पुं० । “वर्गऽन्त्या वा" ॥ ८।१। ३०॥
णो सम्मा भवइ । (सू०१) अननात्रानुस्वारस्य वैकल्पिको वर्गान्त्यादेशः। संढा। सरढा । नपुंसके, प्रा०१ पाद।
" सुन्तं अट्ठहि य गुणहिं उबवेयं ॥१॥" इत्यादि, तसम्म-मंज्ञ-त्रि० । सम्यग जानाति पश्यतीति संज्ञः । झा
च्चेदं सूत्रम्- 'सुयं मे पाउसं! तेण भगवया एवमक्खायंनदर्शनयुक्त, श्राचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०।
इहमेगेसि णा सरणा भवति' अस्य संहितादिक्रमेण व्या
ख्या-संहितोच्चारितव, पदच्छदस्त्वयम्-श्रुतं मया आयुसन्न-त्रि। अवसन्न, मग्न, " सन्नो इह काममुच्छिया,
ध्मन् ! तेन भगवता पवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा माहं नि असंवुडा नरा।" सूत्र०१ १०२ १०१ उ०। भवति । एक तिङन्तं शेषागि सुवन्तानि , गतः सपदच्छेदः सम्मक्खर-संज्ञाक्षर-न । संक्षायंतऽनयेति संज्ञा-नाम
सूत्रानुगमः । साम्प्रतं सूत्रपदार्थः समुन्नीयते-भगवान सुतन्निवन्धनं तत्कारणमक्षरं संज्ञाक्षरम्। अक्षरश्रुतभेदे, वृ० धर्मस्वामी जम्बूनाम्न इदमाचट, यथा-श्रुतम्-आकर्णितम१ उ.१ प्रक० । (पतञ्च 'अक्सर' शदे प्रथमभागे १४० वगतमवधारितमिति यावद् . अनेन स्वमनीषिकाव्युदासो पृष्ठ उपपादितम्।)
मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण आयुष्मत्रिति जात्यादिगुसम्मकुंभ-स्वर्णकुम्भ-पुं० । वासुपूज्यशिष्ये रोहिणीतप- णसम्भवेऽपि दीर्घायुषकत्वगुणोपादानं दीर्घायुरविच्छेदन शि उपदष्टार, ना. ३४ कल्प।
प्योपंदशप्रदायको यथा स्यात् । इहाचारस्य व्याचिख्यासिसहाजंघ-स्वर्णजंघ-पुं० । ऋषभदेवजीवस्य वनजङ्घस्य
तत्वात्तदर्थस्य च तीर्थकृत्प्रणीतत्वादिति सामर्थ्यप्रापितम् , पिार, श्रा० क० अ०।
तननि तीर्थकरमाह । यदि वा-श्रामृशता भगवत्पादारविन्द
म् अनन विनय श्रावदितो भवति , श्रावसता वा तदन्तिक सम्पद्ध-सन्मद्ध-त्रि० । कृतसन्नाहे , त्रा०१ श्रु.२ अ० ।
इत्यनेन गुरुकुलबासः कर्तव्य इत्यावदितं भवति, पतञ्चार्थविपा। श्री। “सराणबद्धवम्मियकवया" सन्नदब
द्वयम् ' आमुसंतेरण श्रावसंतणे 'त्येतत्पाठान्तरमाश्रित्यावडम्मिनकवचाः । कवचं-तनुत्राणं वर्म-लोहमयकुतूलि
गन्तव्यमिति । भगवतेति भगः-ऐश्वर्यादिषडात्मकः सोकादिरूपं संजानमस्मिन्निति वर्गिमनम्। सन्नद्ध-शरीर श्रा
ऽस्यास्तीति भगवान् तेन, एवमिति वक्ष्यमाणविधिना, श्रा. रोपणात बंद्ध-गाढतग्बन्धनन बन्धनात् वम्मितं कवचं यै
ख्यामित्यनेन कृतकत्वव्युदासेनार्थरूपतया आगमस्य निस्ते सन्नद्धबद्धयमितकवचाः। जी०३ प्रति०२ उ० । भ०।
त्यत्वमाह-' इंह 'ति-क्षेत्र प्रवचने श्राचारे शस्त्रपरिज्ञायां वा सम्मप्प-संज्ञाप्य-त्रि । प्रज्ञापनीय, नं० । स्था० । श्राचा० ।
श्राख्यातमिति सम्बन्धः । यदिवा-'इहे' ति-संसारे एकेणं सम्पय-सन्नय-पुं० । समीचीननय, प्रति।
शानावरणीयावृतानां प्राणिनां नो संज्ञा भवति , संज्ञाने समयपास-सन्नतपाच-सम्यगधोऽधः फ्रमण नती पाश्ची ये- संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनान्तरम् , सा नो जायत इत्यर्थः। पांत सनतपाः । अधोऽधः क्रमायनतपार्श्वेषु, जी. ३
उक्तः पदार्थः । पदविग्रहस्य तु सामासिकपदाभावादप्रकप्रति०४ अधि । जं०।
टनम् । इदानी चालना-ननु चाकारादिकप्रतिषेधकलघुसम्मवणा-संज्ञापना-स्त्री०। संबोधनायाम, शा०१२०१श्रवण
शब्दसम्भवे सति किमर्थ नोशब्देन प्रतिषेध इति?, अत्र
प्रत्यवस्था, सत्यमवम् , किन्तु-प्रेक्षापूर्वकारितया नाशब्दोसम्मा-सज्ञा-स्त्रीचा संज्ञानं संज्ञा । "उपसर्गादातः" ।।३।११०।
पादानम् , सा चयम्-अन्यन प्रतिषेधेन सर्वनिषेधः स्याद इत्यम् प्रत्ययः । ततः “म्नज्ञोर्णः " रा४२॥ इति शस्य णः ।
यथा न घटाघट इति चोक्ने सर्वात्मना घटनिषेधः, स प्रा । व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभव मातविशेषे, आहारभयाद्यु
च नष्यत , यतः प्रज्ञापनायां दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामपाधिकायामंचतनायाम् , अभिधान, स्था।
भिहितास्तासां सर्वासा प्रतिषेधः प्राप्नोतीति कृत्वा । ताएगा सम्मा । (सू० ३) स्था० १ ठा।
श्चमाः-"का ग भंते ! सराणाश्रो पराणत्ताश्री ?, गोयमा ! संज्ञान संज्ञा । अभोगे, संज्ञायतेऽनर्यात वा संझा । भ० दस सराणाश्री पराण त्ताश्रो, तं जहा- श्राहारसराणा भयस७ श०८ उ०। श्रा० म० । घटशब्दादिलक्षण अभिधान , रागा महुणसराणा परिग्गहसराणा कोहसराणा माणसराणा विश० सामानं० । आख्यायाम, अनुग उत्तरकालपरि मायासराणा लोभसराणा श्रोहसराणा लोगसराण” त्ति, लोचनायाम् , सूत्र०२ थु०४ १० । ऊहापोह विमर्षे, सूत्र श्रासांच प्रतिषेधे स्पष्ट दोषः , अतो नाशब्देन प्रतिष२ श्रु० ७ उ० । प्रत्यक्षवर्तमानार्थमाहिरायां चतनायाम , धनमकारि, यतोऽयं सर्वनिषेधवाची, देशनिषेधचाची च । दश०४ अ० संज्ञानं संज्ञा । पदार्थपरिच्छित्ती, 'पनयं सम्मा' तथा हि-ना घट इत्युक्ते यथा घटाभावमात्रं प्रतीयते , प्रत्यक सज्ञा । मन्दमन्दतरपटुपटुतरभेदात् । प्रत्येकमयोपजा- तथा प्रकरणादिनसक्नस्य विधानम् । स पुनर्विधीयमानः यते । सर्वज्ञादारतस्तरतमयोगेन मंतर्व्यवस्थितरवात् । स- प्रतिपध्यावयवा ग्रीवादिः प्रतिषेध्यादन्यो वा पटादिः प्रती१०१ श्रु०७ उ० । ज्ञाने, सूत्र०२ श्रु०१०। अन्तःकरण- यत इति । तथा चाक्लम्-'प्रतिषेधयति समस्तं , प्रसक्तमवृत्ती, सूत्र०१ श्रु०५ १०१ उ०। प्रतिनियतशब्दाभिधयत्वे, थं च जगति नोशब्दः । स पुनस्तदवयवो वा, तस्मादर्थान्तर सम्म०१ काण्ड । दशा भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्या लोचने, वा स्याद ॥१॥" इति, एमिहापि न सर्वसंज्ञानिषेधः, अपि
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सरणा अभिधानराजेन्द्रः।
सरणा सु-विशिष्टमंशानियो, ययाऽत्मादिपदार्थस्वरूपं गत्याग- । तिशातार्थोदाहरणम् , 'पुरस्थिमाउ' ति-प्राकृतशैल्या मा त्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति ।
गधदेशीभाषानुवृत्त्या पूर्वस्या दिशोऽभिधायकात् पुरस्थिम__ साम्प्रतं नियुक्तिकृत्सूत्रावयवनिक्षेपार्थमाह
शब्दात्पञ्चम्यन्तात्तसा निर्देशः।वाशब्द उत्सरपक्षापेक्षया वि
कल्पार्थः।यथा लोके भोक्तव्यं वा शयितव्यं वेति । एवं पूर्वस्या दब्बे सच्चित्ताई, भावेऽणुभवणजाणणा सप्मा ।
वा दक्षिणस्या बेति । दिशतीति दिक,अतिसजति-व्यपदिशमति होइ जाणणा पुण,अणुभवणा कम्मसंजुत्ता ॥३८॥ ति द्रव्यं द्रव्यभागं घेति भावः । श्राचा० ११० १ ०१ संशा नामादिभेदाचतुर्द्धा, नामस्थाने खुराणे । शरीर- उ० । द्विविधा संशा सा पुनः सामान्येन क्षायोपशमिकी, भव्यशरीरव्यतिरिक्ला सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदात्रिधा,सचि
श्रीपशमिकी च । तत्राद्या ज्ञानावरणक्षायोपशमजा मतितेन हस्तादिद्रव्येण पानभोजनादिसंशा, अचित्तेन ध्व
भेदरूपा न तयेहाधिकारः, द्वितीया सामान्येन चतुर्बिधाऽऽ जादिना, मिश्रेण प्रदीपादिना संज्ञान-संशा अवगम इति
हारसंशादिलक्षणा । श्राव०४० । श्रा०चू० । त्रिविधा कृत्वा । भावसंशा पुनर्द्विधा-अनुभवनसंज्ञा, ज्ञानसंशा च ।
संज्ञा दीर्घकालिकोपदेशेन हेतुवादोपदेशन दृष्टिवादोपदेशेन । तत्राल्पव्याख्येयत्वात्तावत् , शानसंज्ञा दर्शयति-मइ होइ
विश० । वृ०। प्रव०। जाणणा पुण' त्ति-मनन मतिः-अवबोधः, साच मतिज्ञा- इदानीं सन्नाओ तिन्नि' त्ति चतुश्चत्वारिंशच्छततमंनादिः पञ्चधा, तत्र केवलसंज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायो
द्वारमाहपशमिक्यः , अनुभवनसंशा तु स्वकृतकोदयादिसमुत्था सन्नामो तिन्नि पढमे,त्थ दीहकालोवएसियासयानाम । जन्तोर्जायते।
तह हेउवायदिट्ठी,वा उवएसा तदियराओ ॥६३२।। __ सा च षोडशभेदेति दर्शयति
संज्ञानं संज्ञा ज्ञानमित्यर्थः, सा त्रिभेदा, 'पढमे स्थ' त्तिआहारभयपरिग्गह-मेहुणसुखदुक्खमोहवितिगिच्छा ।
प्रथमा-श्राद्या अत्र एतासु तिसृषु संज्ञासु मध्ये दीर्घकाकोहमाणमायलोहे, सोगे लोगे य धम्मोहे ।।.३६ ॥ लोपदेशिका नाम दीर्घकालमतीतानागतवस्तुविषयत्वेना.
आहाराभिलाष आहारसंक्षा, सा च तैजसशरीरनामक- पदेशः कथनं यस्याः सा दीर्घकालोपदेशी, सैय दीर्घकालाम्र्मोदयादसातोदयाच्च भवति, भयसंशा त्रासरूपा, परिग्रह- पदशिका। तथा तदितर द्वितीय हेतुबादष्टिवादोपदेशे , संज्ञा मूछी रूपा, मैथुनसंज्ञा ख्यादिवेदोदयरूपा , एताश्च उपंदशशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् । हेतुवादोपदेशा माहनीयोदयात् सुखदुःखसंज्ञ सातासातानुभवरूपे वेदनी- द्वितीया संज्ञा, दृष्टिवादोपदेशा च तृतीयेत्यर्थः । तत्र हेतर्वा योदयज । माहसंज्ञा मिथ्यादर्शनरूपा मोहोदयात् , विचि- कारणं निमित्तमित्यनान्तरम् , तस्य वदनं बादस्तद्विषय कित्सासंशा चित्तविप्लुतिरूपा मोहोदयात् शानावरणी- उपदशः-प्ररूपणा यस्यां सा हेतुघादोपदेशा, तथा दृष्टिदर्शनं योदयाच्च, क्रोधसंशा अप्रीतिरूपा मानसंशा गर्व
सम्यक्त्वं तस्य वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः, तद्विषय रूपा, मायासंज्ञा वक्रतारूपा, लोभसंक्षा गृद्धिरूपा, शोक- उपदश : प्ररूपणं यस्यां सा रष्टिवादोपदशति । संशा विप्रलापवैमनस्यरूपा, एता मोहोदयजाः, लोकसं- अथ दीर्घकालोपदेशसंज्ञायाः स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुशाः स्वच्छन्दघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा न
स्तया संज्ञिनमेवाहसन्त्यनपत्यस्य लोकाः, श्वाना यक्षाः, विप्रा देवाः, काकाः
एयं करेमि एयं, कयं मए इममहं करिस्सामि । पितामहाः, बर्हिणां पक्षवातेन गर्भ इत्येवमादिका ज्ञानावर
सो दीहकालसन्नी, जोइय तिक्कालसन्नधरो ।।६३३॥! णक्षयोपशमान्मोहोदयाश्च भवन्ति । धर्मसंज्ञा क्षमाद्यासवनरूपा मोहनीयक्षयोपशमाजायते , एताश्चाविशेषोपादानात्
एतत्करोऽम्यहम् , एतत्कृतं मया , एतत्करिष्याम्यपञ्चेन्द्रियाणां सम्यग्मिध्यादृशां द्रष्टव्याः, श्रीघसंज्ञा तु अ
हम् , इत्यवं यत्रिकालविपयां वर्तमानातीतानागव्यक्लोपयोगरूपा वल्लिवितानारोहणादिलिङ्गा ज्ञानावरणी
तकालत्रयवर्तिवस्तुविषयां संज्ञां मनोविज्ञानं धारयति याल्पक्षयोपशमसमुत्था द्रष्टव्येति । इह पुनर्ज्ञानसंशयाऽधि
सः , दीर्घकाला--दीर्घकालोपदेशा संज्ञाऽस्यास्तीति कारो, यतः सूत्र सैव निषिद्धा इह एकेषां नो संज्ञा-ज्ञान
कृत्वा , स च गर्भजस्तियङ् मनुष्यो वा देवो नारकम् अवबोधो भवतीति ॥१॥
श्च मनःपर्याप्तियुक्तो विज्ञयः , तस्यैव त्रिकालविषयविमप्रतिषिद्धज्ञानविशेषावगमार्थमाह-सूत्रम्
ऑदिसंभवात् , पप च प्रायः सर्वमप्यर्थ स्फुटरूपमुपल
भंत । तथाहि-यथा चक्षुष्मान् प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुट. तं जहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाो आगो अहमंसि,
मर्थमुपलभत , तथैषोऽपि मनोलब्धिसंपन्नो मनोद्रव्यावदाहिणाश्रो वा दिसाओ आगो अहमंसि,पचत्थिमायो
टम्भसमुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसंधानेन तथावस्थित वा दिसाओ आगो अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाम्रो स्फुटमर्थमुपलभते । यस्य पुनर्नास्ति तथाविधस्त्रिकालआगो अहमंसि, उड्डाप्रो वा दिसाओ आगो अहमं- विपया विमर्शः सोऽसंज्ञीति सामर्थ्याल्लभ्यते । स च संसि, अहोदिसाओ चा आगो अहमंसि, अप्पयरीअो वा
मूञ्छितपञ्चन्द्रियविकलेन्द्रियादिविज्ञयः । स हि स्वल्प
स्वल्पतरमनोलब्धिसंपन्नत्वादस्फुटतरमर्थ जानाति । तथादिसाम्रो अणुदिसायो वा आगो अहमंसि । एवमेगेसि
हि-पञ्चेन्द्रियापेक्षया समूच्छिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जाणो णायं भवति । (सू० २)
नाति । जानाति ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियः , ततो"तं जहे" त्यादि "णो णायं भवती" ति यावत् तद्यथेति प्र- उध्यम्फुटतरं त्रीन्द्रियः , ततोऽप्यस्फुटतमं द्वीन्द्रियः ।
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(३०२) सरणा अभिधानराजेन्द्रः।
सरणा ततोऽप्यत्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भ
पि निश्चयतोऽशानमेवोच्यते । तहि किमिति क्षायोवात् , केवलमव्यक्तमेव किंचिदतीवाल्पतरं मनो द्रव्यम्- पशमिकज्ञानयुक्तोऽसौ गृह्यते ?, क्षायिकशान हि विशियदशादाहारादिसंशा अव्यक्तरूपाः प्रादुष्यन्तीति ?। एतग सा प्राप्यते, ततस्तवृत्तिरप्यसौ कि नाऽङ्गीक्रियत?, साम्प्रतं हेतुबादोपदेशसंशया संज्ञिनमशिनं चाह
उच्यते-यतोऽतीतस्यार्थस्य स्मरणमनागतस्य च चिन्ता
संज्ञाऽभिधीयते, सा च केवलिनां नास्ति । सर्वदा सजे उण संचिंतेउ, इट्ठाणिद्वेसु विसयवत्थूसु ।
र्थािवभासकरवेन केवलिनां स्मरणचिन्ताद्यतीतत्वात् : वत्तंति नियत्तंति य, संदहपरिपालणाहेउं ॥६३४।। इति क्षायोपशमकशान्येव सम्यग्दृष्टिः संझीति । ननु प्रथम पाएण संपइच्चिय, कालम्मिन याऽधि दीहकालम्मि । हेतुवादापदेशेन संशी वक्तुं युज्यते । हेतुवादोपदेशनाते हेउवायसनी, निचट्ठा हुँति हु असन्नी ।। ६३५ ॥
ल्पमनोब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः संज्ञित्वनाभ्युपग
मात् , तस्य चाविशुद्धतरत्वात् , ततो दीर्घकालोपदेशेन ये पुनः संचिन्त्य संचिन्त्यपानिएषु छायातपाहारादिषु
हतूपदशसंश्यपक्षया दीर्घकालोपदेशसंझिनो मनःपर्याप्तियुविषयवस्तुपु मध्य स्वदहपरिपालनाहतारिऐपु वर्तन्त ।
ततया विशुद्धत्वात् । तकिमर्थमुत्क्रमोपन्यासः!. उव्यतअनिष्टभ्यस्तु तभ्य एवं निवर्तन्त । प्रायण च साम्प्रत
इह सर्वत्र सूत्र यत्र क्वचित्संही असंही या परिगृह्यते काल एव , न चापि नैव दीर्घकाल ऽतीतानागतलक्षणे ,
तत्र सर्वत्रापि प्राया दीर्घकालोपदेशेन गृह्यते, न हेतुबाप्रायोग्रहणात् केचिदतीतानागतकालावलम्बिनोऽपि, ना
दापदशन , नापि दृष्टिवादोपदेशन , तत एतत्संप्रत्ययार्थ तिदीर्घकालानुसारिणः , त द्वीन्द्रियादया हनुवादोपंदश
प्रथमं दीर्घकालोपदेशन संज्ञिना ग्रहणम् । उक्तश्च-"ससंक्षया सशिनो विज्ञयाः। अत्र च निश्चटा घर्माद्यमि
निति असन्नित्ति य, सव्वसुए कालिश्रोवएसर्ण । पार्य तापितास्तन्निराकरणाय प्रवृत्तिनिवृत्तिविरहिताः पृथिव्या
संबवहाग, कीरह तणाइा सकश्री ॥१॥" ततोऽनदय एयासंज्ञिना भवन्ति । किमुक्तं भवति ?-या बुद्धि
स्तरमप्रधानत्वात् तृपदंशन सशिनो ग्रहणम् । ततः सपूर्व के स्वदहपरिपालनामिष्ट्रवाहारादिपु वस्तुषु प्रवर्तते ,
प्रधानत्यादन्त दृष्टिवादापदंशनति । प्रव० १४४ द्वार । अनिष्टभ्यश्च निवर्तत; स हेतृपदेशसंझी , स च द्वीन्द्रि- श्रा० म०। कर्म० । नं० । संज्ञान सशा असातंवदनीयादिप बदितव्यः । तथाहि-इटानिविषयप्रवृत्तिनिवृ- यमाहनीयकम्र्मोदयजन्य चैतन्यविशेष , पा० । बदनीयत्तिचिन्तनं न मनाव्यापारमन्तरण सम्भवति , मनसा माहनीयादयाश्रितानां शानावरणदर्शनावरणक्षयांपसमाधिच पर्यालाचन संज्ञा , सा च द्वीन्द्रियादरांप विद्यत ,
नायां विचित्राहादिप्राप्तिक्रियायाम् , प्रव० १४ द्वार । तस्यापि प्रतिनियंतष्टानिविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् ।।
दर्श। अभिलाप, आहारसंशा-श्राहागभिलाषः बुद्वनीय तता द्वीन्द्रियादिप हतपदेशसंशया संशी लभ्यत , न
प्रभवः खल्वात्मपरिणामविशष इति । नं०। वरमस्य संचिन्तन प्राया वर्तमानकालावषयम् , न भूत
संज्ञा चतुर्धाभविद्विपर्यामति । नाय दीर्घकालोपदेशन संझी यस्य पुन
चत्तारि सणाओ पापत्ताबा, तं जहा-आहारसम्मा भ. नामयभिसंधारण पूर्विका प्रनिनिनिक्रिः स प्राणी हतुवादोपदेशनाप्यसंज्ञी लभ्यत । स च पृथिव्यादिक
यसापा मगुणसएणा परिग्गहसम्मा । ( सू० ३५६४) न्द्रिया बदितव्यः । तस्याभिसंबन्धपूर्वकामष्टानिष्टप्रवृति- 'चत्तार' इत्यादि व्यक्त कवलं संशानं संभा-चैतन्यं, निवृत्त्यसम्भवात् , या अपि च श्राहागदिका दश संशाः नचामानबदनीयमाहनीयकम्र्मोदयजन्यविकारयुक्तमाहारसं.
शादियन व्यपदिश्यत इति । स्था० ४ ठा० ४ उ० । पृथिव्यादीनामप्यत्र बच्यन्त , प्रज्ञापनायापि च प्रतिपादितास्ता अप्यन्यन्तमव्यक्तरूपा मोहादयजन्यवादशा- स. । श्रानु० । उत्तः । प्रव. ।। पादारसंशावक्रव्यता भनाश्च इति न नदपक्षयापि तपां संज्ञित्यव्यदशः । न • श्राहारसराणा' शब्द द्वितीयभाग ५२७ पृष्ठे द्रष्टहि लाकऽपि कापणमात्रास्निन्वन धनवानुच्यत , न व्या।) (भयसंज्ञाचक्रव्यता 'भयसराणा' शब्दे पश्चमचाविशिऐन मूर्निमात्रंग रूपवानिति , अन्यत्रापि हेतु
भाग १३८५ । १३८४ पृष्ठ गता।) (मधुनसंज्ञाव्याख्या मेंवादापंदशमंज्ञियमाश्रित्यानं-कृमिकीटपतङ्गाद्याः समन- हुगासागा' शब्द पष्ठे भाग ४२६ । ४३० पृष्ठ गता।) (प. स्का, जङ्गमाश्चतुर्भदाः । अमनम्काः पञ्चविधाः पृथिवी- रिग्रहसंशावक्रव्यता - परिम्गहसरागा' शब्द पञ्चमभाग कादया मीयाः।
४६७ पृष्ठ गता।) अथ दृध्विादापदेशाज्ञया संशिनमशिनं चाह
इदानी -सराणाश्री चउग' ति पञ्चचत्वारिंशच्छततमं सम्मद्दिट्ठी मन्त्री, संत नाण खावममिण य ।
द्वारमाहअसनि मिच्छत्तम्मि, (य) दिट्टिवायांवामग ॥६३६॥
पाहार१ भयर परिग्गह३,मेहुण ४ रूवाउ हुंति चत्तारि। दृध्यिादोपदेशेन क्षायोपर्शामक ज्ञान वर्नमानः सम्य- सत्ताणं सन्नाश्री, आमसारं समग्गाणं ।। ६३७॥ गरिव संशानी , संज्ञानं मा सम्यगानम । मंशानं संज्ञा श्राभोगः, सा द्विधा--क्षायापशमिकी औतक्तत्वात् । मिथ्याटिः पुनरमंडी , विपर्ययन -- दायही च। तत्राद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यमतिभेदरूस्तनः सम्यगज्ञानरूपशागहनन्यान् । यद्यांग च म पा, सा चानन्तरमवाना | द्वितीया पुनः सामान्यन चध्यापि सम्यमारिय घटादि जाननियन- विधाहारसंशादिलक्षणा, नत्र खुवदनीयोदयाद्या कधतिच. तथापि तस्य संबन्धिव्यवसायशाना लाद्याहागाथ तथाविधपुद्गलापादानक्रिया सा श्राहार
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सराणा अभिधानराजेन्द्रः।
सराणा संज्ञा , तस्या आभोगात्मिकत्वात् सा पुनश्चतुर्भिः कार- असुरकुमाराणं भंते ! का सरणाश्रो परणाश्रो ?, णैः समुत्पद्यते । यदुक्तं स्थाना-'चाहिं ठाणेहिं पाहा
गोयमा ! दस सन्नाश्रो पमत्ताओ , तं जहा-आहाररसराणा समुप्पज्जा, तं जहा-श्रोमकुट्टयाए छहायेयणि
सम्मा ०जाव ओघसरणा , एवं० जाव थणियकुज्जस्स कम्मस्सुदएणं मईए तदट्ठावोगेणं' ति । तत्र अयमकोष्ठतया रिक्लोदरतया , सुवेदनीयकम्र्मोदयेन, मस्या माराणं एवं पुढविकाइयाणं जाव वेमाणियावसाखाणं आहारकथाश्रावणादिजनितबुद्धया, तदर्थोपयोगेन सततमा नेतव्वं । ( सू० १४७४) नेरइयाणं भंते ! किं प्राहारचिन्तयति, तथा भयमोहनीयोदयायोद्धान्तस्य दृष्टिव
हारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणसन्नोवउत्ता परिदनविकाररामाश्चोतेंदादिक्रिया भयसंशा । इयमपि चतुर्भिः स्थानत्पद्यते, यदुक्तं "हीणसत्तयाए य भयवेयणिजस्स क
ग्गहसपोवउत्ता १ , गोयमा ! ओसन्न कारणं म्मस्सुदपणं, मईए तदट्ठावोगेणं" ति । तत्र हीनसत्वतया पडुच्च भयसन्नोवउत्ता, संतइभावं पडुच्च प्राहारससस्वाभावेन, मत्या भयवार्ताश्रवणभीषणदर्शनादिजनितया न्नोवउत्ता वि .जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता वि । एएबुया , तदर्थोपयोगेन इह लोकादिभयलक्षणार्थपर्या
सि णं भंते ! नेरइयाणं आहारसमोवउत्ताणं भलोचनेनेति, तथा लोभोदयात्प्रधानसंस्कारकारणाभिध्वङ्गपूर्विका सचित्ततरद्रव्योपादानक्रियापरिग्रहसंशा। एषापि
यसन्नोवउत्ताणं मेहुणसम्मोवउत्ताणं परिग्गहसएणोव-- चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते , यदुक्तम्-'अविमुत्तियाए लोभे उत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुवेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं , मईए तदट्टावोगेणं ' ति ला वा विसेसाहिया वा ? , गोयमा ! सम्वत्थो-- तत्र अविमुक्ततया सपरिग्रहतया , मत्या सचेतनादिपरि
वा. नेरइया मेहुणसमोवउत्ता आहारसप्पोवउत्ता ग्रहदर्शनादिजनितबुद्धया तदर्थोपयोगेन परिग्रहचिन्तनेनेति । तथा पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्च्यालोकनप्रसन्नवदनसं
संखिजगुणा परिग्गहसएणोवउत्ता संखिजगुणा भयस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रिया मैथुनसंज्ञा , असावपि
सएणोवउत्ता संखिजगुणा ।। तिरिक्खजोणियाणं भंचतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते । यदुक्क्रम्-' चियमंससोणियाए | ते ! किं प्राहारसरणोवउचा जाव परिग्गहसप्लोमोहणिजस्स कम्मस्सुदएणं मईए तदट्टोवोगणं" ति ।
वउत्ता ? , गोयमा ! श्रोसन्नं कारणं पडुच्च प्रातत्र चिते उपचिते मांसशोणिते यस्य स तथा तद्भाव
हारसप्लोवउत्ता संतइभावं पडुच्च आहारसरणोवस्तत्ता , तया चितमांसशोणिततया मत्या सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्धया तदर्थोपयोगेन मैथुनलक्षणार्थचिन्तने
उत्ता वि .जाव परिग्गहसम्मोवउत्ता वि, एएसिणं नेति, पताश्चतस्रः संज्ञाः समग्राणामेकेन्द्रियादीनां पञ्चे- भंते ! तिरिक्खजोणियाणं आहारसमोवउत्ताणं जाव न्द्रियपर्यवसानानां सत्त्वानां-जीवानामासंसार संसारवास
परिग्गहसएणोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा यावद्भवन्ति । तथा च केषांचिदेकेन्द्रियाणामप्यताः स्पष्ट
बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! मेवोपलभ्यन्ते। तथाहि-जलाद्याहारोपजीवनाद्वनस्पत्यादीनामाहारसंशा । संकोचनी वल्ल्यादीनां तु हस्तस्पादिभी
सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसम्मोवउत्ता, त्या अवयवसंकोचनादिभ्यो भयसंशा, बिल्वपलाशादीनां
मेहुणसन्नोवउत्ता संखिजगुणा भयसन्नोवउत्ता संखितु निधानीकृतद्रविणोपरि पादमोखनादिभ्यः परिग्रह- जगुणा आहारसन्नोवउत्ता संखिजगुणा ।। मणुस्सा णं संज्ञा । कुरवकाशोकतिलकादीनां तु कमनीयकामिनी- भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसन्नोवउ, भुजलतापगृहनपाणिप्रहारकटाक्षविक्षपादिभ्यः प्रसूनपल्लबादिप्रसवप्रदर्शनान्मैथुनसंशति । प्रव०१४५ द्वार ।
त्ता?, गोयमा ! ओसन्नं कारणं पडुच्च मेहुणसन्नो
वउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसन्नोवउत्ता वि ०जाव करणं भंते ! सरणाश्रो पएणत्तानो ?, गोयमा!
परिग्गहसनोवउत्ता वि । एएसि णं भंते !मणुस्साणं आहादस सरणाश्रो पएणत्ताश्रो, तं जहा-आहारसरणा भ- रसन्नोवउत्ताणं जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेयसपणा मेहणसपणा परिग्गहसराणा कोहसराणा मा- हितो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेसाहिय णसमा मायासमा लोहसमा लोयसरणा ओहसएणा।
गोयमा सव्वत्थोवा मणमा भयसन्नोव उत्ता पाहारसनोवसू० १४७४) प्रज्ञा०८ पद।
उत्ता संखिजगुणा परिग्गहसगणोवउत्ता संखिजगुणा (आसामर्थः स्वस्वस्थाने ) प्रज्ञा । प्रव० । स्था० । (एके- मेहुणसखोवउत्ता संखिजगुणा ॥ देवा णं भंते ! न्द्रियाणमपि आहारादिसंशा विद्यन्ते इति ‘णाण' शब्दे कि आहारसन्नोवउत्ता जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता ?, चतर्थभाग १६४० पृष्ठे मतिमानयोदप्रस्तावे उक्तम् ।)
या मोम कारयां पडच्च पहिग्गहसन्लोवउत्ता नेरइयाणं भंते ! कइसमामो पसत्तामो? गोयमा! संततिभावं पडुच्च आहारसन्नोवउत्ता वि जाव पदस सलामो पमत्तानो,तं जहा-आहारसमा जाव रिग्गहसन्नोवउचा वि, एएसि णं भंते ! देवाणं श्रीघसरणा । (मू० १४७४)
आहारसनोवउत्ताणं जाव परिग्गहसनोवउत्ताण य
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(३०४ ) सराणा अभिधानराजेन्द्रः।
सरणा कयर कयरहितो अप्पा बा बहया वा तुला वा वि- इति पृच्छा समये स्तोका मैथुनसंशोपयक्काः, तेभ्य: सेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोबा देवा प्रा
संख्येयगुणा पाहारसंशोपयुक्ताः, दुःखितानामपि प्रभूतानां
प्रभूतकाल चाहारेच्छाया भावतः पृच्छासमये अतिप्रभूहारसमोवउत्ता भयसनोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणस
तानामाहारसंशोपयुक्तानां संभवात् , तेभ्यः संख्ययगुणाः मोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता संखेजगुणा । परिग्रहसंशोपयुक्ताः , आहारेच्छा हि दहाथमेव भवति (सू०१४८)
परिग्रहेच्छा तु देहे प्रहरणादिषु च, प्रभूततरकालाव'करणं भंते ! सन्नाओ पराणत्ताओ' इति-कनि-किय- स्थायिनी च परिग्रहेच्छा, ततः पृच्छासमय ऽतिप्रभूततरा: संख्या 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे । भदन्त । संशाः प्राप्ताः, परिग्रहसंशोपयुक्ता अवाप्यन्ते इति भवन्ति पूर्वेभ्यः संतत्र संशानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः । यदिवा-संज्ञायतेऽन- ख्येयगुणाः, तेभ्यो भयसंज्ञोपयुक्ताः संख्येयगुणाः, नरयाऽयं जीव इति संज्ञा , उभयत्रापि वेदनीयमाहोदया- केषु हि नैरयिकाणां सर्वतो भयमामरणान्तभावि, ततः श्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च विचित्रा- पृच्छासमयेऽतिप्रभूततमा भयसंशोपयुक्ताः प्राप्यन्ते इति हारादिप्राप्तिक्रिया , सा चोपाधिभेदाइशविधा, तथा संख्ययगुणाः । तिर्यपञ्चेन्द्रिया अपि बाह्य कारणं प्रतीचाह-गौतम ! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, सदेव दशविधत्वं त्य बाहुल्येनाहारसंशोपयुक्ता भवन्ति न शेषसंशोपयुक्ताः नामग्राहमाह-'श्राहारसन्ना' इत्यादि तत्र सुवेदनीयोदयात् तथा प्रत्यक्षत एवोपलब्धः, प्रान्तरमनुभवभावमाया कवलाचाहारार्थ तथाविधपुनलोपादानक्रिया साऽऽ श्रित्याहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंशोहारसंशा , तस्या श्राभोगात्मिकत्वात् । यदिवा-संज्ञायते पयुक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः परिजीवोऽनयेति, एवं सर्वत्रापि भावना कार्या । तथा भ
ग्रहसंशोपयुक्ताः, परिग्रहसंज्ञायाः स्तोककालत्वेन पृच्छासयमोहनीयोदयात् भयोद्धान्तस्य दृष्टिवदनविकाररोमाश्चो- मये तेषां स्तोकानामेवाऽवाप्यमानत्वात् : तेभ्यो मैथुनसंज्ञाद्भेदादिक्रिया भयसंज्ञा, पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्ख्यालोकनप्र
पयुक्ताः संख्ययगुणाः, मैथुनसंज्ञोपयोगस्य प्रभूततरकालसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसंज्ञा ,
त्वात् , तेभ्योऽपि भयसंज्ञोपयुक्ताः संख्येयगुणाः, सजातीतथा लोभोदयात् प्रधानसंसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचि- यात्परजातीयाश्च तेषां भयसंभवतो भयोपयोगस्य च प्रभूतेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसंज्ञा, तथा क्रोधवेदनीयोद- ततमकालत्वात् , पृच्छासमये भयसंझापयुक्नानामतिप्रभूतयात् तदावेशगर्भा पुरुषमुखबदनदन्तच्छदस्फुरणचेष्टा तराणामवाप्यमानत्वात् , तेभ्यः संख्ययगुणाः श्राहारसंक्रोधसंझा, तथा मानोदयादहङ्कारास्मिका उत्सेकादिपरिण- झोपयुक्ताः, प्रायः सततं सर्वेषामाहार ( संशा) संभवात् । तिर्मानसंशा , मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणा- मनुष्या बाह्य कारणमधिकृत्य बाहुल्येन मैथुनसंशोपयुक्ताः दिक्रिया मायासंझा, तथा लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वे
स्ताकाः शेषसंशोपयुक्ताः, सन्ततिभावमान्तरानुभवभावरूपं न सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभसंशा, तथा मतिज्ञानावर- प्रतीत्याहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ता अपि । णकर्मक्षयोपशमनात् शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोध- अल्पबहुत्यचिन्तायां सर्वस्तोका भयसंज्ञापयुक्ताः, स्तोकाक्रिया ओघसंज्ञा, तथा तद्विशेषावयोधक्रिया लोक- नां स्तोककालं च भयसंज्ञासंभवात् , तेभ्य आहारसंशासंशा । एवं चेदमापतितम्-दर्शनोपयोग ओघसंज्ञा , पयुक्ता संख्येयगुणाः, श्राहारसंझोपयोगस्य प्रभूततरज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा, अन्ये त्वभिदधति-सामान्यप्रवृ- कालभावात् अत एव हेतोः तेभ्यः संख्येयगुणाः परिग्रत्तिर्यथा वल्ल्या वृत्त्यारोहणमोघसंज्ञा , लोकस्य हेया प्र- हसंझोपयुक्ताः, तेभ्यो मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः संख्ययगुणाः, मैवृत्तिर्लोकसंशा, तदेवमेताः सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्च- थुनसंज्ञाया अतिप्रभूततरकालं यारन भावतः पृच्छासमयेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः , एकेन्द्रियाणां त्वेता अव्य- तेषामतिप्रभूततराणामवाप्यमानत्वात् । तथा वाह्य कारणक्लरूपा अवगन्तव्याः, नैरयिकसूत्रे 'ओसन्नकारणं पडुच्च । मधिकृत्य बाहुल्येन देवाः परिग्रहसंज्ञापयुक्ताः, मणिकनभयसनोवउत्ता' इति-तत्रोत्सन्नशब्देन बाहुल्यमुच्यते करत्नादीनां परिग्रहसंज्ञोपयोगहेतृनां तपां सदा सन्निहितकारणशब्देन च बाह्य कारणम् , ततोऽयमर्थः-बाह्यकार- त्वात् , संततिभावं यथोक्तरूपं प्रतीत्य पुनराहारसंशापयुणमाश्रित्य नै रयिका बाहुल्येन भयसंज्ञोपयुक्ताः, तथाहि- क्ला अपि यावत्परिग्रहसंज्ञापयुक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सन्ति तेषां सर्वतः प्रभूतानि परमाधार्मिकायः-कवल्ली- सर्वस्तोका श्राहारसंज्ञापयुक्ताः, आहारच्छाविरहकालस्याशक्निकुन्तादीनि भयोत्पादकादीनि , ' संतइभावं पडुच्च " तिप्रभूततया आहारसंज्ञापयोगकालस्य चातिस्ताकतया इति-इहानन्तरोऽनुभवभावः-सन्ततिभाव उच्यते । तत तेषां पृच्छासमये सर्वस्तोकानां तेषामवाप्यमानत्वात् , ततो आम्तरमनुभवभावमपेक्ष्य नैरयिका आहारसंशोपयुक्ता अ- भयसंशोपयुक्ताः, संख्ययगुणाः, भयसंक्षायाः प्रभूतानां प्रभूतपि यावत्परिग्रहसंशोपयुक्ता अपि । अल्पबहुत्वचिन्तायां स- कालं च भावात् ,तेभ्योऽपि मैथुनसंज्ञापयुक्ताः सण्ययगुणाः, वस्तोका मैथुनसंज्ञापयुक्ताः, नैरयिका हि चक्षुर्निमीलनमा- तेभ्यः परिग्रहसंज्ञापयुक्ताः संख्येयगुणा, जीवापक्षया बहया घमपि न सुखिनः केवलमनवरतमतिप्रबलदुःखाग्निना वक्तव्यास्ते च तथैव भाविता इति । प्रज्ञा०८ पद।। संतप्यमानशरीराः । उक्तं च-"अच्छिनिमीलणमेत्तं, नऽस्थि
जीवा णं भंते ! कि सरणी असण्णी नोसामी नोसुहं दुक्खमच पडिबद्धं । नरए नरइयाणे, अहानिसं पच्चमाणाणं ॥१॥" नतो मैथुनच्छा नेतेषां भवतीति , यदि |
असामी ?, गोयमा ! जीवा सपी वि अमम्मी विनो परं कचित्कदाचित्केषांचित् भवति साऽपि च स्तोककाला सप्ली नोअसली वि । णरइयाणं पुच्छा, गायमा !
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(३०५) सराणा अभिधानराजेन्द्रः।
संमाणपसंसा णरइया समी वि असमी वि नोसमी नोअसली वि। वक्तव्याः, संशिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नोसंज्ञि-नाअसंशिएवं असुरकुमारा जाब थणियकुमारा । पुढविकाइयाणं |
नोऽपि वक्तव्या इति भावः । तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तास्ते
सर्शिनः सम्मूच्छिमा असशिनः केवलिनी नोसंशि-नोपुच्छा, गोयमा ! नो समी असामी, नो नोसमी नो
असंशिनः, पंचिंदियतिरिक्खजोणियवाणमंतरा जहानेरइया' समी,एवं बेइंदियतेइंदियचउरिंदिया वि मणुस्सा जहा जीवा इति-पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका व्यन्तराश्च यथा नैरयिका उपंचिंदियतिरिक्खजोणिया वाणमतरा य जहा णेरइया जो- कास्तथा वक्तव्याः, सशिनोऽपि असंझिनोऽपि नासंशि-नोअइसियवेमाणिया समी नोअसामी, नो नोसन्नी नो असमी
संशिनो वक्तव्या इति भावः । तत्र पञ्चन्द्रियतिर्यग्यानिकाः सिद्धाणं पुच्छा गोयमा ! नो समी नो असली नोसामी
संमूञ्छिमा असंज्ञिनः गर्भव्युत्क्रान्ताः संशिनः , व्य
न्तरा असंशिभ्य उत्पन्नाः असंज्ञिनः, संशिभ्य उत्पन्नाः • नोअसली । “णेरइयतिरियमणुया, य वणयरगसुराइ सशिनः । उभयेऽपि चारित्रप्रतिपत्तरभावावात् नो संक्षि
सप्लीऽसमी य । विगलिदिया असली, जोइसवेमाणिया नोअसंझिनः । ज्योतिष्कवैमानिका संशिन एव नोअसरणी ॥१॥" (सू० ३१५४)
संझिनः संशिभ्य उत्पादाभावानो नासंझि-नोश्रसंज्ञिनश्चा
रित्रप्रतिपत्तरभावात् , सिद्धास्तु प्रागुक्तयुक्तितो नो संक्षिनो 'जीवा णं भंते ! किं सराणी' इत्यादि, संज्ञानं संज्ञा-'उपस- नाप्यसशिनः, किंतु-नोसंशि-नोश्रसंशिनः। अत्रैव सुखप्रतिर्गादातः' ॥५३।११०॥ इत्यामत्ययः, भूतभवद्भाविभावस्वभा
पत्तये संग्रहणिगाथामाह-नेरइए' इत्यादि, नैयिकाः 'तिवपर्यालोचन सा विद्यते यात संज्ञिनः, विशिष्टस्मरणादि- रिय' त्ति-तियपञ्चन्द्रियाः मनुष्या वनचरा व्यन्तरा असुरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्लमनोविज्ञानविकला अ
रादयः-समस्ता भवनपतयः प्रत्येकं संज्ञिनोऽसशिनश्च संशिनः, ते च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियसम्मूछिमपञ्चेन्द्रिया वनव्याः, एतच्चानन्तरमेव भावितम् । विकलेन्द्रिया एकद्विवेदितव्याः । अथवा-संज्ञायते-सम्यक् परिच्छिद्यते पू- त्रिचतुरिन्द्रिया असंझिनो ज्योतिष्कबैमानिकाः संचिन इति । ोपलब्धो वर्तमानो भावी च पदार्थो यया सा संशा- प्रशा०३१ पद । प्रव० संकेते, नि० चू०२ उ० । विषयाभिभिदादिपाठाभ्युपगमात् करणे घम् विशिक्षा मनोवृत्तिरि- वङ्गजनितसुखेच्छायाम् , परिग्रहसंज्ञायांच। आचा०१ श्रु०२ त्यर्थः, सा विद्यते येषां ते संशिनः समनस्का इत्यर्थः । तद्वि- अ०६ उ०। ('वणप्फई' शब्द पंष्ठ भाग ८०८ पृष्ठ उत्पलादिपरीता असंझिनोऽमनस्का इत्यर्थः , ते चैकेन्द्रियादय एवा- वनस्पतीनां संशाद्वारम् । ) ( सामायिकसंयतादयः किं नन्तरोदिताः प्रतिपत्तव्याः। एकेन्द्रियाणां प्रायः सर्वथा संशापयुक्ताः इति 'संजय' शब्द ऽस्मिन्नव भागे ६६ मनोवृत्तेरभावात् , द्वीन्द्रियादीनां तु विशिष्एमनोवृत्ते- पृष्ठे गतम् । ) ( निग्रन्थानां संज्ञाद्वारम् ' णिग्गंथ ' रभावः , ते हि द्वीन्द्रियादयो वार्त्तमानिकमेवार्थ शब्दा- शब्दे चतुर्थभागे २०४५ पृष्ट उक्तम् । ) (विप्रकृष्टष्वपि विषयेदिकं शब्दादिरूपतया संविदन्ति , न भूतं भाविनं चेति । षु अविरतः कर्मबन्धो भवतीति प्रतिपादनात् संश्यसंशिकेवली सिद्धश्चोभयप्रतिषेधविषयः । केवली हि यद्य- दृष्टान्ती 'पञ्चक्खाण' शब्द ५ भागे १११ पृष्ठे उक्ती ।) पि मनोद्रव्यसम्बन्धमाक् तथापि न तैरसी भूतभवद्भावि- समयपरिभाषया पुरीपोत्सर्ग, पं० व०१ द्वार ( थंडल भावस्वभावपर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकलज्ञानदर्श- शब्दे चतुर्थभागे २३८० पृष्ठ तद्विधिरुतः ।) नावरणत्वात् पर्यालोचनमन्तरेणैव केवलज्ञानेन केवलदर्श- स्वर्गा-स्त्री० । उज्जयन्तशैले खनामख्यातायां नद्याम् , ती० मेन च साक्षात्समस्तं जानाति पश्यति च , ततो न
३ कल्प । ( गाथा 'उजयंत' शब्द द्वितीयभागे ७३५ पृष्ठे।) संशी नाप्यसंशी, सकलकालकलाकलापव्यवच्छिन्नसमस्तद्रव्यपर्यायप्रपञ्चसाक्षात्करणप्रवणशानसमन्वितत्वात् । सिद्धो
सम्माकरण-संज्ञाकरण-न० । संज्ञाविशिष्ट करणं संज्ञाकरऽपि न संबी, द्रव्यमनसोऽप्यभावात् , नाप्यसंशी सर्वश
णम् । सङ्केतकरणे, विशे० । श्रा०म० । त्वात् , तवेदं सामान्यतो जीवपदे संशिनोऽसंझिनो नो- | सम्पाखंध-संज्ञास्कन्ध--पुं०। संज्ञानिमित्ताऽवग्रहणात्मके प्रसक्षि-नोअसशिनश्च लभ्यन्ते इति भगवान् तथैव प्रतिसमा- त्यय, सूत्र०१ भु०१०१ उ०। धानमाह--'गौतमें' त्यादि, जीवाः संशिनोऽपि नैरयिका
सपाण-संज्ञान-न । सम्यग्ज्ञान,पो० १३ विव० । उपयोग दीनां संशिनां भावाद् , असंशिनोऽपि पृथिव्यादीनामसंशिनां भावात् , नोसंशि-नोश्रसंशिनोऽपि सिद्ध केवलिनां
अवधाने, श्राव०६ १० । स्मृतावबोधे, आचा०१ श्रृ०१ नोसशि-नोश्रसंझिनामपि भावात् । एतानव चतुर्विंश
अ०१ उ०। संज्ञा व्यजनावग्रहोत्तरकालभव मतिविशप , तिदण्डकक्रमेण चिन्तयति-'नेरइया ण' मित्यादि, इद्द ये
स्था०१ठा। नैरयिकाः सखिभ्य उत्पद्यन्ते ते संशिनो व्यवहियन्ते इतरे स्वज्ञान-न० । स्वगतबोधे, पश्चा० १२ विव०। त्वसंशिनः नच नैरयिकाणां केवलिभावो घटते , चारित्र
संमाणपसंसा-संज्ञानप्रशंसा-स्त्री० । संज्ञानप्रशंसनमिति सप्रतिपत्तरभावात् , तत उक्तं नैरयिकाः संज्ञिनोऽप्यसंशिनोऽपि , नो नोसंक्षिनो नोअसंशिनः , एवमसुरकुमारा
द् अविपर्यस्तं शानं यस्य स सज्ज्ञानः पण्डितो जनः , दयोऽपि स्तनितकुमारपर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः,
सतो वा ज्ञानस्य सविवेचनलक्षणस्य प्रशंसनं पुरस्कार तेषामप्य संझिनोऽप्युत्पादात् केवलित्वाभावाच्च । ' मरणूसा
इति । विद्वजनप्रशंसायाम् , ध० । जहा जीव' त्ति-मनुष्याः प्राकू यथा जीवा उकास्तथा "तन्नस्त्रिभिरीक्षत न गिरिशो नो पनजन्माऽभिः,
७७
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संख्यायुपसंमा
स्कन्दमान मधमा बहुः सहखेण च । संभूयापि जगत्त्रयस्य नयनेस्तस्तु मां पीते, प्रत्याहाराः समाहितधियः पश्यन्ति यत्पण्डिताः" इति ।
तथा
"मो प्राप्यमभियान्ति न च्छन्ति शोचितुम्। पासुन मुह्यति नराः परिबुद्धयः ॥ २ ॥ नयत्यात्मन माने, नायमाने च रुप गाड़ोदाभ्यो यः सपति उच्यते ॥ ३॥" ध० १ अधि० ।
( ३०६ अभिधान राजेन्द्रः ।
सरणाण संवेयवेरग्ग-संज्ञानसंवेगवैराग्य- न० । एवं विज्ञाय तत्त्यागश्च सर्वथा वैराग्यमाहुः । संज्ञानसङ्गत तत्त्वदर्शन इत्युचैराम्यमे डा० १० अ० मायादुदय-संज्ञानाद्युदय पुं० [सम्यानदर्शनादिनि कारणोत्पत्ती ०४
"
सम्पाणिष्यति संज्ञानिर्वृति श्री०
०८० (संज्ञानिर्वृत्तिव्याच्या चतुर्थमा २१२० पृष्ठ उक्का) समाभूमि संज्ञाभूमि स्त्री० व्युत्सर्गभूमी आचा० १
।
3
श्रु० १ ० १ उ० । समुह संज्ञामुख १० पुरीपोथय आ०म० १ ० । समायग- सन्नायक - पुं० । शोभने नायके, गृहस्वामिनि नि०
चू० २ उ० ।
समास - संन्यास - पुं० । परित्यागे नं० ।
,
-
संज्ञानी म०१६ व्यिति शब्दे
"
,
सम्म सिद्धि-संज्ञासिद्धि - स्त्री० । संज्ञानं संज्ञा रूढिरिति पर्यायाः तथा सिद्धिः संग्रासिद्धिः । संज्ञासम्बन्धे दश०
१ श्र० ।
सणासुन संज्ञासूत्र न० स्वतपूर्वकं निच सू० श्रु० वक्ष्यते ' १ ० १ ० १ ० । ( वचयते सुत' शब्देऽविभागे एतद्विवृतिः)
सप्ताह - सन्नाह- पुं० । प्रहरणे खङ्गादिके, स्था० ६ ठा० ३ उ० ॥ श्र० ।
""
समि ( ) संज्ञिन्पुं० [संज्ञानं संज्ञा भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम् " उपसर्गादातः " ॥ ५ । ३ । ११० ॥ ( सिद्धहम० ) इत्यङ्प्रत्ययः । स विद्यते यस्य स संशी "ब्रीह्यादिभ्यस्ती ॥७२॥५॥ सिद्धम० ) इतीन प्रत्ययः । विशिष्टसंचरणादिरूपमनोविज्ञानमा प्रातिनि यः सम्यग जानाति इंदापति पुत्तं भवति श्रा० चू० १ ० । कर्म० । दर्श० । पं० सं० । स्था० । आ० म० । श्र० । विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्चकसमन्विते प्राणिनि, कर्म्म० ३ कर्म० । नं० । ( " अणि 'शब्द प्रथमभागे ८३६ पृष्ठे दण्डक उक्तः । ) (केशन के या अर्थहिन इति 'सपा'शब्देऽस्मिन्नेव भांगे अनुपयोक्रम्) संज्ञा गुरुदेवधर्मपरिज्ञानं सा नियंत यस्य स संशी । वृ० १ ० ३ प्रक० । श्राक्के, श्राव० ४ ० । समानस्कन्धजीव, विशे० । नि० चू० ।
विवाइय
सरिणश्रय-- सन्नि (स्वनि) योग - पुं० । स्वकीयव्यापारे, भागमरचनादिके, पञ्चा० ४० सरिक्खित्त--सनिक्षिप्त- त्रि० । म्यस्ते, स्था० ५ ठा० १ उ० । जगरिस्थतिस्थापन सम्पनिवेशित, रा० । सरिणकोसलय - संज्ञिकेोशलक पुं०। कोशलभावके, प०
१० उ० ।
सरिगन्भ - संज्ञिगर्भ - पुं० | मनुष्यगर्भवसतौ भ० १४
3
श० १० उ० ।
सरिगरिस- सन्निकर्ष- पुं० । संबन्धे, सूत्र० १ ० १२ श्र० । संयोगे " संजोग सचिगासो पहुच संबन्ध एगडा नं०। सरिगास--सन्निकाश-पुं० । सदृशे ज्ञा० १ ० १०/० म० रा० ।" सन्निगासो नाम श्रभासो वा अववादो वा " पं० चू० ४ कल्प । समिचयसन्निचय ५० प्राचुर्वे उपभोग्यद्रव्यनिचये, श्राचा० १ ० २ ० १ उ० । सम्यग् निश्चयेन चीयते इति सयियः । विनाशिन्याणामभवासितामृद्धी कादीनां संग्रहे, श्राचा० १ ० २ ० ५ ० ।
--
।
|
समिचियसन्निचिय पुं० प्रचयविशेपान्निषिद्धीकृते, अनु० समियाय-- सन्निनाद-पुं० । प्रश्न० । प्रतिशब्दे, श्री० । समिन्दा सनिन्दा - स्त्री० सतां सत्पुरुषाणां साधुधावकभृतीनां निन्दा सन्निन्दा | सद्गर्हायाम्, षो० १ विव० । समिबजाइसरणसंज्ञिपूर्वजातिस्मरण १० शिन-सत या पूर्वजातिः प्राक्तनो भवस्तस्या यत्स्मरणं तत्तथा । संशिनां सतां पूर्वभवस्य स्मरणे, औ० । समिप्यवाय सनिप्रपात ५० संचिनोऽवपतनस्थाने, स्था० ।
३ ठा० ।
सलिम सन्निभ-पुं० [अ० १ अ० ० ० समिभूय संज्ञिभूत-पुं० संशिनः पद्रियाः सन्तो भूता । पञ्चेन्द्रियाः नारकत्वं गताः संशिताः पञ्चेन्द्रियेषु सत्सु नारके, २०
,י
१ श० २ उ० ।
समिर - सन्निर- त्रि० । पत्रशाके, दश० ५ ० १ उ० । समिरुद्ध सन्निरुद्ध त्रि० सम्पनिद्धं निम्
बा० २ ० २ ० १ ० सूत्रकादिना अत्यन्तं निय न्त्रिते श्राचा० २ ० १ चू० १ ० ४ उ० । उत्त० । समयमा सन्निपतत् ष० गच्छति आचा० २ ० १ चू० १ ० ३ उ० । समिवाइय- सान्निपातिक-पुं० । संहतरूपतया नाऽतिनियतं पतनं गमनमक वर्तन सशितः कोऽर्थ एषामेव इथादिसंयोगिप्रकारस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः । कर्म्म० ४ कर्म० । स्था० । पं० सं० । भ० । सन्निपात एषामेवौदयिकादिभावानां द्वयादिमेलापकः स एव तेन वा निर्वृत्तः सान्निधातिकः । अनु० । पं० सं० । पञ्चानामपि भावानां द्विकादिसंयोगनियमानं सूत्र० १० १३०० से फिंसे इस एएस चे उदश्य उपस
3
०
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सशिणवाइय अभिशनराजेन्द्रः।
सगिणवाइय मिअखइनखोवसमिश्रपारिणामित्राणं भावाणं दगसं-- उपसमिए खोवसमनिष्फरणे ६ , कयरे से णामे उवजोएणं तियसंजोएणं चउकसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे समिए पारिणामिअनिष्फरणे ?, उवसंता कसाया पानिष्फाइ सब्वे से सग्निवाइए नामे | तत्थ णं दम दुअसं- रिणामिए जीवे , एस ण से णामे उपसमिए पारिणाजोगा दस तिप्रसंजोगा पंच चउक्कसंजोगा एगे पंचकसं- मिअनिप्फरणे ७, कयरे से णामे खइए खोवसमनिजोगे। (मू० १२७४)
प्फरण?, खइयं सम्मत्तं खोवसमिआई इंदिमाई । सन्निपातः-एषामेवौदयिकादिभावानां धादिमेलापकः, स एस ण से णामे खइए खोवसमनिप्फरणे ८, कयरे एव तेन वा निवृत्तः सानिपातिकः । तथा चाह-एए- से णामे खडए पारिणामिअनिष्फरणे ? , खइभ सम्मत्त सिं चेये' त्यादि , एषामौदयिकादीनां पश्चानां भावानां द्वित्रिकचतुष्कपश्चकसंयोगैर्ये पविशतिर्भङ्गाः भवन्ति ते
परिणामिए जीवे । एस ण से णामे खइए पारिणामिसर्वेऽपि सान्निपातिको भाव इत्युच्यते । एतेषु मध्य
अनिष्फराणे 8 , कयरे से णामे खोवसमिए पारिणाजीवेषु नारकादिषु षडेव भताः सम्भवन्ति , शेषास्तु मिअनिप्फयणे १ , खोवसमिआई इंदिअाई पारिणाविंशतिर्भङ्गका रचनामात्रेणैव भवन्ति । न पुनः कचित् मिए जीवे । एस ण से णामे खोवसमिए पारिणामिसम्भवन्ति, अतः प्ररूपणामात्रतयैव ते अवगन्तव्याः। एतत्
अनिष्फले १० । (सू० १२७ ) सर्व पुरस्ताद्वयक्तीकरिष्यते । कियन्तः पुनस्ते द्वयादिसंयोगाः प्रत्यकं सम्भवन्ति, इत्याह-'तत्थ णं दस दुगसंजोगा' __ नामाधिकारादित्थमाह-अस्ति तावत्सन्निपातिकभावान्तइत्यादि, पञ्चानामौदयिकादिपदानां दश द्विकसयोगाः, चर्ति नाम । विभक्तिलोपादोदयिकौपर्शामकलक्षणभावद्वयनिदशैव त्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुःसंयोगाः, एकस्तु पञ्चक- प्पन्नमित्येको भक्तः,एवमन्येनाप्युपरितनभावत्रयेण सह संयोसंयोगः संपद्यत इति । सर्वेऽपि पविशतिः ।
गादौदयिकेन चत्वारो द्विकसयोगा लब्धाः, ततस्तत्परित्यागे तत्र के पुनस्ते दश द्विकसंयोगा इति जिशासायां प्राह
औपशमिकस्योपरितनभावत्रयेण सह चारणायां लब्धास्त्रयः
तत्परिहारे क्षायिकस्योपरितनभावद्वयमीलनायां लब्धौ हौ, एत्थ णं जे ते दस दुगसंजोगा ते णं इमे----अस्थि णा- ततस्तं विमच्य क्षायोपशमिकस्य पारिणामिकमीलने लमे उदइए उवसमनिप्फरणे १ अस्थि थामे उदइए खा- ग्ध एक इति सर्वेऽपि दश । एवं सामान्यता द्विकसंइगनिप्फरणे २ अस्थि णामे उदइए खोवसमनिप्फरमे योगभङ्गकेषु दर्शितेषु विशषतस्तत्स्वरूपमजानन् विनेयः ३ अत्थि णाम उदइए पारिणामिअनिफ्फरमे ४ अत्थि पृच्छति-'कयरे से णामे उदइए?' इत्यादि, अत्रोत्त
पृच्छति- कयरे स णाम उद 'णाम उवसमिए खयनिष्फले ५ अत्थि णाम उवसमि--
रम्-'उदइए त्ति मणुस्से' इत्यादि, औदयिके भावे मनु
ष्यत्वं-मनुष्यगतिरिति तात्पर्यम् , उपलक्षणमा चेदं , ए खोवसमनिप्फरमे ६ अत्थि.णामे उवसमिए पारि- तिर्यगादिगतिजातिशरीरनामादिकर्मणामप्यत्र सम्भवाद् । णामिअनिष्फले ७ अस्थि णाम खइए खोवसमनि- उपशान्तास्तु कषाया औपशमिके भाव इति गम्यते, प्फल ८ अत्थि णामे खइए पारिणामिअनिष्फले है|
अत्राप्युदाहरणमात्रमतत् , दर्शनमोहनीयनोकषायमोहनी
ययोरप्योपशमिकत्वसम्भवाद् । पतन्निगमयति- एस अस्थि णामे खोवसमिए पारिणामिअनिष्फले १० ।।
से णामे उदइए उवसमनिप्फरणे 'ति-'ण' मिति वाकयरे से नामे उदइए उवसमनिष्फले ?, उदइए त्ति क्यालङ्कारे। एतत्तन्नामें यदुद्दिष्ट श्रीगौदयिकौपशमिकमणुस्से उवसंता कसाया, एस णं से नामे उदइए उव- भावद्वयनिष्पन्नमिति प्रथमद्विकयोगे भङ्गकव्याख्यानम् । समनिप्फमे १, कयरे से नामे उदइए खयनिष्फले १,
अयं च द्विकयोगविवक्षामात्रत एव संपद्यते , न पुनरीदृशो उदइए त्ति मणुस्से खइयं सम्मत्त । एस णं से नामे
भङ्गः क्वचिजीवे सम्भवति । तथाहि-यस्यौदयिकी मनु
ष्यगतिरौपशमिकाः कषाया भवन्ति तस्य क्षायोपशउदइए खयनिष्फले २, कयरे से णामे उदइए खो
मिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वं कस्यचित् वसमनिष्फले ?, उदइए त्ति मणुस्से खोवसमिश्राई क्षायिकं सम्यक्त्वमित्येतदपि सम्भवति, तत्कथमस्य केइंदिमाई, एस णं से णामे उदइए. खोवसमनिप्फमे . बलस्य सम्भवः ? , एवमेतद्व्याण्यानुसारेण शेषा अपि ३, कयरे से . णाम उदइए पारिणामिनिष्फले ?,
व्याख्येयाः, केवलं क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पानं
नवमभङ्गं विहाय परेऽसम्भविनो द्रष्टव्याः, नवमस्तु सिउदइए त्ति मणुस्से पारिणामिए जीवे एस णं से णामे
द्धस्य सम्भवति , तथाहि-क्षायिक सम्यक्त्वज्ञाने पारिवाउदइए पारिणामिअनिष्फले ४, कयरे से णामे उवस- मिकं तु जीवत्वमित्येतदेव भावद्वयं तस्यास्ति नापरः, मिए खयनिष्फले', उवसंता कसाया खडयं सम्म तस्मादयमेकः सिद्धस्य सम्भवति, शेषास्तु नव द्विकतं । एस णं से णामे उवसमिए खयनिष्फले ५, कयरे
'योगाः प्ररूपणामात्रमिति स्थितम् , अन्येषां हि संसारिजी
वानामौदयिकी गतिः क्षायोपशामकानीन्द्रियाणि पारिणासे णामे उवसमिए खोवसमनिप्फम्मे, उवसंता क- मि जीयत्वमित्येतद्भावत्रय जघन्यतोऽपि लभ्यत इति साया खोवसमिआई इंदियाई, एस णं से णामे । कथं तेषु द्विकयोगसम्भव ? इति भावः ।
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(३०८) सरिणवाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सरिणवाइय त्रिकयोगानिर्दिदिक्षुराह
। आई पारिणामिए जीवे , एस णं से णामे उवसमिए तत्थ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे- खोवसमिए पारिणामिअनिष्फरणे : , कयरे से णामे अस्थि णामे उदइए उपसमिए खयनिष्फम्मे १, अस्थि खइए खोवसमिए पारिणामिअनिष्फले ?, खइग्रं सणामे उदइए उवसमिए खोवसमनिप्फराणे २, अत्थि म्मत्तं । खोवसमियाइं इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णामे उदहए उवसमिए पारिणामिअनिएफएणे ३, अस्थि ण से णामे खडए खोवसमिए पारिणामिनिष्फरणे णामे उदइए खइए खोवसमनिप्फरणे ४, अस्थि णामे
। १०। (सू० १२७) उदइए खइए पारिणामिअनिप्फरणे ५, अत्थि णामे उद- एतदप्यौदयिकोपशभिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकइए खोवसमिए पारिणामिअनिष्फरणे ६, अत्थिं णामे भावपञ्चकं भूम्यादावालिख्य तत श्राद्यभावद्वयस्योपरितनउपसमिए खइए खोवसमनिप्फले ७, अत्थि णामे
भावत्रयेण सह चारणायां लब्धास्त्रय इत्यादिक्रमण दशाऽपि
भावनीयाः,पतानेव स्वरूपतो विवरीषुराह-'कयरे से गामे उवसमिए खइए पारिणामिअनिष्फरणे ८, अत्थि णामे
उदइए उपसमिए ' इत्यादि , व्याख्या पूर्वानुसारताऽउवसमिए खोवसमिए पारिणामिअनिष्फम्मे है, अस्थि त्रापि कर्त्तव्या, नवरमत्रौदयिकक्षायिकपारिणामिकभावत्रयणाम खइए खोवसमिए पारिणामिअनिप्फणे १० । क- निष्पन्नः पञ्चमा भङ्गः फेवलिनः सम्भवति , तथाहियरे से णामे उदइए उवसमिए खयनिप्फरणे ?, उद
औदयिकी मनुष्यगतिः , क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि,
पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येते त्रया भावास्तस्य भवन्ति, इए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइअं सम्मत्तं ।
औपमिकस्त्विह नास्ति, मोहनीयाश्रयत्वेन तस्योक्लत्वात् , एस णं से णाम उदइए उबसमिए खयनिप्फम्मे १, कयरे
मोहनीयस्य च कर्वालन्यसम्भवात् । तथा क्षायोपशमिसे णामे उदइए उवसमिए खोवसमियनिष्फरणे ?, कोऽप्यत्रापास्य एव क्षायोपशमिकानामिन्द्रियादिपदार्थाउदइए ति मणुस्से उवसंता कसाया खोबसमिआई नामस्यासम्भवाद्, 'अतीन्द्रियाः केवलिन ' इत्यादिवच
नात् तस्मात् पारिशण्याद्यथोक्नभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः इंदिआई, एस णं से णाम उदइए उवसमिए खो
केलिनः सम्भवति, पष्ठस्त्यौदयिकक्षायोपशमिकपारिणावसमनिष्फले २, कयरे से णामे उदइए उपसमि
मिकभावनिप्पन्नो नारकादिगतिचतुपयऽपि संभवति । ए पारिणामिअनिप्फरणे ? , उदइए त्ति मणुस्से उव- तथाहि-ौदयिकी अन्यतरा गतिः, क्षायोपशमिकानीसंता कसाया पारिणामिए जीवे, एस णं से णाम ! न्द्रियाणि , पारिणामिकं जीवत्वमित्यवमेतद्भाववयं सर्वाउदइए उपसमिए पारिणामिअनिप्फरणे ३, कयरे से |
स्वपि गतिषु जीवानां प्राप्यत इति, शास्त्वा त्रि
कयोगाः प्ररूपणामात्रम् , क्वाप्यसम्भवादिति भावनीयम् । णामे उदइए खइए खओवसमनिष्फरणे ? , उदइए त्ति
चतुष्कसंयोगाग्निर्दिशन्नाहमणुस्से खइअं समत्तं खोवसमिश्राई इंदिआई।
तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे-अस्थि एस णं से णामे उदइए खइए खोवसमनिप्फरणे ४,
णामे उदइए उवसमिए खइए खोवसमनिष्फाम १ अस्थि कयरे से णाम उदइए खइए पारिणामिअनिष्फरणे ?,
णाम उदइए उपसमिए खइए पारिणामिअनिष्फामे२ अस्थि उदइए त्ति मणुस्से खइअं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे,
णाम उदइए उवसमिए खओवसमिए पारिणामिअनिष्फो३ एस णं से नाम उदइए खइए पारिणामिअनिष्फले ५, अस्थि णामे उदइए खइए खविसभिए परिणामिअनिष्फकयरे से णाम उदइए खोवसमिए पारिणामिअनिष्फ
४ अस्थि णाम उबसमिए खइए खोवसमिए पारिणाहो ?, उदइए त्ति मणुस्से खोबसमियाई इंदिआई पा- भिअनिष्फो शकयरे से णाम उदइए उपसमिए खइए खरिणामिए जीये, एस णं से णामे उदइए खोव- ओवसमनिष्फाम ?, उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसासमिए पारिणामिअनिष्फरणे ६, कयरे से णामे
या खइयं सम्मत्तं खोवसमिाइं इंदिआई । एस णं से उवसमिए खइए खोवसमनिप्फरमे ?, उवसंता कसाया
णामे उदइए उपसमिए खइए खोवसमनिष्फरमे १, कयरे खइअं सम्मत्तं खोवसमिश्राइं इंदिआई, एस णं से से नामे उदइए उवसमिए खइए पारिणामिअनिष्फरणे, णामे उवसमिए खइए खोवसमनिप्फरणे ७, कयरे उदइए ति मणुस्से उवसंता कसाया खइ सम्मत्त से णाम उपसमिए खइए पारिणामिअनिप्फएणे ?, उव- पारिणामिए जीव । एस ण से नामे उदइए उपसमिए । संता कसाया खइअं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस खडा पारिणामिअनिष्फ २, कयर से णामे उदइए णं से णामे उपसमिए खइए पारिणामिअनिष्फ ८, उपसमिए खग्रावसमिए पारिणामिअणिप्फम ? , उदइए कयरे से णामे उपसमिए खोवसमिए पारिणामिअनि- ति मगुस्स उवसंता कसाया खोवसमिआई इंदिअाई प्फरणे ?, उवसंता कसाया खोवसमियाइं इंदि- पारिणामिए जीवे । एस ण से णाम उदइए उपसभिए ख.
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रिवाइय
खम्रो |
प्रो० पारिणा० ३, कयरे से णामं उदइए खइए समिए पारिणामि निष्फले है, उदय नि मणुस्से खइथं सम्मत्तं खश्रो समिश्राई इंदियाई पारिणामिए जीवे । एस गं से नामे उदइए खइए खओवसमिए पारिणामिश्र - निष्फले ४, कयरे से खाम उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिश्रनिष्फले ?, उवसंता कसाया खइ सम्मत्तं खच्यो वसमिभाई इंदिभाई पारिणामिए जीवे । एस गं से नामे उपसमिए सहए खभोवसमिए पारियामिमनिष्फ ५। ( ० १२७४ )
( ३०८ ) श्रभिधान राजेन्द्रः |
9
भङ्गकरचना अकृच्छ्रायसेयेय इदानीं ताम्बे पक्ष भान व्याधिक्यासुराह - 'करे से नाम इत्यादि भावना पूर्वाभिहितानुगुण्येन कर्त्तव्या, नवरमत्रोदयिकौ पशमिकक्षापशमिक पारिणामिकभावनिष्यन्नस्तृतीयभङ्गो गतिचतुष्टये ऽपि सम्भवति, तथाहि श्रौत्रयिकी अन्यतरा गतिः नारकतियेदेवगतिषु प्रथमसम्यक्त्यलाभकाले एय उपशमभाषा भ यति मनुष्यगती तु तत्रापशमयां पीपशमिकं सम्यपत्यं शायोपशमिकामन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्यमित्येवमर्थसशिवाय सनिपात पुं० । अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेभङ्गः सर्वासु गतिषु लभ्यत परिषद सूत्रे प्रोम् उ दति मनुस्से उवसंता कसाय ' सि-तन्तु मनुष्यगत्यपेशवेषम्यम् मनुष्यत्ययस्योपशमश्रेण्यां पायीपरामस्य च तस्यामेव भावाद् अस्य चोपलक्षणमात्रत्यादिति एवमौदयिक क्षायिकतायोपशमिक पारिणानिकभाषनिष्पक्षधर्थमोऽपि चतुष्यपि गतिषु सम्भवति, भा बना स्वनन्तरोक्लष्तृतीयभङ्गकषदेव कर्तव्या, नवरमौपशमिकसम्यकरयस्थाने क्षायिकसम्यक्त्वं वाच्यम् अस्ति च क्षाकिसम्पत्वं सर्वापि गतिषु नारकतिर्यग्गतिषु पूर्वप्रतिपक्षस्यैष । मनुष्यगतौ तु पूर्वप्रतिपन्नस्य प्रतिपद्य - मानकस्य च तस्यान्यत्र प्रतिपादितत्वादिति, येती ह्रीभङ्गको सम्भाविनी, शेषास्तु त्रयः संवृतिमात्रम्, पेण वस्तुम्यसम्भवादिति ।
"
तस्मादत्रा
साम्प्रतं पश्ञ्चकसंयोगमेकं प्ररुपयन्नाह-तत्थ जे से एके पंचगसंजोए से इमे अस्थि नामे गं उदइए उवसमिए खओवसमिए खइए पारिणामिश्रनि फो १, कयरे से यामे उदइए उवसमिए खइप खभोव समिए पारिणामिश्रनिष्फले १, उदइए ति मणुस्से उबता कसाया खर सम्मतं खयं। बस मिभाई इंदिभाई पा रिथामिए जीवे । एस गं से णामे ० जाव पारिणामिश्र निफो । से तं सनिवाइए | ( सू० १२७ )
अयं च सविवरण: सुगम एव केवलं क्षायिकः सम्यगृहष्टिः सन् यः उपशमश्रेण प्रतिपद्यते तस्यार्य भङ्गकः सम्भवति नान्यस्य समुदितभावपञ्चकस्यास्य तत्रेय भा बादिति परमार्थः। तदेवमेकाकिमका ही योगचतुष्क योगभङ्गकायेकस्य पश्च योगे इत्येते पद का अत्र सम्भविनः प्रतिपादिताः, शेषास्तु विंशतिः संयोगोस्थानमात्रतयैष प्ररूपिता इति स्थितम् । पतेषु च पदसु ७८
सरसिजा
3
भङ्गकेषु मध्ये एकस्त्रिकसंयोगो द्वौ चतुष्कसंयोगावित्येते प्रयोऽपि प्रत्येकं चतसृष्यपि गतिषु सम्भवन्तीति नि तम् अतो गतिचा फिल द्वादश बरयन्ते ये तु शेषाद्विकोत्रियोगपञ्चकयो गलगायो भङ्गाः सिद्ध केवल्युपशान्तमोहानां यथाक्रमं निर्णीताः ते यथोक्तैकैकस्थानसम्भवित्वात् त्रय एवेत्यनया विवक्षयाऽयं सानिपातिको भावः स्थानान्तरे पञ्चदशविध उक्को द्रष्टव्यः । यदाद असिवाय मेया एमेव परायरस सि सेसि निगमनम् उक्तः साधिपतिको भावः तने चोक्काः पपि भाषा ते च तानीभिर्विना न शक्यन्त इति तद्वायकाम्पीि कादीनि नामान्यप्युक्तानि । एतैश्च षडभिरपि धर्मास्तिकायादेः समस्तस्यापि वस्तुनः संग्रहात् पद्मकार सन् सर्वस्यापि वस्तुनो नाम परणामेत्यनया दिशा सर्वमिदं भावनीयम् । अनु० । स्था० । सूत्र० प्रा० म० भ० श्राचा० । सन्निपाराजम्बे वि० [सं० श्रविकादिपञ्च नामकालनिष्णादिते, आचा० १०५ श्र० १ उ० । ( 'भाव' शब्दे षष्ठभागे उदाहरणान्तरमपि ।
,
.
कत्र मीलने, औ० । ज्ञा० यातादिषयसंयोगे ०५व० द्वार । भ० । औ० । द्वित्रिभावानां संयोग, आ० म० १ अ० । मेलापके, सूत्र० २ ० ६ ० । ० । स्था० । मोदfrerfeभावानामेव इद्यादिसंयोगे, उस०१ प्र० । अनन्तरीक्लादिभावानां मलके, अनु० । समवाये, स्था० ४ ठा० ३ उ० । संङ्कीर्णलक्षणे द्वधादिमेलके, स्था० ४ ठा० ४ उ० । सम्मिविट्ठ- सन्निविष्ट - त्रि० । सम्यक स्वशरीरानायाधया न तु विषमसंस्थानेन निविष्टाः सनिविष्टाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । अभिनिविष्ट, प्रश्न०५ श्राश्र० द्वार। सम्यक् निश्चलता आपत्परिहारेण च निविष्टे आ० म० १ अ० । प्रश्न० | जं० रा० । निवेशित, विपा० १ ० ३ ० । ० श्री० । सनिवशपाटके, रा० । श्रावसिंत, श्राचा० २ ० १ चू० १ ० ३ उ० ।
"
। ८ । ।
सणिवेस- सन्निवेश-पुं० । यात्राद्यर्थसमागतजनायासे, जनसमागम व आबा० १ ० ० ६ ० उ० स्थाने, आत्रा० १ ० ६ ० १ ० । यत्र प्रभूतानां भएडानां प्रवेशः स सन्निवेशः । स्था० ५ ठा० १ उ० । कूटकादीनामाषासे, शा० १ श्रु० ८ अ० । स्था० । सूत्र० । श्र० । घोषाद, अनु० । भ० । औ० । सत्थावासणत्थां सरसो गामो वा पीडित विधि जलागतो या लोगो सन्निबिट्टो सो सरिगवेस भएनि । नि० चू० १२ उ० । सरिसा सभिपद्या श्री० सच्छोभनाः सुखोत्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निषद्या इव निषद्याः । स्त्रीभिः कृतायां मायायाम्, श्रीवती सम्हा समरणा ण समेति श्रायहियाए सम्मिसेजाश्री । सूत्र० १ ० ४ ० १ ३० । सपिण०म्सु
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--
खासीने भ० ७ ० १० उ० । ० ।
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समिमिजा-सभिपद्या स्त्री० । शोभानायां निषद्यायाम्, व्य० १ ३० ।
-
च।
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( ३१० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सरसिजा
स्वनिषद्या - स्त्री० । स्वकीयायां निषद्यायाम्, व्य०४ उ० । समिसु - संज्ञिश्रुत - न० । संज्ञाः विद्यन्ते येषां ते संहिनः परं सर्वत्राप्यागमे दीर्घकालिक्या संशया संशिनस्ते संशिन उच्यन्ते । ततः संशिनां श्रुतं संशिश्रुतम् । समनस्कानां मनः सहितैरिन्द्रियैर्जनिते श्रुतज्ञाने, कर्म्म० १ कर्म० ।
,
से किं तं समनु ?, सम्मिसुयं (अं) तिविहं पम्पत्तं तं जहा- कालिओवरसेणं हेऊवएसेणं दिट्टिवाओवएसेयं । से किं तं कालियोवएसेणं ? कालिप्रोसे जस्स अस्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसणा चिंता वीमंसा से णं सरणीति लब्भइ । जस्स णं नऽत्थि ईहा अोहो मग्गणा गवेसणा चिंता वीमंसा से गं सन्नीतिल भइ । से तं कालियोवएसेां । से किं तं हेऊनए-से, जस्स प्रत्थि अभिसंधारणपुब्विया करणसत्ती से गं सपीति लब्भइ, जस्स गं नऽस्थि अभिसंधारणपुत्रिआ करणसत्ती से णं असमीति लब्भइ, सेतं हेऊarसेणं । से किं तं दिट्टिवाओ से १ दिट्ठवाश्रवसेणं सरिसुस्स खओवसमेणं समी लग्भइ, समिअस्स खओवसमेणं असमी लभइ । से तं दिट्टिवाओवएसेणं । से तं सम्मिसु । से तं समिसु । ( सू० ३६ । )
' से किं तमित्यादि, अथ किं तत्संशिश्रुतम् ?, संज्ञानं संज्ञा साऽस्यास्तीति संज्ञी तस्य श्रुतं संशिश्रुतम् । श्राचार्य श्रह - संशिश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञशम् संज्ञिनस्त्रिभेदत्वात्, तदेव त्रिभेदत्वं संज्ञिनो दर्शयति । तद्यथा— कालिक्युपदेशन १ हेतूपदेशेन २ दृष्टिवादोपदेशेन ३ । तत्र कालिक्युपदेशेनेत्यत्रादिपदलोपा दीर्घकालिक्युपदेशेनेति द्रष्टव्यम् ।' से किं त' मित्यादि अथ कोऽयं कालिक्युपदेशेन संशी ?, इह दीर्घकालिकी संज्ञा कालिकीति व्यपदिश्यते श्रादिपदलोपा दुपदेशन मुपदेशः - कथनमित्यर्थः, दीर्घकालिक्या उपदेशः - दीर्घकालिक्युपदेशस्तेन श्राचार्य श्राह- कालिक्युपदेशेन संशी स उच्यते यस्य प्राणिनोऽस्ति विद्यते ईहा - सदर्थपर्यालोचनमपोहो— निश्चयो मागणा - श्रन्वयधर्मान्वेषणरूपा गवेषणा- व्यतिरेकधर्मस्वरूपपर्यालोचनं चिन्ता - कथमिदं भूतं कथं वेदं स-प्रति कर्त्तव्यं कथं चैतद्भविष्यतीति पर्यालोचनं विमर्शनं विमर्शः - इदमित्थमेव घटते इत्थं वा तद्भूतमित्थमेव वा तद्भावीति यथावस्थितवस्तुस्वरूप निर्णयः, स प्राणी 'ए' मिति वाक्यालङ्कारे संशीति लभ्यते । स च गर्भव्युत्क्रान्तिकपुरुषादिरौपपातिकश्च देवादिर्मनः पर्याशियु को विज्ञेयः, तस्यैव त्रिकालविषयचिन्ताविमर्शादिसम्भवाद्, श्राह च भाष्यकृद् -" इह दीहकालिगि-कालि-गिसि सन्ना जया सुदीहं पि । समभरद्द भूयमेस्सं, चितेष य कि काय ॥ १॥ कालियसन्नि त्ति तश्रो, यस्स मई सोय तो मगोजोग्गे । खंधेऽंते घेतुं मन्नइ तलाद्धि
"
For Private
संपतो ||२|| " एष च प्रायः सर्वमप्यर्थं स्फुटरूपमुपलभते, तथाहि - यथा चक्षुष्मान् प्रदीपादिप्रकाशन स्फुटमर्थसुपलभते तथैषोऽपि मनोलब्धिसम्पन्नो मनोद्रव्यावष्टम्भसमु
विमर्शवशतः पूर्वापरानुसन्धानेन यथावस्थितं स्फुटमर्थमुपलभते यस्य पुनर्नास्ति ईहा अपोद्दो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्शः सोऽसंशीति लभ्यते, स च संमू
पञ्चेन्द्रिय विकलेन्द्रियादिर्विज्ञेयः स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वादस्फुटमस्फुटतरमर्थ जानाति । तथाहि संशिपञ्चेन्द्रियापेक्षया संमूच्छिम पञ्चेन्द्रियो ऽस्फुटमर्थ जानाति, ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं श्रीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतमं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतमलमेव किञ्चिदती वाल्पतरं मनोद्रष्टव्यं, यद्वशादाहारादिसंज्ञा मेन्द्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात्, केवलमव्यश्रव्यक्तरूपाः प्रादुःष्यन्ति, 'सेत्त' मित्यादि, सोऽयं कालिक्युपदेशेन संशी । 'से किं त' मि त्यादि, अथ कोऽयं हेतृपदेशन संज्ञी ?, हेतुः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम्, उपदेशन मुपदेशः हेतोरुपदेशन हेतुपदेशस्तेन, किमुक्कं भवति !, -कोऽयं संज्ञित्वनिबन्धन हेतुमुपलभ्य कालिक्युपदेशेनासंक्ष्यपि संज्ञीति व्यवह्रियते श्राचार्य श्राह-- हे तूपदेशन संज्ञा यस्य प्राणिनोऽस्ति--विद्यतेऽभिसन्धारणम्अव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञानेनालोचन तत्पूर्विका -तकारणिका करणशक्तिः करणं क्रिया तस्यां शक्तिः- प्रवृत्तिः, स प्राणी समिति वाक्यालङ्कारे, हेतुपदेशेन संशीति भण्यते, एतदुक्तं भवति यो बुद्धिपूर्वकं स्वदेहपरिपालनामिष्टेष्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते श्रनिष्टेभ्यश्च निवर्त्तते स हेतुपदेशन संज्ञी, स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः, तथाहि इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृसिञ्चिन्तनं न मनोव्यापा रमन्तरेण सम्भवति, मनसा पर्यालोचनं संज्ञा, सा च द्वीन्द्रियादेरपि विद्यते, तस्यापि प्रतिनियतेष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, ततो द्वीन्द्रियादिरपि हेतूपदेशेन सेश्री लभ्यते, नवरमस्य चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयं न भूतभविष्यद्विषयमिति न कालिक्युपदेशेन संज्ञी लभ्यते । यस्य पुनर्नास्त्यभिसन्धारणापूर्विका करणशक्तिः स प्राणी, णमिति वाक्यालङ्कारे, हेतूपदेशनाप्यसंज्ञी लभ्यते, सच पृथिव्यादि रेकेन्द्रियो वेदितव्यः, तस्याभिसन्धिपूर्वकमिष्टानिष्प्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात् या श्रपि चाहारादिसंज्ञाः पृथिव्यादीनां वर्त्तन्ते ता श्रप्यत्यन्तमव्यक्तरूपा इति तदपेक्षयाऽपि न तेषां संशित्वव्यपदेशः । उक्तं च भाष्यकृता पुण संचिते इद्वाणि विसयवत्थूसुं। वरांति नियत्तंति य, संदेहपरिपालगाउं ॥ १ ॥ पापण संपइ थिय, कालम्मि न याइदीहकालम् । ते हेउवायसराणी. अन्यत्रापि निचिचट्ठा होति अस्सरणी ॥ २ ॥ हेतूपदेशेन संशित्वमाश्रित्वोक्तम् - कृमिकीटपताद्याः, समनस्का जङ्गमाश्चतुर्भेदाः । श्रमनस्काः पञ्चविधाः, पृथिवीकायादयो जीवाः ॥ १ ॥ 'सेत मित्यादि, सोऽयं हेतुपदेशेन संही । ' से किं तमित्यादि । अथ कोऽयं दृष्टि दोपर्देशन संज्ञी ?, दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादि वदनं वादः दीनां वादो दृष्टिवादस्तदुपदेशेन तद
" जे
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सरिणसुय
अभिधानराजेन्द्रः
. मरिणहिसणिणचय पेक्षयेत्यर्थः , प्राचार्य श्राह-दृष्टिवादोपदेशेन संहिश्रुतस्य
सन्निधिं न कुर्यात्क्षयोपशमेन संझी लभ्यते , संशानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं समिहिं च न कुब्धिजा, लेवमायाइ संजए । तदस्यास्तीति (स) संक्षी-सम्यग्दृष्टिस्तस्य यच्छ्रुतं
पक्खी पत्तं समादाय, निरविक्खो परिव्वये ॥ १६ ॥ तत्संक्षिश्रुतं , सम्यकश्रुतमिति भावार्थः , तस्य क्षयोपशमेन
च-पुनः संयतः-साधुर्लेपमात्रयाऽपि सनिधि न कुर्यात् तदाबारकस्य कर्मणः क्षयोपशमभावेन संक्षी लभ्यते , किमुक्तं भवति?-सम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो ह
लेपस्य मात्रालेपमात्रा तया लेपमात्रया सम्-सम्यक् प्रकारेण
निधीयते-स्थाप्यते दुर्गती प्रात्मा येम स सन्निधिः-घृतहिवादोपदेशन संज्ञी भवति, स च यथाशक्ति रागाऽऽदिनि
गुडादिसंचयस्तं न कुर्यात् , यावता पात्रं लिप्यते तावन्माप्रहपरो वेदितव्यः, स हि सम्यग्दृष्टिः सम्यगशानी वा
त्रमपि घृतादिकं न संचयेत् । भिक्षुराहारं कृत्वा पात्रं सयो रागादीन् निगृह्णाति , अन्यथा हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्य
मादाय-पात्रं गृहीत्वा निरपेक्षः सम्-नि:स्पृहः सन् पभावतः सम्यग्दृष्टित्वाद्ययोगात् , उक्तं च- तज्ज्ञानमेव
रिवजेत्-साधुमार्गे प्रवर्तेत । क इव-पक्षी इव यथा पक्षी न भवति , यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः
श्राहारं कृत्वा पर्व-तनूरहमात्रं गृहीत्वा उड्डीयते तथा कुतोऽस्ति शक्ति-दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥१॥"
साधुरपि कुक्षिसंबलो भवेत् ॥१६॥ उत्त०७० । अन्यस्तु मिथ्यादृष्टिरसंझी , तथा चाह-'संशिश्रुतस्य
( सन्निधिशब्दवक्तव्यता ' वयछक्क ' शब्दे षष्ठे भागे मिथ्याश्रुतस्य क्षयोपशमनासशीति लभ्यते , ' से त्त'
गता।) .. . मित्यादि निगमनं , सोऽयं दृष्टिवादोपदेशन संशी । त
सन्निहिं च न कुविजा, अणुमायं पि संजए। देवं संजिनस्त्रिभेदत्वात् श्रुतमपि तदुपाधिभेदात् त्रिविधमुपन्यस्तम् । अत्राह-नमु प्रथमं हेतूपदेशन संशी वक्त्रं
मुहा जीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए ।। २४॥ युज्यत , हेतूपदेशनाल्पमनोलब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः
सनिधि-प्रागनिरूपितस्वरूपां न कुर्यात् अणुमात्रमपिसंक्षित्वेनाभ्युपगतत्वात् तस्य चाविशुद्धतरत्वात् , ततः
स्तोकमपि संयतः-साधुस्तथा मुधाजीवीति पूर्ववत् , असं कालिक्युपदेशन , हेतूपदेशसंशापेक्षया कालिक्युपदेशन
बद्धः पधिनीपत्रोदकवत् गृहस्थैः एवंभूतः सन् भवेत् संशिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया विशुद्धत्वात् , तत्किमर्थमु
जगन्निधितश्चराचरसंरक्षणे प्रतिबद्धः। इति सूत्रार्थः । दश०८ रक्रमोपन्यासः?, उच्यते , इह सर्वत्र सूत्रे यत्र क्वचित्
अ०२ उ०। ( सन्निधिव्याख्या 'भिक्खु' शब्दे पञ्चमभागे संशी असंही वा परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायः का
१५६८-पृष्ठे गता।) (तथा सन्निधिव्याख्या 'रायपिंड' लिक्युपदेशेन गृह्यते न हेतूपदेशन, नापि दृष्टिवादोपदेशेन शब्दे षष्ठे भागे ५५४-पृणे गता।) (तथा 'आरंभ' शब्दे द्वितत एतत्सम्प्रत्ययार्थ प्रथम कालिक्युपदेशन संक्षिनो ग्र
तीयभागे. ३६५ पृष्ठ गता।) (तथा 'परिग्गह' शब्दे पश्चम- . हणम् । उक्तं च-" सन्नित्ति असबित्ति य , सव्वसुए
भागे ५५३ पृष्ठे गता।) ('पडिसवणा' शब्दे रात्रिभोजकालिश्रोवएसेणं । पायं संववहारो, कीरह तेणाइओ स
नास्य दर्मिकाप्रतिसेवनप्रस्ताव सन्निधिदोष उक्नः। ) "न की॥ १ ॥” ततोऽनन्तरमप्रधानत्वाद्धेतूपदेशन सं
यचोद्गामिनेऽर्थाय,सन्निधत्तेऽशनादिकम्।" श्रागामिनेऽर्थाय लिनो ग्रहणम् , ततः सर्वप्रधानत्वादन्ते दृष्टिवादोपदेशेनेत्ति
श्वः परश्वो वा भाविने प्रयोजनाय सन्निधत्ते साधुः । द्वा० • से त्त ' मित्यादि , तदेतत्संक्षिश्रुतम् , असंशिश्रुतमपि
२७ द्वा०। प्रतिपक्षाभिधानादेष प्रतिपादितम् । तत पाह- ' से त न समिहिं कुव्वइ आसुपन्ने । ( २५ +) असन्निसुश्रं' तदेतदसंशिश्रुतम् । नं०।
तथा सन्निधानं सन्निधिः स च द्रव्यसन्निधिः धनधान्यसएिणसेजागय-सन्निषद्यागत-त्रि० । सती नाम शोभना
हिरण्यपदचतुष्पदरूपो, भावसन्निधिस्तु मायाक्रोधादयो वा स्वकीया वा निषद्या सनिषद्या तस्यां गतः । सन्निषद्याप- सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि सन्निधि न करोति भविष्ट, व्य०० उ०।
गाँस्तथाऽऽशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोमान्न छद्मस्थवन्मनसा सएिणह-सन्निभ-त्रि० । सदृशे, प्रशा० २ पद ।
पोलोच्य पदार्थपरिच्छित्ति विधत्ते । सूत्र०१ थु०६ श्र० । सएिणहाप-सन्निधान-न । सन्निधीयते श्राधीयते यस्मि- (सनिधिव्याख्या 'पातट्ट' शब्दे द्वितीयभागे १५८ पृष्ठ स्तत्सन्निधानम् , अनु० । सन्निधीयते क्रियाऽस्मिन्निति | सन्निधानम् । आधारे, स्था० ८ ठा०३ उ०। सम्यग सन्निहिय-सन्निहित-त्रिका अशेषिते विश० । दाक्षिणात्यानिधीयत नारकादिगतिषु येन तत्सन्निधानम् । कर्मणि , | नामाक्षप्तिकानामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ०। पाचा०१ ध्रु०८ अ०३ उ० । सन्निधिः सन्निधानम् । समिहियपाडिहेर--सन्निहितप्रातिहार्य--पुं० । सन्निहितं प्रघनादेर्व्यवस्थाने , सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। | तिहार्य प्रतिहारकर्म सान्निध्य देवेन यस्य स तथा। भ. सएिणहि-सनिधि-पुं० । सम्यकप्रकारेण निधीयते-स्थाप्यते । १४ श- उ० । विहितदेवताप्रतिहार्ये, औ०। दुर्गतौ आत्मा येन स सन्निधिः। संचये , उत्त० ६ ० । समिहिसमिचय--सन्निधिसनिचय--पुं० । सनिधानं सन्निदश । बिनाशिद्रव्याणां दध्योदनादीनां स्थापने , श्राचा धिस्त स्य सन्निचयः सन्निधिसन्निचयः, अथपा-सम्यग् १(० २ ० ५ उ० । विशिष्टाहारसंग्रहस्य संचये , | निधीयते स्थाप्यते उपभोगाय योऽर्थः स सन्निधिस्तस्य सूत्र०१ श्रृं० १६ उ० । व्य० । गोरसादेः सन्निचये , नि० सनिचयः, प्राचुर्यमुपभोग्यम् । द्रव्यनिचये,आचा०११०२ शायामशनाविधारणे, ग०२ अधिः।
अ०१ उ० । सम्वगभिधीयत इति सन्निधिः, विनाशित
गता।)
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सत्त
सरिणहिसरिचय
अभिधानराजेन्द्रः। द्रव्याणां दध्योदनादीनां तथा सम्यग् निश्चयेन चीयते सतत्तचिंता-स्वतत्त्वचिन्ता-स्त्री० । स्वरूपचिन्तने, पञ्चा०१ इति सनिचयः। विनाशिद्रव्याणामभयासितामृद्धीकादीनां विवः। संग्रहे, आचा०१ श्रु० २ १०५ उ० ।
शतपत्त-शतपत्र-न० । दलशतकलिते कमले, जं. ११क्षा सबह-श्लक्ष्ण-स्त्री० । “ सूक्ष्म-श्न-ध्ण-स्न-ब-इ-क्षणां
रा० भ०। रहः" ॥८।२ । ७५ ॥ अनेनात्र दणस्य णकाराकान्तो
सतवाइया-सप्तपादिका-स्त्री०। श्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा १ इकारादेशः । सरह । प्रा० । मसणे, स० । सू० प्र०। ५०
पद। प्र० । श्लष्णपुलस्कन्धनिष्पन्ने, श्लक्षणदलनिष्पत्रपटषत् । प्रहा०२ पद । जी०रा० ० । लक्षणपुद्लनिष्पादितब
सतारुक-शतारुक-न० । जुद्रकुष्ठभेदे, प्रश्न०५ संघ द्वार। हिःप्रदेश, जी०३ प्रति०४अधि०।।
सति-स्मृति-स्त्री०। चिन्तने, स्था०४ ठा०१ उ०। सूचम-त्रि० "सूचम-श्न-रण-स्न-ब-ब-बणां रहः "॥ सतिगिच्छा-सचिकित्सा-त्रि० । प्रतिक्रियोपेते, पचा०१६ २।७५॥ अनेमात्र सूचमशब्दसम्बन्धिनः श्मस्य णकारा- विष०। काम्तो हकारादेशः । स । प्रा०।" अन्तः सूरमे या " सतेरा-शतेरा-सी० । विदिग्बकवास्तव्यायां तृतीयकुमा॥८।१।१८॥ अनेनाप्रोकारस्य वैकल्पिकः प्रदादेशः।सण्इं। रीमहत्तरिकायाम् , ०५ पक्ष । मा०क० । मा० म०। सुरहं । प्रा० । अणुपरिमाणपति, अल्पे च । वाच० । मृदु- विपुत्कुमारमातरिकायाम् , भाष०१०। मौ० । स्था। लघुस्पर्श, प्रज्ञा०२ पद।
सतोरणवर-सतोरणवर-त्रि० । तोरणवरसहिते, राकाजी। सरहकरणी-श्लक्ष्णकरणी-स्त्री० । श्लपणनि चूर्णरूपाणि
सत्त-शक्त-त्रि० । समथै, विशे० । स्या० । अहोरात्रस्य द्विती द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां सा श्लक्षणकरणी । पेषणशिलायाम् ,
ये मुहूते, स०३ सम०। प्राचा।। भ०१६ श०३ उ०।।
सक्क-त्रि०। सुखदुःखेषु बद्धे, प्राचा०१६०८०२ उ०। साहपढ-श्लक्ष्णपट्ट-पुं० । श्लक्ष्णं पदृवृत्ति पट्टसूत्रम् । श्ल
सूत्र० । गृहे, सूत्र०१७०१०१ उ०। भाचा । अभ्युप. णपट्टमये, कल्प०१ अधि०२क्षण ।
पन्ने, सूत्र०१ ध्रु०१०म०। रते, प्राचा० । तत्परे, आचा०१ सपहपभत्तिसयचित्तताणगा-श्लक्ष्णपट्टभाक्सितचित्तताण
ध्रु०१ भ०७ उ० । लो, सूत्र०१०१० उ० । उत्त०।राl का-स्त्री० श्लक्ष्णपट्टसूत्रमयो भक्ति तचित्रस्थानको यस्या सत्र-न० । उत्पादव्ययधौव्ययुकतारूपायां विद्यमानतासा तथा । धनमसणविविधचित्रायां शाटिकायाम् , भ०११ याम् , वश०१० अने। अनु। विशे० । दर्श० । जन्ती, . श०३ उ०।
सूत्र०१९०११ मामाचा०ासत्तायोगात् सस्थाः । स्था०४ सहवायरपुढवीकाइय-श्ल णबादरपूथिवीकायिक-पुं० । ठा०२ उ० । “जम्हा ससे सुहासुहेहि कम्मेहिं तम्हा सतथि पृथ्वीकायिकभेदे, जी० । “सराहबायरपुढविकारया" जी० पत्तब सिया" मासकः शक्रो बा समर्थः, सुन्दरासुम्बरासु१ प्रतिः । ('पुढवीकाइय' शब्ने पश्चमभागे १७३ पृष्ठे | वेधासु । अथवा-सक्तस्सम्बखः शुभाशुभैः कर्मभिरिति । व्याच्या गता।)
भ०२२०१ उ०मा०५०।प्राणिमि, मा०१२०१६ मा सराहामच्छ-श्लपणामत्स्य-पुं० । मत्स्यभेदे,विपा। सूत्र । जीवे, विशे। भाव।" प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ता, सत-सप्त-पुं० । 'तदोस्तः ॥८४) ३०७॥ इति पैशाच्या तस्य
भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीयाः पश्शेन्द्रियायाः, शेषाः स.
स्वा इतीरिताः॥१॥" इति वनस्पतिव्यतिरिकेषु एकेन्द्रितः। सतं । संख्याभेदे, प्रा०४ पाद।
येषु, स्था०५ डा०२ उ०मा० जी०।माचा। सतका-सतर्का-स्त्री० । सकीयमिथ्यात्वषिकरूपे, १० १ उ०
"सत्तविराहणपाब, भसंखगुणिय तुमभूयस्स । २मक०।
भूयस्स य संखगुणं, पाषा इकस्स पाणस्स ॥१॥ सतंत-स्वतन्त्र-त्रि० । पारमायले , स्वतन्त्रः कर्ता। विशे।
धेविय तेइंदिय, बउरिदिय चेति तह य पंचिंदी। स्वकार्यकर्तृत्वं प्रत्यपरनिरपेते, सूत्र०२ श्रु०१०। स्वसि- लक्खसहस्सं तह सम-गुणं च पाषं मुणयब्वं ॥२॥" बान्त, नि० चू० ११ उ०।
इति गाथाद्वयं कस्मिन् प्रथे विद्यते ?, "सत्तविरासतंतमविरुद्ध--स्वतन्त्राविरुद्ध-त्रि०। स्वतन्त्रं-स्वसिद्धान्त- हणपावमि" स्यादिगाधान्यं छूटकपत्रेषु लिखितं पश्यते स्तस्मिम्मविरुद्धम् । खसमयाविरुखे, मि० चू०१५ उ०।
परं न कापि प्राधे । ही० २ प्रका० । तियनरामसतंतविरुबू-स्वतन्त्रविरुद्ध-त्रि० । स्पसमयविरुखे, यथा
रलक्षणेषु संसारिजीयेषु, प्राचा० १४० ६ ०५ ७०। सर्वत्र सर्वकाल मास्त्यात्मेति।" अध सम्बत्थ सम्बकालं
दैन्यधिनिर्मुक्त मानसेऽवष्टम्भे, अनु० । सामध्ये, शा०१ मऽस्थि माया तो सतंविरुवं भम्मति" नि००१ उ।
शु०१६ मा । साहसे, जं. ३ पक्षबीर्याम्तरायकर्मक्षयो.
पशमादिजन्ये भास्मपरिणामे, मा० म०१ ० । प्रभूततरसतत-सतत-म० । अविच्छिम्ने, प्रश्न३ आश्रद्वार । भ
भाषणे पपईमाने भारतर उस्साहविशषे, ०५ ० । प. नवरते, सूच०१ श्रु० १२ १०।
रीषहाविसहने रणागणे षा भषएम्भ, स्था० ४ ० ३ उ०। सतन-सदन-न०।"तदोस्तः" ।।४। ३०७॥ पैशाच्याम् | प्राणज्यपरोपणसमर्थविद्याप्रयोगे व्यवसिते तम्मानोपमर्दोअनेनात्र दकारस्य तकारादेशः । सतनम् । गृहे, प्रा०४ पाद। तौ अवष्टम्भे व्य० १३० ।
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( ३१३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सत्त
- । संख्याभेदे, । सच सप्तम्- त्रि० (सात) संयामे नि० ० १ ०
जं० । स० ।
म्, स० ।
।
- ।
संयंग - सप्ताङ्ग - न० | राजामात्या १ मात्यहा २ नाम- सतयाम- सप्तनाम न० सप्तानामर्थानामभिधायके नामनि १ कोश ४ राष्ट्र ५ दुर्गा ६ सैम्य ७ लक्ष सप्ताच राज्ये कल्प० १ अधि० ३ क्षण । सत्संगपट्ठिय- सप्ताङ्गप्रतिष्ठित त्रि० । सप्ताङ्गानि चत्वारः पाहाः करः पुच्छ शिस्नं वेति एतानि प्रतिष्ठितानि भूमौ लग्नानि यस्य तत्तथा । सप्तभिः पादादिभिर्भूमौ लग्ने, उपा० २ ० ।
,
सतन्त्र न० प्रति । सचकप्प-कप्तकल्प- पुं० । सप्तविधकरूपे, पं० भा० । सतविकपमेचो, दोच्छामि महकमेणं तु । ठितमतिजिथेर - लिंगे उबही तहेब संभोगे || एसो तु सतकप्पो, येयच्यो भाणुपुच्चीए। पं० भा०१ कल्प | पं० ० ।
ससरेवती - सप्तक्षेत्री- स्त्री० । सप्तानां क्षेत्राणां समाहारः सक्षेत्री जिनबिम्बारिसप्तके, सप्तम्यां धनवापः । घ० । सप्तानां क्षेत्राणां समाहारः सप्तक्षेत्री, जिनबिम्ब १ भवना२ssगम ३ साधु ३ साध्वी ५ श्रावक ६ भाविका ७ - जसा तस्यां वित्तस्य धनस्य भावकाधिकाराभ्यायोपातस्य वायो-विकरण तथा विशेषतो थियोज्यम् । एवमग्रेऽपि स्वयमूह्यम् । क्षेत्रे हि वीजस्य वपनमुचि तमित्युक्तं बाप इति । वपनमपि क्षेत्रे उचितं माऽक्षेत्र इति सानांकडमेव वपनं च स सध्यां यथोचितस्य द्रव्यस्य भक्त्या भखया च । ध० २ अधि० ।
सजग-सप्तक- पुं० सप्तपरिमाणस्य सप्तकः सप्तापयचे डय० ४ उ० ।
सचगाय सप्तगतिक ५० वृतानां खप्त गतयः-अजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्तगतयः । मृत्वा सप्तसु गतिषु उत्पस्स्यमानेषु स्था० ७ डा० ३ उ० । सचपर सप्तगृह-म० जीयानुग्रासकारस्य जिरेनिं बासस्थाने, जी० १ प्रति० ।
सच्चरंतर सप्तगृहान्तर-१० मध्ये कप०३धि० ६ क्षण ।
"
सतरंतरिय - सप्तगृहान्तरिक पुं० । सप्तगृहा एयन्तरं भिक्षामहणे यस्य स सप्तगृहान्तरिकः सप्त २ हायतिक्रम्यभिक्षाप्रणाभिग्रहे श्री० । सतच्छद - सप्तच्छद - पुं० । सप्तपर्णवृते, विशे० । अजुनल (प) व सत्तच्छयं " पाइ० ना० २५७ गाथा । सतावमिव्वतिय समस्थान निर्वचित पुं० सप्तकारनि
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प्याविते, स्था० ७ ठा० ३ उ० । सतसिडिखंडिय - सप्तषष्टिखण्डित - त्रि० । सप्तषष्टिप्रविभागीते०पा० ।
सत्तणाम
सचयउह सप्तनपति खी० सप्ताधिकायां नयतिसंक्ाया- ।
अनु० ।
सं
"
,
से किं तं सचनामे सचनामे सत्त सरा पणचा, जहा सझे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । रेवए चैव नेसाए, सरा सत विमाहिया ॥ १ ॥ 'स्वृ ' शब्दोपतापयोरिति स्वरणानि स्वराः - ध्वनिषिशेषाः, ते च सप्त, तद्यथा-' सज्जे ति श्लोकः, व्याक्या -- पद्भ्यो जातः षड्जः, उक्तं च--" नासां कण्ठमुरस्ता जिह्वां दन्तों संचितः पद्मि संजायते य स्मात् तस्मात्, षड्ज इति स्मृतः ॥ १ ॥ " तथा ॠषभो-- वृषभस्तद्वत् यो वर्तते स ऋषभः, ग्रह ब-" वादुः समुत्थितो नाभेः कण्ठशीर्षसमाहतः । नर्दन वृषभवद् यस्मात् तस्माद्वृषभ उच्यते ॥ २ ॥ " तथा गन्धो विद्यते यस्य स गन्धारः, स एव गान्धारो गन्धवाहविशेष इत्यर्थः, अभाषि च वायुः समुत्थितो नानेईदि कण्ठे समाहतः । नानागन्धवहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना ॥ ३ ॥ " तथा मध्ये कायुस्य भवो मध्यमः, दवा " वायुः समुत्थितानामेरुरोहति समाहतः । नाभि प्राप्तो महानादो मध्यमावं समश्नुते ॥५॥ " तथा पञ्चानां जादिस्वराणां निर्देशकममाश्रित्य पूरणः पक्षमः, अथवा - पश्ञ्चसु माभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चमः स्वरः यदभ्यधायि" वायुः समुत्थितो नाभेरुरोह शिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य पश्चमरवं विधीयते ॥ ५ ॥ " तथाऽभिसन्धयते ऽनुसंधयति शेषस्वरामिति निपिशाचैवत, यलम्-" अभिसंधयते यस्मादेतान् यदुक्तम्पूर्वोदितस्वरान् । तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते ॥ ६ ॥ " पाठान्तरेण विसकीयेति तथा निषीद न्ति खरा यस्मिन् स निपादः यतोऽभिहितम् — "गि. पीति खरा पस्मि शिवावस्तेन हेतुना । सर्वाश्चाभिभयत्येव पदादित्योऽस्य दैवतम् ॥ ७ ॥" इति तदेव राः- जीवाजीवनिभितनिधिशेषाः सन्तवियाहिय fafeधप्रकारैरास्यातास्तीर्थकर गणधरैरिति श्लोकार्थः । मा
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9
- ननु कारणभेदेन कार्यस्य भेदात् स्वराणां च जिह्वादिकारण जम्पत्यात् तद्वतां च इन्द्रियात्रिसजीवानामसंयेवाज्जीवनिता अपि तायत् खरा असंख्याताः प्राप्नुवन्ति किमुताजीवनिता इति कथं सप्ता यमो न विरुध्यत इति ?, अत्रोष्यते, असङ्कयातानामपि स्वरविशेषाणामेतेष्वेव सतु सामान्यस्वरग्यन्तर्भावाद्यादराणां या केपाचिदेवोपलभ्यमानविशिष्टीनातोपकारियां विशिवरायां मदोष इति । स्वराश्रामतो नित्य कारणतस्याभिधित्सुराह
एएसि यं सचखं सरायं सच सरकाया पण्यचा । तं जहा स च भग्गजीहार, उरेण रिसई सरं । कंठुग्गएंण गंधारं, मज्झजीहाए मज्झिमं ॥ २ ॥
• नवाऽचरोयं पादः
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(३१४) सत्तणाम अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तणाम नासाए पंचमं ना , दंतोडेण भ रेवतं । भमुहक्खेवेण । एएसि णं सत्तएहं सराणं सत्त सरलक्खणा पमत्ता, तं
साहं , सरढाणा विभाहिमा ॥ ३ ॥ सत्त सरा जीव- जहाणिस्सिा परमता, तं जहा-"सझं रवइ मऊरा, कुक्कुडो | सओण लहई वित्ति, कयं च न विणस्सह । रिसभं सरं । हंसो रवइ गंधारं, मज्झिमं च गवेलगा ॥४॥ गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ बल्लहो ।।८।। श्रह कुसुमसंभवे काले , कोइला पंचमं सरं । छटुं च रिसहेण उ एसज ( पसेजं),सेणावञ्चं धणाणि । सारसा कुंचा , नेसायं सत्तमं गश्रो ॥ ५ ॥ सत्तसरा वत्थगंधमलंकारं, इथिो सयणाणि य ॥६॥ अजीवनिस्सिा परमत्ता, तं जहा-सजं रवइ मुअंगो , गंधारे गीतजुत्तिमा, बजवित्ती कलाहिआ। गोमुही रिसहं सरं । संखो र वइ गंधारं, मज्झिमं पुण झ- हवंति कइणो धमा, जे असे सत्थपारगा ॥१०॥ लरी ।। ६॥ चउसरणपइट्ठाणा , गोहिआ पंचमं सरं । मज्झिमस्सरमंता उ, हवंति सुहजीविणो । आडंबरो रेवइयं , महाभेरी अ सत्तमं ॥७॥
खायई पियई देइ, मज्झिमस्सरमस्सिो ॥११॥ तत्र नाभेरुस्थितोऽविकारी स्वर आभोगतोऽनाभोगतो पंचमस्सरमंता उ, हवंति पुहवीपई । या यदत्र जिलादिस्थानं प्राप्य विशेषमासादयति तत् सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणनायगा ॥ १२ ॥ स्वरस्योपकारकमतः स्वरस्थानमुच्यते , तत्र 'सज्ज' मि
रेवयस्सरमंता उ, हवंति दुहजीवियो । त्यादिश्लोकद्वयं सुगमम्-नवरं चकारोऽवधारणे , षड्जमेव प्रथमस्वरलक्षणं घूयात् , कयेत्याह-अग्रभूता जि
कुचेला य कुवित्ती य, चोरा चंडालमुट्ठिया ॥१३॥ हा अग्रजिह्वा जिह्वाग्रमित्यर्थस्तया , इह यद्यपि षडज- णिसायस्सरमंता उ, होंती कलहकारगा । भणने स्थानान्तराण्यपि कण्ठादीनि व्याप्रियन्ते अप्रजिह्वा जंघाचरा लेहवाहा, हिंङगा भारवाहगा ॥ १४ ॥ च स्वरान्तरेषु व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुव्यापारवतीति कृत्वा तया तमेव ब्रूयादित्युक्तम् । इ
पतेषां सप्तानां स्वराणां प्रत्येकं लक्षषस्य विभिन्नत्वात् दमत्र हृदयम्-पाजस्वरोऽप्रजिहां प्राप्य विशिष्ट
सप्त स्वरलक्षणानि-यथास्वं फलप्राप्त्यव्यभिचारीणि स्वव्यक्निमासादयत्यतस्तदपेक्षया सा स्वरस्थानमुच्यते ,
रतत्त्वानि भवन्ति , तान्येव फलत आह- सज्जणे' एवमन्यत्रापि भावना कार्या। उरो-वक्षस्तेन -
त्यादि सप्त श्लोकाः । षडजेन लभते वृत्तिम् , अयमर्थःषभं स्वरम् श्रूयादिति सर्वत्र सम्बध्यते । ' कंठु
षड्जस्वेदं लक्षण-स्वरूपमस्ति येन तस्मिन् सति वृत्ति
जीवमं लभते प्राणी , एतच्च मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते , ग्गएणं' ति-कण्ठादुगमनमुद्गतिः-स्वरनिष्पत्तिहेतुभूता
वृत्तिलाभादीनां तत्रैव घटनात्, कृतं च न घिनश्यति , क्रिया तेन कराठोद्गतेन गान्धारम् , जिह्वाया मध्यो भागो
तस्येति शेषः, निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः , गावः मध्यजिहा तया मध्यमम् , तथा दन्ताश्चौष्ठौ च दन्तोष्ठं
पुत्राश्च मित्राणि च भवन्तीति शेषः । गान्धारे गीतयुतेन धैवतं रैवतं वेति । भ्रत्क्षेपावष्टम्भेन निषादमिति ।
निशा पर्यवृत्तयः-प्रधानजीविकाः कलाभिरधिकाः कवयः इत ऊर्ध्व सर्व निगदसिद्धमेव , नवरं 'जीवनिस्सिय'
काव्यकर्तारः प्राहाः-सद्वोधाः ये चोक्नेभ्यो गीतयुक्तिशा त्ति-जीवाश्रिताः जीवेभ्यो वा निसृता-निर्गताः, 'सजं
दिभ्योऽन्ये-शास्त्रपारगाः चतुर्वेदादिशास्त्रपारगामिनस्ते रवई' स्वादिश्लोकः, रवति-नदति 'गधेल' सि--गाव- भवन्तीति । शकुनेन श्येनलक्षणेन चरन्ति पापधिं कुर्वश्व फलकाच-ऊरणकाः गवेलकाः,अथवा-गवेलकाः ऊरणका न्ति शकुनान् वा नन्तीति शाकुनिकाः, बागुरा-मृगबन्धनं एव, अह कुसुमे' त्यादि, अथेति विशेषणार्थों, विशेषणा- तया चरन्तीति बागुरिकाः , शूकरेण सन्निहितेन शूकर्थता चैवं-यथा गवेलका अविशेषण मध्यमस्वरं नन्दन्ति
रवधार्थ चरन्ति शूकरान् वा मन्तीति शौकरिकाः , मौन तथा पञ्चम कोकिलः, अपि तु-वनस्पतिषु बाहुल्येन
टिका मल्ला इति । पाठान्तराण्यप्युक्तानुसारेण व्याख्ये
यानि । कुसुमाना-मल्लिकापाटलादीनां सम्भवो यस्मिन् काल सतथा तस्मिन् , मधुमास इत्यर्थः। 'अजीवनिस्सिय'
एएसिं णं सत्तएहं सराणं ती गामा पपत्ता, ति-तथैव , नवरमजीवेष्वपि मृदङ्गादिषु जीवव्यापारो- तं जहा-सञ्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे । सअगास्थापिता एवामी मन्तव्याः , अपर पहजादीनां मृदङ्गादिषु मस्स णं सत्त मुच्छणाश्रो परमत्ताभो, तं जहा-मग्गी यद्यपि नासाकण्ठाद्युत्पन्नत्वलक्षणो व्युत्पत्यर्थों न घटते कोरवित्रा हरिया , रयणी असारकंताय । छवी अ तथापि सादृश्यात् तद्भावोऽवगन्तव्यः । 'सज' मिस्यादि
सारसी नाम , सुद्धसजा य सत्तमा ।। १५ ।। मश्लोकद्वयम् , गोमुखी काहला यस्या मुखे गोकाविवस्तु
झिमगामस्स पं सत्त मुच्छणाभो,पमत्तानो, तं जहादीयत इति , चतुर्भिश्चरणः प्रतिष्ठानम्--अवस्थानं भुधि यस्याः सा गोधा चौवनखा, गोधिका--वाद्यविशेषो दर्द
उत्तरमंदाररयणी,उत्तरा उत्तरासमा ।समोक्ता य सोवीरा, रिकेत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा, भाडम्बर:--पटहः, सप्तम
अभिरूपा होइ सत्तमा ॥१६॥ गंधारगामस्स णं सत्त मुमिति निषादमित्यर्थः।
च्छणाश्रो पणतानो,तं जहा-नंदी अखहिमा पूरिमा य
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सत्तणाम
चस्थी असुद्वगंधारा उत्तरगंधारावि असा पंचमिश्रा हवइ मुच्छा ||१७||सुडुत्तरमायामा सा बड्डी सव्वओ य यायया । अह उत्तरायया को डिमा य सा सत्तमी - च्छा ।। १८ ।।
पतचिरन्तनमुनिगाथाभ्यां व्याव्यायते" सजाइतिहा गामो, ससमूहो मुच्छ्रणाण विनेश्रो । ता सत्त एकमेचे तो सत्तसराण इगवीसा ॥ १ ॥ अनन्नसरविसेसे, उप्पायंतस्स मुसा भरिया कला व मुछियो हय कुसु वसोवति ॥२॥ कर्ता वा मूर्छित इव ताः करोतीति मूच्र्छना उच्यन्ते, 'मुच्छं वा सो वत्ति' मूर्च्छवि वा स कर्त्ता ताः करोतीति मूच्र्छना उच्यन्त इत्यर्थः । मङ्गीप्रभृतीनां चैकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगतस्वरप्राभूते भविताः इदानीं तु राद्विनिर्गतेभ्यो भरतविशाखिला - दिशाभ्यां विज्ञेया इति अनु० (सप्तस्वरोत्यत्यादिव्याख्या गीय' शब्दे तृतीयभागे ६०१ पृष्ठ गता । ) सचतंतु सप्ततन्तु पुं० यशे, " अद्धरा सनतंतु जन्मा - ।
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( ३१५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पाइ० ना० १३५ गाथा ।
सपा-सप्तपर्ण - पुं० । सप्तच्छदे, अनु० । सप्तपर्णपर्याये वृक्षविशेषे, औ० । रा० । प्रज्ञा० । सत्तपरिग्गहियत्त-सच्चपरिग्रहीतन्त्र न० | भोजखितारूपसस्ववचनातिशये, रा० ।
सपरिवजिय- सप्तपरिवर्तित त्रि० सरवरहिते, प्रश्न० १
1
""
श्राश्र० द्वार ।
सतभङ्गी सप्तभङ्गी श्री० भज्यन्ते मिचन्ते अर्थाम ङ्गाः सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गी । सप्तभिः प्रकारैवचनविन्यासे, रत्ना० ८ परि० । स्था० । अनन्तरमनन्तधर्मात्मक वस्तुनि साये मुकुलितमुक्तम्, भङ्गप्ररूपणद्वारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं च स्तुवन्नाह
तदेव
अपर्ययं वस्तु समस्यमान- मद्रव्यमेतश्च विविच्यमानम् । प्रदेशभेदोदितसभङ्ग-मदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम् ॥ २३॥ समस्यमानं-संक्षेपेणोच्यमानं वस्तु, श्रपर्ययमविवक्षितपर्यायम्, वसन्ति गुणपर्याया श्रस्मिन्निति वस्तु-धर्माधर्माऽऽकाशपुल-काल- जीवलक्षणं द्रव्यपटुम् । अयमभिप्रायः यदेकमेव वस्तु आत्मघटादिकं चेतना वेतन सतामपि पर्यायाणामविवक्षया द्रव्यरूपमेव वकुमिष्यते ; सदा संक्षेपेणाऽभ्यन्तरीकृतसकलपर्या निकाला भिधीयमानत्वात् अपर्ययमित्युपदिश्यते - केवलइय्यरूपमेव इत्यर्थः, चचाऽऽत्माऽर्थ घटोऽयमित्यादि पर्या याणां द्रव्याऽनतिरेकात् श्रत एव द्रव्यास्तिकनयाः शुद्धसंग्रहादयो द्रव्यमात्रमेवेच्छन्ति पर्यायाणां तदविष्वभूतात्पर्ययः पर्ययः, पर्याय इत्यनर्थान्तरम् अव्यमित्यादि - चः पुनरर्थे स च पूर्वस्माद् विशेषद्योतने भिन्नक्रमा विषिष्यमानं चेति बियेफेन पृथग्रूपतवोयमानं पुनरेतद् वस्तु अद्रव्यमेव विवक्षितान्यधिद्रव्यं केवल पर्यायरूपमित्यर्थः यदा धात्मा ज्ञानदर्शनादीन प यानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते, तदा पर्याया एष प्र
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मतभंगी तिभासम्ले, न पुनरात्माक्यं किमपि इव्यम्। एवं घटोऽपि । कुण्डलौष्ठ - पृथुबुध्नोदर पूर्वापरादिभागाद्यवयवापेक्षया विवियमानः पर्याया एव न पुनर्घटाख्यं तदतिरिक्तं वस्तु । अत एव पर्यायास्तियानुपालिनः पठन्ति - " मागा एव हि भासन्ते, सनिविशस्तथा तथा । ज्ञान नैव पुनः कश्चि निर्भागः संप्रतीयते ॥ १ ॥ " इति । ततश्च द्रव्यप
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योभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यनयार्पणया । पर्यायनयाsaणया च द्रव्यरूपता, पर्यायनयार्पण्या द्रव्यनया - नया व पर्यायरूपता, उभयमपापण्या च तदुभयरूपता। अत एवाऽऽ६ याचकमुख्यः - "अर्पितानर्पितसिद्धेः” इति । एवंविधं द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु त्वमेवा दीडशस्त्वमेव दर्शितवान् नान्य इति काक्काऽवधारणाऽवगतिः । मन्यन्याभिधानप्रत्यययोग्यं द्रव्यम्, अन्याभिधानप्रत्यययिपयाच पर्यायाः। तत्कथमेकमेव वस्तूभयात्मकम् इत्या शङ्कय विशेषणद्वारेण परिहरति- आदेशभेदेत्यादि श्रादेशभेदेन सकलादेशविकलादेशलक्षणेन आदेशद्वयेन, उदिताः - प्रतिपादिताः, सप्तसंख्या भङ्गा चचनप्रकारा यस्मिन् वस्तुनि तत्तथा । ननु यदि भगवता त्रिभुवनबन्धुना निविशेषतया सर्वेभ्य एवंविधं वस्तुतत्वमुपदर्शितम् तर्हि किम तीर्थान्तरीयाः तत्र विप्रतिपद्यन्ते इत्याह-बु धरूपवेद्यम्" इति बुध्यन्ते यथावस्थितंस्तुत सारे तरविषय विभागविचारण्या इति बुधाः, प्रकृष्टा बुधा बुधरूपा नैसर्गिका 35 धिगमिका अन्यतरसम्यग्दर्शनविशरीफज्ञानशालिनः प्राणिनः तैरेव परिच्छेयम् । न पुनः स्वस्वशास्त स्वाभ्यासपरिपाकशाला निशातबुद्धिभिरप्यन्यैः । तेषामनादिमिथ्यार्दशनवासनादूषितमतितया यथावस्थितवस्तुतस्याऽनवयोधन धरूपत्वामावात् । (स्पा०|) अथ केडमी सप्तभङ्गतः १, कव्यायमादेशद इति १ । उच्यते एकत्र जीवादौ वस्तुनि एकैकसवादिधर्मविषयप्रश्नवशाद् अविरोधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिक्षारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोध विधिनिषेधयोः पर्यालो चनया कृत्या स्याच्छादित पक्ष्यमार्गः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्गीति गीयते । तद्यथा-१ स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकरूपनया प्रथमो भङ्गः । २-स्यान्नासव समिति निषेधया द्वितीयः । ३ स्वादसयेय स्वास्येवेति कमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः । ४स्यादन्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः । स्यादस्त्येव स्यादवक्रम्यमेवेति विधिकल्पनया युगपविधिनिषेधकल्पनया च पश्चमः । ६-स्यान्नास्त्येव स्यादपशव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया व पनः । ७ स्यादयेय स्थानासयेव स्यादयमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः । तच स्यात्कथंचित् स्वव्यक्षेत्र कालभावरूपेसा 5हत्येव सर्व कुम्भादि, न पुनः परद्रव्यक्षेत्रका लभाचरूपेण, तथाहि - कुम्भो इन्यतः पार्थिवत्वेनाऽस्ति नाऽऽप्यादिकपत्वेन क्षेत्रतः पाटलिपुत्र कत्येन न काम्यकुब्जादित्वेन । कालतः शैशिरत्वेव न वासन्तिकादित्वेन । भावतः श्यासत्येन न रक्तादित्वेन । अभ्यथेतररूपापस्या स्वरूपहानिमस इति । अवधारणं चात्र भङ्गेऽनभिमतार्थव्यासृश्य
I
६.
1
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सत्तभंगी अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तभंगी र्थमुपातम् , इतरथा अनभिहिततुल्यतैवास्य वाक्यस्य प्र- रिति प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भसज्येता प्रतिनियतस्वार्थाऽनभिधामात् । यदुक्तम्-"वी- बाद् तेषाध्यपि सप्तत्वं सप्तविधतजिज्ञासानियमात् । तस्या क्येऽवधारणं ताव-दनिष्टार्थनिवृत्तये । कर्तव्यमन्य- अपि सप्तविधत्वं सप्तधैव तत्संदेहसमुत्पादात् । तस्यापि थाऽनुक-समत्वात् तस्य कुत्रचित् ॥ १॥ " तथा- सप्तविधत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोऽप्यस्स्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रीपादाने कुम्भस्य स्स- पपत्तरिति । स्या। म्भापस्तित्माऽपि सर्वप्रकारेणाऽस्तित्वप्राप्तः प्रतिनियत
अथ सप्तमीमेव स्वरूपतो मिरूपयन्तिस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् । तत्प्रतिपत्तये 'स्याद' इति शब्दः एकत्र वस्तुन्यकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तप्रयुज्यते । स्यात्कथंचित् स्वद्रव्यादिभिरेवाऽयमस्तिान पर
योः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः । यत्राऽपि चासो न प्रयुज्यते तत्रापि ग्यवच्छवफलैवकारषद् बुद्धिमतिः प्रतीयत एव । यदुक्तम्
क्तिः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तमङ्गी ॥१४॥ "सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तजः, सर्वत्राऽर्थास्प्रतीयते । यथैवका
___ एकत्र जीवादी वस्तुम्यकैकसस्वादिधर्मविषयप्रश्नवशादवि. रोऽयोगादि-व्यवच्छेवप्रयोजनः ॥९॥" इति प्रथमो भगः ।
रोधेन प्रत्यक्षाविवाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोस्यास्कथंचिद् नास्त्येव कुम्भादिः, स्वस्यादिभिरिव परद्र
व विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्थाच्छन्दलामिछज्यादिभिरपि वस्तुनोऽसस्वाऽमिष्ठी हि प्रतिमियतस्वरूपा
तो पच्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविम्यासः सप्तभनी विभाषा वस्तुप्रतिनियतिम स्यात्।न चास्तित्वैकान्तबादिभि. रेया। भज्यन्ते-भिद्यन्तेऽर्था यैस्ते भका वचनप्रकारास्ततः रत्र नास्तित्वमसिमिति वक्तव्यम् । कथंचित् तस्य बस्तु
सप्त भकाः समाहताः सप्तमीति कथ्यते । नानावस्त्वानियुक्तिसिद्धत्वात् ,साधनषत् । न हि कचिद् भनिस्यत्वादी
भयविधिनिषेधकरणमया शतभङ्गीप्रसङ्गनिवर्तनार्थमेकत्र धसाध्ये संस्वादिसाधनस्यांस्तित्वं विपक्षे नास्तित्वमन्तरेणी- स्तुनीत्युपन्यस्तम् । एकत्रापि जीवाविवस्तुनि विधीयमानपपन्नम् , तस्य साधनस्वाऽभाषप्रसङ्गात् । तस्मात् वस्तुनो
निषिध्यमानानन्तधर्मपर्यालोचनयामनन्तभङ्गीप्रसक्तिव्यावर्सस्तिय्सं नास्तित्वेनाऽधिनाभूतम् , नास्तित्वं च सेनेति । वि
नार्थमेकैकधर्मपर्यनुयोगवशादित्युपात्तम् । अनन्तेष्वपि हिबक्षावशाबाऽनयोः प्रधानोपसर्जनभाषः । एषमुत्तरभनेव
धर्मेषु प्रतिधर्म पर्यनुयोगस्य सप्तधैव प्रवर्तमानत्वात् । पिनेयम्-"अर्पिताऽनर्पितसिखेः" इति पाचकवचनात् ।
तत्प्रतिवचनस्यापि सप्तविधत्वमेवोपपन्नमित्येकैकस्मिन् धइति द्वितीयःवतीयः स्पष्ट एष । द्वाभ्यामस्तित्व-नास्तित्व
में पकैकैव सप्तभती साधीयसी । एवं वामन्तधर्मापेक्षया धर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयाऽर्पिताभ्याम् , एकस्य वस्तुनोऽ
सप्तमहीनामानन्त्यं यदायाति , तदभिमतमेव । पतचाप्रे भिधित्सायर्या तारशस्य शब्दस्याऽसंभवाद, अवक्तव्य जीषा
सूत्रत एव निर्णेष्यते । प्रत्यक्षाविविरुखसदाकारतविधिविवस्तु, तथाहि-सदलवगुणइयं पुगपद् एका सविस्यनेन
प्रतिषेधकल्पनयाऽपि प्रवृत्तस्य बचनप्रयोगस्य सप्तभङ्गीपकुमशक्यम् । तस्याऽसवप्रतिपादनाऽसमर्थस्वात्तथाऽ
स्वानुषाभनार्थमविरोधेनेस्याभिहितम् । प्रयोचाम बसविस्यनेनाऽपि तस्य सस्वप्रत्यायमसामर्थ्याऽभाषात् । मब
"या प्रश्नाद्विधिपर्पासभिव्या बायव्युता सप्तधा, पुष्पदन्तादिवत् साङ्केतिकमेकं पदं तद्वतुं समर्थम् तस्या
धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचनाऽनेकास्मके वस्तुनि। ऽपि कमेणार्थद्वयमस्यायने सामोपपत्तेः , शतशामयोः
निदोषा निरवेशि दध ! भवता सा सप्तभङ्गी यया, संकेतितसहसम्वत् । मत एष सहकर्मधारयपस्योर्याक्य
जापन जल्परणामणे विजयते वादी विपक्षणात् ॥१॥"
घ सप्तभकीलक्षणं प्रमाणमयसप्तभनयोः साधारणमषस्थचन तवाचकत्वम्, इति सकलवाचकरहितवाद् अष
भारणीयम् । विशेषलक्षणं पुनरमयोरने वक्ष्यते । कल्यं वस्तु युगपरसस्वाऽसस्वाभ्यां प्रधामभाषार्पिताभ्यामा. काम् व्यवतिष्ठते । म सवाऽवक्तव्यम् प्रवक्तव्यशध्येना
मथास्यां प्रथमभालेसं तावदर्शयन्तिप्यनभिधेयस्यप्रसङ्गात् । इति चतुर्थः । शेषाखयः सुगमाभि
तद्यथा-स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिविकल्पनया प्रथमोप्रायाः । नथ पाध्यमेका वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमा- भङ्गः ॥ १५ ॥ माऽनम्तधर्माभ्युपगमेनाऽनन्तभङ्गीप्रसाद प्रसस्तष सप्त- । स्यादिस्यव्ययममेकान्तबोतकं स्यात्कयश्चित्वद्रव्यक्षेत्रभङ्गीति विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि मन- कालभाषरूपेणास्त्येष सर्वे कुम्भादि, म पुनः परद्रग्यक्षेत्रक्तानामपि सप्तमकीनामेव सम्भवात् । यथा हि सदसस्था- कालभाषरूपेण । तथाहि-कुम्भो द्रव्यतः पार्थिववेनाऽस्ति, भ्याम् , एवं सामाम्यविशेषाभ्यामपि सप्तभापेष स्याहात- न जलाविरूपरन पात्रतः पाटलिपुत्रकथेन,न काम्यकुब्जा. थाह-स्यात्सामाग्यम् ,स्याद् विशेषः, स्यादुभयम् , स्याव- दिस्षेन, कालतः शैशिरत्वेन, न बासन्तिकादिवेन, भाषतः बाव्यम् , स्यात्सामान्यायकग्यम् ,स्याद् विशेषाऽयक्रव्यम् , श्यामपन, न रकत्यादिना । अन्यथतररूपापस्या स्वरूपस्यास्सामान्य विशेषाऽवक्तव्यमिति । न चात्र विधि-निषेधप्र. हानिप्रसाइति । अवधारण पात्र भनेऽनभिमतार्थव्याधुकारीगस्त इति वाच्यम् सामान्यस्य विधिरूपम्पादू,विश. स्यर्थमुपातम् । इतरथाऽनभिंहिततुल्यतैवास्य वाक्यस्थ षस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकरपात् । अथवा-प्रति- प्रसज्येत, प्रतिनियतस्वार्थानाभिधामात् । तदुक्तम्-" षापक्षशब्दखावू यदा सामाम्यस्थ प्राधान्यं तदा तस्य विधिक- स्पेऽवधारणं ताप-दनियार्थनिवृत्तये । करीब्यमम्पपता विशेषस्य बनिषेधरूपताायदा विशेषस्य पुरस्कारस्त- थाऽनुक-समत्वात् तस्य कुत्रचित् " ॥ १ ॥ तथा वा तस्य विधिरूपता इतरस्य च मिषेधरूपता । एषं सर्वत्र प्यस्त्येष कुम्भ इत्येतापम्मात्रीपादाने कुम्भस्य स्तम्भाचयोग्यम् । अतः सुष्टतममम्ता भपि सप्तभनय एष भवेयु- स्तित्वेनापि सर्वप्रकारेणास्तित्वमाप्तः प्रतिनियतस्वरूपानुप
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(३१७) सत्तभंगी अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तभंगी पत्तिः स्यात् , तत्प्रतिपत्तये स्यादिति प्रयुज्यते, स्यात्क- दि पदस्य क्रमेण धर्मद्वयप्रत्यायने समर्थत्वात् । कर्मधारथश्चित्स्वद्रव्यादिभिरवायमस्ति, न परद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः। यादिवृत्तिपदमपि न तयोरभिधायकं तत एवं वाक्यं तपत्रापि चासो न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारंवद् | योरभिधायकमनेनैवापस्तमिति सकलवाचकरहितत्वादवबुद्धिद्भिः प्रतीयत एव । यदुनम्-" सोऽप्रयुक्तोऽपि वा नव्यं वस्तु युगपत् सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावार्पिताभ्यामातौः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते । यथैवकारो योगादि-व्यवच्छेद- क्रान्तं व्यवतिष्ठते । अयं च भगः कैश्विनृतीयभङ्गस्थाने प्रयोजनः॥१॥"
पठ्यते, तृतीयश्चतस्य स्थाने । न चैवमपि कश्चिदोषः , अथ द्वितीयभनोलखं ख्यापयन्ति
अर्थविशेषस्याभावात् ।। स्यानास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः॥१६॥
अथ पञ्चमभङ्गाल्लेखमुपदर्शयन्तिस्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ
स्यादस्त्येव स्यादवक्रव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपप्रतिनियतस्वरूपाभावाद्वस्तुप्रतिनियमविरोधः । न चास्ति
द्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः ॥१६॥ स्बैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्धमित्यभिधानीयम् कथ- स्वद्रव्यादिचतुष्ठयापेक्षयाऽस्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वाश्चित्तस्य वस्तुनि युक्रिसिद्धत्वात्साधनवत् । न हि कचिदनि- भ्यां सह बनुमशक्यम् सर्व वस्तु । ततः स्यादस्त्येव त्यत्वादी साध्ये सत्त्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपक्षे नास्तित्वम
स्यादवक्तव्यमेवेत्येवं पञ्चमभनेनोपदर्यत इति । न्तरेणोपपन्नम् ,तस्य साधनाभासत्वप्रसङ्गात्। अथ यदेव नि
अथ षष्ठभङ्गालखं प्रकटयन्तियतं साध्यसद्भावेऽस्तित्वं तदेव साध्याभावे साधनस्य नास्तित्वमभिधीयते; तत्कथं प्रतिषेध्यम् :, स्वरूपस्य प्रतिषेध
स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगत्यानुपपत्तः,साध्यसद्भावे नास्तित्वं तु यत्तत्प्रतिषेध्यम् , तेना पद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः ॥ २०॥ विना भावित्वे साध्यसद्भावास्तित्वस्य व्याघातात्तेनैव स्वरू- परद्रव्यादिचतुण्यापेक्षया नास्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वा पेणास्ति नास्ति चेति प्रतीत्यभावादिति चेत् । तदसत् एवं भ्यां योगपद्येन प्रतिपादयितुमशक्यं समस्तं वस्तु । ततः देतोखिरूपत्वविरोधात् । विपक्षासत्वस्य तात्त्विकस्याभावा स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेत्येवं षष्ठभलेन प्रकाश्यते । त् । यदि चायं भावाभावयोरेकामाचक्षीत, तदा सर्वथा न ___सम्प्रति सप्तमभङ्गमुल्लिखन्तिकचित्प्रवर्तत । नापि कुतश्विनिवर्तेत । प्रवृत्तिनिवृत्तिविष
स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो यस्य भावस्याभावपरिहारेणासंभवात् , अभावस्य च भावपरिहारेणेति वस्तुनोऽस्तित्वनास्तित्वयो रूपान्तरत्वमेष्टव्यम्।
विधिनिषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्ततथा चास्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्यनाविनाभावि सिद्ध- मइति ॥ २१॥ म् । यथा च प्रतिषष्यमस्तित्वस्य नास्तित्वं तथा प्रधा- इतिशब्दः सप्तमीसमाप्त्यर्थः । स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयाऽमभाषतः क्रमार्पितोभयत्वाविधर्मपञ्चकमपि वक्ष्यमाणं पेन्तयाऽस्तित्वनास्तित्वयोः सतोरस्तित्वनास्तित्वाभ्यां सलक्षणीयम् ।
मसमयमभिधातुमशक्यमखिलं वस्तु तत एवमनेन भअथ तृतीय भामल्लेखतो व्यक्तीकुर्वन्ति
केनोपदर्श्यते। स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पन
अथास्यामेव सप्तभनयामेकान्तविकल्पानिराचिकीर्षवः
सूत्राण्याहुःया तृतीयः ॥ १७ ॥
विधिप्रधान एव ध्वनिरिति न साधु ॥ २२ ॥ सर्वमिति पूर्वसूत्रादिहोत्तरत्र चानुवर्तनीयम् । ततोऽयमथः । क्रमार्पितस्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया क्रमाप्तिाभ्या
प्राधान्येन विधिमेव शब्दोऽभिधत्ते इति न युक्तम् । मस्तित्वनास्तित्वाभ्यां विशेषितं सर्व कुम्भादि वस्तु स्या
अत्र हेतुमाहुःदस्त्येव स्यानास्त्येवेत्युलेखन वक्तव्यमिति ।
निषेधस्य तस्मादप्रतिपत्तिप्रसक्नेः ॥ २३ ॥ इदानी चतुर्थभकोलेखमाविर्भावयन्ति
'तस्मादिति'-शब्दात्।
___आशङ्कान्तरं निरस्यन्तिस्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः१८ द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वाख्यधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतया
अप्राधान्येनैव ध्वनिस्तमभिधत्ते इत्यप्यसारम् ॥ २४॥ पिताभ्यामेकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्या
तमिति निषेधम् । सम्भवादयतव्यं जीवादि बस्त्विति । तथाहि--सदसत्व
अत्र हेतुमाचक्षतेगुणवयं युगपदेकत्र सदिस्यभिधानेन वक्तुमशक्यम् । त
क्वचित्कदाचित्कथञ्चित्प्राधान्येनाप्रतिपन्नस्य तस्याप्रा. स्यासस्वप्रतिपादनासमर्थत्वात्। तथैवासदित्यभिधानेन न धान्यानुपपत्तेः ॥ २५ ॥ तयाकं शक्यम् । तस्य सरवप्रत्यायने सामर्थ्याभावात् । सा- न खलु मुख्यतः स्वरूपेणाप्रतिपन्न वस्तु कचिदप्रधानभाकेतिकमेकं पदं तंदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यम् । वमनुभवतीति । तस्यापि क्रमेणार्थवयमस्यायने सामोपपने, शतृशानचौ इत्थं प्रथमभड़कान्तं निरस्येदानी द्वितीयभनेकान्तमिराससदिति शतृशानचोः सङ्केतितसच्छन्दवत् । द्वन्द्वृत्तिपर्द - मतिदिशस्तितयोः सदभिधायकमित्यप्यनेनापास्तम् । सदसवे इत्या- निषधप्रधान एवशब्द इत्यपि प्रागुनन्यायादपास्तम्।२६।
अन्त
पमा
८०
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(३१%). सत्तभंगी अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तभंगी व्यकम्।
अत्र हेतुमाहुःअथ तृतीयभड़कान्त पराकुम्ति
विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि क्रमादुभयनधान एवायमित्यपि न साधीयः॥ २७॥
सम्मभङ्गीनामेव संभवात् ॥ ३८॥ 'प्रयमिति'-शब्दः।
एकैकं पर्यायमाधिस्य बस्तुनि विधिनिषेधविकल्पाभ्यां एतदुपपादयन्ति--
व्यस्तसमस्ताभ्यां सप्तष भनाः सम्भवन्ति, न पुनरमन्ताः। भस्य विधिनिषेधान्यतरप्रधानत्वानुभवस्याप्यवाध्यमा- | तत्कथमनन्तभङ्गीप्रसादसातत्वं सप्तमायाः समुद्भाव्यत? नत्वात् ॥ २८॥
कुतः सप्तव भक्ताः सम्भवन्तीत्याहु:प्रथमद्वितीयभगतैकैकप्रधानत्यप्रतीतेरप्यबाधितत्यान्न प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भवात् तृतीयभरकान्ताभ्युपगमः श्रेयान् ।
॥३६॥ अथ चतुर्थभनेकान्तपराभवाय प्राहुः--
एतदपि कुतं इत्याहुःयुगपद्विधिनिषेधात्मनोऽर्थस्यावाचक एवासाविति च न तेषामपि मम सवितजिनामा चतुरस्त्रम् ॥ २६ ॥
अथ सप्तविधजिज्ञासानियमे निमित्तमाहुःस्यादवाकव्यमेवेति चतुर्थभनेकान्तो न श्रेयानित्यर्थः। तस्या अपि सप्तविधत्वं सप्तधैव तत्सन्देहसमुत्पादाता४१ कुत इत्याहुः--
तस्या अपीति प्रतिपाद्यजिशासायाः। तत्सन्देहसमुत्पादातस्यावतव्यशब्देनाप्यवाच्यत्वप्रसङ्गात् ।। ३०॥ दिति प्रतिपाद्यसंशयसमुत्पत्तेः। अथ पञ्चमभकान्तमपास्यन्ति--
सन्देहस्यापि सप्तधात्वे कारणमाहुःविध्यात्मनोऽर्थस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवा
तस्याऽपि सप्तप्रकारत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तचक एव स इत्येकान्तोऽपि न कान्तः ।। ३१॥
विधत्वस्यैवोपपत्तेः॥४२॥
तस्य-प्रतिपाधगतसन्देहस्य स्वगोचरवस्तुधर्माणां सअत्र निमित्तमाहुः--
न्देहविषयीकृतानामस्तित्वादिवस्तुपर्यायाणाम् । निषेधात्मनः सह द्वयात्मनश्वार्थस्य वाचकत्वाऽवाचक
इयं सप्तभती किं सकलादेशस्वरूपा, विकलादेशस्वरूपा त्वाभ्यामपि शब्दस्य प्रतीयमानत्वात् ॥ ३२॥
- वेत्यारेका पराकुर्वन्तिनिषेधात्मनोऽर्थस्य वाचकत्वेन सह, विधिनिषेधात्मनो- इयं सप्तभङ्गी प्रतिभङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशऽर्थस्यावाचकत्येन च शब्दः षष्ठभङ्गे प्रतीयते यतः , ततः
स्वभावा च ॥४३॥ पञ्चमभड़कान्तोऽपि न श्रेयान् ।
एकको भङ्गोऽस्याः संबन्धी सकलादेशस्वभावः, विकालाषष्ठभकान्तमपाकुर्वन्ति
देशस्वभावश्चेत्यर्थः। निषेधात्मनोऽर्थस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवा
. अथ सकलादेश लक्षयन्ति-- चक एवान्यमित्यप्यवधारणं न रमणीयम् ॥ ३३॥
प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनःकालादिभिरभेदवअत्र हेतुमुपदर्शयन्ति--
त्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्यन प्रतिपादकं वचः इतरथाऽपि संवेदनात् ॥ ३४ ॥
सकलादेशः ।। ४४॥ आधभकादिषु विध्यादिप्रधानतयाऽपि शब्दस्य प्रतीयमा
कालादिभिरष्टाभिः कृत्वा यदभेदवृत्तधर्मधर्मिणोरपृथग्भावनस्वादित्यर्थः।
स्य प्राधान्यं तस्मात् , कालादिभिर्मिनात्मनामपि धर्मधर्मि... अथ सप्तमभकान्तमपाकुर्वन्ति--
णामभेदाध्यारोपाद्वा समकालमभिधायकं वाक्यं सकलारेशः क्रमाऽक्रमाभ्यामुभयस्वभावस्य भावस्य वाचकश्चाऽवाक- प्रमाणवाक्यमित्यर्थः । अयमर्थ:-योगपद्येनाशेषधर्मात्मक श्रध्वनिर्नाऽन्यथेत्यऽपि मिथ्या ॥३५॥
वस्तु कालादिभिरभेदवृत्त्या, अभेदोपचारेण वा प्रतिपाद..... अत्र बीजमाख्यान्ति--
यति सकलादेशः, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् । विकलादेशस्तु विधिमात्रादिप्रधानतयाऽपि तस्य प्रसिद्धः ॥ ३६॥
क्रमेण भेदोपचाराद् , भेदप्राधान्याद्वा तदभिधत्ते, तस्य नन्वेकस्मिन् जीवादी वस्तुन्यनन्तानां विधीयमाननिषिध्य- नयायत्तत्वात् । कः पुनः क्रमः ?, किं वा योगपधम् ? | मानानां धर्माणामङ्गीकरणादनन्ता एव पचनमार्गाः स्याद्वा.
यदाऽस्तित्वादिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, तदैकस्य दिनां भवेयुः , वाव्ययत्ताऽऽयत्तत्वाद् वाचकेयत्तायाः ,
शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः, यदा तु तेषाततो विरुखैव सप्तभङ्गीति वाण निरस्यन्ति--
मेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते, तदै''एकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्माभ्युपग
केनापि शब्द मैकधर्मप्रस्थायनमुखन तदात्मकतामापत्रस्या
नेकाशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भवाद्योगपघम् । केमेनानन्तमजीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तभङ्गीति न चेतसि निधे.
पुनः कालादयः!। काला, आत्मरूपम् , अर्थः, सम्बन्धः, यम् ।। ३७ ॥
उपकारः, गुणिशः, संसर्गः, शब्दः, इत्यौ । तत्र स्या
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सत्तभंगी
अभिधानराजेन्द्र:।
सत्तभामा जीवादि वरुषस्त्येवेस्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्काला: शे- प्रमाणं निणीयाथ यतः कारणात् प्रतिनियतमर्थमेतत्पानम्तधर्मा वस्तुम्येकति तेषां कालेगामेदातिः । यदे- व्यवस्थापयति तस्कथयन्तिबचास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपम् , तदेष चाम्यानन्तगु
तद् द्विभेदमपि प्रमाणमात्मीयप्रतिवन्धकापगमविशेषणानामपीस्यात्मरूपेणाभेवकृतिः २ । य एष चाधारोऽर्थों
स्वरूपसामर्थ्यतः प्रतिनियतमर्थमवद्योतयति ॥४६॥ द्रव्याख्योऽस्तिस्वस्य, स एषाम्यपर्यायायामित्यर्थेमाभेववृतिः । य एव चाविष्वग्भावः कश्चित्तादात्म्यलक्षणः स- प्रत्यक्षपरोक्षरूपतया विकारमपि प्रागुपवर्णितस्वरूपं प्रम्बन्धोऽस्तित्वस्थ, स एवाशेषविशेषाणामिति सम्बन्धेना- माणं स्वकीयज्ञानाधरणाचरविशेषक्षयक्षयोपशमलक्षणं यो. भेववृत्तिः ४ । य एष चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वक
ग्यतावशात्प्रतिनियतं नीलादिकमर्थ व्यवस्थापयति । रणम्, स एव शेषैरपि गुणैरित्युपकारेसाभेववृत्तिः ५। य
एतद्व्यवच्छेचमाचलतेएव गुणिनः सम्बन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य, स
न तदुत्पत्तितदाकारताभ्याम् , तयोः पार्थस्येन सामएवान्यगुणानामिति गुणिदेशनाभेदवृत्तिः ६ । य एव चैकबस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः, स एवाशेषधर्माणामिति संस
स्त्येन च व्यभिचारोपलम्भात् ।। ४७॥ गेंणाभेदवृत्तिः । ननु प्रागुनसम्बन्धादस्य का प्रतिविशेषः । तथाहि-ज्ञानस्य तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां व्यस्ताभ्यां उच्यते-अभेदप्राधाम्येन भेदगुणभावेन च प्रागुतः संबन्धः | समस्ताभ्यां वा प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं स्यात् । यदि भेदप्राधान्येनाभेदगुणभाषेन चैष संसर्ग इति । य एवा- प्राच्यः पक्षः, तदा कपालक्षणः कलशान्स्यक्षणस्य व्यवस्थास्तीति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य बस्तुनो वाचकः, स एव पकः स्यात् ,तदुत्पत्तेः केवलायाः सद्भावात् । स्तम्भः स्तशेषानन्तधर्मात्मकस्यापीति शब्देनाभेदवृत्तिः । पर्याया- म्भान्तरस्य च व्यवस्थापकः स्यात् , तदाकारतायास्तदु. र्थिकनयगुणभावे द्रव्यार्थिकनयप्राधान्यानुपपद्यते द्रव्यार्थि- त्पत्तिरहितायाः सम्भवात् । अथ द्वितीयः, तदा कलशकगुणभाषेन पर्यायार्थिकप्राधान्ये तु न गुणानामभेदवृत्तिः स्योत्तरक्षणः पूर्वक्षणस्य व्यवस्थापको भवेत् , समुदितयोसम्भवति, समकालमेकत्र नानागुणानामसम्भवात् , सम्भ
स्तदुत्पत्तितदाकारतयोबिंद्यमानत्वात् । अथ विद्यमानयोरवे वा तदाश्रयस्य तावडा भेदप्रसङ्गात् १ । नानागुणानां
प्यनयोनिमेधार्थस्य व्यवस्थापकम् ; नार्थः, तस्य जडत्यासंबन्धिन आस्मरूपस्य च भिन्नत्वात् , आत्मरूपाभेदे
दिति मतम् । तदपि न न्यायानुगतम् , समानार्थसमनन्तरतेषां भेदस्य विरोधात् २ । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात्
प्रत्ययोत्पन्नशानैर्व्यभिचारात् । तानि हि यथोक्कार्थव्यवस्थाअन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् ३ । सम्बन्धस्य च स
पकत्वलक्षणस्य समग्रस्य सद्भावेऽपि प्राच्य जनकज्ञानम्बन्धिभेदेन भेवदर्शनात् , नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्ब
क्षण न गृहन्ति । अपि च-किमिदमर्धाकारत्वं घेदनानां : धाघटनात् । तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियत
यदशात्प्रतिनियतार्थपरिच्छेदः स्यात् । किमर्थाकारोल्लेखिरूपस्यानेकत्वात् , अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकार
त्वम् , अाकारधारित्वं वा । प्रथमप्रकारे, अर्थाकारोब्लेखोड स्यैकस्य विरोधात् ५ । गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात् ,
कारपरिच्छेद एव, ततश्च शान प्रतिनियतार्थपरिच्छेदातदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिवेशाभेदप्रसङ्गात् ६ । संस
त्प्रतिनियतमर्थमवद्योतयतीति साध्याविशिष्टत्वं स्पष्टमुपर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात् , तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात्
ढौकते । द्वितीयप्रकारे पुनराकारधारित्वं ज्ञानस्य सर्या७ । शब्दस्य च प्रतिविषयं नानात्वात् , सर्वगुणानामेकश
त्मना, देशेन वा । प्रथमपते, जडत्यादर्थस्य ज्ञानमपि जडं नवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यताऽऽपत्तेः शब्दान्त
भवेत् , उत्तरार्थक्षणवत् । प्रमाणरूपत्वाभावश्चोंत्तरार्थक्षणवरवैफल्यापत्तेः ८ । तत्त्वतोऽस्तित्वादीनामेकत्र वस्तुन्येवम
देवास्य प्रसज्येत, सर्वात्मना प्रमेयरूपताऽनुकरणात् । अभेदवृत्तरसंभवे कालादिभिर्मिनात्मनामभेदोपचारः क्रियते,
थ देशेन नीलत्वादिनाऽर्थाकारधारित्यमिप्यते ज्ञानस्य, तदेताभ्यामभेदवत्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा प्रमाणप्रतिपन्ना
तहि तेनाजडाकारेण जडताप्रतिपत्तेरसम्भवात् कथं तद्विनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं वाक्यं
शिष्टत्वमर्थस्य प्रतीयेत? । न हि रूपझानेनाप्रतिपन्नरसेन स सकलादेशः प्रमाणवाक्यापरपर्याय इति स्थितम् । “का- तद्विशिष्टता सहकारफलादौ प्रतीयते । किं च देशनार्थालात्मरूपसम्बन्धाः, संसर्गोपक्रिये तथा । गुणिदेशार्थशब्दा
कारधारित्वान्नीलार्थवन्निःशेपार्थानामपि ज्ञानेन प्रहणाधे-स्यष्टौ कालादयः स्मृताः॥१॥"
पत्तिः, सत्त्वादिमात्रेण तस्य सर्वत्राकारधारित्याविशेषा
त्। अथ तदविशेषेऽपि नीलाद्याकारलक्षण्यान्निखिलाअधुना नयवाक्यस्वभावत्वेन नयविचारावसरलक्षणीय- र्थानामग्रहणम् , तर्हि समानाकाराणां समस्तानां ग्रहणस्वरूपमपि विकलादेश सकलादेशखरूपनिरूपणप्रसनेनाव प्राप्तिः। अथ यत एव ज्ञानमुत्पद्यते, तस्यैवाकारानुकरणलक्षयन्ति
द्वारेण प्राकम् , हन्त ! एवमपि समानार्थसमनम्तरप्रत्य
यस्य सद् ग्राहकं स्यादित्युक्तम् । ततो न तदुत्पत्तितदाकातद्विपरीतस्तु विकलाऽऽदेशः ॥ ४५ ॥
रताभ्यां ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थावभासः, किंतु-प्रतिबन्धनवविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेववृत्तिप्राधान्याद् भेदोप- कापगमविशेषादिति सिद्धम् । रत्ना०४ परि० । स्या०।चाराका क्रमेण यदभिधायकं वाक्यम् , स विकलाऽऽदेशः।
श०। (अप्रत्या वक्तव्यता 'अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे । एतदु खस्तु नयस्वरूपानभिशश्रोतृणां दुस्वगाह इति न
४३१ पृष्ठे गता।.) . विचाराषसर एष प्रदर्शयिष्यते।
सत्तभामा-सत्यभामा-स्त्री०। स्वनामण्यातायां कृष्णाप्रम
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(३२०) सत्तभामा अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तरिसत्थ हिण्याम् , अन्तः। (सा चारिष्टनेमेरन्तिके प्रवज्यां गृहीत्वा | नि मन्तव्यानि । शून्यगृहश्मशानयोश्चशब्दात-चतकेच सिद्धति अन्तकृशायाः पञ्चमे घर्गे सप्तमे अध्ययने सूचितम्)। सविशेषतराणि विविधानि दिव्यमानुषतैरश्वोपसर्गरूपासत्तभाषणा-सचभावना-स्त्री०। सत्वविषयायामसंकिष्टभा-णि भयानि भवन्ति तान्यपि सम्यग् जयतीति प्रक्रमः। बनायाम् , व्य०१ उ०। वृ०।
अस्या एव भावनायाः फलमाहअथ सत्त्वभावनामाह
देवेहि भेसिओ वि, दिया व रातो व भीमरूवेहि। जे पिय पुचि निसि नि-ग्गमेसु विसहिंसु साहसभयाई । ता सत्तभावणाए, वहइ भरं निम्भो सयलं ॥५०६।। अहितकरगोवाई, विसिंसु घोरे य संगामे ॥ ५०३ ॥ । तत एवं सत्त्वभावनया स्वभ्यस्तया दिवा रात्री वा भीमयेऽपि च राजवजिनादयः पूर्व गृहवासे निशि-रात्रौ वीरच
रूपैः देवैर्भेषितोऽपि भरं-जिनकल्पभारं सकलमपि निर्भयः र्यादिना निर्गमेषु साध्वसम्-अहेतुकभयरूपं, भयं-सहेतुकं ते
सन् वहतीति । गता सत्त्वभावना । वृ०१ उ०२ प्रक० । प्रा० अहितस्करगोपादिसंबन्धिनी व्यषहन्-विषोढवन्तः, घोरे च
म०। ध०। संग्रामे सात्विकतया 'विसिंसु' त्ति-प्राविशन् , तेऽपि |
सत्तभूमिय-सप्तभूमिक-पुं० । सप्तमालखण्डे प्रासादे, उत्त. जिनकल्पप्रतिपित्सवः सस्वभावनामवश्यं भावयन्ति ।
१३ अ०। कथमिति चेत् ? उच्यते
सत्तम-सप्तम-त्रि० । सप्तसंख्यापूरणे, उपा०१०। पासुत्ताण तुय९, सोयवं जं च तीसु जामेसु । | सत्तमट्ठाण-सप्तमस्थान-न । स्थानाङ्गस्य सप्तमेऽध्ययने , थोवं थोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइ तत्थ ॥५०४॥ स्था०८ ठा०३ उ०। यत् स्थविरकल्पिकानां पार्श्वत उत्तानकं वा त्वग्वर्स
सत्तमपब्व-सप्तमपर्वन्-न० भाद्रकृष्णपक्षे, स्था०६ ठा०३ उ०। नं यच्च कारणे त्रिषु यमिषु-प्रहरेषु स्वप्तव्यं-शयनं कारणभावे
(वर्णनमस्य पव्व' शब्दे पञ्चमभागे ७६८ पृष्ठ उपपादितम् ।) तु यस्तृतीयप्रहरे स्वप्तव्यं तत्सर्वमपि स्तोकं स्तोकं जयति; सत्तमा-सत्तमा-स्त्री०। सप्तम्यां नरकपृथिव्याम् , जी० ३ शनैः शनैरित्यर्थः। भयं च मूषिकादिजनितं यद्यत्रोपाश्रया- प्रति०१उ०। दिषु संभवति तत्तत्र जयति । अनच सत्त्वभावनायां पञ्च प्र. सत्तमासिया-सप्तमासिकी-स्त्री० । सप्तमासान् यावत्सप्तादतिमा भवन्ति ।
त्तिप्रमाणभिक्षाके साधुप्रतिक्षाविशेषे,प्रा००४मा औ०। ता एवाऽऽह
सत्तमी-सप्तमी-स्त्री० । सप्तसंख्यापूरके अहोरात्रे, ज्यो०४ पढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिं तइयाँ चउक्कम्मि। । पाहु० । प्रा०म० । डि-ओस् सुप् () रूपायां विभक्ती, सुनघरम्मि चउत्थी, तह पंचमिया मुसाणम्मि ॥५०॥
" सनिहाणे य सत्तमी" अनु० । सप्तसंख्यापूरके स्त्रीलिप्रथमा प्रतिमा उपाश्रये, द्वितीया उपाश्रयाहिः, तृतीया
केऽर्थे, द०प० स्था। चतुष्के-चत्वरे, चतुर्थी शून्यगृहे, पश्चमी श्मशाने। सत्तरस-सप्तदशन्-त्रि० । सप्ताधिकेषु दशसु,प्रक्षा०१५ पद । तत्र प्रथमां तावदाह
सत्तरसम-सप्तदश-त्रि० । सप्तदशसंख्यापूरके , चे० प्र०। भोगजढे गंभीरे, उब्वरए कोट्ठए मलिन्दे वा ।
८पाहु०॥ तणुसाइ जागरो वा, माणहाए भयं जिणइ ।। ५०६॥ सत्तरसाह-सप्तरसाह-पुं० । स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि,यानि निभोगजदे-अपरिभोग्ये गम्भीरे-सान्धकार उपाश्रयसत्केऽप- धानानि प्राप्य कल्किनृपः सर्वा सामग्रीमुत्पाद्य महाराजोबरकेधा कोष्ठके वा मलिन्दके वा तनुशायी-स्तोकनिद्रावान् भविष्यति । ती०२० कल्प। जागरित्वा निद्रामकुर्वन् ध्यानार्थ शुभाध्यवसायस्थैर्यहेतोः । सत्तरह-सप्तरथ-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे भविष्यति दशमे प्रसुप्तषु शेषसाधुषु कायोत्सर्गस्थितो भयं जयति ।
तीर्थकरे , स्था० १० ठा० ३ उ०। कथमित्याह-.
सत्तरि-सप्तति-स्त्री० । “सप्ततौ रः" ॥८।१।२१०॥ अ.. विकस्स व खइयस्स व, मृसिगमाईहि वा निसिचरेहि ।
नेनात्र तकारस्य रेफादेशः। सत्तरि । दशावृत्तायां सप्तसंजइजह सान वि जायइ, रोमंचुम्भय चाडो वा ॥५०७॥
ख्यायाम् , प्रा० । श्राव० । स्पृष्टस्य वा स्वादितस्य या मूषकैरादिग्रहणान्मार्जारादिभि
सत्तरिसत्थ-सप्ततिकाशाख-न०। षष्ठे कर्मप्रन्थे , कर्म । निशाचरैः-रात्रिपरिभ्रमणशीलैः, यथा सहसा नापि जायते रोमाश्चानेदः-भयोद्रेकजनितो रोमोर्डषः 'चाडो वा' पलायनं
" अशेषकर्माशतमः समूह-क्षयाय भास्वानिव दीप्ततेजा। तथा सस्वभावनयामा भावयिव्यः। उक्ला प्रथमा प्रतिमा ।
प्रकाशिताशेषजगत्स्वरूपः,प्रभुः स जीयालिनवर्द्धमानः॥१॥ अथ द्वितीयादिकाश्चतस्रोऽप्यतिदिशन्नाह
जीयाजिनेशसिद्धान्तो, मुक्तिकामप्रदीपनः ।
कुश्रुत्यातपतप्तानां, सान्द्रो मलयमारुतः॥२॥ सविसेसतरा बाहिं, तकरारक्खिसावयाईया ।
चूर्णयो नावगम्यन्ते, सप्ततेर्मन्दबुद्धिभिः । सुमघरमुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा ॥५०८॥ ततः स्पष्टावबोधार्थ, तस्याष्टीका करोम्यहम् ॥३॥ यान्युपाश्रयप्रतिमायां भयान्युक्तानि तान्युपश्रयादहिः प्रति- अहर्निशं चूर्णिविचारयोगान् , मायां सविशेषतराणि तस्करारक्षिकश्वापदादिभयसहिता- | मन्दोऽपि शको विकृति विधातुम् ।
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(३२) अभिधानराजेन्द्रः ।
सत्तरिसत्थ
निरन्तरं कुम्भनिक (घ) योगात्, प्रावाऽपि कृपे समुपैति घर्षिम् ॥ ४ ॥ " यत् शाखं प्रकरणं या सर्व तत् प्रेापापादेयं भवति नान्यत्, ततः सप्ततिकाण्यं प्रकरणमारभमाण श्राचार्यः प्रेज्ञायत प्रकरणविषये उपादेखि परिग्रहार्थे प्रकरणस्य सर्वधिन्मूलताम्, तथा सर्वचिन्मूलयेऽपि न प्रेक्षापूर्वकारिणोऽभिधयादिपरिज्ञानमन्तरेण यथाकथंचिस्प्रवर्त्तन्ते प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसङ्गात् । कर्म्म० ६ कर्म० । संप्रत्याचार्योऽनुद्धत्येनात्मनोऽल्पागमत्वं स्थापयन् शेबहुश्रुतानां च बहुमानं प्रकटयन् - प्रकरण परिपूर्णताविधिविषये तेषां प्रार्थनां विधान आहजो जत्थ अपडिपुनो, अत्थो अप्पागमेण बद्धो वि । तं खमऊ बहुसुषा, पूरेऊयं परिकदंतु ।। ७५ ।। श्चत्र सप्ततिकाख्ये प्रकरणे यत्र बन्धे उदये संत्तायां वा यो... •ऽर्थोऽपरिपूर्णः खण्डोऽल्पागमेनाल्पश्रुतेन मया बद्धो निबद्धः, इतिशब्दः समाप्तिवचनः, स च गाथापर्यन्ते वेदितव्यः, तमपरिपूर्णम सत्र पधादी ममा परिपूर्णार्थाभिधानलक्षमपराधे क्षमित्वा बहुश्रुता दृष्टिवादशाः प्रथित्वा तदर्थमति पाक गाथां प्रक्षिप्य शिष्य जनेभ्यः परिकथयन्तु साम स्त्येन प्रतिपादयन्तु । बहुश्रुता हि परिपूर्णशानसंभारसंपत्समन्यितया परोपकारकरकरसिकमान्सा भवन्ति ततो मम शिष्याणां च परमोपकारमा धित्सवस्ते ऽवश्यं ममाटापरिपूर्णभिधानमपराधं विषा परिपूर्णमर्थ पूर दिवा शिष्येभ्यः कथयतु
" निरुपममनन्तमनर्थ शिवपदमधिरूढमपगतफलम्। दर्शितशिवपुरमार्ग, वीरजिनं नमत परमशिवम् ॥ १ ॥ यस्योपान्तेऽपि संप्राप्यसंपदनयाः । नमस्त जिराभी वीरसिद्धान्तसिन्धवे ॥ २ ॥ यैरेषा विषमार्था, सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक् । अनुपकृतपरोप- चूर्णिकृतस्तानमस्कुर्वे ॥ ३ ॥ प्रकरणमेतद्विषमं सप्ततिकाव्यं विवृता कुशलम् यदचापि मलयगिरिणा सिद्धि तेमालोकः ॥ ७ ॥
तो मान- संयतानदम् । 'अशिक्षिनाण्यातं धर्म परममङ्गलम् ॥ ५ ॥ कर्म० ६ कर्म० । प्रश्न० । स० । सुत्तरिसभ सप्तर्षभ - पुं० [एकविंशतितमेऽहोरात्रमुद्र, स०
३० सम० ।
66
सत्तवश्य साप्तपदिक-पुं० सप्तभिः पवतीति साप्त पदिकः तथाविध व्यवहार ० ० १ ० (स तचाप सि-- (१३४ गाथा) श्रस्य व्याख्या- सप्तभिः पदैर्व्यबहरतीति साप्तपदिक:- संतपदिगो एगम्मि पचंतगामे एगो लग्गयमणुमो, साधुमाहरणादीणं न सुरोति, ए वा अलीगति, ण वा सेज्जं देति, मा मम धम्मं कहेहिन्ति, ताई मा सदओ होहामि ति । श्रण्णया कया तं गामं साहुको आगता डिस्सर्व मार्गति, ताई मोडिलपदि एसो न देति सि.सो षि पतेहि पवंचिश्रो होउ ति तस्स घरं चिंधि अं, जहां परिसो तारिलो सावगोति तस्स घरं जाह । तं ग
८१
सत्तसत्तमिया
ता ता दिजायचेय आढाति । तस्येण साडुगा जिदि वा चेच सो एसो, अहया पर्वाचितामोनि तं सोऊण पुच्छिता तेरा कथितं जहा ब्रम्ह कथितं परिसो तारिस सावगोत्ति। सो भणति श्रहो अकर्ज, ममं ताव प चतु। ता किं साधुको पर्वचिन्ति, ताहे मा सारता सि होउ ति भत्ति देमि पडिस्सयं एक्काए ववत्थाए, जदि मम धम्मं ण कद्देह, साहूहिं कहिये एवं होउ ति । दिराणं घरं, व रिसारते वित्ते श्रपुच्छतेहिं धम्मो कहिओ । तत्थ ण किंचितर घेतं मूलगुणउत्तरगुणां मधुमज़मंसविरति वा । प
तपदिवर्ष दिरा-मारेउकामे जाइकाले सतपदा श्रोत व कालं पडलं मारेयध्वं । संबुभिस्संति त्ति काउं, गता । श्ररण्या चोरो (श्रो) गतो, श्रवस उणं श्रित्तो, रति सणिनं घरं पति । तद्दिवस च तस्व भगिनी अगर शिक्षा, सा पुरिसपरिया भावजायाए समं गोज्झपेक्खिया गया। ततो चिरेण आगया, शिद्दकंताओ तद्देव एक्कम्मिं चैव सयणे सइयाश्रो इअरो अ आगओ । ततो पेच्छति, परंपुरिसोति श्रसिं करिसित्ता श्राहमि शिवतं सुमरिये । ठितो सत्तपदंतरं । एत्रम्मि अंतरे भगिणी से बाहा भज्जाप अकंतिश्रा । ताए दुक्खाविज्जंतियाए भ दिला ! यदि बादाओं में सीसं तेरा सरेण गाया भगिणी एसा मे पुरिस जातो अहो मा मए कजं न कयंति। उवमाओ जहा सावगभज्जाए, संबुद्धो, विभासा, पव्वश्रो । श्राव० १ अ० । सत्तवच्छ-सप्तवत्स ५० लोमविशेषेा० १ पद सत्तविहबंधंग- सप्तविधबन्धक - पुं० । सप्तप्रकार कर्मोपार्जके, पञ्चा० १६ विव० ।
सतसत मिया - सप्तसप्तकि (मि) का स्त्री० सप्तसप्तकदिनानि यस्यां सा सप्तसप्तकिका सप्तशब्दककारस्य मकारः प्राकृतत्वात् । अथवा - सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा, यस्यां हि सप्त. दिनसप्तमकानि भवन्ति । प्रव० २७१ द्वार । सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्त के दिन सप्तकैर्यथोचरवर्द्धमानदत्तिभिर्निष्यको प्रतिमाभेदे, स्था० ७ ठा० ३ उं० ।
सूत्रम् -
समिया भिक्खुपडिमा एगूर्ण पचए राईदिए हिं एगेण छष्उणं भिक्खासणं अहासुतं (हाकप्पं अहामri हातचं अहासम्मं फासिया पालिया तीरिया किडिया ) अपालिया भव ।। ३१ ।।
अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहसागारियग्गहणे, अनाउञ्छं फुडं समक्खायं । सो होति ऽभिग्गही खलु पडिमाऽऽअभिग्गहो चैत्र ७४ । अमाउञ्छविसुद्धं घेत्तव्यं तस्स किं परीमाणं । कालम्मिय भिक्खा य इति पडिमा सुतसंबंधो ॥७५॥ पूर्वसूत्रेषु सागारिक पिएडो न ग्राह्य इत्युक् सामारिक पिडाप्रस्फुटमा खलु भवत्यभिप्रद प्रतिमाद्य
१-० जाव अपालिया भव ॥ ३१ ॥
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सत्तमत्तमिया अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तसत्तमिया भिग्रह इत्यभिग्रहप्रस्तावात्सागारिकसूत्राऽनन्तरं प्रतिमा- अष्टाएकिकायाश्चतुःषष्टिः, नवनयकिकाया एकाशीतिः, दशसूत्रस्योपनिपातः । अथवा-अन्यथा संबन्धः सागारिक- दशकिकायाः शतं रात्रिन्दिवानां बोव्य, सर्वप्रतिमानामपिण्डप्रतिषेधतोऽक्षातोञ्छविशुद्धं ग्रहीतव्यमित्याख्यातं, त- धिकृतसूत्रचतुष्टयोपेतानामेष एतावान् भवति कालः। स्य भिक्षाकालेषु किं परिमाणमिति प्रश्नावकाशमाशङ्कय प्र.
कथं पुनः सप्तकिका भवतीत्यत आहतिमासूत्रमुपन्यस्तवान् , एष प्रतिमासूत्रसम्बन्धः । अनेन स- पढमाए सत्तगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए । म्बन्धनायातस्यास्य(सू०३१)व्याख्या-सप्तसप्तका दिनानां य- एककं गेएहई भिक्खं, बिइए दोलि दोसि तु ॥८॥ स्याः सा सप्तसप्तकिका,सप्तकशद ककारस्य मकारः प्राकृत एवमेकेक्कियं भिक्खं ,छभिजेकेक सत्तगे। त्वात् , 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे। भितुप्रतिमा एकोनप
गेएहती अन्तिमो जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे ॥१॥ ञ्चाशता रात्रिन्दिवैकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन यथा सू
प्रथमायां प्रतिमायां सप्त सप्तका भवन्ति । तत्र प्रथमे त्रं सूत्रानतिक्रमेण यावत्करणात्-"अहामग्गं अहातचं श्र
सप्तके प्रतिदिवसमेकैकां भिक्षां गृह्णाति, द्वितीये सप्तके हासम्म फासिया पालिया तीरिया किट्टिया अणुपालि
प्रतिदिवसं द्वे द्वे भिक्ष, एवं तृतीयादिषु सप्तकेय कैकेषु या भवइ” इति-परिग्रहस्तत्र यथाकल्पं-यथाविधि सूत्रो
एकैकां भिक्षामधिको प्रक्षिपेत् यावदन्तिमे सप्तके दिने विध्यनतिक्रमेणत्यर्थः , यथामार्ग-ज्ञानदर्शनचारित्राणा
सप्त सप्त भिक्षा गृह्णाति । इयमत्र भावना-तृतीये सप्तके मविराधनन 'अहातच्च' ति-याथातथ्यमकान्ततः सूत्रा
प्रतिदिवसं तिनस्तिस्रो भिक्षा गृह्णाति . चतुर्थे चतस्रनुसारेणापादितसत्य(त्य)ताकं 'श्रहासम्म' यथासम्यक् त्रि
श्चतस्रः, पञ्चमे पञ्च पञ्च,षष्ठे षट् षद् ,सप्तमे सप्त सप्तति । विधेनापि योगेनाऽपरिताम्यता सम्यक्करणस्फर्शिता सेविता
अत्रैव प्रकारान्तरमाहपालिता विराधनारक्षणतः; अत एव शोधिता अतीचारले
अहवा एक्किक्कियं दत्ति, जा सत्तेकेकसत्तए । शनाप्यकलङ्कनात् । तारिता-तीरं नीता; पर्यन्तं नीता इत्यर्थः। कीर्तिता-श्राचार्याणां कथिता, यथा प्रतिमा मया समाप्ता
आदेसो अस्थि एसो वि, सीहविक्कमसत्रिभो ॥२॥ आशया तीर्थकरोपदेशेन अत्र पालिता भवति । एवम
अथवा-एष द्वितीयोऽप्यादेशोऽस्ति,यथा एकैकस्मिन् सटाटकिका-नवनचकिका-दशदशकिका-सूत्राण्यपि भावनी
. प्तके प्रत्येकं प्रथमदिनादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकां बर्द्धयानि । विशेषस्तु पाठसिद्धः , एष सूत्रचतुष्टयसंक्षेपार्थः ।
येत् यावत्सप्तमे दिवसे । इयमत्र भावना-प्रथमे सप्तके
प्रथमे दिवसे एकां भिक्षां गृह्णाति,द्वितीये द्वे, तृतीये तिअहसुत्त सुत्तदेसा, कप्पो उ विधीय मग्ग नाणादी।।
स्रः, चतुर्थे चतस्रः, पञ्चमे पञ्च, षष्ठे षट् , सप्तमे सप्त,एवं तचं तु भवे तत्थं, सम्म जं अपरितंतेणं ।। ७६ ॥ द्वितीय तृतीये चतुर्थे पञ्चमे षष्ठे सप्तमे च सप्तके द्रष्टफासिय जोगतिगेणं,पालिय मविराहिय सोहितेमेव । व्यम् । एष आदेशः सिंहविक्रमसन्निभः, यथा-सिंहो गत्वा तीरियमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकरण जिणमाणा॥७७॥
गत्वा पृष्ठतः प्रलोकयते एवमेषोऽपि सप्तके पुनर्मूलतः
परावर्तते । गतः कालच्छेदः। यथासूत्रमिति सूत्रादेशात् यथाकल्पमित्यत्र कल्पो-वि
सम्प्रति भिक्षापरिमाणमाहधिर्यथामार्गमित्यत्र मार्गो-शानादि, यथातथ्यमित्यत्र 'तचं'नाम तथ्य,यथासम्यगिति सम्यग् नाम यदपरिताम्यताकरणं
छन्न उयं भिक्खसय, अट्ठासीया य दो सया हुँति । स्पर्शिता योगत्रिकैण सविता पालिता अविराधिता शोधि
पंचुत्तरा य चउरो, अद्धच्छ8 सया चेव ॥८३|| ताऽप्येवमेयः अविराधनेनैवेत्यर्थः, तोरिता-अन्तं प्रापिता |
सप्तसप्तकिकायां भिक्षापरिमाणं षण्णवतं शतम् १६६, कीर्तिता-गुरूणां कथनतः श्राशा जिनस्य-तीर्थकृतः, द्विती
श्रष्टाऽएकिकायामष्टाशीते द्वे शते २८८ भिक्षाणाम् , नवनवया षष्ट्यर्थे प्राकृतत्वात् ।
किकायां पश्चोत्तराणि चत्वारि शतानि ४०५ देशदशकिकापडिमाउ पुव्वभणिया, पडिवजह कोतिसंघयणमादी।।
यामर्द्ध षट् शतानि भिक्षाणामिति।।
सम्प्रत्यस्यैव भिक्षापरिमाणस्यानवरं पुण णाणत्तं, कालच्छेए य भिक्खासु ।। ७८ ।।
नयनाय करणमाहप्रतिपद्यते, प्रतिमा भिक्षोः प्रतिमाः पूर्वमाचारदशासु भ
उद्दिट्ठवग्गदिवसा, मूलगुणा संजया दुहा छिन्त्रा। णिताः ताः कः प्रतिपद्यते, तत पाह-'तिसंघयणं' ति-श्रा
मूलेणं संगुणिया, माणं दत्तीण पडिमासु ||४|| येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतरसंहननोपेतः चतुर्थादिषु संहननेषु वर्तमान न प्रतिपद्यते, आदिशब्दात्-सोऽपि सूत्रार्थ
पदगयसु बेयसु-त्तरसमाहयं दलियमादीणा। तदुभयोपेतो गच्छत् कृतपरिकर्मा सातिशयो न निरतिशय
सहियं गच्छगुणं पडि-माणं भिक्खमाणं मुणेयव्वं॥५॥ इति परिग्रहः, तृतीयं च संहननं यावदार्यरक्षितास्तावदनु
उद्दिष्टा ये च वर्गाः सप्तसप्तकिकादयस्ते दिवसा वृत्तं तत भारतो व्यवच्छिन्नम् । नवरं पुनर्नानात्वमत्र का
मूलदिनसंगुक्ताः, सप्तादिदिनसन्मिश्राः फ्रियन्ते, तदलच्छेदे भिक्षासु च।
नन्तरं द्विधाछिन्मा अक्रियन्ते इति भावः । ततो तत्र कालच्छेदमाह
मूलेन सप्तादिलक्षणेन संगुण्यन्ते , संगुणिताः प्रतिएगूणपन्ने चउस-द्विगासीती य सयं च बोद्धव्यं । । मासु दतीनां मानं-परिमाणं भवति । तद्यथा-सप्तसब्बासि पडिमाणं, कालो एसो त्ति तो होइ ।। ७६।। सप्तकवादवर
सप्तकवर्गदिवसा एकोनपञ्चाशत् ४६, ते मूलदिनः ससप्तरसप्तकिकायाः कालम् एकोनपश्चाशत् रात्रिन्दिवानि, अद्ध छट्ट। सया चेव इतिपाठान्तरे। -दरादश किकाया मर्धमानि(५५०)
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(३२३) सत्तमत्तमिण अभिधानराजेन्द्रः।
सन्ता प्सभिर्यताः क्रियन्ते जाताः षट्पञ्चाशत् ५६,ते अःक्रियन्ते सनसार--मप्रसार-पं० । दृढांशे, “सत्तसारो दुविहो-बाहो जाता माविंशतिः २८, सा मूलेन सप्तकेन गुण्यते आगतं |
गुरुतं श्रब्भतरो णाणादी" श्रा० चू०१०।। परणवतं शतम् १६६,तथा अष्टाष्टकवर्गदिवसाश्चतुःषष्टिः ६४,
सत्तसीस-सप्तशीर्ष--पुं० । शिखरितलपर्वतकूटस्वामिनि नाते मूलदिनैरएभिः संमिश्रयन्ते जाता द्वासप्ततिः ७२, सस्या भई क्रियते जाता षट्त्रिंशत् ३६, सा मूलेनाष्टकेन गुण्यते
गकुमारदेवे द्वी। भागते वे शते अष्टाशीते २८८, एवं नवनवकिकायां दशद
सत्तहत्तरि-सत्तसप्तति-स्त्री० सप्ताधिकायां सप्ततिसंख्याशकिकायां च यथोक्नं भिक्षापरिमाणमानेतव्यम्।
याम् , स०७६ सम०। अत्रैव करणान्तरमाह
सत्ता-सत्ता-स्त्री० । सामान्ये, विशे० । विशेषण सदबुगच्छुचरसंविग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे आदि ।
द्धिवेद्येष्वपि सर्वपदार्थेषु द्रव्यादिष्वेव त्रिषु सत्तासंअंतिमघणमादिजुयं, गच्छद्धगुणं तु सव्वधणं ॥८६॥
बन्धः स्वीक्रियते, न सामान्यादित्रये इति महतीयं पश्य
तो हरता, यतः परिभाव्यतां सत्ताशब्दार्थः । अस्तीति गच्छे उत्तरेण संवर्गे संवर्यते स्म संवर्गो गुणित इ
सन् सता भावः सत्ता-अस्तित्वं-तद्वस्तुस्वरूपं तच्च निर्विस्यर्थः। तस्मिन् उत्तरेण हीने कृते आदि प्रक्षिपेत् ततः अन्तिमधनमागच्छति, तदन्तिमधनम् आदियुक्त क्रियते,
शेषमशेषेष्यपि पदार्थेषु त्वयाऽप्युक्तम् , तत्किमिदमर्द्धजरसदनन्तरं गच्छार्द्धगुणं ततः सर्वधनमागच्छति । तत्र स
तीयं यद् द्रव्यादित्रय एव सत्तायोगो नेतरत्रये इति, अनुससप्तकिकायां सप्त आदिः , सप्त उत्तरं, सप्त गच्छः, त
वृत्तिप्रत्ययाऽभावान्न सामान्यादित्रये सत्तायोग इति चेत् ,
न तत्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्याऽनिवार्यत्वात् । पृथिवीत्वगोत्वघतः सप्तकलक्षणो गच्छ उत्सरेण सप्तलक्षणेन गुण्यते । जाता एकोनपञ्चाशत् ४६ , सा उत्तरेण सप्तकेन हीना
टत्वादिसामान्येषु सामान्य सामान्यमिति विशेषेष्वपि बक्रियते , कृत्वा च पुनरादिना सप्तकेनैव युता कर्त्तव्या ।
हुत्वादयमपि विशेषोऽयमपि विशेष इति , समवाये च प्राइदं करणमन्यत्रापि व्यापकं तत एवमुक्तमन्यथा चोत्तर
गुनयुक्त्या तत्तदवच्छेदकभेदाद-एकाकारप्रतीतेरनुभवात् हानावादिप्रक्षपे च न कश्चिद्विशेषस्तस्या एव एकोन
स्वरूपसत्त्वसाधर्येण सत्ताध्यारोपात्सामान्यादिष्वपि सत्स पञ्चाशतो भावात् । एतत् अन्तिमधनं सप्तमे सप्तके भिक्षा
दित्यनुगम इति चेत्तर्हि मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते । अथ भिन्न परिमाणमित्यर्थः, तस्मिन् उत्तरेण हीने कृते आदि प्रक्षि
स्वभावेष्वेकानुगमो मिथ्यैवेति चेद् , द्रव्यादिष्वपि सत्ताध्या. पेत् , ततः अन्तिमधनमागच्छति , सदन्तिमधनमादियुतं
रोपः कृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः। असति मुख्येऽध्यारोपस्याक्रियते, तदनन्तरं गच्छार्द्धगुण, ततः सर्वधनमागाच्छति ।
संभवाद-द्रव्यादिषु मुख्योऽयमनुगतःप्रत्ययः सामान्यादि. तत्र सप्तसप्तकिकायां सप्त प्रादिः, सप्त उत्तरं, सप्तग
षु तु गौण इति चेत् । न, विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात् च्छः, ततः सप्तकलक्षणो गच्छ उत्सरेण सप्तकलक्षणेन गु
सामान्यादिषु बाधकसंभवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययः , द्रएयते; एतत् श्रादिना सप्तकेन युतं क्रियते । जाता:
व्यादिषु तु तदभावान्मुख्य इति चेद् ननु किमिदं बाधकम् । षट्पञ्चाशत् स गच्छार्द्धन गुण्यते, अत्र गच्छः सप्तकः स
अथ सामान्येऽपि सत्ताऽभ्युपगमेऽनवस्था विशेषेषु पुनः विषमत्वावर्ड न प्रयच्छति ततो गुणो राशिः षड्पञ्चा
सामान्यसद्भावे वरूपहानिः,समवायेऽपि सत्ताकल्पने तद्शल्लक्षणोऽर्जीक्रियते, जाता अष्टाविंशतिः, सा परिपूर्णे
वृत्त्यर्थ सम्बन्धान्तराभाव इति बाधकानीति चेत् न, सामा म सप्तकलक्षणेन गच्छेन गुण्यते जातं षरणवतं शतम् १६६ ।
न्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था तर्हि कथं म सा द्रव्या' व्य० उ० औ० । स०। प्रव० । अन्त ।
दिषु तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात् । विसत्तसचमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरति ,
शेषषु पुनः सत्ताभ्युगमेऽपि न स्वरूपहानिः स्वरूपस्य प्र
त्युतोत्तेजनात् , निःसामान्यस्य विशेषस्य कचिदप्यनुपलपढमे सत्तए एकेकं भोयणस्स दत्ति पडिगाहेति एक्ककं
म्भात् । समवायऽपि समवायत्वलक्षणायाः स्वरूपसत्तायाः पाणयस्स । दोश्च सत्तए दो दो भोयणस्स दो दो पा- स्वीकारे उपपद्यत एवाऽविष्वग्भावात्मकः सम्बन्धः , श्रणयस्स पडिगाहेति । तच्चे सत्तते तिमिण भोयणस्स न्यथा तस्य स्वरूपाभावप्रसङ्गः, इति बाधकाभावात्तेष्वपि तिरिण पाणयस्स, चउत्थे सत्त० ४ पंचमे सत्त० ५ छठे
द्रव्यादिवन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः; इति व्यर्थ द्रव्यगुण
कर्मस्वेव सत्ताकल्पनम् । कि च-तैर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रये सत्सए सत्समे सत्तते सत्तरदत्तीतो भोयणस्स पडिगाहेति
मुख्यः सत्तासंबन्धः कक्षाकृतः सोऽपि विचार्यमाणो विसन पाणयस्स । एवं खलु एयं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिम शीर्येत, तथा हि-यदि द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा सएगणवमासे राइदिएहिं एगेण य छाउएणं भिक्खासतेणं ता तदा द्रव्यादीन्यसदूपाण्येव स्युः सत्तायोगात्सत्त्वमअहासुत्ता. जाव पाराहेत्ता। अन्त० - वर्ग ३ १०।
स्त्येवेति चेद् , असतां सत्तायोगऽपि कुतः सत्त्व ?, सतां तु
निष्फलः सत्तायोगः । स्वरूपसव भावानामस्त्येवेति चेत्तर्दि सत्तसत्तिकया-सप्तसप्तैकिका-स्त्री० । सताध्ययनात्मिकायां
किं शिखण्डिना सत्तायोगेन?। सत्तायोगात्प्राम्भायोन सन् , द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयचूडायाम् , आचा० १ श्रु०१ | नाप्यसन सत्तायोगात्तु सन्निति चेद्वाङ्मात्रमेतत् । सदसघ०१ उ०। प्रश्न।
द्विलक्षणस्य प्रकारान्तरस्याऽसंभवात् तस्मात् ' सतामपि सत्तसरसमभागय-सप्तस्वरसमन्वागत--त्रि० । षड्जादिसप्त- स्यात्कचिदेव सत्ता' इति तेषां वचन विदुषां परिषदि कथमिव स्वरान् सम्यगनुगते, जं०१घना
मोपहासाय जायते । स्या० ) द्रव्यगुणकर्मलक्षणेषु त्रिषु प. .
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( ३२४ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
सत्ता
दार्थेषु सद्बुद्धिहेतुः सत्ता । श्र० म०१ अ० । स्या० । ("त्रि पदार्थसत्करी सत्ता" इति वचनात् सत्ताभ्युपगमः 'सामा' शब्देऽस्मिन्नव भागे साधयिष्यते) उत्पाव्ययीव्ययुक्तं सत् । स्या० । ( श्रत्रत्या वक्तव्यता ' अगंतवाय ' शब्दे प्र थमभागे ४२५ पृष्ठे गता ।) (अयमेवार्य: अर्थक्रियाकारित्व लक्षणं सस्वमभ्युपगणिकवादिनां दूषणमुद्भाय्यजातिलक्षणं सत्यं सम्मतितके प्रपञ्चेन साधिततावगन्तव्यम् ।) सम्म०) ('समवाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे तत्वएडनावसरे सत्तासरनमन कारिच्येते । द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता पर सामान्यम् । सूत्र० १ ० १ श्र० २ उ० । सद्भावे, सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० । श्रा० म० । सत्तानां यत्र ग्रामे नगरे वा भाजनानि सन्तीति प्राकरणिकोऽर्थः । वृ० ३ उ० । सद्भावः सत्ता | क० प्र० १ प्रक० । कर्म्मपुद्गलानां बन्धसंक्रमाभ्यां सम्धात्मलाभानां निरस कम कृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सति सद्भावे, कर्म्म० ५ कर्म० । बन्धसमयात् संक्रमेणात्मलाभसमयादारभ्य यायचे कर्मपरमाथी नान्यत्र संकम्पले याचा न क्षयमुपगच्छन्ति तावत्तेषां स्वरूपेण सद्भावे, कर्म्म०६ कर्म० । सालक्षणम्-सत्तामाश्रित्य गुणस्थानेषु कर्मक्षच । अथ सत्तालक्षणकथनपूर्वकं यथा तेन भगवता त्रिलोकाधिपतिना श्रीमद्वर्द्धमानस्यामिना सत्तामाश्रित्य गुणस्थानेषु कर्माणि क्षपितानि तथा प्रतिपादयन्नाद्दसत्ता कम्माण ठिई बंधाई लअत्तलाभाणं ।
संते डालसयं, जा उवसमुविजिणुबियतइए ||२५|| सत्ता उच्यते इति शेषः किमित्याह-- कर्मणां ज्ञानावरणादियोग्य परमाणूनां स्थितिरवस्थानं सद्भाव इति पर्यायाः । किं विशिष्टानां कर्मणामित्याह -- बन्धादिलब्धात्मलाभानां तत्र मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः कर्मयोग्यपुङ्गलैरात्म
यहपयः पिण्डवदन्योन्यानुगमाभेदात्मकः संबन्धोबन्धः, आदिशब्दात् -- संक्रमकरणादिपरिग्रहः । ततो पन्धादिभिर्लब्धः प्राप्त श्रात्मलाभ- आत्मस्वरूप देतानिबन्धादिलब्धात्मलाभानि तेषां बन्धादिलब्धात्मलाभानां कर्मणां या स्थितिः सा सत्ता तस्याम् । 'संत' त्ति सत्क मणि सत्तायामष्टाचत्वारिंशं शतं प्रकृतीनां भवति । कियन्ति गुरुस्थानानि यावदित्याह जा उपसमु 'ति यावदुपशममुपशान्तमाहम् । अयमर्थः मिथ्यागुिरुस्थानात् प्रभृत्युपशान्तमोगुणस्थानं यावदत्थारिशे शतं सभायां भवति, किमविशेषेणेत्याह-' विजिरणुबियतइए ' त्ति-विगतं जिननाम यस्माद्विजिन-जिननामविरहितं तदेवाशाचस्वारिंशं शतं भवति केल्याह-द्वितीये सास्वादने तृतीये मिश्रदृष्टी " सासणमिस्सरसि वा तित्थमि " ति बच नासू सास्पादनमियोः सप्तचत्वारिंशं शतं भवतीत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्- मिथ्याऐरवरवारिशमपि शर्त सत्तायां यदा हि प्राग्यद्धनरकायुः क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमबाप्य तीर्थकरनाग्म बन्धा तासी नाय मानः सम्यक्त्वमवश्यं वमतीति । मिथ्याहऐस्तीर्थकरनास्नोऽपि सम्भवति, सास्वादनमिवोस्तु तस्मिन्नेव जिननामरहिते सप्तचत्वारिंशं शतं सत्तायां जिननाम सत्कर्मणो जीवस्य तद्भावानवाप्तेस्तद्बन्धारम्भस्य च शुद्धस
सत्ता माध्ये" तिरथरण
विहीं, सीयालसयं तु संतए होइ । सासायम्मि उ गुणेसम्मामीसे य पयडीगं ॥ १ ॥ " अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनामक्षिप्तदर्शन सप्तकानामष्टचत्वारिंशस्यापि शतस्य सत्ता सस्भवतीति ।
अप्पुव्वाश्चउके, अणतिरिनिरया उ विणु विश्वालसयं । सम्माइचउस सत्तग- खयम्मि इगचत्तसयमहवा ||२६|| गाथापर्यन्तवर्त्यथवाशब्दस्य संबन्धात् पूर्व तावदष्टचत्वारिंशं शतं सत्तायामुक्तम् । श्रथवा श्रयमपरः सत्तामाश्रिभेदः तथाहि पूर्वादिचतुष्के अपूर्वकरणानिवृतियादरसूक्ष्म संपरायोपान्तमादस्वरूपे सि अनन्ता नुबन्धिचतुष्कम्, तिरिमिराउ स आयुः शब्दस्य प्र त्येकं योगातिर्यगायुर्नरका विना द्विचत्वारिश श भवतीति । अयमाशयः यः कश्चिद्विसंयोजितानन्तानुबन्धिचतुष्को बद्धदेवायुर्मनुजायुषि वर्त्तमान उपशमश्रेणिमारोहति, तस्य तिर्यगाथुर्नरका युरनन्तानुबन्धिचतुफलप्रकृतिप रहितं शेषं द्विचत्वारिंशं शतं सत्तायां प्राप्यते यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवभाष्ये" अतिरिनारयरहियं वावालसव विमाणसंतम्मि । उवसामग्गस्स पुव्वा, नियट्टि सुहमोवसंतमि ॥ १ ॥ " "सम्माइचउसु ति इत्यादि, सम्यक्त्यादि चतुर्षु अविरतसम्यगृष्टिदेशविरतप्रमताप्रमतेषु सत्तमखर्याम्म'ति श्रनन्तानुबन्धिचतुष्क मिथ्यात्वमिश्र सम्यक्त्वलक्षणसप्तकक्षये सत्येकचत्वारिंशं शतम् । अथवा सत्तायां भवति । इहाप्यथवाशब्द आवृत्त्या योज्यते, यदुक्तं बृहत्कस्तवस्त्रे "अमिमीसम्म, अविरयसम्म प्पमत्तता ।" इति ।
5
C
खवगं तु पप्प चउसु वि, पणयालं नरयतिरिसुरा उ विणा । सतगविणु अडतीसं, जा अनियट्टी पढमभागे ||२७|| क्षपकं तुः पुनरर्थे, क्षपकं पुनः प्रतीत्य- श्राश्रित्य चतुर्ष्वपि श्रविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु 'पण्यालं' ति पञ्चचत्वारिंश शतम् । श्रथवा भवत्यथवाशब्द इहापि संवध्यते । कथमित्याह 'नरयतिरिसुराउ विण' त्ति - श्रायुः शब्दस्य प्रत्येकं यो. वानरका स्तियंगासुरायुर्विनान्तरण । इदमुकं भवतियो जीयो नारतिकरेषु चरमं तद्भयमनुभूय मनुष्यतयोत्पन्नस्तस्य नारकतिये कुसुरायूंषि स्वस्वभवे व्यव--- सिताकानि जातानि पुनस्तदनवांसः उऊंच
सुरनरतिरिय श्राउं, निययभवे सव्यंजीवाणमिति " इयं चैतेषु गुणस्थानेषु सामान्यजीवानां सम्भयमाधित्यसतानि त्वधिकृतस्तवस्तुत्यस्य चरमजिनपरिवृढस्यत् अस्याः सुरनारकतिर्यगायुः संभवापेक्षणीयत्वा जिनस्य च तदसंभवात् तस्यापि च प्राग्भवापेक्षा चान्यः इदमेव पञ्चत्वारिंशतं सतकमनन्तानुयन्धिमि थ्यात्वमिश्र सम्यक्त्वाख्यं विना श्रष्टाविंशं शतं भवति । कियति गुणस्थानानि यायादित्याह जा अनिपट्टी पडमभागु सिरहानिनिवादा नवभागाः क्रियन्ते ततोऽविरते देशविते ममते निवृत्तिवादऽनिवृत्तिवादरस्य च प्रथमो भागस्तावदष्टात्रिंशं शतं भवति, उक्तं च-"संते ड्यालसयं, खवगं तु पश्च होइ पण्यालं । श्रउतिगं न
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( ३२५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः |
सत्ता
स्थितर्हि, सत्तगखीम्मि अडतीसं ॥ १ ॥ पण्यालं श्रडतीसं श्रविरयम्माउ अप्पमत्तो त्ति । श्र(पु) पुव्वे अडतीसं नवरं खवगम्मि बोधव्वं ॥ २ ॥ " इति ।
अथ
क्षपकणिमधिकृत्यानिवृत्तिबादरादिषु प्रकृतिसत्ता वयेते, उपशमश्रेणिसत्तायास्त्विह नाधिकार इतिथावरतिरिनिरया य व दुगधीणतिगेगविगलसाहारं । सोल खो दुवीससयं, वियंसि वियतियकसायंतो २८ । इहानिवृत्तिवादरस्य प्रथमे भागे अष्टात्रिंशं शतं सत्तायां भवति, तत्र च ' थावरतिरिनिरया य व दुग' त्ति-द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् स्थावरद्विकं स्थावर सूक्ष्मलक्षणं तिर्यक् द्विकं तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी रूपं नरकद्विकं नरकगतिनरकानुपूर्वीलक्षणमातपद्विकमातपउद्योताख्यं 'थी गतिग'त्तिस्त्यानर्द्धित्रिकं निद्रानिद्राप्रचलाप्रचला स्त्यानर्द्धिलक्षणम् 'एगति - एकेन्द्रियजातिः, 'विगल'त्ति विकलेन्द्रियजातयां द्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिलक्षणः 'साहारं ' ति-साधारणनामेत्येतासां षोडशानां प्रकृतीनां क्षयः सत्तामा श्रित्य भवति, ततोऽनिवृत्तिबादरस्य द्वयंशे- द्वितीयभागे द्विविंशं शतं भवति । तत्र बियतियकसायं तु'त्ति-कषायशब्दस्य प्रत्येकं योगात् द्वितीयकपाया अप्रत्याख्यानाचरणाः चत्वारः तृतीयकषायाः प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वार इत्येतासामष्टानांप्रकृतीनामन्तः क्षयस्ततस्तृतीयांऽशे चतुर्दश शतं भवतीति । एतदेवाह - नाइस चउदसते-र वारछपणच उतिहियस्यकमसो । नपुइत्थिहासछगपुं-सतुरियकोहमयमायख ॥ २६॥ तृतीयादिषु भागेषु चतुर्दश च त्रयोदश च द्वादश चं पद च पञ्च च चत्वारि च त्रीणि चेति द्वन्द्वस्तैरधिकं शतं 'तिहिय
य इत्यत्रा कारलोपो विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् क्रमशः-मेण सत्तायां भवति, कथमित्याह-' नपुंइत्थि' इत्यादि नच-नपुंसकवेदः स्त्री च स्त्रीवेदः हास्यपट्कं च-हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यं पुमाँश्च पुंवेदः नपुंस्त्रीहास्यपट्कपुमांसः क्रोधश्च - कोपः मदश्च मदो मानोऽहङ्कार इति पर्यायाः, माया च- निकृतिः क्रोधमदमायास्तुर्याः चतुर्थाः संज्वलनाः क्रोधमदमायाः, तुर्यक्रोधमदमायाः नपुंस्त्रीहास्वषट्पुमांसश्च तुर्य क्रोधमदमायाश्च नपुंस्त्री हास्यपटुतुर्यक्रोधमदमायास्तासां क्षयो नपुंस्त्री हास्यषद्वपंतुर्य क्रोधमत्मायाक्षयः 'मायखओ' इत्यत्र हस्वत्वं " दीर्घहस्वौ मिथोवृत्ती " ८|१|४| इत्यनेन प्राकृतसूत्रेणेति गाथाक्षरार्थः|भावार्थस्त्वयम्अनिवृत्तिवादरस्य तृतीये भागे द्वितीयतृतीयकपाया कक्ष चतुर्दशाधिकं शतं चतुर्थभागे नपुंसकवेदक्षये त्रयोदशाधिकं शतं पञ्चमे भागे स्त्रीवेदक्षये द्वादशाधिकं शतं, षष्ठे भागे हास्यपक्षये पडधिकं शतं सप्तमे भागे पंवेदक्षये पञ्चाधिकं शतम्, श्रष्टमे भागे संज्वलनक्रोधक्षये चतुरधिकं शतं नवमे भागे संज्वलनमानक्षये त्र्यधिकं शतं, संज्वलनमायाज्ञये तु द्वयधिकं शतं सत्तायां भवति, तच्च सूक्ष्मसंपराये ।
तथा वाह
सुमि दुसयलोहं तो, खीण दुचरिमेगस दुनिद्दखश्रो । नवनवइ चरमसमए, चउदंसणनाणविग्घंतो ॥३०॥
८२
For Private
ससा
'सुहुमि ति सूक्ष्म संपराये द्विशतं द्वाभ्यामधिकं शतं सत्तायां भवति, तत्र च लोभान्तः संज्वलन लोभस्य क्षयस्ततः' खीणदुरिमेगसउ' ति-क्षीणमोहद्विचरम समये एकशतमेकाधिकं शतं सत्तायां तत्र च ' दुनिद्दखओ' तिनिद्राप्रचलयोर्द्वयोः क्षयो भवति, ततो नवनवतिश्वरम समये क्षीणमोह गुणस्थानस्येति शेषः, तत्र चत्वारि च तानि दर्शनानि च चतुर्दर्शनानि चक्षुरचक्षुरवधिकेच लदर्शनावरणाख्यानि ज्ञानानि - ज्ञानावरणानि मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञा नावरणलक्षणानि पञ्च विघ्नानि--दानलाभभोगोपभोगवीर्यविरूपाणि पञ्च तेषामन्तो भवति ततः ।
पणसीइ सजोगी अजो-गिदुचरिमे देवखगइगंधदुगं । फासवन्नरसतणु-बंध संघ ( यपण निमिणं ।। ३१ ।। पञ्चाशीतिः सयोगिकेवलिनि सत्तायां भवति, ततः जागि दुरिमे ' त्ति - श्रयोगिकेवलिनि द्विवरमसमये इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनां क्षयो भवति, ता एवाह - देवखगहगंधदुगं ति-द्विकशब्दस्य प्रत्ये
कं योगात् देवद्विकं - देवगतिदेवानुपूर्वी रूपम् खगतिद्विकंशुभविहायागत्यशुभविहायोगतिरूपं गन्धद्विकं सुरभिगन्धासुरभिगन्धाख्यं फासट्ठ' त्ति-स्पर्शाष्टकं गुरुलघुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरुक्षाख्यम् ' वन्नरसतणुवंधण संघाय पण त्ति- पञ्चकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् वर्णपञ्चकं कृष्णनीललोहितद्दारिद्रशुक्लाख्यम्, रसपञ्चकं-तिक्क्रकटुकषायाम्लमधुररूपम्, तनुपञ्चकम् श्रदारिकवैक्रियाहार कतै जसका
तनुलक्षणम्ः एवं तनुनाम्ना बन्धनपञ्चकम्, -संघातनपश्ञ्चकं च वाच्यम् ' निमिण ' त्ति-निर्माणमिति ।
4
संघयणअथिरसंठा-गछक अगुरुलहु चउ अपजतं । सायं व सायं वा, परित्तुवंगतिगसुसरनियं ॥ ३२ ॥
शब्दस्य प्रत्येकं योगात् संहननपटुं वज्रर्षभनाराचऋषभनाराच नाराचार्द्धनाराचकीलिकासवार्त्त संहननाख्यम्, अस्थिरपटुमस्थिशुभ दुर्भगदुःखरानादेयायशः कीर्तिरूप, सं स्थानपङ्कं-समचतुरस्त्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुब्जहुएडसंस्थानाख्यम्, अगुरुलघुचतुष्कम् अगुरुलघुपघातपराघाताच्छ्रासाख्यमपर्याप्तं सातं वा श्रसातं वा एकतरवेदनीय यदनुदयावस्थं परितुवंगतिग 'त्ति - त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् प्रत्येकत्रिकं प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् उपाङ्गत्रिकम्औदारिक वैकियाहारकाङ्गोपाङ्गरूपं सुस्वरम् ' नियं' तिनीचैर्गोत्रमिति ।
चिरय चरिमे, तेरसमय तसतिगजसाइजं । सुभगजिणुच्चपणिदिय, सायासाए गयरछेओ ॥ ३३ ॥ इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनामयोगिकेबलिद्विचरमसमये सत्तामाश्रित्य क्षयां भवति, ततः पूर्वोक्कपञ्चाशीतेरिमा द्विसप्ततिप्रकृतयोऽपनीयन्ते, शेषास्त्रयोदश प्रकृतयोऽयोगिचरमसमये क्षीयन्ते । तथा चाह-' बिसयरिख त्तिस्पष्टम् । चः पुनरर्थे, व्यवहितसंबन्धश्च चरमसमये पुनरयोगिक वलिन त्रयोदशप्रकृतीनां क्षयां भवति, 'मरणुयतसतिग' त्ति- त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् मनुजत्रिकं मनुजगतिमनु जानुपूर्वीमनुजाऽऽयुर्लक्षणम्, त्रसत्रिकं त्रसवादर पर्याप्ताऽऽयम् ।' जसाइजंति ' यशःकीर्तिनाम श्रदेय
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( ३२६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सत्ता
नाम ' सुभगजियुश्च ' त्ति--सुभगनाम जिननाम उच्चै'गोत्रम् ' पर्णिदिय 'त्ति - पञ्चेन्द्रियजातिः साताऽसातयोरेकतरं तस्य छेदः सत्तामाश्रित्य क्षय इति ।
अत्रैव मतान्तरमाह
नर अणुपुब्वि दिशा वा पारस परिमसमयम्मि जो खचिडें । पतो सिद्धि देवि-दबंदियं नमह तं वीरं ॥ ३४ ॥
नरानुपूर्वी बिना मनुष्यानुपूर्वीमन्तरेण पाशन्दी मतातरसूचको द्वादशप्रकृतिरयोगिकेवलिचरमसमये यः क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तस्तं वीरं नमतेति संटङ्कः । अयमत्राभिप्रायः- मनुजाऽऽनुपूर्व्या अयोगिद्विचरसमये सताव्यवच्छेद उदयाभावात् । उदयवतीनां हि द्वादशानां स्तियुकसंक्रमाभावात्स्यानुये दलिकं चरमसमयेऽपि दृश्यते इति गुस्ताखां चरमसमये तयः । आनुपूर्वीनाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकित्वाद्भवान्तरालगतावेवोदयस्तेन भवस्थस्य नास्ति तदुदयस्तदुदयाभावाच्चायोगिरिसमये मनुजानुपूर्व्या अपि सत्ताम्यवच्छेदः तन्मते योगिके द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां चरमसमये (च) द्वादशानां य इति । ततो यो भगवान् मातापित्रोर्दिवंगतयोः संपूर्णनिजप्रतिज्ञो भक्तिसंभा रभ्राजिष्णुरोचिष्णुलोकान्तिक जन्मभिः पुष्पमाण कैरिव सवजगञ्जीवहियं भवयं तिर्थ पवतेहि " इत्यादिवचोभिर्निवेदिते निष्क्रमणसमये संवत्सरं यावन्निरन्तरं स्वामीकरधारासारेः प्रावृषेण्यधारा मुद्दारिद्र संताप प्रसरमवनीमण्डलस्योपशमय्य परस्परमहमहमिकया समायातसुरासुरनरमनायकनिकरेजय-जयन द- क्षत्रियवरनुपभेत्यादिवचनरचना स्तूयमानः संप्राप्यशासनं प्रतिपक्षनिरवद्यचारित्रधारः साधिकां द्वा'दशसंवत्सरी पावत्परीप होपसर्गवर्ग संसर्गमुद्रमधिपरमसितध्यानाकुण्ठकुठारधारा सकलपनपातिवनलण्डन
66
समाधाय निसायिकलच लच लावलोकितनिखिलल कालोकः श्रीगौतमप्रभृतिमुनिपुङ्गवानां तत्त्वमुपदिश्य संसारसरितः सुखं सुखन समुत्तरखाय भव्यजनानां धर्मतीर्थमुपदश्ययोगिकेवलिचरणसमये त्रयोदशप्रकृतीद
'
-
प्रकृती क्षपयित्वा सिद्धि परमानन्दरूप प्राप्तस्तं नमतमत धीरं श्रीमानस्वामिनम्। कि विशिष् वेन्द्रवन्दितम् देवानां भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकानामिन्द्राः स्वामिनो देवेन्द्रः तैर्षन्दितः शशधरकरनिकरविमलतरगुणगणोत्कीर्त्तनेन स्तुतः शिरसा व प्रएतः बहुद स्तुत्यभिवादनयोरिति वचनात् । यज्ञा-पढ़ेकदेशे पदसमुदायोपचारात् देवेन्द्र-देवेन्द्रसूरिया चार्येण श्रीमज्जगश्चन्द्रसूरिचरणसरसीरुद्दचञ्चरीकेण वन्दितः सकलकर्मक्षलक्षबाधारण गुण संकीर्तनेन स्तुतः कायेन च प्रत इति नमति प्रेरणायां पञ्चम्यन्तं क्रियापदम् तथ्य श्रोतॄणां कथञ्चिनाभोगवशतः प्रमादभयेऽप्पाचारेण नोद्विजतव्यम् किं तु-मृदु-मधुरचोभिः शिक्षानिबन्धने श्रोतॄणां मनांसि प्राय यथाई सम्मार्गप्रवृत्तिरुपदेष्टव्येति ज्ञापनार्थम् । कर्म० २ क० । ( वाधवसत्ता 'संतकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३७ पृष्ठे दर्शिता ।) ('कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६६ पृष्ठे
,
"
सप्ता बन्धोदय सत्तास्थानानां सम्बेध उक्तः । तत्रैव सत्तास्थानानां कालमानम् | ) ( गुणस्थानकेषु सतोश्ययोजना 'गुणड्डाशब्दे तृतीयभागे २३ पृष्ठे उक्का)
सर्वासां प्रकृतीनां सत्तामाधित्य भूयस्कारादिसत्तास्थानानि -
भूयप्पयरा इगिचउ-वीसं जनेइ केवली छउमं । अजओ य केवलितं, तित्थयरियराव अभोभं ॥ १६ ॥ व्याख्या- भूयस्काराः भूयस्कारोया एक विंशतिः, अल्पत यातुर्विंशतिः नोकसंख्यातो दानामेके उत्यधिकाः कृत इत्याह- यद्यस्मात्कारणान्न केवली छम-छद्मोदयान् याति, नाऽप्ययतोऽविरतो ऽविरतसम्यग्रडष्टिः केवलित्वं केवलित्वनिबन्धने हृदयस्थानेषु याति नाव्यतीर्थ करतीर्थकरावन्योन्यमन्योन्यस्योदषेषु गच्छतः तत उयाका एव भूयस्कारापतयाः । इयमत्र भावना न केवली वीदयेषु याति, न चाप्यतीर्थंकर स्तीर्थकरोदयम् उपलक्षणमेतत् तेन नाप्ययोगी सयोगियुदयम्। ततं एकादशद्वादशत्रयोविंशतिचतुर्विंशतिचतुश्चत्वारिशलक्षणानि पञ्च उदयस्थानानि भूयस्कारतया च प्राप्यन्ते इत्येकविंशतिरेव भूयस्कारोदयाः। तथा अविरत सम्यग्दृष्टिर्मिध्यादृष्टिर्वा न केवल्युदयस्थानमधिरोइति ततश्चतुशिक्षाणोऽल्पतरोदयो न लभ्यते । ग्रह-चतुः विशदुःस्वभावस्य तीर्थकृतः केलिनो भवति ततो या तीर्थकरः केवलित्यमासादयति तदा चतुश्चत्वारिंशदानामन्यतमस्मादुदयस्थानाच्चतुस्त्रिंशदुदयस्थाने संक्रामतीति भवति चतुरिंशदयोऽल्पतरः तदेतदसमीचीनं, सर्वथा दस्तुतश्चाऽपरिज्ञानात् । केवलित्यं हि नाम सर्वोऽपि समासादयति गुणस्थानकक्रमेण, नान्यथाः तत्र क्षीणमोहगुणस्थानके शस्त्रकृत्यात्मकमेयोवस्थानं न शेषम् जयत्मिकृतयमाः- मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिनाम यादरनाम पर्यासनाम सुभगनाम आयं यशःकीर्तिसकार्मणे स्थिरास्थिरे शुभाशुभे वर्णादिचतुष्टयम गुरुलघुनिममदारिकं प्रत्येकनाम उपघातनाम अन्यतरविद्यायोगतिः परापातनाम सुखदुःखरयोरन्यतरत् उच्हासनाम संस्थानपरकाम्यतममे संस्थान वर्षभराचसंहन सातासतान्यतरवेदनीयं मनुष्यायुरुचैर्गोत्रमिति । ततः केबलशानोत्पत्तौ सयोगिकेवलिगुणस्थन प्राप्तः तीर्थकर नामकर्मण उतधतुनिस्थानं भूयस्कारतयेच प्राप्यते नापतया यदपि चैकोनपरूिपमुष्यस्थानं व स्यापि नाश्यतरत्वसंभवः, ततोऽन्यस्य महत उद्यस्थानस्था संभवात् । यदि हि ततोऽपि महदन्यदुदयस्थानं भवेत्, ततस्तस्मात्तत्र संक्रान्ती तदपतरं भवेत् न च तदस्ति तस्मातुको पष्टिरूपी दयावत्पतरी न भवतः इति चतुर्विंशतिरश्वतराः । तदेवमुक्ताः सामान्यतः सर्वोवरप्रकृतीनामुदयस्थानेषु भूपस्कारादयः संप्रति येनापरीयारप्रकृतीनां सामान्यतः सर्वोत्तरप्रकृतीनां च सत्तास्थानेषु पय्याः तत्र प्रत्येक ज्ञानावरणीयात्तरकृतीनां स्वयमेवायाः तेनारदीयस्यान्तरा यस्य च प्रत्येकं पश्ञ्चपञ्च प्रकृत्यात्मकमेकं सत्तास्थानम् । मंत्र द्वितीयं महद या सत्तास्थानेन समस्तीति भूयस्कारालपवरत्व संभयः, नाप्य वक्तव्य सत्कर्मता ज्ञानावरणीयस्याम्वरा
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(३२७) सत्ता अभिधानराजेन्द्रः।
सत्ता यस्य च प्रत्यकं सर्वस्वस्वोत्तरप्रकृतिसत्ताग्यवच्छेदे भूयः स
संज्वलनफ्रोधे क्षीणे तिखः , ततः संज्वलनमाने क्षीणे द्वे, तासंभवाऽभावात् । वेदनीयस्य द्वे सत्तास्थाने, तद्यथा-छे
संज्वलनमायायामपि क्षीणायामेका । अत्र पञ्चदश अवस्थितएका च । तत्र द्वे अयोग्यवस्थाया द्विचरमसमयं यावत् ,एका
सत्कर्माणि सर्वेष्वपि, सत्तास्थानेषु जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त चरमसमये,अत्र न भूयस्कारसत्कर्मता,एकप्रकृत्यात्मकसत्ता
यावदवस्थानसंभवात् , चतुर्दश अल्पतराणि, तानि चाधास्थानकाद् द्विप्रकृत्यात्मकसत्तास्थाने संक्रमाऽभावात्। एकम
विंशतिवर्जानि शेषाणि सर्वारयपि द्रष्टव्यानि एक ल्पतरं,तथैकप्रकृत्यात्मकम् । एक द्विप्रकृत्यात्मकमवस्थितम्,
भूयस्कारसत्कर्म,ततोऽष्टाविंशतिलक्षणमवसेयम् । तथाहिएकप्रकृत्यात्मकस्य समयमात्रावस्थायितया अवस्थितत्वासं
चतुर्विंशतिसत्तास्थानात् षड्विंशतिसत्तास्थानाद्वा गच्छभवात् । गोत्रायुषोढ़े द्वे सत्तास्थानके, तद्यथा-द्वे एकाच ।।
त्यष्टाविंशतिरूपं सत्तास्थानं, शेषाणि तु सत्तास्थानानि तत्र यावत् वे अपि गोत्रप्रकृत्यो सत्यौ तावद् द्वे, यदा पुन
भूयस्कारतया न प्राप्यन्ते; अनन्तानुबन्धिसम्यक्त्वसम्यग्मिस्तेजोवायुभवगतनाचैर्गोत्रमुद्वलितं भवति, नीचैर्गोत्रं वा
थ्यात्वव्यतिरेकेणान्यस्याः प्रकृतेः सत्ताब्यवच्छेदे भूयः अयोग्यवस्थाद्विचरमसमये क्षीण, तदा एका । आयुषोऽपि
सत्ताया अयोगात् , अवक्तव्यं तु न समस्ति , मोहनीययावत्राद्यापि परभवायुर्बध्नाति तावदेका प्रकृतिः सती, पर
स्य सर्वोत्तरप्रकृतिव्यवच्छदे पुनः सत्ताया असंभवात् । नाभवायुर्वन्धे च द्वे। तत्र गोत्रस्यैकं द्विप्रकृत्यात्मकं भूयस्कारस
म्नो द्वादश सत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-त्रिनयतिर्द्विनवतिरेस्कर्म, तत्र यदोश्चर्गोत्रमुद्वल्य नीचैर्गोत्रैकसत्कर्मा सन् भूय
कोननवतिरष्टाशीतिरशीतिरेकोनाऽशीतिः षट्सप्ततिः पश्चउर्गोत्रमयबध्नाति तदा समवसेयम् एकमकप्रकृत्यात्मकम
सप्ततिः षडशीतिरष्टसप्ततिर्नव अष्टौ च । तत्र सर्वप्रकृस्पतरं, तदपि चोचैर्गोत्रे उद्वलिते नीचैर्गोत्रे वा क्षीणे दृष्टव्यं
तिसमुदायस्त्रिनवतिः, सैव तीर्थकररहिता द्विनवतिः, त्रिद्व अवस्थितसत्कर्मणी द्वयोरपि सत्तास्थानयोश्चिरकालमव
नवतिरेवाहारकाहारकाङ्गोपाङ्गाहारकबन्धनाहारकसंघातरूस्थानसंभवात्, नवरमेकप्रकृत्यात्मके सत्तास्थाने चिरकाल
पाहारकचतुएयरहिता एकोननवतिः , द्विनवतिराहारकचमवस्थानमुद्वलितोचैर्गोत्रस्य नीचैर्गोत्ररूपे द्रष्टव्यम् ।श्रायुषा
तुष्टयहीना श्रष्टाशीतिः , इदमकं प्रथमसंक्षं सत्तास्थानचऽप्येकं द्विप्रकृत्यात्मकं भूयस्कारसत्कर्म,तश्च परभवायुर्वन्धा
तुष्टयम् ,अस्माश्च नामत्रयोदशके क्षयमुपगते क्रमेण द्वितीय रम्भसमय,एकमेकप्रकृत्यात्मकमल्पतरसत्कर्म, तच्चानुभूय
सत्तास्थानचतुष्टयं भवति, तद्यथा-अशीतिरेकोमाऽशीमानभवायुषः सत्ताव्यवच्छेद, परभवायुष उदयसमये द्वे -
तिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च । इदं द्वितीयसंशं सत्तास्थानवस्थितसत्कर्मणी, द्वयोरपि सत्तास्थानयोश्चिरकालमवस्था
चतुष्टय , प्रथमसत्तास्थानचतुष्टयसत्काञ्चतुर्थादष्टाशीति
लक्षणात्सत्तास्थानात् देवद्विक नरकद्विके वा उद्वलित षडनात् । यत्त्ववक्तव्यं सत्कर्म, तदुभयत्रापि न विद्यत, उभयो
शीतिः,ततोऽपि देवद्विकसहिते नरकद्विकसहिते वा चक्रिरपि सर्वस्वस्वोत्तरप्रकृतिव्यवच्छदे भूयः सत्ताया प्रयोगात् ,
यचतुष्टये उद्वलिते अशीतिः, ततोऽपि मनुष्यद्विके उद्वलित दर्शनावरणीयस्य त्रीणि सत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-नव पद
अष्टसप्ततिः । एतानि च त्रीर्याप सत्तास्थानानि चिरंतनग्रचतम्रः,तत्र क्षपक श्रेणिमधिकृत्याऽनिवृत्तिबादरसंपराद्धायाः
न्थेषु अध्रुवसंज्ञानि व्यवतियन्ते,नवप्रकृत्यात्मकं तीर्थकृतः, संख्ययान् भागान् यावदुपशमश्रेणिमधिकृत्योपशान्तमोहगु
तीर्थकृतस्त्वष्टप्रकृत्यात्मकमयोग्यवस्थाचरमसमय सुप्रतीतपस्थानकं यावत् नव , क्षपकश्रेणानिवृत्तिबादरसं
म् इहाशीतिलक्षणं सत्तास्थानं द्विधा लभ्यत,तथापि संख्यापरायाद्धायाः संख्येयेभ्यो भागेभ्यः परत श्रारभ्य क्षी
तस्तुल्यमित्येकमेव गण्यते, ततो द्वादश सत्तास्थानानि णमोहगुणस्थानकस्य द्विचरमसमयं यावत् षट् । चरम- |
भवन्ति । अत्र दश अवस्थितसत्कर्माणि, नवाटसत्तास्थानसमये चतस्त्रः, अत्र द्वे अल्पतरे, तद्यथा-षद चतस्रः,
यारेकसामयिकतयाऽवस्थितत्वाऽसंभवात् , दश अल्पतरद्वे अवस्थितसत्कर्मणी, तद्यथा-नव षट् , चतुःप्रक
स्थानानि,तद्यथा-प्रथमसत्तास्थानचतुष्टयाद् द्वितीयसत्तात्यात्मकं तृतीयं सत्तास्थानम् एकसामायिकमिति न तस्या
स्थानचतुष्टयगमनेन चत्वारि, द्वितीयसत्तास्थानचतुष्टऽवस्थितत्वसंभवः भूयस्कारमवक्रव्यं चात्र न समस्ति ,
यान्नवाष्टगमनेन द्वे, प्रथमसत्तास्थानचतप्टयसत्कचतर्थद्वित्रादिप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदे सर्वस्वोत्तरप्रकृतिसत्ताव्यव- स्थानात्प्रथमा , ध्रुवसंशसत्तास्थानगमने । ततोऽपितृच्छद वा भूयः सत्तासंभवाऽभावात् । मोहनीयस्य पञ्चदश
तीया ध्रुवसत्तास्थानगमने द्वे त्रिनवतिद्विनवतिभ्यामासत्तास्थानानि, तद्यथा-अष्टाविंशतिः सप्तविंशतिः षड्वि- हारकचतुष्टयोद्वलन एकोननवत्यष्टाशीतिमंकान्तौ द्वे , शतिः चतुर्विंशतिस्त्रविशतिर्वाविंशतिरेकविंशतिस्त्रयो
एवं सर्वसंख्यया दशाल्पतरसत्तास्थानानि भवन्ति , दश द्वादश एकादश पञ्च चतस्रस्तिस्रो द्वे एका च । भूयस्कारसत्तास्थानानि षद् तद्यथा-भूया मनुष्यतत्र सर्वप्रकृतिसमुदायोऽष्टाविंशतिः, ततः सम्यक्त्व उद्ध- द्विकबन्धनेनाटासप्ततेरशीतो गमनं, ततोऽपि नरकलिते सप्तविंशतिः, सम्यग्मिथ्यात्वेऽप्यद्वलित षडवि
द्विक देवद्विके वा चैकियचतुष्टयसहिते भूयोऽपि बध्यशतिः । अथवा-अनादिमिथ्यादृष्टः पर्विशतिः प्रविशते- माने षडशीतौ, ततोऽपि देवद्विके नरकद्विक वा पुनरपि रनन्तानुबन्धिचतुष्टये क्षीणे चतुर्विंशतिः, ततो मिथ्या- बध्यमाने याशीतौ,ततोऽपि तीर्थकरनामबन्ध एकाननवत्यां त्व क्षीणे त्रयोविंशतिः , ततः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षीण गमनमिति चत्वारि, अष्टाशीतेरेवाहारकचतुष्टयबन्धनेन द्विद्वाविंशतिः, सम्यक्त्वे क्षीणे एकविंशतिः , ततोऽ- नयती गमनं, ततोऽपि तीर्थकरनामबन्धे त्रिनवतो, एवं सदृसु कषायेषु क्षीणेषु प्रयोदश, ततो नपुंसकवेदे क्षीणे वसंख्यया षट् ,शेषात्सत्तास्थानादन्यस्मिन् प्रभूत सत्तास्थाने द्वादश, ततोऽपि स्त्रीवदे क्षीणे एकादश, ततः पदसु नो- गमनसंभवः, तेन षडेव भूयस्कारसत्कर्माणि, यत्त्ववक्रव्यं कषायेषु क्षीणषु पञ्च, ततः पुरुषयेदे क्षीणे चतस्रः , ततः । सत्तास्थानं तदिह न भवति,नाम्नः सर्वोत्तरप्रकृतिसत्ताव्यव.
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सत्ता
(३२८), ... अभिधानराजेन्द्रः।
सत्ता च्छेदे भूयः संत्तोपादानाऽसंभवात् , तदेवमुक्ताः प्रत्येक शाना- त्वारि सप्तास्थानानि, तद्यथा-अशीतिः, एकाशीतिः, चतुवरणीयाधुत्तरप्रकृतीनां सत्तास्थानेषु भूयस्कारादयः ॥ १६॥ रशीतिः पश्चाऽशीतिः (८०।८१।८४।०५।) तत्राशीतिरियंसंप्रति सामान्यतः सर्वोत्तरप्रकृतीनां तानभिधित्सुः । देवद्विकमौदारिकचतुष्टयं, तैजसकार्मणशरीरे, तैजसकार्मप्रथमतः सत्तास्थानान्याह
पबन्धने, तैजसकार्मणसंघाते, संस्थानषदकं, संहननषद्कं, एकारवारसासीइ, इगि चउ पंचाहिया य चउणउई । वर्णादिविंशतिः,अगुरुलघु,पराघातम् ,उपघातनाम,सनाम, एत्तो चउद्दहियसयं, पणवीसाओ य छायालं ॥२०॥
विहायोगतिद्विकं, स्थिराऽस्थिरे, शुभाऽशुभे, सुस्वरदुःस्वरे,
दुर्भगम् , अयशःकीर्तिः, अनादेयं, निर्माण, प्रत्येकम् , अपबत्तीसं नऽस्थि सयं, एवं अडयाल संत ठाणाणि ।
प्ति, मनुष्यानुपूर्वी, नीचैर्गोत्रम् , अन्यतरवेदनीयमित्येकोनजोगिअघाइचउक्के, भण खिविउं घाइसंताणि ॥२१॥ सप्ततिः, एकादश च प्रागुक्ताः; ततः सर्वसंख्यया अशीतिसामान्यतः सर्वोत्तरप्रतीनां सत्तास्थानानि अष्टचत्वारिं- र्भवति । सैव तीर्थकरनामसहिता एकाशीतिः, अशीतिरेव शत् , तद्यथा-एकादश, द्वादश, अशीतिः, ' इगि चउ पं- आहारकचतुष्टयसहिता चतुरशीतिः, सैव तीर्थकरनामसम. चाहिया य' लि-अत्राशीतिः संबध्यते । ततोऽयमर्थः-- न्विता पञ्चाशीतिः । एतान्येवाऽशीत्यादीनि चत्वारि सत्ताशीतेरनन्तरमेकचतुःपञ्चाधिका अशीतिर्वक्तव्या, तद्यथा-ए
स्थानानि मानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपश्चककाशीतिश्चतुरशीतिः, पञ्चाशीतिः, ततश्चतुर्नवतिः एत्तो'
सहितानि यथाक्रमं चतुर्नवत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि इत्यादि अतश्चतुर्नवतेलमेकोत्सरया वृद्धथा निरन्तर
भवन्ति, तद्यथा-चतुर्नवतिः,पश्चनवतिः,अष्टानवतिः,नवनव. यावत्सत्तास्थानानि वाच्यानि, यावच्चतुर्दशाधिकं शतम् ,
तिः(६४/६५८६६)एतानि च क्षीणकषायचरमसमये नानाजीतद्यथा-पञ्चनवतिः, षस्वतिः, सप्तनवतिः, अष्टानवतिः,
वानधिकृत्य प्राप्यन्ते; एतान्येव चतुर्नवत्यादीनि चत्वारि सनवतिः, शतम् , एकोत्तरं शतं, द्वयुत्तरं शतं, व्युत्तरं शतं, च
तास्थानानि निद्राप्रचलासहितानि यथाक्रम षण्णवत्यादीनि
चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-घराणवतिः, सप्तनतुरुत्तरं शतं, पञ्चोसरं शतं, षडुत्तरं शतं, सप्तोत्तरं शतम् , अष्टोत्तरं शतं, नवोत्तरं शतं, दशोत्तरं शतम् , एकादशोत्तरं
वतिः,शतम् ,एकोत्तरं शतम् (६६।६७.१००। १०१)एतानि शतं, द्वादशोत्तरं शत, त्रयोदशोत्तरं शतं,चतुर्दशोत्तरं शतम् ।
क्षीसकषायगुणस्थानके द्विचरमसमयं यावत् नानाजीवापे
क्षया प्राप्यन्त; एतेष्वेव संज्वलनलोभप्रक्षेपेऽभूनि चत्वारि श्रत ऊर्व पञ्चविंशाच्छतादारभ्य क्रमेणैकोत्तरया वृद्धथा
सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-सप्तनवतिः, अपानवतिः, तावदभिधातव्यानि सत्तास्थानानि, यावत् षट्चत्वारिंशतं
एकोत्तरं शतं, तुयुत्तरं शतम् (६७।१८।१०१।१०२)एताशतं, नवरं द्वात्रिंशं शतं नाऽस्ति; द्वात्रिंशशताऽऽत्मकसत्ता
नि सूक्ष्मसंपराये लभ्यन्ते. एतेष्वेव संज्वलनमायाप्रक्षेपादमूस्थानवर्जितान्यभिधातव्यानीत्यर्थः, तद्यथा-पञ्चविंशं शतं,
नि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-अष्टानवतिः, षड्विंशं शतं, सप्तविंशं शतम् , अशाविशं शतम् , एकोनत्रिशं
| नवनवतिः, धुसरं शतं, व्युत्तरं शतम् (१८९६ । १०२ । शतं. त्रिंश शतम , एकत्रिंश शतं, त्रयविशं शतं, चतुतिशं |
१०३।) एतान्यनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानकपर्यवसाने लशतं, पञ्चत्रिंशं शतं, पत्रिंशं शतं, सप्तत्रिंशं शतम् , अष्टात्रिशं
भ्यन्ते,ततस्तस्मिन्नेव गुणस्थानके तेष्वेव चतुर्यु सत्तास्थानेषु शतम् , एकोनचत्वारिंशं शतं,चत्वारिंशं शतम् ,एकचत्वारिंश
संज्वलनमानप्रक्षपादेतानि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति तद्य शतं, द्वाचत्वारिंशं शतं, त्रिचत्वारिंशं शतं, चतुश्चत्वारिंशं
था-नवनवतिः,शतं,व्युत्तरं शतं,चतुरुत्तरं शतम् ,(EE | १०० । शतं, पञ्चचत्वारिंशं शतं, षट्चत्वारिंशं शतम् एवं सर्वसं
१०३।१०४) तत एतेष्वेव चतुर्यु सत्तास्थानेषु तस्मिन्नेव गुणख्यया श्रष्टाचत्वारिंशत्सत्तास्थानानि भवन्ति,तद्यथा-(११) १२।८०1८१८४१८५। ६४।६५। ६६।१७।८। १००।
स्थानके संज्वलनक्रोधप्रक्षेपादमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि
भवन्ति, तद्यथा-शतम् , एकोत्तरं शतं, चतुरुत्तरे शतं, प१०१। १०२।१०३।१०४। १०५ १०६ । १०७। १०८ ।
श्चोत्तरं शतम् , (१००।१०१।१०४।१०५१) ततस्तस्मिन्नेव 1१०६।११०।१११ । ११२१११३।११४।१२५। १२६।१२७ ।
गुणस्थानके पुरुषवेदप्रक्षेपादमूनि चत्वारि सनास्थानानि, ।१२८।१२६ । १३०।१३१।१३३ । १३४।१३५। १३६११३७।
तद्यथा-एकोत्तरं शतं, द्वयुत्तरं शतं, पश्चोत्तरं शतं , षडुत्तरं ।१३८ । १३६।१४०।१४१ । १४२ । १४३ १४४ । १४५ ।
शतम् , (१०१।१०२।१०५ । १०६।) ततो हास्यादिषद्का।१४६।) अमीषां च सत्तास्थानानां यथापरिक्षानमुपसंप
क्षेप तस्मिन्नव गुणस्थानके अमूनि चत्वारि गुणस्थानाद्यते तथोपदेशमाह-योगिनां सयोगिकेवलिनां यदघाति
नि भवन्ति, तद्यथा-सप्तोत्तरं शतम् , अष्टोत्तरं शतम् ,एका. प्रकृतिसत्कं सत्तास्थानचतुष्टयमशीत्यादिलक्षणं, तस्मिन्
दशोत्तरं शतं, द्वादशोत्तरं शतम् ,(१०७।१०८।१११ । ११२) घातिकर्मसत्कानि सत्तास्थानानि क्रमेण क्षिप्त्वा अष्टच
ततस्तस्मिन्नेव गुणस्थानके स्त्रीवेदप्रक्षेपादमूनि चत्वारि त्वारिंशदपि सत्तास्थानानि शिष्येभ्यो भण-प्रतिपादय ।
सत्तास्थानानि, तद्यथा-अष्टोत्तरं शतं, नवोत्तरं शतं, द्वाएतदव भाव्यते-अतीर्थकरकेवलिनोऽयोग्यवस्थाचरमसमये
दशोत्सरं शतं, त्रयोदशोत्तरं शतम् , (१०८।१०६।११२ । एकादशप्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानं, तस्मिन्नेव समये तीर्थ
११३) ततो नपुंसकवेदे तस्मिन्नेव गुणस्थानके प्रक्षिप्त कृतोद्वादशप्रकृत्यात्मकं; ताश्च द्वादशप्रकृतय इमाः, तद्यथा- मूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-नवोत्तरं शतं, दशोमनुष्यायुर्मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिरसनाम बादरनाम प. सरं शतं, त्रयोदशोत्तरं शतं, चतुर्दशोत्तरं शतम् , (१०६ । र्याप्तकनाम सुभगमादेयं यशःकीर्तिस्तीर्थकरनाम अन्यतर- १२० । ११३ । ११४ । ) तत पतेष्वेव चतुर्यु सत्तास्थानेषु तवेदनीयमुच्चैगोत्रमिति । एता एव द्वादश प्रकृतयस्तीर्थकरना- स्मिन्नेव गुणस्थानके नामत्रयोदशकस्त्यानचित्रिकरूपप्रकृमरहिता एकादश सयोगिकेवल्यवस्थायामशीत्यादीनि च- । तिषोडशकप्रक्षेपादिमानि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति,
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संत्ता अभिधानराजेन्द्रः।
सत्ति तद्यथा-पञ्चविंशत्युत्तरं शतं, पइविंशत्युत्तरं शतम् , एकोन- तर्जनमकारि । इह यद्यपि सप्तनवत्यादीनि सत्तास्थानात्रिंशतं शतं, त्रिंशं शतम् , (१२५ । १२६ । १२६ । १३०।) न्युक्लप्रकारेण तत्तत्प्रकृतिप्रक्षेपादन्यथानेकधा प्राप्यन्ते, त- ततोऽपि तस्मिन्नेव गुणस्थानके अप्रत्याख्यानावरणरूपकषा- थापि संख्यातस्तानि तुल्यानीत्येकान्येव विवक्ष्यन्ते, ततोऽ
याएकप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-त्रय- टचत्वारिंशदेव सत्तास्थानानि, नाधिकानि । अत्राऽवक्तव्यस्त्रिंश शतं, चतुस्त्रिंशं शतं, सपत्रिशं शतम् , अष्टात्रिंशं श- सत्कर्म न विद्यते , सर्वप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेद भूयः सत्तासंतम् , (१३३ । १३४ । १३७ । १३८।) तथा यानि पूर्ववत्क्षीण- भवाऽभावात् , अवस्थितानि चतुश्चत्वारिंशत् , एकादशमोहसत्कानि षमवतिः सप्तवतिः शतमेकोत्तरं शतमिति च- द्वादशचतुर्नवतिपश्चनवतिरूपाणां चतुर्णा सत्तास्थानानात्वारि सत्तास्थानानि प्रतिपादितानि, तेषु मोहनीयद्वाविंश- मेकसामायिकतया अवस्थितत्वाऽयोगात् , सप्तचत्वारिंतिस्त्यानचित्रिकनामत्रयोदशकप्रक्षेपादिमानि चत्वारि सत्ता. शदल्पतराणि , सप्तदश भूयस्काराणि, यतस्तानि सप्तविस्थानानि भवन्ति, तद्यथा-चतुनिशं शतं, पञ्चत्रिंशं शतम् , शतिशतादारभ्य परत एवं प्राप्यन्ते , नार्वाक, परतोऽपि अष्टात्रिंशं शतम् , एकोनचत्वारिंशं शतम् , (१३४ । १३५ । यत् त्रयस्त्रिंशशतात्मकं सत्तास्थानं तदपि भूयस्कारतया १३८ । १३६ ) तेष्वेव क्षीणकषायसत्केषु पावत्यादिषु चतुर्यु न लभ्यते , कस्मादिति चेदुच्यते-दह सप्तविंशतिशतादसत्तास्थानेषु मोहनीयत्रयोविंशतिनामत्रयोदशकस्त्यानर्द्धि- कि यानि स्थानानि , यच्च प्रयस्त्रिंश वुत्तरशतात्मक त्रिकप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-पञ्चत्रिंश तानि क्षपकश्रेणावेध प्राप्यन्ते, न च क्षपकश्रेणः प्रतिपातः, शतं, पत्रिंशं शतम् , एकोनचत्वारिंश शतं,चत्वारिंशं शतम् ततस्तेषां स्थानानां भूयस्कारत्वेनाऽसंप्राप्तेः सप्तदशैष भूय(१३५ । १३६ । १३६ । १४ । ) तेष्वेव षरणवत्यादिषु मो- स्काराणि ॥ २० ॥ २१ ॥ पं० सं०५ द्वार १ प्रक० । हनीयचतुर्विशतिस्त्यानर्द्धित्रिकनामत्रयोदशकयोगादिमानि- सत्तागइय-सप्तागतिक-पुं० । सप्तभ्य एव-अराजयोनिभ्यः चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-पत्रिंशं शतं, सप्तत्रिंश श- भागतिः-उत्पत्तिर्येषां ते सप्तागतयः । सप्तस्थानेषु उद्वर्तमातं, चत्वारिंशं शतम् , एकचत्वारिंशम् ,शतम् , (१३६ ११३७। नेषु , स्था०७ ठा०३ उ०। १४०।१४१) तेष्वेव षरणवत्यादिषु मोहनीयषर्विशति-मतासगा-सत्तास्थान-न० । सत्ताप्रकारे, कर्म० ६ कर्म० । स्त्यानचित्रिकनामत्रयोदशकप्रक्षेपादेतानि चत्वारि सत्ता
(बन्धोदयसत्ता प्राश्रित्य भकाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे स्थानानि, तद्यथा-अष्टात्रिंशं शतम् , एकोनचत्वारिंशं शतं, द्विचत्वारिंशं शतं, त्रिचत्वारिंशं शतम्, (१३८ । १३६॥ १४२ ।
३०६ पृष्ठे उदाहताः ।) १४३ ) तेष्वेव षरणवत्यादिषु मोहनीयसप्तविंशतिनामयो- सत्ताणदपर-सवानन्दपर-पुं० । असंप्रज्ञातसमाधी, द्वा० दशकस्त्यानिित्रकप्रक्षपेऽमूनि चत्वारि सत्सास्थानानि, त- २० द्वा०। द्यथा--एकोनचत्वारिंशं शतं, चत्वारिंशं शतं, त्रिचत्वारिंश | सत्ताणवह-सप्तनवति--स्त्री० 1 सप्ताधिकायां नवतिसंख्याशतं, चतुश्चत्वारिंशं शतम् , (१३६ । १४० । १४३ । १४४) याम् , स०६६ सम०। तेष्वेव षरणवत्यादिषु मोहनीयाष्टाविंशतिनामत्रयोदशक
सत्ताणुग्गह--सत्वानुग्रह-पुं० जीवदयायाम् , सत्स्वानुग्रहस्य स्त्यानचित्रिकपनेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा
परम्परया मोक्षाबाप्तिनिबन्धनत्वात् । उक्तं च-'सर्वज्ञस्योचत्वारिंशं शतम् , एकचत्वारिंशं शतं, चतुश्चत्वारिंशं शतं,
पदेशेन , यः सत्यानामनुग्रहम् । करोति योधयाह्यानां , स पञ्चचत्वारिंशं शतम् , (१४०। १४१ । १४४। १४५) अमूनि
| प्राप्नोत्यचिरात् शिवम् ॥१॥" ज्यो०१ पादु । च मोहनीयद्वाविंशत्यादिप्रक्षपसंभवीनि चतुर्विंशशतादीनि, पश्चचत्वारिंशशतपर्यन्तानि सत्तास्थानान्यविरतसम्यग्रहष्ट्या
सत्तामित्त--सत्तामात्र-न० । सद्भावमात्रे , पञ्चा०४ विव० । दीनामप्रमत्तान्तानामवसयानि,यच्चानन्तरमुक्तं पश्चचत्वारि
सत्ताबरणा-सप्तपश्चाशत-सी०। सप्ताधिकायां पश्चाशत्संशशतलक्षणं सत्तास्थान, तदेव परभवायुबन्धे षट्चत्वारिं
ख्यायाम् , स०५७ सम। शशतात्मकं सत्तास्थान भवति, तथा यदा जन्तोस्तेजोवाय- सत्तावीसा--सप्तविंशति-स्त्री० । “दीर्घहस्थी मिथोवृत्ती" भवे वर्तमानस्य नाम्नोऽष्टसप्ततिरेकमेव च नीचर्गोअलक्षणं १॥४॥ इति मध्याकारस्य दीर्घः। सप्ताधिकविंशतिसगोत्रं सत् , तदा तस्य शानावरणपञ्चकं दर्शनावरणनवकं वे- ख्यायाम् ,प्रा० । अं०। . दनीयद्विकं मोहनीयषविंशतिरन्तरायपञ्चकं तिर्यगायुर्ना- सत्तासुय-सकासक-पुं० उत्तरपूर्वस्यां शुद्धविदिग्वाते, भा० म्नोऽष्टसप्ततिर्नीचैर्गोत्रमिति सप्तविंशं शतं सत्तास्थानं त- | म०१ अ०। प्रा० चू०।। देव परभवतिर्यगायुर्वन्धे अष्टाविंशत्यधिकं शतं, तथा वन- सत्ति-शक्ति-स्त्री० । स्ववार्योल्लासे, छा०२० शा। सामस्पतिकायिकेषु यदा स्थितिक्षयादेवद्विकनरकद्धिकवैफिय
ये, श्रा० म० १ ० । प्रा० चूछ। “ समत्थं ति वा चतुष्टयरूपासु अष्टासु प्रकृतिषु क्षीणासु नाम्नोऽशीतिप्रकृतयः सत्तायां लभ्यन्ते, तदा नाम्नोऽशीतिढे वेदनीये, हे
सत्ति त्ति वा एगट्ठा" प्रा०चू० १ ० "सत्ति ति सामगोत्रे, अनुभूयमानं तिर्यगायुसनावरणपश्चक, दर्शनावरण
त्थं ति जे जोगस्स हवेति पज्जाया"। पं० सं०५ द्वार । नवकं, मोहनीयषत्रिंशतिः, अन्तरायपञ्चकं, इति त्रिंशदुत्त
शक्तिर्विधा-धृति-संहननभेदात् । ०१ उ०२ प्रक० । धमें, रशतात्मकं सत्तास्थानं, तदेव परभवायुर्वन्धे. एकत्रिंशशता
स्था०६ ठा०३ उ०। त्मकं सत्तास्थानम्-तदेवं सत्तास्थानेषु परिभाब्यमानेषु द्वा
गुणपर्याययोः शक्ति-मात्रमोघोद्भवाऽऽदिमा । त्रिंशदुत्तरशतात्मकं सत्तास्थानं नाऽवाप्यते, इति सूत्रकृता प्रासम्मकार्ययोग्यत्वा-च्छक्तिः समुचिता परा ॥६॥ .
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सत्ति
(३३०) अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तुंजय सर्वेषां द्रव्याणां निजनिजगुणपर्याययोः शनिमात्रम् श्रो- रिक्रियासप्तककः, सप्तमोऽन्योऽम्यक्रियासप्तकक इति । पा०। घोद्भवा-ओघशक्तिः, अदिमा-प्रथमभेदरूपा कथ्यते । पुनः | पिण्डैषणाध्ययनादारभ्य अवग्रहप्रतिमाऽध्ययनं यावदेतानि आसन्न-निकट शीघ्रभावि वा यत्कार्य तस्य योग्यत्वा- सप्ताध्ययनानि । प्रथमा चूडा सप्तसप्तकका , द्वितीया त् व्यवहारयोग्यत्वात् समुचिता शक्निरपरा द्वितीया समु- भावना , तृतीया विमुक्तिः , चतुर्थी प्राचारविकल्पः , चितशक्तिरुच्यत इति । (एतद्भेदप्रदर्शकदृष्टान्तः 'ओसत्ति' | निशीथः सा पञ्चमीचूडेति । श्राचा०२ श्रु०१चू०१ ५० शब्दे तृतीयभागे १२६ पृष्ठे गतः।)
१ उ०। । अथ द्रव्यशक्ति व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां दर्शयन्नाह- सत्तितो-शक्तितस्-अव्य० । शक्तिमाश्रित्य यथाशक्तीत्यर्थे , कार्यभेदाच्छक्तिभेदो, व्यवहारेण दृश्यते ।
पञ्चा०८विव०। युनिश्चयनयादेक-मनेकैः कार्यकारणैः ॥६।। सत्तिम-शक्तिमत-त्रि० । सामर्थ्ययुक्ने, स्था० ६ ठा० ३ उ०। एवम्-पूर्वोकप्रकारेण एकैकस्य कार्यस्य श्रोघशक्तिसमुचि- समर्थे, पञ्चविधकृततुलने, स्था०८ ठा०३ उ०। तशक्तिरूपा शक्तयोऽनेकश एकद्रव्यस्य प्राप्यन्ते,ताः पुनर्व्य- सत्तिय-साविक-पुं० । सत्त्वप्रधाने, सात्विको नाम यो मह- . बहारनयेन व्यवहताः सत्यः कार्यकारणभेदं सूचयन्ति । क
त्यप्युदये गर्व नोपयाति, न च गरिष्ठेऽपि समापतिते ग्यथं व्यवहारनयो हि कार्यकारणभेदमेवमनुते निश्चयनयो हि
सने विषादम् । व्य०३ उ०।“ सुसमत्था व समत्था, कीरंति अनेककार्यकारणैर्युगपि द्रव्यमेकमेव स्वशक्तिस्वभावमस्ति
अप्पसत्तिया पुरिसा। दीसंति सूरघादी,णारोबसगाण ते सू. इत्यवधारयति । कदापि इत्थं नावधार्यते तदा स्वभावभे
रा॥१॥" सूत्र०१ श्रु०४ अ० १ उ० । दात् द्रव्यभेदोऽपि संपद्यते; तस्मात्तत्तद्देशकालादिकापेक्षया| एकस्यानेककार्यकारणस्वभावमङ्गीकुर्वतां न कोऽपि दोषपोषः, सात्तवएण-सप्तपण
सत्तिवरण-सप्तपर्ण-पुं० । सप्तच्छदे वृक्षविशेषे, जी०३ प्रतिक कारणान्तरापेक्षाऽपि स्वभावान्तर्भूता एवास्ति , तेन त- ४ अधि० । स्था। स्यापि वैफल्यं न जायते । तथा शुद्धनिश्चयमताङ्गीकारे तु सत्तु--सक्त-पुं० । भ्रष्टयवक्षोदे,वृ० १ उ०२ प्रक० । आव०॥ कार्यकारणकल्पनैव मिथ्या । यतः-'श्रादावन्ते च यन्नास्ति
शत्र-पुं० । अगोत्रजे वैरिणि,ौ० । “शत्रोरपि गुणा ग्राह्या, वर्तमानपि तत्तथेति वचनात् । कार्यकारणकल्पनाविरहितं
दोषास्त्यज्या गुरोरपी" ति। उत्त०१०। पा० । ०। शुद्धमविकलमचलितस्वरूपं द्रव्यमस्तीति झेयम् । द्रव्या०२
सत्तुंजय-सञ्जय-पुं० । विमलगिरी, दी। तथा श्रीशत्रुअध्या० शब्दस्यार्थप्रतिपादनसामर्थ्य,रत्ना०४परि०ासम्मका
अयस्योपरि पञ्चपाण्डवैः समं साधूनां विंशतिकोटयः सिद्धा त्रिशूलरूपे (प्रश्न०३ श्राश्रद्वार।)प्रहरणविशेप,संथा। जं० । भ०। प्रश्न। श्री० । आचा। त्रिशूलविशेषे, स०।
इति, श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यादी प्रोक्लमस्ति, सा कोटिविंशतिआचा। सूत्र० । शक्त्यादिषु प्रहरणेषु, सूत्र० १ ध्रु०५
रूपा शतलक्षरूपा वेति, अत्र शतलक्षरूपा कोटिरवसीयते न अ० १ उ० । आत्मनः शक्तिरूप कर्मेति केचित्
तु विंशतिरूपति बोध्यम् ॥ ही० ३ प्रका० । ये पुनरपरे प्राहुरात्मशक्तिरूपं कर्मेति ते एवं प्रपव्याः, सा
श्रीशजयतीर्थस्य माहात्म्यम्शक्तिरात्मनः स्वाभाविकी उतान्यसंपर्कसमुद्भवां ? । तत्र "देवः श्रीपुण्डरीकाख्य-भूभृच्छिखरशेखरम्। यद्याद्यः पक्षस्तदाभावप्रसङ्गः आत्मस्वरूपस्यैव तस्याः प्रलं करिष्णुः प्रासाद, श्रीनाभेयः श्रियेऽस्तु वः ॥१॥ शक्तेरपनेतुमशक्यत्वात् । अन्यथा निरुपाधिकात्मानुपप- श्रीशर्बुजयतीर्थस्य, माहात्म्यमतिमुक्तकम् । तेरामाण्यवस्तुधर्मस्वभावोक्तदोषानुष्वङ्गस्तदवस्थ एव । केवली यदुवाच प्राक, नारदस्य ऋषेः पुरः॥२॥ अथ द्वितीयः पक्षस्तथा च सति यस्योपाधेः संपर्कवशा
तदहं लेशतो वक्ष्ये, स्वपरस्मृतिहेतवे । दात्मशक्तिरात्मनो नारकादिभवभ्रमणरूपा समुपादि तदेवा
श्रीतुमर्हन्ति भव्यास्त-पापनाशनकाम्यया ॥३॥ स्माकं पौगलिक कम्र्मेति न काचित् क्षतिः। प्रा० म०१० ।
युगलम्सत्तिकुमार-शक्निकुमार-पुं०सातवाहननृपपुत्रे,ती०३३कल्प। शत्रुञ्जये पुण्डरीक-स्तपोभृत्पञ्चकोटियुक। सत्तिक्कय-सप्तकक-पुं०। प्राचाराङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य
चैयां सिद्धस्ततः सोऽपि, पुण्डरीक इति स्मृतः ॥ ४॥
सिद्धक्षेत्र तीर्थराजो, मरुदेवो भगीरथः। द्वितीयचूडारूपेऽध्ययनसप्तके, "सत्त सत्तिक्कयं" स्था०७ ठा०३ उ० । श्राय० । श्राचा० । महापरिक्षाऽध्ययने सप्तोहे
विमलाद्रि_हुबली, सहस्रकमलस्तथा ॥५॥ . शकास्तेभ्यः प्रत्यक सबैकका नियूंढाः । श्राचा०२ श्रु० १
तालध्वजः कदम्बश्च, शतपत्रो नगाधिराद् ।। चू०१ १०१ उ० । प्रा० । तथा-'त्तिक्कयत्ति-सप्त सप्तककाः
अष्टोत्तरशतं कूटः, सहस्रं यन्त्रकाण्यभि ॥६॥ अनुदेशकतयैकसरत्वेनैकका अध्ययनविशेषा आचाराङ्ग
ढको लोहित्यः कपर्दि-निवासः सिद्धिशेखरः। स्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपास्ते च समुदायतः
शत्रुञ्जयस्तथा मुक्ति-निलयः सिद्धिपर्वतः ॥ ७॥ सप्तति कृत्वा सप्तकका अभिधीयन्ते । तेषामेकोऽपि सप्त
पुण्डरीकश्चेति नाम-धेयानामेकविंशतिः। कक इति ध्यपदिश्यते, तथैव नामत्वात् एवं च ते सप्तेति ।
गीयते तस्य तीर्थस्य, कृतासुरनराथिभिः॥८॥ तत्र-प्रथमः स्थानसप्तकको, द्वितीयो नैषेधिकीसमककः,
कलापकम्नषेधिकी-स्वाध्यायभूमिः । तृतीय उच्चारप्रश्र(स्र वणविधि- ढङ्कादयः पञ्च कूटा-स्तत्र सन्ति सदैवताः। ससककः,चतुर्थः शब्दसप्तककः, पञ्चमो रूपसप्तककः,षष्ठः प. रक्तपीतरखखानि-विविधौषधिराजिताः ॥६
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सत्तुंजय अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तंजय ढकः कदम्बो लोहित्य-स्तालध्वजकपर्दिनी ।
असंख्यानि च चैत्यानि, महातीर्थेऽत्र जक्षिरे ॥ ३३ ॥ पञ्चेति ते कालवशान , मिथ्यारम्भिरुदीरिताः ॥१०॥ अर्चाः शुलतडागस्था-स्तथा भरतकारिताः । अशीतियोजनान्याये, द्वितीयके तु सप्ततिम् ।
गुहास्थाश्चानमन् भक्त्या, स्यादत्रेकाचतारभाक॥ ३४॥ परि तृतीये तुर्ये वा-ऽरके पश्चाशतं तथा ॥ ११
सम्प्रतिर्विक्रमादित्यः, शालिवाहनवाग्भटी। पञ्चमे द्वादशैतानि , सप्तरत्नी तथान्तिमे ।
पादलिप्ताम्रदत्ताच, तस्योद्धारकृतः स्मृताः ॥ ३५ ॥ इत्याद्यैरवसर्पिण्यां, विस्तरस्तस्य कीर्तितः ॥१२॥ विदेहद्वीपवास्तव्याः, स्मरन्स्येनं सुदृष्टयः । युग्मम्
इति श्रीकालिकाचार्यः, पुरतः स किलाब्रवीत् ॥ ३६ ॥ पञ्चाशतं योजनानि, मूलेऽस्य दश चोपरि ।
अत्र श्री जावडेबिम्बो-द्धारजाते क्रमेण च । विस्तार उच्छ्रयस्त्वष्टौ, युगार्दाशे तपत्यभूत् ॥१३॥ अजितायतनस्थाने, बभूवानुपमं सरः ॥ ३७॥ अस्मिन् वृषभसेनाद्या, असंख्याः समवासरन् ।
अत्र श्रीमरुदेवायाः, श्रीशाम्तेश्चोखरिष्यति । तीर्थाधिराजाः सिद्धाश्चा-ऽतीते काले महर्षयः ॥ १४ ॥
मेघो घाघनृपः कल्कि-प्रपौत्रो भवने सुधीः॥ ३८।। श्रीपद्मनाभप्रभुखा, भाविनो जिननायकाः।
अस्याः पश्चिममुद्धारं, राजा विमलवाहनः ।। अस्मिन् समवसर्तारः, कीर्तिश्रावितविष्टपाः ॥ १५ ॥
श्रीदुष्प्रसव (ह) सूरीणा-मुपदेशाद्विधास्यति ॥ ३६॥ श्रीनाभेयादिवीरान्ताः, श्रीनेमीश्वरवर्जिताः ।
तीर्थोच्छेदेऽपि ऋषभ-कूटाख्योऽयं सुरार्चितः । प्रयोविंशतिरहन्तः, समवासापुरेव च ॥१६॥
यावत्पद्मनाभतीर्थ, पूजायुक्तो भविष्यति ॥४०॥ हेमरूपा द्विजा द्वार्वि-शत्यर्हन्प्रतिमान्वितम् ।
प्रायः पापपरित्यक्ता-स्तियश्चोऽप्यत्र वासिनः । अङ्करत्नजनाभेय-प्रतिमालंकृतं महत् ॥ १७ ॥
प्रयान्ति सुगर्ति तीर्थ-महात्म्याद् विशदाशयाः ॥४१॥ द्वाविंशतिक्षुल्लदेव, कुलिकायुक्तमुच्चकैः ।
सिंहाग्निजलधिव्याल-भूपालविषयुग्बलम् । योजनं प्रमितं रत्न-मयमुत्पन्नकेवले ॥१८॥
चोरारिमारिजं चास्य, स्मृतेनश्येद्भय रणाम् ॥ ४२ ॥ आदीश्वरे श्रीभरत-चक्री चैत्यमचीकरत् ।
भरतेशकृतेर्लेप्य-मयस्याद्यजिमेशतुः । पतस्यामवसर्पिण्यां, पूर्वमत्र पवित्रधीः ॥१६॥
ध्यायन्नुत्साशय्यास्थ, स्वं सर्वभयजिद्भवेत् ॥४३॥ द्वाविंशतिजिनेन्द्राणां, यथास्वं पादुकायुताः।
उग्रेण तपसा-ब्रह्म-चर्येण (च) यदाप्नुयात् । नाम्यत्रायतनश्रेणी, लेप्यनिर्मितबिम्बयुक् ॥२०॥
शत्रुञ्जये तनिवेशात् , प्रयतः पुण्यमश्नुते ॥ ४४ ॥ अकारि चात्र समव-सरणेन सहोचकैः ।
प्रदद्यात्कामिकाहारं, तीर्थ कोटिव्ययेन यः । प्रासादो मरुदेवायाः, श्रीबाहुबलिभूभुजः ॥ २१ ॥
तत्पुण्यमेकोपवास-नाप्नोति बिमलाचले ॥ ४५ ॥ प्रथमोऽत्रावसर्पिण्यां, गणभृत् प्रथमाईतः ।
भूर्भुवःस्वस्त्रये तीर्थे, यत्किचिन्नाम विद्यते । प्रथमं प्रथमस्तत्र, सिद्धः प्रथमचक्रिणः ॥२२॥
तत्सर्वमेव दृष्टं स्यात् , पुण्डरीकेऽभिवन्दिते ॥ ४६ ॥ अस्मिन्नमिविनम्याख्यौ, खचरेन्द्रमहाऋषी ।
अत्राचापि विनारिष्ट्र, समपारिए पक्षिणम् । कोरियमहर्षीणां , सहितौ सिद्धिमीयतुः ॥२३॥ न जातु जायते सत्र-मारभोज्येषु सत्वपि ॥ ४७ ॥ संप्रापुरत्र द्रविड-वालिखिल्यादयो नृपाः ।
भोज्यदानेऽत्र यात्रायै, याति कोटि शुभाशुभम् । कोटिभिर्दशभियुक्ताः साधूनां परमं पदम् ॥ २४ ॥
यात्रायै चलितेनैव, अत्रानन्तगुणं पुनः॥४८॥ जयरामादिराजर्षि-कोटित्रयमिहागमत् ।
प्रतिलाभयतः संघ-मदृष्टे विमलाचले। नारदादिमुनीनां च, लक्षको नवतिः शिवम् ॥ २५ ॥
कोटीगुणं भवेत् पुण्यं, दृष्टेऽनन्तगुणं पुनः ॥ ४६॥ प्रद्युम्नशाम्बप्रमुखाः, कुमाराश्चात्र निर्वृतिम् ।
केवलोत्पत्तिनिर्वाणे, यत्राभूतां महात्मनाम् । प्राप्तवन्तः सार्दाष्ट-कोटिसाधसमन्विताः ॥२६॥
तानि सर्वाणि तीर्थानि, वन्दितानीह वन्दिते ॥ ५० ॥ मनुप्रमितलक्षादि-संख्याभिः श्रेणिभिस्तथा।
जन्मनिष्क्रमणशानो-त्पत्तिमुक्तिगमोत्सवाः । असंख्याताभिः सर्वार्थः, सिद्धान्तरितमासदत् ॥ २७ ॥
वैयस्त्यात् कापि सामस्त्या-जिनानां यत्र जज्ञिरे ॥५१॥ पञ्चाशत्कोटिलक्षादीन् , यावन्नामेयवंशजाः ।
अयोध्या मिथिला-चम्पा-श्रावस्ती-हस्तिनापुरे। अत्रादित्ययशोमुख्याः, सगरान्ताः शिवं नृपाः ॥२८॥
कौशाम्बी-काशि-काकन्दी-काम्पिल्ये-भद्रिलाभिधे ॥५२॥ भरतस्थापत्यापुत्र-श्रीशेलकशुकादयः।
रत्नवाहे-शौर्यपुरे, कुण्डग्रामे ह्यपापया। अत्र सिद्धा असंख्यात-कोटाकोटिभिरायताः ॥ २६ ॥
चन्द्रानना-सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे ॥ ५३ ॥
श्ररिवेतकसम्मेत-वैभाराष्टापदादिषु । मुनीनां कोटिविंशत्या, कुम्त्या च सद्द निर्वृताः कृताईत्प्रथमोद्धाराः, अत्र ते पञ्च पाण्डवाः ॥ ३०॥
यात्रा यस्मिस्तेषु यात्रा-फलाच्छतगुणं फलम् ॥ ५४ ॥ द्वितीयषोडशावत्र, जिनशान्तिजिनेश्वरी ।
चतुर्भिः कलापकम् । वर्धरात्रचतुर्मासी, तस्थतुः स्थितिदेशिनी ॥३१॥
पूजापुण्याच्छतगुणं, पुण्यं बिम्बविधापने । श्रीनेमेषचनावात्रा-गतः सर्वरुजापहम् ।
चैनेत्रे सहस्रगुणं, पालनेऽनन्तशोगुणम् ॥ ५५ ॥ नन्दिषेणगणेशोऽत्रा-जितशान्तिस्तवं व्यधात् ॥ ३२॥ यः कारयेदस्य मौलौ, प्रतिमां चैत्यवेश्म पा। याता संख्या उद्धारा, असंख्याः प्रतिमास्तथा ।
भुक्त्वा भारतवर्षर्चि, स स्वर्गश्रियमश्नुते ॥ ५६ ॥
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( ३३२) स जय अभिधानराजेन्द्रः।
सत्तुंजय नमस्कारादिसहित-तपांसि विदधन्नरः।
आरुह्य चैष शिखरं, सकलत्रः प्रमोदतः। उत्तरोत्तरतपसां, पुण्डरीकस्मृतेर्लभेत् ॥ ५७ ॥
जावडिनरिनर्ति स्म, चश्चद्रोमाञ्चकञ्चुकः ॥२१॥ तीर्थमेतत्स्मरेन्मर्त्यः, करणत्रयशुद्धिमान् ।
अपतीर्थिकबोहित्था, नष्वाऽष्टादश प्रापतन् । षष्ठादिमासिकान्तानां, तपसां फलमाप्नुयात् ॥ ५८ ॥ तद्रव्यव्ययतः श्रेष्ठी, तत्र चक्रे प्रभावनाम् ॥ २॥ अद्यापि पुण्डरीकाऽद्रौ, कृत्वाऽनशनमुत्तमम् ।
इत्यं जावडिराद्याहत्-पुण्डरीककपर्दिनाम् । भूत्वा शीलविहीनोऽपि, सुखेन स्वर्गमृच्छति ॥५६॥ मूर्ति निवेश्य संजझे, स्वर्विमानातिथिर्विभाक् ॥३॥ छत्रचामरभृतार-ध्वजस्थालप्रदानतः।
दक्षिणाने भगवतः, पुण्डरीक इहादिमः । विद्याधरो जायतेऽत्र, चक्री स्याद्रथदानतः ॥ ६०॥
वामाझेदीप्यते तस्य, जावद्धिः स्थापिताऽपरः ॥४॥ दशान पुत्रनामानि, दानो भावशुद्धितः ।
इक्ष्वाकुवृष्णिवंश्याना-मसंख्याः कोटिकोटयः । भुजानोऽपि लभेच्चैव, चतुर्थतपसः फलम् ॥ ६१ ॥
अत्र सिद्धाः कोटिकोटि-तिलकं सूचयत्यदः ॥८५॥
पाण्डवाः पञ्च कुन्ती च, तन्माता च शिवं ययुः। द्विगुणानि तु षष्ठस्या-ष्टमस्य त्रिगुणानि तु । चतुर्गुणानि दशम-स्येति तानि ददत्पुनः ॥ ६२॥
ख्यापयन्तीति तीर्थेऽत्र, षडेषां लेप्यमूर्तयः॥८६ ॥ फलं भवेद् द्वादशस्य, ददत्पश्चगुणानि तु ।
राजादनश्चैत्यशखिी, श्रीसंघाद्भूतभाग्यतः। तेषां यथोत्तरं वृद्धया, फलवृद्धिरपि स्मृता ॥६३ ॥
दुग्धं वर्षति पीयूष-मिव चन्द्रकरोत्करः ॥ ८७ ।। पूजास्नपनमात्रेण, यत्पुण्यं विमलाचले।
व्याघ्रीमयूरप्रमुखा-स्तियश्चो भक्तमुक्तिनः । नान्यतीर्थेषु यत्स्वर्ण-भूमिभूषणदानतः॥ ६४ ॥
सुरलोकमिह प्राप्ताः, प्रणतादीशपादुकाः ॥ ८८ ॥ धूपोरक्षेपणतः पक्षो-पवासस्य लभेत्फलम् ।
वामे सत्यपुरस्यास्य, द्वारे मूलजिनौकसः ।
दक्षिणे शत्रुजिञ्चैत्य पृष्ठ चाष्टापदः स्थितः ॥८६॥ कर्पूरपूजया चात्र, मासक्षपण फलम् ॥ ६५ ॥ निर्दोषैरथ भक्तायै-र्यः साधून प्रतिलाभयेत् ।
नन्दीश्वरस्तम्भनको, जयतां नाम कृच्छ्रतः ।
भव्येषु पुण्यवृद्धधर्थ-मवतारा इहासने ॥१०॥ फलेन कार्तिके मासे, क्षपणस्य स युज्यते ॥६६॥
आत्तासिना विनमिना, नेमिना च निषेवितः। त्रिसंध्यं मन्त्रवाःस्नातो, मासान्तं चैत्यपूजया।
स्वर्गारोहणचैत्ये च , श्रीनाभेयः प्रभासते ॥ १॥ नमोऽईद्धः फलं ध्याय-निहार्जेत्तीर्थकृत्पदम् ॥ ६७ ॥
तुझे शृङ्गे द्वितीये च, श्रेयांसः शान्तिनेमिनौ । पादलिप्तः पुरे यातः, प्रासादी पार्श्ववीरयोः ।
अन्यवृषभवीराद्या, अस्यालकुर्वते जिनाः ॥१२॥ अधोभागे चास्य नेमि-नाथस्यायतनं महत् ॥ ६॥
मरुदेवां भगवती, भवनेऽत्र भवच्छिदाम् । तिनः कोटीखिलक्षोना, व्ययित्वा वसु वाग्भटः ।
नमस्कृत्य कृती स्वस्य, मन्यते कृतकृत्याताम् ॥६३॥ मन्त्रीश्वरो युगाधीश-प्रासादमुददीधरत् ॥ ६६ ॥
यक्षराजः कपर्दीह, कल्पवृक्षः प्रगमुखः । दृष्टैष तीर्थप्रथम-प्रवेशेऽत्रादिमाईतः।
चित्रान् यात्रिकसंघस्य, विघ्नान् मर्दयति स्फुटम् ॥ ६४ विशदा मूर्तिराधत्ते, दृशोरमृतपारणम् ॥ ७० ॥
श्रीनेम्यादेशतः कृष्णो, दिनान्यष्टावुपोषितः ।। अष्टोत्तरे वर्षशते-ऽतीते श्रीविक्रमाविद्द ।
कपर्दियक्षमाराध्य, पर्वतान्तर्गुहान्तरम् ॥६५॥ बहुद्रव्यव्ययाद्विम्ब, जावडिः समचीकरत् ॥ ७१॥
अद्यापि पूजां शक्रेण, बिम्बत्रयमगोपयत्। । भास्करद्युतिमम्माण-मणिशैलतटीस्थितम् ।
अद्यापि श्रूयते तत्र, किल शक्रसमागमः ॥६६॥ ज्योतीरसाख्यं यद्रत्नं, तत्तेन घटितं किल ॥ ७२॥
युग्मम्मधुमत्यां पुरि श्रेष्ठी, वास्तव्यो जायडिः पुरा ।
पाण्डवस्थापितश्रीम-दवृषभोत्तरदिग्गता। श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्य, श्रीवैरस्वामिनोऽतरत् ॥ ७३॥ .
सगृहा विद्यतेऽद्यापि, यावत्क्षुल्लतडागिका ॥ १७॥ . गन्धोदकस्नात्ररुचि-लेप्यविम्ब शुभोऽवशः।
यक्षस्यादेशतस्तत्र, दृश्यन्ते प्रतिमाः किल । स्मृत्वा चक्रेश्वरी सैष, मम्माणाद्रिखनीमगात् ॥ ७४॥ तत्रैवाजितशान्तीशी, वर्षा रात्रमवस्थितौ ॥८॥ निर्माप्येहाश्मनी मूर्ति, रथमारोप्य चाऽचलत् ।
तयोश्चैत्यद्वयं पूर्वा-भिमुखं तत्र वाऽभवत् । विमलादि सभार्योऽसौ, पद्यया हृद्यया दिने ॥ ७५ ॥ निकषाजितचैत्यं च, बभूवानुपमं सरः ॥ ६६ ॥ ययौ यावन्तमध्वानं, दिवसेऽप्रतिमो रथः ।
मेरुदेव्यन्तिके शान्ते-श्चैत्यं शैत्यकरीदृशम् । रात्रौ तावन्तमेवासी, पश्चाद् व्यावर्त्तते भुवः॥ ७६ ॥ भवति स्म भवभ्रान्ति-भिदुरं भव्यदेहिनाम् ॥१०॥ खिन्नः कपर्दिन स्मृत्वा, स्पृष्ट्वा हेतुं च तद्विधौ।
श्रीशान्तिचैत्यस्य पुरो, हस्तानां त्रिंशतां पुनः।। रथमार्गेऽपतत्तिर्यग्, प्रयतः सह जायया ॥ ७७॥
पुरुषैः सप्तभिरधः, खनी हे स्वर्णरूप्ययोः ॥ १०१॥ तत्साहसप्रसन्नेन, देवतेनाधिरोपितः।
ततो हस्तशतं गत्वा, पूर्वद्वाराऽस्ति कृपिता। रथः सबिम्बोऽद्रेः शृङ्गे, दुःसाधं सात्त्विकेषु किम् ? ॥७॥ अधस्तादष्टभिर्हस्तैः, श्रीसिद्धरसपूरिता ॥ १०२॥ मूलनायकमुत्थाप्य, न्यस्ते बिम्बे तदास्पदे ।
श्रीपादलिप्ताचार्येण, तीर्थोद्धारकृते किल । लेप्यबिम्बारटिस्तेन, पर्वतः खण्डशोऽदलत् ॥ ७ ॥ अस्ति संस्थापित रत्नं, सुवर्ण तत्समीपगम् ॥ १०३ ॥ तन्मुक्ताऽथ तडिच्चेणी, बिम्बन करमर्दिता ।
पूर्वस्यामृषभबिंया-दधश्चर्षभकूटतः,। सोपानानि छिद्रयन्ती, निर्ययौ शैलदेशभित् ॥८॥ धषि त्रिंशतं गत्वो-पवासाँस्त्रीन् समाचरेत् ॥ १०४॥
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सतुंजय
कृते बलिविधानादौ याराध्या स्वं प्रदर्शयेत् । लाशयाय शिलां, रात्रौ मध्ये प्रविश्यते || १०५ || तोपवासतः सर्वाः संपयन्ते न सिद्धयः । या नमता वेदेकावतारभा ॥ १०६ ॥ पुरो धनुःपञ्चशत्या पाषाणकुडिका ।
"
ततः सप्तक्रमान् गत्वा कुर्यातद्वलिविबुधः ॥ १०७ ॥ शिलोत्पाटनतस्तत्र, कस्यचित्पुण्यशालिनः । उपवासद्वयेन स्यात्, प्रत्यक्षा रसकूपिका ॥ १०८ ॥ कल्किपुत्रो धर्मदन भावीशः परमात दिने दिने जिनयिं प्रतिष्ठाप्य च भीषयते ॥ १०६ ॥ श्रीमच्छत्रुञ्जयोद्धारं कर्त्ताऽथ जितशत्रुराट् ।
राजधी भविष्यति तदात्मजः ॥ ११० ॥ तत्स्नुघोषाण्यः श्री शान्तिमरुदेषयोः । कपर्दिक्षस्यादेशाचैत्यमत्रोद्धरिष्यति ॥ १११ ॥ नन्दः सरिरथाचर्य, श्रीप्रभोर्माणिभद्रकः । धनमित्र यशोमत्रस्तथा विध सुमङ्गल] (.) रसेनः इत्यस्योद्वारकारका अब दुष्यहोतो. भावी विमलवाहनः॥ ११३ ॥ यात्रिकान् येऽस्य बाधन्ते चापहरन्ति थे । पतन्ति नरके घोरे, सान्वयास्तेऽहसा नराः ॥ ११४ ॥ यात्रां पूजां रक्षां यात्रिकाणां च सस्कृतिम् । कुर्वाणो वत्सगोत्रोऽपि स्वर्गलोके महीयते ॥ ११५ ॥ श्रीवस्तुपालोपान, पीडादिकृतानि च । वक्ता पारं नयत्येव, धर्मस्थानानि कीर्तयन् ॥ ११६ ॥ दुःखमासचिव म्लेच्छ-सम्मान्य भाविनम् । मन्त्रीः श्रीवस्तुपाल- तेजपालाग्रजः सुधीः ॥११७॥ मम्मा (म्मणो) परत्मेन, निर्माप्यान्तस्तु निर्मले । न्यधाद्भूमिगृहे मूर्ती, श्रद्यार्छत् - पुण्डरीकयोः ॥ ११८ ॥ युग्मम्प्रक्रियास्थान - संख्ये विक्रमवत्सरे । जवस्थापित वयं लेात् ॥ ११६॥ वैक्रमे वत्सरे चन्द्रयानमिते (१३७१) खति । श्रीमूलनायक साधुः श्रीसमरो व्यधात् ॥१२०॥ ती संपतो ये बभूवन्ति ये ।
ये भविष्यन्ति धन्यास्ते, नन्द्यासुस्ते चिरं श्रिया ॥ १२१ ॥ कल्पतः पूर्व कृतं श्रीमाना। श्रीवज्रेण ततः पाद - लिप्ताचार्यैस्ततः परम् ॥ १२२ ॥ संपत् प्रीतः कामितप्रदः । श्रीशत्रु कल्पोऽयं श्रीजिनप्रभूरिभिः ॥ १२३॥ कल्पेऽस्मिन् वाचिंते ध्याते, व्याख्याते पठिते श्रुते । स्यात्तृतीयभवे सिद्धि-व्यानां शक्तिशालिनाम् ॥ १२४॥ परीतोऽपि गुणास्तथ
(21) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
नाम पार्यन्ते विधेरपि ॥ १२५ ॥ भवेद्यात्रोपनम्राणां नृणां तीर्थानुभावतः । प्रायो मनःपरीणामः, शुभ एव प्रवर्त्तते ॥ १२६ ॥ यात्रायें प्रचलत्संघ रथाभ्यनुपादजः । रेणुरङ्गे लगन भव्य - पुंसां पापं व्यपोहति ॥ १२७ ॥ यावान् को पत्र मासक्षपणो भवेत् । नमस्कारसहितादेरपि तावान् कृतस्त्वयि ॥ १२८ ॥
58
श्रीनाभेयकृतावास - वासवस्तवनेन च ।
मनसा वचसा नत्वा, सिद्धिक्षेत्र ! नमोऽस्तु ते ॥ १२६ ॥ त्वत्कल्पमेतं निर्मायं निर्माय मनसा मया ।
दार्ज पुण्यं तेनास्तु विश्यं वास्तवसस्यवत् ॥ १३० ॥ पुस्तकम्पस्तमपि यः कल्पमेनं महिष्यति । पक्षेण काङ्क्षितास्तस्य सिद्धिमेष्यन्ति संपदः ॥ १३१ ॥ प्रारम्भेऽप्यस्य राजाधिराजः संघे प्रसन्नवान् ।
अतो राजप्रसादाख्यः, कल्पोऽयं जयताश्चिरम् ।। १३२ ।। श्रीविक्रमाब्दे बाणा विश्वदेव शिती । सप्तम्यां तपसः काव्य-दिवसेऽयं समर्पितः ॥ १३३ ॥ ती० १ कल्प | 'नाईतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् । न श्रीपतीर्थ, श्रीकल्पाश्च परं श्रुतम् ॥ १ ॥ ' कल्प० १ अधि० १ क्षण ।
अथ पडिडाइपिंगणिनो यथा
जय
-
46
" दरोऽसौ सर्वसौख्यानि, त्रिशुद्धयाराधितो यतिः । विराधितश्व तैरश्च्य - नरकानल्पयातनाः ||६०॥ चारित्रिणो महासच्चा, व्रतिनः सन्तु दूरतः । निष्क्रियोऽप्यगुणोऽपि न विराच्यो मुनिः क्वचित् ॥ ६१ ॥ यादृशं तादृशं चापि दृष्ट्वा वेषधरं मुनिम् । गृही गौतमवद्भक्त्या, पूजयेत्पुण्यकाम्यया ॥ ६२ ॥ वन्दनीयो मुनिर्देषो न शरीरं हि कस्यचित् । व्रतिवेषं ततो दृष्ट्टा, पूजयेत्सुकृती जनः ॥ ६३ ॥ पूजितो निष्क्रियोऽपि स्या-जया व्रतधारकः । अवज्ञातः सक्रियोऽपि, व्रतेऽस्याच्छिथिलादरः ||६४ || दानं दया क्षमा शक्तिः सर्वमेवान्यसिद्धिकृत् । तेषां ये व्रतिनं दृष्ट्ा न नमस्यन्ति मानवाः ।। ६५ ॥ राधनीयास्तदमी, त्रिशुद्धया जैनलिङ्गिनः ।
न कार्या सर्वथा तेषां निन्दा स्वार्थविपातिका ||३६|| कारणं तव कुष्टा (ष्ठानां, महीपाल ! स्फुटं ह्यदः । मा कदापि मुनीन् क्रुद्धानपि त्वं तु विराधयेः ॥६७॥" इति वृद्ध श्रीषु जयमाहात्म्यद्वितीयसर्गमध्यगत पांमध्ये केवललिङ्गमात्र धरोऽपि मुमुक्षुर्वन्दनीयो गौतमवत्पूजनीयश्च तत्कथं केन हेतुनेति १ । १ । अथैतस्य प्रश्नस्य प्रतियची यथा इतेऽसी सर्वसयानीत्यादि शत्रुञ्जयमाद्वितीयसर्गमध्यगतश्लोकास्तु कारकिपि धिमाश्रित्य तीर्थोद्भावनयुद्धया या कृताः संभावयन्ते " इति न कश्चिद्दोष इति ।। १ ।। ही० २ प्रका० । ' पश्चकखाण' शब्दे पञ्चमभागे पृष्ठे मूलगुणप्रत्याख्यानव्याख्यानाथसरे उदाहते खनामख्याते साकेतराजे पे द व्याजेन सामायिकादिषडध्ययनरूपाणि भावरत्नानि गृहीतानि । आव० १ ० ।
सतुंग- शक्तुक-पुं०
यशोदे, तदिवसकता एजं
विक्रमसंवत् १३८५ माघ शुक्ल सप्तम्यां शुक्रवासरे।
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सत्तुग
वा भुग्गा पासाणजतरंगे दलिया महिणा सत्तुगा भरांति । नि० चू० १ उ० । स-सक्तुचूर्ण - पुं० [यवसषु
-पुं० । वैरिलोके, ति० ।
( ३३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
० १ ० ।
सत्तुजण- शत्रुजनसजुदाह शत्रुदाह५० नि० ० ३ उ० । सतुमद्दन - शत्रुमर्दन - पुं० । तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थनादिषु सइस्रमानमधने, स० ।
सत्य- शक्तुक-पुं० । भ्रष्टयवक्षोदे, । उत्तरावद्दे सतुया - नेसु वा जं विसए दाऊण पच्छा अगमवक्खा पगारादिजंति । नि० चू० १ उ० ।
सनुसेव शत्रुसेन पुं० नागस्य गृहपतेः सुतसायां भार्यायामुत्पने पुत्रे, अन्त० १ ० २ वर्ग १ ० । ( स च श्ररिष्टनेमेरन्तिके प्रम्रज्य शत्रुञ्जयेत्स्यतीत्यन्तकृशानां तृतीये वर्गेष अध्ययने सुचितम् । )
पत्र भयो ह्यन्ते तादृशे खाने,
सत्तुस्सेह - सप्तोत्सेध - त्रि० । सप्तकुम्भादिषु स्थानेषूनते, शा० [१०] [अ०] सप्तहस्तप्रमाराशरी ०२०१ पाहु० सप्तहस्तप्रमाणशरोच्थे, सू० प्र० पाहु सत्थशस्त भि० प्रशस्ते, पो० ७ विव० ।
शख न० शस्यन्ते हिंस्यन्ते श्रनेन प्राणिन इति शस्त्रम् । श्राचा० १४० १४०३३० । जीवशासनदेतौ स्था० ६ठा०३ उ० । उपपातकारिणि, प्राया ०१०२०१० खरिकाद्य ध्यायुधे, प्रश्न ०५ संव० द्वार | प्रव० । व्य० । स्था० । प्रहरणे, सूत्र०१०८ प्र० |ज्ञा०|दात्रादिके, सूत्र० १० ४ ० १ उ० । जं जस्स विणासकारणं तं तस्स सत्यं भरणति । नि० चू० १० केनापितोपकरणे विपा० १०६० शत्र द्रव्यभावभिनम् । तत्र व्यशखकायपरकायोभयरूपम् । भावशस्त्रं तु असंयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणः । श्रा
०१०१०२० यमपि समासविभागा द्विधा-तत्र समासो यत्रम कायविषयकमुरसेचन उपक्षे पाद विभागस्तु किंचित्कार्य परकार्य यात्रा चा० १ ० १ ० ३ उ० ।
शस्त्रनिशेषः-]]
दव्वं सत्यग्गि विस- हंबिलखारलोणमादीयं । भावो उ दुप्पउत्तो, वाया का अविरती य || ३६ ॥ शस्त्रस्य निक्षेपो नामादिश्चतुर्धा व्यतिरिक्तं द्रव्यशस्त्रं खदगाद्यनिषिदालसारलवणादिकम् भावशखं दु भावः अन्तःकरणं, तथा वाक्कायावविरतिश्चेति जीवापघातकारित्वादिति भावः । श्राचा०१ श्रु० १ ० १ ० । ( अत्रत्या वक्तव्यता 'पुढवीकाइय' शब्दे पञ्चमभागे ६७८ पृष्ठे गता । ) ( पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरसानां शस्त्राणि पृथिव्यादिशक्रानि । )
अस्थि सत्यं परेण परं, राsस्थि असत्यं परेण परं । ( सू० १२४x )
तंत्र इस्पशस्त्रं कृपाणादि तत्परखापि परमस्ति
सत्य
,
पितरमस्ति लोहकर्तु संस्कारविशेषात् । यदि वा-शमित्युपपातकारितत एकमात्पीडाकारि पीडाकापर्यंत तो परमिति तथा कृपाणाभिघाताद्वातो स्कोपस्ततः शिरोतिस्तस्या ज्यरस्ततोऽपि मुखशपमूदय इति । भावशस्त्रपारंपर्य त्वेकसूत्रान्तरिते स्वत एव प्रत्याख्यानपरिशाद्वारेण वक्ष्यति यथा च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारंपर्य वा विद्यत अशस्त्रस्य तथा नास्तीति दशयितुमाह-'गरिब' इत्यादि नास्ति न विद्यतं किं तत्खं संयमस्तत्परेण परमिति प्रकर्षगत्यापनमिति । तथाहिपृथिव्यादिनां सर्वकार्या न मतभेदोऽस्तीति पृथिव्यादिषु समभाषत्वात् सामाधिकस्य । अथवा शैलेश्व स्थासंयमादपि परः संयमो नास्ति तदूर्द्ध गुणस्थानाभावादिति भावः, यो हि क्रोधमुपादानतो बन्धतः स्थितितो विपाको नानुबन्धिलक्षणः समाश्रित्य प्रत्यास्थानरिया जानाति सोऽपरमानादिदश्यपीति । श्राचा० १ ० ३ श्र० ४ उ० ।
सत्यमेगे उ सिक्खति । (०४+ )
,
शस्त्रम् - खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा- धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुष्ठु सातगीरवसुद्धा एक-केचन शिक्षन्ते उद्यमेन गृह्णन्ति तच्च शिक्षितं सत् प्राशिनां जन्तूनां विनाशाय भवति । तथाहि तत्रोपदिश्यते एवंविधमालीदयाली हादिभिर्जीवे व्यापादयितस्ये स्थानं विधेयं तदुक्रम्" मुष्टिनामु
निवेशयेत् हतं लक्ष्यं विजानीयाद्यदि मूर्धा न कम्पते ॥ १॥ " सूत्र० १० ८ श्र० । शस्त्रमिव शस्त्रम्। मृषायादादिके प्राण्युपतापकारित्वात्तेषाम् सूत्र० १० ० शाख न० शिष्यते बोध्यतेनेति शास्त्रम् । विशे० ॥ श्र० म० । नं० । सूत्र० ।
,
सासिजए तेरा तर्हि, व नेयमायावतो सत्थं ॥ १३८४|| 'शासु' अनुशिष्टी, शास्यते यमात्मा या नेनास्मादस्मिन्निति या शास्त्रम् शास्यते तदिति या शास्त्रमिति गाथार्थः । विशे० । श्रुते, आ० चू० १ ० जैनागमे,
"
1
२४ अष्ट० ।
-
तस्मात्सदैव धर्म्मार्थी, शास्त्रयत्नः प्रशस्यते ।
,
लोके मोहान्धकारेऽस्मिन् शाखालोकः प्रवर्त्तकः । २२४॥ तस्माद विधानतः परानर्धभावात् सदेव सर्वकामेव धर्म्मार्थी-धर्माभिलाषुकः शास्त्रयत्नः- शास्त्रादरपरः प्रशस्यत-श्लाध्यते । कुतः यतः लोक-जगत मोह एवान्धकारस्तमो यत्र स तथा । तत्र शास्त्रालोकः- शास्त्रप्रकाशः प्रवर्त्तकः प्रवर्त्तयिता परलोकक्रियासु । अथ शास्त्रमेव स्तुवन्नाहपापमयैौषधं शास्त्रं, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् ।
चक्षुः सर्वत्र शास्त्रं शास्त्रं सम्बर्थिसाधनम् ॥ २२५ ॥ पापामयौषधं - पापव्याधिशमनीयं शास्त्रम्, तथा शास्त्रं पुरापनिबन्धनम् पवित्रकृत्यनिचित्र सूक्ष्मवादादाय गच्छति पचत्सर्वत्र शास्त्रम् शास्त्रं सर्वार्थसाधनं - सर्वप्रयोजननिष्पत्तिहेतुः ।
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सत्य
ततः
न यस्य भक्तिरेतस्मि - स्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि । अन्धप्रेचाक्रियातुन्या, कर्मदोषादसत्फला ॥ २२६ ।। न यस्य धर्मार्थिनो भबिंदुमानरूपा एतस्मिन् शास्त्र तस्य धर्मक्रियाऽपि हि देववन्दनादिरूपा, किं पुनरम्यरूपेत्यपि हिशब्दार्थः अन्धमेाक्रियातुल्या अन्धस्यायलो - कनकृते या प्रेक्षक क्रिया तनुल्या कर्मदोषात्तथाविधमोहोदयादसत्फला अविद्यमानाभिप्रेतार्थ संपद्यत इति । एतदपि कुतः ?, यतःयः श्राद्धो मन्यते मान्या - नहंकारविवर्जितः । गुणरागी महाभाग - स्तस्य धर्म्मक्रिया परा ।। २२७ ॥ यः श्राद्धः सन्मार्गश्रद्धालु मन्यते - बहुमानविपयीकुरुते मान्यान् देवतादीन, अहंकारविवर्जितो मुलाभिमानः, अत ए गुरुरानी गुणानुरागवान् महाभागः प्रशस्याचिय क्लि:, किमित्याह -- तस्य - शास्त्रपरतन्त्रतया मान्यमन्तुः, धर्मक्रिया - उक्तरूपा - परा प्रकृष्टेति ।
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( ३३५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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व्यतिरेकमाह
यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः । उन्मत्तगुणतुल्यवान प्रशंसास्पदं सताम् ।। २२८ ॥ यस्य त्वनादरः- श्रगौरवरूपः शास्त्रे तस्य श्रद्धादयः-श्रद्धासंवेग निर्वेदादयो गुणाः । किमित्याह- उन्मत्तगुणतुल्यत्वा
- तथाविधग्रहावेशात् सान्मादपुरुषशीयौदार्यादिगुणस शत्वाच प्रशंसास्पदं न साधास्थानं सतां विवेकिनामिति । एतदपि कथम् ? यतः
-
,
मलिनस्य यथाऽत्यन्तं जलं वस्त्रस्य शोधनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः ॥ २२६ ॥ मलिनस्य - मलवतो यथाऽत्यन्तम् श्रतीय जलं -- पानीयम् वस्त्रस्य प्रतीतरूपस्य शोधनं-शुद्धिहेतुः अन्तःकरण -- रत्नस्य अन्तःकरणं-- मनः, तदेव रत्नं, तस्य चिन्तारत्नादिभ्यो ऽप्यतिशायिनः, तथा शास्त्रं विदुः - जानते शोधनं बुधाः- बुद्धिमन्तः ।
अत एव-
शास्त्रे मर्जिगन्यैर्मुक्रेनी परोदिता ।
अत्रैवेयमतो न्याया- तत्प्राप्त्यासन्नभावतः || २३० ॥ शास्त्रे भक्तिरुक्तरूपा जगद्वन्यैर्जगत्त्रय पुजनीयैस्तीर्थकृद्भिमुझे ती वशीभूतमुक्कियोषित् समागमविधायिनी परा प्रकृष्टा उदिता निरूपिता अशा वयं भक्रितो मु क्रितिभाषादेव देतेाः स्याच्या संगता कुत इत्याह-तत्प्रा ध्यासन्नभावतः मुक्तिप्रानहि मुक्ति रनासन्नः शास्त्रभक्तिमान् संपद्यते श्रतः शास्त्र एवेयं न्याय्येति । यो० बि० । “सुत्तं ति वा तंतं ति वा गंथो ति वा पाठोत्ति या सत्थं ति वा एगट्ठा | श्र० चू० १ ० । श्राचा० । शास्त्रस्यादी प्रयोजनादि उपन्यसनीयम् आ० म० १ ० (अत्रत्या व्याख्या 'प्रायस्वयमिति भा गे ४५६ पृष्ठे गता । ) ( ' मंगल ' शब्दे षष्ठे भागे ५ पृष्ठे म लस्य शास्त्राङ्गता उक्ता । )
1
सत्थपरिणामिय
स्वस्थ त्रि० । स्वस्मिन् द्वितीति खयः। अनावाचिंत
हा० ३२ अ० ।
सार्थ अर्थयुक्ते, ० ।
-
भंडीवलिग भरवह - ओदरिया कप्पडियसत्थो । सार्थः पञ्चविद्यथा-भराडी गन्त्री पलक्षितः प्र थमः साधा, पहिलका:- करमीयेसरवलीप्रभृतयः तदुप सक्षितो द्वितीयः भारवहा:- पोइलिकावाहकास्तेषां साथस्तृतीयः, श्रदरिका नाम - यत्रागतास्तत्र रूपकादिकं प्रक्षिप्य समुद्दिशन्ति समुदेशनानन्तरं भूयोऽप्यतो गच्छ न्ति एष चतुर्थः कार्यटिका भिक्षाचराः सह भिक्षां मन्तो व्रजन्ति ते सार्थाः पञ्चमः । वृ० १ ० ३ प्रक० । नि० ० ।
स्वास्थ्य - न० | स्वस्थस्य भावः स्वास्थ्यम् । अनाबाधतायाम्, हा० ३२ अष्ट० । समाधौ श्र० म० १ ० । ० ।
आव० । स्था० ।
सत्यकोस - शत्रकोस - पुं० शिरावेधादिशख समुरावे, १०१ ४०३ प्रक० (अस्योपयोग 'राहणा ५१७ पृष्ठे मतम् ।) सुरनरदनादिमान श०१०१३० शस्त्रकोशो नखरदच्छेदादिभाजनम्। विपा० ० १ ० सत्थग्गहण - शस्त्रग्रहण - न० । शस्त्र - खन्नादि तस्य ग्रहणं स्त्रीकरणम् । शस्त्रादिधारणे तेषां वधार्थे व्यापारणे, ग०२ अधि० । सत्थघायक - सार्थघातक - त्रि० । सार्थनाशके, प्रश्न०३ श्र०
द्वार ।
सत्थजत - शास्त्रयत्न- पुं० । शास्त्रे यत्तो यस्येति समासः । श्रा गमे यतमाने "पापामयीष शास्त्र शाखं पुरुषनिवन्धनम्। चक्षुः सर्वशास्त्रं शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् ॥ १॥ घ०१] अधि सत्थजाय - शस्त्रजात - न० । श्रायुधविशेषे, आचा०२ श्रु० १ चू० ३ ० २ उ० ।
सत्थजुत्तिसय-शास्त्रयुक्लिशत - न० । शास्त्रस्य युक्तयः तेषां शतम् । अनेकागंमरद्दस्यावबोधे, अष्ट० २६ अ० । सत्थजोग- शास्त्रयोग - पुं०। शास्त्रांक्ने योगे, "यथाशक्त्यप्रमत्तस्य तद्भावबोधतः शास्त्रयोगवादार्या राधनाप दिश्यते ||४||" द्वा० १६ द्वा० (अत्रत्या व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२७ पृष्ठे गता । ) सत्धन्धवाहय-शास्त्रार्थबाधन न० आगमार्थविराधने प्राशातिपातादिरूपे पा० १६० सरथपराग-सार्थपञ्चक० सत्य शम्दोकानां पञ्चानां सार्थानां पञ्चतथ्याम्, नि० चू० १६ उ० । सत्थपत्थावणा - शास्त्रप्रस्तावना - स्त्री० । शास्त्रीयोपोद्घाते,
।
स्था० १ ठा० । सत्यपरिणामिय-शस्त्रपरिणामित त्रि० शस्त्रेण स्वकायपकायादिना निजीकृतं पर्यगन्धरसादिभिश्च परिणामतम् । सूत्र० २ श्रु० १ श्र० । वर्णादीनामन्यथाकरणेनाचित्ती कृते, भ०७ २०१ उ० । कृताभिनवपर्याये, भ०५ श०२ उ० ।
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सत्थपरिमा अभिधानराजेन्द्रः ।
सदहाण सत्थपरिणा-शस्त्रपरिज्ञा-स्त्री० शस्त्रं द्रव्यभावभेदादनेकविधं । सत्थसंवेदण-स्वार्थसंवेदन-न । स्वं चार्थश्च स्वार्थी तयोः तस्य जीवशंसनहेतोः परिक्षा-ज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानं यत्रो- संवेदनं स्वार्थसंवेदनम् । शब्दार्थज्ञाने, सम्म० २ काण्ड। च्यते सा शस्त्रपरिज्ञा । षट् जीवनिकायस्वरूपरक्षणोपायगर्भे सत्थसच्च-स्वार्थसत्य-त्रि० । स्वस्य अर्थः स्वार्थः तस्मिन् सप्राचाराङ्गस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने , स्था०६ त्यः । स्वाभिमतस्थापनकुशले, अष्ट० १६ अष्ट। ठा० ३ उ । प्रश्न । प्राचा० । श्राव।
सत्था-शास्तृ-त्रि० । अनुशासितरि,सूत्र०९ श्रु०१ १०१ उ०। सातदेशार्थाधिकारः शनपरिक्षाया अयम
श्राचा०/तीर्थकरे, नि००?? उ०) जीवो छक्कायपरू-वणा य तेसिं बहे य बंधो ति। सत्थाइ-शास्त्रादि-पुंन शास्त्रभारम्भे, सूत्र०१ श्रु०१ १०१ उ०। विरईए अहिगारो, सत्थपरिमाएँ णायव्वो ॥ ३५॥ सत्थाईय-शस्त्रातीत-न०। शस्त्रादग्न्यादरतीतमुत्तीर्ण शस्त्राती तत्र प्रथमोहेशके सामान्यन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्यम् ,शेषे
तम् । औन शस्त्रमग्न्यादिकं तनातीतं प्रासुकीकृतं शस्त्राती. षु पद्सु विशेषेण पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति सर्वेषां चाव- तम् । सूत्र०२थु०१० अग्न्यादिप्रासुकीकृते,म०५ श०३ उ० . साने बन्धविरतिप्रतिपादनमिति । एतच्चान्ते उपात्तत्वात्प्र-सत्था(त्थ)पारगय-शास्त्रपारगत-पुं०। चतुर्वेदादिशास्त्रपार• . त्येकमुद्देशार्थेषु योजनीयम् । प्रथमोद्देशके जीवस्तद्वधे बन्धो गामिनि, अनु०। विरतिश्चेत्यवमिति । तत्र शस्त्रपरिक्षेति द्विपदं नाम । श्रा- सत्थि-स्वस्ति-अव्या माङ्गल्ये, स्था०४ ठा०२ उ०। चा० १ श्रु०१ १०१ उ० ।
सत्थिग-सार्थिक-पुं०। सार्थो विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थ- .. सत्थवाह-सार्थवाह-पुं० । साथै बाहयतीति सार्थवाहः।
वाहे, वृ० १ उ०३ प्रक०। नि० चू०६ उ०। सार्थनायके, प्रज्ञा०२० पद ५ द्वार । “गणि- स्वस्तिक-पुंग तस्यैव(जिन) कल्पस्य वस्त्रधारणे पूर्वोत्तरकमं धरिमं मेजं, पारिच्छेज च दव्वजायं तु । घेत्तूणं लाभत्थं, रणे, हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहुशीर्षे यावत्प्राप्यते तद्यवञ्चति जो अन्नदेस तु ॥ १ ॥ निवबहुमो पसिद्धो था-दक्षिणेन हस्तेन वाम बाहुशीर्ष, वामेन दक्षिणमष द्वयोदीणाऽणाहाण बच्छलो पंथे । सो सत्थवाहनामं , धणो व्व रपि कलाचिकयोहृदये यो विन्यासविशेषः स स्वस्तिकालोए समुब्बहर ॥२॥” पतल्लक्षणयुक्त, अनु०
. कार इति कृत्वा स्वस्तिक इत्युच्यते । (बृ०३ उ०।) अथ यदुनमष्टौ सार्थवाहा श्रादियात्रिकाश्चेति तदे- इत्येवंरूपे विन्यासविशेष, प्रव० २६ द्वार। महाग्रह, कल्पक तद् व्याख्यानयति
१ अधि० ६ क्षण । सू०प्र०। पुराणसाचगसम्म-द्दिढि अहाभद्ददाण सड़े य ।
सस्थिवारसम-स्वस्तिद्वादश--त्रि० । खस्ति द्वादशं यत्र तत्स्वअणभिग्गहिए मिच्छे,अभिग्गहे अन्नतित्थी य ।।६३३॥
स्तिद्वादशम् । द्वादशसंख्यापूरकस्वस्तिघटितसमुदाये, रा०। पुराणः-पश्चात्कृतः१श्रावकः-प्रतिपन्नाणुव्रतः२,सम्यग्दृष्टिः
सत्थुत्तगुण-शास्त्रोक्तगुण--त्रि० । ग्रन्थादितधर्मके, पञ्चा० १४ ।
विब०। चरितसदर्शनीयः ३, यथाभद्रका-सामान्यतः दर्शनसाधुपक्ष. पाती,दानश्राद्धः-प्रकृत्यैव दानरुचिमान्५,अनभिगृहीतमि
सत्थोवरय-शस्त्रोपरत-त्रि० । शस्त्रात् द्रव्यभावभेदादुपरते, ध्यादृष्टिः६अभिगृहीतमिथ्याष्टिः७अन्यलीथिकाएते त्रयो
| एत्थ.सत्याबरप' आचा० १ श्रु० ३ अ०१ उ०। ऽपि प्रतीताः,एवमटी सार्थाधिपतयः,पादियात्रिका प्रप्येव- सत्थोवाडण-शस्त्रावपाटन-न० । शस्त्रेणावपाटनं विदारणमेवाष्टौ भङ्गा भवन्ति । वृ०१ उ०३ प्रक०। स्था०। कल्प० । नि० मात्मनः । शस्त्रण विदारणे, ज्ञा० १ श्रु०१६ अ०। ('मरण' चु. । श्रा० क०रा० । श्राव० । शा० यस्तु ऋयारणकजातं शब्दे षष्ठ भागे १०६ पृष्ठे अस्य व्याख्या।) गृहीत्वा लोभार्थमन्यदेश वजन् साथै वाहृयति योगक्षेम- सत्थोवाडिय-शस्त्रावपाटित-पुं० । खङ्गादिना विदारिते, विचिन्तया पालयति स सार्थवाहः । वृ०१ उ०३ प्रक०। पा०१०६ अ०। सत्थविहान-सार्थविधान-न। गणिमादिभेदाश्चतुर्विधसा- सदसण-सदर्शन-पुं० । सह दर्शनेन वर्तते इति सदर्शनः । थभदे,वृष तत्र गणिमं यदेकनुयादिसंख्यया गणयित्वा दीयते श्रद्दधाने, नि० चू०१ उ० । शोभनागमे, द्वा० ३ वा। यथा हरीतकीपूगफलादि, धरिम-यत्तुलायां धृत्वा दीयते- सदक्खिल-सदाक्षिण्य-पुं० । स्वकार्यपरिहारेण परकार्यकयथा खराखुशर्करादि, मेय-यत्पलादिना सेतिकादिना चा मी- रणैकरसिकान्तःकरण, प्रव०.२३६ द्वार । प्रार्थनागम्भीरके यते यथा घृतादिकं , परिच्छेद्य नाम-यश्चनुषा परीक्ष्य- गुणवच्छावके, ध०१ अधिक। ते यथा वस्त्ररत्नमौक्तिकादि । पतञ्चतुर्विधमपि द्रव्य भण्डी
सदवच्चया-सदवाच्यता-स्त्री० । सञ्चाऽवाच्य च सदयाच्ये सार्थादिषु प्रत्युपेक्षणीयं यथा द्रव्यक्षत्रकालभावैरपि सार्थः
तयोर्भावौ सदवाच्यते । अस्तित्वावक्तव्यत्वयोः, स्या। प्रत्युपेक्षणीयः । वृ० १ उ० ३ प्रक०।
सदस-सदस-न० । सभायाम् , पो०१४ विव० । । सत्थयुत्तणाय-शास्त्रोकन्याय-पुं० । अगमाभिहितनये , हा०
सदसत्त-सदसव-न। स्वपररूपाभ्यां विद्यमानाविद्यमा२१ अष्ट।
नत्व, नं । . सत्थब्भास-शस्त्राऽभ्यास-पुं० । शस्त्रयुद्ध कलाभ्यासे, कल्प० सदगुद्वाण-सदनुष्ठान-न० । सुन्दाऽनुष्टाने, षो०४ विव०। १अधि०७क्षण।
शोभनानुष्ठाने, द्वा० २३ द्वा०।
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सदा
सदा-सदा- अव्य०। सर्वस्मिन् काले, ध० २ अधि० । सर्व
दा शब्दार्थे, सुत्र० १ ० ३ ० १३० । सदागम सदागम- पुं० सोपदेशे पञ्चा० १ विष० । सदागमविसुद्ध सदागमविशुद्ध त्रि० सप्रतिपादकागमः सदागमस्तेन विशुद्धं निर्दोषम् सदागमसम्म प०२ विष० सदाजत सदायत भि० अप्रमादिनि आया० १ ० ३ २ उ० ।
०
( ३३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सदाजय- सदाजय- त्रि० । सदा सर्वकालं जयो येषु तानि साजयानि । सर्वकालं जयत्सु, जी० ३ प्रति० ३ अधि० । सदायार सदाचार-पुं० शोभनाचारे, पो० ५ विच० सर्वो पकारप्रियवचनाकृतिमोचितस्नेहादिकार्यासनायाम्
1
यो० बि० ।
अथ सदाचारमाह
लोकापवादभीरुत्वं दीनाभ्युद्धरणाऽऽदरः । कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः ॥ १२६ ॥ लोकापादयतः कृतोऽपि लोकापवादान्मरणचिविशिष्यमाणाद्भीतभावः, दीनाभ्युद्धरणादः उपलक्षयस्याहीनानाथोपकारप्रयत्नः कृता-परकृतोपकारपरिज्ञान म् दाक्षिगम्भीरधीरचेतसा निर्मत्सरस्य व प्रकृत्यैव परकृत्याभियोगपरता किमित्याह-सदाचारः प्रागुपन्यस्यः प्रकशितः ।
1
तथा-
सर्वत्र निन्दास्यागो, वर्णवाद साधुषु । आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदि नम्रता ।। १२७ ॥ सर्वत्र जघन्यमध्यमोत्तमजनेषु निन्दासंत्याग:-- परिवादापनोदः, वर्ष बादश्च प्रशंसारूपः साधुषु सदाचारेषु जनेषु श्रा पदि व्यसनेऽदैन्यम् अदीनभावो ऽत्यन्तम् अतीव तद्वदापयदेयत् संपदि विभयसमागमे नम्रता औचित्येन नमनशीलता
तथा-
प्रस्तावे मितभाषित्व - मविसंवादनं तथा । प्रतिपद्मक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् ।। १२८ ॥ प्रस्तावे - भाषणावसरे उपलब्धे मितभाषित्वं-- मितभाषयशीलता, अविसंवाद-विवादः स्ववचनस्याकरणं, तथा प्रतिपचक्रिया बेति प्रतिपन्नस्य व्रतनियमादेः क्रियानिर्वाणम् इति पदसमाप्ती, कुलधम्मनुपालनम् अपि स्वकुलाचारानुवर्त्तनम् ।
असचयपरित्यागः, स्थाने चैतक्रिया सदा ।
प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् || १२६ ॥ असमयपरित्याग:-अतः पुरुषार्थानुपयोगित्येनासुन्दरस्य व्ययस्य-विसवियोगरूपस्य परित्यागः स्थाने च-स्थाने एव देवपूजनादावेतक्रिया - व्ययक्रिया सदा सर्वकालं प्रधानकार्ये विशिष्टफलदायिनि प्रयोजने निर्बन्धः-श्राग्रहः प्रमादस्य-मद्यमानादिरूपस्य विवर्जनम् - उज्झनम् । लोकाचारानुवृत्तिश्च सर्वत्रीचित्यपालनम् । प्रवृत्तिर्गर्हितेनेति प्राणैः कण्ठगतैरपि ।। १३० ।।
८५
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मदार संतोस लोकाचारानुवृत्ति-बहुजनरुद्धा विरोधिलोकव्यवहारा नुपालनरूपा सर्वत्र स्वपरत्यपाल समुचि ताचाररूपं प्रवृत्तिनिरसते कुसादी ननैवेति प्राग्वत्, प्राणैरुच्छासरूपैः कण्ठगतैरपि-गलस्थानप्राप्तैः किं पुनः स्वभावस्पेरित्यर्थः पो० बि० । सदायारसंग सदाचारसङ्ग-पुं०] सम् शोभनम् आचार लोकहिता] प्रवृत्तिर्येषां ते सदाचारास्तैः सह सङ्गः सङ्गतिः । सः स हि सपदि शीलं विलपत यदा-"यदि सत्संगतिरतो, भविष्यसि भविष्यसि। अथासज्जनगोष्ठीषु, पतिष्यसि पतिष्यसि || १ ||" इति । तथा-"सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः, स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । स सद्भिः सह कर्त्तव्यः सन्तः सङ्गस्य भेषजम् ॥ २ ॥ " इति । ध० १ अधि० ।
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3
सदार स्वदार पुं० श्रात्मीयभावयाम् पा० १० सदार - पुं० । सपत्नीके, उत्त० १४ श्र० । सदारमंतभेय - स्वदारमन्त्रभेद - पुं०। स्वदाराणां मन्त्रो विश्र म्भभाषितं तस्य भेदः - अन्यकथनम् । ध० २०२ अधि० । स्वदाराणां विधन्वविशिष्टावस्थाभाषितस्थान्यस्ते कथने, ध० २ अधि० । पञ्चा० । श्रा० । श्राव० ।
स्व
सदारसंतीस स्वदारसन्तोष-पुं० स्वदाः रसन्तोषः । स्वदारखन्तु उपा० १०
एयमिह - मुणेयव्वं, सदारसंतोस मो एत्थ ।। ११५ ।। स्वस्य श्रात्मनः स्वं वा आत्मिया दाराः स्वदाराः स्वकलत्रं तैः संतोषः- संतुष्टिः मैथुनासेवनं प्रति वेश्यांदेरपि वर्जनमिति स्वदार संतोषः स च चतुर्थातमिति योजितमेव इह च प्रथमैकवचनलोपः प्राकृतत्वात् 'मो' इति निपातः पादपूरसार्थः अत्रेति चतुर्थात वर्जयतीत्युत्तरेण बांग इति गाथार्थः। पञ्चा०वि० श्रात्मीयका निवृत्ती स्था०५ डा० १ ० "स्वकीयदारयन्तोपो वर्जने वाग्ययोषिताम् अमोपासकानां तदनुत्रतं मतम् ॥ १ ॥ " ध० २ अधि० । ( 'आनंद' शब्दे द्वितीयभागे २०६ पृष्ठ व्याख्या गता । ) ( श्रस्यातिचाराः परदारगमन 'शदे पञ्चमभागे ५२७ पृष्ठ व्याख्याताः ।
·
एतद्विषये प्रथमा कथा
"
" सख्येोऽत्र गिरिनगरे, तिस्रः सवय सोऽभवन् । उज्जयन्तं गता नतु गृहीतास्ता मलिम्लुः ॥ १ ॥ नीरा पारसले वेश्यानां ददिरेऽधः । आसंस्ताः प्रीडगणिका-लम्बुषाः पिभिः पुनः ॥ २ ॥ पालिता दोन प्राप्तास्तत्रैवाः पणयितुम् । तासां भाटिं ददुस्तेऽथ, स्वसंपत्या विभूषिताः ॥ ३ ॥ रात्री तम्मदिरे जग्मुद्व रेमाने स्वमातरम् । एकः सुधावको रन्तुं नैच्छत्पप्रच्छ किं तु ताम् ॥ ४ ॥ कुतः कथमिहायाता सा स्वरूपं न्यरूपयत् । सोऽवदत्ते वयं युष्मत्पुत्राः शिष्टं तदम्ययोः ॥ ५ ॥ सर्वे वैराग्यमापन्ना - स्तदम्बाश्च प्रवव्रजुः ।
-
"
,
द्वितीया कथाश्रेष्ठी हेमपुरे श्रीदः प्रियामुन्मुख्य गुर्विणीम् । दिगुपात्राणां ययौ पचाज्जायते स्म सुताऽद्भुता ॥ १ ॥
1
"
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(३३८) मदारसंतोस
अभिधानराजेन्द्रः। स च व्यवहरद्याव-त्तावत् पुच्याप यौवनम् ।
एगे सद्दे । (सू०४७) स्था० १ ठा० । दत्ता न्यनगर साऽस्ति, तत्रैवागाच्च तत्पिता ॥२॥
वाचके, स्था०३ ठा०३ उ०। उत्त० । पञ्चा० । औ०। विनशन मा क्रयारणानी-स्यस्थाद्वर्षाः स तत्र च ।
कालादिभेदेन ध्वनेरभिदं प्रतिपद्यमाने शब्दे, यथा बभूवसाई संर्घाटतः पुड्या, न भवेत्किमजानताम् ॥ ३॥ भवति-भविष्यति-स मेरुरित्यादि । स्या० । शब्दनिक्षेपः वर्षागत्र व्यतीत च, श्रीदः स्वनगरं ययी।
नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् चतुर्धा शब्दः । तत्र नामस्थाप. श्रानायिता सुता मात्रा, पितरं वीक्ष्य लजिता ॥४॥
ने सुगमे । श्रात्मघातं व्यधात्पुत्री, पिता च व्रतमग्रहीत् ।
द्रव्यनिक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकृत् गाथापश्चार्द्धनाहतृतीया कथा
दव्यं सहपरिणयं, भावो उ गुणा य कित्ती य ॥३२३॥ वेश्या कुवेरसेनाऽभूत् , मथुरायां तयाऽजनि ।
द्रव्यं नाबागमतो व्यतिरिक्तं शब्दत्वेन यानि भाषाद्रव्याणि अपत्ययुग्मं तत्स्वस्य, यौवनापहमित्यतः ॥ १॥
परिणतानि तानीह गृह्यन्ते,भावशब्दस्त्वागमतः शब्दे उपयुकुवरदत्त कुबर-दत्ता नामाङ्कमुद्रया। विभूष्य यस्य पटायां, यमुनायां प्रवाहितम् ॥ २॥
कः, नोवागमतस्तु गुणाः अहिंसादिलक्षणा यतोऽसौ हिंसातच्च सौर्यपुर भ्याभ्यां, दृऐकैकमुपादद।
नृतादिविरतिलक्षणैः गुणैः श्लाध्यते,कीर्तिश्च यथा भगवत तदेवाद्वाहित युग्मं, दारकोऽपि गतोऽन्यदा ॥ ३॥
एव चतुस्त्रिंशदतिशयाधुपेतस्य सातिशयरूपसंपत्सममथुरायां व्यधात्तत्र, स्वकीयां जननी जनिम्।
न्वितस्येत्यर्हन्निति लोके ख्यातिरिति, दारिका तत्स्वसा दारा, धर्म श्रुत्वाऽग्रहीद् व्रतम् ॥ ४॥ __ नियुनायनुगमादनन्तरं सूत्रानुगम सूत्रं, तश्चेदम्साऽपि जातावधिज्ञाना, तत्रैव विहरन्त्यगात् ।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मुइंगसहाणि वा नंदीसद्दाणि तस्या एव गृह तस्थौ, तस्याः पुत्रोऽस्ति पुत्रजः॥५॥
वा झल्लारीसद्दाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि विबालं विलोक्य सा साध्वी, तान् बोधयितुमब्रवीत् । भ्राताऽसि तनुजन्माऽसि, बरस्यावरजोऽसि च ।
रूवरूवाई सद्दाई वितताई कन्नसोयपडियाए नो अभ्रातृव्योऽसि पितृव्योऽसि, पुत्र पुत्रोऽसि चार्भक ! भिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अयश्च ते बालक ! पिता, स मे भवति सोदरः ॥ ७ ॥ हावेगइयाई सदाइं सुणेइ, तं जहा-वीणासदाणि वा पिता पितामहा भता, तनयः श्वशुरोऽपि च ।
विपंचीसद्दाणि वा पिप्पी (बद्धी) सगसद्दाणि वा तूणयसयाच बालक!तमाता, साम माता पितामही ॥८॥ भ्रातृजाया वधूः श्वश्रूः, सपत्नी च भवत्यहो।
हाणि वा वणयसद्दाणि वा तुंबीणियसहाणि वा ढंकुणसद्दाइत्युक्त्वा ज्ञापयामास. स्वां कुबेराय मुद्रिकाम् ॥ ६ ॥ इं अन्नयराई तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई वितताईकतां दृष्टा ज्ञापितं सघ, जज्ञ संबन्धविप्लवम् ।
मसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । से । कुबेरदत्तः संवेग-मासाद्य प्रावजत्तदा ॥२०॥ भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, तं कुवेरसेना श्राद्धाऽभू-दार्या च बिहृताऽन्यतः।" (पतानैहिकान् दोषान् ज्ञात्वा परस्त्र परिहार्या ।)
जहा-तालसद्दाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसद्दाणि प्रा० क०६०।।
वा गोधियसद्दाणि वा किकिरियासद्दाणि वा अन्नयराणि सदारसंतोसिय-स्वदारसन्तोषिक--पुं० । स्वदारैः सन्तोषः स्व. तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई करणसोय० । से भिक्खू दारसन्तोपः, स एव स्वदारसन्तोपिकः, स्वदारसन्तोषो वा वा भिक्खणी वा अहावेगडयाई सहा० तं जहा-संखसखदारसन्तुष्टिः । चतुर्थाणुव्रत, उपा० १ अ०। सदाहिा-सदाक्षिण्य-त्रि० 1 सह दाक्षिण्यन वर्तत सदा
हाणि वा वेणुसद्दाणि वा वंससद्दाणि वा खरमुहिसद्दाणि वा क्षिण्यः । दाक्षिण्यगुणशालिनि, दर्श०२ तत्त्व ।
पिरिपिरियासद्दाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराई विरूसदिव्य-सदिव्य--त्रि० । सह दिव्यैः सदिव्यम् । गन्धर्वनगरा- वरूवाई सद्दाइ मुसिराई कन्नसोय०( सू०१६८) से भिक्खू दिके दिव्योपद्रव, श्राव० ४ अ०।
वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ,तं जहा-वप्यासवाय-सदुपाय--पुं० । उपायाभासपरिहारे, यो० वि०।
णि वा फलिहाणि वा० जाव सराणि वा सागराणि वा ससंदेव-मदेव-त्रि० । अर्हत्प्रतिमालक्षण देवे, ध०२ अधि०।। रमपंतियाणि वा अन्नयगई नमाग
रसरपंतियाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई विरूवरूवाई सदेवमूरि--सदेवमूरि-पुं० । वटगच्छप्रथमसूरी,ग०३ अधि। सदाई कन्नसोय० । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेसंदेस-सदेश--पुं० । समानदेशज, व्य० ३ उ० ।
गइयाई सद्दा०,तं जहा-कच्छाणि वाणूमाणि वा गहणाणि स्वदेश--पुं० । स्वावासमण्डले, पि०।
वा वणाणि वा वणदुग्गाणि वा पब्वयाणि वा पचयदुग्गासह-शब्द- शब्द्यत-प्रतिपाद्यते वस्त्वननति शब्दः । श्रा०
णि वा अन्न० ॥ अहा० तहप्पगाराइं गामाणि वा नगम० अ० शब्दयति-भापत इति शब्दःविशे०। " सर्वत्र लव
राणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टगमचन्द्रमा७६।। इति वलोपः।प्रा०। शपोः सः॥८1१।२६०॥
णसंनिवेसाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई नो अभिसंधाइति शस्य सः । प्रा० । श्रोत्रन्द्रियग्राह्यनियतक्रमयत्मनि (द्वा.२६द्वा०1) ध्वनी, दश० अ०रा०।
रिजा गमणाए । से भिक्खू०अहावेगइयाई आरामाणि वा
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. अभिधानराजेन्द्रः। उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा लोइएहिं सद्देहिं नो परलोइएहिं सद्देहि नो सुएहिं सद्देहि सभाणि वा पवाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई सद्दाई नो नो असुएहिं सद्देहिं नो दिद्वेहिं सद्देहिं नो अदिवहिं सद्देअभिः। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई सद्दाई हिं नो कंतेहिं सद्देहि सजिजा नो गिज्झिज्जा नो मुज्झिअट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गो- जा नो अज्झोववजिजा, एयं खलु० जाव जएजासि त्ति पुराणि वा अन्नयराइं तहप्पगाराई सद्दाइं नो अभिसंधारे। बेमि । (मू०१७०) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई०,तं जहा-तियाणि स-पूर्वाधिकृतो भिक्षुर्यदि विततततघनशुषिररूपांश्च
तुर्विधानाताद्यशब्दान् शृणुयात् , ततस्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया वा चउक्काणि वा चञ्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्नयराई
नाभिसन्धारयेद्गमनाय न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यावा तहप्पगाराई सद्दाई नो अभिसंधारे । से भिक्खू वा दित्यर्थः । तत्र विततं-मृदङ्गनन्दीझल्लर्यादि , ततम्अहावेगइयाई०.तं जहां-महिसकरणदाणा--. वीणाविपञ्चीबद्धीसकादितन्त्रीवाद्यं , वीणादीनां च भे
दस्तन्त्रीसंख्यातोऽवसेयः , घनं तु हस्ततालकंसालादिणि वा वसभकरणट्ठाणाणि वा अस्सकरणट्ठाणाणि वा ह
प्रतीतमेच, नवरं 'लत्तिका'-कंशि(सि)का गोहिका-भात्थिकरणट्ठाणाणि जाव कविंजलकरणट्ठाणाणि वा अन्न- एष्टानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः किरिकिरिका-तेयराई वा तहप्पगाराई नो अभिसंधारे।से भिक्खू वा भि-. पामेव वंशादिकम्बिकातोद्य , शुषिरं तु शङ्कवरवादीनि क्खुणी वा अहावेगइयाई०, तं जहा-महिसजुद्धांणि वा० प्रतीतान्येव, नवरं खरमुही-तोहाडिका 'पिरिपिरिय' सिजाव कविजलजुद्धाणि वा अन्नयराई वा तहप्पगाराई नो
कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका, इत्येष सूत्रचतुष्टय
समुदायार्थः ॥ किञ्च-स भिक्षुरथ कदाचिदेकतरान् कांश्चिअभिसंधारे से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई०,
त् शब्दान् शृणुयात् , तद्यथा-' वप्पाणि वे' ति-वप्रः-केतं जहा-पुव्बजूहियट्ठाणाणि वा हयजूहियट्ठाणाणि, वा दारस्तदादिर्वा, तणकाः शब्दा वा एवोक्ताः , वप्रादिषु गयजूहियट्ठाणाणि,अन्नयराई वा तहप्पगाराई नो भिसं- वा श्रव्यगेयादयो ये शब्दास्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया वप्रादीन्न धारे० । से भिक्खू वा जाव सुणेइ,तं जहा-अक्खाइयट्ठा
गच्छेदित्येवं सर्वत्रायोज्यम् । अपिच-यावन्महिषयुद्धानीति णाणि वा माणुम्माणियट्ठाणाणि वा महता हयनट्टगीयवा
षडपि सूत्राणि सुवोध्यानि । किश्च-स भिक्षु!थमिति-द्व
न्द्वं वधूवरादिकं तत्स्थानं वेदिकादि. तत्र श्रव्यगयादिशब्दइयतीतलतालतुडियपडुप्पवाइयट्ठाणाणि वा अन्नयराई
श्रवणप्रतिशया न गच्छत् , वधूवरवर्णनं वा यत्र क्रियते तहप्पगाराई सद्दाइं नो अभिसंधारे से भिक्खू वा भिक्खु- तत्र न गच्छदिति, एवं हृयगजयूथादिस्थानानि द्रव्याणी वा जाव सुणेइ,तं जहा-कलहाणि वा डिवाणि वा ड-. नीति । तथा-स भिक्षुः आख्यायिकास्थानानि-कथानकमराणि वा दो रजाणि वा वेररजाणि वा विरुद्धराणि वा
स्थानानि, तथा · मानोन्मानस्थानानि ' मान-प्रस्थकादिः
उन्मान-नाराचादि, यदिवा-मानोन्मानमित्यवादीनां बंगाअन्नयराई वा तहप्पगाराई सद्दाई नो अभिसंधारे। से भि
दिपरिक्षा तत्स्थानानि सदवर्णनस्थानानि वा, तथा महा'क्खू वा भिक्खुजाव सद्दाइं सुणेइ खुडियं दारियं परिभुत्त- न्ति च तानि श्राहतनृत्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटिमंडियं अलंकियं निवज्झमाणिं पेहाए एगंवा परिसं वहाए तप्रत्युत्पन्नानि च तेषां स्थानानि-सभास्तवर्णनानि वा श्र
वणप्रतिशया नाभिसन्धारयद्गमनार्यात । किञ्च-कलहादिनीणिजमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तहप्पगाराई नो अभि
वर्णनं तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गदिति । अपि संधारे। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अन्नयराई विरूवरू
च-स भितुः क्षुल्लिका-दारिका डिक्करिकां-मारातालकवाई महोसवाई एवं जाणेजा,तं जहा-बहुसगडाणि वा ब- तां बहुपरिवृतां 'णिज्झमाणि' ति-अध्यादिना नीयमानां हुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपचंताणि वा अन्नयराइं
तथैकं पुरुष बधाय नीयमानं प्रक्ष्याहमत्र किञ्चिच्छोप्यावा तहप्पगाराई विरूवरूवाइं महोसवाई कन्नसोयपडियाए
मीति श्रवणार्थ तत्र न गच्छदिति । स भिक्षुर्यान्यवं जा
नीयातू , महान्त्येतान्याश्रवस्थानानि-पापणेषादानस्थानानि नो अभिसंधारिजा गमणाए । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा
वर्तन्ते, तद्यथा-बहुशकटानि बहुरथानि बहुम्लच्छानि बअन्नयराई विरूवरूवाई महूसवाई एवं जाणिज्जा, तं जहा- हुप्रात्यन्तिकानि, इत्यप्रकाराणि स्थानानि श्रवणप्रतिइत्थीणि वा पुरिसाणि वाथेराणि वा डहराणि वा मज्झि- ज्ञया नाभिसन्धारयेद् गन्तुमिति । किञ्च-स भिक्षुर्महोत्समाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गायंताणि वा वाय
वस्थानानि यान्यवंभूतानि जानीयात् , तद्यथा-स्त्रीपुरुष
स्थविरबालमध्यवयांस्यतानि भूपितानि गायनादिकाः क्रिताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहं- या यत्र कुर्वन्ति तानि स्थानानि श्रवणच्छया न गच्छेताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि दिति । इदानीं सर्वोपसंहारार्थमाह-स भिक्षुः-ऐहिकावा परिभायंताणि वा विछड्डियमाणाणि वा विगोवयमा
मुष्मिका पायभीरुः ना-नैव पहलौकिकैः-मनुष्याविकृतैः
पारलौकिकैः-पारापतादिकृतैरहिकामुष्मिकै शब्दैः, तणाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई विरूवरूबाई महुस्सवा
था श्रुतैरथुतेर्वा, तथा साक्षादुपलब्धैरनुपलब्धैर्वा 'न स ई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारे० । से भिक्खू०इह- कुर्यात्-नरागं गच्छत् न गाद्धय प्रतिपद्येत न तेषु मुखेत
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( ३४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सह
माभ्युपपो भवेत् एतस्य भिक्षा सामयम् शेषं पूर्वयत् । इह च सर्वत्रायं दोषः - श्रजितेन्द्रियत्वं स्वाध्यायादिहामी रागद्वेपसम्भव इति मन्येऽपि दोषा ऐहिकामुष्यिकापायभूताः स्वधिया समालोच्या इति । [ चतुर्थसकिकाध्ययनमा एकादशं समाप्तम्] श्राया०२०२ ०४० अत्र अपोह' शब्दार्थ इति पूर्वम् श्रागम शब्दे २ भागे ६५ पृष्ठ उक्तम् ।
अथापि किञ्चिद्रव्यशेषमभिधीयते । ] भवतु वा सामान्यं तथापि तस्य स्वमेदेभ्योऽथान्तरत्वे भिने समेदाध्यवसायों भ्रान्तिरेव । नान्येनान्ये समाना युक्तास्तो नाम स्युरनर्थान्तरत्वेऽपि सामान्यस्य सर्वमेव विश्वमक वस्तु परमार्थत इति । तत्र सामान्यप्रत्ययो
कृ
तिरवस्तुविषयः समानप्रत्ययः भेदग्रहणपुर:सरत्वात्तस्य भ्रान्तत्वं च सिद्धे निर्विषयत्वमपि सिद्धं स्वाकारागुन जनकस्य कस्यचिदर्थस्यालम्बनलक्षणस्य प्रातस्याभावात् । अन्यथा वा निर्विषयत्वं, तथाहि--यत्रैव तसमया ध्यनयर एवं तेषामथ युक्रं नान्योऽतिप्रसङ्गात् । नच कचिह्नस्तुत्येषां परमार्थतः समयः संभवतीति नि विषया ध्वनयः, प्रयोगः-- ये यत्र भावतः कृतसमया न भतिन परमार्थमभिद्यति यथा सास्नादिमति पिएंड ऽश्वशब्दो ऽकृतसमयः, न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सम्वस्तुनि सबै ध्यानय इति व्यापकानुपलब्धिः कृत समयत्वेनाभिधायकत्वस्य व्याप्तत्वात्तस्य चेहाभावः । [ संकेता संभव साधनाय स्वलक्षणाद्यर्थभेदेन विकल्पपञ्चविधानम् ]
नचायमसिद्धों हेतुः । तथाहि--गृहीतसमयं वस्तु शव्यवस्थायमानं खलक्ष वा व्यवस्थाप्येत जा तिर्वा तद्योगों वा, जातिमान्वा पदार्थः, बुद्धेर्वा आकारः इति विकल्पाः । सर्वेष्वपि समयासंभावन्न युक्तं शब्दार्थत्वं तत्त्वतः सांवृतस्य तु शब्दार्थस्न निषेध न स्वयचनविरोधः प्रतिज्ञायाः । वासी स्यात् स्वलक्षणादीन् शब्देनातिपाय न शकरामशब्दार्थत्वमेषां प्रतिपादयितुं तत्प्रतिपिपादयि क्या व शब्देन स्वलक्षणादीनुपदर्शयता शब्दार्थत्वमेषामभ्यु
स्यात् । पुनश्च तदेव प्रतिशया प्रतिषिद्धमिति स्ववचनव्यायातः: नवासावभ्युपगम्यत इति । एतेन यदुक्तमुद्योतर्क-भाष्यकारेण वाचक शब्दानां प्रतिशास्योव्यमानः [अ०२, ० १ सू०६ न्याया०] इति प्रत्यु यहि सर्वथा सदापवादो ऽस्माभिः क्रियते - गोपालेभ्योऽपि प्रती किंतु-परे ततस्तु मंगा
[२] स्वलक्षणे संकेतासंसाधनम् ]-- तत्र -- स्वलक्षणन तावत् समयः संभवति, शब्दस्य समय हि व्यवहारार्थ क्रियते न व्यसनितया तेन व्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तत्रैव स व्यवह
"
वृक नाव्यत्र न व स्वलक्षणस्य संकेतस्यवहारकालव्यस्त नस्मान्न तत्र समयः संकेतव्यवहारकासायक शायादिग्यतीनां देशादि मेदन परस्परतोऽत्यन्तापातानन्ययात्रेकत्र कृतसमयस्य पुंसोऽन्यव्यवहारान स्यादिति । तत्र समयाऽभावान्ना
सह सिद्धता हेतोः । नचाप्यनैकान्तिकत्वं व्याप्तिसिद्धेः तथाहि यद्यगृहीत संकेतमर्थ शब्दः प्रतिपादयेत्तदा गोशब्दोऽप्यभ्यं प्रतिपादयेत्संकेत करणानर्थक्यं च स्यात् तस्मादतिप्रसङ्गापत्तिर्याधकं प्रमाणमिति कथं न व्याप्तिसिडि अयमेव वा प्रकृतसमयस्यादिति हेतराचार्यदिनामेन "न जातिशब्दो मेदानां बाखकः अनन्त्यात्" इत्यनेन निर्दिष्टः तथाहि " आनन्त्याद्" इत्यनेन समयाऽसंभव एव दर्शितः । तेन यदुक्तमुयोतकरेण - " यदि शब्दान्पक्षयसि तदा-' श्रानम्याद्' इत्यस्य वस्तुधर्मत्वाद व्यधिकरणेो हेतुः अथ मेदा एव पक्षीक्रियन्ते तदा नान्वयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्तीत्यहेतुरागम्यम्" (अ० २ ० २ ० ६७ न्यायपा० ) इति तत्प्रत्युक्तम् । यत्पुनः स एवाह" यस्य निर्विशेषणाभेदाः शब्देरप्यभिधीयन्ते तस्यायं दोषः अस्माकं तु सत्ताविशेषणानि द्रव्यगुणकर्माण्यभिधीयन्ते। तथा हि-यत्र यत्र सत्तादिर्क सामान्य पश्यति तत्र तत्र सदादिशब्दं प्रयुले एकमेव च सत्तादिकं सामान्यम्, अतः सामान्योपलक्षितेषु भेदेषु समयक्रियासंभवादकारसमानयम्" (०२ ०२०६७ न्यायवा० ) इति असदेतत् यतो न सत्तादिकं वस्तुभूतं सामान्यं तेभ्यो मिश्रािऽस्तीति भवतु वा तत्तथा येकस्मिन्मेदेऽनेक सामान्यसंभवाइसाङ्कर्येण सदादिशब्दो जनं न स्यात् । न च शमेनानुपश्यं सत्तादिकं सामान्य स तादिना भेदानुपलक्षयितुं समयकारः शक्नुयात् न चाकूतसमयेषु सत्तादिषु शब्दप्रवृत्तिरस्तीति इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिः । अथापि स्यात्स्वयमेव प्रतिपत्ता व्यवहारोपलम्भादन्ययव्यतिरेकाभ्यां सादिशब्दः समयं प्रतिपद्यते संदे तत् अनन्तभेपियनिःशेषव्यवहारोपलम्भस्य कस्यचिदसं भवात्। एकदा सत्तादिमत्सुदेव सद्व्यवहारमुपलभ्या
पितात तान शब्दान्प्रतिपइति न नाटयतीतादिभेदभिप्रेष्यनन्तेषु मेदेषु सम
,
यः संभवत्यसात् विकल्पयातेषु तत्प्रतिपस्याऽभ्युपगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एवं श
5
सङ्केतः प्राप्तः । तथा हि-अतीतानागतयोरसनासि दिल्यास विकल्प निर्वि तत्र भवसमा कथं परमार्थयस्तुविषयो भवेदिति ? सपक्ष भावान्नापिताविरुद्धतेति सिद्धं स्वलक्षणाविषयत्वं शब्दानाम् । श्रथ स्थिरैकरूपत्वादिमाचतादिभावानां देशादिभेदाभावात् व्यवहारकालव्यापकत्वेन समय संभवात्पक्षैकंदशाऽसिद्धतातो हिमाचलादीनामप्यनेकाभाव तथा उद्यानन्तराता च नाशेषायपरिसम यकालपरिस्वभावस्य व्यवहारकालानुषापि समय संभवतीति नासिद्धता हेताः । अत उक्कन्यायेन समयय प्रसङ्गान्न स्वलक्षणे समयः संभवति, अशक्यक्रियत्वाच्च न तत्र समयः । तथादि-उद्यानन्तरापयनिषु भाषेषु समयः क्रियमाणः अनुत्पन्नेषु वा क्रियेत उत्पन्नेषु वा ? न तावदनुत्पन्नेषु परमार्थतः समयो युक्तः, श्रसतः सर्वोपाख्यारहितस्याधारत्वानुपपत्तेः, अपारमार्थिकवस्तुजानेऽपि पुत्रादौ समय उपलभ्यत इति न दविरोधः, विकल्पनिर्मितार्थविषयत्वेन तस्याऽपारमार्थिकत्वात् । नाप्युत्पन्ने समयो युक्तः, तस्मिन्नमत्पत्तौ तत्पूर्व के च शब्दभेदस्मरणे सति समयः संभव
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अभिधानराजेन्द्रः। ति नाम्यथा-प्रतिप्रसङ्गात्-शब्दभेदस्मरणकाले च चिरनि- (२-४ जाति-तद्योग-तद्वत्सु संकेतासंभवप्रदर्शनम् )रुद्धं स्वलक्षणमिति । प्रजातवज्जातेऽपि कथं समयः समय- एवं स्वलक्षणवज्जाति-तद्योग-जातिमत्स्वपि-जात्यादर-- क्रियाकाले द्वयोरप्यसन्निहितत्यात् ? तथाहि-अनुभवाब- सम्भवात्-समयासम्भवः। यथा च जातेस्तद्योगस्य च समस्थायामपि तावत्तत्कारणतया स्वलक्षण क्षणिकं न सन्निहि- वायस्यासम्भवस्तथा प्रागव प्रतिपादितम् , जानि-नद्यातसत्ताकं भवति, किं पुनरनुभवोत्तरकालभाविनामभेदाभा- गयांश्चाभावे तद्वतोऽप्यसम्भव एव तत्कृतत्वात् तद्यपदेशस्य, गस्मरणोत्पादकाले भविष्यति ? नापि तज्जातीये तत्सामर्थ्य- तद्वतश्च स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभावी दापः समान एक बलोपजाते समयक्रियाकालभाविनि क्षण समयः संभवति त.
(पदवाच्यविषयाणि वाजध्यायन व्याडि पाणिनीनां मनान)स्याऽन्यत्वात् । यद्यपि समयक्रियाकाले सन्निहितं क्षणान्तर- "जातिः पदार्थः" इति वाजध्यायनः।"द्रव्यम्" इति व्याडिः। मस्ति तथापि तत्र समयाभोगाऽसंभवान्न समयो युक्तः, न- " उभयम्" पाहिनिः । तदप्यनेनैव निरस्तम् जानेरयोगाद् ह्यश्वमुपलभ्य तनामस्मरणोपक्रमपूर्वकं समय कुर्वाणस्त- द्रव्यस्य च स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तः । कालसनिहिते गवादावाभोगाविषयीकृते 'श्रश्वः' इति स
(बुद्ध्याकारे समयासंभवसाधनम् )मयं समयकृत्करोति । अथापि स्यात्सर्वेषां स्वलक्षणानां सा. बुयाकारेऽपि न समयः सम्भवति, तस्य बुद्धितादात्म्येन दृश्यमस्ति तेनैक्यमध्यवस्य समयः करिष्यते । असदेतत् ; व्यवस्थितत्वाद् नासौ तबुद्धिस्वरूपवत् प्रतिपाद्यमर्थ बुद्धययतो विकल्पबुद्धयाऽध्यारोपितं सादृश्य, तस्य च ध्वनिभिः
म्तरं वाऽनुगच्छति; ततश्च सत-व्यवहारकालाव्यापकप्रतिपादने स्खलक्षणमवाच्यमेवेति न स्खलक्षणे समयः। नाऽपि
त्वात् स्वलक्षणवत् कथं तत्रापि समयः ? भवतु वा तस्य शब्दस्खलक्षणस्य । तथाहि-स्वसमयकृतस्मृत्युपस्थापितमव
व्यवहारकालान्वयस्तथापि न तत्र समयो व्यवहर्तृणां युक्रः। नामभेदमर्थेन योजयति, नच स्मृतिर्भावतोऽनुभूतमेवाभि- तथाहि-'अपि नामतः शब्दादकियार्थी पुमानर्थक्रियालापमुपस्थापयितुं शक्नोति तस्य चिरनिरुद्धत्वात् , यं चोशा- क्षमानर्थान् विज्ञाय प्रवर्नियत' इति मन्यमानव्यवहर्तृभिरयति तस्य पूर्वमननुभूतत्वान्न तत्र स्मृतिः, न चाविषयी- रभिधायका ध्वनया नियोज्यन्ते न व्यसनितयाः न चासौकृतस्तया समुत्थापयितुं शक्यः, अतः स्मृत्युपस्थापितमनु- विकल्पो बुद्धाकारोऽभिप्रतशीता उपनादादिकार्य तदर्थन: संधीयमानं विकल्पनिनिमित्तत्वेनास्वलक्षणमेवेति न स्वल
सम्पादयितुमलम् तदनुभवोत्पत्तावपि तदभावात् , तेन तक्षणत्वेऽस्य समयः। तस्मादव्यपदेश्य स्खलक्षणमिति सिद्धम् ।
त्रापि समयाभावान्नासिद्धः 'अकृतसमयत्वात् ' इनि हेनुः । ( सम्म) नैयायिकास्तु-" व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः
('अस्त्यर्थादयः शब्दार्थाः' इति वादिनां पत्रमप्त के (न्यायद० अ०२ श्रा०२ सू०६५) इति, प्रतिपन्नाः । तत्र
निरूपयितव्ये प्रथमम् अस्त्यर्थवादिमनम् )--- ध्यक्तिशब्देन द्रव्यगुणविशेषकर्माण्यभिधीयन्ते ( सम्म०।)
अथ अस्त्यर्थादयोऽपरे शब्दार्थाः सन्ति, नतधनत्र मा. ('गुणविसेसासय' 'शब्दे तृतीयभागे ६४० पृष्ठऽत्रत्या
यसम्भवादसिद्धव हेतोः । तथाहि-'अस्त्यर्थः 'नियंदवक्तव्यता गता)
तत् प्रतीयत तंव सर्वशब्दानामभिधयं न विशषः, यन तथा च सूत्रम्-"प्राकृतिर्जातिलिङ्गाख्या" (न्यायद० ह्यपूर्व-देवतादिशब्दा नार्धाकारं विशेष वुद्धिषु सन्निवशयअ०२ श्रा०२ सू०६७ ) इति । अस्य भाष्यम्-" यया
न्ति केवल तत्रैतावत् प्रतीयत- सन्ति के यर्थाः गवतजातिर्जातिलिङ्गानि च व्याख्यायन्ते तामाकृति विद्यात् सा
र्वादयः शब्दाः प्रयुज्यन्ते ' तथा दृशार्थेष्वपि गवादिशब्दच सस्वावयवानाम् । तदवयवानां च नियतो व्यूहः "
ध्येतत् तुल्यम् , यतस्तभ्योऽप्यवं प्रतीतिम्पजायत- अम्ति (न्यायद० वात्स्या० भा०पृ० २२५) व्यहशब्देन संयोग
कोऽप्यों यो गवादिशब्दाभिधया गोत्वादिः ' यम्तुनविशेष उच्यते, नियतग्रहणेन कृत्रिमसंयोगनिरासः, तत्र जा.
त्राकारविशेषपरिग्रहः कषाश्चिदुपजायत स तपां सिद्धान्ततिलिङ्गानि प्राण्यवयवाः शिरः-पाण्याद्यः तैईि गोत्वादि
बलात् ; न तु शब्दात् ।। लक्षणा जातिलियते, आकृत्या तु कदाचित् साक्षाज्जाति
(समुदायार्थवादिमतम् --- य॑ज्यते यदा शिर:-पाण्यादिसन्निवेशदर्शनाद गोत्वं व्यज्य- अपरे " ब्राह्मणादिशब्दैस्तपो-जाति-श्रतादसमदायो वि. ते, कदाचिज्जातिलिङ्गानि यदा विषाणादिभिरवयवैः पृथक ना विकल्प-समुच्चायाभ्यामभिधीयत, यथा वनादिशब्दपृथक स्वावयबसन्निवेशाभिव्यक्तैर्गोत्वादिय॑ज्यते; तेन जा- धवादयः" इत्याहुः । तथाहि-'वनम्' इत्युक्त 'धया (वा तेस्तल्लिकानां च प्रख्यापिका भवत्याकृतिः। जातिशब्देना
वा) खदिरो वा' इति न विकल्पेन प्रतीतिरुपजायत, नारंग भिन्नाभिधान-प्रत्ययप्रसवनिमित्तं सामान्याख्यं वस्तुच्यते ।
'धवश्व खदिरश्च' इति समुच्चयेन; अपितु सामन्यन प्रतीयम्न तथा च सूत्रम्-"समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जातिः" (न्या
धवादयः तथा 'ब्राह्मणः' इत्युक्त 'तपा था जालिया यद० अ०२ आ०२ सू०६८) इति समानप्रत्ययोत्पत्तिकार
वा'' तपश्च जातिश्च श्रुतं च' न प्रतिपत्तिर्मतिः अपितु ण जातिरित्यर्थः । तत्र व्यक्त्याकृत्योः एतेनैव स्वलक्षणस्य
साकल्येन सम्बन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयः संहताः शब्दार्थत्वनिराकरणेन शब्दार्थत्वं निराकृतम् । तथाहि-य
प्रतीयन्त इति । बहुवनियतकसमुदायिभेदावधार विकथा स्वलक्षणस्याकृतसमयत्वादशब्दार्थत्वं तथा तयोरपीति
ल्पः, एकत्र युगपदभिसम्बन्ध्यमानस्य नियनस्य क्रमान'अकृतसमयत्वात् ' इत्यस्य हेतो सिद्धिः, नाप्यनैकान्ति- स्यानेकस्य ) स्वरूपभेदावधारणं समुच्चयः , नातिर केगाकता । अपि च-व्यक्रिव्य-गुणविशेष-कर्मलक्षणा, आ- त्र प्रतिपत्तिों कप्रतीतैव । कृतिश्च संयोगात्मिका, एते च द्रव्यादयः प्रतिषिद्धत्वाद्
[असत्यसंवन्धपदार्थवादिमतम् - असन्तः कथं शब्दार्थतामुपयान्ति ?,
अपरे " द्रव्यत्वादिभिरनिर्धारितरूपैयः सम्बन्धी द्रव्या
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(३४२) सह
अभिधानराजेन्द्रः। दीनां स शब्दार्थः; स च सम्बन्धिनां शब्दार्थत्वेनासत्यत्वा- तमेवार्थमभिसन्धाय, बुद्धयाकारवादिना तु बुयाकारः परदसत्यः इत्युच्यते । यद्वा-तपः-श्रुतादीनां मेचकवर्णवदैक्येन मार्थतो वाच्य इष्यत इति महान् विशेषः। भासनादेषामेव परस्परमसत्यः संसर्गः" । तथा हि-एते
(७ प्रतिभापदार्थवादिमतम् )प्रत्येकं समुदिता वा न खेन रूपेणोपलभ्यन्ते किन्त्वलातच- अन्ये त्याहुः-"अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दः न तु बाह्याकवदेषां समूहः स्वरूपमुत्क्रम्यावभासत इति ।
र्थप्रत्यायकः” इति । शब्दस्य क्वचिद् विषये पुनः पुनः प्रवृ[असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतम्]- . त्तिदर्शनमभ्यासः, नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकूअन्ये त्वाहुः-"यद् असत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थः" इन्ति । |
ला प्रज्ञा प्रतिभा सा प्रयोगदर्शनावृत्तिसहितेन शब्देन जन्यतत्र स (?) शब्दार्थत्वेनासत्या उपाधया विशेषा वलया5
ते , प्रतिवाक्यं प्रतिपुरुषं च सा भिद्यते; यथैव ह्यकुशादिगुलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः सुवर्णादि
घातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ क्रियमाणायां प्रतिभाहे- . . सामान्यात्मनस्तत् सत्यमसत्योपाधि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तम
तयो भवन्ति तथा शब्दार्थ-( सर्वेऽर्थ) वत्त्वसंमता वृक्षादयः भिधेयम्।
शब्दा यथाभ्यासं प्रतिभामात्रोपसंहारहेतवो भवन्ति न त्वर्थ [अभिजल्पपदार्थवादिमतम्]अन्ये तु बुयते-" शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थः "
साक्षात् प्रतिपादयन्ति; अन्यथा हि कथं परस्परव्याहताः
प्रवचनभदा उत्पाद्यकथाप्रबन्धाश्च स्वविकल्पोपरचितपदाइति स चाभिजल्पः 'शब्द एवार्थः' इत्येवं शब्देऽर्थस्य
थभेदद्योतकाः स्युरिति ?, .. निवेशनम् 'सोऽयम्' इत्यभिसम्बन्धः, तस्माद् यदा शब्दस्यार्थेन सहकीकृतं रूपं भवति तं स्वीकृतार्थाकारं
(प्रागुक्त पक्षसप्तके प्रतिविधातव्ये प्रथमम् शब्दमभिजल्पमित्याहुः ।
अस्त्यर्थवादिमतनिरसनम् ). (६ बुयारूढाकारपदार्थवादिमतम् )
अत्र प्रतिविदधति-यद्यस्त्यर्थः पूर्वोदितस्वलक्षणादिस्वभाव अन्ये तु-"बुच्यारूढमेवाकारं बाद्यवस्तुविषयं बाह्यवस्तु- इष्यत तदा पूर्वोदितदोषप्रसनः। किश्च-अनिर्धारितविशषतया गृहीतं बुद्धिरूपत्वेनाविभावितं शब्दार्थम्" आहुः । रूपत्वादस्त्यर्थस्य तस्मिन् केवले शब्दैः प्रतिपाद्यमाने 'गौः' तथाहि-यावद् बुद्धिरूपमर्थेष्वप्रत्यस्तं 'बुद्धिरूपमेव' इति 'गवयः' 'गजः' इत्यादिभेदेन व्यवहारो न स्यात् , तस्य शतस्वभावनया गृहाते तावत् तस्य शब्दार्थत्वं नावसीयते त- दैरप्रतिपादितस्यात् । न च गोशब्दात् गोत्वविशिष्टस्यार्थस्य प्रक्रियाविशषसम्बन्धाभावात् , न हि गामानय' 'दधि सत्तामात्रस्य शाबलेयत्वादिभेदरहितस्य प्रतीतर्भदेन व्यवखाद' इत्यादिकाः क्रियास्ताशि बुद्धिरूपे सम्भवन्ति, क्रि
हारो भविष्यतीति प्रतिपादयितुं शक्यम् , अभ्युपगमविरोयायोगसम्भवी चार्थः शब्दैरभिधीयते , अतो बुद्धिरूपत- धात्-गोशब्दादस्त्यर्थमात्रपरित्यागेन गवादिविशेषस्य प्रतिया गृहीतोऽसौ न शब्दार्थः; यदा तु बाह्य वस्तुनि प्रत्यस्तो पत्त्यभ्युपगमात् । अथ विषासाविशेषस्य गोशब्दादप्रतीतेभवति तदा तस्मिन् प्रतिपत्ता बाह्यतया विपर्यस्तः क्रिया
रस्त्यर्थवाचकत्वं शब्दस्याभिप्रेतम् ; नन्वं यदा गोत्यादिना साधनसामर्थ्य तस्य मन्यत इति भवति शब्दार्थः । ननु चा- विशिष्टमर्थमात्रमुच्यत इति मतं तदा तद्वतोऽर्थस्याभिधापोहवादिपक्षादस्य को विशेषः ? तथाहि-अपोहवादिना:
नमङ्गीकृतं स्यात् , तत्र च जातेस्तत्समवास्य च निषेधात् पि बुद्ध्याकारो बाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इतीघयत एव- तद्वतोऽर्थस्यासम्भव इति पूर्वोक्को दोषः । किञ्च-तद्वतोऽथैयथोक्तम्-"तपारोपमन्यान्य-व्यावृत्याधिगतैः पुनः। शब्दा. स्य स्वलक्षणात्मकत्वादशक्यसमयत्वमव्यवहार्यत्वमस्पष्टाथोऽर्थः स एवेति, बचनेन विरुध्यते " ॥१॥ इति, नैतदस्ति;
वभासप्रसङ्गश्च पूर्ववदापद्यत एव; स्वलक्षणादिव्यतिरेकेणाअयं हि बुद्ध्याकारवादी बाहो वस्तुन्यभ्रान्तं सविषयं द्रव्या
न्योऽस्त्यर्थो निरूप्यमाणो न बुद्धौ प्रतिभातीत्यस्यासत्त्वमेव । घु पारमार्थिकेष्वध्यस्तं बुद्ध्याकारं परमार्थतः शब्दार्थमि
[२ समुदायपदार्थवादिमतनिरसनम्]च्छति न पुनरा (न तु निरा) लम्बनं भिन्नेष्यभेदाध्यवसा
समुदायाभिधानपक्षे तु जातेर्भेदानां च तपःप्रभृतीनामभियेन. प्रवृत्तान्तमितरेतरभेदनिबन्धनमभ्युपैति; यदा तु य
धानमङ्गीकृतमिति प्रत्येकाभिधानपक्षभाविनो दोषाः सर्वे थाऽस्माभिरुच्यते-"स सों (सर्वो) मिथ्याभासोऽय-मर्थ
युगपत् प्राप्नुवन्तीति न तत्पक्षाभ्युपगमोऽपि श्रेया। इतीष्यत एव यथोक्नेष्वका (मध्वेका) त्मकग्रहः। इतरे
[३-४ असत्यसंबन्ध-असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतदतरभेदाऽस्य, बीजं संज्ञा यदर्थिका" ॥ इति तदा सिद्धसा.
यनिरसनम् ]-. ध्यता । यद् वक्ष्यति " इतरेतरभेदोऽस्य बीजं चेत् पक्ष एष
'असत्यसंयन्ध'-'असत्योपाधिसत्य' इति पक्षद्वये च संयोगनः" । (तस्वसं० का०९०५) इति । न चापोहवादिना प
समवायलक्षणस्य सम्बन्धस्य निषिद्धत्वात् सामान्यस्य च रमार्थतः किश्चिद् वाच्य बुद्ध्याकारोऽन्यो वा शब्दानामिष्य
त्रिगुणात्मकस्य सत्यस्याव्यतिरिक्तस्य, व्यतिरिकस्याप्यसते । तथाहि--यदेव शाब्दे प्रत्ययेऽध्यवसीयमानतया प्रति
म्भवात् नासत्यः संयोगः । नाप्यसत्योपाधि सामान्य शब्दभासते स शब्दार्थः, न च बुद्ध्याकारः शाब्दप्रत्ययेनाध्यव
वाच्यं सम्भवति । सीयते किं तर्हि ? बाह्यमेवार्थक्रियाकारि वस्तु; न चापि (५-६ अभिजल्प-बुद्ध्यारुढाकारपदार्थवादिमतद्वयनिरसतेन बाह्य परमार्थतोऽध्यवसीयते , यथातत्त्वमनध्यवसायाद नम्)यथाध्यवसायमतत्वात् अतः समारोपित एव शब्दार्थः। अभिजल्पपक्षेऽपि यदि शब्दस्य कश्चिदर्थः सम्भवेत् तदा ते. यश्च समारोपितं तन्न किञ्चिद् भावतोऽभिधीयते शब्दैः। न सहकीकरणं भवेदपि, स्वलक्षणादिस्वरूपस्य च शब्दार्थयत् पुनरुक्तम्-'शब्दार्थोऽर्थः स एवेति तत् समारोपि-| स्यासम्भवः प्राक् प्रदर्शित इति कथं तेनैकीकरणम् ! अपि
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अभिधानराजेन्द्रः । चायमभिजल्पो बुद्धिस्थ एव । तथाहि-बाह्यार्थयोः(बाह्ययोः) प्रवृत्तिः । “अशक्यसमयो ह्यात्मा, नामादीनाममन्यभाक् । शब्दार्थयामिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वादिभ्यो भेदस्य सिद्धस्तयोरैक्या- तेषामतो न चान्यत्वं, कथञ्चिदुपपद्यते" ॥१॥ इत्यादेः सर्वस्य पादनं परमार्थतोऽयुक्तमेवति बुद्धिस्थयोरेव शब्दार्थयारेकबु- समानत्वात् । तदेवम्-' अशक्यसमयत्वात्' इत्यस्य हेतोविगतत्वादकीकरणं युक्तम् । तथाहि-उपगृहीताभिधेयाकार- नासिद्धता । नाप्यनैकान्तिकत्व-विरुद्धत्वे । तत् सिद्धम् तिरोभूतशम्दस्वभावो बुद्धौ विपरिवर्त्तमानः शब्दात्मा ख- अपोहकृच्छब्द इति । रूपानुगतमर्थमविभागनान्तः सन्निवेशयन्नभिजल्प उच्यते। ['निषेधमात्रमव अन्यापोहः' इति मत्वा कौमारिलकृतासच बुद्धरात्मगत पचाकारो युक्तो न बाह्यः, तस्यैकान्तेन नामाक्षपाणामुपन्यासः]परस्परं विविक्तस्वभावत्वात् । ततश्च बुद्धिशब्दार्थपक्षादन
अत्र परो निषेधमात्रमेव किलान्यापोहोऽभिप्रेत इति मन्यस्तरोनादस्य न कश्चिद् भेदः, उभयत्रापि बौद्ध एवार्थः । ए
मानः प्रतिक्षायाः प्रतीत्यादिविरोधमुद्भावयन्नाहतावन्मात्रं तु भिद्यते-'शब्दार्थावकीकृतौं' इति । दोषस्तु स
“नन्वन्यापोहकृच्छब्दो, युष्मत्पनेनु वर्णितः । मान एव-"शानाव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत् "? इति ।
निषेधमा नेवेह, प्रतिभासैव [ सेऽव] गम्यते" ॥ (७ प्रतिभापदार्थवादिमतनिरसनम् )- .
[ तत्त्वसं० का०६१०] प्रतिभापते तु यदि सा परमार्थतो बाह्यार्थविषया तदैकत्र
" किन्तु गौर्गवयो हस्ती, वृक्ष इत्यादिशन्दतः । वस्तुनि शब्दादौ विरुद्धसमयावस्थायिनां विचित्राः प्रतिभा
विधिरूपावसायेन, मतिः शाब्दी प्रवर्तते ॥" न प्राप्नुवन्ति; एकस्यानेकस्वभावासम्भवात् । अथ निर्विषया तदाथे प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती न प्राप्नुतः,अतद्विषयत्वाच्छब्दस्य।
[ तत्त्वसं० का० ६११] अथ स्वप्रतिभासो (से)ऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन भ्रान्त्या ते प्रवृ
“ यदि गौरित्ययं शब्दः, समर्थोऽन्यनिवर्तने । ती-प्रतिपत्ती भवतस्तदा भ्रान्तः शब्दार्थः प्राप्नोति,तस्याश्च जनको गवि गोबुद्धे-मुंग्यतामपरो ध्वनिः ॥" बीजं वक्तव्यम् ; अन्यथा सा सर्वत्र सर्वदा भवेत् । यदि पु- [भामहालं० परि० ६ श्लो० १७ ] नर्भावानां परस्परतो भेद एव बीजमस्यास्तदाऽस्मत्पक्ष एव " ननु ज्ञानफलाः शब्दा, न चैकस्य फलद्वयम् । समर्थितः स्यादिति सिद्धसाध्यता। किञ्च-सर्वमेतत् स्वल
अपवाद-विधिज्ञानं, फलमेकस्य वः कथम्" ? ॥ क्षणादिकं शब्दविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानं क्षणिकम् अक्षणिक
[भामहालं० परि० ६ श्लो०१८] वेति ? श्राद्यपक्षे सङ्केतकालदृष्टस्य व्यवहारकालानन्वयान्न
" प्रागगौरिति विज्ञान, गोशब्दश्राविणो भवेत् । तत्र समयः सप्रयोजनः । अक्षणिकपक्षेच "नाक्रमात् क्रमि
येनागाः प्रतिषेधाय, प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः "॥ णो भावः" इति शब्दार्थविषयस्य ऋमिशानस्याभावप्रसक्तिः ।
[भामहालं० परि० ६ श्लो० १६] (विवक्षापदार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् )
यदि गोशब्दोऽन्यव्यवच्छदप्रतिपादनपरस्तदा तस्य तत्रैव अन्य त्याहु:-" अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति" इति ।
चरितार्थत्वात् सानादिर्मात पदार्थ गोशब्दात् प्रतीतिर्न यथोक्तम्-"अनुमानं विवक्षायाः शब्दादन्यन्न विद्यते" इति ।
प्राप्नोति, ततश्च सानादिमत्पदार्थविषयाया गोवुद्धर्जनको अत्रापि यदि परमार्थतो विवक्षा पारमार्थिकशब्दार्थविषये
न्या ध्वनिरन्वेषणीयः । अथैकेनैव गोशब्दन बुद्धिद्वयस्य प्यते तदसिद्धम् , स्वलक्षणादेः शब्दार्थस्य कस्यचिदसम्भ
जन्यमानत्वान्नापरो ध्वनिमृग्यः, नैकस्य विधिकारिणः प्रतिवात् । अतो न क्वचिदर्थे परमार्थे विवक्षाऽस्ति, अन्वयिनोऽ
षेधकारिणो वा शब्दस्य युगपद्विज्ञानद्वयलक्षण फलमुपलर्थस्याभावात् । नापि तत्प्रतिपादकः शब्दः सम्भवति । यदा
भ्यते, नापि परस्परविरुद्धमपवादविधिज्ञानं फलं युक्तम् , यदि ह-" वा श्रुतिः" [तत्त्वसं० का० १०७] इति । न च
च गोशब्देनागोनिवृत्तिर्मुख्यतः प्रतिपाद्यते तदा गोशब्दश्रविवक्षायां प्रतिपाद्यायां शब्दाद बहिरर्थे प्रवृत्तिः प्राप्नोति,
वणानन्तरं प्रथमम् ' अगौः' इत्येषाधातुः प्रतिपत्तिर्भवेत् । तस्याप्ररितत्वात् अर्थान्तरवत् । न च विवक्षापरिवर्तिनो यत्रैव ह्यब्यवधानेन शब्दात् प्रत्यय उपजायते स एव शाब्दाबाह्यस्य च सारूप्यादप्रेरितेऽपि तत्र ततः प्रवृत्तिर्यमलकवत्,
ऽर्थः; न चाव्यवधानेनागोव्यवच्छेदे मतिः, अतो गोबुद्ध्यनुसर्वदा बाह्ये प्रवृत्तरयोगात् कदाचिद् विवक्षापरिवर्तिन्यपि
त्पत्तिप्रसङ्गात् प्रथमतरमगोप्रतीतिप्रसङ्गाच्च नापोहः शब्दाप्रेरिते प्रवृत्तिप्रसक्तर्यमलकयोरिव । अथ परमार्थतः स्वप्रति
र्थः । अपि च-अपोहलक्षणं सामान्य वाच्यत्वेनाभिधीयमानं भासानुभवेऽपि वक्रुरेवमध्यवसायो भवति ‘मयाऽस्मै बाह्य
कदाचित् पर्युदासलक्षणं वाऽभिधीयते, प्रसज्यत्वक्षण था? एवार्थः प्रतिपाद्यते' श्रोतुरप्येवमध्यवसायः ' ममायं बाह्य
तत्र प्रथमपक्ष सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोपः, अस्माभिरपि मेव प्रतिपादयति' इति; अतस्तैमिरिकद्वयद्विचन्द्रदर्शनवदयं
गोत्वाख्यं सामान्यं गोशब्दवाच्यमित्यभ्युपगम्यमानत्वात्शाब्दो व्यवहार इति । यद्येवमस्मत्पक्ष एव समाश्रित इति
यदेव ह्यगोनिवृत्तिलक्षण सामान्यं गोशब्दनोच्यते भवता कथं न सिद्धसाध्यता ? शब्दस्तु लिङ्गभूतो विवक्षामनुमाप
तंदवाऽस्माभिर्भावलक्षण सामान्य तद्वाच्यमभिधीयते , यतीत्यभ्युपगम्यत एव यथा धूमोऽग्निम् ।
अभावस्य भावान्तरात्मकत्वेन स्थितत्वात् । तदुक्तम्[वैभाषिकमतं निर्दिश्य तन्निरसनम् - एतेन वैभाषिकोऽपि शब्दविषयं नामाख्यमर्थचिह्नरूपं वि
"क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति, प्रागभावः स उच्यते ।" प्रयुक्तं संस्कारमिच्छनिरस्तः । तथाहि-तन्नामादि यदि
[श्लो० वा० अभा० परि० श्ला० २] क्षणिकं तदाऽन्वयायोगः । अक्षणिकत्वे क्रमिज्ञानानुपपत्तिः,
___“नास्ति वा [स्तिता] पयसो दधिन, प्रध्वंसाभावलक्षणम्। बाह्य च प्रवृत्त्यभावः; सारूप्यात् प्रवृत्तौ न सर्वदा वाह्य एव गवि योऽश्वाद्यभावश्च सोऽन्योन्याभाव उच्यते ।।
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(३४४)
अभिधानराजेन्द्रः। शिरसोऽवयवा निमा, वृद्धि-काठिन्यवर्जिताः।
न्तरानपोहकत्वात् । किञ्च-योऽयं भवद्भिरपोहः पदार्थत्वेन शशशृङ्गादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते" ॥
कल्पितः स वाक्यादपोवृत्य कल्पितस्य पदस्यार्थः इष्टः[श्लो० वा० अभा० परि० श्लो० ३-४]
वाक्यार्थस्तु प्रतिभालक्षण एव । यथोक्तम्" न चावस्तुन एते स्यु-र्भेदास्तेनाऽस्य [ वस्तुता]।
" अपोद्धारपदस्याय, वाक्यादर्थो विवेचितः। [श्लोक वा० अभा० परि० श्लो०८] एतेन क्षीरादय एव
वाक्यार्थः प्रतिभाख्योऽयं, तेनादावुपजन्यते"॥१॥ इति, दध्यादिरूपेण अविद्यमानः प्रागभावादिव्यपदेशभाज इत्युक्तं
सचायुक्तः; शब्दार्थस्य विधिरूपताप्रसक्तः, तथापि बाह्येऽर्थे भवति ।
शब्दवाच्यत्वेनासत्यपि वाक्यार्थो भवद्भिः प्रतिभालक्षण एव अगोनिवृत्तिश्चान्योन्याभावः तस्या अश्वादिव्यवच्छेदरूप- वर्यते नापोहस्तदा पदार्थोऽपि वाक्यार्थवत् प्रतिभालक्षण त्वात् , तस्मात् सा वस्तु । तत्रैवमभावस्य भावान्तरात्मक- एव प्रसक्त इति द्वयोरपि पद-वाक्यार्थयार्विधिरूपत्वम् । अथ स्वे कोऽयं भवन्द्रिरश्वादिनिवृत्तिस्वभावोऽभिप्रेत इति । प्रतिभाया प्रतिभान्तराद् विजातीयाद व्यवच्छेदोऽस्तीत्यपो
अथ गवादिस्वलक्षणात्मैवासौ, न; तत्र सर्वविकल्पप्रत्यया- हरूपता, न सम्यगेतत् । यतो यद्यपि बुद्धर्बुद्ध्यन्तराद् व्यास्यमयात् ( प्रत्यस्तमयात् ) विकल्पकानगोचरः सामान्यमे- वृत्तिरस्ति तथापि न च तत्र शब्दव्यापारः। तथाहि-शब्दाबेभ्यते, असाधारणस्त्वर्थः सर्वविकल्पानामगोचरः। यथो- दसावुत्पद्यमाना न स्वरूपोत्पादव्यतिरेकेणान्यं बुद्ध्यन्तरकम्-" स्वसंवेद्यमनिर्देश्य रूपमिन्द्रियगोचरः" । इति य- व्यवच्छेदलक्षणं शब्दादवसीयमानमंशं बिभ्राणा लक्ष्यते किं थैव हि भवतामसाधारणो विशेषोऽश्वादिनिवृत्त्यात्मा गो- तर्हि ? विधिरूपावसायिन्येवोत्पत्तिमती। न च शब्दादनवशब्दाभिधेयो नेष्टस्तथैव शाबलेयादिः शब्दवाच्यतया नेष्टः, सीयमानो वस्त्वशः शब्दार्थो युक्तः अतिप्रसङ्गादिति प्रतीअसामान्यप्रसङ्गतः । यदि हि गोशब्दः शाबलेयादिवाचकः तिबाधितत्वं प्रतिक्षायाः। स्यात् तदा तस्यानन्वयान्न सामान्यविषयः स्यात् । यतश्चा
अपि च-ये भिन्नसामान्यवचना गवादयः, ये च विशेषवश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावोऽसाधारणो न घटते तस्मात् सर्वेषु
चनाः शाबलेयादयस्ते भवदभिप्रायेण पर्याया प्राप्नुवन्ति , सजातीयषु शाबलेयादिपिण्डेषु यत् प्रत्येकं परिसमाप्तं तन्नि
अर्थभेदाभावात् , वृक्ष-पादपादिशब्दवत् । स च अवस्तुपरधना गोधुद्धिः, तच गोयाण्यमेव सामान्यम् तस्यागोड
त्वात् , वस्तुन्येव हि. संसृष्टत्व-एकत्व-नानात्वादिविकल्पाः पोद्दशब्देनाभिधानात् केवल नामान्तरमिति सिद्धसाध्यता
सम्भवन्ति, नावस्तुन्येवापोहाख्ये परस्परं संसृष्टतादिविकप्रतिज्ञादोषः ।
ल्पो युक्त इति कथमषां भेदः ? तदभ्युपगमे वा नियमेन व. तथाऽऽह कुमारिलः
स्तुत्वापत्तिः । तथाहि-ये परस्परं भिद्य ते वस्तुरूपाः, "अगोनिवृत्तिः सामान्यं, घाच्यं यैः परिकल्पितम् । यथा स्वलक्षणानि, परस्परं भिद्यन्ते चापोहाः' इति स्वभावगोत्वं वस्त्वव तैरुक्क-मगोपोहगिरा स्फुटम् "॥
हेतुः, इति विधिरेव शब्दार्थः । एतेनानुमानबाधितत्वं प्रति[ श्लोक वा० अपो० श्लो०१]
शायाः प्रतिपादितम् । अथावस्तुत्वमभ्युपगम्यतेऽपोहानां " भावान्तरात्मकोऽभावो, येन सर्वो व्यवस्थितः।
तदा नानात्वाभावात् पर्यायत्वप्रसङ्कः इत्येकान्त एषः । तत्राश्वादिनिवृत्त्यात्मा-भावः क इ कथ्यताम् ?" ॥
न चापोह्यभेदात् स्वतो भेदाभावेऽपि तस्य भेदावपर्यायत्व[लो० वा० अपो० श्लो०२]
म् , स्वस्तस्य नानात्वाभावेऽभावैकरूपत्वात् परतोऽप्यसौ "नेटोऽसाधारणस्तावद ,विशेषा निर्विकल्पनात। भवन काल्पनिकः स्यात् । न हि स्वतोऽसतो भेदस्य परतः तथा च शाबलेयादि-रसामान्यप्रसङ्गतः" ॥
सम्भवो युक्तः । यथाहि-संसर्गिणः शाबलेयादयः आधारत[श्लो० वा० अपो० श्लो० ३]
याऽन्तरङ्गा अपि तं स्वरूपतो भेत्तुमशक्ताः-बहुष्वपि शाब"तस्मात् सर्वेषु यद्रपं, प्रत्येकं परिनिष्ठितम् ।
लेयादिष्वकस्यागोव्यवच्छेदलक्षणस्यापोहस्य तेष्वभ्युपगगोधुद्धिस्तनिमित्ता स्याद् , गोत्वादन्यच्च नास्ति तत् ॥ मात्-तथा बहिरङ्गभूतैरश्वादिभिरपोहोरसौ भिद्यत इत्यपि [श्लो० वा० अपोक श्लो०१०]
साहसम् । न हि यस्यान्तरङ्गोऽप्यर्थो न भेदकस्तस्य बहिरअथ प्रसज्यलक्षणमिति पक्षस्तदा पुनरप्यगोऽपोहलक्षणा- को भविष्यति बहिरङ्गत्वहानिप्रसङ्गात् । अथान्तरङ्गा एवाभावस्वरूपा शून्यता गोशब्दवाच्या प्रसक्ता वस्तुस्वरूपाप- धारास्तस्य भेदकाः, असदेतत् , अवस्तुनः सम्बन्धिभेदाद् वात् , तत्र च शाब्दबुद्धीनां स्वांशग्रहणं प्रसनम् बाह्यवस्तु- भेदानुपपत्ते, वस्तुन्यपि हि सम्बधिभेदाभेदो नोपलभ्यरूपाग्रहात् । ततश्चापोहस्य वाच्यत्वं मुधैवाभ्युपगतं परेण ते किमुतावस्तुनि 'निस्सभावोत्तहा हि-देवहिकमेकपि' बुद्ध्याकारस्याम(न) पक्षितबाह्यार्थालम्बनस्य विधिरूपस्यैव | (निःस्वभावे । तथाहि-देवदत्तादिकमेकमपि) बस्तु युगशब्दार्थत्वापत्तः । इत्यभ्युपगमबाधा प्रतिक्षायाः परस्य । पत् क्रमेण वाऽनेके [ के] रासनादिभिरं [रमि] सम्बअथ बुद्ध्याकारालम्बनाऽपि सा बुद्धिर्विजातीयाऽगवा(य- ध्यमानमनासादितभेदमेवोपलभ्यते किं पुनर्यदन्यव्यावृत्तिगवा) दिबुद्धिभ्यो व्यावृत्तरूपा प्रवर्तते तेनापोहकल्पना यु- रूपमवस्तु , तत्वादेव च क्वचिदसम्बद्ध विजातीयाच्चा:क्लव, असदेतत् ; यतो यद्यपि बुद्धिर्बुयन्तगद् व्यवच्छिन्ना व्यावृत्तम् अत एवानधिगतविशषांश तादृश सम्बन्धिभेदातथापि सा न बुद्ध्यन्तरव्यवच्छेदावसायिनी जायते, किं तर्हि? दपि कथमिव भेदमश्नुवीत?; किञ्च-भवतु नाम सम्बन्धिभ
देष्वर्थेषु विधिरूपाऽध्यवसायिनी, तेन वस्त्वेष विधि- दाद भेदस्तथापि वस्तुभूतसामान्यानभ्युपगमे भवतां स रूपं वाच्यं कल्पयितुं युक्तिमत् नाऽपोहः, बुयन्तरस्य बुज्य- एवापोहाश्रयः सम्बन्धी न सिद्धिमासादयति यस्य भेदात्
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अभिधानराजेन्द्रः।
सह सफ़ेदोऽवकल्प्यते । तथाहि-यदि गवादीनां वस्तुभूतं सारू- | शब्दप्रवृत्त्यभ्युपगमात् । इतश्चापोहे सङ्केतासम्भवः श्रप्यं प्रसिद्धं भवेत् तदाऽश्वाद्यपोहाश्रयत्वमेषामविशेषण तिप्रसक्नेः । तथाहि-कथमश्वादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? सिद्धयेत [त्] नान्यथा, अतोऽपोहविषयत्वमेषामिच्छता- सम्बन्धानुभवक्षणऽश्वादेस्तद्विषयत्येनादृष्टेरिति चेत् , असऽवश्यं सारूप्यमङ्गीकर्तव्यम् , तदेव च सामान्य वस्तुभूतं देतत् यतो यदि यद् गोशब्दसङ्केतकाले उपलब्धं ततोऽन्यत्र शब्दवाच्यं भविष्यतीत्यपोहकल्पना व्यथैव । अपोह्यमेदोऽ- गोशब्दप्रवृत्तिर्नेष्यते तदैकस्मात् सङ्केतेन विषयीकृताच्छाबपि वस्तुभूतसामान्यमन्तरेण न सिद्धिमासदयति । तथाहि लेयादिकाद् गोपिण्डादन्यद् वाहुलेयादि गोशब्देनापोह्य भयद्यश्वादीनामेकः कश्चित् सर्वव्यक्तिसाधारणो धर्मो ऽनुगा- वेत् , ततश्च सामान्य वाच्यमित्येतघ्न सिद्ध्येत् । इतरेतरामी स्यात् तदा ते सर्वे गवादिशब्दैरविशेषेणापोखेरन् ना- श्रयदोषप्रसक्तेश्चापोहे सङ्केतोऽशक्यक्रियः । तथाहि-अगोन्यथा, विशेषापरिक्षानात् । साधारणधर्माभ्युपगमे चापोह- व्यवच्छेदेन गोः प्रतिपत्तिः, स चागौगोंनिषेधात्मा; ततश्च कल्पनावैयर्थ्यम् । अपि च-अपोहः शब्द-लिङ्गाभ्यामेव प्र- 'अगौः' इत्यत्रोत्तरपदार्थो वक्तव्यः यो 'न गौरगाः' इत्यत्र तिपाद्यत इति भवद्भिरिध्यते , शब्द-लिङ्गयोश्च वस्तु भूत- ना प्रतिषिध्येत, न ह्यनितिस्वरूपस्य निषेधः शक्यते सामान्यमन्तरेण प्रवृत्तिरनुपपन्नेति नातोऽपोहप्रतिपत्तिः । विधातुम् । अथापि स्यात् किमत्र वक्तव्यम्-अगोनिवृत्त्यातथाहि-अनुगतवस्तुव्यतिरेकेण न शब्दलिङ्गाभ्यां [न शब्द स्मा गीः, नन्वेवमगोनिवृत्तिस्वभावत्वाद गोरगोप्रतिपत्तिद्वालिङ्गयोः प्रवृत्तिः, न च शब्द-लिङ्गाभ्यां] विनाऽपोहप्रति
रेणैव प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिषेधात्मकत्वाद् गोप्रतिपत्तिपत्तिः, न चासाधारणस्यान्वयः, तदेवमपोहकल्पनायां श
द्वारिकैव प्रतीतिरिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् । श्रथाप्यब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिरेव न प्रामोति; प्रवृत्ती वा प्रामाण्यम
गोशब्देन यो गौनिषिध्यते स विधिरूप एव अगोवव्यच्छेदभ्युपगतं हीयेत । तथारि-प्रतिपाद्यार्थाव्यभिचारित्वं तयोः मल(दल) क्षणापोहसिद्धयर्थम् तेनेतरेतराश्रयत्वं न भविष्यप्रामाण्यम् , अपोहश्च प्रतिपाद्यत्वेन भवताऽभ्युपगम्यमानो
ति । यद्येवं 'सर्वस्य शब्दस्यापोहार्थः' इत्येवमपोहकल्पना भावरूपत्वानिःस्वभाव इति क तयोरब्यभिचारित्वम् ? न
वृथा, विधिरूपस्यापि शब्दार्थस्य भावात् । अतः (अतोन) च विजातीयादर्शनमात्रेणैव शब्द-लिङ्गे अगृहीतसाहचर्ये कश्चिद् विधिरूपः शब्दार्थः प्रसिद्धोऽङ्गीकर्तव्यः; तदनक्रीकएव स्वमर्थ गमयिष्यतः, विजातीयादर्शनमात्रेण गमकत्वा
रण चेतरेतराश्रयदोषो दुर्निवारः । तदुक्तम्भ्युपगमे स्वार्थः परार्थ इति विशेषानुपपत्तेः; तथाच स्वार्थ- "सिद्धश्चागौरपोोत, गोनिषेधात्मकश्च सः। मपि न गमयेत् तत्र अदृष्टत्वात् परार्थवत् । तदेवं शब्द-लि- तत्र गौरव वक्तव्यो, नत्रा यः प्रतिषिध्यते "॥ अयोरप्रामाण्याभ्युपगमप्रसङ्गानापोहः शब्दार्थों युक्तः । यदि "स चेदगोनिवृत्त्यात्मा, भवेदन्योऽभ्यसंश्रयः। वा-असत्यपि सारूप्ये शाबलयादिष्वगोऽपोहकल्पना तदा सिद्धश्चेद् गौरपोहार्थ, वृथाऽपोहप्रकल्पनम् ॥ गवाश्वस्यापि कस्मान्न कल्प्येतासी अविशेषात् । तदुक्तं कु- "गव्यसिजे त्वगौर्नास्ति, तदभावेऽपि गौः कुतः।" मारिलेन
[ श्लो० वा० अपो० श्लो०८३-८४-८५ अर्द्ध] इति । "अथासत्यपि सारूप्ये, स्यादपोहस्य कल्पना ।
"नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहुः" गवाश्वयोरयं कस्मा-दगोपाहो न कल्प्यते" ॥
इत्याचार्यदिग्नागेन विशेष्यविशेषणभावसमर्थनार्थ यदुक्तं न[श्लो० वा० अपो० श्लो०७६]
दयुक्तमिति दर्शयन्नाह भट्ट:-"नाधाराधेयवृत्त्यादि-सम्बन्ध'गवाश्वयोः' इति "गवाश्वप्रभृतीनि च"(पाणि०-२-४-११)
श्वाप्यभावयोः" ॥ [श्लो० वा० अपो० श्लो० ८५] यस्य हि इत्येकवद्भावलक्षणास्मरणादुक्तम् । विशेषप्रतिपादनार्थ स
येन सह कश्चिद् वास्तवः सम्बन्धः सिद्धो भवेत् तत् तेन
विशिष्टमिति युक्तं वनम् । न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पलएव पुनरप्युक्तवान्
व्यवच्छेदरूपत्वेनाभावरूपयोराधाराधेयादिः सम्बन्धः स"शाबलेयाश्च भिन्नत्वं, बाहुलेयाश्वयोः समम् । सामान्य नान्यदिष्टं चेत् , कागोऽपोहः प्रवर्त्तताम्"? ॥
म्भवति, नीरूपत्वात् । आदिग्रहणेन संयोगसमवायैकार्थस
मवायादिसम्बन्धग्रहणम् । न चासति वास्तवे सम्बन्धे त(श्लो० वा० अपो० श्लो०७७)
द्विशिष्टस्य प्रतिपत्तियुक्ता, अतिप्रसङ्गात् । अथापि स्यात् यथैव हि शाबलयाद् वैलक्षण्यादश्वे न प्रवर्तते तथा बाहु- नैवास्माकमनीलादिव्यावृत्या विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोलेयस्यापि ततो बैलक्षण्यमस्तीति न तत्राप्यसौ प्रवर्तेत; एवं ऽभिमतः यतोऽयं दोषः स्यात् किं तर्हि ? अनीलानुत्पलाशाबलयादिष्यपि योज्यम् , सर्वत्र वैलक्षण्याविशेषात् । अपि | भ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथाव्यवस्थित तदर्थान्तरनिवृत्या च-यथा स्खलक्षणादिषु समयासम्भवान्न शब्दार्थत्वम् तथाऽ विशिएं शब्देनोच्यत इत्ययमर्थोऽत्राभिप्रेतः, असदेतत् । पोहेऽपि । तथाहि-निश्चितार्थो हि समयकृत् समयं करा- स्वलक्षणस्यावाच्यत्वात् तत्पक्षभाविदोषप्रसङ्गाख । न च ति; न चापोहः केनचिदिन्द्रियैर्व्यवसीयते, व्यवहारात् पूर्व खलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वं सा (सि) ध्यति यतो न सस्याऽवस्तुत्वात् इन्द्रियाणां च वस्तुविषयत्वात् । न चान्य- वस्त्वपोहः, असाधारण तु वस्तु । न च वस्त्ववस्तुनो युक्तः, व्यावृत्तं स्वलक्षणमुपलभ्य शब्दः प्रयोक्ष्यते, अन्यापोहादम्यत्र वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य । भवतु वा सम्बन्धस्तथापि विशेशब्दवृत्तेः प्रवृत्त्यनभ्युएगमात् । नाप्यनुमानेनापोहाध्यवसा- पणत्वमपोहस्यायुक्तम्। न हि सत्तामात्रेणोत्पलादीनां नीला. यः, "न चान्ययविनिर्मुक्ता प्रवृत्तिःशब्द-लिङ्गयोः" इत्यादि- दि विशेषणं भवति, किं तर्हि ? ज्ञातं सद् यत् खाकारानुरना तत्प्रतिषेधस्य तत्रोकत्वात् । तस्मात् 'अकृतसमयत्वान्' क्या बुद्ध्या विशष्य रञ्जयति तद् विशेषणम् , न चापोहेऽयं इत्यस्य हेतोरनैकान्तिकत्वमपोहेन, अकृतसमयत्वेऽप्यपोहे | प्रकारः सम्भवति, न ह्यश्वादिबुद्धयाऽपोहोऽध्यवसीयते, किं
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अभिधानराजेन्द्रः। तर्हि ? वस्त्वेव, अतोऽपोहस्य बोधासम्भवाद् न तेन स्वबु- तेन सामान्यमेष्टव्यं, विषयो बुद्धि-शब्दयोः"॥ द्धया रज्यतेऽश्वादि । न चाहातोऽप्यपोहो विशेषणं भवति, [श्लो० वा० अपो० श्लो० ६४] न ह्यगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायमाना दृष्टाः भवतु इतश्च सामान्य वस्तुभूतं शब्दविषयः यतो व्यक्तीनामसावाऽपोहझानम् तथापि वस्तुनि तदाकारबुद्धयभावात् तस्य |
धारणवस्तुरूपाणामवाच्यत्वान्नापोह्यता अनुक्नस्य निराकर्तुतद्विशेषणत्वमयुक्तम् , सर्वमेव हि विशेषणं स्वाकारानुरूप
मशक्यत्वात् , अपोह्येत सामान्यम् तस्य वाच्यत्वात् । - विशेष्ये बुद्धि जनयद् दृष्टम् , न त्वन्यादृशं विशेषणमन्याह
पोहानां स्वभावरूपतयाऽपोह्यत्वासम्भावात् तत्त्वे वा वस्तुशी बुद्धि विशेष्ये जनयति; न हि नीलमुत्पले 'रनम्' इति
त्वमेव स्यात्-तथाहि-यद्यपोहानामपोह्यत्वं भवेत् तदेषामप्रत्ययमुत्पादयति, दण्डो वा 'कुण्डली' इति; न चात्राश्वादि.
भावरूपत्वं विप्रतिषिद्धं भवेत् । प्रतिषेधे च सति अभावैरस्वभावानुरक्ता शाब्दी बुद्धिरुपजायते, किं तर्हि ? भावाका
भावरूपत्वं त्यक्तं स्यात् । ततश्चाभावानामपाहलक्षणानामराध्यवसायिनी । यदि पुनर्विशेषणाननुरूपतयाऽन्यथा व्यव.
भावरूपस्यागाद् वस्तुत्वमेव भवेत् , तश्च न शब्दविषयःस्थितेऽपि विशष्ये साध्वी विशेषणकल्पना तथासति सर्वमेव नीलादि सर्वस्य विशेषणमित्यव्यवस्था स्यात् । नाप्यपो
यद्वाऽभावानामभावाभावात् न ह्यभावस्वभावा अपोहा
अपोह्या युज्यन्ते, वस्तुविषयत्वात् प्रतिषेधस्य तस्मादश्वाहेनापि स्वबुद्धया विशेष्यं वस्त्वनुरज्यते इति वक्तव्यम् , तथा
दो गवादेरपोहो भवन् सामान्यस्यैवेति निश्चीयत इति सि-" ऽभ्युपगमे अभावरूपेण वस्तुनः प्रतीतेर्वस्तुत्वमेव न स्यात्
द्धमपोह्यत्वाद् वस्तुत्वं सामान्यस्य । तदुक्तम्भावाभावयोर्विरोधात् । एतदेवाह--
"यदा वा शब्दवाच्यत्वा-न व्यक्तीनामपोहता। " न चासाधारणं वस्तु, गम्यतेऽपोहवत्तया ।
तदाऽपोहत सामान्यं, तस्यापोहाच वस्तुता" ॥ कथं वा परिकल्प्येत, सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः॥"
"नापोह्यत्वमभावाना-मभावाऽभाववर्जनात्। " स्वरूपसत्त्वमात्रेण, न स्यात् किञ्चिद् विशेषणम् । व्यक्नोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः" ॥ स्वबुद्धधा रज्यते येन, विशेष्यं तद् विशेषणम् ॥"
[श्लो० वा० अपो० श्लो० ६५-६६] इति । " न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो, जायतेऽपोहबोधनम् ।
अपि च, अपोहानां परस्परतो वैलक्षण्यमबैलक्षण्यं वा? विशष्यबुद्धिरिऐह, न चाज्ञातविशेषणा ॥"
तत्राद्ये पक्षे अभावस्यागोशब्दस्याभिधेयस्याभावो गोशब्दा... " न चान्यरूपमन्याकू, कुर्याज् ज्ञानं विशेषणम् । भिधेयः, सचेत् पूर्वोकादभावाद् विलक्षणस्तदा भाव एव कथं चान्यादृशे झाने, तदुच्येत विशेषणम् ॥"
भवेत् अभावनिवृत्तिरूपत्वाद् भावस्य । न चेद् विलक्षणस्त"अथान्यथा विशेष्येऽपि, स्याद् विशेषणकल्पना।
दा गौरप्यगौः प्रसज्येत, तदवलक्षण्येन तादात्म्यप्रतिपत्तेः। . तथासति हि यत् किश्चित् , प्रसज्येत विशेषणम्" ॥
स्यांदतत् गवाश्वादिशब्दैः स्वलणान्येव परस्परतो व्यावृत्ता"अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता ।
न्यपोह्यन्ते नाभावा तेनापोह्यत्वेन वस्तुत्वप्रसङ्गापादनं मानिविशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः "॥
एम् , असदेतत् ; यद्यपि सच्छब्दादन्येषु गवादिशब्देषु वस्तुन [ श्लो० वा० अपो० श्लो०८६-८७-८८-८६--११] इति.
(नः)पर्वतादेपोह्यता सिद्धयति सच्छब्दस्य त्वभावाख्यादपो. अथान्यव्यावृत्ते एव वस्तुनि शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिदृश्यते
ह्यान्नान्यदपोह्यमस्ति असद्व्यवच्छेदेन सच्छब्दस्य प्रवृत्तत्वानापोहरहिते अतोऽपोहः शब्द-लिङ्काभ्यां प्रतिपाद्यत इत्य
त्। ततश्च पूर्ववदभावाभाववर्जनाद् असतोऽपोहे वस्तुत्व-.' भिधीयते न प्रसज्यप्रतिषेधमात्रप्रतिपादनात् अत एव न
मेव स्याद् इत्यपोहवादिनोऽभ्युपगमविरुद्धाऽसद्वस्तुत्वप्रस. प्रतीत्यादिविरोधोद्भावनं युक्तम् , असदेतत् , यतो यदि नाम
क्तिः । अथास्त्वभावस्यापि वस्तुत्वम् , न; अभावस्यापि सि. तद् वस्त्वन्यतो व्यावृत्तं तथापि तत्रोत्पद्यमानः शब्द-लिङ्गो.
(स्याऽसि ) द्धौ कस्यचिद् भावस्यैवासिद्धेः, अभावव्यब-. द्भवो बोधोऽन्यव्यावृत्ति सतीमपि नावलम्बते , किं तर्हि ? च्छेदेन तस्य भवन्मतेन स्थितलक्षणत्वात् । अभावस्य वाऽ . वस्त्वंशमेवाभिधावति, तत्रैवानुरागात् । य एव चांशो वस्तु
पोह्यत्वे सति वस्तुत्वप्रसनेन स्वरूपासिद्धरसत्त्वमपि न नः शाब्देन लैङ्गिकेन या प्रत्ययेनावसीयते स एव तस्य विष.
सिद्धयति; तस्य सस्वब्यवच्छेदरूपत्वात् , सत्वस्य च यथायः नानवसीयमानः सन्नपि न हि मालतीशब्दस्य गन्धादयो क्लेन प्रकारेणायोगात् । न चात्र-"अपोह्यः स बहिः संस्थि. विद्यमानतया वाच्या व्यवस्थाध्यन्ते । न चाप्येतदु (द्य) कम्
तैर्भिद्यते" इत्यादौ "वस्तुत्वादपोहानां नैव भेदः" इत्यादी यद् अन्यव्यावृत्ते वस्तुनि शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिः, यतोऽ च 'न खल्बपोह्यभेदादाधारभेदाद् वाऽयोहानां भेदः, अपिन्यव्यावृत्तं वस्तु भवतां मतेन स्वलक्षणमेव भवेत् न च तत् त्वनादिकालप्रवृत्तविचित्रवितथार्थविकल्पवासनाभेदान्वयैशब्द-लिङ्गजायां बुद्धौ विपरिवर्तत इति, तस्य निर्विकल्प- स्तत्त्वतो निर्विषयैरप्यभिन्नविषयालम्बिभिभिन्नैरिव प्रत्ययैकबुद्धिविषयत्वात् भवदभिप्रायेण शब्द-लिङ्गजबुद्धश्च सामा- मिनेष्वर्थेषु बाह्येषु भिन्ना इवात्मान वास्वभावा न्यवियत्वात् । न चासाधारणं वस्तु शाब्दलिङ्गजप्रत्ययाधि- श्रप्यपाहाः समारोप्यन्ते; ते चैवं तथा तैः समारोपिता गम्यम्, तत्र विकल्पानां प्रत्यस्तमयात्। तथाहि-विकल्पो भिन्नाः सन्तश्च प्रतिभासन्ते येन वासनाभेदाद् भेदः सद्रूजात्यादिविशेषणसंस्पर्शेनैव प्रवर्तते न शुद्धवस्तूपग्रहणे, न पता वाऽपोहानां भविष्यति' इत्ययं परिहारो वर्क च शब्देनागम्यमानमप्यसाधारण वस्तु व्यावृत्या विशिष्टमि
युक्तः, यतो न ावस्तुनि वासना सम्भवति, वासनातोनित्यभिधातुं शक्यम् । यतः
विषय प्रत्ययस्यायोगात्, तदभावाद वितथार्थानां विक" शब्देनागम्यमानं च, विशेष्यमिति साहसम् ।
ल्पानामसम्भवात् आलम्बनभूते वस्तुन्यसति निर्विषयक्षा
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सद
नायोगेन वासनाधायकविज्ञानाऽभावतो न वासनाः ततश्च वासनाऽभायात् कुतो वासनाकृतोऽपोहानां भेदः सपता या ? श्रतो याच्याभिमतापोहाऽभावः ।
( ३४७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा, वाचकाभिमतस्यापि तस्याभाव एव, तथापि शब्दान भिसामान्यवाचिनां विशेषवाचिनां च परस्परतो वासनामेदनिमित्तो या स्यात् याच्यापोहमेदनिमित्तो वा ? मनु प्रत्यक्ष एव शब्दानां कारणभेदाविरुद्धधर्माध्यासाच भेदः प्रसिद्ध एवेति प्रश्नानुपपत्तिः, असदेतत् यतो वाचकं शब्दमङ्गीकृत्य प्रश्नः, न च श्रोत्रज्ञानावसेयः स्वलक्षणात्मा शब्दो वाचकः, सङ्केतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनत्यात् तस्य न तेन व्यवहार इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण अविषाचा यथोक्तम्"नार्थशब्दविशेषस्य वाण्यवाप्यते ।
1
99
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तस्य पूर्वमष्टत्वात् सामान्यं तूपदेश्यते ॥१॥ इति । तस्माद वाचकं शब्दमधिकृत्य कराददोषः ।
66
तत्र शब्दान्तरापोहे, सामान्ये परिकल्पिते । तथैवावस्तुरूपत्वादभेदो न कल्प्यते ॥ [ लो० वा० अपो० लो० १०४ ]
यथा पूर्वोक्कन विधिना 'संस्करवनानात्व' इत्यादिना या व्यापोहानां परस्परतो भेदो न घटते तथा शब्दापोहानामपि नीरूपत्वान्नासौ युक्तः, यथा च वाचकानां परस्परतो भेदो न सङ्गच्छते एवं वाच्यवाचकयोरपि मिथोऽनुपपन्नः, निःस्वभा यत्यात् । न चापोवा मेदो भविष्यति न विशेषः स्वतस्तस्य इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् । तदेवं प्रतिज्ञायाः प्रतीत्यभ्युपेतबाधा व्यवस्थित
6
साम्प्रतं वाच्यवाचकत्वाभावप्रसङ्गापादनादभ्युपेतबाधादिदोषं प्रतिपिपादयिषुः प्रमाण्यति - ये वस्तुनी न तयो
६
गमत्यमस्ति यथा खपुष्प शो अस्तुनी च वाच्यवाचकापोडी भवतामिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । मनु मेघाभावाद्यभावप्रतीते हैं तोरनैकान्तिकता प्रयु क्रमेतत् यस्मात् तद्विविकाकाशा 55लोकात्म तुम पक्षेऽपि प्रयोग (ग) उस्स्लेव, अभावस्य वस्तुत्वप्रतिपादनात् । भवत्पक्षे तु न केवलमपोहयोविवादास्पदी भूतयोर्गम्यगमकत्वं न युक्तम् अपि त्वेतदपि वृष्टिमेघाभावयोर्गम्यग मतद्भवद्भिरन्ययोपसर्जन तिरेकप्रधानयोः स्वविषयप्रतिपादकत्वं शब्द - लिङ्गयोर्वशर्यते,
यच्च
"अटेरन्यशब्दार्थे, स्वार्थस्याशेऽपि दर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्ध सौकर्य, न चास्ति व्यभिचारिता " ॥१॥ इत्यादि पतिम् तद्यपोहाभ्युपगमे ऽसकृतम्पतः"विधिरूप शब्दार्थी, येन नाभ्युपगम्यते । न भवेद् व्यतिरेकाऽपि तस्य तत्पूर्वको हासी " [ लो० वा० पो० ० ११० ] विधिनिवृत्तिलक्षणत्वाद् व्यतिरेकस्येति भावः ।
किञ्च नीलोत्पलादिशब्दानां विशेषणविशेष्यभावः सामानाधिकरण्यं च लोकप्रतीतं तस्यापवो पोइबादिनः प्रय विशेष विशेष्यभाव-सामानाधिकरण्यमर्थनार्थमुच्यते
66
" अपोमेदाद भिन्नार्था स्वार्थमेदगती जडा एकत्वाभिन्नकार्यत्वाद्, विशेषणविशेष्यता " ॥ १ ॥
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6
5
"
"
तन्मात्राकाङ्गणाद् भेदः, स्वसामान्येन नोज्झितः । नोपान्तः संशयोत्यात इति, तद्यमनुपपन्नम्। यतः परस्परं व्यवच्छेदा(छेदक भावो विशेषणविशेष्यभावः स च बाह्य (वाक्य) एव व्यवस्थाप्यते यथा नीलो (मीसमुत्पलम्' इति व्यधिकरणयोरपि यथा राज्ञः पुरुषः इत्यादी भिन्ननिमित्तप्रयुक्तयोस्तु शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम् तथ 'नीलोत्पलम्' इत्यादौ वृत्तावेव व्यवस्थाप्यते । न च नीलोपलादिशब्देषु शबलार्थाभिधायिषु तत्सिद्धिः शमला मि धायित्वं तेषाम् विनीले न केवलत्पलम् । समुदायाभिधेयत्वात्,” इत्यादिना प्रतिपादितम् । यतः अनीलत्वव्युदासेऽनुत्पलव्युदासौ नास्ति, नाप्यनुत्पलप्रच्युताबनीखव्युदास इति मानयोः परस्परमाधाराधेयसम्बन्धी स्ति नीलरूप (नीरूप) त्वात् न वासति सम्बन्धे विशेविशेष्यभावयुक्तः अतिप्रसङ्गात्। अतो युष्मन्मतना; श्रतो भाववावित्वाच्यार्थाभिधायित्वासम्भवान्न विशेषणवि शेष्यभावो युक्तः । अभिधेयद्वारेणैव हि तदभिधायिनोः शदयोर्विशेषणविशेष्यभाव उपचर्यते अभिधेये च तस्यास म्भवेऽभिधानेऽपि कुतस्तदारोपः ? सामानाधिकरण्यमपि नीलोत्पलशब्दानं सम्भवति तद्वाच्ययारनीसानुत्पलम्यवच्छेदलक्षणयोरपोहयोर्भिन्नत्वात् । तच्च भवद्भिरेव ' अपोह्यभेदाद् भिन्नार्था' इत्यभिधानादवसीयते । प्रयोगः-न नीलोत्पलादिशब्दाः समानाधिकरण्यवहारविषयाः भिन्नविषयत्वात् घटादिशब्दवत् न च यनुपलव्युदासो वर्त्तते तत्रैवा - नीलव्युदासोऽपीति नीलोत्पशब्दवाच्योर पोद्वयोरेकस्मिन् वृतेः अर्थद्वारामानाधिकरण्यं शब्दयोरपीति वकुं युक्तम् श्रपोहयोत्वेन कचिदालयायतायोगा वन्ध्यासुतस्येव । भवतु वा नीलोत्पलादिष्वर्थेषु तयोराधेषता तथापि सा विद्यमानापि न शब्देः प्रतिपाद्यते यतस्तदेवासाधारणत्वान्नीलोत्पलादि वस्तु न शब्दगम्यम् स्वलक्षस्य सर्वविकल्पातीतस्याप्रति सौ च तदधिकरणयोरपोयोस्तदाता कथं क्या धर्मग्रहणान्तरीयकत्वाद धर्मग्रस्य न वासाधारणवस्तुव्यतिरेकेण तयोरन्यदधिकरणं सम्भवति भवदभिप्रायेण । न चाप्रतीयमानं सदपि सामानाधिकरण्यव्यवहाराङ्गम् अतिप्रसङ्गात् । न च व्यावृत्तिमद् वस्तु शब्दवाव्यम् - यतो व्यावृत्तिद्वयोपाधिकयोः शब्दयोरेकस्मिन्नपोदयति वस्तुनि पुणेः सामानाधिकरण्यं भवेत्परतस्वाद् नीलादिशब्दस्येतरभेदानाक्षेपकत्वात् । स हि व्यावृत्युपसजैन तद्वन्तमर्थमाह न साक्षात् ततश्च साक्षादनभिधानात् तद्गतभेदाक्षेपो न सम्भवति, यथा- मधुरशब्देन शुक्लादेः । यद्यपि शुक्लादीनां मधुरादिभेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगतस्यैव भेदस्याक्षेपे सामर्थ्यम् न तु पारतडपेणाभिहितार्थगतस्यः ततश्च नीलादिशब्देन त दानापात् उत्पलादीनाम स्यात् तदचन सामान्याधिकरण्यम् तेन जातिमन्मात्रपक्षे या दोषः प्र
9
श
;
,
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सद्द
"
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अभिधानराजेन्द्रः। तिपादितो भवता "तद्वतो न वाचकः शब्दः, अस्वतन्त्रत्वा-। रिष्ट इति ज्ञापनार्थ पुनरुक्तम् । तथाहि-अनन्यापोहशब्दत्" इति स व्यावृत्तिमन्माप्रपक्षेऽपि तुल्यः। तथाहि-जा- स्यान्यापोहः शब्दार्थों व्यवच्छेद्यः, स च विधेर्नान्यो लक्ष्यते । तिमन्मात्रे शब्दार्थे सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जनं द्रव्यमाह ये च प्रमेय-शेयाऽभिधेयादयः शब्दास्तेषां न किश्चिदपोह्यमन साक्षादिति तद्गतघटादिभेदानाक्षेपात् अतद्भेदत्वे सामा- स्ति, सर्वस्यैव प्रमेयादिस्वभावत्वात् । तथाहि--यन्नाम नाधिकरण्याभावप्रसङ्ग उक्नः; स व्यावृत्तिमम्मात्रपतेऽपि किञ्चिद् व्यवच्छेद्यमेषां कल्यते तत् सर्व व्यवच्छेद्याकारेसमानः-तत्राऽपि हि सच्छब्दो व्यावृत्युपसर्जनं द्रव्य
णालम्ब्यमानं शेयादिस्वभावमेवावतिष्ठते , न ह्यविषयीकृतंमाह न साक्षादिति तद्गतभेदानाक्षेपोऽत्राऽपि समान एव;
व्यवच्छेत्तुं शक्यम् ; अतोऽपोह्याभावाव्यापिनी व्यवस्था । को पत्र विशेषः जातिव्या (ा) वृत्तिर्जातिमद्या
ननु हेतुमुख निर्दिष्टम् “ अज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्वयवच्छेदेन (र्जातिमान् व्या) वृत्तिमानिति । न च लिङ्ग-सङ्खचा- क्षेयेऽनुमानम्"(हेतु०) इति तत् कथमव्यापित्वे कथमव्यापिक्रिया-कालादिभिः सम्बन्धोऽपोहस्यावस्तुत्वाद् युक्तः एषां त्वं शब्दार्थव्यवस्थायाः, नैतत् ; यतो यदि शेयमयशेयत्वेना. वस्तुधर्मत्वात् । न च लिङ्गादिविविक्तः पदार्थः शक्यः श
पोह्यमस्य कल्पप्यते तदा वरं वस्त्वेव विधिरूपं शब्दार्थत्वेन ब्देनाभिधातुम् , अतः प्रतीतिबाधाप्रसङ्गः प्रतिज्ञायाः ।
कल्पितं भवेत् यदध्यवसीयते लोकेन; एवं ह्यदृष्टाध्यारोपो न च व्यावृत्त्याधारभूताया व्यक्तर्वस्तुत्वाल्लिङ्गादिसम्बन्धात्
दृष्टापलापश्च न कृतः स्यात् । तद्वारेणापोहस्याप्यसौ व्यवस्थाप्यः,व्यक्तनिर्विकल्पकज्ञानविषयत्वाल्लिङ्ग-सङ्ख्यादिसम्बन्धेन व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् अ
(विकल्पप्रतिबिम्बार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम् )
ये त्वाहुः-"विकल्पप्रतिबिम्बमेव सर्वशब्दानामर्थः, तदेव पोहस्य तद्वारेण तद्यवस्थाऽसिद्धेः । श्रव्यापित्वं चापोह
चाभिधीयते व्यवच्छिद्यत इति च" तेऽपि न युक्तकारिणः । शब्दार्थव्यवस्थायाः, 'पचति' इत्यादिक्रियाशब्देष्वन्यव्यवच्छेदाप्रतिपत्तेः । यथा हि घटादिशब्देषु निष्पन्नरूपं पटा
निराकारा बुद्धिः आकारवान् बाह्योऽर्थः-" स बर्हिर्देशस
म्बन्धो, विस्पटमुपलभ्यते " इत्यादिना झानाकारस्य दिकं निषेध्यमस्ति न तथा 'पचति' इत्यादिषुः प्रतियोगिनो
निषिद्धत्वात् अान्तरस्य बुद्धयारूढस्याकारस्यासत्वात् निष्पन्नस्य कस्यचिदप्रतीतेः । अथ मा भूत् पर्युदासरूपं
तदवसायकत्वं शब्दानाम युक्तम् , अत एव तस्यापा निषेध्यम् , 'न पचति' इत्येवमादि प्रसज्यरूपं 'पचति' इ
ह्यत्वमप्यनुपपन्नम् । ये च 'एवम्' इत्यादयः शब्दास्तेषामपि स्यादेनिषेध्यं भविष्यति, असदेतत् ; 'तन्न (न न ) पचति'
न किश्चिदपोह्यम् , प्रतियोगिनः पर्युदासरूपस्य कस्यइत्येवमुध्यमाने प्रसज्यप्रतिषेधस्य निषेध एवोक्तः स्यात् ,
चिदभावात् । अथ नैवम्' इत्यादिप्रसज्यरूपं प्रतिषततश्च प्रतिषेधद्वयस्य विधिविषयत्वाद विधिरेव शब्दार्थः
ध्यमत्रापि भविष्यति, न; उक्नोत्तरत्वात् । प्रसक्तः । किश्च-पचति' इत्यादौ साध्यत्वं प्रतीयते; यस्यां
“न नैवमिति निर्देश, निषेधस्य निषधनम् । हि क्रियायां केचिदवयवा निष्पन्नाः केचिदनिष्पन्नाः सा पूपरीभूतावयवा क्रिया साध्यत्वप्रत्ययविषयः, तथा-'अ
एवमित्यनिषेध्यं तु, स्वरूपेणैव तिष्ठति ॥१॥"
इति न्यायात् । भूत्' 'भविष्यति' इत्यादी भूतादिकालविशेषप्रतीतिरस्ति, न
(अपोहपक्ष उद्दयोतकरकृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः)चापोहस्य साध्यत्वादिसम्भवः निष्पन्नत्वादभावकरसत्वेन; तस्मादपोहशब्दार्थपक्षे साध्यत्वप्रत्ययो भूतादिप्रत्ययश्च नि
उद्दयोतकरस्त्वाह-"अपोहः शब्दार्थः इत्ययुक्तम् अव्यापकनिमित्तः प्रामोतीति प्रतीतिबाधा । न च विध्यादावन्यापो- त्वात् । यत्र द्वैराश्यं भवति तत्रेतरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते, हप्रतिपत्तिरस्ति, पर्युदासरूपस्य निषेध्यस्य तत्राभावात् ।
यथा-'गौः' इति पदाद् गौः प्रतीयमानः अगौर्निषिध्यमानः; 'न न पचति देवदत्तः' इत्यादौ च ना (प्रो) ऽपरेण नमो
न पुनः सर्वपद एतदस्ति, न ह्यसर्व नाम किञ्चिदस्ति यत् योगे नवापोहा, प्रतिषेधद्वयेन विधेरव संस्पर्शात् । अपि च
सर्वशब्देन निवर्तेत । अथ मन्यसे एकादि असर्व तत् सर्वचादीनां निपातोपसर्गकर्मप्रवचनीयानां पदत्वमिष्टम् , न
शब्देन निवर्त्तत इति, तन्न; स्वार्थापवाददोषप्रसङ्गात् । पर्व चैषां ना सम्बन्धोऽस्ति असम्बन्धवचनत्वात् । तथाहि
धेकादिव्युदासेन प्रवर्त्तमानः सर्वशब्दाऽङ्गप्रतिषेधादाव्ययथा हि घटादिशब्दानाम् 'अघटः' इत्यादी ना सम्बन्धेऽ
तिरिक्तस्याङ्गिनोऽनभ्युपगमादनर्थकः स्यात् । अङ्गशब्देन ह्यर्थान्तरस्य पटादेः परिग्रहात् तद्यवच्छेदेन नमा रहितस्य घ.
कदेश उच्यते; एवं सति सर्वे समुदायशब्दा एकदेशप्रतिषेटशब्दस्यार्थोऽवकल्पत न तथा चादीनां नमा सम्बन्धोऽस्ति
धरूपेण प्रवर्तमानाः समुदायिव्यतिरिक्तस्यान्यस्य समुदान चासम्बन्ध्यमानस्य नाऽपोहनं युक्तम् । अतश्चादिष्वपो
यस्याऽनभ्युपगमादनर्थकाः प्राप्नुवन्ति । ह्यादिशब्दानां तु हाभावः। अपि च-कल्माषवर्णवच्छबलैक्यरूपो वाक्यार्थ
समुच्चयविषयत्वादेकादिप्रतिषेधे प्रतिषिध्यमानार्थानामसइति नान्यनिवृत्तिस्तत्त्वेन व्यपदेष्टं शक्या, निष्पन्नरूपस्य प्र
मुश्चयत्वादनर्थकत्वं स्यात्" (अ०२ श्रा०२ सू०६७ न्यायवा०) तियोगिनोऽप्रतीतः । या तु 'चैत्र ! गामानय' इत्यादावचै- "यश्चायमगोऽपोहोऽगौन भवतीति गोशब्दस्यार्थः; स किंप्रादिव्यवच्छेदरूपाऽन्यनिवृत्तिरवयवपरिग्रहेण बर्यते सा श्चिद् भावः, अथाऽभावः ? भावोऽपि सन् किं गौः, अथागीपदार्थ एव स्यात् न वाक्यार्थः; तस्यावयवस्येत्थं विवक्नुम- रिति । यदि गौः नास्ति विवादः। अथाऽगौः,गोशब्दस्यागौरर्थ शक्यत्वादित्यव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था ।
इत्यतिशब्दार्थकौशलम् । अथाभावः, तन्न युक्तम् ; प्रैष-सम्प्रकिञ्च-'न अन्यापोहः अनन्यापोहः' इत्यादौ शब्दे विधिरू- तिपस्योरविषयत्वात् । न हि शब्दश्रवणादभावे प्रैषः-प्रतिपादन्यद् वाच्यं नोपलभ्यते, प्रतिषेधद्वयेन विधेरेवावसाया- पादकेन श्रोतुरर्थे विनियोगः-प्रतिपादकधर्मः, सम्प्रतिपत्त त् । अत्र च नमश्चापि नया योगे' इत्यनेनार्थस्य गतत्वे (ति) श्व-श्रोधम्मो-भवेत् । अपि च-शब्दार्थः प्रतीत्या पि'अन्यापीहा शब्दार्थः' इत्येवंवादिनां स्ववचनेनैव विधि- प्रतीयते, नब गोशब्दादभाव कश्चित् प्रतिपद्यते" (न्याय
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(३४६), सह
अभिधानराजेन्द्रः। पा०) किञ्च-"क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो वक्तव्यः । तत्र | तत्र यदाकारतयाऽर्था(थ) प्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभा'प्रगौन भवति' इत्ययमपोहः किं गोविषयः, अथागोविषयः? ति तत्र 'अन्यापोहः' इति व्यपदेशः । न चासावर्थाभासो यदि गोविषयः कथं गोर्गव्येवाऽभावः? अथागोविषयः क- जामतादात्म्यन व्यवस्थितः सन् बाह्यार्थाभावेऽपि तस्य तत्र थमम्यविषयादपोहादस्यत्र प्रतिपत्तिः,न हि खदिरे छिचमाने
प्रतिभासनाद् बाह्यकृतः। पलाशे छिदा भवति।प्रथागोगवि प्रतिषेधो 'गौरगौन भवति'
न चापोहण्यपदेशस्तत्र निनिमित्तः, मुख्य-गौणभेदभिन्नस्य इति, केनागोत्वं प्रसक्तं यत्प्रतिषिभ्यत इति" (न्यायवा०)
निमित्तस्य सद्भावात् । तथाहि-विकल्पान्तरारोपितप्रति"इतचायतोऽपोहः विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-योऽयम- भासाम्तरोनावन(प्रतिभासाम्तराद् भेदेन) स्वयं प्रतिभासगोरपोहो गधि सकिं गोव्यतिरिक्तः, आहोश्विव्यतिरिक्तः ? नात् मुख्यस्तत्र तद्यपदेशः 'अपोह्यत इत्यपोहः अन्यस्मादयदि व्यतिरिक्तः स किमाश्रितः प्रथाऽनाश्रितः ? यद्याश्रित- पोहः अन्यापोहः' इति व्युत्पत्तः । उपचारात् तु त्रिभिः कास्तदाऽऽधितत्वाद् गुणः प्राप्तः। ततश्च-गोशब्देन गुणोऽभि. रणैस्तत्र तद्यपदेशः-(१)कारणे कार्यधर्मारोपाद् वा अन्यधीयते'न गौः' इति-गौस्तिष्ठति' 'गौर्गच्छति' इति न सामा. व्यावृत्तवस्तुप्राप्तिहेतुतया, (२) कार्ये या कारणधर्मोपचानाधिकरण्यं प्राप्नोतीति। अथानाश्रितस्तदा केनार्थेन 'गोरगो रात् अन्यविविक्तवस्तुद्वारायाततया, (३) विजातीयापोढपाहः' इति षष्ठी स्यात् अथाव्यतिरिकस्तदा गोरेवासाविति पदार्थेन सहेक्येन भ्रान्तः प्रतिपत्तृभिरध्यवसितत्याच्चेति । न किश्चित् कृतं भवति" [न्यायवा० पृ० ३३० पं०८-१४ ] अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तद्यपदेशभाक । प्र"अयं चापोहः प्रतिवस्त्वेकः, अनेको वेति वक्तव्यम् । य
सज्यप्रतिषेधलक्षणस्त्वपोहःघेकस्तदानेकगाद्रव्यसम्बन्धी गोत्वमेवासी भवेत् । अथाने
"प्रसज्यप्रतिषेधस्तु, गौरगौन भवत्ययम् । कस्ततः पिण्डवदानन्यादाख्यानानुपपत्तेरवाच्य एव स्यात्"
इति विस्पष्ट एवाय-मन्यापोहोऽवगम्यते"। [न्यायवा० पृ० ३३० पं० १५-१७] किश्च-"इदं तावत् प्र
[तत्वसं० का० १०१०] व्यो भवति भवान्-किमपोहो वाच्यः, अथावाच्य इति । तत्र य एव हि शाब्दे झाने साक्षाद् भासते स एव शब्दाऽवाच्यत्वे विधिरूपेण वाच्यः स्यात् , अन्यव्यावृत्त्या वातत्र | र्थों युक्तः । न चात्र प्रसज्यप्रतिषेधावसायः, वाच्याभ्यवसियदि विधिरूपेण तदा नैकान्तिकः शब्दार्थः 'अन्यापोहः श तस्य बुद्धयाकारस्य शब्दजन्यत्वात् । नापीन्द्रियज्ञानवद बब्दार्थः' इति । अथान्यव्यावृत्त्येति पक्ष त्तदा तस्याप्यन्य- स्तुस्वलक्षणप्रतिभासा, किं तर्हि ? बाह्यार्थाध्यवसायिनी केव्यवच्छेदस्यापरेणान्वयव्यवच्छेदरूपेणाभिधानम् तस्याप्य- बलशाब्दी बुद्धिरुपजायते तेन तदेवार्थप्रतिबिम्बकं शाम्दे परेणेत्यव्यवस्था स्यात् । अथावाच्यस्तदा 'अन्यशब्दार्थापोहं झाने साक्षात् तदात्मतया प्रतिभासनाच्छब्दार्थों युक्त इति शब्दः करोति इति ब्याहन्येत"[न्यायवा०पृ०३३०पं०१८-२२] अपोहनये प्रथमोऽपोहव्यपदेशमासादयति ।
प्राचार्यदिग्नागोत्रम्-" सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् यश्चापि शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणसम्बन्धः कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रम जातिधर्मा एकत्व-नित्यत्व- प्रसिद्धो नासो कार्यकारणभावादन्योऽवतिष्ठते, बाह्यरूपप्रत्यकपरिसपाप्तिलक्षणा अपोह एवावतिष्ठन्ते; तस्माद् गु
तयाऽध्यवसितस्य बुद्धधाकारस्य शब्दजन्यत्वाद घाच्यवारणोत्कर्षादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः साधुः" इत्येतदाशङ्कय
चकलक्षणसम्बन्धः कार्यकारणभावात्मक एव तथा च शकुमारिल उप(ह)सह (संहर) माह
ब्दस्तस्य प्रतिबिम्बात्मनो जनकत्वाद्धाचक उच्यते प्रति"अपि चैकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकसमवायित्वाः (ताः)।।
बिम्बं च शब्दजन्यत्वाद् वाच्यम् । निरूपाख्येष्वपोहेषु, कुर्वतोऽसूत्रकः पटः "॥
('निषेधमात्रमेव अभ्यापोहः' इति मत्वा अपोहपक्षमा"तस्माद येवेव शब्देषु, नस्योगस्तेषु केवलम् ।
क्षिप्तवतः कौमारिलस्य निराकरणम्)भवदन्यनित्यशः, स्वात्मैवान्यत्र गम्यते"।
तेन यदुक्तम्-'निषेधमात्रं नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते'।इति, (श्लो० वा० अपो० श्लो० १६३-१६४)
तदसङ्गतम् ; निषेधमात्रस्य शब्दार्थत्वानभ्युपगमात् । एवं 'स्वात्मैव' इति स्वरूपमेव विधिलक्षणम् । 'अन्यत्र' इति | तावत् प्रतिविम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाच्छब्दरूपजन्यत्वाद मुनमा रहिते । तन्नापोहः शब्दार्थ इति भट्टोहयोतकरादयः। ख्यः शब्दार्थो व्यवस्थितः; शेषयोरप्यपोहयोर्गौणं शब्दार्थ(स्वपक्षाक्षपेषु प्रतिविधातव्येषु पूर्वम् अपोहवादिकृतं त्वविरुद्धमेव । तथाहिस्वमतस्पष्टीकरणम् )
"साक्षादपि च एकस्मि-न्नेवं च प्रतिपादिते । अत्र सौगताः प्रतिविदधति-द्विविधोऽस्माकमपोहः पर्यु
प्रसज्यप्रतिषेधोऽपि, सामर्थ्येन प्रतीयते"॥ दासलक्षणः, प्रसह्य प्रतिषेधलक्षणश्च । पर्युदासलक्षणोऽपि द्वि- (तत्त्वसं० का० १०१३) विधः-बुद्धिप्रतिभासोऽर्थेष्वनुगतैकरूपत्वेनाध्यवसितो बु- सामर्थ्य च गवादिप्रतिबिम्बात्मनोऽपरप्रतिविम्यात्मविविज्यात्मा, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणार्धात्मकश्च । तत्र यथा कत्वात् तदसंयुक्ततया प्रतीयमानत्वम् , तथा तत्प्रतीती हरीतक्यादयो बहयोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थं ज्व- प्रसज्यलक्षणापोहप्रतीतरप्यवश्यं सम्भवात् । अतस्तस्यापि रादिशमनं कार्यमुपजनयति तथा, शाबलेयादयोऽप्यर्थाःस- गौणशब्दार्थत्वम् । स्वलक्षणस्यापि गौणशब्दार्थत्वमुपपद्यत त्यपि भेदे प्रकृतकाकारपरामर्शहे तवो भविष्यन्त्यन्तरेणापि । एव । तथापि-प्रथमं यथावस्थितवस्त्वनुभवः, ततो विवक्षा, बस्तुभूतं सामान्यम् । तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानं ततस्ताल्पादिपरिस्पन्दः, ततः शब्द इत्येवं परम्परया यदा
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सद्द
शब्दस्य बाह्यार्थेष्वभिसम्बन्धः स्यात् तदा विजातीयव्यावृतस्यापि वस्तुनोऽर्थापत्तितोऽधिगम इत्यन्यव्यावृतवस्त्वा रमापोहशब्दार्थ इत्युपचर्यते । तदुक्तम्
"न तारमा परामेति सम्बन्ध सति तु व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽप्यर्थादेव भवत्यतः
23
( ३५० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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( तत्त्वसं० का० १०१४ )
66
तेनायमपि शब्दस्य, स्वार्थ इत्युपचर्यते ।
न साक्षाद शब्द, विदेति विधापोद उच्यते " || ( तत्त्वसं० का० १०१५ ) इति ।
उद्योतकरतस्य दिग्नागकथनस्य अभिमुदाय कटकारा)
तेनाचार्यदिग्नागस्योपरि यद् उद्योतकरेणोक्रम-"यदि शब्दस्यापोहा-भिधेयस्तदायार्थव्यतिरेकेावार्थो वक्तव्यः अथ स एव स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् अन्यशब्दार्थापोहं हि स्वार्थे कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते इति, अस्य हि वाक्यस्यायमानी भवत्यभिधाना इति ” [ अ०२ श्रा०२ सू० ६७ न्यायवा० ] तदेतद् वाक्या
परिज्ञानादुक्तम् तथाहि खलक्षणमपि शस्योपचारात् स्वार्थ इति प्रतिपादितम् अतः स्वलक्षणात्मके स्वार्थेऽर्थान्तरव्यवच्छेदं प्रतिविस्वान्तराद् व्यावृत्तं प्रतिविम्वात्मकमपोहं कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इत्युच्यते इत्येतदाचायय वचनमविरोधि । श्रयमाचार्यस्याशयः न शब्दस्य वाह्यार्थीयवसायिविकल्पप्रतियियोत्पादयतिरेकेणान्याद्याभिधानापार, निर्व्यापारत्वात् सर्वधर्माणाम् अतोश्रध्यवसायेन प्रवृत्तं विकल्पप्रतिविम्बं जनयन्ती श्रुतिः स्वा र्थमभिधत्ते इत्युच्यते, न तु विभेदिनं सजातीयविजातीयव्या सूतं स्वलक्षणस्पृशति तथाविधप्रतिषियजनकत्वन्यतिरेकेण नापरा अंतेरभिधा क्रियाऽस्तीत्यर्थः एवं चाप हस्य स्वरूपे न परोक्तदूपणावकाशः । तेन [-'यदि गो यदुक्तम्रिति शब्दब्ध' इत्यादि । दिशजन म्य विश्लेषस्तु सामस्य गोप्रतिविम्यस्य प्रतिभासान्तरात्मरहितत्वादन्यथानियत रूपस्य प्रतिपत्तिर न स्थानाप नियोजनको नम्व गोबुर्जग्यमानत्वात्फलाश्यदा इत्या दि कुमारिलघचनं तदप्यसारं ; यतो यथा 'दिवान भुङ्क पीना देवदत्तः' इत्यस्य वाक्यस्य साक्षाद् दिवाभोजनप्रतिषेधः स्वा थेः, अभिधानसामस्तु रात्रिभोजनविि सत् 'गौ' इत्यादेरस्ययप्रतिपादकस्य शब्दस्यान्यज्ञानं साक्षात् फलम् व्यतिरेकगतिस्तु सामर्थ्यात् यस्मादन्वयो विधिरय्यतिरेकवाचास्ति विजातीयव्यवच्छेदाध्यभिचारिस्वात् तस्य इत्येकज्ञानस्य फलद्वयमवियमेव यतो यदि साक्षादेकस्य शब्दस्य विधिप्रतिषेधज्ञान फल युगपदतिस्पात् तदा संधेद् विरोध यदा तु दिवाभोजनवाक्यवदेकं साक्षात् अपरं सामर्थ्यलभ्यं फलमभीएं तदा को विरोधः ? यच्चोलम् प्रागगौरिति ज्ञानम्' इत्यादि तदपि निरस्तम्
तद्वत्
|
3
मुख्येन मोदः करोतीत्यभ्युपगतमस्माभिः कि सर्दि ? सामर्थ्यादिति पचोहम् अनोनिवृतिः सामान्यम्
।
सद्द
इत्यादि, तदप्यसत् : बाह्यरूपतयाऽध्यस्तो बुद्धयाकारः सर्वत्र शाबलेयादौ गौगः इति समानरूपतयावभासनात् सामान्यमित्युच्यते ह्यरूपत्वमपि तस्य भ्रान्तप्रतिपशा व्ययित न परमार्थतः ननु च यदि कदाचित् मुख्य वस्तुभूतं सामान्यं बाह्यवस्त्वाश्रितमुपलब्धं भवत् तदा तत्साधर्म्य दर्शनात् तत्र सामान्य भ्रान्तिर्भवत् यावना मुख्या सम्भव सेव भवतामनुपपत्रा असतत् साधनाद्यनपेक्षद्विचन्द्रादिज्ञानवत् अन्तरुपलवादपि तज्ज्ञानसम्भवात्; न हि सर्वा भ्रान्तयः साधर्म्यदर्शनादेव भवन्ति किंतहिं ? अन्तरुपप्लवादपीत्यदोष इति सिद्धसाध्यतादोषो न भवति । स एव बुद्ध्याकारो बाह्यतयाऽध्यस्तो पोहो बाह्यवस्तुभूतं सामांन्यमिवोच्यते वस्तुरूपत्वेनाध्यवसायात् शब्दार्थत्वाऽपोहरूपत्वयोः प्रागेव कारणमुक्तम्
•
3
8
'बाह्याध्यवसायादुद्धेः शब्दात् समुत् 'प्रतिभासान्तराद् भेदात् इत्यादिना ।
"
कस्मात् पुनः परमार्थतः सामान्यमसी न भवति ? बुर व्यतिरित्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् । तदुक्र-य तिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत् । न च भवद्भियाकारो गोत्वाख्यं सामान्यं वस्तुरूपमिम् किं तर्हि ? बाह्यशाबलेयादिगतमेकमनुगामि मोत्यादि सामान्यमुपकल्पितम् अतः कुतः सिद्धसाध्यता पचानिषेधरूप इत्यादि. तस्यानभ्युपगतत्वादेव न दोषः क्रम-'तस्यां वाश्वादिनाम् इत्यादित्यतः
"
“व्यतिरिक्रय-माका बुद्धिरूपतः । भ्रान्तस्तस्पायसीयते"
तथापि
( तत्त्वसं०] का० १०२६ )
शब्दार्थोपसः इति तत्र यत्र हि पाप वस्तुनि प्रतिवन्धस्ति तस्य भ्रान्तस्यापि सतो मणिप्रभा मणिबुनियाद्यानंस्तः अनासिद्धं वाह्यार्थानपेक्षत्वम् । यच्च वस्तुरूपावभासा (रूपा च सानिया सा बुद्धिस्तथापि तस्यास्तन वाह्यात्मना बुद्धयन्तरात्मना च वस्तुत्वं नास्तीति प्रतिपादन 'देवयन्नगपोहा इत्यि
1
म सामर्थेन गम्यमानत्वात् । 'श्रसत्यपि च वार्थ' इति, अत्र यथैव हि प्रतिविम्बात्मकः प्रतिभाख्योऽपोहो वाक्याथापयति पदार्थोऽपि त् तिविम्बात्मकोऽपोह उत्पद्यत एव पदार्थोऽपि स एवः श्रतो न केवल वाक्यार्थ इति विवाद गोप (पा) सम्बो विप्रतिपत्तरभावाद् युक्तः 'युज्यन्तराद्व्ययों न बुजेः प्रतीयत इत्यादावपि यत एव हि स्वरूपोत्पादन मात्रादन्यमेशं सा न विभर्ति तत एव स्वभावव्यवस्थितत्वाद् बुद्धेर्बुद्ध्यन्तराद् व्यवच्छेदः प्रतीयतेः अन्यथान्यरूपवती प्रतीयते? 'भिन्नसामान्यवचनाः' इत्यादावपि यथैव हापोहस्य निःस्वभावत्वादरूपस्य परस्परतो भेदी नाराभेदोऽपि इति कथमभिन्नार्थाभावे पर्यायत्वासञ्जनं क्रियते ? अदा करूपत्यम् । तच्च नीरूपेष्वेकरूपत्वं नास्तीति नः पर्यायता । स्थादेतत् यदि नाम नीरूपेष्वकरूपत्वं भावो नास्ति तथापि काल्पनिकस्य तस्य भावात् पर्यायानं पु
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( ३५१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सद
शमेव नवे पर्याया पर्यायव्यवस्था शब्दानां कथं युक्का ? उक्तं च
9
सामान्य-स
"रूपाभावेऽपि चैकत्वं, कल्पनानिर्मितं यथा । विभेदोऽपि तथैवेति कुतः पर्यायता ततः १ (तत्त्वसं० का० १०३२) “भावतस्तु न पर्याया, न पर्यायाश्च वाचकाः न हो वाच्यमेतेषामनेकं चेति वर्णिनम् (त स्वसं० का० १०३३ ) इति । यदि परमार्थतो भिन्नमभिन्नं या किञ्चिद्वाच्यं वस्तु शब्दानां स्यात् तदा पापयता भवेत् यावता - 'स्वलक्षणं जातिस्तद्योगो जातिमांस्तथा' इत्यादिना तिम्यथेषां न किश्चिद वाच्यमस्तीति । पर्यायादिव्यवस्था तु अन्तरेणापि सामान्यम् सामान्यादिशब्दत्वस्य व्यवस्थापनात् । तस्य चेदं निबन्धनं यद् बहूनामेकार्थक्रियाकारित्वम् प्रकृत्या केचिद् भावा बहवोऽव्येकार्थक्रियाकारिणो भयन्तिः तेषामेकार्थक्रिया सामर्थ्यप्रतिपादनाय व्यवहतुंभिलांघवार्थमेकरूपाध्यारोपका श्रुतिर्निवेश्यते, यथा- बहुषु रूपादिषु मधूदकाद्याहरणलक्षकार्थक्रियासमर्थेषु '' इत्येा भूतिर्निवेश्यते । कथं पुनरेकेनानुगामिना विना बहुध्येका सुतिर्नियोनुं शक्या ? इति न वक्तव्यम्, इच्छामात्र प्रतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्य । तथादि-च-रूपाऽलोकमनस्कारेषु रूपविज्ञानेकफलेषु यदि कधि विनाप्येकेनानुगामिना सामान्येनेच्छापादकां बुर्ति निवेशयेत् तत् किं तस्प कश्चित् प्रतिरोडा भवेत् ? न हि तेषु लोचनादिष्वेकं ज्ञानजनकत्वं सामान्यमस्ति यतः मयाय विशेष अपि भवद्भि: चक्षुशनजनका अभ्युपगम्यन्ते, न च तेषु सामान्यसमवायोऽस्ति निःसामान्यत्वात् सामान्यस्य, समवायस्य च द्वितीयसमवायाभावात् । न च घटादिकार्यस्योदाहरणादेतज्ज्ञानस्य च स्वरूपत्येन भित्वात् कथमेककार्यकारित्वम् इति वक्रव्यम् गती यद्यपि स्वलक्षणभेदात् तत्कार्य भियंते तथापि ज्ञानाव्यं तायत् कार्यमेकार्थाध्यय साधिपरामर्शप्रत्यहेतुत्वादेकम् तज्ञानदेवाचार्था घटादयोऽमेदिनइत्युच्यते नच ब सौ परामर्शप्रत्ययस्तस्यापि खलक्षणरूपतया भिद्यमानत्वादेकत्वासिद्धेरपरापरैका कार परामर्शप्रत्यय कार्यानुसरणतोऽनवस्थाप्रसङ्गतो ने ( नै ) ककार्यतया क्वचिदेकश्रुतिनिवेशो बहुपु सिद्धिमुपगच्छतीति वाच्यम् यतो न परामर्शप्रत्ययस्यैककार्यकारित्वमुच्यते किं तहिं ? एकाध्य वसायितया । स्वयमेव परामर्शप्रत्ययानामेकत्वसिद्धेर्नानवस्थाद्वारेणैकश्रुतिनिवेशाभावः श्रत एकाकारपरामर्शतुत्वाद् ज्ञानाख्यं कार्यमेकम् तद्धेतुत्वाद् घटादय एकदेशभाजः तेन विनापि वस्तुभूतं सामान्यं खामान्यवचना घटादयः सिद्धिमासदयन्ति । तथा कश्चिदेकोऽपि प्रकृत्यैव सामग्र्यन्तरान्तः पातवशादनेकार्थक्रियाकारी भवति व्यतिरेकेणापि वस्तुभूतसामान्यधर्मभेदम्, तत्राऽतत्कार्यपदार्थमा अकसिमः अनेक धर्मसमारो पात् यथा स्वदेश परस्योत्पत्तिप्रतिबन्धकारित्वाद् रूपं प्रतियम् सह निवर्त सनिदर्शनं च तदेवोच्यते, यथा वा शब्द एकोऽपि प्रयत्नान
"
सद न्तरज्ञानज्ञानफलतया 'प्रयत्नानन्तरः' इत्युच्यते, श्रोत्रज्ञानफलत्वाश्च श्रावणः - श्रुतिः श्रवणं श्रोतृ (ञ) ज्ञानम् तत्प्रतिभासतया तत्र भवः श्रावणः, यद्वा-श्रवणेन गृह्यत इति आयतः यमतत्कार्याधुतिर्निवेश्यमानाऽविरुद्धा | अतत्कारणभेदेनापि क्वचित् तन्निवेशः, यथाभ्रामरं मधु क्षुद्रादिकृतमधुनो व्यावृत्या । तथा तत्कार्यकार [[पदार्थव्यवच्छेदमात्रप्रतिपादनेच्या अन्तरेणापि सामान्य श्रुतेर्भेदेन निवेशनं सम्भवति
"अभाव यथा रूपं विद्युपायथा ॥ ( तत्त्वसं० का० १०४२ )
"त्यादिना प्रभेदेन विभिन्नार्थन्धनाः । व्यावृत्तयः प्रकल्प्यन्ते तन्निष्टाः (ष्ठाः) श्रुतयस्तथा" ॥ ( तस्वसं० का० १०४३ )
"यथासङ्केतमेरातो- सङ्कीगभिधायिनः । पर्याया न भवन्ति न (नः) " ॥
शब्दा विवेकतो वृत्ताः, ( तत्त्वसं० का० २०४४ ) श्रोत्रज्ञानफलशब्दव्यवच्छेदेन 'श्रावणं रूपम्' इत्युच्यते, प्रयत्नकारणपटादिपदार्थविनता' इत्यभि धीयते । अन्तरेणापि सामान्यादिकं वस्तुभूतम् व्यावृति तमेव शब्दानां भेदेन निवेशनं सिद्धम्, पर्यायत्वप्रसङ्गाभावविभिन्नानिवन्धावृत्तिनिष्ट) सिद्धः स्यादेतत् मा भूत् पर्यायत्यमपाम् अर्थभेदस्य कति सामान्यविशेषवाचित्वव्यवस्था तु विना सामान्य-विशेषाभ्यां कथमेषाम् ? उच्यते
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पनि तत्सङ्केतानुसारतः ।
सामान्य भेदवाच्यत्व-मध्येषां न विरुध्यते" ॥ ( तत्त्वसं० का० १०४५ ) वृक्षशब्द हि सर्वमेव दलाशादिष्यवृत्ययच्छेदमात्रानुस्यूतं प्रतिबिम्बकं जनयति तेनास्य बहुविषयत्वात् सामान्यं वाच्यमुच्यते, धवादिशब्दस्य तु खदिरादिव्यावृत्तकतिपय पादपाध्ययाविधिकल्पोत्पादकत्वादविशेयो याच्य उच्यते यदुक्रम्' इत्यादि तत्र"ताच व्यावृत्तोऽर्थानां कल्पनाशिल्पनिर्मिताः । नापोद्याधारभेदेन भिद्यन्ते परमार्थतः "
1
" तासां हि बाह्यरूपत्वं कल्पितं न तु वास्तवम् । भेदाभेदौ च तवन, वस्तुभ्यैव व्यवस्थितौ " ॥ "स्वबीजानकपिपिस्तुततिः । विकल्पास्तु विभिद्यन्ते तद्रूपाध्यवसायिनः” । "नैकात्मतां प्रपद्यन्ते, न भिद्यन्ते च खण्डशः । स्वलक्षणात्मका अर्था, विकल्पः प्लवंत त्वसौ" ॥ (तत्त्वसं०] का० १०४६-१०४७-१०४८-१०४६ )
अस्य सर्वस्याप्ययमभिप्रायः यदि हि पारमार्थिकोपभेदेनाधारभेदेन वाऽपोहस्य मेोऽभीष्टः स्यात् तदेतद्दूपं स्यात्तापना सजातीयविजातीयपदार्थ व्यावृत्तयो भिन्नाः कल्प्यन्ते न परमार्थतः ततः ताश्च कल्पनाशादव्यतिरिक्ता इव वस्तुनो भासन्ते न परमार्थतः । परमार्थतस्तु विकल्पा एव भिद्यन्ते अनादिविकल्पवासनाऽन्य
"
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सद्द
विविक्रवस्तुसङ्केतादेर्निमिसाई व्यावृत्तयस्त्वध्यवसायिनः न स्वर्थाः। तथाहि वृक्षत्वादिसामान्यरूपेण नैकात्मतां धवादयः प्रतिपद्यन्तेनापि क्षणिकामात्मकादिधर्मभेदेन खड शोभिद्यन्ते, केवल विकल्प एव तथा प्रयते न त्यर्थः । यथोक्तम्
(३५२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः । रूपमा तेषु रुपयः ॥ १ ॥ यथोक्तम् -' न चाप्रसिद्ध सारूप्य - इत्यादि । तत्र"एकधर्मापासत्रे योधाऽपोहगोचराः । 3- मिश्रप्रत्ययाः ॥
( तश्वसं० का० १०५० )
अपोह्याथ पोहगोचराधेति विग्रहः। तपोध यः गोशब्दस्य तदपोडेन प्रवृत्तत्वात् भोगोचराः शाय लेपादयः तद्विषयत्वाद अगोपोदस्यः तेन यद्यप्येकस्य सामान्यरूपस्यान्वयो नास्ति तथाप्यभिन्नप्रत्यवमर्शतवो ये ते प्रसिद्ध सारूप्या भवन्ति, ये तु विपरीतास्ते विपरीता इति । स्यादेतत् तस्यैवेकप्रत्ययस्य तवो ऽन्तरेण सामान्यमेकं कथमर्थ भिन्नाः खियन्ति उच्यते"एकप्रत्यवमहि. केचिदेोपयोगितः । हत्या मेदवतोऽपि नाम्य इत्युपपादितम्" तवसं० का० १०५१ )
प्रतिपादितमेतत् सामान्यपरीक्षायाम् यथा धाग्यादयोऽमतरेणापि सामान्यमे कार्यक्रियाकारियो भवन्ति तथैकप्रत्य यमदेतवो भिन्ना अपि भावाः केचिदेव भविष्यन्ति ' इति । 'न चान्त्रयविनिर्मुक्ता' इत्यादावाह यद्यपि सामान्यं वस्तुभूतं नास्ति तथापि विजातीपण्यावृतवत एमा यमाणो न विरुध्यते ।
16
"घूमतो भि विद्यते हि लक्षणम्। तस्ति, परावृतं स्वलम् " ॥ यथा महानसे वह विद्यतधूममेदितत् । तस्मादनग्नितो भिन्नं, विद्यतेऽत्र स्वलक्षणम्" ॥ ( तस्वसं० का० १०५३ - १०५४ ) अकर्मा
"
नान्यये क्रियमाणेोपद नमित्येवं प्रयोगप्रदर्शनं कृतम् इदं च कार्यहेताबुदाहरणम् । भातावपि यद् असतो व्यापूर्ण लक्ष तत् सर्वे स्थिरादपि व्यावृत्तम्, यथा बुद्धधादि, तथा वेदं शब्दादि स्वलक्षणमस न भवतीति । अमुना न्यायेन विशेषणउपशांत लक्षसेनान्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते यदि तर्हि स्वलक्षणेनैवान्वयः कथं सामान्यलक्षणविषयमनुमानम् ? तदेव हि स्वलक्षणमविवक्षितभेदं सामान्यलक्षणमिरयुक्रम सामान्येन भेदापरामर्शेन लक्ष्यते उपवसीयते इति कृत्वा । तदुक्तम्
श्रुतद्रूपपरावृत्त-वस्तुमात्र प्रसाधनात् ।
"
सामान्यविषयं प्रभेदप्रतिष्ठितः ॥ इति तेन साचलियो स्खलने कश्यतेनाप्यद शनमात्रेणास्माभिर्विपक्षे लिङ्गस्याभावोऽवसीयते, किं तर्हि ? अनुपलम्भविशेषादेव । यश्चाक्रम् - शाबलेय' इत्यादि, तत्रभवान्वक्रमति शाबलेयाद बाहुलेयाऽश्वयोस्तु पेऽपि भेदे किमिति तुरङ्गमपरिहारेण गोत्वं शाबलेयादौ
सद
6
वर्तते नावे ' इति ? स्यादेतत् किमत्र धक्तव्यम् ? गोत्वस्याभिव्यक्ती शायसेयादिरेष समय नाभ्वादि: अतस्तत्रैव तद् वर्तते नान्यत्र । न चायं पर्यनुयोगो युक्तः कस्मात् तस्याभिम्पकी शाबलेयादिदेव समर्थः यतोनियमो ऽयम् न हि वस्तूनां स्वभावाः पर्यनुयोगमईति तेषां स्वहेतु परम्पराकृतत्वात् स्वभावभेषप्रतिनियमस्येति । नन्वेवं यथा शाबलेयादिरेष गोयाभिव्यक्ती समर्थस्तथा सत्यपि मेरे सामान्यमन्तरेणापि तुख्यप्रत्ययमर्शोत्पादने शाबलेयादिरेव शक्लो न तुरङ्गम इत्यस्मत्पक्षो न विरुध्यत एव । तेन"तारक प्रत्यषमा विद्यते यत्र वस्तुनि । तत्राभावेऽपि गोजाते-रगोपोहः प्रवर्तते " ॥ [ तस्वसं० का० १०६० ] चक्रम् इत्यादि तथाहि स्थलसात्मा तापोह इन्द्रियैरवगम्यत एव यथार्थप्रतिषिस्वारमा पोहः स परमार्थतो बुद्धिस्यभावत्वात् स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्धः, प्रसह्यात्माऽपि सामर्थ्यात् प्रतीयत एव
;
6
न तदात्मा परात्मा' इति न्यायात् ; अतः स्वलक्षणादिरूपमपोई दृष्ट्वा लोकः शब्दं प्रयुङ्क एव न वस्तुभूतं सामान्यम् ; तस्याऽखरचात् अप्रतिभासनाच्च परे च दृष्ट्रा लोकेन शब्दः प्रयुज्यते तेनैव तस्य सम्बन्धोऽवगम्यते नान्येन अतिप्रसङ्गात् । यच्च-' अगोशब्दाभिधेयत्वं गम्यतां च कथं पुनः' इति, अत्र
'ता यत्र नैवास्ति वस्तुनि । अगोशामित्वं विस्पष्यं तत्र गम्यते ॥
[ तत्त्वसं० का० १०६३ ] यच्चोक्तम्- 'सिद्धश्चागौर पोहोइत्यादि स्वत एव हि वादयो भावाभिव्यवमर्श जनयन्तो विभागेन सम्यग् निश्चिताः, तेषु व्यवहारार्थ. व्यवहर्तृभिर्यथेष्टं शब्दः सिद्धः प्रयुज्यते । तथाहि यदि भिवस्तु स्वरूपप्रतिपश्वर्थमन्यपदार्थग्रहणमा स्था दितरेतराश्रय दोषः यावताऽन्यदमन्तरेव वस्तु संवेद्यते तस्मिन् भिश्राकारप्रत्ययमदेतुतया विभागी
|
इति सिद्धे यथेष्ट संकेतः क्रियते इति कथमितरेतराश्रयत्वं भवेत् यच्वोक्रम्-'नाधाराधेय इत्यादि तत्र न हि परमार्थता निशि रभिधीयते तेनैव यतः प्रतिपादितमेान किशब्देवस्तु संस्पृश्यते कचिदभित् इति । तथाहि शादी बुद्धिरबाह्या विषयाऽपि सती स्वाकारं वाह्यार्थतयाऽध्यचस्पती जायते न परमार्थतो वस्तुस्वभावं स्पृशति यथातत्त्वमनध्यवसायात् । यद्येवम् कथमाचार्येणोक्रम्यद्येवम् कथमाचार्येोक्रम्-"नीलोत्पलादिशब्दा अर्था-स्तरनिवृत्तिविशिष्टानांना "इति । "अर्थान्तरनिवृत्पाद विशिष्टानिति यत् पुनः ।
प्रोक्तं लक्षणकारेण, तत्रार्थोऽयं विवक्षितः " ॥ १०६८ || " श्रन्यान्यत्वेन ये भावा हेतुना करणेन वा । विशिष्ट भिन्नजातीयै-रसङ्कीर्णा विनिश्चिताः " ॥ १०६६॥ 'वृक्षादीनाह तान् ध्यानस्तद्भावाध्यवसायिनः । शानस्पत्पादनादेव जात्यादेः प्रतिषेधनम् ॥१०७०॥ 'बुद्धौ येऽथ विवर्तन्ते, तानाह जननादयम् । निवृत्या विशित्वमुक्रमेषामनन्तरम् "१०७१ ॥ [तस्व० का० ]
"
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सद्द
स्य तात्पर्यार्थः द्विविधो ह्यर्थः वाह्यो, बुद्धधारूढश्च । तत्र बाह्यस्य न परमार्थतोऽभिधानं शदेः केवलं तयवसायिविकल्पोत्पादनादुपचाराक्रम 'शब्दाऽथनाह' इति उपचारस्य च प्रयोजनं जात्यभिधाननिराकरणमिति । अवयवार्थस्तु - 'श्रन्यान्यत्वेन' इति अन्यस्मादन्यत्वं व्यावृत्तिस्तेनाम्याम्यहेतुना कररोग या ये वृचादयो भाषा विशिष्टश निश्चिता श्रन्यता व्यावृत्ता निश्चिता इति यावत् एतेन 'अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टान् हत्यत्र पदे 'निवृत्ता' इति 'निवृत्त्या' इति ) तृतीयार्थो व्याख्यातः । 'ध्वानः' इति शब्दः । वस्तु बुद्धथारूढोऽर्थस्तस्य मुख्यत एव शब्दरभिधानम् । 'अयम्' इति ध्वानः । अर्थान्तरनिवृत्तिविशित्वं कथमेषां योजनीयमित्याशङ्कनिवृत्या विशिष्टत्वमुपमनन्तरम्' इत्युक्तम् । एषामपि बुद्धि समारूढानामर्थानामन्यतो व्याततया प्रतिभासनादित्यभिप्रायः । ननु यदि न कश्चिदेव वस्त्यशः शब्देन प्रतिपाद्यते तत् कथमुक्रमाचार्येण "अर्धातरनिवृत्या कश्विदेव वस्तुनो भागों गम्यते" इति अर्धास्तरपरावृत्तदर्शनद्वारापातत्वात् बुद्धिप्रतिविम्यमर्थान्तर परावृत्ते वस्तुनि 'वस्तुनो भागः' इति व्यपदिष्टम् । ननु चार्थान्तरनिवृत्तिवस्तुगतो धर्मः स कथं प्रतिविन्याधिगमे हेतुमा रणभाव या प्रतिपद्यते येन 'निवृता' इति ('निवृस्था' इति ) उच्यत इति उच्यते; यदि हि विजातीयाद् व्यावृत्तं वस्तु न स्यात् तदा न तत्प्रतिम्बिकं विजातीयपरावृत्तवस्त्वात्मनाऽ व्यवसीयते तस्मादर्थान्तरपरावृत्तेर्हेतुभावः करणभावथ युज्यत एव । न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्याद् ज्ञानं विशेषणम्' इत्यादावपि यदि ह्यन्यन्यावृत्तिरभावरूपा वस्तुनो विशेष त्वेनाभिप्रेता स्यात् तदेतत् (तत्) सर्व दूषणमुपपयेत यायता वस्तुरूपेान्यव्यावृतिर्विशेषपादीयते तेन विशेषणानुरूपैव विशेष्ये बुद्धिर्भवत्येव । तथाहि श्रगोनिवृसियों गौरभिधीयते सोऽश्वादिभ्यो यद्यत्येतत्स्वभावैव नाम्या शतश्व यद्यप्यसी व्यतिरेकेणगीनिवृत्ति 'मी'त्यभिधीयते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रािसायाम् तथापि परमार्थतो गोरात्मगतैव सा -- यथाऽन्यत्वम् न हि अन्य (अन्य ) नाम अन्यस्याद् वस्तुनोऽन्यत् अन्यथा तद वस्तु ततो मिश्रमित्येतन्न सिद्धयेत् । तस्मात् विशेष भावेऽप्यन्यव्यावृत्तेर्विशेष्ये वस्तुधीर्भवत्येव । अथ व्यतिरिक्रमेय विशेष लोके प्रसिद्धम् यथा-एडः पुरुषस्य, व्यावृत्तिश्चाव्यतिरिक्ता वस्तुनः; तत् कथमसौ तस्य विशेषणम् ? असदेतत् ; नहि परमार्थेन किञ्चित् कस्यचित् विशेषणम् अनुपकारकस्य विशेषणत्वायोगात् उपकारकत्वे
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( ३५३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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पिमा कार्यकाले कारणस्थानवस्थानाद् अयुगपकासभाविनोर्विशेषणविशेष्यभावोऽनुपपधा, बुगपत्काल भावित्वेऽपि तदानीं सर्वात्मना परिनिष्पत्र्त्तर्न परस्परमुपकारोऽस्तीति न युक्तो विशेषणविशेष्यभाव इति सर्वभावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेरयः शलाका कल्पत्वात् कल्पनया अमीयां मिश्रीकरणम्। अतः परमार्थतो यद्यपि व्यावृत्ति-ततोरभेदस्तचापि कल्पनारचितं मेदमाश्रित्य विशेष
भावोऽपि भविष्यति । यश्चोक्तम्- 'यदा वाऽशब्दवाच्यत्या पीनामपोचता। इत्यादि तीनामात्या
त्' इत्यसिद्धम् । तथाहि यद् व्यक्तीनामवाच्यत्वमस्माभिर्वतिं तत् परमार्थचिन्तायाम् न पुनः संयुत्यापि तथा तु व्यक्तीनामेव वाच्यत्वमविचारितरमणीयतया प्रसिद्धमिति कथं नासिद्धों हेतुः ? अथ पारमार्थिकमवायचं हेतुत्वेनोपादीयते तदाऽपोह्यत्वमपि परमार्थतो व्यक्तीनां नेष्टमिति सिद्धसाध्यता ययोक्रम् तापन सामान्यम्' इत्यादिपोत्यात' इत्यस्य हेतोरसियनैकान्तिकत्वं च, व्यक्तीनामेवापोहस्य प्रतिपादितत्वात् । न चापोअपे वस्तुता, साध्यविषये तोबधप्रमाणाभावात् । यदपि श्रभावानामपत्यं न इत्यादि, त "माभाषीयं नाभावो भाय इत्ययम् । भावस्तु न तदात्मेति, तस्येष्वमपोह्यता" ॥ "यो नाम न यदात्मा हि स तस्यापोहा उच्यते । भाचोभारूपश्च तपांडे न वस्तुता" # [[सं०] का० १०१-१०२]
3
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'नाभावः' इत्येवमभावो नापोह्यते येनाभावरूपतायास्त्यागः भ्रान्तैस्तादात्म्येनाऽऽरोपितत्वाश्चोपचाराद्वनावस्थित इति सामर्थ्यादपोह्यत्वं तस्याभावस्यष्टत्वम् स्पात् किं तर्हि भायो यः स विधिरूपत्यभावरूप
(म्) तदेव स्पष्टीकृतम् 'यो नाम' इत्यादिश्लोकन | 'तदपोहे' इति वस्याभावस्यैवमपोहे सति न वस्तुता शप्नोति । श्रत्रोभयपक्षप्रसिद्धोदाहरणप्रदर्शनेनानैकान्तिकतामेव स्फु
टयति-
"प्रकृतीशादिजन्यत्वं, प्रसिद्ध्यति ॥ न हि वस्तु "नातोऽसतोऽपि भावत्व-मिति क्लेशो न कश्चन" । ( तत्त्वसं० का० १०८३-१०८४ )
सद
1
तथाहि प्रकृति-ईश्वर कालादिकृतत्वं भावानां मझममांसकैरपि नेष्यत एव तस्य च प्रतिषेध सत्यपि यथा न वस्तुत्वमापद्यते तथा अपोह्यत्वेऽप्यभावस्य वस्तुत्वापत्तिर्न भविष्यतीत्यनकान्तः । मदुक्तम्- 'तत्रासतोऽपि वस्तुत्व-मिति शो महान् भवेत् इति यनवाकान्तिकत्वप्रतिपादनेन प्रतिविहितमिति दर्शयति-'नातोखतोऽपि इत्यादिना । 'तसदी न सत्ताऽस्ति न चासता प्रसिद्धयति ॥ इति । अत्र अभावस्य यथोक्तेन प्रकारेणासिद्धावपि भावस्य सत्ता सिद्धयत्येव तस्य स्वस्वभावव्यवस्थितत्वात् । याच भावस्य यथोक्तेन प्रकारेण सिद्धिः सैव सचेति प्रसिद्धयति । पतनेमोक्रम्
"अगोतो विनिवृत्तश्च, गौर्विलक्षण इष्यते । भाव एव ततो नायं, गौरगो प्रसज्यते " ॥ [ तत्त्वसं०] का० १०८५ ]
'भाव एव संपत्' इति एतानिशापादनम् इत थाहि अगोरूपादयादेर्भावविशेषरूप एवं विलक्षण इष्यते नाभावात्मा तेन भाव एव भवेत्, श्रगोतश्च गोर्वैलक्षण्यस्त्वादगोर्न गोत्वप्रसङ्गः । एतेन यदुक्तम् -' अभावस्य
योऽभावः इत्यादि तत् प्रतिविहितम् । यम्-न वस्तुनि वासना' इति तद् असिद्धमनेकान्तिकं ।
यतः
" अवस्तुविषयेऽप्यस्ति सोमात्रविनिर्मिता । विचित्रकपनाभेद-रचित वासना " ॥
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सह
ततश्च वासनाभेदाद्, भेदः सपतापि वा । कानां कार
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"
( तत्त्वसं० का० १०८६ २०८७ ) अवस्तुविषयं नेतो नास्ति इति तदम् तथाहिउत्पादकथाविषयसमुद्भूतस्याकारसमारोपे तंत वितः तथा ( था ) ऽनागत सजातीयविकल्पोत्पत्तये अनन्तरचेतसि वासनामाधत्त एव यतः पुनरपि सन्तानपरिषाकवशात् प्रबोधकप्रत्ययमासाद्य तथाविधमेव चेतः समुपजायते, तद्वदपोहानामपि परस्परतो भेदः सपताच करूपनावशाद् भविष्यतीत्यनैकान्तिकता । यश्च - शब्दभेदोयोनिमोन इति अब
दशपोः प्रतिपादितः। शब्दान्तव्यपोहोऽपि तोडगेवावगम्यते " ॥ (तत्त्वसे० का० १०८ )
इति
विस्तरतः प्रतिपादितमयुक्तं द्रष्टव्यम्।' अगम्यगमकत्वं स्यात् ' इति अत्र प्रयो गेऽपि यदि अवस्तुत्वात्' इति सामान्येनोपादीयते तदा सः नः प्रतिविम्वात्मन हयावस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वात् सांवृतं वस्तुत्वमकत्व अथ पारमार्थिकाय हेतुरभिधीयते या नहि परमार्थतास्माभिः दिवायं वाच वैष्यते । यत उक्तम्"न वाच्यं वाचके चास्ति, परमार्थेन किञ्चन । विगत
( ३५४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
•
(तत्त्वसे० का० १०६० )
क्षणिकत्वेन सङ्केतव्यवहारात कालव्यापकत्वाभावात् स्वलक्षस्थिति भावः । स्यादतत् नास्माभिस्तात्त्विको वाच्यवाचकभावी निषिध्यते किं तर्हि ? तात्त्विकीमपोहयोस्तुतामाथि सनमेव निनिभाषि कहेतोरसा (ता. नापि सि दतियारह
१- प्रतिविम्वात्मकः २ प्रतिविम्बात्मक
1
य
कामस्यामिति नैवम् गोरान्तिकाहि मातादेषु परमार्थ वस्तुत्वाभावेऽपि सांवृतस्य वाच्यवाचकभावस्य दर्शनात् । स्यादेतत् तत्रापि महानादिषु सामान्यं वाच च परमार्थ ततो न तैर्यभिचारा, श्रसदेतत् सामान्यस्य विस्तरेण नि-रस्ता न तेषु सामान्यं वाच्यं वाचकं वा महानाद वस्तीति कथं नानैकान्तिकता हेतोः ? स्यादेतत् यद्यपि तत्र वस्तुभूतं नास्ति सामान्यं वाच्यम् वाचकं ( कं तु ) महाश्वेतादिशब्दस्वलक्षणमस्त्येव नः सर्वेपदार्थव्यापिनः क्षणभङ्गस्य प्रसाधितत्वान्न शब्दस्वलक्षणस्य वाचकत्वं युक्तम्, तस्य सङ्केनासम्भवात् व्यवहारकालालम्वयाप्रतिपादि
,
पुज्यं प्रतिविम्वादि सवनम | गावं, दुर्निवारमा निम्
( नवसं० [फा० )
सद्द
'इयम्' इति वाच्यं वाच च प्रतिविम्यादित आदिशब्देन निराकारज्ञानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किञ्चित् प्रतिनिय समनसापि विज्ञानस्यावश्यकर्तव्यमिति दर्शयति तेषु इतिपर वियर्थेषु तद्' इति तू तस्य या तोयभिचारित्वं तद्यभिचारित्वम् । 'विधिक
१
,
शब्दार्थी येन नाभ्युपगम्यते इति अत्रापि न ह्यस्माभिः सर्वधा विधिरूपः शब्दाय नाभ्युपगम्यतपननद् भवतासिङ्गापादनं क्रियते किन्तु शब्दार्थ(दाद सातिः समुत्पादात्त (सांवृता) विधिरूप - |ब्दार्थोऽभ्युपगम्यत एव । तस्वतस्तु न किञ्चिद् वाच्यमस्ति शब्दानामिति विधिरूपाश्विक निषिध्यते तेन सांस् विधिरूपस्य शब्दार्थस्यष्टत्वात् वार्थाभिस्यम्यय्यतिरेकस्य सामविधिको व्यतिरेको युज्यत एव। स्थादेतत् यदि विधिरूपा भ्युपगम्यते कथं तहिं हेतुमुखे लक्षकारेण “असम्भवो विधिः" [[ ] क्रम ? सामान्यलादेवस्य वा चकस्य वा श्रसम्भवात् परमार्थतः, शब्दानां विकल्पानां च परमार्थता विषयासम्भवात् परमार्थाय विधेरसम्भव उक्त श्राचार्येण इत्यविरोधः । 'अपोहमात्रवाच्यत्वम्' इत्यादार्वाण एकमेवानीला नुत्पलव्यावृत्तार्थाकारमुभयरूपं प्रतिबि स्वकं नीलोत्पलशब्दादुदति नाभावमात्रम् अतः शबलायांऽध्यवसायित्वमध्यवसायवशा नीलोत्पलादिशब्दानामस्त्येवदिसामानाधिकरण्यमुपपयत एव 'अचान्यापोहचद्वस्तु पायमित्यभिधीयते इति तथापि यदि हि व्यानादभावाद्व्यावृतिर्नामान्या भवेत्स्यात् तदा तद्वत्पक्षादितदोषप्रसङ्गः यावता नाभ्यता व्यावृत्ताद् भावादन्या व्यावृत्तिरस्ति अपि तु व्यावृत्त एव भावा भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायां तथाऽभिधीयते तेन यथा जाती प्राधान्यादाय परतपणानान् पतेः सह सामानाधिकरण्यदा उपनावतरति व्यतिरिक्त नि धानात् । न ह्यस्मन्मते परपक्ष इव सामानाधिकरण्याभावः । तथाहि नीलम् इत्युकं पीतादिव्यवृत्तपत्राध्यवसाि अमर कांफिलाञ्जनादिषु सशस्यमानरूपयतिस्वमुदेति तत्पदन कोकिलादियापलव्यावृत्तवस्तुविषये व्यवस्थाप्यमानं परिनिश्चितात्मक प्रतीयते तेन परकायाप कमावातील शब्द योविंशष्यव न विरुध्यंत द्वाभ्यां बाडनीलानुत्पलव्यावृत्तैकप्रतिविम्बामकवस्तुप्रतिपादनादेकार्थवृत्तितया सामानाधिकरण्यं च भवतीतिः परपक्षे तु तद्व्यवस्था दुर्घटा। तथाहि विधिशब्दावादिपत्रे नीलादिशब्देन नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते 'किमुत्पलम् आहोस्विद् अञ्जनम्' इत्येवमज्ञानं विशेषान्तरे न प्रा. तस्य वस्तुतः प्रतिपादित्वात् एकस्यैकज्ञाताचा धर्मान्तरे संशय
-
विपर्यासावित्युत्पलादिशब्दान्तरप्रयोग काङ्क्षा प्रयोनुपि न मामीति यदर्थमुपलादिशब्दोच्चारणम् तस्य नीय कृतवान् । अथापि स्यात् तद् वस्त्वेकदेशेनाभिहितं नीलशब्देन सर्वात्मना भावान्तराभिधानायापरः शब्दो
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(३५५)
अभिधानगजेन्द्रः। म्वष्यते, असंदतत् न ोकस्य वस्तुनो देशाः सन्ति येनैक धिरूपत्वाभिधाने द्रव्यस्योत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वाभिदेशेनाभिधानं स्यात् एकत्वानेकत्वयोः परस्परपरिहारस्थित- धानं (नं न ) भवेत् , एकस्माद् द्रव्याद् द्वयोरपि सम्बन्धिलक्षणत्वात् , इति याचन्तस्त एकदेशास्तावन्त्यव भवता व- रूपत्वयाव्यतिरेकात तयारष्येकत्वमेवेत्ययुक्तमेकरूपाभिस्तृनि प्रतिपादितानीति जैकमने सिद्धत् । स्यादेतत् न धानेऽपररूपस्यानभिधानम् । भवतु वोत्पलत्वसम्बन्धिरूपत्वं नीलशब्देन द्रव्यमभिधीयते किं तर्हि ? नीलाख्यो गुणः त- नीलतजातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यत् तथाऽप्युत्पलश्रुतिरनार्थत्समवेता या नीलवजातिः, उत्पलशदेनाप्युत्पलजातिरेवा- कैव । तथाहि-यत् तद् अनशं वस्तु उत्पलजात्या सम्बद्धं च्यते न द्रव्यम् । तेन भिन्नार्थाभिधानादुत्पलादिशब्दान्तरा- तदेव नीलगुणतजातिभ्यां सम्बध्यते, तच्चानंशत्वात् सर्वाकाला युज्यत एच । नन्वेवं परस्परभिन्नार्थप्रतिपादकत्वेन त्मना नीलश्रुत्यैवाभिहितम् किमपरमनभिहितमस्य स्वरूपनितरां नीलोत्पलशब्दयोर्न सामानाधिकरण्यम् बकुलोत्पल- मस्ति यदभिधानायोत्पलश्रुतिः सार्थिका भवेत् । शब्दयोरिवैकस्मिन्नर्थ वृश्यभावात् । अथ नीलशब्दो यद्यपि
उद्योतकरस्त्वाह-" निरंशं 'वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतं गुणविशेषवचनस्तथापि तद्वारण नीलगुण-तजातिभ्यां स
नांशेन ' इत्येवं विकल्पा नावतरति, सर्वशब्दस्यानेकार्थविम्बद्ध द्रव्यमप्याह, तथोत्पलशदनापि जातिद्वार (द्वारेण)
षयत्वात् एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात्" इति, असदेतत्: तदेव द्रव्यमभिधीयत इति तयोरेकार्थवृत्तिसम्भवात् सा- वाक्यार्थापरिक्षानत एवमाभिधानात् । तथाहि-'प्रथमेनैव मानाधिकरण्यं भविष्यति न बकुलोत्पलशब्दयोरिति, नीलशब्दन सर्वात्मना तत् प्रकाशितम्' इत्यस्यायमों विवअसंदतत् : नीलगुण-तजातिसम्बद्धस्य द्रव्यस्य नील- क्षितः-यादृशं तद् वस्तु तादृशमेवाभिहितम् न तस्य कश्चित् शब्देन प्रतिपादनात् सर्वात्मना उत्पलश्रुतर्वैयर्यप्रस- स्वभावस्त्यक्तः यदभिधानायोत्पलश्रुतिाप्रियेत निरंशत्वात् ङ्गात् । स्यादेतत् यद्यपि नीलशब्देन गुण-तजातिमद् द्र. तस्य,इति वाक्छलमतत्-‘कृत्स्नैकदेशविकल्पानुपपत्तिस्तत्र' व्यमभिर्धायते तथापि नीलशब्दस्यानेकार्थवृत्तिदर्शनात् प्र- इति, एवमन्यषामष्यनित्यादिशब्दानां प्रयोगोऽर्थकः, प्रयोग तिपत्तुरुत्पलार्थ(\)निश्चितरूपा न बुद्धिरुपजायते-काकि- वा पर्यायत्वमेव स्यात् तरु-पादपादिशब्दवत् । उक्नं चलादेरपि नीलत्वात्-अताऽर्थान्तरसंशयव्यवच्छेदायोत्पल- "अन्यथैकन शब्देन, व्याप्त एकत्र वस्तुनि । श्रुतेः प्रयोगः सार्थक एव, तदप्यसम्यक् ; प्रकृतार्थानभिज्ञ- बुद्ध्या वा नान्यविषय, इति पर्यायता भवेत् " ॥२॥ इति । तयाभिधानात् । विधिशब्दार्थपक्ष हि सामानाधिकरण्यं न अथ भवत्पक्षेऽप्यकन शब्देनाभिहिते वस्तुनि भेदान्तरे संसम्भवतीत्येतदत्र प्रकृतम् , यदि चोत्पलशब्दः संशयव्यव- शय-विपर्यासाभावप्रसङ्गः शब्दान्तराप्रवृत्तिप्रसङ्गश्च कस्मान्न च्छेदायैव व्याप्रियते न द्रव्यप्रतिपत्तये न तर्हि विधिः शब्दा. भवति? संवृत्या शब्दार्थाभ्युपगमानास्माकमयं दोषः । तथार्थः स्यात् उत्पलशब्देन भ्रान्तिसमारोपिताकारव्यवच्छद- हि-नीलशब्दनानीलपदार्थब्यावृत्तमुत्पलादिषूपलवमानरूपमात्रस्यैव प्रतिपादनात् , परस्परविरुद्धं चेदमभिधीयते-'नी- तया तेषामप्रतिक्षपकमध्यवसितबाह्यरूपं विकल्पप्रतिबिम्ब लशब्दनोत्पलादिकं द्रव्यमभिधीयत अथ च प्रतिपत्तस्तत्र कमुपजायते पुनरुत्पलश्रुत्या तंदवानुत्पलव्यावृत्तमारोपितनिश्चयो न जायते' इति: न हि यत्र संशयो जायते स श- बायकवस्तुस्वरूपमुपजन्यत; तंदवं क्रमेणानीलानुत्पलव्याब्दार्थों युक्तः अतिप्रसङ्गात् , नापि निश्चयन विषयीकृते व
वृत्तमध्यवसितबाकिरूपं भ्रान्तं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजस्तुनि संशयाऽवकाश लभते निश्चयाऽऽरोपमनसोर्बाध्यवा- भ्यत इति तदनुरोधात् सांवृतं सामानाधिकरण्यं युज्यत एव । धकभावात् । स्यादेतत् यद्यपि नीलोत्पलशब्दयोरेकस्मिन्नर्थे
यदुक्तम्-'लिङ्ग-सङ्ख्यादिसम्बन्धो न चापोहस्य विद्यवृत्तिनास्ति तदर्थयोस्तु जाति-गु(योस्तु गुणजात्योरेकस्मिन् ते' इति, अत्र वस्तुधर्मत्वं लिङ्ग-सङ्ख्यादीनामसिद्धम् द्रव्ये वृत्तिरस्तीस्यतोऽर्थद्वारकमनयोः सामानाधिकरण्यं भ- स्वतत्रेच्छाविरचितसङ्कतमात्रभावित्वात् । प्रयोगः-यां विष्यति, तदेतदयुक्तम् अतिप्रसङ्गात् ; एवं हि रूप-रसशब्द- यदन्वय-व्यतिरेको नानुविधत्ते नासौ तद्धर्मः, यथा शीतयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यात् तदर्थयो रूप-रसयारेक- स्वमग्नेः, नानुविधत्ते च लिङ्गसङ्घयादिवस्तुनोऽन्वय-व्यतिस्मिन् पृथिव्यादिद्रव्ये वृत्तेः। किञ्च-तर्हि 'नीलोत्पलम्' इ- रेकाविति व्यापकानुपलब्धिः । न चायमसिद्धो हेतुः; यता त्येकार्थविषया बुद्धिर्न प्राप्नोति एकद्रव्यसमवतयोर्गुण-जा- यदि लिङ्गं वस्तुतो वस्तु स्यात् तदैकस्मिस्तटास्ये वस्तुनि त्यााभ्यां पृथक पृथगभिधानात् । न चैकार्थविषयज्ञानानु- 'तटः' 'तटी' 'तटम्' इति लिङ्गत्रययोगिशब्दप्रवृत्तेरेकस्य त्पादे शब्दयोः सामानाधिकरण्यमस्तीत्यलमतिप्रसनेन । अ- वस्तुनरूप्यप्रसक्तिः स्यात् । न चैकस्य स्त्री-पुं-नपुंसका-- थापि स्यात् यदेव नीलगुण-तजातिभ्यां सम्बद्धं वस्तु न त- ख्यं स्वभावत्रय युक्तम् एकत्वहानिप्रसङ्गात् , विरुद्धधर्मादवात्पलशब्दनोच्यते; तेनात्पलश्रुतिय॑र्था न भविष्यति । ध्यासितस्याप्यकत्वे सर्वविश्वमेकमेव वस्तु स्यात् । ततश्च नन्वयं भिन्नगुपजात्याश्रयद्रव्यप्रतिपादकत्वानीलोत्पलशब्द- सहोत्पत्ति-विनाश-प्रसङ्गः । किञ्च-सर्वस्यैव वस्तुन एकयोः कुतः सामानाधिकरण्यम् ? अथ यद्यपि यदेव द्रव्यं नी- शब्दन शब्दान्तरेण वा लिङ्गत्रयप्रतिपत्ति दर्शनात् तद्विषयालशब्देनोच्यते उत्पलशब्दनापि तदव तथापि नीलशब्दो नो
णां सर्वचेतसा मेचकादिरत्नवच्छवलाभासताप्रसङ्गः । अथ त्पलजातिसम्बन्धिरूपेण द्रव्यमभिधत्ते, किं तर्हि? नीलगुण
सत्यपि लिङ्गत्रययोगित्वे सति सर्ववस्तूनां यदेव रूपं चक्नुतजातिसम्बन्धिरूपेणैव; तेनोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्व- मिष्टं प्रतिपादकेन तन्मात्रावभासान्येव विवक्षावशाचेतांसि मस्याभिधातुमुत्पलश्रुतिः प्रवर्तमानानां (ना) नथिका भवि- भविष्यन्ति न शवलाभासानि; ननु यदि 'विवक्षावशादेकव्यति, असंवतस् : न हि नीलगुण-तजातिसम्बन्धिरूपत्वा- रूपाणि चेतांसि भवन्ति' इत्यङ्गीक्रियते तदा तानि च्यात्मदम्यदयात्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वं यम नीलतज्जातिसम्ब- कवस्तुविषयाणि न प्राप्नुवन्ति तदाकारशून्यत्वात् , शब्दवि
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( ३५६ ) अभिधान राजेन्द्र
मह
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-असत्य
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पयेोऽपि मन्यते "संस्थान प्रसव-स्थितिषु यथाक्रमं स्त्री-पुंनपुंसकव्यवस्थाति ( स्था" इति ) तस्यापि तन्न युक्लम् : यतो यदि स्थित्याद्याश्रया लिङ्गव्यवस्था तदा तटशृङ्खलादिवत् सर्वपदार्थेष्वविभागेन त्रिलिङ्गताप्रसक्तिः स्थित्यादविद्यमानत्वात्-अन्यथा 'तटः' 'तटी' 'तटम्' इत्यादास्यात् विशेषाभावात् इत्यतिपिता लक्षणदोषः । व्यभिचारदर्शनाद् वाऽव्यापिता च -: पहियादिकेशशविषादिष्वसु (पु) 'अभावः ' 'निरुपास्यम्' 'तुच्छता' इत्यादिभिः शब्दः त निदर्शनात् । इतश्चाव्यापिनी खित्यादिष्वत्यं लि त्रयोगिन्दप्रवृत्तिथाहि प्रसय उत्पाद सेस्त्यानं विनाशः, आत्मस्वरूपं च स्थितिः तत्र प्रसवे स्थिति संस्त्यानयोरभावात् कथं 'उत्पादः उत्पत्तिः जन्म इत्यादेः स्त्री-पुं-नपुंसकलिङ्गस्य शब्दस्य प्रवृत्तिर्भवेत् ? तथा संस्थांनी सारभावात् कथं 'तिरोभूतिः' "विनाशः "तिरोभवनम् इत्यादिभिः शनैपदिश्यते से स्थानम् इत्यनेन च तथा स्थितीसंस्थानयोरसम्भवात् 'स्थितिः' 'स्थानम्' 'स्वभावः'त्यादिभिःशनैः कथमुच्यत ? अथ स्थित्यादीनां परस्परमविरूपत्वात् प्र त्येकमेषु लिङ्गत्रययोगिताः ननु यद्येषां परस्परमविभकं रूपं नदेकमेव परमार्थता लिङ्गं स्यात् न लिङ्कत्रयम् । अन्यस्वाह" स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः " । तत्र पक्ष सामान्यविशेषाणामभावा (वात् ) स्त्रीत्वादीनामपि नपाणामभाव इत्यसम्भवि लक्षणम् । किञ्च तेष्वेव सामास्यविशेषेष्यन्नरेणाप्यपरं सामान्यविशेष'जाति' 'भाव' 'सामान्यम्' इत्यादः स्त्री-पुं- नपुंसकलिङ्गस्य प्रवृत्तिदर्शनात् अव्यापिता व लक्षणस्य, न हि सामान्येष्वपराणि सामास्यानि निःसामान्यानि" इति वैशेषिकसिद्धान्तात् । यदा तु सामान्यस्याप्यपराणि सामान्यानीच्यन्त वैयाकरणैःयथोक्तम्
"अजात्यभिधानेऽगि सबै जातिविधायिनः । व्यापारलक्षणा यस्मात् पदार्थाः समवस्थिताः " ॥ ( वाक्यप० तृ० का० लो० ११ )
"
न हि शास्त्रान्तरपरिदृष्टा जातिव्यवस्था नियोगतो वैयाक
"
भ्युपगन्तव्या प्रत्ययाविधानात्ययस्यापारकायश्रीयमानरूपा हि जातयः न हि तासामियत्ता काचित् श्रतो यथोदितकार्यदर्शनात् सामान्याधारा जातिः सम्प्रति ज्ञायते तथाभूतप्रत्यय-शब्दनिबन्धनम् । 'व्यापारलक्षणा' इति श्रभिधानप्रत्ययव्यापारतो व्यवस्थितलक्षणा इत्यर्थः तदाऽनस्तरोच वृषणम्- 'सामान्यस्वमायात् इत्यादि अपि च, न हि असत्सु शशविषाणादिषु जातिरस्ति वस्तुधर्मत्वात् तस्याः, इति तेषु 'अभावादिशब्दप्रयोगो न स्यात् । तस्मादयपि लिङ्गस्थति इच्छारचितसङ्केतमाषभावि
येतितम्या अपि वस्तुगतान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावो नासिद्धः । तथाहि सा माय (पयन वास्तव दारादिप्यसत्यपि वास्तव मं तत्या अन्यथा बहुत्यादया वस्तुगत भेदाभेदलक्षणा यदि स्यात् तदा 'आप' 'दाराः'
सद्द 'सिकताः' 'वर्षाः' इत्यादावसत्यपि वस्तुनो भेद बहुत्वसया कथं प्रवर्तते ? तथा, 'वनम्' 'त्रिभुवनम्' 'जगत्' 'परणगरी' इत्यादिष्वसत्यप्यभेदे ऽर्थस्यैकत्वसङ्ख्या न व्यपदिश्येतः श्रतो नासिद्धता हेतोः । नाप्यनेकान्तिकः सर्वस्य सर्वधर्मत्वप्रसङ्गात् सपक्षे भायाश्च न विरुद्धः ।
"
1
अत्र च कुमारिलो तोरसिद्धतां प्रतिपादयन्नाह - दारादिशब्दः कदाचित् जातौ प्रयुज्यते कदाचित् व्यक्कौ, तत्र यदा जातौ तदा व्यक्तिगतां सङ्ख्यामुपादाय वर्तते व्यक्तयश्च वयोषितः यदा तु प्रयुज्यते तद्व्या नां पाहि पादादीनां बहुधामादाय वर्तते नन्देन तु धव - खदिर- पलाशादिलक्षणा व्यक्तयस्तत्सम्बन्धिभूतवृक्षत्वजातिगतसङ्ख्या विशिष्टाः प्रतिपाद्यन्ते तेन 'वनम्' इत्येकवचनं भवति जातिगतैकसंख्याविशिएद्रव्याभिधानात् अथवा धवादिव्यक्तिसमाश्रिता जातिरेय यन शब्देनोयते तेनेनं भवति जातेरेकत्वादिति ।
F
"
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नन्वेवं 'वृक्षः घटः ' इत्यादावप्येकवचनमुच्छिन्नं स्यात् सर्वत्रैवास्य न्यायस्य तुल्यत्वात् । तथाहि अत्रापि शक्यमेवं पशु जाती व्यक्ती वा वृखादिधेत् प्रयुज्यते चक्रुम् -' दि । अथ मतम् वृक्षादी व्यक्तेरवयवानां च संख्याविज्ञा नास्ति यद्येवं न तर्हि वस्तुगतान्वयाद्यनुविधायिनी संख्या, विज्ञाय चान्वयव्यतिरेकानुविधानात् तत सेव दारा:' इत्यादिषु बहुवचनस्य निवन्धनमस्तु भेदाभावेऽव्यमपि वस्तु हस्त नासिद्धता देतोः ।
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3
क्रमश जातिसंख्याविशेषिता राह इति तत्र न जातेः संस्याऽस्ति प्रयसमाधितत्वादस्याः । अथ वैशेषिकप्रक्रिया नाधीयते तदा भाये संख्यायास्तया कथं धवादिव्ययो विशेषिता सिद्धयन्ति ? स्यादेतत् सम्बद्धस स्बन्धात् तत्सम्बन्धतो वा सिद्धयन्ति । तथाहि यदा जातेर्व्यतिरेकिणी संख्या तदैकत्वसंख्यासम्बद्धया जात्या धवादिव्यक्तीनां सम्बन्धात् पारम्पर्येण तथा वादिदिशेष्यन्तेः यदा तु जातेरव्यतिरिक्तैव सङ्ख्या तदा साक्षादेव सम्वन्धात् तया विशेष्यन्त इति जातिसङ्ख्याविशेषिताः सि जयन्ति, असंदेतत् यतो यदि सम्बद्धसम्बन्धात् सम्बन्धतो वाधवादिव्यतिषु वनशब्दस्य प्रवृत्तिस्तदेकोऽपि पाद 'वनम्' इत्युतप्रवृत्तिनिमितस्य विद्यमानत्वाहिबहवोऽपि धवादयो जातिसङ्ख्यासम्बन्धादेव 'वनम्' इत्युच्यते नान्यतःः स च सम्बन्धः एकस्मिन्नपि पादपेऽस्तीति किमिति न त अथवा भयादिव्यसिमाश्रिता इत्य पक्षे एकस्यापि तरो 'वनम्' इत्यभिधानं स्यात्। तथाहि यैवासौ वनशब्दन जातिर्बहुव्यक्त्याश्रिताऽभिधीयत सेवेकस्यामपि धादयी व्यवस्थिताः ततो निमि तस्य सर्वत्र तुल्यस्याद एकत्रापि पादप किमिति धन भवेत् ? किया कालावध भवतु वा वस्तुधर्मत्वमेषां तथापि प्रतिविम्वलक्षणस्यापोहस्यातिर्वा (व्यक्तिरूपत्वेनापतित्वादयवसाय यशाद् व्यक्तिद्वारको लिङ्गादसम्बन्धा भविष्यति तेन यदुक्रम् व्यले आवश्यम्यात् तद्द्वारेणापि नास्यसी' इति, तदनैकान्तिकम्, संवृतिपक्षे वासिद्धम्
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(३५७)
अभिधानराजेन्द्रः। "व्यक्तिरूपावसायेन, यदि वाऽपोह उच्यते ।
नेन पूरणार्थे 'यत्' प्रत्ययविधानात् । 'तद्विविक्ताऽसौ' इति तल् लिङ्गायभिसम्बन्धो, व्यक्तिद्वारोऽस्य विद्यते"॥ औदासीन्यादिविविक्त क्रः), 'विधिवाक्यन सममन्यनिवर्त
नम्' इति यथा 'पचति' इत्यादी विधियाक्ये सामयादादा[तत्त्वसं० का० ११४३] इति ।
सीन्यादिनिवृत्तिर्गगते तथा द्वितीयेऽपि ननि इति सिद्ध'अपोह उच्यते' इति 'शब्देन' इति शेषः, 'तद्' इति तस्मा.
मत्राप्यन्यनिवतैनम् । स्पष्टार्थ तु नञ्चतुष्टयोदाहरणम् । स् , 'अस्य' इत्यपोहस्य । 'श्राख्यातेषु न च' इति, अत्र श्रा
'चादीनां नयागा नास्ति' इति, अत्रख्यातेवन्यनिवृत्तिन संप्रतीयते इत्यसिद्धम् । तथाहि-जिज्ञा
"समुच्चयादियश्चार्थः, कश्चिश्चादरभीप्सितः। सिते कस्मिश्चिदर्थे श्रोतुर्बुद्धिद्धि)निवेशाय शब्दः प्रयुज्यते व्यवहर्तृभिः न व्यसनितया तेनाभीष्टार्थप्रतिपत्ती सामर्थ्या.
तदन्यस्य विकल्पादे-भवेत् तेन व्यपाहनम्"॥
[तत्त्वसं० का० ११५६] दनभीष्टव्यवच्छेदः प्रतीयत एव, अभीष्टानभीष्टयोरन्योन्यव्यवच्छेदरूपत्वात् । सर्वमेवाभीष्टं यदि स्यात् तदा प्रतिनि- आदिशब्देना(न) 'वा'शब्दस्य विकल्पोऽर्थः, 'अपि'शब्दस्य यतशब्दार्थो न प्रामोति इति या च कस्यचिदर्थस्य परिहारे- पदार्थासम्भवानाऽ(सम्भावनाs) न्ववसर्गादयः, 'तु' शब्दण श्रोतुः क्वचिदर्थे शब्दात् प्रवृत्तिः सान प्राप्नोति; तस्मात् स्य विशेषणम् , 'एव'कारस्यावधारणमित्यादेग्रहणम् । 'तत्'सर्वमेवाभीष्टम्' इत्येतदयुक्तम् , अतः 'पचति' इत्यादिशब्दा- न्यस्य' इति तस्मात् समुच्चयादन्यस्य, 'तेन' इति चादिना । नामनभीष्टव्यवच्छेदः सामर्थ्यात् स्फुटमवगम्यत पव- 'वाक्याथै ऽयनिवृत्तिश्च व्यपदष्टुं न शक्यते' इति, अत्रापि "तथाहि-पचतीत्युक्ते, नोदासीनोऽवतिष्ठते ।
कार्यकारणभावेन सम्बद्धा एव पदार्था वाक्यार्थः यतो न पभुड़े दीव्यति वा नेति, गम्यतेऽन्यनिवर्तनम् ॥
दार्थव्यतिरिक्नो निरवयवः शबलाऽऽत्मा वा कल्माषवर्णप्रख्यो [तत्त्वसं० का० ११४६ ]
वाक्यार्थोऽस्ति, उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्य तादृशस्यानुपलब्धेः
पदार्थस्य चापाहरूपत्वं सिद्धमेव । तथाहि-' चैत्र ! गामातेन 'पर्युदासरूपं हि निषेध्यं तत्र न विद्यते' इति यदुक्रम्
नय' इत्यादिवाक्ये चैत्रादिपदार्थातरेकेण बुद्धौ नान्योऽ. तसिद्धम् । यश्च-पचतीत्यनिषिद्धं तु, स्वरूपेणैव तिष्ठति'।
र्थः परिवर्तते चैत्राद्यर्थगतौ च सामर्थ्यादचैत्रादिव्यवच्छेदो इति । तत्र स्ववचनव्याघातः । तथाहि- पचति' इत्येतस्यार्थ
गम्यते; अन्यथा यद्यन्यक दिव्यवच्छेदो नाभीष्टः स्यात् ' स्वरूपेणैव ' इत्यनेनावधारणेनावधारितरूपं दर्शयता
तदा चैत्रादीनामुपादानमनर्थकमेव स्यात् । ततश्च न किञ्चित् 'पचति' इत्येतस्यान्यरूपनिषेधेनात्मस्थितिरिति दर्शितं भ
कश्चिद् व्यवहरेदिति निरीहमेव जगत् स्यात् । 'अनन्यायति; अन्यथा 'खरूपेणैव' इत्येतदवधारणं भवत्प्रयु
पोहशब्दादौ वाच्यं न च निरूप्यते' इति, अत्र, नात्र भवमनर्थकं स्यात् व्यवच्छेद्याभावात् । 'साध्यत्वप्रत्ययश्च'
दभिमतो जात्यादिलक्षणा विधिरूपः शब्दार्थः परमार्थतोऽइति, अत्रापि यद्यपोहो भवता निरू (रु) पाख्यस्वभावतया
वसीयते जात्यादेनिषिद्धत्वात् ।। गृहीतस्तत्कथमिदमुच्यते 'निष्पन्नत्वात्' इति, न ह्याकाशोस्पलादीनां काचिदस्ति निष्पत्तिः सर्वोपाख्याविरहलक्षण
" किन्तु विध्यवसाय्यस्माद् , विकल्पो जायत ध्वनेः ।
पश्चादपोहशब्दार्थ-निषेधे जायते मतिः "॥ त्वात् तेषाम् । स्यादेतत् यद्यप्य सौ निरुपाख्यः परमार्थतस्त
[तत्त्वसं० का० ११६४] थापि भ्रान्तः प्रतिपनृभिर्बाह्यरूपतयाऽध्यवसितत्वादसौ सोपाख्यत्वेन ख्याति ननु यद्यसौ सोपाख्यत्वेन ख्याति त
यद्यनपोहशब्दादपोहशब्दार्थनिषेधे मतिजार्यते इतीप्यते न थाऽपि किमत्र प्रकृतार्थानुकूलं जातम् ? वस्तुभिस्तुल्यधर्म
तापोहशब्दार्थोऽभ्युपगन्तव्यः तस्य निषिद्धत्वात् ,असदेतत्; त्वम् , एतेन यथा वस्तु निष्पन्नरूपं प्रतीयते तथाऽपोहोऽपि “स त्वसंवादकस्तादृग् , वस्तुसम्बन्धहानितः । वस्तुभिस्तुल्यधर्मतया ख्याते (तो) निष्पन्न इव प्रतीयत इति न शाब्दाः प्रत्ययाः सर्वे, भूतार्थाध्यवसायिनः "॥ सिद्धं 'निष्पन्नत्वात्' इति वचनम् । यद्येवं भवत्यै (ते) व [तत्त्वसं० का० ११६५] साध्य [ध्यत्व प्रत्ययस्य भूताऽऽदिप्रत्ययस्य च निमित्तमुप- 'सः' इति अनन्यापोहशब्दादिः, 'असंवादकः' इति न दर्शितमिति न वक्तव्यमेतत् 'निनिमित्तं प्रसज्यते' इति । यद- संवदतीत्यसंवादकः, न विद्यत त्रा(वा) संवादो ( संवादोऽपि 'विध्यादावर्थराशौ च, नाऽन्याऽपोहनिरूपणम्' । इति स्येत्यसंवादकः । कस्मात् ? ' वस्तुसम्बन्धहानितः ' तथापरेणोकम् , तत्र विध्यादेरर्थस्य निषेध्यादपि व्यावृसतया:- भूतवस्तुसम्बन्धाभावात् पूर्वं हि जात्यादिलक्षणस्य शब्दार्थवस्थितत्वात् तत्प्रतिपत्ती सामर्थ्यादविवक्षितं नास्तिताऽऽदि वस्तुनो निषिद्धत्वात् । यद्येवं तर्हि कथमनन्यापोहशब्दादिनिषिध्यत इत्यस्त्येवात्र 'अन्यापोहनिरूपणम्' । 'नत्रश्चापि भ्योऽपोहशब्दार्थनिषध मतिरुपजायत इति, उच्यतेवितथनायुक्तौ' इति, अत्रापि
विकल्पाभ्यासवासनाप्रभवतया हि कचन शाब्दाः प्रत्यया "नासौ न पचतीत्युक्ने, गम्यते पचतीति हि ।
असद्भतार्थनिवेशिनो जायन्त एव इति न तद्वशाद वस्तूनां औदासीन्यादियोगश्व, तृतीये नत्रि गम्यते" ॥
सदसत्ता सिद्धयति । यञ्च 'प्रमेय-ज्ञयशब्दादः' इति, अत्र "तुर्य तु तद्वियितोऽसौ, पचतीत्यघसीयते ।
कस्य प्रमेयादिशब्दस्यापोह्य नास्तीत्यभिधीयते ? यदि तावतेनात्र विधिवाक्येन, सममन्यनिवर्तनम्" ॥
दवाक्यस्थप्रमेयादिशब्दमाश्रित्योच्यते तदा सिद्धसाध्यता , [ तत्त्वसं० का० ११५७-११५८ ]
केवलस्य प्रयोगाभावानेव निरर्थकत्वात् यतः श्रोतृजनानुग्र'तुर्ये' इति चतुर्थे "चतुरश्छयती प्राधक्षरलोपश्च" [पाणि हाय प्रेक्षावद्भिः शब्दः प्रयुज्यते न व्यसनितया, न च केवश्र०५ पा०२ सू०५१ बार्ति सिद्धान्त. पृ० २६६] इत्य-लेन प्रयुक्नेन श्रोतुः कश्चित् सन्दह-विपर्यासनिवृत्तिलक्षणोऽ
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( ३५८) अभिधानराजेन्द्रः।
सह नग्रहः कतो भवेत । तथाहिद श्रातः क्वचिदर्थे समुत्पन्नौ ज्या ज्ञानस : तदभ्यागसेच मामांत माह araसंशय-विपर्यासौ निवर्त्य निस्सन्दिग्धप्रत्ययमुत्पादयत् प्र- मभ्युपगतं स्यात् श्राकारव्यतिरेकेणान्यस्य स्वभावविशेषतिपादकः पावं तेनास्यानुग्रहः कृतो भवेत् नान्यथा। न च व्येनावधायितुमशक्यत्वात् , तो भवता 'स्वभावविशेषः' केवलेन शब्देन प्रयुक्तेन तथाऽनुग्रहः शक्यत कर्तुम् , तस्मात् इति स पव शब्दान्तरेणोक्तः अस्माभिस्तु 'श्राकारः' इति संशयादिनिवर्त्तन निश्चयोत्पादने च श्रीतुरनुग्रहात् शब्द- केवलं नाम्नि विवादः । 'एवमित्थम्' इत्यादावपि 'एवमेतन्नप्रयोगसाफल्यमिति वाक्यस्थस्यैवास्य प्रयोगः। अथ वा- चम्' इति वा 'प्रकारान्तरमारोपितमेवम्' इत्यादिशब्दळवक्यस्थमेव शेयादिशब्दमधिकृत्यांच्यते, तद् असिद्धम : तत्र च्छिद्यमानं स्फुटतरमवसीयते चेति नाव्यापिता शब्दार्थहि वाक्यस्थन प्रमयादिशब्दन यदेव मूढमतिभिः संशयस्थान व्यवस्थायाः । एवं कुमारिलेनोनं दृषणं प्रतिविहितम् । मिष्यते तदेव निवर्त्यत इत्यताऽसिद्धमेतत 'प्रमेयादिशब्दा
(उद्दयोतकरोक्लानामाक्षपाणां प्रतिविधानम् )नां निवयं नास्ति' इति; अन्यथा यदि श्रोता न क्वचिदर्थे संशते तत् किमिति परस्मादुपदेशमपेक्षते ? निश्चयार्थी हि
इदानीमुद्दद्योतकरेणोक्तं प्रतिविधीयते-तत्र यदुक्तम्-'सर्वपरं पृच्छति अन्यथोन्मत्तः स्यात् । यदि नाम श्रोतुराशङ्का
शब्दस्य कश्चार्थो व्यवच्छेद्यः प्रकल्प्यते' इति, श्रत्रापि शेस्थानमस्ति तथापि शब्देन तन्न निवर्त्यत इत्येतञ्च न वक्तव्य
यादिपदवत् केवलस्य सर्वशब्दस्याप्रयोगात् वाक्यस्थस्यैव म् , श्रोतृसंस्कारायैव शब्दानां प्रयोगात् तदसंस्कारकं वदतो
नित्यं प्रयोग इति यदव मूढमतेराशङ्कास्थानं तदेव निवर्त्यवः-अन्यथा-उन्मत्तताप्रसक्तिः। तथाहि-'किं क्षणिकाऽ
मस्ति । तथाहिनात्मादिरूपेण झया भावाः, आहोश्विन' 'किं सर्वज्ञचेतसा
"सर्वे धर्मा निरात्मानः,” 'सर्वे वा पुरुषा गताः'। ग्राह्याः उत न' इत्यादि-संशयाद्भूतो 'क्षणिकत्वादिरूपेण सामस्त्यं गम्यते तत्र, कश्चिदंशस्त्वपोह्यत" ॥ क्षेयाः सर्वधर्माः ' तथा 'सर्वशज्ञानविज्ञयाः' इतिसंशयब्यु- (तत्त्वसं० का० ११८६) दासार्थ शब्दाः प्रयुज्यन्त इति । यदि(द)क्षणिकत्वाऽज्ञयत्वा- कोऽसावंशोऽपाह्यतऽत्र इति चेत् , उच्यतेदि समारोपितं तद् निवर्त्यते, क्षणिकत्वादिरूपेण तेषां प्र- "केचिदेव निरात्माना, वाह्या इटा घटादयः । माणसिद्धत्वात् । अथ 'किमनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेयाः' इति गमनं कस्यचिञ्चैव, भ्रान्तैस्तद्विनिवर्त्यत" ॥ 'आहोश्विन' इति प्रस्ताव प्रमेयाः' इति प्रयोगे प्रकर
(तत्त्वसं० का० ११८७) णानभिशस्यापि प्रतिपत्तुः प्रमेयाः' इति केवल शब्दशव
'एकाद्यसर्वम्' इत्यादावपि यदि हि सर्वस्याङ्गस्य प्रतिपधी णात् प्लवमानरूपा शब्दादिबुद्धिरुपजायत एव । तद् यदि
वाक्यस्थे सर्वशब्द विवक्षितः स्यात् तदा स्वार्थोऽपाहः प्रकेवलस्य शब्दस्यार्थी नात्यय तत् कथमर्थप्रतिपत्तिर्भवति?
सज्यते यावता यंदव मूढधिया शाडूतं तदेव निषिध्यत इति नैव केवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्तिः किमिति वाक्येषूपलब्ध
कुतः स्वार्थापवादित्वदीपप्रसङ्गः ? एवं धादिशब्दे प्वपि वास्यार्थवनः शब्दस्य सादृश्यनापहृतबुद्धः केवलशब्दश्रवणा
च्यम् । यच्चोक्लम्-'किं भावोऽथाभावः' इत्यादि, तत्रापि दर्थप्रतिपत्त्यभिमानः । तथाहि-यप्वव वाक्येषु 'प्रमेय' शब्द
यथाऽसौ बाह्यरूपतया भ्रान्तैरवसीयते न तथा स्थित इति मुपलब्धवान धोना तदर्थेवेव सा बुद्धिरप्रतिष्ठितार्था प्लव
बाह्यरूपत्वाभावान्न भावा, न चाभावो बाह्यवस्तुतयाऽव्य मानरूपा समुपजायते, तच्च घटादिशब्दानामपि तुल्यम् ।
(ध्य) वसितत्वात् इति कथं 'यदि भावः स किं गौः' इत्यादि तथाहि-'किं घटेनादकमानयामि, उताअलिना' इति प्रयोग प्रस्तावानभिज्ञस्य यावत्सु वाक्येपु तन घटेन' इति प्रयो
(दे) र्भावपक्षभाविनः 'प्रैष-सम्प्रतिपत्त्योरभावः' इत्यादेश्चा
भावपक्षभाविना दोपस्यावकाशः ? अथ पृथक्त्वैकत्वादिलगा दृष्टस्तावत्स्वर्थेषु आकालावती पूर्ववाक्यानुसारादेव प्र
क्षणः कस्मान्न भवति? व्यतिरका (का) व्यतिरेकाऽधितिपत्तिर्भवतीति घटादिशब्दा(शब्दा इव) विशिष्टार्थवचनाः
ताऽनाश्रितत्वादिवस्तुगतधर्माणां कल्पनाशिल्पिोटतांवप्रमेयादिशब्दाः । यदुक्तम्-'अपाहकल्पनायां च' इत्यादि,
ग्रहेऽपोहेऽसम्भवात् । यच्चोक्तम्-'क्रियारूपत्वादपोहस्य तत्र, वस्त्वेव ह्यध्यवसायवशाच्छब्दार्थत्वेन कल्पितं यद् वि
विषयो वक्तव्यः' इति, तदसिद्धम् : शब्दवाच्यस्यापोहस्य वक्षितं नावस्तु: नेन तत्प्रतीतो सामर्थ्यादविवक्षितस्य व्या
प्रतिविम्बात्मकत्वात् । तच्च प्रतिबिम्बकम् अध्यबसितबावृत्तिरधिगम्यत एवति नाव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था । यदेव च
ह्यवस्तुरूपत्वाद् न प्रतिषेधमात्रम् । अत एव 'किं गोविषयः मूढमतराशङ्कास्थानं तदेवाधिकृयाकमाचायेंग-"(अज्ञेयं
अथाऽगांविषयतः (पयः)' इत्यस्य विकल्पद्वयस्यानुपपत्तिः कल्पितं कृत्वा तळ्यवच्छेदन क्षयऽनुमानम्" [हेतु इति ।
गोविषयत्वेनैव तस्य विधिरूपतयाऽध्यवसीयमानत्वात् । 'ज्ञानाकारनिषेधाच' इत्यादी ज्ञानाकारस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्ष
यञ्चोक्तम्- केन ह्यगोत्वमासनं, गोर्येनैतदपाह्यते' इति, असिद्धत्वात् कथमभावः ? तथाहि-स्वप्नादिपु अर्थमन्तरेणापि
त्रापि, यदि हि प्राधान्येनान्यनिवृत्तिमव शब्दः प्रतिपादयेत् निरालम्बनमागृहीतार्थाकारसमारोपकं ज्ञानमागोपालमति
तदेतत् स्यात् यावतार्था (थ) प्रतिविम्बकमेव शब्दः करोति, स्फुटं स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धम् । न च देश-कालान्तराबस्थि
तद्गतीच सामर्थ्यादन्यनिवर्तनं गम्यत इति सिद्धान्तानभिशतोऽर्थस्तेन रूपेण संवेद्यत इति युक्वं वनम् , तस्य तद्रपा- तया यत् किश्चिदभिहितम् । व्यतिरकाऽव्यतिरेकादिविकल्पः भावात् । न चान्येन रूपेणान्यस्य संवेदनं युक्तम् अतिप्रस- पूर्वमव निरस्तः। यदुक्तम्-'किमयमपाहो वाच्यः इत्यादि,तत्रा कात् । किञ्च-अवश्यं भवन्द्रिीनस्यात्मगतः कश्चिद विशे- म्यापोहे वाच्यन्धम् इति विकल्पों यद्यन्यापाहशब्दमधिकृत्या. पाऽर्थकृतोऽभ्युपगन्तव्यः येन वाधरुपतासाम्येऽपि प्रति- भिधीयते तदाविधिरूपेणेवासों तेन शब्देन वाच्य इत्यभ्युपग. विषयं 'नीलस्यदं संवदनम् न पीतस्य' इति विभागन विभ- मान्नानिष्टापत्तिः। तथाहि-'कि विधिः शब्दार्थः पाहाश्विदन्या
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सद्द
अभिधानराजेन्द्रः। पोहः' इति प्रस्ताव 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्युक्त प्रतिपत्त-- यत् सङ्कतकाले प्रतिविम्बकमनुभूतं श्रोत्रा वक्त्रा धा न तद्यथोक्नप्रतिबिम्बलक्षणान्यापोहाध्यवसायी प्रत्ययः समुपजा- व्यवहारकाले ऽनुभूयते तस्य क्षणक्षयित्वन चिरनिरुद्धत्वात् यते अर्थानु (र्थात् तु) विधिरूपशब्दार्थनिषेधः । श्रथ घटा- यच्च व्यवहारकालऽनुभूयत न तत् सङ्कनकालेऽष्टम् अन्यदिशब्दमधिकृत्य, तत्रापि यथोक्तप्रतिबिम्बलक्षणोऽपाहः स्यैव तदानीमनुभूयमानत्वात् , न चान्यत्र मतादन्येन व्यसाक्षाद् घटादिशब्दैरुपजन्यमानत्वाद् विधिरूप एव तैः प्र- वहागे युक्तः अतिप्रसङ्गात् , असदेतत् : यता न परमार्थता तिपाद्यते, सामर्थ्यात् त्वन्यनिवृत्तरधिगम इति नानिष्टा 55- शानाकारोऽपि शब्दानां वाच्यतया उभीए: यन तत्र सङ्कतापत्तिः । न चाप्यनवस्थादोषः, सामर्थ्यादन्यनिवृत्तेर्गम्यमान- सम्भवो दोपः प्रेर्यत; यतः सर्व एवायं शाब्दा व्यवहारः स्वात् न तु वाच्यतया । अवाच्यपक्षस्यानङ्गीकृतत्वादेव न स्वप्रतिभासानुगंधन तैमिरिकद्वयद्विचन्द्रदर्शनवद् भ्रान्त तत्पक्षभाविदोपोदयावकाशः । 'अपि चैकत्व-नित्यत्व'- इष्यते, केवलमर्थशून्याभिजल्पवासनाप्रवाधाच्छन्दभ्योऽथाइत्यादावपि यदि पारमार्थिकैकत्वाद्युपवर्णनं कृतं स्यात् तदा ध्यवसायिविकल्पमात्रोत्पादनात् तत्प्रतिविम्वकं शब्दानां हास्यकरणं भवतः स्यात् । यदा तु भ्रान्तप्रतिपत्रनुरोधेन वाच्यमित्यभिधीयते जननात् न त्वभिधयतया । नत्र यापि काल्पनिकमेव तद् प्राचार्येणोपवर्णितं तदा कथमिव हास्य- स्वस्यैवावभासस्य वक्त-धातृभ्यां परमार्थतः संवेदनम् तथाकरणमवतरति विदुषः किन्तु भवानेव विवक्षितमर्थमांवज्ञाय ऽपि तैमिरिकद्वयस्येव भ्रान्तिबीजस्य तुल्यत्वात् द्वयोर्गप दृषयन् विदुषामतीव हास्यास्पदमुपजायते । तस्माद् ये- वोत्रा ह्यार्थव्यवस्थाध्यवसायः तुल्य एव । तथाहि-चक्रवेव शब्देषु नभ्योगः ' इत्यादावपि, 'न केवलं यत्र नज्यो- रयमभिमाना वर्तत 'यमेवाहमर्थ प्रतिपद्य तमेवाय प्रतिपागस्तत्रान्यविनिवृत्यशोऽवगम्यत, यत्रापि हि नभ्योगो ना
द्यत' एवं श्रोतुपि योज्यम् । एकाधियवमारित्वं कशे स्ति तत्रापि गम्यत एव' इति स्ववाचैवैतद् भवता प्रतिपादि. वक-श्रोत्राः परस्परं विदितम इति न वाच्यम , यतो यदि तम् ' स्वात्मैव गम्यते' इत्यवधारण कुर्वता: अन्यथाऽवधा. नाम परमार्थता न विदितम् तथापि भ्रान्तिीजम्य तुल्यरणवैयर्थ्यमेव स्यात् यतः 'अवधारणसामर्थ्यादन्यापोहोऽ त्वादस्त्येव परमार्थतः स्वसंविदितं प्रतिबिम्बकम् । म्वनिपि गम्यते' इति स्फुटतरमेवावसीयते । न च बभ्यासुता- भासानुराधन च तैमिरिकद्वयवद भ्रान्त एव व्यवहाग:दिशब्दस्य बाह्यं सुतादिकं वस्त्वन्यव्यावृत्तमपाहाश्रयो ना- यमिति निवेदितम् : तेनैकार्थाध्यवमायवशात् सङ्कत करणास्तीति किमधिष्ठानोऽपोहो वाच्य इति वक्तव्यम् , यतो न मुपपद्यत एव न चाप्यानर्थक्यं सङ्कतम्य सङ्ग्रेन व्यवहारकातद्विषयाः शब्दा जात्यादिवाचकत्वेनाशङ्कयाः वस्तुवृत्तीनां लव्यापक त्व(त्वं) प्रतिबिम्ब चल-श्रोत्रार व्यवसायान्न हि शब्दानां कि रूपमभिधेयम् , आहोश्वित् प्रतिबिम्बम्'
परमार्थतः । यदुक्लमइत्याशङ्का स्यादपि, अभावस्तु वस्तुविवेकलक्षण एवेति त
"व्यापकत्यं च तम्यद-मिटमाध्यवसायिकम। द्वत्तीनां शब्दानां कथमिव वस्तुविषयत्वाशङ्का भवेत् इति
मिथ्यावभासिनो हात. प्रत्ययाः शब्दनिर्मिनरः " ॥१२॥ निर्विषयत्वं स्फुटमेव तत्र शब्दानां प्रतिबिम्बकमात्रीपादाद. [तस्वसं का] ततः स्थित मन्द र शब्दस्वालियर-- वसीयत एव । अत एव ये सङ्केतसव्यपेक्षास्ते ऽर्थशून्याभि- ऽर्थः सम्भवति । जल्पाऽऽहितवासनामात्रनिर्मितविकल्पप्रतिविम्बमात्रावद्यो (संविदपुग्न्यापोहवादिप्राज्ञाकग्मतम्य उपन्यासः )... तकाः, यथा वन्ध्यापुत्रादिशब्दाः, कल्पितार्थाभि पायिनः अपरस्चन्यथा प्रमाणात-इह खलु यद् यत्र प्रतिभाति संकेतसव्यपेक्षाश्च विवादास्पदीभूता घटादिशब्दा इति स्व- तत् तस्य विषयः, यथाऽक्षज संवदन परिस्फुटं प्रतिभासभावहेतुः । यद्वा-परोपगतपारमार्थिकजात्याद्यांभिधायका मानवपुरर्थात्मा नीलादिद्विषयः, शब्द-लिङ्गान्य च दन भवन्ति घटादिशब्दाः, सङ्केतसापक्षत्वात् , कल्पितर्थाभि- शनप्रसव बहिस्थम्वतत्त्वप्रतिभासहित स्वरूपमय कास्ति धानवत् । न च हेतोरनैकान्तिकता, क्वचित् साध्यविपर्ययः तत् तंदव नस्य विषयः । पगकृतबाहरीश च संचिहपुरनुपलम्भात् अशक्यसमयत्वात् अनन्यभाक्त्वाच्चेति । पूर्व न्यापाहः वस्तुनि शब्द-लिङ्गवृतरयागात्तथाहि-जानिया स्खलक्षणादी सङ्कतासम्भवस्य सइतवैफल्यस्य च प्रसाधित- तयाविषयः, व्यक्तिवा तद्विशिष्ा? तत्र न तावदाद्यः पक्षः स्वान्न हेतोः सन्दिग्धविपक्षव्यतिरकता। श्रथ यथा स्वलक्ष
जातरवासम्भवात् । तथाहि-दर्शन व्यरित्र चकास्ति, पुरः णादौ सङ्केतासम्भवः वैफल्यं च तथाऽपाहपक्षऽपि, ततश्चा- परिस्फुटनया उसाधारणरूपानुभवात् । अथ साधारणमपि कृतसमयत्वात् तन्मात्रद्योतकत्वमपि शब्दानां न युक्तमित्य- रूपमनुभयत गार्गीः' इति, तदसन् . शावलयादिम पविनैकान्तिकता प्रथमहेतोः । तथाहि-न प्रतिविम्यात्मका:- वनाऽप्रांतभासनात् । न चशावलयादिरूपमय साधारमापोहः वक्त-श्रोत्रोरेकः सियति, न ह्यन्यदीयं ज्ञानमपरोऽ मिति शक्यं वक्तुम , तस्य प्रतिपत्तिव्यक्ति प्रतिक्रि) भि
ग्दर्शनः संवेदयत प्रत्यात्मवेद्यत्वा (त्वाद् ) शानस्य, अ- नरूपापलम्भात् । तथा च पगकृतमिदम--- ज्ञानव्यतिरिक्तश्च परमार्थतः प्रतिविम्बात्मलक्षणोऽपोहः; "सर्ववस्तुपु बुद्धिश्च, व्यावृत्त्यनुगमा-मका। ततश्च वक्तृ-श्रोत्रोरेकस्य सङ्केतविषयस्यासिद्धः कुत्र सङ्कतः जायंत यात्मकत्वन, विना साचन गुयते । क्रियते गृधेत वा ? न ह्यसिद्धे वस्तुनि बक्ना सङ्केतं कर्तुमीशः। " न चात्रान्यतरा भ्रान्ति-रूपचारमा चयन। नापि श्रोता ग्रहीतुम् अतिप्रसङ्गात् । तथाहि-श्रोता यत्- दृढत्वात् सर्वथा वुद्ध-भ्रान्तिस्तद् भ्रान्निवादिनाम ॥ प्रतिपद्यत स्वज्ञानारूढमर्थप्रतिबिम्बकं न तद् वक्त्रा संवेद्यते [लो वा आकृ० श्लो०५-७] इनि। यच्च वक्त्रा संवद्यते न च तत् श्रोत्रा द्वाभ्यामपि स्वावभा- 'ह्यात्मिका बुद्धिः ' इति यदीन्द्रियबुद्धिमभिपत्यायने सस्यैव संवेदनात् , अानर्थक्यं च तत्र सतस्य । तथाहि-। तदुक्तम: तस्या असाधारणरूपत्वान् नहियो चाहप्राध्या--
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सद्द
कारतया परिस्फुटमुद्भासमानयोस्तदभिन्नं भिन्नं वा दर्शनारूढं साधारणं रूपमाभाति । अथ कल्पनाबुद्धिर्धाकारा अभिधीयते। तथाहि यदि नाम अपास्तकल्पने दर्शने न जा तिरुङ्गाति कल्पना तु तामुखी वसीयते गोगी: इति एतदप्यसत् कल्पनाशानेऽपि जातेरनवभासनात् । तथाहि कल्पनाऽपि पुरः परिस्फुटमुङ्गासमानं स्पक्तिस्वरूपं व्यवस्वन्ती हदि चाभिजल्पाकारं प्रतीयते न च द्यतिरिक्तः वर्णाकृत्यतराकारशून्य प्रतिभास लक्ष्य वर्णादिरूपरहितं च जातिस्वरूपमभ्युपगम्यते, तन्न कल्पनावसेयाऽपि जातिः । यच्च कचिदपि ज्ञानेनावभाति तदसत् यथा शशविषाणम्, जातिश्च क्वचिदपि ज्ञाने परिस्फुटव्यक्तिप्रतिभासवेलायां स्वरूपन नाभाति तन सती ।
3
अथापि शब्द- लिङ्गजे ज्ञाने स्वरूपेण सा प्रतिभाति तत्र सम्बन्धप्रतिपत्तेः, स्वलक्षणस्य च तत्रासाधारणरूपतया प्रतिभासनावसायात् सम्बन्धग्रहणासम्भवाच्च तन्न शब्द-लि
भूमिः । ननु तत्रापि परिस्फुटतरो व्यक्तेरेवाकारः शब्दस्य या प्रतिभाति न तु वर्षाकाररहितोऽनुमते स्वरूप प्रयो जनसामध्येष्यतीतः कशिदाकार केनचिदपि शब्दसाम्यं हि दर्शनमकिपासमर्थतया स्फुटदद्दनाकारमाददानं प्रवर्तयति जनम्, तत् कथमन्यावभासस्य दर्शनस्याऽ म्याकारो जात्यादिविषयः ? यदि च जात्यादिरेव लिङ्गादिविषयः तथा सति जातेरर्थक्रियासामर्थ्याविरहादधिगमेऽपि शब्द- लिङ्गाभ्यां न बहिरर्थे प्रवृत्तिर्जनस्येति विफलः शब्दादिप्रयोगः स्यात् । अथ जातेरकियासामर्थ्याविरहेऽपि स्वलक्षणं तत्र समर्थमिति तदधां प्रवृत्तिरधिनाम् ननु तत् स्वलक्षणं लिङ्गादिदर्शनप्रतिभाति मानमनारूढेऽर्थे विज्ञानं प्रवृत्तिं विधातुमलम् सर्वस्य सर्वत्र प्रवर्तकत्वप्रसङ्गात् । यत् तु तत्र प्रतिभाति सामान्यं न तद् दाहादियोग्यम् यपि ज्ञानाभिधानं तस्य फलं मतं तपि पूर्वमवदितमिति नतोऽपि प्रवृत्तिः साची ।
"
(280) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
अथ प्रथमं शब्द- लिङ्गाभ्यां जातिरवसीयते ततः पश्चात् तया स्वलक्षणं लक्ष्यते तेन विना तस्या अयोगादिति - तिलक्षणया प्रवृत्तिर्भवत् तदपि सम्य नात्र क्रमयती :- पूर्व जातिराभाति पश्चात् स्वलक्षणमिति । किञ्चजात्यापि स्वलक्षणं प्रतिनियतेन वा रूपेण लक्ष्येत, साधारन वा ? तत्र न तावदाद्यः पक्षः, प्रतिनियतरूपस्य स्थलक्षणस्य तस्य प्रतिपत्तरसम्भवात्। न हि शब्दानुमानवेलायां जातिपरिमितं प्रतिनियतं स्वलक्षणमुद्भाति सर्वतो व्यावृत्तरूपस्याननुभवात्, अनुभवे वा प्रत्यक्षप्रतिभासाविशेषः स्यात्। न च प्रतिनियतरूपमन्तरेण जाति सम्भवति तत् कु तस्तया तस्य लक्षणम् ? अथापि साधारणेन रूपेण तया दादादियोग्य मात्रमस्ति इति तद्प्यसत्साधारणस्यापि रूपस्यार्थक्रियासम्भवात् प्रतिनियतस्यैव रूपस्य तत्र सामर्थ्यापलब्धिः ततश्च तत्प्रतिपतावपि कथं प्रवृत्तिः ? पुनस्तेनापि साधारणेनापरं साधारयं रूपं प्रत्येतस्य तेनाप्यपरमिति साधाररूपप्रतिपत्तिपरम्परा निरवधिर्भवेत् तथा चार्थक्रियासमर्थरूपामधि
स्वभाव एव यदि नाम जातिराभाति शब्दलिङ्गाभ्याम् व्यक् ति येन सा तो व्यक्ति ? तो
सद्द सम्बन्धादिति चेत् सम्बन्धस्तयोः किं तदा प्रतीयते उत पूर्व प्रतिपन्नः ? न तावत् तदा भात्यसौ व्यक्तेरनधिगतेः केवलैव हि तदा जातिर्भाति यदि तु व्यक्तिरपि तदा भाषेत तदा किं लक्षितलक्षणेन ? सैव शब्दार्थः स्यात् । तदनधिगमे न तत्सम्बन्धाधिगतिः । अथ पूर्वमसौ तत्र प्रतीतः तथापिताना तत्सम्बन्धेऽन्यदापि तथैव भयति अतिप्रसङ्गात् । अथ जातेरिमेय रूपम् यदुत विशेनिष्ठा सर्पदा सयंत्र जातिर्विशेषनिष्ठा इति किं प्रत्यक्षेणावगम्यते यद्वाऽनुमानेन तत्र न तावत् प्रत्यक्षेण सर्व व्यक्तीनां युगपदप्रतिभासना मैकदा तन्निष्ठता तेन गृह्यते, क्रमेणापि प्रितीती निरवधेपिरम्परायाः सकलायाः परितुमशक्यत्वात् तति न जातेरधिगन्तुं शक्या । कदाचित्तु जातनिहताऽधिगमे सर्वदान - ष्ठता ' इत्युक्तम् । तन्न प्रत्यक्षेण जातस्तनिष्ठता प्रतिपतुं शक्या । नाप्यनुमानेन तत्पूर्वकत्वेन तस्य भावेनाप्रवृत्तेः । तन्न जात्यापि तदभावे व्यक्तेरधिगमः कर्तुं शक्यः ।
•
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किश्च यदि जातिरभिधानगोचरः तथा सति नीलत्वजातिरुत्पलत्वजाति द्वयमपि परस्परभिन्नं प्रतीतमिति नसामानाधिकरण्यं भवेत्। न परस्परविभिन्नार्थप्रतीत स्था' घटः पटः ' इति दृश्यते । श्रथ गुण-जाती प्रतिनियतमेकमधिकरणं विभ्रा ततस्तद्वाकाधिकरणता शब्दयोः । ननु गुणजातिप्रतीतौ शब्दजायां न तदधिकरणमाभाति तस्य शब्दागोचरत्वात् न चानुद्भासमानवपुरधिकरणे सनिहितमिति न समानाधिकरणताय्यवस्था पुनरपि तदेव चव्यम् शब्देरनभिर्धायमानमधिकरणं तदभिहितेत्यादिनिराक्षिप्यमाणं तयवस्थाकारि' इति । तत्र च समाधिर्न सामर्थ्यायातमधिकरणं ( मधिकरणमेकाधिकरणतां ) शब्दयोः कर्तुमलम्, घट-पटशब्दयोरपि ताभ्यामभिहिताभ्यामेकस्य भूतलांदेराधारस्याऽपादेकार्थताप्रसङ्गात् । तथा-जातिपक्षे धर्मधर्मिभावो ऽप्यनुपपन्न एव, यदि हि व्यक्तावाश्रिता जातिः प्रतीयेत तदा तद्धर्मः स्यात्, यदा तु व्यक्तिः सत्यपि नाभाति शब्दजे ज्ञाने तदा जातेरेव केपलायाः प्रतिभासनात् कथं जाति-जातिमधर्मभावः ? नहि नीलादिः केवलं प्रतीयमानः कस्यचिद्धर्मो धर्मी वा; यदापि प्रत्यक्ष द्वयं प्रतिभाति तदाऽपि भेदप्रतिभासे सति न धर्मधर्मिभावः, सर्वत्र तथाभावप्रसङ्गात् । अथ प्रत्या प्रतिभाति जातियोः तेनापमदोष इति चेत् श्रत्रोच्यते- ताद्रूप्येण विज्ञानमिति किं व्यक्तिरूपतया जातेरधिगतिः, अथ जातिरूपतया व्यक्तेरिति ? तत्र यथायः पक्षः तथा सति व्यक्तिरेव गृहीता न जातिः । द्वितीयेऽपि जातिरूपाधिगतिरेव न व्यक्तिरिति न सर्वथा धर्मिधर्मभावः । तन्न जातिषियः।
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अतिविशिष्ट व्यक्तिस्तयोरर्थः तदप्यसत् तस्याः प्रतिभासाभावात् नहाने व्यक्तिल रूपतया प्रतिभाति, तदभावेऽपि तस्योदयात् अव्यक्काकाराभावाथ। अथापि व्यवाकारद्वयमेतत्-रूपरूपं येति । तत्र व्यक्तरूपमिन्द्रियज्ञानभूमिः यशउदपथः । ननु रूपद्वयं व्यक्तेः केन गृह्यते ? न तावदभिधानजेन ज्ञानेन तत्र स्पष्टरूपानवभासनात् श्रस्पष्टरूपं हि तद
"
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सह
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नुभूयते । नापीन्द्रियज्ञानेन व्यक्तेराकारद्वयं प्रतीयते तत्र पाकारस्यैव प्रतिभासनात्। न हि परिस्फुटप्रतिभासये लायामविशरूपाकारो व्यक्तिमारूढः प्रतिभाति । तत् कथं व्यक्तेरसावात्मा ? अथ ' श्रुतं पश्यामि' इति व्यवसायाद् दृश्य-श्रुतयोरेकता; [; ननु किं दृश्यरूपतया श्रुतमवगम्यते श्रुतरूपतया वा दृश्यम् ? तत्राद्ये पक्षे दृश्यरूपावभास एव मधुतगतिर्भवेत् । द्वितीयेऽपि पक्षे थुतरूपाचगतिरेव व्यशः न दृश्यरूपसम्भवः; तस्मात् प्रतिभासरहितमभिमानमात्रमिन्द्रिय सदार्थयोरध्यवसानम् न तस्वम् अन्यथा दर्शनामपि स्फुटप्रतिभासं स्यात् । अथ तंत्रेन्द्रियसम्बन्धाऽभाषा व्यक्तिस्वरूपावभासेऽपि प्रतिपत्तिविशेषः स्यात् नभ्यचैरपि स्वरूपमुङ्गासनीयम् तत्र यदि शब्दलिङ्गाभ्यामपि तदेव दर्श्यते तथा सति तस्यैवान्यूनातिरिशस्त्र रूपस्याधिगमे कथं प्रतिपत्तिभेदः ? श्रन्यच्च प्रपक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धन स्वरूपेण ज्ञातु शक्योऽसौ तस्यातांन्द्रियत्वात्, किन्तु स्वरूपप्रतिभासात् कार्या (यत्)। तच वस्तुस्वरूपं वद्यनुमानेऽपि भाति तथा सति तत एवेन्द्रियसम्बन्धः समुन्नीयताम्। अथ तत्र परिस्फु प्रतिभासाऽभावान्नाऽसावनुमीयते ननु तदभावस्तत्राक्षसङ्गतविरात् प्रतिपाद्यते तदा स्फुटतिभासाभावादिति सोऽयमितरेतराश्रयदोषः । अथ व्यक्तिरूपमेकमेव नीलादित्वमुभयत्र प्रतीयते व्यक्ताव्यक्ताकारौ तु ज्ञानस्यात्मानौ तत्रोच्यते यदि तो ज्ञानस्याकारी कथं नीलप्रकृतिरूपतया प्रतिभातः ? तद्रूपतया च प्रतिभासनानीलाद्याकाराचतौः नहि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपतां च मुक्त्वा नीलादिकपरमाभाति तदनवभासात् तस्याभाव एव । व्यक्ताव्यक्लैकात्मनश्च नीलस्य व्यक्काकारवद् भेदः, नहि प्रतिभासभेदेऽप्येकता श्रतिप्रसङ्गात्। तत्राक्ष-शब्दयोरेको विषयः । किञ्च यदि व्यक्तिः शब्द- लिङ्गयोरर्थः तथा सति सम्बन्धवेदन विनेयताभ्यामर्थप्रतीतिर्मयेत् नहि तत्र तत् तयोः सम्भ वति । व्यक्तिर्हि नियतदेशकालादशा ( लदशा ) परिगता न देशान्तरादिकमनुवर्तते निदेशादिरूपाया एव तस्याः प्र तीते: तथा चैकदा सम्बन्धानुभवेऽन्यस्यार्थस्य कथं प्रतीतिः ? अथ व्यक्तीनामेकजात्युपलक्षिते रूपे सम्बन्धादनन्तरा भविष्यति, तदपि न युक्तम् यतो जात्युपलक्षितमरूपं तासां मेलिङ्गादिगोचरः, तस्याभेदे पूर्वो पात् ; तथा च सम्बन्धाननुभव एव स्यात् । किञ्च - व्यक्तौ सम्बन्धवेदन प्रत्यक्षेण श्रनुमानेन वा भवेत् प्रत्यक्षेण, तस्य पुरः स्थितरूपमात्रप्रतिभासनात् शब्दस्य वचनयोर्वा
याचसम्बन्धले अज्ञानाकडे एव रूपे सम्बन्धव्युत्पत्तिर्दृश्यते-' इदमेतच्छब्दवाच्यम्' अस्य वेदमभिधानम् ' इति, अत्र विचारः - अस्येवं वाचकम् ' इति को अर्थ कि प्रतिपादकम् यदि वा कार्यकार वेति ? तत्र यदि प्रतिपादकम्, तत् किमधुनैव, यज्ञाऽन्यदा ? तत्र धुनोच्यते शब्दरूपमर्थस्य प्रतिपादकं विनाकारेति युक्रम् अक्षव्यापारेणाधुना विशदाकारेण नीलादेरवभासनात् ततश्चाक्षव्यापार एवाधुना प्रकाशकोऽस्तु न शब्दव्यापारः, तस्य तत्र सामर्थ्यानधिगतेः । अथाम्यदा लोचन परिस्पन्दाभावे शब्दोऽर्थानुद्भासयति तदा किं
2
;
६१
( ३६१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
सद्द याकारेणासी तामापति, पहा-आकारान्तरेणेति विकल्पम् | यदि मिशदेनाकारेण प्रतिपादयतीत्युते तत्तदाप्यसौ नक्षुरादिभिरेव विशदेनाकारेणोद्वास्यते न शब्देन तस्य तत्र सामर्थ्यादर्शनात् दर्शनाकाङ्क्षणाच। यदि तपसोऽर्थः प्रतिपायते तदाऽस्य सर्वथा प्रतिपत्यात् किमर्थ प्रवृत्तिः १हि प्रतिपक्ष एवं तापमाप्रयोजना वृतिर्युक्ा वृत्तेरविरामप्रसङ्गात् । अथ किञ्चिदप्रतिपन्नं रूपं तदर्थं प्रवर्तनम् ; ननु
प्रतिपक्षं व्यक्तिरूपं प्रवृत्तिविषयः तत् तहिं न शब्दार्थ, तदेव च पारमार्थिकम् ततोऽर्थक्रियात्, नाव्यशम् सर्वार्थक्रियामात् । अथ कालान्तरे स्फुटेतरेणाकारेण
रुद्योतयन्ति शब्दाः नन्यसाधाकारस्तदा सम्बन्धन्युपतिले कालान्तरे वा द्रियगोचरस्तत् कथं तत्र शब्दाः वर्तमानानादिगोचरेऽर्थे वृत्ता भयन्ति ताध्यक्षः सम्बन्धवेदनम् । नाप्यनुमानेन तदभावे तदनयतारात् । अ चाप्यपस्या सम्बन्धवेदनम् । तथादि-हारकाले शब्दा र्थी प्रत्यक्षे प्रतिभातः, श्रोतुश्च शब्दार्थप्रतीति चेष्टया प्रतिपद्यन्ते व्यवहारिणः तदन्यथानुपपत्या तयोः सम्बन्धं विदन्ति । अत्रोच्यते - सिद्धयत्येवं काल्पनिकः सम्बन्धः । तथाहि-धोः प्रतिपतिः सङ्केतानुसारिणी दृश्यले के ( क ) खिमा - ssर्यादिशब्देभ्यो हि द्रविडाऽऽर्थयोर्विपरीततत्प्रतिपत्तिदर्शना नियतः सम्बन्धो युक्तः सर्वगते व सिद्धेऽपि न नियतार्थप्रतिपत्तिका प्रकरणादिकमपिनियन यतार्थसिद्धौ सर्वमनुपपन्नम् । तथाहि प्रकरणादयः शब्दधर्म, अर्थधर्मः प्रतिमा शब्दधर्मे तस्मिन् शब्दरूप नियतार्थप्रतिपत्ति है तुरिष्टं स्यात्, तश्च सर्वार्थान् प्रति तुल्यत्वात् न युक्तम् । श्रश्नोंऽपि न नियतरूपः सिद्ध इति न तजूमपि प्रकरणादिः । प्रतिपत्तिधर्मस्तु यदीष्यतेऽसी तदा काल्पनिक एवार्थनियमः न तात्त्विकः स्यात् । तस्मात् सर्व परदर्शनं व्याध्यधिभितम् मनागपि विचारात्यात् । तदेवमवस्थितं विचारात् 'न वस्तु शब्दार्थः' इति, किन्तु-शब्देभ्यः कल्पना अद्दिरर्थासंस्पर्शिन्यः प्रसूयन्ते, ताभ्यश्च शद इति । शब्दानां च कार्यकारणभावमात्रं तत्त्वम्न वाच्यवाचकभावः । तथाहि न जाति व्यक्त्योर्वाच्यत्वम् पूर्वोक्क दोषात् । नापि ज्ञान - तदाकारयोः, तयोरपि स्वेन रूपेण खलक्षणत्वात् अभिधानकार्यत्वाश्च । शब्दाद् विज्ञानमुत्पद्यते न तु तत् तेन प्रतीयते बहिरांयवसायात् कथं तया हः शब्दवाच्यः कल्प्यते ? लोकाभिमानमात्रेण शब्दार्थोऽन्यापोह, सीकिकानां हि शात् प्रतीतिः प्रभुतिः प्रातिश्व बहिरर्थे दृश्यते। यदि लोकाभिप्रायो ऽनुवते बहिरर्थस्तर्हि शब्दार्थोऽस्तु तदभिमानात् नाऽम्पाऽपोतद भाषात्त्रो बहिर एवान्यापोह तथा चाह" द
"
व्यावृतः सेव व्यावृतिः" सति स्वार्थ स्यात् तदेषविजातीयव्यावृतेन रूपेण शम्भूमिरिष्यतेसजातीयस्यावृत्तस्य रूपस्य शाब्दे प्रतिभासाभावात् यदि
विजातीयव्यावृतं शकयते तथा सति तदव्यतिरेकात् सजातीयव्यावृत्तमपि रूपमधिगतं भवेत्, न विकल्पानामविद्याखभावत्वान्न हि ते स्वलक्षणसंस्पर्शभाज सर्वाऽऽकारप्रतीतिदशेषः -- केवलमभिमानमात्रम्
यतस्तैः
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मह
(३६२)
अभिधानराजेन्द्रः। बहिराध्यवसायस्तदभिप्रायेण वाच्यवाचकभावः शब्दार्थ- विकल्पितस्य, न च विकल्पितमभयरूपं वस्त्वस्ति, यत्प्रायोरित्य(न्या)पोहः शब्दभूमिरिष्टः । परमार्थतस्तु शब्द-लि- प्यं सद्विषयः स्यात् , प्रवर्त्तमानस्य तु पुरुषस्य तस्य तस्या. काभ्यां बहिरर्थसंस्पर्शव्यतीतः प्रत्ययः केवलं क्रियत इति र्थस्य पृथिव्याममजनादवश्यमन्यत् शानान्तरं प्राप्तिनिमितत्संस्पर्श (M) भावेऽपि च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धाद- समुपजायते, यतः किंचिदवाप्यते इति शाब्दज्ञानस्य विषविसंवादः । तथाहि-पदार्थस्यास्तित्वात् प्राप्तिः न दर्शनात् , यवस्वाभावः, तदसद्, विषयवस्वाभावासिद्धेः, परोक्षस्य केशोन्दुकादेर्दर्शने ऽपि प्राप्त्यभावात् । अथ प्रतिभासमन्तरेण तद्विषयत्वाभ्युपगमात् । यत्पुनरुनं न शब्दस्यार्थेन सहकथं प्रवृत्तिः ? ननु प्रतिभासेऽपि कथं प्रवृत्तिः ? तस्मि- निश्चितान्ययव्यतिरेकता, प्रतिबन्धाभावादिति तदसमीचीमप्यर्थित्वे तदभावात् अर्थित्वे च सति दर्शनविरहेऽपि नम् । वाच्यवाचकभावलक्षणेन प्रतिबन्धान्तरण नान्तरीयभ्रान्तेः सद्भावात् । प्रतिबन्धाभावात्तु तत्र विसंवादः । कतानिश्चयात् , शब्दो हि बाह्यवस्तुवाचकस्वभावतया तयदा तु विकल्पामा स्वरूपनिष्ठत्वान्नान्यत्र प्रतिबन्धसिद्धि- मान्तरीयकः, ततस्तत्रान्तरीयकतायां निश्चितायां शुग्दाद स्तदा स्वसंवेदनमात्रं परमार्थ (सतीत्वन् , तथापि कथं
निश्चितस्यैवार्थस्य प्रतिपत्तिर्न विकल्पितरूपस्य निश्चित समयपरमाऽर्थविस्तरः । सम्म० १ काण्ड । ( अधिक च प्रापयत् विषयवदेव शाब्दं शानमिति । स्यादेतत्-यदि : . 'सामरणविसेस' शब्दे अश्यते ।) स्वार्थेनावगतसम्ब- स्तयसम्बन्ध रिकरितमूर्तयः शब्दास्तहि समाश्रयत् - न्धः शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति । सम्म० १ काण्ड । (शब्द- र्थकतामिदानी संकेतः, स खलु सम्बन्धो यतोऽ....., स्य पौगलिकत्वम् ' आगम' शब्द द्वितीयभागे ७१ पृष्ठे ग
स चेद्वास्तवो निरर्थक संकेतः, तत एवार्थप्रतीतिसिद्धेः, त. तम् ।)
देतदत्यन्तप्रमाणमार्गानभिज्ञत्वसूचकम् , यतो न विमान
इत्यव सम्बन्धोऽर्थप्रतीति निवन्धनम् ,किंतु-स्वात्मज्ञानमह शब्दस्य बहिरर्थ प्रति प्रामाण्यम्
कारी, यथा प्रदीपः, तथाहि-प्रदीपो रूपप्रकाशनस्वभावाऽएतेन यत्कश्चित् शब्दस्य बहिर) प्रति प्रामाण्यमपाक्रियते पि यदि स्वात्मज्ञानसहकारिकृतसाहायकस्ततो रूपं प्रकाशतदपास्तं द्रष्टव्यम् , तथाहि-ते एवमाहुः-प्रमेयं वस्तु यति, नान्यथा, ज्ञापकत्वात् , न खलु धूमादिकमपि लिङ्गं परिच्छिन्नं प्रापयत्प्रमाणमुच्यते , प्रमेयं च विषयः प्रमा. वस्तुवृत्त्या वह्नयादिप्रतिबद्धमपि सत्तामात्रण वह्नयादर्गमकणस्येति प्रामाण्यं विषयवत्तया व्याप्तम् , ततो यद्विषयवन्न मपजायते, यदुनमन्यैरपि-"ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धक भवति न तत्प्रमाणं, यथा-गगनेन्दीवरज्ञानं, न भवति च ज्ञानमपेक्षते । तेनासौ विद्यमानोऽपि, नागृहीतः प्रकाशक विषयवत् शब्द ज्ञानमिति, न चायमसिद्धो हेतुः, यतो- ॥१॥ सम्बन्धस्य च परिक्षाने तदावरणकर्मक्षयक्षयोपशम। द्विविधो विषयः-प्रत्यक्षः, परोक्षश्च । तत्र न प्रत्यक्षः शा- भ्याम् , तौ च संकेततपश्चरणभावनाद्यने साधनसाध्या: दशानस्य विषयो, यस्य हि शानस्य प्रतिभासेन स्फुटा- ततः तपश्चरणभावनासंकेतादिभ्यः सा ननावरण - भनीलाद्याकाररूपेण योऽर्थोऽनुकृतान्वयव्यतिरेकः स तस्य कर्मक्षयक्षयोपशमानां शब्दादाच केवलादप्यपयन प्रत्यक्षः, तस्य च प्रत्यक्षस्यार्थस्यायमेव प्रतिपत्तिप्रकार: वाच्यवाचकभावलक्षण सम्बन्धोऽवगमपथमृच्छति, तथासंभवदशामश्नुते, नापरः, तद्विषयं च तदन्वयव्यतिरेका- हि-सवें एव सर्ववेदिनः सुमेरुजम्बूद्वीपादीनानगृही-- नुविधायि स्फुटप्रतिभासं शानं प्रत्यक्षम् , प्रत्यक्षशेयत्वात तसंकेता अपि तत्तच्छब्दवाच्यानेव प्रतिपद्यन्ते , तैरेव सत्र प्रत्यक्षोऽर्थोऽनेकप्रकारप्रतिपत्तिविषयो यः शब्दाप्रमा- तथाप्ररूपणात् , कल्पान्तरवर्तिभिरन्यैरेवं प्ररूपिता, इति णस्यापि विषयो भवेत् । नापि परोक्षः, तस्यापि तैरपि तथा प्ररूपिता इति चेत् , ननु तेषामएि कल्पाहि निश्चिततदन्वयव्यतिरेकनान्तरीयकदर्शनात् प्रति- न्तरवर्तिनां तथा प्ररूपणे को हेतुरिति वाच्यम् , तदपत्तिः, यथा धूमदर्शनात् वढेः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् ।। न्यैरेवं प्ररूपणादिचेत् , अत्रापि स एव प्रसङ्गः । समाधिन च शब्दस्यार्थेन सह निश्चितान्वयव्यतिरेकता प्रति- रपि स पवेति चेत् , ननु तर्हि सिद्धः सुमेर्वार्थानां बन्धाभावात् । तादात्म्यतदुत्पत्यनुपपत्तेः, तथाहि-न तदभिधायकानां च वास्तवः सम्बन्धः सर्वकल्पवर्तियाद्यार्थी रूपं शब्दानां नापि शब्दो रूपमर्थानाम् , तथाप्रती- भिरपि सर्ववदिभिस्तेषां सुमेर्वादिशब्दवाच्यतया प्ररूतेरभावात् , तत्कथमेषां तादात्म्यम् ?,येन व्यावृत्तिकृतव्यव- पणात् , अनादित्वात्संसारस्य, कदाचित् कैश्चिदन्यथापि स्थाभेदऽपि नान्तरीयकता स्यात् , कृतकत्यानित्यत्ववत् , सा प्ररूपणा कृता भविष्यतीति चेत् न, अतीन्द्रियत्वेअपि च-यदि तादात्म्यमेषां भवेत्ततोऽनलाचलचुरिका- नात्र प्रमाणाभावात् .सधैरपि तथैव सा प्ररूपणा कृतेत्यदिशब्दोचारणे बदनदहनपूरणपाटनादिदोषः प्रसज्येत । त्रापि न प्रमाणमिति चेन्न, अत्र प्रमाणोपपत्तेः, तथान चैवस्ति, तन्न तादात्म्यं नापि तदुत्पत्तिः, तत्रापि हि-शाक्यमुनिना संप्रति सुमेर्वादिकोऽर्थः सुमेर्वादिशब्देन विकल्पद्वयप्रसत्तेः । तथाहि-वस्तुनः किं शब्दस्योत्पत्तिः प्ररूपितः, सच सुमेर्वादौ सुमेर्यादिशब्दप्रयोगः संकेतउत शब्दाद्वस्तुनः? तत्र वस्तुनः शब्दोत्पत्तावकृतसंकेतस्या- द्वारेणाप्येतत् स्वभावतायां तयोनोंपपद्यते, तत्स्वभावताऽपि पुंसः प्रथमपनसदर्शने तच्छब्दोच्चारणप्रसङ्गः, शब्दाव- भ्युपगमे च सिद्धं नः समीहितम् , अनादावपि काले तयोस्तूत्पत्ती विश्वस्यादरिद्रताप्रसक्किा, तत एव कटक- स्तत्स्वभावत्वात् , तत्समानपरिणामस्य प्रवाहतो नित्यकुण्डलायुत्पत्तेः, तदेवं प्रतिबन्धाभावान शब्दस्यार्थेन सह त्वात् , तत्र सम्बन्धाभ्युपगमात् , इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , नान्तरीयकतानिश्चयः, तदभावाच्च न शब्दानिश्चितस्थार्थ- अन्यथा अनादित्वात्संसारस्य कदाचिदन्यतोऽपि धूमास्य प्रतिपक्तिः, अपि तु-अनिवर्तितशङ्कतया अस्ति न येति । दर्भावा, भविष्यतीत्येवं व्यभिचारशङ्का धूमधूमध्वजादिषु प्र.
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अभिधानराजेन्द्रः।
मद सरन्ती दुर्निवारेत्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेषु प्रयासेन । ननु यदि कशक्तिसमन्वितत्वेनोक्तदोषानुपपत्तेः, तथाहि-नाऽनलशब्दपारमार्थिकसम्बन्धनिबद्धस्वरूपत्वादिमे शब्दास्ताविका- स्याऽनलवस्तुगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानविषय एर्थाभिधानप्रभविष्णवः तहि दर्शनान्तरनिवेशिपुरुषपरि- वैकः स्वभाषः, अपि तु-समयाधानतत्स्मरणपूर्वककल्पितेषु धाब्येष्येतेषां प्रवृत्तिोंपपोत , परस्परविरु- तया विलम्बितादिप्रतीतिनिबन्धनत्वेन जलवस्तुगताभिखत्वेन तेषामर्थानां स्वरूपतोऽभावात् । यदपि च वि- धेयपरिणामापेक्षी तदभिधानखभायोऽपि, तथा तस्यापि नष्टमनुत्पत्रं वा तदापि स्वरूपेण न समस्तीति तत्रा5- प्रतीतः , अन्यथा निर्हेतुकत्वेन तत्प्रतीत्यभावप्रसङ्गात् । ननु पि वाचो न प्रवर्तेरन् । अपि च-यदि वाचां सद्भू- कथमेते शम्दा घस्तुविषयाः प्रतिक्षायन्ते ?, चक्षुरादीतार्थमन्तरेण न प्रवृत्तिः तर्हि न कस्याश्चिदपि वाचोऽ- | न्द्रियसमुत्थषुखाषिष शादेशाने वस्तुनोऽप्रतिभासनात् , लीकता भवेत् , नचैतत् दृश्यते , तस्मात्सर्वमपि पूर्वोक्त यदेव चतुरादीन्द्रियबुद्धी प्रतिभासते व्यक्यन्तराननुयायी मिथ्या। तदप्ययुक्तम् , इह द्विधा शब्दाः-मृषा- प्रतिनियत देशकालं तदेव वस्तु, तस्यैवार्थक्रियासमर्थत्याभावावर्गणोपादानाः, सत्यभाषावर्गणोपादानाच। तत्र ये त् ,नेतरत्परपरिकल्पितं सामान्य विपर्ययात् ,नच तदर्थक्रिमृषाभाषावर्गणोपादानाः ते तु तीर्थान्तरीयपरिकल्पिताः यासमर्थ वस्तु शाग्ने शाने प्रतिभासते, तस्मादवस्तुधिषकुशाखसंपर्कवशसमुत्थवासनासंपादितसत्ताकाः प्रधानरू- या पते शब्दाः । तथा चात्र प्रमाणम्-योऽर्थः शाने शाने पं जगत् ईश्वरकृतं विश्वम् , इत्येवमाकारास्तऽनर्थका येन शब्देन सह संस्पृष्टो नावभासने न सः तस्य शम्नस्य एवाभ्युपगम्यन्ते । ते हि बन्ध्याऽबला इव तदर्थप्राप्त्या- विषयः, यथा गोशब्दस्याश्वः । नावभासते घेन्द्रियगम्यो:दिप्रसवविकलाः केवलं तथाविधसंवेदनभोगफला इति थैः, शाब्वे शाने शब्देन संस्पृष्ट इति । यो हि यस्य शब्दप तैर्व्यभिचारः । अथ तेऽपि सत्याभिमतशब्दा इव प्र- स्यार्थः स तेन शब्देन सह संस्पृष्टः शाने शाने प्रतिभातिभासन्ते तत्कथमय सागासत्यविवेको निर्धारणी- सते, यथा गोशब्देन गोपिण्डः , पतावन्मात्रनिबन्धनत्यायः?, ननु प्रत्यक्षाऽऽमारामपि प्रत्यक्षमिवाऽभासत तर द्वाच्यत्वस्येति । तदेतदसमीचीनम् , इन्द्रियगम्यार्थस्य शास्तत्रापि कथं सत्याऽसत्यप्रत्यक्षविवेकनिर्धारणम्?,स्वरूपधि
ब्देशाने शब्देन सहानषभासासि , तथाहि-कृष्ण षयपर्यालोचनयेति चेत् , तथाहि-अभ्यासदशामापन्नाः
महान्तमखण्ड मसम्पूषमपफानुघटमामयेत्युक्तः कश्चि.
तज्ज्ञानाधरणक्षयोपशमयुक्तः समर्थ सष दल एपिए स्वरूपदर्शनमात्रादेव प्रत्यक्षस्य सत्यासत्यत्वमवधारय
शाब्देशाने प्रतिपद्यते, तदन्यघटमध्ये तदानयनाय तं प्रतिन्ति, यथा मणिपरीक्षका मणेः, अनभ्यासदशामापन्नास्तु विषयपर्यालोचनया यथा किमयं विषयः सत्य उताहो
भेदेन प्रवर्समात् , तथैव च तत्प्राप्तेः। अथ तत्राप्यस्फुटनेति ? , तथार्थक्रियासंवाददर्शनतः तद्तस्वभावलिङ्गद
रूप एव वस्तुनः प्रतिभासोऽनुभूयते , स्फुटाभश्च प्रत्यक्षम् , शनतो वा सत्यत्वमवगच्छन्ति अन्यथा स्वस यत्व
तत्कथं प्रत्यक्षगम्यं वस्तु शाब्दज्ञानस्य विषयः १, नैव दोषः,
स्फुटास्फुटरूपप्रतिभासभेदमात्रेण वस्तुभेदायोगात्,तथाहिमिति । तदेतत् स्वरूपविषयपर्यालोचनया सत्यासत्यत्व
एकस्मिन्नेव नीलवस्तुनि दुरासन्नवर्सिप्रतिपत्तृशाने स्फुटास्फु विवेकनिर्धारणमिहापि समानम् । तथाहि-दृश्यन्ते ए
टप्रतिभासे उपलभ्येते, नच तत्र वस्तुभेदाभ्युपगमः, द्वयोव कंचित् प्रज्ञातिशयसमन्विताः शब्दश्रवणमात्रादेव
रपि प्रत्यक्षप्रमाणतयाऽभ्युपगमात् , तथहाप्येकस्मिन्नपि पुरुषाणां मिथ्याभाषित्वममिथ्याभाषित्वं वा सम्यक
वस्तुनीन्द्रियजशाब्दशाने स्फुटास्फुटप्रतिभासे भविष्यतः । अवधारयन्तः, विषयसत्यासत्यत्वपर्यालोचनायां तु कि
नच तद्गोचरवस्तुभेदः । अथ वस्त्वभावेऽपि शाब्दशानप्रतिमेष वक्ता यथावदाप्त उत नेति। तत्र यदि यथावदाप्त इति नि- भासाविशेषात् , सत्यपि वस्तुनि शाम्दशानं न तद्याथात्म्यश्चितं ततो विषयसत्यत्वमितरथा त्वसत्यत्वम् । प्राप्तेतर- संस्पर्शि तद्भावाभावयोरननुविधानात् , यस्य हि शानस्य विवेकोऽपि परिशीलनेन लिङ्गतो वा कुतश्चिदवसेयो निपु-| प्रतिभासो यस्य भावाभावायनुविधत्ते तत्तस्य परिच्छेदकम्,
न हि प्रतिपत्रा भवितव्यम् । यदप्युक्तं यदपि च-विनष्टमनु- नच शाब्दज्ञानप्रतिभासो वस्तुनो भावाभावापनुविधस्पन्नं वा तदपि न स्वरूपेण समस्तीत्यादि, तत्रापि य
ते, वस्त्वभावेऽपि तदविशेषात् , तन्न वस्तुनः परिच्छेकं दि विनष्टानुत्पन्नयोर्वार्त्तमानिकविद्यमानरूपाभिधायकः श- शाम्दशानम् , रसज्ञानमिव गन्धस्य । प्रमाणं चात्र , ब्दः प्रवर्तते तर्हि स निरर्थकोऽभ्युपगम्यत एव, ततो न यज ज्ञान यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि न भवति न तत्तद्विषतेन व्यभिचारः । यदा तु तेऽपि विनष्टानुत्पन्ने विनष्टा- यम् ,यथा रूपज्ञानं रसविषयम् न भवति चेन्द्रियगम्यार्धानुत्पन्नतयाऽभिधत्ते शब्दस्तदा तद्विषयसार्वज्ञशानमिव स
न्वयव्यतिरेकानुविधायि शान्न ज्ञानमिति व्यापकानुपलब्धः, दूतार्थविषयत्वात् सप्रमाणम् । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् ।
प्रतिनियतवस्तुविषयत्वं हिज्ञानस्य निमित्तवत्तया व्याप्तम्, अन्यथाऽतीतकल्पान्तरवर्तिपार्धादिसर्वशदेशना भविष्य
अन्वयव्यतिरेकानुविधानाभाये च निमित्तवस्वाभावः स्यात्, च्छंखचक्रवादिदेशना च सर्वथा नोपपद्यत । त- निमित्तान्तरासंभवात् तेन तद्विषयवस्वं निमित्तयत्वाभावात् द्विषयमाने शब्दप्रवृत्यभावात् । अथोव्येत, अनले ऽनल- विपक्षाद् व्यापकानुपलब्ध्या व्यावय॑मानमन्वयव्यतिरेकाशब्दः तदभिधानस्वभावतया यमभिधेयपरिणाममाश्रि- नुविधानेन व्याप्यते इति प्रतिबन्धसिद्धेः । तदयुक्तम्-प्रत्यत्य प्रवर्सते; स जले नास्ति जलाउनलयोरभेदप्रसङ्गा- क्षक्षानेऽप्येवमविषयत्वप्रसक्तः, तथाहि-यथा जलवस्तुनि त् । अथ च प्रवर्तते संकेतवशाजलेऽप्यनलशब्दः तत्क- जलोल्लेखिप्रत्यक्षमुदयपदवीमासादयति, तथा जलाभावेऽपि थं शब्दाथयो-स्तवः सम्बन्धः?, तदसत्, शब्दस्याने- मरौ मध्याह्नमार्तण्डमरीचिकास्वर्णजलप्रतिभासमुदयमा
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सद्द
"
यदपि
"
नमुपलभ्यते ततो जलाभावेऽपि जलज्ञानप्रतिभासाऽविशेषात् । सत्यपि जले जलप्रत्यक्षं प्रादुर्भवन तयाथात्म्यसं स्पर्श तद्भावाभावो अनुकारादित्यादि सबै समानमेव । अत्र देशकालस्वरूपपर्यालोचनया तत्प्राप्त्यभावादिना च मरुमरीचिकासु जलोल्लेखिनः प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमवसीयते भ्रान्तं चाप्रमाणम् ततो न तेन व्यभिचार, प्रमाणभूतस्य च वयन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् व्यविचार एव तदेतदन्यत्रापि समानम् तथा हि-यथार्थद शनादिगुणयुक्त पुरुष प्राप्तः सीतशब्दसमुत्थं चा नं प्रमाणम्, नच तस्य वस्त्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वव्यभिचारसंभवः । यत्पुनरनातप्रणीतशब्दसमुत्थं ज्ञानं तदप्रमाणम् । अप्रमाणत्वाच न तेन व्यभिचारः । चप्रमाणमुपन्यस्तं तदपि हेतोरसिया साध्यसाधनायालम्, असिद्धता च हेतोरातप्रणीतशब्दस्य वस्तुव्यतिरेकेण प्रवृत्यसंभवात् । यत्पुनरिदमुच्यतेशब्दः भूयमाणो यत्रभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिविम् तत्कार्यतया धूम इस यहिमनुमापयति तत्र स का विशिष्टार्थाभिप्रायशब्दयोराश्रयो धर्मी अभिप्रायविशेषः साध्यः शब्दः साधनमिति । तदाह - "वक्कुरभिप्रेतं तु सूचयेयु" रिति स एव तथा प्रतिपद्यमान श्राभ्योऽशिवति तत्पापात्पापीय तथा प्रभावात् न खलु धूमादि वह्नि तत्कार्यतया शब्दादभिप्रायविपर्य विकल्पप्रतिविम्यमनुमिमीते, अपि तुवाचकत्वेनाधमर्थ प्रत्येति देशान्तर कालान्तरे च तथा प्रदुश्यादिदर्शनात् । नच देशान्तरादावपि तथा प्रतीतावन्यथा परिकल्पनं श्रेयः, अतिप्रसङ्गप्रातः नाझि जनयति कि पिशाचादिरित्यस्याः अपि कल्पनायाः प्रसङ्गात् । अपि कियार्थी वा प्रमापयति नचाभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिबिम्बं विवक्षितार्थक्रियासमर्थम्, किंतु-याने वस्तु नच वाच्यम्-अभिप्रायविषयं बिकल्पप्रति वा वस्तुनि प्रयसिंयते तेनायमदोष इति अन्यस्मिन् ज्ञातेऽन्यत्र प्रत्यनुपपते नह घंटे परिपडे प्रवृत्तिर्युका, पतेन विकल्पमतिथिम्यकं शब्दवाच्यमिति यत्प्रतिपन्नं तदपि प्रतिक्षितमयसेयम् । तत्रापि विकल्पप्रतिबिम्बके शब्देन प्रतिपश्ने वस्तुनि प्रवृत्यनुपपत्तेः । दृश्यविकल्पावर्थावेकीकृत्य वस्तुनि प्रवर्तत इति चेत् तथाहि तदेव विप्रतिविश्य यही रूपतयाऽध्य स्पति ततो यदि प्रवर्धते तेनायमदोष इति न तयो रेकीकरणासिद्धेः, अत्यन्त वैलक्षण्येन साधर्म्यायोगात्, साधर्म्य चैकीकरण निमित्तम्, श्रन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । अपि चकचैतावेकीकरोतीति वाच्यम् स एव विकल्प इति वेत् न, तत्र बाह्यस्य रूपलक्षणानवभासात्, अन्यथा विकल्पत्वायोगादनवभासितेन चैकीकरणासंभवात् अतिप्रसक्तेः । अथ विकल्पादम्य एव कश्चिद्विकल्यमेवा - दृश्यमित्यध्यवस्यति दर्शनपरित्यागग्रस ङ्गः एवमभ्युपगमे सति बलादात्मास्तित्वप्रसक्तेः तथाहि-निर्मिकल्पिकम् न विकल्पमधे साक्षात् करोति गोरतो न तत् दृश्यम विकल्पेन सहेकीक मलम्, नत्र देशकालस्वभावव्यवहितार्थविषयेषु शाब्द
त्वदृष्टः
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-
(३४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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3
मद्द चिकल्पेषु तद्विषये निर्विकल्पक संभवः तत्कथं तत्र तेन दृश्यविकल्पार्थैकीकरणम् १ ततो विकल्पादन्यः सयंत्र दृश्यविकल्पकिन बादामैयोपपद्यते १ नच सेोऽयुपगम्यते तस्माच्छो हास्यार्थस्य या चक इत्यकामेनापि प्रतिपत्तव्यम् । इतश्च प्रतिपत्तस्यम्, अन्यथा संकेतस्थापि कर्तुमशक्यत्वात् तथाहि-येन शब्देन इदं ततो विधेयः तेन कि - तितेन उताऽसङ्केतितेन, न तावत्सङ्केतितेन अनवस्थाप्रस ङ्गात् तस्यापि हि येन शब्देन सङ्केतः कार्यः तेन किं सङ्केतितन उतासंकेतितेनेत्यादि तदेवावर्त्तते । अथाफेसितेन सिद्धस्ता शब्दार्थयोर्यालयः सम्बन्ध इति । नं० । श्राचा० ।
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एगे सुम्भस, एगे दुम्सि (०४७)
सुसिदिसि शुभशब्दा मनोज्ञा इत्यर्थः
अशुभो - मनोशो यो न भवतीति । एवं च शब्दान्तरमप्रान्तभूतमवलेयम् । स्था० १ ठा० ।
द्विविधः
दुवि सते, तं जहा -भासासद्दे चैत्र, नो भासासदे चैव । भासास दुविहे पत्ते, तं जहा - अक्खरसंबद्धे चेव, गो अक्खरसंबद्धे चेत्र । यो भासासदे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आउज्जसंदे चैव यो भउज्जसदे चेव । (०८१+ )
•
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"
'दुविहेत्यादि च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः । रानन्तरो देशकाम्यसुत्रे देवानां शरीरं निरूपितं तांश्व शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावन्निरूप्यते इत्येवं सम्बन्धायातस्यास्य व्याख्या, सा च सुकरैव-नवर भाषाशदोभाषाशिनामकम्मदियापादिती जीवशब्दः इतरस्तु नोभाषाशब्दः, अक्षरसम्मान तो अक्षरसंघन्धस्त्वितर इति । श्रतोद्यं पदद्दादि तस्य यः शब्दः स तथा नोतोयशब्दो - वंशस्फोटादिरबः । स्था० २ ठा० ३ उ० । (श्रतोद्यशब्दभेदाः ' आउज ' शब्दे द्वितीयभागे २६ पृष्ठे गताः । )
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"
दुविधा सहा पद्मत्ता, तं जहा मता व अयना चैव । एवमिट्ठा • जाव मणामा । ( ० ८३ X ) स्था० २ ठा० ३ उ० ।
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दशविधः शब्दः -
दसविहे सद्दे पत्ते, तं जहा - " नीहारि पिंडिमे लुक्खे, भिने जरिए हुए दीहे (२) हस्से पुने य, काकी खिंखिणिस्सरे ।। १ ।।" (सू० ७०५ )
इसविहेत्यादि मीहारसिलोगो । निरीघोषवान् शब्दो घण्टाशब्दवत् पिण्डेन निवृत्तः पिरिडमोघोषर्शितः, दकादिशब्दवत् रूक्षः काकादिशब्दवत् भिन्नः कुष्ठाद्युपहतशब्दवत् भर्भरितो जर्जरितो वा सतस्त्रीकटिकादिवाद्यशब्दवत् दीर्घः- दीर्घवर्णाश्रितो दूर
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( ३६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सद्द
अव्यो वा मेघादिशब्दवत् हो-विवक्षया लघुर्वा बीणादिशब्दवत् । ' पुहत्तेय ' ति-पृथक अनेकवे, कोऽर्थो ? नानासूर्यादिद्रव्ययोगे यः स्वरो यमलशङ्खादिशब्दवत् स पृथक्त्व इति, काकणी ' ति-सूक्ष्म कण्ठगीतध्वनिः काकलीति यो रूढः । 'खिखिणी' ति - किङ्किणी
घटिका तस्याः खरो ध्यनिः किस्विरः स्था० १० ठा०३ उ० । (एकस्य शब्दस्य बहवोऽर्थाः ते च 'ववहार' शब्दे पष्ठभाग प्रतिपादित) मो मनोज्ञान सुषात् ना मनोशेषु शब्देषु रज्येतेति परिग्रहविरतेः प्रथमा भावना । श्राचा० २ श्रु० ३ चू० । शब्दश्चाकाशस्य गुणो न भवति; तस्य पोलिकत्वात् आकाशस्यामुर्त्तत्वात् सूत्र० १० १२ अ० शब्दस्य हि निराश्रयस्य गुणस्यासंभवादा-अयभूतेन गुथिमा भवितव्यं पृथिव्यादेतद्गुणत्वनिषेधात्, परिशेषादाकाशाश्रयः शब्दस्तस्य चैकत्वं पाविशेषाभावाच ततो गु
शब्दस्येत्यसिद्धिः ततश्च यधाविशेषात् सत्यसिद्धिरितीरायास शब्दस्य रष्टान्तत्वसिद्धिः अथ नांगन प्रकारे द्रव्यस्य शब्दस्य साध्यते किंतु कादाचि कार्यम् कार्यस्य निषेधेनाधारस्यासंभवात् समवायिकारणेन भवितव्यम् पृथिव्यांद श्च समवायिकारणत्वनिषेध आकाशस्यैव समदायिकारण त्वं तस्यैकत्वं पूर्ववत् द्रष्टव्यम् । अत एकद्रव्यत्वं शब्दस्य सिद्धमिति प्रतिषिद्धमानकर्मन्ये एकद्रव्यत्वात् रूपादिवद गुणः शब्दः सिद्ध इति न दृष्टान्तासिद्धिः प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं च शब्दः कर्म न भवति शब्दान्तरहेतुत्वादाकाशवत्शब्दान्तरहेतुरथं वाशब्दस्य कार्यान्याभ्यां सिद्धम् कार्य हि पूर्ववत् समयाधिकारपृथिव्याश्च समवायिकारणत्वात् यस्तं प्रति समवायिका रणता शब्दस्य च प्रत्यक्षत्वान्यथानुपपत्त्या, सन्तामकल्पना सन्तानश्च शब्दान्तरहेतुत्वमन्तरेणानुपपन्न इति नासिद्धी हेतुदृष्टान्ती । प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं कथा चेच्छादीनां कर्मत्वानधिकरणतया प्रतिपचित एव सिद्धम् एकच यज्ञदत्तेच्छादीनां देवदत्तादावनुभवाभावतो व्यवस्थितमेव ) असदेतत् । कार्यत्वस्य समवायिकारणप्रभवत्वेन शब्दादावपूर्वोक्रायव्ययसिद्धिः अतएव शब्दा तरहेतुत्वान्न कर्मत्वप्रतिषेधः शब्दस्य हेतुदृष्टान्तयोरसिद्धेः, नहि शब्दलक्षणस्य कार्यस्य निराधारस्य संभवे व्योम्नः समवायिकारणत्वेन शब्दान्तरहेतुत्वं शब्दस्य वा समवायिकारणत्वेन शब्दान्तरहेतुत्वं तदयुक्तम् 1 न च शब्दप्रत्यक्षताऽन्यथाऽनुपपत्त्या सन्तानकल्पना युक्तिसङ्गता, सामन्तरेणापि शब्दप्रतिपादनात् एकप्रतिषिध्यमानकर्मत्वस्य चेच्छ्रादिष्वध्यक्षत एव स्वस्य सिद्धौ गुणसमवायात् गुणरूपताया श्रपि तत एव सिद्धे रनुमानोपन्यासस्य वैध्ये स्वात् न चाध्यक्षसिदेऽपि गुरुत्वयोगे व्यवहारासाधनार्थं तदुपन्याससाफल्यं तद्गु णत्वस्य समवायस्य वाऽध्यक्ष प्रतिपत्तौ कदाचिदप्यप्रतिमासना पतेनात्यगुणाइति निर स्तम् | सम्म० २ काण्ड १ गाथाव्या० । अने० । “पोग्गलरूवा दो तत्थवत्ता तदा पयइए उ । सच्चाइ चित्तधम्मा, तेहि
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सह ववहारसिद्धि ति ॥ १ ॥ " अने० १ अधि० । नित्यः शब्दः । विशे० (अत्रत्याय्यता 'समुकार' शब्दे चतुर्थभागे १८२२ पृष्ठे गताः (द्वाभ्यां खानाभ्यां शब्द उत्पद्यन्ते इति सपाय' शब्दे वक्ष्यते । ) अथवा - शब्दे पुष्पशालाद्भद्रा ननाश | आचा० १ श्रु० ३ ० १ ० । ( प्रतिबद्धशय्यायां ख्यादिशब्दं श्रुत्वा कस्यचिन्मोह उत्पद्येत इत्यतो न साधुस्तत्र तिठत इति 'पडिबद्ध सिजा' शब्दे पञ्चमभागे२२० पृष्ठे गतम् । ) ( शब्देषु राग इति 'इंदिय शब्दे द्वितीयभागे ५६६ पृष्ठे उक्तम् । ) "अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् । श्रतोऽन्यथा वाचकवाच्यत्र लुप्ता -वताबकार्ना प्रतिभाप्रमादः॥२४॥ इति सामान्यविशेषो भवात्मकस्य वस्तुनो वाच्यत्वम् । इति । स्था० । ( 'आगम' शब्दे ६६ पृष्ठ दर्शितम्) (भाषानिस भासा मांग गतः) (पुई सुई' इति इदय शब्दे २६५ पृ द्वितीयभागे व्याख्यातम् । )
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छद्मस्थ आतड्यमानान् शब्दान् शृणोति
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उमत्थे णं भंते! मरणू आउडिजमाणाई सद्दाई सुइ वं जहा संखसदाशिवा सिंगसदाशिवा संखिय७ खरमुहिय०पोया० पिरिपिरियासद्दाणि वा पणव० पड भा० होरंभसदाणि वा मेरि०भरि०दुभिमद्दाणिवा तयाणि वा वितयाणि वा घणाणि वा सिराणि वा?, हंता गोयमा !, छउमत्थेणं मरणूसे आउडिजमागाई सहाई सुइ, तं जहा - संखसद्दाणि वा जाव भुसिराणि वा ताई भंते । किं पुट्ठाई सुगेइ १, अपुद्वाई सुइ, गोयमा पुट्ठाई सुगर, नो अट्ठाई ! सु
इ० जाव नियमा छदिसिं सुइ । तहा गं भंते ! छउ - मत्थे मरणसे किं चरगयाई सद्दाई सुइ, पारगयाई सद्दाई सुगर, गोयमा आरगयाई सदाई मुंगेर, नो पार! गयाई सद्दाई सुइ । जहा गं भंते ! छउमत्थे मणूसे आरगयाई साई सुइ गो पारगयाई सद्दाई सुइ । ताणं भंते! केवली मरणसे किं श्रारगयाई सद्दाई सुगेइ पारगयाई सदाई सुई?, गोयमा ! केवली गं आरगयं वा पारगयं वा सब्वदूरमूलमतियं सर्द जागर पाराइ, से
गांव केवली से आरगयं वा पारगर्य वा ० जाव पास ?, गोगमा केवली से पुरच्छिमेवं मियं पि जागर अभियं पि जाण एवं - दाहिणेणं पच्चत्थिमे
णं
,
उत्तरे उ अहे मियं पि जागर अभियं पि जाइ, सव्वं जाय केवली, सव्वं पास केवली सव्व जाणइ पासह, सव्वकालं जाणइ पास, सच्चे भावे जाणइ केवली, समाने पासइ केवली, अणते गाणे केवलिस, ते दंसणे केवलिस्स, निव्वुडे नाणे केवलिस निव्वुडे दंसखे केवलिस्स से तेणट्टें० जान पासइ । ( सू० १८५ )
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( ३६६) अभिधानराजेन्द्रः।
सद्दणय 'छउमत्थे णमि' त्यादि 'श्राउडिजमाणाई 'ति-जुड ब- धिसहते । श्राचा०१ ध्रु० अ०२ उ० । सूत्र०। प्रशा० । न्धने इति वचनात् श्राजोड्यमानेभ्यः-श्रासम्बन्ध्यमाने- प्रसिद्धौ, शा० १ थु०१०। एकदिग्व्यापिनि वर्णे, स्था० भ्यो मुखहस्तदण्डादिना सह शङ्खपटहझल्लर्यादिभ्यो वा १० ठा०३ उ० । शब्द्यते-प्रतिपाद्यते वस्त्वनेनेति शब्दः, धविशषेभ्यः पाकुटयमानेभ्यो वा एभ्य एष ये जाताः शब्दस्य यो बाच्योऽर्थः स एव येन तत्त्वतो गम्यते स शब्दास्ते आजोड्यमाना पाकुटयमाना एव वा नय उपचारात् शब्दः इत्युच्यते । नयभेदे, विशे० । उच्यन्ते अतस्तानाजोज्यमानानाकुट्यमानावा शब्दान् (शब्दनयमतमिहैवानुपदं ' सद्दणय ' शब्दे वक्ष्यते ।) शृणोति । इह च प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य नपुंसकनिर्दे- शाब्दमपि न सर्व प्रमाणम्, किं तर्हि ? प्राप्तप्रणीतस्यैवागशः । अथवा-'आउडिजमारणाई' ति-पाकुट्यमानानि मस्य प्रामाण्यात् । न चाहद्व्यतिरेकेण अपरस्याप्तता युक्ति परस्परेणाभिहन्यमानानि, 'सद्दाई' ति-शब्दानि-श- युक्ता । सूत्र० १ श्रु० १२ १०। ब्दव्याणि शङ्खादयः प्रतीताः नवरं ' सखिय 'त्ति-महसण-सहर्शन-न। शोभनं दर्शनं सद्दर्शनम् । सम्यग्दर्शशखिका इस्खः शरः' खरमुहि' त्ति-काहला पोया-महती काहला, ' पिरिपिरिय ' त्ति-कोलिकपुटकाय
ने, दर्श०२ तत्त्व। नद्धमुत्रो वाद्यविशयः । ' पणव' ति-भाण्डपटही लघु- सद्दकर-शब्दकर-पुं० रात्री महसा शब्देनोल्लापे, स्वाध्यापटहो वा तदन्यस्तु पटह इति, भंभ' त्ति-ढक्का, 'होरं- यादिकारके गृहस्थभाषाभाषके, असमाधिस्थानप्राप्ते च । भ' ति-रूढिगम्या, 'भेरि' त्ति-महादका, झलार'ति
स०२० सम० । प्रा० चूल सदं करोति असंखडसई करेति । वलयाकारो वाद्यविशेषः, 'दुंदुहि ' ति-देववाद्यविशेषः।
श्राव०४ १०॥ अथालानुक्कसंग्रह द्वारेखाह- तताणि बे' त्यादि ततानि-बीखादियाचानि तजनितशब्दा अपि तताः, एय
सद्दकरण-शब्दकरण-न० । शब्दः क्रियते यस्मिन् तत् शमन्यदपि पदत्रय, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम्-“ततं वी
ब्दकरणम् । श्रा० म० ११० । उदात्ताऽऽदिस्वरविशेष, णादिकं ज्ञयं, विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि,
विशे० । सहकरण नाम-जं सद्देहिं पगडत्थं कीरति न पुण बंशादि शुधिरं मतम्" ॥ १॥ इति 'पुढाई सुगड' इत्यादि
गोवितं संकेतिगं, तं जधा-उप्पराण त्ति वा भूते त्ति वा तु प्रथमशते आहाराधिकारयदवसेयमिति 'भारगयाई'
विगत त्ति वा परिणांत त्ति वा । उदात्ता अनुदाताश्च । ति-बाराद्भागस्थितानिन्द्रियगोचरमागतानित्यर्थः, 'पार
पिसीई पच्छराणगोवितसंकेतितं । श्रा० चू० १ ० । गयाई' ति-इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितानिति, 'सव्व
प्रा० म० । शब्दः क्रियत यस्मिन् तत्-शब्दकरदूरमूलमणतियं ' ति--सर्वथा दूरं विप्रकृष्ट मूल च
णम् । उक्तं च- उत्ती उ सहकरणं, पगासपाढं व निकट सदरमूले तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदृरमूलोऽतस्त
सरविससो वा । तं निशीथं ति निशीथं भवति । इयमत्र म् । अत्यर्थ दूरवर्तिनमत्यन्तासनं चेत्यर्थः । श्रन्तिकम्-श्रा
भावना-यत् उत्पादाद्यर्थप्रतिपादकः । तथा मद्दताऽपि
शब्देन प्रतिपाद्यं तत् प्रकाशपाठात् प्रकाशापंदशाच शब्दसनं तनिषेधादनन्तिकम् , नमोऽल्पार्थत्वात् नात्यन्तमन्ति
करणं नाम । श्रा० म०१०। कम्-अदूरासनमित्यर्थः, तधागाच्छब्दोऽप्यनन्तिकोऽतस्तम् अथवा-'सव्व' त्ति, अनेन 'सव्यश्रो समंता' इत्युपलक्षितम् , सद्दऽज्झयण-शब्दाध्ययन-न० । शब्दशक्तिप्रतिपादके श्रा'दृग्मूलं' ति-अनादिकमिति हृदयम् 'श्रणतिय ' ति-अन- चारानाध्ययनस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थसप्तककाध्ययन्तिकमित्यर्थः' 'मियं पि' सि-परिमाणवत् । गर्भजमनुष्य- ने, प्राचा०२७०२ चू०४ अ० । श्राव० । जीवद्रव्यादि, 'श्रमियं पि'त्ति-अनन्तमसंख्येयं वा, वनस्पतिपृथिवीजीवद्रव्यादि । 'सव्वं जाणई' इत्यादि । द्रव्याद्यपे
सद्दणय-शब्दनय-पुं०। शप् श्राक्रोशे, शष्या अवधीयते वक्षयानम् । श्रथ कस्मात् सर्व जानाति केवलीत्याधुच्यते । स्त्वनेनति शब्दः । तमेव गुणीभूतार्थमुख्यतया यो मन्यते इत्यत श्राह-'अणते' त्यादि,अनन्तं शानमनन्तार्थविषयत्वात्, स नयोऽप्युपचाराच्छब्दः, स चासौ नयश्च । अनु० । शतथा-'निम्बुडे नाणे केवलिस्स' त्ति-निवृत-निरावरण शानं | पनं शपति वा असौ शप्यते वा तेन बस्त्विति शब्दः, तस्याकेवलिनः क्षायिकत्वाच्छुद्धमित्यर्थः, वाचनान्तरे तु-'निठवडे | थपरिग्रहादभदोपचारात् नयोऽपि शब्द एव । स्था० ७ ठा० वितिमिरे विसुद्ध 'ति-विशेषणत्रयं शानदर्शनयोरभिधीयते, ३ उ० । सप्तसु नयेषु अन्यतम नये, नं० । तत्र च-निवृत-निष्ठागतं वितिमिरं-क्षीणावरणमत एव वि.
शब्दनयं लक्षयतिशुजमिति । भ०५ श०४ उ०। ( वागद्रव्याणामादानम् , उत्सों या 'भासा' शब्दे पश्चमभागे चिरतो गतम्।) विशेषिततरः शब्दः, प्रत्युत्पन्नाश्रयो नयः । • आउद्देमाण संदण घोसेण ' श्रायन अयोधनघात- तरप्रत्ययनिर्देशा-द्विशषिततमे गतिः ।। ३३ ।। प्रभवेण ध्वनिना पुरुषहुकृति रूपेण वा तस्यैवानुनादेन ।
'विशषिततर' इति-विशेषिततरः प्रत्युत्पन्नाश्रयजुसूत्राभ०६ श०१ उ०।
भिमतग्राही नयः शब्द इत्याण्यायंत,यत्सूत्रम्-'इच्छर बिसेसदाइं अणेगरूवाई अहिश्रासए । (सू०४)
सियतरं पच्चुप्पराण णो सदो' त्ति । अत्र तरप्रत्ययनिहेशब्दा अनेकरूपाः-वीणावेणुमृदङ्गादिजनिताः । तथा क्रमे- शाद्विशषिततमाधावत्तिविषयत्वलाभाधिरोषिततमे समभिकारमितायुत्स्थापितास्तांश्चाविकृतमना अध्यासयति-अ- रूढे एवंभूते वा गतिनातिव्याप्तिः ।
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सद्दणय अभिधानराजेन्द्रः।
सहणय ऋजुसूत्राद्विशेषमस्य स्पष्टयति
मनीषोन्मेषः यद्यप्यर्थपर्यायाश्रिता सप्तभङ्गी संग्रहव्यवहार . ऋजुसूत्राद्विशेषोऽस्य, भावमात्राभिमानतः ।
सूत्रैर्व्यञ्जनगर्यायाश्रिता शब्दसमभिरूदेवभूतैः " सम्मती " सप्तभङ्गथर्पणाल्लिङ्ग-भेदादेर्वाऽर्थभेदतः ॥३५॥
(ग्रन्थे ) सूचिता तथाऽप्यतत्प्रकारद्वयाभिधानमर्थव्यजन
साधारण पर्यायसामान्याश्रितसप्तभङ्ग्या अनुपलक्षणम् , ऋजुसूत्रादिति-अस्य-शब्दनयस्य ऋजुसूत्राद्विशेषः-उत्कपों भावमात्रस्याभिमानात् ,अयं हि पृथुवुनोदराद्याकारक
सा च स्वपरपर्यायाणां क्रमयुगपद्विवक्षावशानयद्वयेन शुद्धलितं मृन्मय जलाहरणादिक्रियाक्षम प्रसिद्धं भावघटमेवेच्छ
शुद्धतरपर्यायविवक्षया च नयत्रयेणापि संभवतीति ऋजुसूति, शब्दार्थप्रधानत्वात् , 'घट' चेष्टायामिति शब्दार्थस्य भा
त्रशब्दप्रयुक्तसप्तभङ्ग्यां द्वितीयादिना व्यवहारर्जुसूत्रप्रयुक्ताघघट एव योगानतु नामस्थापनाद्रव्यरूपांत्रीस्तत्रालार्थयो
यां च तस्यां तृतीयादिना भङ्गेनर्जुसूत्राच्छब्दस्य विशेषिततगात्।
रार्थत्वं युक्तम् । नचैवम्-ऋजुसूत्रकृत्सवापेक्षया सतायातथा चैतत्संवाद्याह भाष्यकार:
हिणो व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थत्वप्रसङ्गदूषणानु"णामादयो ण कुंभा, तक्कजा करणी पडाइ ब्व । द्धारः संप्रदायाविरुद्धभङ्गविषयीभूतेनार्थेन विशषिततरत्वपच्चक्खविरोहाओ, तल्लिंगाभावी वाऽवि ॥१॥" स्याभिधित्सितत्वात् , संप्रदायश्चोत्तरोत्तरभङ्गप्रवृत्तावुत्तरोनामस्थापनाद्व्यघटाः घटत्वेन न व्यवहर्त्तव्याः, घटार्थ- त्तरनयावलम्बननैव दृष्टो नान्यथेति न कश्चिद्दोष इति । वाक्रियाकारित्वाभावादघटत्वेन प्रतीयमानत्वात् , घटव्यव- अथवा-लिङ्गभेदादरर्थभेदाश्रयणादस्य-शब्दनयस्य ऋजुसूस्थापकधर्माभावाचेत्येतदर्थः । यद्वा-सप्तभङ्गयर्पणादस्य त्राद्विशेषः, तथाहि-(तटः तटी तटम् इत्यादौ ) अन्यलिङ्गविशेषः, ऋजुसूत्रस्य हि प्रत्युत्पन्नोऽविशेषित एव कुम्भोऽ- वृत्तिशब्दस्य नान्यलिङ्गभेदलक्षणेन गुरुः गुरव इत्यादौ च भिप्रतः, शब्दनयस्य तु (स एव सद्भावादिभिर्विशषिततरोड वचनभेदलक्षणेन वैधयेणार्थभेदः स्पष्ट एवानुभवात् , पवभिमतइत्येवमनयोर्भेदः, तथाहि-स्वपर्यायैः पर (विशेषा व- मन्यकारकयुक्तं यत्तदेवास्य मतेऽपरकारकसम्बन्धं नानुभवश्यकवृत्तितः) पर्यायैरुभयैर्वाऽर्पितोऽयं कुम्भाकुम्भावक्त- ति इत्यधिकरणत्वाद् ग्रामोऽधिकरणाभिधानविभक्तिवाच्य व्याभयरूपादिभेदेन सप्तभङ्गी प्रतिपद्यत इति । यद्भाष्यम्- एव न कर्माभिधानविभक्त्यभिधेय इति, ग्राममधिशत इति "अहवा पच्चुप्परागो, उजुसुत्तस्साविसेसिश्रो चेव । प्रयोगाऽनुपपन्नः । तथा पुरुषभेदऽपि नैकं घस्त्विति , पहि कुंभो बिसेसिअतरो, सम्भावादीहि सहस्स ॥१॥ मन्ये रथन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पितति च प्रसम्भावासम्भावो-भयप्पिा सपरपजवाभययो । योगो न युक्तोऽपि त्वहि मत्यसे यथाहं रथेन यास्यामीत्येवं कुंभाकुंभावत्त-व्योभयरूवाइभेवा सो ॥२॥" ति।
परभावेनैतन्निईष्टव्यम् , एवमुपग्रहणभेदोऽपि विरमतीत्याइह "कुभाकुंभे" त्यादि । गाथापश्चाद्धेन षड् भङ्गाः सा- दिर्न युक्त आत्मार्थतया हि विरमत इत्यस्यैव प्रयोगस्य संक्षादुपाताः सप्तमस्त्वादिशब्दात् , तद्यथा-कुम्भः १ अ- गतेन चैवं लोकशास्त्रविलोपः सर्वत्रैव नयमते तल्लोपस्य सकुम्भः श्रवक्तव्यः ३ 'उभय' त्ति संश्चाऽसश्चत्युभयम् ४ मानत्वादिति सम्मतिवृत्ती व्यवस्थितम् , यद्यपि ग्राममधिसन्नवक्तव्य इत्युभयं ५ तथाऽसन्नवक्तव्य इत्युभयम् ६ श्रा- शेत इत्यादी ग्रामोत्तद्वितीयादिपदादधिकरणत्वादिप्रकारदिशब्दसंगृहातस्तु सप्तमः सन्नसन्नवक्तव्य इति ७, अत्रोभ
कप्रतीत्यर्थमधिकरणत्वादिविशिष्ट लक्षणव स्वीकार्या नाम्नि यपदस्य समभिव्याहृतपदार्थतावच्छेदकद्वयप्रकारकबुद्धिविषये शक्तावपि समभिव्याहारत्रैविध्यात् श्रावृत्त्या त्रिवि
तन्निरूढत्वसमानार्थमेवं च विशेषानुशासमिति चक्रं शक्यते,
तथाप्युक्तविपरीतप्रयोगप्रामाण्याय-' उपपदविभक्तः कारकधोभयबाध इति न्यायमार्गः । सामान्यशक्तावप्युभयपदादेकदेव, समभिव्याहारविशषमहिम्ना त्रिविधविशेषप्र
विभक्तिबलीयसी' इत्यादिन्यायसाम्राज्यवानयं विशेष दर्शत
दिग्। कारको बोध इत्यनुभवमार्गः, तदेवं स्याद्वाददृष्टसप्तभेद उक्तयुक्त्या यथा अनेन जसूत्रमतं दृष्यते । घटादिकमर्थ यथाविवक्षितमेकेन केनापि भङ्गकेन वि
तथाऽऽहशपित्ततरमसौ शब्दनयः प्रतिपद्यते, नयत्वादजुसूत्राद्वि- सामानाधिकरण्यं चे-न विकारापरार्थयोः । शेषिततरवस्तुग्राहित्वाच्च । स्याद्वादिनस्तु संपूर्णसप्तभ
भिन्नलिङ्गवचासंख्या-रूपशब्देषु तत्कथम् ॥ ३५॥ यात्मकमपि प्रतिपद्यन्त इति विशेषावश्यकवृत्तावुक्रम् ।
सामानाधिकरण्यमिति चेत्-यदि विकारापरार्थयोः विकातत्रायं विचारावकाशः-किमियं सप्तभङ्गी अर्थनयाश्रिता,उत शब्दनयाश्रिता ?। श्राये तंदकतरभङ्गविशेषणे कथमृजुसूत्रा
राविकारार्थकशब्दयोः पलाल दहतीत्यादौ सामानाधिकरण्य
मेकार्थान्वयजननयोग्यत्वं नेतृमृजुसूत्रनये चत् ? तर्हि भिन्नाच्छब्दस्य विशेपिततरत्वम् अर्थतयाऽऽश्रितभङ्गस्य शब्दस्य नयाविशेषकत्वादुभयेषां विषयविभागस्य दूरान्तरत्वात् ।
नि लिङ्गवचःसंख्यारूपाणि येषां तादृशेषु तटस्तटी तटं गुद्वितीयविकल्पे च जुसूत्राभिमतार्थपर्यायाविषयत्वेनाशुद्ध
रुः गुरुवः स च त्वं च यास्यथः कुरुते करोति इत्यादिषु व्यञ्जनपर्यायग्राहिणः कुतः शब्दस्य विशेषिततरार्थत्वम् ,
कथं सामानाधिकरण्यं; न कथंचिदित्यर्थः । यथाहि-' त्वनहि तदविषयविषयकत्वं विशषितशब्दार्थः, किंतु-तद्विष
याऽग्निष्टामयाजी पुत्रोऽस्य जनिता' इत्युक्तं स्वीक्रियते कायताव्याप्यविषयकत्वमिति । नच ऋजुसूत्राभिमतसत्त्वमुप- लभदात् तथा लिङ्गादिभेदादर्थभदः सुतरां स्वीकर्तव्य इमृद्यासवाण्यद्वितीयभङ्गोत्थापनाच्छन्दस्यर्जुसूत्राद्विशषित- त्युपदेशः । नयो० । स्या। तरत्वं चक्रं यतम् ,एवं सति ऋजुसूत्राभिमतं सत्त्वमुपमृद्या'सत्वग्रहणव्यावृत्तस्य व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थ
सवणं सपइ स तेणं, व सप्पर वत्थू तो सहो । त्वापत्तर्विशेष्यकभङ्गानिर्धारकवचनापत्तेश्चेति, तत्रायमस्माकं तस्सत्थपरिग्गहो,नओ वि सहो त्ति हेउ व्य॥२२२७॥
शब्दनयमाह
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(३६८) माणय
अभिधानराजेन्द्रः। 'शप'आक्रोशे,शपनम्-श्राह्वानमिति शब्दः, शपतीति वा श्रा- अथवा प्रत्युत्पन्नः ऋजुसूत्रस्याविशेषित एव सामान्येन
यतीति शब्दः, शप्यते वा पाहूयते पस्त्वनेनेति शब्दः । कुम्भोऽभिप्रेतः शब्दनयस्य तु स एव सद्भावादिभिर्विशेषितस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्परिप्रहात्तत्प्रधा- ततरोऽभिमत इत्यवमनयोर्भेदः । तथाहि-स्वपर्यायैः परपमत्वानयोऽपि शब्दः, यथा कृतकत्वादित्यादिकः पञ्च- र्यायैः उभयपर्यायैश्च सद्भावन असद्भावेन, उभयेन चार्पितो म्यन्तः शब्दोऽपि हेतुः । अर्थरूपं हि कृतकत्वमनित्यगमक- विशषितः कुम्भः-कुम्भाकुम्भाऽवक्तव्योभयरूपादिभेदो भस्वान्मुख्यतया हेतुरुच्यते, उपचारतस्तु-तद्वाचकः कृतक- | पति-सप्तभङ्गी प्रतिपद्यत इत्यर्थः, तद्यथा-ऊर्ध्वग्रीवकपालस्वशब्दोऽपि हेतुरभिधीयते , एवमिहापि शब्दवाच्यार्थ- कुक्षिबुध्नादिभिः स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पिता विशेषितः कुम्भः परिग्रहादुपचारेण नयोऽपि शब्दो व्यपदिश्यत इति भावः ।। कुम्भो भएयते, 'सन् घट' इति प्रथमो भङ्गो भवतीत्यर्थः । "इच्छा विसेसियतरं, पच्चुप्पन्नं नओ सद्दो" इति । तथा पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितो नियुक्तिगाथादलव्याख्यानमाह
विशेषितोऽकुम्भो भवति सर्वस्याऽपि घटस्य परपर्यायै
रसत्त्वविवक्षायाम् , असन् घट इति द्वितीयो भको भवतीतं चिय रिउसुत्तमयं, पच्चुप्पन्नं विसेसिययरं सो।
त्यर्थः। तथा-सर्वोऽपि घटः स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावाऽसइच्छइ भावघडं चिय, जं न उ नामादो तिन्नि ॥२२२८॥ द्भावाभ्यां सस्वाऽसत्त्वाभ्यामर्पितो विशेषता युगपदक्तु
तदेव ऋजुसूत्रनयस्य मतमभीष्टं प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं व- मिष्टाऽवक्तव्यो भवति, स्वपरपर्यायसत्त्वाऽसत्वाभ्यामेकेन स्त्विच्छत्यसौ शब्दनयः । कथंभूतं तदित्याह-विशषितत- केनाऽप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपदक्तुमरम् । कुत इदं ज्ञायते ? इत्याह यद्-यस्मापृथुबुध्नोदगद्याका- शक्यत्वादिति । एते त्रयः सकलादेशाः । अथ चत्वारोऽपि रकलितं मृन्मयं जलाऽऽहरणाऽऽदिक्रियाक्षम प्रसिद्धघट
विकलादेशाः प्रोच्यन्ते । तत्रैकस्मिन्देशे स्वपर्यायसवेनान्यत्र रूपं भावघटमेघेच्छत्यसौ न तु शेषान् नामस्थापना- |
तु दश परपर्यायासत्त्वेन विवक्षितो घटः संश्चासंश्च मवति द्रव्यरूपांत्रीन् घटानिति शब्दप्रधानो ह्येष नयः, चेष्टाल- घटो घटश्च भवतीत्यर्थः । तथा--एकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः क्षणच घटशब्दस्यार्थः, घटचेष्टायाम् , घटते इति घटः इति
सद्भावेन सत्त्वेनार्पितो विशेषितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपव्युत्पत्तेः , ततश्च य एवं जलाहरणादिक्रियार्थमाचष्टे प्रसि
र्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यां युगपदसांकेतिके द्धो घटस्तमेव भावरूपं घटमिच्छत्यसौ शब्दार्थोपपत्ते तु ना
नैकेन शब्देन वक्तं विवक्षितः कुम्भः संश्चावक्तव्यश्च भवति, मादिघटान घटशब्दार्थानुपत्तेः । अतश्चतुरोऽपि मामादिध
घटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वात् ,देशे चावटानिच्छत ऋजुसूत्राद्विशेषिततरं बस्त्विछत्यसौ एकस्यैव
क्तव्यत्वादिति । तथा एकदेश परपर्यायैरसद्भविनार्पितो विभावघटस्यानेनाभ्युपगमादिति ।
शेषितोऽन्यस्मिस्तु देशे स्वपरपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां नामादिघटनिराकरणार्थमेव प्रमाणयन्नाह
सस्वासत्वाभ्यां युगपत्सांकेतिकेनैकेन शब्देन वक्तुं विवनामादो न कुंभा, तकजाकरणो पड़ाइ व्य ।
क्षितः कुम्भोऽसन्नवक्तव्यश्च भवति-अकुम्भोऽवक्तव्यश्च पच्चक्खविरोहाओ, तल्लिंगाभावी वाऽवि ।। २२२६ ।।
भयतीत्यर्थः, देशे तस्याकुम्मत्वात् , देश चावक्तव्यत्वादिति ।
तथा एकदेशे स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः एकस्मिस्तु देशे नामस्थापना द्रव्यरूपाः कुम्भा न भवन्तीति प्रतिक्षा जलाह
परपर्यायैरसद्भावनार्पितः, अन्यस्मिस्तु देशे स्वपरोरणादितत्कार्याकरणात्पटादिवत् , तथा प्रत्यक्षविरोधात् , घ.
भयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्त टलिङ्गदर्शनाच्चेति । अघटरूपास्त प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते -
विधक्षितः कुम्भः संश्चासंश्चायकव्यश्च भवति घटोति प्रत्यक्षविरोधः, जलाहरणादिकं घटलिकं च तेषु न दृश्यते इति ततोऽनुमानविरोधोऽपीति ।
ऽघटोऽवक्तव्यश्च भयतीत्यर्थः, देशे तम्य घटत्वात् , देश
उघटत्वात् , देश चावतव्यत्वादिति । इह च ' कुम्भ कथं ते नामादिघटव्यपदेशभाजो भवेयुरिति ऋजुसूत्र
कुंम्भे' त्यादिना गाथार्द्धन षड् भङ्गाः साक्षादुपात्ताः सप्तशिक्षणार्थमाह
मस्त्वादिशब्दाद् तद्यथा-कुम्भः अकुम्भः श्रवक्तव्यः जह विगयाऽणुप्पना, पनोयणाभावो न ते कुंभा। । 'उभय' त्ति संश्चासंश्चेत्युभय, तथा सन्नवनव्यक इत्युभयं नामादो किमिट्ठा, पमओयणाभावो कुंभा ॥२२३०॥
तथा असन्नवनव्यक इति चोभयम् , अादिशब्दसंग्रहीतस्तु यदि विगताः अनुत्पन्नाश्च त्वयाऽहो जुसूत्रकुम्भा नेष्टाः
सप्तमः सनसन्नवक्तव्यक इति । एवं सप्तभेदो घटः, एवं पटा. प्रयोजनाभावात् , तर्हि नामादयोऽपि कुम्भाः किमिटाः, प्रयो
दिरपि द्रष्टव्यः । तदेवं स्याद्वाददृष्टं सप्तभेदं घटादिकमर्थ
यथाविवक्षमेकेन केनापि भङ्गकेन विशषिततरमसौ शब्दजनाभावस्य समानत्वान , न खलु तैरपि कुम्भप्रयोजन किमपि विधीयत इति ।
नयः प्रतिपद्यते, नयत्वात् , ऋजुसूत्राद्विशेषिततरवस्तुग्रातदेवमृजुसूत्राच्छब्दनयस्य विशेषिततरमुक्तम् । अथवा
हित्वाचा, स्याद्वादिनस्तु संपूर्णसप्तमङ्गयात्मकमपि प्रतिपद्यअन्यथा तद् द्रष्टव्यं कथमित्याह
न्त इति । श्रले बिस्तरेणेति । अहवा पच्चुप्पन्नो, रिजुसुत्तस्साविसे सिनो चैव । अथवा लिङ्गवचने समाश्रित्य विशेषततरं वस्त्विच्छति कुंभो बिसेसिययरो, सब्भावाईहि सदस्स ।। २२३१ ।। शब्दनय इति दर्शयन्नाहसम्भावासम्भावो, भयप्पिो सपरपजनोभयो । वत्थुमधिसेसो वा, जं भिन्नाऽभिन्नलिंगवयणं पि । कुंभाकुभावत्त-व्वोभयरूवाइभेमो सो ॥ २२३२॥ | इच्छइ रिउसुत्तनो, विसेसिययरं तयं सद्दो ॥२२३३॥
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सद्दणय
'या' इति अथवा मित्राभिनलिङ्गवचनमप्यविशेषतो यद्वस्त्विच्छति ऋजुसूत्रनयः, तद्विशेषिततरमिच्छति शब्दनय इति ।
कुतः ? इत्याह
धणिया मेथी, धीपुलिंगाभिहासवचा । पडकुंभाग व जमे वेगाभिनत्थमिद्धं तं ।। २२३४ ॥ यतो-यस्मात्कारणात् स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाभिधानवाच्याना मर्थानां वठादीनां भेद एव न पुनरेकत्वं तटीत्यभिधानस्याऽन्योऽर्थो वाच्यः, तट इत्यभिधानस्य त्वन्यः, तटमित्यभिधानस्य त्वपरः । कुतः ?, ध्वनिभेदात्तथा गुरुर्गुरव इत्याद्येकवचनबहुवचनवाच्यानामर्थानां ध्वनिभेदादेव भेदः । केषामिवेत्याहपटकुम्बादिष्यनिभेदात्पठकुद्यामि तेन नि स्तादृश एवार्थोऽस्येष्ट इत्यर्थः । अन्यलिङ्गवृत्तस्तु शब्दस्य नाभ्वलिङ्गमर्थयाच्यमित्यसी नाप्यन्यवचनत्तः शब्दस्यान्यवचनवाच्यं वस्त्वभिधेयमिच्छत्येष इति भावः ।
तस्मात्कारणालि पनार्थमेवा
( ३६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
अथ यदसी मन्यते तत्त्व दर्शयतितो भाचियत् विसेसियमभिन्नलिंगवणं पि । बहुपये पि मयं सहत्यसेवा सदस्य ।। २२२५ ।। ततः तस्यानामादिनि पाको भए भाव घटादिको साविच्छति, तदपि पूर्वोक्तनीत्या सद्भावादिभिर्विशेषितमभिनलिङ्गवचनं चाभ्युपैति स्ववाचक ध्वनीनामभिन्ने लिङ्गवचने यस्य तदभिन्नलिङ्गवचनं वस्त्वसावभ्युपगच्छति न पुनरेकस्यार्थस्य सित्रयवृत्तिशब्द वाध्यत्वम् एकवचनवचनवृत्तिशब्दवाच्या मइत्यर्थः समभिरुन स हास्य मतभेदं दर्शयति-इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि बहुपर्यायमप्येकमिन्द्रादिकं शब्दनयस्य मतेन भवति । केन ? शब्दस्पेन्द्रादेरिन्दनादिको योऽर्थस्तद्वेशन एकस्मिन्त्रपीद्रादिके स्तुतियावन्त नरान पूर्वारणादयोऽथ पटनेन्द्र शक्रादिपर्यायमपि तद्वस्तु शब्दनयां मन्यत इत्यर्थः । समभिस्तु नैयं मंस्यत इत्यनपाद इति उक्तः शब्दनयः । विशे० । सम्म० । आ० म० आ० चू०| सूत्र०। शब्दप्रधानो नयः शब्दनयः । शाकपार्थिवादिवत् समासः । शब्दप्राधान्येन अर्थमत्सु सूत्र० २ ० ७ अ० । शब्दसमभिरूदैवंभूतेषु नयेषु, उत्त० २ ० । अ० । अनु० । विशे० । रत्ना० । सदस्य- शब्दार्थ पु०यायवाचकयोः विशे० । सहदव्यभेद-शब्दद्रव्यभेद- पुं० शब्दद्रव्याणां भेदने, प्रशा० ११ पद | ( व्याख्या 'मासा' शब्दे पञ्चमभांग गता । ) सहपरिणाम - शब्दपरिणाम- पुं० । शब्दतया पुलानां परिणामे, स्था० १० ठा० ३ उ० । शब्दपरिणामस्ततचिततघनशुषिरभेदाश्चतुर्द्धा । सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० । सहपरिवार शब्दपरिचारक- पुं० शब्दापातदोष
3
० म० । सम्म० । स्या० ।
,
"
"
तापे, स्था० २ ठा० ४ उ० । (" दोसु कष्पेसु देवा सद्दपरियारंगा " इति 'कम्प' शब्दे तृतीयभागे २३२ पृष्ठ गतम् । ) सहपरियारणा - शब्दपरिचारणा--स्त्री० । शब्दश्रवणात् वेदोपशमने, प्रज्ञा० । ६३
सहर्षभवाद
संप्रति शब्दपरिचारणां भावयितुकाम नाहतत्थ णं जे ते सदपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुपज्ज इच्छा से अच्छराहिं सद्धिं सदपरियारगां करिए, तर तेहिं देवेहिं मसीकर समाणे तदेव • जाव उत्तरवेउब्वियाई रुवाई विउब्वंति विउच्चित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं असामंते ठिया अणुतराई उच्चावयाई सदाई समुदीरेमाणीओ समु० २ चिट्ठति, तए गं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं सदपरियारणं करेंति सेसं तं चैव ०जाव ओ ओ परिणमति । (मू० ३२६ + )
6
तर रामि' स्यादि कल्पम् नवरमद्रसमीपे स्थित्वा अनुत्तरान् सर्वमनःप्रह्लादजनकतया अनन्यसदृशान् उच्चाचचान् - प्रबलप्रबलतरमन्मथोद्दीपक सभ्याऽसभ्यरूपान् शदान निर्देश: प्राकृतत्वात्समुदीरयन्त्यस्तिष्ठ न्ति, शेषं तथैव । प्रज्ञा० ३४ पद ।
सबंभ - शब्दब्रह्मन् - न० । पद्मापावाङ्मये ब्रह्मणि, अ० २६
अ० ।
त्यसबंभवाइ शब्दब्रह्मवादिन् पुं० शब्दसम्मामिति । वैयाकरणे,नं० सम्म अत्राऽऽह वैयाकरणः न वाक्संस्पर्शरहिता काचित् प्रतिपत्तिस्ति शब्दानुविद्धावास्तस्याः प्रतिभासनात् । यदि तु तत्संस्पर्शविकला साऽभ्युपगम्येत प्रकाशरूपताऽपि तस्या हीयेत वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवर्शिनी च तदभावे न तस्याः किंचिदपरं रूपमवशियते तदुक्तम्-"वाकरूपता चेत् व्यूरकामेदवयोपस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी " ( वाक्य० प्र०का० लो० १२५) इति । न च निरस्ताल्लेखं स्वसंवेदन व्यवहारविरनरमिति समिम्युपगन्तव्यम् ।
:
"
'
असदेतत् यतोऽध्यक्षं पुरः संन्निहितमेव भावात्मानमवभासयति तत्रैवासवृतेर्वागृरूपता च न पुरः समिहिनेत न सा तत्र प्रतिभाति । न च व्यापितया पदार्थात्मतया वा श्र सनिहिता वागिति तद्दर्शनसाऽप्यवमाति, याचा मर्थदेशे सन्निधेरयोगात् । तथाहि यदाऽज्ञान्वये संवेदन पुरस्थो नीलादिराभाति न तदा तद्देश एवं शब्दात्मा वक्त्रमुखदेशस्य तस्यावभासनात् । नचान्यदेशतयोपलभ्यमानोऽ दशोऽयुपको नीलादेरपि तथाभाव वाविविक्तस्य नीलादेरवभासनान्नार्थदेशे वाक्सन्निधिरिति न तत्संस्पर्शवत्यक्षमतिः न च पदार्थात्मता वाचोयुक्ता, तत्वेनाप्रतिभासनात्। स्तम्भादिहिंशाकारविविक्रः पुरः प्रतिभा ति शब्दोऽप्यर्थेनिक्रिस्पीति न तयोपं प्रतिभासमेदो भेदात्तादेि वेदित्यध्यक्षं शब्द विविक्तरूपादिविषयं न वाग्रूपतासंसृष्टम् । तत्र तस्य असन्निधानात् व्यवहिताया अपि वाचः प्रतिभासे सकलव्यवहितभावपरंपरा प्रतिभासताम् अर्थसनिधानेऽपि वा वाचो लोचनमतावर्थप्रतिभासेन तस्याः प्रतिभासस्तविषयत्वात् नहि या पदविषयः स सन्निहितोऽपि तत्र प्रतिभाति यथा आम्ररूपप्रतिपक्षी तसः विषयश्च लोचन बुद्धः
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(३७०) सहभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहर्षभवाइ शब्द इति । लोचनवुद्धिर्वाऽर्थमनुसरन्ती स्वविषयमेवाऽवभा- सत्यर्थदर्शने तवाकस्मृतिस्तत्र च तत्परिकरितार्थदर्शनम् सयति नन्द्रियान्तरविषयं सन्निहितमपि, यथा रसनसमुद्भवा | नच कश्चिद् वाक्संस्पर्शविकलमर्थमवगच्छति तमन्तरेण च न मधुरादिप्रतिपत्तिस्तदेव न परिमलादिकं, लोचनप्रभवप्रत्य- वाकस्मृतिः तां चान्तरेण न वागनषक्लार्थदशैनमित्यर्थदर्शनायनव श्रुतिविषयशब्दप्रतिपत्ती नयनबुद्धिरेव सर्वाक्षविषयग्रा।। ऽभावो भवेत् । ततोऽर्थदर्शनानिर्विकल्पकमेव तवभ्युपगहिका इतीन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैयऱ्या शब्दात्मकपि पदा- न्तव्यम् । यदि च-वाक्संसृष्टस्यैवार्थस्य ग्रहणं तदाऽथेऽभ्युपगम्यमान श्रुतिरेव शब्दपरिणतिमधिगच्छति लोचन गृहीतसंकेतस्य बालकस्य तदग्रहणं न भवेत् । अथ च रूपविवर्त पर्यतीत्यभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथैकमेवाद तस्यापि 'किम्' इति वागुल्लेखोऽस्तीति तदनुषक्रतग्रहणं विषयपञ्चकं विषयीकरोतीति तत्राप्यक्षपञ्चककल्पना वि- सविकल्पकम् , नैताक्नम् । तस्य किमपीति सामान्यस्यैव फलतामनुभवेत् । तत्सकलमक्षवेदनं वाचकविकलं स्ववि- ग्रहणं भवन्न विशेषस्येति न विशदावभासस्यार्थसंवेदषयमेवावलोकयतीति निर्विकल्पकम् । न-चार्थ सन्निधानाद्वा- नसंभवः । यदा च अश्वं विकल्पयतो गोर्दर्शनं परिणचः-सन्निधावप्यक्षान्तग्वैफल्यप्रसक्तः-लोचनमतौ यदि मति तदा तदा तद्वागपरिच्छेदात् कथमवबोधस्य शास्वती नाम न शब्दसन्निधिजनिता शब्दाऽऽकारता तथाऽप्युपादा- वाग्रूपता? नहि तदा गोशब्दोल्लेखस्तदवबोधस्य संभवनाद् बोधरूपतैव चागरूपताऽपि वाचकस्मृतिजनिता ति । तत्संवेदनाभावाद्युगपद्विकल्पद्वयानुपपत्तेश्च । ततोऽ तत्र भविष्यति यता यदि स्मरणजनितो वागरूपतोलख- ध्यक्षमर्थसाक्षात्करणान्न वाग्योजनामुपस्पृशतीति निराकृस्तदा स्पष्टलोचनप्रभवदृशो भिन्न एव भवेत् कारण-वि- तम् । "वागुरूपता चेत् व्युत्क्रामेत्" इत्यादि लोचनाद्यध्यक्ष षयभेदात् । तथाहि-लोचनव्यापारानुसारिणी हग वर्तमान- वाकुसंस्पर्शायोगात् । यतः श्रीजग्राह्यां वैखरी वाचं न तावकाल रूपमात्रं विशदतयाऽवभासति । विकल्पस्तु शब्दस्म- नयनजसंवेदनमुपस्पृशति तस्यास्तद्विषयत्वात् , नापि स्मृरणप्रभवाऽसन्निहितां वागरूपतामध्यवस्यति कथं न हेतुवि- तिविषयां मध्यमांतामवगमयति । तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो पयभेदात्तयोर्भेदः? अथ वाक्परिप्वक्त्रं रूपमधिगच्छद् 'रूपमि- भावात् । मंहताशषवर्णादिविभागा पश्यन्ती वागेव न भवदम्' इत्यक सेवेदनमध्यवस्यति जन इति कथे न तयोरै- ति, बोधरूपता (पत्वात्) वर्णपदाद्यनुक्रमलक्षणत्वात् वाचः क्यम् ?, नैतद् , यतः-" रूपमिदम्” इति ज्ञानेन वागरूप- न ताक्लाप्रतिपत्तिर्विकल्पिका, अपि तु-निर्विकल्पिकैव ताऽऽपन्नाः पदार्था गृह्येरन् , भिन्नवाग्रूपताविशेषणविशिष्टा श्रतिस्मृतिविषयवर्णपदानुक्रमोल्लेखशून्यत्वात् । यदि-चा:चा?, प्रथमपते लोचनं वागरूपतायां न प्रभवतीति तदनु- | विकल्पकं संवेदनं किंचिन्त्राभ्युपेयते तदा वाक्संस्मरणासारिण्यध्यक्षांतरपिन तत्र प्रवृत्तिमती ततः कथमसा- संभवाद्विकल्पस्याप्यसंभव एव स्यात् । अथ प्रथम संवर्थरूपापन्नां वापतामधिगन्तुं क्षमेत्यन्यैवाक्षमतिर्नामोल्ले- वेदनं तदा वाचकस्मृतेरभावादविकल्पकं तजनितवाचकखात् । श्रथ द्वितीयः पक्षस्तदापि नयनदृग् तद्विषये शुद्ध स्मृतिसहकारीन्द्रियप्रभवं त्वभिधानाऽनुरक्तार्थावभासि द्विएव पुरा व्यवस्थिते प्रवर्तते न वाचि, तत्र यावत्तमाना | तीयं सविकल्पकम् , नैतदस्ति; यतः स्मृतिसचिवमपि कथं तद्विशिष्टं स्वविषयमुदद्योतयितुं समर्था, न हि लोचनं न वाचके तत् संकेतसमयभाविनि प्रवृत्तिमदिति विशेषणं भिन्नमनयभासयति तद्विशिष्टतया विशेष्यमव- कथं तदविषये स्मृतिदर्शितेऽपि वाचकानुषक्नेऽध्यक्षभासयति दण्डाग्रहरण इव दण्डिनम् । न च यद्यपि वाक प्रवृत्तिः, यतो न गन्धस्मृतिसहकारिलोचनमविषये परि दृशि न प्रतिभाति, तथापि स्मृतौ प्रतिभातीति विशे- मलादौ संवेदनं जनयत् दृष्टं किं तु सन्निहित एव पणमर्थस्य भिन्नज्ञानग्राह्यस्यापि विशेषणत्वोपपत्तेरिति वक्तुं मलयजरूपे दर्शनं तु तत्सहचारिणि परिमलाऽऽदौ स्मृति शक्यम् संविदन्तरप्रतीतस्य स्वातन्त्र्येण प्रतिभासनात् , जनयतीति न तत्तद्रूपसंविदो रूपं हेतुविषयभेदात् । तदन्तरप्रतीयमानविशपरपत्वानुपपतिः । यतो नैककालमने- तथाऽत्रापि नयनसेवेदन रूपमात्रसाक्षात्कारिभित्रं तद्दर्शनोककालं वा शब्दस्वरूपं स्वतन्त्रतया स्वग्राहिणि ज्ञाने
पजनितं तु विकल्पज्ञानं वचनपरीतार्थाऽध्यवसायस्वभावप्रतिभासमानं विशेषणभावं प्रतिपद्यते सर्वत्र तस्य त- | भिन्नमेवेत्यविकल्पकमध्यक्ष सितम्। द्भावापत्तः । नच शब्दानुरकरूपाद्यध्यक्षमतिरुदेतीति शब्द- (नैयायिकादिसंमतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निस्य विशषणत्वं रूपादेश्च विशष्यत्वं, यतो यदि तदनुरक्ता विकल्पकवादिना तस्याऽपि दूषणम् )तत्प्रतिभासस्तदा शब्दस्याक्षवुद्धावप्रतिभासनान्न तदनुरक्त- स्यादेतत् यद्यपि बाचो नयनजप्रतिपत्त्यविषयत्वान्न तद्विता। श्रथ रूपादिदेशे शब्दवेदनं तदनुरक्तता, तदपि न युक्तं; शिष्टार्थदर्शनमध्यक्ष तथापि द्रव्यादर्नयनादिविषयत्वात् तद्विनिरस्तशब्दसन्निधीनां रूपादीनां स्वज्ञान प्रतिभासनात् । शिष्टार्थाध्यक्षप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति । तथाहि निअथ तत्कालशब्दप्रतिभासस्तदनुरागः, न; नयनशि रूपादि यतंदशादितया वस्तु परिदृश्यमानं व्यवहारोपयोगि अन्यथा व्यतिरिक्तशब्दप्रतिभासाऽभावात्, यतो न तुल्यकालमपि श. तद्भवाद् देशादिसंसर्गरहितस्य च तस्य कदाचिदप्यननुब्दं लोचनविदवभासयितुं क्षमा तस्य तदविषयत्वात्। अथ
भवात् यश्च देशादिविशिष्टतया नामोल्लेखाभावेऽपि वस्तु सेशब्दानुपकरूपस्मृतिदर्शनाद् तद्रूपस्य तस्य प्राक् दर्शनमु- गृह्णाति, तत्सविकल्पकं विशेषणविशेष्यभावेन हि प्रतीतिः पेयते । तर्हि शब्दविविलमर्थरूपं प्रत्यक्षमधिगच्छति; वाचक कल्पना देशादयश्च नीलादिवत् तदवच्छेदका दर्शने प्रतिभातु स्मृतिरुल्लिखतीति न तत्संस्पर्शमध्यक्षमनुभवतीति निर्वि- न्तीति न तत्र शब्दसंयोजनापक्षभावीदोषः । एतदप्यसत्, कल्पकमासनम् ; अन्यथा शब्दस्मरणासंभवादध्यक्षाभावो यतः-अध्यक्ष पुरोवर्ति नीलादिकमवलोकयितुं समर्थन तभवत् । तथाहि-यदि वाक्संस्पस्य सकलार्थस्य संवदनं तथा| दवष्टब्धं भूतलं तदनवभासे च कथं तद्विशिष्टमर्थ तदवगन्तु
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(३७१) सहर्षभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहवंभवाइ प्रभुः (भु) । यदपि तदनबष्टब्धं तत्र प्रतिभाति तदपि विशषणादौ स्मृतिरेव प्रवर्तिष्यत इति किं तत्र विशदसंन तद्विशेषणमिति शुद्धस्यैव सकलस्य प्रतिभासनान्न विदवतारण ?, सा हि सन्निहितमेवार्थमवतरति, न च तदा विशेषणविशेष्यभावग्रहणम् । तथाहि-दर्शने रूपमालो- विशेषणादयः सन्निहितास्तानवलम्बमाना निरालम्बनैव कश्च खवरूपव्यवस्थितं द्वितयमाभाति , न तद्यतिरिक्तं भवेत् ततो विशुद्धरूपमात्रप्रतिभासादध्यक्षसंविनिरस्तविशेकाल-दिगादिकमिति । कथमप्रतिभासमानं तद्विशेषणं षणमर्थमवगमयति । विशेषणयोजना तु स्मरणादुपजायमाना भवति सर्वत्र तदभावप्रसक्तेः तेन 'देशादिभिर्विशिष्टस्य सर्व अपास्ताक्षार्थसन्निधिर्मानसी । न च स्पष्टप्रतिभासाद्वर्तमास्यार्थस्य संवेदनम्' इति निरस्तम्-विशेषणभूतस्य कस्य- नार्थग्राहिणीति वक्तव्यम् , तामन्तरेणापि स्फुटमर्थप्रतिभाचिवप्रतिभासनात् । यत्रापि स्थिराधेयदर्शनादधस्तादाधा- सात् नच स्मृतिमन्तरेणाऽपि यदि विशदतनुरर्थात्मा प्रतिरमनुमिन्वन्ति तत्राऽपि नाऽनुमानावसेयमधिकरणमिन्द्रि- भातीति न तस्य ग्राहिका स्मृतिः ताक्षव्यापारसद्भावे सु. यविज्ञानविषयविशेषणम् नाऽपि तदवसायोऽक्षबुद्धेः स्व- खमन्तरेणापि विषयावगतिरस्तीति सुखमपि विषयग्राहि न रूपमिति न विशेषणविशिष्टप्रतिपत्तिरक्षबुद्धिः । किं च- स्यात् यतो निरस्तबहिरर्थसन्निधयो भावनाविभूततनवः समानकालयोर्वा भावयोर्विशेषणविशेष्यभावं भिन्नकालयो
सुखादयो नार्थावेदकाः खग्रहणपर्यवसितस्वरूपत्वात्तषामा अक्षबुद्धिरवभासयति ?, न तावद्भिन्नकालयोः तयोर्यु
क्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यो विशदसंविद एव बहिरर्थागपत्तत्राऽप्रतिभासनात्-यदाहि विशेषणं स्वादिकं पूर्वमव
वभासिकाः पृथगवसीयन्ते सुखादिभ्यस्ता एव तदवभासिभाति न तदा स्वाम्यादिकं विशेष्यं, यदापि चोत्तरकालं
कास्तद्वद्विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभाव इति ।। तदवभाति न तदा स्वादिकम् असन्निधानादिति न तद्विशिष्ट
ननु यदि न पुरस्थितार्थग्राही विकल्पः कथं ततस्तत्र तयाऽध्यक्षण तस्य ग्रहणम् । तथाहि-चक्षुापारे पुरोव्य
प्रवृत्तिर्भवेत् ?। यदेव विशेषणादिकं प्राक् तेनानुभूतं तत्रव वस्थितश्चैत्र एव परिस्फुटमाभातीति तन्मात्रग्रहणा
ततः प्रवृत्तिर्भवेत् , न हि स्वात्मानमनारूढेऽर्थे प्रवृत्तिविधा
यि विज्ञानमुपलब्धम् अन्यथा शुक्लमर्थमवतरन्ती संविन्नीन तद्विशिष्टत्वप्रतीतिः । न चाऽसन्निहितमपि विशेष
लार्थे प्रवर्तिका भवेत् । नच निर्विकल्पकमेव संवेदनं वर्तण स्मरणसन्निधापितमक्षबुद्धिरधिगच्छति स्मरणात्प्रागिव तदुत्तरकालमपि विशेषणासन्निधेस्तुल्यत्वान्न तत्र
मानेऽर्थे प्रवृत्तिविधायि, विकल्पमन्तरेणापि सर्वत्र प्रवृत्ति
प्रसक्नः । न च सुखसाधनत्वनिश्चयमन्तरण पुरः प्रकाशनमा. तदाऽप्यध्यक्षबुद्धिप्रवृत्तिरित्यपास्तविशेषणस्यार्थस्य साक्षा
प्रेण कश्चित्प्रवर्तत इति विकल्प एव पुरोव्यवस्थितार्थग्राही करणं युक्तियुक्तम् । नापि तुल्यकालयोर्भावयोर्विशेषणविश
प्रवर्तकत्वात् अक्षानुसारितया च स एवाऽध्यक्षमिति युक्तम् , प्यभावमध्यक्षमधिगन्तुं समर्थ तस्यानवस्थितेः ।
पूर्वदृटनामादिविशेषणग्राही निश्चय इति, एतदप्यसंगतम् । तथाहि-अविशिष्टेऽपि दण्डपुरुषसंयोगे कश्चिद्दगडविशिष्टत
धूमग्राह्याध्यक्षव्यतिरिक्ला स्पष्टावभासाग्म्यनुमानाकारस्येव या पुरुष दण्डीति प्रतिपद्यते । अपरस्तु-तत्रैव पुरुषविशिष्ट
विशददर्शनभृतोऽर्थाकाराद् व्यतिरिक्तविकल्पमत्युल्लिख्यमातया दण्डोऽस्यति प्रतिपद्यते । असंकेतितविशेषणविशे
ना स्पष्टाकारस्य तदाऽननुभवात् । ततो बहिरर्थग्राहिण्यो प्यभावस्तु 'दण्ड-पुरुपौ' इति स्वतन्त्रं द्वयमधिगच्छति ।
विकल्पमतयोऽभ्युपगन्तव्या न पुनस्तदा विकल्पमतिः पूर्ववास्तवे तु तस्मिन्योग्यदेशस्थप्रतिपत्तृणां दण्ड-पुरुषरू
दृष्टविशेषणमात्राध्यवसायिनी अपरा पुरोवर्तिविशदार्थापयोरिव तुल्याकारतयाऽवभासो भवेत् न चैवम् । तेन दण्ड
वभासाध्यक्षसंविदपरैव भेदप्रतिभासाभावादिति , असदेपुरुषस्वरूपमेष स्वतन्त्रमध्यक्षावसयं विशषणविशेष्यभावस्तु
तत् । यतो यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकल्पमतिरुयोकल्पनाविरचित एव । येन हि दण्डोपकृतपुरुषजनिता
तयितुं प्रभवति तथाऽपि न तत्र प्रवृत्तिः, प्रवृत्तिविरचना ऽर्थक्रिया प्रागुपलब्धा तदर्थी च, स तत्र विशषणत्वेन द
चतुरार्थक्रियासमर्थरूपानवभासनात्तदरभासने ह्यर्थक्रियाएडं विशेष्यत्वेन च पुरुष प्रतिपद्यते प्रधानत्वात् येन च पु.
र्थिनां प्रवृत्तिर्युका । नचाऽर्थक्रियासम्बन्धं वर्तमानसमयसरुषोपकृतदण्डेन फलमभ्युपेतं स तत्र दराडे प्राधान्याद्विशे
म्बन्धिन्यर्थे ताः प्रदर्शयितुं समर्थास्तदानीं तस्या असन्निध्यमध्यवस्यति । अपरिगतफलोपकारस्य प्रथमदर्शने स्वरू
धानात् असन्निधौ च न तत्र सामर्थ्याऽवगतिः पदार्थस्वरूपमात्रनिर्भासात् ततोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यामवगतसामर्थ्य
पमात्राऽवसायात् । नच तत्स्वरूपमात्रावसायादेव सामर्थ्याद्वयमासाद्य विशिष्टत्वप्रतिपत्तिः,प्रागवगते च सामर्थ्य नेन्द्रि
ऽवगतिः अतिप्रसङ्गात् । ततः पुरोवर्तिनि प्रवर्तमानोऽपि न यस्य व्यापारस्तस्यासन्निहितत्वात् । न च व्यापाराऽविषये
विकल्पः प्रवर्तकः । न च यतः पूर्वमर्थक्रियाप्रभवन्ती दृष्टा तत्प्रतिपत्तिजननसमर्थम् न च पुरःसन्निहितेर्थे ऽप्रवर्तमानामा संप्रत्यपि तदर्थक्रियाऽर्थितया तदध्यवसायात् प्रवृत्तिर्भविन्द्रियं तत्रापि प्रतिपत्तिमुपजनयितुं समर्थ वर्तमानकालालीढ- ष्यति, यतो येन प्रागर्थक्रियानिवर्तिता तदेवदं पुरः प्रतिनीलादिदर्शनप्रवृत्तस्य चिराऽतीतभावपरंपरादर्शनप्रवृत्तिप्र- भातीति तन्निर्भासाऽभावे कुतः सिध्यति ? न च कल्पनैव सक्नेः सकलातीतभावविषयस्मृतेरध्यक्षता भवेत् । तथा- तदध्यवसायिनि तन्निर्भासः। यतो न कल्पनाबुध्यध्यवस्वगोचरचारिणी स्मृतिरपि स्फुटमर्थ वर्तमानसमयमु- सितं तत्त्वं परमार्थसद्व्यवहारमवतरति प्रत्यक्षप्रतिभाद्भासयिष्यतीति सर्वाऽक्षमतिः स्मृतिर्भवेत् । न च व- तस्यैव तनवहारावताराद् । तदभावे तदभावात् । नचा समानमर्थमध्यक्षमवोद्भासयतीति किं तत्र स्मृत्या ?, यत्र हि ध्यक्षबुद्धेस्तत्त्वावसायः प्रथमाऽक्षसन्निपातवलायामेव नीलादर्शनाऽनवतारस्तत्र स्मृतिपरिकल्पना फलवती स्पष्टदर्शना- दिरूपतावत् तनि सोदयप्रसक्तः। अतो न कल्पनाध्यक्षविवतार तु वर्तमानसमयभाविनि रूपादौ स्मृतिप्रवृत्तिरसं- षयस्तत्त्वमाद्यदर्शनानधिगतत्वात् । भविनी विफला चेति न तत्परिकल्पना ; नन्ववमतीते अथ-सहकारिवैकल्याद् यद्यपि आद्यदर्शनाऽवभासि
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(३७२) सहभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सरपंभवाह न तत्त्वं तथापि न तनास्ति , न हि तीदणांशुकनिकरो. | ऽधिगच्छतीति शानस्वभावोऽसाधारणतयाऽसौ नार्थस्वरूपपहतदशां गर्भगृहाद्यनुप्रवेशानन्तरमप्रतिभासमाना अपि मिति कुतोऽध्यक्षताऽवसया?, तथाहि-पूर्वदर्शनमनुस्मरनेष घटादया भावाः स्वस्थीभूतनत्राणां न प्रतिभान्ति, न च पूर्वदृष्टतां व्यवहारी तत्राध्यारोपयति विस्मरणे तदनध्यवप्रागप्रतिभासनान्न सन्ति यथा च सहकारिवशात् पूर्वमप्र- सायात् यश्च स्मृतिरध्यवस्यति स्वरूप न तदर्शनपोपप्रयुतिभाता अपि पश्चात्प्रतिभान्ति । तथाऽत्राप्याद्यदर्शनं शुद्धा- क्नम् श्राकारभेदात् । न च तद्दर्शन-स्मरणे एक विषयं बिभ्रतः विभासि यद्यपि तत्त्वं नानुभवति स्मरणसहायातप्रभवा 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्यध्यवसायात् । यतः-किं स्मर्यमाणं दृश्यतु प्रत्यभिज्ञा तदनुभविष्यतीति । न-तत्त्वस्याऽसत्वम् ना- मानतया रूपं प्रतीयते, आहोस्विद् दृश्यमानं स्मयमाणतयति प्यक्षान्वयव्यतिरकानुविधायिनी प्रत्यभिज्ञा न प्रत्यक्षमिति । विकल्पद्वयम् ? । तत्र यद्याद्यः पक्षस्तथा सति स्मर्यमाणं
अत्रांच्यते-यद्यक्षप्रभवा संविदाद्या न तत्त्वमवभासयति प- परिस्फुटतया रूपमाभातीति कथ तस्य परोक्षता ?, अथ श्चादपि तदविषयत्वान्नाऽवभासयेत् । यथा ह्यक्षमविषयत्वा- द्वितीयस्तत्रापि रश्यमानं स्मयमाणेन रूपणाऽवभातीति सर्व नैकत्व प्रतिपत्ति विदधाति तथा स्मरणसहकृतमपि न तत्र परोक्षं भवेदिति न काचिदध्यक्षमतिः सत्याऽर्था स्यात् । तां विधास्यति अविषयत्वाऽविशेषात् ,न हि परिमलस्मरण- अतोऽक्षधीवर्तमानमेव रूपं प्रत्येति, स्मृतिरपि तदसंस्पर्शि सहायमपि लोचन गन्ध प्रतिपत्तिकृदुपलब्धमिति न तत्त्व- परोक्ष रूपमिति न तयोरैक्यं प्रतिभासभेदस्य सर्वत्र भेदकग्रहणमध्यक्षात् । किं च-किंकुर्वाणा स्मृतिरिन्द्रियस्य स- त्वात् । तस्य च विशदाऽधिशदरूपतयाऽवभासमानयोदृश्यहकारित्वं प्रतिपद्यत ? पूर्वापरस्य ढौकनमिति चेत् । ननु वि स्मयमाणयोः सद्भावात् कथं न भेदः ?, किश्च-यदि शुद्धमेव नष्ट व्यथे स्मृतिरुदयन्ती दृष्ति कथं तत्सन्निधापिते पौर्वा- दर्शनं स्मृतिनिरपेक्ष पूर्वरूपताग्राहि नम्वेवं भाषिरूपताग्रापर्य प्रवर्तमाना अध्यक्षधीः सत्यार्था भवेत् ? अथ यदुपरतं हि प्रथमदर्शनं किं नोपेयते?, नहि भाविभूतयारसन्निहितन्वे वस्तु तद्ग्राहिणी बुद्धिर्न सत्यार्थग्राहिणीति युक्तम् ,अनुपरत विशेषः, यनैकाध्यक्षवृत्तिरपरत्र नेति भवत् ? नच 'पूर्वदृष्टं त्वर्थमवगच्छन्ती कथं सा न सत्यार्था ?, अयुक्तमेतत् । यतः- पश्यामि' इति व्यवसायात् पूर्वरूपे एव दर्शनव्यापारः। 'पूर्वसमयमाणस्यार्थस्यानुपरतिः कुतोऽवगता? न स्मरणाद् व्यु- मेवेदं मया दृष्टम् इत्यध्यवसायाद भाविरूपेऽपि दर्शनव्यापरतेऽपि स्मृतिपरत्वे प्रवृत्तरित्युक्नत्वात् । नच स्मरणोपनी पारप्रसक्तेः। अतोऽपाकृतम् "इदानींतममस्तित्वं न हि पूर्वधितपौर्वापर्यस्य दर्शने प्रतिभासनात्तदप्रच्युतिः इतरेतराश्रय- या गतम्" इति । न च पूर्वदशा तदाभाविकालताया असदोषप्रसक्तः । तथाहि-स्मय माणस्यार्थस्यानस्तमयसिद्धेस्त- निधानादग्रहणं संप्रति दर्शनकाल पूर्वरूपताया अप्यसन्निदुपनीत तत्र दर्शनप्रवृत्तिः सिद्धयति । तत्सिद्धौ च स्मरणो- धेस्ततो ग्रहणप्रसक्तः । यदि पुनर्भाविरूपतामप्यध्यक्षमनुभपनीतस्थाऽनस्तमयसिद्धिरिति कथं नेतरतराश्रयत्वम् । अथ वति , 'पूर्वमवेदं मया दृष्टम्' इति व्यवहतिदर्शनात् तर्हि प्रम्मृतिः संप्रति प्रतिभासविषयादर्थाद्भिन्नं विषयमध्यवस्यन्ती थमसंवेदनमेव मरणावधिरूपपरंपरामधिगच्छतीति तदैव निरालम्बना स्यात् । प्रतिभासविषयं नमेवार्थमुल्लिखन्ती तु मृतो भवेत् । न च मृतिसद्भावे मृतो भवत्युत्पत्तिसमये तु कथममदर्थविषया? न: दर्शनगृहातमेवार्थमुल्लिखतीत्यत्र प्रमा- नासाविति कुतोऽयं दोषः । यतो यदि तदाऽसौ नाऽस्ति कसाभावान्न स्मरणोपनीतैकत्वाऽवभासिन्यध्यक्षमतिः सत्या- थमसती सा दर्शने प्रतिभाति?, तदप्रतिभासने तु कथं भाथग्राहिणी सिद्धा। न च पूर्वदर्शनमेव पूर्वरूपसंगतमर्थमनु
विरूपपरिगतो भावोऽयमातो भवेत् ? यदेव तत्र वर्तमान भयंकाय प्रमाण यतो यदि पूर्वरूपतामर्थस्याद्यदर्शनम- रूपमाभाति तदेवाध्यक्षमस्तु न भावि । यदि तु तदपि तदा. वायभारूयति तथा सति पूर्वापरैकत्वं तंदवावगमयिध्य- उध्यक्षं तदाद्याऽध्यक्ष एव मृत्युपाधेः सकलविषयस्य प्रतितीति तत्र स्मृतिः प्रवर्तमाना व्यर्था । न च तदपि पूर्वरू- भातस्याऽस्तमयात् तद्विषयात्तदुत्तरकालभाचिनी सर्वा मतिः पतां तस्याऽवभासयितुं क्षमं तस्य सन्निहितमात्रविषयत्वात्। निर्विषया भवेत् । किं च-भाविभूतयोरध्यक्षविषयत्वे भिन्नपूर्वरूपता हि पूर्वदेश-काल-दशासम्बन्धिता पूर्वदेशादीनां च मपि तदध्यक्षविषयं भवेदिति सर्वत्रिकालदर्शी भवेदिति तद्दशने अप्रतिभासनात् न तत्संस्पर्शिरूपप्रतिभासस्तत्र संभ- " भविष्यश्चैपोऽर्थो न ज्ञानकालेऽस्तीति न प्रतिभाति" इति ची न हि तदतिभास तत्संबन्धिपदार्थरूपप्रतिभासः अन्यथा निराकृतं द्रष्टव्यम्। भावि-भूतकाले ताबदभविष्यतो धर्माऽs. नीलताऽप्रतिभासेऽपि पीते नीलसम्बन्धिताऽवगतिर्भवेत् । देर्दर्शनकाले ऽसतोऽपि प्रतिभासनात् । न चाभिन्नयोर्भावितनैकत्वग्राहिण्यध्यक्षमतिः। यच्च 'दृपता प्रत्यक्षग्राह्या' इति प. भूतरूपयोः प्रतिभासेऽपि भाविधमादेभिन्नत्वान्न प्रतिभारुच्यते तत्र दृष्टता यदि तद्दशि प्रतिभातता तदा वर्तमान. सः। भेदेनाध्यक्षप्रतिभासनाऽविरोधात् । इश्यन्त एव हि भि. तैव । श्रथ पूर्वदशि प्रतिभातता तदा पूर्वदृशोऽप्रतिभासने नरूपा घट-पटाऽऽदयोऽध्यक्षप्रतिभासमादधानास्ता भाकथं तत्प्रतिभातताऽवभासः संप्रति संवेदन? तत्र हि स्व- विभूतरूपताऽध्यक्षावसेयेति स्मृतिविषयः। पूर्वरूपतादर्शहतया सन्निहित रूपमाभातीति सैव तत्र युक्ता, पूर्वदर्शन तु नावभासिनोऽर्थस्य भाविरूपता चानुमानायसेया। तेनप्रत्यस्ामतमिति तताऽपि व्युपरतैवेति कथं सा वर्त- “ नच स्मरणतः पश्चा-दिन्द्रियस्य प्रवर्तनम् ॥" मानदृशि प्रतिभासत ? तदभ्युपगम वा तद्दशो निराल- "वार्यते केनचिन्नापि, तदिदानी प्रदुष्यति।" म्बनप्रसक्तिः । न च पूर्वदृश्यमानता तत्र व्युपरता, दृष्टता तु (श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० २३५।२३६। )। तदेवोत्पन्नति कथमसती येन तां प्रतीयती प्रत्यक्षमतिनिरा- इति निरस्तं, यतो यदि स्मरणादृष्य वर्तमानरूपे इन्द्रियस्य लम्बना भवेत् ?, यतो यदि दृष्टता तत्र सन्निहिता भंवत् तदा प्रवर्तनमभिप्रेतं तथा सति वर्तमानमात्रपरिच्छेदान्न प्रथममागनानीलाऽऽदिरूपताभिव तामप्यधिगच्छत् न चा- स्मरणोपदाक्तिकत्वग्रहः । अथ पूर्वरूप तत्राऽपि यथा प्राक
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(३७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
सहभवाइ
स्मृतेन पूर्वरूपतायामपि कालमपि अविषयत्वाऽविशेषात्। " तदा दोषः " इत्यत्रापि यद्यसन्निहिते मरणोपटीफि र्त्तते तर्ह्यविद्यमानविषत्वात्तदालम्बनं ज्ञानं निर्विषयं भवेदिति कथं न दोषः १, तिमिरो पहल दशो ऽप्यसत्यदर्शनमेव दोषः । तच्चाऽत्राऽपि समानमिति कथं न दोषः ? । श्रथ वर्त्तमानेस्मृत्युत्तरकालं तत्प्रवर्त्तमानमदुष्टं तर्हि नैकत्वप्रतीतिः । न च देव वर्त्तमानं देय पूर्वमिति भेदाभावान्नस्वग्रहः श्र मेसिन हि श्यमानमावसः - भेदस्यासिद्धेःमाने स्मृतः समयमानोऽनवतात् गोपनीने पूर्व दोषाभावेऽपीयन युक्तं धूमदर्श नोत्तरकाले मृत्युपस्थापित पायके ऽपि दोषाभावादिन्द्रियप्रवृत्तिः शक्त्रम्
प्रवर्त्तते तथा तदुतचन
" नचाऽपि लिङ्गता पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम् । चाचिन्नापि तदिदानी प्रदुष्यति ॥ १ ॥ अथ प्रत्यक्षप्रतिभाता घूमात् स्पष्टावभासाद् व्यतिरिक्ता स्मृतिप्रभवाऽनुमितिर्भिन्नाकाराऽग्निमुल्लिखतीति न तत्र हगतारा पिराइट वयसेादरूपा पूर्वरूपमुखि म्ती मृत्युपजनता प्रतिपति पदर्शितं रूपमवतर सीत्यभ्युपेयम् ततः स्मृतेः पूर्वमुत्तरकालं या पर्यापर्य विविक्ते वर्तमानकालमर्थ हगवतरतीति नैकत्वग्राहिणी | ततो विलायतमतिः विद्या एकत्वप्रतिपत्तिस्तु स्मृतिकृतोदा पृथगेव पूर्वापरविधिकरूपायनासि स्पष्टदशः । अथ पौर्वापर्ये दशोऽप्रवृत्तर्न तद्ग्रहात् सविकल्पाध्यक्षमतिः जातिगुणचयादीनां दर्शयत्वात्तद्विशिष्टार्थतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति, नः जात्यादेः स्वरूपानवभासनात् न हि व्यक्तिद्वयव्यतिरिक्रवपुर्ब्राह्याकारतां बदिविभ्राणा विशददर्शने जानरामातीति न योजनाय क्षमति: विकल्पिक नम्रतादिषु"तरुस्तरुः" इ
खिम्ती बुद्धिराभागीति नास्ति जातिर्विकल्पमातथापि हिकारतया जातेरनुद्भासनाद् प्रतीतिरेव तत्रापि तुल्याकारतां वचनं वा विभर्ति । न च शब्दः प्रतीतियां जातिमन्तरेण तुल्याऽऽकारतां नानुभवति 'जातिजतिः' इत्यपरजातिष्यतिरेकेणापि गोल्या दिसामान्येषु तयोस्तुल्याssकारतादर्शनात् । न च तेष्वप्यपरा जातिः इति ? श्र नवस्थाप्रसक्तेः । अथ तुल्याऽऽकारा प्रतिपत्तिर्यदि निर्निमिक्षा तदा सदा निमित्त हाम्रादिष्यय घटादिष्यपि तरुतरुः इति प्रतिपत्तिर्मतू व्यक्तिरूपतायात्राऽपि समानत्वाद् असत् - क्रिनिमित्तत्वेऽपि प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्तत्वान्नातिप्रसङ्गः । यथा हि ताः प्रतिनियता एव कुतश्चिनिमित्तात् प्रतिनियतजातिव्यञ्जकत्वं प्रतिपद्यन्ते तथा प्रतिनियतां तुल्याssकारां प्रतिपति तत एव जनयिष्यन्तीति किमपरजातिक
नया ?, यथा वा गुडूच्यादयों भिन्ना एकजातिमन्तरेणापि ज्वरादिशमनमेकं कार्यं निर्वर्त्तयन्ति तथाऽऽम्रादयस्तरुत्वमन्तरेणापि तत एव "तरुस्तरुः " इति प्रतिपत्तिं जनयिष्यन्ति नान्य इति व्यजातजाति दर्शनशान या हिराकारमाविभ्रती स्वेन वपुषा प्र तिभाति कल्पना, बुद्धावप्यविशदाकारव्यक्तिरूपमन्तःश
"
६५
सभपा
लेखं वाऽपाय संस्थानव्यतिरिक्रजातिभासनात् । तनाऽप्रतीयमाना जातिः सती । नापि कस्यचिद विशेषणमिति न तद्यजनाविधायिनी अपन सविकल्पका एवं गुणतमासादयमति न तद्विशिष्टार्थप्राउयक्ष सविकल्पकतामनुभवति अथ निर्विकल्पकत्वेऽध्यक्षेण शुद्धवस्तुग्रहणात् कथं ततो व्यवहतिः सा हि योपादेययो दुःख-सुख-साधनत्यनियाना पादानार्थी दृष्टा न च निर्विकल्पकमध्यक्षं तनिश्चयरूपम्, असदेतत् यतो यद्यपि सविकल्पकमध्यक्षे तथापि कथं त दर्थिनां तत्र ततः प्रहमात्रात् फलार्थिनः प्र
पिजननयोग्यताबसायात् सा बाहि तफलानिश्चयेन निश्चतुं शक्या । न च परोक्षं सुखसाधनत्वं निश्चितीतिरक्षामनुभवति अनुमिता सक्नेः । परोक्षनिश्चयरूपताया अविशेषात् । न च निश्चयात्मकेनाध्यक्षेण वस्तु निश्चीयते । तत्प्रतिवद्धा च प्रागर्थकयोपलब्धा ततः पुरस्थार्थावसायात् । तत्र स्मृतिः प्रादुर्भवन्ती तत्राभिलाषजननात् प्रवृत्तिमुपजनयति निर्विकल्प के ऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहित्यमा
यावति तस्मराय (खाद ) भिलास प्रवृत्तिर्भविष्यतीकिः स्वपरपक्षविशेषः अथ वस्तुस्वरूपप्रतिभासं दर्श नमर्थकान्याउनुभयास प्रवृत्तिमुपचयितुं मम्। तत्सम्बन्धानुभव या सविकल्पकं तद् भवेत्। न चातकस्य प्रामाण्यम् - "प्रामाण्यं व्यवहारेण" इत्यत्र "व्यावहारिकस्पास्यमुक्रम्" इत्यभिधानात्
नापि तस्य भाषा किं तु अभ्यासपाठवादिसव्यपेक्षं यत्रांऽशे विधिप्रतिषेधविकल्पद्वयं जनयत् पुरुषं प्रवर्त्तयति तत्रास्य प्रामाण्यमिति निश्वयापेक्षस्य प्रत्यक्षस्य व्यवहारसाधकत्वात् न प्रामाण्यक्षतिः; नन्वेवमपि यदि निश्चये सति प्रवृत्तिः तदभावे च नेत्यभ्यु पगमस्तर्हि प्रवृत्तिकरणानिश्चय एव प्रमाणं भवेत् । न च दर्शनगृहीतं नीलं निश्चिन्वन्नुपजायमानो विकल्पो गुदीतग्राहिता अप्रमाणम् यतोऽर्थक्रियासम्बन्धितामु दर्शनामतस्यार्थस्य कल्पनामाचयति । न च विशदशार्थक्रियासाधकता तस्यावगतति कथं क नाना सर्वत्र यनेय प्रवर यति दर्शनाभावेऽप्यनुमानात्मदर्शन क्षणिकादी व्यवसायाभावात् । प्रवृत्तेरभावाद् व्यवहारमुपरचयन्ती मतिः प्रमाणमिति न निर्विकल्पिका सा प्रमाणम्, किं तु धिकरिपफेव ननु न विकल्पस्याप्रामापं किसी प्रत्यक्षं न भवति अनुमानताऽभ्युपगमात् । अथ लिङ्गजत्वाभावादपरोक्षमर्थ निश्चिन्वन् कथमनुमानं विकल्पः ? नैतत् यतो नायमेवार्थमसी निश्चिनोति सम्वन्धिस्वस्य परोक्षस्वाप्यव्यवसितेस्तदभावे च मेोगात्। सा च फलसंगतिः परोक्षानुमानग्राह्या दृश्यमान इव प्रदेश परोक्षदहनसंगतिः । न च तत्र धूमलिङ्गसद्भावादनुमानाव तारेऽपि फलसम्बन्धितायां लिङ्गाभावान्नाऽनुमानप्रवृत्तिः प्र तिभासमानरूपस्यैव लिङ्गत्वात् तथाहि उपलभ्यमाने ज रूपेशीयस्तरसहचारिणो यदि निधेनुं शक्याः का लान्तरस्थावितया तदा तत्र प्रवृत्तिर्युक्का, रूपप्रतिभासमात्र
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(२४) अभिधानराजेन्द्रः ।
सहर्षभवाह
सहभबाइ
अन्यथाऽनभ्यासदशायामनुमानात् प्रवृत्तिदर्शनात्सर्वदाऽनु
मानस्य उपयहूलिकाभावतस्त
स्तुता तदर्था प्रवृत्ति संगीतविरतिप्रसक्रिस्पी साध्यधीनतयोपलभ्यमाने रूपं हेतुः स्वयं चोपलभ्यमानं कालान्तरस्थिती लिङ्गमिति कथं न निश्चयोऽनुमानम् ? न च सम्बन्धस्मरणपक्षधर्मत्वनिधादुपजायमानमनुमानमनुभूयते यत्र तु रूप्यपर्यालोचनमन्तरेणापि नीलानुभवानन्तरं नीलमेतत् इति निमभ्यासदशायां व्यवहारदभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा पू
चिचपदपरमनुमानमभ्युपगम्यं तथाऽप्यनुमानान्तरालिङ्गनिश्चय इति तनिश्चयकृदपरमनुमानमित्यनवस्थाप्रसङ्गतो न कदाचित् व्यवहृतिर्भवेत् । ततोऽविकल्पकं द
मित्सुदेतीति नानुमानता रूप यतो न सर्वदाऽनुमितिरूप्यपर्यालोचनमय प्रवर्तते अत्यन्ताभ्यासात् कदाचि संबन्धस्मरणानपेक्षलिङ्गस्वरूपदर्शनमात्रा दुपदर्शनात् धूमोपलम्भादभ्यासदशायामग्निप्रतिपत्तिवत् । श्रथाऽत्राविनाभावपर्यालोचनं प्रागासीदनवगतसम्बन्धस्य धूमदर्शनादेवाप्रतीतस्तहिं मन्दाभ्यासे प्रकृतेऽपि पर्यालोचनस्येष एवं जातीये पूर्वमध्यर्थक्रियोपलब्धा इदमप्येवं जातीयं प्रतिभासमानं रूपम् इति अभ्यासायां तु रूपादे पर्यालोचनमन्तरेणापि भगिति फलयोग्यता प्रतीयते इति व्यवस्थितमेतत् दृश्यमानं रूपं धमि तत्फलयोग्यता साध्या तपसामान्यं समिति न प्रतिज्ञायैकदेशत्वमपि देतो - तो निश्चयः स्वरूपावभासादुदयमासादयन्परोक्षमर्थक्रियायोग्यत्वं निश्चिन्वन्ननुमानमेव । व्यवहारोऽप्यत एव न प्रत्यक्षात् ।
यक्लप्रकारेणानुमानाऽनयतारात् । न च पौर्वापर्ये प्रवृतिमत् सन्निहितमात्रावभास्यध्यक्षं कथं तादृग् लिङ्गग्रहणक्षमं यतोऽनभ्यासाऽवस्थायामनुमानात्प्राग् व्यवहारः पश्चात्स्त्वध्यक्षादभ्यासायामिति प्रेर्यम् यतः संस्यान्ध प्रादि प्रत्यक्षमभिमतं लोकमभिमानः तदेव "साज्यप्रतिवद्धं पिश्यामि इति नाथतियधग्राह्याभ्यां व्यवहार कृदभ्युपेयते परमार्थपर्यालोचनया तु न प्रत्यक्षानुमानभेदः नापि व्यवहारः संवेदनमात्रत्वात्सर्वप्रपञ्चस्य स्वपेनं च सकलविकल्पविलमिति कथं स्वार्थनिएर्णयस्वभावं ज्ञानं प्रमाणं सिद्धिमासादयेत् ? । (निर्विकल्पमेययज्ञमिति मतं प्रतिषिधाय सविकल्पस्याध्यक्षत्वमुपपाद्य च सिद्धान्तिना स्वार्थनिर्णयस्वभावशा नस्य प्रमाणसामान्यलक्षणत्वव्यवस्थापनम् ) -
अत्र प्रतिविधीयते 'स्वार्थनिएयस्वभावं प्रत्यक्षं न भवति' इत्येतत् किं तद्ग्राहकप्रमाणाभावादभिधीयते, आहोखितद्वाधकप्रमाणसद्भावात् ?,तत्र न तावदाद्यः पक्षोऽभ्युपगमाः स्थिरस्थूलसाधारणस्य स्तम्नादेरर्थस्य बहिरन्तश्च द्रस्पचेतनत्वाद्यनेकधर्माक्रान्तस्य ज्ञानस्यैकदा त् स्वार्थनिर्णयात्मनोऽध्यक्षस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्ष सिद्धत्वात्, तद् ग्राहक प्रमाणाभावोऽसिद्धः । ( तथाहि अन्तर्बहिश्च स्वलक्षणं श्लोकः स्थूलमेकं स्वगुणाऽवयवात्मकं ज्ञानं घटाऽऽदिकं [च] सकृत् प्रतिपस्याऽध्यवस्यति न चेयं प्रतिपत्तिरनध्यक्षा, विशदस्वभावतयाऽनुभूतेः न च विकल्पा विकल्पयोर्मनसो युगपद्वृत्तेः, क्रमभाविनोर्लघुवृत्तेर्वा एकत्वमध्यवस्यति जनः तत्रेत्यविकल्पाऽध्यक्षगतं वैशद्यं विकल्पे सांश (स्वांश) स्वार्थाध्यवसायिन्यध्यारोपयतीति वैशद्यावगतिः, एकस्यैव तथाभूतस्वार्थनियाऽऽत्मनो विशदज्ञानस्यानुभूतेरननुभूयमानस्याप्यपरनिर्विकल्पकस्य परिकल्पने बुद्धे सम्यस्था परस्य परिकल्पनाप्रसङ्ग इति सांख्यमतमध्यनिषेध्यं स्यात् । किं - सविकल्पाऽचिकल्पयोः कः पुनरैक्यमध्यवस्यति न तावदनुभयो विकल्पेन आत्मन ऐक्यमध्यवस्यति, व्यवसायचिकलत्वेनाभ्युपगमात् तस्यान्यथा भ्रान्तताप्रसङ्गात् । नापि विकल्पो विकल्पेन स्वस्यैक्यमध्यवस्यति तेनाविकरूपस्याचिषयीकरणात्, अन्यथा स्वलक्षयगोचरता - विपयीकृतस्य चान्याऽध्यारोपमा जि तः शुक्तिकायां रजतमध्यारो पषितुं रजतमेतदिति समर्थः । न च यथेश्वरादिविकल्प तद्विषयीकरखेतितद्भाब उपजायते तथाऽत्राप्यध्यवसिता विकल्पस्वभावो विकल्पः सनुपजायत इति स तयोरैक्य मध्यवस्यति, उक्लेोत्तरत्वात् । तथाहि न तावदनुभव एवंरूपमात्मानमवगच्छति तेनास्या - स्याविषयीकरणात् 'एतद्रूपतया तस्यासि नदिमराधिका जलरूपाऽध्यवसितातपतयाऽसिद्धार्थकियो पयोगिन्युपधा एवमनुभवोऽपि विकल्परूपतयाऽध्यचलि
ग्राह च
"तद् दृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः । स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्त्तते ॥१॥" इति स्मरणादनुमानरूपाद्वयवहारः प्रवर्त्तत इति श्रयमर्थः न म्यग्यगतचेतसो ऽभ्यस्ते परिमलादाधिकल्पाज्ञमतेः ि दर्शनात्पथेन निर्विकल्पकं प्रकम् । किच- यद्यनुमितिरेव बाह्ये सर्वदा प्रवृत्तिमारचयति तर्हि तत्र नाध्यक्षं प्रमाणमिति स्वसंवेदनमात्रमेवैकमध्यक्षं भवेत् तथा च "रूपादिस्वलक्षणविषयमिन्द्रियज्ञानम् आर्यसत्यचतुष्टयगोचरं योगिज्ञानम् " इत्यादि चतुर्विधाध्यक्षोपच नमसंगतमनुपज्येत । अथ निविकल्प नार्थस्वार्थक्रियायोग्यतामधिगच्छति तद्भाषे न प्रवृत्तिरित्यकत्याच बाधे प्रमाणम् हनुमान मपि नार्थक्रियासंगतिमवभासयति तस्याऽवस्तुविषयत्वात् तथा च तदपि कथं प्रवर्त्तकम् ? अथ तदध्यवसायितया तस्योत्यर्थमादित्वाभावेऽपि प्रदर्शकता असदेतत् तदध्यवसायित्वस्याप्यनुपपत्तेः । तथाहि तदद्भ्ययसाचित्वं तस्य किं ग्राहकाकारः, उत ग्राह्याकार इति वक्तव्यम् ?, यदि ग्राहकाकारस्तदा तस्य ग्राहकं स्वरूपं न बाह्यमर्थं सन्निधापयतीति न तदवध्यवसायो ऽनुमानसाध्यः । अथ ग्राह्याकारः सोऽपि नार्थस्यरूपसंस्पर्शीति कथं तदयगमे याद्यार्थाध्य वसितिरनुमानफलम् तदेवमनुमितेः स्वसंवेदनात्रसितत्वान्नार्थमदर्शनद्वारेण प्रवसंकता युक्ता । नन्वनुमाने खति प्रवृत्ति तद्भव सा न टेति तत्कार्यासनश्रीयते ह्यभ्यासदशायां विकल्पधिक दर्शने सति प्र वृत्ति प्रतिपदचारं तत्र विकल्पमा संवेदनेऽपि पुर परिस्फुटप्रतिभासमात्रादेव प्रवृत्ययपतेस्तत्कार्यास किंन व्यवस्थाप्यते ?, अथानुमानादनभ्यासदशायां प्रवृत्तिरुपसम्पति तदन्तरेण कथं न मन्दाभ्यासे अनु मानदेय प्रवृति अभ्यासदशायां तु पर्यालोचनलानुमान व्यतिरेकेणापि वस्तुनमात्रादेव समस्तु तथा दर्शनात्
"
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महयंभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहयंभवाह तस्तथाऽसिद्धो नार्थक्रियापयोगि; नाऽतः किंचित्सिध्यति ।। कालस्य विकल्पस्य न निराणयाऽनिर्णयाऽऽत्मकत्वमिति झा. नाऽपि बिकल्पस्तस्याऽवस्तुविषत्वाऽभ्युपगमात् । यदि पुन- नरूपताया अप्यभावः तद्विकलस्य गत्यन्तराभावात् तयोश्च विकल्पस्तपमात्मानमध्ययस्येत् तर्हि परमार्थविषयता त- विकल्पस्वभावविकलतया निःस्वभावता । शाना भिन्नयोरस्येति । "विकल्पोऽवस्तुनिर्भासा-द्विसंवादादुपप्लवः " इति । नुपलम्भत्वेन गत्यन्तराभावात् । स्वयं तयारुपलम्भे विकअसंगतं स्यात् । अत एव न विकल्पान्तरमपि तमध्यबस्येत् ल्पाद्भिन्न शाने स्याताम् । एवं च यदनिर्णयात्मकं तत्तदेव, तस्याऽपि तुल्यदोषत्वात् । किं च-तयोरैक्यं व्यवस्यतीत्यत्र यच्च निराणयस्वरूपं तदपि तदव । तथा च निर्विकल्पकस्य यदि विकल्पं निर्विकल्पकतया मन्यते व्यवहारी तदा निर्वि- पृथगुपलम्भनिरर्णयः स्यादिति पूर्वोक्नमव दूषणं पुनरापतति, कल्पकमेव सर्वे झानमिति विकल्पव्यपहारोच्छदादनुमा- निर्णयात्मकेऽपि चक्षुरादिज्ञानमपि तथैव स्यादिति पूर्वोक्त नप्रमाणाऽभावः । अथाऽविकल्पं विकल्पतया तदा सविक- एव दोषः। तत्रापि रूपद्वयकल्पनायां प्रकृतो दोषः, अनवस्था स्पकमेव सर्व प्रमाणमिति अविकल्पप्रत्यक्षवादो विशीर्यत । च । तन्न परस्परं तद्वतश्च भेदैकान्तो युक्तः । अभेदैकान्तेयथाहि-प्रज्ञाकराभिप्रायेण मणिप्रभायां मणिशानं, ' य एव ऽपि तद्वयमव तद्वान् वा भवेत् । तथा च न प्रकृतसिद्धिः। मणिर्मया दृष्टः स एव प्राप्तः' इत्यभिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम् अथ निर्णयाऽनिर्णयस्वभावयोरन्योन्यं तद्वतश्च कथंअन्यथाऽभ्यासदशायां भाविनी दृश्य-प्राप्ययोरेकत्याध्यव- चित्तादात्म्यम् तर्हि यत् स्वात्मनि अनिर्णयात्मकं बहिरर्थे सायात्प्रत्यक्षमव प्रमाणमिति न भवेत् । अन्यस्य तन्निब- च निर्णयस्वभावरूपं तत्साधारणमात्मानं प्रतिपद्यते चेद्विन्धनस्य तत्राऽप्यभावात्-तथा सर्वे निर्विकल्पं विकल्पत्वेन | कल्पः स्वरूपेऽपि सविकल्पकः प्रसक्नः, अन्यथा निर्णयस्वनिश्चित्य सविकल्पकमेव सर्व ज्ञानमिति यो व्यवहरति भावतादात्म्याऽयोगात्। न च स्वरूपमनिश्चिन्वन् विकल्पोतस्य किमिति तदेव न प्रमाणम ?, यथाहि-दृश्यं प्राप्यारो- ऽर्थ निश्चिनाति इतरथा गृहीतस्वरूपमपि ज्ञानमर्थग्राहक पात्प्राप्यं तथा अविकल्पो विकल्पाऽऽरोपाद्विकल्पो भवेत् , भवेदिति न नैयायिकमतप्रतिक्षेपः। न च नैयायिकाभ्युपगमेन न्यायस्य समानत्वात् । अथ यथा-प्राप्यमणिप्रभा-मणिप्रति- परगृहीतस्य स्वगृहीततादोषः, भवन्मतेऽपि परनिश्चितस्य भासयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि न मणिप्राप्तौ तत्प्रतिभास- स्वनिश्चितत्वप्रसक्नेः । यथा च परमातमननुभूतत्वान्नात्मनी स्याभावा-अन्यथा मणिः प्रतिभातो न प्राप्तः स्यात्-तथा विषयस्तथा विकल्पस्य स्वरूपमनिश्चितत्त्वान्नाऽऽत्मना विसविकल्पाऽविकल्पयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि निर्विकल्पकस्य षय इति समान पश्यामः । न च तस्याऽपि विकल्पान्तरण नाऽभावः; नन्वेवं सांशस्थूलैकस्पष्टप्रतिभासव्यतिरिक्तस्य निश्चयः तस्याऽपि विकल्पान्तरेण निश्चयाऽऽपत्तेरनवस्थानिरंशक्षणिकपरमाणुऽप्रतिभासलक्षणनिर्विकल्पकानुभवस्य- प्रसक्नेः । नच विकल्पस्वरूपमनुभूतमपि क्षणिकत्वादिवदनितदैव निर्णयप्रसक्तिः । अथ विकल्पनाविकल्पस्य सहस्रांशु- श्चितमर्थनिश्चायकं युक्तम् । अनिश्चितस्यानुभवऽपि क्षणिकना तारानिकरस्येव तिरस्कारान्न तथा निर्मयस्तर्हि विकल्प- त्ववत् स्वयमव्यवस्थितत्वात् । अव्यवस्थितस्य च शशस्याप्यविकल्पेन तिरस्कारात्प्रतिभासनिर्णयो न स्यात् । शृङ्गादरिवान्यव्यवस्थापकत्वाऽयोगात् । यथा च विकल्पअथ विकल्पस्य बलीयस्त्वादविकल्पस्य च दुर्बलत्वा- स्य स्वाऽर्थनिर्णयात्मकत्वं तथा चक्षुरादिबुद्धीनामपि तद् यु. त् तेन तस्य तिरस्कारः : ननु कुतो विकल्पस्य बलीय- क्तम् अन्यथा तासां तद्ग्राहकत्वाऽयोगात् । अथ विकल्पस्य स्त्वम्, प्रचुरविषयत्वात् इति चेत्, न अविकल्पविषय एव बहिरर्थे प्रवृत्तिरेव नास्तीति कथं तन्निराणयात्मकः? न हि प्रवृत्त्यभ्युपगमाद् अन्यथाऽस्य गृहीतग्राहित्वाऽसंभवात् । नीलशानं पीताऽप्रवृत्तिकं तन्निराणयात्मकं वक्तुं शक्यम् , प्रनिराणयात्मकत्वात्तस्य तदात्मकत्वमिति चेत्?, ननु तस्य किं तिपत्रभिप्रायवशात् बौ? ह्यार्थव्यवसायाऽऽत्मकत्वं विकस्वरूप निराणयात्मकत्वम् उतार्थरूपे?, न तावत्स्वरूपे “सर्व- ल्पस्य परमार्थतो निर्विषयत्वेऽपि व्यावयेते,तयुक्तम् । यतः चित्तचैत्तानामारमसंवेदनं प्रत्यक्षम्" (न्यायवि०१-१० इ- किमिदं विकल्पस्थ परमार्थतो निर्विषयत्वम् ? यद्यात्मविषत्यस्य विरोधात् । एवमपि तत्र तस्य निर्णयात्मकत्वे चक्षु- यत्वं तात्मविषयं निर्विकल्पकमपि शानं निर्विषयमित्यर्थरादिशानं स्वपरयोस्तदात्मकं किं न भवेत् ? तथा च स्वा- निर्णयाऽऽत्मकत्वाद्बलवान् विकल्प इति निर्विकल्पकानुभवनकाराध्यवसायाधिगमश्चक्षुरादिचेतसां सिद्ध इति केन | स्य निर्णयस्तिरस्कारक इत्यसङ्गतं स्यात् सविकल्पकस्यैव ककस्य तिरस्कारः? तन्न विकल्पः स्वरूपे निर्णयात्मकोऽ। स्यचिदभावादात्मविषयस्य निर्विकल्पकस्यापि विकल्पयत्सभ्युपगन्तव्यः । अथार्थे तस्य निर्णयात्मकत्वम् । नन्वेव- | विकल्पकस्यैव वा भावात् न चैवं कस्यचित्प्रतिपत्तुरभिप्रामेकस्य विकल्पस्य निर्मयाऽनिर्णयस्वभावं रूपद्वयमाया- यः। अथ साधारणस्यास्पष्टस्य स्व-परयोरविद्यमानस्याकातम् । तच्च परस्परं तद्वतश्च यद्येकान्ततो भिन्नमभ्युपगम्यते रस्य शब्दसंसर्गयोग्यस्य विषयीकरण निर्विषयत्वं, न तस्य समवायादरनभ्युपगमात्सम्बन्धाऽसिद्धेः 'बलवान् विकल्पो तत्र सम्बन्धाऽभावतो विषयीकरणाऽसंभावत् , तथापि तनिर्णयात्मकत्वाद् ' इत्यस्यासिद्धिः । न च रूपादीनामिय द्विषयीकरणे सर्वमपि ज्ञान तथैव स्वविषयं विषयीकुर्यादिपरस्परमेकसामठ्यधीनतालक्षणस्तयोः संबन्धः तद्वता चाऽ-- ति, तदुत्पत्त्यादिसम्बन्धकल्पनमनर्थकमासज्येत । न च ग्निधूमयोरिव तदुत्पत्तिलक्षण इति वक्तव्यं स्वाऽभ्युपगमवि- तादात्म्यलक्षणस्तत्र तस्य सम्बन्धस्तदाकारे अविकल्परोधात् । किं च-यदा विकल्पस्य कारणत्वं निर्णयाऽनिर्णय- कत्वस्याऽविकल्पकत्वे वा तदाकारत्यस्य प्रसनः। तदुत्पयोश्च कार्यत्वं तदा विकल्पस्य पूर्वकालत्वं, तयाश्चात्तरका- त्तिसंवन्धयशात् तेन तद्ग्रहणम् इत्येतदप्ययुक्तं तदालत्वं, प्रज्ञाकराभिप्रायात्त विपर्ययोऽपि मरणलिङ्गस्यारिष्टा- कारस्य तज्ज्ञानात्पादकत्वेन स्वलक्षणत्वप्राप्तेस्तज्ज्ञानस्य देस्तत्कार्यतया प्राक् भाविनस्तेनाभ्युपगमात् । तथा च भिन्न- सविषयताप्रसक्निदोषात् । न च स्ववासनाप्रकृतिविभ्रमव
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सहबंभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहवंभवाइ शादत दुत्पन्नमतदाकारं च तत्तद्विषयीकरोति अक्षसम- "न विकल्पानुवुद्धस्य. स्पष्टार्थप्रतिभासिता। नन्तरविशषात् , अन्यस्याप्युपजातस्य तथा स्वविषयीकर- स्वप्नेऽपि स्मयते स्मार्स ,नं च तत्ताविरोधकृत् ॥१॥" प्रसक्तः सर्वत्र तदाकारतदुत्पत्तिप्रतिवन्धकल्पनावैयर्थ्यप्र- इति चेत् ; ननु स्वप्नावस्थायां पुरोवत्तिहस्त्याद्यवभासमेक सक्नः । श्रतस्तदाकारविषयीकरणासंभवाद्विकल्यार्थाभावतो शानमनुभूयत , अपरं तु स्मरणशानम् । तत्र पूर्वाल्लेखतयोदृश्य-विकल्प्यायवेकीकृत्य प्रवर्तत इत्युक्तमभिधानम्। ततो पजायमानस्य-यदि वेशद्यवैकल्यं नैतावता सर्वविकल्पस्य न बलवान् विकल्प इति कथं तनाऽविकल्पतिरस्कार इति
पुरोवर्तिस्तम्भाल्लेखवतो वैशद्याभावस्तत्र तस्य स्वसंवेदनाअधिकल्पकनिश्चयस्तदव भवेत् नचैवम्-अतो नाऽवि
ध्यक्षतः प्रतीतेः । न चाविकल्पकं तदिति वक्तव्य स्थिरस्थूरकल्पस्य विकल्पेन पकत्वाऽध्यवसायः । किंच-विक- पुरोव्यवस्थितहस्त्याद्यवभासिनः स्वप्नदशाज्ञानस्याविकल्पल्पेऽविकल्पकस्यैकत्वेनाध्यारोप इति कुतो निश्चीयते ? कत्वे अनुमानस्यापि सांशवस्त्यध्यवसायिना निर्विकल्पकअस्पष्टाऽस्खलक्षणग्राहिणि स्पएस्वलक्षणग्राहित्वस्य प्रतीते- त्वप्रसक्तः विकल्पवा विरतिरव स्यात्। अत एव-'प्रथम मतदभ्यारोपावगतिरिति चेत् . ननु यदि नाम तत्र तत्प्रती
निर्विकल्पकं निरंशवस्तुग्राहकं तदर्थसामोद्भूतत्वात् तदुतिः अविकल्पारोपस्तु कुतः? स्पष्टत्वादेस्तद्धर्मस्थ, तत्र दर्श
त्तरकालभावि तु निर्विकल्पज्ञानप्रभवमनिरपेक्षं सांशवनादिति चत् : तद्धर्मः स्पपत्यादिरित्येतदेव कुतः ? तत्र दर्श
स्त्वध्यवसायि सविकल्पकमशविदम् , लघुवृत्तेस्तु निर्निकनादिति चेत् । अत एव विकल्पधम्मोऽप्यस्तु अन्यथा विक
ल्पकज्ञानवैशद्याध्यारोपात् , तत्राध्यक्षत्वाभिमानो लोकरूपस्यापि मा भूत् । न च विकल्पव्यतिरेकेणाविकल्पमपग्म
स्य' इति , एतदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् । विकल्प एव पूर्वोनुभूयते यस्य स्पष्टत्वादिधर्मः परिकल्पेत एवमपि तत्र त
क्लन्यायेन वैशद्योपपत्तः , निर्थिकल्पकस्य च निरंशक्षणिकत्परिकल्पन ततोऽप्यपरमननुभूयमानं विशदत्वादिधर्माधारं परमाणुमात्रावसायिनः कदाचिदप्यनुपलब्धस्तत्र वैशद्यकपरिकल्पनीयमिति अनवस्थाप्रसक्तिः। अथ किंचित् ज्ञान स. ल्पनाया दुरापास्तत्वात् । अथ संहृतसकलविकल्पावऽस्थाविकल्पकमपरं निर्विकल्पक राश्यन्तराभावाद्विकल्पस्य चाऽ. यां पुरोवर्तिवस्तुनि सि विशदमक्षप्रभवं ज्ञानमविकल्पर्थसामोद्भूतत्वासंभवान्न विशदत्यादिधर्मयोगः अविक
कं संवद्यत एव तथा चाध्यक्षसिद्ध एव ज्ञानानां कल्पनाविल्पस्यापि तद्योगाभावे विशदत्वादिकं न क्वचिदपि भवदि
रह इति नात्र प्रमाणान्तरान्वेषणमुपयोगि । तदुतम्-'प्रत्यक्षं त्यविकल्पस्यैव तदभ्युपगन्तव्यम् । भवदेतद्यद्यर्थसामर्थ्य
कल्पनापाद , प्रत्यक्षणेव सिध्यति ॥' इत्यादि । तथा पुनरप्रभवत्वेन वैशद्यांदाप्तिः स्यात्तदभाव तन्न भवेत् । न चै
प्यूक्तम्वम्-अर्थसामोद्भुतऽपि दुरस्थितपादपादिशाने वैशद्यादे
" संहृत्य सर्वतश्चिन्तां , स्तिमितेनान्तरात्मना । ग्भावाद् योगिप्रत्यक्ष चार्थप्रभवत्वाभावेऽपि च भावात् । न
स्थितोऽपि चतुपा रूपं. वीक्षत साक्षजा मतिः॥१॥" च तदप्यर्थसामथ्योद्भूतं तत्समानसमयस्य चिराऽतीतत्वाद
न ह्यस्यामवस्थायां नामादिसंयोजिता लखा विकल्पस्वरूनुत्पन्नस्य चार्थस्य तद्ग्रहणानुपपत्तेः । तथाहि-प्रागसर्वशः
पोऽनुभूयते । न च बिकल्पानां स्वसंविदितरूपतयाऽननुसन् सुगतो विवक्षितक्षण सर्वज्ञतामासादयंस्तत्समानसमय
भूयमानानामपि संभव इति विकल्पविकला साऽवस्था भाबिना भावानाम्-तज्ज्ञानं प्रति अजनकत्वात्तेषां-ग्राहको
सिद्धा, असदतत् । यतस्तस्यामवस्थायां स्थिरस्थरस्वभान स्यात् , एवमुत्तरोत्तरतदविज्ञानक्षणा अपि स्वसमयार्थया
वशब्दसंसर्गयोग्यपुरोव्यवस्थितगवादिप्रतिभासस्याऽनुभूतः हका न भययुः । चिरतरविनस्य च भावकलापस्यासत्त्वेन
सविकल्पकज्ञानानुभव एव । न हि शब्दसंसर्गप्रतिभास एव तदकारणत्वान्न तं प्रति ग्राहकता भवेत् । अनुत्पन्नस्य च सधिकल्पकत्वं तद्योग्यावभासस्यापि कल्पना स्वाभ्युपगपदार्थसमूहस्य कारणत्वाऽसंभवात् , तं प्रति ग्राहकता तस्य
मात् , अन्यथा व्युत्पन्नसंकेतस्य ज्ञानं शम्बसंसगविरहात् दुरात्सारितय । अथ चिरातीतं भावि च तत्कारणमभ्युप
कल्पनायन्न स्यात् । नच पूर्वकालदृष्यस्य वर्तमानसमयभागम्यत इति नायं दोपः। नन्वत्राऽप्यऽभ्युपगमे येन स्वभावन
विनि संयोजनाच्छब्दाल्लेखाभावेऽप्यसदर्थवाहितयाऽविशदतत्तदनन्तरभाविकायमुत्पादयति तेनैव यदि सुगतज्ञानमि
प्रतिभासत्वात् तत् सविकल्पकम् , पूर्वकालदृष्त्वस्य पूर्वदानींतनकालभावि जनयति तदैकस्वभावत्वान्नित्यादिवत् का- दर्शनाप्रतीतावपि ब्यापकाप्रतीतौ व्याप्यस्येव प्रतीतेरसत्वार्यक्रमायोगात् पूर्वमेवैतदप्युत्पद्यत । अथ समनन्तरप्रत्ययस्य
ऽसिद्धः तत्सम्बन्धित्वग्राहिणोऽसदसिद्धेर्धेशद्याभावस्य सुगतज्ञानहे तोरिदानीमव भावान्न पूर्वमत्पत्तिः, असदेतत् ,
तत्रानुपपत्तः। शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासस्य विशदतया विकयत श्रालम्बनकारण चिरातीतसमयभावि तदैव तत्कार्यम
ल्परूपस्याप्यध्यक्षतोपपत्तः शब्दयोजनामन्तरणापि स्थिरस्थूत्पादयितुं प्रभवति समनन्तरप्रत्ययस्त्विदानीमिति विरुद्धका
रार्थप्रतिभासं निर्णयात्मकं ज्ञानमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम् ,अन्यरणसामर्थ्यानुविधायिनः कार्यस्योत्पत्तिरच न भवत् । अ
था तस्य प्रामाण्यमवानुपपन्नं भवेत्। तथाहि-यत्रैवांश नीलाथान्यन स्वभावन तर्हि सांश तत्प्रसज्यत इति तदग्राहिणोऽ
ऽऽदा विधिप्रतिषविकल्पद्वयं पाश्चात्यं तज्जनयति तत्रैव तपि शानस्य सांशकवस्तुग्राहकत्वन सविकल्पकताप्रसक्तिः ।
स्य प्रामाण्यं तदाकारोत्पत्तिमात्राण प्रामाण्ये क्षणिकत्वादावएवं भाविकारगगऽपि वक्तव्यम् । तत्र योगिप्रत्यक्षमर्थसाम
पि तस्य प्रामाण्यप्रसक्ने क्षणक्षयानुमानवैफल्यमभ्यया भवेत् ध्यप्रभवमभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथा पूर्वोक्तदोपप्रसक्तः। तच्च
विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणम् तत्संयोजना च शब्दतदप्रभवमपि यथा विशदम्-अन्यथा प्रत्यक्षवानुपपत्तेः
स्मरणमन्तरणासभविनी तत्स्मरणं पत्र प्राक्कनसन्निध्युपलतथा विकल्पशानमर्थसामाप्रभवपि यदि विशदं भवत् सदा को विरोधः?, विकल्पस्य पेशयमेव विरोधः। तदुक्तम् । १-'नच तत् तादगदग ।' पाठान्तरे ।
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सहर्षभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहभवाह ब्धार्थदर्शनमन्तरेणानुपपत्तिमत् , तद्दर्शनं चाध्यक्षतः क्षणि- | चोदनालक्षणैः साध्या, तस्मादेष्वव धर्मता ॥१॥ कत्वादाचिव निश्चयजननमन्तरेणाऽसंभवि, निश्चयश्च श- एषामिन्द्रियकत्वेऽपि, न तादूप्येण धर्मता ॥ ब्दयोजनाव्यतिरेकेण नाभ्युपगम्यत इत्यध्यक्षस्य क्वचिदप्य- श्रेयःसाधनता ह्येषां , नित्यं वेदात्प्रतीयत । र्थप्रदर्शकत्वाऽसंभवात् प्रामाण्यं न भवेत् । तस्माच्छब्दयो- । तादूप्येण च धर्मत्वं, तस्मान्नेन्द्रियगोचरः।" जनमन्तरेणाप्यर्थनिएर्णयात्मकमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम् अ--
(श्लो० वा० सू०२ श्लो० १६१-१३-१४) इति । न्यथा विकल्पाऽध्यक्षण लिङ्गस्याप्यनिर्णयात् । अनुमानात् तन्निर्णये अनवस्थाप्रसक्तः, अनुमानस्याप्यप्रवृत्तितः सकलप्र
एवमनेकधा विवाददर्शनान्न विवादाभावः । स च स्वर्गमाणादिव्यवहारविलोपः स्यात् । अत एव-"अश्व बिक- प्रापणसामर्थ्यस्य दानचित्तादभेदे वस्तुस्वरूपग्राहिणा चल्पयतो गोदर्शनात् न तदा गोशब्दसंयोजना तस्यास्तदा- स्वसंवेदनाध्यक्षणाऽनुभवे सद्व्यचेतनत्वादाविव न युक्तः। ननुभवात् युगपद्विकल्पद्वयानुत्पत्तेश्च । निर्विकल्पकगो- अथ तच्चित्तादभिन्नं तत्प्रापणसामर्थ्य सद्गृहे गृहीतमदर्शनसदभावस्तदा" इति निरस्तम् गोशब्दसंयोजनामन्त
व, कि तु-स्वसंवेदनस्य “सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं रेणापि तदर्शनस्य निर्णयात्मकत्वात् , अन्यथाऽश्वविकल्प- 'प्रत्यक्षमविकल्पकम्" इति वचनात् अविकल्पाध्यक्षनाद् व्युत्थितस्य वि क्षणिकत्ववत् शब्दस्मरणासंभवतः त्वमिति तद्गृहीतस्यागृहीतकल्पत्वाद्विवादसंभवः तत्र श्राह स्मृतिर्न भवेत् । अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथा गोशब्दस्म- च कीर्तिः– पश्यन्नपि न पश्यति' इत्युच्यते । असदेरणस्यापि विकल्परूपत्वादपरतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तद्यो
तत् । यतो यदि तत्सामर्थ्य निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वाद जनारूपस्य तस्याऽसंभवात् तत्स्मरणमभ्युपगन्तव्यं तस्या
गृहीतमप्यगृहीतकल्पं तर्हि तच्चित्तमपि तत एव तथा भवेऽपि चापरतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तथाभूतस्याऽनुपपत्तेरपर
दविशेषात् तथा च- यदानादिचित्तं तद्बहुजनसेव्यतानितच्छब्दस्मरणमित्यनवस्थानात् न प्रथमशब्दस्मरणमिति न व
बन्धनं यथा त्यागिनरपतिचिंतं, दानादिचित्तं च विवक्षितचिद् विकल्पप्रसवो भवेत् , अथापरशब्दस्मरणमन्तरेणापि म्' इत्याद्यनुमानमगमकम्-आश्रयासिद्धत्वादिदोषात्-प्रशब्दस्मरणसंभवान्नाऽनवस्था तर्हि प्रथमशब्दस्मरणं तद्यो
सज्येत । अथात्र विकल्पोत्पत्तन दोषः, असदेतत् , यतो यजनं च व्यतिरेकेणाप्यश्वविकल्पनसमये गोदर्शनस्य नि
द्यहेतुको विकल्पः चित्तवत् तत्सामर्थेऽपि भवेत् । अथ न, राणयाऽऽत्मनः संभवात् कथमस्या विकल्परूपतासिद्धिमु- तत्र चित्तेऽपि मा भूत् अविशेषात् । अनुभवाद्विकल्पोत्पत्तिपगच्छत् ? । यदपि-'निरंशवस्तुसामोद्भूतत्वात् प्रथमाक्ष- र्नानिमित्तेति चेदुभयत्र स्यात् न वा क्वचिदप्यनुभवस्यासन्निपात निरंशवस्तुग्राहि निर्विकल्पकम् ' इति तदप्यसं- ऽप्यविशेषात् न च चेताविकल्पप्रभव एवानुभवः समर्थः गतम ; निरंशस्य वस्तुनोऽभावेन तत्सामोद्भूतत्वस्य नि- न तत्सामर्थ्यविकल्पोत्पत्ताविति वक्तव्यं यतो येन स्वभावेन विकल्पकत्वहतास्तत्राऽसिद्धेः । न च यन्निरंशप्रभवं तन्निर- तच्चित्तचेतनादिकं स्वसंवेदनाध्यक्षमनुभवति, तेनैव चेत् तशग्राहि, निरंशरूपक्षणप्रभवस्याप्युत्तररूपक्षणस्य तग्राहि- त्सामर्थ्य तह[भयत्रापि विकल्पस्ततः प्रादुर्भवेत् । अथ रूत्याऽदर्शनात् । न च ज्ञानत्वे 'सति' इति विशेषणान्नायं दोषः पान्तरेण तहर्षुभयरूपतैकस्यानुभवस्येत्यविकल्पकैकान्तवाप्रत्यक्षप्रभवविकल्पस्य ज्ञानत्वेऽपि तभावानुपपत्तेः उपपत्ती
दव्याघातः, न चैकेनैव स्वभावेनोभयानुभवऽपि तत्सामर्थ्य वा हिंसाविरतिदानचित्तस्वसंवेदनाध्यक्षप्रभवनिर्णयेन तद्
न विकल्पमुत्पादयत्यनुभवः अशक्तरन्यत्र तदुत्पादयति ग्रहणोपपत्तः निश्चयविषयीकृतस्य चानिश्चितरूपान्तराभा
विपर्ययादिति वक्तव्यम् , एकस्य शक्नेतररूपद्वयायोगात् । न यात् स्वर्गप्रापणसामर्थ्यादरपि तद्गतस्य निश्चयात् , तत्र
चैकत्र शक्तिरेवान्यत्राशक्तिस्तस्येतीश्वरस्यापि क्रमभाविकाविप्रतिपत्तिर्न भवेत् अथानुभवस्यैवाय यथावस्थितवस्तु
र्यविधायिनः एकत्र शक्तिरेवापरत्राशक्तिरिति, स्वभावभेदो न ग्रहणलक्षणः स्वभावविशेषो न विकल्पस्य तेनायमदोषस्तर्हि
भवदिति न नित्यकारणप्रतिक्षेपो भवेत् । श्रथ नानुभवमायथा दानचित्तानुभवः स्वसंवेदनाध्यक्षलक्षणः तद्गतं सद्र
त्राद्विकल्पप्रभवः अन्यथा निर्णयात्मकानुभववादिनोऽपि विव्यंचतनादिकं विषयीकरोति तथा स्वर्गप्रापणसामर्थ्यमपि स्तीराणप्रघट्टकादी वर्मपदवाक्यादेः सकलस्य निर्णयात्मतत्स्वरूपाव्यतिरिक्तत्वाद्विपयीकुर्यात्ततश्च सद्व्यचेतन- माऽध्यक्षणानुभवात् स्मरणविकल्पानुदयो न भवेत् । अथात्र स्वादाविव तत्राऽपि विवादा न भवेत्। न चासौ नास्तीति श दर्शनपाटवाभ्यासप्रकरणाद्यप्येक्षा तॉन्यत्रापि सा तुल्येति । क्यं वक्तु चार्वाकादेस्तत्र विप्रतिपत्तिदर्शनात्। तथाहि-"या एतदप्यसद् यतो दर्शनस्य पाटवं सच्चेतनाऽऽदौ, तद्यजीवत्सुखं जीव" इत्याद्यभिधानान्न स्वर्गः नापि तत्प्राप्तिहेतुः कश्चिद् भाव इति चार्वाकाः । नैव दानादिचित्तात् स्वर्गः १ अत्र धर्मकीर्ति कृते न्यायविन्दौ-" सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनम् " यदि ततो भवेत् तदनन्तरमेवासो भवेत् अन्यथा मृतात् इत्येतावदेव सूत्रं दृश्यते-प० १ सू० १० पृ० ११ । तत:-" प्रत्यक्षमशिखिनः केकायितं भवत्तस्मात्ततो धर्मस्तस्माश्च स्वर्ग इति विकल्पकम्" इत्यशत भूत्रटीकानुसारी समुद्धतो बोद्धव्यः। सा च टीकेयम् नैयायिकादयः। "इप्टाऽनिष्टाऽर्थसाधनयोग्यतालक्षणी धर्मा- वर्तते -" तच ज्ञानरूपं वेदनमात्मनः साक्षात्कारी निविकल्पकमभ्रान्तं च उधर्मामौ" इति मीमांसकाः । उक्तं च-' शाबर-" य एव तस्मात प्रत्यक्षम् "- पृ० ११ पं० १४ | तट्टीकाटिप्यण्यपि यथा-" तत् श्रेयस्करः स एव धर्मशब्दनोच्यते," (मीमांसाद०१-१-२ प्रत्यक्ष स्वसंवेदनरूपं निर्विकल्पकं तत्र शब्दादियोजनाभावात् । कुतः। राम्दे शाब० पृ० ४) अनन द्रव्यादीनामिष्टार्थसाधनयोग्यता धर्म | संकेताभावात् । अभ्रान्तं च तद्विशानं स्वरूपेऽविपर्यस्तत्वाद् बाधकाभावाचेइति प्रतिपादितं शबरस्वामिना । भट्टोऽप्येतदेवाह
ति"-पृ. ३३ पं० ५-६ " सचित्तत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्ष निर्वि"श्रेयो हि पुरुषप्रीतिः, सा द्रव्यगुणकर्मभिः । | कल्पकामिति"-सिद्धिवि. टी.लि.प.५१५० २० ।
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सहर्षभवाह
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प्रणयोग्यता तत्सामध्ये अपाटयं तद्योग्यता तच्च दर्शनस्य दृश्यस्य च सांशतायामुपपत्तिमदिति कथं न सविकल्पकता ?, विकल्पजननाऽजनने तत्पटवाऽपाटवे अपि नाभ्युपगमनीये सांशतापत्तिदोषादेव । अथाभ्यासादिसहाय दर्शनं विकल्पमुत्पादयति नम्यमपि सचेतनादीद शेनं तदेव चेत् अन्ययोभयत्र विकल्पोत्पत्तिर्भवेत् अन्यथा नित्यस्यापि सहकारिसचिवमेकदक पं तस्याम्यत्रान्यदा सद्भावेऽपि न तत्कार्यकरणं तदा तत्र' इति तस्य यद् दूषणं तदसंगतं भवेत् । किं च-यदपरमपेक्ष्य काजनकं कचिद र तत् तत् कार्य नियतीति मृदादियत् कुम्भकारापहतम् । नचाभ्यासादिसहायमविकल्पर्क कदाचिद्विकल्पमुपजनपद् दृशमिति कथं तस्य सहकारिसचियस्य विकल्पजनकताभ्युपगमः । अथ संच तनादिविकल्पमविकल्पकमुत्पादयत् दृष्टमिति तदभ्युपगमः स्यादेतत् यदि क्रमभाषिहेतुफलभूतम विकल्पविकल्प ज्ञानद्वयमवसीयत न च तदवसीय सांशयिकपिखभावस्य सामान्यविशेषात्मक वस्तुग्राणि प्रथममेोपजायमानस्यैकस्यैव निश्चयात् । तथाऽप्यप्रतीयमानस्य पूर्वकालभाविमो परस्याविकल्पस्याभ्युपगमे तथाप्यपरस्य तथा भूतस्याभ्युपगम इत्यनवस्थाप्रसक्तिः ।
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( ३७८ ) अभिधान राजेन्द्रः । सहर्षभवाह स्तराऽऽरोपसंभवासद्वार्थ प्रमाणान्तरमवृत्तिः समयोजनेवति तदयुक्रम् - यतस्तत्सामध्येस्यले स चेत तदेष उताऽन्यदिति । प्रथमप उभयत्र निश्वयाभावः फलादर्शनस्याविशेषात् द्वितीय घट पटवत् तद्भेदः । यदप्यसामर्थ्य समारोपाठ विश्वयानुपतिरिति तथापि तत्सामर्थ्यानुभवो यद्यनिश्वितोऽप्यस्ति सर्व सर्वश्राऽनिश्चितमपि भवेत् इति सांख्यमताऽप्रतिक्षेपः । न च तत्सामर्थ्यं ततोऽभयमिति तदनुभये तस्याप्यनुभय चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकत्वाग्रहरातः तैमरिकदर्शनेन व्यभिया रात्, तस्यापि ग्रहणमिति चेत्, न भ्रान्तेरभावप्रसङ्गतः "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् ” ( न्यायबि०१-४ ) इत्यत्राभ्रान्तग्रहाऽऽनर्थक्यम सन्चैवच्छेद्याभावात् चन्द्रग्रहणमपि तत्र नास्तीति चेत्, न एकत्वाप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिभास दर्शनात् । एकस्य द्वित्वविशिष्टतया तस्य ग्रहणान्मरीचिकाजलज्ञानवत् भ्रान्तं तदिति चेत् न त्वे यथावि संवादाभिप्रायात्तद्भान्तं तथा चन्द्रमसि संवादाभिप्रायात्किमिति तत्रा (ना) भ्रान्तं प्रमाणेतर व्यवस्थाया व्यवहार्य नुरोधतः समाश्रयणात् प्रमाण्यं व्यवहारेण शाखं मोहनियतनम्।' इति भवतैवाभिहितत्वात् । नचैकत्र ज्ञाने भ्रान्तेतररूपद्वयमयुक्तं व्यवहारिणा तथाऽऽश्रयणाद् अन्यथैकचन्द्रदर्शनस्यापि 'चन्द्ररूप प्रमाणता क्षणिकत्वे श्रप्रमाणता' इति रूपद्वयं न स्यात् क्षणक्षयेऽपि तत्प्रामाण्ये प्रमाणान्तरा प्रवृत्तिभवत्। चन्द्रमस्यप्यप्रमाणत्वेन किञ्चित् कचित्प्रमाभवेदिति सर्वप्रमाणव्यवहारलोपो भवेत् यस्य तु मतं दृश्य प्राप्ययोरेकस्ये अविसंवादानिमानिनः प्रत्यक्षं प्रमाणम्, इतरस्य तयोर्विवेके सत्यनुभूतेऽपि न प्रमाणं तस्य चन्द्रदर्शन चन्द्रप्राप्त्यभिमानिनः किमिति चन्द्रमात्रे तन्न प्रमाणम् ?, विवेकानध्यवसायिनस्तु यदि तदननुभूतेऽप्येकत्वे प्रमाणं तईि बचथावभासते तथेय परमार्थसइयवहाराबतारि, यथा नीले नीताऽभासमानं तथैव स वहारावतारे अवभासन्ते च क्षणिकतया सर्वे भावा इत्यनुमानमसंगतं हेतोरसिद्धताप्राप्तेः । अथ तं प्रत्येतदनुमानमेव मोपादीयते तर्हि के प्रत्येतदुपादेयम् ? यस्तो मन्यते तं प्रतीति चेत् न तं प्रत्यनुमानानर्थक्यात् तदन्तरेणापि तदर्थनिष्यते यच्च तं प्रति भाविनि प्रवर्त्तमानं प्र मायुक्तम् तत् "सर्वसितानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् " इति वचनात्स्वरूपे भ्रान्तं बहिरर्थे " भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा" इति वचनाद् भ्रान्तमित्येकमेव कथं द्विरूपम् ? किं
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यदि तस्य न प्रत्यक्षं प्रमाणमस्ति कथमनुमानप्रायः अस्तित्तविषयमिति वाच्यम् ? साधना लादिसाधनविषयं प्राप्यायभासि प्राप्यर्थक्रियाविषयमिति चेत् ननु तदपि जलादिमात्रेप्रमाणं विषय कार्य जनसाम
दावप्रमाणम् अन्यथा विवादाभावात् शास्त्रप्रणयनं तदमनर्थकं मयेदिति तद्यशेनैव प्रमाणम् ।
यदप्यविकल्पकस्याभ्यासादिसहायविकल्पजनने प्रघट्टकामरणं दृष्टान्तत्येनोपन्यस्तं तदप्ययुक्रम्। यतो न तज्ज्ञानानां च व्यक्तिभेदात् दृढसंस्काराण्येव निश्वयात्मकान्यपि ज्ञानानि स्मृतिजनकानि नाऽपराणीति प्रतिनियतविषयस्मृतिसंभवान्न सकलप्रघट्टकास्मरणदोषः । श्रनिश्वयात्मकं तु ज्ञानं क्षणिकत्वादाविव न क्वचिद्विकल्पहेतुर्भवेत् । इत्युक्तं प्राकू न च भवत्यते सचेतनाऽऽदिस्वर्गप्रापणशइत्यादीनां परस्परं तदनुमयानां च भेदः येनेदमुत्तरं समाने भवेत् । तथा हि-संचेतनादितासामर्थ्ययोरभेद तदनुप्रयादेकरूपादुभयत्र संस्कारः स्मरणं वा भवेत् न वा कचिदिति अन्यथा अनुभवस्य सांशतापत्तिरिति सविभ तस्मादानचित्तादी सचेतनत्वादिकमनुभूपते न स्वर्गशापणसामर्थ्यमित्यभ्युपगन्तव्यम् । अथ तच्चेतसो सूचिका लर्कविषविकारवदनन्तरं फलस्यानुपलम्भात्, अतत्फलसाधयिद सामर्थ्य समारोपाद्वा, तदनुभवेऽपि न विकल्पः। तदुक्तम्
"एकस्यार्थस्वभावस्य प्रत्यक्षस्य सतः स्वयम् । कोsन्यो न दृष्टो भागः स्याद्यः प्रमाणैः परीक्ष्यते ॥ १ ॥ मोद अग्निनिमितेन संयोज्येत गुणान्तरम् । शुक्ौ वा रजताकारो, रूपसाधर्म्य दर्शनात् ॥२॥ " इति ।
अत्र च तात्पर्यार्थः यद् यतोऽभिन्नं तस्मिन्ननुभूयमाने तदनुभूयते यथा तस्यैव स्वरूपम् अमिता चेतसः स्वर्गप्रापणसामर्थ्य तस्य ततो भेदे सम्बन्धासिद्धेः सामर्थ्यादेयतायाश्वेतवस्तत्प्राप्ति प्रत्यकारक येत् निरस्य च वस्तुनोऽध्यक्षेणानुभवे अननुभूतापरांशाभावान्न तत्र प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः प्रयोजनवती । श्रय च निश्चयात्मकाध्यक्षयादिनो दोष निश्चिते विपरीत समारो पाभावात् निश्चयारोपमनसाध्यबाधकभावात् । अपिकल्पनानुभूतु वस्तुम्पनिश्ययात् भ्रान्तिनिमित्तगुणा
यत्पुनरभ्यधाषि-पप्राप्ययोरेकत्वे विसंवादबुद्धिप्रति प्रत्यक्षाऽऽभासम्' इति तत्र दृश्यादिमात्रे तदाभासत्वे वस्तुदर्शनमुच्छिद्येत । श्रथात्र प्रमाण - तदाभासधर्मद्वयमेकत्राप्यभ्युपगम्यते प्रकृतेऽप्यभ्युपगम्यताम् । अथ तैमिरिकशानेनाप्रतीयमानमेकत्वं तस्येति कथं? ननु निश्चिते शब्दे श्रनि
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(३७६) सहभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहभवाइ श्चिता क्षणिकता तस्येत्यपि कथम अनमानेन तत्रैव निश्च- स्वात् प्रदीपवत्' तथा प्राप्तार्थप्रकाशकं च तैजसत्पात् यात् तस्येस्येतदन्यत्रापि समानम् । तदेवं निरंशत्षे वस्तुनः प्रदीपषत् 'इति, एतदप्यत एव निरस्तम् रूपप्रकाशकत्वं हि सचित्तग्रहणे तत्सामर्थ्यस्यापि ग्रहणप्रसक्नर्विवादाभावस्तत्रै- रुपज्ञानजनकत्वं तप प्रदीपस्याऽसि तस्य रूपैकहानसंसव भवेत् । न चैवमिति सांऽशं वस्तु तथाभूतवस्तुग्राहकं प्र- नित्वात् । प्रयोगश्चात्र-प्रदीपस्तद्विशामकारणं न भवति माणमपि सांश सत्सविकल्पकम् अपि च-यदि निरंशवस्तु विषयत्वात् यो हि यद्विषयो नासौ तत्कारणं यथा त्रिकासामोद्भूतत्वात्कल्पनापोढमध्यक्ष स्वसंवेदनं तथाभूतवस्तु लाशेषभावविषययोगिझानस्यातीतादिकोऽर्थः, तथा च प्रप्रभवत्वाभावात् संवेदनग्राहि निर्विकल्पकं च न भवेत् , अथ दीपो विषयो यथोक्तरूपज्ञानस्य तस्मान्न कारणमिति । तैजतादात्म्यं तत्र तन्निमित्तं, न; सचेतनादेरिव स्वर्गप्रापण- सत्वाऽसिद्धौ च चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं दूरोत्सारितमेव । सामर्थ्यादेरपि ग्रहणप्रसक्नेस्तविशेषात् । अथ न तादात्म्या- अत एव-"नाऽननुकृतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं द् ग्रहणमेवाभिन्नस्य, किं तु-तादात्म्यादेव, असदेतत् । ता- विषयः" इति सौगतमतमप्यपास्तम् । तथाहि-किं कारणम् दात्म्यादेव स्वरूपस्य ग्रह इत्यत्र प्रमाणाऽभावात् । अविक- विषय पव, उत कारणमेव विषयः ?, प्रथमपक्षे रूपादिसंल्पकं दर्शनं प्रमाणमिति चेत्, न सुषुप्ताऽवस्थायां तत्प्रसङ्गात् विदां चतुराद्यपि विषयो भवेत्, तथा च-' यस्मिन् सत्यपि तत्रापि चैतन्यसद्भावात् । अन्यथा प्रबोधावस्थाविज्ञानमनु. यन्न भवति तत्तदतिरिकहेत्वपेक्ष यथा कुलालाऽभावे सत्यपादानम् अचेतनोपादानं वा भवेत् । न च तदनुरूपप्रबोधदर्श प्यपरकारकसमूहे अभवन् घटः कुललापेक्षा, सत्यपि व नाजाप्रद्विज्ञानोपादानं तद्विप्रकृष्टदेशकालस्यापि कारणत्वे रूपादौ कदाचिन्न भवति 'रूपाविज्ञानम्' इत्यनुमानोपतैमिरिकमानस्यापि विप्रकृष्टदेशकालकारणप्रभवस्वसंभवात् न्यासो व्यर्थः अध्यक्षत एव चक्षुराधधिगतेः। द्वितीयपक्षेऽपि निरालम्बनता न भवेत् । अतोऽव्यवहितं कारणमभ्युपगन्त- 'भविष्यति रोहिण्युदयः कृत्तिकोदयादतीतक्षपायामिव' व्यम् । न च सुषुप्तावस्थायां विकल्पानुत्पत्तेर्न तत्प्रसङ्गो विक- इत्यस्यानुमानस्य भाषी रोहिण्युदयोऽकारणत्वात् विषयो ल्पवशात् तादात्म्ये सत्यपि तद्व्यवस्थायां बाह्यार्थेऽपि तत न स्यात् न हि भावी रोहिण्युदयः कृत्तिकोदयस्य परंपरयाएव तयवस्थोपपत्तेर्विकल्प एव प्रमाणं भवेत्।।
ऽपि कारणम् । अथ भावी रोहिण्युदयः प्राग्भाविनः कृत्तिकिंच-यद्यर्थप्रभवत्वात् मानमर्थसंग्राहकं तहीन्द्रियादरपि कोदयस्य कारणं प्रशाकराभिप्रायेण कार्यस्य प्राग्भावित्वा. तत एव ग्राहकं भवेत् तद्यतिरिक्तबाह्यार्थग्राहकत्वं च त- त् तईि-'अभूगरण्युदयः कृत्तिकोदयात्' इत्यनुमानमविषयं स्याभ्युपेयते । तथाहि-"प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसा- भवेत् । अथ भरण्युदयोऽपि कृत्तिकोदयस्य कारणं तेनायमादर्थवत् प्रमाणम्" (वात्स्या० भा० पृ०१६०१) इत्यत्र मदोषः ननु येन स्वभावेन भरण्युदयात् कृत्तिकोदयस्तेनैव भाष्ये प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्थान्तरमर्थसहकार्यर्थवत् प्रमाणं नै- यदि शकटोदयादपि तदा भरण्युदयादिव पश्चात्ततोऽपि यायिकैाख्यातम् । तेन न तत्प्रभवत्वं तन्निमित्तम् । तदभ्यु
भवेत् यथा वा शकटोदयात्प्राक् तथैव भरण्युदयादपि प्राग् पगमे वा शब्दज्ञान शब्दवत् तत्समवायिकारणकर्णशष्कुल्य
भवेत् । अथान्यतरकार्य कृत्तिकोदयस्तीन्यतरस्यैव ततः वछिन्ननभोदेशाख्यश्रोत्रेन्द्रिय-तत्समवाययोरपि प्रतिभासः प्रतीतिर्भवेत् , न चैवमिति न युक्तम्-'कारणमेव विषयः' स्यादित्याकाशसमवायविषयानुमानोपन्यासो वैयर्थ्यमनु- इति पक्षाश्रयणम् । अथ कारणं स्वाकाराधायकं विज्ञाने विभवेत् , अध्यक्षसिद्धेऽनुमानोपन्यासप्रयासस्य वैफल्यात् । न षय एवेति पक्षः अयमप्ययुक्तः, यतः किं कारणमेष सदाधाच समवायविषयाध्यक्षस्याऽविकल्पत्वेन तद्गृहीतस्याऽगृ
यकं तत्र, आहोस्थित् तत् तदाधायकमेवेति विकल्पवयानहीतरूपत्वान्नाऽयं दोषः, शब्देऽप्यस्य समानत्वात् यतो मैक- तिवृत्तिः। प्रथमविकल्पे केशे(शो)न्दुकादिशानं कुतः कारणात् मेकत्र निर्णयात्मकमपरत्रान्यथेत्येकान्तवादिनो वक्तुं युक्तम् । तदाकारमुपजायते? न तावदर्थात्तस्य तत्कारणत्वानभ्युपगएवं रूपत-त्सामान्य-समवायेष्बऽपि वाच्यम् । अथ न कार- मात् , अभ्युपगमे वा तस्याभ्रान्ततापत्तेः। न समनम्तरप्रणमित्येवार्थग्रहः, किंतु-योग्यतातः, नन्वेचं किंनिमित्तमर्थस्य स्थयात् , तस्य तदाकारता ( ताs) योगात् नेन्द्रियादेः, ज्ञान प्रति कारणता परिकल्प्यंत । अथ न तद्ग्रहणान्यथाs- अत एव हेतोः । तन्न कारणमेव तदाधायकमिति पक्षाभ्युनुपपत्तेस्तत्प्रति तत्कारणतापरिकल्पनं किंत्वन्वयव्यतिरेका- पगमः क्षमः । नापि तत्तदाधायकमेवेति पक्षोऽभ्युपगन्तुं युभ्याम्-'अर्थे सति तदवभासि ज्ञानमुपलब्धं तदभावे च न'इत्य
क्लः, इन्द्रियस्यापि तदाधायकतापत्तेस्तज्ज्ञानविषयताप्रसन्वयव्यतिरेकनिबन्धनोऽन्यत्रापि हेतुफलभाव इति, असदे- केः। अर्थस्य च सर्वात्मना तत्र स्वाकाराधाने शानस्य जतत्, योगिज्ञानस्य सकलातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारिणोऽ.
डताप्रसक्तः, उत्तरार्थक्षणवदेकदेशेन तदाधायकत्वे सांशतातीतानागततत्पदार्थाभावेऽपि भावाभ्युपगमात् । न च सर्वेऽ
प्रसक्ने, समनन्तरप्रत्ययस्य तत्र खाऽऽकाराधायकत्वान्न जप्यतीताऽनागता भावास्तदा सन्ति सर्वभावानां नित्यताप्रस
उतापतिलक्षणो दोष इति चेत्, न; समनन्तरप्रत्ययार्थक्षणक्नेः। न च तद्विषय तज् शान न भवति 'सदसद्वर्गः कस्य
योः द्वयोरपि स्वाकारार्पकत्वे तज्ज्ञानस्य चेतनाऽचेतनरूपचिदेकज्ञानावलम्बनः अनेकत्वात्पश्चाङ्गलिवत्' इत्यनुमान
द्वयाऽऽपत्तेः । प्राक्क्रनशानक्षणस्यैव तत्र स्वाकाराधायकत्वे स. विरोधात्। एतेन “यस्य झाने प्रतिभासस्तस्य तत्र तत्कार- त्मिना तदाधाने तस्य पूर्वरूपताप्रसक्निरिति कारणरूपतैव णत्वं निमित्तमभिधीयते, नत्वप्रतिभासमानस्य समवायावे- स्यात् तथा च पूर्वपूर्वक्षणानामप्येवं प्रसक्तरेकक्षणवर्ती स्तन्निमित्तः प्रतिभासो भवतु इत्यासञ्जयितुं युक्तम्" इत्यध्यय- सर्वः सन्तानो भवेदिति प्रमाणादिव्यवहारलोपः । नादिमतं निरस्तं योगिज्ञानेऽकारणस्यापि प्रतिभासप्रतिपा- किंच-तदाकारं तत उत्पन्नं च यदि समनन्तरप्रत्यये न तत्प्रदनात् ।' तैजसं चक्षुः रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशक- माणं तदुत्पत्तिसारूप्ययोर्व्यभिचारः इति नार्थेऽपि तत्प्रमा
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सहभवाइ
भवेत् । तथा च "अर्थेन घटयेदेनां, नहि मुक्त्वाऽर्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयाधिगतेः, प्रमाणं मेयरूपता" ॥ १ ॥ इत्यसंगतमभिधानम् । सम्म० २ काण्ड २ गाथाव्या० ।
( ३८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अत्र च द्रव्यार्थिकमतावलम्बी शब्दमवायाद भर्तृहरिः" श्रनादिनिधनं ब्रह्म, शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवाचन प्रक्रिया जगतो यतः ॥"
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(वाक्यप००१ प्रथमका० ) इति । अत्र च आदित्याद निधन दिनाशः तदभावाद 'अनादिनिधनम् 'अक्षर'हत्य काराद्यक्षरस्य निमित्तत्वादनेन च विवर्त्तोऽभिधानरूपतया निदर्शित 'अर्थभावेन इत्यादिना त्यभिधेयवःप्रि या' इति भेदानामेव संकीर्तनम् ब्रह्म इति पूर्वापरादिदिग्विभागरहितम् अनुत्पन्नमविनाशि यच्छन्दमर्थ ब्रह्मतत श्वायं रूपादिभाव ग्रामपरिणाम इति कार्य एतच्च शब्दस्वभावात्मकं ब्रह्म प्रणवस्वरूपम्, स च सर्वेषां शब्दानां समस्तार्थानां च प्रकृतिः । श्रयं च वर्णक्रमरूपो वेदस्तदधिगमोपायः प्रतिच्छन्दकन्यायेन तस्यावस्थितत्वात् तच्च परमं ब्रह्म अभ्युदय निःश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःक रगम्यते । अत्र प्रयोगो ये यदाकारानुस्यूतास्ते तन्मयाः, यथा घटशरावोदञ्चनादयो मृद्वीकारानुगता सूरमयत्वेन प्रसिद्धा शब्दाऽऽकारानुस्यूताश्च सर्वे भाषा इति स्वभावहेतुः । प्रत्यक्षत एवं सर्वभावानां शब्दकारानुगमोऽनुभूयते । तथाहि अर्थेऽनुभूयमाने शब्दलेखानुगता एव सर्वे प्रत्यया विभाव्यन्ते । उक्तं च
"न] सोऽस्ति प्रत्ययो लोके या शब्दानुगमारते। सर्वे शब्देन भासते ॥ ( वाक्यप० ० १२४ प्रथमका० ) इति ।
न च वापताननुषेये बोधस्य प्रकाशरूपताऽपि भवेत् तस्यापरामर्शरूपत्वात् तदभावे तु तस्याभावात् बोधस्यान्यभावः, परामर्शाभावे च प्रवृत्ता (त्या) दिव्यवहारोऽपि विशीयेत इति । आह च
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वासूपता कामे दबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशत, सा हि प्रत्यवर्शिनी ॥ " ( वाक्यप० लो० १२५ प्रथमका० ) इति । ज्ञानाकारनिबन्धना च वस्तूनां प्रज्ञप्तिरिति नैषां शब्दाकारानुस्यूतत्वमसि तरिस तस्मात्रभावित्वात्तन्मयत्वस्थ तन्मयत्वमपि सिद्धमेव । अत एव 'अयं घटः' इत्यभेदेन शदार्थसंयन्धा वैयाकर:- सोऽयमित्यभिसंबन्धापमेकीकृतम्' इत्यादिनाऽभिजल्पस्वरूपं दर्शयद्भिः प्रतिपादितः ।
अत्र च पर्यायास्तिकमतेन प्रतिज्ञादिदोष उद्भाव्यते-किमत्र जगतः शब्दपरिणामरूपत्वाच्छन्दमयत्वं साध्यते, उत शब्दात्तस्योत्पत्तेः शब्दमयत्वं यथा-' अन्नमयाः प्राणाः ' इति हैतौ ' मयड् ' विधानात् ? न तावदाद्यः पक्षः परिणामानुपपत्तेः । तथाहि - शब्दात्मकं ब्रह्म रूपाद्यात्मकतां प्रतिपद्यमानं स्वरूपपरित्यागेन वा प्रपद्येत अपरित्यागेन या ? यदि परित्यागेनेति पक्षीयते तदा अनादिनिधनम् इत्यनेन यदविनाशित्वमभ्युपगतं तस्य हानिप्रसक्तिः पौरस्त्यस्वभावभ्वंसात् । अथापरानेतिपक्षता रूपसंवेदन समये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसङ्गस्तदव्यतिरेकात् नीलादि
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सहर्षभवाह
वत् । तथाहि - यद् यदव्यतिरिक्तं तत्संवेदने संवेद्यते, यथा तत्स्वरूपम्, रूपाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्दात्मेति स्वभावहेतुः । अन्यथा भिक्षयोगक्षेमत्वात्ततदात्मकमेव न स्यादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । सम्म० १ काण्ड ६ गाथाव्या० । अथ यदाकारं यदुत्पन्नं यदध्यवस्यति तत्र तत्प्रमाणं नन्त्रत्रापि यदाकारं यदुत्पन्नं विज्ञानमेवाधवा जनप उत तत्तमेव, आहोस्विज्जनयत्येवेति कल्पनात्रयम् । श्रद्यकल्पनाय कारणान्तरनिषेधाद्विकल्पवासनाऽपि तत्कारणं न भवेत् एवं च निर्विकल्पकबोधाद् यथा सामान्यावभासी विकल्पस्तथाऽर्थादेव तथाभूता भविष्यतीति किमन्तरा लपति निर्विकल्पदर्शनकल्पनया है, नचाविरूपावि पेऽपि दर्शनादेव विकल्पोत्पत्तिर्नार्थाद्वस्तुस्वाभावादित्यु तरं तस्य स्वरूपेरीयाऽसि किं च यथा (थाड) विकल्पादर्थादविकल्पदर्शनप्रभवस्तथा दर्शनादपि तथाभूतात् तथाभूतस्यैया विकरूपस्य प्रसव इति विकल्पवाऽप्युपरते भ चेत्। किं च स्थिरस्थूराऽवभासि स्तम्भादिज्ञानं पद्यधिकल्पकं कोऽपरो विकल्पो यस्तजन्यो भवेत् । अथ 'लम्भस्तम्भो यम् ' इत्यनुगताकारावभासि ज्ञानं विकल्पः सामान्यावभासित्यात् तद्ययमष्यनेकावयवसाधारणकाकारम्भा वभासिविकल्पः किं न भवेत् सामान्यावभासस्यात्राऽपि तुल्पस्यात् ? अस्थापलापेऽपरस्याऽप्रतिभासनात् प्रतिभासविकलं जगत्स्यात् । न च स्तम्भप्रतिभासारखा निरंशक्ष निकैकपरमागरमविकल्पकं ज्ञानं पुरुषप्रतिभात थापि तत्कल्पने पुरुषपरिकल्पनाऽपि भवेदिति न सांगत पज्ञस्यैव सिद्धिः । किं च निरंशज्ञानिकानेकस्तम्भादिपरमारवाकाराद्यमेकं तद्विभर्ति स्वात्मनि तदा सविकल्पकमासज्येत अनेकानुविधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात् । अथ भिन्नं प्रतिपरमाणु तदिष्यते भवेदेवमविकल्पकम् किंतु एकपरमाणुग्रहणव्यापारवन्नाऽपरपरमागुग्रहणाय व्याधियत इति तेषां परलोकमण्यताप्रसक्तिः, तद्वेदनेच तस्यावेदनमिति तस्याप्यभावः । न चैकैकपरमासुनियतनं वेदनमविकल्पकम् अन्यधिविक्रेकपरमाणोरयांग दशि अप्रतिमासनाद्वियाद्गोचरस्य ज्ञानस्य चिकल्पजनकत्वासिद्धेः । तन्न प्रथमपक्षो युक्तिसंगतः इतश्चायसो यतो येन स्वभावेनाविकल्पकं दर्शनं स्वजातीयउत्तरं जनयति तेनैव यदि विकल्पं तविकल्पो विकल्पः प्रसज्येत कि बाऽविकल्पः अन्यथा कारणमेदः कार्यद विधायी न भवेत्, स्वभावान्तरेण जनने सांशतापत्तिरिति । अथ तत्तमेव जनयति तथा सति धाराबाहिनिर्विकल्प संततिनै भवेत् । अथ तत् तं जनयत्येवेति तृतीयपाश्रयणं तथा सति क्षणभङ्गादावपि निश्चय इति न ज्ञानसन्ततो सत्यसमारोपः नच रागादयस्तप्रियन्धना इति सद्ययार्थमनुमिति
मनुभवेत्। किं च यदि व्यवसायवशात् विर्विकल्पक प्रामाख्यव्यवस्था तर्हि तदुत्पत्तिखारुणार्थग्रहणमन्तरेसाध्यवसाय एव प्रमा भवेत् । अथ तथाभूतानुभवमन्तरेण विकल्प एव न भवेत, असदेगत् तस्य तज्जन्यत्वाऽसिद्धरुक्कविकल्पदोषानतिक्रमात् । किं च-यदि तदाकाराद् दर्शना
यस्ता स्वगचरोनियां मंत्, निशेषवद्वा सामान्यविषयमविकल्पमासमेत अन्यथा स्मृतिसारूप्या
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सहभवाइ
दर्शनस्य सारूप्यसाधनमयुक्तं भवेत् । अथार्थलेशमात्रानुकारि स्मरणं तथापि स्वलक्षणविषयत्वं स्मरणस्य सर्वथा तदनुकारित्वमविकल्पकस्याप्यसिद्धम्, अन्यथा तस्य जडतापत्तिरिति प्रतिपादनात् । तथा च 'विकल्पो वस्तुनिर्मासा-द्विसंवादादुपय' इत्ययुक्तया व्यवस्थितम्। अथ न सेशतोऽपि परमार्थस्तदनुकारी विकल्पः प्रतिपत्रभिप्राययशात्रु तदभिधानमिति न स्वलक्षणगोचरत्वं निर्विकल्पकस्यापि व्यवहार्यभिप्रायवशात्तदनुकारित्वं न परमार्थतः सर्वमालम्बने भ्रान्तम् " इत्यभिधानात् ।
( ३०१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
६
ननु किमिति न परमार्थतोऽपि तदनुकारि तत्, सामान्यायमासादिति चेत् नन्दसापि कृतः अनाद्य सत्यविकल्पवासनातः, नन्वेवं न दर्शनं विकल्पजनकमिति, " यत्रैव जनवेदनां तत्रैवाऽस्य प्रमाणता" इत्यसंगतं वचो भयेत् । नच तद्वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तदपि तद्धेतुः इन्द्रियार्थसत्रिधानस्यैव तत्प्रयोधहेतुत्वात् । नच वासनाप्रभवत्येनाक्षजस्य भ्रान्ततैवं भवेत् श्रर्थस्यापि कारणत्वेनानुमानवत् प्रमाणत्वात् । नच निर्विषयत्वाद् व्यवसायस्याप्रामाण्यम् अनुमानस्यापि तत्प्रसले प्रत्यक्ष प्रभवविकल्पयत् तस्याप्ययस्तु सामान्यगोचरत्वात् न च तद्ब्रह्मविषयस्यावस्तुत्वेऽ व्यध्ययसंपस्य स्वलक्षणत्वात् दृश्यविकल्पा (ल्या) वर्धावेकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यं प्रकृत विकल्पेऽ प्यस्य समानत्वात् । अन्यथा - " पक्षधर्मतानिश्चयः प्रत्यक्षतः कचित्" इति कथं वचो युक्तं भवेत् ? न च तदाहकल्पोऽपायानुमानस्यापि तत्प्रसः शब्दस्वरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षयविषयत्वात् । नचाध्य धर्मिस्वरूपग्राहिला शब्दहरोऽपि न वि रुद्धधर्माध्यासतस्तद्भेदा । प्रशाकराभिप्रायेण तु लङ्ग- लिङ्गिनोः साकल्येन योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिग्रहणे अनभ्यासदशायां प्राप्ये भाविन्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावादनुमानं प्रमान भवेत्। अथानिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्यत् प्रमाणमनुमानं तनिश्चितं नीलं निश्चिन्वन् विकल्पस्तथाविधः किन प्रमाणम् । अथ समारोपव्यवच्छेदकरणादनुमान प्रमाणं तर्हि नीलविकल्पोऽपि तत एव प्रमा भवेत् । न च सादृश्यादेव समारोपयेन तत्राऽनीलसमारोपो न भवेत् किखागमाहितविकल्पाभ्यास वासनातोपि यथा सर्वात्मकम्' इति साङ्गस्य एवं नीले नीलात्मकत्वसमारोपं व्यवच्छिन्दानो विकल्पः क्षणक्षयानुमानवत् कथं न प्रमाणम् ? दृश्यन्ते हि शुक्तिकारज्ज्वादिषु रजतसदिसमारोपास्तथाभूतविकल्पवशाल्लिङ्गानुस्मरणमन्तरेणा
च
9
उपि निवर्तमानाः ।
1
अथ भवत्वसौ विकल्पः प्रमाणम्, न च प्रमाणान्तरम् अनुमानेऽन्तर्भावात् न अभ्यासदशायां भाविनि प्रद कत्वादनुमानं प्रमाणमिष्टम्, तश्च निश्चितत्रिरूपा लिङ्गादुपजायते निश्चयस्य चानुमानान्तर्भावे रुप्यनिश्चयोऽप्यनु मानं तदपि निश्चितत्रैरुप्यालिङ्गात्प्रवर्त्तत इत्यनवस्थानात् अनुमानाप्रवृत्तिरेवेति कुतो विकल्पस्य तत्रान्तर्भावः अथ पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकनिश्चायकं लिङ्गस्य नानुमानं [[माणान्तरस्याभावाद्भ्य निर्णयात्मकं पक्षधर्मत्वादिनिश्व
દૂ
सहर्षभवाह
"
6
यः सिद्धः । श्रत एव - 'अनभ्याशदशायामनुमानम् 'अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव प्रमाणम् न च तृतीयादशा विद्यते यस्यां विकल्पः प्रमाणं भवेत् ' इति निरस्तम् अभ्यासदशायामनुमानस्यैवतमन्तरेणा प्रवृत्तेस्तदपेक्षस्यैव तस्य प्रमाणत्वात् । न च भवतु प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्को विकल्पः तथापि न तदपेक्षं दर्शनं प्रमाणं स्वत एव तस्य प्रमाणत्वात् । अन्यथा विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्वादनवस्था दुष्परिहारा अर्थविषयीकरणाद्विकल्पस्यान्यनिरपेक्षस्य प्रा. माये निर्विकल्पस्यापि तथैव प्रामाख्यं भविष्यतीति किं विकल्पापेक्षयेति वक्रव्यमः पतः संशयविपर्ययोत्पादकमपि दर्शनमेवं प्रमाणं स्यात् । तथा च - तत्राप्यर्थक्रियार्थी प्रवसेत अथ 'जले जलमेतत्' इति निर्णयविषि प्रमाणं ति सिद्धं विकल्पापेक्षणं तस्येति वरं विकल्प एव प्रमाणमभ्यु - गतस्तस्यैव प्रत्यादिव्यवहारसाधकतमत्यात्यपि अ भ्यासदशायां दर्शनमेव विकल्पनिरपेक्षं प्रमाणम्' इति तत्र स्याविषयीकरणे तेनाऽयुक्तम् श्रन्यथा नीलशानं पीते प्रमां वक्तव्यं क्व तत्प्रमाणम् ?, प्राप्ये भाविनि रूपादाविति चेत् तस्थाद्विषयीकरणे भावविषयत्वं तस्यैव भवेत् तथा च-वर्त मानावभासि सर्व प्रत्यक्ष तिथि वर्तमानविपयमपि भाविनि प्रवृत्तिविधानप्रमाणं, नः श्रविषयीकृते प्रव र्तकत्वासंभवात् प्रवर्तकत्वे वा, शाब्दमपि सामान्यमात्रविषयं विशेष विधास्यतीति न मीमांसकमतप्रतिक्षेप युक्तः । यदि वा (चा)-विषयेऽपि कुतश्चिनिमित्ताद् ज्ञानं प्रवर्दि प्रत्यक्ष पृष्ठभाविसामान्य मात्रा ध्यवसायिविकल्पस्य विशेषे प्रवकत्वं भविष्यतीति न युक्तम् 'दृश्य-विकल्प (लप्य) योरर्थयो रेकीकरणं तत्र प्रवृत्तिनिमित्तम् इत्यभिधानम्प्राप्त प्रमाणम्। दृश्य-प्राध्ययोरेकत्वे तत्प्रमाणमिति कुत व्यवहारिणां तथाऽविसंवादाभिप्रायाद अादि ज्ञाने प्रमाणम्। तदुक्रम्-“प्रमाणमविसंयादि ज्ञानमर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्" इति चेत्; ननु तदेकत्वं कस्य विषयः ? दर्शनस्पेति चेत् न तस्य सामान्यविषयतया सविकल्पकसक्ने विकल्पस्येति चेत् न अभ्यासदशायां विपस्याऽनभ्युपगमात्। कथं च दृश्यप्राप्ययोरेकत्वं विकल्पस्यैव वियो नाविकल्पस्य एकत्वस्यायोगादिति चेत् कथं विकल्पविषयः ? श्रवस्तुविषयत्वात्तस्येति चेत्, दर्शनस्य को विपयः १ दृश्यमानमामिति चेत् ननु यदि तत्संचितप रमाऽणुस्वभावं तत्र दर्शने प्रतिभाति तदा समिति प्रा प्रतिपादितम्। विवि के परमाणुप्रासेनं काचिभ्याखदशा यस्यां दर्शनं प्रमा विकल्पविकल भवेत् । यथा चानेकपरमाण्वाकारमेकं ज्ञानं तथा दृश्यप्राययोर्घटादिकमेकमिति तद्विषयं परमार्थतोऽभ्यासदशायां सविकल्पमध्य किमिति नाभ्युपगम्यते ? अधा शक्यविवेचनत्वाश्चित्रप्रतिभासाऽप्येकैव बुद्धिः घटादिकस्तु चित्रो नैकस्तद्विपर्ययात् ननु किमिदं बुद्धेरशक्यविवेचनत्वम्? यदि स होत्पत्तिविनाशी तदन्याननुभवो वा तदभ्युपगम्यते तदैकक्षभाविखन्तानान्तरशानेषु भिन्नरूपतयोपगतेष्वपि तस्य भा यादित्यनैकान्तिको देतुः । अथ सन्तानान्तरात्यपि नाभ्युपगम्यन्ते कथमवस्थायाम्युपगमः व्यवहारेण तदभ्युपगमे तथेय सन्ताननानामाद कान्तिकत्वं तदवस्य
,
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सहर्षभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
सहयं भवाड मेव । न च प्रतिभासाऽवैतवादोपगमात्तान्यपि पक्षीक्रियन्त तसम्बन्धस्यापि खण्डमुण्डादिषु समानप्रत्ययोत्पत्तः, नम्य इति नाऽनैकान्तिकः एकशाखाप्रभवत्यहेतोरपि विपक्षविष- भ्रान्तत्वे संवेदनेऽपि तत्प्रसक्नेः । अथ सत्येष स्वसंघदन यपक्षीकरणावनैकान्तिकत्वाऽभायप्रसक्नेः। म चाऽआऽऽमता- तदर्शनमिति न भ्रान्तम् , न; इतरेतराश्रयदोषप्रमः । प्राह्मध्यक्षेण पक्षबाधनान्न पक्षीकरणसंभषः प्रकृतेऽपि युग- तथाहि-स्वसंवेदनस्य सत्यत्वे तद्दर्शनमभ्रान्तम् अतश्च - पद्भाविनां नानाचित्तसन्तानानां भेदाऽवभासिस्वसंवेदना त्सत्यत्वमिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः ?, अथ बाधकासाध्यक्षण बाधनादस्य समानत्वात् । अथाऽनन्यवेद्यत्वमशक्य- घानाऽयं दोषः । सरशपरिणामस्य किं बाधकमिति घनश्यविवेचनत्वं तदपि सुखादिभिः क्रमेणकसन्तानमाविभिर्व्य- म्, विशेषेभ्यस्तस्य भेदे सम्बन्धासिद्धिः अभेद विशा भिचारि । अथैषामपि पक्षीकरणम् । नम्वेवं परिणाम्यात्म- एव न तत्सद्भाव इति बाधकमिति चेत् , न; एकान्तभेदा:सिद्धेः 'यद्यथाऽवभासते' इत्याद्यनुमानमयुक्तं हेतोरसिद्ध- भेदपक्षस्य तत्रानिष्टस्त एव विशेषाः कश्चित् परस्परं सताप्राप्तेः। अथ भेदाऽभेदात्मकत्वेन प्रतिभासनं तदभिमतं तर्हि | मानपरिणतिभाजः इत्यस्मदभ्युपगमात् । नच चित्रै कविमान. दृश्यप्राप्ययोरपि तदस्तीति कथं नैकत्वम् ? , अथ नीलादि- यत् समानाऽसमानपरिणतिरेकत्वविरोधः 'यदेवाहमद्रानं प्रतिभासानां नैकत्वं चित्रप्रतिभासात् न नानात्वं तदात्मक- तदेव स्पृशामि आस्वादयामि जिघ्रामि' इति प्रतीतेः, गुगिणस्य(अतदात्मकस्य)वा तद्ग्राहकस्याभावात् , सर्वविकल्पा- गुणिनोरकत्वप्रतीतेः, न च यदेव रूपं दृष्टं तदेव कथं स्पृतीतं तु तत्त्वमिति । अत्रापि यद्यकत्वस्यैकान्तेन निषेधः सा- श्यते ?, इन्द्रियविषयसङ्करप्रसक्तरिति वक्तव्यं चक्षुग्राह्यताध्यस्तदा सिद्धसाध्यता । अन्यथा चित्रप्रतिभासाऽभावात् स्वभावस्यैकस्य स्पर्शनादिविषयता स्वभावाविरोधात् । कथंचिदेकत्वस्य तु निषेधेऽसिद्धश्चित्रप्रतिभासादिति हेतुः, तथाहि-दूरादिदेशं सहकारिणमासाचैकोऽपि भूरुहो विशदयतः पीतादीनां नीलप्रतिभासेनाविषयीकरणे सन्तानान्तर- तयेन्द्रियजे प्रत्यये प्रतिभासति स एव निकटादिदेशसचियां यदयभासस्तथापि भावे न सन्तानान्तरनिषेधः, तेषां च क्ष- विशदतयेत्युपलब्धम् । न चाऽविशदं दर्शनमवस्तुविषयं तस्य णक्षये साधने ग्राह्यग्राहकभाव इति न सर्वविकल्पाऽतीतं त- वस्तुविषयतया प्रतिपादितत्वात् । नच चक्षुःप्रभव प्रत्यय त्वम् । विषयीकरणे तदाकारेणापि तद्ग्राहकाभावात् नाऽपि रूपमेव चकास्ति नाऽपरस्तद्वानिति वक्तव्यं , यतोऽत्रापि नानास्वमित्यस्य विरोधः स्वपरग्राहकस्यैव तद्ग्राहकत्वात् , स्तम्भव्यपदेशाई रूपं किमेकं प्रतिभाति, उताऽनकांशपरमासर्वथा तदाकारत्वे नीलमात्रं पीतमात्रं वा भवेदिति न चि- णुसंचयमात्रम् ?, प्रथमपक्ष-अधोमध्ययोहात्मकैकरूपयदप्रप्रतिभासः । कथंचित्तदाकारत्वे सिद्धं सविकल्पदर्शनम् । साद्यात्मकैकस्तम्भप्रसिद्धिः । द्वितीय पक्षेऽपि किमेकमनकप. अथ सर्पविकल्पाऽतीते तरचे इदमप्यवक्तव्यं तर्हि न परस्या- रमाएवाकारं च तुर्मानम् , उतैकै कपरमाराबाकार मनेकम् ?, ऽपि परतो गतिः, किंतु-' स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इत्येतद- प्रथमपक्षे रूपाद्यात्मैकवस्तुसिद्धिप्रसक्तिः चित्रैकशानयत् । पि न वक्तव्यं तथा च-विज्ञानाद्वैतमपि कुतः?, नचा- द्वितीयेऽपि विचिक्नज्ञानपरमाणुप्रतिभासस्यासंवेदनात् सन्यग्रहणविमुखज्ञानसंवेदनादेवमुच्यते अन्यत्राप्यस्य स
कलशून्यताप्रसक्किरिति प्रतिपादितम् । एतेन क्रियावतोऽपि मानत्वात् । तदेवं चित्रप्रतिभासमभ्युपगच्छता चित्रमेकं
भावस्याध्यक्षविषयताप्रतिपादिता । न चैकस्य देशादेशान्तशानमभ्युगन्तव्यमिति । अभ्यासदशायामपि व्यवसायात्म.
रप्राप्तिहेतुः क्रिया न केनचित्प्रमाणनावसातुं शक्येति वक्तव्य कमध्यक्ष सिद्धिमासादयेत् ।
पूर्वपर्यायग्रहण परिणामममुञ्चताऽध्य क्षणोत्तरपर्यायग्रहणात् , यपि-' यद्यर्थग्रहण व्यवसायोऽविकल्प तथा नामकरण
यथा स्तम्भादावधोभागग्रहणमत्यजतोर्खादिभागग्रहस्तेन अ. जात्यादिविशिष्टार्थग्रहणं तत्पक्ष, संभवि' इत्युच्यते, तदपि
न्यथा सकलशून्यतेत्युक्तत्वात् यदपिनिरस्तं द्रष्टव्यम् । अर्थग्रहणस्य विकल्पस्वभावनान्तरीयक- "विशपण विशष्यं च, संबन्धं लौकिकी स्थितिम् । त्वात् । यदि धकैकपरमाणुनियतभिन्नदर्शने, तन्नाम क्रियेत गृहीत्वा संकलय्यैतत् , तथा प्रत्यति नान्यथा ॥२॥" तदा स्यादतत् , न चैवं स्थूलैकप्रतिभासाभावप्रसक्नः । यदपि इत्युक्तं तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् , चित्रपतङ्गस्यवैकानेकात्मजात्यादिविशिष्टग्रहण प्रत्यक्षेऽसंभवि तदपि सदृशपरिणाम- नो वस्तुनः प्रथमतयैव प्रतिभासनात् एवंकल्पनाया दूरा:सामान्याभ्युपमे सिद्धम् , तथाभूतस्य तस्याऽध्यक्षे प्रति- पास्तत्वाद् । यदपिभाससंबेदनात् तथाभूतस्याऽपि तस्य निराकरणे "नो चेद __"संकेतस्मरणोपाय, दृएं संकल्पनात्मकम् । भ्रान्तिनिमित्त" इत्यादेस्तथा "अर्थेन घटयेदेनाम्" इत्यादे- पूर्वापरपरामर्श-शून्ये तच्चाक्षुष कथम् ॥१॥" श्चाभिधानमसंगतं भवेत् । तथाहि-शुक्तिका-रजतयोः कथं- इत्यभिधानं तदप्यसंगतं, संकेतकालानुभूतशय्यस्मरणमचित्सदृशपरिणामाभावे रूपसाधर्म्यदर्शनाभावाद् अन्यथा- न्तरणापि व्यवसायात्मकस्य ज्ञानस्याक्षप्रभवस्य प्रतिपादतिप्रसङ्गात् । श्रथ मरीचिकासु यथा जलाभावेऽपि तदर्शनं नात् । अन्यथा विकल्पानुत्पत्तेरित्युक्तत्वात् । तस्मात्पुरावतथा तयोर्भविष्यति न च तयास्तदर्शनं सत्यं तत्परिणामस्य तिस्थिरस्थूरस्वगुणपर्यायसाधारणस्तम्भादिप्रतिभासस्यापरमार्थतस्तत्राभावात् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तः । तथाहि- क्षप्रभवस्य निर्णयात्मनः स्वसंवेदनाध्यक्षतोऽनुभूतः स्वार्थनितत्परिणामस्य परमार्थतस्तयोः सत्त्वे तहर्शनस्य सत्यता तत. यात्मकमध्यक्ष सिद्धम् । न चेदं मानसमेतयतिरेकेण निश्च तत्परिणामस्य पारमार्थिकत्वमिति व्यक्नमितरेतराश्रय- रंशैकपरमाणुग्राहिणो विकल्पस्य कदाचिदम्य ननुभवात् । स्वमिति चत् ?, असदेतत् । सर्वभावष्यमव्यवस्थाप्रसङ्गात्। यदि चायं स्तम्भादिप्रतिभासो मानसो भवेद्विकल्पान्तरतोऽ तथाहि-स्वसंवेदनमविकल्पमध्यक्ष तथा प्रतीतेयदि सिद्धि- | स्य निवृत्तिर्भवेत् । न चैवं क्षणक्षयित्वमनुमानानिश्चिन्वतो मासादयति तत एव सदृशपरिणामोऽपि सेत्स्यति अनवग- ऽश्वादिकं वा विकल्पयतस्तदैवास्य प्रतिभाससंबदनात् ।
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(३८३) मयंभवाइ अभिधानराजेन्द्रः।
माहि ततोऽध्यक्षप्रमाणसिद्धत्वान्न सविकल्पकत्वे साधकप्रमाणा- सवनिक्खेवपरिहारि-सद्रवनिक्षेपपरिहारिन्-पुं०। सद्रवस्य भावः। तथा अनुमानादपि सविकल्पकत्वमध्यक्षस्थ नाऽसि निक्षेपः सत्यनिक्षेपस्तत परिहर्त शीलं येषां ते सत्वसम। तथाहि-यज्ञानं यद्विषयीकरोति तत्तन्निएर्णयात्मकत- निक्षेपपरिहारिणः । द्रवाऽग्राहिषु, ओघ० । या अनुमानमिवान्यादिकं विषयीकरोति च स्वार्थमध्यक्षमिति । न चास्याध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन
सद्दवेहि-शब्दवेधिन्-पुं० । शब्दं लक्षीकृत्य विध्यति यः कालास्थयापदिष्टत्वं पक्षस्य चाऽध्यक्षबाधः साध्यविपरी
स शब्दवेधी। शब्दमनुसृत्य लक्ष्यवेधके , झा० १ श्रु. तार्थोपस्थापकाध्यक्षस्य निषिद्धत्वात् । न च स्वार्थविषयी
१८ अ० । श्राचा। तत्थ लग्गे श्राराहिउं कुलदेवयं , करणं विज्ञानस्यासिद्धं प्राक् तस्य प्रसाधितत्वात् अतो नाs
भणियो य कुलदेवयाए पुत्त! सहवेही भविस्ससि" दसिद्धो हेतुः । न च सपक्षावृत्तित्वादसाधारणाऽनैकान्तिकः
श० १ तत्त्व। स्वार्थनिएर्णयात्मकत्वेन प्रसिद्धेऽनुमानेऽस्य वृत्तिनिश्चयात् । सद्दसत्तिक्कय--शब्दसप्तकक--पुं०। शब्दशक्तिप्रतिपादके श्रान चानुमानस्याप्यर्थविषयीकरणमन्तरेण तनिश्चयस्वरूपता चाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तककानां चतुर्थे श्रादितः संभवति समारोपव्यवच्छेदकत्वादेः प्रामाण्यनिमित्तस्य पञ्चदशे अध्ययने , स्था० ७ ठा०३ उ० । (तच 'सह' तत्र निषिद्धत्वात् । तदन्तरेण प्रामाण्यस्यैवायोगात् । न च शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितम् ।) निर्णयात्मकार्थविषयीकरणयोरनुमाने साहचर्यदर्शनेऽपि सद्दह--श्रद्धा-धा० । अस्तीत्यात्मनः परिणामे, “ श्रदो धो विपर्यये बाधकप्रमाणाभावतः । संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिक- दहः" ॥ ८।४ । ६॥ श्रदः परस्य दधातेर्दह इत्यास्वादनैकान्तिकः तदुत्पत्तिसारूप्यादेर्निगर्णयस्वभावता व्य- देशो भवति । सद्दहइ । “सद्दहमाणो जीवो" श्रद्दधाति । श्रद्दतिरिक्तस्यैकान्तवादे अर्थविषयीकरणनिबन्धनस्य विज्ञानेs धानो जीवः। प्रा०४पाद । संभवात् । तदसंभवस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् । ततो न सद्दहण--श्रद्धान-न० । “खराणां स्वराः" ॥ ८ । ४ संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽपि । अत एव न विरुद्धः विपक्ष
२३८ ॥ धातुषु स्वराणां स्थाने स्वरा बहुल भवन्ति । सवृत्तरेव विरुद्धत्वात् । ततोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकादिदो
दहणं । सद्दहाणं । प्रा० सम्यकून्वे, ध० २ अधिक। षविकलात् भवत्यतः साधनाद्विवक्षितसाध्यसिद्धिरिति न
श्रा०म० । सामान्यतः (सूत्र०१ श्रु०१ १०१ उ०।) प्रमातत्साधकभावानिर्णयात्मकाध्यक्षाऽभावः ।
णीकरणे, संथा० । स्था० । अस्तीत्येवं प्रतिपत्ती, ज्ञा० नाऽपि तद्बाधकप्रमाणसद्भावात्तस्यैवासिद्धेः। तथाहि
१ श्रु०१० । सम्यग्दर्शने, पञ्चा० ११ विव०। नि० तद्वाधकमध्यक्षम् अनुमानं वा प्रकल्पेत् प्रमाणाऽन्तरानभ्यु
चू० । श्रा० म०। दशा०। विशे०। पगमात् । न तावदध्यक्षं तद्बाधकं संभवति अविकल्पप्रसाधकस्य तस्य तद्वाधकत्यात् । न च निरंशक्षणिकैकपरमाणुसंवे.
सद्दहणाकप्प--श्रद्धानकल्प--पुं । श्रद्धानसामाचार्याम् , पं०
भा० । “सद्दहणा वि य दुविहा ओहनिसीहे तहा विभागे य" दनं स्वसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धमिति प्राक् प्रतिपादितमिति ना
पं०भा०५ कल्प । ('णिसीहकप्प' शब्द चतुर्थभाग २६४१ ध्यक्षं तद्बाधकम् नाऽप्यनुमानं तद्बाधकं संभवति अध्यक्षाप्र. वृत्ती तत्पूर्वकस्य तस्यापि तत्राऽप्रवृत्तेः । यदपि यद् यथा
पृष्ठ एष कल्प उक्तः ।) प्रतिभाति तत्तथा सद्व्यवहृतिमवतरति इत्यादिनिर्विकल्प
सद्दहमाण-श्रद्दधान-त्रि० । स्वमतावतिशयेन रोचयति , काध्यक्षप्रसाधकमनुमानमुपन्यस्त, तत्रापि प्रत्येक्षानुमाननि
सूत्र. २ श्रु०१०। प्रतीयमाने, प्राचा० २ श्रु०१ चू०२ राकृतत्वं पक्षदोषः,नामादिविशेषणोल्लेखविविक्कतया नाऽक्षम
श्र० २ उ० । ध०। प्रतिपद्यमाने, ध० २ अधि० । श्रा० तिरुद्भातीति हेतोरसिद्धता च जातिगुणक्रियाद्यनेकविशेषण
मसूत्र विशिष्टस्थिरस्थूराकारस्तम्भादिविषयाक्षजप्रत्ययस्यैकानक- सद्दहाण-श्रद्दधान-त्रि० । 'न श्रदुदोः' ॥८।१। १२ ॥ स्वभावस्य विशेषणविशिष्टतया स्वसंवेदनाध्यक्षतो निर्णयात् ,
इत्यन्त्यव्यञ्जनस्य न लुक । प्रा०। “स्वराणां स्वराः" ॥८।४।. अस्य च प्राक प्रसाधितत्वात्। यदपि 'विशेषणपरिष्वक्लवपुषः २३८ ॥ इति दीर्घः । सम्यक्त्व, प्रा०४ पाद । संविदोऽध्यक्षत्वविरोधात् इत्युक्तं तदपि प्रलापमानं, स्वसंवदे नाध्यक्षप्रसिद्ध स्वरूपे विरोधाऽयोगात् , अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्। | स
| सद्दहाणसुद्धि-श्रद्धानशुद्धि-न० । अयितथमेतदिति श्रद्धासम्म०२ काण्ड १ गाथाव्या० । स्था० । ('एगावार' शब्दे
शुद्धे, प्रा० चू०६ अ०। तृतीयभागे ३७ पृष्ठ शब्दो ब्रह्मत्यस्मिन्विषये भर्तृहरिमतमुप
अस्याः षड्विधत्वमुपदर्शनाहदर्शितम् । ) (पुनरधिकं 'सामरणविसेस' शब्दे वक्ष्यते । )
सा पुण सद्दहणा जा--णणा य विणयाऽणुभासणा चेव । सद्दबुद्धि--शब्दबुद्धि--पुं० । शब्दनिश्चये , विश०।
अणुपालणा विसोही, भावविसोही भवे छट्ठा ।१५८६। सद्दमहप्पगास-शब्दमहाप्रकाश-पुं० । शब्दैर्महान् प्रकाशः
सा पुनः शुद्धिरेवं षविधा, तद्यथा-श्रद्धानशुद्धिः, शा. प्रसिद्धिर्यस्य स शब्दमहाप्रकाशः । शब्दात् प्रसिद्धे, सूत्र० नशुद्धिश्च, विनयशुद्धिः, अनुभाषणाशुद्धिश्चैव, तथा अनु१ श्रु०६ १०॥
पालनाविशुद्धिश्चैव भावशुद्धिर्भवति षष्ठी । पाठान्तरं वासद्दमुच्छिय-शब्दमूच्छित--त्रि०। शब्दगृद्धे, दश० ८ ०।
'सोही सहहणे' त्यादि, तत्र शुद्धिशब्दा द्वारोपलक्षणार्थः, सद्दल-शाद्वल-न० । हरिते , " हरिअं सद्दलं " पाइ० नियुक्निगाथा चेयमिति गाथासमासार्थः । श्राव० ६ ० । ना०२३७ गाथा।
| सद्दहि-शब्दधि-पुं० । कणे, है।
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( ३८४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सद्दहिय
सद्दहिय-श्रद्धाय- अव्य० । सूत्रार्थाभ्यां सामान्येन प्रतिपद्ये त्यर्थे, उस० २६ अ० |
सद्दाऽऽउल - शब्दाकुल- त्रि० शब्देनाकुलं शब्दाकुलम् । बृहच्छब्दे, स्था० १० ठा० ३ उ० भ० । घ० । सद्दापुरूववाय- शब्दाणुरूपपात-पुं० । शब्दानां रूपस्य च पातः शब्दाणुरूपपातः । श्राह्रानीयस्य श्रोत्रे दृष्टौ च शब्दाsणूनां रूपस्य च पातने, पञ्चा० १ विष० । सहाणुवाई - शब्दानुपातिन् पुं० । शब्दं मन्मनभाषितादिकमभिष्वहतुमनुपतत्यनुसरति इत्येवंशीलः शब्दानुपाती । शब्दानुपतनशीले, स्था० ६ ठा० ३ ३० । श्राव० । सहाणुवाय - शब्दानुपात - पुं० । शब्दस्य श्रुतकाशितादेरनुपातनं - श्रोत्रेणावतारणं शब्दानुपातनम् । यथाविहितस्वगृहवृत्तिमाकारादिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिप्रहे ध० २ अधि० देशावकाशिकवतातिचारे, उपा० ' सब्दाणुवाए 'तिस्वगृद्दवृत्तिप्राकाराद्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिग्रहे - बहिः प्रयोजनोत्पत्तौ तत्र स्वयं गमनायोगात् वृत्तिप्राकारादिप्रत्यासनवर्त्तिनो बुद्धिपूर्वकं तमभ्युत्काशितादिशब्दकरणेन समवसितकान् बोधयतः शब्दानुपातः, शब्दस्यानुपातनमुच्चारणं तादृग् येन परकीयश्रवणविवरमनुपतत्यसाविति । उपा० १ ० । ( 'देसावगासिय ' शब्दे चतुर्थभागे २६३३ पृष्ठे गतोऽयमभिग्रहः । ) सद्दाऽऽभास - शब्दाभास-पुं० शब्दनयाभासे, रत्ना०७ परि०| ( एतदाभासवक्तव्यता 'रायाभास ' शब्दे चतुर्थभागे १६०३ पृष्ठे गता ।) यथा कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः । यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः, तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः, यथा - बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दाभिन्नमेवार्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात्, तारक सिद्धान्यशब्दवत् इत्यादिः । स्या० ।
सद्दाऽऽययण - शब्दायतन - न० । बौद्धपरिभाषिते शब्दाश्रये, सूत्र० १ श्रु० १२ श्र०
सहाल - शब्दाल - त्रि० । नूपुरे, “ सद्दालं सिंजिरं कखिरं "
पाइ० ना० १४० गाथा ।
सद्दालपुत्त-सद्दालपुत्र- पुं० । पोलासपुरवासिनि कुम्भकारे, स्था० । 'सद्दालपुत्ते ' ति सद्दालपुत्रः पोलासपुरवासी कुम्भकारजातीयो गोशालको पासको भगवता बोधितः पुनः स्वमतग्राहणोद्यतेन गोशालकेन (अ) क्षोभितान्तःकरणः प्रतिपन्नप्रतिमश्च परीक्षकदेवेन भार्यामारणदर्शनतो भग्नप्रतिशः पुनरपि कृतालोचनस्तथैव दिवं गत इति वक्तव्यताप्रतिबद्धं सद्दालपुत्र हत्यध्ययनम् । स्था० १० ठा०३ उ० । उपा० । पोलासपुरे नामं नयरे, सहस्संबवणे उज्जाणे, जियसत्तू राया । तत्थ गं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नामं कुम्भकारे आजीविओोवासए परिवसइ | आजीवियसमसिद्ध गहि पुच्छिय विणिच्छियट्ठे अभिगयट्ठे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते य अयमाउसो ! आजीवियसमए
सहलापुत्त
अड्डे अयं परमठ्ठे सेसे अड्डे, त्ति भाजीवियसमएवं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविश्वासगस्स एक्का हिराकोडी निहाणपउत्ता, एक्का बुडिपत्ता, एका पवित्थरपउत्ता, एके वए दस गोसाहस्सिएणं वएणं, तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविश्वोवासगस्स अग्निमित्ता नामं भारिया होत्था । तस्स गं सदालपुत्तस्स आजीवियोवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पंच कुम्भकारावणसया होत्था । तत्थ यं बहवे पुरिसा दि भइभत्तवेयणा कल्लाकलिं बहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अद्धघडए य कलसए य लिञ्जरए य जंबूलए य उट्ठियाओ य करेन्ति । अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तत्रेयणा कल्लाकलिं तेहिं बहूहिं करएहि य० जाव उट्टियाहि य रायमग्गंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरन्ति । ( सू० ३६ )
सप्तमं सुगममेव ! नवरम् ' श्राजीविश्रोवासए 'ति श्राजीविका :- गोशालक शिष्याः तेषामुपासकः श्रजीविकोपासकः, लब्धार्थः श्रवणतो गृहीतार्थो बोधतः पृष्टार्थः संशये सति विनिश्चितार्थ उत्तरलाभे सति, ' दिएणभइभत्तवेयण' त्ति - दत्तं भृतिभक्तरूपं - द्रव्यभोजनलक्षणं वेतनं--मूल्यं येषां ते तथा, 'कल्लाकलि' ति-प्रतिप्रभातं बहून् करकान् - वार्घटिकाः वारकांश्च-गडकान् पिठरका:स्थालीः घटकान् — प्रतीतान् अर्द्धघटकांश्च - घटार्द्धमानान् कलशकान् - आकारविशेषवतो बृद्घटकान् अलिञ्जराणि च - महदुदकभाजनविशेषान् जम्बूलकांश्च - लोकरूढ्यावसेयान् उष्ट्रिकांश्च - सुरातैलादिभाजन विशेषान् ।
Q
तए गं से सद्दालपुत्ते आजीविओोवासए अन्नया क याइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेव उवागच्छर उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस अन्तियं धम्मपत्ति उवसम्पजित्ता से विहरइ । तसं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीवियोवासगस्स एंगे देवे अन्तियं पाउन्भवित्था, तए गं से देवे अन्तलि - क्खपवित्रे सखिखिखियाई जाव परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओोवासयं एवं वयासी- एहि गं देवाणु - पिया ! कलं इहं महामाहणे उत्पन्नणाणदंसणधरे तीयपडुप्पन्नमणागयजाणए अरहा जिसे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी तेलोक्कवहियमहियपूइए सदेवमयासुरस लोगस्स अच्चणिजे वन्दणिजे सकारणिजे संमाणणिजे कल्लाणं मङ्गलं देवयं वयं जाव पज्जुवासणिजे । तच्चकम्मसम्पयासंपउत्ते, तं गं तुमं वन्देजाहि • जाव पज्जुवासेाहि । पाडिहारिएणं पीढफलगसिजा - थारएणं उवनिमन्तेजाहि, दोश्चं पि तच्चं पि एवं वयइ एवं
०
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सहालपुत अभिधानराजेन्द्रः।
मद्दालपुत्त चइता जाम दिसं पाउम्भृप तामेव दिसं पडिगए। सपुरं नयरं मज्झं मझेणं निग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेतए ण तस्स सद्दालपुत्रस्य आजीविओवासगस्स तेणं व सहस्सम्बवणे उजाणे जेणव समणे भगवं महावीरे देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए. ४ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं समुप्पन्ने-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गो- पयाहिणं करेइ करेइत्ता वन्दइ२त्तानमंसइ नमसइत्ता जाव साले मंखलिपुत्ते से णं महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स • जाव तच्चकम्मसंपयासंपउत्त से णं कल्लं इह हव्व- आजीवियोवासगस्स तीस य महइ जाव धम्मकहा समागच्छिस्सइ । तए णं तं अहं बंदिस्सामि . जाव पज्जु- मता, सद्दालपुत्ताइसमणे भगवं सहावीरे सद्दालपुत्तं वासिस्सामि पाडिहारिएणं . जाव उवनिमन्तिस्सामि । आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूणं सद्दालपुत्ता ! कल्लं (मू०४०)
तुमं पुच्चावरणहकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया०जाव • एहिर' त्ति-एष्यति, 'इहं' ति-अस्मिन्नगरे, ' महा- विहरसि । तए णं तुब्भं एगे देवे अन्तियं पाउब्भविस्था । माहणे 'त्ति-मा हन्मि-न हन्मीत्यर्थः, श्रात्मना वा हनन
तए णं से देव अन्तलिक्खपडिबन्ने एवं क्यासी-हं भो निवृत्तः परं प्रति मा हुन इत्येवमाचष्ट यः स माहनः, स । एव मनःप्रभृतिकरणादिभिराजन्म सूक्ष्मादिभेदभिन्नजीव
सद्दालपुत्ता! तं चेव सव्वं जाव पज्जुवासिस्सामि, से हनननिवृत्तत्वात् महान्माहनो महामाहानः, उत्पन्न-श्राव- नूणं सद्दालपुत्ता ! अढे समढे ? हंता अत्थि, नो खलु रणक्षयेणाविर्भूत ज्ञानदर्शने धारयति यः स तथा,अत एवा- सद्दालपुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मंखलिपुत्तं पणिहाय तीनप्रत्युत्पन्नानागतशायकः 'अरह 'त्ति-अर्हन् , महाप्रा
एवं वुत्ते, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीवियोवासतिहार्यरूपपूजार्हत्वात् . अविद्यमाने वा रहः-एकान्तः सर्वक्षवाद्यस्य साऽरहाः, जिनो रागादिजतृत्वात् । घलानि
यस्स समणणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्स समाणपरिपूणोनि शुद्धान्यनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स स इमयारूव अज्झात्थप० ४ एस ण समण भगव कवली, अतीतादिज्ञानेऽपि सर्वज्ञान प्रति शङ्का स्यादित्याह महावीरे महामहाणे उप्पन्नणाणदंसणधरे जाव तच्चक सर्वक्षः साकारांपयोगसामर्थ्यात् , सर्वदर्शी अनाकारोपयो
म्मसंपयासम्पउत्ते, तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीर गसापादिति, तथा तलोकहियहियपूइए' त्ति-त्रैलोक्येन--त्रिलोकवासिना जनेन 'बहिय'ति-समग्रेश्व
वन्दित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाब उवनिम िितशयसन्दाहदर्शनसमाकुलचतसा हर्षभरनिर्भरण प्रव- न्तित्तए, एवं सम्पेहेइ संपेहेइत्ता उट्ठाए उद्वेइ उद्वेइत्ता समणं लकुतूहल बलादनिमिपलोचननावलोकितः महिय' ति
भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ वंदइत्ता नमसइत्ता एवं सेव्यतया याच्छितः, पूजितश्च-पुष्पादिभिर्यः स तथा,एत
वयासी एवं खलु भंते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स देव व्यनक्ति-सदेवा मनुजासुरा यस्मिन् संदेवमनुजासुरस्तस्य लोकस्य-प्रजायाः अर्चनीयः पुष्पादिभिः; धन्दनीयः
बहिया पञ्चकुम्भकारावणसया, तत्थ णं तुब्भे पाडिस्तुतिभिः, सत्करणीयः-श्रादरणीयः सन्माननीयाऽभ्युत्था- हारियं पीढ० जाव संथारयं ओगिरिहत्ता णं विहरह । नादिप्रतिपत्तिभिः, कल्याण मङ्गलं दैवतं चैत्यमित्यवं बुया- तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीपर्यपासनीय इति, तश्चकम्म' त्ति-तथ्यानि-सत्फलानि
विओवासगस्स एयमढे पडिसुणेइ पडिसुणेइत्ता सहाअव्यभिचारितया यानि कर्माणि-क्रियास्तत्सम्पदा-तत् समृद्धथा यः सम्प्रयुक्नो-युक्तः स तथा, 'कल्ल' मित्यत्र या
लपुत्तस्स आजीविआवासगस्स पंचकुम्भकारावणसएसु यत्करणात् पाउप्पभायाए रयणीए' इत्यादिः 'जलन्त सूरिए'
फासुएसणि पाडिहारियं पीढफलग० जाब संथारयं इत्येतदन्तः प्रभातवर्णको दृश्यः, स चोक्षिप्तज्ञातवद् व्या- प्रोगिरिहत्ता णं विहरइ । ( सू० ४१) तए णं से ख्येयः।
सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाहययं तए णं कल्लं जाव जलन्ते समणे भगवं महावीरे०
कोलालभएडं अन्तोसालाहिंतो बहिया नीणेइ नीणे इत्ता जाव समोसरिए, परिसा निग्गया .जाव पज्जुवासइ,
आयवंसि दलयइ । तए णं समणे भगवं महावीरे तए णं से सद्दालपुत्त आजीविओवासए इमीसे कहाए सद्दालपुत्तं श्राजीविओवासयं एवं क्यासी-सद्दालपुत्ता ! लढे समाणे-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाय
एस णं कोलालभएडे को?, तए णं से सद्दालपुत्ते विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीर बन्दामि आजीवियोवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी
जाव पज्जुवासामि, एवं सम्पेहेइ संपेहेइत्ता एहाए. एस णं भन्ते ! पुब्बि मट्टिया आसी , तो पच्छा जाव पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं जाव अप्पमहग्घाऽऽभर- उदएणं निगिजइ निगिजइत्ता छारेण य करिसेण य णालङ्कियसरीरे मणुस्सवग्गुरापरिगए सानो गिहारो एगयो मीसिज्जइ मीसिज्जइत्ता चके आरोहिन्जइ , तपडिणिक्खमइ साओ गिहाम्रो पडिणिक्खमित्ता पोला- ओ बहवे करगा य० जाव उट्टियाश्रो य कजति ।
६७
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सद्दालपुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सद्दालपुत्त तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीवि- ततस्तदभ्युपगतनियतिमतनिरासाय पुनः प्रश्नयन्नाहओवासयं एवं बयासी-सद्दालपुत्ता! एस णं कोला
'सद्दालपुत्त' इत्यादि, यदि तव कश्चित्पुरुषो वाताहतं वा
श्राममित्यर्थः, 'पक्कलयं व' ति पकं ar अग्निना कृतलभण्डे किं उट्ठाणेणं जाब पुरिसक्कारपरकमेणं कज
पाकम् अपहरद्वा-चोरयेत् विकिरद्वा-इतस्ततो विक्षिपेत् ति उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसकारपरक्कमेणं
भिन्द्याद्वा काणताकरणेन, प्राच्छिन्द्याद्वा हस्तादुद्दालनेन, कजति ?, तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए पाठान्तरेण विच्छिन्द्याद्वा विविधप्रकारेश्छदं कुर्यादित्यर्थः, समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-भन्ते ! अणुहाणेणं
परिष्ठापयेद्वा बहिर्नीत्वा त्यजेदिति 'बत्तेजासि' त्ति-निय.
तयसि 'पाश्रोसेजा व' त्ति-आक्रोशयामि वा मृतोऽसिजाव अपुरिक्कारपरक्कमेणं, नऽस्थि उहाणे इ वा जाव
त्वमित्यादिभिः शापैरभिशपामि हन्मि या दण्डादिना बपरकमे इ वा , नियया सव्वभावा । तए णं समणे भ- ध्नामि वा रज्ज्वादिना, तर्जयामि वा शास्यसिरे दुष्टागवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं बयासी- चार ! इत्यादिभिर्वचनविशषैः, ताडयामि वा चपेटादिना, सद्दालपुत्ता! जइणं तुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा
निच्छोटयामि वा धनादित्याजनेन, निर्भर्त्सयामि वा परुपक्केलयं वा कोलालभण्डं अवहरेजा वा विक्खिरजा वा
पवचनैः, अकाल एव च जीविताद्वा व्यपरोपयामि. मार
यामीत्यर्थः । इत्येवं भगवांस्तं सहालपुत्र स्ववचनेन पुरुषभिन्देजा वा प्राच्छिन्देजा वा परिडवेञ्जा वा अग्गि
काराभ्युपगमं प्राहयित्वा तम्मतविघटनायाह-'सहालमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई पुत्त' इत्यादि, न खलु तब भाण्डं कश्चिदपहरति न च भुजमाणे विहरेजा , तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं|
स्वं तमाकांशयसि यदि सत्यमेव नास्त्युत्थानाऽऽदि । अथ
कश्चित्तदपहरति त्यं च तमाकाशयसि तत एवमभ्युपदण्डं वत्तेजसि ?, भन्ते ! अहं णं तं पुरिसं आ
गमे सति यद्वदसि-नास्त्युत्थानादि इति तसे मिथ्या: ओसेना वाहणेजा वा बन्धेजा वा गहेजा वा त
असत्यमित्यर्थः। जेआ वा तालेजा वा निच्छोडेजा वा निभच्छेजा
तए णं से सद्दालपुत्ते आजीवियोवासए समणस्स भवा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेजा । सद्दालपुत्ता !
गवो महावीरस्स अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टनो खलु तुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केलयं वा तुदु० जाब हियए जहा आणंदो तहा गिहिधर्म पडिकोलालभएडं अवहरइ वा जाव परिद्ववेइ वा अ- |
विज्जइ, नवरं एगा हिरमकोडी णिहाणपउत्ता एगा ग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई
हिरएणकोडी बुडिपउत्ता एगा हिरमकोडी पवित्थरभुजमाणे विहरइ, नो वा तुमं तं पुरिसं पाओसे- पउत्ता एगे वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं. जाव असि वा हणिज्जसि वा जाव अकाले चेव जीविया- समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता ओ ववरोवेजासि,जइ नत्थि उट्ठाणेइ वा जाव परक्कमेइ वा जेणेव पोलासपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता नियया सव्वभावा।अहं णं.तुब्भ केइ पुरिसे वायाहयं जाव पोलासपुरं नयरं मझ मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव परिदुवेइ वा अग्गिमित्ताए बा० जाव विहरइ तुम ता तं अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता परिसं आप्रोसेसि वा. जाव ववरोवेसि तो जं वदसि अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए नऽथि उठाणेइ वा० जाव नियया सव्वभावा तं ते मि- समणे भगवं महावीरे जाव समोसहे, तं गच्छाहि णं च्छा, एत्थ णं सद्दालपुत्ते आजीविओवासए सम्बुद्धे । तुमं समणं भगवं महावरं वन्दाहि जाव पच्जुवासाहि, तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविभोवासए समणं भगवं समणस्स भगवो महावीरस्म अन्तिए पंचाऽणुव्वडय महावीरं वन्दइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी- सत्तसिक्खाबइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि । इच्छामि णं भंते ! तुभं अन्तिए धम्मं निसामेत्तए । तए ण सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोतए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीवियो
वासमस्स तह त्ति एयमटुं विणएण पडिसुणेइ । तए णं वासगस्स तीसे य० जाव धम्म परिकहेइ । (मू० ४२)
से सहालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ स· वायायगं' ति-वाताहतं वायुनेपच्छोषमानीतमित्यर्थः हावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहु'कोलालभण्ड' ति-कुलाला:-कुम्भकारा तेषामिदं का- करण जुत्तजोइयं समखुरवालिहाणसमलिहियसिंगएहिं जंलालं तच्च तद्भाण्डं च-पण्यं भाजन वा कोलाल
बूणयाम यकलावजोत्तपइविसिट्ठएहि रययामयघण्टसुत्तभाण्डम् , एतरिक पुरुषकारेणतरथा वा क्रियेत इति
रज्जुगवरकञ्चणखइयनत्थापग्गहोग्गहियएहिं नीलुप्पलभगवता पृष्टे स गोशालकमतेन नियतिवादलक्षणन भावितत्वात्पुरुषकारंणत्युत्तरदाने च स्वमतक्षतिपरमताभ्य
कयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणगनुज्ञानलक्षण दोषमाकल यन् अपुरुषकारण इत्यवोचत् । घण्टिय जालपरिगयं मुजाय जुगजुतउज्जुगपसत्थमुविर
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( ३८७ ) अभिधानराजेन्द्रः । मद्दालपुत्त. टिकाचक्रवालपरिकीर्णा, पुस्तकान्तरे यानवर्णको दृश्यते, स चैवं सव्याख्यानोऽवसेयः-' लहुकरणजुत्तजेोइयं 'लघुकरन- दक्षत्वेन ये युक्ताः पुरुषास्तैर्योजितं यन्त्र यूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा, तथा - समखुरवालिहालसमलिहियसिंगएहिं ' समखुरवालिधानौ - तुल्यशफपुच्छौ समे लिखिते व लिखिते शृङ्गे ययोस्तौ तथा ताभ्यां गोयुवभ्यामिति सम्बन्धः, 'जम्बूण यामयकलावजोत्तपइविसिहि ' जाम्बूनदमयौ कलापौ ग्रीवाभरणविशेषौ योक्त्रे च-कण्ठबन्धनरज्जू प्रतिविशिष्ठे शोभने ययोस्तौ तथा ताभ्यां 'रययामयघण्टसुत्तरज्जूगवर कञ्चणखइयनत्थापग्गहोग्गाहियएहिं' रजतमय्यौ- रूपय विकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा सूत्ररज्जुकेकार्पासिकसूत्रमय्यौ ये वरकाञ्चनखचिते नस्ते - नासारज्जू तयोः प्रप्रहेण - रश्मिना श्रवगृहीतकौ च वडौयौ तौ तथा ताभ्याम् 'नीलुप्पलक यामे लए हिं' नीलोत्पलकृत शेखराभ्याम्, • पवरगोणजुवाणएहिं नाणामलिकणगघण्टियाजालपरिगयं सुजायजुगजुत उज्जुगपसत्थ सुविरइयनिम्मियं सुजातंसुजातदारुमयं युगं-यूपः युक्तं - सङ्गतम् ऋजुकं - सरल ( प्रशस्तं ) सुविरचितं - सुघटितं निर्मितं- निवेशितं यत्र तत्तथा, 'जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उबटुबेह' युक्तमेवसम्बद्धमेव भोयुवभ्यामिति सम्बन्ध इति ।
सद्दालपुत्त
इयनिम्मियं पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणपवरं उवह उबवेहित्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिह । तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा • जाव पच्चप्पियन्ति । तसा अग्निमित्ता मारिया एहाया ०जाव पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई ० जाव अप्पमहग्घाभरणालंकि यसरीरा चेडियाचकवालपरिकिस्सा धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहइत्ता पोलासपुरं नगरं मज्भं मज्झेणं निग्गच्छह निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्सम्बवणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाश्च पश्च्चोरुहह पच्चोरुहित्ता चेडियाचकवालपरिवुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेखेव उवागच्छर उवाग
तिक्खुत्तो ० जाव वन्दइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता नचासो नाइदूरे ०जाब पञ्जलीउडा ठि (इ) या चेव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे श्रग्निमित्ताए तीसे य ० जाव धम्मं कहेइ । तए यं सा अग्निमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्ति धम्मं सोच्चा निसम्म हततुट्ठा समणं भगवं महावीरं वन्दर नमसर वंदित्ता नमसित्ता एवं बयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गन्थं पावयणं ० जाव से जहेयं तुन्भे वयह, जहा गं देवाप्पिया अन्तिए बहवे उग्गा भोगा ०जाव पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि, देवाणुप्पियाणं श्रन्तिए मुण्डा भवित्ता जाव अहं णं देवाप्पियाणं अन्ति पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि, अहासुहं देवाप्पिया ! मा पडिबन्धं करेह । तए णं सा अग्निमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिr पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवजइ पडिवजित्ता समगं भगवं महावीरं वन्दह नमंसह वंदित्ता नमसित्ता तमेव धम्मियं जाणपवरं दुरूहड़ दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तए गं समणे भगवं महावीरे अनया कयाइ पोलासपुराओ नयराम्रो सहस्सबणाओ पडिनिग्गच्छर पडिनिग्गच्छित्ता बहिया ज
वयविहारं विहरइ | ( सू० ४३ )
'तर सा श्रग्गिमित्ता' इत्यादि, ततः सा श्रग्निमित्रा भार्या सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तथेति एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य च स्नाता ' कृतबलिकर्मा - बलिकर्म लोकरूढं कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताकौतुकं - मषी पुण्ड्रादि मङ्गलं दध्यक्षतचन्दनादि एते एव प्रायश्चित्तमेव प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रतिघातकत्वेनावश्यंकायत्वादिति, शुद्धात्मा, वैषिकाणि-वैषाणि मङ्गल्यानि प्रववस्त्राणि परिद्दिता, अल्पमहार्घाभरणालंकृतशरीरा चे
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त से सद्दालपुते समणोवासए जाए अभिगयजीचाजीवे ० जाव विहरइ । तए गं से गोसाले मंखलि - पुत्ते इमीसे कहाए लद्धड्डे समाये - एवं खलु सद्दालपु
जीवियसमयं वमित्ता समयाणं निग्गंथाणं दिहिं पडिवने, तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओोवासयं समणाणं निग्गन्थाणं दिहिं वामेत्ता पुरवि आजीवियदिट्ठि गेरहावित्तए त्ति कहु एवं संपेहेइ संपेहेत्ता आजीवियसंघसम्परिबुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव आजीवियसमा तेणेव उवागच्छर उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भएडगनिक्खेवं करेइ आजीवियसभाए भंडगणिक्खेवं करेइत्ता कयवएहिं आजीविएहिं सद्धिं जेखेत्र सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । तए गं से सद्दालपुत्ते समोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एजमा पासह पासित्ता यो आढाई नो परिजाखाइ अणादाय माणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिड़ । तए गं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइमा अपरिजाजिमाणे पीढफलगसिज्जासंथारयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी- आगए णं देवाणुपिया ! इहं महामाहणे 2, तए गं से सद्दालपुने समणोवासए गोसाल मंखलिपुत्तं एवं वयासी के गं देवाणपिया ! महामाह १, तए गं से गोसाले मं-खलिपुते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं बयासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे । से केणऽट्टे दे
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( ३८८ ) अभिधानराजेन्द्रः |
महालपुत्त
वाणुप्पिया ! एवं बुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महामाहणे, | एवं खलु सद्दालपुत्ता ! समये भगवं महावीरे महामाहणे, उत्पन्नापदंसणधरे० जाव महियपूइए० जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, से तेराऽङ्केणं देवाप्पिया एवं बुच्चइ समये भगवं महावीरे महामाहणे । आगए णं देवाणुया इहं महागोवे ?, के गं देवापिया ! महागोवे ?, मण भगवं महावीरे महागोवे । से केणद्वेणं देवागुप्पि - या ! ० जाव महागोत्रे १, एवं खलु देवाणुप्पिया ! स - |
भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे खजमाणे द्विजमाणे भित्रमाणे लुप्पमाये विलुप्पमाणे धम्ममरणं दण्डेणं सारक्खमाणे संगांवमाणे निव्वाणमहावार्ड साहत्थि सम्पावेइ, से सिद्दालपुत्ता ! एवं बुच्चइ - समणे भगवं महा
महागोवे । आगए गं देवाणुप्पिया ! इहं महासवाह ?, के गं देवाणुप्पिया ! महासत्थवाहे ?, सद्दालघुता ! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे, से केणद्वेग, एवं खलु देवापिया ! समणे भगवं महावीर माराssवीए वह जनम्यमाणे विणस्समांग जाव विलुप्पमाणे पंथणं सारख - मा० निव्वाण महापट्टणाधिमुंह साहस्थि सम्पावेइ, से higi महालपुत्ता एवं वृचइ सम भगवं महावीरे महानन्थवाहे । (उपा०) (भगवान् महावीरः महाधर्मकथी इति 'महाधम्मकही' शब्दे षष्ठे भागे १६७ पृष्ठे उक्तम् ।) आगए देवापिया ! इहं महानिजामए ?, के गं देवागुपिया महानिजामए ?, समणे भगवं महावीरे महानिजामए, मे करणं ०१, एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महार संसारमहासमुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समागाव विलु बुहुमाणं निवुडमा उप्पियमाणे धम्मम नावाए निव्वाणतीराभिमुंडे साहस्थि सम्पाने से पिया ! एवं बुच्चइ – समणे भगवं महावीरे महानिजामए । तर गं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोमाले मखलितं एवं वयासी—तुम्भे गं देवाणु - प्पिया! इयच्छेया०जाव इय निउणा इय नयवादी इय उव एमलद्धा इय विमाणपत्ता, पभू णं तुन्भे मम धम्मा
धम्मो एसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवा करत ?, नो तिङ्के समङ्के । से केराट्ठेणं देवांणुपिया ! एवं बुच्चइनो खलु पभू तुम्भे मम धम्माजाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेनए ?, महालपुना ! से जहा नामए केइ पुरिये तरुणे जुगवं - • जाव निउ सिप्पोवगए एगं महं अयं वा एलयं वा
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सद्दालपुत्त
सूर्यरं वा कुकुडं वा तित्तिरंचा वयं वा लाव ना करो वा कविञ्जलं वा वा खुरंसि वा
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कार्य सिसि वा विसासि वा रोमंसि tees aहिं नहिं निचलं निष्फंदं धरेइ एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहिं अट्ठेइ य हेऊहि य० जाव वागरमागेहि य जहि जहिं गिरहइ तहिं तहिं निष्पट्टपसिणवागरणं करेड़, से तेणद्वेणं सद्दालपुत्ता ! एवं बुच्चइ-नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिri० जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए । तर गं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी --- जम्हा णं देवाप्पिया ! तुम्भं मम धम्मायरियस ० जाव महावीरस्स संतेहिं तच्चहिं तहिएहिं सन्भूएहिं भावेहिं गुणकित्तणं करेइ तम्हा गं अहं तुम्भे पाडिहारिए पीठ० जाव संथारएवं उवनिमन्तेमि, नो चेवणं धम्मो त्ति वा तवोि वा तं गच्छ गं तुम्भे मम कुम्भारावणेसु पाडि - हारियं पीढफलग० जाव योगिरिहत्ता गं विहरह | तए णं से गोसाले मंखलिपुत्तं सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयम पडिइ पडिणित्ता कुम्भारावसु पाडिहारियं पीठ० जाव ओगिरिहत्ता गं विहरइ । तर गं से गोसाले मंखलिपुते महालपुत्तं ममावासयं जाहे नो संचाएइ बहूहि आघवणाहि य ग्राहिय सरवणाहि य विष्णवरणाहि य निग्गन्धाश्र पावयणाओ चालित रा खोजि वा वि परिणामित्तए वा ताहे सन्ते परितन्ते पालामपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ पोलासपुराओ नगराओ पडिक्खिमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरड़ । ( सू० ४४ ) 'गो' त्यादि, गोपी-गोरक्षकः चेतरगोरदक्षकेच्या अतिविशिष्टत्वान्महानति मदनश्यन इति सत्यमच्यवमानान ति म्रियमासाद खाद्यमानान् मृगादिनार द्यमानान-मनुष्यादिभाव खङ्गादिना भिद्यमानान् कुन्तादिना लुप्यमानान कर्णनासादिच्छेदनेन विलुप्यमानान् बाह्योपध्यपहारतः इति गम्यते, • निव्वाणमहाबार्ड ति--सिद्धिमहागोस्थानविशेषं 'साहत्थे ' ति-स्वहस्तेनेव स्वहस्तेन, साक्षादित्यर्थः । महासार्थवाहालापकानन्तरं, पुस्तकान्तरे इदमपरमधीयत-" आगए सं देवापिया ! इहं महाधम्मकही ? के गं देवापिया ! महाधम्मक्रही?, सम भगवं महावीर महाधम्मकही । से के सम भगवं महावीरे महाधम्मकही ?, एवं खलु सदालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महद्दमहालयंस संसास बह जीवे नसमा० जाव विलुप्पमा उम्मग्गपडिबन्ने सप्पहविष्टुं मिच्छतवलाभिभू अह्निकम्मतमपडलण्डो
पम्मत्र
स
इत्यनेकश -
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(३८६) सद्दालपुत्त अभिधानराजेन्द्रः।।
सद्दालपुत्त च्छन्न बहहिं अडेहि य हेऊहि य पसिणहि य कारणेहि य मशः 'निउणे 'त्ति-उपायारम्भकः 'निउणसिप्पावगए'त्तिवागरणेहि य चाउरन्ताओ संसारकन्तागो साहत्थि नि- सूक्ष्मशिल्पसमन्वित इति , अजं वा छगलम् एलकं वात्यांग्इ से तरणटुण सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे म- उरभ्रं शूकरं वा-वराहं कुकूटतित्तिरवर्तकलावककपोतकहाधम्मकहि" ति, कराठ्योऽयं, नवरं जीवानां नश्यदादिवि- पिक्षलवायसश्यनकाः पक्षिविशया लोकप्रसिद्धाः 'हत्यसि शेषणहेतुदर्शनायाह-' उम्मग्गे' त्यादि , तत्रोन्मार्गप्रति- यत्ति-यद्यप्यजादीनां हस्ता न विद्यते तथाप्यतनपादौ पन्नान्–आश्रितकुदृष्टिशासनान् सत्पथविप्रनष्टान्-त्यक्त- हस्त इव हस्त इति कृत्या हस्ते चेन्युक्तं, यथासम्भवं चैजिनशासान् , पतंदव कमित्याह-मिथ्यात्वबलाऽभि- पां हस्तपादखुरपुच्छपिच्छशृङ्गविपागमाणि योजनीयानि, भूतान-तथा अष्टविधकर्मव तमःपटलम्-अन्धकारसमू- पिच्छः-पक्षावयविशषः, शृङ्गमिहाजैडकयोः प्रतिपत्तव्यं , हः तेन प्रत्यवच्छन्नानिति । तथा निर्यामकालापके 'बुड़- विषाणशब्दो यद्यपि गजदन्ते रूढस्नथाऽपीह शकरदन्त प्रतिमाणे ' त्ति-निमजतः ' निवुडमाण ' त्ति-नितरां नि- पत्तव्यः, साधर्म्यविशादिति, निश्चलम्-श्रचलं सामान्यतो मजतः जन्ममरणादिजले इति गम्यते , 'उप्पियमाणे | निष्पन्द-किञ्चिच्चलननापि रहितम् , ' आघवणाहि य' त्ति-उत्प्लाव्यमानान् । 'पभु 'त्ति-प्रभवः-समर्थाः,इति
त्ति आख्यानैः प्रज्ञापनाभिः-भेदतो वस्तुप्ररूपणाभिः 'सच्छेकाः-इति एवमुपलभ्यमानाद्भुतप्रकारेण, एयमन्यत्रापि
ज्ञापनाभिः-सज्ञानजननैः विज्ञापनाभिः-अनुकृलभणितैः । छकाः-प्रस्तावशाः, कलापरिडता इति वृद्धा व्याचक्षते ,
तए ण तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं तथा इति दक्षा:-कार्याणामविलम्बितकारिणः तथा इति प्रष्ठाः-दक्षाणां प्रधाना वाग्मिन इति वृद्धैरुक्तं, कचित्-'पत्त- सील जाव भावमाणस्स चोद्दस संबच्छरा बहकन्ता, ट्ठा' इत्यधीयत,तत्र प्राप्ताः -कृतप्रयोजनाः, तथा इति नि- पएणरसमस संवच्छरस्स अनन्तरा वट्टमाणस्स पुव्वरपुणा:-सूक्ष्मदर्शिनः कुशला इति च वृद्धोक्तम् ,इति नयवादि
तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ ना-नीतिवक्कारः, तथा इत्युपदशलब्धा लब्धाप्तापदशाः,
महावीरस्स अन्तियं धम्मपएणति उवसम्पन्जित्ता णं वाचनान्तर इति मधाविनः अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिमन्तः इति विज्ञानप्राप्ताः-अवाप्तसद्वोधाः । से जहे ' त्यादि , अ
विहरइ , तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स थ यथा नाम कश्चित्पुरुषः - तरुणे त्ति-वर्धमानवयाः व- पुव्यरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउब्भवित्था, तए दिगुणापचितं इत्यन्ये, यावत्करणादिदं दृश्यम्-'बलवं' ण से देवे एग महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय ससामर्थ्यवान् 'जुगवं' युगं-कालविशेषः तत्प्रशस्तमस्याऽ
द्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-जहा चुलणापियस्म स्तीति युगवान , दुकालस्य बलहानिकरत्वात्तव्यच्छदामिदं विशेषणम् , ' जुवाग' त्ति-युवा-वयःप्राप्तः, 'श्र
तहेब देवो उबसग्गं करेइ , नवरं एकेके पुत्ते नव मंसप्पणयङ्के' ति-नीरोगः 'थिरग्गहत्थं त्ति-सुलेखकवद् अस्थि
सोल्लए करेइ० जाव कणीयसं घाएइ घायइत्ता जाव आराग्रहस्तो हि न गाढग्रहो भवतीति विशेषणमिदम् ' दढ- यश्चइ । तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जापाणिपाए' त्ति-प्रतीतं 'पासपिढन्तरोरुपरिणए, त्ति-पार्यो
व विहरइ । तए ण से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अच पृष्टान्तरे च-तद्विभागौ ऊरू च परिणती-निष्पत्तिप्रकविस्थां गतौ यस्य स तथा , उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'त
भीयं जाव पासित्ता चउत्थं पि सद्दालपुत्तं समणोवासयं लजमलजुयलपरिधनिभवाहुति-तलयाः-तालाभिधानवृक्ष- एवं वयासी-हं भो ! सद्दालपुत्ता ! समणावासया अपस्थिविशेषयोः यमलयाः-समणिकार्ययुगलं परिधश्च-अगला यपत्थिया० जाव न भञ्जसि तो ते जा इमा अग्गितन्निभी तत्सदृशौ वाह यस्य स तथा, श्रायतवाहुरित्यर्थः, मित्ता भारिया धम्मसहाइया धम्मविइजिया धम्माणुरा'घणनिचियवट्टपालिखन्ध' त्ति-घननिचितः-अत्यर्थ निविडा वृत्तश्च-वर्तुलः पालिवत्-तडागादिपालीव स्कन्धौ-अंशदे
गरत्ता समसुहदुक्खसहाइया तं ते साओ गिहायो शौ यस्य स तथा , ' चम्मटुगदुहणमोट्टियसमाहयनिचिय
नीणेमि नीणे मित्ता तव अग्गो धाएमि घायइना नवगायकाए' त्ति चर्मेष्टका-इष्टकोशकलादिभृतचर्मकुतपरूपा मंससोल्लए करेमि करेत्ता आदाणभरियसि कमाहयंसि यदाकर्षणेन धनुर्धरा व्यायाम कुर्वन्ति द्रघणो-मुद्गरो मौष्टि- अद्दहेमि अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य को-मुष्टिप्रमाणः प्रोतचर्मरज्जुकः पापाणगोलकस्तैः समाह- आयश्चाभि, जहा णं तुमं अट्टहट्ट० जाव ववरोविसि । तानि-व्यायामकरणप्रवृत्तौ सत्यां ताडितानि निचितानि गा. त्राणि-अङ्गानि यत्र स तथा स एवंविधः कायो यस्य स तथा,
तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवणं एवं वुत्ते अननाभ्यासजनितं सामर्थ्यमुक्तं, 'लङ्घणपवणजइयायामस
समाणे अभीए जाब विहरइ । तए णं से देंवे सद्दालमत्थे ' ति-लवणं च-अतिक्रमण प्लवनं च-उत्प्लवनं
पुत्तं समणोवासयं दोच्चं पि तचं पि एवं धयासी-हं भो! जविनव्यायामश्च-तदन्यः शीघ्रव्यापारस्तेषु समथों यः स सद्दालपुत्ता ! समणोवासया ! तं चेव भणइ, तए णं ततथा, 'उरस्सबलसमागए'त्ति-अन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इत्यर्थः *छए 'त्ति-प्रयोगशः ' दक्खे 'त्ति-शीघ्रकारी पत्तट्ट' त्ति
स्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवणं दोच्चं पि अधिकृतकमणि निष्ठाङ्गतः प्राप्तार्थः , प्रज्ञ इत्यन्ये , ' कु
तचं पि एवं वुत्तस्स ममाणस्स एयअज्झथिए०४ समुप्पन्ने सल' त्ति-आलोचितकारी 'मेहावि' त्ति-सकृद दृपश्रतक-2 एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिन्तेइ जे गणं मम जेद्रं प्रत्तं
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जाता
सदालपुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सद्धा जेणं मम मज्झिमयं पुतं जेणं ममं कणीयसं पुतंजाव | अ० । इल्ली पुल्ली बग्घो सहलो पुंडरीश्रो य।” पाइ० ना० प्रायश्चइ जावि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सम- ४४ गाथा । व्याघ्रविशेषे, प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार। मुहदक्खसहाइया तं पि य इच्छइ सानो गिहाओ नीणे- सद्ध-श्राद्ध-न० । पितृक्रियायाम् , जी० ३ प्रति० ४ श्रधिः । सा ममं अग्गो घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं| रा० । स्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदने, जं० २ वक्षः । गिाएहत्तए ति कट्ट उद्धाइए जहा चलणीपिया तदेव सद्धम्मजाण-समयान-न० । सद्धर्मरूपे यानपात्रे, पं०
व०५ द्वार। सर्व भाणियव्वं नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ । सेसं जहा चुलणीपियावत्तव्यया, नवरं
सद्धम्मबुड्डिजणग-सद्धर्मवृद्धिजनक-त्रि० । सुन्दरधर्ममत्यु
त्पादके, पश्चा०६-विव० । अरुणभूए विमाणे उबबन्ने० जाव महाविदेहे वासे सि
सद्धम्मपरंमुह-सद्धर्मपराङ्मुख-त्रि० । दुर्गती पतन्तमात्मानं ज्झिहिइ, निक्खेवओ। (मू० ४५) उपा० ७ अ०।
धारयतीति धर्मः, संश्चासौ धर्मश्च सद्धर्मः । क्षान्त्यादिकसद्दालु-शब्दवत-त्रि० ।" प्राल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तत्तर- श्चरण करणधर्मो गृह्यते, तत्पराङ्मुखः । धर्मविमुखे, श्राव० मणा मतोः " ॥८।२। १५६ ॥ इति मतोः स्थान भालु श्रा
४ अ० जी०। देशः । शब्दयुक्त, प्रा० । औ०। ।
सद्धम्मपरिक्खा-सद्धर्मपरीक्षा-स्त्री० । सम्यग्धर्मपरीक्षा.
याम् , पो० १ विव० । "बालः पश्यति लिङ्गं, मध्यमबुद्धिसहावाई-शब्दापातिन-पुं० । हैमवतवर्षवृत्तवैताठ्यपर्वते ,
विचारयति सवृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षत सस्था० १० ठा० ३ उ० । भ० । देवविशेषे, स्था।
यत्नेन ॥१॥” इति । ध०१ अधिन ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे दो सद्दावाती देवा । (सू०१२+) स्था०२ ठा०३ उ०। २६ पृष्ठ व्याख्या गता।) सहावायवासी-शब्दापातिवासिन्-पुं० । देवविशषे, स्था० । सद्धम्मपरिणाम-सद्धम्मपरिणाम-पुं० । सहजपरिणमने,श्र
दो सदावायवासी साती देवा।(मू०६२)स्था०२ठा०३उ० प्र०८ अष्ट०।। सद्दिट्टी-सदृष्टि-पुं० । सती-समीचीना दृष्टिर्यस्यासौ सद
सद्धा-श्रद्धा-स्त्री०। " श्रद्धर्द्धि मूर्धाऽर्धेऽन्ते वा"।।२। दृष्टिः । सम्यग्दृष्टी, प्रतिक स्थिरादिषु योगदृष्टिषु, द्वा०
४१॥ इति संयुक्तस्य दो वा । सहा । पक्ष-सद्धा। श्रद्धा । प्राण
"न श्रदुदोः" ॥८।१।१२॥ श्रद उद् इत्येतयोरम्त्यव्यञ्जन२३ द्वा०।
स्य लुग्न । प्रा० । इच्छायाम् , "ईहा इच्छा बञ्छा सद्धा सद्दिय-शब्दित-त्रि०। शब्दः प्रसिद्धिः संजातो यस्य तच्छ
कामो य आसंसा" पाइ० ना० ७० गाथा । स्वकीयेऽभिलाब्दितम् । प्रसिद्धे, झा० १ श्रु०१ अ० । औ० । श्राकारिते, घे, पञ्चा०२ विव०। प्रवर्धमानानुष्टानकरण, आचा० १ झा० १ श्रु०१ अ०।
श्रृ०१०३ उ० । विशुद्धचित्तपरिणामे, श्राव०६अ। शाब्दिक-पुं० । शब्दझे, अनु०।
तत्सङ्गाभिलाषे, दश० ६ अ० । मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षजो जे जाणइ। तं जहा-सदं सद्दिो , गणियं गणियो। योपशमादिजन्योदकप्रसादकमणिवञ्चतसः प्रसादजन्याम् ,
ध०२ अधिः । तत्त्वश्रद्धाने, संयमयोगविषये निजाभिला. अनु०।
षे, प्रश्न०१ संव. द्वार | धर्मकरणाभिलाषे, उत्त० ३ ० समाइय-शब्दोन्नतिक-त्रि० । उन्नतशब्दके, शा०१ श्रु०१
अथ श्रद्धाप्रवरे धर्मे इति द्वितीय भावसाधोर्लिङ्गमुपसंहरन् अ० । जी० ।
प्रज्ञापनीयलक्षणं तृतीयं भावसाधुलिङ्ग संबन्धयन्नाहसहद्देसय-शब्दोद्देशक-पुं० । शब्दोपलक्षित उद्देशकः शब्दो- एसा पवरा सद्धा, अणुबद्धा होइ भावसाहस्स । द्देशकः । द्विस्थानकस्य तृतीये उद्देशके,स्था० ५ ठा० १ उ०। एईए सम्भावे, पन्नवणिजो हवइ एसो ॥ १०५ ॥ सहप्पाय-शब्दोत्पाद-पुं० । शब्दोत्पत्ती, स्था।
एषा-चतुरङ्गा प्रवरा-वरेण्या श्रद्धा-धर्माभिलाषोऽनुदोहि ठाणेहिं सदुप्पाए सिया । तं जहा-साहन्नं
बद्धा-अव्यवच्छिन्ना भवति-सम्पद्यते भावसाधोः-प्र
स्तुतयतेः एतस्याः-श्रद्धायाः सद्भाव-सत्तायां प्रज्ञापनीयःताणं चेव पोग्गलाणं सहप्पाए सिया, भिजंताणं चेत्र
असग्रहविकलो भवत्येष भावमुनिरिति । पोग्गलाणं सदुप्पाए सिया । (सू०८१४)
ननु कि चरित्रवतोऽप्यसद्ग्रहः सम्भवति ? सत्यं संभ'दोही ' त्यादि द्वाभ्यां स्थानाभ्यां कारणाभ्यां श
वयपि मतिमाहमाहात्म्यात्-मतिमाहोऽपि कुत ब्दोत्पादः स्याद्-भवेत् संहन्यमानानां च संघातमापद्य
इति चदुच्यतेमानानां सतां कार्यभूतः शब्दोत्पादः स्यात्पञ्चम्यर्थे वा विहिउज्जमवन्नयभय, उस्सग्गववायतदुभयगयाई। षष्ठीति सहन्यमानेभ्य इत्यर्थः पुद्गलानां-बादरपरिणामानां सुत्ताइँ बहुविहाई, समए गंभीरभावाई ।। १०६॥ यथा घण्टालालयोरेवं भिद्यमानानां वियुज्यमानानां च
विधिश्च-उद्यमश्च-भयं चोत्सर्गश्चापवादश्च तदुभय यथा वंशदलानामिति । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
चेति द्वन्द्वस्तस्य च स्वपदप्रधानत्वाद् , गतानिति प्रत्येकमसहल-शार्दल-पुं० । सिंहपर्याय आटव्ये पशी, श्राव०१ भिसंबध्यते, सूत्राणि च विशेष्याणि ततश्चैवं योज्यते
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सद्धा अभिधानराजेन्द्रः।
सन्ना कानिचिद्विधिगतानि सूत्राणि सन्ति, यथा-" संयते भि
| सद्धाजणण--श्रद्धाजनन-न। श्लाघने , सद्धाजगणं ति का क्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिो । इमेण कमजोएण, |
सलाधणं ति वा एगट्ठा । नि० चू० १ उ०। भत्तपाणं गचेसए ॥१॥" इत्यादीनि, कानिचिदुधमसूत्राणि यथा-"दुमपत्तएँ पंडुए जहा,निवडइ राइगणाण अचए । एवं
सद्धाथिरया-श्रद्धास्थिरता-स्त्री०। श्रद्धास्थैर्ये, पं० २०१द्वार। मणुयाण जीवियं,समय गोयम! मा पमायए ॥१॥” इत्यादी. सद्धाभंग-श्रद्धाभङ्ग-पुं० । भक्तिनाशे, जी० १ प्रति०। नि, वर्णकसूत्राणि-'रिद्धथमियसमिद्धा इत्यादीनि प्रायो ज्ञा- सद्धामेत्तत्त-श्रद्धामात्रत्व-न । श्रद्धा-रुचिः सैव सामान्यताधर्मकथाघङ्गेषु, भयसूत्राणि-नरकेषु मांसरुधिरादिकथन- | भावे श्रद्धा कार्यरहिता श्रद्धामात्रं तद्भावस्तत्वम् । केवलरूपाणि,उनं च-"नरएसु मंसरुहिराइ-बनणं जं पसिद्धिमि- श्रद्धायाम् , पञ्चा०१३ विव०। तेण । भयहेउ इहर तेसि,वेउब्वियभावो न तयं ॥१॥" इत्यादीनि,उत्सर्गसूत्राणि । यथा-"इश्चेसि छरहं जीयमिका
सद्धालु-श्रद्धालु-पुं० । धर्मानुष्ठानं निरन्तरं कार्यमेवेति श्रद्धायाण नेय सयं दंडं समारंभिजा” इत्यादि षट्जीवनिकाय
साहिते, धर्मानुष्ठानं निरन्तरं कार्यमेव किंतु तत्कुर्वता सर्वशरक्षाविधायकानि, अपवादसूत्राणि प्रायश्छेदग्रन्धगम्यानि,
क्त्या विधौ यतनीयम् , इदमेव च श्रद्धालोलक्षणम् । श्राहुश्वयद्धा-"नया लभिज्जा मिउणं सहाय, गुणाहियं वा गुण- " विहिसारं चित्र सेवइ, सद्धालू सत्तिमं अणुद्वाण । श्रो समं वा । इको वि पावाइँ विवज्जयंतो, विहरिज कामे- दवाइ दोस निहाओ, वि पक्खवायं वहइ तम्मि ॥१॥ सु असज्जमाणो ॥१॥" इत्यादीनि, तदुभयसूत्राणि-येषू- धराणाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सया धरणा। त्सर्गापवादौ युगपत्कथ्यते,यथा-"अट्टज्माणाभावे, सम्म- विहिबहुमाणी धरणा, विहिपक्खअदूसगा धना ॥२॥ अहियासियव्यो वाही । तब्भावम्मि उ विहिणा, पडिया- आसन्नसिद्धिाणं, विहिपरिणामो उ होइ सयकाल । रपवत्तणं नेयं ॥१॥" इत्यादीनि एवं सूत्राणि बहुविधा- विहिचानो ऽविहिभत्ती, अभवजिदूरभव्वाणं ॥ ३॥" नि स्वसमय-परसमय-निश्चय-व्यवहार-ज्ञानक्रियादिना घ०२ अधिक। नयमतप्रकाशकानि समये-सिद्धान्ते गम्भीरभावानि-महा-सटि-मार्टम-श्रव्यः । समानं यगपत। एकत्रेत्यर्थे. नि० च. मतिगम्याभिप्रायाणि सन्तीति शेषः ।
२ उ० । सहेत्यर्थे, भ०२ श०५ उ०। प्राचा० । शा० । औला ततः किमित्याह
सद्धेअ-श्रद्धेय--त्रि० । नान्यथेत्यादीति भावनया क्षेये, श्राव. तेसि बिसयविभाग, अमुणतो नाणवरणकम्मुदया। ।
४ अ०। मुज्झइ जीवा तत्तो, सपरेसिमसग्गहं जणई ॥१०७॥
सन्तमस-सन्तमस--न । अन्धकारे "सन्तमसं अंधयारं धत तेषां सूत्राणां विषयविभागमयमस्य सूत्रस्य विषयोऽयं
तिमिरं तमिस्संच"। पाइ० ना०४८ गाथा। चामुच्येत्येवंरूपममुणन्-अलक्षयन् ज्ञानावरणकर्मण उदयाखेतोर्मुह्यति-मोहमुपयाति जीवः-प्राणी ततः स्वपरयो- सन्तय-सन्तत-न
सन्तय-सन्तत-न० । अविरामे , “ सइ अविरयं अविराम रात्मनः परस्य च पर्यपासकस्यासदग्रहमसदोध जनयति । अणुवल संतयं सया निच्चं" । पाइ० ना०८७ गाथा। जमालिवत् । तत्कथा चातिप्रतीतत्वान्न वितन्यत इति । सन्दण-स्यन्दन-पुं० । रथे ," संदणो रहो"। पाइ० ना० ततश्च
२२३ गाथा। तं पुण संविग्गगुरू, परहियकरणुञ्जयाणुकंपाए।
सन्दाणिअ-सन्दानित--त्रि० । बद्धे, “बद्धं संदाणिअंनिअलिबोहिंति सुत्तविहिणा, पन्नवणिजं वियाणंता ॥१०८॥ अंच" | पाइ० ना० १६७ गाथा। तं मूढं पुनःशब्दादर्थिनं विनीतं च संविग्नाः-प्रतीतार्था
सन्दि--सन्दिष्ट--न० । आत्महिते, “सन्दिय़ अप्पाहि अं"। गुरवः-पूज्याः परहितकरणोद्यता:-परोपकाररसिका अनु
पाइ० ना० १८५ गाथा। कम्पया-मा गमत् एष दुर्गतिमित्यनुग्रहवुया प्रेरिता बोध
सन्दिद्ध-सन्दिग्ध-त्रि० । संशयिते , " सन्दिद्धं संसइअं"। यन्ति प्रज्ञापयन्ति सूत्रविधिना आगमोक्नयुक्तिभिः प्रज्ञापनीयं प्रज्ञापनोचितं विजानाना लक्षयन्तस्तदितरस्य सर्वज्ञमापि
पाइ० ना० १८५ गाथा। बोधयितुमशक्यत्वादिति ।
सन्दुमिअ-प्रदीप्त-त्रि० । उद्दीपिते, “ उद्दीविरं उजालिग्रं ततः
पलीविरं जाण सन्दुमिश्र" | पाइ० ना० १६ गाथा। सोऽवि असग्गहचाया, सविसद्धं दंसणं चरित्तं च। सन्दोह-सन्दोह-पुं० । गणे , संदोहो निउरम्बो । पाइ०
आराहिउं समत्थो, होइ सुहं उज्जुभावाओ ॥१०६॥ ना० १८ गाथा। , सोऽपि प्रज्ञापनीयमुनिः सुनन्दराजर्षिसदृशोऽसद्महत्या
सन्धुक्किा-प्रदीप्त-त्रि० । उज्ज्वालिते, “सन्धुकिअं उद्दीगानिजपरिकल्पितबोधमोचनात् सुविशुद्धमतिनिमलं दर्शनं.
। विअं उजालिअं पलीविअं जाण" । पाइ० ना० १६ गाथा । सम्यक्त्वं चारित्रं-संयम चशब्दात्-ज्ञानतपसी चाराध- | सन्न-सन्न-त्रि० । क्लान्ते, " सन्नं किन्नं सुठिअं उव्यायं यितुं समर्थो भवति सुखं यथाभवत्येवमृजुभावादार्जवगुणा- नीसह किलंतं च" । पाइ० ना० ७६ गाथा । दिति । ध० र० ३ अधि० ३ लक्षः ।
सना-संज्ञा-स्त्री० । नामनि, “सन्ना गुत्तं च नामं अहि१- जमालि 'शमे चतुर्थ भागे सर्व वृत्तान्तम् ।
हाणं" । पाइ० ना० १६१ गाथा।
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(३६२) मन्नाम अभिधानराजेन्द्रः।
सपुरजण जाणवय सन्नाम-आ-दृ-धा० श्रादरे, "श्रादृ: सन्नामः" ८४८३॥ सपमज्जिय-सप्रमृज्य-अव्य० । सम्प्रमार्जनं कृत्वेत्यर्थे , प्रश्राद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति । सन्नामेइ। श्रादरइ। न०१ संव० द्वार । आद्रियते । प्रा. ४ पाद ।
सपरकम-सपराक्रम-न । पराक्रमः-सामर्थ्य सह पराक्रमेमन्नम-काट-धागअपवारणे, छदेणैर्गुम-नूम-सन्नुम-ढक्कोण वर्तत इति सपराक्रमः । पराक्रमयुक्ने अनशने , श्राम्बाल-पव्वालाः" हा२१॥ छदेय॑न्तस्यैते षडादेशा वा भ. चा०२७०८०१ उ०। (इदं च 'मरण' शब्द षष्ठभागे वन्ति । सन्नुमइ । छादयति । प्रा०४ पाद ।
११४ पृष्ठे व्याख्यातम् ।) सपएस-सप्रदेश-पुं० । सविभागे,भ०६ श० ३ उ० । ('पएस' सपरसुय--स्वपरश्रुत-न० । स्वसमयपरसमययोः,द्वा० ६ द्वा। शब्दे तृतीयभागे २२ पृष्ठ सप्रदेशाऽप्रदेशत्वे दण्डकः ।) सपरिग्गह-सपरिग्रह--त्रि० । सह परिग्रहेण-द्विपदचतुष्पदसपंचचूल-सपञ्चचूड-पुं० । सह पञ्चभिश्चूडाभिर्वर्तत इति धनधान्याऽऽदिना वर्तत इति सपरिग्रहः । सूत्र. २ श्रु०१
सपञ्चचूडः । चूडापञ्चकसहिते पाचाराङ्गे, आचा० १७० अ० । धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्तमाने, तदभावऽपि १०१ उ०।
शरीरोपकरणादौ मूर्छावति च । सूत्र०१ श्रु०१ १०४ उ० । सपंसुलक--सपांसुलक-त्रि०। सपा स्नि, पक्ष० ३ श्राश्र० सपरिमाण-सपरिमाण-त्रि० । सह परिमाणेन वर्तत इति द्वार।
सपरिमाणम् । सपरिच्छदे, सूत्र०१ श्रु० १ ० ४ उ० । सपक्ख-सपक्ष-म० । समानाः पक्षाः पार्थ्या दिशो यस्मिन् सपरियण-मपरिजन--त्रि० । सह परिजनैवर्तत इति सपरितत् सपक्षम् । स्था०४ ठा०३ उ०। समानपक्ष, समपावें. जनः । भृत्यादिवर्गसहिते, उत्त० २०१०। यथा भवति समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थः । स० ३२ सम० । स
सपरिया-सपर्या-स्त्री० । सेवायाम् , स्या०। वषु पाश्वधु-पूर्वोपरदक्षिणात्तररूपेष्वित्यर्थः । सू० प्र०२० सपरिवार-स्वपरिवार-त्रि० । स्वकीयपरिवारयोग्यासनपंपाहु । सम्म०।
रिकरिते, भ० २ श०४०। स्वपक्ष-पुं०। निहवपार्श्वस्थादिषु, वृ०१उ०२ प्रक० स परिसाग-सपर्षक-त्रि०। सह पर्षदो येयेषां या ते ससपक्खि-सपक्ष-त्रि०। समानाः पक्षाः पाश्वों दिशो यस्मिन् | पर्षकाः । सदस्येषु, श्रा०म०१०। तत्सपक्षम्। इहेकारः प्राकृतप्रभवः। स्था०४ठा० ३ उ० । पक्षा- सपरोवधाय-स्वपरोपघात-पुं० । आत्मन्यसंक्लेशे, जी. १ णां दक्षिणवामादिपार्थानां सहशता समता सपक्षमित्यव्य- प्रति। यीभावः । समपार्श्वतया समे,स्था०३ ठा०१ उ० । महौषधि
सपाउरण-सप्रावरण-त्रि० । सप्राच्छादने, ग. १ अधि० । भेदे, स्त्री० । ती०६ कल्प।
सपाडगभंडधारि-सप्रादुकभाण्डधारिन-पुं०। यावन्मात्रमुपसपच्चवाय-सप्रत्यपाय-पुं० । संभाव्यमानाऽपाये , पिं०।
करणमुपयुज्यते तावन्मात्रं धरति शेषं परिष्ठापयति साधी, स्था।
व्य०८ उ०। सपज्जवसिय-सपर्यवसित-त्रि० । शान्ते, सपर्यवसितो लोको
सपाण-सप्राण-त्रि०। सह प्राणर्वर्तते इति सप्राणम् । सजगत्प्रलये सर्वस्य विनाशसद्भावात् । श्राचा०१ श्रु०८०
चित्ते, दशा०२ अ०। १ उ०। सपज्जाय-सपर्याय-त्रि० । नास्तिभावे, सपज्जाय ति वा ण
सपाय-स्वपात्र-न० । आत्मनः संशामात्रके , अप्पणिज्जो स्थिभावो ति वा अविजमाणावो त्ति वा एगट्ठा । प्राय
सचामत्तओ सपायं भरणति । नि० चू० ३ उ०।।
सपायच्छित्त-सप्रायश्चित्त-त्रि० । सह प्रायश्चित्तेन वर्त्तत हुचू०१०। सपडाग-सपताक-त्रि०। सह पताकया वर्तत इति सप- ति सप्रायश्चित्तम् । प्रायश्चित्तयुक्ने, स्था०५ ठा०२ उ०। व्य० । ताकम् । पताकया सहिते, शा० १७०१०।
सपाव-सपाप-त्रि० । “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो सप(प्प)डिकम्म-सप्रतिकर्मन-न०। प्रतिकर्मसहितेऽनशने,
लुक"।।१।१७७ ॥ सपा । नत्र प्रायोग्रहणान्न लुक । "भत्तपरिन्नाऽणसणं तिचउविहाहारचायनिष्फन्नं । स(प)प
पापसहिते, प्रा० १ पाद । डिकम्मं नियमा,जहा समाही विणिहिटुं ॥१॥” इति । स्था०२
सपासंडि-स्वपाप(ख)ण्डिन-पुं० । जैनपाषण्डिनि, णाणदेसठा०४ 3।
णचारित्ताणि परूवेति जिणवयणं चोरति सो सपासपडिक्कमण-सप्रतिक्रमण--पुं० । उभयकालकरणीयप्रतिक- | संडी चेव । नि० चू० १६ उ० । मणसहिते, सह प्रतिक्रमणेनोभयसन्ध्यामावश्यकेन यः स सपिसल्लय-सपि(शाच)सल्लय-त्रि० । सह पिसल्लयेन-पिशातथा, अन्येषां तु कारणजातप्रतिक्रमणमिति । उक्नं च-"सप- चेन वर्तन्त इति सपिसल्लयाः । पिशाचेन सहितेषु, प्रश्न १ डिक्कमणोध मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जि.(णस्स)णाणं।" | आश्र० द्वार। स्था०६ ठा०३ उ०।।
सपुरजणजाणवय-सपुरजनजानपद-त्रि० । सद्द पुरजनेन सपडिादेसि--सप्रतिदिश- स्त्री०। प्रतिदिशां विदिशां सह
जानपदेन च जनपदसम्बन्धिजनेन वर्तते यः स तथा । पुरजशतायाम् , समप्रतिदिलायाम् , स्था० ४ ठा०२ उ०। । नजनपदजन लमते, भ० ११ श० ११ उ० ।
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सपुरोहिय अभिधानराजेन्द्रः।
मप्पि मपुरोहिय-सपुरोहित-पुं० । शान्तकर्मकारिसहिते , प्रश्न० सप्पमाण-शप्यमान-त्रि० । स्याद्वादे, द्रव्या० ५ अध्या० । ४ श्राश्रद्वार।
आक्रोश्यमाने, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार । सव्वाऽवर-सपूर्वापर-त्रिका सह पूर्वेण-पूर्वाह्नकर्त्तव्येन अपरेण सप्पलोद्धी-सर्पलुब्धिन-पुं०। सर्पग्राहके, वृ०१ उ०३ प्रक० । वा अपराह्नकर्तव्येन । यदिवा-पूर्व यत्क्रियते अन्नादिकं तथा सप्पविज्जा-सर्पविद्या-स्त्री० । सर्पप्रधानायां परिव्राजकविअपरं यत्क्रियते विलपनभोजनादिकं तेन सह वर्तत इति स- द्यायाम् , प्रा० म०१०। पूर्वापरम् । दशा० १० अ०। पूर्वणाऽपरेण च सहिते, चं०प्र० अंतरंजिया नाम पुरी, तत्थ भूयगुहं नाम चेतिय, तत्थ १६ पाहु० । सह पूर्वेण गङ्गादिना यदपरं महागणादि तत्स- सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिता । तत्थ बलासरि पूर्वापरम् । गोशालकरीत्या पूर्वापरसहिते , भ० १५ श० । नाम राया, तेसि सिरिगुत्ताण थेराणं सडियरो रोहउत्तो सपहा-स्वप्रेक्षा--स्त्री० । स्वेच्छायाम् , भ. ३ श० ३ उ० । नाम सीसो, अरणगामे ठितो । ततो सो उवज्झायं वं.
दो पति, एगो य परिब्वायत्रो पार्ट्स लोहपट्टएण, बंधिउं सपोग्गल-सपुद्गल-पुं० । कर्मादिपुद्गलवति जीवे ,स्था०
जंबुडाल गहाय हिंडद । पुच्छितो भणइ-नाणण पोर्ट्स २ठा०१ उ०।
फुट्टइ, तो लोहपट्टेण बद्धं, जंबुडालं च जहा पत्थ सप्प-सर्प-पुं० । सर्पतीति सर्पः । भुजङ्गे, प्रा० म० १
जंबूदीवे णस्थि मम पडिवादि त्ति, ततो तेण पडअ० । विशः । यथाऽसावकदृष्टिर्भवत्येवं गोचरगतेन संय- हतो णीणावितो-जहा सुराणा परप्पवादा, तस्य लोगेण मैकदृष्टिना भवितव्यम् । दश० १ ० । ( सर्पवर्णकः पोट्टसालो चेव नाम कतं । सो पाहतो रोहगुत्तण वागोसालग शब्दे तृतीयभागे १०१६ पृष्ठे गतः।) तथा सर्प रिश्रो, अहं वादं देमि त्ति । ततो सो पडिसेहित्सा गतो श्रा. इति यथा-सावेकधिर्भवत्येवं गोचरगतन संयमैकदृष्टिना भ- यरियसगासं, आलोएइ-एवं मए पडहतो विणिवारिओ । पितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति , अथवा-यथा द्राक् स्पृशन् आयरिया भणति-दुट्ठ कयं, जतो सो विजाबलिप्रो वादे सपों विलं प्रविशत्येवं साधुनाऽप्यनाखादयता भोक्तव्यमिति।
पराजितोऽवि विजाहिं उबट्टाइ त्ति तस्स इमाओ सत्त दश० १ ० । अश्लेषानक्षत्राधिपती देवे, जं०७ चक्षक।
विजाओ, तं जहाचं० प्र० । अनु । जी०।।
विच्छुय सप्पे मूसग, मिई वराही य कायपोआई। सप्पइयत्त-सत्प्रतिज्ञत्व--न० । प्रतिपन्नक्रियानिर्वाहणे, द्वा०
एयाहिं विजाहिं,सो उ परिवायत्रो कुसलो१३७ (भा०) १२ द्वार।
व्याख्या-तत्र वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, मप्पकाल-स्वल्पकाल-पुं० । मुहूर्तमहरादिकेऽहोरात्रान्ते
सर्पति सर्पप्रधाना, 'मूसग 'त्ति मूपकप्रधाना, तथा मृगी काल. धर्म०२ अधिक।
नाम विद्या, मृगीरूपेणापघातकारिणी, एवं वाराही च, सप्पच्छत्त-सर्पच्छत्र-न० । अहिच्छत्राके , श्राचा०१ श्रु०
'कागपोपाइ' ति-काकविद्या पोताकीविद्या च, पोताक्यः अ०५ उ०।
सकुनिका भण्यन्ते, एतासु विद्यासु, एताभिर्वा विद्याभिः स सप्पडक्क-सर्पदष्ट-त्रि० । सर्पदशनमारिते,सप्पडको मारि
परिव्राजकः कुशल इति गाथार्थः ॥ आव०४ अ०। तकोट्टा विसण भाविस्सति । नि० चू० १ उ०।
सप्पवित्तिपयावहा-सत्प्रवृत्तिपदावहा-स्त्री०। प्रभाख्ययोगमप्पडिदंड-सप्रतिदण्ड-पुं० । सद्वितीयदण्डे,प्रश्न०४ आश्र० दृष्टी, द्वा०।
अस्यां व्यवस्थितो योगी, त्रयं निष्पादयत्यदः। सप्पत्तदाणपुब्ब-सत्पात्रदानपूर्व--न० । सत्पात्रं साध्यादिः
ततश्चेयं विनिर्दिष्टा, सत्प्रवृत्तिपदावहा ॥ २५ ॥ तम्मिन् दानपूर्वम् । साध्वादिभ्यो दानं दत्त्वेत्यर्थे, (क्रियावि- अस्यामिति-अस्यां प्रभायां व्यवस्थितो योगी त्रयमदोशषणमिदम् ) ध०२ अधि०।
निरोधसमाध्यकाग्रतालक्षणं निष्पादयति, साधयति ततश्चयं सप्पदव-सर्पदष्ट-न० । सर्पदशने, वृ० ५ उ०। (सर्पदशने |
प्रभा सत्प्रवृत्तिपदावहा विनिर्दिष्टा सधैः प्रकारैः प्रशान्तवामाकपानविधिः 'मोय' शब्दे षष्ठे भागे ४४६ पृष्ठे दर्शितः।)
हिताया एव सिद्धेः । द्वा० २४ द्वा० ।
सप्पसुगंधा-सर्पसुगन्धा-स्त्री० । अनन्तजीववनस्पतिभेदे, सप्पभ-सप्रभ-त्रि० । सप्रभावे, स०। प्रभायुक्ने, स०।
प्रज्ञा० १ पद। स्वप्रभ-त्रि० । स्वेन-आत्मना प्रभान्ति-शोभन्ते-प्रकाशन्ते
सप्पह--सत्पथ--पुं० । सन्मार्गे , सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ० । चात स्वप्रभाणि । स्वस्वरूपतः प्रभावत्सु, स०।
सप्पहविप्पण-सत्प्रभविप्रनष्ट-न० । त्यक्तजिनशासने , उसत्प्रभ-त्रि० सती-शोभना प्रभा-कान्तिर्यस्य स सत्प्रभः। त्त०४०। स्वरूपतः प्रभावति, दशा० ६ अ० ज०। रा०। प्रज्ञा। सप्पाडिहेर-सत्प्रातिहार्य--न० । देवकृते तीर्थकृतानां शोभजी० । श्रा० म० । देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्त, स्था० ४ नमातिहार्ये, " अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यो ध्वनिश्चाठा०२०।
मरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं , सत्प्रातिहार्यासप्पभावसाहिच्च-स्वप्रभावसौहित्य-न० । स्वस्य-श्रात्मनो णि जिनेश्वराणम्" ॥१॥ कर्म० १ कर्म । भावः-तप स्पैहित्य तृप्तिः । परमाप्ततृप्ती,द्रव्या०५ अध्याय सप्पि-सप्पिम्--न । घृते , स्था० ४ ठा०१ उ० । सूत्र० ।
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( ३१४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सपि
प्रश्न० | दश० । श्राचा० । श्रौ० । श्रा० म० । विकृतिभेदे,
स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
सर्व पुं० [देवे, पुनर्वसु नक्षत्रे स्था० ।
दो सप्पी (०६०+) स्था० २ ठा० २३० सप्पिमासव- सपराधव पुं०। सरितिशायिगन्धादिवृतम् एतत्स्वादोपमानवचना वैरस्वाम्यादिवत्तदाश्रयाः । लब्धिमपुरुषविशेषेषु प०। श्री० ।
3
सप्पिवास सत्पिपास-त्रि “समासे या " ॥ ८२ ॥ २७ ॥ शेषाऽऽदेशयोः समासे द्वित्वं वा भवति । सपिवासो । सपिवासो । सतृष्णे प्रा० २ पाद । सप्पी सप्पी स्त्री० सस्त्रियाम् दशा० १ ० . स० । सप्पुर-सत्पुर-१० | स्वनामस्याने पुरे पत्र वीर जिनमतिमा
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पूज्यते । ती० ४३ कल्प । सम्पुरिस--सत्पुरुष - पुं० । संश्चासौ पुरुषश्च सत्पुरुषः । श्रासपुरुषे, सूत्र० २ श्रु० ६ श्र० । तीर्थकरादिके, व्य० १० उ० । महासस्बे, पं० ० १ द्वार " तह दुलहलं, बिज्जुलताचंचलं मणूसत्तं । लडूग जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो ।" श्र० म० १ ० | दाक्षिणात्यानां किं पुरुषाणामिन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० । प्रा० । ४० । सफल - सफल त्रि० सह फलेन कर्मबन्धेन वर्त्तत इति सफलम् । सकर्मणि, सूत्र० १ श्रु० ८ श्र० । चरितार्थे, जी० । १ प्रति० । फलवति, पो० ८ विव० । सफाय - सफाय - न० । अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद । सफिह - सस्पृह - त्रि० । अभिलाषासहिते, द्वा० २२ द्वा० । सबर-शबर-जि० अमादेशनेवे, सदेशवासिनि ले
,
प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । सूत्र० । शा० प्रज्ञा० प्रा० म० । प्रव० [आाचा स्वनामध्याते जैमिनिपरि व्याख्याभाष्यकारके प्रधानमीमांसके सम्म० २ काण्ड | सबल- शबल-पुं० | परमाऽधार्मिके, सूत्र० १० ५ श्र० १ उ० । प्रायश्चित्तयुक्ते, दशा० ।
,
सूर्य मे आउसंतेयं भगवया एवमक्खार्थ इह खलु थेरेहिं भगवंते एकवीसं सबला पाचा, करे खलु ते घेरेहिं भगवते एक सचला पता इमे खलु धेरेहिं भगवंतेर्हि एकवीसं सबला पम्मत्ता, तं जहा - हत्थकम्मं करेमाणे सबले १ मेहुणं पडिसेबमाणे सबले २ रातीभो
भुजमाये सबले ३ अहाकम्मं भुजमासे सबले ४ रायपिंडं जमाणे सबले ५ कीर्यं पाभिचं अच्छि आणिसिहं बाहर दिखमाणं भुंजमा सबले ६ अभिस अभिक्खणं पडियारक्खित्ताणं भुंजमाणे सबले ७ अंतो छहं मासाणं गणतो गणं संकममाणे सबले ८ अंतो मासस्स तो दगले करेमाखे सबले अंतो मासस्त ततो माइट्ठाणं करेमाणे सबले १० सागारियपिंडं भुंज - माणे सबले ११ आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे सबले
सबल
१२ श्राउट्टियाए मुसावायं करेमाणे सबले १३ श्राउट्टियाए अदिसादाणं गिरहमाणे सबले १४ आउट्टिताए अतरहिता पुढवीए ठाणं वा नीसीहियं वा चेतेमाणे सबले १५ एवं समसिद्धा पुढवीए सरकखाए पुडवीए १६ एवं उट्टियाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सचंडे सपा सबीए सहरिए सउस्से सउसिंगे पणगदगमट्टियमकडासंताणए तहप्पगारं ठाणं वा सिअं वा निसीदिपं वा चेतमाये सबले १७ आउट्टियाए मूलभोयां वा कंदभोयणं वा संधभोयणं वा तयाभोयखं वा पवाभोवणं वा पद्मभोय या पुष्कभोवणं वा फलभोय वा arratri वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले १८
तो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले १६ तो संच्छरस्स दस माइद्वाणाई करेमागे सबले २० आउ ट्टियाए सीतोदगरउपाए दत्थे वा पतेय वा दबीए वा भायखेस वा अस वा पार्थ वा साइमं वा साइमं वा पडेगात्ता भुंजमाणे सबले २१ एते खलु थेरेहिं भगतेहिं एकवीसं सबला पन्नत्ता ति बेमि ॥ २ ॥
WAY
"
समाधिस्थानानि चाssसेवमानः शबलो भवति । श्रथवा-शबलत्वस्थानेषु वर्तमानस्यासमाधिर्भयति समा धिस्थानपरिहरणाय शयलस्थानानि शयलत्पकरणानि परिहर्त्तव्यानि इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातस्यास्य शबलाध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते ' सुयं मे श्राउसंतेरामि'त्यादि, व्याख्या प्राग्वत् । नवरं शवलं- कर्बुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेषनिमित्तभूर्भवति ते वातद्योगात्साधवोऽपि शवला इति व्यपदिश्यन्ते तत्र यलो द्रव्यभावभेदाद् द्विधा तत्र यस्यानुपयुकत्वाद्भयशवसेनेहाधिकार स चैयम् एकैकस्मिन् अपराध मूलगुणजे आधाकमांदी अतिकम चारो नाचार, ततः स वैरप्येतेः शवतो भवति । तत्रातिक्रमादीनां स्वरूपमिदम्-यथाऽऽधाकर्मादिसदोषवस्तुपरिभोगनिमन्त्रणे कृते सति तत्प्रतिश्रवणे प्रथमः, तदर्थ मार्गे गच्छति द्वितीयः तदीयः भोजनार्थ सति चतुर्थ प बधाई प्रतिसेयान्तरेष्वप्यम् मूलगुषेषु तु आदिमत्रिभिः शवो भवति । चतुर्थन तु सर्वभङ्गः तथातिरिक्त एव भवति शुक्लपटदृष्टान्तवत् । यथा शुक्लपट एकस्मिन् देशे मलिनो भवति तदा तावन्मात्र एव धाव्यते, यदा च सर्वोऽपि मलिनो भवति तदा तु सर्वोउस क्षारादिभिः समः कृत्या धान्यते यतोमलिनः पटः शोभतेऽपि न । अथ चीतामपि न भवति एवं चारित्रपटोप देशमः सन्न मो क्षसाधको भवति, इति कृतं प्रसङ्गन । प्रस्तुतमनुसरामः, साहसहितक
3
विकारविशेषमुपशमं कुर्यन् उपलक्षणत्वात्कारयन्ननुजानन् वाली तथा मैथुनं प्रतिसेवमानो
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अभिधामराजेन्द्रः।
सम्बोह तिक्रमव्यतिक्रमातिचारैत्रिभिः प्रकारैर्दिक्यावित्रिविधं से- सीजे वीजानि-नीवारश्यामाकादीनि, तथा-सह हरितैर्ववमानः शबलो भवति ।। अनाचारमालम्बनस्तत्सेवी तु वि. र्तत इति सहरितं तस्मिन् सहरितानि दूर्वाप्रवालादीनि राधक एव सालम्बनपरवशादिना यतनया सेषमानो भवति 'सउसे' ति-सहावश्यायेन वर्तत इति सावश्याय तस्मिन् शबलः, आलम्बनानि तु छेदग्रन्थटीकादिभ्योऽबसेयानि, परं सावश्याये अवश्यायो नाम-नीहारः, तथा-'सउदगे'त्ति-सह तत्रापि न किंचिदणुनायं' इति वचनात्तन्नोपदेशप्र- उदकेन वर्सत इति सोदकं तस्मिन् सोदके उदकं भीमान्तघर्तकोऽत एव शबलः । तथा रात्रिभोजनं दिवा गृहीतं रिक्षभेदावनेकप्रकारम् तथा-'सोर्सिगे' त्यादि उत्तिापनको. दिवा भुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भकैरतिक्रमादिभिश्च मुजामाश- दकमृत्तिकामर्कटसन्तानेन सह वर्तत इति सोत्तिापनकोबसः सं सालम्बनं यतनया सानिध्यादिखेग्यपि राबलः ।। दकमृत्तिकामर्कटसन्तानं तस्मिन् सोतिङ्गपनकोदकमृत्तितथा-माधाकर्म प्राधाय साधुप्रणिधानेन बत्सचेतन- कामर्कटसम्तामे, तत्र उलिङ्गः-पिपीलिकासन्तामकः पनमचेत कियते,अचेतन वा पच्यते चीयते वा गृहादिकं वयते को-भूम्यादौ उल्ली विशेषः उदकमृत्तिका-अचिरादप्कायापा वखादिकं तदाघाकार्म भुजानःशक्ल तथा-'रायपिंडे' कृता मृत्तिका मर्कटसन्तानको-लूतातन्तुजालं तदेवभूते मि-राजपिएखो-नूपाहारः५। कीतपामिच्चे' स्यादि की- स्थाने इति गम्यं तत्र स्थानकायोत्सर्ग उपवेशनं वा ' सितं द्रव्यादिना, साध्वर्थमुद्धारानीतं प्रामित्यम्, आच्छिद्यते जबत्ति-शयनम् , 'निसीहियं व जि-स्वाध्यायस्थानं कुर्वन ऽनिच्छतोऽपि पुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय गृह्यते तदा- शबलः १७ । तथा-'आउट्टियाए' त्ति मूलेत्यादि भूलानि प्रच्छेद्य, नानुज्ञातं सर्वस्वामिभिः साधुदानाय इत्यनिसृष्टं भ- तीतानि तेषां भोजन-भक्षणं परिभोगो वा मूलभोजनम् , ए. कम् पाहत्य दीयमानं स्वस्थानात् साध्वर्थमभिमुखमानीय वं कन्दभोजनं कन्दा उत्पलकन्दादयः , त्वक पिप्पलादीनां, दानं भक्कादेः, उपलक्षणत्वात् परिवर्तनादिकमपीह द्रष्टव्यं प्रवालानि करीरादीनां, पत्राणि ताम्बूलपत्राणि नागवल्या. तद्धानः ६ । तथा--'अभिक्खण' ति-अभीक्षणमसक- दीनां, फलानि पाम्रादीनां,बीजानि शाल्यादीनाम्, हरिताप्रत्याक्यायाऽशनादि भुञ्जानः ७। सथा- अंतो ' ति- नि पत्रशाकादीनाम् , ' मुंजमाणे ' त्ति-भोजनं कुर्छन् अन्तः पराणां मासानामेकतो गणादन्यं गणं संक्रामन् शबलः १८ । तथा-'अंतो'त्ति-अन्तर्मध्ये संवत्सरस्य दशबलो निरालम्बन इत्यर्थः, सालम्बनस्तु ज्ञानादिपुष्टा- शोदकलेपान् कुर्वन् १६॥ तथा-'अंतो'त्ति-अन्तः संवत्सरस्य लम्बनयुक्तो गणान्तरं संक्रामेत् ८ । तथा-'अंतो' त्ति- दश मायास्थानानि कुर्वन् २०। तथा-'श्राउट्टिए'सि-आकुअन्तः मासस्य त्रीन् उदकलेपान् कुर्वन् उदकलेपश्च नाभि- ट्या सीतोदकव्याप्तेन हस्तेन गलद्विन्दुना वा मात्रकेण वा प्रमाणजलावगाहनमिति । तथा-' अंतो' सि-अन्तर्मध्ये दा या भाजनेन वा असणं वा ' इति-अत्र वाशब्दोषामासस्य त्रीणि मायास्थानानि तथाविधप्रयोजनमन्तरेणाति
दानात् अशनं वा इत्यनेन पदेन सह चतुष्टयस्य सूचनागूढमातृस्थानानि (स्थानभेदाः) कुर्वन् १० । तथा-'सागा
त्तानि चामूनि अशनं पानं खादिमं स्वादिमम् , तत्र अशरिय'ति-सागारिको-वसतिदाता तत्पिण्डम् ११ । तथा
नम् श्रोदनादि पानं द्राक्षापानादि खादिम खरिफ'पाउट्टियाए पाणातिवायं करेमाणे सबले' आकुट्टनमिति
लादि स्वादिम सुण्ठ्यादि, वा सर्वत्र समुच्चये, प्रगृह्य भुजागर करोति श्रापद्रहितो वा यत्करोति पृथिवीगुरिडतेन
जानः शबल इत्येकविंशतितमः २१ । एवं खल्वित्यादि हस्तादिना भिक्षां गृह्णाति उदकक्लिन्नाभ्यां या हस्ताभ्यां भिक्षा
निगमनवाक्य पूर्ववदेव । इति ब्रह्मविरचितायां जनहितायां हाति अग्निसंश्लिष्ट वाऽऽहारं गृह्णाति मात्मानं परं च वा
श्रीदशाश्रुतस्कन्धटीकायां शबलनामकं द्वितीयमध्ययनं सयुना बीजति सचित्तफलबीजं कन्दादिकं वा गृह्णाति द्वी- माप्तम् । दशा०२ अ०। न्द्रियादिसंसक्ने पथि व्रजति तन्मिश्रमाहारादिकं वा गृ- "वरिसंतो दस मास-स्स तिन्नि दगलेवमाइठाणाई। द्वाति, एवं सर्वत्र श्राकुटया इत्युपेत्येति द्रष्टव्यम् १२ । तथा | आउट्टिया करेंतो, बहालियादिएणमेहुण्णे ॥१॥" 'पाउद्दि'सि-आकुटथा मृषावादं वदन् १३ । तथा-आकुटया निसि भक्नकम्मनिवपि-ज कीयमाई अभिक्खसंवरिप। भदत्तावानं गृहन् १४। तथा-पाकुट्या अनन्तरितायां पृथि- कंदाई भुजंते, उदउ (दु) लहत्थाइगहणं च ॥२॥ व्यां स्थानं वा नैघिी वा चेतयन् कायोत्सर्गे स्वा- सञ्चित्तसिलाकोले, परविणिवाई (स) सिणिद्ध ससरक्खो । ध्यायभूमि वा कुर्वन्नित्यर्थः १५ । तथा-एक्माकुट्या सस्नि-| छम्मासंतो गणसं-कर्म च करकम्ममिह सबले ॥३॥ न्यायां पृथिव्याम्,पवं सरजस्कायां पृथिव्यां१६॥तथा त्राकुट्या | आव०४ अ०। 'चित्तमंताए' त्ति-चितं जीवल्लक्षणं तदस्त्यस्यामिति चित्तव
ति-चित्त जावलक्षण तदस्त्यस्यामाताचत्तव. सबालवच्छा-सबालवत्सा-स्त्री०। सह बालेन स्तनपायिना ती सचित्ता सजीवेत्यर्थः, तस्याम् एवंविधायां शिला
वत्सेन वर्तते इति सबालवत्सा । बालसहितायां स्त्रियाम् , यां; शिला नाम-महाप्रमाणः पाषाणः , एवं सर्वत्र नवरं 50 प्रति 'लोलूइ'ति-कोष्ठो लोकप्रसिद्धः स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , 'कोला
सबाहिरिय-सबाहिरिक-त्रि० । प्राकारबहिर्वसिंगृहपतिवासंसि'ति-कोला-घुणास्तेषामावासः कोलावासस्तस्मिन् | कोलावासे दारी-काष्ठे जीवप्रतिष्ठिते द्वीन्द्रियादिजीवाश्र
रूपया बाहिरिकया सहिते, वृ०१ उ०२ प्रक० । यीभूते , 'सअंडे' त्ति-सह अण्डैवर्तत इति साण्डं तस्मिन् |
सबीय-सबीज-न। वीजैः सह वर्तमाने, दशा०२० सह सागडे अण्डानि कीटिकादीनाम् ,तथा-'सपाणे'त्ति-सह प्रा. बीजेः-शालिगाधूमादिभिवतन्त इति सबाजकाः
बीजैः-शालिगोधूमादिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः । एते सवत्तत इति सप्राणं तस्मिन् सप्राणे प्राणा द्वीन्द्रियादयः . घेऽपि वनस्पतिकायाः । सूत्र०१७० ११ १०। तथा-'सबीए'त्ति-सह बीजैवर्सत इति सबीजे तस्मिन् सब्बोह-सदोघ-पुं० । निर्मलझाने, षो०१३ विव०।
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माभत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
सम सब्भत्ति-सद्भक्ति-स्त्री० । सतां चातुर्वर्ण्यस्थितानां भक्तिः।। समय-समय--पुं०। त्राणरहिते अरण्यप्रदेश, सूत्र०२ श्रु० बाह्यप्रतिपत्ती, प्रति।
२०। सब्भाव-सद्भाव-पुं० । सतां भावः सद्भावः । श्राव०३ अ०। सभ(ह)री-शफरी-स्त्री "फोभ-हौ ॥८।१।२३६ ॥ स्वराविद्यमानभावे,नं०अस्तित्वे,सम्म०१काण्ड । पञ्चा० श्राव० । त्परस्यानादेः फस्य भ-हौ भवतः। सभरी । सहरी। मसत्त्वे, सम्यग्दर्शने, श्रोघ०। परमार्थे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। त्स्ये, प्रा०१ पाद।। निष्ठायाम् ,श्रा० चू०१ अ० । पदार्थे, स्था०६ ठा० ३ उ०। सभ(ह)ल-सफल-त्रि० । “फो भ-हौ" ।।८।१ । २३६ ॥ इसन्मार्गे, सूत्र०१ श्रु० ३ ०३ उ०। सत इव विद्यमानस्येव | ति फस्य भही। सभलं । सहलं । फलेन सहिते, प्रा०१ पाद । भावः सद्भावः,स्थाप्यमानस्येन्द्रादेरनुरूपाङ्गोपाङ्गचिह्नवाहन
सभा-सभा-स्त्री० । सद्भयः स्थानं सभा । नि० चू०१२ अ०। प्रहरणादिपरिकररूपो य श्राकारविशेषो यद्दर्शनात् साक्षात्
आस्थायिकायाम्, भ०६ श०३१ उ० । महाजनस्थाने, प्रश्न विद्यमान इवेन्द्रादिलक्ष्यते स सद्भावः । पिं० । हार्दै , तं०।
३ संव० द्वार । बहुजनोपवशनस्थाने,प्रश्न० ५ संव० द्वार । अन्तश्चित्ताभिप्राये , तं० । अन्तर्वासनायाम् , 'हुँ साहुसु
चातुर्वेद्यादिशालायाम् , आचा०२ श्रु०१चू०२ १०२ उ०। सम्भावं' । प्रा०२ पाद ।
भरतादिकथाविनोदेन यत्र लोकस्तिष्ठति सा सभा। अनु०। सम्भावट्ठावणा-सद्भावस्थापना-स्त्री० । काष्टकर्मादिषु,श्रा
जनोपवेशनस्थाने, शा०१०२०। सूत्र०। सभा नाम वश्यकक्रियां कुर्वतः एकादिसाध्वादिस्थापनायाम् ,अनु।
ग्रामनगरादीनां तद्वासिलोकाऽऽस्थायिकार्थमागन्तुकशयसब्भावदंसण-सद्भावदर्शन-न० । सत्-जिनाभिहितं प्रवचनं | नार्थ च कुड्याद्याकृतिः क्रियते । आचा०१ श्रृ०२ १०२ उ०। तस्य भावः सद्भावस्तस्य दर्शनम्-उपलम्भः सद्भावदर्शन- सन्तो भजन्ते तामिति सभा । पुस्तकवाचनभूमौ,बहुजनसमाम् । सम्यक्त्वे, विशे०।
गमस्थाने च । अनु०। सम्भावण-सद्भावन-त्रि० । प्रतिव्रतं पंञ्चभिरीर्यासमित्या- सभाव-स्वभाव-पुं०। खो भावः स्वभावः । सहजभावे, दिभिर्भावनाभिः सहिते, स्था०८ ठा० ३ उ०।
नि००१ उ० । स्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वाद्विशेषस्याथिनिगसम्भावदावण-सद्भावदापन-न० । शल्योद्धरणे, आलोच- मनात् उक्तम्-"श्रतोऽग्निः क्लेदयत्यम्ब, सनिधी दहतीति च । नायाम् , श्रोघ०।
अबग्निसन्निधौ तत्स्वा-भाव्यादित्युदिते तयोः।" द्वा०२३द्वा० सम्भावपडिसेह-सद्भावप्रतिषेध-पुं० । नास्त्यात्मा नास्ति
"निर्माय एव भावेन, मायावांस्तु भवेक्वचित् । पश्येत्स्वपुण्यं पापं चेत्यादिरूपे मृषावादभेदे, दश०४ अ०।
परयोर्यत्र, सानुबन्धहितोदयः॥१॥" पं० सू०३ सूत्र । सम्भाविक-सद्भाविक-त्रि०। पारमार्थिके, दश०१० ।
सभावइ-सभापति-पुं० । प्रशाश्वर्यक्षमामाध्यस्थ्यसंपन्ने सद्भावने, बृ० १ उ०२ प्रक० ।
सभेश्वरे, रत्ना०८ परि०। ('वाद' शब्दे षष्ठ भागे विस्त
रो गतः।) सभितरवाहिरिय-साभ्यन्तरबाह्य-न० । सहाभ्यन्तरं बाह्य यस्य येन वा तत्साभ्यन्तरबाह्यम् । अभ्यन्तरेण बाह्ये
सभावमओ-सभावतस्-अव्य० । पुद्गलाननां मूर्तत्ववत् स्वकीन च सह वर्तमाने, सर्वाभ्यन्तरान् मण्डलात् परत
याद्भाबादित्यर्थे, भ० १२ श०२ उ०। स्तावन्मण्डलेषु संक्रमणं यावत्सर्वबाह्यमण्डलं, सर्वबाह्या
सभावसंपल-स्वभावसम्पन्न-त्रि०। स्वभावेन पाकं विना च्च मण्डलादक मण्डलेषु तावत् संक्रमणं यावत्सर्वा
सम्पन्नः-सिद्धः । स्वभावसिद्धे द्राक्षादौ, स्था० ४ ठा०२ उ०। भ्यन्तरमिति । मण्ड० । सहाभ्यन्तरेण विभागेन बाह्येन सभावहीण-स्वभावहीन--न । यत्र स्वभावोऽन्यथा स्थिच वर्त्तमाने, भ० १५ श०।।
तोऽन्यथाऽभिधीयते तत्स्स्वभावहीनम् । सूत्रदोषभेदे, अनु०॥ सभिक्खु-सद्भिक्षु-पुं० । अन्त्यव्यञ्जनस्य ॥ ८॥ १। ११ ।
यस्य योऽयं चात्मीयः स्वभावस्तेन "छून्यमभिधीयते इति अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक। सद्भिक्षुः । सब्भिक्खूः । उत्त- यथा स्थिरो वायुरिति । वृ० १ उ०१ प्रक० । मसाधौ, प्रा० १ पाद।
सभिक्खुग-सभिक्षुक-न० । पञ्चदशे उत्तराध्ययन,स०३६सम। सम्भूकडक्ख-सद्भकटाक्ष-पुं० । चक्षुर्दोषभेदे, महा०३०
सम-शम-पुं० । रागादिनिग्रह, विशे। सा भस्मच्छन्नाऽग्ने. सम्भूय-सद्भूत--त्रि० । विद्यमाने वस्तुनि, विशे० । अननृते ,
रिवानुदयावस्थायाम् , कर्म० ४ कर्म० । अनन्तानुबन्धिनां श्राव०४०1श्रा०म०। उपा० । सा। सतां प्रकारेण | कषायाणामनुदये, ध०।। भूते, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०।
(१) समस्य स्वरूपनिरूपणम्सन्भूयगुणकित्तण-सद्भूतगुणकीर्तन-म० । संवेगात्सद्भूता
शम:-प्रशमः अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदयः सच नां विद्यमानानां च गुणादीनां कीर्तने, पो० १ विव० । प्रकृत्या कषायपरिणतेः कटुफलावलोकनाद्वा भवति, यदाहविद्यमानग्रहणस्वभावे, पञ्चा०४ विव०।
"पयईए कम्माणं, नाऊणं वा विवागमसुहति । अवरद्धे विन सभण्डमत्तोवगरण-सभाण्डमात्रोपकरण-न० । स्वकीयभा- कुप्पा,उवसमा सव्वकालं पि ॥१॥” इति । अन्ये तु क्रोधकएडमात्राभाजनरूपपरिच्छदे शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थे, सह भा- एविषयतृष्णोपशमः शम इत्याहुः । अधिगतसम्यग्दर्शनो हि ण्डमात्रया यदुपकरणं तत्तथा इति व्युत्पत्तेः । भ० १३ साधूपासनावान् कथं क्रोधकण्ड्वा विषयतृष्णया च तरलीश०६ उ०।
क्रियेत । ननु क्रोधकराडूविषयतृष्णोपशमश्चच्छमस्तर्हि श्रे
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मम अभिधानराजेन्द्रः।
सम गाककृपणादीनां सापगधे निरपराधेऽपि च परे क्रोधवतां भावम् औदयिकभावरमणीयताधर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुटिविषयतृष्णातरलितमनसां च कथं शमः ?, तदभावे च कथं हेतुक्रियां कुर्वन् अधर्म धर्मवृत्त्या इच्छन् प्रवृत्तः स एसम्यक्त्वसम्भवः इति चत्?, मैवम् ,लिङ्गिनि सम्यक्त्वे सति व निरामयः निस्सङ्गः शुद्धात्मभावनाभाविन्तातःकरणस्य लिङ्गरवश्यं भाव्यमिति नायं नियमः, दृश्यते हि धूमरहितो स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्या अध्यात्मयोगः१ । सर्वऽप्ययस्कारगृहेषु वह्निः, भस्मच्छन्नस्य वा चरुने धूमलशो- परभावान् अनित्यादिभावनया विबुध्य अनुभवभावनया उपीति । अयं तु नियमः सुपरीक्षितो लिङ्गे सति लिङ्गी भ- स्वरूपाभिमुखयोगवृत्तिमध्यस्थ श्रात्मानं मोक्षोपाये युञ्जन् वत्येव । यदाह-" लिङ्गे लिङ्गी भवत्येव, लिङ्गिन्यवतरत्पुनः । भावनायोगः २ । स एव पिराडस्थ-पदस्थ-रूपातीत-ध्याननियमस्य विपर्यासे, सम्बन्धो लिगलिङ्गिनोः ॥ १ ॥" इति । परिणतरूपैकत्वी ध्यानयोगी भण्यते ३ । ध्यानबलेन भस्मीसंज्वलनकषायोदयाद्वा कृष्णादीनां क्रोधकण्ड्डविषयतृष्णे ।
भूतमोहकर्मा तप्तत्वादिपरिणतिरहितः समतायोगी उक्तः संज्वलना अपि केचन कषायास्तीव्रतया अनन्तानुबन्धिस- । ४। तथा योगाधीनकर्मोदयाधीना अनादिवृत्तिः जीवस्य त. - दृशविपाका इति सर्वमवदातम् ॥१॥ ध०२ अधि०। चं०प्र०।
स्याः क्षयः-अभावः स्वरूपवृत्तिः वृत्तिक्षययोगी उच्यते ५ । (२) अष्टकेन शमस्य गुणकथनम्
एवं पञ्चयोगेषु समतायोगी साधने परिष्ठ इति शानस्य
पूर्णावस्था शमः। ज्ञानी हि ज्ञानात् क्रोधादिभ्य उपशाम्यति, अतः शमाएकं विस्तार्यते. तत्र प्रात्मनः क्षयोपशमाद्याः परिणतयः
अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन शमं जगत् । स्वभावपरिणामेन परिणमन्ति न तप्तादिपरिणती स श- प्रात्माऽभेदेन यः पश्ये-दसौ मोक्षङ्गमी शमी ॥ २ ॥ मः, नामशमस्थापनाशमी सुगमी, द्रव्यशमः परिणत्यस
अनिच्छन् कर्मेति-कर्मवैषम्यम् ऊनाधिकत्वम् अनिच्छमाधौ प्रवृत्तिसंकाचा द्रव्यशमः श्रागमतः, शमस्वरूपपरि
न् गतिजातिवर्णसंस्थानब्राह्मणक्षत्रियादिवैषम्यं ज्ञानवीर्यक्षशानी अनुपयुक्तो नोप्रागमतः मायया लब्धिसिद्धथा
योपशमकार्यवैषम्यम् अनिच्छन् उदयतः श्रावरणतः क्षयोदिदेवगत्याद्यर्थम् उपकारापकारविपाकक्षमादिक्रोधोपशम
पशमभेद सत्यपि ब्रह्मांशन चेतनालक्षणेन, अथवा-द्रव्यास्यम् इत्यपि द्रव्यशमः | भावतः उपशमस्वरूपोपयुक्त श्राग
स्तिकाऽस्तित्ववस्तुत्वसत्त्वाऽगुरुलघुत्वप्रमेयत्वचेतनत्वाऽमतः, नाबागमता मिथ्यात्वमपहाय यथार्थभासनपूर्वकचा
मूर्तत्वाऽसंख्येयप्रदेशत्वपरिणत्या जगत्-चराचरम् पारमारित्रमाहोदयाभावात् क्षमादिगुणपरिणतिः-शमः, सोऽपि
भंदन-श्रात्मतुल्यवृत्या; समानत्वेन यः पश्येत् सर्वजीवेषु लौकिकलोकोत्तरभदाद् द्विविधः। लौकिकं वेदान्तवादिनाम् ,
समत्वं कृत्वा अरक्तद्विष्टयन वर्तमानः असौ योगी लोकात्तरं जैनप्रवचनानुसारिशुद्धस्वरूपरमणैकरयम् , आद्य.
मोक्षगामी सकलकर्मक्षयलक्षणावस्थां गच्छतीत्यवंशीला भनयचतुप्रय भावक्षमादिस्वरूपगुणपरिणमनहतुः मनायाका
वति । यो हि सर्वजीवेषु जीवत्वतुल्यवृत्त्या रागद्वषपरिणनियसंकोच-विपाकचिन्तन-तत्त्वज्ञान-भावनादिः, अन्त्य
मपहाय प्रात्मस्वभावानुषङ्गी असौ योगी मोक्षङ्गमी भवति । नयत्रय क्षयोपशमक्षमादिः, शब्दनयन तपकश्रेणिमध्ययर्तिसूक्ष्मकषायवतः, समभिरूढनयन क्रोधादिशमः क्षी- आरुरुतुर्मुनिर्योगं, श्रयन् बाह्यक्रियामपि । णमादादिषु एवंभूतनयन कषायशमः । अत्र भाव- योगारूढः शमादेव, शुद्धयत्यन्तर्गतक्रियः ॥३॥ ना-चिन्तास्मृतिविपाकभयादिकारणतः । क्षयोपशमभावा
आरुरुरिति-प्रारुरुनुः-आरोहणेच्छुः मुनिः-भावसाधदिसाधनतः क्षायिकशमः साध्यः , एवं शमपरिणतिः
का, प्रीतिभक्तिवचनरूपशुभसंकल्पेन अशुभसंकल्पान् चारकरणीया श्रात्मनो मूलस्वभावत्वात् , मूलधर्मपरिणमनं हि
यन् अराधको भवति , सिद्धयोगी तु रागद्वेषाभावेन ननैव कारणेन शुद्धात्मपदप्रवृत्तिः सङ्गत्यागात्मध्यानसंवरी
उपशमी-कृतार्थः , याह्या क्रियां-याह्याचारप्रतिपत्तिचञ्चरीकत्वं करणीयम्
श्रयन् अपि-अझीकुर्वन् अपि शमादेव शुद्धयति शविकल्पविषयोत्तीर्णः, स्वभावालम्बनः सदा ।
मात्-क्रोधाभावात् शुद्धयति-निर्मलीभवति । कथंज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीर्तितः ॥१॥
भूतो मुनिः ?-योगारूढः योग-सम्यग्दर्शनशानचारित्रे श्रा
त्मीयसाधनरत्नत्रयीलक्षणे प्रारूढः, पुनः कथंभूतो मुनिः? विकल्प इति--विकल्पः--चित्तविभ्रमः, तस्य विषयो ।
अन्तर्गतक्रियः अन्तर्गता वीर्यगुणप्रवृत्तिरूपा क्रिया यस्य विस्तारः, तेन उत्तीर्णो-निवृत्तः श्रात्मस्वादनतो व
सः अन्तर्गतक्रियः एवमभ्यन्तरक्रियावान् रत्नत्रयपरिणतः दिषु निवृत्तविषयः स्वभावः अनन्तगुणपर्या
शमात्-क्षमाया मार्दवार्जवमुक्पिरिणतिपरिणतो निर्मला यसम्यगशानदर्शनचारित्रस्वरूपः, तस्य पालम्बनः स्व
भवति । भावालम्बन इत्यनेन आत्मस्वभावदर्शी , श्रात्मस्वभा
ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः, शमपूरे प्रसर्पति । वज्ञानी , आत्मस्वभावरमणी , श्रात्मस्वभावविश्रामी , यात्मम्बभावाऽऽस्वादी, शुद्धतत्त्वपरिणतः,ज्ञानस्य श्रात्मा
विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥ ४॥ पयोगलक्षणस्य यः परिपाकः प्रौढावसरः स शमः-श- ध्यानवृष्टेरिति-ध्यानवृष्टेः ध्यान-धर्मशुक्लाख्यम् , अन्तमभावलक्षणः परिकीर्तितः । अत्र योगस्य पञ्चविधत्वं मुहतं यावत् चित्तस्य एकत्रावस्थानं ध्यानम् । उक्तं चप्राक्नं हरिभद्रपूज्य:-अध्यात्मयोगः भावनायोगः २ ध्यान- "अंतोमुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं योगः २ समझायोगः ४ वृत्तिक्षययांगः ५। तत्र अनादिपर- भाणं, जागनिराहो जिणाणं तु" ॥१॥ अत्र च निमित्तरूपे
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(३१८) सम
अभिधानराजेन्द्रः। देवगुरुस्वरूपे अद्भुततादियुक्तचित्करबे धर्मध्यानमा-| म जगति , यतस्तत्सर्वम् , अचेतनपुद्रलस्कन्ध मूर्त च, साऽयायविपाकस्थामाख्यं, तत्र श्राक्षाया निर्धारः सम्य- तत् शमतारसेन सहजास्यन्तिकनिरुपमचरितशमभाग्दर्शनम् मामाया अनन्तत्यपूर्वापराविरोधित्वादिस्वरूप ब. बसरूपेण कथमुपमीयेत, दुर्लभो हि शमतारसः विश्वविश्वमत्कारपूर्वकश्चित्तविश्रामः प्राशाविचयधर्मध्यानम् एवम- शुभाशुभभाषे परस्बेन बरकशिष्टतया वृत्तिः शुद्धारमापायादिकेष्यपि । निर्धारभासनपूर्वसानुभववित्तविश्रान्तिः
नुभवः । उक्तंच-"बंदिजमाणा न समुल्लसंति, हीलिजध्यामम , पवं शुक्लऽपि ईदग्ध्यामवृष्टेः मेघात् दया-स्व- माणा म समुज्जलंति । दंतेण चित्तेन चलति धीरा , मुणी परभाषमाणाघातनरूपा भावदया, तबुद्धितल्लक्षणहेतुस्वात् समुग्धाइयरागदोसा ॥१॥ बालाभिरामेसु दुहावहेसु, न स्वपरद्रव्यप्राणरक्षणानिर्विषयत्वेन द्रव्यदयाऽपि बयावे ते सुह कामगुणसु रायं। विरत्तकामाण तवोधणा, जंनारोपिता, धीविशेषावश्यके गणधरषादाधिकारे इति । भिक्खुखो सीलगुण रयाणं ॥२॥" इति । शमतास्वादिनां भतो द्रव्यदद्या तु कारणरूपा, भावदया तु दयाधर्मः एवंवि- परेशभोगा रोगाः , चिन्तामणिसमूहाः कर्करव्यूहाः , वृधाया बयानद्याः शमपूरे सकलकषायपरिणतिशान्ति:-शमः दारका दारका इव भासते अतः संयोगजा रतिर्दुःखं, रागद्वेषाभावः बचनधर्मरूप:-शमः तस्य पूरः, तस्मिन् प्रख- शमतैव महानम्बः। पति-वृद्धिमति सति विकारा:-कामक्रोधादयः अशुद्धारम- शमसूतसुधासितं, येषां नक्तंदिनं मनः । परिणामाः त एव तीरवृक्षाः तेषां मूलात् उन्मूलनं भवेत्
कदापि ते न दान्ते, रागोरगविषोर्मिभिः ॥ ७॥ उच्छेदन भयेत् । प्रभाव इत्यनेन ध्यानयोगतो दयानदीपूरः प्रवर्द्धते, पर्डमामपूरश्च विकारवृक्षाणामुण्डछेदनं करोत्येव ।
शमसूत्र इति-येषां महात्मनां मनः-चितं शमः कअयं हिमात्माविषयकषायधिकारविप्लुतः स्वगुणावरक
पायाभावः बारित्रपरिणामः तस्य सहामि-सुभाषितानि कर्मोदयतः परिभमति । स एव स्वरूपोपावामतः तस्यैकरम
ताम्येव सुधा-अमृतं तेन सिक्कम-अभिषिकं महंदिन
म्-अहोरात्र ते रागोरगविषोर्मिभिः राग:-अभिप्वालतया प्रवर्जमानशमपूरो विकारान् मूलात् उन्मूलयति ।
क्षणः स एष उरगा-सर्पः तस्य विषस्य ऊर्मयः तैः शानध्यानतपःशील-सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो ।
शमता सिक्तान बहाम्ते, जगद्जीया रागाहिदष्टाः, वितं नाऽऽमोति गुणं साधु-र्यमामोति शमान्वितः ॥५॥ घोर्मिधूर्मिताः, भ्रमन्ति पसंयोगानिष्टषियोगचिन्तया, कानध्यानेति-बान-तस्वावबोधः, ध्यान-परिणामस्थि
विकस्पयन्ति बहुबिधान अप्रशोचादिकरपमाकझोलान् , रतारूपम् , तपः-इच्छानिरोधः, शीलं-ब्रह्मचर्य सम्यक्त्वं
संगृतम्ति चमेकाम् जगदुच्छिष्टान् पुगलस्कन्धान , या
पयन्ति भनेकाम् धनार्जनोपायान् , प्रविशन्ति कृपेषु, तत्वश्रद्धानम् , पदानाम् उत्क्रमता द्वन्द्वसमासात् , इत्यादि
विशस्ति यानपात्रेषु, द्रव्याघहितं हितबत् मन्यमानाः, जगुणोपेतः साधुः साधयति रक्षत्रयकरणन मोक्ष स साधुः तं निरावरणगुण केवलझानादिगुण नाप्नोति न प्राप्नोति यं
गदुपकारितीर्थकरबाक्यश्रवणप्राप्तशमसाधनाः स्वरूपान
म्दभोगिनः स्वभावभासमस्वभावरमणस्वभावानुभवनन सगुण शमान्वितः-शमताचरित्रमय प्राप्नोति-प्राप्नोति ;
दा असलमग्ना बिचरन्ति प्रात्मगुणानन्दनवने, अतः लभते इत्यर्थः । अत्र ज्ञानादयो गुणा निरावरणाऽमलकेवल
सर्वपरभावकत्वं विहाय रागद्वेषविभावमपहाय शमतावझामस्य परंपराकारण शमः कषायाभावः, यथान्यातसंयमः केवलज्ञानस्यासनकारणम् अस्वकरणसमीकरणकिट्टीकरण
स्वेन भवनीयम्। वीर्येण सूक्ष्मलोभं खण्डशः कृत्वा क्षयं नीते सति निर्विकल्प
गजर्जज्ञानगजोत्तुङ्ग-रङ्गध्यानतुरङ्गमाः। समाधौ अभेदरत्नत्रयीपरिणतिः क्षीणमोहावस्थायां यथा- ___ जयन्ति मुनिराजस्य, शमसात्रारम्दः ॥८॥ ख्यातचारित्री परमशमान्वितःज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरा- गर्जज शानमिति-मुनिराजस्व शमसामाज्य दो जयन्ति । यक्षयं नयति, लभते च सकलामलकेवलज्ञानं केवलदर्शनं कथंभूताः संपदः ?-गर्जज्ज्ञानगतोत्तुगरणद्ध्यानतुरङ्गमाः मपरमदानादिधीः, अत एव क्षायौपशमिकक्षानी यं न प्राप्नो- जत्-स्फुरद् शान-स्थपरावभासनरूपं तद्पा गजाः तैः ति तं परमशमान्यितः प्रामोति, अत अव धीरा दर्शनज्ञान
उत्तुङ्गा-उन्नता रङ्गत्-नू यत् ध्यानं तपास्तुरामा-प्रश्वा निपुणा अभ्यस्यन्ति पूर्वाभ्यासम्, आश्रयन्ति गुरुकुलबासं
यासु ताः, इत्यनेन भासनगजध्यानाश्वशोभिता राज्यरमन्ते निर्जने वने तेन भात्मविशुद्ध्यर्थी शमपूरणे उद्यतते ॥५॥
संपदो निर्ग्रन्थस्वरूपभूपस्य जयन्ति, अतः शमतास्पदमुस्वयम्भूरमणस्पर्धि-वर्द्धिष्णुशमतारसः ।
नीनां महाराजत्वं सदैव जयति, अतः शमाभ्यासबता मुनिर्येनोपमीयेत, कोऽपि नासौ चराचरे ॥६॥
भवितव्यम् इत्युपदेशः । अष्ट०६ श्रष्ट०।" उपभोगापायपरो,
वाञ्छति यः शमयितुं विषयमृगतृष्णाम्। धावत्याक्रमितुमसौ, स्वयम्भू इति-स्वयम्भूरमणः-अर्द्धरज्जप्रमाणः प्रान्त
पुरोऽपरावे निजच्छायाम् ॥१॥" श्राचा०१ श्रु०२०४उ०। समुद्रः , तस्य स्पर्डी स्पर्धाकारी, वर्द्धिष्णुः-वर्द्धमानः शमतारसः , शमता-रागद्वेषाभावः तस्या रसो यस्य स
श्रम-पुं० । खेदे,विशे० । रा०। अध्यादिखेदे, विपा०१० एवंविधो मुनिः , त्रिकालाविषयी-अतीतकालरमणीयविषयस्मरणाभाववान् , वर्तमानेन्द्रियगोचरप्राप्तविषयरम- सम-पुं० । रागद्वेषरहिते,प्रातु । दश विशे। समो-राणाभाववान् , अतीतकालमनोविषयेच्छाऽभाववान् मुनिः। गद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति । आव०६अ। येन उपमानन उपभीयेत चराचरे विश्वे असो कोऽपि । मध्यस्थे, निन्दायां पूजायां च तुल्ये , स्था०८ ठा० ३ उ०।
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( ३६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सम
अरद्विष्टतया मध्यस्थे, सूत्र० १ ० १३ श्र० । सर्वत्र मैंश्रीभावतुल्ये, अनु० । प्रेक्षणीयतुल्यतृणमणिमुक्लारूपे, प्रश्न० ५ संव० द्वार । अष्टमीचन्द्रसदृशे जं० २ यक्ष० । समभावोपेते, सूत्र० ६ श्रु० २ ० २ उ० । श्रा० चू०। विषमोनतिवर्जे, जी० ३ प्रति ० १ अधि० २३० । श्र० । श्राचाण सर्वत्र तुल्यरूपेण वर्त्तने, विशे० । सदृशे, नं० । उत्त० । सूत्र० । तुल्ये, पञ्चा० १० बि० । विशे० । सूत्र०। स्था० । ज्ञा० ॥ श्र० । (३) नैरयिकादीनां समाहारसमशरीरादिविषये पृच्छानेरइया णं भन्ते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सच्समुसासनीसासा ?, गोयमा ! नोइणड्डे समट्ठे । से केणऽट्ठेणं भंते ! एवं बुम्बइ नेरइया नो सब्धे समाहारा नोसच्चे समसरीरा नो सच्चे समुस्सासनिस्सासा १, गोय मा ! नेरइया दुबिहा पत्ता, तं जहा महासरीरा य, अपसरीरा य । तत्थ यं जे ते महासरीरा ते बहुत - राए पोग्गले हारेन्ति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणा-मेंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति । तत्थ गं जे ते अप्पसरीरा तें अपतराए पोग्गले माहारेंति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति अप्पतराए पोग्गले नीससंति, श्रहच्च आहारेति श्रहच्च परिणामेंति श्रहच्च उस्ससंति श्रहच्च नीससंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - नेरइया नो सव्वे समाहारा ० जाव नो सव्वे समुस्सासनिस्सासा | नेरइयाणं भंते! सच्चे समकम्मा ? गोयमा ! गो इट्ठे समट्ठे | से केणट्टेणं १, गोयमा ! नेरड्या दुविहा पणत्ता, तं जहा- पुव्योववन्नगा य, पच्छोववन्नगा य । तत्थ
जे ते पुव्योवनगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्थ गंजे ते पच्छोववन्नगा ते णं महाकम्मवरागा, से तेराट्टेणं गोयमा ! एवं० नेरइया गं भंते ! सव्वे समवन्ना १, गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे, से केणट्ठेणं, तहेव गोयमा ! जे ते पुच्चोववन्नगा ते विसुद्भवन्नतरागा, तत्थ गं जे ते पच्छोपवन्नगा ते णं अविसुद्भवन्नतरागा तहेव से तेणद्वेणं एवं० । नेरइया गं भंते ! सव्वे समलेस्सा १, गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे,से केणट्टेणं० जाव नो सव्वे समलेस्सा १, गोमा ! नेरइया दुविहा पम्मत्ता, तं जहा- पुव्वोववन्नगा य, पच्छाववन्नगा य । तत्थ गं जे ते पुच्योववन्नगा ते णं विसुद्धले सतरागा, तत्थ गं जे ते पच्छोववन्नागा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा, से तेणद्वेगं ० | नेरइया गं भंते! सच्चे समवेयणा ?, गोयमा ! नो इण्ट्ठे समट्ठे, से केणगोमा रइया दुविहा पत्ता, तं जहा -स
सम
नभूया य, असन्निभूयाय । तत्थ गं जे ते सन्निभूया ते गं महावेयखा, तत्थ णं जे ते असन्निभूया तेणं अप्पवेयणतरागा, सेते गोयमा ! एवं बुच्च नेरइया नो सच्चे समवेयणा० जाव निस्सासा | नेरइया सब्वे समकिरिया ?, गोयमाणो इट्ठे समट्ठे से केणट्टेणं १, गोयमा ! नेरइया तिविहा पत्ता । तं जहा सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ गं जे ते सम्मादिट्ठी तेसि गं चत्तारि किरिया पत्ता, तं जहा- आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अप्पश्च० ४, तत्थ गं जे ते मिच्छादिट्ठी तेसि गं पंच किरियाओ कअंति - आरंभिया ० जाव मिच्छादंसणवतिया, एवं सम्मामिच्छादिट्ठीगं पि, से तेराट्ठेणं गोयमा ! | नेरइया णं भंते ! सब्बे समाउया सब्वे समोव वनगा, गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे, से केणद्वेणं ! गोयमा ! नेरहया चउब्विहा पत्ता, तं जहाअत्थेगइया समाउया सभोववन्नगा १ अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा २ अत्थे गइया विसमाउया समोववभगा ३ अत्थेगया विसमाउया विसमोववभगा ४ से ते गोयमा ! एवं० । असुरकुमारा णं भंत ! सच्चे समाहारा सव्वे समसरीरा, जहा नेरइया, तहा भाणियव्वा, नवरं कम्मवनलेस्साओ परिवरणेयव्वाओ, yoबोबवन्नगा महाकम्मतरागा अविशुद्धवन्नतरागा अविसुद्धले सतरागा, पच्छोववन्नगा पसत्था, सेसं तहेव एवं० जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं श्राहारकम्मवन्नलेस्सा जहा नेरयाणं । पुढविकाइया णं भंते ! सव्वे समवेयखा ?, हंता समवेयणा से केणद्वेगं भंते ! समवेय
"
१, गोयमा ! पुढविकाइया सव्वे असन्नी असन्नीभूयाणिदा वेणं वेदेति से तेराट्टेणं । पुढविकाइा ते ! सव्वे समकिरिया १, हंता ? समकिरिया से केद्वेणं १, गोयमा पुढविकाइया सव्वे माई मिच्छा दिट्ठी, ताणं गियया पंच किरिया कजंति, तं जहा – आरंभिया ०जाव मिच्छादंसणवत्तिया, से वे द्वेणं समाउया समोववन्नगा, जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, जहा पुढविकाइया तहा० जाव चउरिं दिया। पंचिदियतिरिक्खजोगिया जहा नेरइया नातं किरियासु, पंचिदियतिरिक्खजोगिया णं भंते ! सच्चे समकिरिया ? गोयमा ! यो ऽतिट्ठे समट्ठे । से केणट्टेणं. गोयमा ! पंचिदियतिरिक्खजोशिया तिविहा पन्नत्ता, वं जहा - सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ गंजे ते सम्मादिट्ठी ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा - अस्संजयाय, संजया संजया य । तत्थ णं जे ते संजया संजया तेसि सगं तिन्नि
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( ४०० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सम
०
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किरिया कति तं जहा आरंभिया परिग्गहिया मायाबचिया, असंजया पत्तारि, मिच्छादिट्ठीगं पंच, सम्मामिच्छादिट्ठीगं पंच, मगुस्सा जहा नेरड्या नाणतं जे महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले हारेति श्रहच्च आहारेंति, जे अप्पसरीरा अप्पतराए हारेंति अभिक्खणं श्राहारेंति सेसं जहा नरश्यायां •जाय पेषणा । मनुस्सा खं भंते! सच्चे समकिरिया ?, गोयमा ! यो ऽतिणडे समट्ठे, से केसणं, गोषमा मधुस्सा तिचा पन्नता, तं जहा1 सम्मदिट्ठी मिच्छादिडी सम्मामिच्छादिट्ठी । तत्थ संजे वे सम्मद्दिट्ठी ते तिविहा पम्मत्ता, तं जहा-संजया, अस्संजया, संजया संजया व तत्थ सं जे संजया ने दुविधा पत्ता, तं जहा - सरागसंजयाय, वीयरागसंजया य । तत्थ गं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया, तत्थ गं जे ते सरागसंजया वे दुबिहा पाच तं जहा पमत्तजया य, अप्पमत्त संजया य । तत्थ गं जे ते अप्पम उमंजया तेसि णं एगा मायावतिया किरिया कजइ, तस्थ णं जे ते पमत्त संजया तेसिगं दो किरियाओ कअंति, तं जहा- आरंभिया य, मायावतिया य तस्थ गं जे ते संजयासंजया तेसि इल्लाओ तिनि किरिया कजंति, तं जहा- आरंभिया १ परिग्गहिवा२ मायावतिया २ अस्संजयागं चचारि किरियाओ कअंति - आरंभिया १ परिग्गहिया ३ मायावत्तिया ३ -- पच्च० ४, मिच्छादिट्ठी पंच- आरंभिया १ परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३ अपच्च०४, मिच्छादंसण ० ५, सम्मामिच्छादिट्टीगं पंच किरियाओं ५ | पाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं वेयणाए नायत्तं-- मायिमिच्छादिट्ठी उववन्नगा य अप्पवेदणतरा, अमाथिसम्मद्दिट्ठी उववन्नगा य, महावेयणतरागा भाशियब्बा, जोतिसवेमाणिया । अलेस्सा गं भंते ! नेरइया सव्वे समाहारगा ?, श्रोहियाणं सलेस्साणं सुकलेस्सा, एएसि णं तिरहं एको गमो, करहलेस्सां नीललेस्सा पिएको गमो नवरं वेदखाए मायिमिच्छादिट्ठी उववनगा य अमाथिसम्म दिट्ठी । उववन्नगा भाणियच्या मणुस्सा किरियासु सरागदीपरागपमतापमणागं भाणियच्या काउलेसाए व एसे गमो नवरं नेरइए जहा श्रहिए दण्डर तहा भाणियन्त्रा, तेउलेस्सा पहलस्सा जस्स अस्थि जहा ओहिओ दएडओ तहा भा यिन्वा | नवरं मणुस्सा सरागा वीयरागा य न भाशिया गाहा "दुक्खाउए उदिने, साहारे कम्म लेस्साय | समवेयण समकिरिया, समाउए चेव बोया ।। १ ।। (०-२१)
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सम 'नेरइए' इत्यादि व्यक्लं, नवरं 'महासरीरा य अप्पसरीरा य' इत्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिकं तत्र जधम्यम् अक्ष्यत्यमासंस्थेयभागमात्रत्यम् उत्तु महत्वं पञ्चधनुः शतमानत्वम्, एतश्च भवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवेकियापेक्षा तु जघन्यमसम संख्यात भागमात्रत्थम् इतरतु धनुस्सहस्रमानत्वमिति, एतेन च किं समशरीरा इत्यत्र प्रश्न उत्तरमुक्तम् शरीरविषमताऽभिधाने सत्याहारोच्छ्रासयोर्वैषम्यं सुखप्रतिपाद्यं भवतीति शरीरप्रअस्य द्वितीयस्यास्यापि प्रथमं निर्वाचनमुक्रम् । अथाहारोच्वासप्रश्नयोर्निर्वचनमाह - 'तत्थ ' मित्यादि ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलान् आहारयन्ति महाशरीरत्वादेव ते हिलो च्छरीरो वह्नाशी स्वल्पशरीरश्चाल्पभाजी, हस्तिशशकवत् बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते श्रन्यथा बृहच्छरीरोऽपि कश्चिदल्पमनाति शरीरोऽपि धरि मुझे तथाविधमनुत् न पुनरेषमिह बाहुपाश्रयणात् तेच नारका उपपातादिसद्वेयानुभवादन्यास पनि था महाशरीरा दुःखितास्तीयाहाराभिलाषाश्च भवन्तीति । 'बहुतराए पोग्गले परिणार्मेति त्ति - श्राहारपुद्गलानुसारित्यात्परिणामस्य बहुतरानित्युक्तं परिणामध्यापृष्ट उत्पाद कार्यमिति कृत्योः तथा 'बहुसरा पांगले उति लि उता गृहन्ति, 'निस्सति' ति-मुञ्चन्ति महाशरीत्या दृश्यते दिजातीयेतरापेक्षया यासनिःश्वास इति दुःखितोऽपि तथैव दुःखिता नारका इति बहुतरांस्तानुष्सति तथा SSहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह - 'अभिक्खणं आहारैनि' त्ति - अभीक्ष्णं पौनःपुन्येन यो यतो महाशरीरः स तदपेक्षया शीघ्रशीघ्रतराहारग्रहस इत्यर्थः, अभिक्य ऊ ससेति अभिकर्ण नीति एतं हि महाशरीरत्वन दुःखिततरत्वात् अयम्-अनवरतमुच्ाखादि कुर्वन्तीति । तथा ' ( तत्थ ं ) जे ते ' इत्यादि ये ते, इह 'ये' इत्येतावतैवार्थसिद्धौ यत्ते इत्युच्यत तद्भाषामाश्रमेवेति 'अप्पसरीरा अप्पतर आहारैति 'तिये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहरणी नगन् पुलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्यादेव 'आहश्च श्राहारैति सिकदाचिदाहारयन्ति कदाचिशाहारयन्ति महाशरीराहारमहणान्तरालापेक्षा बहुतरकालान्तराखतयेत्यर्थः श्रहच्च ऊससंति नीलसंति त्ति-पते ह्यल्पशरत्वनय महाशरीरापेक्षयाऽल्पतर दुःखत्वाद् आहत्य कदाचित् सान्तरमित्यर्थः उच्छासादि कुर्वन्ति यच्च नारकाः सन्ततमेवोच्छ्वासादि कुर्वन्तीति प्रागुक्तं त•महाशरीरापेक्षयेत्ययगन्तव्यमिति अथवा अपयसका लेऽल्पशरीराः सन्तो लोमाऽऽहारापेक्षया नाऽऽद्दारयन्ति
,
पर्यासन व मांसन्ति अम्पदा स्याहारयन्ति उच्छुसन्ति चेत्यत इत्याहारयन्ति श्राहत्योच्छु सन्ति - त्युक्तम्, 'से ते गोयमा ! एवं बुच्चइ-तेरा सच्चे नो समाहारेत्यादि निगमनमिति समकर्मसूत्रे यवनगा व पच्छोचबधाय सि-पूर्वोत्पन्नाः प्रथमतरमुत्पन्नास्तदन्ये तु पादुत्पन्नाः तत्र पूर्वोत्पन्नानामायुषस्तदन्य
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सम अभिधानराजेन्द्रः।
सम कर्मणां च बहुतरवेदनादल्पकर्मत्वम् , पश्चादुत्पन्नानां च थ्यात्वेनैवह विवक्षितत्वादिति । 'सब्वे समाउया' इत्यादिनारकाणामायुष्कादीनामल्पतराणां वेदितत्वात् महाक- प्रश्नस्य निर्वचनचतुर्भङ्गया भावना क्रियते, निबद्धदशवर्षमत्वम् , एतच्च सूत्रं समानस्थितिका ये नारकास्तानकी- सहस्रप्रमाणायुषो युगपच्चोत्पन्ना इति प्रथमभङ्गः १, तेकृत्य प्रणीतम् , अन्यथा हि रत्नप्रभायामुत्कृष्पस्थिते - वेव दशवर्षसहस्त्रस्थितिषु नरकेष्वेके प्रथमतरमुत्पन्ना रकस्य बहून्यायुषि क्षयमुपगते पल्योपमावशेषे च ति- अपरे तु पश्चादिति द्वितीयः २, अन्यैर्विषममायुर्निवद्धं टति तस्यामेव रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्रस्थिति रको:- कैश्चिद्दशवर्षसहस्रस्थितिषु कैश्चिच्च पश्चदशवर्षसहस्रन्यः कश्चिदुत्पन्न इति कृत्वा प्रागुत्पन्नं पल्योपमायुष्कं । स्थितिषु उत्पत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः ३, केचित्सागरोनारकमपेक्ष्य किं वक्तं शक्यं महाकर्मेति ? । एवं ब- पमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहस्रस्थितय इत्येवं विषमाणसूत्रे पूर्वोत्पन्नस्याल्पं कर्म ततस्तस्य विशुद्धो वर्णः , युषा विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः ४, ह संग्रहगापश्चादुत्पन्नस्य च बहुकर्मवादविशुद्धतरो वर्ण इति । था--" आहाईसु समा, कम्मे वन्ने तहेव लेसाए । विपर्व लेश्यासूत्रेऽपि , ह च लेश्याशब्देन भाषलेश्या यणाए किरियाए, माउयउयय ति चउभंगी ॥१॥"'असु. प्राया, बाह्यद्रव्यलेश्या तु वर्णद्वारेणैवोक्नेति । ' समवेयण ' रकुमागणं भंत!' इत्यादिना असुरकुमारप्रकरणमाहारादिपति-समवेदनाः-समानपीडाः 'सभिभूय' ति-सहा- दनयकोपेतं सूचितं, तच्च नारकप्रकरणवनेयम्, एतदेवासम्यग्दर्शनं तद्वन्तः संशिनः सम्झिनो भूताः-संहित्वं गता- ह-जहा नराया' इत्यादि, तत्राहारकसूत्रे नारकसूत्रसमा. संविभूताः । अथवा-मसंझिनः संशिनो भूताः संशिभूताः, नेऽपि भावनाविशेषेण लिख्यते-असुरकुमाराणामल्पशरीच्चिप्रत्यययोगात् , मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यग्दर्शनजन्मना रत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोऽहलासंक्येयभागसमुत्पना इति यावत् , तेषां च पूर्वकृतकर्मविपाकम- मानत्वं, महाशरीरत्वं तूत्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वम् , उत्तरबैनुस्मरतामहो महदुःखसकटम् , इदमकस्मादस्माकमा- क्रियापेक्षया त्यल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गलसंख्येयभागमानपतितं न कृतो भगवदईत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयको वि- त्यं महाशरीरत्वं तूत्कर्षतो योजनलक्षमानमिति, तत्रैते महापविषमधिषपरिभोगविप्रलब्धचेतोमिद्धर्म इत्यतो महद् दु- शरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहासं मानसमुपजायते प्रतो महाबेदनास्ते, असंशिभूतास्तु रापेक्षया, देवानां ह्यसौ स्यात् प्रधानश्व, प्रधानापेक्षया च मिथ्यारण्यः, ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानम्तो- शाले निर्देशो वस्तूनां विधीयते, ततोऽल्पशरीरमाह्याहाउनुपततमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्यके, अन्ये त्याहुः-! रपुद्रलापेक्षया बहुतरांस्ते तानाहारयन्तीत्यादि प्राग्वत् , सशिनः-संक्षिपञ्चेद्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वं ग- अभीक्षणमाहारयन्ति अभीक्षणमुच्छ्रसन्ति च इत्यत्र ये चताः सशिभूताः , ते महावदनाः तीमाशुभाध्यवसायेना- तुर्थीदेरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादश्वापर्युच्छसन्ति तानाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेषुत्पादात् , असमिभूता- श्रित्याभीषणमित्युच्यते, उत्कर्षतो ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योस्त्वनुभूतपूर्वाभिवाः, ते चाङ्गित्वादेवास्यन्ताशुभा- परि श्राहारयन्ति सातिरकपक्षस्य चोपर्युच्छ्रुसन्ति तानकी. ध्यवसायाभावात्ररत्नप्रभायामनतितीनवेदननरकेषत्पादा- कृत्य एतेषामल्पकालीनाहारोच्छासत्येन पुनः पुनराहारयदल्पवेदनाः, अथवा-'सम्झिभूताः' पर्याप्तकीभूताः, अस- न्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वादिति, तथाऽल्पशरीरा अल्पतराजिनस्तु अपर्याप्तकाः, ते च क्रमेण महावदना इतर च
न पुद्गलानाहार यन्ति उच्छृसन्ति च अल्पशरीरत्वादव, यभवन्तीति प्रतीयत एवेति ।' समकिरिय ' त्ति-समाः- त्पुनस्तषां कादाचित्कत्वमाहारोच्छासयास्तन्महाशरीराहातुल्याः क्रियाः-कर्मनियन्धनभूता प्रारम्भिक्यादिका ये- राच्छासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात् , तत्र हि पां ते समक्रियाः, 'आरंभिय' त्ति-प्रारम्भः-पृथिव्याधु- अन्तराले ते नाऽऽहारादि कुर्वन्ति तदन्यत्र कुर्वन्तीपमर्दः स प्रयोजनं-कारणं यस्याः साऽऽरम्भिकी १,
त्येवंविवक्षणादिति , महाशरीराणामप्याहारोच्छासयोर'परिग्गहिय' ति-परिग्रहा-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारो.
न्तरालमस्ति, किन्तु-तदल्पमिन्यविवक्षणादेवाभीक्ष्णमित्युक्तं, धर्मोपकरणमच्छा च स प्रयोजनं यस्याः सा पारि
सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्छासयोरल्पान्तरग्रहिकी २, मायावत्तिय'त्ति-माया-अनार्जवम् उपलक्षण
त्वम् , अल्पशरीराणां तु महान्तरत्वं, यथा सौधर्मदस्वास्फोधादिरपिच; सा प्रत्ययः-कारण यस्याः सा मा- वानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं क्रमेण याप्रत्यया ३ , 'अप्पश्चक्खाणकिरिय'त्ति-अप्रत्याश्याने- वर्षसहस्रद्वयं पक्षद्वयं च, अनुत्तरसुराणां च हस्तमान-निवृत्त्यभावन क्रिया-कर्मबन्धादिकरणम् । अप्रत्याण्यान- नतया अल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रयस्त्रिक्रियति ४, 'पंच किरियाप्रो कजंति' त्ति-क्रियन्ते, कर्मक- शंदव च पक्षा इति । एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाऽऽहातरि प्रयोगोऽयं तेन भवन्तीत्यर्थः, 'मिच्छादसणवत्तिय' रोच्छासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते, इतरेषां तु वित्ति-मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो- हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्र- पर्यया वैमानिकवदेवेति, अथवा-लोमाहारापेक्षयाऽभीक्षपत्यया । ननु मिथ्यावाविरतिकपाययोगाः कर्मबन्धहेतव म्-अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायाइति प्रसिद्धिः, इह तु प्रारम्भादयस्तेऽभिहिता इति क- म् , उच्छासस्तु यथोक्लमानेनापि भवन परिपूर्णभवापेक्षथं न विरोधः?, उच्यते-प्रारम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योग- या पुनः पुनरित्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां स्वल्पशरीरा परिग्रहो योगानां तद्रूपत्वात् , शेषपदैस्तु शेषबन्धहेतुप- लोमाहारतो नाहारयन्ति बोजाहारत एवाहरणात् इति रिग्रहः प्रतीयत एवेति, तत्र सम्यग्दृष्टीनां चतन एव, | कदाचित्ते आहारयन्तीत्युच्यते, उच्छासापर्याप्तकावस्थायां मिथ्यात्वाभावात् शेषाणां तु पञ्चापि,सम्यग्मिथ्यात्वस्य मि-! च नाच्छमन्त्यन्यदा तूच्छुसन्तीत्युच्यते श्राहृत्योच्छ
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सम अभिधानराजेन्द्रः।
सम सन्तीति 'कम्मवनलेस्साओ (वि)परिबन्नेयव्यानी' त्ति- सन्ति चंति यदुच्यते तत्संख्यातवर्षायुषोऽपेक्ष्यत्यवसयं,तथैः कादीनि नारकापेक्षया विपर्ययण वाच्यानि । व दर्शनात् , नासंख्यातवर्षायुषः, तेषां प्रक्षपाहारस्य तथाहि-नारका ये पूर्वोत्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभ- षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात् , अल्पशरीराणां स्वाहाराच्छातरलेश्या उक्ताः, असुरास्तु य पूर्वोत्पन्नास्ते महाकर्माणोs- सयोः कादाचिकत्वं वचनप्रामाण्यादिति, लोमाहारापेक्षशुद्धधर्णा अशुभतरले श्याश्चति । कथम् ? ये हि पूर्वोत्पन्ना या तु सधैपामयभीषणमिति घटत एव, अल्पशरीराणां तु असुरास्तेऽतिकन्दर्पवर्षाध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारया यत्कादाचित्कत्वं तदपर्याप्तकाचे लोमाहाराच्छासयोरभवनेयातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म चिन्वन्तीत्यतोऽभि- न पर्याप्तकत्ये च तद्भावेनायसेयमिति ॥ तथा कर्मसूत्रे यधीयन्त ते महाकर्माणः, । श्रथया-ये बद्धायुषस्ते तिर्यगा- त्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्यमितरषां तु महाकर्मत्वं तवायुविप्रायोग्यकर्मप्रकृतिवन्धनान्महाकर्माणः, तथा अशुभवर्णा एकादितद्भववेद्यकर्मापेक्षयाऽवसेयम् ॥ तथा वर्णले श्यासूत्रअशुभलेश्याश्च त, पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्माणः योर्यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णाधुक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नाशुभवर्णादयः शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति , पश्चादुत्पन्ना- नां चाशुभवर्णादिवाल्यादवसेयम् ,लोक तथैव दर्शनादिति । स्वबजायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबन्धमावशुभकर्म: तथा 'संजयासंजय ' त्ति-देशविरताः स्थूलात् प्राणातिणामक्षीणत्वाच शुभवर्णादयः स्युरिति । वेदनासूत्रं च यद्य- पातादेर्निवृत्तवादितरस्मादनिवृत्तत्वाश्चेति । 'मगुस्साणं पि नारकाणामियासुरकुमाराणामपि तथापि तद्भावना- जहा नरहय' त्ति-तथा वाच्या इति गम्यम् , यां विशषः , स चायम्-ये समिक्षभूतास्ते महाबेदनाः, चा- 'नाणसं' ति-नानात्वं, भेदः पुनरयम्-तत्र ' मणुस्सा णं रित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात् , अथवा-सज्ञिभूताः सं- भंते ! मध्ये सहारगा ? 'इत्यादि प्रश्नः, 'नो इण्टे सशिपूर्वभयाः पर्याप्ता चा ते शुभंवदनामाश्रित्य महावदना मटे' इत्याधुसरं 'आव दुविहा मगुस्सा पन्नत्ता, तंजहाइतर त्वल्पवेदना इति । एवं नागकुमारादयोऽपि औचि
महासरीरा य, अपपसरीरा य । तत्थ ण जे ते महासरीरा ते त्यन वाच्याः ॥ 'पुढविकाइया णं भंते ! आहारकम्मवनले - बहुतराए पोग्गल श्राहाति, एवं परिणामेति ऊससंति स्सा जहा नेरइया णं ति-चत्वापि सूत्राणि नारकसूत्रा- नीससंति ' इह स्थाने नारकसूत्र 'अभिक्खणं आहारेणीव पृथिवीकायिकाभिलापेनाधीयन्त इत्यर्थः , केवलमा- ति' इत्यधीतम् , इह तु श्राश्च' स्यधीयते, महाशरीरा हारसूत्रे भावनवम्-पृथिवीकायिकानामङ्गलासंख्येय- हि देयकुर्वादिमिथुनकाः , ते च कदाचिदेवाहारयन्ति भागमात्रशरीरत्वऽप्यल्पशरीरत्वम् । इतरश्चेत भागम- कावलिकाहारण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' त्ति वचनात् , वचनादवसेयम् । 'पुढविक्काइयस्स ओगाहणट्टयाए चउ- अल्पशरीरास्त्वभीक्षणमल्पं च , बालानां तथैव दर्शनात् ट्ठाणडिए' त्ति-ते च महाशरीग लोमाद्दारतो बहुतरा- समर्दिछममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसम्भवाच, न पुद्गलानाहारयन्तीति उच्छुसन्ति च अभी दणं महाश
यच्चद्द पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादि तत्तारुण्यात् संमूच्छिरीरत्वादव, अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छासत्वमल्पशरीर
मापक्षया वति । 'सरागसंजय' त्ति-अक्षीणानुपशान्तस्थादेव, कादाचित्कन्यं च तयोः पर्याप्तकेतरावस्था पेक्षम
an- कषायाः 'बीयरागसंजय' त्ति-उपशान्त कषायाः क्षीणवसयम् ॥ तथा कर्मादिसूत्रेषु पूर्वपश्चादुत्पन्नानां पृथि- कपायाश्च, 'अकिरिय' त्ति-वीतरागत्वेनारम्भादीनामभा. घीकायिकानां कर्मवर्णलश्याविभागो नारकैः सम एव ,
वादक्रियाः, 'एगा मायावत्तिय ' त्ति-अप्रमत्तसंयतानावेदनाक्रिययोस्तु नानात्वमत एवाह-' असन्नि' त्ति-मि- मेव मायाप्रत्या 'किरिया कजइ' ति फ्रियत-भवध्यादृष्टयाऽमनस्का या ' असन्निभूय' त्ति-संशिभूता ति कदात्रि दुड्डाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्वादिति, 'श्राअसंशिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनलि
रम्भिय' ति-प्रमत्तसं यतानां च 'सर्चः प्रमत्तयोग श्रारम्भ' 'अगिणदाए' ति-अनिर्धारण या वेदना वदयन्ति , वेदनाम
इति कृत्याऽऽरम्भिकी स्यात् , अक्षीणकषायत्वाच्च मानुभयन्ताऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्म परिणतिरियाित- याप्रत्ययति । 'याणमंतरजो इसवेमाणिया जहा असुरकुमिथ्याष्टित्वादवगच्छन्ति, विमनस्कत्वाद्वा मत्तमूर्चिछता- मार' ति,-तत्र शरीरस्याल्पत्यमहत्त्व स्वावगाहनानुसारदिदिति भावना । ' माईमिच्छादिट्टि' त्ति-मायावन्तो गावसेये । तथा वेदनायामसुरकुमाराः 'सन्निभूया य अस. हितेषु प्रायेणात्पद्यन्ते, यदाह-" उम्मग्गदेसी म-ग्ग- निभूया य, सन्निभूया महावेयणा असन्निभूया अप्पवेयणा' णासना गूढहिययमाइल्लो । सढसीलोय ससल्लो, तिरियाउं इत्ययमधीताः, व्यन्तरा अपि तथैवाध्यतव्याः, यतोऽसुराबंधए जीवो ॥१॥"त्ति, ततस्ते मायिन उच्यन्ते । श्रथ
दिषु व्यन्तरान्तेषु देवेषु असज्ञिन उत्पद्यन्ते, यतोऽत्रैवाद्देवा-मायहानन्तानुबन्धिकषायोपलक्षणम् , अतोऽनन्तानुब- शके वक्ष्यति-'श्रसन्नाणं जहणं भवणवासीसु उक्कोसेण न्धिकषायादयवन्तोऽत एव मिथ्यादृष्टयो-मिथ्यात्वोदय- वाणमंतरसु' ति, ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयुक्तरल्पवेसय इति । 'ताणं णियइयाओ' त्ति-तेषां पृथिवीकायि- दना भवन्तीत्यवसेय, यत्तु प्रागुक्तं सशिनः सम्यगहएकानां नैयतिक्यो-नियता न तु त्रिप्रभृतय इति , पञ्चवे- योऽसमिनस्चितरे इति तवृद्धव्याण्यानुसारेण वेति, ज्योत्यर्थः, 'से तेणटेणं समकिरियत्ति-निगमनम् , जाव चउरि- तिष्कवैमानिकेषु त्वसज्ञिनो नोत्पद्यन्ते श्रतो घेदनापदे तेदिय' ति-इह महाशरीरत्वमितरच स्वस्वावगाहना वधीयते-'दुविहा जोतिसिया-मायिमिच्छादिट्री उबयननुसारणावसयम् , आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽ गा ये' त्यादि, तत्र मायिमिथ्यादृष्टयाऽल्पवेदना इतरे च पीति । ' पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नरइय' त्ति- महाबेदनाः शुभवेदनामाश्रित्येति, एतदेव दर्शयन्नाह-न प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीदणमाहार यन्ति उच्छु- | वर 'वेयणाए' इत्यादि । अथ चतुर्विंशतिदण्डकमेव ले
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श्याभेदविशेषणमाहारादिपदैर्निरूपयन् दण्डकसप्तकमाह'लेस्साएं मेते ! तेरहवा सच्चे समाहारण तिनेनाहारशरीरोच्छ्वास कर्म्मवरीले श्यावदनाक्रियोपपाताख्य पूर्वोक्कनपदोपेतगारादिचतुर्विंशतिपदराको लेश्य पदविशेषितः सूचितः, तदन्ये च कृष्णलेश्यादिविशेषिताः । पूर्वोयता एव यथासम्भवं वारकादिपदात्मकाः पद काः सूचिताः । तदेतेषां सप्तानां दण्डकानां सूत्रपार्थ यो यथा अपव्यस्तं तथा दर्शनाहिया' मित्यादि, रात्रीकानां पूर्वोक्तानां निर्विशेषणानां नारकादीनां तथा संश्यानामधिकृतानामेव शुश्वानां तु सप्त मदण्डकवाच्यानामेषां त्रयाणामेको गमः सदृशः पाठः, स- लेश्यः शुक्ललेश्यश्वत्येवंविधविशेषणकृत एव तत्र भेदः, श्रौधिकदण्डकसूत्रवदनयोः सूत्रमिति हृदयम् । तथा 'जस्सत्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्लेश्याऽस्ति स एयराइडकेऽध्येतव्यः तेनेह पश्ञ्चेन्द्रियति च्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्ललेश्याया श्रभायादिति किएइलेक्सनी लेखा पि एगो गमो श्रीधिक एवेत्यर्थः, विशेषमाह - नवरं 'वेयणा' इत्यादि, कृष्णलेस्पाइरडके नीललेश्पादके व बेदना "बिहारया पश्नत्ता-सन्निभूया य प्रसन्निभूया य" त्ति, श्रधिकदण्डकधी माध्येतस्यम् अशिनां प्रथमपृथिव्यामेोपादा 'सरणी खलु पढमम्मि' त्ति वचनात् प्रथमायां व कृनीलेश्ययोरभावात् तर्हि किमध्येतव्यमित्याह-' माचिमिच्छादि उपवनगा य इत्यादि, तब मायिनो मि ध्यायश्च महावेदना भवन्ति यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्त्तिमी स्थितिशुभ ते नियमित प्रकृयां तस्यां महती वेदना संभवति इतरे तु विपरीतेति । तथा मनुव्यपदे क्रियासु यद्यप्यधिकदण्डके तिविहा मगुस्सा पन्नत्ता, तं जहा -- संजया ३, तत्थ गं जे ते संजया ते दुविहा पश्नत्ता, तं जहा सरागसंजया य, वीयरागसंजया य । तत्थ जे ते सरागसंजया ते दुविधा पत्ता, तं जहापमत्त संजयाय अप्पमत्तसंजया य' त्ति पठित, तथाऽपि कृनीलेश्यादण्डकयोर्नाऽध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्यादये सेयमस्य निषिद्धत्वात् यच्चोच्यते-' पुञ्चपवनश्रो पु अस्साए शि. कृष्णारू श्यामङ्गीकृत्य न तु कृष्णादिव्यसाचिव्यजनितात्मपरिणाभरूप भावलश्याम्, पतच्च प्रागुक्तमिति, एतदेव दर्शयन्नाह-' मणुस्से' त्यादि, तथा कापातलोश्यादण्डकोऽपि नीलादिलेाकयध्येतव्या नवरं नारकपद वेदनासूत्रे नारका औधिकदण्डकवदेव वाच्याः ते चैवम्'मेरा दुबिहा पत्ता तं जहा-सन्निभूषा व असि भूया पति, अशिनां प्रथमपृथिव्युत्पादन कापत लेश्यासम्भवादतश्राह - ' काउलेस्साण वी 'त्यादि । तथा तेजोलेश्या पद्मलेश्या च यस्य जीवविशेषस्थास्ति तमायि यथधिको दण्डस्तथा तोडकी भणिती तदस्तिता चैवम्-नारकाणां विकलेन्द्रियाणां तेजोवायूनां चाद्यास्तिस्र एव भवन पतिपृथिव्यम्वुवनस्पतिध्यन्तराणामायाश्चतस्रः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां पड्, ज्योतिषां तेजालेश्या, वैमानिकानां तिस्रः प्रशस्ता इति,
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( ४०३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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आह च
"किरहा नीला काऊ -- तेऊलेसा य भववंतरिया । जोइससोद्दम्मीसा-ण तेलसा मुख्यव्वा ॥ १ ॥ कप्पे संकुमार, माहिदे चैव भलोग य । एपसु पहलसा, तेरा परं सुक्कशस्सा उ ॥ २ ॥ "
सम
तथा
वापरलेस बतारि ।
पुढवी गम्भयतिरियन रेसुं छल्लेसा तिनि सेसाणं ॥ ३ ॥ " केवलमीथिक क्रियासुत्रे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः इह तु तथा न वाच्याः, तेजः पद्मलेश्ययोगापासम्भवात् शुक्रलेश्यायामेव तत्सम्भवात् प्रमताप्रमतास्तूच्यन्त इति दर्शयन्नाह उसा पहले से' त्यादि । 'गाव' त्ति उद्देशकादितः सूत्रार्थसङ्ग्रहगतार्थाऽपि सुगाधार्थमुच्यते दुःखमादीत्येकत्वबहुत्वाभ्यां दण्डकचतुष्टयमुक्तम्, तथा 'आहारे ति 'रइया किं समाहारा:' इत्यादि, तथा 'किं समकम्मा ?' तथा ' किं समयन्ना ? तथा किं समलेसा ? तथा ' किं समवेयणा ?' तथा 'किं समकिरिया ? ' तथा किं समाउया समोवन्नगति गाथार्थः । भ० १ ० २ उ० । ( सर्वे दीपकुमाराः समादाय इति दीपकुमार शब्द तुम २५४२ पृष्ठे गतम् । ) ( वाणमन्तराः सर्व्वे समाहाराः इति ' वाणमंतर शब्द षष्ठे भागे गतम् । )
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नैरयिकादीनां समाहारत्यादिपृच्छा विषयकाणि सूत्राणि भगवतीसूत्रवदवसेयानि तानि चदैवाक्लानि, अथ प्रज्ञानाटीकायां विशेष इति रूपा सा प्रदश्तसमशब्दः पूर्वा प्रत्येकमपि सम्बध्यते उतराई प्रतिपद साक्षात्सम्बन्धित एवास्ति, ततोऽयमर्थः - प्रथमोऽधिकारः सत्यं समाहाराः सर्वे समाः सर्वे समोच्छासा इति प्रश्नोपलक्षितः, द्वितीयः समकर्माण इति तृतीयः समय इति चतुर्थः समश्याका इति पञ्चमः समवेद नाका इति, षष्ठः समक्रिया इति, सप्तमः समायुष इति । अथ लेश्या परिणामविशेषाधिकार कथममीषामर्थानामुपन्यासोपपनि उनन्तरप्रयोगद उक्तम्- 'कतिबिंद से भे
पाए पत्ते, गोयमा ! पंचविहे गद्दष्पवाए पत्ते तं जहा पयोगगई तत्तगई बधछेदणगई उचवायगई विहायोगई । तत्थ जा सा उबवायगई सा तिविहा- खित्तोबवायगई भयो. ववायगई नोभवोववायगई, तत्थ भवाववायगई चव्विहानेरइयभवाववायगई देवभवोववायगई तिरिक्खजाणियभवो चचायगई मणुस्त्रमा इति तत्र नारकरयादिय
गोरपनानां जीवानामुपपातसमयादारभ्य आहाराद्यर्धसभवोऽवश्यंभावी ततो लेश्याप्रक्रमेऽपि तेषामुपन्याससूत्रम् ' यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्, प्रथमं समाद्वारा इत्यादिप्रक्षोपलक्षितमधिकारमाह-- मेरा ते इ ' त्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - ' गोयमा' इत्यादि नाय - मर्थः समर्थः- नायमर्थो युक्त्युपपन्न इति भावः, पुनः प्रश्नयति-' से केणमित्यादि, शब्दोऽथशब्दार्थः । अथ केनायेंन-केन प्रयोजनेन केन प्रकारणेति भावः भदन्त मुख्यते नैरयिकाः सर्वे समाद्दारा इत्यादि ?; भगवानाह - ' गोयमे
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(४०४) सम अभिधानराजेन्द्रः।
सम त्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिक, तत्र जघन्यमल्पत्वम् ।
। इति प्रत्ययविधानात् पूर्वोपपत्रकाः, एवं पश्चादुपपन्नकाः, अङ्गुलासययभागमात्रत्वम् , उत्कृष्टं महत्त्वं पश्चधनुःशत
तत्र पूर्वोत्पत्रपश्चादुत्पन्नानां मध्ये ये पूर्वोत्पन्नास्तैनरकायुमानत्वम् , एतच भवधारणीयशरीरापेक्षया , उत्तरवैकि
नरकगत्यसातवेदनीयादिकं प्रभूतं निर्जीर्णमल्पं विद्यत - यापेक्षया तु जघन्यमल्पत्वम् अङ्गलसङ्ग्यानभागमात्रत्वम्
ति अस्पकर्मतरकाः, इतरे तद्विपर्ययात् महाकर्मतरकाः, इतरद् धनुःसहस्रमानत्वम् , एतावता च किं समशरीराइ
एतच्च समानस्थितिका ये नारकास्तानधिकृत्य प्रणीतमत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमुक्तम् । अथ शरीरप्रश्नो द्वितीयस्थानो
बसेयम् , अन्यथा हि रत्नप्रभायाम् उत्कृष्टस्थिते रकस्यतः तत्कथमस्य प्रथमत एव निर्वचनमुक्तम् ?, उच्यते-श
यहून्यायुषि क्षयमिते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यारीरविषमताभिधाने सति आहारोच्छ्रासयोवैषम्यं सुप्रति- मेव रसप्रभायां दशवर्षसहस्त्रस्थिति रकोऽन्यः कधिपादितं भवतीति द्वितीयस्थानोकस्यापि शरीरप्रश्नस्य प्र
दुत्पन्नः स किं प्रागुत्पनं पल्योपमावशेषायुषं नारकमपेथमं निर्वचनमुक्तम् । इदानीमाहारोच्छासयोर्निर्वचनमाह
क्ष्य वक्त्रं शक्यो यथा महाकम्र्मेति !, वर्णसत्रे-विशुजब'तस्थ ' मित्यादि , तत्र-अल्पशरीरमहाशरीररूपराशि
तरका' इति-विशुद्धतरवर्णा इत्यर्थः , कथमिति चेद् , द्वयमध्ये 'ण' मिति याक्यालकार ये यतो महाशरीरास्ते
उच्यते-ह वस्मारयिकाणामप्रशस्तवर्णमामकर्मणोऽतदपेक्षया बहुतरान् पुगलानाहारयन्ति महाशरीरत्वादेव ,
शुभस्तीयोऽनुभागोदयो भवापेक्षः, तथा चोक्तम्-"कालभरश्यते हि लोके यहच्छरीरो बहाशी यथा हस्ती , मरुप
पखेमवेक्लो उदो सचिवागमषिधागो । " नन्षाषि शरीरोऽल्पभाजी शशकयत् , याहुल्यापेक्षं चयमुदाहरणमु
तत्र भवयिपाकानि उकानि तत्कथमप्रशस्तवर्णनामकर्मण पन्यस्यते , अन्यथा कोऽपि यहच्छरीरोऽप्यल्पमनाति क
उदयो भवापेक्षो धर्यते ?, सत्यमेतत् तथाप्यसौ वर्णनामश्चिवल्पशरीरोऽपि भूरि भुङ्क्ते तथाविधमनुष्यवत् , नारकाः |
कर्मणोऽप्रशस्तस्योदयस्तीवानुभागोऽधयश्च भवापेक्षा पूपुनरुपपातादिसवेद्यानुभावादन्यत्रासवेद्योदयवर्तित्वादे
चायैर्व्यवहतः, स पूर्वोत्पनैः प्रभूतो निर्णः स्तोकावकान्तेन यथा महाशरीराः दुःखितास्तीबाहाराऽभिलाषाश्च शेषोऽवतिष्ठते, पुलयिपाकि च वर्णनाम, तेन पूर्वोत्पन्ना भवन्ति तथा नियमाद् यहुतरान्पुद्गलानाहारयन्ति तथा बहु- विशुजतरवर्णाः, पश्चादुत्पौस्तु नाचापि प्रभूतो निजीर्ण तरान पुनलान् परिणामयन्ति, आहारपुद्गलानुसारित्वात् इति ते भविशुद्धतरवर्णाः, एतदपि समानस्थितिनैरयिकपरिणामस्य , परिणामश्चापृष्ठोऽप्याहारकार्यमित्युक्तः , तथा विषयमबसेयम् , अन्यथा पूर्वोकरीस्या व्यभिचारसंभवात् 'बहुतराए पुग्गले उस्ससंति ' इति-बहुतरान् पुत्लान्
'एवं जहेव यो भणिया' स्यादि, एवम्-उक्रेन प्रकारेण उसछासतया गृहन्ति 'नीससंति' इति-निःश्वासतया मु
यथैव बणे भणितास्तथैव लेश्यास्वपि वक्तव्याः, तपथा-नेश्वन्ति, महाशरीरत्वादेव, दृश्यन्ते हि बृहच्छरीरास्तजा
रायाणं भंते ! सव्वे समलेस्सा, गोयमा! नोरणद्वे समटे' तीयतरापेक्षया बहुरूहासनिःश्वासा इति , दुःखिता अपि
इत्यादि, सुगमे चैतत् , नवरं पूर्वोत्पन्ना विशुजलेश्याः यस्मातथैव , दुःखिताश्च नारका इति । आहारस्यैव कालकृतं
त्पूर्वोत्पः प्रभूतान्यप्रशस्तलेश्याद्रव्याणि अनुभूय अनुभूय वैषम्यमाह-'अभिक्खप' मित्यादि, अभीषण-पौनःपु
क्षयं नीतानि तस्मात्ते विशुद्धलेश्याः, इतरे पश्चादुत्पमतन्येनाहारयन्ति, य यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया शीघ्रशीघ्र- या विपर्ययादविशुद्धलेश्याः, एतदपि लेश्यासूत्रं समानतराहारग्रहरणस्वभावा इत्यर्थः, अभीक्षणम् उच्सन्ति प्र
स्थितिकनैरयिकापेक्षमवसेयम्,समवेदनपदोपलक्षितार्थाधि. भीर्ण निःश्वसन्ति , महाशरीरत्वेन दुःखिततरत्वादनवर
कारप्रतिपादनार्थमाह- नेहया णं भंते !' इत्यादि, समवेदतमुच्छासादि कुर्वन्तीति भावः, 'तत्थ ण जे ते' इत्या
नाः-समानपीडाः 'सन्निभूया य' इति संक्षिनः-संक्षिपश्चेन्द्रिदि , 'जते' इति इह ये इत्येतायतैवार्थसिद्धौ ये ते इति याः सन्तो भूता-नारकत्वं गताः संशिभूताः ते महावदनाः ( यद् ) उच्यते तद्भाषामात्रमेव , अल्पशरीरास्ते अल्पत- तीवाशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मयन्धनेन महानरकेपुत्पादा रान् पुद्गलानाहारयन्ति , ये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहार- त् , असमिक्षनः-प्रासनिपश्चेन्द्रियाः सन्तो भूता असजिणीयपुद्गलापेक्षया अल्पतरान पुद्गलानाहारयन्ति , अल्पश- भूताः, असझिनो हि चतसृष्वपि गतित्पद्यन्ते, तद्योरीरत्वादेवेति भावार्थः,'ाहच्च आहारयन्ति' इति-क- ग्यायुर्वन्धसंभवात् , तथा चोक्तम्-"काविहे गं भंते ! अस. दाचिदाहारयन्ति कदाचिन्नाहारयन्ति , महाशरीराहारप्र- निपाउए पन्नत्ते , गोयमा ! चविहे असभित्राउप हणान्तरालापेक्षया बहुतरकालान्तरतयत्यर्थः, 'पाहश्च ऊस- पन्नते ?, ते जहा-नेरड्यअसन्निपाउए तिरिक्खजोणियसंति आहच नीससति' एते हि अल्पशरीरत्वनैव महाशरी- असन्निभाउए मगुस्सजोणियअसन्निाउए देवश्रसम्निरापेक्षया अल्पतरदुःखत्वात् , श्राहश्च' कदाचित् सान्तरमि- आउए, इति, तत्र देवेषु नैरयिकेषु च असल्यायुषो त्यर्थः, उच्छासादि कुर्वन्तीति भावः, अथवा अपर्याप्तिकाले जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमाअल्पशरीराः सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति उच्छा- संख्येयभागः,तिर्यममुज्येषु च जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम् उत्कसापर्याप्तकत्वेन च नोच्छुसन्ति, अन्यदा त्याहारयन्ति पतः पल्योपमासंख्येयभागः, एवं चासशिनः सन्तो ये नरउच्सन्ति चेत्यत आह-आह आहारयन्ति श्रा- केधूपद्यन्ते तेऽतितीवाशुभाश्यवसायाभावात् रत्नप्रभायाहश्च ऊससन्ति' इत्युक्तम् । ' से पएणडेणमि' त्यादि मनतितीव्रवेदनषु भरकेषुत्पद्यन्ते अल्पस्थितिकाश्चत्यल्पवेनिगमनवाक्यं सुगमम् । संप्रति समर्मत्वाधिकारमाह- दनाः, अथवा- सझीभूताः-पर्याप्तकीभूतास्ते महावदनाः
नरहयाण' मित्यादि 'पुब्बोबवनगा य पच्छोयवलगा य' | पर्याप्तत्वादेव, असमिशनस्तु अल्पबेदनाः अपर्याप्ततया इति पूर्व-प्रथमम् उपपन्नाः पूर्वोपपन्नाः तत एव स्वार्थिकः क प्रायो वेदनाया असंभवात् । यदिवा-'सन्निभूय' ति सम्झा
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(४०५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सम
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सम्यग्दर्शनं सा एषामस्तीति संज्ञिनः संज्ञिनो भूता-याताः संभूताः संशित्यं प्राप्ताः ते महानाय हि यथावस्थितं पूर्वकृतकर्म्मविपाकमनुस्मरतामहो महद्दुःखसंकटमिदमस्माकमापतितं न कृतो भगवदर्हत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयंकरोऽतिविषमविषय विषपरिभोगविप्रलुब्धचेतोभिर्धर्म इत्येवं महद्दुःखं मनस्युपजायते, ततो महा वेदनाः, अधिनस्तु मिध्यादृष्टयः ते तु स्वतस्फ लमिदमित्येवं न जानते, अजानानाश्चानुपतप्तमानसा अल्पवेदना इति । अधुना समकिरिया इत्यधिकारं विभावयिषुराह नेरइयां भेत ! सव्वे समकिरिया ' इत्यादि, समाःतुल्याः क्रियाः - कर्म्मनिबन्धनभूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः ' चत्तारि किरिया कज्जति ' इति क्रियन्ते इति कर्मकर्त्तरि प्रयोगः तेन भवन्तीत्यर्थः, आरम्भःपृथिव्यापम प्रयोजनं कारणं यस्याः सा आरम्भिक परिमायिक परिग्रहो - धम्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारः, धम्मपकरणमूर्द्धा या स च प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी 'मायावनिया' इति माया बनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादिरपि स च प्रत्ययः कारणं यस्यास्सा मायाप्रत्यया 'पश्चखाकिरिया' इति श्रप्रत्याख्यानेन - निवृत्त्यभा सेन किया-कर्मबन्धकारणम् अप्रत्याख्यानक्रियेति, निय श्याओ' इति नेतिया: नियता इत्यर्थः अवश्यंभावित्वात् सम्यग्रष्टीनां नियताः संयतादिषु व्यभिचारात् 'मिच्हाईसरायलिय सि-मिथ्यादर्शनं प्रत्यय-कारणं यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, ननु मिथ्यात्वाविरतिपाययोगाः कथम्यहेतव इति प्रसिजि ह आरम्भयादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः उच्यते-रहारम्भपरिषदां योगः परिगृहीतो. योगानां
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पापात् शेषस्तु शेषा वन्त इत्यदोषः सत्ये स माउ' इत्यादेः प्रश्नस्य या निर्वचनचतुर्भङ्गी तद्भावना क्रियते निबद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुषो युगपच्चोत्पन्ना इति प्रथमो भङ्गः तेषु एवं दशवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु एके प्रथमतरमुत्पन्नाः अपरे पश्चादिति द्वितीयः, अन्यैर्विषममायुर्निबद्धं कैश्चिदशवर्षसहस्रस्थितिषु कैश्विश्च पञ्चदशवर्षसहस्रस्थितिषु, उत्पत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः केचित् सागरोपमस्थितया केचिदशवर्षसहस्रस्थित
विषमेव चोपन्ना इति चतुर्थः संप्रति असुरकुमारादिषु श्राहारादिपदकं विभावविपुरिदमाह-सुरकुमारा ं भंते! सव्वे समाहारा इत्यादि, तत्रास्मिन् सूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिरूपते असुरकुमाराणामपशरीरत्वं भवचारणीयशरीरापेक्षा जघन्यतोऽकुलासंख्ययमागमानायं महाशरीरत्वं कर्पतः सप्तहस्तप्रमाणत्वम् उत्तरसैकियापेक्षा अ पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गुल संख्येय भागमा नत्वम् उत्कर्षतो महाशरीरत्वं योजनलक्षमानत्वमिति । तत्रैते महाशयेरा बहुतरान् पुलानाहारयन्ति मनोभा रापेक्षया देवानां हि असौ संभवति, प्रधानश्च । प्रधानापेक्षया च शास्त्र निर्देशो वस्तूनां ततोऽल्पशरीरग्राह्याहारपुङ्गलापेक्षया ये पुद्गला बहुतरास्ते तानाहारयन्ति बहुतरान्परिणामयन्तीत्यादिपापानं प्राग्पत्त
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थाऽभीक्ष्णमाहारयन्ति श्रभीक्ष्णमुच्छ्रसन्ति, अत्र मे चतुथांदेरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेखायुंच्सन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमुच्यते, ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपर्याहारयम्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युच्छ्रसन्ति तानङ्गीकृत्यैतेषामल्पकालीनाहारोच्छ्रासत्वेन पुनः रूपकालीनादाराच्छ्रासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशयत्यात् तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुङ्गलानाहारयन्ति उसन्ति व अल्पशरीरत्वादेव यत्पुनस्तेपां] कादाचित्कल्पमाहाराष्ट्रासपोस्त महाशरीरादाराच्छासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात् तत्र हि अन्तरा ले ते आहारादि न कुर्च्चन्ति तदन्यत्र ते कुर्वन्तीत्येवं विवक्षणान्महाशरीराणामप्याहारोच्छ्वासयोरन्तरालमस्ति किं तु तदल्पमित्यविवक्षितत्वादभीक्ष्णमित्युक्तं, सिद्धं च महाशरीरावां तेषामाहारोच्हा सपोररूपान्तरत्वम् अपरीराणां तु महान्तरत्वं यथा सोधर्मानसप्तहस्त मानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं वर्षसहस्र वर्ष च अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतयाऽल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशवर्षसहस्राणि शिंदेवच पक्षा इति एषां महारा
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माच्छासाभिधानमाहपस्थितिकयमसीयते इतरेषां तु विपर्ययः वैमानिकवदेवेति श्रथवा-लोमाहारापेक्षया अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्या सकायस्थायामुासस्तु यथाक्रमानेनापि भवन् परिपू पेक्षा पुनः पुनरित्युच्यते, अपशकायस्थायांपरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति श्रोजा ( जत्रा ) हारत एदाहरणात् ततस्ते कदाचिदाहारयन्तीत्युच्यत अपर्याप्तकावस्थायां च मोच्खन्ति अन्यक्ष तुरन्त तत उयंत आसतीति कर्मसूत्रमा असुरकुमाराणं भंते ! सव्वे समकम्मा' इत्यादि, अत्र नैरयिकसूत्रापक्षाविरका हि अल्पकमांण उक्ला इतरे तु महाकर्माणः असुरकुमारास्तु ये
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पन्नास्तं महाकर्माणः इतरेऽल्पकर्माणः, कथमिति चंद्, उच्यते - इद्दासुकुमाराः स्वभावादुद्वृत्तास्तिर्यतूपयन्मनुष्येषु च सिपद्यमानाः केचिदेकेन्द्रियेषु पृथिव्य वनस्पतिषूत्पद्यन्ते केचित् पञ्चेन्द्रियेषु मनुष्येध्वपि चोत्पद्यमानाः कर्मभूमिकगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येपयन्तेन शेष परमासावशेषायुपश्च सन्तः पारम विकमायुर्वघ्नन्ति पारभविकायुर्वन्धकाले च या एकान्ततिर्यग्योनिकयोग्या एकान्तमनुष्ययोग्या वा प्रकृतयस्ता उपनिन्यन्ति ततः पूर्वोत्ना महाकर्मतराः ये तु पश्चादुत्पन्ना नाद्यापि पारभविकमा नापि तिर्यग्मनुष्ययोग्याः प्रकृतीरुपचिन्वन्ति ततस्तेऽल्पकर्म्मतराम सूत्रे समानस्थितिकसमानभव परिमितासुरकुमाविषथमवसेयं पुरपक्षका अपि पार वायुः पाना अपि अपारविायुषः सीकालान्तरिता प्राह्याः अन्यथा निर्यगमनुष्य योग्यप्रकृतितिर्यगमनुष्ययोग्यप्रकृतिबन्धेऽपि पूर्वोत्पन्नकात् पश्चादुत्पन्न उत्कृष्टस्थितिकोऽभिनवोत्पन्नोऽनन्त संसारिकश्च महाकम्मैतर एव भवति । वर्णसूत्रे ये ते पूर्वोत्पन्नकास्ते श्रविशुद्धवर्णतराः, कथमिति दुष्यंततः स्नानभस्तीवानुभाग उदयः स च पूर्वोत्पन्नानां प्रभूतः दाय
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अभिधानराजेन्द्रः। मुपगत इति ते अविशुद्धतरवर्णाः, इतरे तु पश्चादुत्पन्न- नीलाइ जहन्नेणं, पलियासंखं च उक्कोसा ॥४॥ तया नाद्यापि प्रभूतो निर्जीर्ण इति विशुद्धवर्णाः, एतच्च आ नीलाइ ठिई खलु, उक्कोसा चेय समयमभहिया । समानस्थितिकासुरकुमारविषय सूत्रम् , ' एवं लम्सा
काऊद.जहन्नणं पलियासखं च उक्कोसा ॥ ए वी' ति एवं वर्णसूत्रवत् लेश्यासूत्रमपि चक्रव्यं , पूर्वो- तेण परं वोच्छामि, तेउल्लेस्सं जहा सुरगणाण । त्पन्नाः अविशुद्धलेश्या वक्तव्याः पश्चादुत्पन्ना विशुद्धले
भवणववाणमंतर-जोइसवमाणियाण च ।।६।। श्या इति भावः , काऽत्र भावनेति चेदुच्यत-इह देवा- दमवाससहस्साई, तऊएँ ठिई जहनिया होइ । नां नैरयिकाणां च तथा भवस्वाभाव्यात् लेश्यापरिणा- उक्कोसा दो उदही, पलियस्स असंवभागं च।। ७॥ म उपपातसमयात् प्रभृत्याभवक्षयाद् भवति, यतो ब- जा तेऊ ठिई खलु, उक्कोसा चेव समयमभहिया। क्ष्यति तृतीये लेश्योद्देशके-' से नूर्ण भंते ! कराहलेस्से पम्हाइ जहन्नण , दसमुहुत्तहियाई उक्कोसा ॥८॥" नेरइए कराहलेस्सेसु नेरइएसु उववजइ कराहलेस्से उब्व- दशसागरोपमाण्यन्तर्मुहुर्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टति भावः, अ. दृइ ?' "जलस्स उचवजइ तल्लेस्से उब्वट्टइ ? '' इति । अस्या- न्तर्मुहर्स चाभ्यधिकं यत्प्राग्भवभाव्यन्तर्मुहूर्त यचोत्तरयं भावार्थ:-पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिको मनुष्यो वा नरकेषू- भवभावि तद् द्वयमध्येकं विवक्षित्वोक्नं, देवनैरयिकाणां हि त्पद्यमानो यथाक्रम तिर्यगायुषि मनुष्यायुषि वा क्षी- स्वस्वलश्या प्रागुत्तरभयान्तर्मुहर्तद्वयनिजायुःकालप्रमाणाणे नैरयिकायुःसंवेदयमान ऋजुसूत्रनयदर्शनन विग्रहेऽपि वस्थाना भवति, तथा-"जा पम्हाइ ठिई खलु , उक्कोसा वर्तमानो नारक एवं लभ्यते तस्य च कृष्णादिलेश्योदयः
चेव समयमभहिया । सुक्काएँ जहन्नेणं, तेत्तीसुक्कोसमम्भपूर्वभवायुषि अन्तर्मुहर्तायशेषायुष्के पब घर्त्तमानस्य भ- हिया ॥१॥” इति । ततोऽस्माल्लेश्यास्थितिपरिमाणात् प्राचति, तथा चोक्लम्-" अन्तमुहुत्तम्मि गए , अन्तमुहुत्तम्मि- गुलाञ्च तृतीयलश्योद्देशवक्ष्यमाणसूत्रादवसीयते देवानां नैरसेसए चय । लस्साहि परिण्याहिं, जीवा वञ्चति परलो- यिकाणां च लेश्याद्रव्यपरिणाम उपपातसमयादारभ्याऽऽभयं ॥१॥" एवं देवेष्वपि भावनीय, तथा लेश्याध्ययने नैरयि- वक्षयात् भवति इति पूर्वोत्पन्नश्चासुरकुमारैः प्रभूतानि तीकादिषु कृष्णादिलश्यानां जघन्योत्कृष्णा च स्थितिरियमुक्का- बानुभागानि लेश्याद्रव्याणि अनुभूयानुभूय क्षयं नीतानि " दसघाससहस्साई, काऊए ठिई जहनिया होइ । स्ताकानि मन्दानुभावान्यवतिष्ठन्ते, ततस्ते पूर्वोत्पन्ना अविउक्कोसा तिन्नुदही, पलियस्स असंखभागं च ॥१॥ शुद्धलेश्याः पश्चादुत्पन्नास्तु तद्विपर्ययाद्विशुद्धलेश्याः । नीलाएँ जहन्नाठई, तिन्नुदही असंखभागपलियं च ।
'वेयगाए जहा नेरइया' इति वदनायां यथा नैरयिका उक्नादस उदही उक्कासा, पलियस्स असंखभागं च ॥२॥
स्तथा वक्तव्याः, तत्राप्यसशिनोऽपि लभ्यमानत्वात् , तत्र कराहाएँ जहन्नठिई, दस उदही असंखभागपलियं च ।
यद्यपि वेदनास्त्रं पाठतो नारकाणामिवासुर कुमाराणामपि तितीससागराइँ, मुहुत्त अहियाई उक्कासा ॥ ३ ॥
तथापि भावनायां विशेषः, स चायम्-ये समशीभूतास्ते सएसा नेरइयाणं, लसाण ठिई उ वनिया इगणमो ।
म्यगठित्वात् महावेदनाः चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तातण परं वोच्छामि, तिरियाण मणुस्सदवाणं ॥ ४॥
पात् , इतरे तु-असशीभूता मिथ्यादृष्टित्वादल्पवेदना इति, अंन्तोमुहुत्तमद्धा, लसागा ठिई जहि जहि जाउ।
'अवसेसं जहा नेरइयाणं ति-अवशेष क्रियासूत्रमायुःसूत्र
च यथा नरयिकाणां तथा वक्तव्यम्, एतच्च सुगमत्तात् स्वयं तिरियाण नराणं था, जित्ता केवलं लेसं ॥ ५॥"
परिभावनीयम् । एवमि' त्यादि, पवमसुरकुमारोक्लन प्रमाणेअस्या अक्षरगमनिका-अन्तर्मुहर्त कालं यावत् लेश्यानां
न नागकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यावत्स्तनितकुमाराः । स्थितिजघन्योत्कृष्टा च भवति, कासामित्याह- जहिं जहिं
'पुढचिकाइया' इत्यादि, पृथिवीकायिका आहारकर्मवर्णजा उ' यस्मिन् यस्मिन्-पृथिवीकायिकादी संमूछिममनु- लेश्याभिर्यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्याः, पृथिवीकायिध्यादौ च याः-कृष्णाद्या लश्यास्तासाम् , एता हि क्वचित्
कानामाहारादिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि नैरयिकसूत्राणीव काश्चिद् भवन्ति, पृथिव्यवनस्पतीनां कृष्णानीलकापोतते
पृथिवीकायिकाभिलापेना भिधातव्यानीति भावः केवलमाहाजोरूपाश्चतस्रा लश्याः, तेजावायद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमृर्चिल
रसूत्र भावनैवम्-पृथिवीकायिकानामङ्गलासंख्येयभागमात्रमतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्याणां कृष्ण नीलकापोत रूपास्तिस्रः,
शरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वमहाशरीरत्वे आगमवचनादवसेये , गर्भजतिर्यपञ्चन्द्रियाणां गर्भजमनुष्याणां च पडपीति,
स चायमागमः-"पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहनवयं शुक्ललश्याया पि अन्तर्मुहूर्तमेव स्थितिः प्राप्नोतीत्याशङ्कायामुक्तं-बर्जयित्वा केवला शुद्धलेश्या-शुक्ललश्या
गट्टयाए च उट्टाणवडिए" इत्यादि , तत्र महाशरीरा लो
माहारतो बहुतरान पुद्गलानाहारयन्त्युच्छ्रसन्ति च अमीमिति भावः । तस्या इयं स्थितिः
क्षणमाहारयन्त्यभीग चाच्छ सन्ति , महाशरीरत्वादेव, श्रा" मुहुत्त ऽद्रं तु जहन्ना. उकासा होइ पुचकोडी उ। ल्पशरीराणामल्पाहाराच्छासत्वम् अल्पशरीरत्वादव , कानहि चरिसहि ऊणा, नायब्वा सुक्कलेम्साए ॥१॥ दाचित्कत्यं चाहारोच्छा सयाः पर्याप्ततरावस्थापक्षमिति । एसा तिरियनराग, लेसारण ठिई उ धनिया होइ। वेदनासूत्रमाह-'पुढधिकाइया गं भंते ! सब्बे समवेयणा' तण परं वाच्छासि, लसाण टिई उ दवाग ॥२॥
इत्यादि, 'असन्नी ति-मिथ्याध्योऽमनस्का या 'श्रसन्निभूदमवासमहम्लाई, क.गहाइ टिई जहनिया होइ । यति-असंज्ञिभूता असचिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव पल्लासखियभागी. उन्कोसा होइ नायया ॥३॥
ध्यनक्ति- प्रणिययं' ति-अनियताम्-अनिर्धारितां वेदयन्ते, जा कराहाइ ठिई खलु. उकोसा चेव समय-मम्भहिया। वेदनामनुभवन्ताऽपि न पूर्वापात्ताशुभकर्मपरिणतिरियमि
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(४०७) सम अभिधानराजेन्द्रः ।
सम त्यवगच्छन्ति, मिथ्यादृष्टित्वादमनस्कत्वाद्वा मत्तमूञ्छिता- यम् । 'वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराण' मित्यादि, यथा दिवदिति भावः । क्रियासूत्रे-'माइमिच्छादिट्टि' त्ति-माया- 'असुरकुमारा सन्निभूया य असन्निभूया य तत्थ ण जे चन्तो हि तेषु प्रायणोत्पद्यन्ते , याह-शिवशर्माचार्यः- सन्निभूया ते महावेयणा असन्निभूया अप्पवयणा' इत्ये" उम्मग्गदेसो म-गनासो गूढहिययमाईलो । सह- वमधीता व्यन्तरा अपि तथैवाध्यतव्याः, यतोऽसुरादिसीलो य ससल्ला , तिरियाउं बंधई जीयो ॥ १ ॥” तत- षु व्यन्तरान्तेषु देवसंज्ञिन उत्पद्यन्ते , तथा चोक्नं व्यास्ते मायिन उच्यन्ते । अथवा-माया इह समस्तानन्तानु- ख्याप्रज्ञप्तौ प्रथमशते द्वितीयोद्देशके-" असन्नी गं जहबन्धिकपायोपलक्षणं ततो मायिन इति, किमुक्तं भवति ?- न्नेण भवणवासीसु उकोसणं वारणमंतरेसु" इति-ते चासुअनन्तानुवन्धिकपायोदयवन्तः , अत एव मिथ्यादृष्टयः , | रकुमारप्रकरणानयुक्तरल्पवेदना भवन्तीत्यवसेयं, यत्तु प्राग'ताण णियइयाओ' इति तेषां-पृथिवीकायिकानां नैयति- व्याख्यानं कृतं संक्षिनः सम्यगरष्टयाऽसशिनस्त्वितरे क्यो-नियताः पञ्चेवः न तु त्रिप्रभृतय इत्यर्थः ‘से ए- इति, तदेवमपि घटते इति वृद्धव्याख्यानुसरणतः कृतएणटेण' मित्यादि , निगमनम् 'जाव चरिंदिया ' इति, मित्यदोषः 'एव' मित्यादि , एवमसुरकुमारोक्लमकारेण इह महाशरीरत्वाल्पशरीरत्वे स्वस्वावगाहनानुसारेणाव- ज्योतिष्कवैमानिकानामपि वक्तव्य , नवरं ते वेदनायामेवसये , माहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति , ' पं-| मध्यतव्याः-'दुविहा जोइसिया पन्नत्ता, तं जहा-मायिचिदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरड्या' इति प्रतीतं , । मिच्छद्दिट्ठी उववनगा य०' इत्यादि, अथ कस्मादेवमधीनवरमिह महाशरीरा अभीदणमाहारयन्ति अभीक्ष्णमु. यते यावता असुरकुमारबत् , 'असन्निभूया य' इतिचलुसन्तीति यदुच्यते तत्संख्यातवर्षायुपोऽपेक्ष्य तथैव किन्नाधीयते ?, उच्यते-तेप्वसज्ञिन उत्पादाभावात् , एदर्शनात् , नासंख्यातवर्षायुषः , तेपां प्रक्षेपाहारस्थ षष्ठ- तदपि कथमबसेयम् इति चेत् ? उच्यते-युक्तिवशात् ,तथाहि. स्योपरि प्रतिपादितत्वात् , अल्पशरीराणां त्वाहागेच्छास- असञ्झ्यायुष उत्कृष्टा स्थितिः पल्योपमासंख्ययभागः, योर्यत् कादाचिकत्वं तदपर्याप्तावस्थायां लोमाहारोच्छा- ज्योतिष्काणां च जघन्याऽपि स्थितिः पल्यापमसंख्ययभागः, सयारभवनेन पर्याप्तावस्थायां तद्यनेन चावसेयं, कर्मसूत्र वैमानिकाना पल्यापमं , ततोऽवसीयते नास्ति तध्वसझी , यत् पूर्वोत्पत्रानामल्पकर्मत्वम् इतरषांत महाकर्मत्वं तदा- तदभावाच्चापदर्शितप्रकारेणैवाध्यतव्या नासुरकुमारोपयुष्कादि तद्भवेऽवद्यकम्मापेक्ष,वर्णलेश्यासूत्रयोरपि यत्पूर्वी कारणति, तत्र माथिमिथ्यादृष्योऽल्पवेदना इतर महावेदनाः स्पन्नानां शुभवर्णाद्युक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां चाशुद्ध. शुभवेदनामाश्रित्यति । अथ चतुर्विंशतिदण्डकमेव सलेश्यवर्णादि बाल्यादवसेयं, लोक तथा दर्शनादिति । तथा 'स- पदविशेषितमाहारादिपदैनिरूपयति-'सलेसा | भंत ! नेजयासंजया' इति-देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपाताद
रइया' इत्यादि , यथा अनन्तरमौधिका-विशेषणरहितः निवृत्तत्वात् इतरस्मादनिवृत्तत्वात् । मनुष्यविषयं सूत्रमाह'
प्राक गम उक्तस्तथा संलश्य गमोऽपि निरयशषा वक्तव्यः 'मगुस्सा णं भंत ! सब्वे समाहारा' इत्यादि, सुगम यावद्वैमानिकः-बैमानिकविषयं सूत्रं , सलेश्यपदरूपवि. नवरम् 'थाहच्च प्राहाति अाहच्च ऊससंति आहच्च शेषणमन्तरेणान्यस्य विशेषणस्य क्वचिदप्यभायात् । अधुनीससंति' इति-महाशरीरा हि मनुष्या देवकुर्बादिमि- ना लेश्याभेदकृष्णादिविशपितान् पडदण्डकानाहारादिपथुनकास्ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण अट्ठम- दैर्विभणिपुराह- कराहलेसाणं भंते ! नरइया' इत्यादि , भत्तम्स आहारो" इति वचनात् उच्छासनिःश्वासावपि तेषां यथा औधिका-विशेषणरहिताः आहारशरीराच्छासकर्मशेषमनुध्यापेक्षया अतिसुखित्वात् कादाचित्को, अल्पशरी- चर्णलेश्यावेदनाक्रियापपाताख्यनवभिः पदैः प्राग् नैरयिका गस्त्वभीषणमल्पं चाहारयन्ति,बालानां तथादर्शनात् , संमू
उक्तास्तथा कृष्णलश्याविशपिता अपि वक्रव्याः, नवरं वेदछिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभवाच्च, उ- नापदे नैरयिका एवं वक्तव्याः ‘माइमिच्छादिट्ठी उबवन्नगा च्छासनिःश्वासावण्यल्पशरीराणामभीक्ष्णं प्रायो दुःखबहु- य अमायिसम्मादिट्ठी उबवन्नगा य' इति,न चौघिकसूत्र इव लत्वात् , 'सेसं जहा नेरइयाण' मिति-शष-कर्मवर्णादिविषयं 'सन्निभूया य' इति, कस्मादिति चेद् , उच्यते इहासंज्ञिनः सूत्रं यथा नैरयिकाणां तथाऽवसेयं , नवरमिह पृवोत्प- प्रथमपृथिव्यामेवोत्पद्यन्ते " असन्नी खलु पढम” मिति नानां शुद्धवर्णादित्वं तारुण्याद् भावनीय , क्रियासूत्र वि- वचनात् , प्रथमायां च पृथिव्यां न कृष्णलेश्या , यत्र शषमाह-नवरम् किरियाहिं मणुया तिविहा' इत्यादि, च पञ्चम्यादिषु पृथिवीपु कृष्णलेश्या न तत्रासंशितत्र सरागसंयता-अक्षीणानुपशान्तकपाया वीतराग- न इति , तत्र मायिनो मिथ्यादृणुयश्च महावदना भसंयता-उपशान्तकषायाः क्षीणकपायाश्च' अकिरिया' इति । वन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां त निर्वतवीतरागत्वेनारम्भादीनां क्रियाणामभावात् , 'एगा माया- यन्ति, प्रकृष्टायां च तस्यां महती वेदना इतरपु विपवत्तिया' इति-अप्रमत्तसंयतानामेव मायाप्रत्यया क्रिया रीति । असुरकुमारादयो यावत् व्यन्तरास्तायद्यथा औ'कजाइ'ति-क्रियते भवति , कदाचिदुट्टाहरक्षणप्रवृत्ता- घिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, मयरं मनुष्याणां जियाभिनाम् अती रणकपायत्वात् 'आरंभिया मायावत्तिया' इति विशपः , तमेव विशेषं दर्शयति-'तन्थ ग जत' इत्यादि प्रमत्तसंयनानां हि सर्वः प्रमत्तयोग प्रारम्भ इति भव- तत्र तपु सम्यगदृष्टयादिषु मध्ये ये त सम्यगरध्यम्त त्यारम्भिकी क्रिया अक्षीणकपायत्यारच मायाप्रत्ययति , त्रिविधा प्राप्ताः, तद्यथा-संयता असंगता यतासंयना• सेसं जहा नेरइयाण' मिति-शेपमायुर्विषयं सूत्रं यथा! श्च , 'जहा ओहिया मिति-पंतपो यथोषिकानामुक्त ननैरयिकागां तथा वक्तव्यं, तच्च सुगमत्वात् स्वयं भावनी- था कृष्णलेश्या पदविशेपितानामपि वक्तव्य , तद्यथा--संय
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सम
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सानां द्वे क्रिये - आरम्भिकी, मायाप्रत्यया च । कृष्णलेश्या हि प्रमत्तसंयतानां भवति नाप्रमत्तसंयतानां तेषां तु यथोक्करूपे एव द्वे क्रिये संयतासंयतानां तिस्रः-- श्रारभिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया च । श्रसंयतानां चतस्रः - आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया वेति । ज्योतिष्कवैमानिकास्तु आयातश्यासु न पृच्छ्यन्ते, किमुक्तं भवति ? - तद्विषयं सूत्रं न वक्तव्यं, तासां तेष्वभावात् यथा च कृष्णलेश्याविषयं सूत्रमुक्तं तथा नीललेश्याविषयमपि वक्तव्यं, नानात्वाभावाद । एतदेवाह - ' एवं जहा किएहलेसा विचारिया दानीले विचारयन्या' नीललेश्याविषयोऽपि एडक एवमेव केवलेश्यापदखाने मीललेश्या पदमुचरितव्यमिति भावः 'कापातलेस्सा' इत्यादि का पोललक्ष्या हि सूत्रतो नीललेश्येय नैरयिकेभ्य आरभ्य यावद्वयन्तरास्तावद्वक्तव्या, नवरं कापोतलेश्यायां नैरयिकावेदनासूत्रे दधीधिकारतथा न्या-नेरइया दुविहा पत्ता - सन्निभूया य असन्निभूया य' इत्येवं वक्या इति भावः असशिनामपि प्रथमपृथिव्यामुत्पादात् तत्र च कपालेश्याभावात् तेजोलेश्याविषयं सूत्रमाह-उलेस्सा से भंते! असुरकुमारा इत्यादि इह नारकतेजोवायु विकलेन्द्रियाणां तेजोलेश्या न संभवति ततः प्रथमत एवासुरकुमारविषयं सूत्रमुक्तम् श्रत एव तेजोवायुविकलेन्द्रियस्त्रमपि न वक्तव्यम्, असुरकुमारा अपि यथा प्रागोधत उक्तास्तथा वक्तव्याः नवरं वेदनापदे यथा ज्योतिष्कास्तथा वकव्याः, 'सन्निभूयाय असन्निभूया य' इति न वक्तव्याः, किं तु 'माइमिच्छदिट्टि उपपन्नगा अमाइसम्मदिट्टि उपयन्नगा इति वक्तव्या इति भावः असशिनां तेजोलेश्यायत्सूत्पादाभावात् पृथिव्यब्चनस्पतयः तिर्यक्पञ्चेन्द्रिया मनुव्याश्च यथा प्रागोधिकास्तथा वक्तव्याः नवरं मनुष्याः क्रियाभिर्ये संयतास्ते प्रमत्ताश्चाऽप्रमत्ताश्च भणनीयाः, उभयेषामपि तेजोलेश्यायाः संभयात् खरागा बीयरागा य नत्थि ति ' सरागसंजया वीश्ररागसंजया य' इति न वव्याइत्यर्थः वीतरागावतेजालेश्याया अभीतरागपदोपन्यासस्य तेजोलेश्यायाः सरागत्वाम्यभिया रात् सरागपदोपन्यासस्य वायोगात् वाणमंतरातेलेखाए जहा असुरकुमारा' इति तेऽपि मारमिष्यादि ट्टी उचचन्नगा अमाइसम्मादि उपपन्नगा व इत्येवं व नसन्निभूयाय असन्निभूया य' इति तेष्वपि तेजोलेश्यावत्सु मध्येऽसंशिनामुत्पादाभावात् एवं पम्हलेस विभागिय इति एतेजोलेश्याप्रकारे पद्मलेश्याऽपि वा क्रिमविशेषेण सर्वेष्वपि नया रंजेस अथिति-नवम्-अर्थ विशेष चां पद्मलेश्याऽस्ति तेष्वेव वक्लव्या न शेषेषु तत्र पञ्चेद्रियतिर मनुष्याणां वैमानिकानां चाति न शालामिति तद्विषयमेवैतस्याः सूत्रं, शुक्रलेश्याऽपि रायकव्या यथा पद्मलेश्या, साऽपि येषामस्ति तेषां वक्तव्या सर्वमपि सूत्रं तथैव यथौधिकानां गम उक्तः, पद्मलेश्या शुक्ललक्ष्या च येषामस्तिनादर्शन पहले सुलेखा इत्यादि सुगमम् प्रज्ञा० २७५३० ।
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( ४०८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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समंता समनुगते, रा० । सर्वशब्दार्थे, भ० १ ० ६ उ० । पदैरक्षरैश्च समे, स्था० ७ ठा० ३ उ० । पूर्णे, सू० प्र० १० पाहु० । निम्नोन्नतत्वाभावात् समम् । आकाशे, भ० २० श० २३० ॥ उत्त० । संहत्यर्थे, उत्त० १६ श्र० । श्राचा० । विषयसूचना
( १ ) शमस्य स्वरूपनिरूपणम् । ( २ ) अटकेन शमस्य गुणकथनम् । (२) नैरविकादीनां समाहारसमशरीरादिविषये पृच्छा । समइकमंत-समतिक्रामत्- त्रि० । नानाप्रदेशान् उल्लङ्घयति,
उत्त० १४ अ० | कल्प० । भ० ।
समझमा समतिमा स्त्री० शुष्कमडके, ० १ ० ३ प्रक० । समय समयिक - न० सम्बशब्दार्थ समित्युपसर्गः सम्यक अयः समयः सम्यग् - दया पूर्वकं जीवेषु प्रवर्त्तनं सोऽस्यास्तीति । अतोऽनेकस्वरात् ॥७|२६|| ति इकप्रत्ययः । सामायिके, आ० म० १ ० । विशे० ।
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"इस्तिनापुर सेन, परितः परिवेषितम्। श्रीयासिकाभ्रवलये नेयमालम् ॥ ८ ॥ नियति न हिलेऽथ दमतोऽभ्यधत तान् । भीरवः फेरव इव, शून्ये स्वैरबरा श्रहो ॥६॥ जीवितमन्तचेतनःसरत संगति । निकषोऽहं स एप पः ॥ १० ॥ निर्माता अपि न ते निर्जीवा इव निर्ययुः । दमदन्तो चलित्वाऽथ, निजं नगरमागमत् ॥ ११ ॥ अथान्यदा स निर्विद्य, कामभोगेऽग्रहीद् व्रतम् । निर्ममत्वेन विपयी हस्तिनापुरे ॥ १२ ॥ ती : प्रतिमा, सुमेरुरिव निश्चलः। राजवाटयागतैर्दृष्टः पाण्डवैः पञ्चभिर्नतः ॥ १३ ॥ तत्र दुर्योधनोऽन्वागाद्, ज्ञापितः केनचिश्च सः । स एष मदन्तोऽहमातुलिंङ्गन खोद्यतम् ॥ १४ ॥ सैन्येरेकैकसि सोऽश्नराशीकृतोऽश्वभिः । रामः कारुपमाद्वेषो राममुं व्यधात् ॥ १५ ॥ राशा विरूपं सोऽभाणि प्रस्तरास्तेऽपनिन्यिरे । मर्दितोऽभ्यवसैन, शमितामिति ॥ १६ ॥
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भक्षु पात्रेषु धार्त्तराष्ट्रे च हन्तरि । समो भाषाभयतस्य राजरुपरि द्वयोः ॥ १७ ॥
आ० क० १ अ० ।
समइविकप्प- समतिविकल्प - पुं० । निजवुद्धधुत्प्रेक्षणे, पञ्चा
१४ विव० ।
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समउच्च समतुल्य त्रि० सदशार्थे, स्था० २ ठा० ३ उ० । समंजस समय त्रि० समीचीन, आचा० १०० ३४० समंत - समंततस् - श्रव्य० । सर्वासु दिवित्यर्थे श्र०म० १ श्र० । जी० । सूत्र० । प्रश्न० । विपा० रा० । ज्ञा० । समंतभद्द - समन्तभद्र - पुं० । बुद्धे शाक्यसिंह, स्वानामख्यातेविदुषि, द्वा० ४ द्वा० । स्या० । समता-समन्तात् अध्य० सर्वत इत्यर्थे २० ७ ० ६४० । विनिश्चितार्थे, स्था० १० ठा० ३ ३० ।
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समट्ट
(४०१) समस
अभिधानराजेन्द्रः। समंस-समांश-पुं० । समच्छेदे, स०६७ सम० ।
समकव्यवच्छिद्यमानबन्धोदयाः । मुगपन्धोदयशालिनीषु चंदमंडले ण एगसद्विविभागविभाइए समंसे पसत्ते, एवं |
कर्मप्रकृतिषु पं० सं० ३ द्वार। सूरस्स वि । (सू०-६१+)
समगम्भसत्थ-समगर्भशास्त्र-न०। प्रशमगर्भशास्त्रे, पो० ४ 'चन्द्रमण्डले' चन्द्रविमानं रणमित्यलंकृतौ 'एगस
विष। दि' ति-योजनस्यैकष्टितमै गैर्विभाजितं-विभागैर्व्य
समग्ग-समग्र-त्रि० । सम्पूर्णे, तं० । समस्ते, वृ०१ उ०१ प्रचस्थापितं समांश-समविभाग प्रज्ञप्तं , न विषमांशं , यो
क० । परिपूर्णे, पञ्चा० १४ विव० । औ० । दशका प्रय० । दर्शका जनस्यैकषष्टिभागानां षट्पञ्चाशाद्भागप्रमाणत्वात्तस्याशि
प्रश्नः । सू०प्र० । समन्विते, उत्त०८ ०। निरवशेषे, अनु। टस्य च भागस्याविद्यमानत्वादिति, 'एवं सूरस्स वि' त्ति- समचउरंस-समचतुरस्र-न । सम-नाभेरुपर्यधश्च सकलपुएवं सूर्यस्यापि मण्डलं वाच्यम् , अपचत्वारिंशदेकप- पलक्षणापेतावयवतया तुल्यम्, अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्टिभागमात्र हि तत् न चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति
स्रयो यस्य तच्चतुरस्रं, समं च तच्चतुरस्रं च समचतुरस्रम् । समांशतेति । स०६१ सम० ।
तंतुल्यारोहपरिणाहे,सम्पूर्णाङ्गावयवस्वाङ्गलाएशतोच्छ्रये, सर्मसु-श्मश्रु-न। कूर्चरोमणि, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार ।। तत्यारोहपरिणाहत्वेन समत्वात पूर्णावयवस्वेन चतुरस्त्रसमकडग-समकटक-न० । स्वनामख्याते नगरे, उत्त० १३ स्वात्तस्य चतुरस्र सतमिति पर्यायौ । भ० १४ २०७उ०।
प्रज्ञा० । कर्म । जी । ०प्र० । अनु० । समाः-शरीरलक्षणोअ०॥
क्लममाणायिसंवादिन्यश्चतनोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्त्रसमकम्म-समकर्मन्-त्रि० । कर्मसमे, भ०१०२०।
म्, अत्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयास्तसमकरण-समकरण-पुं० । झोषे, "झोसि त्ति वा समकर
तश्च सर्वेऽप्यवयवाः शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाव्यभिचारियो सं ति वा एगट्टा" व्य०१ उ०।।
यस्य न तु न्यूनाधिकप्रमाणाः। तुल्यशरीरलक्षणोपेतावयवसमकरणी-समकरणी--स्त्री०। तुल्यरेखा दे, यत्र प्रदेशे ध
युक्तषु, स्था० ६ ठा० ३ उ०। रणकसहिता तुला ध्रियमाणा समा.भवति तत्र प्रदेश स- समचउरंससंठाण-समचरससंस्थान-न०। समाः-शास्त्रोक्तमतपरिक्षानार्थमेका रेखा भवतीत्यर्थः। ज्या० २ पाहु० ।
लक्षणविसंवादिन्यश्चतस्रोऽनयो यस्य तत्संस्थान पर्यकाससमकिरिय-समक्रिय-त्रि०ा समानक्रिये, भ० १ श०२ उ० ।
नोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् । संस्थानभेदे, कर्म० १ कर्म । (अत्र दराडकः 'सम' शब्दे, अस्मिन्नेव भाग विस्तरतो गतः।)। स० । चं० प्र०। उत्त। समक्ख-समच-त्रि० । सम्मुख, श्रा० म० ११०। श्राय। समचउरंससंठाणसंठिय-समचतुरस्रसंस्थानसंस्थित-त्रि० । स्था ।
समचतुरनं च तत्संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन समक्खाय--समाख्यात-पुं०। कथिते, संथा। प्रतिपादिते, संस्थिताः । समचतुरनसंस्थानवत्सु, जी०३ प्रति० ४ असमिक्खिय-समीक्षित-पुं० । समीहिते, पूर्व बुद्धया पर्यालो
धि रा० । सू० प्र०।। चिते, प्रश्न० २ संव० द्वार ।
समचकवालसंठिय-समचक्रवालसंस्थित-त्रि०। समचक्रवासमखुर-समसुर-त्रि । तुल्यशफे, : समखुरवालिहाणं' लं समचक्रवालरूपं संस्थितं संस्थानं यस्य स तथेति समखुरवालिधानौ तुल्यशफपुच्छौ। उपा० ७ १०।
विग्रहः । वृत्त, चं० प्र०४ पाहु० । समखेत-समक्षेत्र-म०। सम-स्थूलं न्यायमाथिस्य त्रिशम्मु
समच्छेय-समच्छेद-पुं० । भने, प्राचा०१श्रु०१ १०५ उ०। हुनेभोग्य क्षेत्रमाकाशलक्षणं येषां तानि। स्था०
समज--श्रमज-न० । शरीरजले, प्रव०४० द्वार। उ० । याप्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रस्तावत् । समजोइभूय-समज्योतिर्भूत-पुं० समः-तुल्यो ज्योतिषाऽग्नि क्षत्रप्रमाणं चन्द्रेण सद्द योग यान्ति गच्छन्ति तानि समक्ष- ना भूतो जातो यः स तथा । अग्निकल्पीभूते,विपा०१थु०६ त्राणि । चं० प्र०१० पाहु० । सू० प्र० । इह यावत्प्रमाणं अ०भ० । विश०।। बनमहोरात्रेण गम्यते सूर्येण तावत्प्रमाण चन्द्रण सह समज्जसि-समार्जिवत-क्रिया। गृहातवात, म० २८०० योगं यान्ति गच्छन्ति तानि समवेत्राणि । सममहोरात्रप्रमितं क्षेत्र ( ज्यो० ६ पाहु० ।) चन्द्रयोममधि
१ उ०। कृत्याऽस्ति येषां तानि समक्षेत्राणि । तथाविधष ज्योति- समजिणित्ता-समज्य-श्रव्य० । शुभकर्मोपचयं कृत्वेत्यर्थे. एकचारक्षेत्रपु, सू० प्र०१० पाहु।
सूत्र० १७०५ अ० १ उ० । समग-समक-न० । सार्द्धशब्दार्थे,व्य०२ उ० । युगपदेककाले, समज्जिय-समर्जित-त्रि० । रागद्वेषाभ्यामुपागते, उत्त० २६ दश०४ ० । प्रशा० । ज्ञा० । आ० म०। पुं० । वैताव्यपर्वत- श्र० । कनवरापनयने , भ० ११ श० १० उ०। षु विद्याधरमनुष्यषु, श्रा० चू०१०।
सम-समर्थ-त्रि०। प्रतिपत्तुं योग्य, सूत्र. २ श्रु० ४ अ० । समगवोच्छिजमाणबंधोदया-समकव्युन्छिद्यमानबन्धोदया- चं० प्र० । शा० । उपपन्न, जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० । स्त्री० समक-समकाल व्यवच्छिद्यमानो बन्धोदयो यासांताः। भ०। सङ्गत, कर्मपुदलानां सातिशये ज्ञानगम्ययात् । श्री।
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समहि अभिधानराजेन्द्रः।
समण समद्विइ-समस्थिति-त्रि । सममेवोत्पन्ने,भ० ३४ श० १
उ णादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः, सागरसमो गम्भीरत्वात
झानादिरत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच्च , नभस्तलसमण-शमन-पुं० । चिकित्सायाम् , श्राव. ४१०। रोग
समः सर्वत्र निरालम्बनत्वात् , तरुगणसमः सुखदुःखप्रशमने, नि० चू० २० उ० । औषधे , व्य० ३ उ०।।
योरदर्शितविकारत्वात् , भ्रमरसमोऽनियतवृत्तित्वात् , मु. समण-पुं० । समिति समतया शत्रुमित्रादिषु अणति
गसमः संसारभयोद्विग्नत्वात् , धरणिसमः सर्वखेदसप्रवर्तते इति समणः प्राकृततया सर्वत्र ' समण' त्ति । हिष्णुत्वात् , जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलास्था०४ ठा०४ उ० । अखत्यनेकार्थत्वाद्धातूनां प्रवर्तते भ्यामिव तदूर्ध्वं वृत्तः, रविसमः धर्मास्तिकायादिलोइति समणो निरुक्तिवशात् । सर्वत्र तुल्यप्रवृत्तिमति, भ० १ कमधिकृत्याविशेषेण प्रकाशकत्वात् , पवनसमश्च सर्वत्राप्रश०१ उ० । स्था० । सूत्र०ा अनु०।
तिबद्धत्वात् , स एवंभूतः श्रमणो भवतीति गाथार्थः । जह मम ण पिअं दुक्खं, जाणिवा एमेव सव्वजीवाणं ।।
यथोक्नगुणविशिष्टश्च श्रमणस्तदा भवति यदा शोभनं
मनो भवेदिति दर्शयतिन हणइ न हणावेइ अ, सममणई तेण सो समणो ॥३॥
सो समणो जइ सुमणो, भावेण जइ ण होइ पावमणो। यथा मम-स्वात्मनि हननादिजनितं दुःखं न प्रियमेवमेव सर्वजीवानां तन्नाभीष्टमिति ज्ञात्वा-चेतसि भावयि
सयणे अजसे य समो, समो प्रमाणाऽवमाणेसु ॥६॥ त्वा समस्तानपि जीवान हन्ति स्वयं, नाप्यन्यैर्घातयति , ततः श्रमणो यदि द्रव्यमन प्राश्रित्य सुमना भवेत् , मायशब्दात्-प्रतश्चान्यान्न समनुजानीत इत्यनेन प्रकारेण वमनश्चाश्रित्य यदि न भवति पापमनाः । सुमनस्त्वचि• सममपति' त्ति-सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासौ हान्येव श्रमणगुणत्वेन दर्शयति-स्वजने च--पुत्रादिके जसमण इति गाथार्थः । अनु० ।
ने च--सामान्ये समो--निर्विशेषः मानापमानयोश्च सम
इति गाथार्थः । अनु०। पश्चा० । दश । “यः समः सर्वभू समनस-पुं० । सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षण
तेषु , असेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति श्रद्धात्मा, श्रमणोऽतापरहितेन च वर्तते इति समनाः,तथा-समानं स्वजनपर-|
सौ प्रकीर्तितः"॥१॥ इति । दश०१०। जनादिषु तुल्यं मनो यस्य सः समनाः। सर्वत्र समभावेषु,
श्रमणनिक्षेपः-- स्था०४ ठा०४ उ० । तदेवं सर्वजीवेषु समत्वेन समणतीति समरण इत्येकः प
समणस्स उ निक्खेवो, चउक्को होइ आणुपुवीए। र्यायो दर्शितः, एवं सम मनोऽस्येति समना इत्यम्योऽपि
दब्वे सरीरभविओ, भावेण उ संजओ समणो ॥१५३॥ पर्यायो भवत्यवति दर्शयन्नाह
श्रमणस्य तु-तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु णत्थि य से कोइ वेसो,पिओ अ सव्वेसु चेव जीवेसु ।
श्रमणेनाधिकार इति विशषणार्थः, निक्षेपश्चतुर्विधो भवत्या
नुपूा नामाऽऽदिक्रमेण । नामस्थापने पूर्ववत् । द्रव्यश्रमणो एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽवि पज्जायो ॥४॥ द्विधा-आगमता , नोआगमतश्च । श्रागमती शातानुपयुक्तः, नास्ति च 'से' तस्य क्वचिद् द्वेष्यः प्रियो वा,सर्वेष्वपि जीवे. नोबागमतस्तु शशरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तोऽभिलापभेषु सममनस्त्वाद् ,अनेन भवति समं मनोऽस्येति निरुतविधि- देन द्रुमवदवसेयस्तं चानेनोपलक्षयति । 'दब्वे सरीरभविश्रो' ना समना इत्येषोऽपि पर्याय इति गाथार्थः । अनु। त्ति-भावश्रमणोऽपि द्विविध एव-श्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, श्रमण-पुं० । श्राम्यतीति श्रमणः । साधौ, स्था० ४ ठा० . नोबागमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः । तथा चाह-भाउ० । श्राम्यति-श्रममानयति पञ्चेन्द्रियाणि मनश्चेति श्रम- वतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः । णः। दर्श० ३ तत्त्व। पं०चू० । श्राम्यति-संसारविषय
अस्यैव स्वरूपमाह-- खिन्नो भवति तपस्यतीति वा नन्दादित्वात् कर्तर्य
जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सबजीवाणं । नद । श्रमणः। ध०२ अधि०। “कृत्यल्युटो बहुलमिति"
न हणइन हणावइ य,सममगई तेण सो समणो ॥१५४।। वचनात् कर्तरि ल्युट । दश०१ अ०। श्रम तपसि खेदे च । श्रा० चू०३ अ० । श्राव । श्राम्यतीति श्रमणः । विश० नत्थि य से कोइ वेसो, पिओ व सब्बेसु चव जीवेसु । उत्त० । स्था०। प्राचा। सूत्र०।
एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पञ्जाओ ॥ १५५ ।। तंदवं पूर्वोक्लपकारण सामायिकवतः साधोः स्वरूपं नि
तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ पावमणो। रूप्य प्रकारान्तरेणापि तन्निरूपणार्थमाह
सयणे य जणे य समो, समो उ माणावमाणेसु १५६॥ उरगगिरिजलणसागर-नहतलतरुगण समो अजो होइ।
उरगगिरि जलण सागर-णहयलतरुगणसमो य जो होइ। भमरमियधरणिजलरुह-रविपवणसमो असो समणो।५।
भमरमिगधरणिजलरुह-रविपवणसमो जो समणो१५७ स श्रमणो भवतीति सर्वत्र संबध्यते, यः कथंभूतो भव
(गाथाचतुष्टयं सुगमम् । ) तीत्याह-उरगः-सर्पस्तत्समः परकृताश्रयनिवासादित्यवं समशब्दाऽपि सर्वत्र योज्यते, तथा गिरिसमः परीषहाप
विसतिणिसवायवंजुल-कणियारुप्पलसमेण समणेणं । सर्गनिष्प्रकम्पत्वात् , ज्वलनसमस्तपस्तेजोमयत्वात् तृ- भमरुंदुरुनडकुकुड-अदागसमेण होयध्वं ।। १।। (प्र०)
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समण अभिधानराजेन्द्रः।
समण श्रमणेन विषसमेन भवितव्यं भावतः सर्वरसानुपातित्व- | थ सक्क तावस-गेरुय आजीव पंचहा समणा।' इति वचनात् मधिकृत्य तथा तिनिशसमेन मानपरित्यागतो नम्रण घात- पञ्चपाखण्डान्याश्रिते साधौ, अनु०। सूत्र०। जं० । पिं० । समेनेति पूर्ववत् । वञ्जुलो-चेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषा- प्रश्न। भिभूतजीपानां तदपनयनेन । एवं हि श्रूयते-किल वेतस
___इदानीं 'समण 'त्ति चतुर्नवतं द्वारमाहमवाप्य निर्विषा भवन्ति सर्पा इति । कर्णिकारसमेनेति
निग्गंथ सक तावस, गेरुय माजीव पंचहा सगणा ॥ तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धापेक्षया च निर्गन्धेनति । उत्पलसरशन प्रकृतिधघलतथा सुगन्धित्वेन च, भ्रमरसमेनेति तम्मि य निग्गंथा ते,जे जिणसासणभवा मुणिणो ॥३८॥ पूर्ववत् । उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया, नटसमेन सक्का य सुगयसिस्सा, जे जमिला ते उ तावसा गीया । तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणन, कुकुटसमेन संविभाग
जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिणो गेरुया ते उ ॥ ३६॥ शीलतया, स हि किल प्राप्तमाहारं पादन विक्षिप्यान्यैः सह
जे गोसालगमयमणु-सरंति भन्नति ते उ आजीचा ॥ भुक्ने इति, आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणाघनुवृत्तिप्रतिबिम्बभावेन च । उक्नं च-" तरुणम्मि होइ तरुणो, थेरो समणत्तणेण भुवणे, पंच वि पत्ता पसिद्धिमिमे ॥४॥ थेरहिं डहरए डहरो । अदाओ विव रूवं, अणुयत्तइ जस्स निर्ग्रन्थाः शाक्यास्तापसा गेरुक्या आजीवाश्च पञ्चधा जं सील "॥१॥ एवंभूतेन श्रमणेन भवितव्यमिति गा- पञ्चभेदाः श्रमणा भवन्ति 'तम्मि' त्ति प्राकृतत्वादकबथार्थः।
चनं, ततस्तेषु निर्ग्रन्थानां मध्ये निर्ग्रन्थास्ते भरायन्ते ये इस किल गाथा भिन्नकर्तृकी अतः पवनाऽऽदिषु न पुन
जिनशासनभवाः-प्रतिपन्नपारमेश्वरप्रवचना मुनयः-सारुक्तदोष इति । सांप्रतं तत्त्वभेदपर्यायाख्येति न्यायाच्छ
धवः, तथा शाक्याः सुगतशिष्या बौद्धा इत्यर्थः, ये च मणस्यैव पर्यायशब्दानभिधित्सुराह
जटिला-जटाधारिणो वनवासिपाखण्डिनस्ते तापसा गी
ता:-कथिताः, ये धातुरक्तवस्त्रास्त्रिदण्डिनस्ते तु गेरुकाःपब्बइय अणगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू ।।
परिवाजका इत्यर्थः, तथा ये गोशालकमतमनुसरन्ति परिवाइए य समणे, निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ १५८ ॥
भण्यन्ते ते तु आजीवका इति । एते पञ्चापि श्रमणत्वेन प्रकर्षण अजितो-गतः प्रव्रजितः । प्रारम्भपरिग्रहादिति ग- भुवने प्रशस्ति प्राप्ता इति । प्रव०६४ द्वार । दश। श्राचा० । म्यते । अगारं-गृहं तदस्यास्तीत्यगारो-गृहीन अगारोऽनगारः। तपस्विनि, सूत्र० १ श्रु०२ अ० । स्था० । अनु । द्रव्यभावगृहरहित इत्यर्थः । पाखण्ड-वतं तदस्यास्तीति साम्प्रतं श्रमणशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुद्भावयन्नाहपाखण्डी । उक्त च-"पाखण्डं व्रतमित्याहु-स्तद्यस्यास्त्यमलं
एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अभुवि । स पाखण्डी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः ॥ २॥" चरतीति चरकस्तप इति गम्यते । तपोऽस्यास्तीति ता
तिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च लोहं च प्रसः । भिक्षणशीला भिक्षुः , भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति पिज्जं च दोसं च इचेव । जो जो आदाणं अप्पणो भिक्षुः । परि समन्तात्पापवर्जनेन व्रजति-गच्छतीति परि
पदोसहेऊ ततो तो आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाजकः । चः समुच्चये । श्रमणः पूर्ववत् । निर्गतो ग्रन्थानिर्ग्रन्थः बाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहित इत्यर्थः । समेकीभावे
वाया सिया दंते दविए वोसट्ठकाए समणे त्ति बच्चे ।।२।। नाहिंसादिषु यतः-प्रयत्नवान् संयतः । मुक्तो बाह्या- अत्राप्यनन्तरोने विरत्यादिके गुणसमूहे वर्तमानश्रमणो भ्यन्तरेण ग्रन्थेनैवेति गाथार्थः ।
ऽपि वाच्यः। एतद्गुणयुक्नेनापि भाव्यमित्याह-निश्चयेनाधितिन्नेताई दविए, मुणी य खते य दंतविरए य ।
क्येन वा थितो निश्रितः, न निश्रितोऽनिश्रितः क्वचिच्छरीरा.
दावप्यप्रतिवद्धस्तथा न विद्यते निदानमस्येत्यनिदानो-निलूहे तीरद्वे वि य, हवंति समणस्स नामाई ॥ १५६ ॥
राकासोऽशेषकर्मक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत, तथा दीयतेतीर्णवांस्तीर्णः संसारमिति गम्यते । त्रायत इति त्रा- स्वीक्रियतेऽटप्रकारं येन तदादानं कपायाः परिग्रहः साता धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्य इति भावः , रागा- वद्यानुष्ठामं वा, तथाऽतिपातनमतिपातःप्राणातिपात इत्यदिभावरहितत्वाद् । द्रव्यम्-द्रवति गच्छति तांस्तान् शा- | र्थः, तं च प्राणातिपातं ज्ञपरिक्षया शात्वा प्रत्याख्यानपरिनादिप्रकारानिति द्रव्यम् । मुनिः पूर्ववत् । चः समुच्चये । । क्षया परिहरेदेवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया । तथा मृषावाक्षाम्यतीति क्षान्तः-क्रोधविजयी एवमिन्द्रियादिदमना- दोऽलीकवादस्तं च, तथा 'वहिद्धं ' ति-मैथुनपरिग्रही तो द्दान्तः, विरतः-प्राणातिपातादिनिवृत्तः, स्नेहपरित्यागाद च सम्यक परिज्ञाय परिहरेत् । उक्ना मूलगुणाः, उत्तरगुणारूक्षः, तीरेणार्थोऽस्योति तीरार्थी संसारस्येति गम्यते । ती- नधिकृत्याह क्रोधम्-अप्रीतिलक्षणं मानं-स्तम्भात्मकं मायां रस्था वा सम्यक्त्वादिप्राप्तः संसारपरिमाणात् एतानि च परवञ्चनात्मिका लोभ-मूस्विभाव तथा प्रेम-अभिष्वङ्गलभवन्ति श्रमणस्य नामानि-अभिधानानीति गाथार्थः । क्षण तथा द्वष-स्वपरात्मनोर्बाधारूपमित्यादिकं संसारावतर. निरूपितः श्रवणशब्दः। दश० २० ।स० ।प्रा० णमार्ग मोक्षाध्वनोऽपध्वंसकं सम्यक् परिक्षाय परिहरदिति । म।नं। उत्त०। सूत्र। अनु० । स्था०रा०जं०। द- पवमन्यस्मादपि यतो यतःकर्मोपादानाद्-इहामुत्र चानर्थहश। सर्वत्राऽरक्तद्विष्टचित्ते, उत्त०१२ अास्था०आचा। तोरात्मनोऽपायं पश्यति प्रद्वषहेतूंश्च ततस्ततः प्राणातिपाता सर्वत्र वासीचन्दन कल्पे, सूत्र०१ श्रु०१६ अ० । 'निग्ग- दिकादनर्थदण्डादानात् पूर्वमेव-अनागतमेवात्महितमिच्छ
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( ४१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
समण
न प्रतिविरो भवेत्सदायक दादा सावधानुष्ठानान्मुरिति कुर्यात् यचयंभूत दान्तः शुद्धो द्रव्यभूतो निष्प्रतिकर्मतया व्युत्सृष्टकायः स श्रमणो वाच्यः । सूत्र० १ ० १६ अ० । ' अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमन्यता' इत्येतच्मणलक्षणम् ०२० ६ अ० । तीर्थिके, सूत्र० २ ० ५ अ० । यतौ, सूत्र० २ श्रु० १ अ० । अनु॰ । स्था० । आचाद । तपस्युयुक्त, निश्चलमनसि श्राचा० १ ० ६ ० २ ० सूत्र० । द्वादशप्रकार तपोनिष्टत०२५००० ० ० तप श्रीसमा लिङ्गिते, स० । महातपखिनि, झौ० । परमसमाध्युपेते, आश्म० १ [अ० । परिब्राजकविशेषे, सूत्र० १ ० १ ० २ ॐ० । त्रिद१० १ ० ३३० मुक्त्यर्थे विद्यमाने साधौ, सूत्र० १ ० ४ ० १ ३० । प्रब्रजिते सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० । श्रा० म० । कृतमहाव्रताङ्गीकारे, तपः संसारखेदरूपेण 'धम्' तपसोरितियचैन (धातु) साधौ, अनु० । सूत्र० । उत्त० । द्वा० । पञ्चा० । ग० । जीव । मुनौ उत्त० १ ० । (पञ्चभिः स्थानैः श्रमणो महानिर्जरो महानभवतीति महाणिज्जर शब्द मागे पृठे गतम् ) तथाविधयलोकसम्मत्या गृहस्थपर्यायेऽपि लब्धश्रमणाभिधाने वीरस्वामिनि, अने० १ अधि० ॥ भ० | जं० । विशे० । कल्प० । “ समणे भीमभयभेरवं ओरालं अवेलयं परीसह सहइति कट्टु देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे ।" आचा० २ श्रु० ३ चू० । श्रमणनिक्षेपः- द्रव्यस मणा निन्हगदि भावसमा जे सव्वविरपसु अहिंसादिसु पतन्ति । प्रा० ० ४ ० | स्वप्नपाठका इक बारणश्रमणादयः स्वप्नफलं कथयन्ति नचेति ? प्रश्नः । अत्रोत्तरम् यथा स्वमपाठकाः स्वप्नफलं कथयन्ति तथा चारणश्रमला अपि, यथा--" मज्झिमउवरिमगेवि - जगाउ तो चवित्र दिसेल अपरिश्रम तो सासयह सुमि ||३५|| एत्थंतरस्मि नाखी, चारणसमा समागी तत्थ । विहिणा पुट्ठा रराणा, सुमिला फलं कहइ एवं ॥ ३६ ॥” इति ॥ २४ ॥ सेन० |
"
-
अव पुं० [विष्णु प्र० १० पाहु० स्रमनस् -- पुं० | मनःपर्यायज्ञानसहिते, कर्म० ४ कर्म० । भावसहिते, प्रश्न० ४ सेव० द्वार ।
समणग - श्रमणक- पुं० । श्रमण एव श्रमणकः। साधौ, औ०| समयमपइ श्रमणकपति-पुं० साधुसंघाधिपती श्री० समयागुण-श्रमगगुण-पुं० अमानां गुणाः भ्रमगुणाः । मूलगुणोत्तरगुणेषु तत्र पञ्च महाव्रतानि मूलगुणाः उद्गमोत्पादनेषणादयः अष्टादश शीलाङ्गसहस्राणि च उत्तरगुणाः । नि० चू० १६ उ० । समणगुणकजोगि भ्रमण गुणमुक्रयोगिन् पु० भ्रमणानां गुणा मूलांतरगुणरूपातैर्मुकाः परित्यास्तहिता ये योगा मनोचाकाव्यापारास्ते यस्य सन्सि श्रममुयोगी संयमले व्य०२० समगुणविउ-श्रमगुणविद् - पुं० । श्रमणगुणान् बेत्ती
--
ति विज्ञाने श्रमणाविद्यतगुणासरि नि० खू० १६ उ० ।
समणघाय-भ्रमणघात - पुं० । साधुमारके, “एस समणघाए" श्रमणघातको (गोशालकः) अमरायास्तेजोलेश्यालयघातदानात् । भ० १५ श० ।
समणच्छा - श्रमणच्छन्न- पुं० । श्रमत्येषधारिति श्रश्रमणे | नि० चु० १६ उ० ।
समय जोगमुकपुर-अमरा योगमुपुर-पुं० परियव्यापारे , वृ० १ ३०२ प्रक० ।
समणत - श्रमणत्व - न० । साधुत्वे, उत्त० १६ श्र० । समयधम्म-श्रमधर्म-यसीति धमाः साधयस्तेषां धर्मः क्षान्त्यादिलक्षणः श्रमधर्मः । पा० । आव० । ६० । साधुधमें, श्रा० सू० ४ ० । घ० ।
दस समयधम्मे पयतं जहा खंती १ मुनी २ अ जये ३ मह ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संयमे ७ वे ८ चियाए
मचेरवासे १० । ( ० १४ )
स० १० सम० । स्था० । नं० । पञ्चा० । ल० । दश० भ० । ति० | सेथा | प्रश्न० । ( ' समण ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेव पञ्चविधः श्रमणधर्म उक्तः । ) समखपज्जुवासणा--श्रमणपर्युपासना - स्त्री० । श्रमण (साधु ) शुश्रूषायाम् भ० ।
रूपं ते! समर्थ वा माहणं वा पञ्जुवासमासस्स किं फला पज्जुवासखा है, गोवमा समग्रफला से भंते! समग्र किं फले १, नागाफले, से अंत ना किं फले ? विष्पाणफले, से भंते ! विन्नाणे किंफले १, पच्चक्खाफले, से गं भंते ! पच्चक्खाणे किंफले ?, संजमफले से से मंते मंजने किंफले ? अयफले, एवं असह तत्रफले, तवे वोदाफले, बोदा अकिरियाफले से गं भंते ! अकिरिया किंफला १, सिद्धिपञवसाणफला पएत्ता, गोयमा !, गाहा - "सवणे गाणे य विमा पच्चक्खाणे य संजमे । अणहए तत्रे चेत्र, वोदाणे किरिया सिद्धी " ।। १ ।। ( सू० ११२ )
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,
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3
तहारूव मित्यादि तथारूपम् - उचितस्वभावं कञ्चन पुरुष भ्रमणं वा तपायुक्तम् उपलक्षयत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः माहनं वा स्वयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति माति वादिनम् उपलक्षयत्वादेव गु मिति भावः, वाशब्दौ समुच्चये, अथवा - श्रमणः -साधुः मानः - श्रावकः 'सवणफले'त्ति - सिद्धान्तश्रवणफला, 'फनेस धनज्ञानफलम् अवसादि 'बिल्हाराफले किशन नाज देवीपादेत्रिकारिविज्ञानमुत्पयत एप परफ ति-विनिवृत्तिफलम विनिहिपावति 'संजम फले' त्ति - कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो भवत्येव, 'श्र सरफले चि-अनाअपफलः संयमवान् किल नये कर्म
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समणचउजु०
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(४१३) समण पज्जु० अभिधानराजेन्द्रः।
समणुल नोपादत्ते, 'तवफले 'ति-अनाश्रवो हि लघुकर्मत्वात्तप
णम्मि असुद्धं, दोगह वि गेराहतदितयाण हियं । आउस्यतीति, 'चोदाणफले 'त्ति-व्यवदानं कर्मनिर्जरणं तपसा |
रदिटुंतणं, तं चैव हियं असंथरण ॥ १ ॥” इति । अहि पुरातनं कर्म निर्जरयति, 'अकिरियाफले' त्ति-योग- न्ये त्वाहुः-प्रकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदानिरोधफलं, कर्म निर्जरातो हि योगनिरोधं कुरुते, 'सि
ने परिणामवशाद्वहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं द्धिगज्जवसाणफले 'ति-सिद्धिलक्षणं पर्यवसानफलं--स
कम्मति, निर्विशषणत्वात् सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणकलफलपर्यन्तचर्ति फलं यस्यां सा तथा । ' गाह ' त्ति--
स्वात् । श्राह च-"परमरहस्समिसीणं, समत्सगणिपिङगसंग्रहगाथा, पतल्लक्षणं चैतद्-" विषमाक्षरपादं वा" इत्यादि झरियसाराणं । परिणामियं पमाणं, निच्छयमवलंबमाछन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति । भ०२ श०५ उ० ।
णाणं" ॥१॥ यच्चोच्यत-'संथरणम्मि असुद्ध' मित्यासमणभद-श्रमणभद्र-पुं० । चम्पायां जितशत्रुनृपस्य पुत्रे दिना शुजं योरपि दाहगृहीत्रोरहितायेति तग्राहकयुवराज, उत्त०२०। (दसमसगपरि(री)सह' शब्दे चतुर्थ- स्य व्यवहारतः संयमविराधनात् , दायकस्य च लुब्धकभागे २४३६ पृष्ठे कथा।)
रातभाधितत्वेनाव्युत्पन्नत्येन वा ददतः शुभाल्पायुष्क
तानिमित्तस्वात् , शुभमपि चायुग्ल्पमहितं विषाया, समणभूय-श्रमणभूत-पुं० । श्रमणः-साधुः स प यः सः
शुभाऽस्पायुष्कतानिमित्तत्वं चामासुकादिवानस्याल्पायुषकश्रमणभूतो भूतशयस्योपमानर्थत्वाच्छमणो निर्ग्रन्थस्त
ताफलप्रतिपादकसूत्र प्राक चर्चितं, यत्पुनरिह तत्वं तचस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमणभूतः । साधुकरणे, स. ११ स्केलिगम्यमिति । तृतीयसूत्रे 'अस्संजयअधिरये' स्यासम० एकादशीमुपासकप्रतिमा प्रतिपत्र प्रायके, प्रश्न०५ दिनाऽगुणयान् पात्रधिशेष उक्तः । ' फासुएण था अफासुसंव०द्वार । ध०। उपा०। भा०म०।
पण घा' इत्यादिना तु प्रासुकाउमासुकादेनस्य पापकर्मसमणमाहणपडिलाभ-श्रमणब्राह्मणप्रतिलाभ-पुं० । श्रमणे- फलता निर्जराया अभावश्चोक्ला, असंयमोपएम्भस्योभभ्या ब्राह्मणभ्यश्च प्रतिलाभने, भ०७ श०१ उ०। (तत्फलम्
यत्रापि तुल्यत्वात् , यश्च प्रासुकादी जीवघाताभावेन भ'आउ' शब्द द्वितीयभागे १३ पृछे उक्तम् ।)
मासुकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेषः सोऽत्र न वि
बक्षितः, पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव च विवक्षिसमणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा
तत्वादिति , सूत्रत्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यहानं तफासुएसणिणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभे- चिन्तितम् , यत्पुनस्नुकम्पादानमौचित्यवानं था तम्न माणस्स किं कति ?, गोयमा! एगंतसो निअरा काइ, चिन्तितम् , निर्जरायास्तत्रानपेक्षणीयत्वाद् , अनुकम्पौचिनत्थिय से पावे कम्मे कञ्जति । समणोबासगस्स णं
त्ययोरेय चापेक्षणीयत्वादिति । उनञ्च-" मोक्खत्थं जं
दाणं, तं पर एसो विही समक्खाओ। अणुकंपादाणं पुण, भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणे
जिणेहि न कयाइ पडिसिद्धं" ॥१॥ इति । भ०८ श०६ उ०। सणिजेणं असणपाण. जाय पडिलाभेमाणस्स किं
समणलिंग-श्रमणलिङ्ग-न० । साधुलिंग, श्राव० ३ ० । कजइ?, गोयमा! बहुतरिया से निजरा कन्जइ अप्पत- |
नजरा कजइ अप्पत- समणवरगंधहत्थि-श्रमणवरगन्धहस्तिन-न० । श्रमणगजकराए से पावे कम्मे कजइ। समणोवासगस्स णं भंते ! लभानां यूथाधिपत्यपदमुद्रहमाने, वृ० १ उ०२ प्रक०। तहारूव अस्सजयावरयपाडहयपच्चक्खायपावकम्म फा- समणविंदपरिवद्धय-श्रमणवृन्दपरिवर्द्धक-पुं० । श्रमणा एव सुरण वा अफासुरण वा एसणिण वा अणेस- श्रमणकास्तेषां वृन्दस्य परिवर्द्धको-वृद्धिकारी श्रमणवृणिज्जेण वा असणपाण० जाय किं कजइ ?, गोयमा!
न्दपरिवर्द्धकः । श्रमणसमुदायवर्द्धके, औ०। एगंतसो से पावे कम्मे कजइ नत्थि से काइ निजरा |
समणव्यय-श्रमणबत-न० । साधुव्रते, सूत्र०१ श्रु०७०।
समणसंघ-श्रमणसंघ-पुं० । साधुसंघे, स्था० ४ ठा०४ उ० । कजइ । (सू० ३३२)
समणसिजा-श्रमणशय्या-स्त्री०साधुवसतौ,ध०२ अधिः । 'समणे' त्यादि, ' किं कज्जा'त्ति-किंफलं भवतीत्यर्थः,
समणसीह--श्रमणसिंह-पुं० । मुनिपुंगवे,प्रश्न०५ संव० द्वार। 'एगंतसो' त्ति-एकान्तेन तस्य श्रमणोपासकस्य । 'नथि य से' ति-नास्ति चैतद् यत् ‘से' तस्य पापं कर्म कि
समणी-श्रमणी-स्त्री० तिन्याम् ,प्रव०१ द्वार। नि००। यते-भवति अप्रासुकदान इवेति, 'बहुतरिय 'त्ति-पाप
आर्यिकायां संयत्याम् , जी० १ प्रति। "ईदूतोईस्वः" कर्मापेक्षया, 'अप्पतराए' त्ति-अल्पतरं निर्जरापेक्षया, | ॥८।३ । ४२ ॥ आमन्त्रणे सोपरेऽनेनात्रेकारस्य इस्वः । हे अयमर्थः-गुणवत पात्राय अप्रासुकादिद्रव्यदान चारित्र
समरिण ॥ प्रा०३ पाद। कायोपष्टम्भा जीवघातो व्यवहारतस्तच्चारित्रबाधा च भव- समणुजाणणा-समनुज्ञापना-स्त्री०। अनुमोदने,पा० । “समति, ततश्च-चारित्रकायोपष्टम्भानिर्जरा जीवघानादेश्च पापं गुजाणमाणा" प्राचा०१ श्रु०८ अ०१ उ० । कर्म, तत्र च स्वहतुसामर्थ्यात्पापापक्षया बहुतरा निर्ज- समणु-समनोज्ञ-त्रि०। एकसामाचारीप्रतिबद्धे, औला श्रारा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति । इह च विवेच- चाव्य | सांभागि.नि० चू०५ उ०। आचा००।चाका मन्यन्ते , असंस्तरणादिकारणत एवापासुकादिदाने रित्रवात संविग्न, आचा० श्रु. ८०२ उ० । अनुमोदिते, बहुतरा निर्जरा भवति नाकारण, यत उक्तम्-" संथर- पा० । आचा० ।
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(४१४) समणुराण अभिधानराजेन्द्रः।
समपोवासग स्वमनोज्ञ-पुं०। स्वमनोशमात्मविशेषशब्दादिविषयं तत्सा- समाबद्ध-समनुबद्ध-न० अनवच्छिन्ने, ओघका प्रश्न | धनवस्तुनि।
समणुबद्धवेरि--समनुबद्धवैरिन्--त्रि० । अव्यवच्छिन्नरिभाव, समनुज्ञ-पुं० । संविज्ञविहारिभाविते, प्राचा०१ श्रु०८ अ०
भ० १३ श०६ उ०। १उ०। स्था
समणुमणिय-समनुमान्य-अध्यासंभाष्येत्यर्थे, मि०चू०१०) समणुएणया-समनुज्ञता--स्त्री०परस्परोपसंपदि,व्य०४ उ०।
समणुवासणा--समनुवासना-स्त्री०। विधाने, प्राचा०१७० समणुगणा-समनुज्ञा--स्त्री० । समिति संगता औत्सर्गिकगु
२.१ उ० । सम्यग्विधाने, प्राचा०१ श्रु० २१०४ उ०। णयुक्तत्वेनोचिता प्राचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा । प्रा- ममा
गावतया अनुमा समनुका। प्रासमणुसह-समनुसृष्ट-त्रि०ा दत्ते, प्राचा०२ श्रु०१चू०१० चार्यादित्वेन समनुज्ञापने, स्था० ३ ठा० ३ उ०।
१०उ०। तिविधा समणुन्ना परमत्ता, तं जहा-पायरियत्साते, समणसविहिय-समनसविहित-त्रि०। शोभन विहितमनुष्ठान उवज्झायत्ताते, गणित्ताते । (सू०१७४+)
येषां ते सुविहिताः, श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहि'अणुन 'त्ति-अनुशानमनुज्ञा-अधिकारदानम् ,आचर्यते
ताः। श्रमणशब्देन सह विशेषणसमासः । शोभनानुष्ठानमर्यादासितया सेव्यत इत्याचार्यः , प्राचारे वा पञ्चप्रकारे
यत्सु साधुषु, व्य०१ उ० दश। साधुरित्याचार्यः, श्राह च-"पंचविहं आयारं, आयस-| समणोवासग-श्रमणोपासक-पुं०। श्रमणानुपास्ते सेवत इति माणा तहा पयासंता । अायारं वंसेन्ता, प्रायरिया तेमा धु- श्रमणोपासकः। दशा०१०। देशघिरतेन सह यः प्रम
चंति ॥१॥" तथा "सुतस्थायिऊ लक्खण-जुसो गाछस्स णोपासनमहिम्ना प्रतिदिनप्रवर्द्धमानसंयेगो यावजीर्ष सूमेढिभूओ य । गणतत्तिविष्पमुको, अत्थं घाए पायरि- चमबादरादिभेदपरिज्ञानवान् भवति । भ०८श०५ उ० सूत्रा श्रो ॥२॥" तदायस्तत्ता तया, उत्तरत्र गणाचार्यग्रहणा- प्राय । श्रा० । स्था० श्रावक, स्था। बनुयोगाचार्यतयेत्यर्थः, तथा उपेत्याधीयतेऽस्मादित्युपा
चत्तारि समणोवासगा पएणत्ता,तं जहा-रायणिए समध्यायः, आह च-"सम्मत्तनाणदसण-जुत्तो सुत्तस्थतदुभयपिरिन्न । शायरियाणजोगो सनं वापर अवसाधा " णावासए महाकम्म तहव ४ । ( सू० ३२०) इति । तद्भाष उपाध्यायता तया, तथा गणः-साधुसमु- श्रमणोपासकश्रमणोपासिकासूत्राणि 'चत्तारि गम'तिदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ गणी-गणाचा- त्रिष्यपि सूत्रषु चत्वार पालापका भवन्तीति । स्था०४ यस्तद्भावस्तत्ता तया, गणनायकतयेति भाव इति, तथा
ठा० ३ उ । (शेषपदानां व्याख्या स्वस्वशब्दे । ) समिति-सङ्गता औत्सर्गिकगुणयुक्तरवेनोचिता श्राचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहि-अनुयोगाचार्यस्यौ
चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अम्मापिइससर्गिकगुणा:-" तम्हा चयसंपन्ना कालोचियगहियसयल
माणे भाइसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे । (सू०३२१) सुत्तथा । अणुजोगाणुमाए, जोगा भणिया जिणिदेहिं ॥१॥ 'अम्मापिासमाणे' ति-मातापितसमानः, उपचारं विनाबह पर ( रहा) मोसावाश्रो, पययणखिसा य होइ लोय- साधुषु एकान्तनैव वत्सलत्यात्, भ्रातृसमानः अल्पतरप्रेमम्मि । सेसाण वि गुणहाणी, तित्थुच्छेश्रो य भावेणं त्यासस्वविचारादौ निष्ठुरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजने ॥२॥" इति, गणाचार्योऽप्यौत्सर्गिक एवम्-"सुमत्थे नि- स्वत्यन्त वत्सलत्याच्चेति मित्रसमानः सोपचारवचनादिना म्माओ, पियवधम्माऽणुवत्तणाकुसलो । जाईकुलसंपनी, प्रीतिक्षतेः, तत्क्षतौ चापधुपेक्षकत्वादिति समानः-साधारणः गंभीरो लद्धिमंतोय ॥१॥ संगहुघरगहनिरओ, कयकरणी पतिरस्याः सा सपत्नी, यथा सा सपत्न्या इायशादपरापवयणाणुरागीय ॥ एवंविहो उ भरिणश्रा , गणसामी धान् चीक्षते एवं यः साधुषु दृषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी व जिणवरिंदेहि ॥२॥" अथवविधगुणाभावे अनुशाया अप्य- स सपत्नीसमानोऽभिधीयत इति । स्था० ४ ठा०३ उ०। भावात् कथमन्या समनुशा भविष्यतीति ?, अनोच्यतेउनगुणानां मध्यात् अन्यतमगुणाभावेऽपि कारणविशेषात्
चत्तारि समणोवासगा पामत्ता,तं जहा-अदागसमाणे पडासम्भवत्येवासी, कथमन्यथा विधीयते-“जे या वि मेदि
गसमाणे खाणुसमाणे खरकंटकसमाणे । (सू०३२१४) ति गुरुं घिरत्ता, डहर इम अप्पसुए त्ति नचा । ही- 'श्रद्दाग'त्ति-श्रादर्शसमानो यो हि साधुभिः प्रशाप्यलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करोति श्रासायण ते गु- मानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान् भावान् यथावत्प्रतिपद्यत रूण ॥२॥” इति । अतः केषाञ्चित् गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा , सन्निहितार्थानादर्शकवत् स आदर्शसमानः, यस्यानवस्थिसमग्रगुणभाव तु समनुज्ञेति स्थितम् । अथवा-खस्य तो बोधो विचित्रदशना वायुना सर्वतोऽपहियमाणत्वात् मनोशा:-समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनोज्ञाः । पताकय स पताकासमान इति, यस्तु कुतोऽपि कदासह वा मनोहानादिभिरिति समनोशाः-एकसाम्भाग- ग्रहान्न गीतार्थदशनया चाल्यते सोऽनमनस्वभावबाधकाः साधवः, कथं त्रिविधा इत्याह-'श्राचार्यतय' त्यादि त्वनाप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति, यस्तु प्रज्ञाप्यमानी भिक्षुक्षुल्लकादिभेदाः सन्तोऽपि न विवक्षिताः, त्रिस्थान- न केवलं स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापकं दुर्वचनकाधिकारादिति । स्था० ३ ठा०३ उ०। मनोशा हारतया कराटकैविध्यति स खरकराटकसमानः, खरा-निरन्तरा लम्पटे, वृ० १ उ०२ प्रक० ।
। निष्ठुरा वा कण्टाः-कण्टका यस्मिस्तत् खरकण्ट ब
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समणोवासग अभिधानराजेन्द्रः।
समतलपडया ब्बूलादिडालं खरणमिति लोके यदुच्यते तच्च बिल- | स्संति । मायपियसमाणा वि एरिसा चेव परं विसेसोग्नं चीवरं न केवलमविनाशितं न मुश्चति अपि तु त-जे मायापियसमाणा ते गणवासियाणं पायरियाणं पाबिमोचकं पुरुषादिकं हस्तादिषु कण्टकैविध्यतीति । अथ
सित्ता णिचसो अकोसिस्संति, पुत्तमिव असणपाणाइविबा-खरएटयति-पवन्तं करोतीति यत्तत्खरएटम्-अशु. च्यादि तत्समानो यो हि कुयोधापनयनप्रवृत्तं संसर्ग
हीए पोसणमवि करिस्संति परं णो णियकुलकमाऽऽगयं मात्रादेव दूषणयन्तं करोति,कुयोधकुशीलता दुष्प्रसिद्धि- लंघिस्संति ते भाराहिया णो विराहिया । अङ्ग । जनकत्वनोत्सूत्रप्ररूपकोऽयमित्यसहरणोनायकत्वेन येति ।। (भ्रमणोपासकनिर्जरा 'महाणिजरा' शब्द षष्ठभागे स्था.४ ग०३ उ० । प्रति० । ध०।
१८८ पृष्ठ व्याख्याता। ) श्रमणोपासका मानन्दादयः उपासकहं णं भंते !समणोबासगाभाराहियपक्खा भविस्संति।
कदशाभिहिता इति । स्था०४ ठा० ३ उ० । दानाधिकारे
तु भ्रूयते द्विविधाः भ्रमणोपासकाः-संविप्नभाविताः, लुग्धजंबू! चउम्विहा समणोवासगा बुइया-रायसमाणा पिय
कष्टान्तभाविताश्चेति । यथोक्तम्-'संघिग्गभाषियाण, लुखसमाणा मायसमाणा सवत्तिसमाणा । जे रायसमाणा भवि
यदिटुंतभाषियाण च । मुनूण खेत्तकाले, भायं च कहिंति सु- . संति ते साहूणं साहुणीणं उबद्दवे प्रायबलेणं धणबलेणं झुम्छ" ॥१॥ इति । स्था० ३ ठा०१ उ०। (कृतसामायिकस्य कुंबलेणं णिवारणा भविस्संति, सिमवि साहुसाहुणी
भ्रमणोपासकस्य प्रत्याख्यानभाः 'सामाइयकड' शब्देणं असमंजसायारे दहणं एगते हकारिऊण महुराए भा
ऽस्मिन्नेव भागे षड्यन्ते ।) साए कहिस्संति । भो भो महाणुभागा! सिरिसुहम्मं सामि
समणोवासगधम्म-श्रमणोपासकधर्म-पु०। भ्रमणानुपासते
सेवन्त इति श्रमणोपासकास्ते च श्रमणोपासनतोऽभिगतअपट्टपरंपरेणं अमुगे प्रमुगे एयारिसे छत्तीसगुणगण
जीवाजीयस्वभावास्तथोपलब्धपुण्यपापास्तेषां धर्मः । श्रावधारए पावभीरू पायरिए जाए । तेहिं एअस्स गणस्स कधर्मे, सूत्र०२ श्रु०२ १०। ठवणा किं अस्मगणमझे वि एरिसे गुणसंपनो आयरिए समणोवासगपडिमा-श्रमणोपासकप्रतिमा-स्त्री० । श्रावकाउवज्झाए जाए तेहिं णियपदे तुम पि आरोविया कहं भिग्रहविशेषेषु, पश्चा० । एरिसपमायधरा जाया । सारणवारणचोयणाए क
अथ कियत्यः किमादिकाश्च ता इत्यस्यामाशङ्कायामाहहमकुसला भवह , तुम्हेहिं पमायं वहंतेहिं अम्हाणं
समणोवासगपडिमा, एक्कारस जिणवरेहि पमत्ता। का गई भविस्सइ । तुम्हा णं जं किंचि वि लोयजइ तं
दंसणपडिमादीया, सुयकेवलिणा जतो भणियं ॥२॥ अम्हाणं थेरे बहु अस्थि । असणपाणखाइमवत्थपडिग्गहं
व्याख्या-श्रमणोपासकप्रतिमाः श्रावकाभिप्रहविशेषाः ।
एकादश संख्यया जिनवरैरहद्भिः-प्रज्ञप्ता-उक्लाः दर्शनकंबलपायपुच्छणोसहभेजेणं । पीढफलगसिजा
प्रतिमादिकाः-सम्यक्त्वाभिग्रहप्रभृतिकाः । एतदव भद्रयासंथारएहिं अम्हे णि यरिद्धिसमुदएणं पडिलाभिस्सामो हुस्वामिबचनेन समर्थयन्निदमाह-श्रुतकेवलिना-परिपूर्णपुण तुम्हारिसेहिं महाणुभागेहिं पमानो ण कायब्यो । श्रुतधरण भद्रबाहुस्वामिनेत्यर्थः । यतो-यस्माणितमुक्तम् , तहावि ते ण पडिबुझंति तो महाणुभागा सावया
इति गाथार्थः ॥२॥ पश्चा०१०विव०। (ताश्च स्वरूपत 'उबासणो णियगणस्स सामायारिं चइस्संति । अक्खए
गपडिमा' शब्दे द्वितीयभागे १०६६ पृष्ठे उताः।) बराडए पमुह दसविहे पुव्यायरियाणं भागाणं ठवणा का
समणोवासिया-श्रमणोपासिका-स्त्री०। श्राविकायाम् ,स्था। ऊण श्रावस्सए करिस्संति, परपासंडीणं परगणस्स समा
चत्तारि समणोवासियामो पपत्ताओ,तं जहा-रायणिया यारिलोवगाणं किरियाए फडाडोयं दट्टण णो णियगणस्स
समणावासिया महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा। (सू० समाचारीए चइस्संति । ते महाणुभागा समणोवासगा हवि- २२०X) स्था० ।
३२०४) स्था० ४ ठा० ३ उ०। रसंति । भरहवासे थोवा चेव रायसमाणा सव्वत्थ उचियकर- समगणागय-समन्वागत-पुं०। प्राप्तानां संयुक्ने,ग०१ अधि। णसीला गुणाणुरागिणो अगुणे समजत्थभाविणो दीहदं
रत्ना० । नि० चूछ । समनुप्राप्ति, रा०। सिणा सगण परगणे वा साहदिदीए दद्रण बड्यानंद- सममाहार-समन्वाहार-पु० समागमने, स्था०४ ठा०२०। पूरिया समुस्ससियरोमकूवा हरिसबसविसप्पमाणहियया
सममिय-समन्धित-त्रि० । सहिते, श्राचा० १७० ३ अ०२ अभिगमणवंदणनमंसणेणं पडिपुच्छणं पज्जुवासणाए
उ० । संयुक्ने, पो०१४ विव० । आव० । सूत्र।
समतल-समतल-न० । अविषम, प्रश्न०५ आश्रद्वार। अपज्जुवासिस्संति, परं णो णि यगणसामायारीए लेसमवि
विषमानत, (पादादौ) वाते, जी. ३ प्रति० ४ अधिः । चइस्संति ते महारायतुल्ला । जहा राया णियरजवित्ति
समतलपइया-समतलपदिका-स्त्री० । समतल द्वयापि भुण चइति तहा ते समणोवासगा पुयायरियाणं गुणं
विविन्यस्तत्वात्पद पादौ यस्याः सा समतलपदिका । द्वासंभणंता एगंतसो पाराहगा सत्तट्ठभवग्गहाई नाइकमि- भ्यामपि पादाभ्यां भुवि लग्नायाम् , शा० १ धु०१०।
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अभिधानराजेन्द्रः।
समभिरणाण समता-समता--स्त्री०। इष्टानिष्टेषु वस्तुषु विवेकेन तत्व- समत्थणा-समर्थना-स्त्री० । विधौ, विश०।। धियाम् , पं० २०१द्वार । दा०।
समस्थिय-समर्थित-त्रि० । उपपादित , प्रति। व्यवहारकुदृष्टयोच्चै--रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु ।
समदसि-समदर्शिन्-त्रि० । समानदृष्टी, "विद्याविनयसंपन्न, कल्पितेषु, विवेकेन, तत्वधीः समतोच्यते ।। २२॥ ब्राह्मण गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च , पण्डिताः व्यवहारकुरण्या अनादिमत्या वितथगोचरया कुव्यव
समदर्शिनः॥१॥" सूत्र०२ श्रु०५ अ०। मायाविशारातिया रतील समपत्थर-समप्रस्तर-पुं० । समपाषाणे, प्रश्न. ३ आश्र० निष्टषु इन्द्रियमनःप्रमोददायिषु तदितरेषु च वस्तुषु शब्दा- द्वार। विषु विवकेन तानेवार्थान् द्विषतस्तानवार्थान प्रलीयमानस्य समपद-समपद--न० । द्वयोरपि पादयोः समत्वेन नैरन्तयेण निधयतो नानि न विद्यते किंचिदिएं बेत्यादि निश्चया- स्थापने योधस्थानभदे, द्वापि पादौ समौ नैरन्तर्येण लोचनेन तस्वधीरिटानिष्टत्वपरिहारेण तुल्यताधीरपेक्षाल- स्थापयति । उत्त०४ म०। क्षणा समतोच्यते । यदुक्तम्-"अविद्याकल्पितष्यै-रिटानि
समपदुक्खेव--समप्र(ति)त्युत्क्षेप-म०। समः प्रत्युत्केपः प्रति ऐषु वस्तुषु । संज्ञानात्तव्युवासेन, समता समतोच्यते ॥१॥" |
क्षेपो या मुरजकंसतालाचातोद्यानां यो ध्वनिस्ताक्षणो नृत्यबर) १८द्वा०।
पावक्षेपलक्षणो वा यस्मिस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपञ्चति । समताल-समताल-त्रि०। समशम्यः प्रत्येक संबध्यते तेन
गेयभेदे, स्था०७ ठा०३ उ०। समास्ताला--हस्तताला उपचारात्तवचाऽस्मिस्तस्समता- समपाद--समपाद-न०।युद्धस्थानभेदे, “समपादट्टितो जुज्झलम् । तालैः समे, स्था० ७ ठा० ३ उ०। गीतादिमानकलि
त्ति तं समपादं । अराण भणंति एतेसिं चेव ठाणाणं जहातानां समोऽन्यूनाधिकमातृकत्वेन यस्मात् ज्ञायते तत्सम
संभवं चलिय ठितो पासतो पिटतो या जुज्झति । नि. तालविज्ञानम् । कलाभेद, जं० २ वक्ष० स०।
चू०१ उ०। समतिणमणिलेटकंचण -समतृणमणिलेष्टुकाश्चन-भि०।स.
समपायपुया-समपादपुता--स्त्री । यस्यां पादौ पुतौ च स्पृमानि तुल्यानि तृणमणिलेष्टुकाञ्चनानि यस्य स तथा।
शतः सा समपादपुता । स्था०५ठा०१ उ० । समौ समतनिःस्पृहे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण ।
या भूलग्नौ पादौ च पुतौ च यस्यां सा । निषद्याभेदे , समतिपवित्ति--स्वमतिप्रवृत्ति--स्त्री०। मारमधुद्धिपूर्षिकायां | स्था०५ ठा० १ उ०। चेष्टायाम् , पश्चा० ७ विक्षः।
समपासि-समदर्शिन--पुं०। समम्-भविपरीतं पश्यतीत्येवे समतीरा--समतीरा-स्त्री० । सम-गाभावात् अविषमं तीरं
शीले , ग०१ अधिक। तीरजलापूरितं स्थानं यास ताः समतीराः। अविषमतटासु
समप्पम--समप्रभ-त्रि०। समा-सरशी प्रभा दीप्तिर्यत्र तत्तथा। नधादिषु, रा०।जी।
सनत्कुमारदेवलाके स्वनामख्याते विमाने, स० ७ सम० । समत्त--समस्त-त्रिका "स्तस्यथोऽसमस्त-स्तम्य" |४५॥
प्रश्न। अत्रासमस्त ग्रहणात् समस्तशब्दस्य न स्तस्य थकार: स्यात् । समत्तो । सम्पूर्णे, प्रा०। प्रा० म० । उत्त०। प्रब०।
समप्पिय-समर्पित-त्रि० । ढोकिते, प्रश्न० ३ आश्रद्वार। प्रश्न । संघा० । विशे०।।
समभंग-समभङ्ग--त्रि० । समो-दन्तरो भङ्गश्लेदो यस्य भसमाप्त-त्रि० । सम्यक् प्रकारेण संपूर्णमधीतम् । पूर्णतां नीते,
वति तत्समभङ्गम् । अदन्तुरच्छेदे पत्रादौ, प्रव० ४ द्वार । उत्त० २६ अ०। ध० । मा० । सूत्र०। संथा।
समभरघडता--समभरघटता-स्त्री०। समोन विषमो घटैकदेसमत्तकप्प-समाप्तकल्प-पुंछ। व्यवस्थाभेदे, ध०३ अधि०।।
शमनाश्रितत्वेन भरो-जलसमुदायो यत्र स समभरः । सर्वथा साधुपञ्चकविहारे, पं० २०४ द्वार ।
भृतो चा समभरः । समशब्दस्य सर्वशब्दार्थत्वात्,समभरश्चासमत्तकप्पिय-समाप्तकल्पित-त्रिका पृथक्कल्पांपेते, व्य०४०।। सी घटश्चति समासः । समभरघट इव समभरघटस्तद्भावसमत्तगणिपिडगम्भत्थसार--समस्तगणिंपिटकाभ्यस्तसार
स्तत्ता। सर्वथा भृतघटाकारतायाम् , भ०१ श०६ उ०।जी। पुं० । परिपूर्णद्वादशाशाततत्त्व, जी०१ प्रतिः ।
समभाव-समभाव--पुं०। रागादिविहितवैषम्यविरहितपरिसमत्तगोल-समस्तगोल-पुं० । संपूर्णगोले, भ० ११ श० ११ णामे, पञ्चा०५ विव० । मध्यस्थाध्यवसाये, पञ्चा० ११ वि
व० । रागद्वषमध्यवर्तिनि, आव०५०। समत्तदंसि(ए)-सम्यक्त्वदर्शिन-त्रि० । रागद्वेपरहिते, समभिावन-समभ्यापन--त्रि० । अभिमुखं समापन्ने, सूत्र आचा० १ श्रु०२ अ०६ उ० ।
१ श्रु० ४ अ०२ उ०। समत्तपइम--समाप्तप्रतिज्ञ-त्रि०। समाप्ताभिग्रहे, भ० १५ श०।।
समभिएणाण-समभिज्ञान--नासम्यगाभिमुख्यन परिच्छदे, समत्थ--समर्थ-पुं० । शक्ने , प्राचा० १ ०१ अ० ७. श्राचा० १ श्रु०६ १०३ उ० । गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिक्षानिर्वाहे, उ०। जं० । रा० । स्या० । स्था० । भ० । विशे० ।
आचा०१ श्रु०३ अ०३०।
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समभिभूय अभिधानराजेन्द्रः।
मममिरूद समभिभूय-समभिभूत-त्रि० । परिभूते, प्रश्न०४ आश्र० द्वारा हेतुः । घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यानामिवार्थानामिति दृष्टासमभिरूढ-समभिरूढ-० । वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं म्तः । तत एतदभिशायण घटादेः कुटकुम्भकलशादिकं समभिरोदयस्याश्रयति यः स समभिरूढः । स्था०३ ठा०३ उ०।।
पर्यायवचनं नास्त्येव, एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दप्रवृस्यनभ्युपपर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहयन् समभि
गमादिति। रूढः । स्था० । पर्यायशब्दानां प्रविभक्तार्थाभिमरि नयभेदे,
प्रतिक्रान्तशब्दनयशिक्षणार्थमाहस्था० । विशे।
धणिभेयाश्रो भेओ, ऽणुममो जइ लिंग वयणभित्राणं । अथ समभिरूढनयमाह
घडपडवञ्चाणं पिव,घटकुडवञ्चाण किमणिहो ॥२२४०।। जं जं समं भासद, तं तं चिय समभिरोहए जम्हा ।
हन्त ! यदि लिमवचनभिन्नानां घटपटस्तम्भादिशसमंतरत्थविमूहो, तभो तमो समभिरूढो त्ति ॥२२३६॥ वयाच्यानामिवार्थानां ध्वनिमदाद् भेदस्तयानुमतः, ताह यां यां संहां घटादिलक्षणां भाषते-चदति तां तामेव घटकुटकुम्भकलशादिशब्दवाच्यानामर्थानां किमिति भेदो यस्मात् संहास्तरार्थयिमुखः कुटकुम्भादिशब्दवाच्यार्थ- नेएः, ध्वनिभेदस्यात्रापि समानत्वात् । तस्मादस्मत्पथवनिरपेक्षः समभिरोहति समध्यास्ते तत्तद्वाच्यार्थविषय- तित्वं भवतोऽपि बलादापतितमिति । वन प्रमाणीकरोति , ततस्तस्माद् मानार्थसमभिरोहणात् वसतिप्रस्थकादिविचारे ऽप्यस्य पूर्वनयेभ्यो भेद समभिरुढो नयः । यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्तं कुटकुम्भा
इति दर्शयन्नाहदिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थः इति ।
आगासे वसइत्ति य, भणिए भणइकिह अन्नमनम्मि । यदुक्तं नियुक्तिकृता 'वन्धुश्रो संकमणं,होइ अवत्थु
मोत्तणायसहावं, वसेज वत्, विहम्मम्मि ? | २२४१ । भए समभिरूढे ' इति, तद्वयाख्यानार्थमाह
वत्थु वसइ सहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि । दध्वं पजाओ वा, वत्थं वयणंतराभिधेयं ।
न विलक्खणत्तणाओ, भिन्ने छायातवे चेव ।२२४२। न सदनवत्थुभावं, संकमए संकरो मा भू ।। २२३७॥
'काऽसौ साध्वादिसति ? ' इति पृष्ठे 'लोकप्रामवसन हि सतरवच्चं, वत्थु सइंतरत्थतामेइ ।
त्यादी वसति' इति नैगमादिनयवादिनी वदन्ति । झजुससंसयविवजएग-त्तसंकराइप्पसंगाओ ।। २२३८॥
प्रनयवादी तु वदति- यत्रावगाढस्तत्राकाशखराडे वस-- द्रव्यं-कुटादि, पर्या यस्तु तद्गतो वर्णादिस्तल्लक्षणं प्रस्तु- ति' । ततश्च ऋजुसूत्रेणैवं भणिते भणति समभिरूढःतघटादिवचनाद् यत्-कुटादि वचनान्तरं तदभिधेयं यद् नन्वात्मस्वभायं मुक्त्वा कथमन्यद वस्त्वन्यस्मिन् विधर्मक वस्तु न तदन्यवस्तुभावं घटादिशब्दाभिधेयवस्तुभावं आत्मविलक्षणे वस्तुनि वसेत् ? न कथञ्चिदित्यर्थः । तर्हि संक्रामति । कुतः ? , इत्याह-वस्तुनो वस्त्वन्तरसं- क्व वसति ? इत्याह-सर्वमेव वस्त्यात्मस्वभाव वसति, क्रमे मा भूत् संकरादिदोष इति । एतदेव भावयति
सत्त्वात् , जीवे चेतनावत् । भिने त्यात्मविलक्षणस्वरूप महि शब्दान्तग्याच्यं वस्तु शब्दान्तरवाच्यार्थरूपतामेति ।
वस्तुन्यन्यद्न वसति, यथा छायाऽऽतप इति । एष त्रयाएवं हि घटादी पटाद्यर्थसंक्रमे किमयं घटः पटादि
णामपि शब्दनयानामभिप्राय इति । ी? इति संशयः स्यात् ; विपर्ययो वा भवेत् , घटा
अथ प्रस्थकविचारमधिकृत्याहदावीप पटादिनिश्चयात्। पटादी चा घटाद्यध्यवसायादे
माणं पमाणमिटुं, नाणसहावो स जीवोऽणनो । कत्वं वा घट-पटाद्यर्थानां प्राप्नुयात्। मेचकमणिवत् संकीर्णरुपता वा घटपटाद्यर्थानां भवेदिति । इयमत्र
कह पत्थयाइभावं, वएज मुत्ताइरूवं सो ॥२२४३।। भावना-घटः कुटः कुम्भ इत्यादिशब्दात् पटस्तम्भा- नहि पत्थाइ पमाणं, घडो व्य भुवि चयणाइ विरहाओ। दिशब्दादिव मिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद भिन्नार्थगोचरानेय
कवलमिव तन्नाणं,पमाणमिट्ठ परिच्छेओ ।।२२४४॥ समभिरूढनयो मन्यते; तवाहि-घटनाद् घट इति विशिष्टचेष्टावानों घट इति गम्यते , तथा
इह यद् मानं तत् प्रमाणमेवटम् , प्रमीयते-परिच्छिद्यते 'कुट' कौटिल्ये, कुटनात् कौटिल्ययोगात् कुटः, तथा 'उभ'
वस्त्वननति कृत्वा । प्रमाणं च परिच्छदात्मकं जीवस्वभाव 'उम्म' पूरणे, कुम्भनात् कुत्सितपूरणात् कुम्भ इति भि
एव, स च जीवादनन्यः, अतः कथं मूर्तादिस्वभावम् , त्राः सर्वेऽपि घट-कुटाद्यर्थाः । ततश्च यदा घटाद्यर्थे कु
श्रादिशब्दादचेतनस्वभावं प्रस्थकादिस्वभावं बजेदसौ. टादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुरादेस्तत्र संक्रान्तिः
यन नैगमादयः काष्ठमयं प्रस्थादिकमानमिच्छन्ति ? । तर्हि कृता भवति, तथा च सति यथोक्तसंशयादिदोष इति ।
शब्दनयानां कि प्रस्थकादि प्रमाणम् , किंवा न प्रमाणम् ?, ततो घटकुटाद्यर्थानां भेदसाधनायैव प्रमाणयन्नाह
इत्याह-नहि-नैव काष्ठघटितं प्रस्थादिकं प्रमाणाम् . चेत
नादिरहितत्वात् घटपट लोटादिवत् : किंतु-तस्य प्रस्थकस्य घडकुडसइत्थाणं, जुत्तो भेोऽभिहाण भेात्रो।।
ज्ञान तज्ज्ञानं तदुपयोगस्तत्परिच्छेदः प्रमाणे मामिष्टम् ,तेघडपडसहत्थाण व, तो न पज्जायवयणं ति ।२२६६।। नैव तत्त्वतः प्रमीयमाणत्वात् । 'परिच्छया' इति पाठान्तरं घटकुटकुम्भादिशब्दवाच्यानामर्थानां भेद एव परस्परं यु- वा, तेनैव परिच्छेदात् . केवलशानवत् । तस्मात् प्रस्थकक् इति प्रतिक्षा । अभिधानभेदाद्-वाचकध्वनिभेदादिति । लाममेष प्रस्थक इति स्थितम् ।
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समभिरूढ अभिधानराजेन्द्रः।
समय अत्र परमतमाशक्य परिहरनाह
भिनानामन्योन्य संसर्गः संबन्धी न घटते , तथाहि-सपत्थादो वि तक्का-रणं ति माणं मई न तं तेसु । बद्धवस्तुद्वयात् संबन्धो भिन्ना वा स्यादभित्रो वा?। यदि जमसंतेसु वि बुद्धी,कासह संतेसु वि न बुद्धी ॥२२४॥
भिन्नः , तर्हि संबद्धवस्तुद्वरा भिन्न स्वतन्त्रं तृतीयमेव वस्तु तकारणं ति वा जइ, पमाणसिद्धं तो पमेयं पि ।
तत् स्याद् नतु संबन्ध इति कथं तद्वशात् पप्ठ्यादिविभ
निः? । नहि विन्ध्यहिमवदादिभ्यो भिन्नो घटादिः संबसव्वं पमाणमवं, किमप्पमाणं पमाणं वा ॥२२४६॥
न्धी भगयंत । नापि तद्वशात् तेषां पठ्यादिविभक्तिः प्रवर्त प्रस्थादयोऽपि मानमिति प्रतिज्ञा, तत्कारणात्-प्रस्थ- ते। अथ संबद्धयस्तुद्वयादभिन्नः संयन्धः, तर्हि नासी पाठ्या कशानकारणत्वात् , यथा ' नङ्कलं पादरोग' इत्येवंभूता प- दिहेतुः , संबद्धयम्तुद्वयाव्यतिरिकत्वात् , तत्म्यरूपवन , रस्य मतिः स्यात् । तदेतद्न,यतस्तेषु प्रस्थकादिष्यसत्स्वपि
इत्यादि बलत्र वक्तव्यम् , तत्तु नोग्यत , ग्रन्थगहनतामसकस्यापि धान्यगश्यवलोकनमात्रेणापि कलनशक्तिसंपन्नस्य कादिति । अतिशयशानिनो या प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिरुपजायत । क- अपरमपि समभिरूढनयाभिप्रायभदं दर्शयन्नाह---- स्यापि पुनर्नालिकेद्वीपाद्यायातस्य सत्स्यपि तेषु प्रस्थक
घडकारविवक्खाए, कत्तुरणत्थंतरं जो किरिया । परिच्छेदबुद्धिन संपद्यते, इत्यनैकान्तिका पय काष्ठमयप्र
न तदत्थंतरभूए, समवानो तो मी तीसे ॥२२४६।। स्थकादयः प्रस्थकझानजनन, इति कथं तत्कारणत्वात् ते प्रस्थकादिमानरूपा भवेयुः ? , यदि बा-भवन्तु ते तत्का- कुंभम्मि वत्थुपज्जा-यसंकराइप्पसंगदोसाओ । रणम् तथापि न तत्कारणत्वेन तेषां प्रस्थादिमानरूपता, अ- जो जेण जं व कुरुए, तेणाभित्रं तयं सव्वं ॥२२५०॥ तिप्रसङ्गादिति दर्शयति-तकारणं तिथे' त्यादि, यदि प्रस्थ- 'घटं करोति' इति घटकार इत्यस्यां विवक्षायां प्ररूपकझानकारणतामात्रेणापि ते काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रमाण- णायां यस्मात् तस्य घटकर्तुरनान्तरमव्यतिरिक्ला घटकमिटाः, तर्हि प्रमेयमपि प्रमाणे प्राप्नोति, प्रमाणशान- रणक्रिया , कर्तवैव घटकारे तस्याः समवायात् । 'ता' । कारणत्वात् । एवं च सति दधिभक्षणादीनामपि पर- तिं तस्माद् न तदर्थान्तरभूते कर्तुर्व्यतिरिक्ने कुपरया तरकारमान्यन प्रमाणन्यात् किं नामाप्रमाणे स्या- म्भ घटे तस्याः समवायः संसपा मतः। कुतः?। वस्तुपर्यायत ?। यदि च सत्यपि तत्कारण धेऽन्यत् सबै दधि- संकरादिदोषप्रसङ्गात्-वस्तूनां य पर्याया-धर्मास्तेषां परभक्षणादिकं न प्रमाणम् , तर्हि काष्टमयप्रस्थकादयोऽपि न स्परं संकरः संकीर्णत्यमेकत्वं या स्यात् , कर्तृगतक्रियायाः प्रमाणम् , अतः किं नाम प्रमाणं भवत् ?-न किश्चित् ।। कुम्भेऽपि समचायाभ्युपगमात् । ततश्च यः कुम्भकारातता विशी प्रमाणाप्रमाणव्यवस्था । तस्मात् प्रस्थक- दिर्यन क्रियाविशेषण यत् कुम्भादिकं कुरुत तेन क्रियाशानमेव प्रस्थकप्रमाण त्रयाणामपि शब्दनयानामिति । । विशेषण तक्रियारूपतयेत्यर्थः , सर्व तत् कर्तृकर्माभिन्न तथा-पञ्चानां-धर्माऽधर्माऽऽकाशजीयपुद्गलास्तिकायानां स्यात् तस्मात् कर्तृगतक्रियाया न कर्मणि संक्रमः , किन्तु देशनदेशकल्पनायामस्य पष्टीसमासादि नेष्टम् । कि तर्हि ? कुर्वन् कारकः , कुम्भनादिभ्य एव कुम्भादय इति मन्यते देशी चासो देशश्चत्यादि कर्मधारयमय मन्यतेऽसौ नयः समभिरूढ इति । उक्नः समभिरूढनयः । विश० । नं० । प्रा० कुतः ? इत्याह
चूल प्रा०म० (समभिरूढनयव्याख्या 'णय' शब्दऽपिचतुर्थदेसी चव य देसो, नो वत्थु वा न बत्थुणो भिन्नो।
भाग १८५७ पृष्ठे गता।)(एतदाभासव्याख्या ' णयाभास'
शब्दे चतुर्थभाग १६०३ पृष्ठे गता।) दृष्टिवादस्य सूत्रभिन्नोव न तस्स तो,तस्म व जइ तो न सो भिन्बो२२४७
भेद, स० । अप० । सूत्र० । अनु० । सम्म० । स्था। एत्तो चव समाणा--हिगरण या जुञ्जए पयाणं पि।
समभूमि-समभूमि-स्त्रीका अविषमक्षिाततले, श्राव०५ असा नीलुप्पलाइयाणं, न रायपुरिसाइसंसग्गो ॥२२४८॥
समय-समक-न । सममेव समकम् । सरसविरसादिष्वधर्मास्तिकायादिको दश्यव हि देशो न पुनस्तस्माद् घ- भिष्वङ्गादिविशपरहिते , उत्त०१०। सहाथै , उत्त० ४ टादिवारघट्टोऽन्यन्तभिन्नं स्वतन्त्रवस्तुदशः । अथ न स्व- अ०। युगपदर्थ, व्य०२ उ०। एककाल, प्रज्ञा० १ पद । तन्त्रवस्तुंदशः : किन्तु तसंवन्धित्वादस्वतन्त्राऽपि दशितो विश० । ज० । शा० । सम्यगीयते परिच्छिद्यत इति समयः । भिन्नो दश इति चेत् । तदप्य युक्तम् । कुतः? इत्याह- सम्म०१ काण्ड । सम्यक प्रमाणान्तराविसंवादित्यनायते न वा दशिलक्षणाद् वस्तुनो भिन्नाऽसौ दशः । अथ भिन्न- परिच्छिद्यत इति समयः । सम्म०२ काण्ड । सम्यगवैपरीत्यस्तस्मादिष्यते सः , तान्यस्यान्यन बिन्याहमवदादी- नायन्त शायन्त जीवादयोऽर्था अनेनति समयः , सम्यगनामिव सर्वथा संबन्धायोगाद् न तस्य देशिनस्तकोऽसौ । यन्ति गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूप प्रतिष्ठा देशः । यदि पुनस्तस्य देशिनः संबन्धी देशोऽभ्युपगम्यत प्राप्नुवन्ति अस्मिन्निति समयः । स्या०। सूत्र० । श्रा०म० । तर्हि घटादः स्वस्वरूपयद् न स देशस्तस्माद् देशिनो भि- । आगमे, प्राचा०२ श्रु०२चू.५ अ० । सूत्र० । अनु० । नः किन्तु नदात्मक पवेति । अत एव विशेषणविशेष्यभ- सिद्धान्त, नं० । व्य० । विश० । जैनागमे, विशजिनादिनानां सर्वेषां पदानां समानाधिकरणता-कर्मधारय एव सिद्धान्त, स्था०३ ठा०४ उ० सम्म। जी। संथा। स्वसमसमासो युज्यत इत्यर्थः, यथा नीलोत्पलादीनाम् , उपल- योऽहेन्मतानुसारिशास्त्रात्मकः, परसमयः कपिलाद्यभिप्रायाक्ष चदम्-धवखदिरपलाशादीनां द्वन्द्वाऽपि स्यात् , न नुवर्तिग्रन्थरूपः, उभयसमयस्तृभयमतानुगतशास्त्रस्वभावः, तु राक्षः पुरुपो राजपुरुष इति पष्ठ्यादिसमासः, यता तत्रास्य म्बसमयचक्रव्यतायावावतारः,स्वसमयपदार्थानाम
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समय
समय
यात्रा
पत्रापि परोभयसमयपदार्थ
लिसंघाए न विसंघाइजर, अम्मि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइजर अम्मिकाले हिट्टिले संघाण दिसं घाइजर तम्हा से समय न भव । एतो वि अयं मुहुमतराए समय पणाने समाउसो (०१३८४ )
समययस्यतेय परोभयसमययोरपि सम्यगृष्टिपरिगृही तत्वेन स्वसमयत्वात्, अत एव सर्व्वाध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतारः । उत्त० १ श्र० । दर्श० । श्रारमीयप्रवचने, व्य० ३ उ० | सांख्यादीनां सिद्धान्ते, स्था० ३ ठा० ३ उ० । अवसरे, आत्रा० १०८ श्र० ६ उ० । कल्प० । रा० । ज्ञा०। विशिष्टकाले श्राचा० २ श्रु० ३ चु० [सं० प्र० । निर्विभावका अनु विशे० । परमनिकृष्टे काले, आ० म० १ ० नं० । काविशेष नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । स्था० । विशे० प्रा० म० सं०] अहाराचादिकालस्य विशिटे भागे भ० १० १ उ० । कल्प० । विपा० । सम्म० । चं० प्र० । अनु० । समयप्ररूपणम् -
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से किं तं समए 3, समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहानाम तुम्मागदारए सिया तरुथे बलवं जु
अथ कोऽयं समय इति पृष्ठे सत्याह-समयस्य प्ररूपणांferred व्याख्यां करिष्यामि, सूक्ष्मत्यात् संक्षेपतः कथितोऽपि नासो सम्यक प्रतीतिपथमवतरतीति भावः त देवाह जहानधमइत्यादि सकथित् यथानामको यत्प्रकारनामा देवतादिनामेत्यर्थः, 'तुझागदारए ' सूचिक इत्यर्थः स्यात् भवेत् यः किमित्याह-विशेष विशिष्टः पटसाटिकां पाटिकां या गृहीत्वा सपराई' झटिति कृत्यलमात्रमपसारयेत् - पाटयेदिति सण्ड अथवा स इति पूर्ववत् यथेत्युपदर्शने, 'नाम' ति सम्मा बनायाम्, ए' इति वाक्यालङ्कार, ततश्च स कश्विदेव तावत्संभाव्यते तुराणागदारको यस्तरुणादिविशेषणः, स्यात् - कदाचित् पटसाटिकां पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा - टिति हस्तमात्रमपसारयेत् - पाटयेदिति तथैव सम्बन्धः, तत्र तरुणः -- प्रवर्द्धमानवयाः श्रह - दारकः प्रवर्द्धमानयथाः एव भवति किं शिवम् सत्य प्रवर्द्धमानययस्याभावात् तस्य चासनमृत्युसामर्थ्यानुपपत्तेः, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थश्चायमारम्भः अन्तु पर्णादिगुपचितोऽभिनय इति व्याचक्षत बल-सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान्, युगं - सुषमदुष्षमादिकालः साऽदुष्टो - निरुपद्रवो विशिष्टयल हेतुर्यस्यास्त्य सौ युगवान् कालोऽपि सामर्थ्याविहेतुरितीषणम्, 'जुवाणोति युवा यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्ययम् अति--पपदिशति लोकोमोनिशात् युवानः, बाल्यादिकालेऽपि दारकोऽभिधीयते श्रतो विशिवयोवस्थापरिग्रहार्थमेतद्विशेषणम् अल्पशब्दो भाषणचनः, अल्प आतङ्क - रोगो यस्य स तथा, निरातङ्क इत्य
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जुपाये अप्पा धिरम्गहत्थे दडपाणिपायपासपि - इंतरोरुपरिणते तलजमलजुगलपरिघणिभबाहू चम्मेदृग - दुहरा मुट्ठियसमाहतनिचित ( प ) गतकाए उरस्यचलयममागए लंघणपवण जड़वायामसमत्थे छेए दक्खे पis कुसले मेहाची निउणे निउ सिप्पोवगए एगं महती पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सवराई हत्थमेतं सारेजा, तत्थ चोभए पमवयं एवं वयासीते कालेयं ते समएवं तुष्णागदारएवं तीसे पढ़साडि आए वा पट्टसाडियाए वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ?, नो इणट्ठे समट्ठे, कम्हा ?, जम्हा संखेजाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं एगा पडसाडिया निष्फजई, उवरिल्लम्मि तंतुम्मि अच्छि - से हिडिले तंतू न छिजड़, अरणम्मि काले उवरिल्ले तन्तू छिजर, अमम्मि काले हेट्ठिल्ले तन्तू छिजड़, तम्हा से समए न भवइ एवं वचो एवं वयासी जगणं कालेणं तेणं तुम्मागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडिए वा उवरिल्ले तंतू छिपे से समए भवइ ?, न भवइ । कम्हा ?, जम्दा संखेजायं पहाणं समुदयसमितिवमागमे एगे तंतू निष्फजइ, उबरिल्ले पन्हे अच्छिकाणमुष्टिकसमादतनिचितगात्रकायः - चर्मेष्टकया दूधऐन मुनि च समाहतानि प्रतिदिनमभ्यासस्य निचितानि निबिडीकृतानि गात्राणि स्कन्धोरुपृष्ठादीनि यत्र स तथाविधः कायो- देहो यस्य स तथा, चकाद यथा यय श्रीरस्ययलसमम्बागतः-- श्रान्तरो स्साही व्यायामच दर्शयति-व्यायामसमर्थः - जवनशब्दः शीघ्रवचनः छेकः- प्रयोगशः दक्षः - शीघ्रकारी प्राप्तार्थः - अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः प्राज्ञ इत्यन्ये कुशलः - आलोचितकारी मेधावीसहन कर्मश: नि: उपायारम्भकः शिल्पसकृच्छ्रुतदृष्टकर्मशः निपुणः - निपुणशिल्पो
स्थिरापरं पाटयती कम्पोऽग्रहस्तो हस्ता यस्य स तथा दृढं पाणिपादं यस्य, पार्श्वी पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणत - परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा, सर्वावयवैतमत्यर्थः तलजमलपलपरियमिवातली तालवृक्षी तयाम-समी युगलं-द्वयं परि अर्गला भीती दीपसरलपीत्यादिना वाहू यस्य स तथा आगन्तुकोपकरणजं सामर्थ्यमाह-चर्मेष्ट
हेपि न हि अम्मम्मि काल उपरि प छिज्जर, अम्मिकाले हेट्ठिल्ले पन्हे छिज्जइ, म्हा से समए न भवइ । एवं वर्यतं पष्मवयं चोए एवं बयासी काले ते तुष्णागदारएवं तस्स तंतुस्स उपरि पन्हे दिसे से समए भवइ ? न म । कम्हा ?, जम्हा अग्रेता संघायासं समुदयसमितिसमागमे एगे हे निष्फज्जर, उवरिने संघार अभिपाइए हे
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( ४१६ ) अभिधानराजेन्द्रः । तथापि
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ममय अभिधानराजेन्द्रः।
समय पगतः-सूदमशिल्पसमन्वितः एवंविधो यस्पेनैव का- णां च सूचामात्रत्वादिति , ततोऽसंस्थयरेष समयैर्यथोलेन साटिकां पाटयतीति बहुविशेषणोपादानम् स इत्थं- क्लपदमलो विदीयमारणवाग्छमस्थानुभवविषयस्य च समम्भूत एका महती पटसाटिका पट्टसाटिकां वा पटसाटि- यप्रसाधकस्य विशिष्टक्रियाविशेषस्य कस्यचि दर्शयितुमशकाया इयं लक्षणतरेति भेदेनोपादानम् , गृहीत्वा ' सय- क्यत्वाद् ‘एत्ताऽयि श्रम सुहुमतराप. समए' इति सामान्यराह' मिति सकृत् झटिति कृत्वेत्यर्थः , हस्तमात्रमपसा- मैवोक्तवानिति, एकस्मादुपरितनपचमच्छेदनकालावसंख्यारयेत्-पाटयदित्यर्थः , तत्रैवं स्थिते प्रेरकः-शिभ्यः प्रशा- ततमोऽशः समय इति स्थितम् युगपदन्तसातषिवारणपयतीति प्रशापको-गुरुस्तमेवमवादीत् , किम् ?-यन हेतुपूर्वोक्तप्रयत्नविशषसिद्धिश्च नगरादिपस्थितानवरतप्रवृत्तकालेन तेन तुएणागदारकेण तस्याः पटसाटिकाया: प- पुरुषांदः प्रयत्नविशेषात् प्रतिक्षणं बहनभःप्रदेशान् बिलइसाटिकाया वा सकृद्धस्तमात्रमपसारितं-पाटितमसी याचिरेणैवेटदेशप्राप्तिभवनीया, यदि पुनरसी क्रमेणकेसमयो भवति ?, प्रज्ञापक आह-नायमर्थः समर्थ:-नै- कं व्योमप्रदेश लक्यत् तदा असंख्ययात्सपिण्ययसर्पिणीभितदेवमित्युक्तं भवति, कस्मादिति पृष्ठ उपपत्तिमाह-यस्मा- रेवेटदेशं प्राप्नुयाद' अंगुलसेढीमित्ते उस्सप्पिणीउ असंखेत संख्येयानां तन्तूनां समुदयसमितिसमागमेनेति पूर्व- जा' इत्यादिवचनादिति भावः । नचातीन्द्रियध्वर्थेषु एकावद् . एकार्था वा सर्वेऽप्यमी समुदायवाचकाः, पटसा- म्तेन युक्तिनिष्ठैर्भाव्यम् सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद् , उक्तं चटिका निष्पद्यते तत्र च 'उरिल्ले' त्ति-उपरितने तन्ती "आगमश्चोपपत्तिश्च. संपूर्ण विद्धि लक्षणम् । अच्छिन्ने-अविदारिते 'हेटिल्ले' ति-प्राधस्त्यतन्तुर्न छि- अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ द्यत अतोऽन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुः छिद्यते अन्य- श्रागमश्चाप्तवचन--माप्तं दोषक्षयाद्विदुः । स्मिन् काले प्राधस्त्यः , तस्मादसौ समयो न भवति
वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न घूयाद्धत्वसम्भवात् ॥२॥ एवं वदन्तं प्रज्ञापकं प्रेरक एवमवादीत्-येन कालेन तेन
उपपत्तिर्भवेयुक्ति--- सद्भावप्रसाधिका । तुम्नागदारकेण तस्याः-पटसाटिकाया उपरितनस्तन्तुश्कि
साऽन्वयव्यतिरकादि--लक्षणा मूरिभिः कृता ॥३॥" ः स समयः, किं भवतीति शेषः, अत्र प्रज्ञापक श्रा
इति, निदर्शितं चहाभयमपीत्यलं विस्तरेण ! अनु० । स्था। ह- भवतीति , कस्मात् ? , यस्मात्संख्येयानां पक्ष्मणां लोक प्रतीतस्वरूपाणां समुदायत्यादि सर्व तथैव यावत्त
एगे समए । (सू०४४४) स्मादसौ समयो न भवति, एवं बदन्तं प्रज्ञापकमित्या
परनिकृष्टकाल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताजरत्पटद्यपरितनपक्षमसूत्रमपि तथैव व्याख्येयम् , नवरमनन्ताना
शाटिकापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धादवबोद्धव्यः, स
चैक एव वर्तमानस्वरूपोऽतीतानागतयोपिनणानुत्पन्नत्वेपरमाणूनां विशिऐकररिणामापत्तिः सातः , तेषामनन्ता
नाभावात् । अथवा-असावकस्वरूपेण निरंशत्वादिति । नां यः समुदयः--संयोगस्तेषां समुदयानां या अन्योन्या
स्था०२ ठा। प्राचा० । कल्प० । नि। स०। जी। तं० । नुतिरसी समितिः, तासां समागमन-पकवस्तुनिवर्तनाय मीलनेन उपरितनपचमोत्पद्यत , समुदायवाचक
राजनीतिशास्त्र, वृ०३ उ० । सङ्केते, प्रा० म०११० । पं०
च०। सू० प्र०। चं० प्र० । शा। विश०। कर्म० । समिति-सचनेकार्था वा समुद यादयः , तस्मादसावुपरितनेकपक्ष्म
म्यकशब्दार्थे उपसर्गः, सम्यगयः समयः । सम्यग् दयापूर्वक च्छदनकालः समयो न भवति , कस्तहि समय इत्याह
जीवपु विषय प्रवर्तने, विशे० । श्राचारे, अनुष्ठाने, श्राचा० 'एतोऽवि राण' मित्यादि, एतस्माद् उपरितनैकपक्ष्म
१७०३ अ०१ उ० । मुक्तिमार्गप्रवर्त्तने, विशे० । नास्तिछदनकालात् सूक्ष्मतर: समयः प्रशप्ता हे श्रमण ! श्रायष्मनिति, अत्राह-मनु यद्यनन्तैः परमाणुसकातः म नि
कादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय एवेति । स० १६
सम०। सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमऽध्ययन, आव०४०। पद्यते तेच सखाताः क्रमेण छिद्यन्ते , तहाकस्मिन्न
साम्प्रतं निक्षपावसरः, स च त्रिधा-श्रोघनिष्पन्नो, नामानपि पक्षमणि विदीयमाण अनन्ताः समया लगेयुः , पतच्चागमेन सह विरुध्यते , तत्रासंख्ययास्वप्युत्स
रूपन्नः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्च । तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनम् , तस्य पिण्यवसर्पिणीषु समयासंख्येयकस्यैव प्रतिपादनात् , यत
च निक्षेप आवश्यकादौ प्रबन्धेनाभिहित एव , नामनिष्पन्ने उक्तम्-" असंखजासु ण भंते ! उस्सप्पिणी अवसप्पिणीसु
तु समय इति नाम, तन्निपार्थ नियुक्तिकार आहकेवइया समया पराणता ?, गोयमा !, असंखेजा। अणतासु
नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले कुतित्थसंगारे । गं भंते ! उस्सप्पिणीअवसप्पिणीसु केवइया समया प- कुलगणसंकरगंडी, बोधब्बो भावसमए य ।। २६ ।। एणता ?, गायमा!, अणता" तदेतत्कथम् ?, अत्राच्यते--
'नामं ठवणा' इत्यादि, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालकुतीर्थसंस्त्यतत् , किन्तु-पाटनप्रवृत्तपुरुषप्रयत्नस्याचिन्त्यशक्तित्वात
गारकुलगणसङ्करगण्डीभावभेदात् द्वादशधा समयनिक्षपः । प्रति समयमनन्तानां सच्चातानां छदः संपद्यते, एवं च स- तत्र नामस्थापने चुम्मे, द्रव्यसमयो द्रव्यस्य सम्यगयनं-परिस्यकस्मिन् समय यावन्तः साताश्छिद्यन्ते तैरनन्तैरपि गतिविशेषः स्वभाव इत्यर्थः , तद्यथा-जीवद्रव्यस्योपयोगः स्थूलतर एक एव सङ्घातो विवक्ष्यते, एवम्भूताः स्थूलत- पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तत्वं धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहरसडाता एकस्मिन्पर्माण असंख्यया एव भवन्ति, तेषां च दानलक्षणः । अथवा-यो यस्य द्रव्यस्यावसरो-द्रव्यस्योपक्रमण छदन असंख्ययैः समयैः पक्ष्म छिद्यते, अता न क- योगकाल इति, तद्यथा-' वर्षासु लवणममृतं, शरदि जले श्चिद्विरोधः, इत्थं च विशेषतः सूत्रे अनुक्कमप्यवश्यं प्र- गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुडतिपत्तव्यम् , अन्यथा ग्रन्थान्तरैः सह विरोधप्रसङ्गात् सूत्रा- श्चान्ते'॥१॥ क्षेत्रसमय:-क्षेत्रम्-श्राकाशं तस्य समयः
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समय अभिधानराजेन्द्रः।
समयपरिसद स्वभावः, यथा ' एगेण वि से पुराणे, दोहि वि पुराणे सयं पि जंबूदीवेणं दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेणं लवणस्स दामाएजा । लक्स ऍण वि पुराणे, कोडिसहस्सं पि माएजा' हिणेणं. जाव तत्थ २ बहव जंबुरुक्खा जंबुवणा० जाव उव॥१॥ यदिवा-देवकुरुपतीनां क्षेत्राणामीदृशाऽनुभावो सोभेमाणा चिट्ठति स तणटुण गोयमा! एवं बुच्चद जंबुद्दी यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपा नित्यसुखिनो निर्वैराश्च भवन्ती- वे दीये' इत्यादीनि प्रत्येकमर्थसूत्राणि च सन्ति, ततश्चैतति, क्षत्रस्य बा परिकर्मणावसरः क्षत्रसय इति , कालस- द्विहीनं यथा भवत्येवं नीवाभिगमवक्तव्यतया नेयमस्योद्देशमयस्तु सुषमादरनुभावविशेषः उत्पलपत्रशतभदाभिव्यङ्ग्या कस्य सूत्रम्। 'जाव इमा गाह' त्ति-संग्रवगाथा। साच-'अरया कालविशषः कालसमय इति , अत्र द्रव्यक्षेत्रकाल- हंतसमयवायर-विज्जूणिया वलाहगा अगणी।ागरनिहिप्राधाम्बधिवक्षया द्रव्यक्षेत्रकालसमयता द्रष्टव्यति कुतीर्थ- नइउवरा-नग्गमे बुढिवपणं च ॥१॥ अस्याश्चार्थस्तत्रासमयः पाण्डिकानामात्मीय आगमविशेषः। तदुवं नेन सम्बन्धेनायातो जम्बूद्वीपादीनां मानुषात्तरान्तानामचाऽनुष्ठानमिति, संगार:-संकतस्तद्रपः समयः संगारसमयः र्थानां वर्णकस्यान्ते इदमुक्तम्-'जावं च णं माणुसुत्तरे पब्बए यथा सिद्धार्थसारथिदवेन पूर्वकृतसंगारानुसारण गृहीत- तावं च रंग अस्सि लोए त्ति पवुच्चई। मनुष्यलोक उच्यत इत्यहरिशवो-बलदेवः प्रतिबोधित इति, कुलसमयः-कुला
र्थः। तथा 'श्ररहंतेत्ति जावं च ण श्ररहंता चकवट्टी ० जाव चारो यथा शकानां पितृशुद्धिः , आभीरकाणां मन्थनिका
सावियाओ मणुया पगाभहया विणीया ताचं च णं अस्सिशुद्धिः, गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो-यथा यो ह्य
लोए त्ति पवुश्चइ, समय त्ति, जावं च ण समयाइ वा श्रावनाथो मल्लो म्रियते स तैः संस्क्रियते, पतितश्चोद्धियत इति
लियाइ वाजाव लोए त्ति पवुच्चइ.एवं जावं च ण बायरे विसंकरसमयस्तु संकरो--भिन्नजातीयानां मीलकस्तत्र च
ज्जयार थायरे थणियस जायं च गंग बहवे उराला यलाहया समय:--एकवाक्यता, यथा वाममार्गादावनाचारप्रवृत्ताव
संसय त्ति, अगणि त्ति,जावं च णं वायर तेउयाए जावं च सं पि गुप्तिकरणमिति, गराडीसमया-यथा शाक्यानां भोजना
श्रागराइ वा निहीइ वा नईइ वा उवरागत्ति,चंदावरागार वा बसरे गएडीताडनमिति, भावसमयस्तु नोागमत इदम- सूरोवरागाइवा,तावं च ण अम्सि लोग त्ति पवुच्चइ । उपरायाध्ययनम् , अनेनैवात्राधिकारः शेषाणां तु शिष्यमतिवि- गो-ग्रहणम् । 'निग्गमे बुढिवयणं वत्ति-यावनिर्गमादीनां वकाशार्थमुपन्यास इति । सूत्र०१ श्रु०२१०॥
चनं प्रज्ञापनं तावन् मनुष्यलोक इति प्रकृतम् ,तत्र-'जायं च समयंतर--समयान्तर--न० । परसमय, पं० २०५द्वार। ण चंदिमसूरियाग जाव तारारूवाणं अइगमणं निग्गमण
वुहिनिवुड्ढी श्राधविजइ,तावं च मे अस्सि लोए ति पवुच्चइ समयकप्प-समयकल्प-पुं०ा सिद्धान्तविचारणायाम् , संथा।
अतिगमनमिहोत्तरायण, निर्गमनं दक्षिणायन , वृद्धिर्दिनस्य समयकयपिंडणाम-समयकृतपिण्डनामन्-न० । समयकृत- वर्धन, निवृद्धिस्तस्यैव हानिः । भ०२ श०६ उ० । पिण्डनाम्नि, पिंथन (व्याख्या पिंड' शब्दे पञ्चमभागे ६१७पृष्ठ ।) समयचजा-समयचर्या-स्त्री० । समयपरिभाषया उपक्रम, समयखत्त-समयक्षेत्र-न०। समयः कालस्तद्विशिष्ट क्षेत्र विशे० । समयक्षेत्रम् । मनुष्यक्षेत्रे, स्था० ३ ठा०४ उ० । मनुष्यलोके, समयज्झयण-समयाध्ययन-न । समयाख्ये सूत्रकृताङ्गस्य स्था० ३ ठा०१ उ० । स० ।
प्रथम अध्ययने, सूत्र.१० ११०१ उ० । श्रा० चूछ । किमिदं भंते ! समयक्खेत्ते त्ति पवुच्चइ ?, गोयमा ! अ- समयणा(मा)य--समयन्याय-पुं०। प्रागमनामाण्ये, पञ्चा० ड्डाइजा दीवा दो य समुद्दा एस ण पच्चइए समयखत्ते ति । १२ विव० । पवुच्चइ । तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे सब्बदीवे सव्वदीवसमुद्दाणं समयणिबद्ध-समयनिबद्ध-न० । मनसा निबद्ध सङ्केत, शा० सम्वभितरे एवं जीवाभिगमवत्तव्वया नेयच्या जाव अ- १ श्रु०६अ। तरपुक्खरद्धं जोइसविहूणं ॥६॥
सभकनिबद्ध-त्रि०ासहितैरुपात ज्ञाताङ्गसूत्र,ज्ञा११०६० 'किमि'त्यादि । तत्र समयः कालस्तेनोपलक्षितं क्षत्रं समय- समयणीइ-समयनीति-स्त्री० । सिद्धान्तब्यवस्थायाम् ,श्रावक क्षेत्र , कालो हि दिनमासादिरूपः सूर्यगतिसमभिव्यङ्ग्या
१०॥ मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, परतो हि नादित्याः सश्चरिष्णव इति । 'एवं जीवाभिगमबत्तव्वया नेयव्य ' त्ति । एषा चैवम- समयगणु-समयज्ञ-त्रि० । सिद्धान्तविदि, पं० २०२द्वार । 'एग जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणमित्यादि। जोइस- आगमज्ञ, पा०१५ विव० । आचा। विहण' ति-तत्र जम्बूद्वीपादिमनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतायां जीवा- समयपरमत्थवित्थर-समयपरमार्थविस्तर-पुं०। सम्यगीयन्त भिगमोक्तायां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽप्यस्ति,ततस्तद्विहीनं यथा
पगिछियन्तेऽननार्था इति समय आगमस्तस्य परमः अभवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्यनि, वाचनान्तरे तु
कल्पितञ्चासावर्थश्च समयपरमार्थस्तस्य विस्तरो रचना' जोइसअट्टविहणं' इत्यादि बहु दृश्यते , तत्र-जंबुद्दीये णं भंते ! कइ चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभा
विशपः । सिद्धान्तस्याकल्पितार्थस्य परमार्थरचनायाम् , सिस्संति वा, कति सूरिया तर्विसु वा०३ कइ गक्खत्ता
सम्म० ३ काण्ड । जोयं जोइंसुवा' इत्यादिकानि प्रत्येकं ज्योतिष्कसूत्राणि, समयपरिसुद्ध-समयपरिशुद्ध-त्रि० । शिष्टव्यवहारविशुद्ध, तथा-'से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीये दीये गोयमा ! पश्चा०४ विवः ।
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समयप्राहुड
समयप्राहु- समयप्रभृत-१० नामख्याते प्रन्थविशेष समर- शबर- वि० "शवरे बो मः ॥
१ तत्त्व | समयय-समयजमांने, पिं० ।
अ० १३ अष्ट० । समयमणिय-समय भणित-न० सिद्धान्तप्रतिपादिते दर्श०
( ४२२ अभिधानराजेन्द्रः ।
-
"
- न० । अन्वर्थरहिते समय एव प्रसिद्धे ना
समयलुक्ख्या- समयरूक्षता स्त्री० । कालरूक्षतायाम् भ०
७ श० ६ उ० ।
समयविउ समयवि०नि० १२० भद्रबाहुप्रभृतिषु सिद्धान्तवेदिषु पञ्चा० ४ विव० । समयविरुद्ध-समयविरुद्ध-त्रि० । स्वसिद्धान्तविरुद्धे, विशे०। यथा सांख्यस्यासत्कारणम्, कार्ये सद्वैशा पिकस्येत्यादि । ५० म० १ ० | अनु० यथा वैशेषिको व्रते प्रधानं कारणं जैनो बति नास्ति जीव इत्यादि । वृ० १३० १ प्रक० । समयविहाण - समय विधान । सिद्धान्तनीतौ पं० २०४
,
सम- त्रि० । समत्वेन युक्ते,रकारः प्राकृतत्वात् । उत्त०२० । शत्रुंजयपर्वतस्य मूलनायकोदारकर्त्तरि खनामा साथी, ती० १ कल्प ।
समरवद्दिय- समरयथित त्रि० संग्रामे ते ०७० ३० समरभड -- समरभट - पुं० । संग्रामभेदे, प्रश्न० ३ श्र० द्वार । समरसावत्ति - समरसापत्ति - स्त्री० । समे भावे रसोऽभिलाषो
यस्यां सा समरसा सा चासावापत्तिश्च प्राप्तिरधिमतिरधिगम इत्यनर्थान्तरम् [पो० वि० समताप - ६ माहित सर्वज्ञरूपोपयोगोपयुक्तस्य तपोयोगानन्यवृत्तैः परमायतः स्वर्यरूपत्ययाद्यालम्बनाकारोपयुक्त पेन मनसो ध्यानविशेषरूपायां तत्फलभूतायां वा समाप्ती ०२
द्वार ।
"
समयसा- समयसंज्ञा स्त्री० श्रागमपरिभाषाथाम् १० समरसीह समरसिंह पुं० खनामख्याते मेदपाट (मेवाड)१३०३ प्रक०
शाधिपती, सी० १६ कल्प
समराइच - समरादित्य - पुं० । स्वनामख्याते राजनि, तश्चरित्रं श्रीहरिभद्रसूरिकृतं समरादित्यचरित्रादवसेयम् । ध० २ अधि० ।
समयसम्भाव- समयसद्भाव-पुं० । सिद्धान्तार्थे, आव०४ श्र० समयसागर - समयसागर - पुं० । समयः - श्रागमस्तस्य सामर इव रत्नाकरः । स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, स्था० २ ठा० ३७० ॥ समयसिद्ध समयसिद्ध त्रि० । श्रागमोक्त्रे, पञ्चा० १६ विव० । समयसुन्दर समयसुन्दरपुं० [सफलचन्द्र म । सकलचन्द्रगणिशिष्ये, १६८६ संवत्सरे गाथासाहस्त्री विवादशतकं दशवैकालिकटी
"
का चेति ग्रन्था रचिताः । जै० ३० । समयसो - समयशस-अय० समयेनेत्यर्थे ० ० १ ० समया समता- स्त्री० समो रागद्वेपमध्यस्थस्तद्भावस्तत्ता । श्रा० म० १ श्र० । समभावे, श्राचा० १ श्रु० ३ श्र० १ उ० । सूत्र० । श्रा० चू० । श्रात्मपरतुल्यतायाम्, सूत्र० १ श्रु० २ श्र० ३ उ० । अरक्काद्विष्टतायाम्, अ० १४ अ० । सामायिके, रागद्वेषविरहे सूत्र० १ ० १४ अ० । श्र० चू० । श्राचा० | माध्यस्थे, आचा० १ श्रु० ८०२ उ० । यो० बि० ।
3
>
समयाजोगि- समतायोगिन् पुं० । ध्यानबलेन भस्मीभूतमोइकर्मातप्तत्वादिपरिणतिरहिते योगिनि अष्ट० ६ अष्ट० । समताखुपेहि (ए) - समतानुप्रचिन्त्र समता ि शीतमस्पति समताद्विप्यरहिते, सूत्र० १०
7
१० अ० ।
समयातीय- समयातीत प्रि० । आगमादतिका सूत्र श्रु० ६ श्र० ।
समयाभाव समतानुभाव-पुं० कालविशेषसामर्थ्यं भ० ७ श० ६ श्र० ।
समवाइकारण १२५ ॥ इत्यने नात्र बकारस्य मकारः । समरो। प्रा० । वन्यमनुष्यक्षातिभेदे, को० । अष्ट० ।
समर - पुं० । जनमरकयुक्ते, प्र० ३ श्राश्र० द्वार । संग्रामे, शा० १ ० १ ० । उत्त० ।
समरीइय- समरीचिक- त्रि० । बहिर्विनिर्गतकिरणजालसहिते. जी० ३ प्रति० । स० । रा० । श्री० । समल्लीण- समालीन - त्रि० । श्रासने, झा० १४० १ अ० ।
आ० म० ।
"
समलेस्स समलेश्य - मि० श्यया तुये भ० १ ० २४० । ( अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः । ) समवप्प - समवर्ण - त्रि० । वर्षातस्तुल्ये भ० १ ० २ ३० । ( अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नव भागे गतः । ) समवतार समवतार पुं० सम्यगवतार नि० ० १ ३० । समवया-समवयस्-त्रि० । सवयस्ये, सूत्र० १ श्रु० १४ अ० । समवसरण - समवसरण - न० । अवसरण करणे, हो० २ प्रका० । औपपातिकदेवतानिमिते जनधर्मदेशने २० 'समोसर' शंस्मय भाग व्याख्यां वक्ष्यामि।) समवसरण बिंचरूव- समवसरणबिम्बरूप- न० । समवसरणे जिनधर्मदेशनार्थमपपातिकदेवता निर्मितानि तस्यैव विवा नि प्रतिकृतयस्तेषामिव रूपं स्वभावो यस्य स समवसरण - विम्वरूपः । विशिष्टरूपे चतुर्मुख, पञ्चा० २ विव० । समवाइ कारण समवायिकारण न० सम्-एकशब्दः अन्य मती इस गती या अपृथग्गमनं समवायः-संश्लेषः स विद्यते येषां ते समवायिनस्तन्तवः, यस्मात्तेषु पटः समवैति इति । समवायिनश्वत
भाग
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समकाइकारण
कारणं च समवायिकारणम्, तन्तु संयोगास्तु कारणरूपद्रव्यान्तरधर्मत्वेन पाण्यकार्यद्रव्यान्तरवसित्वात्समवायिनस्त एव कारणम् । कारणभेदे, विशे० आ० चू० । ('कारण' शब्देा ४६५ मुक्रम्। । समवाय-समवाय-पुं० । समययनं समवायः । बलिजादीनां संघाते, पिं० । घोघ० । गोष्ठीनां मेलापके, आ० म० १ अ० । आचा० । समिति सम्ययवैत्याधिक्येन श्रयनमयः परिच्छेदो जीवाजीबादिविविधपदार्थसार्थस्व यस्मिन्नसौ समवायः । समवयन्ति समवतरन्ति संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवायः चतु थेऽङ्गे, स०१ सम० । पा० । अनु० नं० । ० ।
से किं तं समवाए ?, समवाएयं ससमया सूइजंति परसमया सूइति ससमयपरसमया सूजंति • जाव लोगालोगा अंति । समवाएणं एकाइयास एगड्डाणं एगुतरियं परिबुट्टी वालसंगरस य गणिषिडगस्स पल्लव ग्गे समगाइजर, ठाणगसयस्स य चारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समायारे
हिजति, तत्थ य खाखाविहप्पगारा जीवाजीवा यवथिया बित्थरे, अरे बिहुविदा विसेसा नरगतिरियमचसुरगणा आहारुस्यासलेसा भावाससंस्था यप्पमाण उववायचवण उग्गहणो वहिवेयणा विहाराउवयोगजोगा इंदियकमाया विविहा व जीवजोशी विक्वं सेहपरिश्यप्यमानं विदिविसमा य मंदरादीगं महीधराणं कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चैव चकहरहलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अ
य एवम एत्थ चित्रे अत्था समाहिति । समवायरस गं परित्ता वायणा० जाव से ग अङ्गयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्खंधे एगे उद्देसणकाले एगे समुदेसनकाले एगे चउवाले पदसहस्से पदग्गेणं पयता, संखेजाणि अक्खराणि० जाव चरणकरण परूवण्या आघचिति । सेयं समाए (सू० १३६ ) स०
( ४२३ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
66
समवायवच्छेदो, तस्स हि होर्हिति वासां । मा दरगोत्तस्स इह, संभूतजतिस्स मरणम्मि " ति० । संबन्धविशे०म० अ० अयुनसिद्धानाम कार्या १ । धारभूतानाम् इहेति प्रत्यय हेतौ सम्बन्धे, सम्म० ३ काण्ड । स्या० । ( अत्रत्या व्याख्या 'शब्दे
सूत्र० ।
धम्म
चतुर्थभागे २६६४ पृष्ठतो द्रष्टव्या । समसिम - समविषम- त्रि० । अनुकूलप्रतिकृले शय्यासनादी,
सूत्र० १ श्रु० २ ० २ उ० ।
समवेयण - समवेदन - त्रि० । वेदनया तुल्ये, भ० १ ० २० समसरण - समसंज्ञ - त्रि० । तुल्यबुद्धौ, श्राव० ५ ० ।
.
समाण
समसहाव- समस्यभाव- पुं० । समः- तुल्यः स्वभावः-स्वरूपं यस्य तत्तथा । तुल्यरूप, स० २३ सम० । समसार - शमसार - त्रि० । समप्रधाने, द्वा० २३ द्वा० । समसील - शमशील त्रि० समस्यमात्र, अष्ट० ३ अष्ट० । समगुहदुक्ख- समसुखदुःख वि० विगतरागे, पं००३
।
।
कल्प |
समसुहाकिरा - शमसुधाकिरा - स्त्री० । क्रोधादिपरित्यागः समस्तंदेव सुधा श्रमृतं तस्याः किरलं किरा सेवनं यस्याः सा तथा । शमतामृतमयां हौ, अ० २ श्र० । सममेदि - समश्रेणि-श्री०० समस्सा- समस्या स्त्री० समस्यते संक्षिप्यतेन सम्अस् क्यप् । संक्षेपेण उक्तस्य श्लोकपदादेः परकृतन स्वकृतेन वा अवशेषेण भागान्तरेण संघटनार्थ कृत प्रश्ने, वाच० । श्रा० म० १ श्र० ।
1
समासमा खी० आत्मपरतुश्वतायाम् दर्श० १ तस्व संवत्सरात्मके कालविशेषे, व्य० ३ उ० । स्था० ।
दो समाओ पद्मचाओ, तं जहा उस्सप्पिणी समा चेव, श्रसप्पिणी समा चैव स्था० २ ठा० १३० ('लोक' शब्दे भागे बिस्तरो गतः । ) समाइएण समाची त्रि० भाद्रपद चतुर्थीपणादावरि जी० १ प्रति० । समाउ- समायुष्- त्रि० उदयापेक्षया समकालावुप उदथे,
।
भ० २६ श० १ ३० ।
समाउत्त-समायुक्त - त्रि० । युक्ते, सूत्र० १ ० १
उ० ॥ श्र० ।
"
समाउय - समायुष्क- न० | आयुषा तुल्ये, भ० ६ ० १ उ० । ( अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तः । ) समाउल - समाकुल- त्रि० । सम्मिश्रे, जी० ३ प्रति०४ अधि० ।
० ३
ॐ० । रा० । उत्त० ।
। श्राव०
समायोग- समायोग- पुं०। सम्यग आयोगः समायोगः खाय १ श्र० । ० | स्थिरीभावे, स्था० ४ ठा० ४ उ० । समागम - समागम - ० परस्परंडा किपरियासमुदाये, अनु संयोगे एकीभवने समुद अनु संपर्क, व्य० ६ उ० । प्राप्तौ सूत्र० १ ० ७ श्र० । । पं० । समागय-समागत- त्रि० एकीभूते १० २०३ द्वार स्थान समाय- भुज-धा० जेमने, “भुजो भुख-जिम-जैम-कम्माएह- समाण- चमढ चड्डाः ॥ ८ । ४ । ११० ॥ इति भुजः समाणादेशः । समाणइ । भुङ्क्ते । प्रा० ४ पाद । समापेः समाः ||४|१४२॥ समाप्-धा० । समाप्ती, इत्यनेनात्र समाप्नांतवैकल्पिकः समान प्रदेशः । समागइ । समावइ । प्रा० ४ पाद |
33
समान त्रि० । सम, नि० चू०४ उ० । उत्त० । ० । सदृशे, उत्त० ३२ अ० । ज्ञा० ।
וי
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समाप
सत्-त्रि० । विद्यमाने, स्था० ३ ठा० १ ३० ज्ञा०| श्राचा० । प्रश्न० । श्रौत्तराहे श्रशतिकेन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० । समाणइत्ता-समाप्य श्रव्य०।समाप्तिं नीत्वेत्यर्थे, श्राव०५० समायकप्प- समाणकल्प पुं० तुझ्याध्यवसाये कल्प० १ अधि० ६ क्षण ।
समाणी सती - बी० ॥ विद्यमानायाम् प्रा० ११ पद । जं० समाणु समम्- - अव्य० । एवं - परं - समं - ध्रुवं-मा-मनाक- एम्ब-पर-समाणु- ध्रुवु मं-मगाउं " ॥ ८४४१८६ ॥ श्र नेन अपभ्रंशेऽर्थे सममः समाणु इत्यादेशः । सहार्थे, समाछु । समम् । प्रा० ४ पाद ।
समादहमाण- समादहत् - त्रि० । शीतस्पर्शे सहमाने, श्रचा० १ श्रु० ६ श्र० २ उ० ।
समादाण - समादान - न० । ग्रहणे, सूत्र० २ ० २८० ॥ समादाय समादाय - अव्य०। गृहीत्वेत्यर्थे, श्राचा० १ ० ३ श्र० १ उ० । सूत्र० ।
समादेज समादेव त्रि० प्राझे, विशे० समादेस - समादेश- पुं० । निर्ग्रन्थानां साधूनां कृते श्रीदेशि कभेदे, ध० ३ श्रधि० । समाय-सयवाय- पुं० । समवायनं समवायः, प्राकृतत्वेन व समारंभमाण-समारम्भमाणकारलोपः । सम्यकपरिच्छेदे सद्धेतौ समो रागद्वेषरहित्वादयो गमनं समायः 1 श्रा० म० [१] [अ०] समो रागद्वेषवियुको यः सर्वभूतान्यात्मबत्पश्यति अयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः । सम
च ।
"
श्रयो - - :
"
।
स्यायः समापः । समो हि प्रतिज्ञानदर्शन- समारंभावण-समारम्भण- १० समझाने, झाचा १०
अ० २ उ० ।
"
वयेर्निरुपमसुखदेतुभिः अधः कृतचिन्तामणिकल्प भैर्युज्य । । ते स एव समाय: आय० ६ अ० अ० सामायिके, आव० ६ अ० | सूत्र० स्था० । चतुर्थेऽङ्ग, स० १३६ सूत्र । समा (म)फ० युगपत् २०२२ ० १ ० प - । । " वादे, सूत्र० १० ८ श्र० ।
( ४२४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
समायकरण- समायकरण - न० । समतासमागमपरिज्ञाननि
मिरेखाकरणे ०२ पाहु
। ।
समायरंत- समाचरतु त्रि० सेवमाने, पं० ० १ द्वार कुर्व ति, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
3
समायरण - समाचरण - न० करणे, सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० । समायरित्ता- समाचर्य-अव्य०। कृत्वेत्यर्थे, विपा० १ ० १ श्र० । समायरियब्द- समाचरितव्य वि० संध्ये खा० ६ ० । समायाण- समादान - न० । ग्रहणे, श्राचा० १ श्रु०५ श्र० ३३० । समायार- समाचार - पुं० । समाचरं समाचारः । श्रनुष्ठाने, श्राचा० १ ० १ श्र० ५ उ० । सूत्र० । स्था० । शिष्टाजनाचरिते क्रियाकलापे, अनु० । स्था० । समायारग-समाचारक5- त्रि० । समाचरतीति समाचारकः ।
कर्त्तरि, नं० आ० म० । समायारी- समाचारी स्त्री० समायरणे, पं० ५० ५ द्वार व्य० | ती० जी० । उत्त० | हा० । ( 'सामायारी' शब्दे श्र स्मिन्नेव भागे दशधा सामाचारी वक्ष्यते । )
-
1
समार-सम् आ रच्-धा० । निर्माणे, “समारचेरुवहत्थ-सार व-समार- केलायाः" || ८ | ४ | ६५ ॥ श्रनेन समारचेः समारादेशः । समारइ । समारचयति । प्रा० ४ पाद । समारंभ समारम्भ-पुं० उपादानहेती, आचा० १ ० १ १ ० १ उ० । परितापकरे व्यापारे व्य० १ उ० | व्यापादने, सूत्र० १ ० १ ० २ उ० । परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनध्याने, दशा० । त्रिविधः समारम्भः मानसिकवाचिक काधिकभेदात् तत्र मानसिक मन्त्रादिष्यानम् परमार हेतोः प्रथमः समारम्भः परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनध्यानम् । वाचिको यथा श्रारम्भः परव्यापदनसमक्षुद्रविद्यादिपरावर्तनासंकल्पसूचको ध्यनिरेव समारम्भः । परपरितापकरमन्त्रादिपरावर्त्तनम् । कायिको यथा श्ररम्भोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं, समारम्भः परितापकरो मुपट्याद्यभिघातः। दशा०६ श्र० । अङ्गारकर्मणि, पं० सू०१ सूत्र। "संकथ्यो संरंभो, परितापको भवे समारंभ" ०३०३ उ० | स्था० । नि० चू० । श्राचा० । उत्त० । सूत्र० । जीवोपमर्दे, सूत्र० १० ११ अ० । प्रस्थापने, विशे० । सेवने, सूत्र०१ श्रु० ८ श्र० । आचा० । ताडने, सूत्र० १० ५ ० २३० ॥ आचा० । स्था० समारंभमाण-समारम्भमाणु त्रि० । समारम्भं कुर्बति खा० १० ठा० ३ ० । जीवानां विनाशके, औ० व्यापादयति, स्था० ६ ठा० ३ उ० | संघट्टादीनां विषयीकुर्वति, स्था० ५
ठा० २ उ० ।
"
त्रि० । समारंभि(न्) -समारम्भिन् भि० कृतसमारम्भे, कर्त्तरि, आचा० १ ० १ ०५३० । समारंभत्ता समारभ्य-श्रव्य
।
प्रश्वास्येत्वर्थे सूत्र० १
श्रु० ५ ० १ उ० ।
समाशेव- समारोप पुं० । अतस्मिन् तद्व्यवसाये, तर कारे पदार्थे तत्प्रकारतानिये (राना ०१ परि०) यथा - णिके अक्षणिकज्ञानम् । सम्म० १ काण्ड |
"
समारोह समारोह पुं० सम्यगमने आय०४० समालवण- समालपन न० अतिविषयत्वादल्पाएरेरसम्यगवबोधे, सूत्र० १ श्रु० १४ अ० ।
समाव समापधा० । समाप्तिनयने, " समापेः समाणः || ८ | ४ | १४२ ॥ अनेन पाक्षिकः समाखादेशः । तत्पक्षे-समावेइ । समापयति । प्रा० ४ पाद ।
समावडिय समापतितत्र समापत्रे, श्री० प्रश्न० समावम समापन - त्रि० । निष्ठानयन, आव० ३ श्र० । भ० । श्राचा० । समागते, सूत्र० १ ० ३ श्र० ३ उ० | सम्यगापने, प्राप्ते, आचा० १ ० ५ ० ५३० । समायचि समापति-श्रीपादने, द्वा० २२ द्वा० । प्रति० । पो० ।
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(४२५) समावत्ति अभिधानराजेन्द्रः।
समाहि मनोविम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिं परात्मनः । समासिय--समाश्रित-त्रि० । श्रभ्युपगवति, प्रा०म०११०। क्षीणवृत्तिर्भवेद् ध्याना-दन्तरात्मनि निर्मितम् ॥१॥ समासिक-न० । द्वयोबहूनां वा पदानां समसनं-संद्वा० २२ द्वा०।
लीन समासस्तनिर्वृत्तं समासिकम् । समासजे नामनि, ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६३० पृष्ठे व्याख्यातमिदम् ।)
अनु० । यथा राजपुरुषोऽयमिति । अत्र तत्पुरुष समासे कर्त
व्ये विशेषण समासकरणं बहुव्रीहिसमासकरणम् । यदिवासमावर्यत-समापतत-त्रि०। एकीभावेनाभिमुखं पति, दश०
अत्र समासकरणं, यथा-राक्षः पुरुषोऽयमिति । श्रा० म० १ श्र०३ उ०।
१०। समाविभाग-समाविभाग-पुं० कालविभागे, ज्यो०६ पाहु समाह-समाहृत्य-श्रव्य० । सम्यगुपादायेत्यर्थे, सूत्र. १ समास-समास-पुं० । असुक्षपणे, असनमासः क्षेप इत्यर्थः, श्रु०८ अ०। शोभनमसन समासः । संसाराद्वहिर्जीवात् कर्मणो वा क्ष- सवाहड-समाहृत-त्रि० । शुद्धे, प्राचा०२ थु०१ चू०१० पणे, प्रा० म० अ०। संक्षेपे, सामान्ये, ओघा सामायिके, ३ उ० । अङ्गीकृते सूत्र०२ श्रु०२ अ०। विशे० । संशब्दः प्रशंसायाम् , असु क्षेपणे, शोभनमसनं
सयाहय-समाहत-त्रि० । परस्परेणोपहते , प्रश्न०३ पाश्र० संसाराद्वहिर्जीवस्य जीवात्कर्मणो वा क्षपण समासः। द्वारा अभिभते. प्रश्न०४ श्राश्रद्वार । रा०। अमनोशे,प्रश्न अथवा-संशब्दः सम्यगर्थः सम्यगासः समासः । रागद्वे
३ श्राश्र० द्वार। परहितस्य समस्य वा श्रासः समासः । विशे० । 'अप्पक्खरं समासो' त्ति-महार्थत्वे उध्यल्पाक्षरत्वात्सामायिकं समास
समाहरण-समाहरण-न० । गोपने, उपसंहरणे, सूत्र. १ उच्यते । 'अहवाऽऽसो सण' त्ति-अथवा-असु क्षेपण इ
श्रु०८ श्र० । विस्रोतसिकाराहित्येनादाने, सूत्र.१ श्रु०८ अ० त्यस्य धातोयुत्पाद्यते । श्राकारश्वेह प्रश्लिष्टो द्रष्टव्यः ततश्च समाहारण-समाधान-ना विषयाद्यान्सुक्यनिवृत्तिलक्षणे स्वाअसनमासो जीवात्कर्मणः क्षेप इत्यर्थः । णकारस्यानुस्वार- स्थ्ये, अनु०। श्राव०। सम्यगाख्याने, सूत्र०२७० २ अ०। श्वेह लुप्तो दृश्यः । समशब्दार्थमाह-'महासणं सवे'त्ति-अव्य- अनादिकालात्संहत्यावस्थाने, धातूनामनेकार्थत्वात् । वियानामनेकार्थवान्महत्कर्मणोऽसन समसन समासः। वा इति शे। वित्तसमाधाने, श्रा० चू० अथवा, सच्छोभनमसनं समासः कर्मक्षेपणस्य शोभन
तत्रोदाहरणम्स्वादिति । अथवा--सम्यगर्थे समर्थे वा संशब्दः । तत्कि
णयरं सुदंसणपुरं, सुसुणाए सुजस सुव्वए चेव । मित्याह-'सम्म समस्स वाऽऽसो' त्ति-सम्यक समस्य वा रागद्वेषरहितस्यासः कर्मक्षेप इति कृत्वा सामायिकं स
पव्वज्ज सिक्खमादी,एगविहारे य फासणया॥१२६८।। मासो भवति । विशे० प्रा० चू०। (कथा 'चिलाईपुत्त'। सुदंसणं पुरं नगरं, सुसुणागो गाहाबई, सुजसा शब्दे तृतीयभागे ११८८ पृष्ठे गता । ) संक्षेप , से भज्जा, सहाणि ताण सुबत्तो पुत्तो णाम सुहेण नं। प्रातु । श्राचा०। प्रा० म०। पश्चा० । रा०। विशे०।
गठभे अच्छितो, सुहण जातो, एवं बडितो, एवं० जाव उत्त० पा० । स्था० । अनु०।' समास' त्ति-संशब्दः प्रशं
जोवणत्थो संयुद्धो, आपुच्छिता पब्वइतो पडितो, सायामसु क्षपणे । शोभनमसनम्-संक्षेपण विस्तरवतः सं
एगलविहारपडिम पडियमो । सकपसंसा, देवेहि कोचनं समासः । पदानामेकीकरण , प्रश्न० २ संव० द्वार।
परिक्खिता । अणुकूलण धराणो, कुमारबंभयारी एकण ,
वितिएण को एआओ कुलसंनाणच्छदगाओ अधमोसे किं तं समासिए ?, समासिए सत्त समासा भवंति, तं
ति?,सो भगवं समो । एवं मातापिताणि से विसयपसजहा-“दंदे अ बहुव्वीही,कम्मधारए दिग्गू अ । तप्पुरिसे त्ताणि दं सताणि । पच्छा मारिजंतगाणि कलुण कर्वेति, तअब्बईभावे, एक्कसेसे असत्तमे" ॥१॥ अनु० । हा वि समो। पच्छा सव्व तुट्ठा विउवित्ता दिवाए इस्थिद्वयोर्बहूनां पदानां वा समसन--संमीलनं समासः। अनु०॥ गाए सविघ्भमं , पलोइयं मुक्कदीहनीसासमवगूढो तहा वि (द्वन्द्वादिपदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने।)
संजम समाहिततगे, जातो गाणं उप्पल जाव सिद्धो । श्रा० समासमो-समासतस्-अव्य० । संक्षेपेणेत्यर्थे , नि० चू० १
चू०४ अ०। श्राव।
समाहार-समाहार-पुं० । समानाहार, प्रशा० १७ पद १ उ० । कर्म।
उ०। (अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) समासज-समासाद्य-अव्य०। प्राप्येत्यर्थे . श्राचा०१०
समाहारा-समाहारा-स्त्री० । द्वादश्यां गत्रितिथी, ज०७व८०८ उ०॥
क्ष०ा ज्यो । दक्षिणचरुकवास्तव्यायां दिक्कमारीमहत्तरिकासमासण-समासन--न० । समानोपवेशने, आव०४ अ० ।
याम् , प्रा० चू० १ अथ। प्रा० म० । द्वी०। जं. । श्रा० समासत्थ--समासार्थ--पुं० । संक्षिप्ताथै, श्रा०म०१०।।
क० ।
स्थाच० प्र० । समासदोस-समासदोष-पुं० । समासव्यत्यये , श्रा० म०१ ममादि समाधि--पं० । समाधानं समाधिः । सम्यग्मोक्षमाश्र० । यत्र समासविधिः प्राप्त समास न करोति , व्यत्य- गवस्थान, स०२० सम । रागद्वेषपरित्यागरूप धर्मध्या. येन वा करोति, तत्र समासदोषः । अनु । विशे० ।
ने, सूत्र० १०२ अ०२ उ० । स्वास्थ्ये, प्रा० म०२०।
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समाहि
चेतः स्वास्थ्ये, स० ३२ सम० । श्राचा० । ग्रा० चू० । श्रावण ध० । नीरोगतायाम्, व्य० १ उ० । उत्त० । इन्द्रियप्रणिधान, श्राचा० १ ० ६ ० ४ उ० । योग, उत्त० २ श्र० । धर्मध्यानादिके, सूत्र० १० २ श्र०३ उ० । सम्यगवस्थाने, सू० १४० १४ श्र० । सम्यग्दर्शनादिकायां मोक्षपद्धती, सूत्र ० १ ० १३ श्र० । प्रशमवाहितायां ज्ञानादौ च । स्था० ४ ठा० १ उ० । एकाग्रे निरुद्ध चित्ते समाधिरिति । द्वा० ११ द्वा० । ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके चित्तस्वास्थ्ये, श्राचा० १ ० ५ ० ५ उ० । प्रशस्तभावे, स्था० २ ठा० ३ उ० । समाधानं समाभिः स च द्रव्यभावभेदात् द्विविधः तत्र यसमाधियउपयोगात् स्वास्थ्ये अनि येषां या विरोध इति भावसमाधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव सदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययोगादिति यतध्यायमित्य समाधियवच्छे दार्थमाह-परं प्रधानं भावसमाथिमित्यर्थः ० २ श्र० । प्र० | सन्मार्गानुष्ठाने, ध० ३ अधि० । द्वा० । प्रशान्तवाहिता पृतेः संस्कारात स्वान्निरोधजात् । प्रादुर्भाव तिरोभाव, तद्व्युत्थानजयोरयम् ।। २३ ।। प्रशान्तेति प्रशान्तवाहिता परितविशेषतया स वाहपरिणामिता, वृत्तेर्वृत्तिमयस्य चित्तस्य निरोधजात् संस्कारात् स्यात्, तदाह - " तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात् " ( ३- १० ) । कोऽयं ?, निरोध एवेत्यत श्राह - तद्व्युत्थानजयोनिरोधजन्युमानजयोः संस्कारयोः प्रादुर्भावतिरोभावी वर्तमानाभ्याभिव्यक्ति कार्यकरणासामर्थ्यावस्था नलक्षणौ, प्रयं निरोधः चलत्वेऽपि गुणवृत्तस्योक्लोभयक्षयवृतित्यायन चितस्य तथाविधस्वर्थमादाय निरोधपरिगामशब्दव्यवहारात् । तदुक्तम् - " व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भाव निरोधक्षणांचा ऽन्ययो निरोधपरिणाम" इति (३) । सर्वार्थतैकाग्रतयोः समाधिस्तु चयोदयी । तुल्याचेकाग्रताशान्तोदितौ च प्रत्ययाविह ॥ २४ ॥ सर्वात सर्वाधता-चलानानाविधग्रहणम चित स्य विक्षेपो-धर्मः; एकाग्रता - एकस्मिन्नेवाऽऽलम्बने सदृशपरिमिता तयोः अत्यन्ताभिभवाभिव्यक्तिक्षी समाधिरुद्रिकस्यचित्तान्यवितयाथिनः समा धिपरिणामोऽभिधीयते । यदुक्तम् - " सर्वार्थतैकाग्रतयोः सादी वित्तस्य समाधिपरिणामः" इति ( ३- ११ ) पूर्वत्र विक्षेपस्याभिभवमात्रम्, इह त्वत्यन्ताभिभवोऽनुत्पतिरूपतीयप्रवेश इत्यनयोर्भेदः इहाधिकृतदर्शने तु यांवकरूपालम्बनसिरी शादी एवर्त्तमानाच्चस्फुरितच प्रत्ययौ एकाग्रता उच्यते स माहितचित्तान्वयिनी । तदुक्तम्- "शान्तोदितौ हि तु (तौ तु) पत्ययी चित्तस्यैकाग्रता परिणामः " ( ३- २२ ) । नचैव मन्यस्यतिरेकवस्त्यसंभवः यतोऽन्यत्रापि धर्मज्ञसाथस्थापरिणामः पूर्वधर्मनिवृत्तात्तरमापत्तिर्धर्मपरिणामः, यथा मुद्रणस्य धर्मिणः पिण्डरूपधर्मपरित्यागेन घटरूपधर्मान्तरस्वीकारः । लक्षसपरिणा मश्च यथा-तस्यैव घटस्यानागताऽध्यपरित्यागेन वर्त्तमानाध्वस्वीकारः, तत्परित्यागेन वाऽतीताध्वपरिग्रहः । अवस्था
( ४२६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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समाहि परिणामश्च यथा तस्य घटस्य प्रथमद्वितीययोः क्षणयोः सदृशयोरन्यत्वेन चलगुणवृत्तीनां गुणपरिणामनं धर्मी - व शान्तादिषु शक्तिरूप स्थितेषु सर्वत्र सर्वात्मकन्य पदेशेषु धर्मेषु ते पापडघटादिषु मृदेव प्रतिक्षणमन्यान्यस्याद्विपरिणामाम्यत्यम् । रात्र केचित्परिणामाः प्रत्ययोपलक्ष्यते यथा सुखादया सं स्थानादयो वा । केहिचानुमानगम्या, यथा-कर्मसंस्कारशक्तिप्रभृतयः । धर्मिणश्च भिन्नाभिन्नरूपतया सर्वत्रानुगम इति न काचिदनुपपत्तिः तदिदमुक्तम्-" एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याताः " (३-१३ ) । " शामनोहितान्यपदेश्य धर्मानुपाती धर्मी (३-१४ ) क्रमायत्वं परिणामान्य हेतुरिति (३-१५) ३२४॥ द्वा०) (२५ श्लोकः सप्पावित्तिपयाचा शब्देऽस्मिक्षेत्र भांग मतः । ) ( २६ श्लोकः ' परा ' शब्दे पश्चमभागे ५४६ पृष्ठे गतः । ) स्वरूपमात्रनिर्मास, समाधियनमेव हि । विभागमनतिक्रम्य परे ध्यानफलं विदुः ॥ २७॥ स्वरूपेति-स्वरूपमात्र ध्येयस्वरूपमात्रस्य निर्मासो यत्र तत्तथा । अर्थाकारसमावेशेन भूतार्थरूपतया यग्भूतानस्वरूपतया च ज्ञानस्वरूपशून्यतापत्तेः ध्यानमेव हि समाधिः । तदुक्तम् - " तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः" इति। ( ३-३) विभागमा योगः इति प्रि मनतिक्रम्यानु परे ध्यानफलं समाधिरिति विदुः । निराचारपदी वस्या मतः स्वानातिचारभा ।
""
चेष्टा चास्याखिला भुक्त भोजनाभाववन्मता ||२८|| निराचारेति - अस्यां दृष्टौ योगी नातिचारभाकू स्यात् तनि बन्धनाभावात् । अतो निराचारपदः प्रतिक्रमाद्यभावात् । नेश साम्येतदुष्टिमतोऽखिला भोजनाभाववन्ता - वारजेयकर्माभावात् तस्य सिदि च्छा विघटनात् ।
कथं तर्हि भिक्षाटनाद्याचारोऽत्रेत्यत आहरत्नशिक्षागन्या हि, तन्नियोजनदृग्यथा । फलभेदात्तथाचार - क्रियाऽप्यस्य विभिद्यते ॥ २६ ॥ रामेति रत्मशिक्षादशोऽन्या हि यथा शिक्षितस्य सतस्ननियोजन तथाऽऽचार किया उपस्थ मिचाटनादिलक्ष फलभेदादिभियत पूर्व हि साम्परायिककर्मः फलम् इदानीं तु भवपादिकर्मक्षय इति ।
कृतकृत्यो यथा रत्न- नियोगाद्रत्न विद्भवेत् । तथाऽयं धर्मसंन्यास - विनियोगान्महामुनिः ॥ ३०॥ कृतकृत्य इति यथा रत्नस्य नियोगात् शुद्धदृष्ट्या यथेच्छव्यापाराद्वणिग् रत्नवाणिज्यकारि कृतकृत्यो भवेत् तथाऽयमधिकृतदस्यि धर्मसंन्यासविनियोगात् द्वितीयाक रणे महामुनिः कृतकृत्यो भवति ।
3
"
केवल श्रियमासाद्य सर्वलब्धिफलान्विताम् ।
"
,
परंपरार्थ संपाद्य ततो योगान्तमश्नुते ।। ३१ । केवलेति केवलश्रियं केवलज्ञानलक्ष्मीमासाद्य प्राप्य सर्वलब्धफलान्वितां सर्वोत्सुक्यनिवृत्या परंपरा यथा मन्ये सम्यक्त्वादिलक्षणं संपाद्य ततो योगान्तं योग पर्यन्तमश्नुते
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(४२७ ) समाहि अभिधानगजेन्द्रः।
समाहि प्राप्नोति।
चउसु वि समाहियप्पा, सम्मं चरणडिओ साहू॥१०६॥ तत्रायोगाद्योगमुख्या-द्भवोपग्राहिकर्मणाम् ।
आदीयते-गृह्यते प्रथमम्-यादौ यत्तदादानम् श्रादानं च क्षयं कृत्वा प्रयात्युच्चैः, परमानन्दमन्दिरम् ।। ३२॥ तत्पदं च सुबन्तं तिङन्तं वा तदादानपदं तेन 'श्राघ' ति तत्रेति-तत्र योगान्ते शैलेश्यवस्थायाम् अयोगाव्या- नामास्याध्ययनस्य, यस्मादध्ययनादाविदं सूत्रम्-"प्राचं पारात् योगमुख्यात् भवोपग्राहिणां कर्मणां क्षयं कृत्वा मईमं मणुवीइधम्म” इत्यादि, यथोत्तराध्ययनेषु चतुर्थउच्चैलोकान्ते परमाऽऽनन्दमन्दिरं प्रयाति । द्वा० २४ द्वा० । मध्ययनं प्रमादाप्रमादाभिधायकमप्यादानपदेन 'असंखय '
साम्प्रतं समाधिरुच्यते तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वाद- मित्युच्यते, गुणनिष्पन्नं पुनरस्याध्ययनस्य नाम समानादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाह
धिरिति, यस्मात्स एवात्र प्रतिपाद्यते, तं च समाधि दचं जेण व दवे-ण समाही आहिरं च जं दव्यं । नामादिना निक्षिप्य भावसमाधिनेह प्रकृतम्-अधिका
र इति । समाधिनिक्षेपार्थमाह-नामस्थापनाद्रब्यक्षेत्रकाभावसमाहि चउब्बिह-दंसपनाणे तवचरिते ॥३२७।।
लभावभेदात् ,पप तु समाधिनिक्षेपः षडविधो भवति । तुद्रव्यमिति-द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिर्यथा मात्र
शब्दो गुणनिष्पन्नस्यैव नाम्नो निक्षेपो भवतीत्यस्यार्थस्याकम् , अविरोधि वा क्षीरमुडादि, तथा येन वा द्र
विर्भावनार्थ इति । नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्याच्यणोपयुक्तच समाधिस्त्रिफलादिना तद् द्रव्यसमाधि
दिकमधिकृत्याह-पञ्चस्वपि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु रिति । तथा बाहितं वा यद् द्रव्यं समतां करोति तु
श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथास्वं प्राप्तौ सत्यां यस्तुष्टिविशेषः लारोपितषलशतादिवत् स्वस्थाने तत् द्रव्य समाधिरिति ।
स द्रव्यसमाधिः, तदन्यथा त्वसमाधिरिति । यदिवा-द्रउक्नो द्रव्यसमाधिः भाचसयाधिमाह--भावसमाधिः प्रश
व्ययोर्द्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न रस्तभावविरोधलक्षणश्चतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाह-दर्शनशान
सोपघातो भवति, अपितु रसपुष्टिः स द्रव्यसमाधिः । तपश्चारित्रेषु पतद्विषयो दर्शनादीनां व्यस्तानां समस्तानां तद्यथा-क्षीरशर्करयोदधिगुडचातुर्जातकादीनां चेति,येन वा चा सर्वथा अविरोध इति माथार्थः । दश६ अ० १ उ० । द्रव्येणोपभुक्तन समाधिपानकादिना समाधिर्भवति तद् द्रव्यं पा। उत्त। मोक्षे, सम्यग्याने, सदनुष्ठाने च । सूत्र० द्रव्यसमाधिः । तुलादापोरोपितं वा यद् द्रव्यं समतामुपै१ शु. ३ अ०३ उ० । स्था।
तीत्यादिको द्रव्यसमाधिरिति । क्षेत्रसमाधिस्तु यस्य य. दसबिहा समाही पण्णत्ता , तं जहा-पाणाइवायवेरमणे
स्मिन् क्षेत्र व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यामसावायरमणे अदिण्णादाणवेरमये मेहुणवेरमणे प- त् क्षेत्रसमाधिः । यस्मिन् वा क्षेत्रे समाधिया॑वर्यत इति । रिग्गहवेरमसे इद्रियासमिई मासासमिई एसणासमिई आ- कालसमाधिरपि यस्य यं कालमवाप्य समाधिरुत्पद्यते तद्ययाणउच्चारपासवणखेलसिंघाणगपारिट्ठावणियासमिई ।
था-शरदि गवां नक्कमुलूकानामहनि बलिभुजां, यस्य वा
यावन्तं काल समाधिर्भवति यस्मिन् वा काले समाधि(सू० ११४)
ाख्यायते स कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति । भासमाधान समाधिः, समता सामान्यतो रागाद्यभाव इस्यर्थः, स चोपाधिभेदात् दशधेति । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
वसमाधि त्यधिकृत्याह-भावसमाधिस्तु दर्शनशानतपसंथा। अनुष्ठाने,सूत्र०१ श्रु०१४ अ० सम्यगमार्गानुष्ठाने,
चारित्रभेदाच्चतुर्की, तत्र चतुर्विधमपि भावसमाधि ससूत्र.१ श्रु० १४ १०। गुर्वादीनां कार्यकारमाद्वारेण चित्त
मासतो गाथापश्चार्धेनाह-मुमुक्षुणा चर्यत इति चरण स्वास्थ्योत्पादने, शा०२ श्रृ०८ ० श्रा० का ('समाहाण'
तत्र सम्यक चरण चारित्रे व्यवस्थितः समुधुक्तः साशब्दे अस्मिन्नेव भागे कथानकम् ।) शुभलेश्याध्यव
धुः-मुनिश्चतुर्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनशानतपश्चारिसाये , दश०२~० । भारते वर्षे उत्सर्पिण्यां भविष्यति
त्ररूपेषु सभ्यगाहितो-व्यवस्थापित प्रान्मा येन स समाहिसप्तदशे तीर्थकरे , स०८४ सम० । ति । सत्तरसो रेवइजी
तात्मा भवति । इदमुक्तं भवति-यः सम्यक्चरण व्यवस्थितःवो समाही । ती०२ कल्प। समतायाम् ,प्रश्न०१ संवद्वार।
स चतुर्विधभावसमाधिसमाहितात्मा भवति । यो या धर्मे समाधिः कर्तव्यः, सम्यगाधीयते व्यवस्थाप्यते
भावसमाधिसमाहितात्मा भवति , स सम्यक्चरणे व्यमोक्षं तन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स
वस्थितो द्रष्टव्य इति । तथाहि-दर्शनसमाधौ व्यवस्थितोसमाधिः धर्मध्यानादिकः। स च सम्यग् ज्ञात्वा स्पर्शनी
जिनवचनभाषितान्तःकरणा निवातशरणप्रदीपवन कुमतियः । नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिरुदाह
वायुभिभ्राम्यते,शानसमाधिना तु यथा यथाऽपूर्व श्रुतमधीत आयाणपदेणाऽऽघं, गोणं नामं पुणो समाहि ति।
तथा तथाऽतीय भावसमाधावुद्युक्नो भवति । तथा चोक्तम्
"जह जह सुयमवगाहा, अइसयरसपसरसंजुयम उव्वं । मिक्खिविऊण समाहिं, भावसमाहीइ पगयं तु ॥१०३।।
तह तह पल्हाद मुणी , णवणवसंवेगसडाए ॥१॥" णाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेब भावे य ।। चारित्रसमाधाबपि विषयसुखनिःस्पृहतया निरिकश्चनोएसो उ समाहीए, णिक्खेवो छबिहो होइ ॥ १०४ ॥ ऽपि पर समाधिमानोति , तथा चोक्तम्-" तण संथारपंचसु विसएसु सुभेसु, दबम्मि त्ता भवे समाहि त्ति । णिसन्नो , ऽवि मुणिवरो भटुरागमयमोहो । जं
पावइ मुत्तिसुहं , कत्तो तं चकवट्टी वि? ॥१॥नैखत्तं तु जम्मि खत्ते, काले कालो जहिं जो उ ॥१०॥
वास्ति राजराज-स्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखभावसमाही चउब्धिह, दंसणणाणे तवे चरित्ते य। मिहैव साधो-लोकव्यापाररहितस्य " ॥ २ ॥ इत्यादि ,
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समाहि
तपःसमाधिनाऽपि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा सुदिप योज तथा अभ्यस्ताभ्यन्त तपोध्यानाश्रितमनाः स निवार्णस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यक्च रणव्ययथितो भवति साधुरिति ।
गतो नामणिक्षी निक्षेप साम्य सूत्रानुगमेऽस्थलि तादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चरणीयं तच्त्रेदम्
9
आप ममं मणुवीय धम्मं, अंजू समाहिं तमिगं सुखे । अपनि भिक्खू उ समाहिपते
याभूते परिव्वजा ॥ १ ॥ उ अयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाया । हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता,
अदिन्नममेय खो गहेखा ॥ २ ॥ सुक्खायधम्मेवितिमिच्छति
"
लाढे चरे आयतुले पयासु । श्रयं न कुजा इह जीवियट्ठी,
चयं न कुआ सुतवस्सि भिक्खू ॥ ३ ॥ सदियाभिनिष्यु पयासु,
चरे मुणी सव्वतो विष्पमुके ।
"
पासाहि पागे व पुढी पिसने,
तद्यथा--अ
दुक्खे अट्टे परितप्यमाणे ॥ ४ ॥ अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः शेषगारवपरिहारेण मुनिर्निर्वाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः समाख्यातवान्, एतच्च वक्ष्यमाणमाख्यातवा
निति, आध ति-- श्राख्यातवान् कोऽसौ ?--
6
"
(४२६ अभिधानराजेन्द्रः ।
"
,
,
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1
"
निमान-मनने मतिः- समार्थपति विद्यते यस्यासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः तत्रासधारणविशेषसोपादानादगृहाने असावपि प्रत्यासत्तेवर मानस्वामी गृह्यते किमाख्यातवान् धर्मचारित्रायं कथम् :- अनुविचिन्त्य केवलज्ञानेनान्याप्रज्ञापनायोग्य पदार्थांनाधित्य धर्म भाषते यदि वा-ग्राहकमनुविविश्य कस्यार्थस्यायं प्रहसमर्थः १ तथा कोऽयं पुरुषः ? कञ्च नतः ? किं वा दर्शनमापन्नः ? इत्येयं पर्यालोच्य धर्मभूषको वा मन्यन्ते यथा--प्रत्येक मस्मदभिप्रायमनुपिविमय भगवान् धर्मे भापते युगपसर्वेषां स्वभाषापरित्या संशयापगमादिति किं भूर्त धर्म भाषते ? - ऋजुम् - श्रवक्रं यथावस्थितवस्तुस्वरूपतिरूपणतो न यथा शाक्याः सर्वे क्षणिक भ्युद्गम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोषभयात्सन्तानाभ्युपगमं कृतवन्तः, तथा वनस्पतिमचेतत्येनाभ्युपगम्य स्वयं न हिन्दन्ति तच्छेदनादादुपदेशे तु ददति तथा कार्यापारिक हिरये स्वत न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रयं कारयग्नि तथा सांयाः सर्वमप्रयुतानुत्परिक स्वभाव नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्गदोषभयादाविर्भा वतिरोभावावाश्रितवन्त इत्यादिकौटिल्यभावपरिहारेणावकं
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"
म
समाहि तथ्यं धर्ममाख्यातवान्, तथा सम्यगाधीयते मोक्षं तन्मार्ग या प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते-व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणास धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान् । यदिवा-धर्ममाख्यातवाँसमाधि धर्मध्यानादिकमिति । सुधर्माम्याहतमिमं धर्म समाधि का भगवदुर्गादियम् । तद्यथा न विद्यते यहिकामुष्मिकरूपा प्रशिक तपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिहो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः श्रसावेव परमार्थतः साधुः, धर्म धर्मसमाधि प्राप्तोऽसावेंति (अपरि व्यरजा अस्य पदस्य व्याख्या अणिदाणभूय ' शब्दे प्रथमभागे ३३४ पृष्ठे गता ।) तथा प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्त्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकाभावभेदाच्चतुर्धा । तत्र क्षेत्रप्राणातिपातमधिकृत्याह-सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्षयायमधस्तिर्यक क्रियते। दया ऊपस्तिषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिचु विदिक्षु चेति, द्रव्यप्राणातिपातस्त्वयंत्रस्यन्तीति सा - द्वीन्द्रियादयो ये च स्थावराः पृथिव्यादयः चकारः खगतमेदसंसूचनार्थः, कालातिया तसंसूचनार्थी वा दिवा रात्रौ वा प्राणाः प्राणिनः, भावप्रांसातिपातं त्वाह-एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनो हस्तपादाभ्यां संचम्बा उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यथा या दवा से
दुःखात्पादनं कुर्यात् यदिवा एतान् प्राणिनो हस्ती पादी संयतकायः स हिस्यात् । चशब्दादुच्दासनिःश्वा सकासित क्षुतवात निसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाक्काय कर्मसु सेयतो भवन् भावसमाधिमनुपालयेत् । तथा परेर न गृह्णीयादिति तृतीय प्रतोपन्यासः अदत्तादाननिषेधाच्या र्थतः परिग्रहो निषिद्धो भवति, नापरिगृहीतमासेव्यत इति मैथुननिषेधयुक्तः समम्यकृपासनापायादो ऽप्यर्थता निरस्त इति दर्शनसमाधिमधित्याह- सुष्टुतः तचारित्रायो धर्मो न सानासौ स्वाख्यातधर्मा, श्रनेन ज्ञानसमाधिरुक्तो भवति, न हि विशिष्टपरिज्ञानमन्तरेण वयात धर्मत्यमुपपद्यत इति भावः । तथा विचिकित्सा - पित्तदनुनिर्दिगुप्सायां [वि] तीर्णः -- अतिक्रान्तः ' तदेव च निःशङ्कं यजिनैः प्रवेदित मित्यविशा न कविशितलु
दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केनचित्प्रासुकाहारोपकरणानि विधिनामानं या
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लाढः, स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरद्-अनुतिष्ठत् तथा प्रजायन्त इति प्रजाः - पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वारमातुल्यः, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति । तथा चोक्क्रम्-" जह मम पिये दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणुं । गु होइ हरणावेइ य, सममराई तेरण सो समणो ॥ १ ॥ यथा च ममाऽऽकुश्यमानस्याभ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो भवति । तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं का सुखेन जीविष्यामीत्यनव्यवसाया कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् । तथा चयम्- उपचयमाहारोपकरणादधनधान्यद्विपदपदादेवपरिग्रह संचयमायत्यर्थे सुष्ठु तपस्वी सुतपस्वी - विकृष्टतपोनिष्प्रप्त दहा भि
"
6
•
"
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समाहि
सुर्न कुर्यादिति ॥ ३ ॥ ( गाथापूर्वार्द्धव्याख्या ' इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे ६१४ पृष्ठे गता । ) स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्ा श्लोक पृथकपृथिव्यादिषु पुक्ष्मबादरपर्याप्त का पर्याप्तकभेदभिन्नान् सत्वान् प्राणिनः अपि शब्दावनस्पतिकाये साधारणशरीरिसा ऽनन्तानप्ये कामागतान् पश्य, किं भूतान् ? - दुःखेन - श्रसात वेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् अष्टप्रकारं कर्म तेनार्त्तान्- पीडितान् परिसमन्तात्संसारका धनेन परिपच्यमाना न-कथ्यमानान् यदिया- दुष्प्रणिहितेन्द्रियानाध्यानो पगतान्मनाचाकायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धों - गनीय इति ।
अपि च
एतेस वाले व पव्यमाणे,
आवडती कम्मसु पाचएमु । अतिवायतो कीरति पावकम्मे,
निउजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ ५ ॥ आदीयवित्तीयकरेति पार्थ,
(४१) अभिधानराजेन्द्रः ।
मंताउ एतसमाहिमाहु | बुद्धे समाही व रते विवेगे, पाणातिपाता विरते ठप्प ।। ६ ।। सर्व जगतृ समयाणुपेही,
पियमपि कस्स गो करेजा । उट्ठाय दो य पुणो विसनो,
संपूयणं चैव सिलोयकामी ॥ ७ ॥ आहाकडं चैव निकाममीणे,
नियामचारी व विसरणमेसी |
एतेषु प्राग् निर्दिष्टेषु प्रत्येक साधारण प्रकारेषूपता पक्रियया चालवत्पालः अदादितरोऽपि धनपरितापना द्रावणादिकेनानुष्ठानेन पापानि कर्माणि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषु
-
।
पापेषु कर्मसु सत्सु तेषु पापृथिव्यादिजन्मतः संस्ते नैव संघट्टनादिना प्रकारेणानन्तशः श्रावत्यंत पीड्यते दुःखभाग्भवतीति पाठान्तरं वा एवं तु वाले एवमित्युपदर्शने यथा चौरः पारदारिको वा श्रसदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान बन्धवधादींश्चेहावाप्नोत्येवं सामान्य ऐनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःखभाग्भवति 'आउट्टति लि कचित्पाठः, तत्राशुभान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा या तेभ्योऽनुनयः 'आउति सि-निवर्तते कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्त्तते निवर्त्तते वा इत्याशङ्कय तानि दर्शयति-अतिपाततः प्राणातिपाततः प्राणव्य
,
पडतोयाशुभम् ज्ञानावरणादिकं कर्म क्रियतेसमादीयते, तथा परांश्व भृत्यादीन् प्राणातिपातादी नियोजयन्-व्यापारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृपाचादादिकं च कुर्वन् कारयंश्च पापकं कर्म समुचिनोतीति ॥ २ ॥ किं चान्यत्-अ-समन्तादीना करवास्पदा वृत्तिःअनुष्ठानं यस्य कृपस्वीकादेः स भवत्यादीनवृत्तिः पत्र१०८
,
--
-
समाहि म्भूतोऽपि पाप कर्म करोति, पाठान्तरं वा (श्रादीनभोज्यपि पापं करोतीति ' श्रईणभार' शब्दे द्वितीयभाग ७ पृष्ठे गतम्) इम्पसमाधा हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेकान्तिका नात्यन्तिकाश्च भवन्ति, अन्ते श्रावश्यसमाधिमुत्पादयन्ति तथा बोक्रम्-" यद्यपि निषेध्यमाखा, मनसः परितुष्टिकारका विषयाः किम्पाकफलादनव-यन्ति पश्चादतिदुरन्ताः ॥ १ ॥ " इत्यादि, तदेवं बुद्धः - श्रवगततस्वः स चतुर्विधऽपि ज्ञानादिके तो व्यवस्थितो थियेके या माहारोपकरणका परित्यागरूपे इय्यभावात्मके रतः सन्नैवंभूतश्च स्यादित्याह प्राणानां दशप्रकारासामप्यतिपातीविरस्थित सम्परमार्थेषु श्रात्मा यस्य सः, पाठान्तरं वाडियथि' त्ति-स्थिता शुस्वभावात्मना श्रर्चिः - लेश्या यस्य स भवति स्थितात्रिः, सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः ॥ ६ ॥ किच सर्व चराचरं जगत् प्राणिसमूहं समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुपेक्षी समतापश्यको वा, न कश्चित्प्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः तथा चोक्तम्- "नत्थि य सि कोई वि(दि) स्लो, पिश्रोव सब्वेसुचेत्र जीवसु ।" तथा-' जह मम णपियं दुःख' मित्यादिसमोपेत न कस्यचिप्रियमप्रियं या कुर्यासिता विद् एवं दिसम्पूर्ण भावसमाधियुक्तो भवति । कचिषु भावसमाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहोपसर्गैस्तर्जतो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषणो भवति, विषयार्थी वा कचिङ्गाईस्थ्यमप्यवलम्बते, रसखातागीर या पूजा सत्काराभिलाषी स्यात् तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादिभावेनापि भवति, क्षितथा सम्पूजने पात्रादिना प्रार्थयेत् श्लोककाभी च श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणितज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति ॥ ७ ॥ किंचान्यत्-साधूनाधाय - उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकमैत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहारोपकरणादिकं निकामम् - श्रत्यर्थ यः प्रार्थयतेस निकाममी' इत्युच्यते तथा निकामम्-अत्यर्थम् श्राधाकर्मादीनि तन्निमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सर ति-चरति स तथा एवम्भूतः शीला
"
3
"
सदनुष्ठा
"
संसारपावो भवतीति यावत् 'इ' इत्यारभ्य ' परिग्गह' शब्दे पञ्चमभागे ५५६ पृष्ठे गतम् । ) तथा 'वेगविद्धे' इत्यादि ' धम्म ' शब्दे ४ भागे २६७६ पृष्ठे गतम् । )
किचान्यत्यंग कुजा इह जीवियड्डी,
अमजमाशो य परिव्या । सिम्मभासी य विणीय गिद्ध,
हिंसन्निये वा कई करेजा ।। १० । आहाकडं वाण णिकामएञ्जा
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किमर्यते य ण संघवेजा ।
धुणे उरालं अमेमाणे,
निचा सोयं अवेक्खमाणो ।। ११ ।। आगच्छतीत्यायां द्रव्यादेभस्तमितपादितोयकार
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समाहि अभिधानगजेन्द्रः।
समाहि. कर्म लाभो वा तम्, इह-अस्मिन् संसारे असंयमजीवि
संमिस्सभाव पयहे पयासु ॥१५॥ तार्थी भोगप्रधानजीबितार्थीत्यर्थः । यदिवा-आजीविकाभयात् द्रव्यसञ्चयं न कुर्यात् । पाठान्तरं धा-'छ
याचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्ता-मौनव्रती सुपर्यालोचितध. भदणं कुज्जा' इत्यादि, छन्दः-प्रार्थनाभिलाष इन्द्रियाणां स्व
मसम्बन्धभाषी बेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धां विषयाभिलाषो था तत् न कुर्यात् , तथा असजमान:
लेश्यां तेजस्यादिकां समाहत्य-उपादाय अशुद्धां च कृष्णादि सामकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु परिव्रजेत्-उद्युक्तविहारी भ
कामपहत्य परि-समन्तात्संयमानुष्ठाने ब्रजेत् गच्छदिति । बेत् , तथा गृधि-गायं विषयेषु शब्दादिषु यिनीय
किंचाम्यत्-गृहम्-आवसथं स्वतोऽन्येन या न छादयअपनीय निशम्य-अधगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोध्य भाषको
दुपलक्षणार्थवादस्यापरमपि गृहावरगवत्परकृतबिलनिषाभवेत् , तदेव दर्शयति-हिंसया-प्राण्युपमईरूपया अन्विता
सित्वात्संस्कारं न कुर्यात् । अन्यदपि गृहस्थकर्तव्यं परियुक्तां कथां न कुर्यात्-न तत् घूयात् यत्परात्मनोरुभ
जिहीर्षुराह-प्रजायन्त इति प्रजास्तासु-तद्विषये यन योर्वा बाधकं यच इति भावः । तद्यथा-अश्नीत पिबत
कृतेन सम्मिश्रभाषो भवति तत्प्रजह्यात् । एतदुक्तं भवतिलादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथां पापणे
प्रवजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारपादानभूतां न कुर्यादिति ॥ १०॥ अपि च-साधूनाधाय
यश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते । यदि वा-प्रजाःकृतमाधाकृतमौदेशिकमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवभूतमाहारजातं
स्त्रियस्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभायस्तमधिकलसंयमार्थी निश्चयेनैव न कामये-नाभिलषत् तथाविधाहारादिकं
प्रजह्यात्-परित्यजेदिति ॥ १५॥ ('जे केर'• इत्यादि १६च निकामयत:-निश्चयेनाभिलपतः पार्श्वस्थादींस्तत्सम्प
गाथा 'अकिरियाबाय' शब्दे प्रथमभागे १२६ पृष्ठ गता।) कंदानप्रतिप्रहसंयाससंभाषणादिभिः न संस्थापयेत्-नो
किंचान्यत्पहयेत् , तैर्या साध संस्तवं न कुर्यादिति । किञ्च-'उ
पुढो य छंदा इह माणवा उ, राल ' ति-औदारिकं शरीरं--विकृष्टतपसा कर्मनिरामनुप्रेक्षमाणो धुनीयात्-कृशं कुर्यात् । यदि वा-'उरालं' ति
किरियाकिरियं च पुढो य वायं । बहुजम्मान्तरसश्चितं कर्म तदुदारं मोक्षमनुप्रेक्षमाणो धु- जायस्स बालस्स पकुव्य देहं, नीया--अपनयेत् , तस्मैिश्च तपसा धूयमाने कृशीभव
पवङ्कती वेरमसंजतस्स ।। १७॥ ति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात् , तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः। सूत्र०
पृथक्-नाना छन्द:-अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दा इह १ श्रु०१० अ०।
अस्मिन्मनुष्यलोके मानवा-मनुष्याः, तुरवधारणे, तकिश्चाऽन्यत्
मेव नानाभिप्रायमाह-क्रियाऽक्रिययोः पृथक्त्वेन क्रिया
वादमक्रियावादं च समाश्रिताः , तद्यथा-" क्रियैय फलदा इत्थीसु या श्राऽरय मेहुणाउ,
पुंसां, न शानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सु परिम्गहं चेव अकुव्वमाणे ।
खितो भवेत् ॥१॥" इत्येवं क्रियैव फलदायित्वेनाभ्युपउच्चावएसुं विसएसु ताई,
गताः क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्विपर्ययेणाक्रियावादमानिस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ॥ १३ ॥
श्रिताः, एतयोश्चोत्तरत्र स्वरूपं न्यक्षेण वक्ष्यते तच नाना
भिप्राया मानवाः क्रियाऽक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोदिव्यमानुपतिर्यग्रूपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषयभू- क्षहेतु धर्ममजानाना प्रारम्भेषु सक्ला इन्द्रियवशगा रससातासु यत् मैथुनम्-अब्रह्म तस्माद् श्रा-समन्तान्न तागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति , तद्यथा- 'जातस्य-उत्परतः--अरतो निवृत्त इत्यर्थः, तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृ
अस्य बालस्य-शस्य सदसद्विवेकविकलस्थ सुखैषितश्च, तथा परि-समन्ताद् गृह्यते इति परिग्रहो धनधान्यद्वि
णो देहम्-शरीरं 'पकुब्व' त्ति-खण्डशः कृत्वाऽऽत्मपदचतुष्पदादिसंग्रहः तथाऽऽत्माऽऽत्मीय ग्रहस्तं चैवाकुर्वा- नः सुखमुत्पादयन्ति , तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतणः सन्नुच्चावचेषु-नानारूपेषु विषयेषु यदिवोच्चा-उत्कृष्टा स्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तरशतानुबन्धि वैरं परस्पश्रवचा जघन्यास्तष्वरद्विष्टः त्रायी-अपरेषां च प्राणभूतो रोपमर्दकारि प्रकर्षेण वर्धते । पाठान्तरं वा-'जायाएँ बाविशिोपदेशदानतो निःसंशयं-निश्चयेन परमार्थता भि- लस्स पगम्भणाए ' बालस्य-अज्ञस्य हिंसादिषु कतुः-साधुरवम्भूता मूलोत्तरगुण समन्वितो भायसमाधि र्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस्य या जाता प्रगल्भताप्राप्तो भवति. नापरः कश्चिदिति । उच्चावचेषु वा विष- धाट्य तया बैरमेय प्रवर्धत इति सम्बन्धः ॥१७॥ येषु भावसमाधि प्राप्तो भिक्षुन संशयं याति नानारूपान् (१८ गाथा 'उक्खय' शब्दे द्वितीयभागे २७ पृष्ठे गता।) विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः ॥ १३॥ (१४ गाथा 'परिसह'
किंचान्यत्-- शब्दे पञ्चमभागे ६४७ पृष्टे उक्ता ।) किञ्चान्यत्
जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं , गुत्तो वईए य समाहिपत्तो,
जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लेसं समाहटु परिव्यएजा।
लालप्पवी सेऽवि य एइ मोहं, गिहं न छाए ण वि छायएजा,
अन्ने जणा तसि हरति वित्तं ॥१६॥
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समाहि अभिधानराजेन्द्रः।
समाहिबहुल सीहं जहा खुडमिगा चरंता ,
त्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलानि च वै दरे चरंती परिसंकमाणा।
रानुबन्धीनि-जन्मशतसहस्रदुमोचानि, अत एव महद्भयं
येभ्यः सकाशात्तानि महाभयानीति, एवं च मत्वा मतिमाएवं तु महावि समिक्ख धम्म,
नास्मानं पापानिवर्तयदिति । पाठान्तरं वा 'निब्बाणभूए व दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥२०॥
परिव्यएज्जा' अस्यायमर्थः-यथाहि निवृतो निर्व्यापारविसं-द्रव्यजातं तथा पशवो-गोमहिष्यादयस्तान् सर्वान्
त्वात्कस्यचिदुपाते न वर्तते एवं साधुरपि सायद्यानुष्ठाजहाहि-परित्यज तेषु ममत्वं मा कृथाः, ये बान्धवा मातापि
नरहितः परि-समन्ताद् ब्रजेदिति ॥२१॥ तथा प्राप्तो-मोक्षचादयः श्वशुरादयश्च पूर्वापरसंस्तुता ये च प्रिया मित्राणि
मार्गस्तद्वामी-तगमनशील श्रात्महितगामी वा, प्राप्ता या प्रसह पांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्रादयो न किंचितस्य
क्षीणदोषः सशस्तदुपदिएमार्गगामी मुनिः-साधुः मृषापरमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपिचवित्तपशुयान्धवमित्रार्थी अत्य- यादम्-अनृतमयथार्थ न ब्रूयात् सत्यमपि प्राण्युपघातकमिथं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते तद्यथा-ह मातः ? हेपितरि- ति, 'एतदेव सृषायादवर्जनम्' कृत्स्नं-संपूर्ण भावसस्येचं तदर्थ शोकाकुलः प्रलपति , तदर्जनपरश्च मोहमुपैति ।।
माधि निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः-स्नानभोजरूपवानपि करापुरीकवत्, धनवानपि मम्मएपणिग्बत् धाम्य
नादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिका घानपि तिलकचेष्ठिवद् , इत्येवमसावप्यसमाधिमान् मुह्यते नास्यन्तिकरयेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन चा असंपूर्णा वर्त(ति) यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्दनोपार्जितं वित्तं
न्ते, तदेवं मृषाबादमन्येषां वा व्रतानामतिचारं स्वयमातदन्ये जनाः ' से' तस्यापहरन्ति जीवत एव मृतस्य स्मना न कुर्यान्नाप्यपरेण कारयेत्तथा कुर्वन्तमप्यपरं मनोवा, तस्य च क्लेश एव केवलं पापबन्धश्चेत्येवं मत्वा पा
वाकायकर्मभिर्नानुमन्येत इति ॥२२॥ सूत्र० १ श्रु० १० १० । पानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति ॥ १६ ॥ तपश्चरणा- श्रा० चू० । सामर्थ्य, आव० ६ ०। शीले , स्था० ४ ठा० पायमधिकृत्याह-यथा खुद्रमृगाः-शुद्राटव्यपशवो ह- १ उ० । (आहारविषयकसमाधिवक्तव्यता 'आहार' शब्दे रिणजात्याद्याः चरन्तः-अटव्यामटन्तः सर्वतो यिभ्यतः द्वितीयभागे ५२२ पृष्ठे गता।) ( समाधिद्वारं 'समाहाण' परिशङ्कमानाः सिंहं व्याघ्र वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरण शब्देऽस्मिन्भागे गतम् । ) परिहत्य चरन्ति-विहरन्ति, एवं मेधावी-मर्यादावान् , तु- समाहिईदिय-समाहितेन्द्रिय-पुं० । संयतेन्द्रिये,सूत्र० १ श्रु० बिशपणे सुतरां धर्म समीक्ष्य-पालोच्य पापं कर्म-असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाक्कायकर्मभिः परिहत्य परि-समन्ताद्
समाहिकाम-समाधिकाम-त्रि०ासमाधिमभिलपति,व्य०१उ०। प्रजेत् संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दरेण था पापं-पापहेतुत्वात्सायद्यानुष्ठानं सिंहमिव मृगः स्वहितमिच्छन्
समाहिजोय-समाधियोग-पुं०। समाधिः-धर्मध्यानं तदर्थे त. परिवर्जयेत्-परित्यजेदिति ॥ २० ॥
प्रधानो योगः-मनोवाकायब्यापारः । मनोवाकायव्यापारण अपि च
धर्मध्याने, सूत्र. १ श्रु० ४ अ०१ उ० । संधुज्झमाणे उ णरे मतीमं,
समाहिट्ठाण-समाधिस्थान-न० । समाधे-रागादिरहितचि
त्तस्य स्थानानि-आश्रयाः समाधिस्थानानि । पा०। प्रशा. पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा ।
न्ताश्रयेष, स०१० सम। दशा ! चित्तसमाधिस्थानानि हिंसप्पसूयाइँ दुहाइँ मत्ता,
'चित्तसमाहिट्ठाण' शब्दे तृतीयभागे ११८३ पृष्ठ गतानि ।) वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ २१ ॥
(ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानान्यपि स्वस्वस्थाने ।) मुसं न बूया मुणि अत्तगामी,
समाहिद्वाय-समाधिष्ठातृ-त्रिका प्रभौ, प्राचा०। गृहपती, प्रा. णिव्याणमेयं कसिणं समाहिं ।
चा०२ श्रु०१ चू० ७ १०१ उ०। सयं न कुजा न य कारवेजा,
समाहिपडिमा-समाधिप्रतिमा-स्त्री० । समाधिः श्रुतचारिकरंतमन्नं पि य णाणुजाणे ॥२२॥
त्रं च तद्विषया प्रतिमा-प्रतिज्ञाभिग्रहः समाधिप्रतिमा। प्र
तिमाभेदे , स्था० ३ ठा० १ उ० । समाधिप्रतिमा दशा. मननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान् , प्रशं| श्रुतस्कन्धोक्ना द्विभेदा-श्रुतसमाधिप्रतिमा, सामायिकासायां मतुप , तंदवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक दिचारित्रसमाधिप्रतिमा च । स्था० २ ठा० ३ उ०। श्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधि वा बुध्यमानस्तु-वि
चत्तारि पडिमाओ पामत्ताओ, तं जहा-समाहिपडिमा, हितानुष्ठाने प्रवृत्ति कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धाचरणात्
उवहाणपडिमा, विवेगपडिमा, विउसग्गपडिमा । (सू० निवर्तेत , अतस्तद्दर्शयति-पापात्-हिंसानृतादिरूपात्कमण आत्मानं निवर्तयेत् , निदानोच्छेदेन हि निदानिन २५१X) उच्छेदी भवतीत्यतोऽशषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव श्राश्रवद्वा- ( व्याख्या 'पडिमा' शब्दे पञ्चमभागे ३३२ पृष्ठ गाता।) राणि निरुन्ध्यादित्यभिप्रायः । किं चान्यत्-हिंसा-प्राणिव्यः समाहिबहुल-समाधिबहुल-त्रि० । चित्तस्वास्थ्यप्रचुरे, प्रश्न परोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि यान्यशुभानि क- ३ सवं० द्वार । समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादि वा। तत्प्रमाणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि-दुःखो- चुरे , स्थ० ३ ठा०४ उ० ।
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समाहिमरण
समाहिमरण- समाधिमरण - न० । भक्तपरिशेङ्गितमरणपादपोपगमनानामन्यतमस्मन् मरणमे प्राचा० १०८०
१ उ० ।
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समाहिय-समाधित जि० शोभने, बीभत्से, दुष्टे च सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ ३० । समाहित त्रि० । सम्यगाहिते व्यवस्थापिते च सूत्र ०१ ० ५ ० १ ३० । समापिते विशे० शुभाध्यवसयासहिते, | सम्यगाख्याते सूत्र० १ सूत्र० १ ० १ ० ४ उ० ध्रु० ६ श्र० । धर्मादिध्यानयुक्ते, सूत्र० १० २ अ० २ उ० । उपयुक्ते, आचा० २ ० ४ ० । समाधि प्राप्ते, सूत्र० १ थु० ३ अ० ४ उ० । श्राचा० । व्य० । अ०म० । समाधियुक्ते, संघा० १ अधि० १ प्रस्ता० ।
"
( ४३२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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समाहृत- - त्रि० । गृहीत, श्राचा० १ श्रु० ८ ० ५३०, सम्यग्व्यवस्थापिते, श्राचा० १०८ श्र० ६ उ० । प्रा० म० समाहियश्च समाहितार्च - त्रि० । सम्यगाहिता - व्यवस्थापि ता अर्चा-शरीरं येन स समाहितार्चः । नियमितकायव्यापारे, अर्था-लेश्या सम्यगाद्दिता लेश्या येन स समाहितार्थः । अतिविशुद्धाध्यवसाये, यदि वा-अर्चा-क्रोधाध्यवसायात्मि का ज्वाला । समाहिता-उपशमिता श्रर्चा येन स तथा । अक्रोधने, श्राचा० १ श्रु० ८ श्र० ६ उ० । समाहिवप्प समाहितात्मन् प्रि० । सम्यकुबरणे, चारित्रे व्यवस्थितः समुयुक्तः साधुनिश् चतुभिमाभेदेषु दर्शनज्ञानतपश्चारिषरूपेषु सम्पादितो व्यवस्थापित आत्मा येन स समादितारमा ध्यानापादकगुणेषु उपयुक्तात्मनि दश० १० श्र० ।
समाहियमण- समाहितमनम् त्रि० समं तु रागद्वेषाकलितमाहितमुपनीतमात्मनि मनो येन स तथा समाहितात्ममनस्के, प्रश्न ० १ संव० द्वार । समाहिरय-समाधिरत - त्रि०। ऐकान्तिकात्यन्तिक सुखोत्पादके समाधौ रते, सूत्र० १० १० अ० | समाहिरा - समाधिराज - पुं० । सर्वयोगाप्रेसरत्वात् (बौद्धमतेन ) नैरात्म्यदर्शने, द्वा० २४ द्वा० । समाहिबीरिय-समाधिर्य न मनचादीनां समाधान, नि० १ उ० । चू० समि-शमिन्त्र० शमो ऽस्यास्तीति शमी जितमनायेंगे, आचा० १ ० ५ ० ३ उ० ।
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समिइ समिति - स्त्री० । सम् पूर्वस्येण गतावित्यस्य किन्प्रत्ययस्य समितिर्भवति समेकभायेनेतिः समितिः सोमनैकाग्रपरिणामस्य चेष्टायाम्, आव० ४ अ० उत्त० | सूत्र० । दशा० । सम्यक् प्रवृत्ती, प्रश्न० १ संव० द्वार। संथा० । समितिरिति पञ्चानां चेष्टानां तान्त्रिकी संज्ञा । ध० २ अधि० ० ० ० ० चतुर्विंशतियाके उत्तराध्ययने, स० ३६ सम० । उत्त० । सम्यग्वर्जने, प्राणातिपातवर्जन, प्रोघ० । स० । श्राचा० । स्था० । श्रावण झा० । सम्यग्गमने, सम्यक् प्रवर्त्तने, उत्त० २४० । समागमे, स० ।
समि
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पंच समिईओ पताश्री, तं जहा - इरियासमिई भा सासमिई एसयासमिई आयाय मंडलनिक्वणास - मिई उच्चारपासवण खेलसिंघाणजल्लपारिका वखियासमिई (०+)
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तथा समितयः सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्रेर्यासमितिः-मने सम्यक् सस्वपरिहारतः प्रवृत्तिः, भाषासमितिःनिरवद्ययचनप्रवृतिः समिति द्विचत्वारिंशो नमामि प्रवृत्ति दाने प्रभारमाश्रयोपकरणपरिष्दस्य निक्षेपण अयस्थापन समितिसुप्रत्युपेक्षिताविसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी तथोच्चारस्यपुरीषस्य प्रश्रवणस्य मूत्रस्य वेलस्य निष्ठीयनस्य शि वाणस्य नासिका शेषमण जनस्य देहमस्य परिष्ठापमायां परित्यागे समितिः-- स्थडिसादिदोषपरिहारः प्र वृत्तिरिति पञ्चमी । स०५ सम० ।
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समितितो सत्ताओ, तं जहा- ईरियासमिती भासासमिती एसयासमिती आयाणभंडमत्तणिक्खेवणास मिती उच्चारपासवण खेल सिंघाण जल्लपारिट्ठावणियासमि ती मगसमिती समिती कायसमिती ( ० ६०३ ) 'अ समित्यादि सम्यमितिः प्रवृत्तिः समिति, ईयां गमने समितिसुर्व्यापारपूर्वतयेतीय समिति एवं भाषायां निरवयभाषतः पचणायामुद्रमादिदोषवर्जनतः, श्रादाने -- ग्रहणे भाण्डमात्रायाः -- उपकरणमात्राया भाण्डस्य वा वस्त्राद्युपकरणस्य मृन्मयादिपात्रस्य वा मात्रस्य साधुभाजनविशेषस्य निक्षेपदायां च समितिः सुप्रत्युपक्षित सुप्रमार्जितक्रमेणेति, उच्चारप्रश्रवणखेलशिङ्खाणजनानां पारिष्ठापनिकायां समितिः स्थण्डिलविशुद्धादिक्रमेण, निशिनासिकापमेति मनः
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तायां समितिः याच कुशलत्वनिरोधे समितिः, कायस्व स्थानादिषु समितिरिति । स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
अवि समिई अ, दुबालसंग अमोधर जम्हा । तम्हा पवयणमाया, अभय होइ नापव्वं ॥ ४५६ ॥ 'अष्टास्वपि' अष्टसंख्यास्वपि समितिषु द्वादशाङ्गं-प्रयचनं समवतरति-संभवति यस्मात् ताश्वेदाभिधीयन्त इति गम्यते तस्मात्प्रवचनमाता प्रवचनमातरो वोपचारत इदमध्ययनं भवति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः । गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः । उत्त० । ( यः समितः स गुप्तः इति अब्भुट्ठाण शब्दे, प्रथमभागे ६६३ पृष्ठे
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उक्तम् । )
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एषणासमितिमाह -
गवसणाए गहणे य, परिभोगेसणा य जा । आहारमुपहसिजाए एए तिमि बिसोहिए ।। ११ ।। उग्गमुपायसं परं विइए सोहेज एस | परिभोगम्मि चउकं तु विसोहेज्ज जयं जई ॥ १२ ॥ गवेषणायाम स्वीकारे, उभयत्र प्राकृतत्वादति संबध्यते, ततो गचेपणापाण
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(४३३) समिड अभिधानराजेन्द्रः।
समिया चैषणा परिभोग-प्रासेवनं तद्विषयैषणा परिभोगैषणा च समिक्ख-समीक्ष्य-श्रव्यः । पर्यालोच्येत्यर्थे, श्राव० ४ अ०। या, 'श्राहारोहिसिज्जाए ' ति-वचनम्यत्ययात् श्रा- सूत्र० । केवलज्ञानेनार्थान् परिज्ञायेत्यर्थे,सूत्र०१ श्रु० ६ ० । हारोपधिशग्यासु प्रतीतास्पता-उतरूपा एषणाः सूत्रत्वा-समिच समेत्य-अव्य० । झात्वत्यर्थे, सूत्र०१धु०१२ श्र०। ल्लिङ्गव्यत्ययात्तिस्रो विशोधयेत्-निर्दोषा विदध्यात् , पठ्यते
मिलित्वेत्यर्थे, श्रा० म०१ १०। आचा। च-" गवसणाए गहणेणं, परिभोगेसणाणि य । श्राहारमुवहिं सज्ज, एए तिमि विसोहिय" ॥१॥ त्ति । इति श्रस्य च
समि(द)-समृद्ध-त्रि० । धनधान्यादिविभूतियुक्त,च० प्र०१ गवेषणादिभिराहारादीनि त्रीणि विशोधयेदिति संक्षेपार्थः, पाहुना । नि० । वृद्धिमुपगते,प्रज्ञा०१ पद । उत्त । पा० । कथं विशोधयत् ?, इत्याह-उद्गमश्चोत्पादना च उद्गमोत्पाद
व्य० । रा०। प्रश्न । श्रा० म० । चन्द्रगुप्तसमय पाटलिपुत्र नमिति, समाहारस्तत्किमित्याह-विशोधयेदित्युत्तरेण सम्ब नगरे स्थितानां सुस्थिताभिधसूरीणां शिष्ये, पिं० । ('चुम्स' न्धः। किमुक्त भवत्ति-श्राधाकर्मादिदोषपरिहारत उद्गम धा- शब्दे वृतीयभाग १२६६ पृष्ठ कथा।) इयादिदोषपरित्यागतश्चोत्पादनां शुद्धामादधीत 'पढमे' त्ति- समिड्डय-समृद्धक-पुं० । पक्षस्य षष्ठे दिवसे,ज्यो०४पाहुः । प्रथमायां गवेषणायां 'ए' त्ति-द्वितीयायां ग्रहणवणायां समिइयर--समृद्धतर-पुं०। विशिष्टतरसंपदि , स्था०४ ठा० शोधयेत् शङ्कितादिदोषत्यागत एषणां-ग्रहणकालभाविग्राह्य गतदोषान्वेषणात्मिकां, परिभोगपणायां चतुष्कं पिण्डशय्या.
समि(डि)द्धि-समृद्धि-स्त्री०। "अतः समृध्यादौ चा" । चनपात्रात्मकम् , उक्नं हि-'पिंडं सजं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव यत्ति-विशीधयेदिह चतुरकशब्देन तद्विषय उप
१।४४ ॥ श्रनेनादरतः पाक्षिको दीर्धादशः । तदभावे-समिभाग उपलक्षितः, ततस्तं विशाधयेदिति । कोऽर्थः?, उद्मादि
द्धी । प्रा० । "इत्कृपादो" ||८१३१२८॥ अनन ऋत इत्त्वम् ।
| प्रा० । अहिंसायाम् ,समृद्धिहेतुत्वेन समृद्धिरेवाच्यते । प्रश्न दोषत्यागतः शुद्धमेव चतुष्कं परिभुञ्जीत, यदि बोद्मादीनां
१ संव०द्वार । सम्यक् प्रकारेण ऋद्धौ, संपदि, विभूतौ च । दोपापलक्षणस्यात् , 'उग्गम' ति-उदगमदोषान् 'उप्पायण'
| श्राव.४० । स्था० । ति-उत्पादनादोषान् 'एसण' ति-पषणादोषान् विशीधयत्, सिया-पामिक-०। शम एव शमिकः । शमभावे, प्रश्न चतुष्कं च संयोजनाप्रमाणाकारधूमकारणात्मकम् , अकारधूमयोमोहनीयान्तर्गतत्वनैकतया विवक्षितत्वाद विशोधये
| ५ संघ द्वार। दुभयत्र शोधनमपनयन जयं' ति-यतमानो यतिस्तपस्वी ।
समिय-समित-त्रि० । सम्यगितः-मासोझानादिकं मोक्षमाव्याख्याद्ववेऽपि च पुनस्तस्या एवं क्रियाया अभिधानमति
गमसौ समितः । प्राप्तज्ञानादिक, सूत्र.१७० १६ अासशयख्यापनार्थमिति सूत्रद्वयार्थः ।
मितिभिः सहिते,सदायत्ने,प्राचा०१थु०६ १०४उ०मा०॥ इदानीमादाननिक्षेपणसमितिमाह
संयते , प्राचा०२ श्रु०१ चू०१०१ उ. शुभेतरेषु रा
गद्वेषरहिते , आव०१०। सम्यक् प्राप्ते , आव० ४ ०। मोहोबहुवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी ।
युक्ने, श्राचा०१ श्रु०५०४ उ०सदाचारानुष्ठाथिनि, सूत्र गिएहंतो विक्खिवंतो य, पउंजेज इमं विहिं ॥१३॥ १ श्रु०१४ अ०। समायुक्ने, बृ०६ उ० । उत्त०। प्रमाणोपेताले, चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमजिजा जयं जई।
पिं० । ज्ञा० । दशा । भ० । 'समिया णं 'ति-सम्यगिति प्रआईए निक्खिविजावा,दहो व समिए सया॥१४॥
शंसाओं निपातस्तेन सम्यक्त्व व्याकर्तु वर्तन्ते, भविपर्या
सास्त इत्यर्थः, सम्यञ्चः, समञ्चन्तीति वा समिता पा सआहोबडुवग्गहियं' ति-उपधिशब्दो मध्यनिर्दित्वात्
म्यक् प्रवृत्तयः। भ०२श०५उ० समितो खाम पंचहि समितीहि डमरुकगुणग्रन्थिवदुभयत्र संबध्यते , तत ओघोपधिमौपप्र
समिता । नि०चू०२ उ० उपयुक्ने, जं०२ वक्षः। प्रश्न ।संहिकापधिं च भाण्डकमुपकरणं रजोहरणदण्डकादि द्विविधा।
म्यग्बा मोक्षमाग गते, श्राचा०१ श्रु०३ ०२ उ०। श्राम्-उक्तभेदतो द्विभेदं मुनिः गृह्णन्नाददाना निक्षिपश्च क
प० । अट्टके , ध०३ अधि । । सप्रमाणे, भ० ३ श०८ चित् स्थापयन् प्रयुञ्जीत व्यापारयेदिमं वक्ष्यमाणं विधि
उ०। निरन्तरे, स्था०१०ठा०३ उ०। पुंग गवेषणायामुदाहृते न्यायम् । तमेवाह-चक्षुषा-दृष्ट्या 'पडिलहित्त'त्ति-प्रत्युपे
उपशमं नीते (प्राचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०।) स्वनामख्याते क्ष्यावलोक्य प्रमार्जयेत्-रजाहरणादिना विशोधयेत् यतमाना
प्राचार्य, पिं० । वनखामिनां मातुलके, प्रा० म०१ अ०। यतिस्ततः 'आईए 'त्ति-श्राददीत-गृह्णीयात् निक्षिपद् वा
अमित--त्रि० । अभ्यासवत्सु , भ०२ श० ५ उ०। , स्थापयेत् 'दुहओ वत्ति-द्वावपि प्रक्रमादौधिकोपग्राहिकोपधी,दिवा-द्विधाऽपि द्रव्यतो भावतश्च समितः प्रक्रमादादा-समियदंसण-समितदर्शन-पुं०। सम्यग् इतं-गतं दर्शनं यस्य ननिक्षेपणासमितिमान् सन् सदा-सर्वकालमिति सूत्रद्वया- स समितदर्शनः । सम्यग्दृष्टी, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। थः । उत्त० २४ अ० । नैरन्तर्येण मीलनायाम् , अनु। समिया-शमिता-स्त्री० । उपशमनतायाम् , अाचा० १ श्रु०५ समुदये, स्था० ३ ठा० १ उ० ।
अ०५ उ०। सम्यक् समञ्जसे, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० । समिइ जोग--समितियोग-पुं० । सत्प्रवृत्तिसम्बन्धे, प्रश्न०४ (अत्रत्या घनव्यता असमिय' शब्दे प्रथमभागे ८४४ पृष्ठे । संबकद्वार।
तथा 'लोगमार' शब्दे षष्ठ भागे गता।) समिइमा--समितिमा-स्त्री० । समिता कणिका तया निष्प- शमिता-स्त्री । शमिनो भावः शमिता । शमे , आचा १ मा समितिमा । मण्डके, पूपलिकायां च । वृ०९ उ०२ प्रकाशु,' उ.
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(४३४) समिया अभिधानराजेन्द्रः।
ममुग्धाय साम्य-न। सर्वत्र समरूपतायाम् , अाचा०१श्रु०८०८० समुक्करिसण-समुत्कर्षण-न० । उत्सेके, सूत्र० १ श्रु० २ स(श)मि(ता)का-स्त्री० । उत्तमस्येन स्थिरप्रकृत्या समवती | अ०२ उ० । प्रा० म० । उत्कृष्टताविधाने, स्था० ३ ठा० १ स्वप्रभा कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपानेयवचनतयेति
| उ०। मनने, व्य०४ उ० । स्था। शमिका । शमिता वा। सर्वेषामिन्द्राणामभ्यम्सरपर्यदि,भ०३ समुक्त्तिण-समुत्कीर्तन-न० । समुबारणे, अनु०। प्रा० श०१० उ०।
चू० । संशब्दने, विशे०। समियाचार-सम्यगाचार-पुं० । सम्यग्-स्वशास्त्रविहितानु- समुक्खित्त-समुत्क्षिप्त-त्रि० । निसर्गाथै समुरिक्षते,व्याप्ते,विष्ठानादविपरीत प्राचार:-अनुष्ठानं येषां ते सम्यगाचाराः। पा०१ ध्रु०३१०। सदाचारेषु साधुषु, सूत्र०२ श्रु०५०।
समुक्खिया-समुक्षिका-स्त्री०। प्रातहाङ्गणे जलच्छटकदासमिताचार-पुं० सम्यग् वा इतो व्यवस्थितः प्राचारो येषां यिकायाम् ,मा०१५०८१०। ते समिताचाराः । सदाचारेषु भिसुषु, सूत्र०२ १०५० समुग्ग-समुद्-पुं० । पात्रविशष,जी०३ प्रति०२ उ०। पक्षिसमियापरियाय-शमितापर्याय-पुं० । शमिता शमोऽस्यास्ती- विशेषे. जी० ३ प्रति०४ १०। ति शमी, तद्भावः शमिता, पर्यायः-प्रवज्या शमितया पर्यायः समुग्गनिमग्गगूढजाणु-समुद्गनिमग्नगूढजानु-त्रि०। समुद्गप्रवज्याऽस्येति बहुव्रीहिः । तथाविध सुश्रमणे,प्राचा०१श्रु०। स्येव समुद्गकपक्षिण इव निमग्ने-अन्तःप्रविष्ट गूढे मांसलसम्यकपर्याय-पुं० । सम्यक् पर्यायोऽस्येति सम्यकपर्यायः ।
स्वादनुद्धते जानुनी अष्ठीवन्तौ येषां ते तथा । समुद्कपक्षिण
इव निगूढजानुनि पुरुषादी, जी० ३ प्रति०४ अधिक। साधुपर्यायवति साधौ , श्राचा० १ श्रु० । समिला-समिला- स्त्री० । शकटोपकरणभेद,श्रा० म० १०॥
समुग्गपक्खि-समद्पक्षिण-पुं०। समुद्रकवत्पक्षी येषां ते ससमिसंगलिया-शमीसङ्गलिका-स्त्री० । शमी वृक्षविशषस्त
मुद्कपक्षिणः । समासान्त इन्प्रत्ययः। पक्षिभेदे, स्था०४. ठा०
४ उ० । प्रज्ञा० । सूत्र । जी० । “से किं तं समुग्गपक्खी ?, स्य सङ्गलिका-फलिका । शमीवृक्षफलिकायाम् , अरणु ।
समुग्गपक्खी एगागारा पएणत्ता,तेणं णऽस्थि इहं बाहिरएसु समिहा-समिधा-स्त्री०। काष्ठखण्ड,पिं० । काठिकायाम् , भ०
दीवसमुदसु भवंति । सेत्तं समुग्गपक्खी।"जीटी०१ प्रतिक ११ श० उ० । इन्धनभूते काष्ठे, अन्त०१ श्रु.१ वर्ग अ० श्राचा० । नि० । आ०म०।
समुग्गय-समुद्क--न० । अभिन्नावस्थे कार्यासीफले, शा० १
श्रु०१७ अ०। समुद्गक इव समुद्गकाः। सूतिकागृहे, जीव समी-शमी-स्त्री० । वृक्षविशेष, अणु।
३प्रति०४ अधि०। जं० । रा० । तैलाद्याधारविशष, उक्त समीकत--समीकृत-त्रि० । सम्यग् व्यवस्थापिते, सुदेयत्वेन च जीवाभिगममूलटीकायाम्-तैलसमुद्रको सुगन्धितैलाव्यवस्थापित, सूत्र. १ श्रु०३ अ०२ उ०॥
धारी । रा। समीकरण-समीकरण-न० । समानतानयन, विश०। समुग्घाय-समुद्धात--पुं०। चेदनादिभिः सह एकीभावेन प्रासमीखल्लय--शमीखल्लक-न । शमीसम्बन्धिनि पत्रपुटे, वृ०
बल्यतया निर्जरण , प्रज्ञा० । १ उ० ३ प्रक०।
घियषसूचनासमीर--समीर-पुं०। वायो, को। .
(१) गतिपरिणामविशेषः संग्रहरिणगाथया चिन्त्यते। समीरण-समीरण-न० । सम्यगीरणं समीरणम् । प्रेरणे,आ
(२) संग्रहणिगाथोक्लमर्थ स्पष्टयन् प्रथमतः समुद्धातसं
ख्याविषयं प्रश्नसूत्रम् । चा० १७०८ ०८ उ० ।
(३) चतुर्विशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकस्य जीवस्य कति समीरिय-समीरित-त्रि० । प्रेरिते, प्राचा०१श्रु०८१०८
वेदनादयः समुद्घाता अतीताः कति भाविन इति उ०। पापन कर्मणा चोदित, सूत्र० १ श्रु०५ अ०२ उ०।
चिन्तनम् । समीव--समीप-पुं० । सन्निधाने, पो० १६ चिव० ।
(४) नैयिकादेः प्रत्येकसमुदायरूपेण समुद्धातचिन्तनम् । समीहा-समीहा-स्त्री० । सम्यगुद्यमे, सूत्र०१ श्रु०८०।
(५। चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैः कषायसमुद्घातं चिन्तयति । समीहिय-सभीहित-त्रि० । इष्ट, सूत्र०१ श्रु० १४ १० । मी
(६) मारणान्तिकसमुद्घातचिन्तनम् ।
(७) नैरयिकाणां वेदनासमुद्घातचिन्तनम् । मांसिते, व्य० ३ उ०।
(८) समुद्घातानां परस्परमल्पबहुत्वम् । समुइ-समुद्-पुं० । स्वभावे, व्य०७ उ०।
(६) कषायसमुद्घातगता विशेषवक्तव्यता। समुई-देशी-अभ्यासकरण, वृ० १ उ०२ प्रक० ।
(१०) कोधादिसमुद्घातैः शषसमुद्घातैश्च समवहतासमुइय-समुदित-त्रि० । समुदायाङ्गताप्राप्त, विश।
नामसमवहतानां च परस्परमल्पबहुत्वचिन्तनम् ।
(११) यस्मिन् समुद्घाते वर्तमाना यावत् क्षेत्रं समुसमुइयसत्ति-समुदितशक्ति-स्त्री० । अनन्तरकारणमध्ये वि
द्घातवशता यैः पुद्गलैाप्नोति तन्निरूपणम् । द्यमानायां द्वितीयायां सामान्यशक्ती,द्रव्या०१ अध्या०(समु- (१२) वैक्रियसमुद्घातविषयचिन्तनम् । दितशक्तिः 'सत्ति' शब्देऽस्मिन्नेभागे गता।)
। (१३) समुद्धातद्वारविस्तरः ।
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समुग्घाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्घाय (१) गतिपरिणामविशेष एष समुद्घातश्चिन्त्यते, तत्र समु. नानुग्रहाय भाव्यत इति, केवलिसमुद्घातोऽपसामयिका, तं द्घातयक्तव्यताविषये इयमादौ संग्रहणिगाथा--
च कुर्वन् कवली प्रथमसमये याहल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूवेयणकसायमरणे , बेउन्धियतेयए य माहारे ।
मधश्च लोकान्तपर्यन्तम् श्रात्मप्रदशानां दगडमारचर्यात, .
द्वितीयसमये पूर्वापरं दक्षिणात्सरं या कपाटं, तृतीये मन्थान, केवलिए चेव भवे , जीवमणुस्साण सत्तेव ॥१॥
चतुर्थेऽवकाशान्तराणां पूरण, पश्चमऽवकाशान्तराणां संहारं, "वेयणे' त्यादि, इह समुद्घाताः सप्त भवन्ति, तद्यथा-'वेय- | षष्ठ मन्थः, सप्तमे कपाटस्य, श्रम स्वशरीरस्था भवति, स्पकसायमरसे' इतिवेदनं च कपायाश्च मरण च वेदनकपाय- वक्ष्यति च-" पढम समय दंडं करेइ, बीए कवाडं करा" मरणं समाहारो द्वन्दूस्तस्मिन् विषये त्रयः समुद्याता भव
इत्यादि, तत्र दण्डसमयात् प्राक या पल्यापमासययभागन्ति,तद्यथा-वेदनासमुद्रातः कषायसमुद्घातो मरणसमुद्घा.
मात्रा घेदनीयनामगोत्राणां स्थितिरासीत् तस्या बुद्धथा अ. तश्च, 'घेउब्विय'त्ति-वैक्रियविषयश्चतुर्थः समुद्घातः, तेजसः
संख्ययभागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्डं कुर्वन् असंपञ्चमः समुद्घातः , षष्ठ आहार इति-आहारकशगैर
ख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽसंख्येयो भागोऽवतिष्ठते, यश्च विषयः , सप्तम : केवलिकः-केवलिषु भवति, 'जीवमरणु
प्राधमत्रयस्यापि रसस्तस्याप्यनन्ता भागाः क्रियन्ते, ततस्तस्सास सत्तेव' त्ति-सामान्यतो जीवचिन्तायां मनुष्यद्वा
स्मिन् दण्डसमये असातवदनीय १ प्रथमवर्जसंस्थान६ सहरचिम्तायां ससेव-सप्तपरिमाणाः समुदाता वक्रव्याः, न
ननपञ्चका ११ऽप्रशस्तवर्णादिचतुष्टयो १५ पघाता १६ऽप्रशस्तन्यूनाः, सप्तानामपि तत्र सम्भवात् , 'सत्तेव' त्ति-एवकारो
विहायोगति १७ दुःस्वर १८ दुर्भमा १६ ऽस्थिरा २०ऽपर्याउत्र परिमाणे,वर्तते च परिमाणे एवशब्दः,यदाह शाकटायमन्यासरत्-एवोऽवधारणपृथक्त्वपरिमाणेष्विति, शेषद्वार
सका २१ऽशुभा २२ऽनादया २३.यशःकीर्ति २४ नाचैर्गोत्ररूचिन्तायां तु यथासम्भवं वाच्याः,ते चाग्रे स्वयमेव सूत्रकृता
पाणां २५ पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान् भागान् हन्ति,एकोsभिधास्यन्ते इत्यष संग्रहणिगाथासंक्षेपार्थः । अथ समुद्धात
नन्तभागोऽवशिष्यते, तस्मिन्नेव च समये सातवेदनीय १ इति कः शब्दार्थ?,उच्यते-समिति-एकीभावे,उत्प्राबल्ये , ए
देवगति २ मनुष्यगति ३ देवानुपूर्वी ४ मनुष्यानुपूर्वी ५ कीभावन प्राबल्येन धातः समुद्धातः केन सह एकीभावगमन
पञ्चेन्द्रियजाति ६ शरीरपञ्चको ११ पाङ्गत्रय १४ प्रथममिति चेत् ,उच्यते-अर्थाद्वेनादिभिः, तथाहि-यदाऽऽत्मा ये
संस्थान १५ संहनन १६ प्रशस्तवर्गादिचतुएया २० ऽगुदनादिसमुद्घातगतो भवति तदा वेदनाचनुभवज्ञानपरिणत
रुलधु २१ पराघातो २२ कठ्ठास २३ प्रशस्तविहायोगति २४ एव भवति , नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन कथं घात इति
अस २५ बादर २६ पर्याप्त २७ प्रत्येकाऽऽतपो २६ द्योत ३० चैत् , उच्यते-इह बदनादिसमुद्धातपरिणतो बहून् वे
स्थिर ३१ शुभ ३२ सुभग ३३ सुस्वरा ३४ 35देय ३५ दनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकर
यशःकीर्ति ३६ निर्माण ३७ तीर्थकरो ३८ च्चैर्गोत्ररूपानाकृष्योदयापलिकायां प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरगति , श्रा
णा ३६ मेकोनचत्वारिंशतः प्रकृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रस्मप्रदेशैस्सह सक्रिष्टान् सातयनीति भावः , 'पुवकय
कृत्यनुभागमध्यप्रवेशननोपहन्यते, समुद्धातमाहात्म्यमेतत् । कम्मसाडणं तु निज्जरा ' इनि वचनात् , तथाहि- तस्य चोद्वरितस्य स्थितर संख्ययभागस्यानुभागस्य चानवेदनासमुद्घातोऽसवद्यकर्माश्रयः कषायसमुद्घातः कषा
न्तभागस्य पुनर्यथाक्रममसंख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, याख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः , मारणान्तिकसमुद्घातः ततो द्वितीय कपाटसमये स्थितेरसंख्येयान् भागान अन्तर्मुहत शेषायुःकर्माश्रयः , वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्- हन्ति एकोऽवशिष्यत, अनुभागस्य चानन्तान् भागान् घाता यथाक्रम वैफियशरीरतैजसशरीराहारकशरीरनाम- हन्ति एकं मुञ्चति । अत्राप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेकर्माश्रयाः , केवलिसमुद्घातः सदसवेद्यशुभाशुभनामो- शनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातो द्रश्यः , पुरष्येतत् समयेऽच्चनीचैर्गोत्रकश्रियः, (प्रशा०) ( तत्र वेदनासमुद्धातगता.
वशिष्टस्य स्थितेरसंख्ययभागस्यानुभागस्य चानन्ततम3ऽत्मघक्तव्यता 'वेयणासमुग्धाय ' शब्दे षष्ठे भागे
भागस्य पुनर्बुद्धधा यथाक्रममसंख्यया अनन्ताश्च भागाः गता ।) कषायसमुद्घातसमुद्धातः कवायाख्यचारित्रमोहनी
क्रियन्ते ततस्तृतीये समय स्थितेरसंख्ययान् भागान यकर्म पुद्गलपरिशातं विधत्ते, तथाहि-कषायोदयसमाकुलो हन्ति, एक मुश्चति, अनुभागस्य चाऽनन्तान् भागान जीवः प्रदेशान् बहिर्विक्षिपति तैः प्रदेशैर्वदनोदरादिरन्ध्राणि हन्ति, एकमनन्तभागं मुश्चति । अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यकर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देवमात्र नुभागघातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनावसेयः । ततः क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते,तथाभूतश्च प्रभूतान कषायकर्मपुद्गला पुनरपि तृतीयसमयावशिष्टस्य स्थितेरसंख्येयभागस्यानुन परिशातयति । (प्रज्ञा०) (इतोऽग्रे 'मारणतियसमुग्घाय' श- भागस्य चानन्ततमभागस्य बुद्धद्या यथाक्रममसंख्यया श्रब्द षष्ठ भागे २५४-२५५ पृष्ठे गतम् ।)(वैक्रियसमुद्धातवक्तव्य- नन्ताश्च भागाः क्रियन्त, ततश्चतुर्थसमये स्थितरसंख्यता 'घेउब्वियसमुग्घाय' शब्द षष्ठे भागे गता।) एवं तै- यान् भागान् हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याप्यनन्तान् जसाहारसमुद्धातावपि भावनीयौ, नवरं तैजससमुद्धातस्ते- भागान् हन्त्यकोऽवशिष्यते, प्रशस्तप्रकृन्यनुभागधानश्च पूर्व. जोलेश्याविनिर्गमकाले तैजसनामकर्मपुद्गलपरिशातहेतुः, बदवसयः । एवं च स्थितिघातादि कुर्वतश्चतुर्थसमय स्वप्रआहारकसमुद्धातगतस्त्वाहारशरीरनामकर्मपुद्गलान् परि- देशापूरितसमस्तलोकस्य भगवतः केवलिनो बदनीयादिशातयतीति, केवलिसमुद्घातगतः केवली सदसद्वेद्यादिक- । कर्मत्रयस्थितिरायुषः संख्ययगुणा जाता, अनुभागस्त्चंद्यामपुद्रलपरिशातं करोति, स च यथा कुरुते तथा विनेयज- प्यनन्तगुणः, चतुर्थसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसंख्येयभा
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समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्थाय गस्यानुभागस्य चानन्ततमभास्य भूयोऽपि बुद्धथा यथाक्रम | समुग्याए, तेयासमुग्धाए आहारसमुग्धाए केवलिसमुग्याए । संख्यया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते , ततोऽवकाशान्तर
(सू० ३३१ ) संहारसमय स्थितेः संख्येयभागान् हन्ति, एक संख्येय.
'करण' मित्यादि , कति-किंपरिमाणा णमिति वाक्याड भागं शेषीकरोति , अनुभागस्थानन्तान् भागान् हन्ति एकं मुश्चति । एवमन्तषु पञ्चसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येक
लंकारे , ' भदन्ते' ति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिन आम--
न्त्रणं, भदन्तत्वं च भगवतः घरमकल्याणयोगिन्यात, सामयिकं कराकमुत्कीण , समये समय स्थितिकण्डकानु
यदिवा-भवान्तेति , द्रष्टव्यं , सकलसंसारपर्यन्तवर्तित्वात्, भागकण्डकघातनात् , अतःपर षष्ठसपयादारभ्य स्थितिक,
अथवा-भयान्त ! इहपरलोकादिभेदभिन्नसप्तप्रकारभयविएडकमनुभागकण्डकं चान्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति , प्रयत्नमन्दीभावात् , षष्ठादिषु च समयेषु कराडकस्य प्र.
नाशकत्वात् . समुद्घाताः-उशब्दार्थाः प्रशप्ताः, भगवातिसमयमेकैकं शकलं तावदुत्किरति यावदन्तर्मुहूर्तचरम
नाह-'गोयमे' त्यादि, गौतम ! सप्त समुद्घाताः प्रसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्ण भवति । एवमान्त
सप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुदघात इत्यादि, वेदनाया: महर्तिकानि स्थितिकण्डकान्यनुभागकण्डकानि च घातयन्
समुद्रातो बेदनासमुद्घातः , एवं यावदाहारकसमुतावद्वदितव्यः यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः, सर्वा
द्धात इति , केवलिसमुद्घात इति-केवलिनः समु
द्धातः केवलिसमुदघातः । सम्प्रति कः समदघातः, किएयपि चामूनि स्थित्यनुभागकण्डकान्यसंख्येयान्यवगन्तव्यानीति कृतं प्रसझेन । प्रकृतं प्रस्तुमः ।
यन्तं कालं यावद्भवतीत्येतन्निरूपणार्थमाह-वेयणे' (२) तत्र संग्रहणिगाथाक्रमर्थ स्पष्टयन् प्रथमतः समु
त्यादि , सुगम , नवरं जावे' त्यादि , एवमुक्तयकारेणा
भिलापेनान्तर्मुहर्त्तप्रमाणतया च समुद्घाताः क्रमेण तावबातसंख्याविषयं प्रश्नसूत्रमाह
द्वाच्याः याचदाहारकसमुद्घातः, एते षडप्याचा प्रान्तकति णं भते ! समुपाया पण्णत्ता,गोयमा सत्त समुग्धा
महर्तिकाः, केवलिसमुद्घातस्त्वष्टसामायिकः, सचानम्तया पसत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्धाते १ कसायसमुग्घाते २ रमेव भाषितः , पतानेव समुद्घातान् चतुर्विशतिदराकमारणंतियसमुग्धाते ३ वेउब्धियसमुग्घाते ४ तेयासमुग्याते |
क्रमेण चिचिन्तयिषुराह--' नेरल्याण' मित्यादि, नै५ श्राहारसमुग्धाते ६ केवलिसमुग्धाते ७। वेदणासमुग्घाए
रयिकाणामाचाश्चत्वारः , तेषां तेजोलभ्याऽऽहारकलब्धि
केलिवाभावतः शेषसमुद्घातप्रयासम्भवात् , असुरकुणं भंते ! कति समइए पएणते ?, गोयमा! असंखेजसमइए मारादीनां दशानामपि भवनपतीनां तेजी लेश्यालब्धिभावात् अतोमुहुत्तिते पएणत्ते,एवं०जाव आहारसमुग्धाते। केवलि- श्राद्याः पश्च समुद्घाताः, पृथिवीकायिकाकायिकतैजस्कासमुग्घाए णं भंते ! कति समइए पएणते ?, गोयमा!
यिक वनस्पतिकायिकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामाद्यास्त्रयः, तेअट्ठ समइए पएणत्ते । नेरइया णं भंते ! कति समुग्धाया
पां वैक्रियादिलब्ध्यभावतः उत्तरेषां चतुर्णामपि समुद्घा
तानामसम्भवात् , वायुकायिकानामाद्याश्चत्वारस्तेषां वैकिपएणत्ता? , गोयमा! चत्तारि समुग्घाया पएणत्ता ,
यलब्धिसंभवेन वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात् , पञ्चेन्द्रितं जहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमु- यतिर्यग्योनिकानामाद्याः पञ्च, केषांचित्तेषां तेजोलब्धरपि ग्याए उब्वियसमुग्घाए । असुरकुमाराणं भंते ! भावात् , मनुष्याणां सप्त मनुष्येषु सर्वसम्भवात् व्यन्तर
ज्योतिषकवैमानिकानामाद्याः पश्च, वैक्रियतेजोलम्धिभावात् कति समुग्धाया पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंच
उत्तरौतु द्वौ न सम्भवतः श्राहारकलब्धिकेवलित्वाऽयोसमुग्धाया पलता, तं जहा-वेदणासमुग्धाए कसायस
गात् । समुग्याए मारणंतियसमुग्घाए वे उब्धियसमुग्घाए तेयासमु- (३) सम्प्रति चतुर्विंशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकस्य जीवग्याए एवं जाव थणियकुमारा णं । पुढविकाइयाणं भंते! स्य कति वेदनादयः समुद्घाता, अतीताः कति भाविन इति कति समुग्घाया पण्णत्ता, गोयमा! तिएिण समुग्घाया चिचिन्तयिषुराहपरमत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणं- | एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया वेदणासतियममुग्याए, एवंजाब चउरिदियाणं, नवरं वाउकाइ- मुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! अणंता , केवइया याणं चत्तारि समुग्धाया पम्मत्ता, तं जहा–वेदणासमु- पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि । ग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्याए उब्धिय- जस्सऽत्थि तस्स जहएणणं एक्को वा दो वा तिमि वा समुग्घाए पंचिंदियतिरिक्खजाणियाणं जाव वेमा- उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा एवं णिया णं भंते? कति समुग्घाया पप्पता?, गोयमा! पंच असुरकुमारस्स वि निरंतरंजाब वेमाणियस्स, एवं जासमुग्घाया परमत्ता,तं जहा-वेयणासमुग्घाए कमायममुग्घाए व तेयगममुग्घाए एवमेते पंच चउर्वासा दंडगा। एमारणंतियसमुग्याए उब्धियसमुग्याए तेयासमुग्धाए नवरं गमेगस्स णं भंते ! नेरइयरस केवइया आहारसमुमणुस्साणं सत्सविहे समुग्घाए परमत्ते, तं जहा-वेदणास- । ग्घाया अतीता ?, कस्सइ अस्थि कस्सइ नऽस्थि, मुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्धाए बेउविय- जस्स अस्थि तस्स जहणणेणं एको वा दो वा उ
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(४३७) समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय कोसेणं तिमि , केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अ- बनाऽपि पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं परिभावनीया, एवं चतुर्विथि कस्सइ नत्थि, जस्सास्थि जहोणं एक्को वा
शतिदराडकक्रमेण कषायसमुद्घानो मारणान्तिकसमुद्घा
तो वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातश्च प्रत्येकं, तत एव दो वा तिषिण वा उक्कोसेणं चत्तारि , एवं निरंतरं
पञ्चचतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति । तथा चाह:जाव रोमाणियस्स , नवरं मरणमस्स अतीता वि पुरे-- 'एवं जाव सेयगसमुग्घाए' इत्यादि, एवं बदनासमुद्घाक्खड़ा वि जहा नेरइयस्स पुरेक्खडा। एगमेगस्सणं भंते!
तप्रकारेण शेषसमुद्घातेष्वपि प्रत्यकं तावद्वक्तव्यं यावत्तैनेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीता ? ,
जससमुद्घातः, शेषं सुगमम् , 'एगमेगस्स ण' मिन्यादि,
एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य पाश्चात्य सकलमतीत कागोयमा! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा?, गोयमा कस्स
लमपक्ष्य क्रियन्त माहारकसमुद्घाता अतीताः ?, भगवाइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एको, एवं • जाव नाह-गौतम ! कस्यापि 'अन्थि' सि-आस्तीति निपातः चेमाणियस्स , नवरं मणूसस्स अतीता कस्सइ अस्थि , सर्वलिङ्गवचनो, यदाह शाकटायनन्यासकृत्-" मस्तीति कस्सइ नत्थि , जस्सस्थि एको, एवं पुरेक्खडा वि । निपातः सबंलिङ्गवचनेश्चि" ति, ततोऽयमर्थः-कस्यापि (सू०३३२४)
अतीता आहारकसमुद्घाताः सन्ति कस्यापि न सन्ति,
येन पूर्व मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामध्यभायतश्चतुर्दशप'एगमगस्स णं भंते !' इत्यादि , एकैकस्य सूत्र मका
र्वाणि नाधीतानि, चतुर्दशपूर्वाधिगम या श्राहारकलव्यरोऽलाक्षणिकः, भदन्त ! नैरयिकस्य सकलमतीत काल- भावतः तथाविधप्रयोजनाभायतो वा श्राहारकशरीरं न मधिकृत्य केवाय 'त्ति-कियन्तो वेदनासमुद्घाता अ- कृतं तस्य न सन्तीति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघतीता-अतिक्रान्ताः ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः,ना- न्यतः एको वा द्वौ वा उत्कर्षतम्तु त्रयो, न तु चत्वार , रकादिस्थानानामनन्तशः प्राप्तत्यादेकैकस्मिश्च नारकादि- चतुष्कृत्वः कृताहारकशरीरस्य नरकगमनाभावात् , आह स्थानप्राप्तिकाले प्रायोऽनेकशा वेदनासमुद्घातानां भावात् , च मूल्टीकाकार:-"आहारसमुग्घाय। उक्कोसणं निन्नि, पतच्च बाहुल्यापेक्षयोच्यते, बहवो हि जीवा अनन्तका- तदुवरि नियमा नरगं न गच्छद जस्स चत्तारि भवन्ति " लमसंव्यवहारराशेरुद्वत्ता वर्तन्ते, ततस्तदपेक्षया एकैकस्य । इति, पुरस्कृता अपि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, नैयिकस्यानन्ता अतीता वेदनासमुद्घाता उपपद्यन्ते । तत्र यो मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामध्यभावतश्चतुर्दशपू-- ये तु स्तोककालमसंव्यवहारराशेरुद्वृत्तास्तेषां यथासम्भवं । धिगममाहारकसमुद्घातं चान्तरेण सत्स्यति तस्य संख्यया असंख्यया वा प्रतिपत्तव्याः , केवलं ते कतिपय न सन्ति, शेषस्य तु यथासम्भवं जघन्यत एको हो इति न विवक्षिताः । 'केवड्या पुरेक्खड' ति इदं सूत्रं पाठ- चा त्रयो वा उत्कर्षतश्चन्वारः, तत ऊर्वमवश्यं गत्यन्तरासुचामात्र, सूत्रपाठस्त्वेवम्-' एगमेगस्स ण भंते ! नेरक्यस्म संक्रमणाहारकममुद्घानमन्तरण च सिद्धिगमनभावात् , केवइया वेयणासमुग्धाया पुरेक्खडा'इति,सुगम,नवरं पुरे श्र- 'एव ' मित्यादि, एवं नैरयिकालेन प्रकारेण चतुर्विशये कृताः-तत्परिणामप्राप्तियोग्यतया व्यवस्थापिताः, साम- तिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकस्य सू
र्थ्यात् तत्कर्तृजीवनति गम्यत , पुरस्कृता अनागतकाल- घम् , नवरं मनुष्यस्यातीता अपि पुरस्कृता अपि यथाभाषिन इति तात्पर्यार्थः । अत्र भगवानाह-कस्यापि स- नैरयिकस्य पुरस्कृतास्तथा वाच्याः, अतीता अपि चत्वारः न्ति कस्यापि न सन्ति, यस्यापि सन्ति, तस्यापि जघ- पुरस्कृता अपि चत्वार उत्कर्पतो वाच्या इत्यर्थः । सूत्रम्यत एको द्वौ वा प्रयो वा, उत्कर्षतः संख्यया वा अ- पाठश्चैवम्-' एगमेगस्स णं मरणूसस्स भंते ! केवदया संख्येया वा अनन्ता वा । इयमत्र भावना-यो नाम वि
आहारसमुंग्याया अतीता ?, गोयमा ! कस्सर अस्थि बक्षितप्रश्नसमयानन्तरं वेदनासमुद्घातमन्तरेणैव नरकादु- कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि जहन्नण एको वा दो वृत्यानन्तरमनुष्यभवे वेदनासमुद्घातमप्राप्त एव सत्स्यति वा तिन्नि वा उकासेणं चत्तारि, कवया पुरक्खडा?, गा तस्य पुरतो वेदनासमुद्घात एकोऽपि नास्ति , यस्तु यमा ! कस्सह अस्थि कस्सइ नन्थि जस्स अस्थि जहन्नंग विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरमायुःशेषे कियत्कालं नरकर्भव एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसणं चत्तारि' अत्र भावनास्थित्वा तदनन्तरं मनुष्यभवमागत्य सेत्स्यति तस्य एकादि- इह यश्चतुर्थचलमाहारकशरीरं कगति स नियमात् तद्भव सम्भवः , संख्यातकालसंसारावस्थायिनः संख्याताः, असं
एव मुक्तिमासादयति, न गत्यन्तरं, कथमतदवसीयत तिख्यातकालसंसारावस्थायिनोऽसंख्याताः, अनन्तकालसंसा- चेत् ?. उच्यत-मूत्रपौर्वापर्यपालाचनात् , तथा-यदि चतुगवस्थायिनाऽनन्ताः , ' एव' मित्यादि , एवं नैरयिकाक्त- धवलमायाहारकशरीरं कृया गत्यन्तरं संक्रामेत नती प्रकारणासुरकुमारस्यापि यावत् स्तनितकुमारस्य वाच्यम् , नैयिकादावस्यतरस्यां गता उत्कर्पतश्वत्वागण्याहारकततश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यायद्वै- स्य समुयाता उच्यग्न् , न चोच्यन्त, ततोऽवसीयंतमानिकस्य । किमुक्तं भवति ?-सर्वेष्वपि असुरकुमारा- चतुर्थवेलमहारकशरीरं कृत्वा नियमात् तद्भव एवमुदिषु स्थानषु अतीता घेदनासमुद्घाता अनन्ता वाच्याः , का भवनि , न गन्यन्नरगामी, तत्र यः प्रागाहारकशरीरं पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कम्यापि न सन्ति , यस्या- कदाचनापि न कनवान् नस्यानीनमाहारकसमुद्घाती पि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको हो वा त्रयो वा उत्क- नास्ति, नतस्तदपतयो कम्मद नत्थि' नि-यस्यागि पतः संख्यया असंख्यया अनन्ना वा इति वाच्याः। भा- सन्ति सोऽपि यदि पूर्वमकवारमाहारकशरीरं कृतवान
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समुग्घाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुरघाय तस्यैकोऽतीत आहारकस्य समुद्रातः द्वौ वारी कृतवतोही. प्रमाणा वेदितव्याः, कस्यापि नास्ति अतीतः केवलिसमुद्श्रीन वारान कृतवतस्त्रयो. यश्चतुर्धयेलमाहारकशरीरं कृत्वा घाना या न समुदघातं गतवान् , ते च सर्वसंख्यया श्रश्राहारकसमुद्घाताचतुर्थान्प्रतिनिवृत्तो वर्तते न चाद्यापि
संख्यया द्रव्याः , शतपृथक्त्यव्यतिरेकेणान्येषां सर्वेषामप्य. मनुजभवं विजहाति तस्य चत्वारः, पुरस्कृता अपि समु- सम्प्राप्तकेवलिसमुद्यातत्वात् , अत्राध्यस्तीति निपातम्य घाताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति । तत्र यश्चतुर्थ
सर्वलिङ्गवचनत्वात् , 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नन्थि' इत्युक्ता चेलमाहारकशरीरं कृत्वा श्राहारकसमुद्घानात् प्रतिनिवृ
बहुन्वाशङ्का स्यात् , ततस्तद्व्यवच्छेदाथमाह-यस्य मनुतो, यदिया-पर्वमताहारकशरीरोऽपि, अथवा-एकबारकृ
प्यस्यातीतः केवलिसमुद्घातस्तस्य नियमादेको न द्वित्राः ताहारकशरीरोऽपि, यदिवा-हिष्कृत्वः कृताहारकशरीरोऽपि,
एकेनैव कवलिसमुद्घातेन प्रायः समस्तघातिकर्मणां निर्मूयदिवा-त्रिष्कृत्वः कृताहारकशरीगेऽपि तथाविधसामग्यभा.
लकार्षपितत्वात् , 'एवं पुरेक्खडा वि' त्ति-एवम्यात् उत्तरकालमाहारकशरीरमहत्वव मुक्लिमवाप्स्यति तस्य
अतीतगतेन प्रकारेण पुरस्कृता अपि केवलिसमुदघाता पुरस्कृता श्राहारकसमुद्घाता न सन्ति, यस्यापि सन्ति
वाच्याः, ते चैवम्-'कस्सइ अन्थि, कस्सइ नन्धि जस्सस्थि तस्यापि जघन्यत एको वा द्वौ वा त्रयो या उत्कर्षतश्चत्वारः
एक्को' इति । अत्र भावना पूर्वोक्कानुसारण स्वयं भावनीया । तत्र एकादिसम्भवः पूर्वोक्तभावनानुसारेण स्वयं भावनीयः
(४) तदेयमतीतमनागतं च कालमधिकृत्य एकैकस्य नैरयस्तु पूर्वकालमेकवारमपि श्राहारकशरीरं न कृतवान् , अथ
यिकादेवेंदनादिसमुद्घातचिन्ता कृता, सम्प्रति नरयिकादेः चात्तरकाल तथाविधसामग्रीभावतो धावत्सम्भवमाहार- प्रत्येकं समुदायरूपस्य तश्चिन्तां चिकीर्षुराहकशरीरकर्ता तस्य चत्यागे न शेषस्य । सम्पति केबलिसमुद्धातविषयं दण्डकसूत्रमाह-' एगमेगस्स ण' मित्यादि,
नेरइयाणं भंते ! केवइया वेदणासमुग्घाया अतीता, एकैकस्य भदन्त ! नेयिकस्य निरवधिकमातीतं कालमधि- गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! अणंता, कृत्य कियन्तः केवलिसमुद्धाता अतीताः !. भगवानाह- एवं जाव वेमाणियाणं, एवं० जाव तेयगसमुग्घाए, एवं • नत्थि' ति-नास्त्यतीत एकोऽपि कलिसमुद्धातः, केव- ति विच चरवीगांटा गया हैलिसमुद्धातानन्तरं हान्तर्मुहतेन नियमतो जीवाः परमप
वइया आहारगसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! अदमश्नुवने, ततो यद्यविष्यत्केवलिसमुद्धातस्तहि नरकमेव नागमिष्यदः अथ च सम्प्रति नरकगामिनो वर्तन्त संखज्जा, केवइया पुरेक्खडा १, गोयमा ! असंखेज्जा. तस्मान्नास्त्येकस्याप्यतीतः केवलिसमुद्धातः, ' केवइया एवं. जाव बेमाणियाणं, णवरं वणस्सइकाइयाणं मरणपुरेक्खड 'त्ति-कियन्तः पुरस्कृताः केवलिसमुद्धाता इति साण य इमं गाण-बणस्सइकाइयाणं भंते ! केवप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सद नस्थि'। त्ति-इह केवलिसमुदात एकस्य प्राणिन आकालमेक एव
इया आहारसमुग्घाया अईया ?, गोयमा! अणंता मरणूभवति, न द्वित्राः, ततोऽस्तीति निपातोऽत्र एकवचना- - साणं भंते ! केवइया आहारसमुग्घाया अईया?, गोम्तो बेदितव्यः, ततश्चायमर्थः-कस्यापि केवलिसमुद्धातः | यमा ! सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडा वि । पुरस्कृतोऽस्ति, यो दीर्घतरणापि कालेन मुक्तिपदप्राप्त्य- नेण्डयाण मंते ! केवइया केवलिसमुग्धाया अईया ? वसरे विषमस्थितिकर्मा इति, कस्यापि नास्ति, यो मुकिपदमवाप्नुमयोग्यो योग्यो वा केवलिसमुद्घातमन्तर
या माक्र- गोयमा ! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! असंखेगय मक्लिपदं गन्ता, तथा च वक्ष्यति-" अगंतूण
ज्जा, एवं० जाव वेमाणियाणं, णवरं वणस्सइमणूसेसु समग्घाय-मणता कवली जिणा । जरमरणविप्पमु- इमं नाण-वणस्सइकायाणं भंते ! केवइया केवलिसक्का, सिद्धिं घरगई गया ॥१॥” इति, इह अस्तीति मुग्घाया अतीता ?, गोयमा! णस्थि, केवइया पुरेक्खनिपातः सर्वलिङ्गवचन इत्यविदितसिद्धान्तस्य बहुत्याशङ्कापि कस्यचित् स्यात् ततस्तदपनोदार्थमाह-'जम्स अस्थि'
| डा ?, गोयमा ! अणंता, मणूसा णं भंते ! केवइया एको यस्याम्ति पुरस्कृतः केवलिसमुद्घातस्तस्य एको, भूयः
केवलिसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! सिय अस्थि सिय संसाराभावात् , 'एवं जाय वमाणियस्स' त्ति एवं-नैर- नत्थि, जइ अस्थि जहरमणं एक्को वा दो वा तिमि वा, यिकगतामिलापप्रकारेण चतुर्विंशतिदण्डकक्रममनुसृत्य ता- उक्कोसणं सत्तपुहुत्तं, केवतिया पुरेक्खडा ?, सिय संखेजा बद् वनव्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्रम् , तच्चेदम्-एगमेगस्स ! ग मंत! वमाणियरस केवइया कवलिसमुग्घाया अतीता,
सिय असंखेजा । (मू० ३३२) गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गायमा ! कस्सइ नरइयाण ' मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसअस्थि, कस्सइ नन्थि, जस्तथि एक्को' इति, तत्रैव वि- मयभाविनां सर्वेषां समुदायेन भदन्त ! कियन्तो घेदनाशेपमाह-'नवर' मित्यादि नवरमयं विशपः-मनुष्यस्य के- समद्घाता अतीताः ?, भगवानाह-गौतम ! अनन्ता, लिसमुद्घातस्य चिन्तायामतीतः कस्याप्यस्ति कस्यापि। बहनामनन्तकालसंव्यवहारराशरुद्वृत्तत्वात् , कियन्तः पुनास्तीति वक्तव्या, नत्र यः केर्वालसमुद्घातात् प्रतिनिवृ- रस्कृता? , अत्रापि प्रश्नसूत्रपाठः परिपूर्ण एवं द्रव्यःतो वर्तते न चाद्यापि मुक्तिपदमवाप्नोति तस्यास्त्यतीतः नरइयाण भंत ! केवइया ययग्गासमग्घाया पुरेक्खकेवलिसमुद्घाताते च सर्वसंख्यया उत्कर्षपदे शतपृथक्य. डाइति, भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, बहनामनन्त
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( ४३६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
समुग्धाय
तथा चा
3
फालभाविससरापस्थानभावात् एवं चतुर्विंशतिदण्डक मेण तावद् चल पायमानिकानां यथा च वेदनासमुद्वातधनुर्विद्यतिक्रमे चिन्तित तथा कषायमरवैक्रियतैजससमुद्घाता श्रपि चिन्तनीयाः ह--' एवं जाव तयगसमुग्धार ' एवं च सतिएतान्यपि वहुत्यविषयाणि पञ्च चतुर्विंशतिदण्डकाणि भवन्ति एतदेवाह - 'एवमेष वि य पंच चवीसदंडगा' इति श्राहारकसमुद्धातचिन्तां कुर्यान्नाह - 'नेरइयाण मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! असंख्येयाः । इयमत्र भावना - इह नैरयिकाः सर्व दाऽपि प्रश्नसमयभाविनः सर्वसंपाच्या मपि मध्ये कतिपयाः संख्पातीताः कृतपूर्वाहारकसम् दूधातास्ततोऽसंख्येया एव तेषामतीताहारसमुद्घाता घटन्ते, नानन्ता नापि संख्येयाः, एवं पुरस्कृता अपि भावनीषा एवं चतुतिमेतावद्वाच्यं याद्वैमानिकानाम्, श्राह च - 'एवं जाव बेमाणियाणं' अत्रैव यो विशेषतं ददर्शवराह' नबरमित्यादि नवरे वनस्पतिकायिकचिन्तायां मनुष्यचिन्तायां च नैरयिकापेक्षया नानात्वमवसेयम्, तदेव नानात्वमाह - 'वणप्फइकायाण' मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह - गौतम ! अनन्ताः, अनन्तानामधिगतचतुर्दशपूर्याणां कृताहारकसमुद्द्यातानां प्रमादवशतः उपचितसंसारागां वनस्पतिषु भावात्, पुरस्कृता अनन्ताः अनन्तानां वनस्पतिकायादुहृत्य चतुदेशपूर्वाधिगमपुरस्सरं कृताहारकसमुद्घातानां भाविसिद्धिगमनभावात्, 'मरणुस्सा गं भंते!' इत्यादि, श्रचापि प्रश्न भगवानाह गोतम ! स्वादिति निपातो ऽनेकान्तद्यांती, ततोऽयमर्थः कदाचित् संख्येयाः, कदाचिदसंख्येयाः कथमिति चेत्-सम्मू
गर्भात समुदायचिन्तायाम् उत्कृष्पदे मनुष्या अठ्ठलमाक्षेष पादान् प्रदेशराशिस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमू तत् तृतीय वर्गमूलेन गुणितं सत् यावत्प्रमाणं भवति - साप्रदेशप्रमाणानि बगान पनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्यां श्रेणी यावन्ति भवन्ति एतावत्प्रमाणा एकहीना ते चातीय शेषनारकादिजीवराश्यपेक्षया लोका तत्रापि ये पूर्वभवेषु कृताहारकशरीरास्ते कतिपयाः, त कदाचित् विषयेाः कदाचिदसंस्थेयाः, तत उक्तम् - सिय संखेजा सिय श्रसंखेजा' इति, अमागतेऽपि कालामध्ये कति संख्या एवाहारशरीरमापति तेऽपि कदाचित् संख्ये याः कदाचिद्संख्येयाः, तत श्राह - ' एवं पुरेक्खडा वित्तिणं एवं श्रतीतगतन प्रकारेण वनस्पतिकायिकानां मनुष्याणां च
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पुरस्कृता अपि आहारकसमुद्धाता वेदितव्याः, ते चैवम् - 'वफइकाइया गं भंते ! केवइया आहारगलमुग्धाया पुरेक्खडा ? गोयमा ! श्रता । मगुस्सा गं अंत ! केवइया आहारसमुग्धाया पुरेक्खडा ? गोयमा ! सिय संखेजा सिय श्रसंखेजा' इति केवलसमुद्घातविषयं प्रश्न'नेरइयाणं भंते!' इत्यादि सुगमम् भगवानाह-गौतम! न सन्ति केचनानीता नयिकाणां केवलिसमुदाताः कृतसमुद्घानानां नरकादिगमनासम्भवात्
"
सूत्रमाह
"
"
ममुरपाय कियन्तः पुरस्कृता इति प्रश्नः, भगवानाह - गौतम ! असंख्येयाः सर्वदा विभागांमध्ये तानां भाषिकेलिसातत्यात् तथा केवलवेदोपलब्धेः एवं चतुर्विंशतिदण्डक क्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं याबद् वैमानिकानां सूत्रं, तथा चाह-' एवं जाव वेमाशिवाय विशेषमाह नवरमित्यादि नवरं वनस्पतिकायिकेषु मनुष्येषु चंदं वक्ष्यमाणलक्षणं नानात्वम्, तदेवाह - ' वणष्फइकाइयाण मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुप्रतीतम्, उत्तरसूत्रे निर्वचनम् अनन्ताः, अनन्तानां भाविकेवलिसमुद्घातानां तत्र भावात् ' मणुस्साण' मित्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं सुगमं, भगवानाह - गौतम ! स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति । किमुक्तं भवति ? - यदा प्रश्नसमये समुद्घातापिताः प्राप्यन्ते तदा सन्ति शेषका न्ति, तत्र ' जइ अस्थि त्ति-यदि प्रश्नसमये कृतकेवलिसमुद्घाता मनुष्यत्वमनुभवन्तः प्राप्यन्ते तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो शतपृथक्त्वम्, यो वा उत्कर्षतः शतधन्यम् एतावतामेककालमुकृष्टपदे केवलिनां केवलिसमुद्घातासादनात् केवइया पुरखड चिं-कियन्तो मनुष्याणां केवलिसमुद्याताः पुरस्कृताः ?, भगवानाह - स्यात् संख्येयाः स्यादसंख्ययाः, मनुष्या हि सम्मूहिमा गर्मप्युत्कान्ताश्च सर्वसमुदिता उत्कृष्टपदे प्रागुक्लप्रमाणास्तत्रापि विवक्षित प्रश्न समयभाविनां मध्ये कदाचित्केापया, बहूनामभ भावात् कदाचिदसंख्या बहुभाषिकेल द्वातानां भावात् ।
"
"
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(४) सम्प्रति एकैकस्य नैरन्विादिषु वर्तमानस्य प्रत्येकं कति येनासनुद्धाता प्रतीताः कति भाविन इति कामएगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अगंता, केवइया पुरेक्सडा ?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स श्रत्थि जहमे एकोपा दो वा तिम्पि वा उजवा असंखेजा वा अता था एवं असुरकुमारचे जाव के माणियत्ते । एगमेगस्स गं भंते! असुरकुमारस्स नेरइयत्त केवइया वेदणासमुग्धाया श्रतीता ?, गोयमा ! अंता, केवया पुरेक्खडा, गोवमा कस्सर अस्थि कस्सह नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय संखेजा सिय अरांता । एगमेगस्स भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारते केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता, गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा, गोयमा कस्स अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्मत्थि जहमे एको वा दो वा तिम्मि वा उक्कोसेणं संखज्जा वा असं या अता था, एवं नागकुमारने वि० जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा० वेयणासमुग्याएणं असुरकुमार नेरइयाऽऽदिवेमाण्यिपञ्जवसामु भणितो तहा नागकुमाराऽऽदिया असे नासु परागोगु माणितच्या जाव
!
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समुग्धाय
मथियस्व माणियचे। एवमेते चब्बीसा-चडम्बसिं
दंडगा भवंति ( ० ३३३ ) ।
4
,
एगमेगस मित्यादि एकैकस्य भइन्स ! मैरयिकरूप सकलमतीतकालयीकृत्य तदा तावृतस्य सतः सर्वया कियन्तः बेदनासमुद्धाता अतीता भगवानाह - गौतम ! अनन्ताः, नरकस्थानस्यानन्तशः प्रासत्यादेकै कस्मिथ नरकमये जघन्यदेऽपि संयानां बंदनासमुद्धावानां भायात्, 'केवइया पुरेक्खड सिकियन्तो भदन्त । एकैकस्य रविकरा संसारमोक्षमागतं कालअधीकृत्य का भाविनः सतः सर्वया पुरस्कृता वेदनासमुद्धाताः है, भगवानाह गीतम! कस्सा अस्थि इत्यादित्रय आसन मृत्युर्वेदनासमुद्धतमायान्तिकमरन नरकायसेत्स्यति तस्य नास्ति, नैरयिका भावी एकोऽपि पुरी बेदनासमुद्धातः शेषस्य तु सन्तिस्यापि जघन्यत एको द्वौ या त्रयो वा एतच्च क्षीणशेषणयुषां तद्भवानामनन्तरं सरस्वतां द्रष्टव्यम्, न भूयो नरकेधूत्पत्स्यमानानां भूयो नरकेत्पत्ती जयम्यपदेऽपि संयानां प्राप्यमाणत्वात् । यदाह मूलटीकाकारः- “ नरकेषु जघन्यस्थिति पुत्पन्नस्य नियमतः संख्या एव वेदनासम्द्वाता भवन्ति वेदनासमुद्धातप्रचुरत्वान्नारकाणामिति, उस्कर्षतः संख्या असंख्येया वा अनन्ता वा तत्र सकृत् नरकेषु जघन्यस्थितिवृत्पत्स्यमानस्य संख्येयाः, अनेकशदीर्घस्थितिषु श्रसकृद्वा उत्पत्स्यमानस्य असंख्येयाः, अनन्तशः उत्पत्स्यमानस्य अनन्ताः । 'एच' मित्यादि, एत्रम्-नैर कितनाभिलापप्रकारेणासुर कुमारत्वेन तदनन्तरं चतुविशतिक्रमण निरन्तरं साद्वायामानिक तश्चैवम् - एगमेगस्स णं भंते! नरइयस्स असुरकुमाराश्रो केवइया वेणासमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अनन्ता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सर अस्थि कस्सर नत्थ जस्स अस्थि जहने एको वा दो वा तिथि वा उक्कों से
"
सेवा सेजा यातायातजातीतसूत्र ऽनन्तशोऽसुरकुमारत्वस्य प्राप्तत्वादुपपद्यते तद्भावमापन्नस्यानन्ता अतीता बेदनासमुद्राताः। पुरस्कृतचिन्तायां योऽनन्तरभवेन नरकादुवृत्तां मानुष्यं प्राप्य सत्स्यति
या परम्परया सदसुकुमारन नासाने गमिष्यति तस्य भारत्येकापि पुरस्कृतो कुमार दासमुद्घातः । यस्तु सकृदसुरकुमात्वं प्राप्तः सन् सहदेव दासमुद्घा गन्ता तस्य जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा शेषस्य शेषस्यसङ्कल्येयान असुरकुमारत्वं यास्यतः संख्ययाः असंख्ये मान् वारान् असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः । एवं चतुर्विंशतिदण्डमेव नागकुमारस्यादिषु स्थानेषु निर न्तरं सूत्रपाठस्तावद् वक्तव्यो यावद्वैरनिकत्वविषयं सूत्रम्, 'पगमेगस्स णमित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! श्रसुर कुमावस्य पूर्व नैरयिकत्वेन वृत्तस्य सतः सकलमतीनं काल
यारान्
पेव सर्पसंख्याको दासता अतीता भगवानाह - - गौतम ! अनन्ता श्रतीताः अनन्तशां नैरयिकत्यस्य प्राप्तत्वात् एकैकस्मिँश्च नैरभिकल्प भव जघन्य
"
V
( ४४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
"
समुग्धाय देउपि संक्यानां बेदनासमुद्यातानां भावात् किवन्तः पुरस्कृताः ?, स्यात् सन्ति स्यान सन्ति कस्यचित्सति कस्यचित्र सन्ति इति भावः । अत्रापीयं भावनायोऽसुरकुमारभवादुनो न नरकं यास्यति किल्वनन्तरं परम्परया वा मनुजभवं प्राप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकत्वावस्थाभाविनः पुरस्कृता बेदनासमुद्घाता न सन्ति, नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात् । यस्तु तद्भवादूर्ध्वं पारम्प र्येण नरकं गमिष्यति तस्य सन्ति, तत्रापि कस्यचित्संकंपेयाः कस्यचिदसंदेयाः कस्यचिदनन्ताः तत्रयः स
!
"
पन्यस्थितिषु मध्ये समुत्पत्स्यते तस्य जधन्यपदेऽपि संख्येयाः, सर्वजघन्य स्थितावपि नरकेषु संख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् । वेदनाबहुलत्वान्नारकाणाम् । असकृद् जघन्य स्थितिषु दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा गमने असंस्थेयाः, अनन्तशो नरकगमने श्रनन्ताः । तथा एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तो वेदनासमुद्घाता श्रतीता? भगवानाह गोतम अनन्त पूर्वमप्यनन्तरास्त द्वावस्यात् प्रतिभयं च वेदनासमुद्घातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, यस्य प्रश्नसमय। दुर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपि वर्त्तमानस्वभाषी वेदनासमुद्घातो नापि तत उद्वृत्य भूयोऽ प्यसुरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति यस्तु सकृत् प्राप्स्यति तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्यया अनन्ता वा संस्थेयान् वारान् उत्पत्स्यमानस्य संख्येयाः, असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः अनन्तान् वारान् अनन्ताः पयं चतुर्विशतिम नागकुमारत्वादिषु स्वस्थानेष्वसुरकुमारस्य निरन्तरं तावमगर तथा बाद एवं नागकुमार वि' इत्यादि, तदेवमसुरकुमाराणां वेदनासमुद्धातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमा एमित्यादि उपदर्शितभिलापेन यथा चतुर्विंशतिद्दक्रमेण असुरो वैमानिकपर्यवसानेषु भविता नागकुमा रादयोऽवशेषेषु समस्तेषु स्वस्थानपरस्थानेषु भणितच्या याद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे, एवं चैतानि नैरयिकचतुर्विंशसिकसूत्रादीनि वैमानिकपतुर्विंशतिदायक सूत्रपर्यवसा नानि चतिः सुषाणि भवन्ति चतुर्विंशत्य चतुर्दशतिसूदनासमानस्यतिः । (2) सम्प्रतिचतुथैव च विंशतिडक सूत्रः कषायसमुद्धातं चिचिन्तयिषुरिदमाह
:
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"
एगमेगस यं भंते! नेरइयस्स नेरइयते केवइया क सायसमुग्धाया अतीता १, गोयमा ! अांता, केवड्या पुरेक्खडा १, गोयमा ! कस्सर अस्थि कस्मइ नत्थि जस्सत्थि एरियाते० जाव अर्थता। एगमेगस्स मेंते ! नरइयस्स असुरकुमारले केपइया कसायसमुपाया अनीता गोयमा ! भयंता, केवइया पुरखडा ! मनमा कस्स अन्थि करसह नरिथ, जम्स ग्रन्थि सियाम अता प० जाय
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(४४१) समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्घाय नेरइयस्स थणियकुमारत्ते, पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए बहुलत्वात् तेषाम् , उत्कृष्टपदेऽसंख्येया अनन्ता वा,तत्र स. नेतव्वं, एवं० जाव मणुयत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकु
कृद् दीर्घस्थितावसकृज्जघन्यस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानाम
संख्येयाः,अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः। एवं नैयिकमारते, जोइसियत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ
स्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावत् भत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय असंखेजा सिय स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह--' एवं जावे' त्यादि , पृथिप्रखंता । एवं वेमाणियत्ते वि सिय असंखेजा सिय अणंता,
वीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्य
चित् सन्ति कस्यचित्र सन्ति , तत्र यो नरकादुद्वत्तो न असुरकुमारस्स नेरइयत्ने अतीता अणंता , पुरेक्खडा
पृथिवीकायभवगामी तस्य न सन्ति , योऽपि गन्ता तस्याकस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि सिय संखेजा सि
पि जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया य असंखेजा सिय अणंता । असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते | असंख्येया वा अनन्ता वा, ते चैव--तिर्यपश्चेन्द्रियभवान् प्रतीता अणंता पुरेक्खडा एगुत्तरिया, एवं नागकुमा- मनुष्यभवाद्देवभवादा कषायसमुद्घातसमुद्धतः सन् यरत्तेजाव निरंतरं वेमाणिपत्ते जहा नेरइयस्स भणितं त
एकवारं पृथिवीकायिकेषु गन्ता तस्य एको द्वौ वारौ ग
न्तुौं, त्रीन् वारान् त्रयः, संख्येयान् वारान् संख्येया, अहेव भाणितव्वं, एवं० जाव थणियकुमारस्स वि चेमाणि--
संख्येयान् वारान् असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः । यत्ते, नवरं सम्बेसि सहाणे एगुत्तरियाए परहाणे जहेब तथा चाह--'पुढविकायचे पगुत्तरियाए नेयवं' ति-- असुरकुमारस्स, पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते. जाव थणियक। तथा-' एवं ताव मसूसत्ते' इति--एवं पृथिवीकायिकगमारते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि क
तेनाभिलापप्रकारेण तावद् वक्रव्य यावन्मनुष्यत्वे, तचै
वम्--' एगमेगस्स ण भंते. नेरइयस्स अाउकाइयत्ते केवस्मइ नस्थि, जस्सत्थि सिय संखजा सिय असंखेजा
झ्या कसायसमुग्घाया अईया?, गोयमा ! अणता, केवइया भर भणता । पुढविकाइयस्स पुढविकाइयत्त० जाव परेक्खडा?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्समणूसत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि । स्थि जहएणणं एको (वा) दो वा तिरिण चा उक्कोसणं संखेकस्सइ नत्थि जस्स अत्थि एगुत्तरिया,वाणमंतरत्ते जहा
जा असंखज्जा वा अणंता वा' एवं यावन्मनुष्यसूत्रं , त
त्राकायादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत् , परइयत्ते । जोइसियवेमाणियत्ते अतीता अणंता,पुरेक्ख
द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा - डा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय असं- यो वेति सकृत् जघन्यस्थितिकं द्वीन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्थखजा सिय अणंता,एवं०जाव मणूसत्ते वि नेयच्वं । वाण- संख्ययान वारान् प्राप्तुकामस्य संख्येया, असंख्येयानसंयेमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा, शवरं सट्ठाणे
या, अनन्तान् अनन्ताः । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि एगुत्तरियाए भाणितव्वे० जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते,
भावनीये, तिर्यक् पश्चेन्द्रियमनुष्यसूत्रविषया त्वेवं भावनाएवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा । (सू० ३३४)
सकृत्पश्चेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य स्वभावत एवाल्पकषा
यस्य जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा शेषस्य संख्येयान् वारान् “एगमेगस्स ण' मित्यादि, तत्र नैरयिकस्य नैरयिकत्वविषयं तिर्यपञ्चेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य संख्येया , असंख्येयान् प्रश्नसूत्र सुगमम् पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यचित्सन्ति कस्य वारान् असंख्यया , अनन्तात् वारान् अनन्ताः । मनुष्यसूत्र चित्र सन्ति,तत्र यःक्षीणशेषायुः प्रश्नसमये भवपर्यन्ते वर्त- तु पुरस्कृतविषया भावनेयम्-यो नरकभवादुवृत्तोऽल्पकमानः कषायमुद्घातमप्राप्त एव नरकभवादुदवृत्त्यानन्तरं । पायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्घातमप्राप्त एव सिपारम्पर्येण वा सेत्स्यति न भूयो नरकवासगामी तस्य द्धिपुरं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य सन्ति , तस्यापि पकं नम्ति पुरस्कृता नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाताः, शेषस्य तु द्वी त्रीन् वारान् कषायसमुद्घातान् प्राप्य सेत्स्यत एको हो । सन्ति, तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा प्रयो वा, ते च प्रयो वा संख्येयान् भवान् , यदि वा-एकस्मिन्नपि भवे शाखायुःशेषाणां तद्भवभाजामवसेयाः । उत्कर्षतः संख्येया संख्येयान् कषायसमुद्घातान् गन्तुः संख्येया, असंख्येयान असंख्यया वा अनन्ता वा,तत्र संख्येयवर्षायुशेषाणां संख्ये- भवान् प्राप्तुकामस्यासंख्येयाः, अनन्तान् अनन्ताः । 'चाण याः, असंख्येयवर्षायुःशेषाणामसंख्येयाः । यदि वा-सद मंतरत्ते जहा-असुरकुमारत्ते' प्रागुक्तम् । किमुलं भवति ?जघन्यस्थिती उत्पत्स्यमानानां संख्येयाः, असकृत् जघन्य- पुरस्कृतचिन्तायाम् एवं वक्तव्यम्-"जस्सस्थि सिय संखखितौ सदसकृद्दीस्थितावुत्पत्स्यमानानामसंख्येयाः,अ- ज्जा सिय असंखजा सिय अणता वा' इति नत्वकोत्तरिनम्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, तथा नैरयिकस्येवासुरकु- का वक्तव्याः , व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघन्यस्थिमारत्वविषयेऽतीतसूत्रं, तथैव पुरस्कृतसूत्रे' कस्सर अस्थि तावपि संख्ययानां कषायसमुद्घातनां लभ्यमानत्वात् , श्रकस्सा नत्थि' ति-यो नरकादुद्वत्तोऽसुरकुमारत्वं न प्रा- संख्येयानन्तभावनाऽप्यसुरकुमारवत् , 'जोइसियत्ते' इत्याप्स्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता असुरकुमारत्वविषयाः दि, ज्योतिष्कत्वेऽतीता अनन्ता वक्तव्याः, पुरस्कृतास्तु कषायसमुदाताः । यस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति, ते कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतदांप प्राग्वद् भावव जघन्यपदे संख्येया जघन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां नीयं, यस्यापि सन्ति तस्यापि कस्यचिदसंख्येयाः कस्यसंख्येयानां कषायसमुद्घातानां भावात् , लोभादिकषाय- चिदनन्ताः, नतु स्यात् संख्येयाः इति वक्तव्यम् । कुत इति
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समुग्धाय
चेत् ? उच्यते- ज्योतिष्कारणां जघन्यपदेऽप्यसंख्येयकालायुष्कतया जघन्यतोऽपि असंख्येयानां कषायसमुद्वानानां लभ्यमानत्वात्, अनन्तशस्तत्र जिगमिषूणामनन्ताः, एवं वैमानिकांचेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां स्यादसंस्थेयाः स्यादनन्या इति वक्तव्यम् । भावना प्राग्वत् । तदेवं नैरयिकस्य स्वस्थाने परस्थाने च कषायसमुद्वाताश्चिन्तिताः, सम्प्रत्यसुरकुमारेषु तान् चिचिन्तयिपुराह - एगमेगस्स ' मित्यादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वं कषायसमुद्धाता श्र तीता अनन्ता भाविनः कस्यचित्सन्ति कस्यचित्र सन्ति, तत्र सुकुमारभयादसो नरकं यास्यति तस्य न सन्ति, यस्तु यास्यति तस्य सन्ति । तस्यापि जघन्यतः संख्येयाः, जघन्यस्थितावपि संख्येयानां कपायसमुद्धातानां नरकेषु भावात् उत्कृर्षतोऽसंख्येयाः अनन्ता वा तत्र जघन्यस्थितिकीयस्थतिषु सदसद्धा जिगर संख्याः अनन्त जिगमिपोरनन्ता, असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः । 'पुरेक्खडा एगुत्तरिया इत्यादि. पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति तत्र या सुरकुमार पर्यन्तवचन व कषायसमुद्वातं याता नापि तच प्रभूपोऽसुरमारभवं लचा किस्यनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य सन्ति, शेषस्य तु न सन्ति । यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येयाः असंख्येया अनन्ता वा । तत्र एकादयः श्रीयुःशेषाणां तद्भयभाजां भूयस्तवानुत्पत्स्यमानानामवगन्तव्याः, संख्येयादयो नैरयिकत्वे इव भावनीयाः । एवमित्यादि एवम् उक्रेन प्रकारेण नागकुमारत्वे तत ऊ चतुर्विंशतिदण्डक क्रमेण निरन्तरं यावद्वैमानिकत्वे वैमानिकत्वविषयं सूत्रं यथा नैरयिकस्य भणितं तथैव भणितस्पम् । किमुक्कं भवति, नागकुमारत्यादिषु स्तनितकुमार पर्यवसान पुरस्कृतचिन्तायां कलह अस्थि फरसा नत्थि, जस्ल अस्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अता' पृथिवी कायिकत्वादिषु मनुष्यत्वपर्यवसानेषु 'जस्स अस्थि जहएको वा वा निधि या उसे संज्जा वा श्रसंखेज्जा वा अता वा व्यन्तरत्वे जस्स अ स्थिसिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अंता' ज्योतिकरवे --' जस्स अस्थि सिय असंखेज्जा सिया वैमानिति वक्रस्यमिति एवं जाये' स्यादि एवम् उक्लन प्रकारेण असुरकुमारवन्नागकुमारस्य यावस्तनितकुमारस्य प्रमानिक-वैमानिक विषयं सूत्रं तावद्वक्तव्यम् । अत्रैव विशेषमाह - नवरं सर्वेषां नागकुमारादीनां कुमार पर्यवसानाने नियमतः पुरस्कृता एकोत्तरिकाः परस्थाने यथैवासुकुमारस्य तथैव पय्याः पुढविकाइयस्सरइय वक्तव्याः, इत्यादि पृथिवीकायिकस्य रविक यावत् स्तमितकुमार अतीता अनन्ताः । श्रत्र भावना प्रागिव, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति तत्र यः पृथिवीकाकेच्चसुकुमारं यावत् स्वनकुमारं
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न गमिष्यति किन्तु मनुष्यभवं प्राप्य सिद्धिं गन्ता तस्य न सन्ति, शपस्य तु सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः संख्या अन्यापि नरकादिषु संध
( ४४२ )
अभियान राजेन्द्रः ।
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समुग्धाय यानां कषायसमुद्धातानां भावात् उत्कर्षतोऽसंख्येया अनन्ता वा ते च प्राग्वद् भावयितव्याः पृथिवी कायिकत्वे यायन्मनुष्यत्येऽतीतास्ते तथैव भाविन एकीक एकोतरिकया वक्तव्याः, ते चैवम्- 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जम्स अस्थ जहर को था दो वा तिथि वा संजा या असंखेज्जा वा श्रता वा' ते च नैरयिकस्य पृथिवीकायिकस्य इस भावनीयाः वामेतर जहा नेरइयसे इति व्यन्तरत्वे यथा नैरयिकत्वे तथा वक्तव्यम् । किमुकं भयति ?- एकोत्तरिका न वक्तव्याः - किन्तु "सिय संजा सिय सखेजा सिय आणता इति वक्तव्यं, ' जाइसिय इत्यादि ज्योति वैमानिक वातीतास्तथैव पुरस्कृता यदि सन्ति ततो जघन्यपदे असंख्येयाः उत्कृष्टपदे अनन्ताः एवमष्कायिकस्य यावन्मनुष्यत्वे नेतव्यं व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानां यथा असुरकुमारस्य नवरं पुरुस्कृतचिन्तायां सर्वे स्वस्थाने एकोत्तरिकया वक्तव्यम्, परस्थाने यथा असुरकुमारस्य सूत्रम् । सूत्रपर्यन्तं दर्शयति'जाव मास्सिइतिमानस्य वैमानक
,
,
.
.
"
मानक
रागतातुर्विंशतिः चतुर्विंशतितुशिनिक २४ भणितव्याः । तदेवमुक्तश्चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रः कषायसमुद्घातः ।
(६) सम्प्रति चतुर्विंशत्यैव चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैर्मारशान्तिमुपातमाद
,
मारणंतियसमुग्धाओ सट्टाणे वि परट्ठाणे वि एगुत्तरियाए नेयब्वी० जाव वैमाशियस्य वैमाखियते, एवमेते चवीसं चवीसा दंडगा भाणियव्वा । ( प्रज्ञा० ) तेय - मसमुपाए जहा मारतियसमुग्धाए, वरं जस्सस्थि एवं एते विचवीसं चउवीसा दंडगा भाखितव्या । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया - हारसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! णत्थि, केवइया पुक्खडा, गोषमा रास्थि एवं जात्र माणयते नवरं मणूस अनीता कस्सद्द अस्थि कस्सर नत्थि, जस्सत्थि जहां एक या दो या उसे निम्मि केवइया पुक्खडा, गोषमा कस्स अस्थि कस्सर नरिथ, जस्सत्थि होणं एको वा दोवा तिम्मि वा उफोसे चनारि एवं जाणं मगुस्सा भासिय, मनस्व मरणसने अतीता कस्स अस्थि कस्सइ नरिथ, जस्सन्थिजहमे एको वा दो वा तिमि वा उक्को से च-तारि, एवं पुरक्खडा वि, एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा जाव मागिन एगमेमस्त भंते! नेयस रहते पश्या केवलिसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! रथ केवड़ा रेखडा १, गोपमा ! नन्थि, एवं० जाव वैमाणियते वरं मणूसत्ते अती-ता नत्थि, पुरेक्खडा कस्सर अन्थि कस्सर नत्थि,
"
,
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समुरघाय
अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्घाय
पेण च प्रकारेण पतेऽपि-तैजससमुद्धातगता अपि चजस्सस्थि इको, मरणूसस्स मरणूसत्ते अतीता कस्सइ
तुर्विंशतिः चतुर्विंशतिका-दण्डका भणितव्याः । सम्प्रत्याअस्थि कस्सइ नस्थि , जस्सस्थि एको, एवं पुरेक्ख
हारकसमुदातं चिन्तयन्नाह-'एगमेगस्स ण' मित्यादि, डा वि । एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा। (सू०३३५) इह सर्वेन्यपि स्थामेषु मनुष्यत्वचिम्तायामतीता जघन्यत'मारणंतिए' त्ति-मारणान्तिकसमुद्घातः पुरस्कृत- एका द्वौ वा उत्कर्षतत्यश्च , पुरस्कृता जघन्यत एका कम चिन्तायां स्वस्थाने परस्थाने वा एकोतरिकया नेतव्यो द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः, शेषेषु स्थानेषु अतीताः ग्राषद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकन्दविषयं सूत्रम्- पुरस्कृताश्च प्रतिवद्धब्याः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायासचैवम्--' एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते के- मतीताः पुरस्कृताश्च जघम्यत एको वा द्वौ वा प्रयो वा वया मारणतियसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! अणता , | उत्कर्षतश्चत्वारः । अत्रार्थे च कारणं प्रागेवोत्रम् ,अत्रापि मू केवड्या पुरेक्खडा?, गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइन- त्रसंख्यामाह-एव' मित्यादि , एवम्-उपदर्शितेन प्रकात्थि, जस्सस्थि जनणं पक्को वा दो वा तिणि वा उकीसे- रेण पते आहारकसमुदातविषयाश्चतुर्विशतिसंख्याका दणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अखता वा ' तत्र यो मा- ण्डका वक्तव्याः, कियद् दूरं यावदित्याह-यायद्वैमानिकस्य रणान्तिकसमुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुद्वृत्तः अ- वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रम् , तश्चैवम्-'एगमेंनन्तरं पारम्पर्येण वा मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति न भूयो नर- गस्स णं भंते! वेमाणियस्स घेमाणियत्ते केवइया. श्राकगामी तस्यन सन्ति पुरस्कृता मारणान्तिकसमुद्घाताः, यः हारगसमुग्घाया अतीता ?, गोयमा ! नत्थि, केवड्या पुपुनस्तद्भवे वर्तमानो मारणान्तिकसमुद्धातेन कालं कृत्वा नर- रेक्खडा?, गोयमा ! नत्थि' इति । अधुना कलिसमुद्धाकादुद्वृत्तः सेत्स्यति तस्यैकः पुरस्कृतो मारणान्तिकसमुद्धा- तमभिधित्सुराह-'एगमेगस्स गं भंते !' इत्यादि , अत्रातः,यः पुनर्भूयोऽपि नरकमागत्य सर्वसंख्यया द्वौ मारणान्ति प्ययं तात्पर्यार्थः-'सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्ताव्यकसमुद्धातो गन्ता तस्य द्वी, एवं त्रिप्रभृतयोऽपि भावनीयाः, तिरकेणातीताः पुरस्कृताश्च प्रतिद्धन्याः, मनुष्यवर्जेषु संख्ययान् वारान् नरकमागन्तुः संख्ययाः, असंख्येयान् मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः प्रतिद्धव्याः, पुरस्कृतस्तु कयागन् असंख्ययाः , अनन्तान् बारान् अनन्ताः , एव- स्याप्यस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एवेमसुरकुमारत्वे श्रालापको वाच्यः , भवरमौवं भावना- ति वक्तव्यः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीतः कस्यापियो नरकादुवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति, यदिवा-तस्मिन् अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक एवं भवे मारणान्तिकसमुद्घातमगत्वा मृत्युमासाद्य ततोऽन्य- एतच्च प्रश्नसमय केवलिसमुद्धातादुत्तीर्ण केयलिनमधिभवे सिद्धि गन्ता तस्यैव न सन्ति , शपस्य त्वेकादिभा- कृत्य , पुरस्कृतोऽपि कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति , यवना प्रागिव, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकष यथा नैरयिकस्य , स्याप्यस्ति तस्याप्यक इति वक्तव्यम् । अत्रापि सूत्रसंख्या( यथानरयिकस्य ) नैरयिकादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु चि- माह-' एवमित्यादि एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते केवन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनां वैमानिकपर्यवसानानां लिसमुद्धातविषयाश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिसंस्थाका दण्डका चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण कर्त्तव्या, तदेवमन्यान्यपि चतुर्विंश- भवन्ति । तदेवं सर्वसंख्यया एकत्वविषयाणां चतुर्विंशतिर्दण्डकसूत्राणि भवन्ति । तथा चाह--' एवं एए चउ- तिदण्डकसूत्राणामटषयधिक शतं जातम् । एतावत्संबीस चउवीसा दंडगा भाणियब्वा' इति, उक्लो मारणान्ति
ख्याकान्येव बहुत्वविषयाण्यपि सूत्राणि भवन्ति । कसमघातश्चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रैः। (वैकुचिकसमुद्धातव
(७) तान्युपदिदर्शयिषुराहकव्यता उब्धियसमुग्घाय' शब्दे षष्ठे भागे गता ।) नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्घाया सम्प्रति तैजससमुद्घातमतिदेशत श्राह--'तेयगे' त्यादि,
अतीता ?, गोयमा ! अर्णता , केवइया पुरेक्खडा ?, तैजससमुदातो यथा मारणान्तिकसमुद्घातस्तथा व
गोयमा ! अणंता , एवं०जाव वेमाणियत्ते, एवं सब्बजीनव्यः । किमुक्तं भवति ?--स्वस्थाने परस्थाने च एकोत्तरिकया स वक्तव्य इति , नवरं यस्य नास्ति--न सम्भव
वाणं भाणितव्वंजाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते,एवंजाति तैजसमुद्घातस्तस्य न वक्तव्यः, तत्र नैरयिकपृथिव्यप्ते- व तेयगसमुग्धाए . णवरं उवउन्जिऊण नेयव्वं जस्सत्थिजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु न सम्भवतीति न वक्र- वेउब्वियतेयगा । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया आंव्यः, शेषेषु तु वक्तव्यः , स चैवम्-- 'एगमेगस्स णं भंते !
हारगसमुग्धाया अतीता ? , गोयमा ! नत्थि, केवइया नेरइयस्स नेर इयत्ते केवइया तेउसमुग्धाया अतीता ?, गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा! नत्थि, एग
पुरेक्खडा ? , गोयमा ! नत्थि, एवं जाव०बेमाणियत्ते , मेगस्स णं भंत ! नेरइयरस असुरकुमारत्ते केवइया तेयग
णवरं मरणूसत्ते अतीता असंखेजा पुरेक्खडा असंखेन्जा समुग्धाया अतीता? , गोयमा ! अणता , केवइया पुरे- एवंजाव बेमाणियाणं । णवरं वणस्सइकाइयाणं मरणूसत्ते क्खडा?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि अतीता अणंता पुरेक्खडा अणंता,मरणसाणं मणूसत्ते अतीजहन्नणं रक्को वा दो वा तिरिण वा उक्कोसेणं संखेजा वा
ता सिय संखेजा मिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडा वि, सेअसंखेजा वा अनन्ता वा इत्यादिसूत्रोक्तं विशेषमुपजीव्य स्वयं परिभावनीयम् , अत्रापि सूत्रसंख्यामाह-एव 'मित्यादि,
सा सव्वे जहानेरइया, एवं एते चउवीसं चउर्वीसा दंडगा। एवम्-मारणान्तिकसमुद्घातगतेन क्वचित् सर्वथा निषधरू- नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया केवलिसमुग्धाया अ
Jain Education Interational
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समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय तीता ? , गोयमा! नस्थि , केवइया पुरेक्खडा १ गो- मारादेश्च सन्ति वैक्रियतैजसमुद्घातास्ते तस्य वक्तव्याः यमा ! नत्थि , एवं • जाव वेमाणियत्ते, णवरं
शेषषु पृथिव्यादिषु स्थानेषु प्रतिषेध्या इति सामर्थ्यलमणूसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा, एवं०
भ्यम् ,कषायमारणान्तिकसमुद्घाताः पुनः सर्वत्रापि वेदना
समुद्घातबविशेषेणातीताः, पुरस्कृताश्चानन्ता वक्रव्या, जाव वेमाणिया, नवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अती- नतु कापि निषेद्धव्याः । सम्प्रति श्राहारसमुद्घातविषयं सू.' ता नत्थि, पुरेक्खडा अणंता, मणूमाणं मणूसत्ते अती
माह-'नेरड्याण' मित्यादि, आहारकसमुहातो हाहारता सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहएणणं एको
कलब्धौ सत्यामाहारकशरीरप्रारम्भकाले भवति , नान्यथा वा दो वा तिमि उक्कोसेणं सतपुहुतं, केवइया पुरेक्ख
श्राहारकलब्धिश्चोपजायते, चतुर्दशपूर्वाधिगम तेषां चतु
ईशानां पूर्वालामधिममो मनुष्यत्वावस्थायां नशेषायामबडा ?, गोयमा ! सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं एते स्थायामिति मनुष्यत्ववर्जासु शेषास्ववस्थाखतीतानां पुचउब्बीसं चउच्चीसा दंडगा सव्वे पुच्छाए भाणितव्वा रस्कृतानां चाहारकसमुद्धातानां प्रतिषेधः , मनुष्यत्वावजाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते । (सू०३३६)
स्थायामपि पूर्वमतीता असंख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां ना
रकाणांमध्ये बहूनामसंख्येयानां नारकाणां पूर्व तदा तदाम‘नेररयाण' मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमय- नुष्यत्वमवाप्य अधिगतचतुर्दशपूर्वाणां प्रत्येकं सकृद द्विस्तिभाविनां सर्वेषां भदन्त ! पूर्व सकलमतीतं कालमयधीक- र्वा कृताहारकसमुद्धातत्वात् , पुरस्कृता अपि असंख्येयाः त्य यथासम्भवं नैरयिकत्वे वृत्तानां सतां समुदायेन सर्व- प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहुभिरसंख्ययैर्नारकर्नसंख्यया कियन्तो बेदनासमुद्धाता अतीताः ?, भगवा- रकादुत्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा सदा मनुष्यत्वाचानाह-गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तकालमसंव्यवहाररा- प्तौ चतुर्दश पूर्वाण्यधीत्य प्रत्येकमाहारकसमुद्धातानामेकश शरुद्वृत्तत्वात् , कियन्तः पुरस्कृताः?, एतश्च सूत्र सूचा- द्विख्रिश्चतुर्वा करिष्यमाणत्वात् , ' एवं जाव बेमाणियाण मात्र, परिपूर्णस्तु पाठ एवम्-'नेरझ्याण भंते ! नेरइयत्ते मिति, नैरयिकाणां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्ता कृता, केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा?' इति । भगवानाह- एवमसुरकुमारादीनामपि प्रत्येकं चतुर्विंशतिदयडकक्रमण गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तशो भूयोऽपि नरकेष्वाग- तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकानां, केवलं यत्रास्ति विशेषस्त मनसम्भवात् , 'एव' मित्यादि, पवमुक्तेन प्रकारेणासुर-| दर्शयति-'नवर' मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मकुमारत्वादिषु स्थानेषु क्रमस तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिक- नुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च प्रत्यकमनन्ता वक्रव्याः, स्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रम् । तदम्-'नेरइयाणं भंते! अनन्तानां पूर्वमधिगतचतुर्दशपूर्वाणां यथायोममेकशा द्वित्रि
अनन्तानां पूवमाधगतचतुदः वमाणियत्ते केवड्या येयणासमुग्घाया अतीता ?, गायमा! ; कृताहारकसमुद्धातानां वनस्पतिववस्थानात् अनन्तरमेव श्रणता, केवड्या पुरेक्खडा ?, गोयमा ! अणता' इति. वनस्पतिकायादुत्त्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा मानुषत्वमवाप्य अत्र अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः , सर्वसांव्यवहारिक
यथायोगमेकशो द्वित्रिश्चतुर्वाऽऽहारकसमुद्घातानां निर्वतजीवैः प्रायोऽनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृता
यिष्यमाणत्वात् , मनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थायामतीताः पुरस्त्वनन्ताः, प्रश्नसमयभाविना नैरयिकाणां मध्ये बहुभिर- स्कृताश्च स्यात्संख्येयाः स्यादसंख्ययाः,कथमिति चेत् ,उच्यनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्स्यमानत्वात् , एवमपान्तराल- ते-ते हि प्रश्नसमयभाविनः उत्कर्षपदेऽपि सर्वस्तोकाः,श्रेण्यबर्तिध्वपि असुरकुमारत्वादिषु स्थानेषु भावना भावनीया, संख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् , ततो विवक्षितप्रश्नयथा च नैरयिकाणां नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशतिदण्डकक्र- समयभाविनां मध्ये कदाचिदसंख्ययाः-यथायोगे प्रत्येकमेणातीताः पुरस्कृताश्च वेदनासमुद्धाता भणिताः, एवं सर्व- मेकशी द्विस्त्रिश्चतुर्वा कृतकरिष्यमासाहारकसमुद्घाताः प्राजीवानामसुरकुमारादीनां भणितव्याः, कियद् दूरं यावदि- प्यन्ते । उपसंहारमाह-एव'मित्यादिएवम्-उक्लन प्रकारेण त्याह-यावद्वैमानिकानां वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयाः, एते आहारकसमुद्धातविषयाश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिसंख्याते चैवम्-'वेमाणियाण भंते ! बेमाणियत्ते केवइया वेयणा. का दण्डका वक्तव्याः। सम्प्रति केवलिसमुद्घातं चिन्तयतिसमुग्घाया अतीता?, गोयमा! अणता, केवइया पुरेक्ख- ‘नेरहयाण' मित्यादि, केवलिसमुद्घातोऽपि मनुष्यत्वावडा?, गोयमा? अणता' इति, एवं कषायमरणवैक्रियतैजस. | स्थायां भवति, न शेषास्ववस्थासु, नच कृतकवलिसमुद्घातः समुद्धाता अपि नैरयिकादीनां वैमानिकपर्यवसानानां सर्वेष संसारं पर्यटति, केवलिसमुद्घातानन्तरमन्तरमुहूर्तेनावश्यं नैरयिकत्वादिषु स्थानेषु चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, निःश्रेयसपदाधिगमात् , ततो नारकाणां मनुष्यत्ववर्जासु श. तथा चाह-' एवं जावे' त्यादि, एवं-वदनासमुद्धातगते- पाखवस्थाखतीताः पुरस्कृताश्च केवलिसमुद्घाताः प्रतिषन प्रकारेण कषायादिसमुद्धाता अपि तावद्वक्तव्याः या- द्ध व्याः, मनुष्यत्वावस्थायामप्यतीताः प्रतिषद्धव्याः, कृतक वत्तजससमुद्धातः , किमविशेषेण वक्तव्याः ?, नेत्याह- वलिसमुद्घातानां नरके गमनाभावात् ,भाघिनश्च भविष्य• नवर' मित्यादि, नबरमुपयुज्य-उपयोगं कृत्वा सर्व सू- न्ति, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहनामसंख्येयानां नारकाणां नं बुद्धया नेतव्यम् । किमुक्तं भवति ?,-ये यत्र समुद्धाता मुक्तिपदगमनयोग्यत्वात् , ततः पुरस्कृता असंख्यया इत्युघटते ते तत्रातीताः पुरस्कृताश्च अनन्ता वक्तव्याः , क्नम् , ' एव' मित्यादि, यथा नायिकाणां केलिसमुद्घातशेषेषु च स्थानेषु प्रतिषद्धव्याः । एतदेव चैविक्त्यनाह- चिन्ता कृता एवमसुरकुमारादीनामपि कर्त्तव्या, सा च ना'जस्स अत्थी' त्यादि, यस्य जीवराशनरयिकादेरसुरकु- वत् यावत् वैमानिकानाम् । अत्रैव विशषमाह-'नवर 'मि
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समुग्धाय
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त्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मनुष्यत्वावस्थचिन्तायामतीताः प्रतिषेद्धन्याः कृतकेवलिसमुद्रातानां संसाराभावात्, पुरस्कृतास्वनन्ता याच्याः, प्रश्नसमयभाविनां वनस्पतिकायिकानां मध्ये बहूनामनन्तानां वनस्पतिकायिकानां वनस्पतिकाया दुवस्यानन्तर्ये णः पारम्पर्येण वा कृतकंवलिसमुद्धातानां खेत्स्यमानत्वात्, मनुष्याणां मनुष्यवावस्था चिन्तायामतीताः कदाचित्सन्ति कदाचिच सन्ति, कृत केवलिसमुद्रातानां सिद्धत्वभावादन्येषां याद्यापि केवलिसमुद्धाताप्रतिपत्तेः, यदाऽपि सन्ति तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं, पुरस्कृताः स्यारसंख्ययाः स्यादसंख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां मनुष्याणां मध्ये कदाचित्संख्येयानां कदाचिदसंख्येनां यथायोगमानन्तर्येण पारम्पर्येण कृतकेवलिसमुद्धातानां सेत्स्यमानत्त्वात् । सूत्रसर्वसंख्यामाह - एवमुक्तेन प्रकारेण एते केवलिसमुद्घातविषयाश्चतुर्विंशतिश्चतुर्विंशतिदण्डकाः, ते च सर्वेऽपि पृच्छायां पृच्छा पुरस्सरं भणितव्याः कियद्दूरं या यदित्याह - वैमानिकानां वैमानिकत्यविषयं सूत्रम् । तचेदम्'वेमालियाणं भंते ! वैमाणियन्ते केवइया केबलिसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! नत्थि, केवश्या पुरेक्खडा ?, गोयमा ! मत्थि ' इति । तदेवमुक्का नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यषसानेष्वेकत्वविशिष्टेषु बहुत्वविशिष्टेषु व भूतभाविवेदनासमुद्रातसम्भवाऽसम्भवपुरस्सरं संख्याप्रमाणप्ररूपणा । (८) सम्प्रति तेन तेन समुद्घातेन यावत् केवलि - समुद्घातेन समुद्घातानामसमुद्घातानां च
( ४४५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । समुग्वाय रांतियसमुग्धाएणं वेउच्चियसमुग्धाएणं तेयगसग्याएवं समोहयाणं समोहयास य कयरे कयरेहिंतो अप्पा ०४१, मोयमा ! सन्वत्थोवा असुरकुमारा तैयगसमुareji समोहया मारणंतियसमुग्धाएवं समोहया असंखेज्जगुणा वेदणासमुग्धारणं समोहया असंखिजगुणा कसायसमुग्धाएं समोहया संखिजगुणा वेङव्वियसमुघाणं समोहया संखेजगुणा अस मोहया असंखिजगुखा एवं० जाव थयिकुमारा । एएस में भंते ! पुढविकाइयाणं वेदणासमुग्धारणं कसायसमुग्धाएखं मारणंति समुग्धारणं समोहयाणं समोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ १, गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया मारसंतियसमुग्धारणं समोहया कसायसमुग्धा एवं समोहया संखिञ्जगुणा वेदणासमुग्धाएखं समोहया विसेसाहिया असमोहया असंखिजगुणा, एवं०जाव वणस्सइकाइया, वरं सव्वत्थोवा वाउका इया वेउब्वियसमुग्धाएसं समोहया मारणंतिसमुग्धारणं समोहया असंखेजगुणा कसायसमुग्धाएणं समोहया संखिजगुणा वेदणासमुग्धा एवं समोहया विसेसाहिया असमोहया असंखेअगुणा । बेइंदिया णं भंते ! वेदणासमुग्धा एवं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्धारणं समोहयाणं समोहयाख य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४ १, गोयमा ! सव्वथोवा बेइंदिया मारणंतियसमुग्वाएणं समोहया वेदणासमुग्धाएणं समोहया असंखेजगुणा कसायसमुग्धायएणं समोहया असंखे - गुणा समोहया संखेजगुणा, एवं ० जाव चउरिदिया । पंचिदियतिरिक्ख जोखियाणं भंते ! वेदणासमुग्धारणं समोहया कसायसमुग्धारणं मारणंतियसमुग्धारणं वेउव्वियसमुग्धाएणं तेयासमुग्धारणं समोहयाणं समोहया य करे करेहिंतो अप्पा वा० ४१, गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिन्दियतिरिक्खजोशिया तेयासमुग्धाएं समोहया वेडब्बियममुग्धा एवं समोहया असंखिञ्जगुणा मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया असंखिजगुणा वेदणासमुग्धाएणं समोहया असंखिञ्जगुणा कसायसमुग्धाएणं समोहया संखेजगुणा असमवहता संखेजगुणा | मणुस्साणं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं समोहयाणं कसायसमु ग्वाएणं मारणंतियसमुग्धाएणं वेउब्वियसमुग्धाएणं तेयगस मुग्धारणं श्राहारगसमुग्धा एवं केवलिसमुग्धाएं समोहयाणं श्रसमोहयाण य कमरे कयरेहिंतो अप्पा चा०४१, गोयमा ! सव्वत्थोवा मरणुस्सा श्राहारगसमुग्धा एवं समोहकेवलसमुग्धा समोहया संखिज्जगुणा तेयगसमुग्याएवं समोहया संखेजगुणा येउच्चियसमुग्धाएणं समोहया
परस्पर मला बहुत्वमभिधित्सुराह-
एतेसि णं भंते ! जीवाणं वेदणासमुग्धाएवं कसायसमुग्याएं मारणंतिय समुग्षाएणं वेउब्वियसमुग्धाएणं ते
समुग्धारणं आहारगसमुग्धाएयं केवलिसमुग्धारणं समोहयाणं श्रसमोहयाग य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १, गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसमुग्धारणं समोहया केवलिसमुratri समोहया संखेज्जगुखा तेयगसमुग्धाएणं समोया असंखेजगुणा वेडव्वियसमुग्धाएखं समोहया असंखेगुणा मारणंतिय समुग्धारणं समोहया अतगुणा कसा - यसमुग्धाएणं समोहया असंखिजगुणा वेदखासमुग्धाएणं विसेसाहिया असमोहया श्रसंखिजगुणा । (सू०३३७) एते सिणं भंते! नेरइयाणं वेदणासमुग्धाएणं कसाय समुग्धाएणं मारणंतियसमु०वेउच्वियस० समोहयाणं समोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० ४१, गोयमा ! सव्वत्थो - वा नेरइया मारणंतियसमुग्गा ( एवं समोहया वेउब्वियस - मुग्धाएणं समोहया असंखिजगुणा, कसायसमुग्धाएं समोहया संखिज्जगुणा, वेदणासमुग्धाएणं समोहया संखिज्जगुणा समोहया संखेज्जगुणा । एतेसि गं भंते ! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्धा एवं कसायसमुग्धा एवं मा
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समुग्धाय
संजगुणा म रतिसमुग्धाएणं समोहया असंखेअगुणा वेदणासमुग्धारणं समं हया असंखेखगुणा कसायसमुग्धाएवं समेोहया संखेजगुणा अमोहया असंखेजगुया वाणमंतर जोइसियवे मागिया जहा असुरकुमारा । ( ० ३३८ )
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'एएस ' मित्यादि. पंतयां प्राक् समवहताऽसमयहनत्थन निरूपितानां भदन्त ! सामान्यतो जीवानां दासमुद्रान यावत् केलिसांसमानामसमयहतानां मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्पाः कतर कतरेभ्यो बहुका:- संख्येयाऽसंयादिगुणतया प्रभूताः, कतर कतरैस्तुल्याः समसंख्याकाः । अत्रायें सूत्र विमतिपरिणामः स्वयं योजनीयः फर कर्तरभ्य विशेषाधिका-मनागधिकाः पादाः सर्वेऽ पिविकल्पार्थाः भगवानाह गीतम ! सस्तोका जीवा आहारकसमुद्धानेन समुद्धताः आहारशरीरियो हि कदाचिदिहला के परमासान् यावन्न भवन्त्यपि यद्वापि भवन्ति तदापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रवत्वं केवलमाहारसमुद्यान आहारकशरीरप्रारम्भकाले न शेषकालं ततः स्तोका एव युगपदाहारकसमुद्घानाः प्राप्यन्ते इति सर्वस्ताका श्राहारकसमुद्घातेन समुद्धताः तेभ्यः केवलिसमुद्घांतन समुद्धताः संख्ययगुणाः तेषामेककालं शतपृथकत्वेन प्राप्यमाणत्वात्, यद्यध्याहारकशरीरिणः सत्तया समकालम् ए वा त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वमानाः प्राप्यन्ते तथाप्या ( पिस्ताकानामा) हारकसमुद्घातसम्भवात् एककालमतिलोकाः प्राप्य इति न तेभ्यः केवलसमुद्रघातसमुद्धतानां संख्यविरोधः , केलिसमुद्रपातसमुदयः तैजससमान समपहताः संख्येयगुणाः पञ्चद्रियग्योनिनां मनुष्याणां देवानामपि च तैजससमुद्घातसम्भवात् तेभ्याऽपि वैकियसमा समुद्धताः असंख्येयगुणागारकपातका यिकानामपि वैकियसमुद्घातसम्भवात् वातकायिकाश्च वैक्रियलब्धिमन्ता न स्तोकाः किन्तु देवेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः । कथमेतदिति चेत्, उच्यंत-इह बादरपर्याप्तवाकायिकाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियेभ्यो ऽसंख्येय गुणाः, महादण्डके तथा उत् स्थलचरपञ्चेन्द्रियाथ देवेभ्योऽप्यसं संयगुणाः तती यद्यपि वादरपर्याप्तवायुकायिकानां सेसंययभागमात्रस्य वैक्रियलब्धिसम्भवः । यत उक्तम्- "तिराह ताव रासी वडब्बियलद्धी चव नत्थि, वायरपज
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अ
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संभागमा ति तथापि संख्येयभागमात्रा वैफियलब्धिमन्ता देवेभ्योऽप्यसंख्येयगुणा भवन्ति,
( ४४६ ) अभिधानगजेन्द्रः ।
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मेरा काकानां च समधान सम्भवादुपपद्यन्त तैजससमुद्घातसमुद्धतेभ्यो वैक्रियसमुद्घांतेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता अनन्तगुणाः कथम् ?, उदीवानामनामी भागः सदा विग्रहगती वर्त्तमानः प्राप्यते ते च प्रायो मारणान्तिसमुद्घातसमुद्धता इति पूर्वेभ्योऽनन्तगुसा, भ्योऽपि
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ममुग्धाय कषायसमुद्घातसमुद्धता असंख्येयगुणाः, निगोदजीवानामेवानरतानां विग्रहगत्यापत्रेभ्यो ऽसंवयं यगुणानां कषायसमुमासांत समुद्धता विशेषाधिका वातसमुद्रतानां सदा प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽपि वेद
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जीयानामनाम रूपायसमुत्पातसमुतभ्या मना विशेषाधिकानां सदा दान समुतनयाया यमानत्वात् तभ्योऽपि एकेनापि समुद्यानासा श्रसंख्ययगुणाः बेदनाकपापमरणसमुधात समु निगोदजीवानामेवासंख्येयगुणानामसमवद्दतानां सदा लभ्यमानन्यात् । सम्प्रत्येतदेवास्पबहुत्वं जीवविशेषेषु कादिषु चतुर्विंशतितमेव यथायोगं विधिराह - नेरइयाण मित्यादि प्रश्नसूत्रं भगवानाह - सर्वानैरयिका मारणान्तिकसमुद्घातेन समुदामारात्रिको समुद्घातां मरणकाले भवति मच शेपजीपचारकश्यपाय तितका न च सर्वेषां प्रियमाणानामविशेषेण मारणान्तिकसमुद्घातः किन्तु कतिपयानाम्, 'समाइया वि मरंति श्रसमाहया वि मरती ' ति वचनात्। अतः सर्वस्तांका मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धताः, तेभ्योऽपि बैंकियसमुद्घातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः सतत्वगि पृथियषु प्रत्येकंप रस्परवेश्रणाय निरन्तरमुत्तरबैंकियसमारम्भात् तेपि कषायसमुद्धा समुखता से पेयगुणा, कृतात्तरबैंकियसामकृतकियाणां च सर्वसंख्ययो गुणानां पायसमुद्घातसमु तत्प्राप्यमाणत्वात् तेभ्योऽपि चेदमासान स मुदताः संख्यगुणाः यथायोगं क्षेत्रजपरमाधार्मिकोदीरितपरस्परादीरितबेदनाभिः प्रायो बहूनां सदा समुद्धत त्वेन प्राप्यमाणत्वात् तभ्योऽप्येकमापि समुद्घातेनासमवहताः संख्येयगुणाः, वेदनासमुद्घातमन्तरेणाप्यतियइन सामान्यतो वेदनामनुभवन सम्भवात्यरकुमाराणामल्पबहुत्वमाह एएसि ए मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमं भगवानाह - गौतम ! सर्वस्ताकाः असुरकुमारास्तैजससमुद्घांतन समुद्रताः तैजसो हि समुद्वातो महति कोपवश कचित् कदाचित्केषाञ्चिद्भवति, ततस्तेनसान समृद्धताः सर्वलोकामारातिसमुद्घातेन समुजताः असंख्येयगुणाः तेभ्यो
समुद्रता असंख्येयः परस्परं गुछात्र पहना वेदनास समुजता प्राप्यमाणस्वात् पावसाने समताः संख्यगुणाः, येन तेन वा कारन बहूनां कपायसमुद्धातगमनसम्भवात् तेभ्योऽपि वैकियसमुद्धांतन समुद्धता संसंयगुला परिवार सायंनकनिमित्त महिनामन्तरकि यकरणारम्भसम्भवात् तेभ्योऽप्यसमवहता असंख्येयगुणाः यहून जातीनां सुखागरावगाडानां पूर्वोक्लेभ्योऽव गुणानां केनापि समुद्धतिनासमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् । एव' मित्यादि, यथा असुरकुमाराणामल्पबहुत्व
सर्वेषां भयवतीनां यावत् स्तनितकुमा राणामिति ॥ सम्प्रति पृथिवीकादिकगतमल्पबहुत्वमाह'एएस ए मित्यादि, अत्र कपायसमुद्घातसमद्धतानां
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(४४७) समुग्घाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय घेदनासमुद्धातसमुखतानां च संख्येयगुणत्वे असमवहता- । म्मूछिममनुष्याणामरूपकषायाणामुत्कटकषायिभ्योऽसंख्ये. नां चासंख्येयगुणत्वे भायना स्वयं भावनीया सुगमत्या- । यगुणानां सदा लभ्यमानत्वात् । व्यन्तरज्यातिष्कबैमानिका त्, 'एच' मित्यादि , पृथिवीकायिकगतेन प्रकारेणारूपय- यथा असुरकुमारास्तथा वक्तव्याः । तदेवमुक्त समुद्धताउसहुत्वं तायद्वक्तव्यं यावद् बनस्पतिकायिकाः , पायुकायिकान्
मुद्धतविषयमल्पबहुत्वम् । प्रति विशेषभिधिसुराह-नयर' मित्यादि , नवरं पातका- (६) अधुना कषायसमुद्धातगर्ता विशेषता यिकानामल्पबहुत्वचिन्तायामबं वक्तव्यं सर्वस्तोका यातका
व्यतामभिधित्सुराहयिका वैफियसमुद्धातन समुद्धताः, बादरपर्याप्तसंख्येयभा- कति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पसत्ता ?, गोयमा !
बायलब्धः सम्भवात् , तभ्योऽपि मारणान्तिकसमु- | चत्तारि कसायसमुग्घाया पप्पत्ता, तं जहा-कोहसमृग्याए दातेन समुद्धता असंख्ययगुणाः , पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादर
माणसमुग्घाए मायासमुग्धाए लोहसमुग्धाए । नेरइयाणं भेदभिन्नानां सर्वेषामपि चातकायिकानां मरणसमुदातसम्भवात् तेभ्योऽपि कषायसमुद्धातेन समुद्धताः संख्येय
भंते ! कति कसायसमुग्घाया परमत्ता, गोयमा! चत्तारिकगुणाः, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्धातन समुद्धता विशेषाधि
सायसमुग्घाया पामत्ता, एवं०जाव वेमाणियाणं । एगमेगकाः, तभ्या उसमवहता असंख्ययगुणाः , सकलसमुद्धातग- स्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया कोहसमुग्घाया अतीता ? तवातकायकापेक्षया स्वभावस्थानां वातकायिकानां स्व- गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ भावत एयासंख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् । द्वीन्द्रियसूत्र सर्चस्तोकाः द्वान्द्रिया मारणान्तिकसमुद्धातेन समुद्धताः,
अस्थि कस्मइ नत्थि, जस्सत्थि जहलेणं एको वा दो वा प्रतिनियतानामेव प्रश्नसमये मरणसद्भावात् , तेभ्यो बेद
तिमि वा उक्कोसणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, नासमुद्धातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः , शीतातपादिसम्प
एवं. जाव वेमाणियस्स,एवं जाव लोभसमुग्घाए एते चकतोऽतिप्रभूतानां चेदनासमुद्धातभावात् , तेभ्यः कषाय- त्तारि दंडगा । नेरइयाणं भंते ! केवइया कोहसमुग्धाया असमुदातेन समुद्धता असंख्ययगुखाः , अतिप्रभूततरा- तीता?, गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा, गोयमा! णां लाभादिकषायसमुदातभावात् , तभ्योऽप्यसमबह
अणंता, एवं०जाव वेमाणियाणं एवं०जाव लोभसमुग्घाए, ताः संख्येयगुणाः , 'एव' मित्यादि , एवं द्वीन्द्रियग
एवं एए वि चत्तारि दंडगा । एगमेगस्स णं भंते ! नरइयतेन प्रकारेण्य तावद्धनव्यं यावश्चतुरिन्द्रियाः । तियपञ्चन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकास्तैजससमुद्धातेन समुद्धताः, कतिप
स्स नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अतीता ?, गोयमा ! यानामय तजोलब्धिभावात् , तभ्यो वेदनासमुद्धातेनासम- अणंता एवं जहा वेदणासमुग्यायो भणितो तहा कोहसवहता असंख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्धातेन समयह- मुग्घातो वि निरवसेस जाव वेमाणियत्ते । माणसमुग्याए ताः असंख्ययगुणाः , प्रभूतानां वैक्रियलब्धर्भावात् , ते
मायासमुग्घाए वि निरवसेसं जहा मारणंतियसमग्याए, भ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता असंख्ययगु
लोहसमुग्धातो जहा कसायसमुग्धातो नवरं सबजीवा अणाः, सम्मूछिमजलचरस्थलचरखचराणामपि सर्वेषां वैक्रियलब्धिरहितानां प्रत्येक पूर्वोक्तभ्योऽसंख्ययगुणानां के
सुरादिनेरइएसु मोहकसाएणं एगुत्तरियाए नेयव्वा । नेरपाश्चित् गर्भजानामपि वैक्रिय लब्धिरहितानां चैक्रियलब्धि- इयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्धाया अतीता?, मतां च मरणसमुद्घातसम्भवात् , तेभ्योऽपि वदनासमु- गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! द्घातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः , म्रियमाणजीवराश्यपे
अणंता, एवं जाव वेमाणियत्ते, नवं सट्ठाणक्षया अपि अम्रियमाणानामसंख्येयगुणानां वेदनासमुद्घात.
परद्वाणेसु सव्वत्थ भाणियव्वा, सव्वजीवाणं चत्तारि वि भावात् , तेभ्यः कपायसमुद्घातेन समुद्धताः संख्ययगुणाः, तेभ्योऽप्यसमवहताः संख्ययगुणाः । अत्र भावना प्रागि
समुग्घाया जाव लोभसमुग्घाओ जाव वेमाणियास व मनुष्यसूत्र सर्वस्तोका आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः ,
वेमाणियत्ते । (सू० ३३६)। अतिस्तोकानामेककालमाहारकशरीरप्रारम्भसंभवात् ,तेभ्यः
'करण' मित्यादि, इदं सामान्यतः कषायसमुद्धातविकेवलिसमुदघातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, शतपृथक्त्वसं- षयं चतुर्विंशतिदण्डकक्रमगतं च सूत्र सुप्रतीतं, सम्प्रत्यख्यया प्राण्यमाणत्वात् , तेभ्यस्तैजससमुद्धातन समवहताः कैकस्य नैरयिकादेश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमण वैमानिकपर्यसंख्येयगुणाः, शतसहस्रसंख्यया तेषां प्राप्यमाणत्वात् , ते- वसानस्य तद्वक्तव्यतामाह- एगमेगस्स ग भंते !" भ्योऽपि बैंक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः , को- इत्यादि, अत्रातीतसूत्र सुमनीतम् , पुरस्कृतसूत्रे-कस्सइ टिसंख्यया लभ्यमानत्वात् , तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमु- अस्थि कस्सइ नत्थि' त्ति-यो नरकभवप्रान्ते वर्तमानः द्धातेन समवद्दता असंख्येयगुणाः संमूर्छिममनुष्याणामपि स्वभावत एवाल्पकषायः कषायसमुद्धानमन्तरण कालं तद्भावात् तेषां चासंख्येयत्वात् . तेभ्योपि वेदनासमुद्धा- कृत्वा नरका दुवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्धातमतन समुद्धताः असंख्येयगुणाः म्रियमाणराश्यपेक्षया अ- गत एव सत्स्यांत तस्य नास्ति पुरस्कृत एकोऽपि कसंख्येयगुणानामम्रियमाणानां तद्भावसम्भवात् , तेभ्यः क- पायसमुद्धाता, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एका पायसमुद्धातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः , प्रभूततया तेषां द्वौ त्रयो वा, ते च प्रागुक्तस्वरूपस्य सकृत्कषायसमुद्प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्योऽप्यसमवहता असंख्येयगुणाः, स- घातगामिनो बेदितव्याः , उत्कर्षतः संख्यया असंख्येया
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(४४) समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय अनन्ता वा , तत्र संख्ययं कालं संसारावस्थायेनः सं- तस्य नास्ति नैरायिकत्वभाविन एकोऽपि पुरस्कृतः कोज्येयाः , असंख्येयं कालमसंख्येयाः, अनन्तकालमनन्ताः। धसमुसातः, शेषस्य तु सन्ति । यस्यापि सन्ति तस्याएवमसुरकुमारादिक्रमेण तावद् वाच्यं यावद्वैमानिकस्य , पि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा , एतच्च क्षाणशपायुर्मा 'एव' मित्यादि , एवं-चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण मानादि- तद्भवस्थानां भूयो नरकेषु उ (ध्वनु) त्पद्यमानानां वेकषायसमुद्घातसमुद्धतास्तावद्वनव्या यावलोभसमुद्धातः । वितव्यं , भूयो नरकषूत्पत्तौ हि जघन्यपऽपि संख्ययाः एवमेते चत्वारः चतुर्विंशतिदण्डका भवन्ति , एते चैकै- प्राप्यन्ते , नैरयिकाणां क्रोधसमुदातप्रचुरत्वात् , उत्कर्षतः कनैरयिकादिविषया उताः । सम्प्रत्येतानेव चतुश्चतुर्विंशतिद- संख्येया या असंख्येया वा अनन्ता वा । तत्र सन्नरकेएडकान् सकलनारकादिविषयानाह-'नेरइयाण' मित्यादि, षु जघन्यस्थितिकबू-पत्स्यमानस्य संख्यया अनेकशः , यअतीतसूत्रं सुप्रतीतं , पुरस्कृता अनन्ताः, प्रश्नसमयभा- दिवा-दीघस्थितिकषु. संकृदपि उत्पत्स्यमानस्यासंख्येयाः, विनां नारकाणां मध्ये बहूनामनन्तकालमवस्थायित्वात् । अनन्तशः उत्पत्स्यमानस्यानन्ताः, 'एव' मित्यादि , एवं एवं-नैरयिकोनेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकानां नैरयिकोलाप्रकारेणासुरकुमारत्वे तदनन्तरं चतुर्विंशतियथा चैषः क्रोधसमुद्धातश्चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणोक्तः एवं दण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वविषय सूत्रम् , मानादिसमुदाता अपि तावद् वक्तव्या यावल्लोभसमु- तश्चैवम्-' एगमेगस्स से भंते ! नेरइयस्स चेमाणियत्ते
रातः । एवमेतेऽपि सकलनारकादिविषयाश्चत्वारश्चतुर्विंश- केवइया कोहसमुग्घाया अईया?, गोयमा! अणता, तिवएडका भवन्ति । साम्प्रतमेकैकस्य नैरयिकादेमरयिका- केवइया पुरंक्खडा ?, गोयमा! कस्सह अस्थि कस्सह दिषु भावेषु वर्तमानस्य कति क्रोधसमुद्धाता अतीताः नत्थि, जस्सत्थि जहरण पक्को वा दो वा तिरिण वा उक्कोकति भाचिन इति निरूपयितुकाम आह–'पगमेगस्स सेणं संखेज्जा चा असंखज्जा वा अणता वा' अप्राप्ययं भाण' मित्यादि , एकैकस्य भवन्त ! नैरयिकस्य विधक्षित- वार्थ:-अतीतचिन्तायामनन्ताः, अनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्रश्नसमयकालात् पूर्व सकलमतीतं कालमवधीकृत्य त- प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्ताया योऽनन्तरभवे नरकादुवृत्तो दा तदाऽस्य नैरयिकत्वं प्राप्तस्य सतः सर्वसंख्यया कि मानुषत्वमवाप्य सेत्स्यति , प्राप्तौ या परम्परया सकृद्वैमायन्तः क्रोधसमुद्धाता अतीताः ?, भगवानाह-गौतम !| निकभयं न क्रोधसमुदातं गन्ता तस्यैकोऽपि पुरस्कृतः अनन्ताः, नरकगतेरमन्तशः प्राप्तत्वात् , एकैकस्मिँश्च नर- | क्रोधसमुद्धातो वैमानिकत्वे न विद्यते , यस्त्वसवैमाकभवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां क्रोधसमुदाताना भाषा- निकत्वं प्राप्तः सन् सकदेव क्रोधसमुद्धातं याता तस्यत्, एवं जहे' स्यादि , पवमुपदर्शितेम प्रकारेण यथा वे.
जघन्यत एको द्वौ वा प्रयो बा, शेषस्य संख्यातान् वनासमुखाताप्राग् भणितस्तथा क्रोधसमुद्धातोऽपि भणित- वारान् वैमानिकत्वं प्राप्स्यतः संख्येयाः , असंख्येयान् व्यः, कथं भणितव्यः ?, इत्याह-निरवशेषं, क्रियाविशेषण- वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारा अनन्ताः। 'एगमेमेतत् , सामस्त्येनेत्यर्थः। कियहरं यावद्भणितव्यमित्याह- गस्सण' मित्यादि प्रश्नसूत्र सुगम , ‘गोयमा! अयाबद् वैमानिकत्व, वैमानिकस्य वैमानिकत्व इत्यालापकम् ।
संता' इति, अनन्तशो नैरयिकत्व प्राप्तस्य, पकैकस्मियावदित्यर्थः , स चैवम्-'केवड्या पुरेक्खडा?, गोयमा।
धनैरयिकभवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां क्रोधसमुवाताकस्सा अस्थि कस्सा नत्थि, जस्सस्थि जहरणेणे पको
नां भावात् , पुरस्कृताः कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सवा दो वा तिरिण वा उक्कीसेणं संस्खेजा वा असंखेज्जा
स्ति । किमुक्कं भवति?,-योऽसुरकुमारभयादुदत्तो न वा अणता वा, एवमसुरकुमारत्ते. जाव वेमाणियले ,
नरक यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुष्यभवम'एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवडया
बाप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकावस्थाभाविनः पुरस्कृताः कोहसमुग्घाया अतीता?, गोयमा ! अणता, केवड्या पु
क्रोधसमुदाताःन सन्ति नैरयिकत्वावस्था: पबासम्भरेक्खडा ? , गोयमा ! कस्सा अस्थि कस्सइ नत्थि, ज
वात् , यस्तु तद्भवादूर्व पारम्पर्येण नरकगामा तस्य स्सस्थि तत्थ सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणता ।
सन्ति , तस्यापि कस्यचित्संख्येयाः, कस्यचिदसंख्येयाः, पवमेगस्स गं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केव
कस्यचिदनन्ताः । तत्र यः सजघन्यस्थित्तिकेषु नरकमध्यषु या कोहसमुग्घाया अतीता?, गोयमा! अणता , केवइ- समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि संख्येयाः दशवर्षसहस्रप्रया पुरेक्खडा?, गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि - माणायामपि स्थितौ संख्ययानां क्रोधसमुदातानां भावात् जस्सस्थि जहणणं पक्को वा दो वा तिरिण वा उक्कोसे. क्रोधबहुलत्वान्नारकाणाम् ,असकृद्दीघस्थितिषु सकृद्वा गमण संखेज्जा वा असंखेजा वा अर्णता वा , एवं नागकु- नेऽसंख्ययाः, अनन्तशा नरकगमनेऽनन्ताः । तथा एकैकस्य मारत्ते. जाय वैमाणियत्ते , एवं जद्दा असुरकुमारसु. भदन्त ! असुरकुमारस्य असुरकुमारत्वे स्थितस्य सत्तः नेरइया बेमाणियपजघसाणेसु भणिया तहा णागकुमारा- सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तः क्रोधसमुद्धाता श्रदिया सट्टाणपरट्ठाणेसु भाणियव्वा० जाव बेमाणियत्त' इति, तीताः ?, भगवानाह-अनन्ताः अनन्तशोऽसुरकुमारभाअस्यार्थ:-कियन्तो भदन्त ! एकैकस्य नारकस्या- वस्य प्राप्तत्वात् , प्रतिभयं च क्रोधसमुद्धातस्य प्रायो संसारमोक्षमनन्तं कालं मर्यादीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः भावात् , पुरस्कृतचिन्तायां कस्यापि सन्ति कस्यापि नस(न्तः)तः सर्वसंख्यया पुरस्कृताः क्रोधसमुद्धाता ?, भगवा- सन्ति , यस्य प्रश्नकालादूर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपि वर्तमानाह-कस्सह अत्थि' इत्यादि, य आसन्नमरणः क्रोध- नस्य न भाषी क्रोधसमुद्धातो नापि तत उवृत्ती भूयोसमुद्धातमनासाद्यात्यन्तिकमरणेन नरकादुद्वृत्तः सेत्स्यति । ऽप्यसुरकुमारत्वं याता तस्य न सन्ति , यस्तु सकृदसु
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समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय रकुमारत्वमागामी तस्य जघन्यपदे एको वा द्वौ वा त्र- तस्य एको द्वौ यादयो या संख्येयान् वारान् गन्तुः संयो चा उत्कर्षतः संख्यया असंख्येया अनन्ता वा , सं- ख्येयाः, असंख्षयान् वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वाराख्येयान् वारान् श्रागामिनः संख्ययाः, असंख्येयान् वारा- न् अनन्ताः । एवं तावद् भगानीयं यावत् तिर्यकपञ्चेन्द्रियन असंख्येयाः , अनन्तान् वारान् अनन्ताः । एवं चतु- त्वे पुरस्कृतचिन्ता, मनुष्यचिन्तायां चैवं भावना-यो नरविशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु असुर- कादुत्तो मनुष्यभवं प्राप्य मानसमुद्धातमगत्या सेत्स्यकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे, तथा चा- ति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतो मानसमुद्धातः, यस्तु ह-' एवं नागकुमारत्ते बी' त्यादि , तदेवमसुरकुमारेषु मनुष्यत्वं गतः सन्नकं वारं मानसमुद्धातं गन्ता तस्यैक्रोधसमुद्धातश्चिन्तितः ॥ सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेश- कोऽपरस्य द्वावन्यस्य ज्यादयः संख्येयान् वारान् गन्तु: माह-' एव' मित्यादि, एवमुक्तनाभिलापगतेन प्रकारेण संख्येयाः, असंख्येयान् वारान् असंख्ययाः, अनन्तान् वायथा चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण असुर कुमारो नैरयिकादि- रान् अनन्ताः । व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकत्येषु भावना यपु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितः तथा नागकुमारादयः था असुरकुमारत्वे यथा च नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु समस्तेषु स्वस्थानपरस्थानेषु भणितव्याः यावद्वैमानिक
चतुर्विंशतिस्थानेषु भावना कृता तथा असुरकुमारादीस्य वैमानिकत्वे पालापकः , एवमेतानि नैरयिकचतुर्वि
नामपि वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विंशतिदराडकक्रमण शतिदण्डकादिसूत्राणि वैमानिकचतुर्विंशतिदण्डकपर्यवसा
कर्तव्या, यथा च मानसमुद्धातस्य चतुर्विंशतिः सूत्राणि नानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि वेदितव्यानि । तदेवं चतु
चतुर्विंशतिवसडकक्रमेणोक्तानि तथा मायासमुद्रातस्यापि विशतिदण्डकसूत्रैः क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः ॥ सम्प्रति
चतुर्षिशतिसूत्राणि चतुर्विंशतिदराडकक्रमण वक्तव्यानि, चतुर्विंशत्यैव चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैर्मानसमुखातं माया
तुल्यगमकत्वात् ॥ अधुना लोभस मुवातमतिदेशत पाहसमुदातं चाभिधित्सुरतिदेशमाह-'माणसमुग्घाए माया
'लोभसमुग्धाओ जहा कसायसमुग्धाओ, नवरं सब्धसमुग्घाए निरवसेसं जहा मारणतियसमुग्घाए ' इति- जीया असुराई नेरहपसु लोभकसारणं एगुत्तरियाए नेतयथा-प्राक मारणान्तिकसमुखातेऽभिहितं सूत्रं तथा मा- व्वा' इति । यथा प्राक कपायसमुद्रात उक्तस्तथा लोभनसमुखाते मायासमुद्राते च निरवशेषमभिधातव्यम् । कषायोऽपि वक्तव्यः,नवरं तत्रासुरकुमारादीनां नैरयिकत्ये पु. तथैवम्-' पगमेगस्स णं भंते ! मेरहयस्स नरायसे रस्कृतचिन्तायां स्यात् संख्येयाः, स्यादसंख्येयाः,स्यादनन्ता केवड्या माणसमुग्धाया अईया ?, गोयमा ! अणंता , इत्युक्तम् ,अत्र तु सर्वे जीवा असुरकुमागदयो नैरयिकेषु पुरकेवड्या पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सह अस्थि कस्सह स्कृतचिन्तायां चिन्त्यमाना पकोतरिक या सातव्याः, एकोत्तनत्थि , जस्सस्थि जहरणेण एको वा दो धा तिरिण । रस्य भाव एकोतरिका 'द्वन्द्वचुरादिभ्यो धुमिति चौरादराया उक्कोसेणं संस्नेजा वा असंखेजा वा अणता वा , कृतिगणतया बुधिति, एको द्वौ त्रय इत्यादिरूपा तया, एपवमसुरकुमारते जाव वेमाणियत्ते, एगमेगस्स ण भ- काचरतया इत्यर्थः । नैरयिकाणां निरतिशयदुःखबेदनाभिते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया माणसमुग्धाया भूततया नित्यमुद्विग्नानां प्रायो लोभसमुद्धानासम्भवात् , अतीता?, गोयमा?, अणंता, केवड्या पुरेक्खडा?,
सूत्रालापकश्चैवम्-'पगमेगस्स-गं भंते ! नेरयस्स नेरइयत्त गोयमा ! कस्सा अस्थि कस्सइ नत्थि , जस्सत्थि ज- केवड्या लोमसमुग्धाया अतीता?, गोयमा ! अणंता, केवदहराणण एको वा दो वा तिमि वा उक्कोसेणं संखेजा वा
या पूरेक्खडा?, गोयमा!कस्सह अस्थि कस्सइनस्थि, जस्स असंखेजा वा अणंता वा,एवं नागकुमारत्ते जाव वेमाणिय
अत्थि ( जहणण) एको वा दो वा तिम्मि वा उक्कोसणं सते, एवं जहा असुरकुमारे नेरइया धेमाणियपज्जवसाणेसु खज्जा वा असंखज्जा वा अनंता वा । एगमेगस्स णं भंते ! भणिया तहा नागकुमाराइया सटाणपरट्ठाणेसु भाणियव्वा नेरइयस्स असुरकुमारत्त केवइया लोभसमूरघाया अतीजाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते' अस्यायमर्थः-अतीतेषु ता?, गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! सूत्रेषु सर्वत्राप्यनन्तत्वं सुप्रतीतं, नैरयिकत्वादिस्थानानि कस्सह अस्थि कस्सइ नत्यि, जस्सस्थि सिय संखज्जा प्रत्येकमनन्तशः प्राप्तत्वात् , पुरस्कृतचिन्तायां त्येवं नैर- सिय असंखेज्जा सिय अणता, एवं० जाव नेरदयस्स थणियिकस्य नैरयिकत्वे भावना-यो नैरयिका प्रश्नकालादूर्व यकुमारसे । एगमेगस्स णे भंते ! नेरइयस्स पुढधिकाइयमानसमुदातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुदवृसोऽनन्तरं ते केवया लोभसमुग्घाया अतीता ?, गोयमा ! अणता, पारम्पर्येण वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति न भूयो नरक- केवइया पुरेक्खडा ? , गोयमा ! कस्सह अस्थि कस्सइ नमागन्ता तस्य न सन्ति पुरस्कृता मानसमुद्धाताः,
स्थि जस्स अस्थि जहरणेणं एक्को या दो वा तिरिण वा यः पुनस्तद्भवे वर्तमानो भूयो वा नरकमागस्यैकं वारं उकोसण संखेजा चा असंखेजा वा अणंता वा, एवं जामानसमुद्धातं गत्वा कालकरणेन नरकादुद्वत्तः सेत्स्यति घमणूसत्ते वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारसे । एगमेगस्स तस्यैकः पुरस्कृतो मानसमुद्धातः । एवमेव कस्यापि द्वौ ण भंते ! नेरइमस्स जोइसियते केवइया लोभसमुग्घाया कस्यापि त्रयः संख्येयान् वारान् नरकमागन्तुः संख्येयाः,
अतीता?, गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा ? , गा-- असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अन- यमा ! कस्सइ अस्थि कस्सद नत्थि, जस्सस्थि जहरागाग न्ताः । नैरयिकस्यैवासुरकुमारत्वे पुरस्कृतचिन्तायामियं पको या दो वा तिमि था उक्कोलण सिय संखज्जा सिय भावना-यो नरकातुवृत्तो असुरकुमारत्वं न यास्यति त- असंखेरजा लिय अर्गना, एयं० जाव घेमाणियत्त ऽधिभास्य न सन्ति पुरस्कृता मानसमुद्धाताः, यस्त्वेकं वारं गम्ता गिगयव्यं । एगमगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते
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(४५०) तमुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय केवाया लोभसमुग्धाचा प्रतीता ?, गोयमा ! अगता, कास्थितावसकृजघन्यस्थितिषु दीस्थितिषु वा उपकेवड्या पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सा अस्थि कस्सर रस्यमानानामवसेयम् , अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनम्ताः, मस्थि, जस्सत्थि जहमण एको वा दो बा तिमि या उ- एवं नैरयिकस्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं ताबड़कोसेणं संखज्जा या असंखेज्जा वा अणता वा । एगमेगस्स क्रव्यं यावत्स्तनिनकुमारत्वे, तथा चाह-एवं जाव थणियण भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवड्या लोभसमु- कुमारत्ते' पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्र तथैव । पुरस्कृताचग्घाया प्रतीता?.गोयमा! अणता, केवड्या पुरेक्खडा ?, गो. म्तायां तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र नरकायमा! कस्सा अस्थि कस्सइ नत्यि, जस्सत्थि जहरणं एको दुवृत्तो यो न पृथिवीकायिकत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति, वा दो या तिरिण वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अ- योऽपि गन्ता तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः गता वा । एगमेगस्स णं भंते! असुरकुमारस्स नागकुमा- संख्येया असंख्यया अनन्ता वा। ते चैवम्-तिर्यकुपञ्चेन्द्रियरसे पुच्छा ?, गोयमा ! अर्णता, केवड्या पुरेक्खडा ?, गो- भवात् मनुष्यभवाद्वा लोभसमुदातेन समुद्धतः सन् य एकं यमा! कस्सह अस्थि कस्सह नस्थि, जस्सत्थि सिय संखे- वारं पृथिवीं गन्ता तस्य एकः द्वौ वागै गन्तुग, त्रीन जा सिय असंत्रेजा सिय अणता, एवं जाव थणियकुमा- वारान् गन्तुस्त्रयः, संख्येयान् वारान् संस्पेयाः, असंख्येरत्ते । पुढविकाइयत्ते जाव वेमाणियत्ते जहा नेरइयस्स भ- यान् वारान् भसंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः, 'एवं० णितं तहेव भाणियव्यं, एवं जाव थलियकुमारस्स वेमा- जाव मणूसत्ते' इति, एवं-पृथिवीकायिकगतेनाभिलापप्रणियत्ते । एगमेगस्स ण भंते ! पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते के- कारेण तावद्वक्तव्यम् , यावन्मनुष्यत्वे । तथैवम्- एगमेगबइया लोभसमुग्घाया अतीता?, गोयमा! असता, केव- स्स ण भंते ! नेरायस्स आउकाइयत्ते' इत्यादि, यावन्मइया पुरेक्खडा ?, गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि नुष्यसूत्रं, तत्राप्कायिकादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिजस्सस्थि जहरणेणं एक्को वा दो वा तिरिण वा उक्कोसेणं बीकायसूत्रवत् ,द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको संखेज्जा वा असंखेजा वा अणता वा। पुढविकाइयस्स अ- द्वौ चा त्रयो बेति, एतत् सकृत् डीन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य सुरकुमारते अतीता अणता, केवइया परेक्खडा ?. गो- घेदितव्यम्, उत्कर्षेण संख्येया असंख्येया अनन्ता वा,तत्र से यमा ! कस्सह अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सथिसिय संखे- ख्येयान्वारान द्वीन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य संख्ययाः,असंख्य जा वा सिय असंखेज्जा वा सिय अणता, एवं०जाव धणिय. यान वारानं असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् भनन्ताःपवंत्रीकुमारत्ते पुढधिकाइयत्ते अतीता अर्णता, पुरेक्खडा कस्सा न्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्यकपञ्चेन्द्रियसूत्रवि. अस्थि कस्सा नन्थि, जस्सत्थि जहराणेणं एको वा दो वा ति.
षया त्वेवं भावना-सकृत्पञ्चेन्द्रियभवं गन्तुकामस्य स्वभावत गिण बा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणता वा, एवं एवाल्पलोभस्य जघन्यतः एको द्वौ त्रयो वा, शेषस्य तूजाव मणूसत्ते । चाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, जोइ
त्कर्षतः संख्येयान् वारान् तिर्य पञ्चेन्द्रियभवं गन्तुः संलियत्ते वेमाणियत्ते अतीता प्रणेता पुरेक्खडा, कस्सइ अ
ख्येथाः,असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः,मनन्तान वारान् प्र त्थि कस्सद नत्थि जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखे
कताः । मनुष्यसूत्रे तु पुरस्कृतविषया भावना मूलत एवम्जा सिय अगौता । एवं जाव मस्सस्स वेमाणियत्ते। वाण
यो नरकभवादुङ्कुत्तोऽल्पलोभकषायः सन् मनुष्यभबं प्राण्य मंतरस्स जहा असुरकुमारस्स एवं जोइसियवेमाणियाणं पि'
लोभसमुद्घातमगत्वा सिद्धिपुरं यास्पति तस्य न सन्ति अंस्यायमर्थः-नैरयिकस्य नैरयिकत्वे अतीता लोभसमुदा
पुरस्कृता लोभसमुद्घाता, शेषस्य तु सन्ति । यस्य सन्तित ता अनन्ताः अनन्तशो नैरयिकत्यस्य प्राप्तत्वात् ,पुरस्कृतचि.
स्थापि जघन्यत एको द्वौ वा प्रयो वा ,तेच एकं कौत्री न्तायां कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यःप्रश्नसमया
या लोभसमुदातान् प्राप्य सेत्स्यतो वेदितव्याः । सत्यया. ये लोभसमुद्घातमप्राप्त एव नरकभवादुद्वृत्त्यानन्तरं पा
दयः प्राग्य भावनीयाः । 'बाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारा' रम्पर्येण या सेत्स्यति नच भूयो नरकमागामी नचागतो इति यथा नैरयिकस्थासुरकुमारत्वे पुरस्कृतविषये सूत्रमुक्तं ऽपि लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य नैकोऽपि पुरस्कृतो लो- तथा व्यन्तरेवपि वक्तव्यम् । किमुहं भवति-पुरस्कृतचिन्ता भसमुद्धातः, शेषस्य तु भावी तस्याषि कस्यचिदेकः
यामेव बक्तब्यम् 'कस्सा अस्थि कस्सइनस्थि, अस्स अस्थि कस्यचिद् द्वौ, कस्यचित् चयः। एतच्च प्रश्नसमयादृर्ध्वमपि
सिय संखज्जा सिय असंखेजा सिय प्रणेता' इति.म त्वकोत्त. तवभाजां सकृन्नरकभवगामिना वा वेदितव्यम् , उत्कर्ष- रिका वक्तव्या , व्यन्तराणामप्यसुरकुमारामामिव जयतः संख्येया या असंख्येया वा अनन्ता था । तत्र संख्ये- न्यस्थितावपि संख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् । 'जोयान् वारान् नरकभवमागामिनः संख्येयाः, असंच्ययान् वा- इसियत्ते' इत्यादि ज्योतिएकत्ये अतीता अनन्ताः, अनन्तरान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः । तथा नैरयि- शो ज्योतिकत्वस्य प्राप्तत्वात् , पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कत्वस्यासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्र तथैव भावनीयम् ,पुर- कस्यापिन सन्ति, एतद् प्राग्य भावनीयम् । अस्यापि सन्ति स्कृतसूत्रे- कस्सर अस्थि कस्सर नत्थि' सि-यो नरकम- तस्यापि कस्यचिदसंख्येयाः, कस्यचिदनन्ताः, न तु जातुवादुवृत्तो नासुरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्त्यसुरकुमा- चित् संख्येयाः, ज्योतिकाणां जघन्यपदेऽप्यसंख्येयवर्षायु. रत्वविषयाः पुरस्कृता लोभसमुद्धाताः , यस्तु प्राप्स्यति एकतया जघन्यतोऽप्यसंख्येयानो लोभसमुद्घातानां भावात् तस्य सन्ति । ते च जघन्यपदे संख्येयाः, जघन्यस्थितावष्य- लोभबहुलत्थातजातेः। एवं वैमानिकत्वेपि पुरस्कृतचिन्तायां सुरकुमाराणां संख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात् लोभ- वक्तव्यम् ,तदेवं स्वस्थाने परस्थाने च लोभसमुद्धातश्चिन्तितः। बालत्वात्तेषाम् , उत्कृहपदेऽसंख्येया अनन्ता वा तत्र स- सम्पत्यसुरकुमारस्य तं चिचिन्तयिषुरिखमाह-'पगमेग
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समुग्धाय अभिधामराजेन्द्र।।
समुग्धाय सप' मित्यादि एकैकस्य असुरकुमारस्व रयिकरणे तीता?, गोयमा! असंता , केवाया बुरेक्खडा ! ,गीयलोभसमुखावा अतीता भवन्ताः, नरसिकस्वस्थानम्तयः । मा! अर्णता' भावना प्राग्वद । यथा च कोषससुराता। प्राप्तत्वात् , पुरस्कृताः कस्यचित्सम्ति कस्यचित्र सन्ति,
सर्येषु जीवेषु स्वस्थाने परस्थाने चातीताः पुरस्कृतायातब योऽसुरकुमारभवादुवृत्तो न मरक याता नापि स. मन्तत्वेनाभिहिताः तथा मानादिसमुद्घाता अपि वाच्याः, हद् गतोऽपि लोभसमुद्यातं गम्ता तस्य न सन्ति , य- तथा चाह-एवं' मित्यादि , एवं-कोधसमुद्घातगतेन सुयास्यति तस्य जमन्यत एको हौत्रयो वा उत्कर्ष- प्रकारेण चत्वारोऽपि समुद्घाताः सर्वत्रापि स्वस्थानपरसः सत्यया असंख्येया अनम्ताः । वष सन्नरकगामिवः | स्थानेष वायाः, याचलोभसमुद्घातो वैमानिकत्वविषय एकादयो नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावतः प्रायो लो- उक्नो भवति । स चैवम्-'वेमाणियाणं भंते ! बेमाखिभसमुद्रातस्यासंम्भवात् । उक्तं च मूलटीकायाम्-"नेर
यत्ते केवड्या लोभसमुग्घाया अतीता! , गोयमा !इयाण लोभसमुग्धाया थोवा वेध भवन्ति, तेसिमिदुर- ता, केवाया पुरेवडा?, गोयमा! अखंता' सुगमम् । बसंजोगाभाषामो एगादिसंभव" इति। संस्थेयान् था- तदेवं नैरयिकादिबहुत्वविषया अषि क्रोधादिसमुद्यारान् नरकं गन्तुः संख्येयाः, प्रसंस्पेया चारार असं- | ताः प्रत्येकं चतुर्विशत्या चतुर्विंशतिदएडकसूश्चिन्तिताः । स्येयाः, अनन्तान् वारान् अनम्ताः। असुरकुमारस्यासुर
(१०)सम्प्रति क्रोधादिसमुहातः शेषसमुहातैश्च समवहताकुमारत्वे अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, पुरस्कृताः कस्या- नामसमषहतानां च परस्परमपबहुत्वमभिधिस्सुः प्रथमतः पि सन्ति कस्यापि न सम्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवे - सामान्यतो जीवविषय तावदाहर्यम्तवर्ती न च खोभसमुद्यातं याता मापि तत उद्धृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं याता किम्वनम्तरं पारम्पर्येण वा एतेसि णं भंते ! जीवाणं कोहसपुग्धाएणं माणसमुग्धासेत्स्यति तस्य न सन्ति , यस्य तु सन्ति तस्यापि जघ- एवं मायासमुग्घाएणं लोभसमुग्धाएणय समोहयाणं न्यत एको द्वौ वा प्रयो या उत्कर्षतः संख्यया असंख्येया
अकसायसमुग्याएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे अनन्ताः। तत्र एकादयः क्षीणायुःशेषाणां तद्भवभाजां भूयस्तथैवानुत्पद्यमानानामवगम्तव्याः, संख्येयादयो रथिकस्येष
कयरहितो अप्पा वा०४१, मोयमा! सव्वत्थोवा जीवा - भावनीयाः । असुरकुमारस्य नागकुमारस्वेऽतीताः प्राग्वत् ।
कसानसमुग्घाएणं समोहयाणं माणसमुग्धाएणं समोपुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र योऽसुरा- हया अणंता०, कोहसमुग्घाएणं समोहया बिसेसाहिया मारभवावुववृत्तो न नागकुमारभवं गन्ता तस्य न सम्ति,
मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया लोभसमुग्धाएणं शेषस्य तु सन्ति यस्यापि सन्ति तस्यापि स्यात् संस्पेयाः,
समोहया विसेमाहिया असमोहया संखेजगुणा । एतेसि स्यादसंख्येयाः, स्यादनन्ता । तत्र सकृन्नागकुमारभचं| प्राप्तुकामस्य संख्येयाः, जघन्यस्थितावपि संख्येयानां लो
सं भंते ! नेरइयाणं कोहसमुग्धाएणं माणसमुग्धाएणं भसमुद्धातानां भावात् , असंख्येयान् धागम् प्राप्तुकाम- मायासमुग्धारण लोभसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोस्य असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः। एवं यावत् हयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुला वा स्तनितकुमारत्वे पृथिवीकायिकत्वे यायद्वैमानिकत्वे यथा नैरयिकस्य भपित तथैव भणितव्यम् । एवमसुरकुरस्थ
विसेसाहिया वा, गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया लोभव नागकुमादेरपि तायवक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारस्य । समुग्याएणं समोहया, मायासमुग्धाएणं समोहया संखेबैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रम्, तथैवम्-'एगभम- अगुणा वा, माणसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा, कोस्सणं भंते! धणियकुमारस्स बेमाणियत्ते केवड्या लो- हसमुग्धाएणं संखेजगुणा, असमोहना संखेजगुणा । भसमग्घाया प्रतीता ?' इत्यादि, एवं एगमेगस्स णं भ
असुरकुमाराणं पुच्छा, गोयमा! सव्वत्थोवा असुरकुमाते पुढविकाइयस्स नेरहयत्ते 'इत्याद्यपि सूत्रं पूर्वोक्तभाबनानुसारेण स्वयं भावनीयम् , तदेवं नैरयिकादेरेकत्ववि
राणं,कोहसमुग्घायाएणं समोहया माणसमुग्घाएणं समोपयाःकोधादिसमुद्घाताः प्रत्येकं चतुर्विंशत्या चतुर्विश, हणया संखेजगुणा,मायासमुग्धाएणं समोहया संखेजतिवण्डकसूत्रेर्विचिन्तिताः ॥ सम्प्रति तानेव नैरयिकादिव- गुणा । लोभसमुग्घाएवं समोहया संखेजगुणा असमोहया दुत्वविषयान् चिचिन्तयिषुरिदमाह-'नेरयाणं भंते !'
संखेजगुणा, एवं सब्बदेवा० जाब वेमाणिया । पुढविइत्याधि, नैरयिका भवन्त ! नैरयिकत्वे कियन्तः कोअसमुपासा प्रतीताः१, भगवानार-गौतम! माताः,
काइयाणं पुच्छा, गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया अनन्तशो नैरयिकत्वस्य सर्वजीवैः प्राप्नत्वात् , कियन्तः
माणसमुग्घाएणं समोहया, कोहसमुग्याएणं समोहया, पुरस्कृताः, गौतम ! अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये विसेसाहिया मायासमुग्घाएणं समोइया विसेसाहिया बहूनामनम्तशो नैरयिकरवं प्राप्तुकामत्वात् , 'एव 'मि- लोभसमुग्धारण य समोहणया विसेसाहिया असमोहणया स्यादि , एवं-नैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण चतुर्विशल्या चतुर्विशतिवण्डकसूत्रैर्निरन्तरं ताबडतव्यं यावद्वैमानिक
संखेजा, एवं. जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मगुस्सा स्य वैमानिकत्ये-वैमानिकविषयं सूत्रम् , तथैवम्-'बेमा
जहा जीवा, णवरं माणसमुग्घाएणं समोहणया असंखेशियाण भंत! वेमाशियत्ते केवइया कोडसमुग्घाया म- | जा। (सू० ३४०)
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( ४५२) अभिधान राजेन्द्रः ।
समुग्धाय
'एएसि ण' मित्यादि, एतेषां भदन्त ! जीवानां क्रोधसमुद्धाते न मानसमुद्घातेन मायासमुद्घातेन लोभसमुद्घातेन च समवहतानाम् अकषायेणेति - कषायव्यतिरेकेण शेषेण समुद्धातेन समवहतानामसमवहतानां च कतरे कतरेभ्यः श्र ल्पा वा बहवो वा ?, 'अर्थवाद्विभक्पिरिणाम' इति न्यायाल् पञ्चम्याः स्थाने तृतीयापरिणामनान्तु कतरे कतरैस्तु ल्या वा, तथा कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकाः, एवं गौतमेन पृष्ठे भगवानाह -- गौतम ! सर्व स्तोका जीवा श्रकपा
यसमुद्घातेन कषायव्यतिरिक्लेन शेषवेदनादिसमुद्धात पट्टे - न समवहताः, कपायव्यतिरिक्तसमुद्धातमुद्धता हि कचित् कदाचित् केचिदेव प्रतिनियता लभ्यन्ते ते चोकर्षपदेऽपि कषायमुद्रातसमवद्दतापेक्षया श्रनन्तभागे वर्तन्ते, ततः स्तोकाः, तेभ्यो मानसमुद्धातसमवद्दता अनन्तगुणाः, अनन्तानां वनस्पतिजीवानां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तितो मानसमुद्धाते वर्त्तमानानां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्यः क्रोधसमुद्धतेन समवद्दता विशेषाधिकाः, मानापेक्षया क्रोधि नां प्रचुरत्वात्, तेभ्यो मायामुद्धतेिन समवद्दता विशेषाधिकाः, क्रोध्यपेक्षया मायाधिनां प्रचुरत्वात्, तेभ्योऽपि लोभसमुद्घातेन समवद्दता विशेषाधिकाः, मायाविभ्यो लोभवतामतिप्रभूतत्वात् तम्पोऽपि केनाप्यसमवद्दताः संयेयगुणाः, चतसृष्वपि गतिषु प्रत्येकं समवदतेभ्योऽसमहतानां सदा संख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् । सिद्धाइत्येकेन्द्रियापेक्षयाऽनन्तभागवर्त्तिन इति ते सन्तोऽपि न विवक्षिताः । एतदेवाल्पबहुत्वं चतुर्विंशतिदण्डक क्रमेण चिन्तयन्नाह - - ' एपसि णमित्यादि सुगमं, नवरं सर्वस्तोका नैरयिका लोभसमुद्घातेन समवहता इति नैरयिकाणामि
संयोगाभावात् प्रायो लोभसमुद्धातस्तावनोपपद्यते, येषामपि च केषाञ्चिद्भयति ते कतिपया इति शेषसमुद्धातसमवहनापेक्षया सर्व स्तोकाः, असुरकुमारविषयाल्पबहुत्वचिन्तायां सर्व स्तोकाः क्रोधसमुद्रातसमुद्धता इति, देवा हि स्वभावती लोभबहुलास्ततोऽल्पतरा मानादिमन्तः, ततोऽपि कदा चिकतिपयेोधवन्त इति शेषसमुद्धात समवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, 'एवं सम्यदेवा०जाव बेमारिया' इति, एवम् श्र सुरकुमारगतेनाल्पबहुत्वप्रकारेण सर्वे देवा नागकुमारादयस्तावकन्या यावद्वैमानिकाः । पृथिवीकायिक चिन्तायां सामान्यतो जीवपदे इव भावना भावनीया, समानत्वात् । 'एवं जावे' त्यादि, एवं पृथिवीकायिकांक्लेन प्रकारेण ताव
व्यं यावत् तिर्यकूपञ्चेन्द्रियाः, मनुष्या यथा जीवाः, नवरमक पायसमुद्धात समवहतापेक्षया मानसमुद्घातेन समयदता असंख्येयगुणा वक्लव्याः । (छाद्मस्थिकसमुद्धातवक्लव्यता 'छाउमत्थियसमुग्धाय' शब्दे तृतीयभागे १३५४ पृष्टे गता । ) (११) सम्प्रति यस्मिन् समुद्धाते वर्तमानो यावत् क्षेत्रं समुद्धातवशतस्तैस्तैः पुद्गलैर्व्यामाति तदेननिरूपयति
जी दासमुग्धाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहिं णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए फुले केवतिते खेते फुडे १, गोयमा ! सरीरप्पमासमेत विक्संभवाहल्लेणं नियमा छद्दिसि एवतित खेत्ते
समुग्धाय असे एवनिते खेत्ते फुडे । से गं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुडे केवइए फुडे १, गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकाल - स्स अफुरणे एवइयकालस्स फुडे । ते णं भंते ! पोग्गले केवइकालस्स निच्छुभति ?, गोयमा ! जहसेणं श्रतो मुहुत्तस्स उक्कोसेणं वि तोमुहुत्तं । ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जातिं तत्थ पाणातिं भूयातिं जीवति सत्तातिं अभियंति वर्त्तेति लेसेंति संघाएंति संघद्वेति परितायेंति किला मेंति उद्यवेंति तेहितो णं भंते ! से जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउPaire for पंचकरिए। ते गं भंते ! जीवा तातो जीवाश्र कति किरिया, गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंच किरिया । से णं भंते ! जीवे ते य जीवा श्रसेसिं जीवाणं परंपराघाएयं कतिकिरिया १, गोयमा ! तिकिरिया करिया वि पंचकिरिया बि । नेरइए णं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं समोहते, एवं जहेब जीवे, वरं रइयाभिलावो, एवं निरवसेसं जाव वेमाखिते एवं कसायसमुग्धा व भाणितब्वो । जीवे गं भंते ! मारणंतियसमुग्धारणं समोहगड समोहणित्ता जे पोग्गले खिच्छुभति तेहिं णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतित खेत्ते अफु केतिते खेत्ते फुडे !, गोयमा ! सरीरप्पमाणमेते विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहरणेणं अंगुलस्स - संखेजहभागं उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोगाई एगदिसिं एवति खेत्ते अफुले एवतिते खेत्ते फुडे । से भंते ! खेत्ते केवडकालस्स असे केवइकालस्स फुडे 2, गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण Terrar faग्गहेणं एवतिकालस्स फुले एवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चैव ०जाव पंचकिरियाओ । एवं नेरइए वि, वरं श्रायामेणं । जहमेणं साइरेगं जtयणसहस्सं उक्कणं असंखेज्जाई जोगाई, एगदिसिं एवतिते खेत्ते अफुले एवतिते खित्ते फुडे । विगहें एगसमइए वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा भन्नति, सेसं तं चेत्र० जाव पंच किरिया
। असुरकुमारस्स जहा जीवपदे, गवरं विग्गहो तिसमड़ओ जहा नेरइयस्स, सेसं तं चैव जहा असुरकुमारे एवं० जाव मागिए, गवरं एगिदिए जहा जीवे निरवसेसं । ( सू० ३४२ )
' जीवं भंते !' इत्यादि, जीवो समिति वाक्यालङ्कारे, वेदनासमुद्राते वर्त्तमानः तस्मिन् समवहतो भवति, समवहत्य च यान् पुगलान् वेदनायोग्यान् स्वशरीरान्तर्गतान
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समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्धाय निकलुभइ' इति-विक्षिपति आत्मविश्लिषान् करोतीत्यर्थः, | बिसमयन या विग्रहेणाऽपूर्ण स्पृष्यं च लभ्यते इति वाक्य'तेहि णमिति-तैः पुनलैः कियत् क्षेत्रमापूर्णम् , मापूर्णत्व- शत्रः, तत एतावता उत्कर्षता--त्रिसमयप्रमाणस्य कालस्य मपान्तराले कियदाकाशप्रदेशाः संस्पर्शनेऽपि व्यवहारत सम्बन्धि यथोक्लप्रमाणं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यः पुद्गलैराप उच्यते, तत माह-कियत् क्षेत्र स्पृष्ट-प्रतिप्रदेशापूरपेन णमतावता कालस्य सम्बन्धि स्पृष्टमिति ॥ सम्प्रति यावन्तं ग्यासम् , एवं गौतमेन प्रश्ने कूते सति भगवानाह- काल वेदनाजननयोग्यान पुद्गलान् विक्षिपति तावत्कालप्र'सरीरे' त्यादि नियमात्-नियमेन 'छहिसि ति-पदिशो माषप्रतिपादनार्थमाह- ते ण भंते !' इत्यादि, तान् घेदनायत्रापूरण स्पर्शने वा पदिक तद्यथा भवति एष विष्क- जननयोग्यान पुद्गलान् , णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! पम्भतो-विस्तरण बाहल्यतः-पिण्डतः शरीरप्रमाणमात्रं, रमकल्याणयोगिन् ! परमसुखयोगिन् ! वा पुद्गलान कियतः यावत्प्रमाणः स्वशरीरस्य विष्कम्भो यावत् प्रमाण च बा- कालस्य सम्बान्धनो विक्षिपति?, कियत्काल वेदनाजननहल्यम् एतावन्मात्रमापूर्ण स्पृष्टं चेति वाक्यशेषः , तदेव योग्यान् विक्षिपतीति भावः। भगवानाह-जघन्यनाप्यनिगमनद्वारणाह-'एवइए खत्त अफुराणों एवइए खत्ते फुट' न्तर्मुहर्तस्य सम्बन्धिन उत्कर्षतोऽप्यन्तर्मुहूर्तस्य, केवल इति,इह वेदनासमुद्धातो वेदनातिशयात् , बदनातिशयश्च लो. मनाक वृहत्तरस्य सम्बन्धिनः विक्षिपति । किमुक्तं भवतिकनिष्कुटेषु जीवानां न भवति,निरुपद्रवस्थानवर्तित्वात् तेषा, य पुद्गला जघन्यत उत्कर्षतश्चान्समुहर्स यावद्धदनाजननकिन्तु-प्रसनाड्या अन्तः, तत्र परोदीरणसम्भवात् , तत्र च
समर्थाः तान् तथा तथा बदनानः सन् स्वशरीरगतान्-स्वपइदिकसम्भव इति नियमाच्छद्दिसिमित्युक्तम् , अन्यथा शरीरादहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्लिष्टान विक्षिपति, यथाऽ. 'सिय तिदिसिसिय चउदिसि सिथ पचदिसिमित्याधुच्यत। त्यन्तदाहज्वरपीडित: सन् सूक्ष्मपुदलान् , प्रत्यक्षसिद्धं चअथ स्वशरीरप्रमाविष्कम्भबाहल्यमेव क्षेत्रमापूर्ण स्पृष्टं च तदिति, 'तणं मंते !' इत्यादि, ते गमिति पूर्ववत् ,भवान्त ! विग्रहगतौ जीवस्य गतिमधिकृत्य कियदृरं यावद्भर्वात पुद्गला विक्षिप्ताः सन्तः शरीरसम्बद्धा असम्बद्धा या ' जाई कियन्तं च कालमित्येतन्निरूपणार्थमाह-'से ण भंते !' - तत्थे' त्यादि प्रातत्वात् पुंस्त्वेऽपि नपुंसकता, यान् तत्र त्यादि, नपुंसकत्वे पुंस्वं प्राकृतत्वात् , तत्-अनन्तरीक्त- वेदनासमुद्धातंगतपुरुषसंस्पृष्ट क्षेत्र प्राणाम्-द्वित्रिचतुरिन्द्रिप्रमाणं णमिति प्राग्वद् , भदन्त ! क्षेत्र कालस्य इति-प्राकृ- यान शकीटिकामक्षिकादीन् भूनान् वनस्पतीन् जीवानतत्वात् तृतीया) षष्ठी, कियता कालन पूर्ण कियता का- पञ्चन्द्रियान् गृहेगाधिकासंपादीन् सत्वान्-शेषपृथिवीकालेन स्पृष्टम् । किमुक्तं भवति?,-कियन्तं कालं यावत् स्व- यिकादीन् अभिनन्ति-अभिमुखमागच्छन्ता नन्ति वर्तग्नि शरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्र निरन्तर विग्रहगती जीव- आवर्त्तपतितान् कुर्वन्ति लशान्त---मनाक स्पृशान्त स्य गतिमधिकृत्यापूर्ण स्पृष्टं च लभ्यते इति ?, भगवानाह- सजातयन्ति-परस्परं तान् संघातमापनान् कुर्वन्ति सहगौतम! एकसमयेन चा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण । दृयन्ति-अतीव सातविशवमायादितान कुर्वन्ति परितापकिमुक्तं भवति?-एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन यन्ति-पीडयन्ति कलमयन्ति-मूच्छापत्रान् कुर्वन्ति अपद्राया विग्रहण यावग्मात्र क्षेत्रं व्याप्यते यददरं यावत् स्वशरी- वयन्ति-जीवितात व्यपरोपान्त तेभ्यः पद्गलेभ्यः तयां प्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापर्ण- प्राणादीनां विषये भदन्त ! सा-अधिकृतो बदनासमभृतं जीवस्य गतिमधिकृत्यावाप्यते,तत एतद्गतमुत्कृष्टतस्त्रि- द्वातगतो जीवः कतिक्रियः प्रक्षप्तः ? , भगवानाह-गीसामयिकेन विग्रहेण यावन्मात्रं क्षेत्रमभिव्याप्यते एतावदा- तम !' सिय तिकिरिए' इति , स्यात् शब्दः कथञ्चित्मविश्लिऐर्वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण लभ्यते । इह चतुः- त्पर्यायः , कथञ्चित् कदाचित् काँश्चिच्च जीवानधिकृत्यसामयिकः पञ्चसामयिकश्च विग्रहो यद्यपि सम्भवति तथापि त्यर्थः त्रिक्रियः । किमुक्तं भवति ?-यदा न केषाञ्चित् बदनासमुद्धातः प्रायः परोदीरितवेदनावशत उपजायते सर्वथा परितापनं जीविताद व्यपरोपणं वा कराति तपरोदीरिता च वेदना प्रसनाड्यां व्यवस्थितस्य न बहिः,। दा सर्वथा विकिय एव, यदापि केपाश्चित्परितापं मरप्रसनाडीव्यवस्थितस्य च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक ण वा श्रापादयति तदापि येषां नाबाधामुत्पादयति तइति उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिकेन विग्रहेणेत्युक्तं,न चतुःसाम- दपेक्षया त्रिक्रियः, 'सिय चउकिरिए.' इनि-कपांचियिकेन पञ्चसामयिकेन चेति । उपसंहारवाक्यमाह-'एव- त्पग्तिापकरण तदपक्षया चष्क्रिय इति, कषांचिदपद्राइयकालस्स अफुरण पवइयकालस्स फुडे' एतावता उ- वणे तदपेक्षया पञ्चक्रिय इति ॥ सम्प्रति तमेवाधिकृत स्कर्षतोऽपि त्रिसमयप्रमाणेनेत्यर्थः, कालेनापूर्णमेतावता- वेदनासमुद्घातगतं जीवमधिकृत्य तेषां बेदनासमुद्धातगकालेन स्पृष्टम् । किमुक्नं भवति ?-विग्रहगतावुत्कर्षतः त्रीन् तपुरुषपुद्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रिया निरूपयति-ते से समयान यावत् त्रिभिश्च समयैः यावन्मात्रं व्याप्यते, इय- भंत !' इत्यादि . ते-बदनामुद्धातगतपुद्गलस्पृष्टा गर्माित न्ती सीमामभिव्याप्य स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्र पूर्ववद , भदन्त ! जीवास्ततो-बदनाममुद्धातपरिगतान् वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण भृतं च जीवस्य गतिमधि- जीवान् अत्र 'स्थानियपः कर्माधारयाः' इति स्थाकृत्य ब्याण्यते । अथवा-'केवइयकालस्स' ति-पण्येव निनं यपमधिकृत्य पञ्चमीयम् , अयमर्थः-तं घेदनासव्याख्येया, ततः स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्रं वेद- मधातपरिगत जीवमधिकृत्य कतिक्रियाः प्रज्ञप्ताः ? , भनाजननयोग्यैः पुरलैरापूर्ण भृतं च जीवस्य विग्रहगति- गवानाह-गौतम ! स्यात् त्रिक्रियाः, यदा न काश्चित्तस्यामधिकृत्य कियतः कालस्य सम्बन्धि , कियन्तं कालं या- बाधामापादयितुं प्रभविष्यावः, स्थाचतुष्क्रियाः, यदा तंवदवाप्यते इत्यर्थः । भगवानाह-एकसमयन द्विसमयन। परितापयन्ति । दृश्यन्सें शरीरेण स्पृश्यमानाः पतिाप
१.१४
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समुग्धाय
बन्तो वृधिकादयः स्यात् पचक्रियाः येतं जीवितादपि व्यपरोपयन्ति, सिद्धाश्व प्रत्यक्षतः शरीरेण स्पृश्यमाना जीविताच्यावयन्तः सर्पादय इति । सम्प्रति तेन बेदना समुदायगतेन जीवेन व्यापाद्यमानेऽन्ये जीवाव्यापाद्यन्त ये चान्येजीवेयपाद्यमाना बेदनासमुदाननतेन जीवेन व्यापाद्यन्ते तानधिकृत्य तस्य वेदनासमु व्रातपरिमतस्य तेषां च समुदातयतजीवसम्बन्धिपुङ्गलस्पृष्टानां जीवानां क्रियानिरूपणार्थमाह-' से णं भंसे ! जीवे ते य जीवा' इत्यादि, सः - अधिकृतो वेबनासमुझतगतो जीवः, ते वेदनासमुद्धातपरिगतजीसम्बन्धिपुङ्गलस्पृशः अन्येषां जीवानामपदर्शितेन प्रका रेण यः परम्पराघातस्तेन परम्पराघातेन कतिक्रियाः प्रशताः १, भगवानाह - गौतम ! स्यात् त्रिक्रिया इत्यादिपूर्ववत् माषयितव्यः एनमेव देना प्रका मेर
रेण भैरवकादिषु चतुर्विंशतिस्थानेषु चिन्तया
,
सेते इत्यादि पथम् उक्रेन प्रकारेण यथैव ग्राफ सामान्यतो जीवो वेदनासमुद्वातमधिकृत्य चिन्तितः तथा नैरयिकोऽपि चिन्तयितव्यः नवरं जीवाभिसापाने] कामिलापः कर्त्तव्यः । यथामेर भंते ! बेलासम्याप समोर समोहताजे पोअगले निच्छुभह इत्यादि, एवं निरवसेसं ०जाव बेमारिय इति एवं नैरथिकोशेन प्रकारेण शेषेष्यपि स्थानेषु स्वस्वाभिलापपूर्वकं निरवशेषं तावद्वक्लव्यं यावद्वै - मानिका:- वैमानिकाभिलाषः तदेवमुनासमुद्धतः॥ सम्मति कषायसमुद्वातं समानयन्यत्वादतिदेशतोऽभि
सुराह पर्व कसायसमुग्धाओ विभ इति एवं - वेदनासमुद्रात गतेन प्रकारेण सामान्यतो जीवपदे चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण च कपायसमुद्वातोऽपि वक्रव्यः, स चैवम् जीवे गं भंते ! कसायसमुग्धापण समोर समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभइ यान् पुङ्गलान् शरीरान्तर्गतान् कपायसमुद्वातयशसमुत्थप्रयत्नविशेषतः स्वशरीराद् देिशेभ्यो ऽपि विश्लिष्टान् क
,
"
रोति पोलेकेि येते -
कुरा केवलेले फुडे, गोवमा! सरीरप्यमाणमेसे भवानियमा इदिसि ए
कुरते फुडे' पायसमुद्वातो हि प्रथममुति जीयानां तेषामेव तीराध्यवसायसम्भवाकेन्द्रियाणां तु पूर्वभवानुवृत्तितः
"
समाज्यां न ततो वह्निः सनाज्यां च व्यवस्थितः स्वशरीरप्रमार्ग विष्कम्भवात् क्षेत्रमात्मविश्विः पुः भृतं पदित्यमवश्यमुपपद्यते इति निषमा हिसि ' छद्दिसि मित्युक्तम्, एवइप खेत्ते अफुरणे एवइए खेते फुडे' इत्यादि, सर्व समानम् ॥ सम्प्रति मरणसमुद्वातमभिधित्सुराह-जीये ते ! मारतिय समुग्धापणमित्यादि इति पूर्ववत् भदन्त कचिन्मारणान्तिकसमुद्रातेन समयतः समवद्दत्य च यान् पुगलान् तेजसादिशरीरान्तर्गतान् 'निच्मा इति विक्षिपतिभ्यो विश्लाकरोति तैर्भदन्त पुलैः कियत् क्षेत्रमापूर्ण कियत् क्षेत्र भूतम् ? भगवानाह - गौतम
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( ४५४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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समुग्धाय रीरप्रमाणमायामतो जघन्यतः स्वशरीरातिरेकाङ्गलाक्येयभागमात्रं यदा तावन्मात्रे क्षेत्रे उत्पद्यते उत्कर्षतोऽसंख्येयानि योजनानि एतच्च यदा तावति क्षेत्रे अन्यथा वा द्रष्टव्यम् । एकदिशि- एकस्यां दिशि न तु विदिशि स्वभावतो जीयदेशानां दिशि गमनसम्भवात् एतावत् क्षेत्रमा समेतावत् क्षेत्रं स्पृष्टं जघन्यतः उत्कर्षतो वा श्रा
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प्रदेशैरपि एतावत् क्षेत्रस्य पूरणसम्भवात् । सस्प्रति विग्रहगतिमधिकृत्यापुविषयंस्पर्शनविषयं व कालप्रमाणमाह से णं भंते ! इत्यादि, तत उत्क णायामतोऽनन्तरोक्रममा भदन्त गति मधिकृत्य केश्यकाल चिनीया पहुचामाया काकानापूर्ण कियता कालेन स्पृशम् किमुॐ भवति विप्रगतिमधिकृत्य कियता कालेनोत्कर्षसोऽस्येययोजनमा क्षेत्रमायामतः पुलेगपूर्ण - टं भवतीति, भगवानाह - गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन या त्रिसमयेन वा चतुःसमयेन वा विप्रखापूर्ण स्पष्टम् इह पथसामयिकोऽपि विग्रहः सम्भवति प स कादाचित्क] य इति न विवक्षितः । इयमत्र भावना - उत्कृष्टपदे श्रायामतोऽसंख्येययोजनप्रमाणं क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्कर्षतः चतुःसमयेपूर्ण या भवतीति । अथ कथं चतुःसामयिकः पञ्चसामयिको वा विग्रहः सम्भवति ?, उच्यते - त्रसना ज्या बहिरधस्तनभागादुपरितने भागे, यद्वा- उपरितनभागादधस्तने भागे समुत्पद्यमानो जीवो विदिशो वा दिशि दिशो षा विदिशियोत्पद्यते तदा एकेन समयेन साहिति द्वितीयेनोपरि अथो या गमन तृतीयेन बहिर्निःसर चतुर्थेन दिशि उत्पत्तिदेशप्राप्तिः अयं चतुःसामयिको विमः पपसामयिकस्तु सनाया बहिरेय दि शो दिशि उत्पती सभ्यते, तद्यथा-प्रथमसमये स नाख्या मंदिरेव विदिशो दिशि गमने द्वितीये असनाक्या मध्ये प्रवेश दतीये उपर्यधो वा गमने च
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हिस्रिणं, पचमेपिदिदेशगमनमिति । उपसं
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हारमाह-' एवयकालस्स अप्फुसे एवइयकालस्स फुडे ' इति - एतावता कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्टमिति, 'सेसं तं चैव जाव पंखकिरिए ' इति अत ऊध्ये शेषं तदेव सूत्रम् -' ते णं भंते! पुग्गला निच्छूढा समाया जाई तत्थ पाणाई' इत्यादि यावत् 'पञ्चकिरिया ' इति पदम् । तदेवं सामान्यतो जीवपदे मारणान्तिकसमुद्धातश्चिन्ति - तः, सम्प्रति एनमेव चतुर्विंशतिदण्डक कमेण चिन्तयन् प्रथमतो नैयिकातिदेशमा एमित्यादि एवं सामायतो जीप विकेऽपि क्रव्यं नमरमर्थ विशेषः सामान्यतमायामतो जघन्येनाखासंय भागमात्र मुक्तम्, इह तु जघन्यतः सातिरेक योजनसङ्घस्रम् । किमत्र कारणमिति चेत् ?, उच्यते - इह नैरयिका नरकाडुवृत्ताः खभावत एव पञ्चेन्द्रियतिषु मध्ये उत्पद्यन्ते मनुष्येषु वा नान्यत्र, सर्वजघन्यचिन्ता चात्र क्रि यते, ततो यदा पातालकलशसमीपवर्ती नैरयिकः पातालकमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिभागे मत्स्योत्पद्यते सदा विष्कम्भवाहयतः श-पातालकलशांकरिकाया योजनसह समानत्वात् यथो
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(४५५) समुग्धाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुग्घाय अधन्यमानं नातोऽपि वनतरं कथंचनेति, हरकती- स्स संखेजतिभागं उकोसणं संखिजाई जोभणाई एगदिउसंख्येयानि योजनानि, तानि सप्तमपृथिवीगतनारकापे- | सिं पिदिसि वा एवइए खित्ते अफुले एवतिते खत्ते फुडे । सचा भावनीयानि । अत्रैवोपसंहारमाह-एगदिसि एवाए' से ण मंते ! केवतिकालस्स अफुले केवतिकालस्स फुडे?, इत्यादि, एकस्यां दिशि जघन्यत उत्कर्षतब्ध एतावत् अनन्तरोक्लप्रमाणे क्षेत्रमापूर्णतावत् क्षेत्र स्पृर्ष, विग्रह
गोयमा! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा गतिमधिकृत्य विशेषमाह-'विग्गहेणे' त्यादि , विग्रहेणा- विग्गेहणं एवतिकालस्स अफुले एवतिकालस्स फुडे, पूर्व स्पृष्यं वा वक्तव्यमेकसामयिकेन हिसामयिकेन त्रि- सेसं तं चेत्र० जाव पंचकिरिया वि , एवं नेरइए वि , सायिकेन वा, नन्वेत सामान्यतो जीवपदेऽप्युक्तं त
खवरं मायामेणं जहएणणं अंगुलस्स असंखअतिस्कोऽत्र विशेषस्तस माह-'नवरं चउसमापण या व भएणइ' इति-नबरमत्र सामान्यजीवपद इव चतुःसामयि
भाग उक्कोसेणं संखिज्जाई जोषणाई एगदिसिं , एवकेनेति न भण्यते, नैरयिकाणामुत्कर्षतोऽपि विग्रहस्य
तिते खत्ते, केवतिकालस्स ?, तं चव जहा जीवपदे , एवं त्रिसामयिकत्वात् , ते यत्रयः समया एवं भवन्ति , इह जहा नेरइयस्स तहा असुरकुमारस्स, नवरं एगदिसि विकश्चिौरयिको वायव्यां दिशि वर्तमानो भरतक्षेत्र पू
दिसिं वा, एवं०जाव थणियकुमारस्स । वाउकाइयस्स जहा बस्यां दिशि तिर्यपञ्चेन्द्रियतया मनुष्यतया घोत्पित्सुः
जीवपदे,णवरं एगदिसिं पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स निप्रथमसमये ऊर्ध्वमागच्छति , द्वितीयसमये वायव्या दिशः पश्चिमदिशं तृतीये ततः पूर्वदिशमिति । एवमसुरकुमारादि।
रवसेसं जहा नेरइयस्स, मरणूसवाणमंतरजोइसियवमाणिस्वपि यथायोगं त्रिसमयविग्रहभाबना कार्या । ' सेसं तं यस्स निरवसेसं जहा असुरकुमारस्स। जीवे णं भंते । तेयवेव जाय पंचकिरिया वि' इति-शेष सूत्रं तदेव वेदना
गसमुग्घाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति समुदातगतं, ते ण भंते ! पोग्गला केवड्या कालस्स नि
तेहि णं भंते! पोग्गलेहिं केवतिते खित्ते अफुणे केवइए खत्ते उछुभंति ?, गोयमा! जद्दनेण वि अंतोमुहुत्तस्स उक्कोसेण अतोमुहुत्तस्से' त्यादि तावद्वक्तव्यं यावदन्तिमं पदं 'पं- फुडे, एवं जहेव वेउब्बिते समुग्धात तहेव, णधरं आयामेणं बकिरिया वि' इति । असुरकुमारविषये प्रतिदेशमाह- जहले अंगुलस्स असंखेजतिभागं सेसं तं चैव एवंजाव 'असुरकुमारस्स जहा जीवपदे' इति, यथा सामान्यतो जी
वेमाणियस्स, णवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एकदिसिं वपदेऽभिहितं तथा असुरकुमारस्याप्यभिधातव्यम् । एतापता किमुक्तं भवति १-यथा जीवपदे श्रआयामतः क्षेत्र
एवतिते खते अफुले एवइखिलस्स फुडे । जीवे णं भंते ! जघन्यनोलासंख्येयभागमात्रम् , उत्कर्षतोऽसंख्ययानि आहारगसमुग्घातेणं समोहते समोहणिचा जे पोग्गले नियोजनानि तथा अप्रापि धनव्यम् । कथं जघन्यतोऽङ्गुला- च्छुभति तेहि ण भंते ! पोग्गलेहि केवइए खित्ते अफमे संख्ययभागमात्रमिति चेत् , उच्यते-हासुरकुमारादय
-हासुरकुमाराय | केवइए खत्ते फुडे १, गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभईशानदेवपर्यन्ताः पृथिव्यम्बुवनस्पतिष्यप्युत्पद्यन्ते , ततो बदा कोऽप्यसुरकुमारः संक्लिष्टाध्यवसायी स्वकुण्डलाये
वाहनेणं आयामेणं जहशेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं कदेशे पृथिवीकायिकत्वेनोत्पित्सुर्मरणसमुद्धातमादधाति उकासण सखजाइ जायणाइ एगादसि एवातत खचे एग तदा जघम्येनायामतः क्षेत्रमालासंख्येयभागप्रमाणमवाप्यते | समइएण वा दुसमइएस वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवइति यथा जीवपदे इत्युक्तं, ततोऽत्रापि विग्रहगतिश्चतुःसा- तिकालस्स अफुले एवतिकालस्स फुडे,ते णं भंते ! पोग्गला मायिकी प्रानोति, तस पाह-वरं विग्रहखिसामयिको |
केवतिकालस्स निच्छुभति ?, गोयमा ! जहलेणं अंतोमयथा नैरयिकस्य । शेषं सूत्रं तदेव यत् सामान्यतो जीवपद । नागकुमारादिष्वतिदेशमाह-जहा असुरकुमारे'
हुत्तस्स उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तस्स, तेण भंते ! पोग्गला नि
सस्त इत्यादि, यथा असुरकुमारेऽभिहितमेव मागमारादिषु च्छूढा समासा जातिं तत्थ पाणाति भूयाति जीवातिं सतापद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं सूत्रम्, नबरमेकेन्द्रि- चातिं अभिहणंति जाव उद्दवेंति, ते ण भंते ! जीवे कतिये पृथिव्यादिसपे यथा जीवे सामान्यतो जीवपदे तथा| किरिए १.गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए निरवण वक्रव्यम् । किमक्तं भवति ?-यथा जीवपदे चतु:
सिय पंचकिरिए ते ण भंते ! जीवाश्रो कतिकिरिया सामयिकोऽपि विग्रह उकः तथा पृथिव्यादिष्वपि पञ्चसु स्थानेषु पक्रव्यः शेषं तथैवेति । तदेवमुको मारणान्तिक
गोयमा! एवं चव,से ण भंते! ते य जीवा अमेसि जीवाणं समुद्घातः।
परंपराघाएणं कविकिरिया ?,गोयमा! तिक्रिरिया वि चउ(१२) साम्प्रतं वैक्रियासमुद्ध्यतमभिधिस्सुराह- किरिया वि पंचकिरिया वि, एवं मरणूसे वि । (सू० २४३) जीवे खं भंते ! वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहये समोहणि
'जीवेण भंते ! वेउब्बिए' इत्यादि प्राग्वद् , नवरमायामत
उस्कर्षतः संख्येयानि योजमानि । एतच बायुकायिकवर्जताजे पुग्गले निच्छुभति तेहिं णं भैते ! पोग्गलेहिं केव
नैरयिकायपेक्षया द्रष्टव्य, ते हि वैक्रियसमुद्घातमारभमाणातिते खेत्ते अफुस्से केवतिते खिचे फुडे ?, गोयमा ! सरी
स्तथाविधप्रयाविशेषभावतः संख्येयान्यय योजनान्युत्कर्षएप्पमाणमेचे विक्खंयवाहल्लेयं मायामेणं जहम्घेणं अंगुल- तोऽप्यात्मप्रदेशानां दण्डमारचम्ति, नासंख्ययानि योज
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समुग्धाय
गानि । वायुकाविकास्तु जघन्यतो या उत्कर्षतो वा अ लासंख्येयभागं तावत्प्रमाणं चोत्कर्षतो दण्डमारचयन्तम्लायति प्रदेशे तेजसादिशरीरपुद्गलान आत्म क्षिपति, ततस्तै: पुद्गल क्षेत्रमायामत उत्कर्षतोऽपि संख्येयान्येव योजनान्यचाप्यन्ते । एतचैव क्षेत्रप्रमाणं केपलं वैविसमुद्वातसमुद्ध प्रयत्नमधिकृत्योक्रमातु कोऽपि वानमधिरूढा मरणमुपलिए कपम प्युत्कृष्टदेशेन त्रिसामायिकेन विमदेोत्पतिदेशमभिगच्छ ति तदा संख्यातीतान्यपि योजनानि यावदायाम क्षेत्रमवलेयम् तावत्प्रमाणं क्षेत्रापूरणं मरणसमुद्घातप्रयत्नसमुद्भवमिति निक्षितम् 'एकदिसि विदिसिवा इतितत जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामक्षेत्र मेकस्यां दिशि विदिशि वा द्रष्टव्यम्, तत्र नैरयिकाणां पञ्चे
तर वायुकाविकानां व नियमादेकदिशि नैरयिकाहि परवशा अपयश निर्वपञ्चेन्द्रियाश्रल्पय एव वायुकायिका विशिष्टचेतनाधिकलास्ततस्तेषां वैक्रियसमुद्घातमारभमाणानां यदि परं तथा स्वाभाव्यदारमदे गुरुदविनिर्गमस्तेभ्पश्चात्मप्रदेश म्यां विश्लिष्य पुद्गलानां व स्वभावतोऽनुगमनं न तु विभेषितः ततो दिश्येव नैरविकतिपञ्चेन्द्रियवायुकाधिकानामाश्रामतःम्, न तु विदिशि, ये तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका मनुष्याश्च ते स्वेच्छाचारि सम्पन्न भयति ततस्ते कदाचित्नविशेषतो विदिश्यप्यात्मप्रदेशानां इरा विक्षिपन्तस्तत्र तेभ्य श्रादेशः वि क्षिपन्तीति तेषामेकस्यां दिशि विदिशि या प्रत्येतव्यम् । चैकियसमुद्यतगत कोऽपि कालमपि करोति - हे पोरपत्तिदेशमभिसर्पति ततो विप्रगतिमधिकृत्य कालनिरूपणार्थमाह-' से गं भंते!' इत्यादि, तत् भदन्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्पत्तिदेशं यावत् ' केवइकालस्स' ति-तृतीयार्थे षष्ठी, कियता कालेनापूरणं कियता का लेन स्पृष्टम् , भगवानाह गौतम ! एकसामयिकेन या द्विसामयिकेन या शिसामयिकेन वा विग्रहे पूर्ण स्पृष्टमिति गम्यते । किमुक्कं भवति ? - विग्रहगतिमधिकृत्य मरणदशाया आरभ्य उत्पत्ति पाच पाणमुत्कर्षतः त्रिभिः समर्थवाप्यते न चतुर्थेनापि समयेन वैशिषसमुद्यतगत हि वायुकायिकोऽपि ना
विग्रह को सामयिक इति उपसंहारमाहएवइकालस्स' इत्यादि सुगमम् 'सेस तं चैवे त्यादि संवेदनासमुद्घाते उक्तम् तच्च तावत् यावदन्तिमपदं पंचकिरिया वि' इति एवं मेरइत्रि इत्यादि सूपं तु स्वयं भावनीयम् । यस्तु दिदिपेक्षयाविशेषः प्रागेव दर्शितः॥तेजसमुद्द्धानमधित्सुराज मेते! तेया
मित्यादि, सुगनं, धरमयं तेजससमुद्यात अनुवनि कार्यातिर्यक्पचेद्रियमनुष्याणां सम्भवति न शेषाणां ते च महाशयसचन्त इति तेषां तेजसातमारभमाणा ज धन्योऽपि मायामतोऽङ्गला स्यैवभागप्रमाणं भवति, न तु संख्येयभागमानमतः संयेाजनप्रमाणम् । तच्च घथत उरकता प्रमानिकप
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( ४५६ ) अभिधानराजेन्द्रः । समुग्धाय वेन्द्रियजामेकस्यां दिशि विदिशिवाय तिर्यपञ्चेन्द्रियाणां तु दिश्येव । अत्र युक्तिः प्रागुक्तैवानुसर्त्तव्या, तथा बाह-' एवं जहा बेउब्धियसमुग्धार ' इत्यादि । त देवमुक्तस्तेजससमुद्घातः ॥ साम्प्रतमाहारक समुद्धतं प्रतिपिपादयिषुराह - जीये गं भंते ! ' इत्यादि, पतच्च सूत्रं तैजससमुद्घातवद्भावनीयं नवरमयमाहारकसमुद्घातो मनुष्याणां तत्राप्यधीतचतुर्दशपूर्वाणां तत्रापि केषाञ्चिदेबाद्दारकग्धिमतां न शेषासां ते चाद्वारसमुद्घातमारभमाणा जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामतः क्षेत्रमात्मप्रदेशविशिलप्रैः पुद्गलैरापूरयन्त्येकस्यां दिशि न तुविदिशि । विदिशि तु प्रयज्ञान्तरविशेषादात्मप्रदेशदगडविक्षेपः पुराचनच ते प्रयत्नान्तरमारभते प्रयोजनाभाबालू गम्भीराचेति आहारात गतोऽपि कोउपि कालं करोति विक ftaarafts इति 'एगदिसि एवइप खेत्ते फुडे : एगसमइगुण वा दुसमइएण वा इत्याद्युक्तम् । तथा मनुष्याणामेवायमाहारसमुद्यात इति चतुर्विंशनिरुकचिन्तोपक्रमे ' मणूसे चिन्तक एवं मवि इत्युक्रम् अस्थायमर्थः पर्व सामान्यतो जीवपदे च मनुष्येऽपि मनुष्यचिन्तायामपि सूत्रं चक्रव्यम् जीयपदे मनुष्यानेाधित्य सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात्, अन्येषामाहारकसमुद्घातासम्भवात् । तदेवं पराणामाथिकानां समुद्यातानामारम्भे जघन्यन उत्क तो वा यावत्प्रमाणं क्षेत्रमात्मविश्लियैः पुनलैर्यथायोगमौदारिकादिशरीरान्तर्गतैरापूरितं भवति तावत्यमारामावेदितम् । प्रज्ञा० ३६ पद । विशे० भ० स० । प्रा० चू० । श्रा० म० । पं० सं० ।
तथा
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(१३) सातद्वारविस्तरःसिगं भंते! जीवा कतेि समुग्धाया पवन, गोयमा ! तो समुग्धाया पात्ता, तं जहा - वेयणासमुग्धार कसायसमुदाए मारणंतियसमुग्याए । (०१३+)
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तत्र समुद्धाताः सप्त तद्यथा-वेदनासमुद्घातः १ कपायसमुद्वातः २ मारणसमुद्घातः ३ वैक्रिय समुद्घातः ४ तैजससमुद्घातः ५ श्राहारकसमुद्घातः ६ केवलि - समुद्धात न वेदनायाः समुज्ञातो बेदनासम् दुद्घातः, सचासात वेदनीय कर्माश्रयः १, कपायेण - कपायोदयेन समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च कषायचारिमोहनीय कर्माश्रयः २ मरणे भयो मारत, वासी समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः ३, चैकिये प्रारभ्यमाणे समुधानी बैंकियसमुद्घातः न च वैक्रियशनामकर्माश्रयः ४ समुघातस्तैजससमुद्घातः तेजसशरीर नामकर्माश्रयः ) ५, आहार के प्रारभ्यमाणे समुद्घा - तः आहारसमुद्घातः स चाहारकशरीरनामकर्माश्रयः ६ केवलनि अन्तर्मुभाषिपरमपदे समुद्रातः केवलद्वातः ७ (जी०) तत्र वेदनीयक पुलपरिशातं करोति तथाहि पदमाकरालितो जीव देशाननन्तानन्तकर्मपरमानिाद शरीर तिदेदजयादा फस्कन्धान्तरालानि विस्तर शरीरमा क्षेत्रान्तर्मु
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समुग्घाय अभिधानराजेन्द्रः।
समुट्टिय इलें यावदवतिष्ठते,तस्मिंश्चान्तमूहर्ने प्रभूतासातवेदनीयकर्म- समुच्छेयवाइ-समुच्छेदवादिन-पुं०। समुच्छेदं प्रतिक्षण निपुद्गलपरिशातं करोति, कषायसमुद्धातसमुद्धतः कषायाख्य- रन्वयनाशं वदति यः स समुच्छेदवादी। प्रक्रियावादिभेदे , चारित्रमोहनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति। तथाहि-कषायो. स्था० । तथाहि-वस्तुनः सत्त्वं कार्यकारित्वं कार्याकारिणोऽपि दयसमाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य तैर्यदनोदरादिर.
वस्तुत्वे स्वरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसङ्गात् , कार्य च नित्य वन्ध्राणि कर्णरन्ध्राद्यन्तरालानि चापूर्यायामविस्तराभ्यां देहमा
स्तु क्रमेण न करोवि नित्यस्यै कस्वभावतया कालान्तरभाप्रक्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतकषायकर्मपुरलप- विसकलकार्यभावप्रसङ्गात् ,न चे देव प्रतिक्षणं स्वभावान्तरोरिशातं करोति , एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपुद्गलप- त्पत्त्या नित्यत्वहानिरिति । यौगपद्येनापि न करोति अध्यरिशातं करोति । वैक्रियसमुद्घातगतः पुनर्जीव. खप्रदेशान् | क्षसिद्धत्वाद्योगपद्याकरणस्य । तस्मात् क्षणिकमेव वस्तु का. शरीराद्वहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमानमायामतः । ये करोतीति । एवं च-अर्थक्रियाकारित्वात्क्षणिक वस्त्विति । संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निसृजति, निसृज्य च यथास्थू- प्रक्रियावादी चायमित्थमवसेयः, निरन्वयनाशाभ्युपगमे हि लान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वद्धान् शातयति । परलोकाभावः प्रसजति, फलार्थिनां च क्रियास्वप्रवृत्तिरिति, तथा चोक्तम्-" घेउब्बियसमग्यापणं समोहणइ समोहणि- तथा सकलक्रियासु प्रवर्तकस्यासंख्येयसमयसंभव्यनेसा संखिज्जाई जायणाइ वंडं निसिख, निसिरिता अहावा- कवर्णोल्लेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभियरे पुग्गले परिसाडे" इति, तैजसाहारकसमुदाती चैक्रिय- |
सम्धिप्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यात् , अत एवे. समुद्धातबदवसातव्यो, केवलं तैजससमुद्घातगतस्तैजसश
कान्तक्षणिकात्कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति । गरनामकर्मपुदलपरिशातं करोति, श्राहारकसमुद्घातगत तस्मात्पर्यायतो वस्तुसमुच्छेदयत् द्रव्यतस्तु न तथेति । आहारकशरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं करोति , केवलिसमु- स्था०८ ठा० ३ उ० । स०। यातसमुद्धतस्तु केवली सदसवेंदनीयशुभाशुभनामोच्चनीचत्रकर्मपुद्गलपरिशातं (करोति), केवलिसमुद्घात
समुञ्जलण-समुज्वलन-न०। कापानिप्रकटने, प्रा०म०११० घर्जाः शेषाः षडपि समुद्घाताः प्रत्येकमान्समौ हर्तिकाः, के- समुज्जाय-समुद्यात-त्रि०। निर्गते , विशे०। सम्यक च पुवलिसमद्घातः । पुनरष्टसामयिकः, उक्तं च प्रशापनायाम्- नरावृत्त्या ऊर्ध्व याते, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । ज० । "बेयणासमुग्धापणं कइसमइए पएणते ?, गोयमा ! श्र
समुट्ठाइ(न)-समुत्थायिन्-पुं० । सम्यगुत्थातुमभ्युचन्तुं , संखेजसमइए अंतमुहत्त, एवं जाव पाहारगसमुग्घाए । केलसमुग्घाए णभत ! कइसमइए पराणते ?, गोयमा !
शीलमस्येति समुत्थायी। सम्यगुद्यते, प्राचा०१ २०२०
१उ०। अट्टसमइए पराणत्ते।" इति , तदेवमनेकसमुद्घातसम्भवे सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां. तान् पृच्छति-'तेसि ग भंते !, समुट्ठाण-समुत्थान-न०। सम्यक् संगतं चोत्तिष्ठते ऽस्माइत्यादि सुगम, नवरं वैक्रियाहारकतैजसकेवलिसमुद्घाता- दिति समुत्थानम् । निमित्ते, विश०। समुट्ठाणं नाम-समं भावो वैक्रियादिलब्ध्यभावात् । जी०१ प्रतिका विशेष भ०। उहाण सममाचार्यादीनामुपस्थापनम् । प्रा० चू० १ ० । समुग्धायकम्म-समुद्धातकर्मन्-न० । समुद्घात एव कर्म समुपस्थापने भूयस्तत्रैवाऽऽवासने, नं। समुद्घातकर्म । समुद्घातरूपक्रियायाम् , विशे। | समुट्ठाणसुय-समुत्थानश्रुत-न०। सम्यगुस्थानं समुत्थानसमुच्चय-समुच्चय-पुं० । द्वयोः कोटथोरेकत्रान्वये, " अयं न | समुपस्थापनं भूयस्तत्रैवाऽऽवासनं तद्धेतुः श्रुतमुपस्थापनसंशयः कोटे-रैक्यान्न च समुच्चयः।" नयो।
श्रुतम् । समुत्थानहेती श्रुतभेदे , पा० । नं० । ततः कार्य
निष्पन्ने समुत्थानश्रुते परावत्यैमान ते कुलग्रामदेशादयः समुच्चयबंध-समुच्चयबन्ध-पुं० । संगत उच्चयापेक्षया वि
स्वस्थीभूय पुनर्निविशन्ते । व्य० १० उ० । शिष्टतर उश्चयः समुच्चयः स एव बन्धः समुच्चयबन्धः। अल्लि
समुट्ठाय-समुत्थाय-अव्य० । सम्यक्-संयमानुष्ठानेनोत्थाकापनबन्धभेदे, भ०८ श० उ०।
येत्ययें , श्राचा०१ श्रु०६ अ. ४ उ० । अभ्युपगम्येत्यर्थे, समुच्छलिय-समुच्छलित-त्रि०। ऊर्ध्वमुत्थिते, प्रा० म०
श्राचा०१७०१ १०४ उ०। १०रा०।
समुट्ठिय-समुत्थित-त्रिका प्राश्रिते, जं०४वक्षः । रा०। उत्पन्न, समुच्छिन्न-समुच्छिन्न-त्रि० । क्षीणे , स्था०४ ठा०१ उ० ।।
स्था० ३ ठा० ३ उ० । सम्यक्-सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुच्छिन्नकिरिय-समुच्छिन्नक्रिय-त्रि०। समुच्छिन्ना-क्षीणा समुत्थिताः । ससाधुषु उद्युक्तविहारिषु, सूत्र० १५० क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मि
१४ अ०। सम्यगारम्भपरित्यागेनोस्थिते,सूत्र०१७०२ १० स्तत्तथा । तथाविध शैलशीकरण, स्था०४ ठा० १ उ० ।
२ उ०। अनुष्ठिते , सूत्र० १ ध्रु०२१०२ उ० । प्रशा० ।
प्राप्ते, सूत्र०१५०३ १०२ उ०।संयमक्रियानुष्ठानं प्रत्युद्यत, ग०भ०।
उत्त०१६ अ०। आचा० । सम्यक-सततं संगतं वा संयसमुच्छेय-समुच्छेद-पुं० । उत्पत्त्यनन्तरं स-सामस्त्येन
मानुष्ठाननोस्थितः। नानाविधशास्त्रकर्मसमारम्भोपरते, श्राउत्-प्राबल्यन प्रकर्षण छेदो-विनाशः समुच्छेदः। सर्वथा, चा० १ श्रु० २ १०५ उ० । सम्यग्योगत्रिकेणास्थिते, विनाशे, आ० म०१०।
प्राचा०१ श्रृ०३ अ०२ उ०।।
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समुदय
समुइय-समुन्नयित - त्रि० । गर्वित, पिं० ।
समुत्तजालाकुलाभिराम - समुक्तजाला कुलाभिराम-पुं० । मुक्लाफलयुक्तं यज्जालं गवाक्षस्तेन श्राकुलो व्याप्तोऽभिरामव । तस्मिन् कल्प० १ अधि० ३ क्षए ।
( ४५८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
समुत्थ- समुत्थ- त्रि० । उद्भूते श्राव० ४ श्र० । समुत्थिय- समुत्थित त्रि०। सम्यगुत्थितः समुत्थितः । चारित्रस्थे, पं० चू० १ कल्प |
समुदय समुदय- पुं० । उदयवर्त्तितत्वे, प्रश्न० ३ ० द्वार समुदाय पुं० परिवारोदितसमुदाये, श्री० पौराहिमीलने [झा०] [१०] [१] [अ०] समूहे ०४५ सम० दिमेलके, ज्यो० २ पाहु० भ० । विशे० । समुदाय समुदानन० प्रयोगक्रियेकरूपतया गृहीतानां कर्मवर्गणानां सम्यक प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदानं खीकरणं समुदानं निपातनात्साधुः । स्था॰ ३ ठा० ३ उ० । स्पृष्टनिधन्तनिका चितावस्थया स्वीकरणे, आचा०१श्रु०२ श्र०१३० । श्राव० । भिक्षाटने, नि०१०३ वर्ग ४० उच्चावचकुलेषु भिक्षाचरणे ०१०२० भिक्षासमूहे. सूत्र० २ श्रु० १ ० । वृ० । श्रणु० । श्राचा० । भिक्षायाम्, सूत्र० २ श्रु० १ ० । समुदायकम्म-समुदानकर्मन् न स्पृष्टनिस निकाचितावस्थ
या स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदानकर्म, संपूर्वादापांच दाधातोंडातृषोदरादियान आकारस्योकारावेशेन रूपम् । कर्मभेदे, श्राचा० १ ० २ ० १ उ० । समुदाय किरिया समुदानक्रिया- खी० कमपादाने कियाभेदे, स्था० । ( 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे ५३३ पृष्ठे वक्तव्यता ता सम्ममुपादानं समुदा समुदा-अ कम्माणि उपादा असा समुना किरिया, सा दुविधा दे सोपधाया समुदायकिरिया सम्योपधाया समुदाय फिरिया श्राव० ४ अ० । समुदानक्रिया तु यत्कर्मप्रयोगगृहीतं समुदायावस्थे सत्यकृतिस्थित्यनुनापप्रदेशरूपतया यया यवस्थाप्यते सा समुदानक्रिया, सा च मिथ्यादृष्टेरारभ्य सूक्षमसंपरायं यावद्भवति । सूत्र० २ श्रु० २ ० । समुदाणचरग--समुदानचरक - पुं० । समुदानेन शिक्षया तथाविधाभिग्रहग्रहले साधी, सूत्र० २ ० २ अ० । समुदागिय सामुदानिक-पुं० समुदानं नाम-उच्चावचकुलेषु निशा तत्र सम्धः समुदानिक अध्यात्मादिभ्य इक रण || ६ | ३ | ७८ ॥ (सू० सि० ) इति इकण् प्रत्ययः । बृ०१ उ० २ प्रक्र० प्र० चू० । भैक्षगे-याञ्चायां भवः सामुदानिकः स्था० ४ ठा० २ उ० । इतस्ततो भिक्षाग्रहणे, भ० ७ श० १ उ० । समुदाय समुदाय पुं० | स्वामियोग्यादिसमस्त परिवारे, रा० समूहे, श्रा० चू० १ ० । स्था० । इतस्ततो मिक्षायाम्, भ्र० ७ ० १ ३० ।
"
समुद्द
समुदापार समुदाचार--पुं० पत्निनुष्ठाने, विपा० १ ० ३ श्र० । ज्ञा० । सूत्र० । श्रौ० ।
-- न० । सम्यगुदयं प्राप्ते, व्य० ६ उ० ।
समुदिएण समुदीर्णविशे० ।
4
समुद्द- समुद्र - पुं० | सह मुद्रया मर्यादया वर्तते इति समुद्रः । अनु० | स०| "देरो न वा" || ८ |२| ८० ॥ अस्य पाक्षिकत्वादत्र रेफस्य लोपनिषेधो न । प्रा० लवणादिके सागरे, को०] स० प्रशा० । जी० । सूत्र० । जलधौ, उत्त० ७ श्र० । जलराशी । अनु० ।
समुद्रद्विस्थानकमाह
चतुरा | अंतोमणुस्खेत्तस्स दो समुद्दा पाता, तं जहालपये चैव कालदे चेव (सू० १११) खा० २ ठा० ४ उ०
1
त्रयः समुद्राः-
तय समुद्दा पराईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तं जहा-कालोदे पुक्खरोदे सयंभुरमणे । तत्रो समुद्दा बहुमच्छकच्छभाऽऽइना पण्णत्ता, तं जहा - लवणे कालोदे सयंभुरमणे | (पू० १४६ )
"
प्रकृत्या स्वभावेनोकरसेन युद्धा इति क्रमेण येते द्वितीपतृतीयान्तमाः प्रथमद्वितीयान्तमाः समुद्रा बहुरा अन्ये स्वल्पजलचरा इति । उक्तं च-
"ल उमर व महोरया मा भणिया अप्पा सेसेसु भये, न य ते निम्मच्छया भणिया ॥ १ ॥ "
अन्यच्च-
"सपकाल मुद्दे सर्वभुमसे यति मच्छाओ श्रवसेससमुद्देसुं न हुंति मच्छा य मयग वा ॥ १ ॥ नस्थिति पउरभाव, पहुश्च न उ सव्वमच्छ्पडिसेहो । अप्पा सेसेसु भवे, न य ते निम्मच्छया भणिया ॥ २ ॥” इति । स्था० ३ ठा० १ उ० ।
चत्वारः समुद्राः-
चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तं जहा लत्रणोदए १ वारुणोदे २ खीरोदे २ प्रदे ४० ३८४ )
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समुद्रसूयतं नरं एकमेकं प्रति भो रसो येषां ते प्रकरसाः अतुल्यरसा इत्यर्थः सरसोकल्याणः । पाठान्तरे तु लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदः, निपातनादिति प्रथमः । वारुणी सुरा तया समानं वारुणं वारुणमुदकं यस्मिन् स वारुणोदः चतुर्थः, क्षीरवत्तथा घृतवदुद पत्र सशीनरो पञ्चमः प्रतोदः पशुः कालोक दस्वयम्भुरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षुरसा इति । उक्तश्च
वारुणिवरवीरवरो पर वो य होति पया। कालो पुखरउदही, सयंभुरमणौ य उद्गरसा ॥ १ ॥ " इति । स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
सप्त समुद्राः
गंदीसरवरस्स णं दीवस्स तो सत समुद्दा पत्ता,
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समुद्द
तं जहा - लबणे कालोदे पुक्खरोदे वारुणोदे खीरोदे घदेखोतोदे । ( सू० ५८०X ) स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
( ४५३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवसी जम्बूद्वीपबणसमुद्रस्तदनन्तरं धातकीखण्डाभिधानो द्वीपस्ततः कालादः समुद्रः तदनन्तरं पुष्करवरो द्वीप, दीप नामानः समुद्राः, ततः पुष्करवर समुद्रः, तदनन्तरं वरुणवरो द्वीपो बहणबरः समुद्रः, शीरवरो द्वीपः शीरोग समुद्रः क्षीरोदः- घृ
•
तरो द्वीपो प्रतोदः समुद्र, खुब डीप इयरः समुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः, पतेऽष्टावपि च समुद्रा एकप्रत्यवताराः, एकैकरूपा इति भावः । अत ऊर्ध्वं द्वीपाः समुद्राच त्रिप्रत्यवताराः, तद्यथा - अरुण इति - श्ररुणोऽरुणवरः अरुणवरावभासः, कुण्डलः कुण्डलयरः कुण्डलवरावभासः, रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास इत्यादि । एप चात्र क्रमः—गदीश्वरसमुद्रानन्तरम् अनयो द्वीपों ऽरुणः समुद्रः, ततोऽरुणधरो द्वीपो ऽरुणवरः समुद्र इत्यादि कियन्तः खलु नामग्राई द्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यते ?, ततस्तन्नामसंग्रहमाह -' चामरणवत्थे' त्यादि. गाथाद्वयम् यानि कानिचिदाभरणनामानि - हाराहाररत्नावसिकनकावलिप्रभृतीनि यानि च वस्त्रनामानि चीनांशुकप्रभृतीनि यानि च गन्धनामानि कोष्ठपुटादीनि यानि चोत्पलनामानि - जलरुहचन्द्रोदयातप्रमुखानि यानि च तिलकप्रमृतीनि वृक्षनामानि यानि च पद्मनामानि - शतपत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथियीनामानि पृथिवी रत्न सुकेत्यादीनि यानि च यानां निधीनां चतुईशानां चक्रव
रत्नानां मदादिकानां वर्षधरपर्वतादीनां पद्मादीनां इदानां गङ्गासिन्धुप्रभृतां नदीनां कच्छादीनां विजयानां मावदादीनां वक्षस्कारपर्वतानां सौधर्मादीनां कल्पानां शक्रादीनामिन्द्राणां देवकुरूत्तरमन्दराणामावासानां शका
सम्बन्धिनां मेरुप्रत्यासन्नादीनां कूटानां जुल्लहिमवदादिसम्बधिनां नक्षत्राणां कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्याएपनियां विप्रत्ययताराणि वक्तव्यानि । यद्यथा--हारो द्वीपो हारः समुद्रः, हारवरो द्वीपों हारवरः समुद्रः हारवरावभासो द्वीपो हारबरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्ताषद् वक्लव्याः यावत् सूयों द्वीपः सूर्यस्समुद्र, सूर्य द्वीप सूर्यवरस्समुद्रः सूर्यवरावभासो द्वीवो सूर्ययराषभासः समुङ्गः । उक्कं च जीवाभिगमचूर्णी अरुणाई दसमुद्दा तिपडोयारा " यावत् सूर्यवरावभासः समुद्रः, ततः सूर्यरावभासपरिक्षेपी देवो दीपस्ततो देवा समुद्रः तद नन्तरं नागो द्वीपो नागः समुद्रः, ततो यक्षां द्वीपो यशः समुद्रः, ततो भूतो द्वीपो भूतः समुद्रः स्वयम्भूरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः, एते पञ्च देवादयो डीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः एकरूपाः, न पुनरेषां प्रत्यवतारः, उक्रंच जगमग ते पञ्च द्वीपा पचमुद्रा - कप्रकारा इति जीवाभिगमसूत्रे ऽप्युक्तम्- " देवे नागे जपचे सूर सयंभूरमये च पक्केको देव भाविप तिपडोयारं नत्थि ति " इति । प्रज्ञा० १५ पद १ उ० । अष्टमबलदेव वासुदेवयो रामनारायणयोः पूर्वभवधर्माचार्ये,
1
3
,
समुद्दा स० । ति० । अन्धवृष्णेर्धारिणीकुक्षिजे पुत्रे, स्था० १० ठा० ३ उ० (स चारिष्टनेमेरन्तिकं प्रब्रज्य शत्रुञ्जयेऽनशमेन मृत्या शत्रुभये सिद्ध इत्यन्तानां प्रथम द्वितीयाध्य सूचितम्) नामकयाते शारिशिष्ये नं० नेमिनाथस्य पितरि पूर्ण नामास्य समुद्रविजय इति । कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
I
समुदघोस-समुद्रघोष - पुं० । स्वनामस्याते सूरी, पिं० । समुदजानी समुद्रयानी - खो० अधिगायां नाषि समुह- स्त्रो० ।
जाणीए चेव गावाए । नि० चू० १उ० ।
समुद्दतरण - समुद्रतरख नं० । समुद्रलङ्घने, “ तपःप्रसादाद्वचसः प्रसादाद्भर्तुश्च ते देवि ! तव प्रसादात् । साधुप्रसादाच पितुःप्रसादासी मया गोपदवत्समुद्रः ॥१॥ ०२ अधि० ।
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समुददगपूरग- समुद्रदकपूरक-पुं० जलधिवेलावर्धके चन्द्रे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
।
समुदच समुद्रदलपुं० श्रीपुरमगरवासिनि शोष तरि स्वनामख्याते मत्स्यबन्धके, विपा० १ ० ८ अ० । चतुर्थवासुदेवस्य पूर्वभवे जीये, मि० स० 'माया' शब्द उदाहृते स्वनामच्या सम्भ्रातरि ० ० १ अॅ०। আ० ० ম० ० धातकीडभर रस् राज्ञो भार्यायाः समुद्रदत्तायाः सुते, उत्त० १ ० । समुहपाल समुद्रपाल पुं० [स्वनामच्या पालितपुत्रे, उ०
२१ अ० ।
समुद्रपालनिक्षेपाभिधानायाह निर्युक्लिकृत्समुदेख पालियम, निक्खेवो चउक्कमो दुहा दव्वे । आगमनोआगमश्र, नो आगमओ य सो तिविहो । ४२३ । समुरपालियाऊ, वेतो भावओो उ नायन्यो । तो समुट्ठियमि, समुहपालिजमज्झयणं ॥ ४२४ ॥ गाथाद्वयं प्रतीतार्थमेव नवरं समुद्रपालनिक्षेप प्रस्तावे यत्समुद्रेण पालित इत्युक्तं तत्समुद्रपाल इत्यत्र समुद्रेण पालयते स्मेति समुद्रपाल इति व्युत्पत्तिरूपापनार्थमिति गाथाद्वयार्थः। गतो नाम निष्पक्ष निक्षेपः ।
सूत्र '
सति -
,
सम्पति सूत्रालापनिपावसरः स च इति सूत्रानुगमे सूत्रधारणीयम् चंपाए पालिए नाम सावए आसि वाणिए । महावीरस्स भगाओ, सीसो सो उ महप्पणो ॥ १ ॥ निग्गंथे पावयणे, सावए से वि कोविए । पोएण वबहारते, पिहुंडे नगरमागम् ।। २ ।। पिहुंडे बहरंतस्स, वाणिश्रो देह धूवरं । तं ससत्तं पइग्गिज्झ, सदेसं अह पत्थिए || ३ || मह पालियस परिणी, समुदम्मि पसवई । अह दार तर्हि जाए, समुहपालि चि खामए ॥ ४ ॥ मेय भागए पंप, सायद बाखिए परं । संबइ घरे तस्स दारए से सुहोइए ।। ५ ।।
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समुद्दपाल अभिधानराजेन्द्र।।
समुहपाल बावत्तरी कलाओ, सिक्खिए नीइकोविए।
यद्वा-वध्यगमिह वध्यशम्देनोपचाराद्वध्यभूमिरुक्ता तथाविध जोवणेण य अप्फुणे, सुरूवे पियदसणे ॥६॥
वध्यं हटा संबेगः संसारवैमुख्यतो मुक्त्यभिलाषस्तद्धेतुत्यात्
सोऽपि संवेगस्तं समुद्रपाल इदम्-वक्ष्यमाणमब्रवीत् , यथातस्स रूववई भजं, पिया आणइ रूविणिं ।
अहो अशुभानां कर्मणां-पापानामनुष्ठानानां निर्याणम्-अबपासाए कीलए रम्मे, देवो दोगुंदओ जहा ॥७॥ सानं पापकम् अशुभमिद-प्रत्यक्ष यदसौ वराको वधार्थमित्थं अह अप्पया कयाई, पासायालोयणे ठियो।
मीयते इति भावः , एवं परिभावयन् संबुद्धः-अवगततस्वः
स वणिकपुत्रस्तति तस्मिन्नेव प्रासादालोकने भगवान्माहावज्झममणसोभाग, वझं पासइ बझगं ॥८॥
त्म्यवान् माहात्म्येऽपि भगवच्छब्दस्य दर्शनात्परं-प्रकृष्ट संवे. तं पासिऊण संविग्गे, समुद्दपालो (इ) णमन्बवी ।
गमागतस्ततश्चापृच्छय मातापितरौ 'पव्वए 'त्ति-प्रावाअहोऽसुभाण कम्माणं, निजाणे पावए इमं ।। ६॥ जीत-प्रकर्षेण गतवान् , कोऽर्थः ?, प्रतिपन्नवान् ,अनगारि संयुद्धो सो तहिं भगवं, परं संवेगमागमो।
तां-निःसङ्गतामिति सूत्रदशकार्थः । पापुच्छ अम्मापियरो, पब्बइए भणगारियं ॥ १०॥ सम्प्रत्यनुवादोऽपि स्पष्टताहेतुर्व्याख्यानमिति ख्यापनायवो
नमेवार्थमनुवदन् विशेषं च बदन्नाह नियुक्तिकृत्सूत्राणि देश इदमुत्तरं चाध्ययनं क्वचित्सोपस्कारतया व्याख्यास्यते-चम्पायां-चम्पाभिधानायां पुरि पालितो नाम
चंपाए सत्थवाहो, नामेणं आसि पालगो नाम । सार्थवाहः श्रावकः श्रमणोपासकः आसीद्-अभूद् । वणिगेव
वीरवरस्स भगवओ, सो सीसो खीणमोहस्स ॥४२शा घाणिजो-वणिग्जातिर्महावीरस्य भगवतः शिष्यो-विनेयः अह अन्नया कयाई, पोएणं गणिमधरिम-भरिएणं । . 'स' इति सः तुर्विशेषणे, महात्मनः--प्रशस्यात्मनः स च
तो नगरं संपत्तो, पे (पि ) हुंडं नामनामेणं ॥ ४२६।। कीदृग् ?, इत्याह-'निम्गंथ' त्ति-नर्ग्रन्थे-निग्रन्थसम्बन्धिनि 'पावयणि' त्ति-प्रवचन श्रावकः 'स' इति-पालितो विशे
ववहरमाणस्स तहिं, पहुंडे देइ वाणिो धृयं । पेण कोविदः-पण्डितो विकाविदः, कोऽर्थः, विदितजीवा
तं पि य पत्तिं घेत्तू-ण णिग्गो सो सदेसस्स ॥४२७।। दिपदार्थः पोतेन व्यवहरन् प्रवहणवाणिज्यं कुर्वन् 'पिहुंड' अह सा सत्थाहसुया, समुद्दमज्झम्मि पसबई पुतं । पिहुण्डनामक नगरमागतः-प्राप्तः, तत्र च पिहुण्डे व्यवहर- पियदंसणसव्वंगं, नामेण समुद्दपालि ति ।। ४२८॥ ते तद्गुणाकृष्टचेताः कश्चिद्वाणिजो ददाति-यच्छति 'धूयर'
खेमेणं संपत्तो, सो पालिय सावो घरं निययं । ति-दुहितरमुदृढवांश्च तामसौ स्थित्वा च तत्र कियम्तमपि कालं तां ससत्वामित्यापन्नसत्त्वां परिगृह्य-श्रादाय स्वदेशम
धाइदसद्धपरिवुडो, अह वड्डइ सो उदहिनामो ॥४२६।। थानन्तरं प्रस्थितःचलितः, तत्र चागच्छतोऽथ पालितस्य बावत्तरि कलाओ, य सिक्खिो नीइकोविदो जाहे । गृहिणी समुद्रे-जलधौ प्रसूते-गर्भ विमुञ्चति स्मेति शेषः। तो जोव्वणमप्फुनो,जाओ पियदंसणो अहियं ।।४३०॥ 'अथे' त्युपन्यासे, दारकः सुतस्तस्मिन्निति प्रसयने जातः
अह तस्स पिया पत्ति, आणेई रूविणि त्ति नामेणं । उत्पन्नः 'समुद्रपाल' इति नामतो नामाश्रित्य क्रमेण चागछन् क्षेमेण-कुशलेनागतश्चम्पायां श्रावको वणिजो 'घर' ति
चउसद्विगुणोवेयं, अमरवहणं सरिसरूवं ।। ४३१ ।। चस्य गम्यमानत्वाद् गृहं च स्वकीय कृतं च तत्र वर्धापन- अह रूविणी य सहितो,कीलइ सो भवणपुंडरीयम्मि । कादि संवर्द्धते च गृह-बेश्मनि तस्येति पालिताभिधानबरिण- दोगुंदगु ब्व देवो, किंकरपरिवारिभो निच्चं ।।४३२ ॥ जा दारकः स सुखोचितः सुकुमारः, एवं च प्राप्तः कलाग्रह- अह अभया कयाई, ओलोयणसंठिो सदेवीओ । णयोग्यतां द्विसप्ततिकलाश्च शिक्षितः शिक्षते वा पाठान्तरतः । जातश्च नीतिकोविदो-नयाभिशः 'जोब्बणेण य श्र
बझ नीणिजंतं, अन्निजंतं जणसएहिं ॥४३३।। प्फुराणे' त्ति-चस्य भिषक्रमत्वात् यौवनेनापूर्णश्च परिपूर्णश. अह भणइ सन्निनाणी, भीओ संसारियाण दुक्खाणं ।
रश्च, पठ्यते च- जोब्वगण य संपले 'सि-तत्र च संप- नीयाण पावकम्मा-ण हा जहा पावगं इणमो।।४३४॥ मो-युक्तोऽत एव सुरूपः सुसंस्थानः प्रियदर्शनः-सर्वस्यैवानन्ददाता परिणयनयोग्यतां च तस्य विज्ञाय रूपवती-विशि
संबुद्धो सो भगवं, संवेगमणुत्तरं च संपत्तो। राकृति भार्या पत्नी पिता पालितबरिणगानयति तथाविध
आपुच्छिऊण जणए, निक्खंतो खायजसकित्ती ।४२५॥ रूपिणी कुलादागमयति, रूपिणीनाम्नी परिणायितश्च ता- गाथा एकादश व्याख्यातमाया एव, नवरं वीरवरस्स' मसौ प्रासादे क्रीडति-रमते तया सह रम्ये-(अ) रतिहेतौ त्ति-नामतोऽन्येऽपि वीराः सम्भवन्ति , स तु भगवान् देवो दुगुन्दको यथा, अथ अन्यदा कदाचित् प्रासादालो- भावतोऽपि 'वीर' इति प्राधान्यस्यापकं वरग्रहणम् , अनेकने उक्तरूपे स्थितः सन् वधमहति वध्यस्तस्य मण्ड- न भगवत्समकालतामप्यस्य दर्शयति- गणिमधरिमभमानि-रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभा-तत्कालोचित- रिएणं' ति-गणिम-पूगफलादि धरिम-सुवर्णादि प्रियदर्शपरभागलक्षणा यस्यासौ वध्यमण्डनशोभाकस्तं वयं-व- नानि-सकलजनाभिमतावलोकनानि सर्वाण्यङ्गानि शिरउर:धाई कंचन तथाविधाकार्यकारिणं पश्यति बाह्य-नगरबहि- प्रभृतीन्यस्येति प्रियदर्शनसर्वाङ्गस्तं 'धातीदसद्धपरिवुड' त्ति पर्तिप्रदेशं गच्छतीति बाह्यगस्तं कोऽर्थों यदिनिष्कामन्तम् , दशा धात्रीपरिवृतो दशार्द्ध च पश्च ताश्च क्षीरमजनम
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समुद्दपाल अभिधानराजेन्द्रः।
'समुद्दपाल एडनक्रीडनाङ्का धाध्यः उदधिनामा उदधिसमानार्थसमुद्रप
सीयंति जत्था बहुकायरा नरा। दोपलक्षिताभिधानः समुद्रपालनामेति यावत् ' जोव्वणम
से तत्थ पत्ते न वहिज भिक्खू , फुरण त्ति-मकारोऽलाक्षणिकः जातः प्रियदर्शनोऽधिकमित्यतिशयन सविशेषलाबरायहेतुत्वाद् यौवनस्य चतु
संगामसीसे इव नागराया ॥ १७॥ षष्टिगुणा अश्वशिक्षादिकलाटकरहिताः कला एव विज्ञा- सीयोसिया दंसमसगा य फासा , नापरनामिका उच्यन्ते, भवनपुण्डरीक-भवनप्रधाने पुराड -
आतंका विविहा फुसंति देहं । रीकशब्दस्यह प्रशंसावचनत्वात् वध्यं पश्यन्तीति शेषः। 'नीगिजंतं ' ति-नीयमानं ' अमिजंतं ' ति-अन्वीय
अकुक्कुप्रो तत्थ हि आसएज्जा, मानम्-अनुगम्यमानं जनशतैरविवेकिभिरिति गम्यते, प
स्याइ खेवेज पुरा कडाई ॥ १८ ॥ ठन्ति च-' वज्झ नीणिजंतं, पेच्छति तो सो जणवएहिं ' ति पहाय रागं च तहेब दोसं, स्पष्टम् संशी-सम्यग्दृष्टिः स चासौ ज्ञानी च संशिज्ञानी
___ मोहं च भिक्खू सययं वियरवणे । भीतस्त्रस्तः सन् संसारिकेभ्यो दुःखभ्य इति आपत्याच्च सुब्ब्यत्ययः , किं भणति , इत्याह-नीचानां-निकृष्टानां ,
मेरु व्य वाएण अकंपमाणे, पापकर्मणां-पापहेत्वनुष्ठानानां चौर्यादीनां 'हा' इति खेदे परीसहे आयगुत्ते सहेजा ॥१६॥ यथा पापकं फलमिति गम्यते, 'इणमा' त्ति-द-प्रत्य- अणुन्नए नावणए महेसी, तम् , किमुक्तं भर्यात-यथाऽस्य चोरस्यानि, फलं पापकर्म
नेया वि पूर्य गरहं च संजए । णां तथाऽस्मादेशामपीति नियुक्तिगाथैकादशकार्थः ।
से उज्जुभावं पडिबञ्ज संजए, प्रवज्य च यदसौ कृतबाँस्तदाह सूत्रकृत्
णिव्याणमग्गं विरए उवेइ ।। २०॥ जहाय सङ्गत्थमहाकिलेसं,
अरइरइसहे पहीणसंथवे, महंतमोहं कसिणं भयाणगं।
विरए प्रायहिए पहाणवं । परियायधम्मं च भिरोयएज्जा,
परमट्ठपहे हि चिट्ठइ, वयाइँ सीलाई परिस्सहे य ।। ११ ॥
छिम्मसोए अममे अकिंचणे ॥ २१ ॥ अहिसं सच्चं च अतेणगं च,
विवित्तलगणाइँ भइज्जताई, तत्तो अबंभं अपरिग्गहं च ।
निरोवलेवाइँ असंथडाई। परिवजिया पंच महब्वयाई,
इसीहि चिरणाइँ महाजसेहि, चरिज धम्म जिणदेसियं विऊ ॥ १२ ॥
काएण फासेज परीसहाई ॥२२॥ सव्वेहि भूएहिं दयाणुकंपे,
सरणाणणाणोवगए महेसी, खतिक्खमे संजय बंभचारी।
अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । सावजजोगं परिवजयंतो,
अणुत्तरे णाणधरे जसंसी, __ चरिज भिक्खू सुसमाहि इंदिए ॥ १३ ॥
ओहावई सूरिए बंतलिक्खे ।। २३ ॥ कालेण कालं विहरिज रहे,
त्रयोदश सूत्राणि प्रायः सुगमान्येव , नवरं हित्वा-त्यक्त्व। बलाबलं जाणिय अप्पणो य ।
संश्चासौ ग्रन्थश्च सद्ग्रन्थः प्राकृतत्वाद् बिन्दुलोपस्तं , पठ सीहो व सद्देण ण संतसज्जा,
न्ति च-'जहित्तु संगं च' त्ति 'जहाय संगं च' तिचा उभयत्र वयजोग सोचा ण असब्भमाहु ।। १४ ॥ हित्वा सङ्गं स्वजनादिप्रतिबन्धं चः पूरणे निपातः, महान् उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा,
क्लशो यस्माद्यस्मिन् वा तं महाक्लेशम् ' महंतमोहं' तिपियमप्पियं सव्वं तितिक्खएज्जा ।
माहान्मोहः-अभिष्वङ्गो यस्मिन् यतो वा तं तथाविध कसिणं
ति-कृत्स्नं कृष्णं वा कृष्णलेश्यापरिणामहेतुत्वेन भयानक ण सव्य सव्वत्थ ऽभिरोयएजा,
महाक्लेशादिरूपत्वादेव विवेकिनां भयावहम् । 'परियाय' त्तिन यावि पूर्य गरिहं च संजए ॥ १५ ॥
प्रक्रमात्प्रवज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मस्तं, चशब्दः पादअणेगळंदा मिहमाणवेहिं,
पूरण, 'अभिरोयएज्ज' त्ति-श्रापवाद ह्यस्तन्यर्थ सप्तमीजे भावो से पकरेति भिक्खू ।
तताऽभ्यरोचत-अभिरुचितवाँस्तदनुष्ठानविषयां प्रीति कृ. भय भेरवा तत्थ उविति भीमा,
तवान उपदेशरूपतां च तन्त्र न्यायेन ख्यापयितुमित्थं प्रयोगः
यद्वा-श्रात्मानमवायमनुशास्ति यथा हे श्रात्मन् ! सनं त्य__ दिव्या मणुस्सा अदुधा तिरिच्छा ।। १६ ।।
फवा प्रवाज्याधर्ममभिराचयेद् भवानेवमुत्तरक्रियास्वपि यपरिम्महा दुब्बिसहा अणेगे,
। थासम्भवं भावनीयम् । प्रवयापर्यायधर्ममेव विशेषत पाह
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समुदपाल अभिधानराजेन्द्रः।
समुद्दपाल प्रतानि-महाव्रतानि शीलानि-पिण्डविशुद्ध्याद्युत्तरगुणरूपा- (व्यथेत् स्यात् )व्यथाभीतश्चलितो वा सत्त्वाद् भिक्षुः सन् णि परीषहानिति भीमसनन्यायेन परिपहसहनानि च । एत- संग्रामशीर्ष-युद्धप्रकर्ष इव नागराजो-हस्तिराजः स्पर्शारतदभिरुच्य तदनन्तरं च यत्कृतवांस्तदाह-अहिंसा सत्यमस्ते. स्पर्शादयः श्रातङ्काः-रोगाः स्पृशस्ति-उपतापयन्ति कुकम्यकंच'ततो य बंभं अपरिग्गहंच'ति-ततश्च ब्रह्मचर्य- यत्ति आर्षत्यात कुत्सितं कजति-पीडितः सन्मादतिकमारप्रहं च प्रतिपद्य-अङ्गीकृत्य 'अबंभपरिग्गहं च' इति तु कृजो न तथत्यकुकजः, पठ्यते च-'अककरि'सि-कदाचिदपाठे परिवयं चेत्यध्याहार्य पञ्च महावतानि-उक्तरूपाणि नाकुलितोऽपि न कर्करायितकारी, अनेन चानन्तरसूत्रोक्ल ए. 'चरिज'सि-प्राग्यनरत् नाङ्गीकृत्यैव तिष्ठेदिति भावः,धर्म। चार्थो विस्पष्टतार्थमन्वयेनोक्नः,एवंविधश्च स रजांसीवरजांसि श्रतचारित्ररूपं जिनदेशितं विउ' त्ति-विद्वान् जानानः। जीवमालिन्यहेतुतया कर्माणि 'खवज्ज' त्ति-अक्षिपत् परी'सब्बेहिं भूतेहिं ' सुषव्यत्यात् सर्वेष्वशेषेषु प्राणिषु दयया- बहसहनादिभिः क्षिप्तवान् , 'मोह (म्) इति-मिथ्यात्यहा. हितोपदेशादिदानात्मिकया रक्षणरूपया था अनुकम्पनशीलो स्यादिरूपाऽक्षानं या गृह्यते, आत्मना गुप्त आत्मगुप्तः कूर्मदयानुकम्पी पाठान्तरतो दयानुकम्पो वा क्षामत्या न त्यशक्त्या वत संकुचितसर्वाः अनन परीषहसहनोपाय उक्तः, किश्चसमते प्रत्यनीकाघदीरित दवंचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः,
| 'न यावि पूर्य गरिहं च संजय 'त्ति-न चापि पूजां गहीं च
न यावि पयं गरिहं च मजयनि-नना संयत इति संयतः,स चासो ब्रह्मचारी च संयतब्रह्मचारी पूर्व प्रतीति शेषः असजत्-सहं विहितवान् , तत्र च अनुन्नतत्य. ब्रह्मप्रतिपस्यागत्वेऽपि ब्रह्मचारीत्यभिधानं ब्रह्मचर्यस्य दुग्नु. मनयनतत्वं च हेतुर्भावत उन्नता हि पूजां प्रति अवनतश्च गचरवण्यापनार्थम् ,अनेन च मूलगुणरक्षणोपाय उक्तः। काले- हाँ प्रति सबै कुर्यान्त्वन्यथेति भावः , पूर्वत्राभिरुचिनिषध गग कालं' ति-रूढितः काले-प्रस्ताव , यद्वा-कालन-पा- उक्तः इह तु सास्यति पूर्वस्माद्विशेषः, स इति-स एवंगुण: दोनपौरुण्यादिना कालामति कालोचितं प्रत्युपेक्षणादि कु- जुभायम्-आर्जवं प्रतिपद्य-अङ्गीकृत्य संयतो निर्वाणमार्ग वनिति शेषः , राष्टे-मण्डले बलाबलं सहिष्णुत्वासहिष्णु- सम्यग्दर्शनादिरूपं विरतः सन्नुपैति विशेषेण प्राप्नोति, कस्वलक्षणं ज्ञात्वाऽऽत्मना यथा यथा संयमयोगहानिन जाय- तमाननिर्देशः इहोत्तरत्र च प्राग्यत्ततः स तदा कीदृशः किं
तथा तथेत्यभिप्रायः, अन्यश्च सिंहवच्छन्दन-प्रस्तावा- करोतीत्याह-अतिरती संयमासंयमविषये सहतेन ताभ्यां अयात्पादकन न समत्रस्यन्नव सत्त्वाचालतवान् , सिंह- वाध्यत इत्यरतिरतिसहः 'पहीणसंथवे' त्ति-प्रक्षीणसंस्तवः दृष्टान्ताभिधानं च तस्य सात्त्विकत्वेनातिस्थिरत्वादत एव संस्तवहीणो वा संस्तयश्च पूर्वपश्चात्संस्तवरूपा बचनसंवावाग्योगम्-अर्थाद दुःखोत्पादकं 'सोच'त्ति--श्रुन्यान-नैवा. सरूपो वा गृहिभिः सह, प्रधानः स च संयमो मुक्तिहेतुत्वासभ्यमश्लीलरूपम 'पाहुत्ति-उक्तवान् । तर्हि किमयमकरा. त् यस्यास्त्यसौ प्रधानवान् परमः प्रधानाऽर्थः पुरुषार्थों वादित्याह-उपेक्षमाणस्तमवधीरयन् पर्यव्रजत् तथा नियमनुकू नयोः कर्मधारय परमार्थों मोक्षः,स पद्यते-गम्यते यैस्तानि. लमनियमननुकूलं ' सब्बं तितिक्खएज' ति-सर्व- परमार्थपदानि सम्यग्दर्शनादीनि सुच्यत्ययात् तेषु तिष्ठति मतितिक्षत-सोढयान् । किञ्च न सव्व' त्ति-सर्व वस्तु अविराधकतयाऽऽस्ते ' छिन्नसोय 'त्ति छिन्नशाकः छिन्नासर्वत्र स्थानऽभ्यरोचयत न यथा दृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति नि वा श्रोतांसीव श्रोतांसि-मिथ्यादर्शनादीनि येनासी भावः । यदि घा-यदेकत्र पुशलम्बनतः सेवितं न तत्सर्वमभिः छिन्नश्रोताः, अत एव श्रममा-ऽकिञ्चनः, इह च संयमधिमताहारादि सर्वत्राभिलषितवान् , नचापि पूजा गहीं था। शेषाणामानम्त्यात्तदभिधायिपदानां पुनः पुनर्वचनेऽपि न उभ्यरोचयतेति सम्बन्धः, इह च गहातोऽपि कर्मक्षय इति पौनरुक्त्यं , तथा विविक्तलयनानि-स्यादिविरहितोपाश्र. केचिदतस्तन्ममध्यवच्छेदार्थ गहांग्रहण , यद्वा-गर्हा-परा. यरूपाणि विविक्तवादव च 'निरोवलवाई 'ति-निरुपलेपापवादरूपा, ननु भिक्षोपि किमन्यथाभावः सम्भर्यात?.येने नि-अभिप्वकरूपापलेपवर्जितानि भावतो व्यतस्तु तदर्थ स्थमित्थं च तद्गुणाभिधानमित्याह-'अणेग' ति-वृत्ताच नोपलिप्तानि असंसृतानि-योजादिभिरब्याप्तानि अत एव तत्रच 'अणेग' लि-अनेके छन्दाः-अभिप्रायाः सम्भय. च निर्दोषतया ऋषिभिः-मुनिभिश्चीर्णान्यासवितानि , न्तीति गम्यत, 'मिह 'ति-मकारोऽलाक्षणिकः, इह जगति चीर्णशब्दस्य तु सुचीर्ण प्रोषितव्रतमितिवत्साधुता 'फा'माणवेहि' ति-सुव्यत्ययान मानवेषु 'ये' इति याननेकान् । सिज' त्ति-अस्पृशत्-सोढयानित्यर्थः पुनः पुनः पछन्दानुभावतस्तत्त्ववृस्यौदयिकादिभावतो वा स प्रकरो. रीघहस्पर्शनाभिधानमतिशयख्यापनार्थम् , ततः स कीदृगति भृशं विधसे । भिक्खु ' त्ति-अपिशब्दस्य गम्य भूदित्याह 'स' इति समुद्रपालनामा मुनि नमिह श्रुतमानत्वात् भिरपि-अनगारोऽपि सन् श्रत इत्थमित्थं ज्ञानं तन ज्ञानम्-अवगमः प्रक्रमाद्यथावत् क्रियाकलापव तहणभिधानमिति भावः । अपरं च-' भयभरया' स्य तेनापगता युक्नो ज्ञानज्ञानोपगतः , पाठान्तरतः सभयोत्पादकत्वेन भीषणास्तति ब्रह्मप्रतिपत्ती 'उति' न्ति-शोभनानि ननित्यनेकरूपाणि ज्ञानानि सत्यागपर्याति-उद्यन्ति उदयं यान्ति पटयतेच-'उयेति' ति-उपयन्ति यधर्माभिरुचितत्याद्यवबोधात्मकानि तैरुपगतः सन् माभयभैरवा इत्यनेनापि गते-भीमा इति पुनरभिधानतिरी नाज्ञानापगतः धर्मसञ्चयं-क्षान्त्यादितिधर्मसमुदयम् 'अणुद्रताख्यापनायोक्नं,दिव्या इत्यादावुपसर्गा इति गम्यते । 'ति- तर गाणधरि' त्ति-एकारस्यालाक्षणिकत्वादनुत्तरमान-करिच्छत्ति तेरश्चाः तथा 'परीसह त्ति-परीवहांश्च उद्यन्तीति वलाख्यं तद्धारयत्यनुत्तरज्ञानधरः, पठ्यते च-'गुणुत्तरे गणासम्बन्धः,सीदन्ति-संयम प्रति शिथिलीभवन्ति 'जस्थ' त्ति- रित्ति-तत्र च गुणोत्तरी-गुणप्रधानो सानं प्रस्तावात् यत्र येषूपसर्गेषु परीषहेषुच सत्सु 'से' इति-सतत्र तेषु'पत्त' कयलज्ञानं तद्धरः,एकारस्यालाक्षणिकत्वाद् गुणासरं यज्ज्ञानं नि ननणययान्, प्राप्तेषु प्रामो यानुभवनद्वारेरणायातो न तद्धरो वाऽत गव यशस्वी 'श्रोभासदयसिअवभासते-y
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समुद्दपाल
काश सूर्यवदन्तरिक्षे यथा नमसि सूर्योऽबभासते तथा असावप्युत्पचकेवलज्ञान इति त्रयोदार्थः ।
सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरस्तस्यैव फलमाह - दुविहं खऊण व पुनपावर्थ, निरंज स तरिता समुदं व महाभवोर्ष,
विप्पमुके ।
( ४६३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
समुदपाले अपुणागमं गए ॥ २४ ॥ द्विविधेभिघातिकर्मभवोपद्माहिमेदेन पुरुषार्थ-शुभाशुभप्रकृतिरूपं निरञ्जन:- कर्मसङ्गरहितः पयते च 'निरं गणो' प्ति - अगेर्गत्यर्थत्वानिरङ्गनः - प्रस्तावात् संयमं प्रति निश्चलः शैश्यवस्थाप्राप्त इति यावत् अत एव सर्वत इति बाह्यादान्तराय प्रमादभिष्वङ्गदेत्कृष् समुद्रमिव अतिदुस्तरतया महांवासी भयोषश्च देवादिभबसमूहले शेर्पा स्पष्टमिति सूत्रार्थः ।
"
श्रमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह निर्युक्लिकृत्काऊण तवच्चरणं, बहूणि वासाखि सो धुयकिलेसो । तं ठाणं संपत्तो, जं संपत्ता न सोयंति ॥ ३५ ॥ सुगममेय, 'इति' परिसमाप्ती प्रीमीति पूर्ववत्। उक्रोनुगमः, संप्रति नयास्तेऽपि प्राग्वद् । उत्त० २१ श्र० । समुद्रवभूष-समुद्रभूत भि० जलधिशब्दमा विपा० १ श्रु० ३ श्र० । भ० ।
समुद्दलक्खा-समुद्रलिचा श्र० द्वीन्द्रियजीयमेदे ०१ समुदाय समुद्रवाचक पुं० बाचकपरे समुद्राच्यामा
।
० ० १ ० 1
समुपायस समुद्रवायस ० समुदविजय- समुद्रविजय पुं०
||
चर्मपक्षिमे जी० १ प्रति । [सीपुरे वाराणां मध्ये ज्येष्ठ दशारे नेमिनाथस्वामिनः पितरि उत्त० २२ अ० । ० खू० । स० । अष० । प्रा० म० । अन्त० आ० क० । दश० । अट्ठारस्यसहस्सा, सीसा आसि रिडुनेमिस्स | कराहेण पथमियम्मिय, सिवा समुद्देश तययस्स ! ति० | प्रब० । कल्प० । वासुदेवपितरि आव० १ ० । समुद्दवीइ- समुद्रवीचि - स्त्री० । सागरतरङ्गे, तं० । समुद्दरि - समुद्रसूरि - पुं० । खनामख्याते कस्यचित्प्रतिष्ठाकरूपविशेषस्य कर्त्तरि आचार्ये, जीवा०२ अधि०१३ गाथा डी० समुद्दिस्स - समुद्दिश्य - अव्य० । सम्यगुद्दिश्य प्रतिज्ञायेत्यर्थे, आचा० २ ० १ ० २ ० १ ३० । श्रधिकृत्येत्यर्थे (वा० ) आश्रित्येत्यर्थे, श्राचा० १ ० ८ ० २७० । समुद्दिस्मित- समुद्देषम् अव्य० योगसामाया स्थिर - । रिचितं कुर्विदमित वकुमित्यर्थे, स्था० २ ठा० १ उ० । समुद्देस--समुद्देश - पुं० । व्याख्यायाम्, व्य० १ ३० । श्रा० म० । जीत० । शिष्येण हीनादिलक्षणोपेते अधीते गुरोर्निवेदिते स्थिपरिथितं कुर्विमिति गुरुवचनविशेषे अनुसमुद्देशवि धिः - अङ्गादिसमुद्देशेऽप्ययमेव समुदेऽप्ययमेव विधियो नवरं पूर्व प्रवेदि ते योगं कुर्वयुक्रमत्र तु खिरपरिचित कृति पति योग
9
समुयाय पकायोत्सर्गी नन्द्याकर्ष प्रदक्षिणात्र पविधिश्वन क्रियते शेषः सप्तचन्दनकारिको विधिस्तथैव। अनु० दश० (अधिकं 'जोगविधि' शब्दे चतुर्थभागे १६४५ पृष्ठे उक्तम् ) भोजने, ग० । जत्थ समुदे (द्दे ) सकाले, साहूणं मंडलीइ अजाश्रो । गोम ! ठति पाए, इत्थीरअं न तं गच्छं ॥६६॥ यत्र-गणे समुद्देशकाले - भोजनसमये साधूनां मण्डल्याम आर्या :- संयत्यः पादी स्थापयन्ति मां समानतीर्थ हे इन्द्रभूत खीराज्यं जानीहि च्हम् अत्र समुद्देशशब्देन भोजनमुच्यते पतोषनिर्युक्रिती । तथाहि
66
जइ पुरा विश्रालपत्ता, य एव पत्ता उवस्सया ए लभे । सुधरे देउवा उखाने या अपरिभोगे " ॥ १ ॥
यदि पुनर्विकाल एव प्राप्तास्ततश्च तेषां विकालवेलायां घसती प्रविशतां प्रमादहतो दोषो न भवति य एव पस' लिये चैवाप्रत्युपस्येव प्राप्ताः किं तु उपाश्रयं न ल ततः समुदयन्तु शून्यदेवले या उद्याने था अपरिभोगे लोकपरिभोगरहित समुद्दिन्तीति क्रियां वचपति "आपापचिलिमिलाप, रखे वा सिम्भए समुद्दिस ।
39
सभए पच्छन्नाऽसह, कमढगकुरुया य संतरिया ॥ १ ॥ अथ शून्यगृहादी सामारिकाणामापातोभति ततःपाते सात चिलिमिली जवनी च दीयते, 'रसे व 'त्ति-श्र
शून्यगृहादि सागारिकाक्रान्तं ततोऽरखे नि समुद्दिशनं क्रियते, सभये अरण्ये प्रच्छन्नस्य वा असति श्रभावे ततो यसतिसमीप एव कमडकेषु शुकेन सेपेन समायाभ्यन्तरेषु कुरुकुचा पादप्रक्षालनादि कि सान्तराः- सावकाशा वृहदन्तराला उपविश्य इदानीं भुक्त्वा यदि पुनर्विकाले वसतिमन्विषन्तीत्यादि गाथाच्छन्दः ॥२६॥ ग० २ अधि० । समुद्धिय-समुद्धृत- 1
- त्रि० सम्- एकीभावेनाविप्रतिपत्या उद्धृता समुद्धृताः । षो०१६ विष० । उत्क्षिप्तेषु, प्रश्न०४ श्राश्र० द्वार । समुपविट्ठ समुपविष्ट - वि० सम्पक परस्परानाबाधा उप विष्टाः समुपविष्टाः । सम्यवस्थितेषु, जी० ३ प्रति०४ अधि०। समुपे हिय-- समुपेक्ष्य - अव्य० । सम्यग् दृष्ट्रस्यर्थे, दश० ७ ० । समुपयण समुत्पन्न - ० जाते, सू० १ ० १०० नि० । सिद्धे, प्रव० ३५ द्वार । प्राप्ते, कल्प० १ अधि० १ क्षण । समुप्यनुकाम समुत्पनुकाम भि० उत्पथुमिच्छी स्था । ४ ठा० २ उ० । भवितुकामे, स्था० ५ ठा० १ उ० । समुप्पाय-समुत्पाद- पुं० प्रादुभीषे, सूत्र०१ ०१ ० ३ ३० । समुप्पेक्ख माग- समुत्प्रेचमाण- त्रि० निरूपयति
3
। शा० १
1
श्रु० १ श्र० । समुदाय समुपगत- वि० समीपमुपगते, व्य० ४४० । समुब्भव-समुद्भव - पुं० । उत्पत्ती, विशे० । दशा० । o । । समुम्भूयसमुद्भूतथि प्रतिप्रबलत पोत्य, स्था०४०१४० समुदाय समुदाननये, याचायाम्, स्था० ४०२४० | समुयाय समुदाय ५० । वृन्दे, अनु०।
-
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समुल्लाव अभिधानराजेन्द्रः।
समोयार समलाव--समल्लाप--पुं० । जल्पे, झा० १ श्रु० ३०ा प्रमाणिते, वणियाप्रो०जाव से तं भवियसरीरदब्बसमोयारे । से किं विपा०१ श्रु०७० श्रा० म०।
तं जाणगसरीरभविसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे १, दबसम्वदिय-समुपस्थित-त्रि० । सम्यगुपस्थिते, उत्त०२४ अ०। सतिविहे परमत्ते,तं जहा-आयसमोयारे परसमोयारे तदुममुवसंपल्म-समुपसंपन्न-त्रि०। सामांत-सम्यग्यहवृत्त्या सवथा भयसमोयारे । सव्वदच्या विणं आयसमोरणं आयभासमर्पणरूपया उपपन्नः । सम्यक सामीप्यमागते,ध०३अधि।
वे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमुवागय-समुपागत-त्रि० । समायाते, भ० ११ श० १२ उ०।
समोयारणं जहा घरे खंभो आयभावे अ, जहा घडे गीवा समुबहमाण-समुपेक्षमाण-त्रिका पश्यति,प्राचा०१ श्रु०५ अण
आयभावे अ । अहवा जाणगसरीरभविसरीरवइरित्ते समुसरण-समवसरण-न० । तीर्थकृतां सदेवमनुजासुरायां
दव्वसमोयारे दुविहे पम्मत्ते,तं जहा-अायसमोयारे अ, तपदि, पिं०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'पिंड ' शब्द पश्चमभागे
दुभयसमोयारे अ । चउसद्विा आयसमोयारेणं प्रायभावे गता।) ममुस्सय-समुच्छुय-पुं० । काये, आव०५०। सूत्र० । क- समोयरइ , तदुभयसमोतारेणं बत्तीसियाए समोभरइ , मोपचये, प्राचा०१ श्रु०४१०४ उ० ।
पायभावे अ बत्तीसिया आयसमोतारेणं आयभावे समोममुस्सिय -समुत्सृत-त्रि० । सम्यगूर्वीकृते, रा।
तरइ, तदुभयसमोतारेणं सोलसिमाए समोअरइ मायभाममुह-सन्मुख-न० । “मांसादेर्वा" ॥ १।२६ ॥ इत्यनुस्वारस्य वे अ, सोलसिमा मायसमोसारेणं श्रायभावे समोअरह, पाक्षिको लोपः । समुहं । समुहं । प्रा० । अभिमुखे, रा। तदुभयसमोतारेणं अट्ठभाइभाए समोअरह भायभावे , ममहा-श्वमखिका-स्त्री० । शुनो मुखं श्वमुखं, तस्येवाचरणं अदुभाइया पायसमोआरेणं प्रायभावे समोभरह तदुभयश्वमुखिका । कोलेयकस्येव भषण, 'समुहि तुरियं चवलं ध. समोभारणं चउभाइमाए समोअरइ आयभावे भ, चउभामतं ति 'शुनो मुख श्यभुखं तस्यैवाचरणं श्वमुखिका-कोल इया पायसमोनारेणं मायभावे समोभरह, तभयसमोबायकस्येव भषणं स्थरितचपलम्-अतिचटुलतया धमन् शब्द कुन्नित्यर्थः । झा०१ श्रु०७०।
रेणं अद्धमाणीए समोअरइ प्रायभावे अ, अद्धमाणी श्रासमुहागय-समुखागत-त्रि० । उद्भटवेपवति, " समुहागयं
यसमोभारेणं पायभावे समोभरइ, तदुभयसमायारेणं मा. श्रासरिअं" पाइ० ना० १८५ गाथा ।
णीए समोअरइ आयभावे असे तं जाणगसरीरभवि प्रसरी. ममूसिय-समुच्छ्रित-त्रि० । सम्यगू श्रितः समुच्छ्रितः। वइरित्ते दव्वसमोभारे । से तं णोआगमी दव्यममायांग ऊर्थ्य व्यवस्थित, सूत्र. २ श्रु० ३ ०।
से तं दब्बसमोयारे । से किं तं खत्तसमोयार?, खत्तसमोयार ममूमियरोमकूव-समुच्छ्रितरोमकूप-त्रि० । समुच्छूिनानि रो
दुविह पमत्ते, तं जहा-आयसमोयारे , तदुभयसमोयार माणि कृपपु यस्येति समुच्छ्रितरोमकूपः। रोमाञ्चिते, शा०१ याभरहे वासे आयसमोयारे य प्रायभावे समोयारे अतद्श्रु०१० । कल्प।
भयसमोयारेणं जंबुद्दीवे समोयारेणं आयभावे य, जंबुद्दीममूह-समूह-पुं० । द्वित्रादिपरमारणूनां संयोगे, प्रा० म०१
वे पायसमोयारेणं भायभावे समोतरइ, तदुभयसमोतारणं अ०। समुदाये, विशे० । स्कन्धे, अनु० । सच, स्था० ३ ठा० ४ उ०। समूहीभूतानि बहूनीत्यर्थः । कल्प०१ अधि०३ क्षण ।
तिरियलोए समोतरइ आयभावे अ, तिरियलोए आयस समेच्च-समेत्य-अव्या ज्ञात्वेत्यर्थे, प्राचा०१ ध्रु०६ ०१ उ०।
मोतारण आयभावे समोअरइ तदुभयसमोतारेणं लोए समेमाण-समयत-त्रि०। समागच्छति, प्राचा० १ श्रु०८ अग
समोतरइ आयभावे अ । से तं खत्तसमोया (आ) रे । से समय-समेत-त्रि० । मिलित, विश० ।
किं तं कालसमोयारे ? कालस० दुबिहे पन्नत्ते, तं जहाममोडहमारण-समुपदहत्-त्रि० । भस्मसात्कुर्वति, भ०८ श० ।
श्रायसमोयारे अ, तदुभयसमोयारे य । समए आयसमो. ममाणय-समवनत-त्रि० । ईषदवनते,श्रा० म०१ अ०। राम
यारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं श्रावलिसमायरत-समवतरत-त्रि० । सर्वतो विस्तरति, तं०। याए समोयरइ आयभावे अ, एवमाणापारणू थोवे लंबे समायार-समवतार-पुं० । सम्यग् अविरोधन वर्शन समव- मुहुत्ते अहारते पक्खे मासे ऊऊ अयणे संवच्छरे जुगे तारः । अबिरोधवृत्तितायाम् , अनु०। ('श्राणपच्ची' श- वाससते वाससहस्से वाससतसहस्से वा पुच्चंगे पब्बे तडिद द्वितीयभागे १३४ पृष्ठ गता वक्तव्यता।)
अंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अबवे हुहुअंगे हुहुए ___ समवतारं निरूपयितुकाम पाह
उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे णलिणंगे णलिणे अत्यनिसे किं तं समोयारे ?, समोयारे छबिहे पामत्ते, तं ज- उरंगे अत्थनिउरे अउअंग अउए नउअंगे नउए पउअंगे हा-गामसमोयारे ठवणासमोयारे व्वसमोयारे खत्तस- पउए चूलिअंगे चूलिया सीसपहेलिअंगे सीसपहेलिया पमोयारे कालसमोयारे भावसमोयारे । नामठवणाओ पुच्वं लिमोवमे सागगवसे घायसमोयारेणं प्रायभावे समोभरह
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समौयार अभिधानराजेन्द्रः।
ममोयार तभयसमोतारेणं ओसप्पिणीउस्सप्पिणी समोतरह श्रा- षष्टिका चतुष्पलमाना पूर्वनिता ततश्चैषा लघुप्रमाणत्वादयभावे प्रोसप्पिणीउस्सप्पिणीप्रोप्रायसमोयारेणं पाटपलमानत्येन बृहत्प्रमाणायां द्वात्रिंशतिकायां समवतरतीति
प्रतीनमेव, एवं द्वात्रिंशतिकाऽपि षोडशपलमानायां षोडशि. यभावे समोयारेणं तदुभयसमोतारेणं पोग्गलपरिअट्टे समो
कायां षोडशिकापि द्वात्रिंशत्पलमानायामप्रभागिकायामभरइ मायभावे अ, पोग्गलपरिभट्टे आयसमोयारेणं आ
भागिकाऽपि चतुःषष्टिपलमानायां चतुर्भागिकायां चतुर्भागियमावे समोतरइ तदुभयसमोतारेणं तीतद्धाअणागतद्धासु काऽप्यष्टाविंशत्यधिकशतपलमानायामर्द्धमाणिकायाम् ,एषासमोअरइ पायभावेणं । तीतद्धा अणागतद्धाओ आयस
ऽपि षट् पश्चाशदधिकपलशतद्वयमानायां माणिकायां समवत.
रति,आत्मसमवतारस्तु सर्वत्र प्रतीत एव । समाप्तो द्रव्यसमवमोआरेणं आयभावे समोरणं तदुभयसमोतारेणं सब
तारः अथ क्षेत्रसमवतार विमगिषुराह-से कितं खत्तसमो. द्धाए समोतरइ आयभावे असे तं कालसमोयारे । से कि यारे' इत्यादि, इह भरतादीनां लोकपर्यन्तानां क्षेत्रविभागानां तं भावसमोयारे १, भावसमोयारे दुविहे पप्मते, तं जहा- यथा पूर्व लघुप्रमाणस्य यथोत्तरं वृहक्षेत्रे समवतारो भावनीआयसमोयारेणं तदुभयसमोतारेणं कोहे आयसमोतारेणं
यः । एवं कालसमवतारऽपि समयादेः कालविभागस्य लघुआयभाये सभोयारणं तदुभयसमोतारेणं माणे समोतारेणं
स्वादावलिकादौ वृहति कायविभागे समवतारः सुबोध एव ।
आत्मसमचतारस्तु सर्वत्र स्पष्ट एव ॥ अथ भावसमवतारं मायभावे अ, एवं माणे, माया, लोभे, रागे, मोहणिजे,
विवक्षुराह- से किं तं भावसमायारे' इत्यादि , इहौदअट्ठ कम्मपयडीओ आयसमोयारेणं पायभावे समोअरइ, यिकभावरूपत्वात्क्रोधादयो भावसमवतारऽधिकृतास्तत्रातदुभयसमोयारेणं छन्विहे भावे, समोतरइ आयभावे
हङ्कारमन्तरेण कोपासम्भवाम्मानवानेव किल कुप्यतीति को. भ । एवं छबिहे भावे, जीवे जीवत्थिकाए भारसमो
पस्य माने समवतार उक्नः,क्षेपयकाले च मानदलिकं मायायां
प्रक्षिप्य क्षपयतीति मानस्य मायायां समयतारः, मायादलिबारेणं भायभावे समोअरइ त यसमोयारेणं सबद
कमपि क्षपणकाल लोभे प्रक्षिप्य क्षपयतीति मायाया लोभे बेसु समोअरइ मायभावे य । एत्थ संगहणीगाहा-“कोहे समवतारः,एवमन्यदपि कारणं परस्परान्तीवऽभ्यूह्य सुधिमासे माया,लोभे रागे य मोहणिजे अपगडीभावे जीवे,
या वाच्यं लोभात्मकत्वात्तु रागस्य लाभो रागे समवतरति,
रागोऽपि मोहभेदत्वान्मोहे, मोहोऽपि कर्मप्रकारत्वादटसु जीवत्थिकायदब्बा य" ॥१॥ से तं भावसमोयारे । से तं
कर्मप्रकृतिषु, कर्मप्रकृतयोऽप्यौदायिकौपशामकादिभाववृत्ति. समोसारे । (सू०१५३४)
स्वारषट्सु भावेषु, भावा अपि जीवाश्रितत्वाज्जीवे, जीवोऽपि 'स किं तं समग्यारे' स्यादि, समवतरणं वस्तूनां स्वपरो
जीवास्तिकायभेदत्वात् जीवास्तिकाये, जीवास्तिकायासंयष्क्वांधिचिन्तनं समचतारः, स च नामादिभेदात्योढा.
ऽपि द्रव्यभेदत्वात्समस्तद्रव्यसमुदाये समवतरतीति , तत्र नाम स्थापने सुचर्चित, एवं द्रव्यसमवतारोऽपि द्रव्या
तदेष भावसमयतारो निरूपितः । अत्र च प्रस्तुते श्रावश्यकादियदभ्यूह्य वक्तव्यः, यावज्ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यति
वश्यके विचार्यमाण सामायिकाद्यध्ययनमपि क्षायांपशरिला द्रव्यसमघतारखिविधा प्राप्तः, तद्यथा-श्रात्मसम
मिकभावरूपत्वात्पूर्वोक्नेष्वानुपादिभेदेषु क समवतरचतार इत्यादि, तत्र सर्वव्याण्यप्यात्मसमचतारेण चिन्त्य
तीति निरूपणीयमेव , शास्त्रकारप्रवृत्तेरन्यत्र तथैव मानान्यात्मभाष स्वकीयस्वरूप समबतरन्ति-यर्तन्ते,
दर्शनात् , तच सुखावसयत्वादिकारणात्सूत्रेण निरूपितं सो. सव्यतिरित्यारोपां व्यवहारतस्तु परसमवतारेण परभाव
पयोगत्वात्स्थानाशून्यत्वार्थ किंचिद्वयमेव निरूपयामः । तत्र समयतरन्ति यशा कुण्डे बदराणि , निश्चयतः सर्वाण्यपि
सामायिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्याधुरकीर्तनविषयत्वात्सामाबस्तान प्रागुलयुक्त्या स्वात्मन्येव वर्तन्ते, व्यवहारतस्तु
यिकाध्ययनमुत्कीर्तनानुपूर्त्या समवतरति, तथा गणनानुस्यात्मनि प्राधारे च कुण्डादिके घर्तन्त इति भावः, तदुभ
पूर्त्यां च । तथा हि-पूानुपूर्व्या गण्यमानमिदं प्रथमम,पश्चा यसमवतारेण तदुभये वस्तूनि वर्तन्ते, यथा कटकुड्यदेहली
नुपूा तु षष्ठम , अमानुपूच्या तु धादिस्थानवृत्तित्वावनिपट्टादिसमुदायात्मक गृहे स्तम्भो वर्तते पात्मभावे च तथैव
यमिति प्रागेवोक्तम् , नाम्नि च औदयिकादिभावभेदात्यदर्शनादिति । एवं बुनोदरकपालात्मके घंटे ग्रीवा वर्तते श्रा
राणामपि प्रागुनम् । तत्र सामायिकाऽध्ययनं श्रुतमानन्मभावे चेति, पाह-यद्येयमशुद्धं तदा परसमवतारो नास्त्व
रूपत्वेन क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वात् क्षायोपशमिकभावच, कुज्यादौ वृत्तानामपि बदरादीनां स्वात्मनि वृत्तेविचमा- नाम्नि समवतरति , श्राह च भाष्यकार:-"छबिहनत्वात्सत्यं, किंतु तत्र स्वात्मनि कृत्तिविवक्षामकृत्वैव तथोप
नाम भावे, खोवसमिए सुयं समायरइ । जे सुयनाणा:न्यासः कृतो; वस्तुवृस्या तु द्विविध एव समवतारः,अत एवाह।
वरण-क्खोवसमयं तयं सव्वं ॥ १ ॥" प्रमाण च अथवा-शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्को द्रव्यसमवतारो द्विवि
द्रव्याविभेदैः प्रानिीते जीवभावरूपत्वाद् भावप्रमाणे इदं धःप्राप्तः, तद्यथा-श्रात्मसमवतारस्तदुभयसमवतारश्व, श्र
समवतरतीति । उक्नं च-“दव्वाइचउम्मेयं, पीयए जेण तं पशुद्धस्य परसमवतारस्य काप्यसम्भवात्, न हि स्वात्मन्यव- |
माणं ति । इणमझयगं भावो-त्ति भावमाणे समोयर ॥१॥" मानस्य वान्थ्येयस्यैव परस्मिन् समवतारो युज्यत इति भा- भावप्रमाणेच गुणनयसंख्याभेदतस्त्रिधा प्रोक्तम् , तत्रास्य यः पूर्व चात्मवृत्तिविवक्षामात्रेणैव त्रैविध्यमुक्तमित्यभिहितम् गुणसंख्याप्रमाणयोरेवावतारो नयप्रमाणे तु यद्यपि-'प्रासज 'च उसाट्टया पायसमोयारेण मित्यादिसुबोधमेव.नवरं चतुः- उमायारं, नए नयविमारी बूया।' इत्यादि वचनात् कचि
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समोवार
चयसमवतार उक्तः, तथापि साम्प्रतं तथाविधनयविचाराभावाद्वस्तुवृत्याऽनयतार एव यत इदमप्युक्तम्- ' मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयति' इहमित्यादि महामतिमाऽप्युक्तम्- 'मूढनयं तु न संपइ नयप्पमाणावश्रारी से' त्तिगुणप्रमाणमपि जीवाजीवगुणभेदतो द्विधा प्रोक्तं तत्रास्य जीवाजीयसयतारस्तम्मा मदर्शनचारित्रभेदतस्त्रयात्मकं श्रस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे अवतारस्तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागममेदि साध्ययनस्पाप्मोपदेशरूपतया आगमेती किलोको परमगुरुतत्वेन सोकोरिकेत त्रापि आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदतस्त्रिविधेऽप्यस्य समवतारः, संख्याप्रमाणेऽपि नामादिभेदभिन्ने प्रागुक्ते परिमाणसंख्यायामस्यावतारः, वक्तव्यतायामपि स्वसमयवक्तव्यतायामिदमचतरति, यत्रापि परोभयसमयवर्णनं क्रियते तत्रापि निश्वयतः स्वसमयययय परोभयसमययारपि सम्यग्रपरिगृहीतवसमय सम्पर समयमपि विषयविभागेन योजयति न त्वेकान्तपक्षनिक्षेपेणेस्वतः सर्वोऽपि तत्परिगृहीतः स्वसमय एव श्रत एव परमार्थतः सर्वाध्ययनानामपि स्वसम्यक्रयतायामेवायतारः, तदुक्रम् -- "परसमश्र उभयं वा, सम्र्माद्दस्सि सस मओ जरा तो सध्वज्भयणाई, ससमयवत्तव्यनिययाई ॥ १ ॥ तुशांतस्तवादियां वाच्यमित्यलमतिवि स्तरेति समाप्तः समवतारः । अनु० । उस सब्वमु, ससमययतव्ययं समोयर | अहिगारों कप्पार, समोबॉरो जो जहिं एस १२७१ ।। उत्सन्नं - सर्वकालं सर्वश्रुतं स्वसमयवक्तव्यतायां समवतरति अथाधिकारो मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा अपराधमापनानां प्रायश्चित्तकल्पनायाम् ।
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( ४६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सम्प्रति यदुकं स्वसमयवक्तव्यतायां समवतरति तदिदानीं सिंहावलोकितेनापवदति -
परपक्वं दुनिया जम्दा उ सपथसाहां कुगइ। यो खलु असिम्मि परे सजना सिद्धी || २७२ ॥ परसमयवक्तव्यतायामप्यवतरति यस्मात् परपक्षं दूषयित्वा स्वपक्षसाधनं करोति, न खत्वदूषिते परपक्षे स्वपक्षस्याञ्जसा व्यक्ता प्रधाना वा सिद्धिर्भवति । ततः परसमयवक्तव्यतायामवतारः, तदवमिदं कल्पाध्ययनमुपक्रमे श्रानुपूर्व्यादौ यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समयतारितम् । वृ०१ उ०१ प्रक० । संप्रति निक्षेपमादइकिकं तं चउहा, सामाऽऽई विभासितुं आहे । भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयणं समोयरइ || २७४ || एकैकमध्ययनादिकं यथाऽनुयोगद्वारे नामादीनां भेदअतुर्द्धा विभाग्य चतुष्वैपि तत्र तेष्यध्ययनादिषु भा वे भावविषये तु कल्पाध्ययनमिदं समचतति । वृ० १
उ० १ प्रक० ।
समोसमोपपत्रक - पुं० [विवक्षितायुकलये, समकमेव भवान्तरे उपपन्नाः समोपपन्नकाः । ( भ० ) विषम
समोसरण
काला युष्कोदयसमकालभवान्तरोत्पत्तिमत्सु भ० २६ श० १
उ० ।
समोसढ - समवसृत - त्रि० । स्थिते धर्मदेशनार्थं प्रवृत्ते,
दश० ५ ० २ उ० सू० प्र० । आ० म० ।
समोसरण - समवसरण - न० । सृ गतौ सम्यगेकत्र गमनं समवसरणम् । निचये, सञ्चये, श्रोघ० । समय सरन्त्यवतरन्त्यविति समवसरणानि । विविधमतमीलकेषु, स्था० ४ ठा० ४ उ० | सूत्र० । समयसरन्ति नाना परिणामा जीवाः कथयेषु तानि समयसरणानि
धान्यभिषु क्रियावादादिमधेषु कथंचित्चित्केषांचिद्वादिनामवताराः समवसरणानि । भ० ३० श०१ उ० । (ऋत्वारि वादिसमवसरणानि 'वाइसमवसरण शब्दे षष्ठभागे गतानि । )
विषयसूचना
(१) नामनि तु निक्षेप समवसरणमित्येतनाम - निक्षेपार्थे निर्युक्तिः ।
(२) समयसरविषये सूत्रानुर्गम स्थलितादिगुणोपेतं
सूत्रम् ।
३) समवसरणवक्तव्यताद्वारगाथा ।
( ४ ) यत्र भगवान् धर्ममाचं तत्र समवसरणं नियमतो भवति उतनेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमद्वारव्याख्यानम् ।
( ५ ) यत्र समवसरणं भवति तत्र सर्वत्रापि पूर्वोक पव नियोग उत न ? इत्येतच्छङ्कासमाधानम् ।
( ६ ) समवसरणे भुवनगुरुरूपस्य त्रैले । क्यगतरूपेभ्यः
सुन्दरतरत्वात् त्रिदशकृतप्रतिरूप कारणां किं सामान्यासामान्य ( न्यत्वं वेन्त्या ) चैत्याशङ्कानिरासः । ( ७ ) समवसरणे स्थितानां देवनराणां मर्यादाप्रतिपाद
नम् ।
(८) समवसरणविषये द्वितीयद्वारप्रतिपादनम् । ( ६ ) समवसरणे कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्र ति पद्यन्ते ।
(१०) कृतकृत्यो भगवान् समवसरणे तीर्थप्रणामं करोतीति किमिति शङ्कानिरासः ।
(११) क केन साधुना पितो या भूभागान्समवसर आगन्तव्यम् ? अनागच्छतां वा किं प्रायश्चित्तम् ? | (१२) समवसरणे रूपपृच्छाद्वारप्रकटनम् । (१३) असातावेदनीयाद्याः प्रकृतयां नाम्नो वाऽप्रशस्ताः कथं भगवतः दुःखदा न भवन्ति ? इति शङ्काच्छेदः । (१४) सन्नदर्शनम् ।
(१५)सर्वसंशयितां पारमेश्वरीशयोन्मूलनेन स्वभाव परिम 1
(१६) भगवान् येषु ग्रामनगरादिषु विहरति तेभ्यो वार्ता तिवृतिदानं प्रीति
दानं च चीन
(१७) समवसरणे भगवान् प्रथमां संपूर्ण पौरुषीं धर्ममाचटे, अत्रान्तर बलिः प्रविशति करते इति निदर्शनम्।
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समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण (१८) समवसरणे भगवत्युत्थिते द्वितीयस्यां पौरुष्यामा- ति, तत्र द्विकसयोगः सिद्धस्य क्षायिकपारिणामिकभावद्वय
चगणधरोऽन्यो वा गणधरो धर्ममाचले स्यान्मतिः सद्भावादवगन्तव्यः, त्रिकसयोगस्तु मिथ्याटिसम्यग्टएयकिं कारणं द्वितीयस्यामपि पौरुष्या तीर्थकर एव विरतामामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावाद
धर्भ न कथयतीति? शङ्का तत्समाधाननिरूपणम् । षगन्तव्यः, तथा भवस्थंकवलिनोऽप्यौदयिकक्षायिकपारिणा(१६) समवसरणकल्पः ।
मिकभावसद्भावाद्विय इति , चतुष्कसंयोगोऽपि क्षायिकस(२०) समवसरणरचनानिदर्शनम् ।
म्यग्दृष्टीनामौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभाव(२१) समवसरणस्तवनिदर्शनम् ।
सद्भावात्तथौपशमिकसम्यग्दृष्टीनामौदयिकौपशमिकक्षायोप(२२) समवसरण रचनाभूमिप्रमाणम् ।
शमिकपारिणामिकभावसद्भावञ्चेति, पञ्चकसंयोगस्तु क्षायि(२३) प्रकीर्णकवार्ताः ।
कसम्यग्दृष्टीनामुपशमश्रेण्या समस्तोपशान्तचारित्रमाहानां (१) नामनिष्पने तु निक्षेप समवसरणमित्येतनाम तन्नि
भावपञ्चकसद्भावाद्विज्ञेय इति । तदेवं भावानां द्विकत्रिकच
तुष्कपश्चकसंयोगात्सम्भविनः सानिपातिकभेदाःषद भवपार्थ नियुक्तिकृदाह
न्ति , अत एव त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगगतिभेदात्पश्चदशधा समवसरणे चि छकं, सच्चित्ताचित्तमीसगं दवे । प्रदेशान्तरेऽभिहिता इति, तदेवं षड्विध भावे भावसमवसरखेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जे जम्मि कालम्मि ॥११६।।। णं भावमीलनमभिद्दितम। अथवा-अन्यथा भावसमवसरण 'समवसरण' मित्यादि, समवसरणमिति सृगतावित्य
नियुक्तिकृदेव दर्शयति, क्रियां जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां व. सस्य धातोः समवोपसर्गपूर्वस्य ल्युडन्तस्य रूपम् , सम्य
दितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः,एतद्विपर्यस्ता प्रक्रियावादिगेकीभावनावसरणमेकत्र गमनं-मेलापकः समवसरणं त
नः, तथा अशानिनोक्षाननिह्नववादिनस्तथा वैनयिका विनयस्मिन्नपि न केवलं समाधौ पदविधौ नामादिको निक्षेपस्त
न चरन्ति तत्प्रयोजना का चैनयिकाः, एषां चतुर्णापि शापि नामस्थापने सुराणे द्रव्यविषयं पुनः समवसरणं नो
सप्रभेदानामापेक्षं कृत्वा यत्र विक्षेषः क्रियते तद्भावसमपागमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभे
वसरणमिति , एतच स्वयमेव नियुक्तिकारोऽन्त्यगाथया कथ दाल विविधम् । सचित्तमपिद्विपदचतुष्पदाऽपदभेदा त्रिवि- यिष्यति । धमेव,तत्र द्विपदानां साधुप्रभृतीनां तीर्थजन्मनिष्क्रमणप्रदे. साम्प्रतमेतेषामेवाभिधानान्वर्थतादर्शनद्वारेण शादौ मलापकः, चतुष्पदानां गवादीनां निपानप्रदेशादी,
खरूपमाविष्कुर्वन्नाहअपदानां तु वृक्षादीनां स्वतो नास्ति समवसरण वि
अत्थि त्ति किरियवादी, वयंति णत्थि अकिरियवादी य। वक्षया तु काननादौ भवत्यपि, अचित्तानां तु द्वधणुका
अप्माणी अम्माणं , विणइत्ता वेणइयवादी ॥११८ ।।. द्यमादीनां तथा मिश्राणां सेनादीनां समवसरणसद्भावो. ऽवगन्तव्य इति क्षेत्रसमवसरण तु परमार्थतो नास्ति, 'अस्थि ती ' त्यादि , जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्येवेत्येवं विवक्षया तु यत्र द्विपदादयः समवसरन्ति व्याख्यायते वा सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनस्ते समवसरणं यत्र तत्क्षेत्रप्राधान्यादेवमुच्यते । एवं कालस- चैव वादित्वान्मिथ्यादृष्टयः,तथाहि-यदि जीवोऽस्त्येवेत्येवममवसरणमपि द्रष्टव्यमिति ।
भ्युपगम्यते ततः सावधारणत्वान् न कथंचिन्नास्तीत्यतः स्वइदानीं भावसमवसरणमधिकृत्याह--
रूपसत्तावत्पररूपापत्तिरपि स्यात् , एवं च नानेकं जगत् स्याभावसमोसरण पुण, णायव्वं छविहम्मि भावम्मि ।
न चैत दृष्टमिष्टं वा । तथा नास्त्येय जीवादिकः पदार्थ इत्येवं
वादिनोऽक्रियावादिनः, तेऽप्यसद्भतार्थप्रतिपादनान्मिध्याहअहवा किरियअकिरिया, अन्नाणी चेव वेणइया ॥११७।।
एय एव तथा ह्यकान्तेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कर्तुरभावा'भावसमवसरण' मित्यादि , भावानामौदयिकादीनां प्रास्तीत्यतस्यापि प्रतिषेधस्याभावः, तदभावाच सर्वास्तिसमवसरणम्--एकत्र मेलापको भावसमवसरणम् । तत्री- त्वमनिवारितमिति तथा न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां ते झा. दयिको भाव एकविंशतिभेदः, तद्यथा--गतिश्चतु -- निनः, ते घशानमेव श्रेय इत्येवं वदन्ति, एतेऽपि मिथ्यादृष्य कषायाश्चतुर्विधा एवं लिकं त्रिविधं , मिथ्यात्वाक्षा- एव , तथा 'घशानमेव श्रेय ' इत्येतदपि न ज्ञानमृते भणितुं नाऽसंयतत्वाऽसिद्धत्वानि प्रत्येकमेकैकविधानि , लेश्याः पार्यते , तदभिधानाच्चावश्यं ज्ञानमभ्युपगतं तैरिति । तथा कृष्णादिभेदन पड्धिा भवन्ति, औपशमिको द्विवि-- चैनयिका बिनयादेव केवलात्स्वगमोक्षावाप्तिमभिलषन्तो मिधः, सम्यक्त्यचारित्रोपशमभेदात् । क्षायोपशमिकोऽप्य. ध्यादृष्टयो यतो न शानक्रियाभ्यामन्तरेण मोक्षावाप्तिरिति । धादशभेदभिन्नः, तद्यथा-शानं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायभेदा- एषां च क्रियावाद्यादीनां स्वरूप तन्निराकरणं चाऽऽचारटीच्चतु , अज्ञानम्-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गभेदात् त्रिविधं, कायां विस्तरेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते। वर्शनं-चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभेदात् त्रिविधमेव,लब्धिानला
साम्प्रतमतेषां भेदसंख्याधिरूपणार्थमाहभभोगोपभोगीर्थभेदात्पश्चधा , सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाः प्रत्येकमेकप्रकारा इति । क्षायिको नवप्रकारः, त
असियसय किरियाणं, अकिरियोणं च होइ चुलसीति । यथा--केवलज्ञानं केवलदर्शनं दानादिलब्धयः पश्च सम्य
अनाणी सत्तट्टी, वेणइयाणं च वत्तीसा ॥ ११६ ।। कत्वं चारित्रं चेति । जीवत्वभव्यत्वाभत्वादिभेदात्पारिणा- 'असिये' त्यादि, क्रियावादिनामशीत्यधिकं शतं भवति , मिकत्रिविधः, सानिपातिकस्तु द्वित्रिचतुःपञ्चकसंयोगैर्भव- तथानया प्रक्रियया, तद्यथा--जीवादयो नव पदार्थाः प
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समोसरण
पि
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रिपाचा व्याप्यन्ते तद्धः स्वतः परत इति ततोऽप्यो नित्यानित्यमेतत्परिपाठा काल भावनियतीश्वरामपदानि पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते तत चारततश्चैवं णिकाप्रक्रमः तद्यथा अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः तथा अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः एव एवं परतोऽपि भङ्गकद्वयं सर्वेऽपि च चत्वारः कालेन लब्धाः, एवं स्वभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुर एव लभन्ते, ततः पञ्चाङचतुष्कका विंशतिर्भवन्ति, साऽपि जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टी प्रत्येकं विंशतिं लभन्ते ततश्च ननिमीलिताः कियाचादिनामशत्युत्तरं शतं भवतीति । इदानीमक्रियावादिनां न सन्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमयतामनेनोपायेन चतुरशीतिरवगन्तव्या तद्यथा - जीवादीन् पदार्थान् सप्ताभिलिख्य तदधः स्वपरभेदद्वयं व्यवस्थाप्यं ततोऽप्यधः कालय ढच्छानियतिस्वयह व्यवस्थाप्यनिभङ्गकाययम् नास्ति जीवः स्वतः कालतः, तथा नास्ति जीवः परतः कालतः एवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिः प्रत्येकं द्वौ द्वी भङ्गीभ्येपि द्वादश, तेऽपि च जीवादिपदार्थसकेन गुणिताश्चतुरशीतिरिति । तथा चक्रम्लान यांत स्वभावश्रामशीतिः नालिया न सन्ति भावाः स्वपर संस्थाः ' ॥ १ ॥ साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानदेव विर्याचन कार्यसिद्धिमिच्छतां निष्क
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बहुपत्यमभ्युपगमयतां सप्तपरनेनोपायेनाथगन्तव्याः, जीवाजीवादन् नव पदार्थान् परिपाटया व्यवस्था
( ४६८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
धामी सत् असत् सदसद् श्रवक्तव्यम् सदवक्तव्यम् श्रसदवक्तव्यं सदसदयतव्यमिति अभिलापस्वयम् सन् जीवः कति ? कि पा तेन ज्ञातेन ? १, असन् जीवः, को वेत्ति ? - किं वा तेन ज्ञांतन २, सदसन् जीवः, को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञातेन ? ३, श्रवव्यो जीवः, को वेत्ति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ४, सद वक्तव्यो जीवः, की वेति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ५, असदवक्तव्यो जीवः को बत्ति ?, किं वा तेन ज्ञातेन ? ६, सदसदवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति ?, किं वा तेन ज्ञातेन १७, एवमजीवादिष्यपि सप्त भङ्गकाः सर्वेऽपि मिलितात्रिपष्टिः । तथाऽपरे ऽमी चत्वारो भङ्गकाः, तद्यथा-सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ?, किंवा अनया ज्ञातया ? १, असती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ?, किं वा श्रनया ज्ञातया ? २, सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ?, किंवा अनया ज्ञातया ? ३, अवक्लव्या भावोत्पत्तिः को वेत्ति ?, किं वा श्रनया शातया ? ४, सर्वेऽपि सप्तषष्टिरिति । उत्तरं भङ्गकश्यमुत्पन्नभावायापेक्षमिह भावोत्पती न नोपलम् उचानादिम न सादिविधा ससद्धा याच्या 4 को बेति ॥ १ ॥
परलोकमा प्रयोज्यासद्यथा-सुरनृपतियति ज्ञातिश्यविराधममातृषषु मनसा चाचा कायेन दानेन चतुर्विधो विनयो विधेयः सर्वेऽप्यष्टौ चतुष्कका मिलिता त्रिदिति। उक्तं चैनकिम नय--चेतोवाक्कायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञाति-विधातृपितृषु सदा क्रियाक्रियाज्ञान
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समोसरण मेवाधिकानि प्रा कमतरानानि भवन्ति (०) (किवावादिनां विषयः गाथाइयेन 'किरियाबाद' शब्दे तृतीयभागे ५५६ पृष्ठे उक्तः । ) (२) साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारथिव्यं, तश्चेदम्चारि समोसरणाणि मागी पाचाणिया जाई पुढो पति । किरि अकिरियं विशियति तयं, अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव ।। १ ।।
'चत्तारि' इत्यादि, अस्थ च प्राक्तनाध्ययनेन सहाऽयं सम्बधः तथा साधुना प्रतिपद्मभावमार्गे कुमाि न्धः परपादिनः सम् परिज्ञाय परिद्वर्तव्याः पावकरामायनेनोपदिश्यते इति अन
त्रेण सह संबन्धोऽयं तद्यथा-संवृत्तां महाप्रज्ञो वीरो दत्ते चरभिनिर्वृतः सन् मृत्युकालमभिकालोभाषितं तथा परतीर्थिकपरिहारं च कुर्यात् एत
केवल मतम् अतस्तत्परिहारात्स्वरूपनिरू पण मनेन क्रियते 'बत्वारी ' ति संख्यापदमपरसंख्यानिवृस्वयं समरणानि परतीर्थिकाभ्युपगमूरूपाणि यानि प्रावादुकाः पृथक् पृथग्वदन्ति तानि चामूनि अन्यर्थाभिघा यिभिः संज्ञापदिश्यते, तद्यथा-किमत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियवादिनस्तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रियावादिनः तथा तुतीया चैन विकाश्ययस्यानिका इति सूत्र० १० १२० ( अज्ञानिनः 'श्रमाणिय' शब्दे प्रथमभागे ४८६ पृष्ठे उक्काः । ) दिमाग उक्ताः) (क्रियादिरियाशब्दे प्रथमभाग १२८ पृष्ठ गताः । ) ( श्रादित्यवक्लव्यता 'श्रइच्च' शब्दे द्वितीयभांग ३ पृष्ठे गता ।) ( अष्टाङ्गनिमित्त वक्तव्यता' अगणिमित्त श दे प्रथम भाग २३६ पृष्ठे उक्का | ) ( क्रियावक्लव्यता 'किरिया शब्दे तृतीयभागे ५५६ छेउरित) - कव्यता पयस्थ शब्दे पश्चमभागे २०४ पृष्ठे प्रतिपादिता । ) ( मनसा चकव्यता मण' शब्दे षष्ठभागे ७४ पृष्ठे उक्का | ) ( हेतुवक्तव्यता ' हेउ ' शब्दे वक्ष्यते । ) ( द्रव्यवक्तव्यता दध्व' शब्दे चतुर्थभागे २४६५ पृष्ठे उक्ला) ( अस्मिन् विषये श्रमप्रतिपादन 'बुद्ध' शब्देामतम् ) तीर्थकृतां सदेवमनुजरा पदि, पिं० भ० । समयसरं नाम पुष्पफलासवागरतादिभिगो विभूती आ० चू० १० तद्विधिश्चैवम्
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(३) साम्प्रतं समवसरणवक्लव्यतां प्रपञ्चतः प्रतिपिपादयिपुरिमां द्वारगाथामाद्दसमोसर के वश्या, रूप पुच्छ वागरण सोयपरिणामे । दाणं च देवमल्ले, मल्लायणे उवरि तित्थं || ५४३ ॥ प्रथमं समघसरणविषयों विधिर्वक्तव्यः ये देवा यत्प्राकारादि यद्विधं यथा कुर्वन्ति तथा वक्रव्यमिति भावः, कचइयत्ति कियन्तः सामायिकानि भगवति कथयति मनु
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(४६६) समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण ध्यादयः प्रतिपद्यन्ते , कियतो वा भूभागादपूर्वे समवसरणे । गन्धोपेतत्वात् दिव्यकुसुमनिर्हारि-दिव्यः-प्रधान:-कुसुमादृष्टपूर्वे वा साधुना श्रागन्तव्यम् , 'रूव' त्ति-भगवतो नां निहारी प्रबलो गन्धप्रसरो यस्मात्तद्दिव्यकुसुमनिर्वारि । रूप व्यावर्णनीय 'पुच्छ' त्ति-किमुस्कृष्टरूपतया भगवतः
मणिकणगरयणचित्ते, चउदिसि तोरणे विउव्वंति । प्रयोजनमिति पृच्छा कार्या, उत्सरं च वक्तव्यं ,कियन्तो वा हृद्गतं संशयं पृच्छन्तीति 'वागरणं' ति-व्याकरणं
सच्छत्तसालभंजिय-मकरद्धयचिंधसंठाणे ॥५४७।। भगवतो वक्तव्यम् ,यथा युगपदेव संख्यातीतानामपि पृच्छा. चतसृष्वपि दिक्षु मणिकरत्नविचित्राणि तोरणानि व्यनां व्याकरोतीति 'पुच्छवागरणं' ति-एकं वा द्वारं पृच्छा- न्तरदेवा विकुर्वन्ति । किं विशिष्टानीत्याह--छत्र प्रतीतं, शा. यां व्याकरणं तद्वक्तव्यम् ' सोयपरिणामो' त्ति-श्रोतृषु परि- लभजिकाः-स्तम्भपुत्तलिका'मकर' त्ति मकरमुखोपलक्षणं रणामः श्रोतृपरिणामः,स च वक्तव्यो, यथा सर्वश्रोतृणां भाग- ध्वजाः प्रतीताः चिहानि-स्वस्तिकादीनि संस्थानमत्यद्भुचती चाकू स्वभाषया परिणमते, 'दानं च' त्ति-वृत्तिदानं प्री.
तो रचनाविशेषः सन्ति-शोभनानि छत्रशालभजिकामकरतिदानं च कियत्प्रयच्छन्ति चक्रवादयस्तीर्थकरप्रवृत्ति- ध्वजचिह्नसंस्थनानि येषु तानि तथोच्यन्ते । कथकभ्य इति वक्तव्यम् । 'देवमल्ल' त्ति-गन्धप्रक्षेपाद्देवानां तिन्नि यपागारवरे, रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा । सम्बन्धिमाल्यं देवमाल्यं बल्यादिक. करोति, कियत्परिमाण
मणिकंचणकविसीसग-विभूसिए ते विउव्वेति॥५४८॥ वेत्यादि । · मल्लाणयणे 'त्ति-माल्यानयने यो विधिः असौ वक्तव्यः, - उरि तित्थं' ति-उपरि-पौरुप्याः, किमुक्तं भव
तत्र समवसरणे ते वक्ष्यमाणाः सुरगणेन्द्रास्त्रीन् प्रकार
वरान् रत्नविचित्रान् मर्माणकाञ्चनकपिशीर्षकविभूपितान् वि. ति-पौरुष्यामतिक्रान्तायां तीर्थमिति प्रथमगणधरोऽन्यो
कुर्वन्ति । भावार्थ उत्तरगाथायां व्याख्यास्यते । वा तदभावे देशनां करोतीत्येष द्वारगाथासमासार्थः । वि
सा चयम्-- स्तरार्थ प्रतिद्वारं वक्ष्यामः । तत्र। (४) नन्विदं समवसरण यत्र भगवान् धर्ममाचऐ तत्र
अभितर मज्झ बहि, विमाणजोइभवणाहिवकयायो । नियमतो भवत्युत नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमं द्वार
पागारा तिन्नि भवे, रयणे कणगे य रयए य ॥५४६ ।। व्याचिख्यासुरिदमाह
अभ्यन्तरे मध्ये बहिर्विमानज्योतिर्भवनाधिपकृताः प्रा. जत्थ अपव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ । कारास्त्रयो भवन्ति, रत्ने कनक रजते च । यथाक्रम रत्नवाउदयपुप्फबद्दल-पागारतियं च अभिप्रोगा ॥५४४॥ मयः कनकमयो रजतमय इत्यर्थः । एष भावार्थः। अभ्यन्तयत्र क्षेत्र ग्रामे नगरे वा अपूर्वमभूतपूर्व समवसरणं भवति,
रमाकारो रात्नस्तं विमानाधिपतयः कुन्ति, मध्यमः कनकतथा यत्र वा भूतपूर्वसमवसरणे क्षेत्रे देवो महद्धिको ए- भवः कानकस्तं ज्योतिर्वासिनः कुर्वन्ति, बाह्या रातजस्त ति-आगच्छति, तत्र किमित्याह-वात रेरावाद्यपनादाय उदक- भवनपतयः कुर्वन्ति । वाईल भाविरेणुसन्तापोपशान्तये, पुष्पवाईलं पुष्पवृष्टिनि- मणिरयणहेमयावि य, कविसीसा सव्वरयणिया दारा। मित्तं तत्क्षितिविभूषणाय , वादलशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्ये- सब्बरयणमय चिय, पडागधयतोरणविचित्ता ॥५५०।। कमभिसंबध्यते । तथा प्राकारत्रिकं च सर्वमेतत् अभियोग
यथाक्रमं मणिरत्नहेममयानि कपिशीर्षकाणि , तद्यथामहन्तीत्याभियोग्या देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः । अन्यत्र
प्रथमप्राकारे पञ्चवर्णमणिमयानि कपिशीर्षकाणि तानि चैमास्वनियमः। एवं तावत् सामान्येन समवसरणविधिरुतः। सम्प्रति विशेषण प्रतिपादयति
निकाः कुर्वन्ति , द्वितीये रत्नमयानि तानि ज्योतिषका वि.
दधते, तृतीये हेममयानि तानि भवनपतयः कुर्वन्ति, त. मणिकणगरयणचित्तं, भ्रमीभागं समंततो सुरभि ।।
था सर्वरत्नमयानि द्वाराणि तानि भवनपतयः कुर्वन्ति, श्रायोयणंतरेणं, करेंति देवा विचित्तं तु ।। ५४५॥ तथा सर्वरत्नमयान्येव मूलदलापेक्षया पताकाध्वजप्रधानानि इह यत्र समवसरणं भवति तत्र योजनपरिमण्डलक्षे- तोरणानि विचित्राणि कनकस्वस्तिकादिभिश्चित्ररूपाणि प्रमाभियोग्या देवाः संवर्तकवातं विकुर्वित्त्वा तेन विशु- तानि व्यन्तरदेवाः कुर्वन्ति । द्धरजः कुर्वति, ततः सुरभिगन्धोदक वृष्ट्या निहतरजस्तत तत्तो य समतेणं, कालागुरुकुंदुरुक्कमीसेणं । आयोजनान्तरेण योजनपरिमाणं भूमिभागं मणयश्चन्द्रका- गंधेण मणहरेणं, धूवघडीश्रो विउव्यन्ति ।। ५५१॥ न्तादयः कनक-दवकाञ्चनं रत्नानि-इन्द्रनीलादीनि , अथवा-स्थलसमुद्भवा मण्यो जलसमुद्भवानि-रत्नानि ,
ततः समन्ततः-सर्वासु दितु कृष्णागरुकुन्दुरुक्कमिश्रण गतैश्चित्रं समन्ततः-सर्वासु दिशु सुरभि-सुगन्धिगन्धयुक्तं म
न्धेन मनोहारिणा युक्ताः किं धूपघटिका विकुर्वन्ति, व्य. णीनां सुरभिगन्धोदकस्य पुष्पाणां वाऽतिमनोहारिगन्धयु
न्तरदेवाः। क्लत्वात् विचित्रम्-अपूर्व देवाः-श्राभियोग्याः कुर्यन्ति । उक्किद्विसीहनायं, कलयलसद्देण सव्वो सव्वं । विंटट्ठाई सुरभि, जलथलयं दिव्यकुसुमनीहारिं। तिन्थयरपायमूले, करेंति देवा निवयमाणा ।। ५५२ ॥ पइरंति समंतणं, दसद्धव कुसुमवासं ॥ ५४६॥ | तीर्थकरपादमूल निपतन्तो देवा उत्कृष्टसिंहनादं कुर्व
श्राभियोग्या देवाः प्रकिरन्ति समन्ततः सर्वासु दिन वि- न्ति , उत्कृटिहर्षविशेषरितो ध्वनिविशेषस्तत्प्रधानः सिंहदिक्षु च दशार्द्धवर्ण कुसुमवर्ष, किंविशिष्टमित्याह-वृन्तस्था- नादः उत्कृधिसिंहनादस्तं तथा कलकलशब्देन समन्ततःयि वृन्तमधोभागे पत्रारायु परि इत्येवं स्थानशीलं सुरभि- सर्वासु वितु युक्तं सर्वमशेषं कुर्वन्ति ।
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(४७०) समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण चइमपीढछन्दग, पासणछत्तं च चामरानो य। । (६) भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपेभ्यः सुन्दरतरत्वात् जं चऽमं करणिजं, करेंति तं वाणमंतरिया ॥ ५५३ ।।
त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं साम्यमसा
म्यं बेस्याशङ्कानिरासार्थमाहअभ्यन्तरमाकारस्य रत्नमयस्य बहुमध्यदेशभागे अशोकबरपादपो भवति, स च भगवतः प्रमाणात् द्वादशगुणस्त
जे ते वेदेहि कया, तिदिसि पडिरूवगा जिणवरस्स । स्याधस्तात्सर्यरत्नमयं पीठं तस्य पीठस्योपरि चैत्यवृक्ष
तेसि पि तप्पभावा, तयाणुरूवं हवह रूवं ॥ ५५७ ।। स्याधो देवच्छन्दकं तस्य अभ्यन्तरे सिंहासनं सपादपीठं स्फ- यानि तानि देवैः कृतानि जिनवरस्य तिसृषु दिपु प्रतिरूप. टिकमयं तस्योपरि छत्रातिच्छत्रम् । चशब्दः समुपये,चामरे
काणि तेषामपि तत्प्रभावात्तीर्थकरप्रभावात्तदनुरूपं तीर्थच उभयोः पार्श्वयोः यक्षहस्तगते, चशचात्-धर्मचक्रं प
ररूपानुरूपं भवति रूपमिति । अप्रतिष्ठितं यथाम्यवातावकादि करणीयं तद् व्यन्तरवषाः
तित्थातिसेससंजय-देवीवेमाणियाण समणीभो। कुर्वन्ति , एष सर्वतीर्थकृतां सर्वसमवसरणन्यायोऽस्सिँस्तु- भवणवइवाणमंतर-जोइसियाणं च देवीभो ।। ५५८॥ भगवतः समवसरणे अशोकपाव छत्रातिछत्रमीशानो तीर्थ गणधरः पूर्वबारेण प्रविश्य तीर्थकर त्रिकस्यो बन्दिविकुर्षितवान् , चामरे चामरधारी बलियमरापिति सम्प्र- स्था दक्षिणपूर्व दिग्भांग निषीदति, एवं शेषगणधरा भपि, वाया,
नवरं ते तीर्थस्य मार्गतः पार्थेषु च निषीदम्ति । तदनन्तरं (५) माह यत् (त्र) यत् समवसरणं भवति तत्र सर्वत्रापि- भतिशेषसंयता अतिशायिन:-केषल्यावयः संयता पष पूर्वोक्त एष नियोग उत नेस्यंत माह
निधीवन्ति । किमुक्कं भवति-ये केवलिनस्ते पूर्षद्वारेण प्र
विश्य भगवन्तं त्रिफरवः प्रदक्षिणीफस्य नमस्तीर्थायेति साहारण भोसरणे, एवं जस्थितिमं तु भोसरह ।
भणित्या तीर्थस्य प्रथमगणधरस्य शेषगणधराणां च पृष्ठएको थिय तं सब्ब, करेइ भयणा उइयरेसिं ।। ५५४॥ तो निधीवन्ति, यप्यवंशषा भतिशायिनी मनापर्ययक्षासाधारण सामान्यं यत्र सबै देवेन्द्र भागमछम्ति तस्मिन्
निमोऽधिज्ञानिनभईशपूर्षधरात्रयोदशपर्वधरा पायदशसाधारणसमवसरणे एबम्-उकप्रकारेण नियोगः (नियमः) पूर्वधराः नषपूर्वधराः खलौषधय मामा वधयां जल्लोपपत्र पुनः ऋद्धिमान् इन्द्रसामामिकादिः समवतरति तत्र
ध्यावयश्च तऽपि पूर्वधारणा प्रविश्य भगवन्तं प्रदक्षिणीयस्य एक एष तत् प्राकारादि सधैं करोति 'भयणाउ इयरे- धम्बिया नमस्तीर्थाय प्रथमगणधररूपाय नमः कयलिभ्य सिं' ति-यविन्द्रा सामानिकाचा केचिम्महर्षि
इत्युक्त्वा कपलिना पछतो यथाक्रम मिपीवम्ति, पेचाऽयशे. का नायाम्ति ततो भवनबास्यावय इतरे समवसरणं कुर्य
षा प्रगतिशायिनः संयतास्तेऽपि पूर्वजारेणैष प्रविश्य नि. गित, बा नवत्येवं भजना इतरेषाम् ।
करयो भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य पम्वित्था नमस्तीर्थाय नमः
केयलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्य इत्युक्त्या अतिशायिना पृष्ठतो सूरुदयपच्छिमाए, भोगाईतीऍ पुष्यभो ।।
निधीवन्ति । धैमानिकाना देव्यः पूर्षवारण प्रविश्य भगवत दोहि पउमेहि पाया, मग्गेण य होन्ति सत्तो ।।५५५॥ निरुत्वः प्रदक्षिणीकस्य पम्बिया नमस्तीर्थाय नमः कलिएवं निष्पादित समवसरणे सूर्योदय प्रथमाया पौरुण्या- भ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः साधुभ्य इति भणित्या मिरम् अम्पदा पश्चिमायाम् 'भोगाईतित्ति-अवगाहमामायामा. तिशायिना पृष्ठतस्तिष्ठन्ति, नतु निधीवन्ति । भमण्या पूर्वगच्चस्यामिति भाषः, पूर्वतः-पूर्वद्वारेण पति-मागच्छति।
शारेण प्रविश्य तीर्थकर त्रिकरणः प्रदक्षिणीकस्य पम्बिया प्रषिशतीत्यर्थः, कर्थामत्याह-यो। पायो। सहनपत्र
नमस्तीर्थापनमा केपलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः शेषपोचपरिकल्पितपोः पानी स्थापयमिति पाक्यंशषः,
साधुभ्य इति स्युपरमा पैमानिकदेबीना पछतस्तिष्ठन्तिम 'मग्गेण यहोम्ति सत्त'ति-मार्गतः पृष्ठतो भगवतः स
तुमिवीवन्ति । भवनपालिम्पोम्यम्तयों ज्योतिष्यश्च पक्षिा साम्पानि पमामि भयन्ति, तेषां च यत् पक्षिम तत् पा
बारेण प्रविश्य पिकल्या तीर्थकर प्रदक्षिणीकृत्य पम्बिया चम्पासं कुर्षतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति ।
दक्षिणपश्चिमा विशि मेतकोणे इत्यधा, तिष्ठन्तिम
निषीवन्ति, भवनवासिनीना पृष्ठतो ज्योतिकोग्यस्ताला . पापाहिणपुष्यमहो, तिदिसि पडिरूषगा उ देवकया।
तो प्यम्तयः। जेागणी अमोबा, दाहिणपुष्ये प्रदरम्मि ॥५६॥
एतदेष सविशेष प्रतिपिपावयिपुरिचमाहल एवं भगवान पूर्षवारण प्रविश्य 'मायाहिण 'ति--
केवलियो तिउण जिणं,तित्थपणामं च मग्गो तस्स । त्याममक्षिणा फत्या पूर्वाभिमुख उपविशति, शवास्तु तिषषु विशु प्रतिरूपाणि तीर्थकरातीनि सिंहासनावियुक्ता
मणमाई वि नर्मता, पयति सहाणसट्टाणं ।। ५५६ ॥ मिषातानि भवन्ति । शेषवेषादीनामप्यस्माकं कथयतीति
कवलिननिगुण त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिन-तीर्थकर तीर्थप्रप्रतिपस्यर्थ भगवतच पावमूलमकेन गणधरेणाविरहितमेष ।
णाम सकरपा तस्य गणधरस्य मार्गतः पृष्ठतो मिपीयमित सब ज्येष्ठोऽम्या था? प्रायोज्येष्ठ इति भावः,सब ज्यगणी
क्रियाध्याहारस, 'मणमाई बी' स्यावि, मम भावयोऽपि अम्योपा दक्षिणपूर्षे दिग्भांग मरे प्रत्यासी भगवती भ- मना-पर्यायवान्यषधिशानिचतुर्वपूर्वधरा यापसवर्षभरा गवम् प्रणम्य मिपीवति रति क्रियान्याहारः, शंषा गणधरा खलीषण्याविनिरतिशयसंयतथैमानिकदेवीभमएयस्तथा ज्यो. अप्येमव भगवम्तमभिषम्य तीर्थकरस्य मार्गतः पार्वतम तिकभवनपतिप्यन्तरदेव्यः पूर्वक्रमेण तीर्थकराधीन नमम्स्यो निषीदन्ति ।
| प्रजन्ति स्वरूपानं-संख स्थानमित्यर्थः, भावार्थः प्रागषोलः ।
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समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण भवणबई जोइसिया, बोधवा वाणमंतरसुरा य । । समहन्द्रा महदिभिरिन्दैः सहिताः कल्पोपपन्ना देवा राजा. वेमाणिया य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए॥५६०॥ नो नराः सामान्यपुरुषा नार्यश्च उदीच्येनात्सरेण द्वारण प्रविश्य
भगवन्तं प्रणम्य प्राअलयः पूर्वोत्तरदिगभागे तिष्ठन्ति । भवनपतयो ज्योतिषका म्यन्तरसुरा पते पश्चिमद्वारण ।
अभिहितार्थोपसंग्रहमाहप्रविश्य भगवन्तं त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः शेषसाधुभ्यः इति भणि
एकेकिए दिसाए, तिगं तिग होइ सन्निविट्ठ तु । स्था यथोपन्यासमुत्तरपश्चिमे दिग्भागे निषीदन्ति, तद्यथा- भाइचरमे विमिस्सा, थीपुरिसा सेसपत्तेयं ।। ५६१॥ भवनपतीनां पृष्ठतो ज्योतिषकास्तेषामपि पृष्ठतो व्यन्तरा- एकैकस्यां पूर्वदक्षिणादिकायां दिशि त्रिकं २ भवति सनिइति, तथा वैमानिका मनुष्याश्चशम्दात् स्त्रियश्च । अस्य चश- विष्टं ' तद्यथा-पूर्वदक्षिणस्यां संयतथैमानिकदेवीश्रमणीव्यस्य व्यवहित उपन्यासः, किं'पयाहिण' ति-उत्तरद्वारेण प्र. रूपं , दक्षियापरस्यां भवनवासिज्योकव्यन्तरदवीरूपम् , विश्य प्रदक्षिणा कृत्या तीर्थकरादीनभियन्य उत्तरपूर्व दि- अपरोत्तरस्यां भवनपतिज्योतिएकव्यन्तरदयरूपम् ,उत्तरपूर्वग्भागे यथोपन्यास मिपीवन्ति , तद्यथा-धैमानिकानां पृष्ठ- स्यां चैमानिकमनुष्यमनुष्यस्त्रीरूपामति । आदिमे च त्रिके - तो मनुष्यास्तेषामपि पृष्ठतो मनुष्यस्त्रियः । हेयं सम्प्र- प्रदक्षिणावग्गते चरमे च त्रिकं पूर्वोत्तरदिग्गत थिमिश्रा भवदाया-देव्यः सर्या एष न निषीदन्ति देया मनुष्या मनुष्य- स्ति , खियः पुरुषाश्च निष्ठन्तीति भायः । शेष त्रिकद्वये प्रखियश्च मिषीवन्ति इति , तथा पिवतं, 'जंच निस्साए'। स्यकं भवति, अपरावक्षिण दिग्भाग कयलाः खियः एव यः परिधारी याच निधी फत्था समाचातः स तत्पर्य अपरारच दिग्भागे पुरुषा एवेति भाषार्थः । एष तिष्ठति मान्यत्रमा म०१०।
(७) तेषां रथं स्थितानां देवनगणामियं मर्यादाअत्रान्तरे भाष्यावशेषु कषुश्चिंदता गाथा रश्यन्ते
एतं महिडियं पणि-वयंति ठियमवि वयंति पणमंता। अणगारा बेमाणिय, वरं गणो सो गणी य पुष्येणं ।
ण विजंतणान विकहा,न परोप्परमच्छरो न भय ।५६२। पषिसंति विविहमणिरय-णफिरणनिफरेण दारेणं ॥१॥
ये भरपर्सयो भगवतः समवसरण पूर्वमिषगणास्त प्राजोइसियभवणवणयर-दयितालायसरूवकलियानो। गरछन्तं महर्तिकं प्रणिपतन्ति । अथ महर्षिकाः प्रथमं समपविसंति दविणेणं, पडायकयपंति कलिएणं ।। २ ॥ घसरण निषलास्ततः पश्चात् ये अल्पर्शिकाः समागमछजोइसियभवणवणयर-संसभमा ललियकुंडलाहरणा ।
मित ते तान् पूर्वस्थितान् महधिकान् प्रगिपतम्तो मज
नित । तथा तेषां स्थितानां नापि यन्त्रणा, प्रायत्तता नापि पविसंति पच्छिमेणं, वितुंगदिप्पंतसिहरेणं ॥ ३ ॥
विकथा, न च परस्पर मत्सरी,नापि विराधिनामपि सस्थामा समहिंदा कप्पोबग-देवा राया नरा य नारीश्री।
परस्परं भयं भगवतोऽनुभावात् । एतत् सर्व प्रथमप्राकापषिसंति उसरणं. परमणियमोहभोहणं ॥ ४ ॥ रागतरे व्यवस्थितम् । पताइयोरपि चूयोरगृहीतवान्प्रक्षप (प्रक्षिप्त ) गाथा
अथ वितीयप्राकाराम्तर तृतीयप्राकारान्तरे व किसम्भाध्यम्त । उतार्थाः । पू० १०२ प्रक०।
व्यतिष्ठत इस्याहसाम्प्रतमभिहितमेयार्थ भाष्यकार: पूर्षद्वारादि- थिइयम्मि होति तिरिया, तइए पागारमंतरे जाण । प्रवेशविसर्प स्परतरं प्रतिपादयति
पागारज तिरिया, बि होंति पत्तेयमीसा वा ॥ ५६३ ।। संजय बेमाणित्थी, संजयपुरण पपिसिउं पीरं । द्वितीये प्राकारान्तरे भवम्ति तिय शस्तथा तृतीय प्राकाकार्ड पयाहिणं पु-बदक्षिणे ठंति दिसिभागे ॥११६।।। राम्तर थानानि, प्राकररहित बहिरिभ्यर्थः । निर्यश्रोऽपि संयता पैमानिकस्त्रिया संपत्यः पूर्पण-द्वारण प्रधिः भवन्ति, अपिशम्दात्-मनुष्यवधा प्रपि। तच प्रत्यक कदाश्यबारे प्रदक्षिणं हत्या पूर्ववक्षिणे दिग्भागे तिष्ठम्तीति। चिम्ति कवाचित्तिर्यश्व पत्र,कदाचिम्मनुध्या एव. कदाचित
जोइसियभषणर्षतर-देवीभो दक्षिणेण पविसति ।। ६षा पथ तथा कदाचिम्मिश्रा घा। पतंच प्रत्यकं .मिश्रा या चिति दक्षिणावर-दिसिम्मि तिगुणं जिणं काउं११७।।
प्रविशता निर्गछन्तश्च यदितव्याः । गत समवसरणबारम् । ज्योतिष्कभवनम्यम्तवम्यो दक्षिणेन द्वारेण प्रविश्य त्रि
(E) मधुना द्वितीयद्वारप्रतिपादनार्थमाहगुणं प्रदक्षिणं जिनं करवा दक्षिणापरदिग्भाग पूर्णक्रमेण
सध्वं च देसविरति, सम्म घेच्छइ व होइ कहणा उ । तिष्ठन्ति।
इहराममूहलक्खो , न कहेइ भविस्सइ न तं च । ४६४ । अषरेण भषणवासी, अंतरजोइससुरा य अतिगंतुं ।। बितिशय उभयत्रापि सम्बध्यत, सर्व मर्यविरति देशधिप्रयरुत्तरदिसिभागे, चिट्ठति जिणं नमंसित्ता ।। ११८॥ रति सम्याप या प्रहाति । धाशम्नस्य व्यवहितः सम्बन्धः, अपरण-पश्चिमद्वारेण भवनयासिम्यो ध्यन्तरज्योतिएकरन
तनः कथना-कधन भगवतः प्रवर्तत 'दहर'ति इतरथा अराख अभिगत्य--प्रविश्य जिम नमस्कत्यापरोत्तरविग्भागे
मूढलच्याः समस्तक्षेयाविपरीतपेदनाः किनकथयति? पाहपाययकोण इत्यर्थः , पूर्वक्रमेण तिष्ठन्ति ।
यपर्व समयसरणकरणमयासो विधामामनर्थकः . फतेऽपि
मियमता कथनाविन्यन माह-यियतिम तब यनगपति समहिंदा कप्पसुरा, राया नरनारिभो उदिएणणं ।
कथयति मन्यतमोऽप्यन्यनमसामायिक प्रतिपद्यत इति पषिसित्ता पुरुषुत्तर-दिस िचिट्ठति पंजलिया ॥११॥ भविष्यकालनिर्देशखिकालापलक्षकः।
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(४७३) समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण () अथ कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः ति । अथ नागच्छति अवशया ततोऽनागते सति 'लहुय' प्रतिपद्यन्ते ?, इत्येतदाह
त्ति-चतुर्लघवः प्रायश्चित्तम् । गतं केवड्य'त्ति-द्वारम् । मणुए चउमन्नयरं, तिरिए तिन्नि व दुवे व पडिवजे।
(१२) अधुना रूपपृच्छाद्वारप्रकटनार्थमाहजइ नत्थि नियमसो चिय, सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती ५६५
सव्वसुरा जइ रूवं, अंगुट्ठपमाणयं विउव्वेजा। मनुष्ये प्रतिपत्तरि चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत्-अन्यः | जिणपादंगुहूं पइ, न सोहए त जहिंगालो ।। ५६६ ।। तरसामायिकप्रतिपत्तिर्भवति, पाठान्तरं-'मणुओ चउमन्त्र- अथ कीदृग् भगवतो रूपम् ?, उच्यते-सर्वे सुरा अशेषसुन्दयरं' तत्र मनुष्यश्चतुर्णामभ्यतरत् प्रतिपद्यते इति व्याख्ये- ररूपनिर्मापणशक्त्या यदि अङ्गष्ठप्रमाणकं रूपं विकुर्वीरन् यम्, तियत्रीणि वा सर्वविरतिवर्जानि द्वे वा सम्यक्त्वश्रु- तथापि तजिनपादाइछ प्रति न शोमते यथा अकारः। तसामायिके प्रतिपद्यते इति । यदि नास्ति मनुष्यतिरश्चां
साम्प्रतं प्रसङ्गतो गणधरादीनां रूपसंपदमभिधित्सुराहकश्चित्प्रतिपत्ता ततो नियमत एव सुरेषु सम्यक्त्वप्रति
गणहर आहार अणु-त्तरा य जाव वणचक्किवासुबला । पत्तिर्भवति। स च भगवानित्थं धर्ममाचष्टे
मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा ।। ५७० ।।
तीर्थकररूपादणधराणां रूपमनन्तगुणहीनं भवति तीर्थकरे. . तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं ।
भ्यो गणधरा रूपेणान्तगुणहीना भवन्तीति भावः। गणसव्वेसिं सभीणं, जोयणणीहारिणा भयवं ।। ५६६ ।। घरेभ्यो रूपेण खल्वाहारकदेहा अनन्तगणहीना श्राहारकदेनमस्तीर्थाय प्रवचनरूपायेत्यभिधाय प्रणामं च कृत्वा कथ- हेभ्यो रुपणानन्तगुणहीनाः-'अणुत्तरा' अनुत्तरवैमानिका, यति प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य साधारणेन शब्देन अर्द्धमागधभा- एवं ग्रेवेयकाऽच्युतारणप्रारपतानतसहस्रारमहाशुक्रलान्तकपारमकेन । केषां साधारणेनेत्याह-सर्वेषाममरनरतिरश्चां सं.
ब्रह्मलोकमाहेन्द्रसनत्कुमारेशानसौधर्मभवनवासिज्योतिष्कशिनाम् । किं विशिष्टेन योजननिर्झरिणा-योजनव्यापिना
व्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमहामाराडलिकानामनन्तरानभगवान , किमुक्तं भवति-भगवतो ध्वनिरशेषसमवसरणस्थ
न्तरापेक्षया रूपेणानन्त गुणहीना अवगन्तव्याः । तथा संशिजिशासितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनं भवति भगवतः साति
चाह- जाव वणचक्किवासुबला । मंडलिया जाशयत्वादिति ।
हीण' त्ति-यावद् व्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमाण्ड(१०) ननु कृतकृत्यो भगवान् ततः किमिति तीर्थप्रणाम
लिकाः तावदनन्तगुणा हीनाः, 'छट्ठाणगया भव सेस'
त्ति-शेषा राजानो जनपदलोकाश्च पदस्थानगता भवन्ति । करोति ?,उच्यते
अनन्तभागहीना वा असंख्येयभागहीना वा संख्ययभातप्पुब्बिया अरहया, पूइयपूया य विणयकम्मं च । गहीना वा संख्ययगुणहीना वा असंख्ययगुणहीना या कयकिच्चो वि जह कह, कहए नमए तहा तित्थं ।५६७। अनन्तगुणहीना वा इति। तत्पूर्विका-प्रवचनरूपतीर्थपूर्विका अर्हता--तीर्थकरता
उत्कृष्टरूपतायां भगवतः प्रतिपादयितुं प्रक्रान्तायामिदे प्रवचनविषयाभ्यासवशतस्तीर्थकरत्वप्ताप्तः । यश्च यत उप
प्रासङ्गिक रूपसौन्दर्यनिबन्धनं संहननादिप्रतिपादयन्नाहजायत स तं प्रणमतीति भगवान् तीर्थ प्रणमति । तथा पूजि- संघयणरूपसंठा-णवप्लगइ सत्तसारऊसासा । तेन पूजा पूजितपूजा, सा चास्य कृता भवति । पूजितपूजको एमाइऽणुत्तराई, भवंति नामोदया तस्स ॥ ५७१ ॥ हि लोकः भगवाश्च भुवनत्रयेऽपि पूज्यस्ततो यदि भगव- संहननं-बज्रर्षभनाराचं रूपमुक्तलक्षण संस्थान-समचतुरनं बता पूजितं भवति ततः सकलेऽपि जगति तत्पूजितं भव
वों-देहच्छाया गति-गमन सत्त्व-वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशतीति प्रणमति, तथा विनयकर्म च वक्ष्यमाणवैनयिकधर्म- मादिजन्य आत्मपरिणामः, सारो द्विधा-बाह्यः, प्रान्तमूलं कृतं भवति । किमुक्तं भवति ?-विनयमूलो धर्मो भगवता
रश्च । बाह्यो गुरुत्वम् , श्रान्तरो ज्ञानादि, उच्छासः प्रतीतः, प्रज्ञापनीयस्तद्यदि प्रथम स्वयमेव भगवान् विनयं प्रयुके |
तत एतेषां पदानां द्वन्द्वमेवमादीमि वस्तूनि भादिशब्दाद्तता लोकः सम्यग् विनयं प्रज्ञाप्यमानं श्रद्धत्ते करोति ।
रुधिरं गोक्षीराभमित्यादिपरिग्रहः, अनुत्तराणि तस्य भगवअथवा-यथा कृतकृत्योऽपि भगवान् कथा कथयति तथा|
तो नामोदयान्नामकर्मोदयाद् भवन्ति । तीर्थमपि नमति । आह-नन्विदमपि धर्मकथनं भगवतः
आह-अन्यासां प्रकृतीनां बेदना गोत्रादयो नाम्नो बा ये कृतकृत्यस्यायुक्तमेव,न, तस्य तीर्थकरनामकर्मविपाकप्रभाव- इन्द्रियादयः प्रशस्ता उद्या भवन्ति ते किमनुतरा भगवतः स्वात् । उक्तं च प्राक-'तं च कई बेइजइ' इत्यादि। छमस्थकाले केपलिकाले या भवन्ति किंवा नेति ?, उच्यते(११) क कन साधुना कि यतो वा भूभागात्समवस
पयडीणं अन्नासु वि, पसत्थउदया अणुत्तरा होति । रणे खल्वागन्तव्यम् ? अनागच्छतो वा किं
खयउवसमे वि य तहा,खयम्मि अविकप्पमाहंसु।। ५७२।। प्रायश्चित्तमित्यत आह
'अन्नासु वि' त्ति-षष्ठयर्थे सप्तमी,अभ्यासामपि प्रकृतीनाम् जत्थ अपुग्योसरणं, न दिट्ठपुच्वं व जेण समणेणं ।
अपिशब्दानाम्रोऽपि प्रशस्ता उदयावा उचैर्गोत्रादयो भवन्ति, चारसहिं जोयणहि, सी एइअणागए लहुगा ।।५६८ किम इतरजनस्येव ? नेस्याह अनुत्तरा-अनन्यसहशा इत्यर्थः। यत्र तत्तीर्थकरापेक्षया अपूर्वम्-अभूतपूर्व समवसरणं न । 'खोवसमे वि य'त्ति-क्षयोपशमे सति ये दानलाभादयः रएपूर्व वा येन श्रमणेन स द्वादशभ्यो योजनेभ्यः आगच्छ- कार्यविशेषा अपिशब्दादुपशमेऽपि ये केचन तेऽपि अनुत्तरा
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(४७३) ममोसरख अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण भवन्तीति क्रियायोगस्तथा कर्मणः क्षये प्रात्यन्तिककर्मक्षये | णभूतिरचिन्त्या गुणसम्पद्भगवतः स्वभाविकी, ततो यस्मासति क्षायिकज्ञानादिगुणसमुदयमविकल्प-व्यावर्णनादिक । देते गुणा अतो युगपत्कथयत्ति, गतं पृच्छा द्वारम् । ल्पनातीतं सर्वोत्तममाख्यातवन्तस्तीर्थकरगणधराः ।
(१५) अधुना श्रोतृपरिणामः पर्यालोच्यते, तत्र यथा स. (१३) श्राह-असातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नाम्नो वाऽप्रश- संशयिना सा पारमेश्वरी वागशषसंशयोन्मूलनेम स्ताः कथं तस्य दुःखदा न भवन्ति ?, उच्यते
स्वभाषया परिणमत तथा प्रतिपादयतिअस्सायमाइयाभो, जा वियप्रसुभा हवंति पयडीभो।
वासोदयस्स व जहा, वनाई होंति भायणविसेसा । निंबरसलवो ब्व पए,न होंति ता असुहया तस्स ।।५७३।।
सम्वेसि वि सभासा, जिणभासापरिणमे एवं ॥५७७॥ असाताचा या अपि च प्रकृतयोऽशुभा भवन्ति, भपि मि
घर्षोदकस्य-वृष्टषुदकस्य वाशब्दादन्यस्य वा यथैकम्पस्य म्बरसलय इव लवो बिन्दुः पयसि क्षीरे न भवन्ति ता असु
सतो भाजनविशषात् वर्णादयो भवन्ति, कृष्णसुरभिमृत्ति
कायां स्वच्छ सुगन्धि रसवश्च भवति ऊपरे तु विपरीतम् । खदास्तस्य भगवतस्तीर्थकृतः । उक्रमानुषङ्गिकम् । प्रकृतं द्वारमधिकृत्य प्रोच्यते । तत्र कश्चिदाह उस्कृष्टरूप- |
एवं सर्वेषामपि श्रोतृणां स्वभाषया जिनभाषापरिणमते । तथा भगवतः किं प्रयोजनमत पाह
तीर्थकरवाचः सौभाग्यगुणप्रतिपादनार्थमाहधम्मोदएण रूवं, करेंति रूवस्सियो वि जइ धम्म । साहारणासवते , तदुवभोगो उ गाहगगिराए । गिज्झवतो य सुरूवो, पसंसिमो तेण रूवं तु ॥५७४।।
न य निव्बिाइ सोया,किदिवाणियदासिनोहरणा।५७८। धर्मस्योदयो धर्मोदयस्तन रूपं भवतीति श्रोतारोऽपि धर्मे
साधारणा भगवतो वाणी अनेकप्राणिषु स्वभाषात्वेन प्रवर्तन्ते, तथा कुर्वन्ति रूपस्विनोऽपि-रूपयन्तो यदि धर्म
परिणमनात् , नरकादिभयरक्षणपरत्वात् असपत्ना-प्रततः स शेषैः सुतरां कर्तव्य इति थोतृवुद्धिः प्रवर्तते । तथा
सहशी-अद्वितीया, साधारणा चासौ असपत्ना साधारणाs. ग्राह्यवाक्यश्च सुरूपो भवति , चशब्दात् श्रोतृणां रूपा- सपना तस्यामुपयोगस्तदुपयोग एव भवति श्रोतुः तुचभिमानापहारी अत एतैः कारणैर्भगवतो रूपं प्रशंसामः । शब्दस्यावधारणार्थत्वात् कस्याम् ?, प्राहयतीति ग्राहका सा अथवा-पृच्छेति भगवान देवनरतिरश्वा प्रभूतसंशयिनां
चासौ गीश्च प्राहकगीस्तस्यां ग्राहकगिरि , उपयोगे सत्यपि कथं व्याकरणं कुर्वन् संशयथ्यच्छित्ति करोती
अन्यत्र निर्वेदो रश्यते, तत माह-न च निर्विद्यते श्रोता,कथ
मयमर्थः खल्वयगन्तव्य इत्याह-किढिवणिग्दास्यु(को)दाहरत्युच्यत-युगपत् । किमित्याह
णात्, तदम्-एगस्स वाणियस्स एगा किढी दासी, किढी कालेण असंखेण वि, संखाईयाण संसईणं तु । नामथेरी, सा गोसे कट्टाणं गया, तरहाछुहाकिलंता मज्झरहे मा संसयवोच्छित्ती, न होज क्रमवागरणदोसा ॥५७शा श्रागया। अतिथोवाणि कट्टाणि प्राणियाणि त्ति पिट्टिता, यदि पकैकस्य परिपाट्या एकैकं संशयं छिन्द्यात् ततः भुक्खियतिसिया पुणो पटविया । सा य वह कटुभारं गहाय संख्यातीतानां देवानां संशयिनां संख्येयेनापि कालेन सं- श्रीगाईतीए पारिसीए श्रागच्छति, कालो य जेट्टमासो, अह शयव्यवच्छित्तिन स्यात् , कुत इत्याह-क्रमेण व्याकरणं क्रम- ताए थेरीए कटुभाराश्रो पगं कटुं पतिय, ताहे ताए प्रोणमि. च्याकरणं स एव दोषः क्रमब्याकरणदोषस्तस्मात्ततो युग- सा तं गहियं । तं समयं च जोयरामीहारिणा सरेण भयवं पद् व्याकरोति ।
तित्थयरो धम्म कहे । साथेरी तं सई सुणतीतहेव श्रोणता. (१४) युगपद्व्याकरणे गुणमुपदर्शयति
सोउमाढत्ता, उराहं खुहं पिवासं परिस्समं च न विदह । सूर
स्थमणो तित्थयरो धम्मं कहेउमुट्टितो, थेरी गया । एवंसव्वत्थ अवि समत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणं च ।
सव्वाउयं पि सोया, खिवेज्ज जइ हु सययं जियो कहए। सवण्णुपञ्चरो वि य,अचिंतगुणभूइयो जुवगं ।।५७६॥
सीउएहखुप्पिवासा, परिस्समभएवि अविगणंतो।।५७६।। सर्वत्र-सर्वसत्त्वेषु समत्वम्-अधिषमत्वं युगपत्कथनेन भ
भगवति कथयति भगवत्समीपवत्येव सन् सर्वायुष्कमणि गवतो रागद्वेषरहितस्य प्रथितं भवति, अन्यथा तुल्यकालसंशयितां युगपजिज्ञासुतयोपस्थितानां कालभेवकथने रागे.
श्रोता क्षपयेत् , यदि हुसततमनवरतं जिनः कथयेत् , किं वि
शिष्टः सन् इत्याह-शीतोष्णक्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यवितरगोचरचित्तवृत्तिप्रसङ्गः, सामान्य केवलिनां तत्प्रसङ्ग इति |
गणयन् । गतं श्रोतृपरिणामद्वारम्।। चेन तेषामित्थं वेशनाकरणायोगात् । तथा ऋद्धि विशेष ए
(१६)सम्प्रति दानद्वार भाव्यते, तत्र भगवान् येषु प्रामनगरा व तावत् प्रथितो भवति यत् युगपत्सर्वेषामेव संशयिना
दिषु विहरति तेभ्यो वार्ता ये खल्वानयन्ति मशेषसंशयव्यवच्छित्ति करोति । तथा अकालहरणं भवति
तेभ्यो यत्प्रयच्छन्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं भगवता युगपत् संशयोपनोदात् । क्रमेण कथन तु क
चक्रवादयस्तदुपदर्शयन्नाहस्यचित् संशयिनोऽनिवृत्तसंशयस्यैव मरणं स्यात् , नच भगवन्तमप्यवाप्य संशयनिवृत्त्यादिफलरहिताःप्राणिनो भवः
वित्ती उ सुवासस्स, वारसश्रद्धं च सयसहस्साई। न्तीति युक्तम् । सर्यशप्रत्ययोऽपि तेषामेघमुपजायते,यथा स.
तावइयं चिय कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं ।। ५८०॥ बेशोऽयं ताऽशेषसंशयापनोदातून स्वल्यसपेश एकका
वृत्तिस्तु वृत्तिरेव नियुक्तपुरुषेयः सुवर्णस्य द्वादशशतसलमशषसंशयापनोदायालमिति । मध्याकरणे त कस्यचिद- इस्राणि अर्द्धच अर्द्ध त्रयोदशसुवर्णलक्षा इत्यर्थः, चक्रवर्तिना नपगतसंशयस्य सतीत्यभावः स्यात् । तथा अचिन्त्य गु- दीयते तथा एतावत्य एष कोटयः प्रीतिदानं चक्रवर्तिनः ।
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( ४७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
समोसरण
तत्र वृत्तियी कालमानेन परिभाषिता नियुक्तपुरुषेभ्यो दीयंत, प्रीतिदानं पद्भगवदागमन निवेदिते परमधियुक दीयते तथा वृतिः संवत्सरनिया प्रीतिदानमनियतमिति । एयं चित्र पमा, नवरं स्वयं तु केसवा देति ।
मंडलियाण सहस्सा, विसी पी (दास) सय सहस्मा | ५८१| एतदेव प्रमाणं वृत्तिप्रीतिदानयोः केशवानां नवरं रजतं रूप्यं केशवा वासुदेवा वदति तथा माराडलिकानां राज्ञामत्रया दयानि सहस्राणि प्यस्य वृतिदानं प्रीतिदानं शतसहस्राणि लक्षाणि अत्रयोदशानि
किंमते प महापुरुषाः प्रत्याहभविवाणुरू, भने विप देति इम्ममाईया ।
सोऊय जियागमणं, नियुतमणिभोइए वा ।। ५८२ ।। इभ्यो महाधनपतिरादिशब्दानगरमामभोगिकादिपरिग्रहः, अपि इयादा भविभवानुरूप भया जिनागमन वदति, केम्य: १, इत्याह-नियुक्तेभ्यो ऽनियोजितभ्यो वा ।
अथ तेषामियं प्रयच्छतां के गुणाः ?, उष्यंतदेवाविमिती, प्याधिरकरणसमगुकंपा । सातोदयदागुणा, पभावणा वेव तित्थस्स || ५८३ || देवानुवृत्तिः कृता भवति, मेषा अप्यनुवर्त्तिता भर्यात, कथा देवा भगपूजकुलप्रसाद ददति अनुपता भवन्ति तथा भर्भिगवतः कृता भवति, पुजा । तथा अभिनय भावकाणां स्थिरकरणं तथा वासनियेदकस्य सरस्यानुकम्पा कृता भवति तथा साता सातवी कर्म प मुपचीयते न तिमीतिनगुणा भवन्ति तथा प्रभाबना तीर्थस्यैवं कृता भवतीति गतं दानद्वारम् । (१७) अधुनामाद्वारमधिकृत्य प्रोच्यते, तत्र भगवान् प्रथम संपूर्णपदवीधर्माचं मात देयमाथिति पतिरित्यर्थः अथ - राया व राममच्यो, तस्सासह परजयपथ मावि दुष्पलिडियलिय संलागादयं फलमा ४८४ राजा-मालिकादि राजामात्या अम
मन्त्री तस्य रामात्यस्य पा असति-प्रभाषे नगर मिश्रा विशिलोकसमुदायः परं तत् करोति । प्रामादिषु जनयाम वासी लोका परिशि परिमाण वा क्रियन इत्यादि पुलिया) चिली बलिया इटितानां तम्बुलाना, 'कलमा' इति प्राकृतशेएया कलमानाम् ब्राढकं चतुःप्रस्थप्रमाणं करोति । किविशिष्टानामित्याह
भाइय पुणाऽऽणियाणं, अखंडफुडिया फलगस रिपाथ। फीरह बली सुरा वि य, तत्थेव हंति गंथाई ॥ ५८५ || भाजिता - ईश्वरादिगृहेषु बीननार्थमर्पिताः स्तभ्यः प्रत्याभीताः पुमानीता भाजिता पुनराता किंविशियानाम् इत्याह-एडा:-सम्पूर्णा प्रस्फुटिताराजरहिता अखडाश्च ते प्रस्फुटितामेति विशेषएल
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समोसरण मासस्तेषाम्, 'फलकसरिताएं' ति फकवीनितानाम् एवंभूतानामाढकः क्रियते । बलिः सिद्धः, सुरा अपि च तत्रैव बलौ प्रक्षिपन्ति गन्धादीन् । गतं देवमाल्यद्वारम् । श्र० म०
१ अ० ।
अधुना मापानयनद्वारम् तमर्थापरिमाि बलमुपादाय राजादिदिगणपरिवृतां महना पड़पट दादिर्यममादेन सकलमांप दिग्मण्डलमापूरयन्ागत्य पूर्वद्वारेण प्रवेशयति । ब्राह च चूर्णिकृत् -"तं ढगे तंदुला सिद्धं देषमल्ले राया वा रायमच्यो वा गामो वा जगवा वा हाय महया तूरियरवेणं देवपरिड पुरछिमिलणं दारेण पविसद्द" ति । पृ० १३०२ प्रक० ।
प्रियेश्यमाने भगवानपि धर्मदेशना मुपसंहरतीत्याह-
बलि विससमकाल, पुष्पहारेय ठाइ परिकहया । तिगुणं पुरो पाढा तस्सद्धं भवडियं देवा ॥८६॥ पूरे बलेयतरे प्राकाराभ्यन्तरे प्रदेश तत्समकालं तिष्ठति उपरमते धर्मा-धर्मकथा मु भवति श्रभ्यन्तरे प्राकाराभ्यन्तरे या बलिः प्रविशति तदा भगवान् धर्मकथामुपसंहृत्य तूष्णीकोऽयतिष्ठते ततः स राजादिग्रहस्तो परिवृत भगवतीक हत्या दक्षिणीकृत्य तं तत्यादान्तिकं पुरतः पातपति तस्यामपतितं देषा
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अयं महिषो असे होइ पागयजणस्स । सव्वामयपसमणी, कुप्पइ नमो य धम्मासे || ५८७ ॥ पप अप नराम्रइत्यर्थः अवशेष जतिको प्रतिभा स बामी जनस्तभ्य, सामर्थ्य क धि यस्य शिरसि प्रक्षिप्यते तस्य पूर्वोत्पनां व्याधिः जलूपशमं याति, अपूर्वा परमासान् ग्राय न भवति । तथा चाह- समयमशमनः सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देशः प्राकृतश्वात् कुप्यति नाम्यश्च परमासान् पादित्थं बली प्रक्षिप्त भगवान प्रथमप्रकाराद्वारेण नित्य द्वितीय प्रकारानं पूर्वपदिशि का समाधा (१) सम्मति परिि
स्थिते द्वितीय पीडयामाचगणधरो या धर्ममा स्याम्यतिः के कारण ि
तीर्थकर पव धर्म न कथयति ?, तथा ग्राहबिसीसगुणदीवणा पचओ उभयत्रो वि सिस्सापरियकमो विय, गराहरफड ये गुणा होंति ५८८ परिभ्रमनाशी भवनि तथा शिष्य
गुपमा शिष्यगणाना च कृतार्यात तथा प्रत्य उभयतोऽपि जायते यथा भगवनाऽभ्यधाषि तथा गरारेणापि परिषदतरं तनुवादिनि प्रत्ययः श्रोतॄणां भवति, यथा नान्यथावाद्ययमिति तथा शिष्याचार्यक्रमोऽपि दर्शितो भवति आचार्याय शिष्येण तदर्थाग्यायामे कर्तव्यमिति । पते राधरकथने गुणा भवन्ति ।
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( ४७५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
समोसरण
आह स गणधरः क निषक्षः कथयति । उच्यतेरावणीयसीहा-सणे शिविट्ठो व पायपीठे । जेडो अनयरो वा, गणहारी कहेइ बीयाए ||५८६ ॥ राज्ञा उपनीतं - राजोपनीतं तच तत् सिंहासनं राजोपनीतसिंहासनं तत्र तथा उपविष्टस्तदभावे तीर्थंकरपादपीठे बा उपविष्टः स च ज्येष्ठः श्रम्यतरो या गणम् - साध्यादिसमु दायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी द्वितीयायां पौरुष्याम् कथयति ।
मह स कथयन् कथं कथयतीति १, उच्यतेसंखाती विभवे, साहइ जं वा परो उ पुच्छिजा । नणं अवाइसेसी, वियाई एस उमत्थो || ५६० ॥ संoयातीतामपि संवयेयामपीत्यर्थः भवान् 'साहेर' इति देशीवचनमेतत् कथयति किमुतं भवति ? -- असंश्येयेषु भवषु यत्रभवत् भविष्यति। यज्ञा वस्तुजातं परः पृत् तत्सर्वे कथयति, अमेनाशेषाभिलाप्यपदार्थप्रतिपानशकिराविता, किं बहुना ?, मच--मैच णमिति वाक्यालंकारे, ,' अमतिशेधी' अनतिशयी अबध्याद्यतिशपरहित इत्यर्थः, विजानाति यथा एव गणधरश्वस्य इति अशेषप्रश्मोत्तरप्रदानसमर्थस्याचस्य एवं तावत्समवसरणमध्यसा सामान्येनोका । प्रा० ० १ ० ० प्रा० । (११) समवसरण एपः । नमिऊजियं बीरं, कप्पं सिरिसमवसरणरमणाए । ghereforeयाहिं, गाहाहिं वेव जंपमि ।। १ ।। बाऊ मेहा कमसो, जो अणभूमीहि सुरहिजलबुट्टे ।
रणभूमिरयणं, ति पुरा कुसुमविया ||२|| पायाति का कमसो, कुति वररुष्पकणयरयणमयं । कंच मणिकविसी-ससोहिमा भव्य जोइषणा ॥३॥ गाउयमेगं खस्य - धणुपरिभिमंतरं तेसिं ।
गुलिकरणी, तित्तीसं धनुबाहई || ४ || पंचसयधणुवर्त्त, चउदारबिराइयाय बप्पा | सम्प्पमायमेयं, नियनिहत्थेण य जियायं ॥ ५ ।। मोबादसहस्सा, भूमीओ गंतु पढमपायारो । पछाप, पुण्यो वि सोवाणपणसहस्स ।। ६ ।। तत्थ वि बीओ बप्पो, पुष्षुत्तविही तयंतरे नेया । तत्तो तह एवं बीससहस्सा प सोमायो ॥ ७ ॥ दस पंच पंच सहस्सा, सब्बे हत्थु व्य इत्थमित्थिष्ठा । बाहिरमभितर, बप्पाण कमेय सोमायं ॥ ८॥ सम्म मणिपीठं, भूमीश्रो सदुखि कोसुर्थ । दोधयवित्थि, चउदारं धणुजियम || ॥ सिंहासाइचउरो, मणिपडिडिभाइ तेसु चउरूषो । पुम्बमहे ठाइ सयं, त्तत्तयभूमिश्रो भयं ॥ १० ॥ सम हिजो पिलो, तहा असोगो दुसोलस भणुषो । डिबियप किवं तु इति तरिया ।। ११ ॥
समोसरण
परिसामग्गे श्रासु, मुणिवरवे माथिणीउ समणी ओो । भवणवइजोइदेवी, देवा वेमाणियनरित्थी ॥ १२ ॥ जोणसहस्सदंडो, धम्मभो फुडइ केउसंकिमो । दो जखचामरधरा, जिण पुरो धम्मचक च ॥ १३ ॥ ऊसिश्रधयमणितोरण-भड मंगल पुनकलसदामाई । पंचाल भाई, पदारं धूवघडिया || १४ | हेमसिमरत्तसामल-वण्णासरवयणजोइभत्रणवद् | परदारं वसुबप्पे, पव्वाइ सुगंति पडिवारा ।। १५ ।। जयविजयादि अवरा, जिभगोरा रक्तकणयनीलाभा । देवी पुष्वकमेणं, सत्थकरा वंतिकष्यमए || १६ ||
ममंडिया तह, तुंबरूखंडंग पुरिस सिरिमाली | बिपदारदोषि पासेसुं ठंति पइवप्पं ॥ १७ ॥ महिषप्पे जाणाई, बीएस तु विभिभभाषगया । तिरिश्रागमणमयत्थं देव स पुण रयणमप्यवहिं ॥ १८ ॥
परमके दो दो बाबी वि हुंति बईति । उससमोसरणे, इग इग बाबीउ कोयेसुं ।। १६ ॥
सीना फल लसय सम्बध सभ्य । तिरथयरपायमूले, करेंति देवा निषयमाया ॥ २०॥ मपीचंद भासण छतं च चामराओ य । जंच करणिअं करेंति ते माणमंतरिया || २१ | साहारा उसरणे, एवं अमित श्रोसरह ।
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our तं सब्धं, करेह भयणा उ इअरेसिं || २२॥ सूरुदय पश्चिमाए, उग्गाहंतीइ पुष्यच एव । दोहि पउमेहि पाया, मग्गेण य हुंति सत्तमे ||२३|| मादाय पुष्पहो, तिदिसि पडिबगाउ देवकाया । जिडुगणी असो वा दाहिणिपुरुषे अदूरम्मि ||२४|| जे से देवेहि कया, तिदिसि पडिरूपगा जियबरस्त । तेचि तपभाषा तथाणुरू हवइ रूबे ||२५| इड्डि महनिय पडिवयं-ति विश्रमवि जंति पयमंता । न षि अंतया न पिकहा, न पलप्पर मच्छरो ममयं । । २६ ।। तिस्थपणानं कार्ड कहे साहारयेण सरे । सम्मेसि सभी जोनयनीहारिया भयषं ॥। २७ ॥ are gsोसरणं, प्रदिपुबक व जेथा समयेयं । बारसहि जोगये हिं, सो एइ प्रयागमो लहुआ ||२८|| साहारयासते, तदुषभोगो म गाहगगिराए । नयन सोया, फिडिवाणि प्रदासिमाहरणा।। २६ । समापि सोमा, भबिज्ज जइ हु सययं जियो कहर | सीप पिवासा, परीस हे अविगतो य ।। ३० । मिति समयस्स, पारस भयं च सबसहस्साई । arer चिय कोडि, पीइदार्थ तु किस्स ||३१||
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(४७६) समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण एयं चेव पमाणं, नवरं रयणं तु केसवा देंति।
दकवर्षे कुर्वन्तीति स्थितिः। कल्पना तु पूर्ववदेवेति गाथार्थः।
तथामंडलिआण सहस्सा, पीइदाणं सयसहस्सा ॥ ३२॥ भत्तिविभवाणुरूवं, अनेवि य देंति इन्भमाईया।
उउदेवीणाहवणे, गंधड्ढा होइ कुसुमवुट्टि त्ति ।
अग्गिकुमाराहवणे, धूवं एगे इहं बेति ॥१४॥ सोऊण जिणागमणं, निउत्तमणिोइएसुं वा ॥ ३३॥
ऋतुदेवीनां वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्तशिशिराभिधानदेवता. राया य रायमच्चो, तस्सासइ पवरजणवो वावि । नामाहाने-संकीर्तने कृते सति गन्धाख्या-सद्धगुणसमृद्धा, दुबलिखेंडिअवलिकडिश्र-तंदुलाणाढगं कलमा॥३४॥ भवति-वर्त्तते विधेयेति गम्यं, कुसुमवृष्टिदशार्द्धवर्णपुष्पभाइअमुणाणिआणं,अखंड फुडिआण फलगसरियाणं । वर्षः । इतिशब्दः समाप्त्यर्थे । ततश्च कुसुमवर्षकरणेनैव ऋतुकीरइ बलिं सुरा विभ, तत्थेव शुभंति गंधाई ॥३५॥
देवीकर्म परिसमाप्तं भवतीति भणितं भवति । अग्निकुमारा.
काने तैजसदेवसंकीर्तने कृते सति धूपं-कालागुरुप्रभृतिकम् । बलिपविसणसमकालं, पुवद्दारेण ठाइ परिकहणा।
एके-केचन आचार्या इह-समवसरणव्यतिकरे, युवते-अतिगुणं पुरो पाडण, तस्सद्धं अवडिअं देवा ।। ३६ ॥ ग्निभाजनप्रक्षेप्यतया प्रतिपादयन्ति, अन्य तु सामान्यतो भद्धद्धं अहिवइणो, अवसेसं होइ पागयजणस्स।
देवाहाने यत आवश्यकटीकाकृतोतं धूपटिका विकुर्वन्ति सब्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नऽले अछम्मासा ॥३७॥
त्रिदशा एवेति गाथार्थः।
तथाराओवणीअसीहा-सणोवविट्ठो व पायपीढम्मि।
वेमाणियजोइसभव-णवासिया हवण पुव्वगं तत्तो। जिद्दो अन्नयरो वा, गणहारी करेइ वीआए ॥ ३८ ॥
पागारतिगमासो, मणिकंचनरुप्पवमाणं ॥१५॥ इअ समवसरणरयणा, कप्पो सुत्ताणुसारो लिहियो ।
वैमानिकाच-सौधर्मिकादयो ज्योतींषि च-चन्द्रादयो लेसुद्देसेण इमो, जिणपहसूरीहि पढिअब्बो ।। ३६ ॥ भवनवासिनश्चामुरादयस्तेषामाहानं-संशम्दनं पूर्व-प्रथम ती०४४ कल्प । प्रा०चूछ। वृ०। जिनप्रतिमाऽग्रे तत्प्रतिकृ- यत्र प्राकारत्रयन्यासकरण तत्तथा, क्रियाविशषणमिदं, ततो स्पनुकरणे, पश्चा०।
धूपदानानन्तरं प्राकाराणां-शालानां त्रिकस्य-त्रयस्य न्यासा. (२०) स च समवसरणादिरचनादिरूपः, अतः समवसर- न्यसनं प्राकारत्रिकन्यासः,कर्त्तव्यो भवतीति शेषः । किंभूपरचनां तावद्दर्शयन्नाह
तानां प्राकाराणाम् ,इत्याह-मणिकाञ्चनरूप्याणामिव-रत्नबाउकुमाराईणं, आहवणं णियणिएहि मंतेहिं । स्वर्णकलधौतानामिव वर्णश्छाया येषां ते तथा तेषाम् ,भगवमुत्तासुत्तीए किल, पच्छा तक्कम्मकरणं तु ॥ १२॥
तो हि समघसरणे पैमानिकादयो देवा अन्तर्मध्ये बहिधायुकुमारादीनामागमप्रसिद्धदेवविशेषाणामादिशब्दान्मेघ
श्व क्रमेण मणिमयादीन् श्रीन् प्राकारान् कुर्वन्तीति ।
इह च प्राकार इत्यस्य पदस्य समासान्त तस्याप्यन्तकुमाराविपरिग्रहः, आह्वान-संशब्दनं कार्यमिति शेषः। कैरित्याह-निजनिजैः स्वकीयस्वकीयैमन्त्रैः प्रणवनमःपूर्वकस्था
निषष्ठन्ततामाश्रित्य मणिकाञ्चनरूप्यवर्णानामित्यतत्पदं हान्ततन्नामरूपैर्यथासम्प्रदायमागतैः, मुक्ताशुक्त्या मुक्ताफल
विशेषणतया संबध्यते । अथवा-मणिकाञ्चनरूप्यवर्णानां योन्याकारया हस्तविन्यासमुद्रया , किलेत्याप्तसम्प्रदायसू
द्रव्याणां सत्कः प्राकारत्रयन्यास इति गाथार्थः ।
तथाचकमाहानस्य वा अतात्त्विकत्वसूचक, तदतात्त्विकं चाहानेऽपि तेषां प्रायः आगमनासम्भवात् तत्संस्मरणस्यैवेद्द विध.
वंतरगाहवणाओ, तोरणमाईण होइ विस्मासो। यत्वादिति । पश्चादाहानानन्तरं तत्कर्मकरणे तु तेषां प्रायः चितितरुसीहासणछ--त्तचक्कधयमाइयाणं च ॥१६॥ पायुकुमारमेघकुमारादिदेवानां यत्कर्म भूप्रमार्जनोदकसेच- व्यन्तरा एवं व्यन्तरकास्तदाहानात्-संशब्दनात् , 'तोमादिरूपो व्यापारस्तस्य विधानमेव । तुशब्द एवकारार्थः, रणमाईण' त्ति-इह मकारःप्राकृतशैलीप्रभवस्तेन तोरणादीपुनः शब्दार्थो वा । स चैवं दृश्यः पश्चात्पुनः । इति गाथार्थः । नां द्वारावयवविशेषप्रभृतीनाम् आदिशब्दात्-पीठदेवच्छन्दएतदेव दर्शयितुमाह
कपुष्करिण्यादिपरिग्रदो भवति- जायते-विन्यासो-रचना,तवाउकुमाराहवणे, पमअणं तत्थ सुपरिसुद्धं तु । था चैत्यतरसिंहासनच्छत्रचक्रध्वजादीनां च,तत्र चैत्यतरुरगंधोदगदाणं पुण, मेहकुमाराहवणपुव्वं ॥ १३ ॥
शोकवृक्षः अथवा-मचैत्यानि जिनप्रतिबिम्बानि तरुरशोकबू. वायुकुमाराहान-मरुत्कुमारदेवसंशब्दने कृते सतीति गम्यं |
क्षः सिंहासन-सिंहाकृतियुक्ताविष्टरं छत्राण्यातपत्रयं चक्रंप्रमार्जन-भूमिशुद्धिरूपं कर्त्तव्यं भवतीति गम्यम् । 'तत्रे'ति
धर्मचक्रं, ध्वजाः-सिंहध्वजचक्रध्वजमइन्द्रध्वजगोपुरादिसमवसरणभूमौ, सुपरिशुद्धं तु सर्वकचबराद्यपहरणेनाति
ध्वजाच,आदिशब्दात्-पत्रचामरपरिग्रहः,एतानि हि व्यन्तसुद्धमेव, पते किल मयाऽऽहता वायुकुमारदेवा भगवत्समव
राः समवसरणे विदधति । यदाह-चेदुमपीढछंदग,अासणसरग्णभुवं शोधयम्तीति कल्पनयेति हृदयम्। गन्धोदकदानं सु
छत्तं च चामरायो य । जं चऽनं करणिजं, करेंति तं वाण
मंतरिया ॥१॥ इति गाथार्थः। रभिजलवर्षणं पुनःशब्दः पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्सरवाक्यार्थस्य
तथाविलक्षणताप्रतिपादनार्थः मेघकुमाराहानपूर्व मेघकारिदेवसंशब्दनपुरस्सरं स्वयमेव कार्य, भगवत्समवसरणे हि वा
भुवनगुरुणो य ठवणा, सयलजगपियामहम्स तो सम्म । युकुमारैर्भूमिगुखौ कृतायां रजःप्रशमना मेघकुमारा मन्धो- उकिट्ठवमगोवरि, समवसरणबिरुवस्स ।। १७॥
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समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण भुवनगुरोश्व-त्रिभुवननायकस्य पुनः स्थापना-मईतः | दिशि । नवरं केवलं निर्दिष्ट अभिहिताः। समयकेतुभिः-प्रब' स्थापनान्यासः कर्तव्य इति शेषः । किंभूतस्य लोके पिता पू. चनचिहभूतैरिति गाथार्थः। ज्यः पितामहस्तु पूज्यसरः पितुरपि पूज्यत्यासतः सक
तथालजगत-समस्तभुषमजनस्य पितामहब पितामहः सक
वेमाणियदेवाणं, णराण णारीगणाण य पसत्था। लजगत्पितामहः । अथवा-सकलजगतो धर्मः पिता पालना.
पुवुत्तरेण ठवणा, सब्वेसि णियगवलेहिं ॥२१॥ भियुक्तत्वात्तस्यापि भगवान पिता भगवत्प्रभवत्वाद्धर्मस्येति, पितुः पिता पितामहः, सकलजगतः पितामहः इति षि
विमानेषु भवा वैमानिकास्ते च ते देवाश्च सुरा इति समाप्रहः, अतस्तस्य 'तो' त्ति-ततश्चैत्यतरुसिंहासनादिन्यासान
सोऽतस्तेषाम् , तथा नराणाम् नृणां, नारीगणानां मनुष्यन्तरं सम्यग्-अवैपरीत्येन, क स्थापना कार्या ?, इत्याह-उ- स्त्रीसमूहानामिद्दच गणशब्दोपादान पुरुषापेक्षया स्त्रीजनस्य स्कृष्टवर्णकस्य प्रधानचन्दनस्योपरि उपरिधात्-उत्कृष्टवर्ण- बहुत्वख्यापनार्थ, चशब्दः समुच्चये, प्रशस्ता-मङ्गल्या पूर्वोकोपरि, किंभूतस्य भुवनगुरोः? समवसरणे जिनधर्मदेशना
त्तरेण-पूर्वोत्तरस्यां दिशि स्थापना-न्यासः कार्येति शेषः । भूमौ यानि देवतानिर्मितानि तस्यैव बिम्बानि-प्रतिकृतयस्ते
स्थापनाया एव विशेषार्थमाह-सर्वेषां समस्ताना मनुष्येषु पामिव रूपं स्वभावो यस्य स समवसरणबिम्बरूपोऽतस्त
वर्णविशेषाभावाद्भवनपत्यादिदेवानां निजवणैः स्वकीय २ स्य चतुर्मुखस्य विशिष्टरूपस्यैवेति गाथार्थः ।
शरीरच्छायाभिः तत्र भवनपतिव्यन्तराः पञ्चवर्णाज्योतिष्कातथा
रक्तवर्णाः, वैमानिकाः पुना रक्तपीतसितवर्णाः, विशेषः एयस्स पुव्वदक्खिण-भागणं मग्गो गणधरस्स ।
पुनः, काला-असुरकुमारा इत्यादेरागमादवसेयम् । इति
गाथार्थः। मुणिवसभाणं वेमा-णिणीण तह साहुणीणं च ॥१८॥
तथापतस्य-भुवनगुरोः पूर्वदक्षिणाया आग्नेयदिशो भागः एकदेशः पूर्वदक्षिणदिग्भागस्तेन करणभूतेन--हेतुभूतेन वा
अहिणउलमयाहिव-पमुहाणं तह य तिरियसत्ताणं । मार्गतः-पृष्ठतो गणधरस्य-गणनायकस्य मुनिवृषभाणां सा
वितियतरम्मि एसा, तइए पुण देवजाणाणं ।।२२।। तिशयादियतिपुयानाम् , तथा विमानिक्रदेवास्तेषामेता अहिनकुलमृगमृगाधिपप्रमुखाणां-भुजगचभ्रुहरिणसिंहप्रवैमानिन्यः अतस्तासां चैमानिनीनां देवीनां, तथेति समु- भृतिकानां, प्रमुखग्रहणादश्वमहिषादिपरिग्रहः 'तहय' ति. चयार्थस्तेन स्थापना कार्येति संबध्यते । साध्वीना-तप-| समुच्चये , अथवा--तथैव तेनैव प्रकारेण देवानामिव नि. स्विनीनां चशब्दः समुपयार्थ इति गाथार्थः।
जवर्णविशिष्टतालक्षणेन, परस्परविरोधलक्षणेन वा तिर्यकसतथा
स्वानां तिर्यग्योनिजन्तूनां द्वितीयान्तरे-द्वितीयप्रकारमध्ये इय अवरदक्खिणेणं, देवीणं ठावणा मुणेयव्वा ।
एषा स्थापना कार्येति शेषः, तृतीय-तृतीयप्राकारान्तरे पुनः
शब्दो विलक्षणताख्यापनार्थः, देवयानानां--देववाहनानां भवणवइवाणमंतर-जोइससंबंधिणीणं ति ॥ १६ ॥
करिमकरकेसरिकलपिकलहंसाद्याकारधारिणामिति गाइति-पवमेव यथा मुनिवृषभादित्रयस्यासंकीर्णतया स्थाप- थार्थः। ना कृता एवं भवनपत्यादिदेवीत्रयस्यागि सा कार्येत्यर्थः, अ.
अथ समवसरणविधि निगमयन् शेषदीक्षाविधि दर्शयत्राहपरदक्षिणेन अपरदक्षिणस्यां दिशि सप्तम्यर्थे ह्ययमेनप्रत्ययः,
रइयम्मि समोसरणे, एवं भत्तिविहवाणुसारेणं । । देवीना-सुरवधूनां स्थापना-न्यासः 'मुणयब्व' त्ति-सातव्या कर्मव्यतयेति शेषः, भवनपतयो-देवालयविशेषनाथा असु
सुइभूमो उ पदोसे, अहिगयजीवो इहं एइ ॥२३॥ रादयः, 'याणमंतर' सि-बनानाम्-उद्यानानामन्तराणि कुहा
रचिते--स्थापिते समवसरणे-समयसिद्धे, पषम्-उक्लनीस्या राणि विशेषा या धनान्तराणि तेषु भया मकारवर्णागमावा- भक्तिविभवानुसारेण-बहुमामख्यानुरूप्येण शुचिभूतस्तु नमस्तरा व्यन्तराः, ज्योतिषि ज्योतिश्चके भषा ज्योतिषा
शीचप्राप्त एष द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः स्वातः श्रीचज्योतींषि षा ज्योतिष्कदेवाः, एतेषां द्वन्द्वोऽतस्तेषां सम्ब- दनानुलिप्तगात्रः सितवसननिवसनः शुचिविद्याक्तृप्तगात्र. निधन्यः सत्कायास्तास्तथा तासाम् , इतिशब्दो द्वितीयपर्षदः
श्व, भगवतस्तु विशुद्धयमानमानसः। प्रदोष-दिवसाऽवसाने समाप्तिप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः ।
उपलक्षणात्वादस्य प्रशस्ततिथिकरणवारनक्षत्रयोगचन्द्रकतथा
ललग्नादौ अधिकृतजावः प्रस्तुतसत्त्वो दीक्षणीय इत्यर्थः, भवणवइवाणमंतर-जोइसियाणं व एत्थ देवाणं । इहाधिकृतसमवसरणदेशे एति-आगच्छतीति गाथार्थः। अवरुत्तरेण णवरं, निद्दिट्ठा समयकेऊहिं ॥ २० ॥
ततश्चभवनपतिवानमन्तरा उक्ननिर्वचना 'जोइसिय' ति-ज्योति
भुवनगुरुगुणक्खाणं, तम्मीसं जायतिव्वसद्धस्स । पि-ज्योतिश्चके जाता ज्योतिषिजा ज्योतिषि वा भषा ज्योति
विहिसासणमोहेणं, तो पवेसो तहिं एवं ॥२४॥ पास्त एव ज्योतिषिकाः एषां द्वन्द्वोऽतस्तेषां भवनपतियानम- भुवनगुरोः-त्रिभुवनबान्धवस्य जिनस्य ये गुणा रागादिवैम्तरज्योतिषिकाणां या, घाशब्दः समुच्चये, तद्भावना चैवम्- रिवारविदारकत्वसमस्तवस्तुस्तीमविषयविज्ञायकत्वनिखिभवनपत्यादिदेवीनां स्थापना मन्तव्या, भवनपतिवानमन्तर- लना किनिकायकाभिनम्यत्वसद्भूतपदार्थप्रकाशकारी वाग्वाज्योतिषिजानां च । अत्र समघसरणे देवाना-सुराणा किं-| दित्वशिवसुखनायकत्वतहानसामर्थ्यादयस्तेषां यदाण्यानम्विशियमुभयघामपात्यत ग्राह--अपरीत्तरंगणापरोत्तरस्यां। अभिधानं तसथा तस्माद्भुवनगुरुगुणास्थानाद्धतोः । तसिन
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समोसरण
भुवनगुरौ संजातती श्रद्धस्य समुत्पन्नोत्कटगुरुरुर्देव - | तान्वेन प्रतिपत्ति प्रतीति गम्यते अधिकृतजीवस्येति । प्रकृतं विधिसाधनमनुष्ठानप्रकाशनं, यदुत जिनदीक्षायां प्रतिपक्षायां न तबकल्प अन्यतीर्थिकदेवानामतीर्थक यन्दनादि कल्पते च जिनान जैनमुनीनां जैनागमस्य च चन्दनापि कर्तुमित्यादि अथवा ताजी पुष्पाणि दास्यम्ते अक्षिस्थगनं च वस्त्रेण करिष्यत तानि व पुष्पाणि वामन समवसरणमध्यस्थानि क्षेप्तव्यानि श्रात्मा च ससुतधनादिर्गुरवे निवेदनीय इति विधिः, ओघेन - सामान्येन विशेषतस्तु दीक्षादानावसरापूर्वमेव तद्विषयत्वात्। ततो विधिसाधनान सरे प्रवेशः- प्रवेशनं तस्मिन् समवसरणे एवं पदमाराम्यायेनेति गाथार्थः ।
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(208)
अभिधानराजेन्द्रः।
ततध
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वरगंधपुष्फदाणं, सियवरथे तह छिपणं च । आगइगइविण्याणं, इम्मस्स तह पुप्फपाएण ||२१|| वरगन्धपुष्पदानं सुगन्धिकुसुमानाम्, अथवा प्रधानानां वा सानां पुष्पादानं पितर रन्धपुष्पानमली क 'व्यमस्थति योगः । तथा सितंबर शुक्रवाससा । तथा तेन प्रकारे अपडोल्पा सिम त्रो वा तथाशब्दः, अक्षिस्थगनं-लोचनावरणं कार्य, चशब्दः स मुच्चये, ततश्चासौ तानि कुसुमान्यावृताक्ष एव जिननाथाभिमुखं प्रक्षेपस्या गुरुणा चाधिकृतपुष्पपा निमितानुसारेण यथासम्पदा शुभादितरस्माद्वा भवावागतोऽयं तथा दाराधनविराधनाभ्यां मेतरा या गतिरस्य भविष्यतीति दीक्षादानार्थे तत्परिहारार्थे च परिज्ञानं विधेयम् । पतंवाद-धागतिमतिशुभाशुभपूर्व जन्मानागतजन्मनां निर्णयनं कार्यम् । अगस्यागमनेनारस्खलितेतरादियुत गतिविज्ञानमा गाभियानमागतिगतिथिज्ञानम् । सासितमपि गतिविज्ञानमित्येतत्परं प्राकृ सत्येनोत्तर सम्बन्धनीयमिति, 'इमरस'सि अस्य दीक्षाधि कृतजीवस्य तथेति समुच्चये । अथवा-तथा-तत्प्रकारेण साम्प्रदायिकन पुष्पपातेन - कुसुमपतनेन दीक्षणीयनरमिति । एतदर्धपूर्व पुष्पदालतमासी तिथि। इह च समवसरणमध्ये पुष्पपाताही वाराधनातासुतपाताच्च तद्विधनाजनिता कुगतिरस्येत्येतावन्मात्रमतो प्रन्थादवसीयते। शेषं तु प्रन्धान्तराशिशिष्टसम्प्रदायावायसेयमिति याथार्थः ।
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अथ शुभाशुभगतिविज्ञानविषये मतान्तरं
अभिवाहरणा अणे, शियजोगपवित्तिय य केइ ति । दीवाइजलगभेया तडुरसुजोग चेव ।। २६ । अभिव्याहरणात् संशब्दनात् दीक्षणीयेनान्येन वा दीक्षावसरे विहितात् शुभाशुभार्थसंसूचकात् सिद्धिवृद्धीत्यादिरूपाद्ाकारेण तुम्हे दे पडि सम्म
सामाइयं वा आरोवेह ' इत्यादि, दीक्षणीयाभिव्याहारात् 'आरोपाखमासमा रथेष आरोपियमित्यादेर्वा चा यभिम्बाहागदस्खलितादिगुणदोषानुगताद्, अन्ये- अपरे सू
समसरण
रयो दीक्षाराधनविराधना जन्य शुभाशुभगतिपरिज्ञानमस्याधिकृतस्य कर्त्तव्यमित्याहुरिति गम्यम् तथा निजगानामा चार्यसत्कमनः प्रभृती
तो निजयोगप्रवृत्तितः, शब्दः समुच्चये, इतिशब्दस्योत्तरस्येह दर्शनादिति, एतत् केचिदपरे प्राहुरिति सम्यम् । इदमुकं भवति तदा यद्याचार्यस्य क्रोधलोभमोहभयादिभिरव्याकुलं मनो यद्यदा वाच्यं तद्विषयाव्यक्कृत्वादिगुणा च वाकू साध्वसाद्यनुपहतश्च कायः प्रवर्त्तते तदा शुभा गतिरिति । श्रन्यथा-चाशुभा गतिरस्य शायत इति । तथा दीपादीनां दीपचन्द्रतारकादीनां यज्ज्वलनं दीपनं तस्य यो भेदो-शेषः - था तस्मात् । इदमुकं भवति यदि तदा दीपादयः प्रवृद्धतेजसो भवन्ति तदाऽस्य शुभम्, अन्यथा त्वशुभमिति । तथति समु च्चये, उत्तरे-दीक्षोत्तरकालभाविनो ये सुयोगाः- शुभव्यापारा दीक्षितगताले उत्तरसुयोगास्तेभ्य एवबधारणार्थत्वात्केचिदिति प्रकृतमिति गाथार्थः । पञ्चा० २ वि० [सुषार्थयामैन, अङ्गे तस्कम् अध्ययने नि०० जे भिक्खु उसे हेडलाई समोसरखाई इचा उपरिमं सुयं वाइ वार्यतं वा साइजइ ||१७|| नि०यू० १६ उ० । जिनस्तवनर धानुषानपट्टयात्रादिषु बहुनामेलने स० १२ सम० । ( समघसरले सम्भागविसम्भोगौ 'संभोग शब्देऽमिव भागे २०६ पृष्ठ) ('या' शब्दे प्रथ मभागे ३७५ पृष्ठे साधूनां संमेलक उक्तः । समवसरणं नाम कुलसमवायो गणसमवायः संघसमवायं । पृ० १ उ० १ प्रक० ।
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-परणस्तवमाह
(२१) अथ समवसरण प्रस् शिमो केवल बं धम्म कित्तिऽत्थं । देविदनयपत्थं तित्थयरं समवसरणत्वं ॥ १ ॥ अपरिवशिमां स्तुमः कम् ? तीर्थङ्करं केवलिनाऽवस्था यस्य स केवल्यवस्थस्तम् । वराः -प्रधाना विद्यानन्दधर्मकीर्त्तिरूपा श्रर्था यस्य स वरविद्यामन्दधर्मकीर्त्त्यर्थस्तम् । श्रथवा - किमर्थं स्तुमः १ वरविधानन्दधर्मकीर्त्यर्थम् । पुनः कथंभूतम् ? देवेन्द्रैर्नतं यत्पदं तीर्थकर पदवी रूपं तत्र तिष्ठतीति देवेन्द्रनतपदस्थस्तम् । समवसरणे तिष्ठतीति समवसरणस्थस्तम् । अथवा समवसर आस्था स्थितिर्यस्य स समवसरणस्थस्तम् तथा । पयडिअसमत्थभावो, केवलिभावो जिणाण जत्थ भवे । सोर्हति सम्म तहि महिमाजोवणमनिलकुमरा|| २ || अवचूरिः- प्रकटिताः- :- समस्ता भावास्त्रिभुवनान्तर्वर्त्तिनः स्तम्मकुम्भाम्भोरुहादिपदार्था येन स तथा । केवलिभावःकेलिएवं जिनानां यत्र स्थाने भवेत् तस्मिन् स्थान शोधयन्ति सर्वतः महीं पृथिवीम् आयोजनं-याजनमभिव्याप्य अनिलकुम (मा) रा - वायुकुमाराः ।
परिसंति मेहकुमरा, सुरहिजलं उउसुरा कुसुमपसरं । विरति वा मणिकरण गरयणचित्तं महिश्रलं तो ॥३॥ अवचूरिः- मेघकुमारास्तत्र सुरभिजलं वर्षन्ति । उउसुरा इति ऋतुखुरा परणामृतूनामधिष्ठातारः सुराःव्यन्तत्कुसुमप्रसरं वर्षन्ति अधोमुखपुतार
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(४७६) समोसरण अभिधानराजेन्द्रः।
समोसरण पुष्पप्रकरान् कुर्वन्तीत्यर्थः । ततः 'वणा' इति-वा- (६००) धनुःप्रमाणं पूर्ववद् वृत्तसमवसरणवद् ज्ञेयम् । अनमन्तराः मणयश्चन्द्रकान्ताद्याः, इन्द्रनीलादीनि रत्नानि । थात्रापि एकपार्श्व योजनार्ड मील्यते। तद्यथा-चतुरने अयं भावः-मणिकनकरत्नश्चित्रं महीतलं रचयन्ति-पीठ- बाह्यवप्रभित्तिर्योजनमध्ये न गण्यते । ततश्च बाह्यवप्रबन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः।
मध्यवप्रयोरन्तर दश शतानि (१०००) धषि । द्विती
यवभित्तिः शत (१००) धनूषि । अभ्यन्तरवप्रमध्यव(२२) समवसरणरचनामाह
प्रयोरन्तरं पञ्चदशशत ( १५०० ) धनुर्मानम् । अभ्यअम्भितरमज्झ बहि,तिवप्प मणि-रयण कणय-कविसीसा स्तरयप्रभित्तिः शत (१००) धनुर्मानम् । अभ्यन्तरबरयणज्जुणरुप्पमया, वेमाणिजोइभवणकया ॥४॥ प्रात् त्रयोदशशतानि ( १३०० ) धषि गत्वा पीठमअवचूरिः-प्रयं भावः-अभ्यन्तरो घणो वैमानिककृतो ध्यम् , एवम् एतम्मिलने चतुस्सहस्राणि धषि जातानि । रत्नमयो मणिकपिशीर्षक: १ । मध्यमः प्राकारो ज्यो- तथा च क्रोशद्वयं भवति । एवं यथैकत्र पार्वे कोशद्वयं तिष्ककृतोऽर्जुनसंशसुवर्णमयो रत्नकपिशीर्षकः २ । बहि
भवति तथा द्वितीयेऽपि । एवं चतुरस्रसमवसरणेऽपि योजप्रो भवनपतिकतो रूप्यमयः कनककपिशीर्षक: ३ । नं मिलति स्म ॥६॥ चम्मि दुतीसंगुल, तित्तीसणुपिहुल पणसयधणुच्चा। सोवाससहसदस कर-पिहुच्च गंतुं भुवो पढमवप्पो । छद्धणुसयइगकोसं–तरा प रयणमयचउदारा ।। ५॥
तो पन्नाधणुपयरो, तो असोवाण पणसहसा ॥७॥ अवचूरिः-अथ समवसरणं द्विधा स्यात् , वृत्तं चत्तुरस्रं
प्रवचूरिः-सोपानानि दश सहस्राणि करपृथुलानि उच्चाथा। तत्र वृत्ते समवसरणे चप्रत्रयभिसयः प्रत्यकं त्रयस्त्रिंशद नि च हस्तमात्र पृथुलोच्चानीत्यर्थः । भुवा-भूमितो गत्वा (३३)धनुर्द्वात्रिंश (३२) दङ्गलपृथुला भवन्ति । तथा त्र
प्रथमो धनः। ततः पञ्चाशद् (५०) धषि प्रतरो रमणभूमिः याणामपि वप्राणामन्तराणि उभयपरन्तरमिलनेन एक
समा भूमिरित्यर्थः । शेष सुगमम् ॥ ७ ॥ क्रोश (१) पदशत (६०० ) धनुःप्रमाणानि भवन्ति । तो बियवप्पो पत्र(ना)ध-गुपयरसोवाणसहसपण तचो। अत्र च चतुर्विशत्याऽङ्कलैर्हस्तो ज्ञेयः । चतुर्भिहस्तैर्धनुः।
तइओ वप्पो छस्सय-धणुइगकोसेहि तो पीढं ॥ ८ ॥ धनुःसहस्रद्वयम कोशः । कोशैश्चतुर्भिस्तु योजनम् ।
अवचूरिः-ततस्तृतीया वप्रस्तस्य चान्तः षद्धनुःशतेतथा बहिर्वर्तीनि सोपानानि दशसहस्त्र (१००००) मितानि
नाधिककोशेन प्रमितामति गम्यम् । एक (१) क्रोशषयोजनमध्ये न गण्यन्ते । ततः प्रथमवधादने पञ्चाशद् |
शत (६००) धनुःप्रमाणमित्यर्थः । पीठं समा(५०) धनुःप्रतरः । ततोऽग्रे पञ्चसहस्र ( ५००० ) सोपानानि तेषां च हस्तमानत्वाच्चतुभिर्भागे लब्धानि
भूमिरस्तिक॥ पञ्चाशदधिकानि द्वादशशतानि (१२५० ) धषि । ततो चउदार तिसोवाणं, मज्झे मणिपीढयं जिणतणुच्चं । द्वितीयवप्रात् पञ्चाश (५०) द्धनुः प्रतरः , ततः पुनः दोधणुसयपिहुदीहं, सङ्कदुकोसेहि घरणिअला ।।। पञ्चसहन (५००० ) सोपानानां पञ्चाशदशिकानि द्वा, दश शतानि धषि भवन्ति । ततस्तृतीयो वप्रः, ततः त्र
अवचूरिः-चतुारं त्रिसोपान सोपानत्रयान्वितम् । सयोदश शतानि (१३००) धषि गत्वा पीठमध्यम् । अथ
मवसरणस्य मध्य मणिमयं पीठं जिनदहपरिमाणनोच्च तिम्रोऽपि वप्रभिचयः प्रत्येक त्रयस्त्रिंशद् (३३) धनुरेक
द्विशत (२००) धषि पृथुलं दीर्घ च, तच्च धरणितलात्
सार्द्धक्राशद्वयेन भवति ॥६॥ (१) हस्ताऽटाल (८) पृथुला भवन्ति । तत्र सवेषां धनुषां मिलने नवनवत्यधिकानि एकोनचत्वारिंश- जिणतणुबारगुणुच्चो, समहिअ जोयणपिह असोगतरू ।
छतानि ( ३६६६ ) धषि जातानि । तथा शेषाणि तयहो य देवछंदो, चउसीहासणसपयपीदा ॥१०॥ द्वात्रिंशदङ्लानि त्रिगुणीक्रियन्ते भित्तित्रयभावात् , षण्ण
अचचूरिः-"तिन्नेव गाऊआई, चेअरुक्खो जिणस्स पढवत्य (६६) कुलानि जातानि । परागवत्याऽङ्गलैश्चैकं
मस्स । सेसाण बारसगुणा, वीरे बत्तीस य धाण ॥१॥" धनुर्भवति , हस्तचतुष्टयमितत्वाद्धनुषः । एवं चत्वारि
वीराद् द्वादशगुण एकविंशतिधनुःप्रमाणो (२१) भवन्ति कसहस्राणि (४०००) धनुषां जातानि । इत्थमेकस्मिन्
चलोऽशोकस्त दुपरि शालवृक्ष एकादश । ११ ) धनुषि । पार्श्व क्रोशद्वयमेवं द्वितीयेऽपि क्रोशद्वयमिति मिलितं वृत्तसमवसरण योजनम् ॥५॥
एवमुभयार्मिलने द्वात्रिंशद्धषि (३२। चैत्यामो भवति ,
वीरस्येति सम्प्रदायः। अत्र शालश्च श्रीवीरस्वामिनोऽभूत् । चउरंसे इगधणुसय-पिहुवप्पा सडकोसअंतरिया ।
अन्येषां तीर्थकृतां न्यग्रोधादयः । उक्तं च समवाया-"चउ पदमविमा वितइया, कोसंतरपुवमिव सेसं ॥६॥ । वीसाए तित्थयराणं चउवीसं चहरुक्खा हुन्था । तं जहाअवचूरि:-चतुरस्र समवसरणे वप्रत्रयभित्तयः प्रत्येक " निग्गीह सत्तवन्ने, साले पिए पिअंगु छन्नाहो। शतधनु पृथुला ज्ञयाः, तथा-सर' ति-प्रथमद्वितीयव- सरसे अनागरुक्ख, माली श्रपिअंगुरुक्ख अ॥१॥ प्रयोरन्तरमुभयपार्श्वमिलनन सार्द्धकोशः। 'बिअतइय'ति- तंदुग पाडल जंबू, श्रासत्थे खलु तहेव दधिवत्ता। द्वितीयतृतीययोश्चान्तरमुभयपार्श्वमिलनेन क्रोशः । पुव्वमिव नंदीरुक्खा तिला, अवंगरुक्खा असागो अ॥२॥ सेसं' ति-शेषं मध्यभिस्योरन्तरमेक (१) कोशषट्शत- चंपय बउला अतहा, वेडसरुक्खा तहेव धवरुक्खा ।
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समोसरण अभिधानराजेन्द्र
समोसरण सालो भवनमाणस्स, बोनसक्खा जिणवाणं ॥३॥" अपरिः -गाथाइयं स्पष्टम् । ( नवरं ) मुनयो नि "पतसिंघणुभाई,चेभसक्खो अबशमाणस्स। विटा उत्कुकुकासनेनेति शेषः । वैमानिका देवी भमणीनिच्चोभगो, उच्छलो सालरुक्खणं ॥१॥
व्यवस्थिताः शेषा नव समास्थिता उपविधाः । तथा सच्छत्ता सपडागा, सवेश्या तोरणेहि उपवेमा। चैतयों ( गाथयोः ) रक्षराणि (स्येवम् )-" अबसेसा सुरासुरगहलमहिया, चेअरूक्या जिणवराण ॥२॥" संजया निरइससिमा पुरच्छिमेणं चेव दारेण पविसित्ता इवं प्रवचनसारोशारे सविस्तरमभिहितमस्ति । नित्यमृतु- भयवंतं तिपयाहिणं काउं बंदिसा नमो सेसिभाणं ति रेव पुष्पादिकालो यस्येति नित्यतुकः। अवच्छन्नशालवृजेणे- भणित्ता बाइसेसिभाणं पिट्ठो निसीअंति । बेमाणिमा ति वचनावशोकोपरि शालवृक्षोऽपि कथंचिदस्तीति वायत ( णी) देवीमो पुरच्छिमेणं चेव दारेणं पविसित्ता भइति । तथाऽशोकवृक्षस्याधस्ताइवच्छन्दके चत्वारि सिंहा- यवंत तिपयाहिणीकरित्ता नमो तित्थस्स नमो भाइसेसिसनानि सपादपीठानि ॥१०॥
पाणं नमो साणं ति भणित्ता निरइसेसिप्राण पिट्टयो तदुचरि चउ छत्ततिभा , पडिरूवतिगं तहहुचमरवरा ।
ठायति न निसीयंति । समणीओ पुरिच्छिमेणं चेव दापुरो कणयकुसेसय-ठिअफालिअधम्मचक्कचऊ ॥११॥
रेणं पविसित्ता तित्थयरं तिपयाहिणं करिता बंदित्ता नमो
तित्थस्स नमो भाइसेसिवाणं नमो साहूर्ण ति भणिता अवचरिः तेषामुपरि चत्वारि छत्रत्रिकाणि छत्रातिच्छ
वेमाणिपाणं देवीणं पिटुनो ठायति न निसीयंति । भवणप्ररूपाणि । तथा प्रतिरूपत्रिकं च ब्यन्तरेन्द्रकृतं प्रभु
वासिणीनो देवीभो जोइसिणीओ वंतरीओ दाहिसदारेप्रभावान्मुख्यरूपतुल्यमेव भवति । तथाऽष्टौ चामरधरा
ण पविसित्ता तित्थयरं तिपयाहिणीकरिता वाहिणपछिभवन्ति । एकैकरूपं प्रति योयोश्चामरधारकयोः सद्भा
मेण ठायंति भवणवासिणीणं पिटुओ जोइसिणीमो तापात् । तथा कनककुशेशयस्थितानि स्फाटिकानि धर्म
सिं पिट्ठो वंतरीभो । भवणवासिदेवा जोइसिधा देवा चक्राणि चत्वारि सिंहासनपुरतो भवन्ति ।।११।।
बाणवंतरा देवा पए अवरदारणं पविसित्ता तं चेव विहिं झयछत्तमयरमंगल--पंचालीदामवेइवरकलसे ।
काउं उत्तरपच्छिमेणं ठायंति जहासंत्रं पिट्टओ। बेमाणिमा पइदारं मणितोरण--तिअवघडी कुणंति वणा ।१२।। देवा मणुस्सा मणुस्सीओ अ उत्तरेण दारेण पविसित्ता अवचूरिः-वप्रेषु प्रतिद्वारं ध्वजच्छामकरमुखमालपा- उत्तरपुरच्छिमेणं ठायंति जहासंखं पिटुश्री"। एषा चूर्णिः । वालीपुष्पदामवेदिपूर्णकलशान् , मणिमयतारणत्रिकाणि अथ वृत्तिः । अत्र च मूलटीकाकारेण भवनपतिप्रभृतीनां धूपघटीश्च कुर्वन्ति बानव्यन्तरा-व्यन्तरसुराः ॥१२॥ स्थानं निषीदनं वा स्पष्टाक्षरनोंक्तम् ,अवस्थानमेव प्रतिपादिजोयणसहस्सदंडा, चउज्झया धम्ममाणगयसीहा। तम् ।पूर्वाचार्योपदेशेन लिखित पट्टिकादिचित्रकर्मयलेन तु सककुभाइजुया सव्वं, माणमिणं निभनिअकरेणं ॥१३॥
श्चितन एव देव्यो न निषीदन्ति,देवाश्चत्वारः पुरुषाः स्त्रियध प्रवचूरि:-धर्मध्वज १ मानध्वज २ मजभ्वज ३ सिंह
निषीदन्तीति प्रतिपादयन्ति केचनेत्यलं प्रसङ्गन ॥ १३१७ ।। वज ४ नामानश्चत्वारो ध्वजाश्चतुर्दिषु चतुर्ग-(चत्वारोग) बीभतो तिरि ईसा-णि देवछंदो अजाण तइभंतो। जसिंहलाञ्छिता इत्यर्थः। 'ककुभाजुय'त्ति-लघुलघुत- तह चउरंसे दुदु वा-वी कोणो वट्टि इक्विका ॥१८॥ ध्वजादियुताः । ककुप्शब्देन घण्टिकापताकिकाथुख्यते ।
प्रवरिः-द्वितीयवप्रान्तस्तियश्चः तत्रैवेशानकोण प्रभोसर्व चैतन्मानं निजनिजहस्तेन ।। १३ ॥
विधामार्थ देवच्छन्दको रसमयः 'जाण' त्ति-यानानि वाहपविसिभ पुष्वाइ पहू, पयाहिणं पुथ्वभासण निविडो।। मानि भवन्ति तृतीयवप्रान्तः । तथा चतुरने समवसरणे पयपीदठवियपाभो, पणमिप्रतित्थो कहइ धम्म ॥१४॥
कोणे कोणे देवाप्यो । वृत्ते च समवसरणे कोणे कोणे अमचूरि:--प्रदक्षिणया प्रविश्य 'पणमिप्रतिस्था'त
पकैका बापी।' पहिषपदारमझे, दो दो बाषी भईति
कोणेसु।' इति च स्तोत्रान्तरे पाठः ॥१८॥ नमो तित्थस्स' इत्यादि जीतमर्यादया प्रणमितं तीर्थे चनुर्विधः सहो येन सः,प्रमोर्वाणी योजनं यावत्प्रसरति यतो पीम-सिम-रत्त सामा,सुर-वण-जोइ-भवणा रयणवप्पे । बप्राणामधस्तादच्छन्तो जनाः शृएवन्ति ॥१४॥
धणु दंड-पास-गयह-त्थ सोम-जम-वरुण-धणयक्खा१६ मुणि वेमाणिणि समणी, सभवणजोइवणदेविदेवति ।
प्रवचूरिः-अथ रत्नमये प्रथमवप्रे पूर्वादिद्वारचतुष्केऽपि कप्पसुरनरिस्थितिअं, ठंति ग्गैयाइविदिसासु ॥ १५॥ क्रमेण द्वारपालदेवानां नामादिकमाह-सोम १ यम २ वरुअवचरिः-आग्नेयीनैर्ऋतीवायवीशानीविदिचु यथोक्तं ण ३ धनदाख्याः ४। यथाक्रम पीताविषणोः । सुरादयः । सभात्रय यथाक्रम पूर्वस्या दक्षिणायां (स्यां ) पश्चि- धनुदेण्डपाशगदाहस्ता द्वारपालाः॥१६॥ मायमुत्तरायां प्रविश्य दक्षिणां दत्त्वा तिष्ठति ॥११॥
जय-विजया-ऽजिय-अपराचउदेविसमणि उद्ध-डिमा निविट्ठा नरिस्थिसुरसमणा। जिअ त्तिसिय अरुणा-पी नीलामा । इव पण ५ सगपरिस सुणं-ति देसणं पढमवप्पंतो।१६।। बीए देवी जुमला, इय भावस्सयवित्ती-वुत्तं चुन्नीइ पुण मुणि निविट्ठा ।
अभयंकुस-पास-मगरकरा ॥२०॥ दो वेमाम्पिणिसमणी, उडा सेसा रिमा उ नव।।१७॥ तद्दन बहि सुरा तुं(बु)चरु,खइंगि-कवालजडमउडधारी।
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समरेसरण
पुग्दाहदारवाला, संबरुदेवो म पडिहारो ॥ २१ ॥ साममसमोसरणे, एस विही एइ जइ महिड्डिसुरो ।
।
मि एगोऽवि.स कृणइ भयोयरसुरेषु ||२२|| अवचूरि:- गाथाद्वयं स्पष्टम् 'सामग्रसमोसरणे 'ति-एविधिः सामान्य समवसरणे ज्ञेयः ॥ यदि महर्दिकः कि देव पति-प्रगति तदा स एकोऽपि सर्वमिदं करोति ग्रीन्द्रा नागच्छन्ति तदा भवनपत्यादयः समवसरणं कुति वा न वा ? इत्याह- 'भयोयरसुरेस ' ति- इतरसुरेषु भजना, कोऽर्थः ? कुर्वन्त्यपि न कुर्वन्त्यपीत्यर्थः ॥ २०/२११२२|| पुव्वमजायं जस्थ उ, जत्थे सूरो महिड्डिमघवाई | तत्थोसरणं नियमा, सययं पुरा पाडिहेराई ॥ २३ ॥ अवचूरि-पत्र व तत्तीर्थङ्करापेक्षपाऽभूतपूर्व समय सरसं यमको देव इन्द्रादिव समेति समागतत्र समवसरण रचना नियमानिश्चयाद्भवति । अमहाप्रातिहार्यादिकं पुनः सततं भवत्येवेत्यर्थः तथा येन च श्रमणेन समदरमपूर्व तेन तत्र द्वादशयोजनेभ्य श्रागन्तव्यं स्यात् । अनागमने तु तस्य चतुर्तघवः प्रायश्चित्तं भवति । तदुक्तम्- " जत्थ अपुष्व्रोसरणं, अधिट्ठपुवं च जेण समरों । बारसहि जो रोहिं, स पर अणागए लघुना ॥ १ ॥ " तथा प्रभुः प्रथमपौरुषी संपूर्ण यावदमाहे अत्रान्तरेति प्रि शति, तं च बलिं प्रक्षिप्यमाणं देवादयः सर्वेऽपि यथोचितं गृह्णन्ति, सर्वामयप्रशमनश्च सः, तेन च परमासान्तरे नान्यः प्रकुप्यति रोगः । बलिक्षेपादनु प्रभुराद्यवप्रादुत्तरेण निर्गलेशादिशि देवमेति, गणधर द्वितीयां धर्म मार्चष्टेऽसंख्येयमयतइत्यादिविस्तरः श्रीश्यका दौ प्रोक्तोऽस्तीति ॥ २३ ॥ दुत्थियसमत्थयस्थि- जनपरिषत्थसत्य सुन मत्यो । इत्थं राहु जणं, तित्थयरो कुरा सुपयत्थं ॥ २४ ॥ अतिदुःखिता] ये समस्त अर्थिकजना याच लोका ये प्रार्थिता अर्थास्तेषां साथी समूहास्तेषु समर्थः सर्वमनोरथपूरकत्वात् । इत्थं स्तुतो लघु-शीघ्रं जन मध्यलोक मोक्षदा करोत्वत्यर्थः ॥२४॥ इति श्री समवसरणतपस्यावसूरिः समाप्तः॥
"
८
"
(२३) श्री तीर्यकृतां समवसरणाभावे व्याख्यानावसरे चतुमुखत्वं स्यातिप्रीत आयतनुसारेण समवसरणे देशनासरे तु मुखत्वं संभाव्यत इति ॥ ५६ ॥ सेन० २ उल्ला० । वारस ओणसं इथेापानुसारेण श्रीवृषभादित समानस्यापियो अरुच्यते ऽन्यथाये इस प्रक्षः प्रमोसरम्बारस' इत्यमयागाथयोत्सेधाङ्गुलयो जनैर्ऋषभादितीर्थकृतां समवसरणभानं मतान्तरेणाकं दृश्यते परमस्या गाथायाः पारम्पर्य न ज्ञायते इति समयसरायचूर्णाचिति ॥ ५६ ॥ सेन० २ उल्ला० । श्रीमानजिनस्य प्रथमसमवसरणे सालवृक्ष ऊर्ध्वमभूकिया सदाऽपि साऽसति प्रश्नः रम्यत्र भगवन्तस्तिष्ठन्ति यत्र व निषीदन्ति तत्र देवा अशोकवृक्षं विकुर्वन्तीति समयायाङ्गादावभिप्रायोऽस्ति तेन
"
-
१२९
अभिधामराजेन्द्रः ।
"
सह
परिवर्तिकस्यापि तथैव सम्भावना सार्द्ध चलनं प्रथम समवसरण एव वा तद्विधानमिति ॥ १७६॥ सेम० ३ उझा० तीर्थहत समयसरणाभावेचतुरा भावे च कथं द्वारा व्यवस्थितिरिति क्षत्र तरम् - समवसरणाभावेऽपि कृतां द्वादशपदामवस्थितिर्यथा समसरतचैत्यवसीयते ॥ १८९॥ सेव० ३ उजा० । समोसरणतव समवसरण तपस् न० भाद्रपदांडकाशनिर्विकृतिकायाम्पस समस जादिपञ्चा० १६०
समोसवेत्ता समवसृत्य अ०] [रा हरयेत्यर्थे सूत्र० १ श्रु० ५ श्र० २३० । समोहय समवहत ० कृतसमुद्धते, २०१७००६३०. खान
- स्था०
-
,
( अविशुद्धलश्यः समवहतो देवो विशुद्धलेश्यं जानाति न वाइसिस' शब्दे पांग उम्
,
सम्पक्खालिसप्रचालिन
संज्ञापति कर्मा शोधयति इत्येवं शीलः संप्रक्षाली कर्ममलशोधके, पा० । सम्म शर्मन् - न० । क्षेमे, नि० १३०१ वर्ग १ अ० श्रमदामशिरो नमः ॥ | १ |३२|| इति पुंस्त्वं बाहुलकादत्र न । प्रा० सम्यच् - त्रि० । समञ्चतीति सम्यक् । श्रविपरीते, स्था० ३ ठा० ४ उ० । सुसाधुनि, सूत्र० २ ० २ श्र० । उत्त० । शोभने, युक्तिसंगते, सूत्र० २ ० ४ ० । श्राचा० । उत्त० । विपर्यासे, श्राचा० १ ० ४ श्र० २ उ० । प्रशंसायाम्, प्रव० ६ द्वार विशे० नं० । श्राव० । श्रा० म० । औचित्ये, स्था० ५ ठा० १ उ० । यथावस्थिते, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण ।
1
तिविहे सम्मे परागने जहासम्मे दंससम्मे चरितम्मे (६० १६४४)
33
9
। ।
-
स्त्री० । पोषधमतस्य
रुभ्यम् - अविपरीत मोक्षसिद्धिप्रानुगुणमित्यर्थः । स्था० ३ ठा०४ उन रा० अ० जे० । ( जं सम्मं ति पासह तं मोति पासहति मुणि' शब्दे षष्ठभागे व्याख्यातम् । ) साम्य- न० । समस्य भावः साम्यम् । समतायाम्, अतु० । प्रा० म० । इष्टानिष्टतारहिते तुल्यत्वे, अ० २१ अष्ट० । साम्य १० ।" [पानाहारायो यस्थाविष्कृतेर सुखित्याय च कल्पन्ते तत्साम्यमिति गीयते ॥१॥ - लक्षणे भोजनाौ, ध० १ अधि० । सम्म सम्मत ५० एस० सम्म यसपाला सम्यगननुपालनासम्यगनासेधने, श्राव० ६ श्र० । सम्मइ सम्मति पुं० स्वनामध्या सिद्धसेनदिवाकररचिते श्रभयदेवसूरिकृतवृत्तिसंवलिते प्रकरणग्रन्थे, आचा० । " स्फुरद्वा गंशुचिध्वस्त - मोहान्धतमसोदयम् । वर्द्धमानाकमभ्यर्च्य येते सम्मतिवृत्तये ॥ १ ॥ " सम्म० १ काएड । मिथ्यात्व कलङ्करहितायां शोभनायां मत्याम्, स्त्री० । श्राचा० । प्रश्न० । विशिष्टाभिनिवोधिकज्ञाने, थुज्ञाने अवधिज्ञाने वा । सूत्र० १ ० ८ ० । 'पामिच्च'शब्द पश्चममांगता देवरा दारिकायाम्, पिं० ।
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(४२) सम्मग्ग अभिधानराजेन्द्रः।
मम्मत्त सम्मग्ग-सन्मार्ग-पुं० । सम्यगविपरीत मागें, सूत्र० १ श्रु० (६) गृहिधर्मः सम्यक्त्वमूलक इत्यवसर सम्यक्त्वनिरू२१ अ०।
पणम् । "ब्रह्मा लूनशिरा हरिरंशि सरग व्यालप्तशिश्नो हरः, (१०) सम्यक्त्वफलम् सूर्योऽप्युमिनितोऽनलोऽध्यखिलभुक सोमः कलद्वाङ्कितः। (११) कमैक्षत्रादिप्रपञ्चसारविचारपरित्यागेन सम्यकत्वस्व थोऽपि विसंस्थुनः खलु वपुः संस्थैरुपस्थैः कृतः,
स्वरूपस्यैव प्रकाशने हेतुनिदर्शनम् । सन्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभूणामपि ॥१॥" (१२) सम्यक्त्वं मोक्षबीजम् । सूत्र०२ श्रु०६अ।
(१३) सम्यकत्विभिः किं कर्तव्यमिति सूत्रेण निदर्शनम् । सम्मग्गपइदिय-सन्मार्गप्रतिष्ठित-त्रिका प्राप्तक्तिमार्गप्रवृत्ते, (१४) सम्यक्त्वावाप्तौ यद्विधेयं तन्निदर्शनम्।। ग० १ अधिक।
(१५) यस्य चैषा लोकैषणा नास्ति तस्यान्यायप्रशस्ता
मतिर्नास्ति । अन्योऽपि तदनुसारी चतुर्दशपूर्वसम्मचरणादिय-सम्यकचरणास्थित-त्रि०। सम्यकचरणे चा
विदादिः सत्यहिताय परभ्य आवेदयतीति निरित्रे व्यवस्थितः समुद्युक्तः। संयमसमुत्थिते , सत्र० १ श्रु०
रूपणम् । १००
(१६) परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलम् । सम्मइ-मम्मद-पुं०। “सम्मई विताई विच्छ छर्दिकपई
(१७) यदि नामकर्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः किं कार्यम्। महिते दस्य" ॥ ८। २ ३६ ॥ अनेन दस्य डकारः । (१८) दृष्टान्तदार्शन्तिकगतमर्थनिरूपणम् । सम्मडो । जनसंकुलत्वे' प्रा० २ पाद ।
(१६) किं विगणय्यैतत् कुर्यादिति निरूपणम् । सम्मअि -सम्मर्दित-त्रि० । "सम्मई-विसर्दि०"-८२॥३६॥ (२०) भावतमसि वर्तमानस्य सम्यक्त्वं नासीत् , नाइत्यादिना उकारः । सम्यग् मर्दिते ,प्रा०२ पाद ।
स्ति, न भायीति निरूपणम् । सम्मणोरह-सन्मनोरथ-पुं० । उद्यतविहारविशेषसूत्राध्य
(२१) सर्वेषां तीर्थकराणामयमाशय इति निरूपणम् ।
(२२) श्रावकधर्मस्य मूलं सम्यक्त्वम् । यनाद्यभिलाष, ध०३ अधिक।
(२३) अधुना प्रकृतयोजना। सम्मत्त-सम्यक्त्व-न०। सम्यगित्यस्य भावः सम्यक्त्यम् ।।
(२४) प्रकृतयोजनाव्यतिरेकनिदर्शनम् । सम्यक शब्दः प्रशसार्थोऽविरुद्धार्थो वा । सम्यग्-जीवः त
(२५) सम्यक्त्वातिचागः। दावः सम्यक्त्वम् । कर्म०४कर्म०। विशे० प्राचा। दर्श। (२६) श्रावकधर्मस्य सम्यक्त्वं मूलम् । 'सम्म' त्ति सम्यक् शब्दः प्रशंसार्थोऽविरुद्धार्थो वा । सम्य- (२७) कथं सम्यक्त्वं भवतीति निदर्शनम् । ग्जीवस्तद्भावः सम्यक्त्वं प्रशस्तो मोक्षाविरोधी वा। प्रशम- (२८) क्षीणदर्शनोऽपि सम्यग्दृष्टिः। संवेगादिलक्षण प्रात्मधर्म इति यावत्। यदाहुः श्रीभद्र- (२६) क्षायिकं सम्यक्त्वं विशुद्धतरम् । बाहुस्वामिपादाः-- "सेय सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीय- (३०) निसर्गादधिगमाद्वा सम्यक्त्वोत्पादः । कम्माणुवयणावसमक्खयसमुत्था (त्थे) पसमसंवेगाइलिंग (३१) सम्यक्त्विनः सप्तमनरकपृथिव्यां गमनागमने निसुहे बायपरिणाम ॥” इत्यादि । कर्म० ४ कर्म० । दर्श।
पिद्धे। सम्यग्भाव, भ० श० ३१ उ० । तस्वार्थश्रद्धान,
(३२) स्वरूपतः फलतश्च सम्यक्त्वनिरूपणम् । साव०६अ। तत्वप्रीती, ध०३ अधि० । सम्यग्दर्शने , (३३) आत्मपरिणामरूपत्वेन छन्मस्थेन दुर्लयामति छमप्रश्न०५ संवद्वार । स्था। मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमादि
स्थलक्षणम्। समुत्थे जीवपरिणामे , प्रश्न०४ संबद्वार । स्था० । प्रतिः।
(३४) सम्यक्त्यस्य प्रशमादिलिङ्गत्वम् । उत्तश्रावका अएका शानदर्शनचारित्राणां यापरस्यां प्रयोजनं तदात्मकत्वात् सामयिके, प्रा०म० अ०। प्राचा।
[१] इदानीम् ‘एगविहाइदसविहं सम्मत्तं ' ति "तत्तत्थसहाणं सम्मत्तं" तत्वार्थानां सर्वविदुपदिष्टतया
एकोनपञ्चाशदधिकशततम द्वारमाहपारमार्थिकानां जीवादिपदार्थानां श्रद्धानम् एतदेव सम्य- एकविह दुविह तिविहं, चतुहा पंचविह दसविहं सम्म । वस्वम् । पश्चा०१ विध० ।
दवाइकारगाई, उवसमभेएहि वा सम्मं ॥ ६५६ ।। विषयसूचना
एकविध द्विविधं त्रिविधं चतुर्धा पञ्चविध दशविधं सम्य(१) एकविधादिसम्यक्त्यप्रतिपादकद्वारनिरूपणम् । कत्वं भवतीति शषः । तत्र एकविधं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं (२) सम्यक्त्वं कतिविधम् ।
सम्यक्त्वम् , एतश्चानुक्लमप्यविवक्षितोपाधिभेदत्वन सामा(३) पञ्चविधादिसम्यकन्यनिरूपणम् ।
भ्यरूपत्वादवसीयते इत्यस्यां गाथायां न विवृतं, द्विविधादि . (४) क्षायिकसम्यग्दर्शनविषयकसम्यक्त्वानिरूपणम। तु न ज्ञायते इत्युल्लखमाह-' दब्वाइ' इत्यादि , द्विविध (५) नामनिष्पन्न निक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य नि। द्रव्यादिभेदतः, तत्र च 'दव्य'त्ति-सूचामात्रत्वाद् द्रव्यतो
भावतश्च । द्रव्यतो विशोधिर्विशेषेण विशुद्धिकृता मिथ्यात्वपु. (६) भावसम्यक्त्वप्रतिपादनम् ।
द्वला एव,भावतस्तु तदुपएम्भोपनितो जीवस्य जिनाक्लतत्त्व(७) सम्यक्त्वदान्तिकयोजना।
रुचिपरिणामः । श्रादिशब्दःप्रकारान्तरै पद्विविधत्वदर्शना. (0) कर्मानीकं जेतुमनाः सम्यग्दर्शन प्रयततेति निदर्शनम् । यः,तेन नैश्चयिकव्यावहारिकभेदतः पौगालिकाऽपोद्दालकभेद.
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सम्मत्त
अभिधानराजेन्द्रः। तो नैसर्गिकाधिगमिकभेदतोऽपि च द्विविधमिति । तत्र यहे- निर्मूलोच्छेदेन निवृत्तं क्षायिकम् , अयमर्थः-अनन्तानुबन्धिशकालसंहननानुरूपं यथाशक्ति यथावत्संयमानुष्ठानरूपं मौ- कषायचतुष्टयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षण त्रिमम्-अविकलं मुनिवृत्तं तन्नैश्चयिकं सम्यक्त्वं,व्यावहारिकंतु विधे दर्शनमोहनीयकर्मणि सर्वथा क्षीणे क्षायिकं सम्यक्त्व सम्यक्त्वं न केवलमुपशमादिलिङ्गगम्यः शुभात्मपरिणामः,
भवतीति, तथा मिथ्यात्वमोहनीयकमैण उदीर्णस्य यादनुकि तु-सम्यक्त्यहेतुरपि । अईच्छासनप्रीत्यादिः कारणे
दीणस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विपकम्भितोद. कार्योपचारात्सम्यक्त्वं तदपि हि पारंपर्येण शुद्धचेतसा
यस्वरूपाचक्षायोपशमिकसम्यक्त्वं व्यपदिशन्ति-कथयन्ति । अपवर्गप्राप्तिहेतुर्भवतीति. उक्तं च-" जं मोणं तं सम्म, इदमुक्तं भवति-यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वं तद्विपाकासम्मिह होड मोणं तु । निच्छ्यश्री इयरस्स तु. सम्म सम्म- दयेन वेदितत्वात् क्षीण-निर्जीर्ण. यच्च शेषसत्तायामनुदतहेऊ वि ॥१॥"व्यवहारनयमतमपि च प्रमाण तद्वलेनेव यागतं वर्तते तदुपशान्तम् । उपशान्तं नाम-विष्कम्भितोदतीर्थप्रवृत्तेः,अन्यथा तदुच्छेदप्रसङ्गात् ,तदुक्तम्-'जा जिण- यमपनीतमिध्यास्वभावं च । मिथ्यात्धमिश्रपुञ्जावाश्रित्य वि. मय पवज्जह,ता मा ववहारनिच्छयं मयह । वयहारनयोच्छेप, कम्भितोदयं, शुद्धपुञ्जमाश्रित्य पुनरपनीतमिध्यान्यस्वभावतित्युच्छेत्रो हुनोवस्सं'।। इति तथा अपनीतमिथ्यास्वभाव मित्यर्थः । तदेवमुदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण, अनुदीर्णस्य सम्यक्त्वपुजगतपुद्रलवेदनस्वरूपं क्षायोपशमिकं पौगलिकं चोपशमेन निवृत्तत्वात् त्रुटितरसं शुद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वसर्वथा मिथ्यात्वमिथसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानां क्षयोपशमाजातं | मपि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमुच्यते । शोधिता हि मिथ्याकेवलजीवपरिणामरूपं क्षायिकमौपशमिकं चापाद्गलिक, नै- त्वपुद्गला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दृष्टयथावस्थिततस्वरुच्यसर्गिकाधिगमिके पुनरग्रे वक्ष्येते, तथा त्रिविधं कारकादि भ्यवसायरूपस्य सम्यक्त्वस्यावारका न भवन्ति अतस्ते:कारकरोचकदीपकभेदतः उवसमभेपहिं व' ति-बाशब्दः प्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यन्ते इति । प्रध० १४६ द्वार । श्रा०। त्रैविध्यस्यैव प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः बहुवचनं च गुणार्थ, (२) अथ तत्सम्यग्दर्शन कतिविधमत पाहसतत्रिविधं चतुर्विध दशविधं सम्यक्त्यमुपशमादभदै
उबसामग सासायण, खोवसमियं च वेदगं खइयं । भवतीति,पदमुक्तं भवति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक |
सम्मत्तं पंचविहं, जह लब्भइ तं तहा वोच्छं।। ६४॥ भेदात् त्रिविधम् ,औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनभेदाचतुर्विधम् , औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसावा
सम्यक्त्वं पञ्चविधम् , तद्यथा-श्रीपशमिकं सासादनं दनवदकभेदारपञ्चविधम् , एतदेव प्रत्येक निसर्गाधिगमभे
क्षायोपशमिकं बेदकं क्षायिकं च । एतत्पश्चप्रकारमपि यथा पाहशविधमिति । कथं पुनर्द्विविधादिभेदं सम्यक्त्वमित्याह
लभ्यते तथा वक्ष्यामि । ०१ उ०१प्रक०। सम्यग्-अवैपरीत्येन भागमोक्लमकारेण न तु खमतिपरिक
(३) संप्रति पञ्चविधं सम्यक्त्वमाहल्पितभेदैरिति भावः।
वेययसम्मत्तं पुण, एयं चिय पंचहा विणिद्दिटुं । अथैनामेव गाथां स्फुटतरं व्याख्यानयनाह
सम्मत्तचरिमपोग्गल-वेयणकाले तयं होइ ।। ६६२ ॥ एगविहं सम्मरुई, निसग्गभिगमेहि तं भवे दविहं । एतदेव-पूर्वोक्तं चतुर्विधं सम्यक्त्वं वेदकसंयुक्तं पुनः पञ्चतिविहं तं खइयाई, अहवा वि हु कारगाई य ।।९५७॥
धा-पञ्चविधं विनिर्दिष्ट-विशेषतः कथितं वीतरागैः। तच्च
बदकसम्यक्त्वं सम्यक्त्वपुञ्जस्य बहुनरक्षपितस्य चरमपुत्एकविधम्-एकप्रकारमुपाधिभेदाविषक्षया निर्भेदमित्यर्थः,
गलानां घेदनकाले-माससमये भवति । वेदयति-अनुभवति सम्यगुरुचिः सम्यगवानसंशयविपर्यासनिरासेन इदमेव त
सम्यक्त्वपुद्गलानीति वेदकोऽनुभविता तदनर्धान्तभूतत्वास्वमिति निश्चयपूर्विका जिनोदितजीवाविपदार्थेष्वभिप्रीतिः
त्सम्यक्त्वमपि वेदकम् , यथा आहियत इत्याहारकं तथा बजिनोलानुसारितया तस्वार्थभद्धानरूपमेकविधं सम्यक्त्वमिति भावः। तथा निसर्गाधिगमाभ्यां तत्सम्यक्त्वं भवेद
चत इति धेरकम् । इदमत्र तात्पर्य-क्षणकश्रेणि प्रतिपन्नस्या
नन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयमपि क्षपयित्वा मिथ्यात्यमिश्रपुछ द्विविधं, तत्र निसर्गः स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षस्तस्मासम्यक्त्यं भवति, यथा नारकादीनामधिगमो गुरूपदेशादि
षु सर्वथा क्षपितेषु सम्यक्यपुञ्जमप्युनीयाँदीर्यानुभवेन निर्ज
रयतो निष्ठितोदीरणीयस्य परमग्रासेऽतिष्टमानेऽद्यापि स. स्तस्मात्सम्यक्त्वं भवतीति प्रतीतमेव । अयमभिप्रायः-तीर्थकराग्रुपवेशवानमन्तरेण स्वत एव जन्तोर्यत्कर्मोपशमादिभ्यो
म्यक्त्वपुअपुद्गलानां कियतामपि वचमानन्धाद्वेदकं सम्य
कत्वमुपजायते इति । अत्राह--नन्धेवं सति क्षायोपशामकन जायते तनिसर्गसम्यक्त्वम् । यत्पुनस्तीर्थकरघुपदेशजिनप्रतिमादर्शनादिवाहपनिमित्तोपष्टम्भतः कर्मोपशमादिना प्रा
सहास्य को विशेषः ? सम्यक्त्वपुञ्जपुरलानुभवस्योभयत्रादुर्भवति तदधिगमसम्यक्त्वमिति,तथा त्रिविधं तत्सम्यक्त्वं
पि समानत्वात् , सत्यं, किंत्वतदशेश्वोदितपुरलानुभूतिमत्प्रो. शायिकादि, अथवा-त्रिविधं कारकादि ।
कम् , इतरे तु उदितानुदिनपुद्रलस्यैनग्मात्रः प्रकृतो विशेषः,
परमार्थतस्तु क्षायोपशमिकमेवेदं. घरमग्रासशेषाणां पुदगतन क्षायिक-क्षायोपशमिके व्याख्यातुमाह
लाना क्षयाच्चरमप्रासवर्तिनां तु मिथ्यास्वभाषापगमलक्षसम्मत्तमीसमिच्छ-त्तकम्मखयो भणंति तं खइयं । णस्योपशमस्य सद्भावादिति । मिच्छत्तखभोवसमा, खाभोवसमं ववइसंति ॥५॥
मथ पशाविधं सम्यकत्वमाहसम्यक्त्वमिश्रमिथ्यात्वकर्मक्षयाङ्गणन्ति तीर्थकरगणधराः। एयं चिय पंचविहं, निस्सग्गाभिगमभयमो दसहा । सायिकं सम्यक्त्वं विविधस्यापि.दर्शनमोहनीयस्य शयेण- महवा निस्सग्गरुई, इचाइ जमागमे भणिभं ॥६६३ ॥
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अभिधानराजेन्द्रः । पतवेवानन्तरादित पनि सम्यक्त्वं निसर्गाधिगमभे- चउसहरतिलिंग, वसविणयतिजिपंचगपदो। दाभ्यां दशधा भवति । क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकसा- भट्टपभायणभूसण-लकखणपंचबिदसंजुस ॥१॥ चादमबेदकामा प्रत्येक निसर्गतोऽधिगमतच जायमानत्वा- विहजयणाऽऽगारं, छम्भावणभाविच छट्ठाणं। दशावधवमित्यर्थः । अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनार्थः। निस- इयसत्तसटिदसण-भेमविसुखं तु सम्मत्तं ॥२॥ गेरुचिरुपदशरुचिरित्याविरूपतया पदागमे प्रकापनादौ प्र
"चउसहहण" त्तितिपादितं तेन च दशविधत्वमबगन्तब्यम्।
परमत्थसंथवो खल,सुमुणिपरमत्थजइजणनिसेवा । तदेवाह
बावनकुट्ठिीण य, बजणों सम्पत्तसद्दहणा । ३॥ निस्सग्गुबएस6ई, प्राणारुइसुत्त-चीय-रुइमेव ।
'तिलिंग'त्ति-- अहिगमवित्थाररुई, किरियासंखेवधम्मरुई ॥ १६४ ॥
सुस्सूसधम्मराश्रो, गुरुदेवाणं जहा समाहीए ।
वेयावच्चे नियमो, सम्मबिटिस्स लिंगाई ॥४॥ अत्र रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यते , ततो निसर्गरुचिरुपदेश
'दसविणयं' तिकचिरिति द्रष्टव्यम् । अत्र निसर्गः-स्वभावस्तेन रुचिर्जिनप्र
अरिहंतरसिद्ध चेअ३, सुए अध्धम्म अ५साहबम्गे अक्ष गीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः, उपदेशो-गुरु
आयरिअरउवज्झाएम,पवयणेहदसणे१०विणो दिभिर्वस्तुतस्वकथनं , तेन रुचिरक्तस्वरूपा यस्य स उपदे
॥१॥
भत्तीपूत्रावन, (स्स) जणणं नासणमवन्नवायस्स । शरुचिः, आमा-सर्चरचनात्मिका, तस्यां रुचिरभिलाषो
श्रासायणपरिहारो, दसणविणश्रो समासेणं ॥६॥ यस्य स आज्ञारुचिः, 'सुत्तचीयरुइमेव' ति-अत्रापि रुचिश
_ 'तिसुद्धि' ति-- कदः प्रत्येकमभिसंबध्यत, सूत्रमाचाराद्यङ्गप्रविष्टम् , अङ्गयाह्य
मुत्तण जिण मुत्तूण, जिणमयं जिणमयट्रिए मुत्तु । मावश्यकदशवकालिकादि, तेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः ,
संसारकत्तवारं, चिंतिजतं जग सेसं ॥ ७ ॥ बीजमिव बीज-यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचः, तेन
पंचगयदोस' ति-- रुचिर्यस्य स बीजरुचिः, अनयोश्च पदयोः समाहारद्वन्द्वः, तेन नपुंसकनिर्देशः । एवेति समुच्चये । 'अहिगमवित्थाररु
संका१कंखरविगिच्छा ३, पसंस४ तहसंथयोकुलिंगीसं । इ'त्ति अत्रापि रुचिशब्दस्य प्रत्यकममिसंबन्धः, ततोऽधि
सम्मत्तस्सइयारा, परिहरिपब्वा पयते ॥८॥ गमरुचिविस्ताररुचिश्च । तत्राधिगमो-विशिष्टं परिज्ञानं
'अपभावण' त्ति-- तेन रुचिर्यस्यासावधिगमरूचिः, विस्तारो-व्यासः सक
पावयणी धम्मकही २. बाई नेमित्तियो ४ तबस्सी श्र.५। लद्वादशस्य मयैः पर्यालोचनमिति भावः, तेनापबृंहिता
विज्जा ६ सिद्धो भ७ कई ८.अट्टेव पभावगा भणिमा ।।। रुचिर्यस्थ स बिस्ताररुचिः, किरियासंखेवधम्मरुइ'त्ति-रु
_ 'भूसण' त्तिचिशब्दस्यावापि प्रत्येकमभिसंबन्धात् क्रियारुचिः, संक्षेपरु
जिणसासणे कुसलयार, पभावणारतित्थसेवणाधिरया। चिमरुरिति द्रष्टव्यम् । तत्र क्रिया-सम्यक्सयमानुष्ठान,
भत्तीअ५ गुणा सम्म-त्तदीवया उत्तमा पंच ॥ १०॥ तत्र चर्यस्य स क्रियारूचिः, संक्षेपः-संग्रहस्तत्र रुचिर्य
'लक्खणपंचविहसंजुत्तत्ति-लक्षणान्युक्लान्येवात्र गाथापि । स्य , विस्तरार्थापरिज्ञानात् संक्षेपरुचिः, धर्मेऽस्तिकायधमें
संगो चिन उक्सम २, निब्बे मो३तह यहोरमाकपा४। श्रुतधर्मादौ वा रुचियस्य स धर्मरुचिः, यदिह सम्यक्त्वस्य
अस्थि चिन पए, सम्मत् लकवाणा पंच॥ १९॥ जीवानन्यत्वेनाभिधानं तद्गुणगुणिनोः कथंचिदनन्यत्वख्या
'छब्बिह जयण' त्तिपनानिति गाथासंक्षपार्क । प्रय ६३ द्वार। संघा० सम्म।
नो अन्नतिथिए अ-मतिथिदये २ य तह सदेवाई। (वेदकसम्यक्त्वं 'वेदग' शब्दे षष्ठभागे ऽस्ति।)
गहिए कुतित्थिरहिं , वंदामि १ न वा नमसामि २ ॥ १२ ॥
मेव श्रणालतो त्रा-लवेमि ३मो सलवेमि ४ तह तेसिं। (४) सम्प्रति क्षायिकदर्शनमाह
देमिन असणाईनं ५, पेसमि न गंधपुप्फाई ६॥ १३॥ दसणमोहे खीणे, खयदिट्टी होइ निरक्सेसम्मि ।
'छ श्रागारं' तिकेण उ सम्मो मोहो, पडुच्च पुव्वं परमवणं ।।१२।। रायाभियो य गणाभियोगों,बलाभियोगो असुराभियोगो। दर्शनमोहे निरबशेषे विप्रकारेऽपि क्षीणे क्षयदृष्टिः क्षा- कंतारवित्तोगुरुनिग्गहो अछ छिडिआऊ जिणसासणम्मि॥ यः सम्यग्दर्शनं भवति, आह-यन्मिथ्यान्वदर्शनं तन्मोहः
'छुम्मायणभाविअंतिस्यासस्य सम्यग्दर्शनमोहकत्वात् , यत्सम्यग्दर्शन तत्कन मूलं १ दारं२ पाटाणं३, आहारो ४मायणं ५निही ६। कारणेम मोहः ?, सूरिराह-पूर्वी प्रज्ञापनां प्रतीत्य । किमुक्तं
दुछसाविधम्मस्स, सम्मत्तं परिकित्तिअं ॥ १५ ॥ भवति-यथा मदनकागवाणां निर्मदनीकृतानामप्योदनः स
छट्ठाणं' तिएष मदनकोद्रवौदन इति व्यपदिश्यते तेष। पूर्व समदनत्या
अस्थिर णिच्चोरकुणई, कयंच बेएइअस्थि णिवाणं । दवं तेऽपि सम्यक्त्यपुद्गलाः, पूर्य मिथ्यात्यपुद्गला आसीपन्
अस्थिप अमुक्खो वाओ३,छस्सम्मत्तस्स ठाणई ॥ १६ ॥ से च दर्शममोहकाः , अतः पूर्यभावप्रज्ञापनामधिकृत्य ते
अथैतासां विषमपदार्थों यथापि दर्शनमोह इति व्यपदिश्यन्ते । वृ० १ उ. १ प्रक० । परमार्था जीवादयस्तेषां संस्सवः-परिचयः १, सुमुनिसम्यग्दर्शनयुक्तोऽयमिति । अथ च पश्चलक्षणप्रदर्शनेन तपरमार्था यतिजना प्राचार्यादयः , तेमा सेयने २, ज्यापतत्सहचताः सप्तषष्टिरपि भेदाः सूचिताः, सम्य- प्रदर्शना-निहवादयः ६ कुदर्शना:-शाक्यादयः ४ तेषां वमत्वं च तर्विशुद्धं स्याद् , यदाहुः
| जनं-त्यागः 'सम्मत्तसदहणा" इति-सम्यक्त्वं श्रद्वी
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सम्मत
।
यतेऽस्तीति प्रतिपद्यतेऽनेनेति सम्यक्त्वश्रद्धानं, न बाङ्गारम ईकादेरपि परमार्थसंयादिसम्भवाद्व्यभिचारिता शा नायिकानामेतेषाम् हाधिकृतत्वात् तस्य च तथाविधा नामेषामसंभवादिति । इह प्राकृतत्वाल्लिमतन्त्रमिति स्त्री? मूलद्वारणाथायां च चतुःश्रद्धानादिशब्दानां चतुर्विधं श्र दानं चतुधानं त्रिविक्रम दोनो दशाविनयः, त्रिविधा शुद्धिमिद्धिरित्यादि त्रिलमा शुश्रूषानिबन्धनधर्मशास्त्र अर्थः सा च वेदन्ध्यादिगुरु नरविरमा नश्रवणरागादयधिकतमा सम्यक्त्वे सति भवति । यदाह'यूनो वैदग्ध्यवतः कान्तायुक्तस्य कामिनोऽपि दृढम् । किचरगेयश्रवणा - दधिको धर्मश्रुतौ रागः ॥ १ ॥ " इति १ । तथा धर्मे चारिषल रागः, धर्मरागस्य तु शुश्रूषापदेयात् स च कर्मोपालनकरणेऽपि कान्ताराश्रीदुर्गामकुणियोजनाभिलाषयतिरिक्ो भवति। २ तथा गुरवो धर्मापदेशका देवा अ स्तस्तेषां चैार तत्प्रतिपत्तिविश्रामाभ्यगादी निय मोऽवश्यं कर्त्तव्यताङ्गीकारः स च सम्यक्त्वे सति भव तीति । तानि सम्यग्दृष्टेः धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् सम्यक्त्वस्य लिङ्गानि पभिस्त्रिभिर्लिङ्गैः सम्यक्त्वं समुत्पन्नम
46
"
ति निश्वयत इति मायः देवावृपनियमस्य च तपभेदत्वेन चारित्रांशरूपत्वेऽपि सम्यक्त्वे सत्येवावश्यंभाविस्वप नाविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकाऽभावप्रयोजकतोद्राव्या, एतद्रूपचारित्रस्याल्पतमत्वेनाचारित्रतया विवचितत्वात् समूनजानां संशामापि विशिष शाऽभावादसंशित्वव्यपदेशवदिति । उपशान्तमोहादिषु तु [कृतकृत्यत्वादेषां साक्षादमावेऽपि फलतया सद्भावान सेयभिचारः । वैयावृत्यनियमश्चोपरिष्टात् श्रा
विधिपाठेन दर्शयिष्यत इति ततोऽवसेयः । दशविनये चैत्यान्यत्प्रतिमाः, प्रवचनं जीवादितत्त्वं, दर्शनं सम्यक्त्वं तदमेोपचाराद्वानपि दर्शनमुच्यत। एतेषु दशमभ खागमनासनप्रदामपारयन्धाद्या, पूजा-सत्काररूपा वर्ग:- प्रशंसा, तज्जननमुद्भासनम्, श्रवर्णवादस्याश्लाघाया वर्जनं- परिहारः । श्राशातना - प्रतीपवर्त्तनं तस्याः परिहारः । एप दशस्थानविषयत्वादशविध दर्शविनयः सम्य सत्यस्य भावात् सम्यक्त्वविनयः । त्रिशुद्धयां जिन वीतरागं जिनमतं स्यात्पदलाञ्छितं जिनमतस्थितांश्च साध्वादीन् मुपस्या शेषकान्तग्रस्तं जगदपि संसारमध्ये कचयप्रायम्
"
सारमित्यर्थः इति चिन्तया सम्यक्त्वस्य विमान त्वादेतास्तिस्रः शुद्धय इति । पञ्च दोषा श्रग्रे मूल एव वपमायाः अष्प्रभावनायां प्रभवति न शासनं तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्व प्रभावना सा चाधा प्रभावकभेदेन । तत्र प्रवचनं द्वादशाङ्गं गणिपिटकं, तदस्यास्तीति प्रायमनी प्रधानागमः १ धर्मकथा प्रशस्तस्यास्तीति प कधी दिवादिन" (शिखादिम) श्री सि ७-२-४२ जनमी निर्वेदी लांजांननमनःप्रमोद धर्मपति सः २ वादिप्रतिवादिमभ्वसभापतिका रिर्वाद प्रतिपक्ष थापना
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( ४८५ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
,
सम्मत
बानी ३, निमितं कालिमालाभप्रतिपादकं शाखं तस्यधीते वा नैमित्तिकः ४, तपौ-विकृष्टमष्टमाद्यस्यास्तीति तपखी ५, विद्या:- प्रशष्यादयस्तद्वान् विद्यावान् ६, सिद्धयोजनापतिगुटिकाकर्षण वैफियत्वभृतयस्ताभिः । सिद्धयति ७ पते पचादिनिः
प्रभ
ति कविद्यपद्यप्रबन्धरत्रकः । एते प्रवचन्यादयोऽष्टौ वतो भगवच्छासनस्य यथायथं देशकालाद्यौचित्येन साहाव्यकरणात् प्रभावकाः प्रभवन्तं स्वतः प्रकाशकस्वभावमेव प्रे. रयन्तीति व्युत्पत्तेः तेषां कर्म प्रभावना इत्थं च मूलद्वारगाथायाम प्रभावना यत्रेति समासः । भूपणपञ्चके - जिनशासनेउता नेपुण्यं प्रभावना प्रभावनमित्यथे। साग प्रभिहिता पुनरिहोपादानं तदस्याः स्वपरोपकारित्वेन तीर्थ करनामकर्मनिघनत्वेन च प्राधान्यख्यापनार्थम् । ध०१ अधि० १३ गुण ।
(५) अधुना नामनिष्पन्वनिक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य निक्षेपं चिकीर्षुराह
नाम उप सम्मं दब्यसम्मं च भावसम् च । एसो खलु सम्मस्स, निक्खेवो चव्यिहो होइ ॥ २१७|| अक्षरार्थः सुगमः, भावार्थे तु सुगमं नामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यभावगतं निर्युक्लिकारः प्रतिपिपादयिषुगह
9
अह दव्यसम्म एच्छा-गुलीभियंतेसु तेसु दध्देसु । कयसंखय संजुतो, पउचजदभिम्मद्धिमं वा ।। २१८ ॥ अथेति श्रनन्त शरीरयतिरिकं सम्य पत्यमित्याह [पेन्द्रानुलोमनःशिरभिमायस्तस्यानुलोमम्- अनुकूलं तत्र भवमेच्छानुलोमकं तच्च तेषु विच्छाभावानुकूल्यताभानु द्रव्येषु कृताद्युपाधिभेदेन सप्तधा भवति, तद्यथा कृतम् पूर्वमेव निर्वर्त्तितं रथादि, तस्य यथाऽव्ययल निष्प से ईव्य सम्यक र्तुस्तन्निमिचित्तस्वास्थ्योपपातस्य शोभनाशुकरणतया समाधानहेतुत्वादा द्रव्यसम्यग १ एवं संस्कृतेउपि योज्यं तस्यैषीसपदापरावयवसंस्का रादिति २ तथा ययोः संयोगा गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्क्रुर्धा मनःप्रीत्यै पयः शर्करयोरिव तत्संयुकद्रव्यसम्यकू ३, तथा यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाधानाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक् ४, पाठान्तरं वा- 'उवउत्त' त्ति यदुपयुक्तम् श्रभ्यवहृतं द्रव्यं मनः समाधानाय प्रभवति तदुपयुक्तद्रव्यसम्यकू ४ तथा जढं परित्यक्तं यद्धारादि तत्यक्तद्रव्यसम्यकू ५ तथा दधिभाजनादि भिनं सत् काकादिसमाधानोत्पत्तेर्मिम्नद्रव्यसम्यक् ६, तथाऽधिकमांसादिच्छेदाच्छिन्न सम्यक् ७, सर्वमप्येतत्समाधानकारत्वाद् द्रव्यसम्यक् विपर्ययादसम्यगिति गाथार्थः ।
(६) भावश्यपतिपादनायाह-
तिविहं तु भावसम्मं, दंसण नागे तहा चरिते य । दंसणचरणे तिविहं, नाणे दुविहं तु नायव्वं ।। २१६ ।। त्रिविधं भावसम्यक दर्शनज्ञानचारित्रभेदात् पुनरप्येकैकं मंडल आय-तत्र दर्शनवर प्रत्येक त्रिविध ता
"
तद्यथा
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सम्मत
( ४८६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
अनादिमिपारकृतत्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्तकरणीयशेषक
र्मणो देशोनसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्थापूर्वकरणभि
अन्धेमियात्वानुदयलक्षगमन्नरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयत औपशमिकं दर्शनम् १, उक्रंच -" ऊसरदेस -लयंत्र विज्झाइ वणदवो पप्प इयमिच्छताद उवममसम्मं लहइ जीवो ॥ १ ॥ " उपरामधेयां दीपशमिकमिति २ तथा सम्यन्लोडमजनिताध्यवसायः क्षायोपशमिक २ दर्शनमोहनीयात् शाधिकं २, चारित्रमप्युपशमयामीपशमिकं १, कषायक्षयोपशमात्सायोपशमिकं चारित्रं २, चारित्रमोहन यात्क्षायिकं ३, ज्ञान तु भावसम्यग् द्विधा ज्ञातव्यं तद्यथाशायोपशमिक्षापि च तत्र चतुर्विधज्ञानावरणीय पशमात् मत्यादि चतुर्विधं क्षायोपशमिकं ज्ञानं, समस्तयत्क्षायिकं केवलज्ञानमिति । तदेवं त्रिविधेऽपि भाषसम्यक्त्वे दर्शिने सति परश्वोदयति- यथैवं त्रयाणामपि सम्यग्यादसम्भवे कथं दर्शनस्यैव सम्यक्त्यवादी रूढो ? यदिाध्ययने व्यावर्यते, उच्यते तद्भावभावित्यादितरयोः तथाहि - मिथ्याहस्ते न स्तः, अत्र च सम्यक्त्वा - धान्यख्यापनाय अन्तरराजकुमारइयेन बालानापायें रहने तथा उदयराजस्य वीरसेनसूरसेनकुमारद्वयं तत्र वीरसेनोऽन्धः, स च तत्प्रायोग्या गाग्र्यादिका कला प्रातिः इतरस्यभ्यस्तधनुर्वेदो लो कन्हाच्या पदवीमगमत् एतच समा राजा विज्ञप्तो यथाऽहमपि धनुर्वेदाभ्यासं विदधे राज्ञाऽपि तदागम्यनुज्ञातः । ततोऽसी सम्यगुपाध्यायक देशात् प्रज्ञातिशयादभ्यासविशेषाच्च शब्दवेधी सञ्जज्ञे । तेन चारुवीय स्वभ्यस्तानात चतुर्दर्शन सदसद्भावेन शब्दवेधित्यावष्टम्भात्परबलोपस्थाने सति राजा युद्धायां याचितः । तेनापि याच्यमानेन बितेरे | वीरसेनेन च शब्दानुवेधितया परानी के जज़म्मे, परैश्वावगतकुमारान्धभावैर्मुकतामा लम्ब्यासी जगृहे, सूरसेमेन च विदितवृत्तान्तेन राजानमा निशितश जालापन मोचितः। तमभ्यस्तविज्ञानऽपि चतुर्विकलत्वान्नालमभिप्रेतकार्यसिद्धये इति ।
एतदेव नियुक्तिका गाथयोपसंहर्तुमाहकुमावि किरियं, परिचयंतो वि सयणघण भोए । दितो वि दुहस्स उरं, न जिगह अंधो पराणीयं ॥ १६ ॥ कुर्वपि क्रियां परित्यजद्यपि स्वजनधनभोगान् ददि दुःखस्योरः न जयत्यन्धः परानीकमिति गाथार्थः ।
(७) तदेवं दृष्टान्तमुपदर्श्य दाष्टन्तिकमाहकुमायो विनियति परिवर्ततो विसराभोए । दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झइ उ॥। २५१ ।। कुर्वपि निवृत्तिम् श्रन्यदर्शनाभिहितां, नद्यथा-पञ्च यमाः पक्ष नियम इत्यादिको तथा परित्यज स्वजनथनी मादिना दुःखस्यो मिथ्यादृनिं सिध्यति तुरवधारणे, मेव सिध्यति, दर्शन पिलरबाद, श्रन्धकुमारवत् श्रसमर्थः कार्यसिद्धये । श्राचा० १ ० ४ अ० १ ३० । कर्म० । नदेवं येन कर्मणा मुनिर्नय तस्त्रानि
सम्मत अद्धाति तत् सम्यक्त्वं किविशिष्ट यं तिमि येषां ते काय बहवो मेदाः प्रकारा यस्य तत्क्षायिकानि बहुमेवम् इहादिशब्दादशमि कसाानायोपशमिक अहम् पतया क्यानगाथाः
तिवेदन विवाह भये सम्मे बेगम सम्योय, रमिला ॥ १ ॥ उससेगस उ छोड़ उपसामियं तु सम्म जो वा अकयतिपुंज प्रखवियमिच्छो लहर सम्मं ॥ २ ॥ उबसमसम्मला, बहउं मिच्छं अपायमाणस्स । सासायसम्म ततरामालयं ॥ ३ ॥ मिदं मुह से उसंतं । मीसीभावपरिणयं, वेदांत खोषसमं ॥ ४ ॥ " इत्युक्तं सम्यक्त्वम् । कर्म० १ कर्म० । दर्श० प्रा० म० । विविधं सम्यक् ज्ञाथितायोपशमिकमीपरामिकं च । कल्प० १ अधि० ३ क्षण । कर्म० ।
[८] यत एवं ततः किं कर्तव्यमत शाहतम्हा कम्माणीयं, जे तु मणोदंसणम्मि पयएजा । दंसणवत्र हि सफला-गि होंति तवनाणचरणाई २२२॥ सम्म चुप्पी साब व विरए अतक्रम्मंसे । दंसणमोह, उपसामंते य उबसंते ।। २२३ ।। aar य खीखमोहे, जिसे य सेढी भत्रे असंखेजा । तव श्री कालो, संखि अगुवाइमे ।। २२४ । महारउवहिपूमा हड्डीसु य गारवेसु कहतवियं । एमेव वारस तवम्मिन उ कतवे समयो ।।२२५।। यस्मात्सिदिमार्गलाई सम्यग्दर्शनमन्तरेण न कक्षयः स्यात्तस्मात्कारणात् कर्मानीकं जेतुमनाः सम्यदर्शने प्रयतेत सिति ययति तद्दर्शयति-नयतो हिर्देती, यस्मात् सम्यग्दर्शननः सफलानि मयन्ति तपोशानचरणान्यतस्तत्र यत्नवता भाग्यमिति गाथार्थः । प्रकारान्तरेणापि सम्यग्दर्शनस्य तत्पूर्वका स्थानका नां गुणमाविर्भावयितुमाह-'सम्म चुप्पत्ति' सि सम्यक्त्वस्योत्पत्तिः सम्यक्त्वोत्पत्तिस्तस्यां विवक्षितायामसंख्येयगुणसर्भवेदित्युतराधान्ते क्रियापद संबधो लगवि लक्ष्यः । कथमसंच्या अनिवेदिति ? अत्रोष्यते इद्द मिथ्यादृष्टयः देशोनकोटिकोटिकर्मस्थितिका ग्रन्थिकसश्वास्ते कर्मनिर्जरामाश्रित्य तुल्याः धर्मप्रच्छोरपन्नसंज्ञास्तेभ्योऽगुरारकाः ततोऽपि
जिगमिषुस्तस्मादपि क्रियाविष्टः प्रच्छंस्ततोऽपि धर्म्म प्रतिपिसुरमा कियाविष्टः प्रतिपद्यमानादपि पूर्वमतिपत्र गुर्जर इति सम्यक्त्वोत्पत्तिम्यस्याता, तदन तरं विरताधिरति प्रतिपित्सुः प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपद्मानामुतरोत्तरस्यासंख्येय गुणा निर्जरा योज्या, एवं सर्वविरतावपीतितोष पूर्वपतेः सकाशात् 'अतकम्' ति पकदेशे पद्मयोग इति यथा भीमसेनो भीमः सत्यभामा भाभा एवमनन्तशब्दोपलक्षिता अनन्तानुबन्धिनः । ते हि मोहीशा भागाः धिपधिपुरनिर्जरकः ततोऽपि शपकः, तस्यापि की सामन्तानुबन्धिक
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(४८७) सम्मत्त अभिधानराजेन्द्रः।
मम्मत्त पायः। एतदेव दर्शनमोहनीयत्रयेऽभिमुखक्रियारूढापवर्गत्रय- सम्यक्त्वमिति पर्यवसन्त्रम् , तत्र श्रद्धानं ख तथेति मायोज्यं, ततोऽपि क्षीणसप्तकात् क्षीणसप्तक एवोपसमझे- प्रत्ययः , स च मानसोऽभिलाषः । नचायमपर्याप्तएयारूढोऽसंख्येयगुणनिर्जरकस्ततोऽप्युपशान्तमोहस्तस्मादपि काद्यवस्थायामिष्यते, सम्यक्त्वं तु तस्यामपीई, पटष्टचारित्रमोहनीयक्षपकस्ततोपि क्षीणमोहः, अत्र चाभिमुखा- सागरोपमरूपायाः साद्यपर्यवसितकालरूपायाश्च तस्योरकदि त्रयं यथासंभवमायोजनीयमस्मादपि जिनो भवस्थकवली एस्थितेः प्रतिपादनादिति कथं नागविरोधः ? इत्यत्रातस्मादपि शैलेश्यवस्थोऽसंख्येयगुणनिर्जरकस्तदेवं कर्मनिर्ज
च्यते-तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वस्य कार्य, सभ्यत्वं सुमिरायै असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणनिष्पादितसंयमस्थान
ध्यात्वक्षयोपशमादिजन्यः शुभ श्रात्मपरिणाविशषः । श्राह प्रथयोपात्तश्रेणिः सोत्तरोत्तरेषामसंख्येयगुणा,उत्तरोत्तरम
य-"से अ संमत्ते, पसत्थसंमतमाहीअकम्माणुवनबर्द्धमानाध्यवसायकराडकोषपत्तरिति । कालस्तु तद्विपरितो
णोवसमक्खयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिग सुंद पायपरिणाम ऽयोगिकेवलिन प्रारभ्य प्रतिलोमतया संख्येयगुणया श्रेण्या
पराणत्ते । " इदं च लक्षणमममस्केषु सिद्धादिष्वपि देवः इदमुक्तं भवति-यावत्कालेन यावत्कर्मायोगिकेवली क्ष
व्यापकम् । इत्थं च सम्यक्त्वे सत्यय यथाकं श्रमाने पयति तावन्मात्रं कर्म सयोगिकेवली संख्येयगुणेन कालेन
भवति , यथोक्लवद्धाने च सति सम्यक्त्वं भवत्यति सपयति, एवं प्रतिलोमतया यावद्धर्मपिच्छिषस्तायनेय- श्रद्धानवतां सम्यक्त्वस्यावश्यम्भावित्योपदशनाय काय कामिति माथावयार्थः।
रणोपचारं कृत्वा तत्वेषु रुचिरित्यस्य सस्वार्थद्वाममिएवमन्तरोतया नीत्या दर्शनवतः सफलानि तपोशानघर
त्यर्थपर्यवसान न दोषाय । तथा चोक्तम्-"जीवाइनवायणान्यभिहितानि, यदि पुनः केनचिदुपाधिना विदधाति त्थे , जो जाणइ तस्स होइ सम्मतं । भाषण सहन, ततः सफलत्वाभावः । कश्चासाधुपाधिस्तमाह
अयाणमाणे वि सम्मत्तं ॥१॥" ति । नववर्माप
शास्त्रान्तरे-तत्वत्रयाध्यवसायः सभ्यमित्युकम् । आहारउवहिपूत्रा, इडीसु य गारवेसु कइतवियं ।
यतः-" अरिहं देवा गुरुणो , सुसाहुयो जिएमेव वारसविहे, तवम्मि न हु कइतवे समणो ॥२२॥
णमयं पमाणं च । इच्चाइसुद्दो भात्रो, सम्म बिांत आहारश्च उपधिश्च पूजा च ऋद्धिश्चामर्वोषध्यादिका श्रा
जगगुरुणो ॥ २ ॥" [इति ] कथं न शास्त्रान्तरांबहारोपधिपूजर्द्धयस्तासु निमित्तभूतासु ज्ञानचरक्रियां क- रोधः ? इति चेन्न, अत्र प्रकरण जिनातवपु रुचिरोति । तथा गारवषु त्रिषु प्रतिबद्धो यत्करोति तत् कृत्रि
रिति यतिश्रावकाणां साधारण सम्यक्त्यलक्षणमुझं , मित्युच्यते, यथा च ज्ञानचरणयोराहाराद्यर्थमनुष्ठानं कृ
शास्त्रान्तरे तु गृहस्थानां देवगुरुधर्मयु पूज्यत्वोपाम्यन्यात्रिमं सन्न फलवद्भवत्येवं सबाहयाभ्यन्तरे द्वादशप्रकारे तप.
नुष्ठयत्वलक्षणापयोगवशाद्देवगुरुधर्मतस्यतपत्तिलक्ष सस्यपीति । न च कृत्रिमानुष्ठायिनः श्रमणभावा न चाश्रमण
म्यक्त्वं प्रतिपादितं, तत्रापि दबा गुरवच जीवतत्व , स्यानुष्ठान गुणवदिति । तदेवं निरुपधेर्दर्शनवतस्तपोशान
धर्मः शुभाश्रये संवरे चान्तवनाति शास्त्रान्तर्गचरणानि सफलानीति स्थितमतो दर्शने यतितव्यम् । दर्शनं
रोधः । सम्यक्त्वं चाईडमस्य मूलभूतं यता द्विविध च तत्वार्थश्रद्धानं, तत्त्वं चोत्पन्नापगतकलङ्काशेषपदार्थस
त्रिविधेनेत्यादिप्रतिपत्त्या श्राद्धद्वादशवती सभ्यकत्वानर-- साव्यापिशानस्तीर्थ-कृभिर्यदभाषि । श्राचा० १ श्रु०४
गुणरूपभेदद्धययुतामाश्रित्य त्रयोदशकांटशतानि चतुर--- म०१ उ० । कर्म०। प्रति।
शीतिकोट्यः सप्तविंशतिः सहस्राणि द्वे शते वर(E) साम्प्रतं विशेषतो गृहिधर्मव्याख्यानावसरः, स
त्तरे भङ्गाः स्युः । एषु [ कवलं] सभ्यमय बिना च सम्यक्त्वमूलक इति प्रथमं सम्यक्त्वं प्रस्तूय तदेव
च नकस्यापि भङ्गस्य समवः, श्रम एवमलंदार 'मि-- लक्षयति
त्यादि, षड्भावना वक्ष्यमासा युक्ता एवति । ५.२ अधिक। न्याय्यश्च सति सम्यक्त्वे-ऽणुव्रतप्रमुखग्रहः ।
[१०] एतम्ब फल वैवमाहुःजिनोकतत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते ॥२१॥ सति-विद्यमाने सम्यक्त्वे-सम्यग्दर्शने चकारोऽत्रैवकारार्थो
अंतोमुहुत्तमित्तं, पि फामिनं हुआ बहि सम्म । भिन्नक्रमश्च., ततः सम्यक्त्वे सत्यवेत्यर्थी लभ्यते। अ- तेसिं अवड्डपुग्गल-परिभट्टाचब संसारा।।१।। णुवतगुणवतशिक्षावतानां ग्रहोऽभ्युपगमो न्याय्यः-उपप- सम्मद्दिट्ठी जीवो, गच्छद्र नियमा विमाणावासीमु । भः, नस्वभ्यथा-सम्यक्त्वेऽसति , निष्फलस्वप्रसङ्गात् ,
जइ न विगयसम्मत्तो, अहवन बद्धाश्री पुब्धि ॥२॥ यथोक्तम्-"सस्यानीवाषरक्षेत्र, निक्षिप्तानि कदाचन । न ब्रतानि प्ररोहन्ति , जीये मिथ्यात्ववासिते ॥ १ ॥ संय
जं सकइ तं कीरइ, जंच न सका ताम्म सद्दहणा। मा नियमाः सर्वे , नाश्यन्ते तेन पावनाः । क्षयकालान
सद्दहमाणो जीवो, बच्चा अयराम ठाणं ।।३।। लेनेव , पादपाः फलशालिनः ॥ २॥" इति । सम्य- शिष्यव्युत्पादनार्थ चन्थमुपाधिभेदन सम्यक वभदाम --- कत्वमेव दर्शयति-जिनान ' इत्यादि , जिनोक्नेषु तत्त्वेषु देशः, तन क्वचित्केषाश्चिदन्तभावांप न क्षतिारन्युन जीवाजीयादिपदार्थेपु या शुद्धा-अज्ञानसंशयविपर्यास- राध्ययनवृत्ती । यथा च मान्तभावस्नथाक्रमस्माभिः, न निराकरणन निर्मला रुचिः-श्रद्धानं सा ' सम्यक्त्वमु- थापि नैतदन्यतरत् सम्यक्त्वलदारणं , रु नां तत्तद्विप.. च्यते 'जिनैरिति शषः । तद्विशेषतो गहिधर्म इति , भेदेन परिगणनस्याशसम्बात् . रच' तरूपयन बी. पूर्वप्रतिज्ञातं सर्वत्र योज्यम् । नन्वित्थं तत्वार्थश्रद्धान रागसम्यक्त्वाऽव्याचा सविसरागसम्मत्तदंसा पराय! -
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सम्मत्त
अभिधानराजेन्द्रः। से' इति स्थानातसूत्रस्य स्वारस्येन सरागसम्यक्त्वस्यैव ल- भिरिति देवः,सम्यक्त्यमिति-पूर्वपदस्यह संबन्धादेवकारस्य श्यत्वेन च रागस्याननुगतत्वेन लक्ष्यभेदाबक्षणभेदोऽवश्यमः च पूर्वपदस्थस्य ततश्च भण्यमानविशेषणकदम्बकयुक्त एमुसरणीय इति । वस्तुतो लक्षणमिह लिकं व्यञ्जकमिति यावत् छ सम्यक्त्वं भवतीति गम्यते इत्थंभूतदेवताविशेषप्रतिव्यकस्य च बहिव्याकधूमालोकवदननुगमेऽपि न दोषः। पत्ती च प्रायः सम्यक्त्वमुदत्यतः कारण कार्योपचरादिमत एव च-नाणं च सणं चेव' इत्यादिना शानदर्शनचारित्र. स्थमुपन्यास इत्येवं सर्वपदेष्वपि भावनीयम् । दुर्गतिगर्तादिन तपःप्रभृतीनामननुगतानामेव जीवस्वरूपव्यञ्जकत्वरूपजीव- पतनाद्धारयतीति धर्मः सर्ववित्प्रणीतो हिंसादिलक्षणः लक्षणत्वम् । उक्नलिकं विनाऽपि लैङ्गिकसद्भावेऽप्यविरोध- सोऽपि सम्यक्त्वमिति-मोक्षलक्षणमहानगरस्य मार्ग इव धायदाहुरध्यात्ममतपरीक्षायामुपाध्यायश्रीयशोबिजयगण- पन्था व मार्गः सम्यग्ज्ञानादि, सोऽपि सम्यगमानदयः-'जंच जिअलक्खणं तं, उवाइंट तत्थ लक्खणं लिहं। शनचरित्रैमोक्ष, साधयन्तीति साधवः तेऽपि च सर्वतेण विणा सो जुजर, धूमेण विणा हुासु व्व ॥१॥" दिदुपदिष्टत्वेन यथावस्थितवस्तुस्तोमस्वरूपाविर्भावकानि त्ति । एवं च रुच्यभावेऽपि वीतरागसम्यक्त्यसद्भावान तत्कानि जीवादीनि तानि च सम्यक्त्वं भवतीति योज्यम् । क्षतिः । व्यङ्ग्य त्वेकमनाविलसकलझानादिगुणैकरसस्वभा- सर्वत्र चकारोऽनुनसमुथयार्थः । एवकारोऽवधारणार्थस्ती वं शुद्यात्मपरिणामरूपं परमार्थतोऽनाख्येयमनुभवगम्यमेव च योजितावेव । तद्विपरीतं मिथ्यात्वदर्शनमिति-इत्थंभूतसम्यक्त्वम् । तदुक्तं धर्मबीजमधिकृत्योपदेशपदे-" पायमण- देवधम्ममार्गसाधुतस्वविपरीत-विपर्ययत्वं स चासप्रणीत
नेअमिण, अणुहवगम्मं तु सुद्धभावाणं । भवस्त्रयकर ति त्वेन शिवसौग्यसाधनं प्रत्यनहत्वात् मिथ्यादर्शन-विपरीगरु, बुहेहि सयमेव विराणेयं ॥१॥" ति । स्वयमिति तदर्शनमिति यावदिति, दर्शितं समय-सिद्धान्ते तीर्थकृतनिजोपयोगतः, इतुक्षीरादिरसमाधुर्यविशेषाणामिवानुभवेऽ. णधरादिमिरिति प्रायद्वारगाथासमासार्थः। दर्श०४ तस्व। प्यनाण्येयत्वात् । उक्तं च-" इक्षुक्षीरगुडादीनां, माधुर्यस्या
पं० सं० । कर्म। म्तरं महत् । तथापि न तदाख्यातुं, सरस्वत्याऽपि पार्यते औपशमिकसम्यक्त्वं तपशमश्रेण्या प्रथमसम्यक्त्व लाभे वा ॥१॥” इति । यदि च धर्मबीजस्याप्येवमनुभबैकगम्यत्वं, भवति जीवस्य । उक्तं च-"उघसामगसेढिगय-स्स होइ उपका वार्ता तर्हि भवशतसहस्रदुर्लभस्य साक्षान्मोक्षफलस्य सामियं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो, अववियमिच्छो बारित्रैकमाणस्य सम्यक्त्वस्य ? इति शुद्धात्मपरिणतिस्वरू- लहर सम्मं ॥१॥" ननु क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यक्त्वयोः पे हि तत्र नातिरिक्रममाणानां प्रवृत्तिः। उक्तं च शुद्धात्मख- कः प्रतिविशेषः?.उच्यते क्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिकयेदन रूपमधिकृल्याचारसूत्रे-"सव्वे सराणि अट्टति, तका जत्थ ण विपाकतो नास्ति प्रदेशतः पुनर्विद्यते, औपशमिके तु प्रदेशबिज्जर, मह तत्थ ण गाहिया" इत्यादि, तदेतद् शा- तोऽपि नास्तीति विशेषः । कर्म० ३ कर्म। सूत्र। ('किमादिगुणसमुदायानेदाभेदादिना विवेचयितुमशक्यमनुभ- रियावाई' शद्रे तृतीयभागे ५५६ पृष्ठे कालादिवादिनां धगम्यमवेति स्थितम् । अत्र पद्ये-" न भिन्न नाभिन्न वक्तव्यता गता।) घभयमपि नो नाप्यनुभयं, न वा शाब्दन्यायाद्भवति भ- (११) कर्मक्षेत्रादिप्रपञ्चसारविचारपरित्यागेन सम्यक्त्वजनाभाजनमपि । गुणासीनं लीनं निरवधिविधिव्यञ्जनपदे, ____ स्वरूपस्यैव प्रकाशने हेतुमाहयदेतत्सम्यक्त्वं तदनुकुरुते पानकरसम् ॥१॥ न के- सुयसायरो अपारो, आउं थोवं जिया य दुम्मेहा । माप्याख्यातं न च परिचितं नाप्यनुमितं, न चार्थादापत्रं तं किं पसिक्खियव्वं, कसकरं व थोवं च ॥३॥ कचिदुपमितं नापि विबुधैः । विशुद्धं सम्यक्त्वं न च
श्रुतमादिभेदभिन्नं जिनागमः तदेव सागरः श्रुतसागरः, इदि न नालिङ्गितमपि, स्फुरत्यन्तज्योतिर्निरुपधिसमाधौ
अपारोऽपर्यन्तोऽतिबहुत्वात् आयुर्जीवितं स्तोकं-स्थल्पम् , समुदितम् ॥२॥” इत्यलं प्रसझेन । प्रकृतमनुसरामः ।
जीवाः-प्राणिनः चशब्दः पुनरर्थस्ततः किमित्याह-तत् किमनिसर्गाधिगमयोरुभयोरप्यकमन्तर कारणमाह-मि
पिशिक्षितव्यमभ्यसनीयं यत् कार्यकरममुष्यवृत्यैव प्रयोजनध्यात्वपरिहाण्यैव-मिथ्यात्वं जिनप्रणीततत्वविपरीत
निष्पादक तत् ,मयमर्थः-श्रुतसागरोऽपारो निःसीमा मायुअद्धानलक्षणं, तस्य परिहाण्यैव सर्वथा स्यागे विविध
रपि तदधिगमहेतुकं स्वल्पं, सांप्रतपुरुषापेक्षया प्रायो वर्षत्रिविधेन प्रत्याख्यानेनेति यावत् । श्राह च-'मिच्छत्त
शतान्तर्गतत्वात् , जीवाश्च पुनस्तदवतारे दुर्मेधसः तदवपडिकमण 'तिविहं तिधिहेण नायव्वं' ति । ध०२ अधिक।
गमहेतुबुद्धिविकलाः पूर्वपुरुषापेक्षयाऽल्पमतित्वादित्यवधार्य देवा दुर्लभः सम्यक्त्वपरिणाम इह इत्युक्तं तद्भायश्च यत्प्र
यदेवाक्रियाकारि मरूपं च तदेवाङ्गीकार्यमिति गाथार्थः । तिपत्त्या मनागसञपि भवति तत्प्रतिपन्नाश्च येषां प्रतिपत्ति.
सम्यक्त्वस्यैव दुर्लभत्ववर्णनद्वारेणैकान्ततः विधेया तद्धि बन्धकवन चावबुध्य हेयास्तानुपविदर्शयिषुः
कार्यकारितामाहसर्वस्यास्य शास्त्रस्य मूलबीजकल्पां देवादिद्वारपञ्चकप्रतिपादिकामिमा गाथामाह
मिच्छत्तमहामोहऽ-न्धयारमबाण एत्थ जीवाणं । देवो धम्मो मग्गो, साहू तत्ताणि चव सम्मत्तं ।।
पुणेहि कह वि जायइ,दुलहँ सम्मत्तपरिणामा।|४||
महांश्चासौ मोहश्च महामोहो मिथ्यात्वमेव महामोहः त. तविपरीयं मिच्छ-त्तदंसणं देसियं समए ॥ ५॥
स्मात्तेन वाऽधकारं सम्यक्त्वस्यावरणं तस्मिन् तेन च मूढाः दीव्यते-स्तूयते च कश्चित्पूर्वभयशुभपरंपरोपासतीर्थकृत्रा- मिथ्यात्वमहामोहान्धकारमूढास्तेषाम्, मनस्यस्मिन् जिनमकर्मोदयतो नमन् । त्रिविष्टपाधिपसुरेश्वरमाधिपति- शासने चतुर्दशरज्ज्वात्मके घा लोके जीवानां भव्यप्राणिनां पु
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(४८ ) सम्मत अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त एयैः सम्यग्दर्शनाचरणक्षयोपशमसमुत्थैः कथमपि महता सुअघमामो सो पुण, पहीणदोसस्स वयणं तु ।१०३०॥ कष्टेन जायते-समुत्पचते दुर्लभी-दुराप एव सम्यक्त्वपरिणामो मिथ्यात्वापगमेन यथावस्थितवस्तुस्वरूपानुष्ठान
भूतार्थश्रज्ञानं च सम्यक्त्वं भवति भूतार्थवाचकात् प्राय लक्षणः, अयमभिप्रायः-अनाद्यनन्तके पर्यटतां भव्यप्राणिना
इति श्रुतधर्माद-आगमात् । स पुनः प्रक्षीणदोषस्य वचनमेवेमपि मिथ्याखमोहमोहितानां सकलमलकलकविकलशिव
ति गाथार्थः। पं०व०४ द्वार। (नयेषु मिथ्यात्वसम्यक्त्वं 'णय' सुखतरुबीजं ततः सम्यक्त्वपरिणाम एव दुर्लभः, यतः-"रा
शब्दे चतुर्थभागे १८६७ पृष्ठे उक्नम्।) अनभिक्राम्तसंयोगस्य जन्ति भूतिविपुलं सुरसंपदश्च, नागेन्द्रचन्द्रपदमुत्तमसौ
भावतमसि धर्तमानस्य सम्यक्त्वलामो नास्तीत्युक्तम् । स्यहेतुः। मातङ्गतुरगारथसन्ततिश्च, नार्यो वराश्च कुचकुम्भ- | (१३) तदेव सूत्रानुगमायातेन सूत्रेण दर्शयतिभरावखिन्नाः ॥६॥ अन्यच चारु यदिहास्ति शुभं शुभानां, संसारपारगमनैककरं विमुच्य । सद्दर्शनं जिनगुरुप्रतिपत्तिह
सब्वे पाणा सव्वे भूया सब्चे जीवा सव्वे सत्ता न तुः, नैवास्ति दुर्लभमहो भुबनेऽखिलेऽपि ॥७॥"दर्श०४ तत्व ।। हंतव्वा न अजावेयच्या न परिधित्तन्वा न परियावयम्वा इदमेव निदर्शनमङ्गीकृत्योपदिशबाह
न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे निइए समिञ्च लोयं खेयलेइय सम्वेण वि सम्म, सकं अप्पत्तियं सइ जणस्स।
हिं पवेइए, तं जहा-उद्विएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवढिएसुवा नियमा परिहरियवं. इयरम्मि सतत्तचिंता तु ॥ १७॥ अणुवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवइति-श्रीमद्वीरवईमानस्वामिना चेत्यर्थः सर्वेणापि-सम-|
हिएसु वा अणावहिएसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु स्तेनापि जिनभवनानि विधानार्थिना-संयमार्थिना धान | वा, तच्चं चेयं तहा चेयं प्रस्सि चेयं पवुच्चइ। (सू०१२६४) कतरेणैवेत्यर्थः अप्रीतिक परिहर्तव्यमिति योगः , कथं सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिता न हन्तव्याः दसम्यग्भावशुद्धया,किंभूतं तदित्याह-शक्यं शक्यपरिहारमेय
राहकशादिभिः नाशापयितव्याः प्रसह्याभियोगदानतः, न नत्वशक्यमपि तस्य परिहर्तुमशक्यत्वादवाशक्यानुष्ठानापदे.
परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादिममत्वपरिग्रहतः , न परिताशरूपत्वात् 'अप्पत्तियं'-ति अग्रीतिरेवाभीतिकं सकृत् सदा
पयितव्याः शारीरमानसपीडोत्पादनतः, नापद्रावयितव्याः सर्वकालं जनस्य-लोकस्य नियामाच्च तथा परिहर्तव्यं
प्राणव्यपरोपणतः एषः-अनन्तरोक्को धर्मः, दुर्गवर्जनीयमितरस्मिन्नशक्यपरिहारे प्रीतिके स्वतत्त्वचिन्ता तु
त्यर्गलासुगतिसोपानदेश्यः । श्रस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वाखस्वभावपर्यालोचनमेव विधेयम् । दर्श०१ तस्व ।
द्विशेषणं दर्शयति-शुद्ध:--पापानुबन्धरहितः न शाइदानीं सम्यक्त्व एक श्रादराधानाय दृष्टान्तदाटान्तिको- क्यधिगजातीनामिवैकेन्द्रियपश्चेन्द्रियवधानुमति कलकावितः पदर्शनपूर्वकं सम्यक्त्वमाहात्म्यवर्णनद्वारेणोपदिशनिमां गा- तथा नित्यः--अप्रच्युतिरूपः, पञ्चस्वपि विदेहेषु सथामाह
दाभवनात् , तथा शाश्वतः शाश्वतगतिहेतुत्वात् , यकुणमाणो विहिकिरियं, परिचयंतो वि सयणधणभोए। दिवा नित्यत्वाच्छाश्वतो , न तु नित्यं भूत्वा न भवति , दितो वि दुहस्स उरं, न जयइ अंधो परामीयं ॥ १८ ॥ भव्यत्ववत् , अभूत्वा च नित्यं भवति घटाभाववदिति, व्याख्या-कुर्वन्नपि-विधानोऽपि क्रियां-प्राणापहार- अयं तु त्रिकालवस्थायीति, अमुं च लोकं-जन्तुकारिग्रहरणप्रक्षेपादिकां परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान्
लोकं दुःखसागरावगाढं समेत्य--ज्ञात्वा तदुत्तरणाय तत्प्रतिबन्ध हि सम्यग्व्यापारासंभवान्न साध्यसिद्धिः संभ
खेदः--जन्तुदुःखपरिच्छत्तभिः प्रवेदितः--प्रतिपादित इति, घति , ततस्तत्प्रतिहार होच्यते , दददापि दुःखस्योरः न
एतच गौतमस्वामी स्वमनीषिकापरिहारेण शिष्यमतिस्थैजयत्यन्धः परानीकं परसैन्यं परम्पराभवकारि समरमूल
र्यार्थ वभाषे। कारण नयनरहितत्वात्तस्येत्यक्षरार्थः । दर्श०४ तत्व ।
एनमेव सूत्रोक्लमर्थ नियुक्तिकारः सूत्र(१२) सम्यक्त्वं मोक्षबीजम्
संस्पर्शकेन गाथाद्वयेन दर्शयतिसम्म च मोक्खबीअं, तं पुण भूअत्थसदहणरूवं !
जे जिणवरा अईया, जे संपइ प्रणागए काले । पसमाइलिंगगम्मं, सुहाय परिणामरूवं तु ॥१०२८ ॥
सव्वे वि ते अहिंसं,बदिसु वदिहिति वि वदिति ॥२२६।। सम्यक्त्वं च मोक्षबीजं वर्तते , तत्पुनः स्वरूपेण भूतार्थश्रद्धानरूपं तथा प्रशमादिलिङ्गगम्यमेतत् । शुभात्मपरिणा
छप्पिय जीवनिकाए, णो विहणे णोऽविश्रहणाविञ्ज । मरूपं जीयधर्म इति गाथार्थः ।
नोऽवि अ अणुमभिजा, सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती॥२२७।। तम्मि सइ सुहं ने, अकलुसमावस्स हंदि जीवस्स ।
गाथाद्वयमपि कराव्यम् । तीर्थकरोपदेशश्च परोपकारितया अणुबंधो य महो खलु, धम्मपवत्तस्स भावेण ॥१०२६।।
तत्स्वाभाव्यादेव प्रवर्तमानो भास्करोदय इव प्रयोध्य विशेष
निरपेक्षतया प्रयतते,तयथेत्यादिना वर्शयति-तं जहा-उतस्मिन् सति सुखं शेय-सम्यक्त्वे कलुषभावस्य हन्दि
ट्रिपसु था' इत्यादि, धम्मैचरणायोचता उत्थिता-ज्ञानजीपस्य शुद्धाशयस्य, अनुबन्धश्च शुभः खलु तस्मिन् सति
दर्शनचारित्रोद्योगधम्तः , तद्विपर्ययेणानुस्थिताः, तेषु निधर्मप्रवृत्तस्य भावेन-परमार्थेनेति गाथार्थः ।
मित्तभूतेषु तानुद्दिश्य भगवता सर्वदिना त्रिजगत्पतिमा भूभत्थसदहाणं, च होइ भूयत्थवायगा पायं ।
धर्मः प्रवदितः , पवं सर्वत्र लगयितव्यम् , यदिषा-उस्थि
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सम्मत
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तानुस्थितेषु द्रव्यतो निषरणानिधराणेषु तत्रैकादशसु गराधरे स्थितप्येय यारयमानस्यामिना धर्मः प्रवेदितः तत उपस्थिता धर्म शुश्रूषयो जिघृशयो वा तद्विपर्ययेातु
,
स्थितास्तेष्विति । निमित्तसप्तमी चेयम्-यथा ' चर्मणि द्वीपिनं हन्तीति ननु च भावोपस्थितेषु चिलातिपुत्रादिविष धर्मकथा मिती अनुपस्थितेषु गु पुष्णाति १, अनुपस्थितेष्वपीन्द्रनागादिषु विचित्रत्वात्कर्म. परिणतेः क्षयोपशमापादनाद् गुणवत्येवेति यत्किञ्चिदतत् प्राणिन आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः, स च मनोवाक्का लक्षणः उपरतो दो येषां ते तथा पयेानुपर दण्डः, तेषूभयरूपेष्वपि । तत्रोपरतदण्डेषु तत्स्थैर्यगुणान्तराधानार्थ देशना, इतरेषु परतदण्डत्वार्थमिति । उपधीयते--- संगृहात इत्युपधिः, इम्पती हिरण्यादि भायतो माया सह उपधिना वर्तत इति सोपधिकाद्विपर्ययेणापधिकास्यति संयोगः--सम्बन्धः पुत्रकलत्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः संयोगरतास्तद्विपर्ययेत्यभावनाभाबिता असंयोगरतास्तेष्विति, तदेयमुभयरूपष्वेपि यद्भगयता धर्मदेशनाकारि तत् तथ्यं - सत्यमेतदिति, चशवो नियमार्थः तथ्यमेवैतद्भगवद्वचनम् । यथाप्ररूपितवस्तु सद्भावात्तथ्यता वचसो भवतीत्यतो वाच्यमपि तथैवेति दर्शयति तथा चैतस्तु यथा भगवान जगाद यथा-सर्वे प्राणाना इत्यादि एवं सम्यग्दर्शनं वा विधे यम् एतच्चाश्मिव मीमीन्द्रप्रबचने सम्यग्मोक्षमार्गयिभाविनि समस्तदन्धोपरने प्रलोच्यते प्रोच्यत इति न तु यथा अपन स्वित्सर्वभूतानीत्यभि धायान्यत्र पायये यह पशुपधाभ्यनुज्ञानात् पूर्वोत्तराचेति । (१४) तदेवं सम्यक्त्यस्वरूपमभिधाय तदवासी पि तद्दर्शयितुमाह
"
(४६०) अभिधान राजेन्द्रः ।
तं भातु न निहे न निक्खिये जाखिनु धम्मं जहा तहा, दिट्ठेहिं निब्बेयं गच्छिज्जा,नो लोगस्सेसणं चरे। (मू०१२७)
1
तत्-तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमादाय - गृहीत्वा तत्कार्याकरतन सिंगो तथाविधगोदिनिमितोत्थापितमिथ्यात्वोऽपि जीवसामर्थ्यगुणास्यजेदपि, यथा वा शैवशाक्यादीनां गृहीत्वा व्रतानि पुनरपि व्रतेश्वरयागादिविधिना गुरुसमीपे निक्षिप्यत्प्रयजनम्, एवं गुर्वादेः सकाशादवाप्य सम्यग्दर्शनं न निक्षिपेत्-न त्यजेत् किं कृत्वा ? - यथा तथाऽवस्थितं धर्म शात्वा श्रुतचारित्रात्मकमवगम्य, वस्तूनां वा धर्म-स्वभावमबुध्येति । ततु किं चापरं कुर्यादित्याह - 'विद्वेहिं इत्यादि प्रैरिष्टानिष्टरूपैर्निर्वेदं गच्छेद् - विरागं कुर्यादित्यर्थः, तथाहि-शब्दे ः रसस्यादितैर्गन्धैराघ्राः स्पः स्पृष्टे सद्भिरेवं भावयेत् यथा शुभेतरतापरिणामवशाद्भवतीत्यतः कस्तेषु रागो द्वेषो वेति । किं च 'नो लायस्स' इत्यादि. प्राणापु-शब्दादिषु प्रवृत्तिरनिष्टेषु तु हेय बुद्धिस्तां न चरेत्-न विदध्यात् । (१५) यस्य चैषा लोकैषणा नास्ति तस्यान्याप्यप्रशस्ता मतिनास्तीति दर्शयति-जस्स नरिथ इमा जाई । तस्म को सिया दि
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सम्मत
सुयं मयं विष्ठायं जं एयं परिकहिअर, समेमाणा पलेमाणा पुणो पुगो जाई पकप्पंति । ( ० १२८)
यस्य मुमुक्षोरेषा ज्ञातिः लोकेषाद्धिः नास्ति-न विद्यते, तस्यान्या सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात् ?, इ मुक्रं भवति भोगेच्छारूपां लोकच परिजिहीपॉय लोकैषणां सावधानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते तातिपदिया इमा - अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्वज्ञातिः प्राणिनो न हन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते तस्यान्या अविवेकिनी बुद्धिः कुमार्गावचानुष्ठान परिहारद्वारेण कुतः स्यात् । शिष्यमतिस्थैर्यार्थमाह- 'विट्ठ' मित्यादि, यदेतन्मया परिकलामा लोकेन र ततः शु
लघुकर्मणा मध्यानां मतं हाताबरणीयतयोपशमाद्विशेपेसा विज्ञातम् भवताऽपि सम्यक्त्यादिके म कथिते पालयता भवितव्यमिति ये पुनर्यधोकारियो न स्युः ते कथम्भूता भवेयुरित्याह- 'समेमाणा' इत्यादि, तमिश्रेय मनुष्यादिजन्मनि शान्तो मानार्थमासेयां कुर्वन्तः सथा प्रलीयमानाः मनोनिया पीनयेकेन्द्रीयादिकां जातिं प्रपपति-संसारातित्यर्थः।
,
यद्येवमविदितवेद्याः साम्प्रतेक्षिणो यथा जन्मकृतरतय इन्द्रियार्थेषु प्रलीनाः पौनःपुन्येन जन्मादिकृतसन्धाना जतवस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह
अहो अ राम्रो य जयमाणे धीरे सया आयथपण्या पमते बहिया पास अप्पमते सया परिकमिजासि चि बेमि । ( सू० १२६ )
अहम्ध रात्रिं च यतमान एव यत्नवानेव मोक्षाध्वनि धीरःपरीचोपसर्गाः सहासकालम् आगतं स्वीकृतं प्रज्ञानं - सदसद्वियेको यस्य प्रमशान् श्रसंयतान् परतीर्थिकाम्या धम्महिष्यवस्थितान् पश्य तां तथाभूतान् दृष्ट्वा किं कुर्यादित्याह - ' ' अप्पमत्ते' इत्यादि, अप्रमत्तः सन् निद्राधिकथादिप्रमादरहितो ऽक्षिनिमेषोन्मेपादावपि सदोपयुक्तः पराक्रमेथाः कर्मरिपून मोक्षाध्वनि था। इतिरधिकारसमाप्ती, प्रवीमीति पूर्वधत्। इति सम्यकायाध्ययने प्रथमोदेशकडीका परिसमाप्ता प्रथमोदेशकः ।
साम्प्रतं द्वितीयाच्या प्रतभ्यते, अस्य चायमभिस म्बन्धः - इह अनन्तरोद्देशके सम्यग्वादः प्रतिपादितः स य प्रत्यनीकमिध्यापादानात्मलाभ लभते व्युदासश्च न परिज्ञानमन्तरेण, परिज्ञानं च न विचारमृते, अतो मिथ्यावादभूततीर्थिकमतविचारणायेदमुपक्रम्यते अन सम्बन्धनायात स्पास्वोदेशकस्येदमादिजे आसवा' इत्यादि, यविवेह सम्यक्त्वमधिकृतं तच्च ससपदार्थश्रद्धानात्मकम् मुमुखाय गतशखपरिक्षाजीवा जीवपदार्थेन संसारमोक्षकारण निर्णेत तत्र संसारकारणमात्रवस्तग्रहणाच बन्धग्रहणं, मोक्षकार ཞུ निर्जरागाच्य संघकार्यभूत मोक्षः सूचितो भव
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सम्मत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त तीत्यत आश्रवनिर्जरे संसारमोक्षकारणभूते सम्यक्त्ववि- पद्यते-गम्यते येभ्योऽर्थस्तानि पदानि, तद्यथा-ये पानचारायाते दर्शयितुमाह
वा इत्यादीनि, परस्य चार्थावगत्यर्थ शब्दप्रयोगादेतत्पदयाजे भासवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते भासवा,जे अ- व्यानर्थाश्च सम्यग्-अविपर्यासेन बुध्यमानस्तथा लाकवासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते प्रणासवा ,
जन्तुगणमानवद्वारायातेन कर्मणा बध्यमान तपश्चरणादि
ना च मुख्यमानमाशया-तीर्थकरप्रणीतागमानुसारेणाभिपए पए संबुज्झमाणे लोयं यमाणाए भभिसमिचा पु.
समेत्य-माभिमुण्येन सम्यक परिच्छिच चशम्ना भिन्नक्रमः डो पवेइयं । (सू० १३०)
पृथक प्रवेवितं चाभिसमेत्य पृथगानयोपादानं निर्जरोपादानं 'य' इति सामान्यनिर्देशः, आश्रयस्यष्टप्रकारं कर्म यैरा- चेत्येतषशात्वा को नाम धर्माचरणं प्रति नोचच्छेदिति ?, रम्भस्ते मात्रयाः, परिः-समन्तात्पति-गलति यैरनुष्ठा- कथं प्रवेदितमिति चेत् ?, तदुच्यते, मात्रयस्ताववानप्रस्यमषिशेषस्ते परिसबाः, य एवानवाः-कर्मबन्धस्थानानि नीकतया ज्ञाननिहवेन ज्ञानान्तरायेण मानप्रवेषण शानात्यात एष परिया:-कर्मनिर्जरास्पदानि । इदमुक्तं भवति-या
शातनया ज्ञानविसंबादेन ज्ञानाबरणीयं कर्म बध्यते, एवं नि इतरजनाचरितानि लगानादीनि सुखकारणतया तानि दर्शनप्रत्यनीकतया याबहर्शनाघसंघावन दर्शनाबरणीयं ककर्मबन्धहेतुत्वादानवाः, पुनस्ताम्येष तस्वविा विषयसुख- ने बध्यते, तथा प्राणिनामनुकम्पनतया भूतानुकम्पननया पराक्मुखानां निःसारतया संसारसरणिदेश्यानीति कृत्वा बै जीवानुकम्पनतया सत्वानुकम्पनत्वेन बहूनां प्राणिनामदुःखोराग्यजनकानि प्रतः परिस्रवाः-निर्जरास्थानानि । सर्ववस्तू- स्पास्मतया प्रशोचनतया अजूरणतया अपीडनतया अपनामनैकान्तिकतां वर्शयितुमतदेव विपर्ययेणाह-जे परिस्स- रितापनतया सातावेदनीय कर्म बध्यो. एतद्विपर्ययाचावा' इत्यादि, य एष परिश्रयाः-निर्जरास्थानानि-अर्हत्सा- साताबेदनीयमिति । तथाऽनन्तानुबन्ध्युत्कटतया तीवदर्शधुतपश्चरणवशधिधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानादीनि तान्येव नमोहनीयतया प्रबलचारित्रमोहनीयसद्भावान्मोहनीयं ककर्मोदयाषष्टब्धशुभाध्यवसायस्य दुर्गतिमार्गप्रवृत्तसार्थया- मै बध्यते, महारम्भतया महापरिग्रहतया पश्चेन्द्रियवधात् हस्य जन्तोर्महाशातनावतः सातर्विरसगारषप्रवणस्यास्रया कुणिमाहारेण नरकायुष्कं बध्यते, मायावितया अनुतबादेन भवन्ति-पापोपानानकारणानि जायन्ते । इवमुक्नं भवति- कूटतुलाकूटमानव्यवहारात्तिर्यगायुध्यते, प्रकृतिधिनीततयावम्ति कर्मनिर्जराथै संयमस्थानामि तद्वन्धनायासंयम- या सानुकोशतया अमात्सर्याम्मनुष्यायुष्कं. सरागर्सयस्थानाम्यपि तावन्स्येब, उक्तं च-"यथामकारा यावन्तः,संसा. मेन देशविरत्या बालतपमा कामनिर्जरया देयायुष्कमिति, रावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा-निर्वाणसुखहेतवः ॥१॥" कायर्जुतया भावर्जुतया भागजुसया अविसंपादनयांगन शुतथाहि-रागद्वेषवासिताम्तःकरणस्य विषयसुखोन्मुखस्य तु. भनाम बध्यते, विपर्ययाच विपर्यय इति , जातिकुलपलघाशयरवात्सर्वं संसाराय, पिचुमन्दरसवासितास्यस्य दुग्ध रुपतपःश्रुतलाभैश्वर्यमवाभायादुर्गोत्रं, जात्यादिमदात् पशर्करादिकटुकत्यापत्तियदिति । सम्यग्रष्टेस्तु विदितसंसारो. रपरिवादाचनीचैर्गोत्रं, दानलाभभोगापभोगवीयन्तिरायवि. बम्वतःम्यकृतविषयाभिलाषस्य सर्वमशुचि दुःखकारणमिति धानावान्तरायिकं कर्म बध्यते । एतेषाम्रधाः॥साम्प्रतं प. स्वभावयतः सजातसंवेगस्येतरजनसंसारकारणमपि मोक्षा- रिश्रवाः प्रतिपाद्यन्ते-अनशनादि सबाह्याभ्यम्तरं तप इयेति भाषार्थः । पुनरेतदेव गतप्रत्यागतसूत्र सप्रतिषेधमाह- स्यावि, एबमानयकनिर्जरकाः समभेदा जम्तयो पाच्याः, 'जमणासषा' इत्यादि, प्रसज्यप्रतिषेधस्य क्रियाप्रतिषेधप- सर्वेऽपि च जीवादयः पदार्था मोक्षायसाना बाध्याः । एर्यवसानतया परिस्रया इत्यनेन सह सम्बन्धाभाषात् पर्यु- तानि च पदानि सम्बुध्यमानस्तीर्थकरगणधरैलोकमभिसदासोऽयम् , पानवेभ्योऽन्येऽनानवाः-प्रतविशेषाः, तेऽ- मेत्य पृथक पृथक्क प्रवेदितम् ।। पि कर्मोदयावशुभाध्यवसायिनोऽपरिवाः कर्मणः, कोङ्क: (१५)अन्योऽपि तदाशानुसारी चतुर्दशपूर्वविदादिः सत्वहिणार्यप्रभृतीनामिवेति, तथाऽपरिनवाः-पापोपादानकारणा. ताय परेभ्य आवेदयतीत्येतदर्शयितुमाहनि केनचिदुपाधिना प्रवचनोपकारादिना क्रियमाणाः कण- आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुवीरलताभ्रामक पुलकस्येवानानवाः-कर्मबन्धनानि न भ- ज्झमाणाणं विभाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पमचन्ति, यदिवा-पानवन्तील्यानवाः, पचायच् एवं परिन- त्ता अहा सच्चमिणं ति बेमि । (सू० १३१) बन्तीति परिनवाल, अत्र चतुर्भलिका-तत्र मिथ्यात्वाविर
झानं सकलपदार्थाविर्भावकं विद्यते यस्यासी ज्ञानी स तिप्रमादकपाययोगैर्य एवं कर्मणामानवाः-बन्धकाः त आख्याति-आचष्टे रहेति प्रवचने केषां ?-मानवानां , सएवापरेषां परिस्रवाः-निर्जरकाः, पते च प्रथमभापतिताः
संवरचारित्राईत्वात्तेषाम् , अथवोपलक्षणं चैतदेवादीनां , सर्वेऽपि संसारिणश्चतुर्गतिकाः, सर्वेषां प्रतिक्षणमुभयसना- तत्रापि केवल्यादिव्युदासाय विशेषणमाह-संसार' इत्यावात् , तथा ये पानवास्तेऽपरिनवा इति शून्योऽयं द्वितीय.
दि, संसार-चतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्नाः संसारप्रतिपन्नाः, तभाको, बन्धस्य शाटाविनाभाविवाद , एवं येऽनानयास्ते
त्रापि ये धर्म भोत्स्यन्ते प्रहीष्यन्ते च मुनिसुव्रतस्वामिपरिसावाः पते चायोगिकेवलिनस्तृतीयभापतिताः, चतुर्थ घोटकहपान्तेन तेषामेवाण्यातीत्येतदर्शयति-' सम्बुध्यमाभापतितास्तु सिद्धाः, तेषामनास्रवत्वादपरिस्रवत्वाति,
नानां' यथोपदिष्टं धर्मे सम्यगवबुध्यमानानां , छमस्थेभत्र चाचम्तभाको सूत्रोपासौ, तदुपादाने च मध्योपादान
न त्वशातबुध्यमानेतरविशेषेण याहगभूतानां कथयितव्य स्यावश्यंभावित्वात् मध्यभरकद्वयग्रहणे द्रष्टव्यमिति । यद्ययं तान् सूत्रेणेव दर्शयति- विज्ञानप्राप्तानां' हिताहितप्राप्तिपततः किमित्याह-'पए पप' इत्यादि, पतानि-अनन्तरोक्कानि रिहाराध्यवसायो-विज्ञानं तत्प्राप्ता विज्ञानप्राप्ताः, समस्त
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समस
( ४६२ ) अभिधानराजेन्द्रः |
पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः संचिन इत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - " आधारधम्मं खलु से जीवा, तं जहा संसारपडियां माणुसमस्याएं आरंभवि
सगा धामणगाणं सुरसुसमासागं पडिपुच्छ माणार्थ विश्णाणपत्तार्थ" एतच प्रायो गतार्थमेव नवरमारम्भविनयनामित्यारम्भविनयः साम्भाभावः सपि द्यते येषामिति मत्वर्थीयस्तेषामिति । यथा च ज्ञानी धमाचष्ट तथा दर्शयति अड्डा यि इत्यादि विज्ञानं प्रासाधम्मं कथ्यमानं कुतनिमित्तादात्त अपि सन्तः चिसातिवाद अथवा प्रमत्ता विषयाभिष्वङ्गादिना - लिभद्रादय इव तथाविधकर्मक्षयोपशमापत्तेर्यथा प्रतिपधन्ते तथा च परिवाऽऽसांः- दुःखिनः प्रमत्ता:- सु खिनः, तेऽपि प्रतिपद्यन्ते धर्मे किं पुनरपरे ?, अथवाती:- रागद्वेषोदयेन प्रमता विषयेः ते तीर्थका - हस्था वा संसारकान्तारं विशन्तः कथं भवतां विज्ञातशेयानां करुणास्पदानां रागद्वेषविषयाभिलाषोन्मूलनाय न प्रभ वन्ति । एतच्चान्यथा मा संस्था इति दर्शयितुमाह-' श्रहा - सच्च 'मित्यादि, इदं यन्मया कथितं कथ्यमानं च तद्यथासत्यं याथातथ्यमित्यर्थः इत्येतदहं ब्रवीमि यथा दुर्लभमयाप्य सम्यक्त्वं चारित्रपरिणामं वा प्रमादो न कार्यः । आचा० १ श्रु० ४ श्र० २ उ० । ( धर्मविषयचकव्यता 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे २६८७ पृष्ठे उक्ता । )
च
,
(१३) परमतयुदासद्वारेण सम्ययमले प्रतिपादयता तत्सहचरितं हा तत्फलभूतादिनिरभिदिता, सत्यपि यास्मियेन पूर्वोपासकम्मणों निरवद्यतपोऽनुष्ठानमन्तरेस क्षयो भवतीत्यतस्तदधुना प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेजायतस्यास्पद्देशकस्यादि
उवेहि गं बहिया य लोगं, से सव्वलोगम्मि जे केइ विएणु, अणुत्रीए पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउ त्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिति गच्चा, एवमाहु सम्मत्तदंसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिक्षामुदाहरति इय कम्मं परियाय सम्मो (सू० १३४ )
यो यमन्तरं प्रतिपादितः पापरिडलोक एवं धर्म्माइि बस्थिमुपेक्षख तदनुष्ठानं मा अनुमंस्थाः चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदान संस्तवादिकं च मा कृथा इति । यः पापरिडलो कोपेक्षकः स कं गुणमवाप्नुयादित्याह से सम्बलो इत्यादि. य. पापरिडलोकमनार्थवचनमवगम्य तदुपेक्षां विधते स सर्वस्मिलोके मनुष्यलोके ये केचिद्विद्वांसस्तेभ्योऽग्रणीविद्वत्तम इति स्यात्, लोके केचन विद्वांसः सन्ति ? येभ्योऽधिकः स्यादित्यत आह-वीइत्यादि ये केचन लोके निक्षिप्तदण्डाः -- निश्चयेन क्षिप्तो निक्षिप्तः - परित्यक्तः कायमनोधाकृमयः प्रायुपधातकारी दल्दो पैलेसो भवस्येय एतदनुचिचिमव-पर्यालोच्य पश्य अवगच्छ । के चोपरतदण्डा इत्यत आह- 'जे केद्र इत्यादि, ये केचनागतधम्मणः सस्याः प्राणिनः पलित मिति कम्मे तस्यजन्ति ये चोपडा भयाकारं कर्म
"
"
--
,
सम्मत प्रन्ति ते विद्वांस इत्येतदनुयियि अधिनिमीलन प र्यालोच्य पश्य - विवेकिन्या मत्याऽवधारय । के पु नरशेषकम् कुर्वन्ति इत्यत आह-रे इत्यादि, नराः मनुष्यास्त पवाशेषपापा मान्ये, तेऽपि म सर्वे अपि तु मृतार्था मृतेव मृता संस्काराभावादव शरीरं येषां ते तथा निष्यतिकर्म्मशरीरा इत्यर्थः य दिवा-अ-तेजः, स च को सपाचणार्थः, ततश्वायमच मृता-विनष्टा च कपावरूपा येषां ते मृताः, श्रकषायिण इत्यर्थः, किं च-धमम् - श्रुतचारित्राण्यं विदन्तीति धर्म्मविदः, इति हेती, यत एव धर्म्मविदोऽत एवं ऋजवः- कौटिल्यरहिताः । स्यादेतत् किमाम्येतद्विषनिश्वत ब्राह प्रारंभज मिस्वादि, सावधकियानुष्ठान मारम्भस्तस्माज्जातमारम्भजे, किं तद् - दुःखमिदमिति सकलप्राप्रित्यक्षं तथाहि-सिवायायाचारम्भप्रवृत्ती बच्छारीरमानसं दुःखमनुभवति तद्वाचामगोचरमित्यतः प्रत्यक्षाभिधायिनेदमुक्तम् । इति उपप्रदर्शने, इत्येतदनुभवसि दुःसहाया मृताच्च धर्म्मविद ऋजवश्च भवन्तीति । एतच्च समस्तवेदिनो भाषन्त इति दर्शयति-' एवं ' मित्यादि, एवम्पूर्वोक्तप्रकारेण श्राहुः उक्तवन्तः, के एवमाहुः ?-समत्वदर्शिनः सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शन या देशकादेरारम्योकं तदेवमूचुरित्यर्थः कस्मात ऊचुरित्याह-' ते सध्येइत्यादि यस्माते सर्वेऽपि सर्वविदः प्रावादिकाः प्रकर्षेण मर्यादा येषां ते मावादिनः तरच प्राचादिकाः- बधावस्थितार्थस्य प्रतिपादनाय यावदूकाः, दुःखस्य - शारीरमानसलक्षणस्य तदुपादानस्य वा कर्मणः कुशला - निपुणास्तदपनोदोपायवेदिनः सन्तः ते सर्वेऽपि क्षपरिज्ञया परिज्ञाय हेयार्थस्य प्रत्याख्यानपरिक्षामुदाहरन्ति, इति उपदर्शन इत्येवं पूर्वोक्कनीत्या कर्मबन्धोदय सत्कर्मताविधानतः परिशाय सर्वशः प्रकारः कुशलाः प्रायायानपरिक्षामु सर्वैः दाहरन्ति यदिवा मूलोतरकृतिकारैः सर्वैः परिक्षायेति नकारा अष्टी उत्तरप्रकृतिप्रकारा अष्टपञ्च
"
तम् अथवा प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेश का दिया उ प्रकारबन्धकताकार्यभूतेरागामिन्धकताका रश्च कर्म्म परिज्ञायति, ते चामी उदयप्रकाराः, त यथा मूलप्रकृतीनां श्रदानानि सप्तविधं चतुर्विधमिति तत्राष्ठापि कस्कृती यगपद्येन येदष्टविधं तच काला नादिकमपर्ययसितमभय्यान भय्यानां यनादिस पर्यवसितं सादिसप्रति बेति मीहनीयोपशमेश या सप्तविधं घातिशये चतुर्विधमिति ॥ साम्प्रतमुतरप्रकृतीनामुदयस्थानाम्युच्यते तत्रज्ञानावरणीयान्तराययोः पञ्चप्रकारं एकमुदयस्थानं, दर्शनावरणीयस्य द्वे, दर्शनचतुष्कस्योदयाच्चत्वारि अन्यतरनिद्रया सह पञ्च वेदनीयस्य सामान्यनेकमुदयस्थानं सातमसात बेति, विरोधाचीगपद्योदयाभावः मोहनीयस्य सामान्येन नवोदयस्थानानि तद्यथा-दश नव श्रष्टौ सप्त बद् पञ्च चत्वारि द्वे एकं चेति, तत्र दश मिथ्यात्वं १ अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽप्रत्याख्यानः प्रत्याख्यानावरणः संजय
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सम्मत्त
अभिधानराजेन्द्रः। लनश्चेत्येतत्क्रोधचतुण्यम् ५ एवं-मानाऽऽविचतुष्टयम- सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं,-जहा जुलाई पि योज्यम् अन्यतरो वेदः ६ हास्यरतियुगमम् अरति
कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ । एवं अत्तसमाहिए मणिहे , शोकयुग्म वा भयं । जुगुप्सा १० चेति , भयजुगुप्सयोरम्यतरभावे नव , दयाभावेऽरी, अनम्तानुयभ्यभाषे सप्त,
विगिंच कोहं अविकंपमाणे । (सू०१३५) मिथ्यात्वाभावे षद, अप्रत्याख्यानोदयाभावे पश्च, प्रत्याख्या- इह-अस्मिन् प्रवचने प्राशामाकारितुं शीलमस्येति मानावरणाभावे चत्वारि, परिवर्त्तमानयुगलाभावे संज्ज्वलना- शाकाही-सर्वशोपदेशनुष्ठपी, यश्चैवम्भूतः स परिडतो भ्यतरबेहोदये सति दे, वेदाभावे एकमिति, प्रायुषोऽप्येक- विदितवेद्यः अस्निहरे भवति, स्निह्यते- श्लिप्यतेऽष्टप्रकामेवीदयस्थानं चतुर्णामायुषामन्यतरदिति, नाम्नो द्वादशो- रेण कर्मपति त्रिहो न निहोऽस्त्रिहः, यदिवा-स्निह्यतीति यस्थानानि, तद्यथा-विंशतिः एकविंशतिः चतुर्विंशतिः निहो रागवान् यो न तथा सोऽस्निहः उपलक्षणार्थत्वाचापञ्चविंशतिः पदविंशतिः सप्तविर्शातः अष्टाविंशतिः एको- स्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः । श्रथवा-निश्चयेन हन्यत इति नत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टौ चेति, तत्र संसार- निहतः भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिः, यो न तथा सोस्थानां सयोगिनां जीवानां दशोदयस्थानानि नानो भवन्ति उनिहतः इह प्रवचने अज्ञाकाली पण्डितो भावरिपुभिअमोगिनां तु चरमद्वयमिति । अत्र च द्वादश ववोदयाः कर्म. रनिहतो, नान्यत्र , यश्चानिहतः स परमार्थतः कर्मणः पप्रकृतयः, तद्यथा-तैजसकामेणे शरीरे १-२ वर्णगन्धरसस्प- रिक्षाता। यश्चैवम्भूतः स किं कुर्यादित्याह-'पगमप्पाण, शचतुष्टयम् , ६ अगुरुलघु ७ स्थिरम् अस्थिरं शुभम् १० मित्यादि, सोऽनिहतोऽस्त्रिहो वा आत्मानमेकं धनधान्यहिअशुभ ११ निर्माण १२ मिति । तत्र विशतिरतीर्थकरकेव- रण्यत्रकलत्रशरीरादिव्यतिरिक्तं संप्रेक्ष्य-पर्यालोच्य धुलिनः समुद्रातमतस्य कार्मणशरीरयोगिनो भवांते, तद्यथा- नीयाच्छरीरकं, सम्भावनायां लिङ्, सर्वस्मादात्मानं व्यतिमनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ असं ३ बादरं ४ पर्याप्तकं५ रिक्तं पश्यतः सम्भाव्यत एतच्छरीरबिधूननमिति । तथ सुभगम् ६ आदेय ७ यशःकीर्तिरिति ८ घ्रयोदय १२ कुर्वता संसारस्वभावकत्वभावनैवरूपा भावयितव्येतिसहिता विंशतिः२०, एकविंशत्यादीनि तूदयस्थानानि एक
"संसार एवायमनर्थसारः, त्रिंशत्पर्यन्तानि जीवगुणस्थानभेदादनेकभेदानि भवन्ति,
कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो बा?। तानि चेह ग्रन्थगौरवभयात् प्रत्येक नोच्यन्त इत्यत एकै
सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च, कभेदावेदनं क्रियते, तत्रैकविंशतिः गतिः १ जातिः२ श्रा
भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥१॥ नुपूर्वी ३ त्रस ४ बादरं ५ पर्याप्तापर्याप्तयोरन्यतरत् ६ सुभग
विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको , दुर्भगयोरम्यतरत् ७ श्रादेयानादेययोरन्यतरत् ८ यशःकी
न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् । पयशःकीयॉरम्यतरत् ६, पताश्व नव ध्रुवोदय १२ सहि
स्वकर्मभिधान्तिरियं ममैव , ता एकविंशतिः २१, चतुर्विंशतिस्तु तिर्यग्गतिः १ एकेन्द्रि
अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥२॥ यजातिः२ औदारिकं ३ हुण्डसंस्थानम् ४ उपधातं ५ प्रत्यकसाधारणयोरन्यतरत् ६ स्थावरं ७ सूक्ष्मबादरयोरन्यतरत्
सदैकोऽहं न मे कश्चित् , नाहमन्यस्य कस्यचित् । ८ दुर्भगम् । अनादेयम् १० अपर्याप्तकं ११ यशःकवियश-की
न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम ॥३॥" स्योरन्यतर १२ दिति । तत्रैवापर्याप्तकापनयने पार्याप्तकपरा
तथाघाताभ्यां प्रक्षिप्ताभ्यां पञ्चविंशतिः २५, पडिशतिस्तु याऽसौ
"एकः प्रकुरुते कर्म , भुनकत्येकश्च तत्फलम् । केवलिनो विशतिरभिहिता सैयौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गद्वथा- जायते म्रियते चैक , एको याति भवान्तरम् ॥१॥" . भ्यतरसंस्थानाद्यसंहननोपघातप्रत्येकसहिता वेदितव्या मि- इत्यादि , किं च- 'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं' अकाययोगे वर्तमानस्य २६, सैव तीर्थकरनामसहिता केव- परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्चरणादिना लिसमुद्घातवतो मिश्रकाययोगिन एव सप्तविंशतिः २७, | कृशं कुरु , यदिवा-कष-कस्मै कर्मणेऽलमित्येवं पर्यासैव प्रशस्तविहायोगतिसमन्विताऽष्टाविंशतिः २८ तत्र ती- लोच्य यच्छनोपि तत्र नियोजयदित्यर्थः , तथा जरर्थकरनामापनयने उच्छास १ सुस्वर २ पराघात ३ प्रक्षेपे शरीरकं जरीकुरु , तपसा तथा कुरु यथा जराजीर्णमिव सति त्रिंशद्भवति ३० तत्र सुस्वरे निरुद्ध एकोनत्रिंशत् २६ प्रतिभासते , विकृतिपरित्यागद्वारेणात्मानं निःसारतामापासैव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ३१, नवोदयस्तु दयेदित्यर्थः, किमर्थमित्येतदिति । चेदाह-'जहा' इत्यादि, मनुष्यगतिः१ पञ्चेन्द्रियजातिः २ असं ३ बादरं ४ पर्याप्तकं ५ यथा जीर्णानि-निःसाराणि काष्ठानि हव्यवाहो हुतसुभगम् ६ प्रादेयं ७ यशाकीर्ति स्तीर्थकरमिति ६, एता
भुक्तमध्नाति-शीघं भस्मसात् करोति , रान्तं प्रदर्श्य अयोगितीर्थकरकेलिनः, एता एव तीर्थकरनामरहिता
दान्तिकमाह-एवं अत्तसमाहिए' एवम्-अनन्तरोअष्टाविति ८, गोत्रस्यैकमेव सामान्यनोदयस्थानम् , उच्चनी
क्लदृष्टान्तप्रकारेणात्मना समाहितः आत्मसमाहितः, शानदर्श चयोरन्यतरद योगपनोदयाभावो विरोधादिति । तंदव
नचारित्रोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः, प्रात्मा वा समाहितोमुदयभेदैरनकप्रकारतां कर्मणः परिक्षाय प्रत्याख्यानपरि -
ऽस्यत्यास्मसमाहितः, सदा शुभव्यापारबानित्यर्थः, आहिहामुदाहरन्तीति ।
ताग्न्यादिदर्शनादार्षत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवा(१७)यदिनाम कर्मपरिशामुदाहरन्ति ततः किं कार्यमित्याह- |
प्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः, समाहितात्मेत्यर्थः । अस्त्रिहःइह भाणाकंखी पंडिए अणिहे, एगमप्पाणं संपहाए धुणे | सहरहितः संस्तपोऽमिना कर्मकाष्ठं दहतीति भावार्थः ।
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अभिधानराजेन्द्रः। (१८) पतदेव रष्टान्तदान्तिकगतमर्थ नियुक्तिकारो गाथ- विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दबिए बीरे, मायाणिजे योपअिघृचुराह
वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि । जह खलु झुसिरं कहूं, मुचिरं सुकं लहुं डहइ अग्गी ।
(सू० १३७) तह खलु खवंति कम्म, सम्मचरणे ठिया साहू ।।२३४॥
आगषदर्थे, ईश्वत्पीडयेद् अविकृष्टेन तपसा शरीरकमागतार्था । अत्र चानिहपदेन रागनिवृत्ति विधाय द्वेष
पीडयेद्, एतच प्रथमप्रवज्याऽवसरे, तत ऊर्चमधीतागमः निवृर्ति विधित्सुराह-'विगिच कोह' मित्यादि , कारणे
परिणतार्थसद्भावः सन् प्रकर्षेण विकृष्टतपसा पीडयेत्प्रपीऽकारणे वाऽतिराध्यवसायः क्रोधः तं परित्यज, तस्य
उयेत् , पुनरध्यापितान्तवासियर्गः संक्रामितार्थसारः शरीरं च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेधं दर्शयति-अविकम्पमानः ।
तितितुर्मासार्द्धमासक्षपणादिभिः शरीरं निश्चयेन पीडये(१६) किं विगणय्यैतत्कुर्यादित्याह
निष्पीडयेत् , स्यात् -कर्मक्षयार्थ तपोऽनुष्ठीयते । सब इमं निरुद्धाउयं संपेहाए , दुक्खं च जाण अदु आग- पूजालाभख्यात्यर्थेन तपसा न भवत्यतो निरर्थक एकमेस्सं , पुढो फासाई च फासे , लोयं च पास विफंदमा- रीनपीडनोपदेश इत्यतोऽन्यथा व्याख्यायते-कम्मैव कार्मण, जे निव्वुडा पावेहि कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहि
णशरीरं वा श्रापीडयेत्प्रपीडयेनिष्पीडयेत् ,अत्रापीपदर्थादिया , तम्हा अतिविजो नो पडिसंजलिञ्जासि त्ति बेमि ।
का प्रकर्षगतिरवसेया, यदिवा-आपीडयेत्कर्म अपूर्वकर
णादिकेषु सम्यग्दृष्ट्यादिषु गुणस्थानकेषु, ततोऽपूर्वकर(सू० १३६)
पानिवृत्तिबादरयोः प्रपीडयेत् , सूक्ष्मसम्परायावस्थायां तु इद-मनुष्यत्वं निरुद्धायुक-मिरुद्धं-परिगलितमायुष्कं निष्पीडयेत् , अथवा-भाषीडनमुपशमश्रेण्यां,प्रपीडनं क्षपकसम्प्रेक्ष्य-पर्यालोच्य क्रोधाविपरित्यागं विदध्यात्, किं च- श्रेण्या, निष्पीडनं तु शैलेश्यवस्थायामिति । किं कृत्वैताकु'बुक्ख' मित्यादि क्रोधादिना दन्दह्यमानस्य यन्मा- र्यादित्याह-'जहिता' इत्यादि, पूर्वः संयोगः पूर्वसंयोगोमसं दुक्खमुत्पद्यते तज्जानीहि, तजनितकर्मविपाका- धनधान्यहिरण्यपुत्रकलाविकृतस्तं स्यावा, यदिवा-पूर्वः पादितं चागामि दुःख सम्प्रेक्ष्य क्रोधादिकं प्रत्याख्यान- असंयमोऽनाविभवाभ्यासात्तेन संयोगः पूर्वसंगोगस्तं त्यपरिक्षया जानीहि, परित्यजेरित्यर्थः, आगामिदुःखस्वरू- क्त्वा 'श्राधीलये 'दित्यादिसम्बन्धः, किं च-हिया' इस्यापमाह-'पुढो' इत्यादि , पृथक् सप्तपनरकपृथिवीसम्भव- दि, हि गतावित्यस्मात् पूर्वकाले क्त्वा हित्वा-गत्या किंशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकादियातनास्थानेषु स्पर्शान्-दुः- सत् ?-उपशमम्-इन्द्रियनोइन्द्रियजयरूपं संयम या गत्याखानि, चः समुच्चये , न केवलं क्रोधाध्मातस्तस्मिन्नेव क्ष- प्रतिपद्यापीडयदिति वर्मते । इदमुक्न भवति-असंयम त्यणे दुःखमनुभवतीत्यगामीनि पृथक् दुखानि च स्पृशेद्- | कत्या संयम प्रतिपद्य तपश्चरणादिनाऽऽत्मानं कर्म वाअनुभवेत् , तेन चातिदुःखेनापरोऽपि लोको दुःखित इत्ये- ऽऽपीडयेत् प्रपीडयेन्निष्पीडयेदिति, यतः कांपीडनार्थतदाह-'लोय च' इत्यादि , न केवलं क्रोधादिविपाका- मुपशमप्रतिपत्तिस्तत्प्रतिपत्तौ चाविमनस्कतेत्याह-'तम्हा' दात्मा दुःखान्यनुभवति , लोकं च शारीरमानसदुःखापत्रं इत्यादि , यस्मात्कर्मक्षयायासंयमपरित्यागस्तत्परित्यागे विस्पन्दमानमस्वतन्त्रमितश्वेतश्च दुःखप्रतीकाराय धाव- चावश्यंभावी संयमस्तत्र च न चित्तवैमनस्यमिति, तस्मातं पश्य-विवेकचचुषाऽवलोकय । ये त्येवं न ते किम्भू- दबिममा विगतं भोगकषायादिष्परतौ वा मनो यस्य स ता भयन्तीत्यत आह-'जे निव्वुडा' इत्यदि, ये तीर्थक- विमना यो म तथा सोऽविमनाः, कोऽसौ ?, वीर:-कर्मगेपदेशवासितान्तःकरणा विषयकवायान्युपशमानिवृता:- विदारणसमर्थः, । अयिमनस्कत्वाच यथाभदाह-'सारए' शीतीभूताः पारेषु कर्मसु अनिदानाः-निदानरहितास्ते इत्यादि, सुष्टा-जीवनमर्यादया संयमानुष्ठाने रतः स्वारपरमसुखास्पदतया व्याख्याताः, प्रौपशमिकसुस्वभाबेन तः, पञ्चभिः समितिभिः समितः, सह हितेन सहितो प्रसिद्धा इत्यर्थः, यत एवं ततः किमित्याह-तम्हा'- सानादिसमन्वितो या सहितः, सदा-सर्वकालं सकृदास्यादि , यस्माद्रागद्वेषाभिभूतो दुःखभाग्भवति तस्मादति
रोपितसंयमभारः संस्तत्र यतेत-यसवान् भवेदिति । विद्वान-विदितागमसद्भावः सन्न प्रतिसज्यले:-क्रोधाग्नि- किमर्थ पुनः-पौनःपुन्येन संयमानुष्ठाने प्रत्युपदेशो दीयमाऽऽत्मानं नोद्दीपयेः, कषायोपशमं कुर्वित्यर्थः । इतिरधि
ते? इत्याह-'दुरनुचरो ' इत्यादि, दुःखेनानुचर्यत इति दुकारपरिसमाप्तौ, अधीमीति पूर्ववत्, सम्यक्त्याध्ययने तृती.
रनुचरः, कोऽसौ ?-मार्गः-संयमानुष्ठानविधिः, केषां ?योद्देशकटीका समातेति । उक्तस्तृतीयोदेशकः ।
वीराणाम्-अप्रमत्तयतीनां, किम्भूतानामित्याह- मणिसाम्प्रतं चतुर्थ श्रारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-- यह' इत्यादि, अनिवत्त?--मोक्षस्तत्र गन्तुं शीलं येषां ते हानन्तरोद्देशके निरवा तपोभिहितं, तथायिकले सत्सं- तथा तेषामिति , यथा च तन्मार्गानुचरणं कृतं भवति यमव्यवस्थितस्य भवतीत्यतः संयमप्रतिपादनाय चतुर्थो
तदर्शयति- विगिच ' इत्यादि, मांस-शोणित-वर्पकारि देशक इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशस्यादि सूत्रम्
विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना विवेचय--पृथक्कुरु, तद्धासं थि
धेहीति यावत् , एवं वीराणां मार्गानुचरणं कृतं भवतीति भावीलए पीलए निप्पीलए जहित्ता पुन्वसंजोगं हि
भावः । यश्चैवम्भूतः स कं गुणमवाप्नुयादित्याह-एस' बा उवसम, तम्हा अविमणे धीरे , सारए समिए सहि
स्थादि, एच-मांसशोणितयोरपनेता पुरि शयनात् पुरुषः एमया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्ठगामिणं, वा-संयमः स वियते यस्यासी विकः मत्वर्थीब
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सम्मत्त
अभिधानराजेन्द्रः। द्रव्यभूनो वा मुक्तिगमनयोग्यत्वात् , कर्मरिपुविदारणसहि- स्वादितं पुनर्मिध्यात्वोदयात्तत्प्रच्यवते तस्यापार्द्धपुद्रलपराष्णुत्वाद्वीर इति, मांसशोणितापचयप्रतिपादनाश्च तदुत्तरे- वर्तेनापि कालेनावश्यं तत्सद्भावात् , म ह्ययं सम्भवोऽपामपि मेदादीनामपचय उक्त एवं द्रष्टव्यः, तद्भावभा- स्ति प्रच्युतस्य सम्यक्त्वस्य पुनरसम्भय एवेति । अथवावित्वात्तेषामिति । किं च-'प्रायाणिज्जे' इत्यादि.स वीरा- निरुद्धन्द्रियोऽपि श्रादानस्रोतो गृद्ध इत्युक्तः, तद्विपर्ययभूर मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपनेता मुमुक्षूणामादा- तस्य त्वतिकान्तसुखस्मरणमकुर्वतः श्रागामि च दिव्याङ्गनीयो-ग्राह्य आदेयवचनश्च व्याख्यात इति । कश्चैवम्भूत नाभोगमनभिकाङ्गतो वर्तमानसुखाभियतोऽपि नैव स्यादिइत्याह-'जे धुणइ' इत्यादि, 'ब्रह्मचर्ये' संयमे मदनप- त्यतदर्शयितुमाह- जस्स नत्थि ' इत्यादि, यस्य भोगरित्यागे वोषित्वा यः समुच्छ्य-शरीरकं कर्मोपचयं वा विपाकवेदिनः पूर्वभुक्तानुस्मृतिर्नास्ति नापि पाश्चात्यकालतपश्चरणादिना धुनाति-कृशीकरोति स श्रादानीय इति भोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधिचिकित्सारूपान् भोविविधमाख्यातो व्याख्यात इति सम्बन्धः ।
गान् भावयतो मध्ये-वर्तमानकाले कुतो भोगेच्छा (२०)उला अप्रमत्ताः, तद्विधर्मणस्तु प्रमत्तानभिधित्सुराह स्यात् ?, मोहनीयोपशमानव स्यादित्यर्थः। यस्य तु वि. नित्तेहिं पलिच्छिन्नहिं पायाणसोयगदिए बाले, अब्बो
कालविषया भोगेच्छा निवृत्ता स किम्भूतः स्यादित्याह
‘से हु' इत्यादि , 'हुः' यस्मादर्थे , यस्मानिवृत्तभोगाभिच्छिमबंधणे प्रणभिकंतसंजोए तमंसि अवियाणभो मा
लापस्तस्मात्स प्रज्ञानवान्-प्रकृष्ट ज्ञानं प्रज्ञानं-जीवाजीयाए लभो नत्थि त्ति बेमि । (सू० १३८)
वादिपरिच्छेतृ तद्विद्यते यस्यासौ प्रज्ञानवान् , यत एवं नयत्यर्थदेशम्-अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति ने
प्रज्ञानवानत एव बुद्धः-अवगततत्त्वो , यत एवम्भूतोऽत नाणि-चक्षुगदीनीन्द्रियाणि तैः परिच्छिन्नैः-यथावं बि- एवाह- श्रारंभोवरए ' सायद्यानुष्ठानमारम्भस्तस्मादुपषयग्रहणं प्रति निरुद्धः सद्भिरादानीयोऽपि भूत्वोषित्वा रत प्रारम्भोपरतः । एतच्चारम्मोपरमणं शोभनमिति ब्रह्मचर्य पुनाहोदयादादानस्रोतो गृद्धः-श्रादीयते-साब- दर्शयन्नाह- सम्म ' मित्यादि , यदिदं सावद्यारम्भोचानुष्ठानेन स्वीक्रियत इत्यादानं-कर्म संसारबीजभूतं त- परमण सम्यगेतत्-शोभनमेतत् सम्यक्त्वकार्यत्वाद्वा सस्य स्रोतांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकवाय- म्यक्त्वमेतदित्येवं पश्यत-एवं गृहीत यूयमिति । किमियोगा वा तेषु गृद्धः-अध्युपपन्नः स्यात् , कोऽसौ ?-'बालः' त्यारम्भोपरमण सम्यगिति चेदाह-जण ' इत्यादि , अशः रागद्वेषमहामोहाभिभूतान्तःकरणः । यश्चादानस्रोतो. येन कारणेन सावद्यारम्भप्रवृत्तो बन्धं निगडादिभिः वधं गृद्धः स किम्भूतः स्यादित्याह-'अब्योच्छिन्नबंधणे' इत्या- | कशादिभिः घारं-प्राणसंशयरूपं परितापं-शारीरमादि. अव्यवच्छिन्नं जन्मशतानुवृत्ति बन्धनम-एप्रकारं क- नसं दारुणम्-असह्यमवाप्नोत्यत श्रारम्भोएरमणं सम्यर्म यस्य स तथा, किं च-'श्रणभिकंत' इत्यादि, अनभि- म्भूतं कुर्यात् । किं कृत्वेत्याह--' पलिच्छिन्दि ' इक्रान्तः-अनतिलङ्कितः संयोगो-धनधान्यहिरण्यपुत्रक- त्यादि , परिच्छन्द्य-अपनीय , किं तत् ?-स्रोतःलत्रादिकृतोऽसयमसंयोगो था येनासावनभिक्रान्तसं-| पापापादानं , तच्च बाह्य धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादियोगः तस्य चैवम्भूतस्यन्द्रियानुकूल्यरूपे मोहात्मके रूपं हिंसाद्याश्रयद्वारात्मकं वा, चशब्दादान्तरं च रागद्वेवा तमसि वर्तमानस्थात्महित मोक्षोपायं वाऽविजा- षात्मकं विषयपिपासारूपं वेति , किंच-णिकम्मदंसी' मत आझायाः-तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्तीत्येत- त्यादि , निष्क्रान्तः कर्मणा निष्का-मोक्षः संवरो वा दहं प्रवीमि तीर्थकरवचनोपलब्धसद्भाव इति , यदि घा- तं द्रष्टुं शीलमस्यति निष्कर्मदर्शी, हति-संसारे श्राक्षा-बोधिः सम्यक्त्वम् , अस्तिशब्दश्चार्य निपासनि- मस्र्येषु मध्ये य एव निष्कर्मदर्शी स एव याह्याभ्यन्तकालविषयी, तेनायमर्थः-तरयानभिक्रान्तसंयोगस्य भा
रस्रोतसश्छत्तेति स्यात् । किमभिसन्ध्य स बाह्याभ्यन्तघतमसि वर्तमानस्य घोधिलाभी नासीनास्ति न भावीति । रसंयोगस्य छेत्ता निष्कर्मदर्शी या भवेत् इत्यत आहएतदेवाह
'कम्माण ' इत्यादि , मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगैः जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुप्रो सिया ?, क्रियन्ते-बध्यन्त इति कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि ते-- से हु पनाणमंते बुद्धे प्रारंभोवरए , संममेयं ति पासह , षां सफलत्वं दृष्ट्वा स वा निष्कर्मदर्शी वेदविद्वा क
मणां फलं दृष्टा तेषां च फलं-ज्ञानावरणीजेण बंधं वहं घोरं परियावं च दारुणं पलिछिदिय चा
यस्य भानावृतिः दर्शनावरणस्य दर्शनाच्छादनं वेदनीहिरगं च सोय, निकम्मदंसी इह मच्चिएहिं, कम्माणं सफलं
यस्य विपाकोदयजनिता बदनेत्यादि, ननु च न सर्वेषां दट्टण तो निजाइ वेयवी । (सू० १३६)
कर्मणां विपाकोदयमिच्छन्ति, प्रदेशानुभवस्यापि सद्भायस्य कस्यचिदविशेषितस्य कर्मादानस्रोतोगृद्धस्य वा- चात् तपसा च क्षयोपपतेरित्यतः कथं कर्मणां सफललस्याव्यवच्छिन्नबन्धनस्यानभिकान्तसंयोगस्य ज्ञानतमसि त्वं?, नैव दापो, नात्र प्रकारकास्य॑मभिप्रेतम् , अपितु द्रवर्तमानस्य पुरा-पूर्वजन्मनि बोधिलाभो नास्ति-स- व्यकान्य, तयास्त्येव, तथाहि--यद्यपि प्रतिबन्धव्यक्ति म्यक्त्वं नासीत् ' पश्चापि ' एष्येऽपि जन्मनि न भावि न विपाकोदयस्तथाप्य टानामपि कर्मणां सामान्येन सोऽ मध्य-मध्यजन्मनि तस्य कुतः स्यात् इति ? , एत- स्त्येवेत्यतः कर्मणां सफलत्वमुपलभ्यते, तस्मात्--कर्मदुक्तं भवति-यस्यैव पूर्व बोधिलामः संवृत्तो भविष्यति णस्तदुपादानादानवाद्वा निश्चयेन याति नियोति-निर्गवा तस्यैव वर्चमानकाले गवति , येन हि सम्यक्त्वमा- | च्छति, तन्न विधत्त इति यावत् , कोऽसौ ?- वेदयिद' वे
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अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त चते सकलं बराबरमनेनेति बेदा-मागमस्तं वेत्तीति पद- गेणं गणाभिभोगणं बलामिभोगेणं देवयामिभोगेय वित् , सर्वोपदेशवत्तीत्यर्थः ।
गुरुनिगहेणं वित्तिकंतारणं से भसम्मत्ते पसरथसम्मत्त [२१] न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषामेव तीर्थकरा
मोहणीभकम्माणुवेमणोवसमखयसमुत्थे पसमर्सवेगाइपामयमाशय इति दर्शयितुमाह
लिंगे सुहे पायपरिणामे पत्ते । जे खन्नु भो! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदंसिणो भाभोवरया अहातह लोयं उवेहमाणा पाईणं पड़ी
श्रमणामुपासकः श्रमणोपासका धावक इत्यर्थः , श्रमणो
पासकः पूर्वमेव प्रादायेव श्रमणोपासको भवन-मिथ्यात्वात् ण दाहिणं उईणं इय सञ्छसि परि (चिए ) चिट्ठिसु , तस्वार्थाश्रद्धानरूपात्प्रतिक्रामति-निवर्तते न तत्रिवृत्तिमात्र. साहिस्सामो नाणं वाराण समियाणं सहियाणं सयाजणा- मत्राभिप्रेतं' किं तर्हि ? तनिवृत्तिद्वारेण सम्यक्त्वं तस्वार्थणं संगडदंसीणं माओवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमा- श्रद्धानरूपम् , उप-सामीप्येन प्रतिपद्यते , सम्यक्त्वमुप
संपन्नस्य सतः न 'से' तस्य कल्पते-युज्यते अयप्रकृति णाणं किमत्थि उवाही ?, पासगस्स न विजइ नत्थि त्ति
सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्य किं न कल्पते अन्यतीथिबेमि । (सू० १४०)
कांश्चरकपरिव्राजकभिभौतादीन् अन्यतीर्थिकदैवतानि यदिया उक्तः सम्यग्वादो निरवधं तपश्चारित्रं च,अधुना त- रुद्रविष्णुसुगतादीनि अन्यतीर्थिकपरिहतानि या अहत्' रफलमुच्यते-'जे खलु ' इत्यादि, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे,
चैत्यानि वा अईत्प्रतिमालक्षणानि यथा भौतपरिगृहीतानि ये केचनातीतानागतवर्तमानाः 'भो' इत्यामन्त्रण , बीरा:-- वीरभद्रमहाकालादीनि बन्दितुं या नमस्कर्तुं वा। तत्र वन्दकम्मविदारणसहिष्णवः समिताः समितिभिः सहिता शा- नम्-अभिवादन नमःकरयां-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोमादिभिः सदा यताःसत्संयमन संघडदसिणा' त्ति-निरन्त- स्कीर्तनं को दोषः स्यात्?,अन्येषां तद्भक्तानां मिथ्यत्वादिस्थिरदर्शिनः शुभाशुभस्य श्रात्मोपरताः पापकर्मभ्यो यथा रीकरणादिगिति,तथा पूर्वम्-आदावनालप्तेन सता अन्यत्तीतथा अवस्थितं लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं कर्मलोकं वो- र्थिकस्तानेवालप्तुं वा संलप्तुं वा , तत्र सकृत् संभाषपेक्षमाणाः--पश्यन्तः सर्वासु प्राच्यादिषु दिक्षु व्यवस्स्थिता णमालापनं पौनःपुन्येन संलपनम् । को दोषः स्यात्ते हि तप्तइत्ययंप्रकाराः 'सत्य' मिति--ऋतं तपः सयमा वा तत्र तरायागालककल्पाः खल्वासनादिक्रियायां नियका भवन्ति परिचित--स्थिरे तस्थुः-स्थितवन्तः , उपलक्षणार्थत्वात् तत्प्रत्ययः कर्मबन्धः, तथा तेन वा प्रणयेन गृहागमनं कुर्युः त्रिकालविषयता, द्रष्टव्या तत्रातीते काले अनन्ता अपि अथ च श्रावकस्य स्वजनः परिजनो वा अगृहीतसमयसारसत्ये तस्थुः , वर्तमाने पञ्चदशसु कर्मभूमिषु सङ्ख्ये- स्तैस्सह संबन्धं यायादित्यादि प्रथमालप्तेन त्वसंभ्रमं लोयास्तिष्ठन्ति अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति , तेषां चा- कापवादभयात्कीरशस्त्वमित्यादि वाच्यमिति,तथा तषामन्य. तीतानागतवर्तमानानां सत्यवतां यज्ज्ञानं-योऽभिप्रायस्त- तार्थिकानामशन-घृतपूर्णादि पानं-द्राक्षापानादि खादिम दहं कथयिष्यामि भवतां शृणुत यूयं , किम्भूतानां तेषां ?- त्रपुषफलादि स्वादिम-ककाललबादि दातुं वा अनुप्रदातुं वा. वीराणामित्यादीनि विशेषणानि गतार्थानि । किम्भूतंबा- न कल्पते इति। तत्र सकृत् दानं पुनः पुनरनुप्रदानमिति, किस नमिति चेदाह-किं प्रश्ने अस्ति-विद्यते ?, कोऽसौ ?- र्वथैव न कल्पत इति?, न अन्यथा राजाभियोगेनेति-राजाउपाधिः-कर्मजनितं विशेषणं , तद्यथा--नारकस्तिर्यग्यो- भियोग मुक्त्वा बलाभियोग मुक्त्वा देवताभियोगं नः सुखी दुःखी सुभगो दुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्या- मुक्त्वा गुरुनिग्रहेण गुरुनिग्रहं मुक्या 'वित्तिकंतारे , दि, पाहोस्विन्न विद्यत इति परमतमाशक्य त ऊचुः त्ति-वृत्तिकान्तारं मुक्या । एतदुक्तं भवति-राजाभिपश्यकस्य--सम्यग्वादादिकमर्थ पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः योगादिना ददन्नपि न धर्ममतिकामति इह चोदाहरणास एव पश्य कस्तस्य कर्म जनितीपाधिन विद्यते , इत्येत- नि कहं रायामियोगेण देतो नातिचरति धम्म ' तत्रोदेनुसारणाहमपि ब्रवीमि न खमनीषिकयेति । गतः सूत्रा- दाहरणम् -' हस्थिणापुरे नयरे जिससू राया कत्तिो नुगमः । तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशको नयविचारातिदेशा
सेट्टी नेगमसहस्सपढमासणिश्रो सावगवनगो एवं कालो त समाप्तं सम्यक्त्वाध्ययनं चतुर्थमिति । आचा०१ ध्रु०४ बच्चइ,तत्थ य परिब्वायगो मासं मासेण खमति तं सव्वलोगो १०४ उ०। ['तए ण से पाणये गाहाचई' इत्यारभ्य पाठः आढह ,कत्तिा नाढाइ । ताहे से सो गेरुओ पोसमावो 'श्राद' शब्दे द्वितीयभागे ११० पृष्ठ गतः।) [पसत्थ
छिदागि मग्गइ, अन्नया रायाए निमंतिश्रो पारणए नेच्छा। खित्ते' इत्यादि पाठः 'श्रणुव्वय' शब्द प्रथमभागे ४१७पृष्ठ
बहुसो राया निमंता ताहे भगइ-जह नवरं मम कत्तिो गतः।] ['अहाछंद' शब्दे प्रथमभाग ८६५ पृष्ठे यथाछन्दाच- परिवेसा तो नवरं जेममि । राया भणइ एवं करोमि। राया रणसम्यक्त्वफलमुक्तम् ।]
समणूसी कत्तियस्स घरं गो। कत्तिओ भणइ संदिसह, (२२] यस्मात् श्रावकधर्मस्य तावत् मूलं सम्यक्त्वं तस्मात्
राया भण-गेरुयस्स परिवसेहि। कत्तिश्री भणइन बट्टा तद्गतमेव विधिमभिधातुकाम पाह
अहं तुम बिसयवासित्ति करोमि चितेह य-जह पव्वामो हाँ
तो तो न एवं भवंतं पच्छाऽणेण परिवेसियं । सो परिवेसिज्जंते तत्थ समणोवासो पुवामेव मिच्छत्ताओं पडिकमइ, अंगुली चालइ। किहते?,पच्छा कत्तिो तेण निब्बेपण पवा मम्मत्तं उवसंपन्जद। (आव०) नन्नत्य रायाभिओ- श्रो। नेगमसहस्सपरिवारो मुणिसुव्वयसमी वारस अंगाणि
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सम्मत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त परिभो पारस परिसाणि परियाो सोहम्मे कप्पे सको एतदनन्तरोदितं जीवाजीवादीह लोके प्रवचने वा श्रधानए. जामो सो परिचायगो तेण अभिभोगेण आभिभोगियो ए- यमेवेदमित्यान्तःकरणतया प्रतिपद्यमानः सम्यग्रष्टिररावणो जायो । पेच्छिय सकं पलाइनो, गहिउं सको बिल- भिधीयते अविपरीतदर्शनादिति तकश्च नियमेनासावश्यग्गो । यो सीसाणि कयाणि । सका वि दो जाया । एवं जाव. म्तया भवनिर्वेदगुणात्-संसारनिर्वेदगुणेन प्रशमादिगुणायाणि सीसाणि घिउम्बा तावडयाणि सका वि सकरूपाणि
श्रयो भवति, उक्तलक्षणानां प्रशमादिगुणानामाधारो भवति । विउम्बा । ताहे नासिउमारखो सकेणाहरो पन्छा ठियो। भवति चेत्थंहाने संसारनिर्वेदगुणस्तस्माध प्रशमादयः प्रएवं रायाभियोगेणं देतो मारमा,कित्तिया एयारिसया तीतमेतदिति। होरितिजे पम्वइस्संति तम्हा वायव्यं । गणाभिमोगेण
(२४) अस्यैव व्यतिरेकमाह-- चरणो रहमुसले मिउत्तो एवं को वि साबगो गणाभियोगेप
विवरीयसदहाणे, मिच्छाभावाउ णस्थि केइ गुणा । भत्तं वाषिजा देतो वि सो नातिचरा धम्म बलाभिभोगो वि एवमेव, देवयाभिभोगेण देतो नाइकमा । जहा-गो
भणभिणिवेसो तु कया-होइ संमत्तहऊ वि ।।८५॥ गिहस्थो साबगो जामो,तेण बाणमंतराणि चिरपरिचियाणि
विपरीतभजाने उक्तलक्षणानां जीवाविपदार्थानाम् अन्यथाभ उज्भियाणि एगा तस्थ पाणमंतरी पमोसमावना गावीर- बामे मिथ्याभाधान सन्ति केचन गुणाः सर्वत्रैव विपर्ययादि. क्सगो पुत्तो तीए वाणमंतरीए गाबीहिं समं प्रवाहरिभो । विभावः,विपरीतश्रजानेऽप्यनभिवेशस्तु एवमेवैतदित्यनध्यताहे बा साहा तजंती-किं ममं उज्झसिनपत्ति । सा- बसायस्तु कदाचित्कमिश्चित्काले यदा कदाचिन्न नियमेनैव बगो भणति-वरि मा ममं धम्मषिराहणा भवउ । सा भणर
भवति-सम्यक्त्वहेतुरपि जायते,सम्यक्त्वकारणमपि यथेन्द्रमम अहि। सो भण-जिएपडिमाणं भवसाणे ठाहिं प्राम
नागावीनामिति । श्रा०। ठामि । तेण ठविया । साहेदारगो गावीत्रो य प्राणीयानो
(२५) पश्चातिचारा:-- परिसा केत्तिया होहिंति तम्हा न दायव्यं। ववाविजंतो ना- सम्मसस्स समणोवासएणं इमे पंच भइमारा जाणिभइचरति । गुरुमिग्गहेण भिक्खूवासगपुत्तो सावगं धूयं |
ब्वा न समायरियब्बा, तं जहा-संका १ कंखा २ वितिमग्गा बाहे तासिन देति सो कवडसहत्तणेण साधू सेयर। तस्स भावतो उवगयं पच्छा साहे। एएण कारणेण पुग्वं
गिच्छा ३ परपासंडपसंसा ४ परपासंडसंथवे ५। दुकमि याणि सम्भायो साधगो। साहू पुच्छा तेहिं कहिय,
__'सम्मत्तस्स समणोवासएणं' इत्यादि सूत्रम् । अस्य व्याताहे विमा धूया । सो सायगो जुयगं घरं करे । अन्नया ख्या-सम्यक्त्यस्य प्राग्निरूपितस्वरूपस्य भमणोपासकेन-- तस्स मायापियरो भत्तं भिक्खुगाण करैति । ताई भणंति श्रावकेण पते वक्ष्यमाणलक्षणाः, अथ या-अभी ये प्रक्रान्ताः मनसि वयाहि । सो गतो भिक्खुपाहि पिज्जाए अभि- पञ्चेति संख्यावाचकः, अतिचारा-मिथ्यात्यमोहनीयकर्मोद. मंतिऊण फल दिनं । ताए घाणमंतरीए अधिटिनो घरं गमओ यादात्मनोऽशुभाः परिणामविशेषा इत्यर्थः । यैः सम्यक्त्वतं सावगधूयं भण-भिक्खुगाण भत्तं देमो । सा नेच्छा, मविचरति सातव्याःशपरिशया,न समाचरितव्याः-नासेव्या वासाणि संयणे य मारखो सजेतुं । साथिया मायरियाणं इति भावार्थः। तथेत्युदाहरणप्रदर्शनार्थः। शव काक्चा गंतुं कहे। तेहिं जोगपडिभेमो दिनो, सो से पाणिपण दि विचिकित्सा परपापण्डप्रंशसा परपाषयसंस्तयश्चेति । श्री सा चाणमंतरी नट्टा । साभाविप्रो जानो पुच्छा, कहं
भाष०६०।०। (शकादयो स्वस्वस्थाने व्याख्याताः।) बत्ति कहिए पडिसेहह । भने भणति-तीए मयणमिजाए
(२६) श्रावकधर्मस्य सम्यक्त्वं मूलम्सो पाविमो तो साभाषितो जामो । भण-अम्मापिउछ
समणोबासगधम्मस्स मूलवत्यु सम्मत्तं ।। लेण मना विवंचितुत्ति किर फासुयं साहूण विधं परिसया केत्तिया मायरिया होति तम्हा परिहरेजा। वित्तिकंता
श्रमणोपासकधर्मस्य किं पुनर्मूलयस्तु इति ?, अघोच्यते रेणं वेज्जा-सोरटुगो सट्ठो उज्जेगिंग बच्चा दुकाले तब
सम्यक्त्वं, तथा चाह प्रन्थकार:--' पयस्से' त्यादि सूत्रम् निपाहि सम तस्स पत्थयणं स्वीणं । भिक्खुगेहि भनाइ-अम्ह
अस्य पुनः श्रमणोपासकधर्मस्य पुनःशब्दोऽवधारणार्थः, -
स्यैव शाक्यादिश्रमणोपासकधर्म सम्यक्त्वाभावात् न मूलपहिं पहाहि पत्थायणं तो तुज्झवि विजिहिति तेण पडिया अन्नया तस्स पोहसरणी जाया । सो चीयरेहि बेढियो तेहिं
वस्तु सम्यत्वं,यसन्स्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्वाषभाषित्वेअनुकंपाए सो भट्टारगाणं नमोकारं करेंतो कालगो देखो
नेति यस्तु मूलभूतं द्वारभूतं च तद्वस्तु च मूलवस्तु,तथा चोबेमाणिभो जानो । ओहिणा तश्चनियसरीरं पच्छा ताहे स
कम्-"द्वारं मूलं प्रतिष्ठान-माधारो भाजनं निधिः। द्विषद्क
स्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं परिकीर्तितम् ॥१॥" सम्यक्त्वं प्रभूसणेण हत्येण परिवेसेह, सहाणोहावणा मायरियाण मा
शमादिलक्षणम् । उक्तं च "प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यागमणं कहणं च, तेहिं भणियं जाह अग्नहत्थं गेरिहऊण
भिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्व" मिति (तत्वा० भाष्ये१ अ०२ सू०) भणह-नमो भरहताणं ति बुज्मगुज्मगा रतेहिं गंतूण भणियो
(२७) कथं पुनरिदं भवतीत्यत आह-- संवुद्धो बविता लोगस्स कहे जहा नत्थि एत्थ धम्मो त
तमिसग्गेणं वा, प्रविगमेण वा इमं च सम्मत्तं । महा परिहरेजा । भाष०६०। आप० । वर्श । (२३) अधुना प्रकृतं योजयति
'तमिसग्गेण षा अधिगमेण वे' त्ति सूत्रम् , अस्य व्या
ख्या-तन्मूलवस्तुभूतं सम्यक्त्वं निसर्गेण या अधिगमेनएयमिह सदहतो, सम्महिद्दी तभो भ नियमेण ।
वा भवति इति क्रिया । तत्र निसर्गः--स्वभावः अधिगमस्तु भवणिवेयगुणाभो, पसमाइगुणासमो होति ॥५४॥ यथावस्थितपदार्थपरिच्छेद इति, माह-मिथ्यात्वमोहनीयक
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(४६८) अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त मक्षयोपशमादेरिदं भवति, कथमुच्यते निसर्गेण वेत्यादि ?, | आतपशापारसमस्तजनक्षये सुतरामेव शुद्ध भवति एवमी उच्यते-स एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमजम्मेति न दोषः । पचारिकसम्यक्त्वरूपाये शुद्धपुङ्गलास्तत्परिक्षयापारमार्थिउक्तं च-'ऊसरदेस दहि-लयं च विज्झाइ वणदवी पप्प । इय | करुचिरूपं सम्यग्दर्शनमपि सुतरा निर्मल भवति। मिच्छरस अणुदए,उपसमसम्म लहइ जीवो ॥१॥ जीवादी
अपरमपि दृष्टान्तमाहमधिगमो, मिच्छसस्स तु खोवसमभागे। अधिगमसम्म जीवो, पावर विसुद्धरिणामो ॥२॥” इति । अलं प्रसनेनेति ।
सेसनाणावगमे, सुद्धयरं केवलं जहा नाणं । इद्द भवोदधौ दुष्प्रापां सम्यक्त्वादिभावरत्नावाप्तिं विज्ञा- तह खाइयसम्मत्तं, खोवसमसम्मविगमम्मि॥१३२२॥ थापलब्धजिनप्रवचनसारेण भाबकेण नितरामप्रमादपरेणा
यथह शेषस्य क्षायोपशामिकस्य मत्यादिशानचतुपयस्या. तिचारपरिहारवता भवितव्यमित्यस्यार्थस्योक्तस्यैव विशे
पगमेऽप्यन्यत् क्षायिक शुद्धतरं केबलझानलक्षणं ज्ञानान्तरं पख्यापनायानुक्तशेषस्य चाभिधानायेदमाह ग्रन्थकार:- प.
मादुरस्ति न पुनरज्ञा भवति जीवः तद्वत् क्षायोपशमिकसम्बवातिचारविशुद्ध' मित्यादि सूत्रम् , इंदं च सम्यक्त्वं प्राग्
कवधिगमेऽप्यपरं विशुदतरं क्षायिकं सम्यग्दर्शनान्तरमुपनिरूपितशङ्कादिपञ्चातिचारविशुद्ध मनुपालनीयमिति शेषः ।
जायते, नत्वदर्शनीभवति जीवः । आव० ६ ० । श्रा० चू० । ति। (२८) क्षीणदर्शनोऽपि सम्यग्दृष्टिः। प्रेरकः प्राह
(२६)ननु कथं पुनः क्षायिक सम्यक्त्वं विशुजतरं,क्षायोपशु
मिकं त्वषिशुद्धमिस्याहखीणम्मि दसणतिए, कि होइ तो ति दंसणाईओ। भन्मइ सम्मद्दिट्ठी, सम्मत्तखए को सम्मं ॥१३१८॥
निव्वलियमयणकोद्दव-भत्तं तिल्लाइ मीसियं मदए। ननु मिथ्यात्वादिकदर्शनत्रिके क्षीणे किं तकोऽसौ क्षपक
न त सोऽवाओनिव्वलि-यमीसमयकोदवचाए।।१३२३॥ स्प्रिदर्शनातीतो भवति ?,न मिथ्याधिः,मिथ्यात्वस्य क्षीण- तह सुद्धमिच्छसम्म-त्त पुग्गलामिच्छमीसिया मिच्छ । त्वात् । न मिश्रः सम्यगमिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यात्वाभावा
होज परिणामअोवा,सोऽवाओ खाइए नत्थि।।१३२४॥ न च सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वासत्त्वादित्येवं प्राप्नोति? इत्यर्थः। प्राचार्य श्राह-भरायतेऽत्रोत्तरम्-दर्शनत्रिके क्षीणे विशुद्धस- इह निर्वलिता-निजीकृताः शोधिता ये मदनकोद्रयास्तम्यग्दृष्टिः भवत्यसो। पुनरपि परः प्राह-ननक्तं मया सभ्य- निर्वृत्तं यद्भक्कमोदनस्तत्तैलादिविरुद्धद्रव्यमिश्रितं भुज्यमानं क्त्वक्षये सति कुतोऽयं सम्यग्दृष्टिः ? न घटत एवेत्यर्थः । मदयेद्विकियां गमयेदेव भोक्तारम् । न पुनः सोऽपायोऽस्ति सूरिराह--
कसति ? निर्वलितमिश्रमदनकोद्रवत्याग सति । इदमुक्तं भ
वति-यः शोधितान् शुद्धाशुद्धस्वरूपान् वा मदनकोद्रवान्न निव्वलियमयणकोदव-रूवं मिच्छत्तमेव सम्मत् ।
भुडक्ने तस्याक्लस्वरूपो मदनलक्षणोऽपायो न भवत्येव, तथा खीणं न तु जो भावो,सदहणालक्खणो तस्स ।।१३१६॥ तेनैव प्रकारेण शुद्धं च तन्मिथ्यात्वं शुद्धमिथ्यात्वम् अपूसो तस्स विसुद्धयरो, जायइ सम्मत्तपोग्गलक्षणो ।
प्रकरणाध्यवसायेनापनीतमिथ्यात्वभावमित्यर्थः । तदयो
पचारतः सम्यक्त्वं शुद्धमिध्यात्वसम्यक्त्वं तस्य पुराला: दिट्ठि व्व सुबहसुद्ध-ब्भपटलविगमे मणूसस्स ॥१३२०॥
शुद्धमिथ्यात्वसम्यक्त्वपुलाः शाधितमदनकोद्रवस्थानीयाः जह सुद्धजलाणुगयं, वत्थं सुद्धं जलक्खए सुतरं । विरुद्धतैलादिद्रव्यकल्पने मिथ्यात्वेन मिश्रिताः सन्तस्तसम्मत्तसुद्धपोग्गल-परिक्खए दंसणं च ॥ १३२१ ।।
त्क्षण एव मिथ्यात्यं भवति , कुतीर्थिकसंसर्गतद्वचःश्रव
णादिजनितपरिणामाद्वा लिएबहुरसीकृता मिथ्यात्यरूपता हन्त ! यः सम्यकपदार्थश्रद्धानुरूपो जीवस्य भावः-परिणा
प्रतिपद्यन्ते । ततस्तथैव मिथ्याष्ट्रिभूत्वा पुनः संसारनीरमः स एव तावन्मुख्यतः सम्यक्त्वमुच्यते, यस्तु शोधितमि
धिं बंभ्रमीति । स चैवंभूतोऽपायः क्षायिकसम्यक्त्वे नास्ति, ध्यात्वपुद्गलपुञ्जः स तत्वतो मिथ्यात्वमेव केवलं सम्यकत
सर्वामर्थमूलानां शुद्धानामशुद्धानी या मिथ्यात्वपुगलानां क्षस्वश्रद्धानरूपस्य जीवभावस्याशुद्धमिथ्यात्वपुअवदनाधारक
पितत्यनासत्त्वात् । तस्मात् शुद्धतर क्षायिकसम्यक्त्वम्,मली. स्वादुपचारतः सम्यक्त्वमुच्यते । एवं च सति यदाच्छादित
मसं च क्षायोपशमिकम् । अत एतवपमेऽपि क्षायिकसम्यमदनकाद्रवरूपं मिथ्यात्वमेव सदुपचारतः सम्यक्त्वं प्रसि
क्यभावान्नादर्शनी जीवः, किंतु प्रत्युत विशुद्धसम्यग्दर्शद्धम् , तदव तस्य क्षपकस्य शीण न तु यतत्त्वश्रद्धानल
नीति स्थितम् । विशे० । ध०। क्षणो जीवस्य भावः । स च तस्य तत्वश्रद्धानभाय औपचारिकसम्यक्त्वरूप सम्यक्त्वपुद्गलपुछे क्षपिते प्रत्युत विशु- (३०) अथ तस्य चोत्पादे यी गतिनिसर्गः, अधिगमश्चेति । खतरा जायते, यथा श्लक्ष्णशुद्धाऽभ्रपटलविगमे मनुष्यस्य
तांस्तद्भेदाँश्चाहलोचनद्वयरूपा दृष्टिः, स्वच्छाभ्रपटलसहशो हि सम्यक्त्वपु. निसर्गाद्वाऽधिगमतो, जायते तच्च पञ्चधा । द्गलपुक्षः, स च क्षपिताऽभ्रपटलमिव दृष्टेयच्च यायच्च
मिथ्यात्वपरिहाण्यैव , पञ्चलक्षणलक्षितम् ।। २२ ॥ तत्त्वश्रद्धानपरिणामस्य विघातक एव,ततोऽनर्थरूपे तस्मिन् क्षपितऽभ्रपटलविगमे लोचनद्वयीव तत्त्वश्रद्धानपरिणतिनि- निसर्गादधिगमाद्वा तत् सम्यक्त्वं जायते-उत्पद्यते, तत्र मलतरैव भवति । दृष्टान्तान्तरमाह-'जहे' त्यादि । यथा| निसर्गः स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपक्ष इति मावः । अधिसुधीतं शुद्धं निर्मलीकृतं जनानुगतं किंचिदाई वस्त्रम् । गमः-गुरुपदेशः यथायस्थितपदार्थपरिच्छेद इति यावत् ।
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सम्मत्त
तथाहि--योगशास्त्र वृत्ती
" अनाद्यनन्तसंसारा-ऽऽवर्तवर्तिषु देहिषु । ज्ञानदृष्टयावृतिवेदनीयान्तरायकर्मणाम् ॥ १ ॥ सागरोपमकोटीनां कोटयत्रिशत्परा स्थितिः । विशतिगोत्रनाम्नोध, मोहनीयस्य सहति ॥ २ ॥ ततो गरि घोसमाम्वायतः वयम् । एकाधिकोष्ठिकोटयूना, प्रत्येकं क्षीयते स्थितिः ॥ ३ ॥ शेषाधिकोटिकोटयन्तः स्थितौ सकलनन्मिनः । Sheeraवृत्तिकरणान्धिदेशं समिति ॥ ४ ॥ रागद्वेषपरीणामो दुदा प्रधिरुच्यते ।
roat तर, काष्ठात्रेरिव सर्वदा ॥ ६ ॥ अन्थिदेश तु संप्राप्ता, रागादिप्रेरिताः पुनः । उत्कृष्ठबन्धयोग्याः स्यु- धतुर्मतिजुषोऽपि च ॥ ६ ॥ युग्मम्तेषां मध्ये तु ये भव्याः, भाषिभद्राः शरीरिणः । आविष्कृत्य परे वीर्य-मपूर ते ॥ ७ ॥ अतिक्रामन्ति सहसा, तं प्रन्थि दुरतिक्रमम् । अतिशान्तमहाऽध्यानो, पट्टभूमिमियाच्यगाः ॥ ५ ॥ अथानिवृत्तिकरणा इतरकरणे कृते । मिलिं कुदनी पद्मतः॥६॥ अन्तर्मुहसिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं सम्यग्श्रद्धानमुच्यते ॥ १० ॥ गुरूपदेशमालय, सर्वेषामपि देहिनाम् । यत्तु सम्यकत्यानं तत्स्यादधिगमं परम् ॥ ११ ॥ यमराजपा बीज परियो
तुप तादीनां समुदीरितम् ॥ १२ ॥ लाभ्यं हि चरण्ज्ञान- विमुक्तमपि दर्शनम् । म पुनर्ज्ञानचारित्रे, मिध्यात्यते ॥ १३ ॥ मारिनोऽपि भूपते। सम्यग्दर्शनमहात्म्यात्यते ॥ १४॥
इति अत्राद-मिथ्यात्यमोहनीय कर्मक्षयोपशमादेरिति कथमुच्यते निसर्गादधिगमाडा सजायत इति एव शयापशमादिति न दोषः उच "ऊरदेशवादयोपयमिष्य स्लाइप, उपसमसम्मै लद्दर जीवो ॥ १ ॥ जीवादीएमधिगमों, मिच्छत्सस्स नावसमभाषे । श्रधिगमसम्म जीवा, पाव विसुद्ध परिणामो " ॥ २ ॥ इति । कृतं प्रसङ्गेनेति । ०२ अधि० पं० स० । ० म० ।
(2) समनरक पृधिव्यामि गमनागमने निविशेआगम पि निसिद्धं चरिमा उ प जं तिरिक्खे | सुरनारगासम्म दिडी जं यन्ति मधु ।। ४२१ ।। बरमाया :-- सप्तमपृथिव्या न केवलं गमनमपित्वा गमनमपि गृहीतसम्यक्त्वस्यागमे निषिद्धम्, यतस्तस्या उद्धृत्य सर्वोउपागच्छति सिमेन मनुष्येषु "सचममदिरा ते
पायान व पाचे मास्" इति वचनादिति मुरारकाका सम्यक्त्वसहिता यस्मान्मनुष्येष्वेवायान्ति
( ४६६ ) अभिधान राजेन्द्र । ।
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सामथ्र्यचिसप्तमपृथ्वीनारकामिष्यति पातिगाचार्थः । विशे० घ० ।
(३२) सम्यक्त्वादिभावरूपसम्यक्त्वं तावत् स्वरूपतः फलतःश्च निरूपयन्नाहततश्वसहा सम्मतमसम्महो एवम्मि । मिच्छत्तखओवसमा, सुस्वस्साई उ होति दर्द || ३ | व्याख्या - तत्त्वार्थानां सर्वविदुपदिष्टतया पारमार्थिकाना श्रीवादिपदार्थानां श्रद्धानमेतदेवमेवेतिप्रत्ययः । तस्येन पा भावतोऽथनां श्रद्धानं तस्वार्थश्रद्धानम् किमित्याहसम्यगिति सा निपातः समचतीति वा सम्पर्क तद्भायः सम्यपत्यमित्यस्य स्वरूपमभिहितम् । अथास्यैव दोषविशेषनिवृत्तिरूपे फलमाह- अथवा तस्यार्थानं निडवानामप्यस्तीति तेषामपि सम्यक्त्वं स्यादित्याशया -असदुद्मो ऽशोभनाभिनिवेश आशयच नयाधितार्थ पक्षपात इत्यन' यथोद्धानविरुद्धत्वात्सहस्व भवतीति गम्यते । एतस्मिन्नन्तरमितिलचणसम्पर सति । ततो नियानां कथं तदिति । अथ कस्मादयमिह सति न भवतीत्याह- मिथ्यात्वस्यं मिथ्यात्वमोहनीय कर्मदलिकस्य येोदीर्णस्य विनाशेन सहोपरामो विपाकोदयपेक्षया विष्कति माषोपमस्तस्मादेताः । उपास्यादुपशमाचेत्यपि यमिध्यात्वादयो समूहहेतुः । मिथ्यात्याकर्मोदयश्च सभ्यक्त्वे सति नास्तीत्य सद्ग्रहाभाषोऽति भावः । के पुनरिह सति गुणा भवन्तीत्याशुभूपादयो धर्मशास्त्रवच्छाप्रभृतयो वच्यमाणाः । तुशब्दः पुनः शब्दार्थः । भवन्ति जायन्ते । मिध्यात्वतोपमादेरखानेनापि सम्यक्त्यस्य फलमभिहितम्। न मिध्यात्वोदयेऽपि से समय
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सम्मत
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वाइ-दमा सम्यत्थमभियत इति भाषः । अतिशायितां च तेषां दर्शयिष्यामः । नदु तश्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमित्युक्तम् श्रद्धानं च तथेति प्रत्ययः I स च मानसोऽभिलाषः । न चायमपर्याप्तकाद्यवस्थायामिष्यते । स तु त स्पामभी पदसागरोपमायाः सापयति[[तकालरूपायाथ तस्योषस्थित प्रतिपादनादिति कथं नागमविरोधः पत्रोष्यते तस्वार्थानं
त्यस्य कार्य सम्यक्त्वे तु मिध्यात्यक्षयोपशमादिम्यो रुचिरूप श्रात्मपरिणामविशेषः । श्राह ब-" से य समत्ते पत्थसम्मत्तमोहणीय कम्मा रणुवे योयस मखयसमुत्थे पसमसंबेगाइलिंगे सुद्दे आयपरिणामे पसते"। अत एवाममस्कानां सिद्धादीनां तविष्यते । इह च सम्यक्त्वे सत्येव यथोक्तं श्रजानं भवति, यथोक्तश्रद्धाने व सति सम्यक्त्वं भवसम्स्यावश्यमानाय का
में कारयोपचारं इत्यतस्वति नतु मिथ्यात्योदयजन्यत्वेनासद्द्महस्य सम्यकांत पशमायुक्लो सद्ग्रद्दाभावः, शुश्रूषादिगुणानां तु ज्ञानचारित्रांशरूपत्वेनानावरणीय चारमाही
पापथमम्पत्यानयत्सङ्गापमा सद्भाव इति । अत्रोच्यते – सम्यक्त्वहे ती मिथ्यात्थक्षयोपशमस्याबसरे ज्ञानावरणानन्तानुबन्धिकवायला विकर्मणामपि पश्यमेव भवतीति
तिते भवन्तम्यभिधीयते यथा केवलज्ञानावरण
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सम्मत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्त क्षयलभ्यमपि केवलज्ञानं कषायक्षये लभ्यत इत्यभिधीयते । भवति । सम्यक्त्वे सति व्रतानि कदाचिद्भवन्ति , कदापाह-"केवलियनाणलंभो नक्षत्थनए कसायाणं" यथा चिन्नेति भाव इति गाथार्थः॥४॥ वा मिथ्यात्वक्षयोपशमलभ्यमपि सम्यक्त्वमनन्तानुबन्धि
(३३) भजनाकारणमेवाहरूपचारित्रमोहनीयोदये न लभ्यत इत्यभिधीयते । पाह न-"पढमिल्लुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसायाण ।
जं सा अहिगयरामो,कम्मखभोवसमभोण य तमो वि। मम्मइसणभं, भवसिद्धिया विन लहंति ॥१॥" मनु होइ परिणामभेया , लहुं ति तम्हाई भयथा ॥ ५ ॥ वैयावृत्त्यनियमस्य तपोभेवत्वेन चारित्रांशरूपत्वात् सभ्य
यद्-यस्मारकारणात्सा व्रतप्रतिपत्तिः अधिकतरात् सम्यत्वसमाव चावश्यंभावित्वादविरतसम्यग्राष्टिगुणस्थानका
क्त्वप्राप्तिनिमित्तभूतकर्मक्षयोपशमापेक्षया समगलतरातभावः प्राप्नोतीति । नैवम् , वैयावृश्यनियमपचारित्रस्या
कर्मक्षयोपशमतः चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमानवति, ननु स्पतमत्वेनाचारित्रतया विवक्षितत्वात् । यथा संमूर्छनजाना सम्यक्त्वलाभावसर पचासौ कुतो न भवतीस्याह-बमहामात्रसदाये.ऽपि विशिष्टसंज्ञाया अभावावसंहित्यमि- नैव । । तको वि ति-तकोऽपि सोऽपि यदेव सम्यपम् । विरतत्वं हि महानताणुव्रताविरूपानपचारित्रस- पत्वप्रतिपत्तिबेतुः कर्मक्षयोपशमो भवति मतदेष प्रतशाष पवेष्यते । यतोन कार्षापणमात्रधनेन धनवान् , एक
प्रतिपत्तिहेतुभूतस्तदधिकतरोऽपीत्यपिशवार्थः । अम्ये तुगधेन वा गोमानिति । ननु सम्यक्त्वे सति शुश्रूषादयो
'तो उ' इति पठन्ति , तत्र ध्याच्या-- च-नैव तक: भवम्तीति न युक्तं व्यभिचारित्वात् । तथाहि-उपशान्तमो- पुनर्भवति जायते । कुतः पुनरेवमित्याह-परिणामभेदाहादीनां सम्यक्त्यसद्भावेऽपि न शुश्रूषादयो भवन्ति, सक- तथा भव्यत्वहेतुकात्माभ्यवसायविशेषाद्विशिष्टतरपरिणामनविकल्पकल्लोलमालाधिकलत्येन मिस्तरामहामकराकरा- निबन्धनत्वात्तस्येति भावः 'लहुंति ' ति-लयिति शीकारबातमन्तःकरणस्येति । अत्रोच्यते-यद्यपि शुश्रूषादय
घ्रमेव । सम्यक्त्वनिवन्धनक्षयोपशमानन्तरमेवेत्यर्थः । उपशान्तमोहादीनां साक्षान्न भवन्ति , कृतकृस्यत्वादिति,
तस्मात्-ततः कारणादिह व्रतप्रतिपत्तौ भजना-विकल्पना । तथापि फलतो भवन्ति, तद्भावस्य तत्फलवादिति कुतो शुश्रूषादिषु पुनर्नियमः , इयमत्र भावना-यपपि प्रन्थिभेव्यभिचारः ? श्रावकधर्माधिकाराद्वा, यच्छापकावस्थायां दादेव सम्यक्त्वमुदेति , तत्र च व्रतप्रतिपत्तिमेवोपादेयतसम्यक्त्वं तदाश्रित्य शुश्रूषादयस्तु भयन्ति दमित्यभिहि- रामध्यषस्थति , तथापि यावत्या कर्मस्थितौ सत्या तमतो न दोष इति गाथार्थः ॥३॥
सम्यक्त्यलाभो भवति , न तावत्यामेव प्रतप्रतिपत्तिरपि शुश्रूषादयस्तु भवन्तीत्युक्तम् , अथ तानेबाह
तस्वतो भवतीति गाथार्थः। सुस्मूस धम्मराउ, गुरुदेवाणं जहासमाहीए ।
इदमेवाहवयावच्चे णियमो, वयपडिवत्तीए (इ) भयणा उ ॥४॥ सम्मापलियपुत्तेऽ-वगए कम्माण भावाभो होति । व्याख्या-श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा । इस्वत्वं तु प्राकृतशैलीव
बयपभितीणि भवणव-तरंडतुलाणि णियमेण ॥६॥ शात् । सद्रोधावन्ध्यनियन्धनधर्मशालश्रवणयाम्छेत्यर्थः । सा च बैदामयादिगुणवत्तरणनरकिन्नरगानश्रयणगगावप्यधि
'सम्म ' ति-सूचनात्सूत्रमिति न्यायात् सम्यक्त्यलकतमा सम्यकन्ये सति भवति । यदाह-" यूनी वैदग्भ्यवतः,
ग्धाइनन्तरं पल्यापमानामागमप्रसिद्धानां कालपरिमाणषिकाम्तायुक्तस्य कामिनोऽपि रढम् । किमरगयभ्रषणा-दधि
शेषलक्षणानां पृथक्त्वं द्विप्रभृतिनवान्तसंख्यालक्षणं पल्योको धर्मश्रुती रागः ॥१॥" तथा धर्मः श्रुतचारित्र
पमपृथकत्वं तस्मिन् । अपगते-अपेते घेदित स्यर्थः । लक्षणः । तत्र ध्रुतधर्मरागस्य शुश्रूषापरेनबोलत्याविह केषां पल्योपमपृथक्त्वमित्याह-कर्मणां ज्ञानाबरणादीनाम्। धर्मगगश्चारित्रधर्मरागोऽभिप्रेतः । स च कर्मदो
यह च कर्मस्थितेरिति वाच्ये स्थितेः-स्थितिमतां चाभेपानदकरणऽपि कान्तारातीतदुर्गतबुभुक्षाक्षामकुक्षित्रा- दविवक्षया कर्मणामित्युक्तम् । यतो मोहनीयादिकर्मणां यणघृतपूर्णभोजनाभिलाषादप्यतिरिक्तोऽत्र भवति । तथा सागरोपमकोटीकाटीसातत्यादिकायाःस्थितेमध्यात्कोटीको. गुरवो धर्मोपदेशका प्राचार्यादयः, देवाश्चाराध्यतमा ट्यादिकां स्थिति यथाप्रवृत्तिकरणेन क्षपयति तावद्यावदेअर्हन्ता गुरुदेवास्तेषाम् । इह च गुरुपदस्य पूर्व
का पल्योपमासंख्येयभागोना सागरोपमकोटीकोटीशेषा। निपातो विवक्षया गुरूणां पूज्यतरस्वख्यापनार्थः । न हि ततो प्रन्थिभेदेन सम्यक्त्वं लभते। ततः शेषकर्मस्थितेः पल्यासहुरूपदेशं बिना सर्वविद्देवाधिगम इति भावः । यथासमा- पमपृथक्त्वे क्षपिते सत्यणुक्तानि लभत इत्यागममुद्रा । ततः धि-यथासमाधानानतिक्रमेण । इह चाव्ययीभावसमासादपि किमित्याह-भावतः परमार्थवृत्तिमाश्रित्य , द्रव्यतः पुनरतृतीयाया अलोपः प्राकृतत्वात् , असमासाद्वा । व्यावृत्तस्य तिदीर्घतरायामपि कर्मस्थितौ महावतान्यापि भवन्ति । तभायः कर्म वा वैयावृत्यं तस्मिन् तत्प्रतिपत्तिविश्रामणाभ्य- दुनम्-'सबजियाणं जम्हा , सुत्ते गेविजगेसु उववाओ। नादौ । नियमोऽवश्यंकर्तव्यताङ्गीकारः । स च सम्यक्त्वे | भणिो जिणेहि सो न य , लिंग मोनुं जो भणियं ॥१॥ सति भवतीति प्रक्रमः । एतेषां च शुश्रूषादीनां यथोत्तरं हे- जे दंसणवावरणा, लिंगग्गहणं करिति मामने । तेसि पि तुफलभावोऽवसेयः । अथ यथा शुश्रूषादयोऽत्र भवन्ति, त- य उवधाओ , उकोसो जाव गेविज्जा ॥२॥" 'होति तिथा कि बतान्यपि भवन्तीत्याशक्याह-वतानाम्-अणुवता- | भवन्ति-जायन्ते । कानीत्याह-वृतप्रभृतीन्यणुव्रतादीनि । दीनां प्रतिपत्तिरङ्गीकरणं व्रतप्रतिपत्तिः। तुशब्दस्य पुनरर्थ- स्वरूपतः किंविधानि तानिस्याह-भवार्णवतरण्डतुल्यानिस्येह सम्बन्धात्तस्यां बतप्रतिपत्तौ तु पुनर्भजना-विकल्पना संसारसागरोत्तरणद्रोणादिकल्पानि । नियमेनावश्यंभावेन ।
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अभिधामराजेन्द्रः।
सम्मत्त तदुक्तम्--
रिग्रहा,लक्ष्यते-चिलयते एंभिरुपशमादिभिर्यायैः प्रशस्तवी"सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण साचो होज्जा।
गैरिति संबन्धः, बाह्यवस्तुविषयत्वाद्वाह्याः प्रशस्तयोगाःघरणीवसमखयाणं, सागरसखंतरा होति ॥९॥"
शोभनब्यापारास्तैः, किं विशिष्ट्र तत्सम्यक्त्वम् । भात्मपरि
णामरूपम्-जीवधर्मरूपमिति । पल्योपमपृथकवादिवेद्यस्य च कर्मणो हासोऽनुक्रमेण स्याद्वीग्लिासात्करणान्तरप्रवृत्तेरतिशीघ्र कालेन वा । तदुक्तम्
तथा चाह"एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अन्नयरसे
इस्थ व परिणामो खलु, जीवस्स सुहो उ होइ विबेो । डिवळ, एगभवण व सब्वाई ॥१॥ " नतु यदा सम्य- कि मलकलंकमुक्कं, कणगं भुवि सामलं होई ॥५४॥ कत्वयुक्त एव नवपल्योगमातिरिक्रस्थितिकदेवेघूत्पद्यते, त- अत्र व सम्यक्त्वे सति किं परिणामोऽध्यवसायः खलुदा देवभवे विरतेरभावात् , कथे 'सम्मत्तम्मि उ लो, प
शब्दोऽयधारणार्थः, जीवस्य शुभ एव भवति-विज्ञयो मत्वलियपुहुतेख सावत्रो होजा' इत्येतद् घटते ?, अत्रोच्यते
शुभः । अथवा-किमत्र चित्रमिति । प्रतिवस्तूपमामाह-कि तस्यामवस्थायां यावती स्थिति क्षण्वति थावतीमभ्यां
मलकलङ्करहितं कमकं भुवि ध्यामले भवति भवतीत्यर्थः । बध्नाति , रातो देशोनसागरोपमकोटीकोटीरूपाया अधि
एवमत्रापि मलकलङ्कस्थानीय प्रभूने क्लिष्ट कर्म ध्यामलकृतकर्मस्थितेः पल्योपमपृथक्त्वस्य नापगमो भवतीति न
स्वतुल्यस्त्वशुभपरिणामः, स प्रभूने किले कर्मणि क्षीणे देवभवादी देशविरतिलामः स्यादिति न विरोधः । तदेवं
जीवस्व न भवति । सम्यक्त्वलाभेऽपि प्रतप्रतिषत्तौ भजनति स्थितमिति गाथार्थः । पश्चा० १ विव० । ध०। (सम्यग् न्यूँनार्द्धपुद्गल
प्रशमादीनामेव बाह्ययोगत्वमुपदर्शयन्नाह-- परावर्तः संसारः 'संसार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।)
पयई वा कम्माण, वियाणिो वा विवागममुहं ति । इदानी “सम्मत्ताईगुत्तम-गुस्साण लाइंतरं तु उकोसमि" अवरद्धे विन कुप्पइ,उवसमत्रो सब्बकालं पि ॥५॥ स्थेकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाह--
प्रकृत्या वा सम्यक्त्वाणुवेदकजीवस्वभावेन वा कर्मणां सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण सावो होजा।
कषायनिवन्धनानां विज्ञाय वा विपाकर्मशुभमिति । तथाहि
कषायाविोऽन्तर्मुहूर्तेन यत्कर्म बध्नाति तदनेकाभिः साचरणोवसमखयाणं, सायरसंखंतरा होंति ॥ १३६८ ॥
गरापमकोटाकोटिभिरपि दुःखन वेदयतीत्यशुभो विपाकः । यावत्यां कर्मस्थितौ सम्यक्त्वं लब्धं तन्मध्यात्पल्योपम
एतत् शात्वा किम् अपराद्धयऽपि न कुप्यति ?, अपराध्यत पृथक्त्वलक्षणे स्थितिखण्डे क्षपिते श्रावको देशविरता भवे
इति अपराद्धयः-प्रतिकूलकारी तस्मिन्नपि कोपं न गच्छसतश्चरणोपशमक्षयाणामन्तरा संख्यातानि सागरोपमाणि
त्युपशमतः-उपशमेन हेतुना सर्वकालमपि यावत्सम्यक्त्वभवन्ति । इयमत्र भावना-देशघिरतिप्राप्त्यनन्तरं संख्यातेषु
परिणाम इति । सागरोपमेषु क्षपितेषु चारित्रमवाप्नोति, ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु उपशमश्रणि प्रतिपद्यते , ततो
तथाऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षकश्रेणिर्भवति , ततस्तद्भवे नरविबुहेसरसुक्खं, दुक्ख चिय भावो य मन्नंतो। मोक्ष इति । एवमप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य देवमनुष्यजन्मसु सं. संवेगो न मुक्खं, मुत्तणं किंचि पत्थेइ ॥५६॥ सरण कुर्वतः अन्योन्यमनुष्यभवे देशविरत्यादिलाभो भवति ।
नरविबुधेश्वरसौख्यं, चक्रवर्तीन्द्रसौख्यमित्यर्थः, अस्वायदिवा--तीव्रशुभपरिणामवशात् क्षपितबहुकर्मस्थितेरेक
भाविकत्वात् कर्मजनितत्वात्सावसानत्वाच्च दुःखमेच भावतः स्मिन्नपि भधेऽन्यतरश्रेणिवर्जान्येतानि सर्वारयपि भवन्ति,
परमार्थतो मन्यमानः संवेगतः संवेगेन हेतुना न मोक्ष श्रेणिद्वयं त्वेकस्मिन् भये सैद्धान्तिकाभिप्रायेण न भवत्यव
स्वाभाविकजीवरूपमकर्मजमपर्यवसानं मुक्त्वा किंचित्प्राकिं वेकैवोपशमश्रेणिः क्षपकवेगिर्वा भवतीति । उक्नं स्व-"एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुअजम्मसु । अन्न
र्थयते-अभिलपतीति । बरसेढिवजं, एग मवेणं च सव्वाई ॥५॥" प्रव०२४६ द्वार ।
नारयतिरियनरामर-भवेसु निव्वेयो वसइ दुक्खं । श्रा० । नं० । सम्यक्त्वे सम्यकत्विनः । 'जात्यन्धस्य यथा अकयपरलोयमग्गो, ममत्तविसवेगरहिओ वि॥५७।। पुंस-श्चक्षुर्लाभे शुभोदये । सद्दर्शनं तथैवास्य , सम्यक्त्वे
नारकतिर्यनरामरभयेषु सर्वेष्वेव निदतो-निदेन कारसति जायते॥॥अानन्दो जायतेऽत्यन्तं,सात्विकोऽस्य महा
णेन वसति दुःखम् । किं विशिष्टः सन्? अकृतपरलोकमार्ग:स्मनः । सबोध्यपगमे यद्वद् , व्याधितस्य सदोषधम् ॥२॥"
अकृतसदनुष्ठान इत्यर्थः । अयं हि जीवलोके परलोकानुकर्म०५ कर्म । श्रा०।
ष्ठानमन्तरेण सर्वमेवासारं मन्यते इति । ममत्वविषवेगर(३४) इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छमस्थेन दु- हितोऽपि तथा ह्ययं प्रकृत्या निर्ममत्व एव भवति विदिलक्ष्यमिति लक्षणमाह--
ततत्वत्वादिति। तं उवसमसंवेगा-इएहि लक्खिाई उबाएहिं ।
तथापायपरिणामरूवं, बज्झेहि पसत्थजोगेहिं ।। ५३ ।।
दसण पाणिनिवहं, भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । तत्सम्यक्त्वमुपशमसवेगादिभिरिति उपशान्तिः-उपशमः
। अविसेसोऽणुकंप, दहा विसामत्थो कुण इ॥५८।। संगो-माताभिलाषः माविशब्दानिशानुकम्पास्तिक्यप- दृष्टा प्राणिनिव-जीवसंघातं क भीमे-भयानके भवसा
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संम्मत
गरे- संसारसमुद्रे दुःखार्त - शारीमानसैदु:खैरभिभूतमिस्पर्थः अविशेषतः सामान्येनात्मीयेतर विचाराभायेंत्यर्थः । अनुकम्पाम्-दयां द्विधापि द्रव्यतो भावतश्च द्रश्यतः प्राशुकपिण्डादिदानेन भावतो-मार्गेयोजनया सामर्थ्यतः स्वशक्त्यनुरूपं करोतीति ।
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(५०२) अभिधान राजेन्द्रः ।
मम तमेव सर्थ, निस्संकं जं जिहि पद्मतं । सुपरिणाम सर्व्व, खाइविसुनियारहिओ ॥ ५६ ॥ मन्यते प्रतिपद्यते तत् निःशङ्कं शङ्कारहितं पि प्रज्ञप्तं यत्तीर्थकरैः प्रतिपादितं शुभपरिणामः सन् साकस्पेनानन्तरोदित समस्त गुगान्तः सर्वे सम मन्यते न तु कितिविधेति भगवत्यविश्वासायोगात् । पुनरपि स एव विशिष्यते किविशिष्टः सन्
।
"
रहितः काङ्क्षा अयोग्यदर्शनप्राह इत्युच्यते श्रादिशब्दा द्विचिकित्सापरिग्रहः विश्रोतका संयमस्वाध्यवसायसलिलस्य विधोतो- गमनमिति ।
तु
उपसंहरन्नाह
"
एवं विपरिणामो, सम्मद्दिट्ठी जिणेहि पन्नत्तो । एसोय भवसमुदं लंघइ थोवेण काले || ६० ॥ एवंविधपरिणाम इत्यमरोशिमादिपरिणामः सम्प ग्रष्टिर्जिनैः : प्रक्षप्त इति प्रकटार्थः । अस्यैव फलमाह एष च भवसमुद्रं पति-प्रतिक्रामति स्तोकेन कालेन प्रासबीजत्वादुत्कृष्टोऽप्यपार्धपुङ्गलपरावर्तान्तःसिद्धि प्राप्तरिति । ( श्रा० । ) [ एवंविधमेव सम्यक्त्वम् इत्येतत्प्रतिपादितम् मउण शब्देोभागे । ] जा जिसम पवजह, ता मा ववहारनिच्छए मुयह। ववहारनयुजो हत्यादीनि वाचक मुक्येनोक्रम् तत्त्वार्थानं सम्यङ्गमं " [ तवाधिगमसूत्रम् १-२ ]
+
(३५) स शमादिलिङ्गमेवेति दर्शयन्नाहतचत्थसद्दद्दार्थ सम्म तम्मि पसममाईया |
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पढमकसाओ। वसमा -दविक्खया हुंति नियमेण ॥६२॥ तस्यार्थमज्ञानं सम्यक्त्वं तस्मिन्प्रशमादयो ऽनन्तरोदिताः प्रथमकषायोपशमाद्यपेक्षया भवन्ति नियमेन । श्रयमंत्र भावार्थ:- न ह्यनन्तानुबन्धिक्षयोपशमादिमन्तरेण तस्वार्थानं भवति सति तत्क्षयोपशमे तदुदयषयः सकाशादपेक्षयाऽस्य प्रथमादविद्यन्त एवे वितस्यार्थसम्यमित्युक्तम् श्र० । सम्यक्त्वं शुभारमपरिणामरूपमस्मदीयानामप्रत्यक्षं के पियते । अत श्राह सम्यक्त्वं कीदृशं भवति ?, पञ्चेति – पञ्चभिः शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिकरूपेचितम् उपलक्षितं भ
तथ्य
रस्थं परोक्षमपि सम्यक्त्वं लक्ष्यत इति भावः । ध०२ अधि० । सम्यक्त्वा निव्यवहारमयाभ्यां विचारस्तत्र पथहारनयां मन्यते मिध्यादृडिरानी च सम्ययज्ञानयोः प्र तिपद्यमानको भवति नतु सम्यक्त्वज्ञानसहितः निश्चयनयस्तु ते सभ्य सम्प्रतिपद्यते न तु मिथ्याज्ञानी व आ०म० १ ० । ( क्रेषु
सम्मत
द्रव्येषु मध्ये पर्यायेषु वा सम्यक्त्वमिति 'सामाइय' शब्दे व क्ष्यते । ) सद्दर्शनं तथैवास्य सम्यक्त्वे सति जायते । कर्म० ५ कर्म० । याः प्रथमसम्यक्त्वस्य लाभकाले अन्तरकरणप्रविष्टस्यापस्थिताभ्ययसादस्य सम्यकस्यादिलो भव न्ति ता अनाकारोपयोगे ऽपि भवन्ति । विशे० । ( सम्यक्त्वपालनाद दृष्टान्तीकृतसंप्रतिनृपाण्यान से शब्दस्मिन्नेव भागे उक्तम् । )
मिच्छतं दमिऊ, सम्मम्मि पथि अहिगारों । कायच्यो बुद्धिमया, मरणसमुपाय कालम्मि ||५० प० सम्यकार्य दयादान प्रकीर्तितम् । व्या० अध्या०] "सम्यक्त्वशीलतुवायां भवाब्धिते सुखम्। ते दधानी मुनिम्बु, खीषु कथं युडेत् ॥ १ ॥ " ० २ अधि० ८ क्षण । ( सम्यक्रष्टिमिथ्यादृष्टित्वे दण्डकः ' दिडि' शब्दे चतुर्थभागे २५११ पृष्ठे गतः । ) दर्शन मोह
कर्मयात्पुनः सम्यग्जिनमसीत तस्वं श्रते तदिति । कर्म० ६ कर्म० । पं० सं० । सम्यक्त्वमचलं विधेयम्न तापसादीनां कष्टतपसेविनामष्टमु टिम कार्य इति प्रतिपादनपरे (स्था०) आत स्कन्धस्य चतुर्थेऽध्ययन, स्था० ६ ठा०३ उ० । स० । श्राव० । यथा सिद्धपञ्च। शिकायामनन्त कालच्युतसम्यक्त्वादिविशेपराविशिष्टा वैकस्मिन् समयेोरं शतं यन्त क्तं, तथा च सति ऋषभादयः सर्व्वेऽशेतरशतमनन्तकालच्युतसम्यक्त्वादिविशेषणविशिष्टा एव श्रन्यथापि वा ?, विशिष्ट तापषभदेवस्थानन्त कालच्युतसम्यकृत्यमन्यथा वा ? अनन्तकालच्युतसम्यक्त्वं वेत्तदा ऋषभदेवस्य त्रयोदश भया एव कथं ? पूर्वमपि सम्यक्त्यलाभात्, अन्यथापि येति पश्येदा सिद्धपञ्चाशिकादिचैस कथं संवाद हरवे वेलदा तदा किय गादन्या तीर्थस्वेन या संख्यातकालपत्यादिना था ? विधाविति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्नः अत्रोत्तरम्एकस्मिन् समयेऽपोरं सिध्यन्तस्यनन्तकाच्युतसम्यक्त्वादिविशेषणविशिष्टा एव सिध्यतीत्यक्षराणि गदि सिद्धपञ्चाशिकारिषु भवन्ति तदा बाहुवलेः पलमाणायुषो ऽपवृतिरिय श्री ऋषभदेवस्यापि सिद्धिराश्चर्यकृश्वन समर्थनीया, एवं तदधिकारे यद्यदसंभषि तत्सर्षमार्य एवान्तर्भावनीयम् ॥ १६३ ॥ सेन० २ उल्ला० । सिदानां ज्ञानदर्शनचारित्रयत्यनन्तानि प्रोक्रानि तरकध घटते तेषां पृथक् पृथगेकैकसद्भावात् तयक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्नः ?, अत्रोत्तरम् - ज्ञानादीनां चतुराणं तदाचरणकर्मपुइलानामनन्तानां ज्ञयातेषामप्यानमभ्यं घटत एव यदुक्तम्"ज्ञानादयस्तु भाषाः प्राणमुलोऽपि जीवति स तैर्हि तस्मात्तजीवत्वं नित्यं सर्व्वस्य जीवस्य ॥ १ ॥ श्रमन्तं केवलज्ञानं ज्ञानावरणसङ्गयात् । अदर्श चापि दर्शमावरणक्षयात् ॥ २ ॥ शायिके शुद्धसम्यय- पारिजे मोहनिग्रहात् । अनन्तसुखायै च बेद्यविश्वक्षयात् क्रमात् ॥ ३ ॥ श्रायुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः । नामगोत्रक्षयादेवाऽनन्ताऽमृर्त्ताऽवगाहना ॥ ४ ॥ "
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.५०३) सम्मत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मत्तपरवाम इति ॥ ५७ ॥ सेन० ३ उल्ला० । दर्शनसम्यक्त्वयोः कः प्रति- फल इति तत्प्राधान्याश्रयणतो तराश्रुतमिति गाथा. विशेषः१येन द्वयोरप्यतीचाराः, परमार्थतः परस्परं केचन र्थः । अत्र चादानपदनाम्नः सूत्रान्तर्गतत्वा:सूत्रस्पर्शिकनि, सहशा एव दृश्यन्ते, तेन तयोर्यकत्या भेदः प्रसाद्य इति युक्तरेष तत्र व्यापार इति तदुपेक्ष्य वीतरागश्रुतमाम च प्रश्नः?, अत्रोत्तरम्-दर्शनसम्यक्त्वयाबस्तुगत्याउभेदेऽपिक- तस्य केषाश्चिदेवाभिमतत्वात् ' मध्यग्रहणे आद्यन्तौ गृहीथश्चिनिःशङ्कित्वाद्यभाव एव सम्यक्त्वातिचार उच्यते , तावेव भवत' इति न्यायतो वा द्वयमप्यनारत्याप्रमादथुतशङ्कादिसद्भावस्तु दर्शनातिचार इति व्यक्तं प्रवचनसारो- निक्षपमभिधातुमाह-- द्धारवृत्तौ षष्ठे द्वारे ॥ ३८० ॥ सेन० ३ उल्ला। ....... निक्खेवो अपमाए,चउबिहो दुविहाँउ होइ दबम्मि । सम्मत्तंग-सम्यक्त्वाङ्ग-न । सम्यक्त्वप्रधानस्याङ्गीभूते स
आगम नोआगमतो,नोआगमतो य सो तिविहो ।।५०४॥ म्यक्त्वफलेनैव फलवति, प्रतिः।
जाणगभवियसरीरे, तव्वइरित्ते अमित्तमाईसु । ... सम्मत्तकारण-सम्यक्त्वकारण-त्रि०। सम्यक्त्वं कारणम
भावे अन्नाणअसं-वराईसु होइ नायव्यो । ५०५ ॥ स्येति । सम्यक्त्वजन्ये , पं० सं०१ द्वार ।
निस्खेब्बो असुअम्मि,चउको दुविहाँ य होइ दवम्मि । सम्मत्तकिरिया-सम्यक्त्वक्रिया-स्त्री० । सम्यक्वं-तत्त्व
आगम नोागमतो, नोआगमतो य सो तिविहो।५०६। . श्रद्धानं तदेव जीवव्यापारवाक्रिया सम्यक्त्वस्य क्रिया
जाणगभवियसरीरे, तव्वइरित्ते असो. उ पंचविहो। सम्यक चक्रिया । सम्यग्दर्शने वा सति क्रिया सम्यक्त्वक्रिया । स्था०२ ठा० । उ० । क्रियाभेद, यया सम्यग्यर्शनया.
अंडयबोंडयवालय-वागय तह कीडए चव ।। ५०७ ॥ ग्याः कर्मप्रकृती सप्तसप्ततिसङ्ख्याः बध्नाति सा सम्यक्त्व- 'भावसुधे पुण दुविहं, सम्मसुग्रं चत्र होइ मिच्छसुयं । क्रिया अभिधीयते । सूत्र०२ श्रु०२ अ०।.....
अहियारो सम्मसुए, इहमज्झयणम्मि नायव्यो ।।५०८।। सम्मत्तणाणचरणाणुवाई.-सम्यक्त्वज्ञानचरणानुपातिन्- गाथापञ्चकं प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरम् 'अमित्तमाईसुत्तित्रि०। सम्यक्त्वं-सद्दर्शनं ज्ञान-सद्बोधरूपं चरणम्-आग- अमित्राः-शत्रवः श्रादिशब्दाद्-व्यालादिपरिग्रहस्तेषु योऽमानुसारि क्रियानुष्ठानं सम्यक्त्वं च ज्ञानं चेनि एकवद्भा,
प्रमादः स तद्यतिरिक्तोऽप्रमाद उच्यते, द्रव्यत्वं चास्य तचात्तान्यनुपततीत्येवं शीलः सम्यक्त्वज्ञानचरणानुपाती।। थाविधाप्रमादकार्याप्रसाधकत्वात् द्रव्यविषयत्वाद्वा , भाव .. मोक्षमार्गानुगे . दर्श० ४ तत्व ।
इति-भावे विचार्य अज्ञान-मिथ्याशानमसंवरः-अनिरुजासम्मत्तदंसि(ण)-सम्यक्त्वदर्शिन-त्रि०। सम्यक् तत्त्वं सम्यः | श्रवता, श्रादिशब्दात्-कषायपरिग्रहः, एतेषुप्रक्रमादप्रमादःत्वं तदर्शी । परमार्थदर्शिनि, प्राचा०१ श्रु० २१०६ उ०।
पतजयं प्रति सदा सावधानतारूपी भवति ज्ञातव्यः । तथा
'साउ पंचविधो' त्ति-स इति तत्-तद्व्यतिरिक्रमूत्रं सम्मत्तपज्जव-सस्यक्त्वपर्यव-पुं० । सम्यक्त्वपरिणामविशेष,
तु:-पुनरर्थे पञ्चविधं-पञ्चप्रकारं , पश्चांवधत्वमेवाहशा०१ श्रु०१३ अ. . ... .
अण्डजं-हंसाद्यण्डकेभ्यो यज्जायते यथा कनिपट्टसूत्र, सम्मत्तपरक्कम-सम्यक्त्वपराक्रम-न । सम्यक्त्वे सति ब
पौराडकं ( वोएडज ) यद्वमनितिन्दुकोद्भवं यथा कपाससू“मानगुणैः कर्मशत्रुजयलक्षणः पराक्रमो-बलं यस्मि- "त्रम, बालजं यदूरणकादिकेशोत्पन्नं यथोर्णासूत्रम् ,वाकजं-स- स्तत् सम्यक्त्वपराक्रम् । उत्तराध्ययनानामेकोनत्रिंशेऽध्य
ना तस्यादिवाकेभ्यो यज्जायते यथा सनसूत्रम् ,कीटजं च यहै यने, उत्त०१८-न
तथाविधकीटेभ्यो लालात्मकं प्रभवति यथा पट्टसूत्रम् , तथा शानादीनि मुक्तिमार्गत्वेनानानि संवेगादिमूलानि अकर्म
सम्यक्श्रुतम-अङ्गप्रविष्टादि मिथ्याश्रुतं-कनकसप्तत्यादि, . तावसानानि तानीहोच्यन्ते । अस्याध्ययनस्य, चत्वार्यनु
अधिकारः-प्रकृतं सम्यकश्रुतेन , सुख्ख्यत्ययात्तृतीया ' योगद्वाराणि व्यावर्य नामनिष्पन्ननिक्षेपोऽभिधेयः, सच ना.
सप्तमी , इह-अध्ययने ज्ञातव्यः--अवबोद्धव्यः, तप...मपूर्वक इत्येतनामनिर्देशायाह नियुक्तिकृत्
त्वादस्येति गाथापचकार्थः। ..
. आयाणपएणेयं , सम्मत्तपरक्कमति अज्झयण
.. सम्प्रति गौणतामेवास्य नाम्नो वक्तुमाह--: गुगणं तु अप्पमायं, एगें पुण'वीयरागसुयं ॥ ५०३ ॥ ५ सम्मत्तमप्पमाओ, इहमज्झयणम्मि वलियो जेणं। आदीयत इत्यादानम्-आदिः 'प्रथममित्यर्थः , नचं तेत्प - तम्हेयं अज्झयणं, णायव्वं अप्पमायसुझं ।। ५०६ ।। दं.च-निराकातयाऽर्थगमकत्वेन वाक्यमेवादानपदं तेन , 'सम्मत्तंति-सुव्यत्ययात्सम्यक्त्वे उपलक्षणयाज्ञानादिषु उपचारतश्चेद्द तदभिहितमपि तथोक्नं.' तत आदानपदा- चाप्रमाद उनन्यायेन संबेगादिफलोपदर्शनतः काका तदनुभिहितेन प्रक्रमानान. 'इद' मिति प्रस्तुतं सम्बकावपरा
ठाने प्रत्युद्यमदर्शनेन वा 'इहमज्झयणम्मि' ति दहाध्ययन क्रमम् इति-उत्पप्रदर्शन , उच्यत इति शेषः, 'अध्ययनं' प्रा- वर्णितो येन तस्मादतध्ययन शातव्यम् , अप्रमादश्रुतम्गुक्तनिरुक्तं , वक्ष्यति हि-"इह खलु सम्मत्तपरकमे णाम
| अप्रमादश्रुतनामकमिति गाथार्थः । गतो नामनिष्पन्न निक्षेपः । उज्झयणे परणत्ते"त्ति, गुणैर्हि निर्वृत्तं गौणम्, तुः-श्रव
__सम्मति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्-- धारणे गौणमेव, अप्रमाद इत्युपलक्षणत्वादु अप्रमादश्रुतम्,
. एके पुमीतरागश्रुतं , कोऽर्थः?-संवेगादयोऽत्र यर्यन्ते ,
सुयं मे पाउसंवेणं भगवया एवमक्खार्य-शा खलु सम्मत्ततप एव च तत्वतोप्रमाद इति तदभिधायि थुतरूपत्वा- परकमनामज्झयण समणण भगवा महावीरण वप्रमावश्रुतमिति घुबते , अन्ये स्वप्रमादाऽपि वीतरामता- पवेइयं जं सम्म सदहिता पत्तइत्ता रोयइत्ता फामित्ना पाल
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मम्मपरकर्म अभिधामराजेन्द्रः।
सम्मत्तपरकम इत्ता ती रेत्ता कित्तईत्ता सोहईत्ती प्राराहिती प्राणा- तीरियमंतं पाविय , किट्टिय गुरुकहाँ जिणमाणा " ए अशुपालइता बहवे जीवा सिझति बुझंति प्रचंति
एवं चे कृत्वा किमित्याह-बहवः-अनेक एवं जीवा
प्राणिनः सिध्यन्ति-इहैवागमसिद्धत्वादिना , बुध्यन्तेपरिनिव्वायति सम्बदुक्खाणमंतं करेंति ॥१॥
घातिकर्मक्षयेग , विमुच्यन्ते-भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयेन , श्रुतम्-आकर्णितं मे-मया आयुष्मन्निति शिष्यामन्त्र
तप्तश्च परिनिर्वान्ति-कर्मदावानलोपशमन अत एवं
सर्वदुःखाना-शारीरमानसानाम् अन्त-पर्यन्तं कुर्वन्ति णम् , एतच सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह, तेनेतियः सर्वजगत्प्रतीतः, तेनापि काशनेत्याह-भगवता-सम- मुक्तिपदावाप्त्येति सूत्रार्थः । उत्त० पाई०२६ ०। Jश्वर्यादिमता प्रक्रमान्महावीरेण एवमिति-वक्ष्यमाणप्र
____ सम्पत्ति विनेयानुग्राहाथै सम्बन्धाभिधामपुरस्सरं प्रस्तुकारेण पाण्यात कथितं , तमेव प्रकारमाह-ह-अ.
ताध्ययनार्थमाहस्मिन् जगति जिनप्रवचने वा, खलु-निश्चितं सम्यक्त्वमि- तस्स णं अबढे एवमाहिजइ , ते जहां-सवेगे, ति मुणगुणिनोरनन्यत्वात्सम्यक्त्वगुणान्वितो जीवस्तस्य निब्बेए २ धम्मसद्धा ३ गुरुसाहम्मियसुस्मुसणया सम्यक्त्वे योकरूप संति पराक्रमः-उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्त्या |
४ आलोअणया ३ निंदणया ६ गरहणया ७ सांकारिजयसामर्थ्य लक्षला वण्यतेऽस्मिन्निति सम्यक्त्वपराक्रम मामाध्ययनमस्तीति गम्यते । नन्वेवमिदमैपि गीणमेव
माइए ८चउवीसत्थए । वंदणे १० पडिक्कमणे माम तकिमिति नियुक्तिकताऽऽदानेपदेनत दुक्तम् ? , इतरे P
इ तरे-११ काउस्सग्गे १२ पच्चक्खाणे १३ थयथुइमंगले तु गौण इति, सत्यमेतत् , किन्तु नाम्नोऽनेकविधत्वसूचना- १४ कालपडिलेहणया १५ पायच्छित्तकरणे १६ खमावथै नियुक्तिकृतेत्थमुक्तं न त्वस्य गौणत्वव्यवच्छेदार्थम् ,
यणे १७ सज्झाए १८ वायणया १६ पडिपुच्छणया २० तिरुच केन प्रणीतमित्याह-श्रमणेन-श्रामण्यमनुचरता
परियवृखया २१ अणुप्पेहा २२ धम्मकहा २३ सुत्तस्सधर्मकायावस्थामास्थितेनेत्यर्थः . भगवता महावीरेण काश्यपन प्रवदितं-स्वतः प्रवेदितमेव भगवता ममेदमा
आराहणया २४ एगग्गमणसं निवेसणया २५ संजमे क्यातमिन्युक्तं भवति । अनेन वक्तृद्वारेख प्रस्तुताध्ययनस्य .२६ तवे २७ वोदाणे २८ सुहसाए २६ अपडिबमाहात्म्यमाह । ननु सुधर्मस्वामिनोऽपि श्रुतकेवलित्वात्त- या ३० विचित्तसयणासणसेवणया ३१ विणियट्टवारेणाप्यस्य प्रामाण्यं सिध्यत्येव तत्किमेवमुपन्यासः ?,
गया ३२ संभोगपञ्चक्खाणे ३३ उवहिपञ्चक्खाणे ३४ उच्यते-लब्धप्रतिष्ठैरपि गुरूपदिष्टं गुरुमाहात्म्य च ख्यापद्भिः सूत्रमर्थश्चाख्येय इतिख्यापनार्थमेवमुपन्यासः। इत्थं आहारपच्चक्खाणे ३५ कसायपश्चक्खाणे ३६ जोगपञ्चवक्तद्वारेणास्य माहात्म्यमभिधाय संप्रति फलद्वारेणाह- क्खाणे ३७ सरीरपचक्खाणे ३८ सहायपञ्चक्खामे ३६ र्यादति-प्रस्तुताध्ययनं सम्यग्-अवैपरीत्येन श्रद्धाय
भत्तपञ्चक्खाणे ४० सम्भावपञ्चक्खाणे ४१ पडिरूवणया शब्दार्थाभयरूपं सामान्येन प्रतिपद्य प्रतीत्य-उतरूपमेव
४२ वेयावच्चे ४३ सव्वगुणसंपुन्नया ४४ बीयरागया ४५ विशेषत इत्थमेवेति निश्चिल्य. यद्वा-संवेगादिजनितफलानुभवलक्षणेन प्रत्ययेन प्रतीतिपथमवताय , रोचयित्वा- खंती ४६ मुत्ती ४७ मद्दवे ४८ अजये ४६ भावसच्चे ५० नदभिहितार्थानुष्ठानविषयं तदध्ययनादिविषयं वाऽभिला- करणसच्चे ५१ जोगसचे ५२ मणगुत्तया ५३ वयगुत्तया घमात्मन उत्पाद्य , संभवति हि क्वचिद् गुणवत्तयाऽवधा
५४ कायगुत्तया ५५ मणसमाहारणया ५६ वयसमाहारितेऽपि कदाचिदरुचिरित्येवमभिधानं , ' फासित्त' त्तितदुनानुष्ठानतः स्पृष्ट्वा पालयित्वा-तद्विहितानुष्ठानस्या
रणया ५७ कायसमाहारणया ५८ नाणसंपनया ५६ सीचाररक्षणेन तीरयित्वा-तदुक्तानुष्ठानं पार नीत्वा दसणसंपत्रया ६० चरित्तसंपन्नया ६१ सोइंदियनिग्गहे कीर्तयित्वा-स्वाध्यायविधानतः संशुद्धय-शोधयित्वा
६२ चक्खिदियनिग्गहे ६३ घाणिदियनिग्गहे ६४ जितदुक्कानुष्ठानस्य तत्तद्गुणस्थानावाप्तित उत्तरोत्तरशुद्धिप्रा
भिदियनिग्गहे ६५ फासिदियनिग्गहे ६६ कोहविजए ६७ पणेन श्राराध्य-यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावज्जीवं तदर्थासेवनन, एतत् सर्व स्वमनीषिकाताऽपि स्यादत श्रा- माणविजए ६८ मायाविजये ६६ लोभविजए ७० पिञ्जदोह-श्राज्ञया-गुरुनियोगात्मिकया अनुपाल्य-सततमा- ममिकासचिजाए७१ सेलेमि ७२ सया ३ सेव्य, यद्वा-स्पृष्ट्वा योगत्रिकेण मनोवाकायलक्षणेन, तत्र
एतस्य सम्यकृत्यपराक्रमाध्यनस्य श्रीमहावीरेण यथानुमनसा-सूत्रार्थोभयचिन्तनेन वचसा-वचनादिना कायन
क्रममर्थो व्याख्याते , तद्यथा-संवेगो मोक्षाभिलाषः १, भकरचनादिना,एवं पालनाराधनयोरपि योगत्रयं वाच्यम्,
निर्वेदः संसाराद्विरक्तता २, धर्मे श्रद्धा धर्मे रुचिः ३ , गुपालयित्वा-परावर्तनादिनाऽभिरक्ष्य तीरयित्वा-अध्य
रुस्तत्वोपदेष्टा , तस्य गुग: ,साधर्मिणः समानधर्मकर्तुश्च येनादिना परिसमाप्य कीर्तयित्वा-गुरोविनयपूर्वकमिदमि
शुश्रूषणा-सेवा ४, बालोचना-गुरोरग्रे पापानां प्रकाशनम् स्थं मयाऽधीतमिति निवेद्य शोधयित्वा-गुरुवदनुभाषणा
५ , निन्दना-आत्मसाक्षिकमात्मनो निन्दा ६, गईणा-अपर दिभिः शुद्ध विधाय आराध्य-उत्सूत्रप्ररूपणादिपरिहारे
लोकानां पुरतः स्वदोषप्रकाशनम् ७, सामायिक-शत्रौ मित्रे गाबाधयित्वा शेष प्राम्यवरम् श्राशयति जिनझिया, उक्त साम्यम् ८, चतुर्विंशतिस्तवो लोगस्सुजोयगरे' इत्यादि चहि-"फासिय जोगतिरणं, पालियंमधिराहियं च एमेंय । तुर्विंशतिजिननामपठनम् ६, चन्दन-द्वादशावर्तयन्वनेन गुरो
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सम्मत्तपरक्कम
वन्दना १०, प्रतिक्रमणं - पापान्निवर्त्तनम् ११, कायोत्सर्गोऽतीचारशुद्धयर्थं कायस्थ प्युत्सर्जनं कायममर्जन
क्यानं मूलगुणोत्तरगुणधारणम् १३, सावस्तुतिमङ्गलं साव शकस्तवपाठः स्तुतिरुयभूय जघन्येन चतुष्टयस्तुतिकधन मध्यमेनास्तुतिकथनं उत्कृष्टेन १०८ महोत्तरस्तुतिकथ नम्, स्तवश्च स्तुतयश्च स्ववस्तुनयः स्तवस्तुतय पत्र मङ्गलं स्तवस्तुतिमङ्गलम् १४, कालप्रतिलेखना कालस्य व्याघातिप्रभृतिकालचतुष्टयस्य प्रतिलेखना प्ररूपणा कालग्रहणरूपा कालप्रतिलेखना १५, प्रायश्चित्तकरणं - लग्नस्य पापस्य 'नवृत्यर्थे तपसः करणम् १६, क्षमापना अपराधक्षामणम् १७, स्वाध्यायश्चतुर्विधो वाचनादिकः १८, याचना - गुरुसमीपे सूत्राक्षराणां ग्रहणम् १६, प्रतिपृच्छना - गुरोः पुरतः संदेहस्य पृच्छनम् २०, परिवर्तना सूत्रपाठस्य मुहुर्मुहुर्गुणनम् २१, अनुक्षा-सूत्रस्य चिन्तनम् २२, धर्मका धर्मसंवाया पा
-
या कथनम् २३, श्रुताराधना- सिद्धान्तस्याराधना २४, एकाग्रमनःसनिवेशना, चित्तस्यैकस्मिन् प्रधाने ध्येयवस्तुनि स्थिरीकरणम् २५, संयम - श्रश्रवाद्विरतिरूपः २६, तपोद्वादशविधम् ५७, व्ययदानं विशेषणावदानं कर्मशुद्धिर्व्यवदानं कर्मणां निर्जरा २८, सुखशातं - सुखस्य विषयसुखस्य शातं शातनं स्पृहानिवारणम् २८, अप्रतिबद्धता-नीरागत्वम् ३०, विपिनासनसेचना - श्रीपशुकादिरहितशयनासनानामासेना ३२ विनाश्वेन्द्र विष येभ्यो विशेषेण निवर्त्तनम् ३२, संभोगप्रत्याख्यानं-संभोग एकमण्डलीभोक्तृत्वं तस्य प्रत्याख्यानं, गीतार्थावस्थायां जिनकल्पाचार ग्रहणेन परिहारः संभोगप्रस्याख्यानम् ३३, उपधिप्रत्याख्यानं -- रजोहरणमुखवfrei विहायाऽन्योपधिपरिहारः ३४ आहारप्रत्याख्यानं-सदोषाहारपरिहारः ३५, कषायप्रत्याख्यानं - क्रोधादिपरिहारः ३६, योगप्रत्याख्यानं मनोवाक्कायानां व्यापारो योगस्य प्राण्यानं परिहार: ३७, शरीरत्यारूपानंप्रस्तावे समागते शरीरस्यापि व्युत्सर्जनम् ३८, साहाय्यप्रस्वायान साहाय्यकारियां परिहारः ३२ पानाख्यानमनशनग्रहणम् ४०, सद्भावप्रत्याख्यानं सद्भावेन पुनरकरयेन परमार्थदृश्या प्रत्याच्यानं सद्भावनम् ४१. प्रतिरूपता प्रतिः सादृश्ये ततः प्रतिः स्खरिकहियमुनिसशो रूपं वेषो यस्य स प्रतिरूपः, प्रतिरूपस्य भावः प्रतिरूपता, स्थविरकल्पि साधुयोग्य वेषधारित्वम् ४२, वैयावृत्थंव्यावृतो गुर्वादिकार्येषु व्यापारवान् तद्भावो वैयावृत्यं साधूनामाहाराद्यानयन साहाय्यम् ४३, सर्वगुणसंपन्नता-ज्ञानादिगुणसतित्यम् ४४ बीतरागता रागद्वेषनिवारणम् ४५ शान्ति-मुहमा ४७ मा मानपरिद्वार ४८, आर्जवं सरलत्वं ४६, भावसत्यमन्तरात्मनः शुद्धत्वम् ५०, करण सत्यं - प्रतिलेखनादिक्रियाविषये निरालस्यम् ५१, योगसत्यं - मनोवाक्काययोगेषु सत्यं योगसत्यम् ५२, मनोगुशित्वं ममसेोऽशुभाङ्गोपनम् ५३ चो
(५०५) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
1
शुभपदार्थोपमम् ५४, कायगुसित्वं-काय स्याशुभव्यापारानोपनम् ५५, मनःसमाधारण मनसः शुभस्थाने स्थिरत्वेम स्थापनम् ५६, बः समाधारणा-वचनस्य शुभकार्ये स्थापनम् ५७, काय समाधारणा कायस्य शुभकार्ये स्थापनम् ५८,
१२७
सम्मत परकम
ज्ञानसंपन्नता श्रुतज्ञानसहित्वम् ५६ दर्शन संपत्वं सम्यक्त्वसहितस्वय ६०, चरित्रसंपत्वं यथारूपात
नमः ६२
६३ प्राद्रियन६४, जिद्रयनिग्रहः ६५, स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः १६ कोषिजयः ६७, मानविजयः ६८, मायाविजयः ६६, लोभविजयः ७०, प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः, प्रेय्यं-प्रेमरागरूपं, द्वेषोऽप्रीतिरूपः मिथ्यादर्शने सांशयिकादि तेषां विजयः प्रेष्यं च द्वेष मिध्यादर्श च व्यद्वेपमिवादर्शनानि तेषां विजयः यद्वेषमिथ्यादर्शनविजया ७१ शैलेशी चतुर्द शगुणस्थानस्थायित्वम् ७२, अकर्मता-कर्मणामभावः ७३ ।
उत्त० २६ अ० 1
अथ संवेगादिधर्मान् फलतोऽभिधित्सुरिदमाहयह मंते! संवेगे निम्मे गुरुसादम्मियस्मया भा लोगया निंदण्या गरहणया खमावश्या सुयसहायता विउसमणया भावे अप्पविद्धया विणिवट्टणया विवित्तसमासेवया सोईदियसंबरेजाब फार्सिदियसंवरे जोगपच्चक्खाखे सरीरपच्चक्खाणे कसायपच्चक्खाणे संभोगपच्चक्खाणे उवहिपच्चक्खाणे भत्तपच्चक्खाणे खंमाविरागया भावसचे जोगमध्ये करणसच्चे मगसमस्याहरणया वपसमाहरश्या कायसमाहरणया कोहत्रिवेगे ० जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगे गाणसंपन्नया दंसणसंप० चरित्तसंप०वेदणश्रहियासण्या मारणंतिया हियास
या एए णं भन्ते ! पया- किंपजवसाय फला पत्ता ?, समगाउसो ! गोयमः । संयेगे निष्येगे •जाय मारयतियअहियासणया एए गं सिद्धिपजवसाणफला पण्णत्ता, समाउसो ! | ( सू० ६०० )
•
'अहे 'त्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः 'संवेए' त्ति संबेजनं संवेगो. मोक्षाभिलाषः निष्येप' त्ति निर्वेद:-- संसारविरक्कता गु· रुसाहम्मिय सुस्सू सराय ' त्ति गुरूणां - दीक्षायाचार्याणां साधनका सामान्यसापून या सुपता सेवा
,
तथा ---अभिविधिना सकलोपाणां लोचनाका झालीचना सेवालोचनता निंदण निम्मात्मदोषपरि त्सनं • गरणयति गर्हंणं -- पर समक्षमात्मदोषोद्भावनं 'समावयति परस्यासम्तोषसमायति व्यवशमनता -- परस्मिन् क्रोधाभियसंयति सति कोधोभनम् पतच पनि दृश्यते सुसहाययि तमेव सहायो यस्यासी भुतसहायलङ्गावता भावे श्रुतसद्दायस्तद्भावस्तत्ता, अप्यविजय सिमायेासादायप्रतिवद्धता अनुबन्धवर्जनं विविट्टणय' त्ति-विनिवर्त्तनं-बिरमणमसंयमस्थाने
"
'
विनिपापिविज्ञान-पा संसानि पानि शयनासनानि उपलक्षत्यपा
या सेवनासा तथा बोत्रेद्रियसंवरादयः प्रतीताः 'जोगपचयेति कृतकारितानुमतिलक्षणानां प्रतियापारायमाणातिपातादिषु प्रत्ययानियांप्रश्याक्याने सरीरपचसा 'सि-शरीरस्त्यापा
•
9
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सम्मत्तपरकम
मम्-अभिष्यतिवर्जनपरिचा शरीरत्यक्यानम् कसर पचासको पात्रत्यायाम न करोमीति प्रतिज्ञानम् 'संभोगच स्थानि-समिति-संकरण -
,
दरला मलमन भोगः सम्भोगः- एमसीक्स कमित्येोऽर्थः तस्य यत् जनकल्पादित स्या परिहारस्तथा, 'उबहिगच्चखाये' ति-उपरथिकस्य free: भक्तप्रत्याख्यानं व्यक्तम्, 'खम' त्ति- क्षान्तिः विराजयसि पीतरागता रामरू
भावसत्वं शुद्धान्तरात्मतारूपे पारमार्थिकावितथत्वमित्यर्थः सियोगाः- मनोया सत्यम्अवितथत्वं योगसत्यम् 'करचेति करणे प्रतिलेखना सत्यं यथोक्तत्वं करणसत्यम्, 'मणसमाहरणय' सि-मनसः समिति--सम्पक अवस्थानुरूपेण प्रति-मदया आगमामितिभावाभिव्याच्या या हरणं स पं मनः समम्वाहरणं तदेव मनःसमन्वाद्दरणता, एवमितरे अपि 'कोपिंगाको त्यागः तस्य दुरन्ततादिपरिभाषगादयनिरोधः येवसअहियासस्य सिधादिपीडासहनम् 'मारतियचहियासयतिकल्याणमित्रबुद्धया मारयन्ति कोपसर्गसदनमिति । २०१७ ० ३ उ० ।
( ५०६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
-
एस खलु सम्मत परकमस्त अञ्झवणस्य अड्डे समो भगवया महावीरेखं आपपिए पत्र लिए परू दिए दंसिए निर्दसिए उवदंसिए ति बेमि । सम्मत्तपरक मज्झयी सम्म ।
•
एष - अनन्तरोक्तः खलु - निश्चये – सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययनस्य अर्थः- अभिधेयः भ्रमणेन भगवता महावीरेण पवित्वादप्रायातः- सामान्यविशेषप र्यायाभिव्याप्तिकथनेन प्रज्ञापितः - हेतुफलादिप्रकाशनारमकप्रकर्षज्ञापन प्ररूपितः स्वरूपकथनेन दर्शितःनानाविधमेवदर्शनोपन्यासेन उपद शितः उपसंहारद्वारेण इदम चूर्णमाश्रितमेव इतिपरिसमाप्ती, मांति पूर्वयद् गतोऽनुगमः सम्पति मयाः, तेऽपि तथैव । उत्त० पाई० २६ श्र० । सम्मत्तवाय - सम्यक्त्ववाद- पुं० । परस्परसव्यपेक्षकालादिरूपे सम्यग्यादे सूत्र० १ ० १२ अ०
,
सम्मत्तविशुद्धया- सम्यक्त्व विसुद्धता - स्त्री० । स्थिरत्वे, सम्यविडी स० ।
सम्मतसद्दय- सम्यक्त्वानन० सम्यकृत् घीयतेऽस्तीति प्रतिपद्यते ऽननेति सम्यकृत्यश्रद्धानम् । सम्यक्त्यास्तिक्ये, घ० २ अघि० ।
सम्मचसामाइय- सम्यक्सामायिक सम्पत्यमुक्ररूपमेव सामायिकं सम्यक्त्व सामायिकम् । सामायिकभेदे, विशे० । इमे च तत्पर्याया:--
सम्मदिट्ठि अमोहो, सोही सम्भावदंसणं वोही । विजय सुदिष्ठी - एवमाई निरुलाई ।। २७८४ ॥
सम्म सप विशे० । एवं पदानां व्याख्या तत्तच्छब्देषु ।) (अस्त्र लfassen ' सामाय ' शब्दे वक्ष्यामि । )
सम्मतमुद्धि-सम्यस्त्वयदि श्र० ।
सम्यक्त्वशीचे,
आव० 1
योगाः संगृह्यन्ते तत्थ उदाहरणगाडासामम्मि महाबल, विमलपहे, क्षेत्र चित्तकम्मे य । निष्कणि मासे, भूमीकम्मस्स करणं च ॥ १२६७॥ अस्या व्याख्या कथानकादवसेया, सारण महबलो राया अस्थायी कमिया
स्थिति ?, चित्तसभ त्ति, कारिया, तत्थ दो वि विसकरावप्रतिमौ विख्याती - बिमलः, प्रभाकरश्च । सेसि श्रद्धद्वेणं
या अतरिया चिंता निम्मदियं एस भूमी कया, राया तस्स तुट्ठो, पूइयो य पुच्छिश्रो य । प्रभाकरो पुधि भराभूमी या नाविमिि
या भरिया भूमी कयति, जयशिया अपया, इयरं चित्तकम्मं निम्मलयरं दीसइ, राया कुविश्रो विनविश्रो- पभा एत्थ संकंत त्ति तं छाइयं, नवरं कुई तु एवं सेव मश्र एवं सम्म विसुर्य काय तेनैव योगाः संगृहीता भवति १२ ।
"
1
"
श्राव० ४ अ० अ० क० ।
सम्यक्त्वलाकाल
सम्म चोरि-सम्यक्त्वोपरि स्योर्ध्वे, पञ्चा० १० विव० । सम्मद-सम्मर्द-पुं० । संघ स्था० ३ ठा० ४ उ० म० । सम्मदंसण - सम्यग्दर्शन- दर्शन मोद्दनीय भेशनां
3
क्षयजस
म्यक्त्वलक्षणे दर्शनभेदे, स्था० ७ ठा० ३ उ० | मिध्यात्वमोहनीय कर्मावेदनोपरामपरामसमुत्थे - त्मपरिणामे भ० श०२ उ० । प्रा० म० । ( ' दंसण' शब्द चतुर्थभागे २४२६ पृष्ठे अस्य भेदद्वयं गतम् । ) स्वार्थाने वा० ।
3
|
स्वप्रदर्शनकाले भगवान् रामम्यग्दर्शनीति सरागसम्प दर्शनं निरूपयाह
दसविधे सरागसम्म हंस पन्नत्ते, तं जहा - " निसग्गु १वते सरु २, गरुती ३ सुनीतरुतिमेव ५ अभिगम ६ वित्थाररुती ७, किरिया ८ संखेव धम्मरुती १० ॥ १॥" ( ० ७५१ )
,
'दसविद्वे' त्यादि, सरागस्य - अनुपशान्ता क्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं - तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा, अथवा - सरागं च तत्सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः सरागं सम्यग्दर्शनमस्येति येति 'निसम्म' मादा प्रत्येकं योज्यते ततो निसर्ग :-- स्वभावस्तेन रुचिः--तस्वाभिलाषरूपाऽस्येति निसरसो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः, यां हि जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽयगतान् सद्भूतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिरिति भाषः यदाह--"जो जिलदिडे भावे, चलिहे ( द्रव्यादिभिः ) स इस सयमेव । एमे मनसि व नियो
"
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सम्मईलच
इसक
(२०) अभिचारान्
मोलाची
उपदेशक चिरिति भावः । यत -" एच सेव भावे, परंपरेच सहजप कई बच्चो ॥ ९ ॥ " इति । तथाऽशा-सर्वज्ञपवनात्मिका तथा यस हिरागद्वेषमातथाचार्यादीनामाश्च कृत्रहामायाजीयादि तथेति रोचते माषपादवत् सारथिरिति भाषा, भवितं रामो दोसो मोहोना जस गौर आहार संपतो, सो आया हो ॥ १ ॥” इति । 'सुतषीयरुमेव सिरहापि विशदस्य प्रत्येकमभिसासू-आगमेन विश्व यो
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हि सूत्रागममधीयानस्तेनैवाप्रविष्टादीनां सम्यक्त्वं लभते गोविन्दवाचकवत् स सूत्ररुचिरिति भाषा, अभिहितं च" जो सुत्तमहितो, सुरण श्रोगाहई उ सम्मतं । अंगेण बाहिरेश व सो सुत्तरुइ ति नायव्वो ॥ १ ॥ " इति । तथा बीजमिष, बीजं यदेकमप्यनेकार्थप्रति
स
4
,
बस्से कविर्यस्य स बीजरुचिः, यस्य होकेनापि जीवादिनापमानानेकेषु पार्थेषु कचिदति बीजचिरिति भावः गदितं "एगपरोगाचा जो प सरसम्म तिन सिंह सो बरु स मायो॥१॥" इति पंधे ति समुच्चये । तथा 'अभिसमवित्थारका चापि प्रत्येक सम्बन्ध नीयः, तत्राभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्यस्य सोऽभिगमरुचिः, येनाचारादिकं श्रुतमर्थतीऽचिगतं पति सोऽनिगमरुचिः, अभिगमपूर्वकन्यानमुचेरिति भावः गाथा" सोहो अभिगम मार्ग जस्तो दिई । पारस अंगाई, पश्यं दिट्टिवाओ य ॥ १ ॥ " इति । तथा पिता व्यासतो दधिर्यस्य स तथेति येन दिधर्माद्रियाणां सर्ववर्यापास
यता मयति स बिस्तारकथि, शामानुसारिवित्यादि ति, न्यगादि "वष्वाण सम्यभावा, सव्वमाहिनस्स उवलखा । व्याहि नययिहीहिं, बिश्थाको मुख्यषो] ॥ १ ॥ " इति । तथा क्रिया-अनुष्ठानं त्रिशब्दयोगात् सथिर्यस्य स शिपारुचिः। इदमुकं भवति-याराने भायतो चिरस्तीति सक्रियाचिरि ति, उच" नाणेण दंसणेण य, तवे वरिय सforgery | जो किरियाभावदर्श, सो खलु किरियारुई होइ ॥ १ ॥ " इति । तथा संक्षेपः- संग्रह कविरस्येति संपतिपद्मकपिलादिद नमिशा संक्षेपेणैव बिलातिपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तमियामोति स संक्षेपदचिरिति भावः । ग्रह"कुहिनाअि सारी पयसे अभिमहिको यसे ॥ १ ॥ " इति । थापा विर्यस्य कथा को हि धर्मास्तिका धाजिनो से स धर्म्मविदिति शेषः, यदगार - " जो अस्थिकायथम, सुधारित सहा मिसो
"
-
रामेशच धम्मका ति नान्यो ॥ ९ ॥ " इति । स्व० ० ० ३ ३० । सूत्र० नं० आ० म० । (' सम्मच शब्देऽस्मिनेत्र भागे मेद) "प्रतिज्ञानमाधारो भजनं निधिः। पदकस्यास्य च धर्मस्य सम्यग्दर्शनमिष्यते ॥ १० च्० ६ ० । आचर० ।
दृष्ट्रा शात्वा च सम्यक पन्थानमासेश्य च कृतं माया तथा बाऽऽह-
सम्मयदिडी, नायेण य तेहि उपलदी। चरकरण पत्र, निव्त्रापहों जिसिंदेहिं ॥ ६१० ॥ व्याख्या--समदर्शनेन अधिपरीतदर्शनेन र ज्ञानेन च सुछु -- यथाऽवस्थितः तैरईद्भिर्ज्ञातः, चरणं च करणं त्येकवद्भावस्तेन प्रहृतः -- श्रासेवितः निर्वाणपथः-मोजः। तत्र व्रतादि पर पद
,
च करणं यथोक्रम्याव च भगुती श्री । णाणादितियं तव को व निग्गहाई चरणमेयं ॥ १ ॥ चिविसोही समयपडिमा इंडियन रोहो । पडिलेहगुत्तीश्रो, श्रभिग्गहा क्षेत्र करणे तु ॥ २ ॥ इति गाथार्थः । आव० १ ० ।
सम्यग्दर्शनाप्युपायमाह-
बंधतीपमा सामिचं चैव सम्यपगडीं ।
,
को केइ बंध, खवेइ वा केत्तियं होइ ।। ६५ ॥
"
सम्यक्त्वं कर्मणां क्षयत उपशमतः क्षयोपशमतश्चोपजायते ज्ञयादयश्च श्रयः प्रकारा बजानां कर्मणां नाबजानामिति प्रथमतो बन्धनस्थितिप्रमाएं जघन्यत उत्कर्षतश्च चक्रम्यम्। तथेयम्-ज्ञानावर दर्शनावरणवेदनयान्तराया सिगमकोटीको उत्कृस्थतिमा मोहनीय स्व समतिसागरोपमकोटाकोटः नामगोत्रयोदशतिसागरो पमकोटीकोटचः प्रायुषसागरोपमा तथा जघन्य
,
यस्य द्वादशमुहूर्ता नामगोत्रयोरष्टी शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् तथा सर्वांसमवामित्वं प् मिष्पासासादन मिश्रावितसम्यगृह देशविरतप्रमत्ता प्रमत्ता पूर्वकरणानिवृत्तिवाद र सूक्ष्म संपरायेोपशातमोहा अष्ठानामपि प्रकृतीना स्वामिनः मोहनीयवज्र्ज्यानां सप्तानां क्षीणमोद्वावेद्यायुर्नामगोत्राणां सयोग्ययागिकंबलिनः तथा कः कियत् बध्नातीति वक्तव्यं तत्र मिथ्यादृष्टयोऽप्रमतान्ताः सप्तविधयन्धका वा अष्टविधवन्धका वा श्रपू
"
करणानिवृत्तिबादराः सप्तविधबन्धक्यः, सूक्ष्म संपरायाः पदधिका उपशान्तमाहक्षीणमोहसंयोगिकेवलिनः खातावेदनीयेकवन्धका प्रवन्धका अर्याल तथा को वा क्रियान् पयतीति वक्तव्यं तत्र मिध्यादृष्य उपशामोहपर्यन्ता अक्षता चमाः मो इनीयमिति प्रकृतिका सयोग्ययोगिकेवलिनः क्षीणघातिकर्माणः ।
अथ कस्य कर्मणः उत्कृष्टायां स्थिती कस्य नियमत उस्थितिः कस्य वा भजनयेत्यत आहपातु दिई मोहोकोममि होइ उोस्रो ।
"
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सम्मर्दसण
मोहविवज्जुकोसो, मोहो सेसो उ भइयच्चो ॥ ६६ ॥ मोहोर- मोदी यांची नियमा युर्वर्जत्वात् शेषाणां कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिर्भवति, मोह· विवर्ज ज्ञानावरणीयादेक-रटायां स्थित मोदो-मोहनीय शेषाध प्रकृतयो भाविकताः कदाचिदुपस्थितिका भवन्ति कदाचित्रेति भावः तत्र सर्वेषां कर्मामुपस्थिती वर्त्तमानः प्रबलमोहाऽऽच्छादितत्वान्न किमपि सम्यग्दर्शनं लभने उवि पगडी उकोसडिईए उयमाणो उन लमति सम्म मोटाउक तु सप्तानामायुर्वज नामभ्यन्तरकोटी कोट्या वर्त्तमानाः ।
(kok) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथा चाह-
अंतिमकोडाकोडी ऍ होइ सम्वासि कम्मपगडी | पलियामसंखभागे, खीणे सेसे इवइ गंठी ॥६८॥ आयुर्वजानां सर्वासां कम्मैप्रकृतीनामन्तिमायां कोटीकोट स्थितायां तथापि पत्योपमस्यासंख्येयतमे भागे शे स्थितिदलिके सति सम्यग्दर्शनलाभो भवति, केवलं तदानीं सम्यग्दर्शनलाभान्तरायात्ततः कर्कशघनरूढगुपिलवकग्रन्थिरिव दुर्भेदो घनरागद्वेषपरिणामरूपों ग्रन्थिर्भवति । नतस्तस्मिन् भिन्ने प्रतिपत्तव्यं तस्य च भेदः करणवशात् । अथ करणवव्यतामाह-
तिविहं च होड करणं, अहायवचं तु भव्यभव्वायं । भविया इमे अन्ने, अपुव्वकरणा नियत्ती य ॥६६॥ कर नाम परिणाम विशेषस्तस्त्रिविधं त्रिकारं भवति । तद्यथा- प्रथमं यथाप्रवृत्ताख्यं भव्यानाम्, अभव्यानां च साधारणम् । यानां पुनरंग द्वे अन्ये करणे अपूर्वकरणम निवृत्तिश्वानिवृत्तिकरं च ।
सांप्रतमेतेषामेव त्र्याणां करणानां कालविभागमाहजा गंठी तप्पदर्म, गंठीसमतित्थतो भवे वीयं । अनिपट्टी करणं पुरा सम्मतपुरखडे जीवे ॥१००॥ पाव प्रस्तावत् प्रथमं यथाप्रायं सम निकामता भिम्दनस्येत्यर्थः पुनरपूर्वकरणम् अनतिक
"
ततस्तमेव तं तत्कृतः शेषकरयोरपि । दृष्टान्तानभिधित्सु द्वीरगाथामाहनदिपहजरवरथजले पिपलिया पुरिसकोइया सम्म हंस लंभे, एते अट्ठ उ उदाहरणा ॥१०१॥ करण्यात्सम्यग्दर्शनला पतान्यायुदाहरणानि तथ 'थानाद' ति गिरिनदाहरणं पंतः ज्वरोदा हरणं वस्त्रोदाहरणं जलोदाहरणं पिपीलिकोदाहरणं पुरुपोदार कोद्रयोदाहरणम् ।
-
तत्र प्रथमतो गिरिसरित्प्रस्तरोदाहरणं भावयतिगिरिसरियपरथरे हैं, आहरणं दोइ पढमए करणे ।
सम्महंसण
एवमणाभोगियकरण - सिद्धितो खवण जा गंठी ॥। १०२ ।। गिरिसरित्स्तरैरुदाहरणं दृशः प्रथमे यधात्रवृत्ताये करणे भवति, तच्चैवम्-यथा गिरिसरित्प्रस्तरा-गिरिसलागतो घोलनादिना चित के चित्वा पदमनाभोगकरसिद्धि था भावनः सुधया अपि कर्मस्थितस्तावत् पयायत् प्रथिरिति । अथानिवृत्तिकरणं सम्यते भयतीत्युक्तम्, तत्सम्पत्वं कथं लभते ?, उच्यते उपपेशतः स्वयं वा ।
तथा चात्र पथदृष्टान्तः
उनसे सयं वा, नट्टपहो कोइ मग्गमोतरति । जरितो व ओस पडसह कोई विगा तेहिं ॥ १०३ ॥
3
पथः कोऽपि पुरुष उपदेशेनाभ्यं दृष्ट्वा तस्योपदेशन मार्गमयतरति कश्विन्मार्गानुसारी तथा स्वयमेयोदापो
पुरस्कृत जीवेसकृत्वाभियर्थः अथ यावत् प्रधिस्तावनिर्गुणस्य सतः कथं कर्मशराशेः क्षपणम् ? उच्यते गिरिसरित्प्रस्तरष्टान्तात् ।
कृत्वा, एवमिहापि सम्यग्दर्शनमाचार्यादीनामुपदेशतो लभते । कश्चित् स्वयमेव जातिस्मरणादिना अत्रैव ज्वरहष्टान्तमाह-ज्यरितोऽपि कश्चिदोषधेः प्रगुणति-प्रगुणीभवति कश्चित्पुनस्तैषधैर्विना एवमेव । एवमत्रापि कस्यचिद्दर्शनमोह श्राचार्याद्युपदेशतोऽपगच्छति, कस्यचित्पुनरेवमेव मार्गानुसारितया तत्त्वपर्यालोचनतः । इह ज्वरस्थानीयो दर्शनमोहः श्रीस्थानीय श्राचार्याद्युपदेशः हर यस्तस्प्रथमत या सामिकसम्पत्वहरुपजायते सोऽपूर्वरा मिष्यालि त्रिधा करोति तथा मिध्यात्वम् सम्यग्मिथ्यात्वम्, सम्यक्त्वं च ।
अथ वस्त्रदृष्टान्तं जलदृष्टान्तं वाहमहलदरसुद्धसुद्ध, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं च । एसेव व दितो, दंसणमोहम्म तिविहम्मि ॥ १०४ ॥ यथा किंचि सलिलेया मलिने भवति किंचिद दरमीडिशुद्धं किंचित् शुद्धम् एष एव दृष्टान्त दर्शनमां भीयः तद्ध्यपूर्वकर स्वशाि सम्यक्त्वरूपं किंचिदीपठितं सम्परिमध्यात्वरूपं किंचि तथैव मलिनं मिथ्यात्वरूपं स्थितमिति भावः ।
,
,
अवाद कथमभय्यास्तस्मिन् पथि देशेऽवतिष्ठन्ते कथं वा ततः प्रतिपतन्ति भव्या वा कथं ग्रन्थि विभिद्य ततः परतो गच्छन्ति उच्यते । पिपीलिका दृष्टान्तात् तमेवाह
1
अभावेण पसरिया, अपुव्यकरणेण खाणुमारूढा . चिति तत्थ का पिवलिया काइ उति ।। १०५ ।। पश्चोरुहगडा खाणु, भातो चिट्ठन्ति तत्थ एवावि । पक्खविहू तो पिवी-लियाउ उति उ सपक्खा । १०६ । कामिपिपीलिका यथाभावेन अनाभोगतः प्रसरिताविलाय इतस्ततो गन्तुं प्रवृत्ताः काश्मिरपूर्वकरणेन स्यामारुदास्तासामपि मध्ये कति स्थाने चैव तिष्ठन्ति याः पक्षविहीना । काश्चित्संजातपक्षास्तत उड़पन्ते-माकाशेन गच्छन्ति । उत्तरार्द्धग्यैव व्याख्याना मनन्तरगाथा 'पश्चोरुहट्टा' इत्यादि काश्वित्पक्षविहीनाः
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सम्मइंसण अभिधानराजेन्द्रः।
सम्ममण पिपीलिकाः स्थापी प्रत्यवरोहणाथै तत्रैव स्थाणावेव वर्तमानो भव्योऽभव्योऽवा । स च तत्र संख्येयमसंख्येयं वा तिष्ठन्ति,अपिशम्दात्प्रत्यवरोहन्ति च । यास्तु सपक्षास्ता उ. काल तिष्ठति । तत्र स्थितस्य को लाभ इति चेत् ? उच्यतेहीयन्ते । वह पिपीलिकानामितस्ततः प्रसरणं यथा प्रधु- श्रुतलाभः। तकरणतः, स्थावारोहणमपूर्वकरणतः,उड्यनमनिवृसकर
तथा चाहणात् । एवमत्रापि प्रन्धिदेशगमनं यथाप्रवृक्तिकरणेन,प्रस्थि- दहण जिखवराणं, पूमं अत्रेण वावि कोण । भेदनमपूर्वकरणतः , सम्यग्दर्शनमनिवृत्तिकरणेन । यथा च
सुयलंभो उभभब्वे, हविज थंभेण उवणीतं ॥११॥ काभित् पिपीलिकाः पक्षविहीनस्यात् स्थाणाषेध स्थिताः
यस्तम्भेन उपनीतं उपनयं प्रापितस्तस्मिन् अभव्ये तुस्थिस्था च ततः प्रत्यवतीर्णास्तथा कोऽपि मम्दाध्यवसा
शम्दान्ये च भवति भुतलाभोग्यधुतलाभः । कथमिति यतया तीवविशोधिरहितोऽपूर्वकरणेन प्रन्थिमेवमाधा
घेवत माह-वळूणे ' स्यादि, स हि प्रमिथकसस्थो भतुमुवतः समुच्छलितधनरागद्वेषपरिणामस्तत्रैव तिष्ठति
ज्योऽभव्यो वा भगवतां जिनयराणां पूजा रष्ट्रा महो कीस्थित्वा च पुनः पश्चात्ततः प्रतिनिवर्तते ।
रशं तपसः फलमिति परिभाष्य तवर्थिकतया अन्येन मस्सिनेवार्थे पुरुषरधान्तमाह
या कार्येन स्वर्गसुखार्थित्यादिना प्रव्रज्यामभ्युपगच्छति, ततः जह वा तिमि मरणूसा, सभयं पंथं भएस वच्चंता ।
सामायिकाविद्रव्यश्रुतलाभः, प्रन्थौ चैव कियस्तै कालं वेलाइकमतुरिया, वयंति पत्ता य दो चोरा ।। १०७ ॥ स्थित्वा पुनः पश्चात्प्रतिनिवर्तते, येनाप्यमितिकरणतः तत्थेगो उ निउत्तो, एगो बद्धोभ तित्थितो एको । सम्यक्त्यमासादितं तस्यापि द्वौ प्रकारौ केचित्परिणा
मतो बर्द्धन्ते केचित् हानिमुपगच्छन्ति । तत्र ये हानि कमगतिमहापवतं, भिनतरं धावणं तइए ॥ १० ॥
गच्छन्ति ते प्रतिपतन्ति, इतरे भावकत्वादीनि लभन्ते । तत्र बाशब्दो हटान्तान्तरसमुच्चये, यथा प्रयो मनुष्या सभयं
जघन्यतः समकमेव, यत उक्तम्-"सम्मत्तचरित्ताई जुग पन्थानं भयन पाठान्तरक्रमेण वजन्तो बेलातिमत्वरिताः
पुग्वं च सम्मतं"। संध्यासमापतनेन गमने वेलानिक्रमतस्त्वरमाणा ब्रजन्ति । अत्राम्तरे चोभयपार्श्वतः प्राप्ती पाणिपाणकरालो धौ चो.
उत्कर्षतः पुनरेवम्रौतौ चहकयन्ताधेषमाक्षिपतःक यास्यथ यूयं मरणमेष समत्तम्मि उ लद्धे, पल्लपुहत्तेण सावभो होला । युष्माकमिदानीं समापतितमिति । तत्रैकः पुरुषस्ती समा.
चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होति ॥ १११॥ पतम्ती.रष्ट्वा प्रथमत एव निवृत्तः,एकः पुनर्वितीयो बाभ्रव
एवं अप्पडिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । गत उही संकपारपदर्शनतश्च भयेन शोषंस्तत्रैव स्थितः , एकस्तृतीयः पुनः परमसाहसिकः प्रत्युतीर्णखड्गस्ती शायपि
अभयरसेदिवजं, एगभवेणं च सव्वाई॥ ११२॥ चोरी पचास्कृत्य तत्स्थानमतिक्रान्ती। वह या प्रयाणामपि सम्यक्त्वे लम्धे पल्यपृथक्त्येन-पल्योपमपृथकत्वेन भावको पुरुषाणां प्रथमतः क्रमेण गतिः सा यथाप्रवृत्तिकरणं यत्पु- देशविरती भवति, ततश्चरणोपशमक्षयाणामन्तराणि संनस्तनयं भिन्नं तत इतरवपूर्षकरणावपूर्वकरणम् ,यतु तत्पर
ख्यातानि सागरोपमाणि भवन्ति । इयमत्र भावना-देशतो धावनं तत् तीये निवृत्तास्ये करणे द्रष्टव्यम् ।
विरतिप्राप्त्यनम्तरं संख्यातेषु सागरोपमेषु गतेषु चरणतदेवं रास्तद्वयमपि विधाय सांप्रतमुपनयमाह
लाभस्तदनन्तरं भूयः संख्यांतषु सागरोपमेषु गतेषूपशएवं संसारीणं, जोएमव्वाई तिन्नि करणाई।
मणिलाभस्ततोऽपि परतः संख्येयेषु सागरोपमेष्वतिका
न्तेषु आपकणिस्ततस्तव मोक्षः, एयममुना प्रकारेणाप्रभवसिद्धिसलद्रीण य,पक्खालपिवीलिया उवमा ।१०६।
तिपतितसम्यकृत्ये देवमनुजजन्मसु वर्तमानस्य प्रतिपसपयम्-अमुनाष्टान्तगतेन प्रकारेण यानि श्रीणि करणानि व्यम् । यदिवा-अन्यतरभ्रेणिधर्जमुपशमश्रेणियर्जे शपकप्रागभिहितानि तानि सर्वाणि संसारिणां योजयितव्यानि णियों वा एकभयेन सर्याणि देशविरस्यादीनि प्रतिपचते । श्रे. तन पिपीलिकारधाम्तमधिकृत्य प्रागेव योजिताः,नवरं याः णियप्रतिपत्तिस्त्वेकस्मिन् भवे न भवति, यत उलम् “मोहो. पक्षवत्यः पिपीलिका उक्लास्ताभिरुपमा भवसिद्धिसलब्धिका- पशम एकस्मिन् , भये द्विः स्यावसंततः । यस्मिन् भवे नांद्रएब्या। भवः सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः कतिपयभ- तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न" ॥१॥ घमोक्षगामिन इत्यर्थः,तेऽपि कदाचित्प्रतिपतन्ति, तत माह- संप्रति यदुक्तं प्राक मिथ्यात्वमपूर्वकरणेन त्रिधा सलब्धिः-उत्तरोत्तरविशुद्धाभ्यवसायप्राप्तिर्येषां ते सलब्धि
करोति तत्र कोद्रवरणान्तमाहकास्ततो विशेषणसमासस्तेषाम्। किमुक्तं भवति-सपक्षापपीलिका इव केचित्संसारिणो भवसिद्धिकाः सलब्धिकाः स्था
अप्पुब्वेण तिपुजं, मिच्छ काऊण कोदवोवमया । कारिय प्रन्थिदेशादपि परतो गच्छन्ति, केचित्पुनरभव्या भ
तिनि वि अवेदयंतो, उवसासगसम्मदिट्ठी ॥११३ ।। च्या वा केचन पक्षविहीनपिपीलिका इव स्थाणोरिव प्रन्थि- कोद्रवोपमया-कोद्रयदृष्टान्तेन अपूर्वकरणेन मिथ्यात्वं त्रिदेशात्प्रतिपतन्ति । पुरुषहटान्तमधिकृत्यैवं योजना-पुरुष- पुञ्ज कृत्वाऽनिवृत्तिकरणेन तत्-प्रथमतया क्षायोपशमिकं सस्थानीयाः संसारिजीवाः, कर्मक्षपणस्थानीयः पन्थाः, भय- म्यक्त्यमासादयति, ततः परिणामवशतः कालान्तरेण मिस्थानीयो प्रन्थिः, द्वौ चोरौरागद्वेषौ, यस्तु मन्दपराक्रमो न श्रं मिथ्यात्वं वा गछति, यत्पूर्वकरणमारूदोऽपि मन्दाध्यपुरतो न मार्गतः किं तु भयेन तत्रैव स्थितस्तत्सदृशे प्रन्थिदेशे वसायतया मिथ्यात्वं त्रिपुजीकर्तुमसमर्थः स निवृसिक
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अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मांसह रलमपगतोऽन्तरकरण कत्या तत्र प्रवियोन किंचिदपि येव- क्रमयति । यदिवा-कश्चिद् गुणैर्वृद्धिर्यस्य स गुणद्धिः प्रब दयते, स च श्रीरयपि त्रयाणामन्यनमवष्यवेदयमामे उप- चमानपरिणामः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, मिश्रान्-मिप्रदलिका. शमकः । सम्यग्रहष्टिरुच्यते कोद्रयोपमयेत्युक्तम् ।।
न पुगलानादाय सम्यक्त्वं संक्रमयति, हायको-हीनपरिअतस्तामेव कोद्रवोपर्मा भावयति
णामो मिथ्यारष्टिरित्यर्थः, मिश्रान् पुद्गलानाकृष्य मिथ्या
त्वं संक्रमयति। जह मयणकोदवा उ, दरनिबलिया य निव्वलीया य ।
मिच्छत्सा संकंती, अविरुद्धा होंति सम्ममीसे तु । एमेष मिच्छ मीस , सम्म वा होति जीवाणं ॥ ११४ ॥
मीसातो वा दुन्नि वि,ण उ सम्मा परिणमे मीसं।।११।। यथा कोद्रयास्त्रिविधा भवन्ति, तद्यथा-मदनकोद्रवा दरनिलिता-पिदपगतमदनभावानिलिता:-सर्वथापरातमद
मिथ्यात्वात् पुद्रलसंक्रान्तिः सम्यक्त्वमिश्रयाविरुद्धा, नभायाः एवं जीवाना मिथ्यात्वं त्रिधा भवति-मिथ्यात्वम् ,
मिश्रतो या सम्यग्मिध्यात्वतो वा पुगलानादाय द्वायपि संमिश्रम-सम्यग्मिथ्यात्वं , सम्यक्त्वं वा।
क्रमयति, तद्यथा-मिध्यात्वं सम्यक्त्वं च यथोक्लमनन्तरं
सम्यकत्वात्सम्यक्त्वदलिकारपुनः पुद्गलानादाय न मिभं कालेणुवकमेण व , जह नासति कोदवाण मदभावो ।
मिश्रभावं परिणमति अहिगमसम्मं नेस-ग्गियं च तह होइ जीवाणं ॥११॥
हायंते परिणामे, ते पुण मीसे उ पोग्गले सम्मा। यथा कोद्रवाणा मदनभावः केषांचित्कालेन पवमेवापग
न य सोहिया सि विजति,केई.जे दासि वेएआ।१२० रति केषांचित् गोमयादिभिरुपक्रमतः , एवं केषांचित् जीवानामुपक्रमसहशमधिगमसम्पकत्वं भवति , के
सम्मत्तपोग्गलाणं, न च देउं सो य अंतिम गासं । बांचित् कालेन स्थत पवापगतमदनभावे कोद्रवाणां स-|
पच्छाकडसम्मत्तो, मिच्छत्तं चेव संकमति ॥ १२१॥ दशं मैसर्गिकसम्यक्त्यम् , किमुक्तं भवति-केषांचिदधिग- यस्य तु सम्यग्दर्शनलाभे हीयमानपरिणामः स तस्मिन् मतो मिथ्यात्वपुरलाः सम्यक्त्वीभवन्ति, केषांचित् स्वत ए- हीयमाने परिणामे न मिश्रान् पुगलान् तुशब्दात्-मिथ्यात्वव तथापरिणामविशेषभावतः ।
पुद्रलांश्च सम्यक्त्वपुद्गलान् करोति, न च 'से' तस्य शोएतदेव स्पष्टयति
धिताः केचिदन्ये पुद्रला विद्यन्ते यानिदानीमधिकृतसम्य
कृत्वपुअनिष्ठाकाले वेदयेत, ततः सम्यक्षपदलानामन्तिसोऊण महिसमेचा, करेइ सोबमाणपरिणामो।
मनास वेदयित्वा पश्चात्कृतसम्यक्त्वोऽपि मिथ्यात्वमेव मिच्छे सम्मामिच्छे, मीसे वि य पोग्गले समयं ॥१२६।।
संक्रामति । श्रुत्वा केबलिप्रभृतीनां वाचाऽभिसमेत्य वा जातिस्मर- मिच्छत्तम्मि अखीणे, ते पुंजी सम्मदिद्विणो नियमा।। गादिना सम्यक्त्वमवगम्य सोऽपूर्वकरणे वर्तमानो धर्द्ध
खीणम्मि उ मिच्छत्ते, दुएकपुंजोवखवगो वा ॥१२२॥ मानपरिणामः समकम-पककालं मिध्यात्वपुर्लान् त्रि
अक्षीणे मिथ्यात्वे ये सम्यगष्टयस्ते नियमात् त्रिपुखिनः धा करोति । तद्यथा-'मिच्छे' इति-मिथ्यापुद्रलान् ,
क्षीणे तु मिथ्यात्वे द्विपुजी मिथ्यात्वपुअस्य क्षीणत्वात् , एक सम्यग्मिथ्यात्वपुद्रलान्, सम्यक्त्वपुलानिति । अथैषां पुद्र
पुजी या मिश्रपुअक्षये, यदिधा-क्षपकः सम्यक्त्वं पूअस्यालानां परस्परं संक्रमो भवति किं या नेति?,उच्यते--भवति
पिाये तदेवं प्रयाणामपि पुजानां दृष्टान्तेन निर्णयः स्वतः इति धूमः।
खरूपं च व्यावय॑ताम्। तथा चाह
सांप्रतं पुजत्रयस्याप्ययेदनतः औपमिकसम्यग्दृष्टिमाहमिच्छत्साभो मीसो, मीसस्स उ होज संकमो दोसु। उवसमसेदिगयस्स, होति उ उवसामियं तु सम्मत्तं । सम्मे मिच्छे वास, सम्मामिच्छं च पुण मीस ॥११७।। जो वा भकयतिपुंजो,भखवियमिच्छो लहइ सम्मं ।१२३। मिथ्यात्वात्-मिथ्यात्वदलिकात् सम्यग्रष्टिः प्रबर्द्धमा- उपशमणिगतस्य भवति सम्यक्त्यमौ पशमिकम् , यो नपरिणामः पुद्रलानाकृष्य मिथे उपलक्षणमेतत् सम्य- वा अकृतत्रिपुजः--अपूर्वकरणे पुजत्रयकरणतस्तत्र क्षपकोकन्वे च संक्रमयति, मिश्रस्य पुगलानां संक्रमो इयोर्भवति, | ऽपि दर्शनसप्तकस्यापूर्वकरणमारूढः पुत्त्रयं न करोति । यद्यथा-सम्यक्त्वे मिथ्यात्वे च । तत्र सम्यग्रष्टिः स- ततस्तव्यवच्छेदार्थमाह-अक्षपितमिथ्यात्वा यल्लभते सम्य. म्यक्त्वे संक्रमयति, मिथ्यारष्टिमिध्यात्वे सम्यक्त्वान्-स- कावं तदोपशमिकं सम्यक्त्वमिति । एतौ द्वाषप्यौपशमिकम्यक्त्वदलिकान् पुनः पुनलान् मिथ्यात्वं संक्रमयति । न
सम्यग्डप्टी सम्यक्त्वमौपशमिकमन्तर्मुहर्तमनुभूय तदनन्तपुनः मिश्रमिति।
रमवश्यं प्रतिपततः। सांप्रतममुमेधार्थ प्रकारान्तरेणाह
तत्र दृष्टान्तद्वयमाहमिच्छत्तानो अहवा, मीसं सम्मं च कोइ संकमति । बाही असव्वछिनो, कालावेक्खं कुरु व्च ददुमो । मीसाओ वा सम्म, गुणवुडी हायतो मिच्छे ॥११८॥ उवसामगाण दोण्ह वि,एते खलु होति दिता॥१२४॥ अथवेत्युक्तस्यैवार्थस्य भानप्रकारान्तरद्योतन मिथ्यात्वान्- यथा व्याधिरसर्वच्छिन्नः कालापेक्षं क्रियाविशेषणमतत्कामिथ्यात्वदलिकान् पुद्रलानाकृष्य कश्चिम्मिश्नं सम्यकृत्यं च सं.! लमयेन्येत्यर्थः,पुनरुद्भवति । दग्धो वा गुमः कालापेक्षं यथा
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सम्मलन
अभिधानराजेन्द्रः।
सम्परा हर मुधात । एवमुपशमितमपि मिथ्यात्वं कालमपेक्ष्य पुन- रयिक उपपातेन सातमनुभवति. किमुक्कं भवति-उपपातमंद्रिती भवतीति द्वयोरपि प्रतिपातः तथा चाह-द्वयोरप्यु- काले सातं वेदयते तदानीं हि न तस्य क्षेत्रजा वेदना न परपशमिकयोरेती भवतो दृशान्तौ, तत्रोपशमणिगत औपः | स्पगेदीरितानपि परमाधार्मिकोदीरितेति । अथवा-देवकशमिकसम्यग्दर्शनी देशप्रतिपातेन वा प्रतिपतति सर्वप्र- मणा-देवक्रियया सातमनुभवति, देवो हि कश्चित् महर्दिकः पितातेन या , इतरोऽवश्यमेव सर्वप्रतिपातेन प्रतिपततिमि- पूर्वभवस्नेहतः तत्र गत्वा कस्यापि किंचित्कालं वेदनामुध्यात्वं गच्छति इत्यर्थः ।।
पशमयति ततः सातं वेदयते । अथवा-अध्यवसाननिमित्तंततत्रशम्समाह
धाविधशुभाध्यवसायप्रवृत्तिनिमित्त सातमासादयति यथा मालवणमलहंति, जह सट्ठाण न मुंबए इलिया। सम्यग्दर्शनं लभमानः, सम्यग्दर्शनलाभे हि जात्याधस्य एवं अकयतिपुंजो, मिच्छं चिंय उवसमी एति ।। १२५।। चचुर्लाभ इब जायते महान् प्रसाद इति । 'महवा कम्माणुइह या तृणादिषु सुखप्रदेशेन सर्वतोऽग्रेतनं स्थान परि
भावेणं' ति, प्रथया-सीर्थकरजन्माचधिकृत्य यः कर्मणां व्यवतोऽग्रेतनं स्थानं संक्रामति , अन्यथा पश्चाद्वलते , स
सातवदनीयप्रभृतीनां शुभानामनुभवः-अनुभवनमुदयेन वेइलिका यथा पुरत पालम्बनमलभमाना स्वस्थान म मु.
दनं तेन सातमनुभवति, तथाहि-भगवतां तीर्धकृतां जन्मनि असि एवमकृतत्रिपुञ्जो गत्यन्तराभावात् मिथ्यात्वमेवोपश
दीक्षादिने च तत्प्रभावतो नरकेऽप्यालोको जायते, नैरयिमयति । इयमत्र भाबना-द्विविधस्तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शन
काणामपि शुभकर्मोदये प्रसरति सातमिति ॥ अथ मिथ्याप्रतिपत्ता अतिविशुद्धो मन्दविशुद्धश्च । तत्र यः अतिवि.
राष्टियदा सम्यक्त्वं संक्रामति तदा स तत्समयं कतिक्षानाशुद्धः सोऽपूर्वकरणमारूढो मिथ्यास्वं त्रिपुजीकरोति कृ.
नि लभते-उच्यते द्वे त्रीणि वा। स्या चानिवृत्तिकरणे प्रविएस्तत्प्रथमतया क्षायोपशामकं
तथा चाहसम्यग्दर्शनमासादयति सम्यक्त्वपुञ्जोदयात् । यस्तु मन्द
विभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मतिसुतोहीणि । विशुद्धः सोऽपूर्वकरणमप्यारूढस्तीवाभ्यवसायाभावात् न तयभावम्मि मतिसुते, सुतलंभ केइ उभय ति ॥१३०॥ मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुमलम् , ततो-निवृत्तिकरणमुपगतोऽत्र विभङ्गी-विभङ्गशानी सम्यक्त्वं परिणमयन् तत्समये मति. करणं कृत्वा तत्र प्रविएस्तत्प्रथमतया श्रीपशमिकसम्यग्द श्रुतावधीन् लभते, तदभावे-तस्य विभङ्गस्थाभावे मिथ्यादर्शनं तु भवति, अन्तरकरणं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणमतस्तदद्धा- शनी सम्यक्त्वं परिणमयन तत्काल मतिथुते-मतिक्षानश्रुतनये अन्येषां पुद्गलानामभावतो मिथ्यात्वमेति।
शान लभते, केचित्पुनः श्रुतलाभ मजन्ति-विकल्पयन्ति यएतदेवाह
स्याधीतं श्रुतं स लभते श्रुतज्ञानमितरो न लभते इत्याचक्षखीणम्मि उदिनम्मि, अणुइजं ते य सेसम्मिच्छत्ते ।
ते इति भावः । तथाहि-ये स्वयंभूरमरमसमुद्रे मत्स्यास्ते अंतोमुत्तकालं, उवसमसम्मं लहइ जीवो ।। १२६ ॥ प्रतिमासं स्थितान् मत्स्यान उत्पलानि वा दृष्टेहापोहादि अनिवृत्तिकरणे प्रविएस्य यत् मिथ्यात्वमुदीर्णमुदयाव कुर्वन्तो जातिस्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति प्राभिनियोलिकाप्रविष्ट तस्मिन् क्षीणे शेषे च मिथ्यात्वेऽपान्तराले धिकशानं च, ये तु थुतशानं तत्रासादयन्त्यनधीतश्रुतत्वात् उत्तरकरणतोऽनुदीयमानेऽन्तर्मुहूर्त्तकालमौपशमिकं सम्य
ये त्वधीतश्रुतास्ते त्रीण्यपि युगपदासादयन्ति । त्वं जीवो लभते मिथ्यात्वदर्शनवेदनाभावात् ।
एतद्दूषयितुमाहसोऽपि कथमित्यत पाह
अमाणमती मिच्छे, जदम्मि मतिणाण तं जहा एति । ऊपरदेसं दड्डि-लयं त्र विज्झाइ बणदवो पप्प ।
एमेव य सुयलंभो, सुयअनाणे परिणयम्मि ।। १३१ ।। इय मिच्छत्त(स्स)अणुदए, उवसमसम्म मुणेयव्व।१२७।
यथा मिश्च्यात्ये त्याने मतिरशानस्वरूपा मतिज्ञानतामेति
एवमेव श्रुतशाने परिगातोपगते श्रुतखाभो भवति । किं च ते यथा वनवः ऊपरं देश-तृणादिरहितं प्रदेशं दग्धं वा
प्रष्टव्याः सम्यक्त्यलाभसमये श्रुत्तमानमस्ति किंधान? तत्र प्राप्य विध्मापयति , इति-एवमन्तरकरणे प्रविष्टस्य मि
यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याशानिरवान्मिध्यादृष्टित्वप्रसाः । ध्यात्वपुद्गलाभावाग्मिथ्यात्वस्य-मिथ्यादर्शनस्याऽनुदयावे
अथ नास्ति तर्हि श्रुताज्ञानमपि कवलमाभिनिबोधिकहानं पनं ततस्तरिम सत्यौषशमिकं सम्यक्त्वं बातम्यम् ।
स्यान्न चैतदुप्पन्नं श्रुतझानमन्तरेण केवलस्याभिनियोधिक
खानस्याभावात् "जत्थ मतिनाणं तत्थ सुयनाणं. जत्थ सुय. जिल्ली(म्ही)मवंति उदया,कम्माणं अस्थि सुत्तउवदेसो।। नाण तत्थ मतिणाणं । दो वि सयाइ अशोन्नसमरणगयाइ"
उवधाबादी सायं, जह नेरझ्या अणुभवति ।। १२८॥ इति वचनादिति । तदेवमुक्तमौपशमिकं सम्यक्त्वम् । वृ०१ धिविधेऽप्यौपशमिकसम्यग्दृष्टौ शेषाणामपि कर्मणामदयात| उ०१ प्रक० । श्रा० चू०। जिल्लीभवन्ति न चैतद्वचनमात्रं यतोऽस्त्येव तत्र ग्रन्थान्तर सम्मईसणजोग-सम्यग्दर्शनयोग-पुं०। तत्त्वार्थश्रज्ञानसंथ रूपे साक्षादुपदेशो यथा- नैरयिका उपपातादौ स्पतमनुभ- न्धे, पो० ११ विव०। बन्तीति।
सम्महा-सम्मा -स्त्री० । दुष्प्रत्युपेक्षणाभेदे, यत्र च यन्त्रस्य एनामेव दर्शयति
मध्यप्रदेशे सलिना कोणा भवन्ति यन्त्र वा प्रत्युपेक्षणीयोउववाएण व सायं, मेरइयो देवकम्मुणा बावि ।
पधिवेरिटकायामेवोपविश्य प्रत्युपेक्ष्यते सा सम्मति । स्था. प्रज्भवसाणनिमित्तं , ब्रह्मा कम्माणुभावणं ॥१२६।। ६ढ़ा० ३ उ० । ध० । पं० व० । उत्त० ।
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( ५१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सम्मद्दिट्टि
सम्मद्दिट्टि - सम्यग्दृष्टि - पुं० । सम्यगिति प्रशंसार्थः दर्शनम् - दृष्टिः पदार्थपरिच्छित्तिः । सूत्र०१ श्रु०१२ । स्था० । प्रशा० । आय० । सम्यन्- अविपरीता दृष्टि-र्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्ति र्यस्य स सम्यग्दृष्टिः । नं० । सम्यग्दर्शनघरे, पञ्चा०८ विष० अतु० । प्रति० । सम्यग्दर्शनिनि, प्रश्न ५ संव० द्वार । सम्यगृष्टिस्वरूपं लिङ्गत ग्राहसुस्वसधम्मराभो,, गुरुदेवाणं जहासमाहीए । याचे यिमो, सम्मद्दिस्सि लिंगाई ।। ५ ।। श्रातुमिच्छा शुश्रूषा धर्मशास्त्रविषया गयरागिनर किन्नर गेयशुश्रूषाधिका जिज्ञासोत्तरकालभाविनी । इह च हस्ता प्राकृतत्वात् । तथा धर्मरागः- कुशलानुष्ठानानुरागः सामग्रीdearerserysपि वेतसोऽनुबन्धः कान्तारातीतदरिद्रब्राह्मणहविःपूर्ण भोजनाभिलाषातिरिक्तः । तथा गुरुरेवान-धर्माचार्य परमाराध्यानाम्, यथासमाधि - स्वसमाधानानतिक्रमेण न पुनरसद्ग्रहणेन वैयावृस्ये व्याघृ ( पृ ) तभातकर्मणि या नियमो नियोगोऽवश्यं मयैतद् गुरुकार्य दे कार्य या कर्तव्यमित्यभिनिवेशलक्षयो गुणशथवालुमनुष्य चिन्तामणिवैयावृत्यनियमाधिकः । इह चशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः । किमित्याह- सम्यग्र हटेर विरतसम्यग्दर्शननो जीयस्य लिङ्गानि - लक्षणानि भवन्ति प्रन्थिमेदेन तस्ये तीव्रभावात् । इति गाथार्थः । पश्चा० ३ विष० ।
संप्रति सम्यग्दृष्टेः स्वरूपमाहसम्मद्दिट्ठी जीवो, उबङ्कं पवयणं तु सद्दह |
सरहद्द असम्भावं, अजायमाणो गुरुनियोगा ॥ २४ ॥ ' सम्मद्दिट्टि ' शि- सम्यग्रह ष्टिर्जीषो गुरुभिरुपदिष्टं प्रचचनं नियमात् - यथावत् श्रद्धत्ते, एवं तुरेषकारार्थी, भिन्नक्रमश्चापः पुनः सम्यग्डष्टिरपि सद्भावम् अद्भुतं प्रवचनं श्रद्दधाति सोऽवश्यमजानन् स्वयं सम्यकपरिज्ञामधिकलः सन् । यदागुरोस्तथाविधसम्यकपरिज्ञानाषिकलस्य मिथ्यादर्षा जमालिप्रण्यस्य नियोगादाशापारतन्ध्यात्, नान्यथा । क० प्र० ६ प्रक० ।
अपुनर्बन्धकोत्तरं सम्यग्दृष्टिर्भवतीति तत्स्वरूपमाह - लक्ष्यते ग्रन्थिभेदेन, सम्यग्दृष्टिः स्वतन्त्रतः । शुश्रूष धर्मरागाभ्यां गुरुदेवादिपूजया ।। १ ।। लक्ष्यते इति -प्रन्थिभेदेन - अतितीवरागद्वेषपरिणामविदारखेन स्वतन्त्रतः -- सिद्धान्तनीत्या सम्यग्दृष्टिः लक्ष्यते । सम्यग्दर्शन परिणामात्मनाऽप्रत्यक्षो ऽप्यनुमीयते । शुश्रूषाधर्मरागाभ्यां तथा गुरुदेवादिपूजया त्रिभिरेतैर्लिङ्गैः, यदाह" शुश्रूषाधर्मरागश्च, गुरुदेवादिपूजनम् । यथाशक्ति विनिदिप्रं, लिङ्गमस्य महात्मभिः ॥ १ ॥ "
भोगिकिन्नरगेयादि - विषयाधिक्यमीयुषी ।
शुश्रूषाऽस्य न सुप्तेश - कथार्थविषयोपमा ।। २ ।। भोनीति - भोगिनो-यौवनवैदग्ध्य कान्तासन्निधानवतः का मिनः किन्नरादीनां गायक विशेषाणां गेयादी - गीतवर्णरिचर्ताभ्यासकथाकथनादौ विषयः - श्रवणरसस्तस्मादाधिक्यम अतिशयम् ईयुपी-प्राप्तवती किन्नर गेयादिजिनोपत्योर्द्वत्वास्तुच्छ्रत्वमद्दत्त्वाभ्यामतिभेदोपलम्भात् । अस्य स
For Private
सम्मद्दिट्टि
म्यग्दृष्टेः शुश्रूषा भवति । न परं सुप्तेशस्य सुप्तनृपस्य कथार्थविषयः संमुग्धकथार्थश्रवणाभिप्रायलक्षणः तदुपमा तत्सदृशीअसंबद्धतत्तदशानलयफलायास्तस्या दौर्वेदग्ध्यबीजत्वात् । अप्राप्ते भगवद्वाक्ये, धावत्यस्य मनो यथा । विशेषदर्शिनोऽर्थेषु प्राप्तपूर्वेषु नो तथा ||३||
अप्राप्त इति - अस्य सम्यग्रहणः अप्राप्ते - पूर्वमश्नुते भगवद्वाक्ये - वीतरागबन्धने यथा ममो धावति-श्रोतुमनुपरतेच्छ्रं भवति । यथा विशेषदर्शिनः सतः प्राप्तपूर्वेष्वर्थेषु धनकुटुम्बादिषु न धावति । विशेषदर्शनेमा पूर्वस्वभ्रमस्य दोषस्य त् ।
धर्मरागोऽधिको भावा जोगिनः स्त्र्यादिरागतः । प्रवृत्तिस्त्वन्यथापि स्या- त्कर्मणो बलवत्तया ॥ ४ ॥ धर्मराग इति - धर्मरागन्धारित्र धर्मस्पृहारूपः अधिकःप्रकर्षवान् भावतः - अन्तःकरणपरिणत्या भोगिनो-भोगशालिनः स्यात्रिरागतो भामिन्याद्यभिलाषात् । प्रवृत्तिस्तुकायचेष्टा तु अन्यथापि - चारित्रधर्मप्रातिकूल्येनापि व्यापाराविना स्यात् । कर्मणश्चारित्रमोहनीयस्य बलवत्तया नियतप्रबलविपाकतया ।
तदलाभेऽपि तद्राग- बलवत्वं न दुर्वचम् ।
पूयिकाद्यपि य, घृतपूर्णप्रिय द्विजः ॥ ५ ॥ तदिति - तत्रलाभेऽपि कथंचिदन्यथाप्रवृत्या चारित्राप्रातावपि । तद्रागबलवस्वं चारित्रेच्छाप्राबल्यं स्वहेतुसिद्धम् । न-नैव दुर्यचं- दुरभिधानम् । यद्यस्मात्तथाविधविषमप्रघट्टकवशात् । पूयिकाद्यपि पूर्व-नाम कुथितो रसस्तदस्यास्तीति पूयिकम् । श्रादिशब्दाद् रूक्षं पर्युषितं वज्ञचनकादि । किं पुनरितरदित्यपिशब्दार्थः । घृतपूर्णाः प्रिया प्रभा यस्य स तथा । द्विजो -- ब्राह्मणो भुङ्क्ते - अक्षाति यदन विजनह कृतं तदस्य जातिप्रत्ययादेव अन्यत्र भोकुमिष्छाया अभाघादिति । अन्येच्छाकालेऽपि प्रबले छाया वासनात्मना न नाश इति तात्पर्यम् ।
गुरुदेवादिपूजाsस्य, त्यागाकार्यान्तरस्य च । भावसारा विनिर्दिष्टा, निजशक्त्यनतिक्रमान ॥ ६ ॥ गुर्विति - अस्य सम्यगृहशः गुरुदेवादिपूजा व कार्यान्तरस्य - त्यागभोगादिकरणीयस्य त्यागात् - परिहारात् निजशक्तेः स्वसामर्थ्यस्यानति ( क्रमात् ) लङ्घनादनिगूहनात् । भावसारा भोक्तुः खीरनगोचर गौरवादनन्तगुन बहुमानेन प्रधाना विनिर्दिष्टा प्ररूपिता परमपुरुषैः । स्यादी करणे चान्त्ये, सच्चानां परिणामतः । त्रिधा यथाप्रवृत्तं तदपूर्व चानिवर्ति च ॥ ७ ॥ स्यादिति - ईडगुपदर्शितलक्षणं सम्यक्त्वं चान्त्ये करणे " जाते सतीति " गम्यम् । स्याद्-भवेत् तत् करणं सस्वानां प्राणिनां परिणामतः त्रिधा - त्रिप्रकारं यथाप्रवृत्तम् अपूर्वम् अनिवर्त्ति चेति ।
ग्रन्थि यावद्भवेदाद्यं, द्वितीयं तदतिक्रमे । भिन्नग्रन्थेस्तृतीयं तु योगिनाथैः प्रदर्शितम् ||८|| प्रथिमिति श्रयं यथाप्रवृत्तकरणं प्रस्थि यावद्भवेत्,
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सम्मद्दिष्ट अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मबिट्टि द्वितीयमपूर्वकरणं तदतिक्रम-ग्रन्थ्युलबने क्रियमाणे , तृ- सत्त्वगुणान्तरसमुच्चयार्थः। इत्यादि शास्त्रान्तरोक्तम् सर्व तीय स्थनिवर्तिकरणं भिन्नग्रन्थेः कृतग्रन्थिभेदस्य योगिना- तुल्यं-समम् द्वयोरपि-सम्यग्दृष्टिबोधिसत्वयोः। थैस्तीर्थकरैः प्रदर्शितम्।
अन्वर्थतोऽपि तुल्यतां दर्शयतिपतितस्यापीति नामुष्य, ग्रन्थिमुलवन्य बन्धनम् ।
बोधिप्रधानः सत्यो वा, सद्बोधिर्भावितीर्थकृत् । स्वाशयो बन्धभेदेन, सतो मिथ्यादृशोऽपि तत् ॥६॥
तथाभव्यत्वतो बोधि-सत्वो हन्त सतां मतः ॥१३॥ पतितस्यापीति-अमुष्य-भिन्नप्रस्थेः पतितस्यापि तथाविधसंक्लेशात् सम्यक्त्वात् परिभ्रस्यापि । न-नैव प्रन्थि- बोधीति-बोधिः-सम्यग्दर्शनं तेन प्रधानः सस्यो था। प्रम्धिभेदकालभाविनी कर्मस्थितिम् उल्लहपातिक्रम्य सप्त- सताम्-साधूनाम् , हन्तत्यामन्त्रणे, योघिसस्थो मतः-गरः। तिकोटीकोट्याविप्रमाणस्थितिकतया बन्धनं-बानाधरणा- यदुकम्-" यत्सम्यग्दर्शनं बोधि-स्तत्प्रधानो महोदयः । विपुलग्रहणं तत्तस्मान्मिथ्यारशोऽपि सतो भिन्नग्रन्धेः सस्योऽस्तु बोधिसस्वस्त-सस्माद्धन्तेति पूर्ववत् ॥१" बम्धभेदेनालपस्थित्या कर्मबन्धविशेषण । स्वाशयः शोभनः पा-प्रथया सदोधिः-तीर्थकरपदप्रायोग्यसम्यक्त्वसमेतः । परिणामः बाह्यासबनुष्ठानस्य प्रायः साम्येऽपि बन्धारपत्थ- तथा भव्यत्वतो-भावितीर्थकृत्-यस्तीर्थकविण्यति स बोस्य सुन्दरपरिणामनिबन्धनत्वादिति भावः।
धिसत्वः । तदुक्तम्-"वरबोधिसमेतो वा, तीर्थकृयो भविसदुक्तम्
ध्यति । तथा भव्यत्वतोऽसौ वा , बोधिसत्यः सतां मतः " भिन्नग्रन्थस्वतीयं तु, सम्यग्र तो हि न ।
॥१॥" भव्यत्यं नाम-सिद्धिगमनयोग्यत्वम् अनादिपारिपतिमस्याप्यतो बन्धो, प्रन्थिमुनष्य देशितः॥१॥
णामिको भावः । तथा भव्यत्वं चैतदेय कालनेएवं सामान्यतो शेयः, परिणामोऽस्य शोभिनः ।
यत्यादिना प्रकारेण वैचित्र्यमापन्नं पतफ़ेद एव च मिथ्याटेरपि सतो, महाबन्धविशेषतः ॥२॥
बीजसाध्यादि ( सिद्धयादि ) फलभेदोपपत्तिः । श्रसागरोपमकोटीना, कोट्या मोहस्य सप्ततिः।
न्यथा तुल्यायां योग्यतायां सहकारिणोऽपि तुल्या अभिनग्रन्थिबन्धोऽयं न त्वेकोऽपीतरस्य तु ॥३॥
एव भवेयुः तुल्ययोग्यतासामर्थ्याक्षिप्तत्वात्तेषामिति सद्धोतवत्र परिणामस्य, भेदकत्वं नियोगतः ।
धेर्योग्यताभेद एव पारंपर्येण तीर्थकरत्वनिबन्धनमिति
भावनीयम्। बाह्य स्वसदनुष्ठान, प्रायस्तुल्यं द्वयोरपि ॥ ४॥" "बंधणं न बोलह कया" इत्यादिवचनानुसारिणां से- तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन् सच्चार्थमेव सः । द्धान्तिकानां मतमेतत् । कार्मग्रन्थिकाः पुनरस्य मिथ्यात्वप्राप्तावुकृपस्थितिबन्धमपीच्छन्ति, तेषामपि मते तथावि
तीर्थकृच्चमवामोति, परं कल्याणसाधनम् ॥ १४॥ धरसाभावात्तस्य शोभनपरिणामत्वे न विप्रतिपत्तिरिति
तत्तदिति-तस्य तस्य कल्याणस्य परिशुद्धप्रवचनाधिमध्येयम्।
मातिशायिधर्मकथाऽविसंवादिनिमित्तादिलक्षणस्य योगेनएवं च यत्परैरुक्त, बोधिसत्त्वस्य लक्षणम् ।
व्यापारेए कुर्वन् विदधानः । सत्त्वार्थमय मोक्षबीजाधाविचार्यमाणं सन्नीत्या, तदप्यत्रोपपद्यते ॥ १०॥ नादिरूपं नत्वात्मम्भरिरपि स सदाधिमान् तीर्थक
स्वमवाप्नोति-लभते परं-प्रकृष्टम् कल्याणसाधनं भव्यएवं चेति-एवं च-भिन्नग्रन्थेमिथ्यात्वदशायामपि शो
सत्वशुभप्रयोजनकारि स्वजनादिभवोद्दिधीर्पणया पद्धोभनपरिणामत्व च यत् परैः-सौगतैः बोधिसत्त्वस्य
धिप्रवृत्तिस्तु गणधरपदसाधन भवतीति द्रष्टव्यम् । लक्षणमुक्तं, तदपि सन्नीत्या-मध्यस्थवृत्त्या विचार्यमाणम् अत्र सभ्यग्दृष्टावुपपद्यते।।
यत उक्नम्-" चिन्तयत्येवमेवैत-रस्व जमादिगत तु यः । तमलोहपदन्यास-तुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि ।
तथाऽनुष्ठानतः सोऽपि, धीमान् गणधरी भवेत् ॥१॥" इत्युक्ते कायपात्येव, चित्तपाती न स स्मृतः ॥११॥
संविग्नो भवनिर्वेदा-दात्मनिःसरणं तु यः। तप्तेति-तप्तलोहे यः पदन्यासस्तत्तुल्याऽतिसकम्प- आत्मार्थसंप्रवृत्तोऽसौ, सदा स्यान्मएडकेवली ॥१॥ स्वात् वृत्तिः-कायचेष्टा क्वचिद् गृहारम्भादौ यदि परम्
संविान इति-संविग्नः “ तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रइत्युक्तः इत्थं वचनात्, कायपात्येव स सभ्यग्रष्टिः न
बम्धे , देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ने । साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भचित्तपाती स्मृतः । इत्थं च ' कायपातिन एव बोधिसत्वा'
हीने , संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ १ ॥” इति इति लक्षणमत्रोपपत्रं भवति । तदक्रम्--"कायपातिन
काव्योतलक्षणसवेगभाक । भयनैर्गुण्यात्-संसारवैरएवेह, बोधिसत्वाः परोदितम् । न चित्तपातिमस्ताब-देतद
स्यात् । आत्मनिःसरणं तु-जरामरणादिदारुणदहनात्स्वत्रापि युक्तिमत् ॥१॥" परार्थरसिको धीमान , मार्गगामी महाशयः ।
निष्कासनं पुनः यश्चिन्तयतीति गम्यते । आत्मार्थसंप्रवृत्तः
स्वप्रयोजनमात्रप्रतिबद्धचित्तोऽसौ सदा-निरन्तरं स्यागुणरागी तथेत्यादि, सर्व तुल्यं द्वयोरपि ॥ १२ ॥
द-भवेत् । मुराडकेवली-द्रव्यभावमुण्डनप्रधानस्तथाविधपराषैति-परार्थरसिकः-परोपकारचित्तः धीमान्--बु- बाघातिशयशून्यः केवली पीठमहापीठवतु । (द्वा० ) (सजयनुगतः मार्गगामी-कल्याणप्रापकपथयायी महाशयः- म्यग्दृष्टावर शिष्टत्वमिति सिटु' शब्देऽसिव भागे स्फीतचित्ता गुणरागी-गुणानुरागवान् तथेति-बोधि- बच्यते।)
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अभिधानराजेन्द्र।
सम्मदिहिगुम्मट्ठाण एतदेवाहः
प्रसङ्काच्च । यत्वहसाधनताविषयकमिथ्याज्ञानाभाक्वत्त्वं मिथ्यारष्टिहीतं हि, मिथ्यासम्यगपि श्रुतम् ।
शिष्टलक्षणमुच्यते तत्त्वस्मदुक्तशिष्त्वव्यञ्जकमेव युक्तमासम्यग्दृष्टिगृहीतं तु, सम्यग्मिध्येति नः स्थितिः ॥२६।।
भाति, न तु परनीत्या स्वतन्त्र लक्षणमेव । गाजले कृप
जलत्वारोपानन्तरमिदं कूपजलं नादृष्टसाधनमिति भ्रमवत: मिथ्यावधीति-मिध्यादृष्टिगृहीतं हि सम्यगपि श्रुतमाचा
कृपजल एव गङ्गाजलत्वारोपानन्तरमिदं गङ्गाजलमहष्टा () रादिकं मिथ्या भवति , तं प्रति तस्थ विपरीतबोधनिमि
साधनमित्ति भ्रमवतो गङ्गाजले उच्छिष्टत्वारोपानम्तरं मातत्वात् । सम्यग्दृष्टिगृहीतं तु मिथ्यापि श्रुतं वेदपुरा
रष्टसाधनमिति भ्रमबतश्चाशिष्टत्वधारणायाष्टसाधनताबपादिकं सम्यक तं प्रति तस्य यथार्थबोधनिमित्तस्वात् । इति नः-अत्माकं स्थितिः-सिद्धान्तमर्यादा ।
न्छेकरूपपुरस्कारेण निषेधमुखेनारपसाधनताविरोधिरूपा.
पुरस्कारेण चारसाधनताविषयकत्यषियक्षायामपि स्थाण. प्रमानिमित्तत्वमात्रमेतदभ्युपगतं न तु प्रमाकरणत्वामि
विवशायां यौवादापतिव्याप्तरेतापदग्रहेऽपि सर्वत्र शमाधितिन , स्वदुक्तं प्रमाकरणत्वमेष प्रमाणत्वमिति सर्वेषां प्रमातगामनभ्युपगमात् ।
लिनेन शिवव्यवहाराच्चेति किममया कुसण्ठपाहा.
१५ द्वा०। यो० वि० वर्श। तात्पर्य यः स्वसिद्धान्तो-पजीव्यमिति चेन्मतिः।
संप्रति सम्यग्रष्टिस्वरूपमाधिर्भाषयंस्तस्य फलमाहननु युक्त्युपजीव्यत्वं दूयोरप्यविशेषतः ॥ ३०॥
एवंविहपरिणामो, सम्मदिड्डी जिणेहिं पन्नतो । तात्पर्यमिति-यो-युष्माकं स्थसिद्धान्तोपजीव्यं-स्वसिबाम्तपुरस्कारि तात्पर्यम् , तथा चान्यागमानुपजीव्यतास्प
एसो उ भवसमुई, लंघह थोवेण कालेण ॥५१॥ पें सकलदेवप्रामाण्याभ्युपगमनिशान दोष इति चेद-यदि एवंषिधपरिणामः-उपशमादिलियुक्तः तया-विशुनतब मतिः, मनु तदा द्वारप्याययोरविशेषतो युक्त्युपजी- बुद्धितया सम्यग्रधिर्जिनैः प्राप्तः-प्ररूपितः, एष पषव म्यत्वम्, भयं भाषा-अन्यागमानुपजीव्यत्वं धन्यागमा- भवसमुद्र-संसारार्णपं लायति स्तोकेनापि कालेनति (म) संबादित्वं चेत्तत्संवादिनि स्वाभिप्राये ऽव्याप्तिरयो- गाथार्थः। क्लिका तदसंवादित्वं चेदस्माकमपि तात्पर्यमयौक्तिकागमा- एवं सम्यक्त्यस्याप्येकस्य शिवसुखसाधनाबन्धवर्णनायां संघाघेव , सर्वस्यैष भगवद्वचनस्य युक्तिप्रतिष्ठितत्वात् मि- कस्यचिदत्यन्तप्रमाववत एकान्तेनात्रैवास्थाबन्धो मा ध्याभुततात्पर्यस्यापि स्याद्वादसंगयुक्त्यैव गृह्यमाणत्वात् । भवस्थिति बुझ्या सम्यग्दरपि तपसोऽबहुफलत्यप्रतियतः
पादनाय गाथाद्वयमाहउकाबनमनिग्राछ , युक्तरेव हि यौक्तिके।
समद्दिहिस्स वि अवि-रयस्स न तवो बहफलो होइ। प्रमापये च न वेदत्वं, सम्यक्त्वं तु प्रयोजकम् ॥३१॥
हवा हु हस्थिन्हाणं,बुंदं छिययं व तं तस्स ।। ५२ ।। उहायनमिति-यौक्तिके बर्थे युक्तेरेयोडावनमनिग्राहाम
सम्यग्रोटेरपि न केवल मिथ्यारष्टरित्यपिशब्दार्थः ,
अविरतस्य-बिरतिरहितस्य तेनैव तपो बहुफलं भवतिविग्रहस्थानम् अन्यथा निग्रहाभिधानात् । यद्वादी-"जो
जायते । हिशब्दश्चैवार्थः , ततो हस्तिस्नानमिव-बुन्दा देउवायपक्ष-म्मि हेतुप्रो आगमे अभागमित्रो। सो समय
छितमिय वा । यथाहि-हस्ती प्रथम जलेन स्नानं विधाय पसवमो, सिद्धांतविराहगो अन्नो ॥१॥" इति अथ येवत्वमे
पुन—ल्यावगुण्ठति बुन्दाछितं पुनरेकेन देशेनाकृष्य पुनव प्रामाण्यप्रयोजकमित्यभ्युपगमे यायवेवप्रमाण्याम्युपगमः
द्वितीयेन पूर्यते एवं सम्यगृहष्टरपि विरतिरहितस्यैस्यादित्यत भाइ-प्रमाण्ये च घेदत्वं न प्रयोजकं किं तु स
कतस्तपसोपार्जितं शुभमन्यतोऽविरत्या सावधचरणरूपया स्यत्वमेव, लोकशम्नस्याप्यविसंघादिनः प्रमाणत्वादिति श्रद्धा
हार्यते जीवोपमादिगुरुकर्मबन्धंदतुत्वादिति । मात्रमेवदिति न किंचिदेतत् ।
तथा चशिष्टत्वमुक्तमत्रैव , भेदेन प्रतियोगिनः ।
चरणकरणेहि रहिमो, न सिज्झई सुद्धसम्मदिट्ठी वि । तमानुभविकं बिभ्रत्, परमानन्दवत्यतः ॥ ३२ ॥ जेणागमम्मि सिहो, रहंधपंगण दिÉतो ।। ५३ ॥ शिष्टत्वमिति-अतः परोक्लशिष्टलक्षणनिरासात् । अत्रैव स- चरणकरणाभ्यां-वक्ष्यमाणस्वरूपाभ्यां रहितस्त्यको न सिस्यगृहपावेव उनम् अंशतः क्षीणदोषत्वम् । शिष्टत्वम् । परमा| ध्यति-न कर्माभावं करोति.सुष्ठ-अतिशयेन सम्यग्दृष्टिरपि बन्दवति दुर्भेदमिथ्यात्वमोहनीयभेदसमुन्थनिरतिशयानन्द. येन कारणेनागमे भगवदावश्यकनियुक्ती शिष्टः-प्रतिपादितः, भाजने । शिएत्वलिकाभिधानमेतत् । प्रतियोगिनो दोषस्य क्षी- रथान्धपङ्ग्वादिदृष्टान्त-उदाहरणम् । दर्श०५ तत्व । सभ्य यमाणस्य भेदेन तं भेदमानुभाविकं सकलजनानुभवसिद्ध
गितिप्रशंसायाम् ,सम्यक-प्रशस्ता मोक्षाविरोधित्वात् दर्शनं वित्। भवति हि अयमस्मात् शिष्टतरोऽयमस्माच्छिष्टतम |
दृष्टिरर्थ्यानां जीवादीनामिति गम्यते सम्मग्दृष्टिः। श्रा०म०१ रति सार्वजनीनो व्यवहारः । स चाधिकृतापेक्षयाऽ-- अ० । सम्यागिति प्रशसार्थः,दर्शन-दृष्टिः सम्यग्-अविपरीता धिकतराधिकतमदोषक्षयविषयतयाऽनुपपद्यते । परेषां | दृष्टिःसम्यग्दृष्टिः । सम्यक्त्वे, स्त्री० । विशे० । स्था० । तन कथंचित् सर्वेषां वेदप्रामाण्याभ्युपगमादौ विशे- सम्मदिद्विगुणहाण-सम्यग्दृष्टिगुणस्थान-न। द्वितीयगुणपाभावात् । एतेन केवविहितार्थानुष्ठातायं शिष्टत्वमित्यपि स्थाने, अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानत्वेनेदं व्याख्यातम् । निस्तरम्। यावत्तदेकदेशविकल्पाभ्यामसंभवातिव्याप्त्योः भाचा०१९०३ अ०४ उ०।
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म्हदेव
सम्मद्दिठ्ठिदेव-सम्पतिदेव पुं० [सम्पग्रष्टपथ्य देवाश्वदेस्यत्येकशेषादेवाः । यच्चास्याप्रभूविषुभत्या बेषु, ध० २ अधि ।
--
सम्मद्दिठ्ठिम- सम्यग्दृष्टिक- पुं० । सम्यम्-अविपरीता दृष्टिःदर्शनं विस्तरवानि प्रति येषां ते सम्यगृष्टिकाः मिध्यात्वमोहनीयोपसम्यग्र स्था० १ ० सम्मण्यणीयमग्ग- सम्यक्प्रणीतमार्ग पुं० सम्मम गणधरादिभिः सम्यग्वा यथायस्थितवस्तुतया का निरूपणया प्रणीते सम्परा व चारित्रं वेति त्रिविधे भावमार्गे, "जमा गुणधारी जति सम्भार्थी बहियं तमाडु सम्मप्पणीयमियं ॥ १॥" सूत्र १ ० ११ अ० । सम्म भावाणुगत -- सम्यग्भावानुगत त्रि० । अविपरीततयैसंपर्कसंगते, पञ्चा० १६ विष० । सम्ममिच्छद्दि- सम्यग्मध्यादिष्टि पुं० सम्य च मिथ्या व दृष्टिर्येषां ते सम्यगृमिथ्यादृष्टयः । येषामेकस्मिन्नपि वस्तु मि तत्पयांचे वा मतिदोत्पादिना एकान्तेन सम्यकपरि ज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक अवधानं तथैकान्ततो विप्रतिपत्तिस्तेषु नं० । शतकवृवचूर्णेलिकेरदीयवासिस्स खुहाइयस्स वि एत्थ समागयरल श्रोअगवि ढोइए, तस्स उवरि न दई न य निंदा, जो तेरा सा श्रश्रणाश्रो आहारो न कयावि विट्ठो नाषि सुश्रो एवं सम्ममिष्यदिस्सि वि जीवापद्वारा उपरे न य कई नाषि निंद " ति । नं० स० । स्था० । प्राय० । सम्मय - सम्मत त्रि० । अप्रतिषिद्धे, आचा० १ ० ८० १४० तेषु तेषु कार्येषु प्रयोजनेषु रहे, ०३३० तत्कृतकार्यस्य सम्मतत्वात् नि० १ ० १ वर्ग १ अ० । भ० जी० ।' पामि' शब्दे पञ्चमभागे ८५४ पृष्ठे उक्तस्य देवराजन कुटुम्बनो मायावी सारिकायाः पुत्रे, पिं० । सम्मयसचा -- सम्मतसत्या श्री० । सकललोकसम्मतया प्रसिद्धे भाषाभेदे ध० ३ अधि० । प्रज्ञा० । सम्मतसत्या या सकललोकसांमत्येन सत्यतया प्रसिद्धा, कुमुद कुबलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पसंभवत्ये अरविन्दमेय पर्ज मन्यते न शेषमित्रविन्दे
,
जहा ना
3
3
गोपालजना जमिति ।
सम्यग्रहाने, संशयविपर्यास
प्रज्ञा० ११ पद ।
सम्मरुद सम्यग्ररुचि-श्री०
(४१४) अभिधान राजेन्द्रः ।
निरासेन इदमेव तयमिति निश्चयपूर्वकार्याजिनोदितजीवादिपाचैभिप्रीती जिनोकानुसारितया तत्वार्थज्ञानरूपे सम्यक्त्वे, प्रब० १४६ द्वार । सम्मसुद्ध-सम्पकशुद्ध-भ०
तत्वतो निर्मले पा० २
विष० ।
सम्म सम्मभूत न तार्थे वा श्रुतज्ञाने, विशे० ।
सम्यगष्टिपरिचा
अंगासंगपचि सम्मसूर्य लोइयं तु मिच्छसुषं । आसन उ सामितं, लोइऍ लोउतरे भयया ।। ५.२७।। रहाङ्गप्रावष्टमाचारादि श्रुतम् अनङ्गप्रविष्टं चावश्यकादि श्रुतम् एतत् द्वितयमपि स्वामिचिन्तानिरपेक्षं स्व
सम्म भावेन सम्यम्। लौकिकं तु भारतादि प्रकृत्पा ध्रुवम् । स्वामित्वमासाद्य स्वामित्वचिन्तायां पुतलोंडिके भारतादी लोकोत्तरे बाबारादी भाविकावया सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं भारताद्यपि सम्यग्श्रुतं सावद्यभाषि
भवदेवादि यथावस्थित तस्य स्वरूपयोधतो विषयविधाकोल योजनात्, मिध्यादृष्टिपरिगृहीतं त्याचाराद्यपि मिथ्याभुतम् प्रयथावस्थितयोधतो वैपरीत्येन योजनादिति भावार्थ इति । विशे० । कर्म० । आ० चू० पृ० नं० ।
I
से किं तं सम्मसु १२, जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उपखाणदंसणधरेहिं तेलुकनिरिक्खियमहियपूएहिं तीयप दुष्पमयागयजाणएहिं सव्त्रयहिं सव्यदरिसीहिं पणीयं दुबालसंगं गणिपिडगं तं जहा भायारो १ सूयगो २ ठाणं ३ समवा ४ विवाहपoती ५ नायाधम्मक हाथो ६ उवासगदस ओ ७ अंतगडदसाओ ८ अनुत्तरीयवा इयदसाओ पहा वागरणाई १० विवागसुयं ११ दिनबाश्रो य १२ इ दुवालसँगं गणिपिडगं चोहसपुष्बिस सम्म अभिष्यदसपुव्विस्स सम्मसुयं तेरा ते परं भिलेसु भयणा सेत्तं सम्मसुयं । ( सू० ४० )
अथ किं तत्सम्यक् श्रुतम्, आचार्य आह-सम्यकश्रुतं यदिदमद्भिः अशोकाचमामातिहार्थरूप पूजामईतीत्य
तीर्थकरातैरद्भिः ते चान्तः केचित्यात कनयमतानुसारिभिरनादिसिद्धा एय मुक्तात्मानोऽभ्युपगम्यन्तं । तथा च ते पठन्ति-" ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। देव वै धर्म सदसिद्धं ॥१॥ त्यादि एवंरूपाचापि ते बहव इष्यन्ते स्थापनादिद्वारेण च विशिष्टां पूजामईन्ति ततोऽर्द्वन्तोऽप्युच्यन्ते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह भगः भगः समत्रैश्वर्यादिरूपः । उक्तं च-ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षषां भग इतीङ्गना ॥ ९॥ " भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः । इहानादिसिद्धानां रूपभात्रमपि नोप पद्यते किं पुनः समझे रूपम् अशरीरत्वात् शरीरस्य व रा गादिकार्यतया तेषां रागादिरहितानामसंभवात् ततो भगबद्धिरित्यनेन परपरिकल्पितानादिसिद्धादन्यवच्छेदमाह । अथ मन्येथाः अनादिशुद्धा श्रप्यईन्तो यदा खेच्छया समग्ररूपादिगुणोपेतं शरीरमारचयन्ति तदा तेऽपि भगवन्तो भव. न्ति ततः कथं तेषां व्युदास इत्याशङ्कापनोदनार्थे भूयोऽपि विशेषणान्तरमाह पानदर्शनघरे उत्पकेयज्ञाने दर्शन केवलदर्शनं धरन्तीत्युपज्ञानदर्शनधराः
"
'लिहादिभ्य इत्यच् प्रत्ययः । न च येऽनादिविशुद्धाः ते उत्पन्नानदर्शनधरा भवन्ति, " ज्ञानमप्रति यस्येत्यादि वचनविरोधात् तत उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैरितिविशेषणे
तेषां व्ययो भवति ननु यद्येवं तहिं उत्पन्नानदर्शनधरित्येतावदेवास्तामलं भगवद्भिरिति विशेषपादानेन न तद्युक्रम् उत्पज्ञानदर्शनधरा हि सामान्य केवलिनोव भवन्ति, न च तेषामवश्यं समग्ररूपादिसंभवस्ततस्तत्कस्पानतो माझाससुरमी विशेषजना इति समादिगु प्रतिपत्यर्थं भगवद्भिरिति विशेषोपादानम् -
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मम्मसु
(५१६) अभिधामराजेन्द्रः ।
इम्पास्तिकनयमानुसारिकल्पितमुक्रव्यवच्छेदः कृतः। संप्र ति पर्यायास्तिकनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह - त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितैः त्रयो लोकाः त्रिलोकाः भवनापनिश्यन्तरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिका: त्रिलोकाएव प्रेोषयं भेषजादित्वात् स्वार्थेत्य यः, निरीक्षिताश्च ते महिताश्च ते पूजिताश्च ते निरीक्षितमहितपूजिताः त्रैलोक्पेन निरीक्षितमहितपूजिताः त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजिताः तत्र निरीक्षिता मनोरथपरंपरासंपति संभवषिनिकायसमुस्समदविका शिलोचनैराखो किताः महिता यथायस्थिताऽनन्यसाधारणगुणकीर्तन लानभावस्तथेनार्चिता:- पूजिताः सुगन्धिपुष्पकरमपादिना - यस्तवेन तत्र सुगमता श्रपि पर्यायास्तिकनयमतानुसारिभिः प्रेषयनिमितपूजिताइयन्ते तथा बाइ स्वयंभूः - " देवागमनभोयान- चामरादिविभूतयः । मायाविनितरत्वमसिनो महान् ॥ १ ॥ " इति । तपचच्छेदार्थविशेषणान्तरमाह अतीत प्रत्युपधागा शेतीतानागताः सुगताः संभवन्ति तेषामकान्त क्षणिकत्वाभ्युपगमेन सर्वथातीतानागतयार सत्वाद् असतां च ग्रहणासंभवात् इत्यत्र बहु वक्लव्यं तच्च प्रायः प्रागेवांलगन्यत्र च धर्म संग्रहणिटीकादाविति नोच्यते, इह व्यवहारनयमतानुसारिभिः कैश्चित् ऋषयोऽप्यतीत प्रत्युत्पन्नानागतज्ञा इष्यन्ते तथा च तद् ग्रन्थः - ऋपयस्संयतात्मानः, फलभूसानिलाशनाः। तपसैव प्रपश्यन्ति त्रैलोक्यं सचराचरम्॥१॥ श्रतीतानागतान्भावान् वर्त्तमानांश्च भारत ! | ज्ञानालोकेन पश्यन्ति व्यसना जितेन्द्रियाः॥२॥ इत्यादि ततः तदृश्यबच्छेदार्थमा सर्वमते तु ऋषयः स सर्वदर्शिनश्च न भवन्ति, ततस्तेषां व्युदासः । तदेवं द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयमतव्ययच्छेदलतयाविशेषणसाफरूपमुक्रम, विचित्रनयनानि तु अभ्या रूपमुक्रन्नविद्विरोधः प्रीतम् अर्थकचनद्वारे पितम् किं दादा तरूपस्य परमपुरुषस्या भगीनीवाङ्गानि द्वादशाङ्गान्याचारादीनि यस्मिन् तत् हादशा गणपति गणो गच्हो गुणो वाऽस्यास्तीतिगड़ी आचार्यः तस्य किमि पिट सर्वस्वमित्यर्थः गणिष्टिकम् अथवा गणिशः परिष्यति। तथा चोक्तम्- 'आयारम्मि अहीए, जं नाश्रो होइ समणधम्मा उ । तम्हा आयारधरो, भन्नइ पढमं गणिट्ठाणं । १। "ततश्च गगिगां पिटके गणिपिटक परिच्छेदसमूह इत्यर्थः । तद्यथा'आयारो' इत्यादि पाठसिद्धं या याद अविएम प्यावश्यकादि तस्वतात्परमार्थतो द्वादशाङ्गातिरिक्तार्थाभावाच द्वाइयम् एवं च द्वादशाङ्गादि सर्वमेत्र द्रव्यास्ट्रिकनयमतापेक्षया तदभिधेयपञ्चास्तिकाय भाववत्रित्यं स्वाम्यसंबन्धविच पेण चिन्त्यमानं सम्यक् श्रुतं, स्वामिसंबन्धचिन्तायां तु सभ्यगृदृष्टेः सम्यक्क्षुतं मिथ्यादृष्टेर्मिध्याश्रुतम् एतदेव श्रुतपरिमाणतो व्यक्तं दर्शयति- इत्येतद् द्वादशाङ्गं गणिपिटकम् | यश्चतुर्द्दशपूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादिविन्दुसारपर्यवसानं नियमात्सम्यक् श्रुतम्, ततोऽधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्व पावल्यं यावदभिन्नदशपूपिंणः संपूर्ण दशपूर्वधरस्य, संपूर्णदशपूर्वरत्वादिकं हि
रु
नियमतः सवंग
तथाहि यथाऽभयो ग्रन्थिदेशमुपागतोऽपि तथास्वभावत्वान्न प्रत्येदमाधातुमलम् एवं मिध्यादि
3
नः प्रपैोऽपि तावदाते यानिम्निानि दशपूचणि भवन्ति परिपूर्णानि तु तानि नावगाहुं शक्नोति तथास्वभावत्वादिति ते परं भा सियासामिति प्राकृतलक्ष
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3
सम्मामिच्छत्त
मियाताया
या संपूर्णश्चानुपूर्व्याः परं भिदशसु पूर्वेषु भजना विपना कदाचित्सम्यभूतं कदाचिमिथ्याभूतमित्यर्थः । इयमत्र भावनासम्यग्रहः प्रशमादिगुणोपेतस्य सम्पा स्थितार्थतया तस्य सम्यकपरिणमनात् मिध्यादृष्टेस्तु मित्याभूतम् विपरीतार्थतया तस्य परिणमनात् 'सेत मिथ्यादि, निगमनं तदेतत् सम्यकश्रुतम् । नं० ।
"
सम्माण – सम्मान – पुं०
स्तुत्यादिभिर्गुतिकरणे,
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श्र० ५ अ० । प्रति० । ध० । तथाविधे उचितमतिपत्तिकरणे भ० १४ श० ३ उ० । शा० । स्था० । दशा० । वस्त्रपात्रादिपूजन, स्था० ७ ठा० ३ उ० । पञ्चा० । ध० | प्रब० । श्री० ।
"
सम्माणइत्ता- सम्मानयित्वा - अव्य० । प्रतिविशेषेण सम्मानं कृत्येत्यर्थे, स्था० ३ ठा० १ ० । सम्माणखिअ सम्माननीय प्रि० नितिपतिविशेषे भ० १० श० ५ उ० | चं० प्र० । बहुमानविशेषे, श्री० । वखादिभिर्वा पूजनीये ० १ ० अ० ।
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सम्मागायतिय-सम्मानप्रत्यय- पुं० स्तुत्यादिगुणोप्रतिकरं सम्मानः, तथा मनसः प्रीतिविशेष इत्यन्ये सुदयस्ययोनिमित्तं यस्येति । सम्माननिमित्ते, ल० । रा० । सम्मीणिय सम्मानित त्रि । तथाविधया वचनादिप्रतिपस्या पूजिते श्र० । अभ्युत्थानादिभिः पूजिते, कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
सम्माणियदोहला -सम्मानित दोहदा - स्त्री० प्राप्तस्याभिलपितार्थस्य भोगात् (भ० ११ श० ११ उ० ।) वाञ्छितार्थसम्माननात् विपा० १ ० २०) साप्ताभिलाषायामन्तल्याम्, कल्प० १ अधिक ४ क्षण । सम्मागुसन्यविरह यहस्सायच्चारितपायकर- सम्यगणुसर्वविरंतियथाख्यातचास्त्रिघातकर - पुं० । 'सम्मं 'ति - सम्यक्त्वं अदिति विनिशदस्य प्रत्य विदेशतिः सर्वविरति सातो-पिनाशः सम्यगसविरतियायातारिषघातस्तं कुर्वतीशीलाः सम्यगसविरनियधास्तचारित्रविद्याकराः। कषायेषु कर्म० कर्म० (अनन्तायनिः पाया सम्यक् घातकरा इति ' कसाय शब्दे तृतीयभागे ३६८ पृष्ठ गतम् । )
यथाख्यातवारिव
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सम्मामिच्छत्त - सम्यग्मिथ्यात्व - न० । सम्यक्त्वमिथ्यास्व
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सम्मामिच्छत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सम्मावाय मि,कर्म०९कर्मा पं० सं०। मिथ्यात्त्वपुद्रला एच ईपद विशु- परिक्षा सामायिकमिति । परिहरणीयं वस्तु वस्तु प्रतिडा. सम्यगमिथ्यात्वव्यपदेशभाजः । कर्म०६ कर्म० । यहुद- आख्यानं प्रत्याख्यानं च, त एते सामायिकपर्याया अष्टायात्युनर्जिनप्रणीत तत्त्वं न सम्यक् श्रद्धत्ते नापि निन्दति मतिः विति गाथार्थः। श्राव०१० दौर्बल्यादिना सम्यक् सम्यक् वा एकान्तेन निश्चयाकर
अथ सम्यग्वादे कालिकाचार्यकथारणतः सम्यश्रद्धानकान्तविप्रतिपस्ययोगात् तत्सम्यगामध्यात्वम् । कर्म०६ कर्म०। प्रज्ञा०। (रान्तोपन्यासः इहैव "पुरी तुगिमिणी तत्र , जितशत्रु गधिपः । 'सम्ममिच्छद्दिट्टि' शब्देऽस्ति ।)
भद्राङ्गजो द्विजो दत्तः , कालिकाचार्ययामिजः ॥ १॥
दत्तश्च मद्यपो धूर्तः, प्रारेभे सेवितुं नृपम्। सम्मामिच्छादसण-सम्यमिथ्यादर्शन-ना सम्यमिथ्या.
अभवद्वाहको राज्ये, भेदयित्वाऽथ सन्निधिम् ॥ २॥ त्वरूपे दर्शनभेदे, स्था० ७ ठा० ३ उ०।।
राजानं पञ्जर क्षिप्त्वा , स्वयं गजा बभूव सः । सम्मामिच्छादिद्विगुणहाण-सम्यग्मिथ्याइष्टिगुणस्थान-न०। अनेकानिष्टवान् यागान् , कालिकार्योऽन्यदाऽगमत् ॥ ३॥ सम्यक् च मिथ्या चर्खािस्यासौ सम्यग्मिध्यादृष्टिस्तस्य गु. प्रणन्तुं तमगादत्तो-पृच्छद्यागफल ततः । णस्थानं सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानम् । द्वितीयगुणस्थान- गुरुराख्यदहो धर्मः, कारुण्यादपरी न हि ॥४॥ बतिनि साधौ, कर्म०। इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनोप
पुनः पृष्टे गुरुः स्माह , हिंसा दुर्गतिहेतवे । शमिकसम्यक्त्वेन औषधिविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानी
सर्य मत्तोऽवदद्दत्तः , स्पष्टदुष्टाशयो गुरून् ॥ ५॥ यं मिथ्यात्वमोहनीय कर्म शोधयित्वा त्रिधा कगति,
यदि वेत्सि तदाचार्य!, प्रश्नस्य वितरोत्तरम् । सद्यथा-शुद्धमर्द्धविशुद्धमविशुद्धं चेति । स्थापना-तत्र त्रयाणां
निःशङ्कोऽथ गुरुः स्माद्द, यागानां नरकः फलम् ॥ ६॥ पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुख उदेति तदा तदुदयाजीवस्याद्धविशुद्धं जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदा
ततो दत्तः क्रुधाऽवादी-दाचार्य ! प्रत्ययोऽत्र कः। सौ सम्यग्मिध्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुरते कालं स्पृशति ,
गुरुरूचे प्रत्ययाऽसा-वितः सप्तमवासर ॥ ७॥ तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति । कर्म०२ पक्ष्यसे शुनकुम्भ्यां त्वं, दत्तोऽथ सविशषरुट् । कर्म। पं० सं० । दर्श।
ऊचे का प्रत्ययोऽत्रापि, गुरुरूच निशम्यताम् ॥ ८॥
कुर्थतो राजपाटी ते. वदने सप्तम दिने । सम्मावाइ-सम्यग्वादिन--पुं० । सम्यग् बदितुं शील स्वभावो यस्य स सम्यग्वादी । सम्यग्वादशीले, प्रति०।
तुरङ्गमखुरोत्क्षिप्तः , प्रवक्ष्यत्यशुचलवः ॥ ६ ॥
सोऽथातिकुपितोऽवादी-त्तवाचार्य ! कथं मृतिः। सम्मावाय-सम्यग्वाद-पुं० । सम्यग-रागद्वेषपरिहारेण वदनं
गुरुरूचे चिरं कृत्वा , व्रतं यास्याम्यहं दिवि ॥१०॥ वादः सम्यग्वादः । रागादिपरित्यागेन यथार्थवदने , श्रा० अथोत्तस्थौ गुरोः पा-इत्तश्चित्त चिन्तयत् । म. १०। ध० । सामायिके, तस्य तथात्वात् । श्रा० यन्ममाख्यदसावस्य , तकरिष्ये ऽएमऽहानि ॥ ११ ॥ चू० १ ० । सम्यक् यथास्थितवदनात् । आव० ।
ततः प्रविश्य सौधान्त-दत्तस्तस्थौ दिनानि षट् । सामाइयं समइयं, सम्मावाश्रो समास संखेवो ।
षष्ठोऽपि दिवसस्तेन, झातः सप्तम इत्यथ ॥ १२ ॥ अणवजं च परिमा, पच्चक्खाणे य वे अट्ठ॥८६४॥
मार्गानशोधयन् सायं, तलारररक्षि यत् ।
निशान्ते मालिकः कोऽप्या-गच्छन् संज्ञातुरोऽभवत् ॥१३॥ 'सामायिकम्' इति-रागद्वेषान्तरालवी समः-म
व्युत्सुज्य राजमार्गे दाग , पिधाय कुसुमैरगात् । ध्यस्थ उच्यत, 'अय' गताविति , अयनम् अयः-गमम
दत्ताऽपि निर्ययौ राज-पाटिकां सप्तमेऽहनि ॥ १४ ॥ मित्यर्थः, समस्य अयः समायः स एव विनयादिपाठात् स्वार्थिकठप्रत्ययोपादानात् सामायिकम्,एकान्तोपशान्ति
मार्गे चाश्वखुरोरिक्षप्त-स्तस्यास्यऽगालबो शुचः । गमनमित्यर्थः, समयिक-समिति सम्यकशब्दार्थ उपसर्गः,
तेनाभिक्षानतो शातं, मृत्युरद्य स्फुटं मम ॥१५॥ सम्यगयः समयः-सम्यग्-दयार्पवकं जीवेषु गमनमित्यर्थः,
प्रधानश्चेति संकेतः, कृतोऽग्रेऽस्तीति दुर्मदम् । समयोऽस्यास्तीति , ' अत इनिठनी (पा० ५-२-११५)
धृत्वाऽमुं स्थापनीयोऽत्र , राजा प्राकृत एव सः ॥ १६ ॥ इति ठन् समायकं सम्यग्वाद:-रागादिविरहः सम्यक दत्तः सौधान्तरे नष्टुं , चवलेऽथ सपद्यपि । तेन तत्प्रधान वा वदनं सम्यग्वादः, रागादिविहरेण यथा- मनःसंकेतमज्ञासी-प्रधानैरिति शङ्कितम् ॥ १७॥ चद् वदनमित्यर्थः । समासः- असु' क्षेपण इति, असनम्
ततः सौधे विशस्तैरा-धृतो मौलः कृतो नृपः । पास:-क्षेप इत्यर्थः, संशब्दः प्रशंसार्थः शोभनमसनं स
राशा तेनाथ दुष्टः स, क्षिप्तः कुम्भ्यां शुनैः सह ॥१८॥ मासः, अपवर्ग गमनमात्मनः कर्मणो ग जीवात् पदत्रय
अधः प्रज्वालितो पति-स्तापातरथ स श्वभिः । प्रतिपत्तिवृत्त्या लेपः समासः । संक्षेपः-सक्षेपणं संक्षेपः स्तोकाऽक्षरं सामायिकं महार्थं च द्वादशापिण्डार्थत्वात् ।
खण्डमानोऽभवन्मृत्वा, रौद्रध्यानेन नारकः ॥ १६ ॥" अनवद्यं चेति-अवध-पापमुच्यते नास्मिन्नवद्यमस्तीत्यन- श्रा० क.१ अ०। ("सम्मावायं करइ" इत्याद्रिसूत्रम् वा सामायिकमिति , परिस-समन्ताजशानं पापपरित्यागेन 'विक्खवही ' शब्द षष्ठभाग गतम् । ) सम्यग अविपरी
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सम्मावाय
तो वादः सम्यग्वादः । यथास्थितवस्त्वाविर्भावने, श्राचा० १ श्रु० ४ ० १ उ० । ( एतच्चाऽऽचाराङ्गीयसम्यक्त्वा ध्ययने उक्तमस्माभिः ' सम्मत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दशितम् । ) सम्यग् - श्रविपरीतो वादः सम्यग्वादः । दृष्टिवादे, स्था० १० ठा० ३ उ० ।
सम्मिस्स सम्मिश्र - त्रि० । विस्फुटितत्यपि आचा० २ ० १ चू० १ ० ८ उ० । सम्मृदमण-संमृदमनम् शि० तस्वान्तरेभ्रान्तचित्ते, प्रायः
४ अ० ।
( १८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सम्मिस्यभाव-संमिश्रभाव १० । अस्तित्वापगमे सूत्र० १ ० १२ श्र० ।
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सम्मुइ- सम्मूकि पुं० जतीर्थकृतः सिद्धार्थयति ि
[महापद्मतीर्थत्समकारयत
समुच्छ सम्मूर्व पुं० सम्म सम्मूः । गमपपातव्यतिरे केवमेव प्राणिनामुत्पादे जी० १ प्रति । सम्मुच्छय सम्मूर्च्छज-पुं० सम्मूर्थनाजानः सम्मूर्द्धजाः श समपिपीलिकामक्षिकाशालिकादि ० ० १ श्र० ६ उ० । त्रसेषु, दश० ४ ० । स्था० । पद्मिनीश्टङ्गाटकपाढायलादिषु वनस्पतिषु चाचा० १ ० १०५० मोहसमुच्छ्रययोः सम्मुहिम सम्मृद्धिम- पुं०मी संमूर्च्छनं सम्मूर्छा भावे घञ्प्रत्ययः । तेन निर्वृत्ताः सम्मूर्छिमाः । नं० । संमूर्छन्ति इति संमूर्द्धिमाः । प्रसिद्धवीजाभावेन पृथिबीयर्षादिसमुद्भवास्तविधगयेते न संभवन्ति दग्धभूमावपि संभवात् । दश० ४ श्र० । दग्धभूमौ बीजासवेऽपि ये तृणादय उत्पद्यन्ते ते संमूर्द्धिमाः । स्था० ६ ठा ३ ३० । सम्मूति तथाविधकमा गर्भमन्योपद्यन्ते इति सम्मूमिः। अनु अग प्रज्ञा० २९ पद | सम्मूर्छिमानां स्त्र्यादिभेदो नास्ति । स्थान ३ ठा० १ उ० । अनु० भ० । व्यजनादिजन्ये वायुकाये, स्था० ५ ठा० ३ उ० । श्र० म० ।
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"
सम्भेदसेल - सम्मेद शैल - पुं० । स्वनामख्याते विन्ध्यगिरिशिखरभेदे यत्र ऋषभ वासुपूज्यने मित्रीस्वर्ज्यास्तीर्थकराः विंशतिः सिद्धाः श्र० ० १ ५० शा ०
सम्मेयसेल सिहर-सम्मेद शैलशिखर - पुं० । पर्वतविशेषकूटे,
पञ्चा० १६ वि० ।
सम्मेल- सम्मेलन० । परिजनसम्मानभक्ते, गोष्ठी भक्ले, श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ श्र० ४ उ० । गोष्ठयां च । नि० चू० ११३० । सम्मोह - सम्मोह - पुं० । मूढतायाम्, स्था० ४ ठा० । कि
कर्तव्यतामूढतायाम्, अनु० । विशे० । आव० । संनिपातोपहतस्येव सर्वतोऽनध्यवसाये, द्वा० १३ द्वा० । समुझतीति सम्मोहः । मुदात्मनि देवविशेष स्था० १ डा० । सम्मोही - साम्मोही - स्त्री० । संमुह्यन्तीति सम्मोहा: मूढात्मानो देवविशेषास्तपामियं साम्मोदी भावना ७०३०
संप्रति सांमोहीमाह
उम्मग्गदे सणाम- मगदूसामग्यविष्ठीवती । मोहेण य मोहित्ता, संमोहं भावणं कुणई || ४६१ ॥ उन्मार्गदेशना १ उन्मार्गदृषणा २ मार्गविप्रतिपत्तिकश्च भवतीति वाक्यशेषः मोडेन च यः स्वयं एवं त्वा च परं मोहयित्वा सांमोहीं भावनां करोति । इति नियुक्तिगाथासमासार्थः । वृ० १ उ० २ प्रक० | ग० | प्रब० । चउहि ठाणेहिं जीया सम्मोहत्ताए कम्मं पगति से जहा - उम्मम्गदेखाए मम्यंतराएवं कामासंसप्प चोगेणं भिजा निपाणकरणं (०२५४+ )
"
समुद्यतीति संमोहो मुढामा देवविशेष एव तावस्तता तस्ये सम्मोहता सम्मोहन्याय सम्मोहनवा वेति उन्मार्गदेशनया सम्यग्दर्शनादिरूपभावमार्गातिक्रान्तधर्मप्रकथनेन मार्गान्तरायेण मोक्षायप्रवृत्तद्विकर कामा शंसाप्रयोगेण - शब्दादायमिलापकरणेन भिज' ति लोमो-द्धिस्तेन निदान करतात. भूकव दित्वं मे भूयादिति निकाननाकरणं तेनेति । स्था०४०४० सब-शत न० दशावृदशायाम् तत्संख्येचा स्वक- त्रि० । श्रात्मीये, विशे० । सूत्र० । शा० । श्राचा० भ० स्वकीये, विशे० । देहगृहादौ, सूत्र० १ श्रु०८ श्र० । सवओोष भोग- सततोपभोग पुं० नैरन्तर्येोपभोगे ०
सड
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चू० १ उ० ।
सयं - स्वयम् - अव्य०। आत्मनेत्यर्थे, सूत्र ०१ ४०१ श्र० श्रावण आचा० । पञ्चा० । उत्त० । स्था० । परोपदेशमन्तरेणेत्यर्थे, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० स० पा० नि० चू० भ० । प्रश्न० विपा० । श्राचा० 1
सयंकड - स्वयंकृत - त्रि० । श्रात्मना कृते, म० । जीवाः स्वदु वेदयन्ति
"
रायगिहे नगरे समोसरणं, परिसा निग्गया० जाव एवं वयासी - जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेइ ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ से केणणं भंते! एवं वच्च अत्थेगइयं वेएर अत्थे - गइयं नो वेएइ ! गोषमा 1 उदिन्नं ह
,
"
दिन्नं नो बेएड्, से तेराट्ठेणं एवं बुच्चर - अत्थेगइयं वेए अत्थेगतियं नो वेड एवं चउब्बीसदंडगां० जाव बेमागिए । जीवा गं भंते! सर्वकटं दुक्खं एन्ति १ गोष मा! अरथेग बेयन्ति अत्यंगो वेयन्ति से क
१, गोयमा ! उदिनं वेयन्ति नो अणुदिनं वेयन्ति से तेराडे, एवं जान बेमाशिया । जीवे गं भंते सर्वकडं
उयं वेएइ ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेएइ प्रत्थेगइये नो बेरह जहा दुक्खे दो दहंगा तहा घाउएचिदो दंडमा एमचपुडुचिया, एमतेगं० जाव बेमानिया ने वि तहेब ।। (०२०)
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सपन्जा विधवाओ० जान पासावडेंसया वरं नाम नाय । (यू० १६७४) म० २ ० ७३०
जम्बूद्वीपे द्वीपेऽतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते प्रथमे कुलकरों,
स्था० १० डा० ३ उ ।
१
सयंत श्रयमात्र प्रतिपदं लभमाने २०१३ २०६ ४० सर्वपन स्वयंप्रभ त्रि० स्वयमादित्यादिनिरपेक्षरत्नबहुल- । तथा प्रभा - प्रकाशो यस्य स स्वयंप्रभः । हैमपर्वते, चं० प्र० ५ पाहु० सू० प्र० । जं० । स० । पद्मप्रितमे महाग्रहे, स्था० २ ४० २ ० । कल्प० । सू० प्र० । चं० प्र० । भारते वर्षे ऽतीमुसांजातं चतुर्थे कुल स्था० ७ ० ३ उ० । स० । भारते वर्षे भविष्यति चतुर्थे कुलकरे, स्था० ७ ठा० ३ उ० | स० । चित्रकनकाण्यदिककुमार्यावासे दिग् गजेन्द्र डी० मारते पर्ने उत्सर्दियां भविष्यति चतुर्थे तीर्थकरे, 'थो पोलिजीयो सर्प मोती० २० कल्प मियां नगय जितशत्रुराजस्य बलादाक्रमके राजनि, ति० । कल्प० । श्रा० चू० । कल्प० । ऋषभपूर्वभवजी यस्य ललितादेवस्य भार्यायाम् श्री० ० ० १ ० संघा० । श्राव० ।
सर्वपरिहार- स्वयंपरिहार- पुं० | स्वयमाचारकधनेन असाचारस्य परिहारे, ध०१ अधि० । ( स्वयंपरिहार इति श्रस्य कथनेन परिहारोऽसदाचारस्य संपादनीयः स च ' असदायार' शब्दे प्रथमभागे ४० पृष्ठे गतः । ) सयं पव्वज्जा-स्वयंप्रव्रज्या - स्त्री० । श्राचार्यमन्तरेण स्वयमेव लिङ्गग्रहणे, अङ्ग | तनिषेधो यथा
इ
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परं जे जंबू ! पब्वावयविहीए महिया जे मिहत्या - त्यसाभिलासिएहिं पासत्थेहिं सुत्तत्थं गहिया वेरग्ग भइया । परंपरागयसाहू साहुणी बहुअरे पमाए दस सयमेव पन्चइस्संति, सयमेव मुंडाविस्संति सयमेव त्थपनाइ गिहिस्संति, गुरूणं भगाए सिरे लोखं करिस्संति, सयमेव तवोकम्मं उनसंपञ्जित्ताणं विहरिस्संति, सयमेव भिक्खाए भिक्खं करिस्संति । ते जंबू ! पासंङमइया दिट्ठिए विदिट्ठा महामिच्छत्तकारिणो मिच्छत्तपरियायवडुगा सम्मपरिया महायमा दुरावारा निर्बंधसा भासियो अह नाणपत्रा अह संजमाराहगा अम्हे गुणसंपन्ना हे
मगंजय-शतंजय-पुं० । लोकोत्तररीत्या त्रयोदशे दिवसे, जं० सुद्ध जिणमइया एवं भासता मम परंपरागयसाहुसा
७ वक्ष० । कल्प० ।
हुणिं हीलता निदंता खिता बहुभवपरंपराऽणुबद्धा अंतखुतो संसारे ममिहिस्संति पावमइया तेर्सि निहवाणं सावयसाविया कुमयमई दिट्ठिएवं गहिया संता -
(५६) अभिधान राजेन्द्रः ।
मयंक
"
"
"
'रायगि' इत्यादि पूर्ववत् 'जीचे ण' मित्याहि तत्र 'सयंकडं दुक्खं, ति यत्परकृतं तन वेदयतीति प्रतीतमेवातः स्वयंकृतमिति पुति म दुबे, ति सांसारिक सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति दुःखहेतुत्वाद् दुःखं कर्म वेदयतीति काकुपाडा नः निर्वचने तुदति अनुदीर्णस्य दि कर्मो वेदनमेव नास्ति तस्मादुदी वेदयति नानुदी . न बन्धानन्तरमेवदिति अतोऽपश्यं वेद्यमप्येकं यदयत्येकं न वेदयति इत्येवं व्यपदिश्यते श्रवश्यं वेद्यमेव च कर्म "कडा कम्माण ण मोक्खा अस्थि' इति वचनादिति एवं जाय मागि' इत्यनेन चतुर्विशनिक सू चितः स चैवनेर ! सयंमित्यादि । ए यमेकादकः तथा बहुत्वेनान्यः स चैम-'जीव भंते! सयंकडे दुपसं 'बेनी' त्यादि तथा नेरइया से भंते! संयंकडे दुक्ख मित्यादि, नन्वेकत्वे योऽर्थो बहुत्वेऽपि सपयति कि श्वेन इति एक विशेष रशे यथायाः एर्क जीवमा श्रित्य पदसागरोपमा साधिकानि स्थितिकाल उ मानाजीवामाश्रित्य पुनः सर्यादा इति एवमादि ति शङ्कायां बहुत्यप्रश्नो न दुष्ट, अभ्युपशमतिशिष्ययुपादनार्थत्वाद्वेति ॥ श्रथायुः प्रधानत्वान्नारकादिव्यपदेशस्यायुराधित्य दण्डद्रयम्-एतस्य येषं वृद्धोपना यदासमताचार्य पुन कालान्तरे परिणामविशेषानीय धरणीयोग्य निर्मितं वासुदेव तत्तादृशमङ्गीकृत्यांच्य पूर्ववेदयति, अनुदत्यात्तस्य पदानवने तदा ते तथैव तस्या
"
दितत्वादिति । भ० १ ० २ उ० । मयंकरण-स्वयङ्करण-न - न० । साक्षात्परेण कारणे, सयंकरणं नाम- कारवणमित्यर्थः । नि० चू० १ उ० । श्रात्मनः कस्यचिपिचितस्य कार्यस्य निवर्तने उत्त० २६० वि० ० मयंगहिप- स्वयंगृहीतात्मा प्रतिपत्रे, पञ्चा०५ विव० ।
मयंगहियलिङ्ग - स्वयंगृहीतलिङ्ग स्त्री० केनाप्याचार्येण श्र लिङ्ग भ्रात्मनेवासा ०४ उ० मयंगाह - स्वयंग्राह- पुं० । स्वयमात्मना गृह्णातीति स्वयंग्रहाःस्वयं गृह्णत्सु व्य० १ उ० । प्रश्न० ।
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पंजल - शतंजल न० वर्तमाने जिने ०७ द्वार। जं० । शकलोकपालस्य वरुणस्य विमाने भ० ३
श० ७ उ० ।
कहि गं ते सकस देविंदस्स देवर सरस महारो मजले नामं महाविमाणे पन्नत्ते, गोयमा ! तस्स णं सां हम्म सिस्स महाविमाणस्स पच्चच्छिभेणं सोहम्मे कप्पे जाई जहा सोमरस तहा विमासरायहाणीयो मा
·
"
पिट्ठा तो संसारे सुसु व्व परिडिस्सतिजिबूगत्यत्थि संदेहो। तर अबू जायसंसए जायेका उह ले उट्ठाय उट्ठित्ता एवं व्यासी- कहं गं भंते ! तेसि सजमकिरिया तवोकम्मे निष्फले होइ। संजमं पासंता वि संजमराहगा मशिया एवं खलु ते अभिमानगरिया
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( ५२० अभिधावराजेन्द्रः ।
सपन्जा
एवं पुलिया मम साहू एवं भासिस्संति । परंपरागए । साहुगो । सिं पाविट्टमइयाणं सुमहुराए भासाए एवं पुच्छिस्संति-भो भो महाणुभागा ! तुम्हा को गणो ? का साहा? किं कुलं १ को गुरू ? कस्स धम्मायरियस्स परंपराए तुमे संजमो गहि १, केण दिक्खिया १, कस्स अणुलाए उद्देससमुद्दे से संदिसंतियं सुत्तत्थधारगा जाया कैण महाणुभागेण कालग्रहणविही दंसिया ? कस्स गुरुणो अंगीका रेयं दुवालसावत्त्वंदणं विहियं ? कस्स य परियाए से गं विहारो वट्ट केणायरिएणं दुविहसिक्खं गाहिया ? । तत्र | ते एवं भासिस्संति- तुम्हारिसाणं अम्हारिसेहिं आलावो संलावोन कप्पड़ - तुम्हे हीयारिया पंडुरपड पाउरखा पासन्थबिहारिया ओसनविहारिया धखकणगाइधारमा अम्हे एगंसाहू सुद्धायारपालगा अम्हाणं का य पडिसिद्धी, जहा- हंसकागाणं तुरगखराणं महिसगइंदाणं सूरकायराणं समाओ होति, तहा तुम्हाणं अम्हेहिं पडिवादो को । तो तुमंतिया विसावयसाविया एवं बहस्संति - सब्वे एए संजया महाणुभामा मलमलिणसरीरा निल्लोहा रसविरसाहारिणो एए पासत्था हड्डा बलियसरीरा - विपारभासगा एएस का पडि सिद्धी, तेसिं पुरओ एवं कहिसा चिट्ठिस्संति । पुणो जंबू ! मम परंपराए पोसहसालाए पमायं चत्ता एके महाणुभावसूरिणो गणपडिधारगा संजसे बर्द्धता पुच्छिस्संति - तेसिं रिमिवेसे दडूब भो भो महाभागा ! तुम्हाणं को गुरू? को गणो ? का साहा? किं कुलं० ०जाव केणारिएणं दुविहं सिखं माहिया || जंबू ! एवं से पुच्छिया कोवे भ्रमभ्रमंता मिसिमिसेमाणा सम्मुहं बस्संति- तुम्हा को गणो-जाव केणान्यरिएणं दुविहसि
तुमे गहिया । तो ते जंबू ममाश्रो परंपरा-गहिऊस कहिस्संति । देवास्णुप्पिया ! अम्हाणं अमुगममुगे० जाव अमाऽऽयरियां दुविहसिक्खं गाहिया । तेसिं महाणुभामासं महरणं परंपराए अहमेव धम्मं वयमाणा बिहराो । समो जंबू ! ते परंपसssगमरहिया एवं कहिस्संति-जाणिया से तुम्हे, तुम्हाणं गणो वि जाणिओ जाब दुविहसिकखा
गाहिया सा वि जाणिया । ते पादपरा अम्हे हि दिडा स्पड पाउरणा परिग्गहधारिणो गया इव निरंकुसा घट्टा अझ चिट्ठति, ते तुम्हे कहं मोइया ? तेसि मंडलिए तुम्हे वसाई करणीयं कहं न कुराह ? महारं पुढो कहं
ह? कई सेयपडधारगा ? तुमे कहं मलम लिगगत्ता ?तेहिं मासत्य विहारी हिंदिक्खिया कओ तुम्हे साहू कओ तुम्हे संचमाराहगाको तुम्हाणं किरियाफले? किं निंवरुक्खे - फलानि होतीति । एवं भासे माणा परुजे माणा जंबू महामि
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सर्वपचवला च्छत्त निवेसियविट्टिया बहु पार्थ समजता बहूणं सावयसा विया मिच्छत्ते ठावयंता श्रणंतकाले संसारे परियरिस्वति । तओ पुणो वि मम परंपरागया एवं कहिस्संति-तो तुम्हारा को गणो ! तुमं समं पुच्छिया कहं विसमं बृहश्रो, अम्हा जारिसी परंपरा अस्थि सा प्रच्छा कहिस्सामो तुमे बज्झरहरथ तच ते मणिस्संति श्रम्हाणं सीमंधरो गुरू सीमंधरामिस्स सम्मुहं होऊम क्याणि पडिवजियासि । सध्ये केवलियो गुरु, सच्चे सिद्धा गुरुणो, सव्वेसि सिद्धाणं सव्वेसिं केबलिसमक्खं अम्द्रं सामाइचरितं प्रडिवज्जियं चतुद्दसरज्जू हिं पासमा रोहिं अम्हे वि पासिया अम्हाणं संजम किरिया विपासिया, सुत्त परक्खं पवड्डामो, अम्हाणं सुविसुद्धा किरिया, लो एयारिसाणं हीणायरियाणं सामायारीए अम्हे वट्टामो। एगंतसो सव्वन्नूभासियं करिस्सामो यो केसि पि गणसामायारीए अम्हे बड्डामो, एगंतसो सव्वन्नूभासियं करिस्सामो सो केसि पि गणसमायारीए अम्हाणं पचणं । सुत्तस्स पक्खं राहेमो मोक्खमग्गं पयडीकरिस्सामो, जिणाणाए आराहगा भविस्सामो जहा पत्तेयबुद्धेहिं करकंडुअनम्गतिदो म्युहनभिपमुंहहिं केसिं गुरूणं समीचे संजममाग हियं । पत्तेयबुद्वाणं को गणो का साहा ? किं तुब्भं ? ते कहं कुलमण गुरुबाहिरा विराहिया वियाहिया भगवया तं बज्झरहत्थ । तम्रो पुणो वि जंबू ! ममं परंपरागया अणगारा तेसि पाविद्वाणं पटुत्तरदाणे मलिमुहे करिस्संति । जहा रे रे पाखंडिया तुमे पत्तेयबुद्धाणं सयंसंबुद्धाणं महाणुभागाणं पाडिसिद्धिं कुणइ । तुमे तत्तुलणाए वयाई पालह । वेसि महाणुभागाणं देवयाहिं रयहरणाइलिंगे दिने पुष्चभव अम्भसियं सुश्रं तेसिं पयडीहूअं । जाइसरणे पुव्यभवसंभरित्ता पुव्वभवगुरुपायमूलं संजमं गहियं तमेव संजमुच्चारणं तमेव पुव्वगुरुं अंगीकरिता संजमं पालियं । पुव्वभवे धम्मायरियाखं समीचे उद्देस - समुद्देस - अणुमा - अणुओोगा संदिसाविभा । गोवं गाणं कालियसुअस्स उक्का लियसुयस्स •जाव दिवास्स जोगोवहाणेणं श्रसायणाविरहियाणं तेसिं पुन्वभवन्भसियं पुव्वभवा श्रहियरं सुचं लहिऊण पव्वइया | अक्खलियस्स अ णाणोवयोगेणं तमेव गुरुं मणसीकरेमाणा ते कहं विराहिया होंति ? परं एरिसा व लिंगपत्रयणेणं असाहम्मिया बूइया सोहम्मा परंपरधारगा गणी ते महाभागा संजमिया संता एगे चउम्मुहचेइपहरे परोप्परं मिलिया विपर तत्तिनिवारगा जाया । अप्पगवेसिणो णो गणपडिणीगधारमा यो सिस्स सिस्सणीयं दिक्खाए पयट्टा
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सयंपवजा अभिधानराजेन्द्रः।
सयंपव्वज्जा णे । पायरियउवझायवीयणायरियथेरपवत्तगरायणि- रिसे तित्थयरस्स समो पायरिओ। सारणचोयणकुयपूापरमपूासिरिपूआइ पइवायणाए वहा अ- सलो भविस्सित्ता तेसिं पाचिट्टाणं निद्धाडिस्सह । तेसिं क्खलिमचरित्ता, खो गिहत्थीणं भावजगा, जो लोगस्स | सावए कलहकरे दट्टण तुसिणीए चिहिस्संति । णो पमा
। यमवि वइस्संति । तेसिं पाविट्ठाणं सुत्तत्थे अत्थलोभेण दा णो परघररक्खणपरा , णो णिच्चादेसणाकुसला , णो इस्संति । ते वि विराहगा भविस्संति । अविहीए सुत्तत्थपाअप्पथुतिकारगा । तेसिं महाणुभागाणं पाडिसिद्धं कि- ढगाणं बोहिनासो त्ति । परं जंबू ! विक्कमबच्छरायो पच्छा यमाणा तुमे तुम्हाणं सावयसावियाइ सव्वे मिच्छा- सोलसवाससए वइकते पन्नासवासमझे गणे एगे केइ दिडिया भवह । अनाथिहरिकेसिपमुहा अन्ने देवया- महाणुभागा मूरिणो पमायं पमुत्तणं संजमधरा भारवसदत्तलिङ्गा पब्बइया णो तेहिं गणहिती मंडिया । एया- हा इव जिणपन्नत्ते मग्गे उहिस्संति । तेसिं अचलं गहिऊ रिमाणं मयहरायं तुलणा पवट्टमाणा एगंतपावदि- ण निरालंबणा निच्छोडिस्संति । को रे पाविट्ठा ? तुद्विया तुमं ति निद्धाडिया संता मिसमिसेमामा म्हाण गणो को ? केहिं तुमे पादिया ? केहिं तुम अणुसायारसगारविया कुमयमयालिवासिणो संसारे प- मा गहिऊण जोगे वहणे ? केहिं तुम्हाणं उद्देससमुद्देसे रिवडंति अवोहिकलुसकदा चिट्ठति । पुणरवि ते एवं | संदिसाविए ? आगासे कुसुमं केरिसं होइ ?, वज्झाए भासिस्संवि अम्हासं वायपडिवाए न किंपि पत्रो- पुत्ता केरिसा हुंति ? । ससविसाणे केरिसे होइ ?। तहा तुमे यखं । अम्हे पावभीरू, अप्पणो कजं साहेमो किंवाएण | वि गुरुपरंपराचाहिरा को साह ?। तया के वि तम्भत्तिया किं जुइवाए कियमाणे ण किंचि कुसलत्तणं हवइ । एवं सावयसाविया तेसिं सूरीणं नाऊण नियणियगणपरंपराए भासंता ते मायरियाणं पडिकूला अण्णारिया एवं भ- सामायारि ठाइस्संति । के वि दूरभविया तेसिं परम्मुहो होवंति । कलहकोहणसीला ते सीलं पालंता वि कु- ऊण परगणस्स सामायारि गहिस्संति । के वि कुग्गहग्गहसीला । अज्जमग्गं मुहे प्रमाणा वि अणज्जा, उम्म- गहिया अणंतकालदक्खगमणसीला णो तेसि मोइस्संति ग्गपहमा तेसिं दसणं पि दिद्विमिच्छत्तजणयं । एवं णो परिहरिस्संति सेवं भंते ! सेवं भंते तमेव संचं हिस्संकं जंबू! ते पासंडिया पुब्बायरियपडणीया उवज्झाय- जं णिणेहि पवेइयं । हंता जंबू! तमेव सचं निस्संके जंजिपडणीया आयरियउवझायाणं परंपराए पडि- णेहिं पवेइयं । कहं आगासमंडलाओ निवडिया इव पीया। चाउवपस्स समणसंघस्स पडिणीया, एरि- भासह अम्मापिउणं संजोए असंताणे भवति किं अन्नसाणं महाणुभागाणं गीयत्थाणं अणवकंखा अय- हा वि भवति हि ? पवेइयं हंता जंबू ! तमेव सच्चं सका अकित्तिकारका बहूहिं असब्भावणाहि मि- निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं । कई णं भंते ! तेसिं च्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं सावयसाविया सम्मत्तमूला ण दुवालस वयाई धरिच बुग्गाहेमाणा , उप्पाएमाणा तवतेणिया सुत्त- स्संति णो वा ते वयधारगा आराहगा वा हविजा । तेणिया अत्थतेणिया तदुभयतेणिया समणस्स भग- एवं खलु जंबू ! पुब्धि जेसिं पासे वमाथि पडिवो महावीरस्स प्राणाए बहिया संघपहिया सयमेव वजियाणि तेसिं पासे वयाणि णत्थि, तेसिं आलोयणा मुंडे भवित्ता मम गणपरंपराणं साहूणं साहुणीणं आ- खो तेसिं सम्मत्तधारणं तो सावयसावियाणं कहं सयारवंताणं पायारं दट्टणं पुच्छित्ता सिक्खित्ता तेणियं मत्तगुणे भवति ? वयगुणे भवति?, पालोयणगुणे भवति ?, करता अभिमाणं धरता ण वाहका भविस्संति । कहिस्संति को एगवीसगुणे सावयाणं भवंति तेहिं सावएहिं पअम्हाणं असुगो गच्छो तेसिं सीसस्स सीसा वइस्संति अ- | रंपरागयं सावयकुलं भंडियं । एवं खलु जंबू ! महाणुम्हाणं धम्मायरिएणं निद्दिट्टं तं करिस्सामो । श्रम्हाणं भावेहि मूरिवरेहिं मिच्छतकुलाओ उस्सग्गववाएणं प प्रमुगरिसीहितो गणपरंपरा पवट्टिया । तस्स पदाऽणुक्कमेणं | डिबोहिऊण जिणमए ठाविया, वत्तीसणंतकायभक्खणाअम्हे वि पुवपट्टधारगा अम्हे वि जोगवाहगा आलोअ- ओ वारिया महुमजमसाइ बावीस अभक्खणाश्रो णिसे हिणादायगा चाउबलस्स समणसंघस्स अप्लो वि गणवासी या सम्मत्तमूलाई दुवालस वयाई गाहिया जीवाऽजीवाई पायरियउबज्झायसीसो जो अम्हाणं मिलिस्सइ । अम्हा- नवपरूवणा सिक्खाविया चाउद्दसट्ठपुसमासिणीसु पोसहएं मंडलीए पवसं करिस्सइ सो वि जिणाणाए श्रा- पडिपुस्मपालणाय ठाविया । कुदेवकुगुरुकुधम्मामो वारिया राहगो भविस्मइ । एयं बुधताणं ण को विता- लोइयलोउत्तरदेवगुरुसंबंधमिच्छत्तानो णिसेहिया । शि
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( ५२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मयं पजा
यणियगणामामायारीए समणसंघमज्मे आरोधिया । तेसिं| अज्जपहिंसा सामारी सुसेविया पालिया फासिया तीरिया किडिया सा सेवमारणा या कयाधि दुडा । परं जंबू ! लेखि संताणिएहिं महाभमाणं सूरीगं निरीहाणं पड़परंपराए केइ मरणाय मे सिटिलकिरिए दट्टण समसामायाहिं इस्संति | ताणं पासंडिया किरिया फडाडोवं पासित्ता तेसिं दुट्ठत्रयणेणं अणुमोदणं करता हु कुलकमं पिता पमादपराणं पमादे आलोइत्ता तं मणं हीलं ना दिंता खिता गरिहित्ता । कहं ते कुलकमत्रो भट्ठा
राया हवंति ? | कहं तेसिं पासंडिया किरियाए फडाडो अणुमन्त्रिऊण कुलकमा गयगण सामायारी लंधिया कहं ते वि पासंडिया णिच्चकालं तारिसी. किरिया पत्रकुंता चिट्ठिस्संति | जंबू ! ते वि पासंडिया पुव्वकिरियाडम्बरं सिता तेर्सिमुद्धरूयाणं विमोहइत्ता पुरिसदुगं ति । तिगं० जाव किरिया फडाडोकं करिस्संति । पच्छातीया हमणसीला को उहलसीला कलहसीला भृइकम्मसीला | जोइसविज्जामंत तंतसीला कम्मण मोहणावसीकरणाइपगेणं सावयसावियाणं आवज्जमा गीयनायनविहीए नारीजण मोहमा सव्वपाणाड्वायमुमावाय अदत्तादाण मेहुणपरिग्महको हमाणमायालोभ पिजदोस कलह अब्भक्खाणार इपेसुन्न परित्रायमायामोसमिच्छादंसणमल्लइच्चेइयाई अट्ठारस. पावट्ठालाई सेवमाणा भविस्संति । अप्पत्युतिं पसं-समाणा परेसिंगिंदणपरा सड्डसंगहे कुसला एवं जंबू! जहा सूमडंगस्स बीयर सुक्खंधे पुंडरीकज्भगणे चचारि पुरिसा पुंडरियं घेत्तकम्मा णो पराए गो हत्या - एजाव, तहा ते विजयभासाभासयमाणा जाणियन्वा । जंबू ! जदिश्राहो तेसिं सामायारी पर्याडिस्सइ तद्दि हो sa भार वामे पडायारे भक्रिम | महाराय मरणाशि अभक्खभक्खाणि धरकण गरयणमंतमारमावतेयनाम- । खाणि कुलबहूण मिच्छकुल गमणाणि शिस्संतती उच्छालिस्संति । एवमाइए उवदेव उद्दिस्पति भरह | तए गं से जंबू अज्जसुहम्मं एवं क्यासी—कहं शं भंते ! तभत्तियाणं एवं भविस्मइ ! ? यनंसि मवि एवं भविस्सड् ? । एवं खलु जंबू ! तब्भत्ति - बास चि अभत्तियाण वि । से केदुगं भत! ए बुचड़ | जंबू ! जहा केइ नाभागरणगर निगम खंडकन्नडमदो मुहपट्टणे मिया तव्चासिए एंगणं पररट्टे विणास कए तां परडिया रायाणां सन्नद्भवद्धकवया चाउरंगिणीए मणाम् सनिहिया आगया । जुज्भंजिखित्ता तवाम्रिया मध्ये विणामिति । तहा
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भुक
तेसिं कुमयमईण ससम्माओ कि बहणं चिते मलि faras | जइ विकासामायाससु दुब्वा तह वि मणे कलुसभावणाए परिगहिया संता: अपोआ यारे हीलंता पासंडियाsयारे पसंसंता ते वितास्ति वेव, जहा पासस्थाणं संसग्गीए सुसाहू विणस्सइ तहा चोरपल्लीए वसंता माहशा चि हीरागा विषयं मुंषंति । तहा तेसिं संसग्गीए बहुलोगाणं उद्दवो भविस्स, जम्म रायकुले त भत्तिया वि सावया पहाणपुरिसे किांति,
कमेणं तं रायकुल माचिक्खयं भविस्सह । गुणं जहा पहा काही कोपा उववजमाणा तं सरीरं भासुरं दीसतत पच्छा कमेणं हत्थंगुलिया ओगलंति पायंगुलिया ओगलंति नासा ओगलति पुत्ररुहिरे कलेवरे - रुति तहाः तभत्तिपुराणं धणकणमादसिद्विमंता भवंति छते संभाशिया दौरहमक्खाणिया अपसंखासया भवन्ति । जंबू ! सिं संसग्गीए को कल्लाणे भविस्स ।
पाणं सेवं भंते ! सेवं भंते । अङ्ग० । सयपाल - स्वयं पालन- न० । श्रात्मनैव सेवायाम्, पञ्चा०५ विव० | सयंपालणा - स्वयंपालना - स्त्री० [आत्मनैव प्रत्याख्याताद्दारपालनायाम्, पञ्चा० ५ विव० । सयंबुद्ध- स्वयंबुद्ध-पुं० | स्वयमात्मनैव बुद्धस्तत्त्वं ज्ञातवान् । प० । श्रपरोपदेशेन सम्यग्वरबोधिप्राप्त्यां मिध्यात्वनिद्रापगमन सम्बोधनं प्राप्ते, रा० । कल्प० । ० म० । श्र० (प्रबुद्ध शब्दे पञ्चमभागे ४२४ पृष्ठे उक्तः । ) त्येककुद्धेभ्य एषां बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः - पत्तेयसयंबुद्धसिद्ध- स्वयं बुद्धसिद्ध - पुं० | स्वयंबुद्धेषु सत्सुः सिद्धेषु,
पा० । था० । घ० । प्रज्ञा० । ल० । नं० ।
स्वयंभु-स्वयं (भु) भू-पुं० । स्वयं भवतीति स्वयंभूः । विष्णौ, ब्रह्मणि, सूत्र० १ श्रु० १ ० ३ उ० । देवेषु सूत्र० १ ० ६ अ० | नं० | स्वयं भवनात् स्वयंभूः । जीवे, भ० २० श०२ उ० । स्वयम् - आत्मनैव परोपदेशनिरपेक्षतया ऽवगततत्त्वो भवतीति स्वयंभूः । स्वयं सम्बुद्धे, स्या० । भारते वर्षेऽवसर्पिण्यां जाते तृतीयवासुदेवेति । प्रव० । तृतीयंदेवलोकस्थे स्वनामख्याते विमान, नपुं । स० ६ सम० । सयंभूकड-स्वयम्भू(म्भू ) कृत- त्रि० स्वयं भवतीति स्वयम्भु| विष्णुग्भ्यो वा तत्कृतः । विष्णुकृते, ' सयंभुणा कड
लोग
सूत्र० १ ० १ अ० ३ उ० । ( अस्य व्याख्या 'कडवार' शब्दे तृतीयभागे २०४ पृष्ठे गता । ) स्वयंभूनिर्मितजगद्वादिनो भणन्ति" आसीदिदं तमोभूत-मप्रज्ञातमलक्षणम् । अभतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ १ ॥ तस्मन्नेकावीभूते नष्टश्थावरजङ्गमे । नामस्नर चैच, प्रष्टारगसक्षसे ॥ २ ॥ केवलं भूत, महाभूतविवर्जितं ।
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सयं भुकड अभिधानराजेन्द्रः।
सयंभुमहावर अचिन्त्यात्मा: विभुस्तत्र, शयानस्तष्यत्ते तप ॥३॥
भी सबा चयह पयं, करागमणुसरह वेरियामि। तत्र तस्य शयानस्थ, नामेः पद्मं विनिर्गनम् ।
थीबालबुडविद्धं-सक्वरिण मा विरावह ॥१८॥ तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काञ्चनकर्णिकम् । ४॥
एसा हम्मा पल्ली, झंति इमाई सयलंगहाई । रुस्मिन् पञ स भगवान् , दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः । इय उल्लाचं सोउं, सयंभुदत्तं विमुजरग ॥ १.६ । ब्रह्मा तत्रोत्पन्न-स्तन जगन्मातरः सृष्टाः ॥५॥
पवणजइणा जवेणं, सुमरिय चिरवइरिसुहडसंपाया। अदितिः सुरसंघानां, दितिरसुगरणां मनुर्मनुष्याणाम् । चामुंडाभवणाओ, ते भिल्ला झत्ति नीहरिया ॥२०॥ विनता विहङ्गमानां, माता विश्वयकाराणाम् ॥ ६॥ जाओ अज्जेच. अहं, अज्जेव य सयलसंपयं पत्तो। काः सरीस्पाणां, मुलसा माता च नागजातीनाम। इय चिंतंतो तुरियं, सयंभुदत्तो अवाकतो. ॥ २१ ॥ सुरभिश्चतुष्पदाना-मिला पुनः सर्वबीजानामिति ॥ ७॥" भीसपचिलायभयतर-लिनो य गिरिकुहरमझमज्भेणं । एवमुक्तकममेतदनन्तरादितं. वस्तु अलीकं भाम्तमा- घहलतरुवल्लिपडला-उलेण अपहेण वच्चंतो ॥ २२ ॥ नादिभिः प्ररूपितत्वात् । प्रश्न २ आश्र० द्वार ।
कसिणभुयगेण डको, उम्पन्ना बेयणा, महाघोरा । स्वयंभुदत्त-स्वयम्भु(म्भू)दत्त-पुं० । स्वनामख्याते काश्चनपु
परिचितियं च तेणं, इत्ताहे नणु विणस्सामि ॥२३॥
जइ कह वि चिलाएहिं, परिमुक्को ता कयंततुल्लेण । रवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, ध० र०।
उसिओ भुयंगमेणं, अलंघणिज्जं अहह दिव्यं ॥२५॥ स्वयंभुदत्तकथा पुनरेवम्
श्रइया जम्मी मरगण, जुब्वणं सह जमाइसयराई। "जलहिजलनेहपुन्ने.-सुमेरुदंड सुजाइकतिल्ले ।
संजोगो य विआगे-ण जायए किमिह सोगेयं ॥ २५ ॥ जंबुद्दीवे दीव, इहऽस्थि कंचणपुरं नयरं ॥१॥
इय चितंतो जा कि चि, सणियं सणियं स अग्गो जार। तत्थासि वासिनो जिण-मएण सिट्ठी सयंभुदनु नि ।
ता तिलयतरुस्स अहे, चारणसमणं नियच्छह ॥२६॥ पायं परिन्जिय पउ-र तिब्वश्रारंभसंरभो ॥२॥
विसमभुयंगमविस विहु रियस्स सरणं तुम मम मणिद! उल्लसिरनिरंतर अं-तरायवसो न तस्स संपडद ।
इय भणिरी मुणिपुरा, विचयणो झत्ति सो पडिओ॥२५॥ आजीविया वि निरव-ज अप्पसावज्जवित्तीण ॥३॥ मुणिचिहियगरुल अज्झयण, सरणवसजायपासणपकंपी। तत्ता अनिव्यहंता, श्रारंभर जाव करिसणं एसा ।
मणिणो वरदाणपरो, गरुलवई तत्थ संपत्ती ॥ २८॥ कृरग्गहदोसणं, ता जाया तत्थ ऽणावुट्ठी ॥४॥
तो तिमिरं पिव दिवसयर-किरणहणियं तयं महाहिविस । नीए बसेण अविरल-रलरोलाउलियइम्भसंदाहं ।
तह सुत्तविवुद्ध ब्व, उट्टिो सो वि पदुदहो ॥ २६ ॥ जणियजणदुक्खलक्खं, दुभिक्खं निवडियं घोरं ॥५॥ अह अज्झयणसमतीइ. गरुलनाही पयंपए हिट्ठा । तत्थ य सयंभुदत्ता, तयणु अकामा अनिव्वहंतो य । मुगिपवरवरेसु वरं, आह इमा धम्मलाही ते ॥ ३०॥ वसहाण वाहणा, प्रारंभइ जीवयोवायं ॥६॥
तं दट्ठ मणिमणीहं. नमिय सठाणं गो गरुलनाही। तण वि दुभिक्खवसा, जाब न निव्वहइ ताव केणावि। तुट्टा सयंभुदत्ता. वि तं मुणि पड इमं भण॥ ३१ ॥ महया सत्थंण सम, चलिओ देसतराभिमुहं ॥ ७॥
भययं ! भमंत भीसत्थ, सावयकुलसंकुडाइ अडवीए । दूरपहमाइक्कंते, सत्थ आवासिए परम्नम्मि।
गुरुपुत्रेण नूगं, तुह जोगो मह इहं जाओ ॥ ३२॥ तो मुकपकहका-चिलायधाडी समावडिया ॥८॥ जह मुणिवरिंद ! न तुमं, इह हुनो फुग्यिगुरुयकारुनो । तो भल्लसिल्लवावल-पमहप्पहरणकरा समरधीरा।
अदुट्ठरुट्टविसहर-विसचिसो तो मरंतो हं॥३३॥ सत्थसुहडा वि तीए, सद्धि जुज्झम्मि संलग्गा ॥6॥
तामह पसिण मुर्णि-दचदखयरिंदविंदनयचरण!। खंडियपयंडसुद्दड-विडियरणरहसनस्सिरनरोई।
आरंभदंभर-भवज्जियं देसु पब्बजं ॥ ३४॥ उप्पिच्छ सत्थनाई, दारुणमााहणं जायं ॥१०॥
तो समयभणियविहिणा, गुरुणा, पवाविप्रो इमो सारं । पवलबलेन खणण, तेग सुमहल्लभिल्लनिवहेण ।
पालियवयं सुहम्म, पत्ता गमिही सिवं कमसा ॥ ३५ ॥ कलिकालेण व धम्मा, सत्थो गलहत्थिी सयलो ॥११॥ कृपालार्जीवानां ततिषु हृदयालोर्जिनमते, घितृगण सारमत्थं, सुरुवरामाजणं मणुस्से य ।
स्वयंभूदत्तस्य प्रकटमिति बुद्ध्वा सुचरित्रम । बंदिग्गहेण य तओ, चिलायसणा गया पल्लि ॥ १२॥
निरारम्भे भावे कुरुत मनसा वृत्तिमतुला, सो बि हु सयंभुदनो, गयसव्यस्सो पलायमाणा य।।
सदा तीवारम्भान् परिहरत हे श्रावकजनाः ॥ ३६॥ धरणवंतु त्ति विचिंतिय, गहियो मिल्लेहि टुटेहि ॥१३॥ नियकसचायनिवाय-बंधणाईहिताडिनो वि दं।
इति स्वयंभुदत्तकथा । ध० र०२ अधि०६ लक्ष। को इच्छा जाब न किं, चि देयद्दव्वं ता तेहिं ॥ १४॥ सयं (भ) भुभद्द-स्वयं (भ) म्भुभद्र-पुं० । स्वयम्भुग्मणद्वीपादिण पुनोबाइय, चिलायकीरंत तप्पणविहीए। पदवे, सू० प्र० १६ पाहु । चं० प्र०। चामुंडाए पुरी, उबहारत्थं स उघणी श्रो॥ १५ ॥
सयं (भु) भुमहाभद्द-स्वय (म्भ) म्भुमहाभद्र-पुं०। यम्भूर वणिया! जा जी-बियब्धमहिलससि ता बहुं दषिणं ।
रमणद्वीपदेवे, च० प्र०२० पाहु० । सू०प्र०। अज्जचि मनसु अम्हं, कालमुहं जासि किमकाले ॥१६॥ एवं त जपता, सयंभुदत्तं न जाव खग्गेण ।
सयं (भु) भुमहावर-सयं (भु) भूमहावर--पुं० । स्वयम्भूरमनिहर्गति ताव सहसा, मट्टिो बहलहरबोलो ॥ १७॥ णसमुद्राधिपती देवे, सू० प्र०१६ पाहु०।०प्र०।
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सयंभूरमण अभिधान राजेन्द्रः।
सयग्घी सयंभरमण-स्वयम्भरमण-पुं० । स्वयं भवन्तीति स्वयंभुवो सयकम्मकप्पिय-स्वककर्मकल्पित-त्रि० । स्वकीयेन ज्ञानादेवास्ते यत्रागस्य रमन्तीति स स्वयम्भूरमणः। उत्त०११० वरणीयादिना कर्मणा व्यवस्थापित, सूत्र०१ श्रु० २ अ० स्था० । अनु। उत्त० । संथा० । श्राव० । अर्द्धरज्जुप्रमाण ३ उ०। प्रान्तसमुद्रे, अष्ट० ६ अष्ट० । सू० प्र० । जी।
सयकित्ति--शतकीर्ति--पुं०।भारते वर्षे उत्सपिण्यां भविष्यसयंभूरमणे दीवे सयंभूरमणभद्दसयंभूरमणमहाभद्दा य
ति दशमे, शतकजीवे तीर्थकरे. ती० २० कल्प । प्रव० । सः। इत्थ दो देवा महिड्डिया । (मू० १८५४)
सयकउ-शतक्रतु-पुं० । शतं ऋतूनां-प्रतिमानाम्-अभिग्रहस्वयंभुरमणे द्वीपे स्वयंभूभद्रस्वयंभूरमणमहाभद्रौ स्वयंभू- विशेषाणां श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा यस्याऽसौ रमणे समुद्रे स्वयंभूवरस्वयंभूमहावरौ । जी० ३ प्रति०५ शतक्रतुः । भ०३ श०२ उ० । उपा० । प्रज्ञा० । द्वी० । शकेन्द्रे, उ०। प्रज्ञा०।
' बज्जपाणी पुरंदर सयकऊ सहस्सक्खे' शतं क्रतवः सयंभूरमणोद-स्वयम्भूरमणोद-पुं०। स्वयम्भूरमणस्वामिनः |
श्राद्धपञ्चमप्रतिमारूपा यस्य स शतक्रतुः । इदं हि कार्ति
कशेष्टिभवापेक्षया, तथाहि--पृथिवीभूषणनगरे प्रजापाला समुद्रे, जी।
नाम राजा कार्तिकनामा श्रेष्ठी। तन श्राद्धप्रतिमानां शतं सयंभूरमणं णं दीवं सयंभूरमणोदे नामं समुद्दे वट्टे वलया० कृतं ततः शतक्रतुरिति ख्यातिः।कल्प०१ अधि०१क्षण ।जी। जाव असंखेजाई जोयणसतसहस्साई परिक्खेवेणं०जाव अ
सयग-शतक-पुं० । पुष्कलीत्यपरनामके श्रावके , स्था० । हो गोयमा! सयंभूरमणोदए उदये अत्थे पत्थे जच्चे तणुए
ठा० ३ उ० । ती०। प्रव०। (संख' शब्दऽस्मिन्नेव भागे फलिहवामाभे पगतिए उदगरसेणं परमत्ते, सयंभुरमणव- ३८ पृष्ठ कथोक्रा ।) शतप्रमाणग्रन्थे,पट्सु कर्मग्रन्थेष्वन्यतम रसयंभुरमणमहावरा इत्थ दो देवा महिड्डिया सेसं तहेव० शतके, कर्म। जाव असंखेजाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभिंसु
" यो विश्वविश्वभविनां भवबीजभूतं,
कर्मप्रपञ्चमवलोक्य कृपापरीतः । वा सोभति वा सोभिस्संति वा । (सू. १८५४)
तस्य क्षयाय निजगाद सुदर्शनादिस्वयंभूरमणसमुद्रस्योदकं पुष्करोदसदृशम् । जी० ३ प्रति. रत्नत्रयं स जयतु प्रभुवर्धमानः ॥ १ ॥ ४ अधिक।
अग्रायणीयपूर्वा--दुद्धृत्य परोपकारसारधिया । सयंभूवर-स्वयम्भूवर-पुं० । स्वयम्भूरमणोदसमुद्रस्य स्व- येनाभ्यधायि शतकः, स जयतु शिवशर्मसूरिवरः ॥ २ ॥ नामक देवे, सू० प्र०१६ पाहु० । चं० प्र०।
अनुयोगधरान पूर्वान् , धर्माचार्यान्मुनीस्तथा नन्वा । सयंवर-स्वयंवर-पुं० । स्वयमात्मना वरो वरणम् । कन्यया स्वापक्षशतकसूत्रं, विवृणामि यथाश्रुतं किंचित् ॥ ३॥ श्रात्मनैव स्वपतेवरणे,वाचापा० म०। (द्रौपद्याः स्वयंवर
कर्म० १ कर्म । वक्तव्यता ' दुवई 'शब्दे चतुर्थभाग २५८६ पृष्ठे गता।)
सम्प्रति शतगाथाप्रमाणत्यन यथार्थनामकं सयंवाइ-स्वयंवादिन-पुं० । तृतीयदेवलोकविमानभेदे, स०६
शतकशास्त्रं समर्थयमाहसम। विशालपुरराजस्य सोमप्रभस्य पुत्र, दर्श०१ तत्त्व ।
देविंदमूरिलिहियं, सयगमिणं आपसरणट्ठा ॥ १०॥ सयंस-शतांश-पुं० । शतभागस्य वस्तुनः शततमेंऽश, सूत्र० देवन्द्रसूरिणा करालकलिकाल पातालतलायमजद्विशुद्ध
धर्मधुरोद्धरणधुरीण-श्रीमजगच्चन्द्रसूरिचरणसरसीकह - १०७०।
चश्चरीककल्पेन लिखितमक्षरविन्यासीकृतं कर्मप्रकृतिपसयंसंबुद्ध-स्वयंसंबुद्ध-पुंस्वयमपरोपदेशन सम्यग्वरबोधि
श्वसंग्रह बृहन्छतकादिशास्त्रेभ्य इति शषः । किमित्याप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंसम्वुद्धाः ।
ह--शतकं शतगाथाप्रमाणमिदमधुनैव व्याख्यातस्वरूपम् । जी०१ प्रतिकातीथकृत्सु. ल०। 'सयमबुद्धागा'।तथा भव्य- किमर्थमित्याह--श्रात्मम्मरणार्थमात्मस्मतिनिमित्तमिति से स्वादिसामग्रीपरिपाकतः प्रथमसम्बधेिऽपि स्वयोग्यताप्रा
॥ १००॥ (कर्म) श्रीमद्देवेन्द्रसूरिविरचिता स्वोपक्षशतकधाम्यात् त्रैलोक्याधिपत्यकारणाचिन्त्यप्रभावतीर्थकरनाम
| टीका समाप्ता । कर्म०५ कर्म। कर्मयोगेन चापरोपदेशन स्वयम्-श्रात्मनैव सम्यग्यरवाधिमाप्त्या बुद्धा मिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधन स्वयंसम्बद्धाः । सयग्गसो-शताग्रशस्-श्रव्य० । शतसंख्यभेदेरित्यर्थे , बुक न चै कर्मणा योग्यताऽभाव नत्र क्रिया क्रिया, स्वफला- १ उ० ३ प्रक० । सूत्र० । शतपरिमाणेनस्यर्थे , भ०२५ प्रसाधकत्वात् , अश्वमापादी शिक्षापत्याद्यपक्षया । सक- श०६ उ०। ललोकसिद्धमेतदिति नाभव्ये सदाशिवानुग्रहः, सर्वत्र त- सयग्गु-शतगु-पुं०। सुरमिनामके वनस्पतिभेदे , प्राचा प्रसाद , अभव्यत्वाविशेषादिति भावनीयम् ।ल०। श्री०। २०१०१०८ उ० । कल्प० ।
सयग्घी-शतनी-स्त्री० । महायणी, महाशिलासु या उपरिसयकम्म-स्वककर्मन्-न० । स्वानुष्ठित पाप कर्मणि "जत्थ
| प्रात् पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां नन्तीति । शा० . पाणा विसनामि, किच्चंती सयकम्मग्णा" सूत्र० १श्रु० श्रु०१०। औ० । प्रज्ञा०। प्रश्न रा० जी०। शतभन्यो
हि यत्राविशेषरूपाः | उन .-1
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(५२५) अभिधानराजेन्द्रः।
सचदुबार सयण-शयन-न । शय्यते एम्पिति शयनामि । वसतिषु, "पाणिबहमुसाऽदत्तं" इत्यादि गाथाद्वयं प्राग् लिखितमेव, अरचा०१श्रु०६०१ उ० शय्यते स्थीयते उत्कुटुकासनादि
तथा शेषपापस्थानबजेन यथाभिरस्मिन् । आथयस्थाने,आचा०१श्रु. ६०१ उ० । खट्टा- 'तहा कोहं च माणं च, माय लोभं तहेव य।। याम् , प्राचा० . श्रु० १०५ उ० । पर्यादौ, स्था० ८ पिज्जं दोसं च वजेमि, अब्भक्खाणं तहेव य ॥१॥ ठा० ३ अ० शय्यायाम ,उत्त०१०। प्रश्नाध० धातूलीप- भर्रासपेसुनं, परपरिवायं तहेव य। पडे, प्रघरपटोपधानयुक्ने , सूत्र.१७०६०३ उ० । तू- मायामोसंच मिच्छत्त, पायट्ठाणाणि बजिमो ॥२॥' इति लाविशयनीये , मा०१०१०। संस्तारके, सूत्र०२७०
तथा२० स्था। भाषाखापे, प्रश्न०४संघद्वार । उत्त०।
'जर मे एज पमानो, इमस्स देहस्सिमा रयणीए । सं०। ('संथार' शब्देऽस्मिन् भागे १५० पृष्ठे संस्तारपीरिषी
पाहारमुवहिदह, सब्बं तिविहेण पोसिरि ॥१॥' प्रस्ताघे शयनविधिवतः 1) ('मजा' शम्दे प्रथमभागे २२१ पृष्ठे व गता।)
नमस्कारपूर्वकमनया गाथया त्रिःसाकारानशनस्वीकरण
पश्चनमस्कारस्मरणं च स्थापायसरे कार्ये, ततो विविक्तासाम्प्रतं श्रापकस्य रात्रिविषयं यविधेयं तदर्शयन्नाह- यामेष शय्यायां शयितव्यं, भतु स्त्रयादिसंसक्तायाम् , तथा
सति सतताम्बस्तत्याद्विषयप्रसास्योत्कटत्याच वेदोदयगत्वा गृहेऽथ कालेह-द्गुरुस्मृतिपुरस्सरम् ।
स्य पुनरपि तहासनया बाध्येत जन्तुः , अतः सर्वथोपअल्पनिद्रोपासनं च, प्रायेणायवर्जनम् ॥ ६७॥ शाम्तमोहन धर्मवराग्यादिभावनाभावितेनैव च निद्रा का. अथेति-स्वाध्यायानन्तर्य, गहे गत्वा काले-अयसरे
यति स्वापविधिः । तथा 'प्रायेण ' इति बाहुल्येन , गृहरात्रः प्रथमे यामेऽर्द्धरात्रे वा शरीरसात्म्येन, निजगृहे स्व
स्थत्वावस्य अब्रह्म-मैथुनं तस्य वर्जनं त्यजनं , गृहस्थेन कीयपुत्रादीनां पुरतो धर्मदेशनाकथनेन निद्रावसरे जात
हि यावज्जीयं ब्रह्मव्रतं पालयितुमशक्केनापि पर्वतिथ्यादिइत्यर्थः । अल्पनिद्राया उपासन-सेवनं , विशेषतो गृहि
बहुदिनेषु ब्रह्मचारिणैव भाव्यम् । ध०२ अधिः । धर्मो भवतीति संम्बन्धः। यतो दिनकृत्य-"काऊण स
सदन-न । अङ्गग्लानौ , ध०१ अधिः । गृहे , रा०।। यणवग्गस्स , उत्तम धम्मदसण । सिजाठाणं तु गंतूणं ,त- स्वजन-पुं० । मातापितृभ्रात्रादिके, प्राचा०१ श्रु०१०७
ओ अनं करे इमं ॥१॥" इति । भत्र निद्रेति विशेष्य- उ० । प्रा० म० । पुत्रपितृव्यादौ, ज्ञा० १ श्रु०१०। औ० । म् , अल्पेति विशेषणं, विशेषणस्य चात्र विधिः, सवि- स०। प्राचा० । पूर्वापरसंस्तुते मातापितृव्यश्वशुरादिके, शेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंकामत इति न्याया- श्राचा० १ ध्रु० २ ० १ उ० । पितृमातृपत्नीपक्षोद्भवाः त् , निद्रेति विशेष्य , तेन न तत्र विधिः , दर्शनावरणक- पुंसां स्वजनाः । ध०२ अधिक। सूत्र०। प्रश्न । मोदयेन निद्रायाः स्वतः सिद्धत्वात् । 'अप्राप्त हि शास्त्रमर्थव 'दिति (निद्राया अल्पत्वे विधिरित्यवसेयम् । ) कथं
सयणकाल-शयनकाल-पुं०। स्वापावसरे,सूत्र०२ श्रु०१०। निद्रां कुर्यादित्याह-अईदिति-महन्तः-तीर्थकरा गुरवो. सयणकिडग-स्वजनक्रीडक-पुं०। स्वजनादिना क्रीडाकारके. धर्माचार्यास्तेषां स्मृतिः-मनस्यारोपणं पुरस्सरापूर्व यस्य सूत्र.१ श्रु०४ १०१ उ०। तत्तथा, क्रियाविशेषणमिदम् , उपलक्षणं चैतत् चतुः
सयणवग्ग-स्वजनवर्ग-पुं०।स्यकीयलोके, पश्चा०विवा शरणगमनदुष्कृतगर्दा सुकृतानुमोदना सर्वजीवक्षमणप्रत्याख्यानकरणाटादशपापस्थानवर्जनपश्चनमस्कारस्मरण
सयणविरहिय-स्वजनविरहित-त्रिका भ्रात्राविबन्धुविवर्जिप्रभृतीनां-न ह्येतद्विना श्रावकस्य शयनं युक्तम् , तत्र दे
ते, पं० चू० ४ द्वार। वस्मृतिः-'नमो वीरायाणं, सव्वएणूणं तेलोकपू- सयणविहि-शयनविधि-पुंशयनं स्थापः तविषयको विधिः। याणं जहटिअवत्थुवाईण' मित्यादि । गुरुस्मृतिश्च- स्वमविधी, जंग। (शयनविधिः 'कला' शब्दे तृतीयभागे • धन्यास्त ग्रामनगरजनपदादयो , यषु मदीयधर्माचार्या | ३७७ पृष्ठे उक्तः ।) बिहरन्तीत्यादि,' चैत्यबन्दनादिना वा नमस्करणं स्मृ- सयणाइजुत्त-स्वजनादियुक्त-त्रि० । स्वजनहिरण्यादिसमतिः, यदाह दिनकृत्ये-"सुमिरित्ता भुवणनाहे "त्ति,
विते, पं० व०१ द्वार । वृत्ती-स्मृत्वा धातूनामनकार्थत्वाद्वन्दित्वा , भुवननाथान्-जगत्प्रभून् , चैत्यवन्दनां कृत्वेत्यर्थः। (ध०) (चतुःश- सयणासण-शयनासन--1०। पल्यङ्कादीनि शयनानि पीठिरणगमनम् 'चउसरग्य' शब्दे तृतीयभागे १०५८ पृष्ठे गतम् ।) कादनि श्रासनानि । पल्यङ्कपीठिकादिषु , पृ० १ उ०२ सुकुतानुमोदनं चत्थम्-'अहवा सव्वं चित्र घी-अरा- प्रक० । प्रश्न । जीत०। यवयणाणुसारि जं सुकयं । कालत्तए वि तिविहं, अणुमो- सयणिज-शयनीय-त्रि० । पर्यके, कल्प० १ अधि०२ क्षण। एमो तयं सव्वं ॥१॥' इत्यादि । सर्वजीवक्षमणं यथा--
सू०प्र० । जं० । विपा। "खाममि सव्वजीव, सव्व जीवा खमंतु मे | मित्ती मे सब्वभूएसु, वरं मझ न केणइ ॥१॥' इत्यादि । प्रत्या
सयदुबार शतद्वार-न । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे वैतादयगिक्यानं च चतुर्विधाहारविषयं ग्रन्थिसहितेन सर्वव्रतस- | रिपादमूले पुण्ड्रजनपदप्रधाने नगरे, यत्र महापदमस्तीर्थपरूपदेशावकाशिकवतस्वीकारणं च , यदुक्तं दिनकत्ये- कृ.दुत्पस्यते । स्था०६ ठा०३ उ० । अन्त। तीतिभ०।
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(५२६) सयधणु अभिधानराजेन्द्रः।
सयाउ सयघणु-शतधनुष-पु० । जम्बूद्वाप एरवत वष आगाम- सययम्भास-सतताभ्यास-पुं० । नित्यमेव मातापितृविनष्यन्त्यामुत्सरियां भविष्यति अष्टमे कुलकर, स० । ति०। यादिवृत्ती, ध० अधिक। जम्बूद्वीपे भारते वर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यति नवमे कुलकरे ।
सयरह-शतरथ-पुं० । भारते वर्षे ऽतीतायामवसर्पिण्यां जास्था० १० ठा० ३ उ० । बलदेवस्य रेवत्यां जाते पुत्रे, नि०१ श्रु०५ वर्ग १० अ०। (स चारिनेमेरन्तिके प्रबज्य सिद्ध
ते दशमे कुलकरे, स०। इति लिरयायलिकायाः पञ्चमे वर्ग पशमेऽभययने सूचितम्।) सयराह-देशी-युगपद, स्वरितेच। भा०म०१०।सयपत्या-शतपदिका-खी० । स्वेवजजन्तुभेदे, प्राचा० १ टिस्यथै, अनुमा०म०। प्रश्न। भु०१०५०।
सरि -सप्तति-स्त्री० । सप्तावृत्तदशसंख्यायाम् , 'सरि सयपत्त-शतपत्र-म० । पत्रशतसंखयोपेते पद्मे ।० प्र० मासाणं' महा०१०। १पाहु०। मा०म०। ती०1०रा०ा मोघा प्रहाश-सयरिसा-शताभ-पुं०। अयोधिशतितमे अहोरात्रमुह, अजये,ती०१कापास०प्र० प्रज्ञा समा०रा००प्र०१०पाह सयपब-शतपर्वन-१० । बहुपर्षे वंशजातीये घनस्पती, मा- |
| सयल शकल-त्रि० । सम्पूर्णे, विशे० ' सयलजगजीववा०१भु०१०५ उ० ।
हियं ।' कप०१मधि०५क्षण। सयपाग-शतपाक-२० । शतकस्यो यत्पर्क परावरौषधै रसेम
सयलजगप्पियामह-सकलजगस्पितामह-पुं० । सकलजगतः सहशतेनया कापणानां पक्लिमे,मा० ११०१मा मौ०।
समस्तभुवनजनस्य पितामह इब पितामहः सकलजगरिपताशतं पाकानामौषधिकाथानां या पाको यस्य,ौषधिशतेन वा महः । अथवा-सकलजगतो धर्मः पिता पालनानियुक्तत्वातसह पच्यते यत् शतकस्यः पाको यस्य, शतेन वा रूप- स्थापि भगवान् पिता भगवत्प्रभवत्वाधर्मस्येति पितुः पिताकाण मुख्यतः पच्यते यत्र तच्छतपाकम् । स्था० ४ ठा० १ पितामहः। सकलजगतः पितामह इति विग्रहः । तीर्थरुति, उ० शतवारं नवनवौषधरलेन पकानि । अथवा-यस्य
"भुषणगुरुणो य उषणा सयलजगपियामहस्स तो सम्म " पाके शतं सौवर्णा लगन्ति तत् । शतद्रव्यैः पके तैलादी ,
पं० सं०। करूप०१ अधि० ३क्षण।
सयलसमाहियसिद्धि-सकलसमाहितसिद्धि-खी। निखिलेसयपोरागकिमिय-शतपर्वककमिक-इनुपर्षकमिषु, जी०
प्सितार्थनिष्पत्ती, पशा विव० । ३ प्रति०१ अधि०२०।
सयलादेश-सकलादेश-पुं०। समग्ररूपतया प्रतिपादने.रत्ना० सयबल-शतबल-पुं० । ऋषभपूर्यभवजीषस्य बैताख्यपर्वते
४परि०। (सकलादेशस्थरूपम् ' सत्तभंगी' शब्देऽस्मिन्मेव गान्धारविषये जातस्य महाबलस्य राक्षः पितामहे, मा० भागे गतम् ।) चू०१०पातु मा० म० ।
सयलिदियविसयभोगपर्चत-सकलेन्द्रियविषयभोगप्रत्यन्तसयभिसय--शतभिष-स्त्री० । शततारे वरुणदेवताके स्व
पुं० । अशेषभोगपर्यम्ते, भा०। भामण्याते नक्षत्रभेदे, ०७ पक्षः। स्था। सू०प्र० स०।
सयवसह-शतषभ-१० | अहोरात्रस्य प्रयोर्षिशे महसे, कसयमाण-स्वपत-त्रि० । शयाने, "अजयं सयमाणो य पाणा
रूप १ अधि०६ क्षण । ० ० । भूयााँ हिंसा" वश०४०। प्राचा।
सयवार-शतवार-पुं० । शतश इत्यर्थे, 'तं कहि केहि लोसयमारंभवजण-स्वयमारम्भवर्जन-न० । अहम्यां प्रति-|
अणेहिं जोइज्जउ सयषार' प्रा०४ पाद। .. मायां भावककर्तव्ये , साक्षादारम्भनिषेधे , ' बज्जर सय
सयसहस्स शतसहस्र-न० लक्ष,हा० १ ४०५०। मारंभ सायजं कारयेति पेसेहि। वित्तिणिमित्तं सुब्धय
स्था०। शा० ज० अनु०। गुणजुत्तो अट्ठ जा मासा" इति । उपा०१०।
सयसहस्सपत्त-शतसहस्रपत्र-न० । लक्षदलोपेते पों, । सयमास-स्वकमास-पुं० । स्वकीयमासे, निं० पू० २० उ०।
सयसामस्थाणुरूव-स्वकसामर्थ्यानुरूप-त्रि० । निजशक्लयनुसयमह--शतमुख-न। स्वनामख्याते नगरे, यत्र गुण
सारे, पञ्चा०१८ विध। चन्द्रः श्रेष्ठी चन्द्रिकया भार्यया सहासीत् । पिं०।
सयसाहस्सिय-शतसाहसिक-त्रि० । लक्षप्रमाणे, कल्प सयय-शतत-नाअनवरते,प्राचा०१श्रु०८ १०४ उ० उत्त।
१ अधि०५क्षण। शतक-पुं० । उत्सर्पिण्या भविष्यतो दशमतीर्थकृतः पूर्व
सया-सदा-भव्य० । सर्यकाले, प्राचा०१७०१४ ०१ भवजीवे स्वनामख्याते श्रावके, स. ८४ सम० । ति० । उ० । स्था० । दश । सूत्रः। श्राप नित्यं शब्दार्थे, भ०३ समयबंध-सततबन्ध-पुं० । शततं बन्धः सततबन्धः । नाम- श०३ उ० । स्था० । सातस्ये, चं० प्र०२० पाहु० । प्रवाहनामवतारैकार्थे समासो बहुलमिति समासः । यथा वि- तोऽपर्यवसिते काले , स्था० १० ठा०३ उ०। । स्पष्टं पटुः विस्पष्टपटुरित्यादौ । निरन्तरबन्धकाले बन्धे, सयाउ-शतायुष्-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते क्षेत्रे अतीतायामक्र०कर्मः।
| त्सर्पिग्यां जाने द्वितीये कुलकरे , स्था० १० ठा० ३३० ।
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(५२७) सयाउ अभिधानराजेन्द्रः।
सयासिव ति। स० । सुराविशेष,शतवासनपि शोधिताऽपि या स्व- । कयिष्यति । ततो हुनेनोक्तम्-नैवम् , यत उच्छीर्षस्थितरूपं न जहाति । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं० ।
विषधरस्य योजनशतस्थायि वैद्यः किं कुरुते ?, तसयागुत्त-सदागुप्त-त्रिका सर्वकालं प्रहरणादिभी रक्षित,जी० स्माद् सुस्थं कुरु । तेनोक्तम्--कथं पुनरेतत् संपद्य
ते ? । ततो दूतेनोक्तम्--उज्जयिनीनगरीसत्का बलिष्ठा ३ प्रति०३ अधिक।
इष्टका भवन्ति । ताभिः कौशाम्म्याः प्राकारं कारय । सयाज(य)य-सदायत-त्रि० । सर्वकालं प्रयत्नपरे, दश०४ उजयिन्याश्चातिदूरे कौशाम्बी, ततो गन्ध्याविवाहनैरिष्टका माचा० । दश | प्राचा०।
मानेतुं न शक्यते । अतः पदातिपुरुषमाधुर्याडमएडप्र
पोतेन तान् परम्परया व्यवस्थाप्य हस्ताद् हस्तसंचारेसयाजला-सदाजला-स्त्री०। सदा-सर्वकालं जलम् उदक
णेहका मामाय्य कारितः कौशाम्न्याः प्राकारः। ततो मृगायस्यां सा तथा। सदा जलाभिधानायर्या मरकनद्याम् .
पत्या प्रोक्तम्-धाम्यजलतणादिकं यथा मगरीमध्ये प्रपुर "सयाजला नाम नदी भिदुग्गा पबिज्जला लोहथिली
भवति तथा कारय । ततो रागान्धस्वेन भएपजिना तेन णतत्ता।" सूत्र०१७०५७०२ उ०।
सर्व तत्तथैव कारितम् । ततो रोधकशध्यायां तस्यां नगर्यो सयाणिय-शतानीक--पुं०। कौशाम्या नगर्याः स्वनामख्याते संजातायां व्यभिचरिता मृगापतिश्चएडप्रयोतस्य । ततो राजनि उदयनपितरि, बिपा०१श्रु०५ मा भाचा । विशे। नगरीद्वारे समायाता विलक्षीभूतस्तिष्ठत्यसौ। ततो मृगाअत्रैव भरतक्षेत्रे यमुनानदी कूले पूर्यदिग्वधूकण्ठनिषेशित
पस्या चिन्तितम्--पुत्रराज्योपद्रवध्यतिकरे निश्चिता संमुक्ताफलकण्ठिकेव कौशाम्बी नाम नगरी। तत्र व सहलानी
जाताऽहं तावत् , ततो धम्यास्ते प्रामनगराविप्रवेशा येषु कराजसूनुः स्वकुलमहासर: सरसि जायमानः शतानीको
भगवान् महावीरो विचरति, धम्यश्च स एष लोको यस्तमाम राजा । तस्य च चेटकराजदुहिना श्रीमहावीरजिनक्र
स्पावरजोरजतभालतलः सततं तदन्तिकोपासीनस्तवचःमकमलमधुकरी च भुवनातिशायिरूपा मृगापतिनाम
पीयूषवृष्टिभिनिर्याप्यमानः कालं निहियति , तद् यचत्र पट्टमहादेवी । अन्यदा च शतानीकनरपतिमा निजमनःकु. कथमपि भगवान् समागच्छति, ततोऽवलोकितातितुरन्तविकल्पसंभाषिताऽलीकापराधन स्वनगरी नियासिनस्तो
संसारङ्करस्याऽहमप्येतत् करोमि प्रमज्या बाऽभ्युपगच्छाषितसाकेतपुरप्रतिष्ठितसुरप्रियाभिधानयक्षाघाप्तथरस्य नि
मि । एतच तदाकूतं विशाय समागतस्तत्र भगवान् । मृगारपराधम्य वैकस्य चित्रकरस्यायप्रदेशिन्योर दि
पतिश्चएउपयोतश्च तत्र बन्दनार्थमुपगतः । धर्मकथावसाने तम् । ततस्तेन 'निरर्थकमपमानितोऽहम् ' इति गाई प्र
च मृगापत्या व्रतग्रहणार्थ चएडप्रपोतो मुत्कलापितः । तेकपितनापायं विमृश्य स्त्रीलोलत्यावतिबलिष्ठत्यायोजयि
नापि भगवजया तस्याश्च सदेवमाऽसुरायाः परिषदो नीनियासिनश्वरप्रद्योतनरनाथस्य चित्रफलके घरलब्ध
लजमानेन सा मुस्कलिता, प्रनजिता च । विशे० । भ० । सया यथायस्थितं मृगापतिकपं प्रदर्शितम् । ततस्तेनाति
कल्पाती। भा० क० । घासजनपने कौशल्या राक्षः मदनपरषशेन तयाचनाय शतानीकान्तिके दूतः प्रेषितः ।
शतानीकस्य जयम्तीनाम भगिन्यासीत् । पृ० १ उ० । सच शतानीकेन बाढमपमान्य निर्भय॑ च विसर्जितः
संथा। भाब० । प्रा०चू०। सतस्तद्वचनाकर्णनप्रकुपितश्चण्डप्रद्योतो महाबलैरनेकभर
सयाथिमिय-सदास्तिमित-स्त्री० । अविरहितं प्रशाम्ते, पं० कोटिस्यामिभिर्यजमुकुटेश्चतुर्दशभिर्भूपालैः, महता स्वबलेन
। सू०४ सूत्र। व सह प्रचलितः शतानीकस्योपरि । तं च तथा महायल
सयामग-श्यामक-पुं० । गर्व भिमराजादनन्तरशकराजाच भरेणाऽगच्छन्तं श्रुत्वा, भात्मानं चाल्पसामग्रीकं झाया। पूर्थमभिषिक्त भारतप्रधानराजे, ति। वयसबहेन संजातातीसाररोगः पञ्चत्यमुपगतः शतानी- सयालि-सदालि-पुं० । भारते आगमिष्यम्त्यामुत्सर्पिण्यां कः। ततो मृगापत्या चिन्तितम्-धिङ् मम रूपम् , यदर्थ भविष्यतोऽष्टादशतीर्थकरस्य संवरस्य पूर्वभवजीवे , तीर मर्तस्तावद् मरणमागतम् । न चैतायता स्थास्यतीदम् , २० कल्प । स०। किन्तु भवकोटीच्ययाति दुरवापं श्रीमन्महावीरोपदेशतः सु- सयावरी-शतावरी-त्रि० । यजीभेदे, ध०३ अधिः । प्रष० । चिरमनुपालितं मम शीलाभरणमपि विलुप्येत लग्नम् । त- श्रीन्द्रियजीवभेदे, उत्त० ३६ अ०। स्मादपायमत्र चिन्तयामि, इति विमृश्यन्त्याः स्वबुद्धिल- सयावियडभाव-सदाविकटभाव-पुं०। सर्वकालं प्रकटभावे, ग्धसम्यगुपायया चण्डप्रद्योतस्यागच्छतो दूरस्थितस्यैव
'सयावियडभावे असंसक्त जिइंदिए । ' दश० अ०।
AM निपितः सम्मुखो दूतः । तेन च गत्वा मृगापतिवच
सयासव-सदाश्रव-त्रि० । श्राश्रयतीपरक्षरति जलं यैस्ते मात् प्रोक्तम् , यथा-राजन् ! मृगापतिर्भाणयति-यद्-भसरि मृते स्वाधीनैव तावत् तबाहम् , परं किम्वद्यापि
आश्रयाः-सूक्ष्मरन्ध्राणि सन्तो विद्यमानाः सदा या-सर्वदा राजा वाल एवायमुदायननामा मत्पुत्रः। ततो यद्यस्य
चा आश्रया यस्य स सदाश्रयः । आश्रयैः सदा सहिते,
भ०१श०६उ०। सुस्थमकृत्वैवाऽहं त्वया सह गच्छामि , तदा सीमालराजादिभिरसी परिभूयते । सम्मादिहैव दूरे स्थितोऽमं सु
शताश्रव-त्रि० । शतसंख्या आश्रया यस्य सः । शतसंण्यस्थं कुरु । अथास्मिनकृतेऽप्येवमेवाऽोग मद्देशसीमायां स
काश्रवोपते. भ०१ श०६ उ०। मेष्यसि, तदा विषादिप्रयोगतो मरिष्यामि । ततश्चण्डप्र- सयासिव-सदाशिव-पुं० । न । सदा शिवमस्येति सदाशिद्योतेनोक्तम्-मयि विद्यमाने न कोऽप्यस्य संमुखमप्यवलो- | वम् । ल । षो। परब्रह्मणि,शैयोपास्ये परतत्वे, द्वारद्वारा
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mara
वयासोबख -सदासौरूष न० नित्यसुखे, अपवर्गे आव०६
अ० । पञ्चा० ।
२१२४ ॥ इति
सदस० ॥ इकारयकारयोऽपत्ययो वा सहनीये प्रा०२ पा सयोग-सयोग पुं० | योगेन सहितः संसारी जीवमेदेखा
"
२ ठा ४ ३० ।
सर मार-पुं० । बाणे, सूत्र० १ ० ३ ० १ ३० । अत्रे, प्र० द्वार। घ० । संथा० । प्रा० म० । औौ० | सूत्र० स० ।
सरम् ०। स्वयं सम्भूते जलाशये, अनु खा० प्रा० मि० चू० । म० । औ० रा० प्रश्न० । उत० शा० । बहूनि केवलानि पुष्पानि सर्रासीत्युच्यन्ते प्रा०२ प स्वर-अप स्थलोंके देवलोके गा
,
स्वर - पुं० । शुद्धेष्यकाराचक्षरेषु पुं०| "अक्सर सरयेण सरा" ''शब्देोपतापयोः अव्यस्थरऐन संश हमेन स्वरा अकारादयः प्रोच्यन्ते । अथवा - अक्षरस्य चै वन्यस्थ स्वरणात् संशब्दनात् स्वराः, शब्दोच्चारणमन्तरेणाऽ तर्विज्ञानस्य पयत्यात् स्वरसङ्गायादिति । विशे० ।
( ५२५ ) अभिधान राजेन्द्र
"
सुद्धा वि सरंति सयं, सारंति य वंजगाईं जं ते । होतिसरा न कयाह वि, तेहि विणा वंज सरह ।। ४६२ ।। जिज्जइ जेणत्थो, घडो व्व दीवेण वंजसं तो तं । अत्थं पायेण सरा, वंजति न केवला जेां ।। ४६३ ॥
TI
शुद्धाः केवला व्यञ्जनरहिता अपि अकारादयः स्वराः स्वयमेघ स्वरन्ति-शम्यन्ति विप्रमु वस्तु व्यजनानि चैते संयुधः सन्तः स्वरयन्ति उच्चारयाम्यानि कुर्वन्ति यतः, तेन कारणेन स्वरा भयस्येते । न हि कापि तैः स्वनस्य स्वरराम अर्थ परमप भूतानि व्यञ्जनानि स्वरैर्विनोच्चारयितुं शक्यन्ते, अतो व्यञ्जमस्वरणादप्येते स्वरा उच्च्यन्त इति भावः । व्यज्यते प्रकटीकटादिरथमेनेति कृत्वा पञ्जनमभिधीयते व्यञ्जनसाहाय्यविरहिता यतः केवलाः स्वरा प्रायो न कदाचिद् बाह्यमर्थं व्यञ्जयन्ति अपनीतव्यञ्जनं हि वाक्यं न विवक्षितार्थप्रतिपादनायालं दृश्यते यथा-'सम्यगदर्शनान चारित्राणि ' इत्यत्र वाक्ये व्यञ्जनापगमे पते स्वरा समवतिष्ठन्ते- 'अ अ श्रश्र श्रश्रा श्र श्रा---' । न चैते वि. यक्षितमर्थ प्रतिपादयितुं समर्थाः । प्रकारेकारादयः केचला अपि विष्णुमन्मथादिकमर्थ प्रतिपादयन्तीति प्रायोग्रह णम् । अत्राह - नन्वकारादयो विष्णुप्रभृतीनां संज्ञा एव । एवं च सति यथा केवलेन स्वरेण संज्ञा तथा संकेतवशात् वनयनाप्यसी भविष्यति तत्कथं पूर्वगाधायामुक्रम 'न कयाइवि तेहि विणा बंजरां सरह' इति ? सत्यम्, तत्राऽ यमभिप्रायः खरैः केवलैरपि काचित् काचित् संज्ञा दृश्यते, यस्तु सर्वथा तद्रहितैनं काचित् संज्ञा वश्यत इति । संयम व इति पर्यायी सामान्याची स्वरो व्य मत्तु प्रत्येकं वर्णविशेषाचकावितिविशेषण सफलजनादेयत्वप्रकृतिगम्भीरतादिगुणाद्यलंकृते ध्वनौ, अनु० ।
,
सर
विशे० । सूत्र० । स्था० । सं० रा० । जं० । 'स्व' शब्दोपतापयोः स्वरः ध्वनिमिशेष अनु
खराः
"
सतसरा पता जहा "सजे रिसमे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । धेवते चेव खिसाते, सरा सत्त विवाहिता ॥ | १ || " एएसि णं सत्तयहं सायं सन सरद्वाया पष्ठता, तं जहास तु भग्गजिम्मा, उरे रिसभं सरं ।
कंदुग्गतेय गंधारं मकजिम्मा तु मज्झिमे ॥ २ ॥ यासाए पंचमं बुवा, दंतोद्वेग व सुद्धा य सितं, सरद्वाणा बियाहिता ॥ ३ ॥ सतसरा जीवनिस्सिता पछता, सं जहासरखति मयूरो, कुकुडो रिसई सरं । हंसो यदति गंधारं मज्झिमं तु गवेलगा ॥४॥ मह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं । डुं च सारसा कोंचा, खिसायं सत्तमं गता ॥५॥ सप्त सरा अजीवनिस्सिता पत्ता, तं जहासरखति महंगो गोमुदी रिसमे सरं । संखो दति गंधारं, मज्झिमं पुण झञ्चरी ॥ ६ ॥ चउचलखपतिडाखा, गोहिया पंचमं सरे । आडंबरो रेवतिर्त महामेरी य सतमं ॥ ७ ॥ एतेसि गं सनसणं सत सरलक्खणा पाता, तं जहासजेय लभति विनि, कर्त च य विस्सति । गावोमित्ताय पुत्ताय, खारी चेव वल्लभो ॥८॥ रिसमे उ एसजे गावचं भवामि य वत्थगन्धमलंकारं, इत्थिय सयणाणि य ॥ ६ ॥ गंधारे गीतजुत्तिम्मा, वजवित्ती कलाहिता । भवंति कवियो पत्रा, जे भने सत्यपारमा ॥ १० ॥ मज्झिमस्सर संपणा, भवंति सुहजीविणो । खायती पीयती देती, मज्झिम सरमरितो ॥ ११ ॥ पंचमस्सरसंपन्ना, भवंति पुढवीपती ।
सूरा संगहकतारो, अगगगणातगा ।। १२ । रेवतस्सरसंपन्ना, भवन्ति कलहप्पिया । साउखितावरिया सोयरिया मा म ॥ १३ ॥ चंडाला मुडिया सेवा, जे असे पावकम्मियो । गोघातगा य जे चोरा, शिसायं सरमस्सिता ॥१४॥ एतेसिं सत्यहं सरायं तच गामा पच्छना, तं जहा स अगामे मज्झिमगामे गंधारगामे सजगामस्स सं सत्त । मुच्छणातो पत्ताओ, तं जहा
मंगी कोरब्बीया, हरी य रयणी व सारकंता व छड्डी व सारसी ग्राम, सुद्धसजा व सत्तमा ।। १५ ।। मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पष्मत्ताश्रो, तं जहाउत्तरमंदा रयणी, उत्तरा उत्तरासमा ।
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सर
(५२६) अभिधानराजेन्द्र:।
सर मासोकंता य सोवीरा , अभीरु हवति सत्तमा ॥ १६ ॥ तथा ऋषभो-वृषभस्तद्वद् यो वर्तते स ऋषभ इति । गंधारगामस्स ण सत्त मुच्छणातो पणत्ताश्रो तं जहा
आह च-"वायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः, रणदीति खुद्दिमा पूरि-मा य चउत्थी य सुद्धगंधारा।
नईत्यृषभवद् यस्मात् , तस्मादृषभ उच्यते ॥ २ ॥"
तथा गन्धो विद्यते यत्र स गन्धारः स एव गान्धारो, उत्तरगंधारा तित्त , पंचमिता हवति मुच्छा उ ।। १७॥
गन्धवाहविशेष इत्यर्थः । श्रभाणि हि-" बायुः समुसुट्टत्तरमायामा, सा छट्ठी णियमसो उ णायव्वा । थितो नाभेः , कण्ठशीर्षसमाहतः । नानागन्धावहः पुण्यो, अह उत्तरायता को--डिमातसा सत्तमी मुच्छा ।। १८ ॥ मान्धारस्तन हेतुना ॥१॥” तथा मध्ये कायस्य भवो सत्त सराओं को सं--भवंति ? गेयस्स का भवति जोणी? मध्यमः , यदवाचि-"वायुः समुत्थितो नाभे-हरोहदि कति समता उस्सासा?, कति वा गेयस्स श्रागारा?।१६।
समाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो . मध्यमत्वं समश्नुत
॥ १॥" तथा पञ्चानां पड्जादिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रिसत्त सराणाभीतो, भवंति गीतं च रू (रु) यजोणीतं ।
त्य पूरणः पञ्चमः । अथवा-- पञ्चसु नाभ्यादिस्थानेषु मापादसमा ऊसासा, तिन्नि य गीयस्स आगारा ॥ २०॥ तीति पञ्चमः स्वरः । यदभ्यधायि-" वायुः समुत्थितो श्राइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मझगारम्मि। नाभे-रुरः (हृत् )कण्ठशिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्याऽस्य, अवसाणे तज बितो,तिनि य गेयस्स आगारा ॥ २१॥ पञ्चमत्वं विधीयते ॥१॥ तथा अभिसन्धयते--अनुसछद्दोसे अद्वगुणे , तिनि य वित्ताइ दो य भणितीओ।।
न्धयति शेषस्वनिति निरुक्तिवशाद् धैवतः, यदुक्लम्
" अभिसन्धयते यस्मा-देतान् पूर्वोत्थितान् स्वरान् । जाणाहि ति सो गाहिइ, सुसिक्खिओ रंगमज्झम्मि।।२२।।
तस्मादस्य स्वरस्यापि , धैवतत्वं विधीयते ॥ १ ॥" भीतं दुत रहस्सं , गायंतो मा तगाहि एत्तालं ।
पाठान्तरेण रैवतश्चैवेति . तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् काकस्सरमणुनासं च होंति गेयस्स बद्दोसा ॥ २३ ॥ स निषादः , यतोऽभिहितम्-" निषीदन्ति स्वरा यस्मापुन्नं१ रत्तं२ चअलं--कियं ३ च वत्तं ४ तहा अविरघुटुं५ ।
निषादस्तेन हेतुना । सर्वाश्वाभिभवत्येव , यदादित्योऽस्य मधुरं ६ सम७ सुकुमारं८,अट्ठ गुणा हाँति गेयस्स । २४ ।
दैवतम् ॥ १ ॥” इति, तदेवं स्वराः सप्त — वियाहिय'
त्ति--व्याख्याताः । ननु कार्य हि कारणायत्तं जिह्वा च स्वउरकंठसिरपसत्थं, व गेजते मउरिमिअपदबद्धं ।
राणां कारणं साचासंख्येयरूपा ततः कथं स्वराणां संख्यासमतालपडुक्खेव, सत्त सरसीहरं गीयं ।। २५ ॥ तत्वमिति , उच्यते-असंख्याता अपि विशेषतः स्वराः निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलकियं ।
सामान्यतः सर्वेऽपि सप्तस्वन्तर्भवन्ति । अथवा-प्रथू. उवणीयं सोचयारं च,मियं मधुरमेव य ।। २६ ॥
लस्वरान् गीत--चाऽऽश्रित्य सप्त उक्लाः , आह च-"क
ज्जं करणायत्तं, जीहा य सरस्स ता असंखेजा । ससममद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च जं ।
रसंखमसंखेजा, करणस्सासंखयत्ताओ ॥१॥ सत्त य सुत्ततिन्नि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नापलब्भती ॥ २७ ॥
निबद्धा, कह न विरोहो ? तो गुरू श्राह । सत्तगुवाई सकता पागता चेव, दुहा भणितीउ आहिया ।
सब्वे, वायरगहणं च गेयं वा ॥२॥” इति । स्वरान्नामतोसरमंढलम्मि गिज्जते , पसत्था इसिभासिता ॥२८॥
ऽभिधाय कारणतस्तन्निरूपणायापक्रमते-एएसि ण' मिकेसी गायति मधुरं , केसी गायति खरं च रुक्खं च ।
त्यादि , तत्र नाभिसमुत्थः स्वगेऽविकारी आभोगेन अना
भोगेन, वा यं प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत्म्बरस्योपकेसी गायति चउरं , केसि विलंबं दुतं केसी ॥२६॥
कारकमिति स्वरस्थानमुच्यते , 'सज' मित्यादि श्लोकद्वयं विस्सरं पुण- केरिसि।
घूयादिति सर्वत्र क्रिया, षड्जं तु प्रथमस्वरमेव अग्रभूता सामा गायइ मधुरं , काली गायइ खरं च रुक्खं ज। जिह्वा अग्रजिह्वा जिह्वानमित्यर्थः, तया यद्यपि षड्जभगोरी गायति चउरं, काण विलंब दुतं अंधा ।। ३० ।।
णने स्थानान्तराण्यपि व्याप्रियन्ते अग्रजिह्वा वा स्वरान्तेषु
व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुतरव्यापारवतीति कृत्वा विस्सरं पुण पिंगला ।
तया तमेव ब्रूयादित्यभिहितम् , उरो--वक्षस्तेन ऋषभस्वतंतिसम तालसमं , पादसमं लयसमं गहसमं च । रं, कंठुग्गएणं' ति--कण्ठश्चासावुग्रकश्च--उत्कटः कण्ठोनीससिऊससियसमं, संचारसमा सरा सत्त ॥ ३१ ॥
अकस्तन कण्ठस्य वोग्रत्वं यत्तेन कण्ठोगत्वेन कण्ठाद्वा सत्त सरा य ततो गामा, मुच्छणा एकवीसती।
यद्द्तम्--उद्गतिः स्वरोद्मलक्षणा क्रिया तेन कण्ठोद्तेन
गन्धार, जिह्वाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा ता मध्यम, ताणा एगूणपएणासा , सम्मत्तं सरमंडलं ।। ३२ ॥
तथा दन्ताश्च श्रोष्ठौ च दन्तोष्ठं तेन धैवतं रैवतं येति । (सू० ५५३) इति सरमंडलं समत्तं ।।।
'जीवनिस्सिय' त्ति-जीवाश्रिताः जीवेभ्यो वा निःसृतासुगम चंद , नवरं स्वरणानि स्वराः-शब्दविशेषाः, निर्गताः , 'सज' मित्यादि श्लोकः , 'नदति-रौति 'गवे'सजे' त्यादि श्लोकाः, षड्भ्यो जातः षड़जः, उक्नं हि-| लग' त्ति-गायश्च एलकाच-ऊरणका गवलकाः, अथ"नासां कण्ठमुरस्तालु , जिहां दन्तांश्च संश्रितः। षभिः वा--गयेलका ऊरणका एव इति, 'अह कुसुम' इत्यादिरूसञ्जायते यस्मा-त्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ १ ॥" | पकं गाथाभिधानम् , "विषमाक्षरपादं वा, पादैरसमं दशंध
१३३
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( ५३० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सर
।
मंवत् । तत्रेऽस्मिन् यदसिद्धं गांधति तत् परितैर्ज्ञेयम् | १" इति वचनात्येतिविशेषार्थः, विशेषा येता चैवम-प्रथा बेलका अविशेषेण मध्यमं स्वरं नदन्ति न तथा कोकिला पञ्चमम् अपि तु कुसुमसम्म का
"
·
,
इति कुसुमान बाहुल्यता वनस्पतिषु सम्भव पश्मिनू स तथा तत्र, मधावित्यर्थः । श्रजीवनिस्सिय ' त्तितचैव नवरं जीवप्रयोगात तिमित्यादि सोकः, मृदङ्गो-मर्दलः गोमुखी - काहला यतस्तस्या मुखे गोशृङ्गमन्यद्वा क्रियत इति, चउ ' इत्यादि श्लोकाः चतुधिरप्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथा गोधा चर्मणा यति गांधिका वावशेषो दरिकेति डम्बरः- पटहः सप्तममिति निषादम् । एपसिमि' त्यादि, 'सत्त' त्ति-स्वरभेदात् सप्तस्वरलक्षणानि यथा स्वं फलं प्रति प्रापणाव्यभिचारीति स्वररूपाणि भवन्ति, तान्येव फलत आह' सज्जे 'त्यादि श्लोकाः सप्त, पदजेन लभते वृतिम् प्रयमर्थः परस्येदं लक्ष-स्वरूपमस्ति येन वृत्ति - जीवनं लभते षड्जखरयुक्तः प्राणी, एतच्च मनुष्यांपेक्षा लक्ष्यते, मनुष्यलयस्येति कृतं च न विनश्यति तस्येति शेषः निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः गायो मित्राणि च पुत्राश्व भवन्तीति शेषः । एति गन्धारे गीतविवृत्तयःप्रधानजीविका कलाभिरधिकाः कपयः काव्यकारिणः प्राशाः--सद्बोधाः, ये च उभ्या गीतादिभ्योऽन्ये उक्तेभ्यो शास्त्रपारगा:-धनुर्वेदादिपारगामिनस्ते भवन्तीति शकुमेन श्येनलक्षणेन चरति पाप कुर्वन्ति शतान् वा जति शाकुनिका, वागुरा-मृगबन्धनं तथा चरन्तीति वागुरिका, शुकरेण करवधायें चरन्तीति शूरान् या ध्यसीति शौकरिका, मीटिकामा इति एतेषा मिलादि, तत्र व्याख्यानगाथा - सज्जार तिहा गामो, ससमूहो मुच्छनाण विनेश्रो । ता सत्त एकमेके, तो सत्त सराय वीसा ॥ १ ॥ सरदससे उप्पार्थनसमुदा भणिया । कता व मुच्छिओ इव, कुणई मुच्छं व सांवि ॥ २ ॥ ' कर्त्ता वा मूर्छित इव करोति, मूर्च्छन्निव वा स कर्त्तेत्यर्थः, इह च महीप्रभृतीनामेकविंशति मूर्च्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगते स्वरप्राभूते भणिताः, अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतवैशाखिदिशाभ्यो विशेष इति सन्त स रा कओ' गाहा, इह चत्वारः प्रश्नाः, तत्र कुत इति स्थानात् योनिरिति का जातिः ः तथा कति समया येषु ते कतिस
"
का किपरिमाणकाला इत्यर्थः तथाऽऽकाराः मयाः, उच्छ्रासाः आकृतयः रूपाणीत्यर्थः, 'खतरा' माहा प्रश्ननचनार्था स्पष्टा, नवरं रुदितं योनिः जातिः समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिकं, पादसमया उच्छासा यावद्भिः समयैः पादौ वृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छ्रासा गीते भवन्तीत्यथेः । आकारानाद्द-'श्राई' गाहा श्रादौ प्राथम्ये मृदु कोम
मादि गीतमिति गम्यते, आरभमाणा इह समुदितयापेक्ष बहुवचनमन्यथा एक एव आकारो द्वयमन्यद् वक्ष्यमानलक्षयमिति तथा समुदन्ता महना गीतध्वनेरिति गभ्यते, मध्य कारे-मध्यभागे, तथा श्रवसाने च क्षपयन्तो गीतध्वनिं मन्दीकुर्वन्तस्त्रयो गीतस्याकारा भवन्ति, आदिमध्या
"
सर
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वसानेषु गीतध्वनिः मृदुतारमन्द्रस्वभाव: मेरा भवतीति भावः । किं चान्यत् - 'छद्दोसे' दारगाहा, पट् दोषा वर्जनीयाः, तानाद भी गाहा भीतं मानसं इरि तं २' रद्दस्सं 'तिस्परं लघुशमित्यर्थः, पाठान्तरेण ' उपिच्छं ' श्वासयुक्तं त्वरितं वेति उत्तालम् - उत्प्राबल्यार्थे इत्यतितालमस्थानतालं वा, तालस्तु कंसिकादिशब्दविशेष इति ४ । काकस्वरं - लक्ष्णा श्रव्यस्वरम् अनुनासं च-सानु - नासिकं नासिकाकृतस्वरमित्यर्थः किमित्याह-गायन् गानवृत्त गायन ! मागासी, किमिति है, यत एते व स्य षट् दोषा इति । अष्टौ गुणानाह" पुनं " गाहा— पूर्व स्वरकलाभिः १ र मेयरागेणानुरक्तस्य २ अलङ्कृतमन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात् ३ व्यमक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात् ४ अविघुटुं ' विक्रोशनमिव यत्र विस्परं मधुरं मधुरस्यरं कोकिलामंासस्यमनुगतं ७ सुकुमारं खलितं ललतीय यत् खरघोलनाप्रकारे शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रियस्य सुखोस्पादनाद्वेति पनि येषं भवति । अन्यथा विडम्बना । किंचान्यत्- ' उर' गाहा उरः कण्ठशिरःसु प्र शस्तं विशुद्धम् श्रयमर्थो - यद्युरसि स्वरो विशालस्तत उरो विशुद्धं कण्ठे यदि स्वरो वर्त्तितोऽस्फुटिनश्च ततः कशुद्धं शिरसि तो पद नानुनासिकस्ततः शिरोविशुम् अथवा उ कराउ शिरः सुया अ व्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु पचतयेति चकारो गेयगुणान्तरसमुच्चये, गीयते-उच्चार्यत गेयमिति सम्बध्यते कि विशिष्टमित्याद १-मृदु-मधुरस्वरं रिमितं यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्परो रङ्गतीव घोलनाबलमित्यर्थः, पदवद्धं - गेय पदैर्निबद्धमिति, पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'समतालपहवेमं ति-समः प्रत्येकं स स्वध्यते तेन समास्ताला - हस्तताला उपचारात् तद्ववो यस्मिंस्तत्समताले तथा समः प्रत्युत्क्षेपः प्रतिक्षेप वा मुरजकंशिकायतोद्यानां यो ध्वनिस्तङ्गराः नृत्यत्पादपलक्षणो वा यस्मिंस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपं वेति, तथा - ' सत्तसरसी भरं ' ति - सप्तस्वराः ' सीभर ' ति श्रक्षरादिभिः समा यत्र तत् सप्तस्वरसीभरं, ते चामी' अ क्खरसमं १ पयसमं २ तालसमं ३ लयसमं४गह समं च शनीससिऊससियसमं ६ सञ्चारसमं ७ सरा सत्त ॥ १॥" सि, इयं च गाथा स्वरप्रकरसोपान्ते 'तंतिसम 'मित्यादिरधीताऽपि इद्दाक्षरसममित्यादि व्याख्यायते, अनुयोगद्वारटीकायामेवमेव दर्शनादिति तत्र दीर्घे अक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते, इसे इस्वः, ते त सानुनासिके सानुनासिका रस
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मं तथा पद्मेषपद - नामिकादिकमन्यतरयम्धेन व पत्र स्वरे श्रनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत्पदसममिति, यत्परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्त्ति भवति तत्तालसमं, शृङ्गदार्वाद्यन्यतरमयेनाङ्गुलिको शकेनाहतायास्तनयाः स्वरप्रकारो लगतमनुसरतो गातुयैज्ञेयं तयसमं प्रथमतो वंशतयादिभिः स्वरो गृहीतस्तत्समं गीयमानं प्रहसमं निःश्वसितोसितमानमनतिक्रामतो पद्मेथे तमिः सितोच्तसमं तैरेवं वंशादिसारसमं गीयते तत्सञ्चारसमं, गेयं च सप्त स्वरास्तदात्मकमित्य
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थेः । यां गेये सूत्रबन्धः स एवमष्टगुण एव कार्य इत्याहनिदोस सिलोगो' - तत्र निर्दोषम् - "अलियमुवघायजणयं" इत्यादि द्वात्रिंशत्सूत्र दोषरहितं १ सारवद श्रर्थेन युक्तं हेतुयुक्तम् अर्थगमककारणयुक्तम् ३ अलङ्कनं - काव्यालहारयुक्रम् [४] उपवीतम् उपसंहार सोपवारम् अनि रा-विरुद्धा लखनीयाभिधानं सोया या ६ मितं प दपादाक्षरैः नापरिमितमित्यर्थः ७ मधुरं त्रिधाशब्दाश्रभिधानतो व गेयं भवतीति शेषः । तन्नि बिलाई ति - यदुक्तं तद्व्याख्या -' समं ' सिलोगो, तत्र-धर्म पादैरखरंध रात्र पादैश्चतुर्भिरणारैस्तुगुरुलघुभिः अर्द्धसमं बेकतरसमं विषमं तु सर्वत्र पादाक्षरापेक्षयेत्यर्थेः, अन्य तु व्याचक्षते - स-यत्र चतुष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि श्रर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीयपोर्द्वितीयचतुर्थयाध समर्थ तथा सर्वत्र सर्वपादेषु वि - पनं च विषमाक्षरं वद् परमाद् तं भवतिसप्रजातानि-पद्यप्रकाराः श्रत एव चतुर्थी नोपलभ्यत इति । दोनि य भणिश्रो ' त्ति-अस्य व्याख्या- सकया ' सिलोगो, भणितिः- भाषा आदिया - श्राख्यातास्वरम जादिस्यरसमूहे, शेषं कव्य की सरप-सरघ पुं० मधुमक्षिकायाम् सूत्र० २ ० ३ ० - कण्ठ्यम् | । । रथी स्त्री कीदृशं गायतीति प्रश्नमा केसी 'गाडा- सरद्वारा स्वरस्थान-१० नाभिसमुल्यस्वरोऽधिकारी - भोमेन नामोन वा प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत् स्वरस्योपकारकमिति स्वरस्थानम् । स्वराणां विशेषापाद के स्थाने, स्था० ८ ठा० ३ ३० । अनु० । "नासाए पंचमं बूया, दंतोट्ठेल य धेवयं । मुद्धाणेण य सायं, सरद्वाणा विया -
"
शरिकाभिः कृते शूर्पादौ श्राचा०२ श्रु०१ ०१ श्र०११ उ० । सरगय-स्वरगत न० गीतमूलभूतानां पद्मादिवराज्ञाने, जं० २ चक्ष० । शा० | स० ।
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केसि सि कीदृशी खरं ति-खरस्थानं रूक्षं--प्र
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सिद्धं चतुरं विलम्ब-परिमम्बरं हुतं शीघ्रमिति रसरं पुण' केरिसि' त्ति-गाथाधिकमिति, उत्तरमाह" सामा गाहा कण्ठ्या, ' पिंगल ति-कपिला ‘तंति' गाद्दा तन्त्रीसमं-वीणादित श्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च शेर्पा प्राग्वत् नवरं पादो वृत्तपादः तत्रीसममित्यादिषु गेयं सम्बन्धनीयं तथा गेयस्य स्वरानर्थान्तरत्वादुक्तम् संचारसमा सरा सत्त त्ति- श्रन्यथा सञ्चार सममिति वाच्यं स्यात्, 'तंतिसमा तालसमे' त्यादि येत अर्थ व स्परमण्डलस पार्थ:, 'सत सरा' सिलागो, तता तन्त्री तानो भण्यते, तत्र षड्जादिः स्वरः प्र त्येकं सप्तभिस्तानैर्गीयत इत्येवमेकोनपञ्चाशत्तानाः सप्ततत्रिकायां वीणाययति एवमेकतन्त्रीयांका. यां च कण्ठेनापि गीयमाना एकोनपञ्चाशदेवेति । स्था० ७ ठा० ३ उ० | उत्त० । श्र० म० । प्रव० जी० । तं० । प्रशा० । जीवाजीवविनस्वरस्वरूपफलाभिधायके शास्त्रे, नपुं० । ०
या " ( इतीयं 'सर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्याता । ) सरड - शरट- पुं० । कृकलाशे, श्रोघ० । प्रज्ञा० । श्रा० क० । प्रश्न० । 'सरडकयमालियाए' शरटैः कृकलाशैः कृता माला स्रग् मुण्डे वक्षसि वा येन तत्तथा । उपा० २ श्र० । सर-सरक१० अफले साचा० २०१ चू० १ ० ८ उ० । वृ० ।
सरडुफल- सरडुफल - न० । अवद्धास्थिकफले, ध०२ अधि० । श्राचा० । नि० । चू० ।
·
सरण-शरण-२० आश्रये ३२०१० रागादिपरिभूताथि तत्त्ववात्सल्ये, आचा० २ श्रु० १ चू० ३ श्र० ३ ३० | ० | प्रश्न० | नानाविधोपद्रवोपद्रुतानां रक्षास्थाने, त्राणे भ० १ श० १ उ० | कल्प० । प्रश्न० सूत्र० । संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वासनस्थानकल्पे तत्वचिन्तारूपेऽध्यवसान रा० श्राचा० "जन्मजरामरण ये रमिते व्याधिवदनादन्यात शर एं कचिल्लोके || १ ||" स्था० ४ ठा० १ उ० जी० । तृणमयवासरिकादी, अनु० । भ० । प्रश्न० । गृहे, श्राचा०१ श्रु०५ श्र०५
,
( ५३१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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3
३१ सम
स्मर- पुं० । “पक्ष्म-श्म-ष्म स्म ह्मां म्हः " ॥ ८ ॥२॥ ७४ ॥ इति क्वाचित्कत्वादत्र न । स्मरः । सरो ।प्रा०|'अधो म-न-याम्" ||८|२|७८ || इति मलोपः । प्रा० । कन्दर्पे, अ० २२ अ० । सुधा० गती, "वारा ४२३४॥ इति सुधाताः ऋवरीस्यारः । सरह । प्रा० ४ पाद ।
33
स्मृधा० । श्रध्याने, " स्मरेः भर भूर० " ॥ ८४॥ ७४ ॥ इत्यस्य पक्षे | सरह । स्मरसि । प्रा० ४ पाद ।
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सरन - पुं० स्त्री० | शरद् - स्त्री० | "शरदादेरत्" ॥११८॥ इति अन्त्यव्य जनस्य त् । प्र० । प्रावृद- शरत्तरणयः पुंसि ॥ ८ । १ । ३१ ॥ इति वा पुंस्त्वम् । श्राश्विनकार्तिकमासात्मके श्रुतौ प्रा० १ पाद ।
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सरण्य
सरउ - सरयु - स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणस्यां भारते वर्षे गङ्गासङ्गतायां महानद्याम् । स्था० १० ठा० ३ उ० ॥ या अयोध्यायाः सन्निकटे वहति । स्था० ५ ठा० ३ उ० । सरक्ख - सरजस्क - त्रि० । सक्षारे, वृ० ३ उ० । रजसोपगुण्ठिते, उत्त० १७ अ० । सभस्मनि, श्रोघ० ।
सरक्ष- त्रि० । रक्षा- भस्म, सह रक्षया वर्तत इति सरक्षम् । सभस्मनि, पिं० । श्रा० म० ।
सरक्खधूलि - सरक्षधूलि - स्त्री० । सह रजसा श्लक्ष्णधूलिरूपेण यत इति सरजस्का सा बासी धूलिधेति । रजः सहितधूली, सरक्खामोस सरजस्कामर्श - पुं० सह पृथिव्यादिजसा यु-- । क्लं यद्वस्तु तस्य श्रामर्शः- तत्संस्पर्शः । रजोयुक्तवस्तुस्पर्शे,
श्राव० ४ श्र० ।
सरग--शरक
अनिनिधनराशि ०१ ० १६ अ० पुं०| अग्निनिर्मन्थनदारुणि,
।
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उ० | सूत्र० ।
सरण - न० । गमने, उत्त० १६ श्र० । श्राचा० |
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स्मरण-१०। पूर्वोपलभ्यार्थानुस्मृती द्वा०] १६ २० सूत्र० । मनसि धारणे, पञ्चा० १ विव० । ज्ञा० । सरण्य - शरणद - पुं० । शरणं त्राणमशानोपद्रवोपद्रुतानां तद्वक्षा-त्यानं तच्च परमार्थतो निर्वाणं तद्ददातीति शरणकः ।
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सरपाय अभिधानराजेन्द्रः।
सरविजय तीर्थकृति , स०१ समः । ग भ०। जी। धशरण- इति शरपातः । धनुषि, सूत्र०११०४०२ उ०। देभ्यः' इह शरण-भयास्त्राणं तश्च संसारकान्तारगताना-सरपाइड-स्वरप्राभृत-न० । पूर्वगते स्वराधिकारप्रतिपादकेमतिप्रबलगगादिपीडितानां दुःखपरंपरासंक्लेशविक्षोभतः | ऽधिकारविशेषे, स्था० ७ ठा०३ उ० । समाश्वासनस्थानकल्पं तत्वचिन्तारूपमध्यवसानम् , विवि- सरप्पमाण-सरप्रमाण-न० । सर एवोक्ललक्षणं प्रमाणे महादिषेत्यन्ये , अस्मिश्च सति तत्वगोचराः शुश्रूषाश्रवण- कल्पादेर्मानं सरःप्रमाणम् । गोशालकमतप्रसिद्ध कालमानग्रहणधारणाविज्ञानहापोहतत्त्वाभिनिवेशाः प्रशागुणा भ- भेदे, भ० १५ श०। ('गोसालग' शब्द तृतीयभागे १०२३ वन्ति, तस्वचिन्तामन्तरेण तेषामभावात् । संभव- | पृष्ठे वक्तव्यतोक्ला।) न्ति तामन्तरणापि तदाभासाः न पुनः । स्वार्थसाध- सरभ-शरभ--पुं० । परासरेति पर्याये अष्टापदे महाकायाटकत्वेन भावसाराः। तत्त्वचिन्तारूपं च शरणं भगवद्भ्य एव | विषयो इस्तिनमणिपणे समारोण्यति भवतीति शरणं ददतीति शरणदाः । ध०२ अधिक।
आश्र0 द्वार । रा०। जं.। प्रश्न । कल्प० । ०। ज्ञा० । व्य०। सरणिज-स्मरणीय-त्रि० । सुद्रोपद्रवविद्रावणादिकते तद्गुणानुचिन्तनादिनोपबृहणीये , संघा० १ अधि० १ प्रस्ता०।।
| सरभस -सरभस-त्रि० । सहर्षे, प्रश्न० ३ आश्रद्वार। श्रा० म०।
सरमंडल-स्वरमण्डल-न० । षड्जादिस्वरसमूहे, अनु० । सरणी-सरणी-स्त्री० । मार्गे, "पंथो मग्गो सरणी " पाई। स्था०। ( 'सर' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽस्य स्वरूपं गतम् ।)
सरमह-सरोमह-पुं० विशिष्ट काले सरसः पूजायाम् ,आचा० . ना० ५२ गाथा।
२ श्रु०१ चू०११०३ उ०॥ सरस्म-शरएय-त्रि० । शरणे साधुः शरण्यः । शरणदातरि,
सरमाण--स्मरत-त्रि० । अयमीटश इति जानाने, व्य०४ उ०। ध०३ अधि।
प्राचा सरतल-सरस्तल-न० । पानीयेन भृतं तडागं सरस्तस्य त
सरय--सरक-पुं० । गुडधातकीसिद्धे मये, प्रश्न०५ संवद्वार। लम्- उपरितनोभागः सरस्तलम् । जी० ३ प्रति० ४ श्रधि । उपरिभागावच्छिन्न सरसि, भ० ६ श०७ उ० ।
शरक--पुं० । निर्मन्थनका, नि०१ श्रु.३ वर्ग ३ अ०। 'पुक्खरेह वा सरतलेइ वा करतलइ वेति " वृत्तवर्णकः ।
शरद--स्त्री० । कार्तिकमार्गशीर्षयाः, क्षा०१ श्रु० अ०। अत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति निर्वातं जलपूर्ण ज्यो । भ० । स्था० । सू० प्र० । सरयरयणीकरसोसरो ग्राह्यमन्यथा वातोद्भूयमानो वा जलत्वेन विवक्षितः मययणा' कल्प०१ अधि. ३ क्षण । समभावो न स्यादित्यर्थः । जं० १ वक्षः । रा०।
सररुह-सरोरुह--न । " प्रोतोऽद् वाऽन्योन्यप्रकोष्ठातोद्यशिसरद-पु. 1-शरद-स्त्री० । प्राकृते पुंस्त्वम् । कार्तिकमार्गशी- | रोवेदनामनोहरसरोरुहे लोश्च वः ।।८।१।१५६॥ इति श्रोतोऽत्व र्षयोः, भ० ७ श० ३ उ०। अनु० । झा०। आश्विनकार्तिक
घा। सररुहं सरोरुहं । कमले, प्रा०१पाद । मासात्मके ऋती, वाच०। प्रावृ०८।१॥ ३१ । प्रा०१ पाद ।
सरल-सरल-त्रि० । देवदारुवृक्ष, जं० २. यक्ष०। प्राचा० : सरदहतलायसोसणया-सरोहदतडागशोषणता-स्त्री० । सर
प्रज्ञा । भ० । अवके, श्रा०क०१०।" सरलास्तत्र छि
द्यन्ते, कुछजास्तिष्ठन्ति पादपाः।" ध०र०२ अधिक। सः-स्वयं सम्भूतजलाशयविशेषस्य हृदस्य-नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य-कृत्रिम जलाशयविशेषस्य
सरलक्खण--स्वरलक्षण--न । यथास्थरफलं प्रति प्रापणाव्यपरिशोषणं यत्तत्तथा तदेव प्राकृतत्वात् स्वार्थिकताप्रत्यये
| भिचारिणि स्वरस्वरूपे, स्था०६ ठा०३ उ० । (तानि च सप्त सरोहदतडागपरिशोषणता । श्रा० । उपा० । भ० । गोधू- 'सर' शब्देऽस्मिन्नेव भाग दर्शितानि ।) मादिवापनार्थ सरश्रादिशोषणरूपे करणेन उपभोगपरिभी- सरवण-शरवन-म० । स्वनामख्याते शरप्रधाने सन्निवेशे, यत्र गवतातिचारलक्षण कर्मादाने, श्राव०६ अ०। ध० । सरसः गोबहुलस्य ब्राह्मणस्य गोशालायां गोशालको जन्म लेभे । शोषः सरःशोषः धान्या दिवपनार्थ सारणीकर्षणं, सरोग्रहणं भ०१५ श० । संथा। प्रा० म० । भा० चू० । स्था० । जलाशयान्तराणामुपलक्षणं तेन सिन्धुहदतडागादिपरि
सरवत्त-शरपत्र--न० । वृहद्रिषिकायाम्, प्राचा० १५०१ ग्रहः । यतः सरःशोषः सरसिन्धुहदादरम्बुसंप्लवस्तत्र
श्र०५ उ०। अखातं सर , खातं तु तडागमित्यनयोर्भदः । इह हि जलस्य
सरवर--सरोवर--न । महति सरसि, "सरिहिं म सरवरेहिं न सदतानां प्रसानां तत्प्लावितानां च पराणां जीवनिकायानां
वि उज्जाणवणहिं," प्रा० ९०४ पाद । बध इति दोषः । ध०२अधि० । पश्चा०।धकर।
सरविजय--स्वरविजय--पुं० । स्वरः पादकीशियादीकृतरूपस्तसरपंति-सरःपक्ति-स्त्री० । एकपङ्क्त्यां व्यवस्थितेषु बहुषु
स्य विजयस्तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः । स्वरविसरःसु, रा०। आचा० । भ०। प्रशा० । सरसां पद्धती, नं०।
द्यायाम् , यथा-" गतिस्तारास्वरो वामः, पादक्याः शुभदः यौकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन् अन्यस्मादन्यत्र संचारकपा
स्मृतः। विपरीतः प्रदेश तु, स एवाभीष्टदायकः॥१॥" इत्यादि, टकनोदकं संचरति सा सर:पतिः । प्रश्न०५ संव० द्वार ।
तथा "दुर्गास्वरत्रयं स्यात् ,ज्ञातव्यं शाकुनेन नैपुण्यात्। चलिनिचू०। जी० । जं० । अनु० । स्था० । ज्ञान
विलशब्दः सकला, सुमध्यमा वर्चलो विफलः ॥१॥" इत्यादि। सरपणी-शरपी-स्त्री० । मुझे, स्था०५ ठा० ३ उ०।
'सरस्स विजयं जो विज्जाहि न जीव से भिक्खू।' उत्त०१५ सरपाय-शरपात-पुं० । शरा-इषवः पान्यन्ते-क्षिप्यन्ते येन
यन। ०। प्राव।
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अभिधानराजेन्द्रः।
सरिकप्प सरच-शरब्ब-त्रि० । शरलये, द्वा० २७ द्वारा उत्त०। औ०। सरसोस-सरःशोष-पुं० । जलाश्रयशोषणे, ध० २ अधिक। सरस-सरस-त्रि० । रुधिरादियुक्त , प्रश्न. ३ माघ द्वार। ('सरदहतलावसोसणया' शब्दे इहैव व्याख्यातम् ।) राारसोपेते, स०। रक्तचन्दनविशेष,मा.१ श्रु. १०। सरहस्स-सरहस्य-नि० । रहस्ययुक्त, 'सरहस्साणं वेयाणं' "सरसचंदणाणुलित्तगत्ते," सरसेन सुरभिणा च गोशी
कल्प०१ अधि०१क्षण। पचन्दनेन च अनुलिप्तं गात्रं यस्य स तथा । कल्प०१ अधि. ३क्षण । सचस्के, कल्प०१ अधि०१क्षण। आव० ।
सरहा-सरघा-स्त्री० । मधुमक्षिकायाम् , "अल्पमधमं पणत्री, 'सरसरुहिरमंसावलिनगते' सरसाम्यां रुधिरमांसाभ्याम
क्रूरं सरघां नटीच षट् सुद्रान्।" इति । स्था० ६ ठा० ३ उ०। बलिप्तं गात्रं यस्य तत्तथा । उत्त० २०१०।
सरहि-शरधि-पुं०। तूणीरे, शा०१ श्रु०१८ अ०। सरसंनित-शरसधित-त्रि० । शरजालसंचिते, शरशताकुले, सराग-सराग-पुं०। सह रागेणाभिष्वङ्गलक्षणेन यः स सरागः। सूत्र.१७०३ १०१ उ०।
स्था०८ ठा० ३ उ० अनुपशान्तक्षीणमोहे, स्था० १० ठा० सरसफारिजायग-सरसपारिजातक-न० अम्लानसुरमवि- ३ उ० । मायालोभलक्षणेन रागण साहत, भ० १७ श०२ शेषकुसुमे, अन्त०१ श्रु० ३ वर्गक अ०।
उ० । अपरिपाकग्राप्तयोग ध०२ अधिक। सूत्र। सरसय-शरशत-त्रि० । शराणां शतं प्रत्येकं येषु ते शरःश-| सरागत्थ-सरागस्थ--पुं० । सह रागेण वर्तत इति सरागःतानि । प्रत्येकं शराणां शतेन परिपूर्णेषु, रा० । 'सरसयय- | स्वभावस्तस्मिन् तिष्ठतीति तत्तथा । स्वभावस्थे, सूत्र०१ सीसतोरणपरिमंडिया' शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि श्रु० ३ ० ३ उ०। शरशतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत्तोरणाणि च वाणाश्रयाः सरागदंसणाऽऽरिय-सरागदर्शनार्य-पुं० सह रागेणाभिष्वशरशतद्वात्रिंशत्तोरणानि तैमण्डिताः शरशतद्वात्रिंशत्तो
नि तैमेण्डिताः शरशतद्वात्रिंशत्तो- लक्षणेन यः स सरागः , स एव संयमः सरागस्य वा रणमण्डिताः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । भ० ।
साधोः संयमो यः स तथा कर्मधारयः। स्था०६ ठा०३ उ०॥ सरसर-सरसर-पु० । सर्पगतेरनुकरणे , भ० १५ श० ।। सरागदर्शनिनि, प्रश्न०१ पाश्र० द्वार । मा० । लौकिकानुकरणभाषायाम् , उपा०२०। सरागसंजम-सरागसंयम--पुं० । सकषायचारित्रे, स्था० ४ सरसरपंति-सरःसरस्पक्ति-स्त्री० । परस्परं सलमेषु बहुषु ठा०४ उ० ( सरागसंयम द्विविधमिति 'चरित्तधम्म' शब्दे सरस्सु, प्राचा०२ श्रु.१चू० ३ ०३ उ० । येषु सरस्सु तृतीयभाग ११४६ पृष्ठे गतम् ।) पहफ्त्या व्यवस्थितेषु एकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन् तस्मा- सरागसम्मइंसण-सरागसम्यग्दर्शन-सरागस्य अनुपशान्तादन्यत्रै संचारकपाटकेनोदकं सश्चरति । जं०१ वक्ष जी।
क्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा । अथवा नि० चू० । प्रज्ञा० । अनु० । भ०। ।
सरागं च तत्सम्यग्दर्शन चेति विग्रहः । सरागं सम्यग्दर्शनसरसी-सरसी-स्त्री० । महति सरसि, औ०। महान्ति सरां- मस्येति चेति । सम्यग्दर्शनभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ० । सि सरसीरपुच्यते । औ०। पिं० । “पुक्खरिणी दीहिया | ('सम्मइंसण' शब्देऽस्मिन् भागे दशविधत्वमस्य गतम् ।) सस्ती" पाइ० ना० १३० गाथा।
सराव-शराव-पुं० । मल्लके, बृ०३ उ० । श्राव। सरस्सई-सरस्वती-स्त्री० । भद्रनन्दीकुमारमातरि, ऋषभपुर- सरासण-शरासन-पुं० । न० । शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्ते श्र. नगरराजस्य धनवाहस्य भार्यायाम् , विपा०२ श्रु०२०। स्मिन्निति शरासनः । इषुधौ, जी०४ प्रति०१ उ० । धनुषि, भारत्याम् , को। भणिती, उपा०२०।दश।" यस्याः रा। औ०।० "कोई गंडीवं धम्मं धणुहं सरासणं संस्मृतिमात्राद्, भवन्ति मतयः सुदृष्टपरमार्थाः। वाचश्च चावं । " पाइ० ना० ३७ गाथा । बोधविकलाः, सा जयतु सरस्वती देवी ॥१॥" षो०१ विव०।।
सरासणपट्टिया-शरासनपट्टिका-स्त्री०। धनुर्यष्टी, बाहुपट्टिस्था०४ ठा०१ उ० । भ०।" सव्वयसमूहमती, वामकरे गहियपोत्थया देवी । जक्खकुटुंडीसहिया , देतु अविग्धं
कायां च । विपा० १ श्रु०२०। ममं नाणं।" पं० भा०५ कल्प । गीतरते मगन्धेर्चे- सरिमा-सरित-स्त्री० नद्याम् , 'खीयामादविद्युतः" | न्द्रस्याप्रमहिष्याम् , “ नमः श्रीवर्धमानाय, श्रीपार्श्व- १५ ॥ इति अन्ते श्रात्वम् । प्रा०। नद्याम् , 'सरित्रा तरंगिप्रभवे नमः । नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः"। णी णिमया ई" पाइ० ना०२८ गाथा । ॥१॥०१ श्रु०४ वर्ग १० । स्वनामख्यात नदीभेद, ती.
सरिउं-स्मृत्वा-अव्य० । अनुचिन्त्येत्य, पश्चा०५ विव० । २५ कल्प।
__ जं०। नि० चू०। सरस्सईकंठाभरण-सरस्वतीकण्ठाभरण-नाविंशतिव्याक
सरिकप्प-सदृकल्प-पुं०। समानस्थितकरूपस्थापनाकल्पादिरणेष्वन्यतमे व्याकरणे, कल्प०१ अधि०१ क्षण । इन्द्रभूतिसगते विधि, पुं० । कल्प०१ अधि०६क्षण ।
विविधकल्पकर्त्तरि, वृ०६ उ०। सरस्सईलद्भुप्पसाय-सरस्वतीलब्धप्रसाद-पुं० । इन्द्रभूतिस- श्राहारउवाहिसेजा, उग्गमउप्पादणेसणा सुद्धा । गते परिडते, कल्प.१ अधि०६क्षण ।
जो परिगिएहति णिययं,उत्तरगुणकप्पिोम खलु३६६
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सरिकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर यः आहारोपधिशय्या उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धा-नियतं नि- सर्षप-पुं० । सिद्धार्थके, भ०६श०७ उ० । स्था। शा०। चितं परिगृह्णाति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः। प्रशासनिक प्रय० । एतेषु सदृशकल्पेनेह किं कर्तव्यमित्याह
सरिसबमाणचलण-सदृशोपमानचरण-त्रि० । सदृशं युक्तसरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिद्वतरए वा । मुपमानं ययोस्तौ सदृशोपमानौ एवंविधौ चरणौ यस्य स साहुहि संचव कुजा, णाणीहि चरित्तगुत्तेहिं ।३६७ तथा । तुल्योपमानपदे, कल्ए० १ प्राधि०२ क्षण । सरकल्पः-स्थितकल्पः स्थापनाकल्पादिविविधः, कल्प- सरिसवय-सर्वपक-पुं० । सिद्धार्थके, शा० । कर्ता सहकछन्दः-समानसामाचारीकः तुल्यचारित्रः समा- सरिसवया णं भंते ! किं भक्खेयव्या, अभक्खेयव्वा ? मसामायिकादिसंयमः , विशिष्टतरो या तीव्रतरशुभाध्यव
गोयमा ! भक्खयव्या वि अभक्खयव्वा वि। सायविशेषणोत्कृष्टतरेषु संयमस्थानकराडकेषु वर्तमाना ईदशा ये शानिनश्चारित्रगुप्ताश्च तैः संस्तवं-सूत्रपरिचयमेकत्र
एकत्र सदृशवयसः-समानवयमः अन्यत्र-मर्यपा:-सि
दार्थकाः । झा० १ श्रु० ५ श्र० । शुकशब्दे, अनु । संवासादिकं कुर्यात् । सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरए वा।
सरिसिया-सदृशी-स्त्री० । समानायाम्, भ० ११ श० ११ उ०
सरिसु देशी-पुं० । वृक्षविशेषे, कल्प० १ आध०३ क्षण । आदिज भत्तपाणं, सतेल लाभेण वा तुझे ॥३६८॥ । यः सदृशकल्पः सहकन्नस्तल्यचारित्रोविशितरो वाते. सरिहा--सरिका-खा। मुकावल्याम, प्रश्न०४ श्राध० द्वार। नैवंविधेन साधुना पानीतं भक्तपानम् श्राददीत। स्वकीयेन शरिका-स्त्री० । लघुशरपत्रे, शरपत्राग्रे च । श्राचा०२ श्रु० था आत्मीयलाभेन तुष्येत् हीनतरसत्कं न गृह्णीयात् । तदेव- १ चू० १० ११ उ० । मुक्ता छेदोपस्थापनीयकल्पस्थितिः । वृ०६ उ०।
सरीर--शरीर--न । शीर्यते प्रतिक्षण विशरारुभावं विभीति सरिच्छ-सदृक्ष-त्रि० ।" दृशः किप्टक्सकः " ॥ १।१४२॥
शरीरम् । प्रशा०२१ पद । " वृशषपूभाभञ्जिकुटिपटिकद्धिइति दृशधातोः वर्षस्य रिरादेशः । प्रा०।"छोऽध्यादौ"
शोरिडसिप ईरः" इति ईरप्रत्ययः । श्रा०म०१० देहे, ॥८।२।१७॥ इति क्षस्य छत्वम् , प्रा.।“अतः समृदया
प्रा०म०१०। काये, प्रा. चू०५०। शरीरपर्यायाःदौ वा" ||४॥ इति श्रादेरकारस्य दी? वा । सारिच्छो ।
शरीरं वपुः कायो देहः कलेवरमिन्यादयः । विशे० । योसरिच्छो। समाने, प्रा०। "सरिसी समो सरिच्छो"
न्दिस्तनुः शरीरमित्यनर्थान्तरम् । श्रा०म०१०। प्रश्न । पाइ ना०७४ गाथा।
कर्म० । पं० सं० । प्रज्ञा । श्राव। सरिच्छंद-सहक्छन्द-पुं० । समानसामाचारीके, वृ०६ उ ।
विषयसूचीसरित्तय-सक्त्वच-त्रि० । सहशी-सदृग्वर्णा त्वम् येषान्ते (१) केषां कनि शरीराणि। तथा । रा० । सदृशच्छवियु , भ० ११ श० ११ उ० । सह- (२) औदारिकादिशरीराणां नैरयिकादिषु संभवतश्रुचिषु, अन्त०१६०३ घर्ग ८०
श्चिन्तनम्। सरित्ता-स्मत-त्रि० । चिन्तयितरि, “नो पुवरयं पुम्विन्द
(३) श्रीदारिकशरीरमधिकृत्य बद्ध-मुक्तशरीरनिरू
पणम् । कीलियं सरित्ता भवइ ।” स्था० १० ठा० ३ उ०।
(४) वैकुर्विकशरीरनिरूपणपृच्छा। सरिरूप-सहगरूप-त्रि० । " दृशः किवि " ति ऋत इत्त्वम् ।
(५) कति आहारकशरीराणि । समानरूप , प्रा०१ पाद।।
(६) तैजसशरीरविषयं सूत्रम् । सरिवा-सहग्वर्ण-त्रि० । " इशः विप्-टक्सकः" ।।१।।
(७) नैरयिकादिविशेषणविशेषितानि शरीराणि । १४२॥ इति दृशेर्धातो तो रिरादेशः । समानवणे, प्रा०। (८) असुरकुमाराणां पृथिवीकायिकानां च शरीराणि । सरिव्यय-सहग्वयम्-त्रि० । सहक-समान वयो येशं ते त- (६ ) संग्रहगाथा । था । रा० । सवयस्के, अन्त०१ श्रु० ३ वर्ग १ अ०।
(१०) शरीरमूलभेदानां विधिद्वारेण प्रतिपादनम् । सरिस-सहश-त्रि०। समाने , सूत्र. २ श्रु०५ अ०। विशा
(१२) जीवस्पृष्टानि वैक्रियादिशरीराणि । भ० । पञ्चा। नि० चू। औ०। समानाकारे, रा०। तु
(१२) कतिमहालयानि पृथ्वीशरीराणि ।
(१३) औदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतः, अवस्थाभेदल्ये , उत्त० १ अ० । अनु० । वृत्तिहेतुसामान्य रूपे, स्था०२ ठा०२ उ०। जं० । 'सरिसभंडमत्तोवगरणे' सदृशी भ
तश्च भेदनिरूपणम् ।
(१४) एकेन्द्रियादीनां क्रमेण वैक्रियशरीरनिरूपणम् । एडमात्रा प्रहरणा शोकादिरूपा उपकरणं च कङ्कटादिक यस्य स तथा । भ०७श०६ उ०1" सरिसा समो" पाहा
(१५, वैकुर्विकादिशरीराणां संस्थानप्रतिपादनम् । ना०७४ गाथा।
(१६) श्राहारकशरीरस्थ पृच्छादिः । सरिसय-सदृशक-पुं०। समाने, भ०७ श०८ उ०। श्रन्तः ।
(१७) तजसशरीरपृच्छादिः ।
(१८) औदारिकशरीरस्य पुद्गलवयनम् । सरिसक-सरीमप-पुं०। उरःपरिसर्पभुजपरिसर्पभेदाद द्विवि
(१६) द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वम् । थे पञ्चेन्द्रियतिरश्थि, स. ३४ सम।
(२०) नैरयिका दीनां शरीरोत्पत्तिः ।
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सरीर
अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर (२१) शरीराधिकारात् दण्डकेन शरीरोगपत्तिनिरूपणम्। न्तप्रसिद्धोऽयं धातुःविकुर्वणं विकुर्वः । विविधा किश इत्य (२२) लोकश्च शगरिशरीराणां सर्वत पाश्रयस्वरूपः।
थः। सेन मिवृतं वैकुर्विकम् २, तथा चतुर्दशपूर्वविदा कार्यो(२३) शरीरबन्धनप्रकारः ।
त्पसौ योगबलेनाहियते इत्याहारकम् ३, तेजसो विकारस्त (२४) शरीरनिर्माणस्वरूपं तत्र नाग्यादिसंख्या घेदनानु
जसम् ४ कर्मणो जातं कर्मजमिति ५! नन्यौदारिकादीनां ___ भवप्रकारश्च ।
शराणामित्थमुपन्यासे किश्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाक(२५)शरीरस्यासुन्दरत्वम् ।
श्चिदेष प्रवृत्त इति ?, उच्यते-अस्तीति बृमः । किं तदिति (२६) विशेषतः शरीराशुभत्यम् ।
चेत् ?, उच्यते-परम्परप्रदेशसौम्यं परम्परं वर्मणासु प्रदे(२७) शरीराणां वर्णादि ।
शबाहुल्यं च, तथा हि-ौदारिकाद् वैक्रियस्य प्रदशसौ(२८) आत्मा शरीरं स्पृष्ट्वा निर्याति ।
चम्य, वेफ्रियादयाहारकस्य, आहारकादपि तेजसत्य, ते (१) केषां कति शरीराणि
जसादपि कार्मणस्य , तथा-औदारिकाद वैक्रियस्त वर्गणा
सु प्रदेशकाहुल्यं, बैंक्रियामाहारकस्याहारकादपि तैजसस्था, कति भंते ! सरीरा पणत्ता ?, गोयमा ! पंच सरीरा तैजसादपि कार्मणस्येति । पपत्ता, तं जहा-ओरालिए वेउम्बिए आहारए क्यए क- (२) एतान्येव शरीराणि नैरयिकादिषु म्मए । (सूत्र०-१७६४)
___ सम्भवतश्चिन्तयति'कह गंभंते ! सरीरा पत्ता,' इत्यादि उत्पत्तिसमयादार- नेरइयाणं भंते ! कति सरीरया परमत्ता, गोयमा! भ्य प्रतिक्षणं शीयन्ते इति शरीराणि तानि भदन्त !| तो सरीरया पपता, तं जहा-वेउबिए तेयए कम्मए, कति-कियत्संख्याकानि. रणमिति वाक्यालङ्कारे, प्रशप्तानि,
एवं असुरकुमाराण वि० जाव थणियकुमाराणं । पुढकिभगबानाह-पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि तान्येव नामत पाह' श्रोशलिए ' इत्यादि, अमीषां शब्दार्थमात्रमग्रे वक्ष्या
काइयाणं भंते ! कति सरीरया पलत्ता ?, गोयमा! तमस्तथाऽपि स्थानाशून्याथे किश्चिदुच्यते-उदारं प्रधान श्रो सरीरया परमत्ता, तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीगपेक्षया, ततोऽन्यस्या- एवं वाउकाइपवजं० जाव चउरिदियाणं । वाउकाइयाणं नुत्तरसुग्शरीरस्याप्यनन्तगुणहीनत्वात् । अथवा-ओरालं भंते ! कति सरीरया पामत्ता ?, गोयमा! चत्तारि सरीनाम विस्तरवत् , यिस्तरवत्ता चास्यावस्थितस्वभावस्य सातिरेकयोजनसहनमानत्वात् , वैक्रिय चेतावदवस्थितप्रमाणं
रया पलत्ता?, तं जहा-ओरालिए वेउब्बिते तेयए कम लभ्यते, उत्कर्षतोऽप्यवस्थितप्रमाणस्य पञ्चधनुःशतप्र
म्मए । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि । मणुस्साणं माणत्वात् , तच्च तावत्प्रमाणं सप्तम्यां मान्यत्र, यतूत्तरवै- भंते ! कति सरीरया पम्मत्ता ?, गोयमा ! पंच सरीरया क्रिय योजनलक्षप्रमाणं न तवस्थितमाभवतिन्वाभावात् ,
पपत्ता , तं जहा-ओरालिए वेउन्विते आहारए तेयए सत्तो न तदपेक्षा, प्राह च चूर्णिकृत्-"ओरालं नाम चि
कम्मए, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं, जहा नारगाणं । स्थरालं विसाल तिजं भविगं होइ, कहं ?. साइरेगजोयणसहस्समवष्ट्रियप्पमाणमोरालियं अन्नमेद्दहमेत्तं नस्थि त्ति,
(सू० १७६४) विउब्वियं हाजा , तं तु अणवट्टियप्पमाणं ; अबट्टियं पुण
नरयाणं भंते ! केवड्या सरीरा पमत्ता' इत्यादि. पाहपंचधखुसयाई अहे सत्तमाए , इमं पुरण अट्ठियप्पमाणं
सिद्धं, शरीराणि च जीवानां द्विविधानि, तद्यथा-बद्धानि , साइरेगं जोयणसहस्स" वनस्पतीनामिति । अथवा-उरल
मुक्तानि च । तत्र यानि चिन्ताकाले जीवैः परिगृहीतानि विरलप्रदेश म तु घन स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् वृहत्त्वाच मे
वर्तन्त तानि बद्धानि, यानि च पूर्वभवेषु परित्यक्तानि ताराडवत् । यदिवा ओरालं-समयपरिभाषया मांसास्थिस्ना- |
नि मुक्तानि, तेषां बद्धानां मुक्तानां च परिमाणमिदानी वाचवबद्धं, सर्वत्र स्वाधिक इकप्रत्ययः। रहोदारमेव औ
द्रव्यक्षेत्रकालैः प्ररूपणीयम् , तत्र द्रव्यैरभव्यादिभिः क्षेत्रेण वारिकं प्रयोदरादित्वादिष्टरूपनिष्पत्तिा प्राकृतत्वात-'ओरा
श्रेणिप्रतरादिना कालेनाबलिकादिना । लिय' मिति । उक्तं च
( ३ ) तत्रौदारिकशरीरमधिकृत्याह-बद्धानि मुक्तानि
सरीराणि" तत्थोदारमुराल, उरलं पोरालमेव विमय ।
केवइया णं भंते ! ओरालियससरया पण्पत्ता १, मोओरालियं ति पढम, पहुच्च तित्थेसरसरीरं ॥१॥ मलाइ य तहोराल, वित्थरवतं वणस्सई पप्प ।
यमा! दुविहा परमत्ता ?,तं जहा-बद्धिल्लया, य मुकिल्लया पगई' नत्थि असं, एहहमित्तं विसाल ति ॥२॥ य। तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेजाउरलं थेवपएसो-वचियं ति महागं जहा भिराई। हिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो मंसट्टिाहारुबद्धं , ओराल समयपरिभासा ॥३॥"
असंखेजा लोगा. तत्थ णं जे ते मुक्केलया ते मं असंता तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैकि
अणताहि उस्सप्पिणीयोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालते, यम । उक्तं च-"धिविहा विसिटुगा वा.किरिया तीए उज भव तमिह । बेउब्वियं तयं पुण, नारगदेवाण पगईए ॥१॥" खेत्ततो अणंता लगा अभयसिद्धिएहितो अणंतगुणा सिप्रथा-वैकुर्विकमिति शब्दसंस्कारः,तत्र विकुर्व इति सिद्धादा (ण) [वभागो।(मु०१७७४)
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सरीर
केवइया मंते । भोलिप
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इत्यादि 花 प्राकृतलक्षपारिय स्वार्थे ततः • बलिया इति बानीत्यर्थः ' मुकिला' इति-मुलानीत्यर्थः तत्र जापसङ्ख्यानि सकृयेवायमेव प्रथमतः कालतो नियति-संखिजाहि इत्यादि प्रतिसमय मे कैकशरीरापहारेण अस ये पामित्सपिण्यय सर्विीभिरनवययशो पयिन्ते कि. मुरुं भवति असपेषासु उत्सर्पिण्यवर्णिीषु ? - यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि बद्धान्यौदारिकशरीराणि कालतः परिमाणम्। क्षेत्र ग्रहअलबेला लोगा, इति क्षेषतः परिसकृक्यानमसंच्या लोकाः। एतदुकं भवति सर्वोपपि बाम्बीदारिकशरीराणि आत्मीयात्मीयावगाहनाभिराकाशप्रदेशेषु परस्परम पिराडीमावेन क्रमेण स्थाप्यन्ते तदानीं तैरेवमास्तीर्यमाणैरसंया लोका अवाप्य एकैकस्मिवाकाशप्रदेशे एकेकी दारिकशरीरस्थापनया असल्या लोका व्याप्यन्ते परं पूर्वाचार्या आरमीयावगाहना स्थापना प्ररूपां कुर्व न्ति ततोऽपसिद्धान्तदोषों मा प्रापदिभिरपि तथैव प्ररूपणा कियते । श्रह व चूर्णिकारोऽपि जर वि इक्केके परसे सरीरमेगं बिखरतोऽचि असंसेजा लोगा भवति किन्तु श्रवसिद्धं तदोस परिहरत्थिमप्पणियाहिं श्रगाहशाहि ठविज्जंति" इर्शन, आह- नन्वनन्ता जीवास्ततः कथमसख्येयान्यौदारिकशरीराणि ?, उच्यते - इह द्विविधा जीवाः- प्रत्येकशरीरिणः, अनन्तकायिकाश्च । तत्र ये ते प्रत्येकशरीरिणस्तेषां प्रति जी यमेकैकीदारिकशरीरमन्यथा - त्येकशरीरत्वायोगात् ये त्वनन्तकायिकास्तेषामनन्तानाममन्यानामेकैकमीहारिकशरीरमतः सर्वयाऽपि अ श्याम्यदारिकराणि मुक्काम्यौदारिकशरीराणि धनमतानि । तच्चानन्तत्वं कालक्षेत्र हृदयैर्निरूपयति- 'अणताि इत्यादि कालतः परिमाणं प्रतिसमय के शरीरापहारेवैताभित्यवसणीभिः सर्वात्मना उपजियन्ते । किमु भपति ? - अनन्तासु उत्सव यावन्तः समपास्तावत्प्रमाणानीति क्षेत्रतः परिमाणमनन्ता लोकाः, अनन्तेषु लोकप्रमायाकाशखण्डेषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः द्रव्यतः परिमाणमभवसिद्धिकेयः अभव्येभ्यो ऽनन्तगुणानि यद्येवं गर्दै सिराशिममाणानि भविष्यन्ति तत श्राह - सिद्धानामनन्तभागः श्रनमतभागमात्राणि । ननु द्वयोरपि राश्योरभवसिद्धिकसिद्धिरूपोमध्ये पठ्यन्ते प्रतिपतिसम्यग्रः तत् किं तद्वाशि प्रमाणानि भषयुः ?, उच्यते यदि तत्प्रमाणानि स्युस्तर्हि तचैव निर्देश: फियेत सुखप्रतिपतिकृतप्रतिक्षा हि भगव म्त आर्यश्यामाः, ततस्तथा निर्देशाभावादवसीयते-न
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शिप्रमाणानि । ननु तर्हि तेषां प्रतिपतितसम्यग्रहीनामैधस्ताद् भवेयुरुपरि वा ?, उच्यते- कदाचिदधस्तात्कदाचिदुपरि कदाचितुल्यान्यपि अनियतप्रमाणत्वात्,
तु सर्वकाल प्रमाणानीति प्रा च पूर्विकद"सो कि परयि सम्मद्दिट्टिराखिप्यमाणार होत्रा तेति दोराह वि रासी, मज्झे पढिज्जति ति काउ ? भगवद- जर तप्पमाणाई होता तो तेसिं चेच नि
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( ५३६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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पता
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सरीर
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देसो होतो तदा न तप्यमाणाई तो फि सि डिझ होजा उवरि होजा ? भन्नन्द्र-कयाइ हेा कयाह उवारे होति कयाइ तुल्लाह न निस्वकालं तप्यमाणाई " इति । श्रपर ग्राहक क्रानि यथोपरिमाणान्युपपय ते यतो यदि तावदीदारिकादिवरी यादवि कलानि सायद गृह्यते ततस्तेषामनन्तकालमखानाभावादनन्तस्वं न घटते, यदि ह्यनन्तमपि कालमवस्थानं भवेत् ततोऽनन्तेन कालेन तत्तदुरीरंगनादनन्तानि म वेयुः यावताऽनन्तं कालमवस्थानं नास्ति, पुङ्गलानामुत्कतोऽप्यसंख्येयकालावस्थानाभिधानात् । श्रथ च ये पुइला जीवैरीदारिकत्वेन ते षां ग्रहणं तर्हि सर्वेऽपि पुङ्गलाः सर्वैरपि जीवैः प्रत्येकमौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता इति सर्वपुङ्गलग्रह एमापन्नम् तथा च सति यदुक्तम् - श्रभवसिद्धिकेभ्यो ऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागमात्रासीति तद् विरुयते सर्वजीम्योऽनन्तानन्तगुणकारेणानन्त गुरु-यस्य प्रसादिति च उच्यते - इह मुक्तानामौदारिकशरीराणां नाविकलानामेव केवलानां नाप्यदारिकत्वेन या मुक्काः पुला, तेषामुक्तदोषप्रसङ्गात् किं तु यच्छरीरमीदारिकं जीवन दीवान वराहाचे विभ्राणमनन्तमेद्भिषं म पति से जानता मेदा भवन्तो यावने पुत्रता औदारिक परिमाणं न जहति तावत्प्रत्येकमीदारिकशरीरव्यपदेश - भन्ते ये पुनरौदारिकपरिणामं व्ययन्तस्तेन गन्ते, तत एवमेकस्यापि शरीरस्यानन्तानि शरीराणि जातानि एवं सर्वशरीरेष्वपि भावनीयम् । तथा च सत्येकस्प शरीरस्थानम्याकपि समये प्रभूनानानि शरीरारापाण्यन्ते तेषां यासंख्येयकालमवस्थानम् तेन चासंख्येयेन कालेनाम्यानि जीवैर्विप्रमुक्कान्यसंख्येयास्वाप्यन्ते ताम्यपि च प्रत्येकमनन्तमेवमिद्यानि तेषु मध्ये वाचता कालेन याम्यीदारिकशरीरपरिणाम विजयति तानि परित्यभ्यस्ते शाथि गएवन्ते तत पशुनि यथाप्रमाणानन्तसंख्या कान्यौ दारिक शरीराख्युपपद्यन्ते इति । न चैतत्स्यमनीषिकाविजूभितं यत आह चूर्णित्"नवि विलाम केला पि मह एवं नय श्रोलिया सलाई, किन्तु सरीरमोरालिकं जीवेमुचे अमेयभि हो जाय ते पु गला तं जीवनियांत ओरालियरीरको ति न ताव परिणामेण परिणमंति ताई पत्तेयं सरीरारंभपति एवमेकस ओरालियरीरस्थ अमेय
"
,
ओ असताई चैव ओरालिय सरीराई भयंति" इत्यादि, श्राहकथमेकैक शरारद्रव्यदेशः शरीरत्वेन व्यवद्विषते ?, उच्यतेलवणदृष्टान्तेन, तथाहि खार्यपि लवणमुच्यते द्रोणोऽपि लवणमाढकोऽपि लवणं यावदेकाऽपि शर्करा लवणम्, एवंमिहापि सफलमप्पीदारिकशरीरमुच्यते तदर्द्धमपि तदेकदेशोऽपि यावइनन्तभावोऽपि शरीरमिति । कोऽत्राभिप्राय इति चेत् , उच्यते- यथा परिणामपरिता स्त्रीको बहुर्वा पुद्गलसंघातो लवणमुच्यत तथौदारिकशरीरयोग्यतोऽपि श्रदारिकत्वेन परितः स्तोको या बहुर्या श्रदारिकशरीरव्यपदेशं लमते अथवा भवति स
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सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर मुदायैकदेशेऽपि समुदायशब्दोपचारः, यथा-अङ्गल्यग्रे अधस्तनं लोकार्धं देशोनचतूरज्जुविस्तारं लातिरेकसप्तस्पृष्टे स्पृश मया देवदत्त इत्यादौ, तत उपचारान काश्च- रज्जूच्छ्यम् । उपरितनमर्द्ध त्रिरज्जुविस्तारं देशीनसप्तरहोषः । ननु यद्येवं कथं तान्यनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा- ज्जूच्छ्रयं, तेन उपरितनमर्द्ध बुद्धया गृहीत्वाऽधस्तमस्यान्यौदारिकशरीराण्येकस्मिन् लोकेऽवगाढानि ?, उच्यते- र्द्धस्योत्तरपावं सहास्यते , तथा च सति सातिरेकसप्तरप्रदीपप्रकाशवत् , तथाहि-यथैकस्यापि प्रदीपस्याचींषि सक- ज्जूच्यो देशोनसप्तरज्जुविस्तारो घनो जातः, अतः सप्तरलभवनावभासीनि भवन्ति, अन्येषामनेकेषां प्रदीपानामींषि | ज्जूनामुपरि यदधिकं तत्परिगृह्य ऊर्ध्वाध आयतमुत्तरपार्वे तत्रैवानुप्रविशन्ति , परस्परमविरोधात्, तथौदारिकाण्य- सङ्घात्यते , ततो विम्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त रज्जयो पि, एवं शेषशरीरेष्वपि मुक्नेष्वायोज्यम् । ननु द्रव्यक्षेत्रे वि- भवन्ति, एवमेष लोको घनीक्रियते , धनीकृतश्च सप्तरहाय किमिति प्रथमतः कालेन प्ररूपणा कृता ?, उच्यते- ज्जुप्रमाणो भवति । यत्र च कचन घनत्वेन सप्तरज्जुप्रमाकालान्तरावस्थायितया पुद्गलेषु शरीरोपचारो नान्यथा णता न पूर्यते तत्र बुद्धया परिपूरणीयम् पतच पट्टिकाततः कालो गरीयान् इति प्रथमतस्तेन प्ररूपणा । उक्ना
दो लिखित्वा दर्शयितव्यम् । सिद्धान्ते च यत्र कचनापि श्रेणेः न्यौदारिकाणि।
प्रतरस्य वा ग्रहणं तत्र सर्वत्राप्येवं घनीकृतस्य लोकस्य
सप्तरज्जुप्रमाणस्यावसातव्यं , मुक्तान्यौदारिकवद्भावनी(४) सम्प्रति क्रियसूत्रमाह
यानि । केवतिया णं भंते ! वेउब्वियसरीरया,परमत्ता ?, गोयमा!
(५) कति आहारकशरीराणिदविहा पमत्ता, तं जहा-बद्धे लया य, मुकेलगा य । तत्थ केवतियाणं भंते ! पाहारगसरीरया पसत्ता १. गोयमा? सं जे ते बद्धेलगा ते णं असंखेञ्जा असंखेजाहिं उस्स
दुविहा, पणत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य, मुकेल्लया य । तत्थ प्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखे
णं जे ते बद्धलगा ते णं सिय अस्थि सिय नस्थि , जइ आतो सेढीओ पयरस्स असंखेजतिभागो | तत्थ णं जे ते
अस्थि जहाणं एको वा दो वा तिरिण वा उक्कोसेणं समुक्केलगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीयोसप्पिणी:
हस्सपुहुत्तं । तत्थ णं जे ते मुक्केल या ते णं अणंता जहा हिं अवहीरंति कालतो जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहेव
मोरालियस्स मुकिल्लया तहेव भाणियव्वा । (सू०१७७+) वेउब्धियस्स वि भाणियया । (मू०-१७७+)
आहारकविषयं सूत्र केवतिया गा भंते ! पाहारगसरीर'कवतिया णं भंते !' इत्यादि, बद्धाम्यसंख्येयानि,तत्र काल- गा' इत्यादि , ' बद्धानि सिय अस्थि सिय नरिथ 'इति तः परिमाणं प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासंख्ये
अस्तीति निपातो बहुवचनगर्भः कदाचित् सन्ति ! कदायाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते । किमुक्तं भवति ?
चित् न सन्तीत्यर्थः । यस्मादन्तरमाहारकशरीरस्य जघन्यअसंख्येयासूत्सपिण्यवसपिणीषु यावन्तः समयास्तावत्- त एकः समयः उत्कर्षतः षण्मासाः; उक्तं च-"आहारगार प्रमाणानीति, क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयस्तासां श्रेणीनां प- लोए, छम्मासे जा न होति वि कयाइ । उक्कोसेणं नियमा, रिमाणं प्रतरस्यासंख्येयो भागः। किमुक्तं भवति ?-प्रत- पकं समयं जहन्नण ॥१॥" इति । यदाऽपि भवन्ति तदापि रस्यासंख्येयतमे भाग यावत्यः श्रेणयस्तासु च श्रेणिषु जघन्यतः एकं द्वे वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, मुक्तान्योदायावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि यद्धानि क्रियश
रिकवत् । रीराणीति । अथ श्रेणिरिति किमभिधीयते ?, उच्यते
(६) तैजसशरीरविषयं सूत्रमाहघनीकृतस्य लोकस्य सर्वतः सप्तरज्जुममाणस्यायामतः सर्वरज्जुषमाणा मुक्नावलिरिवैकाकाशप्रदेशपतिः । कथं पु.
केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरया पणत्ता ?, गोयमा, भोको घनीक्रियते ? कथं वा सप्तरज्जुपमाणो भवति इति दुविहा पछत्ता, तं जहा-बद्धेल्लगा य, मुक्केलगा य । तत्थ चेत् ? , उच्यते-रहलोके ऊर्ध्वाधश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणोऽध- णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं अयंता अणंताहि उस्सप्पिणिस्ताद्विस्तरतो देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः एकरज्जुर्मध्यभागे ब्रह्म
भोसप्पिणीहि अवहीरति कालतो,खेत्तो अणंता लोगा, लोकप्रदेशे बहुमध्यदेशभागे पञ्चरज्जुरुपरि एका रज्जुलॊकाम्ते, रजोश्च परिमाणं स्वयम्भूरमणसमुद्रम्य पूर्ववेदिका
दव्यत्रो सिद्धेहिं तो अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागृणा । म्तादारभ्यापरवेदिकान्तं यावत् , एवं प्रमाणस्य लोकस्य तत्थ णं जे ते मुक्केलगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सवैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य बुद्धया प्रस- प्पिणीयोसप्पिणीहिं अवहीरति कालतो, खेत्ततो अणंनाड्या दक्षिणभागवय॑धोलोकखण्डमधोदेशोनर्षिरज्जुवि
ता लोगा, दव्यत्री सव्वजीवे हितो अणंतगुणा जीववग्गस्तारमतिरिकसप्तरज्जूच्छ्य परिगृह्य असनाड्या उत्तरपावें अधिोभागविपर्यासेन सङ्घात्यते , ऊर्वभागोऽधः क्रि-|
स्साणंतभागे। एवं कम्मगसरीराणि वि भाणितवाणि । यते अधोभागस्तू मिति सहायते इति । तत ऊर्यलोके केवया णं भंते ! तेयगसरीरया' इत्यादि, तत्र बद्धाअसनाच्या दक्षिणभागवर्तिनी ये वे खण्डे कूर्पराकारसं- न्यनन्तानि, अनन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैर्निरूपयति-'अणतास्थिते प्रत्येकं देशोनार्द्धचतुष्टयरज्जाळूये ते बुद्धपा समा- | हिं' इत्यादि, कालतः परिमाणमनन्तोत्सपिण्यवसर्जिणीदाय वैपरिस्येनोत्तरपार्थे सहमत्येते , एवं च किं जातम् !, समयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽनन्तलोकप्रमाणाकाशवण्डप्रदेश
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सरीर
परिमाणामि, द्रव्यतः परिमाणं सिद्धेभ्यो ऽनन्तगुणानि। तै जसं हि शरीरं सर्वसंसारिजीवानां प्रत्येकं, संसारिणश्व जीवाः सिद्धभ्यो ऽनन्तगुणाः, नतस्तैजसशरीराण्यपि मिदेभ्योऽनन्तगुणानि भयान्त जीवन नि सर्वजीवानां योऽनन्ततमो भागस्तेनोनानि । इयमत्र भावमा- सिद्धानां जनशरीरं न विद्यते स तेषाम् विद्याश्व सूर्यजायानामनन्तभागे ततस्तेनोमानि सर्वजीवानामनन्त गगोनानि भवति मुनानि अनस्तानि । देवानन्त कालक्षेत्रः पतिता इत्यादि कास क्षेत्र प्राग्वत् द्रव्यतः परिमाणं सर्वजीयोऽन न्तगुणानि । कथमिति चेत् ? उच्यते--इह एकैकस्य संसारिजीवस्य एकैकं तैजसशरीरं, तानि च जीवैर्विप्रमु क्रानि सन्ति प्रागुतानि भवन्ति तेषां वासंख्येयं कालं यावदेवस्थानं तावता च कालेन जीवैर्विप्रमुक्काम्यन्यानि तेजसशरीराणि प्रतिजीयम संख्येन वाप्यन्ते तेषामपि प्रत्येक प्रागुक्रयुक्त्या अनन्तमेव तेति मर्यात सजीवेभ्योऽनन्तगुवानि कि जीवर्गप्रमाणानि भयेयुरत आह- जीववरगस्स मागे इति जीववर्गस्थानन्तभागप्रमाणानि, जीववर्गप्रमाणानि कस्मान्न भवन्तीति चेत् यदि एकैकस्य जीव सर्वजीवरात्रिमाणानि किञ्चित्समधिकानि यान सिद्धानम्नभागपूरं भवति ततो जीववर्गप्रमाणानि भयन्ति, वर्गों हि तेनैव राशिना तस्य राशेर्गुणन भवति, यथा चतुष्कस्य चतुष्कन गुणने पोडशात्मको वर्ग इति । न बैकैकस्य जीवस्य सर्वजीवप्रमाणानि किसिम कानि या निस्तोकानि साम्य असंख्येयकालावस्थायीनीति, तावता कालेन यान्यप्यन्यानि भयन्ति ताम्यपि स्वीकानि कालस्य तन स्तोकत्वात् जीववर्गप्रमाणानि न भवन्ति किन्तु जीववर्गस्यानन्तभागमात्राणि । अनन्त भागप्रमाणतायां च पूर्वाचार्यप्रदर्शि तमिदं निदर्शनम् - सर्वजी वास्तववृत्या अनन्ता अपि असकल्पनया दशसहस्राणि तेषां च दशसहस्त्राणां वर्गों दश कोटयः, तैजसशरीराणि च मुक्ताम्य सत्कल्पनया द शलक्षप्रमाणानि ततः सर्वजीवभ्यः किल शतगुणानीति सर्वोऽनन्तगुणान्युक्तानि जीववर्गस्य च शततमे भागे वर्तते ततो जीव वर्गस्थानन्तभागमाषाखि एवं कामेशरीराश्यपि वद्धानि मुकानि च भावनीयानि तेजः सह समानत्वात्। उपधिकानि पञ्चापि शरीराणि ।
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( ५३८ )
श्रभिधान राजेन्द्रः ।
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(७) संप्रति नैयिकादिविशेषविशेषितानि शरीराणि चिन्त्यन्ते
नेरइयाणं भेते ! केवतिया ओरालियसरीरा पथता १, गोथमा ! दुविहा पष्मत्ता, तं जहा- बद्धल्लगा य, मुकेलगाय तरथ गांजे से बढेलगा व गं - त्थि, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लागा ते गं श्रणंता जओलियमुलगा तहा भणियव्वा । नेरइयाणं भंते 1 केवइया वेव्वियसरीरा पत्ता ? गंत्यमा !
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सरीर दुबिहा पत्ता, तं जहा- बद्वेल्लगा य, मुकेलगाय । तत्थ णं जे ते चंद्वेल्लागा ते णं श्रसंखेजा, असंजहि उस्सप्पिणीश्रसपिणीहिं अवहरति कालतो खेत्ततो असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजरभागो। तासि णं सदी विक्भग्रह अंगुलपदमवग्गमूलं वितिययग्गमूलपप्य अह व गां अंगुलबितिपयग्गमूलय
प्पमाणमेत्ताओ सेढीतो । तत्थ णं जे ते मुक्केलगा ते णं जहा आरालिपसमा तदा माणिवया । नेरइयाणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पत्ता १, गोयमा ! दुविहा पम्पत्ता, तं जहा बल्लया य, मुकेल्लया य । एवं जहा ओरालिए बल्ला मुकेल्लगा य भणिया तहेव आहारमा विभागियब्वा नेयाकम्मगाह जहा एसि उव्विाई (०१७८)
म भने याद नैका दाम्यदारिकशरीगां न मस्ति भवात्ययतस्तेषामदारकशरीरायम्भवात् मक्काधिकमुकीदारकशरीरत्याक्रमण बायो मेरायास्तान तन नामख्यानि । तंदवासख्येयत्वं कालक्षेत्राभ्यां प्ररूपयति' असे
जाहिं' इत्यादि, कालतः पारमाणं प्रतिसमय मेकैकशरीशहारे सामना पा हियन्ते । किमुकं भवति श्रसंख्ययासूसविस यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि क्षेत्र ताऽसंख्ययाः श्रेण्यः,
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या रिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्नापमानानीति भावः । अथ प्रतरेऽपि सकले असंख्येयाः श्रेणयो भवन्ति प्रतरस्याभावे भागादी व ततः कियत्कास्ताः श्रणय इत्याशङ्कायां विशेषनिर्द्धारणार्थमाह-प्रतरस्यासंगंययभागः । किमु भनि प्रतरस्यासंख्यंयतमे भांगे यावत्यः अण्यस्तापत्यः परिशेष तरपरिमाणम् - तासि गं सदी विक्खंभसूई' इत्यादि, तासां श्रेणीना विष्कम्भता - विस्तारमधिकृत्य सूचिः- एकप्रादेशिकी द्वितीययर्गमूलगुणितम् । इयमंत्र भावना - इह प्रज्ञापकेन घनीकृतः सप्तरज्जुप्रमाणो लोकः पट्टिकादी स्थापनीयः अणि रेखाका दर्शनीया, दर्शयित्वा चैवं प्रमाणं वक्तव्यम् - श्रङ्गुलप्रमाणमात्रस्य प्रदेशस्य क्षेत्रस्य यावान् प्रदेशराशिस्तस्यासंख्ययानि वर्गमूलानि भवन्ति तद्यथा- प्रथमं वर्गमूलं तस्यापि यद्वर्गमूर्ख तद् द्वितीयं वर्गमूलं तस्यापि यद् वर्गमूलं तत्तृतीयं वर्गमूलम् - एवम संख्ययानि वर्गमूलानि भवन्ति । तत्र प्रथमं यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयेन वर्गमूलन गुण्यते गुणते च सति यावन्तः प्रदेशा भवन्ति तावत्प्रदेशात्मिका सूचि - था क्रियते कृत्वा च विष्कम्भता दक्षिणोत्तरायततया स्थापनीया, तया च स्थाप्यमानया यावत्यः श्रेणयः स्पृश्यतं तवत्यः परिगृह्यन्ते । तंत्र निदर्शनम् - अङ्गुलमात्र क्षेप्रदेशराशिस्तत्त्वतोऽसंख्यातोऽ [ऽप्यसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिक द्वे शते कल्प्येते, तयाः प्रथमं वर्गमूलं पाडश द्वितीयं चत्वारस्तृतीयं द्वौ । तत्र द्वितीयेन वर्गमूलेन चतु
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,
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सरीर
अभिधानराजेन्द्रः।
मगर हकलक्षणेन प्रथम वर्गमूलं शेडशलक्षणं गुण्यते जाताः दाणं अणंतभागे। पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया चतुःषष्टिः, एतावत्यः श्रेण्यः परिगृह्यन्ते । अमुमेवार्थ प्रका
वेउब्धियसरीरगा परमता ?, गोयमा ! दुविहा परान्तरेण कथयति- 'अहव ण' मित्यादि अथवेति प्रकारान्तरे, णमिति वाक्यालङ्कारे , अङ्गलमात्रक्षेत्रप्रदेशमशे
पता ,तं जहा-बद्धेल्लगा य मुकेल्लगा य । तत्थ णं जे द्वितीयस्य वर्गमूलस्यासत्कल्पनया चतुष्कलक्षणस्य यो
ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि । तत्थ णं जे ते मु. घनस्तावप्रमाणः, इह यस्य राशों वर्गः स तेन राशिना केलगा ते णं जहा-एएसिं चेत्र ओरालिया तहेव गुण्यते ततो धनो भवति, यथा द्विकस्याष्टी। तथाहि-द्वि
भाणियब्धा । एवं पाहारगसरीरा वि । तेयाकम्मगा कस्य वर्गश्चन्वारस्ते द्विकेन गुण्यन्ले जाता अष्टाविति . एवमिहापि चतुष्कस्य वर्गः घोडश ते चतुष्केण गुण्यन्ते
जहा एएसिं चेव ओरालिया । एवं आउकाइयतेउसतश्चतुष्कस्य घनो भवति । तत्रापि मैव चतु पधिरिति .
काइया वि । वाउकाइयाणं भंते ! केवतिया भोराप्रकारद्वये ऽप्यथाभेदः । इहायं गणितधर्मो यदहु स्तो- लियसरीरा पम्मता', गोयमा ! दुविहा परमता , केद गुण्यते . ततः सूत्रकृता प्रकारद्वयमेवोपदर्शितम् , जहा-बद्धेवगा य मुक्केनगा य, दुविहा वि जहा पुढविअन्यथा तृतीयोऽपि प्रकारोऽस्ति 'अलबिइयवम्गमूलं
काइयाणं ओरालिया । उब्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! पढमवग्गमूलपप्पराग' मिति । अन्य स्वाभदधति-अङ्गालमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः स्वप्रथमवर्गमूलन गुमने यावान् प्रदेश
दुबिहा पसता,तं जहा-बधेल्लगा य, मुक्केलगा य । तत्थ राशिर्भवति तावत्प्रमाणया सूच्या यावत्यः स्पृष्टाः श्रेण- णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेजा समए समए अवहीर. यस्तावतीषु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्ठावप्रमाणा- माणा अवहीरमाणा पलियोवमस्स असंखेजहभागमेत्तेचं नि नरायकाणां बद्धानि वैक्रिय परीराणीति, मुक्तान्यौदारि
कालेणं अवहीरंति नो चेव णं प्रवाहिया सिया । मुकवत् । श्राहारकाणि बद्धानि न सन्ति, तेषां नग्ध्यसम्भवात् । मुक्तानि पूर्ववत् , तैजसकार्मणानि बद्धानि वैक्रि
केलगा जहा पुढविकाइयाणं, आहारयतेयाकम्मा जहा यवत् मुक्कानि पूर्ववत् ।
पुढवीकाइयाणं । वणप्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइया(८) असुरकुमाराणां पृथिवीकायिकानां च शरीराणि- णं णवरं तेयाकम्मगा जहा प्रोहिया तेयाकम्मा ।
असुकुमाराणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पामत्ता ? बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालिया सरीरगा गोयमा ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा भणिता तहेव पामत्ता ?, गोयमा ! दुविहा परमत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य, एतेसिं भणितव्वा । असुकुमाराणं भंते ! केवइया वेउवि- मुक्केलया य । तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा यसरीरा परमत्ता ? गोयमा ! दुविहा पप्मता , तं जहा- असखेजाहिं उस्सप्पिणीअोसप्पिणीहिं अवहीरंति का. बद्धेल्लगा य, मुक्केलगा य । तत्थ णं जे ते बद्धे लतो , खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेनगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणी- जइमागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभई असंखेजाओसप्पिणीहिं अबहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजा- ओ जोयणकोडीकोडीओ असंखेजाई सेढिवग्गमलाई । प्रो सेढीतो पयरस्म अअंखेजतिभागो तासि णं इंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरो अवसेढीणं विक्खंभसई अंगुलपढमवग्गमलस्स संखेजतिभा- हीरति , असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीयोसप्पिणीहि कागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा बारा- लतो , खेत्ततो अंगुलपयरस्स प्रावलियाते य असंलियस्स मुक्कलगा तहा माणियव्वा , आहारगसरीर- खेजतिभागपलिभागेणं : तत्थ णं जे ते मुकेल्लगा ते गा जहा एतेसिं चव ओरालिया तहेव दविहा भा- जहा ओहिया ओरालियमुक्केलगा, वेउब्धिया पाहाणियच्या । तेयाकम्मगसरीरा दुविहा वि जहा एतसिं चेव | रगा य बद्धिलगा णत्थि । मुकिल्लगा जहा प्रोहिया विउब्बिया, एवं० जाव थणियकुमारा । ( सू० १७६ ) मोरालियमुक्केलगा , तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेत्र ओ
पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियमरीरगा हिया ओरालिया , एवं जाव चउरिदिया । पंपरमत्ता ?, गोयमा! दुबिहा पमत्ता , तं जहा-बद्धेलगा| चिंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव , नवरं वेउब्धिय, मुक्केवगा य । तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं यसरीरएसु इमो विसेसो । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीअोसप्पिणीहिं प्र- भंते ! केवइया वेउब्बियसरीरया परमत्ता १, गोयवहीरंति कालतो , खेत्ततो असंखेजा लोगा । तत्थ | मा! दुविहा परमत्ता, बद्धेल्लया य, मुक्केलया य । तत्थ मं णं जे ते मुकेशगा ते णं अणंता अणंताहिं उ- जे ते बद्धेनया ते णं असंखिज्जा , जहा असुरकुमास्सप्पिणीभोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो राणं, वरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसई अंगुलपअणंता लोगा, अभवसिद्धिएहिंतो भयंतगुणा सि-। दमवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो, मुकेशगा तहेव ।
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सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर मणुस्साणं भंते ! केवइया पोरालियसरीरगा पएणता ?, असत्कल्पनया पश्च पद वा तावत्प्रदेशात्मिका श्रेणिः पगोयमा! दुविहा पणता, तं जहा-बद्धलगा य,मुकेलगाय।
रिमाणाय विष्कम्भसूचिरवसातव्या , एवं च नैरयिकापेक्ष
याऽमीयां विष्कम्भसूचिरसंख्ययगुणहीना । तथाहि-नैरतत्थ णं जे ते बद्धलगाते णं सिय संखिजा सिय प्रसंखिजा।
यिकाणां श्रेणिपरिमाणाय विष्कम्भसूचिरङ्गलप्रथमवर्गमूलं जहएणपदे संखेजा संखेजाओ कोडाकोडीओ तिजमल- द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पनं यावद् भवति तावत्प्रदेशारिमका पयस्स उवरि चउजमलपयस्स हिट्ठा, अहव णं छट्ठो वग्गो द्वितीयं च वर्गमूलं तत्व ऽसंख्यात प्रदेशात्मकं ततोऽसंअहवणं छम्मउईछयणगदाइरासी, उक्कोसपए भसंखिजा ।
ज्येयगुणप्रथमवर्गमूलप्रदेशात्मिका । नैरयिकाणां च सूचिर
मीषां त्वङ्गलप्रथमवर्गमूलसंख्येयभागप्रदेशात्मिकेति , युक्तं असंखिजाहिं उस्सप्पिणीोसप्पिणीहिं अवहीरंति का
चैतत् , यस्मान्महादराडके सर्वेऽपि भवनपतयो रसप्रभालतो,खेत्ततो रूवपक्खित्तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ । तीसे | नैरयिभ्योऽप्यसंख्येयगुणहीना उक्तास्ततः सर्वनैरयिकासेढीए आकासखेत्तेहिं अबहारो मग्गिजइ असंखेजा असं
पक्षया सुतरामसंख्येयगुणहीना भवन्ति , मुक्तान्यौधिकमुखेजाहिं उस्सप्पिणीोसप्पिणीहिं कालतो,खेत्ततो अंगुलप
तयत् , आहारकाणि नैरयिकयत् , तैजसकामणानि बडा
नि बद्धवैक्रियवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तयत् , यथा चासुरकुमाढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पप्लं, तत्थ णं जे ते मुक्केलगा
राणामुक्तं तथा शेषाणामपि भवनपतीनां वाच्य , यावते जहा ओरालिया प्रोहिया मुक्केलगा। वेउब्बियाणं भंते ! | स्तनितकुमाराणाम् । पृथिव्यप्तेज. सूत्रेषु बद्धान्यौदारिकपुच्छा,गोयमा दुविहा परमत्ता,तं जहा-बधेल्लगा,मुकेल्लगा। शरीराणि असंख्येयानि , तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तातत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं संविज्जा, समए समए अ
यां प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्यनासंख्येयाभिरु
सर्पिण्यवपिणीभिरपहियन्ते , क्षेत्रतः परिमाणचिन्तावहीरमाणे २ संखेजेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं
यामसंख्येया लोकाः-आत्मीयावगाहनाभिरसंख्येया लोका अवहारिया सिया, तत्थ णं जे ते मुक्केलगा ते णं जहा
व्याप्यन्ते , मुक्तान्याधिक मुक्तवत् , तैजसकार्मणानि पोरालिया प्रोहिया , आहारगसरीरा जहा प्रोहिया , यद्धानि बद्धौदारिकवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , वातकातेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया । वाणमंत- यस्याप्यौदारिकशरीराणि पृथिव्यादिवत् , बैंक्रियाराणं जहा नेरइयाणं ओरालिया आहारगा य । बेउब्धि
णि बद्धान्यसंख्येयानि , तानि च प्रतिसमयमेकैकशरी
रापहारे पल्योपमासंख्येयभागेन निःशेषतोऽपहियन्ते । कियसरीरगा जहा नेरइयाणं, नवरं तासि णं सेढीणं वि
मुक्तं भवति?-पल्योपमासंख्ययभागे यावन्तः समयास्ताखंभमूई असंखेअजोअणसयस्गपलिभागो पयरस्स , यत्प्रमाणानीति न पुनरभ्यधिकानि स्युः, तथाहि-वामुक्केल्लया जहा ओरालिया, आहारगसरीरा जहा असुर
युकायिकाश्चतुर्विधाः, तद्यथा-सूक्ष्मा, बादगश्च एकै द्विकुमाराणं तेयाकम्मया जहा एतेसि णं चेव वेउब्बिता।
धाः-पर्याप्ता, अपर्याप्ताश्च । तत्र बादरपर्याप्तव्यतिरिकाः श
पानयोऽपि प्रत्यकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, ये तु तासि णं सेढीणं विक्खंभसई वि छप्पन्चंगुलसयवग्गपलि
बादरपर्याप्तास्ते प्रतरासंख्येयभागप्रमाणाः , तत्र त्रयाणां भागो पयरस्स , वेमाणियाणं एवं चेव , नवरं तासि णं राशीनां वैक्रियल धिरेय नास्ति, बादरपर्याप्तानामपि संसेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं तइयवग्गमूल
स्ययभागमात्राणां लब्धिः न शेषाणाम् । श्राह च चणि पडप्पन अहव णं अंगुलतइयवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ
कृत्-" तिएहं ताव रासीग बेउब्वियलद्धी चेव नत्थि,
बायरपज्जत्ताणं पि संख जइभागमेत्ताणं लद्धी अस्थि " सेढीयो , सेसं तं चेव । ( मू०-१८० ४) सरीरपयं
त्ति । ततः पल्योपमासंख्येयभागसमयप्रमाणा एव पृच्छाससम्मत्तं ।। १२ ॥
मय वायवो बैंक्रियवर्तिनोऽवाप्यन्ते नाधिका इति । इह असुरकुमाराणामौदारिकशरीराणि नैरयिकवत् , वैफ्रि
कोचिदाचक्षते-सर्वे वायवो वैक्रियवर्तिन एव, अवैक्रियाणां याणि बद्धान्यसंख्ययानि , तदेवासंख्ययत्वं कालक्ष
चेष्टाया एवासम्भवात् , तदसमीचीनं, वस्तुगतेरपरिक्षात्राभ्यां प्ररूपयति-तत्र कालमूत्रं प्रागयत् , क्षेत्रता- नात् , वायवो हि स्वभावाचलास्तताऽफिया अपि ते वा ऽसंख्येयाः श्रेणयः , असंख्येयासु श्रेणिषु यावन्त श्रा
न्ति इति प्रतिपत्तव्यं वाताद्वायुरिति व्युत्पत्तेः । आह च काशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः , ताश्च श्रेणयः प्रतर
चूर्णिकृत्-"जेण सम्वेसु चेव लोगागासेसु चला बाययो म्यासंख्येयो भागः , प्रतरासंख्येयभागप्रमिता इत्यर्थः , तत्र वायति तम्हा अवेउब्बिया वि वाया वायतीति घित्सव" नारकचिन्तायामपि प्रतरासंख्येयभागप्रमिता उक्नाः । ततो मिति, मुक्तानि चैक्रियाण्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि विशेषतरं परिमाणमाह-'तासि ण 'मित्यादि ,तासां श्रे- बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , वनस्पतिणीनां परिमाणाय या विष्कम्भमूचिः सा अङ्गुलमात्र क्षेत्रम- कायिकचिन्तायामादौरिकाणि पृथिव्यादिवत् , तैजसकाबेशराशेः संबन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्य संख्यया भागः । मणान्यौधिकतैजसकामणवत् । द्वीन्द्रियसूत्रे बद्धान्यौकिमुक्तं भवति ?-अङ्गुलमात्रक्षत्रप्रदेशमशेरसत्कल्पनया दारिकशरीराणि असंख्येयानि, ततः कालतः परिमाणपदपञ्चाशदधिकशनद्वयप्रमाणस्य यत्प्रथमवर्गमूलं पाड- चिन्तायामसंख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते-- शालनणं तस्य संख्येयतम भाग याचन्त भाकाशप्रदशा संम्यातामुत्सपिण्यवसपिणीषु यावन्तः समयास्तावत्
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मेरीर
अभिधानराजेन्द्रः। प्रमाणानाति भावः । क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयोऽसंख्यातासु | माणानि.तासांचे श्रेणीनी परिमाण प्रतरस्थासयो रेणिषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्ताचप्रमाणानीत्यर्थः, ता
तथा बाह-'जहाँ असुरकुमारागा' मिति. येथी असुरकुमासां श्रेणीनां परिमाणविशेषनिर्धारणार्थमाह-प्रतरासंख्ये
राणां तथा वक्तव्य , मेवरं विष्कम्भसूचिपरिभाचिन्ता पभागः प्रतरस्यासरुयेयभागप्रमिता असंख्येयाः श्रेण्यः प
तत्रालप्रमाणवर्गमूलस्य संख्ययो भाग उक्तः, इह त्वसंख्येरिगृवन्त इति भावः । प्रतरासंख्येयभागो रयिकमवन
यो भागो वनव्यः । किमुक्त भवति ?-अहलमात्रक्षेत्रप्रदेशपीनामपि प्रतिपादितस्ततो विशेषतरपरिमाणनिरूपणार्थ
राशेः यत् प्रथम वर्गमूल तस्यासंख्येयतमे भागे यान्त मनीमानमाह-'तासि णं. सेढीण' मित्यादि, तासां |- आकाशप्रदेशास्तावत्प्रदेशात्मिका सूचिः परिगृह्यते । भीनी परिमाणावधारणाय या विष्कम्भसची मा असंख्ये- तायत्या च सूख्या याः श्रेणवः स्पृष्टास्तासु श्रेणिधु यावन्तः यायोजनकोटीको(एयः)टी असंख्येयायोजनकोटीकोटिप्रमा- श्राकाशमेदशास्तावत्प्रमाणानि तियकपश्चन्द्रियाणां बजानि गा इत्यर्थः । अथवेदमन्यविशेषतः परिमाणम् -'असंखेजाइ | क्रियशरीराणि । उक्त च-अङ्गलमूलासंखर-भार्गप्पामसेढिवग्गमूलाई' इति-एकस्याः परिपर्णायाः श्रेण्यः या उ होति सेढीश्री। उत्तरबिउब्धियाणं, तिरियाणं सप्रदशराशिस्तस्य प्रथम वर्गमूलं द्वितीयं तृतीयं च वर्गमूलं निपजाणं ॥१॥" मुक्तान्यौधिकमुक्रवत् , तैजसकार्मथावदसंख्येयतम वर्गमूलम् । एतानि सर्वाण्यप्येकत्र स- णानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् , मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् । इल्प्यन्त , तेषु च सङ्कल्पितेषु यावान् प्रदेशगशिर्भवति मनुष्याणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि स्यात्-कदाचित् सायप्रदेशात्मिका विष्कम्भसूचिरवसेया । अत्र नि- संख्येयानि कदाचिदसंख्येयानि । कोऽत्राभिप्रायः इति चेत्, दर्शनम-श्रेणौ किल प्रदेशा असंख्याता अप्यसत्करा- उच्यते-इह द्वये मनुष्या:-गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, सम्भूञ्छिमामया पश्चषष्टिः सहस्राणि पश्चशताान पत्रिंशदधिका
श्व । तत्र गर्मव्युत्कान्तिकाः सदावस्थायिनो, न स कश्चित्कानि ६५५३६ , तेषा प्रथमं धर्गमूल वे शते षट्पञ्चाशदधिके
लोऽस्ति यो गर्मव्यु क्रान्तिकमनुष्यरहितो भवति, सम्मू२५६ द्वितीयं षोडश १६ तृतीयं चत्वारः ४ चतुर्थ द्वौ २, ए- च्छिमाश्च कदाचिद्विद्यन्ते कदाचित्सर्वथा तेषामभायो तेषां च सङ्कलन जाते द्वे शते असप्तत्याधके २७८. एता- भवति. तेषामुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तायुकत्यात् . उत्पत्यन्तरस्य चना किलासकल्पनया प्रदेशानां सूचिरिनि । अथैते हीन्द्रि- चोत्कर्षसश्चतुर्विशतिमुहूर्तप्रमाण वात् , ततो यदा सर्वथा याः किं प्रमाणाभिरवगाहनाभिगस्तीर्यमाणाः कियता का. सम्मूछिममनुष्या न विद्यन्ते किन्तु केवला गर्भव्यलेन सकलं प्रतरमापूरयन्ति ? , उच्यते-अलासंख्येयभा- स्क्रान्तिका एव तिष्ठन्ति तदा स्यात् संख्येयाः, संख्येगप्रमाणाभिरवगाहनाभिः प्रत्यापलिकाऽसंख्बेयभागमकैका- यानामेव गर्भव्युत्कान्तिकानां भावात् , महाशरीरत्ये वगाहनारचनेनासंक्वेयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरापूर्यन्ते। प्रत्येकशरीरत्वे च संति परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् । यदा यमत्र भावना-एकै कस्मिन्त्रायलिंकायाः असंख्ययतमे सु सम्मूच्छिमास्तदा असंख्येयाः, सम्मूर्षिछमानामभागे एकैका अङ्गलासंख्येयप्रमाणा अयगाहना रच्यते, त
स्कर्षतः घेण्यसंख्येयभागवर्तिनभःप्रदेशशिप्रमाणत्वात् , मोऽसंख्येयाभिरुत्सपियवसापिणीभिः सकलमपि प्रतरं
तथा चाह-'जहन्नपदे संखज्जा' इत्यादि , जघन्यपद हीन्द्रियशगैरैरापूर्यते । एतदेवापहारद्वारेण सूत्रकृदाह-'वे- नाम-यत्र सर्वस्तोकाः मनुष्याः प्राप्यन्ते , आइ-किमत्र इंदियाण' मित्यादि द्वान्द्रियाणां सम्बन्धिभिरौदारिकश- सम्मूच्छिभाना ग्रहणमुत गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम् ? , उच्यते रीद्वैः प्रतग्मसख्येयाभिरुत्सपिण्यवसयिणीभिरपह- गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम् , तपामेव सदाऽवस्थायितया सम्मूयते, अत्र प्रतरभिति क्षेत्रतः परिमाणम् , उत्सपिण्यवस- च्छिमविरहे सस्तेोकतया प्राप्यमाणत्वात् , उत्कृष्टपदे प्पिणीभिरिति कालतः । किंप्रमाणेन पुनः क्षेत्रण कालेन तूमयेषामपि ग्रहणं , यदाह मूलटीकाकार:-सतराणां या अपहरणमत श्राह- अंगुलपयरस्स श्रावलियाए य - प्रहणमुत्कृष्टपद , जघन्यपदे गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केसैखज्जहभागलिभागेणं' ति अङ्गलमात्रस्य प्रतरस्य ए- चलानां ग्रहण" मिति, अस्मिन् जघन्यपद संख्यया मनुष्याः कमादेशिकणिरूपम्य असंख्येयभागप्रतिभागप्रमाणेन ख- तत्र संख्येयक संख्ययभेदभिन्न मिति न ज्ञायते कियन्तस्ते राष्टुन, इदं क्षेत्रविषयं परिमाणम् । कालपरिमाणमावलिकाया इति विशेषसंख्यां निायति-संख्येयाः कोटी कोट्यः , असंख्येयभागप्रतिभागनासंख्येयतमेन प्रतिभागेन । किमुक्तं अथवा-इदमन्यत् विशेषतरं परिमाणम् तिजमलपयस्स भवति ?-एकेन हीन्द्रियेणाकुलासंख्ययभागप्रमाण खण्डमा- | उवरि चउजमलपयस्स हेट्ठा' इति , इह मनुष्यसंख्याप्रबलिकाया असंख्ययतमेन भागेनापहियते, द्वितीयेनापि ता- तिपादकान्येकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि , वक्ष्यमारणानि , तत्र सचप्रमाणे खाडं तावता कालेन, एवमपहियमाणं प्रतरं मयपरिभाषया अष्टानामष्टानामकस्थानानां यमलपदमिति दीन्द्रियैः सर्वैरसंख्येयाभिरुत्सविस्यवसर्पिणीमिः सकल- संक्षा । चतुर्विशत्या चाङ्कस्थानः त्रीणि यमलपदानि लमपहियते इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् , तैजसकार्मणानि ब- ब्धानि , उपरि पञ्चाङ्कस्थानानि तिष्ठन्ति । अथ च यमसानि बौदारिकवत् , वैक्रियाणि पुनर्बद्धानि तेषां न स- लपदमएभिरस्थानस्ततश्चतुर्थ यमलपदं न प्राप्यते न्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् . एवं त्रिचतुरिन्द्रियाणामपि ति- तत उक्नं त्रयाणां यमलगदानामुपरि पश्चभिरङ्कस्थानैर्वबकपश्चन्द्रियाणां बद्धानि मुक्तानि चौदारिकाणि द्वीन्द्रियंव- र्द्धमानत्वात् चतुर्थस्य च यमलपदस्याधस्तात्-त्रिभिरकत् बैंक्रियाणि बद्धानि असंख्येयानि । तत्र कालतः परिमाण-| स्थानहीनत्वात् । अथवा-द्वौ द्वौ धौ समुदिती एक चिन्तायामसंख्येयाभिरुत्सप्पिण्यवसापिणीभिरपहियन्ते, क्षे. यमल, चत्वारो वर्गाः समुदिता द्वे यमलै. पद वंगः सअतोऽसंख्येवासु श्रेणिषु यावन्तः श्राकाशप्रदेशास्तावत्प्र- | मुदितास्त्रीलि यमलपदानि, अष्टौ वर्गाः समुदिताश्चत्वारि
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सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
मरीर यमलपदानि । तत्र यस्मात् पराणां वर्गाणामुपरि वर्तन्ते | दो दो नव सत्तेव य, अंकटाणा पग हुंता ॥२॥” इत्यनुसप्तमस्य च वर्गस्याधस्तात् तत उक्तम्-त्रियमलपदस्यो- योगद्वारवृत्ती) अथवाऽयमस्थानप्रथमाक्षरसाग्रहः 'छत्ति परि चतुर्यमलपदस्याधस्तादिति । त्रियमलपदम्येति-त्रि- तिसु पण नव नि च पातणपस ति तिचउ छदो । च(पप). सयानां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदं तस्य , तथा उदो छ ए अबेबेण-सपढमक्खरसन्तियाणा ॥ १ ॥' चतुर्णा यमलपदामं समाहारश्चतुर्यमलपदं तस्य , सम्प्र- पतेषामेव एकोनत्रिंशदङ्कस्थानानां पूर्वपुरुषः पूर्वाङ्गैः परिति स्पषतरं संख्यानमुपदर्शयनि-'अहव णे छट्टयग्गो संख्यानं कृतं तदुपदर्शयति-तत्र चतुरशीतिर्लक्षाणि पूपंचमवग्गपडप्परणो' इति-अथवेति पक्षान्तरे , मिति- योङ्ग चतुरशीतिर्लक्षाश्चतुरशीतिलगुगयन्ते ततः पूर्व वाक्यालङ्कारे , षष्ठी वर्गः पञ्चमवर्गेण प्रत्युत्पन्नो-गुणितः भवति , तस्य परिमाणम्-सप्ततिः कोटिलक्षाणि षट्पञ्चासन् यावान् भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपदे मनुष्या, त- शत्कोटिसहस्राणि ७०५६००००००००००, पतन भागो त्र एकस्य वर्ग एक एव , स च वृद्धि न गत इति व- हियत तत इदमागतम्-एकादश पूर्वकोटीकोटयो द्वागों न गण्यते, द्वयोर्वगश्चत्वार एष प्रथमो धर्मः ४ विंशतिः पू.कोटिलक्षाणि चतुरशीतिः पूर्वकोटीचतुर्णा वगः षोडश एष द्वितीयो वर्गः १६, षोडशानां सहस्राणि अष्टादशोत्तराणि पूर्वकोटीशतानि , एकाशीवर्गे द्वे शत षट्पञ्चाशदधिके एष तृतीयो वर्गः २५६ , तिः पूर्वलक्षाणि पञ्चनवतिः पूर्वसहस्राणि त्रीणि पद्द्वयोः शतयोः पटपञ्चाशदधिकयोर्वर्गः पञ्चषष्ठिः सहस्राणि पञ्चाशदधिकानि पूर्वशतानि , श्रत ऊर्ध्व पूर्वैर्भागो न पञ्च शतानि पत्रिंशदधिकानि , एष चतुर्थों वर्गः ६५५३६, लभ्यते ततः पूर्वाङ्गभांगहरणम् नत्रेदमागतम्-एकविंशतिः एतस्य वर्गश्चत्वारि कोटीशतानि एकोनत्रिंशत्कोट्यः पूर्वाङ्गलक्षाणि सप्ततिः पूर्वाङ्गसहस्राणि पद् एकोनपण्यएकोनपञ्चाशल्लक्षाः सप्तपष्टिः सहस्राणि द्वे शते धिकानि पूर्वाङ्गशतानि, तत ऊर्ध्व च इदमन्यत् उद्वरितपरणवत्यधिक एष पञ्चमो वर्गः ४२१४६६७२६६ , मवतिष्ठते-ज्यशीतिलक्षाणि पञ्चाशत् सहस्राणि त्रीणि उक्नं च--"चत्तारि य काडिमया , अउण तीसं च होन्ति शतानि पट्त्रिंशदधिकानि मनुष्याणामिति १९२२८४११८ । कोडीश्रो । अउणावन्नं लक्खा , सत्तट्ठी चेव य सहस्सा ८१६५३५६ । २१७०६५६ । तथा च पूर्वाचार्यप्रणीता अत्र ॥१॥ दो य सया छगण उया, पंचमवग्गो समासश्रो हाइ। गाथा:एयरस कतो वग्गो , छट्ठो जो होइ तं वोच्छं ॥२॥" एतस्य "मणुयाण जहन्नपदे, एक्कारस पुबकोडिकोडीउ । पञ्चमस्य धर्गस्य यो वर्गः स षष्ठो वर्गः, तस्य परिमाणमेकं बावीसकोडिलक्खा, कोडिसहस्साई चुलसीई ॥१॥ कोटीकोटीशतसहनं चतुरशीतिः कोटीकोटीसहस्राणि अद्वेष य कोडिसया, पुयाण दसुसरा तो होति । । चत्वारि सप्तपश्यधिकानि कोटीकोटीशतानि चतुश्चत्वा- एक्कासीईलक्खा, पंचाण उई सहस्साई॥२॥ रिंशत्कोटीलक्षाणि सप्तकोटीसहस्राणि त्रीणि सप्तस्यधि- छप्पराणा तिनि सया, पुव्वाणं पुवरिणया अरणे । कानि कोटीशतानि पञ्चनवतिर्लक्षाः एकपश्चाशत्सहस्रा- पत्तो पुब्यंगाई. इमाइ अहियाइँ अराणा ॥३॥ णि षद् शतानि घोडपोत्तराणि, १८४४६७४४०७३७०६५५१ लक्खाई एगवीसं, पुबंगाणं सयरिसहस्सा य । ६१६ एष षष्ठो वर्गः, उक्तं च
छ वेगूण्टा, पुब्बंगाणं सयाति ॥४॥ 'लक्स्त्र कोडाकोडी, चउरासीइभवे सहस्साई।
तेसीयसयसहस्सा, पामासं खलु भये सहस्साई। चत्तारि य सत्तट्ठा, होति सया कोडिकोडीगं ॥ १॥
तिरिण सया छत्तीसा, एवइया अविगला मणुया ॥५॥"
इति, इमामेव संख्यां विशेगेपलम्भनिमित्तं प्रकारान्तरेचउयाल लक्खाई, कोडीणं सत्त चव य सहस्सा।
णाह-'अहव ण छराणउई छयणगदायी रासी' इति 'अतिरिण सया सत्तयरी, कोडीणं हुंति नायव्या ॥२॥
हवणे-त्ति-प्राग्वत्, पर गवनिच्छेदनकानि यो राशिदपंचाणउई लक्खा, एकावन्नं भवे सहस्साइ ।
दाति स पराणवतिच्छेदनकदायी राशिः । किमुक्तं भवति ?छसोलसुत्तरसया, एसो छट्ठो हवइ वग्गो ॥ ३ ॥” इति ।।
यो राशिरर्द्धनार्द्धन छिद्यमानः परा गवति चारान् छेदं सहएष षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण गुरयते , गुणिते च सति ते पर्यन्ते च सकलमकं रूप पर्यवसितं भवति स परणयतियावान् राशिर्भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपद मनुष्याः, ते च्छेदनकदायी राशिरिति, कः पुनरेवविध इति चेत् ?, उच्यच पतावन्तो भवन्ति , ७६.२८१६२५१४.६४३३७५६३५४३ ते-एष एव षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गगुणितः, कोऽत्र प्रत्यय इति १५०३३६ एतान्येकोनविंशदङ्कस्थानानि , एतानि च कोटी- चेत् ?, उच्यते-इह प्रथमवर्गश्छिद्यमानो द्वे छेदनके ददाति, कोट्यादिद्वारेण कथमपि अभिधातुं न शक्यन्ते, ततः पर्य- तद्यथा-प्रथमच्छेदनकं द्वौ द्वितीयमेकमिति, द्वितीयो वर्गश्च. न्तवर्तिनोऽङ्कस्थानादारभ्य अङ्कस्थानसंग्रहमात्र पूर्वपुरुष- स्वारि छेदनकानि, तत्र प्रथममणौ द्वितीयं चत्वारस्तृप्रणीतेन गाथाद्वयेनाभिधीयते-'छ तिमि तिम्मि सुम्मं पंचेव य | तीयं द्वौ चतुर्थमेक इति, एवं तृतीयवर्गोऽष्ठौ छेदनकानि प्रनव य तिरिण चत्तारि । पंचेव तिरिण नव पंच सत्त ति- यच्छति, चतुर्थः षोडश, पञ्चमो द्वाविंशतं, पप्ठश्चतुःषष्टिम् । रणव (तिरिण) ति चउछट्टो ॥१॥दो चउ इको पंच, दो स चैवं पञ्चमवर्गेण गुणितः परणयमिः, कथमेतदवसेयछकएकगं च अटेव । दो दो णच सत्सेव य , ठाणाई मिति चेत् ?, उच्यते-इह यो या वर्गो यन येन वर्गेण गुण्यउरि हुँताई ॥२॥" छ त्तिनि तिन्नि सुन्नं, पंचेव य नव त तत्र तत्र तयोद्वयोरपि छेदनकानि प्राप्यन्ते, यथा प्रथमयतिनि चत्तारि । पंचेय तिरिण नय पञ्च सत्त तिक्षेय वर्गण गुणिते द्वितीयवर्गेण पद, तथाहि द्वितीयो वर्गःषोड. सिमेव ॥१॥चउ छहो चउ एको, पण छकेको य भय । शलक्षणः प्रथमवर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते जाता चतुःषष्टिः,
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सरीर
यमी,
तस्याः प्रथमं दनकं हाविशत् द्वितीय पोडश चतुर्थ चत्वारः पञ्चमं द्वौ पष्ठम् एक इति । एवमन्यत्रापि भा धनीयम् । तत्र पचादिनानिि ततः पश्य पशुपदिनानि प्राप्यन्ते । अथवा एकं रूपं स्थापयित्वा ततः पराणवतियारान द्विगुणद्विगुणीक्रियते, कृतं च सत् याद तायप्रमाणो राशियति ततोऽसातव्यम् एष पा राशिरिति। तदेवं जघन्यमभिहितम् इदानीमुपद माह - ' उक्कोसपर असंखेज्जा ' इत्यादि, उत्कृष्टपदे ये मनुष्या भवन्ति ते असंख्येयाः, तत्रापि कालतः परिमाणचि स्ता प्रतिसमयमेकैकमनुष्यापहारे सामना संदेयाभिरुत्सपिएसपिभिरपयिते रूपे मनुष्यैरेका प्रेणिः परिपते किमु भवति - उत्कृष्टपदे ये मनुष्यास्तेषु मध्य एकस्मिनकल्पनया रूप प्रक्षिप्ते सकलाऽपि प्रेरिका पहियं तस्याध प्रकालाभ्यामपहारमार्गेणा फालनस्तापदसंख्याभिस पिण्यवपिभिः क्षेत्रतोऽङ्गुलप्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम् । किमुक्तं भवति ? - श्रङ्गुलमात्र क्षत्र प्रदेशराशिरत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्रयप्रमाणस्तस्य यस्प्रथमं यगमूलम सन्कल्पनया पोडशलक्षणम, तीये या विलासेन गुप्त गु सति यावान् प्रदेशरासिभवति श्रसत्कल्पनया द्वात्रिंशत पहियमाणा वायत् श्रेणिर्माम
-
1
यति तावत् मनुष्या अपि निष्टामुपयान्ति । श्राह — कथमेकन्याः श्रेणेोक्रमापि उत्सपिण्यवपियो लगस्ति ? उच्यते - क्षेत्रम्यातिसूक्ष्मस्वात् उक्य सूत्रे ऽपि सुमो य होइ कालो ततो डुमरं हय सेनं अंगुलमेहींमेने उस प्र मेजा ॥ १ ॥” इति शुक्रान्पौधिकमुवत् वास बनान संख्येयानि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केषांचित् वैक्रियलब्धिसं भवात् मुक्काम्यधिकमुक्रवत् श्राहारकाल्पयिकाहारयत्. जसकामानि पदानि बडौदारिकयत् काम्यधिक मुक्तवत् व्यन्तराणामौदारिकाणि यथा नैरयिकाणां वैकियाणि बद्धान्यसंख्येयानि । तत्र कालतः परिमाणचिन्नायां प्रतिमापहारे असंख्येयाभिरुत्स
"
·
पिपिने क्षेत्रोऽयायः अस्पता श्रेणिषु यायन्त आकाश प्रदेशास्तवमाखानीति भावः । साथ गाय: फियान चेत् य-प्रतरस्यासंख्येयो भागः प्रतरासंख्येयभाग प्रमिता इत्यर्थः तथा चाह - वेउच्चियसरीरा जहा नेरइयाण मिति - वैकिशरीराणि व्यन्तराणां यथा नविका के सूच्यां विशेषः । तथा चाह--' नवर मित्यादि नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्रव्येति शेषः सा च सुप्रसिद्धत्याचा सुर्यासदेति चेत् ? उच्यते- महार पचेन्द्रिय
.
3
"
( ५४३ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
"
J
गुणहीना व्यन्तराः पठ्यन्ते तत एषां विष्कम्भसूचिरपि तिर्यक्पञ्चेन्द्रियविष्कम्भसूचेर संख्येय गुणहीना चक्कव्या इति श्राह च मूलटीकाकारोऽपि "जम्हा महादंड पंचिदियतिरियनपुंसपद्वितो असंखगुरादीना
सरीर
,
वाणमंतरा पढिजति तम्हा विक्खंभसूद विहितो - संजगुद्दा व भाइति सम्पति प्रि भाग उच्यते - प्रतिभागो नाम खण्डम् 'संखेज्जजोयणपलभागी परस्स' इति संख्येययोजनशतयप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणे अपहरणे वा इति वाक्यशेषः । इयमत्र भावना - असंख्येययोजनशतवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डें यदि एकैको व्यन्तरः स्थाप्यते ततस्ते सफलमणि प्रतरमापूरयन्ति पनि या पंधराडारे एकेर्क संख्येययोजनशतयममा प्रेमिण्डमपहियते तत एकत्र व्यन्तराः निष्ठां यान्ति परतः सकलं मनरमिति । मुहान्योधिकमुक्रवत् आहारकाणि नैरयिकचत् तेजसामरणानि पदानि बढकियत्चिकमुक्रवत् । ज्योनिष्कामदारकाणि नैरधिकवत् वैक्रियामि वदान्यस्यानि तत्र कालो मार्गा समयमेकैकापहारे सामनाएं ये याभिसि वणिभिरप हियन्ते । क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयः, ताश्च श्रेण्यः प्रतरासंख्येयभाग प्रमिताः । जोहासया एवं चेव' इति नवरमित्यादिना विशेपं दर्शयति-नपरं तासां श्रेणीनां पि
तथा चाह -
ति शेषः । इयमपि सुन्यानोका कथमिव सुप्रसि देति चेत् उच्यते-परमात्मदादराडके व्यन्तरस्यो ज्योतिका संख्येला उक्तास्तत प
?
,
विरपि तेषां विष्कम्भवैः संश्येयगुणाच्या तथा चाह-मूलटीकाकार- जम्दा वाणमंनरे दिनो जोसिया जिगुवा पढिरति सदा विभ सिंजगु देव भवति इति नपरे प्रतिभागे स्पा विशेषस्तमेवादल पापविभागो परस्स इति पञ्चाशदधिकशनद्व पालमा प्रतिमागः प्रतरस्प पूरणेऽपहर च अत्रापीयं भावना - पद्मञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणे श्रेणिखराडे को ज्योतिष्को ऽवस्थाप्यते तनस्ते सक
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9
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6
"
3
रिमापूरयन्ति यदिवा-पद्येकज्योतिष्कापहारेरेल एकैकं पञ्चाशदधिकशतावर्गप्रमाणं श्रेणिखरामयिते तन एकत्र ज्योतिष्क परिसमासियान्ति अपरत्र सकलं प्रतरमिति एवं च ज्योतिष्कारणां व्यन्तरेभ्यः संख्ये गुणहीनः प्रतिभागः संख्ये यगुणाभ्यधिका सूचिः । पञ्चसङ्ग्रह पुनः पद्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाण एव प्रतिभाग उक्लो न तु षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयवर्गप्रमाणः, तथा च तद्ग्रन्थः "छप्पन्न दोसयंगुल - सूपए सेहि भाइयः प यरं । जोइसिप हीरइ" इति, मुक्तान्यधिकमुक्तवत्, आद्वारकाणि नैरयत् जानानि षयतू मुषित् वैमानिकानामीदार विपत् क्रियाणि पानि देयानि तत्र कालो मार्गणा ज्योतिष्कवत् क्षेत्रतो मार्गणाऽसंख्याः श्रेयः किमु भवति वा प्रेसिवाय साफीराप्रदेशस्यमायानीनि तासांची परिमा रस्यासंख्येयो भागः प्रतरांच्या इत्यर्थः। तत्र प्रतरासंख्ययभागो नैरधिकादिमार्गणायामपि गृहीत इति विशेषतरं परिमाणं प्रतिपादयति-' तासि ' मित्यादि
1
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मरीर
प
तासां बीनां विष्कम्भसूचिरकुलाद्वितीपथमूलं तीपवर्गप्रत्युत्यम्बकं मषति अलमात्र प्रदर सस्कानया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमासस्य यद् द्वितीबं] वर्गमूलम् असत्कल्पनया चतुष्कलक्षणं ततीयेन वर्गलेन, असत्कल्पनया द्विकरूपेण गुरुयते मुसि सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति, असत्कल नया अष्टौ तावदेशमिया विष्कम्भसूच्या परिमिताः श्रेयः परि ह्याः । तत्रापि ता एव भ्रष्टौ श्रेण्य इति प्रकारद्वयेऽप्यर्था मेः । आहारकाणि नैरचित् तैजसका मेशानि बहान येवमुक्ाम्प्रा० १२ प (4) 4विहिपमाले, पोग्गल लिया सरीरसंजोगो । eareesप्पबहु, सरीरओ गाहलऽप्पबहुं ॥ १ ॥ विहिपमा' इत्यादि प्रथमं वध - मेदाः शर्मराणां चक्कयाः, तदनन्तरं संस्थानानि ततः प्रमाणानि, सदनन्तरं कनिभ्यो दिग्भ्यः शरीराणां पुलोपनयो म शत्वं पुचपन व ततः कस्मिन् शरीरे सनि किं शरीरमवश्यंभावीत्येवंरूपः परस्परसंयोगो वक्तव्यः ततो द्रव्याणि च प्रदेशाथ द्रव्यप्रदेशाः ते च द्रव्याणि च प्रदेश इयप्रदेशाः 'समानानामेकशेषः शेषर रूपवत्यं वक्तव्यम् । किमु भपति-पदेश
,
9
या पार्थपदेशार्थतया च पथानामपि शरीराणाम
9
7
,
•
"
त्यमभिधातव्यमिति ततः पञ्चानामपि शरीराणामचाहनाविषय मल्पबहुत्वं वाच्यमिति गाथा संक्षेपार्थः 1 (१०) तत्र यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमतो विधिद्वारमाधिसुराही शरीरमूलभेदान् प्रतिपादयति
कति णं भंते! सरीरया पच्छथा ? मोगमा ! पंच सरीरैया पाता, तं जहा - ओरालिए १ वेउच्चिए २ आहारैए ३ तेयए ४ कम्मए ५ । ( २६७ X )
"
(788) अभिमानराजेन्द्र
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यं तिर्यग्मनुष्याणां तथा ' आहारए ' इति - श्राहारक - पूरक निदर्शनादिकं तथाविधप्रयोजनो स्पत्तौ सत्य। विशिष्टलब्धिवशादाहियते - निर्वर्त्यते इत्याहारकम्, रुद्रडुल' मिति वचनात् कर्मणि वुन्, यथा पादहारक इत्यत्र । उक्रं - " कजम्मि समुल, सुकेवलिहा विसिय अंग्य प्रहरिख महा
सेतु" कार्य वेदम्यरिडियन-सुहुमपयत्थावगहेडं या । संमययोच्छ्रयत्थं, गम जिपायलस्मि ॥ २ ॥ " तश्च वैक्रियशरीरापेक्षयां अत्यन्तकटिकले समुदघटना ते न तैजसः जलानां विकारलेज पि कार' इत्यस् तत ऊष्मलिङ्ग भुक्ताहारपरिणमनकारणं, तदेशाच्च विशिष्टतपत्यविशेषस्य पुंसस्तेजोले
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विनिर्गमः उक्तं च- सम्बस्स उम्हसिद्धं, रसाइआहारपाकजण च । तेषमलजिनिमित्तं चय होइ नाथवं ॥ १ ॥ 'कम्मए' इति कर्म्मणो जातं क
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कमजम् । प्रज्ञा० २१ पत्र ।
(११ जीवस्पृनि चैवादीनि शरीरादिचत्तारि सरीरगा जीवफुडा पष्ठत्ता, आहारए तेय कम्मए । 'बसारीत्यादि
निसानि पृष्टानि हि स्पृष्टान्येव कियानि भवन्ति, नबु यथा श्रीदारिक जीवमुक्रमपि भवति मृतावस्था तथैतानीति । स्था० ४ ठा० ३ उ० ।
-
'कह णं अंत !' इत्यादि कति किपरिमाणानि ति वाक्यालङ्कारे भदन्त शीर्यन्ते प्रतिक्षणं विशरारुभावं बिभ्रतीति शरीराणि शरीराण्येव शरीरकाणि, तथा स्वार्थे कप्रत्ययः भगवानाद-गौतम पक्ष शरीराणि ! प्रशप्तानि मया श्रन्यैश्च शेषैः तीर्थकृद्भिः, तान्येव नामत शाह-' ओरालिए' इत्यादि उदारं प्रधानं, प्राधान्यं चास्य कीर्थकरगणधर शरीराण्यधिकृत्य ततोऽम्पस्या तरशरीर स्वाप्यनन्त गुरुद्दीन पाउदा सातिरेकयो जनससमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य बेयिं प्रति भवधारणीय सहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यया उकिये योजनलसमानमपि लभ्यते । उदारमेव मौसरिकं विनयादिपाठादिकया तथा विविधा विशिष्टश था क्रिया विक्रिया तस्यां भयं वैक्रियम्। तचाहि—संदे स्वा अनेकं भवति, अनेकं भूत्वा एकं, तथा अणु भूत्वा महद्भवति महच भूत्वा अणु तथा खचरं भूत्वा भूमिपरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं तथा दृश्यं भूत्या सदस्यं भवति भूत्वा दृश्यमित्यादि तब द्वितीनामेकाद्यसंख्येयान्तशरीरत्याद् अनन्तानां च त श्रवश्यं विश्वम् — औपपानिकं लब्धिप्रत्ययं च । तत्रोपपातिकमुपपातजन्मनिर्मितं तच्च देवनारकायां
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"
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,
नधिप्रत्य
तं
जहा - उत्रिए
(१२) कति महालपानि पृथ्वी शरीराणि - महालणं ते! पुढविसरीरे पन्न ते १, गोयमा ! - ताणं सुदुमवणस्स इकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुडुमवाउसरीरे असंखेजायं सुमवाउसरी जातिया मिसरीश से एगे सुमते उसरीरे असं मुहुमते उकाई
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,
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"
यसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहुमे आउसरीरे, असंखेजाणं सुदुमाउक्काइसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुमे पुढविसरीरे असंखेजायं सुमपुढ विकाइय सरीराखं नावइया सरीरा से एगे बादरवाउसरीरे असंखेज्जाबादवाकाइयाचं जावइया सरीरा से एगे बा खं दरतेउसरीरे असंखे जाणं बादरतेउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बादरभाउसरीरे असंखेज्जा बादरउसरीरे जावतिया सरीरा से एगे बादरपुढधिसरीरे, एमहालए खं गोषमा ! पुढविसरीरे पद्मते (०६५२) 'के महालमित्यादि 'अता सुमारा जावा सरीरा से एमवारी सिह याद नासंख्यातानि शरीराणि ग्राह्याणि अनन्तानामपि वनस्प तच्छरीराणामभावात् प्राच सूक्ष्मवनस्पत्यवगाहनाऽपेक्षया सूक्ष्मवाखचगाया असंख्यातगुणादिति 'राम
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( अभिधानराजेन्द्रः ।
सरी
स्त्वादि 'सुडुमबाउसरीराणं' ति वायुरेव शरीरं येषां ते तथा सूक्ष्माश्च ते वायुशरीराश्च - वायुकायिकाः सूक्ष्मवायुशरीरास्तेषाम संख्येयानां सुडुमवाउकाइया "ति क्वचित्पाठः स च प्रतीत एव, 'जावइया सरीर'ति यावन्ति शरीराणि प्रत्ये कशरीरत्वात्तेषामसंख्येयान्येव 'से एगे सुहुमे तेउसरीरेत्तितदेकं सूक्ष्मतेजः शरीरं तावच्छरीरप्रमाणमित्यर्थः । भ० १६ शु० ३ उ० ।
(१३) संप्रत्यौदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतोSवस्थाभेदतश्च भेदानामेधित्सुराह
मोरालि सरीरे णं भंते ! किंसंठिते पन्नत्ते ?, गोयमा ! खाणासंठासठिते पण्णत्ते, एगिंदियओरालियसरीरे किंठिते पण चे १ गोयमा ! यायासंठाणसंठिते पण्णत्ते, पुढविकाइयएगिंदियओरालियसरीरे किंसंठिते पणम्पत्ते १, गोयमा ! मसूरचंद सेठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं सुमढवीकाइयाण वि, बादराण वि एवं चैव
, पञ्ज
,
पाणवि एवं चेव । श्रउक्काइयए गिंदियओर। लियसरीरे यं भंते! किंसंठिते पण्णत्ते १, गोयमा ! थिबुकबिंदुसंठाणसंठिते पण ते एवं सुहुमबादरपजत्तापञ्जता वि, उक्काइए गिंदियओर लियसरीरे णं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते ! गोयमा ! सूईकलावसंठाणसंठित पण्णत्ते १, एवं सुहुमबादरपज्जत्तापज्जत्ताण वि, वाउकाइयाण वि, पडागाठाण संठिते, एवं सुहुमबादरपञ्ज तापज्जत्ताण वि बणष्फइकाइयाण णाणासंठा - संठिते पणते, एवं सुहुमबादरपअत्तापज्जता वि । इंदिरा लि यसरीरे गं भंते ! किंसंठाणसंठिते पटते. गोयमा ! हुंडठाणसंठिते पष्मते, एवं पज्जत्तापज्ज-. सा वि एवं इंदियचउरिंदियाण वि । पंचिदियतिरिक्खजोणिय पंचिदियोरा लियसरीरे णं भंते । किंसंठाणसंठिते पत्ते, १, गोयमा ! छव्विहसंठाय संठिते पण ते, तं जहा - समचतुरंस संठाणसंठिते० जाव हुंडठाण संठिते वि, एवं पत्तापञ्जताय चि ३, संमुच्छिमतिरिक्खजोणिपंचिंदियओरालियसरीरे गं भंते । किंसंठाणसंठिते पंष्य१, गोयमा ! हुंडठाणसंठिते पमते, एवं पजत्तापअत्तावि, गन्भवतियतिरिक्खजोगियाण वि पंचिदियतिरिक्खं जो यिओरालियसरीरे णं भंते! किंसंठासंठिते पत्ते १ गोंयम ! छत्रठाण संठिते पपत्ते, तं जहा - समचउरंसे० जाव हुंडठाणसंहिते, एवं पञ्जत्तापज्जत्ताण वि ३, एवमेते तिरिक्खजी शियाण ओहिया व आलावगा जलयरपंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं ओरालियसरीरे गं भंते । किंसंठाणसंठिते पपते १, गोयमा ! छन्हिठाणसंठिते पयाचे, तं
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For Private
सरीर
जहा - समचउरंसे •जाव मुंडे, एवं पञ्जत्तापज्जताय वि, संमुच्छिमजलयरा हुंडठाणसंठिता, एतेसिं चैव पत्ता विपत्तमावि, एवं चैव गन्भवकंतियजलयरा छविहसठाणसंठिता, एवं पञ्जत्तापज्जत्ताण वि, एवं थलयराण वि व सुत्ताखि, एवं चउप्पयथलयराण वि,
"
परिसप्पल व भुयपरिसप्पथलयराण वि, एवं खहयराण वि व सुत्ताणि, नवरं सव्वत्थ सम्मुच्छिमा हुंडठाणसंठिता भाणितव्त्रा इयरे छसुवि । मरणूस पंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते १, गोयमा ! छव्विह संठा संठिते पत्ते, तं जहा - समचउरंसे जाव हुंडे, पञ्जत्तापज्जत्ताय वि एवं चेव, गन्भवतियाण वि एवं चेव, पञ्जत्तापजत्ताण वि एवं चैत्र । सम्पुच्छिमाणं पुच्छा गोयमा १ हुंडकंठासंठिता पष्ठता । ( सू० २६८ )
०
'श्रगलियसरीर णं भंते!' इत्यादि, नानासंस्थानसंस्थितं जीवजातिभेदतः संस्थानभेदभावात्, एकेन्द्रियौदारिक्रशरीरे नानासंस्थानसंस्थितता पृथिव्यादिषु प्रत्येकं संस्थानभेदात्, तत्र पृथिवीकायिकानां सूक्ष्माणां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि मसूरचन्द्रसंस्थान संस्थितानि, मसूगे - धान्यविशेषः तस्य चन्द्रःच द्राकारमर्द्धदलं तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि अकायिकानां सूक्ष्मादिमेदतः चतुर्भेदानामौदारिकशगीराणि स्तिबिन्दु संस्थानसंस्थितानि स्तिबुकाकारो यो बिन्दुर्न पुनरितस्ततो वातादिना विक्षिप्तः स्तिबुक बिन्दु - स्तस्यैव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि तैजसकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदाना मौदारिकशरीगणि सूचिकलापसंस्थानसंस्थितानि, वायुकायिकानां सूक्ष्मादिमेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि पताकासंस्थानसंस्थितानि वनस्पतिकायिकानां सूक्ष्माणां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येक मौदारिकशरीराणि नानासंस्थानसंस्थितानि, देशकालजातिभेदतः तेषां संस्थानानामनेकभेदभिन्नत्वात् द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां प्रत्येकं पर्याप्तानामपर्याप्तानामौदारिकशरीराणि हुण्डसंस्थान संस्थितानि तिर्यक्पश्वेन्द्रियौदारि कशरीरं सामान्यतः पविवसंस्थानसंस्थिततम्, तदेवोपदर्श यति - ' समचउरंससठाणसंठिए ' इत्यादि, यावत्करणात् - ' नग्गोहपरिमण्डलसंठासंठिए साहसठाणसंठिप वामणसंठाणसंठिए खुज्जसंठाणसंठिप हुण्डठाणसंठिए ' इति परिग्रहः, तत्र समाः - सामुद्रिकशास्त्रोक्त प्रमाणलक्षणाविसंवादिभ्यश्चतस्त्रो ऽनयः चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुरनं समासान्तो ऽच्प्रत्ययः समचतुरस्रं च तत्संस्थानं च समचतुरा संस्थानं तेन संस्थितं संमचतुरस्त्र संस्थान संस्थितं तथा म्यप्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तत् व्यग्रोधपरिमण्डलं यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्ण प्रमाणोऽधस्तु हीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्ण प्रमाणम् अधस्तु न तथा तन् न्यग्रोधमरिमण्डलम्, तथा आदिरिहोत्सेधाच्यो नाभेरधस्तनो देहभागी
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मरीर अभिधानराजेन्द्रः।
मरीर गृह्यते , ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथो
बादरवाउकाइय-एगिदिय-वेउब्बियसरीरे किं पञ्जत्तक्लप्रमाणलक्षणेन वर्तत इति सादि , यद्यपि सर्व
बादरवाउक्काइय-एगिदिय-वेउब्बियसरीरे, अपज्जत्तबादशरीरमादिना सह वर्तत तथापि सादित्यविशपणान्यथानुपपत्या विशिष्ट एवं प्रमाणलक्षणापपन्नः श्रा
स्वाउकाइय एगिदिय-बेउब्धियसरीरे ?, गोयमा ! दिरिह लभ्यते , तत उक्तं यथाक्लप्रमाणलक्षणनति ।
पजत्तबादरवाउकाइय-एगिदिय-वेउब्धियसरीरे नोअपइदमुक्तं भवति-यत् संस्थानं नाभेरधःप्रमाणापपन्नमपरि च अत्तवादरवाउक्काइय-एगिदिय-वेउब्बियसरीरे , जति हीनं तत्सादिरिति, अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साची. पंचेंदियवउव्वियसरीरे किं नेरइयपंचिंदियवउब्धियसरीरे प्रवचनवदिना शाल्मलीतरुमाचक्षत , ततः साचीव यत्सं.
जाव किं देवपंचिंदियवेउब्वियसरीरे ?, गोयमा ! नरस्थानं तत्साचिसंस्थानं , यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः का. एडमतिपुष्टमपरितना तदनुरूपा न महाविशालता तद्वद
इयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे जाव देवपंचिदियवेउस्यापि संस्थानस्याधाभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभा. बियसरीरे वि, जइ नेरइयपंचिंदियवेउब्धियसरीरे किं गस्तु नति । तथा यत्र शिरो ग्रीवं हस्तपादादिकं च यथाक्त- श्यणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्धियसरीरे वि जाव प्रमाणलक्षणापेतम् उरउदगदि च मडर्भ तत्कुब्जसंस्थानं ,
किं अधमत्तमापुढवि-नेरइय-पंचिंदिय-वेउब्धियसरीरे ?, यत्र पुनरुरउदरादिप्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिकं हीनं तद्वामनसंस्थानं , यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्र.
गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियबेउब्बियसटास्तन् हुराष्ट्रसंस्थानं , समासः सर्वत्रापि पूर्ववत् , एवं 'प
रीरे वि जाय अधेसत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्बियसजत्तापज्जत्ताण वि' इति, एवम्-उक्नप्रकारेण सामान्यतस्ति- रीरे वि, जइ रयणप्पभापुढविनरइय-वेउब्धियसरीरे किं यंपञ्चद्रियाणामिव पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकं सूत्रं य
पज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयवेउब्बियसरीरे अपज्जत्तगरक्लव्यं , तदेवमेनानि त्रीणि सूत्राणि, पवमेव च सामान्यतः सम्मूछिमतियपक्षन्द्रियाणामपि त्रीणि सूत्राणि वक्तव्या
यणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे ?, गोयमा ! नि , नवरं तेषु त्रिपि सूत्रेषु हुण्डसंस्थानसंस्थितमि
पज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइय-पंचिंदिय---बेउब्बियसनि वक्तव्यम् , सम्मूछिमाणामविशेषण सर्वेषामपि हुण्ड- रीरे अपजत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्बियससंस्थानभावात् । त्रीणि सामान्यतो गर्भजतिर्यकुपञ्चन्द्रिया- रीरे , एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणिणामपि , नवरं तेषु त्रिवपि सूत्रेषु "छब्बिहसंठाणसठिए
तव्यो । जइ तिरिक्खजोणियपंचिंदियवउव्वियसरीरे किं पराणत्त' इत्यादि वक्तव्यम् । गर्भजेषु समचतुरस्रादिसंस्थानानामपि सम्भवात् , तंदवमत सामन्यतस्तियपञ्चन्द्रि
संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियवेउब्धियसरीरे गम्भवयविषया नव पालापकाः, अननैव क्रमेणैव जलचरतिर्यक्- कंतियपंचिंदियतिरिक्खव्वेउब्धियसरीरे ?,गोयमा! नो संपञ्चेन्द्रियाणां सामान्यतः स्थलचराणां चतुष्पदस्थलचराणा- मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्ख वे उब्धियसरीर गम्भवतियपंमुर परिसपस्थलचराणां भुजपरिसर्प स्थलचराणां खचर
चिंदियतिरिक्ख०वेउब्बियसरीरे,जति गम्भवतियपंचिदि तियाञ्चन्द्रियाणां च प्रत्येक नब २ सूत्राणि वक्तव्यानि । सर्वसंख्यया तिर्यकपञ्चन्द्रियाणां त्रिषष्टिः ६३ सूत्राणि मनु
यतिरिक्ख बेउब्धियसरीरे किं संखेज्जवासाउयगम्भवतिप्यारणां नव सर्वत्र सम्मूछिमेषु हुण्डसंस्थानं च वनव्य
यपंचिंदियोउब्धियसरीरे असंखिञ्जवासाउयगम्भकंतियमितरत्र षडपि संस्थानानि । तदवमुक्कान्यौदारिकभेदानां । पंचिंदियतिरिक्ख०वेउब्बियसरीरे?, गायमा ! संखेजबासासंस्थानानि । प्रज्ञा०२१ पद (अवगाहना ' आगाहणा' शब्दे ।
उयगम्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख बेउब्बियसरीरे,नो असंप्रथमभाग ६०२ पृष्ठ गता।)
खिजवासाउयगब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउब्धियस(१४) सम्प्रति क्रमेण वैक्रियस्य शरीगण्यभिधित्सुराह
रीरे । जइ संखिजवा० गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेबेउब्धियसरीरे पं भंते ! कतिविधे पामते ?, उब्बियसरीरे किंपजत्तगसंवि०गब्भवतियपंचिंदियतिरिगोयमा ! दुविधे पण्णत्ते , तं जहा-एगिंदियवेउब्धि- ख. वेउब्बियसरीरे अपञ्जत्तगसंखिज. गम्भवतिययसरीरे य, पंचिंदियवेउब्धियसरीरे य । जति एगिदिय- पंचिंदियतिरिक्व० वे उब्धियसरीरे ?, गोयमा ! पजत्तगवेउब्धियसरीरे किं वाउकाइयएगिदियवेउब्वियसरीरे, संखिज० गम्भव कंतियपंचिंदियतिरिक्ख० वउब्वियसरीरे अबाउकाइयएगिदियवेउब्धियसरीरे ?। गोयमा! वा- नो अपज्जनगमंखिञ्ज गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउक्काइयएगिदियवेउब्धियसरीरे नो अवाउक्काइयएगिदियवे- उब्धियसरीरे, जइ संखञ्जवामा० किं जलयरगन्भवतिउब्वियसरीरे । जइ वाउकाइयएगिवेउब्धियसरीरे किं सुह- यपंचिंदियतिरिक्व० वेउव्वियसरीरे थलयरसंखिञ्ज. गमवाउकाइयएम्बेउब्बियसरीरे बायरबाउक्काइयएवेउव्वि- ब्भवतियपंचिंदियतिरिक्व० वेउब्बियसरीरे खहयरसंयसरीरे ?,गोयमा नो सुहुमवाउकाइय-एगिदिय-बेउन्धि- विजया० गम्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजो बेउब्धियमयसरीरे बादरखाउकाइय-एगिदिय-वेउब्बियसरीरे । जइ रे ?, गायमा ! जलयरमंखिज. गम्भवतियपंचिदि
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(289)
श्रभिधान राजेन्द्रः ।
सरीर
1
यतिरिक्ख० उब्वियसरीरे वि थलयरसंखिज० गन्भवकंतियपंचिदियतिरिक्ख० वेडव्वियसरीरे वि खहयरसंखिज० गन्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्ख० वेडव्वियसरीरे वि, जइ जलयरसंखिज्जवासाउयग० किंपजत्तगजलयरसं खिज० गब्भवक्कंतियपंचिदियतिरिक्खजो० वेउब्वियसरीरे अपजत्तगजलयरसंखिजवा० गन्भवक्कंतियपंचिदियतिरिक्ख० व्वियसरी य १, गोयमा ! पजत्तगजलयरसंखिञ्ज० गन्भवक्कतियपंचिदियतिरिक्ख० वेडव्वियसरीरे नो - पञ्जनगसंखिज्ज० जलयर गन्भवकंतियपंचिदियतिरिक्ख० चेउब्वियसरीर । जति थलयरपंचिदिय० जाव सरीरे किं चउपय० जाव सरीरे किं परिसप्प० जाव सरीर १, गोयमा ! च उपय०जाव संखिञ्ज० परिसप्प० जाव सरीरे एवं सच्चेमं यं जाव खहयरागं पजत्ताणं नो अपजताणं । जति मणून पंचिदियउच्चियसरीरे किं संमुच्छि ममरणूसपंचिदियवे उब्वियसरीरे गन्भवकंतियमरणून पंचिदि यवे उब्वियसरीर ?, गोयमा ! यो समुच्छिममणूस पंचिदिउच्चिसरीरे गव्भव कंतियमरणूस पंचिदियवेउच्चियसरीरे | जड़ गन्भवतिय मरणूस पंचिदियवे उव्वियसरीरे किं कम्मभूमगगन्भवतिय मणूस पंचिदियवे उच्चियमरीरे अकम्मभूमग० गन्भव कंतिम णूसपंचिदियवे उब्वियसरीरे अंतरदीवगगब्भवतिय मरणूस पंचिदियवे उब्वियसरीरे ?, गोयमा ! कम्मभुमगगन्भवतियम णूस पंचिदियवे उब्विय सरीरे खोकम्मभूमग०णो अंतरदीवग० जइ कम्मभूमगगन्भवकंतियमणूसपंचिदियवेउच्चियसरीरे किं संखेजवासाउयकम्मभूमगगन्भवकंतिय मरणूमवे उव्वियसरीरे, असंखिज० कम्मभूमगगब्भवकंतियमरणूसपंचिदियंत्र उब्वियसरीरे ?, गोयमा ! संखेज ० कम्मभूमगगन्भचकंतिय मरणूमपंचिदियंवउब्वियस रीर नो असंखज० कम्मभूम गगन्भवतिय मरणूस पंचिंदियउच्चिसरीर, जति संखज० कम्मभूम गगव्भव कंतियमरणूसर्पचिदिव उच्चियसरीरे, किं पञ्जत्तयसंखेज ० कम्मभूम० मरणू पंचिदियउव्वियसरीरे अपजत्तगसंखिज्ज० कम्मभूमगगन्भवतियमणूस पंचिदियवे उब्वियसरीरे ?, गोयमा ! पञ्जत्तगसंखिञ्ज० कम्मभूमगगन्भवक्कतिय मणूसपंचिदियवे उब्धियसरीरे नो अपजत्तगसंखेञ्ज ० कम्मभूमगगन्भवति यमणूस पंचिदिवे उब्विय सरीरे। जड़ देवपचिदियवेउच्चियसरीरे किं भवणवासिदेव पंचिदियवे उच्चियसरीर० जान मणिदेव पंचिदिवे उच्चियसरीरे ?, गोयमा ! भवणवासिदेव पंचिदियवेउब्वियसरीरे वि० जाव वैमाणियदेवपंचिदिय उब्वियसरीरे वि । जइ भवणवा सिदेवपचिदि
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मरीर
सिरीरे किं असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिदिवेव्वियसरीरे० जाव थणियकुमारभवणवासिदेवचिfarasoorai ? गोयमा ! असुरकुमार० जाव थलियकुमारखेड व्वियसरीरे वि । जह असुरकुमारदेवपंचिदियवेव्वियसरीरे किं पञ्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउच्चियसरीरे अपत्तजग सुरकुमारभवखवासिदेवपंचिदियउब्वियसरीरे १, गोयमा ! पत्तगअसुरकुमारभवरणवासिदेवषंचिदियउब्वियसरीरे व अपज - तगअसुरकुमार भवरणवासिदेवपंचिदियवे उच्चियसरीरे वि एवं० जाव थणियकुमाराण दुगतो भेदो, एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं जोतिसियाणं पंचविहारणं । वेमाणिया दुविहा- कप्पोवगा, कप्पातीता य । कप्पोवगा वारस विहा तेसि पि एवं चैव दुहतो भेदो, कप्पातीता दुविहा गेबेजगा य, अणुत्तरोववाइया य । गवेजगा वहा - गुत्तरोववाइया पंचविहा, एतेसिं पञ्जत्तापञ्जत्ताभिलावेगं दुगतो भेदो भाणियव्वो । ( सू०-२७० )
"
• सिरीरें भने !' इत्यादि, वैक्रियशरीरं मूलतो द्विभेदम् - एकेन्द्रियपञ्चन्द्रियभेदात् तत्रैकेन्द्रियस्य वातकायस्य तत्रापि वादरस्य तत्रापि पर्याप्तस्य शेषस्य वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् । उक्तं च- तिराहं ताव रासीण वेउविली व नत्थि, वायरपजत्तां पि संखेजइभागमत्तं " अत्र ' तिराहे ति त्रयाणां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापयतिवादरूपाणाम । पञ्चन्द्रियचिन्तायामपि जलचरचतुपदरः परिसर्पभुजपरिसर्पखचरान् मनुष्यांश्च गर्भव्युकान्तिकान् संख्येवर्षायुषो मुक्त्वा शेषाणां प्रतिषेधा, भवस्वभावतया तेषां वैक्रिय लब्ध्यसम्भवात्। उक्ता भेदाः । (१५) संस्थानान्यभिधित्सुराह
उव्वयसरीरे णं भंते । किंसंठिते पम्पत्ते ?, गोयमा ! खाणासंठाण संठिते पत्ते, वाउकाइयएगिंदियचे उच्चियसरीरे णं भंते । किंसंठाणसंठिते पम्पते, गोयमा ! पडागासंठाणसंठिते पत्ते, नेरइयपंचिदियोउब्वियसरीरे गं भंते ! किंसंठाणसंठिते पत्ते ?, गोयमा ! नेरइयपंचिदिवेच्वियसरी दुविधे पलते तं जहा भवधारखिज्जे य, उत्तरवेउच्चिए य । तत्थ रंग जे से भवधारणिजे से गं हुंडठाणसंठिते पत्ते, तत्थ सं जे से उत्तरवेउव्विते से वि हुंडठाणसंठिते पण ते । रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिदियउब्वियसरी गं भंते ! किं संठाणसंठिते पण्णत्ते ?, गोयमा ! रयप्पभापुढविनेरइयाणं दुविधे सरीरे पमते तं जहा अवधारणिज्जे य, उत्तरउच्चिए य । तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से गं हुंडठाणसंठिते, जे से उत्तरवेउच्चिते से वि हुंडे, एवं ००जाव
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सरीर
सरीर
अभिधानराजेन्द्रः। अधेसत्तमापुढावनेरइयवेउब्धियमरीरे । तिरिक्खजो- रगसरीरे ?, गोयमा ! नो सम्मुच्छिपमणूमनाहारगसरीरे, णियपंचिंदियवेउब्बियमरीरे णं भंते ! किं संठाणसांठते
गम्भवतियमणूसमाहारगसरीरे । जइ गम्भवकंतियमणपएणते ?, गोयमा ! णाणासठाणमांठते पण्णत्ते , एवं साहारगसरीरे किं कम्मभूमगगम्भवतियमणूसाहाजलयरथलयरखहयराण वि , थलयराण वि चउ- रगसरीरे अकम्मभूमगगम्भवतियमणूपाहारगसरीरे प्पयपरिसप्पाण वि उरपरिसप्पभयपरिसप्पाण वि ।।
अंतरदीवगगमवकंतियमंणूसपाहारगसरीरे १, गोयमा ! एवं मणूसपंचिंदियवेउब्वियसरीरे वि । असुरकुमार- कम्मभूमगगन्भवतियमणूसाहारगसरीरे नो अकम्मभूमवणवासिदेवपंचिंदियवउब्बियसरीरे णं भंते ! किं-- मगगन्भवतियमणूमाहारगसरीरे, नो अंतरदीवगगसंठिते पामते ? , गोयमा! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे |
म्भवतियमरणूसाहारगसरीरे, जइ कम्मभूमगगम्भवसरीरे पएणत्ते, तं जहा-भवधारणिज्जे य, उत्तरवेउ- कंतियमणूसाहारगसरीरे, किं संखेजबासाउयकम्मभूमबिते य । तत्थ णं जे से भवधाराणज्जे से णं समचउरं- गगम्भवतियमणूसाहारगसरीरे, असंखेजबासाउयकससंठाणसंठिते पामते , तत्थ णं जे से उत्तरवेउचिते से | म्मभूमग-गम्भवतियभरामाहारगसरीरे, गोयमा ! णं णाणासंठाणसंठित पमत्त एवं जाव थणियकुमार- संखिजवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसाहारगस-- देवपंचिंदियघेउब्धियसरीरे । एवं वाणमंतराण वि, ण-| रीरे, नो असंखेन्जबासाउयकम्मभूमगगम्भवऋतियमरणचरं मोहिया वाणमंतरा पुच्छिअंति, एवं जोतिसियाण समाहारगसरीरे, जति संखेञ्जवासाउयकम्मभूमगगम्भववि ओहियाणं, एवं सोहम्मे कप्पे जाव अच्चुयदेवसरीरे,
कंतियमणूमाहारगसरीरे, किं पजत्तसंखेज्जवासाउयकगेवेज्जकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियवेउब्बियसरीरे णं म्मभूमगगम्भवकंतियमणूमाहारगसरीर?, अपजनसंखेमंते ! किंसंठिते पएणते ?, गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं अवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूमाहारगमरीरे', एगे भवधारणिज्जे सरीरे, से णं समचउरंससंठाणसंठिते गोयमा ! पजत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमपमत्ते , एवं अणुत्तरोववाइयाण वि । (सू० २७१) ।
णूसाहारयसरीरे, नो अपजतकम्मभूमगगम्भवतियम'बेउब्बियसरीरे से भंते !' इत्यादि सगम , नवरं रयि- ममाहारगसरीर, जइ पजतगसंखेजवासाउयकम्मभूमगकाणां भवधारणीयमुत्तरक्रियं च हुण्डसंस्थानमत्यन्तक्लि- गम्भवतियमणूसाहारगसरीरे ? किं सम्मदिदिपज्जत्तगसंएकादशवशात् , तथाहि-तेषां भवधारणीयं शरीरं भव- खेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूस माहारगसरीरे स्वाभवत एव निर्मूलविलुप्तपक्षोत्पाटितसकलप्रीवादिरोम
मिच्छ हट्ठिपजतगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवति-- पक्षिस्थानवदतीव बीभत्सं हुएडसंस्थानं, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि ययं शुभं करिष्याम इत्यभिसन्धिना कर्तुमारब्धमपि त.
यमणूमाहारगसरीरे, सम्मामिच्छद्दिटिपञ्जत्तगसंखेजबाधाविधात्यनाशुभनामकर्मोदयवशादतीवाशुभतरमुपजाय - साउय-कम्मभूमगगम्भवतियमणूसाहारगसरीरे?, गोते इति दुण्डसंस्थानम् । तियपश्चेन्द्रियाणां मनुष्याणां च यमा सम्मदिद्विपज्जतगसंखेजवासाउय-कम्मभूमगगम्भधैक्रिय नानासंस्थानस्थितमिच्छायशतः प्रवृत्तेः दशविधभ- वतियमणूसाहारगसरोरे, मिच्छद्दिछिपज्जतसंखेजवाधनपतिभ्यम्तरज्योतिष्कसौधमाधच्युतपर्यवसानवैमानिकाना भयधारणीयं भवस्वभावतया तथाविधशुभनामकर्मोदय
साउयकम्मभूमगगम्भयकंतियमणूमाहारगसरीर नो सवशात् प्रत्येकं सर्वेषा समचतुरसंस्थानम् , उत्तरवैक्रिय
म्मामिच्छदिद्विपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवविच्छानुगेधतः प्रवृत्तेनानासंस्थानसंस्थितं, अवेयकाणाम कंतियमएसमाहारगसरीरे जइ सम्मद्दिट्ठिपजत्तगसंखेजवानुत्तरोषपातिना घोत्तरवैक्रियं न भवति . प्रयोजनाभावाद् । साउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, किं संसत्तरवैक्रिय ह्यत्र गमनागमननिमित्तं परिचारणानिमित्तं वा जयसम्मदिद्विपजत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवकक्रियते, न चैतेषामेतदस्ति । यतु भवधारणीयमेतेषां तत्सम चतुग्नसंस्थानसंस्थितमिति । उतानि स्थानानि । (वैक्रिया
तियमरणमाहारगसरीरे, संखेन्ज कम्मभूमगगम्भवतिशरीरस्यावगाहना 'भोगाहणा' शब्दे ३ भागे ७८ पृष्ठे गता।
यमणूसाहारगसरीरे,असंजतसम्मदिद्विपञ्जत्तसंखेन्जवासा(१६) संप्रत्याहारकशरीरस्य प्रतिपिपादयिषुराह- । उयकम्मभूमगगम्भवतियमरणसाहारगसरीरे संजयासं
आहारगसरीरे णं भंते ? कतिविधे पन्नत्ते ?, गोयमा!| जयसम्मद्दिट्ठिपजत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगन्भवक्कंएगागारे पलते, जइ एगागारे किं मरणूसाहारगसरीरे, तियमणूमाहारगसरीरे ?, गोयमा ! संजयसम्मद्दिटिपभ्रमरणसभाहारगसरीरे ?, गोयमा! मरणसाहारगसरीरे ज्जतगसंखज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसत्रानो अमरणूसाहारगसरीरे जइ मरणूस हारगसरीरे किं| हारगसरीरे, नो असंजतसम्मदिद्विपज्जतगसंखेज्जवासाउसमुच्छिममएसबाहारगसरीरे गम्भवतियमएसआहा- यमणसाहारगसरीरे , नो संजतासंजतसम्मबिडिआहा
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सरीर
अभिधानराजेन्द्र:। रमसरीरे जइ संजतसम्मदिद्विपजतगसंखेजवासाउयकम्म- "अवगाहते च स भुत-जलधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम्। भूमगगम्भवतियमणूसमाहारगसरीरे, किं पमत्तसंजतस
मानसपर्यायं वा ,शानं कोष्ठादिबुद्धिर्वा ॥१॥
चारणवैक्रियस:-पधिताचा वाऽपि लम्धयस्तस्य । म्मदिडिमणूसमाहारगसरीरे, अप्पमत्तसंजतसम्मद्दिद्विसंखे
प्रादुर्भवन्ति गुणतो , बलानि वा मानसादीनि ॥२॥" अवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणसमाहारगसरीरे १,
अत्र 'स' इति-अप्रमत्तसंयतः, मानसपर्यायमिगोयमा ! पमतसंखेजवासाउयसम्मद्दिद्विपमत्तसंखेजवासा- ति-मानसाः-मनसः सम्बन्धिनः पर्याया-विषया यस्य उयकम्मभूमगगम्भवकंतियमरणूसमाहारगसरीरे, नो अप्प- तन्मानसपर्यायं मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः , कोष्ठादिबुद्धिी मत्तसंखेजमासाउयसम्मदिद्विपमत्तसंखेजवासाउयकम्मभू
इत्यात्रादिशब्दात् पदानुसारिबीजपरिग्रहः। तिम्रो हि बुद्धयः मगगम्भवतियमणूसमाहारगसरीरे, जइ अप्पमत्तसंखे
परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते , तद्यथा-कोष्ठबु
जिः१, पदानुसारिबुद्धि-२, बीजबुद्धि ३ श्च । ताकीअवासाउयसम्मदिद्विपमत्तसंखेञ्जवासाउयकम्मभूमगमणू-| ठक व धान्यं वा बुद्धिराचार्यमखाद्विनिर्गतौ तदवस्थानी समाहारगसरीरे, किं इड्विपत्तप्पमत्तसंखेजवासाउयसम्म- च सूत्रार्थी धारयति न किमपि तयोः कालान्तरे गलति विद्विकम्मभूमगसंखेजवासाउयगम्भवतियमणूमश्राहार
सा कोष्ठबुद्धिः १, या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमगसरीरे, भणिढिपत्तपमत्तसंरोजवासाउयकम्मभूमगसंखे
श्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी २,
या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथाअवासाउयगम्भवक्कंतियमाहारगसरीरे, गोयमा! इद्रि
वस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः ३, सा च सबोंपत्तप्पमत्तसंखेअवासाउयसम्मदिद्विपमत्तसंखेअवासाउयक- त्तमप्रकर्ष प्राप्ता भगवतां गणभृताम् । ते हि उत्पादादिपदम्मभूममगगम्भवक्कतियमणूसमाहारगसरीरे, नो अणि
प्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशाङ्गात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति द्विपत्तपमत्तसंखेजवासाउयसम्मदिद्विपमत्तसंखेजवासाउय
तथा , चारणाश्व चैक्रियं च सर्वोषध्यश्च तद्भावश्च चारण
वैक्रियसावधिता, तत्र चरण-गमनं तद्विद्यते येषां ते कम्मभूमगगम्भवकंतियमणूसाहारगसरीरे, पाहारगस
चारणाः 'ज्योत्स्नादिभ्योऽण् ' इति मत्वर्थीयो ऽण्प्रत्ययः , रीरेणं भंते ! कि संठिते पलत्ते । गोयमा ? समचउरंस- तत्र गमनमन्येषामपि मुनीनां विद्यते ततो विशेषणाम्यसंठाणसंठित पसते । (मू० २७३+) .
थानुपपस्या चरणमिह विशिष्टं गमनमभिगृह्यते , अत एल
चातिशायने मत्वर्थीयः , यथा-रूपवती कन्या इत्यत्र । 'माहारगसरीरे णं भंते ! काविहे पन्नते ' इत्यादि ततोऽवमर्थ:-अतिशायिचरणसमर्थाश्चारणाः, माह च सुगम, नवरं 'संजय ' त्ति- यम् ' उपरमे , संय
भाध्यकृत् खकृतभाष्यटीकायाम्-"अतिशयचरणाचारणाः। च्छन्ति स्म सर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमम्ति स्मेति-संय
अतिशयगमनादित्यर्थः," ते च (ते) द्विविधा-जाचारसाः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका ' दिति कर्तरि प्रत्ययः ,
णाः, विद्याचारणाश्च । तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः सकलचारित्रिणः, असंयता-अविरतसम्यग्रएयः संयता- समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जकाचारणाः, ये पुसंयता-देशविरतिमन्तः, तथा ' पमत्त ' ति-प्रमा
नर्विद्यावशतः समुत्पनगमनलम्ध्यतिशयास्ते विद्याचारणाः, चन्ति स्म मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनि
जलाचारणाश्च रुचकवरद्वीपं यावत् गन्तुं समर्थाः, विद्याद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः,
चारणा नन्दीश्वरम् । तत्र जलाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुपूर्ववत्कर्तरि प्रत्ययः , ते च प्रायो गच्छवासिनस्तेषां मिच्छवस्तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति , विद्याचाकचिदनुपयोगसम्भवात् , तद्विपरीता अप्रमत्ताः , ते च रणास्त्वेवमेव । जहाचारणश्च रुचकवरद्वीपं गच्छन् एकप्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रति- नैवोत्पातेन गच्छति , प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन नन्दीमाप्रतिपन्नास्तेषां सततोपयोगसम्भवात् । इह जिनकल्पि
श्वरमायाति द्वितीयन स्वस्थानम् , यदि पुनर्मेरुशिखरं जि. कादयो लब्धि नोपजीवन्ति , तेषां तथाकल्पत्वात् , येऽपि गमिषुस्तर्हि प्रथमेनैवोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहति प्रति
गच्छवासिन आहारक्रशरीरं कुर्वन्ति तेऽपि तदानीं निवर्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्विलब्ध्युपजीवनेनौत्सुक्यभावतः प्रमादयन्तो , मोचनेऽपि तीयेन स्वस्थानमिति, जहाचारिणो हि चाच प्रमादवन्तः, प्रात्मप्रदेशानामौदारिकशरीरे सर्वात्मनोप- रित्रातिशयप्रभावतो भवन्ति , ततो लम्ध्युपजीवनेन संहरणेन व्याकुलीभावात् । माहारकशरीरे चान्तर्मुहर्सा- औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना वस्थानं ,ततो यद्यपि तन्मध्यभागे कियत्कालं मनाक विशुद्धि खब्धिः परिहीयते , ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभाषतः कार्मप्रन्थिकैरप्रमत्ततोपवय॑ते तथापि सलम्ध्युपजी- भ्यां स्वभुवमायाति, विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन माबनेन प्रमत्त एवेत्यप्रत्तस्य 'नो अपमत्तसंजए' इत्यादिना प्र- नुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्त्ततिषेधः कृतः। 'इडिपत्त'त्ति-ऋद्धीः-श्रामर्षांपध्यादिल मानस्त्वेकेनैवोत्पातेन खस्थानमायातीति तथा स एवोज़ मक्षणाः प्राप्तः ऋद्धिप्राप्तस्तद्विपरीतोऽनृद्धिप्राप्तः , ऋद्धीच छन् प्रथमोत्पातेननन्दनवनं गच्छति द्वितीयेनोत्पातेन पप्रामोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थप्रतिपादक राडकवन, प्रतिनिवर्तमानसत्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायातीभुतभषगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीवतीतरशुभभावनाम- ति विद्याचारणो विद्यावशतो भवति,विद्या च परिशील्यमाधिरोहन अप्रमत्तः सन् । उक्त च
ना स्फुटा स्फुटतरोपजायते,अतः प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्य
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(५०) सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर तिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन स्वस्थानाऽऽगमनमिति । उक्नं च- णासंठाणसंठिए पसत्ते, पुढविकाइयएगिदियतेयगसरी"अइसयचरणसमत्था, जंघाविजाहि चारणा मुणो। रेणं भंते ?, किंसंठिए पप्पते गोयमा ! ममूरचंदसंठाणजंघाहि जाइ पढमो. नीसं काउ रविकर वि ॥१॥ एगुप्पारण गयो, रुयगवरम्मि उ तो पडिनियत्तो।।
संठिते पामते, एवं ओरालियसंठाणाणुसारेण भाणितव्वं विइएणं नंदीसर-मिहं तो एइ ताएणं ॥२॥
जाव चउरिंदियाण वि । नरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किं पढमेणं पंडगवणं. बिइउम्पारण नंदणं एई।
संठिते परमते ?, गोयमा! जहा वेउब्बियसरीरे , पंचिंदिसइउप्पापण तो, इह जंघाचारणो एइ ॥ ३॥
यतिरिक्खजोणियाणं मरमाणां जहा एतेसिं चेव पोरालिपढमेण माणुसोत्तर-मग स नंदिस्सरं तु बिइपण । पर तो तइएग, कयचेइयवंदणो इहई॥४॥
यं ति, देवाणं भंते ! किंसंठिते तेयगसरीरे पामते ?, गोपढमेणं नंदणवणे, बियउष्पारण पंडगवणम्मि ।
यमा! जहा वेउब्बियस्स० जाव अणुतरोववाइय ति । एइ इहं तइएणं, जो विजाचारणो होइ ॥ ५॥"
(मू० २७४) सव-विमूत्रादिकमौषध यस्य स सर्वाषधाकमुक्त तयगमगरे गा भने !' इत्यादि , इह जमशगरं सर्वेषामभवति ?-यस्य * मूत्रं विट् श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशम
घश्य भात ततो यथा एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियगत श्रीदारिकसमथों भवति स सौंपधः, आदिशब्दादामर्षांपध्यादिलग्धि
शरीरभदा भणितस्तथा चतुरिन्द्रियान यावत् तैजसशरीरपरिग्रहः । एताश्व ऋद्धीरप्रमत्तः सन् प्राप्य पश्चात् प्रमत्तो
भेदोऽपि वक्तव्यः पञ्चन्द्रियनेजसशरीगचन्तायां चतुर्विध प. भवति,तेनैवेह प्रयोजनम् .तत उक्नम् 'इडिपत्तपमत्तसंजयेत्या
चन्द्रियतेजसशरीरम् , नरयिनियंगमनुष्यदेवभेदात् , तत्र दि.आह-मनुष्यस्याहारकशरीरमित्युक्ने सामर्थ्यादमनुष्यस्य
नैरयिकतैजसशरीरचिन्तायां यथा प्राक क्रियशरीर पर्यानाहारकशरीरमित्यवसीयते ततः कस्मादुच्यते 'नो श्रमणुस्साहारगसरीरे'इत्यादि ?.निरर्थकत्वात् . उच्यते इह त्रिवि
ताउपर्याप्तविषयतया द्विगतो भेद उक्तस्तथाऽत्रापि वक्तव्यः,स धा विनयाः,तद्यथा-उद्घटितज्ञा,मध्यमबुद्धयः,प्रश्चितशा
चैवम्-'जद नेरइयपंचिदियतयगसगैरे किं ग्यणप्पमापुढविश्व । तत्र ये उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं साम
नरस्यमिदियतयगसरीरे जाव कि अहसत्तमापु वनरइर्थ्यमवबुध्यन्त,ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न योनागा
यचिक्ष्यितेयगसरीरे ? , गायमा! रयणप्पभापुढायनेरइयवगमकुशलास्ते प्रपञ्चितमेवावगन्तुमीशते नान्यथा, ततस्त
पंचिदियतेयगसरीर वि० जाव अहेसनमापुढविनरइयनिपामनुग्रहाय सामर्थ्य लब्धस्यापि विपक्षनिषेधस्याभिधानं,म
दियतेयगसरीरे वि. जइ रयणम्यभापुढविनर इयपंचिदियतेहीयांसो हि परमकरुणापरीनत्वात् विशेषेण सर्वेपामनुग्र
गसरीरे किं पजत्तगरयणप्पभ' त्यादि, पञ्चन्द्रियतिर्यम्याहाय प्रवर्तन्त, ततो न कश्चिद्दोपः । (प्रज्ञा०) (आहारकशरी
निकानां मनुष्याणां च यथा प्रागौदारिकशरीरभद उक्तस्तथा रस्य कतिमहालयाऽवगाहनेति ओगाहरणा' शब्दे तृतीयभाग
अत्रापि वक्तव्यः,स चैवम्-'तिरिक्खजाणियपंचिदियनयग८१ पृष्ठे उक्तम् ।) * (अत्रार्थे मोयपडिमा' शब्दो द्रष्टव्याः ।)
सरीर ण भंते ! कइविहे पस्मत्त ?' इत्यादि, देवानां यथा -
क्रियशरीरभेद उक्तस्तथा भणितव्यः , स चैवम्-'जई देव(१७) सम्प्रति तैजसस्य तान्यभिधित्सुगह
पंचिदियतेयगसरीर किं भवणवासियांचंदियतयगसर्गर' तेयगसरीरे ण भते ! कतिविधे परागते ?, गोयमा !
इत्यादि, यावत् सर्वार्थसिद्धदेवसूत्रम् । उक्लो भेदः ।। सम्प्रति पंचविहे पएणत्ते, तं जहा-एमिंदियतेयगसरीरे जाव संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-यगसरीर ण भंते ! किसलिए पंचिंदियतेयगसरीरे । एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइ
परागत्ते? ' इत्यादि , सुगमम् , इह जीवप्रदेशानुराधितेजस
शरीरं ततो यदेव तम्यां २ यांनाचौदारिकशगरानुरोधेन - विहे पएणत्ते ?, गोयमा ! पंचविधे पएणत्ते, तं जहा
क्रियशग्गिनुरोधेन च जीवप्रदेशानां संस्थानं नंदव नेजमपुढविकाइय० जाव वणस्सइकाइय-एगिदि यसरीरे , एवं
शरीरस्यापि इनि प्रागुतप्रकद्वित्रिचतुरिन्द्रियनिर्यकपञ्चन्द्रि जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणितो तहा ते- यमनुष्यगतमौदारिकसंस्थानं नायिकदवषु वक्रियसस्थानमयगस्स वि० जाव चउरिदियाणं । पंचिंदियतेयग
तिदिष्पमिति । गत संस्थानम् । (तेजसानामवगाहनामानम्
' प्रोगाहगा ' शब्द तृतीयभागे ८२ पृष्ठे गतम् । ) सरीरे णं भंते ! कतिविधे पामते ? , गायमा !
( कति कार्मणशरीगणि इति ' कम्मय' शब्द तृतीयभाचउबिहे पामते , तं जहा-नेरइयतयगसरीरे० जाव ३४० पले गतम।) देवतेयगसरीरे । नेरइयाणं दुगतो भेदा भाणितब्बो , जहा
(१८) सम्प्रति पुद्गलचयनमाहवउब्बियसरीरे । पंचिदिययिरिक्वजाणियागं मणमाण य ओरालियमरीरस्म णं भंते ! कतिदिमि पोग्गला चिजहा ओरालियसरीरे भेदो भागिता तहा भाणियब्यो। जंति ? , गोयमा ! नियाघाएण छद्दिसिं वाघायं पडुच्च देवाणं जहा वेउव्यियसरीरभेदी भाणितो तहा भाणितव्या, सिय तिदिसि सिय चउद्दिसि सिय पंचदिसि । वेउब्धिय
जाव सबट्ठसिद्धदेव त्ति । तेयगसरीरे गं भंते ! किंसंठिए सरीरस्म णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिजंति ? , गोपामते ?, गोयमा! णाणासंठाणसठिए परमते , एगिदि- यमा! णियमा छद्दिमि । एवं प्राहारगसरीरस्म वि । तेयायतेयगसरीरेणं भंते ! किंसंठिए पणते? ,गोयमाणा- कम्मगाणं जहा प्रारालियसरीरस्सं । श्रारालियसरीरस्स
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सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
मगर णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला उवचिअंति ? , गोयमा ! सृभ्या दिग्भ्यः पुद्गलापचयः, शेषदिकत्रयस्यालोकेन व्याप्तएवं चेव. जाव कम्मगसरीरस्स , एवं उवचिजं स्वात् , पुनः स एव सूरमजीव औदारिकशरीरी पश्चिमा दि. ति, अवचिजंति । जस्स णं भंते ! ओरालियस
शमनुसन्य तिष्ठति तदा पूर्वदिगस्याधिका जानति चन
सभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनम् । यदा पुनरधो द्वितीयारीरं तस्स वेउब्वियसरीरं , जस्स उब्धियसरीरं
दिग्रतरे गतः पश्चिमदिशमवलम्ब्य तिष्ठति सदा ऊर्ध्वदितस्स ओरालियसरीर? , गोयमा ! जस्स प्रो- गप्यधिका लभ्यते केषला दक्षिणैव दिगलोकेन व्याहतेरालियसरीरं तस्स वेउव्वियसरीरं सिय अत्थि सिय नस्थि, ति पश्चभ्यो दिग्भ्यः पुद्गलानामागमनं, वैक्रियशरीरमाहा
रकशरीरं च त्रसनाच्या मध्य एत्र सम्भवति नान्यति जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि
तयोपि पुद्गलचयो नियमात् पदभ्यो दिग्भ्यः । तैजससिय नत्थि । जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स श्रा- कार्मणे सर्वससारिणां ततो यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन हारगसरीरं,जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं, पड़भ्या दिग्भ्यो व्याघातं प्रतीत्य पुनः स्यात् त्रिदिग्भ्यः गोयमा ! जस्म ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय
स्याच्चतुर्दिग्भ्यः स्यात् पञ्चदिग्भ्यः तथा तैजसकार्मणयो
रपि द्रष्टव्यः । यथा चयस्तथा उपचयो उपचयश्च वक्तव्यः । अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तस्स ओ
तत्र उपचयः-प्राभूत्येन चया अपचयो-हासः शरीरेभ्यः रालियसरीरं णियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! ओरालि
पुद्गलानां विचटनमिति यावत् । उक्त पुलचयनम् । इदानीं यसरीरं तस्स तेयगसरीरं जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालि- शरीरसंयोगमाह-'जस्स रणं भंते !' इत्यादि यस्यौदारियसरीरं ? , मोयमा : जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेय.
के तस्य वैफियं स्यादस्ति स्यानास्ति । य औदारिकशगसरीरं नियमा अस्थि, जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स श्रो
गरी सन् वैकियलब्धिमान् वैक्रियमारभ्य तत्र वर्मन
तस्यास्ति, शेषम्य नास्तीति भावः । यस्य वैक्रियशरीरं नरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, एवं कम्मगमरीरं
स्यौदारिकशरीरं स्यादस्ति स्यानास्ति , देवनारकाणां वे पि । जस्स णं भंते ! वेउब्धियमरीरं तस्म अाहारगसरीरं,
क्रियशरीग्वनामौदारिकशगरं नास्ति, निर्यग्मनुष्याणां जस्स आहारगसरीरं तस्स वेउब्धियसरीरं? . गोयमा! तु क्रियशरीरयतामस्तीति भावार्थः, श्राहारकशरीगणापि जस्स उब्वियसरीरं तस्स अाहारगसरीरं पत्थि, जस्म
सह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीरं तस्याहारकेशरीरं स्यावि आहारगसरीरं तस्स वि वेउब्धियसरीरं णस्थि । तेया
दस्ति स्थानास्ति, य औदारिकशरीरी चतुर्दशपूर्वधर श्रा
हारकलब्धिमान् आहारकशरीरमारभ्य वर्तन तस्य स्ति कम्मातिं जहा ओरालिएण समं तहेव आहारगसरीरेण वि
शषस्य नास्तीत्यर्थः । यस्य पुनराहारकशरीरं तस्यौदारिक समं तेयाकम्मगति चारयन्यायि । जस्स णं भंते ! तेय- शरीरं नियमादस्ति , औदारिकशरीरविरहे पाहालब्ध गसरीरं, तस्स कम्मगसरीरं, जस्स कम्मगसरीरं तस्स ते. रष्यसम्भवात् । तैजसशरीरेण सह चिन्तायां यस्यौदारिकयगसरीरं ?, मोयमा ! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगस
शरीरं तस्य नियमात्तैजसशरीरं, तेजसशरीरविरह औदा
रिकशरीरासम्भवात् । यस्य पुनस्तैजसशरीरं तस्यौदारिक रीरं णियमा अस्थि, जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि ते
स्यादस्ति स्यानास्ति, देवनैयिकाणां नास्ति तिर्यग्मनुष्यायगसरीरं णियमा अस्थि । (मू०२७६ )
णामस्तीति भावः। एवं कार्मणशरीरेणापि सह चिन्ता कर्स'ओरालयसरीरस्स ण भंते !' इत्यादि , औदारिकशरी- व्या, तैजसकार्मणयोः सहचारित्वात् ॥ सम्प्रति वैफियशरीरस्य ' ण' मिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! 'कह दिसि इति रस्याहारकशरीरादिमिः सह संयोगचिम्तां कुर्वन्नाह-'जस्स पञ्चभ्यर्थे द्वितीया बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , ततो- ण भंते !' इत्यादि. यस्य वैक्रियशरीरं न तस्याहारकशरीरं ऽयमर्थः-कातभ्यो दिग्भ्यः समागत्य पद्गलाश्चीयन्ते । कर्म- यस्याहारकशरीरं न तस्य वैक्रियशरीरं , समकालमनयारेकर्सर्ययं प्रयोगः, स्वयं चयनमागच्छन्तीत्यर्थः । भगवा- कस्यासम्भवात् , सैजसकामणे यथौदारिकशरीरेण सह नाह-निर्व्याघातन-व्याघातस्याभावो निर्व्याघातमव्ययी- चिन्तिते तथा वैक्रियशरीरेणापि सह चिन्तयितव्ये, श्राभावः तेन वा तृतीयाया' इति विकल्पनाम्विधानानात्राम हारकशरीरेणागि सह तथैव । तैजसकामणयोस्तु परस्परभावः 'छद्दिसिं' ति-पड़भ्यो दिग्भ्यः । किमुक्तं भवति ?- मविनाभावित्वात् , यस्य तैजसं तस्य नियमात् कामां यत्र प्रसनाड्या मध्य बहिर्वा व्यवस्थितस्यौदारिकशरीरिणो यस्य कार्मणं तस्य नियमात् तैजसम् । गतं संयोगद्वारम् । नैकापि दिग् अलोकेन व्याहता वर्त्तते तत्र निर्याघाते
(१६) इदानी द्रव्यप्रदेशोभयैरपबहुत्वमभिधिसुराहव्यवस्थितस्य नियमात् षड्भ्यो दिग्भ्यः पुद्रलानामागमनं व्याघातम् अलोकेन प्रतिस्वलनं प्रतीत्य 'सिय तिदिसिं' एतेसि ण भंते ! ओरालियउब्बियाहारगतेयगति-स्यात्-कदाचित्सि सृभ्यो दिग्भ्यः स्याच्चतसृभ्यः स्यात् कम्मगसरीराणं दबट्टयाए पदेसट्ठयाए दचट्ठपएसहपञ्चभ्यः, कथमिति चेत् ?, उच्यते-सूक्ष्मजीवस्यौदारिकश
याए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा रीरिणो यत्रो लाकाकाशं न विद्यते नापि तिर्यक पूर्वदिशि नापि दक्षिणदिशि तस्मिन् सर्वोर्वप्रतरे मानयकोण
विसेसाहिया ?, गोयमा ! सव्वत्थोवा आहाकपे लोकान्ते व्यवस्थितस्थाधः पश्चिमोत्तररूपाभ्यस्ति-। रगसरीरा दवट्ठयाते वेउब्धियसरीरा दयट्ठयाए अ
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सरीर
अभिधानराजेन्द्रः।
मरीर संखेजगुणा, ओरालियसरीरा दबद्वयाए असंखेअगुणा
'उकोसेण उजुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साण ' मिति वचतेयाकम्मगसरीरा दो वि तुला दक्ट्ठयाते प्रणंत
नात् तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असंख्येय
गुणानि, सर्वेषां नैरयिकाणां सर्वेषां च देवानां कतिपगुणा, पदेसट्टयाए सम्वत्थोवा माहारगसरीरा पदे
यतियपश्चेन्द्रियमनुष्यबादरवायुकायिकानां च वैक्रियशसध्याए वेउब्बियसरीरा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा , रीरसम्भवात् , तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया मरालियसरीरा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, तेयगस- असंख्येयगुणानि , पृथिव्यलेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिशरा पदेसदृयाए अर्णतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए
न्द्रियनिर्यक्पश्चेन्द्रियमनुष्याणामौदारिकशरीरभावात् , पृ
थिव्यप्तजोवायुवनस्पतिशरीराणां च प्रत्येकमसंख्ययलोप्रणंतगुणा, दबट्ठपदेसट्टयाए सब्बत्थोवा आहारगसरीरा
काकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् , तेभ्योऽपि तैजसकार्मरणशदम्बवयाते वेउब्बियसरीरा दवट्ठयाए असंखेजगुणा । ओ- रीराणि द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणानीति , सूचमबादरनिगोरालियसरीरा दबट्ठयाए असंखेअगुणा ओरालियसरीरे- दीवानामनन्तानन्तानां प्रत्येकं तैजसकार्मणशरीरभाहिंतो दबट्ठयाएहितोपाहारगसरीरा पदेसट्ठयाए अणंत
वात् , स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि , परस्परावि
नाभावियादेकस्याभावेऽन्यस्याप्यभावात् । प्रदेशार्थचिगुणा वेउब्वियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेजगुणा,मोरालिय- म्तायां सर्वस्तोकाम्याहारकशरीराणि सहपृथक्त्यमात्रसरीरा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा । तेयाकम्मा दो वि शरीरप्रदेशानामरूपत्वात् , तेभ्योऽपि चैक्रियशरीराणि प्र
देशार्थतया असंख्येयगुणानि । इह यद्यपि वैक्रियशरीरतुल्ला दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्ठयाए |
योग्यवर्गणाभ्यः आहारकशरीरवर्गणाः परमारावपेक्षया श्रभणंतगुणा,कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा । (सू०
नन्तगुणास्तथापि स्तोकाभिर्वर्गणाभिराहारकशरीरं निष्प२७७) एतेसि णं भंते ! ओरालियवेउब्बियाहा- चते हस्तमात्रत्वादतिप्रभूताभिक्रियशरीरवर्गणाभिक्रिरगतेयगकम्मगसरीराणं जहरिणयाए ओगाहणाए उ
यम् उत्कर्षतः सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वात् , अतिस्तो
कानि चाहारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणन्याकोसियाए ओगाहणाए जहएणुकोसियाए प्रोगाहणाए |
त् अतिप्रभूतानि वैक्रियशरीराणि असंख्येयश्रेणिगताकतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसा- काशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् तत उपपद्यन्ते आहारकशरीहिया वा ?, गोयमा ! सम्बत्थोवा ओरालियसरीर- रेभ्यः प्रदेशार्थतया वैक्रियशरीराण्यसंख्येयगुणानि , तेस्स जहएिणया प्रोगाहणा , तेयाकम्मगाणं दोण्ह वि| भ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि , तुला जहरिणया भोगाहणा विसेसिया बेउब्बियसरीर
असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणतया तेषां लभ्यमानत्वेन
तत्प्रदेशानामतिप्रभूतानां सम्भवात् , तेभ्योऽपि तेजसस्स जहरिणया ओगाहणा असंखेज्जगुणा , आहारगस-1 शरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि , द्रव्यार्थतयाऽपि रीरस्स जहमिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, उको- तेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात् , तभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रसियाए ओगाहणाए सव्वत्थोवा हारगसरीरस्स उ-| देशार्थतया अनन्तगुणानि , तैजसवर्गणाभ्यः कार्मणवर्गकोसिया भोगाहणा ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया प्रो
णानां परमारावपेक्षयाऽनन्तगुणत्वात् । द्रव्यार्थप्रदेशार्थचि
म्तायां' सम्वत्थोवा पाहारगसरीरा दब्बट्टयाए बेउब्बिगाहणा संखेज्जगुणा, वेउब्बियसरीरस्स उक्कोसिया मो
यसरीरा बट्टयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरा दब्बटगाहणा संखेजगुणा, तेयाकम्मगाणं दो वि तुल्ला याए असंनेजगुणा इत्यत्र भावना प्रागुक्लाऽनुसतव्या , उकोसिया भोगाहणा असंखेज्जगुणा, जहएणुक्को
तेभ्यो द्रव्यार्थतयौदारिकशरीरेभ्य आहारकशरीराणि प्र
देशार्थतयाऽनन्तगुणानि , औदारिकशरीराणि सर्वसंख्यवासियाते ओगाहणाते सम्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स |
ऽप्यसंख्येयलोकाशप्रदेशप्रमाणानि , आहारकशरीरयोजहलिया भोगाहणा तेयाकम्माणं दोगह वि तुला ग्यवर्गणायां स्वकैकस्यामप्यभव्येभ्योऽनन्तगुणाः परमाणव जहलिया ओगाहणा विसेसिया वेउब्वियसरीरस्स ज- इति , तेभ्योऽपि चैक्रियशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येहलिया ओगाहणा असंखेजगुणा । आहारगसरीरस्स
यगुणानि , तेभ्योऽन्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया -
संख्येयगुणानि । अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽपि तैजहरिणयाहिंतो भोगाहणाहिंतो तस्स चेव उक्को
जसकार्मणानि द्रव्यार्थतया अनन्तगुणानि अतिप्रभूतानसिया भोगाहणा विसेसिया, भोरालियसरीरस्स उक्कोसिया
तसंख्योपेतत्वात् , तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थभोगाहणा संखेजगुणा, वेउब्वियसरीरस्स णं उकोसिया तयाऽनन्तगुणानि , अनन्तपरमारवात्मिकाभिरनन्ताभि (व. भोगाहणा संखेजगुणा, तेयाकम्माणं दोगह वि तुला | गणाभि) रेकैकस्य तैजसशरीरस्य निष्पाद्यत्वात् ,तेभ्योउकोसिया भोगाहणा असंखिजगुणा । (मू० २७८)
ऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि । अत्र का
रण प्रागेवोक्तम् । तदेवं पञ्चानामपि शरीराणां द्रव्यप्र'पएसिणं भंते ! ' इत्यादि , सर्वस्तोकान्याहारक- देशोभयेरल्पबहुत्वमुक्रम् ॥ इदानीं जघन्योत्कृष्टोभयावगाशरीराणि द्रव्यार्थतया ,शरीरमात्रद्रव्यसंख्यया इत्यर्थः, हनाविषयमल्पबहुत्वमाह-एपसि ण ' मित्यादि सउत्कृष्टपदेऽपि तेषां सहस्रपथक्त्यस्य प्राप्यमारपत्वात्, यस्तोका औदारिकशरीरस्य जघन्याऽवगाहना, अनुला
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सरीर
अभिधानराजेन्द्रः। संख्येयभागमात्रप्रमाणत्वात् , तैजसकार्मणयोर्जघन्या- चेव, दोसनिव्वत्तिए चेव० जाव वेमाणियाणं । (सू०७५४) चगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या । औदारिकजघ- 'नेरइयाण' मित्यादि, कराठ्यं, किन्तु या रागद्वेषजनिम्यावगाहनातो विशेषाधिका । कथमिति चेत् ? ,
तकर्मणा शरीरोत्पत्तिः सा रागद्वेषाभ्यामेवेति व्यपदिउच्यते-इई मारणान्तिकसमुद्घातेन समबहतस्य पू- श्यते, कार्य कारणोपचारादिति, जाव वैमाणियाण' ति बैशरीरात् यदहिर्विनिर्गतं तैजसशरीर नस्याऽयामबाहल्य- दण्डकः सूचितः। शरीराधिकाराच्छरीरनिर्वर्तनसूत्र, तनविस्तारैरवगाहना चिन्त्यते इत्युक्त प्राक, तत्र यस्मिन् प्र
प्येवंः नेवरमुत्पत्तिः श्रारम्भमात्र निर्वर्तना तु निष्ठानयनदेश उत्पत्स्यन्त सोऽपि प्रदेश श्रीवारिकशरीरावगाहना- मिति । स्था०२ठा०१ उ० । (केषां शरीगणां कतिविधं प्रमितोऽङ्गलासंख्ययभागप्रमाणो व्याप्तः, यदप्यपान्तरालम- करणमित्युक्तम् 'करण' शब्दे तृतीयभागे ३६० पृष्ठ । ) तिस्तोक तदपि व्याप्तमित्यौदारिकजधन्याबगाहनाता वि- (शरीरतया द्रव्यग्रहणं 'द' शब्दे चतुर्थभागे २५६४ शेषाधिका , ततोऽपि वैक्रियशरीरस्य जघन्यावगाहना अ पृष्ठ गतम् ।) ('जीव' शब्दे चतुर्थभागे १५२६ पृष्ठे सुरा संख्येयगुणा , अङ्गलासंख्येयभागस्यासंख्येयभेदभिन्नत्वात् , नैरयिकाश्व तिसंषु शरिषु वर्तन्ते इत्युक्तम् ।) ततोऽप्याहारकारीरस्य जघन्यावगाहना उसंख्धेयगया.दे.
(२२) लोकश्च शग्शिरीराणां सर्वत आश्रयस्वरूप इति शोनहस्तप्रमाणत्वात् । उत्कृष्ठावगाहनाचिन्तायां सर्वस्तो
नारकादिशरीरिदण्डकेन शरीरप्ररूपणायाहका श्राहारकशरीरस्यात्कृष्टाऽवगाहना हस्तमात्रत्वात् , ततोऽप्यौदारिकशरीरस्य उत्कृष्टावगाहना संख्येयगुणा ,
रइयाणं दो सरीरगा पहाता, तं जहा-अभंतरगे सातिरेकयोजनसम्रप्रमाणन्यात् , ततोऽपि वैक्रियशरीर- चेव, बाहिरगे चेव । अब्भतरए कम्मए, बाहिरए वेउब्धिए । स्योत्कृष्टांवगाहना संख्येयगुणा , सातिरेकयोजनलक्षमान- एवं देवाणं भाणिय । पुढविकाइयाणं दो सरीरगा न्चात् . तैजसकार्मणयोरुत्कृष्णावगाहना द्वयोरपि परस्पर
पएणसा, तं जहा--अब्भंतरंगे चैव,बाहिरगे चेव । अभंत-- तुल्या वैक्रियशरीगत्कृष्टावगाहनातोऽसंख्येयगुणा,, चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वात् , जघन्योत्कृष्टावगाहनाचिन्तायाम्-श्रा.
रंगे कम्मए, बाहिरगे ओरालियगे, जाव वणस्सइकाहारकशरीरस्य ' जहरिणयाहि तो ओगाहलाहिंतो तस्स चेय
इयाणं । बेइंदियाणं दो संरीरा पहलता, तं जहा-अभंतरए उक्कोसिया ओगाहणा यिसेसाहिया'इति.वेशन समधिकत्या | चेव, बाहिरए चेव । अब्भतरगे कम्मए, अट्टिमंससोणितबत्शषं सुगमम् , अनन्तरमेव भावितत्वात् । प्रज्ञा० २१ पद ।
द्धे, बाहिरए, ओरालिए जाव चउरिंदियाणं । पंचिंदिय(अल्पबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्द प्रथमभागे २७१ पृष्ठे
तिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पलता, तं जहा-अभंगतम् । ) (शरीरमेवात्मेति ' तज्जीवतच्छरीरवाइ (ए)' शब्दे चतुर्थभागे २१७२ पृष्ठे उक्नम् । ) ( शरीरमाश्रित्याहा
तरगे चेव , बाहिरगे चेव । अभंतरगे कम्मए , अद्विमंरकत्वानाहारकत्वचिन्तनम् श्राद्दार' शब्दे द्वितीयभाग ससोणियबहारुछिराबद्धे, बाहिरए ओरालिए । मणुस्साण ५१५ पृष्ठ गतम् ।)
वि एवं चेव । विग्गहगइसमावनगाणं नेरइयाणं दो स-- (२०) नरयिकादीनां शरीरोत्पत्तिः
रीरगा पएणत्ता, तं जहा-तेयए चेव, कम्मए चेव । निणेरइयाणं चउहि ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिता, तं जहा- रंतरं . जाव वेमाणियाणं । (सू०७५४) कोहणं मागणं मायाए लोभेणं, एवं जाव वेमाणियाणं। रियाण' मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यं , नवरं शीर्यते-- णेरइयाणं चउहिं ठाणेहिं नियत्तिते सरीरे पएणते, तं अनुक्षर्ण चयापचयाम्यां विनश्यतीति शरीरं तदेष शटजहा-कोहनिव्वत्तिए जाव लोभनिव्वत्तिए, एवं जाव
नादिधर्मतयाऽनुकम्पितत्वात् शरीरकं ते व द्वे प्रक्षप्ते जिना, वेमाणियाणं । (सू० ३७१)
अभ्यन्तः-मध्ये भयमाभ्यन्तरम् , अाभ्यन्तरत्वं च तस्य
जीवप्रदेशैः सह क्षीरनीरन्यायन लोलीभवनात् । भवान्तरशरीरस्योत्पत्तिनिवृत्तिसूत्राणां दण्डकद्वयं , कगठ्यं चैतत् , | गतावपि च जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तःप्रविनवरं क्रोधादयः कर्मबन्धहेतवः, कर्म च शरीरोत्पत्ति- पुरुषवदनतिशायनामप्रत्यक्षत्वाचेनि , तथा बहिकारणमिति कारणकारणे कारणोपचारात् क्रोधादयः शरी- भवं बाह्यम् , बाह्यना चास्थ जीवप्रदेशः कस्यापिकेरोयत्तिनिमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति । 'चउहि ठाणेहि। पाचनवयवेष्वव्याप्तेर्भवान्तराननुयायित्वान्निरतिशयानामपि सरीरे' त्याधुक्तम् , क्रोधादिजन्यकर्मनिवर्तितत्वात् क्रोधा- प्रायः प्रत्यक्षत्वाचेति । तत्राभ्यन्तरं ' कम्मए ' त्तिदिभिर्निवर्तितं शरीरमित्युपदिष्टम् , रह चोत्पत्तिरारम्भ- कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिवर्त्यमशंषकर्मणां प्ररोहभूमिरामात्रं, निर्वृत्तिस्तु निष्पत्तिरिति । स्था०४ ठा०४ उ०। धारभूतम् , तथा संसार्यात्मनां गत्यन्तरसंक्रमणे साधक(२१) शरीराधिकारात् शरीरोत्पत्ति दराडकेन तमं तत् कार्मणवर्गणाखरूपम् , कमैव कर्मकमिति , कनिरूपयन्नाह
मकग्रहणे च तैजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यम् , तयोरायभिचानेरइयाणं दोहिं ठाणेहि सरीरुप्पत्ती सिया. तं जहा
रित्वेनैकत्वस्य विवक्षितत्वादिति । एवं देवाणं भावियवं' गगेण चेव, दोसेण चेव • जाव बेमाणियाण, नेरइयासं
ति-अयमों-यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवा
नाम् असुगदीनां चैमानिकान्तानां भणितव्यम् , कार्मणवैदुड्डाणनिब्बत्तिए, सरीरमे परमते, जहा-रागनिबत्तिए क्रिययोरेव तेषां भावात् . चनुर्विशतिदमंड कम्यं च विषाक्ष
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( ५.५४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सरीर
तत्वादिति 'पुढवी' त्यादि पृथिव्यादीनां तु बाह्यमदारिकम श्रीदारिकशरीरनामा केवलमेकेन्द्रियाणामस्यादिविरहितम् वायूनां पित इंद्रियाण 'मि
म्
मदारिकं
4
न विवक्षितं प्रायिकत्वात् तस्येति ।
4
त्या
त्यादि शोसितेन धीन्द्रियावीनामौदारिकत्वेऽपि शरीरस्यायं विशेषः । पंचेदिए दि. पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां पुनरयं विशेषो यदस्थिमांशोषित स्नायुशवमिति यादव तीन इति प्रकारान्तरेण चतुर्दशानन शरीररूपावाच ग्गहे ' त्यादि. विग्रहगतिः- वक्रगतिर्यदा विणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्तां समापना विग्रहगतिसमापन्नास्तेषां द्वे शरीरे इद्द तैजसकामेयोर्भेदेन विवक्षेति एवं दण्डकः शरीराधिकारात् । स्था० २ ठा० १ उ० । अनु० ।
"
"
( २३ ) शरीरबन्धनप्रकारः
,
नेरइयाणं तओ सरीरगा पक्ष्मता, तं जहा- चेउच्चिते तेयए कम्मए । अशुरकुमारा तो सरीरंगा पता तं जहा एवं चैत्र, एवं सव्वेसि देवाणं, पुढवीकाइयां ततो सरीरंगापना, तं जहा- सोशलिते तेयए कम्मते, एवं वाउ काइयपरजायं ०जाब चरिंदिया (सू० २०७ )
मित्यादि कया किन्तु एवं सम्व देव्वाणं ' ति-यथा असुराणां त्रीणि शरीराणि एवं नाकुमारादिभवनपतितमानानाम् एवं वाउकाइयवज्जागं ति-वायूनां हि श्राहारकवजनि चत्वारि शरीरात पचेन्द्रियनिरभ्रामपि चत्वारि मनुष्याणां तु पञ्चापीति त इह न दर्शिताः । स्था०
३ ठा० ४ ३० ।
(२४) शरीरनिर्वाणस्य तनयादिसंख्यां शरीरांपेक्षा दर्शयतीत्याह
सरीर
।
१
|
हा अलि हिपयं परावी पलाई कालिजं दो अंता पंच वामा पाना, तं जहा पूर्तते यतयंत य तत्थ गंज से भूत ते यं उचारे परिम तत्थ जे से तयंते ते गं पासवखे परिणम । दो पासा पता जहा बामे पासे व दाहिने पासे य । तत्थं णं जे से वामे पासे से सुहपरिण। मे तरथ गंज से दाहिणे पासे से दुहपरिणामे । चाउसो ! इमम्मि सरीरए सहि संधिसयं सत्तुत्तरं धम्मसयं तिभि अट्ठ दामसयाई नव एहारुमयाई सत्त मिरासयाई पंच पेसीसयाई नव धमणीओ नन च रोमकूपस्यसहस्पाई विया केसमंगुणा सह केसा अट्टाओ रोमकूपकोडीओ आउसो ! इमम्मि सरीरए सर्द्वि सिरासयं नाभिव्यभवाणं उड्डुगामिलीग सिरमुवगयाणं जाओ रसहरणीओ त्ति वुचंति, जा सि निरुत्रघाए चक्खुसोयघाणजीहाबलं चं भवर, जाणं सि उवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं उवहम्मद आउसो ! इमम्मि सरीरए सडिसिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीयं पायतल मुवगयाणं जाणं सि निरुघाएणं जंघावलं भवइ ताणं चेत्र से उधाएवं सीसवेणा सीसवेयरणा मत्थयमूले अच्छीणि अधिति । ( ० २४ )
,
' उसी ! जं' इत्याद्यालापक सूत्रम्, हे आयुष्मन् ! यदपि च इदं शरीरं वपुः इष्टम् इच्छाविषयत्यात् कान्तं कमनीयात् प्रियं प्रेमनिबन्धवात् मनसा शापतेउपादीयत इति मनोज्ञम् मनसा श्रम्यते गम्यत इति मनाम मनसोऽभिरामं मनोभिरामं सनत्कुमारयित् स्वयं स्वगुणयोगात् वैयासिक-विश्वात स्कृतकार्याणां संमतत्वात् बहुमतं बहुष्वपि कार्येषु बहुव अनल्पतयाऽस्तोकतया मतं बहुमतं धनु विप्रियकरणात् यमादेयमित्यर्थः । रत्नकरण्डक इव सुसंगपितं वस्त्रादिभिः पश्चान्मतमनुमतं भराडकरण्डकसमानम् श्राभरणभाजनतुचलपेटेव यमज्जूमेस्थान नि वेशितं गृहस्थावस्यास्यशालिभद्रवत् पंडे-तैलगोलिक सुसंगोपितं भङ्गनयात् तेल्लकता इव सुसंगोचियतिपठाराला भाजनविशेषः सौराष्ट्र प्रसिद्धः सा च सुष्ठु संगोष्या संगोपनीया भवत्यन्यथा लुठति ततश्च हानिः स्यादिति,
"
हेतून दर्शयतीत्याद'मा ' माशब्दो निषेधार्थ वाक्यालङ्कार | अथवा 'मा गं' ति मा इदं शरीरमिति व्याख्येयम्, ततः सर्वेऽपि उष्णादयो मा स्पृशन्तु पन्तु भवस्वित्यर्थः 'ति कटु' इति कृत्वा अथवा इत्यभिसंधाय पालितमिति शेषः तत्रोच्या प्रमादाशी शीतकाले शीतत्वं व्यालाः- स्वापदाः सप वा जुधा बुभुक्षा पिपासातृषा बीरा निशायामका ने किय
उस पिय इमे सरीरं इतं पिवं मनं मणामं मणभिरामं थिज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं रयणकरंडओ विव सुसंगवियं चेलपेडा विव सुपरिवुढं तिलपेडा विव सुसंगोवियं माणं उप मागं सीयं मागं वाला मा णं सुहा मा णं पिवासा मा गं चोरा मा गं दंसा मा गं मसगा मा णं वाइयपित्तियसंनिवाइय विविहा रोगायंका फुसंति त्ति कट्टु एवं पियाई अधुवं अनिययं असासयं चयावचयं विप्पशासधम्मं पच्छा व पुराव अव स्म विष्पचय | एस्स वि वाई आउसो ! आणुपुaaj रस य पिट्ठकरंडगसंधीओ बारस पंसलिया करंडा छप्पंसलिए कडाहे विहत्थिया कुच्छी चउ रंगुलिया ग्रीवा चउपलिया जिम्मा दुप्पलियाणि अ छीणि चकवा मिरं बनी दंता सगुलिया जी
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(५५५ ) सरीर अभिधानराजेन्द्र:।
सरीर स्तुविशेषणः, वातिकपैत्तिकश्लैष्मिकसांनिपानिका विविधाः
हनाजधः नव' नवनवतिः रोमकूपे शतसहस्राणि रोरगतकाः रोगा:-कालसहा व्याधयः पानास्त एव स- म्णां-तनूरुहाणां कृपा व कृपा रोमकूपाः रोमरन्ध्राणीत्यर्थः घोघातिनः 'एवं पियाई' ति-पवम्-उक्लपकारण अपि चेति तेषां नवनवतिर्लक्ष इति बिना केशश्मश्रुभिः, केशश्मश्रुभिः अभ्युचये , 'आई' ति-वाक्यालङ्कारे , इदं शरीरं न ध्रुवम् सह पुनः मार्दास्तिस्रो रोमकूपकोटयो भवन्ति मनुष्यशरीर अधवं सूर्योदयबन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यंभावि, अनियत सु.
इति । अथ पूर्वोक्तानि शिरासप्तशतानि कथं भवन्ति कपादपि कुरूपादिदर्शनात् हरितिलकराजसुतविक्रमकु
इति सूत्रेणैवाह- आयुसो० '! हे आयुष्मन् ! शरीरे मारशरीरबत् अशाश्वतं क्षण क्षणं प्रति विनश्वरत्वात् स
'सट्टि ' इह पुरुषशरीर नाभिप्रभवाणि शिराणां मसानों चत्कुमारशरीरवत् , 'चयावचाइयं' ति-इपाहारोपभोगत
सप्त शतानि भवन्ति, तत्र षष्यधिकं शतं शिराणां नाभिप्रमया धृत्युपष्टम्भादोदारिकवर्गणापरमाणूपचयाच्चयः त
वाणाम् ऊर्ध्वगामिनीनां शिरस्युपागतानां भवन्ति,यास्तु रस. दभावे तद्विचटनादपचयः चयापचयो विद्यते यस्य तश्चया
हरिण्य इत्युच्यन्ते 'जाणसित्ति यासामूर्ध्वगामिनीनां शिरा• पचयिकं: पुष्ट्रिगलनस्वभावमित्यर्थः । करकराडपत्येकवुद्ध
णां से'तस्य जीवस्य निरुपघानेनानुग्रहण चक्षुः१श्रोत्रमाणधैराग्यहतुवृषभशरीरबत् , विप्रणाशो-विनश्वरो धर्म:
३जिहा४ बलं च भवति,यासां से' ताय उपघातेन-विधातेम स्वभावो यस्य तद् विप्रणाशधर्मम् 'पच्छा व' त्ति
चचु श्रोत्रमाणजिहाबलमुपद्दन्यत । तथा 'अाउसो' हे श्रापश्चाद्विवक्षितकालात् परतः 'पुग व' त्ति-विवक्षितकालात्
युष्मन् ! अस्मिन् शरीर यष्याधिकं शतं१६७शिराणां नाभिप्रपूर्वञ्च, यद्वा-पच्छा पुरा य'त्ति पाठ तु विवक्षितकालस्य
भावणांनाभेरुत्पन्नानामित्यर्थः। अधोगामिनीनां पादतले उपगपश्चात्पूर्व च; सर्वदेवत्यर्थः, अवश्यम् 'पिप्पचइयवं, ति
तानां प्राप्तानां भवति यासां निरुपघातेन जङ्गाबलं भवति ताविप्रत्यक्तव्यं; त्याज्यमित्यर्थः । एयस्स चियाई ति-एतस्य
सां चैव'से'तस्य जीवस्य उपघातेन विकारप्राप्तन शीपवेदनापतस्मिन्नपि च वा वपुषः वपुषि वा आईति-वाक्यालंकार
सर्वमस्तकीडा अर्द्धशीर्षवेदना मस्तकशूलं च भवति 'अ'पाउसो' हे आयुष्मन् ! आनुपूया-अनुक्रमेण अयादशपृष्ठिः
च्छिाण, त्ति-अक्षिणी-लोचन 'अंधिज्जति' त्ति-प्रकरण्डकस्य-पृष्ठिवशस्य संधयी ग्रन्थिरूपा भवन्ति, यथा वं न्धीभवत इत्यर्थः। शस्य पाणि तषु चाधादशसु सन्धिषु मध्य द्वादशभ्यः सन्धिभ्यो द्वादश पांशुलका निर्गत्याभयपाावा
आउसो ! इमम्मि सरीरए सद्विसिरासयं नाभिप्प२१ वक्षःस्थलमध्यावय॑स्थीनि लगित्वा पल्ल काकारतया भवाणं तिरियगामिणीणं हत्थतलमुवगयाणं जाणं सि परिणमन्ति, अन पाह-'बारस.'शरीरे द्वादश पांशलि
निरुषवाएणं बाहुबलं हवइ ताणं चेव से उवधाएणं कारूपाः करण डका-बंशका भवन्ति , तथा 'छप्पंसु० 'तस्मिन्नेव पृष्ठियशे शषषद संधिभ्यः षट् पांशुलिका निर्गत्य
पासवेयणा पुट्टिवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसलं हवइ । पार्श्वद्वयमावृत्य हृदयस्योभयतो वक्षःपञ्जरादधस्ता
आउसो ! इमस्स जंतुस्स सद्विसिरासयं नाभिप्पभवाच्छिथिल कुंक्षस्तूपरिणात्परस्परासंमिलिनास्तिष्ठस्ति । अयं णं अहोगामिणीणं गुदपविट्ठाणं जाणं सि निरुवघाएच कटाह इत्युच्यन द्वे वितस्ती कुक्षिति चतुरङ्क
णं मुत्तपुरीसावाउकम्मं पवत्तइ ताणं चेव उवधाएणं लप्रमाणा ग्रीवा भवति , तौल्येन--मगधंदेशप्रसिद्ध पलन चत्वारि पलानि जिला भवति, अक्षिमांसगोलको वें पले भ
मुलपुरीसावाउनिरोहेणं अरिसा खुम्भंति पंडुरोगो भवइ । चनः, चतुर्भिः कपालैरस्थिखण्डरूपैः शिरो भवति, मुखेऽशु
आउसो! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिरानो पित्तधारिणीचिपूर्णे प्रायो द्वात्रिंशद्दन्ता-अस्थिखराडानि भवन्ति, सत्तंगु०' ओ सिंभधारिणीओ दस सिराओ सुकधारिणीओ सत्त जिह्वा-मुखाभ्यन्तरवर्तिमांसखण्डरूपा देध्यंगात्माकुलतः स. सिरासयाई पुरिसस्स तीसूणाई इथियाए वीसूणाई पंडसाङ्गला भवति, अटुहृदयान्तरवर्तिमांसखराडे साईपलत्रयं
गस्स, आउसो! इमस्स जंतुस्स रुहिरस्स आढयं वभवाते, पणवि' कालिजं.वक्षोऽन्तगुढमांसविशेषरूपं पञ्चविं
साए अद्धाढयं मत्थुलिंगस्स पत्थो मुनस्स पाढयं पुरीसशतिः पलानि स्युः, द्वे अन्त्रे प्रत्येकं पञ्चपञ्चवामप्रमाणे प्रज्ञप्ते जिनः, तद्यथा-स्थूलान्त्रं नन्यन्त्रं (च)। तत्र यत् स्थूलान्वं
स्स पत्थो पित्तस्स कुडओ सिंभस्स कुडवो सुक्कस्स अद्धकुतनोच्चारः परिणमति , तत्र च यत् तन्वन्त्रं तेन प्रश्रवर्ण-मूत्रं डवो जं जाहे दुटुं भवइ तं ताहे अइप्पमाणं भवइ, पंच-- परिणमति, दो पा द्वे पायें प्रज्ञप्ते. तद्यथा-वामपार्श्व. दक्षि- कोटे पुरिसे छकोट्ठा इस्थिया नवसोए पुरिसे इक्का-- गणपाश्वं च । तत्र तयामध्ये यत् वामपाश्वं तत् शुभपरिणाम
रससोया इत्थीया, पंचपेसीसयाई पुरिसस्स तीपणाई भवति । तत्र च यत् दक्षिणपार्श्व तद् दुःखपरिणामं भवति ।
इत्थीयाए वीमूणाई पंडगस्स । (सू० १६) तथा 'माउसो' हे श्रायुष्मन् ! अस्मिन शरीरे पष्टिः संधिशतं सातव्यं , तत्र संधयः-अङ्गलाद्यस्थिखण्डमेलापकस्थानानि तथा ' पाउसो० !' हे आयुष्मन् अस्मिन् प्रत्यक्ष श'सत्तुरे ' सप्तोत्तरं मर्मशतं भवति , तत्र-मर्माणि शङ्खानि रीरे षष्यधिकं शतं शिराणां माभिप्रभवाणां तिर्यग्गामिकावियरकादीनि तिन्नित्रीणि अस्थि दामशतानि हडमाला- नीनां हस्ततले उपागतानां भवति यासां निरुपघातेन-निरुपशतानि भवन्ति'नवन्दारुयलयाईति-स्नायूनाम् अस्थिबन्ध- द्रवेण बाहुबलं भवति, तासां चैव 'से' तस्य उपघातेन-उपद्रनशिराणां नव शतानि 'सत्त०' सप्त शिराशतानि-स्नसा- वण पार्श्ववदना पृष्ठिवेदना कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं च भवति, शतानि , पञ्च भीशतानि नब घ.'नव धमन्या रचस- तथा पाउसो०' हे आयुष्मान ! अस्य-जन्तोः पम्पधिकं शतं
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सरीर अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर शिराणां नाभिप्रभवाणाम् अधोगामिनीनां गुदं प्रविष्टानां अपि अन्या आस्सां स्वजमनी-स्वाम्बा' दुगुछिज 'तिभवति, यासां निरूपघातनोपद्रवाभावेन मूत्रपुरीषवातक- जुगुप्सां कुर्यात् हा ! किमयाऽपवित्रं रमिति । म्म प्रश्रवणकर्म विष्ठाकर्म वायुकर्म प्रवर्तते मूत्रादिकं सुने
माणुस्सयं सरीरं, पूइयमं मैससुकहरेणं । म कर्तुं शक्यत इत्यर्थः, तासां चैव गुदप्रविष्टशिगणामुपधा
परिसंठवियं सोहइ,अच्छायणगंधमल्लेणं ॥२।। (८४) तेन मूत्रपुरीषवातनिरोधी भवति, निरोधेन अासि गुदा
शाहरस' इति लोकोक्तिः सुभ्यन्ति-क्षोभं यान्तिपरमपीडा- 'माणुस्सयं 'मानुष्य-मनुष्यसंवन्धि शरीरं-वपुः 'पूकरं रुधिरं मुश्चन्तीत्यर्थः भवभावनोक्तकालपिवत् पाण्डुरोग- इयम' ति-पूतिमत् : अपावत्रमित्यर्थः । पार० 'पार-सच भवति. तथा 'पाउसो' हे प्रायुष्मन ! अस्य जन्तोः पश्च- मन्तात् सर्वत्र सम्यग् स्थापितं-क्षितं केन मामशुक्रडून विशतिः शिगः 'सिंभधारिणि' त्ति-श्लेष्मधाारण्या भवन्ति, हई देश्यमस्थिवाचीति ' परिसंठवियं' नि-विभूषितं सत् 'पंचपश्चविंशतिः शिराः पित्तधारिण्यः, दश शिराः शुक्रधा सोहर इति-शोभते, केन आच्छादनगन्धमालयनरिण्यः, 'सत्त सि.' पुरुषस्योकप्रकारेण सप्तशिराशतानि भ- तत्राच्छादनं वस्त्रादि गन्धः-कपूगदिः माल्य-पुष्पमालादि । धम्ति. कथं ?.शरीरे ऊर्ध्व गामिन्यः १६० अधोगामिन्यः १६० इमं चेव य सरीरं सीसघडीमेयमजमंसट्टियमत्थुलुंगमोतिर्यगगामिन्यः १६० अधोगामिन्यो गुदप्रविष्टाः १६०
णियवालुंडयचम्मकोसनासियसिंघाण यीमलालयं अमलेगमधारिण्यः २५ पित्तधारिण्यः २५ शुक्रधारिण्यः १० एवं सर्वाः ७०० शिरा भवन्ति पुरुषाणां शरीरे इति ।।
णुनगं सीसघडीभंजियं गलतनयणं कन्नुहुांडतालुयं 'तीस ' पुरुषोक्ता यास्ताः त्रिशदनाः स्त्रिया भवन्तिः अवालुयाखिल्लचिक्कणं चिलिचिलियं दंतमलमइल कीमप्तत्यधिकानि पदशतानि भवन्तीत्यर्थः ६७० 'वीमू.' भच्छदरिसणि जं अंसलगबाहुलगअंगुली अंगुट्ठगनहसंपरुषोता यास्ताः विंशत्यूनाः पराउकस्य; अशीत्यधिकानि धिसंघायसंधियमिणं बहुरसियागारं नालखंधच्छिगपदशतानि भवन्तीत्यर्थः ६८०॥ अथ शरीरे धिगदिमानमाह-'पाउ०' हे श्रायुष्मन् ! अस्य जन्तोः रुधिरस्यादक
अणेगणहारुबहुधमणिसंधिनद्धं पागडउदरकवालं कभवति, बसाया अर्धांढकं, 'मत्थुलिंगस्से'ति-मस्तकभेजकस्य । क्खनिक्खुडं कक्खगकलियं दुरंतं अद्विधमणि--- फिल्फिसाद, प्रस्थः मूत्रस्याढकं पुरीषस्य प्रस्थः पित्तस्य- संताणसंतयं सव्वो समंता परिसवंतं च रोम-- कुड्यः श्लेष्मणः कुडवः शुक्रस्यार्द्धकुडवो भवति, पतवाद
कूवहिं सयं असुई सभावो परमदुग्गंधि कालिज्जयअंतपिकप्रस्थादिमानं बालकुमारतरुणादीनाम् 'दो असईश्रा पसई, दो पसोय सेड्या होइाचत्तारि सेड्याओ कुलश्री चनारि
नजरहिययफोफसफेफसपिलिहोदरगुज्झकुणिमनवच्छिकुलमा पत्थो चत्तारि पन्था आढग इत्यात्मीयाम्भीयहस्तना
हुधिविधिवंतहिययं दुरहिपित्तसिंभमुत्तोसहाययणं स. नेतव्यमिति, जं जाह'यत् रुधिरादिकं यदा दुर्ग भवति नत्त व्वश्री दुरंतं गुम्झोरुजाणुजंघापायसंघायसंधियं असुइ दाऽतिप्रमाणं भवति । अयमाशयः-उक्नमानस्य शुक्रशोणि- कुणिमगंधि , एवं चिंतिजमाणं बीभच्छदरितादहीनाधिक्यं स्यात्तत्तत्र वातादिदूषितत्वेनाबसयमिति ।
सणिज्जं अधुवं अनिययं असाययं मडणपडणविद्धं'पंच'पञ्च कोष्ठः पुरुषः पुरुषस्य पञ्च कोष्टकाः भवन्तीत्यर्थः, पदकोष्ठा स्त्री, कोष्ठकखरूपं सम्प्रदायादवगन्तव्यमिति । नय
सणधम्म पच्छा व पुरा व अवस्स चइयव्यं निच्छया सुट्ट धात्रः पुरुषः तत्र कर्णद्वयरचक्षुईयर घ्राणद्वयर मुख७ पाय -
जाणएणं आइनिहणं परिसं मधमणुयाण देहं एस परममन पयः स्याता प्रकाशात्रा सी भवति त्था सभावो। (सू०-१७) पूचॉक्लानि नव स्तनद्वययुक्तानि एकादश श्रोत्राणि स्त्रीणां भचन्तीति एतन्मानुषीणामुक्तं गयादीनां तु चतुस्तनीनां प्रया
'इमंचय य इत्यादि गद्यम.इदमेव च मनुजशरीरं-वपुः शीर्षदश १३शूकर्यादीनामष्टस्तनीनां सप्तदश निर्याघाने, एवं व्या
घटीव मस्तकहई मेदश्च अस्थित् चतुर्थी धातुरित्यर्थः । घाते पुनरकस्तन्य अंजाया दश१० त्रिस्तन्याश्च गोद्वादशेनि,
मज्जा च शुक्रकरः षष्ठो धातुरित्यर्थः. मासं च पललं तृतीया 'पच' पुरुषस्य पञ्चंपशीशतानि भवन्ति ५०० त्रिंशदनानि
धातुरित्यर्थः अस्थि च कल्प पश्चमी धातुरित्यर्थः, मस्तुलुङ्गश्च खियाः ४७० विंशत्यूनानि पञ्चपशीशतानि नपुंसकस्य ४०० मस्तकस्नेहः शापितं च रुधिरं द्वितीयो धातुरित्यर्थः, बालुउक्त शरीरस्वरूपम्।
एडकश्च अन्तरशरीगवयवविशेषः चर्मकोशश्च छविकोशः
नाशिकासिहाणश्च घाणमल्लविशेषः धिग्मले च अन्यदपि (२५) अथास्यैवासुन्दरत्वं दर्शयन्नाह
शगरोद्भवं निन्द्यमलं तानि तयामालयं ग्रहमित्यर्थः,अमनोअभितरंसि कुणिम, जो परियत्तेउ बाहिरं कुजा । शकं मनाशभाववर्जिजतं शीर्षघटीकराटिका तया भनितं असुई दणं, सया वि जणणी दगुंछिजा ॥१॥(८३)
तम्-आक्रान्तमित्यर्थः , गलनयनं यत्र तद् गलन्नयन
करागोष्ठगराडनालुकम् 'अबालुर्या इति-लोकोक्त्या प्रवा'अम्भितरंसी'ति-शरीरमध्यप्रदेशे 'जो' त्ति-यत् कुणिमम्
लुखिल्लश्च ‘खील ' इति जनोक्तिः ताभ्यां चिकणं पिच्छअपवित्र मांस वर्तते तन्मास परियत्तेउ' ति-परावर्त्य परा- लमित्यर्थः , चिलिचिलियमि' ति-चिगचिगायमानं घपतं कृत्वा यदि बहिः-बहिर्भागे कुर्यात् तदा तन्मासम्'अ- विस्थादौ दन्तानां मलं दन्तमलं नन 'मइन' ति-मालसुर' अशुचि-अपवित्र हष्ट्रा स्वका अपि-मास्मीया नंमलीमसमित्यर्थ , बभिन्म-भयंकर दर्शनमाकांसमोक
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अभिधानराजेन्द्रः।
सरीर मेवा रोगादिना कृशावस्थायां यस्य वपुषस्तद् बीभत्स- ___'सुकम्मि' इत्यादि 'सुक्क०' जननीकुक्षिमध्ये-मातजठदर्शनम् 'अंमलग 'ति-अंशंयोः स्कन्धयोः 'बाहुलग' त्ति राम्तर शुके वीर्ये शोणिने लोहिने चशब्दादेकत्र मिलिते सति वाहामुंजयाः अङ्गुलीनां-करशाखानाम् अङ्गुढग' ति-श्र प्रथमं संभूत उत्पन्नः तदेवामध्यरसं-विष्ठारसं 'घुठियं' अयोग्गुलयानखानां महाराजानां ये संघयस्तेषां संघानेन ति-पियन सन् नव मासान् यावत् स्थित इति। ममूहन सन्धितमिदं वपुः, 'बहु' बहुरसिकागारम् 'नालखं.'
जोणीमुहनिप्फिडियो, थणगच्छीरेण वडिओ जाओ। नालन स्कन्धशिगभिः-अंमधमनीभिः अणेगन्हारुति-अने कस्नायुभिः अस्थिवन्धन शराभिः बहुधमनिभिरनेकशिरा
पगई अमिझमइओ, कह देहो धोइउं सक्को ।।८६।। भिः संधिभिरस्थिमलापकस्थानश्च, 'नद्धं ' नि-नियन्त्रित योनिमुखनिष्फिोटतः स्मरमन्दिरकुरा निर्गतः 'थणगं' तिप्रकरं मयजनश्यमानम् उदर कपालं जठरकडहलकं यत्र तत्
प्राकृतत्वादनुस्वारः स्तनकक्षीरेण वद्धितः-पयोधरदुग्धन वृ. प्रकटोदरपाले कौव दोमलमव निष्कुटम्-कोटरं जीमें
द्धि गतः प्रकृत्याऽमेध्यमयो जातः, एवंविधा देहः कथं शुष्कवृक्षवद यत्र तत्कानिष्कु, कक्षायां गच्छन्तीति क
'धोर' ति-धौतु-क्षालयितुं शक्यः ? । तं०। (शेषवनव्यक्षांगा अधिकागनद्रतकुत्सिनवालास्तैः कलितं मदा स
ता' इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे ६०४ पृष्ठे गता।)' रसाहिन कन्नागकलिनम , यदा-कक्षायां भवाः काक्षकाम्नद्ग
सृगमांसमोऽस्थि-मज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् । अशुबीनां पदनकेशलनाम्नाभिः कालतं. 'दुग्नं 'नि-दुष्टोऽन्तो विनाशः
कायः, शुचित्वं तम्य तत् कुतः॥ १॥ ए २६ अए।।। ग्रान्तो वा यम्मद दाम्नं दापूर वा अस्थिधमन्योः मन्तानेन
नारकादिशगगणि वीभत्साम्युदारणि च दृष्ट्रापिन केवपरपम्या 'मनयं' नि-व्याप्त वनाम्थधमनिसन्तानमन्त- लदर्शनं स्कभ्नातीति शरीरमरूपणाय नरयाण' मिनं,मानः-सर्वप्रकार: ममन्ततः-मत्र गेमकृपः-गमरन्धेः त्यादिसूत्रप्रपश्चःपरिश्रवन गलगलत मचत्र मच्छिद्रघटवत् चशब्दादन्यपि इयाणं सरीरगा पंचवला पंचरसा परमत्ता , तं जहानाधिकादिग्न्,. परिश्रवन , 'मयं' नि-स्वयमेव अशुचि
किण्हा० जाच सुकिल्ला, तित्ता० जाव मधुरा, एवं निरंतरं० अपवित्र 'मभाव' नि-म्वभावन परमदुगन्धीनि 'कलि
जाव वेमाणियाणं । सू० (३६५४) जयश्रंपिनजहिययफोफसफेफर्मापलिह' नि-पलीहागुलाः 'उदा 'नि-जलोदरं गहा कांगमं माम-नयछिद्राणि ।
याण' मित्यादि, कण्ठ्यं नवरं पञ्चवर्णन्यं नारकादियत्र तनथा(विधिविथि)धिवनति-
द्रिद्रगायमान हिय ।
वैमानिकान्तानां शरीराणां निश्चयनयात् , व्यबहारतस्तु पक्रयनि-हृदयं यत्र नत परम-यावत् हृदयं,नव छिद्राणि तु-न
वर्णप्राचुर्य्यात् कृष्णादिप्रतिनियतवर्णतयति 'जाव सुकियनद्वयक मत यनामिकाद्वयजिह्वाशिश्नाानलक्षानि दुर्गह'
ल' ति किराहा नीला लोहिया हालिहा सुकिल्ला य०
जाव महुर' ति तित्ता कडया कसाया अंबिला महरा नि-दुर्गन्धानां पिमिम्भमत्रलक्षणानामोरधानामायतनं
जाघ धेमाणियाग 'ति । चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि । गृहं मर्यापधायतनं गंगादावस्मिन् सर्वोषधप्रक्षेपात सर्वत्र.
स्था०५ ठा०१ उ०। मभाग दुधाऽन्ता विनाश प्रान्ता यस्य नत् मर्यना दुग्न्तम् 'गुज्झा.' गुह्यामजानु जवापादसंघानमंधितमुपस्थमशिन
(२७) शरीराणां वर्णादिलकालनलकिनाक्रमणपरम्पग्मीलनममूहसीवितम अशुचि
ओरालियसरीरे पंचवन्ने पंचरसे परमत्ते, तं जहा-किकुगिमम्य-अपवित्रमांयम्य गन्धा यत्र नदचिकुणिमगन्धि, एहे. जाव सुकिल्ले, तित्ते० जाव महुरे एवं० जाव कम्म'एवं चि. ' पबम-पूर्वानयकारण चिन्न्यमान बीभत्स- गसरीर सचे वि णं बादरबोंदिधरा कलेवरा पंचवला दर्शनीय-भयंकररूपम 'अधुवं अनिययं श्रमामयं च 'नि
पंचरसा दुगंधा अडफासा । (मू० ३६५+) पनत्रयव्याख्या पूर्ववत , 'महणा. 'शटनयतनविध्वंसनध
तथा सारयपि यादरबान्दिधराणि पर्याप्तकत्वन स्थूराकारमम् तत्र शटने कुष्ठादिनाऽङ्गल्यांदः, पतनं बाहुादेः खगछ
धाणि कलवराणि शरीराणि मनुष्यादीनां पञ्चादिवर्मादीदादिना विध्यसनं मर्वथा क्षयः पते धर्माः--स्वभावा य
न्यवयवभेदनेति अक्षिगोलकादिषु तथैवापलब्धेः। दो गंध'प्ति स्य ननथा 'परछा व पुग व अवस्स चायव्वं' ति-पूर्व
सुरभिदुभिभेदात्।'अटफास'त्ति-कठिनमृदुशीतोष्णगुरुलवन् 'निच्छ,' निश्चयनः मुण्ठु भृशं त्वं'जागति-जानी
घुखिग्धरूक्षभेदादिति, अचादरबोन्दिधगणितुन नियतवहि पतम्मनुष्यशरीरम् 'आइनिहणं' ति-श्रादिनिधनं सा |
दिव्यपदश्यानि , अपर्याप्तत्वेनावयवविभागाभावादिति । दिसान्तमित्यर्थः ईदृशं पूर्ववर्मितं वक्ष्यमाणं चा सर्वमनु
स्था० ५ ठा० १ उ० ।(कस्मादीदारिकादेः शरीरात्कति जानां समस्तमनुष्याणं देहः-शरीरम् एषः पूर्णतः शरी
क्रियाः इति किरिया' शब्द तृतीयभागे ५३६ पृष्ठे गतम्। ) रस्य परमार्थता-तत्त्वतः स्वभावः।
" पाणीयसस्थगिसंभमेदि च देहतरसंकमणं करेग (२६) अथ विशषतः शरीगंदः अशुभत्य दर्शयति- जीवो मुहुत्तेयं । " महा०६ १०(श्रीदनादयो वनस्पस्योऽ. सुकम्मि सोणियम्मि य,
निकायत्वेन धनव्याः स्युरिति 'अगणिजीवसरीर' शब्दै प्रथ
मभाग १५६ पृष्ठे गतम्।) (निर्ग्रन्थानां शरीरद्वारम् 'णिग्गथ' सभूत्रो जणणिकुच्छिमझम्मि ।
शब्द चतुर्थभागे २०३६ पृष्ठे गतम् ।) ('सम' शब्देऽस्मितंचव अमिज्झरसं,
नेव भाग ३६३ पृष्ठे नैरयिकादयः समाहाराः समशरीरा नवमासे धूटियं संतो॥५॥
| इत्युक्तम् । ) (पृथिवीकायस्य सूक्ष्मपादरशरीराणि पुरवी१४०
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सरीर
"
काइय' शब्दे पञ्चमभागे उक्कानि । ) " शरीरं धर्मसंयुकं रक्षणीयं प्रयत्नतः शरीराधर्मः प वतात्सलिलं यथा ॥ १ ॥ " इति शरीरस्य धर्मोपग्राहिता । स्था० ५ ठा० ३ उ० । सूत्र० । ध० । श्राचा० । ( शरीराश्रयेण जीवभेदः 'जीव ' शब्दे चतुर्थभागे १५२४ पृष्ठे उक्तः । )
( ५५८ ) अभिधानराजेन्द्रः।
(२८) आत्मा शरीरं स्पृष्ठा निर्याति निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा वा भवान्तरे सिद्धो वा गच्छतः शरीरानि यांणं भवतीति सूत्रपञ्चकेन तदाह
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दोहिं ठाहिं आता सरीरं फुमिता गं गिजाति, तंजहा देसेस व आता सरीरं फुमिना यं णिजाति सब्देण यि आया सरीरगं फुसिना गं गिजाति एवं फुरिता, एवं फुडित्ता, एवं संवदृतित्ता, एवं निव्वट्टतित्ता । ( मू०६७ )
'दोही' त्यादिकं कराठ्यं, नवरं द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां देसे - वित्ति-देशेनापि कतिपयप्रदेशलक्षगेन केषाञ्चित्प्रदेशानां मिलिागत्योरपादस्थानं गन्ता जीवन शरीरादिः क्षिप्तत्यात् आत्मा जीवः शरीरं देहं स्पृष्ट्रा डिा निर्याति शरीरान्मरणकाले निःसरतीति यति-स-सयात्मना सदेः कन्यादानं श री यदि प्रदेशानामन्वादिति अथवा देशेना-दे शतोऽप्यपिशब्दः सर्वेापीत्यपेचः श्रारमा शरीरं कोऽर्थः ? शरीरदेश पादादिकं पृष्ठाऽवयवान्तरेभ्यः प्रदेशसंहारानियांति, स च संसारी, 'सर्वेणापि सर्वतयापि, श्रपिदेशनापीपेक्षा सर्वमपि शरीरं स्पृष्ट्रा नियतीति भावः स सिद्धः, वक्ष्यति च - पायणिजारा सिरपसु उववजंती' त्यादि.यात्सजन आत्मना शरीरस्य स्पर्शने सति यमित्यादि एव मिति 'दीदि डाहा व्यायामापदेशेन पिकरप्रदेश रिलायतकाले 'समेत
श्राचा० १ ० ५ श्र० २ उ० । ( इदं 'लोगसार ' शब्द पठे भागे व्याकृतम् । ) आत्मानं सर्वतो रक्ष्यं प्राहुर्धर्मविदो जनाः यदि शरीरं, धर्मस्याद्यं हि साधनम् ॥ १ ॥ जीवन भद्राण्यवाप्नोति, जीवन करोति च सुतस्य देवनाशोऽस्ति धर्मव्युपरमस्तथा ||२|| संघा० अधिक प्रस्ता० । वर्त्तमाचविंशतिपाजा र निस्का दिवर्गविभागः किं शरीरेषु दृश्यमान उन ध्यानाद्यर्थ कल्पनामात्रमिति प्रश्न मना र्थकृतां शरीरगतो ज्ञेय इति ॥ ३४६ ॥ सेन० ३ उल्ला० । सरीरकाय शरीरकाय-काय स "काय वृतीयभाग ४४५ पृष्ठ श्रदारिकादिभेदात्यश्वधोकः । )
सरीरंग शरीरक० शरीरमेय शरीर क
मनोभावाने स्था० २ डा० (शरीरा सरीर' शब्दे श्रस्मिन्नेव भागे उक्लानि । ) -
सरकाले शरीर फुरितानि-स्फोर नुकम्पितादिधम्मपित शरीर, स्था० १ ठा० भ० । अनु स्वा सस्वन्तं होवा निपाति, अथवा शरीर देशना शरी-खरीरजङ्ग शरीरजड- पुं० शरीरक्रियायामनिषु. ६०० १० कृत्वा रदेशमित्यर्थः स्फोरन्विा पादादिनियाले व शरीरं स्फोरयित्वा सर्वाङ्गनिर्माणावसर हात | स्फोरणा
।
उ० । श्राव० भ० । अनु | ('जडु' शब्दे चतुर्थभाग १३६ विस्तरलोक)
सारक स्फुटं भवतीत्याह एमित्यादि ''मि ति-तथैव देशन- ग्रात्मदेशेन शरीरकं फुडिता सिने नया स्फुलिङ्गतः स्फुटं कृतीमना स्फुटं कृत्या गेन्दुरुगनाविति । अथवा शरीरक देशतः - सात्मकतया स्फुटं कृत्वा पादादिना निर्माणकालेसर्वतः सर्वाङ्गनिर्याणप्रस्ताव इति । श्रथवा फु
सरीरणाम शरीरनामन्न० शरीरनिबन्धने नामकर्मभेदे, यदुदयादौ दारिकादिशरीरं करोति । तच पञ्चधा श्रदारिकनै क्रियाहारकरी ०२११ द्वार श्रा० । कर्म० । स० । शरीरपर्याप्त्यैव सिद्धे. म० । ( एतत्प्र योजनं ' गामकम्म' शब्दे चतुर्थभाग १६६६ प्रष्ट उक्रम । )
डित्ता' स्फोटयित्वा विशीर्णे कृत्वा तत्र देशनाच्या- | सरीरणिव्यत्ति-शरीरनिवृत्ति स्त्री० । श्रदारिकादिपञ्चवि सर्वदेवादि
० १६०० २१२०
तथैव
शरीरं सान्मकतया नमकतीत्याह एवमित्यादि एवमिति व नाति शरीरदेशेन शरीर स्थितप्रदेशः, सण सर्वात्मना गेन्दुकगती सर्वात्मप्रदेशानां पति अथवा शरीरय चारादण्दयोगाद्दण्डपुरुयत्रः
सरीरदोव्बल्ल
सांयिमागम्य पादादिगतजीवदेश संहारात्सतस्तु नि पागं गन्तुरिति । अथवा शरीर देशवः संयस्यादि सोचनेन सर्पतः सर्वशोचनेन पिपीलिका
एवं
मनसं कुर्वन शरीरस्य निवर्त्तनं करोतीत्याद विजयः शरी रकं पृथक्कृत्येत्यर्थः, तत्र देशेनलिकागतौ, सर्वेण गन्दुकगतौ । अथवा-देशनः शरीरं निर्वस्यात्मनः पादादिनियवान सर्वतः सर्वाङ्गनिवानिति । अथा-पचविधशरीरस मुदायापेक्षया देशतः शरीरम् श्रदारिकादि निवर्त्य तैजसका
त्वादायैव तथा सर्वे सर्व शरीरसमुदानर्यातिः सिध्यतीत्यर्थः । स्था० २ ठा० ४ उ० ।
छिपे भिरमं निम्मं अधु अणितियं असासयं चयोवइयं विपरिणामधम्मं पासह | ( सू० १४७ + )
1
पृष्ठे उक्लेपा । ) सरीरथामावदार विजद- शरीरस्थामापहाररहित वि० शरी
।
रम्य स्थाम- प्राणस्तथाऽपहारोऽपलपनं तेन विजढा-रहितः शरीर स्थामापहाररहितः । दैहिकवलवियुक्ते, व्य०३ ३० । सरीरदोन्चन शरीरदीय न० द०३
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मरीश्दोस अभिधानराजेन्द्रः।
मरीरोगाहणा सर्रारदोम-शरीरदोप-पुं० । ज्वरशूलादिभिः शरीरदौष्टये, लानां गृहीतानां शरीररचनायाम् . स.४२ सम। द्वा० २७ द्वारा
| सरीरसंपया-शरीरसंपद-स्त्री० । विशिएशरीरताप गणिसरीरपोगबंध-शरीरप्रयोगबन्ध-पुं० । औदारिकादिशग- संपदभेद, स्था०८ ठा० ३ उ०। ('गणि संपया' शब्दे तृतीराणां वीर्यान्तगयक्षयोपशपादिनितव्यापारण शरीरपद्- यभागे ८२६ पृष्ठे गता वक्तव्यता।) लोपादाने 'शरीरप्रयोगस्य बन्ध च। भ० ८ श०६ उ०। सरीरसकार-शरीरसत्कार-पुं० । देहविभूषायाम् , पञ्चा. सरीरपञ्चक्खाण-शरीरप्रत्याख्यान-न । शरीरस्याभिष्य- विव०। रुपवर्जनप्रतिज्ञान , भ. १७ श० ३ उ० । प्रस्ताव सरीरसकारपोसह-शरीरसत्कारपौषध-पुं० । देशनः शरीरससमागत शरीरस्यापि व्युत्सजने , उत्तः ।
स्कारस्यैकतरस्याकरणे , सर्वतस्तु सर्वस्यापि तस्याकरणे, मगरपञ्चवाणगं भंत ! जीवे किं जणयइ ?, सरीरप
ध०२ अधिः । श्राव चक्वाणगं मिद्धाई मयगुणतं निव्वत्तेइ । सिद्धाइम यगुण
सरीरसकारसंगय-शरीरसत्कारसङ्गत-त्रि० । देहविभूषानुसंपन्नगं जीव लोगग्गमुवगए परममुही भवइ ।। ३८ ॥
गते, पञ्चा० ६ विवः।
मरीराणुगय-शरीरानुगत-त्रि० । व्यञ्जनादिजन्य शरीराश्रये है, भगवान ! शगरप्रन्याख्यानेन शरीरब्युन्मजैनेन जीवः फि
चायुकाय, म्था०५ठा०३ उ०। लाने जननि ? , गुरुगह-शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धा
सरीरि-शरीरिन-पुं० । शरीरमस्यास्तीति शरीरी । संसारिनिशयगुणान्वं नियनयनि-कोऽर्थः ? सिद्धानां ये अतिशय
जीवभेद, स्था०२ ठा०४ उ०। गुगणाः-सर्वोकृष्टगुणाम्नेषां भावः सिद्भातिशयगुणन्यं यती हि मिद्धा न नालाः न नोहिताः न हाग्द्रिाः न शुक्ला
सरीरागाहणा-शरीरावगाहना-स्त्री० शरीराणामाधारभूतरन्यादय एकत्रिशदगुग्णाम्नवत्व प्राप्नोनीत्यर्थः , प्राममिडा
कक्षत्रे. स्था०४ ठा०१उ०। येषु प्रदेशेषु शरीरमवगाढम् ।
साभ। निशयगुणा जीयो लोकाग्रं मोक्षमुपगतः मन्
प्रकागन्तरण पृथिवीकायिकावगाहनाप्रमाणमाहसबी भनि । यद्यपि योगप्रयाण्यानन शरी
पुढविकाइयस्स ण भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा परप्रन्यायानः ममागनः नथापि मनोवाकयोगशर्गरम्य प्राधान्यरूयापनार्थ पृथक उपादानम । उन, २६ श्र।
सत्ता ?, गायमा! से जहानामए रनो चाउरंतचकवट्टि (गननफलम · मग्गा ' शब्दे पष्ठभाग ।। पृष्ठ विम्प- स्म वनगपसिया तरुणी बलवं जुग जुवाणी अप्पायंका प्टीनम ।)
वन्नाजाव निउणसिप्पोवगया नवरं चम्मेद्वदुहणमुट्ठियमगरपज्जान शर्गग्पर्याप्ति श्री. । यया शीनाभनमाहार
समायणिचियगतकाया न भामति सेसं तं चव जाव ग्मामृग्मांममेदो स्थिमज्जाशुक्र नन्तरणमतवानरगनया 4
निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वइरामईए सएहकरणीए रिगामयान, प्रब द्वारा प्रत्रा- कर्म । 1. म । न ।
निवगं वइगमणणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं मर्गग्बंध शरीग्बन्ध पु. । समुद्रयाते मान धिम्नास्तिमहोचिनजावदेशसम्बन्धविशेषवशान जमादिशगरपंदशा
जतुगालाममागं गहाय पडिसाहरिय २ पडिमंखिविय पनां बन्धविशेष, भ.८श उ.।
डिमंखिविय जाव इणामेव ति कछु तिसत्तक्खुतो उप्पीमरीग्बन्धणाम शरीरबन्धनामन-न । औदारिकशगरपद्ग
सजा तत्थ गं गायमा ! अत्थेगतिया पुढविकाइया श्रालानां पृवबहानां वध्यमानानां च सम्बन्धका नामकम
लिद्धा अत्थगइया पुढविकाइया ना प्रालिद्धा अत्थगइया भद. म०५० सम।
संघाट्ट ( ट्ठि) या अत्थेगइया नो संघट्टि (ट्ठि)या अत्थेसरोग्भय शगम्भद- पुंशर्गरम्य दो विनाशः । (ताम्म
गइया परियाविया अत्थेगइया नो परियाविया अत्थेग-- न्) शर्गविनाशे, उन्न.३६ श्र। श्राचा ।
इय उद्दविया अत्थेगइया ना उद्दविया अत्थेगइया पिट्ठा सरीस्वति-शरीरव्युत्क्रान्ति श्री. दिव्यशगत्याग, “भ वचकनीए सर्गग्बकतीण कुर्खािम गमनाए चकन " ! अत्थगइया ना पिट्ठा, पुढविकाइयस्म णं गायमा ! एम-- कल्प. अधि. १ नगा।
हालिया मरीगंगाहणा पणा ना । ( सू० -६५३ x) सरग्वग्गणा-शगंग्वर्गणा स्त्री । श्रीदारिकादशगरप्रा
'पुढना साद. जनगोमिय'ति चन्दनपेशिका तरुयोग्यवर्गणायाम , पं. मं. द्वार । (वगणा' शब्दे परमागे गीनि पवईगानागा 'बलय ' ति मामर्थ्यवती ' जगवं . मा टर्शि।)
ति सुषमणमादिनिशिएकालवी 'जुयागि 'त्ति वयःप्रा
मा अगायक' ति नारोगा बन्नान अननदं सूचि सरीरविउस्मग्ग शरीग्च्युन्मग पुं० । नारकायुमादिहेतृनां
तम चरम्महत्या ददामिपायपिटुतरोरुपग्गिए 'त्यादि मिश्यादृष्टित्यादीनां न्यागे, श्रा।
हवा के 'चतुहन्यायपधीतं तदिह न वाच्यम् . मरीस्वाच्छयण-शरीरव्यवच्छेदन-न० । देहत्याग, म्या..!
पतग विशरणम्य बा असमाचात् . अत एवाह-- ठा०३ उ।
'नोट नहानुष्ट्रिगमगाहपनिनियमनकामा न भन्नाद:त्ति, जपाननन । दारिकादशीपुर । सत्रच चमष्टकादान व्यायामाफियायामुपकरणानित: ससरीरसंघायण शरीरसंघातन न । आदारिकादशीपद
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(५६) सरीरोगाहणा अभिधानराजेन्द्रः।
सलद्धिजीग माहतानि व्यायामप्रवृत्तावात एब निचितानिची-घनीभूत भावलक्षणः, ततश्च सलक्षणादीनां द्वन्द्वः, तेषां दोका, तानि गात्राणि-श्रङ्गानि य स तथा, तथाविधः कायो स्वलक्षण कारणहेतुदोषः । इह कारणशब्दः छन्दोऽथे यस्याः सा तथेत्ति , 'तिक्खाए'त्ति परुषायां 'वरामई- द्विबंदो ध्येयः । अथवा-सह लक्षणेन यौ काप' त्ति बजमय्यां सा हि नीरन्ध्रा कठिना च भवति 'स-- रणहेतू तयोहोष इति विग्रहः । तत्र लक्षणदोषोऽव्यापजकरणीए' त्ति लावणानि-चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रिय- प्तिरतिव्याप्तिा , तत्राव्याप्तियथा-यस्यार्थस्य सन्निधानास. न्ते यस्यां सा लक्षणकरणी-पेपणशिला तस्यां 'बट्टाव- निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभदस्तस्वलक्षणमिति इदं स्वलरपण' ति वर्तकवरेण-लोटकप्रधानेन ' पुढविकाइयं ' ति क्षणलक्षणम् , इदं चेन्द्रिययत्यक्षमेयाश्रित्य स्यात् न योगिज्ञापृथिवीकायिकसमुदयं 'जतुगोलासमाणं' ति डिम्भरूपक्री- नम् , योगिक्षाने हिन सन्निधानासन्निधानाभ्यां प्रतिभासभे डनकजतुगोलकप्रमाणं; नातिमहान्तमित्यर्थः, 'पडिसाहरि- दोऽस्तीत्यतस्तदपेक्षया न किञ्चिस्वलक्षणं स्यादिति । अतिपत्यादि इह प्रतिसंहरणं शिलायाः शिलापुत्रकाच संह- व्याप्तियथा अर्थोपलब्धिहेतुःप्रमाणमिति प्रमाणलक्षणम् .इह ख्य पिण्डीकरणं प्रतिसंक्षिपाणं तु शिलायाः पततः संरक्ष- चार्थोपलब्धिहेतुभूतानां चक्षुर्दध्योदनभाजनादीनामानन्न्यैन णम् । 'अत्थगइय' त्ति सन्ति एके-केचन ' श्रालिद्ध 'चि प्रमाणेयत्ता न स्यात्। अथवा-दाष्ट्रान्तिकोऽर्थो लक्ष्यतेऽनेनेति श्रादग्धाः शिलायां शिलापुत्रके वा लग्नाः 'संघट्टिय'त्ति लक्षणं-दृष्टान्तस्त होषः-साध्यविकलत्यादिः, तत्र साध्यसकर्षिताः परिताविय' त्ति पीडिता ' उद्दविय 'त्ति मारि- विकलता यथा-नित्यः शब्दों मूर्तत्वाद् घटबद् । इह घटे निताः , कथम् ? , यतः 'पिट्ट' ति पिटाः 'एमहालिय'त्ति स्यत्वं नास्तीति कारणदोषः । साध्यं प्रति तद्व्यभिचारो यएवं महतीति महती चातिसूभेति भावः, यतो विशिटा- था-अपौरुषेयो वेदो वेदकारणस्याश्रूयमाणत्वादिति , अयामपि पोसामन्यां केचिन्न पिष्टा नैव च छुप्ता अपी- श्रूयमाणत्वं हि कारणान्तरादपि सम्भवतीति । हेतुदोषोऽति । 'अत्थेगइया संघट्टिय' त्ति प्रागुक्तम् ।भ० १६श०३उ० । सिद्धविरुद्धानकान्तिकत्वलक्षणः, तत्रासिद्धो यथाऽनित्यः सरीरोवहि-शरीरोपधि-पुं० । शरीररूपायामुपधौ, स्था० शब्दश्चाक्षुपत्याद् घटवदिति, अत्र हि चाक्षुषत्वं शब्दे न सि१ ठा।
द्ध, विरुझे यथा-नित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवद् , इह घटे
कृतकवं नित्यत्वविरुद्धमनित्यत्वमेव साधयतीति, अनैकासरीसिब-शरीसप-पुं० । गोधादिषु भुजोरुभ्यां सर्पणशी
न्तिको यथा-नित्यः शब्दः प्रमयत्वादाकाशवद । इह हि प्रलेषु तियक्षु. ज्ञा० १ श्रु०१०। श्राचा० । सूत्र०।
मेयत्वमनित्येष्वपि वर्तते ततः संशय एवेति । स्था०१० ठा० सरूप-स्वरूप-त्रि० । आत्मरूप, हा० ३१ अप० । स्वभावे,प
३.उ०। श्चा ०१६ विव०।
सलद्धिजोग-स्वलब्धियोग-पुं० । स्वकीयायाः प्राप्तेऽहें, ध०। सरूपि(ण)-सरूपिन्-पुं० । सह रूपेण मूर्त्या वर्तत इति
अथ स्वलब्धियोग्यतामाहसमासान्त इन्प्रत्यये सरूपी । संस्थानवरदिमति सशरीरे दीक्षावयःपरिणतो, धृतिमाननुवर्तकः । जीवे, स्था० २ ठा० १ उ० । भ० ।
स्वलब्धियोग्यः पीठादि-ज्ञाता पिण्डेषणादिवित्।१३।। सरोरुह-सरोरुह-कमले , " सरोरुहं पुंडरीअं" पाइ० ना०
दीक्षावयाभ्यां परिणतः संप्राप्ताश्चरप्रवजितः पूराणपर्यायश्च १० गाथा ।
त्यर्थः । धृतिमान् संयम सुस्थः अनुवर्तकः सर्वमनोऽनुवृत्ति सरोस-सरोष-त्रि० । क्रुद्धे, सूत्र.१ ७०५ अ०२ उ०।। कर्ता पीठादिज्ञाता कल्पपीठानयुक्लिज्ञाता पिरा डेपणादिवित् सलक्खण-स्वलक्षण--न०। लक्ष्यंत तदन्यव्यपोहनावधार्यते प्रतीतार्थः ईदृशः स्वलब्धियाग्यः स्वस्य स्वकीया लांब्धःवस्त्यनेनेति लक्षणम् । स्वश्च तल्लक्षणं च स्वलक्षणम् । असा
प्राप्तित्तस्या योग्यः-अहाँ भवति, पूर्व गुरुपरीक्षिता वस्त्रादि धारणधमें, यथा जीवस्योपयोगः, यथा वा प्रमाणस्य खप
लब्धिरासीत् इदानी स्वयं वस्त्रादिपरीक्षितुं योग्यो जात रावभासकज्ञानत्वम् । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
इति भावः।
अस्यैव विहारविधिमाहसलक्षण-पुं० । लक्षणझे कवी, दश०२०।
एषोऽपि गुरुणा सार्द्ध, विहरेद्वा, पृथग्गुरोः। सलक्खणकारणहेउदोस-स्वलक्षणकारण हेतुदोष-पुं०। हेतु.
तद्दतार्हपरीवारो-ऽन्यथा वा पूर्णकल्पभाक् ॥ १४०॥ दोपविशेषे, स्था०।
एपोऽपि--स्वलब्धिमान् प्रास्तां गुरुलब्धिपरतन्त्र इत्यसलक्खणकारणहे उदोसे । (सू० ७३४)
पिशब्दार्थः, गुरुणा--स्वलब्ध्यनुज्ञाचार्येण सार्द्धम्तथा लक्ष्यते नदन्यव्यपोहेनावधार्यते वस्त्वनेनेति ल- | अमा विहरेत्--ग्रामाहामान्तरं गच्छेत् । अत्रापवादक्षणम् , स्वं च तल्लक्षणं च स्वलक्षण यथा जीवस्यो- माह-गुरोः पूर्वोकाद् वेति पक्षान्तरे पृथक् मिन्नतया विहरेपयांगो यथा वा प्रमाणस्य स्वपगवभासकहानत्यम् ५, त् , कीदृशः सन्नित्याह-तद्दनाह परीवारस्तन--गुरुणा दतथा कति कारण परीक्षार्थनिर्णयनिमित्तमुपपत्तिमात्र तः अर्पितः अर्को-योग्यः परीवार:-परिच्छदा यस्य यथा निरुपममुखः सिद्धो ज्ञानानावाधप्रकर्षात् , नात्र किल स तथा, तत्रापवादमाह-अन्यथेति गुरुदत्तयोग्यपरिवागसकललोकप्रतीतः साध्यसाधनधर्मानुगतो दृष्टान्तोऽस्ती. भाव, चनि पक्षान्तरे . पूर्वकल्पभाक पूरागी-समाप्त कला न्युपपत्तिमात्रता. दृष्टान्त नद्भावऽम्येव हेतुव्यपदेशः स्यात् । व्यवस्थाभदं भजतीति तथा समाप्तकल्पन विहरतीत्यर्थः । नथा-हिनीति गमयनीति रेतः माध्यमद्भावभावनदावा- .३ अधिः ।
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(५६१) सलभ
अभिधानराजेन्द्रः। सलम--शलभ-पुं० । पतले , स्था०६ ठा०३ उ० । श्राचा।। सलिलरासि-सलिलराशि-पुं० । समुद्रे , “रयणायरो ससलभपईवबाइ(ण)-शलभप्रदीपवादिन-। वादिनः शलभ- लिलरासि।" पाइ०८ गाथा । तुल्यान् कुर्वति प्रदीपकल्पे प्रतिवादनि, यर्थक पतन्नामेन्ट- सलिलविल-सलिलविल-न० । निझरे, भ०७ श० ६३० । भूतिना सह गतः । कल्प०१ अधि० ६ क्षण
सलिला-सलिला-स्त्री० । गङ्गादिमहानदीषु , स. १३८ ससललिय-सललित--न । यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीय म०। (जम्बूद्वीप यावत्यः सलिलास्तावस्या ' जम्बूदीय' तत् सह ललिंतेनेति सललितम् । यदिवा-यत श्रोप्रेन्द्रियस्य शब्दे चतुर्थभागे १३७५ पृष्ठे दर्शिताः।) शब्दस्पर्शनमतीव सूचममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रति- सलिलावई-सलिलावती-स्त्री०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिभासते तत् सललितम् । जी. ३ प्रति०४ अधि० । रास. मे सीतोदाया महानद्या दक्षिणे चक्रवर्तिविजये, स्था०८ठा० माधुर्य, (त्रि.) ओघ० । लालित्योपैते, प्रौ। सुप्रसन्नतोपेते, ३ उ०। जम्बूद्वीपे अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोविपा० १ श्रु०२०।
कायां राजधान्यां महाबलाभिधानो राजा। स्था०७ ठा०३ सलह-शलभ--पुं० । पतन , पाइ० ना० २६२ गाथा।
उ०/शा! श्रा०म०। सलीगा-शलाका-स्त्री० । नेत्रादौ (नि००१ उ० । णमत
सलिलुच्छय-सलिलोत्सव-पुं०। साविते,“पम्बालि माउं.
वॉलिवे च सलिलुच्छयं जाण" पार. ना.७८ गाथा । रकट्ठघटिता सलागा। ग.२ अधि. ।स। नि० चू०।) अजनार्थवत्तौ , सूत्र० १ श्रु०४० २ उ० । शल्ये, सलिलोदगवासि-सलिलोदकवर्षि-पुं० । सलिलाः शीता'पथमा सलागा पक्विविज्जा' प्रथमा शलाका- दिमहानद्यस्तासामिव यदुदकं रसादिगुणसाधर्म्यात् तस्य एकः सर्षपः प्रक्षिप्यते । अनु० । कस्यचिद् वस्तुनो - वर्षः । महानदीजलकल्ये वृष्टयुदके, दिन्वं सलिलोवर्गवास नेकभेदज्ञापनार्थे कोष्ठकरेखासु २४ तीथराः १२ चक्रिणः वासह । 'म०१५ श..
बलदेवाः ६ वासुदेवाः । प्रतिवासुदेवाश्चेति पयःपष्टिः सलेस-सलेश्व-त्रिकालेश्यया सहितः। संसारिवि, स्था० .. शलाकापुरुषाः। वी०२० कल्प।
२ ठा०४ उ०। सलाघण--वाघन-न। प्रशंसायाम् , 'उयबूहण त्ति वा प- सल-शल्य-न। शल्यते-चायतेऽमेति शक्यम्प -- संस त्ति वा साजणण त्ति वा सलाधण ति वा एगट्ठा' तस्तामरादौ , भावतो मायादी, स्था। नि० चू०१ उ०।
तम्रो सम्रा पश्चचा, जहा-मायासने विशवसलाहा-श्लाघा-स्त्री० । "क्ष्मा-श्लाघा-रोऽन्स्यव्यञ्जनात्"
सने मिच्छादंसस । (सू०१४२४) ॥८।२।१०१ ॥ इति लकारात् पूर्वोऽकारः। प्रशंसायाम् ,
शल्यते-बाध्यते अनति शल्यं द्रव्यतस्तोमरादि , भाषप्रा०२पाद।
तस्तु इदं त्रिविधं-माया-निरुतिः सैध शल्य मायाशमयम् , सलाहणिज-श्लाघनीय-त्रि० ।लाध्ये, प्रशस्ये , विपा० १
एवं सर्वत्र नवरं नितरां दीयते-लूयते मोक्षफलमनियनश्रु०१०
प्रचर्यादिसाध्य कुशलकर्मकल्पतरुवनमनेन देवाविप्रार्थसलिंग-स्वलिङ्ग--न । रजोहरणगोच्छकादिधारित्वे, श्रा० । नपरिणाममिशिताशिनेति निदानं, मिथ्या-विपरीत दर्शनं रयहरणमुहपुत्तियापडिग्गहादिधारण सलिग भमति । निक मिथ्यादर्शनमिति । स्था० ३ ० ३ उ० । ( ' मरण ' चू०१ उ.1
शब्दे षष्ठे भागे १३६ पृष्ठ १४२ पृष्ठे च एतद्विस्तर उक्तः ।) सलिंगसिद्ध-स्वलिङ्गसिद्ध-पुं० । स्वलिने-रजोहरणाविरूप पापानुष्ठाने , तजनिते कर्मणि, सूत्र. १ श्रु० १५
अ०। उत्त० । अपराधलक्षणे मोक्षगमनव्याघातकारिजात व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते स्वलिसिद्धाः । नं० । प्रशा। द्रव्यलिङ्ग प्रतीस्य रजोहरणगोच्छकादिधारिषु सि
कर्मणि च । व्य०१ उ०।। हेषु, पाध०।
शल्यभेदाःसलिल-सलिल-न। उदके,सूत्र० १श्रु०१२ श्र०) पाहना।
अत्थेगे गोयमा! पाणी, जेरिसमचि कोडिं गए। जले . शा० १ श्रु० ४ ० । घो० । प्रश्न । दर्श। औ० ।।
समल्ने चरती धम्मं , आयहियं नावबुज्झइ ॥ १६ ॥ " लो लः ॥८।४ । ३०८ ॥ इति पैशाच्यामपि लस्य समलो जइ वि कटुग्गं, घोरवीरं तवं चरे । ल एच । सलिल । प्रा०४ पाद।।
दिव्वं वाससहस्सं पि, ततो वी तं तस्स निष्फलं॥१६॥ सलिल कुंड-सलिलाकुण्ड--न० । षष्ठीतत्पुरुषः, गङ्गादिनदीनां
सल्लं पि भन्नई पावं, जन्नालोइयनिंदियं । प्रपातकुण्डेपु, प्रभवकुण्डेषु च । स्था। सव्वे वि ण सलिल कुंडा दस जोयणाई उव्वेहेण पाता।
न गरहियं न पच्छित्तं, कयं जं जह य माणियं ॥ १७॥ (मू० ७७६४)
मायाभमकत्तव्वं, महापच्छन्नपावया। 'सलिलकुंड' त्ति-सलिलानां-गङ्गादिनदीनां कुराहा
अवजमाणायारंच, सल्लं कम्मसंगहो ॥ १८॥ नि-प्रपातकुण्डानि प्रभव कुराड़ानि च सलिलाकुण्डानीति।
अमंजमं अहम्मं च, निसीलबत्तभाषियं । स्था००ठा०३उ.।
मकलुमत्तममुद्री य, मुकयनासो नहेव य ।। १ ।।
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अभिधानराजेन्द्रः।
मल्खुद्ररण दुग्गइगमणमणुत्तारं, दुक्खे सारीरमाणसे ।। "प्रयः शल्या महाराज!, भस्मिन् देहे समुत्थिताः । वायुअव्वोच्छिन्ने य संसारे, विगोवणया महंतिया ॥२०॥ मूत्रपुरीषाणां प्राप्त वर्ग न धारयेत् ॥ १॥ पं०५०१ कल्प । केसि विरूवरूवत्तं, दारिदं दोग्गइं गया।
"उद्धरियसव्वसनो, सिझर जीवो धुयकिलेसो"३०प०
नि० चू०। ('मरण' शब्द षष्ठभागे १३५ पृष्ठ विस्तरः । ) हाहा भूयं सयणया, परिभूयं पि जीवियं ॥ २१ ॥
सलइ-सप्तकी-स्त्री० । स्कन्धबीजवनस्पतिभेदे , सूत्र. १ निरिघणतं सकूर, नियनिकमिया विय।
श्रु०११०३० स्था। श्राचा० । प्रा०म० । उत्त०।। निलजं गूढदहियत्त, वंकषिवरीयचित्तया ।। २२ ।।।
गजप्रियाख्ये वृक्षविशेषे, प्रशा०१ पद । रागदोसो य मोहो य, मिच्छत्तं घणचिकणं । सन्नइपल-सनकीपत्र-न । शलक्याण्यवृक्षविशेषदले, मा संमग्गणासो य तहा, एगे संसित्तमेव य ॥ २३ ॥ १ श्रु०७०। प्राणाभंगमबाही य, ससलत्तं भवे भवे ।
सल्लकत्तण-शल्यकर्तन-न० । कृन्ततीति कर्त्तनं शल्यानि-मा. एवमादी य सल्लस्स, नामे एगट्ठिए बहु ।। २४ ।। याशल्यादीनि तेषां कर्तन शल्यकर्तनम् । मायादिशल्य
कंछदक, आय०४ अ० । तद्भावितानां हि भावशल्यानि जेणं सनियहियस्स, एगस्सि बहु भवंतरे।
म्युच्छेदमायान्तीति । श्री। श्रा०म० भ० मा० उपा सब्बंगोवंगसंधीप्रो, पसल्लंती पुणो पुणो ॥ २५ ॥ ध। शल्वं-पापानुष्ठान नजनितं वा कर्म तत्कर्शयतिसे य दबिहे समक्खाए, सल्ले सहमे य बायरे। छिनत्ति तच्छल्यकत्तनम् । सूत्र०१५०१४० एकेक तिविहे णेए, घोरग्गुग्गतरे तहा ॥ २६॥
सल्लग-सल्लग-नारग लग संघरण । शोभनं लगनं संघरणघेरा चउबिहा माया, घोरग्गं माणसंजुयं ।
मिन्द्रियसंयमरूपं सल्लगस्तद्धावः। इन्द्रियसंवरण, सूत्र० २
थु०२ १० माया लोभे य कोहे य, घोरग्गुम्गतरे मुणे ॥ २७॥
शम्यग-न। शल्यवच्छल्यं मायानुष्ठानकार्य गाथति-कथसुहुपबायरभेएणं, सप्पमेयं पितं मुणी।
यति शल्यगम् । मायापरिक्षाने, सूत्र०२७०२ १० । प्रा० भरई समुद्धरे खिप्पं, ससल्लो व सो खणं ॥२८॥ माप्रश्न खुडुलगि ति अहिपोए, सिद्धत्थतुल्ले सिही । सल्लगहत्त-शन्यकहत्य-न । शल्यस्य इत्या हननमुहारसंपलग्गे खयं णेइ , णरपूरे विज्झाई ॥ २६ ॥
इत्यर्थः शल्यहत्या तत्प्रतिपादकम् शल्यहस्यम् । शल्यो
शार वैश्वकशास्रो, विषा०१ श्रु०७ अ० । स्था। एवं तणु तणुयरं , पावसल्लमणुट्ठियं ।
सल्लुद्धरण-शल्योद्धरण--न० । शल्यानां मायाशल्यादीनां भवभवंतरकोडीमो , बहुसंतावपदं भवे ॥ ३०॥
समुखरणकरणत्वाच्चयोद्धरणम् । पा० । शल्यकर्सने, कभय । सुदुद्धरे एम, पावसल्ले दुहप्पए ।
एटकाद्धार.पञ्चा०१६विवाग० । अालोचनायाम , ओघका उद्धरियं पिण याणंती, बहवे जह उद्धरिजई ॥३१॥ पालायणा विपडगा, सोही सम्भावदायणा चव । गोयम ! निम्मूलमुद्धरण, नियमे तस्स भासियं । निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणं ति एगट्ठा ॥७६१|| सुदुद्धरिस्स वि सल्लस्स, सबंगोवंगभेदियो ।। ३२॥ आलोचना विकटना शुद्धिः सम्भावदायणा णिदण गमम्मईसणं पढम, सम्मन्नाणं बिइजियं ।
रहणा विउद्दणं सल्लु इरणं चेत्यकाथिकानीति । तइयं च सम्म चारित्त-मेगभूपमिमं तिगं ॥३३॥
एत्तो सल्लुद्धरणं, कुच्छामि धीरपुरिसपत्र। खेतीभूते विजे जिते, जे गूढे दंसणं गए।
जंनाऊण सुविहिया,करेंति दुक्खक्वयं धीरा७६२ ओषा
। अत्र त्या वक्रव्यता - बालोयगा' शब्दे द्वितीयभागे जे अट्ठीसुंठिए केई, जे स्थिमज्झतरं गए।
४०५ पृष्ठ गता।) ( कण्टकाद्धरम् ' कंटयाइउद्धरण ' सवंगोवंगसंखुत्ते, जे अभितरबाहिरे ।
शब्द तृतीयभाग १७० पृष्ठ गतम् । ) (श्रन्यथाकरंग प्रायसल्लंती जेण सल्लंती,तं निम्मूलं समुद्धरे ॥३५॥ (महा.)
श्चित पच्छिन' शब्दे पश्चमभागे १३० पृष्ये प्रतिपादिनम् ।)
(प्रतिसंवनां कृत्वाऽऽलाचयत् इति पडिसधरणा ' शब्द ताणि सने भवित्ताणं, सव्वसल्लं विवजिग ।।
पश्चमभाग ३६३४ गतम्।) जे धम्ममणुचिट्ठा, सबभृयप्पकंपिया ॥३६॥ भौगो अणेसणासीए, समियत्तं भावणाण भावणया। नम्म तं सफलं होजा, जम्मजगतरेस वि ।
जह सति चाकरणं, पडिमारणं पडिग्गहाणं च ॥३३॥ विउला सायरिद्धी य, लभेजा मामयं सुहं ॥४०॥
भागो भोजनम् अनेषणीये कलोऽशनादौ विषयभूने इत्यमा०१०।
प पिरा संवद्धल ना उत्तर गुगणेऽतिचारः । तथा प्रस
मिनयमप्रयत्न त शपसमितिचतुपये भावनानां महातिमि मल्ल महागय ', अस्ति दहे ममुदिया।
वनरक्षगापायभूतानां पञ्चविंशतेनुप्रक्षाणां या द्वादशाना वायमुनपुरीमागपं. पत्तं वगं न चारए । माघ । किमिन्याह-मभावनता प्राकृतत्वेन ताश्त्ययस्थ स्वार्थिक
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শিদালাল। মানা স্বাস্থল থলমান মর্যা | স্ব স্বীব-বিঘর। শনাল: : সুক্ষ্ম স্বা ছানাमावनताऽनासेवयामिति मावनानिचारः । तथा यथाशक्ति दि दुष्प्रयुक्लं-दुयीपारितम् , सो वा मुजङ्गः प्रमादितोऽ व यथावलं च भकरणमसेवा, प्रतिमानां भिक्षुपतिमानां बगील कुद्धा-कुपितः सथिति वाशब्दो विकल्यार्थः । শিক্ষা সমিক্ষায্য স্ব নিযমামা - | यमयं करोति-विध भावशल्य-दुश्चरितम् । प्र
ব্লিখিনৰ নৰ: এনাসিমাখামান দুধ। नुसतमनाकृष्टं जीवदेवात् उत्तमार्थः-प्रधानप्रयोजनं-परिहएवे इत्यऽइयारा, ऽसद्दहणादी य गुरुयभावाणं ।
समरणं समस्तानुष्ठानशेखरकल्पवासस्य काल:-अवसर उ
समार्थकालस्तस्मिन् । शस्त्रादीनि खेकभविकमेव मरणं कुभाभोगाणाभोगा-दि सेविया तह म मोहणं ॥३४॥
वन्ति, एतद्यानन्तजन्ममरणपरम्पराम , अत एवाह-दुर्लमएसेऽनन्तरोताः 'पत्थ' ति-पतषु यथाक्रम मूलगुणो- बोधिसमसुलभजिनधर्मताम् । अनन्तसंसारिकत्वमनन्तमय. सरगुणेषु अतिचारा-तिक्रमाः, तथा अश्रद्धनादयश्व- भाक्त्यम्। चः समुच्चये । सम्यक्धचरणभ्रो हत्कर्षेणार्थअश्रद्धान-विपरीसनरूपणादयक्ष भावानां जीवादिपदार्थानाम् पुङलपरावर्तप्रमाणसंसारभाजनं भवतीति, भावशल्योद्धारअतिचारा इति प्रकृतम् । किंविधा इत्याइ-'गुरुग' त्ति- गुणसंवर्शकसूत्राणि पुनरेवम्-“श्रालायणापरिणो सम्म शुरुकाः पृथिवी संघटनादिभ्यः सकाशान्महान्तः, सद्धर्मम- काऊण सुविहिलो कालं । उकोसं निरिण भवे.गंतूण लमेल बादममूलकल्पसम्यक्त्वपकत्वादेषाम् । एते च सर्वेऽपि
निब्वाणं॥१॥" इत्यादीनीति गाथाद्वयार्थः । पश्चा०१५ विव० । आभोगानाभोगादिसेचिता भाभोगानामोगादिकताः, स
समुद्धरिउकामेणं, सुपसत्थे य सोहणे दिणे । আমাধ্যামাললি জ্ঞান, অলামসম্বন্ধান , प्रादिशब्दात्सहसाकारभयरागद्वेषादिपरिग्रहः । तथा चेति
तिहिकरणमुहुत्तनक्खते, जोगे लग्गे ससीवले ॥४१॥ समुच्चये। गोधनाभोगानाभोगादिविशेष्याभावेनोपयुक्तगम- कायब्वायंबिलक्खमणं, दस दिले पञ्च मङ्गलं । नागमनादिना । अथवा-श्रोधेन-लोकप्रबाहेण । अथवा-त
परिजक्यिव्वं अदुसर्य, सयहा तदुवरि अयं करे।४२। था चेत्येवंस्थिते , ओधेन-सामान्येन सामस्स्येनेति यावत् मालोचयेदिति योग इसि गाथार्थः ।
अट्ठमभत्तेण पारित्ता, काऊणायंबिलं ततो । ततः किमित्याह--
चहयसाहू य वंदित्ता, करिज खंतमरिसियं ॥ ४३ ।। संवेगपरं चित्त, काऊणं तेहि तेहि सुत्तेहिं ।। जे केइ दुहु संलते, जस्सुवरि दुइ चिंतियं । सवाणुद्धरणविवा-गदंसगादीहि श्रालोए ॥३५॥ जस्स य दुइ कयं जेण, परिदुट्ट व कयं भवे ॥४४॥ संवगपरं-भवभयप्रधान, मोई प्रति प्रचलनबद्वा चिर्स
तस्स सबस्स तिविहेणं, वाया मणसा य कम्मुणा । मनः कृत्वा-विधाय | कैरित्याह-तैस्तैः प्रवचनप्रसिमः। सूत्र-क्यिविशेषः । किंविधैः शल्यानुद्धरणेऽकृत्यकरण
मीसनं सबभावणं, दाउंमिच्छामि दुक्कडं ॥४५॥ भावशल्याप्रकाशने यो विपाका-दुष्परिणामस्तं दर्शयन्ति
पुणो वि वीयरागाणं, पडिमानो चायालए। यानि तानि सथा, तदादिभिः-तत्मभृतिभिः आदिशब्दा-- कछल्योद्धरणगुणसंदर्शकसूत्रपरिग्रहः पालोचयेद् गुरवे निये
पत्तेयं संधुणे वंदे, एगग्गो भत्तिनिभरो॥४६॥ ধষ। গঙ্গালী স্বাবানিনি এমনু , সুখদ্মা-গুলী- बंदितुं चइए सम्म, छट्ठभत्तेण परिजवे । येदिति भालोचयेद् गुरुः शिष्यमिति गाथार्थः।
इमं सुयदेवयं विज, लक्खहा चेझ्या लहे ॥ ४७ ॥ | মগ হ্য ৰ লৰ্যায়--
उपसंतो सबभावेणं, एगचित्तो सुनिच्छो । सम्म दुच्चरितस्स, परमक्खियमप्यगासगंज तु
भाउत्तो अव्यवखितो, रागरइभरहवाजिमो ॥४८॥ एयमिह भावसलं, पत्तं वीयरागेहिं ॥३६॥
महा०१०। सम्यम्भावतः दुश्चरितस्य-कुकृतस्य परसाक्षिक-गीता-- ध्यक्षम् अप्रकाशनम्-अप्रकटनम् ,यदु-यत्पुनः एतद् युवा
सव-शव न० । मृतशरीरे, 'कुलवं सदं च मस्य' पाक বিনামন্ধান দু মৰাৰ স্বাস্থ্য সুর্যমুখ । प्रशतं--प्ररूपितं वीतरागैः-जिनगिन गाथार्थः ।
सवण-शपन-२० । अभिधाने, आक्रोश, स्था० ३ ०३ उ०॥ शल्यानुसरणविषाकदर्शकादिभिः सूरित्युझमथ সহীৰা মাথাযমাছ--
श्रवण-न० । वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंपृष्ठाण वितं सत्य व विस, दुप्पउत्तो व कुणति वेवानो। र्थग्रहणरूपे उपलब्धिविशेष, पा०म०१०। अभिलापलाजंत व दुप्प उत्त, सप्पो व पमादियो कुद्धो ॥३७॥
वितार्थप्रदरणस्वरूप उपलग्धिविशेष, अनु०। मा० म०। क
यो, "सवणा करणा" पाइ० ना० २५१ गाथा। (द्वाभ्यां स्थाजं कुणइ भावसलं, अणुद्धित उत्तिमढकालम्मिा
नाभ्यामात्मा शग्नं शृणाति इति 'इंदिय' शब्द द्वितीदलहबोहीयतं, अशंतमंसारियनं च ॥३८॥
यभाग ५५६ पृष्ठे गतम् ।) श्रवणविषयीकरण, द्रव्या० भाषि-जैव तमाय करातानि योगा । शस्त्र या सा- १० अध्या० । माकने, पञ्चा०१ विव०। साधुसमीप कि कवभूतम् वि वा हलाहलं दुष्प्रयुको वा दुःसाधिता जिनागमाकरणन, पञ्जा. १ विव०।१०। सूत्र० । उच०॥
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सवण
;
सम्प्रति श्रवणविधिप्रतिपादनार्थमाहनिद्दाविंगहापरिव-जिएहि गुतेहि पंजलिउडेहि । भतिवहुमाखपुष्यं, उपउचेहिं सुखे । ७०७ ॥ अभिकंतेहि सुभा - सियाइँ वयणाइँ अत्थसाराई । विहियमुहि हरिसा - गएहि हरिसं जणंतेहिं । ७०८ || निद्रायिक पापरिवर्जितैः परिवर्जितनिद्वायिक चैरिस्यर्थः, गुप्तैः - मनोव काय गुप्तैः पंजलिउडेद्दि' इति निष्ठान्तस्य प्राकृतपतिमा यथोषिता बाह्या प्रतिपत्तिर्बहुमानम् - आन्तरः प्रीतिविशेषस्तत्पूर्वम् उपयुक्तैः अनि गुरुमुखाद्विनिर्गतानि वचनानि सुभा पितानि शब्दार्थदोषरहितानि तथा अर्थसाराणि विपुलासमन्वितानि अभिकाङ्गिरपूर्वा पूर्वश्रवणतो हर्षागतैरा गतरित्यर्थः हर्षोत्कर्षवशादेव विस्मितमुखस्तथा अम्बेसंवेगकरणादिना इर्ष जनपङ्गिः श्रोतम्यम् एवं तैः गुरोरतीय परितोषप्रकारेण प्रकृष्टेन आपाचते । ततः किमित्याह-
( ५६४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
गुरुपरितोसगए, गुरुभनीए तदेव विग
इच्छितस्थाणं, खिष्यं पारं समुचयति ।। ७०६ ॥ गुरुपरितोषगतेन गुरुरितोषकारेण धन गुरुपात येत्यर्थः सोऽपि कथमित्याह- गुरुमपा - आन्तमति विशेषरूपया तथैव विनयेन च देशकालाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिकरणलक्षणॆन किमित्याह-सभ्य सद्भावप्ररूपढ्या इंतिसूत्रार्थयोः शिशी पारं समुपयान्ति प्रा० म० १ ० । स्था० । पं० व० । विशे० । श्रवणविधिमाह
,
सूर्य हुंकारं वा वादकारपडिपुच्छवीमंसा । तत्तोपसंगपारायणं च परिणिसत्तमए || ५६५ ॥ मूकमिति मूकं शृणुयात् । इदमुक्तं भवति प्रथमवाराश्रवऐ सवनगात्रः सन् तृष्णमाथितः सर्वधारयेत् द्वितीय पारा तुहुंकारं दद्यादन्दनं कुदित्यर्थः तृतीये अप याकारं कुर्यादेवमेतान्यथति यादित्यर्थः 'तु पराभिप्राय मनाप्रति
"
तू ? इति पञ्चमं तु मीमांसां विदध्यात्तत्र मातुमिच्छा मीमासामाजिज्ञासेति पावत् ततः पठे तदुतरोतर गुरुय सङ्गः पारगमनं चाऽस्य भवति, सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा भवति । एतदुकं भवति गुरुवन्दनभावत एव सप्तमवारायामिति । तदयं शिष्यगतः श्रवणविधिरुक्तः । विशे० न० चं० प्र०। जिनवचनथवणस्य सारतामुपदर्शयन्नाहनवितं करे देहो, ण य सयणो णेय वित्तसंघाओ। जिवराजगिया, जे संवेगाइया लोए ॥ ४ ॥ नापि तत्करोति देहो न च स्वजनो न च वित्तसंघातः जिनवचनांना यादीला कुन्ति तथा शाश्वतः प्रतिशोकापासार किसे गमन स्वजनः श्रनिष्ठितायासध्यवसायास्पदं च वित्तसंघात इत्यसारता तीर्थकर भाषिनाकर्णनाद्भवाच संवेगादयो जातिजरामरागेगश कानहितापवर्गव इति सारता, अतः श्रोतव्यं जिनवचनमिति
9
सवहसाविय
अथवा
होइ दर्द भराओ, जिससे परमनिम्बुकर म्मि सबणाई गोयरो तह, सम्मद्दिस्ति जीवस्स ॥ ५ ॥ यज्ञा- किमनेन निर्गतः एव भवति जायते एवम् प्रत्यर्थमनुरागः- प्रीतिविशेषः के ? जनवचन तीर्थकरभाषिते किंविशिष्टे परमनिर्वृत्तिकरे - उत्कृष्टसमाधिकरणशीले किं गोचरोऽनुरागो भवति इत्यत्राह - भावणादिगोवरः - श्रवणश्रद्धानानुष्ठानविषय इत्यर्थः तथा तेन प्रकारे कस्येत्याहसम्यग्रदृष्टेः जीवस्य प्रक्रान्तत्वात् भावकस्येत्यर्थः, अतोऽसौ भवणे प्रवर्त्तत एव ततश्च शृणोति इति भाबक इति युक्रमिति गाथाभिप्रायः । भ्रा० श्र० । दशा० । श्राचा० 4 सवणे नाएफले प्रव० २ द्वार । कर्णे, श्रोत्रोपलब्धिरूपे निर्वृत्तिरूपे च शब्दग्रहणेन्द्रिये, २०३ अधि० औ० । स्वनामस्याने विष्णुदेवताके (नु० ) त्रितारे नक्षत्रभेदे, स्था० ३ ठा० ४ उ० । ज्यो० | सुत्र० । जं० । स० । सू० प्र० ।
सवन - न० | कर्मसु प्रेरणे, 'पू' प्रेरणे इति वचनात् । सू० प्र० १० पाहु० ।
सवयया-श्रवणता श्रीभूयते मेमेति सामयिक सामान्यार्थावग्रह रूपोऽर्थाषमहरूपो बोध परिणामलभाष* श्रवणता । श्रवणभावे, श्रवणार्थे, भ० ६ ० ३१ ३० । स्था० । श्री० । सवणसंवच्छर-सवनसंवरसर- १० नं कर्मप्रेरण प्रेरणे इति वचनात् । तत्प्रधानः संवत्सरः सवन संवत्सरः । कर्मसंवत्सरापरनामके संवत्सरभेदे, कम्मो ति साँवलो सि य, उउ सि य तस्स नामाणि | सू० प्र० १० पाहुο'
,
95
सवष्य--सवर्ण त्रि० । सदृशे, स्था० १० ठा० ३ उ० । सवती सपत्नी स्त्री० समानः साधारणः पतिरस्याः सां पत्नी स्वपस्युर्द्वितीयभार्यायाम् स्था० ४ ठा० ३ ० सबध- सपथ ५० इदमित्यमेव करिष्यामि इति निश्चितबाक्ये, प्रा० ४ पाद ।
,
-
सवययखिराकप-स्वचननिराकृत त्रि० । आत्मीयवचनैरेव खण्डिते वाक्ये यथा यदह वच्मि तन्मिथ्येति । स्थान १० ठा० ३ उ० ।
,
सबस-स्ववश- त्रि० । स्वतन्त्रे, प्रश्न० १ अाश्र० द्वार । सवसयण - शवशयन- न० । श्मशाने, नि० बूं०' १२ उ० । सबह - शपथ-- पुं० । "पो बः ॥ ८ । १ । २३२ ॥ इति पस्य वः। प्रा० । “नावर्णात्पः ॥८९॥१७६॥ इति पस्थ लुक न भवति । सवहो । प्रा० । वाक्यविशषे, शा० १ ० १ ० । सहसाविय - शपथ था (शा) पित-शि० रुपधानो हिका भविष्यसि यदि विकल्प नाक्यासीत्यादिकान् पा दर्याविशेषान् श्रापिता श्रोत्रेन्द्रियोपसमभिहिताः, शपथैर्या आपिता शपथापिताः शपथथापिता वा रामेषु आकुठेपु. ० १ ० १ ० ।
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सवाय
सवाय- सवाद - पुं० । सह धादेन सवादः । पादसहिते स्
•
() अभिधान राजेन्द्रः ।
प्र० २ ० ७ ० ।
·
9
सद्वाद-पुं० । शोभनभारत्याम्, सूत्र० २ ० ७ ० । सदाच्-श्री शोभनवचने खू० १ ०७०। सवार - सवार - न० । प्रभाते, पृ० १ उ०२ प्रक० । सवित पपत्रं पत्र वा मति इत्थंभूतचचांसि भावयति श्र० सजिवाणुमय स्वविद्यविद्यानुगत पुं० स्पा ग्रामी दिया विद्या परलोकोपकारी केवलघुतरूपा तथा वविद्यया अनुगता युक्ताः न पुनः परविद्यालको पकारिण्येति । लोकोत्तरागमयुक्तेषु, ' सश्रोवसंता अममा किचा, सविज्जणाणा युगया जससिणो । ' दश० ६ श्र० । खविट्ठा-श्रविष्ठा-स्त्री० । घनिष्ठापरपर्याये नक्षत्रभदे, चं० प्र०
१० पाहु० सू० ० ।
सवित्तिय सवृत्तिक - त्रि० । चैत्यप्रतिबद्ध गृह क्षेत्रादिवृत्तिभागिषु वृ० १०२ प्रक० ।
सवियप्प समाहि- सविकल्पसमाधि- पुं० । संप्रज्ञातसमाधी, द्वा० २० द्वा० । ( ' जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२६ पृष्ठे विस्तरो गतः । )
पिया सवितृ पु० आदि ० ० १ ० आदिस्वादेव विभाग इति 'दिला' शब्द २४२३ पृष्ठे दर्शिनम्) हस्तव, हस्तनक्षत्रस्य सविता देवत इस्तोऽपि सविता अनु
1
दो सविया । ( सू० ६० + ) स्था० २ ठा० ३ उ० । सुविचार - सविचार पुं० विचरणं विचारः अर्थाद्व्यने व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यस्मिन् विचरणम् । भ० २५ श० ७ उ० । श्राव० । सह विचारेण वर्ततइति सविचारः । अर्थव्यज्जनयोगसंक्रमे, श्राव० ४ ० । दर्श सविस्तरे ग्राह च चूर्णिकृत् 'सवियारो दि
त्थिनो' बृ० १३०२ प्रक०
सविकार - त्रि० । भ्रूचेष्टादिसहिते, तं० ।
सवियारवयणवज्जण - सविकारवचनवर्जन- न० । सशृङ्गारभणितानां वर्जन, घ० ।
सवियारजंपियाई, नूणमुईरंति रागरंग ॥ ४० ॥ सविकारजस्तानि सामान नूनं निश्चितमु
9
पयन्ति रागाग्नियतस्तानि न वृते इति शेषः । "सुमारास कई परं जला मासे मयणो । समण सावरण वि न सा कहा होइ कहिroar ॥ १ ॥” उपलक्षणं चैतत् द्वेषानलमप्युद्दीपयन्ति केषांविदिनदान मित्रसेनस्येव सविकारजस्ता न भाषणीयानि । ध० र० २ अधि० २ लक्ष० । ( मित्रसेनकथा 'मित्तसे ' शब्दे षष्ठभागे गता । ) सवियारसमाहि- सविचारममाथि पुं० [सावच्छेदवालम्बने समाधौ ० । ( स प 'जन' शब्दे चतुर्थभागे १६२६ पृष्ठे ) विवारि () सरिचारिन्
सविचारे
इति
सव सविचारि। सर्वधनादिस्वादिन् समासान्तः । अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ते, स्था० ४ ठा० १ उ० । ग० । सविसाय-सविषाण-त्रि
समृनिधीभिः सविषा आसने नोपवेष्टव्यम् । तत्र सविधाएं नाम, यथा कपाटस्योभयतः शृङ्गे भवतः यत्र मिसिकादौ पीठफलके या विषाणं शृङ्गं भवति । ०५३० ।
सविसेस - सविशेष- त्रि० । सह विशेषेण वर्तते इति सविशेबम् । सोत्तरगुणे, उत्त० ७ ० । नि० चू० । सविसेतर - सविशेषतर- त्रि० सविदोड समिहोदधि०
। बृहत्तरे, नि० चू० १ उ० । जुगुप्सनीय कृ
"
प्रक० ।
·
सीरिय-सवीर्य- त्रि० सू० १०८० सर्वेटय - सवृन्तक-- त्रि० । नालयुक्ते, बृ० ५ उ० । सवेयग- सवेदक- पुं० । ज्यादिवेदयुक्ते भ० १७ श० २७० । स्त्रीवेदानुदययति, स्था० २ ठा० ३३० । संसारिणि, स्था०२
ठा० ४ ३० ।
सव्त्र - शर्व - पुं० । शिवे रुद्रे, वाच० ।
सर्व
सर्वम्, विशे० " सर्वत्र लबरामचन्द्रे ॥ रोपे द्विस्वम् । प्रा० । अशेषे सूत्र० उत्त० । अपरिशेषे, नि० चू० मस्ते, पा० । पञ्चा० । दश० । दर्श० । सकले "", श्र० चू० स्था० १० ठा० ३ उ० ।
सुनी त्रियतेऽसी पितेनेनेति वा स
"
चतारि सव्वा पष्णता, तं जहा - खामसव्त्रए ठवणसव्वए आएससव्वए शिरवसेससव्वए । स्था० ४ठा० १३० । ( व्याख्या सर' शब्दे ) सर्वत्र ककारः स्वार्थिको द्रष्टव्यः । विशे० ।
२ । ७६ ॥ इति । १० ११ अ० । उ० । श्राचा० । स० । प्रश्न० । श्रा० म० । १ ० । विश्वशब्दार्थे
अथ सर्वशब्दं व्याचिख्यासुराह
किं
पुख
"
तं सामइयं सव्वसावजजोगविरइति । सिय एस तेसो तं सच्चे कविदं सव्वं १।२४८४ कि पुनस्तद् यथोक्तशब्दार्थ सामायिकम् इत्याह-ससावधपणेगविरनिरिति । स इति कः शब्दार्थ उच्च धातोः इति सि नेनाने सादिके वप्रत्यये सर्वः पदार्थों वस्तुनि तु वाच्ये तत् सर्वं पत्विति भयति कतिविधं पुनरिदं सर्व भयति । इति गाथार्थः ।
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अथतिषिधं सर्वमत प्रोनरमाहनामं ठवणा दविए, एसे चैव निरवसेसं च ।
"
तह सम्पता स च भाव व सत्तम । ३४८५ | नामवर्धम् स्थापनासम्म देशसम् निरवशेष सर्वम् तथा सर्वधत्ता सर्वम् भाव सर्वे सप्तमकम् इति नियुकिगाथार्थः ।
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च
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सव्व
तत्र नामस्थापना सर्व सुगमम्, द्रव्य सर्व तु नव्यशरीरज्यतिरिहं व्यापारादकसिणं दव्वं सव्वं, तद्देसो वा विवक्खयाऽभिमओ । दब्वे तदेसम्म य, सव्वा सव्वे चउब्भंगा || ३४८६ ॥ सासद सम्म व नायमंगुली दव्वं । संपुरणं देसोगं प पव्वेगसोय ।। ३४८७ ॥ इहाल्यादिव्यं यदा कृत्स्नं सर्वैरपि निजावयवैः परिपूर्ण विषयते तदा सर्वमुच्यते । एवं तस्यास्यादिद्रव्यस्य पर्यादिको देखो निजावयवपरिपूर्णविवक्षया सर्वोऽभिमतः । पादपदार्थे व्याख्यातः । ए देव यादव्यं तद्देशो वा यदाऽपरिपूर्णतया विवक्ष्यते तदा प्रत्येकमसर्वस्वं द्रष्टव्यम् । ततश्च द्रव्ये संदेशे च सर्वासत्वेपि चतुर्भङ्गोपच भवति तद्यथा- द्रव्यसर्वे देशोऽपि सर्वः द्रव्य सर्व देशोsसर्व देशः सर्वो द्रव्यमसर्वम् देशोऽसर्वो द्रव्यमप्यस्सर्वमिति । अत्र द्रव्यस्य सर्वत्वेऽसर्ववेदेशस्यापि सर्वत्वेऽसर्वत्वे च यथाक्रमं ज्ञातमुदाहरणम्, तद्यथा श्रङ्गुलिद्रव्ये संपूर्ण विवक्षितं द्रव्य सर्वमुच्यते संदेशन विवक्षितं समय पर्व पुनः संपूर्ण विपक्षित देशविवचितम् देशशासर्वमिति । उक्रं द्रव्यसर्वम् । (विशे० | ) ( आदेशकव्यता' आएससञ्चय' शब्दे द्वितीयमागे ४७ पृष्ठे उक्का । ) निरवशेषसर्वमाह-
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दुविहं तु निरवसेसं, सव्वाससं तदेकदेसो य । सव्वासे सधे, यणिमिसनयणा जहा देवा ||३४८६|| तद्देमा परिसेसं सव्वे असुरा जहा श्रसियनमा ॥ जह जोइसाला वा सब्बे फिर तेउलेस्सामा | २४६० | निरवशेष पुनर्द्विविधम्-विस्त देशनिरवशेष तत्र सर्वविशेष यथा सर्वेऽनिमिष नयना देवाः । इहानिभिपनयनत्वमपरिशेषेखपि देवेषु वर्त्तत' सनिमिषत्वस्य तेष्वभावादिति । तद्देशापरिशेषं तु यथा सर्वेऽप्यासितवर्णाः कृष्णा श्रसुराः, यथा वा ज्योतिष्कालया देवाः सर्वे फिला तेजोलेश्याकाः । इहासुरा ज्योतिकालवा देवाः समानप्रत्येकमेकंद तेषु सर्वेषु भावतेजोलेश्या वर्तत इति देशापरिशेषं मन्तव्यमिति ।
अथ सर्वतसर्वमाह
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(२५) अभिधानराजेन्द्रः ।
जीवाजीवा स तं घने ते सव्वधन चि सच्चे विधा मध्यं जमी परं गानं ॥ ३४६१ ।। इह सर्वमपि लोके दस्ति सर्व जीवथाऽजी वाश्च तत् सर्वधन्त धारयति येन करणेन तेन सा वियक्षा नियोजनात सहजप चक्षा सर्वधन्ता सर्वमुच्यते । यस्माद्यतो जीवाजीवराशियात् परं नान्यत् किञ्चिदस्तीति । यादनुपसर्वस्यादेशसर्वस्य निरवशेष सर्वस्यसर्वपणा सर्वस्य का प्रतिविशेषः इत्याहअमेगं दव्याधारं ति मिश्रमन्नेहिं ।
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सवओभर
एगाणे गाधारो - वयारमेण चादसं ।। ३४६२ ॥ भिम जमि-गजाइविस ति सव्वधताओ
मिश्रा व सधना सव्वाधारो सिम्बेति । २४६३३ अथर्वादीनां इति -
साधारमुमित्यपेयांन
च
पत्वात्। आदेश बेकामेव्याधारमिति कृत्या तधोपचारदेव लिमयेव्यः स वर्तत इति । भिन्नमन्येभ्यः' अशेषसर्वमपि सर्वच सर्वात् पूर्वोक्राभ्यां च मित्रम् यस्मादेकजातिविषयं तदिति । सर्वताऽपि सर्वेभ्यः पूर्वेभ्यो भिक्षा सर्वस्वाधारस्यादिति ।
अथ भावसर्वमाह-
कम्मोदयस्सहावो, सच्चो अहो सुहो य ओदइयो । मोहोपसमसहावो, सच्ची उपसामि भाग | ३४६४| कम्पनखयस्सहावो, खइओ सन्चो य मीसओ मीसो । श्रसम्यदम्वपरिहरूजी परिणाम गथ्यो ३४६५ सर्वमध्यात् केनापि हत्याद मिसेससव्वं, विसेस सेस जहाजोगं । गरहियमवजमुनं पाचं सह तेरा सावखं ॥ ३४६६ ॥ इस योगं प्रत्याख्यामि इति संधारि विशेषोऽधिकृततु
थायोगं यड् यत्र युज्यते तत् तत्र योजनीयमिति । तदवं' करणे भए य अंत सामाइयसव्वए' इत्यादि । विशे० । श्राचा० ॥ श्र० स० आ० चू० नं० | स्थान ! सव्वयंजरागमय - सर्वाञ्जनकमय-त्रि० । अञ्जनकः कृष्णरत्नविशेषलम्माः सर्व एवानन्ययायेन सर्वानाः सर्वाञ्जनमयाः । परमकृष्णेषु स्था०४ ठा० २३० ॥ सम्ब०िसी० सुब्वत्र सर्वतस् - अव्य० । सर्वैः प्रकारैरित्यर्थे, स्था० ३
ठा० ४ उ० । श्राचा० । सूत्र० । जी० | दशा० कल्प० । रा० विपा० सत्य सर्वतः सर्वासु दिनु समन्तात् समासविशुपर्वकैः उस दि
गंगा इति सव्यापसवा सु
इति श्रत्र तृतीयार्थे सप्तमी । नं० । सगुन सर्वतो
- ।
रूपयाः गुप्तागुप्ते, आचा० १ ० ५ ० ५ उ० सब्द ओभद्द- सर्वतोभद्र न० सर्वायस्थ, "बहस सबश्री इह परलोए भद्दे वो सवओो भद्दो" पं० ० १ कल्प । दशमदेवकल्पेन्द्रस्याच्युतस्य पारियोनिक विमाने, स्वा० १० ठा० ३ उ० | प्रब० । जं० । औ० । महाशुकदेवलोके स्वनामख्याते ( स० १३ सम० । ) यक्षभेदे, पुं० । प्रज्ञा० १ पदविदस्य स्वनामके सूत्रे स० । सर्वतो भद्राणि मुखानि यस्य चतुर ह० प्र तिष्ठादी पूज्यदेवतानां मर ज्योतिष मान
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.
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त्रिसर्वकार
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मच्चोमद अभिधानराजेन्द्र:।।
सव्वकामगुणिय ज्ञानार्थे चक्रभेद, अलङ्कारोनयन्धभेदात्मके चित्रकाव्ये च । सव्वंग-सर्वाज-न । सर्वशरीरे, 'सव्वंगो दाहो' सर्वाङ्गः, सर्वतोभद्रमस्य । निम्बवृक्ष, पुं० । नाम्नायाँ तटयापिति | साता
सर्वशरीरव्यापी दाहः । तं । स्त्री०। शुभाशुभज्ञानार्थे चक्रभेदे, न० । प्रा० म०१ अ० वरासंदर-सर्चडमन्दर-न। निखिलावयवप्रधान, स०। स्वनामख्याते भारतवर्षीये पुरे यत्र बृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणकुमार श्रासीत् । विपा० १ श्रु०५ उ०।
सर्वाङ्गानि सुन्दराणि यतस्तयोर्विशेषात्सर्वाङ्गसुन्दरः ।
चित्रतपोविशेषे, पुं० । पञ्चा०। सब्बो (तो)भद्दपडिमा-सर्वतोभद्रप्रतिमा-स्त्री०। दशसु दिनु
___ अथ सर्वाङ्गसुन्दरादितपोविशेषान् विवृण्वन्नाहप्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गे अहोरात्रदशकप्रमाणे, प्रतिमाभेद,
अट्ठावासा एगं-तरेण विहिपारणं च आयाम । स्था०२ ठा०३ उ०। औ० (सा च 'महासबोभद्दपडिमा' शब्दे षष्ठे भागे उपपादिता ।) .
सव्वंगसुन्दरो सो, होइ तवो सुक्तपक्खम्मि ॥ ३०॥
खमयादभिग्गहो इह, सम्मं पूया य वीयरागाणं । पडिमाए सव्यभद्दाए, पणछसत्तहनवदसेक्कारा । तह अड नव दस एक्का-रस पण छ सत्त य तहेक्कारा १५५१
दाणं च जहासत्तिं, जइदीणाईण विमेयं ।। ३१ ।।
अष्टावुपवासाः प्रसिद्धाः कथमेकन पारणकदिनेनानन्तरं पण छ सत्तग अडनव, दस तहग सत्तट्ट नव दसेक्कारा।।
व्यवधानमेकान्तरं तेनैकान्तरण। विधिपारणं च प्रत्याख्यान पण छ तह दस एकार-पण छ सत्त दु नव व य तहा १५५२ स्पर्शनादिविधानयुक्त भोजनं च पायाममाचामाम्लमागमसि. छग सत्तड नव दसगं, एक्कारस पंच तह नवग दसगं। द्धं यत्र तपोविशेष सर्वाङ्गसुन्दरोऽसौ भवति । 'तवो' त्ति-त. एकारस पण छकं, सत्त टु य इह तवे हुँति ।। १५५३॥ ।
पोविशेषः शुक्लपक्ष प्रतीते इति । तथा क्षास्यतीति क्षमस्तडा. तिन्नि सया वाणउया, इत्थुववासाण होति संखाए।
वः क्षमता क्षान्तिस्तदादी क्षान्तिमार्दवार्जवादावभिग्रहो नि
यमः क्षमताद्यभिग्रहः इह तपसि विधेयो भवति । तथा सपारणया गुणवत्रा, भद्दाइतवा इमे भणिया॥१५५४ ॥
म्यग्भावतः पूजा चाभ्यर्चनं वीतरागाणां, दानं च यथाशक्ति प्रतिमायां सर्वभद्रायाः सर्वतोभद्रतपलीत्यर्थः, पञ्च पद सप्त
यतिदीनादीनां विशेयमिति व्यक्तमिति गाथाद्वयार्थः । श्री नववश एकादश उपवासा इति प्रथमलता , अष्टी नय पञ्चा० १६ विव०। दश एकादश पञ्च पट् मरति द्वितीया, एकादश पश्च पद स- | सव्वंगसुंदरी-सर्वाङ्गसुन्दरी--स्त्री० । सर्वेष्वङ्गेषु सुन्दरीति । साभव दशति तृतीया, सप्त अशी नव दश एकादश | गजपुरे शश्राद्धस्य सुतायाम् , प्रा० म०१ अ० श्रा० चू०॥ पञ्च पडिति चतुर्थी ,दशएकादश पञ्च षट् सप्त अष्टी न- । ('साया' शब्द पष्टे भागे एतवक्तव्यतोक्ला।) वति पञ्चमी , पद सभ अप्पी नव दश एकादश पश्चात सवगिय-मडीया-त्रि०। सर्वाङ्गाणि व्याप्नोति । सर्वावषष्ठी , नव दश एकादश पञ्च पद सत अष्टाविति
| यवव्यापक , 'तत्थ य सव्वंगिनो पुरिसो दीसर' । श्रा० मतभी। स्थापना चयम्-----
म०१०। अत्र-" सर्वाङ्गादीनस्येकः "॥८।२। १५१ ।। अत्र च सर्वसंख्यया त्रीणि सर्वाङ्गात् सर्वादः पथ्यङ्गत्यादिना विहितस्येनस्य स्थाने शतानि द्विनवत्युत्तराणि उ
इक इत्यादेशः । सर्वाङ्गीणम् । सर्वगात्रे, प्रा०२ पाद ।
सबब्भंतरय-सर्वाभ्यन्तरक-पुं० । सर्वात्मना-सामस्त्येना. ञ्चाशच पारणकानामुभयमी
भ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः । स एव सर्वाभ्यन्तरकः प्राकृतलनलने चत्वारि शतान्येकचत्वा- णात् स्वार्थ कप्रत्ययः । सर्वात्मनाभ्यन्तरे, "एस णं जंबूरिंशदधिकानि दिनानां भव- दीवे सव्वदीवसमुहाग सब्वम्भंतरए ।" जी०३ प्रति०४ न्तीति तदेवमेतानि भद्रादी- अधिक। नि भगमहाभद्रभद्रोत्तरसर्व- सचकणगामय-सर्वकनकमय-त्रि० । सर्वात्मना कनकमये . तोभद्ररूपाणि चत्वारि तपां- जी०३ प्रति०४ अधि । सि भणितानि । ग्रन्थान्तरे पुन-सब्यकम्म-सर्वकर्मन--पुं०। पक्षस्य सप्तमतिथिदिवसे, जे. रमून्यन्यथाऽपि दृश्यन्ते , एते ष्वपि चतुर्यु तपस्सु प्राग्व
१ वक्ष। स्पारणकभेदतः प्रत्येकं चा- सबकम्मक्खयउवसम-सर्वकर्मक्षयोपशम-पुं० । निखिलक्षा
नावर झादिघातिकर्मणां विगमविशषे , पश्चा०२ विव०। तुर्विध्यं द्रष्टव्यं दिनसर्वसंख्या च यथायथमानेतव्येति ।
सव्वकम्मावह-सर्वकर्मावह-पुं० । सर्वपापोपादानभूते प्रव० २७१ द्वार।
प्राचा० १७०६ अ०१०। सव्वोसहाययण-सर्वोषधायतन-न। देहे, रोगादावस्मिन् |
सब्यकाम-सर्वकाम--त्रि०। सर्वाभिलाषे, प्रा० चू० १०॥ सर्वोषधप्रक्षपात् । तं०।
सव्वकामगुणिय-सर्वकामगणित--त्रि० । सर्वे कामगुणा:सव्वंकम-सर्वङ्कप-त्रि । सर्वङ्कपति कप-खच् । पापे ,
कमनीयपर्यायाः विकृत्यादया विद्यन्ते यत्र तत्तथा । रूपरसश्राव०१०।
गन्धस्पर्शलक्षणाः सन्तः संजाता वा यत्र तत्सर्वकामगु
सान
पन
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सब्वकामगुणिय
(e) अभिधान राजेन्द्रः ।
तिम् । डा० १ श्रु० ८ ० । सर्वे कामगुणा - श्रभिला- | सव्वकाल- सर्वकाल पुं० । अतीतानागतवर्त्तमानकालेषु, विषयभूता रसादयः संजाता यत्र तत्सर्वकामगुखितम् । भ० १५ २० । आ० म० अ० क० । सर्वाभिलषणीपरसादिसम्पन्ने, जदा सम्यकामगुणियं पुरखो मोर यरसादिसम्पन्ने, ‘जद्दा सव्वकामगुणियं पुरिसो मोतूं भोयं को इ" औ० । सव्वकामविरचया सर्वकामविरक्कता खी० सर्वाभिलाषनिवर्त्तने ० ० १ ० समतविषयवैमुपे, स० ३२
सम० । आव० ।
सर्वकामचिरतामाद
उणी देवलासु, अणुरत्तालोअणा य पउमरहो । संगमो मधुमया, असिष्यमिरिष्काला १३०६। मृदुविमीपुर्वी भूपतिर्देवलासुतः । तस्याग्रमहिषी राक्षे, नाम्नाऽनुरक्तलोचना ॥ १ ॥ केशान विन्यस्तयन्ती सा राज्ञः पलितमन्यदा । fier साssपमाचख्यौ स्वामिन्! दूतः समागतः ॥ २ ॥ राजा ससंभ्रमः स्माह, कासौ पश्याम्यहं न किम् ? | सायद पहिताच्यो निरीक्ष्यताम् ॥ ३ ॥ तं निरीक्ष्याधृर्ति चक्रे, राजा ऽस्मत्पूर्वजाः पुरा । दृष्टपलिताः प्रापु-दक्षां धिग्मां प्रमद्वरम् ॥ ४ ॥ राज्यस्याभूतापसः खयम् । देवी संगतको दासः, प्रेष्यानुमातका तथा ॥ ५ ॥ सर्वासितगिरिं प्रययुस्तापसाश्रमम् ।
दासो दासी च कालेन तावुत्प्रव्रज्य जग्मतुः ॥ ६ ॥ गर्भः प्रपि मायातो देव्या वृद्धि गतोऽथ सः । अपशोभा राम्रा, प्रच्तु धारिताऽथ सा ॥ ७ ॥ प्रसुबाना मृता देवी, जाता तु दुद्दिताऽद्भुता । पिबन्ती स्तन्यमन्यासां तापसीनामवर्द्धत ॥ ८ ॥ सोला नाम्नाऽकाशा, कमायीयनमासदत् विश्राम्यति स्म पितरं साऽटवीतः सदागतम् ॥ ६ ॥ ययनेऽस्याः सरोऽथ विषमा विषयाः चतु । याम्येद्युरा, स्थालोजदाद १० ॥ पतितोऽचिन्तयत्पाप मत्रैव फलितं हहा । मामुष्मिकं ज्ञायते स्म प्रबुद्धो जातिमस्मरत् ॥ ११ ॥ सर्वकामविरक्शाख्यं, बभाषे ऽध्ययनं तथा । दत्ता सुताऽपि साधनां स सिद्धः साऽपि नियंता ॥१२॥ एवं सर्वविरक्लैर्योगाः संगृह्यन्ते । श्रा० क० ४ श्र० । प्रश्न० । कामविरय- सर्वकाम विरत त्रि० । समस्तशब्दादिविषये भ्यो निवृत्ते, श्र० ।
कामसमिद्ध-सर्वकामसमृद्ध त्रि० । पक्षस्य पञ्चदशानां दिवसान पट्टे दिवसे, जं० ७ यश० रुचकपर्वतदेव बं०
प्र० १० पाहु० । द्वी० ।
सव्वकामसमप्रिय - सर्वकामसमर्पित पुं० । सर्वे कामा भिलाषा अर्पिताः सम्पन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितः । इ
अ० ३३० ।
रा० । प्रश्न० ।
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सम्वका लिया सार्वकालिकाखी० सर्वकालेषु या सार्व कालिका । ध० ३ अधि० । अतीतादिना कालेन निर्वृत्ता
याम्, आव० ३ श्र० ।
सम्यकिरिया सर्वक्रिया स्त्री० धर्मलोकाधिते समस्तप्यापारे. "वित्तियोच्छेयम्म स गिहिणो सीयंति सव्वकिरियाओ ।" पञ्चा० ४ विव० ।
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सब्दकसुद्धि-साक्यशुद्धि श्री० । शोभनायामात्मीयायादो दश प्र० ।" सम्यकमुद्धि समुपेडिया वाक्यशुद्ध, मुणी, गिरं तु दुई परिवजय सया । " दश० ७ श्र० । सक्खरसवा) सर्वाक्षरसनिपातिन् पुं० । सबै च ते अक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः सर्वेषां वाऽक्षरा सन्निपाताः सर्वाक्षरसन्निपाताः । ते अनन्ताः अभिलापानन्तस्वात् यस्य ज्ञेयतया सन्ति सं सर्वाक्षरसन्निपाती । सर्वाक्षरसंयोगविदि भ० १ ० १ उ० ।
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श्रव्याचरस निवादिन् पुं० भ्रव्याणि श्रवणसुखकारीवि अक्षराणि साहस्वेन नितरां वदितुं शीलमस्येति अभ्यासर सनिवादी । भ० १ ० १ उ० । स्था० । अक्षरादिसंयोगा विद्यन्ते येषां ते तथा स्वार्थिक इन्प्रत्ययोपादानात् । विदितसकलवाङ्मये, स्था० ८ ठा० ३ उ० । सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशले, जं० १ ० रा० प्र० । सव्वक्खरसविाइया सर्वाच रसभिपातिका श्री० सर्वात रासन्निपातोऽवतारी यस्थामस्ति, सर्वे चाऽक्षरसनिपाताः संयोगाः सन्ति यस्यां सा सर्वाक्षरसन्निपातिका । सकलवाङ्मयश्रीजिनवाण्याम्, उपा० २ ० । ० । सखुड्डा - सर्वक्षुद्रक - त्रि० । सर्वेभ्यः क्षुद्रकः सर्वक्षुद्रकः । दीर्घत्वं प्राकृतस्यात् । सर्वसधी" अयं च यं जंबूदीये सम्ब खुड्डाए " । श्र० । जी० ।
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सबरध
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सब्बग सर्व-त्र० सर्व गच्छति जानातीति सर्वगः सर्प, सर्वे गत्यर्था ज्ञानाय इति वचनात् । स्पा० । सव्वगुणपसाहण- सर्वगुणप्रसाधन - न० । सकलगुणावद्दे तपोविशेष पश्चा० १० (तब शब्दे चतुर्थभागे २००३ पृष्ठे गता वक्तव्यता । )
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सव्वगुणसंपलया - सर्वगुणसम्पन्नता त्रि० | ज्ञानादिगुणहितत्वे, उस० २६ श्र० । सम्यगुणसमिद्ध सर्वगुणसमृद्ध श्री० श्री पपरामादिभिः क वैगुणैः स्फीते, रा० ।
सब्बगा सर्पगात्री० [ उत्तररुचकवरपर्यतस्य
सम
वास्तव्यायां दिक्कुमार्याम् स्था० ८ ठा० ३ उ० । सव्वगोतावगय - सर्वगोत्रापगत - त्रि० सर्वस्मादुच्चै गौत्रादेरपगते, सूत्र० १ श्रु० ९३ अ० ।
तोप स हि याम्या कामान् कामसम्मम्म सर्वा० सर्वसंक्ायाम् पो०१ पाहु० श्राचा०, सर्वे पिस्तीति यावत् सूत्र ०१
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सवग्य सर्वत्र न० । सर्वधातिनि तथ, केवलज्ञानावर केवलदर्शनावरणं च । पं० [सं० ३ द्वार ।
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सम्बधाई
सध्या सर्वपातिन् त्र सर्वपात्वं केवलान गुणं सर्वया घातयन्तीत्येवं शीलानि सर्वघातीनि सिन् । ज्ञानदर्शनावरणीय रसस्पर्टकेषु पं० सं०५ द्वार स० । सव्वाइणी - सर्वघातिनी स्त्री० । सर्वस्वविषयघातिनीषु कप्रकृतिषु कर्म०५ कर्म० ( पता 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६५ पृष्ठे पञ्चमभिहिताः । ) साइरस सर्वर सघाति--त्रि०: स्वविषयं ज्ञानादिकं सकल मपि पातयति स्पकार्याने प्रत्यसमध्ये करोति इति स रसघाति । ज्ञानादिगुणनाशके, पं० सं० ३ द्वार । सब्वजंबू राय मय- सर्वजाम्बूनदमय त्रि० सर्वात्मना जाम्बू नदमय, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । सव्यजगच्छल सर्वजगदवरसल श्रि० । पृथिव्यास
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भूतानां रक्षणादना वात्सल्यकर्त्तरि प्रश्न०५ संघ० द्वार - सब्वजगहिय सर्वजगद्धित पुं० [सर्वान् जगति जीवा स्तेभ्यो हितं पथ्यम् तद्वक्षणतस्तदुपदेशदानतो वा । सूत्र० १ श्रु० ११ अ० । उपदेशनात् सर्वप्राणिलोकस्य हितकारिणि, बो० १४ विव० ।
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सब्वजगुओय सर्वजगदुद्द्योतक पुं० स तं जगत्लोकालोकान्मकगुद्योतयति प्रकाशयति केवल शानदर्शना मिति सजगदुद्द्योतकः जिने ० सम्यगुजोषमस्स (३)
'सर्वजगद्द्द्द्द्योतकस्य " सर्व- समस्तं जगत्-लोकालोकामकमुद्योतयति- प्रकाशयति केवलज्ञानदर्शनाभ्यामिति सर्वजगदुद्योतकः, तस्य 'भद्रायुष्यक्षेमसुखद्दितार्थहितैराशिषी' ति विकल्पेन चतुर्थीविधानात् पष्ठपि भवति, यथा आयुष्यं देवताय आयुष्यं देवदनस्य अनेन ज्ञाप्रतिमाह । नतु विशेषणं तदुपादीयते यत्सम्पति ' सम्भवे व्यभिचार च विशेषण' मिति वचनात् न च सजगदुद्योतकत्वं सम्भवति प्रमाणेनाग्रहणात्। तथाहिसर्वजगदुद्योतकत्वं भगवतः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते ?, उतानुमानेन, आहोबिदागमेन उताहो उपमानेन अथवा अ थापत्त्या ? तत्र न तावत्प्रत्यक्षेण - भगवतश्चिरातीतत्वात् । अपि च-- परविज्ञानं सदैव प्रत्यक्षाविषयः श्रतीन्द्रियत्वास्वात्येऽपि न प्रत्यहनुमान लिङ्गलिङ्गसम्बन्धग्रहणपुरस्सरमेव प्रवर्त्तते । लिङ्गलिसिम्बन्धग्रहणं च किं प्रत्यक्षेण उतानुमानेन ?, तद्धि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहगापुरस्सरमेव प्रवर्त्तते, लिङ्गलिङ्गिसंब
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"
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ग्रह किं प्रत्यक्षानुमानेन वा ? तत्र न प्रत्यक्षेण, सर्पवेदम्यात्यन्तपरोक्षनया प्रत्यक्षेण तमिगृह न सहयायिनाभावनिश्रयायोगात् । न चानितिविना भाई लिङ्ग लिङ्गिनो गमकम् अतिप्रसङ्गात् यतः कृविस्य तस्य या प्रतिपलिस नाप्यनुमानेन सिद्धलिङ्गि सम्बन्धग्रहणम्, अनवस्थाप्रसङ्गात् । तथाहि -तद्भ्यनुमानं लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणतो भवेत्, ततस्तत्रापि लिलिङ्गि सम्बन्धग्रहणमनुमानान्तरात् संयम्य मेव वात्यनवस्था । नाप्यागमतः सर्ववेदनविनिश्चयः, स કર્
( ५६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सब्वजगुजोग हि पौरुषेयो वा स्यादपौरूषेयोपा पौरुषेयोऽपि स कृतो रथ्यापुरुषकृती या तत्र न तावत् सर्वकृतः सासकृतत्वस्यैषाविनिपात् अपिएवमभ्युपगमे खतीतरेतराप्रसङ्गः तथाहि -सर्वइसी रामसिद्धिः, तत्कृतागमसिद्धी च सर्वशासि
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। अथ रयापुरुषप्रति इति पचस्तर्हि न स प्रमाणमुन्मन्तकप्रणीतशास्त्रवत् अप्रमाणाच तरमा सुनिधित सर्वसिद्धिः, अप्रमाणात्प्रमेयासिद्धेः श्रन्यथा प्रमाणपर्येविशीर्येत । श्रथापौरुषेय इति पक्षस्तर्हि ॠषभः सशो वर्डमानस्वामी सर्पत्यादिवाप्रामोति मानावेऽपि तथासम्यंकल्पस्थायी आ गमः, ऋषभादयस्त्वधुनातन कल्पवर्तिनः ' तत ऋषभाद्यभावेऽपि पूर्वमप्यस्यागमस्यैवमेव भावात्कथमेतेषामृषभादीनामधिल परमार्थसत् तस्मादर्थवाद एषः, न सर्वज्ञप्रतिपादनमिति । अपि च- यद्यौरुषेयागमाभ्युपगमस्तर्हि किमिदानीं सर्वज्ञन ? आगमादेव धर्माधर्मादिव्यवस्थासिद्धेः, तस्मात् नागमगभ्यः सर्ववेदी, नाप्युपमानगम्यः, तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् । तथाहि - प्रत्यक्षप्रसिद्धगोपिण्डस्य यथा गौः तथा गवय इत्यागमाद्दितसंस्कारस्यायां परं प्रतिपतिरुपमानं प्रमाणं यते न चैकोऽपि सर्वशः प्रत्यक्षसिद्धो येन तत्सादश्याम्यंनान्यस्य विषतिपुरुषस्योपमानमागतः सर्वश इति प्रतीतिर्भवेत्। नाप्यथोपचिगम्यः सा हि प्रत्यक्षादिगवरीकृतार्थाग्यथानुपप
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न च कोऽप्यर्थः सर्वज्ञमन्तरेण नोपपद्यते, तत्कथमर्थापतिगम्यः ?, तदेवं प्रमाणपञ्चकावृत्तेरभावप्रमाणमेव सर्वझं फोडीकरोति । उक्लं - -: प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते ! वस्त्वसत्तावबोधार्थ, तत्राभावप्रमाणता ॥ १ ॥ अपि च- सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणेन ?, कि प्रत्यक्षेख उत यथासम्भवं सर्वेरेव प्रमा तत्र न तायप्रत्ययो देशकालविप्रेषु सूक्ष्मेष्वर्येषु च तस्याप्रवृत्तेः, इन्द्रियाणामगोचरत्वात् । यदि पुनस्तत्रापीन्द्रियं व्याप्रियेत तर्हि सर्वः सर्वज्ञो भवेत्, अथन्द्रियप्रत्यक्षादन्यदतीन्द्रियं प्रत्यक्षं तस्यास्ति तेन सर्व्वं जानातीति मन्येथाः, तदप्ययुक्तम्, तस्यास्तित्वे प्रमाणाभावात् । न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयसिद्धिः सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रस क्रेः अथवा अस्तु तदपि तथापि सर्वमेतावदेव जगति वस्तु इति न निश्वयः न स्वयमप्यधिज्ञानं सर्ववस्तुविषयं सिद्धम्, तदपरिच्छिन्नानामपि धर्माधर्मास्तिकायानां सम्मवाद एवं केवलज्ञानापरिमिकि मपि वस्तु भविष्यतीत्याशङ्काऽनतिन सर्वविषयकप लज्ञानं वक्तुं शक्यम् । तथा च कुतः सर्वशस्यापि स्वयमात्मनः सर्वज्ञत्वविनिश्चयः ? अथ यथायथं सर्वैरेव प्रमाखैः सर्व वस्तु जानातीति पक्षः नन्वेवं सति य एवागमे कृतपरिश्रमः स एव सर्वशत्वं प्राप्नोति श्रागमस्य प्रायः सर्वार्थविषयत्वात् तथा च का प्रतिविशेषो वर्तमानाम्यादौ ? येन स एव प्रमागमिष्यते न जैमिनिरिति । अयथयथास्थिती सर्वप्यते ततोशुरुयादिरसानामपि यथावस्थितया संवेद्यादिर
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सम्वजगुज्जोयग अभिधानराजेन्द्रः।
मध्वजगुज्जोयग सास्वादप्रसङ्गः, पाच-"अशुच्यादिरसास्वादमलङ्गवानि वादनिश्चयतोऽपि ज्ञातुं शक्यते । ननु सब्बशोऽप्यन्येन सधारितः" किंच-कालतोऽनाद्यनन्तः संसारः, जगनिन वंशन यथावत् ज्ञातुं शक्यत एवति समानम् । अथ तसर्वदा विद्यमानान्यपि वस्तृन्यनन्तानि, ततः संसारं वस्तू- । दानीमन्यन सर्वशेन निश्चयतो विज्ञायताम् इदानीं तु सनि च क्रमेण विदन् कथमनन्तेनापि कालेन सर्ववेदी कथं झायने?, उच्यत-इदानीं तु सम्प्रदायादव्याहतप्रवचभविष्यति ?,उक्तं च-'कमेग घेदन कथ' मिति, अत्र प्र- नार्थप्रकाशनाच । यदयवादीत्-ऋषभः सर्वशो बर्द्धमानतिविधीयते-तत्र यत्तावदुक्तम्-'सर्वजगदुद्योतकत्वं भगव
स्वामी सर्यक्ष इत्यादिपर्थवादः प्राप्रतीत्यादि तदप्यसारम् , तः केन प्रमाणेन प्रतीयते ?' इत्यादि, तत्रागमप्रमाणादिति त्रू- श्राममो हायं कल्पः-यो यः सर्वशः उत्पद्यमः । स चागमः कथश्चिन्नित्यः प्रवाहतोऽनादित्वात् , तथा
ते तेन तेन तत्तत्कल्पवर्तिनां तीर्थंकृतां सर्वेषामन्यहियामेव द्वादशाही कल्पलताकल्पां भगवान् ऋषभस्वामी
वश्यं चरितानि वक्तव्यानि, ततो, न ऋषभाद्यभिधानमपूर्वभवेऽधीतवान् , अधीत्य च पूर्वभये हवे च यथा
र्थवादः। यदध्यनिहितम्-'नाप्युपमानप्रमागम्य ' इत्यादि, वरपर्युपास्य फलभूनं केवल चानमवाप्तवान् , तामेवोत्पत्र- तदप्ययुक्तम् , एक सर्वशं यदा व्यवहारतो यथावद्विनिश्चिकेवलशानः सन् शिष्येभ्य उपदिशति, एवं सर्वतीर्थकरे
त्यान्यमपि सर्वज्ञ व्यवहारतः परिक्षाय एपोऽपि सर्वज्ञ इति ध्वपि द्रष्टव्यम् ततोऽसावागमोथरूपापेक्षया नित्यः । तथा व्यवहरनि तदा कर्थ नोपमानप्रमाणविषयः ?, अर्थापत्तिव वक्ष्यत्ति--"एसा दुवालसगीन कयादि नासी न है
गम्योऽपि भगवान् , अन्यथाऽऽगमार्थस्य परिज्ञानासम्भयाविन सवा कयाविन भविस्माइ, बुवा नीया सा- वात् , न खल्वतीन्द्रियार्थदर्शनमन्तरेणागमस्थार्थोऽतीन्द्रियः सया कस्खया श्रन्धया अवानाहा खचापा निया"इ-!
पुरुषमात्रेण यथावदवगन्तुं शक्यते , ता भागमार्थधरिति, अस्मिवादमे यथा संसारी संसार पर्यटति यथा
झानास्यथाऽनुपपत्त्या सर्वशोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः । पतेन कर्मणाभिसागमः । यथा च तपासयमादिना क
यदुवंशा-'किमिदानी सर्वजन ?, भागमादेव धर्मामणामपगमे केवलाभिव्यक्तिः तथा सर्व प्रतिपाद्यते , इति । धर्माययस्थासिद्ध' रिति, सत्प्रतिक्षिसमयसयं सर्वशमन्तसिद्ध आगमानवः । यदायुक्तम्--- स पौरुया या' - रेगागमार्थस्यैव सम्यक परिमानासम्भवात् । यश्चाक्रम्-- त्यादि, तत्रार्थतोऽपौरुषेयः, सावन सर्धशप्रकाशितत्यादे- 'सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणने ' त्यादि , तत्र व प्रमाणं, किन्तु कश्चित् स्वतोऽपि, निश्चिताविपरीत- प्रत्यक्षेगति पक्षः, तदपि च प्रत्यक्षमतीन्द्रियमबसेयम् , ननु प्रत्ययोत्पादकन्चात , ततो मेनरेतराश्रयदोपप्रसङ्गः, सर्व--- तत्राप्युक्तम्-- तस्यास्तित्वे प्रमाणाभावादि ' ति, उक्त शाप्रणीतत्वावगमाभावेऽपि निशिनाविपरीतप्रत्ययोरया---.. मिदमयुक्त सूक्तम् , तदस्तित्वेऽनुमानप्रमाणसद्भावाद् , 'तदकतथा सरसमारपनिश्चयाम् । ततः सर्व---. शानुमानमिद-यसारतम्यवत् तत्सर्वान्तिमप्रकर्षभाक. यथा सिद्धिः, छावमा सात सदा सामान्यतः सिलपनि र थरिमाण, तारतम्यायदं ज्ञानमिति । न चायमसिद्धो हेतुः, विशेषनिर्देशन अथाऽयं सर्व इति, ततः कथं सर्वशका- साहि-श्यते प्रतिप्राणिप्रशामेधादिगुणपाटबतारतम्य लेऽपि सर्वज्ञोऽयमित व्यवहार, उच्यते-चिन्तित- शालस्य , ततोऽवश्वमस्य सर्वान्तिमप्रकण भवितव्यम् , सकलपदार्थप्रकाशनात् । तथाहि- यद् यद् भगवान् पृच्छय. यथा परिमाणस्याकाशे, सर्वान्तिमप्रकर्षक ज्ञानस्य सकलते यच्च यच्च स्वचेतसि पृष्टा चिन्तयति तत्तासच - वस्तु स्तोमप्रकाशकत्वम् । श्रथ यद्विषयः तरतमभावः सर्चात्ययपूर्वमुपदिशति, ततोऽसौ वायते यथा सर्व इति । न्तिमप्रकोंऽपि तद्विषय एव युक्तः, तरतमभावश्चेन्द्रियातेन यदुच्यते भट्टन-'सर्वोऽसाविति तत् , तत्कालेऽ थितस्य ज्ञानस्योपलब्धः, ततः सर्वान्तिमप्रकोंऽपि तस्यैपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानशेयविज्ञान-रहितैर्गम्यते कथम् ? वेति कथमतीन्द्रियज्ञानसम्भवः, इन्द्रियाश्रितस्य च ज्ञा॥१॥ इति, तदपस्तं द्रष्टव्यम् , पुष्टचिन्तितसकलपदार्थ
मक्ष्य प्रकर्षभावेऽपि न सर्वविषयता , तस्य सूक्ष्मादावप्रप्रकाशनेन तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयात् । नन्वेषं व्यवहारतो
दृत्तेः । अथोच्यते-मनोज्ञानमप्यतीन्द्रियशानमुच्यते, तस्य निश्चयो न निश्चयतः, निश्चयनो हि तदा सवदी विदि- च तरतमभावः शाखादी दृष्ट एव । तथाहि-तदेव शास्त्रं तो भवति यदा तज्ज्ञ व विदित्वा सर्वत्र संवादो कश्चित् झटित्येव पठति अवधारयति च, अपरस्तु मन्दं , गृह्यते, न चैतत्कर्तुं शक थैकत्र संवाददर्शनादन्यत्रापि योधतोऽपि कश्चिन्मुकुलितार्थावबोधमपरो विशिष्टावबोधः संवादी द्रष्टव्यः, एवं नदि मायावी बहुजल्पाकः सर्वोs एयमन्यास्वपि कलासु यथायोगं मनोविज्ञानस्य तारतम्यं पि सर्वशः प्राप्नोति, तस्याध्यकदेशसंवाददर्शनाद् । श्राहच. परिभाब्यते , ततः तस्य सर्वान्तिमः प्रकर्षः सर्वविषयो भ"एकदेशपरिक्षानं, कस्य नाम न विद्यते ? । न होकं ना- विष्यति । तदसद् , यतो मनोविज्ञानस्यापि तरतमभावः स्ति सत्यार्थ, पुरुषे बहुजल्पिनि ॥१॥" तदयुक्तम् ,व्यव- शास्त्राद्यालम्बन एवोपलब्धः, ततः प्रकर्षभाचोऽपि तस्य हारतोऽपि निश्चयस्य सम्यगनिश्चयत्वात् , वैयाकरणादि- शास्त्राद्यालम्वन एव युक्त्योपपद्यते न सर्वविषयः, न सल्बनिश्चयवत् । तथाहि--बैयाकरणः कतिपयपृधशब्दव्याकर- ग्यविषयोऽभ्यासोऽन्यविषयं प्रकर्षभावमुपजनयति, तथाणादयं सम्यग्वैयाकरण इति निश्चीयते, एवं पृचिन्ति- अनुपलब्धेः । उक्तं च ---" शाखाधभ्यासतः शास्त्र-प्रभृत्यतार्थप्रकाशनान् सर्वशाऽपि । न चैवं मायाविनोऽपि सर्व- वावगच्छतः। साकल्यवेदनं तस्य, कुत एवागमिष्यति ? शत्वप्रसङ्गः, मायाविनि सर्वेषु पृष्टेषु चिन्तितेषु चार्थेषु सं- ॥१॥" अत्रोच्यते---इह तावदिष्ट्रियज्ञानाश्रितः तरतमवादायोगात् , निपुणेन च प्रतिपत्रा भवितव्यम् । अथ बैं- भावो न ग्राह्यः, अतीन्द्रियप्रत्यक्षसाधनाय हेतोरुपन्यायाकरणोऽन्यन वैयाकरणेन सकलव्याकरणशास्त्रार्थसं- सात् , तथाहि-सकलवस्तुविषयमतीन्द्रियप्रत्यक्षमिदानी
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Reeyatar
नोपन्यस्त
साधयितुतिः तरतमभावोऽपि सीन्द्रियज्ञानस्यैव वेदितव्यः अन्यथा मिनाधिकरणस्य गात् साक्षायातीन्द्रि प्रस्तावदेवात् अतीन्द्रियं ज्ञानमिन्द्रियानश्रितं सामान्येन द्रव्यम् तेन मनोज्ञानमपि गृह्यते । यदप्युक्तम्- मनोज्ञानस्यापि तरतमभावः शाम्बाचालम्बन aft प्रभावोऽपि तद्विषय एव युक्त' इति, तदप्यसमीचीनं, शाखायनिकान्तस्यापि तरतमभावस्य सम्भमात्थादियोगिनः परमयागमिच्छन्तः प्रथमतः शामभ्यसितुमुद्यत यथाशक्ति च शाखानुसारेण कलमप्यनुष्ठानमनुतिष्ठन्ति मा भूयपि क्रियाप्रदायोगाभ्यासाविति
ततो
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निरन्तरमेव यथोकानुष्ठानपुरस्सर शास्त्रमध्यस्थतां शुद्धचेत. प्रतिसमभिवादयाः, ते साद भिवर्द्धमाना अचापि दन्ततोताततः शनैः राजानमा शाखसन्दर्शितां पायाः वनगोचरातीनाः शेषप्राणिसंवेदनागम्याः सि द्विपदसम्पदेवः सूक्ष्मतरार्थविषया सना समुत् स्फुटयाला ज्ञात किय स्वयमसेोऽपि निरपेक्षमत्यादिपर्य तोत्तर समिात्माक तदालोककल्पमशेषरूपादिवस्तुविषयं प्रातिभ हानमुदयते, संच स्पष्टतयेन्द्रियदर्शनश्वव्यध्यामाखेषु तस्याविधानात् अथ प्रथमो मनः सापेक्षमभ्यासमारब्धवान् अभ्यासप्रकर्ते खूपजायमाने कथं १ मनोऽपि वलम्बते उपवेशयन्तस्यासप्रकर्षवतो मनोनिरपेक्षमणि शकत्वात् । तथाहि---तरशिविर सपासप योगतः तामपि परित्यजति एवं योग्यपिवदितव्यः । ततः सर्वोत्कृष्ट प्रकर्षसम्भवेऽतीव स्फुटतिभासे सकललोका लोकचित्रयमनुपममवाध्यं केवलज्ञानमुदयते, ततो यदुक्तम्--' शाखायभ्यासतः शास्त्र-प्रभृत्येवावगच्छत' इत्यादि, तदत्यन्तमध्यात्मशास्त्रयाथालयवेदिगुरु सम्पर्क वहिर्भूतत्वसूचकमवसेयम् । स्यादेतत् तारतम्यदशनादेस्तु ज्ञानस्य प्रकर्षसम्भवानुमानं स तु प्रकर्षः सकलवस्तुविषय इति कथं श्रद्धयम् ?, न खलु लङ्घनमभ्यासतः वारतस्यवदन्युपलभ्यमानं सकललोकविषयमुपलभयंते, तदसद्, इष्टान्तदाष्टन्तिकयोर्वेषस्यात् । तथाहि-न नापजायते किन्तु बलविशेषतः तथाहिसमानेऽपि गरुत्मच्छामा मृगशावकयोरन्यासेन समानं लङ्घनम्, उक्कं च--"गरुत्मच्छाखा मुगयो-लङ्घनाभ्याससस्भवे । समानेऽपि समानत्वं, लङ्घनस्य न विद्यते ॥ १ ॥ " अपि च--पुरुषयोरपि द्वयोः समानप्रथमयौवनयोरपि समानेऽप्यभ्यासे एकः प्रभूतं लपवितुं शक्नोति, अपरस्तु स्तकम् तस्माइलपा
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वास्तु केवलं देवगुरुयमाणप्रपनयति तच प वीर्यान्तरायकर्मोपशमात् जयपशु जातिभेदापेशी द्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षी च । ततो यस्य यावद्दल तस्य तावदेव लङ्घनमिति तन सकललोकविषयं जीवस्तु शशाङ्क क
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( ५७१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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[सध्वजमुज्जोग स्वरूपेण सकलजगत्प्रकाशनस्वभावः केवलमावरणघनपटलतिरस्कृत प्रभावत्वात् न तथा प्रकाशते । उक्तं च
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• स्थितः शीतांशुबजीवः प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रि कावच्च विज्ञान, तदावरगमनवत् ॥ १ ॥ " ततो यथा प्रचनैनपवनग्रहता घनपटलपरमाणवः शनैः शभूयान्ति तदपगमनानुसार व चन्द्रस्य प्रकाशी जगति वितनुते तथा जीवस्यापि रागादिभ्यः वि वि कार्यवापासु संपतस्य सम्यकशाखानुसारेण च यथायस्थितं वस्तु परिभावयतानादिमानात शनावरणीयादिकर्मणः शनैः शनैर्निखेदात्मनः प्रयन्ते कथमेतत्प्रत्यमिति चेत्, उच्यते-- इद्दाशानादिनिमित्तक ज्ञानावरणीयादिकम्मे ततः तत्प्रतिपक्षज्ञानाद्यासेवनेऽवश्यं तदात्मनः प्रच्यवते । उक्तं च"बंध व कम्यम उ सह येव सहाय ॥१॥" नारीक रामयानुसारेण मनःशांमध कतरासति यदा तु ज्ञानादिभावनाकर्षयनशानाकर्मपरमा तदा सफला पटलविनिर्मु कशशाङ्क व आत्मा लब्धयथावस्थितात्मस्वरूपः सकलस्यापि जगतोऽवभासकः, ततो ज्ञानस्य प्रकर्षः सकललोकत्रिवयः । अथवा सर्वे वस्तु सामान्येन शास्त्रेऽपि प्रतिपाद्यते यथा पचास्तिकायात्मको लोकः, आकाशालिफायरक आलोकः, किञ्चिद्विशेषतश्च ऊर्ध्वाधस्तिर्य लोकाकाशानां स विस्तरं तत्राभिधानात् शाखानुसारेण च ज्ञातः तरतमभावोऽपि ज्ञानस्य सकलवस्तुविषय एवेति प्रकाः तद्विषयो न विरुध्यसे सहनं तु सामान्यतोऽपि नसक लोकविषयमिति कथमभ्यासतः तत्प्रकर्षः सकललोकविषयो भवेत् ? । स्थादेतद्यद्यपि सामान्यकः शास्त्रानुसारेण सकलजायस तथाऽप्यभ्यासतः तत्प्रकर्षेः सक लवस्तुगताशेषविशेषविषय इति कथं ज्ञायेत?, नत्र किञ्चि त् प्रमाणमस्ति न चाप्रमाणकं वचो विपश्चितः प्रतिपद्यन्ते, विपश्चित्ताक्षितिप्रङ्गात् । तदसत् अनुमानप्रमाणसद्भावात् तथानुमानमासादविशेषाः जित्यावात्तदविशेषयत्य हि छानविषयतया व्याम् अजिमादिरूपेषु विशेषेषु प्रत्यक्षमन्तरेण शेषानुमानादिज्ञानसम्भवः, तथाहि-न ते विशेषा अनुमानप्रमाणमस्याः, लिङ्गाभावात् । नाप्यागमगस्याः, तस्य विधिप्रतिषेधमात्रविषयत्वात् । नाप्युपमानगस्या, तस्य प्रत्यक्षपुरस्सरत्वाद्। उक्तं च- 'न सागमेन यदसी विध्यादिप्रतिपादक प्रत्यक्षत पमानस्यापि सम्भवः ॥ १ ॥ नाप्यर्थापत्तिविषायाः, सा हि
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तो वाऽर्थो यदन्तरेण नोपपद्यते यथा काष्ठस्य भस्मविकारी झेर्दाहरुमन्तरेण तद्विषया घरार्यते न च दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थः तान् विशेषान्तरेण नोपपद्यते, ततो नार्थापत्तिगम्याः । न चैते विशेषाः खरूपेण सन्ति विशे बान् विना सामान्यस्यैवासम्भवात् न च वाच्यमत एव सामान्यस्यान्यथानुपपत्तेरर्थापत्तिगस्याः, नियतरूपतयाऽनवगमात् प्रातिनैयत्यमेव च विशेषाणां स्वस्वरूपम् श्रन्यथा विशेषद्वानेः सामान्यरूपताप्रसङ्गात् । न च
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(५७२) सव्वंजगुज्जोयग अभिधानराजेन्द्रः।
मव्वजगुज्जोयग तेषां शेयत्वमेवासिद्धमिति वाच्यम् , अभावप्रमाण- जिह्वन्द्रियव्यापारपुरस्सरमास्वादत एव जानाति, भगवांव्यभिचारप्रसङ्गात् । तथाहि-यदि केनापि प्रमाणेन न ज्ञाय- स्तु करणव्यापारनिरपेक्षोऽतीन्द्रियज्ञानी ततो जिह्वन्द्रियन्ते तर्हि-'प्रमाणपश्चकं यत्र, वस्तुरूप न जायते। वस्त्वसत्ता- व्यापारसम्पाद्यास्वादमन्तरेणैव रसं यथावस्थितं तटस्थघबोधार्थ, तत्राभावप्रमाणता ॥१॥ इति वचनादभावप्रमा-1 तया सम्यग् वेत्तीति न कश्चिद्दोषः। एतेन पररागादिवेरणविषयाः स्युः, अभावाख्यं च प्रमाणमभावसानिमिष्यते ।
दने रागित्वादिप्रसङ्गापादनमध्यपास्तमवसेयं, पररागादीनाअथ च ते विशेषाः स्वरूपेणैवावतिष्ठन्ते, ततोऽभावप्रमाण
मपि यथावस्थिततया तटस्थेन सत्तावेदनात् । यदप्युक्तम्व्यभिचारप्रसङ्गः, तस्माद्विपक्षव्यापकानुपलब्ध्या विशेषाणां
'कालतोऽनादिरनन्तः ससार' इत्यादि तदप्यसम्यग् ,युक्षेयत्वं प्रत्यक्षविषयतया व्याप्यत इति प्रतिबन्धसिद्धिः। स्या- गपत्सर्ववेदनाद्, न च युगपद् सर्ववेदनमसम्भवि, दृष्टत्वादेतत्-शेयत्वादिति हेतुर्विशेषविरुद्धः. तथाहि-घटादिगता त् । तथाहि-सम्यगजिनागमाभ्यासप्रवृत्तस्य बहुशो विरूपादिविशेषा इन्द्रियप्रत्यक्षण प्रत्यक्षा उपलब्धाः, ततः त
चारितधम्माधर्मास्तिकायादिस्वरूपस्य सामान्यतः पश्चाज्ज्ञेयत्वमिन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया प्रत्यक्षत्वेन व्याप्तं निश्चित स्तिकायविज्ञानं युगपदपि जायमानमुपलभ्यते, एवमशेषसत् जलधिजलपलप्रमाणादिष्वपि विशेषेषु प्रत्यक्षत्वमिन्द्रि- विशेषकलितपञ्चास्तिकायविज्ञानमपि भविष्यति । तथा चायप्रत्यक्षविषयतां साधयति , तश्चानिष्टमिति । तदयुक्तम् ,
यमोंऽन्यैरप्युक्तः-"यथा सकलशास्त्रार्थः, स्वभ्यस्तः प्रविरुद्धलक्षणासम्भवात् , तथाहि-विरुद्धो हेतुः तदा भवति तिभासते । मनस्यै कक्षणेनैव, तथाऽनन्तादिवेदनम् ॥ १॥" यदा बाधकं नोपजायते, 'विरुद्धोऽसति बाधके' इति यदप्युच्यते-'कथमतीत भावि वा वेत्ति ? , विनष्टानुत्पवचनाद्, अत्र च बाधकं विद्यते, यदि हि इन्द्रियप्रत्यक्षवि
नत्वेन तयोरभावा' दिति, तदपि न सम्यक् , यतो यद्यषयतया प्रत्यक्षत्वं भवेत् ततोऽस्मादृशामपि ते प्र- पादानीन्तनकालापेक्षया ते असती, तथापि यथाऽतीतमत्यक्षा भवेयुः, म च भवन्ति , तस्मादस्मारशैः प्र- तीते कालेऽवर्तित यथा च भावि ( वाय॑ति ) पतिष्यते त्यक्षत्वेनासंवेदनमेव तेषामिन्द्रियप्रत्यक्षविषयत्वसाधने तथा ते साक्षात्करोति ततो न कश्चिद्दोषः । स्यादेतत्बाधकमिति न विशेषविरुद्धः । अन्यः प्राह-न वि- यथा भवद्भिानस्य तारतम्यदर्शनात्प्रकर्षसम्भवोऽनुमीशेषधिरुद्धता हेतोदूषणम्, अन्यथा सकलानुमानोच्छे- यते तथा तीर्थान्तरीयैरपि, ततो यथा भवत्सम्मततीर्थदप्रसङ्गात् , तथाहि-यथा धूमाऽग्नि साधयति , अग्निप्र- करोपदर्शिताः पदार्थराशयः सत्यतामश्नुबते तथा तीर्थातिबद्धतया महानसे निश्चितत्वात् , तथा तस्मिन् साध्य- न्तरीयसम्मततीर्थकरोपदर्शिता अपि सत्यतामश्नुवीरन् ,वि. धर्मिण्यग्न्यभावमपि साधयति ,तेनापि सह महानसे प्र- शेषाभावाद् , अन्यथा भवत्सम्मततीर्थकरोपदर्शिता. अपि तिबन्धनिश्चयात् , तद्यथा-नात्रत्येनाग्निना अग्निमान् पर्व- असत्यतामश्नुवीरन् । अथ तीर्थान्तरीयसम्मततीर्थकरोतो धूमवत्वात् , महानसवत् , ततश्चैवं न कश्चिदपि हेतुः पदिष्टाः पदाथैराशयोऽनुमानप्रमाणेन बाध्यन्ते ततो न ते स्यात् , तस्मात् न विशेषविरुद्धता हेतोर्दोषः । आह च सत्याः, तदयुक्तम् , अनुमानप्रमाणनातीन्द्रियज्ञानस्य बाप्रज्ञाकरगुप्तोऽपि-" यदि विशेषविरुद्धतया क्षिति-ननु न हे- धितुमशक्यत्वात् , अाह च-" अतीन्द्रियानसंवेद्यान् , तुरिहास्ति न दूषितः। निखिलहेतुपराक्रमरोधिनी, न हि न पश्यन्त्यारेण चक्षुषा । ये भावान् वचनं तेषां, नानुभानेन सा सकलेन विरुद्धता ॥१॥" यञ्चोक्तम्-' अथवा अस्तु बाध्यते ॥ १॥" अथ सम्भवति जगति प्रक्षालवोन्मेषदुतदपि तथापि, सव्वेमेतावदेव जगति वस्त्विति न निश्च
विदग्धाः कुतर्कशास्त्राभ्याससम्पर्कतो वाचाला. तथाविय' इत्यादि तदप्पसारं , यतोऽवधिज्ञानं तदावरणकम्मदे- |
धाद्भुतेन्द्रजालकौशलवशेन दर्शितदेवागमनभोयानचामरादिशक्षयोत्थं ततोऽतीन्द्रियमपि तन्न सकलवस्तुविषय , के- विभूतयः कीर्तिपूजादिलब्धुकामाः स्वयमसर्वशा अपि सर्वबलशानं तु निर्मूलसकलज्ञानावरणकर्मपरमाण्वपगमसमु- शा वयमिति ब्रुवाणाः,तत एतावदेव न ज्ञायते यदुत-तेषां त्थं ततः कथमिव तन्न सकलवस्तुविषयं भवेत् ?, न सर्वोत्तमप्रकर्षरूपमतीन्द्रियज्ञानसभूत् , यदि पुनर्यथोक्लस्वरूह्यतीन्द्रियस्य देशादिविप्रकर्षाः प्रतिबन्धकाः, न च केवल- पमतीन्द्रियज्ञानमभविष्यत् तर्हि वचनमपि तेषां नाबाधिप्रादुर्भावे प्रावरणदेशस्यापि सम्भवः, ततो यद्वस्तु तत्स- | यत, अथ च दृश्यते बाधा ततस्त कैतवभूमयो न सर्वशा र्वे भगवतः प्रत्यक्षमवेति भवति सर्वज्ञस्यैवमात्मनो निश्च- इति प्रतिपत्तव्यम् । तदेतदहत्यपि समानम् न समानम,बईयः-एतावदेव जगति वस्त्यिति । यदप्युक्तम्-'अशुच्या- द्वचसि प्रमासंवाददर्शनात् । उक्तं च-"जैनेश्वर हि वचसि , दिरसास्वादप्रसङ्ग इति, तदपि दुरन्तदीर्घपापादयविजृम्भि- | प्रमासंवाद इप्यत । प्रमाणबाधा त्वन्येषा-मतो दृष्टा जिनेतम् , अज्ञानतो भगवत्यधिक्षेपकरणात् , यो हि यादगभूतो- श्वरः॥१॥" अथ पुरुषमात्रसमुत्थं प्रमाणमतीन्द्रियविऽशुच्यादिरसो येषां च प्राणिनां यादग्भूतां प्रीतिमुत्पाद- षये न साधकं नापि बाधकमविषयत्वात् , समानकक्षतायति येषां च विद्विषं तत्सर्व तदवस्थतया भगवान् वत्ति , यां हि बाध्यबाधकभावः, तथा चोत्रम्-" समाविषया ततः कथमशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्गः ? । अथ यदि तट- यस्मा-द्वाध्यबाधकसंस्थितिः। अतीन्द्रिय च संसारी, प्रमाणं स्थतया येत्ति तर्हि न सम्यकू, सम्यक चेत् यथास्वरूपं न प्रवर्तते ॥१॥" ततः कथमुच्यते-अईतो वचसि वेत्ता तर्हि नियमात् तदास्वादप्रसक्तिः । उक्नं च-" तट- प्रमासंघाददर्शनं प्रमाणवाध्यत्वमन्येषामिति ?, तदपि न स्थत्वेन वेद्यत्वे , तत्वेनाऽवेदनं भवेत् । तदात्मना तु वे- सम्यक , यतो न भगवान् केवलमतीन्द्रियमस्मारशामशद्यत्वे-शुच्यास्वादः प्रसत्यते ॥१॥" तदसत् , भवान् हि | क्यपरिच्छेदमेवोपदिशति, यदि पुनः तथाभूतमुपदिशेत् सकम्मा करणाधीनज्ञानः ततो रसं यथावस्थितमवश्यं तर्हि न कोऽपि तद्वचनतः प्रवर्तेत, अतीन्द्रियार्थ वचः
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सवजगुजोग
अ० | कल्प० । रा० । म० ।
सर्वेषामेव विद्यते परस्परविरुद्धं च ततः कथं तद्वचनतः प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः १, ततोऽवश्यं परान् प्रतिपादयता भगपता परेः शकयपरिच्छेदमप्युपदेष्टव्यं शक्यपरिच्छेदेषु वा र्थेषु भगवदुक्तेषु यत्तथाप्रमाणेन संवेदनं तत्तद्विषयं साधकं प्रमाणमुच्यते, विपरीतं तु बाधकम् । अस्ति च भगवदुक्तेषु शक्यपरिच्छेदेष्वर्थेषु प्रमासंवादः । तथाहि घटादयः पदार्था अनेकान्तात्मका उक्लाः, ते च तथैव प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा निश्चीयन्ते मोक्षोऽपि च परमानन्दरूपशाश्वतिकसौस्मारक, ततः सोऽपि युक्त्वा सङ्गतिमुपपद्यते यतः संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्षः संसारे जन्मजरामरणादिदुःखतो रामाय ते निर्मूलमपगता मोशायख्यायामिति न मोक्षे दुःखलेशस्यापि सम्भवः । न च निर्मूलमपगता रागादयो भूयोऽपि जायते, ततः तस्वीरूपं शाम्यतिकपवते, ननु यदि न सूत्र रागादयस्तर्हि न तत्र मन्तकामिनीगाडालिङ्गनपीनस्तनापीनवदनचुम्बन कराघातादिमभवं रागनिबन्धनं सुखं, नापि द्वेपनिबन्धनं प्रबलवैरितिर स्कारापादनप्रभवं नापि मोहनिबन्धनमहङ्कारसमुत्थमामी विनीत पुत्र भ्रातृप्रभृतिबन्धुवर्ग सहवाससम्भवं व, ततः कथमिस मोक्षो जन्मिनामुपादेवो भवति है। बा - " वीतरागस्य न सुखे योषिदानादिजम् । पीतद्वेषस्य च कुतः, शत्रु सेनाविमईजम् ? ॥ १ ॥ वीतमोहस्य न सुखमात्मीयाभिनिवेशजम् । ततः किं तादृशा तेन कृत्यं मोक्षेण जन्मिनाम् अपि सुदादयोर्ध तत्र सर्वथा निता इष्यते ततोत्यबुभुक्षाक्षा मते विशिष्टाहार भोजन या प्रमादी पिपासापीडितस्य पाटलाकुसुमादिवासितसुगन्धिशीतसलिलपानेनोपजायते सुखं ति दूतोया-प- समर्थ पुं० सर्वे व तेऽर्थाच सर्वार्थाः प्राचा० १ तदपि तत्र स्तरमिति न कासमीचीनम् यतो यद्यपि रागादयः प्रथमतः क्षणमात्रसुखदायितया रमणीयाः प्रतिभासते तथापि ते परिणामपरम्परयाऽनन्तः सननर कादिदुःख सम्पातहेतवः, ततः पर्यन्त दारुणतया विषान्नभोजनसमुत्थमिव न रागादिप्रभवं सुखमुपादेयं प्रेक्षावतां भवति । प्रेक्षावन्तो हि बहुदुःखमपहाय यदेव बहुसुखं तदेव प्रतिपद्यन्ते यस्तु स्तोनिमित्तं बहुमाय प्रज्ञावानेव न भवति किन्तु बुद्धिः रागादिप्रभवमपि च सुखमुक्तनीत्या बहुदुःखहेतुकम्, अपवर्गसुख चैकान्तिकात्यन्तिकपरमानन्दरूपं ततः तदेव तत्ववेदिनामुपादेयं, न रागादिप्रभयमिति । यदि पुनर्पषि तदपि खमभिलषणीयं भवतः तर्हि पानशौण्डानां यत् मद्यपानप्रभवं यच्च गर्त्ताशूकराणां पुरीषभक्षणसमुत्थं यश्च रक्षसां मानुषमां साभ्यवहारसम्भवं यच्च दासस्य सतः स्वामिप्रसादादिदेतुकं यदपि च पारसीकदेशवासिनो मात्रादिश्रोणीसङ्गमनि बन्धनं तत्सर्व्वं भवतो द्विजातिभवे सति न सम्पद्यते इति पानशी एका द्यप्यभिरूपणीयम् अपि च-गरमप्राप्तस्य म तद्वियोगसम्भ सुखमुपजायते ततो नरकदुःखमप्यभिसपणीयम् । (अथ - विशिष्टमेव सुखमभिलषणीयमिति 'मोम शब्दे भागे गतम् । तदेवं भगवदुपदिष्टेषु शक्पपरिच्छेदेष्यनुमेयेषु च यथाक्रमं प्रत्यक्षानुमा संवाददर्शनात् मोक्षाऽदिषु व युक्त्योपपद्यमानत्वाद्भगवासर्वनगतादिरितिस्थितम्। नं०
सब्बन्दु सर्वर्जुक पुं० सः प्रकारैः ऋः मोवियंक्षितमोक्षगमनं प्रत्युत्कुटिलः। सर्वजुसंयमे, सद्धर्मे च । सूत्र० १ श्रु० १ ० २ उ० ।
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(२७३ ) अभिधानराजेन्द्रः |
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सवयविसुद्ध
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सव्वजिण - सर्वजिन - पुं० । सर्वतीर्थकृति दर्श० ४ तस्त्र | सब्वजिणसासणग- सर्वजिनशासनक भि० सर्वेशप्रतिपाद्यन्ते यानि तानि सर्वजिनशासनानि तान्येव सर्वजिनशासनकानि सर्वतीर्थकर प्रश्न० सं०
द्वार ।
सव्वजिणाणाविमुह-सर्वजिनाज्ञाविमुख - त्रि० । सकलसर्वविदुपदेशविराधके, दर्श० ४ तत्त्व । सम्यजोग सर्व योग-पुं० समस्तप्यापारे, पञ्चा० ७ ० । सम्बजोलिय- सर्वयोनिक त्रि० सर्वा योनय उत्पत्तिस्थानानि येषां सत्वानां ते सर्वयोनिकाः । सर्वगतिभाणु, आचा• १ ० ६ ० १ उ० । सर्वा हि योनयः- संवृतविवृतोमशीतोष्णोभयसचित्ताचित्तोभयरूपाः । ष०५०४०
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सव्वञ्ज- सर्वज्ञ - त्रि० । “ ज्ञो ञः " ॥ ८ । २५६३ ॥ इति स् लुक् । केवलशानिनि, प्रा० २ पाद । सब्वज्जुइ-सर्वद्युति- स्त्री० । श्राभरणादिसम्बन्धिन्यां समस्तद्युतौ, विपा० १ ० ६ श्र० ।
सर्वजुति स्त्री० उचितेष्टवस्तुपटनायाम्, विषा० १ ० ६
ध्रु० ८ ० ८ उ० । अशेषप्रयोजनेषु, आचा० २ श्रु० २ चू०| बाह्याभ्यन्तरे धनधान्यकलममत्वादी अशेषप्रयोजनीयवस्तुनि सू० १ ० २ ० २० एकोनत्रिंशसमेोरात्रमुहूर्ते, ज्यो० २ पाहु० । जं० सू० प्र० । कल्प० । सव्वट्ठसिद्ध- सर्वार्थसिद्ध-पुं० । पञ्चानामनुत्तरविमानानां मध्यमे, अ० स० । स्था० प्रा० एकोनविंशेऽहोरात्रमुहू , स० ३० सम० । कल्प० ।
सव्वट्टसिद्धिय- सर्वार्थसिद्धिक- पुं० । सर्वार्थसिद्धविमानवासिनि देवे, स० श्री० देखते वर्षे भविष्यति षष्ठे तीर्थकरे, प्र० ७ द्वार ।
सव्वठ्ठाण - सर्वस्थानन० । शय्याभोजनमन्त्रादिस्थानेषु,
विशे० ।
सव्वराट्ठ- सर्वनष्ट वि० सर्वप्रकारैर्विनाशमापत्रे, विशे० । सव्वणय- सर्वनय-- पुं० । सर्वेषु नैगमादिनयेषु, उत्त० २ श्र० । सव्वश्यमय - सर्वनयम १० इयास्तिकपर्यायास्तिका। ननयक्रियानयसंमते, पञ्चा० १२ चिव० । सम्ययविसुद्ध सर्वनयविशुद्ध भि० सर्वे निरवशेषास्ते च ते नयाश्च सर्वनयास्तेषां विशुद्धं निर्दोषतया संमतम् । उत्त० । २० | सर्वनयसम्म
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जं चरण साहद्द " आव० ६ ० ।
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(103) श्रभिवान राजेन्द्रः ।
सध्यणयसम्मय
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समय- सर्वनयसमूहमद - वि० स्पास्तिकादिनयसंघातात्मके दर्श० ४ तत्र ।
सव्वखाडय - सर्वनाटक- पुं० । समस्तनाटयकर्तृषु क० १ अधि०५ क्षण ।
सव्वणाण - सर्वज्ञान - न० । सबै जानातीति सर्वज्ञानम् । केवलज्ञाने, विशे० । सर्वपरिपूर्णज्ञानम् । क्षायिकशाने केवलज्ञाने, विशे० ।
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सव्वणाणावरणिज - सर्वज्ञानावरणीय- न०। सर्वज्ञानं केवलामोतीति सर्वज्ञाना परकीयम् केवलज्ञानावर आ दिव्यकल्पकवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमे घवृन्दकल्पं हि तत् । स्था० २ ठा० ४ उ० । सव्वणास - सर्वनाश-- पुं० । सर्वात्मना नाशे, विशे० । प्रश्न० । सव्वणी - सर्वनीति - स्त्री०। समस्तनैगमादिनये, हा० अ० । समय- सर्वज्ञपुं० [सर्वे जानामीति सर्वशः । ०० - सं० १ द्वार । घ० । सर्व समस्तं द्रव्यप्रदेशपर्यायरूपं वस्तु जानाति विशेषग्रहयतः समस्ताचरणक्ष वेदनेनावयुध्यत इति सर्वशः । ०"
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शादी" ॥ ८ | १ | ५६ ॥ इति कृतणत्वस्य ज्ञस्य प्रत उत्वम् । प्रा० । अनु० । वस्तुस्तोमस्य विशेषतयाऽनुज्ञापके भ० १ ० १ उ० । विशे० । सूत्र० । उपा० । श्राव० । स्था० । ( एतद्विषये अत्थिवाय शब्दे प्रथमभागे ५२२ पं ' अत' शब्दे च ४६६ पृष्ठे गता वक्तव्यता । ) माझा देवाडा, मांदाडा यापमुच्यते धनुतम् । यस्य तु नै दोषा स्वस्थानकारणं किं स्यात् ॥ इति प्र तुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेवेति सिद्ध श्रागमादण्यात्मा । “पंगे
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या इत्यादिनानुगः सिद्धः प्रमा
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तामेवानन्तरमेवाह्यार्थसाधने साधित 'प्रमाणं ज्ञानम्' तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्वियत्वात् इति प्रलापमात्रम् कारणमन्तरेण क्रियासिद्धरयोगाद्, लवनादिषु तथादर्शनात् । यच्च अर्थसमकालमित्याद्युक्तम् तत्र विकल्पद्वयमपि स्वीक्रियत एव। श्रस्मदादिमत्य हि समकालार्था [फलम कुशलं सरयमतीतार्थ रूप ग्राहक शब्दानुमाने च कालिकस्य परि
के निराकारं चैतद इदमपि । नचातिप्रसङ्गः सछानादरणीयतापक्षयोपशमविशेषवशादेवाच नैयत्यन प्रवृत्तेः शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्काराः । प्रमिनिस्तु प्रमायस्य फलं संवेदनविडेव नानुभवे व्युपदेशापेक्षा फलं च द्विधा आनन्तर्यपारम्पर्याद तथाऽनन्तर्येण सर्वप्रमाखानामज्ञाननिवृत्तिः फलम् पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत्फलमीदासीन्यम्, शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेक्षा बुद्धयः । इति सुव्यवस्थितं प्रमात्रादिचतुत्र्यम् । ततश्च 'नासन्नसन्नसद्स-न्नचाप्यनुभयात्मकम् । चतुफोडिनतस्वमायात्मिका विदुः ॥ इत्युपस भाषितम किञ्च - इदं प्रमाणादीनामपातयत् शून्यादिना वस्तुत्वा ताम् । तयासी प्रमाणान् अभिमन्यते अप्रमाणावा ? । न तावदप्रमाणत्, तस्याऽकिञ्चित्क
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सव्वण्णु रत्वात् । अथ प्रमाणान् त । अवास्तवत्यग्राहकं प्र माणं सांवृतम्, असांवृतम् वा स्यात् । यदि सांवृतम् कथं तस्मादवास्तवाद वास्तवस्य शून्यवादस्य सि?, तथा तदसिद्धी वास्तव एवं समस्तोऽपि प्रमात्रादिव्यवहारः प्राप्तः । श्रथ तद् ग्राहकं प्रमाणं स्वयसांवृतम् सर्दि का प्रमाविहारावाशिक्षा लेने व्यािगत् । तदेवं पचयेऽपि व्याघ्र इतस्तटी इति न्यायेन व्यक्त एवं परमार्थतः विरोधः । स्था० 1 स्था० । नं० । वीर एव सर्वशः - सुगतादयोऽपि सौगतादिभिः सकलवस्तु स्तोमसाक्षात्कारि इष्यन्ते तरिक सुगता - दिः सफलवस्तुलोमखाज्ञात्कारीनि प्रतिपद्यनामस्माभिः किं वा भगवद्वर्द्धमानस्वामीति तदवस्थ एव निश्चयामायः स्यादतमित्र संशयेन यस्य पादारविन्दयुगले दिवसः परस्परमहमदमिका विशिष विशिष्ठतरविभूतिनिपरिकलिताः शतसह माननिय सकलमनिममलमन्यन्महीतीर्थ पूजादिकमातन्वन्ति स्म स भगवान् वर्द्धमानस्वामी सर्वशा न शेषाः सुगतादयः, मनुष्या हि मूढमनस्का - पि सम्भाव्यन्ते न देवाः, ततो यदि शषा अपि सुगतादयः सर्पा अमविश्व तर्हि तेषामदेव - मकरिष्यन् न च कृतवन्तस्तस्मान्न ते सर्वज्ञाः । तदेनदर्शनाखगमनस्कताजनक बनी वर्तमान स्वामिनां दिवः समागत्य देवास्तथा पूजां कृतवन्तइवे तदपि कथमवसीयत १ भगवतरा
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वग्राहकप्रमाणाभावात् । सम्प्रदायादवसीयते इति चेत् सोऽपितु पुरुषप्रवर्त्तित एवेति कथमवगन्तव्यम् ? नाह साभावात् नचाप्रमाणकं वयं प्रतिपत्तुं चमाः मा पदमेशाचाप्रसङ्गः अम्प मायाविनः खयमव श्रपि जगति स्वस्य सर्वभावं प्रचिकटविषवस्तथाविधे न्द्रजालवशाद्दर्शयन्ति देवानितस्ततः सञ्चरतः स्वस्थ व पूजादिकं कुर्वतः ततो देवागमदर्शनादपि कथं तस्य - वैज्ञत्वनिश्चयः ? | तथा वाह भावक एवं स्तुतिकारा समन्तभद्रः--' देवागमनभायान - चामरादिविभूतयः । मा याविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ १ ॥ भवतु वा वर्तमागस्वामी सर्वशः तथापि तत्बत्कोऽयमा चारादिक उपदेशो न पुनः केनापि धूर्तेन स्वयं विरचय्य प्रवर्त्तित इति कथमवसेयम् अनीन्द्रिये प्रमाणाभावात् । अथवा - भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथा श्रयमाचारादिक उपदेश वर्तमानस्यामिन इति तचापि तस्योपदेशस्यायमर्थो नान्य इति न शक्यः प्रत्येतुम् नानाहिशालां तथादर्शनात् ततोऽस्यथाऽप्यर्थसम्भावनायां कथं विवक्षितार्थनियमनिश्चयः ? अथ मन्येथास्तदात्वे तन एव सर्वज्ञात् साक्षाच्छ्रवणतो गौतमादरर्थनियमनिश्चयोऽभूत् तत श्राचार्य परम्परयेदानीमपि भवतीति तद्ययुक्तम् पती नाम गीतमादिस्थः, छद्मस्थस्य च परचेतोवृत्तिरप्रत्यक्षा, तस्या अतीन्द्रियत्वनैतद्विषये चक्षुरादीन्द्रियप्रत्यक्षप्रवृत्तेरभावात्, अ
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अभिधानराजेन्द्र:।
सव्वराणु प्रत्यक्षायां च सर्वक्षस्य विवक्षायां कथामिदं झायत एपक्षण सत्साक्षारकर रामवृत्त भानग्रहणम् । ग्राह्याग्रहणे तग्रासर्वशस्याभिप्रायोऽनेन चाभिप्रायेण शब्द प्रयुक्तो नाभि- हकत्वस्यापि तद्गतस्य ननाग्रहणात् । तदग्रहे च त. प्रायान्तरण, तत एवं सम्यक् परिज्ञानाभावात् भागमा अर्माध्यासितसंवेदनसमन्वितस्यापि न प्रत्यक्षतः प्रवरणावलीमुक्तवान भगवान् नामेव केवला पृष्टतो लग्न लिपतिः । नाप्यनुमानतः सकलपदार्थज्ञपतिपत्तिः , गौतमादिभिभाषते , न पुनः परमार्थतस्तस्योपदेशस्या- अनुभानं हि निश्चितस्वसाध्यधर्म-धर्मिसंबन्धाद् हेर्थमवबुध्यते । नं०।( प्रपञ्चतः सार्वज्ञापनलेणी के
तोरुदयमासादयत्प्रमाणतामाप्नोति प्रतिबन्धश्च सबलणाण' शब्दे तृतीयभागे ६४३ पृष्ठे प्रतिपादितौ ।) मस्तपदार्थशसस्बेन स्वसाध्येन हेतोः किं प्रत्यक्षे'वीतरागादि सर्वशा, जमिथ्या ब्रुचते ततः। यस्मात्तस्माद' ण गृह्यते, उतानुमानेन । न तावदध्यक्षण, अध्यक्षस्यात्यचचस्तेषां, सध्यंभूतार्थदर्शनम् ॥१॥'। वृ० १० १ प्रक० । क्षशानवत्सस्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तदवगतिनिमित्तहेतुपतथा च तद्वचनम्- "सर्व पश्यतु वा माया , तत्त्वमितु तिबन्धग्रहण ऽग्यक्षमत्वात् । मानवगतसंबन्धिना तद्गतसंपश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञान, तस्य नः कोपयुज्यते ॥१॥" बन्धावगमो विधातुं शक्यः । नाप्यनुमानेन तद्नसंबन्धातथा--"तस्मादनुष्ठानगतं, ज्ञानमस्य विचार्यताम् । प्रमाणे वगमः । तथा भ्युपगमेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषद्वयानतिवृत्तेः । दूरदर्शी चे-देते गृध्रातुपास्मह ॥१॥" तन्मतव्यपोहार्थ- नचागृहीतप्रतिबन्धाद्धेतोरुपजायमानमनुमान प्रमाणतामामनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमय । विज्ञानान्त्यं विना एकस्याऽप्य- सादयति । तथा धर्मिसंबन्धावगमोऽपि न प्रत्यक्षतः । श्रर्थस्य यथावत्परिज्ञानाऽभावात् । तथा चार्षम्-"जे ए- नक्षशानबत्प्रत्यक्षेऽक्षाभवस्याध्यक्षस्याप्रवृत्तेः । प्रवृत्ती वाजाणइ स सव्वं जाणइ । ज सव्वं जाण से एगं जाण- अध्यक्षेणैव सर्वविदः संवेदनात् , अनुमाननिबन्धनहेतुव्या।" तथा " एको भावः सर्वथा यन दृष्टः सर्वे भावाः
पारण व्यर्थम् । नचानुमानतोऽप्यनक्ष ज्ञानवतोऽयगमः। हेसर्वथा तेन दृष्टाः । सर्व भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको
तुपक्षधर्मतावगममन्तरेरणानुमानस्यैव धर्भिग्राहकस्याप्रवृत्तः । भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥१॥” इति । ननु तर्हि अया
नचाप्रतिपनपक्षधर्मत्वो हेतुः प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्तिध्यसिद्धान्तमित्यपार्थकं यथोक्तगुणयुक्तस्याव्यभिचारिव
हेतुरिति नानुमानतोऽपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिः । किंच-सर्वशचनवन सदसिद्धान्तस्य चाधाऽयोगात। न । श्रभिप्रा
सत्तायां साध्यायां त्रयीं दोबजाति हेतु तिवर्तते असिया परिझानात् । निर्दोषपुरुषप्रणीत एव अबाध्यः सिद्धा- डविरुद्धानेकान्तिकलक्षणाम् । तथाहि-सकलसत्त्वे सास्तो नापगडपारूषेयाद्याः, असम्भवादिदोषाघ्रातत्वात् इति ध्ये किं भावधर्मों हेतुः , उताभावधर्मः, आहोस्विदुभयझापनार्थम् , धान्ममात्रतारकमूकाऽन्तकृत्केवल्यादिरूपमु- धर्मः । तत्र यदि भावधर्मः , तदाऽसिद्धः । अथाभावधर्मः राउलिनो यथासिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छ- तदा विरुद्धः। भावे साध्ये अभावधर्मस्याभावाव्यभिचादार्थ वा विशषयमेतत् । स्या०। (" सर्वशो मुख्य वैकस्त- रित्वेन विरुद्धत्वात् । श्रथाभयधर्मः, तदोभयाव्यभिचारित्यतीतिश्व यावताम् । सर्वेऽपि ते तमापन्ना, मुख्य , सामा-- स्पेन सत्तासाधन उनैकान्तिकत्वमिति न सकलशसत्त्वसान्यतो बुधाः ॥१॥” इति सर्वतीर्थकसंमतानां साक्ष्य धने कश्चित् सम्यग् हेतुः सम्भवति । अपि च-यद्यान"कुतक 'शब्द तृतीयभागे ५८२ पृष्ठे साधितम् ।) यतः कश्चित् चकलपदार्थक्षः साध्योऽभिप्रेतः , तदा तत्कसने सर्वतत्वखरूपाभिन्नमात्मानं जानाति वेत्तीति स- तप्रतिनियतागमाश्रयणं नोपपलं भवताम् । श्रथ प्रतिनियत बः । श्रात्माननि , अ० ४ श्रष्ट।
एक एवाईन् सर्वशोऽभ्युपगम्यते, तदा तत्साधने प्रयुक्तहाथ सर्वझतां साधयति--
स्थ हेतारपरसशस्थाभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसंभवादसाधातथाहि-५ देशकालखमावविप्रकर्षवन्तः सदुपलम्भक- रणानैकान्तिकत्वादसाधकत्वम् । किंच-यत एव हेतोः प्रभागविषयभावमनापन्ना भावान ते प्रेक्षावतां सद्व्यत्र- प्रतिनियतोऽहन सर्वशः तत एव बुद्धाऽपि स स्यादिति हारपथावतारिणः यशा नाकपृष्ठादयस्तथास्नाभ्युपगमवि- कुतः प्रतिनियत सर्व पणातागमाश्यणमुपपत्तिमत् ? इति न षयाः। तथा च समस्तवस्तुविस्तारव्यापिज्ञानसंपरसम- कश्चित् सर्वशनाधको हेतुः । श्रथ सर्वे पदार्थाः कस्यम्वितः पुरुष इति सद्व्यवहारप्रतिवधफलानुपलब्धिः । चित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादग्न्यादिवदिति तत्साधन हेतुसद्भावः नचासिडी देतुः । तथालिसकलपदार्थसाक्षात्कारिझा- सवसत् । यताऽत्र किं सकलपदार्थसाक्षात्कार्येकज्ञानप्रत्यनाङ्गनालिङ्गितः पुरुषः प्रत्यक्षसमधिगम्यो वा अभ्युपग- क्षत्वं सर्वपदार्थानां साध्यत्वेनाऽभिप्रेतम् , पाहोस्वित् प्रनिग्यत, अनुमानादिसंवेद्या वा?,न तावदध्यक्षगोचरः , प्र- नियतविषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वमिति कल्पनाद्वयम् । यद्याद्यः तिनियतसंनिहितरूपादिविषयनियमितसाक्षात्करणस्वभावा | पतः। स न यतः प्रतिनियतरूपादिविषयग्राहकानेकहि चक्षुरादिकरणब्यापारसमासादितात्मलाभा शनयो न प्रत्ययप्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याग्न्यादिदृष्टान्तधर्मिरिण , प्रमेयत्वपरस्थं संवेदनामात्रमपि तावदालम्बितुं क्षमाः किमिङ्ग! लक्षणस्य हतोरुपलम्भाद्धबिरुद्धत्वसाध्यविकलदृष्टान्तदोपुनरनाद्यनन्तानीतामागतवर्तमानमूदमादिस्वभावसकलप- पद्वयाघ्रातत्वात् । अथ द्वितीयः , सोऽप्यसङ्गतः। सिदार्थसाक्षात्कारि संबेदनविशेषं , तदध्यासितं वा पुरुषम् । द्धसायतादोषप्रसङ्गात् । तथा प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यअविश्रये यक्षुरादिकरणप्रवर्तितस्य शानस्य प्रवृत्त्यसम्भ- स्यमानं, किमशरशयध्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमभ्युबात?, सम्भव वाऽन्यतमकरणप्रवर्तितस्यापि शानस्य | पगम्यते, उत अस्मदादिमागप्रमेयत्वव्यक्तिस्वरूपम् , प्रारूपादिसकलविषयमाहकन्येन सम्भवात् , शेषेन्द्रियपरि-1 होस्वित् उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यस्वभावमिति विकपना व्यर्था । नच सूक्ष्मादिसमस्तपनाथग्रहणमन्तरेण प्रत्यल्पाः । तत्र यदि प्रथमः पक्षः, सन युक्तः विवादाध्या
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(५७६) सच्चमणु अभिधानराजेन्द्रः।
सम्वरण सितपदार्थेषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्यासिद्धत्वात् । सिज- यितुं युक्तः । अथ 'यथाऽस्माकं तत्सद्भावावेदकं प्रमाणं स्वे वा साध्यस्यापि हेतुवत् सिद्धत्वात् व्यर्थ हेतूपादानम् | नास्ति तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्तीति सवयतथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्त ऽन्यादिलक्षणेऽसिद्धेः - वहारवदभावव्यवहारोऽपि न प्रवर्तयितव्यः । तथादिग्धान्वयश्च हेतुः स्यात् । अथास्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वं । हि--सर्वविदोऽभावः किं प्रत्यक्षसमधिगम्यः, प्रमाणान्तहेतुः , तदा तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य विवादगोचरेष्व- | रगम्यो वा । तत्र न तावत्प्रत्यक्षसमधिगम्यः' यतः प्रत्यक्षं तीन्द्रियेवसंभवादसिद्धो हेतुः । सिद्धौ वा ततस्तथाभूतः | सर्वज्ञाभावावेदकमभ्युपगम्यमानम्, 'किं सर्वत्र सर्वदा सर्वः प्रत्यक्षत्वसिद्धिरेव स्यात् । तत्र चाविवाद इति न हेतूप- सर्वज्ञो न' इत्येवं प्रवर्तते , उत 'कचित्कदाचित् कश्चित् न्यासः सफलः । अथोभयप्रमेयत्वब्यक्तिसाधारणं प्रमेय- सर्वशो नास्तीत्येवमिति कल्पनाद्वयम् । तत्र यदि सर्वत्र स्वसामान्य हेतुरिति पक्षः, सोऽप्यसङ्गतः । अत्यन्तविल- सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो नेति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिः, तर्हि न सक्षणातीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाणप्रमेयत्यव्यक्तिद्वयसाधारणस्य वंशाभावः, तज्ज्ञानवत एव सर्वशत्वात् । नहि सकलदेशसामान्यस्यासम्भवात् । नहि शाबलेयकर्कव्यक्तिद्वयसाधा- कालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण तदाधारमरणमेकं गोत्वसामान्यमुपलब्धमिति प्रमेयत्वसामान्यलक्ष- सर्वशत्यमवगन्तुं शक्यम् । तत्साक्षात्करणे च कथं न णो हेतुरसिद्ध इति नानुमानादपि सर्वसिद्धिः। नापि- तहानवतः सर्वशत्वमिति, माद्यः पक्षः। द्वितीयेऽपि पक्षे शब्दात् । यतः शब्दोऽपि तत्प्रतिपादकोऽभ्युपगम्यमानः न सर्वथा सर्वशाभावसिद्धिरिति न प्रत्यक्षात् सर्वशाभावकिं नित्यः, उतानित्य इति कल्पनाद्वयम् । न तावत् सिद्धिः । अथ न प्रवर्त्तमान प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकम् नित्यः, सर्वबोधकस्य नित्यस्यागमस्याभावात् । भावेऽपि किंतु निवर्तमानम् । ननु यदि निखिलदेशकालाधारसकलतत्प्रतिपादकत्वेन तस्य प्रामाण्यासम्भवात् । कार्ये ऽर्थे त- पुरुषपरिषदाधितानन्तपदार्थसंविद्व्यापकम् , कारणं वा तत् प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् । अथानित्यस्तत्प्रतिपादक स्यात् , तदा तन्निवर्तमान तथाभूतं सर्ववत्वं व्यावर्तयेत् , इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः । यतोऽनित्योऽपि किं तत्प्र- नान्यथा । तथाभूतनिवृत्तौ तन्निवृत्तेरसिद्धः । तथाभ्युपगमे णीतः स तदवबोधकः, अथ पुरुषान्तरप्रणीत इति विक- वा स एव सर्व इति न तेन तन्निषेधः। किंच-प्रत्यक्षल्पद्वयम् । तत्र न सर्वशप्रणीतः स तदवबोधक इति पक्षो - निवृत्तिर्यदि प्रत्यक्षमेव , तदा स एव दोषः। अथयुक्तः इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् । तथाहि-तत्प्रणीतत्वे प्रत्यक्षादन्या तदाऽसौ प्रमाणमप्रमाणं वा । अप्रमाणत्वे, तस्य प्रामाण्यम् , ततः तस्य तत्प्रतिपादकत्वमिति व्य- नातः सर्वज्ञाभावसिद्धिः प्रमाणत्वे नानुमानत्वम्। सर्वात्मनमितरेतराश्रयत्वम् । नापि पुरुषान्तरप्रणीतस्तदवबोधकः
संबन्धिम्या: तन्निवृत्तेर्यथासख्यमसिद्धानकान्तिकत्वदोषतस्योन्मत्तवाक्यवदप्रमाणत्वात् । तन्न शब्दादपि तस्य
द्वयसद्भावात् । नच तुच्छा तन्निवृत्तिः तदभावज्ञापिका । सिद्धिः । नाप्युपमानात् तत्सिद्धिः । यत उपमानोपमेय
तुच्छायाः केनचित् सहप्रतिबन्धाभावेन सर्वसामर्थ्यविरहेण योरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनं तदभ्युपगम्यते । नचोप
च झापकत्वासम्भवात् । तन्न प्रवर्तमानं, निवर्तमानं वा मानभूतः कश्चित् सर्वशत्वेन प्रत्यक्षतः सिद्धः , येन
प्रत्यक्षं तदभावं साधयति । प्रमाणान्तरगम्यत्वेऽपि तवतत्सारश्यादन्यस्य सर्वज्ञत्वमपमानात साध्यते । सि
भावो न तावदनुमानगम्यः। तदभावसाधकानुमानाभावात् । द्वौ वा प्रत्यक्षत एव सर्वज्ञस्य सिद्धत्वानोपमानादपि तत्सि
अथ विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तद्धिः सर्वशसद्भावमन्तरेणानुपपद्यमानस्य प्रमाणषद्कविज्ञा
स्वात् , रथ्यापुरुषवदित्यमानं तदभावसाधकम् । नम्वत्र तस्यार्थस्य कस्यचिदभावात् नार्थापत्तेरपि सर्वशसस्वसि
किं प्रमाणान्तरसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वं हेतुः, उत तद्विशिः। नचागमप्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्य तमन्तरेणानुपपद्यमा
परीतस्य , आहोस्वित् वक्तृत्वमात्रमिति वक्तव्यम् । यदि नस्य तत्परिकल्पकत्वम् । अतीन्द्रिये स्वर्गाद्यर्थे तत्प्रणीतत्वनिश्चयमन्तरेण तस्य प्रामाण्यानिश्चयात् । अपौरुषेयत्वादपि
प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वादिति हेतुः , तदा विरुद्धो
हेतुः। तथाभूतवक्तृत्वस्य सर्वज्ञ एव भावात् । अथ प्रमातत्प्रामाण्यसंभवात् कुतस्तस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानता; त
णान्तरविसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वादिति हेतुः, तदाप्रार्थापत्तितोऽपि तत्सितिः । अभावाख्यस्य तु प्रमाणस्या
सिद्धसाधनम् । तथाभूतस्य वक्तुरसर्वशत्वेनास्माभिरभ्युमायकल्वनयापारात् न तत्सद्रावसाधकत्वम् । न चोपमानार्थीपश्यभावप्रमाणाना भवता प्रामाण्यमभ्युपगम्य
पगमात् । अथ वक्तृत्वमात्रं हेतुः । न । तस्य साध्यविपर्यसे इति न तेश्यस्ततासद्धिः । तदुक्तम्
येण सर्वशत्नानुपलब्धेन सहानवस्थानलक्षणस्य तदव्य"सर्वको दृश्यतै ताव-वेदानीममदादिभिः ।
बच्छेदस्वभावेन च परस्परपरिहारस्वरूपस्य च विरोधहटो न चैकदेशोऽस्ति, लिङ्गचा योऽनुमापयेत् ॥ ११७ ॥ स्याभावात् न ततो व्यावृत्तिसिद्धिरिति न स्वसाध्यनियतन चागमविधिः कश्चि-नित्यः सर्वज्ञबोधकः ।
त्वम् तदभावाम्न स्वसाध्यसाधकत्वम्।अथ सर्वशो वक्ता नोनच मन्त्रार्थवादानां, तात्पर्यमवकल्पते ॥ ११८॥
पलब्ध इति ततो व्यावृत्तिसिद्धिः, न ; सर्वसंबन्धिनोऽ नचागमेन सर्व-स्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात् ।
नुपलम्भस्यासंभवात् । सर्वक्ष एव वक्तृत्वमात्मन्युपनरान्तरप्रणीतस्य, प्रामाण्यं गम्यते कथम् ॥११६ ॥" लप्स्यते, सर्वशान्तरेण वा तत्तत्र संवदिष्यते इति न (श्लो० या० सू०२)
सम्भवः सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य । अथ सर्वशस्य कस्य इत्यादि । ततो ये देशकाल 'इत्यादिप्रयोगे नासिद्धो हेतुः।। चिदभावात् सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः । ननु सद्व्यहारनिषेधश्च, अनुपलम्भमात्रनिमित्तः । अनेकधा5-| सर्वज्ञाभावः कुतः सिद्धः । अन्यतः प्रमाणामेन अन्यत्र प्रवर्तित इत्यत्रापि तन्निमित्तसद्भावात् प्रवर्त- त् चेत् । तत एव तदभाचसिद्धेरस्य वैयर्थ्यम् । 'अत
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सव्वाणु अभिधानराजेन्द्रः।
सव्वाणु एवानुमानादिति न चक्रव्यम् । इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्।। नाप्यर्थापत्तितस्तदभावावगमः , तस्याः प्रमाणन्वेऽनुमासिद्धे ऽतोऽनुमानात् सर्वज्ञाभावे, सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भसं- नेऽन्तर्भतत्वात । तथाहि-दृष्टः ततो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपभवसामर्थ्यात् हेतोर्विपक्षतो व्यावृत्तिः स्यात् तस्य च
घेत' इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिः। नचासावर्थोऽन्यथानुपविपक्षाद्यावृत्तस्य तत्साधकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रय
पद्यमानत्वानवगमे अधार्थपरिकल्पनानिमित्तम् । अन्यथा स्वम् । भवतु वा सर्वसबभ्यनुपलम्भसंभवः, तथापि सक- स येन विनोपपद्यमानत्वन निश्चितस्तमपि परिकल्पयत्। लपुरुषचेतावृत्तिविशेषाणामसर्वशेन ज्ञातुमशक्करसिद्धः स- येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत् । अनवगतस्यान्यसंबन्ध्यनुपलम्भ इति न ततो विपक्षव्यावृत्तिनिश्चयो
थाऽनुपपन्नत्वेनार्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथाऽनुपपद्यमान वक्तृत्वात कुतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकाद् हेतोस्तद- त्वे सत्यप्य दृष्टार्थपरिकल्पकत्वासंभवात् । संभवे वा लिङ्गभावसिद्धिः । नापि स्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भात् तद्यतिरे- स्याप्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति , कनिश्चयः , तस्य स्वपितृव्यपदेशहेतुनाऽप्यनैकान्तिक- तदपि नार्था पत्त्युत्थापकादाद्भिद्येत । स चान्यथाऽनुपपत्वात् । नचैवंभूतादपि हेतोः साध्यसिद्धिः तथाऽभ्युपगमे न द्यमानत्वावगमः, तस्यार्थस्य न भूयो दर्शननिमित्तः सपक्ष। कश्चित्सर्वज्ञाभावमवबुध्यते वक्तृत्वात् , रथ्यापुरुषवदिति अन्यथा लोहलरूयं वचं पार्थिवत्वात् , काष्ठवदित्यत्रापि सातदभावावगमाभावस्यापि सिद्धिः स्यात् । अथान्यत्रापि ध्यसिद्धिः स्यात् । नापि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तो:हेतावयं दोषः समान इति सर्वानुमानोच्छेदः । तदयुक्तम् । सौ । व्यतिरेकनिश्चायकत्वेनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निअन्यत्र विपक्षब्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलम्भव्यतिरेकेण वा- षिद्धत्वात् , किन्तु-विपर्यये तदाधकप्रमाणनिमित्तः । धकप्रमाणस्य सद्भावात् । नचात्रापि तस्य सद्भाव इति तच बाधकं प्रमाणमापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेयानुपपद्यमाशक्यं वक्तुम् । तदभावस्य हेतुलक्षणप्रस्तावे वक्ष्यमाण- नस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथाऽर्थास्वात् । किंच-सर्वज्ञप्रतिपादकप्रमाणाभावे तस्यासिद्ध- पत्या तस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावस्वात् तदभावसाधनायोपन्यस्यमानः सर्वोऽपि हेतुराध- त्तस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वं नावगतम्, न तावदापत्तिप्रवृ. यासिद्ध इति न तस्मादभावसिद्धिः । अथ तड्राहकत्वेन त्तिः, यावच्च न तत्प्रवृत्तिः, न तावदापत्युत्थापकस्यार्थस्याप्रमाणं प्रवर्तत इत्याश्रयासिद्धत्वाभावः, तर्हि तत्साधक- न्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगम इतीतरेतराश्रयत्वान्नापत्तिप्रप्रमाणबाधितत्वात् पक्षस्य न तत्साधनाय हेतुप्रयोगसा- वृत्तिः । अत एव यदुक्तम्फल्यमिति नानुमानावसेयः सर्वज्ञाभावः । अपौरुषेयत्व "अविनाभाविता चात्र, तदैव परिगृह्यते । भ्य प्राक्तनन्यायनासिद्धत्वात् , सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्युपगमे न प्रागवगतेत्येवं, सत्यप्येषा न कारणम् ॥ शब्दस्य पुरुषदोषसंक्रान्त्याऽप्रामाण्यात् न ततोऽपि तद- तेन संबन्धवेलायो, संबन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् । भावसिद्धिः। नच तदभावाभिधायकं किञ्चिद्वेदवाक्यं श्रूयते, अर्थापत्यैव मन्तव्यः, पश्चादस्त्वनुमानता"। केवल तावावेदकवेदवचनोपलब्धिरविगानेन समस्ति- (श्लो० वा० सू०५ अर्थापत्ति श्लो० ३० । ३३) इत्यादि । 'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता,पश्यत्यचक्षुः स शणोत्यकर्णः।। तन्निरस्तम् । एवमभ्युपगमेऽर्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादिसवेत्ति विश्व नहि तस्य वेत्ता, तमाहुरम्यं पुरुषं महान्तम् ।। तत्वात् । स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं (श्वेताश्व० ३ । १६)
दृशान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः , आहोस्वित् स्वसाध्यधतथा हिरण्यगर्भ प्रकृत्य "सर्वश" इत्यादि । नच स्वरूपेर्थे मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्य इति । तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽत्रातस्याप्रामाण्यम् । तत्र तत्प्रामाण्यस्य प्रतिपादयिष्यमा- पियक्तव्यम् । किं तत् दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तं प्रमाणम् ,साध्यणत्वात् ; तन्न शब्दादपि तदभावसिद्धिः । नाप्युपमानात्त- धर्मिण्यपि साध्यान्यथाऽनुपपन्नत्वं तस्यार्थस्य निश्चाययति, दभावावगमः । यत उपमानमुपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे आहोस्वित् दृष्टान्तधर्मिण्येव । तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽसादृश्यालम्बनमुदेति; अन्यथा
पत्त्युत्थापकस्यार्थस्य.लिङ्गस्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्या. " तस्माद्यत् स्मयते तत्स्यात् , सादृश्येन विशेषितम् । पारं प्रति न कश्चिद्विशेषः । अथ द्वितीयः स न युक्तः । नहि प्रमेयमुपमानस्य, सादृश्यं वा तदन्वितम्" ॥
दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितस्वसाध्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वोऽर्थो(श्लो० वा सू०५ उपमान० श्लो ३७)
म्यत्र साध्यधर्मिणि तथा भवति । नच तथात्वेनानिश्चितः स इत्यभिधानात् प्रत्यक्षेणोपमानोपमेययोरग्रहणे उपमेये स्म- साध्यधर्मिणि स्वसाध्य परिकल्पयतीति युक्तम् , अतिप्रसरणासंभवात् । कथं स्मर्यमाणपदार्थविशिष्टं सादृश्य, सा
ङ्गात् । अथ लिङ्गस्य दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणत्ववशात्सर्वोपदृश्यविशिष्टं वा स्मर्यमाणं वस्तु उपमानविषयः स्यात् ।
संहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः, अर्थापत्त्युत्थापकस्य त्वतस्मादिदानीतनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम् , उपमेया
थस्य स्वसाध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तात्प्रमाणात्सर्वोपसंहारेणादशेषान्यकालमनुष्यवर्गसाक्षात्करणं चावश्यमभ्युपगमनी
पार्थान्यथाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चय इति लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकयम् । तदभ्युपगमे च स एव सर्वन इति कथं उपमानात् त
यो दः । नास्माद्भेदादापत्तेरनुमानं भेदमासादयति । अनुदभावावगमो युक्तः । अतो यदुक्तम्
मानेऽपि स्वसाध्यधर्मिण्येव विपर्ययातुव्यावर्तकविन प्र"यजातीयः प्रमाणैस्तु, यजातीयार्थदर्शनम् ।
वृत्तं प्रमाण सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चायकमभ्युदृष्ट संप्रति लोकस्य, तथा कालान्तरेऽप्यभूत्" ॥ इति ।
पगन्तव्यम् । अन्यथा सर्वमन कान्तात्मकं सत्यादित्यस्य हेतोः (श्लो० वा० सू०२ श्लो०११३)
पक्षीकृतवस्तुञ्चतिरेकेण दृष्टान्तधर्मिणोऽभावात्कथं तत्र प्रतन्निरस्तम् । उपमानस्योक्नन्यायनात्र वस्तुन्यप्रवृत्तः ।। १-(मीमां. शाबर० सू०५ ।
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(५७८) सठवएणु अभिधानराजेन्द्रः।
सव्वएणु वर्तमानं बाधकं प्रमाणमनेकान्तात्मकत्वनियतत्वमवगमयेत् । प्रतिक्षपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितं यथार्थमभिधानसत्त्वस्य ?। नच साध्यधर्मिणि दृष्टान्तर्मिणि च प्रवर्त्तमानेन मुखहङ्गिर्मीमांसकैः । अत एव तदभिप्रायप्रकाशनपरं भगप्रमाणनार्थापत्युत्थापकस्यार्थस्य, लिङ्गस्य च यथाक्रमं प्रति- बतो जैमिनेः सूत्रम्-'सत् सम्प्रयोगे पुरुषस्यन्द्रियाणां दुबन्धो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणापत्त्यनुमानयो दोऽभ्युपग- द्विजन्म तत्प्रत्यक्षम्॥४ा' इति । यतो नानेनापि सूत्रेण स्वात. न्तुं युक्तः । अन्यथा पक्षधर्मत्वसहितहेतुसमुत्थादनुमानात्त- मध्येण प्रत्यक्षलक्षणमभ्यधायि भगवता। किन्तु-लोकप्रसिद्रहितहेतुसमुत्थमनुमानं प्रमाणान्तरं स्यादिति प्रमाणषटूया. लक्षणलक्षितप्रत्यक्षानुवादेन तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं दो विशीर्येत । नियमवतो लिङ्गात्परोक्षार्थप्रतिपत्तरविशेषात् विधीयते । नचैतदत्रापि वक्तव्यम् , कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म न ततस्तद्भिनमित्यभ्युपगमे, स्वसाध्याविनाभूतादर्थादर्थप्र- प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते , अस्मदादिप्रत्यक्षस्य , सर्वशप्रत्यतिपत्तेरविशेषादनुमानादर्थापत्तेः कथं नाभेदः । तदेवं प्रमा | क्षस्य वा । अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तदनिमित्तत्वप्रतिपादने णत्वेऽर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात्। अनुमानस्य च सर्वज्ञाभा | सिद्धसाधनम् । सर्वशप्रत्यक्षस्य भवन्मतेनाप्रसिद्धत्वाच्छशवप्रतिपादकस्य निषेधात्तनिषेधे चार्थापत्तरपि तदभावना-1 विषाणस्येव कथं तं प्रत्यानिमित्सताविधिः । अथापि स्यात् हकत्वेन निषेधान्नार्थापत्तिसमधिगम्योऽपि सर्वज्ञाभावः । परेण तस्याभ्युपगतत्वात् , तं प्रत्यनिमित्तत्वं तत्प्रसिद्धथैवोअभावास्य तु प्रमाणमप्रमाणत्वादेव न तदभावसाधकम् । च्यते । तदाक्रम् । परीक्षापूर्वकत्वेनाभ्युपगमस्य स्थितत्वाप्रमाणत्वेऽपि किमात्मनोऽपरिणामलक्षण तत्, आहोखिद
त् । तत्पूर्वकश्चेत् परस्याभ्युपगमः , तदा भवतोऽपि तस्य न्यवस्तुविज्ञानलक्षणमिति । तत्र यद्यात्मनोऽपरिणामलक्षणं
तद्भावः , परीक्षायाः प्रमाणरूपत्वात् । प्रमाणसिद्धं च न पतदभावसाधकमिति पक्षः स न युक्तः, तस्य सरवना
रस्यैव सिद्धम् । प्रमाणसिद्धस्य संधरेवाभ्युपगमनीयत्वात् । भ्युपगते परचेतोवृत्तिविशेषेऽपि सद्भावनानैकान्तिकत्वात् ।
अथ प्रमाणव्यतिरेकेण परेण सर्वक्षप्रत्यक्षमभ्युपगतम् , अथाम्यविज्ञानलक्षणमिति पक्षः, सोऽप्यसंबः । यतः सर्व
तदाऽसौ प्रमाणाभावावेव नाम्युपममो युक्तः । नच प्रमाशत्वादन्यद्यदि किञ्चित्वं तद्विषयमानं तदन्यज्ञान, तदाऽ
णाभ्युपगतस्यासदादिप्रत्यक्षविलक्षणस्थ सर्ववित्प्रत्यक्षस्य
तं प्रत्यनिमित्तत्वं विधातुं युक्तम् ' यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षवित्रापि वक्तव्यम् । किं सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषाधारं कि
लक्षणत्वं सर्ववित्प्रत्यक्षस्य धर्मादिग्राहकत्वेनैव , तत्प्रश्चिमत्वम् अभ्युपगम्यते, आहोस्वित् कतिपयपुरुषव्यक्तिसमाश्रितमिति ? । तत्र यदि समस्तदशकालाधितपुरुषाधारं
माणतोऽभ्युपगतं , कथं तस्य तं प्रत्यनिमित्तत्वमुपपचेत ।
तग्राहकप्रमाणवाधितत्वात् । किञ्चायं परस्परविरुद्धोऽपि किश्चिमत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञान तत्सर्वज्ञाभावप्रसाध
घाक्यार्थः स्यात् , प्रमाणतो धर्मादिग्राहकं सर्ववित्प्रत्यक्षं कम् , तदयुक्तम् । सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्
यत्प्रसिद्धं तद धर्मादिग्राहकं न भवतीति । यतो 'म प्रससाक्षात्करणब्यतिरेकेण तदाधारस्य किश्चिज्शत्वस्य विषयी.
असाधने आश्रयासिद्धत्वादिदृषणं क्रमते । नहि प्रमाणमूकर्तुमशक्लेन तद्विषयस्य तदन्यज्ञानस्य सर्वशाभावावगमनि
लपराभ्युपगमपूर्वकमेव प्रसङ्गसाधनं प्रवर्तते । किं तर्हि यमित्तत्वं युक्तम् । सर्वदेशकालव्यवस्थिताशेषपुरुषसाक्षात्क
याभ्युपगमदर्शनपूर्वकम् । अत एव प्रसङ्गसाधनस्य वि. रणे च स एव सर्वदर्शीति न तदभावाभ्युपगमः श्रेयान् ।
पर्ययफलत्वम् । विपर्ययस्य च अतीन्द्रियपदार्थविषयप्रत्यक्षअथ कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितं किञ्चिज्शत्वं तदन्यत् त- निषेधफलत्वम् , तनिषेधे च किं प्रत्यक्षस्य धर्मिणो निषेधः, द्विषयं शानं तदन्यज्ञानं सर्वज्ञाभावावेदकम् , तदप्ययुक्तम् । अथ तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वस्येति?। पूर्वस्मिन् पक्षे हेतूनामाश्रयातज्ज्ञानात् तदभावावगमे कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितस्यैव
सिद्धतेति प्रतिपादितम् , उत्तरत्र प्रत्यक्षत्वनिषेधे प्रमाणासर्वशत्वस्याभावः सिद्धयेत्, न सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषेषु ।त
न्तरत्वप्रसक्तिः, विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुशामलक्षणत्वाथा च सिद्धसाधनम् । अस्माभिरपि कुत्रचित्कस्यचिद्रध्या त, इति न प्रेयम् । यतो विशेषनिषेधे तस्य विशेषरूपत्वेन पुरुषादेरसर्वशत्वेनाभ्युपगमात् । अथ सर्वशत्वादन्यस्तद- सत्त्वस्यैव प्रतिषेधः । नच धर्म्यसिद्धत्वादिदोषः। यद्यर्थभावस्तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानम् । तदाऽत्रापि किं सर्वदा स्याभ्युपगतत्वात् । कथं पुनरत्र प्रसः, विपर्ययो वा क्रियसर्वत्र सर्वः सर्वज्ञो न इत्येवं तत्प्रवर्तते, उत कुत्रचित्कदा- ते इति चेत् । तदुच्यते-सार्ववं प्रत्यक्ष यद्यभ्युपगम्यते चित्कश्चित् सर्वज्ञा न इत्येवम् । तत्र नाद्यः पक्षः । सक- तदा तत् धर्मग्राहकं न भवति , विद्यमानोपसम्भनत्वात् । लदेशकालपुरुषासाक्षात्करण तदाधारस्य तदभावस्याव- नचासिद्धो हेतुः। तथाहि-विद्यमानोपलम्भनमतीन्द्रियागन्तुमशक्यत्वात् , प्रदेशाप्रत्यक्षीकरणे तदाधारस्य घटा- र्थजप्रत्यक्ष, सत्संप्रयोगजत्वात् , अस्याप्यसिद्धतोद्भावने एवं भावस्येव, तत्सा ज्ञात्करणे च तदेव सर्वशत्वमिति न वक्तव्यम् । विवादगोचरं प्रत्यक्षं सत्संप्रयोगजं , प्रत्यक्षत्वातदभावसिद्धिः। अथ द्वितीयः पक्षः । तदान सर्वत्र सर्व
त् । तच्छब्दवाच्यत्वाद्वाऽस्मदादिप्रत्यक्षं सर्वत्र शन्त इति दा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति तदेव सिद्धसाधनम् । प्रमाणप- प्रसनः। विपर्यस्त्वेवम्--तद्धर्मग्राहक चेत् न विद्यमानोवकनिवृत्तेस्तदभावशानमित्यादि सर्व प्रतिविहितमिति ना- पलम्भनम् , अविद्यमानत्वात् धर्मस्य । अविद्यमानोपलम्भभावप्रमाणादपि तदभावावगमोऽभ्युपगन्तुं युक्त इत्यादि नत्वे न सत्संप्रयोगजम् । असत्संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्ष, नापि यत, तदप्यविदितपराभिप्रायस्य सर्वशवादिनोऽभिधानम् । तच्छन्दवाच्यम् । प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेणैव यद्यर्थोपक्षपण यतो नास्माकमतीन्द्रियसर्वज्ञादिपदार्थबाधकं प्रत्यक्षादिप्र- वार्तिककृताऽप्यभिहितम्-- माणं स्वतन्त्रं प्रवर्तत इत्यभ्युपगमः । अतीन्द्रियेषु स्वत- " यदि पदभिः प्रमाणैः स्यात् , सर्वक्षः केन वार्यते ॥ त्रस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य भवदभिहितप्राक्तनदोषदुष्टत्वेन एकेन तु प्रमाणेन , सर्वशो येन कल्प्यते । प्रवृत्त्यसंभवात् । किन्तु-प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव स- नन सचक्षुषा सर्वान् , रसादीन् प्रतिपद्यते ॥
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सध्य
"
जातीचे प्रमाणेस्तु पञ्जातीयार्थदर्शनम् । दृष्टं संप्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ' (श्लो० वा० सू० २ ० ११२ । ११३ )
,
( ५७६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पुनरव्युक्तम्"येऽपि सातिशया दृशः प्रज्ञामेधादिभिर्नराः । स्वोस्तोकान्तरत्वेन नत्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ १ ॥ यत्राप्यतिशयोः स स्वार्थानतिनात् । दूरसूनादिस्वारुप त्रवृत्तिताः॥ (००० २०११४)
6
"
इत्यादि तेनात्रापि स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदूपणम् उपमानोपन्यासया वा शेषोपमानोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमान प्रवर्त्तते इत्यादि दूपाभिधानं च सर्ववादिनः स्वजात्याविष्करणमात्रकमेव । अतोऽतीन्द्रिय सर्वविदों न प्रत्यक्षं प्रवृतिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वा भावसाधनमित्यादि सर्वमभ्युपगमवादा शिरस्तम्
:
यचानुमानेन सर्वज्ञाभावसाधने नृपमभिदितम्। किं प्रमा सान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तुत्यादित्यादि तद्भूमादम्यनुमानेऽ पि समानम् । तथाहि तत्रापि शक्यं किं साध्यधर्मिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्तः, उत दृष्टान्तधर्मि सबन्धी ?। तत्र यदि साध्यधर्मिसंबन्धी देतुः तदा तस्य दृष्टान्तेऽसंभवादन्वयदोषः । अथ दृष्टान्तथर्मिसंबन्धी सोऽसिद्धः । द शान्तधर्मिधर्मस्य साध्यधर्मिण्यसंभवात् । अधोभयसाधारधूमत्व सामान्य हेतु तदा तस्य विषसेनविरोधासि संदिग्धपान खसाध्यागमकत्वम् । अविषमस्यानुपलम्भाद्विरोधासिद्धेन सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम् ।
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नन्दत्रापि वकुं शक्यम् सर्वसंवन्धिनोऽनुपलम्भस्यासम्भ यादनी देशान्तर कालान्तरे या फेनचित् धूमस्योपलम्भात्, तदुपलब्धिमतः कस्यचिदभावात् सर्व संबन्धिनोऽउपलम्भस्य संभय इति चेत् केन पुनः प्रमाणेनानी धूमसत्त्वग्राहकपुरुषाभावः प्रतिपन्नः । यद्यन्यतः प्रमाणात्, तामस्य व्यावृत्तिसिद्धेचे सर्वसंध्यनुपलम्भलक्षणस्य विपक्षे धूमविरोधसाधकस्य प्रमाणस्थाभिधानम् । अथ तथाभूतानुपलम्भात् तदभावावगमः । ननु तथाभूतपुरुषाभावे तदनुपलम्भसंभवस्तत्संभवाद्य तथाभूपुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वात् न सर्वतुपलम्भस्य संभवः। संभवेऽपि तस्यासिन विषय विरोधसाधकत्वम् । अथात्मसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य धूमत्वद्दतापक्षात् व्यावृत्तिसाधकत्वम्। न तस्य पर तोवृत्तिविशेषरनैकान्तिकत्वात् । अथानुपलम्भन्यतिरिक्तं धूमलक्षणस्य हेतोर्विपर्यये बाधकं प्रमाणमस्ति नतु व
त्यस्य किं पुनस्तदिति वक्रव्यम् अग्निधूमयो कार्यकारणभावप्रतिबन्धग्राहकमिति चेत् का पुनरसी कार्यकारणभाव किंवा ताइकं प्रमाणम् ? अ प्रिभाव एव धूमस्य भावस्तदभावे चाभाव एवासौ; तड्राइव प्रमार्ग प्रत्यक्षानुपलम्भखभावम्। ननु किचिज्ज्ञत्वस्य तयापकस्य वा रागादिमत्वस्य भावे एव
-
ऋष्यरणु
वक्तृस्वस्य भावः स्वाविव उष्टस्ताव - बोलावावा इति
ये सर्वज्ञत्व, वीतराग वा क्वलक्षवस्य हेतोर्वाधकं कार्यकारणमात्रतवन्धक प्रत्यक्षानुपतस्मारयं प्रमाणम् -
"
मादर्शनशब्दवाच्यस्पापानुप शब्दवाच्यस्य वा भवदति कोशिक हेतुसाध्यप्रतिवन्ध साधने उपल रागादिमवाप्रति पक्षम्, किन्तु कामता
रा
कामताऽभावेऽभावाद्वचनस्य । नन्वेवं व्यभिचार, विवक्षाऽपि न वचने निमित्तं स्यात्, तत्राप्यन्यविवक्षायामन्यशब्ददर्शनात्। अन्यथा गोलाथार्थविवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचारः । न स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा शब्दविवक्षाभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् । न च व्यवहिता विवक्षा तस्य निमित्तमिति परिहारा । एवमभ्युपगमे प्रतिनियतकार्यका - रणभावाभावप्रसङ्गात् सर्वस्य तत्प्राप्तः तत्र वक्कुकामतानिमित्तमप्येकान्ततो वचनं सिद्धम् व्यतिरेकासिद्धेः । अवयस्तु किञ्चिशत्वेन रागादिया मनस्वसि दोन वक्तुकामतया प्रयभावे सर्व वक्तृत्वं न भवतीत्यत्र प्रभागासवासव
कार्यकारणभावाप्रतिक हृद्यभावे धूमः सर्वत्र न भवतीत्यापि प्रमाणाभावस्तुल्य इति न प्रतिबन्धग्रहः । अथाग्न्यभावेऽपि यदि धूमः स्यात्तदाऽसी तदेवेदिति
ग्नेस्तस्य न भावः स्यात् । दृश्यते च सदा इति नामसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धि व पंच
नांदकदा समुद्भूतोऽपि
भवन्नुपलभ्यते पूमा वादति उपायमानोऽपि गोपालघटिकादी पायको समाचा कदाचिदग्न्यभावेऽपि भविष्यतीति कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः । अथ याद परिनादिमी
न ताहोऽरणितो महादेव धूमेोऽपि पादशोऽग्नित उपजायते न तारा एवं गोपाटिकादावभिवधूमात् । अन्यादृशासानातिन स्य क्वचिदपि प्रतिनियमः स्यात् । अतो देशका लखभावनियमायोगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य वाऽनग्नेभवः । भावे वा तादृशधूमजनकस्याग्निस्वभावतैवेति न व्यभिचारः तदुक्तम्
"अग्निस्वभावः शक्रस्य मूर्द्धा यद्यग्निरेव सः । प्रधानग्निखभावोऽसी, धूमस्तष कथं भवेत् ॥१॥ इत्यादि ।
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',
तदेतद्वक्तृत्वेऽपि समानम् । तथाहि--यदि सर्वशे वीतरागे वा वचनं स्यादसान्द्रागादियुद्धाद्वा कदाचिदपि न स्यादहेतोः सकृदप्यसंभवात् भवति च तत्ततः । सर्वज्ञे तस्य तत्सदृशस्य वा संभव इति प्रतिवन्aसिद्धिः । अथ देशान्तरे, कालान्तरे वाऽसर्वज्ञकार्यमेव च न सर्वशप्रभवमिति न दर्शनादर्शनप्रमागम्यम् । दर्शनस्येयद्व्यापारासंभवाद्, अदर्शनस्य व मावैवंभूतार्थग्राहकत्वे
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(५८०) सवण्णु अभिधानराजेन्द्रः।
मव्वएणु मनिषिद्धत्वात् । तर्हि सर्वदाऽग्निप्रभव एव धूमोऽग्न्य- ण इति । एतदप्यसमीचीनम् । न खल्वभ्यासे सत्यप्यन्यभावे कदाचनापि न भवतीत्यत्रापि प्रत्यक्षस्य सन्निहित- तो वा हेतोः कस्यचिदतीन्द्रियदर्शनं चक्षुरादिभ्य उपलवर्तमानार्थग्राहकत्वेनाप्रवृत्तः , अनुपलम्भस्यापि तद्विविक्त- भ्यते, दृष्यानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्तीति । किंच-सर्वप्रदेशविषयप्रत्यक्षस्वभावस्यात्र वस्तुनि व्यापारासंभवात् , पदार्थवेदने चक्षुरादिजनितज्ञानात्तदभ्यासः, तत्सहायं च न कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः प्रत्यक्षानुपलम्भसा- चक्षुरादिकं सर्वज्ञावस्थायां सर्वपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानं जनधनः स्यात् । नाप्यनुमानतोऽपि प्रकृतः प्रतिबन्धः सिद्धि- यतीति कथमितरतराश्रयमेतत्कल्पनागोचरचारि चतुरचेमासादयति इतरेतराश्रयानवस्थादोषप्रसङ्गस्य प्रदर्शित- तसो भवत इति न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तिक्षमः । श्रथ त्वात् । न चान्यत्प्रतिबन्धप्रसाधकं प्रमाणमस्तीति प्रसि- शब्दजनितं तज्ज्ञानम् । ननु शब्दस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाद्धानुमानस्यापि सवशाभावावेदकानुमाननिरासयुक्त्युपक्षेप
एये सर्वपदार्थविषयज्ञानसंभवः, तज्ज्ञानसंभवे च सर्वशस्य मिच्छतोऽत्राभावः प्रसक्तः । अथ प्रसिद्धानुमाने साध्यसाध
तथाभूतशब्दप्रणतृत्वमितीतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः। अत एवो. नयाः प्रतिबन्धः, तत्प्रसाधकं च प्रमाण किञ्चिदस्ति; तर्हि स
क्लम्-"नर्ते तदागमात् सिद्धयेत् नच तेनागमो विना"। इति । एव प्रतिबन्धः किञ्चिज्ज्ञत्ववक्तृत्वयोः, तत्प्रसाधकं च तदेव (श्लोक० वा० सू०२ श्ला० १४२) प्रमाणं भविष्यतीति सिद्धः प्रतिबन्धः किश्चिज्ज्ञत्ववक्तृत्व- नच शब्दजनितं स्पष्टाभमिति न तज्ज्ञानवान् सकलश योरग्निधूमयोरिवाअत एव व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युप- इत्यभ्युपगम्यते । एवं च प्रेरणाजनितज्ञानवतो धर्मशत्वम् । गमनान्तरीयको यत्र दर्श्यते तत्प्रसङ्गसाधनमिति तल्लक्ष- अत एवोक्तम्-'चोदना हि भूतं भवन्तम् ' इत्यादि । तन्न णस्य युष्मदभ्युपगमेनात्र सद्भावात् भवत्येवातोऽनुमानात् तृतीयपक्षोऽपि युक्तिसङ्गतः । अनुमानजनितशानेन तु सर्वसर्वज्ञाभावसिद्धिः। पक्षधर्मताभावप्रतिपादनं च यत्प्रकृत- वित्त्व न धर्मशत्वम् । धर्मादरतीन्द्रियत्वन तज्ज्ञापकलिङ्गन्वेप्रसङ्गसाधने प्रतिपादितं, तदभ्युपगमवादानिरस्तम्। तत्र नाभ्युपगम्यमानस्यार्थस्य तेन सह संबन्धासिद्धेः । असिपक्षधर्मताया हेतोरभावेऽपि गमकत्वस्य सिद्धत्वात् । शे- द्धसंबन्धस्य चाज्ञापकत्वान्न ततो धर्माद्यनुमानम् , इत्यषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमान्निरस्त इति न प्रत्युश्चार्य
नुमानजनितं ज्ञानं न सकलधर्मादिपदार्थावेदकम् । किंचदूषितः । अतोऽयुक्तमुक्तं सर्वशवादिनां यथा तत्साधकप्र- तथाभूतपदार्थज्ञानेन यदि सर्वविदभ्युपगम्यते, तदाऽस्ममाणाभावात् न तद्विषयः सद्व्यवहारः, तथा तदभाववा
दादीनामपि सर्ववित्त्वमनिवारितप्रसरम् । भावाभावोभयरू. दिनां मीमांसकादीनां तदभावग्राहकप्रमाणाभावादेव न त
पं जगत् प्रमेयत्वादित्यनुमानस्यास्मदादीनामपि भावात् , दभावव्यवहार इति प्रसङ्गसाधनस्य तदभावसाधकस्य अस्पष्टं वाऽनुमानमिति तजनितभ्याप्यवैशद्यसंभवान्न तसमर्थितत्वात् । अथ यदभ्यासविकलचक्षुरादिजनितं प्रत्यक्ष ज्ज्ञानवान् सर्वज्ञा युक्तः । अथानुमानज्ञान प्रागविशदमपि तद्धर्मादिग्राहकं न भवतीति प्रसङ्गसाधनात्सिद्ध्यति, न तदेवाशषपदार्थविषयं पुनः पुनर्भाव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते पुनरन्याहग्भतम् । चोदनावदन्यादृशस्य धर्मग्राहकत्वावि- योगिज्ञानरूपतामासादयद्वैशद्यभाग् भवति । दृष्टं चाभ्यासरोधात् । ननु किं तज्ज्ञानं प्रतिनियतचक्षुरादिजनितं धर्मा- बलाज्ज्ञानस्यानक्षजस्यापि कामशोकभयोन्मादचौर स्वप्नाद्यदिग्राहकम् , उताभ्यसजनितं , श्राहोस्वित् शब्दजनितं, पप्लुतस्य वैशद्यम् । नन्वेवं तज्ञानवदतीन्द्रियार्थविद्विशाकिंवाऽनुमानप्रभावितम् । तत्र यदि चक्षुरादिप्रभवम् । त- नस्याप्युपप्लुतत्वं स्यादिति तज्ज्ञानवतः कामाशुपप्लुतपुदयक्तम् । चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभ- रुपवद्विपर्यस्तत्वम् । अथ यथा रजोनीहाराद्यावरणावृतवृघस्य तज्ज्ञानस्य धर्मादिग्राहकत्वायोगात् । अत एव 'यदि- क्षादिदर्शनमविशदम् , तदाबरणापाये वैशद्यमनुभवति, एवं पद्दभिः' इत्याद्युक्तं दूषणमत्र पक्ष । अथाभ्यासजनितं त
रागाद्यावारकाणां विज्ञानावैशद्यहेतूनामपाये सर्वज्ञज्ञान घिदिति पक्षः । तथाहि-शानाभ्यासात्प्रकर्षतरतमादिप्रक्रमे
शदतामनुभविष्यतीति । असदेतत् । रागादीनामावरणत्याण तत्प्रकर्षसम्भवे तदुत्तरोत्तराभ्याससमन्वयात्सकलभा
सिद्धेः । कुड्यादीनामेव ह्याचारकत्वं लोके प्रसिद्ध , न रावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यत इति । तदपि मनोरथमा
गादीनाम् तथाहि-रागादिसद्भावेऽपि कुड्याद्यावरणकाभा त्रम् । यतोऽभ्यासो हि नाम कस्यचित्प्रतिनियतशिल्पक
वे विज्ञानमुत्पद्यमानं दृष्टम् , रागाद्यभावेऽपि कुड्याद्यावालादौ प्रतिनियतोपदेशसद्भाववतो जन्मतो जनस्य संभाव्य
रकसद्भावे न विज्ञानोदय इत्यन्वयव्यतिरकाभ्यां कुड्यात, न तु सर्वपदार्थविषयोपदेशसंभवः। नच सर्वपदार्थवि
दीनामेवावरणत्वावगमो, न रागादर्दानामिति न रागादय श्रा षयानुपंदशनानसंभवः,येन तज्ज्ञानाभ्यासात्सकलज्ञानप्रप्तिः। वारका इति न तद्विगमोऽपि सर्वविद्विज्ञानस्य वैशद्यहतुः । तत्संभवे वा सकलपदार्थविषयज्ञानस्य सिद्धत्वारिकमभ्यासप्रयासन । किंच-तदभ्यासप्रवर्तकं ज्ञान यदि चक्षुरा
किंच-सर्ववेदनं सर्वशज्ञानेन किं समस्तपदार्थग्रहणम् , दिप्रतिनियतकरणप्रभवमप्यन्येन्द्रियविषयरसादिगोचरम् , उत शक्तियुक्तत्वम् ,आहोस्वित् प्रधानभूतकतिपयपदार्थग्रहअतीन्द्रियार्थगोचरं च स्यात् , तदा पदार्थशक्तः प्रतिनियत- णम् । तत्र यद्याद्यः पक्षः तत्रापि चक्रव्यम् । किं क्रमेण तहत्वेन जाणसिद्धाया अभावात् , प्रतिनियतकार्यकारणभा- हणम् , आहोस्विद् योगपद्येन । तत्र यदि क्रमेण तद्गहणम् । वाभावप्रसक्रिसद्भावात् सकलव्यवहाराच्छेदप्रसक्तिः । अ- तदयुक्तम् । अतीतानागतवर्तमानपदार्थानामपरिसमातेस्तथाभ्याससहायानां चक्षुरादीनामपि सर्वज्ञावस्थायामतीन्द्रि- ज्ञानस्याप्यपरिसमाप्तितः सर्वज्ञताऽयोगात् । अथ युगपत् यदर्शनशक्तिः, नच व्यवहारोच्छेदः, अस्मदादिचक्षुरादीना- अनन्तातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारि तद्वदनमभ्युपगम्यते । मनभ्यासदशायां शक्तिप्रतिनियमादस्मदादय एव व्यवहारि- ददयसत् । परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामे कशाने प्रति
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(१) अभिधानराजेन्द्रः
सवणु
"
भासासंभवात् । संभवे वा न कस्यचिदस्य प्रतिनियतस्य तड्राहकं स्थादिति किं तज्ज्ञानेन दादिभ्योऽपि व्यवहारिभ्यो हीनतर इति कथं सर्वशः । किंच यदि युगपत् सर्वपदार्थानं तदेकणे एव सर्वपदार्थग्रहणात् द्वितीयक्षणे किञ्चिज्ज्ञ एव स्यात् ततश्च कि तेन तादृशा किञ्चिज्ज्ञेन सर्वशत्वेन । नचानाद्यनन्तसंवेदनस्य परिसमाप्तिः, परिसमाप्तौ वा कथमनाद्यनन्तता । किंच - सफलपदार्थसाक्षात्करणे परस्परागादिसाक्षात्करणमिति रागादिमानपि स स्याद्विट हव । अथ रागादिसंवेदनमव नास्ति, न तर्हि सकलपदार्थसाक्षात्करणम् । तन प्रथमः पद्मः अथ शक्रियुक्त्वेन सकलपदार्थसंवेदन ज्ञानमभ्युपगम्यते तदपि न युक्तम् सर्वपदार्थातच्छक्तुमशक्तेः कार्यदर्शनानुमेयत्वाच्छुक्लीनाम् । किंचसर्वपदार्थज्ञानपरिसमाप्तावपीयदेव सर्वमिति कथं पारेकछेदशक्तिः । अथ वेदनाभावादभावोऽपरस्येति सर्वसंवेदनम् । अवेदनाद्वाऽपरस्पति कुतो निश्चयः। तदपेक्षया तपोष लब्धिलक्षणप्रत्यात्। तथाभूतानुपलब्ध्याभावनिश्व इति चेत्। एवं सति स पंवेतरेतराश्रयदोषः सर्वशत्वनिश्वये सद्भावनिश्चयः, तदभावनिश्चये च सर्वज्ञत्वनिश्चय इति नैकस्यापि सिद्धिः । तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः । अथ यावदुपयोगि प्रधानभूतपदार्थजातं तावदसी बेसीति तत्परि शानात्सकलशः, तदपि सर्वपदार्थावेदने नियमेन न संभवतिलपदार्थव्यवच्छेदेन तेषामेव प्रयोजननिकाय मिति सकलपरिज्ञानमन्तरेणाशक्य साधनमिति न तृतीयोऽ पि पक्षो युक्तः ।
च
किचमिव समाधानसमये विकल्पाभावात्कथं वचनम् । वचने या विकल्पसंभवात् समाधानविरोधान समाहितस्वमिति भ्रान्तच्छास्थानः स स्यात् । कधेयासीतानागतग्रहणम् अतीताः स्वरूपस्यासंभवात् सदाकारग्रह तैमिरिकन स्यात् । थाती सादिकमप्यस्ति एवं सत्यतीनादित्यादेरभाव एव इति सर्वज्ञव्यवहारोच्छेदः । श्रथ प्रतिपाद्यापेक्षया तस्याभावः । तदप्ययुक्तम् । नहि विद्यमानमेवापेक्षया तदैवाविद्यमानं भ वति । तस्यानुपब्धेरविद्यमानत्वमेवेति चेत् । तदनुपलब्धिरेवास्तु कथमविद्यमानम् । नान्यस्याभावे ऽन्यस्याप्यभावः । अतिसङ्गात् । तस्यासादविद्यमानत्येन प्रतिभातीति चेत् स सहि भ्रान्तः सद्विपसंभवात् तस्यासद्विकल्पस्य वि पीकरणात्सर्योऽपि भ्रान्तं पति कथं सर्ववित्। अथ विकल्पस्यापि स्वरूपेऽभ्रान्तत्वमेवः तेन तस्य वेदनं सर्वशज्ञानमभ्रान्तम् । एवं तर्हि साक्षात्करणमेव केवलं कथमतीताद्यविद्यमानसाक्षात्करणम् । ततश्वातीतानाग[[पदार्थाभाषातत्साक्षात्करणासंभवात्र सद्द्महात्सर्वशः। किंव-स्वरूपमायेने तन्मात्रस्यैव विद्यमानायाच संवेदनात् न सर्वव्यवहारः । तद्भावे या सर्व सर्ववित् स्यात् । अथापि स्यात् सत्यस्यदर्शना नागतादिदर्शनम्, ततो व्यवहार इति । तदध्ययुक्तम् । सत्यस्वप्नदर्शनस्य स्वरूपमात्र वेदनेन सत्यासत्यविभागः किभवानुमानिकः सत्यस्यष्णस्वरूपसंवेदनस्य तम्माजपर्य तिरात् । किंच अतीतानागतकालसंपदा
।
२४६
सम्बष्णु श्रीनामतीतानागतत्यम्, तजि भवत्किमपरातीतानागतकालसंबन्धादतीतानागतत्वमभ्युपगम्यते, आहोखित् स्वत एव । यद्यपरातीतानागत फालसंबन्धारकालस्थातीतानागतयम् तदा तस्याप्य परातीतानागतकाल संवन्धादतीतानागतत्वं तस्याप्यपरस्मादित्ययस्था अथातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धात्कालस्यातीतानागतत्वम् तेनायमदोषः । ननु पदार्थक्रियाणामपि कुतोऽतीतानागतत्वम् । यद्यपरातीतानागतपदार्थक्रियायात्तदाऽत्रापि वानय था। अतीतानागतकालसंवन्धारपदार्थक्रियामतीतानाग तत्वं तर्हि कालस्याप्यतीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धादतीता नागतत्वमिति व्यक्तमितरतराश्रयत्वम् । तन्न प्रथमः पक्षः । श्रथ स्वरूपत एव कालस्यातीतानागतत्वं तदा पदार्थानामपि स्वत पवातीतानागतत्वमस्तु किमतीतानागतकालसंबन्धित्वेन । तच्च पदार्थस्वरूपमस्मदादियांनेऽपि प्रतिभातीति नातीतानागतपदार्थग्राहित्वेनास्मदादिभ्यः स शस्य विशेषः । अपिच-संबन्धस्यान्यत्र विस्तरतोनिषिद्धत्वान्न कस्यचित्केनचित्संबन्ध इत्यतीतानागतादिसंबद्धपदार्थप्राहिशानमसदर्यविषयत्वेन खान्तं स्यादिति न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्तः । भवतु वासर्वज्ञः, तथाप्यसौ तत्कालेऽप्य सर्वज्ञैर्ज्ञातुं न शक्यते । तद्ग्राद्यपदार्थाज्ञाने तद्ग्राहरुकशानयतः केनचित्प्रमाणेन प्रतिपतुमशक्तेः । तदुक्तम्
"
“सर्वोऽयमिति खेत- चरकालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानशेयविज्ञान - रहितैर्गम्यते कथम् ? ॥ कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा, भवेयुर्वेद्दवस्तव । य एव स्वात्सर्वज्ञः सन" |
(लो० वा० सू० २ श्लो० १३४ । १३५ । ) नम्र तदपरिज्ञाने सत्यतत्वेनागमस्य प्रामात्यमवगन्तुं शक्यम् मे राद्विहितानुष्ठानं प्रवृत्तिरप्यसङ्गता । तदुक्तम्सर्वनायुद्ध-येनेव स्थान प्रति
तद्वाक्यानां प्रमाण मूलाशने न्यवाक्पयत् । इति । (ला० वा० सू० २ श्लो० १३६ )
"
संदेयं सर्वशसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात् तत्सङ्गावबाधकस्य चानेकधा प्रतिपादितत्वात् सर्वज्ञाभावव्यवहारः प्रतुिं युक्तः तथाहिये वाधकप्रमाणगोचरतामापन्नास्ते असदिति व्यवहर्त्तव्याः, यथा अङ्गुल्य करियूथादयः बाधकप्रमागोचरापन्नश्च भवदभ्युपगमविषयः सकलपदार्थसार्थसाक्षात्कारी व्यवहारविषयत्वं सर्वविदो ऽभ्युपगन्तव्यमिति पूर्वपक्षः।
( उत्तरपक्षः सर्वशसत्तासाधनम् ) - अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम्- ' ये देशकालस्वभावव्यवहिताः प्रमाणविषयतामनापन्ना न ते सद्व्यवहारगोचरचारिणः' इत्यादि । तदुक्तम् । सर्वविदि प्रमाणविषयस्वस्थ प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् प्रसिद्धो देतुस्तदविषयायलक्षयः । पप्यभ्यधायि न तावद्भवज्ञान संस्तद्भावः अक्षाणां प्रतिनियतविषयत्वेन तत्साक्षात्करण्व्यापारासंभवात् । तत्समे साधितम् । ययक्रम् नाप्यनुमानस्य तत्र व्यापारः । तद्धि प्रतिबन्धग्रहण पक्षध
.
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सव्वष्णु
सि
। नहि वयस्यमस्थाना वर्मा
= दे
मिर्विकत्वमवगम्यते, यसमा कल्ला । तत्र न तावदायर पद पद त स्वभावमात्रसमयन्दित धूमवणम् । तदमनेः कारणत्वायकस्यचित्का
U RE
शक्यम् । अतिप्रसङ्गात् । प्रत्यक्षव तस्य चित्रभानुं मति मनु तस्यापि कार्य
म प्रति
गावकर
धूमस्य कवयः प्रयाप्रियस्वरूपग्राहिणा
"
सम् शांत न पुनरप्रतिकार्यत्वम् । नहि मात्रेण का कारणभावाभिरपि स्वस्वरूपकापतोरपि कार्य
यस्य प्रविभासानन्तरं यउगम इति नायं विभासेकचित् तिभासमम्वरक स्वनिबन्धन
यस्य
Selado seu अनि समानम्
जातिव
प
तिबन्धग्रहणे प्रत्यक्षसद् भवत्वानुमा प्रत्ययात्तत एव तत्प्रभनितु घूम
बजारः
पण
यस व
अनुदानका
डा
क
शरभार
( ५=२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स
Jeder
त
तकन
पादिकालमास्तवणिका हिसा पाहिज्ञाननारीश्रयं सविकल्पकशानं जनाविनः प्रतिभासात् । तदप्यसङ्गतम् । पूर्व
च
रतावान उसे व्यवस्था
न
व्यापारासदुत्तरस्मरस्य जगदीनां च तदवगमशासत्रिपातवेलायामेव करस्य स्मरणादेरन नमो लोचनस्य सुरभिनवस्येव तत्रापि
सवणु तु यवसायिनां परं निमित्तं कल्पनीयम् तन प्रत्यक्षतः सविकल्पकादपि धूमपावकयोः कार्यकारणत्वापगमः । मा
प्रत्यक्षं तु तदयमनिमित्तं भवता नाभ्युपगम्यते । अपि च कार्यकारणभावः सर्वदेशकालावस्थितालिमपाचकव्यक्तिकोडीकर नायगतोऽनुमाननिमित्ततामुपगच्छ ति । नच प्रत्यक्षस्यति वस्तुनि सविकल्पकस्य, निर्विकल्पकस्य वा व्यापारः संभवतीत्यसकृत्प्रतिपादितम् । किंच न कारणस्य प्राग्भावित्वमात्रमेव पीदानामिव कारणत्वं येन तस्य कारस्वरूपाभेदा तत्स्वरूपग्राहिण प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावस्य कारणत्वस्याऽप्यवगमः; केवलं कार्यदर्शनादुत्तरकालं तनिश्चीयते, किंतु-कारणस्य कार्यजननशक्तिः कारसत्वंम् । सा च शक्तिं प्रत्यक्षावसेवा, अपितु कार्य
,
समस्या भवता परिकरियता क्रमशः सर्व भावनां कार्यार्थापत्तिगोचराः"। (लो० वा०सू०५०० २५४ ) ततः कथं प्रत्यक्षात्कारणस्य कारणत्वावगमः । अथ कार्यादेव कारणस्य कारणत्वावगमो भवतु, किं नश्चिनम् । ननु कार्यात्कारणस्य कारवत्यावगमे ऽनुमानात् मः, तत्र च तदपि कार्य लिङ्गभूतं यदि कारणशक्तिमवगमयति तदाशकिार्ययोः प्रतिबन्धग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् । सच प्रतिबन्धावगमो न प्रत्यक्षादिति प्रतिपादितम् । अनुमानातदवगमे इतरेतरावानय थादोषावतारो ऽवापि समानः । अर्थापत्यनुमानेऽन्तर्भावः प्रतिपादित इति न प्रसिद्धानुमानस्यापि प्रवृतिर्भवदभिप्रायेण । अथ वहिगतधर्माविधानात् घूमस्य तत्पूर्वकत्वं कुतश्चित्प्रमाणात्य सिद्धमिति मत्स्य तत्पूर्वकत्वस्याप्तिसिद्धिः । अन्यथा धूमादम्यसिदेः सकललोकप्रसिद्धव्यवहाराभावः । अनुमानाभावे प्रत्यक्षतोऽपि व्यवहारासम्भवात् । तर्हि वचनविशेषस्यापि यदि विशिष्टकारणपूर्वकल्यं तत एवं प्रमाणान्यसिजम् विवादाध्यासिते वचने वचनविशेषत्वात्साध्येत तदा को अपराधः । तदयुक्तम् -' पक्षधर्मत्वनिश्चये सति हेतोरनुमानं प्रवर्त्तते; नच सर्ववित् कुतश्चित्प्रमाणात्सिद्धः ' इत्यादि । तदप्ययुकम्। यतो यदि सर्वविदो धर्मित्वं क्रियेत, तदा तस्यासिद्धत्वात्स्यादव्ययक्षधर्मत्वलक्षणं दूपणम् गदा तु नविशेषस्य धर्मित्वं तस्य विशिष्टकारणपूर्वक साध्यामोपचितम् तदा त तद्विशेषत्यादिलो हेतुरुपादीयमानः कथमपक्षधर्मः स्यात् । नचापक्षधर्मादपि हेतोरुपजायमानमनुमानं प्रमार्ग भवताऽभ्युपगच्छता पक्षधर्मत्वाभावलक्षणं दूषणमासञ्जयितुं युक्तम् । अन्यथा"पित्रोत्तामा । सर्वलोकप्रसिद्धा न, पक्षधर्ममपेक्षते ॥ १ ॥ " इत्याद्यपक्षधर्मदेतुसमुन्यानुमानमामाश्वप्रतिपादनं भवतोउध्ययुक्तं स्यात् । यदप्यभ्यधायि - सर्वशसत्तायां साध्याय अर्थी दोषजाति वर्त्ततेत्यादि । तत्र स्याप्ययं दोषः यदि तरसता साध्यत्येनाभ्युपगम्यते, यापूर्वीकारेण वचनविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वं साध्यमित्युक्तम् तत्र चास्य दोषस्योपक्षेपोऽयुक्त एव यदप्यभ्यधायि यद्यनियतः कश्चित्सकलपदार्थशः साध्योऽभिप्रेत इत्यादि । तदप्यसङ्गतमेव । यतो नास्माभिः प्रतिनियत एव कश्चित्सर्वशेोऽनुमानात्साध्यते,
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"
लोचनव्यापा
दाकारामप्रत्यक्षनिबन्धस्मरणकारिचर्या मिति प्रत्यथः समनुभूयत नवं स्यात् । अथ लाई प्रत्ययस्तज, किन्तुभ Jurrat समानम् । प्रत्ययस्य
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ܪ
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( ५८३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सव्व
किन्तु विशिष्टकारणपूर्वकत्वं विशिएशब्दस्य तथ] स्व साभ्यव्याप्तहेतुयसात्साध्यधर्मिणि सिद्धिमासाद हेतु पक्षधर्मत्वबलात्प्रतिनियतपूर्वक सिद्धिमासादयति । नच तत एव हेतोरन्यस्यापि सर्वज्ञस्य सिद्धेः, अन्यागमाश्रयणमपि भवतां प्रसज्यते इति दूषणम् । श्रन्यागमानां
विषय एव प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाप्रामाण्यस्य व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् कथं तत्प्रणेतृणामपि सर्वज्ञत्वसिद्धिः । यच्चान्यदभिहितम् । न कचित्सर्वपादकः सम्यग् हेतुः संभवति । तदप्यसङ्गतम् । तत्प्रतिपादकस्य सम्यगृहेतोर्वचनविशेषत्वादेः प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । पश्चान्यदभिहितम् सबै पदार्थाः कस्यचिप्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादग्यादिवदित्यत्र यदि सकलपदार्थमाहिप्रत्यक्षत्वं साध्यमित्यादि । तदप्यसङ्गतम् । एवं साव्यविकल्पने ऽग्न्यादेरप्यनुमानान्न सिद्धिः स्यात् । तथाहिअत्राप्येवं वशपते। यदि प्रतिनियत साध्यधर्मिधमों वह्निः साध्यत्वेनाभिप्रेतस्तदा तद्विरुदेव दृष्टान्तधर्मितिर्मिधर्मेण पावकेन व्याप्तस्य धूमलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वात् विरुद्धो हेतुः स्यात् साध्यविकलश्च दृष्टान्तः 1 अथ दृष्टान्तधर्मिधर्मः साध्यधर्मिणि साध्यते, तदा प्रत्यक्षादिविरोधः । श्रथोभयगतं वह्निसामान्यं तदा सिद्धसाध्यतादोषः । तथा प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानमित्यादि यदुक्तम् तद् धूमत्यलक्षणेऽपि देवी समानम् । तथाहिअत्रापि कि साध्यधर्मिधर्मो हेतुत्वेनोपात्तः, उतान्त धर्मिधर्मः, अथोभयगतं सामान्यम् । तत्र यदि साध्यध
धर्मो हेतुः स दृष्टान्तधर्मिणि नान्येतीत्यनन्ययो हेतुदोषः । अथ दृष्टान्तधर्मिधर्मः स साध्यधर्मिण्यसिद्ध इत्यसिद्धताहेतुदोषः । अथोभयगतं सामान्यं तदपि प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष महान पर्वतप्रदेशव्यानि संभव तीति हेतोरसिद्धता तदवस्थिता । अथ पर्वतप्रदेशाश्रिताग्नितद्धूमव्यक्लेरुत्तरकालभाविप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वेन न महानसोपलब्धधूमव्यक्त्याऽत्यन्तवैलक्षण्यमिति
मान्याभावः । ननूभयगत सामान्यप्रतिपत्ती ततोऽनुमानमवृतिप्रवृती च तदर्थक्रियार्थिनस्तत्र प्रवर्तमानस्य प्रस्वमवृत्तिस्तस्य च सत्यामत्यन्तवेलामा बल तत्सद्भावे चोभयगतसामान्यसिद्धितस्तदनुमानप्रवृत्तिरिति चक्रकदूषणावकाशः । अथ कण्ठक्षीणतादिलक्षणधर्मकलापसाधर्म्यान महान सपर्वत प्रदेश सङ्गतधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षएयमित्युभयगतसामान्यसिद्धी न धूमानुमान हेत्वसिद्धतादिदोषः तर्हि वाध्यायिसंवादादिधर्मकलाप साधर्म्यस्य व नविशेषव्यद्वियेऽप्यत्यन्त चैलक्षण्य निवर्त्तकस्य सद्भावेन कथं न तद्विशेषायसामान्यसंभवः प्रमेत्तु यथा प्रकृतसाध्ये हेतुर्भवति तथा प्रतिपादयिष्यामः, आस्तां वायत् । यतु नापि शब्दानत्वद्धिरित्यादि प्रतिपादितम् । तत्साध्यारोपाप्रातस्याधिरस्तम् । ययुक्तम्ये देशकालेत्यादिप्रयोगे नाखियां हेतुरिति । तदप्ययुक्तम् । अनुमानस्य तदुपलम्भस्वभावस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वना नुपलम्भलक्षणस्य हेतोः परप्रयुक्तस्यासिद्धत्वात् । अत एव सद्यवहारनिषेधश्चानुपलम्भनिमित्तोऽनेनेत्याद्यसारतया स्थितम् । अथ यथाऽस्माकं तत्सद्भावावेदक प्रमाणं नास्ति,
सव्वण्णु
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तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्तीत्यादि यावत्प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वशप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितमिति, यदुक्तम् । तदप्यचारु । यतः ' सर्वज्ञो दृश्यते ताव-शेदानीम् ' (श्लो० वा० सू० २ श्लो० ११७ ) इत्यादिना तत्सद्भावोपलम्भकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिप्रतिपादनद्वारेण यदभावाण्यप्रमाणप्रतिपादनं तत्तद्भावांचे दकस्वतन्त्राभावाख्यप्रमाणाभ्युपगमयतिरेकेणासंभवद्भवत मिथ्यावादितां सूचयति । यदप्यवाद । तथाच-प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण भगवतो जैमिनेः सूत्रमित्यादि । तदप्यसङ्गतम् । यतः प्रसङ्गसाधनस्य तत्पूर्वकस्य च विपर्ययस्य व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः व्यापक निवृतो व्याप्यनि वृत्तिरवश्यंभाषिनीच प्रदश्यते तत्र यथाक्रमं प्रवृतिः । अत्र तु प्रत्यक्षत्वस्य सत्संप्रयोगजत्वेन, तस्य च विद्यमामोपलम्भनत्वेन तस्यापि धर्मादिकं प्रत्यनिमित्तत्वेन क व्याप्यव्यापकभावावगमः, येन प्रसङ्गतद्विपर्यययोः प्रवृत्तिः स्यात् । ननुक्रमेवैतत् स्वात्मन्येव सत्यमुक्रम् नतु युक्रमुम् । प्रयुक्ता च सर्व चक्षुरादिकरणग्रामप्रभवं प्रत्यक्ष सनिहितदेशकालपदार्थान्तरस्वभावाविप्रकृष्टप्रतिनियतरूपा दिग्राहकं सर्वत्र सर्वदा चेति न व्याप्यव्यापकभावग्राहकं प्रमाणमस्ति विपर्ययश्चोपलभ्यते योजनरात चिप्रकृष्टस्याथेस्य ग्राहकं संपातिगृध्रराजप्रत्यक्षं रामायणभारतादौ भवत्यमात्येनाभ्युपगंत यंत तथेदानीमपि भवराहपिपीलिकादीनां चक्षुः श्रोत्रप्राणजस्य प्रत्यक्षस्य यथाक्रमं रूपशब्दगन्धादिषु देशविप्रकृष्टेषु प्रवृत्तिरुपलभ्यते । तथा कालविप्रकृष्टस्याप्यतीतकालसंयन्धिन्यस्य पूर्वदर्शनसंघ
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न्धित्वस्य च स्मरणसन्यपेक्षलोचनादिजन्यप्रत्यभिनाप्रत्यक्षपुरो व्यवस्थिते ऽर्थे भवताऽभ्युपगम्यते । अन्यथा“देशकाखादिभेदेन तदाऽस्त्यवसरां मितेः (सो० वा० सू०४, लो० २३३ ) " इदानींतनमस्तित्वं, नहि पूर्वधिया गतम् ॥ ( लो० वा० सू० लो० २३४ ) इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रत्यभिशाप्रत्यक्षस्यागृहीतार्थाधिग
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त्वं पूर्वापरकालसंवन्धित्वलक्षणनित्यत्वमाक तिपाद्यमानमतं स्यात् प्रथातीतातीयाध त्वं पूर्वदर्शनसन्धि वा वर्तमानकालसंन्धिनः पुरोच्य स्थितस्यार्थस्य यदि चतुरादिप्रभवप्रत्यभिज्ञानेन गृह्यते, तदा " संबद्धं वर्तमानं च गृहांत चुरादिभिः " ( सो० वा० सू० ४ लो० ८४) इति वचनं विरुद्धार्थे स्यात् । तथाऽतीन्द्रियकालदर्शनांदमानार्थविशेषत्वेन धर्मादेरपि ग्रहणप्रसङ्गात् प्रसाधनतद्विपर्ययवृत्तिः स्वयमेव प्रतिपादिता स्यात् नत्यमेवात्र दोषः कालवि ग्राहकत्वेन इन्द्रियजप्रत्यक्षस्य प्रतिपादयितुमरमा भिरभिप्रेत इति कस्यापोपालम्भः । अथवर्तमानकाल बद्धे विशेष्ये पुरोवर्त्तिनि व्यापारवच्चतुस्तद्विशेषणभूतेऽतीन्द्रियेऽपि पूर्वकालदर्शनादौ प्रवर्त्तते । श्रन्यथा चक्षुर्व्यापारानन्तरं पश्यामीति विशेष्याम्यनं प्रत्यभिज्ञानं नोपपद्येत नागृहीतविशेषणविशेष्ये बुद्धिरुपजायते द estग्रहण इव दरिडबुद्धिः । नच धर्मादाययं न्याय: संभवतीति चेत् । ननु धर्मादे: किमतीन्द्रियत्वाच्चतुरादिना
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पूर्वदृष्टुं
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सव्वगणु
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ग्रहणम् उत अविद्यमानत्वात् शाहोस्वित् अधिरोपणत्वात् । तत्र नाद्यः पक्षः । श्रतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेग्रहगाभ्युपगमात् । नाप्यविद्यमानत्वात् भावधर्मादेरियातीतकालादेरविद्यमानत्येऽपि प्रतिभासस्य भाषात् । अथाविशेषत्वादप्रतिभासः । तदप्यसङ्गतम् सर्वदा पदार्थजनकत्वेन, द्रव्यगुणकर्मजन्यत्वेन च धर्मादेः सर्वपदार्थविशेषणभाव संभवात् । अतीतातीन्द्रियकालादेरिव तस्यापि विशेष्यग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणसंभव इति कथं धर्मप्रत्यनिमित्तत्प्रसङ्गसाधनस्य यस्य वा संभयः था प्रज्ञादिमादिद्वारे संस्कृतं यथा कालविप्रकृष्टपदार्थग्राहकमुपलभ्यते, तथा धर्मादेरपि यदि ग्राहक कस्यचित्स्यात्, तदा न कश्चिद्दोषः । अपि च- अनालोकान्धकारव्यवहितस्य मूषिकादेनचरवृपदेशादेशचा ग्राह कमुपलभ्यते, तथा यद्यतीन्द्रियातीतानागतधर्मादिपदार्थसाक्षात्कारि कस्यचित्तदेव स्यात्, तदाऽत्रापि को दोषः । नय जात्यन्तरस्यान्धकारव्यवहितरूपादिवादकं चतुएं न पुनर्मनुष्यधर्मण इति पतिसमाधानमत्राभिधातुं युक्रम्। मनुष्यधर्मणोऽपि निर्जीविकादेर्द्रव्यविशेषादिसंस्कृतं चक्षुः समुद्रजलादिव्यवहितपर्वतादिग्रहणे समर्थमुपलभ्यत इति धर्मादपि देशकालस्वभावविप्रस्य कस्यचित्पुरुषविशेपस्य पुरुषादिसंस्कृतं चक्षुरादि ग्राहकं भविष्यतीति न कश्चित् भावयतिषमः । अथ करणस्य प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेनान्यकरणविषयग्राहकत्वे स्वार्थातिक्रमो व्यवहारविलोपी स्थात् । ननु श्रूयत एव चक्षु या शब्दश्रवणं प्राणिविशेषाणाम्, 'चक्षुःश्रवसो भुजङ्गा' इति लोकप्रवादात् । मिथ्यास प्रयाद इति चेत् । नैतत् । प्रवादबाधकस्याभावात् कर्णच्छिद्रानुपलब्धेश्च । दन्दशूकचक्षुषो जात्यन्तरत्वादिव्युत्तर मंत्रोपयोगि । श्रयत्रापि प्रकृष्टसंभारजनित सर्वविषि समानत्वात् । तदेवं धर्मादिसमस्तपदार्थग्राहकत्वेन चक्षुरादिजनितप्रत्य - क्षस्य विरोधात न प्रत्यक्षत्वत्संप्रयोगत्या पकभावसिद्धिरिति न प्रखङ्गपर्ययाः प्रवृत्तिरिति न ततस्तरप्रतिक्षेपः । एतेन यदि पभिः प्रमाणैः स्वात् सर्वशेः इत्यादि वातिपादित प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण युक्तिजालमखिलं निरस्तम् व्याप्रितिषेधस्य पूर्वीक्रमकारेण विहितत्वात् । यथ किं प्रमायान्तरायर्थस्य वक्तृत्वादित्यादिः तद् धूमादग्न्यनुमानेऽपि समानम् । तथाहि शक्यम् कि साध्यधर्मियन्धी धूमदेतुनोपन्यस्त इत्यादि पावसिद्धः प्रतिबन्धोसर्वशत्ववक्तृत्वयोरग्निधूमयोरिवेति पर्यन्तम् । तदप्ययुक्तम् । यताऽसर्वशत्यतृत्वयोरिव नामियो कार्यकार तिबन्धस्य तद्ग्राहकप्रमाणस्य वा भावः । नहि वह्निसद्भावे धूमो दृष्टस्तदभावे च न दृष्ट इत्येतावता धूमस्याग्निकार्यत्वमुच्यते, किन्तु | "कार्य धूर्मो हुतभुजः, व कार्य धर्मानुवृत्तितः"। नवासी दर्शनादर्शनमात्रगम्यः किन्तु विशिष्टत्त्यानुपलम्भाख्यात्प्रमाणात् । प्रत्यक्षमेव प्रमाणं प्रत्यक्षानुपलभाभियम संदेय कार्यकारणाभिमतपदार्थविपर्य प्रत्यक्षम् तद्विविकाम्यवस्तुविषयमनुपलम्भशब्दाभिधेषम १-३० वा० सू० २ श्लो १११ ।
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( ५८४ ) अभिधान राजेन्द्रः । मध्वण्णु कदाचिदनुपलम्भपूर्वकं प्रत्यक्षं तद्भावसाधकं, कदाचित्प्रत्यक्ष पुरःसरोऽनुपमम्भः । तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां सन्निधानात् प्रागनुपलब्धं सद् धूमादि, तत्सन्निधानादुपलभ्यते, तस्य तत्कार्यता व्यवस्थाप्यते । तथाहिएतावद्भिः प्रकारैर्धूमो ऽग्निजन्यो न स्यात्, यद्यग्निसन्निधानास्यापि सत्र देथे स्वात् अन्यतो वाऽऽगच्छेत तुको वा भवेत् तदेतत्सर्वमनुपलम्भपुरस्सरे प्रत्य निरस्तम् । एतेन प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसविधानानन्तरमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्वादिनि निर स्तम् । तथाहि तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम्, अन्यदेशादागमनम् अन्धाकारणत्वं च निपेत तदा स्यादेव कुम्भकारकार्यताः केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यम् । एवं तावदनुपलम्भपुरस्सरस्य प्रत्यक्षस्य तत्साधनत्वमुक्तम् । तथा प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भोऽपि तत्साधनो येषां सन्निधाने प्रवर्त्तमानं तत्कार्य दृष्टं तेषु मध्ये यदैकस्याप्यभावो भवति तदा नोपलभ्यते तत्तस्य कारणमितरत्कार्यम् । नथादिसाि भवतो धूमस्यानीने कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति अन्यादीनी - यनुपलम्भः । एवं परस्परसहित प्रत्यक्षानुपलम्भ
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कार्यकारषु निःसन्दिग्धं कार्यकारणार्थ साधयतः । सर्वकाले धाने भवतो धूमस्यानजिक दाचित्सदसतेारजन्यथिनांकनादश्याम वेत् । तत्र न तावत्प्रथमः पक्षः । असतो जन्यत्वात् । संदेव च न जन्यते इति त्वदभिप्रायात्, सत एव जन्यमानत्वानुपपत्तेः, कार्यत्वस्य च कादाचित्कत्वेन सिद्धत्वात् । नाप्यहेतु. कल्यम् । कादाचित्कयेनैवात्येतद्योगात् नाप्यदश्यदेतुकत्वम् धूमस्याम्यादिसामयन्ययस्यतिरेकानुविधानात् । अथापि स्यात् अदृश्यस्यायं स्वभावो यदस्यादिविधा नए धूमं कर्पूरादिकाले सुन्धादिकं च करोति नान्यदेति, तत्किमग्निमन्तरेण कदाचिद् धूमोत्पत्तिर्दा, येनैवमुच्यते । नेति चेत्, कथं नाग्निकार्यो धूमः तद्भावे भावात् । धूमोत्पत्तिकाले च सर्वदा प्रतीयमानोऽग्निः, काकतालीयन्याये व्यवस्थित सीकिकम् अथ स एवाश्यस्य यद् निसान एव धूर्म करोति यद्यग्निनानासा यते किमग्निसमात्न पूर्व पश्चात् यात नचान्यदा करोतीति तस्य तज्जन्यस्वभावसव्यपेक्षस्य धूमजनने तदेवं पारंपर्येणाग्निजन्यत्वं धूमस्य । किंच यथा दे शकालादिकमन्तरेण धूमस्यानुत्पतेस्तदपेक्षा प्रतीयते तथाअग्निमन्तरेणापि धूमस्यानुत्पातदर्शनात्तपेक्षा केन वार्यते, तदपेक्षा च तत्कार्यते यथा वादश्यभावे एव धूमस्य भावाद् तज्जन्यत्वमिष्यते, तथा सर्वदाग्निभावे एव धूमस्य भाषदर्शनात्तज्जन्यता किं नेष्यते यावतां च सन्निधाने भावो दश्यते तायां तु सर्वेषामित्यस्यादिसामग्रीजन्यत्वाद्धूमस्प कुतोऽग्निव्यभिचारः । नचायें प्रका
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सर्वयोः संभवति सर्वशत्यधर्मानुविधानस्य यय प्रदर्शनात् । तयाहि-यदि सर्वदन्यत्दाखवृत्या किचिशत्यत्ययते तदा तदनुविधा नादर्शनाद तज्जन्यता वचनस्य । नहि किञ्चिज्ज्ञत्वतरतमभावात् वचनस्य तरतभाव उपलभ्यते । तथाहि
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सवण्णु
(५८५) सवण्णु
अभिधानबराजेन्द्रः। किश्चिमत्वं प्रकृष्टमत्यल्पविक्षानेषु कृम्यादिषु । नच तेषु रस्सरमेव ।नच सर्वदेशादाबग्निसंबद्धधूमव्यक्तिवशिष्टस्य धू. वचनप्रवृत्तेरुत्कर्ष उपलभ्यते । अथ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्या स. मसामान्यस्य केनचित्प्रमाणेनावधारणं संभवति। नच मचंचत्वाभावोऽसर्वज्ञत्वं तत्कार्य तु वचनम् , तदा शानरहि- हानसादाग्निनियतधूमव्यक्निविशिष्टं धूमसामान्य प्रतिपते मृतशगैरे तस्योपलम्भः स्यात् । नच कदाचनापि त.
चमन्यत्रानुयायि व्यक्नेरनन्वयात् । यश्च धूमसामान्यमनुतत्रोपलभ्यते । ज्ञानातिशयवत्सु च सकलशास्त्रव्याख्यात
यायि, तन्नाग्न्यव्यभिचारि । तस्मात् सामान्यव्याप्तिग्रहणषु वचनस्यातिशयभावो दृश्यते इति ज्ञानप्रकर्षतरतमाद्य. वादिनामपि कथं विशिष्टधूमसामान्य सर्वत्राग्निना व्याप्तं नुविधानदर्शनात् तत्कार्यता तस्य : धूमस्येवाग्न्यादिसाम- प्रतिपन्नमिति तुल्यं चोद्यम् । अथ विशिष्टधूमस्याम्यत्राग्निश्रीगतसुरभिगन्धाद्यनुविधायिनो यथोक्प्रत्यक्षानुपलम्भा- जन्यत्वे न किञ्चिद्वाधकमस्ति तदेवेदमिति च प्रतीतेः तभ्यां व्यवस्थाप्यते । अत एव कारणगतधर्मानुविधानमय का. सामान्य प्रतीतमिष्यत । अम्माकमपि तंदवेदं वचनमिर्यस्य तत्कार्यतावगनिमित्तं , न पुनरन्वयव्यतिरेकानुवि
ति प्रत्ययस्योत्पत्तस्तत्प्रतिपन्नमिति सदृशपरिणामलक्षणघामात्रम् ।
सामान्यवादिनो जैनस्य , भवतो वा को विशेषोऽत्र व
स्तुनीति यत्किञ्चिदेतत् । तेनाग्निगमकत्वेन धूमस्य यो न्यातदुक्तम्
यः सोऽचापि समान इति विशिष्टज्ञानगमकत्वं विशिष्टश" कार्य धूमो हुतभुजः , कार्ये धर्मानुवृत्तितः" । इति । यञ्च यत्कार्यत्वेन निश्चितं तत् तदभाव न कदाचिदपि
ब्दस्याभ्युपगन्तव्यम्। भवति । अन्यथा तद्धतुकमेव तन्न स्यादिति सकृदपि त- अथ शानविशपग्रहण प्रवृत्तं सविकल्प, निर्विकल्पकं वा तो न भवेद् भवति च ; यद्यत्र निश्चिताविसंवादं वचनं,
ततो भिन्नमभिन्न वा ज्ञानं न वचनविशेष प्रवर्तते । तस्य सत् तदविसंवादिक्षानविशेषादित्यात्मन्येवासकृनिश्चितमि
तदानीमनुत्पन्नत्वनासत्त्वात् । तदप्रवत्सेन च ज्ञानविशेषस्वति नान्यतस्तस्य भावः।।
रूपमेव तेन गृह्यते, न तदप्रेक्षया तस्य कारणत्वम् । बनन
विशेषग्राहकेणापि तत्स्वरूपमेव गृह्यते , न पूर्व प्रति कार्यतेन
त्वम् कारणस्यातीतत्वेनाग्रहणात् । नाप्युभयग्राहिणा भिन्न" यद्यस्यैव गुणदोषा-नियमेनानुवर्तते ।
कालत्वेन तयोरेकज्ञाने प्रतिभासनायोगात् । अत एव स्मरतन्नान्तरीयकं तत्स्या-दतो ज्ञानाद्भवं वचः " ॥१॥
एमपि न तयोः कार्यकारणभावावेदकम् । अनुभवानुसारेण अथ यदि नामाविसंवादिक्षानधर्मानुकरणतोऽविसंवादि तस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः अनुभवस्य चात्र वस्तुनि निषिद्धत्वात् । वचनमेकं तत्प्रभवं यथोक्तप्रत्यक्षानुपलम्भतोऽवगतं, तद- असदेतत् । यतः कार्यस्य न तावदसावनुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं न्यतो न भवति । तथाप्यन्यवचनस्य तद्धर्मानुकरणतो न धर्मः । असत्त्वात् तदानीम् । नाप्युत्पन्नस्यात्यन्तभिन्नं, तत्स. तत्कार्यत्वसिद्धिरिति तस्यान्यतोऽपि भावसंभवात्कुतो व्य- धर्मत्वादेव । तथा कारणस्यापि कारणत्वं कार्यनिष्पत्त्यभिचारः । न । ईदग्भूतं वचनमीक्षानतः सर्वत्र भवतीति निष्पत्त्यवस्थायां न भिन्नमेव । नापि तयोः कार्यकारणभावः सकृत्प्रवृत्तप्रत्यक्षतोऽवगमात् । ननु सकलव्यक्त्यनुगततिर्य- संबन्धोऽन्योऽस्ति, भिन्नकालत्वादेव संबन्धस्य च द्विष्ठत्वासामान्यानभ्युपगमे यावन्ति तथाभूतवचांसि तानि स- भ्युपगमात् । ततस्तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभार्वाणि प्रत्यक्षीकरणीयानि तथाभूतज्ञानकार्यतया । अन्यथै- वधर्मरूपं कारणत्वं कार्यत्वं च गृह्यते एव क्षयोपशमवशात् । कस्यापि वचस्तद्वयाप्ततयाऽप्रत्यक्षीकरण तेनेष व्यभि- यत्र तु स नास्ति तत्र कार्यदर्शनादपि न तन्निश्चीयते , चारी हेतुः स्यात् । नचैतावत्प्रत्यक्षीकरणसमर्थ प्रत्यक्षम् । यता नाकार्यकारणयोः कार्यकारणभावः संभवति । नापि तस्य सन्निहितविषयत्वात् । नचान्येषां स्खलक्षणानामनु- तेनाभिन्ना उत्तरकालं तयोः कार्यकारणता कर्तुं शक्या मानात् साध्यधर्मेण व्याप्तिग्रहणम् । अनवस्थाप्रसङ्गात् । तद. विरोधात् । नापि भिन्ना तयोः स्वरूपेणाकार्यकारणयक्तम् । यतः प्रत्यक्ष तथाभूत ज्ञानसन्निधान एव तथाभूतव- ताप्रसङ्गात् । नापि स्वरूपेण कार्यकारणयारान्तरभूचनभेदात् प्रतिपद्येवतथाभूतवचनव्यावृत्तं रूपमतथाभूत- तकार्यकारणभावस्वरूपसंबन्धपरिकल्पनेन प्रयोजनम् । ज्ञानव्यावृत्तज्ञानजन्यमित्यवधारयति यथाऽत्र; तथाऽन्यत्रा- तद्व्यतिरेकेणापि स्वरूपेणैव कार्यकारणरूपत्वात् । नच पि देशकालादौ तथाभूतज्ञानजन्यमवेत्यप्यवधारयति ।अन्य- भिन्नपदार्थग्राहि प्रत्यक्षद्वयं , द्वितीयाग्रहणे तदपेक्षं कार्यत्वं थात्रापि तथाभूतज्ञानजन्यतया न प्रत्यक्षेणावधार्येत । कारणत्वं वा ग्रहीतुमशक्कमिति वक्तुं युक्तम् । क्षयोपशएवं हि तथाभूताऽतथाभूत ज्ञानजन्यतया तथाभूतवचनस्य मवतां धूममात्रदर्शनेऽपि वह्निजन्यतावगमस्य भावात् । प्रतीतिः स्यात् , न तथाभूतज्ञानजन्यतयैव । प्रतीयते च अन्यथा बाप्पादिवेलक्षण्येन तस्यानवधारणात् , ततोऽतथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतं वचनम् , तस्मादन्यत्रान्यदा नलावगमाभावेन सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । कारणाच तथाभूतज्ञानादेव तथाभूतवचनमिति कुतो व्यभिचा- भिमतपदार्थग्रहणपरिणामापरित्यागवता, कार्यस्वरूपमारः । यश्च तपमन्यतो व्यावृत्तमवधारयितुं शक्नोति त- हिणा च प्रत्यक्षेण कार्यकारणभावावगमे न कश्चिदोषः । स्यैव तदनुमानम् यथा वाष्पादिविलक्षणधूमावधारणेऽन्य- न च कारणस्वभावावभासं प्रत्यक्षं न कार्यस्वरूपावभानुमानम् । किंच तिर्थक्सामान्यवादिनोऽपि गोपालघटिका- सयुक्तम् , प्रतिभासभेदेन भेदोपपत्तेरिति प्रेरणीयम् । दोधूमसामान्यस्याग्निमन्तरणापि दर्शनात् व्यभिचाराशङ्क- चित्रप्रतिभासिज्ञानस्य नीलप्रतिभासापरित्यागप्रवृत्तपीतायाऽग्निनियतधृमसामान्यावधारणनैक तदनुमानम् । अग्निनि- दिप्रतिभास्येकत्यवत्प्रकृतज्ञानस्यापि तदविरोधात् । नच यतधूमसामान्यायधारण चाग्निसंवद्धधूमव्यक्त्यवधारणपु-- चित्रज्ञानस्याप्येकत्वमसिद्धमिति चक्रं युक्तम् । तथाऽभ्यु
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(५८६) सवण्णु अभिधानराजेन्द्रः।
सम्वएणु पगमे नीलप्रतिभासस्यापि प्रतिपरमाणुभिन्नप्रतिभासत्वेन भ्युपगम्यते; येनायं दोषः स्यात्, किन्त्वभ्यासासादितभिन्नत्वात् , एकपरमाण्ववभासस्य चाऽसंवेदनात्प्रतिभा- सकलविशषसाक्षात्कारित्वलक्षणनैर्मल्यवता । अत एव प्रेरसमात्रस्याप्यभावप्रसङ्गात्सर्वव्यवहाराभावः स्यात् । अतः णाजनितं ज्ञानमस्मदादीनामप्यतीतानागतसूक्ष्मादिपदार्थप्रत्यक्षमेव यथोक्तप्रकारेण सर्वोपसंहारेण प्रतिबन्धग्राह- विषयमस्तीति सर्वज्ञत्वं स्यादिति यदुनम् , तदपि निरकमनुमानवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा प्रसिद्धानुमा- स्तम् । अभ्यासजस्य स्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयनस्याप्यभावः स्यात् । अथेयतो व्यापारान प्रत्यक्ष कर्तुम- स्यास्मदादीनामभावात् , लिङ्गजनितत्वेऽपि तज्ज्ञानस्यातीसमर्थम् , तस्य सन्निहितविषयबलोत्पत्त्या तन्मात्रग्राहक- न्द्रियधर्मादिपदार्थसंबन्धानवगमात्। लिङ्गस्यानवगतसाध्यस्यात् । तर्हि प्रत्यक्षेण प्रतिबन्धग्रहणाभावेऽनुमानेन त- संबन्धस्य च तस्य,धर्मादिसाध्यानुमापकत्वासंभवादित्यादि। ग्रहणेऽनवस्थतरेतराश्रयदोषसद्भावादनुमानाप्रवृत्तिप्रसङ्ग- यत्, तदप्यसङ्गतम् । अवगतधर्माद्यतीन्द्रियसाध्यसंबद्धस्य तो व्यवहारोच्छेदभयादवश्यमनुमानप्रवृनिनिबन्धनाविना- हेतोः प्रसिद्धत्वात् । तथाहि-स्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य भावनिश्चायकमपरमस्पष्टसर्वपदार्थविषयमूहाण्यं प्रमाणा- तदग्राहकत्वं विशिष्टद्रव्यसंबन्धपूर्वकम् , पीतहत्पूरपुरुषशातरमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा सर्वमुभयात्मकं यस्त्विति नस्येव । सर्वमनेकान्तात्मकमिति सकलसामान्यविषयस्य च कुतोऽनुमानप्रवृत्तिर्मीमांसकस्य । ततोऽसर्वशत्वरागादि- शानस्य तद्गताशेषविशेषग्राहकत्वं च सुप्रसिद्धमिति भवमत्स्यसाधने वक्तृत्वलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धस्य, तत्सा- ति पौद्गलिकातीन्द्रियधर्मादिसिद्धिरतो हेतोः । यदप्युक्तम् । धकप्रमाणस्य च प्रसिद्धानुमान इवाभावान्न प्रसङ्गसाध- अनुमानशानेन सकलशत्वाभ्युमगमेऽस्मदादीनामपि तत्स्यानानुमानप्रवृत्तितः सर्वज्ञाभाचसिद्धिः। विपर्ययेण वचनचि- त् , भावनाबलात्तद्वेशद्ये तु कामादिविप्लुतविशदशानवत इशेषस्य व्याप्नत्यदर्शनाद्विपर्ययसिद्धिरेच ततो युक्ता । वासर्वज्ञत्वं तज्ज्ञानस्य तद्वदुपप्लुतत्वमाप्तेरिति । तदप्यचा
यश्च सर्वज्ञज्ञानं किं चक्षुरादिजनितमित्यादि पक्षचतुष्टय- रु। यतो भावनाबलाज्शानं वैशद्यमनुभवतीत्येतावन्मात्रेण मुत्थाप्य चक्षुरादिजन्यत्वेन चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादि- दृष्टान्तस्योपात्तत्वात् न सकलदृष्टान्तधर्माणां साध्यधर्मिविषयत्वेन धर्मादिग्राहकत्वायोगस्तज्ज्ञानस्य दूषणमभ्य- ण्यासजनं युक्तम् । तथाऽभ्युपगमे सकलानुमानोच्छेदप्रस. धायि । तदप्यसङ्गतम् धर्मादिग्राहकत्वाविरोधस्य चक्षु- क्नेः । नचानुमानगृहीतस्यार्थस्य भावनाबलाद्वैशय , तत्प्रतिरादिक्षाने प्राकू प्रतिपादितत्वात् । अभ्यासपक्षे तु यत् दृष- भासिन्यभ्यासजे शानेऽनुभवतो वैपरीत्यसंभवः , येन तदणमभ्यधायि न सकलपदार्थविषय उपदेश संभवति, नापि वभासिनो ज्ञानस्य कामायुपप्लुतज्ञानस्येवोपप्लुतत्वं स्यात् । समस्तविषयोऽभ्यास इति । तदपि न सम्यक् । "उत्पादव्य- यदप्यभ्यधायि । रजोनीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिदर्शनवयध्रौव्ययुक्तं सत्" (त० अ०५ सू० २६) इति सकलपदार्थवि- द्रागाद्यावरणाभावे सर्वशज्ञानं वैशद्यभाग् भविष्यति , नच पयस्योपदेशस्य सामान्यतः संभवात् । नचास्याप्रामाण्यम् , रागादीनामावारकत्वं सिद्धमित्यादि । तदप्यसङ्गतम् । कुअनुमानादिप्रमाणसंवादतः प्रामाण्यसिद्धेः । अनुमाना- | ड्यादीनामप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामावारकत्वासिद्धेः। तथाहिदिप्रवर्तनद्वारण चैतदर्थाभ्यासे कथं न सकलविषयाभ्या- सत्यस्वप्नप्रतिभासस्यार्थग्रहणे , न कुज्यादीनामावारकत्वम् । ससंभवः । यदपि, नच समस्तपदार्थविषयमनुपदेशशानं निश्छिद्रापबरकमध्यस्थितेनापि भाव्यतीन्द्रियार्थस्यान्तरासंभवतीत्युक्तम् । तदप्यचारु । सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वा- वरणाभाव प्रमाणान्तरसंघादिन उपलम्भात् । कुड्यादीनां . दित्यनुमाननिबन्धनव्याप्तिप्रसाधकप्रमाणस्य सकलपदार्थ- त्वावरणत्वे तदर्शनमसंभाव्येव स्यात् । तथा प्रतिभासेविषयस्य संभवात् । अन्यथाऽनुमानाभावस्य प्रतिपादि- नादृष्टार्थेऽपि कुड्यादीनां नावारकत्वम् । यच्च प्रातिभं शानं तत्वात् । नच तज्शानवत एव सर्वशत्वाद् व्यर्थोऽभ्यासः । जाग्रदवस्थायां , शब्दलिङ्गाक्षव्यापाराभावेऽपि श्वो भ्राता सामान्यविषयत्वेनास्पष्टरूपस्यैवास्य ज्ञानस्य भावात् । मे श्रागन्ता इत्याद्याकारमुत्पद्यमानमुपलभ्यते तत्र कुड्याअभ्यासजस्य च सकलतद्गतविशेषविषयत्वेन स्पष्टत्वान्न दीनां कथमावारकत्वं , कर्थ वा विज्ञानस्य नातीन्द्रियवितदभ्यासो विफलः । यदपि तदम्थासप्रवर्तकं चक्षुरादि- शेषभूतश्वस्तनकालाद्यवभासकत्वम् , अनिन्द्रियजस्य च जनितं यद्यतीन्द्रियविषयमित्याद्यवादि तदपि प्रतिक्षि- ज्ञानस्य बाह्यसूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारित्वं न सिजम् । येन सम् । अतीन्द्रियार्थग्राहकत्वस्यान्यन्द्रियविषयग्राहकत्वस्य सर्वशज्ञानस्यानक्षजत्वे बाहातीन्द्रियादिसकलपदार्थसाक्षाच प्राक प्रतिपादनाद्यवहारोच्छेदाभावस्य च दर्शितत्वात् । करणं स्पपत्वं च न स्यादित्यादि प्रेयेत । अत एव सकअतीन्द्रियेऽपि च कालादौ विशेषणभूते चक्षुरादेः प्रवृत्ति- लपदार्थग्रहणस्वभावस्य ज्ञानस्य इद्रियादिजन्यत्वकृत एव प्रतिपादनाच्चेतरतराश्रयत्वदोषस्याप्यनवकाशः पूर्वपक्षप्र- प्रतिनियतरूपादिग्राहकत्वनियमोऽवसीयते। प्रतिभादौ तद्तिपादितस्य । शब्दशानजनितज्ञानपक्षे तु इतरेतराश्रयदो- जन्ये तस्याभावात् सकलसानं चातीन्द्रियमिति कथं येषप्रसापादनमप्ययुक्तम् कारणपक्ष तदसंभवात् । अ- ऽपि सातिशया दृष्टाः' इत्यादिः, तथा 'यत्राप्यतिशयो राष्टः' न्यसर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवत्वेन ज्ञानस्य कथमितरेतराश्रय- (श्लो० वा० सू०२, श्लो ११४ ) इत्यादि च दृषणं तत्र कम त्वम्। तदागमप्रणेतुरण्यन्यसर्वज्ञप्रणीतागमपूर्वकत्वेऽनव- ते । नहि शब्दज्ञानस्याशेषज्ञेयज्ञानस्वभावस्य कश्चित्प्रतिनिस्था स्यात् । सा चेष्यत एव, अनादित्वादागमसर्वशपर- यत रूपादिकः स्वार्थः संभवति इत्यसकदावेदितम् । परायाः। यदप्यवादि । शब्दजनितं ज्ञानमस्पहाभ, तज्वा- अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि कथमात्यन्तिकः, कथं वा नवतः कथं सकलज्ञत्वमिति । तदप्यसङ्गतम् । नहि भ्यस्यमानमप्यविशर्द शान, लानोदकतापादिवत्मकप्रकशब्दजनितेन माननाभ्यासानासादितवैशयन सकलशो:- विस्थां वैशय चाऽवामोतीति । नैतत्र्यम् । यदि रागादी
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सव्यराणु अभिधानराजेन्द्र:।
सव्वण्णु नामावारकत्वादिस्वरूपं न शायत नित्यत्वमाकस्मिकत्वं वा नच विज्ञानमपि प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयं पूर्वमेव तेषां स्यात् , तद्धेतूनां वा स्वरूपापरिज्ञानं नित्यत्वं वा सं- विनष्टम् अपराभ्यासादन्यदतिशयवदुत्पन्नमिति कथं पूर्वीभाब्येत, तद्विपक्षस्य वा स्वरूपतोऽज्ञानम् अनभ्यासश्च भ्याससमासादितोऽतिशयो नाभ्यासान्तरापेक्षा, पन व्यवस्यात् । तदेतन स्यादपि, यावता रागादीनां शानावरणहेतु
स्थितोत्कर्षता, तस्यापि न स्यादिति वक्तं युक्तम् । तत्र रचनावरणस्वरूपत्वं सिद्धम् नच तेषां नित्यत्वम् । तत्सद्भावे
पूर्वाभ्यासजनितसंस्कारस्योत्तरत्रानुवृत्तेः। अन्यथा शाखसर्वज्ञज्ञानस्य प्रतिपादयिष्यमाणप्रमाणनिश्चितस्याभावप्रस- परावर्तनादिवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । नापि यदुपचयतारतम्याझात् । नाप्याकस्मिकत्वम् , अत एव । न चैषामुत्पादको नुविधायी यदपचयतरतमभावस्तस्य तद्विपक्षप्रकर्षगमहेतुनांधगतः । मिथ्याशानस्य तजनकत्वेन सिद्धत्वात् । नच नादात्यन्तिकः क्षय इत्यत्र प्रयोगे श्लेष्मणा व्यभिचार तस्यापि नित्यत्वम् । अन्यथाऽविकलकारणस्थ मिथ्याज्ञानस्य उद्भावयितुं शक्यः किल । निम्बाद्यौषधोपचारयोगात्प्रभावे प्रबन्धप्रवृत्तरागादिदोषसद्भात् तदावृतत्वेन सर्वविद्वि- कर्षतारतम्यानुभवचतस्तरतमभावापचीयमानस्यापि श्लेष्मज्ञानस्य भावः स्यादिति एव स दोषः। आकस्मिकत्वेऽपि मि- । यो नात्यन्तिकक्षय इति । यतस्तत्र निम्बाद्यौषधोपयोध्याज्ञानस्य हेतुव्यतिरेकणापि प्रवृत्तेस्तत्कार्यभूतरागादी- गस्यैव नोत्कर्षनिष्ठा आपादयितुं शक्या । तदुपयोगेऽपि नामपि प्रवृत्तिरिति पुनरपि सर्वज्ञशानाभावोऽहेतुकस्य च श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदैवासेवनात् । अन्यथौषधोपमिथ्याज्ञानस्य देशकालपुरुषप्रतिनियमाऽभावोऽपि स्यादिति योगाधारस्यैव विनाशः स्यात् । चिकित्साशास्त्रस्य च न चतनाचेतनविभागः । नच तत्प्रतिपक्षभूतस्योपायस्याप- धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तेः, तत्प्रतिपादितौरिज्ञानम् । मिथ्यात्वविपक्षत्वेन सम्यग्ज्ञानस्य निश्चितत्वा- षधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधाने एवं व्यापारी, न त् । तदुत्क मिथ्याज्ञानस्यात्यन्तिकः क्षयः । तथाहि-य- | पुनस्तस्य निर्मूलने । अन्यथा दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये मदुत्कर्षतारतम्याद् यस्यापचयतारतम्यं तस्य विपक्षप्रक- रणावाप्तरिति न श्लेष्मणा तथाभूतबानकान्तिको हेतुः । विस्थागमन भवत्यात्यन्तिकः क्षयः , यथोष्णस्पर्शस्य नच सम्यग्ज्ञानसात्मीभावेऽपि पुनर्मिथ्याशानस्यापि संभतथाभूतस्य प्रकर्षगमने शीतस्पर्शस्य तथाविधस्यैव स- वो भविष्यति तदुत्कर्ष इव सम्यग्ज्ञानस्येति वक्तं युम्यग्ज्ञानोपचयतारतम्यानुविधायी च मिथ्याज्ञानापच- क्तम् । यतो मिथ्याज्ञाने , रागादी वा दोषदर्शनात् , तयतरतमादिभाव इति तदुत्कर्षे ऽस्यात्यन्तिकक्षयसद्भा- द्विपक्षे च सम्यग्ज्ञानवैराग्यलक्षणे गुणदर्शनात्तत्र पुनरवात् तत्कार्यभूतरागाद्यनुत्पत्तेरावरणाभावः सिद्धः । रा- भ्यासप्रवृत्तिसंभवात् प्रकृष्टऽपि मिथ्याज्ञानरागादावुत्पद्यते गादिविपक्षभूतबैराग्याभ्यासाद्वा रामादीनां निर्मूलतः क्षय एव सम्यग्ज्ञानवैराग्ये । नैवं तयोः प्रकर्षावस्थायां दोषइति कथं नावरणाभावः ।
दर्शनं , तत्र तद्विपर्यये वा गुणदर्शनं , येन पुनस्तत् सानच लकानोदकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यग्ज्ञानवै- स्मीभावेऽपि मिथ्याज्ञानरागादरुत्पत्तिः संभाव्यते । नचाराग्यादेन परप्रकर्षप्राप्तिरिति कुतस्तद्विषये मिथ्याज्ञानाभा- नक्षजस्य ज्ञानस्य सर्ववित्संबन्धिनः कथं प्रत्यक्षशब्दवाचाद्रागादरात्यन्तिकोऽनुत्पत्तिलक्षणः क्षयलक्षणो वाऽभाव च्यतेति वक्तुं युक्तम् । यतोऽक्षजत्वं प्रत्यक्षस्य शब्दव्युत्पइति वक्तुं युक्तम् । यतो लङ्घनं हि पूर्वप्रयत्नसाध्यं यदि व्यव- त्तिनिमित्तमेयान पुनः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् । तनिमित्तं हितस्थितमेव स्यात् तदोत्तरप्रयत्नस्यापरापरलङ्घनातिशयोत्पनी
देकार्थाश्रितमर्थसाक्षात्कारित्वम् । अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्ती व्यापारात् , भवेल्लङ्घनस्याप्यनपेक्षितपूर्वातिशयसद्भावप्रय
निमित्तम् , अन्यच्च प्रवृत्तौ । यथा गोशब्दस्य गमनं व्युत्पत्ती, त्नान्तरस्य प्रकर्षावाप्तिः । न चैवम् । अपरापरलङ्घनातिश- गोपिण्डाधितगोत्वं प्रवृत्तौ निमित्तम् । अन्यथा यदि यदेव यप्रयत्नस्य पूर्वपूर्वातिशयोत्पादन एवोपक्षीणशक्तित्वात् । व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावपि तदा गच्छन्त्यामेव अर्थतत्स्यात् , यदि तत्रापि पूर्वप्रयत्नोत्पादितोऽतिशयो न
गवि गोशब्दप्रवृत्तिः स्यात् । न स्थितायाम् । महिण्यादौ व्यवस्थितः स्यात् , तत्किमिति प्रथममेव यावल्लवयितव्यं
च गमनपरिणामवति गोशब्दः प्रवत्तेत । तथाऽत्रापि प्रवृत्ति सावन्न लहयति; तल्लङ्घनाभ्यासापेक्षणात् पूर्वप्रयत्नाहिता- निमित्तसद्भावात्प्रत्यक्षव्यपदेशः संभवत्येव । यद्वा-यदेव तिशयसद्भावऽपि न लङ्कनप्रकर्षप्राप्तिरिति यथा तस्य व्यव- व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावप्यस्तु, तथापि तच्छन्दस्थितोत्कर्षता तथा ज्ञानस्यापि भविष्यति । न । यतः *ल- वाच्यतायास्तत्र नाभावः । तथाहि-अश्नुते सर्वपदार्थान् मादिना प्राक् शरीरस्य जाड्याद् यावल्लङ्घयितव्यं न ताव- ज्ञानात्मना व्यामोतीति व्युत्पत्तिशब्दसमाश्रयणादक्ष श्राद्यायामानपनीतश्लेष्माऽनासादितपटुभावः कायो लङ्घयते। त्मा, तमाश्रितमुत्पाद्यत्वेन तं प्रति गतमिति प्रत्यक्षमिति अभ्यासासादितश्लेष्मक्षयपटुभावस्तु यावल्लवयितव्यं ताव
व्युत्पत्तः, अभ्युपगमवादेन चाभ्यासवशात्प्राप्तप्रकर्षण शनिन जयतीत्यभ्यासस्तत्र सप्रयोजनः। शानस्य तु योऽभ्याससमा. सर्वज्ञ इति प्रतिपादितम् । नत्वस्माकमयमभ्युपगमः, किसादितोऽतिशयः सोऽतिशयान्तरोत्पत्तौ पुनः प्राक्तनाभ्या- न्तु ज्ञानाद्यावारकघातिकर्मचतुष्टयक्षयोद्भताशेषज्ञयव्याप्यसापक्षो न भवतीत्युत्तरोत्तराभ्यासानामपरापरातिशयो- निन्द्रियशब्दालङ्गसाक्षात्कारिक्षानवतः सर्वशत्वमभ्युपगम्यते। त्पादन व्यापारात् , न व्यवस्थितोत्कर्षतेति भवति. ज्ञान- यच्चतिम्--यद्यतीतानागतवर्तमानाशषपदार्थसाक्षात्कारिस्य परप्रकर्षकाष्ठा । उदकतापे तु अतिशयेन क्रियमाण ज्ञानेन सर्वशस्तदा क्रमेणातीतानागतपदार्थवेदने पदातदाश्रयस्यैव क्षयात् नातिताप्यमानमप्युदकमग्निरूपता
र्थानामानन्त्यात् न शानपरिसमाप्तिरिति । तदयुक्तम् । भासादयति । विज्ञानस्य स्वाश्रयोऽत्यभ्यस्यमानेऽपि त- तथाऽनभ्युपगमात् । शास्त्रार्थ क्रमेणानुभूते ऽप्यत्यन्तास्मिन् न क्षयमुपयातीति कथं तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता ।। भ्यासान्न क्रमेण संघेदनमनुभूयते। तद्वदत्रापि स्या
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(५८०) सव्वण्णु अभिधानराजेन्द्रः।
सवण्णु त् । यदप्यभ्यधायि । अथ युगपत्सर्वपदार्थवेदकं निरस्तम् । सामान्येन सर्वशत्वादिस्यस्य हेतुत्वात् , विशेषण तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा परस्परविरुद्धानां शीतोष्णा- तज्ज्ञत्वस्य साध्यत्वात् , सामान्यविशषयाश्च भेदस्य कथदीनामेकशाने प्रतिभासासंभवात् । संभवेऽपीत्यादि । तदप्य- श्चित्प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । सामान्येन सर्वशत्वस्य चानुयुक्तम् । यतः परस्परविरुद्धानां किमेकदाऽसंभवः, किंवा मानव्यवहारिणं प्रति साधितत्वात् एतेन सूक्ष्मान्तरितदूरासंभवेऽप्येकशाने प्रतिभासनं भवता प्रतिपादयितुमभि-- र्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादित्यत्र प्रयोग प्रमयत्वहेताप्रेतम् । तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः । ज- यद् दूषणमुपन्यस्तं पूर्वपक्षवादिना तदपि निरस्तम् । सर्वसूलाउनलादीनां छायाऽऽतपादीनां चैकदा विरुद्धाना- क्ष्मान्तरितपदार्थानां व्याप्तिप्रसाधनानुमानप्रमाणेन वा एमपि संभवात् । अथैकत्र विरुद्धानामसंभवः। तदाऽसं- केन सामान्यतः प्रमेयत्वस्य प्रसाधितत्वात् । यच्च प्रधानपदा. भवादेव नैकत्र ज्ञाने तेषां प्रतिभासो; न पुनर्विरुद्धत्वात् ।
र्थपरिज्ञान न सकलपदार्थज्ञानमन्तरेण संभवतीति तत् सर्वज्ञ विरुद्धानामपि तेषामेकज्ञान प्रतिभाससंवेदनात् । एतेन वि
वचनामृतलबास्वादसंभवो भवतोऽपि कथञ्चित्संपन्न इति ल रुद्धार्थग्राहकस्य च तज्ज्ञानस्य न प्रतिनियतार्थग्राहकत्वं क्ष्यते । तथाहि तद्वचः-"जो पगं जागइ" (श्राचा०१ श्रु०३ स्यादित्याद्यपि निरस्तम् । छायाऽऽतपादिविरुद्धार्थ ग्राहिणा- १०४ उ० १२२ सू०) इत्यादि । तन्मतानुसारिभिः पूर्वचाऽपि ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थग्राहकत्वसंवेदनात् । यच्चानम्- यैरप्ययमों न्यगादि - यदि युगपत्सर्वपदार्थवादकं तज्ज्ञानं तदैकक्षण एव सर्वप
"एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः,सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः। दार्थबदनात् द्वितीयादिक्षण किश्चिज्ज्ञ एव स स्यादित्यादि ।
सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावस्तत्वतस्तेन दृष्टः"॥१॥ तदप्यत्यन्तासबद्धम् । यतो यदि द्वितीयक्षण पदार्थानां त
अस्यायमर्थः-नासर्वविदा कश्चिदेकोऽपि पदार्थस्तत्त्वतो जमानस्य चाभावः स्यात् , तदा स्यादप्येतत् , नचैतत्संभव
द्रएं शक्यः । एकस्यापि पदार्थस्यानुगतव्यावृत्तधर्मद्वारण ति तथाऽभ्युपगमे द्वितीयक्षण सर्वपदार्थाभावात्सकलसंसा- साक्षात्पारंपर्येण वा सर्वपदार्थसंबन्धिस्वभावत्वात् । तत्स्वरोच्छेदः स्यात् । यदष्यभ्यधायि । अनाद्यनन्तपदार्थसंवेदने भावावेदन च तस्यावेदनमेव परमार्थतः ततस्तज्ज्ञानं स्वप्रतितत्संवदनस्यापरिसमाप्तिरित्यादि । तदप्ययुक्तम् अत्यन्ता- भासमेव वेत्तीति नार्थों विदितः स्यात् , केवलं तत्राभि भ्यस्तशास्त्रार्थज्ञानस्येव युगपदनाद्यनन्तार्थग्राहिणस्तज्ज्ञा--
मानमात्रमेव लोकस्य । अथ संबन्धिस्वभावता पदार्थस्य नस्यापि परिसमाप्तिसंभवात् । अन्यथा भूतभविष्यत्सूक्ष्मा- स्वरूपमेव न भवति । यत्केवलं प्रत्यक्षप्रतीतं सन्निहिदिपदार्थग्राहिणः प्रेरणाजनित शानस्यापि कथं परिसमाप्तिः । तमात्रं स एव वस्तुस्वभावः। संवन्धिता तु तत्र पतत्राप्यपरिसमाप्त्यभ्युपगमे, 'चोदना भूतं भवन्तं भवि- रिकल्पितैव पदार्थान्तरदर्शनसंभवतया । तथा चोक्तम्प्यन्तम्' इत्यादिवचनस्य नैरर्थक्य स्यादिति । यदपि , "निष्पत्तेरपराधान-मपि कार्य स्वहेतुना। परस्थरागादिसंवेदने सरागः स्यादित्यादि । तदप्यसङ्गतम् ।
संबध्यते कल्पनया, किमकार्य कथञ्चन ? " ॥१॥ इति । नहि परस्थरागादिसंबेदनाद्रागादिमान् भवति । अन्यथा
तदेतदयुक्तम् । एवं हि परिकल्प्यमाने स्वरूपमात्रसंवेदधात्रियद्विजस्यापि स्वफ्रज्ञानेन मद्यपानादिसंवेदनान्मद्यपान
नगदद्वैतमेव प्राप्तम् ततः सर्वपदार्थाभावे व्यवहाराभावः । दोपः स्यात् । श्रथाप्यरसनेन्द्रिय तज्ज्ञानमिति नायं दोषः,
अथ व्यवहारोच्छेदभयात् पदार्थसद्भावोऽभ्युपगम्यते , ततर्हि सर्वशज्ञानमपि नेन्द्रियजमिति कथमशुचिरसास्वाददो- हि सर्वपदार्थसंबन्धिताऽपि साक्षात् पारंपर्यगा च पदार्थपस्तत्रासज्येत । नच रागादिसंवेदनाद्रागीति लोके व्यव
स्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः। अन्यथा साक्षात्पारंपर्येण वाऽहारः; किन्त्वङ्गनाकामनाद्यभिलाषखसंविदितस्याशिणव्यव
न्यपदार्थजन्यजनकतालक्षणसंबन्धिताऽभ्युपगमे, तद्व्याहारकारिणः स्वात्मस्वभावस्योत्पत्तेः । नचासौ सत्रेति कथं
वृत्त्यनुगतिसंबन्धिताउनभ्युपगमे च पदार्थस्वरूपस्याप्यभावः स रागादिमान् । यदपि, अथ शक्तियुक्तत्वेन सर्वपदार्थवेदन
तत्पदार्थपरिज्ञान च तद्विशेषणभूता तत्संबन्धिताऽपि ज्ञामित्यादि । तदप्यचारु । यथोपलब्धिलक्षणप्राप्त सन्निहितदे
तैव । अन्यथा तस्य तत्परिज्ञानमेव न स्यात् , तत्परिक्षाने शादावनुपलब्धेरपरमत्र नास्तीति इदानींतनानामियत्ता निश्चयः, तथा सर्वशस्यापि स्वशक्तिपरिच्छेदात् । अन्यथा घटा
च सकलपदार्थपरिज्ञानमस्मदादीनामनुमानतः, सर्वशस्य दीनामपि क्वचित् प्रदेशेऽभावनिश्चयेऽपरप्रकारासंभवात्सक
च साक्षात् तज्ज्ञानेन सकलपदार्थज्ञानम्। लोकस्तु प्रत्य
क्षण कथञ्चित् कस्यचित् प्रतिपत्ता । तथाहि--धूमस्याप्यलव्यवहारविलोपः स्यात् अथ यावदुपयोगिप्रधानपदार्थजा.
ग्निजन्यतया प्रतिपत्तौ बाष्पादिव्यावृत्तधूमस्वरूपप्रतिपत्तिः, तमित्याद्यप्ययुक्तम् । सकलपदार्थशत्वप्रतिपादनात्। अत एव.
अन्यथा व्यवहाराभावः । तथा नीलादिप्रतिभासस्य बा"शो शेय कथमशः स्या-दसति प्रतिबन्धरि ।
ह्यार्थसंबन्धितयाऽमतिपत्ती बाह्यार्थाप्रतिपत्तौ बाह्यार्थाप्रसत्येव दाय नह्यग्निः, कचित् दृष्टो न दाहकः ॥१॥" इति । तिपत्तिरेव स्यात् । तस्मात् संबन्धितयैव पदार्थस्वरूपप्रअत्र यदुनम् , किं सर्वज्ञत्वात् , अथ किश्चिज्शत्वादिति, तिपत्तिः । तच्च संबन्धित्वं प्रमेयमनुमानेन प्रतीयतेऽभ्यामोभयंथापि हेतुः । यदि तावत् सर्वशत्वादिति हेत्वर्थः सदशायामस्मदादिभिः , यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तत्र परिकल्प्यते, तदा प्रतिज्ञार्थंकदेशी हेतुरसिद्ध एव । कथं तस्य प्रत्यक्षतोऽपि प्रतिपत्तिरिति कथं न प्रधानभूतपदाहि तदेव साध्यं तंदव हेतुः । श्रथ किश्चित्वादिनि हेतुः, थंवेदने सकलपदार्थवदनम् । एकवेदनऽपि सकलवंदनस्य तदा विरुद्धता स्यात् । कथं हि किश्चिज्ज्ञत्वं सर्वज्ञत्वेन प्रतिपादितत्वात् । विकल्पाभायेऽपि मन्त्राविष्टकुमारिकादिविरुद्धं सर्वशत्वं साधयेत् । अाथ शन्यमानं हेतुः, तदाऽनका- वचनवन्नित्यसमाहितस्यापि वचनसंभवाद: विकल्पाभावे न्तिकः । शवमात्रस्य किश्चिज्ज्ञत्वेनाप्यविगेधादिति । तदपि कथं वचनमित्यादि निरस्तम्। दृश्यते चात्यन्ताभ्यस्ते
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(५८ ) सव्वाणु अभिधानराजेन्द्रः।
মন্বন্ত। विषये व्यवहारिणां विकल्पनमन्तरेणापि ववनप्रवृत्तिरिति । त्वेन तस्य ग्रहणात् तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातिरूपताप्रसकथं ततः सर्वज्ञस्य छानस्थिकज्ञानासान युक्तम् । यदप्युक्त-- क्तिः । एतदसंबद्धम् । यतो यथाऽस्मदादीनामसन्निहितकाम्-अतीतादेरसवात् कथं तज्ज्ञानेन ग्रहणम् , ग्रहणे वाऽस. लोऽप्यर्थः सत्यस्वप्नशाने प्रतिभाति । नचासन्निहितस्य तदर्थवाहित्वात् तज्ज्ञानवान् भ्रान्तः स्यादित्यादि । तदप्ययु-- स्यातीतादिकालसंबन्धिनो वर्तमानकालसंबन्धित्वं नापि क्नम् । यतः किमतीतादेरतीतादिकालसंबन्धित्वनासत्त्वम् , स्वकालसंबन्धित्वेन सत्यस्वप्नशाने तस्य प्रतिभासनात् तउत तज्ज्ञानकालसंबन्धित्वेन । यद्यतीतादिकालसंबन्धित्वेने- ग्राहिणो शानस्य विपरीतख्यातित्वम् । यत्र ह्यन्यदेशकाति पक्षः । स न युक्तः। वर्तमानकालसंबन्धित्वेन वर्तमानस्ये- लोऽर्थोऽन्यदेशकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति सा विपरीतव तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेरपि सत्त्वसंभवात् । अथा
ख्यातिः । अत्र त्यतीतादिकालसंबन्ध्यतीतादिकालसंबन्धि. तीतादेः कालस्याभावात् तत्संबन्धिनोऽप्यभावः , तदस
त्वेनैव प्रतिभातीति न तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य तत्कालसंस्वं च प्रतिपादितं पूर्वपक्षवादिनाउनवस्थेतरेतसश्रयादि
बन्धित्वेन वर्तमानत्वं; नापि तग्राहिणो विज्ञानस्य विदोषप्रतिपादनेन । सत्यं प्रतिपादितं नच सम्यक् । तथाहि--
परीतख्यातित्वम् । तथा सर्वज्ञज्ञानेऽपि यदाऽतीतादिकानास्माभिरपरातीतादिकालसंबन्धित्वादस्यातीतादित्वमभ्यु.
लोऽर्थोऽतीतादिकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति, तदा कथं तपगम्यते , येनानवस्था स्यात् , नापि पदार्थानामतीतादि
स्यार्थस्य वर्तमानकालसंबन्धित्वम् । कथं वा तज्ज्ञानस्य त्वेन कालस्यातीतादित्वम् , येनेतरेतराश्रयदोषः, किं तु
विपरीतख्यातित्वमिति । यथा वा विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुस्वरूपत एवार्तातादिसमयस्यातीतादित्वम् । तथाहि
वामष्ठादिनिरीक्षणेनान्यदेशा अवि चौरादयो गृह्यमाणाअनूभृतवत्तेमानत्वसमयाऽतीत इत्युच्यत, अनुपविष्यद्व
न तद्दशा भवन्ति, नापि तज्ज्ञानं तद्देशादिसंबन्धित्वमनुर्तमानत्यश्चानागतः, तत्संबन्धित्वात् पदार्थस्याप्यतीता
भवति, तथा सर्वविद्विशानमप्यसनिहितकालं यद्यर्थमवनागत्वे अविरुद्धे । अथ यथाऽतीतादेः समयस्य स्वरू- भासयति, स्वात्मना तत्कालसंबन्धित्वमननुभवदपि, तदा पणेवातीतादित्वं तथा पदार्थानामपि तद्भविष्यतीति व्य- को विरोधः; कथं वा तस्यातीतादेरर्थस्य तज्ज्ञानकालथस्तदभ्युपगमः । एतच्चाऽत्यन्तासङ्गतम्। नोकपदार्थध- स्वमिति । नच सत्यस्वप्रज्ञानेऽप्यतीताद्यर्थप्रतिभासे समामस्तदन्यत्राप्यासञ्जयितुं युक्तः । अन्यथा निम्बादस्तिक्तता नमेव दूषणमिति न तदृष्टान्तद्वारेण सर्वशशानमतीतागुडादावष्यासञ्जनीया स्यात् , नच साऽत्रैव प्रत्यक्षसिद्धे- द्यर्थग्राहकं व्यवस्थापयितुं युक्तमिति वक्तुं युक्तम् । अवि त्यन्यत्रासअने तद्विरोध इत्युत्तरम् । प्रकृतेऽप्यस्योत्तरस्य संवादवतोऽपि ज्ञानस्य विसंवादविषये विप्रतिपस्यभ्युपसमानत्वात् । भवतु पदार्थधर्म एवातीतादित्वं, तथापि गमे , स्वसंवेदनमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिसद्भावादतिसूचमेक्षिनास्माकमभ्युपगमक्षतिः । विशिष्टपदार्थपरिणामस्यैवातीता- कया तस्यापि तत्स्वरूपत्वासंभवात्सर्वशून्यताप्रसङ्गात् । दिकालत्वेनटेः, "परिणामवर्तनादि ( वर्तना विधि )पराप- तविषेधस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वादतो न युक्तमुक्तम् , रत्व" (प्रश मर० प्र० श्लो०२१८) इत्याद्यागमात् । तथाहि-स्म- अथ प्रतिपाद्यापेक्षयेत्यादि न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वशः कल्पयितुं रणविषयत्वं पदार्थस्यातीतत्वमुच्यते । अनुभवविषयत्वं वर्त्त- युक्त इति पर्यन्तम् । यदप्युक्तम्-भवतु वा सर्वशस्तथामानत्वं, स्थिरावस्थादर्शनलिङ्गवलोत्पद्यमानकालान्तरस्था- प्यसो तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुं न शक्यते इत्यादि । तदप्यव्ययं पदार्थ इत्यनुमानविषयत्वं धर्मोऽनागतकालत्वमिति । संगतम् । यतो यथा शकलशास्त्रार्थापरिक्षानेऽपि व्यवहातेन यदुच्यते-र्याद स्वत एव कालस्यातीतादित्वं , पदार्थ- रिणा सकलशास्त्रज्ञ इति कश्चित्पुरुपो निश्चीयते; तथा स्यापि तत् स्वत एव स्यादिति परेण तत्सिद्धं साधितम् । सकलपदार्थापरिझानेऽपि यदि केनचित् कश्चित् सर्वशत्वेतदतीतादिकालस्य सत्त्वान्न तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेः
न निश्चीयते , तदा को विरोधः । युक्तं चैतत् । अन्यथा युपदार्थस्याऽसत्त्वम् । वर्तमानकालसबन्धित्वेन त्वती
माभिरपि सकलदार्थापरिक्षाने कथं जैमिनिरन्यो वा वेतांदरसत्वप्रतिपादन ऽभिमतमेव प्रतिपादितं भवति । न
दार्थज्ञत्वन निश्चीयते । तदनिश्चये च कथं तद्वयाख्यातार्थाह्यतीतकालसंबन्धित्वसत्त्वमेवैतज्ज्ञानकालसंबन्धित्वमस्मा-- नुसरणादग्निहोत्रादाधनुष्ठाने प्रवृत्तिरिति यत्किञ्चिदेतत् 'सभिरभ्युपगम्यते । नचैतत्कालसंबन्धित्वेनासत्व स्वकाल- ज्ञोऽयमिति तत्' इत्यादि। तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकसबन्धित्वेनाप्यतीतादरसत्त्वं भवति । अन्यथैतत्कालसं- स्य प्रमाणस्य शत्वप्रमेयत्ववचनविशेषत्वादेर्दर्शितत्वात् तबन्धित्वस्याप्यतीतादिकालसंवन्धित्वेनासत्त्वात् सर्वाभावः दभावप्रसाधकस्य च निरस्तत्वात् ; ये बाधकप्रमाणगोचस्यादिति सकलव्यवहारोच्छदः । अथापि स्यात् , रतामापन्नास्तेऽसदिति ब्यवहर्त्तव्या इति प्रयोगहेतोरसिद्धभवत्वतीतादेः सत्त्वं, तथापि सर्वशक्षाने न तस्य प्र. त्यात् ; ये तु निश्चितासंभवद्वाधकप्रमाणत्वे सति सदुपलतिभासः, तज्ज्ञानकाले तस्यासन्निहितत्वात् । सन्निधाने म्भकप्रमाणगोचरास्ते सदिति व्यवहर्त्तव्याः, यथोभयवावा तज्ज्ञानावभासिन इव वर्तमानकालसंबन्धिनोऽतीता- द्यप्रतिपत्तिविषया घटादयः, तथाभूतश्च सर्ववित् इति देरपि वर्तमानकालसंबन्धित्वप्राप्तेः । नहि वर्तमानस्यापि भवत्यतः प्रमाणात्सर्वव्यवहारप्रवृत्तिरिति । अथापि स्यासनिहितत्वन तत्काल ज्ञानप्रतिभासित्वं मुक्त्वाऽब- त् स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषस्य तद्विषयाविसंवादिशाद्वर्सगानकालसंवन्धित्वम् । एवमतीतादेस्तज्ज्ञानावभासि. नपूर्वकत्वमात्रमेव भवता प्रसाधितम् । नचैतावतानन्तार्थव वर्तमानत्वमेवेति वर्तमानमात्रपदार्थज्ञानवानस्मदादिव- साक्षात्कारिज्ञानवान् सर्वज्ञः सिद्धिमासादयति । सकलसून सर्वशः स्यात् । किंच- अतीतादेस्तज्ज्ञानकाले ऽसन्निहि- मादिपदार्थसार्थसाक्षात्कारिज्ञानविशेषपूर्वकत्वे हि वचनतत्वेन तज्ज्ञानेऽप्रतिभासः । प्रतिभासे वा स्वज्ञानसंबन्धि- । विशेषस्य सिद्धे तज्ज्ञानवतः सर्वशत्यसिद्धिः स्यात् । नच
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(५६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
वल
तथाभूतज्ञानपूर्वक वचनविशेषस्य सिद्धम् अनुमानादि- तुरीप्रियार्थविषयं ज्ञानमलिङ्गमम्युपगन्तव्यमित्यलशनादपि स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषस्य संभवात् । ङ्गपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेतोर्नासिद्धम् । नव तथाभूतज्ञानवान् सर्वो भवद्भिरभ्य इत्येतद् हृदि वाऽथ सूरि" कुसमयविसास ' इति । सम्य क प्रमाणान्तराविसंवादित्वेने यो परिइिति लमयाः, नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखासुखजीवितमरणग्रहोपरामन्धवादयः पार्थाय विविधमन्यपदार्थका
वेन कार्यत्वेन चानेकप्रकारं शासनं प्रतिपादकम् य तः शासनं कुः पृथ्वी तस्या इव ।
श्रयमभिज्ञायः - शत्वप्रमेयत्वादेरनेकप्रकारस्य प्रतिपादिसम्यान सर्वज्ञनिकस्य देतोः सङ्गावेऽपि त कृतचेन शाखनपामात्यप्रतिपादनार्थ सर्वशोऽभ्युपगम्यते, तस्य चान्यतो देतोः प्रतिपादनेऽपि तदागमसेतुत्वं हेत्वन्तरात्पुनः प्रतिपादनीयं स्यादिति य न्तरमुत्सृज्य प्रतिपादनगौरवपरिहारार्थ वचनविशेष - लक्षण एच हेतुस्तत्सद्भावावेदक उपन्यसनीयः । सपामेन गाथासूत्राषयन सूचितः । अत एव संस्कृत्य - तुः कर्त्तव्यः । तथाहि -यो यद्विषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेक पूर्वको वचनविशेष स तत्साक्षास्कारिज्ञानविशेषभचः । यथाऽस्मदर्त्तितः पृथ्वी काठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचनविशेषः नष्टमुष्टिवि शेषादिविषयादिसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्ययव्यतिरेकचनविशेषश्चायं शासनलक्षणो ऽर्थ इति ।
"
न यात्राविसंवादित्यवचनविशेषलक्षणस्य हेतोर्विशेषरामसिद्धम् । नष्टमुष्ट्यादीनां वचनविशेषप्रतिपादितानां प्रमाणान्तरतस्तथैवोपलब्धेरविसंवादसिद्धेः । योऽपि क्कचिद्वचनविशेषस्य तत्र विसंवादो भवता परिकल्प्यते, सोऽपि तदर्थस्य सम्यगपरिज्ञानात् सामग्री पुन पंचगविशेषस्यासत्यार्थत्वात् । नच सामग्री कल्पादेकणासत्यार्थवे समं तथा परिकल्पयितुं युक्तम् । अन्यथा प्रत्यक्षस्यापि द्विचन्द्रादिविषयस्य सामग्रीवैकल्येनोपजायमानस्यासत्यत्वसंभवात् समग्र सामग्रीप्रभवस्याप्यसत्यत्वं स्यात् । अथाविकलसामग्रीप्रभवं प्रत्यक्षं विकलसामग्रीभान पालिरामिति नायं दोषः । तत्रापि समानम् । तथाहि-- सम्यगशात तदर्थाद्वचनाद्यन्नमुयादिविषयं विसंवादिकानमुत्पद्यते तत्सम्यगवगत तदर्थवचनोद्भवाद्विलक्षणमेव । यथा च विशिष्टसामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न कचिद् व्यभिचार इति तस्याविसंवादित्वम् तथाऽवगतसम्पमर्थचचनोद्भवस्यापि नष्टादिविषयविज्ञानस्पति सिद्धमत्राविसंवादित्वलक्षणं विशेषं प्रकृतहेतोः ।
नाप्यलिङ्गपूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम् । नष्टमुष्टयादीनामस्म दादीन्द्रियविषयत्वेन येनाभिमतस्याप्यर्थपादा
विपयत्वा तत्प्रतिपतिः प्रतिपादानाम पिदिनाद्वचनविशेषमन्तरेवापि प्रोपरागादिमतिनिः स्यात् । नहि साध्यव्याप्तलिङ्गनिश्चयेऽग्न्यादिप्रतिपत्तौ वचनविशेषापेक्षा दृष्टा, न भवति चास्मदादीनां ययनविशेषमन्तरेण कदाचनापि प्रतिनियतदिप्रमाफलाविना भूतग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूतवचन
स
नाप्ययमुपदेशपरम्पपातीन्द्रियार्थदर्शनाभावेऽपि प्रमाणभूतः न्धेनानुपदेशपूर्वकन्यविशेषणासिद्धिरिति वक्तुं युक्तम् । उपदेशपरम्पराप्रभवत्वं नष्टमुष्ट्यादिप्रतिपादकवचनविशेषस्य वक्तुरज्ञानदुष्टाभिप्रायवचना कौशलदोषैः श्रोतु मन्दबुद्धित्वविपर्यस्त वुद्धित्वगृहीतविसरणैः प्रतिपुरुष हीयमानस्यानादी काल मूलतविरोच्छेदएव स्यात् । तथाहि इदानीमपि केचित् ज्योतिःशाखादिकमज्ञानदोपादन्यथोपदिशन्त उपलभ्यन्ते, अन्ये सम्यगवगलोSपि दुनिया अन्य वचनान्यथायेति । तथा श्रोतारोऽपि केचिन्मन्दबुद्धित्वदोषादुक्तमपि यथा सावधारयति अन्ये विस्तबुद्धयः सम्यगुपदिष्टमध्ययथाऽवधारयन्ति केचित् पुनः सम्पपरिष्ठानमपि विस्मरन्तीत्येवमादिभिः कार: प्रतिपुरुष हीयमानस्य बता सन्तं कालं यावदागमनमेव न स्याचिरोनिगच्छति च । तस्मादन्तराऽन्तरा विच्छिन्नः सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता केनचिदभिव्यक्त इयन्तं कालं यावदागच्छतीत्यभ्युपगमनीयमिति नानुपदेशपूर्वकत्वविशेषखासिद्धिः ।
नायन्ययतिरेकाभ्यां नादि - विशेषयनं कस्यचित् संभवति येनानन्वयव्यतिरेकपूर्व कत्यविशेषणासिद्धिः स्यात् । यतो नान्ययस्यतिरेकाभ्यां प्र होपरागौषधशक्त्यादयो ज्ञातुं शक्यन्ते । प्रावृट्समये शिलीप्रोपरामादीनां मालकालादिषु निय
माभावात् इष्यशक्तिपरशानाभ्युपगमयतिरा यावन्ति जगति द्रव्याणि तान्येकत्र मीलयित्वा एकस्य रसकल्कादिभेदेन कर्षादिमात्राभेदेन, बालमध्यमाद्यवस्थाभेदन, मूलपणाद्ययदेन प्रक्षपाराभ्यामेकोऽपि योगों युगसाना पाते किमुनानक इति कुतस्ताभ्यामीपधशक्त्यवगमः । तेन नानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणस्वासिद्धिः । नापि नष्यादिविषयवचनविशेषस्यापीरुप पत्वात् विशिष्टवानपूर्वकत्वस्यासिद्धेरसिद्धः प्रकृता देतुः । अपौरुषेयस्य वचनस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् । नाप्यसाक्षास्कारिनपूर्वकल्ये ऽपि तवचनविशेषस्य संभवादनेकान्तिकः । सविशेषणस्य हेतोर्विपक्षे सत्त्वस्य प्रतिषिद्धत्वात् । अत एव न विरुद्धः । विपक्ष एव वर्त्तमानो विरुद्धः । नचास् पूर्वोक्रप्रकारेणावगतस्य साध्यप्रतिबन्धस्य वृि संभयः । अथ भवतु प्रोपरागाभिधायकवचनस्य तत्पूर्वकत्वसिद्धिः, अतो हेतोः । तत्र तस्य संवादात् । धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिस्तु कथम् ?, तत्र तस्य संवादाभावात् । न । तत्रापि तस्य संवादात् । तथाहि ज्योतिःशाखादेहोपरागादिकं विशिएवमादिग्विभागादिविशिएं प्रतिपद्यमानानां प्रतिनिधतदेशवर्तिनां प्राणिनां प्रतिनियतकाले प्रतिनियतकर्मफलसंसूचकत्वेन प्रतिपद्यते । उक्रं च तत्र
नक्षत्रग्रहपञ्चर - महर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम् । भ्रमति शुभाशुभमखिलं प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् ॥ १ ॥" अतो ज्योतिःशास्त्रं ग्रहोपरागाऽऽदिकमिव धर्माऽधर्मावपि
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सवणु अभिधानराजेन्द्रः।
सवण्णु प्रमाणान्तरसंवादतोऽवगमयति । तेन ग्रहोपरागादिवचनवि- र्थः सपक्षः प्रतीयत इति सपक्ष सत्त्वमप्यवगम्यते । साशेषस्य धर्माऽधर्मसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धम् , त. मर्थ्यात् (च) हि व्यापकनिवृत्ती व्याप्यनिवृत्तिर्यत्रावसीयते सिद्धौ सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धिमा. सोऽसपक्ष इति असपोऽप्यसत्त्वमपि निश्चीयते इति सादयति । नहि धर्माधर्मयोः सुखदुःखकारणत्वसाक्षात्क- नार्थः प्रतिज्ञावचनेन । तदाह धर्मकीर्सिः यदि प्रतीतिररणं सहकारिकारणाशेषपदार्थतदाधारभूतसमस्तप्राणिग- न्यथा न स्यात् सर्व शोभेत , दृष्टा च पक्षधर्मसंबन्धवणसाक्षात्करणमन्तरेण संभवति । सर्वपदार्थानां परस्परप्रति- चनमात्रात् प्रतिज्ञावचनमन्तरेणापि प्रतीतिरिति कस्तबन्धादकपदार्थसर्वधर्मप्रतिपत्तिश्च सकलपदार्थप्रतिपत्तिना- स्योपयोगः । यदा च प्रतिज्ञावचनं नैरर्थक्यमनुभवति तदा न्तरीयका प्राक् प्रतिपादिता । अतो भवति सकलपदार्थसा। तदावृत्तिवचनस्य निगमनलक्षणस्य सुतरामनुपयोग इति क्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोर्वचनविशेषस्य । तत्सि- | न प्रतिज्ञाद्यवचनमपि प्रस्तुतसाधनस्य न्यूनतादोषः; केवलं द्धौ च तत्प्रणतुः सूक्ष्मान्तरितदूरानन्तार्थसाक्षात्कार्यतीन्द्रिय तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य स्टसाध्याविनाभूतस्य हेतोः स्वज्ञानसम्पत्समन्वितस्य कथं न सिद्धिः । नाप्येतद्वक्तव्यम् ।
साध्यमिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वात् । अर्थादापत्रस्य साध्योक्तितदावृत्तिवचनयोरनभिधानात् न्यूनतानामाऽत्र
स्वशब्देन पुनरभिधानं निग्रहस्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं साधनदोषः । प्रतिज्ञावचनेन प्रयोजनाभावात् । अथ विष- वादकथायां क्रियमाणं तद्वनुर्निग्रहमापादयति उपनयवचनं यनिर्देशार्थ प्रतिज्ञावचनम् । ननु स एव किमर्थः । साध- तु हेतोः पक्षधर्मत्वप्रतिपादनादेव लब्धमिति तस्यापि ततः येवत्प्रयोगादिप्रतिपत्त्यर्थः । तथाहि-असति साध्यनिर्देश पृथक प्रतिपादने पुनरुक्ततालक्षण एव दोष इति न यो घचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ने किम- तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवाक्यम् । ततः सर्वयं साधर्म्यवान् प्रयोगः, उत वैधय॑वानिति न शायेत । दोषरहितत्वात् साधनवाक्यस्य भवत्यतः प्रकृतसाध्यउभयं ह्यत्राशङ्क्येत वचनविशेषत्वेन साक्षात्कारिज्ञानपूर्व- सिद्धिः । स्वसाध्याविनाभूतश्च हेतुः साध्यधर्मिण्युपदर्शकत्वे साध्य साधर्म्यवान् , असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेन ब- | यितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवता आचार्येण गाथासू. चनाविशेषत्वे साध्ये वैधय॑वानिति हेतुविरुद्धानकान्तिक त्रावयवेन तथाभूतहेतुप्रदर्शनं कृतमिति । तथाहि-सप्रतीतिश्च न स्यात् । प्रतिज्ञापूर्वके तु प्रयोगे शब्दविशेषः मयविशासनम्' इत्यनेन गाथासूत्रावयववचनेन स्वसाध्यसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकः शब्दविशेषत्वादिति हेतुभावः प्रती व्याप्तस्य हेतोः साध्यधर्मिण्युपसंहारः सूचितः । हेयते । असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादिति विरु- तोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः प्रमाणतः सर्वोपसंहारेण प्रदद्धता। चक्षुरादिकरणजनितज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादि- शनीया । तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित् ल्यनैकान्तिकत्यम् । हेतोश्च त्रैरूप्यं न गम्येत । तस्य साध्याप- साध्यमिण्यव प्रवृत्तं तां तस्य साधयति , कदाचित् क्षया व्यवस्थितेः । सति प्रतिशानिर्देशेऽवयवे समुदायोप- दृष्टान्तधर्मिणि । यत्र हि सर्वमनेकान्तात्मकं सत्वाचारात् साध्यधर्मी इति पक्ष इति तत्र प्रवृत्तस्य वयन
दित्यादी प्रयोगे न दृष्टान्तधर्मिसद्भावः, तत्र व्याप्तिप्रसाविशेषत्वस्य पक्षधर्मत्वम् ; साध्यधर्मसामान्येन च समानो- धकं प्रमाणं प्रवर्त्तमानं साध्यर्मिण्येव सर्वोपसंहारेण ऽर्थः सपक्ष इति तत्र वर्तमानस्य सपक्षे सत्यम्, न सपक्षो- हेतोः स्वसाध्यव्याप्तिं प्रसाधयति । यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ उसपक्ष इत्यसपतेऽप्यसत्त्वं प्रतीयते तदिदमनलोचिताभिधा- दृष्टान्तधर्मिणोऽपि सत्त्वं तत्र दृष्टान्तधर्मिण्यपि प्रवृत्तं नम् । तथाहि-यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इति तत्प्रमाणं सर्वोपसंहारेणैव तस्याः प्रसाधकमभ्युपगन्तएतावन्मात्रमभिधाय नैव कश्चिदास्ते, किन्तु हेतोर्धर्मिण्यु- व्यम् । अन्यथा दृष्टान्तधर्मिणि हेतोः खसाध्यव्याप्तावपि पसंहारं करोति । तत्र यदि वचनविशेषश्चायं नष्टमुयादिवि- साध्यधर्मिणि तस्य तदव्याप्तौ न ततस्तत्र तत्प्रतिपत्तिः षयो वचनसंदर्भ इति ब्रूयात् , तदा साधर्म्यवत्प्रयोगप्रतीतिः । स्यात् । दृष्टान्तधर्मिण्येव तेन तस्य व्याप्तत्वात् , बहिअथासाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकश्चेत्यभिदध्यात्, तदा वैधर्म्यवत याप्तेषिद्यमानाया अपि साध्यधर्मिणि साध्यप्रतिपत्ताइति संबन्धवचनपूर्वकात्पक्षधर्मत्ववचनात् प्रयोगद्वयावग- चनुपयोगात् सादृश्यमात्रस्याकिश्चित्करत्वात् । अन्यथा शुतिः, विवक्षितसाध्यावगतिश्च । हेतुविरुद्धानेकान्तिका अ- लं सुवर्ण सत्त्वाद्रजतवदित्यत्रापि शुक्रत्वप्रतिपत्तिः स्यात् । पि पक्षधर्मत्ववचनमात्रेण न प्रतीयन्ते । तदा तु संबन्ध- अथात्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनं, प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानवचनमपि क्रियते तदा कथमप्रतीतिः । तथाहि-यो घचन- न्तरप्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं वा दोषः । तदविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्त हेतुरवगम्यते युक्तम् । बाधाऽविनाभावयोर्विरोधात् । तथाहि-सत्येव विधीयमानेनानूद्यमानस्य व्याप्तेः । यो वचनविशेषः सोऽ साध्यधर्मिणि साध्ये हेतुर्वर्त्तत इति तस्य तदविनाभावः , साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्त विरुद्धः । विपर्ययव्याप्तेः तत्प्रतिपादितसाध्यधर्माभावश्च प्रमाणतो बाधा। साध्ययो वचनविशेषः स चक्षुरादिजनित शानपूर्वक इति अनै- धर्मभावाऽभावयोश्चैकत्र धर्मिण्येकदा विरोध इति नैतदोषान्तिकाध्यवसायः व्यभिचारात्। तथा त्रैरुप्यमपि हेतोग- दस्य साधनस्य दुष्टत्वम् , किन्तु साध्यधर्मिणि साध्यम्यत एव । यतो व्याप्तिप्रदर्शनकाले व्यापको धर्मः साध्य- धर्माविनाभूतत्वेनानिश्चयः । स च बहिर्व्याप्तिमात्रेण हेतोः तया अवगम्यते । यत्र तु व्याप्यो धर्मो विवादास्पदीभूते साध्यसाधकत्वाभ्युपगमेऽन्यत्रापि समान इति नानुमाधर्मिण्युपसंहियते स समुदायैकदेशतया पक्ष इति तत्रा- नात् क्वचिदपि साध्यनिश्चयः स्यात् । अतो दृष्टान्तधर्मिणि पसंहतर व्याप्यधर्मस्य पक्षधर्मत्वावगतिः। सा च व्या. प्रवृत्तेन प्रमाणेन व्याप्त्या हेतोः स्वासाध्याविनाभावो निप्तिर्यत्र धर्मिण्युपदश्यते स साध्यधर्मसामान्येन समानोऽ! श्वेयः । स च निश्चिताविनाभावो यत्र धर्मिण्युपलभ्यते तत्र
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(५६२) सवण्णु अभिधानराजेन्द्रः।
सम्वदंसण स्वसाध्यमविद्यमानप्रमाणान्तरबाधनं निश्चाययति, यथाऽ- वचनसंदर्भेण दृष्टेष्टविषये विरोधाधुद्भावकत्वेन विशासनं त्रैव सर्वज्ञमात्रलक्षणे साध्ये वचनविशेषलक्षणे साध्यधर्मिणि | विध्वंसकं यतोऽतो द्वादशाङ्गमेव जिनानां शासनमिति भतद्विशेषत्वलक्षणो हेतुः । प्रतिबन्धप्रसाधकं चास्य हेतोः वत्यतो विशेषणात् सर्वविशषसिद्धिरिति । सम्म०१ काण्ड । प्रागेव दृष्टान्तधर्मिणि प्रमाणं प्रदर्शितमित्यभिप्रायवत्तैवाचा
सव्वएणुत्त-सर्वज्ञत्व-न । सर्वेषां शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मयेणापि 'कुसमयविसासणं' इति सूत्रे कुरित्यनेन ह
त्वेन स्थितानां यथावद्विवेकजज्ञाने , तदुक्तम्-" सत्त्वपुरुट्रान्तसूचनं विहितम् , न च पक्षवचनाद्युपक्षेपः सूचितः । ननु भवत्वस्माद्धेतोयथोक्लपकारेण सर्वज्ञमात्रसिद्धिर्न पुन
पान्यथाख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वशत्वम्"। स्तद्विशेषसिद्धिः । तथाहि-यथा नष्टमुष्टयादिविषयवच
सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिमात्रस्वभावाधिष्ठातृत्वे, द्वा०२६द्वा०। नविशेषस्याहत्सर्वज्ञपणीतत्वं बचनविशेषत्वात सिद्ध- सव्वएणुदंसण-सर्वज्ञदर्शन-न० । सर्वशागमे, सूत्र०१ १०२ ति , तथा बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्वमपि तत एव अ० ३७०। सेत्स्यतीति कुतस्तद्विशेषसिद्धिः । नच नष्टमु- सव्वएणुप्पवाय-सर्वज्ञप्रवाद-पुं० । सर्वज्ञवाक्ये , आचा० १ एघादिप्रतिपादको वचनविशेषोऽईच्छासन एवेति वक्त यु- श्र०५०६ उ०। क्लम् । बुद्धशासनादिष्वपि तस्योपलम्भादित्याशक्याह
| सव्वएणुभासिय-सर्वज्ञभाषित-त्रिका समस्तवित्प्रणीते, हा० सूरिः-"सिद्धत्थाणं " इति अस्यायमभिप्रायः-प्रत्यक्षा
२६ अष्ट० । तीर्थकराभिहिते , द्वा० १७ द्वा० । नुमानादिप्रमाणविषयत्वेन प्रतिपादिताः शासनेन ये ते तद्विषयत्वनैव तैनिश्चिता इति सिद्धास्ते च-अर्थ्यन्त इत्यर्था
| सव्वएणुमय-सर्वज्ञमत--न । सर्ववेदिप्रवचनविषये, पश्चा०७ उच्यन्ते, तेषां शासनं प्रतिपादकमर्हत्सर्वज्ञशासनमेव, न बु
विव० । जिनशासनविषये , पञ्चा० ६ विव० । द्धादिशासनम् । अतो वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोस्तेष्व- सव्वएणुवयण-सर्वज्ञवचन-न। सत्यवक्तृवीतरागवचने , सिद्धत्वात् कुतस्तेषामपि सर्वज्ञत्वम् ; येन विशेषसर्वज्ञत्व- दश०४ अ०। सिद्धिर्न स्यात् । यथा चागमान्तरेण प्रत्यक्षादिविषयत्वेन | सव्वतंतसिद्धत-सर्वतन्त्र सिद्धान्त-पुं०। सर्वतन्त्राऽविरुद्ध प्रतिपादितानामर्थानां तद्विषयत्वं न संभवति , तथाऽत्रैव
स्वतन्त्रेऽधिकृतेऽर्थे, सूत्र० १ १० १२ १० । यथा स्पर्शनायथास्थानं प्रतिपादयिष्यते । अथवा-सिद्धार्थानामित्यनेन दीनीन्द्रियाणि स्पर्शादय इन्द्रियार्थाः प्रमाणैः प्रमेयस्य ग्रहेतुसंसूचनं विहितमाचार्येण । सिद्धाः प्रमाणान्तरसंवाद
हणं समानम् । तथा चोक्तम्तो निश्चिता येऽर्था नष्टमुष्टयादयस्तषां शासनं प्रतिपाद
"संति पमाणाई पमेयसाहगाई तु सव्वतंतो उ। कम् , यतो द्वादशाङ्गं प्रवचनमतो जिनानां कार्यत्वेन संबन्धि; तेनायं प्रयोगार्थः सूचितः । प्रयोगश्च प्रमाणान्तर
थेञ्जबई वसुमई, आपा य दवा चलो वाऊ॥१॥" संवादि यथोक्कनष्टमुष्टयादिसूक्ष्मान्तरितदृरार्थप्रतिपादकत्वा- सन्ति प्रमाणानि-प्रत्यक्षादीनि प्रमेयसाधकानि यथा-स्थैर्य. न्यथाऽनुपपत्तेर्जिनप्रणीतं शासनम् । अत्र च सूक्ष्माद्यर्थ- वती पृथ्वी, आपो द्रवाः, चलो वायुरेष सर्वतन्त्रसिद्धान्तः प्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणस्य हेतोर्जिनप्रणीतत्वल- सर्वेषु तन्त्रेषु अस्यार्थस्य सिद्धत्वात् । बृ० १ उ० १ प्रक० । क्षणेन स्वसाध्येन व्याप्तिः साध्यधर्मिण्येव निश्चितेति त- सव्वतवाणिजमय-सर्वतपनीयमय-त्रि० । सर्वात्मना तपनीनिश्चायकप्रमाणविषयस्येह दृष्टान्तस्य प्रदर्शनमाचार्येण न | यरूपसुवर्णमये, जी० ३ प्रति०४ अधि० । रा०। दशा० । विहितम् । तदर्थस्य तन्यतिरेकेणैव सिद्धत्वात् । यथा चा- | सव्वतुरियसहसम्मिणाय-सर्वतयंशब्दसन्निनाद-पुं० सर्वतूपत्तः साध्यधर्मिण्येव व्याप्तिनिश्चयाद् दृष्टान्तव्यतिरेके
र्यशब्दानां मीलने महाघाणे, भ०१ श० १ उ० । णापि तदुत्थापकादादुपजायमानायाः सर्वज्ञप्रतिक्षपवादिभिर्मीमांसकैः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते, तथा प्रकृतादन्यथा
सब्बतूबर--सर्वतूबर-पुं० । समस्तकपायद्रव्ये, रा०।। उनुपपत्तिलक्षणाद्धेतोरुपजायमानस्याऽस्याऽनुमानस्य तत्
सव्वत्तया--सर्वात्मता-स्त्री० । सर्वेष्वात्मनः परिणामेषु, उ. किं नेष्यते ? । प्रतिपादितश्चार्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावः प्रागि
पा०२० । सर्वसामर्थ्य, सूत्र०२ श्रु०१ अ । ति भवत्यतो हेतोः प्रकृतसाध्यसिद्धिः । अत एव पूर्वाचार्य- सव्वत्थ-सर्वन-श्रव्य० । समस्तदेश इत्यथै , पञ्चा०६ विवव हेतुलक्षणप्रणेतृभिरेकलक्षणो हेतुः
समस्तकाले, सर्वस्यामवस्थायामीत्यर्थे , सूत्र. १ श्रु. ३ "अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
अ०४ उ० । समस्तेषु द्रव्यक्षेत्रादिषु , पञ्चा० ६ विव० । नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥१॥"
सब्बत्थया-सर्वार्थता-स्त्री०। चलत्वान्नानाविधार्थग्रहणे "स
र्वार्थतैकाग्रतयोः, समाधिस्तु क्षयोदयौ।" द्वा० २४ द्वा० । इत्यादिवचनसंदर्भण प्रतिपादितम् इति मन्बानेनाचार्येणा
सव्वत्थविसम-सर्वत्रविषम-न० । सर्वपादेषु विषमाक्षरे वृत्ते, पि न दृष्टान्तसूचनं विहितमत्र प्रयोगे । 'कुसमयविशा
स्था०७ ठा०३ उ०। सनमिति' चात्र व्याख्याने बुद्धादिशासनानामसर्वशप्रणीतत्वप्रतिपादकत्वेन व्याख्येयम् । तथाहि-कुत्सिताः प्रमा
सव्वदंसण-सर्वदर्शन-न० । सर्व-सम्पूर्ण दर्शनं सर्वदर्शनम् । णबाधितैकान्तस्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेन, समयाः कपिलादि
क्षायिकसम्यक्त्वे, विशे० । प्रणीतसिद्धान्तास्तषां " सन्ति पञ्च महब्भूया०७" इत्यादि
त पञ्चमहमूचा इत्यादि -पृथ्न्याः चलाऽचत्वविचारः 'भूगोल' शब्दे पछे भागे गतः । 'लोक' १-मूत्र १ ० १ ० १ उ० ।
शब्दे च पन्जमे भागे गोलक कल्पना च ।
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सव्वदंसि अभिधानराजेन्द्रः।
सव्वपुष्फ. सबदंसि(म्)-सर्वदर्शिन्-पुं० । सर्व जगन् चराचरं सामा- सव्वधत्ता-सर्व(हिता)धत्ता-स्त्री० । सर्वजीवाजीवाण्यं वस्तु न्येन द्रष्टुं शीलमस्येति सर्वदर्शी। सूत्र. १ श्रु०६ अ० भ०। धत्तं निहितमस्यां विवक्षायामिति सर्वहिता। ननु दधातहीति रा। श्रनाकारोपयोगासामर्थ्यात् । (उपा०७ १० । सर्वस्व शब्दादेशाद् हितं भवितव्यं कथं धत्तमित्युच्यते प्राकृते देशीवस्तुस्तामस्य सामान्यरूपतया द्रष्टरि, भ०१ श०१ उ० । पदस्याविरुद्धत्वान्न दोषः । अथवा-धत्त इति डिस्थवदव्युस्था० । कल्प० । केवलदशनेन एकेन्द्रियद्वीन्द्रियजीवादिज्ञा- त्पन्न पव यदृच्छाशब्दः । अथवा-सर्व दधासोति सर्वधं नितरि, अनु० । सूत्र० । सर्व प्राणिगणमात्मवत्पश्यतीति सर्व- रवशेषवचनं सर्वधमात्तमागृहीतं यस्यां विवक्षायां सा सर्वदी। श्रात्मसाम्यदर्शिनि , उत्त० १५ अ०।
धत्ता । एवमपि निष्ठान्तस्य न पूर्वनिपातः। “ जातिकालसम्बदरिसि-सर्वदर्शिन-पुं० । सर्वज्ञे, ध०२ अधिक।
सुखादिभ्यः परवचनम्" इति परनिपात एव । सर्वग्राहके,
सर्वग्रहीतरि, आव० १ १०॥ सबदब-सर्वद्रव्य-न। धर्मास्तिकायादिषु भ०१२ श०५उ०,
सर्वधात्त-त्रि०। सर्वधमात्ता सर्वधात्ता । निरवशेषे,आव०१ सम्बदा-सर्वदा-स्त्री० । सर्वकाल इत्यर्थे, ल० । भ०।।
अ० प्रा०म० सम्बदिसाग-सर्वदिक्क-त्रि० । सर्वा दिशो यत्र तत्सर्वदिक्क
सव्वधत्तासच-सर्वधत्तासर्व--पुं० । जीवाजीवविवक्षारूपे म् । सर्वदिगवच्छिन्ने , विशे० ।
सर्वशब्दार्थे, विशे० । श्रा० म०। सव्वदी(द्दी)वसमुह-सर्वद्वीपमुद्र-पुं० । अशेपद्वीपसमुद्रेधु, सवधम्म-सर्वधर्म-पुं० । समस्तेषु अनुष्ठानरूपेषु स्वभावेष. सू० प्र०.१ पाहु० ।
सूत्र०१ श्रु०८ अ०। सर्वेषु क्षान्त्यादिषु धर्मेषु,उपा०१० सव्वदुक्ख-सर्वदुःख-त्रि०। समस्तशारीरमानसादिभेदभि
सव्वधम्मपरिब्भट्ट-सर्वधर्मपरिभ्रष्ट-त्रि० । सर्वधर्म ध्या-क्षावेषु असातेषु, ध०३ अधिक।
त्यादिभ्यः आसक्तिभ्योऽपि यावत् प्रत्यननुपालनात् लोसन्चदक्खप्पहीण-सर्वदःखमहीण-पुं०। प्राकृतत्वात्प्रकर्षण किकेभ्योऽपि गौरवादिभ्यः परिभ्रष्टः-सर्वतश्च्युतः । कृतहीनानि-हानि गतानि प्रक्षीणानि वा सर्वदुःखानि यस्मिन् , धर्मात्परिच्युते, दश०१ चू। यद्वा-सर्वदुःखानां प्रहीणं प्रक्षीणं वा यस्मिस्तत्तथा । सव्वधम्माणुवत्तण-सर्वधर्मानुवर्तन-त्रि० सर्व धर्म क्षासिद्धक्षेत्रे, उत्त०२८ अ०। दुःखानि शरीरमानसानि तानि |
श्यादिरूपमनुवर्तत इति तदनुकूलाचारतया स्वीकुरुत प्रहाणानि यस्य स तथा । कल्प० १ अधि०६ क्षण। मुक्ने,
इत्यवंशीलो यः स तथा । समस्तक्षमादिधर्माऽऽचरणशीले, मोक्ष च । ध० ३ अधि० । प्रातु । ज०।
उत्स०७०। सव्वदुक्खप्पहीणमग्ग--सर्वदुःखप्रहीणमार्ग-पुं० । सर्वदुःख- सधपगइ-सर्वप्रकृति-स्त्री०१ राज्ञोऽष्टादशसु नैगमादिनगरप्रहरणो माक्षस्तत्कारणं मार्गः-पन्थाः । ध० ३ अधि० । श्रा- वास्तव्यप्रजायाम् , कल्प० १ अधि०५क्षण । व० । औ० । सकलाशर्मक्षयोपाये, भ० ३३ श० उ० ।
सव्वपत्थार-सर्वप्रस्तार-पुं०। समस्तसञ्चापद्रवीभूते,व्य०१३० । सव्वदुक्खविमोक्ष-सर्वदःखविमोक्ष-पुं० । सर्वाग्यशेषाणि
सव्वपरिष्माचारि (ण)-सर्वपरिज्ञाचारिन-पुं०। सर्वतः सबहुभिर्भवैरुपचितानि दुःखकारणत्वाद् दुःखानि कर्माणि र्वकालं सर्वपरिक्षया द्विविधयापि चरितुं शीलमस्येति सर्वतभ्यो विमोक्षो-विमोक्षगंग; विमोचनम् । सूत्र० १ श्रु० ११ परिज्ञाचारी । रिशिष्टज्ञानान्विते, सर्वसंवरचारित्रोपेते च । अ०। निर्वाण, सूत्र०१ श्रु० ३ ० २ उ० । कर्मक्षये , स०।
प्राचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। सव्वदुक्खहर-सवदःखहर-त्रि०ा मोक्षहेतौ, पं०व०४ द्वार ।
सव्वपाणभृयजीवसत्तसुहावह-सर्वप्राणभृतजीवसच्चसुखावहसव्वदुह--सर्वदुःख-न० । समस्तशारीरमानसदुःख, दश० त्रि० । सर्वे विश्वे ते प्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो भूताश्च तरवो २चू०
जीवाश्च पञ्चन्द्रियाः सत्त्वाश्च पृथिव्यादय इति द्वन्द्वे सति सव्वदूरमल-सर्वदूरमल-न० । सर्वथा दूर-विप्रकृएं मूलं च कर्मधारयस्ततस्तेषां सुख शुभं वा श्रावहतीति सर्वप्राणनिकट सर्वदूरमूलं तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलः । श्रत्य
भूतजीवसत्त्वसुखावहम् । सर्वेषां प्राणादीनां संयमप्रतिपाददूरवर्तिनि अत्त्यर्थासन्ने च । 'सव्वदूरमूलमणतियं सव्वं जा- कत्वात्सुखहेतौ, श्राव० ४ ० । स्था० । गइ पासइ । भ०५४०४ उ०।
सव्वपावणिवित्ति-सर्वपापनिवृत्ति-स्त्री० । अशेषावधानुष्ठासव्वदेवमूरि-सर्वदेवमूरि-पुं० । वृद्धगच्छप्रथमसूरी, ग०३. नव्युपरतो, हा०२५ अष्ट। अधिक।
सव्यपावपरिवज्जिय--सर्वपापपरिवर्जित-त्रि०। सर्वाऽमङ्गलैसयदेसघाहसी-सवदेशघातिनी-स्त्री०। सर्व-समस्तं देश- रहिते. कल्प०१ अधिकता ।
बानीमा प्रतीत्येवंशीला सर्वदेशघातिन्यः । तथाविधा- सयपप्फवत्थगंधमल्लालङ्कार-सवेपुष्पवस्वगन्धमाल्यालकार सु कर्मप्रकृतिपु. कर्म० ४ कर्म० ।
पुं० । गन्धाः-वासा माल्यानि-पुष्पदामानि अलङ्कारा श्राभसबदा-सर्वाडा-स्त्री० । अतीतानागतवर्तमानकालस्वरूप रणविशेषाः ततः समाहारो द्वन्द्वस्ततः सर्वशब्देन सह विशश्रद्धाकालभेद, अनु।
पणसमासः । समस्तपुष्पादौ, ग०।
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सवप्पग
( ५१४ ) अभिधान राजेन्द्रः । सव्वलोय पर सय्वप्यग-सर्वात्मक-पुं० । सर्वत्रायात्मा यस्यासी सर्वात्म-सम्बभूय सर्वभूत-पुं० । सर्वेषु त्रसेषु खावरेषु च जीवु - कः । लोभ, सूत्र० १ ० १६ श्र० । सर्वस्वरूपे, सूत्र० १ ० १ अ० २३० |
सम्वष्पगुण सर्वात्मगुण - पुं० । येषां परमाणुनां समस्तानी परमाण्वंपक्षया श्रल्पे गुणाः स्तोका श्रंशा विभागास्तेषु पर
माणुपु. क० प्र० १ प्रक० ।
"
सब्वप्पभा - सर्वप्रभा स्त्री॰ । उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिकुमार्याम् श्रा० क० १ अ० । जं० । श्रा०चू० । श्रा० म० । सच्चफ लिमय सर्वस्फटिकमय प्रि० सर्वात्मना स्फटिकमये, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । सच्चफाससह सर्व स्पर्शसह त्रि० । परीपहरूपात सर्वेषां शीतोष्णदंशमशकतृणादिस्पर्शानां सद्दिष्णौ, सूत्र० १
० ४
अ० २ उ० ।
सव्वबंध सर्वबन्ध पुं० [समा बन्धे यथा फीरनीरयोः ।
-
भ० ७ ० १ उ० ।
सव्वबल–सर्वबल–न० । समस्तहस्त्यादिसैन्ये, जी० ६ प्रति० ४ अधि० । भ० । रा० । कल्प० । विपा० । सब्यवाहारिणिम्बुस - सर्ववाधाविनिर्मुक्र त्रि० एकान्तसुख
संगते, हा० ३१ अ० । सव्त्रबुद्ध - सर्वबुद्ध-त्रिः । सर्वतीर्थकरे, दश० ६ श्र० । सम्वन्भन्तर-सर्वाभ्यन्तर- त्रि० । सर्वमध्यवर्त्तिनि, सू० प्र० १ पाहु० । श्री० । नं० ।
सव्वभति- सर्वभक्ति - स्त्री० । सर्ववस्तुप्रकारे, सर्वा भक्तयः
प्रकारा येषां तानि तथा सर्वप्रकारोपेतेषु स्था०६ ठा०३ उ० । सव्वभाव- सर्वभाव - पुं० । सर्वपरिणामे, स्था० ६ ठा० ३ ३० । शक्त्यनुरूपे स्वरूपसंरक्षणादौ दश० अ० सर्वप्रकारे स्पर्शरसगन्धरूपज्ञाने, " सव्वभावें जागर पास" स्था० १० ठा० ३ उ० | केवलज्ञानसाक्षात्कारे, भ०८ श० २ उ० । स्था० ।
सव्वभावविउ सर्वभावचित् पुं० । भारते वर्षे आगमिष्यत्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति द्वादशे तीर्थकरे, स० । सम्बभावाहिडाइच सर्वभावाधिष्ठायित्वन० सर्वेषां गुणरामानां खामिवदाक्रमणे सस्यपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावादित्यं सर्वच द्वा० २६०
सव्वभासाणुगामि(ण् )–सर्वभाषानुगामिन् - त्रि० । सर्वभाषा
श्रार्याऽनार्या श्रमरवाचोऽनुगच्छन्ति - अनुकुर्वन्ति तद्भाषाभाषित्वात् स्वभाषयैव वा लब्धिविशेषात् तथाविधप्रन्ययजननात् अथवा सर्वभाषाः संस्कृताकृतमाध्याय गमयन्ति व्याख्यान्तीत्येवं शीला ये ते तथा। समस्तभापाविशारदेषु श्र० रा० सम्बभियार- सव्यभिचार-व्यावर्तत इति सव्यभिचारः । व्यभिचाराख्यहेतुदोषसहित, दश० १ सव्वभू-सर्वभूति स्त्री० सर्वसम्पदि विषा० १ ० सव्वभूमिया - सर्व भूमिका स्त्री०
[सर्वप्रासादभूमिकासु
विपा० १ ० ६ ० ।
"
० ।
०
3
त० २० अ० । श्रातु० ।
सव्वभूषण्यभूष- सर्वभूतात्मभूत- त्रि० सर्वभूतेष्यात्मभूतः स भूतात्मभूतः । सर्वभूतानामात्मवदर्शके, दश० ४ श्र० । सम्बभूय सुहावह सर्वभूतसुखावह त्रि० । सर्वप्राणिहिते, दश
६ अ० ।
सब्वभोम- सार्वभौम-पुं०। सर्वासु क्षिप्राद्यासु चित्तभूमिषु सभयन्ति इति सार्वभीमाः। तदु ते तु जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः । सार्वमौमा महाव्रतेषु यमादिषु द्वा०२१ द्वा० । सम्यमंगलमेव सर्वमङ्गलभेद-५० कलाकारे ल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
"
सव्वमिच्छोवयारा- सर्व मिथ्योपचारा स्त्री० । सर्व एव मिथ्यो
चारा मातृस्थानगर्भाः क्रियाविशेषा यस्यां सा सर्वमियोंपचारा । सर्वाशेन मिथ्योपचारयुक्त पामाशातनायाम् ५० २ अधि० ।
सव्वमित्त - सर्वमित्र - पुं० । पश्चिमदशपूर्वधरे साधौ, ति० । सव्वय-- सद्व्यय--पुं० । पुरुषार्थोपयोगिनि वित्तविनियोगे,
द्वा० १२ द्वा० ।
सदयत-पुं० शोभनवते, खा० ३ डा० २ ० । सव्वरयण - सर्वरत्न -- पुं० । महानिधिभेदे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । जं० । प्रव० । आ० चू० । दर्श० । ( रयणाई सब्वरयणे चउट्सपवराई चक्कपट्टिस्स उप्पनंति य एर्गिदियाई पंचिदि याई ति तल्लक्षणं शिहि ' शब्दे चतुर्थभागे २१५१ पृष्ठे व्याख्यातम् । )
4
"
सव्वरयणकूट सर्वरत्नकूट-२० | मानसोत्तर पर्वतस्य स्वनामख्याते तृतीये कूटे, स्था० ४ ठा० २ उ० । सव्वरयणा - सव्वरत्ना- स्त्री० । उत्तरपाश्चात्यस्य रतिकरपर्वतस्य पश्चिमदिशि ईशानाग्रमहिष्या बसुमित्रायाः राजधान्याम्, स्था० ४ ठा० २ उ० । ती० जी० । द्वा० । सम्यरयणामय- सर्वरत्नामय- वि० सर्वरत्नाः समस्येव रत्नमयानं इति सर्वरत्नमया समस्तरत्नमयेषु, जी० ३ प्रति०४ अघि सर्वात्माराम जी०३ प्रति ४ अधि० । दर्श० ।
सब्वरस सर्वरस - न० । सविकृतिके, पञ्चा० १६ विव० । सब्दराग - सर्वराग - ५० समस्त विषयाभिमुख्यदेतुभूतात्मप रिणामविशेषे श्र० ।
सब्बरी सर्वरी श्री० रात्री ० १३०३ प्रक० । सव्वल - षड्वल - पुं० | भल्ले, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । सव्वलोय - सर्वलोक- पुं० । सर्वः खल्वधस्तिर्यगूर्ध्वभेदभिन्नः सर्वश्वासौ लोकश्च सर्वलोकः । त्रैलोक्ये, ल० | ध० । ० सस्थावरभेदैर्भिने प्राणिगणे, सूत्र० १ श्रु० ५ ० २ उ० । सर्वजने, स० ३० सम० ।
सम्बलोयपर- सर्वलोकपर- पुं० सर्वजनात्प्रकृष्टे, 'सव्वतोयपरे
तेणे महामोहं पकुब्वाइ' स० ३० सम० ।
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(५६५) सव्वलोयपरि० अभिधानराजेन्द्रः।
मन्वसत्त सव्वलोयपरियावस्म-सर्वलोकपर्यापन-त्रि०। उपपातसमुद्- सव्वविसनिवारणी-सर्व विषनिवारणी-स्त्री० । सर्वप्राणाति. घातस्वस्थानः सर्वलोके वर्तमाने, भ० ३४ श०१ उ०। पातविरतिप्रभृतिसंपूर्णपापनिवारिण्यां विद्यायाम् , “सम्वं सन्चलोयसारंग-सर्वलोकसारङ्ग-न। सर्वस्मिन्नपि लोके सा- पाणाइवाय पञ्चक्खाइ अलियवयणं च । सव्वमदिनादाण , रम स्वरूपं यस्य तत् सर्वलोकसारङ्गम् । चतुरङ्गे,तस्य सर्व
अव्वंभपरिग्गहं स्वाहा ॥ १२७० ॥” इति तन्मत्रः , लोकसाररूपत्वात् । “ नासेर अगायत्थो,चउरंग सब्बलोय-
श्राव० ४ ० । (अस्य मन्त्रस्य व्याख्या 'पडिकमण'
आव० ४ अ० । (अस्य सारंग।" व्य० ३ उ०।
शब्दे पञ्चमभागे २६७ पृष्ठे गता।) सव्वाइरामय-सर्ववज्रमय-त्रि० । सर्वात्मना वज़मये,जी०३ सव्ववेइ(ण)-सर्ववेदिन-पुं० । सर्वशे , नं० । प्रति० ४ अधि०।
सबवेरामय-सर्ववज्रमय-त्रि० । सर्वात्मना वज्रमये, रा०। सव्ववाइ-सर्ववादिन्-० । कपिलकणादाक्षपादसौद्धोदनि
सब्बस-सर्वस्व-न । सर्वसारे, षो०२ विव० । नि० चू०। जैमिनिप्रभृतिमतानुसारिषु समस्तवादिषु , सूत्र.१ श्रु० १
सव्वसंकम-सर्वसंक्रम-पुंज'चरमट्टिईए रहयं, पइसमयमसं. अ०१ उ०। सबवाय-सर्ववाद-पुं० । सर्वस्मिन् बौद्धादिके वादे, सूत्र.१ |
खिए पएसगं । तावुभइ अंतपगई, जाव ति य सम्वसंकम
ओ' इत्युक्तलक्षण संक्रमभेदे, पं० सं०५ द्वार। थु०६०। सव्ववार-सर्ववार-न० । बहुशःशब्दार्थे, सूत्र० १ श्रु०६०।
सव्वसंका-सर्वशङ्का-स्त्री० । सर्वविषये शङ्काभेद, यथाs
स्ति वा धर्मो नास्ति वा यथा वा सर्वमिदं प्राकृतनिबद्धसव्व विग्गहिय-सर्वविग्रहिक-पुं० । विग्रहो वक्त्रं लघु इत्य
स्वात्समिदं शास्त्रमसमञ्जसमित्यादि । प्रव० ६ द्वार । र्थस्नदस्यास्तीति विग्रहिकः। सर्वथा विग्रहिकः सर्ववि- नि० चू०। ('संका' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ३५ पृष्ठऽस्य वग्रहिकः । सर्वसंक्षिप्ते, भ० १३ श०४ उ० ।
नमुक्तम् ।) सव्ववित्थाराणंतय-सर्व विस्तारानन्तक-न० । सर्वाकाशा
सव्यसंगम-मर्वसङ्गम-पुं० । समस्तस्वजनमेलापके, कल्प०१ स्तिकायरूपेऽनन्तकभेदे, स्था० १० ठा० ३ उ०।
अधि०५क्षण । सबविभूइ-सर्व विभूति-स्त्री० । समस्तखखाभ्यन्तरवैक्रियक
सव्वसंगातीत--सर्वसङ्गातीत-त्रि० । वीतरागे, औ०।। रणादिबाह्यरत्नादिसपदि , रा०। कल्प० । भ० । जी० ।
सव्वसंगावगय-सर्वसङ्गापगत-त्रि०। अपगतद्रव्यभायसङ्गे. समस्तशोभायास् , कल्प० १ अधि०५ क्षण ।
दश०१०। सव्वविभूसा-सर्वविभूषा--स्त्री० । यावच्छक्तिस्फारोदारशृङ्गा.
सव्वसंजम-सर्वसंयम--पुं० । सर्वात्मना मनोवाकायसंयमने, रकरणे,रा०। सबविमुक्क-सर्वविमुक्त-० । सिद्धे, प्राचा०२ श्रु०४ चू० ।
रा० । “सव्वसंजमतवसुचरियफलनिव्वाणमग्गणेति" सर्वस
यमः सर्वात्मना-मनोवाकायसंयमनं तस्य सुचरितस्य वा सव्वविरइ-सर्वविरति--स्त्री० । सर्वसंयमे , कर्म० १ कर्म । श्राशंसादिदोषरहितस्य तपसो यत्फलं निर्वाणं तन्मार्गेण । सव्वविरइवाइ-सर्वविरतिवादिन-पुं०। प्रात्मानं सर्वविरति- किमुक्तं भवति-सर्वसंयमेन सुचरितेन च तपसा निर्वाणग्रमत्वेन ख्यापके , विशे०।
हणमनयाः निर्वाणफलत्वख्यापनार्थम् । रा०। एतदेवाह
सव्यसंपया-सर्वसम्पत-स्त्री०। समस्तसम्पविधाञ्या देव्याम्, सव्वं ति भाणिऊणं. विरईखल जस्स सविया नस्थि। यत्तदर्थ तपः क्रियते रूढितो तत् गम्यम् । पश्चा०१६ विव०। सो सम्वविरइवाई, चुकति देसं च सव्वं च ॥२६८४॥ |
सव्वसंपयाकरी-सर्वसम्पत्करी-स्त्री० । भिक्षाचर्याभेद, हा० । 'सव्वं' ति-अस्योपलक्षणत्वात्सर्व सावद्ययोग प्रत्याख्या- यतिर्ध्यानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । मि त्रिविधं त्रिविधेनेत्येव भणित्वा-अभिधाय विरतिः- सदानारम्भिणस्तस्य, सर्वसम्पत्करी पता ॥ २ ॥ सायद्ययोगानिवृत्तिः खलु यस्य सर्विका सर्वा नास्ति प्रवृत्ताकारम्भानुमतिसद्भावात्सर्वविरतिवादी'चुका' त्ति
यतिः-साधुस्तस्य सर्वसम्पत्करी मतेति क्रिया, तदा नाशयति देशं च 'सब्वं च' लि-देशविरतिं सर्वविरति च
तस्मिन् काले भिक्षाकाले इत्यर्थः । उपयोगं कालाचितप्रशप्रतिज्ञाताकरणादिति निर्युनिगाथार्थः । विशे० ।
स्तव्यापारं कृत्वा-विधाय निर्दोषा गंवषणेषणादिदोषरहिता
सर्वसंपत्करीत्यर्थः । हा०५ अष्ट । ध० । पञ्चा० । सम्वविरइसामाइय-सर्वविरतिसामायिक-न० । सर्वविरतिरेख सामायिकमिति । सामायिकभेदे , विशे।
सव्वसंभम-सर्वसम्भ्रम--पुं० । सर्वोत्कृष्ट सम्भ्रमे, सर्वोत्कृष्टतत्पर्यायाः
सम्भ्रमश्च स्वनायकविषयकबहुमानख्यापनपरा स्वनाय
कसंपादनाय यावच्छक्तिमत्वरिता त्वरितवृत्तिः । जी०३ सामाइयं समइयं, सम्भावाओ समाससंखेवो ।
प्रति०४ श्रधिः । रा०। समस्तप्रमोदकृतीत्सुक्ये, भ०८ श० श्रणवजं च परिन्ना, पच्चक्खाणं च ते अट्ठा ।। विशे०।। ३३ उ० । कल्प। (वक्ष्यते एषां पदानां तत्तच्छब्देषु व्याख्या । सर्वैव वक्तव्यता सब्वसत्त-सर्वसत्व-पुं० । सर्वप्राणिषु, ध० ३ अधि० । सम'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते ।)
स्तदेहिषु, पञ्चा०६ विव० ।
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सव्यसत्ते. अभिधानराजेन्द्रः।
सव्यसमिद्धि सध्यसतेषभाचवाइ-सर्वसत्त्वैवंभाववादिन--पुं० । नास्तीह क- समाधिनन्दनं धैर्य, दम्भोलिः समता शची। श्चिद् भाजनं सस्व इति वचनात्सर्वजीवानो मोक्षयोग्यता-1 ज्ञानं महाविमानं च, वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २॥ वादिषु, ल। सम्बसमस्यागयपरमाण-सर्वसमन्वागतप्रज्ञान-पुं० । सर्वाणि
समाधिरिति-मुनेः-स्वरूपज्ञानानुभवलीनस्य साधो इयसमन्यामतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागत
म-उच्यमाना वासवस्य-इन्द्रस्य श्रीः-लक्ष्मी, शोभा बशानः । सर्वावबोधविशेषानुमते सर्वेन्द्रियझानैः पटुभिर्य
तते । अत्र मुनेः पवित्ररत्नत्रयीपात्ररूपेन्द्रस्य समाधिःथावस्थितविषश्चग्राहिभिरविपरीतैरनुगते, श्राचा० १ श्रु०१
ध्यानध्याताध्ययैकत्वेन निर्विकल्पानन्दरूपः समाधिः स एव अ०७ उ० । रा०।
नन्दनं वनं,हरेः नन्दनवनक्रीडा सुखाय उक्ला, साधोः समासव्वसमाहिवत्तियागार-सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-पुं०। पौरुषी
धिक्रीडा सुखाय, तत्राप्यौपाधिकात्मीयकृतो महान् भेदः ।
सच अध्यात्मभावनाशेयः। अस्य धैर्य वीर्याकम्पता औवप्रस्थाख्यानापवादे, ध० । कृतपौरुषीप्रत्याख्यानस्थ समुत्प
यिकभावानुब्धतालक्षणं बजं-दम्भोलि पुनः समता-हटानिअनावशूलादिदुःखतया सजातोरातगेद्रध्यानयोः सर्वथा
घेषु संयोगेषु अरक्तद्विष्टता सर्वेऽपि पुद्गलाः कर्करचिन्तामनिरासः सर्वसमाधिस्तस्य प्रत्ययः कारणं स एवाकार:
ग्यादिपरिणताः जीवाश्व भक्ताऽभक्तातया परिणताःते सर्वेन प्रत्याख्यानापवादः सर्वसमाधिप्रत्ययाकारः । समाधिनिमि
मम भिन्नाः,एतेषु का रागद्वेषपरिणतिरित्यवलोकनेन समपसमौषधपथ्यादिप्रवृत्तावपूर्मायामपि पौरुष्यांभातदान भ.
रिणति:-समता सा शची स्वधर्मपत्नी ज्ञान-स्वपरभावयथाइत्यर्थः,वैद्यादिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुरस्य स
र्थावबोधरूपं विमान-सर्वावबोधकरं महाविमानम् , इत्यादिमाधिनिमित्तं यदा श्रमायामपि पौरुष्यां भुङ्क्त तदान भङ्गः,
परिवृतः मुनिः वजीच भासते । उक्तं च योगशास्त्रे-"पुंसाअर्द्धभुक्त त्वातुरस्य समाधी मरणे चोत्पन्न सति तथैव
मयत्नलभ्य, शानवतामव्ययं पदं भूतम् । यद्यात्मन्यात्मशा-न भोजनस्य त्यागः सार्द्धपीरुषीप्रत्याख्यानं पौरुषीप्रत्याख्यान
मात्रमेतत्समाधिहितम् ॥१॥ श्रयते सुवर्णभावं, सिद्धिरसस्पएयान्तर्भूतम् । ध०२ आध० । पश्चा०।।
शतो यथा लोहम् । श्रात्मध्यानादात्मा, परमात्मत्वं तथा55सव्वसमिद्धि-सर्वसमृद्धि-स्त्री० । परब्रह्मत्वप्राप्तौ, अष्ट ।
मोति ॥२॥" सर्वा-सममा समृद्धिः-संपदा सर्वसमृद्धिः । तत्र नामस
विस्तारितक्रियाज्ञान-चर्मच्छत्रो निवारयन् । मृद्धिः उल्लापनरूपा जीवस्याजीवस्य । स्थापनासमृद्धिः
मोहम्लेच्छमहावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः॥३॥ शक्तिरूपा । द्रव्यसमृद्धिः धनधान्यादिरूपा । शकचक्रावादीना लीकिका, लोकोत्तरा पुनः मुनिलब्धिसमृद्धिरूपा । विस्तारितेति-मुनिः-समस्तानवविरतः द्रव्यभावसंव"श्रामोसहिचिप्पोसहि,खेलोसहिजल्लमोसही चेव । संभिन्न- ररतः किं चक्रवर्ती न? अपि तु अस्त्येव । किं भूतः १ मोय उज़मई, सव्वोसहि चेव बोधब्वा ॥१॥ चारणासी- विस्तारितक्रियाशानचर्मच्छत्रः, क्रिया च शानं च किविसके-बला य मणनाणिणो व पुब्वधरा । अरिहन्ता चक- याशाने चर्म च छत्रं च चमच्छत्रे क्रियाशाने एवं धरा, बलदेवा वासुदेवा य ॥२॥” इत्यादिलब्धयः-ऋद्धयः चमच्छत्रे क्रियाशानचमच्छत्र विस्तारिते क्रियाशानचतत्र केवलज्ञानादिशक्तिलोकोत्तरा भावर्द्धिः, सं-सम्यक मछत्रे येन सः , विस्तारित इत्यनेन सक्रियोद्यतःप्रकारेण ऋद्धिः समृद्धिः सर्वा चासो समृद्धिश्च सर्वस- सम्यग्ज्ञानोपयुक्तः । मोह एव म्लोच्छः तस्य महती वृष्टिः तां मृद्धिः। अत्र साधनानवच्छिन्नात्मतत्त्वसंपन्मनाना या तादा- निवारयन् मोहम्लेच्छा उत्तरखण्डाद्यास्तत्प्रयुक्तमिथ्यात्वम्यानुभवयोग्या मृद्धिः अवसरः नयाश्च प्रस्थकदृधान्त- दैत्यकृता कुवासनावृष्टिः वशुद्धसम्यगदर्शननिवारितकुवाभावनया तत्कारणेषु तद्योग्येषु तदुच्यन ; तेषु तपोयोगि- समाचयः मुनिः भावचक्रवर्तीव भासते । पु श्राद्याः, तद्गुणेषु सापेक्षषु अत्स्या इति । अत्र प्रथमम् नवब्रह्मसुधाकुण्ड-निष्ठाधिष्ठायको मुनिः। श्रात्मनि समृद्धिपूर्णत्वं भासते तथा कथयति
नागलोकेशवद्भाति, क्षमा रक्षन प्रयत्नतः॥४॥ बाह्यदृष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः ।
नवब्रह्मेति-मुनिः-भेदज्ञानगृहीतात्मध्यानः, नागअन्तरवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥१॥ लोकेशबत्-उग्गपतिवत् भाति । किं कुर्वन् ? क्षमाबाघटिप्रचारषु इति-महात्मनः-स्वरूपपररूपभेदशा- पृथ्वी-क्रोधापहरणपरिणतिः वचनधर्मात्मिका क्षमा तारनपूर्वकशुद्धात्मानुभवलीनस्य सर्वसमृद्धयः स्फुटाः-प्र- क्षम् धारयन् इति । उरगपतेः क्षमाधारकत्वं लोकोपचाकटाः अन्तरेव-आत्मान्त एव-स्वरूपमध्ये एव भासन्ते,
रतः, नहि रत्नप्रभाद्या भूमयः केनचित् घृता, उपमा तु महयतः स्वरूपानन्दमयोऽहं, निर्मलाऽखण्डसर्वप्रकाशकज्ञानवा
त्य शापिका सामर्थ्यापिका च । पुनः कथंभूतो मुनिः ? नहम् इन्द्रायद्धय औपचारिकाः अक्षयामन्तपर्यायसंपत्पा
न यद् ब्रह्मज्ञानं तदेव सुधा तस्याः कुण्डः, निष्ठा-स्थितिः प्रोऽहम् , इति स्वसत्तावानोपयुक्तस्य स्वात्मनि भासन्ते ।
तस्या अधिष्ठायकः , इत्यनेन तत्त्वज्ञानामृतकुण्डस्थैर्यरकीहशेषु सत्सु ? बाह्यद्दष्टिप्रचारेषु-मुद्तेिषु सत्सु, बाया
क्षक इति। रधिः-विषयसचारात्मिका तस्याः प्रचाराः-विस्तारा
मुनिरध्यात्मकैलाशे, विवेकवृषभस्थितः। मुद्रितषु--रोधितषु न हि इन्द्रियप्रचारचलोपयोगैः क- शोभते विरतिज्ञप्ति-गङ्गागौरीयुतः शिवः ॥ ५ ॥ कमलपटलाचगुण्ठिताप्यात्मसंपद् शायते इत्यनेन बहि- मुनिरध्यात्मेति---अत्र लोकत्रये महादवकृष्णब्रह्मोगमनमुपयोगस्य न कर्तव्यमिति ।
| पमानम् औपचारिकम् ।नहि ते कैलाशगङ्गासृष्टिकरणोद्यताः
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सब्यसमिद्धि श्रभिधानराजेन्द्रः।
सम्वसिद्ध किंतु लोकोक्तिरेषा, तेन श्लेबालंकारार्थ हि वाक्यपद्धतिः, सव्वसरीरगय-सर्वशरीरगत-प्रि० । सर्वदेहव्यापके, दर्श०४ नसत्या । मुनि:-तत्वज्ञानी अध्यात्मम्-प्रास्मस्वरूपैकत्वं तत्व। तड्पे कैलाशे भास्थाने, विवेकः-खपरविवेचनं स एव वृ- सबसव्वएणुसंमय-सर्वसर्वज्ञसंमत-त्रि० । सर्वेषां सर्वज्ञानां पभः-बलीवः , तत्र स्थितः, विरतिः-चारित्रफलानव
| सम्मतम्-इष्ट सर्वसर्वसम्मतम् , सर्व च तत् सतबसम्मतं निवृत्तिः, शप्तिः-शानकला शुद्धापयांगता एव गागौरी,ता- च सर्वसर्वसम्मतम् । प्रवचनतरवे , स०। भ्यां युतः शिवः-निरुपद्रवः , उपचारात्-शिवः-रुद्रो भा
सव्वसह-सर्वसह-त्रि० । परिषहोपसर्गसहिष्णी, प्राचा०२ सते, रुद्रस्य गङ्गायुतत्वं विद्याधरत्वे पार्वतीमनोरञ्जनाय विक्रियाकाले वाच्यम्।
श्रु०४ चू।
सब्बसावअविरय-सर्वसावधविरत-त्रि०। सर्वसपापयोगनि. ज्ञानदर्शनचन्द्रार्क-नेत्रस्य नरकच्छिदः।
वृत्ते , पं० सू० १ सूत्र । सुखसागरमनस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः॥६॥ सव्वसाहणणाबंध-सर्वसंहननाबन्ध-पुं०। सर्वेण सर्वस्य वा शानदर्शनेति-योगिनः-रत्नत्रयपरिणतस्य हरे:-- क्षीरनीरादीनामिव बन्धे , भ०८श० उ० घणात् किं न्यूमं?, न किमपि । किंभूवस्य योगिनः ?-शानद- सव्वसाहु-स(सा) श्रव्य व्यवसाध-पुं० । स्थविरकल्पिकाशनचन्द्रार्कनेत्रस्य, शानं-सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि वि- दिमेवभिन्नेषु मोक्षसाधकेषु मुनिषु, ध०२ अधिः । शेषावबोधः , सामान्यविशेषात्मक वस्तुनि सामान्या
नमो लोए सवसाहूणं। वयोधः दर्शनं , ते एव चन्द्रार्की नेत्रे यस्य स तस्य ।
_ 'सारणं' ति-साधयन्ति शानादिशक्निभिर्मोक्षमिति साधवः हरेः चन्द्रार्कनेत्रत्वं तु लोकोक्तिरेय । पुनः किंभूतस्य योगि- समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुनिन्यायात्साधवः, यनः ?-नरकच्छिदः-नरकगतिनिवारकस्य, हरेस्तु-नर
दाह-'निव्याणसाहए जोए, जम्हा साहेति साहुणो। समा य काभिधानशत्रुषिदारकस्य,सुखसागरमग्नस्थ-कृष्णार्थे इन्द्रि
सब्वभूपसु , वम्हा ते भावसाहुणो ॥१॥' सहायकं चा यजमुखलीलासमुद्रमग्नत्वं, योगिनः सुख सम्यग्शानद- संयमकारिणां धारयन्तीति साधवा निरुतरेव , सर्वे च ते शनचारित्रसमाधिनिष्पन्नं तस्य सागरः तत्र मरनस्य, सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकादयो जिनकल्पिआध्यात्मिकसुखपरिणामभाजनस्य साधोः केन सह न्यू कप्रतिमाकल्पिकयथालकन्दकल्पिकपरिहारविशुद्धिकल्पिकनता?, न केनापि इति ।
स्थविरकल्पिकस्थितकल्पिकस्थितास्थितकल्पिककल्पाती-- या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी ।
तभेदाः प्रत्येकबुद्धस्वयंबुद्धबुद्धबोधितभेदाः भारतादिभेदाः मुनेः परानपेतान्त-र्गुणमृष्टिस्ततोऽधिका ॥७॥
सुखमदुःखमादिविशेषिताः वा साधवः सर्वसाधवः । सर्वया सृष्टिब्रह्मण इति-या सृष्टिः-रचना ब्रह्मणो वि
ग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनाधातुः सा बाह्या-लोकोक्तिरूपा असत्या , पुनः बा
र्थम् , इर्द चाहहादिपदेवपि बोद्धव्यं न्यायस्य समानत्वाया या अपेक्षा तस्या अवलम्बिका , मुनेः-स्वरूपसा
दिति । अथवा-सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिता सार्वास्ते च ते साधधनसिद्धिमग्नस्य अन्तः-मध्ये आत्मनि व्यापकरूपा, गु
वश्व, सार्वस्य वाऽहतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः,सणानां सृष्टि:-रचना गुणप्रागभावप्रवृत्तिपरिणतिरूपा, बा
र्यान् वा शुभयोगान् साधयन्ति-कुर्वन्ति सान्विाऽर्हतः साघभावतः अधिका । कथंभूता गुणसृष्टिः ? परानपेक्षा,
धयन्ति तदाशाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयपरेषाम् श्रमपेक्षा अपेक्षारहिता पराश्रयालम्बनविमुक्ता स्व- निराकराणादिति सर्वसाधवः सार्वसाधा वा । ब्राथवारूपावलम्बनपरा गुणरचना सा सर्वतोऽधिका इति।। श्रव्येषु श्रवणार्टषु वाक्येषु । अथवा-सब्यानि-दक्षिणास्वैखिभिः पवित्रा या, स्रोतोभिरिव जाह्नवी ।
न्यनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु साधा निपुणाः श्रव्य
साधवः सब्यसाधवो वाऽतस्तेभ्यः “नमो लोए सबसिद्धयोगस्य साऽप्यर्ह-त्पदवी न दवीयसी.॥८॥
साहुणमिति " कचिसाठः तत्र सर्वशब्दस्य देशसर्वतारत्नस्त्रिभिरिति-सिद्धयोगस्याष्टाङ्गयोगसाधनसिद्धस्य सा- यापि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते, लोके-मनुधोः, साऽपि अहत्पदवी हानाधनन्तचतुष्टयत्मिका- प्यलोक न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तभ्यो नम इति । एषा टप्राविहार्यान्विता जगद्धर्मोपकारिणी न दवीयसी, न च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् । दूरा इत्यर्थः। किंभूता पदवी?-त्रिभिः रत्नैः सम्यग्ज्ञान- पाहच-"असहाएँ सहायत्तं ,करोति मे संजमं करेंतस्स । दर्शनचारित्रैः पवित्रा । का च? स्रोतोभिः-प्रवाहैः जा- एपण कारणांग, नमामि हं सव्वसाहणं ॥१॥" इति । भ०१ कवी-गला इव, इति त्रैलोक्यानतपरमार्थदायकत्वाध- श०१ उ० । दशा०। तिशयोपेता अईत्पदवी साधकपुरुषस्य यथार्थमार्गोपेतस्य सव्वसाहुवंदण-सर्वसाधुवन्दन-न० । समस्तसाघुवन्दने , न दवीयसी, श्रासन्ना एव इति । एवं सर्वमपि औपाधिक पर्युषणायां सर्वसाधुवन्दनं कर्तव्यम् । कल्प०१ अधि०१क्षण। अपहाय स्वीयरत्नत्रय साधना विधेया, येन सर्वा द्धयो सवसिणेह-सर्वस्नेह- मात्रादिसम्बन्धहेतौ स्नेहे, औ०। निष्पद्यन्ते । अष्ट०२० अष्ट० ।
| सव्वसिद्ध-सर्वसिद्ध-पुं० । सर्वे च ते सिद्धाश्च, सर्व वा सिद्धं सबसमुदय-सर्वसमुदय-पुं० । स्वखाभियोग्यादिसमस्तपरि
साध्य यषां ते सर्वसिद्धाः। तीर्थङ्करसिद्धादिभेदभिन्नेषु सिवारे, जी०३ प्रति०४ अधिकाराका पौरादिमीलने, भ०६० जेषु, आध० ५० प्रा० चूाल० । दश।जं० ।। ३३ उ०। महाजनमेलके, कल्प.१अधि०५क्षण । विपा० ।। श्राचा। सू०प्र०।
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सम्वसिद्धा अभिधानराजेन्द्रः।
सम्बाव(ति)ति सबसिद्धा-सर्वसिद्धा--स्त्री० । पञ्चभ्यां दशम्यां च रात्रि- लोकालोकाकाशस्य प्रदेशाः-निर्विभागा भागाः सर्वाकाश. तिथौ, ज्यो०४ पाहु० । चं० प्र० ।
प्रदेशाः तेषामग्रं-परिमाणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रम् । सर्वाकासच्चसिरी-सर्वश्री-स्त्री० । वीरतीर्थ अपश्चिमश्राविकायाम् ,
शप्रदेशैरनन्तशो गुणिते, नं। "दुप्पसहो सूरी, फग्गुसिरी अजा,नाइलो सायो, सम्वसि
सव्वागाससेढि--सर्वाकाशश्रेणि--स्त्री० । सर्वाकाशस्य बुद्धया री साविया, एस अपच्छिमो सको।" ती०२० कल्प। ति। चतुरस्रप्रतरीकृतस्य प्रदेशपती, भ० १२ श०१ उ०। सव्वसुइ-सर्वशुचि-त्रि० । सर्वतः शुचौ, (पवित्र सर्वशुचिः सव्वाणुभूइ-सर्वानुभूति--स्त्री० । भारते वर्षे भविष्यति पधावकः (श्रा० क० ४ श्र०) 'सुइ' शब्दे उदाहरिष्यते।)
ञ्चमे तीर्थकरे, ति० । “पढमो दढाउजीयो सव्वाणुभूई"
ती०२० कल्प । प्रव० । गोशालेन भस्मसात्कृते श्रीवीरजिनसबसुपया-सर्वशून्यता--स्त्री० । सर्वेषां भावानामभावे, सा
शिष्ये, स्था० १० ठा० ३ उ० । ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे व बौद्धानां संमता । अनु।
१०२४ पृष्ठे वक्तव्यता गता |) सब्बसुविण-सर्वस्वम-पुं० । समस्तस्वप्नमहास्वप्नोभयेषु, सव्वाणुलोमया-सर्वानुलोमता-स्त्री० । गुरोः सर्वेषूपदेशेषु
करणं भंते ! सबसविणा पामता, गोयमा ! वावत्तरि अप्रतिकूलतायाम् , व्य० १ उ० । ('विणय' शब्दे षष्ठे भाग सव्वसुविणा पमत्ता । (सू०-५७८४)
११५२ पृष्ठ गता वक्तव्यता।) द्वाचत्वारिंशत्स्वानाः, त्रिंशन्महास्वप्नाः, सम्मिलिता द्वास
सव्वाणुवत्तय-सर्वानुवर्तक-पुं० । सर्वाननुवर्तयतीति सर्वा-- पतिः सर्षस्वप्नाः । भ० १६ श० ६ उ० । कल्प० ।
नुवर्तकः । सर्वमनोऽनुवृत्तिकर्त्तरि, ध०२ अधि०।
सव्वातिहि-सर्वातिथि-पुं० । साधौ, अनु० ।। सबसुहप्पभव-सर्वसुखप्रभव-पु० । सर्वस्य सुखस्योत्पादकारण, व्य० १० उ०।
सव्यादर--सर्वादर--पुं०। समस्तयायच्छतितोलने, रा० । जी। सन्नसूयग-सर्वसूचक-पुं० । सूचकानुसूचकादिकथितस्य
सर्वोचितकृत्यकरणे, विपा० १ श्रु० अ०। स्वयमुपलब्धस्य च अमात्यकथक सामन्तराजपुरुषे , व्य० |
सव्वादि-सर्वादि-पुं० । समस्तवस्तुस्तोममूले,नि० चू०११ उ०॥
सवादिन--पुं० । सन् शोभनो वादी सद्वादी । श्रात्मास्तिसन्चसुहम-सर्वसूक्ष्म त्रि० । सर्वथा सूक्ष्मे,भ० १६ श०३ उ०। त्ववादिनि, नि० चू० १९ उ० । सबसुहमतर-सर्बसूक्ष्मतर-त्रि० । सर्वेषां मध्ये अतिशयेन सव्वाबाहारहिय-सर्वावाधारहित--त्रि० । शारीरमानसाबा
सूक्ष्मे, स्वार्थिककप्रत्यये सूक्ष्मतरकोऽप्यत्र । भ०१६ श०३ उ०। । धामुक्त, पो० १५ विव० । सबसेट्ट-सर्वश्रेष्ठ-त्रि० । सर्वप्रधाने, सूत्र० १ श्रु०६०।।
सय्यामगंध-सर्वामगन्ध--पुं० । आमं च गन्धश्च प्राम
गम्धं समाहारद्वन्द्वः सर्व च तदामगन्धं च सर्वामगसबसेय-सर्वश्वत-त्रि० । सर्वात्मना श्वते, रा०।
न्धम् । कास्नेनापरिशुद्ध, प्रतिदोषण दुष्टे च । “ सव्वासचसो-सर्वशम-श्रव्य० । सर्वैः प्रकारैरित्यर्थे, उत्त०६० मगंध परियणाय णिरामगंधे परिवएज्जा" आचा०१० नि० चूछ । प्राचा०। सूत्र।
२०५ उ०। ('श्रामगंध' शब्दे द्वितीयभागे २८६ पृष्ठे सम्बयोक्ख-सर्वसौख्य-त्रि० । आनन्द,प्रश्न०३ आश्रद्वार।
व्याख्या गता।) सचसोक्खा-सर्वसौख्या-स्त्री० । समस्तसौख्यदायां स्वना
सव्वामरपूइय-समिरपूजित-त्रि० । सकलदेवमहिते,ध० मख्यातायां देव्याम् ,यस्याः समस्तगृहिसौख्यविवृद्धयर्थ त
२ अधिक। पः क्रियते तच्च रूढिगम्यम् । पश्चा० १६ विव० ।
सव्वाय-सद्वाद-पुं० । सन्-शोभनो वादः सद्वादः । परैः सह
शोभने वादे, "काऊण पातम्मि सब्वाय णिवुत्तो भगवं" सन्चस्म-सर्वस्व-न० । समस्तद्रव्य , स्था० ३ ठा०१ उ०।
वृ०६ उ०। मध्यस्सहरण कयं । नि.चू०१ उ०।
सवारक्खिय-सर्वारक्षिक-पुं०। सर्वाः प्रकृतयो रक्षति यः स सव्वहा-सर्वथा-अव्य०। सर्वैः प्रकारैरित्यर्थे,पश्चा०६ विव०।
सर्वारक्षिकः । राज्ञः कुम्भकारादीनां प्रकृतीनां रक्षके, निक द्वा। विश। प्रश्न ।' सयहि' इत्यपि भवति । सर्वथा।
चू० ४ उ०। सर्वस्मिमिति वा तदर्थः । क० प्र०२ प्रक।
सब्बा(वंतिवत्ति--सर्वापत्ति--स्त्री० । सखातरनापत्ति-ठापसमहाकयकिच्च-सर्वथा कृतकृत्य-पुं० । सर्वश सर्वैः प्रकारैः ।
त्तिर्यस्य क्षेत्रस्य सा सापत्तिः । सर्वातपव्यात, सर्वापत्ति कृतं कृत्यं येन स तथा । निष्ठितार्थे । पं० स०२ सूत्र । स्पृशन् किं क्षेत्र स्पृशति । भ० । सम्बामास-सर्वाकाश--पुं० । सर्वे च तदाकाशं च सर्वाकाश- से नणं भंते ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकालसमयंसि म् । खोकाऽलोकाऽऽकाशे , विश० । ने।
जावतियं खत्तं फुसइ तावतियं फुसमाणे पुढे ति बत्तव्वं सध्यागामपएमग्ग--सर्वाकाशप्रदेशाग्र--न । सर्वाकाशस्य- सिया, हंता गोयमा सव्वति. जाव वचचं सिया । तं
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भंते! किं पुढं कुसर अपुट्ठे फुसइ ? बहिसि । ( सू० ५० X )
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'से समित्यादि सर्पति'ति प्राकृतत्वात् सर्वतः दिसात्तिप्राकृत्वा सर्वात्मना सर्वे वाऽऽ तपेनापत्ति:- व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापत्तिः । अथवा सर्व क्षेत्र इतिशब्द विषयभूतं क्षेत्रं सर्व न तु समस्तमेवेत्य स्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः तथा सर्वेखाऽऽतपेनापो - व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापम् इतिशब्दः सामान्यतः सर्वेणातपेन व्याप्तिर्न तु प्रतिप्रदेशं सर्वेणेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः । श्रथचा - सह व्यापेन - श्रातपण्याच्या यत्तत्सव्यापम्, इतिशब्दस्तु तथैव फुलमाणकाल समयं तपमान धवा---स्पृशतः सूर्यस्य स्पर्शमायाः कालसमयः स्पृथ कालसमयस्तत्र आतपेनेति गम्यते, यावत्क्षेत्रं स्पृशति सूर्य इति प्रकृतं तावत्क्षेत्रं स्पृश्यमानं स्पृष्टमिति वक्तव्यं स्यादिति प्रश्नः, इन्तेत्यायुत्तरम्, स्पृश्यमानस्पृहयोजकत्वं प्रथमसूत्रादवगन्तव्यमिति । भ० १ श० ६ उ० । समवावत्या सर्वावस्था श्री० सरावीतरागादिसमपर्यायेषु पश्चा० १६ विव० ।
।
सव्वाऽवरोह - सर्वाऽवरोध - पुं० । सर्वान्तःपुरे, श्री० 1 कल्प० सब्दासि ( ) - सर्वाशिन् पुं०। सर्वमातिइत्येवंशीखः सर्वा शी । बहुभक्षके, व्य० १ ३० ॥ सब्वाहिवह सर्वाधिपति पुं० खदेशे ऽन्यत्र या सर्व प्रभ ति । सार्वभौमे, स्था० ४ ठा० ४ ४० ।
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( ५६६ ) अभिपावराजेन्द्रः ।
सव्विंदियकायजोगजुंजणया सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनता
स्त्री० । सर्वेन्द्रियाणां काययोगस्य च योजनता-प्रयोजनव्यापारणं सर्वेन्द्रियकाययोययोजना कार्याधनयमे १ अधि० ।
०जाब नियमा सब्बिडि सर्वद्धिं स्त्री० । समस्तच्छ्त्रादिराजचिह्नरुपायामाभरणादिसंयन्धिन्यां या कान्तो कश्य० ५ अधि०५ क्षण | भ० । रा० । श्री० । सम्विया मूर्विका स्त्री० [सर्या स्वार्थेऽक सर्वाशमायें बिछे ।
म०
सध्विदियगायपन्दायचित्र-सर्वेन्द्रियमात्रप्रह्लादनीय भ० सर्वाणीन्द्रियाणि गात्रं च प्रह्लादयतीति सर्वेन्द्रियगात्र प्रड्डादनीयम् । वैशद्यहेती, जं० २ वक्ष० । जी० । समस्तेन्द्रियशरीव्यापारकारिणि, कल्प० १ अधि० ३ क्षण 1 सविदियजोगजुंजण्या - सर्वेन्द्रिययोगयोजनता — स्त्री० । सर्वेषामिन्द्रियाणां योगा व्यापाराः सर्वे वा ये इन्द्रिययोगातेषां योजना करणं सर्वेन्द्रिययोगयोजनता कार्यान भेदे स्था० ७ डा० ३३० सामिया प्रयोग भ० ३५ श० १ उ०
"
सचिदियव्विति - सर्वेन्द्रियनिवृत्ति- स्त्री० । सर्वेषामिन्द्रियावां निष्पत्तौ भ० १६ श० ८ उ० । ('शिव्धति शब्दे चतुर्थभागे २१२० पृष्ठे वक्तव्यता गता । ) सविदियसमाहिय- सर्वेन्द्रियसमाहित- त्रि० । शब्दादिभिरनाशिने ० १ ० १ ३० पेषु रागद्वेषाचगच्छति,
दश० ८ अ० ।
सन्विदिग्राभिणिवुड-सवेन्द्रियाभिनिर्वृत-पुं० । सर्वाणि च यानि इन्द्रियाणि च स्पादन निर्वृत्तः संन्द्रिये, जितेन्द्रिये च । सूत्र० १० १० अ० 1
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सव्वुकड-सर्वोत्कट- पुं० । प्रकृष्टदण्ड राज्यले नदेशादिकेसमे, स्था० ५ ठा० ३ उ० । सब्बुकिट्ट - सर्वोत्कृष्ट त्रि० । स्वभावेन सुन्दरे, दश०
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७ प्र० ।
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सम्युत्तमद्वारा सर्वोचमस्थान-१० परमपदे पं० ० १ द्वार सब्बुसमपुष्यथिम्माय सर्वोत्तम पुण्यनिर्माण १० निर्मीयते ऽनेनेति निर्माणम् । सर्वोत्तमं पुण्यनिर्मातमस्येति । सर्वोतमपुण्यनिर्मिते, पो० १५ विष० । सख्युचमपुकारांत सर्वोचमपुण्यसंयुद्ध-त्रि० । अस्तअत्यन्तप्रकृ ष्टतीर्थकरनामादिलक्षणशुभकर्मसंयुक्ते, पश्चा० ७ बिव० । सम्वेद सर्वेज - वि० सर्वतले २०२५ ० ४ ० सव्वेसणा--सर्वेषणा - स्त्री० । सर्वाहाराद्युद्गमोत्पादनग्राही
संबंधिय
पखायाम् श्राचा० १ ० ६ ० २ उ० ।
सन्धीय सर्वर्तुक० कुसुम, विपा० १ ० १
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सोयसुरभिकुसुमपरिवरिवसिरया "सर्वनुकसुरभिकुसुमैर्वृता वेष्टिता शिरोजा यस्याः सा तथा । भ० ६ ० ३ उ० जी० । प्रज्ञा० ।
सब्वोदग-सर्वोदक-ब० । सर्वतीर्थनद्याद्युदके, जी० ३ प्रति
४ अधि० । सर्वतीर्थसम्भवे जले, ज्ञा० १ ० १ ० । सव्वोवयार - सर्वोपचार- पुं० । सर्वेषु प्रकारेषु, बा० ६ विव० । । सन्चोसह सर्वोपपन० सर्वस्मन् चिसमूचादिके श्रीषधे,नं० । सव्वोसहि--सर्वौषधि--० । सर्वे विरामूत्र केशनखादयः उकानुक्ताश्च औषधयो यस्य स तथा । ग० २ अधि० । सर्वएविएशनखादयोऽवयवाः सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादीषधयो यस्यासी सर्वोपधिः । अथया सर्वा आमपषध्यादिका श्रीषथयो यस्यैकस्यापि साधीः स तथा । ऋद्धिविशेषशालिनि, विशे० । श्रा० म० । प्रव० । श्रा० चू० ।
सस- शश-पुं० । शशनं शशः । घञि प्रत्यये तथारूपम् । ० प्र० २० पाहु० | सू० प्र० । आटव्ये चतुष्पदजातिविशेषे,
प्रश्न० २ श्राश्र० । द्वार | रा० झा० ।
ससंक- शशाङ्क - पुं० | चन्द्रे, वृ० १ उ० ३ प्रक० । ससंकिय-सशङ्कित त्रि० । शङ्कनं शङ्कितं सह शङ्कितं यस्य येन वा स तथा । किं व्रजामि किं वा नित्येवंरूपशृङ्कांपते, व्य० २ उ० । सुसंधिय- ससंधित त्रिः । उपहते सीविते कृतथिग्गले व
स्त्रे, आ० म० १ ० ।
घोष ' शब्द भानस्थो दृष्टषः 1
"
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ससंभमोवत्तिया अभिधानराजेन्द्रः।
समि ससंभमोवत्तिया-ससम्भ्रमोपवर्तिका-स्त्री० । ससंभ्रम व्या- रजोगुण्ठितपादे, दशा०१०। श्राव- ।“ससरक्सपाकुलचित्ततया प्रवर्ततयाऽपवर्तयति क्षिपति या सा तथा।
णिपाओ भवद । ससरक्खपाणिपाए सह सरक्खणं सत्त्वरकार्यकारिण्यां चेटयाम् , भ० ६ श० ३३ उ० ।
ससरकचे अर्थडिल्ला डिझं संकमंतो ग घमजद
थंडिल्लाश्रो वि अथंडिल्लं कण्हभोमादिसु विभासा । ससक्कसारा-सशक्रसारा-स्त्री० ! रतिकरपवतानां मध्यगस्य
ससरक्खपाणिपाए ससरक्खेहिं हत्थेहिं भिक्खं गेराहर। वैश्रवणप्रभस्य पर्वतस्य उपरि दक्षिणदिग्वर्तिन्यां राज- अहवा-आणंतराहयाए पुढवीए निसीयणाइ करतो ससरधान्याम् , द्वी।
क्खपाणिपादो भवति"। श्राव० ४ ० । ससग-शशक-पुं० । स्वरगोश इति ख्याते श्राटव्यपशी , ससरक्खमोस-ससरजस्कामर्ष--पुं० । अप्रमृज्य रजोयुक्तस्य प्रज्ञा० १ पद । अस्मिन् भरतार्द्ध बनवासिन्यां नगर्यो | स्पर्शने, आव० ४ अ०। (व्याख्याऽस्य 'श्रामोस' शब्दे जितशत्रोः राशः पुत्रे सुकुमालिकाभ्रातरि , वृ०४ उ० । द्वितीयभागे २६२ पृष्ठे गता।) नि० चू०। ससण-श्वसन--पुं० । श्वसिति प्रारिणत्यनेनेति । श्वसनः ।
ससरीरि(ण)-सशरीरिन्-पुं० । सह यथासम्भवं पञ्चविधश
रीरेण ये ते। इन् समासान्तविधेः सशरीरिणः । संसारिषु, वायौ, नं० । निश्वासे, न० । नाशिकायाम् , स्त्री० । औ० ।
स्था०२ ठा०४ उ० भ०।। ससणिद्ध-सस्निग्ध-त्रि० । शीतोदकादिस्तिमिते, प्राचा० २ मसलोमय-शलोमज न०। शशलोसो जाते सूत्रे, स्था०४ श्रु०१चू०११.३ उ० । विन्दुरहिते श्रादें हस्तादौ, औ०।।
ठा० ३ उ०। ईसिं उल्ला ससणिद्धा । नि० चू० १३ उ० ।
ससल-सशल्य-
त्रिशल्यसहिते, "अहो भयवं सव्वलक्खससत्ति--स्वशक्ति-स्त्री० । स्वसामर्थ्य, ध०२ अधिः । पञ्चा।
णसम्पन्ना किं तु ससलो पलोयतेण दिट्टो कमेसु तेण वाणिससबिन्दु-शशबिन्दु-पुं० । वल्लीवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
एण भन्नइ "। प्रा०प०१०। ससमय-स्वसमय-पुं० । अर्हन्मतानुसारिशास्त्रात्मके (उत्त०
ससहर-शशधर-पुं० । वन्द्रे, पाइ० ना। १०) सिद्धान्ते, सम्म०२ काण्ड । अनु।
ससा-स्वसू-स्त्री० । "स्वस्रादे " ॥८॥३॥ ३५॥ इति ससमयकुसल-स्वसमयकुशल-पुं० । स्वसिद्धान्तनिपुणे, प्र
डाप्रत्ययः । प्रा० । भगिन्याम् , सूत्र. १ श्रु० ३ ० २ उ० । न०५ संव० द्वार। ससमय(म)म-स्वसमयज्ञ-पुं० खसमयं जानातीति स्वस- ससागरता-ससागरान्ता--स्त्री०। समुद्रान्तायाम् , प्रश्न०५ मयशः। गीतार्थे, तादृशनैव भिक्षायां प्रवेष्टव्यं गोचरप्र
आश्र० द्वार। देशादौ पृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषानाचष्टे । आचा० १ ससागरिय-ससागरिक-त्रि० । सस्त्रीके, प्राचा०२४०१ चू० श्रु०२ अ०५ उ०।
२ अ० ३ उ०। ससमयपरमवग-ससमयप्रज्ञापक-पुं०। जैनसिद्धान्तप्रज्ञापके,
ससार-ससार-त्रि० । सञ्जातसारे, 'ससाराश्रो श्रोसहीओ' पं०व० ४ द्वार । ( अत्रत्या वक्तव्यता ' वक्त्राण ' शब्दे इत्यालपेत् । सराराः संजाततन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत् । षष्ठभागे गता।)
दश०७ अ० । ज्ञानदर्शनचारित्रसारवति, ओघ०। ससमयपरसमइय-स्वसमयपरसमयिक-पुं० । स्वसिद्धान्तए
ससि( ण् )-शशिन-पुं० । “शपोः सः" ॥ ८।४।३०६ ॥ इति रसिद्धान्तौ यत्र स्तः स स्वसमयपरसमयिकः । स्वपरसमयनिबद्धे , स्था० १० ठा० ३ उ० । रा०।
शशयोः सः। प्रा० । चन्द्रे , आ० म०१०। प्रश्न । दश ।
स्था । झा । औ०। ससमयपरसमयविय-स्वसमयपरसमयवित-पुं० स्वसमयं प
सम्प्रति चन्दस्य लोके शशीति यदभिधानं प्रसिद्ध रसमय वेत्ति इति स्वसमयपरसमयवित् । स्वपरशास्त्रज्ञ,
तरयान्वर्थतावगमनिमित्तं प्रश्नं करोतिस हि परेणाक्षिप्तः सुखेन स्वं पक्षं परपक्षं च निर्वाहयति । आचा०१ श्रु०११०१ उ०।
ता कहं ते चंदे ससी आहितेति वदेजा ? ता चंदस्स ससमयपय-स्वसमयपद-नाजीवाद्यर्थप्रतिपादके पदे,अनु०॥ णं जोतिसिंदस्स जोतिसरलो मियंके विमाणे कंता देवा ससमयवञ्ज-स्वसमयवर्ज-त्रि० । स्वसिद्धान्तशून्ये , दशक फंताओ देवीओ। कंताई आसणसयखंभभंडमत्तोवगर३१०।
णाई अप्पणा वि णं चंदे देवे जोतिसिंदे जोतिसराया ससय-शशक-पुं० । लोमटकाकृती आटव्यजीवे , प्रशा० १० सोमे कंते सुभे पियदंसणे सुरूवे ता एवं खलु चंदे ससी पद । विपा० । सुकुमालिकाभ्रातरि जराकुमारपौत्रे जित- चंदे समी आहितेति वदेजा। (सू०१०५४) शत्रोः स्वनामख्याते पुत्रे, नि चू०७ उ०।
‘ता कहं ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत् , कथ-केन प्रकाससरक्ख-ससरजस्क-त्रि० । सचित्तरजोयुक्ने, श्राचा०२७०
रेण केनान्वर्थेनेति भावः, चन्द्रः शीत्याख्यात इति वदेत् ? १ चू० १ १०६ उ । तापसविशेषे, जी०१ प्रति०। । भगवानाह- ' ता चंदस्स ण' मित्यादि , ता इति पूर्ववत् । ससरक्खपाणिपाय ससरजस्कपाणिपाद-पुं० । सचेतनादि- चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य मृगाले मृगचिह्ने
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अभिधानराजेन्द्रः।
सहजबुद्धिपरिणाम विमाने अधिकरणभूने कान्ताः कमनीयरूपा देवा कान्ता | ससुय-ससुत-त्रि० । पुत्रसहिते, उत्त० १४०। देव्या कान्तानि च आसनशयनस्तम्भमाण्डमात्रोपकरलानि
| ससुर-श्वशुर-पुं० । पत्नीपितरि, पतिपितरि च।मु० आत्मनाऽपि.चन्द्रो देवो ज्योतिषेन्द्रो-ज्योतिषराजः सौभ्यः अरौद्राकारः कान्तः-कान्तिमान् सुभगः-सौभाग्ययुक्त
ससुरकुलरक्खिया-श्वशुरकुलरक्षिता-स्त्री० । श्वशुरकुले पात्वात् वल्लभो जनस्य प्रियं-प्रेमकारि दर्शनं यस्य स प्रि
लितायां स्त्रियाम् , औ०। यदर्शनः शोभनम्-अतिशायिरूपम् अङ्गप्रत्यङ्गावयवसानिवेष- ससोहग्गगुणसमृसिथ-ससौभाग्यगुणसमुच्छ्रित-नि। सविशषो यस्य स सुरूपः। 'ता' ततः एवं खलु अनेन कारणेन सौभाम्य गुणसमुच्छ्रितं च ससौभाग्यगुणसमुचिकृतम् । चन्द्रः शशी चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत् । किमुक्तं सौभाग्यगुणयुक्ने, भ०६ श० ३३ उ०। भवति -सर्वात्मना कमनीयत्वलक्षणमन्वर्थमाश्रित्य चन्द्रः | सरस-शस्य-नखिलकवर्तिनि शाजिब्रीह्यादिधान्ये, सूत्र शशीति व्यपदिश्यते । कया व्युत्पत्त्येति,उच्यते-इह शश' का. न्ताविति धातुरदन्तश्चौरादिकोऽस्ति,चुरादयो हि धातवोऽ
। २ श्रु०२ उ००। स्था० । परिमिता न तेषामियत्ताऽस्ति, केवलं यथालक्ष्यमनुसळव्याः।
| सस्सवई-शस्यवती-स्त्री० । शस्य यस्यां भूमौ विद्यते सा अत एव चन्द्रगामी चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो | शस्यवती । शस्यसंपन्नायां धरियाम् , नि० चू०२० उ०। यथालच्यमनुसरणमवगम्य द्विवानव चुरादिधातून प- सस्सामिचायण-स्वस्वामिवाचन-न० । स्वम्-आत्मीयं स. ठितवान् न भूयसः। ततो णिगन्तस्य शशने शश इति घञ् | चित्तादि स्वामी-राजा तयोर्वचनम् । स्वस्वामिनोः सम्बन्धप्रत्यये शश इति भवति । शशोऽस्यास्तीति शशी स्वविमान- प्रतिपादने,“ छाट्री सस्लामिवायणे" अनुका स्था वास्तव्यदेवदेवीशयनासनादिभिः सह कमनीयकान्तिकलित इति भावः। अन्ये तु व्याचक्षते-शशीति सह श्रिया
सस्सिय-सास्यिक--पुं० । सस्येन चरतीति सास्यिकः। - वर्तते इति सश्रीः प्राकृतात्याच शशीति रूपम् । च० प्र०२०
पीवले , वृ० ३ उ०। पाहु० । सू० प्र० । औ० । प्रा० चू० भ०। स्था। चान्द्रमासे, | सस्सिरीय-सश्रीक-त्रि० । सह श्रिया वचनार्थशोभया यनि०० २० उ०॥
त्तत्सश्रीकम् । स्था०८ ठा०३ उ०। शोभायुक्ने, भ०६ २०३३ ससिकूड-शशिकूट-न० । जम्बूद्वीपे दक्षिणरुचकवरपर्वतस्य
निय उ० । औ० । झा0। जी० । कल्प०अनुप्रासाचलयरोपेतपञ्चमे कूटे, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
स्वात्सशोभे , जं० २ वक्षः । अन्त । ससिणिद्ध-सस्निग्ध-त्रि० । सह स्निग्धेन वर्तत इति सस्ति
सस्सिरीयरूवग-सश्रीकरूपक-त्रि० । सश्रीकाणि रूपकणिग्धः । स्निग्धता चेह बिन्दुरहिता नतु. रोहितोदक्रमेण सम्मि
यत्र तानि सश्रीकरूपकारिण। जी ३ प्रति०३ अधि०। सश्रिता । दश०४ अ०। अगलदुदकविन्दुके, आचा०२ श्रु०१
शोभरूपकेषु, भ०६ श० ३३ उ०। चू० १ ० ७ उ०।
सह-सह-अव्य० । साई शब्दार्थे , षो० = विव० । उत्त। ससित्थ-ससिक्थ-त्रि० । भक्तपुलकोपेते, पश्चा०५ विव० । श्राचा० । श्राव० । स्था०। जी०। युगपच्छब्दार्थे , सं०।
सम्बन्धेन सहशब्दः सम्बन्धवाची। श्राचा०१ श्रु०१ ससिभूसण-शशिभूषण-पुं०प्रभासतीर्थे श्रीचन्द्रप्रभप्रतिमा.
१०१ उ०। त्रि०। सर्वप्रकारैः समर्थ जीता संग याम् , प्रभासे शशिभूषणः श्रीचन्द्रप्रभश्चन्द्रकान्तिमणिमयः ।
श्री०। युगलिकमनुष्यजातिभेदे , भ०६ श०७ उ०। जं० । ती०४३ कल्प। ससिया-शशिका-स्त्री। शशस्त्रियाम् , प्रश्न०१ संव० द्वार।
| सहश्रासित-सहासित-न। स्त्रीभिः सहकासने निक्दने,
नि० चू०१ उ०। ससिराय-शशिराज-पुं० । स्वनामख्याते राजनि, यो हिमनोवाकायैः खेदं कृत्वा नरकं गतः । ०। चन्द्रे, श्री।
सहकर-सहकर-पुं०। संधाते, रा०।
सहकार-सहकार-पुं०।चूते, कल्प०१ अधि०३क्षण । ससिरिय-सश्रीक-त्रि० । सशोभे, झा० १ श्रु०१ श्र० जी०। जं० । रा०। सू० प्र० स०।
सहकारि(रा)-सहकारिन्-पुं० । कारणसहायके , सम्म०२
- काण्ड । आव०। समिसयल-शशिशकल-न० । चन्द्रखण्डे, औ० त० । जी।
सहज-सहज-त्रि० । स्वाभाविके, द्वा। ससिसोमाकार-शशिसौम्याकार-त्रि०ा शशिवत् सौम्याकारे, भ० ११. श०११ उ० । शा। शशिवदरौद्रनकारे, ' ससिसो
सहजप्पमलत्त-सहजाल्पमलच्च-न० । सहज स्वाभाविक माकारकंतप्पियं' शशीवत् सोम्य प्राकार: कान्तं-कमनीयं
यदल्पमलत्वं तदिति । गाढ़तरमिथ्यात्वे, द्वा० १२ द्वा०। प्रियं-प्रेमावहं च दर्शनं च यषां ते तथा । तं०। सहजबुद्धिपरिणाम-सहजबुद्धिपरिणाम-पुं०। खभावसम्पससिह-सशिख-पुं० । केशानां धारके, व्य०४ उ० । अमु
मेऽकुसमयश्रवणसंपन्ने मतिखभावे, स०सहजात्-समावरिडतशिरस्के, ज्य०१ उ० । पिं०।
सम्पन्नान कुसमयश्रवणसम्पन्नाद् बुधिपरिणामाम्मतिख
भावात् संशयो जानो येषां ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताः ससुइय-सश्रुतिक-पुं० । हेयोपादेयपरिहारप्रवृत्तिो , श्राचा०
सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताच येते तथा । १ श्रु०५ अ०३ उ०।
तेषां श्रमणानामिति प्रक्रमः । स. १३७ सम।।
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सहजभाव
सहजभाव - सहजभाव-पुं० । स्वभावे द्रश्या० १२ श्रध्या० । सहस सहन न० भयाभावान्मर्षणे ०१०१० सहत्थ - स्वहस्त पुं० । स्वकीये करे, स्था० २ ठा० १ उ० । सहत्थामा हवा पकिरिया स्वहस्तपाण निपानक्रिया श्री० । त्यहलेन स्वमाणाग्निदादिना पराया कोधादिना निपातयतः स्वहस्ताणातिपातक्रिया । स्वहस्तन प्राणिघा
( ६०२ ) अभिधामराजेन्द्रः ।
उ .
रियविस्तापरितापनिकी स्त्री० स
न स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापना दशा वोदीराधा क्रिया परितापनाकारणमेव वा सा स्वहस्तपारितानिकी । भ० । स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी । पारितापनिक्रयाः क्रियाया भेदे भ० ३ ० ३ उ० श्रा० चू० ।
। स्था० ।
9
सहदेव सहदेव पुं० माइयां जाते पात्रे, ०१०
१६ अ० ।
सहदेवी - सहदेवी - स्त्री० । औषधिभेदे, ती० ६ कल्प । श्रवसर्पिरयां जातस्य चतुर्थचक्रिणः सनत्कुमारस्य मातरि,
स। आव० ।
3
सहभुत-सहभुक्तन० । स्त्रीभिः सकभाजने मुझे नि० ० १ उ० ।
सहमाण - सहमान - त्रि० । गुरुके, अनतिपातिनि च । 'सहमासु य कमेण कायव्ये' । व्य० १ उ० । सहम्म सधर्म-पुं० समानधर्मशीलतायाम् ५०५४०। सहय सहज-- त्रि० । स्वभावसम्पन्न स० । उत्पत्त्या सहैव जाते, आचा० १० २ ० ३ उ० । शा० । ग्रहगर–सहचर-पुं० । सहाये, स्था० ४ ठा० ३ उ० /स्त्रियाम्
,
सहचरी । शा० १ श्रु० ६ ० ।
सरिय-सरित प्र० सह हरितैर्वर्तत इति सहरितम्। तूवालादिसांते, दशा० २ श्र० । आचा० । सहरिस - सहर्ष - त्रि० । सप्रमोदे, पञ्चा० ६ विष० । सहवासिय सहवासिक-त्रि० । एकगृहवासिनि, सूत्र० २ ०
२ अ० ।
"
सहस्सकमल सहसंमह - सहसंमति श्री० [सहायता] या सगता मक्ति सां सहमतिः । परोपदेशनिरपेक्षायां जातिस्वरप्रतिभादिपायां मतौ प्रज्ञा० १ पद 'सह संमइयाए' आचा० १० १ अ० १ उ० |
सहसंमह सहमति पुं० आकस्मिकक्रियायाम् २०२५ श०८ उ० । अविमृश्य कारिश्वे, 'पुर्विक अपासिक ' छूढे पायजं पुणो पासे । नय तरह निश्रत्तेउं, पायं सहसाकरमेयं ॥१॥ इनि तल्लक्षणात् । ध० २ अधि० । व्य० 1 स्था० । (सहसाकारप्रतिसेवनायय्यता मूलगुरुसेवा षष्ठे भागे पञ्चसु समितेषु समितिषु भाविता (सहसानाभोगादिषु प्रायश्चित्तम् पडिकमणारिशब्दे पश्चा पश्चमभागे ३२० पृष्ठे उक्तम् । )
"
सहसकारपडि सेवा - सहसाकारप्रतिसेवना- स्त्री० । प्रतिसेवनाभदे, नि० चू० १ उ० । ( सहसाकारप्रति सेवनावव्यता मूलगुडिया' शब्दे भागे गता । ) सहसम्भक्खाण - सहसाभ्याख्यानन० | सहसाऽनालोच्य अभ्याख्यानम् | असहोपाध्यारोपणे वीरोऽयमित्याद्यभिधानं सहसाभ्याख्यानम् । ध० २ अधि० । श्राव० । ध० २० । श्रविमृश्य कलङ्कनरूपे मृपावादविरतेर्द्वितीयेऽतिचारे, घ० २ अधि० । उपा० । पञ्चा० ।
सहसा - सहसा - अव्य० । अकस्मादर्थे, ज्ञा० १ श्रु० ६ ० ० प्रव० । स्था० । अनुपयोगे व्य० १ उ० । पूर्वापरमपर्यालोच्येत्यर्थे, व्य० १ उ० ।
सहस्राकलंकण- सहसाकलङ्कन- न० सहसाऽनालोच्य फलङ्कनं कलङ्कस्य करणम्। सहसाऽभ्याख्याने असद्दोषस्यारोपणे, प्रव० ६ द्वार |
सहसागर-सहसाकार - पुं० । सहसा करणं सहसाकारः । श्रतिप्रवृत्तयोगानिवर्त्तने, पं० १० २ द्वार । अकस्मात्करणे, स्था० १० ठा० ३ उ० | आय० । श्रा० । लुपसह साकारे विपिविट्ठचिते एत्थ सत्थे पुणे पुणे' आचा० १ ० ३ [अ०] १० (एकजन्यता 'लोगविजयशब्दे पठमागे
6
गता । )
सहयंऽबवण-सहस्राम्रवन- न० समस्तचूत समुदाये, मधुरा या नगर्या बहिः सहस्राऽऽम्रवनमुद्यानम्, ज्ञा०२ श्रु०१६ श्र० । नागपुरस्य बहिः [ः सहस्राम्रवनमुद्यानम् । शा० २ श्रु०५ वर्ग १६ श्र० । 'काम्पिल्यपुरे सहसंऽबवणे उज्जाणे' उपा०६ श्र० । 'पालासपुरं गाम नगरं सहसंबवणं उज्जाणं' उपा० ७ श्र० । अन्त० । वीरजिदवर्जाः सर्वे तीर्थकराः सहस्राम्रवने उद्याने निष्क्रान्ताः । श्र० म० १ अ० । श्रा० चू० । सहसंबुद्ध-सहसंबुद्ध-पुं० | सह श्रात्मनैव सार्द्धमनन्योपदेशत सहस्संतरिय - सहस्रान्तरित - त्रि० । सहस्त्रेण कृतान्तरे, सूइत्यर्थः सम्प-यथावद् बुद्धः देयोपादेयापेक्षणीयस्तुत
अ० १ ० १ ० ३ उ० ।
दिवादिनि जिने, भ० १ ० १ उ० ।
सहस्तकमल-सहस्रकमल पुं० निलगिरी ०१
सहसासव - सहसा शव - न० । स्वनामख्याते उज्जयच्छेलो परिले, 'सहसासवं ति तित्थं करं जरुक्खेण मणहरं सम्म । तत्थ य तुरयायारा, पाहाणा तेसि दो भाया ' ॥ ५ ॥ ती० ३ कल्प | सहमुद्दाह-सहसोद्दाह-पुं० सहसा अकस्मादुद्दादः प्रकृष्टदादः सहसोद्दाहः । सहस्राणां या लोकस्पोदाद सदखोदा हमने बहुलोकोदाडे, स्था० १० ० ३ ० सहस्स- सहस्र - न० । दशशतसंख्यायाम्, तत्संख्येयेषु च । अनु० । नि० चू० । प्रशा० । जं० प्राचुर्ये, स्था० ८ ठा० ३ उ० । कल्प० । सहस्रात्परं यावदनन्तसंख्यायाम् श्रा० म० १ ० ।
1
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( ६०३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सहस्सक्ख
सहान
सहस्सक्ख -सहस्राक्ष--पुं० । सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षः । | सहायकिच्च - सहायकृत्य - न० । मित्रादिकृते सहायकर्मणि, शके, इन्द्रे, इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि सन्ति तदीयानां यानामिन्द्रप्रयोजन व्यावृत्ततया इन्द्रसम्बन्धि त्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य । प्रज्ञा० २ पद । श्र०
म० । कल्प० भ० उपा० ।
सहस्यजोहि--सहस्रयोधिन्-पुं०मान
१० श० ४ उ० |
सहेका महापयाम
परिहार
किन्येव युद्धकारके, श्राव० ४ ० । सहस्सपत्त--सहस्रपत्र - म० । सहस्रदलकलिते महागधे, जं० १ वक्ष० । रा० | कल्प० । श्र० म० । जी० । प्रज्ञा० । औ० ।श०१ कल्प सदस्यपाग-सहस्रपान० सहर पसे सह शतेन वा कार्यापणानां पक्के तैलघृतादी, श्री० । उपा० । सहस्सफस्थि(ल्) -सहस्रफणन् पुं० त्रिकारपर्वते फणसहस्रकलिते पार्श्वनाथ, ती० ४३ कल्प । सहस्सरस्सि - सहस्ररश्मि
राणी द
64
यायां वर्त्तते तथापीहानन्त संख्यायां वर्त्तते । श्र० म० १ श्र० । सहस्रं रश्मयो यस्य सः । सूर्ये, अनु० । शा० रा० । कृत्वसो हुतं " ॥ ८ । सहस्सहुत-सहस्रकृत्वस् - अव्य० । २।१५८|| इति वारार्थस्य कृत्वसुच् प्रत्ययस्य स्थान हुत्तादेशः । सहस्रवारे, प्रा० २ पाद । सहस्सा उल--सहस्राकुल- वि० सहस्रेषु मम्मभावेन परिभ्रममाण, तं ।
।
,
सहायाः - महाय्यकारिणः सहाटकस्य साधवस्तेषां प्रत्याख्यानं साहाय्यप्रत्याख्यातं तन साहाय्यप्रत्या--- ख्यानेन हे भगवान् ! जीवः किं फलं जनयति । गुरुराह शिष्य 1 साहाय्यप्रत्याख्यानेन एकीभावं जनयति एकीभावभूतश्चैकत्वं प्राप्तो जीवः एकां भावयन् एकावलम्बनत्वं चास्यस्थन् अल्पशब्दः श्रल्पजल्पको भवति । अल्पभभो भवति श्रविद्यमान झञ्झोऽविद्यमानवाक्कलहो भवति । पुनरल्पकषायो भवति, अल्पकलहोऽविद्यमानरोपशुचयचना भवति तथा तुम भवति-अधि द्यमानं तुमन्तुमम् इति त्वं त्वम् इति वाक्यं यस्य स अल्पत्सहस्सारणीय-सहस्रानीक-पुं० । स्वनामख्याते कौशाम्बीन- मंतुमः, त्वम् एव एतत्कार्ये कृतवान् त्वम् एव सदा अकृत्यगरीराजे, विशे० । सहस्सार- सहस्रार ५० सहस्रमु० चू० ६० स्था नशब्दोक्त समस्त वक्तव्यता के श्रमदेवलोके, स्था० १० ठा० ३ उ० । तदिन्द्रे च । विशे० प्रज्ञा० । उत्तग्रहाणां सहस्रारकहपस्येन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० । अनु० । श्रौ० । सहस्सारवसिय सहस्रारावतंसकन० अहमदेवलोकस्थे स्वनामस्याने विमाने, २०१८ सम० । सहस्सिक साहसिक पुं० सहसा
कारी वर्त्तसे इत्यादि प्रलपन न करोति । पुनः साहाय्यप्रत्यारूपाने संयम भवति संयमः सप्तदशविधः स बहुल प्रचुरो यस्य स सम्बरबहुलस्तादृशो भवति । स च पुनः समाधवो भवति समाधिधितास्वं तेन बहुत स माधबहुलः समाधिप्रधानो भवति । पुनः समाहितश्चापि भवति ज्ञानदर्शनयाँश्च भवतीत्यर्थः । उत्त० २१ २० । सहाव-स्वभाव-पुं० । स्वो भावः । श्रात्मीये भावे, नं० । सूत्र० । नि० चू०| धम्मो त्ति सहावो त्ति एगट्ठा। नि० चू०२० उ० यो० बिं० । अनु० । धर्मे, स्था० ६ठा०३३०|श्राव०। विशे० । स्वकीयोती ०१०१०२० उत्पादीयपरिणामे, विशे० । अने० । निसर्गे, स्था०२ ठा० १ उ० । पं० ६० सूत्र० । सहभावे धर्मे, द्रव्या० (१ अध्या० । स्था० । द्रव्याणां प्रकृतौ, द्रव्या० १२ अध्या०| 'वत्थू वसर सहावे, सत्ताश्र वयण व्व जीवम्मि । न विलक्खम्मितश्रो, भिन्ने छायातवे चैव ॥ १ ॥ स्था० ३ ठा० ३ उ० । (स्वभावादेव जगत् इति 'किरिया बाई' शब्दे तृतीया २५५ पुणे दर्शितम् । यो० बि० ।
-
3
र्त्तन्ते ते साहसिकाः। अविमृश्य कारिषु, प्रश्न० २श्राश्र० द्वार । सहा सभा - स्त्री०। "ख-ध-ध-ध-भाम् " ॥ ८ । १ । १८७ ॥ इति भस्य हः । प्रा० । ग्रामजनसमवायस्थाने, व्य० १३० । ( अस्य वर्णकः 'लवण समुद्द' शब्दे षष्ठभागे गतः । ) सखा - सखिन् सुविभक्तिः । वालवयस्ये स्था० ३ ठा० ४ ० समानभोजनपाने गातमखे जी०३ प्रति०४ अधि० सखिशब्दो नान्तः सुविभक्तौ सखेति रूपम् । ततः खस्य हत्ये ३२स्त्रियां वर्त्तमानानाम् परेषां टाउन थाने प्रत्येकम श्रत् श्रात् इत् एन् इत्येते चस्वार आदेशा भवन्ति । सद्दीश्र । सहीश्रा । सहीह । सद्दीए । प्रा० ३ पाद | स्वधा अव्य० पितृभ्यो दावे प्रति
[झा० १ ० १५ श्र० ।
सहायग-सहायक पुं० परस्परे साहाय्यकारिणि भ०
1
साहाय्यका
सहाय सहाय विशिष्ये उत्त० २२० सहचारि० १ ० २ ० । परलोकसाधनद्वितीये, दश० २ चू० ।
कलर
सहायच्चवाणं भंते ! जीवे किं जणयइ १। सहायपच्चक्खाणं एमीभावं जण्यइ । एगीभावभूए य णं जीवं ए. गतं भ्रात्रेमाणे अप्पसद्दे अप्प अप्पकलहे अप्पकसाए अप्यतुममे संजमबहुले सवरबहुले समाहिए यात्रि
भवइ ।। ३६ ।।
अत्रेय परमतमाशय परिहरबादस्वभाववादापतिथे दत्र को दोष उच्यताम् । तदन्यवादाभाषथेन तदन्यानपोहनात् ॥ ७८ ॥ स्वभाववादापत्तिः काकानां प्रकरोति तै विचित्रभावं मृगपक्षिणां च । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः
॥ १॥"
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सहाव
एवंलक्षणो यः स्वभाववादस्तस्यापतिः प्रसङ्गस्तत्स्वभाःवाकार्योत्पत्यभ्युपगमे चेद्यदि चूके आचार्य ! - स्वभाववादापत्ती को दोष ?, उच्यताम्-भरायताम् । तद्म्यवादाभावः कालादिशेषकारणापलापः चेत् यदि धूपे ननैव तत्परोम् कुत इत्याह-यनपोहनात्यासत्वामाण्याचे कालान हनाद्-अनिराकरणात् तेषामपि कारयेनाभ्युपगमात् । एतदेव भावयन्नाह-
( ६०४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
रामदेवोपासकर्मताविकाससुदुःखा
गात्मा भवतीति ।
पचाव्याधीने सति सर्वशिकायें-वृथाकालादिवादथे- न तद्वीजस्य भावतः ।
चित्करमेतथेन स्वभावोपयोगतः ॥ ८१ ॥ वृधा-विफलः कालादियादस्तत्स्यामाव्यविलासकाराभ्युपगमः चेद्यदि पे न-नैव एतदुकं परेण । कुत इत्याह-- तद्वीजस्य -- कालादिवीजस्य तच्छुक्तिरूपस्य भायतः सत्वात् तत्स्वाभाव्याधीनतायामपि कार्याणाम् अकिंचित्करम कार्याकारि । एतत्कार्यादि | चेत्यत परेण न मेव एतत्कुत इत्याह--स्वभावोपयो मतः स्वभावे सर्वभावानां कार्येषु स्वत एव प्रवर्तमाने उपयोगतः कालादिसहकारि
घटपरिणतौ चचीवरादीनामिति ।
कालादिसचिवश्वाम- मिष्ट एव महात्मभिः ।
अयम-स्व
सर्वत्र व्यापकत्वेन, न च युक्तया न युज्यते ॥ ७६॥ काळासिधि-कालः माथः संमत एवं महात्मभिःसहाय दिमभृतिभिरस्मरस्वयैः कथमित्याह सर्वत्र कार्ये व्यापकत्वेन काया सम्मतिप्रसूतिशास्त्रेषु न वेष्टमा किंतु मित्याह-नवनैव क्या-उपपश्या न युज्यते किन्तु पुज्यत एव । तथाहि-तथात्मपरिणामानु, कर्मवन्धस्ततोऽपि च ।
तथा दुःखादि कालेन तत्स्वभावाते कथम् ॥ ८० ॥ स्थात्मपरिणामातु - तत्प्रकारात्मपरिणतेरेव कर्मबन्धःकर्मोपादानं संपद्यते ततोऽपि च-- कर्मबन्धाच्च तथा दुःखादित्यकारः कार्यमु फालेनश्रीमदिरूपेण तत्स्वभावादते-- तत्स्वभाये बिना क यमू--फेन प्रकारेव तत्त्वान्तु सति
एतदेव भावयति-सामन्याः कार्यहेतुत्वं, तदन्याभावतोऽपि हि । तदभावादिति ज्ञेयं, कोलादीनां नियोगतः ॥८२॥ सामग्र्याः -- समग्र संयोगलक्षणायाः कार्यहेतुत्वं सामान्येन घटादिसाध्यनिमित्तत्वम् । तदन्याभावतोऽपि हि तस्य परियामिकारस्य यान्यन्यानि कारिकारणानि तेषामभाववोऽभावात् किं पुनः परिणामिहेतोरभाव इत्यपि हि शब्दार्थ ।
१- काल शब्द्रइष्टव्यः ।
3
तदभावात् कार्याभावात् इति-काअवगन्तव्यम्, प्रस्तुतमपि कार्य कालावीनां सहकारियां नि योगतो- व्यापारात् तत्वाभाव्ये सत्वधि न पुनरन्यथेति । प्रस्तुतमेवाश्रित्याह
एतच्चान्यत्र महता, प्रपञ्चेन निरूपितम् ।
नेह प्रसन्तेऽत्यन्तं लेशतस्तुक्रमेव हि ॥ ८३ ॥ एतच्च - एतत्पुनः सामन्याः - कालादिकस्याः कार्यहेतुत्वम् अन्यत्र शास्त्रवादिसमुच्चयादिषु महता कृदवा प्रपञ्चेक निरूपितं - चर्चितं यतः ततो न नैवेद्र शास्त्रे प्रतन्यते-विस्तार्यते अत्यन्तमतीव । लेशतस्तु संक्षेपेण पुन- द्वि००।
स्वभावपुद्ध त्रास विकसिते
सहाववाई
शु० १ ४० ।
सहाववाइ स्वभाववादिन् पुं० [अस्ति समावः करणत्वेनाशेषस्य जगतः स्वभावः, स्वभाव इति कृत्वा तेन हि जीवाजीवभव्यत्वमूर्त्तत्वादीनां स्वरूपानुविधानात् इत्येवं स्वभावकारणिकंवादिषु, सूत्र० १ श्रु ११ अ० | स्थान | (पुण्यपापे श्रनभ्युपगच्छतः स्वभाषवादिना मतं 'तज्जीवतच्छरीरवार (स) भागे २९७२ पृष्ठे तितो गतम् ।) इह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते तथाहि - मृदः कुम्भो भवति न पटादिः तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न कुम्भादिः, एतच्च प्रतिनियतभवनं न तथा स्वभावतामन्तरेण घटा कोटीसटङ्कमाटीकते, तस्मात् सकलमिदं स्वभावकृतमवसेयम् अधिय आस्तामन्यत् कार्यजातम् इह मुद्रपक्रिपि न स्वभावमन्तरेण भवितुमर्हति तथादि-वाली-धनका लादिसामग्री सम्भवेऽपि न काकटुकमुद्वानां पक्तिरुपलभ्यते, तस्माद् यद् यद्भावे भवति यदभावे च न भवति तत्तदस्वययतिरेकानुविधाषितमिति
या ततः सकलं वस्तुजातं स्वभावदेकमवसेचमिति । नं० ।
यदा स्वभाववादिनः-
,
1
इह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते इति तदपि प्रतिथिगन्तम्यम् प्रायत्रापि समाना त्, तथादिस्वभावो भावरूपो वा स्यादभावरूपो वा ? भावरूपोऽप्येकरूपोऽनेकरूपो वेत्यादि सर्व तदवस्थमेवात्रापि दूषणामुपीकते। अपि च यः स्यो भावः स्वभावः, आत्मीयो भाव इत्यर्थः, स च कार्यगतो वा हेतुर्भवेत् कारणगतो वा ? । न तावत्कार्यगतो, यतः कार्ये परिनिष्पन्ने सति स कार्यगतः स्वभावो भविष्यति, मानिष्पणे, निष्पले व कार्ये कथं स तस्य हेतु, यो डि यस्यालब्धलाभसम्पादनाय प्रभवति स तस्य हेतुः, कार्य च परिनिष्पन्नतया लब्धात्मलाभम्, अन्यथा तस्यैव स्व भावस्याभावप्रसङ्गात् ततः कथं स कार्यस्य हेतुर्भवति ? । कारणगतस्तु स्वभावः कार्यस्य हेतुरस्माकमपि सकमतः, सच प्रतिकार मृदः कुमा भवति न पठादिः मृदा पठादिवानापात् । तन्तुभ्योऽपि पट एव भवति न घटादिः, तम्तूनां घटादिकरणायायात् ।
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यते मृदः कुम्भ
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तिन पारिदि तत्सर्वकारस्य सिद्धसाध्यतामध्ययासीनमिति न तो बाघामादधाति । यदपि षोड़शाजा' दिपिकास्वभावीकारे समय तथाहिकाटुकमुद्राः स्वकारणवशतस्तथारूपा एव जाता
स्थालीन्धनकालादिसामग्री सम्पक्केऽपि न पाकमनुव इति । समावध कारणादभिन्नइति सर्व कारणमेवेति स्थितम् । उच" कारणगओ हेऊ. के नोि
चतुर्थभागे
जस्स ? । न सी तों वे भिन्नो, सकारण सत्यमेव तश्रो" ॥१॥ नं० | सूत्र० । ( ' यिई' शब्दे २०८५ पृष्ठे वक्तव्यता । ) सहावसु-स्वभावसुखजात्यन्तिकान्तान
( ६०५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सहिणहु सहिष्णु-पुं०|सोहुं समर्थे, नि० ० ४ उ० आ० । सहिय- सहित त्रि० । मिलिते, आचा० १ ० ६ ० १ ० । समन्विते, आचा० १ ० ५ ० ४ उ० | झा० आचा० । युक्ते, सूत्र० १ ० १३ अ० । स्था० भ० । सह हितेन वर्त्तत इति सहितः परमार्थभूते ०१०१०
दिभिः समन्विते, सूत्र० २ ० १ ० । श्राचा० । ० चू० । इन्द्रियोपेते, प्रश्न ०१ श्राथ० द्वार । श्राचा० त्रयोदशे महाग्रहे, स्था० चं० प्र० । कल्प० सू० प्र० । जं० । सूत्र० । दो सहिया स्था० २ ठा० ३ ० ।
२ ४० ।
सहावीय स्वभावहीन १० वस्तुनः स मायमतिरिष्याम्यथावचने, बथा शीतोऽमूर्तिमदाकाशमित्यादि । श्र० स० १ ० । विशेष सहावाक्यगामि(ग) - स्वाभावाद्वैतगामिनू त्रिस्वभावस्य यत् अद्वैत स्वभावाद्वैतम् । तत्र गमनशीले अए०
भवतः, प्रा० ।
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सायडू कृप धा० विलेखने, “कृषेः कह साअड्डाञ्चाणच्छायञ्छा इच्छाः ||८|४|१८७॥ इति कृषेः साश्रड्डाऽऽदेशः । साहुइ । कर्षति । प्रा० ४ पाद ।
१७ अ० ।
।
संहिण - श्लक्ष्ण-- त्रि० सूक्ष्मे, नि० चू० ७ उ० । आचा० । साश्रर-सागर-पुं० । समुद्र, साश्ररो व्व खीरोश्रो ।” प्रा० मसृणे, नि० चू० २० उ० ॥ साइ- साति-पुं० । खातिशयेन द्रव्येण परस्य दीनमुपस्प सहिणकलाय कन्या १० यानि सूक्ष्माणि द्रव्यस्य संयोगे, सूत्र० २ ० २ ० । ० । च तानि वर्णच्छव्यादिभिश्च कल्याणानि शोभनानि वा सू- सादि २० । प्रादिरिहोत्सेधायास्तनो देहभावो - दमकल्याणानि । सूक्ष्मे शोभने च वस्त्रे, श्रचा० २ श्रु० १ ह्यते सहादिना नाभेरधनका पलासेन वर्तते इति सादि । ० ५ ० १ ३० । अनु० उत्सेधवले संस्थानमेदे नं० स्था० । यदि नामितोऽपचतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवात । भ० १४ श० ७ उ० । इह यद्यपि सर्वशरीरमादिना सह वर्त्तत तथाऽपि सादिन्यविशेषणान्यथाऽनुपपत्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपत्र आदिरिह लभ्यते, तत उक्तम्-उ
बहुलमिति । इदमुकं भवति यत्संस्थानं वामेरचः प्रमागोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादीति । जी० १ प्रति० । पं० सं० साचिन० अपरे तु साचीति पठन्ति तत्र सापीति प्रथ चनवेदिनः शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानमू पथा शामलीत एकन्धकारमपि न तदनुरूपा महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु हीन इति । जी० १ प्रति०॥
,
पं० सं० ।
स्वहित- त्रि० । स्वस्मै हितः स्वहितः । परमार्थानुष्ठानविधायिनि सूत्र० १ श्रु० ४ ० १ उ० । श्रात्महिते, सूत्र० १ श्रु० २ ० २ उ० ।
सहियव्व - सोढव्य - त्रि० । मर्षणीये, आचा० १० २०६उ० । सहिबाय - सविवाद - ५० । सखेत्येववादे, सूत्र ०१ श्रु० ६ ० । सहिहेज - सखिहेतु-पुं० । भित्रनिमिते, स० ३० सम० । सह-सह-वि० समर्थ नि०० १३०
सहेउ सहेतु- त्रि । सह हेतुनाऽन्वयव्यतिरेकरूपेण वर्त्तत इति हेतु सू २ ० १ ० का ० ० २० ३० ।
१५२
साइनसा
सहे-सहित्यावश०
०
सोढुम् ग्रयः । समर्थौ ममित्यर्थे, 'सका संदें' द
६ श्र० ३ उ० /
सहोद-सहोद-त्रिव। सश, नि० चू० १५ उ० । समोषे, शा०
-
१ श्रु० २ ० । ०
सहोयर सहोदर कुं० सी०३० अधि० । अन्त० श्रा० म० ।
"
सहोयरी - सहोदरी स्त्री० । समातृकायां भगिन्याम् जी० ३ प्रति० : अधि० ।
सा- श्रा पुं० धाति-पति
श्राः । श्राद्धिनि, “ श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तना-दनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । " स्था० ४ डा० ४ उ०
स्वा स्त्री० । स्वकीयायाम्, शा० १ ० १ ०
श्वन् पुं० कुकुरे, श्वशब्दस्य सा सागौ इति प्रयोगों
स्याति-पुं० वायुदेवताके (०१०) ममेदेख २ ठा० ३३० | हारीतगोत्रे बलिसहशिष्ये श्यामार्यगुरौ, “हाविगलं सारं वदामी" बलिसहस्यापि शिष्यं हातगो स्वातिनामानन्दे नामकर्मभूमिवृत्तवेतान्यपर्वतस्य श्रावनीनायिके देवे खा०३ डा० उ० साइयोग सातियोग-पुं० । अविधम्मसम्बन्धे सातिशयेन या द्रव्ये निरतिशयस्य योगे तत्प्रतिरूपकरणे २०१२ १०
५ ३० ।
साइजमा स्वादना - स्त्री० । सेवायाम्, स्था० ३ ठा० ३ ० ।
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भाइजा मनराजेन्द्रः।.
सागपाग अने पनि विमान, वि प्रयु .२ दशा०६ अ० । शा० । लोकवञ्चनार्थे द्रव्यान्तरसंयोगे, 'सो ध्रु० १.१ अ.३ जु० । कर्मबन्धास्वादन, सातिलगा दु- होइ साइजोगो, दब्वं जं दुहियअराणदब्बेसु । दोसगुणा वय. निहा-अणुमायण, कारावणे, य । नि० चू" ' '
णेसु य, अत्थविसंवायणं कुणई'॥१॥ रा० । दशा० । साइजत्तए-स्वादयितुम्--अव्य० । भोमियों, औ०. साइसपञ्जवसिय-सादिपर्यवसित-त्रि० । सहादिना वर्तत सइजमाण-स्वादमान-त्रि० । अनुमनने व्यः १ उ० । इति सादि । तथा पर्यवसानं पर्यवसितं भावे नः प्रत्ययः ।
सह पर्यवसितेन वर्तन्त इति सपर्यवसितम् । नं० । श्राद्यसइजिया-स्वादि(माइजिता-स्त्री लाइज धनुरास्वादने ,
न्तसहिते श्रुतभेदे, नं। न-पभुज्यपानो यम्तत्सम्बन्धियां प्रमाजनायाम् “साइ. जिया पमजण" त्ति । कल्प०३ अधि०६क्षण।
साइसुय-सादिश्रुत-न० । पर्यायास्तिकनयमते सादिसहिते साह-शाकिनी स्त्री० । यस्तरीभेद, प्रति० । सूत्र।
श्रुतभेदे, विशे।
साउ-स्वादु-त्रि० । रसनासुखदे, उत्त० ३२ श्र० । साइदा सातिदत्त-पुं० खम्पावामय स्वनामख्याते ब्राह्मणे. श्रा०भ०१ श्र० प्रा० चू०। ('वीर' शब्दे पष्ठभागे
साउणिय--शाकुनिक-पुं० । शकुनैश्चरति शाकुनिकः । प्रति स्वातिदत्तब्राह्मणवक्तव्यता गता।)
शकुनान् हन्तीति शाकुनिकः । शकुनिबधोपजीविनि, अ
नु० । प्रश्न । स्था। साइपुत्त-स्वातिपुत्र-पुं० । शौद्धोदनि वजीकृत्त्यासन्मार्गप्रकाशक आचार्य, प्राचा० १ श्रु०२ अ०५ उ०।
साउफल--स्वादुफल-त्रि० । स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुसाइबंध-सादिबन्ध-पुं० । यः पूर्व व्यवच्छिन्नः पश्चात्पुनरपि
फलाः । रा० । मिष्टफलेषु, शा० १ ०१ अ० । औ० । जी।
साउय-स्वादुक--त्रि० । स्वादुभोजनवति, सूत्र०१ श्रु०७ भवति सः सादिबन्धः । कर्मबन्धभेदे, कर्म०५ कर्म ।
अ० । अनु । साइबहुल-सातिबह-त्रि० । सातिशयेन द्रव्येण परस्य हीनगुणस्य द्रव्यसंयोगः सातिस्तद्बहुलः । तत्करणप्रचुरे,
सायुप-पुं० । सहायुषा वर्तन्त इति सायुषः। संसारिजीसूत्र०२ श्रु०२ अ.
वेषु, स्था० २ ठा० १ उ०। साइबुद्ध-सातिबुद्ध-पुं० । भरतवर्षे उत्सर्पिण्यां भविष्यति साएय-साकेत--पुं० । अयोध्यायाम् , स्था० १० ठा० ३ उ०। चतुर्विशे तीर्थकरे, स०।
'कोसलासु साकेयं नाम नगरं'। प्रशा०१ पद । श्रा० का साइम-स्वादिम-त्रि० । स्वद आस्वादन इत्यस्य च स्वाद्यते
श्रा० म०। साकेत नगरं कोशलाजनपदः । प्रव०२७५ द्वार। इति स्वादिमम् । श्राव०६अ। स्वदन स्वादस्तन निवृत्तं तथै
श्रा० म०। सूत्र. । ('उज्झा' शब्दे प्रथमभागे ३४ पृष्ठ वेदमिति स्वादिमम् । एलाफलकपूरलवङ्गपूगीफलहरीतकी
कल्प उक्नः।) नागरादिके आहारभेद, प्रव०४ द्वार । पिं० । स्था० ।
साक्षिण-साक्षिन्-पुं० । गौणादित्वादूपनिष्पत्तिः । प्रा०। श्राचा० । प्रा० चूछ । पञ्चा० ( स्वादिमस्वरूपं 'पच्च
अनुभवकारिणि, पाइ० ना०। खाण' शब्दे पश्चमभागे १०५ पृष्ठ गतम्।)
साग--शाक-पुं० । पूर्वदेशप्रसिद्ध पक्कवस्तुलादिके, सूत्र. १ साइय-सादिक-न० । सहाऽऽदिना वर्तत इति सादिकम् । श्रु०४ अ०२ उ० । स्था० । नि० चू० । सू० प्र० । शाकस्तऋश्रादिना सहिते, उत्त० ४ अ० । सादिको लोक इति
सिद्ध इति । भ०७ श०१० उ०। प्रपञ्चना । तथा चाहुः-"आसीदिदं तमोभूत-मप्रशात- सागडायण-शाकटायन-पुं० । शकटर्षिगोत्रापत्ये, नं० । मलक्षणम् । अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥१॥ बस्मि- कल्प० । ('आगम' शब्दे द्वितीयभागे ५३ पृष्ठ विस्तरो नेकार्णवीभूते, नष्ट स्थावरजङ्गमे ।" इत्यादि । श्राचा० १
गतः ।) श्रु०८ अ०१ उ०।
सागडि--शाकटि-पुं० । शकटनन्दने स्थूलभद्रे, वृ० १ उ०३ साइरेग-सातिरेक-त्रि० । साधिके, स्था० ६ ठा० ३ उ०।
प्रक। साइसंठाण-सादिसंस्थान-न० । सह आदिना नाभेरध
सागडिय-शाकटिक-पु० । शकटानां गन्त्रीविशेषाणां समूह, स्तनभागरूपेण यथोक्तप्रमाणयुक्तेन वर्त्तत इति सादि । सर्व
भ०१५ श० । शकटेश्वरति शाकटिकः । शकटवहनोपजीमपि हि शरीरं सादि, ततः सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्ते.
विनि, श्रा०चू०६ अ०। गन्त्रीवाहके, उत्त०५०। स्था। रादिरिह विशिष्टो ज्ञातव्यः । तच्च संस्थानं चेति । संस्थानभेदे, यन्नाभेरधो यथोक्तप्रमाणयुक्तमुपरि च हीनं तत्सा
सागणिउवस्सय-साग्निकोपाश्रय--पुं० । अग्निसहिते उपाश्रये, दिसंस्थानम् । कर्म० १ कर्म० । पं० सं०।
प्राचा०२ श्र०१ चू०२ अ० उ०। साइसंपोय--सातिसंप्रयोग--पुं० । सातिशयेन द्रव्येण क- सागपत्त--शाकपत्र-न० । वृक्षविशषपत्रे, प्रश्न०१ श्राश्र० स्तूरिकादिना अपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः । रा० । सहाति
द्वार। शयेन संप्रयोगा-योगः । यदिवा-सातिशयेन द्रव्येण सागपाग-शाकपाक-पुं० । मूलादिशाकपचने, “सुफणिं च कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसम्प्रयोगः ।। सागपागाएँ,श्रामलगाई दगाहरणं ।" सूत्र०११०१ अ०१ उ०॥
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(६०७) सागमापक्व अभिधानराजेन्द्रः।
सागार सागमापेक्ख-स्वागमापेच-त्रि० । स्वागमानुकारिणि, घ०१। पृष्ठ अग्निकपर्वतकमद्रचर शारके. अव०४ अथा . चूल। अधि०।
सागरवट-सागरवड-पुं० । मत्स्यविशेषे, जी०१ प्रति। सागय-स्वागत-न० । शोभनमागमने, भ०२ श०१ उ० । श्रा० सागरवर-सागरवर-पं० । स्वयम्भूरमणे. आव. २०। म। श्रा० चू०।
सागरवरमंभीर-सागरवरगम्भीर-पुं० सागरवर.-स्वयम्भूसागर-सागर--पुं० । समुद्रे,तं०। श्री० । प्रश्न । दर्श० । द्वी०। रमणाख्यसमुद्रः परी पहोपसर्गाद्यक्षोभ्यत्वात्तस्मादपि गअन्तः । ओघ० । श्राव० ।' एगं च ण महं सागरम्म वीई- म्भीरः । परीषाद्यक्षाभ्ये सागरवद्गम्भीरे , ' सागरवरगंसहस्सकलियं । स्था० १० ठा० ३ उ० । अन्धकवृष्णेर्धारण्यां म्भारा, सिद्धा साद मम दिसतु ।' ध०२ श्राध• । दश । जाते पुत्रे, अन्त० । स्था०। ( स च अरिष्टनेमेरन्तिके प्रवृ- | सागरवरमेहलाहिवइ-सागरवरमेखलाधिपति-पंगासागर ए. ज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गस्य तृतीयेऽ | व वरा मेखला काश्ची यस्याः सा सागरवरमेखला पृथ्वी ध्ययने सूचितम् । ) धातकी खराडभरतक्षेत्रजे हरिषेणस्य रा- तस्या अधिपतयो ये ते तथा । राजसु, भ० १२ श० ६ उ.! ज्ञः समुद्रदत्तासम्भवे पुत्र, उत्त०६०। जिनदत्तस्य भ
सागरसेण-सागरसेन-पुं०। मुनिसेनभ्रातरि स्वनामके मुद्वायां भार्यायां जाते आत्मजे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। ऐरवत. वर्षे भविष्यति पञ्चमे तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार । जम्बूद्वीप मा.
नौ, प्रा० चू०१०। ("उसभ' शब्दे तृतीयभागे ११३७ पृष्ठ लववक्षस्कारपर्वतस्य पञ्चमटे, ज.४ वक्षः। सप्तमब
ललिताङ्गदेववक्तव्यतायामुक्ताऽस्य वक्तव्यता।) लदेववासुदेवयोः पूर्वभवधर्माचार्ये, स० । ति।
| सागरोपम-सागरोपम-नासागरेणोपमाऽस्मिस्तत् । स्था० सागरकूड-सागरकूट--न० । जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वतस्य नन्दन
२ ठा० ४ उ० । दशभिः कोटिकोटिभिर्गुणिते पल्योपम
काले, श्रा० म०१०। अनेछ । विशे० । स्था० । प्रव० । घनस्य सप्तमे माल्यवतश्च पञ्चमे कूटे, स्था० १० ठा०३ उ०।
जी०। प्रश्न। "एएसि य पल्लाणं, कोडाकोडी हवेसागरचंद-सागरचन्द्र--पुं० । द्वारवत्त्यां नगर्यो निषधस्य पु- ज दसगुणिश्रा । तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीत्रे बलदेवपौत्रे, विशेः । श्रा०म० । दर्श० । प्रा० चू।रा माण॥१॥" जं०२ लक्ष उद्धाराऽद्धाक्षेत्रभेदात् त्रिधा। ति०। साकेतनगरे चन्द्रावतंसकस्य राक्षः सुदर्शनागर्भजे पुत्र ,
ज्यो । भ० । अनु० । स्था० । (पल्योपमस्वरूपं 'पलिश्रा० म०१ श्र० । दर्श० । ('अणणुप्रोग' शब्दे प्रथमभागे प्रोवम' शब्दे पञ्चमभागे ७२३ पृष्ठ गतम् ।) .
पृष्ठ कथा गता। ) मुनिचन्द्रपुत्र स्वनामख्याते साधी, सागवच्च-शाकवर्चस-न० । यत्र शाकः शटित्वा वक़रूपं स्था०४ ठा०४ उ०।
। बिभर्ति तस्मिन् स्थाने. नि० चू० ३ उ० । आचा० । सागरदत्त-सागरदत्त-पुं०। चम्पायां नगर्यामुदुम्बरदत्तस्य ।
मुदुम्बरदत्तस्य सागविहि-शाकविधि-पुं० । शाकप्रकारे,उपा० १ ० ('श्रापितरि स्वनामख्याते सार्थवाहे, विपा०१७०७ अ० स्था० गंद' शब्द द्वितीयभागे ११० पृष्ठे ऽस्य सूत्रम् ।) कौशाम्ब्यां कुर्कुटयुद्धदशैके स्वनामख्याते श्रेष्टिपुत्रे, उत्त० १३ श्र०। ( 'बंभदत्त' शब्दे पञ्चमभाग कयोका सागार-साकार-नासह आकारैाह्यभेदैवर्तत इति साकारजिनदत्तसार्थवाहमित्रे स्वनामख्याते सार्थवाहे, शा०१ श्रु०
म्।सविशेषे शान,सम्म०१काण्डाविशेषग्रहणप्रवणे ज्ञाने, 'सा. २०। ('अंड' शब्दे प्रथमभागे ५१ पृष्ठे कथोक्ता ।) सुकु
गारे से णाणे अणागारे दसण' सम्म०२काण्ड । भ० । दर्श० । मालिकापतौ श्रेष्ठिनि, पिं०। ('उद्दसिय' शब्दे द्वितीयभागे कर्म01 सहाकारेण जातिवस्तुप्रतिनियतग्रहणपरिणामरूपेण ८१८ पृष्ठे कथोक्का । ) भारते वर्षे पद्मिनीखण्डनगरे स्वना- "आगारो उ विसेसो"इति वचनाद्विशेषेण वर्तन्त इति सामख्याते सार्थवाहे. ती० ६ कल्प । ('अस्सावबोहि'शब्दे प्रथ
काराणि । अयमर्थः-वक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनान्यनामभागे ८६०पृष्ठ कल्पोऽयं दर्शितः।)साकेते नगरेऽशोकदत्तस्य
काराणि, अमूनि च पञ्च ज्ञामानि साकाराणि । तथाहिस्वनामख्याते पुत्रे, श्रा० क०१०। ('माया' शब्दे षष्ठभागे
सामान्यविशेषात्मकं हि सकलं शेयं वस्तु, कथमिति चेदु२५१ पृष्ठे कथोक्ता । ) तृतीयबलदेवस्य पूर्वभवजीवे , स० ।
च्यते-दूरादेव हि शालतमालतालवकुलाशोकचम्पककदम्ब
जम्बूनिम्बादिषिशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽनवधारितं तरुनिकरमसागरदत्ता-सागरदत्ता-स्त्री० । पञ्चदशस्य तीर्थकरस्य नि
वलोकयतः सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदपरिस्फुटं क्रमणशिविकायाम् , सका
किमपि रूपं चकास्ति तत्सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते। सागरपविभत्ति-सागरप्रविभक्ति--न० । सागराकाराप्रविभाग- "निर्विशेषं विशेषाणामग्रहो दर्शनमुच्यते” इति वचनमादर्शके नाटयभेदे , रा०।
माण्यात्। यत्पुमस्तस्यैव निकटीभूतस्य तालतमालशालासागरपोय-सागरपोत-पुं० । 'पञ्चक्खाण' शब्दे पश्चमभागे |
दिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव महीरुहसमूहमुत्पश्यतो वि
शिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभाति तद्विशेषरूपे ११७ पृष्ठ उदाहते स्वनामख्याते सार्थवाहे, आव०६ अ०।
साकारं ज्ञानम् । अप्रमेयप्रभावपरमेश्वरप्रवचनप्रवीणचेतसः श्रा० चूछ।
प्रतिपादयन्ति, सह विशिष्टाकारेण वर्तत इति कृत्वा । तसागरमह-सागरमह-पुं० । सागरोद्देशके उत्सवे , आचा०
देवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणाबाधितप्रतीतिवशात् सर्वमपि १ श्रु०१०१ उ०।
वस्तुजातं सामान्यविशेषरूपद्वयात्मक भावनीयमिति ॥१९॥ सागरय-सागरक--पुं०। 'तितिक्खा' शब्दोक्ने चतुर्थभागे२२४१ कर्मः४कर्मः।
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(६०८) अभिधानराजेन्द्रः।
सागारिय साकारमिदानीमाह
इति सागारः स एव सागारिकः तस्यावग्रहः । वसतिदातुमहतरयागोराई, आगारहि जुरंतु सामा।
गैहे. भ०१६ श०३ उ० प्रति०। आचा। श्रागारविरहियं पुण, मणियमणामारनामं ति | सागारिय-सागारिक-पुं० । अगारं-- गृहं सह तेन वर्सते, किंतु अण्णाभोगो इह,साऽऽमासे अहक दुन्नि भणिअन्यो।
स सागारिकः । शय्यातरे, स्था० ५ ठा० ३ उ० । नि० चू० ।
'नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाञ्चतुर्विधः सागारिकनिक्षेपः, सच जेण तिणाइ खिचिजा,मुहम्मि नियडिज वा कहवि।१६८।।
सागारिकनिक्षपः 'वसहि' शब्द षष्ठभागे सागारिकोपाइय कयागारदुर्ग, पि सेसभागाररहिअमणॉगारं। श्रयवसतिप्रस्तावे दर्शितः । ) मैथुने, श्राचा० १ श्रु० ६ दुभिक्खवित्तिकंता--र गाढरोगाइए कुजा ॥ १६६ ।। अ०३ उ०। आ-मर्यादया मर्यादाख्यापनार्थमित्यर्थः, क्रियन्ते-विधी
सागारिकेन भाटकप्रदानन क्रीतेऽवग्रहःयन्ते इत्याकाराः , अनाभोगसहसाकारमहत्तराकारादयः , सागारिए उवस्सयं वकएणं पउंजेजा, से य वक्कइयं वएअन्यं महानयमतिशयेन-महान्महत्तरः अतिशये तरपनमपा- जा-इमम्मि य इमम्मि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसं विति । महत्तर एवाकारो मत्सराकारः; साषा, तेच
ति । से सागारिए पारिहारिए,से य णो वएज्जा, वक्कइए व. से श्राकाराच, तैर्युक्तं साकारमभिधीयते । को ? भुजिक्रिया प्रत्यास्यानेन मया निषिद्धा, परमम्यत्र महत्तराकारा
एजाइमम्मि य २ अोवासे समणा निग्गंथा परिवसंति । से विभिर्हेतुभूतैरेतेभ्योऽग्यवेत्यर्थः । एतेषु सत्सु भुजिक्रियाम- | सागारिए पारिहारिए दो विते वदेजा-अयंसि अयंसि ओपि कुर्वतो न भङ्ग इति । यत्र भक्तपरित्यागं करोति तत् वासे समणा णिग्गंथा परिवसंतु | दो वि ते सागारिया साकारमिति । प्रव०४ द्वार । श्रा०० ऋषभदेवस्य एका
परिहारिया ॥१८॥ सागारिए उवस्सयं विकिणिज्जा। से य दशे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण । सागार-पुं० । सह अगारेण गृहेण वर्तत इति सागारः। गृ
वक्कइयं वदेजा-इमम्मि य इमम्मि य अोवासे समणा हस्थ, श्रा० म०१०। प्रक० । स्था० । सर्वोत्तरगुणप्रत्या
निग्गंथा परिवसंति । से सागारिए परिहारिए, से य नो एवं सपानभेदे, भ०७ २०२०
वएजा, बक्कइए य वएजा-अयंसि अयंसि ओवामे समणा सागारकड--साकारकृत-त्रि०। प्रत्याख्यानभेदे, आव०।
णिग्गंथा परिवसंतु, से सागारिए परिहारिए । दो वि ते साम्प्रतं साकारद्वारं व्याचिख्यासुराह
वएजा-अयंसि अयंसि अोवासे समणा णिग्गंथा परिवसंतु मयहरमागारेहि, अमत्थ वि कारणम्मि जायम्मि । दो वि ते सागारिए परिहारिए ॥ १६ ॥ व्य० ७ उ० । जो भत्तपरिचार्य, करेह सागारकडमेयं ॥ १५७४॥ सागारिकः शय्यातर उपाश्रयमवक्रयण कियत्काल भाटकअयं च महानयं च महान् अनयोरतिशयेन महान महत्त- प्रदानेन प्रयुञ्जीत-व्यापारयेत् । स च सागारिकोऽवक्रयिक र:, आक्रियन्त इत्याकाराः । प्रभूतैवंविधाकारसत्ताख्याप- भाटकेन प्रतिग्राहिकं वदेत्-अस्मिन् अस्मिन् अधकाशे श्रम. मार्थ बहुवचनमतो महत्तराकारैर्हेतुभूतैरन्यत्र वा-अन्य- णा निर्ग्रन्थाः परिवसन्ति,तस्मादेतत्परिहारण त्वया भाटकसिंचामाभोगादौ कारणजाते सति मुजिक्रियां करिष्येऽ न ग्रहीतव्यम् , एवमुक्ने-स सागारिकतया परिहार्यः परिहहमित्येवं यो भक्तपरित्यागं करोति साकारकृतमेतदिति र्तव्यः । श्रथ तेन पूर्वस्वामिना सागारिकेण सर्वमपि भाटकन गाथार्थः । “अवयवत्थो पुण-सह श्रागारहि सागारं, आगा- प्रदत्तं ततो न किमपि वदेत् , केवलमवऋयिको वदेत्-अस्मिरा उरि सुत्तायुगमे भरिणहिति । तत्थ महत्तरागारहिं न् अस्मिन् अवकाशे श्रमणा-निर्ग्रन्थाः वसन्तु तदा अवकमहल्लपयोयणेहि, तेण भत्तट्ठो पञ्चकखातो। ताहे श्रायरि- यिकः सागारिकः-शय्यातर इति परिहार्यः-परिहर्त्तव्यः । पहि भएणति-अमुर्ग गाम गंतवं । तेण निवेइयं जथा म- अथ द्वावपि वदेतां यथा पूर्वस्वामिनाक्नमेतावत्येकदेशे श्रमणा मज्ज अमत्तट्ठो, जति ताव समत्थो करेतु जातु य ।
वसन्तु तावत्यमातः साधून दृष्टाऽवक्रयिको घ्यांदतावति ण तरति अपणो भत्तट्टितो अभत्तट्टितो वा , जो तरति सो
मदीयऽपि प्रदेश तिष्ठन्तु । एवमवक्रयिकसूत्रमपि भावनीयं वश्चतु । सत्थि भएणो तस्स वा कजस्स श समत्थो ताहे
तदा द्वायपि भावनीय । तदा द्वावपि तौ सागारिकौ-शय्या. तस्स चव भत्तट्टियस्स गुरु विसज्जयन्ति । परिसस्स
तराविति परिहार्याविति सूत्रद्वयाक्षरार्थः । तं जेमंतस्स अणभिलासस्स प्रभत्तट्टितणिज्जरा जा सा से
सम्प्रति भाष्यकार:भवति गुरुणिोएल । एवं उस्सूरलंभे वि विणस्सति अअंत विमासा । जति थोवं ताथे जे णमोकारइत्ता पोरुसि
वक्कइयसालठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। इत्ता वा तेसि विसजेजा, जेण या पारणइत्ता जे वा अ
दियरातो असिवा पुण,भिक्खगते भुंजणगिलाणे ।४७७। सह विमासा । एवं गिलाणकजेसु अरणतरे वा कारणे वैयेण-कियत्काल भाटकप्रदानेन निर्वृत्ता वैऋयिकी सा कुलगणसवकजादिविमासा । एवं जो भत्तपरिच्चागं करे- चासौ शाला च वैऋयिकशाला तद्पे स्थाने । शालाग्रहणमुति सागारकडमेत" ति । गत साकारद्वार। आव०६ अग य. पलक्षणं तेनापद्वारिकास्थान वा गृह था इत्यपि द्रष्टव्यम् । स्वथा नास्माकृितं किन्त्वाचार्या एतस्य विशायका इति यदि तिष्ठन्ति साधवस्तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारो माबुद्धथा परिगृहीतं तत्साकारकृतम् । व्य०७ उ० ।
सा अनुद्धाता-गुरवो भवन्ति । यतस्तत्र इमे दोषाः-सा सागारियोग्गह-सागारिकावग्रह-पुं०। सद्दागारेण-गेहेन वर्तत । शाला अपद्वारिका वा पूर्व संयतानां दत्वा पश्चात्कोऽपि प्र.
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(६० ) माशारिय अभिधानराजेन्द्रः।
सागारिय हणाय रूपकान् ददाति । ममेमांशालामपद्वारिकां गृहं वा कि। भिक्षां गतेषु पश्चादागस्य वसतिपालं निष्काशयन्ति, तयत्कालं भाटकेन प्रयच्छ । ततः स रूपकलोभेन संयतान् नि- स्मिन् निष्काशने समिति वाक्यालङ्कारे, उपधेः स्यादकाशयेत् ,यदि वा-रात्री वा उभयत्रापि निष्काशने स्पर्द्धकय- शिवपानं-स्तेनैरपहरणं विस्मरणातो वाऽनशनमिति । तेराचार्यस्य वा प्रत्येक प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्,रात्रौ निष्काशने च स्वापदद्विविधस्तेनतोऽशिवापन-विनाशप्राप्तिरित्यर्थः,
अहवा भरियभाणा उ, भागते जइ णिच्छुभे । अन्यां च वसतिं मार्गयतामध्यलभमानानां जनगो, यद्ये
भत्तपाणविणासो उ, भुंजाणे सागते इमे ।। ४८२॥ तेषां शुभं कर्म ततः पूर्वीपाश्रयादपि न निष्काश्येरन् , अ- अथ भक्तभृतभाजनान् आगतान् यदि निष्काशयति तदा न्यां वा वसति लमेरन् । 'भिक्खगय' त्ति-संयता एकं गृहीतभनपानविनाशः। गतं भिक्षागतद्वारम् । अधुना वसतिपालं मुक्त्वा शेषा भिक्षार्थ गताः पश्चात् स एकाकी
भोजनद्वारमाह । अथ भुजानेषु स विक्री समागतस्तदा वसतिपालो निष्काश्येत 'भुंजण ति--भोक्नुकामा वा नि- इमे वक्ष्यमाणा दोषाः। काश्यरन् , तप चोभयत्रापि जनगए। ग्लानो वा कोऽपि व.
तानेवाहतते सोऽकाण्डे निष्काशितः कथं क्रियेत । तदेवं शाला- जिता अद्विसरक्खा वि, लोगो सम्बो विबोहितो। मधिकृत्योक्नम्।
पगासि से य अत्रेसिं, हीला होइ पवयखे ।। ४८३ ॥ इदानीमुपलक्षणव्याख्यानसूचितापद्वारिकां गृहं च
साधून साधुक्रियया भुजानान् रा स विपरिणतभावो कयिकमधिकृत्योक्तदोषयोजनां साक्षादाह
ब्रूते--जिता पतैरस्थिसरजस्का अपि कापालिकास्तेभ्यो ओवरि व मिहं वा, विक्कएण पउंजए।
ऽप्यमी हीनाचारा इति भावः । तथा लोकः सर्वोऽप्येतैः पउत्ते तत्थ वाघातो, विणासगरहा धुवा ।। ४७८॥ पारणकैरिवैकत्र भुखानैर्वाटितो विट्टालितो न केवलं स एवं अपद्वारिकां सागारिकगृहं वा यत् शय्यातरो विक्रयेण प्र- तत्र ब्रूते किं त्वन्येषामपि जनानां स प्रकाशयति । प्रकाशित योनयति तत्र स्थाने सदेव पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तम् , यतो विक्र- चाऽन्येषां प्रवचनस्य हील भवति । वदेवम् 'भुंजण' तियेण प्रयुक्त तत्र गृहादी बलादकारानिष्काशने सूत्रार्थव्या- व्याख्यातम् । घाती । रात्रौ निष्काशने स्वापदस्तनर्विनाशः अभ्यवसत्य
प्रधना ग्लानढारमाह-- लामे भिक्षागतादिनिष्काशने वा धुवा लोके गर्दा । एतच्च सीयवायाभितावेहिं , गिलाणो जं तु पावई । सर्व प्रागेव भावितमिति न भूयो भाव्यते।
अमंगलं मउक्खित्ते, ठाणममे विनो दए ॥४८४ ॥ एगदेसम्मि वा दिने, तत्रिस्सा होज तेणगा।
शीतेन वावेन अभितापेन वा ग्लानो यत् प्रागाढादिपरिरसालओ व्व गिद्धा वा, सेहमादी उ जं करे ।।४७६।। तापनं प्राप्नोति तनिष्पन्नम् स्पर्धकपतेराचार्यस्य वा प्राशालाया अपद्वारिकाया गृहस्य वा एकदेशे दत्ते अन्तरा यश्चित्तम् । तथा तैर्निष्काशितैरान उत्क्षिप्तस्तस्मिन् उकटके प्रक्षिप्ते यदि तिष्ठन्ति तदा तन्निश्रयाः-संयतनिथयाः रिक्ष वसतिमन्यां मार्गयतां मृतोऽयमित्यमङ्गलामिति - स्तेत्रका:-चौरा भवेयुः । सयतेषु कायिकभूमिगतेषु स्तेनाः स्वा मारिस्पृष्टोऽयमिति भयेन वा अन्योऽपि कश्चित् स्थान प्रविश्य गृहस्थानां भाण्डकमपहरेयुः । अथवा-रसाल रसव- न ददाति। त् यत् तत्र द्रव्यं तद्गृद्धाः शैक्षकादयो वा यत्कृत्यं तत्कुयुः, गहिते उत्थाणरोगेणं, अच्छंते णीणियम्मि वा । ततो गृहस्थेन संयता वा शक्यन्ते, यथा-नूनमेतैरमद्भाण्ड
वोसिरंतम्मि उड्डाहो, धरणे चाऽऽतविराहस्खा ॥४८॥ मपहृतम् । अथवा-एतेषां द्वारेण स्तेनैरपहृतम् , यदि वा-एतैरेव-संयतैः कस्यापि दुःस्थितस्य सम्प्रदत्तमिति एवं शङ्का
तथा ग्लाने उत्थानरोगेण-अतीसाररोगेस गृहीते ति
ठति निष्काशिते वाऽत्तीसारदोषः । तथा चाह-- यां स विनाशं वा कुर्यात् । यदि वा-रोजकुले अन्यत्र वा
व्युत्सृष्टे उडाहः । धरणे चात्मविराधना-मरणं गाढतरनीन्या ग्रामवृहत्पुरुषपाचे कर्षमं तत्र भूयसी जनगहेंति ।।
ग्लानस्य वा भवेत् । पेहावियारसज्झादि, जे य दोसा उदाहिया ।
उपसंहारमाहअच्छते ते भवे तत्थ, वयए भिष्पकप्पता ॥ ४८०॥
एए दोसा जम्हा, तहि यं होति उ ठायमाणाणं । ये दोषाः पूर्व कल्पाध्ययने-मद्योदकधान्यशालादिषु सागारिके वा उपाश्रये प्रेक्षायां विचारभूमौ स्वाध्यायादौ वा
तम्हा नो ठायव्वं, वक्कयसालाएँ समणेहिं ॥४८६ ॥ अभिहितास्ते तत्र शालादीनामेकदेशे तिष्ठति भवेयुः । अथै
यस्मात्तत्र वक्रयशालादौ तिष्ठतामेने-अनन्तरोदिता दोषा तद्दोषभयादन्यत्र व्रजति तर्हि भिन्नकल्पतादोषो मासकल्प
भवन्ति तस्मात्तस्या वक्रयशालायामुपलक्षणमेतत् वक्रयावर्षाकालकल्प वा अपरिपूर्णे एव सति निर्गमात् ।
पद्वारिकायां वक्रयगृहे वा श्रमणैन स्थातव्यम् । सम्प्रति भिक्षागतेष्वेतद्याख्यानार्थमाह
अत्र परस्यायकाशमाह-- भिक्खं गतेसु वा तेसु, निग्गते बेंति णीह मे।
एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो उ असति बसहीए । णीणिए वावि पाले णं,उवहि स्साऽसियावणा ॥४८१॥ बहिया वि य असिवादी, कारणे तो न वचंति ॥४८७।। भिक्षां गतेषु वा तेषु साधुषु अवक्रयी भाटकेन ग्रहीतशा- | यदि नाम वक्रयशालादौ न स्थातव्यं तर्हि सूत्रमधिकृलादिको ब्रूते यथा निर्गच्छत यूयं मम गृहात्तदा भिक्षाटन- तमफलम् । सूत्रे वक्रयेऽपि श्रमणानामयस्थानानुशानात् । सू व्याघातः , तत्कालमन्यवसत्यलाभ गर्दा, सूत्रार्थव्याघातश्च ।। रिराह नेदं सूत्रमफलं यतोऽस्य सूत्रस्य निपातोऽवकाशो
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(६१०) सागारिय अभिधानराजेन्द्रः।
सागारिय धसतेरन्यस्या अभाव बहिरगि निर्गच्छतामशिवादिकं कार.
कथं क्रियते इत्याहएं ततो न व्रजन्ति; किं तु-तत्रैव वक्रयशालादौ तिष्ठन्ति । सगि जति रायाणो, सगिं जपंति धम्मिया । तत्र यतनामाह
सगिं जंपति देवा वि, तुं पि ताव सगिं बद ॥४६३।। एएहि कारणेहिं, ठायंताणं इमो विही तत्थ ।
सकृजल्पम्ति राजानः, सकृजल्पन्ति धार्मिकाः, सजापछिदंति तत्थ कालं, उदुबद्धे वासवासे वा ॥ ४८८॥
न्ति देवा अपि, त्वमपि तावत्सद्वद । ततः स्वयमुक्त्वा
कथमकस्मादस्मान् निष्काशयसि ।। पतैः-अनन्तरोदितैरन्यवसत्यलाभे बहिरशिवादिलक्षणे
अणुलोमिए समाणे, तं वा अन्न व जइ उ देजाहि । स्तत्र वक्रयशालादौ तिष्ठतामयं वक्ष्यमाणो विधिः । तमेवाहतत्र कालं छिन्दति ऋतुबद्धे वर्षावासे वा । इयमत्र भावना
अम्मो वडणुकंपाए, देजाही वक्कयं तस्स ।। ४६४ ॥ ऋतुबद्ध शय्यातरं प्रति भण्यते-यदि संपूर्ण मासं ददासि, एवमुक्तप्रकारेणानुलोमिते सति तामन्यां वा यदि वसतिंदवर्षाकाले भएयते-यदि चतुरो मासान् ददासि तर्हि तिष्ठा
द्यात् । यदि वा-अन्योऽनुकम्पया तस्य वक्रय-भाटकं दद्यात् । मोऽथ न ददासि तर्हि न तिष्ठामः ।
अन्नं व देज वसहि, सुद्धमसुद्धं च तत्थ ठायंति। एतदेवाह
असती फरुसा विजइन सिमो दाऊण को तंसि॥४५॥ मासचउमासियं वा,न वि निच्छोढव्वॉ अम्ह नियमेणं ।।
अन्यां वा क्सतिमन्योऽनुकम्पया दद्यात् किं विशिष्टामि
त्याह-शुद्धामशुद्धांधा शुद्धां विशुद्धय विशुद्धिकोटिरहिताम् एवं छिन्नठियाणं, वक्कइतो आगतो हुजा ॥ ४८६ ॥
शुद्धां विशुद्धय विशुद्धिकोटिदूषितां वा तत्र तिष्ठन्ति ऋतुबद्धे काले मास, बर्षाकाले चतुर्मास नियमेन वयं
अथ स तामन्यां वा वसतिं न ददाति , नापि कोऽप्यन्या न निष्काशयितव्याः । एवं छिन्नकाले शय्यातरेण तथैव प्र
भाटकं शुद्धामशुद्धां वसतिम , तदा असति एकस्याप्युक्तरूतिपन्ने तिष्ठन्ति । तेषां च तथा तिष्ठतां वऋयिकः-कयेण
पस्य प्रकारस्याभावे स परुष्यते परुषीक्रियते। कथमित्याहग्राही भागतो भवति ।
त्वं छिन्नकाला वसतिं दत्त्वा संप्रत्यसंपूर्ण एव काले अस्मादिनो व सूनएणं, अहवा लोभा सयं पि देजाहि । निष्काशयसि न निगच्छामः कस्त्वं वसतिं दत्वा सांप्रतमअणुलोमिजइ ताहे,अदेंति अणुलोमे वक्कइतं ॥४६॥
सि ? "दत्त्वा दानमनीश्वर" इति वचनात् । अथ किचिव
क्लव्यं तर्हि राजकुले गच्छामः., एवं परुषितो यदि तिष्ठति शय्यातरो वसतिं दत्त्वा प्रवसितः, पश्चात्पुत्रस्य समीपे
ततः सुन्दरम् । अथ न तिष्ठति तदा राजकुले गन्तव्यम् । वक्रया समागतः । स ब्रूते-यत्र संयतास्तिष्ठन्ति तां भा
तथा चाह-- रकन प्रयच्छ, सा वसतिर्दत्ता सूनकेन-पुत्रेण । अथवा
रायकुले बवहारे, चाउम्मासं तु दाउ निच्छुमति । शय्यातरः प्रभूतभाटकलोमेन स्वयमपि वैयिणो दद्यात् , दत्त्वा च निष्काशयेत् । तत्र यद्यन्या बसतिलभ्यते तर्हि
पच्छाकडो य तहियं, दाऊणमणीसरो होति ।।४६६॥ न नत्र स्थाप्तव्यम् । अन्यत्र स धर्मकथया अनुलोम्यते-अ- राजकुले गत्वा व्यवहारः क्रियते । कथमित्याह-चातुर्मास नुकूलः क्रियते । अथ स धर्मकथयाऽनुलोमो न भवति,तर्हि दत्त्वा एषोऽस्मानिष्काशयति । तत्र राजपुरुषैः "दत्त्वा दानयस्तस्याऽहतो गरीयान् पितामहमातामहप्रभृतिकस्तेनानु- मनीश्वरो भवति" इति न्यायमनुसरङ्गिः पश्चात्कृतः।' खामोशियते । अथैवमपि स न ददाति स्थातुं तर्हि तस्मिन्न- पच्छाकडो भणेजा, अच्छउ भंडइ इहं निवायम्मि । ददति वैक्रयिकमुक्तप्रकारेणानुलोमयेत् ।
भह यं करेसि अम्म, तुम्भं अहवा बितेसिंत ॥४६७|| तम्मि वि अदेंति ताहे, छिन्नमछिन्ने व यंति उडुबद्धे । स उक्तप्रकारेण राजकुले पश्चात्कृतः सन् ब्रूयात्-इह यत्र वामासु य ववहारो, उदुबद्धे कारणे जाते ॥ ४६१ ॥
यूयं तिष्ठथ तत्र निवाते भाण्डक्रयाखकं तिष्ठतु। अन्यथा नम्मिन्नप्यवयिणि पूर्वप्रकारेरणानुलोम्यमानेऽप्यददति ऋ कोपिष्यति , युष्माकं पुनरन्यां वसति करोमि । अथवानुबद्ध काले छिन्ने वा परिपूर्णे अपरिपूर्णे वा अवधी नि- तेषां क्रयाणकानां याग्यमन्यत् स्थानं करोमि। .. गच्छन्ति । वर्षाकाले यद्यन्यः कोऽपि साधूनामनुकम्पको असती अमाते जं, ताहें उवेहा न पचणीयत्तं । म विद्यत या वसतिं प्रयच्छति तर्हि गत्वा राजकुले व्यव- ठायति जत्थ जंपति,चोए कम्मादि तहि दोसा।।४६८॥ हारः कर्त्तव्यः, न केवलं वर्षासु किं तु अतुबजेऽपि कारणे
एवमुक्ने यदाऽन्या वसतिः प्राप्यते तदा तत्र गन्तव्यम् । जात सति कर्तव्यः ।
अथान्या वसतिर्नास्ति तदा अन्यस्या बसतेरभावे उपेक्षा कारणजातमेव पृच्छति
कर्तव्या । किमुक्तं भवति-तदन्यां वसति कीस्वा ददाति - किं पुण कारणजातं, असिवोमादी उ बाहि होआहि ।।
विशोधिकोटिकृतां वा तदा तत्रापि स्थातव्यं; म पुनस्तत्रैवाएएहि कारणे हिं, अणुलोमऽणुसद्विपुव्वं तु ।। ४६२ ॥ स्माभिः स्थातव्यमित्याग्रहपरतया तस्य प्रत्यनीकत्वमुत्पाकिं पुनः कारणजातं यद्वशात् ऋतुबद्धेऽपि काले व्यव- दनीयम् । स हि प्रत्यनीकीकृतः सन् साधूनामन्यबसहार श्राश्रीयते ? अशिवौमादर्यादिकमादिशब्दात्-म्लेच्छप- तिदायकस्य वा प्रतिकूलमाचरेत् । अत्र चोदको जस्पतिरचक्रादिभयपरिग्रहः, बहिः कारण जातं भवेत् । तत एतैः का- यत्र तिष्ठन्ति साधवस्तत्र कर्मादयः-प्राधाकादयो दोषाः, रय ऋतुबद्धेऽपि काले पूर्वमनुशिष्ट्याऽप्यनुलोमनं क्रियते। आदिशब्दान्मिथकीतादिदोषपरिग्रहः ।
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सागारिय अभिधामराजेन्द्रः।
सागारिय अत्र सूरिराह
पूर्वस्वामी शालादर्देशमेकं दत्वा काप्यन्यत्र गतः , वर्षाभामइ निंताण बहिं, बहिया दोसा बहूतरा हुंति । काले च स देशो गलति । ततस्तं गलन्तं प्रदेश वक्रायकोजासासु हरियपाणा,संजमें आयादकंठादी ॥ ४६६ ॥ ऽभ्यो वाऽनुकम्पया छादयति तदा स तेषां साधूनां साभरुचते-अत्रोत्तरं दीयते-ऋतुबद्धे काले निर्गच्छतां तत्र
गारिकः-शच्यातरः । यदि बहिबहुतरा दोषा अशिवायुपद्रवलक्षणा भवन्ति ।
एतदेव सविस्तरं भावयतिबर्षाकाले निर्गच्छतां संयमविराधना, श्रात्मविराधमा । स
मुत्तूणं साधूणं, गहियत्थो वा गहिउ पउसियम्मि । सध यत् हरितकायोपमर्दम द्वीन्द्रियादिमाणाक्रमणं घा सा हेट्ठा उचरिम्मि ठिते, मीसम्मि पडालिववहारी ।। ५०५॥ संग्रमे संयमस्य विराधना । कण्टकादिभिरात्मनिराधना। साधूनामवकाशं मुक्त्वा तेन पूर्वस्वामिना शय्यातरेण बसदेवं छिन्ने काले तिष्ठतां विधिरुक्तः । अथ कालच्छेदो न क्रयो-भाटकं गृहीतः, गृहीत्वा च प्रोषितः। तस्मिन् प्रोषिकृतः, अथ च वर्षाकालो वर्तते, अथवा-ऋतुबद्धे काले ब- ते अधस्ताद्वक्रयिकस्य भाण्डमुपरिभाले साधवः, अथहिरशिवादि श्रागाद कारणं तदा अन्यस्यां वसती गन्तव्यं, न वा अधस्तात् शालायां स्थिताः साधवः उपरिमाले वक्रयिपुनः शय्यातरं प्रति किमपि वक्तव्यम् । अथान्या शुद्धा वस- कस्य दत्तम् पतन्मिश्रमुच्यते । एवं मिश्रे रूपे मिश्रेस्थितानां तिनं प्राप्यते तदा विशोधिकोटिदूषितायां स्थातव्यम् , तस्या यदा अधस्तात् शालायां साधव उपरिमाले वक्रयिकस्व भाअप्यलाभे अविशोधिकोटिदूषिताग्रामपि स्थातव्यमिति । एडं तदा पडाली गलति, भाण्डस्योपरीति न काचिस्साधूमा सम्प्रति सागारिकावक्रयिकयोश्शय्यातरवचिन्तां कुर्वनाह- |
क्षतिः। अथ चक्रयिकस्थ भाण्डमथस्तात्मालाब्राम्.डपसो चेत्र होइ इतरो,तेसि वा गंतु मोत्तु जइ दिनो।
रिमाले तिष्ठन्ति साधवः पडाली च गनति तदा अक्रयिक
श्चिन्तयति उपरिमाले पडाली गलति तत्र साधना काम् , अह पुख सव्वं दिलं,तो देंतो वकयी इतरो ।। ५००॥
मम तु भाण्डमधस्तात् शालायां ततो न विनश्यतीति पर्व उच्यते-शालगृहस्य वा अपद्वारिकाया वा अर्द्धत्रिभागो
चिन्तयित्वा पडालीं न छादयति । तत्र यान्योऽपि कत्ि वा विक्रयेण दत्तशेष संयतानां दत्तम् ,यथा-अत्र यूयं तिष्ठ- |
न छादयति तदा व्यवहारः कर्तव्यः। व्यबहारेण छावधिथेति,तत्र च साधव. सर्वेऽपि, मान्ति स एव स्वामी शय्या
तव्या इति । तरो भवति । अथ पुनः तेन पूर्वस्वामिना सर्वमपि शाला
- एतदेवाहदि भाटकेन प्रदत्तं तदा निर्गच्छतः साधून दृष्टा यदि व
हेट्ठाकवं वक्कइएण भंडं, ऋयी ब्रूते मा निर्गच्छत यूयमहं युष्माकमवकाशं दास्यामि तर्हि सोऽवकाशं ददानो वक्रयी इतर:-शय्यातरः ।
तस्सोयरिं वावि वसंति साह । अह पुण एगपदेसे, भणेज अच्छह तहिं न मायति । । . भंडं न मे उल्लइ मालबद्धे, बकति उ बेति इत्थं, अच्छह नो खित्तमंडेणं ॥५०१॥
नो तं छयंतम्मि भवे विवातो ॥ ५०६ ॥ . अथ तं पूर्वस्वामी भणेत् ,यथा-यूयमस्मिन् के प्रदेश तिष्ठथ अधस्तात् शालायां कृतं वक्रयिकेण भारडं, तस्य भाण्डतत्र च साधवो न मान्ति, ततोऽमातः साधून पृष्टा तत्र स्योपरि माले वसन्ति साधवः, ततो न मे भाण्डमस्मिन् वऋयिकोऽनुकम्पया ब्रूते-अत्र तिष्ठत यूयं न किमपि मः- मालबद्धे श्रादूर्घते तेनेति गम्यते इति विचिम्स्य न तां पडाली अस्माक भाण्डेन तिन प्रयोजनम् ।।
छादयतीति भवेद्विवादो-व्यवहारो जायते । तहियं दो वितराऊ, अहवा गेएहेन्ज गागयं कोई ।।
कथमित्याइदुलह अच्चग्यतरं, गाउ तहिं संकमइ तस्स ॥५०२॥
वक्कइयछएयव्वे, ववहारकयम्मि वक्कई बेंति । तत्रानम्तरोक्ने प्रकारे द्वावपि शय्यातरौ । अथवा-को
अकयम्मि य साहीणं, बेति तरं दाइयं वावि ।। ५०७॥ ऽपि चिन्तयति यदा भाण्डमध्यति तदा बहवः ऋयिका
यदि पूर्व वक्रयकाले एवं वागन्तिको व्यवहारः कृतः यः भविष्यन्ति, ततोऽत्यर्धतरा महार्घशाला भविष्यति । यदि वक्रयिकेण छादयितव्यमिति तदा वऋयिकं साधयोऽनुकूबहुकनाऽपि अल्पेन दुःखेन लप्स्यते ततो दुर्लभामत्यर्घ- लेन प्रतिकूलेन वा वचसा ब्रुवते, यथा-स्वया छादयितव्या तरां च शालां ज्ञात्वा अनागते साधूनामनागमनकाले
पडालीति । अथ न कृतस्तथारूपो वागन्तिकव्यवहारस्तएच भाटकप्रदानेन गृह्णाति।एतच साधुभिरागीतम् ,यथा- त्राह-अकृते यथोक्तरूपे यागन्तिके व्यवहारे स्वाधीनं शशाला भाटकेनामुकस्यायत्ता जाता | तत्तस्तं गत्वायाच- व्यातरं ब्रुवते, यथा-छादयत पडालीमिति । अथ स श न्त, सोऽपि ब्रूयात्
ब्यातरः कापि प्रोषितो भवेत् तदा तस्य शय्यातरस्य दाजाव नागच्छते भंडं, ताव अच्छह साहवो ।
याई वा गोत्रिणं ब्रुवतेएवं वक्कइतो साहू, भणंतो होइ सारितो॥५०३॥ ।
मजयंते (अछजंते) च दाऊणं, सयं सेञ्जायरे घरं। यावन्नागच्छति भाण्डं तावत्साधवो यूयं तिष्ठथ, एवं व
अणुसहाई अणिच्छतं, ववहारेण छायए ॥५०८॥ ऋषिकशय्यातरो भवति ।
अथ शय्यातरः माद्यति न छादयति तदा अन्यः कश्चिदभ्यदेसं दाऊण गतो, गलमाणं जइ छएज्ज वक्कइतो।
यते,ततो येन सा पडाली छादिता सोऽपि शय्यातरो भवति।
अथान्यः कश्चित् छादयिता न विद्यते तदा शय्यातरः स्वयं असो अगुकंपाए, ताहे सागारितो सो सिं ॥५०४॥ गृहं दत्त्वा प्रमादेन नाच्छादयतीति अनुशिष्टिरनुशासनं क्रिय
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(६१२) सागारिय अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिर ते, पाविशम्दात्-धर्मकथा च । तथापि छादयितुमनिच्छन्तं असिआँयरो व काहे, परिहरियचो व से तस्स ।२४३। व्यवहारेण येन गृहं दत्तं तेन छादनमपि कर्तव्यम् । न च
दोसा वा के तस्स, कारणजाए व कप्पती कम्मि । पूर्वमाच्छादनं विचारितं न चास्माकमकिश्वनानां किंचिदस्ति येन छादयाम इत्येवं राजकुलेऽपि गत्वा व्यवहार
जयणाए वा काए, एगमणेगेसु घेत्तब्चो ॥२४४ ।। करणेन छादयेत् । तदेवमवक्रयसूत्रं भावितम् ।
सागारिक इति पदमेकार्थिकनामभिः प्ररूपणीयम् ।का इदानीं ऋयिकसूत्रमतिदेशतो व्याख्यानयति
पुनः सागारिको में तीति चिन्तनीयम् ? । कदा बा एसेव कमो नियमा, कइयम्मि वि होइ प्राणुपुवीए ।
शय्यातरो भवति ? , कतिविधी वा ' से ' तस्य
पिण्डः अशसातरो भवति ? । कदा भवति ? । कस्य वा नवरं पुण णाणतं, उव्वत्ता गेएहती सो उ ।। ५०६ ।।
संयतस्य संबन्धी स सागारिकः परिहर्तव्यः ?।, के वा य एव क्रमोऽवक्रायकेऽभिहितः स एव क्रमो नियमात् क्र
तस्य सागारिकपिण्डस्य ग्रहणे दोषाः। कस्मिन् वा कारणयिके,यथाऽवऋयिकशय्यातरत्वचिन्ता कृता तथा तयैव री
जातेऽसौ कल्पते । कया वा यतनया स पिण्ड एकस्मिन् वा स्या ऋयिकेऽपि कर्तव्येति,नवरं पुनर्वक्रयकात् क्रयिकस्य ना
सागारिके अनेकेषु वा द्वियादिषु सागारिकेषु प्रहीतव्य नात्वमिदम्-बक्रयिकः कियत्कालं मूल्यप्रदानतो गृह्णाति,स
इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः । तु क्रयिकः पुनरुत्वेन गृहाति यावज्जीवं मूल्यप्रदानत पा
सागारिकस्य नामादिग्ररूपणा । श्रथ व्यासार्थे प्रतित्मसत्ताकीकरोति । व्य०७ उ०।
द्वारमभिधित्सुराहसागारियपिंड-सागारिकपिण्ड-पुं० । सह अगारेण-गृहेण
सागारियस्स णामो, एगऽट्ठा णाणवजणा पंच । वर्तत इति साऽगारः, स एव सागारिकः; सागारिकः
सागारिय सेजायर-दाता य तरे घरे चेव ॥ २४५ ।। शय्यातरस्तस्य पिण्ड अाहारः। शय्यातरपिण्डे, सूतकगृहपिण्डे च । सूत्र०१ श्रु०६ ० । "सागारियं च पिण्डं च, तं
सागारिकस्य नामानि-शक्रेन्द्रपुरन्दरादिवदेव कार्याणि विजं परिजाणिया।"सागारिकः शय्यातरः तस्य पिण्डं जुगु
नानाव्यञ्जनानि पृथगक्षराणणि पश्च भवन्ति,तद्यथा-सागापिसतं हीनं वर्णयितुं वा तदेतत्सर्व विद्वान् परिहरेत्। सूत्र०१
रिका, २शय्याकरः, ३शय्यादाता, शय्यातरः, ५शय्याश्रु० ६ ०। "सागारियपिडं भुंजमाणे अणुग्धाइयो भवई"।
धरश्चेति । स्था०२ ठा०१3० । स०।
अर्थतेषामेव व्याख्यानमाहयत्र बहवः सागारिकास्तत्रैकः कल्पाकत्वेन स्थापनीयः- अगम करणादगारं, तस्स ह जोगेण होइ साऽगारी । एगे सागारिए पारिहारिए दो तिथि चत्तारि पंच सागा
सेज्जाकरणा सेजा-करो उ दाता तु तदाणा ॥२४६॥ रिया पारिहारिया, एगं तत्थ कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे गोवाइऊण वसहि, तत्थ वि तेणाइरक्खिओ तरह । निव्विसेज्जा ॥१३॥
तदाणेण भवोघ, तरति य सेजातरो तम्हा ॥ २४७ ।। अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह नियुक्तिकारः- जम्हा धारइ सिजं, पडमाणि छज्जलेपमाईहिं। जहुत्तदोसेहि विवञ्जिया जे,
जं वा तीऍ धरती-तरगा पायंधरो तम्हा ॥ २४८॥ उवस्सगा तेसु जता वसंता ।
न गच्छन्तीत्यगमा वृक्षास्तैःकृतमगारं पृषोदरादित्वात् रूएग अणेगे व अणुनवित्ता,
पनिष्पत्तिः। तेनाऽगारेण सद्यस्य योगो विद्यते स सागा___ वसंति सामि अह सुत्तजोगे ॥ २४३ ॥ रिकः। , सर्वधनादेराकृतिगणत्वान्मत्वर्थीयः इकप्रत्ययः। ययथोक्तः-बीजविकटादिभिरभावकाशतापर्यन्तैर्दोषैर्विवर्जि- तश्चासौ शय्यां प्रतिश्रयं करोति अतः शय्याकरः । तस्याः ता ये उपाश्रयास्तेषु यतया वसन्त एकंवा अनेकान् वा
शय्याया दानाच शय्यादाता भण्यते । यतश्च अशिवे सति गृहस्वामिनोऽनुशाप्य वसन्तीत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते । अ
गोपायितुं-संरक्षितुं तरति शक्नोति ततः शय्यातरः । यथाथाय पूर्वसूत्रैः सहास्य सूत्रस्य योगः-संबन्ध । अनेन संबन्धे- तत्र तस्यां शय्यायां स्थितान् साधून स्तेनादिप्रत्यपायानायातस्यास्य(१३सूत्रस्य)व्याख्या-एकः सागारिको-घसति
त् रक्षितुं तरति ततोऽसौ शय्यातरः । अथवा-तस्याः शस्वामी परिहारं परित्यागमईतीति व्युत्पत्त्या पारिहारिको भि.
य्याया दानेन भवीघ-संसारं प्रवाहन्ति अतः शय्यातर शाग्रहणे परिहर्त्तव्य इत्यर्थः। यथा चैकः सागारिकः पारिहा
उच्यते । यस्माश्च शय्यां पतन्ती छादनलेपनाभ्यामाविशरिकस्तथा द्वौ अयश्वत्वारः पञ्च सागारिकाः पारिहारिकाःन
छदात्-स्थूणादानादिमिः धारयति अतः शय्याधरः , यनेषां बहूनामपि गृहेषु प्रवेष्टव्यमिति भावः अथ सूत्रेणैव सूत्र- द्वा-तथा शय्यया साधूनां वितीर्सया नरकादात्मानं धामपवदति-"एगं तत्थ कप्पागं" इत्यादि बहुजनसाधारणे देव.
रयतीति शय्याधरः । गतं सागारिकद्वारम् । कुलादौ स्थिताः सूत्रं तेषु बहुषु सागारिकेषु मध्ये, येन सा
अथ कः पुनः साऽगारिको भवतीति प्रश्नस्य निर्वचनमाहगारिकतया स्थापितेन शेषगृहेषु प्रवेष्ट्र कल्पते; तमेक सेजायरो पभू वा, पभुसंदिडो व होइ कायव्यो । कल्पकं स्थापयित्वा शेषेषु सागारिककुलेषु निर्विशेयुरिति एगमणेगे च पभू, पभुसंदिडो वि एमेव ।। २४६ ॥ सूवसंक्षपार्थः।
शय्यातरः प्रभुर्वा प्रभुसंविष्टो वा कर्तव्यो भवति । तत्र प्रभु. विस्तरार्थे भाष्यकृद्विभणिषुराह
रुपाश्रयस्वामी प्रभुसंदिष्टस्तु तेनैव प्रभुणा यः कृतः प्रमाणसागारिश्रो त्ति को पुण, काहे वा कतिविहो व से पिंडो।। तया निर्दिष्टो यः प्रभुः स एको वा स्यादनेको वा भवति ।
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(१९३) सागारियड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड अमुमेवार्थ विशेषत पाह--
मणं कृतं तौ द्वावपि शय्यातरौ भवतः । इदं प्रायः सार्थाविप सागारियसंदिद्वे, एगमणेगे चउक्कभयणा तु ।
प्रभवति आदिशब्दाचौराऽवस्कन्दभयदिपरिग्रहः । इतरथा
तु प्रामादिषु वसतां भजना-विकल्पना । एगमणेगे वजा, गेसु उ वजए एक ।। २५० ॥
तामेवाहसागारिके संदिष्टे च एकानेकपदनिष्पन्ना चतुष्कभजना क र्तव्या। सा चेयम्-एकः प्रभुरेकं सन्दिशति एष प्रथमो भङ्गः।
असइ वसहीऍ वीसुं, वसमाणाणं तहिं तु भयितव्वा । एकः प्रभुरनेकान् संदिशति इति द्वितीयः, अनेके प्रभव एकं तत्थ ण तत्थ व वासे,छत्तच्छायं तु वजंति ॥२५॥ सदिशन्ति इति तृतीयः, अनेके प्रभवोऽनेकान् संदिशन्ति यत्र संकीर्णायां वसतौ सर्वेऽपि साधवो न मान्ति तत्र इति चतुर्थः अत्र चैतेषु वा अनेके वा शय्यातरा वाः , अप- विष्वग अभ्यस्यां वसती वसतां साधूनां शय्यातरा भक्तवादपदे पुनरनेकेषु शय्यातरेष्येकं सागारिकं स्थापयित्वा व्याः । तत्र हि साधवः पृथक वसती उषित्वा द्वितीयदिने वर्जयेत् , शेषेषु तु प्रविशेत् । एतदुपरिष्टाद्वयक्तीकरिष्यते । सूत्रपौवीं कत्वा सागच्छन्ति, ततो द्वावपि शल्यातरौ । अथ कदा सागारिको भवतीति प्रश्नस्य प्रतिवचनमाह- अथ मूलनासतिमागम्य तत्र पौरुषीं कुर्वन्ति, तत एक एवं अणुन्नविय उवग्गहं, गुरुपायगयस्स अतिगते विन्ने ।
मूलवसतिदाता शय्यातरः । लाढाचार्याभिप्रायः पुनरयम्
शेषाः साधवः तथा पूलवसतौ,अन्यत्र वा प्रतिवसन्तु न तेषां सज्झाए भिक्खत्ते, णिक्खित्ते भाखे एकेको ।। २५१॥
संबन्धिनां सागारिकेनेहाधिकारः,किन्तु सकलगच्छस्य छत्रअत्र नैगमनयाश्रिता बहव आदेशाः , सूत्रके प्राचार्यदे- कल्पस्त्वाचार्यस्तस्य छायां वर्जयन्ति मौलशय्यातरगृहमित्यशी ब्रूते । क्षेत्रे प्रत्युपेक्षिते सति यदाऽवग्रहोऽनुज्ञापितस्तदा थः, इति विशेषचूर्णिनिशीथचूसेरभिप्रायः । मूलचूर्यभिप्रायसागारिको भवति । अपरो ब्रूते-यदा गुरूणां पार्थे उप- स्तु पुनस्तत्र विस्तीराया वसतेरभाव विष्यक वसतौ बसतां योगं कृत्वा भिक्षां पर्यटितुं लग्नाः, अपरों ब्रूते-यदा भोक
शय्यातरा भजनीयाः,यदि संस्तरन्ति ततः सर्वेऽपि शय्यातमारब्धम् , अन्यो भणति-भाजनेषु विक्षिप्तेषु एको ब्रूते यदा
राः,परं हिंयन्ताम् । अथ न संस्तरन्ति तत एकं शय्यातरदेवसिकमावश्यकं कृतम् ।
कुलं निर्विशन्ति शेषाणि परिहरन्ति । तत्राप्यसंस्तरणे द्विपढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे य होज वाधातो।
ज्यादिक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्यस्य वसतावाचार्यः स
एको वर्जनीयः, शेषाः सर्वेऽपि निवेशनीयाः। तथा-'तनिवाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ॥२५२॥
स्थ व वासे' इत्यादि किलैकस्याचार्यस्य बहव प्राचार्याः श्रु. अपरो भणति रात्रौ प्रथमे यामे गते. सति शय्यातरो भव
त्यर्थमुपसंपन्नास्तत्रैकस्यां वसतावमानाः पृथक पृथक वति, तदपरो द्वितीये यामे गते, अन्यस्तृतीये यामे गते, श्र
सतिषु स्थिताः सन्तस्तत्र मूलाचार्यसमीपे अन्यत्र वा श्रापरोऽभिधत्ते चतुर्थे यामे गते सति । श्राचार्यः प्राह-एते स.
त्मीयासु वसतिषु वसन्ति, सर्वेषामपि शय्यातराः परिहबऽप्यनादेशाः कुत इत्याह-अनुशापितावग्रहा निक्षिप्ताः तेषु
र्तव्याः । असंम्तरण तु पूर्वोक्तप्रकारेण तावद्वनव्यं यावच्छदिवस एवं व्याघातो भवेत् , व्याघाताचान्यां वसतिम् अ- प्रच्छायां वर्जयन्ति मूलाचार्याः शय्यातरमित्यर्थः । गतं न्यद्वा क्षेत्रं गताः कस्यासौ शय्यातरो भवतु ? | श्रावश्यका
कदा सागारिक इति द्वारम् ।। दिषु चतुर्थयामपर्यन्तेषु वसतिव्याघातेन बोधिकस्तेनादि
अथ कतिविधः शय्यातरपिण्ड इति द्वारमाहभयेन वा अन्यत्र संक्रामतः कः शय्यातरो भवितुमर्हति ? । श्रादेशः पुनरय-निर्व्याघाताभावे यद्यन्यां वसतिं न गताः
दुविह चउठिवह छबिह,अट्ठविहो होति बारसविहो उ । तत्रैव रात्रावृषिताः ततो भजना कर्त्तव्या। सच शस्त्रातरो | सिजातरस्स पिंडो, तब्धिवरीतो अपिंडों अ॥२५६ ॥ भवेत् , इतरा वा अन्यतरो वा, उभयं या।।
द्विविधो वा चतुर्विधो वा षड्विधो वा अष्टविधो वा द्वादइदमेव भावयति
शविधो वा शय्यातरस्य पिगडो भवति । तद्विपरीतः शय्याजइ जग्गंति सुविहिया, करेंति आवासगं च अन्नत्थ । तरपिण्डो न भवति । से जातरेण होती, सुत्ते व कए व सो होती ।। २५३ ।।
अथैनामेव गाथां विवृणोतियदीत्यभ्युपगमे एतांश्चतुरोऽपि प्रहरान सुविहिताः-शोभना आहारोवहि दुविहो, विदु अप्ले पाणमो उबग्गहिरो। नुष्ठानाः साधवो यदि जाग्रति प्राभातिकं चावश्यकमन्यत्र ग. असणादी चउरो ओ-हुवग्गहे छबिहो एसो ॥२५७।। त्वा कुर्वन्ति तदास मूतोपाश्रयस्वामी शय्यातरी न भवति किं
असणे पाणे वत्थे, पादे सेन्जादिया य चउरटुं । तु सुप्ते वा शयने कृते सति,कृते वा प्राभातिकावश्यके शय्यात
असणादि वत्थदोसु, वादिचउक्काति वारसगं ॥२५८।। रो भवति । अथ शय्यासरगृहे रात्रौ सुप्त्वा प्राभातिकप्रति- | क्रमणं तत्रैव कुर्वन्ति तदा परिस्फुटं स एव शय्यातर इति ।
द्विविधः शय्यातरपिण्डो भवति, तद्यथा-आहारः ,
उपधिश्च । बिदुन्नि ' द्विगुणिती चत्वारो भवन्तीति अन्नत्थ वसंऊणं, आवासगचरममम्महिं तु करे ।
कृत्वा चतुर्विधः शय्यातरपिण्डः पुनरयम्-अनं पानम् दोनिवि तरा भवंति, सत्थादिसु इहरहा भयणा ॥२५४|| औपग्रहिकोपकरणं चेति । तथा-अशनादयश्चत्वार औ
अन्यत्र स्थानेषु सुप्त्वा चरम-प्राभातिकप्रतिक्रमणमन्यत्र कुर्व घिकोपधिरौपग्रहिकोपधिश्चेति षड्विधः । अनं पानं वस्त्रं - न्ति तदा यस्यावग्रहे रात्री सुप्ता यदवग्रहे च प्रामातिकप्रतिक पात्रं शय्यादयः शूचीपिप्पलकनखखनिकाकर्णशोधनरूण
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(६४) सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड श्वस्वार ईत्यविधास्तथा शमादीनि वखादीनि शू- त्ति-सूर्योदये दिया यदि निर्गतास्तथा द्वितीये दिने तस्याव्यावीमि चेति त्रीणि चतुष्कानि द्वादश भवन्ति । त मेव वेलायां शय्यातरः एवमहोरात्रं वर्जितं भवति । गत यथा-अशन १ पान ३ खादिम ३ स्थादिम ४, वस्त्रं ५पात्र ६ शय्यातरः कदेति द्वारम् । कम्बलं ७ पादयोञ्छनं व शूची पिप्पलको १० नखच्छेदनक
अथ शय्यातरः कस्य परिहर्त्तव्य इति द्वारनिरूपणायाह११ कर्णशोधनकं १२ चेति ।
लिंगत्थस्स उ बजओ, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि । तगडगलखारमल्लग-सेजासंथारपीढलेवादी।
जुत्तस्स अजुसस्स व, रसावणो तत्थ दिद्रुतो ।।२६३।। सिज्जातरपिंडो सो,ण होति सेहोय सो अहिो ।२५।।
लिङ्गस्थस्य-साधुलिङ्गधारिणस्तं शय्यातरपिण्डं परिहरती तण उगलक्षारमल्लकशय्यासंस्तारकपीठलेपादिशध्दात्-त- वा भुजानस्य वा साधुगुणैर्युक्तस्य वा अयुक्तस्य वा शय्यास्यमुखादिकं च एष शय्यातरपिण्डो न भवति । यदि शय्या तरी बज्यों-बर्जनीयः, तत्र रसापणो मद्यहट्टो दृष्टान्तः। यथा. तरस्य पुत्रादिः क्षो बस्त्रपात्रसहितः प्रवजितुमुपतिष्ठते महाराष्ट्रदेश रसापणे मद्यं भवतु वा मा वा तथापि तत्पतदा सागारिकपिण्डो न भवति । अपरः प्राह-यदा मिर्गन्तु- रिशानार्थ तत्र ध्वजा मध्ये श्रारोप्यते तं ध्वज दृष्टा सर्वे भिकामैः पात्राघुपकरणमुद्राहितं तदा अशग्यातरः । अन्यो 5- क्षाचरादयः परिहरन्ति । एवमस्माकमपि साधुगुणैर्युको वा ते-यदा बसतेर्निर्गता भवन्ति तदा, परो भणति-यदा | भवतु मा वा परं रजोहरणध्वजो दृश्यते इति कृत्वा लिङ्गसागारिकस्यावग्रहा निर्गताः, एको ब्रूते-सूर्योद्गमे निर्गतानां स्थस्यापि शय्यानरः परिहियते। प्रथमपौरुष्यां गत्तायाम् ,अपरो बूते-तृतीयस्याम्.तदन्यः प्राह
अथ के दोषा इति द्वारमाहयावदिवस दिवससत्काश्चतस्त्रः पौरुष्यस्तावतः कालादूर्ध्वमशथ्यातरः । एते सर्वेऽप्यनादेशाः।
तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अनायउग्गमे न सुज्झे । सिद्धान्तः पुनरयम्
अविमुत्ति अलाघवया,दुल्लभसिञ्जाएँ बुच्छेप्रो ॥२६४॥ आपूच्छिय उग्गाहिय, वसहीओ निग्गतोग्गहे एगो।।
तीर्थङ्करैः प्रतिकुष्टो निषिद्धः शय्यातरपिण्डः। अथ तं
गृह्णातीति तेषामाशा न कृता भवति 'अन्नाय'त्ति-श्राज्ञातो. पढमादीया दिवसं, बुच्छे घओजऽहोरत्तं ।।२६०॥
उथ मासं निवासवशात् श्राशा-स्वरूपमया न शुद्धधति प्रत्या" बुच्छे बज्जेज्ज होरत्त ' ति-यस्यों बसती उ- सन्नतया तत्रैव पुनः पुनः भैक्षपानादिनिमित्तं प्रधिशत उद्गपितास्ततो यस्यां बेलायां निर्गताः तत ऊर्ध्वमहो- मोऽपि न शुद्धयति । अधिमुकिर्नाम-स्वाध्यायथवरपादिना रात्रे यावद् गृहे अशनादिकं वर्जयेयुः ततः परन्तु क
श्रावर्जितः शय्यातरो 'दुग्धदध्यादिप्रणीतं द्रव्यं ददाति, तलाते , आपृच्छादिषु तु सागारिकावग्रहनिर्गताः तेष्या- ग्रहणलोलुपतया तद्गृहं न विमुञ्चति । अलाघवता तु विदेशेषु यदि कथमपि गमनायनमुत्पन्नं ततो भूयोऽपि तस्या- शिष्टाहारलाभेनोपचिनगलकपोलतया शरीरलाघवं प्रचुरतमेव वसतौ स्थितेषु कथमशच्यातरो भवितुमर्हति ?,ये पुनः
स्त्रादिलाभेनोपकरणलाघवं च न भवेत् , दुर्लभा च शय्या प्रथमादपहर विभागेनाशय्यातरमिच्छन्ति तेषां सूर्यास्तम
भवति । येन किल शय्या दत्ता तेनाहाराद्यपि देयमिति भया मयिनिर्गतानां रात्रौ प्रथमादिपौरुपीविभागेनाशय्यारः
यः शय्यामगारिणो न प्रयच्छन्तीति भावः । व्यवच्छेदश्वप्राप्नोति , तच्च म प्रयुज्यते।
विनाशः शय्यायाः क्रियते । अथवा-भक्तपानादिप्रतिषेध इह कुत इति चेदुध्यते--
व्यवच्छेदशब्देनोच्यते , ऐष नियुक्तिगाथा समासार्थः । अग्महणं अख णिसि, श्रखंतरंगतरे दुहिं च ततो।।
अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोतिगहण तु पोरिसीहि, चोदग एते अणादेसा ।। २६१ ॥
पुरपच्छिमवजेहिं, अधिकम्मं जिणवरेहि लेसेशं । पेन हेतुमा निशिरजन्यामस्माकं भक्तयानादरग्रहणं,तथा कि
भुत्तं विदेहपच्छिय,ण य सागरियस्स पिंडो उ ॥२६॥ चिदनन्तरमेकान्तरादिभिर्वा पौरुषीभिः शय्यातरपिण्डस्थ पूर्वस्तीर्थकरः ऋषभस्वामी पश्चिमः श्रीमन्महावीरस्तद्वजैः ग्रहणमिच्छन्ति। हे मोदक ते एते सर्वेऽप्यनादेशाः। श्रादेशः | अजितादिभिर्मध्यमजिनघरैबिदेह जैः तीर्थकरैराधाकर्मादिपुनरयम्-संध्यायां दिवा निर्गनानां रजम्याश्चतुरो यामा श- | लेशन सूत्रादेशतो भुक्तं भोक्रुमनुशातमिति भावः। नच-नेव व्यातरस्ततः परं सूर्योद्मे शय्यातरः। एवं जघन्यतः उनम्। सागारिकस्यानुज्ञातम् । यमत्र भावना-मध्यमतीर्धकृतां घ उत्कर्षतः पुनरित्यम्--
ये साधवस्तेषां यस्यैव योग्यमाधाकर्म कृतं तस्यैव न कल्प
ते, शेषाणां तु कल्पते इति, तैराधाकर्म भोजनमपि कथंचिसूरत्थमनगयाणं,दोएहं रयणीय अद्र जाम भवे ।
दनुज्ञातं न पुनः शय्यातरपिण्डः "सेजायरपिंडे वा, देवसियमझ चउदिण-णिग्गत बितियम्मिमा बेला२६२
उब्भामे वा य पुरिसजिष्टे य । किइकम्मरस य करणा, चसूर्यास्तमनसमये गौ निर्गतामामेषां परं यं चाहोरात्रं
त्तारि अनादिया कप्पा ॥२॥” इति तैर्वचनात् । शय्यातरो भवति , ततो द्वयो रजन्योर ष्टी यामाः देव
अथाशाद्वारमशातद्वारं चाह-- पिकाव , रजनीद्वयमध्यवर्तिनश्चत्यागे यामाः, एवं द्वादशानां यामानामन्ते उत्कर्षतः अशस्यातरो भवति । एष एक
सब्वेसि तेसि आणा,तप्परिहारी ण गेएहती ण कया। श्रादेशः। द्वितीयः पुनरयम् 'दिसनिग्गए बितियाम्न सा बेख अमायं च ण जुञ्जति,तहिं वि तो गेएहती तत्थ।।२६६।।
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियर्षित सर्वेषामपि तेषां तीर्थकृतां तत्परिहारिणां शय्यातरपिण्ड- अथ कारशाजाते कस्मिम् कल्पते इति धारणाथामाहप्रतिषेधकारिणामाशा तत्पिण्डं गृह्णता न कृता भयति । तथा दुविहे गेलणम्मी, निमंतणे दध्वदुल्लभे असिवे । यत्रैव गृहे स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृह्णतो न युज्यते-न घटतेन शु.
प्रोमोयरियपोसे, भवे य गहणं अणुनायं ।। २७३ ।। जयतीत्यर्थः । अज्ञातस्य तस्य यदुक्तं भैक्षग्रहणं तदशातमि
विविधे-श्रागाढे, अनागाढे च १ ग्लानत्वे,तथा निमन्त्रण ति व्युत्पत्तेः।
२ दुर्लभद्रव्य ३ अशिव ४ अवमौदर्ये ५ प्रद्वेषे वा राजविटे ६ अथ शुद्धिद्वारमाह
भये वा बोधिकस्तेनादिसमुत्थे ७ एवं सप्तसु कारणेषुबाहुल्ला गच्छस्स उ, पढमालियपाणगादिकलेसु । य्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम् । एष नियुक्निगाथार्थः । सज्झाय करण पाउ-ट्टियाकरण उग्गमेगतरे ॥२३७||
साम्प्रतमेनामेव विवयोतिगच्छस्य यद् बाहुल्यं-साधूनां प्राचुर्य तस्माद्धेतोः प्रथमा- तिपरिरयमणागाढे, आगाढे खिप्पमेव गहणं तु । लिकापानकोषधादिकार्येषु पुनः पुनः प्रविशन्तस्तथा स्वा
काम्मि बंदिया ज, छिणंतिण य चिंति उपकप्पं ।२७४। ध्यायश्रवणेन करणेन च यथोक्नक्रियाकलापानुष्ठानेन
विपरिरयं-श्रीन वारान् परिभ्रमण तदमागाढ अालानभावर्तिता आवर्जिता उन्नमदाषाणामेकतरान् कुर्युः । (वृ०।)
त्वं कर्तव्यं,यदि तथापि ग्लामप्रायोग्यं न लभ्यते ततः परमेकअथ दुर्लभशय्याद्वारमाह
परिहाण्या मासलघुप्राप्ताः शय्यातरपिण्डं गृह्णन्ति । आमाहे भिक्खापयरणगहणं,दोगचं अम आगमे ण देमो उ । तु ग्लानत्वे क्षिप्रमेघ ग्रहण कार्यम् । तथा शय्यातरेल भक्तपयरण णस्थि ण कप्पति,असाहु तुच्छे य पालवणा।२७१।।
पानमस्मद्गृहे गृहीत एवं वन्दिता-निमन्त्रिताः सन्तो यस्यापि श्रेष्ठिनो गृहे पञ्चशतिको गच्छो वर्षासु स्थितः ।
भणन्ति कार्ये समुत्पन्ने ग्रहीष्यामः न च युवते युष्मदीय स च शय्यातरो गृहमनुष्याणामादिशति-यदि साधवो
भनपानमस्माकं न कल्पते । गृहात्तुच्छर्भाजनैर्निगच्छन्ति ततो महदमङ्गल स्यात् , अतो
जं वा असहीणं तं, भणंति सं देहि तेल णे कजं । दिने दिनेऽमीषां प्रथममेव भिक्षा दातव्या, ततस्ते साधयः णिबंधे चेव सयं, घेत्तूण पसंग वारेति ॥ २७५ ॥ सर्वेऽपि तस्मिन् गृहे प्रतिदिनं प्रथमतः प्रतरणभिक्षा यद्वा यदद्व्यं तस्य गृहे अस्वाधीनं नास्तीत्यर्थः, तद्भणन्ति; गृह्णन्ति, ततश्च शय्यातरस्य कालान्तरेण दीर्गत्यं-दरि
याचन्ते इत्यर्थः । यथा अमुकं द्रव्यं प्रयच्छत तेनास्माकं गुद्रता । अन्येषां च साधूनां तत्र गमनं श्रेछिनम् ,वदन्ति-याच
रुतरं कार्यम् । अथ शय्यातरो निर्बन्धमतीवाग्रहं करोति ततः ते ।स प्राह-विद्यते वसतिः परं न प्रयच्छामः । साधुभिरुक्तः
सकृद्-एकवारं गृहीत्वा भूयः प्रसङ्गं निवारयन्ति । किं कारणं न प्रयच्छति, स प्राह-प्रतरणं प्रथमदातव्यमि
दुल्लभदव्यं च सिया, संभारघयादि घेप्पती तं तु । क्षारूपं नास्ति । साधवो ब्रयते-न कल्पते अस्माकमचरण ग्रहीतुम् । स प्रतिब्रुवते-असाधु-अमङ्गलमिदं यन्मम गृहा- ओमसिवे पणगादिसु जतिऊणमसंथरे गहम् ।। २७६ ।। नुच्छर्भाजनैनिर्गच्छन्ति । ततस्तस्य साधुभिः प्रज्ञापना कृता दुर्लभद्रव्यं वा संभारघृतादिकं शय्यातरगृहे स्यात् , संभाआयुग्मन्निदमेव भवतः परममङ्गलं यदेवं साधूनां बस- रो बहुद्रव्यसंयोगस्तत्प्रधानं घृतं संभारघृतम् । श्रादिशतिरुपयुज्यते अनया हि दत्तया भवता सर्वमपि भक्तपा- ब्दात्-शतपाकतैलादि. तञ्च ग्लानादिनिमित्तं शय्यातरगृहे नादिकं दत्तमेव भवति । इत्थं प्रज्ञापितः स तेषां वसति गृह्णन्ति अवमौदाऽशिवयोरसंस्तरण पञ्चकहान्या यतित्वा प्रदत्तवान् , एवं दुर्लभा शय्या भवति ।
मासलघुप्राप्ताः शय्यातरकुले ग्रहणं कुर्वन्ति । अथ व्यवच्छेदद्वारमाह
उवसमण, पदुद्वे, सत्थो जा लभते व ताणं व । थल देउलिया ठाणं,सति कालं दटु दु१ तहि ममणं ।
अच्छंता पच्छण्णं, गेएहति भये वि एमेव ।। २७७ ॥ निग्गऍ वसही भंजणे,अने उन्भामगा उद्धा ॥२७२।।
प्रद्विष्टस्य राक्ष उपशमनार्थ तिष्ठन्तो, यद्वा-राशा निर्विषया
श्राज्ञप्ताः सन्तो यावत्तत्र सार्थो न लभ्यते तावत्प्रच्छन्नं तिकस्यापि ग्रामस्य मध्ये स्थलम् , तत्र ग्राम मिलित्वा दघकुलिका कारिता, तत्र साधवः सन्ति । ते च तत्रांश्चतरे
प्ठन्तः शय्यातरकुले भक्तपानं गृह्णन्ति; मा पर्यटतो राजा वा देवकुले स्थितास्तत्काल भिक्षायां देवकुलं दृष्टा दृष्टा तत्र
राजकीया या ईक्षेरनिति कृत्वा, भयं बाधिकस्तनादिनभवं तेषु कुलषु भिक्षार्थ गच्छन्ति तत्रैकमपि कुल ते तां भिक्षां गृ
तत्र बहिामेषु भिक्षां गन्तुं न शक्यते,स्वग्रामे च न लभ्यत । हन्ति समुद्धरन्ति, एवं च निर्विन्नाः सर्वेऽपि गृहस्थाः । ततो
अत पवमेव शय्यातरकुले गृह्णन्ति । निर्गतेषु साधुषु वसतेर्दैवकुलिकायास्तैर्भञ्जनं क्रियते,माम् श्र
अथ कया यतनया ग्रहीतव्यम् इति द्वारमाहन्येऽप्यागतास्तापयिष्यन्तीति । इतश्चान्यस्मिन्नीशे स्थलग्रा
तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कडयोमी। में अनके साधवो देवकुलिकायां स्थिताः, ते च भगवन्तो दव्यस्स य दुल्लभया, सागारियसेवणा दव्वे ।। २७८ ।। निःस्पृहा बहिग्रामे चोद्धामकभिक्षाचयाँ गच्छन्ति स्वाध्याय- स्वतंत्रे सक्रोशयोजनाभ्यन्तरे स्वग्रामपरग्रामयाबिकृत्वपराश्च तिष्ठन्ति । ततस्ते गृहस्था श्रावृत्ताः संभूय तान् खीन वागन् चतसृष्वपि दिनु 'पुढे ति' भैक्ष दुल्ल भद्रव्यं वा साधुनिमन्त्रयन्ति । साधयो यत-बालवृद्धादीनां कार्ये मायित्वा यदि न मानोति ततः कृतयोगी गीतार्थों द्रष्यस्य ग्रहीष्यामः,एवं घृतादिदुर्लभद्रव्यमपि सुलभं भवति । नच शुद्धभक्तानादेः दुर्भलतां मत्वा सागारिकद्रव्यस्य सेवनाशय्याया व्यवच्छेदो जायतागत दोषा या के तस्येति द्वारम् ।। शय्यातविषयो विधिः ।
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड अथानेकशय्यातरविषयं विधिमाह
अप्रभुरनुशापितो भणति-अहं न जानामि,ततः साधवो भणेगेसु पियापुत्ता, सवत्ति वणिए घडो वए चेव ।
णन्ति यावत्प्रभुरागच्छति तावद्वयं तिष्ठामः.एवमनुशापिते
नाप्रभुणा वितीर्णे प्रतिश्रये यदा प्रभुःप्राप्तो भवति तदा तएएसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुबीए ।। २७६ ।। स्याप्ययथाभूतं कथयितव्यम् । कथिते च स ददाति वा निअनेकेषु शय्यातरेबमी भेदाः-पितापुत्रौ सपत्न्यौ वा वणिजो | एकाशयति, एवमत्र प्रमाणं न ते पूर्वानुशापिता इतरे अप्रभवा घटोवा-गोष्टी व्रजो वा-गोकुलम् पतेषां द्वाराणां नानात्वं वः । एवमुक्तंन स्वामिना यद्वसतेग्रहणं तदेवानुशातमिति । विभागं वक्ष्यामि-प्ररूपयिष्यामि यथानुपूर्त्या।
इय एसाऽणुमवणा, जतणा पिंडो पभुस्स उववजे । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
सेसाणं तु अपिंडो,सो वि य वज्जो दुविहदोसा ॥२८॥ पितपुत्ते थेरया य, अप्पभुदोसा य तम्मि उ पउसिए । | साचैवमुक्तप्रकारेण पषा प्रतिश्रयानुज्ञापनायां यतना प्रोक्का
अथ शय्यातरपिण्डपरिहारेण यतनाऽभिधीयते-यः प्रभुः शजेट्ठाइअणुमवणा, पाहुणए जं विधिग्गहणं ।। २८०॥
य्यातर इति कृत्वा तद्गृहे पिण्डो वर्यः, शेषाणामप्रभूणाम् यदि पिता पुत्रश्च द्वावपि प्रभूतत उभावप्यनुज्ञापयितव्यौ ।
अपिण्डः-शय्यातरपिण्डो न भवति परं सोऽपि द्विविधदोअथ पिता स्थविर इति कृत्वा चशब्दात्पुत्रोऽप्यतिबाल इति
षात् भद्रकप्रान्तकृतदोषपरिहारार्थ वर्जनीयः । गतं पितापुकृत्वा यदा प्रभुस्तदा नानुशापनीयःदोषाश्चानुशापनायां नि
त्रद्वारम्। काशनादयः प्रभुकृता भवन्ति । अथ स प्रभुः प्रोषितस्ततस्त
अथ सपत्नीद्वारमाह-- स्यैव यो ज्येष्ठादिः श्रादिशब्दादनुज्येष्ठादयो वा तेषामनुज्ञाप
एगे महाणसम्मि, एकतो उक्खिसँ सेसपडिणीए । ना कर्तव्या। माघूर्णको वा यस्तस्याभ्यर्हितः सोऽनुज्ञापनीयः सर्वत्र । यद्विधिना ग्रहणं तदेवानुज्ञातं भगवद्भिाविधिनति
जेवाएँ अणुप्मवणा, पउत्थेसु य जेट्ठ जाव पभू॥२८६|| अथैनामेव व्याख्यानयति
शय्यातरे प्रोषिते सति यास्तदीयाः पत्न्यस्तासां यद्भोजन
तत्र चतुर्भङ्गी एकत्र राद्धमेकत्र भुक्तम् १ एकत्र राद्धं विष्वक दुप्पबिइपिया पुत्ता, जीहँ होंति पभू ततो भणइ सव्वे ।
भुक्तम् २ विष्वक राद्धमेकत्र भुकम् , ३ विष्वक राखं विष्वक णातिकमंतिजं वा, अपभुं व पहुं व तं पुव्वं ॥ २८१॥ भुक्तम् । ४ तत्र 'पगे महाणसम्मी एक्कतो' त्ति-एकस्मिन् द्विप्रभृतयः अनियताः पिता पुत्रा यत्र प्रभवो भव
महानसे एकतो भुक्तमिति प्रथमभङ्गो गृहीतः , 'उक्वित्तं' न्ति तत्र सर्वेऽपि तान् मिलितान् भणन्ति अनुज्ञाप
त्ति-एकत इति पदमनुवर्तते एकतः-एकस्मिन् स्थाने उत्क्षि. यन्ति । यं वा प्रभुमप्रभुं वा नातिकामन्ति-प्रमाणयन्ति
तं भोजनभूमिकां नीतं भुक्तमिति यावत् अर्थादापनं विष्वक तं पूर्वमनुज्ञापयन्ति ।
राद्धम् , एतेन तृतीयभङ्ग उपात्तः। द्वितीयचतुर्थभनी पुन
रवर्जनीयाविति कृत्वा न गृहीतौ । 'सेसपडिणीए' त्ति-यअप्पहु लहुओ दियणिसि,पभुणिच्छुढे विणासगरिहा य ।
देकत्र राद्धमेकत्र भुक्तं तत्र भुक्तशेष यद्यपि शेषसपत्नीभिः असहीणम्मि पभुम्मि उ,साहीणजेट्ठादणुमवणा।।२८२॥ स्वगृहं प्रत्यानीतं तथापि भद्रकमान्तदोषपरिहारार्थ वर्जनीयद्यप्रभुमनुशापयन्ति ततो मासलघु.प्रभुश्च समागतो दिवा
यम् । प्रभौ प्रोषिते मदीया ज्येष्ठभार्या वसतिमनुशापयते । निष्काशयति चतुर्गुरु , रात्रौ निष्काशिता स्तेनस्वापदादि
अथ सा न सुतमती ततो ज्येष्ठा प्रिया पुत्रवती, द्वयोर्वा पुभिविनाशं प्राप्नुवन्ति, अन्यत्र वसतिमलभमाना लोकतो
त्रवत्योर्या ज्येष्ठपुत्रा यः पुत्रो वा प्रभुर्या वा स्वयं गृहे प्रभुःगर्हामासादयन्ति । तथा किं यूयं शोभनैः कर्मभिर्निर्धाटि
प्रामणभूता सा अनुज्ञापनीया। एषा चिरंतनगाथा । ताः प्रथममपि न प्रयच्छाम इति । प्रभुः पिता न स्वाधीनः किं
अथैनामेव विवृणोति-- तु प्रोषितस्ततो यः स्वाधीनो ज्येष्ठादिपुत्रः आदिशब्दाद- तम्मि य अस्साहीणे जेठपुरत्त)तमाया व जा व से इट्ठा। नुज्येष्ठादिकोऽपि यः प्रभः स अनुशापयितव्यः। अथ सर्वे अह पुत्त माय सव्वा,वी(इ)बो जेट्ठो पभू वा वि।।२८७।। प्रभवः ततो युगपत्ते सर्वेऽप्यनुज्ञापनीयाः
तस्मिन् गृहस्वामिन्यस्खाधीनेऽसंनिहिते ज्येष्ठा भार्या पुत्रपाहुणयं च पउत्थे, भणंति मित्तं व णातगं वा मे। माता वा या वा 'से' तस्य गृहपतेरिष्ठा वल्लभा सा वसतितं पि य आगतमत्तं, भणंति अमुएणणे दत्तं॥ २८३ ॥
मनुशापनीया । अथ सर्वा अपि पुत्रमातरः अभीष्टाश्च ततो
यस्याः पुत्रो ज्येष्ठस्तामनुज्ञापयन्ति । अथ ज्येष्ठपुत्रो न प्रभुः प्रभौ प्रोषिते सति प्राधुर्मको यस्तस्याभ्यर्हितः समा
ततः कनिष्ठोऽपि यस्याः पुत्रः प्रभुःसा अनुशापयितव्या। यातः स च मित्रं वा तदीय शातकं वा-स्वजनं भणन्ति-अनु
पिण्डग्रहणे विधिमाहशापयन्ति । तं च प्रभुमागतमात्रमेव भणन्ति-अमुकेन यु
असहीणे पभुपिंडं, वअिंती सेसए तु भद्दादी। धमन्मित्रादिना अस्माकमिदं प्रदत्तम् । स चाभी नामग्रहणे कृते न निर्धाट्यति ।
साहीणे जहि भुंजइ, सेसेसु वि भद्दपंतेहिं ।। २८८॥ अप्रभुविषयं विधिमाह
अस्वाधीने गृहस्वामिनि या पत्नी प्रभुस्तस्थाः पिण्डं सा
धवो वर्जयन्ति । शेषसपत्नीगृहेषु न शय्यातरपिण्डं परं अप्पभुणा उवदिले, भपति अच्छासु जा पभू एति ।
भद्रकमान्तकृता दोषा भवन्ति; अतस्तासामपि पिण्डः पपत्ते उ तस्स कहणं, सो उ पमाणं न ते इतरे ॥२०४ ॥ रिहर्त्तव्यः । अथ स्वाधीनः शय्यातरः ततो यस्या गृहे भु
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सांगारियर्पिई इले तत्र शय्यातरपिएड इति रवा घर्जयन्ति , शेषाण्य-1 प्रस्थानं च शुभमुहूतें क्रियते , इत्यादिकारणेन नगरादेयहिपि सपत्नीगृहाणि भद्रकमान्सदोषपरिहारार्थ वर्जवन्ति । र्गत्वा सकौशयोजन क्षेत्रस्याभ्यन्तरे बहिवी स्थिती मषेत् । एगस्थ रंधणे मुं-जणे व वजेंति भुत्तसेसं पि ।
अद्यतः क्षेत्राभ्यन्तरे स्थितः तदा सर्व तदिवसायविषस
नीतं शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा वर्जयेत् । अथासौ क्षेत्राहिः एमेव वीसु रद्धे, मुंजंति जहि तु एगट्ठा ॥ २८४॥
स्थितः ततस्तदिवसनीतं शय्यातरपिण्डः शेषदिवसनीत एकत्र रन्धनम् एकत्र भुक्रमित्यादि चतुर्भङ्गयां यत्रैकत्र र
तु यत्परिवासितम् ,यद्वा-तत्रैवोपस्कृतं तत्र शव्यातरपिण्डः न्धनं भोजनं वा तत्र भुक्तशेषमपि वर्जयन्ति । प्रथमभङ्के इत्य
परं तदपि प्रसङ्कदोषेण मा भद्रकमान्तकृतदोषाणां प्रसङ्गो थे, एवमेव विष्वक राद्धेऽपि यत्रैकत्र भुञ्जते तत्र भुक्तशेषमपि
भवेदिति कृत्वा न ग्रहीतव्यम् ! न गृह्णन्ति तृतीयभङ्ग इति भावः । एवमस्वाधीनभर्तृका
ठितो जया खेतबहिं सगारो, ण विधिरुक्तः।
भत्तादिये तस्स दिणे दिणे य । अथ स्वाधीनभर्तृकाणां यो विधिस्तमाह
अच्छिम्पमाणिज्जति सिजती य, णिययं च अणिययं वा, जहिं तरो मुंजती उ तं वज।।
गिहा तदा होति तहिं वि वजे ।। २६३ ।। सेसासु वि ण य गिएहति,मा छोमगमादि भद्दाई।।२६०॥
यदा क्षेत्राहिः स्थितस्तदा तस्य भक्कादिकमव्यवच्छिन्न नियतं वा यत्र शय्यातरो भुङ्क्ते तद्गृहं वर्जनीयम्,नियतं ना
चिमे दिने गृहाहिरानीयते, बहिःस्थानाच गृहं नीयते; तम-यदेकस्य एव गृहे प्रतिदिनं भुते. अनियतं तु वारकेण
त्सर्वमपि सागारिकपिण्डो मवति तत्र स्थितस्य वर्जनात् । सर्वासामपि गृहे भुङ्क्ते, शेषपत्नीगृहेषु यद्यपि शय्यातरपिराडो न भवति तथापि न गृह्णन्ति । मा भद्रकमान्तकृताच्छोभ
बहिदिएँ पट्टिो य, सयं व संपत्थिया उगएहति । कादयो दोषा भवेयुः स च प्रज्ञापकः भोजनं शेषपत्नीगृहे न तत्थ उ भद्दगदोसा,ण होंति ण य पंतदोसाओ ॥२६४॥ भद्रुकशय्यातरः कुर्यात् । मम गृहे ताबमी न गृह्णन्ति श्रत शय्यातरः क्षेत्राद्वहिः स्थितो यस्यां वेलायामग्रतो गन्तुं एवमपि दस्था पुण्यमुपाज॑यामीति बुद्धया, यस्तु प्रान्तः स प्रस्थितः स्वयं वा साधुः, पूराणे मासकल्प सपस्थिताः त द्वेषं यायात् अहो दुष्टधर्माण इमे, यदि मदीयगृहे न कल्पते |
दिवसात् यद्यन्यत्र वसन्ति तदा सर्वमपि प्रायोग्य भक्तं पानं बत पतासां मदीयपत्नीना गृहे कथं कल्पत इति प्रद्विष्टश्च
गृह्णन्ति । कुत इत्याह-तत्र तस्यां वेलायां गृह्यमाणे भद्रक प्रतिश्रयात् निष्काशयत् । गतं सपानीद्वारम् ।
दोषाः प्रान्तदोषाश्च न भवन्ति । पुनर्ग्रहणाभावादिति भावः । अथ वणिग्द्वारमाह
अथ स्कन्धपद संखडिपदमटवींपदं च व्याख्यातिदोसु वि अब्बोच्छिम्मे, सर्व जं तम्मि जं च पाउग्गं।
अंतो चहि कच्छउडिया--दि ववहरंतो पसंगदोसायो । खंधे संखडि अडवी, असती य घरम्मि सो चेव ॥२६॥
देउल जनगमादी, कट्ठा दंडं विवचंते ॥ २६५ ॥ कोऽपि शय्यातरो देशान्तरं गन्तुकामो नगरादेहिः क्षेत्रस्यान्ते बहिर्वा शय्यातरः कक्षाटिकावि-कक्षा प्रदेशे स्थितो वर्तते, तस्य च द्वयोरपि गृहयोरन्तर्गृहादहिहे पुटा यस्य स कक्षापुटिको-गृहीतोभयमोदक इत्यर्थः । श्रायहिगृहाद् बाह्याभ्यन्तरगृहे भक्कादिकमव्यवच्छिन्नं यदा- दिशब्दात्-कौतुकिकादिर्वा,बहिामेषु व्यवहरन् साधूनां नीयते तत् न कल्पते । अथासौ शय्यातरस्ततः स्थानात् दधिदुग्धादिकं दापयति। तत्र क्षेत्रस्याम्तस्तहिननीतमभ्यदिप्रस्थितः ततो यो निर्गच्छति तस्मिन् सर्व तद्दिव- ननीतं च शय्यातरपिण्डः। बहिः पुनस्तदिवसनीतं शसनीतमन्यदिवसनीतं च भापानं कल्पते । सर्व- च्यातरपिण्डः, शेषदिवसनीतं न शय्यातरपिण्डः परं भूयः स्मिथापि त्यक्ते मा भूदतिप्रसङ्ग इत्याशधाह-यश्च प्रायो- प्रसङ्गदोषान्न गृह्यते । एवं तद् देवकुलतडागयज्ञादिकं संखर्डी ग्य-प्रान्तजनयोग्य तत्प्रापणीयं प्रासुकं चेत्यर्थः , ‘खंधे' कुर्वतः काष्ठादिनिमित्तं शम्बले गृहीत्वा अटवीं बजतः, - त्ति-स्कन्धप्रदेशयोग्य कृत्वा बहिर्गामेषु व्यवहरन् शय्यातरः प्रान्तीयमानं शय्यातरपिण्डः । क्षेत्रवाहिस्तदिवसानीतं शसाधूनां दधिदुग्धादिकं दद्यात् , ' संखडि ' त्ति-संखडिं य्यातरपिण्डः, न द्वितीयदिवसानीतं, परं तदपि न प्रहीतकुर्वन् साधूनामपि दद्यात् । 'अडवि' त्ति-अटवीं वा काष्ठ व्यम् , मा भूयः संखडीकरणमटवीगमनं वा साधूनां दानार्थ कछेदनादिनिमित्तं गृहीतशम्बलो गच्छन् साधून् रष्टा त- कुर्यादिति कृत्वा । मध्यात् तेषामपि दद्यात् , पतेषु त्रिवपिन कल्पते । 'अ- अथ गृहे असन् स एव शय्यातर इति पदं व्याचलेसईय घरम्मि सो चेन 'त्ति-यदि शय्यातरः सपुत्रपशुधा- मुत्तूण गेह तु सपुत्तदारो, म्धयो गृहे नास्ति किं तु देशान्तर प्रोषितः तदा देशान्तर
वाणिजमातिजति कारणेहिं । स्थितोऽपि स एव तत्र शय्यातरो नान्य इति नियुक्तिगाथासमासार्थः।
सयं च अयं च वएज देस, अथैनामेव विवरीपुराह
सेखातरो तत्थ स एव होति ।। २६६ ।।
मुक्त्वा-परित्यज्य गेहं साधूनामयित्वेत्यर्थः, सपुमदार निग्गमगाइ, वहिडिर, अंतोखेत्तस्स वजए सव्यं ।
शय्यातरो वाणिज्यादिभिः कारणयदि स्वकमन्यं वा देश बाहिं तद्दिणणीए, सेसेसु पसंगदोसेण ।। २६२॥
व्रजति तत्रापि स एव शय्यातरा भवति न पुनरदेशान्तरशय्यातरो वाणिज्येन देशान्तरं गन्तुकामा निर्गमकः, स्थितस्य शय्यातरत्वमपगच्छतीति । गतं वणिग्द्वारम् ।
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सागारिfपंड
( ६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
घटाद्वारमाह-
महतर अणुमहतरए, ललियास कडुयदंडपतिए य । एतेहि परिग्गहिया, होंति पडा तो तदा काले ॥ २६७॥ महत्तरोऽणुमहत्तरको ललितासनिकः कटुको दण्डपतिकखेति एते पञ्चभिः परिगृहीतांस्तदा पूर्वकाले गोठ्यो भ यति भूरित्यर्थः ।
अयामूनेव महनरादीन् व्यास्यानयतिसव्वत्थ पुच्छणिओ, महत्तरो जिद्रुमासधुरे य । इयं तु अभिहिएऽणुमहचरतो पुरे वाति || २६८ ॥ सर्वत्र सर्वेषु गोष्ठिकाद्यमानेषु सर्वगोः पुरुषे
नीय यस्य च ज्येष्ठ महत्तरत्वमासीनानां धुरिव सरव थाप्यन्ते स महत्तरस्ततस्तस्मिन् मूलमहत्तरे असंनिहिते यस्तत्र सर्वैरपि प्रच्छनीयः धुरि च प्रथमं तिष्ठति, सः असुमहत्तरः । ( वृ० ) ( ललिश्राण' शब्दे षष्ठे भागे गता ललितासनवयता । )
तेषां महत्तरादीनां देवकुले सादिकं तस्य कथमनुखापनाविधेयेत्याह-उल्लोमाणुष्पबणा, अप्पभदोसा य एकत्र पढमं । चिट्ठादिगुणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं ||३०० || मद्दत्तरक्रममुञ्जय पथुलोमं व्यतिक्रमेानुनक रोति तदा मासलघु. प्रभुदोषाश्च निष्काशनादयो भवेयुः । श्रतः सर्वेऽप्येकतो मिलिताः प्रथममनुज्ञापनीयाः । अथ सर्वे मिलिता नावाप्यन्ते ततो ज्येष्ठमहत्तरस्य तदभावे यथाकर्म महत्तरादीनामनुष्ठापना विधेषा । अथ महत्तरादीनामेकोऽपि गृहे न प्राप्यते ततो यस्तेषामभ्यर्हितः प्राधूकस्तमवज्ञापयन्ति । एवंविधेन हि विधिना यदुपाश्रयस्य ग्रहणं तदेवानुज्ञापना विधिग्रहणम् । श्रमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह-
9
उड्रोम लड्डु यदि पम्म, तेसेकहि पिंडिए अगुवा । असही जिडादि व ज व समाया महत्तरं वा।। २०१ ॥ यदि महत्तरादिकमव्यत्यासेनानुज्ञापयति तदा मासलघु, तेनैकपरितानां मिलितानां पञ्चानामप्यनुज्ञापनक या अथ सर्वेऽप्येकतो मिलता खाधीनान प्रान् इत्यर्थः ततो दसरादेदे तु गत्या अनुज्ञापन विधेया यदिचा-यांप्रभृतीन् तत्र समखाधीनान् पश्यन्ति तावतेषा मनुपकुर्वन्ति महत्तरं वा एकमप्यनुज्ञापयन्ति अस्थ प्रमाणभूतया सर्वेषामनतिक्रमणीयत्यात् । तं घटाद्वारम्
व्रजद्वारमाह-
बाहिँ दोहणपाढग, दुदद्दीसवितकणवणीति ।
"
सम्म ण कप्पति, पंचयए उप्पारं वुच्छं ॥ ३०२ ॥ कस्यचिद्धि शय्यातरस्य संबन्धी ग्रामाद्वहिर्वा दोहनवा - को भवेत् तस्मिन् दुग्धदधिसस्तिक नवनीताच्यानि पञ्चकानि द्रव्याणि भवन्ति । एतत्पञ्चकमासने क्षेत्राभ्यन्तरे दीयमानं न कल्पते शय्यातरपिण्डत्वात् । अथैतानि दुग्धादीनि क्षेत्रस्योपरि बहिर्षसंन्ते ततस्तद्विषयं विमिदं वपामि ।
सागारिय पिंड
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिज्जतं मोचूणं, वारगभयादिवसए भवे गहणं । छिष्पं भती य कप्पति, असती य घरम्मि सो चेव । ३०३ । गोकुलानि दधिदुग्धाविपकं शय्यातर यीयते स व्यातरपिएडो भवति । अतस्तद् दुग्धादिमाया यदन्यत्तत्रैव गोकुले परिभुज्यते तन्न भवति शय्यातरपिण्डः, परं तदधि भद्रकान्त दोषपरिहारार्थनो गृह्यते यस्मिन् पुनविसे मृतकस्य गोपालस्य वारकस्तस्मिन् दुग्धादिकं शय्यातरस्थापश्यतो भवेत् न पश्यतः। तथा वृनाम गोपालकस्य दुग्धचतुर्थभागादिपरिभाषितादि च सदैव देवकी वृत्तिः तथा दिविभकं यद्-दुग्धादिकं तङ्गोपालसत्कमिति कृत्या कल्पते तु यदि शय्यातरी न पश्यति । तथा यदि साधूनां शय्यां समर्प्य शय्यातरःसपुत्रदारो वजिकायां मच्छेत् ततो पुढे अविद्यमानोऽपि स एव शय्यातरो भवति ।
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अथास्या एव विषमपदानि विवृणोतिबाहिरखे छिले, वारगदिवसे सती य छि य ।
सो वस सागरिपिण्डो, वज्जो पुरा दिड्डिमहादि ॥ २०४ ॥ सोरायोजनक्षेत्र विभागः शय्यातर हे न नीयते, गोपालकवारकदिवसे वा यः सर्वोऽपि गोपसत्कः प्रतिदिवस लभ्यो वा वृत्या किलो यो दुग्धचतुर्थभागादिरूपो विभागः स एष सर्वोऽपि सागारिकाविडो न भवति परं कप्रान्तदोषा दृष्टे सति मा भूत्तदिति शय्यातरस्य पश्यतःसोऽपि वर्जनीयः ।
अथ यदुक्त सूत्रे 'एगं तत्थ कप्पागं ठवइसा अवसेसे निविलेजा' तद्विभावयिषुराद्द
एगं ठवेंति विसए, दोसा पुरा भद्दिए य पंते य । खिस्साए वा भयं, विणासगरहं च पावंति ॥ ३०५ ॥ यद्यनेकेषु सध्यातरेषु इतरेस एकं सागारिकं स्थापयन्ति शेषाभिर्विशन्ति – उपभुते ततो भद्रकान्तविषया दोषा भवन्ति । भइको निर्विश्वमानय्यतरस्य निश्रवा तदीयभक्तपानमध्ये प्रक्षेपयति, मम गृहे तावदमी न गृह्णन्ति
तो मदीयमिदं भवद्भिः संयताय दातव्यमिति कृत्वा । यस्तु प्रान्तः स एक एव अस्थाप्यमानः प्रद्वेषं यायात् प्रद्विष्टअवसतेर्निष्काशनं कुर्यात्। निष्काशिताथ लेखापा दिभिर्विना लोकाद्वा गर्दामासादयन्ति कारणे पुनरेकमपि स्थापयन्तो निर्दोषाः ।
किथमित्याह
सहि वा विभणिया, एगट्ठ वि ताण निविसेमाणं । मदेउलमादीसुतु, दुक्खं खु विवजिडं बहुगा ॥ ३०६ ॥ 'वा' शब्दः उत्सर्गपदे तावन्न कल्पते एकः सागारिकः स्थापयितुम्, द्वितीयपदे तु कल्पते । अपिशब्दः पक्षान्तरस्य सूचनार्थः। ये भायाः साधुसमाचारीकोविदाः साधवो भणिताचार्या ! एकं रूपातरं स्थापयित्वा शेषाि विंशत मा सर्वानपि परिहरत, एवमुक्ता एक स्थापयित्वा शेषानिर्विशन्ति । अथवा –ग बहुजनसमूह गत्वा सासान्याद् देवकुलसभादौ स्थिताः अनुक्ता मध्येकं
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड स्थापयित्वा शेषानिर्विशन्ति । कुत इत्याह-'तुक्त्रं 'दु
अथ भाष्यतिस्तरः-- करं तत्र बहून् वर्जयितुम् ।
वाडगदेउलियाए, इच्छादंतम्मि गहणे तह चेव । गिएहति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जहरूई तेसि । णीसट्ठमणीसढे, गहणागहणे इमे दोसा ॥ ३०६॥ एकेऽत्थ परीमाणं, संतमसते य से दब्बे ॥ ३०७॥ । शय्यातरवाटकस्य मध्ये काचिद्देवकुलिका , तस्यां यद्वायद्वा-ते सर्वेऽपि शय्यातरा अनुग्रहार्थिनः ततो यथा ते- नमन्तरं तदर्थ वाटकवास्तव्या अगारिणः संखडी कुर्वन्ति । षां रुचिरुपजायते तथा वारके गृहन्ति, तत्र च एके उपस्कृ- तत्र च भिक्षाचरेभ्यो दातुं तेषामिच्छा समजनि, ततो वाटते अत्र परिमाणं ज्ञातव्यम् । किं परिमितायामुपस्क्रियते कवास्तव्यजने ददति दातुमुपस्थिते प्रहणं तथैव मन्तव्य उतापरिमितायामिति । तदपि द्रव्यं तस्य गृहे तत्र देशे वा यथा पूर्वसूत्रे अभिहितम् । तथा निसृष्टं नाम-यद्वल्यादिकं सद-विद्यमानं यदि पूर्वपरिणामेण द्रव्यमुपस्कुर्वन्ति तदा क. वानमन्तरस्य निवेदितम् । अनिसृष्टं तु तद्विपरीतं तयोल्पते अन्यथा भजनीयम् । एवं तस्य शय्यातरस्य द्रव्ये स- ग्रहणे अग्रहणे चामी वयमाणा दोषा भवन्तीति से-- म्यगुपयोगो दातव्यः। बृ०२ उ०।
प्रहगाथासमासार्थः। सागरिकपिण्डं गृह्णाति भुङ्क्ते च
अथैनामेव विवृणोति-- जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियपिंडं गिराहइ उप्पत्तिय वा वि धुवं च भोजं, गिण्हतं वा साइजइ ।। ४॥ जे भिक्खू वा भिक्खुणी तस्सेव मज्झम्मि उवागडस्स । वा सागारियपिंडं मुंजइ भुजंतं वा साइजइ ।। ४६॥
समस्सिते सागॉरचोलगम्मि, 'सागारिश्रो सेवातरो तस्स पिंडो ण भोत्तव्यो, जो वा ___ अमेहिँ सो चेव उ तस्स पिंडो॥३१ ।। भुंजति तस्स मासलहुँ।' नि० चू०२ उ०।
तस्यैव--सागारिकस्य वाटकस्य मध्ये वानमन्तरमुसागारिककुलमज्ञात्वाऽनुप्रविशति
विश्य भोज्यं-संखडिर्भवेत् , तश्चौत्पत्तिकं वा स्यात् ध्रुवं वा । जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियकुलं अजाणिय औत्पत्तिकं नाम-पर्वतिथिमन्तरेणाकस्मिकम् ध्रुवं तु पर्वतिअपुच्छिय अगवेसिय पुवामेव पिण्डवायपडियाए अणु- थिभावि । अथ नवम्यां दशम्यां वा तत्रान्यैश्चोखकः सम पविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ ॥४८॥ जे भिक्खू
मपि श्रितो यः सागारिकश्चोलकस्तस्मिन् संखड्यां दीयमाने
स एव शय्यातरस्य पिण्डो भवति । वा भिक्खुणी वा सागारियणीसाए असणं वा पाणं
अस्य निवेदितस्य वा ग्रहणे तावदिमे दोषाः-- वा खाइमं वा साइमं वा अोभासिय जाइय जायंत वा
भद्दो तबीसाए, पंतो घेप्पति दणं भणइ। साइजइ ॥ ४६॥
अंतोघरे ण इच्छह, ऽहो गमणं दुधम्मो ति ॥३१॥ 'सागारिश्रो पुव्ववरिणो कुलं-कुलकुटुंबं भिक्खा
यः सागारिको भद्रकः स तन्निश्रया वानमन्तरनिवेदकालाश्रो पुवं-पुवदिटे पुच्छा अपुव्वगवेसणं तं साहु
नाव्याजेनान्यदप्यात्मीयमाहारजातं तत्र प्रक्षिपेत् । यस्तु समीवे अपुच्छिऊण पविसन्तस्स मासलघु । नि० चू०२ उ०।
प्रान्तः स तथा गृह्यमाणं दृष्ट्वा भणति-अन्तहे-गृहाभ्यन्तसागारिकपिण्डो बहिनिहतः संसृष्टः
रे दीयमानं तदीयं पिण्डं नेच्छथ, इह पुनरेवं दीयनो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारियपिंडं मानस्य ग्रहणं कुरुध्वम् , अहो दुष्टधाणो यूयमिति बहिया अनीहडं असंसर्ल्ड वा पडिगाहित्तए ॥ १४ ॥ नो तथैतद्दोषभयान गृहन्ति । कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा सागारियपिण्डं
ततः किं भवतीत्याह-- बहिया अनीहडं संसट्ठ पडिगहित्तए ॥ १५ ॥
तेसु अगिएहतेसु य, चिंता परिसाएँ से समुप्पेञ्जा। अथास्य ( सूत्रद्वयस्य १४-१५) सम्बन्धमाह-- को जाणइ किं एते, साहू घेत्तुं ण इच्छंते ।। २१२।। अंतो नूगाँ न कप्पइ, णिक्कासिओं कपई उ मा एवं ।
तेषु साधुषु तं शय्यातरभक्तं--निवेदनापिण्डमगृहमाणेषु पत्तेयविमिस्सं वा, पिंडे गेण्हेज तो सुतं ॥ ३०८॥
तस्याः संखडीकारिएयाः पर्षदि चिन्ता समुत्पधेत, यथा को
जानाति-को नामामुमर्थ सम्यग् वेत्ति किमेते साधव इदं नूनमन्तगृहाभ्यन्तरे पिण्डो न कल्पते , गृहाबहिर्निष्का
शय्यातरसत्कमाहारजातं ग्रहीतु नेच्छन्ति । शितस्तु कल्पते , एवं विचिन्त्य मा प्रत्येकं संसृष्टविमिश्रं वा संसृष्टं पिण्डं गृह्णीयात् । अत एतत्सूत्रमारभ्यते । वक्ष्य
नूणं सें जाणंति कुलं व गोतं, माणसूत्रद्वयस्याप्ययमव संबन्धो द्रष्टव्यः, अनेन संबन्धे
आगंतुओ सो य तहिं सॉगारो। नायातस्यास्य (सू०१४-१५) व्याख्या। नो कल्पते निग्रानां भृणग्घ सोयं च ततो घएब्बए, वा निग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्डं बहिर्वाटकादनिहतमनि
जं अम्ह इच्छंति ण सेज्ज दातुं ॥ २१३ ॥ एकाशितमसंसृष्टं वा अन्यदीयपिण्डैः सहामीलितं, संसृष्टम्
नूनं 'से' तस्य शय्यास्वामिनो जानन्त्यमी कुलं वा गोत्रं वा, अन्यदीयपिण्डैः संमीलितं प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः ।।
यथायं नीचकुलोत्पनो हीनगोत्रो वेति । स च सागारिकस्तत्र १- साइज' प्रास्वादने धातुः ।
प्रामादावागन्तुकः प्रतो न तदीयं कुलादि तत्र कोऽपि घेत्ति।
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गारपिंड
यद्वा ते गृहस्थाश्चिन्तयेयुः - भ्रषनो बालमारकोऽयं शुभं वा शुचि समाचरत्वा रूपमस्य नास्ति तत पत्र वद्रीयं प्रियड त्यत्या पक्ष्मी अस्माकं मर्दातुमिति न शय्यादातुः
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सम्बन्धि तत् ।
( ६२० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ततः सागारिक इत्थं चिन्तयेत् - भासियो हि स वासमज्झे, चंडालभृतो यतोऽहमेहिं । गृद्दे वि खिच्वंति असाधुधम्मा,
अतो परं किं च करेल अ ।। २१४ ॥ अपभ्राजितोऽहममीभिः भ्रमणकैः स्ववासमध्ये स्वकीयसहषासिजनमध्ये चण्डालभूतश्च कृतोऽहममीभिः मुण्डैः, गेहेऽपि च मदीयेनेत्यमी प्रसाधर्माः पितुम् अतः परं किंचान्यदपरं कुर्युः । यत्कर्तुं योग्यं तद्मीभिः कृतमिति भावः ।
ततश्च
राम्रो दिया सा वि निमसेजा, एगस्स गाण व सेजछेदं ।
श्रद्धा सिंर्ति व अलंभे जंतु, पावे
वा विगिरहमाणो ।। ३१५ ॥ रात्री दिवा वा साधून् प्रतिश्रयानिष्काश्येत्, एकस्य वा त स्यैव गच्छस्य अनेकेषां वा बहूनां गच्छानां शय्यादानस्य व्यकुर्यात्। ततोऽपनि वहमाना निर्गतो यासा स्तरीय समिलभमाना यत् परितापनादिकं प्राप्नुयुः ततस्ते यावरचोकमानाः परपरितापनादि प्राप्नुय तितेषां प्रायश्वितमिति भा पिण्डविषयशेष उक्तः ।
अथ संसृष्टपिण्डविषयानादससस्स महणे, तदियं दोसा इसे पसति । तीसा अभिसं संखडिकाराव होजा ॥३१५॥ यद्यदीयोः सं सागारिकपिएर्ड मुहन्ति तदा ततेोषाः प्रजन्ति । तविया यद्यन्यडिससूमयोऽमीयां कल्पते तत कृत्वा भूष दापयिष्यामीत्यालम्बनेन वाटक वास्तव्य, जनैरभीक्ष्णं संखडीकारापर्यं भवेत् ।
अल म्ह पिंडेय इमे अजा !,
मुंजे आयेति जहा स इत्थ सा वि नेच्छति इमस्स दोसा,
अम्बे विवखे को कि एसो ।। ३१७ || अथ भूयो यचैव सागारिका अत्र पिण्डमानयतीत्येवमर्थ साधवो गृहस्थान् बुधते-आर्य ! अलमस्माकमनेन संसृष्टपिएडेनेति, ततस्ते ऋगारिश्चिन्तयेयुः - अस्य सागारिकस्य दोषाः, यदि साथषोऽ पिएवं नेच्छन्ति ततो वयमपि दा नग्रहणादिव्यवहारमनेन सह वर्जयामः। यतो न कोऽप्येष विशेषतो ज्ञायते आगन्तुकत्वात् । अमम्मगामी फिलचोऽवाऽयं बोदी व हुआ सि सुखादिया वा ।
दोसा बहू तेय जहिं सगारा,
पिंड गए तत्थ उ णाभिवच्छे || ३१८ ॥
अथवा यो सम्यगामी कीचो वा नपुंसको या भविष्यति वो. न्दी - कामादिपालना 'से' तस्य शय्यातरपिण्डस्य शुनकादिना कृता भवेत् एवमादयो बहवो दोषा यतो भवन्ति तेन यत्र संखडीकरणे सागारिकः स्वकीयं पिण्डं नयति तत्र प्रथमत एव नेवाभिगच्छेत् ।
,
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बहिर्निर्गतः खागारिकप बहिनिहंतोसठःजो कप्पर निग्धा वा निधीयं वा सामारियपि - एडं बहिमा नीहडं श्रसंसङ्कं पडिग्गाहित्तए ।। १६ ।। कors निम्गंधाणं वा निग्गंधी या सागारिवपिंडं वहिया नहर्ड संस पडिग्गाहित्तए ।। १७ ।।
अस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं सागारिकपिण्डो वाटका - द्वदिनिष्काशितोऽसृष्टोऽन्यपिरांडेन सममसंमीलितो न कल्पते, ते
अथ भाष्यम्
दोसा न हु चैव मोतु संसट्टे ।
"
बहिया उ असं समशुभायं पच्छ सागारियो मा वा ॥ २१६ ॥ खागारिकवाटकाद्वहिर्मिकाशिते असं हाते एव पूर्वसूत्रीका भद्रकान्तदोषाः परं मुयात दोषा न भवन्तीति भावः । अत एव यद्वाटकाद्वहिर्निष्काशितं तदत्र सूत्रे अनुज्ञातम्, सागारिकः पश्यतु वा मा वा इदं पुरस्ताद्वयलीकरिष्यते ।
सागारिuपिंड
समसंसो, विय पिंडो किमु परेहि ँ संसट्टो | अप्पत्तियपरिहारी, सॉगारदि परिहरति ॥ ३२० ॥ निस्सृष्टो नाम - बहिर्निष्काश्य वानमन्तरस्य निवेदितः, यस्य वा याचकादेरर्थाय निष्काशितस्तस्मै प्रदत्तः, स यचप्यन्यैश्रोश र संस्था पनि सागारिक किं पुनः परैरन्यैश्वोल्लकैः ः समं संसृष्टः स सुतरां सागारिकपिण्डो न भवतीत्यर्थः । परम् अनीतिक परिहारिणः सन्तः सागारिकदृष्टं परिहरन्ति ।
इदमेव सापवादमाह
"
अहिस्स उ गहणं असती तन्यखिते दिट्ठस्स । दिट्ठे विपत्थिया, महणं अतो व वाहिं वा ।। ३२१ ॥ प्रथमं सागारिकेव सकुटुम्बेनादृष्टस्य ततोऽधि-संस्तरणाभावे तद्वर्जिते तमेक सागारिकं वर्जयित्वा शेषकुटुम्बेन दृष्टस्य संसृष्टस्य पिंडस्य ग्रहणमनुज्ञातम् । अथ ते साधवो प्रामान्तरं प्रस्थितास्ततः सागारिकेणापि दृष्टस्य संसृष्टस्य वा तस्यान्तर्बहिर्वा सर्वत्र ग्रहणमनुज्ञातम् । पुनाभावेन भद्रकान्तदोषाणामभावात् ।
पाहुया या माहिं पेस्तुमसंसइयं च वति ।
तो वा उभयं पी, तत्थ पसंगादयो गरिथ ।। ३२२ ।। अथवा प्राघूर्णकाः साधवः केचित्तत्र समायाताः, ते च प्रातीत्यतो गन्तुकामा वाटकाद्वहिर्निष्कासितं
3
२- निष्काशित इति दन्त्यान्त्योऽपि धातुः ।
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड निस्षमसंसएमपि गृहीत्वा समुद्दिश्य च प्रजस्ति, तदभाव | कालेन च । द्वितीये कारापणे त एव चत्वारो गुरवस्तपोगुअन्तर्वाटकाभ्यन्तरे वर्तमानमुभयमपि प्रापूर्णकाः साध- रुकाः , तृतीये अनुमोदनालक्षणस्थाने त एव चतुर्गुरुकाः चो गृह्णन्ति । प्रथम संसृष्टं तदप्राप्तौ च असंसृष्टमपीत्यर्थः । कालगुरवो भवन्ति । कुन इत्याह-तथैवंविधे प्राघूमकानां प्रहणे प्रसङ्गादयो दोषाः
किंच-- भद्रकमान्तकृताः पुनर्ग्रहणाभावान्न सन्ति । तन्निधया भूयः अम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा, संखडीकारापणम् आदिशम्दात् निष्काशनादिपरिग्रहः ।
तं केण उत्ते कहिते जतीहिं । अथ 'संसटमणुनायं' इत्यादिपदानां भावार्थ गाथात्रयेणाह
ते चेव तोयादिपवत्तणेया , जो उ महाजणपिंडे-ण मेलितो बाहि सागारियपिंडो ।
असिट्टतेणेव असंखडादी ॥३२६ ॥ तस्स तहिं अपभुत्ता,ण होति दिढे वि अवियत्तं।।३२३।। अस्मदीयं तदिदं द्रव्यं किमर्थ केनान्यत्र प्रक्षिप्तम् , इत्थं जं पुण तेसि चिय भा-यणेसु अविमिस्सियं भवे दव्वं । संडिकारिभिः साक्षेपमुक्को रक्षपालो ब्रवीति-यतिभिरिदतं दिस्समाणगहियं, करेज अप्पत्तियं पहुणो ॥३२४॥
मेकत्र मीलितम् , एवं कथिते सति त एव स्पर्शादय उदकजं पुण तेण अदिद्वे, दुधाय गहणं तु होति संसटे ।
स्पर्शनभण्डनादयो दोषाः । अथ ते भद्रकास्ततः साधु
हस्तेन पवित्रीभूतमिदमिति मत्वा प्रवर्त्तनं कुर्युः । अ. तहियं ताणि कहेजा,ण याविण य ायरो तत्थ।।३२॥
थासौ रक्षालो न कथयति ततोऽशब्दे-अकथिते तेनैयस्तु सागारिकपिण्डो महाजनपिण्डेन सह वाटकाद् बहि
व रक्षपालेन सम संखडं कुर्युः । श्रादिशब्दाद् वधो वा ब. मीलितः स साधूनां कल्पते। कुत इत्याह-तस्य सागा- न्धं वा ते तस्य कुर्वन्ति । यत एते दोषाः ततो नासंसृ. रिकस्य तत्राप्रभुत्वात् , महाजनस्यैव च प्रभुत्वात् । दृष्टेऽपि एं कर्तव्य कारयितव्यं क्रियमाणमनुमोदयितव्यं चेति । सागारिकस्य नाप्रीतिकं भवति । यत्पुनद्रव्यं तेषामेव
अथ द्वितीयपदमाहशय्यातरमानुषाणां भाजनेविति मिश्रितमसंसृष्टं भवति
अद्धाणणिग्गयादी, पविसंता वावि अहव ओमम्मि । तत् दृश्यमानं गृही संस्थापयेदिति भावः। यद्वा-साधुभिरिदं पवित्रीकृतमिति मत्वा भद्रकास्तस्यानादेः स्वगृहे
अणुमोदरपकारावण, पभुणिक्खंतस्स वा करणं ।३३०॥ स्थापनं कुर्युः। अथ ते प्रान्ताः ततो घातं वा बन्धं वा कु
श्रध्वनो निर्गताः श्रादिशब्दाद-अशिवादिनिर्गताः, श्रध्वनि पिताः सन्तः संयतानां कुर्युः । एते तावत् स्वयंकरणे दोषा
वा प्रविशन्तः,अथवा-श्रवमौदर्ये वर्तमानाः संसृष्टं पिण्ड कु. अभिहिताः।
र्वतः अनुमोदन ततः कायपणमपि प्रतिसेवन्ते । यो वा प्रअथ स्वयं संसृष्ट कर्तुमसमर्थाः अन्यैः कारयन्ति, यो वा
भुर्बलवान् राजगणसम्मतो वा निष्क्रान्त:--प्रतिपनदीक्षि. कोऽप्यन्यत्प्रक्षिपति तमनुमोदग्रन्ति तत इमे दोषाः
तस्ततः स्वयमपि करणं भवतीति संग्रहगाथासमासार्थः । कारावणमन्नेहिं, अणुमोदणउग्गमादिणो दोसा ।।
अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते-साधवो विप्रकृष्टादध्वनो नि
गतास्तं वा प्रविशन्तोऽयमौदर्ये वा अन्यत्र पर्याप्तमलभमादुविहे वतिकमम्मि, पायच्छित्तं भवे तिविहं ।।३२६॥
नास्तत्सागारिकसत्कं द्रव्यं स्निग्धं शरीरोपष्टम्भकं मत्था अन्यैः कारापण कुर्वतो वा अनुमोदने ऊष्मादयो दोषा
प्रथमं तावदन्यं संसृथं कुर्वन्तमनुमोदयन्ति । अथान्यः सं. भवन्ति, ऊष्मा नाम-तेनात्युषणद्रव्येण तस्य रागिणो हस्ता
सृष्टं कुर्वन्न प्राप्यते ततः कारयेयुरपि। दौ परितापः । श्रादिशब्दावदि द्रव्यमसौ तत्र प्रक्षिपति स
कथमित्याहतेन सहासंखडे कुर्यात् , तस्मात् मदीयं स्पृशत्येवमादयो
पुराण सागं च महसर वा , दोषाः । अत्र च द्विविधे व्यतिक्रमे लौकिकलोकोत्तरिकम
अन्न व गाहेति तहिं च वोहूं। र्यादातिक्रमरूपे प्रायश्चित्तं त्रिविधं भवति । तथैकं स्वयं
सागारियो वा वि विगोवितो जो, करणे, द्वितीयं कारापणे, तृतीयमनुमताविति । इदमेवोत्तरार्द्ध व्याचष्टे
सपिंडमासु तु संदधाति ॥ ३३१ ॥ लोउत्तरं च मेरं, अतिचरई लोइयं च मेलेत्ता ।
पुराण-पश्चात्कृतं, तदप्राप्तौ प्रतिपत्राणुव्रतं धावकं , तद
भावे यस्तत्र महत्तरस्तमन्यं वा प्रमाणभूतं तत्रान्यपिण्डेषु अहवा सयं परेहि य,दुविहा उ वतिक्कमो होति।।३२७॥ सागारिकपिएडं प्रक्षेप्तुं ग्राहयन्ति-प्रज्ञापयन्तीत्यर्थः । यो पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि गुरुगा तवेण कालेणं । वा सागारिको विकोविदो--विशेषेण साधुसमाचारीकुवितियम्मि य तव गुरुगा,कालगुरू होंति ततियम्मि३२८
शलस्स स्वकीय पिण्डमन्येषु संदधाति-मिश्रयतीत्यादि ।
संमिस्सियं वाऽवि अमिस्सिय वा , सागारिकचोलकमितरेषां चोल्लकैः समं मीलयन् लोकोसरिकी मर्यादाम् “न कल्पते सागारिकपिण्डोऽसंसृष्टः
गिण्हंति गीता इतरे विमिस्सं । कमिति भगवदालक्षणां" लौकिकी च न मीलनीया अस्मा
कारेंतदिटुं च अगोवितेसु , कंचोल्लका इत्येवरूपा मर्यादामतिचरति-अतिक्रामतीत्य
दिटुं व तप्पच्चयकारि गीता ॥ ३३२॥ र्थः । अथवा-स्वयं करणं परैश्च क्रियमाणस्य स्वादनमित्यवं यदि सर्वेऽपि गौतार्थाः ततः सम्मिश्रितं सागारिकपिद्विविधो व्यतिक्रमो भवति तत्र प्रथमस्थाने स्वयंकरणलक्ष- एडं गृह्णन्ति नाससृष्टम् । अथवा-संसृष्टं न प्राप्यते णे चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यामपि गुरुकाः, तद्यथा-तपसा- चिकोविदाश्च गीतार्थास्तत्र न सन्ति ततोऽरष्ट-यथा
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(६२२) सागारिवपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड ते न पश्यन्ति तथा पुराणादिना संसृष्टं कारयन्ति । धम्-श्रतिशायि द्रव्यमुपस्कृतम्।कुलपुत्रस्य च भगिनी त त्रैव अथाहटे कार्यमाणे तेवामप्रत्यय उत्पद्यते, यतः सागा- ग्रामे परिणीता तदर्थ स्वकीयभार्याहस्ते घृतपूरादिकं प्रेषयरिकपिण्ड एवासंसृष्ट श्रानीतः ततस्तत्प्रत्ययकारिणो गी- ति. सा च भगिनी तदानीं मृत्तिकालिप्तहस्ता ततस्ता भ्रातार्थास्तैदृष्टमपि संसृष्टं कारयन्ति ।
तृजायां ब्रवीति स्थापय त्वमिदममुकत्र प्रदेशऽहमिदानीमक्षअथ 'पभुनिक्खंतस्स वा करण' मिति पदं व्याख्याति- णिका तिष्ठामीति । सा चाहृतिका चतुर्धा. तद्यथा-द्रव्या
हृतिका क्षेत्राहृतिका कालाहृतिका भावाहृतिका चेति । जो उजिनो आसि य भूतपुत्वं,
अथैनामेघ नियुक्तिगाथां विवरीषुराह___ तप्पक्खिो रायगणच्छिो वा । सीरियो पक्खिवती इमं तु ,
आएसट्टविसेसे, सति काले भगिणि संभरिता णं ।
भजि भजाहत्थे, कुलो पेसेति भगिणीए ॥३३६ ॥ वोत्तूम किं अच्छइ एस वीसुं ॥३३३॥ यस्ता ग्रामे पूर्वमूर्जितो-बलवान् प्रभुर्वाऽधिपतिरासीत् , ।
श्रादेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ घृसपू(र)पलपनश्रीप्रभृतः खाद्यक
द्रष्यस्य विशेष संजाते काले-भोजनदेशकाले भगिनी स्वसारं तत्याक्षिको वा-तस्य हितैषी राजगणान्वितो वा राजसंमतो मादिगणसम्मतो वा श्रासीत् ; एवंविधोऽपि यः
स्मृत्वा भार्याहस्तैर्जिका प्राघूर्णकं कुलजः-कुलपुत्रको भगि
नीनिमित्तं प्रेषयति, एषा श्राहृतिकोच्यते । अस्यां च चत्वारो सवीर्यः-शाहमान भाजनभेदादयो दोषास्तस्य न भवन्तीति माया, स एनं सागारिकपिण्डमन्यपिण्डेषु प्रक्षिपति । पर
भङ्गास्तद्यथा-द्रब्यतः प्रतिगृहीता न भावतः, भावतः प्र
तिगृहीता न द्रव्यतः, द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता, मिदं वचनमेवमुक्त्वा, यथा किमेष पृथक् प्रथक तिष्ठतीति ।
नापि द्रव्यती नापि भावतः प्रतिगृहीता। सागारिकपिण्डाहृतिकासूत्रम्
श्रथ यथाक्रमं भावनामाहसागारियस्स आहडिया सागारिएणं पडिग्गाहित्ता त
उच्छंगे अणिच्छाए, ठविया दव्यगहिताण पुण भावे । म्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गहेत्तए ॥ १६ ॥
एत्थ पुण भद्दपंता, अवियनं चव घेप्पते ॥ ३३७ ।। सागारियस्स आहडिया सागारिएणं अपडिग्गहित्ता,
वाचारमट्टियऽसुई, लित्ते हत्थे उ विइयो भंगो। तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गहेत्तए ॥ २० ॥
दोसु वि गहिए तइओ, चउत्थभंगे उ पडिसेहो ।।३३८॥ अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह
यदर्थ सा भर्जिका प्रेषिता सा भगिनी तत्रान्तरमपि कनीहडसॉगारिपिंड-स्स विवक्खो आइडो अहउ जोगो।।
नापि कारणेन च रुपा सती भ्रातृजायया समय॑माणामर्पितां बीहडसुत्ते पुणरवि,जोगो संसट्टो णाम ।। ३३४ ॥ न गृह्णाति , ततस्तया तदुत्सङ्के अनिच्छयापि सा भ'मीहडं'नाम-पूर्वसूत्रे निहतः सागारिकपिण्ड उक्नः, इह तु
र्जिका स्थापिता, एषा द्रव्यतः प्रतिगृहीता न पुनभावतः तद्विषक्षे चाहत उच्यते-अथैष प्रस्तुतसूत्रस्य योगः-संब
इयं च शय्यातरपिराडो न भवति, भावतोऽत्र अगृहीतन्धः, तथा इतः सत्रादनन्तरं पुनरपि निहतसूत्रं भविष्यति,
त्वात् . परमत्र भद्रकमान्तदोषा भवन्ति । भद्रकस्तन्निश्रया प्रततोऽयं सूत्रत्रयस्य संबन्धः संदंशको नाम मन्तव्यः ।
क्षेप, प्रान्तस्तु निष्काशनं वसतिव्यवच्छेदादि कुर्यादिति भाकिमुक्नं भवति-श्राइडो निर्दृतस्तत्र अवसाने भूयोऽपि निह.
धः । अप्रीतिकं चैवं गृह्यमाणे भवति, किमेष मदीयः पिण्डो न तसूत्रम् । एष ईशः संबन्धः संदशः पूर्वापरसूत्रद्वयेन संदंश
भवति येनैवं मम इदं गृह्णन्ति । तथा सा भगिनी यदा ककेन च गृहीतत्वात् संदंशक इत्यभिधीयते । अनेन बध्यमाण
मपि दलनपेषणादिव्यापारं कुर्वाणा मृत्तिकया वा श्रसूत्रस्याप्यत्रैव संबन्धोऽभिहित इत्यनेन संबन्धेन आयात
शुच्या वा लिप्तहस्ता भवति , तदा ब्रवीति स्थापय त्वस्यास्य (१६-२०) व्याख्या-पाहतिका प्राहरणकं सागारिकस्य
ममुकत्र प्रदेश पषा भावतः प्रतिगृहीता, न द्रव्यत इति द्विगृहे कुतोऽपि.गृहाम्तरादागता.सा च सागारिकेण प्रतिगृही
तीयो भङ्गः । तृतीये तु भड़े द्वाभ्यामपि द्रव्यभावाभ्यां प्रतिता-स्वीकृता । ततस्तस्या मध्याद दद्यात् नो से तस्य साधोः
गृहीता। चतुर्थभङ्ग द्वाभ्यामपि द्रव्यभावाभ्यां प्रतिषेधः। किकल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥१६॥ सागारिकस्याहृतिस्सागारिकेणा
मुक्तं भवति-सा भगिनी रुष्टा सती बलादर्प्यमाणामपि तां प्रतिगृहीता न स्वीकृता तस्या मध्याद्दद्यादेवं 'से' तस्य
भर्जिको हस्ताभ्यामपि न स्पृशतीति । सा चाहृतिका द्रव्य. कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्र (२०) संक्षेपार्थः ।
क्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधा । पुनरे कैका द्विविधा-छिन्ना,
अच्छिन्ना च। सांप्रतं नियुक्निविस्तरः
अर्थता एघ भावयतिमाहडिया उ अभिधरा,कुलपुत्तगभगिणिमट्टिगालित्ते ।।
संकप्पियं च दव्वं, दिट्ठा खेत्तेण कालतो छिन्नं । दब्बे खत्ते काले, भावम्मि य होइ आहडिया ॥३३।। दोसु उ पसंगदोसा, सागारिऍ भावतो दुबिहो ॥३३६।। अभिशब्दः पृथगर्थवाचकः ततश्चाभिगृहादपरस्माद्वेश्म- यद् द्रव्यं संकल्पितं यथा अमुकं घृतपूरादिकं तत्र गृहे नेततो यदि शिष्टं खाद्यकद्रव्यमागतं सा श्राहृतिका भण्य- व्यम् , वाशब्दस्यानुक्नप्रकारान्तरद्योतकत्वात्तत्र गृहे यतनार्थ ते । सा चैवं संभवति-कश्चित् कुलपुत्रकः क्वचिद् ग्रामे प | पृथक स्थापितं तदुभयमपि द्रव्यतश्छिन्नम् । या पुनराहतिका रिवसति । तस्य चान्यदा प्राघूरार्णकः समायातः,तदर्थ विधि स्वगृहमानीयमाना सागारिकेन दृष्टा सा क्षेत्रतश्छिन्ना । तथा
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड अमुकस्यां वेलायां नेत्तव्यमिति निर्दिषं द्रव्यं कालातश्छिन्नम्।। केचिदाचार्या निक्षेपचतुष्कस्य द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भाउपलक्षणमिदं तेन मेष्यामीति तत्र भावो निवृत्तस्तद्रावच्छि वत इत्यादिलक्षण भनचतुष्टयस्य द्विकं प्रथमचतुर्थमनपम् । अच्छिन्ना स्वाहतिका चतुर्धाप्येतद्विपरीता। तथा द्वयमाश्रित्य इदं सूत्रप्रवृत्तमित्येवंविधमवजानतोऽपि तद्वयोर्भङ्गयोः-द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः, नापि द्रव्यतो दर्थ केचिदगीतार्थानां संमोहं कृस्वा लोभात् ब्रुवते कनापि भावतः प्रतिगृहीतेत्येवंलक्षणयोर्न सागारिकपिण्डः, ल्पते सागारिकेणापरिगृहीता अाहतिका । परं प्रसादोषान्न गृह्यते । 'भावो' त्ति भावतः प्रतिगृहीता
इदमेव स्पथ्यतिन द्रव्यत इत्येवंरूपो यो भङ्गः, पश्चाद् द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता इत्येवलक्षणो द्विविधः प्रतिगृहीतो भगः--
जं पाहडं होइ परस्स हत्थे, पतयोः सागारिकपिण्ड इति कृत्वा न कल्पते ।
जंनीहडं वावि परस्स दिन । अथैनामेव नियुक्तिगाथां व्याचष्टे
तं सुत्तछंदेण वयंति केई, संकप्पियं वा अहवेगपासे,
कप्पं ण मे सुत्तमसुत्तमेवं ।। ४४१ ।। ___ सागारिदिढ अमुगं तु बेलं ।
यदाहृतं प्राघूर्णकं शय्यातरगृहमानीय परस्य हस्ते भवति, नियभावेन मुगं अदिङ,
एतेन प्रस्तुतमेव सूत्रं गृहीतं सागारिकगृहानिष्काशितं पकाले न निइसे अछिन्नभावे ॥ ३४०॥ । रस्य दत्तम् । अनेन वषयमाणसषमुपात्तम् । तदेयंविधं द्रव्यं यत् घृतपूरादि तत्र गृहे नयनाय संकल्पितम् । अथवा- सूत्रच्छन्देन-सूत्राभिप्रायेण कल्प्यं-कल्पनीयं न-नैव, चेयदेकपाचे विष्वक स्थापितं तदेतत् द्रव्यतश्छिन्नम् । सागा
द्यदि श्राचार्य एवमस्मदुकं मन्यसे ततः सूत्रमसूत्रमेव प्रारिकेण स्वगृहमानीयमानं यत् दृष्टं तत् क्षेत्रतश्छिन्नम्। अ- मोति अप्रमाणामित्यर्थः, एवं केचिदाचार्यदेशीया पदन्ति । मुकस्यां मध्याह्नादिलक्षणायां वेलायां नेतव्यमिति निर्दिष्टं
अत्र सूरिः प्रतिवचनमाहकालतश्छिन्नम्। यत्र न तेषामिति भावो निवृत्तस्तश्रावत
सुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, शिव व्याख्यातम् । अथाच्छिन्नं व्याख्याति-'अमुगं' इत्या.
ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाति । कि, यद् द्रव्यममुकं नेतव्यमिति न संकल्पितं न वा पृथक स्थापितं तद् द्रव्यतोऽच्चिनम् । या वाऽऽहतिका सागा
अत्थो जहा पस्सति भूतमत्थं , रिकेश नीयमाना ना तत्क्षेत्रतोऽच्छिन्नम् । काले अ- तं सुत्तकारीहि तहा णिबद्धं ॥३४२।। छिन्नं यत् प्रतिनियतायां बेलायां निर्देशो नास्ति । भावे -
यदि ते तव सूत्र प्रमाणत्वेनेएमनुमतं' तत इदमप्यधिछिर्ष तु यदद्यापि मेण्यामीति भावः अव्यवच्छितो न नि
मी निमीत्य विचारयन्तु देवानांप्रियाः सूत्र तावदर्थ-व्याबते इस्पर्कः
स्यानमतिरिव्य न याति-न प्रवर्तते,तावदुच्यते इत्यर्थः। एष अथात्रैव ग्रहणविधिमाह
पथार्थो नियुक्तिभाष्याविरूपो यथा-येन प्रकारेण भूतं-सभावो जावन विभइ,विपरिमतो गणहमो ति खत्तं तु ।
ब्रूतमर्थमभिधेयं पश्यति, सूत्रकारिभिरपि गणधरस्थविरैः खेत्ते विहोति गह,अदिढे वि विप्परिखतम्मि॥३४१।।
सूत्रं तथा-तेनैवाभिप्रायेण निबद्धमवसातव्यम् । भावो चापवद्यापि न व्यवच्छिद्यते, ताबन करूपते, यदा तु
अमुमेवार्थ दृढयतिन नेण्यामीति भायो विपरिसतो व्यवच्छिन्नस्तदा क्षेत्रच्छिअंतुन कल्पते इति भावः । अथैतदेव भावयति- खते वि'
छाया जहा छायवतो णिबद्धा, इत्यादि क्षेत्रच्छिन्नस्यापि ग्रहणं भवति , यदि स तद् द्रव्यं . संपडिए जाति ठिते य ठाति । नयन्नपान्तराले न नेण्यामीति परिणतो भवति , तस्वसागा- अत्थो जहा गच्छति पज्जवेसु, रिकेणारष्टमरश्यमानं ग्रहीतव्यम् ।
सुतं पि अत्थाणुचरं तहेव ।। ३४३ ।। ततःपुरतो पसंगपंता, अवियत्तं चेव पुव्वभणियं तु ।
छाया प्रतीता सा यथा छायावतः पुरुषादेर्निबद्धा पर
तन्त्रा सती तस्मिन् संप्रस्थिते याति, स्थिते च तस्मिन् वितियततियाउ पिंडो, पहमचउत्था पसंगेहिं ॥३४२॥
साऽपि तिष्ठति , यथाऽत्रापि । पुरुषस्थानीयोऽर्थो येषु श्रथ सागारिकस्य पुरतो गृहन्ति ततो भद्रकः प्रसङ्ग त
भक्तकादिविषयेषु प्रकारेषु गच्छति । सूत्रमपि छायास्थानी. म्निश्रया तत्र प्रक्षेप, प्रान्तश्च निष्काशमादिकं कुर्यात् । अप्री
यं तस्यैवार्थस्यानुचरं सत्तथैव तेषु तेषु पर्यायेषु गच्छति । तिकं च पूर्वभणितं तस्य तथा पश्यतो गृखमाणे भवति, ततः
____ इदमेव स्पष्टतरमाहपुरतो न ग्रहीतव्यम् । तथा द्वितीयतृतीयौ भङ्गो शय्यातर
जं केणई इच्छइ पज्जवेण, पिण्ड इति कृत्वा परिहर्तव्यौ, प्रथमचतुर्थी तु शय्यातरपिण्डः परं प्रसङ्गदोषमयात्तावपि परिहर्सव्यौ।
अत्थेण सेसेहिउ पज्जवेहिं । अथाचार्यों विनेयवर्गव्युत्पादनार्थमाक्षेपपरिहारौ
विहीव सुत्ने तहि वारणा बि, निरूपयितुकाम इसमाह
उमेय इच्छति विकोवणड्डा ॥३४४॥ कप्पा अपरिग्गहिया, सिक्खेवे चउदुर्ग अजाणता।।
अर्थो--व्याख्यानविधिर्येन केनचित् पर्यायेण यत्सूत्रग्रहीजावंता वि व केई, संमोहं कातु खोभा वा ॥ ३४३॥ तुमिच्छति न शेपरपरैः पर्यायैस्तन स एव प्रमाणवितव्यो
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सारिपिंड
न शेषा इति वाक्यशेषः । यथेद्दैव सूत्रे यथा भावेन परिते तर यदि सामारिको न पश्यति ततः कल्पते प्रतिग्रहीतुं इय्यम् । पतेन पर्यायार्थम् आहात कामिच्छति न शेषैरपि परिणतक्षेत्रच्छिन्नतादिभिः पर्यायैः । एवमत्रापीप्सितेऽनीप्सिते व वस्तुनि सूत्रकारः कथं सूत्रं बध्नीयादित्याह -- विधिर्वा तत्र सूत्रे वक्तव्यः । यथावाहनिकासूत्रे द्वितीये मलायके वारणा वा प्रतिपेचः पथैवेह वधयन्धे झालायके उभर्थ वा विधिप्रतिषेधरूपं चित्रापि सूत्रे शिष्यमतिविकाशनायें सूरयति । यथा-"कप्पर निग्गथीं पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिग्गाद्दित्तये से विभिनो अभि" ॥ ५॥ ( (सूत्रस्यास्य व्याख्या 'पद' शब्दे पमनाने ७१४ अपि च-उस्सग्गओ व सुतं पमाणं,
गता ।)
( ६२४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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ण वाऽपमाणं कुसला वयंति । हि पंगुं वहते स वावि,
कइ दोहं पि हिताय पंथं ॥ ३४५ ॥ रात्र उत्सर्गतः - सामान्येन तं सूत्रं नै प्रमाणे न पा प्रमाणम्, किंतु-पूर्वापराविरुद्ध वृद्ध संप्रदायागतेनार्थेन युक्तं प्रमाणम्, अन्यथा पुनरप्रमाणमित्येवं कुशलास्तीर्थङ्करणधरा वदन्ति । तथाहि यथा किल कश्चिदन्धो देशान्तरं गन्तुमनाः स्वयं मार्गमपश्यन् पङ्कं गन्तुमशक्रं चक्षुष्मत्तया स्कन्धे चिन्यस्य वहति स चापि पयोध्यात्मनस्तस्य वा हिताय गर्त्तापाताद्युपपरगाव पन्थानं मार्ग कथयति यमनाप्रबोधितं सद्यस्थानीय सूत्रम्, यदि पानीयमर्थ मात्मन उपरि कृतं महति तदा सोऽप्यर्थः सूपनियागतान् सम्यग विषयविभागदर्शनतथा नित्यपार्थ मुक्तिमार्गमुपदि शति । इत्यतो ऽर्थसव्यापेक्षमेव सूत्रं प्रमाणमिति स्थितम् । अथ जाणता वि य केई, संमोहं कातु लोभा वा' इति पक्षाध्याय---
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अप्पया जे अविकोविया घा
ते मोहइत्ता इमिणा सुए ।
सिं पगासो वि तमंतमेति,
निसा विहंगेसु व सूरपादा || ३४६ || ये अल्पभुता अधीतवपना ये या अधिकविदा अगीतायस्तान् अनेन सूत्रे मोहयित्वा विज्ञानन्तोऽपि भवलतया सागारिकस्याहतिकापि प्रादयन्तीति वाक्यशेषः। तेषां चैव मोहितानां प्रकाशप्रस्तुतसूत्रार्थः कथ्यमानोऽपि तमस्तमायते प्रबलान्धकारतया परिणमते, यथा निशाविहगाउलूकाद्यास्तेषु सूर्यस्य पादाः- किरणाः प्रकाशरूपा अतिमहाधकारीभवन्ति । श्राह-यद्येवं ततः कल्पते सागारिकेणापरि गृहीता आहूतिकेति प्रस्तुतसूत्रं कथं नयते । अत्रोच्यते-
अह भावविपरिगए, अदि सुयं तु तम्मि उपउत्थे ।
हडिया पुर, छोभगमाइणो दोसा ॥ ३४७ ॥ यस्तमोहृतिकां प्रहिणोति - नयति वा तस्मिन् भावं स्वयमेव विपरिणते न प्रद्देष्यामि न नेष्यामीति वा विपरिणाम
सागारियfपंड मापने कल्पते । यद्वा-तेन तथा गच्छता श्रुतं यस्य सकाशमइमिदं नयामि स प्रोषितो प्रामान्तरं गतः ततस्तस्मिन् प्रोषि ते सति स नेता न नयामीति परिणतः, अत्रान्तरे साधवः समायाताः, ततः सागारिकेणादृष्टं कल्पते प्रतिग्रहीतुम् । अत्र सूत्रनिपातः तथा मात्रे भविष्य नितिकायां सागारिकस्य पुरतो गृह्यमाणायां संछोभकः प्रक्षेपक आदिशब्दा किशनराव्याव्यवच्छेदादयश्च दोषा भवन्ति श्रतः सागारिकस्य पुरतः सा न ग्रहीतव्या ।
अथ कथं स तत्राहृतिकानयने विपरिणमतीत्युच्यतेनी पिसे घेति धम्मो व जतीय होति दितस्स । बसोवास मंडलकम्मे व असा ॥३४८|| मया तत्र नीतमध्येतत् पृतपुगिस न प्रहीष्यति यद्वा-यतीनामेवंविधं द्रव्यं ददतो मम धर्मो महान् भवति । अथवा येषां समीपे तनीयते तेषां स्वजन मरण्धनहरशादिकं व्यसनं शोककारणमजनिष्ट, अभ्युदयी या कोडप्युत्सवविशेषस्तेषां वर्त्तते, भराडनं - वाक्कलह इदानीं महता भरेण वर्तते । कर्मणि कृष्यादौ ते श्रध (न्याः) नाः - अक्षणिकाः सन्ति ततो नीम नामी ग्रहीष्यन्ति ।
इति नावम्मि शियते, तेहि अदिस कप्पती गहणं । छेता दिग्गिते व, कप्पति गहणं जहिं सुतं ॥३४८|| इत्यनन्तरोक्कप्रकारेण भावे निवृत्ते सति येषां समीपे त नीयते तैः शय्यातरमानुषैरदृष्टस्य कल्पते प्रहणम् । यद्वा-क्षेत्रकालादौ निर्गतेषु ग्रहणं कल्पते, एवं यत्र सूत्रमवतरति स पप विषयस्तु इति ।
सागारियस नीहडिया परेस अप रिम्गहिता तुम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहत्तिए । २१ । सागारियस्स नीरडिया परेण पडिग्महिता तुम्हा दायर एवं से कप्पर पडिग्गहित्तए ||२२||
अस्य संवन्धस्य प्रागेवोत्वात् व्याख्याऽपि प्राग्वत् नवरं सामारिक यदन्यत्र नीयते सा निहृतिकेत्युच्यते। सा यस्य समीपे प्रेषिता तेन प्रतिगृहीता न कल्पते । अथ भाष्यविस्तरः
पडमचउत्थो पिंडो, पितियो उतियो व होति तु अपिंडो । पुरतो व विजेजा, मदमतेहि दोसेहिं ।। ३५० ।। निर्हृतिकायामपि द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावत इत्यादयश्चत्वारो भङ्गाः, नवरमत्र प्रथमचतुर्थी भङ्गौ शय्यातर पिण्डः, एकत्र भावतो परत्र तु दम्यतो भाव प्रतिगृहीतत्वात् । द्वितीयनीय महो न भवति शय्यातरपिण्डः खागारिकस्य पुरस्तादपि द्वितीयतृतीयही भद्रकान्तकमात् वर्जयेयुः । तत्र भइकस्तनि प्रक्षेपं कुर्यात्।
"
यस्तु प्रान्तकः स इदं ब्रूयात्Photo अभिप्पा - दिजमाणं पि खेच्छियं पुत्रि । अम्दे भावेंता, पुरओ वि य से पडिच्छति ॥ ३५१ ।। किं तं न होति अम्हं, खेत्तंतरियं व किंचि मम दोसं ।
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड सुव्वत्तसोत्तिगादि व,चरेंति जतिणो वि डंमेणं ॥३५२॥ लक्ष्यन्ते । ते एवं प्रज्ञापिताः सन्तः प्रतिपद्यन्ते, सूत्राशासमाकिमेवमिदानीमस्माकं सत्कं न भवति क्षेत्रान्तरमागतमिति
पातकतया अगीतार्थाः । कृत्या कल्पते. सदप्यसङ्गतम् , यत् क्षेत्रान्तरितमपि सदोषं
अथाहृतिकादिग्रहणसूत्रम्-- भवति , तदमी सुव्यकश्रोत्रिया इव-धिग्जातीया इव सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ अव्वोछिन्नाओ यतयोऽपि सन्तो दम्भेन चरन्ति । किमुक्तं भवति-धिग्जा- अब्बोगडाओ अनिज्जूढाओ तम्हा दावए , नो से तीयाश्च अशूद्रानवतमिति कृत्वा शूद्रगृहे न समुद्दिशन्ति
कप्पइ पडिग्गाहित्सए ॥ २३ ॥ सागारियस्स अंसियाओ परं तन्दुलादीनि गृह्णन्ति , तथा तेषामशूद्रानवतं दम्भः, पचममीषामपि शय्यातरपिण्डपरिहारादेव॑तं न भद्रकं
विभत्तानो वोच्छिन्नामो वोगडाओ निज्जूढाओ तम्हा लक्ष्यते ।
दावए, एयं से कप्पइ पडिग्गाहित्तए ।। २४॥ अथाहृतिका निहृतिका वा पापकारणेन गृह्यत इत्याह
अथास्य सम्बन्धमाह-- दविहे गेलामम्मि, णिमंतणा दबदल्लभे असिवे ।
छिन्नममत्तो कप्पति,अच्छिन्न ण कप्पति अह तु जोगे। प्रोमोदरिऍ पोसे, भए य गहणं अणुमायं ॥३५३ ।।
पत्तेग वा भणितो, इयाणि साहारणं भणिमो।। ३५८ ॥ अस्य व्याख्या प्राग्वत् । अत्र निमन्त्रणापद विशेषतो भावयति
श्राहृतिका निर्हतिका पिण्डवदंशिका पिराडोऽपि सागा.
रिकेण छिन्नममत्यो न ममायमिति न भावानिवर्तितः कल्पत गिब्बंधणिमंतंते, भणंति भजिंदलाहि जा एसा।
अच्छिन्नममत्वस्तु न कल्पते । अथैष योगः संबन्धः । यद्वातं पुण अविगीतेसुं, गीया इतरं पि गेहति ॥ ३५४ ॥ प्रत्येकमेककस्यैव सागारिकस्य सत्कं पिण्डमाश्रित्य विशय्यातरं महता निर्बन्धन निमन्त्रयमाण साधवो भण- धिर्भणितः , इदानीं तु सागारिकस्यान्येषां च साधारण पिन्ति,यत्ते चैषा भर्जिका प्रहेणका श्राहृतिका वा तां प्रयच्छ त- एडमधिकृत्य विधि भणामः, अनेन संबन्धेनायातस्यास्य पुनराहृतिकाया निर्दृतिकाया वा ग्रहणमगीतार्थाः कुर्वन्ति । (२३-२४)व्याख्या-सागारिकस्य या अंशिका तस्या अन्येषाये तु गीतार्थास्ते इतरमपि-सागारिकपिण्डमपि गृह्णन्ति । मंशिकाभ्योऽविभक्ताया अव्यवच्छिन्नाया अव्याकृताया अ. णेच्छंतमगीतं ते-णेच य सुत्तेण पत्तिए बेति । निगूढाया मध्यात्कश्चिद्भनपानं दद्यात्, नो 'से' तस्य साधोः सच्छंदेण ण भणिमो,फुडवियडमिण भणति सुत्तं ।३५५
कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥ सागारिकस्य अंशिकादिभक्कव्यव
च्छिन्ना व्याकृता निगूढा च यस्माद्राशेर्भवति तस्माद् दअथ गीतार्था आहृतिकां निहतिकां वा नेच्छन्ति ग्रहीतुं ततः
द्यात् एवं 'से' तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसंक्षेतेनैव सूत्रेण प्रत्यये त्रुवन्ति । अथ श्राचार्या वयं स्वच्छन्देन
पार्थः। स्वाभिप्रायेण न भणामः किं तु स्फुटविकटमतीव व्यक्ताक्षरमिदमेव सूत्रं मणति । यथा कल्पते सागारिणः प्रतिगृहीता
अथ नियुक्तिविस्तर:श्राहृतिका परेण च प्रतिगृहीता निहृतिकेति ।
सागारियस्स असिय, अविभत्ता खेत्तजं ततो जेसु । अपि च
खीरे मालाकारे, सॉगारदिट्ठ परिहरंति ।। ३५६ ।। जं तं जगप्पदीव-हि पणीयं सव्वभावपमवणं।
सागारिकस्यांशिका अविभक्का न कल्पते । सा च क्षेत्रे वा म कुणति सुतं पमाणं,ण सो पमाणं पवयणम्मि ।।३५६।।। भोज्येषु वा क्षीरे वा मालाकारे वा संभवति। अत्र सागारिकततः सकलत्रिलोकीप्रसिद्धं जगत्प्रदीपैर्भगवद्भिस्तीर्थकरैः दृष्टं सर्वत्रापि परिहरन्तीति नियुक्तिगाथासमासार्थः । प्रणीतं सर्वेषामुत्सर्गापवादनिश्चयव्यवहारादीनां भावप्रज्ञा
अथैनामेव विवरीषुः सूत्रस्य विषमपदानि तावद्विवृणोतिपना--प्ररूपणा । यत्तथाविधं श्रुतं यः कश्चित्प्रमाणं न करोति नासौ प्रवचने चतुर्वरागसङ्घमध्ये प्रमाणं भवति ।
असो ति व भागो तिव, एगटुं पुंज एव अविभत्तं। अमुमेवार्थमन्योक्तिभङ्गया दृढयति
कयभागो विरण सम्बो,विच्छिजति सा अवोच्छिना३६० जस्सेव पभावुम्मि-ल्लिता. तं चेव हयकतग्घाई ।
अंश इति वा भाग इति वा एकार्थपदौ अंश एवांशिका स्वार्थ कुमुदा अप्पसभा-वियाइँ चदं उवहसति ।। ३५७॥ । का प्रत्ययः। तत्र यावान् सागारिकादीनां साधारण बोलकैरयस्यैव प्रभावेणोन्मीलितानि-प्रबुद्धानि तमेव चन्द्र कुमु- पस्कृतः तावानचाप्यखण्डपुञ्ज एव । अथांशेन भागादि. दान्युपहसन्ति इति संटङ्कः । कथंभूतानीत्याह-हत कृतघ्नानि, विवक्षा कृता सा अंशिका-अविभक्त्युच्यते । यत्र सुभागा हतशब्दो निन्दावाचकः, कृतघ्नतया पापानीत्यर्थः । श्रात्मानं . परं मूलराशिकृतो भागोऽपि न सर्वो व्यवच्छिद्यते सा संभावयन्ति,वयमेव शोभनानि वामीत्यभिमन्यन्ते तच्छीला- व्यवच्छिन्ना। नि च यानि तान्यात्मसंभावितानि,एवंविधानि परमोपकारि.
अव्वमडाओ तुम्भे, ममं तु वा जा ण ताव णिदिसति । सामपि चन्द्रं वयमतीवावदातानि भर्वास्तु सकलकत्वान
तत्थेव अछग्मुमाणी, होति अणिच्छृहिया अंसा ।३६१॥ तथेति स्वकीयश्वेतप्रभापटलेनोपहसन्तीत्युच्यते । एवं मार्या भवन्तोऽपि यस्यैव प्रभावेणोम्मीलितविवेकलोचनाः सर्वेषामपि भागाः स्थापिताः परमेष भागस्तव एष पुनर्मसंजानाः तदेव श्रुतं सांप्रतमप्रमाणयन्तो इतना इव मेत्येव यत्र भागं न निर्दिशति सा अव्याकृताऽभिधीयते । या
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(६२६) सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड तु निर्दिा प्रसाद्यापि न ततोऽन्यत्र नीयते सा अंशिका,
मालाकारद्वारं प्रकारान्तरेणाऽऽहतत्रैव तिष्ठन्ती अनिगूढा भवति । एवंविधा न कल्पते प्र- श्रहवा वि मालकार-स्स अंसियं अविणयंति भोजेसु । तिग्रही तुमिति ।
सो य सॉगारो तेसिं, त पिण इच्छंति अविभत्त।।३६६।। अथ क्षेत्रद्वारं व्याचष्टे
अथवा-मालाकारस्य पुष्पावचयमादिभिर्यनिष्ठामंशिका सीताइजन्नो पहुगादि मा वा,
भोज्येषु शालिवाल्यादिषु यावत्तस्याभाव्यं तावम्मात्रमगारि
णः प्रागेवापनयति, स च मालाकारस्तेषां साधूनां सामारिजे कप्पणिजा जतिणो भवंति ।
कोऽतो यावदसौ मालाकारांशिका अविभक्ता तावत्तासालीफलादीण व विक्कयम्मि,
मपि प्रहीतुं नेच्छन्ति । पडेज तेल्लं लवणं गुलो वा ॥३६२॥
द्वितीयपदमाहसागारिकस्यान्ये पञ्च साधारण क्षेत्र सीताया-हलपद्वति- गेलनमाईसु उ कारणेसु, देवताया यज्ञः-पूजाभवेत् नत्र शाल्यादिद्रव्यं यदुपस्कृतं पृथु
मादिप्पसंमो ण य सब्वे गीता । कादयो वा ये तत्र क्षेत्रे ते यतीनां कल्पनीया भवन्ति । यद्वा
गिएहति पुंजा अवरेडियातो, तत्र शालीनां-कल्माषादीनां फलादीनां-चिर्भटादीनाम् , आदिशब्दात्-गोधूमादिप्रभृतीनां धान्यानां विक्रीयमाणानां
तस्सऽस्मतो वा वि विरेडियाभो ॥ ३६७ ॥ विक्रये तैलं वा लवणं गुडो वा पतेत् एषा सर्वाऽपि क्षेत्र
ग्लानत्यावमौदर्यादिषु कारणेषु संस्तरणाभावे मा प्रविषया सागारिका।
थमत एव शय्यातरपिण्डग्रहणे अतिप्रसको भवेदिति - अथांशिकायन्त्रद्वारमाह
स्वा न चैते सर्वेऽपि गीतार्था अतः प्रथममधिरकावन्यैः समं
साधारणान्पुखान् ततोऽन्यस्मादपि विरक्कात्तस्य सागारिजंते रसो गुलो वा, तेल्लं चक्कम्मि तेसु वा जं तु । कस्य सत्कान् पुखान् गृहन्ति । वृ०२ उ०। (चैत्यवक्तव्यता विकिजंते पडितं, पवत्तणंते य पगयं वा ॥३६३।। 'पूया' शब्दे पञ्चमभागे गता।) यन्त्रमपि सागारिकस्यान्यैः सह साधारणं स्यात् , तच
शय्यातरपिण्डस्तीर्थकृद्भिः प्रतिकुष्ट इति शय्यातरद्विधा इक्षुयन्त्रं तैलयन्त्रं च। तत्र च इक्षुयन्त्रे कोल्ले कांस्यरसौ
. पिण्डद्वारमाहगुडो वा भवेत् ,तिलयन्त्रं चक्रमुच्यते,तत्र तैलं तिलातसीस- तित्थंगरपडिकुट्ठो, प्राणाप्रमात उग्गमों ण सुज्झे। र्षपादीनां भवेत् । तैस्तदा रसदेषु विक्रीयमाणेषु यत् तन्दुल- भविमुत्ति अलापविता, दुल्लभसेजा विउच्छेदो ॥३०१॥ घृतवस्त्रादिकमापतति । अथवा-यन्त्रस्य प्रवर्तते प्रथमप्रा- श्राद्यन्तवमध्यमैर्विदेहजैश्च तीर्थकरैराधाकर्म कथंचित्कर्तुरम्भे अन्ते वा-परिसमाप्तौ यत्ते संभूय प्रकृत-प्रकरणं
मनुज्ञातम्.पुनः शय्यातरपिण्डस्तु स्तैरपि प्रतिष्ट इति कृत्या कुर्वन्ति एषा यन्त्रविषया अंशिका।
वर्जनीयोऽयम् श्राण'त्ति तं गृह्णता तीर्थकृतामाशा कृता नभअथ भोज्यक्षीरद्वारे व्याख्यानयति
वति 'श्रमाये' त्ति-यत्र स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृहता श्राशा तेषां गणगोट्ठिमादिभोजा, भोत्तुव्वरितं च तत्थ जे किंचि । सेविता न स्यात् , 'उग्गमा न सुज्झे' त्ति-श्रासनादिभावतः भातुगमादीण पत्रओ, अविभत्तं जं च गोवेणं ॥३६४॥
पुनः पुनस्तत्रैव भैक्षपानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषा
न शुद्धययुः स्वाध्यायश्रमणादिना च प्रीतःशय्यातरः क्षीरागणो-मल्लादिगणरूपः गोष्ठी-महत्तरादिपुरुषपञ्चकपरि
दिस्निग्धद्रव्यं ददाति। तच्च गृहतोऽविमुक्तिगाद्धर्याभावो गृहीता यज्ञः-यागः आदिशब्दाद-अन्यस्यापि महाजनस्य |
न कृतः स्यात् , शय्यातरतत्पुत्रभ्रातृबन्धुतादिभ्यो बृह्य करणं साधारणानि यानि भोज्यानि संखडयः,यद्वा-किंचित् मो
स्निग्धाहारं च गृह्णतः उपकरणशरीरयोर्लाघवं न स्यात् , दकप्रभृतिकं तत्र भुक्तोद्वरितं द्रव्यम् एषा भोज्यविषया सा
तत्रैव वाऽऽहारादि गृह्णतः शय्यातरवैमनस्यादिकरणात् शगारिकांऽशिका। तथा सागारिकसंबन्धिनां भ्रातृव्यादीनां
य्या दुर्लभा स्यात् , सर्वथा तद्वयवच्छदो वा स्यात् , ततस्त. पयो-दुग्धं यावदद्यापि सागारिकेण सहाविभक्कम् , यद्वा
त्पिण्डो वर्जनीयः। दुग्धं वृस्यच्छिन्नं सागारिकदुग्धमध्यादद्यापि गोपेनाविभ
अथ द्वितीयपदमाहकम् । एषा क्षीरविषया सागारिकांशिका । मालाकारद्वारमाह
दुविहे गेलणम्मि, निमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे । पुप्फपणिएण आरा-मिगाण पडियेण जाव उ विरिकं ।
ओमोदरियपत्रोसे, भए य गहणं अणुमातं ।। ३०२॥ पक्खेवगादिसमुहं, अवियत्तादी य पुव्वुत्ता ॥३६॥
द्विविधे-श्रामादानागाढग्लानत्वे शय्यातरपिण्डोऽपि प्रायः। पुष्पाणां पणितेन-विक्रयेण यदारामिकाणां मालिकानां
तत्रागाढे, क्षिप्रमेव, अनागाढे पश्चकपरिहाण्या मासलघुके धृतादिकं पतितं तदारामस्वामिना सामारिकेण यावदद्यापि
प्राप्ते सति निमन्त्रण शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् गृहीत्वा पुनः नविरिनं भवेदेषा अपि सारिकांशिका । अथवा-क्षेत्रा
पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः । दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्ये अन्यदिमालाकारान्तरेषु द्वारेषु यदि सागारिकस्य संमुखं
बालभ्यमाने, तथा अशिवे अवमौदर्ये राजप्रद्वेषे तस्करादिपश्यतस्तदीयायामंशिकायामविभक्तायां साधवो भक्का
भये च शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम् । दिकं गृह्णन्ति , तदा भद्रककृताः प्रक्षेपकादयः, प्रान्त
अत्र दुर्लभद्रव्यग्रहणविधिमाहकृताः पुनरप्रीतिकादयः पूर्वोक्का दोषा मन्तव्याः।
तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसि जोयणम्मि कडजोगी।
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(६२७) सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड दव्यस्स य दुल्लभता , सागारिणिवेसणा ताहे ॥३०३॥
संप्रति नियुक्तिविस्तरःत्रिकृत्वः स्वक्षेत्रे चतुषु दिक्षु सक्रोशयोजने गवेषितस्या
आएसदासभइए, अटुहि सुत्तेहिं मग्गणा जत्थ । पिघृतादेव्यस्य अथवा-दुर्लभता भवति तदा सागारिकपिण्डनिषेवणं कर्तव्यम् । गतं सागारिकपिण्डद्वारम् । बृ०
सागारियदोसेहिं, पसंगदोसेहि य अगझो॥३॥ ६ उ० । ध० । पश्चा०।
श्रादेशा-यथोक्तरूपः.दासः-प्राजन्मावधि किंकरः, भृतक:___ सामारिकस्य श्रादेशादन्तर्वगडायां विधिमाह--
कियत्कालं मूल्येन धृतः। श्रादेशश्च दासश्च भृतकश्च आदेशसागारियस्स आएसे अंतोवगडाए झुंजइ णिदिए णिसि
दासभृतकं तत्र च पिण्डस्याष्टभिः सूत्रैः मार्गणा कृता । यत्र
सागारिकदोषैः प्रसङ्गदोषैश्च भद्रकप्रान्तककृतैरग्राह्यो भवति। ढे पाडिहारिए; तम्हा दावए,णो से कप्पति पडिगाहित्तए
साम्प्रतमष्टानामपि सत्राणां विभागमाह॥शासागारियस्स आएसे अंतोवगडाए भुंजइ णिट्ठिए णि
तत्थादिमा चउरो, आएसे सुत्तमादिया । सिढे अपाडिहारिए; तम्हा दावाए,एवं से कप्पति पडिग्गा- |
दो चव पाडिहारी, अपाडिहारी भवे दोसि ॥४॥ हित्तए २॥सामारियस्स पाएसे बाहिं वग्गडाए मुंजइ णि
तत्र तेषामष्टानां सूत्राणां मध्ये श्रादिमानि चत्वारि सूट्ठिए णिसिढे पाडिहारिए, तम्हा दावाए,एवं से नो कप्प- | त्राणि श्रादेश प्रागुक्लस्वरूपे आख्यातानि । तत्रापि द्वे सूत्रे ति पडिग्गाहित्तए॥३॥ सागारियस्स पाएसे बाहिं व- प्रातिहारिणि द्रष्टव्य द्वे च सूत्रे अप्रातिहारिणि । प्रथमतृगडाए मुंजइ णिहिए णिसिद्धे अपाडिहारिए तम्हा दावाए।
तीये प्रातिहारिणि, द्वितीयचतुर्थे अप्रातिहारिणि । एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए । ४॥ सागारियस्स दा- अन्तो बर्हि वा पि निवेसणस्स, सेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भतिथए वा अंतोवगडाए श्रावस्सएणं ठविए सगारो । मुंजइ णिट्ठिए णिसिटे पाडिहारिए तम्हा दावाए णो से क- भत्तं न एयस्स विसेसजुत्तं, प्पति पडिगाहित्तए ॥ ५॥ सागारियस्स दासेइ वा पेसे
तम्मी दलंते खलु सुत्तबंधो ॥५॥ इ वा भयएइ वा अंतोवगडाए भुंजइ णिट्ठिए णिसिद्धे निवेशनं-गृहं तस्यान्तर्बहिर्वा स्थित सागारिकेअप्पाडिहारिए तम्हा दावए से कप्पति पडिग्गाहित्तए
शय्यातरे यदि आदेश एव श्रादेशकः-प्राघूर्णकस्तेन वा
सह स्थिते यद्भक्तं विशेषयुक्त-विशेषतो निष्ठां नीतं ॥६॥ सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा
तन्न एतस्य प्राघूरार्णकस्य संबन्धि , किंतु सागारिकबाहिं वगडाए मुंजति णोणिट्ठिए णिसिष्टे पाडिहारिए तम्हा स्य-ततस्तस्मिन् ददति सूत्रसंबन्धः-सूत्रोपनिपातः । प्रादावए णो से कप्पति पडिगाहित्तए ॥ ७॥ सागारियस्स | तिहारिकभोजितया तस्मिन् ददति प्रथमे तृतीये च सूत्रे न दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा बाहिं वगडाप वा भुंजइ
कल्पते सागारिकपिण्डत्वात् , द्वितीये चतुर्थे चाप्रातिहा
रिकभोजितया कल्पते । तदायत्वात्केवलं भद्रकप्रान्तदोषणिदिए णिसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से |
प्रसङ्गतो न गृह्यते। कप्पति पडिगाहितए ॥ ८॥ व्य०६ उ.
एतदेवाहसागारिको नाम शय्यातरस्तस्यादेश प्रायासकर श्रादे- दोएह सागायरियस्स, दोसा दोएहं पसंगतो दोसा। शः। यदि बा-आदिशति इति श्रादेशः । अथवा-आदेशत
भद्दगपंतादीया, होन्ति य इमे उ मुणेयव्वा ॥५॥ इति शब्दसंस्कारस्तस्य व्युत्पत्तिमने वक्ष्यामः । स च ना--
द्वयोः प्रथमतृतीययोः सूत्रयोः सागारिकस्य दोषान्-शय्या. यको मित्रं प्रभुः परतीर्थिको वा द्रष्टव्यः । वगडा नाम परि
तरपिण्डत्यान्न कल्पत इति भावः । द्वयोर्द्वितीयचतुर्थयोः क्षेपस्तस्यान्तर्मध्ये भुते पदार्थान्-श्रोदनादीन् , किंविशिष्टा
प्रसङ्गता दोषाः भद्रकमान्तादिकाः श्रादिशब्दादतिभद्रकानित्याह-निष्ठितान-निष्ठां नीतान् निसृष्टान्-प्रातिहारिकान्
तिप्रान्तादिपरिग्रहः, ते च इमे-वक्ष्यमाणा भवन्ति । सागारिकान्-सागारिकभुक्तशषान् तस्मात्-परिनिष्ठितादि
तानेवाहमध्यात् दापयति न से तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् ॥१॥ एवं शपाण्यपि त्रीणि सूत्राणि भावनीयानि एवं चत्वार्यादेशवि
एएण उवाएणं, गेएहति भद्दे उग्गमेगतरं । षयाणि चत्वारि दासादिविषयाणि । इह यत्र यत्र प्रातिहा
पंतो दुदिधम्मा, विणासगरिहादि य निसि वा ॥ ६ ॥ रिकं तत्र तत्र सागारिकपिण्ड इति न कल्पते । यत्र यत्र पु- भद्रकश्चिन्तयति-साधवः एतेनोपायेन मदीय पिण्डं गृनरप्रातिहारिकं तत्र तत्र न सागारिकपिण्ड इति कल्पते । हन्ति । तत एव चिन्तयित्वा उद्गमदोषाणामेकतरं दोषं प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमसूत्रेषु सागारिकपिण्ड इति कृत्वा न कुर्यात् । यस्तु प्रान्तः स पापीयान् दुर्दष्टधा उद्गृहं पिण्डकल्पते। द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमसूत्रेषु न भवति सागारिकषि
ग्रहणतो दिवा निशि वा कोपावेशतो विनाशं कुर्यात् , एड इति कल्पते । केवल भद्रकप्रान्तदोपतो यर्यते इति गहीं वा दिवानिशमिति।। सूत्राएकभावार्थः । व्य०६उ०1 ('श्राएस' शब्दे द्वितीयभा| सुत्तम्मि कप्पइ त्ति य, बुत्ते किं अत्थतो निसेहेह । गे ४६ पृष्ठे भाष्यकृत्कृता विषमपदव्याख्या गता।)
एगयरदोसे कालिय, सुत्तनिवातो इमेहिं तु ॥ ७॥ १-निसटे इति पुस्तकान्तरे ।
सूत्रे कल्पते इत्युक्ने किं यूयमर्थतो निषेधयत ?, सूरिरा
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(६२८) सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।।
सागारिथपिंड ह-एकतरदोषात्-भद्रकदोषात् ,प्रान्तदोषप्रसङ्गाद्वा इत्यर्थः । सागारिकस्य एकचुल्ल्यां पक्कानप्रहणे विधिमाहयद्येवं सूत्र कस्मात्कल्पते इत्युक्तमत माह-अधिकृतस्य-का- सागारियणायए सिया सागारियस्स एकवगडाए भंतो लिकसूत्रस्य निपातः प्रवर्त्तमानमेभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः ए
एगपयाए सारियं चोपजीवइ तम्हा दावए,नो से कप्पइ पतश्च ज्ञायते व्याख्यानात् कालिकसूत्रं च व्याख्यानप्रधानम् ।
डिगाहेत्तए ॥६॥ सागारियनायए सिया सागारियस्स एगतथा चाऽऽह
वगडाए अंतो अभिनिफ्याए सागारियं च उवजीवइ तम्हा, जं जह सुसे भणियं, तहेव तं जइ विश्रालणा नस्थि ।
दावए णो से कप्पति पडिग्गाहित्तए ॥१०॥ सागारियकिं कालियाणुोगो, दिट्ठो दिदुप्पहाणेहिं ॥ ८॥
णायए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागायद्यथा सूत्रे कालिके भणितम् । तद्यदि तजैव प्रतिपत्तव्यं रियस्स एगपयाए सागारियं च उवजीवह तम्हा दावए न पुनर्विचारणा काचिदस्ति तर्हि रष्टिप्रधानः युगप्रधान
णो से कप्पति पडिगाहित्तए ॥ ११ ॥ सागारियणायरित्यर्थः, किं कस्मात्कालिकानुयोगो राष्टः, तस्मावस्ति विचारणा, सा चात्र प्रागुक्तस्वरूपेति ।
ए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागारियस्स तत्र यदुक्तोऽस्माभिः कारणैः कालिकसूचनिपात इति
अभिनिपयाए सागारियं च उवजीवइ, तम्हा दावए __ तानि कारणान्याह
णो से कप्पति पडिगाहित्तए ॥१२॥ सागारियस्स णायए अद्दिदुस्स उ गहणं, अहवा सागारियं तु बओत्ता। । सिया सागारियस्स अभिणिबगडाए एगदुवाराए एगअन्नो पेच्छउ मा वा,पेच्छंते वावि बच्चंता ॥४॥
निक्खमणपवेसाए अंतो सागारियस्स एगपयाए सागायदि कनापि सागारिकसत्केन तत् दीयमानं न दृश्यते |
रियं च उवजीवइ, तम्हा दावए, णो से कप्पति पडिनदस्यादृश्यस्य ग्रहणं भवति । अथवा-सागारिक-शय्बातरं गाहित्तए ॥ १३ ॥ सागारियस्स णायए सिया सागावर्जयिन्वा अन्यो दीयमानं प्रेक्षतां वा मा वा । अथवा-सागा- रियस्स अभिणिव्वगडाए एगदुवाराए एगणिक्खमणपरिक प्रेक्षमाणे वजन्तो न तिष्ठन्ति, केवलं दानवेलायां वेसाए सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं च उवजीवइ, तदृष्टिः परिहियते । तत उक्नं सूत्र कल्पते इति ।
तम्हा दाबए णो से कप्पति पडिगाहित्तए ॥ १४ ॥ तदेवमादेशविषय सूत्रचतुष्टयं भावयति
सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगदासभइगाण दिजइ, उक्खित्तं जत्थ भत्तयं निययं ।।
डाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं एगपयाए तम्मि वि सो चेव गमो, अंतोबाहिं वदे तम्मि ॥ १० ॥
सारियं चोवजीवइ , तम्हा दावए नो से कप्पड़ दासभृतिकादिसूत्रचतुष्टयेऽपि प्रथमसूत्रे तृतीयसूत्रे च
पडिगाहित्तए ॥ १५ ॥ सागारियस्स णायए सिया प्रातिहारिकभजना तस्मिन् दापयति सागारिकपिराड इति कृत्वा न कल्पते । यत्र पुनर्द्वितीय चतुर्थे च सूत्रे दा
सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमसभृतकानामुत्क्षिप्त हस्तोत्पाटितं नियतं भक्तकं दीयते द- णपसाए बाहिं अभिणिप्पयाए सागारियं च उयजीवइ, तं च तैः स्वगृहं नीयते , तस्मिन्नपि दासभृतकादौ निवे- तम्हा दावए, नो से कप्पति पडिगाहित्तए ।। १६ ॥ शनस्यान्तर्बहिर्वा ददति तत्र सूत्रे स एव गमः-प्रकारः 'सागारियस्से' त्यादि अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहकल्पते वस्तुतः, परं भद्रकमान्तादिशेषप्रसङ्गतो न
नीसद अपडिहारी, समपुम्मायो त्ति मा अइपसंगा। गृह्यते । यदा तु केनापि सागारिकः सत्केन दृश्यते, यदि वा
एगपए परपिंडं, गेराहे परमुत्तसंबंधो ॥ १३ ॥ सागारिकं मुक्त्वा अन्यः प्रेक्षतां वा तदा गृह्यते । यद्येवं तर्हि"सागारियस्स श्रादेसे वा(पेसे या)दासे वा भयगे
निसृष्टो-दत्तोऽप्रतिहारिपिण्डः, समनुशात इति विचिन्स्य वा" इस्यनेन प्रकारेण चत्वार्येव सूत्राणि कस्मान्न कृतानि ।
मा अतिप्रसङ्गत एकस्यां चुल्ल्यां शय्यातराद्वयति
रिक्तस्यापिण्डं गृह्णीयादिति परसूत्रस्य-परविषयसूत्राटकस्य उच्यन्ते
संबन्धः । अमन संबन्धेनायातस्यास्य () व्याख्या-सागानिययाऽनिययविसेसो, आएसो होइ दासभयगाणं । । रिकशातकः-सागारिकस्वजमः स्यात् , सागारिकस्य अच्चियमणचिए वा, विसेसकरणे पयत्तो वा ॥ ११ ॥ 'एगवगडाए ' एकस्मिन् गृहे सागारिकस्यान्तरे तस्यां प्रभादशहासभृतकानां भवति नियतानां नियतकृतो वि- जायां-चुल्ल्यां सागारिकं चोपजीवति तस्माद्दापयेत् न 'से' शेषः । तथा ह्यादेशः कोऽपि कदाचिदागच्छति, तत
तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्राहयितुं सामारिकासत्कचुल्ल्यास्तम्यानियतं दीयते , दासभृतकानां नियतम् । तथा
हारलवणाधुपजीवनतस्तस्य शय्यातरपिण्डस्य शच्यातरश्रादशस्यार्चितं-सत्कारपुरस्कृतं दीयते, दासभूतकानां
सत्कत्वात् ॥६॥ एवं शेषारयपि सप्त सूत्राणि भावनीयानि । सत्कराकरणतोऽनर्चितम् ,तथा प्रादेशस्य भोजनविधिसंपा
पाठः पुनस्तेषामेयम्
"सांगारिवनायए सिया सागारियरस एगवगडाए अन्तोए. दनाय महाप्रयत्नः संभ्रमगर्भो विधीयते, दासभृतकानां तु न
गपयाए सागारियं चोवजीबातम्हा दावए, नो से कप्पा पतादृशः प्रयत्न इति, दासभृतकसूत्रचतुष्टयादेशस्तश्चतुष्टयाविश्लेषकरणं-पृथक्करणम ।
१-इदं सूत्रसप्तकं मूले उक्तमपि टीकाकारानुरोधात्पुनस्यात्तम् ।
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड डिगाहेत्तए । सोरियनायए सिया सारियस्स एगवग- । दोषाः शय्यातरपिण्डग्रहणे ते दोषास्तत्र ज्ञातव्या इत्यर्थः । ' डाए अन्तो अभिनिपयाए सारियं चीयजीवाद, तम्हा दावए, चतुर्पु द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमादिरूपेषु सूत्रेषु प्रसनदोषाश्चतुनो से कप्पर पडिगाहेत्तए १०। सारियनायए सिया सारि- लपि सूत्रेषु यथोक्लकमेण सातव्याः,भद्रकप्रान्तादिकाः-भद्रयस्स एगवडाए बाहिं एगपयाए सारियं चोवजीवाद, त- कप्रान्तादिकृता आदिशब्दस्तरतमविशेषपरिग्राहकः । म्हा दावए, नो से कप्पर पडिगाहेत्तए ११ । सारियनायए
अथ कथं प्रथमतृतीयादिषु चतुषु सूत्रेषु शय्यातरदोषाः सिया सारियस्स एगवगडाए बाहिं अभिनिपयाए सारियं
कथं वा अत्र प्रसङ्गदोषास्तत्र पाहचोवजीवा, तम्हा दावए, नो से कप्पद पडिगाहेत्सए १२ । सारियनायए सिया सारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवारा-1
दारुगलोणे गोरस, सूवोदगअंबिले य सागफले । ए एगनिक्खमणपसाए अन्तो एगपयाए सारियं चोवजी- उवजीवइ सागा-रि एगपऍ वा वि अभिनियए।॥१८॥ वर, तम्हा दावए, नो से कप्पर पडिगाहित्तए १३ । सारिय- दारु-काष्ठं लवणं गोरसं च प्रतीतं सूपोदकं मुगाधुनायए सिया सारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराप एग- । दकमाम्लशाकफलानि च प्रतीतानि च , यस्मात् सानिक्खमणपसाए अभिनिफ्याए सारियं चोवजीवर, तम्हा गारियमिति षष्ठयर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् , सागारिकस्य दावए, नो से कप्पर पडिगाहेत्तए १४ । सारियनायए सिया सत्का अनेकस्यां प्रजायां प्रत्येकं विविक्तायां वा प्रजायाभुसारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवाराए पगनिक्खमणपवे
पजीवति तेन कारणेन सागारिकदोषाश्च प्रसजन्ति । एतेन साए बाहिं एगपयाए सारियं चोवजीवह, तम्हा दायए, नो
'सागारियं च उवजीवति' इति व्याख्यातम् । से कप्पा पडिगाहेत्तर १५ । सारियनायए सिया सारिय
कस्मादेकां चुली प्रतिपद्यन्ते तत आहस्स अभिनिब्धगडाए एगदुवाराप एगनिक्खमणपवेसाए
भीयाइँ करभयस्स,अंतो बाहिं च होज एगपया । याहिं अभिनिपयाए सारियं चोयजीवइ, तम्हा दावप, नो अभिनियए विन कप्पड़,प्रक्खेवगमादिणो दोसा ॥१६॥ से कप्पर पडिगाहेत्तए १६ । अत्र अभिनिव्वगाए पृथग्गृहे भीतानि चुल्लीकरणभयात् गाथायां षष्ठी पञ्चम्यर्थे संबन्धएकद्वारे एकनिष्क्रमणप्रवेशे एकनिवेशनान्तर्वर्तित्वात्तथा । विवक्षायां वा षष्ठी यस्माच्चुल्लीकरणभयात्तानि तेन कारणे• अभिनिषयाए' इति अभि-प्रत्येक नियता-विविक्ता नान्तर्बहिर्वा तेषामेका प्रजा-चुल्ली भवति । अभिनिप्रजायां तु प्रजा-चुली अभिनिप्रजा तस्यां शेष सुगमम् ।
सत्यां यद्यपि सागारिकसत्कमुपजीव्यते तथापि निभिन्नचुसंप्रति भाष्यविस्तरः
लीकतया यत् गृह्यते तत्तेषामेव भवतीति सागारिकदोषा न पुरपच्छासंथुतो वा, वि नायगो उभयसंथुतो वावि। भवन्ति । तथा प्रसङ्गदोषतो न कल्पते । तथा च पाहऍगवगडाएँ घरं तु, पयाउ चुल्ली समक्खाया ॥ १४ ॥ अभिनिप्रजायामपि न कल्पते, यतो भद्रकप्रान्तकृताः प्रक्षेशातको नाम-पूर्वसंस्तुतो, यदि वा-पश्चात्संस्तुतः। अथवा
पादयो दोषाः भद्रका प्रक्षेपादीन दोषान् कारयेत् , प्रान्तोउभयसंस्तुतः खजनपूर्वसंस्तुतः, स्वजनपूर्वसंस्तुतो नाम
विनाशप्रभृतीन् दोषान् कारयेत् । मातापितृपक्षवी पश्चात्संस्तुतो भार्यापक्षगतः उभय
तानेवाहसस्तुत:-तथाविधेनापासबन्धविशेषभावतः उभयपक्षवत्ती देसी तं देमो, एए घेत्तुं न इच्छते अम्हं। एकवगडा नाम-एकं गृहं प्रजा तु-चुल्ली समाख्याता प्रकर्षण श्रहवा वि अकुलजो त्ति य, गेएहति अदिट्ठमादीय।२०। जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रजेति व्युत्पत्तेः।
भद्रका ब्रुवते-त्वं साधुभ्यः प्रभूतं देहि यद्ददासि तद्वयं तव एगपए अभिनिपए,अढहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ । दास्यामःायत एतेऽस्माकं गृहे नेच्छन्ति ग्रहीतुम् ,गाथायामेसागारियदोसेहि, पसंगदोसेहि य अग्गज्झं ॥१॥ कवचनं प्राकृतत्वात् । एवं भद्रककृताः प्रक्षेपादयो दोषाः। श्र. एकस्यां प्रजायामभिनिप्रजायां प्रत्येकं विविक्तायां प्रजा
थवा-प्रान्तो ब्रूते-अकुलजा एते इति कृत्वा अदृष्टादिकं गृहयामभिः सूत्रैः पिण्डस्य मार्गणा यत्र येषु सूत्रेषु प्रथमतृती.
न्ति एवं गहीं करोति प्रान्तो विनाशमपि । यपञ्चमसप्तमरूपेषु सागारिकदोपैर्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमरू--
अत्रैवापवादमुपदर्शयतिपेषु अथ प्रसनदोषैर्भनपानमग्राह्यम्।
बिइयपदें दिट्ठगहणं, असती तं वञ्जिएण दिदृस्स । पाइला चउरो सुत्ता, चउस्सालगविक्कतो।
दिटे वि पत्थियाणं, गहणं अन्तो व बाहिं वा ॥२१॥ पिहगरेसुं चत्तारि, सुत्ता एकनिवेसणे ॥ १६ ॥
द्वितीयपदेन-अपवादपदेन यदि न केनापि दीयमानं दृष्टं तआदिमानि चत्वारि सूत्राणि एकगृहविषयाणि चतु:
दाऽस्य दृष्टस्य ग्रहणम् । अथ सर्वथा केनाप्यरष्टुं न प्राप्यते शाल्यापेक्षातः चतुःशालादावेव द्वयोः कुटुम्बयोरवस्थान
तदा तद्भावेतद्वर्जितेन दृष्टस्य ग्रहणम् । तथा प्रस्थितानां घटनात् , अन्तिमानि चत्वारि सूत्राणि पृथग्गृहेषु तान्यप्ये- |
गन्तुं चलितानां सागारिकेण दृष्टेऽपि दर्शनेऽपि अन्तर्बहिवा कस्मिन् निवेशने एकस्मिपरिक्षेपे।
प्रहणं भवति। सागारियस्स दोसा, चउसुं चउसुं पसंगदोसा य ।
सागारिकस्य चक्रिकादिशालाविषयमाहभगतादीया, चउसु पि कमेण नायध्वा ॥ १७॥
सागारियस्स चक्कियासाला साहारणवकयपउत्ता, तचतुर्यु प्रथमतृतीयपश्चमसप्तमरूपेषु सूत्रेषु सागारिकस्य म्हा दावए, णो से कप्पति पडिगाहित्तए ।।१७।। सागा२-पुस्तकान्तरे सागारिय इति पाठः।
रियस्स चक्कियासाला हिस्साहारणवक्कयपउत्ता दावए
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सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड एवं से कप्पति पडिगाहित्तए ॥१८॥सागारियस्स गोलि- साधोर्न कल्पते इति प्रथमसूत्रार्थः ॥१७॥ तथा सागारिकम्य यसाला साहारणवकियपउत्ता तम्हा दावए, नौ से कुप्प
चक्रिकाशाला-तैलयन्त्रशाला सा निस्साधारणवक्रय
प्रयुक्ता न किमपि सागारिकसाधारण तत्र भाण्ड प्रक्षिति पडिगाहित्तए॥१६॥सागारियस्स गोलियसाला निस्सा
तमस्तीति भावः , तस्मात् निस्साधारणवक्रयशालाहारणवकयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहि- मध्यात् दापयति एवं से' तस्य साधोः कल्पते प्रतितए।॥२०॥सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता ग्रहीतुम् , एष द्वितीयसूत्रार्थः॥१८॥एवं कोलिकशालाबोधि. तम्हा दावए,नो से कप्पति पडिगाहित्तए॥२शासागारियस्स
कशाला-दौषिकशाला सौतिकशालागन्धिकशालासूत्राण्यपि
भावनीयानि । (व्य० ।) बोधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए,एवं से
संप्रति चक्रिकादिशब्दव्याख्यानार्थमाहकप्पइ पडिगाहित्तए ॥ २२॥ सागारियस्स दोसियसा
तिल्लियगोलियलोणिय,दोसिय सुत्तियवोहिय कप्पासे | ला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पड़ पडि
गंधिय सोंडियसाला, जा असा एवमादीओ ॥ २३ ॥ गाहित्तए।।२३।।सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणव
चक्रिका नाम-तैलिकास्तैलविक्रयकारिणः, एवं गोलिका कयपउत्ता तम्हा दावए,एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए।२४॥
लावणिका दौषिकाः सौत्रिकाः बोधिका काप्पासाः|गन्धिकासागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्यपउत्ता तम्हा दा- शालाः शौण्डिकशाला अन्या अपि च या एवमादिका गन्धवए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ॥२५॥ सागारियस्स प्रधाना सा गन्धिकशालेत्युच्यते । सोत्तियसाला निस्साहारणवक्यपउत्ता तम्हा दावए, एवं बवहारे उद्देस-म्मि नवमए जत्तिया भवे साला । से कप्पद पडिगाहित्तए ॥२६॥ सागारियस्स बोडियसाला तासि परिपिंडियाणं, साहारणवञ्जिए गहणं ॥ २४ ॥ साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहि- व्यवहारे नयमे उद्देशके यावत्यः शाला:-शालासूत्राणि तए ॥ २७॥ सागारियस्स बोडियसाला निस्साहारण- भवन्ति-विद्यन्ते तासां सर्वासा परिपिरिडतानामयं तात्पर्यावक्कयपउत्ता तम्हा दावए,एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए।॥२८॥
र्थः, यत्र साधारगामविभक्तं ऋयाणकं तत्र प्रतिषेधः साधार
णवर्जिते तु ग्रहणम् । सागारियस्स गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा
संप्रति साधारणशब्दशालाशब्दव्याख्यानार्थमाह- .. दावए,नो से कप्पइ पडिगाहित्तए।।२हासागारियस्स गं--
साहारणसामन, अविभत्तमछिन्न संघडेगहूँ। धियसाला निस्साहारणवकयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से
साल ति आवणो त्तिय,पणियगिहं चेव एगढें ॥२५॥ कप्पइ पडिमाहितए ॥ ३० ॥ सागारियस्स सोंडियसा
साधारण-सामान्यम्-अविमनमच्छिन्न संस्कृतमिति एकाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ
थम् , एते सर्वेऽपि शब्दा एकार्थिका इत्यर्थः , शाला इति पडिगाहित्तए ॥३१॥ सागारियस्स सोंडियसाला निस्सा
वा आपण इति वा पणितगृहमिति वा एकार्थः । हारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहि
साहारणा उ साला, दव्वे मीसम्मि आवण भंडे । त्तए।।६२||सागारियस्स चक्कियसाला साहारणवधुयपउत्ता साहारणओ पत्ते, छिन्नं वोच्छं अछिन्नं वा ॥२३॥ तम्हा दावए,नो से कप्पइ पडिगाहित्तए।।३३|सागारियस्स साधारणा तु शाला भरायते, मिश्रे द्रव्ये सति । किमुक्तं चक्कियसाला निस्साहारणवधुयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से! भवति-अन्यस्यापि तिला एकत्र मिथयित्वा पील्यन्ते कप्पति पडिगाहित्तए ॥ ३४॥
पीलयित्वा च एकत्र विक्रीडन्ति । अथवा-साधा
रणनावक्रयेण युक्त प्रापणे भाण्डं वा ऋयाणके साधाअस्य सूत्रस्य संबन्धमाह
रणशाला भवति । तथा छिन्नमछिन्नं वा वक्ष्ये एप गाथासाधारणमेगपय-त्ति किच्च तहियं निवारियं गहणं । संक्षेपार्थः। इदमवि समापं चिय,साहारणसालसुयजोगो ॥ २२ ॥
सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो द्रव्यमिश्रे इति
व्याख्यानयतिअनन्तग्सूत्रेष्वेकस्यां प्रजायां साधारणमिति कृत्वा तच्च
पीलंति एक्कतो वा, विकंति य एक्कतो करिय तेल्लं । ग्रहणं निवारितम् . इदमपि च वक्ष्यमाणं साधारणशालासु सामान्यशालासु सामान्यं-साधारणमतो निषि
अहवा वि वक्कएणं, साहारणवकथं जाण ॥ २७ ॥ ध्यत्ते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (सू०-१७)व्याख्या-सागा
अन्यस्यान्यस्य तिलान् एकत्र समालयित्वा पीलयन्ति ततो रिकस्य शय्यातरस्य चक्रिकाशाला-तैलविक्रयशाला विक्रीणन्ति । अथवा-पृथक पृथक तिलान् पीलयित्वा-तैले इत्यर्थः , सागारिकणात्मना सह साधारणा वक्रयायुक्ता कृत्वा एकत्र विक्रीणन्ति , तदेवं द्रव्ये मिश्रे साधारणवयत्तस्यां शालायां प्रक्षिप्यते , यश्च तस्य लाभात्सागा- क्रयप्रयुक्ना शाला व्याख्याता। अथवा अन्यथा साधारणवक्ररिकेण साधारण इत्यर्थः । तस्मात्-शालाया मध्यात् यप्रयुक्नेति व्याख्यानयति । अथवा-चक्रयेण-भाटकेन या यत्साधूचितं तैलादिकमन्यो दापयति तत् ‘से ' तस्य । साधारणशाला प्रयुक्ता-व्यापरिता तत्र तलभ्यते भारतकं
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सागारियर्पित अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड सत् शब्यातरस्यान्येषां च साधारणमिति साधारणव
सम्प्रतिछिनमाह-- क्रय युक्तं जानीहि।
तद्दश्चमनदवे-ण वा विछिन्ने वि गहणमद्दिहो। अत्र यथा कल्पते यथा धा न कल्पते तथा
मा खलु पसंगदोसा, संछोभभयं व मुंचेजा ॥ ३२ ॥ प्रतिपादयति
तद् द्रव्यं यत् शालायां प्रक्षिप्तम् , अन्यद्रव्यं-तन्यतिरिपीलिय वरेडियम्मि, पुन्चगमेणं तु गहणमद्दिढे । क्लम् एतावता कालेन द्रव्यं मयैतावदातव्यमित्येवं तद एमत्थ विक्कयम्मी,भमेलिया दिट्ठमन्नत्थ ॥ २८॥
द्रव्येण अन्यद्रव्येण छिन्नेऽपि-विभक्तीकृतेऽपि ग्रहणमदृष्टे श. अन्यस्यान्यस्य तिलानेकत्र मीलयित्वा पीलयित्वा च
च्यातरेण कल्पते, न तु दृष्टे । कुत इत्याह-मा खलु प्रसङ्गदोषाः तैले विरचिते-विभक्तीकृते पूर्वगमेन-पूर्वप्रकारेण शय्यातरे
स्युरिति कृत्वा । एतदेव संछोभो नाम-प्रक्षेपस्तं कुर्यात् , भृति
वा मूल्यं मुञ्चेत् यावदुपयुज्यते साधूनां तावद् दत्स्व द्रव्यं णादृष्टे ग्रहणं भवति, हष्टे तु न कल्पते । मा प्रक्षेपकं कु
भृतिमध्यात् पातनीयमिति । र्यादितो हेतोः, अन्यत्र ज्ञातं तु कल्पत एव, तथा पृथक ति
जंपियन एइ गहणं, फलकप्पासो सुरादि वा लोणं । लान् पालयित्वा च एकत्र विक्रीणन्ति तत एकत्र विक्रये यावन्मूल्यं मिलितम्-अविभक्तमित्यर्थस्तावन्न कल्पते इत्य
फासं पिउ सामनं, न कप्पर जं तर्हि पडियं ।। ३३ ।। र्थः । श्रमीलिते मूल्यकरणेन विभक्तीकृते सागारिकेण अदृष्टे
यदपि चापासुकतया ग्रहणं नागच्छति,तद्यथा-फलमाम्रास तु कल्पते । इष्टे प्रक्षेपदोघसंभवात् । अन्यत्र पुनः स्व
दि। कर्पासः सुरादिरादिशब्दात्सरजस्कादिग्रहसं लवणम् , योगेन नीतं निःशकं कल्पते ।
एतान्यप्राशुकान्यपि कदाचित्कारणे गृह्यन्ते । तत एवमुक्त
प्राशुकमपि तु वस्त्रादि यत्तत्र शालायां शय्यातरेण सह साम्प्रतमापस साधारणवक्रयप्रयुक्तं व्याख्यानयति--
साधारणं तत् तु कल्पते । जो उ लाभगभागेण, पउत्तो होति श्रावणो ।
तदेव दौषिकशालामधिकृत्य दर्शयतिसो उ साहारणो होइ,तत्थ घेत्तुं न कप्पइ।।२।।
अंडजबोंडजवालज, वागज तह कीडजाण वत्थाणं । यस्तु सागारिकेण लाभभागेन त्रिभागादिना आपणः
नाणादिसागयाणं, साधारणवञ्जिते गहणं ॥ ३४ ॥ प्रयुक्नो भवति साधारणो भवत्यापणस्ततस्तत्र ग्रहीतुं न
अण्डजाना-अण्डजसूत्रमयाणां वोएडजानां-कोसिकसूकल्पते।
त्रमयाणां वालजानां-कम्बलानां वल्कलजानां-शणत्वसाम्प्रतं भाण्डं साधारण वक्रयप्रयुक्तं व्याख्यानयति--
ग्मयानां कीटजानां वस्त्राणां नामादेशागतानां प्रयोजने छेदे वा लाभे वा, सागारितो जत्थ होइ आभागी।
समापतिते साधारणवर्जिते सागारिकेण सह साधातं तु साधारण जाण, सेसमसाहारणं होई ॥ ३०॥ रणरहिते पापणे ग्रहणं भवति दोषाभावात् । दृष्टादृष्टयत्र भाण्डच्छेदे लामे वा सागारिकोऽर्द्धन त्रि- विभाषा प्राग्वत् । (व्य०) भागादिना वा आमागी भवति । तत् भाण्ड
सागारिकस्यौषधयःसाधारण-साधारणवक्रयप्रयुक्तं जानीयात्, एतद्व्य- सागारियस्स ओसहीओ संथडाओ तम्हा दावए, णो तिरिक्त शेष भाण्डमसाधारणं भवति । साधारण वा से कप्पति पडिगाहित्तए ।। २७ । सागारियस्स प्रोसभाण्डं यावत् तं न विभज्यते तावत्सागारिकपिण्डः, विभ
हीओ असंथडाओ तम्हा दावए, एवं से कप्पति पहिने तु कल्पते । तत्रापि प्रक्षपदोषप्रसङ्गतो दृष्टे म कल्पते, अष्टे तु कल्पते।यदा तु सा शाला भाटकप्रदानेन गृहीता का
गाहित्तए ॥ २८ ॥ (व्य०) लेन मया तवैतावत् दातव्यं नच भाण्डं शय्यातरेण सह
सागारिकस्य-शय्यातरस्य औषधयो गोरसवत्यां संस्तृताः च्छन्दे लामे वा त्रिभागादिना साधारणम् । तत्राप्यसाधारण साधारणास्तस्य तन्मध्याद्दापयति सूपकारो नो कल्पते 'से' अरऐ कल्पते, दृष्टे तु प्रक्षेपदोषप्रसङ्गतो नेति ।
तस्य साधो प्रतिग्रहीतुम् ॥२७॥ तथा सागारिकस्यौषधयः संप्रति 'छिन्नं वोच्छं छिन्नं वे' ति व्याख्यानार्थमाह
असंस्तृता असाधारणास्तस्मादापयति एवं 'से' तस्य क- सच्चित्ते अञ्चित्ते, मीसेण य जा पउंजए साला ।
ल्पते प्रतिग्रहीतुमेवमाम्रफलसूत्रद्वयमपि भावनीयम् ।
संप्रति भाष्यप्रपञ्चस्तत्रौषधिप्रतिपादनार्थमाह“तं दव्बमभदब्बे--ण होइ साहारणं तं तु ॥ ३१ ॥
गोरसगुलतेल्लघता-दिनोसहीतो व होति जा अमा। सचित्तेन आचत्तेन गाथायां सप्तमी तृतीयाथै प्राकृतत्वेन मिश्रेण च प्रयुज्यते शाला। किं विशिष्टेन सचित्तादिनेत्यत
सूयस्स कट्ठलेण तु, ता संथडऽसंथडा हुंति ।। ३६ ॥ आह-द्रव्येण, तावद् द्रव्यं नाम-यत् शालायां प्रक्षिप्तमस्ति ।
सूतस्य काष्ठलयने इन्धनगृहें ये गोरसगुडतैलघृताद्या अन्यत् द्रव्य-तद्व्यतिरिकं द्रव्यम् । इयमत्र भावना--यत्
औषधयोऽन्या चा याः सन्ति ता द्विविधाः सागारिकेण शालायां प्रक्षिप्तं सचित्तं मिश्रं वा कर्पासादि तस्य त्रि
सह संस्तृताः साधारणा असंस्तृता वा असाधारणा वा भागादि दातव्यम्। यदि वा--यनिष्पद्यते कर्षासादिभ्यो
भवन्ति ।
कथं पुनः साधारणास्तत अाहयस्खादिकमन्यत्तस्य त्रिभागादि दातव्यमिति तद् भवति साधारणमच्छिन्नं द्रव्यम् , तन्न कल्पते । सम्प्रति छिन्नं द्रव्यं
धुव आवाह विवाहे, जले सड्ढे य करडुगे चेव । तत् कल्पते ।
विविहाओं अोसहीनो, उवणीता भत्तस्वस्स ।। ३७॥
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(६३२) सागारियपिंड अभिधानराजेन्द्रः।
सागारियपिंड जं दवविदड्डे वा, जो वा तह भत्तसेस उद्धारो। तत्र परोते-इयं शाखा मदीयं गृहमाकामति ततश्छिनधि लभइ जइ सूवकारो, अविरिकं तं पि हुन लद्धा ॥३८॥
एवं तेनोक्ने व्यवहारस्तत्र भवेत् ।
कथमित्याहध्रुवं सर्वकालमुपस्करं करोति सूपकारो भोजिकानाम् , श्रा
सागारियस्स कहियं, केवतिओ उग्गहो मुणेयव्यो । वाहो दारकपक्षिणां वीवाहो वधूपक्षिणां यशो नाग-यज्ञादि। श्राद्ध-धिरजातिजनप्रतीतं करडुकं-मृतकभक्षणम् इन्द्रमहा
ववहारो तह छिन्नो, पासायगडे बिती तिरिए । ४३ ।। दिरेतेषु सूपकार प्रानीयते । तस्य भक्तस्तस्य सूपकारस्य वि. सागारिकस्य-शय्यातरस्य कियान् अवग्रहो क्षातव्य इति विधा औषधयः पूर्वभणिता उपनीता-ढौकितास्तत्र यत् दग्ध- व्यवहारकारिभिश्चिन्तितम् , ततः शाखं परिभाव्य व्यवहारे मीषत् दग्धं विदग्धं वा-प्रभूतं दग्धं यो वा तत्र भक्तशेषस्यो
ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्भेदतश्छिन्नः, ततः ऊर्ध्वतोऽवग्रहस्य परिमाणे द्वारो भक्तशेषं यत्तत्रोद्वरितमित्यर्थः , तद्यदि लभते सूपका- प्रासादो यावत्प्रमाणमूर्व प्रासादस्योक्तं तावदूर्ध्वमवग्रह इत्यरस्ततस्तत्कल्पते । अविरक्तम्-अविभक्तीकृतं तदपि दग्धवि- र्थः अधोऽवग्रहप्रमाणं पालनीयं प्रमाणमित्यर्थः, तिर्यग् वृत्तिः। दग्धादि हु-निश्चितं ग्रहीतुं दातुं वा न लभते ततस्तद्न कल्पते.
एतदेवाहएतदेवाह
उड्डे अहो य तिरियं, परिमाणं तु वत्थूणं । अविरिको खलु पिंडो, सो चेव विरेइतो अपिंडो उ । ।
खायमूसिय मीसं वा, तं वत्थु तिविहोदियं ॥४४॥ भद्दगपंतादीया, धुवा उ दोसा विरिक्के वि ॥ ३९ ॥
ऊर्ध्वमधस्तियक्परिमाणं वास्तूनां भवति, तच्च वास्तु त्रिअविरलः-अविभक्क्रीकृतः खलु भवति पिण्डः सागारिक- घोदितम् । तद्यथा-खातमुच्छ्रितं मिश्रं च-खातोच्छ्रितम् । पिण्डः, स चैव विरचितः-विभक्रीकृतः भवति अपिण्डः-सा- (व्य०) (अत्रत्या व्याख्या 'पासाय' शब्दे पश्चमभागे गता।) गारिकपिण्डो न भवति, इति भावः । यद्येवं तर्हि स ग्राह्यः,तत
एवं छिन्ने उ ववहारे, परो भणइ सारियं । आह-विरलेऽपि, ध्रुवा भद्रकमान्तादिका दोषास्तस्मात्तत्रापि सागारिकसत्का असागारिकेण सह संस्तृतास्ताखलुन कल्प
कप्पेमि हंते सालाई, ततो भणइ सारिते ॥४७॥ म्ते, (२७सू० व्या०)। यास्त्वसस्तृता सूतस्य सूपकारस्य संब
पवम्-उक्लेन प्रकारेण व्यवहारे छिन्ने परः सागारिकं भन्धितया जातास्ताः कल्पन्ते। तदेवमौषधिसूत्रद्वयं भावितम् ।
णति-कल्पयामि छिननि अहं तवाम्रादिवृक्षसत्कं शाखादि अधुना पाम्रफलसूत्रद्वयं भावयति
आदिशब्दात्-प्रशाखापल्लवादिपरिग्रहः।
तत अाह सागारिक:सागारियस्स अंबफला संथडाओ तम्हा दावए ,णो से
मा मे कप्पेहि सालाई, दाहं ते फलनिक्कयं । कप्पति पडिगाहित्तए ॥३१।। सागारियस्स अंबफला असं
तत्थ छिन्ने अच्छिन्ने वा, सुत्तसाफल्लमाहितं ।। ४८ ॥ थडाभो तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए॥३२॥
ममाम्रवृक्षस्य शाखादि मा कल्पयत ते फलानि निष्क्रय वल्ली वा रुक्खो वा, सागारियसंतिम्रो भइञ्ज परं । दास्यामि । तत्र एतावन्ति फलानि दातव्यानीति छिन्नं सातेसि परिभोगकाले,समणाण तहिं कहं भणियं ॥४०॥ मान्यतः फलानि दातव्यानि इत्यछिन्नं तत्र बिन्ने अच्छिन्ने वल्ली वा सागारिकसत्को वृक्षो वा सागारिकसंबन्धी वा यथायोग सूत्रद्वयस्य साफल्यमाख्यातम् । परस्यावग्रई भजेत । तत्र तेषां वल्लीवृक्षाणां फलपरिभो
तत्र पर माहगकाले श्रमणानां कथं भणितम् ? किं कल्पते किंवा न कल्प- साहणं व न कप्पइ, सुत्तमाहु निरत्थयं । ते? इति एष गाथासंक्षेपार्थः ।
गेलद्धाणोमेसु, गहणं तेसि देसियं ।। ४६ ॥ सांप्रतमेनामेव व्याचिख्यासुः प्रथमतो
केचिदाहुः सूत्रद्वयमिदं निरर्थकं यतः साधूनामाम्राणि सवृक्षवल्लीव्याख्यानमाह
चित्तत्वान कल्पन्ते । आचार्य श्राह-तेषामाम्रफलानां ग्लानफणसंबचिंचतलना-लिकरमादी हवंति फलरुक्खा । वे अध्वनि शेषभिक्षाया अलाभे अवमौदार्ये च ग्रहणं दशिलोमसिय तउसमुद्दिय, तंबोलादी य वल्लीतो॥४१॥ तं-कथितं महर्षिभिरतो न निरर्थकमिति ।। पनस आम्रश्चिश्चा-चिश्चनिका 'आँबिली' इत्यर्थः तत- अविरिक्कसारिपिंडो,विरिका वि य सारिदिट्ट न वि कप्पे। स्तालो नालिकेरी इत्येवमादिका भवन्ति फलवृक्षाः । लोम- अद्दिढसारिएणं, कप्पंति य ताहे घेत्तुं जे ॥५०॥ सिका पुषिका ताम्बूलिका इत्येवमादिका वल्ल्यः । तदेवं
अविरिकान्यपि च सागारिकेण दृष्टानि न वैकल्पन्ते,ततो. वृक्षा वल्ल्यश्चोक्लाः।
दृष्टानि सागारिकेण ग्रहीतुं कल्पन्ते 'जे' इति पादपूरणे । संप्रति एतेष्वपरिमितस्य व्याख्यानमाह
उपसंहारमाहपरोग्गहं तु सालणं, अकमेज्ज महीरुहो ।
एवं अत्तट्ठाए; सयं परूढाण वा वि भणियमिणं । छिंदामि त्ति य तेणुत्ते, ववहारो तहिं भवे ॥४२॥
इणममो श्रारंभो; समणट्ठा वा वि एतम्मि ॥ ५१ ॥ महीरुद्दो--वृत्त आघ्रादिसागारिसत्कः शालया-शाखया,
एवमुक्तप्रकारेणात्मार्थमारोपितानां स्वयं वा प्ररूडानामिदगाथायां पुस्त्वं प्राकृतत्वात् । विवर्द्धमानः परगृहमाक्रमेत् ,
मनन्तरोनं भणितम् । व्य० उ०। (अत्रत्या विशेष वक्तव्यता १-मविरिक्तः।
'प्राधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे २४२ पृष्ठे गता।)
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सागारियागार अभिधानराजेन्द्रः ।
सातवाहण सागारियागार-सामारिकाकार-पुं० । सहागारेण-गृहेण | नुक्रोशः । सदये, उत्त० २२ अ० । वर्तत इति सागारः स एव सागारिको गृहस्थः । स एवा- साणुक्कोसया-सानुक्रोशता-स्त्री० । सदयतायाम् मौ०। कारः प्रत्याख्यानहेतुः सागारिकाकारः। सागारिकं वर्ज- | स्था० । सानुकम्पसायाम् , भ०८ श० उ० । विश० । यित्त्वेत्यर्थे, पश्चा०५ विव०। 'सागारियागारेणं'सहागा | साणाय-सानुनाद-पुं० । यत्र जल्पतां प्रतिशम्द उत्तिरेण वर्तत इति सागारः, स एव सागारिको गृहस्थः, स ते तस्मिन् प्रदेश, विशे० पवाकारः प्रत्याख्यानापवादः सागारिकाकारस्तस्मादन्यत्र, गृहस्थसमक्ष हि साधूनां भोक्तुं न कल्पते, प्रवचनाद्यप
साणुदयबंधिणी--स्वानुदयबन्धिनी-स्त्री० । खस्यानुदय एव घातसंभवात् । यत उनम्-“छकायदयावंतो, वि संजओ
बन्धो विद्यते यासां ताः स्वानुदयबन्धिम्यः । ' कम्म 'शम्दे दुल्लई कुणह बोहिं । श्राहारे नीहारे, दुगं(गुं)छिए पिंडगहणे तृतीयभागे २७४ पृष्ठे दर्शितासु तथाविधकर्मप्रकृतिषु, पं. य॥१॥" ततश्च भुजानस्य यदि सागारिकः कश्चिदा
सं० ३ द्वार। याति, स च यदि चलस्तदा क्षणं प्रतीक्षते, अथ स्थि- साणुप्पग-सानुप्रग-न। प्रत्यूषवेलायाम् , वृ०१उ०२मरस्तदा स्वाध्यायादिव्याघातो मा भूदिति ततः स्थानादन्य- क० । चतुर्भागावशपचरमायां पौरुभ्याम् ,नि० चू०१० उ०। सोपविश्य भुञ्जानस्यापि नेकाशनभङ्गः। गृहस्थस्थापि ग्रेन
साणुप्पगभिक्खा-सानुप्रगभिक्षा--स्त्री०। सानुप्रगे-प्रत्यूमनेदृष्टं भोजनं न जीर्यति तत्प्रमुखः सागारिको ज्ञातव्यः ।
लायां या लभ्यते भिक्षा सा सानुप्रगभिक्षा । प्रातःकाप्रव०४ द्वार । ध०। सागारोवोग-साकारोपयोग-पुं० । श्राकारसहिते, प्रशा०।। लिक्या भिक्षायाम् ,वृ० १ उ०२ प्रक०।। २८ पद । (व्याख्या'उवोग' शब्दे २ भागे ८६० पृष्ठे गता।)
साणुप्पास-सानुप्रास-त्रि० । अनुप्राससहिते, अनु०।साडग-शाटक-न० । परिधानवस्ने, शा०१०१६ अ०।- | साणुबंध-सानुबन्ध-त्रि० । निरुपक्लिष्टे कर्मणि, "श्रमायोऽपि नमात्रे, विपा०१ श्रु०७०।भाशा।
हि भावेन,माय्येच तु भवेत् कचित् । पश्येत्स्वपरयोर्यत्र,सानुसाडण-सातन-न। अशोपाङ्गानां विशरणे, सूत्र०११०५ बन्धहितोदयम् ॥१॥" ध० ३ अधि० । अ०१ उ०।
साणुबंधदोस-सानुबन्धदोष-पुं०। निरुपक्लिष्टकर्मलक्षणे दोसाडसा-साटना-स्त्री० । उत्सर्गे त्याजने, श्राव०५०। । थे, षो०१२ विव०। साडिया-साटिका-स्त्री० । परिधानवस्ने, अनु ।
साणुभव--स्वानुभव-पुं० । स्वीयज्ञानप्रसरे, " स्वकीयश्रुतमादी-शादी-स्त्री० शटति गच्छति इति शाटी। पयसि, चिन्तोत्तरोत्पन्नभावनाज्ञाने, “श्रुताब्धेः संप्रदायाच, साप्रव० ४ द्वार।
त्वा स्वानुभवादपि।" ध०१ अधिक। साडीकम्म-शाकटिककर्मन-न । शकटानां घटनविक्रयवा- | साणराग-सानगरा--पं० । अनरले. तथाविधा
साणुराग-सानुराग-पुं०। अनुरक्ने, तथाविधानुरागयुक्त्वेहनरूपे, उपा०१०भ०। शाकटिकत्वेन जीवने , तत्र नाप्रशस्तदृष्टी, महा० ३ ० । गवादीनां बन्धबधादयो दोषा इति कर्म न उपभोगपरिभो
सागुलट्टियागाम-सानुयष्टिकाग्राम-पुंगस्वनामख्याते प्रामे, गवतातिचारत्वं तस्य । पश्चा०१ विव० भ०। श्रा० श्रा
यत्र छमस्थविहारेण विहरन् वीरजिनः भद्रप्रतिमया व० । शकटानां तदङ्गानां चक्रोादीनां स्वयं परेण वा वृ
तस्थौ । प्रा० म०१ अ०। प्रा० चू० । त्तिनिमित्त निष्पादने, विक्रयवाहने च । ध०२अधि० । "शक टानां तदङ्गानां, घटन खेटन तथा। विक्रयश्चेति शकट-जी- सात-सात-न० । सौख्ये, चं० प्र०२० पाहु। स०प्र०ा सखे, विका परिकीर्तिता ॥१॥" प्रव०६ द्वार ।
उत्त० १ ० । सुखहेती, उत्त० २ ०। प्रश्नः । साडोल्लय-शाटोलक-न० 1 उत्तरीयवस्ने, शा०१ श्रु०१८ अगसातत्त-सातत्य--न । नैरन्तर्ये , स्था० १० ठा०३ उ०। साण-श्वन-पुं० । श्वन्शब्दस्य सायादेशः । कुकुरे,उत्त०१० सातवाहण-सातवाहन-पुं० । स्वनामख्याते नृपभेदे, ती०५२ श्राचा। अनु० । उत्त० । दश । निचूभ० । श्राचा०। कल्प । प्रा० चूछ। तचरित्रं त्वेवम्-अथ प्रसङ्गतः परसमयसाण-पुं०। बुरिकादिक्ष्ण्योत्तेजके मसृणपाषाणे , अष्ट० | लोकप्रसिद्ध सातवाहनचरित्रशेषमपि किंचिदुच्यते-श्रीसात१५ अष्ट । प्रा० म० । पाइ० ना०।।
वाहने क्षिति रक्षति पश्वशतवीराः प्रतिष्ठानगरान्तस्तथा व
सन्ति स्म पञ्चाशनगराद्वाहः । इतश्च तत्रैव पुरे एकस्य द्विसाणंदसमाहि-सानन्दसमाधि-पुं० । सुखप्रकाशमयस्य स
जस्य सनुप्पोद्धतः शूद्रकाख्यः समजनि। सच यशश्रम - स्वस्योद्रेकाधिक्यात्तथाविधे समाधौ, द्वा० २० द्वा० । पण कुर्वाणः पित्रा स्वकुलानुचितमिति प्रतिषिद्धो नास्थासाणय-शाणक-न० । शणवल्कनिष्पन्न, श्राचा० २ श्रु० १ त् । अन्येद्युः--सातवाहननृपतिः वापला-खूदलादिपुरान्तचू०५ उ०१ उ० | स्था० । बृ० ।
वर्तिवीरपश्चाशदन्वितः पश्चाशद्धस्तप्रमाणां शिला श्रमासाणि-शाणी-स्त्री० । शणसूत्रमय्यां शाटिकायाम् , दश०५
र्थमुत्पाटयन् दृष्टः, पित्रा समं गच्छता द्वादशायदेशी
येन शूद्रकेण केनापि वीरेणाकुलचतुष्टयं , केनखित्वालाअ०१उ०।
न्यपरेण त्वलान्यष्टौ शिला भूमितस्तत्रोत्पाटिता महीजासाणुक्कोस-सानुक्रोश-त्रि० । सहानुकोशेन वन्त इति सा- निना त्वाजानुनीता इत्यवलोक्य पदकः स्फूर्जितर्जित.
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(६३४ साहवाहणे अभिधानराजेन्द्रः।
सातवाहए मवादात्-भो-भो मवत्सु मध्ये किं शिलामिमां मस्तकं न क. | बदागमन मिति १ तेनाभिदधे-महाराज! भवतः कीर्ति श्चिदुद्धर्तमीष्टे । तेऽपि सदर्पमवादिषुर्यथा त्वमेवोत्पाटय यदि समाकर्ण्य करुणरुदितव्याजेनात्माने झापयित्वा त्यामसमर्थम्मन्योऽसि । शूद्रकस्तदाकराय शिलां वियति तथोच्छा-1
हमुपागमम् , दृष्टश्च भवान् कृतार्थे मेऽद्य च चुक्षी जाते, इलयांचकार यथा सा दूरमूर्द्धमगमत्-पुनरवादि शूद्रकेन | ति । कां कलां सम्यग् वेत्सीति राशा पृष्ठे तेनोक्रम्-देव ! गी यो भयत्स्वलभूष्णुः स खल्विमा निपतन्तीं बिभर्तु । सात- तकलां चेनिं । ततो राक्ष आशया निरवगीतं गीतं गातुं प्रच. वाहनादिवीर योद्धान्तलोचनैरूचे स एव सानुनयम् । यथा क्रमे । क्रमेण तद्वानकलया मोहिता सकलाऽपि नृपतिप्रमुभो!महाबल! रक्ष रक्षास्माकीनान प्राणानिति । स पुनस्तां पत- खा परिषत् । स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां मायां निर्माययालु तथा मुष्टिप्रहारोग प्रहतवान् यथा सा त्रिखण्डतामन्य
महीपतेर्महिषी महनीयरूपधेयां अपजिहीर्षुरुपागतो बभूभूत् । तत्रैकं शकल योजनत्रयोपरि न्यपतत् , द्वैतीयिकं च
व । न च विदितचरमेतत्कस्यापि लोकैस्तु शीर्षमात्रदखण्डं नागदे तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे, चतुष्पथमध्ये न प
शनात्तस्य प्राकृतभाषया 'सीसुला' इति व्यपदेशः कृतः । त. तितमद्यापि तथैव वीक्ष्यमाणास्ते जनाः, तद्वलविलसित
दनु प्रतिदिनं तस्मिन्नपि तुम्बुरौ मधुरतरं गायति सति श्रुतं चमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शद्रकं सुतरां सत्कृत्य पुराss
तत् स्वरूपं महादेव्या,दासीमुखेन भूपं विज्ञाप्य तच्छी खा. रक्षकमकरोत् । शस्त्रान्तरेण प्रतिषिध्य दण्डधारकस्य तस्य
न्तिकमानायितम् प्रत्यहं तमजिसपत् गझी। दिनान्तरे गत्री दराडमेवायुधमन्वाझासीत् । न च शूद्रको बहिश्चरान् पुरमध्ये |
प्रस्तावमासाद्य सद्य एवापहरति स्म तां मायासुरः, आरोपप्रवेणुमपि न दत्तवान् , अनर्थनिवारणार्थम् । अन्यदा स्वसौ
यामास च ताम् । घण्टाबलम्बिनामनि स्वविमाने । राशीच धस्योपरितले शयानः सातवाहनः क्षितिपतिमध्यरात्रे
करुण क्रन्दितुमारेभे। अहोऽहं केनाप्यपाहिये। अस्ति कोऽपि शरीरचिन्तार्थमुत्थितः , पुराहिः परिसरे करुणं रुदितमाकर्ण्य तत्प्रवृत्तिमुपलब्धु कृपाणपाणिः परदुःखि
धीरः पृथिव्यां यो मां मोचयति । तच्च वदलाभिख्येन चोरेप
श्रुत्वा धावित्वा समुत्पत्य च तद्विमानघण्टा पाणिना गाढम तहदयतया गृहान् निरगमत् । अन्तराले शद्रकेणाऽवलोक्य
बधार्यत । ततस्तत् पाणिनावष्टब्ध विमान पुरस्तान प्राचाली सप्रश्रयं प्रणतः पृष्टश्च महानिशायां निर्गमनकारणम् धरणी
त् । तदनु चिन्तितं मायासुरेण । किमर्थ विमानमेतत्र सर्पपतिरवादीत्-अयं बहिः पुरः परिसरं करुणक्रन्दितध्वनिः श्र
ति । यावदद्राक्षीत्तं वीरं हस्तावलम्बितघण्टाम् । ततः खनेन वणध्वनिपथिकीभावमनुभविनस्ति , तत्कारणं ज्ञातुं व
तद्धस्तमच्छिन्दत्, पतितः स पृथिव्याम् । स चासुरःपुरःप्रा. जन्नस्मीति राबोक्ने शूद्रको व्यजिशपत्--देव ! प्रतीक्ष्यपादैः
चलत् । ततो विदितदेव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः पश्चाशस्वसौधालंकरणाय पादायवधार्यतामहमेव तत्प्रवृत्तिमाने
तमेकोनां वीरानादिशत् , यत्पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियता, केच्यामीत्याभिधाय वसुधानायकं व्यावृत्त्य स्वयं रुदितध्व
नेयमपट्टतेति । ते प्रागपि शूद्रकं प्रत्यसूयापराः प्रोचुः-मभ्यानुसारेण पुराद्वहिर्गन्तुं प्रवृत्तः। पुरस्ताद् वजन् दत्तकों
हाराज! शूद्रक एव जानीते। तेनैव तुच्छीर्षकमानीतं, तेनैव गोदावर्याः स्रोतसि तद् रुदनमश्रौषीत् । ततः परिकरबन्धं
च देवी-जहे, ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपणमाक्षविधाय शुदकस्ता यावत्सरितो मध्प प्रयाति ता
फ्यत् । तदनु देशरीतिवशात्तं रक्तचन्दनानुलिप्ताङ्गं शकवत्पयः पूरप्लाव्यमान नरमेकं रुदन्तं वीक्ष्य बभाषे-भोः
टेशायित्वन सह गाढं बध्वा शूलायै याबद्राजपुरुषाश्चेकस्त्वं किमर्थं च रोदिषीयभिहितः । स नितरां रुदति
लुस्तावत्पञ्चाशदपि वीराः संभूय शूद्रकमबोचन् । भो महानिबन्धं केनापि यादसा विधृतोऽयं भवेदित्याशङ्कय सद्यः
वीर! किमर्थमवं दिदण्डेव म्रियते भवान्, 'अशुभस्य कालकृपारिणकामेवाऽवाहयामास शूद्रकः । तदनु शिरोमात्रमेवं हरणमि' ति न्यायात् मार्गय नरेन्द्रात् कतिपयदिनावधिम् , शद्रकस्योदषुः करतलमारोहत् । लघुतया तच्छिरः प्रक्षतु. शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम् । किमकाण्ड पब स्वकीयां धिरधारमिवालोक्य शूद्रको विशादमापनश्चिन्तयति स्म। वीरत्वकीर्तिमपनयसि । तेनोक्तम्-गम्यतां तर्हि उपराजं,वि. धिग्मामप्रहर्सरि प्रहर्तारं शरणागतरक्षकं चेत्यात्मानं निन्दन ज्ञपयतामेतमर्थ राजा । तैरपि तथाकृते प्रत्यानायितःशूद्रकः वज्राहत इव क्षणं मूर्छितस्तस्थौ 1 तदनु समधिगतचैतन्य- क्षितीन्द्रेण । तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृता-महाराज। दीश्विरमचिन्तयत्कथमिवैतत् स्वदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेद- यताम् अवधिः,येन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीम् ,तदपहारिण यिष्यामि इति लज्जितमनास्तथैव काष्ठश्चितां विरचय्य तत्र च । राक्षा दिनदशकमवधिर्दत्तःशद्रकगह च सारमेयद्वयमाज्वलनं प्रज्वाल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदर्चिषि प्रवेष्ट्र सीत्तत्सहचारि, नृपतिरवदत्-एतद्भपणयुगलं प्रतिभूयमप्रववृते तावत्तन मस्तन निजगदे भो महापुरुष! किमर्थमि- स्मत् पार्श्वे मुश्च स्वयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये हिण्डत्थं व्यवसीयते, भवता यावदहं शितेमात्रमेवास्मि, सैहिके- तां महीमण्डलम् ,सोऽप्यादेशः प्रमाणमित्युदीर्यवान् प्रतस्थे। यवत्सदा तद् वृथा मा विषीद, प्रसीद मां राशः समी- भूचक्रशक्रस्तत्कौलेयकद्वन्द्वशृङ्खलाबद्धं स्वरय्यापादयोरपमुपनयति तद्वचनं निशम्य चमत्कृतचित्तः प्राणित्यय- यध्नात् । शूद्रकस्तु परितः पर्यटश्चमानोऽपि यावत् प्रस्तुमिति प्रष्टः शूद्रकस्तच्छिरः पट्टांशुकवेष्टितं विधाय प्रात- तार्थस्य वार्तामात्रमपि क्वापि नोपलेभे तावदचिन्तयत् , स्सातवाहनमुपानयत, अपृच्छदथ पृथ्वीनाथः । शूद्रक ! कि अहो ममेदमपयशः प्रादुरभूद्यदयं स्वामिद्रोही मध्ये भूत्वा मिदम्?,सोऽप्यवोचत् देव! सोऽयं यस्य क्रन्दितध्वनिर्देवेनरा देवीमुपाजीहरदिति। न च कापि सिद्धिशुद्धिलब्धा तस्यास्त. चौ शुश्रुवे.इत्युक्त्वा तस्य प्रमगुक्तं वृत्तं सकलमाविदयत् । पुना न्मरणमेव मम शरणमिति विमृश्य दारुभिश्चितामरचयत्, राजा तमय मस्तकममातीत्। भोः कस्त्वम्? किमर्थ चात्रभ- ज्वलन चाज्वालयत् व्यावन्मध्ये प्राविशत् तावत्ताभ्यां शुनका.
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(६३५) सातवाहण अभिधानराजेन्द्रः।
सातवाहणु भ्यां देवताधिष्ठिताभ्यां ज्ञातम् । यदस्मदाधिपतिर्निधनापन्नो- यां टङ्कित्वा मामित्थं व्यडम्बयत् , अहं च प्रसारितरसनऽस्तीति । ततो दैवतशक्त्या-शृङ्खलानिर्गतौ गतौ तत्र, य- समुद्रान्तःसंचरतो जलचरादीन् व्यवहरन् प्राणयात्रा कश्रासीद् शुद्रकरचिता चिता । दशनैः काष्ठमाकृष्य शूद्रक रोमि इति श्रुत्वा शूद्रकोऽप्यभाणीत् , अहं तस्यैव महीभृतो बहिनिष्काशयामासतुः। तेनाप्यकस्मात् तौ विलोक्य विस्मि
भृत्यः शूद्रकनामा,तामेव देवीमन्वेष्टुमागतोऽस्मि । तेनोकतमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ!, किमेतत् कृतं भव- मेवं चेत्तर्हि मां मोचयत । यथाऽहं सह भूत्वा तं दर्शयामि द्याम् ?, यत् राज्ञो मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति य- तांच देवीम् । तेन स्वस्थानं परितो जातुषं दुर्गे कारितमस्ति प्रतिभुवावपि तेनात्मना सह नीताविति । भषणाभ्यां बभा. तश्च निरन्तरं प्रज्वलदेवास्ते ततस्तदुल्लङ्ग्य मध्ये प्रविश्य तं घे। धीरो भव, अस्मदर्शितां दिशमनुसर सरभसम् । का चि.
निपात्य देवी प्रत्याहर्तव्या, इत्याकार्य शुद्रकस्तेन कृपाणन न्ता तवेत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थिती, तेन सार्द्ध क्रमात् प्रा
तत् काठबन्धनानि छित्त्वा तं पुरोधाय दैवतगणपरिवृतः प्र सौ कोल्लापुरम् । तत्रस्थं महालक्ष्मी देव्या भवनं प्रविष्टौ । तत्र |
स्थाय प्राकारमुल्लङ्घ्य तत्स्थानान्तः प्राविशत् । दैवतशूद्रकस्तां देवीमभ्यर्य कुशनस्तरासीनस्त्रिरात्रमुपावसत् ।।
गणांश्वावलोक्य मायासुरः स्वसैन्यं युद्धाय प्रागियाय । अनुप्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्-वत्स! किं
तस्मिन् पश्चतामञ्चिते स्वयं योद्धमुपतस्थे । ततः क्रमेण शूद्रमृगयसे? शुद्रकेणोक्तम्-स्वामिनि ! सातवाहनमहीपालम
कस्तेनासिना तमवधीत् । ततो घण्टावलम्बविमानमारौप्य हिष्याः शुद्धिम् । वद-काऽऽस्ते केनयमपहता?। श्री
देवी,देवतगणैस्सह प्रस्थितः प्रतिष्ठानं प्रति ; इतश्च दशदिदेव्योदितं-सर्वान् यक्षराक्षसभूनादिदेवगणान् समील्य
नमयधीकृतमनागतमवगत्य जगत्यधिपतियाहतवान् अहो तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि. परं तेषां कृते त्वया बल्यु
न मम महादेवी, न च शूदकवीरो नापि च तौ रसनालिहौ, पहारादि प्रगुणीकृत्य धार्यम् । यावश्च ते कणेहत्य बलादुपभुज्य प्रतीता न भवेयुस्तावत् त्वया विस्तरेणे
सर्व मयैव कुबुद्धिना विनाशितमिति शोचन् सपरिच्छद क्षणीयाः, ततः शूद्रकस्तेषां देवानां तर्पणार्थ कुराई बि
एव प्राणत्याग चिकीर्षः पुरावहिश्चितामरचयञ्चन्दनादिदारुरचय्य होममारेभे। मिलिताः सकलदैवतगणाः स्वां स्वां
भिः । यावत् क्षणादाशुशुक्षणि क्षेप्स्यति परिजनश्चिती तावभुक्तिमग्निमुखेन जगृहे , तावत्तद्धोमधूमः प्रस्मरः प्राप
द्व पक एको देवगणमध्यात् समयासीत् , व्यजिज्ञपत्सतत् स्थानं यत्र मायासुरोऽभूत् । तेनापि परिक्षातलभ्यादि
प्रश्रयम् । देव ! दिष्टया वर्द्धसे महादेव्यागमनेन । तनिशम्य प्रशूद्रकहोमस्वरूपेण प्रेषितः स्वभ्राता कोलासुरनामा होम
श्रवणरम्य नरेश्वरः स्फुरदानन्दकन्दलितहदयः ऊर्द्धमवलोकप्रत्यूहकरणाय । समागतश्च वियति कोल्लासुरः स्वसेनया
यन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शूद्रकं चाश्रयमपि विमानादुत्ती समः । दृष्टश्च दैवतगणैश्चकिसंभूतः,ततो भषणौ दिव्यशक्त्या
र्य राज्ञः पादावपतत् , महादेवी च।अभिननन्द.सानन्दं मेदिनी. युयुधाते दैत्यैः सह । क्रमान् मारितौ च तौ दैत्यैः। ततः
न्दुः शूद्रकम् ,राज्यार्द्ध चैव तस्मै प्रादिता सोत्सवमन्तर्नमरं प्र शुद्रकः स्वयं योद्धं प्रावृतत् । क्रमेण दण्डव्यतिरिक्लपहर
विश्य श्रुतशूद्रकचारुचरितःसह महिण्या राज्यश्रियमुपवुभुजे णान्तराभावाद्दण्डेनैव बहून् निधनं नीतवानसुरान् । ततो ]
महाभुजः । इत्थंकारं नानाविधान्यवदातानि सातक्षितिपालदक्षिणबाहुं दैत्यास्तस्य चिच्छिदुः। पुनर्वामहस्तेन दण्डयु
स्याकयन्ति नाम व्यावर्णयितुं पार्यन्ते । स्थापिता चानेन गो. धमकरोत्तस्मिन्नपि छिन्ने दक्षिणाविणोपात्तदण्डो यो | दावरीसरित्तीरे महालक्ष्मी प्रासादः,अन्यान्यपि यथाई देवता लग्नः । साऽपि दैत्यैलूनः ततो वामपदधृतयष्टिरयुध्यत , त
निनिवेशितानि तत्तत्स्थानषु । राज्यं चिरं भुञ्जति जगतीजा. मपि क्रमादच्छिन्दन्नसुराः । ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे त- नावन्यदा कश्चिद्दारुभारहारकः कस्यचिद्वणिजः वीथौ प्रत्यतस्तैर्मस्तकमच्छेदि । अथ कबन्धतृप्ता देवगणास्तं शूद्रकं हं चारूणि दारूण्याहृत्य विक्रीणीते स्म । दिनान्तरे च तस्मिभूमिपतितशिरस्कं दृष्टा , अहो अस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्य
ननुपेयुषि वणिजा तद्भगिनी पृष्ठा-भवद्भाताऽद्य नागतो मद्वी किं जातमिति परितप्य योद्धं प्रवृत्ताः । कोलासुरममारय- ध्याम् , तया बभाण,श्रेष्ठिन् ? मत्सोदर्यः स्वर्गिषु संप्रति प्रतिन ततः श्रीदेव्या अमृतेनाभिषिच्य पुनरनुसंहिताङ्गश्चक्रे शू- वसति । वणिग् अभारणीत् , कथमिव साऽवदत्कङ्कणबन्धादाद्रकः, प्रत्युज्जीवितश्च, सारमेयावपि पुनर्जीवितौ , देवी च रभ्य विवाहप्रकरणे दिनचतुष्टय नरः स्वर्गिचिव वसन्तमाप्रसन्ना सति तस्मै खड्गरत्नं प्रददौ । अनेन त्वमजेयो भ- त्मानं मन्यते । तत्तदुत्सवालोकनकौतूहलातचाकर्ण्य राजाविष्यसीति च वरं व्यतरत् । ततो महालक्ष्म्यादिदैवशगणैः प्यचिन्तयत् , अहो अहं किन्न स्वर्गिषु वसामि,चतुर्ध्वपि दिने सह सातवाहनदेव्याः शुद्धयर्थ समग्रमपि भुवनं परिभ्रा- वनवरतं विवाहोत्सवमय पच स्थास्यामीति विचार्य चातुर्व. म्यन् प्राप्तः शूद्रको महार्णवम् । तत्र चैकं वटतरुमुच्च रायें यां यां कन्यां युवति वा रूपशालिनी पश्यति शृणोति स्म स्तरं निरीक्ष्य विश्रमार्थमारुरोह, यावत्पश्यति तच्छाखायां वा तां तां सोत्सवं पर्यणषीत् । एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लम्बमानमधःशिरसं काष्ठकीलिकापवेशितोर्ध्वपादं पुरुष- लोकैश्चिन्तितमहो कथं भाव्यमनपत्यैरेव सर्ववर्णैः स्थेयम् , मेकम् । स च मदोन्मदिष्णुर्मदग्रजः प्रतिष्ठानाधिपतेः सा- सर्वकन्यास्तावद्राव वियोढा । योपिदभावे च कुतः संतति. तवाहनस्य महिषी रिरंसुरपाहरत् सीसामिव दशवदनः। सा | रिति । एवं प्रतिपन्नेषु लोकेषु विवाहवाटिकानाम्नि प्रामे वाच पतिव्रता तं नेच्छति, तदनु मया प्रोक्नोऽग्रेजन्मा-न युज्य- स्तव्यः एको द्विजः पीठजादेवीभाराध्य व्यजिज्ञपद्भगवति । ते परदारापहरणं तव । " विक्रमाकान्तविश्वोऽपि, परस्त्रीषु विवाहकस्मिदपत्यानां कथं भावीति । देव्योक्तम्-त्वद्भबनेरिरंसया । कृत्वा कुलक्षयं प्राप, नरकं दशकन्धरः॥१॥" ऽहमात्मानं कस्यारूपं कृत्वाऽवतरिष्यामि । यदा मां राजा इत्यादिवाग्भिनिषिद्धः कुद्धो मछ मायासुरोऽस्यां घटशाखा- । प्रार्थयते तदा तस्मै दयाशेषमहं लभिष्ये । तथैव राजा
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(६३६) अभिधानराजेन्द्र । ।
सातवाहण
तां रूपवर्ती श्रुत्वा विश्वायत सोऽपि जगाद दत्ता म या परं महाराज ! तत्रागत्य मत्कन्योद्वोढव्या । प्रतिपन्नं राज्ञा । गणकदत्ते लग्ने क्रमाद्विवाहाय प्रचलितः, प्राप्तश्च तं प्रा स्कुले च नृपतिः देशाचारानुरोधाद्वयोरन्तराज धनिकासा असगंधा पतिला तिर स्करणीमपनी यापदम्पोम्यस्य शिरसि लाजान् चिकरीतुं प्रवृत्तौ तदनु किल हस्तलेपो भविष्यति तावद्राजा तां रौद्ररूप राक्षसीमिशिलाजाः कठिनपापाय कर रूपा राशः शिरसि लगितुं लग्नाः । क्षितिपतिरपि किमपि वैकृतमिदमिति विभावयन् पलायत । तावत्सा पृष्ठल नाम कलानि वर्षन्ती प्राप्ता । ततो नरपनि नगदं प्राविशनिजजन्मभूमिम्, तत्रैव च निधनमानशे इति । श्रद्यापि सा पीजा देवी प्रतो हिरास्ते निजप्रासादस्या शूइकोऽपि मेण कालिकादेव्या स्वरूपं विकृत्य वापी प्रविष्टषा करुणरसितेन विप्रालभ्यत, निष्कामणार्थं प्रविशन् पतितस्य तस्य कृपाणस्य कूपद्वारे तिर्यक्पतनाच्छिन्नाङ्गः पञ्चतामानञ्च । म हालयादि परवितरणावखरोऽस्मादेव की स्याप्तिवित्रीत्यादिमासीत् । ततः शक्तिकुमारी राज्ये मि पिक्लः सातवाहनायतौ, तदन्तरमद्यापि राजा न कश्चित्प्रति ष्ठाने प्रविशति वीरक्षेत्रे इति । अत्र च यदसंभाव्यं कचिद्भवेत् तत्र परसमय एव मन्तव्यो हेतु:, यन्नासंगतवाग् जनो जैनः | इति प्रतिष्ठानकः सातवाहनचरित्रलेशय । विरचितः श्रीजिनप्रभसूरिभिः । “चक्रे प्रतिष्ठानकल्पः श्रीजिनप्रभरि भिः । सातवाहनभूपस्य, कथांशश्च प्रसङ्गतः ॥ १॥" ती० ३३ कल्प | आ० चू० । ( सातवाहन कथा ' दित्तचित्त ' शब्दे चतुर्थभागे २५१८ पृष्ठे गता ॥ )
|
साता माता श्री० सुखरूपायां वेदनाम् प्रा० ३५ पद साताकम्म सात कर्म्मन्न० बन्धदशानां दशमेऽध्ययने
स्था० १० ठा० ३ उ० । तच्च विच्छिन्नमिदानीं नोपलभ्यते
स्था० १० ठा० ३ उ० ।
।
सातागारव - सातगौरव न० । सुखशीलतायाम्, सूत्र०१०८० सातागारवणिहुय-सातगौरवनिभृत- त्रि० । सुखशीलतार्थमनुद्युक्ते, सूत्र० १० ८ ० । सातासातासातासाता श्री० [सुखदुःखात्मिकार्या बेदनायाम्, प्रज्ञा० ३५ पद । सातासायपरितावणमय सातासातपरितापनमय त्रि०। सा तं च सुखमसातं परितापनं च दुःखजनितोपताप पतन्मयमेतदात्मकम् । सुखदुःखमये प्रश्न० ३ ० द्वार सातासोक्स - सावसौख्य न० । शाहादरूपे सोये जी०४ प्रति० ३ ३० ।
साति-- साति- अविश्रम्भे, प्रश्न० २ अाध० द्वार । स्वाति श्री नक्षत्र सू० प्र० १० पाहु० । सातिजोग - सातियोग- पुं० । मायाविशेषे, स० । सातिजोगजुत्त-सातियोगयुक्त - त्रि० । अशुभमनोयोगयुक्ते,
आव० ४ अ० ।
सातजणास्वादना - बी० कर्मवधारवादे, नि००१ ४०
1
साम
सातिणक्खन-स्वातिनक्षत्र न० बाबुदेयता के नक्षत्र, ०
स्वातिनक्षत्रं कतितारकम् -
सातिणक्खते एगतारे पते । ( सू० १४ ) स० १ सम० ।
सातोवभोग- सातोपभोग - त्रि० । सातस्य - सातवे दनीयस्य कर्मणो भोगो यत्र तत्सातोपभोगम् सुखखाने, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । सादंडी-सादण्डी-स्त्री० । कन्दविशेषे भ० ७ श० ३४० । सादि-सादि- त्रि० । आदियुक्ते, उत्त० १ ० । सादिय-सादिक-त्रि महादिना मायथा वर्त्तत इति सादिकम् । समाये, सूत्र० १० ८ श्र० । सादिवीससाकरण - सादिविश्रसाकरण - न० । रूपिद्रव्याणां च aaणुकादिप्रक्रमेण भेदसंघाताभ्यां स्कन्धत्वापत्ती, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० ।
सादिव्व-सादिव्य- न० । देवताप्रयुक्ते अस्वाध्यायिके, प्रब०
२५४ द्वार ।
सादीणगंगा-सादीनगङ्गा- स्त्री० । गोशालक परिभाषिते सप्तमहागङ्गात्मके परिमाणभेदे भ० १५ श० । साधग-साधक- त्रि० । निर्वर्त्तके, पं० सू० १ सूत्र ।
(
सापाणि- स्वकपाणि- पुं० । स्वहस्ते, 'सापाणिणा श्रसिणा छिंदित्ता कमडलुं पक्तिवित्तए । भ० १४ श०८ उ० । साबर- शाबर-पुं० । शबररूपधारिशिवप्रोक्ले मन्त्रे, श्रा०म० अ० । साबाधा-साबाधा स्त्री० [सह प्रावाधा अनुयालेन सह वर्तमाने, प्रव० १ द्वार । साभरग-साभरक-देशीवचनात् (०१४० १०) राष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रद्वीपे प्रचलिते रूपके, द्वावुत्तरापथे एको रूपकः । वृ० ३ उ० ।
साभाविय स्वाभाविक त्रि० । स्वस्मिन भाये भया लाभाविकः। प्राकृते सूत्र० १० १० १० ते शा० १ ० १६ श्र० प्रा० म० । साभिम्मह साभिग्रह-त्रिभिप्रभ दाः प्रतिज्ञाविशेषण, सहाभिनदेव पन्त इति सामिमाः । गृहीताभिमदेषु ० ६० नि० ० ।
साम - सामन् ज० । सर्वेषामपि जीवानां प्रिये, विशे० शा०म०॥ प्रियवचनादौ, स्था०३ ठा० ३ उ० । शा०। विपा०| प्रेमोत्पादने, विषा०२ २०३ श्र० । साम मिली । सर्वजीबेषु मैत्री साम भ रायते । विशे० । स्था० । सामनि, स्था० । “परस्परोपकाराणां दर्शनं १ गुणकीर्त्तनम् २। सम्बन्धस्य समाख्यान ३-मायत्या सम्प्रकाशनम् ॥१॥" अस्मिन् तेमा योजनमायतिः सम्प्रकाशनमिति । ' वाचा पेशलया साधु तामिति चाप्यर्णम् इति सामप्रयोग साम प स्मृतम् " ॥२॥ स्था० ३ ठा० ३ उ० । झा० म० ।
'9
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साम अभिधानराजेन्द्रः।
सामंतकिरिया सामनिक्षेप:
साम्प्रतं भावसामादि प्रतिपादयनाह-- निक्लेवो सामम्मि य,चउव्यिहो दुन्विहोय होइ दवम्मि।
आओवमाइ परदु-क्खमकरणं १ रागदोसमझत्थं २। आगम नोआगमओ,नोआगमओ य सो तिविहो।४८०।
नाणाइतिगं ३ तस्सा-इ पोअणं ४ भावसामाई १०३२ जाणगसरीरभबिए, सबइरिते अ सकराईसुं ।
आत्मोपमया-प्रात्मोपमानेन परदुःखाकरणं भावसामेति भावम्मि दसविहं खलु, इच्छा मिच्छाइयं होइ॥४८१॥ गम्यते , इह चानुस्वारोऽलाक्षणिकः । एतदुक्तं भवति-श्राइच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिा अनिसीहिया। मनीव परदुःस्वाकरणपरिणामो भावसाम , तथा 'रागद्वेआपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा॥४८२॥
षमाध्यस्थ्यम्' अनासेवनमा रागद्वेषमध्यवर्तित्वं सम , उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसविहा उ।
सर्वत्राऽऽत्मनस्तुल्यरूपेण वर्तनमित्यर्थः । तथा ज्ञानादित्रय--
मेकत्र सम्यगिति गम्यते , तथाहि-ज्ञानदर्शनचारित्रयोजएएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वुच्छं ॥ ४८३॥ । नं सम्यगेव , मोक्षप्रसाधकत्वादिति भावना, तस्य इ
आयारे निवखेवो, चउक्को दुविहोय होइ नायव्यो। ति सामादि सम्बध्यते,अात्मनि प्रोतनम्-श्रात्मनि प्रवेशनम् भागम नोआगमतो, नोआगमतो यसो तिविहो ।४८४।।
इकम् उच्यते, अत एवाऽऽह-'भावसामाई' भावसामादावेजाणयसरीरभविए, तव्वइरित्ते य नामग्याईसुं ।
तान्युदाहरणानीति गाथार्थः । श्राव०१० । श्रा० चू०।
सामवेद, विपा०१ श्रु०५०। सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०। भावम्मि दसविहाए, सामायारीइ आयरणा ।। ४८५ ॥ 'निक्खेवो' इत्यादि गाथाः पद प्रायः प्रतीतार्थाः । सूत्रव्या
श्याम-त्रि०। कृष्ण , श्राचा०१ श्रु०२३ उ० । प्रशा०। स्याने च काश्चिद्वयाख्यास्यन्ते, नवरं तव्यतिरिकं च'
श्यामवर्णत्वाच्छयामम् । श्राकाशे , भ० २० श०२ उ० । पशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं च । द्रव्यसाम-शकरादिषु, प्रादि
रमाधार्मिक विशेषे, यो हि रज्जुहस्तमहारादिभिः शातशब्दात्क्षीरादिपनि ग्रहः, ततश्च शर्कराक्षीरदधिगुडादीनां य
नपातनादि करोति, वर्णतश्च श्याम इति । स० १४ समः । स्परस्परमविरोधन व्यवस्थामम् , भावे साम दविध खलु' साडण पाडण तोडण, बंधण रज्जुल्लयप्पहारेहिं । अवधारणे, दशविधमेवेच्छामिथ्यादिकं सामाचारीस्वरू
सामा णेरइयाणं, पवत्तयंती अपुप्माणं ।। ७२ ।। पमिति गम्यते, भावसामत्वं चास्य तात्विकस्य क्षायोपशमिकादिभावरूपत्वात् परस्परमविरोधेन चावस्थानात् तथा
तथा अपुण्यवताम्-तीवासातोदये वर्तमानानां नारकाप्रत्यकप्ररूपणां वक्ष्ये इति प्रतिक्षामभिधाय यत् प्ररूपणान
णां सामाख्याः परमाधार्मिका एतचैतच प्रवर्तयन्ति । तभिधानं तदावश्यकनियुक्ना कृतत्वात् , तद्गाथयोरेव चैकक- यथा-शातनम्-अकोपालानां छेदनम् ,तथा पातनं-निष्कु
कत्वेनेह लिखितत्वान्न दुष्टमिति भाचनीयम् । सूत्रक्रमोमानं टादधोवज्रभूमौ प्रदोपः , तथा प्रतोदनम्-शूलादिना तोतु यथाविधं सर्वेषां सदा कृत्यत्वेन पूर्वापरभावस्याभाव- दन-व्यधन-सूच्यादिना नासिकादौ वेधः, तथा रज्ज्याप्रदर्शनार्थम् । उत्त० २६ अ० प्रा० म०।
दिना क्रूरकर्मकारिणं बध्नन्ति , तथा ताहग्विधलताप्रहारैसामं समं च सम्मं, इगमवि सामाइअस्स एगट्ठा। .
स्ताड्यन्त्येवं दुःखोत्पादनं दारुणं सातनपातनवेधनबन्ध
नादिकं बहुविधं प्रवर्तयन्ति-व्यारयन्तीति । सूत्र० १ श्रु० नाम ठवणा दविए, भावम्मि अतेसि निक्खेवो।१०३०।।
५०१ उ० । प्रश्न । महुरपरिणाम सामं, सम्म तुला सम्म खीरखंडणुई। दोरे हारस्स चिंई, इगमेश्राइं तु दबम्मि ॥ १०३१ ॥
सामइय-सामयिक-पुं० । समयः-सांख्यादीनां सिद्धान्तस्त
दाश्रितः सामधिकः । समयसिद्धान्तिते,स्था०३ ठा०३ उ०। इह सार्म समं च सम्यक 'इगमवि' देशीपदं क्वापि प्रदे
मगधजनपदे वसन्तपुरग्रामे खनामख्याते कुदम्बिनि , शाथै वर्तते, सम्पूर्णशब्दावयवमेवाधिकृस्याऽऽह सामायिक
क सूत्र. २ श्रु०६अ। स्यकाथिकानि । अमीषां निक्षेपमुपदर्शयन्नाह-नामस्थापमाद्रव्येषु, भावे च नामादिविषय इत्यर्थः, तेषां-सामप्रभृ-|
सामइयसम्मा-सामयिकसंज्ञा-स्त्री० । सिद्धान्तसङ्केतितभा. तीनां निक्षेपः , कार्य इति गम्यते । स चायम्-नामसाम | षायाम् , नि० चू० १ उ० । स्थापनासाम, द्रव्यसाम, भावसाम च । एवं समसम्य- सात-सामन्त-पंचनसमीपे, स्था १०ठा०३९० शा०॥ क्पवयोरपि द्रष्टव्यः । तत्र नामस्थापने चुराणे एब, द्रव्यसा-
ITEO० । मप्रभृतींश्च प्रतिपादयन्नाह-'महुरे' स्यादि, दहीघतो मधुरपरिणाम द्रव्य-शर्करादि द्रव्यसाम समं ' तुला ' इति । सामंतकिरिया-समन्तक्रिया-स्त्री० ।सामन्तोपनिपातियां भूतार्थालोचनायां समं तुलाद्रव्यं , सम्यक दीरखण्डयु- क्रियायाम् ,सा च द्विधा-देशसामन्तक्रिया, सर्वसामन्तक्रिक्लि:-क्षीरखण्डयोजनं द्रव्यसम्यगिति , तथा 'दोरे ' इति या चेति । प्रेक्षकान् प्रति यत्रैकदेशेनागमो भवति असंयसूत्रदवरके मौक्तिकान्येवाधिकृत्य भाविपर्यायापेक्षया, हार- तानां सा देशसामन्तक्रिया। सर्वसामन्तक्रिया यत्र सर्वतः-स स्य-मुक्ताकलापस्य चयन चित्तिः-प्रवेशनं द्रव्येक(व्यैक)म्, मन्तात् प्रेक्षकाणामागमो भवति सा सर्वसामन्तफिथा। श्रा० त पवाह-एयाई तु दबम्मि'सि-एतान्युदाहरणानि द्रव्य- चू०४ अाग्रहधा समन्तादनुपतन्ति पमत्तसंजयाणं अन्नपाणं विषयाणीति गाथाद्वयार्थः ।
प्रति अवंगुरिने संपातिमा सत्ता विणस्संति । श्राव०४०।
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( ६३८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामंतभद्दसूरि
सामंतभद्दसूरि - सामन्तभद्रसूरि - पुं० । चन्द्रकुलमूलस्य चन्द्रसुरेः शिष्प्पे, 'पूर्वमतश्रुतजलधिस्तस्मात् चन्द्रगुरोः सामन्तभद्रसूरीन्द्रः ।' ग० ३ अधि० ।
लिपननगरस्य सप्तमे
सामंतसिंह सामन्तसिंह पुं० लुक्य राजनिती० २५ कल्प सामंतोवनिवाइय - सामन्तोपनिपातिकन० । अभिनयदे, रा० । स्था० । सामंतोणिवाइया सामन्तोपनिपातिकी श्री० समन्तात् सर्वत उपनिपातो जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपा तिकी । क्रियाभेदे, स्था० २ ठा० १ उ० । प्रा० चू० । सामतोवनिवाइया किरिया दुविहा पलत्ता, तं जहा- जीवसा - मंतोनियावा. अजीव सामंतोषनिवाया। सामंतोयलिया या सम्मादपततीति सामंतोयवाया सा दुविधा श्रजीवजीव सामन्तोवशिवाइया । जधा एगस्स लंडी तं जणो पलोपति । जधा जधा फ्लोएति, तहा तहा सो हरिसं गच्छति एवं अजीब बिरहकम्पादितु । प्रा० ० ४ ० ।
"
श्राव० ।
सामकंति - श्यामकान्ति त्रि० । श्यामा कान्तिर्यस्येति । श्यामले, प्रव० २६ द्वार ।
सामकरिल्ल - श्यामकरील न० । प्रियङ्गोः प्रत्यग्रे कन्दले अन सामकोह - श्यामक्रोष-पुं० नमिजिनसमकालिकैरयत जिने, "नमिदो भरहे परपर सामको निरादो एगसमपण जाया, दस वि जिला अस्सी जोगा । ति० । सामग श्यामक- -त्रि० ० । ( साँमा ) धान्ये, श्राचा० १० ८
अ० ६ उ० । सूत्र० ।
सामग्ग- श्लिष्- धा० । श्रालिङ्गने, “श्लिषेः सामग्गावयास-परिश्रन्तः " ॥ ८ । ४ । १६० ॥ इति श्लिष्यतेः सामग्गादेशः । सामग्गइ | लिष्यति । प्रा० ४ पाद ।
सामग्गिय - सामग्रय- न० । समग्रतायाम्, 'तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणी वा सामग्गिज सव्वहिं समिते सया गए ति । श्राचा०२ श्रु० चू०१ अ०१ उ० । सामयं समग्रता यदुद्गमोत्पादनग्रहणैषणा संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं सम्पूर्ण मिश्रभावः आचा०२ श्रु० १ चू० १ ० १ उ० ।
सामचंद्र - श्यामचन्द्र पुं० [भरतजसुपार्श्वजिनसमकालिके ऐरवतजे तीर्थकरे, ति० ।
सामच्छ - सामर्थ्य - न० । “ सामार्थ्योत्सुकोत्सवे वा " ॥ ८ ॥ २ । २२ ॥ इति संयुक्तस्य च्छो वा । प्रा० । शक्ल, वीर्ये, श्र० चू० १ ० ।
सामच्छण - देशी-पर्यालोचने, पृ० १ ३० ३ प्रक० । ० म० । नि० चू० ।
सामज - श्यामा- पुं० । स्वातिशिष्ये हारीतगोत्रे स्थविरे, "हारियगुरुं साइं च वंदामो हारियं च सामजं ।" नं० । श्र यमेव प्रज्ञापनाकारकः कालिकाचार्यः । जै० ३० ।
सामण्ण
सामण - श्रामण- त्रि० श्रमणानामयं श्रामणः । श्रमणसंबन्धिनि, श्राव० १ ० । आ० म० ।
सामणि - श्रामणि- पुं० । श्रमणस्यापत्यं श्रामणिः । श्रमणेन परस्त्रियामुत्पादिते पुत्रे, सूत्र० १ ० ४ ० २ उ० । सामणिय-- श्रामणिक - त्रि० । श्रमणानां सम्बन्धिनि दश०
१ श्र० ।
,
सामम श्रामण्य - न० । श्रमणस्य भावः श्रामण्यम् । संपूर्णसंयमे, सूत्र० २ ० ६ श्र० । चारित्रे, उत्त० १८ ० | दश० । षड्जीवनिकायरूपे श्रमणभावे, दश० ४ ० । श्रमत्वे, कल्प०३अधि० १ क्षण । सकलयतिसमाचारे, दर्श० ५ तत्त्व । उत्त० । साधुत्वे, उत्त० २ ० । व्रते, श्रद्यहेतुत्यागो हि व्रतम् । रागद्वेषाचेय तस्वतस्तद्धेत् उनीति न स्त्रीभ्यः परं तन्मूलमिति । उत्त० २ श्र० । ( " सब्बुत्तमलाभाणं सामयं चैव लाभमति" 'संधार' शब्देऽस्मि भागे १५३ पृष्ठे व्याख्यातम् । ) श्रामण्यस्य फलं मोक्षः प्रधानमितरत्पुनः । तस्वतो ऽफलमेवेह, ज्ञेयं कृषिपलालवत् ॥ १ ॥" पं० सू० ४ सूत्र |
निषेप:--
"
सामथ्यगस्स उ निक्खेयो होह नामनिफन्नी । सामम्यस्स चउको, तेरसगो पुव्वयस्त भवे ।। १५२ ।। श्राम्यतीति श्रमणः श्राम्यति तपस्यति तद्भावः श्रामण्यं, तस्य पूर्व-कारणं श्रामण्यपूर्व तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन् । श्रामण्यकारणं च धृतिः, तन्मूलस्वात्तस्य तम्प्रतिपादनमिति भावार्थः । अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, कोडसौ ? - धन्यस्याश्रुतत्वात् श्रामपूर्वकमित्यमेव तु शब्दः सामान्यविशेषवन्नाम विशेषणार्थ, श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्, श्रामण्यं पूर्वे चेति विशेषः, तथा चाहश्रामत्यस्य चतुष्ककत्रयोदशकः पूर्वकस्य अपेक्षेिप इति गाथार्थः । दश० २ अ० । समानस्य भावः सामान्यम् । साम्ये, विशे० । ( साम्यविषयो विस्तरः गाण शब्दे चतुर्थभागे १६४० पृष्ठे गतः । ) श्रविकल्पायां सत्तायामत्र सामान्यम् । विशे० । ( 'तश्च जाइशब्दे चतुर्थभागे १४३७ पृष्ठे प्रतिपादितम् । ) अत्यन्तव्यावृत्तानां पिण्डानां यतः कारवाद अम्योऽम्पलरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययद्देतुः सामान्यम् । तश्च द्विविधम् परमपरं च । तत्र परं सत्ता, भावो, महासामान्यमिति चोच्यतेः द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्याऽपेक्षया महाविषयत्वात् । श्रपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि एतच्च सामास्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते। तथाहि द्रव्यत्वं वसु
पेषु वर्तमानत्वात् सामान्यम् गुणकर्मभ्यो
त् विशेषः, ततः कर्मधारये सामान्यविशेष इति । एवं द्रव्यस्वाद्यपेक्षया पृथिवीत्यादिकमपरं तदपेक्षया घटत्वादिकम् । पीषु वृतेगुवा सामान्यं द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृतेश्व विशेषः । एवं गुणत्वापेक्षया रूपत्वादिकम्, तदपेक्षया नीलत्वादिकम् । एवं पञ्चसु कर्मसु वर्तनात्
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सामण्ण
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कर्मत्वं सामान्यम्, द्रव्यगुणेभ्यो व्यावृत्तत्वाद् विशेषः। एकर्मत्वापेक्षादिक्षेयम्। तत्र द्रव्यगुणकर्मभ्यो ऽर्थान्तरं कषायुषा, इति वेद् उच्य सेन द्रव्यं सत्ता, द्रव्यादन्येत्यर्थः ; एकद्रव्यवत्त्वाद्-एकैकस्मिन् इये वर्तमानत्वादित्यर्थः इत्यथाव्यत्वम्-नवसु द्रव्येषु प्रत्येकं वर्त्तमानं द्रव्यं न भवति, किन्तु सामान्यविशेषलक्षयत्यमेव एवं सत्ताऽपि वैशेषिकाणां दि अद्रव्यं वा व्यम् अनेक या व्य म् । तत्राऽद्रव्यं द्रव्यम् आकाशः, कालो, दिगाऽऽत्मा, मनः, परमाणवः, अनेकद्रव्यं तु-द्वयरणुकादिस्कन्धाः, एकद्रव्यं तु द्रव्यमेव न भवति, एकद्रव्यवती च सत्ता इति द्रव्यलक्षणविलक्षणत्वाद् न द्रव्यम् । एवं न गुणः- सत्ता : गुगेषु भावाद गुणत्ववत् । यदि हि सत्ता गुणः स्याद् न तहिं गुणेषु वर्त्ततः निर्गुणत्वाद् गुणानाम् । वर्तते च गुणेषु सत्ता, सन् गुण इति प्रतीतेः । तथा सत्ता-कर्म,
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"
सुभावात् कर्मत्ववत् । यदि च सत्ता कर्म स्याद् न सर्दि कर्मसु वर्त्तेत निष्कर्मत्वात् कर्मणाम् वर्तते च कर्मसु भावः, सत् कर्मेति प्रतीतेः तस्मात् पदार्थान्तरं सत्ता । स्या० । जात्यादिकल्पनारहिते वस्तुमात्रे, विशे० । वस्तुनः समाने परिमाणे, स्था० १ठा० । एकप्रकारे, श्रा० ०१० या जीवन्बाजीयत्वादिके सूत्र० २०७ श्र० । विशे० । श्रा० चू० । प्रा० म० । ( सामान्यलक्षणम् अर्पितम् श्रनर्पितं ' लक्खण' शब्दे षष्ठभागे गतम् । ) सत्र सामान्यं द्विविधम्-परम् अपरं च । परं व सत्तायत त्रिषु द्रव्यगुणकर्मसु पदार्थेभ्यनुवृतिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात् सामान्यमेव न विशेषः । अपरं तु द्रत्यगुणकर्मत्वादिदम् तच स्वाश्रयेषुवदिष्यनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामाम्यमित्युच्यते, स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो व्यावृत्तप्रत्ययहेतुतया विशेषणात् सामान्यमपि सद्विशेषसां लभते तथाहि द्रव्यादिषु 'अगुण' इत्यादिका येवं व्यावृतबुद्धिरुत्पद्यते तां प्रत्येषामेव हेतुनाम्यस्य न गुणत्वादिकमपरमस्ति अपेक्षाभेदार्थस्य सा मान्यविशेषभावो न विरुद्धयते । यद्वा-सामान्यरूपता मुख्यतो विशेषसंज्ञा तूपचारतां विशेषागामित्वादीनामपि व्यावृत्तबुद्धिनिबन्धनत्वात् सामान्यस्य चेन्द्रियाम्यति रेकानुविधाव्यनुगताकारप्रत्ययग्राह्य त्या दध्यक्षतः प्रसिद्धिः । तथा - अनुमानाश्च । तथाहि व्यावृत्तेषु खण्डमुण्डशाबलेयादिष्वनुगताकारः प्रत्ययस्तद्ध्यतिरिक्तानुगताकारनिमिनिबन्धः व्यावृत्तेष्वनुगताकार प्रत्यत्वात् यो यो व्यावृत्शेष्यनुगताकारः प्रत्ययः स तद्व्यतिरिक्रानुगतानवन्धनो यथा चर्मचीरकम्बलेषु नीलप्रत्ययः, तथा चायं शालेयादिषु गौरिति प्रत्ययस्तस्मात्तद्व्यतिरिक्रानुगतनिमित्तनिबन्धन इति । तथाहि--नेदमनुस्यूताकारानं पिण्डेषु निर्हेतुकं कादाचित्कत्वात् । न शालेयादिपिण्डनि बन्धनं तेषां व्यावृत्तरूपत्वात् अस्य चाऽनुगतरूपत्वात् । यदि वेदं पिडा स्वात् तदा शाबलेयादिवि क कोदिष्वपि गोगीः इत्युलेखनपद्येत परापतापास्तेवप्यविशेषात् । अथवा दोहाद्यर्थकिवानिबन्धनेतेषु गोगः इति प्रत्ययहेतुता न तदर्थकि
"
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(ARE). अभिधानराजेन्द्रः ।
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।
सामरण यामपि बसादी गोविले महिष्यादी स द्भावेऽपि चाप्रवृत्तेः । न च दुष्टकारणप्रभवत्वं विशदं किंपार्थक्रियाया अपि प्रतिष्यमि कुतोऽनुगतारान देसिनुगतनिमि सनिबन्धनत्वमस्य ज्ञानस्य नचास्य याधितस्वं सर्वदा सत्र सर्वप्रमातृ शाबलेयादिष्यनुयूतप्रत्ययोत्यते न दुष्टकार विशदत्राणामप्यनुवृताकारस्याप्रत्यये प्रतिभासनातु मय संपविपर्ययानध्यवसाय रूपतया ऽस्योत्पति तद्वैपरीत्येवास्य प्रतिभासनात् । नचैवंभूतस्यापि प्रत्य यस्याप्रमाणता स्वलक्षणविषयस्यापि तस्याऽप्रमाणताप्रसक्लेः । न च प्रतीयमानस्याप्यनुगतप्रत्ययस्यापलापः शक्यते कर्तुं सर्वप्रत्ययापलापप्रसक्तेः । तस्मादनुगतप्रत्ययनिमित्तत्वात् सामान्यसद्भावः सिद्धः । अत्र प्रतिविधीयतेयत्तावदुक्तमध्यज्ञप्रत्ययादेव सामान्यं प्रतीयत इति तदयुक्तम् शाबलेयादिव्यतिरेकेणा परस्यानुगताकारस्याक्षत्रत्यये सामान्यस्याप्रतिभासनात् नह्यव्यापार शालेयदिषु व्यवस्थितं सूत्रकण्ठे गुण व मिश्रमनुगताकारं सामान्यं केनचिलक्ष्यते 'गौः' 'गौः' इति विकल्पशानेनापि त एव समानाकाराः शाबलेयादयो बहिर्व्यवस्थिता श्रवसीयन्ते अन्तश्च शब्दोल्लेखः, न पुनस्तद्भिन्नमपरं गोत्वं, तन्न निर्विकल्पकेन सविकल्पकेन वाऽध्यक्षेण सामान्यं व्यवस्थापवितुं शक्यम्। यदपि कार्यभूतानुगतस्य येनानुमानतः सामान्यव्यवस्थापनं तद्यसङ्गतं तस्य प्रत्ययहेतुत्वेन प्रमाणतो निश्चयात्। तथाहि अनुगताकारज्ञानस्य निमित्तस्वासंभवात्केनचित् निमितेन भाय्यं इत्येतामा सिद्धयति । तच्च सामान्यमन्यद्वेति न निश्चयो भवताम् । कार्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां च कारणत्वावधारणं, पिण्डानां च विज्ञानजन्मनि ततः सामार्थ्यं विशेषप्रत्यये सिद्धमिति । इद्दापि तेषा मेव सामर्थ्य प्रकल्पनं, न सामान्यस्य तस्य क्वचिदपि साम
नयधारणात्। तथादिपिण्डसद्भावे अनुगताकारं हा नमुपलभ्यते तदभावे न इति वरमध्यप्रत्ययावयानां तेषामेव तनिमित्ततो कल्पनीया । यदपि पिण्डानामविशिटत्वात् प्रतिनियमो न स्यात् तज्जन्मनि ' इत्यभिधानं तदप्यसङ्गतम् यतो यथा पिण्डादिरूपतयाऽविशेषेऽपि तन्तूनामेव परजन्मनि देतुन कपालादीनां तथा शा नामेव ' गौः ' ' गोः ' इति ज्ञानोत्पादने सामर्थ्य भविष्यति, न कयाचिद् युक्त्या न कर्कादीनाम् । यथा वा गुडूच्या एव राशिम सामर्थ्यं प्रतीयते या वस्तुरूपतया - विशेषेऽपि तथा प्रकृतेऽपि भविष्यतीति न पर्यनुयोगो युक्तः । किञ्च सामान्यं परेण मूर्त्तमभ्युपगम्यते । यद्य मूर्त्ते, न सामान्यं स्यात् रूपवत्, अथ मूर्त, तथा च न सामान्यं घटादियत्। तथा यदि अनं सामान्यमभ्युपगम्यते तर्हि न सामान्यमनशत्वात् परमाणुवत् । सांशत्वेऽपि न सामान्यं घटवत् । किं च-यदि पिण्डेभ्यो भिन्नं सामाम्यं भेदेनेोपलभ्यते घटादिभ्य इव पटः । न चैकान्ततो व्यक्तिभ्यः सामान्यस्य भेदे 'गोर्गोत्वम्' इति व्यपदेशोपपतिः संबन्धाभावात् समवायस्य तत्संबन्धत्वेन निषेत्स्यमानत्यात् व्यक्तिभ्यस्तस्यानेदे अन्यत्राननुयायित्यान्न सामान्यपता पिण्डस्वरूपवत् । न च मेदेन व्यक्तिभ्यस्तस्यानुपलक्षणं
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(६४०) सामरण अभिधानराजेन्द्रः।
सामरण भिन्नप्रतिभासविषयत्वादसिद्ध, बुद्धिभेदस्य व्यक्तिनिमित्तत्वे. कैव काचित् पद्मनि धीयमाना व्यक्तिरभ्युपगम्यताम् । न प्रनिपादनात् । किंच यदिसामान्यबुद्वियक्निभिन्नसामान्य- सा हि तथास्वभावत्वात् तथा तथा प्रथिष्यत इति लानिबन्धना भवत् तदा व्यक्त्यग्रहणेऽपि भवेत् अश्वबुद्धिवद्गो भाभिलाषुकस्य भूलोच्छेदः । तन्न व्यक्तिसर्वगतत्वमेतस्य सपिण्डाग्रहणेन च कदाचत्तथा भवेत् ,ततो न व्यक्तिव्यतिरि- अतिगोचरीभावमभजत् । नापि सर्वसर्वगतत्वम् , खण्डमु
सामान्यसद्भावः। अथ आधारप्रतिपत्तिमन्तरेणाधेयप्रतिपः ण्डादिव्यक्त्यन्तरालेऽपि तदुपलम्भप्रसङ्गात् । अव्यक्तत्वात्तिनं भवतीति तद्हे एव,तद्ग्रहो नाभावाद् अन्यथा कुण्डा तत्र तस्यानुपलम्भ इति चेत् , व्यक्निष्वात्मनोऽप्यनुपलचाधारप्रतिपत्तिमन्तरेण बदराधेयस्य अप्रतिपत्तेः' तस्या- म्भोऽत एव सत्रास्तु । अन्तराल व्यक्त्यात्मनः सद्भावावेदऽध्यभाव एव' स्यात् , न बदराऽऽदेः प्रतिनियताधारमन्तरे- | कप्रमाणाभावात् , असेत्स्वादेवानुपलम्भे सामान्यस्यापि सी. णापि स्वरूपेणीपलब्ध भावः गोत्वादेस्तु प्रतिनियतपिण्डो- ऽसस्वादेव तत्रास्तु विशेषाभावात् । किञ्च-प्रथमव्यक्तिपलम्भमन्तरेण स्वरूपेण कदाचनाप्यनुपलब्धेरभाव एव । ते. समाकलनवेलायां तदभिव्यक्तस्य सामान्यस्य सर्वात्मनाऽभिन तदग्रहे तबुध्यभावादित्यत्र सामान्याभिव्यञ्जकपिण्डग्रह व्यनिर्जातैव , अन्यथा व्यक्लाव्यक्तस्वभावभेदेनानेकत्वानुषणे एव तदभिव्यङ्गय सामान्यबुद्धिसभावात् प्रकाशग्रहण एव | नादसामान्यस्वरूपताऽऽपत्तिः । तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्तगृह्यमाणघटादिसत्त्ववत्, सामान्यस्यापि सत्वमिति यदुक्तं स्य स्वव्यक्त्यन्तराले सामान्यस्यानुपलम्भादसत्त्वम् , व्यतन्निरस्त भवति । सम्म० ३ काण्ड । ('णेगम 'शब्दे चतु- निस्वात्मवत् । अपि च-श्रव्यक्तन्वात् तत्र तस्यानुपलर्थभागे २१५७ पृष्ठे सामान्यस्यैवैकस्य सत्त्वम् ।) सामान्य- म्भस्तदा सिध्येद् , यदि व्यक्त्यभिव्यङ्गयता सामान्यस्य विशेषौ वक्ष्यमाणलक्षणावादियस्य सदसदाद्यनेकान्तस्य त- सिद्धा स्यात् , न चैवम्-नित्यैकरूपस्यास्याभिव्यक्तिरेतदात्मक तत् स्वरूपं वस्त्विति । एवं च केवलस्य, सामा- वामुपपत्तेः । तथाहि-व्यक्तिरुपकारं कश्चित्कुर्वती सामाम्यस्य विशेषस्य तदुभयस्य वा स्वतन्त्रस्य प्रमाणविषयत्वं म्यमभिव्यञ्जयेत् , इतरथा वा । कुर्वती चेत् , कोऽनया तप्रतिक्षिप्तं भति । अथैतदाकर्ण्य कर्णानेडिपीडिता इव योगाः स्यापकारः क्रियते । तज्ज्ञानोत्पदानयोग्यता चेत् , सा ततो सगिरन्ते । नन्वहो जैनाः! केनेदं सुहृदा कर्णपुटविटङ्किनम- भिन्ना , अभिन्ना वा विधीयेत । भिन्ना चेत् , तत्करणे साकारि सुष्माकम् , स्वतन्त्रौ सामान्यविशेषौ न प्रमाणभूमिरि मान्यस्य न किञ्चित्कृतमिति तदवस्थाऽस्यानभिव्यक्तिः । ति । सर्वगतं हि सामान्य गोत्वादि, तद्विपरीतास्तु शबलशा- अभिशा चेत् , तत्करणे सामान्यमेव कृतं स्यात् , तथा बलेयबाहुलेयादयो विशेषाः,ततः कथमेषामैक्यमाकर्णयितुम. चानित्यत्वप्राप्तिः । तज्ज्ञानं चेदुपकारः तर्हि कथं सामापिसकर्णैः शक्यम्?तथा च सामान्यविशेषावत्यन्तभिन्नौ,वि. न्यस्य सिद्धिः ? , अनुगतज्ञानस्य व्यक्तिभ्य एवं प्रादुर्भारुद्धधर्माध्यस्तत्वात्,यावेवं तावेवम्,यथा पाथः पावको,तथा- | वात् । तत्सहायस्यास्यैवात्र व्यापार इत्यपि श्रद्धामात्रचैती,तस्मात्तथा,ततोन सामान्यविशेषात्मकत्वं घटादेर्घटते। म् । यतो यदि घटोत्पत्तौ दण्डाद्युपेतकुम्भकारवद् तदेतत्परमप्रणयपरायणप्रणयिनीप्रियालापप्रायं वासवेश्मा- व्यक्त्युपेतं सामान्यमनुगतज्ञानोत्पत्ती व्याप्रियमाण प्रतीयत, स्तरेव राजते । तथाहि-यदिदं सर्वगतत्वं सामान्यस्य न्य
सदा स्थादतत् , तच्च नास्त्येव । न किञ्चित् कुर्वत्याश्व साप, तत् कि व्यक्तिसर्वगतत्वम् ?, सर्वसर्वगतत्वं वा स्वीकृ
व्यञ्जकत्वे विजातीयव्यक्नेरपि व्यञ्जकत्वप्रसङ्गः । तन्नाव्यक्तस्य ? , यदि प्राक्कमम् , तदा तर्णकोत्पाददेशे तदविद्यमानं त्यात् तत्र तस्यानुपलम्भः, किन्त्वसत्त्वादेव; इति न सर्वसवर्णनीयम् अन्यथा व्यक्तिसर्वगतत्वव्याघातात् । तत्रो
धंगतमप्येतद् भवितुमर्हति; किन्तु-प्रतिव्यक्ति कथश्चिद्विभित्पन्नायां च व्यक्ती कुतस्तत् तत्र भवेत् ? किं व्यक्त्या नम् , कथञ्चित्तदात्मकत्वाद्, विसदृशपरिणामवत्। यथैव हि सहवोत्पत व्यक्त्यन्तराद्वा समागच्छेत् ? । नाद्यः पक्षः। काचित् व्यनिरुपलभ्यमानाद् व्यक्स्यन्तराद्विशिष्टा चिनित्यत्वेनास्य स्वीकृतत्वात् । द्वितीयपक्षे तु ततस्तदाग- सहशपरिणामदर्शनादधतिष्ठते , तथा सशपरिणामात्मकच्छत् पूर्वव्यक्ति परित्यज्यागच्छेत् ?, अपरित्यज्य वा ?। प्रा- सामान्यदर्शमात् समामेति , तेनाय समानो गौः, सोचिकविकल्पे प्राक्तनव्यक्तनिःसामान्यताऽऽपत्तिः। द्विती- उनेन समाम इति प्रतीतेः । नच व्यक्तिस्वरूपादभिन्नत्वात् यपक्षे तु किं व्यक्त्या सहवागच्छेत् ? केनचिदंशेन वा? आ
सामान्यरूपताध्याघातोऽस्य , सूपादेरप्यत एव गुणरूपताघे शाबलयेऽपि बाहुलेयोऽयमिति प्रीतिः स्यात् । द्विती
व्याघातप्रसङ्गात् । कश्चिद् व्यतिरेकस्तु रूपादेरिव सद यपक्षे तु सामान्यस्य सांशताऽऽपत्तिः, सांशत्वे चास्य शपरिणामस्याप्यस्त्येष । ननु प्रथमव्यक्तिदर्शनवेलायां कथं न व्यक्तिवदनित्यत्वप्राप्तिः । अथ विचित्रा वस्तूनां शक्तिः ' य- समानप्रत्ययोत्पतिः?,तंत्र सदृशपरिणामस्य भावादिति था मन्त्रादिसंस्कृतमनमुदरस्थं व्याधिविशेष छिनत्ति , नो- चेत् , तवापि विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तिस्तदानीं कस्माम्न स्याद ?, दरम् , तद्वदिहापि सामान्यस्येद्दशी शक्तिः , यथा-स्वहेतु- वैसघश्यस्यापि भावात् । परापेक्षत्वात् तस्याप्रसङ्गोऽन्यत्राभ्यः समुत्पद्यमानेऽर्थे पूर्वस्थानादचलदेव तत्र वर्तत इति पि तुल्यः । समानप्रत्ययोऽपि हि परापेक्षः, परापेक्षामन्तरेचेत् , स्यादतदेवम् , यद्यकान्तेनैक्यं सामान्यस्य प्रमाणेन ण कचित् कदाचिदप्यभावात् , अणुमहत्त्वादिप्रत्ययवत् । प्रसिद्धं स्यात् , नचैवम् , तस्यैव तत्वतो विचारयितुमुप- विशेषा अपि नैकान्तेन सामान्याद् विपरीतधर्माणो भविक्रान्तत्वात्। तथाहि-यद्यस्यैकान्तैक्यं कीर्त्यते तदा भि- तुमईन्ति, यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिद्धं भवेत् तदाप्रदेशकालासु व्यक्निषु वृत्तिर्न स्यादिति । यदि तु स्वभाववा- तेषामव्यापकत्वेन ततो विरुद्धधर्माध्यासः स्थात् , न चैवदालम्बनमात्रेणवयमुत्पाद्यते , तदा किममुना सामान्येन ? , | म्-सामान्यस्य विशेषाणां च कश्चित्परस्पराव्यतिरेकणेकिंतरों वाऽन्येनापि भूयसा वस्तुना परिकल्पितेन ? ए- कानेकरूपतयाऽवस्थितत्वात् । विशेषेभ्यो व्यातिरिक्तत्वाद्धि
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सांगण्य
( ६४१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामान्यमप्यनेकमिष्यते, सामान्यान्तु विशेषाणामव्यतिरे कायेकरूपा इति । एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयार्थ[णात् सर्वत्र विज्ञेयम् । रत्ना० ५ परि० । सम्म० ।
सामान्यविशेषयारन्योन्यानुविद्धस्वरूपत्वदर्शनम् - सामम्मि विसेसो, विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो । दव्यपरिणाममन्नं, दाएइ वयं च गियमेइ ॥ १ ॥ सामान्येऽस्तीत्येतस्मिन् विशेषो द्रव्यमित्ययं तथा विशेषप क्षे च घटादावस्तीत्येतस्य वचनस्य नाम-नामवतोरभेदात्ससामान्यस्य विनिवेश : - प्रदर्शनं द्रव्यपरिणतिमन्यां सतस्य द्रव्यस्य पृथिव्याख्यां परिणतिमन्यां सत्तारूपापरिलागेनैव वृचां दर्शयति- विशेषभावे सामान्यस्याप्यन्यथा भावप्रसक्तेः, यद् यदात्मकं तत्तदभावे न भवति, घटाधन्यविशेषभावे द्विपात्मक व सामाम्पनिति तद्भावे तस्याप्यभावः, तथा तकं व विशेषम्, द्वितीयपक्षे सामन्यात्मनि नियमयति विशेषः सामान्यात्मक एवं तदभावे तस्याप्यभावप्रसङ्गाद् यतः सामान्यात्मकस्य विशेषस्य सामान्याभावे घटादेखि मृदभावे न भावो युक्तः ।
( सामान्य विशेषयोरेकान्तभेदं बदलो दोषाऽऽपत्तिप्रकट नम् न च विशेवाद्व्यतिरिकं सामान्यमेकान्ततः तस्माद्वा विशेषानियमतो भिन्न इत्यभ्युपगन्तव्यम् । श्रध्यक्षादिप्रमाविरोधादित्याह -
एयंत विनेसि च वयमाणो ।
दध्वस्त पत्रा य दधियं शिवने ॥ २ ॥ एकान्तेन निर्गता विशेषा यस्मात्सामान्यात् तद्विशेषवि[क] सामान्य वदन् तद् द्रव्यस्य पर्यायावादी निवर्त यति ऋजुतापयशिका ल्यादिव्या प्रतीयमानस्य पिनितिप्रज्ञादिप्रमाणबाधापत्तिः विशेषस्तमान्यदितं यदन पर्याय शेष अयं निवर्तयति एवं चात्यादिपव्यतिरिकऋ-तादिविशेषस्य प्रत्यक्षस्याद्यवगतस्य निवृत्तिप्रसक्तिः । नचापतिप्रमाणविषयीकृतस्य तथाभूतस्य तस्य निवृषियुक्ता, सर्वानिवृत्तिप्रसः अन्याभावाभ्युपगमस्यापि तनियधनात् तत्प्रतीतस्वाप्यभावे सर्वव्यवहाराभाव इति प्रति पादितम् । अत्राह - 'सामासम्मि' इत्यादिकाण्डं नारब्धव्यम् मुक्तात्तो न तावकान्तात्मकं प्रतिपाद्यते 'गदवियसि ' ( प्र० का० गा० ३१ ) इत्यादिना इहरा समूह सिद्ध' (प्र० का० गा०२७) इत्यादिना च तस्य प्रतिपादितत्वात् तथा-'उपपायहिभंगा, हंदि दवियलक्खणं पयं ।' (प्र० का० गा० २) इत्यनेन लक्षणद्वारेण सर्वस्य सतः श्रनेकातारकर प्रदर्शितमेव अप्रमाद्यविपयापनार्थमि दं प्रस्तूयते तदपि न सम्पण 'सविपणियमि' (प्र० का गा० ३५) इत्यादिना तस्यापि निरूपितत्वात् वाक्यस्य च वस्तुत्वात् तन्निरूपणे तस्यापि निरूपितत्वात् न तन्निरूपणा पुनम् एवमेतत् किन्तु प्रमेयप्राधान्येन त माह कस्य प्रमाणस्यापि नित्येतदर्शनद्वारे तिपादकवाक्यावतारः प्राग् विहितः, इह त्वविद्यमानमेयस्थ प्रभावस्य प्रमात्वासम्भवात् प्राखनिरूपगद्वारेग९६१
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सामण्ण प्रमेयनिरूपणमिति प्रदर्शनद्वारेतद्वाक्यावतारः इत्यदोषः । यज्ञा- अनेकान्तपक्षशेषपरिहारोऽनेकधा उपवस्थाप्यत इति न कोष'मम्मी' स्वादिष संदर्भविरचमे । सामान्यविशेषाऽनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकं वचनमाप्तस्य इतरस्येत्येतदेव दर्शयन्नाह -
पच्चुपपन्नं भावं, विगयभविस्सेहि जं समाणेड़ |
एयं पचवणं दयंतरचिस्सिर्व जं च ॥ ३ ॥ प्रत्युत्पन्नं भार्य वस्तु वर्तमानपरिवामं विगतभविष्य पर्यायाभ्यां यत्समानरूपतया नयति - प्रतिपादयति वचःतरमतीत्य वचनं समीक्षितार्थवचनं सर्वशययनमित्यर्थः धन्यश्वानाप्तवचनम्। ननु वर्त्तमानपर्यायस्य प्रागपि सद्भावे कारकव्यापारवैफल्यं कियागुपदेशानां च प्राप्युपलम् श्व, उत्तरकालं च सद्भावे विनाशहेतुव्यापारनेरथक्यम् उपल
सङ्गय ततो यद्यदेवोपलम्भादि कायस न प्राग्न पश्चात् तदर्द्धक्रियासविर पस्तुनोभावात् असदेतत् तस्य प्रागसत्वे दलस्येत्ययोगमात्मादि विज्ञानादिपयत्पत्ती दवं तस्य नित्यात्न निष्पक्ष स्यैव पुनर्निष्पत्तिः अनवस्थाप्रसङ्गात् न च तत्र विद्यमान एवमानादिकार्योत्पत्तिस्तत्रेति सम्बन्धमा तोयपदेशाभावप्रसङ्गात्,समवायसम्बन्धप्रकल्पनायां तस्य सर्वत्राविशेषातद्वदाकाशादावपि तत् स्यात् । अथात्मादि द्रव्यमेव तेनाकारेोरपद्यत इति नात्पति कार्यस्य भवत्येवमुत्पत्तिः किंत्वारम पूर्वमप्यासीत् पश्चादपि भविष्यति तत्सर्वायस्थासु तादात्म्यप्रतीतेरन्यथा पूर्वोत्तरावस्थयोस्तत्प्रतिभासोन संचेत् येकत्वप्रतिभासो भ्रान्तो बाधकाभावे भ्राम्यसिद्धेः। नचापविरोधी नित्यबाधक अनि त्यत्वे च तस्य बाधकत्वेन प्रतिपादनात् । नचोत्पादविनाशयोरपि तत्र प्रतिपताकान्त परिणामनित्यतया तस्य नित्यत्वात्; अन्यथा खरविषाणवत् तस्याभावप्रसङ्गात् । न चैवं तस्य विकारित्वको दोषा
अमीत्यात् न च नित्यविरोधस्ततस्ततः न च तस्य तथास्वप्रतिपत्तिप्रति बाधकाभावादित्यु त् । अथ ज्ञानपर्यायादात्मनो व्यतिरेके भेदेनोपलम्भः स्यादय तिरेके पर्यायमात्रं द्रव्यमात्रं वा भवेत् व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षस्तु विरोधाधातः, अनुभयपक्षस्त्वन्योन्यव्यवच्छेदरूपायामेकनिषेधेना पर विधानादसङ्गतः, श्रसदेतत्-व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षस्याभ्युपगमात् नच व्यतिरेकपलमाची तयतिरेकेखोपलब्धिको दोषः, एकशानस्यतिरेकेण ज्ञानान्तरेऽपि वस्य प्रतीतेतिरेकेोपलम्भस्य सद्भावात् । अव्यतिरेको ऽपि ज्ञानात्मकत्येतस्य प्रतीतेः न व्यतिरेकाव्यतिरेकयांरम्पोम्यपरिद्वारेणास्थाना विरोधोऽपाधि
विषयीकृत वस्तुतस्वं विरोधासंभवात् ; अन्यथा संशयज्ञानस्यैकानेक रूपस्य वैशेषिकेश प्रानासंविधिक पस्य युद्धपात्मनकानेकस्वभावस्य सोमतेन कथं प्रतिपा दनमुपपत्तिमद् भवेत्, यदि प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुतस्ये विरोधः संगच्छेतेत्यादि पूर्वमेव प्रतिपादितम् वर्त्तमानपर्यायस्यान्यद्रव्यद्वारे त्रिकालतिपादकं प्रतीत्यचनमिति सिद्धं 'परमाण्वारम्भकद्रव्यात् कार्यद्रव्यं द्वयकादि इव्यान्तरं का
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६४२) सामरण अभिवानराजेन्द्रः।
सामरण कारणं परमारवादि यत्प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्य वचनम्, | तः प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य बिगतभविष्यांना सर्वथैकरवमिति तथाहि-त्र्यणुकरूपा ये परमाणवः प्रादुर्भूता द्वयणुकतया कथं तत्प्रतिपादकवचस्याप्रतीस्यैष बचनतेति भावः । प्रच्युताः परमाणुरूपतया अविचलितस्वरूपा अभ्युपगम्त- मनु घटादेरर्थस्य कैः पर्यायैरस्तित्वमनस्तित्वं चेस्याहव्याः, अन्यथा तद्रूपतयाऽनुत्पादिप्राक्तनरूपतापगमो न
परपञ्जवेहि असरिस-गमेहि णियमेण णिच्चमवि नस्थि । स्यात् परमाण्यवस्थावत् प्राक्तनरूपानपगमे या नोत्तररूपतयोत्पत्तिस्तदवस्थावत् । परमाणुरूपतयाऽपि विनाशोत्पस्य
सरिसेहि वि वंजणभो, भस्थि ण पुणऽत्थपजाए ॥५॥ भ्युपगमे पूर्वोत्तरावस्थयोः निराधारविगमप्रादुर्भावप्रसक्तिः वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूतभविष्यत्पर्यायाः परपर्यायास्तैन च तदवस्थयोरेवाधारत्वम् , तयोस्तदानीमसस्वात् । न- विसरशगमैविजातीयज्ञानप्राहनियमेन--निश्चयेन नित्यंच 'पूर्वोत्तरावस्थयोद्रव्यविनाशप्रादुर्भावयोः' कारणस्या:- सर्वदा नास्ति तद् द्रव्यम् ,तैरपि तदा तस्य सद्भावे भव. विनाशप्रादुर्भावी ततस्तस्यैकान्ततो हिमवद्विन्धयोरिष स्थासंकीरणताप्रसक्तः। सहशैस्तु ब्यानतः सामाग्यधर्मः भेवप्रसक्तः । न च कारणाश्रितस्य कार्यद्रव्यस्योत्पत्तेनाय सदव्यपृथिवीत्वादिभिः विशेषात्मकैश्च शम्मप्रतिपाचदोषः , तयोर्युतसिद्धिः कुण्डबदरवत् पृथगुपलब्धिप्रसक्तः। रस्ति सामान्यविशेषात्मकस्य शम्मवाच्यत्वात् । सामाअयुतसिद्धावपि कार्योत्पत्तौ कारणस्याप्युत्पत्तिप्रसक्तिः ।
म्यमात्रस्य तवाव्यशम्नाइप्रवृतिप्रसक्त, प्रक्रियासमअन्यथाऽयुतसिद्धपनुपपत्तेः । अथायुताश्रयसमवायित्वमबु
थस्य तेनानुक्कवात् .सामान्यमात्रस्य च सहस्वार्थक्रियातसिद्धिः, सा च कार्योत्पत्ती कारणानुत्पत्तावपि भवत्येवन
या अनिवर्तकत्वात् विशेषमम्तरेण सामाम्यस्थासंभवात् । समवायासिद्धावयुतसिद्धयसिद्धेः नचायुतसिद्धित एवं
सामाम्यप्रतिपादनद्वारेण लक्षणया विशेषप्रतिपादनमपि शसमवायसिद्धिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्नेः । नचाध्यक्षतः
म्दात् न संभवति,क्रमप्रतिपत्तेरसंवेदनात् विशेषाणां त्वामसमवायसिद्धेर्नायं दोषः,तमत्वात्मकपटप्रतिभासमन्तरेणाध्य- न्स्यात् , संकेतासम्भवतः शब्दावाच्यत्वम् परस्परम्यावृत्तक्षप्रतिपत्तावपरसमवायाप्रतीतेः- इह तन्तुषु पटः' इत्यत्रापि- सामाम्यविशेषयोरप्यवाच्यत्वमुभयदोषप्रसमात्। तत उभप्रत्यय 'बह तन्तुषु' इति प्रतिपत्तिस्तत्वालम्बना 'प- यात्मकवस्तुगुणप्रधानभावेन शब्देनाभिधीयत इति सरीटः' इति प्रतिपत्तिः, पटालम्बनासंवेद्यत इति नापरसमवा- व्यंजनतोऽस्तीत्युपपन,न पुनर्नवार्थपर्यायैः ऋजुसूत्राभिमयप्रतिभासः । न च 'इह तन्तुषु पटः' इति लौकिकी प्रतिप- तार्थपर्यायेण तदस्ति अन्योन्यव्यावृत्तवस्तुस्खलक्षणग्राहकत्तिः ' किंतु 'पटे तन्तयः' इति । नचान्यथाभूतप्रतिपस्या:- त्वात् तस्य । श्रयं चार्थः पूर्वसूत्र एष प्रदर्शित इत्यन्यथा गान्यथाभूतार्थव्यवस्था। नन्नानुमानादपि समवायप्रसिद्धिः,प्र- थासूत्र व्याख्येयम्-अम्यवस्तुगताः पर्याया विसरशसरशत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्य तस्य तत्राऽप्रवृत्तः। अनुमानपूर्वकस्य
तया द्विप्रकाराः, तत्र विसरशैर्विवक्षितो घटादिवास्ति । तु तस्यानवस्थादिदोषाघ्रातत्वात् तत्राप्रवृत्तिरित्यनेकशः प्र- सरशस्तु कैश्चिदुक्रवदस्ति, कैश्चिन्नेति तात्पर्यार्थः । तिपादितं न पुनरुच्यत इति व्यवस्थितमेतत् । तथाभूतवस्तु
ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायेण भावस्यास्तित्वनियमे एकाम्तवादाप्रतिपादकमेवापूर्ववचनमकान्तप्रतिपादकं तु नाप्तवचनम् ॥
पत्तिरित्याहअथवा-एकद्रव्यादन्यत् द्रव्यं द्रव्यान्तरं तस्मिन्निःसृतमबद्धं संबलं यत्तदपि प्रतीत्य वचनम् , यथा-दीर्घतरमङ्गलिद्रव्य
पच्चुपम्मम्मि विप्प-अयम्मि भयणागई पडइ दव्वं । मपेक्ष्य इस्वतरमष्ठकद्रव्यमिति वचः । इस्वदीर्घादिकस्तु
जं एगगुणाईया, अखंतकप्पागमविसेसा ॥६॥ खधा एव द्रव्यान्तरविषयाभिव्यङ्ग्यः पितेव पुत्रादिना । वर्तमानेऽपि परिणामे स्वपररूपतया-सदसदात्मरूपता यद्वा-गोत्वसदृशपरिणतियुक्तात् शाबलेयद्रव्याद् तत्स- अधोमध्योर्धादिरूपेण च भेदाभेदात्मकर्ता भजनापतिसुशपरिणतियुक्तं बाहुलेयादि द्रव्यान्तरम् , तस्मिमिश्रित- मासादयति द्रव्य, यत् एकगुणकन्यवादयोऽनन्तप्रकारातसंबद्धं वाचकत्वेन 'गौः' इति यद्वचनं तदपि प्रतीत्य वच- व गुणविशेषाः तेषां च मध्ये केनचिद गुणविशेषेण युकं तत्, नम् । न पुनः केवलतिर्यसामान्य-विशेष-तद्वदुभयादिन- तथाहि-कृष्ण द्रव्यं तद् द्रव्यान्तरेण तुख्यमधिकं ऊनं पाभषे. तिपादकमसद्भूतार्थप्रतिपादकत्वादुन्मत्तवाक्यवत् । ननु प्र
त् प्रकारान्तराभावात् प्रथमपक्षे सर्वथा तुस्यत्वे तदेकरवात्युत्पन्नपर्यायस्य स्वकालवदतीतानागतकालयोः सत्त्वे अती
पत्तिः, उत्सरपक्षयोः संख्येयादिभामगुणवृशिहानिया पदतानागतकालयोर्वर्तमानकालताऽऽपत्तेः अन्यथा तद्रपतया
स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यंभाधिमी । स्यादतत्-पुरलद्रव्यस्य तयोस्तत्सत्वासंभवात् त्रैकाल्यायोगात् तस्य तद्विशिष्टता
ताहग्भूतापरपुद्गलद्रव्यापेक्षया अनेकाम्तरूपता युक्ता प्रत्युनुपपत्तेः।
त्पन्ने त्वात्मद्रव्यपर्याये कथमनेकान्तरूपता ? न प्रात्मपर्या
यस्यापि ज्ञानादेस्तत्तग्राह्यापेक्षयाऽनेकान्तरूपता पुद्रतथाभूतार्थप्रतिपादकं वचनमप्रतीत्य वचनमेवेत्याशङ्कयाह
लवन्न विरुध्यते , तथा द्रब्यकषाययोगोपयोगज्ञानदर्शनदव्वं जहा परिणय,तहेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि।। चारित्रवीर्यप्रभेदात्मकत्वादात्मनः पुलवदमेकाम्तरूपता विगयभविस्से हि उप्प-जवेहि भयणा विभयणा वा॥४॥ आर्षे प्रतिपादितैव । 'काबिहे णं भंते । माया परणसे? गो. द्रव्यम्-चेतनाचेतनं,यथा तदाकारार्थप्रहणरूपतया,घटादि
यमा ! अटुविहे,तं जहा-दविए पाया ' ( भगवती सू० श रूपतया वा परिणतं वर्तमानसमये तथैवास्ति । विगतभवि
त०१२, उ०१.।) इत्यादि । प्यधिस्तु पर्यायैर्भजना-कथंचित् तैस्तस्यैकत्वं,विभजना-वि
इतवानेकान्तास्मकता पात्मनः प्रतिपत्तव्येत्याहगता भजना नानात्वं,कथंचिद्वाशम्दस्य कथंचिदर्थस्य तत्त- को उप्पायंतो, पुरिसो जीवस्स कारभो होई।
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सामरण अभिधानराजेन्द्रः।
सामएणपुब्विया तत्तो वि य भइयब्वो, परम्मि सयमेव भइयव्बो ॥७॥ पदिति । तच्छलवादी-ब्राह्मणत्वस्य हेतुतामारोप्य निराकुर्वकोपपरिणतिमुदयं पुरुषो जीवस्य परभवप्रादुर्भावे निव
अभियुक्त-यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद् भवति तर्हियात्ये
ऽपि सा भवेत् । वात्येऽपि ब्राह्मण एवेति औपचारिके प्रयो. सको भवति, तन्निमित्तस्य कर्मण उपादानात् । कोपपरि
गे मुख्यप्रतिषेधेन प्रत्ययस्थानम् । स्या० । णाम समासाद्यमानश्च पुरुषः ततः परभवजीवाद्धिभजनीयो भिन्नो व्यवस्थापनीयः,कार्यकारणयोर्मुत्पिण्डघटवत्कथंचिद्भे साममणय-सामान्यनय-पुं०। नामात्मादिपदार्थानामेकत्वदात् ,अन्यथा कार्यकारणभावाऽभावप्रसङ्गात् न चासौ ततो | स्याभिमन्तरि सामान्यवादिनि नये,स्या । तदुक्तम्-"निर्वि. भिन्न एव परस्मिन्भवे स्वयमेव पुरुषो भजनीयः, आत्मरूप- शेष हि सामान्यं, भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वे तया अभेदेन व्यवस्थाप्यत इति भावः, घटाद्याकारपरिण- न , विशेषास्तद्वदेव हि ॥ १ ॥” ततः सिद्धे तमृद्द्वब्यवत्कदाचिदभिन्नः, कदाचिद्भिन्न इत्यनेकान्तः । सामान्यविशेषाऽऽत्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य यद्वा-कोपपरिणतिमन्यस्मिन् जीव उत्पादयन्पुरुषः कारको | परमब्रह्मणः प्रमाणविषयत्वम् ? । यश्च प्रमेयत्वाभवति । ततोऽसी कोपकारकत्वेन विभजनीयः, कोपपरिण- दित्यनुमानमुक्तम् , तदप्यतेनैवापास्तं बोद्धव्यम् : पक्षस्य प्रतियोग्यजीवे कारकोऽन्यत्राऽकारक इति ।
त्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । यश्च तत्सिद्रव्यं गुणादिभ्योऽनन्यत् तेऽपि द्रव्यादनन्य एवेत्ये- द्धौ प्रतिभासमानत्वं साधनमुक्तम् , तदपि साधनाऽऽभासतदनेकान्तं मृष्यमाणा आहुः
त्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायाल:प्रतिभासमानत्वं हि निखिल
भावानां स्वतः,परतो वा ?। न तावत् स्वतः, घटपटमुकुटशकरूपरसगन्धफासा, असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा।
टादीनां स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिडेः। परतः प्रतिभासतम्हा दब्बाणुगया, गुण त्ति ते केइ इच्छंति ॥८॥ मानत्वं च-परं विना नोपपद्यते, इति । यश्च परमब्रह्मविवर्तरूपरसगन्धस्पर्शा असमानग्रहणलक्षणा यस्मात्ततो द्रव्या- वर्तित्वमखिलभेदानामित्युक्तम् , तदप्यन्त्रम्बीयमानद्वयाश्रिता गुणा इति केचन बैशेषिकाद्याः स्वयथ्या वा सिद्धा
विनाभावित्वेन पुरुषाद्वैतं प्रतिबध्नास्येव । नच घटादीनां न्तानभिक्षा अभ्युपगच्छन्ति । तथाहि-गुणा द्रव्याद् भिनाः,
चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र दर्शनात् । तभिन्नप्रमाण ग्राह्यत्वात् भिन्नलक्षणत्वाञ्च; स्तम्भात् कुम्भवत् ।
तो न किञ्चिदेतदपि,अतोऽनुमानादपि न तत्सिद्धिः । किश्चनचासिद्धो हेतुः, द्रव्यस्य 'यमहमद्राक्षं तमेव स्पृशामि' इत्य
पक्षहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः परस्परं भिन्नाः, अभिनुसंधानाध्यक्षग्राह्यत्वादूपादीनां च प्रतिनियतेन्द्रियप्रभव
नावा? | भेदे-द्वैतसिद्धिः । श्रभेदे त्वेकरूपताऽपत्तिः । प्रत्ययावसेयत्वात् 'दार्शनं स्पार्शनं च द्रव्यम्' इत्याद्यभिधा
तत् कथमेतेभ्योऽनुमानमात्मानमासादयति ? । यदि च हेनादसमानग्रहणता द्रव्यगुणयोः सिद्धा । तथा-विभिन्नलक्ष
तुमन्तरेणापि साध्यसिद्धिः स्यात् , तर्हि द्वैतस्यापि वा
मात्रतः कथं न सिद्धिः । तदुक्रम्-"हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् , गत्वमपि “क्रियावत् गुणवद् समवायिकारणं द्रव्यम्" (वैशेषिकद०१-१-१५) "द्रव्याश्रयगुणवान संयोगविभागेष्व
द्वैतं स्याद् हेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद बिना सिद्धि-दैत कारणमनपेक्षः" (वैशेषिक द०१-१-१६)इति वचनात् सिद्ध
वाङ्मात्रतो न किम् ? ॥१॥""पुरुष एवेदं सर्वम्" इत्याम् । सम्म० ३ काण्ड । बहूनां प्राणिनां साधारणे, पश्चा०६
देः, सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" इत्यादेचागमादपि न तसिद्धिः,
तस्यापि द्वैताविनाभावित्वेन अद्वैतं प्रति प्रामाण्यासम्भविव०।
वात् , वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि दर्शनात्। सामायोविणिवाइय-सामान्यतोविनिपातित-न०। अभि
तदुक्तम्-'कर्मद्वैतं फलद्वैतं , लोकद्वैतं विरुध्यते। विद्या - नयनदे. प्रा. म.१० । जं०।
विद्याद्वयं न स्याद्, बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥१॥ ततः कथमासामामाकरिया--सामान्यक्रिया-स्त्री० । अस्ति भवति विद्यते गमादपि तत्सिद्धिः ? । ततो न पुरुषाऽद्वैतलक्षणमेकमेव इत्यादिरूपायां क्रियायाम् , प्राचा०१ श्रु०२०१०। प्रमाणस्य विषयः । इति सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः । स्या। सामणगुण-सामान्यगुण-पुं० । सर्वद्रव्यवर्तिषु गुणेषु, अथ | सामामणिसेह-सामान्यनिषेध-पुं०। निर्विशेषतया निवारणारूपरसगन्धस्पर्शा रूपिद्रव्यवृत्तेर्विशेषगृणास्तथा संख्यापरि- याम् , पञ्चा० ११ विव० । मा (णानि) णे पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे इत्येते मायापरियारा-शामरायपरिणा-पं० । सर्वचारित्रपरिपासामान्यगुणाः । सूत्र० १ श्रु० १२ १०।
के , औ०। सामम्मगुणपसंसा-सामान्यगुणप्रशंसा-स्त्री० । लोके लो- |
सामएणपुब्बिया-श्रामण्यपूर्चिका-स्त्री० । श्रामण्यस्य पूर्व कोत्तराविरुद्धविनयदाक्षिण्यसौजन्यादिगुणस्तुती, पञ्चा०६ विव०।
कारणं श्रामण्यपूर्व तदेव धामण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन् ।
श्रामण्यकारणं च धृतिस्तन्मूलत्वात्तस्य तत्प्रतिपादकं चेसाममग्गहण-सामान्यग्रहण-म० । सामान्यमेव बस्तु तदेव
दमध्ययनम् , दश०। दशवैकालिकस्य द्वितीयेऽध्ययने, दशा गृह्यतऽनेनेति ग्रहणम् । दर्शने, सम्म० २ काण्ड ।
अत्र वक्तव्यतासामपच्छल-सामान्यच्छल-न । न्यायप्रसिद्ध छलभेदे, य. थाऽहो नु खल्बसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन इति ब्राहस
कहं नु कुजा सामएणं, जो कामे न निवारए । स्तुतिप्रसने कश्चिद् वदति, संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसं- पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसंगो ॥१॥
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सामलपुब्बिया अभिधानराजेन्द्रः।
साममपुब्बिया बह व संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्र व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति | अवि मरणमझवस्संति ण य छतमावियति । उदाहरण तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते-तत्रापि कत्यह दमपुरिपकायामुक्तमेव । उपसंहारस्वेवं भाषनीयः-याद ता. कदाई कथमहमित्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन रश्यं व्या- वत्तियश्चोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति, नय स्यायते-कथं नु कुर्याच्छामण्यं यः कामान निवारयति', | वान्तं भुखत तत्कथमहं जिनवचनाभिशो विपाकदारुणान् कथं-केन प्रकारेण , नुः क्षेपे , यथा कथं नु स राजा विषयान् वान्तान् भोये ? इति सूत्रार्थः । अस्मिन्नेवा) द्विपो न रक्षति ?, कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् | तीयमुदाहरणम्-"यदा किल अरिट्रणेमी पवाओ तया रप्रयुके, एवं कथं नु स कुर्यात् श्रामण्यं-श्रमणभावं हणमी तस्स जेट्ठो भाउओ राइमई उवयरह, जह णाम यः कामान् न निवारयति-न प्रतिषेधते ?, किमिति एसा ममं इच्छिज्जा , सा वि भगवई निविणकामभोगा, न करोति ?, तत्र "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभ- गायं च तीए-जहा एसो मम अज्झोववमो, अण्णया य ती. तीनां प्रायो दर्शनम्" इति वचनात् , कारणमाह- ए महुघयसंजुत्ता पेज्जा पीया, रहनेमी आगो, मयणफपदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशक्तः कामानिवारणे- लं मुहे काऊण य तीए बंतं, भणियं च-एयं पेजं पियाहि । नेन्द्रियाचपराधपदापेक्षया पदे पदे विषीदनात्संकल्पस्य तेण भणियं-कई वन्तं पिजह ? , तीए भणिो -जह यशातत्वात् (अप्रशस्ताध्यवसायः संकल्पः) इति सूत्रसमा- न पिज्जा बंतं तो अहं पि अरिट्टनेमिसामिणा वंता सार्थः । दश०२ १०। (कामादीनां स्वरूपं स्वस्वस्थाने ।) कहं पिविउमिच्छसि । मायावयाहि चय सोगमल्लं,
तथा घधिकृतार्थसंवाद्यवाहकामे कमाही कमियं खु दुक्खं ।
धिरत्थु ते जसो कामी, जो तं जीवियकारणा। छिंदाहि दोसं विलज्जए रागं,
वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ॥ ७॥ एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥
तत्र राजीमतिः किलैवमुक्तवती-धिगस्तु-धिकशब्दः कुसंयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थम् आतापय-आतापनां कुरु
त्सायाम् , अस्तु-भवतु ते-तव , पौरुषमिति गम्यते, हे'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायाद् यथानुरूपमूनोदर
यशस्कामिनिति सासूर्य क्षत्रियामन्त्रणम् । अथवा-कारतादरपि विधिः , अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह-तथा
प्रश्लेषादयशस्कामिन् धिगस्तु तव, यस्त्वं जीवितकारणास्यज सौकुमार्य-परित्यज सुकुमारत्वम् , अनेन तूभय
त्-असंयमजीवितहेतोः वान्तमिच्छस्यापातुं परित्यक्त्रां भगसमुत्थदोषपरिहारम् , तथाहि-सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते
वता अभिलपसि भोक्रुम् , अत उत्क्रान्तमर्यादस्य श्रेयस्ते मयोषितां च प्रार्थनीयो भवति, एवमुभयासेबनेन कामान
रणं भवेत् शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदमकार्यासवनमिति प्राग्निरूपितस्वरूपान् काम-उल्लङ्गय , यतस्तैः क्रान्तैः
सूत्रार्थः । तो धम्मो से कहिओ, संबुद्धो पब्बरो य ।
राईमई वित बोहेऊण पब्वइया । पच्छा अन्नया कयाह कान्तमेव दुःखं भवति, इति शेषः, कामनिबन्धनत्वाद् दुःख.
सो रहनेमी बारवईय भिक्खं हिंडिऊणं सामिसगासमास्य । खुशब्दोऽवधारण । अधुनाऽऽन्तरकामक्रमणविधिमा
गच्छन्तो वासबद्दलपण अभाहश्रो पक्कं गुहं अणुप्पविट्टो । ह-छिन्धि द्वेष व्यपनय रागं सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालो
राईमई वि सामिणो बंदणाए गया । वंदित्ता पडिस्सयचनादिना, क?, कामेष्विति गम्यते । शब्दादयो हि विषया
मागच्छद । अंतरे य वरिसिउमाढतो, तिताय (भिन्ना ) तएव कामा इति कृत्वा । एवं कृते फलमाह-एवम्-अनेन
मेव गुहमणुप्पविट्ठा-जत्थ सो रहनेमी, वत्थाणि य पप्रकारेण प्रवर्त्तमानः, किम् ? सुखमस्यास्तीति सुखी भवि
विसारियाण, ताहे तीए अंगपञ्चंग दिटुं, सो रहणेमी तीध्यसि, फ?-संपराये-संसारे, यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि ता
ए अज्झोववन्नो, दिट्ठो अणाए इंगियागारकुसलाए य पत्सुखी भविष्यसि , संपराये-परीषहोपसर्गप्राम रत्यन्ये ।
णाश्रो असो भावो एयस्स । कृते प्रसनेनेति सूत्रार्थः ।
ततोऽसाविदमवोचतकिं च संयमगेहाम्मनस एवानिर्गमनार्थमिदं
अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवरिहयो। चिन्तयेत् यदुतपक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं ।
मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुणो चर ॥८॥ नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥
जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीयो। प्रस्कन्दति-अध्यवस्यन्ति स्वलितम्-ज्वालामालाकुलं न बायाबिद्ध ब्व हडो, अट्टिअप्पा भविस्ससि ॥६॥ मुर्मुराविरूपम् , कम् !, ज्योतिषम्-अग्नि-धूमकेतुम्-धूम- तीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं । चिकं घूमध्वज नोक्कादिरूपं दुरासदम-दुःखनासाद्यतेऽभि- अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइयो।। १०॥ भूयत इति दुरासदस्तं , दुरभिभवमित्यर्थः । चशब्दलोपान्
एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा । मचेच्छन्ति-नच पाञ्छन्ति वान्तं भोक्तुं परित्यक्रमादातुं , विषमितिगम्यते । के ? नागा इति गम्यते । किं विशिष्टा इ
विणियति भोगेसु,जहा से पुरिसुत्तमो!।११।। त्ति बेमि । त्याह-कुले जाताः समुत्पन्ना अगन्धने । नागानां हि भेदद्वयं आई च भोगराक्षः-उग्रसेनस्य , दुहितेति गम्यते, स्वं च गन्धनाश्च, अगन्धनाश्च । तत्थ गन्धणाणामजे उसिए मंतेहि भवसि अन्धकवृणेः-समुद्रविजयस्य, सुत इति गम्यते, अआकहिया तं विसं वणमुद्दाश्रो भावियंति, अगंधणामो! तो मा पकैकप्रधानकुले श्रावां गन्धनौ भूव , उक्नं च-'जह
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सामण्णपुध्विया अभिधानजिन्द्रः।
सामण्णा पुखिया न सप्पतुल्ला होमु त्ति भणिय होइ' अतः संयम निभू- तं च पिसायं मोत्तूण जइ अन्नं पूरिसं जाणामि तो मे तश्चर-सर्वदुःखनिवारणं क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति तुम जाणिज्जसि त्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेइ--एस य सूत्रार्थः । किच-यदि त्वं करिष्यसि भावम्-अभिप्राय (पास) केरिसाई धुत्ती मंतेइ ?, अहगं पि यांचओ तीए, प्रार्थनामित्यर्थः, क?-या या द्रक्ष्यसि नारी:-खियः, ता- पत्थि सइत्तर्ण खु धुत्तीए, जाव जक्खो चिंतेह ताब सु तासु एताः शोभना एताश्वाशोभना अतः सेवे का
सा णिप्फिांडया । तो सो थेरो सव्वलोगेण विलक्खी ममित्येवंभूतं भावं यदि करिष्यसि ततो वाताबिद्ध इव
को, हीलिओ य तो थेरस्स तीए अधिईए णिद्दा णहडः-वातप्रेरित इवाबद्धमूलो वनस्पतिविशेषः अस्थिता
ट्ठा, रन्नो य कन्ने गर्य, रन्ना सद्दाविऊण अंतेउरवालो स्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्व
को, अभिसकं च हस्थिरयण वासघरस्स हेट्ठा बद्धं (प्रति ) बद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इत
अच्छह । हो य एगा देवी हरिथर्मिठे आसत्ता , गवरं श्वेतश्च पर्यटिष्यसीति सूत्रार्थः । तस्याः-राजीमस्याः
हत्था चौवालयाओ हत्थेण अवतारेह, पभाए पडिणीणा
एवं बच्चह काला । अन्नया य पगाए रयणीए चिरस्स असौ-रथनेमिः वचनम्-अनन्तरोदितं श्रुत्वा-पा
श्रागया हत्थिर्मिठेण रु?ण हस्थिसंकलाए पाहया । सा, कर्य, किंविशिष्टायास्तस्याः ?-संयतायाः-प्रवजिताया
भणइ-एयारिसो तारिसा य ण सुब्बा, मा मज्म रूसइत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनम् । सुधाषितम्-संवेगनिबन्ध
ह, तं थेरो पिच्छद, चिंतिय य गण-एवं पि रक्खिज्जनम् , अकुशेन यथा नागो-हस्ती एवं धर्म संप्रतिपादि
माणीयो एयाओ एवं ववहरंति, किं पुण ताओ सदा तः-धर्म स्थापित इत्यर्थः, केन ? अङ्कुशतुल्येन वचनेन । 'अकुसन जहा नागो' त्ति-एत्थ उदाहरण-वसंतपुरं नयरं,
सच्छंदाओ त्ति ? सुत्तो, पभाए सव्वलोगो टिश्रो, सो
ण उट्ठर, रन्नो कहिय, रन्ना भणिय-सुवउ । चिरस्स य तत्थ एगा इब्भण्डया नदीए राहाइ, अन्नो य तरुणो तं
उट्टिी पुच्छिश्रो य, कहियं सब्ब, भणइ-जहा एगा देदद ठूण भणइ-'सुराहायं ते पुच्छर, एसा नइपवरसोहिय
वीण याणामि कयरा वि । तो राइणा भण्डहत्थी काताजा । एए य नदीरुक्खा, अहं च पाएसुते पडिओ ॥१॥
राविओ, भणियाओ-एयस्स अचाणयं काऊणं ओलण्डेह, ताहे सा पडिमणइ-सुहया होउ नई ते, चिरं च जीवतुं जे
तो सब्वाहि ओलंडिओ एगा णेच्छद, भणइ य-अहं मईरुक्खा । सुण्हाय पुच्छयाणं, घत्तीहामो पियं काउं
बीहेमि, तो रन्ना उप्पलेण श्राहया, मुच्छिया पडिया, ॥१॥' सोय तीसे घरं वा दारं वा ण याणइ, तीसे य
रन्ना जाणिय-एसा कारि त्ति । भणियं च 'गण-मत्तगयबितिजियाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलायंताणि अच्छंति,
पारुहंतीए, भंडमयस्स गयस्स वीहीहि । तत्थ न मुच्छियतेण ताणं पुप्फफलाणि सुबहणि दिराणाणि पुच्छियाणि
सकलाहया, एत्थ मुच्छियउप्पलाहया ॥१॥' तो सरीरं य-का एसा ?, ताणि भणन्ति-अमुगस्स सुराहा, सोय।
जाइयं जाव सकलापहारो दिट्ठो ता परु?ण राणा देवी तीए विरहं न लहति, तो परिवाइयं ओलग्गेिउमाढ
मिठो हत्थी य तिरिण वि छिन्नकडए चडावियाण, भतो, भिक्खा दिना । सा तुट्टा भणइ--किं करेमि श्रोल
णिो य मिठो-एत्थं बाहेहि हत्थि, दोहि य पासेहिं ते गाए फलं ?, तेण भणिया-अमुगस्स सुरहं मम कर
(वे)लुग्गाहा उट्ठिया, जाव एगो पात्रो आगासे ठविप्रो, भणाहि, तीए गन्तूग भणिया, अमुगो ते एवं गुणजाती
जणो भणइ-किं एडं तिरिश्रो जाणइ ?, एयाणि मारियश्री पुच्छई, ताप रुटाए पउल्लगाणि धोवन्तीए मसिलि
व्याणि, तह वि राया रोसं न मुयड, जाव तिरिण सपण हत्थरण पिट्टीए श्राहया, पंचंगुलियं उट्टियं, अवदारेण
पाया आगासे कया , एगेण ठिो , लोगेण की निच्छूढा, गया तस्स साहह-शाम पि सा तव ण सुणेह,
अक्कन्दो किमयं हत्थिरयणं विणासिज्जा ?, रराणा मिठो तेण पायं-कालपंचमीए अवदारेण श्रइगंतव्वं । अइगो
भणिओ-तरसि णियत्तेउं ? , भण-जह दुयगाणं पि. य, असोगवणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य जाव प
भयं देसि, दिलं,तो तेण अंकुसेण नियत्तिो हत्थि' त्ति । स्सावणागरण ससुरेण दिट्ठाणि, तेण णायं-ण एस म
दार्शन्तिकयोजना कृतैवेति सूत्रार्थः ॥१०॥ एवं कुर्वन्ति म पुत्तो. पारदारिओ कोइ । पच्छा पायाश्रो तेण उरं
संबुद्धा-बुद्धिमन्तो बुद्धाः सम्यग् दर्शनसाहचर्येण-दर्शनगहिय, चेयं च तीए सो भणिो -णास लहुं, श्रावइका- कीभावेन वा वुद्धाः संबुद्धा-विदितविषयस्वभावाः सम्यग्ले साहेज्जं करेजासि, इयरी गंतूण भत्तारं भणइ--एत्थ दृष्टय इत्यर्थः , त एव विशेष्यन्ते पण्डिताः प्रविचक्षणाः । घम्मी असोयवणिय वच्चामो, गंतृण सुत्ताणि, खणमेत तत्र पण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाः चरणपारणासुविऊणं भत्तारं उट्ठवेइ भणइ य-एयं तुज्झ कुलाणुरूवं ? | मवन्तः । अन्ये तु व्याचक्षते-संबुद्धाः सामान्यन बुद्धिमजणं मम पायाश्रो ससुराणेउरं कड्डइ, सो भणइ-सुब- न्तः पण्डिता बान्तभोगासवनदोषहाः प्रविचक्षणा अवद्यसु पभाए लम्भिहिति । पभाए, थेरणं सिटुं, सो य रुट्टो भण- भीरव इति, किं कुर्वन्ति ?-विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः विविधम्इविवरीो थरो त्ति । थेरो भणइ--मया दिट्ठो अन्नो पु- अनेकैः प्रकारैरनादिभवाभ्यासबलेन कदर्यमाना अपि रिसो, विवाए जाए सा भणइ--अहं अप्पाणं सोहयामि मोहोदयेन (वि) निवर्तन्ते भोगेभ्या-विषयेभ्यः, यथा क एवं करेहि, तो राहाया कयबलिकम्मा गया जक्खघरं । इत्यत्राह-यथाऽसौ पुरुषोत्तमः-रथनेमिः । श्राह-कथं ततस्स जक्खस्स अतरणं गच्छंतो जो कारगारी सो ल- स्य पुरुषोत्तमत्वम् ?,यो हि प्रवजितोऽपि विषयाभिलाषीति ग्गइ, अकारगारी नीसरह, तो सो विडपियतमा पिसा- उच्यते-अभिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः , कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं यरूवं काऊण णिरंतरं घणं कंठे गिराहइ, तो सा गं- चेष्टत एवेति । अपरस्त्याह-दशवकालिकं नियतश्रुतमेव, तूप तं जक्वं भणइ--जो मम मायापिउदिन्नो भत्तागे। यत उनम्-" णायज्झयणाहरणा , इसिभासियमो
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( ६४६) सामरणपुब्विया अभिवानराजेन्द्रः।
सामएणविसेस परन्नयसुया य । एए होति प्राणियया , णिययं पुण दृग् इति वाच्यम् । निर्विकल्पकमिति चेत । न । तस्यासेसमुस्मन्नं ॥ १ ॥” तत्कथमभिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं
पि निर्विकल्पकत्वेन भ्रान्ततापत्तेः । अर्थसामर्थ्यजन्यत्वायुज्यते इति?, उच्यते-एवम्भूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि भा बाद् , उत्सन्नग्रहणाचादोषः, प्रायो-नियतं न तु सर्वथा नि
दनापत्तिरिति चेत् । न अस्य विकल्पकेऽपि तुल्यत्वात् । यतमवेत्यर्थः । ब्रवीमिति न स्वमनीषिकया किन्तु तीर्थकर- क्वचिद्वयभिचारदर्शनादतुल्यत्वमिति चेत् । न तस्य निगलधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्वदिति । दश०२ विकल्पकेऽपि भावात् । न तन्नःप्रमाणं, तदाभासत्वादिसामसभाव-सामान्यभाव-पु०। सामान्यरूपतायाम् , विश० ति चेत । विकल्पकेऽपि तुल्यः परिहारः। अर्थधर्मातिसामस्मलक्खण-सामान्यलक्षण-न०। लक्षणभेद, विशे० ।
रिकशब्दभावतोऽस्यार्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपत्तिरिति चेत् । (तत्स्वरूपम् ' लक्खण' शब्दे षष्ठभागे गतम् ।) न । बोधनियतार्थतादिभिर्व्यभिचारात् । न ते, अर्थादन्यसामामविसेस-सामान्यविशेष-पुं०। पृथिवीत्वं जलत्वं कृष्ण
तो भावादिति चेत् । शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्यः, इति सस्वं नीलत्वमित्याद्यवान्तरसामान्यरूपे, श्रा० म०१ अ०।
मानः समाधिः। सामान्यानि विजातीयेभ्यो व्यावर्तनाच विशेषाः इति सामान्यविशषाः । स्वस्वाधाराविशषेषु अनुगताकारण- न चेत्यादि । न चैतद्विशानमनन्तरोदितं,भ्रान्तमिति युज्यस्ययवचनहेतुषु द्रव्यत्वादिषु , प्रा० म० १ ० । ते । कुत इत्याह-घटादिसन्निधौ सति , अपिकलतदन्यकासूत्र० । अनुवृत्तव्यावृत्तायवोधहेतुभूते सामान्ये , स्था०७ | रणानां संपूर्णालोकादिकारणानामित्यर्थः । सर्वेषामेव 'प्रमाठा०३ उ०।
तृणाम्' इति सामर्थ्य गम्यम्, अविशेषेण सामाम्येन भिक्षूयच्चोनं-(कैश्चित ) एतेन सामान्यविशेषरूपमपि पासकादीनामपि, उपजायमानत्वात् कारणात् । भ्रान्तमेतदप्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यमित्यादि। तदप्ययुक्तम्-सामान्य
धिकृतज्ञानम् । कुत इत्याह-विकल्पकत्वादिति चेत् । एत
दाशझ्याह-अभ्रान्तं तर्हि काहगिति एतद् वाच्यम् । निविशेषरूपस्य वस्तुनोऽनुभवसिद्धत्वात् , तथाहि
विकल्पकमिति चेत् अभ्रान्तम् । एतदाशङ्कयाह-न, तस्याघटादिषु घटो घट इति सामान्याकारा बुद्धिरुत्पद्यते ,
पि निर्विकल्पकस्य, निर्विकल्पकत्वेन हेसुमा, भ्रान्ततापत्तेः, मातिकस्ताम्रो राजत इति विशेषाकारा च, पटादिर्वान स्वरूपमेव भ्रान्तिनिबन्धनम् , एतच्चास्यापि विद्यते एवेत्यभवतीति । न चार्थसद्भावोऽर्थसद्भाबादेव निश्चीयते, सर्व
भिप्रायः । अर्थसामर्थ्यजन्यत्वाद निर्विकल्पकस्य, अनापत्ति
रिति चेद् भ्रान्तताया इति प्रक्रमः । एतदाशझ्याह-न, सचानां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् , सर्वार्थानामेव सद्भावस्यावि
अस्य अर्थसामर्थ्यजन्यत्वस्य. विकल्पकेऽपि तुल्यत्वात् , एशेषात् । किं तर्हि ? अर्थज्ञानसद्भावात् । ज्ञानं च सामा- तदप्यर्थसामर्थ्यजन्यमेवेत्यर्थः।क्वचिच्छात्रमनोराज्यविकल्पान्यविशेषाकारमेवोपजायत इति अतोऽनुभवसिद्धत्वात दौ, व्यभिचारदर्शनात् कारणात् , अतुल्यमिति चेद् न ह्यसासामान्यविशेषरूपं वस्त्विति ।
धर्थसामर्थ्य जन्य इति । एतदाशङ्क्याह-न, तस्य कचिद् व्य.
भिचारस्य,निर्विकल्पकेऽपि भावात् । न हि तदपि सर्वमर्थअधिकारान्तरमधिकृत्याह-यञ्चोक्नमित्यादिना। यश्चोतं पूर्वपक्षग्रन्थे-एतेन सामान्यविशेषरूपमपि प्रतिक्षिप्तमवग
सामर्थ्य जन्यम् । न तत्-अर्थसामाजन्यम्,नोऽस्माकं,प्रमा.
णम् , कुत इत्याह-तदाभासत्वात् प्रमाणाभासत्वात् , इति चे न्तव्यमित्यादि । तदप्ययुक्तम् । कुत इत्याह-सामान्यविशे
त्। एतदाशइन्क्याह-विकलाकेपि तुल्यः परिहारः अर्थसामषरूपस्य वस्तुनोऽनुभवसिद्धत्वात् । पतदेवाह-तथाहीत्या
थाजन्य विकल्पकमपिन नःप्रमाणं तदाभासत्वदियेति । - दिमा, तथाहि-घटादिषु पदार्थेषु, घटो घट इत्येवं सामा
थंधर्मातिरिक्तश्चाऽसौ शब्दश्चेति विग्रहः तावतः कारणात्, न्याकारा बुद्धिरुत्पद्यते तथा मार्तिको मृदादिनिवृत्तो मार्ति
अस्य विकल्पस्य,अर्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपत्तिरसम्भव एवेति कः, ताम्रविकारस्तानः, रजतविकारो राजतः, इति विशेषा
चेत्-उक्तं च धर्मकीर्तिना-"न ह्य शब्दाः सन्ति तदात्माकारा च बुद्धिरुत्पद्यते, पटादिर्वा न भवतीत्येवम् । इयं च
नो वा.येन तस्मिन् प्रतिभासेरन्" इति । पतदाशइन्क्याहवस्तुतस्वव्यवस्थानिबन्धनमित्यधिकृत्याह-नचेत्यादि । न
न । बोधनियतार्थतादिभिः श्रादिशब्दात्-कुशलतादिपरिणचाऽर्थसद्भावोऽर्थसद्भावादेव कारणात् , मिश्चीयते । कुत
हः व्यभिचारात्-अर्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपत्तेरिति । न, ते इत्याह-सर्वसत्वानां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् ,प्रसङ्गश्च सर्वार्थाना
बोधादयः , अर्थादन्यतः समनन्तरादेर्भावादिति चेत् । पत. मेव भुरानोदरवर्तिनां सद्भावस्याविशेषात, किंतर्हि ? अर्थ
दाशझ्याह-शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्यः शब्दप्रायोग्यद्रव्ये. मानसद्भावाद् अर्थसद्भावो निश्चीयते । यदि नामैवं, ततः
भ्योऽन्येभ्य एव,इत्येवं, सामान:-तुल्यः, समाधिः-परिहारः । किमित्याह-शानं च सामान्यविशेषाकारमेयोपजायत इति
अनेन च"श्रयमर्थासंस्पर्शी संवेदनधर्मोऽर्थेषु तनियोजनानिदर्शितम् । अतोऽनुभवसिद्धत्वात् कारणात् ,सामान्यवि
त्" इत्यपि प्रत्युक्तम् , अनभ्युपगमादिति । शेषरूपं वस्त्विति ।
न चैतद्विज्ञानं भ्रान्तमिति युज्यते, घटादिसनिधाववि- न चैतदभ्युपगमात्रम् , तावत्संघातजस्यैव तथार्थग्रहणकलतदन्यकारणानां सर्वेषामेवाविशेषणोपजायमानत्वात् ।। खभावत्वात,अविगानकस्तथानुभवसिद्धेः,एवमेव व्यवहारम्रान्तमेतत, विकल्पकत्वादिति चेत । अभ्रान्तं तर्हि की- दर्शनादिति; तथाहि-एतदिन्द्रियद्वारानुसार्येव विज्ञानमा
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सामरविसेस
विष्टाभिलापम् ' अहिरहि:' इति योजकं दर्शकं च धारावाहि तथा व्यवहारबीजं प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धमेव । न चेहान्यदेवदर्शनम्, अन्य एव च विकल्पः, विकल्पेनाsदर्शनात् दर्शनेन चाचिकल्पनात् तयोर सहव तेरुपादानादिभावात् । इत्येकमेवेदमिति ॥
,
( ६४७ ) अभिराजेन्द्रः ।
न चेत्यादि । न चैतत्-शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्य इति यदुक्तमेतत् श्रभ्युपगममात्रम्, अपि तु सोपपत्तिकमित्यभि प्रायः । कुत इत्याह- तावदित्यादि । तावत्संघातजस्यैव रूपालोकमनस्कारचक्षुः शब्दसंघातजस्थैव ' विकल्पशा - नस्य इति प्रक्रमः तथा तेन निश्चितप्रकारेणाऽथग्रहणस्वभावत्वात् । एतचैवमर्थग्रहणस्वभावत्वम्, अविगान सः - अविगानेन, तथा तेन प्रकारेणाऽनुभवसिद्धेः, अनुभवसिद्धिश्चैवमेव व्यवहारदर्शनादिति । एतदेव निदर्शनेनाह-तथाहीत्यादि । तथाहीत्युपदर्शने एनद्-वदयमाणम्, इन्द्रियद्वारानुसार्येव तद्व्यापाराऽभावेऽमावात् विज्ञानम्। किंविशिटमित्याह श्राविष्टाभिलाषं प्रविष्टशब्दं शब्दसम्मिश्र मित्यर्थः किंविशिष्टमित्याह श्रह्निरहिः - सर्पः सर्प इत्येवं योजकं शब्दस्थ, दर्शकं चार्थस्येन्द्रियव्यापारेण, धारावाहि तथा सन्तानप्रवृत्तम् । एतदेव विशेष्यते व्यवहारबीजमिति । ततस्तथाविधव्यवहारसिद्धेः, प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धमेव प्राणिनं प्राणिनं प्रति ततद्द्रष्टुपेक्षया प्रतिप्राणि, प्रतिग्रामभिक्षालाभवत्, अनुभवसिद्धमेव नेह कस्यचिद् विगानमिति । न चेहेत्यादि । न चेह प्रस्तुते ज्ञाने, अन्यदेव दर्शनं निर्विकल्पकम् अन्य एव च विकल्पो निश्चयात्मकः । कुत इत्याह-विकल्पेनादर्शनात् । कान्तादिविकल्पे तथानुभवसिद्धमतत् दर्शनेन चाविकल्पनात् अनभिप्रेतभूतृष्णादिदर्शने एतदपि सिद्धमेव । तथा तयोर्देर्शन विकल्पयाः, असहवृत्तेर्युपदवृत्तरित्यर्थः । कुत इत्याह- उपादानादिभावात् श्रवग्रहादिक्रमेणोपादानोपादयभावादित्यर्थः इत्येवम्, एकमेवेदमधकृतं विज्ञानमिति ।
स्यादेतत् सविकल्पाविकल्पयोर्विज्ञानयोः स्वभावभेदेऽ पिप्रतिभासभेदेन युगपतेर्विमूढः प्रतिपत्ता तमपश्यन्नैक्यं व्यवस्यति, न तु तथा तत्, अन्यत्रानयोर्यौगपद्येऽपि भेददर्शनात्, अतीताद्यर्थगत विकल्पेनापीन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः । न च स विकल्पो रूपाद्येव गृणातीति अस्त्वेवमपि को दोष इति चेत् । निवृतेदानीमिन्द्रियज्ञाशक्यं कल्पयितुम्, तस्यातीताद्यर्थाभिधायकत्वत्यागतो नवार्ता, अभिधानविशेषस्मृतरयोगात्, सति दर्शनेऽ वर्तमानार्थयोजनेन प्रवृत्तिप्राप्तेः । नापि वर्तमानार्थाभिधार्थसन्निधौ दृष्टे शब्दे ततः स्मृतिः स्यात्, अग्निधूमवत् । नसंसर्गी तदाऽपरो विकल्पः समस्ति, द्वयोर्विकल्पयोः सममप्रवृत्तेः, अविगानेन तथानुभवाभावात् श्रतोऽत्र प्रत्युत्पन्नविषयग्रहणकाले दृश्यमानार्थनामाऽग्रहः स्पष्ट एव । तन्नामग्रहणसम्भूता च कल्पना तन्नामग्रहाभावे कल्पनाऽ भावः । इति सिद्धमविकल्पकमिन्द्रियज्ञानम् अतोऽन्य एव च विकल्प इति न क्वचिदनयोरैक्यम्, न्यायानुपपत्तेः, भिन्नजातीयत्वादिति । इतचैतदेवम् । अन्यथा स्वाभिधानविशेषण var एवार्था विज्ञानैर्व्ययमीयन्त इति प्राप्तम् ॥
•
न चायमशब्दमर्थं पश्यति, अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति, अननुस्मरन्न योजयति, प्रयोजयन्न प्रत्येति, इत्यायामान्ध्यमशेषस्य जगतः । अभिपतनेवार्थः प्रचो धयत्यान्तरं संस्कारं तेन स्मृतिः, नार्थदर्शनादिति चे त् । न । तत्संबन्धस्यास्वाभाविकत्वात्, समयादर्शनभावात् पुरुषेच्छातोऽर्थानां स्वभावापरावृत्तेर्न समयकालोत्पत्तिः स्वभावस्य परावृत्तौ च तस्य तादात्म्यात्, अन्यस्यासमयदर्शिनोऽपि स्यात् न हि प्रतिपुरुषमर्थान
,
•
सामण्णविमेस
पराभिप्रायमाह - स्यादेतदित्यादिना । स्यादेतदथैवं मन्यसे, सविकल्पविकल्प पोर्विज्ञानयोः सामान्येन स्वभावभेदेऽपि स
ति, प्रतिभासभेदेन हेतुना युगपद वृत्तेः कारणात् विमूढ प्रतिपत्ता पुरुषः, तमपश्यन्वभावभेदम्, ऐक्यं व्यवस्यति तयोः सविकल्पविकल्पयोः, न तु तथा तत् न पुनस्तदैक्यमेव । कुत इत्याह- अन्यत्र जातिभेदे, अनयोः सविकल्पा विकल्पयोः, यौगपद्येऽपि सति भेददर्शनात् । एतदेवाह - प्रतीताद्यर्थगतविकल्पेनापि प्रमात्रा, इन्द्रि ज्ञानतः - इन्द्रियज्ञानेन, रूपादिग्रहणसिद्धेः । कस्येत्याह – अन्यस्याश्रुतत्वात् तस्यैव प्रमातुः । न चेत्यादि । न च स विकल्पोऽतीताद्यर्थगतः, रूपाद्येव गृह्णाति 'वार्तमानिकम् ' इति प्रक्रमः इत्येवं शक्यं कल्पयितुम् । कुतो न शक्यमित्याह तस्येत्यादि । तस्यातीताद्यर्थगतविकल्पस्य , श्रतीताद्यभिधायकत्वत्यागतोऽतीतादिवाचक शब्दादित्यागतः । वर्तमानार्थ योजनेनेति । वर्तमानोऽर्थोऽभिधेयो यस्य श्रभिधायकस्य ' इति प्रक्रमः स वर्तमानार्थस्तद्योजनेन प्रवृत्तिप्राप्तेः कारणात् । नापीत्यादिना । नापि वर्तमानार्थाभिधानेन संसृज्यते तच्छीलचेति विग्रहः, तदा तस्मिन्नेव काले अपरो विकल्पः समस्तिविद्यते । कुत इत्याह-द्वयोर्विकल्पयोः समं युगपत् अ वृत्तेः कारणात् । श्रप्रवृत्तिश्वाचिगानेनाऽविप्रतिपस्या तथा तेन समकालभावेनाऽनुभवाभावात् । अत इत्यादि । अतः स्थितमेतत् प्रत्युत्पन्नविषयग्रहणकाले दृश्यमानार्थनामाऽ ग्रहः स्पष्ट एव । यदि नामैवं ततः किमित्याह -तनामग्रहणेन संभूता तन्नामग्रहणसंभूता एवंभूता च कल्पना । ततः किमित्याह- तन्नामग्रहाभांव कल्पनाभाव इति कृत्वा, सिद्धमविकल्प कमिन्द्रियज्ञानम् । अत इन्द्रियज्ञानात्, अन्य एव च विकल्प इत्येवं, न क्वचित् सजातीयादौ श्रनयोदर्शन विकल्पयोः, ऐक्यम् - एकभावः, न्यायानुपपत्तेः इयं चोक्लेव | सर्वगर्भ त्वाह-भिन्नजातीयत्वात् । सामान्येनैव दशेनविकल्पयेोरिति 'इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्' इति शेषः । श्रन्यथैवमनभ्युपगमे स्वाभिधानविशेषणापेक्षा पवार्था वि ज्ञानव्यवसीयन्त इति प्राप्तं, व्यवसीयन्तेः प्रतीयन्त इत्यर्थः । कीदृशा इत्याह-स्वाभिधानेत्यादि । स्वाभिधानमेव वि शेषणं व्यवच्छेदकत्वात् तस्मिन्नपेक्षा येषामर्थानामिति विग्रहः ।
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साभरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस मात्मभेदः, नैरात्म्यप्रसङ्गाद, शात्मस्थितेरभावाद । त- नुत्पत्तेः कारणात् , न समयकालोत्पत्तिः-न समयकाले स्व. स्मादयमशब्दसंयोजनमेवार्थ पश्यति दर्शनादिति ।
भाविकत्वेन शब्दार्थसंबन्धस्य प्रादुर्भाव इत्यर्थः । दोषान्त
राभिधित्सयाऽभ्युपगम्यापि स्वभावान्तरपरावृत्तिमाहअस्तु-भवत्वेतत् , पवमपि को दोष इति चेत् । एतदा स्वभावस्य परावृत्ती च सत्याम् , अन्यस्यासमयदर्शिनोऽपि शङ्कपाह--निवृत्तेत्यादि । निवृत्तेदानीमिन्द्रियविज्ञानवा- स्यात् स्मृतिसंस्कारप्रबोधः , अर्थप्रतीतिति शेषः, न केर्ता । कस्माद् निवृत्तेत्याह--अभिधानविशेष इत्यादि ।
वलं समयदर्शिन इत्यपिशब्दार्थः। कस्मादित्याह-तस्यअभिधानविशेषो योऽर्थस्तदानीं ग्राह्यस्तस्य यो वा
तादात्म्यात् । स स्मृतिसंस्कारप्रबोधकः, अर्थप्रतीतिहेतुचकः शब्दस्तत्र स्मृतिस्तस्याः स्मृतेरयोगात् ।
को था आत्मा स्वभावोऽस्येति तदात्मा, तदात्मनो भावकथमयोग इत्याह--सति ह्यर्थदर्शन इत्यादि । यस्माद्
स्तादात्म्य, ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात् ष्यञ् । अथोच्यते-सव्यवहारकाले सत्यभिधेयार्थदर्शने तदभिधायिन्यभिधान
मयदर्शिनं प्रति स्वभावः, न पुनरदृष्टसमयं प्रति , इत्यत स्मरणं भवति । तत्रापि न सर्वस्य शब्दस्येत्याह-अर्थसं
श्राह-न हीत्यादि । न हि पुरुषं पुरुष प्रति , अर्थानाम् , निधी संकेतकाले, दृष्टे शब्द इति, तत इत्यर्थदर्शनात् ,
आत्मभेद:--स्वभावभेदः, भवति । कुत इत्याह-नैराभ्यप्रस्मृतिः स्याद् नान्यथा । निदर्शन हि-अग्निधूमवत् ।
ङ्गात् । अयमभिप्रायः-पुरुषेच्छानामानन्यात् , तदनुवयथाऽग्निधूमयोः संबन्धक्षस्थाग्निदर्शने धूमे स्मृतिभवति,
तिनश्च यद्यर्थाः स्युस्तदा तेषां नैःस्वभाव्यमेव स्यात् , धूमदर्शने चाग्नौ स्मृतिः, तद्वदत्राप्यवसेयम् । स्यान्मतम्
एकस्यानेकस्वभावाभावात् । स्याद् मतम्-भवतु सामयिअर्थ तर्हि दृष्ट्रा शब्दं स्मारण्यतीत्याह । न चाय
कस्वभावस्याभावः, अन्योऽपि तद्व्यतिरिक्को वस्तुसत्स्वमित्यादि । न खल्वयं
भावोऽस्यास्त्येव, अतो नैरास्यप्रसङ्गो न भविष्यतीत्याह
सविकल्पकप्रत्यक्षवादी, शब्दरहितमर्थ पश्यति , स्वाभिधानविशेषणापेक्षा ए
यात्मस्थितेरभावादिति । उपलब्धिलक्षण प्राप्तस्य तद्व्यतिवार्था विज्ञानयंवसीयन्त इति नियमात् । ततः को दोष
रेकेणान्यस्य स्वभावस्यानुपलम्भादित्यभिप्रायः । अथवा इत्याह-अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति ' नियमेन '
नन्वेवं सति बहुतरस्वमावसिद्धिरेव ; तत्किमुच्यते-नैराइति शेषः, यस्मादर्थदर्शनं शब्दविशेषस्मृतेर्हेतुः, सा च
त्म्यप्रसङ्गात् ?, इत्याह-श्रात्मस्थितेरभावात् । पुरुषाणां स्वातेन व्याप्ता, कारणं निवर्तमान कार्य निवर्तयति । भवतु
भिप्रायवशेनैकत्र विरुद्धस्यापि स्वभावस्याऽभ्युपगमसंभनामैवं ततः को दोष इति श्राह--अननुस्मरन्न योजयति
वात्। न चैकस्य विरुद्धानेकस्वभावो युक्त इति मन्यते अत्रापि शब्दविशेषानुस्मरणं स्मृतियोजनायाः कारणं, त
तदेवं स्मृत्यसंभवेन निर्विकल्पता प्रतिपाद्योपसंहरन्नाहदभावात् कार्याभावः । अत्रापि को दोषः इति चेदाह
तस्मादित्यादि । यस्मादेवमनन्तरोक्नेन प्रकारेण शब्दविशेअयोजयन्न प्रत्येति योजन हार्थप्रतीतेः कारणमित्यत्रापि
पस्मृतिन संभवति, तस्मादयं प्रतिपत्ता, अशब्दमंयोजकारणानुपलब्धिरेचेति । तस्मादायातमाध्यमशेषस्य जग
नमेवार्थ पश्यति , अविद्यमानं शब्दसंयोजनं यस्यार्थस्येतितः, न चध्यते । तस्मान्नेन्द्रिय हाने शब्दकल्पना संभवनी
विग्रहः । कुत इत्याह-दर्शनात् । अयमस्याओं यस्मादय प्र. ति । अथापि स्याद् नार्थदर्शनात् स्मृतिः, किं तर्हि ?, यो- तिपत्ताऽर्थमुपलभते, तस्मादशब्दसंयोजनमेवार्थ पश्यतीति। ग्यदेशावस्थितादेवार्थात् स्मृतिरित्याह-अभिपतनवेत्यादि ।
निश्चीयते। अभिपतन्त्रभिमुखीभवन् । काऽसावित्याह--अर्थों रूपादिको
किश्च-विकल्पात्मकत्वेऽस्य निश्चयात्मकमिदमित्यनकविषयः । किं करोति ?, प्रबोधयति--कार्यनिर्वर्तनं प्रत्यनुकलयति । कं प्रबोधयति?, श्रान्तर संस्कारं शब्दस्मृति
प्रमाणवादहानिः, तेनैव वस्तुनो निश्चयात नित्यत्यादी बासनालय, तेन अर्थाभिपातमात्रेण, सा स्मृतिः, तेन वा भ्रान्त्यनुपपत्तेः। अनेकधर्मके वस्तुन्यन्यतरधर्मनिश्चयात् कारणेन, स्मृतिः, नार्थदर्शनादिति चेत्, तथा च नान्थ्य,
तदन्यनिश्चयाय प्रमाणान्तरसाफल्यमिति चेत् । एकधर्मजगतः, विकल्पकत्वं चेन्द्रियज्ञानस्योपपन्नमिति मन्यते ।
विशिष्टस्यापि निश्चये सर्वधर्मवत्तया निश्चयात , प्रमाणाअर्थाभिपातस्य स्मृतिजनकत्वं निगकुर्वनाह-न । तत्संबम्धस्येत्यादि । यदेतदुक्तम्-अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं न्तरस्य निश्चितमेव विषयीकुर्वतः स्मृतिरूपानतिक्रमात् , संस्कारामिति । तन्न । कुत इत्याह-तत्संबन्धस्य तयोः | एकधर्मद्वारेणापि तद्वतो निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण विषयीशब्दार्थयोः संबन्धस्तत्संबन्धस्तस्य, अस्वाभाविकत्वात् पी
करणे सकलधर्मोपकारकशक्त्यभिन्नात्मनो निश्चयात् । न रुषेयत्यादित्यर्थः । कथमवसमित्याह--समयादशने सकेतस्याग्रहण सति, श्रभावात् स्मृतिसंस्कारप्रबोधस्य, अ
ह्यन्य एवान्योपकारको नाम । ततो यदेवास्यैकोपकारर्थप्रतीतवेति वाक्यशेषः । एतदुक्तं भवति--ययोः स्वाभा- कत्वेन निश्चयनम् , तदेव तदन्योपकारकत्वेनापि न विकः संबन्धी न तयोः समयं प्रति काचिदपेक्षा, यथा
चासत्युपकार्योपकारकभावे तद्वयवस्थाऽतिप्रसङ्गतो युक्ता । चनुरूपयोः, विपर्ययस्त्वत्र, इति नाकृत्रिमत्वं संबन्धस्येति । तत्रैतत् स्यात् समयादुत्तरकालं स्वाभाविकः शब्दार्थ- किञ्चेत्यादि । किञ्च श्रयमपरो दोपः-विकल्पात्मकत्वेऽस्य संबन्धो न पूर्वम् , अतः कृतसमयस्याभिपतन्नवार्थः प्रबोध- प्रत्यक्षस्य.निश्चयात्मकमिदमित्येयं विकल्पात्मकत्वेन हेतुना । यत्यान्तरं संस्कारमित्याह-पुरुपेच्छातः सकाशात् , अर्थानां । यदि नामैवं ततः किमित्याह-अनेकप्रमाणवादहानिः-प्रस्वभावापरावृत्तः पूर्वस्वभावपरित्यागेन विशिष्टस्वभावान्तरा, न्यक्षानुमानागमप्रमाणवादद्दानिः । कुत इत्याह-तेनैव नि
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सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामण्णक्सेिस श्वयात्मना प्रत्यक्षण, वस्तुनो निश्चयात् कारणात्। यथो- कुण्डं बदराणामिति भावनीयम् । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमिक्लनिश्चयेऽपि किमित्याह-नित्यत्वादी धर्मे , भ्रान्त्यनुपप- त्याह-अन्यथेत्यादि । अन्यथैवमनभ्युपगमे , कल्पनामात्र त्तरिति । पराभिप्रायमाह-अनेकधर्मक वस्तुनि नित्य- स्याद आधाराधेयभावः । न चैतदेवमित्युपकारसिद्धिः। तस्वादिधर्मापेक्षया, अन्यसरधर्मनिश्चयाद यथोचितप्रत्यक्षा, थाचेत्यादि । तथाचैवं चोपकागसिद्धौ सत्यां . शक्तीनामनतदन्यनिश्चयाय-धर्मान्तरनिश्चयार्थ , प्रमाणान्तरसाफल्य- वस्था...यकाभिः शक्तीभिः शक्लीनामुणकरोति ता अपि तमनुभानादिसाफल्यमिति चेत् । एतदाशझ्याह-नकेत्या- तो भिन्ना इति तत्राप्ययमेव वृत्तान्त इत्यनवस्था । ततदि । न-नैतंदवम् । कुत इत्याह-एकधर्मविशिएस्यापि 'व- स्तस्मात् , स्वात्मैवास्योपकारकस्य धर्मिणः , अशेषधर्मोपस्तुनः' इति प्रक्रमः । निश्चये सति किमित्याह-सर्वे च ते | कारिकाः शक्लप इति । यतश्चैवम् , अतस्तस्योपकारकस्य धर्माश्च सर्वधर्मास्तऽस्य वस्तुनो विद्यन्त इति सर्वधर्मवत् धर्मिणः , सर्वधर्मोपकारकत्वेन निश्चये सति । किमित्याहतद्धावः सर्वधर्मवत्ता तया, निश्चयात् । एवं च प्रमाणन्या- तदुपकार्या अपि विवक्षितोपकारकोपकार्या अपि , धर्मा दि । प्रमाणान्तरस्याऽनुमानादः, निश्चितमेव 'धर्मान्तरम्' निश्चिता एव । कुत इत्याह-तन्निश्वयनान्तरीयकत्वात् इति प्रक्रमः, विषयीकुवेतः सतः , स्मृतिरूपानतिक्रमात्, उपकार्यधनिश्वयनान्तरीयकत्वात् , उपकारकनिश्चयस्य • अनेकप्रमाणवादहानिः' इति वर्तते, एकधर्मविशिष्ठस्या- तदपेक्षमस्योपकारकत्वमित्यर्थः । एतत्स्पष्टनायैवाहन पि निश्चये सर्वधर्मवत्तया निश्चयादिति यदुक्तं तदुपदर्श- हीत्यदि । न यस्मात् , ये भावाः यदपेक्षस्थितयः यमाह-एकधर्मेत्यादि । एकधर्मद्वारणापि तद्वतो-धर्मब- प्रकृत्या ते भावाः , तदनिश्चय ऽपेक्षाऽनिश्चये , तथा तो वस्तुनः , निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण संविकल्पकेन, विष- निश्चीयन्ते तदपक्षकत्वेन निश्चीयन्ते नहि । निदर्शयीकरणे सति । किमित्याह-सकलाश्च ते धर्माश्च तेषा- नमाह-स्ववामित्ववत् । खं च स्वामी च स्वस्थामुपकारिकाश्च ताः शक्लयश्चेति विग्रहः , ताभ्योऽभिन्नश्चा- मिनी तद्भावः स्वस्वामित्वं तद्वत् ' स्वमस्य,अस्य स्वामी' सावात्मा चेति समासस्तस्य, निश्चयात् कारणात् ,सर्वध- इतीतरतरप्रतिपत्तिनान्तरीयकी स्वस्वामिप्रतिपत्तिः । उपमवत्तया निश्चयः । एतत्समर्थनार्यवाह-नहि इत्यादि । न य- संहरनाह-एवमपि अनेकप्रमाणवादहानितोऽपि, सविकस्मात् , अन्य एव 'धर्मी वस्त्वात्मा' इति प्रक्रमः , अन्यो- ल्पकप्रत्याक्षानुपपत्तिरिति ।। पकारको नाम धर्मान्तरोपकारको नाम, किं तर्हि ? , स
अत्रोच्यते-यदक्तम्-सविकप्पाविकल्पयोर्विज्ञानयोः स्वएव , धर्मिण एकत्वादिति हृदयम् । ततो यदेवाऽस्य वस्तुनो धर्मिणः, एकोपकारकत्येनान्यतरधर्मापेक्षया, निश्च
भावभेदेऽपि प्रतिभासभेदेन युगपद्वृत्तरित्यादि तदयुयनं तदेवान्योपकारकत्वेन धर्मान्तरोपकारकत्वेनापि, नि- क्तम् ,एकविषययोः सविकल्पाविकल्पयोर्युगपद्' वृत्त्यसिद्धेः, श्चयनम् , अन्यथा तंदकत्वहानिरिति गर्भः । न चासत्युप- तदविकल्पऍवकत्वात तद्विकल्पस्य, अन्यथाऽस्याहेतुककार्योपकारकभावे तद्व्यवस्था वस्तुनो धर्मधर्मिव्यवस्था अतिप्रसङ्गतः कारणात् , युक्ता। अतिप्रसङ्गश्च तद्वद्ध
त्वापत्तिः,तथा च सदा सदसवप्रसङ्गः। सोऽपि तत्पूर्वक एमन्तिराद्यपेक्षयाऽपि धादिभावप्रसङ्गः ,निमित्ताभावावि
वेति चेत् । कथमनयोर्युगपद् वृत्तिः । प्रबन्धापेक्षयेति चेत् । शेषादिति।
कथमाद्याविकल्पादुभयजन्म तत्तत्स्वभावत्वादिति चेत् । न चोपकारिकाः शक्तयस्ततो भेदमनुभवन्ति, असत्युप- कथं कारणभेदो भेदहेतुः । यदि न, ततः को दोष इति कारेऽस्येमाः शक्तय इति संबन्धायोगात् , अाधाराधेयं चेत । प्रधानादीनामनिषेधप्रसङ्गः । ते तथाभावजनका भावस्यापि तन्निबन्धनत्वात् , अन्यथा कल्पनामात्रं स्या- इति चेत् ततः को दोष इति वाच्यम् । नैकस्मादनेकजन्म न , तथा च शक्तीनामनवस्था । ततः स्वात्मैवाऽस्याशे- इति चेत् । कथं न ? | तत्तत्स्वभावत्वेन संक्रान्त्या तदयुपधर्मोपकारिकाः शक्तयः, तस्य सर्वधर्मोपकारकत्वेन | क्वेरिति चेत् । तदभावे तद्युक्तिरित्यद्भुतम् । ततोऽसद्भावानिश्चये तदुपकार्या आप धर्मा निश्चिता एव, तनिश्चयना- । दनद्भुतमिति चेत् । तत्तथाभावतोऽभवदसद् भवति, इत्यन्तरीयकत्वादुपकारकनिश्चयस्य, न हि ये यदपेक्षस्थितय- द्रुतमेव इति परिभाव्यतामेतत् । स्ते तदनिश्चये तथा निश्चीयन्ते, स्वस्वामित्ववदिति । एतदाशङ्कयाह-अत्रोच्यते-यदुक्तम्-सविकल्पविकल्पएवमपि सविकल्पकप्रत्यक्षानुपपत्तिरिति ।
योनियोः स्वभावभेदेऽपि प्रतिभासभेदेन युगपवृत्तेरिन चेत्यादि । न चोपकारिकाः शक्लय उपकारकसबन्धिन्यः, त्यादि. पूर्वपक्षे तदयुक्तम् । कुत्त इत्याह-एकविषययोः सविकतत उपकारकाद् धर्मिणः , भेदमनुभवन्ति । कुत इत्याह- ल्पाविकल्पयोः । किमित्याह-युगपद् वृत्त्यसिद्धेः। असिनिश्च असत्युपकारे उपकारकसंबन्धिनि, अस्योपकारकस्य ध- तदविकल्पपूर्वकत्वाद् विवक्षितकविषयाविकल्पपूर्वकत्वात् , र्मिणः , इमाः शक्लयः, इत्येवं, संबन्धाऽयोगात् , अयोगश्च तद्विकल्पस्य सामान्येन विवक्षितकविषयविकल्पस्य । अन्यनिमित्ताभावन । श्राधाराधेयभावः संबन्धो भविध्यतीत्या- था अतत्पूर्वकल्वे, अस्य विकल्पस्य ; अहेतुकत्वापत्तिस्तदशङ्कापोहायाऽऽह-श्राधाराधेयभावस्यापि कुण्डबदरायुदाह- परहेत्वयोगात् । तथा च सदा सर्वकालं , सदसत्वप्रसङ्गोऽरणादिसिद्धस्य , तन्निबन्धनत्वाद्-उएकारनिबन्धनत्वात् , धिकृशविकल्पस्य," नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षतथाहि पतनधर्मणां बदराणामपतनस्वभावाधानेनोपकारकं । णात्" इति वचनात् । सोऽप्यधिकृतविकल्पः ; तत्पूर्वक
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सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविमेस एव, विवक्षितकविषयाधिकलापूर्वक एव इति चेत् । रातिरकण, पिकल्पस्यति प्रक्रमः , तदुपादानवायोगात् त. एतदाशमाह-कथमनयोः अविकल्पविकल्पयोः, युग- दुस्थज्ञानोपादानत्यायोगाद् विकल्पस्य । न ह्यमृत्खभावपवृत्तिः । प्रबन्धापक्षायति वेद युगपद्वृत्तिः । एन- मुदकं मृदुपादानम् . अपि तु घट एव. सरस्वभावानुकारादि. दाशङ्कयाह-कथमित्यादि । कथं-केन प्रकारेण, आद्य च ति भावनीयम् । दोषान्तरपरिजिहीर्षयाऽऽह-मस्यादिम तदविकल्पं चेति विग्रहस्तस्मात् , उभयजन्म--सविकल्पा- चतद्विषयवस्तु प्रतीतमिति कृत्वा क्षणिकत्वेन, श्रमालम्बन विकल्पजन्म । सत्तदित्यादि । तस्याद्याविकल्पस्य, तस्वभा प्रक्रमाद्विकल्पस्य, किम्वालम्बनमेव । कुत इत्याह-अविकवत्वात् सविकल्पाविकल्पजननस्वभावत्यादुभयजन्म , इति रूपस्यालम्बनत्वात् अतीतत्वेऽपीत्यभिप्रायःनि च तद्भावचेत् । एतदाशङ्कयाह-कथं कारणभेदो भेदहेतुः कार्याणा- काले-अविकल्पभावकाले , तद्भावो विषयवस्तुभावः । कुत मिति शेषः, नैव, तदभावेऽपि तद्भेदसिद्धेरिस्यभिप्रायः । इत्याह-तदसदुदयाभ्युपगमात् तस्मिन् विषयवस्तुभ्यसयदि न कारणभेदो भेदहेतुः, ततः को दोष इति चेत् । स्युदयाभ्युपगमात् , प्रक्रमादविकल्पस्य । न चैवमपि तदसएतदाशङ्कयाह--प्रधानादीनाम् । श्रादिशब्दात्--परमपुरु- दुदयेऽगि, न तदतीतता-न विषयवस्त्वीतता । कुत इत्याह पग्रहः, अनिषेधप्रसङ्गो दोषः, ते प्रधानादयः, तथा- तदा विकल्पोदयकाल, तदसत्त्वेन-विषयस्वसस्वेन , तदुभावजनकास्तथाभावेन-सत्तथाभवनलक्षणन जनका म- पपत्तेः-अतीततोपपत्तेः । न च तदाकारतादिना-विषयबहदादरिति चेत् । एतदाशङ्कवाह ततः को दोष इति स्त्वाकारतादिना, आदिशब्दादानन्तर्यादिग्रहः भेदः सविकवाच्यम् । नैकस्मादनकजन्म तत्सद्भावेन दोष इति रूपाविकल्पयोरिति प्रक्रमः। कुत इत्याह-योरपि अनयाः चेत् । पतदाशझ्याह-कथं न एकस्मादनेकजन्म सदाकारताऽसिद्धेविषयवस्त्वाकारताऽसिद्धः, तस्याकारस्य सत्तत्स्वभावत्वेन तस्य प्रधानादेस्तत्स्वभावत्वेन, तथाभाव. प्रतिभावनियमाद,भावं भावं प्रति नियमात् । न ह्यन्यभावाऽ. तोऽनेकजन्मस्वभावत्वेनेत्यर्थः, संक्रान्त्या हेतुभूतया, तत्त- ऽकारोऽन्यभावे भवति तदेकत्वग्रसङ्गादित्यर्थः । तत्तुल्याका दावन तदयुक्तस्तत्तत्स्वभावत्वायुक्ते कस्मादनेकजन्मेति चे- रतैय तदाकारता, इत्ययसदित्यावेदयाह-बोधेत्यादि । त् । एतदाशङ्कयाह-तदभावे-संक्रान्त्यभावे, तदेकान्तनिवृ- बोधाऽमूर्नत्वरूपेण हेतुनाऽविकल्पज्ञानस्य, तत्तुल्याकारता स्या तद्युक्लिस्तत्तत्स्वभावत्वयुक्तिः, इत्यद्भुतमाश्चर्यमेतत् । ततः योगाद-विषयवस्तुतुल्याकारतायोगात् । स्वाकार एवं तदा कारणात् , सद्भावाद-असतो भावेन, अनद्रुतमनाश्चर्य. कारतेत्यययुक्तमित्याह-स्थाकारस्य तु विकल्पऽपि भामिति चेत् । पतदाशझ्याह-तत्तथाभावतः तस्य कारणस्य धात् । नाविकल्प एव स्वाकारः,अपि तु-विकल्पेऽपि । तदतथाभावेन कार्यभावेन, अभवदेकस्मादनेकमसद् भवति नुगुणवतदाकारतेत्यपि समानमित्यावेदयन्नाह-तस्यानुच्छातुच्छप्रतिपत्त्या, इत्यद्भुतमेवेति परिभाव्यतामेतत् , न पीत्यादि । तस्यापि विकल्पस्य, तनिश्चयात्मकत्वेन-विषयह्यसत् सद् भवति, अतिप्रसङ्गादित्यभिप्रायः। . वस्तुनिश्चयात्मकत्वेन, तदनुगुणत्वाद् बोधापेक्षया विषयवन चानयोः स्वभावभेद एव, तत्वत एकविषयत्वात् ,
स्त्यनुगुणत्वात् , इत्येवं व्यवहारतः स्वभावभेदाभावः । विकल्पस्यापि पारम्पर्येण तद्वस्त्वालम्बनत्वात् , तदुत्थ
निश्चयतस्तु प्रतिव्यक्ति अयं विद्यत एवेति । ज्ञानोपादानत्वात् , तत्स्वभावानुकारातिरेकेण तदुपादान
यच्चोकम-विमूढः प्रतिपत्ता तमपश्यन्नैक्यं व्यवस्यति , वायोगात् । न च तदतीतमित्यनालम्बनम् , अविकल्प
न तु तथा तदिति । एतदप्ययुक्तम् , अनालोचिताभिधा स्यालम्बनत्वात् । न च तद्भावकाले तद्भावः, तदसदुद
नत्वात् विचाराक्षमत्वात् , तथाहि-कः पुनरत्र प्रतिपत्ता, याभ्युपगमात् । न चैवमपि न तदतीतता, तदा तदसत्वेन |
यस्य तत्स्वभावभेदादर्शनाद् विमोहः,ऐक्यव्यवसायो वा। तदुपपत्तेः । न च तदाकारतादिना भेदः, द्वयोरपि।
न तावदेक उभयद्रष्टा, अनभ्युपगमात । न च सविकल्पातदाकारतासिद्धेः, तस्य प्रतिभावनियमात , बोधामृतत्व
विकल्पे विज्ञाने एव , तयोर्विमोहासिद्धेः, स्वसंवेदनरूपरूपतया तत्तुल्याकारताऽयोगात, स्वाकारस्य तु विकल्पेऽ त्वेन स्वस्वभावदर्शनात् , इत्थमपि विमोहे तदनुच्छेदाप- । पि भावात् , तस्थापि तनिश्वयात्मकत्वेन तदनुगुणत्वात्।। त्तिः , उपायाभावात् । न चानयोरैक्यव्यवसाय:, मिथोइति व्यवहारतः स्वभावभेदाभावः।
भेदाभ्युपगमात्, स्वविषयनियतत्वेन तथाप्रतिभासानुपपमचेत्यादि । न चानयोः-प्रक्रमात् सविकल्पाधिकल्पयोः
त्तेः, एवमपि तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् । प्रस्तुतज्ञानयोः, स्वभावभेद एवैकान्तेन । कुत इत्याह-त- यानं पूर्वपक्षग्रन्थ-विमूढः प्रतिपत्ता तमपश्यनैक्यंस्वतः-परमार्थेन, एकविषयत्वात् । कथमेतदेवमित्याह-वि | व्यवम्यति, न तु तथा तदिति । एतदप्ययुक्तम् । कुत इत्याहकल्पस्यापि पारम्पयेण तद्वस्त्वालम्बनत्वात् । एतच्च परद- अनालोचिनाभिधानन्यात । अनालोचिताभिधानत्वं च विर्शने विकल्पस्य गृहीतग्राहित्वाभ्युपगमेन स्वदर्शने न्यवग्रहा- चारान्तमत्वात् वित्रागक्षनत्वमुपदर्शयन्नाह-तथाहीत्यादि। पायभावेन, इति सामान्येनैव तहस्त्वालम्बनत्यमाह । तदुत्थ- तथाहि कः पुनरत्र प्रानपना भवतोऽभिप्रेतः, यस्य तत्स्वसानोपादानत्वात् विवक्षिविषयोत्थाऽविकल्पज्ञानोपादान- भावभेदादर्शनाद हताः, विमाहः , ऐक्यव्यवसायो वा?। वाद विकल्पस्य । यदि नामवं ततः किमित्याह-तत्स्वभावे- | न तावदेक आत्मा, उभयोः सविकल्पाधिकल्पयोर्द्रष्टा । कुत त्यादि । तत्स्वभावानुकारातिरेकेण तदुत्थज्ञानस्वभावानुका- इत्याह- अनभ्युपगमात् पयिधकस्य । न च सविकल्पा
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सामरविसेस
विकल्पे ज्ञाने एव प्रतिपत्तृणी कुत इत्याह- तयोः - सविकल्याविकल्पज्ञानयोः, विमोहासिद्धेः, असिद्धिश्च स्वसंवेदन - रूपत्वेन हेतुना ताभ्यां स्वस्वभावदर्शनादिति । इत्थमपिस्वस्वभावदर्शनेऽपि सति विमोहे तदनुच्छेदापत्तिः- मोहानु छेदापत्तिः । कुन इत्याह-उपायाभावात् । न हि स्वसंवेद नरूपे कदाचिदन्यथा भवत इत्युपायाभावः । नचेत्यादि । न चानयोः सविकल्पविकल्प योर्विज्ञानयोः, ऐक्यव्यवसायः । कुत इत्याह- मिथः- परस्परं भेदाभ्युपगमात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह-स्वविषयनियतत्वेन हतुना, तथाप्रतिभासानुपपत्तेः - ऐक्यप्रतिभासानुपपत्तेः । प्रतिभासश्च व्यवसाय इति । एवमपि तथाप्रतिभासानुपपत्तावपि तदभ्युपगमे ऐक्यव्यवसायाभ्युपगमे श्रतिप्रसङ्गात् शशविषाणादिव्यवसायापत्तेः ।
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स्यादेतत् एक्यव्यवसायस्तदपरो विकल्प एव व्यत्रसायरस परिच्छेदात्मकत्वात् । स किंविषय इति वाच्यम् । तदुभयविषय इति चेत् । कथमेतत्प्रतिमासी तद्विषय: १, तत्प्रतिभासित्वे वा कथमैक्यं व्यवस्यति ? न चात्यन्तभिन्नयोस्तथाव्यवसाये निमित्तम् । भ्रान्त एवाऽयमिति चेत् । तदन्यैवंविधभावे कथं नेतरयोर्भेदव्यवसायः १ । व्यवसाय एवेति चेत् । न, तथायुक्त्यनुभवाभावेन वाङ्मात्रत्वात् । एतेन ' अन्यत्र ऽनयोयगपद्येऽपे भेददर्शनात्, इत्यादि प्रत्युक्तम्, तच्चतस्तुल्ययोगचे मत्वात् । स्यादेतदित्यादि । स्थादेतत् ऐक्यव्यवसायोऽधिकृतः नाभ्यां सविकल्पा विकल्पविश्वाभ्यामपरः - अन्यो विकल्प एव । कुत इत्याह-व्यवसायस्य परिच्छेदात्मकत्वात् । एतदाशङ्कयाह-स किंविषयो विकल्पः, इति वाच्यम् । तदुभयविषयः - सर्विकल्पाविकल्पविज्ञानोभयविषय इति चेत् । एतदाशङ्कयाह- कथमेतत्प्रतिभासीसविकल्पविकल्पविज्ञानाऽप्रतिभासी सन् तद्विषयः 'सविकल्पाविकरूपज्ञानविषयः ? । तत्प्रतिभासित्वे वा - सविकल्पाविकल्पविज्ञानप्रतिभासित्वे वा सति कथमैक्यं व्यवस्यति परिच्छिनत्ति ? तयवसायरूपत्वादित्यर्थः । न चेत्यादि । न चात्यन्तभिन्नयोर्जातिभेदेन, सविकल्पा विकल्प विज्ञानयोरिति प्रक्रमः, तथाव्यवसायः, ऐक्येन व्यवसाये निमित्तं नीलपीतयोरिव भ्रान्त एवायमपरो विकल्प इति वेत् । एतदाशङ्क्याह- तदन्येत्यादि । तस्माद् भ्रान्तादम्योऽभ्रान्त एवंविध उभयविषयस्तस्य भावे सति कथं न इतरयोः सविकल्पा विकल्पविज्ञानयोः, भेदव्यवसायस्तदम्येन ? न ह्यन्यस्मिन् सत्यरूपेऽसत्यस्य भ्रान्ततेति हृदयम् । व्यवसाय एवेति चेत् श्रन्येनेतरयोः । इत्येतदाशख्याइ-नेत्यादि । न-नैतदेवम्, तथायुक्त्यनुभवाभावेन हेतुना, वाङ्मात्रत्वादर्थशून्यत्वादधिकृत वचसः । युक्त्यभावश्चेह स्वलक्षणसामान्यलक्षणयेोरेकत्रा प्रतिभासनात्, अनुभवस्य वासंकीर्णोभयग्राहिणोऽभावादिति । एतेनेत्यादि । एतेनानन्तरोदितेन दूषणजातेन 'अन्यत्राऽनयो यौगपद्येऽपि भेददर्शनात् ' इत्यादि पूर्वपक्षोक्तं, प्रत्युक्तम्- निराकृतम् । कुत इत्याह तस्वतः - परमार्थतः तुल्ययोगक्षेमत्वादिति ।
( ६५१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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For Private
मामरणविसेम किश्व - अनयोर्भिन्नविषयत्वेन तथापि जन्माऽयुक्तम्, अन्यदर्शनस्यान्यविकल्पनिमित्तत्वात् निमित्तत्वे वाऽतिप्रसङ्गात्, नीलदर्शनादपि पीतादिविकल्पापत्तेः, तदभावप्रसङ्गात्, निश्चयबलाद्धि, तद्भावसिद्धिः स चेदन्यदर्शनादप्यन्यविषयः, अप्रमाणिकाऽन्यसत्तेति विश्वस्य नीलमात्रतापतिः । भिन्नदर्शन विषयाः, पीतादय इति चेत् न । तेषामनिश्चयात्मकत्वेन तथातानधिगतेः, न च तमिश्रयात् तदधिगतिर्युक्ता, तस्यान्यतोऽपि भावेन तत्प्रवित्रन्वासिद्धेः । स पारम्पर्येण तद्दर्शनसामर्थ्योद्भूत एव, स दाऽतद्दर्शिनोऽभावादिति चेत् । न । इत्थं सर्वत्रानाश्वासेनाsसमज्जसत्वापत्तेः सन्निहितार्थदर्शनवलोत्पन्ननिश्चयादपि पारम्पर्येणार्थान्तरदर्शनशक्तिजत्वाऽऽरेकातः प्रवृत्या - द्ययोगात् । समानविषययोः पुनरनयोर्भावस्तथा भवमपि न नो बाधायै, अक्रमेणाऽप्रवृत्तेः । एवं च ' अतीत. वर्थगतविकल्पेनापीन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः ' इत्यादि यावद् 'भिन्नजातीयत्वात्' इत्येतद् व्युदस्तमवसेयम्, अक्रमप्रवृत्तावतीतादि विकल्प रूपादिग्रहणयोरस्य साफन्योपपतेः, अन्यथा वाङ्मात्रत्वात् ।
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किश्चेत्यादिनाऽभ्युच्चयमाह-किश्ञ्च. अनयोः सविकल्पादिकल्पज्ञानयोरुदाहृतयोः भिन्नविषयत्वेन हेतुना जातिमेदतः, तथापि प्रक्रमात् क्रमेणापि यथैकजातीययोस्तथापि, जन्मायुक्तमघटमानकम् । कुत इत्याह- अन्यदर्शनस्थपण दिदर्शनस्य, अन्य विकल्पानिमित्तत्वाद्-अतीताथर्थगतविकल्पानिमित्तत्वात् मिमित्तत्वे वाऽतिप्रसङ्ग त् । एनमेवाहनीलदर्शनादपि सकाशात्, पीतादिविकल्पापतेः । यदि नामैवं ततः किमित्याह तद्भावप्रसङ्गात् पीताद्यभावप्रसङ्गात् । एतदेव स्पष्टयति-निश्चयेत्यादिना । निश्चयबलाद् यस्मात्, तद्भावसिद्धिः – पीतादिभावसिद्धिः स चेद् निश्वयः, अन्यदर्शनादप्यन्यविषयो भवति श्रप्रमाणिका ऽन्यसत्ता, इह तावत्प्रक्रमादन्यत् पीतादि ततश्चाप्रमाणिका पीतादिसत्तेति कृत्वा विश्वस्य सर्वस्य नीलमात्रतापत्तिः, यावत् किञ्चित् सत् तत्सर्वे नीलमिति पीतादिनिश्चयस्तु नीलदर्शनादेवेनि न्यायोपपत्तेः भिन्नदर्शनविषयाः पीतादिदर्शनविषयाः पीतादय इति चेत् । एतदाशङ्कयाह- नेत्यादि । न-नैतदेवं तेषां दर्शनानाम्, अनिश्चयात्मकत्वेन हेतुना, तथा तानधिगतेः पीतादिरूपतया भिन्नताऽनधिगतेः । न चेत्यादि । न च तनिश्ववात्-पीतादिनिश्चयात् तदधिगतिर्दर्शनानां तथा भिन्नताधिगतिर्युक्ता । कुत इत्याह-तस्य सामान्येन निश्चयस्य अन्यतोऽपि दर्शनान्तरादपि, भावेन हेतुना तत्प्रतिबन्धासिद्धेः पीतादिदर्शनभेदेन सह पीतादनिश्चयस्य प्रतिबन्धासिद्धेः । स पीतादिनिश्चयः, पारम्पर्येण तद्दर्शनसामर्थ्याद्भूत एव-पीतादिदर्शन सामथ्र्यद्भूत एव कुत इत्याह- सदाऽतद्दर्शिनः पीताद्यदर्शिनः; अभावादिति चेत् । एतदाशङ्कयाह - नेत्यादि । न-नैतदेवम् इत्थमेवं, सर्वत्रानाश्वासेन हेतुना । किमित्याह- असम
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सामाविस
असत्वापत्तेः । पनामेवाह- सन्निहितार्थदर्शनबलोत्पन्ननिश्चयादपि सकाशात्, पारम्पर्येणार्थान्तरदर्शनशक्निजत्वाऽऽरेकातः-श्राशङ्कातः कारणात् प्रवृत्याद्ययोगात्, आदिशब्दात्-प्राप्तिपरिग्रहः । एवं तावद् भिन्नविषययोः सविकल्पाविकल्पज्ञानयोर्यौगपद्यमसंभव्येव निदर्श्य साम्प्रतमिदमाह समानेत्यादि । समानविषययोः पुनरनयोः सविकल्पाविकपज्ञानयोर्भावः तथा हेतुफलभावेन भवन्नपि अहिरहिः' इत्यादौ, न नो बाधायै— नास्माकं बाधार्थम् । कुतइत्याह- श्रक्रमेणा प्रवृत्तेः - श्रवग्रहकल्पादविकल्पादवायकपसविकल्पभावेन क्रमेण प्रवृत्तेरित्यर्थः । एवं चेत्यादि । एवं सति श्रतीताद्यर्थगतविकल्पेनापि प्रमात्रा, इन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः' इत्यादि पूर्वपक्षेोकं यावद्' भिनजातीयत्वात्' इत्येतद् व्युदस्तमपाकृतमबसेयम् । कुत इत्याह- श्रक्रमप्रवृत्तौ सत्याम्, अतीतादिविकल्परूपादिग्रहगयोरस्य- पूर्वपक्षोक्लस्य, साफल्यापपत्तेः अन्यथाऽक्रमप्रवृत्तिमन्तरेण वाड्यात्रत्वादिति ।
आह- यद्यत्र क्रमः, कथं न संलक्ष्यत इति १ । उच्य - ते-उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् कालसौक्ष्म्यात् छद्मस्थप्रमातुरनाभोगबहुलत्वात्, अदृष्टप्रतिबन्धात्, वस्तुनोऽनेकधर्मत्वात् यथाक्षयोपशममबोधप्रवृत्तेः, च तत्तद्धेतुभेदतो वैचित्र्यादिति ।
तस्य
( ६५२ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
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आह-यद्यत्र सविकल्पाविकल्पविज्ञानद्वये, क्रमः, कथं न संलक्ष्यते ? इति । उच्यते- उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् कालसौचम्याद् न संलक्ष्यत इति । किमेतदेवमित्याह - छद्मस्थमातुरनाभोग बहुलत्वात् । श्रनाभोगबहुलत्वं चाइष्टकर्मप्रतिबन्धात्, तथा वस्तुनः प्रमेयस्यानेकधर्मकत्वात्, तथा विभ्रमादिनिबन्धनत्वेन यथाक्षयोपशम यस्य यथा क्षयोपशमस्तथाऽवबोधप्रवृत्तेः, तस्य च क्षयोपशमस्य तत्तद्धेतुभेदतो द्रव्यादिभेदेन, वैचित्र्यात्, क्रमो न संलक्ष्यत इति ।
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आह-यदि कालसौक्ष्म्यादत्र क्रमाऽलक्षणम् । एवं तर्हि 'सरः' इत्येवमादिकयोर्वर्णयोरुच्चारणे नितरां कालसौक्ष्म्यमित्यक्रम ग्रहणं स्यात् । तथाच क्रमालक्षणात् श्रुतिभेदो न भवेत् यथा सरो रस इति । इतश्च न भवेद्युगपद गोचरीभूतविषयेन्द्रियवतोऽविच्छेदेन सर्वोपलब्धौ क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैव दर्शनात्, स हि वंशादिवादयितूरूपं पश्यति, तदैव ततः शब्दं शृणोति, नीलोत्पलादिगन्धं जिम्मति, कर्पूरादे रसमास्वादयति श्रासनादिस्पर्श स्पृशति, चिन्तयति च किञ्चित् इति तत्त्वतोऽस्यानवरतं सर्वपरिच्छित्तिः । एवं यावदत्राप्ययुगपत्पतेऽपि समाश्रीयमाणे पञ्चभिर्विज्ञानैर्व्यवधानेऽपि क्रमभावि सत् तेषामेकैकं विज्ञानमविच्छिन्न भिव प्रतिभाति, तथानुभृतेः । यदैतदेवम्, तदा कथमन्यविज्ञानावृत्तौ वर्णयोर्न सकृच्छ्रुतिः, इत्यविच्छिन्नमेकघनीभूतायतवर्णाकारं दर्शनं न भवनि च भवति तथाऽप्रतीतेः, इति यत्र क्रमस्तत्र कालसौ
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सामाविसेस
म्येऽप्युपलभ्यत एव । न च प्रतीतिं विहाय पदार्थतत्वव्यवस्थापनोपायः, इति यथाप्रत्ययं युगपद्विज्ञानप्रवृत्तिर्न्यायविदाऽङ्गीकर्तव्या, अन्यथोक्तवद् न्यायोच्छेदप्रसङ्गादिति ।
आह--यदि कालसौक्ष्म्यादत्र अधिकृते सविकल्पाविकल्पज्ञानद्वये, क्रमालक्षणम् एवं तर्हि 'सर' इत्येवमादिकयोर्वयोः, श्रादिशब्दाद् - रसादिग्रहः, उच्चारणे नितरां काल सौक्ष्म्यम्, अव्यवधानेनोच्चारणात् इत्यक्रमग्रहणं स वर्णयोः स्यात् । तथा चेत्यादि । तथा च सति क्रमालक्षणात् कारणात्, श्रुतिभेदः - श्रवणभेदो भवेत्, यथा सरोरस इति द्विवर्णविषयः । इतश्च न भवेच्छ्रुतिभेदः । कुत इत्याह-यु
पदित्यादि । युगपदेकदैव, गोचरीभूतविषयाणि च तानीन्द्रियाणि चेति विग्रहः, तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वान्, तस्याऽविच्छेदेन प्रबन्धवृत्त्या, सर्वेषां प्रक्रमाद्विषयाणामुपलब्धिः, सर्वोपलब्धिः अस्यां सर्वोपलब्धौ सत्याम् । किमित्याह — क्रमपक्षेऽपि विज्ञानविषये, अक्रमस्यैव दर्शनात् एतदेवाक्रमदर्शनमाह-स हीत्यादिना । सहि युगपगोचरीभूतविषयेन्द्रियवान्, वंशादिवादयितू रूपं पश्यति, तदैव ततः वंशादिवादयितुः सकाशात्, शब्दं शृणोति, तथा, नीलोत्पलादिगन्धं जिघ्रति, तथा, कर्पूरादे रसमास्वादयति एवमासनादिस्पर्श स्पृशति, चिन्तयति च किचिन्मनसा, इत्येवं तत्त्वतोऽस्य युगपद्गोचरीभूतविषयेन्द्रि यवतः प्रमातुः । किमित्याह--अनवरतं सर्वपरिच्छित्तिः अनवरत सर्वपरिच्छित्तिरेव युगपदेवेन्द्रियविषयसंबन्ध सिद्धेः । एवं तत्त्वव्यवस्थित सति यावदत्रापि युगपदनुभase तावके, अयुगपत्पक्षेऽपि समाश्रीयमाणे किमित्याह पञ्चभिर्विज्ञानैर्व्यवधानेऽपि सति अधिकृतन्यायेन, क्रमभावि सद् भवत् तेषां पराणां विज्ञानानाम्, एकैकं विज्ञान शब्दादिगोचरादि, अविच्छिन्नमिव-युगपदिव, प्रतिभाति । कुत इत्याह-- तथानुभूतेः-- अविच्छेदेनानुभूतेः । प्रकृतयोजनामाह-यदेत्यादि । यदेतदेवमनन्तरोदितम्, तदा कथमन्यविज्ञानावृत्तावपान्तराले, वर्णयोः सरादिरूपयोः, न सकृच्छुनिर्न युगपच्छ्रवणमिति । एतदेवाह अविच्छिन्नम् - एकदैव एकघनीभूतश्चासावायतवर्णश्चति विग्रहः, तदाकारं दर्शनं न भवति । स्यादेतद् भवत्येव इत्याशङ्कानिरासार्थमाहन च भवति । कुत इत्याह-- तथाऽप्रतीतः । इत्येवं यत्र क्रमस्तत्र कालसौक्ष्म्येऽप्युपलभ्यत एव यथाऽधिकृतवर्णयोः । न च प्रतीतिं विहाय परित्यज्य पदार्थतत्त्वव्यवस्थापनोपायः इत्येवं यथाप्रत्ययं -- यथानुभवं, युगपद्विज्ञानप्रवृत्तिः षडपेक्षया प्रस्तुतद्वयापेक्षया वा, न्यायविदा प्रमात्रा, अङ्गीकर्तव्या, अन्यथैवमनभ्युपगमे, उक्तवद् यथोक्तं तथा न्यायोच्छेदप्रसङ्गात् प्रतीतिबाधेन न्यायानुपपत्तेस्तस्यापि प्रतिबीजत्वादित्यभिन्य इति ।
अत्रोच्यते-यत्किश्चिदेतत्, वर्णयोः सावयवत्वेनोक्तदोपानुपपत्तेः, सराssदयों हि वर्णाः सावयवत्वेनानेकक्षणलब्धवृत्तयः, तथोपलब्धितस्तत्तत्स्वभावत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः, न क्षणिकज्ञानग्राह्याः, तस्य परमाणुव्य
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सामणविसेस
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तिक्रान्तिमात्रत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात् तदनुभवस्य तचेनैवावग्द शिनाऽनुपलचणात् तथाऽप्रतीतेः इति पूर्ववर्णज्ञानेनोत्तरवर्णज्ञानस्य मिश्रणाभावात्, उभयोः प्रदीर्घस्थूरोपयोगरूपत्वात् ; तथा, आलम्बनजातिभेदात् तत्तत्स्वाभाव्यात्, तथाक्षयोपशमयोगात्, दृढानुभवसिद्धेः, अविगानेन तथावेदनात् कोटिसङ्गस्याप्रयोजकत्वात्, तद्वीर्यतिरस्करणात् इत्थमपि तथापादनेऽतिप्रसङ्गात्, नीलपीतज्ञानयोरपि तद्भावेन क्वचिन्मिश्रणप्रसङ्गात् । इति कथं सकारादाविवाविच्छिन्नमेकधर्माभूतायतवर्णाकारं दर्शनं भवेत् ? । सकारादौ तु कालादिभेदेऽपि प्रभूततरधर्मप्रच्या सत्तेर्भवति तथानुभवादिति । एतेनाऽलातचक्रादिदर्शनं प्रत्युक्तम्, प्रत्यवयवं प्रदीर्घस्थूरोपयोगादिविपर्ययात्, अन्यथा तत्रापि तथादर्शनानुपपत्तेः ।
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( ६५३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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अत्रेोच्यते यत्किञ्चिदेतत् ; असारमित्यर्थः । कुत इत्याहवर्णयोः स राऽऽदिलक्षणयोः, सावयवत्वेन हेतुना, उक्तदोषानुपपत्तेः । एतदेव प्रकटयति- सरादय इत्यादिना । सरादयो हि वर्णाः सावयवत्वेन जातिभेदतः, अनेक लक्षण लब्धवृत्त यो वर्तन्ते । कुत इत्याह- तथोपलब्धितः अनेक क्षणात स्वेनोपलब्धेः उपलब्धिश्च तत्तत्स्वभावत्वात् तयोरुपलब्धवर्णयोस्तत्स्वभावत्वात् अनेकक्षणत्रुत्तिनोपलब्धिस्वभावात् । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह - श्रन्यथा तदनुपपत्तेः
"
मनभ्युपगमे, वर्णोपलब्ध्ययोगादित्यर्थः । यत एवम् अतो न क्षणिकज्ञानग्राह्याः । कुत इत्याह- तस्य क्षणस्य, परमाणुमात्रव्यतिशान्तिमात्रत्वेन परमाणुभ्यतिक्रान्तिकाल एकः क्षणो मत इति न्यायेनाऽत्यन्त सूक्ष्मत्वात् । तदनुभवस्य-क्षणानुभवस्य, तश्वेनैव-- क्षणानुभवत्येनैव श्रवग्दशिना प्रमात्रा, अनुपलक्षणात्, अनुपलक्षं च तथा तस्वेनैवाऽप्रतीतेः । इत्येवं पूर्ववर्णज्ञानेन - सकारादिज्ञानेन, उसरवर्णज्ञानस्य-- रेफादिज्ञानस्य, मिश्रणाऽभावात् कारणा त् कथं सकारादाविवाविच्छिन्नमेक घनीभूतायतवर्णाकारं दर्शनं भवेदिति योगः । मिश्रणाभावश्च उभयोर्ज्ञानयोः सकारादिगोचरयोः, प्रदीर्घम्थूरोपयोगरूपत्वात् तथालम्बनजातिभेदात् मिश्रजातीयौ सकाररेफाविति कृत्वा तथा तत्तत्स्वाभाग्यात् तयोर्वर्णोपयोग यो स्तत्स्वा भाग्याद्-मिश्रण स्वाभाव्यात् । एतच्च तथाक्षयोपशमयोगात् तेन मिश्रणाभावज्ञानजनकवत्प्रकारेण क्षयोपशमयोगात् । एतद्योगश्च दृढानुभवसिद्धेः, इयमध्यविगानेन तथावेदनाद् दृढानुभवरूपेण वेदनात् । कोटिसङ्गस्य वर्णज्ञानसंबन्धिनः प्रयोजकत्वात् । प्रभूततराऽसङ्गेन तद्वीर्यतिरस्करणात् तयोवर्णज्ञानयोर्वीर्य प्रदीर्घस्थूरोपयोगलक्षणं सामर्थ्य तेन तिरस्करणात् कोटिसङ्गस्य । इत्थमप्यवमपि कोटिसहस्य तद्वीर्यतिरस्करणेऽपि तदापादने - प्रक्रमा मिश्रणापादने अतिप्रसङ्गात् । एनमेवाह - नीलपीत ज्ञानयोरपि तद्भावेनकोटिसङ्गभावेन, कविचित्रत्रपटयादी, मिश्रणप्रसङ्गात् न२६४
सामाविसेस
चैतदेवम्, इत्येवं, कथं सकारादाविव सजातीयव्यक्तिरूपम् foregaonदैव एकघनीभूतायतवर्णाकारं दर्शनं भवेत् नैव भवति, निमित्ताभावात् । सकारादौ तु सजातीये तथैकावयवित्वेन कालादिभेदेऽपि श्रादिशब्दादजानिग्रहः । प्रभून तर धर्म प्रत्यास तेस्तथैकारम्भकत्वेन भवत्येक घनीभूतायतवर्णाकारदर्शनम् । कुत इत्याह- तथानुभवात् । एकधदितेन, श्रलातचक्रदर्शनं प्रत्युक्तम् । कथमित्याह - प्रत्यवय्नी भूतायतचकारदर्शनत्वेनाऽनुभवादिति । एतेनानन्तरोवम् श्रवयवमवयवं प्रति अलातचक्रसंबन्धिनं, प्रदीर्घस्थूरोपयोगादिविपर्ययात् श्रप्रदीर्धसूक्ष्मोपयोगभावात् । एवं व तत्र भवति तन्मिश्रणमित्यर्थः । श्रन्यथैवमनभ्युपगमे तत्राप्यलातचके, तथादर्शनानुपपत्तेः प्रत्यवयवं प्रदीर्घस्थूरोपयोगभावेन तम्मिश्रणाभावेनेति भावः ।
"
न चैवं सर्वक्रमोपलम्भनिबन्धनं सविकल्पाविकन्पयोः, अविकल्पे चणिकत्वेन जात्यादिभेदेऽपीहादेस्तदितरबैंक - न्यादिति । या च युगपद्गोचरीभूतविषयेन्द्रियवतोऽविच्छेदेन सर्वोपलब्धिरुक्ता, साऽसिद्धा, द्रव्येन्द्रियविषययोगेऽप्य ग्दर्शिनः प्रतिबन्धकसामर्थ्येन तावतां विज्ञानानामेकदाऽनुदयात्, तथाऽननुभूतेः प्रतीत्यभावात्, युक्त्यनुपपत्तेः, उपादाना योगात्, एकोपादानतोऽनेका सिद्धेः, भिनोपादानत्वे तदत्यन्तभेदेनानुसन्धानायोगात्, अस्य चानुभवसि द्धत्वात् । एवं च क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैव दर्शनादित्ययुक्तम्, तथाननुभवात्, एकदैकज्ञानसंवेदनात्, कालसौक्ष्म्य विश्वमतस्तथाऽप्रतीतेः ।
"
प्रकृतयोजनायाद - न चैवं यथाधिकृतवर्णयोः, सर्व-निरवशेषं सावयवत्वादि, क्रमोपलम्भनिबन्धनम् । कयोरित्याह- सविकल्पाविकरूपयोः प्रस्तुतविज्ञानयोः । कुत इत्याह- श्रविकल्पे क्षणिकत्वेन अवग्रहस्य क्षणिकवात् । जात्यादिभेदेऽपीहादेः सविकल्पत्वेन श्रादिशब्दात् - प्रतिभासग्रहः तदितरवैकल्यात् प्रदीर्घस्थूरोपयोगरूपवैकल्यादिति । या चेत्यादि । या च युगपनोचरीभूतविषयेन्द्रियवतः प्रमातुः अविच्छेदेन सर्वोपलब्धिरुक्ला पूर्वपक्षग्रन्थे, साऽसिद्धा । कुत इत्याह--द्रव्येन्द्रियfareयोगेऽपि निर्वृत्युपकरणरसादिसंबन्धेऽपि श्रर्वादशिनः प्रमातुः प्रतिबन्धकसामर्थ्येन हेतुना कर्मसामर्थ्येन, arati विज्ञानानां षण्णाम्, एकदैकस्मिन् काले अनुदयात्- अनुत्पादात्, अनुदयश्च तथाननुभूतेः एकदा भावेनाननुभूतेः । अननुभूतिश्च प्रतीत्यभावात् । प्रतीत्यभावश्च युक्त्यनुपपत्तेः । युक्त्यनुपपत्तिश्च उपादानायोगात् । उपादानायोगश्च एकोपादानतोऽनेकासिद्धेः स्वतः परतश्च । भिनोपादानत्वे तेषां परणामत्यन्तभेदेन सन्तानान्तरवदनुसन्धानायोगात् ' मया रूपं दृष्टं शब्दः श्रुतः' इत्यनुसंधानायोगात् । श्रस्य चानुसन्धानस्यानुभवसिद्धत्वात् । यदि नामेवं ततः किमित्याह - एवं च ' क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैव दर्शनात्' इत्ययुक्तं पूर्वपक्षोक्तम् । कुत इत्याह- तथाननुभवात् । अक्रमदर्शनेनाऽननुभवात् । श्रननुभवश्च एकदैकज्ञान
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(६५४) सामरण विसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस संवेदनात् , इति कल्पनान्तरबाधिका युक्तिः । अत एवा- च रूपज्ञानान्तरालम्बनत्वानुपपत्तेः । अनुपपत्तिश्च यक्तिभि
-कालसौम्यविभ्रमतः कारणात् . तथाऽप्रतीतेः-एक रयोगात् । युक्तथ योगश्च स्वभावभेदप्रसङ्गात् । रूपज्ञानं हि दैकशानसंवेदनत्वेनाऽप्रतीतेः विभ्रमाद् युगपत्प्रवृत्तेरित्यर्थः। ग्सादिज्ञानान्तगलम्बनमालम्ब्य च । न चैतदुभयं स्वभावा
भेदे इति स्वभावभेदः। यदि नामवं ततः किामत्याह-तथाकिश्च-कुतोऽयममीषामत्यन्तभेदे युगपत्सर्वानुभव इ
च तदयोगादिति । स्वभावभेदे च रूपाादविशानायोगात् .तत्यवगमः१, न तेभ्य एव , प्रत्यर्थनियतत्वात् इतरेतरा- तस्तद्व्यतिरिक्तरविकल्पद्वारेण; इति 'न तेभ्य एवाऽमीषां नवगमात् , अवगमे स्वरूपहानिप्रसङ्गात् , ज्ञानान्तराल- युगपत्सर्वानुभव' इत्यवगमः, इत्येतत् स्थितम् । अन्यतो भम्बनत्वापत्तेः, तस्यापि चायोगात् , युगपद्भावात् , प्रति
विष्यतीत्याशङ्कापनोदायाह-न चान्यत इत्यादि । न चान्य
तोऽमीषां युगपत्सर्वानुभव इत्यवगमः । कुत इत्याह-एकबन्धविरहात् , इतरेतरालम्बनत्वानुपपत्तेः , युक्तिभिरयो
स्थेत्यादि । एकस्यान्यस्य, तदालम्बनत्वाभावात अधिकृतगात् ,स्वभावभेदप्रसङ्गात् , तथा च तदयोगादिति । न
षतिज्ञानालम्बनत्वाभावात् । अभावश्च तेषां भिन्नजातीयत्याचान्यतः, एकस्य तदालम्बनत्वाभावात् , तेषां भिन्नजा- त् पराणां विज्ञानानाम् । यदि नामैवं ततः किमित्याह-अततीयत्वात । अत एवैकाकरणादतदुत्पन्नात तत्परिच्छित्य
एवैककारणात्। न हि भिन्नजातीया रूपादय एकं पृथग्रज
नशानं कुर्वन्ति । न चैतदुत्पन्नं तत्परिच्छेदकमित्येतदाहसिद्धेः, तदाकारत्वायोगात् ,योगेऽपि मेचकरूपतापत्तेः,
अतदुत्पन्नादित्यादि । तेभ्यः षड्भ्यो विज्ञानेभ्यः, उत्पन्नं ततत्सारूप्याभावात् , तेषामसङ्कीर्णत्वात् , एवमप्यवगमेऽ
दुत्पन्नं , न तदुत्पन्नमतदुत्पन्नं तस्मात् ,एकस्मादिति प्रक्रमः। तिप्रसङ्गात् , तत एव सर्वार्थावगमापत्तेः , तथाऽनुभवा- तत्परिच्छित्स्यसिद्धेःषड्ज्ञानपरिच्छित्यासिद्धेः असिद्धिश्च त. भावात् ,इत्यनवगताभिधानमेतद् । यदुत-'युगपत्सर्वानु
दाकारत्वायोगात् । उपचयमाह-योगऽपि कश्चित् , तदाभवः' इति । चित्रज्ञानवत्परामर्शाविकल्पात् तदवगम इति
कारत्वस्य मेचकरूपतापत्तेरधिकृतग्राहकज्ञानस्य । यदि ना
मैवं ततः किमित्याह-तत्सारूप्याभावात् । तैज्ञेय ज्ञानैः षड्चेत् । न । अस्याप्ययोगात् । तथानुभवसिद्धत्वात् कथम
भिः सारूप्याभावत् मेचकरूपस्य ग्राहकज्ञानस्य । श्रभायोग इति चेत् स्वकृतान्तप्रकोपात् । कथमंत्र तत्प्रकोप वश्च तेषामसंकीर्णत्वात् ज्ञेयज्ञानानाम् । न च सारूप्याभाव इति चेत् । यथोक्तं प्राक् । परामर्शविकल्पोऽन्य एवेति
तदवगमा न्याय्य इत्येतदाह-एवमपीत्यादि । एवमपि सारूचेत् । न । ततस्तदवगम इति यत्किश्चिदेतत् । क्रमानुभ
प्याभावेऽपि, ज्ञान ययोरवगमेऽभ्युपगम्यमाने, अनिप्रसङ्गा
त् । अतिप्रसङ्गश्च,तत एव सर्वार्थावगमानुभवाच्च, इत्येवम् , वोऽपि कथं मम्यते ? इति चेत् । अन्वयिन्यात्मनि सुखे
अनवगताभिधानमेतत् पूर्वपक्षवचनं, यदुत 'युगपत्सर्वानुभ. नैव , तस्यैव तथाभावात् , चित्रस्वभावत्वात् , बोधान्व- वः उक्तवत्तद्योगपद्याज्ञानादिति । चित्रज्ञानवदित्यादि। चियोपपत्तेः, तदावरणविगमात् , क्रमानुभवाविरोधात् , त- प्रज्ञानवदिति निदर्शनम् . यथा चित्रज्ञाने सामर्थ्याचित्रावथामनोवृत्तेः । इति न युगपत्सर्वथा सविकल्पाविकल्प
गमः, तथा परामशविकल्पात्-पानगतात् , तदवगमप्र
क्रमादमीषां युगपत्सवांनुभवावगम इति चेत् । एतदाशज्ञानभावः।
क्याह-नाऽस्याऽप्ययोगात् चित्रज्ञानस्य । तथेत्यादि । तथा दूषणान्तरमाह-किञ्चेत्यादिना । किञ्चायमारो दोषः- चित्रज्ञानत्वेनानुभवसिद्धत्वात् कारणात् , कथमयोग इति कुतोऽयममीषां पराणां विज्ञानानाम् , अत्यन्तभेदे सति, चेत् चित्रज्ञानस्य । पतदाशझ्याह-स्वेत्यादि । स्वकृतायुगपत्सर्यानुभव इत्येवंभूतः , अवगमः-परिच्छेदः । न ते. स्तप्रकोपात्-स्वसिद्धान्तविरोधादयोगः । कथमत्र तथानुभभ्य एव षड्भ्यो विज्ञानेभ्यः । कुत इत्याह-प्रत्यर्थनिय - बसिद्धौ, तत्प्रकोप इति चेत् । पतदाशड्क्याह-यथोक्न तत्वात् तेषाम् ,तथाहि-रूपादिविषयत्वेन नियतानि तानि । प्राक्-पूर्वम् 'एकस्यानेकालम्बनत्वाभावात् ,इत्यादिना परामयदि नामैवं ततः किमित्याह-इतरेतरानवगमात् । न विकल्पोऽनन्तरप्रस्तुतः,अन्य एव तथाविधानुभवानिमित्तोरूपक्षाने रसादिज्ञानमवगम्यते, नापि तैस्तत् , इसीतरेत- म षड़ज्ञानगत इति चेत्। एतदाशझ्याह-न तत्, परामर्शरानवगमः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अवगमे स्वरू- विकल्पादन्यस्मात् , तदवगमःप्रक्रमादमीषां युगपत्सर्वानुभपहानिप्रसङ्गात् । यदैव रूपज्ञानं रसादिक्षानान्यति तदैव वावगमः, इत्येवं, यत्किञ्चिदेतदनन्तरोदितम् । सर्वमेवासारतदालम्बनत्वात् तदाकारतया रूपक्षानतां परित्यज्यान्यथा मित्यर्थः । क्रमानुभवोऽपि रूपादिज्ञानगत इति प्रक्रमः, कर्थ तदवगमः, एवं रसादिक्षानेष्वपि योजनीयम् ,इत्यवगमे स्व- गम्यत इति चेत् , तत्क्रमग्राह्यान्य विज्ञानान्तरं न विद्यत एवेरूपहानिप्रसङ्गः । एतदेवाह-ज्ञानान्तरालम्बनत्यापत्तेः न त्यभिप्रायः।एतदाशङ्कयाह-अन्वयिन्यात्मनि सुखेनैव गम्यते, ह्येतदालम्बनं तदवगमयतीति भावः । यदि नामैवं ततः एतदेवाह-तस्यैव प्रक्रमानुपादिज्ञानानुभवितुरात्मनः, तथाकिमित्याह-तस्यापि चायोगात् तस्यापि च शानान्तरा- भावाद्-रसादिज्ञानरूपेण भावात् ,तत्तथाभावश्च चित्रस्वभा. लम्बनत्वस्य , अयोगात् । अयोगश्च युगपद्भावात् । रूपर- वात् अनुवृत्तिव्यावृत्तिस्वभावत्वादित्यर्थः। एतच्च बोधान्वसादिशानानां युगपद्भावे दोषमाह-प्रतिबन्धविरहात् तादा- योपपत्तः, न व्यावृत्तिमन्तरेणान्वय इत्युपपत्तिः। युत्क्यन्तरत्म्यतदुत्पत्त्ययोगेन । दोषान्तरमाह-इतरेतरालम्बनत्वानुपप- माह-तावरणविगमात्-क्रमानुभवज्ञानावरणविगमात् । न सेः रूपज्ञानस्य रसान्तरालम्बनत्वानुपपत्तेः, रसादिज्ञानस्य चायमसिद्ध इत्याह-क्रमानुभवाविरोधात् कारणसाकल्येने
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सामरणविसेस अभिधामराजेन्द्रः।
सामणविसेस त्यर्थः । अविरोधश्च तथामनोवृत्तेः युगपज्ज्ञानानुपपत्तित्वेन | यो युक्तिवाधितो न स स इति चेत् । कः पुनरसौ भवतोमनोवृत्तः कारणात् । प्रक्राम्तोपसंहारमाह--इति न युगप
ऽभिप्रेतः। विकल्पद्वयायुगपद्भाव इति चेत् । का खदित्यादिना । इत्येवं, न युगपत्सबिकल्पाविफल्पशानभावः । परमाप्तवचनविरुद्धश्चायम् , “अस्थानमेतम् , यद् द्वे चि
वन्यथा युक्तिबाधा ? इति कथनीयम् । तथानुभव एवेति चे युगपदुत्पद्येयाताम्" इति वचनप्रामाण्यात् । अन्या
चेत् । सोऽविकल्पकद्वयेऽपि तुल्य एवेस्युक्तम् । म च वि
कल्पयोरसदंशानुवेधतश्चित्ततैव युक्ता । न च तत्स्वसंविदो थेमेतदिति चेत । कोऽस्यार्थ इति वाच्यम् । भिन्नजातीयेनेति चेत् । न । अधिकृतज्ञानयोरपि तचात् । भिन्नाल
वस्तुत्वेनायमनपराधः, तत्तव्यतिरिक्नेतरविकल्पदोपापत्तेः
अन्यथा तदयोगात् । इति यत्किञ्चिदेतत् । अतः सामाम्बनेनेति चेत् । न । तयोरपि त्वन्मते भावात् । कथं पु
न्यनवोभयचिवप्रतिषेधोपपत्तेः, प्राप्तवचनप्रामाण्यात् , तनर्भाव इति चेत् । रसादिगतचित्तस्यापि रूपदर्शनाभ्युपगमादिति । न चाविकल्पकेनेति, पञ्चानां प्ररूषणात् ।
थानुभवभावतः सिद्धमिन्द्रियद्वारानुसार्येव विज्ञानमावि
ष्टाभिलापम् 'अहिरहिः' इत्येवमादि । न.चात एव न द्वे, छलमात्रत्वात् । न चेहैव न्याय्यो परः, अस्थानप्रयासत्वात् । न च नास्थानप्रयासः, द्वयो- स्यादेतदलमनेन वाग्जालेमान्तरोदितेन, सविकल्पेन उत्परुपलक्षणत्वात् , अन्यथा यत्र पञ्च न तत्र द्वे इत्यति- द्यते द्वे चित्ते युगपदिति वचनार्थात् , कारणात् अलमनेन । कैशलमाप्तस्य, त्र्यादीनामपि प्रतिषेधापत्तेः। .
पतदाशङ्कयाह-न अत्र वचनार्थे, प्रमाणाभावात् । प्रभावश्च
तद्विक्षाया प्रत्यक्षत्वात्--प्रतीत्याक्षमिन्द्रियं वर्तत इत्यउपचयमाह-परमाप्तवचनविरुद्धश्चाय परमातो-भगवान् वृ
त्यक्षा तद्भावस्तस्मात् परोक्षत्वादिस्यर्थः । प्रत्यक्षापि वसस्तवचनविश्व, अयं युगपत्सविकल्पाविकल्पज्ञानभावः।
चनान्तराषसेया भविष्यतीत्याह-बाधकवचनाभावात् । पतषाह-प्रस्थानमित्यादिना । अस्थानमिति-एतन्त्र न्याय
अविकल्पयोगपद्याभिधायि बाधकं वचनम् , अत्र न च तस्थानं यद् द्वे चिते देशाने, युगपदेकदा,उत्पद्येयाताम्, इत्ये
वस्तीति गर्भः। उपनयमाह-भावेऽपीत्यादिना । भावऽपि धं वचनप्रामाण्यात् कारणात् परमातषश्चमाविरुद्ध इति । श्र बाधकवचनस्य 'पञ्च बाह्यविज्ञानानि मिक्षवः! युगपदुत्पभ्यार्थमेतत् परमातवचममिति चेत् । एतदाशझ्याह-को
चन्ते' इत्यावः। किमित्याह-तदर्थनिश्चयायोगात्। अधिउस्य परमाप्तवचनस्यार्थ इति वाच्यम् । भिन्नजातीये नवे
कल्पज्ञानानां युगपद्भावस्तवर्थस्तनिश्चयायोगात्, प्रयोगश्च चित्ते युगपत्यषेधातामिति चेत् । एतवाशझ्याह-म, श्र
स्याह-म, श्र- विनेयानुगुण्यतः-शिष्यानुगुण्येन , अन्यथापि श्रीनं शब्दार्थ धिकृतज्ञानयोरपि-सविकल्पाधिकल्पयोः, तस्वात्-भिनजा
बिहायाऽपि तद्वचनप्रवत्तेः-प्राप्तबचनप्रकृतेः,ब्राह्मणमृतजातीयवात् । भिमालम्बने मद्वे पिसे युगपदुत्पधेयातामिति
याऽमृतवचमवत् । सेत्यादि । सा तद्वचनप्रवृत्तिः, आभिप्राबेत् । एतवाशक्याह-मा तयोरपि भिमालम्बनयोरपि, त्व
यिक्यव अभिप्रायेण निर्वृत्ता आभिमायिकी अभिप्रायस्तथा न्मते-त्वत्पक्ष, भावात् । कथं पुनर्भावो भिन्नालम्बनयोर्मत्प
दर्शनमिति चेत् । एतदाशझ्याह कस्तस्य प्राप्तस्याऽभिक्षे,इति चेत् । पतवाशक्याह-रसादिगतचित्तस्यापि प्र
प्रायः अर्थयाथात्म्यमधिकृत्य किमविकल्पयोगपद्यमेव, उत मातुः, रूपदर्शमाभ्युपगमात् । अभ्युपगमश्च " अतीताचर्थ
विकल्पयोगपद्यमिति ? । क पतद्वेद-क पतज्जानाति १, न गतबिकल्पनापि रूपादिग्रहणसिद्धेः" इति वचनात् । न चा ह्यसौ पृथग्जनप्रशाविषय इत्यर्थः । य इत्यादि । योऽभिप्राविकल्पकेनेति चित्ते युगपदुत्पद्येयातामिति । कुत इ
यो युक्तिवाधितो-युक्तिविरहितः, न स स इति-मासी तदस्थाव--पशानां प्रापसात् । स हि वंशादिवादयितुः रूपं
भिप्रायः , अर्थयाधात्म्यमधिकृत्येति प्रक्रमः, इति चेत् । पश्यतीत्यादिमा प्रथम, मचात एव--पश्वप्ररूपणादेव, न
एतदाशङ्कयाह-कः पुनरसी अभिप्रायः , भवतोऽभिमेतः। दे। कुत इत्याह-छलमात्रस्वात् । यत्र पश्च तत्र दे अपि भ
विकल्पेत्यादि । विकल्पस्यायुगपद्भावोऽभिप्रायः 'प्रस्थानपत्त इति कत्या । महेय प्रक्रमाच्छलादी, न्याय्यो भर- मेतत् ' इत्यादिसूत्रे इति चेत् । पतदाशङ्कयाह-का सल्वस्तथाविधाऽऽस्थारूपः । कुत इत्याह--अस्थानप्रयासत्वात् । भ्यथा विकल्पवययुगपद्भावे , युक्तिबाधा, इत्येतत् कथामच नास्थावप्रयास एषः, किम्त्वस्थामप्रयास एव । कुत नीयम् । तथा विकल्पद्धययोगपद्येन, अनुभव एव सक्तिबाधेइस्वाह-द्वयोरुपलक्षणत्वात् पश्चादीनाम् । इत्थं चैतवक्रीक- ति चेत् । एतदाशझ्याह-सोऽविकल्पवयेऽपि योगपचेनासध्यमित्याह-श्रन्यथा उपलक्षणत्वानभ्युपगमे, यत्र पञ्चन उननुभवः, तुल्य एवेत्युक्तं प्राक् । किंच-कुतोऽयममीषामत्यतत्र वे इत्यतिकीशलमाप्तस्य, इत्युपहासवचनम् । अत एव तभेद युगपत् सर्वानुभव इत्यवगमः १, इत्याविना सूत्रेण । पाह-यादीनामपि प्रतिषेधापत्तः कारणात् ।
उपचयमाह-न चेत्यादिना । न च विकल्पयोरसदंशानुवस्यादेतत् , अलमनेन वाग्जालेन, सविकल्पनोत्पद्यते धतः कारणात् , अविद्यमानप्रतिभासित्वाभ्युपगमेन , चिइति वचनार्थात् । न, अत्र प्रमाणाभावात् , सद्विवचाया
ततैव युक्ता , यदसत्प्रतिभासि तदसदेवेति नावनीयम् ।
पराभिप्रायमाह-न चेत्यादिना । न च तत् स्वसविदो विअत्यचत्वात् बाधकवचनाभावात् , भावेऽपि तदर्थनिश्चया
कल्पस्य स्वसंविदः, वस्तुत्वेन हेतुना , अयमसर्वसानुवेधयोगात् , विनेयानुगुण्यतोऽन्यथापि तद्वचनप्रवृत्तेः । साऽऽ
तश्चित्तताऽयोगलक्षणः, अनपराधोऽदोषो नचा कुत इ. भिप्रायिक्येवेति चेत्, कस्तस्याभिप्राय इति क एतद्वेद । त्याह-तत्तव्यतिरिक्ततरविकल्पदोषापत्तेः तस्याः स्वसंचि
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सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस दस्तव्यतिरिक्तरविकल्पदोषापत्तः-असदंशव्यतिरिकाव्य-नुत्पत्तिरेवत्यथैः । प्रमाणमक्षव्यापाराभावेन मानसनिबतिरिक्तविकल्पदोषप्रमझात्-सा हि स्वसंविदसदशाद् वि
म्धनवव्यवस्थापकमिति चेत् । एतदाशयाह-न कएपानुवेधका व्यतिरिका वा स्याव्यतिरिका था? ।
अस्या एव तथाविधविकल्पानुत्पत्तरेव , विवादगोचव्यतिाकत्वे तस्येति सनायोगः। अव्यतिरिक्तत्वे तस्यापि रापन्नत्वात् विप्रतिपत्तिविषयत्वादिति योऽर्थः । अत वस्तुता ,स्क्संविदो वाऽवस्तुतेत्यादि । अन्यथैवमनभ्युपग
एवेत्यादि । अत एव तथाविधविकल्पानुत्पत्तरेव समे, तदयोगात्-तत्स्वसंविदोऽयोगात् ,तथाहि-यदि सा ततो काशात् , एतनिीतेः ' स मानसाभावनोऽभावो नाक्षन व्यतिरिक्ता , नाप्यव्यतिरिका, न विकल्प एवेति कुतस्त
व्यापाराभावतः' इत्यतन्निश्चयात् कारणात् , अयमनन्तस्वसंचित् ? इत्यालोचनीयम् । इत्येवं , यत्किचिदसारमेतद् रोदितः 'न, अस्या एवं विवादगोचरापन्नत्वात् ' इत्यदायदुन-'तत्स्वसंविदो घस्तुत्वेनायमनपराधः' इति । अपा- पोऽनपराध इति चेत् । एतदाशङ्कयाह-न, चक्षुर्व्यापारास्तरालपूर्वपक्षमधिकृत्योपसंहारमाह--प्रत इत्यादिना । अ- भावेऽप्यस्याः, अत एव तन्निगीतेः, समानत्वात्-तुल्यत्वातोऽस्मात् कारणात् , सामान्येनैवोभयचित्तप्रतिषेधोपप | दिति । तथाहि-अत एव तथाविधविकल्पानुपपत्तेरव ससेः । प्रक्रमादधिकृतसूत्रे 'अस्थानमेतत्-' इत्यादी सविक
काशात् , पतन्निीतेः सोऽक्षव्यापाराभावताऽभायो नरूपाविकल्पोभयचिलप्रतिषेधोपपत्तेः। किमित्याह-प्राप्तवच
मानसाभावत इत्येतन्निश्चयात् कारणात् , इत्यपि वक्तुं शनप्रामाण्यात् कारणात् । तथा , अनुभवभावत एकचित्तरू- क्यत्वात् तुल्यत्वमिति भावनीयम् । पत्चेनानुभवभावतः,सिद्धे-प्रतिष्ठितम् । किमित्याह-इन्द्रियद्वारानुसाउँव विज्ञानम् , ईहादिक्रमेणाऽऽविधाभिलापम्
किञ्च-इदमपि मानसं तद्विषयमात्रग्राहकत्वेन न तद्धि'अहिरहिः' इत्येवमादि । श्रादिशब्दात्तदन्यैवंविधपरिग्रह, प्रशक्रिकमिति । किश्चानेन, निरंशैकस्वभावत्वाच वस्तुतवपि सिद्धमित्यर्थः।
नोऽनुभवोऽपि न पटीयानपटीयांश्च युज्यते अत्यन्ताऽसत न चेदं नेन्द्रियनिमित्तं, तद्भावभाषित्वानुविधानात् ,अ.
उत्पादेन सर्वथा हेत्वनन्वयतोऽभ्यासवासने च; अन्यथान्धादेरनुत्पत्तेः । इन्द्रियादविकल्पजन्म तत इदमिति तद
ऽसंपूर्णवस्तुग्रहणमपि स्यात् , तथा च न निरंशैकम्बनुत्पत्तिरिति चेत् । न । आद्यविद्युत्संपातादौ तद्भावेऽपि भावमेवेतत् । न चान्यथाऽपटीयस्त्वादि, अनुभवस्य नतदभावात् । स मानसाभावतोऽभावो नाक्षव्यापारामावत न्मात्रग्रहणत्वात् , तदतिरिक्तरूपान्तराभावात् , अध्येतोइत्यतोऽदोष इति चेत् । नात्र किश्चिदुभयसिद्धं प्रमाणा- पकाराद्ययोगादिति । एवमभ्यासवामनोगमाद् नालत् । इति यत् किश्चिदेतत् । तथाविधधिकल्पानुत्पत्तिरव प्र- न्तासत एवोत्पादः, सत्यस्मिस्तयो यात्रत्वात् , तद' माणमिति चेत् । न । अस्या एव विवादगोचरापनत्वा- | त्वातिरेकेणाऽऽकालं तदभावात , पूर्वस्मार पन्तभिना । त् । अत एवैतन्निीतेरयमदोष इति चेत् । न। चचा- तथापि तदभ्यासादावतिप्रसङ्गात् । इतीन्द्रिानमेवैत पाराभावेऽप्यस्याः समानरवादिति ।।
अभ्युच्चयमाह-किश्चेत्यादिना। किश्च इतर इहैवोपचयमभिधातुमाह-नचेत्यादि। न चेदं नेन्द्रियनिमित्तं स्वविषयानन्तरेत्यादिलक्षणवत् . तद्विषयमात्र हकन किंतर्हि, इन्द्रियनिमित्तमेव । कुत इत्याह-तद्भावभाविवा- प्रक्रमादक्षज्ञानविषयमात्रग्राहकत्वेन हेतुना. स्वलक्षग, 4नुविधानात् इन्द्रियभावभावित्वानुकरणात् । तदेवाह-अ- ग्राहकत्वनेत्यर्थः, न तद्भिन्नशक्तिकं नाक्षत्रानभिन्नशक्तिकन्धादेनुत्पत्तेः श्रादिशब्दाद्-अव्यापृतेन्द्रियग्रहः।इन्द्रिधादि
मिति । किश्चानेन परिकल्पितेन, तथाविधविकल्पाम्पत्ती त्यादि।इन्द्रियात् सकाशात् ,अविकल्पजन्मा-अविकल्पोत्पा.
समानमेतदक्षज्ञानेनेति भावः । पक्षान्तरपरिजिहीर्पयाहदः, ततोऽविकल्पात् , इदं विज्ञानमाविष्टाभिलापम् , इत्येवं| निरंशैकस्वभावत्वाच्च कारणात् , वस्तुनः अनुभवोऽपितदनुत्पत्तिरन्धादेविवक्षितविज्ञानानुत्पत्तिरिति चेत् । ए- प्रक्रमात्तदनुभवः, न पटीयानपटीयांश्च युज्यते, निरंशैकस्वतदाशङ्कयाह-श्राद्यविद्युत्संपातादौ । श्रादिशब्दात्-तदन्या- भावाद् वस्तुनस्तथाविधैकस्वभावस्यैवास्य भावात् । तदेभुतदर्शनग्रहः । तद्भावेऽपि-इन्द्रियादविकल्पजन्मभावेऽपि तद्भेदोऽपि न तथाविधविकल्पोत्पत्त्यनुत्पत्तिनिमित्तमिति सदभावात्-श्राविभिलापविज्ञानाभावात् । स मानसा- प्रकृतयाजना । तथा, अत्यन्तासत उत्पादन हेतना. अनमावतः स्वविषयानन्तरावषयसहकारीन्द्रियज्ञानजनितमान
भवस्य सर्वथा हेत्वनम्बयतः कारणात् , तत्तथाभावाभासाभावेन, अभावः, आविष्टाभिलापविज्ञानाभावः । नाक्ष- वेनाऽभ्यासवासने च 'अनुभवस्य न युज्यते' इति वर्तते, व्यापाराभावतो-नेन्द्रियव्यापाराभावेन. इत्यतोऽस्मात् का- पौनःपुन्यकरणमभ्यासः , पूर्वानुभूतसंस्कारानुवेधश्च वारणात् , अदोषः ' श्राद्यविद्युस्संपातादौ तद्भावेऽपि तदभा- सना, नेते अत्यन्तासत उत्पाद भवत इति भावनीयम् । पात्' इत्ययमनपराध इति चेत् । एतदाशङ्कपाह-नात्र 'स
इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा एवमनभ्युपगमे, अमानसाभावतः' इत्यादी, किञ्चिदुभयसिद्धं चादिप्रतिवा- संपूर्णवस्तुग्रहणमपि स्यात् अनुभवापटीयस्त्वादिभावेन । विप्रतिष्ठितम् , प्रमाणमक्षव्यापारापोहेन मानसनिबन्धनत्व- यदि नामैचं ततः किमित्याह-तथा च न निरंशैकस्वभाव
ATUR.रत्येवं. यत्किञ्चिदेतदसारमित्यर्थः। तथावि- मेवैतद् वस्तु, किन्तु-सांशानेकस्वभावमिति। न चान्यो अत्यादितथाविधविकल्पानुत्पत्तिरेवाविटामिलापविज्ञाना- प्रकारं विहाय, अपटीयस्त्वादि, आदिशब्दात्पटीयस्त्वग्रहः,
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सामरबिसेम
अनुभवस्याधिकृतस्य । कुत इत्याह- तन्मात्र ग्रह्णत्वाद् वस्तुमात्र ग्रहणस्वरूपत्वात् अनुभवस्य तदतिरिकरूपान्तराभावात् तन्मात्र ग्रहणस्वातिरिकरूपान्तराभावात् । श्रभाधान्येन वस्तुव्यतिरिक्रेोपकारागात् तत वस्तुमहणभेदकृतमेवापीयस्त्वायस्येति सांझानेकस्वभावमेतदि ति स्थितम् । एवमभ्यासवासनोपगमात् कारणात् । किमित्याह- नात्यन्तासत एवोत्पादः । कुत इत्याह-- सत्यस्मिन् श्रत्यन्तासत उत्पादे तयोरभ्यासवासनयोः, वाङ्मात्रत्वात् । वाङ्मात्रत्वमेवाह-- तदात्वातिरेकेण तदाभावातिरेकेण आकालं यावदपि कालस्तावदपि तदभावादत्यन्तासत उत्पद्यमानस्याभावात् श्रभावश्च पूर्वस्मादत्यन्त भिन्नत्वात् अत्यन्तासत उत्पद्यमानस्य तथाप्येवमपि तदभ्यासादौ तस्यानुभवस्याभ्यासवासनाभावे : अतिप्रसङ्गादनुभवान्तरस्वाप्यभ्यासादित्यस्यापत्यमेत विज्ञानमािमिलापम् अहिर' इत्मादीत्यधिकारोपसंहारः ।
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एतमानेकधर्मके वस्तुनि ज्ञानावरणाच्छादितस्य प्रमातुस्तथाविधक्षयोपशमभावत उभयोस्तथास्वभावत्वेनावग्रावायधारणरूपं प्रवर्तत इति । अनेकधर्मकत्वं च वस्तुनेोऽनेकविज्ञानजनकत्वात् योग्ययोगिभिर्भेदेनोपलधेः, अन्यथा तदभेदप्रसङ्गात् द्वयोरपि तचनिमित्तत्वात् तद्भावभावित्वा विधानात् । मरावल्यभावे महद्दर्शनमनिमित्तमिति चेत् । न । अल्पस्यैव तन्नि [मित्तत्वात् तदभावेऽभावात् विप्रकर्षाद्युपलवाद तत त्स्वभावत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः ततस्ततोऽन्यस्वाच्च स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः अन्यथा तदेकत्वप्रसङ्गातु तदन्त्यहेतुत्वेनाविशेषात्, अन्यत्वस्य चाकल्पितत्वाद कल्पितत्वे तत्वतस्तदभावापत्तेः ।
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एतश्चेत्यादि । एतच्चाधिकृतागम् अनेक धर्मके वस्तुनि घटरूपाक्षी ज्ञानावरणाच्छादितस्य प्रमाजस्य तथा विधक्षयोपशमभावतो विषमभावतो द्रव्यादिनिमित्तचिज्ञयोपशमभावा त्यो त्रियाकस्वभावत्वेन हेतुना, श्रवग्रहेहावायधारणारूपं प्रवर्तत इति ग्रहाक्यसमुदायार्थः । अथवा स्वयमेवाह ग्रन्थकारः - अनेकधर्मकत्वं च वस्तुन इत्यादिनाग्रन्थेन । अनेकधर्मकत्वं च वस्तुनो घटरूपादेः । कुत इत्याह-- श्रनेकविज्ञानजनकत्वात् अनेकेषां विज्ञानजनकमनेकविज्ञानजनकं तद्भावस्तस्मात् । एकेनैव खभावेनैव भविव्यतीत्याह-योग्ययोगिभिः प्रमातृभिः संपूर्ण संपूर्णधर्मसाकरणेन दर्शनादित्यर्थः। अन्यचैवमनभ्युपगमे, तदभेदप्रसङ्गाद् योग्य योगिनोरभेदप्रसङ्गात् । प्रसङ्गश्च द्वयोरपि योग्ययोगिनोः, तत्तन्निमित्तत्वात् तस्या उपलब्धेस्तन्निमित्तत्वात् श्रधिकृतवस्तुनिमित्तत्वात् । तन्निमिसत्यं तद्भावभावानुविधानात् अधिकृतस्तुमा नित्यानुकरणात् अतन्यमेतदवग्रहशामित्वाह१६५
3
( ६५७ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
"
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3
सामरविसेस
मवित्यादिना । मरी विषये अल्पभावेऽल्पस्य लुगादेः सत्तायां, महद्दर्शनं महतो वत्सादेरिव दर्शनम्, शनिमित्तम्, अल्पस्याप्रतिभासनेन निमित्तत्वायोगादिति चेत् ।
दास्यामित्याद मददर्शननिमित्तत्यात् । तनिमित्तत्वं च तदभावेऽभायात् अल्पा भावेऽभावाद, महद्दर्शनस्य । कथमिदमतत्प्रतिभासीत्याह- विप्रकर्षाद्युपलवात् विप्रकर्षो - देशविप्रकर्षः, श्रादिशब्दात् तथाविधज्ञानावरण क्षयोपशमपरिग्रहः ताभ्यामुपप्लवाद् भ्रान्तेः । उपप्लवश्च तत्तत्स्वभावत्वात् तस्य विप्रकर्षादेः तत्स्वभावत्वादुपप्लवजननस्वभावत्वात् । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमित्याह - श्रन्यथा तदनुपपत्तेः, अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदनुपपत्तेरुपल्लवानुपपत्तेः, न ह्यसावन्यनिमित्तोऽऽनिमित्तो वेति भावनीयम् । मूलसाध्य एव हेत्वन्तरमाहततस्ततोऽन्यत्वाच्च । ततस्ततः सजातीयेतरादविचित्राद् वस्तुनः, अन्यत्वाच्च - भिन्नत्वाच्च कारणात्, अनेकधर्मकं स्थिति यदि नामेयं ततः किमित्याह-स्वभावभेदन व्यावृत्तेः ततस्ततः । किमित्येतदेवांमत्याह--अन्यथा एवमनभ्युपगमे स्वभावमेदमन्तरेण ततस्ततो व्यावृत्यभ्यु पगम इत्यर्थः कन्याद्व्याययमनकल्यप्रसङ्गात् । प्रसङ्गश्च तदन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषात् तस्य वस्तुनो व्यावृनिमतः श्रन्यत्वहेतुत्वेन श्रविशेषाद् व्यावर्त्यमानानाम्, तद्धि तेभ्योऽन्यत्, तदन्यत्वस्य च त एव हेतवः, यंदेव चेक यापरमपि न चेत् तदभेदमन्तरे ऐति हृदयम् । किमनेन कल्पितेनेत्याशङ्कानिरासायाह-अन्यत्वस्य चाकल्पितत्वात् तस्य व्यावृत्तिमतो व्यावर्त्यमानेभ्यः । इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमित्याह - कल्पितत्वे तदन्यत्वस्य तेभ्यः, तस्वतः -- परमार्थतः, तदभावापत्तेस्तस्य व्यावृत्तिमतोऽभाजापा
,
स्वहेतुत एव ततदन्वेभ्योऽन्यत्वैकस्वभावं भवतीति चेत् । न । पटान्यत्वैकस्वभावान्यत्वे पटवत् कटादीनां सद्भावापतेः तथास्वभावादन्यस्य भावत्वात् अचित्रस्यानेकान्यवैकत्वायोगे तत्रितयैकान्तैकत्वाभावात् पारम्पर्येणानेकजन्यजनकत्वाच अन्यथा सद्भावसिद्धेः परम्पराहेतुतोऽपि भावात् तथाविधतद्भावभावित्वोपपतेः पुष्कलस्य चानन्तरेणाप्ययोगात् तदा तद्भावाभावादिति । अनन्तरजन्यत्वमेव परम्पराजन्यत्वमिति चेत् । न परस्पराजनकानामनन्तरजनकत्वायोगात् तत्स्वभावादिभेदात् तद्भेदेन च ततञ्जनकत्वे न तदेव तत् ।
"
पराभिप्राय माह-स्वहेतुत एव तद् वस्तु प्रस्तुतम्, तदन्येभ्यो स्यात्यमानभ्यः अन्यस्यैकस्वभावम् । अन्यत्वमेकः समायो यस्य तत्तथा भवतीति चेत् । एतदाशङ्कयाह-नेत्यादि । नैतदेवम् । कुत इत्याह-- पटान्यस्यैकस्वभावान्यत्वे पदाम्पत्यमेवैकः स्वभावो यस्य वस्तुनोऽधिकृतस्य तत्पदान्यत्वैकस्वभावं तस्मादस्य पटाकरवनान्यत्तस्मिन् प टास्यस्यैकस्वभावान्यत्वे सति पटयदिति निदर्शनम् ढ
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सामरयविसेस
'शुकादीनां मायानां तद्भावापत्तेः-पट भावापत्तेः श्रापत्तिश्च तथावगावात् पटान्यत्येवाहित वस्तुः सम्यमाया डीन पद
कमाये कथं पटाम्बत्वैकस्वभावमुच्यत इत्युच्यते-चित्रस्यानेकाम्यकरयायोगात् । तथा साद दि । अचित्रस्व विवक्षितवस्तुनः एकस्वभावस्य अनेकात्यायोगे अनेक तस्यैकत्वमनेकाम्पत्येक
योगे
म तस्मिन् सनि तत्रितया विवक्षितवस्त्वेकस्वभावस्य चित्रतया । किमित्याह एकान्तैकत्वाभावात् । विवक्षितवस्तुनः, एकस्वभावस्येति प्रक्रमः । हेत्वन्तरमाह-पारम्पयेंखानेकजन्यजनकत्वाच्च श्रनेकधर्मकत्वं वस्तुन इति । पारम्पर्येकादिव्यवधानांपेक्षया, जभ्यश्च जनकश्च जन्यजनकः
"
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अनेकेषां जन्यजनकः, अनेकजन्यजनकस्तद्भावस्तस्मात् इत्येवैकर्तव्यमित्याह--अन्यथा वमनन्युपगमे त ङ्गावासिद्धेरधिकृत वस्तुभाबासिद्धेः । श्रसिद्धि परम्पराहेतुनोऽचि सकाशात् भावादधिकृत्ववस्तुनः, न हि पितामहाद्यमावे अपि पौत्रादिनाव इति मावनीयम् देव युहिमाह तथा विधतद्भावभावित्वापतेः। तथाविधमेकादिव्यवधानवच्च तत् तद्भावभावित्वं च परम्पराकारणभावमादित्वं चैतदेवोपपत्तिस्ततः । एतत्यङ्गीकर्तव्यमित्याद पुष्कलस्य च तावभाषितस्व, अनन्तरेणापि कारखेन सहायोगात् । प्रयोग तदाकारादिकाले तद्भावाभावात् - कार्यादिभात्राभावात् । अन्यथा जन्य जनकत्वाभावः सव्येतरगांविषाणवदिति । श्रनन्तरजन्यत्वमेव कार्यस्य परपराजन्यत्वमिति चेत् । एतदाशङ्कयाह-न परम्पराजनकामांतूनाम् अनन्तरजनकथायोगात् । अयोगका स्वभा वादिभेदात् स्वभावमेदः प्रतीतः आदिशब्दात् कालभेदपरिग्रहः । तद्भेदेन च स्वभावादिभेदेन च तत्तजनकत्वे तेबामनन्त र परम्परादेतूनां तजनकत्वे प्रक्रमाद् विवक्षितकाजनक किमित्याह-न तदेव तत् नानन्तरजन्यत्वमेव परम्पराजन्यत्वमिति निगमनम् ।
"
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1
एवं जनकत्वेऽपि योजनीयमिति तच्चित्रस्वभावता, सुखदुःखादिहेतुत्वाच्च मायभेदेन सुखादिजनकत्वात्, तेषां चाहादादिरूपत्वेन ज्ञानादन्यत्वात् तत्खरूपेण बा वेदनात् ज्ञानमावेऽपि कचिचदभावात् तथानुभवसिद्धत्वात् अज्ञानत्वे कथममीषामनुभवः १ इति चेत् । संध्यादिवत्कथञ्चिन्वानामेवन्द, उदग्रत्वेन तथा तज्यानरञ्जनात् उभयोस्तत्स्यात्वा युगपत्प्रनृत्यवि, रोधात् सुखादिज्ञाने तथानुभवसिद्धत्वात् तद्वचनसिद्धेश' आविर्भावतिरोभावधर्मकं वस्तु न कृतार्थे प्रकृ वित्र चेः द्विरागात् तद्युचिसंचयाच इति वचनप्रमादात् । तथा 'अनित्यता सर्वसंस्कृतानां दुःखता खाना, शून्यानात्मकते सर्वधर्माणाम् अधिकारिबी दादा' वि वचनप्रमाणवाच्चेत्यनेकधर्मकं वस्तु ।
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(६८) अभिधान राजेन्द्रः ।
+
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सामणविसेस
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पयमित्यादि । एवम् उक्कनीत्या जनकत्वेऽपि योजनीयम् । पारम्पर्येणानेक जनकत्वादधिकृतवस्तुनः, अन्यथा तद्भावासिनतनकभायासिद्धेः परम्परानुतोऽपि भावाने केत्राम् । एव शषमपि स्वधिया योजनीयम् । इत्येवं चित्रस्वभावता - तस्य वस्तुनांश्चत्रस्वभावता । अनेकधर्मकत्वमित्यर्थः हेत्वन्तरमाह सुखुदुःखादिहेतुत्वाच अनेक धर्म वस्तु कथमेतदेववत्याह-स्वभावभेदेन सुखादिज नकत्वाद् वस्तुनः। श्रादिशब्दाद्-दुःखमोहज्ञानादिग्रहः । न ते तत्कृतज्ञानतो ऽन्ये, इत्याशङ्कापोहायाह-तेषां च सुखादीनामाह्रादादिपत्येन हेतुना हादरूपं सुखम् परिताप:खम् . असंवित्स्वभावो मोह इति कृत्वा । किमित्याह-शानादन्यत्वात् । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह तत्स्वरूपेण श्राह्नादादिलक्षणेन ज्ञानेनच बाह्यांवेदनात् इतश्चैनदेयम् ज्ञानमा पि कचिद्विराऽऽदौ, तदभावादाह्रादाद्यभावात् प्रभावश्च तथाऽनुभवसिद्धत्वात्वेनापि भवेदनादित्यर्थः । अज्ञानत्वे सति कथममीशं सुखादीनाम् अनुभव इनि चेत् । एतदाशङ्कयाह-सत्वादिवत् । इति दर्शनम् । आदिशब्दादशेत्यादिग्रहः कथञ्चित् ज्ञानाभेदात्तवाहि न सत्वमेव ज्ञानम्, सस्वमात्रत्वे ज्ञानस्य सर्वत्र ज्ञानप्रसङ्गः । अथ च ज्ञाने न तदात्मीयमनुभूयत इति । युक्त्यन्तरमाह
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बेन-सुखाप्रत्येन येोलीभाषेन तज्ज्ञाननाद-सुखादिज्ञानात्। एतचैवमित्यमित्याह-उपय सुखादिज्ञानयोः, तत्स्वभावत्वात् रज्ज्यरञ्जकस्वभावत्वात् । अत एव युगपत्प्रवृत्वविरोधात् सुखादीना चेति प्रक्रमः । अविराधश्च सुखादिज्ञाने तथा कथदरवेन अनुभवसिद्धत्वात् अमीषामनुभव इति योगः | हेत्वन्तरमाह-तत्तइयनसिद्धेश्व देतोः । अनेकधर्मकं वस्तु । तस्वस्त स्मिन् सांख्याने यथासिद्धं तत् तथाभिधातुमाहआविर्भावेत्यादि आदिमः प्रभावः तिरोभाव प्र कटभावः, एतद्धर्मकं वस्तु प्रधानाख्यम्, इत्यनेकधर्मकता । तथा न कृतार्थे पुंसि प्रकृतिप्रवृत्ति मेहदादिभावेन तद्विरागात्-पुरुषविरागात्, तद्वृत्तिसंक्षयश्च प्रकृतिवृत्तिसंक्षयाच्च तथाविरले प्रवृत्ति के वृतिसंक्षपथ, पुरुषोऽपि विरश्वादित्यनेकता इति वचनात्त , अनित्यता नश्वरता, सर्व संस्कृतानां सर्वकृतकानां दुःखता बाधायुक्ता, दुःखपरणाम दुःखसंस्कार- दुःखापेक्षयायथासंभवं सर्वसाधारावादिता यानारमते ततस्तुरूपे सर्वधर्माणां व्यावृत्तिद्वारपरिकल्पि वानामनित्यदुःखादितथा अधिकारि श्री उपादाननिमित्तकृतविकारशून्या, तथाता-बुद्धता तथाभावरूपा प्राविकारभावेनाने कधर्मता, इति वचनप्रामाण्याच्च इत्येवम्, अनेकधर्मकं वस्तु । एते च सर्व एव वस्तुनोऽनेकविज्ञानादुपाधिभेदभिचाः स्वमावहेतुभेदा इति गमका तथाहि - अनेक विज्ञानजनकत्वं तत्स्वभावः, स च कथञ्चित् तद्भिनपाउनेकधर्मकथा व्यासः अन्यथा तत ततोऽन्यत्वाद्यभावः । एवं शेषेष्वपि हेतुषु भावनीयमिति ।
था,
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इह च ज्ञानावरणायाच्छादितरस्थः प्रमाता, बोध
"
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सामएणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामएणक्सेिस विशेषदर्शनात , तस्याहेतुकत्वेऽप्ययोगात . सदाभावादि
| टरूपादेः, तज्ज्ञेयत्वपारणतिभावाद-विवक्षितेन्द्रियज्ञानशेय.
त्वपरिणतिभावात् , विषयिणोऽध्यधिरुतन्द्रियज्ञानस्य , प्रसङ्गात् , बोधमात्रस्याहेतुत्वात् , भेदकाभावे विशिष्ट
तज्ज्ञातृत्वपरिणत्युपपतेः-प्रस्तुनविषयज्ञातृत्वपरिणत्युपपस्वाभावात् , न्यायतोऽतिप्रसङ्गात : तद्भावे च तस्यैवावर
त्तेः । उपपत्तिश्च उभपोर्विषयझानयोः, तथास्वभावत्वात्णात्वात् इति तथाविधनयनपटलादिकल्पं तज्ज्ञानविशेष- तज्झे यन्वतज्ज्ञातृस्वभवनस्वभावत्वात् , अन्यथा तत्तत्स्वकारि विरुद्धचष्टादिनिमित्तं ततोऽन्यत् तदिति तत्त्ववाद- भावत्वमन्तरेण , तदनुपपत्तेः-विषयविषयिणोस्तज्ज्ञक्षयोपशमभावश्चास्य कालपरिणत्या विशिष्टानुष्ठानतश्च
यत्वतजनातृत्वपरिणत्यनुपपतेः। अनुपपत्तिश्चातिप्रसङ्गात्
तत्तत्स्वभावतामन्तरेण तज्ज्ञेयत्वतज्ज्ञातृत्वभाव तद्वत्ततत्तत्स्वभावतया नयनपटलादिहासरूपः प्रतिप्राण्थेव यथो.
दन्तरापत्त्याऽतिप्रसङ्ग इति भावनीयम् । नयनपटलादिहाचितं तथाविधचित्रावबोधलिङ्गावसेयः । तस्मिँश्च सति त- स इवेति निदर्शनम् । स्थूरावबोधादि, आदिशब्दात्-तथासामर्थ्यद एव विषयस्स तज्ज्ञेयत्वपरिणतिभावात् , विधयाग्रहः । तदानुरूप्यतः-ग्रक्रमात् क्षयोपशमभावानुविषयिणोऽपि तज्ज्ञातृत्वपरिणत्युपपत्ते: , उभयोस्तथा
रुपयेण, विद्वदङ्गनादिसिद्धमविप्रतिपत्त्या. तथाविधवस्तु
ग्राह्येव-तज्ज्ञयत्वपरिणतवस्तुग्राह्येव, न त्वविषयं सदाभास्वभावत्वात् , अन्यथा तदनुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गात् , नयन
वादिप्रसङ्गेन , अवग्रहहावायधारणारूपं परिस्थूरजातिभेपटलादिह्रास इव स्थरावबोधादि, तदानुरूप्यत आधिद्वद - देन , मतिज्ञानसंक्षितं स्वतन्त्रे. इन्द्रियज्ञानमुपजायते , सजनासिद्धं तथाविधवस्तुग्राह्येवाऽवग्रहावायधारणारूपं म- विकल्पमेव इन्द्रियज्ञानता चाऽस्य " तदिन्द्रियानिन्द्रियनितिज्ञानसंज्ञितमिन्द्रियज्ञानमुपजायते, "तदिन्द्रियानिन्द्रिय- मित्तम"इति वचनात् । तन्मतिज्ञानम् , इन्द्रियानिन्द्रियनिनिमित्तम्" इति वचनात् ।
मित्तम् । अनिन्द्रियं मनः । एतन्निमित्तम् । इति सविकल्प
कमेतत्। इह चेत्यादि । इह चानेकधर्मके वस्तुनि, जगति वा । कि ,
अवग्रहस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहमित्याह-शानावरणाद्याच्छादितः तत्पुद्गलप्रतिबद्धसामर्थ्यः, छमस्थः प्रमाता प्राणी । कुत एतदेवमित्याह-बोधविशेषदः।
तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रि पविषयाणामालोचनावधारणर्शनात्-बोधभदोपलब्धेः , इह वस्तुनि तस्य बोधविशेषस्य , मवग्रहः । अवगृहीते विषयाथैकदेशान शेषानुगमनेन निअहेतुकत्ये सति, प्रयोगात् ,अयोगश्च सदाभावादिप्रसङ्गात्। श्वयविशेष जिज्ञासाचेष्टा ईहा । अवगृहीते विषये सम्यग-- आदिशब्दाद्-अभावग्रहः । बोधमात्रस्याऽहेतुत्वाद् बो- |
सम्यगिति गुणदोषविचारणाव्यवसायापनोदोऽवायः । धविशेष प्रति , भेदकाभावे-तदन्यवस्वभावे, विशि
धारणा-प्रतिपत्तिः, यथास्वं मत्यवस्थानम् , अवधारणं च टत्वाभावाद् बोधमात्रस्य , न्यायतोऽतिप्रङ्गात् सर्वबोधविशिष्टत्वापत्त्या। तद्भावे च भेदकभावे च तस्यैव | न चैकत्वाद् बोधस्यह चातुर्विध्याभावः,सर्वथैकत्वासिद्धेः भेदकस्य , आवरणत्वात् इत्येवं, तथाविधनयनपट- क्रमेण भावात् , संपूर्णभवनेऽनियमात् दृश्यत एवेहाद्यभालाऽऽदिकल्पं तथाविधं स्वच्छ नैकान्ततो बोधविधात- वेऽपि क्वचिदवग्रहमात्रम् , तथा निरवायेहा, अनिर्धारणकारि,नयनपटलं प्रतीतम् ,अादिशब्दात्-थोत्रादिमलग्रहः,ए.
श्चावायः, तथा तदनुभवसिद्धः । अत एवैकत्वमपि कथतत्कल्पम् एतत्तुल्यं,तज्ज्ञानविशेषकारि-तस्य छमस्थप्रमातु बोधविशेषकरणशील क्षयोपशमतो भावाभावाभ्याम् , इति
श्चिदेकाधिकरणत्वात् तत्रैव प्रवृत्तेः तद्वद्यधर्माणामितरेझानावरणव्यापार उक्का वेदितव्यः। विरुद्धचेष्टादिनिमित्तमि- तरानुवेधात् तथा च यदिदं तदा दृष्टमपि नोपलक्षितम् , त्यनेन तु आदिशब्दात्-क्षिप्तचारित्रमोहनीयादिव्यापार इति, ईपल्लक्षितमपि न सम्यग्ज्ञातम तदिदानीमवधारितम्, इतनश्छमस्थप्रमातुः, तद्बोधादेर्वा, अन्यदर्थान्तरभूतं , तत् इत्यस्ति व्यवहारः । न चायं भ्रान्तः, अविगानेन प्रवृत्तेः । शानावरणादिकर्म, इति तत्त्ववादः । क्षयोपशमभावश्चास्य
अत इदमेकाऽनेकमन्वयव्यतिरेकवद् दीर्घमपि कालसौकर्मणः, कालपरिणत्या मन्दानुमावस्य, विशिणानुष्ठानतश्च तीवविपाकस्य । अथवा-कालपरिणत्या विशिष्मानुष्ठानतश्चेति
क्ष्म्यात् तथावभासत इति । समुच्चयपक्षः । तत्स्वभावतया तस्य कर्मणः, तरस्वभाव
तत्राव्यक्तमित्यादि तोति पूर्ववत् , अव्यक्तमस्फुटम्; तथा-कालपरिणत्यादिक्षयोपशमस्वभावतयेत्यर्थः, नयनप- आलोचनावधारणमिति योगः। तदेव विशिष्यते यथाटलाटिहासरूपः क्षयोपशमभावः, तदेकान्तानिवृत्तेः, इत्थं स्वमिति यथात्मीयम् इन्द्रियैः स्पर्शनादिभिः विषयाणांनिदर्शनमिति भावनीयम्, प्रतिप्राण्येव प्राणिनं प्राणिनं प्रति स्पर्शादीनां , यथात्मीयं यो यस्य विषय इत्यर्थः , पालोप्रतिप्रारयेव, यथोचितमिति क्रियाविशेषणम् , यस्य य उ- चनावधारणमिति-श्राङ्मर्यादायां, लोचनं-दर्शनम् । एतचितस्तथाविधचित्रावबोधलिङ्गावसेयः, तथाविध उच्चाव- दुक्तं भवति-मर्यादया सामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूपनामाचादिभेदेन चित्रावबोधस्तत्तद्विषयभेदत एतल्लिङ्गावसेयः दिकल्पनारहितस्य,दर्शनम् अालोचनं तदेवावधारणमालोचक्षयोपशमभावः । तस्मिश्च सति क्षयोपशमभावे , तत्साम- नावधारणम् , एतदवग्रहोऽभिधीयते , अवग्रहणमवग्रह यंत एव-क्षयोपशमभावसामयत एव, अवग्रहादिरूपमि- इत्यम्वर्थयोगादिति । एवमवग्रहं कथयित्वा ईहास्वरूपं कथयन्द्रियज्ञानमुपजायत इति योगः। कथमित्याह-विषयस्य घ- माह-अवगृहीत इत्यादि । अवगृहीत इत्यनेन क्रमं दर्शयति।
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सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस अवगृहीते सामान्ये, ईहा प्रवर्तते । तामाह-विषयाथै के- तमपीहया, न नम्यग्ज्ञातमवायरूपेण, तदिदानीं यद् न त्यादि । विषयः-स्पर्शादिः, स एवाऽर्थ(य)माणत्वावर्थो विष- सम्यग् ज्ञातं तत्सांप्रतम् , अवधारितं सम्यग्विज्ञाय चेतयार्थः, तस्यैकदेशः सामान्यमनिर्देश्यादिरूपम् , तस्माद् वि- सि स्थापितम् , इत्यस्ति व्यवहारस्तवेद्यधर्माणामितरेतरापयार्थैकदेशात् परिच्छिन्नादनन्तरं स्पर्शमात्रग्रहे तस्य सर्प- नुवेधव्यवस्थापकः । न चायं व्यवहारो भान्तः । कुत इत्याह ऋणालस्पर्शसाधाच्छषानुगमनेन सद्भूतासद्भूतोष्णत्वादि अविगानेन प्रवृत्तः कारणात् । प्रकृतयोजनया निगमनमाहविशेषत्यागोपादानाभिमुख्यरूपेण, न संशय व सर्वात्म- प्रत इत्यादिना । अतोऽस्मात् कारणात् , इदं मतिझानसंपरिकुण्ठचित्तभावतोऽननुगमनेन । किमित्याह-निश्चयवि- शितमिन्द्रियज्ञानम् , एकानेकमवग्रहादिसमुदायात्मकत्वेन , शेषजिज्ञासाचेष्टेति । निश्चीयतेऽसाविति निश्चयः मृणाल- अन्वयव्यतिरेकवदनुवृत्तिव्यावृत्तिखभाचं दीर्घमण्यवग्रहास्पर्शादिः , स एव विशेष्यतेऽन्यस्मादिति विशेषः , तस्य दिक्रमभावित्वेन, कालसौदम्याद्धेतोः तथावभासते प्रक्रमाद् मातुमिच्छा जिज्ञासा तया चेष्टा-बोधः स्वतत्त्वात्मव्यापा- युगपदिवावभासते, न तु युगपदेवेत्यर्थः । ररूपा , ईहोच्यते । एवमीहामभिधायाऽवायमभिधातुमाह
आह-एवमपि तत्तद्धर्मावग्रहणादेः सर्वेषामवग्रहादित्वप्रअवगृहीत इत्यादि । अनेनापि क्रममाचष्टे । अवगृहीत वि षये स्पर्शसामान्यादौ, ततः सम्यगसम्यगिति, मृणालस्प
सङ्गः । न, स्थूरेतरधर्मालम्बनावरणभेदतः क्रमभवनेन तइत्येवमादानाभिमुख्यं सम्यक तत्र तद्भावानुगुण्यात् ;
थाप्ररूपणात् , तत्त्वतस्त्वयमदोष एव । एवं चावग्रहादि. न अहिस्पर्श इत्येवं परित्यागाभिमुख्यमसम्यक, तत्र त- भावे तत्तद्धर्मबोधात केषाश्चित् तथास्वभावत्वेनाक्षरानुगश्राववैगुण्यात् । इति एवमीहायां प्रवृत्तायां सत्याम् , ततः तबोधबोध्यत्वात् , तेष्वन्यथा नीलादाविव पीतादित्वेन किमित्याह-गुणदोषविचारणाव्यवसायापनादः-अवाय इति।
इति।। बोधाप्रवृत्तेः , क्षयोपशमसामर्थ्यतोऽक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रहइह मृणाले, साधारणो धर्मो गुणः, तत्रासंभवी तु दोषः, तयोर्विचारणा-मार्गणा तया व्यवसायो-विमलतरबोधः
णाविरोधात् , तथाविधानुभवस्यान्यथानुपपत्तेः , स्वस एवापनोद:-मृणालस्पर्श एवंति निश्चयादपनुदति तत्र- संवेद्यत्वेन प्रतिक्षेपायोगात सन्न्यायत एव सिद्धं सविकहामिति कृत्वाऽवाय इत्ययमेवंविधोऽपनोदोऽवाय इति, ल्पकं प्रत्यक्षमिति । अवैतीत्यवायः-निश्चयेन परिच्छिनत्तीत्यर्थः। एवमवायनाभिधायाधुना धारणामभिधित्सयाऽऽह-धारणेत्यादि ।धारणेति
श्राह-एवमप्यवग्रहादिभावे, तत्तद्धर्मावग्रहणादेः,श्रादिशलक्ष्य, प्रतिपत्तिरुपयोगाप्रच्युतिः । यथास्वमिति । यथावि
ब्दात्-तत्तद्धर्मासमर्थपर्यालोचनादिग्रहः, सर्वेषामवग्रहादीपयं यो यः स्पर्शादिविषयः मृणालस्पर्शानुभवस्याऽनाश
नां मतिभेदानाम् , अवग्रहादित्वप्रसङ्गोऽन्वर्थयागेन, आदिइत्यर्थः , तथा मत्यवस्थानमित्युपयोगान्तरेऽपि शक्तिरूपा
शब्दादीहादिग्रहः । एतदाशङ्कयाह-नेत्यादि । न-नैतदेवम् । या मतः कचिदवस्थानम् , तथाऽवधारणं चेति कालान्त- कुत इत्याह-स्थूरेतरधर्मालम्बनावरणभेदतः कारणात् , रानुभूतविषयगोचरं स्मृतिज्ञानमिति भावः । एवमेतेनावि- स्थूरेतराश्च ते धर्माश्च स्थूरेतरधर्माः, इतरे-सूक्ष्माः, ते च्युतिवासना-स्मरणरूपा त्रिविधा धारणेत्युक्तं भवति । न
एवालम्बनम् , एतवावरणं चेति विग्रहः, तयोर्भेदस्तस्मात् , चेत्यादि । न चैकत्वादवयोधस्याऽवबोधसामान्यापक्षया, इह
क्रमभवनन तथाप्ररूपणादवग्रहादित्वेन प्ररूपरणात्। तथा
हि-स्थरधर्मालम्बनाऽवग्रहः, सदमधर्मालम्बना ईहादयः, मतिक्षाने इन्द्रियप्रत्यक्ष, चातुर्विध्याभावोऽवग्रहादिभेदेन ।
एवमन्यदवग्रहावरणम् , अन्यच्चेहादेः, इह चावरणग्रहणं कुत इत्याह-सर्वथैकत्वासिद्धेः अवबोधस्य । असिद्धिश्च
क्षयोपशमोपलक्षणमवसेयम् । इत्थमुपन्यासस्तु भिन्नमेव तद् क्रमेण भावादवग्रहादीनाम् , तथा संपूर्णभवने ऽवग्रहादार
बोधावारकमिति निदर्शनार्थम् , क्रमभवनं तु प्रसाधितमेव, भ्य धारणान्तभवने, 'अनियमात् कारणात् । अधिकृतोप
इत्यतस्तथाप्ररूपणं न्याय्यमेवेति भावनीयम् । तस्वतस्त्वयं दर्शनायाह-दृश्यत इत्यादि । दृश्यत एव लोके, ईहाद्य
सर्वेषामवग्रहादित्वप्रसङ्गः, अदोष एवान्वर्थयोगतस्तथाभावेऽपि, आदिशब्दादवायादिग्रहः, क्वचिद्देवदत्तादौ ,
घटनादिति । एवं चोंकनीत्या, अवग्रहादिभावे सम्म्यायत अवग्रहमात्रम् तथा निरवायेहा दृश्यते क्वचित् , निर्धारण एव सिद्धं सविकल्पकं प्रत्यक्षमिति योगः । कुत इत्याहचावायो दृश्यंत कचित् । तथा तदनुभवसिद्धेः केवलत्वे
तत्तद्धर्मबोधात्-वस्तुसदादिधर्मबोधात् । तथा, केषांचिद्धनाऽवग्रहादीनामनुभवसिद्ध कारणात् , न चातुर्विध्याभावः।
र्माणां, तथास्वभावत्वेन हेतुना, अक्षरानुगतवोधयोध्यत्वाअत एव तथा तदनुभवसिद्धरेव, एकत्वमप्यवग्रहादीनाम् । दीहादिगोचराणां , विशिष्टमनोऽनुगतत्वोपलक्षणमेतत् । युक्तिमाह-कथंचिदेकाधिकरणत्वात् । तत्तद्धर्मग्रहणेन । अ
यदि नामैवं ततः किमित्याह-तषु अक्षरानगतबोधबात एव आह-तत्रैव प्रवृत्तः अवग्रहादिगृहीत एवेहादि
ध्येषु धर्मेषु, अन्यथा नीलाऽऽदाविव वस्तुनि पीतादित्वन प्रवृत्तः, कश्चिदिति वर्तते । एतत्स्पष्टनायैवाह-तवेद्य- रूपेण, बोधाऽप्रवत्तः कारणात् । कुतस्तत्राक्षरप्रायोग्यद्धर्माणाम्-अवग्रहादिवेद्यस्वभावानाम् ,इतरेतरानुवेधात्-अ- व्यग्रहणमित्याशङ्कानिरासायाह-क्षयोपशमेत्यादि । क्षयोन्यान्यानुवेधात् । एतदेव भावयति-तथाचेत्यादिना । तथाच पशमसामर्थ्यतः कारणात् , अक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाविरोपदिदं तदा-तस्मिन् काले, रष्टमपि सदिति, अनेनावग्र- धात् । स हि क्षयोपशम एव तादृशो यो भाषाद्रब्याणि ग्राव्यापारमाह। नोपलक्षितं न सामीप्येन तदितरधर्मालो- हयतीत्यर्थः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-तथाविधानुभचनया लक्षितम् , अनेनेहाव्यापारनिषेधमाह । तथेषल्लक्षि- वस्य अक्षरानुगतबोधरूपस्य, अन्यथाक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रह
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साममविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
साममविसेस णमन्तरेण , अनुपपत्तेः कारणात् । अस्य च स्वसंवेद्यत्वेन । मनभ्युपगमे , अविकल्पबोधवतः प्रश्नाभावात् तस्मात्किहेतुना, प्रतिक्षेपायोगात् । किमित्याह-सन्न्यायत एव-उ- श्चिज्जानन किश्चिदजानानस्तत्रैव पृच्छनीति भावनीयम । नीत्या सिद्धं सविकल्पकं प्रत्यक्षभिति।
वस्तुनश्च वाच्यस्य , अनेकस्वभावत्वेन हेतुना , तस्यापि
प्रश्नशब्दस्य अभिधेयत्वात् कारणात् । अभिधेयत्वं च एतेन यत्परेणाभ्यधायि-'इतश्चेतदेवम् , अन्यथा स्वा
सर्ववस्तूनामेव , प्रायो बाहुल्येन, अनभिलाप्यधर्मान् विहाय, भिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति तथा चित्रसमयादियोगेन , सर्वशब्दवाच्यस्वभावत्वात् । प्राप्तम् , अस्त्वेवमपि को दोष इति चेत् , एतदाशङ्कय नि- पतदव लेशतः प्रकटयति-तत्तदित्यादिना । तच तत् वृत्तदानीमिन्द्रियज्ञानवार्ता अभिधानविशेषस्मृतरयोगात, तद्रव्यं च तत्तद्रव्यमुदकादि, श्रादिशब्दात्-क्षेत्रकालाइत्यादि । तदपि परिदतमवगन्तव्यम् , अभिधानविशेष
दिग्रहः, तनन्दद्रव्याद्यपेक्षत इति तत्तवव्याद्यतः तत्तद्व..
व्याद्यपेक्षश्चासौ क्षयोपशमभेदश्च भेदो-विशेष इति विनsयोजनासिद्धेः वाच्यतद्धोधयोरेव तत्स्वभावत्वात् ! न हि
हस्तस्मात । तनम्नतः प्रक्रमाच्छब्दान्नीरोदकादेः , तत्र सर्वत्रैव स्मृत्यपेक्षो वाच्ये वाचकप्रयोगः, तथाऽननुभवा- तत्रोदकादौ वस्तुनि , अविलम्बिनादिप्रतातिभावात् , श्रत् , अन्तर्जल्पाकारबोधोपलब्धेः, प्रयोगे उच्चार्यमाणस्य विलम्बिता-अव्यवहिता, यथा नीरशब्दादाक्षिणात्यस्योदशब्दान्तरत्वात् , तस्यापि तद्बलेनैव प्रवृत्तेः, तदसंपृक्त
कार्थे तत्प्रतीतिः , विलम्बिता तु तस्यैवान्यदेशमागतस्य
अन्यथा समयग्रहणे उदकशब्दात् तत्रेति , इयमादिशब्देन बांधवताऽनुच्चारणात् । प्रष्ट्रा व्यभिचार इति चेत् । न ,
गृह्यते । श्रन्या च चित्रा सत्येतगदिरूपेति प्रतीतिभावश्च , तस्यापि प्रश्नाभिलापसंपृक्तबोधवत्वात् , अन्यथा प्रश्नाभा- अविगानेन तथाविलम्बितादिखेन , व्यवहारसिद्धेः कारवात् वस्तुनश्चानेकस्वभावत्वेन तस्याप्यभिधेयत्वात , सर्व- णात् , अस्य च व्यवहारस्य , अन्यथा सर्ववस्तूनामेव वस्तूनामेव प्रायस्तथा तथा सर्वशब्दवाच्यस्वभावत्वात् ,
प्रायस्तथा सर्वशब्दवाच्यस्वभावतामन्तरेण , प्रयोगात् ।
प्रयोगश्च निमित्तानुपपतेः , तथाहि-किमत्रान्यनिमित्तम् , तचद्रव्याद्यपेक्षक्षयोपशमभेदतस्ततस्ततस्तत्र तत्राबिल
तत्तत्स्वभावतामन्तरेण ? , अनिमित्तस्य च सदाभावादि-. म्बितादिप्रतीतिभावात् , अविगानेन तथा व्यवहारसिद्धेः,
दोष इति भावनीयम्। अस्य चान्यथाऽयोगात् , निमित्तानुपपत्तेः।
एवं च सर्वशब्दानामपि प्रायो यथोक्तं सर्ववस्तुवाचकत्वएतेन-अनन्तरोदितेन न्यायेन, यत्परेण-पूर्वपक्षवादिना, मिति । चयोपशमानुरूपा च छमस्थानां प्रतीतिः । इति अभ्यधायि-अभिहितं पूर्वपक्षग्रन्थे । यदभ्यधायि तदा- न समं सर्वथा वा तदवसायः। न बनेकप्रदीपावभासिह- इतश्चैतदेवम् अन्यथा स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवा- तेऽपीन्द्रनीलादौ मन्दलोचनादीनां सर्वाकारं समो वा था विज्ञानयंवसीयन्त इति प्राप्तम् , अस्त्वेवमपि को दोष |
तद्बोधः, तथाऽननुभवात् , निमित्तभेदात् । न चासौ न इति चेत् , एतदाशझ्य निवृत्तेदानीमिन्द्रियशानबार्ता , अभिधानविशेषस्मृतेरयोगादित्यादि' व्याख्यातमेवैतदिति तन्निमित्तः, तद्भावे भावात् , तदभावे चाभावादिति । न व्याख्यायते । तदपि परिहतमवगन्तव्यम् । कथमित्याह- दीपमण्डलादिदर्शनाद् व्यभिचार इति चेत् । न । तस्य अभिधानविशेषयोजनाऽसिद्धेः कारणात् ।असिद्भिश्च याच्यः । तनिमित्तत्वेऽपि भ्रान्तत्वात् , अान्तरदोषवैगुण्येनोत्पत्तेः, नदोधयोरेव-अर्थतज्ज्ञानयोरेव , तत्स्वभावत्वात् प्रक्रमात्
तद्विकलेनादर्शनात् ; इन्द्रनीलादिधर्माणां तु तदन्यवेस्मृत्यनपेक्षाभिधानविशेषप्रवर्तनस्वभावत्वात् । अमुमेधार्थ
दिनाऽपि वेदनात् , सूक्ष्मधर्मद्रष्ट्राऽपि स्थूराणां ग्रहणात् , स्पष्टयनाह-न हात्यादान यस्मात्सर्वत्रैव वाच्य इति योगः, स्मृत्यपेक्षो वाचकप्रयोगः । कुतो नेत्याह-तथा स्मृत्यपक्षप्र
तथाप्रतीतेः । न चैवंदीपादिद्रष्ट्रा तद् गृह्यते, इति दोषयोगरूपत्वेन, अननुभवात् कारणात् । कथमननुभव इत्याह- विजृम्भितमेतत् । अन्तर्जल्पाकारबोधापलब्धेः । इह प्रक्रमे तस्यतोऽस्यैव
एवं च सर्वशब्दानामपि नागेदकादीनां , यथे'लम्-प्रायस्मृतित्वादित्यर्थः । तथा चाह-प्रयोगे- -भाषाविषये, उश्चा
स्तथा सर्ववस्तुवाचकस्वभावत्वेन , इह प्रायोग्रहणाद् मृषाथमाणस्य शब्दस्य , शब्दान्तरत्वात् , अन्तर्जल्पाऽऽकार- भाषावर्गणोत्थवन्ध्यशब्दव्यवच्छेदः, एवं यथोक्नम् , सर्वबांधशब्दमधिकृत्य, तस्याऽपि प्रयोग उच्चार्यमारणस्य श- वस्तुबाचकत्वं सर्वशब्दानामपि । क्षयोपशमानुरूपा च छमब्दान्तरस्य , तलेनैवाऽन्तर्जल्पाकारबोधशब्दसामर्थेनैव , स्थानां विशेषणान्यथानुपपत्त्या प्रमातृणा , प्रतीतिरिति प्रवृत्तेः । कुत एतदेवमित्याह-तदसंपृक्तबोधवता-शब्दा- कृत्वा , न समे-न युगपत् , सर्वथा वा सधैर्वा प्रकारैरविसंपृक्तबांधवता: अविकल्पबोधवतेत्यर्थ.,भाण केनेति प्रक्रम । लम्बितादिभिः, नदवसायः प्रक्रमाद् वाच्यवस्तुस्वभावाकिमित्याह-अनुच्चारणात कारणात . प्रष्टा परुषेण वसायः । अमुवयार्थ रधान्तद्वारेणोपदर्शयन्नाह-न होत्याव्यभिचारः . स हि तदसपृक्तबोधवान् तत्पृच्छन् स- दिना । न यस्मादनेकप्रदीपावभासितेऽपीन्द्रनीलादौ रत्नमुच्चारयति, अन्यथा प्रश्नायोगस्सदशानादेवेति चेत् ।। विशेषे,मन्दलोचनादीनां प्रमातृणाम.आदिशब्दाद्-अमन्दलो. एतदाशझ्याह-न । तस्यापि प्रष्टु, प्रश्नाभिलाफ्सपृक्त- चनादिग्रंहः । सर्वाकार तत्प्रदीपावभासापेक्षया , समो बोधवत्वात् । इत्थ चैतदङ्गीकर्तव्यमित्या--अन्यथा पव- या तुल्यो वा, तद्वोधः-इन्द्रनीलादिबोधः। कुतो नेल्याइ
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सामरएबिसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविस तथाऽननुभवात् साकारसमत्वेनाऽननुभवात् । अननुभवश्व बासमञ्जसम्,अनिबन्धनत्यात् ,इत्ययुक्नैकान्ततः शुष्कतानिमित्तभन्दात् प्रदीपावभासितेन्द्रनीलादिशेयधर्मभेदादित्य
नुसारिणी सूक्ष्मेक्षिका, अनया हि भवदध्यक्षलक्षणमध्यथः । न चासावसर्वाकारोऽसमश्चित्रस्तद्वोधः, न तनिमि
संभव्यवेति वक्ष्यामः। तो-नेन्द्रनीलादिनिमित्तः । कुत इत्याह-तद्भावे-प्रस्तुमस्वनीलादिभावे, भावात्. तदभावे चाभावादिति । न तङ्का दोषादित्यादि । दोषात् सकाशात् , असदर्शनसिले कारबभाविवमात्र नियमेन तनिमित्तत्वे निमित्तमित्याह-दी- णात् , सर्वधर्मदर्शनमेव ; सस्वादिदर्शनमित्यर्थः , दोरमपमण्डखादिदर्शनात् आदिशग्दाद-गुआदिग्रहः , व्यभि- स्विति चेत् । पतदाशङ्कशाह-प्रदोषज तहि कीडग् दर्शशास्स्तावभाविन्यस्य नियमनिमित्तत्वे, उक्त च- नम् । यदपेनयेतोषजरित्यर्थः । निर्विकल्पन ज्ञानेन, निरं"मयूरचन्द्र काकार, नीललोहितसंनिभा संपश्यन्ति प्र--- शवस्तुग्रहणमदोषजं दर्शनमित्यभिप्रायः । एतदाशझ्याहदीपाने-मण्डलं मम्दचक्षुषः ॥१॥” इत्यादीति चेत् । ए- न तत्रापि यथोदिते दर्शने, उक्तवद् यथोक्तम्-दोषादमसदाशङ्कयाह-न, तस्य मण्डलादिदर्शनस्य , सनिमित्त- दर्शनसिद्धरित्यादि, तदाशङ्काऽनिवृनेः-दोषजाशङ्कानिवृत्तः। स्वेऽपि-प्रदीपनिमित्तत्वेऽपि, भ्रान्तत्वात् कारणात्। श्रा- एकस्य बस्तुनः, अनेकस्वभावत्वविरोधात् कारणात् .न.-- न्तत्वं चान्तरदोषाद् नयनरोगाद् बैगुण्यम श्रान्तरदोषवैगुण्यं स्थाऽन्याय्यत्वादने कस्वभावत्वस्य. तभिवृत्तिनिर्विकल्पेनसेन प्रधानहेतुना, उत्पत्तः । एतच्चैवमेवात द्रढयन्नाह--- निरंशवस्तुग्रहण दोषजाशङ्कानिवृत्तिः , तद्भावसंभवादिति सद्धिकलेन-पान्तरदोषविकलेन . द्रष्ट्रेति सामर्थ्यात् , अद
चेत् । एनदाशझ्याह-किं नदेकमेकस्वभावं निरंशं , यशमा दीगे सत्यपि दीपमण्डलादेः, इत्यान्तरदोषवैगुण्य
द्भावसंभवन तदर्शनमदोषज स्यादिति । किमत्रोच्यते , व स्य प्रधानता । मा भूदिन्द्रनीलादावण्येवमिति व्यतिरेक
स्तुख लक्षणमवैकमे कस्वभावम् । एतदाशङ्क्याह-न, तस्य माह-इन्द्रनीलादिधर्माणां तु अनेकदीपावभासिताना, त
स्वलक्षणस्य , स्थूराकारेणोर्वादिलक्षणेन प्रतिभासते तदम्यदिनापि-धर्मान्तरवेदिनापि प्रमात्रा , वेदनात् । एत
कछीज गति विग्रहस्तस्य पटादेरित्यर्थः , असत्त्वात् कारदेवाह-सूक्ष्मधर्मद्रष्ट्राऽपि प्रमात्रा , स्थूगणां ग्रहणात् । गात्, मनमान्मकत्वेनाऽणूनां चाप्रतिभासनात् , इत्यादे-- प्रहणं च तथाप्रतीतेः, सत्संस्थानादिधर्मग्रहणसंगतव त
ह्यालम्बनवादिनैकानेकस्वभावमेतदङ्गीकर्तव्यमिति योगः। स्कान्त्यादिप्रतीतिरिति भावनीयम् । न चैव दीपादिद्रष्ट्रा पु. तथा, अणूनां चाप्रतिभासनादिति सिद्धमेव । न ह्यणवः रुषेण, अविशेषत एव तद् दीपमण्डलादि गृह्यते । इति पृथजनविशाने प्रतिभासन्ते, तत्समूहः प्रतिभासत इत्यदोषविजृम्भितमेतद् दीपमण्डलादेवशनमिति ।
तन्निरासायाह--समूहस्य प्रक्रमादणुसमूहस्य, अद्रव्यमदोषादसदर्शनसिद्धेः सर्वधर्मदर्शनमेव दोपजमस्त्विति चे
स्वादपरमार्थसस्वात् । तद्व्यतिरिक्नोऽद्रव्यसन् , त एव तु
सन्त इत्येतदव्यपोहायाह-तषामेव अरणूना, तत्वे-समूहछ । प्रदोषजं तर्हि कीहक् ? निर्विकल्पेन निरंशवस्तुग्रहण
त्वे , तद्वदणुवत् , अनुपलम्भात् ; तथाहि-प्रणव एव म् । न । तत्राप्युक्तवत्तदाशङ्काऽनिवृतेः। एकस्यानेकस्वभा
समूहः, ते चाऽहश्या इति । समुदायदृश्यस्वभावा इति सवत्वविरोधात्, तस्यान्याय्यत्वात् तन्निवृत्तिरिति चेत् । कि
महे उपलभ्यन्त इत्यप्यसदित्याह-समुदायदृश्यस्वभावत्व तदेकमेकस्वभावम् १ । किमत्रोच्यते? , वस्तुस्वलक्षणमेव । प्रक्रमादणूनाम् । कांमत्याह-अनेकस्वभावत्वप्रसङ्गात् । न, तस्य स्थराकारप्रतिभासिनोऽसत्त्वात , अरणूनां चाप्रति
प्रसङ्गश्च प्रत्येकमदृश्यस्वभावत्वात् । श्ररणूनां तेभ्य एव स
मुदितभ्या भेद इत्यत्रापि दोषमाह-तत्तद्भदे तेभ्यः-प्रभासनाद, समृहस्याद्रव्यसच्चात, तेषामेव तचे तद्वदनुपल
स्येकमहश्यस्वभावभ्यः, तद्भेदे समुदायश्यस्वभावाऽणुभेम्भाव, समुदायदृश्यस्वभावत्वेनैकस्वभावत्वप्रसङ्गात्, प्रत्ये- देऽभ्युपगम्यमाने , तदनम्त्वप्रसङ्गात् तेषां समुदायदृश्यकमदृश्यस्वभावत्वात् तत्तद्भेद तदनणुत्वप्रसङ्गात् समुदाय- स्वमायानामनांत्वप्रसङ्गात् । प्रसङ्गश्च समुदायश्यस्वभा
वतया कारणन। अन्यथा प्रत्येकत्वेनादृश्यस्वभावतया, दृश्यस्वभावतया अन्यथा योगिभिरयदर्शनात् , तथापि
योगिभिरयदर्शनात् । ततश्च समुदाय दृश्यस्वभावा अपर तदणुत्वकल्पनेऽतिप्रसङ्गाद, अन्याणूनां समुदायादर्शने पवैते भावा नासाव इति भावार्थः । आह च-तथापि-योपिसद्भावप्रसङ्गत्, तैस्तद्भेददर्शने चानेकखभावतापत्तेः , गिभिरण्यवर्शने ऽपि, तदणुत्वकल्पने-समुदायदृश्यस्वभावामेषामेवायोगिभिरन्यथा दर्शनात्. अन्यथान्यतरविज्ञान
नामणुत्वकल्पने। किमित्याह-अतिप्रसङ्गात् । प्रसङ्गश्च श्र
न्यारणूना प्रत्येकमदृश्यस्वभावाभाम् . पमुदायावर्शन ऽपि सस्थाविषयत्वप्रसङ्गात्, दृष्टेष्टविरोधात्, भिन्नसंस्थानद्धय
ति, तद्भावप्रसङ्गात्-समुदायभावप्रसङ्गात् । तैरित्यादि । तैः सिद्धे, तखत्तोऽणुसमुदायाविशषतस्तदयोगात्' अस्या
योगिभिरिति प्रक्रमः, तद्भेददर्शने च तेषां समुदायश्वथानुभवसिद्धत्वात् प्रतिक्षेपायोगात सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गा- स्वभावानामेव भेददर्शने व प्रत्येकदर्शने चाभ्युपगम्यमाक, विशेषहेत्वभावात्, तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेः । इति बाह्या
ने, अनेकस्वभावतापत्तेस्तेषा । आपत्तिश्च तेषामेव यो
गिमेददर्शनगोचगरपाम, अयोगिभिरन्यथादर्शनात् । समुदालम्बनवादिनैकानेकस्वभावमेव तदङ्गीकर्तव्यम् । तत्राप्यनु
ताप यत्वेन दर्शनादित्यर्थः । ४ चैतदनीकर्तव्यमित्याह-सभ्यपप्लतप्रमात्रविगानसंवेद्याः स्वभावाः वस्तुसन्तः, तदन्ये
था एवमनभ्युपगमे . अभ्यतरविज्ञानस्य, योमिविज्ञानस्याप्रवति, बथालोकभवसिद्धमन्यथा तबाधया सबेमे- योगिविज्ञानम्बा, अत्रिपवत्वपसात्मवालकमरममा
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सामएपबिसेस
अभिधामराजेन्द्र।। बामायन । न नायं न्यायपः प्रसक्तः इत्यादरऐचिरोधा- भवाविरोधात । एवम् 'अयोजयबत्पति 'पप्पसायन
। अयोगिज्ञानाविषयत्व हएविरोधः, योगिज्ञानाविषयत्वे | मेव,मादान्तरमधिकृत्यायोचयतोऽपि प्रत्ती, साइकिपाभ्युपगमबिरोध इति भावः । दोषान्तरमाह-भिन्नसंस्था
रिकम वक्तबद्योग एवं 'इत्यायातमाध्यमशेषस्थ जगतः' नबुद्धयसिद्धेः अणुसमुदायाविशेषेण घटशरावादिबुद्ध्यसि. रित्यर्थः । अमुमेवार्थ स्पश्यत्राह-तस्वतः परमार्थेन, अ
इत्युक्तिमात्रम् ,विवचिताभिधेयार्थशून्यत्वात् ,उसवत्तदयोंसमुदायाधिशेषतः कारणात् , सनयोयाद भिवसंस्थाना- गादिति ।
.. योगेन तबुद्ध्ययोगात् । यदि नामेवं ततः किमिल्याह- एवं प्रासनिकमाभिधाय प्रकृतमुपकमत-श्रत इत्यादिना । अस्याश्च भिन्नसस्थानबुद्धेः , अनुभवसिद्धत्वात् , अत एव अनोऽनेकलमाये वस्तुन्युनमात्या व्यवस्थिते,शोपशमानुप्रतिक्षेपायोगात् , प्रयोगश्च सयंत्रानाश्वासप्रसङ्गात् , रूषप्रतिपत्ती सत्याम् , उक्लवद् यथोक तथा, अन्तर्जाकाअनुभवप्रतिक्षेपे सति । म चासावभवमानविषय इत्याह- रबोधसिद्धेः कारमात , अभिधानविशेषस्तत्व योगोऽसाधक विशेषत्वभावात् अनुभयस्यासमवायमात्राखम्बनत्वेन । एव ,स्मृतेरेवान्तर्जल्पाकारबोधतयाऽवृत्तिप्रसावित्ति सर्वत्रानाश्चासे च तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेसिंवादिबोधाश- हृदयम् । दोषान्तरपरिजिहीर्षयाह-सपिकचिद् वाच्योपक्या , इति-एवं , वाद्यालम्बनवादिना सर्वेष, एकानेक- लब्धा सत्या, तद्वाचविशेषास्मरण किमिदमित्यादि सास्वभावमेव तदालम्बनम् , अजीकर्तव्यमित्याह-वत्रापि मान्यवाचकप्रवृत्तावेव, तदप्यनेकवाचकवाच्यत्वेऽस्य वस्तुपर्यभूत बालम्बने, अनुपप्लुतप्रमात्रविमानसंवेचा. स्व- नः, तथाविधावरणमावाद्-वाचकविशेषस्मरलारसभावात् भावा धर्माः , वस्तुसन्तः-परमार्थसम्तः, इन्द्रमीलादी स्थ
विकल्पबोधवत एव-अस्मृतिपूर्वकशब्दसंपृक्तबोधवत एवेन. गदिधर्मवत्, तदन्ये पुनर्न-उपप्लुतप्रमावृविगानसंवेद्या दी.
र्थः । कुत इत्याह-अभिलापाद्यससबोधेन मादिशम्दापमण्डलादिवदिति । कुत एतदेवमित्याह-तथालोकानुभ- विशिष्टमनःपरिग्रहः, अननुस्मरणात् कारणात् । अननुम्मयसिद्धेः कारणात् । अन्यथैवमनभ्युपगमे , तद्वाधया-लो- रणं च तथाप्रतीतेः, न ह्यवग्रहमात्रात् स्मृतिः, एवं च कृत्वा कानुभवबाधया , सर्वमेवासमासम् । कुत इत्याह-अनि- सति बर्थदर्शने-अर्थसनिधी रष्टे शम्चे ततः स्मृातेः स्यादग्निबन्धनत्वाद् नियामकाभावात् । इत्येवमयुक्तकान्ततः शुष्कत. धूमवदिति पूर्वपक्षोदितम् , नैकान्तसुन्दरम् । कुत इत्याहकानुसारिणी जातिवादप्रधाना, सूक्ष्मेक्षिका । किमित्ययुक्त
तदर्थस्य-शब्दार्थस्य,अभिलापासंसृष्टबाधेनादर्शनात् । अवस्याह-नया यस्माच्छुकतर्कानुसारिण्या सूचमेक्षिकया , र्शनं च तथास्वभावत्वात्-अभिलापाससृष्टबाधेनादर्शनस्वभाभवदध्यक्षलक्षणमपि-भवतोऽध्यक्षलक्षणं "प्रत्यक्ष कल्पना- चत्वात् । शब्दान्तरस्मृतौ च-वाचकविशेषस्मृतौ च उक्नवद पोढम्" इत्याद्यपि, असंभव्येयेति यच्यामः ।
यथोक्तम्-तथाविधावरणभावादित्यादि तथा, प्रदोषात् ।
एवं च कृत्वा न चायमशब्दमर्थ पश्यतीत्येतत् सर्वपक्षोदितं अतोऽनेकस्वभावे वस्तुनि क्षयोपशमानुरूपप्रतिपत्तावु
विचारणीयम् । किमुक्तं भवति-भशब्दमिति !,यदि शम्दानावदन्तर्जल्पाकारबोधसिद्धेरभिधानविशेषस्मृत्ययोगोऽवा- स्कन्दितमिति । तदसिद्धम् । कुत इत्याह-केवलस्यैव तच्छधक एव । यदपि क्वचिद् वाच्योपलब्धौ तद्बाचकविशे- दानास्कन्दितस्य,दर्शनात् । प्रथाविकल्पकानेनाशब्दमर्थ पपास्मरणं तदप्यनेकवाचकवाच्यत्वेऽस्य तथाविधावरण
श्यति । एतदाशक्याह-ततः सिद्ध साध्यता । कुत इन्या
शब्दार्थस्य तेन अनिकपमानेनाऽदर्शनात् । ततश्च विकाफभावाद् विकल्पबोधक्त एव , अभिलापाद्यसंसृष्टबोधे
शानन सशब्दमर्थ पर तीति भवति । अयमेव च शब्दार्थ नाननुस्मरणात् तथाप्रतीतेरिति । एवं च सति पर्थ
इति भावः। एवं चापश्यंश्च न शब्दविशेषमनुस्मरतीत्येतददर्शनऽर्थसन्निधौ दृष्ट शब्दे ततः स्मृतिः स्यात् , अनि- पि पूर्वपक्षोपन्यस्तं, विचारास्पदमेव । कि.मुक्तं भवति-न भारतिकान्तमन्दाय . तदर्थम्याभिलापासमतो- शब्दविशेषमनुस्मरति ?. यदि येनैव शन्द्रविशेषेण संस्परवि
शानः प्रमाता मेव शब्दविशेष नानुस्मरतीति,पूर्व सिद्धसाधेनादर्शनात् , तथास्वभावत्वात् , शब्दान्तरस्मृतौ चोक
भ्यता । कृत स्न्यान-तस्य शब्दविशषस्य,तदा तेनैव जानेबददोषात । एवं च न चायमशब्दमर्थ पश्यति इति
न, रामानत्वात् तद्बोधाविनिर्भागेर । जय तत्प्रतिबमविचारणीयम् । यदि शब्दानास्कन्दितमिति । तदसिद्धम् , पक्रमाद्दश्यवस्तुप्रतिबद्धं सदान्तरम् , न सम्पविशेषमनुकेवलस्यैव दर्शनात् । अथाविकम्पज्ञानेन ततः सिद्ध- स्मरतीति । एतदधिकृत्याह-तसिद्धम् । तस्य-रावान्तरसाध्यता, शब्दार्थस्य तेनादर्शनात् । एवं च ' अपश्यंश्च स्य, सति क्षयोपशमे तज्वनावरणकर्मणः, तदर्शनाद्न शब्दविशेषमनुस्मरति' इत्येतदपि विचारास्पदमव ।
म्यायप्रापितशम्दार्थदर्शनात् , स्मरणोपपत्तेः-स्मरणसंभ
यात् । एवमननुस्मरन्न योजयतीत्यपि पूर्वपक्षोतम् - यदि येनव संसृष्टविज्ञानस्तमेव नानुस्मरतीति सिद्धसाध्यता
युक्रम् । कुत इत्याह-तविमानसंसरस्य-शवस्येति तस्य तदा तेनैव वद्यमानत्वात् । अथ तत्प्रतिबद्धं शब्दा- प्रक्रमः । ता-मायकत्वेन, योजनात . तिरस्यापि
तत्प्रतिबद्धशब्दान्तरस्य नत्संभवाविरोधा-योजनामंशन्तरमिति । वदसिद्धम् , तस्य सति बयोपशमे तदर्शनात
खाविरोधात् । ' एवमयोजयन् न प्रत्येतीत्यपि ' पर्वतस्मरणोपपत्तेः । एवम् 'अननुस्मरअयाजमति' इ.५पषु
पचः,असांप्रतमेव-अशोभनमेव । कुत इत्याह-शम्दान्तरमक्रम. तद्विजानस पृष्टस्य तथा याजनात् , इतरस्यापि तत्सं- शिल्य वन्शनिबम, प्रयोजनोऽपि प्रनीतः, प्रमाद
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सामणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस वस्तुनः, इति तद्वयतिरिक्नेन तु प्रक्रमाद् विज्ञानससृष्टन, उ- पणमुक्तम् । एतच्च दूषणमेकानेकस्वभावतयाऽस्य वस्तुन
यद्-यथोक्नम् तथा, योग एव, इत्येवम् , श्रायातमाध्यम स्तरवतोऽदूषणमेव, अन्यथैवमनभ्युपगम, तदसत्त्वप्रसङ्गाशेषस्य जगत इत्युक्तिमात्रम्-वचनमात्रम् । कुन इत्याह- द् वस्तुनो ऽसत्त्वप्रसङ्गात् , इत्युक्तप्राय प्रायेणोकम् , अतो विवक्षिताभिधेयार्थशून्यत्वात् । शून्यत्वं चोक्लवद्-यथोक्तं विरोधिशब्दवाच्यन्वेऽपि सति, यस्तुन इति प्रक्रमः, तत्ततथा, तदयोगाद्-विवक्षितार्थायोगादिति ।
स्वभावनया कारणेन. तथोपलब्धेः-विरोधिशब्दवाच्यत्वेनोयत्पुनरेतदाशङ्कितम--' अभिपतनेवार्थः प्रबोधयत्या- पलब्धः, नित्यानित्यादिशब्दप्रवृत्तितया न कश्चिद् दोष इति न्तरं संस्कारं, तेन स्मृतिर्नार्थदर्शनात् ' इति । पतदर्थतः
प्रस्तुताधिकारनिगमनम् । साध्वेव, क्षयोपशमस्य द्रव्यादिनिमित्तत्वाभ्युपगमात् , त
__स्यादेतत् , अनलशन्दो ह्यनले तदभिधानस्वभावतया दनुसारेण तत्प्रवृत्तिसंभवात् । यत्पुनरिदमुक्तम्-'न, त
यमभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्त्तते , स जले नास्ति, संबन्धस्याऽस्वाभाविकत्वात् ' इति । एतदसाधु, उक्नव
जलानलये रभेदप्रसङ्गात् , प्रवर्तते च समयाजलेऽनलदस्वाभाविकत्वासिद्धेः, वक्ष्यमाणत्वाच्चापोहाधिकारे । शब्दः, तथाप्रतातः । इति कथमनयावास्तवा यागः । अतः समयाऽदशेनेऽभावादित्ययक्कम । तस्य क्षयो- इति । उच्यत-शब्दस्यानेकस्वभावत्वात . न धनलशब्दपशमव्यजकत्वात् , तद्भावे तु तदभावेऽपि भावात,
स्याऽनलगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्वभाव एवैक्वचित् तथोपलब्धेः, अन्यथा सदा तदपेक्षा स्यात् ।।
कः स्वभावः, अपि तु तथाविलम्बितादित्वेन जलगताएव च पुरुषच्छातोऽर्थानां स्वभावापरावृत्तरित्यादि याव
भिधयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्वभावोऽपि, तथा तत्प्रदशब्दसंयोजनमेवार्थ पश्यति दर्शनात् । इति । एतन्नि
तीतेः, तद्वैचित्र्येण दोषाभावात् , क्षयोपशमवैचित्र्यतविषयमेव,अत्र ह्यनेकस्वभावतापच्या वस्तुनो नैरात्म्यमिति स्तथाप्रवृत्तेः, अन्यथा अहेतुकत्वेन तदभावप्रसङ्गादिति । परं दूषणम् । एतच्चैकानकस्वभावतयाऽस्य तत्वतोऽदूषण
एतेन तथानुभवसिद्धेन शब्दार्थचयोपशमस्वभावधैचित्र्येमेव, अन्यथा तदसच्चप्रसङ्गादित्युक्तप्रायम् । अतो विरो- ण, एतदपि प्रत्युक्तम् , यदुक्तम्-'शब्देन्द्रियार्थयोर्भेद एधिशब्दवाच्यत्वेऽपि तत्तत्स्वभावतया तथोपलब्धेर्न क- व, अव्याहतेन्द्रियस्याऽन्यवाङ्मात्रणेवेन्द्रियार्थाविभावश्चिद् दोषः।
नात् , इन्द्रियादेव च शब्दार्थाप्रतीतेः' इत्यादि । न ख
ल्वऽव्यापृतेन्द्रियोऽपि तत्क्षयोपशमयुक्तः, अन्यवाङ्मात्रेण यापुनरित्यादि । यत्पुनरेतदाशङ्कित परेण । किमित्याह'अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं संस्कार, तन स्मृतिर्नार्थ
न विभावयत्येवेन्द्रियार्थम् , तद्वर्णमानचिह्नादिनिश्चिते, दर्शनादिति । एतदर्थतः अर्थमधिकृत्य, साध्वेव-शोभन- तदन्यतुल्यजातीयमध्येऽपि भेदेन प्रवर्तनात् , क्वचित्तत्प्रामेष । कथमित्याह-तदनुसारेण-अर्थाभिपतनानुसारेण, त- स्तथा निवेदनाद , तथाऽस्पष्टं तु तत्साक्षात्कारेणाक्षप्रवृत्तिसंभवात्-क्षयोपशमप्रवृत्तिसंभवादिति । यत् पुनरि- व्यापारवैकल्यात् , न त्वतद्विषयत्वेन । एवमिन्द्रियादपि दमुक्तं पूर्वपक्षग्रन्थ एव-न. तत्संबन्धस्याऽस्वाभाविकत्वा
क्वचित्तथाविधक्षयोपशम भावे, सङ्केतमन्तरेणापि भवति त् इति । एतदसाधु--अशोभनम् । कुत इत्याह-उक्तवद् यथाक्तं प्राक 'सर्ववस्तूनामेव प्रायस्तथा तथा सर्वशब्द
शब्दार्थविभावनम् , तथान्तर्जल्पाकारादिबोधसिद्धेः, लोधाच्यखभाचत्वादित्यादिना' तथा, अस्वाभाविकत्वासिद्धे- कानुभवप्रामाण्यादिति । स्तत्संबन्धस्य वक्ष्यमारमत्वाचापोहाधिकारे तदसाचि
स्यादेतदित्यादि । स्यादेतत् , अनलशब्दो ह्यनलेऽभिधेये ति । अतः समयादर्शन ऽभावादिति यदुशम् , तदयुक्तम् ।
तदभिधानस्वभावतया-अनलाभिधानस्वभावत्वेन, यकुत इत्याह-तस्य समयस्थ, क्षयोपशमव्याकरवात् , मभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्तते, वास्तवं स जले सद्भावे तु-क्षयोपशमभाव तु तदभावेऽपि-समयाभायेऽपि, नास्ति परिणामः । कुत इत्याह-जलानलयोरभेद -- मावा--शब्दविशेषस्मृतेरिति प्रकमः । शब्दविशेषस्मृतिग्र- सङ्गात् तदेकाभिधेयपरिणामभावन । यदि मामैयं ततः हणं चाऽत्र प्रतिपस्युशलक्षण वेदितव्यम् । भावश्च क्वचिद
किम् ?, इत्याह-प्रवर्तते च समयात-सङ्कनेम, जले अनलविशिष्टक्षयोपशमयति प्रमातरि, तथोपलब्धेः समयाभाये
शब्दः । कुत इत्याह-तथाप्रतीतेः समयद्वारेण प्रवृत्तिऽपि.शब्दविशेषस्मृत्युपलब्धः । इत्थे चैतदङ्गीकर्त्तव्यमित्या- प्रतीते, इत्येवं कथमनयोः प्रक्रमाद वस्तुवाचकयोः, वाहै-अन्यथेत्यादि । अन्यथा--क्षयोपशमभावेऽपि, समयापे- स्तवो योगस्तात्त्विका सम्बन्धः ?, इति । एतदाशक्याहक्षाभ्युपगमे, सदा--सर्वकालं, तरक्षा स्यात्--समयापेक्षा उच्यत तत्र परिहारः, शब्दस्यानेकस्वभावत्यात् शब्दग्रहण स्यात् , ततश्च सगा संकेताकरणाप्त्या व्यवहाराभावः । वस्तूपलक्षणम् । उभयोरनेकस्वभावत्वात् . अनयोर्वास्तवो -चं या पुरुचेन्छातोऽर्थानां स्वभावापरावृत्तरित्यादि पूर्व। योग इति । अमुमेवार्थ प्रकटयन्नाद-न ह्यनलेत्यादि ।न: पक्षवचनं यावदशब्दसंयोजनमेयार्थ पश्यति दर्शनात्' इ- यस्माद् , अनलशब्दस्याऽनलगताभिधेयपरिणामापेक्षी अस्येवम् , निर्विषयमेव । कुत इत्याह-हात्रेत्यादि । श्रच य- नलगतमभिधेयपरिणाममपेक्षते तच्छी लश्च इति विग्रहः, स्माद, शोकस्वभावतापस्या वस्तुनो नैरात्म्यमिति परंदू-। तदभिधानस्वभाव एव-अनलाभिधानस्वभाव एव, एक
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सामण्यविस
सामरविसेस
स्वभावः अपितु तथा िकअमातृभिरवसायः तथाहि यदि य एव तत्स्वभाव एका
वसायस्य निमित्तं स एवापरावसायस्य, ततस्तयोरैक्यं सर्वनिमिचत्यात् इतरेतरस्वात्मवत् तदभेदेऽपि तदव-मेंदे, तदेकस्वभावतापत्तिः, तदन्यकार्याणामपि तत्तधातयाऽविशेषादिति । अत्रोच्यते- एकान्तवादिन एवायं दोषः नानेकान्तवादिनः; तस्य ह्यचित्रमेवैकम् । न चानेककार्यजननैकस्वभावतां विहाय ततोऽमेकं भवति, अनेककार्यजनने व नाचित्रमेकवं तद्भावेऽपि कायेनकेन तग्रहात् तदपरावसाहप्रसङ्गः तस्य तञ्जननस्वतस्वस्याऽन्यथा ग्रहणायोगात्, तत्सावधिकत्वात् न मिरवधिकं ग्रहणं तद्ग्रहणमिति भावनीयम् । मलसामर्थ्यातु तदग्रहणं तदग्रयमेव सर्वचैकत्वात् अन्यथाऽस्व
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पूर्वजन्ममयपरिणामी
नस्वभावो ऽपि जलाभिधानस्वभावोऽपि । कुत इत्याह-तथा तत्प्रतीतेः तथाविवम्बितादित्वेन जलप्रतीतेरिति । तद्वैचित्र्येण प्रमादन लशब्दस्वभाववैविध्ये, दोषाभावान् पूर्वकत्यर्थः क्षयोपशमवेचितः कारक तथाप्रवृत्तेः अन्यत्रैम में, अहेतुकत्वेन तदभावप्रसङ्गात् तथा प्रभावप्रसङ्गादितेि । एतेनाऽनन्तरादितेन तथानुभवसिद्धेनोलनीत्या, समयाऽप्यनतशब्दात् प्रतीतिभावः संसि डेन शब्दार्थक्षयोपशमानां स्वभाववैचित्र्येण, किमित्याहएतदपि प्रत्युक्तम् । यदुक्तं परैः, किं तदित्याह - शब्देन्द्रियार्थयोः शब्दचेन्द्रियवशतयो
,
9
--
3
तयोर्वेद एव कुत इत्याह-व्यावृतेन्द्रियस्य पुंसः - न्याय-अन्यस्मादवामा इन्द्रियार्थावि भावनात् - इन्द्रियार्थी उदर्शनाद्, विभावनं दर्शनं, तथाहिप्रतीतमेतत् न शन्ददेव पश्यतीति । तथेन्द्रियादेव च सकाशात् शब्दार्थाप्रतीतेर्नहि पनसं पश्यन्नष्यकृत समयो चाह्लीकः पनसमित्यवैतीत्यादि । श्रादिशब्दात्--: अन्यदेवे. न्द्रियग्राह्य-- मन्यः शब्दस्य गोवरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षों, न तु प्रत्यक्षमीक्षते " ॥ २ ॥ इत्याद्येतत् समानं गृहांत इत्येतदपि प्रत्युक्तम् । यथा प्रत्युक्तम्, तथा मन्दमतिहिताय मनापादन] पित्थदिना न खलु-नैव श्रव्याप्तेन्द्रियोऽपि पुमान् । किं विशिष्ट इपाहतयोपशमयुक्तः प्रक्रमात इन्द्रियज्ञानावरणयोपशमयुक्तः, अन्यवाङ्मात्रेण हेतुना, न विभावअत्येव न पश्यत्येव मत्याभोगेनेन्द्रियार्थम् " प्रतिधौ प्रकृतमर्थे गमयतः इति कृत्वा किं तु विभावयये कुत इत्याह-मानचिह्नादिनिश्वितन्द्रि यार्थस्य वर्णः कृष्णादिः, मानं--प्रमाखं महदल्पादि चिह्न खण्डादि, आदिशब्दात् मसृणत्वादिग्रहः, एतन्निश्चितेः । तथादि कृष्णं महान्तं खर्ड मणमपूर्वमपरका घट मानयेत्युक्ते वज्ञानावरणक्षयोपशमयुक्रः पुमानभ्यमियमत्या तथैव प्रतिपद्यते । कथमेतदेवम् ? इत्याह-तदन्यतुल्यजातीयमध्येऽपि तदाऽऽनयनाय तं प्रति भेदेन प्रवर्त्तनात् । न ह्यसौ तथा भोगशून्यः प्रवर्त्तत इति भावनीयम् । तथा कचित् प्रतिबन्धाभावे, तत्प्राप्तेः प्रक्रमात् तस्यान्यचामात्रोकस्य प्रांत तथा निवेदनात् तथाऽन्यवादमा योधननिवेदन विभावयति इन्द्रियार्थ मिति । तथाऽस्पष्टं तु तद्विभावनम् साक्षात्कारेणाऽशव्यापारवैकल्यात्, नत्वेतद्विषयत्वेन-न पुनरिन्द्रियार्थावि पयत्वेन, प्रणिधानव्यापारेण तत्रेन्द्रियव्यापारादिति । एवमिन्द्रियादपि सकाशात् कचित् न सर्वत्र तथाविधज्ञयोपशमनाय सङ्केताना विमानफलक्षयोपशमभाये, सङ्कतमन्तरेणाऽपि किमित्याह - भवति शब्दार्थविभावनम् कुत इत्याह तथा ल्पाका किमिदमित्यालोचयतस्तदिदं समिति बोधसरित्यर्थः सिद्धि लोकानुभयप्रामाण्यादिति । स्यादेतत् इत्थमनेकस्वभावत्वे वस्तुनोऽनेकस्यैवाने
3
१६७
( ६६५ ) अभिधराजेन्द्र
,
,
1
"
"
ग्रहणाग्रहणप्रसङ्गः तथा च सत्यस्मन्मतानुवाद एव गृयमाणागृयमाणयोरेकत्वविरोधादिति । तत्रिकथंचित् तद्ग्रहणादेकस्याप्यनेकप्रमातृभिरवसायः, नान्यथा, इत्युक्तदोषानतिवृत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन ।
5
"
स्यादेतत् इन्धम् उक्लनील्याउनेकस्वभावये वस्तुनः इन्द्र याथादेः कथाऽनेकधमातृभिरवसायः । एतदेव भावयति तथायादिना। तथाहि यदि य एवाय-यस्तुस्वभावः कावसायस्येति एकरूप प्रमारित प्रक्रमः अ बसाय एकावसायस्तस्य निमित्तं स एवाऽपराऽवसायस्य प्रमान्तरासापस्य ततस्तयवसायययम्। कुल - त्याह-सर्चचैकनिमित्तत्यात् अधिकृत वस्तुखभावेनतरेतरस्वात्मयदिति निदर्शनम्। एतच्च यतः खभावतो जातमेकम् ' इत्यादिना त्वयाऽव्युक्तमेव । तदभेदेऽपि तत्स्वभायाभेदपि तदवसायदे - एका ऽपरप्रमत्रयसाथभेदे त देकखभावतापत्तिः तस्य वस्तुनः एकस्वभावतापत्तिः । कुत इत्याह- तद्यकार्याणामपि तस्मादविवक्षितावादन्ये तदन्ये स्वभावा इति प्रक्रमः, तेषां कार्याणिदादिविज्ञानादीनि तत्कार्याणि तेषामपि तस्तथा तथा-तस्य वस्तुनः तथाता एकजातीयविज्ञानापेक्षया एकस्वभावा अनेककार्यजनकस्वभावता तया सामान्येनाऽप्येकस्वभावापेक्षया सदाद्यनेकविज्ञानादिकार्य जननै कस्वभावतया विरोधात् तदेकस्वभावनापतिरिति तदाइषोच्यते एकान्तयादिन एवायमनन्तरोदित:-' वतस्तयोरैक्यम्' इत्यादिलक्षणो दोषः नानेकान्तवादिनः । कुत एतदित्याह तस्येत्यादि । तस्य एकान्तवादिनः यस्मा
1-स
,
. विषमेकमेकान्तेकरूपम्। यदि नामेव ततः किमित्याह-न चानेककार्यजननैकस्वभावतां विहाय तत एकस्मात् प्रक्रमे अधिकृतैकस्वभावात् कापविधानादि । यदि नाम तक किमित्याह-कार्यजनने या नाऽचित्रमेकत्वम् । श्रनेकमैकत्वस्य सर्वथैकत्वविरोधात् दोषान्तरमाद-सद्भावेऽपीत्यादिना । तद्भावे पि- अयिकस्वभावेऽपि सामश्येन, एकेन प्र
,
3.
"
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सामण्ण विसेस
मात्रा. तद्ग्रहात् अधिकृत स्वभावग्रहात् तदपरायसायप्रहणमङ्गः तस्मात् एकस्मात् प्रमातुरपट प्रक्रमात् प्रमासार एव तदपरे तेषामवसायाः ज्ञानानि तेषां ग्रहणम्-अबगमस्तत्प्रसङ्ग इति समासः । कुत इत्याह-तस्यत्यादि । तस्याऽधिकृतस्वभावस्य किं विशिष्टस्येत्याह - तज्जनन
स्वतश्वस्य अपरा बसाय जनन स्वभावत्यस्य, अन्यथा नद
पराऽवसायग्रहणमन्तरेण, ग्रहणाऽयोगात्, अयोगश्च तत्सार्वाधिकत्वात् तदपरावसाय जननस्वभावो साविति तत्सावधिकः । यदि नामैवं ततः किमित्याह-न निरवधिकं ग्रहणं तदपराऽवसायजननस्वभावविकलं ग्रहणम्, सद्ग्रहणं तदपरावसायजननस्वभावग्रह गमिति भावनीयमेतत् । पराभिप्रायमाह - मलसामर्थ्याद् हेतोः तदग्रहगम्-परावसायाख्यावध्य ग्रहणम् । एतदाशङ्कयाऽऽह-तदग्रहणमेव तस्याधिकृत स्वभावस्याऽग्रहणमेव । कुत इत्याह - सर्वथैकस्यात् एक एवासौ तद्गराऽवसाय जननस्वभाव इति तखमिति पर्मः । इत्यं बैतडीक
व्यमित्याद अम्यधा एवमनभ्युपगमेन भ्युपगमे, अस्य स्वभावस्य ग्रहण। ऽग्रहणप्रसङ्गः । समान्येन ग्रहणात् श्रवधिमत्तयाऽग्रहणात् । यदि नामैव ततः किमित्याह- तथा च सति एवं च सति अस्मन्मतानुवाद एव त चित्रताविधानेन श्रत एवाह गृह्यमाणा गृह्यमाणयोर्धर्मयोः.
"
विरोधादिति । एवं तावत्र कथंचित् केनचित् प्रकारेण तद्ग्रहणात्-अधिकृत स्वभावग्रहणात्, एकस्याऽपि वस्तुनः, सामान्येन श्रनेकप्रमातृभिरवसायः नान्यथा कुत इत्याह-उक्तदोषानतिवृत्तेः तम् इत्याद्युक्रदोषानतिवृते इले प्रसङ्गेनेति ।
9
( ६६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
·
,
यच्चोक्तम्- किञ्च विकल्पात्मकत्वेऽस्य • नियात्मकमिदम् इत्यनेकप्रमाणवादहानिः तेनैव वस्तुनो निश्चयात् नित्यत्वादौ भ्रान्त्यनुपपत्तेः अनेक धर्म के वस्तुन्यन्यतरधर्मनिश्चयात् तदन्यनिधयाय प्रमाणान्तरसाफल्यमिति चेत्, इत्याशङ्कय- नैकधर्मविशिस्यापि निश्चये सर्वधर्मवत्तया निश्रयात् प्रमाणान्तरस्य मेव विषयीकुर्वतः स्मृतिरूपानतिक्रमात् एकधर्मद्वारेणाऽपि तद्वतो निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण विषयी कर सकलधनोपकारकशक्त्यभिश्रात्मनो नियात् इत्यादि, तदप्ययुक्तम् छद्यस्थज्ञानस्येत्थमप्रवृतेः ज्ञेयतज्ज्ञानचयोपशमानां तथास्वभावस्यादित्युक्रप्रायम् केबलिनां तु तथानिश्चयः, प्रमाणान्तराभावश्र, इति न कश्चिद्दोषः । आह एवमप्यनेकस्वभावतया ततस्तथानियतात् कथमनन्तानां केवलिनां तदविकलात्मग्राहकज्ञानभावः, एकत्र कार्तस्न्योपयोगित्वेन तत्तञ्जननखमापत्वात्, अपरस्यापि सद्भावापतेर्हेत्वविशेषादिति न हेत्वविशेयासिद्धेः, ज्ञानिनोऽन्यत्वात्, अधिकृतवस्तुनश्च विचित्रत्वात् ततज्ज्ञान्यपेक्षया तत्र तत्र तदा तदाऽ
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सामण्ण विसेस विकलात्मग्राहकज्ञानाभिव्यञ्जकात्मकत्वेनैकत्र कास्न्यिोपयोगित्वादिति । न चैत्रमपरस्यापि तद्भावापनि अधिकृतवस्तुनस्तथात्वविरोधादिति सूक्ष्मधिया भावनीयम् । एकान्तैकस्वभाववस्तुत्रादिनस्त्वेष दोषोऽनिवारितसर एवं तद्भेद निबन्धनाधिकृतः स्तुवैचित्र्यानुपपतेरिति । किञ्च निर्विकल्पकेनाऽपि प्रत्यक्षेकस्वभावे वस्तुनि परिच्छिने कथं नाऽनेकप्रमाणवादहानिरिति चिन्त्यम् ? । प्रत्यक्षस्वानिश्चयरूपचन्तितमेवैतत् ।
पूर्व-किश विपात्मकत्वेऽस्येत्यादियाचाप लड़ना मिना प्रत्यदिपीकरने सकलधम्मपिकारकशक्त्यमिश्रान्न निश्वयादित्यादि, तदप्ययुक्तम् । कुन इत्याह-छद्मस्थज्ञानस्यत्थमप्रवृत्तेः कारणात् अप्रवृत्तिश्च ज्ञेयनज्ज्ञानक्षयोपशमानां त्रयाणामपि तथाम्वभावत्वात् चित्रतया सर्वधर्मयनया निश्चयनिवन्धनम्यत्वात् इत्यं प्रायेोक्रम् केबलिनां तु क्षीणसकलावरणानां, तथानिश्चयः-सकलध
J
नवनिश्वयः प्रमाणान्तराभावथ केवलिनामनुमा नाद्यभावश्चेति । न कश्चिद् दोषः । श्राह--एवमपि केवलनां तु तथानिश्वयेऽपि सति अनेकान वस्तुनः तानिया-ममानेकस्वभावानात् एकस्वभावयविकल्पादित्यर्थः । कथमनन्तानां प्रमातृ केवलिनां वृषभादीनाम्, तद्विकलात्मकग्राहकज्ञानभावः तस्वानेकस्वभावतया तथानियनस्य वस्तुविकल आत्मा ग्राहकज्ञानोपास्ततः कथम् , नवेत्यर्थः । कथं नेत्याह-एकत्रेत्यादि । एकत्र - ऋषभादिज्ञाने, कात्योपयोगित्वेन हेतुना, तत्तज्जननस्वभावत्वात्-अधिकतवस्तुन ऋषभादिज्ञानजननस्वभावत्वात्, नान्यथा ततस्तथा तदुत्पाद इति भावनीयम् । यदि नामैवं ततः किमित्याह अपररूपाणि वर्तमानादिशास्यःऋषभादिपतेः कमिाहत्यविशेषादिति। - प्रभादिज्ञानजननस्वभावं हाधिकृतं वस्तु तद्धेतुस्ततस्तस्याऽपि तद्वत्तद्भावापत्ते, अतो न ततोऽनन्तानां तदविकलात्मग्राहकज्ञानभाव इति । उक्तं च यतः भोजन इत्यादि असता या सर्वेषामयां
स्व
तिवस्तुनोऽनुत्पतितस्तदनधिगमादिति पराभियायः । एतदाशङ्कयाह - नेत्यादि । नन-नैतदेवम्, यदभ्यधायि परेण, कुत इत्याह- हेत्वविशेषासिद्धेः । कथमसिद्धिरित्याह - ज्ञानिनोऽन्यत्वाद् वर्द्धमानादेः द्वयमिह - ज्ञानहेतुः - जीवः, अधिकृतवस्तु च । न चैतदप्येकरूपमे
वाह अधिकृतवस्तुनश्व अनेकस्वभावतया तथानिय तस्य विनित्वात् । ततः किमित्याह तत्तज्ज्ञाम्यंपक्षया- ऋषभवर्द्धमानादिशान्यपेक्षया, तत्र तत्र सिद्धाथवनऋजुपालिकातीरादौ क्षेत्रे, तदा तदा सुप्रमदुःषमादुःषमसुषमान्तादौ काले, अविकलात्मग्राहकज्ञानादिज्ञाने भूतेनात्मना एकत्र ऋषभाकायगत्वात् सामोपोनित्वा दितिन दिन चैवम् उक्तप्रकारेण अय
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सामाविसेस
राऽपि वर्धमान
तापापतिपादि
स्वाः कुन इत्याह- अधिकृतवस्तुनः श्रनेकस्वभावनया नियतस्य वद विचित्रस्य तथान्यावराजा मनज्ज्ञान इत्यादिन्यविरोधात् तथाहि--अजू काती मारूयमानादि
श्रविकलात्मग्राहक जकात्मकत्वेन एव एकत्र बनादिशाने श्र निशानाभावे तयापेक्षया उत्यतिसूक्ष्मधिया भावनीयादिति एकाश्यादि। एक कस्वभाववस्तुवादिनस्तु बौद्धादेः, एष दोष:- अनन्तानां एष दोष:- अननानां सदविकलात्मग्राहकझानाऽभावलक्षण अनिवारितप्रभर एव । कथमित्याह--तद्भेदनिबन्धना -- अनन्तज्ञानभेदनिबन्धना अधिनस्यानुपपत्तेः उद् अधिकृत
८६६३) अभिधान राजेन्द्रः ।
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मेवात्र कारणमिति । दूषणान्तरमाह-किश्चेत्यादिना । किश्व-निर्मिकल्पकनाऽपि प्रत्यभिमतेन एकस्यभावे - एकान्नैकस्वभाषे वस्तुनि भवदभिमते परि सति कथं नाऽनेकप्रमाणवादहानरिति चिन्त्यम् । प्रमेयास्तराभावेन प्रमाणान्तराभावाद हानिरेवेत्यर्थः । पराभिप्रायमाह -- प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकस्य, अनिश्चयरूपत्वात् काचिद्ि
"
यदुक्त भवना न च यत्द् अपूर्वमिति उपदर्शयन्नाह - आह च न्यायवादी न प्रत्यक्षं कस्याचिद् निश्चायकम्, राद्यमपि गृह्णाति तं न निश्रयेन किं तर्हि ? प्रतिभासेन तच यत्रशि पाधात्वं निषयं जनयितुं शक्रोति तत्रैव प्रमाण्यमात्मसात्कुरुते, यत्र तु भ्रान्तिकारण सद्भावाद् अशक्रं तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते समारोपव्यवच्छेदार्थमिति भ्रान्तिव्युदासाय प्रमाणान्तरप्रवृत्तिरिति ।
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"
आचम्यायवादी धर्मकीर्ति किमाद, इत्याहन प्रत्यक्षं कस्यचित् पदार्थस्य विधायकम् तद्यमपि पदार्थ गृह्णाति त न निश्चयेन ' एवमेतद्' इत्येवंरूपेण, कि समासेन आदर्शवत् कारण तच्च एवंभूतं प्रत्यक्षम् यत्रांशे वस्तुगते, पाश्चात्यं निवयं जनयितु शक्नोति नीलादौ तत्रैवांऽशे प्रामाण्यमानीतादौ यत्र तु अंशेऽनित्यादी खान्तिकार सद्भावात् कारणात् श्रशक्त पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुम्, तत्रांशे प्रमाणान्तरं व्याप्रियतेऽनुमानम् । किमर्थमिन्याह- समारोप परिकल्पितसमारो दार्थम् इत्येवं भ्रान्ति व्युदासा समारोपयुदासाथ प्रमा मान्तरप्रवृति: अनुमानप्रवृत्तिः ।
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पूर्वपामाशङ्कयाहअत्रोच्यते - यदुक्तम्- "न प्रत्यक्षं कस्याचिद् निश्चायकम् " इति, कोऽयं निश्चयो नाम ?, स्वालम्बनोऽध्यवसाय एवेति तु नायं तदाकारोत्पत्तिव्यतिरेकेस अस्व ततः को दोषः इति चेत नासौ-न प्रत्यक्षेऽपि कथमनियिकं तत् ?, वस्तुमात्र प्रतिमासनाद् इति चेन् अवस्तुप्रतिभासां तर्हि निश्चयः। न । तत्रैव दृढः प्रत्यय
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"
सामण विसेस
इति चेत्, कथं तदाकारशून्यस्तत्रेति । किञ्च किं पुनरस्य किं निर्विकल्पक समनन्तरत्वम्? किंवा वास
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"
? उताऽप्यवसिततद्भावता? आहोस्वित् - गः । न तावद् निर्विकल्पक समनन्तरत्वम् तदपरानर्विपकेन व्यामेचारात् निर्विकल्प कसमनन्तराद् निविकल्पकोत्पतेः । नाऽपि वासनाजन्म, निर्विकल्पकस्याऽपि तत उत्पनेः तत्तत्समनन्तरा व्यतिरेकात्। नापि अध्यवसिततद्भवता, अतदाभेन तत्परिच्छेदायोगात् तत्त्वतस्तदनुपपत्तेः । नाऽपि ध्वनियोगः, तत्तादात्म्याद्ययो गतस्तदचिद्वेः तस्यापि तदाकारोत्पनिप्रभ नत्वादिनि न सेव केवला अनिश्रयः स्वालम्यनपरिच्छेदात् न च न सोऽपि तवतः तत्स्वभारतद्वोघोषपतेः न च मूककल्पत्वात् नति, बोधस्यानिवत्वविरोधात् । न चाऽस्पष्टतया नेति, तस्य स्पष्टताऽभ्युपगमादिति ।
"
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श्रत्रोच्यते - यदुक्तमित्यादि । यदुक्क्रमादौ - 'न प्रत्यक्षं कस्यविद् निश्चायकम् इति । अत्र व्यतिकरे कोऽयं निश्चयो नाम ? स्वाऽऽलम्बनाध्यवसायः- स्वविषयपरिच्छेद एवेति चेत् । एतदाशङ्कयाह - नायं यथोदिताध्यवसायः तदाकारोल्पा नम्यतिरेकेण स्वालम्बनाऽऽकारोन्यनिव्यतिरेकेण - सत्वेवम् भवतु स्वालम्बनाकरोत्पत्तिरेव निश्चयः, ततः को दोष इति । दायाद-नाथी स्वालम्बनाकारो त्पत्तिः, न प्रत्यक्षेऽपि किं तर्हि अस्त्येव । श्रतः कथमनिश्चापकं तत् प्रत्यक्षम् भवद्मनिलयोपर्निशाकमेव इत्यर्थः । वस्तुमात्रप्रतिभासनान चेत् एतदाशङ्काऽऽह स्तुप्रतिभासी तईि निय तताऽनिश्चय तनावस्तुमानभासी, किंतु सव वस्तुनि दृढः प्रत्ययो निश्चयः इति चेत्। एतदाशङ्कयाहकथं तदाकारयो यस्याकारशून्यस्तन्मात्रािसन तत्रेति वस्तुनीति। अभ्युच्चयमाह कियेत्यादिना किं पु. नरस्य प्रत्ययस्य दादर्थम् ?, किं निर्विकल्पक समनन्तरत्वम्, निर्विकल्पकं समनन्तरापस्येति निि कसमनन्तरत्वं तत् ? । किंवा वासनाजन्म वासनाती जन्म तत् ? । उताऽध्यवसिततद्भावना अध्यवसितः परिच्छिन्नः सद्भावोऽवस्तुमा येनेति विस्वद्भावोद्भाव ता ? अहोस्वित् ध्वनियोगः-शब्द सम्बन्धः प्रत्ययदाख्यमितिचतुष्टयमुपन्यस्याऽनयद् निर्विकल्पक समनन्तरत्वं प्रत्यय दादर्थम् कुत इत्याह- नदपरनिर्विकल्पकेन व्यभिचारात् तस्माद् अधिकृत्य ि कल्पकं च तेनाऽनैकान्तिकत्वात् । एतत्प्रकटनायैवाऽऽद्दनिर्विकल्पक समनन्तरात् सकाशात्, प्रबन्धन निर्विकल्पकोम्पत्तेः । नाऽपि वासनाजन्म प्रत्ययदादर्थम् । कुत इत्याहनिर्विकल्पकस्यापि तता वासनातः उत्पत्तेः कारणात् उत्पात्तश्च तत्-तत्समनन्तराऽव्यतिरेकात् तस्या-वासनायाः तत्समनन्तरापतिरेकात् निर्विकसन
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मामएपषिसेस अभिधामराजेन्द्रः।
सामएणविमेस सराव्यतिरेकात् समनन्तराच्च अविकल्पकजन्मेति भा- वचनमात्रत्वात तथाप्रतीप्रत्यभावात , इति । एवं च तत्रैव घना नाऽप्यध्यवासिततद्भाक्ता प्रत्ययदाढर्थम् । कुत इ
प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत इति वचनमात्रम् । स्याह-अतदाभेन-श्रवस्त्वाकारेण ज्ञानेन, तत्परिच्छेदाऽयोगाद्-वस्तुपरिच्छेदाऽयोगात्, प्रयोगश्च तस्वतः-परमार्थ
योक्तं पूर्वपक्षग्रन्थे एव-तञ्च यत्रांशे पाश्चात्य निश्चय तः तदनुपपत्तेः-अध्यवसिततद्भाबतानुपपत्तेः नाऽतदाभंत
जनयितुं शक्रोति सत्रैव मामाण्यमात्मसात्कुरुते' । एतद्त्परिच्छेश्कम् नचाऽतो न, अध्यचसित्तावतेति भाव
प्ययुक्तम् । कुत इत्याह-तस्य अक्रमात् प्रमेयवस्तुनः , निरंजीयम् । नाऽपि ध्वनियोगः-प्रत्ययदार्थम् । कुत इत्याह
शत्याऽभ्युपगमात् , अन्यथा एवमनभ्युपगमे , परसिद्धातत्नादात्म्यायऽयोगतः तस्य-प्रत्ययस्य,तेन-श्वनिना,तादा
न्तापत्तिस्तत्सांशतापत्त्या इत्यर्थः । व्यावृत्तयोऽशा इति स्म्याययोगतः-तादात्म्यमेकत्वम् आदिशब्दातू-तदुप
चेत् , तथाहि-बैलोक्यव्यावृत्तं तदिति । एतदाशङ्कयाहतिग्रहः, तदसिद्धेः-ध्वनियोगासिद्धेः, तथा तथुनस्याऽपि
म। तासां व्यावृत्तीनाम् , परमार्थतस्तव्यतिरिक्तत्वेन-वध्वनियुक्तस्याऽपि प्रत्ययस्येति अक्रमः , तदाकारोत्पत्ति
स्त्यव्यतिरिकत्वेन हेतुना, तन्मात्ररूपत्वाद-वस्तुमात्ररूपप्रधानस्वाद् विषयाकारोत्पत्तिप्रधानत्वादिति । न वेत्यादि।
त्वात् । एतदेव स्पष्टयन्नाह-तस्यैव वस्तुनः, त्रैलोक्यव्याम च सा एव-ससकारोत्पत्तिः , 'केबला ध्वनियोगर- वृत्तिरेव एकः स्वभावो यस्य तत् तथेति विग्रहस्तद्भावहिता, अनिश्चयः-अपरिच्छेदः । कुत इत्याह-स्वालम्बनप- स्तस्मादिति । दोषान्तरमाह-कथश्चेत्यादिना । कथं च रिच्छेदात--स्वविषयपरिच्छेदात् , केवलथाऽपि न च-न निश्वपस्य विकल्पात्मकत्वात् कारणात् , तत्त्वतः-परमार्थेन सोऽपि-स्वालम्बनपरिच्छेदः, तत्वतः-परमार्थेन । कुत इ- निर्विषयत्वात् , तद्विषयता-वस्तुविषयता युक्ना, येनोच्यंत स्वाह-तत्स्वभावतया-स्वालम्बनपरिच्छेदस्वभावतया,ततः 'पाशे पाश्चात्य निश्चयं जनयितं शक्नोति' इति, नहि सालम्बनात् , तद्वधिोपपत्तेः-विवक्षितालम्बनबोधोपपत्तेः, एतद्-अत्तद्विषयत्वे चारु । स तत इत्यादि । स-निश्चयः, अन्यथा तदुत्तरक्षणवत् ततो भावेऽपि अबोधरूपतैवेति हु- ततो वस्तुनः भवतीति कृत्वा तनिश्चयो-वस्तुनिश्चय इति दयम् । न चत्यादि । नचभूककल्पत्वात् केवलायास्तदाकारो- चेत् । एतदाशझ्याह-न। अतिप्रसङ्गात् । एनमेवाह-नीत्पतेरिति प्रक्रमः, नेति-न निश्चयरूपता । कुत इत्याह-यो- लादि पश्यतः प्रबन्धेन कचिद् अर्थान्तरावगमे, भिन्नजातीधस्याऽनिश्चयस्वविरोधात्,बोधो निश्चयोऽवगम इति तुल्या- यविकल्पाभ्युपगमात्--स्मार्तपीतादिविकल्पाभ्युपगमात् , ऽर्थाः । न चेत्यादि । न चाऽस्पष्टतया कारपेन, नेति-न निश्च तस्य च विकल्पस्य, ततो नीलादिदर्शनाद् भावात् । अन्यथा यरूपता, केवलायास्तदाकारोस्पत्तेरिति प्रक्रमः । कुत इत्या. एवमनभ्युपगमे, अहेतुकत्वापत्तेस्तस्याऽतिप्रसङ्ग इति । ह-तस्याः-तदाकारोत्पत्तेः, स्पष्टताऽभ्युपगमादिति । निश्चयमेवाऽधिकृत्य, प्रकारान्तरमाह-संवादको निश्चय इति
चेत् । एतदाशङ्क्याह-न । अप्राप्यदेशगतजलादिनिश्चियचोकम् -" तच्च यऽिशे पाश्चात्यं निश्चयं ज- येन व्यभिचारात्, स हि निश्चयोऽसंवादकश्च । न च सनयितुं शक्नोति तत्रैव प्रमाण्यमात्मसात्कुरुते " । ए
वादनशक्तिरेव संवादनमित्यदुष्टम् , किं तु दुष्टमेव । कुत तदप्ययुक्तम् , तस्य निरंशत्वाभ्युपगमात् , अन्यथा
इत्याह-शक्तरप्रत्यक्षत्वात् । यदि मामैवं ततः किमित्याह
कार्यमन्तरेण संवादनादिरूपम् , तद्भावानधगते:--शक्तिपरसिद्धान्तापत्तिः । व्यावृत्तयोंऽशा इति चेत् । न । भावानवगतेः। न चेत्यादि । न च ततो निश्चयात्, अनन्या तासा परमार्थतस्तदव्यतिरिकत्वेन तन्मात्ररूपत्वात् ,
शक्तिरिति कृत्वा तदवगतावेव-निश्चयावमतावेव,तदवगति:तस्यैव त्रैलोक्यव्यावृत्त्येकस्वभावत्वादिति । कथं च नि- शक्त्यवगतिः । कुत इत्याह-तदाभासतो-निश्चयाभासतः ।
किमित्याह-अप्रवृत्तिप्रसङ्गात् । प्रसाश्व-तच्छत्यवगमापश्शयस्य विकल्पात्मकत्वात् तत्त्वतो निर्विषयत्वात् तद्विषयता
ते-तदाभासशक्त्यवगमापत्तः । न चेत्यादि । न च तदायुक्ता ?, येनोच्यते " यत्रांशे पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुं
भासवतः कारणात्, न तच्छुक्त्यवगमो-न तदाभासशक्त्यशक्नोति" इति । स ततो भवतीति तनिश्चय इति चेत् । कामः, किन्तु अधगम एव । कुत इत्याह-तेनाऽपि तदाभासे न । अतिप्रसङ्गात् नीलादि पश्यतः क्वचित् भिन्नजाती- न, आत्मवेदनात् कारणात् । यदि नामवं ततः किमित्याहपविकल्पाभ्युपगमात् , तस्य च ततो भावात् , अन्यथा
तस्याश्च तदाभासशक्लेम, तदन्यत्वात्-तदाभासाऽनन्यत्वात्।
न वेत्यादि । न च सम्यग् निश्चयशक्तरेचाऽवगतिरिति अहेतुकत्वापत्तेः। संवादको निश्चय इति चेत् । न । अ
युक्तम् । कुत इत्याह-तत्त्वतो वचनमात्रत्वाद् , वचनमात्रत्वं प्राप्यदेशगतजलादिनिश्चयेन व्यभिचारात् । न च संवा- च तथा सम्यग् निश्चयशक्त्यवगमरूपेण प्रतीत्यभावादिति । दनशक्तिरेव संवादनमित्यदुष्टम् , शक्नेरप्रत्यक्षत्वात् का- पर्व' च यथोनील्या, तत्रैव प्रामाण्यमात्मसात्कुरुते इति येमन्तरेण तद्रावानवगतेः, न च ततोऽनन्या शक्रिरिति वचनमात्रं निरर्थकमित्यर्थः । तदवगतावेव तदवगतिः, तदाभासतोऽप्रवृत्तिप्रसङ्गात् इतश्चक्चनमात्रम्-“यत्र तु भ्रान्तिकारणसद्भावा अशतच्छक्त्यवगमापत्तः, न च तदाभासवतो न तच्छक्त्य- वं तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते" इत्याद्युपन्यासात् । तथाहि वगमः, तेनाऽपि आत्मवेदनात् तस्याश्च तदनन्यत्वात् , यदि तत्क्वचिद् अशक्तं पाश्चात्यं निश्चयं जनयितमेचं तर्हि न च सम्यग् निश्चयशक्लेरेवाऽवगतिरिति युक्तम् , तत्वतो अशक्कमेव, सर्वथैकत्वात एकस्य चैकस्वभावस्वनःशकस्वाऽ
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सामरणविसस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस शकत्वविरोधात्, कश्चिद् अविरोधेऽप्यभ्युपगमविरोधात्, स्वभावनिश्चयात्मकमिति। एतदपि यत्किश्चित् , बाच्मात्रभिनाशविषयनिश्चयभावाभावयोस्तु न तस्य किश्चिद् इ. त्वात् । ति कथं क्वचिद् प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत इति । नैवं स्यादेतद् असमारोपविषये भावात् तदव्यच्छेदविषयमिसमारोपव्यवच्छेदार्थमपि प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः, न्यायतः ति-समारोपस्य विषयः समारोपविषयः न समारोपविषयो
ऽसमारोपविषयः तस्मिन् समारोपशून्य इत्यर्थः. भावाद-उ. समारोपस्यैवाऽथीमा , सजातीयेतरविविक्तकस्वभावस्य
त्पतेः कारणाद् अधिकतनिश्चयज्ञानस्व, तव्यवच्छेदविषवस्तुन इन्द्रियज्ञान प्रतिभासनात् , रूपादिनिश्चयज्ञानवत्
यमिति । एतद्भावनायैवाह-यत्र पदार्थे , हिशब्दोऽयधारतन्निबन्धननिश्चयज्ञानानां तमन्तरेणैव प्रवृत्तिसम्भवात् । से , अस्य पुरुषस्य , समारोंपो भवति , यथा स्थिरः सासथाहि-घद् रूपादिदर्शनानन्तरभलिङ्गं निश्चयनानं भ- स्मक इति वायं पदार्थः । न तत्र निश्चयो भवति अनिवति तत्कथमसति समारोवे भक्त तव्यवच्छेदविषयम् ।
त्यत्वादिनिश्चयस्तद्याथात्म्यविश्यः , तदविवेक एव च-स.
मारोपविवेक एव च , अन्यापोहः तद्व्यवच्छेदः, इति--एइतश्च वचनमात्रम्-" यत्र तु भ्रान्तिकारणसद्भावाद अ- धम् , तदपि अधिकृतनिश्चयज्ञानम् , तन्मात्रापाहगोचरमेव शक्त तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते" इत्याद्युपम्यासात् पूर्य- समारोपापोहमात्रगोचरमित्यर्थः। न वस्तस्वभावानश्चयापक्षग्रन्च एच । इहैव भावनार्थमाह-तथाहीत्यादिना । तथा- त्मक-न स्वलक्षणनिश्चायकमिति योऽथः । एवं पूर्वपक्षहि-बदि तत् प्रक्रमाद् अविकल्पम् . कचिदशनं पा-1 माशकृयाह-एतदपि यत् किश्चिद्-असारम् . कुत इत्याहश्चात्यं निश्चयं जनायितुम् , एवं तर्हि अशकमेव एकान्तेन । वाङ्मात्रत्वात वाच्याऽर्थशून्यत्वात्। कुत इत्याह-सर्वथैकत्वात् कारणात् , एकस्य च वस्तुनः ,
यत्ताव दुक्क्रम्-"असमारोपविषये भावाद" इत्यत्र समारोएकस्वभावत्वेन हेतुना , शक्तत्वाऽशक्तत्वविरोधात् । तथाद्वि-एकमेकस्वभावं यदि शक्त शकमेव, अथाऽशक्क्रमश
पाभावेऽस्य निरुक्ता,अयं च समारोपाभावो यदि प्रसज्यमेवेति भावनीयम् । कश्चिद् अविरोधेऽपि निमित्तभे- प्रतिषेधरूपः, न क्वजिदस्य वृत्तिस्तस्य तुच्छत्वात् , तवत देन शक्लत्वा शकत्वस्य , अभ्युपगविरोधाद् अनेकान्तया- इत्थमेव इदमिति चेत् कथमतुच्छप्रतिभासं रूपादिनिश्यदापत्या । अथ मिन्ना अस्यांऽशा इति । एतद् व्यपोहायाs |
ज्ञानम् १ , तुच्छप्रतिभासमेघ तद इति चेत् , अनुभवविह--भिन्नांशत्यादि । भित्रौ च तो प्रत्यक्षादिनि प्रक्रमः, अं
रोधः--रूपादिप्रतिभासस्य वेद्यमानत्वात् , अन्यथा तदशौ च भिन्नांशी , तौ विषयौ ययास्तौ भिन्नांशविषयौ भिनांविषयी च तो निश्चयो अति विग्रहः, तयोर्भावाड
हि गोया नाकारत्वेन वेदनाऽयोगादिति । अथ पर्युदासरूपः, कथं भावौ , तयाः , पुनर्न तस्य प्रत्यक्षस्य , किश्चिद् इति एव- न वस्तुस्वभावनिश्चयात्मकं तत् ?, तत्रैव प्रवृत्तेन तस तदा म , कथं कचित् प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत-इति । नवमित्या- इति चेत् , कथमसमारोपविषयेऽस्य भावः?, अयमस्यैव दि । नैवम्-उक्लेन प्रकारेश, समारोपव्यवच्छेदार्थमपि प्रमणा
आत्मा न त्वन्य इति चेत् , स्वात्मन एव तदितरविकलस्य स्तरप्रवृत्तिः । कुत इत्याह--न्यायतो-न्यायेन , समारोपस्यै
तत्वकल्पनायामतिप्रसङ्ग:--स्वलक्षणज्ञानस्यापि तच्चेन व प्रयोगात् . प्रयोगश्च सजातीयेतरविविक्तकस्वभावस्य बस्तुन इन्द्रियशाने प्रतिभासनात् कारणात् , रूपादिनिश्च
तद्भावापत्तेरिति । यज्ञानवादति निदर्शनम् । तनिबन्धननिश्चयज्ञानानाम्-शधि. एतदेव दर्शयति-यत्तावदुक्नमित्यादिना । तत्र यत्तावदुक्तम्
सषस्तुनिबन्धनमिश्चयज्ञानानाम् , तमन्तरेण-समारोपम-- पूर्वपक्षग्रन्थे " असमारोपविषये भावाद्" इत्यत्र ग्रन्थे, स्तरेखेव , प्रवृतिसंभवात् कारणास् , म समारोपव्यवच्छे - समारोपाभावे अस्य निश्चयस्य वृत्तिरुका , एतद् ऐददार्थमपि प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः , अनित्यत्वादिनिश्चयाम्यपि
पर्यम् । यदि नामवं ततः किमित्याऽऽह-अयं च समासामारोपव्यवच्छेदमन्तरगणैव भावपसनादत्यर्थः। चिकृता
रोपाभायो यदि प्रसज्यप्रतिषेधरूपः समारोऽपाभवनभावमाययाऽऽह--तथाहीत्यादि । तथाहि इनि--उप- मात्र लक्षणः । ततः किमित्याह-न कचित् अस्य मिश्चयप्रदर्शन । यद् रूपादिदर्शनाऽनम्तरम्-व्यवधानेन, अलि- स्य , वृत्तिः । कुत इत्याह-तस्य प्रसज्ज्यप्रतिषेधरूपस्य सकम्-लिजरहितम् , निश्चयज्ञानं भवति प्रक्रमाद् रूपादिविष- मारोपाऽभावस्य , तुच्छत्वात्-श्रसस्वादित्यर्थः। तत्त्वत. यमेच, सत्कथमसति समारोपे अरूपादिविषय प्रवद---उत्प
त्यादि । तत्वतः-परमार्थन , इत्थमेवेदं न कचित् हास्य चमानम् , तावच्छेदविषयं--समारोपन्यवच्छेदविषयम् ,
वृत्तिः, इति चेत् । एवदाशझ्याह-कथमतुच्छप्रतिभास नैव समारोपाभावेन तद्वयवच्छेदाऽयोगानिति ।
रूपादिवस्या कारं रूपादिनिश्चयज्ञानम् ? । तुच्छेत्यादि ।
तुच्छप्रतिभासमय, तत्-रूपादिनिश्चयज्ञानम्, इति चेत् । स्यादेत , असमारोपविषये भावात तद्व्यवच्छेदविष- एतदाशझ्याइ-अनुभवविरोधः । एवं कथमित्याह-कृपासम् , यत्र हि अस्य समारोसो भवति यथा स्थिर: सा
दिप्रतिभासस्य-रूपादिनिश्चयज्ञाने वेद्यमानत्वात् ,अन्यथा स्मक इति वा न तत्र निश्चयो भवति , तद्विविवेक एव |
एवमनभ्युपगमे, तस्य-रूपादिनिश्चयज्ञानस्य, अनाकारणेन
हेतुना । किमिस्याह-वेदनाउयोगाद् , सद् हि अनाकारं कचान्यापोह इति तदपि तन्मात्राऽपोहगोचरमेष, न वस्तु- स्य वेदनम् ? , इति भावानीयम् । एवं प्रसज्यपक्षे दोषम
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भिधाय पक्षान्तरे दोषमभिधातुमाह- अथ पर्युदासरूपः प्रस्तुतः समारोपाभावः । एतदाशङ्क्याह-कथं न वस्तुस्वा तद्रूपादिनिधानम् - पादावेव प्रवृत्तेः, न तद् रूपादि, तदा निश्चयज्ञानकालेइति चेत् । एतदाशङ्क्याह-कथमसमारोपविषये समारोपाभाव पाम के अस्य रूपादिनिधयज्ञानस्य भा वः ? | श्रयमित्यादि । अयम्-असमारोपविषयः अस्यैव श्र पिनमाज्ञानस्य आरमान व्यतिरिक इति चेत् । एतदाशङ्कयाह-स्वात्मन एवं शानसंबन्धिनः, तदितरविकलस्य-विषयविकलस्य, तस्वकल्पनायां विषयत्वकल्पनायाम्, उक्तनीत्या । किमित्याह - अतिप्रसङ्गः । कथमित्याह - स्वक्षणवानस्याऽपि तत्त्वेन तदितरविकलस्वेन हेतुना, सद्भावाप:- समारोपनि श्चयज्ञानत्वापत्तेरित्यर्थः ।
दूषणान्तरमाह
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किंच सौ भावः स्वप्रत्त्यभिज्ञानजनने व्यवधानसम्भस्वभावो वा स्यात् न या उभयथाऽपि क्वचिद् मे देव्यवधानसभावादइत्यपि अयुक्रम् यथाक्रमं सर्वत्रैव तत्सम्भवाः, अन्यथा एकस्वभावत्वविरोध द नविन निश्रयानां न तेभ्यस्तनभ्यव्यवस्था, इत्फला तत्कम्पना एवं च "यथा शुक्रेः शुक्रित्वे" इत्यनुदाहरणमेव भवन्त्रीत्या तदयोगात् शुक्रिकाया अषि अक्षज्ञानेन नीलादिवत् तचेनैव ग्रहणात् ।
यथोक्रम्- "यत्र हि अस्य समारोपो भवति यथा खिरः सात्मक इति वा, न तत्र निश्वयो भवति " एतदप्ययुक्रम् परमार्थेन तस्याऽस्थिरानात्मकस्यैव ग्रहणात् तत्र रूपादाविव समारोपप्रवृत्ययोगात् स्यादेतत् नहि तथा गृहीतोऽपि भावस्तथैव प्रत्यभिज्ञायते कचिद्भेदे व्यव धानसंभवात् यथा शुक्तेः शुक्त्रित्वे । यत्र तु प्रतिपत्तुर्भ्रा - न्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य दर्शनाऽविशेषेऽपि स्मार्त्तो किंव, सीमा:-पदार्थ स्वप्रत्यभिज्ञानजनने स्वनिय निश्चयो भवति समारोपनिश्चययांच्यवाधकभावाद्यज्ञानजनने या स्वाद इति
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इति । एतदप्यगत् निरंशे तथा गृहीते कचिद् व्यवधा क्वचित् न इत्यन्यायत्वात् भेदाभावेन तत्त्वत एकनिज्ञानप्रसङ्गात् न खलु रूपे एवं तदेकखभावनिबन्ध नानि भूयांसि निश्चयज्ञानानि ।
?
"
यो अधिकृत समा रोपों भवति यथा स्थिरः सात्मक इति वा न तत्र निश्वयो भवति " एतदपि प्रयुक्तम् । कथमित्याह - परमार्थेनवस्तुस्थित्या तस्यपदार्थ अथिरानात्मकस्यैव प्र हणाद्, नान्यत् तस्य रूपमिति कृत्वा । ततः किमित्यादादा समारोपयोगाद् नहि रूपे रूपतया गृहीते समारोपः । स्यादेतदित्यादि । स्पात नांदतथा स्वीतोऽपि भाषा पदा ः प्रत्यभिज्ञायते श्विज्ञानेन गम्यते । कमित्याह- क्वचिद् भेंद भावविशेषे व्यवधानात् प्रत्यभिज्ञानस्य समारोपेग इनिभावः I निदर्शनमाह-यथा शुक्रेः - शकिद्रव्यस्य शुक्लित्वे व्यवधागमः प्रत्यभिज्ञानं प्रति रजतसमारोपेव यत्र तुपतुः पुरुषस्य भ्रान्तिनिमितं सादृश्यं नास्ति तत्रैव भावभेदे अस्य पुरुषस्य दर्शनाविशेवेऽपि उभयत्र यत् तदश्यते इति दर्शना सनि सात निश्चय नीति - देयमित्याह-- समारोपनिश्व याधकभाषात् समारोपो वाध्यः, निश्वयो बाधकः इति । पूर्वपक्षमाशाह नितिम् श्रमद्-अ
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( ६७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
44
मामवमेम
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शोभनम् कुन इत्याह-निश इत्यादि । निरंशे वस्तुनि तथा निरंशादीने कचिद् व्यवधानं कचिन इति अपन्यायत्वाद् एतद् अपि असत्, अपन्यायत्वं च भेदाभावेन हेतुना नित्येन ततः परमार्थेन, एकना नप्रसङ्गात् नियन्धकद्भावनाबाद-नत्यादि । न खलु नैव रूपे एव श्रालम्वने तदेकस्वभावनिबन्धनानि तद् रूपमेष एकः स्वभावो निबन्धनं ये तानि तथा भूपांसि प्रभूतानि प्रमाद जाति कृत्य निश्वयज्ञानानि रूपरसादिलवा भूतानि अपि व्यक्तिनेदाउपेचया रूपज्ञानानि एव एवं भेदाभावेन तत्त्वतः एकनिश्चयज्ञानप्रसङ्गः ।
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"
द्वयी गतिः । उभयथापि पक्षद्वयेऽपि क्वचिद् भेदे व्यवधान भावाद् इति श्रयुक्तम् । कुत इत्याह-यथाक्रमम्- यथासंख्य
सर्वच इत्येतद्युदासेन सर्वत्रय वस्तुि तत्संभवाऽसंभवापत्तेः--तस्य व्यवधानस्य, संभवश्वासंभवश्च तत्संभवासंभवौ तयोरापत्तिः, तत एतदुकं भवति-यदि असी भावः स्वप्रत्यभिज्ञानजनने व्यवधानसंभवस्वभावस्ततस्तत् सभवत्येव सर्वत्र व्यवधानम्, न चेद्, नवी दि अन्यथा एकस्वभावत्वविरोधात् एकस्वभावो हि स्वप्रत्य
"
ज्ञानव्यवधानकस्वभावः तदभा यो वा, अन्यथा तच्चित्रस्वभावता एव इति भावनीयम् । तन्निबन्धनत्वे -- विवक्षितभावानिबन्धनत्वे च निश्चयानाम् । किमित्याह--न तेभ्यो निश्रयेभ्यः, तत्तत्वव्यवस्थाभितद्भावव्यवस्था इति एवम् अफला-निजना, तत्कल्पना- प्रक्रमाद् व्यवधानसंभवकल्पना, एवं त्र सति " यथा शुक्रेः शुक्त्वेि " इत्यनुदाहरणमेव । कथमित्या-त्या-त्यदर्शनानुसारेण तद्योगात् व्यवधानसंभवायोगात्, प्रयोगश्च शुक्तिकाया अपि अक्षज्ञानेन-इन्द्रियज्ञानेन, नीलादिवद् इति निदर्शनम्, तत्वेन - शुक्तिकात्वेन एव ग्रहणात् ।
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इत्थमेव इदमिति चेत्, कथं व्यवधानसम्भवः १ ततस्तश्रियानुत्पतेरिति चेत् सैव तावत्किमिति चिन्त्य निश्रयान्तरोत्पादाद् इति चेत् कथमनुभवान्तराद् निषयान्तरोत्पादः तत्तत्स्वभावत्वाद् इ चेत्, अनु
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सामएपविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसस भवान्तरवद् न तस्य तत्त्वम् , तवे वा ततस्तदुत्पादे व्य- नां च न्यायतस्तद्वीजाभाव उकः। तथानुभवसिद्धत्वाव वहारनियमोच्छेदः, एवं हि नीलाऽनुभवजन्योाप तनि- सर्व भद्रकमिति चेत् , न खलु अनुभव इत्येव तचव्यवअयः पीताद्यनुभवस्य तत्स्वभावतया तजन्योऽपि सम्भा- स्थाहेतुः, न्यायबाधितस्य तदनुपपत्तेः, अस्य च उक्रवत् व्यत एव । एवमन्यत्रापि इति न न्यायविदस्ततो व्यव- न्यायबाधितत्वात् , क्षणिकत्वेन तथाऽसम्भवाच्च । एतेन हारे नियमतः प्रवृत्तिर्युका सर्वत्राऽऽशकानिवृत्तेरिति, न “यत्र तु प्रतिपत्नुर्धान्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य दर्शअनिवत्तिः सर्वत्र चीजाभावाद् धम्र्येण साधम्योऽसिद्धेः, नाविशेषेऽपि पाचात्यो निश्चयो भवति समारोप-निश्रययोसांधाच्च समारोप इति ।
ध्यबाधकभावात्" इति यदुक्कम् , तदपि प्रत्युक्तमेव , इत्थमेव इदमिति चेत् । तत्त्वेनैव ग्रहणमित्यर्थः । एतदाश- सर्वथैकस्वभावत्वे वस्तुनो दर्शने चेत्थमभिधानाऽयोगात, क्याह-कथं व्यवधानसंभवः ? हि तस्य व्यवधानज
एकत्र भ्रान्तिनिमित्तसम्भवे सर्वत्र तदापत्तेः तत्तदेफस्वनकस्यमित्यर्थः । ततः शुक्निकाशानाद् इन्द्रियजात् . तनिश्च याऽनु पत्तेः-शुक्तिकानिश्चयाऽनुत्पत्तेः, व्यवधानसंभव इति
भावत्वतत्वात् , अन्यथा यत्र भ्रान्तिनिमित्तं न यत्र च - चेत् । एतदाशझ्याह-सैघ तावद् निश्चयाऽनुत्पतिः, किं स्ति , अनयोः कथश्चिद्भेद इति बलाद तदनेकस्वभावता, केन कारणेन ?. इति चिन्त्यम् , निश्चयान्तरोत्पादाद् रजत- शुक्तिकादावपि तन्नियमाऽभावाच्च , अतन्निवन्धनत्वे च निश्चयोत्पादात् इति यत् . तन्निश्चयाऽनुत्पत्तिः । एतदाशङ्:
निश्चयानां न तेभ्यस्तत्तचव्यवस्था इत्युक्तम् । क्याह-कथमनुभवान्नगत् , शुक्तिकानुभवरूपात् निश्चयन्तिरोल्पादो रजतनिश्चयोत्यादः ?, तस्य शक्तिका ऽनुमवस्य , पतदाशझ्याइ-ययेवम् , स्थिरतगदीनां नित्याऽनिन्यामत्स्वभावत्याद्-रजतनिश्चयोत्पादनस्वभावत्वात् , इति दीनाम् 'किं साधर्म्यम् ?, लक्षणभेदाद् न किञ्चिद् इत्यर्थः । चेत् । एनदाशङ्क्याह-अनुभवाम्तरवद्र जातानुभववद् क्व वा तेषां ग्रहणम् १,नित्यानामभावेन तदयोगात् , येइत्यर्थः, न तस्य-शुक्तिकाऽनुभवस्य, तत्वं-शुक्तिकानुभव- नाऽस्थिरादिषु भावेषु आदिशब्दाद-अनात्मादिग्रहः, तत्सरुत्वम् , तरचे वा-शुक्तिकाऽनुभवतरवे वा, तनः शुक्तिका- मारोपो-नित्याऽऽत्मादिसमारोपः, सहशाऽपरापरोत्पत्तिऽनुभवात् , तदुत्पाद-निश्चयान्तरोत्पादे । किमित्याह
प्रलम्भात् कारणात् ,अयमिति आत्मादिसमागेपः.इति चेत्। व्यवहारनियमोच्छेदः । एनमेव भावयवाह-एपं होत्यादि ।
एतदाशझ्याह-किमिदं सजातीयेतरविकस्वभावानां एवं यस्मात, नीलानुभवजन्योऽपि तन्निश्चयो-नीलनि
भावानाम्--अत्यन्तविलक्षणानामित्यर्थः, सादृश्यम् ?, नकिश्चयः पीताद्यनुभवस्य, तत्स्वभावतया नीलनिश्चयजन
श्चित् । कथं वा सद् अपि एतत् सादृश्यम् , तदेकग्राहिणा नवभावतया, तज्जन्योऽपि-पीताद्यनुभवजन्योऽपि सम्भा
तेषां भावानामेकग्रहणशीलं तदेकग्राहि तेन ज्ञानेन गम्यते ?, उयत एव, विजातीयशुक्तिकाऽनुभवाद-विजातीयरजत
तदनकग्रहणनान्तर्रायकत्वात् तदवगमस्य न गम्यते इत्यर्थः । निश्चयोपपत्तेः, एवमन्यत्रापि रकादिनिश्चये, इति एवम् ,
तषामेवेत्यादि । तेषामेव भावानाम् . तत्स्वभावतया-सहशस्वनन्यायविदः पुरुषस्य, ततो निश्चयात् , व्यवहारे प्रस्तु
भावतया तथाग्रहणेन-सदृशग्रहणेन,इति चेद् गम्यते । एतदाने. नियमनो-नियमेन, प्रवृभिर्युक्ला । कुतो न युक्का इत्याह
शङ्कयाह--आकालं यावदपि कालस्तावदपि--सर्वकालमिसर्वत्र विकल्प, उत्थापकं प्रति श्राशङ्कानिवृत्तेः कारणात् .
त्यर्थः, एकग्रहणे सति कुतोऽयं " तेषामेव तत्स्वभावतया" न अनिवृत्तिराशङ्काया इति प्रक्रमः । कुत इत्यार ...-सर्वत्र
इत्यादिलक्षणः, नभस:-आकाशात् प्राप्तवादः', अनेकभिन्नबीजाभावात् आशङ्काबीजाभावात् , किन्तु तिरेव ।
कालभावग्रहण च एकेन प्रक्रमाद् ज्ञानेन । किमित्याह-- प्रस्तुतमेवाऽऽह-वैधर्मेण हेतुमा, साधभ्यासिद्धः सर्वत्र ।
अपैति क्षणिकता भावानामिति । तथाविधेत्यादि । तथावि. याद नामैव ततः किापत्याह-साधम्याच्च समारोपाल ।
धभावानुभवसामर्थ्यजनिश्चयात्--संतानप्रवृत्तान्त्यक्षणभा'अस्ति च शुक्तिका-रजतयोः तद् इत्यभिप्रायः ।
वानुभववीर्योत्पन्ननिश्चयाद् इति भावः, तत्-सादृश्यम् , यद्येवम् , स्थिरतरादीनां किं साधर्म्य , क वा तेषां
श्रवगम्यते इति चेत् । एतदाशयाह--न युक्तमस्य निश्चयग्रहणम् ?, येन अस्थिरादिषु तत्समारे । सदृशाऽप- स्य , इमामक्रमाऽऽमतामन्बयाभावन., अवगमश्रियं पदा..राऽपरोत्पत्तिविप्रलम्भात् अयमिति के किमिदं सजा
थतया विसदृशयोधरूपां प्रतिपत्तुम् , यदाह कश्चित्-"प्रतीयेतरविविक्तकस्वभावानां भावानां दृश्यम् ?, कथं
सत्सङ्गाद् दैन्यात् प्रखलचरितैर्वा बहुविधै-रसद्भूतैर्भूतिर्यदि
भवति भूतेरभवनिः । सहिष्णोः सवुद्धेः परहितरतस्योन्नवा सदपि एतत् तदेकग्राहिणा ज्ञायते । तेषामे
तिमतः, परा भूषा पुंसः स्वविधिविहितं चस्कलमपि ॥१॥" व तत्स्वभावतया तथा ग्रहणेन इलि कालं तदे- स्वविधिश्च क्षणिकस्य परतो निरपेक्षिता इति भावनीयम् । कग्रहणे कुतोऽयं नभस प्राप्तवाद : रेकभित्रकाल
तत्पूर्वक्षणानां च--विवक्षितक्षणभावानुभवपूर्वक्षणानां च , भावग्रहणे च एकेन अपैति क्षणिकता। तथाविधभावा
न्यायतो-न्यायन, निरन्वयनश्वरतया, तबीजाभावो-विधक्षि
तक्षणाबीजाभावः, उफ्नः प्राग ' नित्यानित्यवम्तनिरूपगा• ऽनुभवसामर्थ्यजनिश्चयात् तदवगम्यत इति चेत् , न युक्त
धिकारे एकान्त इत्यादिना ग्रन्थेन । तथेत्यादि । तथा नुमस्य इमामक्रमागतामेवगमश्रियं प्रतिपत्तुम् , तत्पूर्वक्षणा- भवसिद्धत्वा-सदृशन्येनानुभवसिद्धत्वात् कारणात् . स.
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सामएपधिसैस अभिधानराजेन्द्रः।
सामएणविसेस समाचुङ्गम् , भद्रकमिति चेत् । तदाराचाह- खलु- अन्योपकारको नाम" इत्यादि, तदयुक्तमिव । परमामैब, कानुभव इस्लेन एतावता शन, तस्यव्यवस्थादेतुः । कधं न .इत्याइ-न्यायबाधितस्य तुभयस्य,तदनुपपत्ते:
थतो निर्विषयत्वाम् । न च वस्तु 'अपि तदकमनेकधर्मोतत्त्वव्यवस्थाहेतुत्वानुपपत्तेः . नीत्या द्विचन्द्रानुभवादी त
पकारकशक्तिमद् इव जैनः, एकाऽमेकस्बमावस्वाऽभ्युथाऽभ्युपगमादिति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-अस्य पगमात् पृथग्भूतथभ्यसिद्धे । इति कृतमत्र प्रसनेम ।। मा प्रकारतासहशानुभवस्य उगवद् पथो तथा न्यायवा
एवं च यमांड बन्नुझानसबन्धिान मोलादी, स्वत वितरवात .. भाषिकत्येश द्वेतुना. तथा पदार्थयोधानुभवरूपे
एव निश्चयः समारोपन्यवच्छेदमन्तरेश, स प्रत्यक्षोंयासाभवाच्च, नथाहि-निश्चयानुभवोऽपि क्षणिक एव
शः, यत्र तु अनित्यत्मी , सोऽनुमेय हात इति भावना । एतन इत्यादि । एतेन-अनन्तरोदितेन वस्तु
सन्यायप्राप्तिः । कुत इत्याह-अन्यथाऽसमञ्जसत्यात् जातेन, "यत्र-तुप्रतिपत्तान्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य
इत्येतच निदर्शितमसकृत् । यदि नामैवं ततः किदशनाविशेषेऽपि पाश्चास्या निश्चयो भवति , समारोष
मित्याह-न चैवं सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनोऽपि वादिनः, निश्चययोर्वाध्यबाधकमायाद्" इति यदुक्तम् । तत् किमि- अनेकस्वभावत्वाद् वस्तुनः, क्षयोपशमवैचित्र्येण हेतुना, त्याह-तदपि प्रत्युतमेव । कथमित्याह-सर्वथैकस्वभावत्वे
तथानिश्चयप्रवृत्ती अनन्तरोदिनक्रमेण कश्चिद् दोषः, कथं यस्तुनो वाह्यस्य दर्शने च तस्य इत्थं यथोक्तं तथा अभि- न दोषः ? । इत्याह-निरुपचरिततन्निबन्धनभावाद्-वास्तधानाऽयोगात् , अयोगश्च एकत्र वस्तुनि. भ्रान्तिनिमित्तस- वप्रवृत्तिनिबन्धनभावादित्यर्थः । अमुमेवाऽथमुपदशयतिम्भवे सति, सर्वत्र तदापत्तेः-भ्रान्तिनिमित्तसम्भवापत्ते, दृश्यते चेत्यादिना । दृश्यते च कश्चिद् एफत्रैव वस्तुनि, अापत्तिश्च तत्तदेकस्वभावत्वतत्त्वात्-तस्य वस्तुनो भ्रान्ति- एकाऽनेकप्रमापेक्षाः शब्दलिङ्गाऽध्यक्षः-आगमानुमानप्रत्यनिमित्तसम्भबैकस्वभावत्वरूपत्वात् । अन्यथेत्यादि। अन्य- ः प्रतीतिभेदः, तथाहि--'अत्र निकुञ्ज वह्निरस्ति इति शब्दथा-एवमनभ्युपगमे, यत्र वस्तुनि भ्रान्तिनिमित्तम् , न घट- तः-शब्दात् तथाविधदेशमात्रायश्चिन्न सद् अग्निसामान्य पटादी.यत्र च अस्ति शुक्निकारजनादौ; अनयोः वस्तुनोः, क- प्रतीयते , धूमदर्शनात् तु विशिष्ट देशावच्छिन्नस्तद्विशेषःथञ्चित् स्वभावभेदः, वस्त्वभेदेऽपि स्वमत्ताभेदः, इंति-एवम् , अग्निविशेषः पूर्वसामान्यापेक्षया , अध्यक्षतस्तु प्रत्यक्षता बलात् तदने कस्वभावता; तस्य-वस्तुनः, सामान्येनाऽनेकस्व- पुनः, विशिष्टतरा ज्वालादिः प्रतीयते इति, आगोपालाभावता, तदेकान्तकस्वभावत्वे तु न एतद् उत्पद्यते इति । उप- नाप्रसिद्धत्वात् कारणात् , अत्याज्य एप प्रतीतिभेद इति । पत्त्यन्तग्माह-शुक्तिकादायपि-शुक्तिकारजतादौ अपि. तन्नि - एवं च सन्यायसिद्धे सति, प्रमाणानां-प्रत्यक्षादीनां वस्तुयमाऽभावाच्च-प्रक्रमाद् भ्रान्तिनिमित्तसम्भवस्वभावत्यनि- विषयत्वे यदुक्तं पुरस्तात् पूर्वपक्षग्रन्थे-"हि अन्य एवयमाऽभावाच्च, बलाद् सदनेकस्वभावता इति वर्तते । तथा- अन्योपकारको नाम" इत्यादि । तस् किमित्याह-तक्युहि-न शुक्रिकादी, अपि सर्वस्य समारोप एव कस्यचिद कमेव परमार्थतो निर्विषयत्वात् तस्य उक्तस्य । न चस्यादर्शनाद् अनन्तरं शुक्तिकानिश्चयः, अपरस्य तदा तत्रैव स- दि । न च-वस्त्यपि तद्-एकं सद्-अनेकधर्मोपकारकशमारोप इति न एप्तद् एकान्तकस्वभावत्वे वस्तुन इति भावनी- निमद् इष्यते वैशेषिकैरिव जैनः । कुत इत्याह-पकानेपम् । तद्-इत्यादि । तत्-वस्तु, निबन्धम-कारणम् ,येषां ते कस्वभावत्वाभ्युपगमात् कारणात्, पृथग्भूतधर्म्यऽसिद्धेसभिवन्धना न तन्निवम्धना अनिवन्धनास्तद्भाधस्तस्मिन् , | धर्मधर्मिस्वभावत्वाद् वस्तुनः, इति कृतमत्र प्रसङ्गेन। अतनिबन्धनत्वे च-अवस्तुनिबन्धमत्वे इत्यर्थः । केसामि
यच्चोक्तम्-"समारोपनिश्चययोध्यबाधकमावाद" भ्याह-निश्चयामा न तेभ्यो-निश्चयेभ्यः, तत्तस्त्रव्ययस्थायस्तुतस्यव्यवस्था, इति उक्तं प्राक।
इति, एतदष्ययुक्तम् । परनीत्या समारोपनिश्चययामेंदा
ऽसिदः समारोपस्यापि निश्चयत्वात् , तदभावभाविएवं च यत्र स्वत एव निश्चयः स प्रत्यक्षः, यत्र तुम
त्वस्य च उभयत्राविशेषात् , पौर्वापर्यस्य च भनियासोनुमेय इति सन्न्यायप्राप्तिः, अन्यथाऽसमञ्जसत्वात् ।
मकत्वात् क्वचित् तस्याऽपि तुल्यत्वात् । अमित्यादिअचचं सविकल्पकप्रस्यक्षयादिनोऽपि अनेकस्वभावत्वाद्
प्रतिपत्तावपि पुनर्नित्यादिनिश्चयोपलब्धेः वस्तुन एव वस्तुनः क्षयोपशमवैचित्र्येण तथामिश्चयप्रवृत्ती कश्चिद्
पारम्पर्येण तद्भावाद् , तदन्यतराऽपरमिमित्तत्वे सदिदोषः. निरुपचरिततनिवन्धनभावात् । दृश्यते च कथ- तरत्र तन्निमित्सत्वानावासात, विशेषत्वभावात् अचिन् एकत्र एव एकाऽनेकप्रमात्रपेक्षः शब्दलिङ्गाऽ
नित्यस्यापि अर्थक्रियायोगादिति निर्लोठयिष्यामः। ध्यः प्रतीतिभेदः, तथाहि-अत्र निकुञ्ज वहिरस्तीति
यच्चोक्तमधिकृतपूर्वपक्षे-" समारोपनिश्चययोध्यबाधशब्दतस्तथाविधदेशमात्रावच्छिन्नमग्निसामान्यं प्रतीयते, कभावाद्" इत्येतदपि अयुक्तम् । कथमिस्याह-परनीत्या अमदर्शनान् तु विशिष्टदेशावच्छिन्नस्तद्विशेषः, अध्य
समारोफनिश्शाययोर्मेदासिद्धेः, असिद्धिश्व-समारोपस्या
पि शुक्रिकादो रजतादिरूपस्य निश्चयत्वात् , तथाहि--- चतस्तु विशिष्टतसे ज्वालादिरित्याऽऽगोपालाजनाप्रसि
शुक्तिकायां रजतनिश्चय एव समारोपः, तदभावभावित्वस्य द्वत्वाद् अत्याज्य एष इति । एवं च सन्न्यायसिद्धे प्रमा
च-शुक्ति द्यभावभावित्वस्य चशब्दात्-सदनुभवोपादासानां स्तुविषयरबे यदुनं पुरस्तात "महि अन्य एवं स्वास्य प..उभय समाये लिये चाविशेषा , नहि
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सामरणविसेस प्राजेन्द्र
सामरणविसेस अत्र अन्यत् समारोपस्यापि उपादानम् , भाषि तु.-धि-विशात् प्रमाणत्यस्य । एतदेवाऽऽह-शुक्रिकाशकलादौ-व. कृतानुभव एवं पौर्वापर्यस्य स पूर्व समारोपः पाशि-- स्नुनि, रजतादि समारोपब्यबच्छदन तद्भावात्-शुक्रिकादिस्वय इत्येवंभावस्य च अनियामकत्वाद् भन्दै प्रति, तथा निवारणभावात् । नचेत्यादि । जब-न सोपि-शुक्रिकाविककचिद् तस्यागि पौर्वापर्यस्य तुल्यत्वात् । तदे-- रूमो कपादियिकरूपः,किन्तु रूपादिविकल्प एव । कुत इत्याहचाह-अनित्यादिप्रतिपत्तावपि सत्यां तथागतपचना--
तन्मानहेतुत्वाद्-रूपादिमात्र हेतुत्वात् , जल तत्वतः-परमादेः, पुननित्यादिनिश्चयोपलब्धेः कपिलादिवखना----
थेन, एकस्याऽपि अनुमानविकल्पस्य रूपादिविकल्पस्य वा; देः । वस्तुन एव सकाशात् तस्था नित्यादिनिश्चया--
तदितरनाशनेन-समुद्भूतसमारोपनाशनेन, असा प्रवृपलब्धः पारम्पर्येल भावात् , तदाश्रयत्वाद् वचनप्रवृत्तेः ।
त्तिः । कुतो न इत्याह-नाशस्य निर्हेतुकत्याऽभ्युपगमात यद्वा-वचनमन्तरेणाऽपि स्वत एव कचिदेवभावात् , त
तथा तदभावे एव-समारोपाऽभावे एव, तद्भावोपपत्तेःथाहि--वस्तुनि अनित्यत्वविकल्पोऽपि भवति , नित्यत्व
नुमावादिविकल्पभावोपपत्तेः । इहैव पनि हागन्तरमुपन्यविकल्पोऽपि भवतीति लौकिकमेतत् । एवं च सति तद
स्थमाह-लिलिङ्गिसंवन्धस्मरणादिना प्रकारेण , श्रमन्यतरापरनिमित्तत्वे तयोः--समारोपदिश्चययोरन्यतर--
वृतेः कारणाद् इति चेत् , रूपादिविकल्पों च प्रमाणमिति स्य-समारोपस्य , अपरनिमित्तत्वे अभ्युपगम्यमाने , त
अजयः । तदाशयाह-कोऽयं गुणे सवतो दोपाभिनिवे. दितरत्र अपि निश्चये, तन्निमित्तस्वानाश्वासाल-अधिकृ
सामुहिङ्गलिङ्गिसंवन्धस्मरादिप्रवृत्तिान्तरण - तवस्तुनिमित्तत्वानाश्वासात् । इह तावद् अनित्यादिप्रति
अ सुख । प्रस्तुतसमर्थनाथ आ६ वस्तुसमारोपाउमापत्तिर्वस्तुनिमित्ता इति भवतो मतम् , इहापि भावावा
स्य अनुमानविकल्पस्य उपयोगात्, नच--जासौ रूसः, तनुल्य योगक्षेमाया नित्यादिनिश्चयापलब्धेः अतनिमि
पादिविकल्पस्याषि वस्तुसमारोपाभावे उपयोगः, किन्त सत्याभ्युपगमाद् इति भावः । अनाश्वासच--विशेषहेत्व
अस्त्येव । कुत इत्याह-तभावे-वस्तुसमारोपाभावोपयोभावाद् द्वयोरपि; तथा--तद्दर्शनानन्तरभावित्वेन नित्यश्य
गाह समारोपलायन, सन्प्रवृत्त्यनुपपसे :- रूपरदिनिकल्पासत्ता एव असंभविनी, क्रमयोगपद्याभ्यामर्थकिथायोगाद
वृत्त्यनुपपत्तः, अस्ति च प्रवृत्तिरिति नानौरनुमानायकल्पइति । विशेषहेतुनिचिकीर्षया आह--अनित्यस्यापि निर
रूपादिविकल्पयोर्विशषः, अतः कथमनुगानाएकाइकान्वयक्षणस्थितिधर्मिणः, अर्थक्रिया ऽयोगाद् इत्येतद् निलोठ- दिविकल्पा न प्रमाणमित्याख्येयमेतत् । समानिय मार- यिष्यामः पुरस्ताद् ,श्रत एतद् अपि अयुक्तमिति स्थितम् ।। राह-स खल्वियादि । स खलु-प्रक्रमादरूपादिविकल्पः । किन-समारोपव्यवच्छेदभावाविशेषाद् अनुमानवि---
किमित्याह-गृहीतग्राही एव । कुत इत्याह-प्रत्यक्षसिमासि
मोऽर्थस्य रूपादेः, परामर्थात् कारणात् , स हि तप स्पृकल्पवत् कथं रूपादिविकल्पो न प्रमाणम् ?, समुद्भूतस---
शति नाधिक परिच्छिनत्ति, नाता न प्रमाणमिति पत-- मारोपव्यवच्छेदेन अभावादिति चेत् । न । क्वचित् त- दाशङ्कयाह-नहीत्यादि । नहि अनुमानविकल्पोऽपि-नैवम् , थाऽपि भानदर्शनेन अविरोधात , शुक्तिकाशकलादौर-- किंतहि एवमेव--गृहीतग्राही एच, इत्यादि परिमाध्यता-- जतादिसमारोपव्यवच्छेदेन तद्धाबाद , न -न सोऽपि सतत् । स्वभावहेतौ सुझावमेव कृतकस्य पर अनित्यरूपादिविकल्पः तन्मात्रहेतुत्वात् ,न च तपत एकस्याऽपि
स्वात् , कायहेनौ अपि वद्विजन्यस्वभायो धूमः, तस्येन--
प्रत्यक्ष प्रतिभासते, अन्य प्रतिभासाभाव एवेति तदितरनाशनेन प्रवृत्तिः, नाशस्य निहंतुकत्वाऽभ्युप
भावनीयम् । मात् तदभाव एव तद्भावोपपत्तेः । लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धस्मरणादिनाप्रवृत्तेरिति चेत् , कोऽयं गुणे भवतो दो
नहि प्रत्यक्षं भागश उत्पद्यते , निरंशत्वात् , सत्य षाभिनिवेशः १, वस्तुसमारोपाभावेऽस्य उपयोगात् , न
न उत्पद्यत इति । अनुमानविकल्पपरामर्शालम्बनमपि च-नाऽसौ रूपादिविकल्पस्यापि तदभावे वत्प्रवृत्त्य
तत्र गृहीतमेव केवलं गृहीतेऽपि येष्वाकारेषु , न नुपपत्तेः इति नानयोर्विशेषः । स खलु गृहीतग्राही ए
तदनन्तरमेव निश्चयोत्पत्ति यसा व्याप्तिदर्शनासु भव, प्रत्यक्षप्रतिभासिनोऽर्थस्य परामर्शत , नहि अनु
वति, तद्विषय एव अनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वात , प्रमामानविकल्पोऽपि नैवमिति परिभाव्यतामेतत् ।
स्थमनुमानविकल्पो नेतर इति, यत्किञ्चिदेतत् , अनालोअभ्युच्चयमाह--किश्चेत्यादिना । किंच-समारोपव्यवच्छेद
चिताभिधानत्वात् । अनालोचिताभिधानत्वं च प्राधे भावाविशेषात् , कारणात् , अनुमानविकल्पवद् इति दृष्टा
आकाराभावात् सर्वथा एकस्वभावत्वाभ्युपगमात् पन्तः, कथं रूपादिविकल्पो न प्रमाण प्रमाणलक्षणयोगे:- रिकल्पितानामसत्वात् तच्चेन, तत्सप्चे नियमतोऽतिप्रमपि : एतदाशङ्कयाह-समुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेन अभावा- जात , तथा युक्तिो व्याप्त्यसिद्धेः अतद्भावस्य कथद् इति चेत् । न हि आयमनुमानविकल्पयत् समुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेन भवति । एतदाशङ्कयाह--न, इत्यादि । न ,
श्चिद्भेदनिमित्तत्वात् , अन्यथा तदयोगाद् । नहि अक्वचिद्-वस्तुनि, तथापि-समुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेनाऽपि
भेदवत एव अनित्यत्वस्य स्वात्मना व्याप्तिः, न च भावदर्शनेन-उत्पाददर्शनेन हेतुना, रूपादिविकल्पस्य अ- | भिन्नयोरव हिमवद्विन्ध्ययोः तथाऽनधिगतार्थाधि
मिता
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सामरणचिस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस गन्तृत्वाभावात् , वस्तुरूपस्य अध्यक्षत एव अभिगमात् ,
रूपादिविकरपे भावात् , तदन्यस्य च अनधिगतस्य, इतर
श्राऽपि-अनुमानविकल्पेऽपि प्रभावात् , इति अनालोचितास्वाधिगमस्य च इतरत्रापि भावात् , तदन्यस्य च |
ऽभिधानत्वमिति । एवं प्रवर्तकत्वादि अपि अस्य प्रक्रइतरत्रापि अभावादिति । एवं प्रवर्तकत्वादि अपि |
माद् अनुमानविकल्पस्य समानम् , इतरेण रूपादिविकअस्य समानमितरेण, तत्रापि रूपादिनिश्चयादेव प्रवृ- रूपेन । कुत इत्याह-तत्राऽपि-रूपादिविकल्पे सति, रूपातेः । व्यवहारे प्रमाणमेवाऽयमिति चेत , व तर्हि अन- दिनिश्चयादव प्रवृत्तरिति, व्यवहारे-प्रवृत्त्यादिरूपे, प्रमामाणमिति , रूपादावेव इति चेत् , कुतोऽयं तत्राऽ
णमेवाऽयं , रूपादिविकल्प इति चेत् । एतदाशङ्कयाह-क कारयो द्वेषः, प्रागेव तदधिगमादिति चेत् , समा
तर्हि अप्रमाणमिति ?, रूपादौ एव इति चेत् अप्रमाणम् ,
कुतोऽयं तत्र रूपादौ, अकारणो द्वेषः १, प्रागेव अविकनोऽयं त्वन्नीत्या अनित्यत्वादी, तथापि न तद्वत् त- पेन, तदधिगमात्-रूपाद्यधिगमात् इति चेत् । पतदाशुदर्शन मिति चेत् , न तर्हि प्राक् तद्वत् तदधिगमोऽन्य- बयाह-समानोऽयम्-अधिगमः, त्वन्नीत्या अनित्यत्वादी था रूपादिनिश्चयवत् स्यात् तदा एवाऽयं निमित्ताबि
अनुमेये तथाऽपि-पवमपि, न तद्वद्-रूपादिवद् तद्दर्शनम्शेषात् , तदधिगमस्यैव तस्चतस्तबिमित्तचात् वाधका
नित्यत्वादिदर्शनमिति चेत् । एतदाशझ्याह-न तर्हि प्राग्
अविकल्पेन, तद्वत्-रूपादिवत्, तदधिगमः-अनित्यत्वायनुपपत्तेः विशेषेण भावात् एकान्तैकत्वात् , अन्यथा
धिगमः, अन्यथा यदि स्यात् , ततो रूपादिनिश्चयवत्, तदनुपपत्तेः ।
स्यात् , तदा एवायं नित्यत्वादिनिश्चयः । कुत इत्याह
निमित्ताऽविशेषात् अविशेषश्च तदधिगमस्य एव अवितथा च आह-न हि प्रत्यक्ष भागशो-भागेन उत्पद्यते, |
कल्पेन रूपाचधिगमस्य एव, तत्त्वतः-परमार्थेन, तन्निमिकुत इत्याह-तस्य निरंशत्वात् सुलक्षणमेतद् इति निरं
तत्वात्-अनित्यादिनिश्चयनिमित्तत्वात् , बाधकानुपपत्तेः शम् , सत्यं नोत्पद्यते भागशः प्रत्यक्षम्, इति-अस्मात्
रूपादिनिश्चयानुमानेन, तथा च पाह-अविशेषेण भावाअनुमानविकल्पपरामर्शाऽऽलम्बनम् अपि, तत्र-वस्तुनि ,
त् रूपाद्यधिगमवद् अनित्यत्वाद्यधिगमत्वेन भावात् , भावगृहीतमेव-प्रक्रमाद् प्रत्यक्षेण, केवलं गृहीतेऽपि-सति ,
श्च एकान्तैकत्वात् अधिकृताधिगमस्य । इत्थं च एतयेषु प्राकारेषु-अनित्यत्वादिषु, न तदनन्तरमेव-न दर्श
दकीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा तदनुपपत्तेः । पकान्तैकत्वा. नाऽनम्तरमेव,निश्चयोत्पत्तिः, भूयसा-बाहुल्येन, व्याप्ति
नुपपत्तेरधिकृतानुभवस्य रूपादिनिश्चयवत् स्यात् तदा एव । दर्शनातु-अविनाभावदर्शनेन पुनर्भवति , तद्विषय एब--
अयमिति स्थितम्। अनित्यत्वादिविषय एव , अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् का
दूषणान्तरमभिधातुमाहरणात् , प्रमाणमनुमानविकल्पो नेतरो-रूपादिविकल्प इति । एतदाशङ्कयाह--यत् किश्चिदेतत्-अनन्तरोदितमसार
किश्च-अयमधिकृताधिगमः किं स्वगृहीतनिश्चयजननस्वमित्यर्थः । कुत इत्याह--अनालोचिताभिधानत्वात् कार
भाव; १, उत-समारोपजननस्वभावः ?, आहोस्विद्-उणात् , अनालोचिठाभिधानत्वं च प्राधे-वस्तुनि प्राका- भयजननस्वभावः?. उताहो-अनुभयजननस्वभाव इति । राभावात् , अभावश्च सर्वथा-एकान्तेन , एकस्वभावत्वा
यदि स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभावः, निरवकाशः समारोभ्युपगमाद् वस्तुन इति , परिकल्पितास्ते इति । एतदपो
पः, न चासौ अन्यनिमित्तोऽनिमित्तो वा। अथ समारोहाय आह--परिकल्पितानाम्--आकाराणाम् ,असवात्तस्वेन, तत्सत्वे--परिकल्पिताऽऽकारसत्त्वे, नियमतो--निय- पजननस्वभावः, कुतोऽस्माद् निश्चयजन्म, अतत्स्वभावमेन , अतिप्रसङ्गात् परिकल्पनया विरोध्याऽऽकारभावेन- भावे अतिप्रसङ्गात् । उभयजननस्वभावत्वे विरोधः, न्यातथा युक्तिो न्यायतः, व्याप्त्यसिद्धेः कारणात् , असि
याऽविरोधेऽपि अभ्युपगमबाधा । अनुभयजननस्वभावत्वे द्धिश्च तद्भावस्य-व्याप्तिभावस्य, कथञ्चित् भेदनिमित्तत्वा
तदुभयाभावः, तथा च प्रतीतिविरोध इति । एकान्तेन त् व्याप्यव्यापकयोरिति प्रक्रमः । किमित्येतदेवमित्याह-अन्यथा-पवमनभ्युपगमे, व्याप्यव्यापकयोः एकान्ता
च निर्विकल्पकप्रत्यक्षवादिनो न न्यायतो रूपादिनिश्चयाभेदादी इत्यर्थः, तदयोगात्-- व्याप्तिभावायोगात् । एत
ऽनुमाननिश्चययोमद इति सूक्ष्मधिया भावनीयम् । देव भावयति--नहीत्यादिना न यस्मात् , अभेदवत एव किञ्चेत्यादि । किञ्च--अयमधिकृताधिगमः अविकल्परूपः, एकान्तैकस्य एव इत्यर्थः, अनित्यत्वस्य स्वात्मना अनि- किं स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभावः ?, उत-समारोपजननत्यरधन एव व्याप्तिः, अनित्यत्वस्य अनित्यत्वेन व्याप्तिरिति स्वभावः ?, आहोस्विद् उभयजननवभावः?, उताहो-अव्यवहाराऽयोगाद् । न च भिन्नयोरेव एकान्तेन हिमवविन्ध्य. नुभयजननस्वभाव इति ? | किश्चातः, सर्वथाऽपि दोष योरिति भावनीयम् । तथा अनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वाऽभा- इति । श्राह च--यदि स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभावः । ततः पाद अनुमानविकल्पस्य । अभावश्च वस्तुरूपस्य अध्यक्षत किमित्याह-निरवकाशः समारोपः तन्निमित्ताधिगमस्य स्वएव-प्रत्यक्षेण एव इत्यर्थः , अधिगमात् , ततश्च श्रात्मान- गृहीतनिश्चयजननस्वभावत्वात् , न च असौ-समारोपः अ. मेव अधिगच्छति अनुमानविकल्प इति पराभ्युपगमः । न्यनिमित्तोऽनिमित्तो वा, किं तर्हि ?, अधिकृताधिगमनिएनमेवाधिकृत्य श्राह--स्वाधिगमस्य च इतरत्रापि मित्त एव, तदा अन्यस्य अभावात् । अथ समारोपजनन
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(६७) सामयणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरण विसेस स्वभावोऽधिकृताधिगमः, कुतोऽस्माद् निश्चयजन्म ? , कथं त्वात् कल्पनायाः स्वसंविदा सह तत्त्वेतरविकल्पाभ्यां-तच न स्याद् ?, इत्याह-अतत्स्वभावात्-अधिकृताधिगमा- स्वाऽन्यत्वविकल्पाभ्यामित्यर्थः, दोषापादनमनन्तरोदितमयुत, समारोपजनस्वभावत्वेन भावनिश्चयजन्मनः अतिप्र- मिति चेत् । एतदाशङ्कयाह-न-नैतद् एवम् , तदवस्तुत्वेन सङ्गात् , तद्वद् निश्चयान्तरभावेन । उभयजननस्वभावत्व
तस्या:-कल्पनायाः अवस्तुत्वेन हेतुना । किमित्याह-विकल्पस्वगृहीतनिश्चयसमारोपोभयजननस्वभावत्वे विरोधः, भ्या- धियः कल्पनाबुद्धेः अभावप्रसङ्गात् , प्रसङ्गश्च स्वसंविन्मायाविरोधेऽपि तत्तथाचित्रस्वभावतया अभ्युपगमबाधा- प्रस्य एव भावात् , सर्वत्र “इयमेव कल्पना उपरक्ला विकल्पअनेकान्तवादापत्तेः। अनुभयजननस्वभावत्वे अधिकृताधि- धीः" इत्यपि असद् । इति आवेदयन्नाह-असत्याः कल्पनागमस्य । किमित्याह-तदुभयाऽभावो-निश्चयसमारोपोभ
याः अवस्तुत्वन । किमित्याह-उपरागायोगात् खसंविदेव याभावोऽस्तु इति आरेकाऽपोहायाऽऽह-तथा च एवं च
लिटा विकल्पधीः, इत्यपि अयुक्तिमद, इत्याह-क्लिष्टता सति प्रतीतिविरोधः, तदुभयस्य तथावेदनात् , इति-पव- सिद्धेरिति स्वसंविन्मात्रत्वेन, अतः स्थितमेतत् , न च एमुलनीत्या , एकान्तेन निर्विकल्पप्रत्यक्षवादिनो वादिनः , न
तद् न्याय्यमिति । न्यायतः-उक्लनीत्या,रूपादिनिश्चयाऽनुमाननिश्चययोभैद इ.
किञ्च-एकान्त वादिनः सर्वथा कल्पनाऽपोढत्वे कल्पति-एतद् , सूदमधिया भावनीयम्।
नाऽपोढकल्पनातोऽपि अपोढत्वात् कल्पनाऽपोढत्वलक्षकथं तर्हि अनुमानविकल्पो नाऽनन्तरम् ?, सन्न्यायतोऽ
यायोगः । प्रत्यक्षसामान्य लक्षणविषय इति चेत् । न । क्षज्ञानेन तद्विषयानधिगतेः । वस्तुनोऽनेकधर्मत्वात् क्षयो
तस्य ततो व्यतिरिक्नेतरविकल्पायोगात , व्यतिरिकत्वे न पशमवैचित्र्याद् इत्युक्तप्रायम् । अतो न निर्विकल्पकमेव
तदध्यक्षलक्षणम् , अव्यतिरिक्तत्वे तु उनवलक्षणायोगः। प्रत्यक्षम् । आइ-यदि एवम् , कथं तर्हि अनुमानविकल्पो न अनन्तरं
निरूपणाऽनुस्मरणविकल्पाभ्यामविकल्पकं खभावविदर्शनस्य इति प्रक्रमः? । एतदाशङ्कयाह-सन्न्यायता-तत्त्वनी
कल्पेन तु सविकल्पकमिति चेत् । न । विरोधात् , अन्यथा त्या, अक्षशानेन-अविकल्पेन, तद्विषयानधिगतेः-अनुमान- अनेकान्तापत्तेः स्वाभ्युपगमपरित्यागादिति । विकल्पविषयानधिगतेः , कथं कस्यचिद् अधिगतिः, क
दूषणान्तरमाह-किश्चेत्यादिना । किञ्च, एकान्तवादिनो स्यचिद् न इत्येतदपि युक्तिमदिति ? । एतदाशङ्कयाह-ब- वादिनः एकान्तेन कल्पनापोढमेतत्, ततश्च सर्वथा कल्पनास्तुनोऽनकधर्मत्वात् , पतदपि युगपदेव प्रायशः इत्याह-क्ष
पोढत्वे सति । किमित्याह-कल्पनापोढकल्पनातोऽपि अपोयोपशमवैचिच्याद् इत्येतद् उक्नप्रायम् । प्रायेण उक्तम् , अतो
ढत्वात् कारणात् , कल्पनापोढत्वलक्षणाऽयोगः, तत्र तद्योननिर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षमिति निगमनम् ।
ग्यताऽभावादिति । प्रत्यक्षसामान्यम् अप्रत्यक्षव्यावृत्तिरूपम् लक्षणायोगाच, "प्रत्यक्षं कल्पनापोढमत्रान्तम्" इति लक्षणविषय इति चेत् तत्र तद्योगता इति भावः । एतदाशलक्षणम् , न चैतद् न्याय्यं परनीत्याऽनेकदोषापत्तेः, फ- क्याह-ज, तस्य-प्रत्यक्षसामान्यस्य, ततः-प्रत्यक्षात् । ल्पनापोढत्वस्य अव्यापकत्वात, कल्पनायामपि स्वसंविदः
किमित्याह-व्यतिरिक्तरविकल्पाभ्यामयोगात् । श्राह च
व्यतिरिक्लत्वे प्रत्यक्षात् तत्सामान्यस्य म तदध्यक्षलक्षणं प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् , तस्याश्च तदव्यतिरिकत्वात ,व्यति
तव्यतिरिक्ततत्सामान्य लक्षणत्वात् , अव्यतिरिक्तत्वे तु रिकत्वेऽधिकृतविशेषणायोगाव,तचतो व्यवच्छेद्यानुपपत्तेः
प्रत्यक्षात् तत्सामान्यस्य , उक्लवद् यथोक्तं तथा । किश्रवस्तुत्वात् कल्पनायाः। स्वसंविदा तच्वेतरविकम्पाभ्यां मित्याह-लक्षणाऽयोगः तत्र तद्योग्यताऽभावाद् इति । दोषापादनमयुक्तमिति चेत् । न । तदवस्तु तच्चेन विकल्प- अत्राह--निरूपणाऽनुस्मरणविकल्पाभ्याम्--एवंभूतमेतद् धियोऽभावप्रसङ्गात् स्वसंविन्मात्रस्यैव भावात , असत्योप
इति , तदात्वे आयत्यां चैतद्भगोचराभ्यामविकल्पकमे
तत्, स्वभावविकल्पेन तु कल्पनापोढस्वभावत्वलक्षरागायोगात् क्लिष्टताऽसिद्धेरिति ।
णन सविकल्पकमेव इति चेत् । पतदाशङ्कयाह-न, तथा लक्षणाऽयोगाच्च न निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षमिति । ल- |
विरोधात् ' अविकल्पर्क सविकल्पकं च' इति विरोक्षणाऽयोगमाह-"प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तम्" इति लक्षण
धः, अन्यथा निमित्तभेदतो विरोधमन्तरेण । किमित्याहपरकीयम्, न च एतद् न्याय्यम् । कुत इत्याह-परनीत्या अ.
अनेकान्तवादापत्तेः । ततः किमित्याह-स्वाभ्युपगमपरिनेकदोषापत्तेः अस्य लक्षणस्य, श्रापत्तिश्च कल्पनापोढत्वस्य
त्यागाद् नेति योगः। लक्षणत्वेन उपन्यस्तस्य अव्यापकत्वात् । अव्यापकत्वं च कल्पनायामपि स्वसंविदः परेण प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात् , क
एवमभ्रान्तत्वविशेषणमपि असङ्गतमेव, परनीतितो व्यल्पनापि स्वसंवित्ताधिष्ठानार्थे विकल्पनाद इति । तस्याश्च | वच्छेद्याऽयोगात् । इन्दुद्वयादिज्ञानं व्यवच्छेद्यमिति चेकल्पनायाः, तव्यतिरिक्तस्वात्-स्वसंविदव्यतिरिक्तत्वात् ।। तन | तस्याऽभ्रान्तत्वात, एतच्च लक्षणोपपत्तेः तस्याइत्थं चैतत् अङ्गीकर्तव्यमित्याह-व्यतिरिक्त्वे कल्पनायाः,
ऽपि तत्प्रकाशकस्वभावहेतुजत्वतश्च भ्रान्तताऽसिद्धेः, अस्वसंविदोऽभ्युपगम्यमाने। किमित्याह-अधिकृतविशेषणाऽ. योगात् , प्रयोगश्च तस्वतः-परमार्थेन , व्यवच्छेद्यानुपपत्तेः
न्यथा तदयोगात् , तस्य चाऽनुभवसिद्धत्वात् , न च सर्वस्या एव स्वसंविदः कल्पनापोढत्वात् । अत्राह-अयस्तु- बहिस्तद्विषयानुपलब्ध्या तत्सिद्धिः, तद्ग्रहणस्वभाव
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सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस धिया तद्विषयानुपलब्ध्यसिद्ध, अन्यथाऽनुपलब्धौ त- नामैवं ततः किमित्याह-प्रतैमिरिकाणां च प्रमातृणाम , दावाऽसिद्धरतिप्रसङ्गात् । न चाऽतैमिरिकस्यापि तत्प्र- सदभावात्-तिमिराऽभावात् , ततश्च कारणवैकल्यात् कात्ययप्रसङ्गः, तस्य तिमिरतदन्यहेतुजन्यस्वभावत्वात् , अ
र्याऽभाव इति स्थितम् । इत्थं च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह
तथा लोकप्रसिद्धः अमिरिकाणां तिमिरा भावेन न इतैमिरिकाणां च तदभावात् तथा लोकप्रसिद्धः। न च
दुवयादिप्रत्यय इति लोकप्रसिः । न चेत्यादि । बाधातोऽस्य भ्रान्तता, बाधाऽसिद्धः भित्रकालविषय- न च बाधातः कारणात् , अस्य इन्दुह्र-- प्रत्ययेन तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात् , कचिद् अभ्रान्त- यादिशानस्य इति प्रक्रमः भ्रान्तता । कुत इत्याह-- स्याऽपि प्रसादौ तदन्यतो बाधोपलब्धेश्च । न चाs
बाधासिद्धः तस्यैव तिमिराऽपगमे एकेद्वादिशानभावतो नर्थक्रियाकरणतः, अप्राप्यदेशगतजलादिनानेन व्यमि
बाधा । इत्यारेकानिरासाय पाह--भिनेत्यादि । भित्री का
लविषयौ यस्य स भिन्नकालविषयः , एवंभूतश्चासौ प्रचाराव , संविन्मात्रार्थक्रियाविधाने चास्य इतरत्रापि त
स्ययश्च इति विग्रहस्तेन , तदभ्युपगमे-बाधाऽभ्युपगमे । द्भावात् तथाप्रतीतेः, न च लोकप्रतीतितः, अभ्युपग- किमित्याह--अतिप्रसङ्गात्-सर्व एवंभूतः तदन्यस्य बाधमविचाराद् तेन च तदप्राप्तः, तस्य च इहाधिकृतत्वा- कति अतिप्रसनः । दोषान्तरमाह--क्वचिदित्यादिना । दिति अलमनया लोकागमानुभवविरुद्धया अतिसूक्ष्मेचि
क्वचिद् मन्दमन्दप्रकाशादी, अभ्रान्तम्याऽपि प्रक्रमाद् शा
नस्य, असपोदी--प्रसादिविषयस्य, तदन्यतो भ्रान्ताद् कया उक्तवत् सर्वत्र असमञ्जसतापत्तेः। यस्तु लोकादि
सानाद् इति प्रक्रम एव । किमित्याह-बाधोपलमधेश तथा सापेक्षः तस्यैव तद्भेदस्य विद्वदङ्गनादिलोकप्रतिष्ठित- रज्जुचलनादेः सर्पज्ञाने न तदसर्पज्ञानस्य, इति नालाकि त्वात् अविगानतस्तथाऽप्रतीतेः तद्व्यवस्थाकारिसदागम- कमेतद् अतो भावनीयमिति । दोषान्तरमभिधातुमाह--न भावाद् उक्नदोषाभाव इति ।
चेत्यादि । न च अनर्थक्रियाकरणतोऽस्य भ्रान्तता इति व
तते । कुत इत्याह--अप्राप्य देशगत जलादिशानेन व्यभिचाएवं यथा कल्पनापोढत्वविशेषणम् , तथा अभ्रान्तत्ववि
राद् इति भावितार्थमेतत् । संविन्मात्राऽक्रियाविधाने च शेषणमपि असंगतमेव । कुत इत्याह-परनीतितो व्यव- अस्य-अनन्तरोदितज्ञानस्य । किमित्याह--इतरत्राऽपि प्रच्छेद्याऽयोगात् । इन्दुद्वयादिज्ञानम्-आदिशब्दाद्-विय
क्रमाद् इन्दुद्वयादिक्षानेऽपि, तद्भावात्-संविन्मात्रा.ऽर्थक्रियाकेशज्ञानादिग्रहः, व्यवच्छेद्यमिति चेत् । एतदाशङ्कपाह- विधानभावाद्, भावश्च तथाप्रतीतेः । न चेत्यादि । नच-- न, तस्य इन्दुद्वयादिक्षानस्य अभ्रान्तत्वात्, एतचाऽभ्रा- लोकप्रतीतितोऽस्य भ्रान्तता इति प्रक्रमः । कुत इत्याहन्तत्वं तल्लक्षणोपपत्तेः-अभ्रान्तलक्षणोपपत्तेः, उपपत्तिश्च अभ्युपगमविचारात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह--तेन तस्याऽपि इन्दुद्वयादिज्ञानस्य , तत्प्रकाशकस्वभावत्वेन-इ- च-अभ्युपगमेन, तदमाप्तेः-उक्लवद् भ्रान्तताऽप्राप्तः, तस्य न्दुद्वयादिप्रकाशकस्वभावत्वेन, तारकफलजननस्वभावहे
च-अम्युपगमस्य, इह-प्रक्रमे अधिकृतत्वात् , ततश्च-ततो तुजत्वतश्च इन्दुद्वयादिक्षानजननस्वभावहेतूत्पन्नत्वेन च यत् सिद्धयति तत् तत्त्वम् , अतोऽन्यद् अतस्वमित्यलमअस्य भ्रान्तताऽसिद्धेः, अन्यथा-पचमनभ्युपगमे , तद- नया एवंभूतया , लोकाऽऽगमाऽनुभवविरुद्धया अतियोगात्-इन्दुद्वयादिशानाऽयोगात्, तस्य च इन्दुद- सूचमेक्षिकया। किमित्यत पाह--उक्लवद्-यथोक्तं तथा , यादिज्ञानस्य अनुभवसिद्धत्वात् । न च बहिर्वियदादी, सर्वत्र असमञ्जसतापत्तेः, अतो जातिरियमिति प्रतिपत्ततद्विपयाऽनुपलब्ध्या-इन्दुद्वयादिज्ञानविषयाऽनुपलभ्या- व्या सर्वत्र तस्वेन । यस्तु लोकादिसापेक्षो-लोका-गमाकारणेन, तत्सिद्धिः-भ्रान्ततासिद्धिः । कुत इत्याह-तद- अनुभवसापेक्षा वादी इति गम्यते , तस्य उक्तदोषाऽभाव ग्रहणस्वभावधिया-बहिस्तद्विषयग्रहणस्वभावधिया, इन्दु- इति संबन्धः । कथमित्याह-एतद्भेदस्य--प्रक्रमाद् भ्रान्तेतयादिग्रहणस्वभावबुद्धधा इत्यर्थः, तद्विषयानुपलब्ध्यसि- रहानभेदस्य, आविद्वदनादिलोकप्रतिष्ठितत्वात् कारणात्, द्धः-इन्दुद्वयादिवानविषयानुपलब्ध्यसिद्धेः, तद्ग्रहणसभा- एतत्-प्रतिष्ठितत्वं च अविगानतस्तथा भ्राम्तेतरस्धेन प्रतीवा, हि तद् गृह्वात्येव, अन्यथा तत्स्वभावताऽयोगः । अ- तेः, तथा तयवस्थाकारिसदागमभावाद्--अधिकतैतद्भेदन्यथेत्यादि । अन्यथा-अतद्ग्रहणस्वभावया धिया इति प्र- व्यवस्थाकारिसर्वशप्रणीतागमभावादित्यर्थः, उक्तदोषाभाक्रमः, अनुपलब्धिः बहिस्तद्विषयस्य इति प्रक्रम एव - घः जातियुक्तिभिर्धान्ततरमानयोः समत्वाऽऽपादनमुक्तो दोत्यन्यथानुपलब्धिस्तस्याम् । किमित्याह-तदभावाऽसिद्धेः- षस्तदभावः, उपन्यस्तहेत्वन्यथानुपपत्तिरिति । बहिस्तद्विषयाऽभावाऽसिद्ध इन्दुद्धयायभावासिद्धेरित्यर्थः।
दूषणान्तराभिधित्सयाऽऽह-- कुत इत्याह-अतिप्रसङ्गात्-पटादिग्रहणस्वभावया धिया घटो न गृह्यत इति तस्यापि अभावप्रसलाद - किश्च-निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमित्यत्र न प्रमाणं, तेनैव त्यर्थः । न चेत्यादि । न च अतैमिरिकस्याऽपि प्रक्रमात तदनधिगतेः अर्थविषयत्वात् तस्य च ततोऽन्यत्वात् , तप्रमातुः तत्प्रत्ययप्रसङ्गः-इन्दुद्वयादिप्रत्ययप्रसङ्गः, तदस्ति
थाहि-न तनिर्विकल्पकत्वमेव तदर्थः, न चानर्थो विषयः, इति कृत्वा । कुत इत्याह-तस्येत्यादि । तस्य-इन्दुद्दयादिप्रत्ययस्य तिमिरसहायतदन्यहेतुजन्यस्वभावत्वात तिमि
न चाऽविषयेऽधिगतिरिति न तत्रास्य प्रमाणता, अतिरसहायचक्षुरादिजन्यस्वभावो हि इन्दुद्वयादिप्रत्ययः । यदि प्रसङ्गात् । उभयं विषय इति चेत् । न । उभयोस्तल्लन
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सामल विसेस
योगात् स्वनिर्विकल्पकत्वस्य तदकारणत्वात् अकार स्प चाविषयत्वात् अन्यथा अभ्युपगमविरोधात् । एतेन स्वयंचिदिवत्वं प्रत्याख्यातम् ।
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किञ्चत्यादि । किंच निर्विल्पकं प्रत्यक्षम् इति श्र प्रार्थे न प्रमाणम् । कुत इत्याह-- तेनैव-- प्रत्यक्षेण, तदनभिगतेः तस्य निर्विकल्पकस्य अनधिगतः अन धिगतिश्व अर्थविषयत्वात् प्रत्यक्षस्य तस्य च-अर्थस्य, ततः-:--प्रत्यक्षाद् अन्यत्वात् प्रस्तुमाहतथादीत्यादिना । तथाहि न तद् निर्विकल्पकस्यमेव भ कृनप्रत्यक्षनिर्विकल्पकत्वमेव तदर्प-प्रत्या न च अनर्थो विषय:-" रूपाऽऽलोकमनस्कार- चतुर्भ्यः संप्रवनंगिवाऽनलः॥१॥" इति वचनात् न च विषये अधिगतिः, अपन्यायाद्, इति एवम्, न तत्र - 1 - निर्विकल्पकत्वे, श्रस्य प्रत्यक्षस्य प्रमाता कुतइत्याह विषयला योगन मायताभ्युपगमे सर्वत्र प्रमाणतापत्तिरिति प्रतिप्रसङ्गः, उभयम् - स्वनिर्विकल्पक स्वार्थो भयम् विषयः प्रत्यक्षस्य इति चेत् । एतदाशङ्क्याह-न । उभयोः-स्वनिर्विकल्पकत्वार्थयोः प्रयोगात् विषयलक्षणाऽयोयात्, अयोगश्च स्वनिर्विकल्पकत्वस्य तदकारणत्वात्प्रत्यक्षाऽकारणत्वात्, अकारणस्य च श्रविषयत्वात् । इत्थं चैतद् अङ्गीकर्तव्यमित्याद अन्यथा ऽभ्युपगमयिरीधात् । विरोधश्व " नाकारणं विषयः " इति वचनप्रामाण्यात् तरे विषय इति । तेनेत्यादि । एतेन श्रनन्तरोदितेन, स्वसंविदितत्वं प्रत्याख्यातं प्रत्यक्षस्य इति प्रक्रमः ।
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( ६७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अनेन वेदप्रसङ्गात् सर्वथैकस्वभावत्वाद्, निपितापतेः । न च स्वसंवेदनमेव विषयवेदनम् । तयोः कालादिभेदात् तद्वेदनस्यैकत्वाभावात् तचित्रताप्रसङ्गादित्येकस्वभावत्ववस्तुवादिनः अन्याऽवेदनप्रसङ्ग एव एवं मति स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनात् तत्सामर्थ्यतस्तत्पृष्ठमा श्री विकल्पः खतस्तद्विषय एव स्यात् रूपादिविकल्पवत् न च भवति तथाऽप्रतीतेः न च तमन्तरेण तत्तथाताव्यवस्थितिरतिप्रसङ्गादिति, एतेन यदाह न्यायवादी
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66 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढं, प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति । प्रत्यात्मवेयः सर्वेषां विकल्पो नाम संश्रयः ॥ १ ॥ संहृत्य सर्वतश्चिन्तां स्तिमितेनाऽनन्तरात्मना । स्थितोऽपि चक्षुषा रूप-मीक्षते साक्षजा मतिः ॥ २ ॥ पुनर्विकल्पयन् किञ्चिदासीन्मे कल्पनेदृशी । इति वेत्ति न पूर्वोक्रावस्थायामिन्द्रियाद् गती ॥ २॥” इत्यादि, तदपाकृतमवसे यम् उक्तवत्प्रत्यक्षेणैव असिद्धेः तदेकस्वभावत्वविरोधादिति ।
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इहेच उपमाह-अनेन स्वसंवितेन प्रत्यक्षेण । किमि स्पाइ विषयावेमप्रसङ्गात् प्रसङ्ग सर्वथा एकस्वभा
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सामलविसेस दत्वाद अस्य एवमपि को दोष इत्याद निर्विषयतापतेः स्वसंविदितत्वेन । न चेत्यादि । न च स्वसंवेदनमेव विषय[वेदनम् कुत इत्याह तयो- स्वविषयोः कालादिभेदात् आदिशब्दात्-स्वरूपग्रहः । यदि नामैवं ततः किमित्याह - तद्वेदनस्य तयोः स्वचोदनं तदनं तस्य किमि त्याह-एकत्वाऽभावात् उभयवेदनेन, अत एव तचित्रताप्रसङ्गाद् इत्येवमेकस्वभावत्ववस्तुवादिनो वादिनः । किंमित्याह-अन्याऽवेदनप्रसङ्ग एव स्वव्यतिरिक्तविषयाऽवेदनसङ्ग एव इत्यर्थः एवं च सति स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनात् कारणात् तत्सामध्येतःस्थनिर्विकल्प कल्पवेदनामध्येन हेतुना, वत्पृष्ठभावी विकल्पः - प्रक्रमात् सामान्येन प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पः, स्वतः - श्रात्मना एव समारोपम्यमन्तरेण तद्विषय एव स्यात् स्वनिर्विकल्पकत्ववेदन एव भवेत् रूपादिविकल्पवद् इति निदर्शनम् । न च भवति स्वत एव तथाऽप्रतीतेः कारणात् न च तमन्तरेण विकल्पम्, तत्तथाताव्यवस्थितिः - तस्य प्रत्यक्षस्य तथाताम्यस्थिति स्वनिर्विकल्पवेदनमाचन्यदस्थितिः स्वसंविदितत्वव्यवस्थितिरित्यर्थः । कथं न इत्याह-अतिप्रसङ्गात् विषयान्तरविषयवेदनाऽभावप्रसङ्गादिति तेन अनन्तरोदितेन यद्दाह न्यायवादी धर्मकीर्तिर्वार्तिके-“प्र त्यक्षमित्यादि " तदपाकृतमव सेयमिति योगः- प्रत्यक्षं प्रस्तुतम् कल्पनापेोदमित्येतत् प्रत्ययेन सिध्यति । कथमित्याह-प्रत्यात्मवेद्यो यस्मात् सर्वेषां प्रातृणाम् पि कल्पो नाम -संश्रयः शब्दानुविद्ध इत्यर्थः ॥ १ ॥ तथा संहृत्य सर्वतश्चिन्तां विकल्परूपाम् स्तिमितेन श्रन्तराऽऽत्मना-प्रसन्ननिव्यापारेख, स्थितोऽपि सन्चारूपमीक्षते- पश्यति, यया बुद्ध्या सा श्रक्षजा मतिः ॥ २ ॥ ईक्षित्वा पुनर्विकल्पयन् किंचित् पश्चाद् आसीद् मे कल्पना ईशी एवंभूता इति बेति पूर्वोक्रावस्थायां चक्षुषा - पेक्षणलक्षणायाम्, इन्द्रियाद् गतौ ॥ ३ ॥ इत्यादि यदाह न्यायवादी तद् अपाकृतम् अपास्तमदसेयम् कथमित्याहदवत् यथो तथा प्रत्यय प्रत्य स्वविरोधात् तस्य प्रत्यस्य एकस्यापत्यविरोधात् स्वव सिध्यति इत्यस्य असिद्धेः, असिद्धिश्च तदेकस्वभावविषयपरिकन इति भावितार्थमेतदिति ।
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सामान्य सिद्धानुमानमा विरस्यति
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न चानुमानमत्र प्रमाणम् अस्य स्वचत्वात् अनुमानस्य च सामान्यसचवालम्बनत्वात् न चेदं परपंचेचा गमकलिङ्ग सम्भवात् स्वभावकार्या सिद्धेः स्वभावस्य तादात्म्येन तत्त्वात् तद्वत् तदग्रहणात् तद्ग्रहे साध्यप्रतिपतेः तदप्रतिपची तहसायोगात् एकान्तैकत्वात् तथा ग्रहे मोहाऽभावात्, भावे वा निवृत्यनुपपत्तेः उपावाऽभावादिति । अने न शिशपादिप्रतिपती वृदाऽप्रतिपत्तिः प्रत्युक्का तु स्ययोगचेमत्यात्, अन्यथा कथञ्चित् तद्भेदापत्तेः । व्यावृत्तिभेदोऽभ्युपगम्पत एव इति चेत् न हि तदेफस्वभावता । सोऽपारमार्थिक इति चेत् किमर्थमस्पोप
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सामरविसेस अभियानराजेन्द्रः।
सामएणविसेस न्यासः, म्यवहारार्थमिति चेत् कीदृशोऽसता व्यवहा- भूतत्वात् । यदि मामैवं ततः किमित्याह-नीलात् सर, परमार्थतो भ्रान्त इति चेत्, न तखतः साध्य
काशात् , नीलपीतबुद्धयाऽऽकारंतुल्यत्वात् बुद्धयाऽ5
गढधर्मधर्मिभावस्य ततोऽभावादिस्यर्थः , ततश्च परप्रसाधनभाव इति । एतेन "सर्व एव अयमनुमानाऽनुमेय
तिपादनोपायत्वाऽनुपपत्ते , तदसवरूपतया माऽसत उपाव्यवहारो बुद्धधारूढेन धर्मधर्मिन्यायन" इत्येतदपि प्रत्यु
यत्वम् । इत्याह-प्रातिप्रसङ्गात्-असत पायत्वे सर्वसिक्रम , अस्य तावदा प्रतिबद्धत्वात् , तस्य एकत्वेन अ- चापस्मा अतिप्रसा, इत्येवमुनीतेः असिजेन स्वभातथाभूतत्वात् नीलात् नीलपीतबुद्धयाकारतुल्यत्वात् प- वहेतोः सकाशात् , तदवगतिः--प्रक्रमात् प्रत्यक्षनिर्विकरप्रतिपादनोपायत्वानुपपत्तेरतिप्रसङ्गादिति न स्वभावहे
ल्पकत्वाऽवगतिः। तोस्तदक्गतिः।
___सामान्यसिद्धौ कार्यहेतुतां निरस्यतिमवेत्यादि । न च अनुमानमत्र-प्रक्रमा निर्विकल्पक
एवंन कार्यहेतोरपि,तनिर्विकल्पकत्वकार्यत्वेन कस्यचिद् स्वे प्रत्यक्षास्य प्रमाणम् । कुन इत्याह-अस्य-प्रत्यक्षस्य, स्व
असिद्धेः, सदा एकेन एकवेदनात् , तत्कार्यत्वस्य च तखाणत्वात् । यदि नामैकं ततः किमिल्याह-अनुमानस्य च दवधिकत्वात् तदग्रहणे तथा अग्रहयात, अन्यथा न्यासामान्यलक्षणाऽऽलम्बनत्वात्.तत् कथम् अन्याऽऽलम्बन- याऽयोगात् । तत्तत्स्वभावत्वतः तथाग्रहणेऽतिप्रसङ्गात् , मन्यत्र प्रमाणं भवति ? । दृषणान्तरमाह-न चेदमित्यादि।
अन्यतरदर्शनाव अन्यतरावगमापत्तेः तथा विशिष्टस्य न च इदम् अनुमानम् , परपक्षे-एकान्तकस्वभाववादिपक्ष, सार-शोभनम् , गमकालनाऽसंभवात् , असंभवश्च स्वभाव- |
ग्रहणात् , अभ्युपगमे अनुभवविरोधात् , अविनाभावग्रहणकार्याऽसिजेः-स्वभावश्च कार्य च स्वभावकार्य लिने इति मन्तरेण तदयोगात् , लोके तथोपलब्धेः तस्य च परफसक्रमः तयोरसिद्धः, असिद्धिश्च स्वभावस्य सत्वादेः क्षेऽभावात् , ज्ञानानां प्रतिनियतार्थत्वात् तसथाऽभावतादात्म्येन-साध्यात्म्येन हेतुना, तत्त्वात्-साध्यत्वात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह-तद्वत्-साध्यवत् , तद
तोऽनुसन्धानाऽयोगात् , तथाविधविल्पकस्याऽपि असिब्रहणात्-स्वभावाऽग्रहणात् । इत्थं चैतत् अङ्गीकर्तव्य
द्धेः, तस्याऽपि क्षणिकत्वात्, तशा तत्तनिश्चयाऽनुपपत्तेरिमित्याह-तद्ग्रहे-स्वभावग्रहे, साध्यप्रतिपत्तेः। ना- त्यत्राऽपि-बुद्ध्यारूढधर्मधर्मिन्यायतोऽपि अधिकृतव्यवहाभ्यथा इदमित्याह-तदप्रतिपसौ-साध्याऽप्रतिपत्ती, ता- राऽभावः, उक्तवद् न्यायतस्तदयोगात् , योगेऽपि अभिलहणाऽयोगात्-स्वभावग्रहणाऽयोगात् , अयोगश्च एकान्तै- | पितार्थाऽसिद्धिरेव ! अर्थस्याऽर्थगमकत्वाऽभ्युपगमात् तकत्वात् प्रक्रमात् साध्यहेत्वोःमोहव्यावृत्त्यर्थमपि अस्य प्र
तथातायां च निश्चयाऽभावात् , तस्य तद्विषयत्वाऽनभ्युपवृत्तिरयुक्ता इत्याह-तथाग्रहे-एकत्वेन ग्रहे मोहाऽभावात् , भावे वा तथाग्रहेऽपि मोहस्य। किमित्याह-निवृत्त्य
गमान् , पारम्पर्यतस्तत्तद्भावे प्रमाणाऽभावात् , परनीतितनुपपत्तेः, अनुपपत्तिश्च उपायाऽमावात् , तत्स्वरूपग्रहेऽपि स्तदसिद्धरिति । एतेन धूमात् अग्न्यनुमानं निषिद्धम् , सम्मोहस्य निवृत्ती क उपाय इति?, अनेन अनन्तरादि- समानयुक्तित्वादिति । यस्य पुनरन्वयव्यतिरेकवत् एकाsतेन, शिशपादिप्रतिपत्तौ सत्यां वृक्षाप्रतिपत्तिः प्रत्युक्ता। नेकस्वभावं निश्चयात्मकमेव प्रत्यक्षं तस्य उक्तदोषाऽभावः, कुत इत्याह-तुल्ययोगक्षेमत्यात्-शिंशपात्वस्य एव वृक्ष
सर्वनानपचरितनिबन्धनभावात ,प्रतीतिसचिवतचित्रस्वस्वाद इत्यर्थः। अन्यथेत्यादि । अन्यथा एवमनभ्युपगमे, कथंचित् तद्भेदापत्तः शिशपात्ववृक्षत्वयोर्भेदापत्तेः, व्या- भावतया तदविरोधात् इत्यलं प्रसङ्गेन । वृत्तिभेदोऽभ्युपगम्यत तच शिंशपात्ववृक्षत्वयोः शास्त्रा- एवमित्यादि । एवं न कार्यहेतोरपि सकाशात् तदवगऽधिकृतानित्यत्वकृतकत्वयोर्वा इति चेत् । एतदा- तिरिति प्रकमः । कुतो न इत्याह--तनिर्विकल्पकत्वकार्यशङ्कयाह-न तर्हि तदकस्वभावता-शिंशफादेः पकस्वभा- स्वेन-प्रत्यक्षनिर्विकल्पकत्वकार्यत्वेन कस्यचित् पदार्थस्य , वता, स-व्यावृत्तिभेदः , अपारमार्थिक इति चेत् । पत- असिद्धेः कारणात् , असिद्धिश्च सदा-सर्वकालम् , एकेन दाशङ्कथाह-किमर्थमस्य अपारमार्थिकस्य उपन्यासः?, शानेन इति सामर्थ्यम् , एकवेदनाद्-एकाऽनुभवात् । यव्यवहारार्थमिति चेत् । एतदाशङ्कयाह-कीरशोऽसता घेवं ततः किमित्याह-तत्कार्यत्वस्य च प्रक्रमात् प्रत्यव्यवहार ? परमार्थतो भ्रान्त इति चद् व्यवहारः। एत- क्षनिर्विकल्पकत्वकार्यत्वस्य च । किमित्याह-तदवधिकत्वादाशक्याह-न तस्वतः-परमार्थेन , साध्यसाधनभावो --अधिकतप्रत्यक्षाऽवधिकत्वात् । एवमपि किमित्याह-त भ्रान्तब्यवहारविषयत्वादिति । एतेन इत्यादि । पतेन-अ- दग्रहणे-विवक्षिताऽवध्यग्रहण सति । किमित्याह-तथा तदनन्तरोदितेन, "सर्व एव श्रयमनुमानाऽनुमेवव्यवहारो बु- वधिकवेन श्रग्रहखात् । इत्थं च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याहजधारूढेन धर्मधर्मिन्यायेन" इत्येतदपि भवता उक्त अन्यथा-एवमनभ्युपममे , न्यायाऽयोगात्, प्रयोगश्च तत्त प्रत्युक्तम् । कुत इत्याह--अस्य तावद् बुद्धयाऽऽरूढस्थ स्वभावत्वतः , तस्व-विवक्षितकारणकार्यत्वस्व तत्स्वभाधर्मधर्मिमावस्य, अर्थाऽप्रतिबद्धत्वाद--यस्त्वप्रतिबद्ध- वत्वतः तदवधिकस्वभावत्वतः तजन्यत्वेन, तथा तदवस्वास् अप्रतिबद्धत्वं च तस्य अर्थस्थ , एकत्वेन-एक- धिकत्वेन प्रहणे सति । किमित्याह-अतिप्रसङ्गात् । ततः स्वभावेन हेतुना , अतथाभूतत्वात् धर्मधर्मितया - किमित्याह-अन्यतरदर्शनाद् हेतुफलयोः । किमित्याह
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(६७६) सामरणविसेस अभिधामराजेन्द्रः।
सामरणविसेस अभ्यतराऽवगमापत्तेः हेतुफलयोरेव , भापतिपच सथा | इति विग्रहः, तया प्रतीतिसचिवतच्चित्रस्वभाषतया काइतरेतराऽवधिकत्वेन, विशिषस्य तत्स्वभावतया ग्रहणात् ।। रणेन, तद्विरोधात्-प्रक्रमाद् उक्लदूषणविपक्षतः, सविकल्पअस्त्वेवमित्यधिकस्य पाह--अभ्युपगमे-अधिकृतहास्य
कत्वादी तेनैव तदनधिगत्याविरोधाल, अविरोधश्च पूर्वअनुभवविरोधात् , विरोधश्च अधिनाभावग्रहणमुभयमतम
पक्षप्रग्या मुसारतः प्रतिपक्षोपम्यासेन स्वतन्त्रनीत्या स्व. सरेल, सदयोगात्-तथाविशिष्टस्य प्रणाऽयोगात्, -
यमेव भावनीय इति प्रलं प्रसङ्गेन । योगश्च लोके तथोपलव्धेः अविनामावग्रहणमन्तरेख संव- अस्तु वा निर्विकम्पकमपि प्रत्यक्षम् , तत्र असाधारणम्धिनः संबम्पयन्तरविशिषतया अग्रहणोपलम् अविना
मेव वस्तु प्रतिभासते इत्येतद् अयुक्तम् , म्यायाऽनुभभावनखात् , एतदेवं भविष्यति इत्याह-सस्य च-अविनाभावग्रहणस्य परपणे अभावात्, प्रभावश्च ज्ञानानो प्र
वविरोधात् । तत्प्रतिभासो हि निश्चयबलन व्यवस्थाप्यतिनियताऽर्थत्वात् क्षणिकत्वेन , यथोक्तम्-"एकमर्थ वि- ते , अन्यथा तदयोगात् ,भावतस्तेनैव तदनधिगतेस्तथा जानाति,न विज्ञानदयं यथा। विजानातिनावशान-मेक
अनुभवाऽभावात , एवमपि सत्कल्पने प्रतिप्रसङ्गापचे मर्थवयं तथा ॥१॥" इत्यादि । तत्तथेत्यादि । तस्य-हेत
नियामकाऽभावादिति निद्रागदर्शनात तनिश्चयःमानस्य, तथा फलहानत्वेन , अभावतः कारणात् । किमित्याह-अनुसन्धानाऽयोगात् 'अत इदम्' इत्यनुसन्धानम्।।
पि तु सदादिमात्रस्य, अंत: प्रथमाऽक्षसभिपाते तदेव तथाविधविकल्पस्याऽपि तत्पृष्ठभाविनः असिखे, असि- प्रतिभासत इति एतत् युक्तम् , सितेतरादिषुः अपि डिन्ध तस्याऽपि-विकल्पस्याऽपि, क्षणिकत्वात् स्थसंविधि- चिप्रादिदर्शने तावन्माननिश्चयात् , न च तत्र तदग्रहणष्ठितत्वेन, ततश्च तथा इतरेतराऽयध्यनुसन्धानत्वन, त
मेव, तथा अनुभवविरोधाद, न च अन्यथाग्रहणेज्यसनिश्चयाऽनुपपत्तेः प्रक्रमात् तस्य कस्यचित् , तनिश्चयः
थानिश्चयोत्पादः प्रमाणाऽभावात् । न च समपि अयं तनिर्विकल्पकत्वकार्यत्वनिश्चयः तत्तनिश्चयः तस्य अनुपत्तिः ततः, न कार्यहेतोरपि तदक्गतिरिति क्रियायोगः । न्याय्यः असमञ्जसत्त्वापत्तेः, न च वैभ्रमिक एवं भअत्राऽपि-कार्यहेती अपि, बुद्धयारूढधर्मधर्मिन्यायतोऽपि यम, तद्भावमावित्वोपलब्धेः । अक्ग्रहादपि अयमअधिकृतव्यवहाराम्भावः-अनुमानाऽनुमेयव्यवहाराऽभावः।
युक्त इति चेत् । सत्यम् , प्रदोषस्तु तन्मात्राऽनभ्युपगकुत इत्याह-उक्तवत् यथोक्तं तथा, न्यायतो-ग्यायेन, तद
मात् । एवमपि दृष्टवाचा इति चेत् । न । अन्तरालाऽवायोगात्-अधिकृतव्यवहाराऽयोगात्, योगेऽपि बुझ्याकडधर्मधर्मिन्यायेन अधिकृतव्यवहारस्य अभिलषिताऽर्थाऽसि
यत एवं तद्भावात् । कथमेतत् अवगम्यत इति चेत् ! , डिरेव । कुत इत्याद-अर्थस्य अर्थगमकत्वाऽभ्युपगमात् ।
अवग्रहबोधस्य अल्पत्वात् । यदि नामैवं ततः किमिति यदि नामैवं ततः किमित्याह-तत्तथातायां च अर्थाद् चेत् ? , नाऽसौ विशिष्टाभ्यवसायबीजम् , यस्तु भवति अर्थगमकतायां च निश्चयाऽभावात्, अमावश्च त
सोऽवान्तराऽवायरूपः, अवायबहुत्वात् । एवं सद्व्याचस्य-अर्थस्य, तद्विषयत्वाऽनभ्युपगमाद्-विकल्पविषयत्वा
नेकस्वभावं वस्तु तदितरधर्माऽऽलोचनेन समानधर्मउनभ्युपगमात् , पारम्पर्यतः-पारम्पर्यण , तत्तकावे तस्य विकल्पस्य तस्माद्-अर्थाद भावे । किमित्याह-प्र
व्यवच्छेदतः तद्बोधपूर्वकत्वात् , तदितरबोधस्य तथाऽनुमाणाऽभावात् , अभावश्च परनीतितः-परनीत्या, तदसि- भवतस्तत्तथास्वभावत्वाऽवगमात् , प्रथममेव विशेषाऽग्रखे:-प्रमाणासिद्धेः, स्वलक्षणात्-स्वलक्षणशानं ततो वि. हणात् इन्द्रियद्वारेणैव तथाऽयक्शेिषप्रतिपत्तिः, सकलकल्प इति । नहि एवं स्खलक्षणसामान्यलक्षणाऽऽखम्बनं परनीत्या प्रमाणमस्ति, इति भावनीयम् , एवमभिलषिता:
लोकसिद्धत्वात् । अन्यथा तदनुपपत्तेः, द्राग्दर्शने कचिऽसिद्धिरेव इति । एतेनेन्यादि । एतेन-अनन्तरोदितेन,
दभावात् शीघ्राऽवगमस्याऽपि दीर्घत्वात् कालसौम्याधूमाद् अग्न्यनुमानं निषिद्धम् । कुत इत्याह-समानयुक्ति- दिति । वस्तुनोऽनेकस्वभावात् सर्वेषां सदा भावात् , स्वाद् धूमाद् अग्न्यनुमानस्य । न च अयं सर्वस्यैव वादिनो
अन्यथा तदनुपपत्तेचित्राऽऽस्तरणवद् एकदैव किं नाऽदोष इत्याह-यस्य पुनरित्यादि । यस्य पुनर्वादिनः, अन्धयव्यतिरेकपद नित्याऽनित्यमित्यर्थः, अत एव एकाउने
विशेषप्रतिपत्तिः १ , येन 'एतदेवम् ' इति ग्रहीतु: चकस्वभावं निश्चयात्मकमेव प्रत्यक्षम्-'इदम्-इत्थमिति' योपशमाऽभावादित्युक्तप्रायम् । तस्य उक्नदोषाऽभावा, निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमिस्थान प्र
इहैव उपचयमाह-अस्तु वा इत्यादिना । अस्तु वा-भमाणं तेनैव तदनधिगतेः, अर्थविषयत्वाद् इत्येवमादकः, उ
स्तु ना, निर्विकल्पकमपि प्रत्यक्षम् , तत्र निर्विकल्पके प्रका दोषाः तदभावः। कथमित्याह-सर्वत्र-सविकल्पका.
स्या, असाधारणमेव-सजातीयेतरविविक्कमेव, प्रस्तु-रूदौ निरूप्ये । किमित्याह-अनुपचरितनिबन्धनभावात्-ता- पादि, घटादि प्रतिभासते । पति-एतद् अयुक्तम्-अघटस्विकनिबन्धनभावादित्यर्थः । अत एव माह-प्रतीत्या
मानकम् । कुत इत्याह-न्यायाऽनुभवविरोधात्-न्यायप्रधा. दि । तर प्रत्यक्षस्य, चिखभाक्ता सक्क्यिग्रहणरूपा- नोऽनुभवो न्यायाऽनुभवः तेन विरोधात् । अथवा ग्याविच्छिन्नार्थग्रहण समावसंवेदनवेदनेन तच्चित्रस्वभावता, यो-युक्तिः, अनुभवः-प्रत्यक्षम् , ताभ्यां विरोधात् । एनमेप्रतीतिसचिवा चासो तथाप्रतीतः तच्चित्रस्वभावता 5 वाऽऽह-तत्प्रतिभासो हि इत्यादिना । तत्प्रतिभासो हि
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(६८०) सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस प्रत्यक्षाऽऽकारो यस्माद् निश्चयबलेन व्यवस्थाप्यते , घते धर्माश्च तेषामालोचन-स्वरूपनिरीक्षणमिति विहार, अन्यथा निश्चयबलमन्तरेण, तदयोगाद् व्यवस्था- तेन समानधर्मव्यवच्छेदतो गेयत्वादिव्यवच्छेदेन व्यवच्छऽयोगात्, प्रयोगश्च भावतः परमार्थेन , तेनैव-नि दश्च सद्बोधपूर्वकत्वात्-समानधर्मबोधपूर्वकत्वात् , तदितरविकल्पकप्रत्यक्षण , तदनधिगतेः-प्रत्यक्षाऽऽकारस्याऽन- बोधस्य सस्यादिविशेषधर्मबोधस्य, एतच अस्य तथाऽनुभधिगतेः, अनधिगतिश्च तथा स्वाऽऽकारग्रहणतया अनु- वतः इत्थं क्रमाऽनुभवेन, तथास्वभावत्वाऽवगमाद् तस्तुनः । भवाऽभावात् , एवमपि-अनुभवाऽभावेऽपि, तत्कल्पने-तेने- इत्थं चैतद् अङ्गीकर्तव्यमित्याह-प्रथममेव-श्रादौ एव, विशेव तदधिगतिकल्पने, अतिप्रसङ्गापत्तेः प्रतिभासान्तरकल्पन- पाऽग्रहणात् सर्वत्र । किमित्याह-इन्द्रियद्वारेण एव तथा या इति भावः। इत्थं चैतद् अङ्गीकर्तव्यमित्याह-नियाम- समानधर्मग्रहणपुरस्सरा अर्थविशेषप्रतिपत्तिः । इत्थं चैतद् काऽभावादिति, अतः स्थितमेतद् अयुक्तमिति । न चेत्यादि ।। अङ्गीकर्तव्यमित्याह-सकललोकसिद्धत्वात् कारणात् , श्रन च द्राग्दर्शनात्-शीघ्रदर्शनात् , तन्निश्चयः-प्रक्रमाद् अ- न्यथा उक्नप्रकारव्यतिरेकेण, तदनुपपत्तेः-अर्थविशेषप्रतिपसाधारणवस्तुनिश्चयः, अपि तु-सदादिमात्रस्य निश्चयः, अ- त्यनुपपत्तेः, अनुपपत्तिश्च द्राग्दर्शने क्वचिद् विद्युत्संपातातः-अस्मात् कारणात् , प्रथमाऽक्षसन्निपाते अवग्रहणकाले दौ, अभावाद् अर्थविशेषप्रतिपत्तः । अन्यत्र भविष्यति इतदेव सामान्य प्रतिभासते, इति एतद् युक्तम् । उपपत्त्यन्त- त्यारेकानिरासाय आह-शीघ्राऽवगमस्यापि लोकदृष्ट्या रमाह-सितेतरादिष्वपि क्षिप्रादिदर्शने श्रादिशब्दाद्-मन्द- | दीर्घत्वात् तत्वदर्शनेन, दीर्घत्वं च कालसौचम्यात् , इति - दर्शनग्रहः, तावन्मात्रनिश्चयात्-सदादिमात्रनिश्चयात् , न च न्द्रियद्वारेण एव तथाऽर्थविशेषप्रतिपत्तिरिति क्रिया । श्रातत्र क्षिादिदर्शने , तदग्रहणमेव-सदादिमात्राग्रहणमेव । ह-वस्तुनोऽनेकस्वभावत्वाद् भवन्नीत्या सर्वेषां स्वभावा कुत इत्याह-तथा सदादिमात्रनिश्चयत्वेन अनुभवविरो- सदा भावात् त्वन्नीत्या एव , अन्यथा तस्य वधात्, न च अन्यथाग्रहणे-सितेतरादित्वेन ग्रहणे इत्यर्थः, स्तुनः , तदनुपपत्तेः-अनेकस्वभावत्वाऽनुपपत्तेः । किअन्यथा सदादिमात्रत्वेन निश्चयोत्पादः । कुत इत्याह--- मित्याह-चित्राऽऽस्तरणवद् इति निदर्शनम् , एक-' प्रमाणाऽभावात् । न च सन्नपि अयम् अन्यथा ग्रहणे दा एव-एकस्मिन् एव काले, किं न अर्थविशेषप्रतिअन्यथा निश्चयोत्पादो न्याय्यः । कुत इत्याह-अस
पत्तिः सन्निधानाऽविशेषेऽपि इति गर्भः', येन एतद्-अमञ्जसत्वापत्तेः सितेतरादिव्यवस्थाऽभावेन, न च वैभ्रमिक
नन्तरोदितम् , एवं तदितरधर्माऽऽलोचनादित्वेन इति । एव अयं-प्रक्रमाद् द्राग्दर्शनेन निश्चयः सदादिमात्रस्य । कुन एतदाशझ्याऽऽह-ग्रहीतुः क्षयोपशामाभावाद् एतद्-ए इत्याह-तद्भावभावित्वोपलव्धेः-सदादिमात्रभावभाबित्यो- वमित्युक्तमायं प्रायेण उक्तं प्राक। पलब्धेः , अवग्रहाद् अपि अनिदेश्यसदादिमात्रगोचराद् । एवम् , ईहादेः-कथश्चिद् अनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वात, अयं सदादिनिश्चयः, न शब्दाऽरूषितत्वेन युक्त इति चेत् , एकाधिकरणत्वात् , बोधवृद्धयुपपत्तेः, अलोचिताऽधिएतदाशङ्कयाह-सत्यम् , एवमेतत् , प्रदोषस्तु तन्मात्राद्
गमात् , तत्स्थैर्यसिद्धेः तथाऽनुभवभावात् , प्रतिक्षपाऽअवग्रहमात्रात् अनिर्देश्यसदादिमात्रगोचरात्, अनभ्युपग, मात् सदादिमात्रनिश्चयस्य । एवमपि दृष्टवाधा इति चेत्
योगात् , बाधकानुपपत्तेः न्यायत एव व्यवस्थितं प्रामातदनन्तरमेव भावाद् अधिकृतनिश्चयस्य , इत्यभिप्रायः । रायम् । एतदाशङ्कयाह-न, अन्तरालाऽवायत एव गेयत्वाद्यपेक्षया- एवामत्यादि । एवम्-उक्लनीत्या, ईहादेः-मतितिशेषजातस्य सदसदीहात्तरकालभाविनः सकाशात् , तद्भावात् सदादि- न्यायत एवं व्यवस्थितं प्रामण्यमिति योगः। हेतूनाहमात्रनिश्चयभावात् , शब्दाऽरूषितबोधाऽनन्तरभावी एव अ. कथंचिद् अनधिगताऽर्थाऽधिगन्तृत्वाद्-अवग्रहबोधाऽपेक्ष. यं निश्चय इत्यर्थः । कथमेतद्-अनन्तरोदितमयगम्यते इति या , तथा एकाऽधिकरणत्वात्-तद्वस्तुतत्त्वाऽपेक्षया , तथा चेत् ? । एतदाशङ्कयाह-अवग्रहयोधस्य प्रक्रमाद् नैश्चयि- बोधवृद्ध्युपपत्तेः-अर्थाऽनुभवभावेन, तथा भालोचिता:काऽवग्रहसंबन्धिनः । किमित्याह-अल्पत्वाद् अनवबोध- धिगमाद्-दृएपरिच्छेदेन , तथा तत्स्थैर्यसिद्धेः-बोधाऽवध्यावृत्तिमात्ररूपत्वेन । यदि नामैव ततः किमिति चेत् ? । ए- स्थानेन , तथा अनुभवभावात्-अविच्युतिरूपधारणाया , ततदाशङ्कयाऽऽह-नाऽसौ अल्पयोधरूपः सन् विशिष्याऽध्यव- था प्रतिक्षेपाऽयोगात्-अधिकृतानुभवस्य, प्रयोगश्च बाधसायबीजम् , नहि अणुमात्राद् ह्यणुकादिभावः , यस्तु काऽनुपपत्तेः कथंचिद् ग्रहणमपि यथायोगं योजनीयम् । भवति विशिष्टाऽध्यवसायबीज सोऽवान्तराऽवायरूपः श- एवं न्यायत एव व्यवस्थितं प्रामाण्यम्-ईहादेरिति प्रक्रमः । ब्दाऽरुषितबोधस्वलक्षणः । कुत एतद एवमित्या
तथा सद्व्याद्यनेकस्वभावता च वस्तुनस्तथाऽनुभवह-अवायबहुत्वात् कालक्षयोपशमादिभेदेन, अतः | प्रथमाऽक्षसन्निपाते तदेव प्रतिभासते इति युक्तमिति स्थि
सिद्धत्वादिति । किं हि सच्चाद् अन्यद् द्रव्यादि इति चेत? तम् ; एवम्-उक्कनीत्या , सद्रव्याद्यनेकस्वभावे वस्तु- प्रतीतमेतद् यत् तस्मिन् गृहीतेऽपि कथञ्चिद् गृह्यत इति । नि इन्द्रियद्वारेण एव तथाऽर्थविशेषप्रतिपत्तिरिति योगः ।। नैवंविधं किश्चिद् अवगच्छाम इति चेत् , किं न भवति भकथमित्याह-सवव्याद्यनेकखभावं वस्तु प्रायशो निदर्शित
| बतः क्वचिद् घटादौ सन्मात्रग्रहेऽन्याग्रहः । किं तद मेव, तथा निदर्शयिष्यामः, ततश्च सद्व्याधनेकस्वभावे वस्तुनि सति । किमित्याह-तदितरधर्माऽऽलोचनेन , ते-अ- यद् भूयो गृह्यत इति चेत् ? , ननु बालादिसिद्धं तदनुविन्वयिनः, इतरे-व्यतिरेकिणः, ते च इतरे च तदितरे, तदितरे मेव विशिष्टं मृद्पादि । न तत् तत्सत्त्वतोऽन्यद एव इति
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सामरणविसेस
सामण्ण विसेस त्मकत्वाऽनभ्युपगमे, प्रतीतिबाधा सद्रूपादिप्रतीते:, तथा एकत्वेऽपि सत्त्वाऽऽकारयोरिति प्रक्रमः, कस्य असौ आकार रूपादिसत्यापेक्षया इति वाच्यम्? कि सर्वथा आणि दोष इत्याह--न रूपसस्वस्य असौ आका
चेत्, सत्यमेतत् किन्तु तन्मात्रमपि न भवतीति । तथाऽ, प्रतीतेर्निश्चयानुभवेन अविगानत एव एकत्र सन्मृदूपाऽऽकारवेदनात् सन्मानाद् एव एतदनुपपतेरतिप्रसङ्गात्, रूपमात्राद् रूपरसादिनिश्रयापतेः न च सभ्वाऽऽकारये रपि अभेद एव, अनेकदोषप्रसङ्गात्, तथाहि घट सायद् एकं तस्य पायत्मकत्वे एकत्वहानिः म्युपगमे प्रतीतिबाधा तथा एकत्वेऽपि कस्प कार इति वाच्यम् है, न रूपसवस्य त्वगिन्द्रियेणाऽपि ग्रहणात् तस्य च रूपाऽविषयत्वात् तथाऽप्रतीतः - रसच्यस्य च तच्चात् न स्पर्शयश्वस्य चक्षुषाऽपि उपलधेः स्पर्शात् तत्वस्वभेदप्रसङ्गात् रूपेऽपि अनुगमोपपत्ते:,
तदन
?
कुत इत्याह- त्वगिन्द्रियेण श्रपि ग्रहणात् कारणात् । यद्येवं ततः किमित्याह तस्य स्वगिन्द्रियस्य रूपाविषय त्वात्, अविषयत्वं च तथा स्वगिन्द्रियस्य रूपविषयत्वेन श्रप्रतीतेः, तत्सत्त्वस्य च रूपसत्वस्य च तस्वात् रूपत्वात् एवं म स्पर्शसत्त्वस्य असौ आकार इति यस्यते । कुत इत्याह-चतुषा अपि उपलब्धेः कारणात्। ततः किमित्याहस्पर्शात् सकाशात् तस्य स्पर्शसत्यमेसङ्गात्, प्रसङ्गश्च रूपे अपि अनुगमोपपत्तेः । इत्थं च एतत् इत्याह-अन्यथा एवमनभ्युपगमे अनुभवाविरोधात् चक्षुषा तदुपलब्धिरिति अनुभवः, न च उभयसत्त्वस्य रूपअन्यथा अनुभवविरोधात् न च उभयसश्वस्य तदेकत्वामवस्य असी आकार इति नः कुल इत्याहप्रसौ प्रक्रमः । संकल्पायोगात् तस्य प्राकारस्य एकन्याऽयोगात्, उभयोगे अपि इन्द्रियसंकरप्रसङ्गात् विषयसाकर्येख, संकरे च लोकविरोधाऽऽपत्तेः, एवम समज सत्वादितिन च इत्यादि । न तयोकारो: यो भेद एव एकान्तेन । कुत इत्याह तथा भेदगर्भतया प्रतीत्यभावात् स्पर्शनात् अपि ' सोऽयं यो दृष्टः' इत्यवगमात् तथा तस्वतः उभयायोगात् तदम्युपगमेव तथा च माहतत्सवैकत्वतेः घटसत्वैकत्वक्षतेरित्यर्थः तथा च एवं च अभ्युपगमविरोधात् वस्तुनो मेकभाचा उपस्या न च तयोसकारयोः भेद एव इति स्थितम् । एवं बौद्धमतचकव्यतामधिकृत्य एतत् उक्तम् ।
योगात् इन्द्रियसङ्गात् लोकविरोधाचे असम
"
वैशेषिकमलमुरत्याह
"
•
'!
( ६८१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
"
सत्वादिति । न च तयोराकारयोर्भेद एव तथा प्रतीत्यभावात्, तश्वत उभयाऽयोगात तत्स स्वैकत्वक्षतेः तथा च अभ्युपगम विरोधादिति ।
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9
1
तथा सद्याद्यनेकत्वभावाच स्तुत्यायत एव व्यवस्थिता ममित्याह तथाऽनुभवसिद्धस्याद् अदिप्रकारेण अनुभवत्यादिति किं हि सवाद् अन्यद्अर्थान्तरभू द्रव्यत्वादि इति चेत् ? । एतदाशङ्कयाह-अतीतमेतद्यत् तस्मिन्सरचे गृहीतेऽपि सति कथेइति नैवंविधं किञ्चिद् यत् तस्मिन् गृहीलेऽपि कथञ्चिद् न गृह्यनइति तद् अवगच्छाम इति थेत् । एतदाशङ्कयाह- किं न भवति भवतः क्वचिद् घटादौवस्तुनि सम्मात्रग्रहे सति, अन्यऽग्रहो - वस्त्वन्तराऽग्रहः ? किं तद् वस्तु, यद् भूयः - पुनः- सम्मात्रग्रहोत्तरकालं गृह्यत इति चेत्। एतादशङ्क्याऽऽह - ननु इति श्रक्षमायाम्, बालादिसिद्धं तदनुविद्धमेव सन्मात्राऽनुविद्धमेव विशिष्ट मृदुरूपा
,
न च एतेभ्योऽन्य एव घटः, अवग्रहणप्रसङ्गात् मरूपाद्यात्मकत्वात् तचट्टनी अपि ततद्रूपता नापसे, इत्थमपि ग्रहसे इन्द्रियाणां स्वधर्माऽतिक्रमात् ।
,
,
एकत्र
एव इति चेत् । एतदाशङ्कयाह - सत्यमेतद् अन्यद् एव न. किन्तु तन्मात्रमपि – सन्मात्रमपि न भवति । कुत इत्याह-तथा--सम्मात्रत्वेन श्रप्रतीतेः, अप्रतीतिश्च निश्चयाऽनुभवेम अवग्रहोत्तरकालम्, अविगानतः अविगानेन एव वस्तुनि किमित्याह-- सम्पाऽऽकारवेदनात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह -- सन्मात्राद् एव एकस्वभावात् ए तदनुपपत्तेः--सम्मृद्रूपाकारवेदनाऽनुपपत्तेः श्रनुपपत्तिश्च अतिप्रसङ्गात्, अतिप्रसङ्गश्च रूपमात्रात् सकाशत्, रूपरखादिनिपतेसम्म विजातीयनिपान
+
?
दि, न तद् मृद्रादि, तत्सस्वतः - सन्मात्रसस्वाद्, अम्यद् कथमतिक्रमइति चेत् ?, चचुरादेररूपादिग्रहणात् । एवमपि को दोष इति चेत् , ननु रसादिग्रहणापनि, प्रतीतिवाधिता इयमिति चेत् तदविति का प्र तीतिः १ । न तेभ्य एकत्वबुद्धिरिति चेत्, ततः किमिति वाच्यम् । अस्ति इयमिति चेत्, न खलु अस्यां विगानम् एतचिमितः (स) स तेम्योऽन्य इति चेत् संख्यायाः तद्भावप्रसङ्गः । न सा वदनाश्रिता इति चेत्, एवमपि तच्चतोऽन्या एव । यदि नामैत्रं ततः किमिति चेत् ?, तनिमित्तैकबुद्धः सा तद्विशेषणभूता इति चेत् कथमेतत् विनिश्रयन इति १ एकोऽयमिति व्यवसायादिति चेत् न असौ सदादिभिन्नप्रतिभासीति तथाऽननुभवात् । एवमपि तत्कल्पनेऽतिप्रसङ्गात् तदन्तरापचेर्निराकरणाऽयोगात्, अननुभवाऽविशेषादिति त गाथा | देकत्वपरिणामनिबन्धन एवं अयम् । तेषामेव एकाउने
इहैव-दोषान्तरमधिकृत्य ग्रह--न चेत्यादि न च सत्वां
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ssकारयोः श्रपि इह अधिकृतयोः, अभेद एव एकान्तेन । कुत इत्याह-मेकदोषप्रसङ्गात्। नमेव चाह--तथादि इत्यादिना । तथाहि "घटसत्वं तावद् एकं निरंशं स्वलक्षलम्" इत्यविचारितरमणीयेन भवदभ्युपगमे न तस्य मृदुरूपाद्यात्मकत्वे रूपात्मक सफललोकाऽनुभवसिद्ध अभ्युपगम्यमाने एकस्याहानिः मृदादिशास्पननभ्युपगम
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सामविसेस
कात्मकत्वाद् भेदाभेदभावात् तथास्वभावत्वाद्विरोधानुपपतेः प्रतीतिसिद्धत्वाद् बाधाभावादिति । सद्द्रव्यायनेकस्वभावे वस्तुनि वस्तुमात्रग्राहि एवं अ कम्पमविकल्पकमङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा उक्तदोषानतिवृत्तिः । एवंभूते च अस्मिन् श्रावयोरविवाद एव एवं विधाऽवग्रहस्य अस्माभिरप्यभ्युपगतत्वात्,
,
न च
"
अत्र कश्चिद्दोषः अपि तु शुक्तिकादौ अपि क्वचिद् रजतादिनिश्चयस्य न्यायत एव आपच्या गुणः, तस्य हि अवग्रहोत्तरकालमीहा प्रवृत्तस्य तथाविधसमानधर्मोपलब्धुरेव असत्क्षयोपशमभावतो भावाद्, अन्यथा उक्तवत् तदयोगादिति ।
( ६८२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
न वेति-नच एतेभ्यः सन्मृद्रपाकारेभ्यः श्रभ्य एव घटः एकालेन । कुत इत्याह- अग्रहणप्रसङ्गाद् घटस्य, प्रसव अरूपा`द्यात्मकत्वात् एतच्च सम्मृद्रूपाकारेभ्योऽन्यत्वाऽभ्युपगमेन उपन्यासश्च एवम् चक्षुर्महाऽऽनुगुरूपेन तत्तवृत्तीअपि इत्यादि । तेषां सम्मरूपाऽऽकाराणां तस्मिन् घंटे वृत्तौ अपि सामान्यद्रव्यगुणानां यथासंभवं तद्वत्यभ्युपगमेन द्रव्यवृत्तौ कारणद्रव्येषु स एव वर्तते इति कृत्वा । किमित्याह तत्तद्रूपतानापतेः तस्य घटस्य तद्रूपताउनापत्तेः सन्मृद्रूपाऽऽकाररूपताऽनुपपत्तेः । इत्थमपि - स्यादि । इत्थमपि तानापती अतिमह से पटग्रहणे अभ्युपगम्यमाने । किमित्याह- इन्द्रियायां स्वधर्माऽतिक्रमः स्वमर्यादापरित्यागः कथमतिक्रमः इति चेत् । एतदाशङ्कवाद-परादेः आदिशब्दात्-त्वगिन्द्रियग्रहः, अरूपादिग्रहणाद् ; घटादिग्रहणाद् इत्यर्थः ।
-
मपि को दोष इति चेत् , द्विविधं दिव्य-दर्शन स्पार्शनं च । रूपादिप्रतीतेः तद्वामित्वेन तदवसानत्वाद् इत्यभिप्रायः । एतदाशङ्क्याह- ननु रसादिग्रहणाऽऽपत्तिः रसादेरपि घटवद् अरूपादित्वात् सार्वेन्द्रियं च एवं प्राप्नोति रसादिप्रतीतेरपि तामित्येन ताद इति भावनीयम् । प्रतीतिबाधिता इयं रसादिग्रहणाऽऽप - इति चेत् एतदाशवाह तदतिरिकत प्रमा द रूपादिव्यतिरिक्तघटम का प्रतीति है, मनु किमनया है, न तेभ्यो रूपादिन्यः बुद्धि अनेक सीमि ति चेत् । एतदाशङ्क्याऽऽह - ततः किमिति वाच्यम्, किमपि अथाऽस्ति इयमेकबुद्धिरिति चेत्तदा शङ्क्याह-न अस्यामेकत्वबुद्धौ ; शपादन] तु अस्यामेकनिक
"
प्रमितम् एतस्या एकत्यबुदैः सम्यम् (स) स इति सः तेभ्यो रूपादिभ्योऽन्य इति चेत् । एतदाशङ्कयाहसंख्यायाः-एकसंख्यायाः, एकत्वबुद्धिनिमित्तत्वेन तद्भावप्रसङ्गः- घटभावप्रसङ्गः, न सा संख्या, तदनाश्रिता घटाउ नाथिते इति चेत् । एतदाशङ्क्याह एवमपि तदाश्रितत्वेऽ पि ततः परमार्थेन अन्या पत्र सम्मृदरूपाऽऽकारेभ्य इति । यदि नामैवं ततः किमिति चेत् । एतदाशङ्क्याहसनिमित्ता-सदादिभिनसंख्यानिमित्ता एक बुद्धि, सासं तद्विशेषसभूता प्रस्तुता एकाऽवयवविशेषसभूता
"
"
,
सामए बिसेस इति चेत्। तदायाद-कथमेतद् विविधीयते बहुन खा तद्विशेषणभूता इति ?, एकोऽयमिति व्यवसायाद् इति चेद् विनिश्चीयते इति । एतदाशङ्कयाह- नाऽसौ व्यवसायः, सदादिभिन्नप्रतिभासी इति । कुत इत्याह तथा सदादिभिअप्रतिभासित्वेन अनुभवात् पचमपि तथा अनुम पि. - सदादिभिचा उपयधिकल्पनेत अतिप्रसङ्गश्च तदन्तरापत्तेः प्रययन्तरापत्तेः आपत्ति निराकरणायोगात् तदन्तरस्य अयोध मनुभवाऽविशेषाद्द्वयोरपि इति इत्येयं तदेकत्वमनिधन एव अयं प्रक्रमात् सम्मृव्याऽऽकारेकम्बधरिणामनिबन्धन एवायम् एकोऽयमिति व्यवसायः । तेषामेव सदादीनामेका नेकाका मे
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"
"
:-तव मम च
दभावात् श्रयं च तथास्वभावत्वात् तथास्वभावत्वं विरोधानुपपत्तेः अनुपपत्तिश्व प्रतीतिनि प्रतीतिरेव सिद्धौ निमित्तमित्याशङ्काऽपोहाय आह-बाधाभावादिति तदेकत्वपरिणामनिबन्धन एव अयम् इति एवं सद्द्द्रव्याद्यनेकस्वभावे वस्तुनि । किमित्याह-वस्तुमात्रग्राहि एव श्रवग्रहकल्पमविकल्पकमङ्गीकर्तव्यम् । किमित्याहअन्यथा उक्तदोषाऽनतिवृत्तिः, उक्तदोषाः-" न्यायाऽनुभव विरोधाद" इत्येवमादयः तद्नतिवृत्तिः एवंभूते स्मिन् अधिकल्पके । किमित्याह - श्रावयो:अविवाद एव कुत इत्याह-पवंविधायप्रदस्य - विकल्पकस्य अस्माभिः अभ्युपगतस्यात् न चाऽत्र अभ्युपगमे कश्विद् दोषः अपि तु शुलिकादीपि दिशब्दाद् मरीचिकाग्रहः क्वचिद् रजतादिनिश्चयस्य श्र दिशब्दाद् जलनिश्चयग्रहः, न्यायत एव आपल्या गुणः न्यायत एव आपत्तिमाह तस्य इत्यादिना । तस्य हि शुक्ति कादो रजतादिनिश्वयस्य, अवग्रहोत्तरकालमाप सतः । कस्य इत्याहृ-तथाविधसमानधर्मोपलब्धुरेव शुक्तिकादि - रजतादिसमानधर्मोपलब्धुरेव प्रमातुर्नान्यस्य, श्रस रक्षोपशमभावतः सत्क्षयोपशमभावेन भाषात्, अन्यथा एवमनभ्युपगमे, उक्तवत् यथोक्रम् - शुक्तिकाया अपि अ
मी तश्वेन एव प्रसाद" इत्यादि तथा प्रयोगाद् इति ।
यच्च उच्यते - " गृहीतग्राहित्वाद्विकल्पोऽप्रमाणम् इति एतदपि अयुक्तम् । स्वमतविरोधात्, निर्विकल्पकज्ञानेन स्वलक्षणस्य गृहीतत्वाद्विकल्पस्य तद्ग्राहित्वानुपपत्तेः तत्प्रतिभासशून्यत्वात् एवमपि तत्तथाताऽभ्युपगमे अतिप्रसङ्गात् नीलविकल्पस्य पीतग्राहित्वापतेः पारम्पर्येण तचजनकत्वाविशेषात् उपलब्धपीत-नीलद्रष्टुरपि तद्भावादिति ।
,
"
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यच्च उच्यत परैः- गृहीतग्राहित्वाद् विकल्पः श्रप्रमाराम् इति एतदपि प्रयुक्तम् । कथमित्याह--स्वमत - विरोधाद्, विराधय निर्विकल्पक ज्ञानेन स्वलक्षणस्य गृहीतत्वात्, विकल्पस्य तद्माद्दित्वाऽनुपपत्तेः स्वलक्षमादित्याऽनुपपतेः अनुपपत्तिश्व तत्प्रतिनासयत्वात् स्वलक्षणा 35 कारशून्यत्वादित्यर्थः । एवमपि तत्प्रतिमास
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सामाविसेस
"
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शून्यत्वेऽपि सति तल धाताऽभ्युपगमे विकल्पस्ताहित्वाभ्युपगमे अतिप्रसङ्गात्, अतिप्रसङ्गश्च नतिविकल्पस्य पीतादित्वापतेः । नासी पारम्पर्येपि यः इत्याशङ्काऽपादाय दन्तजनकत्वाविशेषात् तस्य पी तस्य नीलविकल्पजनकत्वाऽविशेषात् । एतद्भावनाय - व श्राह उपलब्धपीतनीलद्रष्टुरपि प्रमातुः तद्भावात् नी - विकल्पभावात् तदपि प्रयुक्तमिति स्थितम् । बच गृहीतग्राहि ज्ञानमप्रमाणमेव एकत्र नीलादौ अनेकप्रमातृज्ञानानां प्रमाणत्वाऽभ्युपगमात् तेषां चान्योऽ न्यं गृहीतग्राहित्वात्, अन्यथा तद्ग्रहणानुपपत्तेः, तथा अगृहीताहिकानाऽसम्भवात् सर्ववस्तूनां सर्वदैस्सदा ग्रहणान् तेषां सर्वज्ञत्वादन्यथा ततश्वायोगात्, एकसन्न्तानाऽपेचया च गृहीतत्राद्दिज्ञानाऽसम्भव एव सर्वेषां सर्वदा अगृहीतग्रहणादिति ।
"
दूषणान्तरमाह-नच इत्यादिना । न च गृहीतग्राहि ज्ञानमप्रमाणमेव एकान्तेन भवतः । कुत इत्याह-एकत्र नीलादी अनेकप्रमादज्ञानानां प्रमाणत्वाऽभ्युपगमात् परेशापि तेषां च अधिकृत ज्ञानानाम् अपो परस्परं वृतप्रा दिवात् एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह यथा तद्ग्रहणाऽनुपपत्तेः- अधिकृतनीलादिग्रहणा ऽनुपपत्तेः । तथा इस्यादि । तथा प्रगृहीताना सं सर्ववस्तूनां मीलादीनाम् सर्वदैः सदा ग्रहणात् मह च तेषां बुद्धानां सर्वशत्वादिति श्रन्यथा तत्तत्वाऽयोगात् तेषां सर्वायोगात् । एकसन्तानेत्यादि । एकस न्वाना उपेक्षया अवताना संभव एव तस्य - स्य च विकत्वात् सर्वेषां ज्ञानानाम् सर्वदा सर्वका लम्, अगृहीतप्रणात् द्वयोरपि क्षणिकत्वेन इति, यद्वा तदभावे भावात् अभिधानमात्रं ग्रहणमिति श्रग्रहीतग्रहशमिति ।
:
"
,"
स्यादेतद्, न तच्चतो गृहीतग्राहित्वेन अस्य अप्रामाण्यम्, अपि तु श्रविषयत्वेन इति । कथमयमविषय इति वाच्यम् १ यदनेन वेद्यते न तदस्तीति चेत्, क तमास्तीति । किं तत्रैव उच्यते उताहो बहिरिति । यदि तत्रैव कथं वेद्यते, वेद्यमानं वा कथं न तत्रेति चिन्त्यम् १ अथ बहिः, अविकल्पकेऽपि समानः प्रसङ्गः तेनाऽपि वेद्यमानस्य पहिरभावाद स्वरूपस्यैबेदनात् तद्बहिस्थ तुम्परूपमित्यदोष इति भेद के तत्तुल्यरूपतेति वाच्यम् १, किं तत्साधारणरूपभावः १, उताहो तचग्रहणस्वभावता इति । न तावत् साधारणरूपभावः चेतनाऽचेतनत्वेन तद्वैलक्षण्यसिद्धेः सामान्य वेदनेन तदप्रामाण्यप्रसङ्गाच्च । तत्तद्ग्रहणस्वभावतातदङ्गीकरणे च विकल्पज्ञानेऽपि तुल्यः परिहारः तस्यापि तत्स्वभावताऽभ्युपगमात् । तथाविधयानाभावादस्य कुतस्तद्ग्रहणस्वभावतेति चेत् न तथावि
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( ६८३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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,
"
सामयण विसेस भाभावे प्रमाणाभावात् प्रत्यचस्य स्वयविषयत्वेन तत्राप्रवृत्तेः , अनुमानस्याप्युपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थक्षियत्वात् तस्य च तदभावाभ्युपगमात् । न हि साधारणं रूपमुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिष्यते भवद्भिः, तदवस्तुत्वप्रतिज्ञानाद, अनीश नुपलब्धेवाभावनिश्रा यकत्वानुपपतेः ए तेन तद्वाधकप्रमाणप्रवृत्तिः प्रत्युक्ता, उक्तवत्प्रत्यक्षादेस्वद्वाधकत्वायोगात् । युक्तया, तदयोगो बाधक इति चेत् । न । विकल्पानुपपत्तेः । युक्तिर्हि प्रमाणमप्रमाणं वा स्यात् १। प्रमाणं चेत् । न प्रत्यक्षादेरन्यदिति, अत्र चोक्को दोषः । श्रप्रमाणत्वे तु तद्वाचकत्वानुपपचिः, अतिप्रसयात् ।
स्थादेतद् न ततो दाहित्वेन हेतुना, अस्य चिक पस्याप्रामाण्यम् अपि त्वविषयत्वेनेति । एतदाशङ्कयाहकथमयं विकल्प विषय इति वाच्यम् । यदनेन बेचते विकल्पेन न तदस्तीति अविषय इति चेत् । एतदाश
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वाहक तद् नास्ति यदनेन वेद्यते, किं तत्रैव विक ल्पे, उत बहिरिति ? | यदि तत्रैव विकल्प एव नास्ति कथं तेन वेद्यते ?, वेद्यमानं वा कथं न तत्र विकल्पे इति चिन्त्यम् । द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह - अथ बहिः यदनेन वेद्यते न तदस्तीति । एतदाशङ्कयाह - श्रविकल्पकेsपि समानः प्रसङ्गोऽविषयत्वप्रसङ्गः । कथमित्याह तेनापि
,
"
विकल्पकेन वेद्यमानस्य बहिरभावात् श्रभावश्व स्वरूपस्यैव वेदनात् । तदित्यादि । तदविकल्पकं बेद्यमानबहिःस्वल्पक विषयरूपम् इत्यस्माददोष इति चेत् । एतदाशङ्कयाह तत्परूपता बहिः स्वरूपता ? इति वाच्यम् । किं तत्साधारणरूपभावो बहिःस्थसामान्यरूपभावोऽपिकस्य उत तद्द्महस्यभावता बहिः वन
,
स्थग्र
स्वभावतेति ?, किञ्चातः । उभयथाऽपि दोष:, तथा चाह-न तावत् साधारणरूपभावः तत्तुल्यरूपता । कुत इयातनात्वेन हेतुना तयसिद्धेः तयोरषि कफबहिः पयोवैलचएयसिद्धेः । दोषान्तरमाद-सामा म्यवेदनेन हेतुना साधारणरूपभावतः तदप्रामाण्यप्रसङ्गाsa अविकल्पकस्याप्रामाण्यप्रसङ्गाच्च न तत्साधारणरूपभावस्वरुपतेति । ततखभावतादरच तस्याविकल्पकस्य तद्ग्रहणस्वभावता - बहिः स्थग्रहणस्वभाभावता तस्यास्तदङ्गीकररूपामति कि ग्रहः तस्मिन् किम् इत्याह-विकल्पानेऽपि यः प रिहार ततः स्वल्परूपमित्ययम् । कुतः इत्याह-तस्यापि विकल्पज्ञानस्य तद्द्महस्वभावताभ्युपगमात् बहिःस्वग्रहणस्वभावताभ्युपगमात् तथाविधेत्यादि । तथाविध माह्याभावात् विकल्पज्ञानग्राह्याभावादस्य विकल्पज्ञानस्य कुलग्रहणस्यमायता पहिःस्यभाषतेति बेत् । रतदाशङ्कयाह-न, तथाविधग्राह्याभाषे-विकल्पशानग्राह्माभावे प्रमाणाभावात् । श्रभावश्च प्रत्यक्षस्य तावत् स्थलक्षणविषयत्वेन हेतुना तत्र तथाविधग्राह्याभावेऽप्रवृत्तेः अनुमानस्याप्यनुपलब्धिरूपस्योपलब्धिलक्ष प्राप्तार्थविषयत्वात् । ततः किम् ? इत्याह--तस्य तथाविधग्राह्यस्य तद
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(६८४) सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामएणविसेस भावाभ्युपगमाद्-उपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थविषयवाभावाभ्यप- नाभिधानात् तत्त्वनिश्चय इति चिन्त्यम् ?-नैव तत्वनिगमात् । एतद्भावनायैवाह-नहि साधारणं रूपं विकल्पग्रा- श्चय इति । एतद्भावनायैवाह-तथाहीत्यादि । तथा स्या. हामुपलब्धिक्षणप्राप्तमिष्यते भवद्भिः । कुत इत्याह-तद- खिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनो नित्याऽऽत्मादिविकल्प वस्तुत्वप्रतिज्ञानात्-तस्य साधारणरूपस्यावस्तुस्वप्रतिक्षा- बदिति निदर्शनम् , कृतकत्वादिलिद्वारायाताऽनित्यानात्,अनीशानुपलब्धेश्चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेश्च । नात्मादिविकल्पा अपि भ्रान्ता एव नाभ्रान्ताः, इत्येवं कथं किमित्याह-अभावनिश्चायकत्वानुपपत्तेः तथाभ्युपगमात् ।। तेभ्यो भ्रान्तविकल्पेभ्यस्तनिश्चितिरनित्याऽनात्मादिनिश्चि. पतेनेत्यादि । एतेन-अनन्तरोदितेन तथाविधमाह्याभावे तिः ? । निश्चितौ वा तेभ्योऽनित्याऽनात्मादेः कथं न प्रमाणाभावेन । किमित्याह-तद्वाघकप्रमाणप्रवृत्तिः-प्र- नित्यादावपि निश्चिताः?। कुत इत्वाइ-तद्विकल्पानामपित्युक्ता तस्मिंस्तथाविधग्राहो बाधकप्रमाणप्रवृत्तिनिराकृता । नित्यात्मादिविकल्पानामपि ततो वस्तुनो भावात्। कुत इत्याह-उक्नवत् यथोक्तं तथा प्रत्यक्षादेः प्रत्य
स्यादेत्स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व क्षानुमानद्वयस्य तवाधकत्वायोगात-तथाविधनाद्यबाधक। त्वायोगात् । युक्त्या तदयोगस्तथाविधग्राह्यायोगः
एव विकल्पाः, तथापे केषाश्चिदेव तत्प्रतिबद्धजन्मनां साधारणरूपयोग इत्यर्थः 'बाधक इति चेत् । एतदाश- विकल्पानामतत्प्रतिभासित्वेऽपि वस्तुन्यविसंवादः, मणिचाहन, विकल्पानुपपत्तेः । अनुपपत्तिश्च-युक्तिर्हि प्र- प्रभायामिव मणिभ्रान्तेः, नान्येषाम् , तद्भेदप्रसवे सत्यमाणमप्रमाणं वा स्यात्? । किश्चातः ?, उभयथापि दोष
पि यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य किश्चित्सामान्यइत्याह--प्रमाणं चेत् । न प्रत्यक्षादेरन्यदिति , अत्र चोक्को दोषः, प्रत्यक्षस्य स्वलक्षणविषयत्वेन तत्राप्रवृत्तरित्यादिः ।
ग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपात , दीपप्रभायामिव मणिअप्रमाणत्वे तु युक्तः, किमित्याह-तद्वाधकत्वानुपपत्तिः- बुद्धेः, इति संवादिभ्य एव तनिश्चिति संवादिभ्यः। तथाविधग्राह्यवाधकत्वानुपपत्तिः । कुत इत्याह-अतिप्रस- ___ स्यादेतदित्यादि । स्यादेतदथैवं मन्यसे-स्वलक्षणदर्शनेनाझात् स्वलक्षणस्यापि युक्तिवाधितत्वोपपत्तेः, अविषयेऽपीयं हिता या वासना तया कृतं विप्लवरूपं येषां ते तथाप्रवर्तत इति भावना । एवं विकल्पज्ञानस्यापि कस्यचित् विधाः सर्व एव विकल्पाः सामान्येन , तथाप्येवमपि व्यप्रामाण्यमङ्गीकर्तव्यमित्यैवंपर्यम् ।
वस्थिते सति केषाश्चिदेवानित्याऽनात्मादिरूपाणां तत्तइत्थमनभ्युपगमे दोषमाह
तिबद्धजन्मनां-वस्तुप्रतिबद्ध जन्मनां विकल्पानामतत्प्रतिभाअखिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनश्च तत्सामोत्थं व
सित्वेऽपि-वस्त्वप्रतिभासित्वेऽपीत्यर्थः, किमित्याह-वस्तु
न्यविसंवादः । निदर्शनमाह-मणिप्रभायामिव विषयभूचनमपि तादृगेवेति सुस्थिता तत्तत्त्वनीतिः । न हि श्रा
तायां मणिभ्रान्तेः कुञ्चिकादिविधरोपलम्भेन, नान्येषां निन्तमात्मनो भ्रान्ततामवैति, द्विचन्द्रज्ञानादावात्मनि भ्रा- त्याऽऽत्मादिविकल्पानाम् , तद्भेदप्रसये सत्यपि वस्तुभेदान्तताधिगमव्यपोहेन चन्द्रद्वयायधिगतिदर्शनात् , तत्स्था- दुत्पादे सत्यपीत्यर्थः , यथारविशेषानुसरणं परित्यज्य; नोपजातवचसोऽपि स्वभ्रान्तताभिधानपरित्यागेन चन्द्र
कथमित्याह-किश्चित्सामान्यग्रहणेन सहशापरा परहेतुना
विशेषान्तरसमारोपाद् हेतोः , नान्येषाम् ' इति वद्वयाद्यभिधानात् , इति सकलमेव शाखज्ञानाभिधानं
तते । निदर्शनमाह-दीपप्रभायामिव विषयभूतायां मणिबुद्धः भ्रान्तिमात्रम् , इति कथं ततस्तत्वनिश्चय इनि चिन्त्यमी, कुश्चिकादिविवरोपलम्भेनेव, इत्येवं संवादिभ्य एव विकल्पेतथाहि--अस्य नित्या-ऽऽत्मादिविकल्पवत् कृतकृत्वा- भ्यस्तनिश्चितिरभिप्रेततत्त्वनिश्चिति संवादिभ्यः । दिलिङ्गद्वारायाता अनित्याऽनात्मादिविकल्पा अपि भ्रा
इत्थं पूर्वपक्षमाशङ्कयन्नाहन्ता एव, इति कथं तेभ्यस्तनिश्चितिः ? । निश्चितौ वा
एतदप्यसत् , अविचारितरमणीयत्वात् । तत्र यत्तावदुक्तम् कथं न नित्यादावपि, तद्विकल्पानामपि ततो भावात् ।
'स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विअखिलविकल्पशानभ्रान्ततावादिनच' किमित्याह-तत्सामा
कल्पाः' इति । अत्र किमिदं स्वलक्षणदर्शनं नाम ?, का वा ध्यात्वं-निःशेषविकल्पज्ञानभ्रान्ततासामोत्थं वचनमपि | तदाहिता वासना,यत्कृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः तागेव-भ्रान्तमेव, इति-एवं सुस्थिता तनस्वनीतिस्ताभ्यां इतिावस्त्वनुभवः स्वलक्षणदर्शनम् ,तदाहितवासना तु तथाभ्रान्तविकल्पज्ञानपचनाभ्यां तस्वनीतिरित्युपहसति, न सु
विधविकल्पजननशक्तिः। यद्येवम्, कथं निरंशवस्तुविषयात् स्थितेत्यर्थः । कथमित्याहन हीत्यादि । न यस्मात् भ्रान्तं ज्ञानमिति प्रकमः, श्रात्मनो भ्रान्ततामवैति । कुत इत्याह
निरंशानुभवात् तथाविधविकल्पजननशक्तीनां प्रभूतानां द्विचन्द्रज्ञानादौ आदिशब्दान-मायाजलशानग्रहः, आत्मनि सम्भवः ?, कथं बैकस्या एवानेकविकल्पजन्म । समुत्पस्वरूपे भ्रान्तताधिगमध्यपोहेन चन्द्रद्वयायधिगतिदर्शनात् . द्यन्ते च स्वलक्षणदर्शनानन्तरं नित्यानित्यादिविकल्पाः, आदिशब्दान्-मायाजलग्रहः, तत्स्थामोपजातयत्रसोऽपि-श्रा
क्रमेणैकस्य, अक्रमेण चानेकप्रमातृणाम् न चैते शक्तिभेदैन्तज्ञानसामध्योपजातवचनस्यापि स्वभ्रान्तताभिधानपरिस्यागेन चन्द्रद्वयाभिधानात् , इत्येवं सकलमेव शास्त्रज्ञा
कानेकजनकत्वे विना। न च भूयसामपि निरंशवस्तुविषनाभिधानं भ्रान्तिमात्रमिति कृत्वा कथं ततः शास्त्रबा- यनिरंशानुभवानां तत्वतस्तच्चे विशेषः, रूपादिस्खलक्षणा
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(६५) सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस । चामित्र । बन्न तेषामिवैकस्य बहूनां वाऽनन्तरं पारम्पर्येण | नशक्तयाख्यः फलभेदो न्याय्यः। इहैवाभ्युच्चयमाह-का चे
यमित्यादिना । का चेयं तथाविधविकल्पजननशक्तिर्भवतोचा तथाविधफलभेदोऽमीषा न्याय्य इति भाव्यमेतत् ।
ऽभिप्रेता? किं तदुत्तरं प्रक्रमादविकल्पप्रत्यक्षोसरं मानसं का चेयं तथाविधविकल्पजननशक्ति:, किं तदुत्तरं मानसम्,
स्वविषयानन्तरेत्यादिलक्षणम् , उतान्यैव काचिदालयगता', उतान्यैव काचित् ? । यदि मानसम् , कथं स्वलक्षणादस्व- उभयथापि दोषमाह-यदि मानसम् , कथं स्वलक्षणा मामलक्षणजन्म ? । अस्वलक्षणं च विकल्पः, असदाकाररूप- सात् स्खलक्षणजन्म विकल्पोत्पादःविकल्पास्वलक्षणत्वमाह
अस्वलक्षणं च विकल्पो भवन्नीत्या । कुत इत्याह-असदाकात्वात् । न स्वसंवित्तिस्तत्रास्वलक्षणम् , अपि तु बहिर्मुखा
ररूपत्वात्-असदाकारो विकल्पबुद्धिप्रतिभासोऽस्वखचावभास एवेति चेत् । न खलु सा ततोऽन्या, इति कथं
रगत्वाभ्युपगमात् स एव रूपं यस्य स तथा तद्भावस्तस्मात् नास्वलक्षणम् ? | असन्नसौ,सा तु सती, स्वसंविदितत्वा- न स्वसंवित्तिस्तत्र विकल्पेऽस्वलक्षणम् , अपि तु बहिर्मुदेवेति चेत् । कथमसौ तन्मात्रतचा विकल्प इति चिन्त्य- खात्रभास एवास्वलक्षम्पमिति चेत् । एतदाशझ्याह-न
खलु सा स्वसंबित्तिस्ततो बहिर्मुखावभासादम्या , इत्येवं कम् ? । असदाकारानुवेधादिति चेत् । कथमसताऽनुवेधो
थं नास्वलक्षणम् ?-अस्वलक्षणमेव । असनसौ बहिर्मुखावभानाम ? । स निर्विषयत्वादसत् , न तु तथाप्रतिभासेनेति
सः, सा तु स्वसंवित्तिः सती-विद्यमाना, स्वसंविदितत्वादेव चेत् । न स्वसंविचिस्तथाप्रतिभासनादन्या, इत्यस्वलक्ष- कारणादिति चत् । एतदाशझ्याह-कथमसी स्वसंवित्तिस्तणत्वमेव ।
मात्रस्या-स्वसंवित्तिमात्रतद्भावा विकल्प इति चिन्त्यम्,न तएवं पूर्वपक्षमाशङ्कयाह-एसदपि-असत्-अशोभनम् । कुत।
त्र स्वलक्षणातिरिक्कोंऽश इति कृत्वा असदाकारानुवेधादसौइत्याह-अविचारितरमणीयत्वात् कारणात् । पतदेवाह
विकल्प इति चेत्। एतदाशझ्याह-कथमसता आकारेणानुतत्रेत्यादिना । तत्र यत्तावदुक्नमादी' स्वलक्षणदर्शनाहितया
वेधो नाम स्वसंविदः ?-नैवेत्यर्थः। स ाकारो निर्विषयसनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः' इति-एतत् । अत्र त्वात् कारणादसंस्तुच्छः , न तु तथाप्रतिभासनेन-न पुनकिमिदं स्खलक्षणदर्शनं नाम?। कावा तदाहिता-स्वलक्षण- बहिर्मुखावभासप्रतिभासनेनासमिति चेत् । एतदाशदर्शनाहिता वासना, यत्कृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पा झ्याह-न स्वसंवित्तिरधिकता तथाप्रतिभासनाद् बहिइति ?। अत्राह वस्त्यनुभवः शुद्धः स्वलक्षणदर्शनम् , तदा- मुखावभासप्रतिभासनादन्याऽर्थान्तरभूतेति कृत्वाऽस्वलक्षहितवासना तु तथाविधविकल्पजननशक्तिः , तथाविधस्य रणत्वमेव स्वसंविदः । संवादिनोऽसंवादिनश्च । एतदाशङ्कयाह-यद्येवम् ,कथं निरंशवस्तुविषयाद् निरंशानुभवात् तथाविधविकल्पजनन
तस्य विभ्रमरूपत्वात् नदन्याऽनन्यत्वकल्पनैवायुक्नेति शक्तीनां प्रभूतानां संभवः सामान्येन ? । कथं वैकस्या एव चेत् । कोऽयं विभ्रम इति कथनीयम् ? । अनिरूप्यस्त्रशक्तरनेकविकल्पजन्म ? । को वा किमाह ? न चैतदेवम् ,
रूपस्तचतोऽसद्रूप इति चेत् । कथमयं स्वसंविचिभेदक इत्याशङ्कानिरासायाह-समुत्पद्यन्ते च स्वलक्षणदर्शनानन्तरं
इति वाच्यम् १ । न तवत इति चेत् । उत्सन्नो विकल्पः। नित्यानित्यादिविकल्पाः क्रमेणैकस्य प्रमातुः सांख्यादेखेंद्धादिमतप्रतिपत्या, अक्रमेण चानेकप्रमातृणां सौख्यवौडा
अस्त्विति चेत् । प्रतीत्यादिबाधा । चेतनैव तथाभृता दीनां नित्यानित्यादिविकल्पाः । शक्लिभेदश्चैकानेकजनकत्वं विकल्प इति चेत् । किंभूतेति चिन्त्यम् ? असदाकारेति चेति विग्रहः, ते चैते, एते विना, क्रमाक्रमपक्षद्वयेऽपीति । चेत् । अस्वलक्षणमेवेयम् , असदाकारत्वात् । न स्वसंएतदेवाह-न चेत्यादि । न च भूयसामपि क्रमपक्षे । केषामिः |
वित्तिस्तत्रास्वलक्षणम् , अपि तु बहिर्मुखावभास एवेति स्याह-निरंशवस्तुविषयमिरंशानुभवानां तुल्यस्वलक्षणानुभवानामित्यर्थः । किमित्याह-तत्त्वतः-परमार्थेन, तत्वे-त
चेत् । न खलु सा ततोऽन्येति समानं पूर्वेण , इति द्भाव रूपादिस्वलक्षणानुभवत्व इत्यर्थः , विशेषो भेदः । किं
यदि मानसं कथं स्वलक्षणादस्वलक्षणजन्म साधीयः ? ताई ? सर्व एवैते-रूपादिस्वलक्षणानुभवा एवेति । इहैव इति । कथं वा निर्विकल्पकत्वेनामिनात भिन्नाविकनिदर्शनमाह-रूपादिस्वलक्षणानामिव 'एकस्य प्रमातुः ' ल्पसस्भवः । हि नीलादिमात्रात् क्वचिद्रसादिभावः इति प्रक्रमः, तथाविधानुभवनिबन्धनानामिति , तथाहि
तथाऽदर्शनात् । न चात्र किश्चिद्भेदकम् , अनभ्युपगसाक्रमेणापि रूपादिस्वलक्षणानि स्वाकारमनुभवं कुर्बाणामि न रूपादिस्वलक्षणत्वेन विशिष्यन्त इति । प्रकृतयांजनामाह
त् | अभ्युपगमेऽपि ततोऽतिशयासिद्धरिति निवेदयितत्-तस्माद् न तेषामिब-रूपादिस्वलक्षणानामिव ' एकस्य
प्यामः। प्रमातुः, इति प्रक्रमः,बहुनां वा प्रमाणामनन्तर बहूनां पार- तस्य बहिर्मुखावभासप्रतिभास्य विभ्रमरूपत्वात्कारणाम्पर्येण चैकस्य तथाविधफलभेनो भिन्नजातीयविज्ञानादि- त् तदन्याऽन्यत्वकल्पनैव तया स्वसविस्याऽन्यानन्यत्यकार्यभेदोऽमीयां निरंशवस्तुविषयनिरंशानुभवानां न्याय्य कल्पनैवायुक्नेति चेत् । एतदाशङ्कयाह-कोऽयं विभ्रमो यअनि भाग्यमेतद्-भावनीयमेतत् । एतदुक्तं भवति-यथा तेषां ।
दूपत्वादन्याऽनन्यत्वकल्पनाऽयोग हा कथनीयम् ? । प्ररूपादिस्वलक्षणानां न रसादिफलभेदो न्याय्यः, एवमनित्या. | निरूप्यं स्वरूपं यस्य वैतथ्येन स तथा तत्वतः परमार्थऽनात्मकवस्वनुभयानामपि म नित्या.ऽऽत्मादिविकल्पजन- तोऽसदप इति चेत् । एतासङ्कयाह-कथमयं विभ्रमोऽ
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साममविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
साममविसेंस सपः सन् स्वसंवित्तिभेदक इत्येतद् वाच्यम् ? । न त- भव एव । कुत इत्याह-तथाविधशक्तिसहकारित्वेन हेतुना स्वत इति चेत् स्वसंवित्तिभेदकः । एतदाशङ्कयाह-उत्स- तदनुभवस्य-स्वलक्षणानुभवस्य प्रवृत्तिविज्ञानस्येत्यर्थः तदनो विकल्पः अविशिष्टस्वसंवित्तिमात्रभावेन । अस्त्विति विरोधादिति प्रक्रमाद् भिन्नविकल्पसंभवाविरोधात् शक्तिरचद् विकल्पाभावः । एतदाशङ्कयाह-प्रतीत्यादिबाधा, आदि- स्योपादानमित्यभिप्राय इति । एतदाशझ्याह-एतदपि शब्दाद-भावेतरभेदबाधाग्रहः । चेतनैव तथाभूता विशि- यत् किश्चित् । कथमित्याह-तस्य स्वलक्षणानुभवस्य तया विकल्प इति चेत् । एतदाशङ्कयाह-किंभूता तथाभू- सहकारित्वासिडे:-प्रस्तुतशक्तिसहकारित्वासिद्धः असितेति चिन्त्यम् ? । असदाकारा असनाकारो यस्याः सा त- द्धिश्च ततोऽधिकृतानुभवात् । तस्याः शक्तः, किमित्याह-उप थेति चेत् । एतदाशङ्कयाह-अस्वलक्षणमेवेयं चेतना , अ- काराभावात् । यदि नामैवं ततः किमित्याह-अनुपकार्योसदाकारत्वात् । न स्वसंवित्तिस्तत्र चेतनायामस्वलक्षणम् , पकारकयोश्च भावयोः सहकारित्यायोगात् । एनमेवाइ-द्विअपि तु बहिर्मुखावभास एवास्वलक्षणमिति चेत् । एत- विधो हि वो-युष्माकं सहकारार्थः । वैविध्यमाह-परस्परादाशयाह-न खलु नैव सा चेतना स्वसंवित्तिस्ततो ब-| तिशयाधानेन क्षणपरम्परया संताने प्रबन्धे विशिष्टक्षहिर्मुखावभासादन्येति समानं पूर्वेण' कथं नास्वलक्षणम् , णोत्पादनलक्षणो विवक्षितकार्ययोग्यताकारीत्यर्थः , तथा इत्यादिनोक्नेन । इत्येवं यदि मानसं कथं स्वलक्षणादस्व- पूर्वस्वहेतोरेवोपादानादेः समग्रोत्पीककार्यक्रियालक्षणश्च लक्षणजन्म साधीयः-शोभनतरम् ?-नैवेत्यर्थः । कथं वेत्या.
समग्रोत्पत्रानामेककार्यक्रियाऽन्त्यानां विवक्षितकार्योत्पतिः दि । कथं वा निर्विकल्पकत्वेनाभित्राद मानसाद भिन्न- सैव लक्षणं यस्य सहकारार्थस्य स तथेति समासः । विकल्पसंभवो विकल्पकत्वेन । कथं च न स्यादित्याह- न चेत्यादि । न चानयोः-सहकारार्थयोरेकोऽपि संभवन हि नीलादिमात्राद् वस्तुनोऽन्यरहितात् कचिद् रसा- ति । कुत इत्याह-क्षणिकत्वेन हेतुना परस्परातिदिभावः । आदिशब्दाद्-गन्धादिग्रहः । कथं न रसादि- शयाधानायोगात् । एतदेव भावयति-अतिशय उपकार भाव इत्याह-तथाऽदर्शनात् । न चात्र मानसा विकल्पज
इत्यनान्तरम् । न चासावतिशयोऽभ्यतः सकाशादम्यस्य। मनि किश्चिद भेदकमस्ति । कुत इत्याह-अनभ्युपगमात् । कथं नेत्याह-विकल्पाऽयोगात् । अभ्युपगमेऽपि सति भेदकस्य वासनादेः, ततो भेदकादतिशयासिद्धेरिति निवेदयिष्याम ऊर्ध्वम् । गतो मानसपक्षः।
तदनुभवो हि तच्छतेरनुत्पन्नायाः,उत्पन्नायाः, निरुद्धाविकल्पान्तरेणाह
या एव वोपकुर्यात् । न तावदनुत्पन्नायाः, तस्या श्वासअथान्यैव काचित् । काऽसाविति वाच्यम् ? । अनादि
वात् ,असतश्चोपकाराकरणात्। नाप्युत्पन्नायाः,तस्या अमदालयगतशक्तः स्खलक्षणदर्शनसहकारिभावतो विशेषक
नाधेयातिशयत्वात् , क्षणार्ध्वमनवस्थितेः। द्वाभ्यामप्येरणम् , तथाहि-सा तदनुभवं प्राप्याचेपेण तथाविधविक- कीभूय तदन्यकरणमेवातिशयाधानम् , तदेव चोपकार ल्पजननस्वभावोपजायत इति स्खलक्षणदर्शनाहितेत्युच्य- इति चेत् । न, उपादानकारणविशेषाधानमन्तरेण ततः
पराभवाभाव तथाविधश- कार्यविशेषासिद्धेः। न चैककालभाविनाऽन्यतो भवन्त्या किसहकारित्वेन तदनुभवस्य तदविरोधादिति । एतदपि अन्यत एव भवता तस्या अतिशयाधानम् , तनिबन्धनयत्किश्चित् , तस्य तत्सहकारित्वासिद्धेः, ततस्तस्या उप
स्य तत्कृतविशेषासिद्धेः । तदभ्युपगमे च तत्राप्ययमेव वृकाराभावात ,अनुपकार्योपकारकयोश्च सहकारित्वायोगात।
तान्त:, एवं निवन्धनपरम्परायामपि वाच्यम् , इत्यत्राणं द्विविधो हि वः सहकारार्थः परस्परातिशयाधानेन सन्ताने निवन्धनपरम्परा । विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणः,पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पबैकका- एनमेवाह-तदनुभवो हीत्यादिना । तदनुभयोऽधिकृतस्व
लक्षणानुभवो यस्माच्छक्केरनादिमदालयगतशतरनुत्पन्नाया यक्रियालक्षणश्च । न चानयोरेकोऽपि सम्भवति, क्षणि
उत्पन्नाया निरुद्धाया एव वोपकुर्यादिति संभावना विककत्वेन परस्परातिशयाधानायोगात् । अतिशय उपकार इ
पाः । न तावदतुत्पन्नाया उपकरोति तदनुभवः । कुतत्यनर्थान्तरम् । न चासावन्यतोऽन्यस्य, विकल्पायोगात् । त्याह-तस्या एव शक्तरसत्त्वात् । न चासावनुत्पत्राऽस्ति । द्वितीय विकल्पमधिकृत्याह-अथान्यैव काचित् तथाविध. यदि नामैवं ततः किमित्याह-असतश्च सामान्येनोपकाविकल्पजननशक्रिएतदुररीकृत्याह-काऽसाविति वाच्यम् । राकरणात् । नाप्युत्पचाया उपकरोति तदनुभवः । कुत अनादिमती चासावालयगतशक्तिश्चेति विग्रहः, तस्याः स्व- इत्याह--तस्या उत्पन्नाया निष्पन्नत्वेनानाधेयातिशयत्वात् । लक्षणदर्शनसहकारिभावतः:--प्रवृत्तिविज्ञानसहकारिभाषत पतच्च क्षणार्ध्वमनवस्थितेः कारणात् । द्वाभ्यामपि शइत्यर्थः, विशेषकरणमतिशयकरणं सा। एतदेव भावयति- क्त्यनुभवाभ्यामेकीभूय तदन्यकरणमेव विशिएशक्तितथाहीत्यादिना । तथाहि-सानादिमदालयगतशक्तिस्तद- करणमेवातिशयाधानम् , तदेवचान्यकरणमुपकार इति नुभवं प्राप्य-स्खलक्षणदर्शनमासाद्य, अक्षेपणाव्यवधानेन, चेत् । एतदाशङ्क्याह-नेत्यादि । न-नैतदेवम् । कुत इति तथाविधविकल्पजननस्वभावा-अनित्यादिविकल्पजननव- युक्तिमाह-उपादानकारणविशेषाधानमन्तरेण इह तावदभावोपजायत इति कृत्वा खलक्षणदर्शनाहितेत्युच्यते । अत धिकृतशक्तिविशेषाधानं विना, ततो विवक्षितानुभवात् , एव कारणात् न भिन्नविकल्पसंभवाभावः, किं तर्हि ? सं- कार्यविशेषासिद्धेः प्रस्तुतविकल्पकार्यभेदासिद्धरित्यर्थः । न
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सामण्णविसेस
चैककालभाविना शक्त्या सहानुभवेनान्यतो भवन्त्याः शशेरन्यत एव स्वहेतोर्भवताऽनुभवेन तस्याः शक्तेरतिशयाघानं 'न्याय्यम्' इति शेषः । कुत इत्याह- तन्निबन्धनस्य अधिकृतशक्त्युपादानस्य तत्कृतविशेषासिद्धेर्विवक्षितानुभवकृतविशेषासिद्धेः । तदभ्युपगमे च सामान्येन तन्निबन्धनस्य तत्कृतविशेषाभ्युपगमे च तत्रापि तन्निबन्धनेऽयमेवानस्तरोदितो 'मोपादानकारणविशेषाधानमन्तरेण ततः कार्यविशेषासि:' इत्यादिवृत्तान्तः । एवमुक्तनीत्या निबन्धनपरम्परायामपि वाच्यम् । इति एवम् अत्राणं निबन्धनपरम्परा अनादावपि संसारे कस्यापि निबन्धनस्योक्तनीत्या विशेषाधानायोगादिति भावनीयम् ।
( ६८७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोत्पन्ना याऽनुपकारिणमपि तदनुभवं सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्टं कार्य जनयत्यतो न दोष इति चेत् । न । अनुपकारिणोऽपेक्षायोगात् । तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, तत्तथाविधस्वभाबाधायक हेतोरप्यस्थानपक्षपातित्वापत्तेः स्वभावापर्यनुयोगस्य च प्रमाणोपपन्नस्वभावविषयत्वात् । स्वपरिकल्पनागर्भवाङ्मात्रोदितस्वभावविषयत्वे तु तवव्यवस्थानुपपत्तिः, तथाविधस्वभावानामपि तथाविधस्वभावत्वाभिधानाविरोधात् । एवं च सहेतुकनाशापत्तिः, 'स्वहेतुपरम्परातस्तथास्वभाव एवासाबुत्पन्नो भावो योऽकिञ्चित्क - रमपि नाशहेतुमपेक्ष्य नश्यति' इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात्, स्वभावपर्यनुयोगासिद्धेः, अचिन्त्यशक्तित्वात्, अन्यथा त्वत्पक्षेऽपि तुल्यत्वादिति । नापि निरुद्धायाः, तस्या एवासच्वात् असतश्वोपकारकरणात् । न च प्रकारान्तरेगोपकारकरणं संभवति । एवं तावदाद्यपचे सहकारार्थाभाव इति ।
,
स्वत्वित्यादि । स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिरधिकृता तथा - स्वभावोत्पन्ना, याऽनुपकारिणमपि तदनुभवमधिकृतस्वलक्षणानुभवं सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्ट कार्य जनयत्यधिकृत विकल्पाख्यम्, अतो न दोष इति चेत् अधिकृतः । एतदाशङ्क्याह-न अनुपकारिणः तदनुभवस्य । किमित्याह- अपेक्षाऽयोगात् । तदभ्युपगमेऽनुपकारिणोऽपेक्षाऽभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, तद्वद् विश्वापेक्षापत्तेः । तत्तथाविधेत्यादि । तस्याः शक्लेस्तथाविधस्वभावाधायको अनुपकारिणमपि तदनुभवं सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्टं कार्य जनयतीत्येवविधस्वभावाधायकश्चासौ हेतुश्चेति समासः, तस्यापि, किमित्याह - प्रस्थानपक्षपातित्वापत्तेः नेति क्रियायोगः । उक्तं च - " अस्थानपक्षपातश्च हेतोरनुपकारिणि । अपेक्षायां नियुङ्क्ते यत कार्यमभ्याविशेषतः ॥ १ ॥ " इत्यादि । स्वभावापर्यनुयोगस्य च म स्वभावः पर्यनुयोगमर्हति इत्यस्य । किमित्याह प्रमाणोपपन्नस्वभावविषयत्वात् प्रतीतिसचिवस्वभावविषयत्वादित्यर्थः, स्वपरिकल्पनागर्भश्चासौ वाङ्माजोदितस्वभावश्चेति समासः, स एव विशेषो यस्य स्वभावापर्यनुयोगस्य स स्वपरिकल्पना गर्भवाङ्मात्रोदितस्वभा
सामण्ण विसेस वविषयस्तस्य भावस्तस्मिन् पुनरस्याभ्युपगम्यमाने किमित्याह — तस्वव्यवस्थानुपपत्तिः । कुत इत्याह-तथाविधस्वभावानामपि भावानां तथाविधस्वभावत्वाभिधानाविरोधात् । ततः किमित्याह एवं च सहेतुकनाशापसिः । कथमित्याह - स्वहेतु परम्परातः सकाशात् तथास्वभाव प वासावुत्पन्नो भावः पदार्थो योऽकिञ्चित्करमपि नाशहेतुमपेक्ष्य नश्यति इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् तथास्वभाव पर्यनुयोगासिद्धेरुक्तनीत्या । श्रसिद्धिश्वाचिन्त्यशक्तित्वात् स्वभावस्य । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा त्वत्पक्षेऽपि स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोत्पश्वेत्यस्मिन्नपि । तुल्यत्वात् पर्यनुयोगस्य । इति सर्वत्र 'न, अनुपकारिणोऽपेक्षाsयोगात्' इत्यतो यथायोगं 'न' इति क्रिया योजनीया । नापि निरुद्धायाः 'शक्तेरुपकरोति तदनुभवः' इति प्रक्रमः । कुत इत्याह-तस्या एव निरुद्धायाः शक्तेरसत्वात्, असतश्च तुच्छस्य चोपकाराकरणात् । न चेत्यादि । न च प्रकारान्तरेणोक्तप्रकारत्रयातिरिक्तेनोपकारकरणं संभवति वस्तुतस्तस्यैवाभावात् । एवं तावताद्यपदे - उपन्यासक्रमप्राधान्यात् 'परस्परातिशयाधानेन संताने विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणः' इत्यस्मिन्, सहकारार्थाभाव इति ।
एतेन पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्यक्रियालक्षणोऽपि सहकारार्थो निषिद्धः, तत्वतः प्रथमसहकारार्थाविशेषात्,
स्वहेतु परम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोत्पन्ना इत्यादिना तु सुतरामभेदात्, प्रत्येकं तत्तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावेतरविकल्पदोषापत्तेश्च । प्रथमपत्ते किमन्योन्यापेक्षया १, एकत एव तत्सिद्धेः । द्वितीयपचे चापेचायामपि तदसिद्धेः, प्रत्येक मतत्स्वभावत्वात् ।
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एतेनेत्यादि । एतेन - अनन्तरोदितेन, पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्प मैककार्यक्रियालक्षणोऽपि सहकारार्थः प्राग् निदर्शितस्वरूपो निषिद्धः । कुत इत्याह- तत्वतः - परमार्थेन, प्रथमसहकारार्थाविशेषात् । अस्य सहकारार्थस्य परस्परातिशयाधानेन संताने विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणः प्रथमः तदयमपि पूर्वखहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्य क्रियालक्षणः सदा संतानापक्षयैवंभूत एव तस्य तस्य कार्यस्य विशिष्टक्षणोत्पादजलक्षणत्वादिति भावनीयम् । स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोतन्ना इत्यादिना त्वनन्तरोदितग्रन्थेन सुतरामभेदात्-द्वयोरपि सहकारार्थयोः फलाभेदादितिगर्भः । दोषान्तरमाह - प्रत्येकमित्यादिना । प्रत्येकमेकमेकं प्रति तेषां समयोत्पन्नानां तथाविधं विशिष्टं यद् विवक्षितं विज्ञानादि कार्य तज्जननसमर्थस्वभावश्चेतरश्चातज्जा. ननसमर्थस्वभावश्चेति विकल्पाभ्यां दोषास्तदापत्तेश्च कार णादू ' द्वितीयोऽपि सहकारार्थी निषिद्धः ' इति क्रिया । एतदुक्तं भवति - पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पनैककार्यक्रियालक्षणो द्वितीय' सहकारार्थः । तत्र ये समग्रा उत्पन्नास्ते प्रत्येकं तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावाः स्युः, न वा तथाविधकार्य जननसमर्थस्वभावा इति द्वयी गतिः । तत्र प्रथमपक्षे - प्रत्येकं ते तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभाधा इत्यस्मिन्, किमन्योन्यापेक्षया ?, एकत एव तथाविधका
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सामएपविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामएपविसेस यजननसमर्थस्वभावात् सममात् , तत्सिडेस्तथाविधका- अननैकस्वभावानेव-तथाविधकार्यजनकखभावादेव, ततः संसिद्धेः , अन्यथा तत्तत्स्वभावत्वाचुपपत्तिरिति बदयम् ।। प्रथमसममात् , तबुन्पत्तेस्तथाविधकार्योव्यत्तेः, अन्यतः म. द्वितीयपक्ष च-प्रत्येकं ते न तथाविधकार्यजननसमर्थ- मनान्तरात् , तदभार बन्योत्पश्नकार्याभावात् .तत एवोल्प. स्वभावा इत्यस्मिन् । किमित्याह-अपेक्षायामयि सत्या, त- नं तदिति किमन्य स्मादुत्पादेन ।सोऽपि तज्जनतस्वभाव दसिद्धः-विवचितकार्यासिद्धेः । असिद्धिश्च प्रत्येकमतत्स्व- इत्येवं तजनयतीत्याशङ्कानिरासायाह-तस्यापि अन्यस्य भावत्वात् समग्राणाम् । न हि प्रत्येकं लैलाजजनस्वभावाः समयान्तरस्य, सत्वे तज्जननेकस्वभावत्वे । किमिव्याहसिकवाणवः परस्परापनयाऽपि तैलं जनयन्ति, तहतत्स्व- अन्यत्वाभावः तत्स्वभावस्य तत्वादिति निरूप्यतां सम्यक । भावत्वविरोधादिति ।
अन्यथैवमनभ्युपगमे,किमित्याह-कार्यकत्वानुपपत्तिः । कुत तेषामत एव प्रत्येकत्वाभावादप्रत्येकत्वत्त एव तत्स्व
इत्याह-समग्रस्यैव-अखण्डस्यैव, तस्य कार्यस्योत्पत्तेः।
यदि नामैयं ततः किमित्याह-अनेकजन्यत्वे च सति काभावत्वाददोष इति चेत् । न । अनेकतः सर्वथैकभवना
यस्य,तदयोगात्-समग्रोत्पस्ययोगात् । अयोगश्च सर्वेषां ससिद्धेः, तद्भिन्नस्वभावत्वात् , अन्यथाऽनेकत्वायोगात् । मग्राणां तजनकत्वाद-विवक्षितककार्यजनकत्वात् । किमेवं एवं चतरेतरस्वभाववैकल्येन तवानुपयोगात् । तत्स्वभा- न समग्रोत्पत्तिरित्याह-एकभाविनः इति, एकस्माद् भविबविकलस्तद्रूपो न स्याद् , नातत्कार्य इति चेत् । न । त
तुं शीलमस्येत्येकभावि कार्य गृह्यते तस्य , क्रिमित्याहस्वभावविकलस्य तत्कार्यत्वविरोधात , तजननैकस्वभा
अपरस्माद् भावोऽपरभावः,भवनं भाव उत्पादः, तदसिद्धेः ।
असिद्धिश्च तद्वैयर्थ्यप्रसादपरवैयर्थ्यप्रसङ्गात् । नैको जनकः वादेव ततस्तदुत्पत्तेः, अन्यतस्तदभावात् , तस्यापि त- समग्रा एव जनका इत्यसद्ग्रहव्यपोहायाह-समग्रजनकचेऽन्यत्वाभाव इति निरूप्यतां सम्यग् , अन्यथा का- त्वेऽपि सति, किमित्याह-एकस्यापि जनकत्वात् । इत्थं थैकत्वानुपपत्तिः, समग्रस्यैव तस्योत्पत्तेः, अनेकज- चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा एवमनभ्युपगमे, समग्रन्यत्वे च तदयोगात् , सर्वेषां तजनकत्वाद् , एकभाविनोऽ
जनकत्वविरोधात् , नैकाद्यभावे सामन्यमिति भावनीयम् ।
यदि नामैवं ततः किमित्याह-भेदशः भेदैः, तद्भावापत्तेःपरभावासिद्धेः तद्वैयर्थ्यप्रसङ्गात ,समग्रजनकत्वेऽप्येकस्या
कार्यभावापत्तेः, न तत्रैकोऽप्यजनकः, न चांशजनक इति पि जनकत्वाद् , अन्यथा समग्रजनकत्वविरोधाद् , भेदश- कृत्वा । अथान्योऽपि तदव जनयति यदेकेन जनितमित्यस्तद्भावापत्तेः, अन्यतजनकत्वे च कुतस्तत्स्वभाववैकल्यम् ? पाह-अन्यतजनकत्वे च अन्यस्यापि समस्य तज्जनकन्वे इति यत्किश्चिदेतत् ।
समग्रान्तरजनकत्वे चाभ्युपगम्यमाने । क्रिमित्याह-कुत
स्तत्स्वभाववैकल्यं समग्रान्तरस्वभाववैकल्यम् ?-नैव, तजतेषामित्यादि । तेषां-ममनोत्पन्नानां समप्राणाम् ; किमि- न्यजनकत्वान्यथानुपपत्तेः उक्तं च-"उत्पद्यते यदेकस्मा-दनशं त्याह-अत एव हेतोः, प्रत्येकत्वाभावात् कारणात् , अप्रत्ये- नान्यतोऽपि तत् । समग्रभावे सामथ्या,नैकं कार्य सुनीतितः कत्वत एव-अप्रत्येकत्वेनैव समग्रतयेत्यर्थः, तत्स्वभावत्वात् । ॥१॥” इति यत् किश्चिदेतत्-तत्स्वभावविकलस्तपो न तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावत्वाददोष इति चेदनन्तरवि
स्याद् नातत्कार्यः, इति । कल्पयुगलकोपनीतः । एतदाशङ्कयाह--नानेकेत्यादिना । ननैतदेवम् । कुत इत्याह-अनेकतोऽनेकेभ्यः समग्रेभ्यः, स
हेतुभेदात् फलभेद इति चापन्यायः। तथा च सत्ययमेव कभवनासिद्धेर्निरंशभवनासिद्धरित्यर्थः । असिद्धिश्च त- खलु भेदो भेदहेतुर्वा भावानां यदुत विरुद्धधर्माध्यासः द्भिनस्वभावत्वात्--तेषामनेकेषां भिन्नस्वभावत्वात् । इत्थं कारणभेदश्चेत्युक्तिमात्रम् , भावार्थशून्यत्वात् , सामग्रथचैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह--अन्यथा एवमनभ्युपगमेऽभिन्नस्व- योगात, समग्रेभ्यस्त दाभेदासिद्धेः, तत्वतः समग्रमात्रभावत्वादनेकत्वायोगात् । एवं चेत्यादि । एवं चानेकत्वे सति
स्वात् । तदुपादानादिभेदेन तद्भेद इति चेत् । न । तत्स्वइतरेतरस्वभाववैकल्येन न य पवैकस्य स्वभावः स एवापरस्य, तदभेदप्रसादितीतरेतरस्वभाववैकल्यं तेन, तत्र स
भावभेदमन्तरेण तदसिद्धेः, तद्भेदे चानेकस्वभावतापराथैकभवने, अनुपयोगाद नानेकतः सर्वथैकभवनमिति । धः, अन्यथोभयोस्तुज्यतापत्तेस्तत्कार्ययोरपि तुल्यता. तत्स्वभावविकलस्तस्य विवक्षितस्य कस्यचित् तथाविध- सामस्त्येनोभयजननस्वभावादुभयादुभयप्रसूतेः , तत्तथाकार्यजननसमर्थस्य समग्रस्य स्वभावस्तत्स्वभावस्तेन वि- स्वकल्पनायास्तद्वैचित्र्यापादनेनायोगात् । इति प्रयश्चितकलो रहितोऽपरः समग्र एव तत्स्वभावविकलः सः, नढू
मेतदन्यत्र, नेह प्रतन्यते इति परमते सहकारासिद्धेपोऽधिकृतसमग्रान्तररूपः, न स्याद्--न भवेत् तद्वैकल्येन, नारीत्कार्यों न समग्रान्तराकार्यः, किन्तु तत्कार्य एव, समग्रा
रशोभनस्तदुपन्यास इति परिचिन्त्यतामेतत् । न्तरवत् , तस्यापि तज्जननस्वभावत्वादिति चेत् । एतदा- दोषान्तग्माइ-हेतुभेदात् सकाशात् फलभेद इति चापन्याशङ्कयाह--नेत्यादि । न-नैतदेवम् । कुन इत्याह-तत्स्वभाव- यः, तथानकैकभावन । तथा च सति 'अयमेव खलु भेविकलस्य विवक्षितसमनतथाविधकार्यजननसमर्थस्वभाव- दो भेदहेतुर्वा भावानां, यदुत-विरुद्धधर्माध्यासो भेदः , विकलस्य समग्रान्तरस्येति प्रक्रमः । किमित्याह- तत्कार्य- कारणभेदश्च भेदहेतुः , इत्युक्तिमात्रम् । कुत इत्याह-भावात्वविराधात्-समयान्तरकार्यत्वविरोधात् । विरोधश्च त- र्थशून्यस्यात् । भावार्थशून्यस्वं च सामध्ययोगात् । अयोग
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सामरण बिसेस
जश्च समप्रेभ्यः सकाशात्, तद्भेदाभेदासिद्धेस्तस्याः सापहया भेदाभेदाभ्यामसि तत्वतः परमार्थतः समग्रमात्रत्वात् सामग्र्या इति । तदुपादानादिभेदेन तेषां समप्राणामुपादननिमित्तभेदेन तद्भेदः - सामग्रीभेदः तथाहिरूपाऽलोकादिसामध्यामेकत्र रूपमुपादानमालकानेकगर्भस्य तस्यैकत्वायोगात् अतिप्रसङ्गात् निबन्ध
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यो निमित्तम्, अपरत्रालोकादय उपादानं रूपं निमित्तमिति सामग्रीभेद इति चेत् । एतदाशङ्कयाह - नेत्यादि । न-नैतदेवम् कुत इत्याह- तत्स्वभावभेदमन्तरेण तेषां समझास्वभावमेतरेण तख सामग्रीमेराशं च - " रूपं येन स्वभावेन, रूपोपादानकारणम् । निमिसकारं ज्ञावे, तत् तेनान्येन वा भवेत् ? ॥ १ ॥ यदि तेजैव विज्ञानं, बोधरूपं न युज्यते । अथान्येन बालाद् रूपं, द्विस्वभावं प्रसज्यते ॥ २ ॥” इति । तद्भेदे च -स्वभावभेदे च, समाग्राणामनेकस्वभावताऽपराधो महानयमेकान्तैकस्वभाववादिनः । श्रन्यथेत्यादि । श्रन्यथैव मनभ्युपगमे, उभयोः समग्रयोरिति सामध्युपलक्षणम् । किमित्याह - तुल्यतापकार्ययोरपि पाकादिरूपः ल्यता । कुत इत्याह- सामस्त्येनोभयजननस्वभावात् । उभयादेकस्वभावात् समग्रोभयात् उभयत्रतेपात् तथात्वेत्यादि । तस्याधिकृतस्वभावद्वयस्य तथात्वकल्पनाया - भिन्नजातीयोभय जननेकस्य भायत्यकल्पनायाः, - विश्वापादनेनाधिकृतस्वभावद्वयवैश्वापादनेन हेतुना योगात् तथाहि-- वाचिषात् स्वभावद्वयाचित्रद्वयभावः पद्रियायोचित एवस्था दिति प्रतिमेतद्यानेकान्तसिद्धी ने मतम्यते इति एवं परमते सहकरार्थासिद्धेः कारणात् श्रशोभनस्तदुप्रन्यासः -- सहकायास इति परिचिन्त्यतामेतत् ।
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सिविकल्प संभवाभावोऽपि न्यायतस्तद्वस्थ एव त, दनुभवस्यानेकशक्तिसहकारित्वविरोधात् एकस्वभावत्वादं तस्य चानित्याद्यन्यतम विकल्प सहकारित्वतभ्यात्; अन्यथा तदेकस्वभावत्वासिद्धेः । एकान्तैकस्वभावत्वे च कथमस्य नित्यादिविकल्पशक्तिसहकारिभावः ? इति चिन्त्यम् । न हि नीलविज्ञानजन्मसहकारिस्वभावं नी लं कदाचिद् रसादिविज्ञानजन्मसहकारितां प्रतिपद्यते तननविरोधादिति ।
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( ६८६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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मिश्रविश्वसंभवाभावोऽपि निमित्तान्तराभावन पूर्वोक्र न्यायतस्तदवस्थ एव । कुत इत्याह-तदनुभवस्य प्रस्तुतस्वलक्षणानुभवस्य, अनेकशक्ति सहकारित्वविरोधात् । विरो
स्वभावत्वात् । तस्य कस्य स्वभावस्यानित्याद्यम्यतमधिकल्पशक्ति सहकारित्वस्यात् सहकारित्यस्वभावत्यात् । श्रन्यथैचमनभ्युपगमे तदेकस्वभात्वासिद्धेः-तस्यानुभवस्यैकस्यभावस्यासिद्धेशिक सहकारिभावेन एकान्तेकस्वभावचे च कथमस्यानुभवस्य नित्यादिल्पिशक्तिसहकारिभावः ? इति चिन्त्यम्--नैयानित्यादिविकल्पशक्तिं विहाय सहकारिभाव स्पर्थः । अनुमेयायें निदर्शनेनाहनदीत्यादिना न पखाद्मीविज्ञानजन्म सहकारि स्वभावं नीलं कदाचित् रसादिविज्ञानजन्मसहकारितां |
१७३
सामण्णविसेस प्रतिपद्यते । किं न प्रतिपद्यते ? इत्याह-तत्तत्वविरोधात् तस्य नीलस्य नीलविज्ञानजन्म सहकारिस्वभावत्वं तर भाविति ।
अनेनानेकश क्रिसहकार्येकस्वभावत्वकल्पना प्रत्युक्ा
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नव्यवस्थाभावात् विश्वस्यैकनिबन्धनतापत्तेः इति स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतचित्ररूपाः सर्व एव विकल्पा: ' इति वचनमात्रमेव ।
श्रनेनानेकशक्तिसहकार्येकस्वभावत्वकल्पना प्रत्युक्ता । थमित्याह - अनेक गर्भस्य तस्य अधिकृतस्वभावस्य एकस्वायोगात् । अनेक गर्भधानेकशक्ति सद्कार्येकस्वभाव इति परिभावनीयम् योगेऽप्यतिप्रसङ्गात् सर्वस्य सर्वसहकारिकल्पनया । ततश्च निबन्धनव्यवस्थाऽभावात् ' नेत्रमस्य कारणम्' इति । व्यवस्थाभावे च विश्वस्यैकनिबन्धनतापतेः अनेक कार्यकररीक स्वभावत्वादेकस्य इत्यपि वक्तु शक्यत्वात् । इति 'अनन्तरोदिता कल्पना प्रत्युक्ता इति फ़ियायोगः । इति एवं स्वलक्षणदर्शनाहितवानाकृत• विप्लवरूपाः सर्वच विकल्पाः' इति वचनमात्रमेव भिप्रेतार्थत्वादर्भिः ।
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तत्प्रतिबद्धजन्मश्वासि देश "तथाहि कस्तेषां वस्तुना प्रतिबन्धः १ इति वाच्यम् । न तादात्म्यम्, तद्देशादि - भेदाइ, अनभ्युपगमाच । न तदुत्पतिः, तदरूपत्वात् तदनन्तराभावाच । पारम्पर्येण वचदुत्पचिरिति चेत् । न । विहितोत्तरत्वात् तत्तद्भावेऽपि तन्निमित्तत्त्वाविशेषात् नित्यादिविकल्पेभ्योऽपि तनिश्चितिसिद्धेः, वस्तुनस्तथात्वप्रसङ्गात् अनेकान्ताप्रचेरिति न च न नित्यादिविकल्पानामपि तत्प्रतिबन्धः तेषामपि तदग्रसवाभ्युपगमात्, नान्येषाम् वद्भेदप्रसवे सत्यपि ' इत्यापन्यासात् तद्भेदप्रधार्थभेदादुत्पादः स चानित्यादिविकल्पानामिवामीषां तत इति । तत्कथं न तेभ्यस्वभिथितिः ।
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इदेोपपरपरमा
स्वजन्मस्यासिदेश-वस्तुप्रतिबद्धजन्मत्वासिद्धेश्व 'विकल्पानाम्' इति प्रक्रमः । तथादित्यु कामधिकृत विकल्पानां - स्तुना सह प्रतिबन्धः ? इति वाच्यम् । न तादात्म्यं प्रतिबन्धः, तदेशादिमेदाद-वस्तुरेशादिभेदात् । श्रादिशब्दात्कालस्वभाषादिग्रहः । श्रनभ्युपगमाच्च । न हि परेणापि वस्तुविपयोस्तादात्म्यमभ्युपगम्यते । न तदुत्पत्तिः प्रतिबन्धः, विकल्पानां वस्तुना । कुत इत्याह- सदसरूपत्यात्-वस्त्यरूपत्वाद् विकल्पानाम् । उपपस्यन्तरमादतदनन्तराभावाच्च वस्घनन्तराभावाच्च कारणादिति । पारम्पर्येण स्वलक्षणशानव्यवधानजेन तत्तदुत्पत्तिः-स्माद् वस्तुनो विकल्पोत्पत्तिरिति चेत् एवाहन विहितोसत्यात् परदर्शने निमित्तान्तराभावेन विहितांत्तरमेतत् कथं वा निर्विकल्पकत्वेनाभिन्नाद् भिन्नषि
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(६६०) सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस कल्पसंभवः' इत्यादिना ग्रन्थेन । इतश्चैतद् न तत्तद्भा- ताः ' इति कः संबन्धः ? । अभेदेऽवस्थातैवासौ , अववेऽपि वस्तुनो विकल्पभावेऽपि, तन्निमित्तत्वाविशेषाद्-व- स्था वा, इति नित्यस्यावस्थाभेदाभाव इति चेत् । एतस्तुनिमित्तत्वाविशेषात् ,नित्यादिविकल्पेभ्योऽपि सकाशात् , दाशङ्कयाह-नेत्यादि । न-नैतदेवम् , ततो नित्याद् वस्तुनः, तनिश्चितिसिद्धवस्तुनिश्चितिसिद्धेः कारणात् । किमित्याह- तनेदाभेदविकल्पाप्रवृत्तेः-तासामवस्थानां भेदाभेदविवस्तुनस्तथात्वप्रसन्नात् , नित्यत्वादिप्रसङ्गात् अनेकाम्तापत्ते- कल्पाप्रवृत्तेः । अप्रवृत्तिश्वावस्थानामुत्प्रेक्षितत्वात्-श्रवस्तुरिति,न नैतदेवमिति क्रिया। न चेत्यादि।नच-न नित्यादिवि- स्वादित्यर्थः। तथातत्स्वानामपि-उत्प्रेक्षिततद्भावानामपि 'अकल्पानामपि, तत्प्रतिबन्धो-वस्तुप्रतिबन्धः, किन्तु प्रतिबन्ध वस्थानाम् ' इति प्रक्रमः , समचित्रनिनोन्नतसमारोपधएव । कुत इत्याह-तेषामपि नित्यादिविकल्पानाम् , तळे- दिति निदर्शनम् , समचित्रे निनोन्नतसमारोप इति दप्रसवाभ्युपगमाद्-वस्तुभेदप्रसवाभ्युपगमात् । अभ्युप- विग्रहः, तद्वत् , तथा समारोपो भेदसमारोपस्तछेतुत्वाविगमश्च 'नान्येषाम् , तदप्रसवे सत्यपि ' इत्याधुपम्या- रोधस्तथातरवानामप्यवस्थानामिति । कुत इत्याह-श्रान्तसात् प्राक । तद्रेदमसवश्व कः ? । उच्यते-अर्थभेदादुत्पाद: रदोषसामर्थ्यात् कारणात् , तस्य चाम्तरदोषस्य, असस्वलक्षणादित्यर्थः । स चेत्यादि। स चानित्यादिविकल्पा- इर्शनवासनारूपत्वात्-असहर्शनवासनाऽनित्यादिदर्शननामियामीषां नित्यादिविकल्पानाम्, तत इति वस्तुनः । वासना तद्रूपत्वात् , नित्यप्रमातुरपि तत्स्वभावत्वंतोऽसतत्-तस्मात् , कथं न तेभ्यो नित्यादिविकल्पेभ्यः , तन्नि
दर्शनवासनास्वभावत्वेन, अमित्यस्य प्रमातुः, अभेदवास श्चितिर्वस्तुनिश्चितिः ? इति।।
नावदिति निदर्शनम् , 'तत्स्वभावत्वतः' इति योज्यते , ननक्तमत्र 'यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य किचि- तथाषासनोपपत्तेर्भेदप्रकारेण वासनोपपत्तेः । इति एवम् , सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपात् ' इति । उक्नमि- इतरत्रापि वस्त्वनित्यत्वादौ, उतन्यायतुल्यत्वमिति निग
मननिदर्शनमेतत् । दम् , भयुक्तं तूकम् , इतस्त्राप्युक्तन्यायतुल्यत्वात् , 'अनित्यादिविकल्पानामपि नित्यादिरूपयथादृष्टविशेष
किञ्च-'यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य, इत्यत्र 'तथा निश्चयपरित्यागेनावस्थाभेदग्रहणतो विशेषान्तरसमारोपे
| दृष्टो नान्यथा' इत्यत्र न प्रमाणम् । प्रत्यक्ष मेवात्र प्रमाणण प्रवृत्तेः । इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् । नित्यस्य
मिति चेत् । न तत्कस्यचित् निश्वायकम् । तथ्यमपि भेदाभेदविकल्पद्वारेणावस्थाभेद एवायुक्त इति चेत् ।
गृहाति न तनिश्चयेन , किं तर्हि १ , तत्प्रतिभासेन ।
स चैवंभूत एव नान्यथेति ऋतेऽतीन्द्रियार्थदर्शितामतिन । ततस्तद्भेदाभेदविकल्पाप्रवृत्तेः, अवस्थानामुत्प्रे
शयश्रद्धां वा न विनिश्चयोपायः । न तदेव, संप्रमुग्धमचितत्वात् , तथातच्चानामपि समचित्रनिम्नोन्नतसमा
ककल्पत्वात् । नानुमानम् , तथाविधलिङ्गासिद्धेः । न रोपवत् तथासमारोपहेतुत्वाविरोधः, आन्तरदोषसामात , तस्य चासदर्शनवासनारूपत्वात् , नित्यप्रमा
चान्यत् , अनभ्युपगमात् । अनित्यतादिरूपस्यैव वस्तुनि तुरपि तत्स्वभावत्वतोऽनित्यस्याभेदवासनावत् तथावास
विद्यमानत्वात् स एवभूतो नान्यथेति चेत् । कुतस्तत्रानोपपत्तेः । इतीतरत्राप्युकन्यायतुल्यत्वमिति ।
स्यैव विद्यमानतासिद्धिः' इति वाच्यम् । तत्तथाप्रत्यपाह-मनूक्तमत्र प्राक्,' यथारष्टविशेषानुसरणं परि- |
क्षप्रतिभासादेवेति चेत् । सोऽयमितरेतराश्रयदोषोऽनित्यज्य किश्चित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपाद न वारितप्रसरः । कथं वा तत्तत्प्रतिभासत्वे तत्रीलत्वादिवतेभ्यस्तनिश्चितिः' इति । एतदाशङ्कयाह-उक्रमिदम् , अ- त्तदनिश्चयः १ । किश्चित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमायुक्त तूकम् । कथमित्याह-इतरत्रापि प्रक्रमाद वस्त्वनि
रोपादिति चेत् । किमत्यन्तमेदिनां सामान्यम् । सहत्यत्वादी, उक्तम्यायतुल्यत्वात् ' यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य 'इत्यादिरुको भ्यायः , अस्य तुल्यत्वात् । तुल्य
शापरापरोत्पत्तिरिति चेत् । प्रतिनियतैकग्राहिज्ञानतत्त्ववादे स्वमेवाह-अनित्यादिविकल्पानामपीत्यादिना । तत्र 'यथा- कुतोऽस्याः खल्ववगमः । न हि कथञ्चिदेकहष्टविशेषानुसरण परित्यज्य' इत्यादि भणयन्तरेणाधिकृ-| स्यानेकग्राहिणो विज्ञानस्याभावे • केनचित् सहशोतपक्षविपक्षे योजयति-अनित्यादिविकरूपानामपति न केव
ऽयम् । इति भवति, अतिप्रसङ्गात् , रूपग्रहणस्यापि लं नित्यादिविकल्पानाम् , नित्यादिरूपयथादृष्टविशेषनिश्च
रसग्रहणसदृशतापत्तेः । एवं च व्यवस्थानुपपयपरित्यागेन नित्यादिरूपस्य यथाविशेषो नित्यादिरूपएव तनिश्चयपरित्यागन । परित्यागश्वावस्थाभेदग्रहणतो
तिः । न रूपज्ञानं रसज्ञानोपादानमतोऽयमदोष इति वस्थाभेदग्रहणात् कारणात् , विशेषान्तरसमागेपेणाभे- चेत् । न । न भवति,क्वचित्तथाभावोपपत्तेः, रूपज्ञानसमदसमारोपण, प्रवृत्तनित्यादिविकल्पानामपि । इत्यपि-ए- नन्तरभाविनो रसज्ञानस्य तदनुपादानत्वेऽनुपादानत्वप्रसबमपि , वक्तुं शक्यत्वात् , नात्र जिह्वान्तर डोकरः । नि
ङ्गात् । किं वा-तत्तथाभावाभावेऽत्यन्तासत एव भवतोऽत्यस्येत्यादि । नित्यस्य वस्तुनः , भेदाभविकल्पद्वारण-एसम्मुम्बनेत्यर्थः, अवस्थाभद एवायुक्तोऽघटपानकः, तथाहि- स्यापादानाचन्तया ।। तत्तथाभा
। स्योपादानचिन्तया। तत्तथाभावे चानिवारितोऽन्वयः। तास्तता भंदन वा स्युः, अभेदेन वा ? । भेद ' अस्य ! एतेन सदा सचोपलम्भः प्रत्युक्तः, तत्त्वतस्तस्यापि साह
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सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामण्णविसेस श्यनिबन्धनत्वात् तस्य चोक्तवद् ग्रहणायोगात् आन्तरत- तोऽयमतिप्रसङ्गदोषोऽदोष इति चेत् । एतदाशझ्याहद्विकल्पीजस्याप्रमाणत्वात् ,तथापि तत्कल्पनायाश्वेतरत्रा
न-न भवति रूपज्ञानं रसज्ञानोपादानम् , किन्तु-भवत्यपि पि तुल्यत्वादित्युक्तप्रायम् ।
कचित् सामान्येन तथाभावोपपत्तेः रूपक्षानस्य रसवानोइहैव दूषणान्तरमाह-किश्चेत्यादिना । किञ्च-'यथा दृप
पादानभावोपपत्तेः । एतदेवाह-रूपवानसमनन्तरभाविनो विशेषानुसरणं परित्यज्य' इत्यत्र तथादृष्टोऽनिस्यादिरूप
रसखानस्य तदनुणदानत्वे-रूपज्ञानानुपादानत्वे, अनुपादास्वेन, नान्यथा-न नित्यादिरूपत्वेम, इत्यत्र न प्रमाणम्-ना
नत्तप्रसङ्गात् । न तदपरं ज्ञानमुपादानम्, न च-न स्मिन् विषये प्रत्यक्ष प्रवर्तते , नाप्यनुमानमित्यर्थः। प्रत्यक्ष
भवति रूपज्ञानानन्तरं रसज्ञानमिति भावनीयम् । कि
वा तत्तथा-भावाभावे तस्य-रूपझानस्य तथा रसमेवात्र 'तथाष्ट्र' इति विषये प्रमाणमिति चेत् । एतदाश
मानतया भावाभावे, अन्वयानभ्युपगमेनात्यन्तासत एव क्याह--न तदित्यादि-न तत् , प्रत्यक्षं कस्यचिद् वस्तुनो निश्चायकम् । तथ्यमप्यर्थविशेष गृह्णाति न तत् निश्चये
भवतः, अस्य-रसशानस्य , उपादानचिन्तया , परन'एवमेतत्' इत्येवंरूपेण । किं तर्हि ?, तत्प्रतिभासेन तदा
मार्थतः सर्वत्रासत् सद् भवतीति कृत्वा ? । तत्तथाभावे कारेण ग्राह्याकारणेत्यर्थः। स चेत्यादि । स च प्रति
च तस्य रूपक्षानस्य तथाभावे च रसज्ञानभावे चाभ्युप
गम्यमाने सति । किमित्याह-अनिवारितोऽन्वयः बलादाभास एवंभूत एव-अनित्यादिरूप एव , नान्यथेति न
पद्यत इत्यर्थः । एतनेत्यादि । एतेनानन्तरोदितेन, सदा सनित्यादिरूपः, इति-एवम् , ऋते-विना , अतीन्द्रियार्थद
स्वोपलम्भः प्रत्युक्तः । कथमित्याह-तत्त्वतः-परमार्थतः, तर्शितामतिशयश्रद्धां वा न विनिश्चयोपायः। न तदेव प्रत्यक्षं
स्यापि सदासत्त्वोपलम्भस्य , सादृश्यनिवन्धनत्वात् । विनिश्चयोपायः। कुत इत्याह-संप्रमुग्धमूककल्पत्वात् तस्य यदि नामैवं ततः किमित्याह-तस्य च सादृश्यस्य , उसंप्रमुग्धो हि मूकः स्वप्रतिभासमपि न विनिश्चिनोतीति क्लवद् यथोक्लम्-'प्रतिनियतैकग्राहिमानतत्त्ववादे' इत्यादि लौकिकमेतत् । अतोऽत्र न प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति । अनुमा
तथा ग्रहणायोगात्, आन्तरतद्विकल्पबीजस्य--असदर्शनं तर्हि भविष्यतीत्याशङ्कानिरासायाह-नानुमानम् 'अत्र नवासनाख्यनित्यत्वादिविकल्पबीजस्य, अप्रमाणत्वात् ,नैप्रमाणम्' इति प्रक्रमः कुत इत्याह-तथाविधलिकासिद्धेः
तग्राहकं प्रमाणमस्ति; तथापि प्रमाणाभावेऽपि, तत्कस एवंभूत एवेत्याद्यर्थाविनाभूतलिङ्गासिखेः । न चान्यत् '
ल्पनायाश्चान्तरतद्विकल्पबीजकल्पनायाश्च, इतरत्रापि प्रत्र मानम्' इति प्रक्रमः कुत इत्याह-अनभ्युपगमात् अन्यस्य । क्रमादनित्यत्वादी, तुल्यत्वादित्युक्तप्रायम्-प्रायेणोक्लम्मान्तमानस्य । अनित्यत्वादिरूपस्यैव वस्तुनि रूपादौ विद्यमान
रदोषसामर्थ्यात्' इत्यादिना ग्रन्थेन । त्वात् कारणात् , स प्रतिभासः, एवंभूतोऽनित्यादिरूप एव नान्यथेति न नित्यादिरूप इति चेत् । पतदाशस्याह-कुत
प्रकारान्तरेण पूर्वपक्षयन्नाहस्तत्र वस्तुनि, तस्यैवानित्यत्वादिरूपस्यैव , विद्यमानतासि.
एवं प्रदीपप्रभोदाहरणं सर्वत्रगत्वादनुदाहरणमेव । न द्धिः? इत्येतद् वाच्यम् । तत्तथेत्यादि । तस्मिन् वस्तुनि त
च दीपप्रभाया मण्यर्थेन प्रतिबन्धः, अस्ति च मणिप्रथाऽनित्यादिरूपतया प्रत्यक्षप्रतिभासः प्रत्यक्षाकारस्तत्तथा. प्रत्यक्षप्रतिभासस्तस्मादेवेति चेत् तस्यैव विद्यमानतासिद्धि- भायाः । न चैवमनित्येतरादिविकल्पानां केषांचिदेव वरिति । एतदाशझ्याह- सोऽयमितरेतराश्रयदोषोऽनिवा. स्तुना प्रतिबन्धो नान्येषाम् , इति वैषम्यमपि दार्टान्ति - रितप्रसरः तथाहि अनित्यत्वादिरूपता वस्तुनः प्रत्यक्षप्रति- केन । अयोनिशोमनस्कारपूर्वकत्वान्नित्यादिविल्पानां न भासबलेन, सोऽपि तथा वस्तुनोऽनित्यत्वादिरूपतया, इती.
वैषम्यमिति चेत् । न । अस्यापि तुल्यत्वात् , अनित्यातरेतराश्रयदोषः कथं वेत्यादि । कथं वा तस्य प्रत्यक्षस्य , तत्प्रतिभासत्व प्रक्रमादनित्यत्वाद्याकारत्वे, तभीलत्वादिवत्
दिविकल्पानामप्येवंभूतभावस्य वक्तुं शक्यत्वात् , उभयत्र तस्य वस्तुनो नीलत्वादिवदिति निदर्शनं व्यतिरेकेण , तद- तनियामकत्वानुपपत्तेः, निवन्धनाविशेषादिति । अतः निश्चयोऽनित्यत्वाचा निश्चयः । किञ्चित् सामान्यग्रहणे- स्थितमेतत्-'अखिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनश्च तत्सानापरसदादिग्रहणेनेत्यर्थः, विशेषान्तरसमारोपात् सर्वस
मोत्थं वचनमपि तागेव' इति दुःस्थिता तत्वनीतिः । दादिसमारोपादिति चेत् तदनित्यत्वाधनिश्चयः। पतदाशझ्याह-किमत्यन्तभदिनां सामान्य वस्तूनाम् ' इति
पूर्वपक्षान्तरमधिकृत्याह-एवमित्यादि ! एवमुक्तनीत्या, प्रप्रक्रमः । सरशापरापरोत्पत्तिरिति चत् प्रस्तुतसामान्यम् । दीपप्रभोदाहरणं परप्रणीतं, सर्वत्रगत्वात् कारणाद् विपएतदाशझ्याह-प्रतिनियतैकग्राहिशानतत्त्ववादे क्षणिक- क्षेऽप्युपनयकरणेन, किमित्याह-अनुदाहरणमेव । अभ्युचय. स्वन कुतोऽस्याः सदृशापरापरोत्पत्तेः खल्वषगमः ? माह-न चेत्यादिना । न च दीपप्रभाया मण्यर्थेन सह प्रतिनैवेत्यर्थः । एतदेव भावयति--न हीत्यादिना। न हि बन्धोऽस्ति, अस्ति च मणिप्रभाया इत्युभयसिखमेतत् । कश्चिदेकस्यानेकग्राहिणो विज्ञानस्याभावेऽन्वयिन - म चैवमनित्यतरादिविकल्पानामनित्यनित्यादिविकल्पानाम्, स्यर्थः , केनचित् सहशोऽयम् ' प्रक्रमाद् 'भावः' इति केषाश्चिदेवानित्यादिविकल्पानामेव, वस्तुना प्रतिबन्धो नाभवति । किन भवति ? इत्याह-अतिप्रसङ्गात् । एनमेवाह- न्येषां नित्यादिविकल्पानाम् , किं तर्हि ? अविशेषेण, नारूपग्रहणस्यापि रसग्रहणसहशतापत्तेः , तेन तदग्रहणावि- न्येषां तनेदप्रसवे सत्यपि इत्यादिवचनात् , इत्येवं, वैषशधादिति भावः । एवं चातिप्रसने सति व्यवस्थानुपपत्तिः।। म्यमपि, दार्टान्तिकेन । अयोनिशोमनस्कारपूर्वकवाद निन रूपकानं रसज्ञानोपादानम् , यथा रुपानोपादानमेव, अ । त्यादिविकल्पनां सर्वथा वस्तुशून्यत्वादित्यर्थः, न वैषम्य
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(६१२) सामरणविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामण्णविसेस मिति चेद् दार्शन्तिकेन, एतदाशङ्कयाह-न , अस्यापि तु- आह-अस्तु दोषजं वस्तुत्वमस्याः, शङ्खपीतादिप्रतित्यत्वात् । एतदेवाह-अनित्यादिविकल्पानामपि पराभिम
भासतुल्यं तु तत् , संस्थानादितचनिश्चयकल्पा तु स्वतानाम् , एवंभूतभावस्य-अयोनिशोमनस्कारपूर्वकत्वभावस्य , वक्तुं शक्यत्वात् । तथाहि-अनित्यादिविकल्पा एवा
संवित्तिरिति । यदि नामैवम् , ततः किम् ? इति वाच्यम् योनिशोमनस्कार'का वस्त्वसंस्पर्शिनः , सतोऽसत्वाना- | विकल्पज्ञानस्याप्यभ्रन्तता । एवमपि का भवत इष्टसिद्धिः? पस्या , असतश्च सद्भावविरोधेन वस्तुन एवंभूतस्यासं- ननु ततस्तचनीतिभावः । अनिश्चयात्मिकायाः कथभवात्, इति बाधकप्रमाणवृत्तिः, अतः स्थितमेतत् अनित्यादिविकल्पानामप्येवंभूतभावस्य वक्तुं शक्यत्वात् '
मसौ । हन्त ! कल्पनानुवेधात् । स खलु नित्यत्वाति । उभयत्रेत्यादि उभयत्र नित्यादिविकल्पपोऽनित्यादि- दिकल्पनयाप । हात विपक्षसाधारणत्वात् नष्टासद्धथविकल्पपक्षे च , तन्नियामकत्वनुपपत्तेः तस्यायोनिशोमन-र्थमेवेत्ययुक्त एव । न च निरंशवस्तुवादिनो यथोक्नकस्कारप्रवकत्वस्य नियामकत्वानुपपत्तेः । अनुपपत्तिश्च नि- ल्पनैव संभवति, तदेकस्वभावत्वेन कल्पनाबीजायोगात, बन्धनाविशेषात् । निबन्धनाविशेषश्च सर्वेषां तङ्गेदप्रसववेनेति । अतः स्थितमेतत् 'अखिलविकल्पशानभ्रान्ततावा
स्वभावभेदमन्तरेण हेत्वभेदतः फलभेदासिद्धेः।। दिनश्च तत्सामोत्थं-विकल्पसामोत्थं बचनमपि ता- पाह-अस्तु दोषजं वस्तुत्यम् अस्याः-कल्पनायाः। शमापीहगेव-भ्रान्तमेव, इत्येवं , दु:स्थिता तत्त्वनीतिः।
तादिप्रतिभासतुल्यं तु तद्-वस्तुत्वम् , संस्थानादितत्वनिभ्रान्तिज्ञानवन्तोऽपि कामलिप्रभृतयः शङ्खादी संस्था- श्वयकल्पा तु स्वसंवित्तिरिति । पतदाशङ्कयाह-यदि ना
मैवं, ततः किम् ? इति वाच्यम् । विकल्पज्ञानस्याप्यभ्रानादितत्त्वनिश्चयनिबन्धनं दृश्यन्त एवेति चेत् । न । तेषां
न्तता । एतदाशङ्कयाह-एवमपि का भवत इष्टसिद्धिः? । तत्राभ्रान्तत्वात् । अन्यथा पीतवर्णादिवत्तवनिश्चयनिब
ननु ततः-अभ्रान्तायाः स्वसंवित्तेः, तत्त्वनीतिभाव इतीष्टन्धनाभावः । विकल्पज्ञानमपि स्वसंवित्तावभ्रान्तमेवेति सिद्धिः । एतदाशङ्कयाह-अनिश्चयात्मिकायाः स्वसंवित्तः, चेत् । क्व तर्हि भ्रान्तम् ? इति वाच्यम् । कल्पनायामि
कथमसौ तस्वनीतिभावः? । हन्त ! कल्पनानुवेधात् । एत
दाशङ्कयाह--स खलु-कल्पनानुवेधः, नित्यत्वादिकल्पनयाति चेत् । न । तस्यास्तदव्यतिरेकात् । अन्यथा विकल्प
ऽपि-सह, इति-विपक्षसाधारणत्वात् कारणात् , ' नेष्टसिज्ञानायोगात् , स्वसंवित्तर्भेदकासिद्धेः, बोधमात्रात्-बोध
द्धयर्थमेव' इति कृत्वाऽयुक्त एवेति किश्चिदनेन । अभ्युमात्रभावात् , तदतिरिक्तदोषानभ्युपगमात् । अभ्युपगमे च च्चयमाह--न च निरंशवस्तुबादिन:--परस्य , यथोक्तकतद्वस्तुत्वेन तद्योगजविकारकल्पनाया वन्तुत्वापत्तेरिति । ल्पनैव संभवति । इत्याह-तदेकस्वभावत्वेन-निरंशवस्तुन भ्रान्तीत्यादि । भ्रान्तिज्ञानवन्तोऽपि कामलिप्रभृतयः प्रमा- |
एकस्वभावत्वेन हेतुना कल्पनाबीजायोगात् । अयोगश्च तारः,शादौ प्रमेये,संस्थादितत्वनिश्चयनिबन्धनं श्यन्त एवे. स्वभावभेदमन्तरेण--प्रक्रमादविकल्पज्ञानवस्तुनः, हेयभेदता ति चेत् । ततश्च तद् भ्रान्तं च शान, तस्वनिश्चयनिबन्धनं च, कारणात्, फलभेदासिद्धेः । फलभेदश्चाविकल्पज्ञानात् कल्पएवमनित्यादिविकल्पा अपि भविष्यन्ति; इत्याह-नेत्यादि । नेति भावनीयम्। न, तेषां कामलिप्रभृतीनां, तत्र शादिसंस्थानादितस्वनि- भवतोऽपि कथमेक भ्रान्ताभ्रान्तम् ? इति चेत् । चिश्चयनिवन्धनाभावः, अभ्रास्तत्वात् । इत्थं चैतङ्गीकर्तव्य- वस्वभावत्वेन तथात्वाविरोधात, तच्चत एकत्वासिद्धेः, मित्याह-अन्यथा पीतवर्णादौ यथा पीतवर्णादौ तथा, तत्त
दोषसामोपयोगात , अविगानतस्तथा तत्प्रतीतेरिति ।। स्वनिश्चयनिबन्धनाभावः-शनादिसंस्थानादितत्वनिश्चयनिबन्धनाभावः,सर्वथा भ्रान्तस्वादिति भावना विकल्पशा
अतोनिर्विकल्पकवद् विकल्पकमप्यक्षब्यापारानुसारि य. नमपि स्वसवित्ती, किमित्याह-अभ्रान्तमेवेति चेत् ततश्च | थावस्थितवस्तुविषयमविगानतः स्पष्टतुल्यविनिश्चयं सकिलोकदोषानुपपत्तिः, इत्याशङ्कयाह-क तर्हि भ्रान्तम् ? क्षयोपशमजन्म बाधविज्ञामरहितमवगमादिफलमभ्रान्तमेइति वाच्यम् । कल्पनायामिति चेद् भ्रान्तम् । अत्राह |
ष्टव्यम् , अन्यथोक्नवत् तत्तचनिश्चयाभावः । इति विकन, तस्याः कल्पनायाः,तदव्यातिरेकात्-स्वसंविस्यव्यतिरेकात् । इत्थं चैतदित्याह-अन्यथा व्यतिरेके सति स्वस
ल्पकत्वेऽपि न भ्रान्तमधिकृतविज्ञानमिति । अतः सामावित्तेः कल्पनायाः, विकल्पमानायोगात् । अयोगश्च स्वसं. न्यविशेषरूपवस्तुसिद्धिरिति । वित्तेश्चिदुपायाः, भेदकासिद्धरजकासिद्ध। । प्रसिद्धिश्च | भवतोऽपि कथमकं प्रक्रमात् कालिशपीतज्ञानं, भ्राबोधमात्रात् सकाशात् कारणगतात् , योधमात्रभावात् ।। न्ताभ्रान्तम् ? इति चेत् । एतदाशझ्याह चित्रस्वभावत्वेन तत्कायें तदेव दोषसंपृक्तं विकल्पज्ञानमित्येतन्निरासायाह
अधिकृतमानस्य , तथात्वाविरोधाद-भान्ताभ्रान्तत्वावितदतिरिक्तदोषानभ्युपगमात्-बोधमात्रातिरिक्रदोषानभ्युप
रोधात् , तत्त्वता--परमार्थन; एकत्यासिद्धरकानगमात् । अभ्युपगमे च तदतिरिक्तदोषाणां , तद्वस्तुत्येन-,
कत्वादित्यर्थः । हेतुभेदमाह--दोपसामोपयोगात् कादो(पा)पयस्तुत्वन इतुना, 'तद्योगजविकारकल्पनाया-दो- मलस्य सामाद्धि तत् तथा, तदभावऽभावात् । इत्थं पयोगजविकारकल्पनायाः, वस्तुत्वापत्तेः 'न, तषां तत्राभ्रा- चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह--अबिगानतः--अधिगानेन लोक, तत्वात् ' इत्यतो नेति क्रियायोग इति ।
तथा दोषजत्वन, तत्प्रतीतः--शङ्खपीतज्ञानप्रतीतरिति नि
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सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामण्णविसेस लोठ्यानुषङ्गिकम्-प्रकृतमाह-तो निर्विकल्पकवत् इति वत् सर्वात्मनेति । नापि देशेन वर्तत 'सामान्यं विशेषेषु' निदर्शनम् । विकल्पकमप्यभ्रान्तमेष्टव्यमिति योगः। किवि- इति प्रक्रमः, सदेशत्वप्रसङ्गात् सामान्यस्य । न च गगनशिमित्याह-अक्षव्यापारानुसारि-अक्षव्यापारानुसरणशी- धदिति दृष्टान्तः, व्यापित्वात् कारणात् , वर्तत इति ब्रूमः, लम् , यथावस्थितवस्तुविषयं सामान्यविशेषरूपवस्तुगोच- इस्यकलङ्कन्यायानुसारि चेतोहरं वचः । कुत इत्याहरम् , अविगानतोऽबिगानेन, स्पष्टतुल्यविनिश्चयं प्रमात्र- अविचारितरमणीयत्वात् । एतदेवाह-कास्न्यदेशव्यतिरेन्तरमधिकृत्य,सन्क्षयोपशमजन्म-विशिष्टक्षयोपशमोत्पादम् , केण वृत्यदर्शनालोके । उभयव्यतिरेकेण-कास्न्यदेशोभबाधविज्ञानरहितं तथा अनुभवदाढर्थेन,अवगमादिफलं प- यव्यतिरेकेण, नभसः-आकाशस्य, वृत्तिरिति चेद्भावेष्वारिच्छित्तिप्रवृत्तिप्राप्तिफलमर्थमधिकृत्य , अभ्रान्तमेष्टव्यम् । धेयादित्वेन । एतदाशङ्कयाह-न, असिद्धत्वात् अधिकृतनअन्यथा-तदनिष्टी, उक्तवद् यथोक्तं तथा, तत्तत्वनिश्चया- भोवृत्तेः । असिद्धिश्च नभसः सप्रदेशत्वाभ्युपगमानैः । यदा भावो-यथावस्थितवस्तुतस्वनिश्चयाभावः , प्रत्यक्षस्थानि- च सप्रदेश नमः, तदा देशकास्न्याम्यां नियोगतोऽस्य वृत्तिः, श्वायकत्वात् , विकल्पानां च मिथो विरुद्धानामपि प्रवृत्ते- उभयनिमित्तभावात् । इत्थं चैतदकीकर्तव्यमित्याह-निष्पदेरिति । इति-एवं, विकल्पकत्वेऽपि सति, न भ्रान्तमधि- शत्वे च नभसा, अनेकदोषप्रसङ्गात् । एतदेव भावयति-तकृतविज्ञानं-सामान्यविशेषावसायरूपमिति । अतः-अस्माद् । थाहीत्यादिना । तथाहीत्युपप्रदर्शने । येन देशेन विनध्येन सह विज्ञानाद् , सामान्याविशेषरूपवस्तुसिद्धिरिति । । पर्वतेन संयुक्तं नमः, हिमवद्-मन्दरादिभिरपि पर्वतैः , कि
यच्चोक्तम्-'एकं सामान्यमनके विशेषाः' इत्यादि । तेनैव देशेन, आहोस्विदन्येन ? इति । किश्चातः ? उभयतदप्ययुक्तम् , तथानभ्युपगमात् । न हि यथोक्नस्वभावं
थापि दोष इत्याह-यदि तेनैव , ततो विभ्यहिमवदा
दीनां पर्वतानाम् , एकत्र देशे, अवस्थानप्रसनः । कुत सामान्यमभ्युपगम्यतेऽस्माभिः,युक्तिरहितत्वात् , तथाहि
इत्याह-निष्प्रदेश च तदेकाकाशंर्च तेन संयोगस्तदन्यनदेकादिस्वभावं सामान्यमनेकेषु-दिग्देश-समय-स्व- थानुपपत्तेरिति । अथान्येन । एतदाशङ्कपाह-पायातं तर्हि भावभिन्नेषु विशेषेषु सर्वात्मना वा वत, देशेन वा सप्रदेशत्वमाकाशस्य, तथाऽभ्युपगमात् । १ । न तावत्सर्वात्मना, सामान्यानन्त्यप्रसङ्गात् , विशे- स्यादेतददेशत्वात् वियतो यथोक्नविकल्पासंभवः, तत्रैपाणामनन्तत्वात् , एकविशेषव्यतिरेकेण वाऽन्येषां सा- | कस्मिन्नेव तेषामवस्थितत्वात् । इदमप्ययुक्तम् , वस्तुतः पू. मान्यशन्यतापत्तेः, आनन्त्ये चैकत्वाविरोधात् । नापि बोकटोपातलिवान नर देशेन, सदेशत्वप्रसङ्गात् । न च गगनवद् व्यापित्वात् .येन 'तस्मिन्नेव तेषामवस्थितत्वात्' इति सफलं भवेदिति । वर्तत इति ब्रुम इत्यकलङ्कन्यायानुसारि चेतोहरं वचः अतो यत्र विन्ध्यभावो यत्र चाभाव इत्यनयोर्नभोभागअविचारितरमणीयत्वात, कास्न्यदेशव्यतिरेकेण वृ
योरनन्यत्वम् , अन्यत्वं वेति वाच्यम् । किशातः । त्यदर्शनात् । उभयव्यतिरेकेण नभसो वृत्तिरिति चेत् । यद्यनन्यत्वम् , किमु सर्वथा, माहोखित्कथञ्चित् । यदि न, प्रसिद्धत्वात् , नभसः सप्रदेशत्वाभ्युपगमात् , नि- सर्वथा, हन्त! तर्हि यत्र विन्ध्यभावस्तत्राप्यभावः स्यात् , प्रदेशत्वे चानेकदोषप्रसङ्गात् , तथाहि-येन देशेन
तदभाववनभोभागाव्यतिरिकत्वात् , तद्भाववनभोभागस्य विन्ध्येन सह संयुक्तं नमः, हिमवन्मन्दरादिभिरपि किं विपर्ययो वा । अथ कथश्चित् , अनेकान्तवादाभ्युपगमात् तेनैव, आहोस्विदन्येनेति ।। यदि तेनैव , विन्ध्य- स्वकृतान्तप्रकोपः । अथान्यत्वम् । किं सर्वथा, उत कहिमवदादीनामेकत्रावस्थानप्रसङ्गः, निष्प्रदेशकाकाशसं
थश्चित् ? । यदि सर्वथा, अन्यतरस्यानभोभागत्वप्रसङ्गः, योगान्यथानुपपत्तेः । अथान्येन, आयातं तर्हि सदेश
सर्वथा भेदान्यथानुपपत्तेः । अथ कथञ्चित , स्वदर्शनपत्वमाकाशस्य।
रित्यागदोष इति । स्यादेतद्भागानभ्युपगमाद् व्योम्नो ययच्चानम्-'एकं सामान्यमनके विशेषणः' इत्यादि भूलपू
थोक्नदोषानुपपत्तिरिति । अभ्युपगममात्रभागे देवानांप्रियः पक्ष । तदप्ययुक्तम् । इत्याह-तथाऽनभ्युपगमात् । एतदेवाहु-नहीत्यादिना । न हि यथोक्लस्वभावमकादिधर्मकं सा- सुखेधितो नोपपत्तिप्राप्तानपि भागानवगच्छतीति : नन मान्यमम्युपगम्यतऽस्माभिः । कुत इत्याह-युक्तिरहितत्वात्। विशिष्टभावभावाऽभावगम्या एव भागा इत्यवगमे निपतदेवाह-तथाहि-तंदकादिस्वभावं सामान्यम् एकं ,
वेश्यतां चित्तमित्यलं प्रसङ्गेन । एतेन नित्यव्यापिनिर्देबिन्यं, निरवय, निस्क्रियं च, अनेकेषु दिग्दशसमयस्वभावभिनंषु विशेषेषु घटादिषु, सर्वात्मना वा चर्नेत , दे
शसामान्यवृत्तिरपि प्रत्युक्ता। शेन था? न तावत् सर्वान्मना वर्तते । कुत इत्याह-- स्यांदनददेशवात् वियत-आकाशस्य यथोक्लविकल्पासंसामान्यानम्त्यप्रसनातू । प्रसाश्च विशेषाणामनन्तत्वात् । भवः । तत्र-वियति, एकस्मिन्नेव निष्प्रदेश, तेषां विम्यादीदोषान्तरमाह-एकविशेषड़यनिरकेण वाऽन्येषां विशेषाणा- नाम , अस्थितत्वात् । एतदाशपाह-दमध्ययुक्तम्, प. म्, किमित्याह-सामान्य शुन्यतापत्तः एकत्रय सामान्य स्तुतः-परमार्थतः , पूर्वोक्तदोषानातिवृत्तेः-विन्ध्यहिमबसिरिति । मानन्ये च सामान्यानाम्,एकत्वविरोधाद्नता- दादी नामकथावस्थानादिप्रसङ्गः पूर्वॉलो दोषः , तदनति
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सामण्ण विसेस
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वृत्तेः । एनमेव प्रकारान्तरेण समर्थयन्नाह - न च सर्वव्यापिनो विन्ध्यादय इति येन तस्मिन्नेकस्मिन्नेव तेषामवस्थितस्यात् इति सफल मंच तो पंति देशे विध्यभावः यत्र चाभावः, इत्यनयोर्न भाभागयोराकाशदेशयोः किमित्याहअनन्यत्वमन्यत्वं वेति वाच्यम् ? । किश्चातः । यद्यनन्यत्वम् किं सर्वथा, आहोस्वित् कथञ्चित् ? । यदि सर्वथाऽनन्यत्वम् हन्त ! तर्हि यत्र विन्ध्यभावस्तत्राप्यभावः स्यात् । कुतयाभावयन्नभोभागाच्यतिरित्वात् विन्ध्यामा चचप्रभोभागापतिरित्नभागस्य विन्ध्य भाववन्नभोभागस्य विपर्ययो वा यत्राभावस्तत्रापि भावप्राप्तेः । अथ कथञ्चिदनन्यत्वम् । एतदाशङ्क्याह- अनेकान्तवादाभ्युपगमात् स्वकृतान्तप्रकोपः - स्वसिद्धान्तविरोध इत्यर्थः । द्वितीयं विकल्पमधित्याह- श्रथान्यत्वम् अधिकृतनभोगी कि सर्वथाऽन्यत्यम् उत कचित्। यदि सर्वथा - एकान्तेनान्यत्यम् ततः किमित्याह- अन्यतरस्य यत्र विभा यत्र याभावइत्यनयोरेकस्य इत्यनयोरेकस्य किमित्याह श्रनभोभागत्य प्रसङ्गः । कुत इत्याह-सर्वथा भेदायथानुपपतेः सर्वधर्मवेल हि सर्वथा मेदः तस्मि सत्येकस्य भावरूपता, अपरस्य साऽपि न, इत्येतदेव भवतीति भावना । अथ कथञ्चिदन्यत्वमधिकृत नभोभागयोरित्यत्राहस्वदर्शन परित्यागदोषः कान्तदर्शनं हि परस्यर्शत परित्यागदीप इति स्थादेतद् भागानभ्युपगमाद् व्योम्नःआकाशस्य यथोक्तदोषानुपपत्तिरित्वंधिपाद-अभ्यु पगममात्र भक्तो देवानांप्रियो; मूर्ख इत्यर्थः, सुखैधितः-शास्त्रग्रहणपरिश्रमत्यागेन सुखवर्धितः, नोपपत्तिप्रातानपि विन्ध्यभावभावाऽभावाभ्यां भागान्वगच्छतीति । एतद्भावनायैवाह-- ननु विशिष्ट भावभावाऽभावगम्या एव भागाःविशिष्टभावोऽन्यव्यावृत्ततया विन्ध्यभाव एव तद्भावाभावगम्या एव भागा व्योम्नः । न हि निर्भाग परमाणौ कार्यस्य द्वधाणुकादेः क्वचिद् भावाः क्वचिद् नेति स्वदर्शन स्थित्य व्यवगमे निवेश्यतां चित्तमित्यलं प्रसंङ्गन । पतेने-त्यादि । एतेनैकसामान्य वृत्तिनिराकरन, नित्यव्यापिनिर्देशसामान्यवृतिरपि प्रयुक्त विशेषेषु नित्यमायत या कामाव्य नृत्यागः व्यापिनः सर्वमत वन निर्देशस्य देशानायेनेति भावनीयम् ।
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आयास
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आह- अनुभवसिद्धत्वात् सामान्यस्य न युज्यते सहृदयतार्किकस्य तत्यात्मानमायामपितुम् स्व निष्फलत्वात् तथाहि यदि सनातनं वस्तुसद् व्या प्येकमनवयवं सामान्यवस्तु न स्यात् न तदा देशका लस्वभावभेदभिभेषु पटशरावांष्ट्रिकोदचनादिषु बहुषु विशेषषु सर्वत्र ' इत्यभिन्न बुद्धिशब्दौ मृद् मृद् स्वाताम् । न खलु हिमतुषारकरका दकाङ्गारमुर्मुर | ज्यालानल झञ्झा मण्डलिकोत्कलिकापवनखदिरोदुम्बरवदरिकादिष्वत्यन्तभिन्नेषु बहुषु विशेषेष्वेकाकारा बुद्धिभवति, नाप्येकाकारः शब्दः प्रवर्तत इति । अतोऽस्य यथे।क्ताऽभिन्न बुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनस्य वस्तुसतः सामान्यस्य समाश्रवितव्यमिति ।
( ६६४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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सामणविसेस
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4
श्राह परः, अनुभवसिद्धत्वात् सामान्यस्य, विशेषेषु तुबुद्धिभावन नश्यते सहृदयतार्किक भाषास्य तत्प्रतिक्षेपेण- सामान्यप्रतिक्षेपेण, आत्मानमायासयितुम्। कुतो न युज्यत इत्याह- श्रायासस्य निष्फलत्वात् । एतदेवाह थाहात्यादिना तथाहीति पूर्वयत् । यदि स नातनं नित्यम्: वस्तुसत् - अपरिकल्पितम् व्यापि विशेनीलम् एकं स्वरूपेण, अनवयवम् अवयवरहितम्, सामान्यवस्तु न स्यात् ततः किं स्यादित्याह--न तदा देशकालस्वभावभेदभिन्नेषु केष्वित्याह-- घटशरावाष्ट्रिकोदञ्चनादिषु उदञ्चनो- लोट्टकः, श्रादिशब्दादलिञ्जरादिग्रहः, बहुषु विशेषेषु सर्वत्र ' मृद् मृद्' इत्येवं अभिन्नौ तुझ्यावेकरूपावित्यर्थः काही स्थाताम् । किमिति न स्थानामित्याह-न वरिवस्यादिनैव हिमतुषार-व - करकोदकानि च इत्यनेन जलभेदानाह, अङ्गारमुर्मुर ज्वालानलाध' इत्यनेन स्वग्निभेदान् का मण्डलिको स्कलिकापवनाश्च' इत्यनेन वायुभेदान्, 'खदिरो-दुम्बर- बदरिकादयश्च' इत्यनेन च वनस्पतिभेदानाह आदिशः प्रत्येकं धारादिसंग्रहार्थः एतेष्यत्यस्त भित्रेषु जातिभेदापेक्षा बहुषु विशेषेषु भेदेषु एकाकाबुद्धिर्भवति तथाऽननुभवात् । नाप्येकाकारः शब्दः प्रवर्तत इति ' मृदू मृद्' इत्यादिशब्दवत् । श्रतोऽस्य सामाम्यस्येति योगः । यथोक्तं च तद् ' मृद् मृद्' इत्यादिरूपयाभिनं तद्बुद्धिविग्रहः प्रवृत्तिनियम्धनं प्रवृत्तिकारणम् तस्य वस्तुसतः पारमार्थिकस्य सामान्यस्य सत्वमाश्रयितव्यमिति ।
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पुनराशङ्कयाह-
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अत्रोच्यते न खल्वस्माभिर्यथोक्तबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनं निषिध्यते । किं तर्हि ? एकादिधर्मयुक्रं परपरिकल्पितं सामान्यमिति । तच्च यथा विशेषवृत्त्ययोगेन न घटां प्राञ्चति तथा लेशतो निदर्शितमेव प्रपञ्चतस्त्वन्यत्र वृत्ययोग - संख्यादिव्यभिचार-तद्वत्प्रत्ययप्रसङ्गादिना युक्रिकलापेन निराकृतमिति नेह प्रयासः ।
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एतदाशङ्कयाह--अत्रोच्यते न खल्वस्माभिः जैनैः यथोबुद्धि - शब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनं निषिध्यते । किं तर्हि ? | एकादिधर्मकं परपरिक सामान्यमिति सामान्य नि विध्यते। तकादिधर्मकं सामान्यम् बधा विशेषस्ययो गेन हेतुना न घटां प्राञ्चति--न घटनं गच्छति, तथा लेरातो प्रपञ्चस्यन्यत्र स्वाद्वाकुबोधपरिहा रादौ वृत्ययांगश्च संख्यादिव्यभिचारश्च तद्वत्प्रत्ययप्रसङ्गसंघातेन, निराकृतमिति, प्रवाल- प्रयत्नकेनेत्याह-युक्लिकलापेन
"
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नेह प्रयासो-नेह विशेषः तत्र दृश्ययोगो दर्शित ' शब्द प्रवृत्तिनिमित्तं तत् सामान्यम्' इत्यभ्युपगमे संख्यादिभिभिवारा एक संख्याऽपि भवत्येयेनिमि त्तम् ; आदिशब्दात्-तत्समवायश्च न चासौ सामान्यमिति व्यभिचारः । तथाभावेऽपि सामान्यस्य विशेषेषु तद्वत्प्रत्ययप्रसङ्गः 'एक सामान्यवन्तो विशेषाः' इति प्रत्ययः प्रा
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( ६६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामविसेस
मात, न समानाः' इति । श्रादिशब्दाद्-विशेषविनाशे तत्र तत्कवलग्रहणप्रसङ्गः । इति संक्षेपगर्भार्थः । इत्यलं प्रसङ्गेन ।
आह—कि पुनयथाक्तबुद्धशब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनम् ? इति । उच्यते-अनेकधर्मात्मकानां वस्तूनां तथाविधः समानपरिणाम इति । न चात्र सामान्यवृत्तिपरीक्षोपन्यस्तविकल्पयुगलप्रभवदोष संभवः, समानपरिणामस्य तद्विलक्षणत्वात्,तुल्यज्ञानपरिच्छेद्यवस्तुरूपस्य समानपरिणामत्वात्, अस्यैव च सामान्यभावोपपत्तेः समानानां भावः सामान्यमिति यत्तत्समानैस्तथा भूयत इत्यन्वर्थयोगात् अर्थान्तरभ्रतभावस्य च तद्व्यतिरेकेणापि तत्समानत्वेऽनुपयोगात्, अन्यथा समानानामित्यभिधानाभावादयुक्तैव तत्कल्पना । समानत्वं च भेदाविनाभाव्येव, तदभावे सर्वथैकस्वतः समानत्वानुपपत्तेः । इति तथाविधः समानपरिणाम एव समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तम् ।
सामण्ण विसेस मानपरिणामविकला अपि तथाविधबुद्धधादिहेतवः किं नेष्यन्ते १ । उच्यते-असमानेभ्यः समानबुद्धयाद्यसिद्धेः, तन्निबन्धनस्वभाववैकल्यात्, तथाहि-न चक्षुरादिषु समानबुद्धयादिभावः तथाऽप्रतीतेः । रूपज्ञानाद्येककार्यकारित्वं चात्रानर्थकमेव, सिद्धसाधनत्वात् । को हि नाम तथाऽ समानेभ्योऽपि तथैकं कार्य नेच्छति १ । तथाविधसमानपरिणामविकलास्तु समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिहेतवो न भवन्ति, न तथाविधैककार्याः, इत्यभिदधति विद्वांसः । ततान न किश्चिदुपद्रूयते, असमानेभ्यः समानबुद्ध्याद्यसिद्धेः ।
"
आह-किं पुनर्यथोक्तवुद्धि शब्दद्रय प्रवृत्तिनिबन्धनम् ? इति । उच्यते-अनकधर्मात्मकाना सत्वज्ञेयत्वाद्यपेक्षया वस्तूनां घटशरावाष्ट्रकादञ्चनादीनाम्, तथाविधो ' मृद् मृद् * इत्यभिन्न बुद्धिशब्दद्वय प्रवर्तकः, समानपरिणाम इति । न चात्र समानपरिणामे, सामान्यवृत्तिपरीक्षायामुपन्यस्तं च तद् विकल्पयुगलकं च ' तथाहि - तदेकादिस्वभावं सामान्यमनेषु दिग्दशसमयस्वभावभिन्नेषु विशषषु सर्वात्मना वा वर्त्तते, देशेन वा' इत्येतत् तत्प्रभवाश्च ते दोषाश्च सामाम्यानन्त्यादयः, तेषां संभवो न च । कुत इत्याह- समानपरिसामस्य तद्विलक्षणत्वात् पकादिधर्मकसामान्यविलक्षणत्यात् । वैलक्षण्यमेवाह - तुल्येत्यादिना । तुल्यज्ञानपरिच्छेद्यं च तद् वस्तुरूपं चेति विग्रहस्तस्य समानपरिणामत्वात् । अस्यैव-समानपरिणामस्य, सामान्यभावोपपत्तः । उपपत्तिश्व, समानानां भावः सामान्यमिति यत् तत्समानैस्तथा भूयत इति कर्तरि षष्ठी, इत्येवमन्वर्थयोगास् । नायं परपक्ष इत्याह- अर्थान्तरभूतभावस्य च संबन्धपक्षे समानानां संबन्धिनः, तद्व्यतिरेकेणापि भावव्यतिरेकेणापि तदर्थान्तरत्वेन तत्समानत्वं तेषां समानानां समानत्वे, प्रकृत्यैवेति भावः, किमित्याह- अनुपयोगात् अधिकृतभावस्य तमन्तरेग्रैव ते समाना इति कृत्वा । श्रन्यथैवमनभ्युपगमे तमन्तरेण तदसमानत्ये प्रकृत्या 'समानानाम्' इत्यभिधानाभावात्, अयुक्तैव तत्कल्पना - अधिकृतभावकल्पना' समानानां भावः' इत्येतत्संबन्धिनां समानानामिति कृत्वा । उपचयमाह-समानत्वं च तुल्यत्वं च भेदाविनाभान्येव यमनेन समानः' इति नीतेः । तद्भावे - भेदाभावे, सर्वथै
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कत्वतः कारणात् ; किमित्याह - समानत्वानुपपत्तिः । इति तथाविधो 'मृद् मृद्' इत्यभिन्नवुद्धिशब्दद्वयवर्तकः, समानपण समानबुद्धिशब्दप्रवृत्ति निमित्तमिति स्थितम् ।
नासिद्धिः प्रधानेश्वरादिकार्यत्वसमानपरिणामविकले - भ्योऽपि भावेभ्यः ' प्रधानादिकार्या: प्रधानादिकार्या: ' इति केषाञ्चित्समानबुद्ध्यादिसिद्धेः । न । तस्याः सङ्केतसं मोहहेतुत्वात् श्रविद्वदङ्गनादीनामविशेषेण सम - नपरिणामवद्भावेष्विवाक्षदर्शनत एव तदप्रवृत्तेः । तथादर्शनमपि न तत्रार्थयाथात्म्यतः, अपि तु-जन्मान्तरवासनात इति चेत् । तत्रापि किं निमित्तम् १ इति वाच्यम् । जन्मान्तरवासनैवेति चेत् । अनवस्था | अनादि
एवम्,
आह-यथा असमाना अपीन्द्रियादयस्तथास्वभावत्वाद् | रूपज्ञानाद्येककार्यकारिणः, तथैतेऽपि भावास्तथाविधसत्वात् तद्वासनाया अयमप्यदोष इति चेत् । न े । अना
श्राह - यथाऽसमाना अपीन्द्रियादयः - इन्द्रियमनस्काassलोकरूपादयो जातिभेदेन तथास्वभावत्वाद्रूपादिज्ञानजननस्वभावत्वात् कारणात् रूपज्ञानादि श्रादिशब्दात् - स्वसंसताविन्द्रियादिकार्थग्रहः, एतदेककार्यकारिणः तथैतेऽपि भावा घट - शरावो-ष्ट्रिकोदञ्चनादयः, तथाविधसमानपरिणामविकला श्रपि ; ताविकसमान परिणामविरहिता अपीत्यर्थः, तथाविधबुद्धधादिहेतवः - समान बुद्धिशब्दद्वयहेतवः, किं नेष्यन्ते ? । एतदाशङ्कयाह - उच्यते-असमानेभ्यो जातिभेदेन समानबुद्धयाधसिद्धेः - समान बुद्धिशब्दद्वयानुपपत्तेः । असिद्धिश्च, निबन्धनस्वभाववैकल्यात् । समानवुयादिनिबन्धस्वभाववैकल्यात् । एतदेवाह - तथाहि - न चक्षुरादिषु विषयेषु, समानबुद्धयादिभावो विषयत्वेन । कुत इत्याहतथाऽप्रतीतेः चक्षुरादिषु विषयत्वेन समानबुद्धधाद्यप्रतीतेः, नीलादिष्विव समानेष्विति व्यतिरेकेण भावना । रूपशानायेककार्यकारित्वं चात्र व्यतिकरे, अनर्थकमेव । कुत इत्याह-सिद्धसाधनत्वात् । एतदेवाह - को हि नाम वादी, तथा - असमानेभ्योऽपि विशिष्टसमानपरिणामापेक्षया, तथैकं कार्य - सामग्रीजनकत्वेनैकं कार्य नेच्छति ? | तथाविधसमानपरिणामविकलाः पुनश्चक्षुरादयः समानबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिहेतवो न भवन्ति, न तथाविधैककार्यास्तथाविधैककार्या भवन्त्येवेत्यर्थः इत्यभिदधति विद्वांसो जैनाः । ततश्चानेनानन्तरोदितेन न किञ्चिदुपद्रूयते । कुत इत्याह- असमानेभ्यः - चक्षुरादिभ्यः, सामानबुद्धद्याधसिद्धेः तत्सिद्धौ च नो बाधेति भावना ।
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सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामविसेस दितथाक्षदर्शनादर्थयाथात्म्यसिद्धेः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात ,
श्राह-न रूपक्षानादि, श्रादिशब्दाद्-रसझानादिग्रहः, एरूपाद्यक्षदर्शनस्यापि तत्रार्थयाथात्म्यत एतदिति निश्च
ककार्यमिह गृह्यते येन तदेककार्यकारित्वीमन्द्रियादीनां
भवतिः अपि तु-समानजातीयक्षणोत्पाद एकं कायमिह याभावात , उक्तवद्वासनाकल्पनोपपत्तेः । इत्यल प्रसङ्गेन ।
गृह्यते, तेषां समानजातीयैककार्याणाम् , अतत्कारिभ्यःपाह-नासिद्धिः । असमानेभ्यः समानबुद्धयादेः' इति समानजातीयैककार्याकारिभ्यो भेदः, अत्र प्रक्रमे, विवप्रक्रमः । कुत इत्याह-प्रधाने--श्वरादिकार्यत्वसमानपरि- क्षित इति चेत् । एतदाशङ्कयाह-नेत्यादि । न-नैतदेवम् । णामविकलभ्योऽपि भवदर्शननीत्या, भावेभ्यो महदादिभ्यः, कुत इत्याह-सर्वेषामेव इन्द्रियादीनाम्, असौ समानजा'प्रधानादिकार्याः प्रधानादिकार्याः' इत्येवं केषाश्चित् सां- तीयक्षणोत्पादो विद्यते , कथमित्याह-रूपज्ञानादिभावेऽपि स्यादीनाम् , समानबुद्धयादिसिद्धेः । एतदाशङ्कयाह-नेत्या- सति, इन्द्रियादिसमानजातीयक्षणोत्पत्तेः कारणात् , तैरिदि । न-नैतदेवम् , तस्याः समानबुद्धयादिसिद्धेः, संकेतसं-| न्द्रियादिभिः , व्यभिचारात् । न हीन्द्रियादीनामपि समामोहहेतुत्वात्-असच्छानसंकेतसंमोहनिबन्धनत्वात् । कथ- नजातीयक्षणोत्पादः, अतत्कारिभेदश्च न विद्यते, तथापि मेतदेवमित्याह-आविद्वदङ्गनादीनां प्रमातृणाम् , अविशे- न ते समानबुद्धथाकारहेतब इति तैरेव व्यभिचारः । घेण-सामान्येन, समानपरिणामवद्भावेष्विव घट-शरावी- तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिनामतत्कारिभेद इह गृष्ट्रिको-दश्चनादिषु, अक्षदर्शनत एव तदप्रवृत्तेः 'प्रधानाविकार्याः प्रधानादिकार्याः' इति समानबुद्धयाद्यप्रवृत्तेः ,
घत इति चेत् । न । तस्य तेभ्यो भेदाभेदविकल्पाअक्षदर्शनतश्चाविशेषेण घटादिषु समानबुद्धधादिसिद्धिः ।
नुपपत्तेः, भेदे तेषामिति संबन्धाभावः, तादात्म्याद्यश्राह-तथाक्षदर्शनमपि समानतया, न तत्र घटादौ, अर्थया- सिद्धेः, भेदमात्रत्वात् , वस्तुत्वापत्तेश्च । अभेदे त एव थात्म्यतः-अर्थयाथात्म्यभावन, अपि तु-जन्मान्तरवासनात | ते । इति कथमसमानास्तद्धेतवो नाम ? । न हि रसाइति चेत् । पतदाशझ्याह-तत्रापि जन्मान्तरे, किं निमि- |
दिभ्यः समानो रूपबुद्ध्याकारः, तथाननुभवात् , व्यतम् ? इति वाच्यम् । जन्मान्तरवासनैवेति चेद् निमित्तम् । एनदाशङ्क्याह-अनवस्था तत्राप्युक्तदोषानतिवृत्तेः । अ
वस्थानुपपत्तेश्च । नान्य एव तत्तद्भेदः, अपि तु--त एनादित्वात् तद्वासनाया:-तथाक्षदर्शनवासनायाः, अयमपि
व तत्स्वभावा इति, अतस्त एव तद्धतवो नान्ये, अअनवस्थालक्षणः,अदोष इति चेत् । एतदाशन्क्याह-नेत्यादि।। तत्स्वभावत्वादिति चेत् । तेषामेवासौ स्वभाव इति कुन-नैतदेवम् , अनादि च तत् तथाक्षदर्शनं च, प्रक्रमात् स
तः ? स्वहेतुभ्य उत्पत्तेः । न अन्येषामपि तत्प्रसङ्गामामतयाऽक्षदर्शनं चेति विग्रहस्तस्मादनादितथाक्षदर्शनात् , किमित्याह-अर्थयाथात्म्यसिद्धेः अनादितथाभावेन । इत्थं
त् , तेषामपि स्वहेतुभ्य एवोत्पत्तेः । न, तथाविधेभ्यचैतदहीकर्तव्यमित्याह-अन्यथातिप्रसङ्गात् एवमनभ्युप
स्तेषां यथाविधेभ्य एषामिति चेत् । किमिदं तथाविगमेऽतिप्रसङ्गात् । एनमेवाह-रूपाद्यक्षदर्शनस्यापि रूपा- धत्वम् ? । तुल्यकार्यकृज्जनकत्वम् । नेदं तत्तुल्यसामर्थ्यदेरर्दशन रूपाद्यक्षदर्शनं तस्यापि, अर्थयाथात्म्यतोऽर्थया- मन्तरेण । तदङ्गीकरणे चाङ्गीकृत एव मदीयोऽभ्युपगथात्म्यात् , एतदिति--निश्वयाभावात् । अभावश्च, उक्तबद्
मः, अतुल्यसामर्येभ्यस्तुन्यसमानजातीयकार्यानुत्पत्तेः, यथोकं तथा, वासनाकल्पनापपत्तेः 'रूपाद्यक्षदर्शनमपि न तत्रार्थयाथात्म्यतः, अपित-जन्मान्तरवासनातरल्या. इन्द्रियादिषु तददर्शनात। तदतुल्यसामथ्ये निबन्धनमेतगपि यक्तु शक्यत्वात् , इत्यलं प्रसनेन ।
त् । अतोऽन्यत् तत्तुल्यसामर्थ्यकारणमिति सन्न्यायः । बुद्धथाकार एवायमिति चेत् । कोऽस्य हेतुः ? इति |
तुल्यसामर्थ्यमेव च नो भावानां समानपरिणाम इति वाच्यम् । तदेककार्यकारिणामतत्कारिभेद इति चेत् । न परिभाव्यतामेतत् । इन्द्रियादिभिर्व्यभिचारात् । न रूपज्ञानाधककार्यमिह गृ- तुल्येत्यादि । तुल्यं च तत् समानजातीयकार्य चेति विसते, अपि तु-समानजातीयक्षणोत्पादस्तेषामतत्कारिभे
ग्रहः , तदुत्पादयितुं शीलास्तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादि
नस्तेषाम् , अतत्कारिभेदः , इहाधिकारे, गृह्यत इति चेत् । दाऽत्र विवक्षित इति चेत् । न । सर्वेषामेवासी विद्यते,
एतदाशक्याह-न, तस्य अतत्कारिभेदस्य, तेभ्यः-तुरूपज्ञानादिभावऽपीन्द्रियादिसमानजातीयक्षणोत्पत्तेः, इति
ल्यसमानजातीयकार्योत्पादिभ्यः, भेदाभेदविकल्पानुपपतैरेव व्यभिचारात् ।
त्तेः । एनामेवाह-भेद इत्यादिना । भेदे तुल्यसमानजातीबुद्धथाकार एवायं-समामाकागे घटादिगतः, इति चेत् । यकार्योत्पादिभ्योऽतत्कारिभेदस्याभ्युपगम्यमाने, तेषां 'तुएतदाशङ्कयाह-कोऽस्य हेतुः इति वाच्यम् । तदेककार्यका- ल्यसमानजातीयकार्योत्पादिमां भदः' इत्येवं, संबन्धाभावः । रिणामिह प्रक्रमे, मृदबुद्ध्याश्यक कार्यकारिणा पद-शरा- कुत इत्याह-तादात्म्याद्यसिद्धेः तुल्यसमाजातीयकार्योत्पाचो-ष्टिको-दश्चनादीनाम् , अतत्कारिभदः अनन्कारिभ्यो- दिनामतत्कारिभेदस्य च तादात्म्याचसिद्धः, आदिशब्दात्हिम-तुपार-करकादिभ्यो भेदोऽतत्कारिभेदः, इति वेवस्य | तत्पत्तिपरिग्रहः । असिद्धिश्च भेदमात्रत्वात् कारणात् ताहेतुः । एतदाशङ्कयाह-नेत्यादि । न-नैतदेवम् , इन्द्रियादि- दात्म्यासिद्धिः,वस्तुत्वापत्नेश्च भेदस्य तदुत्पत्त्यसिद्धिः। द्वितीभिर्व्यभिचागत्, इन्द्रिय-मनस्कारा-55लोकादयस्तदेकका यविकल्पमधिकृत्याह-अभेदे तुल्यसमाजातीयकार्योत्पादि. र्यकारिणाऽतत्कारिभिन्नाः, न च यथोक्रबुद्धयाकारहंतवः। भ्योऽतत्कारिभदस्याभ्युपगम्यमान । किमित्याह-त पव--ते
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सामाविसेस
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मुल्य समानजातीय कार्योत्पादन एवं ते केवलाः ; न तदतिरिक्त किञ्चित् । इति एवं कथमसमानाः प्रकृत्या, तद्धेतवःसमानबुद्ध बाकारहेतवा नाम ? । एतदेव प्रकटयति नेत्यादिना । रिसादिः प्रकृत्या समानेभ्यः समानो रूपबुद्धाकारः । कुतो न हीत्याह तथाननुभवात् समानरूपबुद्धयाकारतयाऽननुभवाद् रसादीनाम् एतत्कल्पाश्च तुल्यसमाराजातीयकार्योत्पादन या इष्यन्त इत्यर्थः दोषा स्तरमाह उपयस्थानुपपतेथ अननुभयेऽपि समानकारपरिकल्पने रसादिभेदाभावप्रसङ्गादिति भावः । श्राहनान्य एव तत्तद्भेदः तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिभ्योऽतस्कारिभेदः अपि तु त एव तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादितत्स्वभावाः प्रक्रमाधिकृत बुद्धयाकारजनन स्वभावाः, इत्यतः कारणात् तच विशिसमानजातीया त्यादिना घट राष्ट्रको वचनादय इत्यर्थत द्वेतवः -- प्रक्रमादधिक्कृतबुद्याकारहेतवः, नाम्य इन्द्रियादयः । कुत इत्याह-- तत्स्वभावत्वात् सोऽधिकृतबुद्धयाकारहेतुः स्वभावो येषां से तत्स्वभावा न तत्स्वभावा श्र तत्स्वभावास्तद्भावस्तस्मात् इति चेदिन्द्रियादीनाम् । एतदाशङ्कयाह- तेषामेव घटादीनाम्, असौ स्वभावः- प्रक्रमादधिकृतबुद्धद्याकारजननस्वभाव:, इति एतत् कुतः ? अत्राहखहेतुभ्यः सकाशात् उत्पशिष्टेभ्य इति पराकृतम्। ए तदनादृत्य सामान्यमेव गृहीत्वाह- मेत्यादि । न-नैतदेवम्, अमादीनाम् तत्प्रसङ्गादधिकृनबुडचा फार जनमस्वभावत्वप्रसङ्गात् । प्रसङ्गश्च तेषामप्यन्येषामिन्द्रियादीनाम. किमित्याह स्वहेतुभ्यपतेः न दि तेऽप्यन्य तुका अहेतुका चेति भावनीयम् । न तथाविधेभ्यस्तेषामिस्वन्येान्या प्रथाविधेश्य प्राधिकृताकाही घटादीनाम् इति चेत् एतदाशाह कि मित्रं तथाविधत्वं तद्धेतूनामिति ? । अत्राह--तुल्यकार्यकृज -कार्यकरास्तुल्यकार्यकृत प्रता वद् घटादयस्तेषां जनकास्तद्धेतव इति प्रक्रमः तद्भावकार्यजनक तथाविधत्वमिति
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( ६१७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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न तुल्यकार्यजनकत्वम् सामन्तरेण पां सजवून यामध्ये विना यदि नामे ततः किमि स्थान नामक अङ्गी कृत एव मदीयोऽभ्युपगमः तुल्यसामथ्र्यस्यैव समानपरिमन्यात् । एतदेव विपक्षवाधाभिधानेनाभिधातुमाह-कथमङ्गीकृन एवं मदीयोऽभ्युपगमः अनुयाय इन्द्रियादिभ्यस्तुल्यसमानजातीय कार्यानुत्पत्तेः । न रूपादिशनिक कार्यकारी विसंगती यानि स मानजातीयायुपपद्यन्ते यहुन सर्वाम नस्कारा वेत्यादीति भावमा । श्राह --इन्द्रियादिषु श्रमुख्यसामर्थेषु त्यसमानजातीयादर्शमादितमनम् | यदि नामे ततः किमित्याहतद्नुसान्धनानामतुल्यसामर्थ्यांन न्धनम् एतत्-तुल्य समानजातीय कार्यादर्शनम् । श्रताऽन्यत्— प्रक्रमात् तृल्यसम्मानजातीय कार्यदर्शनं गृह्यंत एतच्चेह मुद्रपमान पाऽधिकृतको
मेवाव गन्तव्यम् यम् तुल्यसामर्थ्य कामांत पटादीनां तु इति सामान्युपकारापति १७५
सामसविसेस
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ल्यसामर्थ्यकारणम्, अतुल्यसामथ्र्येभ्यो हिमादिभ्य एव मृदूपतायोगात् इति सम्यायः अन्ययव्यतिरेकपलप्रतिष्ठितत्वात् तत्तुल्यसामर्थ्यस्य । एवमपि काऽष्टसिद्धिरित्याह तुल्यसामर्थमेव भावानां घटा दीनाम् चमापरिणामः इति परिभाष्यतामेत भवति - येषामेव भावानां पिण्डादीनां तुल्यं सामर्थ्य त एवं घटादीन् सूपमात्र तुल्यान् सामानजातीयान् कुर्वन्ति नान्ये हिमोदयः घटादिष्वेव च ' मृद् मृद् इति समानाकारा बुद्धिरत्ययते न हिमादि अतस्तास्थिकसमानपरिणामनिषन्धनेयमिति सूक्ष्मथियालोचयम्।
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विषय एवार्थ बुद्धवाकारोऽनादिवासनादो पादुपप्लव इति चेद के वासना नाम - किं मात्रम् उठाम्यदेव किञ्चित् । यदि सोधमात्रम् अनुतरानेऽपि तथाविधाकारापतिः, तस्यापि बोधमात्रभावाद् अनिष्टं चैतत् तत्र तदनभ्युपगमात् । अथान्यदेव क्रिश्चित् । तदेवास्य विषय इति इति कथम विषयो नाम ? अवसवेव तदिति चेत् । कथं ततः स आकारः ? इति वाच्यम् । अहेतुक एवायमिति चेत् । सदा तद्भावादिप्रसङ्गः । विशिष्ट बोधरूपं वासना न बोधमात्रमिति चेत् । किंकृतमस्य वैशिष्टयम् इति वाच्पम् । अनादिहेतुपरम्पराकृतमिति चेत् । न तत्रापि त न्मात्राविशेषात् ससमुद्रभिद्यतस्तदेव तदिति चेत् । न । तस्यापि वाय्वादिना विना तत एवाभावात् । अनागमो वाय्वादिकल्प इति चेत् । न । नद्भावेऽपि कचित्तद्भावोपपत्तेः । स्वविक्षोभोद्भवसमुद्रोर्भितुल्यः स इति चित् । स एव तदा कुतः इति वाच्यम् । तस्यैव तत्स्वभावस्यादिति चेत् । न तदविशेषेण सदा समुद्रोप्रिसङ्गात् । तस्य तत्क्षणविशेषत्वादप्रसङ्ग इति चेत् । न । तस्य तन्मात्रत्वेन विशेषत्वासिद्धेः । ऊभिजननस्वभावत्वं विशेष इति चेत् । न स्वभावः स्वभाववतोऽन्य इति तन्मात्रत्वमेव । तन्मात्रत्वेऽपि तद्भेदयद्भेद एवेति चेत् । न । तादृशस्यास्याप्रयोजकत्वात् तत्तद्भावेऽतिप्रसङ्गात्, तत्स्वभावानामपि केष (श्चित् तथाभेदाद् नित्यतया फलभेदापत्तेः ।
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श्राह--अविषय एव-अनालम्बन एव अयं प्रक्रान्ती' द् मृद्' इति समानो बुद्धधाकारः । कुतः किमात्मको वाईयमित्याह - अनादिषांसनादोषात् श्रयमुप्लवः स्वरूपेण इति चेत् । एतदाशङ्कयाह- क्रेयं वासना नाम ? । किं बो धमात्र निर्विशपमेय उताम्यदेव किञ्चिद् बोधाद् भिन्नं वस्तु ? । उभयथाऽपि दोपमाह--यदि योधमात्रं निर्विशेषमेव वासना । ततः किमित्याह-अनुत्तरानेऽपि भगवतः संबन्धिनि, तथाविधाकारापत्तिः प्रक्रमाद् 'सृद् -
इत्याह-तस्यापि -
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(६६८) सामण्णविसेस अभिधानराजेन्द्रः।
सामरणविसेस नुसरज्ञानस्य, बोधमात्रभावात् , एतदेव वासनति बोधा-। द्भावे स्वभावभेदेनोर्मिजननं प्रति प्रयोजकत्वादित्यर्थः, किदबोधयन्नान्याकारानुत्तरज्ञानजन्मति; अनिष्टं चैतत् । कुत मित्याह-अतिप्रसङ्गात् । एनमेवाह-तत्स्वभावानामपि इत्याह-तत्र अनुत्तरज्ञाने , तदनभ्युपगपमात्-तथाविधाका
नयमात-तथाविधाका केषाञ्चित् पदार्थानां तथा भेदात् तुल्यस्वरूपभेदमात्र हेतुनया रानभ्युपगमात् । द्वितीय विकल्पमधिकृत्याह--श्रथान्यदेव भेदात् , नित्यतया-नित्यस्वभावत्वेन फलभेदापत्तेः समुद्रोकिञ्चित् वस्तु वासनेति । एतदाशक्याह--तदेव अन्यत् मिवदांनत्यभावविलक्षणफलभेदापत्तेरित्यतिसूक्ष्माधिया भाकिश्चिद् वासनाख्यम्, अस्याधिकृतबुद्धयाकारस्य विषयः, वनीयम्। इति-एवम् कथमविषयो नामायं बुद्धयाकारः? । अवस्थे. न नित्यता केषाश्चिदपि । किं न ? इति वाच्यम् । न य तदिति चेदन्यत् किश्चिद् वासनाख्यम् । एतदाशङ्कयाह- तद्धेतुस्तथाभृताद् हेतोस्तस्येव यदिति चेत् । न । मोक्षहेकथं ततः वस्तुनः, साकारोऽधिकृतबुद्धयाकारः ? इति
तो कैश्चित् तथाविधत्वाभ्युपगमात् , अहेतोरपि तथाभाचाच्यम् । अहेतुक एवायं बुद्धयाकार इति चेत् । एतदाश
वकल्पनाविरोधात् अस्याप्यर्थक्रियोपपत्तेः, तत्करणस्वस्थाह--सदा तद्भावादिप्रसङ्गः नित्यं सत्वमसत्त्वं वेति नीतः। विशिएं बोधरूपं वासना,न च बोधमात्रमविशि- भावत्वात् , अनित्यत्वादेः सर्वतः-सर्वार्थक्रियाभावनेहामिति चेत् , ततश्च किल यथोक्तदोषाभाव इति । एतदा- प्रयोजकत्वात् । तत्करणस्वभावत्वस्य च प्रयोजकत्वात, शक्याह-किंकृतमस्य बोधरूपस्य, वैशिष्टयमिति वा
तद्वैचित्र्येण परोदितदोषासिद्धेः, ऋम-योगपद्यार्थक्रियाच्यम्। अनादिहेतुपरम्पराकृतमिति चेत् । एतदाशङ्कचाह-- न, तत्रापि अनादिहेतुपरम्परायाम् , तन्मात्राविशेषाद्-बो.
करणस्वभावत्वात् , तस्य च पर्यनुयोगायोगात; अन्यथा धरूपमात्राविशेषात् । स बुद्धयाकारः-समुद्रोमिवदिति नि- समानत्वात् , इति समुद्रोभिकल्पश्चाधिकृतो बुद्धयाकार, दर्शनम् . यतो बोधरूपात् , तदेव बोधरूप, तद् वैशिष्टय- स यदेवं न युज्यते । स्वसंवेदनसिद्धश्च प्रतिप्रमात, अतो म्, इति चेत् । फ्तदाशङ्कयाह--न, तस्यापि समुद्राः , वा- यथोक्कनिबन्धन एव, इति युक्तमभ्युपगन्तुम् , अन्यथा तवादिना विक्षोभकारणेन, विना, तत एव समुद्रमात्रात् ।
दुच्छेदापत्तेः । इति तथाविधः समानपरिणाम एव समानभावात्। ततश्च दृशान्त-दान्तिकयोपभ्यमित्यर्थः । अनागमस्तीथिकसंबन्धी, वाय्वादिकल्प इति चेत् ततो न
बुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तम् ।। वैषम्यमित्यभिप्रायः । एतदाशङ्कपाह-न, तदभावेऽपि अना
अत्राह-ननित्यता केषाश्चिदपि भावानाम् । एतदाशगमाभाव प्रपि, कचिद् बालविकल्यादौ. तद्भावोपपत्तेः प्रक
क्याह-किन? इति वाच्यम् । न त तुः-नित्यभायहेतुः, मादधिकृतबुद्धयाकारोपपत्तेः । स्वेत्यादि । स्वविक्षोभादुद्भवो
तथाभूताद-नित्यभावजननस्वभावजनस्वभावादिति योऽयस्य समुद्रोमः स तथा, स्वविक्षोभोद्भवश्चासी समुद्रो- र्थः हेतोः-कारणात् , तस्येव-प्रक्रमादृर्मिजननस्वभावसमुमिति समासः , तेन तुल्यः स इति चेत् प्रस्तुतकुद्धया- द्रक्षणस्येव, यदिति चेत् , ऊर्मिजननस्वभाको हि समुद्रक्षण कारः । एतदाशङ्कयाह-स एव स्वविक्षोभोद्भवः समुद्रार्मिः, ऊर्मिजननस्वभावसमुद्रक्षणजननस्वभावात् समुद्रक्षणादुतदा तस्मिन्नेव काले, कुतः ? इतिः वाच्यम् । तस्यैवेत्यादि । स्पन्न इति विद्यतेऽस्य तथाभूतो हेतुः, नैवं निषभाव जननतस्यैव समुद्रस्य,तत्स्वभावत्वात्-तदोर्मिजननस्वभावत्वात् , स्वभावजननस्वभावो हतास्ति, तन्नित्यत्वविरोधादित्यभिइनिचत् स एव तदेति । एतदाशझ्याह-नत्यादि । न-नैतदे- प्रायः। एतदाशङ्क्याह-नेत्यादिन-नैतदेवम, मोक्षहेतोबम् , तदविशपेण-समुद्राविशेषण हेतुना, सदा समुद्रार्मिग्र
विशिषशानादेः, कैश्चिद् नैयायिकादिभिः, तथाविधत्वाभ्युसङ्गात् , तन्मात्रनिबन्धनो ह्यमिः, विशिधं च भेदकाभावेन. प.
पगमाद नित्यभावजननस्वभावत्वाभ्युपगमात् तथा ; अहे.
तोरपि-अविद्यमानहेतोरप्यनाद्यराबादेः,किमित्याह-तथारस्य तन्मात्रत्वमिति भावना । तस्येत्यादि । तम्य स्वविक्षो.
भावकल्पनाविरोधात्-तथाभावो-नित्यभावस्तरकल्पनावि-- भोद्भबसमुदामिहतोः समुद्रस्य, तत्क्षणविशेषत्वात-समुद्र
रोधात् तथाहि-अहेतुरेव कश्चित् स स्वभावः सनिक्षणविशेषत्वात् अप्रसङ्ग इति चेत् सदार्मिप्रसङ्गोऽन
त्य प्रति किमत्र खूणम् ? । नित्यस्य क्रम-योगपद्याभ्यामस्तरोदितः स एव पुस्तत्स्वभावा नान्य तत्क्षणात्यभि
क्रियाविरोध इत्याशङ्कापोहागाह-अस्यापि अधिकृतनिप्रायः । एतदाशक्याह-न, नस्य समुद्रक्षणस्य, तन्मात्रत्वेन
न्यस्य, अर्थश्यिोपपत्तेः । उपपत्तिश्च, तत्करणस्वभावत्यात्समुद्रक्षगामात्रत्वेन हेतुना, विशेषत्वासिद्धेः । मिजवनस्व
अर्थक्रियाकरणस्वभावत्वात् । श्रथं चात्र प्रधान इति विपभावत्वं विशेष इति चेत् , तथाहि-न. सर्व तत्स्वभावाः,सर्वेभ्य ऊभिभायापत्तः,नचेयम् तथाऽदर्शनादिति भावनेति । एत
क्षेबाधामाह-अनित्यत्वादेः 'इहार्थक्रियायामप्रयोजकस्यात्' दाशपयाह-न स्वभाव इत्यादिान स्वभावः स्वभाववनः स.
इति योगः। अप्रयोजकत्वं च, सर्वतः-सर्वार्थक्रियाभावेन। काशात ,अन्य इति कृत्वा,जम्माऋत्वमेक, समुद्रक्षणमात्रल्यमे ननित्य इत्येव सर्यों भावः सर्वामर्थक्रियां करोति, निब ततश्च ऊर्मिजननस्वभावत्वं विशेष इति वचनमात्रमेव । त्य इत्येव या, तथा प्रदर्शनात् । अतो को बदर्थक्रियाकरणतन्मात्रत्वऽपि-समुद्रक्षणमात्रत्वेऽपि, तद्भेदवत्-समुद्रक्षण- स्वभावः स तां करोतीति तस्करणस्वभावल्यमेवात्र भदवत् ,भद एवेति चेद विशेष पयोभिजननस्वभावस्य क्ष- प्रबोजमिति । अत एवाह-तत्करणस्वभावत्वस्य च-अर्थहास्येति । पतदाशझ्याह--न,तादृशम्य तुल्यस्वरूपभेदमा- क्रियाकरणस्वभावत्वस्य च, प्रयोजकत्वात, 'इह' इति वर्तप्रताः,अस्य क्षरणभेदस्य, अप्रयोजकन्यान् स्वभावभेदना- ते, तथाहि-यतोऽर्थक्रियाकरणस्वभावः, अतोऽर्थक्रियां मिंजननं प्रति । एतदेवाह-तत्तदावे--तस्य भेदमात्रस्य त-। करोति, किमत्रानित्यत्वादिन्ध ?, सत्यप्यसिन् सर्वतः सर्वा
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सामासि
स्वभाव
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क्रियासिद्धेरिति तथा चित्र्येण परोदितदोपासिद्धेः क्रम- यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोध इति परोदितो दोषस्तदसिद्धेः । असिद्धिश्व, क्रम- यौगपद्यार्थक्रिया करणस्वभावत्वात् । ततश्च क्रमसाध्यं क्रमेण करोति साध्यं यौगपद्येन । इति न कश्चिद् दोषः, तथास्वभावत्वात् । तस्य च स्वभावस्य पर्यनुयोगायोगात् । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह श्रन्यथा मानवात् ऊर्मिजननस्य भायत्यपरिकल्पितस्वभावस्यापि पर्यनुयोग इति एवम् समुद्रमेयभावापतेः स मुद्रार्मिकल्पाधिकृताकार समायुधाकारः, स यंदेवम् उक्तनीत्या, न युज्यते. स्वसंवेदनसिद्धश्च प्रतिप्रमातृ ; प्रमातारं प्रमातारं प्रति । अतः श्रस्मात् कारणात्, यथोक्तनिबन्धन तथाविधसमानपरिणाम निबन्धन एव इति युक्तमभ्युपगन्तुम् श्रन्यथैवमनभ्युपगमे, तदुच्छेदापत्तेः-समानबुद्धयाकारोच्छेदापत्तेः । इति एवम् , तथाविधो वास्त यः समानपरिणाम एव समानबुद्धिशष्यवृतिनिमित्तमिति निगमनम् ।
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(६६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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यद्येवम् कथं कचित् तद्व्यतिरेकेणाप्यस्य प्रवृत्तिः ? | ननु चास्येत्ययुक्तम्, वस्तुनिबन्धनस्य तद्व्यतिरेकेण कदाचिदष्यवृतेः तथावदर्शनस्य च तदाभासविषयत्वेनाविरोधात् अन्यथा प्रत्यक्षस्याध्यविषयत्वापत्तिः । इति समानपरिणाम एवं सामान्यम् ।
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यथेयमित्यादि । देवम् कथं कचित्प्रधानेश्वरादिकार्यवादी तयतिरेकेणापि प्रधानेश्वरादिकार्यत्यय्यनिरेकेवापि अस्येति क्रमात् समानबुद्धि-शब्दद्वयस्य प्र वृत्तिर्भवतीति यथोक्तं प्रागिति । एतदाशङ्कयाह - नबित् दि। नतु 'अस्प' इत्युक्तम् कथमित्याह-वस्तुनिबन्धनस्य समान बुद्धिशब्दद्वयस्य, तद्वयतिरेकेण - वस्तुव्यतिरेकेरा, कदाचिदप्यप्रवृत्तेर्घट-शरावादिष्विव हिमाङ्गारादिच्यदर्शनादिति भावना । तथानदर्शनस्य च संकेतविप्रलम्भद्वारेण समानबुद्धिशब्दद्वयदर्शनस्य च प्रधानेश्वरादिकार्यत्वादौ तदाभासविषयत्वेन - समान बुद्धिशब्दद्वयाभासविपयत्यन अविरोधात् चैतदीकर्तव्यमित्याह-यथा मनपगम, प्रत्यक्षस्यापि निर्विकल्पकस्य किमित्याह श्रविषयत्वापत्तिः श्रविगांनन तथाऽनुभवादेरधिकृतबुद्धधाकांरऽपि भावात् तस्य च निर्विषयत्वात् न चैतदेवम् इति वयम् समानपरिणाम एच सामान्यमिति म हानिगमनम् ।
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तथा चोक्तम्
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'वस्तुन एव समानः, परिणामो यः स एव सामान्यम् । असमानस्तु विशेषो वस्त्येकमनेकरूपं तु ।। १ ।। " ततश्च तद् यत एव सामान्यरूपमत एव विशेषरूपम्, समानपरिणामस्याsसमानपरिणामाऽविनाभूतत्वात् यत एव च विशेषरूपमत एव सामान्यरूपम् असमानपरिणामस्यापि समानपरिणामाविनाभावादिति न चानयोविरोधः, अन्योऽन्यव्याप्तिव्यतिरेकेणो भयोरसच्वापत्तेः, उभयोरपि स्वसंवेदनसिद्धत्वात् संवेदनस्योभयरूपत्वात् उभयरूपतायाथ व्यवस्थापितत्वात् ।
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घटादीनाम् समादिश्यभाषा हिमाङ्गारादीनामिव । कुत इत्याह-सत्यपि वैलक्षण्ये समानपरिणामसामध्यतः प्रवृतेः कारणात् समानबुद्धि-शब्दइयस्येति व्यतिरेकमा असमान परिणामधिकि शेष मे पट शराचादिबुद्धियत् । इति एवम् यथोदिद्धिप्रवृतिः सामाद्धि-प्रतिरित्यर्थः तथा चीक्रमिति अर्थप्रसाधकं ज्ञापकमाइवस्तुन एव घटादेः समानः परिणामो यो मृदादिः, स एव सामान्यम् । असमानस्तु विशेष ऊर्ध्वतादिः । बस्त्वेकमनेकरूपं तु सामान्यविशेषरूपमपि तदनेकत्वतोऽनेकरूपम त्यर्थः ततखेत्यादिना पूर्वपक्ष परिहरति-तता तद् वस्तु घटादि यत एव सामान्यरूपं मृदाचात्मकतया, अत एव कारणात् विशेषरूपमूर्ध्वादिरूपापेक्षया कुत इत्याहसमानपरिणामस्य प्रस्तुतस्य, असमानपरिणामाविनाभूतत्वाद्-विशेषपरिणामाविना भूतत्वादित्यर्थः । यत एवन्त्र का राज्यपक्षयान पय सामान्यरूपं मृदाद्यात्मकतया । भावनामाह-असमान परिणामस्यापि ऊयदिरूपस्य समानपरिवाविनाभावादमृदादिपरिणा माविनाभावादिति । न चानयोः समानाऽसमानपरिणामयोः विरोधः कुत इत्याह-अम्पोग्यच्या शिव्यतिरेकेस उभयोः समाना समानपरिणामयोः, श्रसत्वापतेः । आपत्तिः प्राक् तथैवम् अतो न य एवासावेकसिन् विशेषे स एव विप्रदर्शितैव तथा उभयोरपि स्वसंवेदनानु शेषान्तरे । किं तर्हि ? । समानः । इति कुतः सामान्यभवभावेन । अत एवाद - संवेदनस्योभयरूपत्वात् सामान्यवृत्तिविचारो दितभेदद्वयसमुत्थापराधावकाशः ? इति । न विशेषोभयापेक्षया, उभयरूपतायाश्च संवेदनस्य, व्यवस्था' । चैवं सति परस्परविलक्षणत्वाद् विशेषाणां समानबुद्धिनरोधः इति क्रियायोगः । शब्दद्वयप्रवृत्यभावः सत्यपि बैलचएये समानपरिणाम- यथेोक्तम्- 'सामान्यविशेषोभयरूपत्वे सति वस्तुनः सक सामर्थ्यतः प्रवृने, असमानपरिणाम निबन्धना च पिशेखलोकप्रसिद्धसव्यवहारनिय मोच्छेदप्रसङ्गः' इत्यादि । व बुद्धिरिह इति यथोदितबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृतिः । दपि जिनमतानभिज्ञतासूचकमेव केवलम्, न पुनरिष्टार्थ
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,
त्यादि तम् एवासी समाजपरिणामः एकस्मिन् विशेषे घटादौ स एव विशेषान्तरे शरावादो। किं तईि है। समानः । इत्येयम् कुतः सामान्य विचादिद्वयं व देशका विकल्पद्वयमिति विग्रहः, तत्समुत्थाश्च तेऽपराधाश्च संदेशत्वप्रसङ्गादयस्तेषामबकाशः कुतः नै समानपरिणामस्य । न चैवमित्यादि । न चैवं सति परस्परविशेष
सामयणविमेम
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( ७०० ) अभिधान राजेन्द्रः |
सामरणविसेस
प्रसाधकमिति । न हि ' मधुरक - लड्डुकादिविशेषानर्थान्तरं सर्वथैकस्वभावमेकमनवयवं सामान्यम्' इत्यभिदधति जैनाः । अतः किमुच्यते-' न विषं विषमेव मोदकाद्यभिन्नसामान्याव्यतिरेकात् ' इत्यादि ? । किं तर्हि ? | समानपरिणामः । स च भेदाविनाभूतत्वाद् न य एव विपादभिन्नः स एव मोदकादिभ्योऽपि सर्वथा तदेकत्वे समानत्वायोगात् ।
यथोक्तं पूर्वपक्षग्रन्थे, 'सामान्यविशेषोभयरूपत्वे सति, वस्तुनो घटादेः सकललोकप्रसिद्ध संव्यवहारनियमोच्छेदसङ्गः' इत्यादि, तदपि किमित्याह -- जिनमतानभिज्ञतासूत्रकमेव केवलम्, न पुनरिष्टार्थप्रसाधकं वस्त्वनुपपत्तिरिष्टोऽ थे इति न तत्प्रसाधकम् । कथमित्याह-न हीत्यादि । न यस्माद् मधुरक-लड्डुकादिविशेषानर्थान्तरमभिन्नम्, सर्वथैकस्वभावमेकमनवयवं सामान्यमित्यभिदधति जैना:- भराम्त्याईताः । अतः किमुच्यते ऽनभ्युपगती पालम्भप्रायम्, यदुत - ' न विषं विषमेच, मोदकाद्यभिन्न सामान्यादयतिरेकात्' इत्यादि ? । किं तर्हि ? । समानपरिणामः सामान्यमिस्वभिदधति जैना इति । स च समानपरिणामः किमित्याह भेदाविनाभूतत्वात् कारणात्, न य एव विषादभिन्नः स एव Hrearersy | कथं नेत्याद्द-सर्वथा तदेकत्वे समानपरि
मैकत्वे, समानत्वायोगात् । न ह्येकं समानमिति भावना ।
स्यादेतत् समानपरिणामस्यापि प्रतिविशेषमन्यत्वादस - मानपरिणामवत् तद्भावानुपपत्तिरिति । एतदप्ययुक्तम्, सत्यप्यन्यत्वे समानासमानपरिणामयोर्भिन्नस्वभावत्वात् तथाहि - समानधिषणा -- ध्वनिनिबन्धनस्वभावः समानपरिणामः, तथा विशिष्टबुद्धयभिधानजननस्वभावस्त्वितर इति यथोक्तसंवेदनाभिधान संवेद्याभिधेया एव च विषादय इति प्रतीतमेतत्, अन्यथा यथोक्तसंवेदनाद्यभावप्रसङ्गात् । अतो यद्यपि द्वयमप्युभयरूपम्, तथापि विषार्थी विष एव प्रवर्तते, तद्विशेषपरिणामस्यैव तत्समानपरिणाम। विनाभूतवात्, न तु मोदके, तत्समानपरिणामाविनाभावाभावात् तद्विशेषपरिणामस्येति । अतः प्रयासमात्रफला प्रवृत्ति - नियमोच्छेदचोदनेति ।
स्यादतदित्यादि । स्यादेतद्, अथैवं मन्यसे, समानपरिणामस्यापि मृदाद्यात्मकस्य, प्रतिविशेषः- विशेषं विशेष प्रति घट-शरावादिलक्षणम्, अन्यत्वात् कारणात् असमानपरिणामवदिति निर्देशनम्, तद्भावानुपपत्तिः - समानपरिणामभावानुपपत्तिरिति । एतदाशङ्क्याह- एतदप्ययुक्तम् । कथमित्याह - सत्यप्यन्यत्वे समानपरिणामस्य प्रतिविशेपम्: समानाऽसमानपरिणाम योरुलक्षणयोः, भिन्नस्वभावत्वात् । भिन्नस्वभावत्वमेवाह - तथाहीत्यादिना । तथाहीत्युपप्रदर्शन । समानाधिपणा ध्वनिनिबन्धनस्वभावस्तुल्यबुद्धिशब्दहेतुस्वभावः समानपरिणामः, यनः खलु घटशरावादिषु ' मृद् मृद्' इत्यविशेषेण भवतो - धिषणा-ध्वनी:
सामस्थजोग
तथा विशिष्टबुद्धयभिधानजननस्वभावस्त्वितरोऽसमानंपरिणामः, यतः खलु घटादिष्वेव ' घटः शरावम्' इत्यादिविशेषेण भवतो बुद्धयभिधाने इति । एवमधिकृतोदारणापेक्षया भावार्थमभिधाय पूर्वपक्षेोपन्यस्तभेदापेक्षया प्रक्रान्तनिगमनायाह-यथोक्तसंवेदनेत्यादि । यथोक्ते च ते संवेदनाभिधाने च तयोः संवेद्याभिधेया इति विग्रहः
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एवंभूता एव च विषाऽऽद्यः तथाहि - ' सत् सत्' इति • विषादयः संवेद्यन्ते श्रभिधीयन्ते च, तथा विषमोदकः इत्येवं चेति प्रतीतमेतत् । अन्यथा यथोक्त संवेदनाभिधानसंवेद्याभिधेयत्वाभावे, यथोक्तसंवेदनाद्यभावप्रसङ्गात्, आदिशब्दाद् - यथोक्ताभिधानग्रहः श्रतो यद्यपि द्वयमपि वि मादकश्चेति उभयरूपं - सामान्यविशेषरूपम्, तथापि विषार्थी प्रमाता विष एव प्रवर्तते । कुत इत्याह-तद्विशेषपरिणामस्यैव- विषविशेषपरिणामस्यैव तत्समानपरिणामाविनाभूतत्वाद् - विष समान परिणामाविना भूतत्वात् न तु मोदकेन पुनर्मोदके । कुत इत्याह- तत्समानपरिणामाविनाभावाऽभावात् - मोदकसमान परिणामाविनाभावाभावात्, तद्विशेषपरिणामस्येति विषविशेषपरिणामस्येति । अत उक्लन्यायात्,प्रयासमात्रफला प्रवृत्तिनियमोच्छेदचोदना पूर्वपक्ष संबन्धिनीति |
एतेन ' विषे भक्षिते मोदकोऽपि भक्षितः स्यात् ' इत्याद्यापि प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति । इत्यादि । तदपि कूटनटनृत्तभित्राविभावितानुष्ठानं न वियच्चापरेणाप्युक्तम्- 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः , दुषां मनोहर मित्यपकर्णयितव्यम्, वस्तुतः प्रदत्तोत्तरत्वात्सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनः सम्यग्व्यवस्थापितत्वात् ।
एतेनेत्यादि एतेनानन्तरोदितेन ग्रन्थेन, 'विषे भक्षिते मोदकोऽपि भक्षितः स्यात्' इत्यपि पूर्वपक्षोक्तं प्रतिक्षिप्तमवगन्तवयम्, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति । यश्चापरेणाप्युक्तम्'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । इत्यादि । तदपि कुः
ननुतमिवेति निदर्शनम्, श्रविभावितानुष्ठानं दर्शनमा - वार्थपरिज्ञानशून्यत्वेन, न विदुषां मनोहमिति कृत्वा, अ एकर्णयितव्यं न श्रोतव्यम् । कुत इत्याह-वस्तुतः प्रदत्तोत्तरत्वात् । तथा, सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनः सम्यख्यवस्थापितत्वात् । अने० ३ अधि० ।
सामत्थ- सामर्थ्य - न० 1 समर्थस्य भावः सामर्थ्यम् । वर्ये,आ म० १ ० । बले, शा० १ ० १६ श्र० । 'चेट्ठा सत्ती सामर्थ ति य जोगस्स हवंति पजाया । ' आ० चू० १ ० । बलं ति या वीरियं ति वा सामत्थं ति वा एगट्ठा। नि० चू० ११ उ० । आ० ० । वीर्येणापि वीर्यस्य सामत्थं समत्थशब्दो वा युक्त वाचकः वीर्ययुक्त इत्यर्थः । नि० चू २ उ० । साधुत्र्यसनपरित्राणवले, पञ्चा०२ विव० पर्यालोचने व्य० ६ उ० पञ्चा० । समत्थजोग - सामर्थ्य योग- पुं०। शास्त्रोक्ते नृपक श्रेणी द्वितीये
पूर्वकरण भाविनि योगे, पो०१५ विव० । शास्त्रीयेऽतिशकौ योगे, द्वा० १६ द्वा० । ( ' जोग' शब्दे चतुर्थभागे १६२७ पृष्ठ व्याख्यातमेतत् । ) सामत्थजोग्गया सामर्थ्ययोग्यता- स्त्री०|सामानफलसाधक त्वरूपेण सामर्थ्येन योग्यतायाम्, पो० १२ विव० ।
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मामपाय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय सामपाय-श्यामपाद-पुं० । कस्मिंश्चिदाचार्य, कर्म०४ कर्म।
विषयसूचनासामपुब्बग-सामपूर्वक-त्रि० । प्रेमोत्पादकवचनपुरस्सरे दा- (१) सामायिकस्वरूपम् । नादौ, पश्चा० ६ विव०।।
(२) समायिकलक्षणम् । साममुही-श्याममुखी-स्त्री०। श्यामलकान्तिमुण्यां स्त्रियाम् , (३) समभावः सामायिकम् । श्रा० म०१०।
(४) श्रावकस्य सामायिककरणविधिः । सामय-प्रतीक्ष-धा० । “ प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमा. (५) कृतसामायिका श्रावकः साधुरिव भवति । लाः" ॥ ८ । ४ । १६३ ॥ इति प्रतीक्षतेः सामयादेशः । साम- (६) सामायिकाध्ययननियुक्तिनिरूपणम् । यइ । प्रतीक्षते । प्रा०४ पाद ।
(७) सामायिकाध्ययनस्यानुयोगद्वारनिरूपणम् । सामलय-श्यामलक-पुथा वनस्पतिविशेषे,जी०३प्रति०४अधिका (८) सामायिकं पुरं कतिद्वारमित्याशङ्कष निर्दिष्टदृष्टासामलया-श्यामलता-स्त्री०। प्रियकुलतायाम्, पा० १ श्रु०
__न्तस्योपनयः । २७ अ०। प्रज्ञा । पिं० । जं०।
(1) सामायिक उपक्रमादिदारणि । सामलि-शाल्मलि-स्त्री०। सेमरनामके वृक्षविशेष,सूत्र०१श्रु० (१०)प्रथमाध्ययनस्य सामायिकत्वम् । ६अ। जी० । आचा। स्था० । तं० । “सामलिबोंडघणनि
(११) कोपक्रमे सामायिकमवतरति । चियच्छडिया" शाल्मली वृक्षविशषः । स च प्रतीत एव सस्य
1. (१२) प्रमाणेन ज्ञानगुणे सामायिकावतारनिरूपणम्। वोएडं-फलं तद्वत् छटिता अपि अतिशयेन नमिताः शाल्म
(१३) श्रात्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदतोऽपि लोकोलीवोण्टघननिचितच्छेटिनाः । जी०३ प्रति०४ अधि०। तं० ।
तरागमस्त्रिविधः, तत्र व सामायिकमवतरति । सामलेर-शाबलेय-पुं०। शवलाया गोरपत्ये, अनु ।
(१४) नयप्रमाणे न सामायिकमवतरति । सामवम-श्यामवर्ण-त्रि०। श्यामले, प्रव०२६ द्वार।
(१५) श्रासीत् पूर्व सामायिकस्य नयेष्ववतारः ।
(१६) संख्याप्रमाणे सामायिकमवतरति नवा ?। सामवेय-सामवेद-पुं० । गानप्रतिबडे बेदे, उत्त० २२१०।
(१७) सामायिकाध्ययनं स्वसमयवक्तव्यतानियतम् । सामहत्थि(ण)-श्यामहस्तिन-पुं० । श्रमणस्य भगवतो महा
(१८) सामायिकाध्ययनस्यार्थाधिकारः। वीरस्य स्वनामख्यातेऽनगारे, भ०१० श० ४ उ०। (अत्रत्या
(१६) सामायिकसमवतारः। वनव्यता 'तायत्तीसग' शब्दे चतुर्थभाग २२२४ पृष्ठ गता।) (२०) अथानुगमलक्षणं तृतीयमनुयोगद्वारं संबन्धोपदर्शसामा-श्यामा-स्त्री० । “शषाः सः" ॥१॥२६०॥ इति शस्य
नपूर्वकं निरूपितम् । सः । प्रा० । “अधोम-न-याम्" ॥८२७८ ॥ इति यलुग्वा । (२१) नामनिष्प निक्षेपमभिधित्सुरध्ययनस्य विशेषनाप्रा०पोडशवार्षिक्यां, श्यामवर्णायां वा खियाम् , 'सामा. मनिक्षेपः। गायर महुरं' । स्था०७ ठा०३ उ० । अनु। शकलोक- (२२) अत्राक्षेपपरिहारौ। पालस्य सोममहाराजस्याग्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० १
(२३) सूत्रालापकनिक्षेपस्यावसरप्रतिपादनम् । उ०। रात्री, सूत्र०२ श्रु० १ ० । सिन्धुदत्तपुड्यां ब्रह्म
(२४) चतुर्विधस्य सामायिकस्य क्रियाकारकभेदपर्यायः दत्तचक्रिभार्यायाम् , उत्त० १३ अ० । अनु० । प्रियकुबल्ली- - शब्दार्थकथनम् । विशेष, प्रशा०१ पद । ज्ञा। विमलस्य त्रयोदशतीर्थकरस्य
(२५) श्रुतसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनम् । मातरि, स० । प्रच० । सम्भवस्य जिनस्य प्रचर्तिन्याम,
(२६) सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनम् । स। आव० । ति।ती। प्रव०। सुप्रतिष्ठिते नगरे सिंह
(२७) चतुर्विधसामायिकनिरूपणम् । सनस्य राज्ञा भार्यायाम् , स्था०१०ठा०३ उ०। आचा।
(२८) सामायिकोदाहरणे कथानकम् । श्रीपचप्रभस्य अच्युतापरनाम्यां शासनव्याम् , सा च
(२६)द्विविधसामायिकस्वरूपनिरूपणम् । श्यामवर्णा नरबाहना चतुर्भुजा वरदवाणान्वितदक्षिणकर
(३०) सामायिकस्य द्वारसंग्रहः।। द्वथा कार्मुकाभययुतवामपाणिद्वया च । प्रय०२७ द्वार।
(३१) तत्रोद्देशादिद्वारप्ररूपणा । सामाइय-सामायिक-न० । रागद्वषविरहितः समस्तस्य प्र
(३२) कुतः सामायिकं निर्गनमत्राक्षेपपरिहारी। तिक्षणमपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहतुभूताया विशुद्धेराया-लाभः
(३३) मूलद्वारनयेः सहामीषां भेदप्रतिपादनम् । समायः स एव सामायिकम् । विशे० । 'सामायिकम्' इति
(३४) विस्तरार्थे भाष्यम् ।। समानां-शानदर्शनचारित्राणां प्रायः-समायः , समाय
(३५) कस्य जीवस्य किं सामायिकम्। एव सामायिकं, बिनयादिपाठात् स्वार्थे ठक । पाह-समय- (३६) गृहस्थसामायिकमपि परलोकार्थिना कार्यम् । शब्दस्तत्र पठ्यते तत्कथं समाये प्रत्ययः?, उच्यत-'एक- (३७) कतिविधं सामायिकम् । देशविकृतमनन्यवद्वती' ति न्यायात् , तथ सावधयांग
(३८) श्रुतसामायिकभेदकथनम् । विरतिरूपं, ततश्च सर्वमप्येतच्चारित्रम् भविशेषतः सामा- (३६) सम्यक्त्वादिसामायिकभेदनिरूपणम् । यिकम् । आय. १ मा (सम्मावाय' शब्दऽस्मिन्नेव भागे (४०) कतिसान्तरं सामायिकम् । अस्यकार्थिकान्युक्तानि) (संजम' शब्दऽस्मिन्नेव भाग (४१) किं सामायिकमिति निरूपणार्थ द्वारगाथात्रयम् । किंनामसामायिकर्मिति किश्चिदुक्तम् ।)
(४२) ऊर्ध्वलाकादिक्षत्रमङ्गीकृत्य सम्यक्त्वादिसामायि
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय कानां लाभादिभावनिरूपणम् ।
(१) सामायिकस्वरूपमाह(४३) कस्यां दिशि किं सामायिकम् ।
सामाइय छेय परिहा-र सुहुम अहखाय देस जय अजया। (४४) वक्ष्यमाणनियुकिगाथाप्रस्तावना । (४५) कालद्वारनिरूपणम् ।
चक्षु अचक्खु ओही, केवल दंसण अणागारा ॥१२॥ (४६) गतिद्वारम् ।
समानां-शानदर्शनचारित्राणामायो लाभः समायः समाय एव (४७) मिश्रशब्दभावार्थः,व्यवहारनिश्चयनयमतविचारश्च ।
सामायिकं विनयादेः॥७।२।१६६॥श्राकृतिगणवादिकण्प्रत्ययः (४८) श्राहारकपर्याप्तकद्वारम् ।
यद्वा समोरागद्वेषविप्रमुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति,श्रा(४६) सुप्तजन्मद्वारद्वयनिरूपणम् ।
यो लाभः प्राप्तिरिति पर्याया।समस्यायः समायः।समो हि प्र. (५०) स्थितिद्वारनिरूपणम् ।
तिक्षमामपूर्वैर्शानदर्शनचरणपर्याय वाटवीभ्रमणसंक्लेशवि(५१) वेद-संज्ञा-कपायद्वारत्रयप्रतिपादनम् ।
च्छदकैनिरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकामधेनुकल्प(५२) आयुर्ज्ञानद्वारद्वयनिरूपणम् ।
द्रमांपमैयुज्यते, समाय एव सामायिक मूलगुणानामाधार(५३) योगोपयोगशरीरद्वारत्रयनिरूपणम् । (५४)कथं पुनरौपशमिकसम्यक्त्वं जीवस्याभ्युपगन्तव्यम्।
भूतं सर्वसावद्यविरतिरूपं चारित्रम् । यदाह वाचकमुख्या
"सामायिकं गुणाना-माधारः खमिव सर्वभावानाम् । न (५५) कथं पुनरस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभेऽवस्थितप
हि सामायिकहीना-श्चरणादिगुणान्विता येन ॥१॥ तस्मारिणामत्वम् ।
जगाद भगवान् , सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमा(५६) 'ओरालिए चउकं' इत्यादिगाथाव्याख्या। नसान-कदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥” यद्यपि च सर्वमपि (५७) संस्थानादिद्वारत्रयम् ।
चारित्रमविशषतः सामायिकं तथापि छदादिविशेषैर्विशेष्य(५८) लेश्याद्वारनिरूपणम् ।
माणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते । प्रथमं पुनरवि(५६) परिणामद्वारप्रतिपादनम् ।
शेषणात् सामान्यशब्द पवावतिष्ठते "सामायिकमिति" ।त. (६०) वेदनासमुद्धातकर्मद्वारद्वयम् ।
च द्विधा इत्यरं, यावत्कथिकं च । तत्वरम्-भाविव्यपदे(६१) निर्वेटनोद्वर्तनद्वारद्वयम् ।
शान्तरत्वात् स्वल्पकालम्, तच्च प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थे भर(६२) प्राश्रवकरणद्वारनिरूपणम् ।
तैरवतेषु यावदद्यापि शैक्षकस्य महावतानि नारोप्यन्ते ताव(६३) अलङ्कारशयनाऽऽसनस्थानचङ्क्रमणद्वारकदम्बक- द्विशेयम् । आत्मनः कथां यावद्यदास्ते तद्यावत्कथं यावजीवव्याख्यानम् ।
मित्यर्थः । यावत्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच भरतैरवते(६४) परस्यातिप्रेयनिपुणत्वमवलोक्य सूरिकृताऽति
षु प्रथमचरमवर्जमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनां
महाविदेहतीर्थकरमुनीनां चावसेयम् , तेषामुपस्थापनाया निपुणत्वेन तत्प्रतिविधानं प्रतिपादितम् ।
अभावात् । कर्म०४ कर्म० । प्रा०म०। (६५) मानुषत्व लब्धेऽपि एतैः कारणैः दुर्लभं सामायि
"सध्यमिणं सामाइयं, छयाइविसेसियं पुण विभिन्नं । कमनुकम्पादिभिरवाप्यते ।
अविसेसियसामइयं, ठियमिह सामन्त्रसन्नाए ॥१॥ (६६) किं कारण तीर्थकरः सामायिकं भाषते ।
सावजजोगविरइ, त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । (६७) गणधराः केन कारणन सामायिकश्रवणं कुर्वन्ति ।
इत्तरमावकहं ति य, पढम पढमंऽतिमजिणाणं ॥२॥ कियच्चिरमिति कालद्वारम् ।
तित्थेसु अणारोविय-वयस्स सेहस्स थेवकालीयं । (६८) श्रुतवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपनप्रतिपतित
सेसाणमावकहियं, तित्थेसु विदेहयाणं च ॥३॥" . श्रुतसामायिकस्य च निरूपणम् ।
ननु चत्वरमपि सामायिकं करोमि भदंत ! सामायिकं याव(६६) यम्य नयम्य यत्सामायिकं मोक्षमार्गत्वेनानुमतं जीवमित्यवं यावदायुरागृहीतं, तत उत्थापनाकाले तत्परि. तद्दर्शनस्वरूपमनुमतद्वारम् ।
त्यजतः कथं न प्रतिज्ञालोपः । “नम्णु जावज्जीवाए, इत्ति(७०) कम्माजीव एव सामायिकं प्राप्नोति नाजीवादिः ।
रियं पि गहियं सुयं तस्स । होह पहराणालावो , जहाव(७१) एकस्मिन्नपि महावतादिक चारित्रसामायिक निर्यु- कहियं सुयं तस्स ॥१॥" निकृतः साक्षात् सर्वद्रव्योपयोगदर्शनम् ।
उच्यते ननु प्रागयोक्तं यत् सर्वमेवेदं चारित्रमविशषतः सा(७२) द्वितीयम्य द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्रायनिदर्शनम् ।
मायिक, सर्वत्रापि सर्वसावद्ययोगविरतिसद्भावात् , केवलं (७३) सामायिकम्य वैशपिकलक्षगान प्रतिपादनम् ।
छेदादिविशुद्धिविशर्विशिष्यमाणमर्थतः शय्दान्तरतश्च ना(७४) सामायिक पदव्याख्यान सूत्रम् ।
नात्वं भजत ततो यथा यावत्कथिकं सामायिकं-छदो(७५) विनयढारप्रतिपादनम ।
पस्थापनं वा परमविशुद्धिविशेषरूपसूक्ष्मसंपरायादि चारि(७६) चालनाप्रतिपादनम:
त्रावाप्ती न भङ्गमास्कन्दति तथत्वरमपि सामायिकं विशुद्धि(७७) आघ-भव विनयोर्विवरगाम ।
विंशपरूपच्छदापस्थापनावाप्तौ नैव भकं प्राप्नोति। यदि हि प्रव(७८) श्रालोचनादीनि समायिकवत एव भवन्ति ।। ज्या परित्यज्यत तर्हि तद्भग प्रापद्यतन तु तस्यैव विशुद्धिवि(७६) प्रकीर्णकवाना।
शेषावाप्ती । उक्तं च-"नणु भणियं सव्वं चिय, सामइयमिणं
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(७०३) सामाहय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय विसुद्धितो भिनं। सावाजविरइमइयं, को वयलोवो विसु- सामाइयमाहु तस्स जं, • डीए । उनिक्खमतो भंगो,जो पुण तं चिय करेइ सुद्ध
जो अप्पाणभएण दंसए ।॥ १७॥ यरं । सन्नामेत्तविसिटुं, सुहुमं पि व तस्स को भंगो ॥२॥" पं० स०१द्वार । श्राव० । सर्वसावद्यपरित्यागनि- उप-सामीप्येन नीता-प्रापितो नानादावमा येन स तथा रवद्यासेवनरूपे वतविशेष, ध० र०२ अधिक।
अतिशयेनोपनीत उपनीततरस्तस्य , तथा तायिनः(२) सामयिकमाह
परात्मोपकारिणः त्रायिण वा-सम्यक्पालकस्य , तथा भसामाइयं नाम, सावजजोगपरिवजणं-निरवजजोगप
जमानस्य-सेवमानस्य विविक्रम्-स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितम् ,
प्रास्यते-स्थीयते यस्मिन्निति तदासन-वसत्यादि, तस्यैवडिसेवणं च ।
म्भूनस्य मुनेः सामायिकम् समभावरूपं सामायिकादिचा"सिक्खा विहा गाहा, उववायठिई गई कसाया य । रित्रमाहुः सर्वज्ञाः, यद्--यस्मात् ततश्चारित्रिणा प्राग्व्यबंधता वेयंता, पडिवजा इक्कमे पंच ॥१॥
वस्थितस्वभावेन भाव्यम् , यश्चात्मानं भये-परीषहोपसर्गसामाइअम्मि उ कए, समणो इव सावो हवइ जम्हा ।
जनिते न दर्शयेत्--तद्भीरुन भवेत् तस्य सामायिकमाहुरि
ति सम्बन्धनीयम् । सूत्र०१ ०२० । एएण कारमेणं, बहुसो सामाइयं कुजा ॥२॥ सव्वं ति भाणिऊणं,विरई खलु जस्स सब्बिया नत्थि ।
(४) श्रावकस्य सामायिककरणविधिःसो सञ्चविरइवाई, चुक्कइ देसं च सव्वं च ॥३॥"
सामाइयं सावरण कथं कायव्यं नि !, इह सावगो दुविहो
इडिपत्तो,अणिविपत्तो या जो सो अणिविपत्तो सो चतियघरे सामाइयस्स समणोवायस्स इमे पश्च अइयारा जा
साधुसमीपे वा घरे वा पोसधसालाए वा जत्थ वा बिसणियव्या न समायरियव्वा, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे वइ- मति अच्छते वा निब्यावारो सम्वत्थ करेति तत्थ, चदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइ अकरण- उसु ठाणेसु णियमा कायब्वं । चेतियघरे साधुमूले पोसया सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया ॥४॥
धशालाए घरे आवासगं करेंतो ति, तस्थ जति साधुस
गासे करेति तत्थ का विधी?, जति पर परभयं नस्थि समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति ,
जति विय केण सम विवादो पत्थि जति कस्सह ण आयो लामः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वेर्शानदर्शनचरणपर्यायनिरुपमसुखहे
धरह मा तेण अंछवियंछियं कजिहिति, जति य धा
रणगं ददण न गएहति मा णिजिहिति, जति वावारं तुभिरधःकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैयुज्यते , स एव समा
ण वावारेति, ताधे घरे चेव सामायिकं कातूणं वञ्चति । यः प्रयोजनमस्य क्रियानुष्ठानस्येति सामायिकं, सामाय ए.
पंचसमिश्रो तिगुत्तो इरियाउवजुत्ते जहा साहू भासाए व सामायिकम् । नामशब्दोऽलङ्कारार्थः, अवधं-गर्हितं पापं, सहाबोन सावद्यः योगो-व्यापारः कायिकादिस्तस्य परि
सावज्जं परिहरंतो एसणाए कटुं लेटुं वा पडिलेहिउँ पवर्जन-परित्यागः कालावधिनेति गम्यते । तत्र मा भूत् सा
मजेतुं एवं श्रादाणे णिक्खेवणे , खेलसिंघाणे ण विगिंचयद्योगपरिवर्जनमात्रमपापव्यापारासेवनशून्यमित्यत पाह
ति, विगिचंतो वा पडिलेहति य पमज्जति य जत्थ चिनिरपयोगप्रतिसेवनं चति, अत्र सावधयोगपरिवर्जनव
टुति तत्थ वि गुत्तिरोधं करेति । एताए विधीए गत्ता तिनिरवद्ययोगप्रतिसेवने ऽप्यहर्निशं यत्नः कार्य इति दर्शनार्थ
विधेणु रणमित्त साधुणो पच्छा सामाइयं करेति. 'करेमि म्।चशब्दः परिवर्जनप्रतिसेवनक्रियाद्वयस्य तुल्यकक्षताभा
भन्ते ! सामाइयं सावजं जोग पच्चक्खामि दुविधं तिविधे
ण जाव साधू पज्जुवासामि त्ति कातण । पच्छा दरियावनार्थः । श्राव०६०। आर्तरौद्रध्यानपरिहारण धर्मध्या.
चहियाए पडिक्कमति । पच्छा पालोपत्ता वंदति पायरिनकरणेन शत्रुमित्रकाश्चनादिषु समतायाम् , ध० । श्रातु।
यादी जधा रातिणिया । पुणो वि गुरुं वंदित्ता पडिलेसूत्रध.
हित्ता विट्ठो पुच्छति पढति वा । एवं चेतियाइएसु वि (३) तत्राद्यं शिक्षापदव्रतमाह
जदा स गिद्दे पोसधसालाए वा श्रावासाए वा तत्थ णसावद्यकमेमुक्तस्य, दुानरहितस्य च ।
वरि गमणं णस्थि, जो इडिपत्तो (सो ) सब्बिड्डीए एति समभावो मुहूर्त तद्-व्रतं सामायिकाह्वयम् ॥३७॥ तेग जगस्स उच्छाहा वि आदित्ता य साधुण सुपुरिसायद्यम्-वाचिकं कायिकं च कर्म, सेन मुक्तस्य तथा
साग्गिहग, जति सा कयसामाइतो पति ताधे श्रासहत्थिदुानम्-श्रातगैद्ररूपं तन हिनम्य प्राणिनः मनाया
मादिग्गा जणगण य अधिकरणं वट्टति.ताधे रण करेति । कयकायचेष्टापरिहारं विना सामायिकं न भवतीति विशेषण
सामाइएगा य पादहि आगंतव्वं तेणं ण करेति, प्रागतो द्वयं तादृशम्य मुहर्ने घटिद्वयकालं यावत् योऽसी स
साधुसीव करेति, जति सो सावो तो रण कोइ उट्टेति । मभावो-रागद्वपहतुपु मध्यस्थभावस्तत् सामायिकाहूयं व
अह अहाभद्दी ता आहिनो हातु ति भण(गण) ति, तातंझेयम् । ध०२ अधिक।
धे पुब्बरहयं श्रामण कीरति, पायरिया उट्टिता य अच्छउपदशान्तरमाह
नि । नत्थ उठेतमाटेत दोसा विभासितव्या ।। पच्छा सो
इडिपत्ती सामाइयं करेह अणेण विधिणा- करेमि उवणीयतरस्स ताइणो,
भन्त ! सामाइयं सावजं जोगं पच्चक्खामि दुविधं भयमाणस्स विविकमासणं ।
तिविधण जाव नियम पज्जुवासामि' त्ति, एवं सामाइयं
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(७०४) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय काउं पडिकंतो वंदित्ता पुच्छति, सो य किर सा- कषायोदवांश्च भवति । यदा द्वादशकपायवांस्तदाऽनमाइयं करेतो मउई अवणेति कुंडलाणि णाममुदं पुण्फ- न्तानुबन्धवर्जा गृह्यन्ते, एते चाविरतस्य विशेया इति । यसंबोलपावारगमादी बोसिरति । एसा विधी सामाइयस्स।" दा त्वष्टकषायोदयवान् तदा अनन्तानुबन्धि अप्रत्याख्यानश्राह-सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपत्वात् सामायिकस्य कृत- कषायवर्जा इतिः एते च विरताविरस्य । तथा बन्धश्च भेसामायिकः श्रावको वस्तुतः साधुरेव, स कस्माद् इत्वरं दकः, साधुर्मूलप्रकृत्यपेक्षया अष्टविधबन्धको वा सप्तविसर्वसावधयोगप्रत्याख्यानमेव न करोति त्रिविधं त्रिविधे- धबन्धको चा पविधबन्धको वा एकविधबन्धको वा। नेति ?, अत्रोच्यते-सामान्येन सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यान- उक्त च-- स्यागारिणोऽसम्भवादारम्भेष्वनुमतेरव्यवच्छिन्नत्वात् , क- "सत्तविधबंधगा हुंति , पाणिगो पाउबज्जगाणं तु । नकादिषु चाऽऽत्मीयपरिग्रहादनिवृत्तेः , अन्यथा सामायि- तह सुहुमसंपरागा छब्विहबंधा विणिहिट्ठा ॥१॥ कोत्तरकालमपि तदग्रहणप्रसङ्गात् , साधुश्रावकयोश्व प्रप- मोहाउयवजाणं , पगडीण ते उ बंधगा भणिया । शेन भेदाभिधानात् । श्राव०६०।१०व । पश्चा।
उवसंतखीणमोहा, केवलिणा एगविधबंधा ॥२॥ (५)तथा चाह ग्रन्थकारः
ते पुण दुसमयठितिय-स्स बंधगा ण पुण संपरागस्स । सिक्खा दुविधा गाहा, उववात ठिती गती कसाया य। सेलेसीपडिवण्णा , अबंधगा होति विया ॥३॥" बंधंता वेदेन्ता, पडिवजा इक्कमे पंच ॥१॥
श्रावकास्तु अष्टविधवन्धको वा सप्तविधबन्धको वा । तथा इह शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोर्महार विशेषः , सा च-!
वेदनाकृतो भेदः, साधुरधानां सप्तानां चतसृणां वा प्रकृतीनां शिक्षा द्विधा-सेवनाशिक्षा, ग्रहणशिक्षा च । श्रासेवना
वेदकः, श्रावकस्तु नियमादष्टानामिति । तथा प्रतिपत्तिकता प्रत्युपेक्षणादिक्रियारूपा, शिक्षा-अभ्यासः, तत्रासेवनाशि
विशेषः, साधुः पञ्च महाव्रतानि प्रतिपद्यते , श्रावकस्त्वेक्षामधिकृत्य सम्पूर्णामेव चक्रवालसामाचारी सदा पाल
कमणुव्रतं वे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा । अथवा-साधुः सकृयति साधुः । श्रावकस्तु न तत्कालमपि सम्पूर्णामपरिक्षा
त् सामायिक प्रतिपद्य सर्वकालं धारयति , श्रावकस्तु पुनः नादसम्भवाच्च । ग्रहणशिक्षां पुनरधिकृल्य साधुः सूत्रतोऽर्थ
पुनः प्रतिपद्यते इति । तथाऽतिक्रमो विशेषकः, साधुरेकत्रतश्च जघन्येनाष्टी प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्य
तातिक्रमे पञ्चवतातिक्रमः, श्रावकस्य पुनरेकस्यैव, पाठातं गृह्णातीति, आवकस्तु सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टौ प्रव
न्तरं वा । किं च इतरश्च सर्वशब्दं न प्रयुक्ते, मा भूद्देशविरतेचनमातर उत्कृष्टतस्तु षड्जीवनिकायां यावदभयतोऽर्थत
रप्यभाव इति । आह च-'सामाइयम्मि उ कर' 'सव्वं ति स्तु पिण्डेपणां यावत् , न तु तामपि सूत्रतो निरयशषा
भाणिऊणं ' गाहा, सर्वमित्यभिधाय-सर्वे सावधं योग मर्थत इति सूत्रप्रामाण्याच्च विशेषः । तथा चोक्तम्--
परित्यजामीत्यभिधाय विरतिः खलु यस्य सर्वा-निरवशेषा "सामाइयम्मि तु कते, समणो इव सावो हवद जम्हा ।
मास्ति, अनुमतेनित्यप्रवृत्तत्वादिति भावना.स एवंभूतः सर्वएतेण कारणण, बहुसो सामाइयं कुजा ॥१॥” इति, घिरतिवादी'चुकर'त्ति-भ्रश्यति देशविरति सर्वविरति च गाथासूत्रं प्राग् व्याख्यातमेव, लेशतस्तु व्याख्यायते-सा
प्रत्यक्षमृपावादित्वबादित्यभिप्रायः। पर्याप्त प्रसङ्गन। प्रकृतं प्रमायिके प्रागनिरूपितशब्दार्थे, तुशब्दोऽवधारणार्थः , सा- स्तुम इदमपि च शिक्षा पदव्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमि मायिक एवं कृते न शेषकालं श्रमण इव-साधुरिव श्रा- त्यत-पाह-'सामाइयस्स समणो'(गाहा) सामायिकस्य श्रमघको भवति यस्मात् , एतेन कारणेन बहुशः-अनेकशः । णोपासकेनामी पश्चातिचारा सातव्या न समाचरितव्याः, सामायिकं कुर्यादित्यत्र श्रमण इव चोक्तं न तु श्रमण ए- तद्यथा-मनोदुष्पणिधानम् प्रणिधान-प्रयोगः दुष्टं प्रणिधावेति , यथा समुद्र इव तडागः न तु समुद्र पवेत्यभिप्रा- नं दुष्प्रणिधानं मनसो दुष्पणिधानं मनोदुष्पणिधानम् , यः । तथोपपाते विशेषकः , साधुः सर्वार्थसिद्ध उत्पद्यत कृतसामायिकस्य गृहसत्केतिकर्तव्यता सुकृतदुष्कृतपरिधावकस्वच्युते परमोपपातेन जघन्यन तु द्वावपि सौध- चिन्तनमिति । उक्तं च-"सामाइयं ति (तु) कातुं , घरचिर्म एवेति । तथा चाक्क्रम्-“अविराधितसामण-स्स सा
न्तं जो तु चिंतये सहो। अवसट्टमुवगतो, निरत्ययं तस्स धुणो सावगस्स उ जहनो । सोधम्मे उवयातो, भणियो सामइयं ॥१॥"बाग्दुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्यासभ्यतेलोकदसीहिं ॥१॥” तथा स्थिति दिका, साधा- निष्ठुरसावद्यवाप्रयोग इति । उक्तं च-" कडसामओ रुत्कृष्ट प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्या तु पल्यो- पुवं, बुद्धीए पेहितूण भासेज्जा । सइणिरषज्ज वयणं, अपमपृथक्त्यमिति श्रावकस्य तूत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागा
राणह सामाइयं ण भवे ॥ २ ॥ " कायदुष्प्रणिधानं कृतरोपमाणि जघन्या तु पस्योपममिति । तथा गति
सामायिकस्याप्रत्युपेक्षितादिभूतलादो करचरणादीनां देहाभैदिका , व्यवहारतः साधुः पञ्चस्वपि गच्छति , तथा वयमानाममिभृतस्थापनमिति । उक्तं च-" अणिरिक्खिया च कुरटाम्कुरुटी नरकं गतौ कुणालादृष्टान्तनति धृय- पमज्जिय , थंठिल्ल ठानमादिसेयेन्तो । हिंसाभाव विणसो, ते, श्रावस्तु चतसृषु न सिद्धगताविति । अन्ये च व्याच- कडसामाश्रो पमादाश्री ॥१॥" सामायिकस्य स्मृत्यकक्षते-साधुः सुरगती मोक्ष च, श्रावकम्तु चतसृष्वपि । रणं सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मरणा-स्मृतिः उपतथा कपायाश्च विशेषकाः, साधुः कषायोदयमाश्रित्य स- | योगलक्षणा तस्या अकरणम्-अनासेवनमिति । एतदुक्तं भज्वलनापेक्षया चतुखियककषायोदयवानकषायोऽपि भवति | वति-प्रबलप्रसादवान नैव स्मरत्यस्यां वेलायां मया यत्साछमस्थवीतरागादिः , श्रावकस्तु द्वादशकवायोदयवान् अष्ट- मायिक कर्सव्यं कृतं न कृतमिति वा । स्मृतिमूलं च
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मामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाहय मोक्षसाधनानुष्ठानमिति । उक्तं च-" ण सर पमादजुत्तो, (६) अथ सामायिकाध्ययनमत्र व्याख्येयं तस्य चानेके जो सामइयं कदा तु कातव्वं । कतमकतं वा तस्स हु, अधिकारा अन्यत्र गतास्तानिह संसूचयन् तत्र तत्राऽऽकयं पि विफल तयं यं ॥६॥" सामायिकस्यानवस्थि- गतान् दर्शयामि । सामायिकनियुक्तिः। तत्र यथोद्देशं निर्देश तस्य करणमनवस्थितकरणम् , अनवस्थितमल्पकालं बा इति न्यायात् प्रथमतोऽधिकृतावश्यकाद्यध्ययनसामायिकाकरणानन्तरमेव त्यजति, यथा कथश्चिद् बाउनवस्थितं करो- ख्योपोद्धातनियुक्तिमभिधित्सुराहतीति । उक्नं च-"कातूण तक्खणं चिय,पारेति करेति वा ज.
सामायियनिज्जुत्ति, वोच्छं उवएसियं गुरुजषण । धिच्छाए । श्रणवट्टिय सामइयं, श्रणादरातो न तं सुई॥॥" उक्तं सातिचारं प्रथमं शिक्षापदवतम् । शाव.६ अ० । ध०।
आयरियपरम्परए-ण आगयं प्राणुपुबीए ।। ६७ ॥ पञ्चा०। ( सामायिके श्राकारा न सन्ति इति ' पञ्चश्वाण'
सामायिकस्य नियुक्तिः सामायिकनियुक्किस्तां वक्ष्ये । कथं शब्दे पञ्चमभागे १०४ पृष्ठ गतम् ।) (श्रावकस्य सामायि
भूतामित्याह-उप-सामीप्येन देशिता उपदशिता तां केन? गु.
रुजनेन तीर्थकरगणधरलक्षणेन पुनरुपदेशनकालादारभ्य प्राकादिग्रहणविधिः 'अणुव्वय' शब्दे प्रथमभागे ४१७ पृष्ठ
चार्यपारंपर्येणागताम् । स च परंपरको द्विधा-द्रव्यतो,भावगता । ) इह श्रावको द्विविधः-ऋद्धिप्राशः, अनृद्धिकश्च ।
तश्च । तत्र द्रव्यपरंपरकः पुरुषपारंपर्येण इष्टकानामानययोऽसावनृद्धिकः स चैत्यगृहे साधुसमीपे था गृहे
नम् । अत्र चासंमोहाथै कथानकं गाथाविवरणसमाप्ती बवा पौषधशालायां वा यत्र विधाभ्यति , निर्व्यापारो
क्ष्यामः । भावपरंपरकस्त्वियमेव उपोद्धातनियुक्तिराचार्यपारं. चाऽऽस्त, तत्र सर्वत्र तत्करोति , चतुषु स्थानेषु पुनर्निय- पर्येणागतेति । कथमाचार्यपारंपर्येणागतामिति चेदत आहमात्करोति; तद्यथा-चैत्यगृहे साधुसमीप पौषधशालायां ख--
श्रानुपूा-परिपाटया, तद्यथा-जम्बूस्वामिना प्रभवेनानीगृहे वावश्यकं कुर्वाणः । तत्र यदि साधुसमीपे करोति ,
ता ततोऽपि शय्यंभवादिभिरिति । अथवा-जिनगणधरेभ्य तदाऽयं विधिः-यदि परं परभयं नास्ति , यदि केनापि
श्रारभ्य आचार्ये पारंपर्येरणागतां पश्चात्स्वकीयगुरुजनेनोपदेसमं विवादो नास्ति, यदि कस्यापि द्रव्यं न धारयति शितामिति । प्रा० म०१ अ०। श्राव० । मा भूतत्कृता कर्षापकर्षिका, यदि च धारणकं दृष्टा न
(७)सामायिकस्य अनुयोगद्वाराणि। सामायिकाध्ययनस्य गृह्णाति मा भूद्भङ्गः , यदि च व्याहारं न करोति , तदा
चत्वारि द्वाराणि इत्याहस्वगृह एव सामायिकं कृत्वा व्रजति । पश्च समितस्त्रिगु
अणुप्रोगद्दाराई, महापुरस्सेव तस्स चत्तारि । त:-ायामुपयुक्तः , यथा साधुर्भाषायां सावधं परिहरन् , एषणायां काष्ठं था लेष्टुं वाऽनुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य
अणुयोगो ति तदत्थो,दाराई तस्स उ मुहाई ॥१७॥ च गृह्णन् , एवमादाने निक्षेप च , तथा खेलसिंघाणा
तस्य च-सामायिकाध्ययनस्य महापुरस्य द्वाराणीव-चत्वा दीम्न विवेचयति , विवेचयंश्च स्थरि डलं प्रत्युपेक्षते प्र
र्यनयोगद्वाराणि भवन्ति तत्रानुयोगः किमुच्यते?,इत्याह-तमार्टि च, यत्र तिष्ठति तत्रापि गुप्तिनिरोध करोति । अने- दर्थः-अध्ययनार्थः । श्राह-नन्वनुयोगी व्याख्यानमुच्यते,तत् न विधिना गत्वा, त्रिविधेन साधून्नत्वा सामायिकं करोति
कथं तदेवाध्ययनार्थ उच्यते ?। सत्यम् , किन्तु व्याख्याने"करेमि भंते ! सामाइयं सावजं जाग पञ्चकखामि जाव
ऽप्यध्ययनार्थः कथ्यते, अतोऽभेदोपचारात् तदपि तथोच्यत साह पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं " इत्याधुच्चारणतः ।
इत्यदोषः । द्वाराणि पुनस्तत्प्रवेशमुखानि । तत र्यापथिकायाः प्रतिक्रामति, पश्चादालाय वन्दते आ--
अर्थतामेव पुरकल्पनां द्वारकल्पना चार्थवती दर्शयन्नाहचार्यादीन् यथारात्निकतया, पुनरपि गुरुं वन्दिरमा प्रत्यू- अकयद्दारमनगरं, कएगदार पि दुक्खसंचारं। पेक्ष्य निविष्टः पृच्छति वा पठति वा । एवं चैत्येष्यपि । यदा
चउमूलद्दारं पुण, सपडिदारं सुहाहिगमं ।। १०८।। तु स्वगृहे पौषधशालायां वा तदा गमनं नास्ति । यः पुनः
अकृतद्वारं नगरं संततप्राकारवलयवेष्टितमनगरमेव भवति' ऋद्धिप्राप्तः स सर्वाऽऽपाति,तेन जनस्यास्था भवति, श्रा
जनप्रवेशनिर्गमाभावात् । तथा-कृतैकद्वारमपि इस्त्यश्वर हताश्व साधवः सुपुरुषपरिग्रहण भवन्ति । यदि त्वसौ कृत
थजनसंकुलत्वाद् दुःखसंचारं जायते, कार्यातिपत्तये च सामायिक पति, तदाश्वहस्त्यादिभिरधिकरणं स्यात्तच्च न भवति । कृतचतुर्मूलं प्रतोलीद्वारं तु सप्रतिद्वारं सुखाधिवर्त्तते कर्तुमित्यसौ तन्न करोति । तथा कृतसामायिकेन पा- गमम्-सुखनिर्गमप्रवेशं भवति, कार्यानतिपत्तये च संपद्यते दाभ्यामेवागन्तव्यमिति च तन करोति। तथा यद्यसौ श्रावक इति । स्तदा तं न कोऽप्यभ्युत्तिष्ठति । अथ यदा भद्रकस्तदा पूजा- (E)तथा किम् ?,इत्याशङ्कय निर्दिष्टदृष्टान्तस्योपनयमाहकृता भवत्विति पूर्वरचितमासनं क्रियते , प्राचार्याश्चोत्थि
सामाइयमहपुरमवि, अकयद्दारं तहेगदारं वा । ता एवासते । मोत्थानानुत्थानकृता दोषा भूवन् । पश्चादसा
दहिगमं चउदारं, सपडिदारं सुहाहिगमं ।। ६०६ ।। वृद्धिप्राप्तश्रावकः सामायिकं करोति । कथम्?"करेमि भंते ! सामाइयं सावज जोग पञ्चक्खामि दुविहं तिविहेण जाव
एवं सामायिकमहापुरमप्यर्थाधिगमोपायभूतद्वारशून्यमशनियम पज्जुवासामि" इत्यादि । एवं सामायिकं कृत्वे
क्याधिगमम् ,कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छ्रेण द्वाघीयसा च प्रतिक्रान्तो वन्दित्वा पृच्छति वा पठति या । स च किल
कालेनाधिगम्यते विहितसप्रभेदोपक्रमादिद्वारचतुष्टयं पुनसामायिकं कुर्वन् मुकुट कुण्डले नाममुद्रा चापनयति ।
रयत्नेनाऽल्पीयसा च कालेनाधिगम्यत इति । पुष्पताम्बूलप्रावारादिकं न न्युन्सुजतीत्येष विधिः सामा
(6) कानि पुनस्तान्यनुयोगद्वाराणि ?, इत्याहयिकस्यति । पञ्चा०विव० श्राध० प्रा०च०। । ताणीमाणि उवक्कम-निक्खेवाऽणुगमनयसनामाई।
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सामाइय
खलि दुदु बिगप्पा, पमेयोऽगमेगाई ।। ६१० ॥ नाग-नागि
मिशन अनुगमन
महा
इंद्र मधाल लडकिया
अि
चां
1
पकमायो कानपुरस्ताद विश्वम् विशेष | (१०) प्रथमाध्यममन्ध लामाधिकम्पभू
तर पद अपसामात
हमे बारि
1
गदारा भवति से जहा उपक्रमे १ नि२, w',,(NEX) I
नम
,
पचरादिवाधारत्वेन प्रधानमुक्कि कारवायात् सामायिक सावानाम
मध्यमाम
•
हीनयान स्वाजगाव भगवान सामायिक निरुपाय - मानवाने - कनुः खनागस्य मोक्षम्य ॥ ५ ॥
तत्र बो
सामायिकमित्यत्र साम्पा
7
1
( ७०६ )
यदि
न
कर्मप्राप्तिः
-पूर्व
संतुभिः संयुक्त लमायः प्रयोजनमस्याध्ययनस्य ज्ञा कामपनि भासिमान
==
14
1
चरणपादप
1
चिम भागात '' मिश्रभूनि वच्यमाणलक्षणानि चातुर्माण = वन्ति, नत्राध्ययनार्थकथनविविन्दुमा द्वाराशीव द्वाराणि महापुरश्न सामायिक स्यादयोगार्थ व्याख्याना द्वारारामतुः योगदानयत्याचा
"
इनद्वारे नि
1
=
1
-
वाधिगमे कार्यान रमथ्यर्थाधिगमोपाद्वाशून्यमाधिगमे स्याद्, एका=
दु
मार्थी द्वा सा.कानि पुनस्तानीति तदर्शनार्थमाह-' तथथे 'स् । नत्रोपमगमदृश्यस्य वस्तुनस्यपदका
का
सायद उपकमान्तरोगविज्ञान्यनभाया।
-
उपकायते वा निक्षेप रुवायोगक्रमः । श्रथवा जधकस्यने धान् शिष्य श्रवणमा सतीस्युपक्रम
प्रत्युपमपिनयना शाखे करी
राजेन्द्रः ।
शांतिकरणाधिकरणायादानादागा यो दमा, यदि स्पेको उज्यस्थतरोऽर्थः करणादिकाchers for सथापि न दाषः । एवं प शास्त्रमापनाविभवे समं - व्यवस्थापन निक्षेपम सिनेमामा अनि
या पायात च स्पामुलकथनमनुगमः अथवा अश्याप पत्रमास्मादिति पाउनुगमः प्रायार्थमित्रा सन एवं मय मयो मायने परिनिनामि अस्मादिति श्रानयः सर्वश्रानन्धराध्यासिन वस्तुत्यवा गावको बोध इत्यर्थः । श्रत्र मोषकालमेघ निक्षेपयो mardinis fatar हत्युपमानम्न मिश्रण उपय नामाभिर्निशितमेघ धानुगम्यत इति निशेपान रमनुगमा, अनुगम्यमानमेव सामान्य मस्त इति योमेोपन्यासः फलवानिति । अनु (११) को सामामिति । नायि शमि भाषे सामाधिकण्याध्ययनस्थापनार
नामे भावे
वसभिए सुर्य सभोयर |
जे सुथनागावरण-समर्ज तयं सम्यं ॥ ४५॥ अनुयोगद्वारा पकाया पड़ भा पश्यन्ते । तत्र व ज्ञायोपशमिक भने वर्षमा समवतरति यस्मात् सर्वमन सावरकर्मक्षयोपशमादेन जायने मान्यतात पमित्र पनि असहाधापिका मनमपि श्रुतवशेषरूपत्वात् क्षायोपशमिक समचतरनिनान्यत्रेत्य भवति । इत्युक्त
(१५) प्रमाणामनिधित्सु
सामाइय
---
वैश्याच प्रमाणमपि चतुमि मा
याच पग मानि इदमाग साथमा समाचर ॥४६॥
गाला
१
विश्यं प्रमेये प्रोन
तू विविध तत् के तर सिर चाग तत्खभावात्तत्स्वरूपत्वादिति ।
+
US
.
श्रुतज्ञानविशेषत्वेन जीवनयात्वालीवधा प्रमाणे समवतरति । श्राह-न भावप्रमाणमपि विविध तुम्प्रमाणम्, नमप्रमाणम्, संख्याप्रमार्ण चेति। सबस माथि सतत इति उप
द्विविध
मार्ग च । तत्र सामायिक सि जीवन जीवाजीनग -झामदर्शनादि
सामामावता
उच्यते-बोधात्मकत्वात् ज्ञान व ज्ञानमा क्षानुमानापमाना- उनमभेदाच्चतुविध तंत्र ति ? इति । उच्यते== श्रागमे । नतु सा लौकिक-ए
मुत्य
इति । चत
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सामाइय
जीवाणायावगायी जागे । लाउ तर जरा-भयान नस्य मात्राओं ॥ २४७ ॥ व्याख्यातार्थव ।
( ( ६ ) आह-नात्मा गान्गमपगमभेदोप लोकीसरागमखिविधः तम् केत ? न्याशङ्कयाहसुगम गगहारी तस्मिं
।
एवं अनानंतर परंरागमयमाणम् ॥ २८ ॥ अत्थे उ वित्करगहर से सामेवमेवेदं । नाजीवाद
एतद्वाह
बागमप्रमाग व्यथना
एवमात्मानगरपरस्प मन्तव्यः कथम् इत्याह-सूत्रा गयाममागतेय वस्त्र नितितत्वासू. अत आत्मनाशादानत्वा । तु नियामां तु जम्बूस्वाम्यादीनां सामायिकम अनन्तगंगागमनागमन हेतोः । तथाऽवशेषाणां प्रभवमवादीनामेतत् सूत्रे परंपरागमः सुपरकपरयाऽनमनमायोऽस्येति सुक्ने । वे सूतो यथासंख्येन गमनात्यगमादियजनाकृती अवाप्यमंवयकय यथासंध्यनी
"
जम्बूपमृतीस्परा
हयस्मात ।
(१३) नवय
.
( ७०७) अभिधानराजेन्द्रः ।
सत्यमद्वारा
सूदन॥ ४८
'मूढनायें सूर्य का
वचनाद् मूढननि
विनयविदार
चकार इति ।
(१५) या कालादर्थात् अनुभवविचारी विषिष्ट
बुक जानक
आपूि
वरि समास ॥ ५० पूरा-पूरान चतुर्णामनुगानामनगावे प्रतिसूत्रं चतुमप्यवतार न्यायलय नियतो निश्चित आसीत् । साम्प्रत गालिग समा-सियाई त
सट्टा
"
3
॥ १ ॥ 'इति वचनात् पार्थक्येन व्यवस्थापने सति मास्त्यसो नयावतारः । किं सर्वथा न इत्याह-- भवेद् वा प्राज्ञपुरुषविशेषं समासाद्य कोऽपि कियानपीति । इदश्रीमदाबादस्मिनस
गननुयायानम् नयविचार विस्ताऽसीत्। तत तैरेव श्रीमदारक्षितरिभिर्विचारयाबादशिष्याय बागान स्थाप ताः तद्यथा कालिकधुते चरणकरणानुयोग एवं व्या स्थेयः उत्तराध्ययनादिषु धर्मकथानुयोग, सूर्यमादिषु
+
सामाइय
गतानुगः । नारा क प्रायो निषिद्धः । इति मं सामायिकस्य प्रायो नयेध्यत्रतार इति । (१६) नादसंखामा कालिय- सुयपरिमाणे परितपरिमाणं । सुपीम मियं समयं ॥ ५१ ॥ संख्या नाम-स्थापना- प्रव्य-क्षेत्रकाली पम्य- परिमाणभाषमेाऽनुगम
का कालिग
तंत्र सूत्रतस्तु सामायिकाध्ययनं परीतं याताक्षरादि नियतपरिमागम्य सामायिकस्वार्थतः पुनर नन्तर्यात्परिमाणं भणितमिति प्रमाणमप्युक्तं संक्षेपतः ।
(१७) अथ चन्यताभिधित्सुराह समय जो सोसो पग तिपि
।
तत्थ इमं अभय, ससमयवत्तच्वया निययं ।। ६५२ ।। यः सिद्धान्तः सताउने । स्वरात्र वक्र
समय--परसक्यो-मयसमयमंत
7
व्यताऽनुयोगद्वारे त्रिविधा प्रोका अस समयनका. स्वपरोसा मायकाध्ययने वसमतम् प्रतिपचानवादिति ।
"
ᅲ
न केवलमध्ययनम् दध्ययनानि स्वसमयवकन्यतानियताम् इत्याह-ससमय जण । ५३ ।। सम्यगृः स्वसमय
परसमओ उभयं वा सम्म साई
यता परसमया, उमयसमय एव यथावद्वियविभागात् । ततो यद्यपि कचिदध्ययनेषु यताऽपि श्रूयंत, तथापि लागि सर्वानियताव सम्पनष्टिपरिग्रहात् एतच्च पूर्वमनेकशो भावितमेषेति ।
क्रिशमिमय सम्म जं च तदुवगारम्मि | बड़ परसिर्द्धतो, तो तस्स तो ससिदेतो ॥६५४|| मिध्यात्वानामेकान्क्षणिक क्षणिकत्वादिसमताहिमतानां यः समूहः-समुदायः स्यात्पलाञ्छितः स एव यस्मात् सम्यक्त्वं नान्यत् । यस्माच्च तस्य स्वसमय[स्योपकारस्तदुपकारस्तस्मिन् वर्तते परसिद्धान्तः परसि वान्तव्यावृत्यैव स्वसिद्धान्तसिद्धेः असमञ्जसादित्वं परसिद्धान्तानां दृष्ट्वा 'स्वसिद्धान्ते स्थैर्यसिजेश्चेति । ततस्तस्मातस्य सम्यग्दृष्टस्तकः परसिद्धान्तः स्वसिद्धान्त एव । तदेवं सम्यग्रः सर्वोऽपि विषयविभागेन स्थापितः स्व सिद्धान्त एव इति सर्वाण्यप्यध्ययनानि स्वसमयचक्रव्यतानियतान्येवेति स्थितम् । तदेवमभिहिता वक्तव्यता । (१) अधार्थाधिकारमभिधित्सुराहसावजजोगविरई, अश्झपवत्थाहिगार इह सो य ।
"
star
स्व
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सामाइय
मम समुदायत्थो, ससमयवत्सव्वया देसो ||६५५|| इह सावद्ययोगविरतिः- सामायिकाध्ययनस्यार्थाधिकारः, स च समुदायार्थो भण्यत इति प्रागप्युक्तमेव । स एव च स्वसमयवक्तव्यतायाः सम्पूर्णाया एकदेशोऽभिधीयत इति । उक्तोऽर्थाधिकारः ।
(१६) अथ समवतारमभिधित्सुराह-अदुवा म समोयारो, जेण समोयारि पदारं ।
सामाइयँ सोऽयुगभो, लाघवओो नो पुणो बचो ॥ ६५६ ।। अधुना समयतारोऽपसरप्राप्तः । बफारो मित था-- स च ' लाघवड ' तिलाघवमाश्रित्य लाघवार्थमिस्वर्थः, अनुगतः पूर्वमेव गतः अतिकान्तः पूर्वमेवाभिहि त इत्यर्थः । कथम् ?, इत्याह--येन यस्मात् प्रतिद्वारं सामायिकाध्ययनं समयतारितमेव । ततो नेदानीं पुनरपि समवतारो वाच्यः तद्व्यापारस्याऽऽध्ययन समवतार[रालक्षणस्य प्रतिद्वारमनिष्ठितत्वात् । तदुक्तं भवति अधुना षष्ठ उपमभेद समवतारः प्रस्तु-तः स च लाघवार्थ सामायिकस्य प्रतिद्वारं समवता-रितत्वात् पूर्वमेवाभिहितः इति न पुनरप्यत्रोच्यते, पीनरुक्त्यप्रसङ्गात् इति । विशे० । श्रा० म० । श्र० चू० । (२०) प्रथानुगमलक्षणं तृतीयमनुयोगद्वारं सम्बन्धोपदशनपूर्वकमाह
9
"
संपयमोहाई संनिक्खित्ता रामसुगमो को ।
( ७०८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
1
"
सोऽणुगमो दुविगप्पो, नेभो निज्जुनितासं ॥ ६७१ || श्रधादीनां निक्षिप्तानां सतां साम्प्रतमनुगमस्तद्व्याख्यानरूपः कार्य इत्यानुगमस्यावसरः । स च द्विविधः नियुक्त्यनुगमः, सूत्रानुगमश्च । छन्दोऽनुवृत्या व कयाचिदित्थं उपत्ययोपन्यासः। इत्थं पुनः सूत्रानुगमः नित्य मुगमधेति तथा चानुयोगद्वारेऽयुक्रम्" अगमे दुबिंदे पन्नत्ते, तं जहा सुत्तायुगमे, निज्जुन्तिअनुगमे । निज्युलियुगमे तिथि से जानि मिश्रणुगमे, उबग्घायनिज्जुत्तिश्रणुगमे, सुत्तप्फासियनिज्युतिमे । " इति विशे०
(२१) अथ नामनिष्य निरुपमभिधित्सुरन्ययनस्य विशेषनाम तनिक्षेपं चाह
?
सामाइयं ति नामं विसेसविहियं चउब्विहं तं च । नामाइनिरुतीए सुचफासे व तं वोच्छं ॥। ८६२ ।। प्रस्तुताध्ययनस्य सामायिकमिति विशेषविहितं नाम । तच्च चतुर्विधम् । कथम् इत्याह-नामादि नामसामाथिकम्, स्थापना सामायिकम्, द्रव्यसामायिकम्, भावसामाकिं चेति । एतच्चार्थनिरूपणतो वक्ष्येऽहम् । क १, ६त्याह-निरुक्लौ ' उद्देसे निद्देसे य निगमे ' इत्याद्युपोद्घातनियुकिगतगाथापयन्ते भवागरि सफासरानी - नि यदनिद्वारं तत्रार्थतोऽभिधास्य इत्यर्थः । यदि यानियुक्त्यनुगमभेदरूपायामेव सूत्रस्पर्शिक निर्युक्तो वक्ष्य इति । (२२) अाक्षेपपरिहारौ प्राह
6
इह जइ कीस निरुत्ते, तत्थ व भणियमिह भलए कीस ? | निक्सेनमिषमिई तस्स निरुती वक्खाणं ||६६३।।
"
"
-
सामाइय
"
आह- यद्यत्रापीदं चतुर्विधं विशेषनाम भणनीयत्वेनावसर प्राप्तम् तर्हि किमुच्यते-निरुक्त्यादौ वच्ये १ । अथ तकिमर्थमुच्यते । अत्रोत्तरमाह-निवे ' त्यादि, इह नामादिनिक्षेपमात्रस्यैव भणनावसरः, स च नामादिचातुर्विध्यभणनादुक्त एव, निरुक्तौ तु तदर्थों निरूपयिष्यत इत्यदोषः ।
पुनरप्यन्यथाऽऽक्षिष्य परिहरति
तो कीस पुणो सुत्ते, सुत्तालाबो तथ्थो न तनामं । इह उद्य नामं नत्थं तं पक्खायं निरुतीए ॥ ६६४॥
हन्त ! यदि निरुको सामायिकं व्याख्यायते, तर्हि 'करोमि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यादि किमिति पुनरपि सूत्रे व्याक्यायते । नैवम् यतः-- सूत्रालापक एम तकोसी व्याख्यायते न पुनस्तन्नाम व्याख्यानम् इद्द पुनर्नामादिभेदैः सामायिकनाम न्यस्तम् तच्च निरुक्तौ व्याख्यातम् इति विषयविभागात् सर्व सुस्थमिति ।
"
,
9
पुनः मुस्याप्य परिहरति
इह पुरा कीस न भाइ, जं निक्खेवो इमो स निज्जुती । निज्जुसी बक्खा, निक्खेवो नासमेतं तु ॥ ६६५।।
,
विडेव निलेपद्वारे किमिति न भयतेन व्याक्पायनेसामायिकम् पेन निरु व्याख्यायते । अत्रोच्यते-यदयस्मादसी निशेष प्रस्तुतः, तत्र च प्रस्तुते व्याक्यानस्प कोsवसरः । स निज्जुत्ति' ति-सा पुनर्वक्ष्यमाणा निर्युक्तिरुपात निरपत्या निर्बुक्तिपदि नाम सा निर्युि तथापि तत्र व्यास्थानस्य किमायातम् इत्याह-निसिय दवाएं ति-निर्युक्रिनुगमभेदत्वाद् उपास्यानामिव भवति अतो युक्तं तस्यां व्याख्यानम् । निक्षेपोऽपि तर्हि व्याख्यानरूपो भविष्यति, इत्याह- 'निक्खेवो नासमेत्तं तु 'त्तिनिरोपस्तु नामादिन्यासमात्रात्मक एवं वर्तते नतु प्या क्यानरूपः, अनुगमस्थैव तपत्यात्। अतः कोऽत्र निक्षे व्याख्यानावसरः ? इति ।
पुनरपि परमतमाशङ्कय प्रतिविधातुमाहन निज्जुति गमे, भणिया एसा वि नासनिज्जुनी । सच्चमियं निज्जुती, इयं तु निक्खेव मित्तस्स ||६६६ ॥ मनु यदि निर्बुकाचेव उपाख्यानमिष्यते भवद्भित्रापि ब्रूमो वयं वदुत - एषाऽपि निर्युक्तधनुगमे न्यासनिक्रिर्मणिता, अयमपीह प्रस्तुतो निक्षेपो चश्मा नि युपगमे निक्षेपनि क्लित्वेन भविष्यत इत्यर्थः भवति श्रनुगमो द्विविधो वक्ष्यते, तद्यथा- सूत्रानुगमः, नि.
पनुगमय । निर्युधनुगम स्त्रिविधो ऽभिधास्यते निशेषनिर्युधनुगमः, उपोद्घातनिर्युक्तधनुगमः, सूत्र स्पर्शिकनिर्युरूपनुगमधेति यथासे किं तं निनिगमे । निक्खेनिज्जुत्तिश्रणुगमे अणुगर, वक्खमाणे य" । एतदपि वक्ष्यते । तत्रायमर्थः अत्रैव प्रामावश्यकलामाविका दिपदानां नाम स्थापनादिनिपद्वारेण यद् व्याख्यानं - तम तेन निक्षेपनिर्युपगमो ऽनुगतः प्रोक्रो इष्टव्यः सूत्रालापकानां निवेदयते तदेव ऽपि निक्षेप निरोपनिकित्येनानुगमे मामाप्ररूप्यमाणेऽभिधा
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(७० ) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय स्यते । अतः किमुच्यते-'नेह व्याख्यानम् ' किन्तु-निरु- पमात्रसाम्यात् नवरं-केवलं दीत एघाऽयमत्र , न तूपकावव इति ? । तदेवमतिनिपुणं परस्य प्रर्यमवलोक्याऽभ्यु- न्यस्यते , ग्रन्थगौरवभयात् । इति । विशः। पगमपूर्वकमुत्तरमाह-' सच्च' मित्यादि, 'सत्यम् ' इय
(२४) चतुर्विधस्य सामायिकस्य क्रिया-कारकभेदपमपि प्रस्तुतनिक्षेपलक्षणा मियुक्तिः, किन्त्वियं निक्षेपमात्रस्य
र्यायैः शब्दार्थकथनं निर्वचनं निरुक्तिः । तत्र सम्यक्त्वमामस्थापनादिनिक्षपस्वरूपनिरूपणायैव, न विशेषार्थस्येत्य
सामायिकनिरुक्तिमभिधित्सुराहर्थः; निरुक्तौ तु "सम्मद्दिाअमोहो, सोही सम्भावदसणं बोही" इत्यादिना ग्रन्थेन शब्दार्थादिविचारः करिष्यत इति
सम्मद्दिवि अमोहो, सोही सम्भावदंसणं चोही। भावः।
अविवजो सुदिट्ठी, एवमाई निरुत्ताई ।। २७८४ ॥ अथवा-किममेन बहुना प्रोक्लेन ? , अतिगहनं प्रकरणमि- सम्यग् इति-प्रशंसार्थः, दर्शनं दृष्टिः, सम्यग्-अविपदम् , अतः संक्षिप्य विशेषविषयविभागतात्पर्यमुच्यते, त- रीता दृष्टिः सम्यग्दृष्टिः अर्थानाम्-इति गम्यते । मोहनं था चाह
मोहो वितथग्राहः, न मोहः अमोहः-अवितथनाहः । शोनिक्खेवे मित्तमिह वा, अत्थवियारो य नासजुत्तीए।।
धनं शुद्धिर्मिथ्यात्वमलापगमात् सम्यक्त्वं शुद्धिरुच्यते ।
सत्-जिनाभिहितं प्रवचनम् , तस्य भावः सद्भावः, तसद्दगो य निरुते, सुत्तप्फासम्मि सुत्तगो।। ६६७ ॥
स्य दर्शनम्-उपलम्भः, सद्भावदर्शनम् । बोधनं बाधिरिस्यीअथवा-इह निक्षेपद्वारे सामायिकस्य नामादिनिक्षेपमा- पादिक इन परमार्थबोधः । अतस्मिस्तदध्यवसायो विपप्रमेवाच्यते , तदर्थनिरूपणमात्रमेव च निक्षेपनियुक्तौ नि- र्ययो न विपर्ययोऽविपर्ययस्तत्वाध्यवसाय इत्यर्थः । सुशदिश्यते । नैरुक्तस्तु शब्दगतो विचार उपोद्घातनिर्युक्त्यन्त- ब्दः प्रशंसायाम् , शोभना दृष्टिः सुदृष्टिः । इत्येवमादानि गते नियुक्तिद्वारे- सम्मदिट्ठि अमोहो ' इत्यादिना ग्रन्थेन । सम्यग्दर्शनस्य निरुक्तानीति। शब्दार्थविचारः करिष्यत इत्यर्थः । सूत्रस्पर्श तु सूत्रगती (२५) श्रुतसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनायाहविचारः सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्तौ सूत्रालापद्वाराऽऽयातस्य सा- अक्खर सन्त्री सम्म, साईयं खलु सपञ्जवसियं च । मायिकस्यार्थविचारः क्रियते , न तु सामायिकनान इत्य
गमियं अंगपविट्ठ, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥२७८५॥ र्थः । एवं विषयविभागेनाऽवस्थानात् सर्व समञ्जसमिति ।
इयं च पीठे व्याख्यातत्वाद् न विवियते । तदेवमभिहितो नामनिष्पन्नोऽपि निक्षेपः ।
देशविरतिसामायिकनिरुक्तिमाह(२३) अथ सूत्रालापकनिक्षेपस्यावसरः , तत्राह
विरयाविरई संबुड-मसंबुडे बालपंडिए चेव । जो सुत्तपयनासो, सो सुत्तालावयाण निक्खेवो ।
देसिक्कदेसविरई, अणुधम्मोऽगारधम्मो य ॥२७८६।। इह पत्तलक्षणो सो,निक्खिप्पइ न पुण किं कजं ।६६८। विरमण विरतम् , न विरतिरविरतिः, विरतं चाविरसुत्तं चेव न पावइ, इह सुत्तालावयाण कोऽवसरो। । तिश्च यस्यां निवृत्तौ सा विरताविरतिः । संवृतासंवृताःसुत्ताणुगमे काहिइ, तमासं लाघवनिमित्तं ॥ ६६६ ॥
स्थगितास्थगिताः परित्यक्तापरित्यक्ताः सावधयोगा यस्मि
न सामायिके तत् संवृताऽसंवृतम् । एवमुभयव्यवहारानु'करेमि भन्ते ! सामाइयं' इत्यादिसूत्रपदानां यो नाम
गतत्वाद् बालपण्डितम् । देशः प्राणातिपातादिः, एकदेस्थापनादिरूपेण न्यासः , स सूत्रालापकनिक्षेपः । स चेह
शस्तु वृक्षच्छेदनादिस्तयोर्विरमण-विरतिर्यस्यां निवृत्ती सा प्राप्तलक्षणः-प्राप्तावसर एव , न पुनर्निक्षिप्यते-न पुनः सू
देशैकदेशविरतिः । बृहत्साधुधर्मापक्षयाऽणुः-अल्पो धर्मो:पालापकः, इदानीमेव निक्षिप्यत इति भावः। किं कार्य
णुधर्मो देशविरतिलक्षणः । न गच्छन्तीत्यगा-वृक्षास्तैः कृकस्माद्धेतोः१, इत्याह-सूत्रमेव तावदिदानी न प्राप्नोति , अ
तमगारं-गृहम् , तद्योगादगारो गृहस्थस्तद्धर्मश्चति । तः सूत्रालापकानामिह निक्षपे कर्तव्ये काऽवसरः? । इद
(२६) सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिमुपदर्शयन्नाहमुक्तं भवति-सूत्रानुगम एव सूत्रमुच्चारयितव्यम् उच्चारिते च सूत्रे तदालापकविभागः, सदविभागे च तन्निने
सामाइयं समइयं, सम्मावाश्रो समाससंखेवो । पः । अतः सूत्राभावात् कः सूत्रालापकानामिह निक्षेपेऽव प्रणवजं च परित्रा, पञ्चक्खाणं च ते अट्ठा ।। २७८७॥ चसरः । तर्हि कदा तनिक्षेपो विधेयः ?, इत्याह-सूत्रानु
समा राग-द्वेषरहितत्वाद् मध्यस्थः, अयनमयो गमनगमे प्राप्त करिष्यति लाघवार्थ सूरिस्तविक्षपमिति । मित्यर्थः समस्यायः समायः स एव सायायिकमेकान्तअथ पूर्वापरासंबद्धतामाशङ्कय परिहरति
प्रशमगमनमित्यर्थः । सामायिकमिति-'सम्' इति सम्यइह जइ पत्तो वि तो, न नस्सए कीस भष्मए इहई।
शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः, सम्यग् दयापूर्व
कं जीवेषु विषये गमनं , प्रवर्तनमित्यर्थः, समयोऽस्यादाइजइ सो निक्खे-वमेत्तसाममओ नवरं ॥ ७० ॥
स्तीति सामयिकम् । 'सम्मावाउ' त्ति-सम्यगशब्देनेह रानन्विह प्राप्तावसरोऽपि यदि तकोऽसौ सूत्रालापान- गद्वेषविरह उच्यते , तेन तत्प्रधानो वादो वदनं सम्यक्षेपा न न्यस्यते-न विधीयते, तात्र किमर्थ भण्यते- सू- ग्वादा रागादिविरहेण यथावद् वदनमित्यर्थः। 'समास' त्रालापकनिक्षेपश्च इत्येवं निक्षेपतृतीयभेदत्वेन किमर्थमि- त्ति-संशब्दः प्रशंसायाम् , असु क्षपणे , शोभनमसनं होपन्यस्यते ?, अनुगमेऽपि किमिति न भण्यते ? इति भा-| संसाराद् बहिर्जीवस्य जीवात् कर्मणो वा क्षेपणं समासः । वः । सत्यम् , किन्त्वोघनिष्पन्नादिना निक्षपेण सह निक्षे- अथवा,-संशब्दः सम्यगर्थः, सम्यगासः समासः । रागद्वे
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(७१०) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
मामाहय परहिस्य समस्य वा आसः समासः। 'संखवो' ति- अथवा-मम्यगर्थसंशब्दपूर्वका
सम्यन अयनसंक्षेपणं संक्षेपः सामायिकमुच्यते, महार्थस्थापि स्तोका- वर्तनं समयः, समय एवं स्वार्थिक स्यावादामा-- क्षरत्वादस्यति । 'धारावजं 'ति-अवध-पापं नास्मिन्नव- भयत्र वृद्धिभावाच सामायिकम् । अवधासम्यगाया-लाघमस्तीत्यनवयं सामायिकम् । 'परिगण' त्ति-परितः- भः समायः, स एव सामायिकम् ! अथवा-समस्य भावः समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिशा सामायिकम् । 'पञ्च- साम्यम् , साम्यस्यायो निपातनात् सामाया, स एव साकखाण' ति-प्रति हरणीयं वस्त धाख्यानं गुरुसाक्षिकं नि मायिकमिति। वृत्तिकथनं प्रत्याख्यानम् । एतौ सामायिकपर्यायाः। इति
সুখ-দ্যযথা নিন্ধবিঘিাস বাঃनियुक्तिगाथाचतुझ्यार्थः । विश० । 'सामाहयं समइयं' इत्यादिचारित्रनिकनेस्तु व्याख्यान- ।
अहवा निरुत्तविहिणा, सामं सम्म समं च जं तस्य । सातादवाह----
इकमप्पए पवसण-मेयं सामाइयं नये ॥ ३४८३ ।। राग-द्दोसविरहितो,समो नि अयणं अओत्ति गमण ति। अथवा-निरुतविधिना बहुब्युत्पत्तिकमतत् सामायिकं नेसमयागमो समाओ, स एव मागाइयं होइ ।। २७६२ ।।
यं ज्ञातव्यमिति कथम् ? इति । अत्राच्यते-इशब्दा दसम्ममा समउनि य, सम्मंगमग ति सव्यभूम।
शीपचनः क्यापि प्रवेशार्थे भने । मान्मापमया परपां दः--
खस्याकरण सामन गुन तस्य मा दागिर सो जस्स तं समइयं,जम्मि य गोवणारेगा ।। २७६३ ॥
शनम नकारस्थायादशनिपातनात्, तर सामायि :रागाइरहो सम्म, वयणं वाओऽभिहाण मुतिति । था-सम्यग्दर्शनशानचारित्रत्रयस्य परस्परं योजनं समचरागाइरहियवाओ , सम्मावाओ त्ति सामइयं ।।२७६.४॥
गिहोस्यत,निर्वाणसाधकवन तद्योगस्यैव परमार्थनः सम्य.
ग्रूपत्वात् , तस्य सस्वग्दर्शनादिरूपस्य सम्यग्-इत्येतस्यअप्पक्खरं समासो, अहवाऽऽसोऽसण महासणं सव्वा ।
त्मनि यत् एक-प्रयेशनम् यकारादेरयादेशनिपातने सकारसम्मं समस्म वासो, होइ समासो ति सामइयं ।२७६५॥ स्य च दीर्घवे, तत् सामायिकम् । तथा--रागद्वेषमाध्य संखिवणं संखेवा, मोजं थोवस्वरं महत्थं च ।
स्थ्यमात्मनः सर्वत्र तुल्यरूपेण वर्तनं सममुच्यते, तस्य ससामइयं संखवो,चोद्दमपुचथपिंडो ति ।। २७६,५।
मस्यात्मनि यत् इक-प्रयशनम् , समराब्दादयागम सकार
स्थानीय तत् सामायिकमिति ! स्थिर समय पावमवजं सामा-इयं अपावं ति नो सदणवजं।
प्रयास । श्रा० मा चु (नामयिकासंग तयार पावमणं ति न जम्हा,वजिजइ तेण तदसेस ।। २७६।।
संजया 'शुलिनन मानसा स . पावपरिचायत्थं,परितो नाणं मया परिएण ति। पइवत्थुमिहक्खाणं,पचक्खाणं निवित्तिति ।। २७६८।। 'साम' शुदमिर मारन ) कर विश०।
सामाभिकानि मनुस्यादयः प्रतिपय इति मो . २० " रागद्दोमविरहिनो,समो त्ति अयणं अोति गमणं ति। समगमणं ति समाओ, स एव मामाइयं नाम ॥३३७७।। अहवा भवं समाए, निन्चत्तं तेगा तम्मयं वा वि। जं तप्पोयणं वा तेशाचसासादयं जग।।१७८ लिदा किसानलमाधार र गाहे अहवा समाइँ सम्म-न नाण चरणाई तमु तेहिं वा ।।
नामागका सपना देश:
वाचायः समायः सव सामान्यकामांत पवमम्यवार अयणं अग्रो समाओ, स एव सामाइयं नाम । ३४७६ ।।
भावना कायति कृतं प्रसङ्गेन । अहवा समस्स आओ,गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो।।
साम्प्रतं सामाचिकपर्यायदान पत्रिकामा --- हवा मामाचा जयामास 32-॥
माया सम्मन म--स्थ सेति सविदामहं श्रमिक प्रागपि लियाहार प्रायश्चरितार्थाः, सुगमाश्चति । अथवा-अन्यथा व्युत्पशिरिस्याह
अदुगुंछिअमगरिदि,अणवजमिमेऽवि एगट्ठा।।१०३३। अहवा मा मिति, तत्व शो तेग होइ सामाश्रो ।
व्याख्या-निगदसिव । श्राह-अस्य निरुलावेच 'सामा.
इयं समय 'मित्यादिना पर्यायशब्दाः प्रतिपादिता पवनअहवा गाममाओ, लामो सामाइयं नाम ॥ ३४८१॥
त् पुनः किमर्थमभिधानमिति ? , उच्यते-तत्र पर्यायशष्टदसम्ममओ वा समग्रो , सामाइयमुभयविद्धि भावायो।। मात्रता, इद्द तु वाक्यान्तरणार्थनिरूपणमिति , एवं प्रतिअहवा सम्मस्साओ, लाभो सामाइयं होइ ।। ३४८२।। शब्दमर्थाभेदतोऽनन्ता गमा अनन्ताः पर्याया इति नैकअथवा-सर्वविषु मैत्री-साम भरायते , तत्र साम्नि श्र- स्य सूत्रस्येति ज्ञापितं भवति, अथवाऽसम्मोहाथै पत्रालायो-गमनम् साम्ना वाऽयो गमनं-वर्तन सामायः । अथवा- वयभिधानमदुष्टमेव इत्यत एवोक्तम्-'इमवि एगट्ट' त्ति साम्न श्रायो-लाभः सामायः स एव सामायिकं नामति ।। एतेऽपि तेऽपीत्यमोषः।
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सामाइय अभिधानहराजेन्द्र:।
सामााप (नामनिष्पन्नसामायिकस्य चातुर्विष्यम् ' हिकावेव' शब्द| विषया व जीवस्य , मम्तस्य तेऽत्या । चतुर्थभागे २०२७ पृष्ठे गतम् ।)
खोऽन्यवागावाजपके, जरासंधाय सविधी ॥५॥
पायस्वासोऽथ सादे, सुमधुपुपुयुक्तथा। (२७) चतुर्विधं सानायिका
राजनीतिरिय राहा, बलपापलबलम् ॥॥ णामठवणाओ पुष्वं भगिनाओ। दव्वसामाइए वि तवाकार्य ससंतभा, सबौधिक मामला। तहब, जाव से तं भविग्रसरीरदच्चसामाए ।से कितं | दमदाता क्षताराति दलिता समागमत् ॥७॥" जाणयसरीरभविश्नसरीरवइरित्ते दष्वसामाइए ! , जाणय-|
भाकपा । (शेकापचा 'समर' -
अमिव भागे मला।) सरीरभविश्नसरीरवहरिते दध्वसामाइए पनेषपोरथपलिहि
पुना सामाविकायव सभापमिकपणाचारयं । से तं जाणयसरीरभविग्रसरीश्वइरित्ते दश्वसामाहा ।|
समभावो सामाय, सणाचणसमित्नपिस लि तं णोआगममो दब्वसामाइए । से तं दख्वसामाहए ।
गिरभिसंग चिन, उधिषपविनिष्पहाणे॥४॥ से कितं भावसामाइए, भावसामाइए हि पाहते,
सम्भाचो मध्यावाश्यवसाय । सामायिनमुनियमजहा-आगमयो अनोखागमओ असे कितं मागमत्रो वति । किविषयातली बमभाव यारणमा मतीने भावसामाइए ?, आगमयो भावसामाइए , जाणाए इयोपादेव जीया सवयोवापावावेतमपलपलक्षणउवउत्ते । से तं मागममो भावसामाप : से कि
ते । शत्रुमिव च मनीष पवामीतिमीनिमियाचना
चम्यैवभूलवशमलक्षणले विषमा गोचरी पक्ष्यातीणतं नोआगमनओ भावसामाइर ? , नोग्राममनो भावसा
काश्चनयमित्रविषमः । निर्वाश्यानमाली बिमभर. माइए "जस्स सामाणियो अप्पा,संजमे शियमे तसे | तहस लि-मिरभिस्वरागडेपलक्षणाभिमयावर्जित विस मना सामाइ होइइइ केवलिभासिञ्चाशाजो समो सञ्चभपण, सामामि भवतीनि मनम् । विभमे सिलामातसेमुं थावरेसु अ । तस्स सामाइप होइ, बावलिभाविष
विकमिति मन्यमाना वाघमनिमकिश्चिम्मरीचिम्फरप
ग्नि, अनधिवक्षणार्थमाह-वधिसमरसिमधासोपा. ॥२॥" (अनु०) से तं नोमागमयो भावसामाइए । से
सारा मिनिम्न हिचिन बनि माय अधिषतिजी. भावसामाइए । (सू०-१५४+)
बने, खामियाविनकार्यमाडायलोचितमाता। 'जस्स सामागिनो अम्मा' इत्याकि, यस्य सवाम लामा
चोकमानेन 'बीजसमा परोपकारमसिलमभाषेलामानिका-सचिहित भात्मा सर्वकाल व्यापारात् क-संयो
यिक वाचतेति । बया बहुमाया तिमाधा मूलगुणक, जियम-उत्तरमुग्णसहायके सपनि-मन
पश्चा५ विक नादौ तस्येत्थंभूतस्य सामायिक भवनीयताकेलिभाषि
(२) विविध सामायिकमतमिति मोकार्थः । जो समो' इत्यादि का समा सर्वत्र मैत्री- सामाषचरिनगुणापमाणे दुथिो पक्षसे, जा-त. भावाल्यः सर्वभूतेषु-सर्व जीवेषु वनेषु सावरेषु च सैन् रिए ब, भावकाहिए (पू. १९७४) स्य सामायिक भवतीत्येतदति केवलिभावि, जीवेषु च | सामायिक पूर्वालमार्च तच्च स्वर, सावकाधिक। समत्वं संयमखानिध्यपनियावनात्यूर्वश्चापि जयते किं तवरम माविषयपदेशाम्तस्वात्म्यापकालम्साचाच तु जीवदयामूलत्वाचनस्य समाधान्यमापनाम पृथगुपात चरमतीर्थकरकानमारच यावरचापि बाबतानि नारायदानमित्ति । ( अनु० ) इह च बातक्रियारूप ने नाचविचण्यम्य भवति, भास्मनासधा पापरास्ते तर सामायिकाश्ययन नोनाममनो भावनामायिकं भवत्येव, पाचकर्थन्याचलीवमित्या, मावास्यमेव पावरधिकम् । ज्ञानकियासमुदाये आममस्यैकदेशसित्वात् ,नोशाब
एसन भरनेसवतेचायचरमजमध्यमतीर्थकरताना मस्य च देशवचनत्वाद् , एवं च सति सामायिन हावितवीर्थकस्पनीमा व बभवति । प्रा. । । कवतः साधोरपीह नोचाममतो भावसामायिकत्वे
मासुपस्थापनामा समावन् । पश्चापिका नोपन्यासो नविरुध्यते, सामाविकतालोरमेनोवचाराविति
विविध सामायिकम्भावः । नामनिष्पको विशेष समासः ।
इचिवामाइए, पपणाचे, जहा-प्रगारसामाए मेष, (२) इदाहरणानि । सामाचिके ताया
अमगारखामाइए चेव । (०८५४) "इहास्ति भरनक्षेत्र , नगर स्तिशीर्मकम् ।
'बुषिो' सावि जमानाबानाचीनामापी-लाभासमाचा सुवृत्तरत्रमुक्रोध , हस्तिशीविवोषतम् ॥ १॥
स एव सामाधिकमिनिसार विविधम्-मगारवरमगारखायमदन्तः प्रभुस्तत्र , धरित्रीधवषुवः।
मिवार वेचवर्चविरतीय स्वावा. कः सौन्दर्याच शौर्याच, विधमाधवर्णहत् ॥१॥
(३) सामयिकश्योरेशादीनि द्वाराणि काव्यानिसमोपोइनः पुरै मजकुरं, यद्रष्टा मन्यते जनः ।
बासवर्शनाचासाशासम वार्य , कावास्याभिधायिनी ॥२॥
जसे १ निदेसे २, राज्यं युधिचिरस्तव, विधले शवदिषि। चतुर्मिान्धवोक-पारिव पुरस्कृतः ॥ ॥
निगम ३ खिचे ४ साल पुरिसे ।
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(७१२) सामाइय अभिधानराजेन्द्र।
घामाइय कारण ७ पच्चय ८ लक्खण ६,
कश्चिदाह-पूर्वमध्ययन सामायिकं तस्यानुवारचतुष्ट
यमुपन्यस्तम् , अतस्तदुपन्यास एव उहेशभिर्येशायुक्ती , तनए १. समोश्रारणा ११ ऽणुमए १२ ॥ ४०॥
थौघनामनिष्पन्नापद्वये च , अतः पुनरसयोरभिधानमकिं १३ कइविहँ १४ कस्स १५ कहिं, १६, युक्तमिति । अत्रांच्यते-तत्र हि अत्र द्वारा:मोक्कयोरनागतकेसु १७ कहं १८ केच्चिरं १६ हवइ कालं । ग्रहणं द्रष्टव्यम् , अन्यथा तग्रहणमन्तरेण द्वारोपण्यासा
दय एव न स्युः। अथवा-द्वारोपन्यासादिविहितयोस्तकइ २० संतर २१ मविरहिअं २२,
त्राभिधानमात्रमिह त्वर्थानुगमद्वाराधिकारे विधानतो लभवा२३ऽऽगरिस२४फासण२५निरुत्ती२६ ॥१४१॥
क्षणतश्च व्याख्या क्रियत इति । आह-यद्येवं निर्गमो न उद्देशो वक्तव्यः, एवं सर्वेषु क्रिया योज्या। उद्देशनमुद्देशः- वक्तव्यः, तस्यागमद्वार एवाभिहितत्वात् , तथा च 'श्रासामान्याभिधानमध्ययनमिति निर्देशनं निर्देशः-विशेषाभि- स्मागम' इत्याधुक्तम्, ततश्च तीर्थकरगणधरेभ्य एष निधानं सामायिकमिति २॥ तथा निर्गमनं निर्गमः ३ । कुतोऽस्य गतमिति गम्यते इति । उच्यते-सत्यं किं तु इह तीर्थनिर्गमनमिति वाच्यम् , क्षेत्रं वक्तव्यम् कस्मिन् क्षेत्रे?४। का- करगणघराणामेव निर्गमोऽभिधीयते , कोऽसौ तीर्थकरो लो वक्तव्यः कस्मिन् काले ? ५। पुरुषश्च वक्तव्यः कुतः पु- गणधराश्चेति वक्ष्यते-वर्धमानो गौतमादयश्चेति । यथा च रुषात् १६। कारणं वक्तव्यं किं कारणं गौतमादयः शृ- तेभ्यो निर्गतं तथा क्षेत्रकालपुरुषकारणप्रविशिष्टमित्यएवन्ति १७॥ तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः स च वक्तव्यः, केन तोऽदोष इति । श्राह-यद्येव लहर में धनव्यम् उपप्रत्ययेन भगवतदमुपदिष्टम्को वा गणधाराणां श्रवण इति। कम एव नामद्वारे क्षायोपशमिकभावे.तारितत्वात् , प्रतथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि तथा नया-नैगमादयः १०॥ माणद्वारे च जीवगुणप्रमाणे आगमे इति । उच्यते-तत्र नितथा तेषामेव समवतरणं वक्तव्यं यत्र संभवति, वक्ष्यति देशमात्रत्वात् , इह तु प्रपश्चतोऽभिधानाददोषः। अथवाच-'मूढणइयं सुयं कालियं तु' इत्यादि ११ । अनुमतम् इति- तत्र श्रतसामायिकस्यैवोक्तम् , इह तु चतुर्णामपि लक्षणाकस्य व्यवहारादेः किमनुमतं-सामायिकामांत , वक्ष्यति- भिधानादंदोषः। श्राह-नयाः प्रमाणद्वार एवोक्ताः कि'तवसंजमो अणुमो' इत्यादि १२ । क समायिकम् ? 'जीवो मिहोच्यन्ते, स्वस्थामे व मूलद्वारे वक्ष्यमाणा एवेति । उ. गुणपडिवो' इत्यादि वक्ष्यति १३ । कतिविध सामायिकम् | च्यते-प्रमाणद्वारोक्का एपेह व्याख्यायन्ते । अथवा-प्र'सामाइयं च तिविहं, सम्मत्तसुयं तहा चरित्त च ' - माणद्वाराधिकारात्तत्र प्रमालभाषमात्रमुक्तम् इह तु स्वस्यादि प्रतिपादयिष्यते १४ । कस्य सामायिकमिति, वक्ष्यति रूपायधारणमवतारो बारभ्यते, एते च सर्व एव सा'जस्स सामाणिो अप्पा' इत्यादि १५ । क सामायिकम्, क्षे. माथिकसमुदायाथमात्रविषयाः प्रमाणोक्ता उपोद्घातोक्लाश्च पादाविति, वयति-खेत्तकालदिसिगतिमविय' इत्यादि १६। नयाः सूत्रविनियोगिनः, मूलद्वारोपंन्यस्तनयास्तु सूत्रव्याकषु सामायिकमिति , सर्वद्रव्येषु वक्ष्यति- सव्वगतं स- ख्योपयोगिम एवेति । श्राह-प्रमाणद्वारे जीवगुणः साम्मत्तं सुए चरित्तण पज्जवा सब्बे' इत्यादि १७। कथमवा- मायिकशानं चेति प्रतिपादितमेव, तत्तश्च किं सामायिप्यते !, वयति-'माणुस्सखित्तजाई' इत्यादि १८। कियश्चिरं कमित्याशङ्कानुपपत्तिः । उच्यते-जीधगुणत्वे शानत्वे च भवति ? कालमिति , वक्ष्यति- सम्मत्तस्स सुयस्स य, सत्यपि किं तज्जीव एव आहोस्विद् जीवाददिति सेछावट्ठी सागरोबमाइ ठिती' इत्यादि १६ कति इति कियन्तः शयः तदुच्छित्त्यर्थभुपन्यासाददोषः । पाह-नामद्वारे क्षाप्रतिपद्यन्ते ? पूर्वप्रतिपन्ना वेति वक्तव्यम् , पक्ष्यति च-'स- योपशमिकं सामाायेकमुक्तं तत्तदाबरणक्षयोपशमालभ्यत म्मत्तदेसविरया, पलियम्स असंखभागमित्ता-उ' इत्यादि २०।
इति गम्यत एव, अतः कथं लभ्यत इत्यतिरिच्यते, ग, सान्तरम् इति सह अन्तरेण वर्तत इति सान्तरम् किं
क्षयोपशमलाभस्यैवेह शेषाङ्गलाभचिन्तनादिति । एवं यदुपसान्तरं, निरन्तरं वा?, यदि सान्तरं किमन्तरं भवति ?, क्रमनिक्षेपद्वारद्वयाभिहितभपि पुनः प्रतिपादयति अनुवक्ष्यति-कालमणतं च सुते, श्रद्धापरिपट्टगो य देसूणो।' गमद्वारावसरे तवशेष,निर्दिष्टनिक्षिप्तप्रपञ्चव्याख्यानार्थमिति। इत्यादि २१ । अविरांहतम् इति अविरहितं कियन्तं कालं बाह-उपक्रमः प्रायः शाखसमुस्थानार्थ उक्तः, अयमप्युपोप्रतिपद्यन्त इति , वक्ष्यति- सुतसम्म अगारीणं, श्रावलिया द्वातःशास्त्रसमुद्धातप्रयोजन एवेति कोऽनयो दः?, उच्यतेसंखभाग' इत्यादि २२ । तथा भवा-इति कियतो भवानु- उपक्रमा छुद्देशमात्रनियतः,तदुहिश्वस्तुप्रयाधनफलस्तु प्रायस्कृष्टतः खल्ववाप्यन्ते ' सम्मत्तदेसविरता, पलियस्स अ- णोपोशातः अर्थानुगमत्वात् इत्यल विस्तरेण प्रकृतमुच्यते। संखभागमित्ता उ । अट्ठ भवा उ चरित्ते' इत्यादि २३ । तत्रोद्देशद्वारावयषार्थप्रतिपादनायेदमाहभाकर्षणमाकर्षः . एकानेकभवेषु ग्रहणानीति भावार्थः
नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले समासे उद्देसे । 'तियह सहस्सपुत्तं , सयपुहत्तं च होति विर्सए । एगभवे आगरिसा' इत्यादि, २४॥ स्पर्शना वक्तव्या, कियत्क्षे.
उद्देसुद्देसम्मि अ, भावम्मि भ होइ अट्ठमओ ॥१४२॥ सामायिकवन्तः स्पृशन्तीति, वक्ष्यति-'सम्मत्तचरणसहि- तत्र नामोद्देशः-यस्य जीवादेरुदेश इति नाम क्रियते, नाम्नो श्रा, सव्वं लागं फुसे निरबसेसे।' इत्यादि २५ । निश्चिता उ. या उद्देशः भामोद्देशः। स्थापनोद्देशः स्थापनाभिधानम्। उद्देशक्निनिरुक्तिर्वक्रव्या-सम्मदिदि अमोहो, सोही सम्भावद- न्यासो वा द्रव्ये इति द्रव्यविषय उद्देशो द्रव्योद्देशः, स च प्रा. सण बाही।' इत्यादि, वक्ष्यति २६ । अयं तापदाथादयसमु- गमनोभागमशशरीरेतरव्यतिरिका द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये दायार्थः । अवयवार्थ प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः । अत्र वा उद्देशो द्रव्योद्देशः, द्रव्यस्य-द्रव्यमिमिति , द्रव्येण
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( ७१३ ) अभिमानराजेन्द्रः ।
सामाइय
सामाइय
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द्रव्यपतिरथमिति द्रव्ये सिंहासने राजा, चूते कोलिलः यनम, देश इत्यादि । तवेदं सामायिकाध्ययनं किलाभ्यगिरी मयूर इति एवं क्षेत्रवियोगोऽपि यः एवं कालविषयोऽपीति । 'समासः - संक्षेपस्तद्विषय उद्देशः समा सोद्देशः, स च अङ्गभूतस्कन्धाध्ययनेषु यः तत्र अ समासोदेशः - श्रङ्गम्, अङ्गी तदध्येता तदर्थ इत्येवमन्यत्रापि योजना कार्या । उद्देशः -- अध्ययनविशेषः तस्य उदेश उद्देशोद्देशः तद्विषय उद्देश इति स बोशोदेोऽ भिधीयते उद्देशयान् सध्येता तदर्थ येति । भावविषया भवति उद्देशः अष्टमक इति स चायं भावः भावी भावशो वात गाथार्थः । आव० २ अ० 1
(३१) उद्देशादीनि द्वाराणि । अथ प्रेरकः प्राहदारोवन्नासाइसु, निक्खेवे मोहनाम निष्कने ।
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उद्देसो निदेसो, भखिओ इद किं पुणग्गहसं ॥ ६७६ ॥ चाह - नन्वसावावश्यकशास्त्रस्य प्रथममध्ययनं सामायिकम् तस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, इत्यादिना द्वारोपन्या सादिषु प्रक्रमेषु यदि वा श्रधनिष्पद्यनामनिष्पनयोर्निप योः सामान्यनामरूप उद्देशः विशेषनामरूप निर्देशोनेकः प्रोक्लपचः किमर्थमिहापातनिर्युकी पुनरपि तयोहणम् ? इति ।
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अत्रोत्तरमाद
इह विहियाणमणाय - गहणं तत्थन्नहा कहं कुणउ । सिं गहणमका, दारासाइकलाई ।। ६७७ ॥
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इहोपोद्धा श्राद्यद्वारद्वय विहितयोरेवोद्देश- निर्देशयोस्तत्र द्वारोपन्यासादी शास्त्रकृताऽनायनमेव ग्रहणं कृतम् अ न्यथा हि तयोः सामान्यविशेषनामरूपयोरुद्देश निर्देशयोस्तत्र ग्रहणमकृत्वा कथं निराश्रयाणि द्वारोपन्यासादिका - र्याणि करोतु ? इति ।
अन्ये तु श्रुते । किम् ? इत्याहउ विसेसमि, भांति नोहेसबद्धमेयं ति । जाणावियमज्कयणं, समासदारावयारेणं ।। ६७६ ॥ अन्ये तु पूर्वविहितयोरपीड विशेषमाचक्षते मोदेशकबदमिदमध्ययनमित्येतापितं किल कुतः न्धाध्ययन समासद्वारावतारात् । इदमत्र हृदयम् - "नामं ठया दक्षिण से से काले समासे उसे । उद्देसुसम्मि
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यं भाषम्म य होइ अट्टम १" इति पुरस्तादिव मालगाथायामुद्देशो ऽष्टविधो ऽभिधास्यते तथा दमेव विदेस इत्यादिनाथायां निर्देशोऽपि चाष्टविध पदव ते । तत्र च समासद्वारे संक्षेपाभिधायकं नाम समासौड़े-श इति व्याख्यास्यते, तद्यथा-अङ्गम्, श्रुतस्कन्धः अध्य१७६
नौददेशो भवति न तुद्देशोद्देशः, उद्दशरहितत्वात् । एतच्च तत्र व्याख्यास्यते ।
ठ समासद्वारमायातम् । अनेन च समासद्वारेण विचार्यमादमध्ययनमुद्देशरहितमिति शापितम् । एतच्चेोद्देशनिर्देशाभयनेन निर्मूलस्य समासद्वारस्यैषाऽऽभावात् किल न ज्ञायेतेति ।
एतच्च यत्किञ्चिदेव इति दर्शयति-अंगाई पर काले, कालिय सुयमाणसमदयारे प । तमणुद्देसयबद्धं भणियं चिय इह किमन्महियं १ | ६८० | आवश्यकं किमङ्गम् अङ्गानि ? इत्यादि, प्रश्नकाल एव कालिक परिमाणसंख्यावतारे चाध्ययनसंख्यायतारात्, नोहेशकः नोद्देशकाः इति निषेधाच्च तत् सामाविकाध्ययनमुद्देशयं न भवतीति भणितमेव दकि मभ्यधिकमा ज्ञायते । तस्माद्यत्किञ्चिदेवेदम् । अत एतयोरिह भरानं व्याख्यानार्थमेवेति स्थितम् । तदेवं कृतोदेशनिर्देशविषया चालना, प्रत्यवस्थानं च ॥ अथ निर्गमनं निर्गमः । स च कुतः सामायिकम् निर्गतम् ? इत्येयंरूपो वक्ष्यते ।
परिहारमाद
प्रतिषिधानान्तरमाद
अहवा तत्थुद्देसो, निद्देसो वि य क इहं तेसिं । अथाऽणुगमावसरे, विहाणवस्त्राणमारद्धं ॥ ७८ ॥ अथवा तत्र द्वारोपन्यासादी सामान्यविशेषाभिधानरूप उद्देशो निर्देशध कृत इत्युपगमच्छामः केवलमिहार्थानुमहावीरती चकरादेतत् सामायिकमर्थतो निर्गतम् सूत्रमाचसरेऽर्थव्याख्याप्रस्तावे तयोः पूर्वविहितयोरुद्देशनिर्देशयोर्विधानतो भेदतो व्याख्यानमारब्धमित्यदोष इति ।
इह तेर्सि चिय भएाह, निदेसो निग्गमो जहा तं च । उन बातं तेहितो, खेताहविसेसि बहुहा ।। ६८२ ॥ तेषामेव तीर्थकदानां सामान्पोदेशमा प्रागयगतानामिह विशेषाभिधानरूप निर्देशो भएयते यथा श्रीमन्म
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स्तु गौतमादिगणधरेभ्यो निर्गतम्, तथा निर्गमश्चेद्द मिथ्यात्यारित्यादितमसस्तेषां तीर्थकरादीनामत्रोच्यतेअवरविदेहे गामस्स चिंतन' इत्यादिना प्रन्थेन । तथा, तच्च सामायिक बहुधा अनेक क्षेत्रकालपुरुषकारप्रत्ययविशेषितं तेभ्यस्तीर्थकरादिभ्यो यथोपयातमागतम् तकवेद्द भण्यत इति विशेषः ।
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(३२) अशेषपरिहारी ग्राह
न निग्गमो गउ श्चिय, अत्ताणंतरपंरपरागमयो । तित्ववराईहिंतो, आगयमेवं परंपरा ।। ६८१ ॥ मनु पर्वमागमद्वार एवात्मानन्तररंगगमतस्तीर्थकरादिभ्यः परम्परया समागतमेतत् सामायिकमित्यभि-धानात् तीर्थंकरादिभ्यो निर्गमनमस्य इत्यवगतत्वाद् ग वार्थ एव निर्मम किं पुनरिहोपात ? इति ।
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अथ लक्षणद्वारविषयमाक्षेपमाहअज्झयगलक्खणं नणु, खश्रोत्रसमियं गुणप्पमाणे वा । नायागमाइगहणे, भणिवं किमिदं पुणो गहणं ॥ ६८३ ॥ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्, तच्च - 'सहहण जाणणा खलु ' इत्यादिना सामायिकस्य सावद्ययोगवित्यादिकं पश्यति । অঙ্গ परः प्रेरयति - नन्वध्ययनस्याऽस्य क्षायोपशमिको भावो लक्षणम्, इति प्रागुपक्रमभेदरूपे षड् नाम्नि क्षायोपरामिके भावे समयतारादर्थापत्या भणितमेच अथवा
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( ७१४) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय 'गुगाप्रभागे। शानमिदम् ,तप्राध्यागमः' इत्याभिधानादिदं च नयाः सामायिकसमुदायार्थमाने व्याप्रियते ,जन सू.. दक्षायापशमिकभावरूप लक्षणमर्थापत्याभिहितमेव, श्रा- प्रार्थविनियोगिनः । वक्ष्यमाणास्तु मूलद्वारजयाः प्रतिपदं सः गमस्य क्षायोपशमिकभावलक्षणत्वात् ; किमिहानुगमे लक्ष- त्रार्थविषया इति विशेष इति । णस्य पुनर्ग्रहणम् ? इति ।।
श्रथ किद्वारे आक्षेपपरिहारौ प्राऽऽहपरिहारमाह
जीवगुणो नाणं ति य,भणिए इह किं ति का पुणो संका। निममेत्तमुत्त, वक्खाणिजइ सवित्थरं तमिह ।
तं चिय किं जीवाओ, अममणनं ति संदेहो ॥८६॥ अहवामुयस्य मणिय,लक्खणमिह तं चउण्हं पि॥९८४| ननु प्रमाणद्वारभेद गुणप्रमाणे सामायिक जीवगुणः त. निर्देशमाश्रमेव लक्षास्य प्रागुप्तम्-निर्दिएमय पूर्व ल- | त्रापि ज्ञानम् , न्याघुक्नेऽत्र कि समायिकम् ?.इति का श.. क्षणम्, न तु तथाविधव्याख्यया व्याख्यातमित्यर्थः । इह का यन किंद्वारमुच्यते ? , इत्याह-''तं चिये ' त्यादि , स्वनुगमे व्याध्यामप्रस्तावात् सविस्तरं तद् व्याख्यायते । तदव सामायिकं किं जीवादन्यत् , अनन्यद वा? इति संअथवा सतायोपशमिको भावः थुतसामायिकस्यैव पूर्व वहः, तदपनोदार्थमिह किंवागेपन्यास इति । लक्षणमुपपद्यते, इह तु श्रद्धानज्ञानदेशविरति--मविरति- अथ कथं वारविषयावापेक्षप-परिहारी प्राह--- रूप चतुर्गामगि सम्यकन्यधृतंदशचारित्रसर्वचारित्रसामा
भणिए खोचसमियं-ति किं पुणो लभए कहं तं ति। यिकानां लक्षामुच्चतात चिशषः ।
इह सोच्चिय चितिजइ,किह लभए सो वनावसमो।ह. अथ नयद्वारे श्राक्षेपमाह--
ननु नामद्वारे क्षायोपशमिकं सामायिकम् इत्युक्त ' तदा भणिया नयप्पमाणे, भमंतीहं नया पुणो कीस ? ।
वरणक्षयोपशमात् तल्लभ्यते' इत्या दुक्कमच भवति । अतः मूलद्दार य पुणा,एएसि को णु विणिोगी ।।१८ 'कर्थ तल्लभ्यते ?' इत्यर्थप्रतिपादक किमितीह पुनरपि कननु पूर्व नयप्रमाण भाणता एव नयाः , किमिहोपोद्धाते थं द्वारमुच्यते ? । अत्रोत्तरमाह-इह कथमिति द्वारे ' पुनरपि भगवन्ते, तथा, वक्ष्यमाणे चतुर्थे नयलक्षणे मलानु- स एव क्षयोपशमश्चिमन्यते । कथम् ?, इत्याह---कर्य योगद्वारे भविष्यन्ते । तदमीषां पूर्वमनकशो भणितानां पु- लभ्यते स योपशमः ? , इत्येष विशषः । नर्भणन का विनियागः किं फलम् ?, न किश्चिदित्यर्थः।
अथ द्वारबाहुल्याद् ग्रन्थविस्तरमवलोक्य संक्षिपक्षाह-- अत्र परिहारमाह---
किं बहुणा जमुवकम-निकाखेवेसु भणियं पुणो भणई। जेञ्चिय नयप्पमाण, ते चिय इहई सवित्थरा भणिया।।
अत्थाणुगमावसरे, तं वक्खाणाहिगारत्थं ।। ६६१॥ जंतमुवक्किममेतं, वक्वाणमिणं अणुगमो ति ॥८६॥
किंबहुना ? , सर्वेष्वप्येतेषूपोद्धातद्वारेषु यदुगक्रम-निक्षेय एवं प्राक प्रमागतार संक्षेपमात्रेस नया उन्नाः, तप पयोर्भणितमणि पुनरप्याचार्यो भति, तदिहानुगमाच वह सविस्तरा भगिनाः, अग्ने भणियन्त इति भावः । सरे पर्वोपक्रान्तनिक्षिातवस्तव्याख्यानाधिकारार्थम्, इत्यवं कुतः । यतस्तदध्यननायकमणरुपमपक्रममात्रम, पतत्। भावनीयमिति । स्वानुगम इति कृत्वा नयानां व्याख्यानमिति ।
तदेवमुपोद्घातोक्नेष्वेतद्देशादिद्वारेषु प्रत्येक विशषतश्चापनिहारान्तरमाह ---
लनाप्रत्यवस्थाने अभिधाय, इदानीं सामान्येन सर्वस्या:अह्वा नन्थ पमाणं, इहं सरूवावहारणं तेसि । प्युपोद्धातस्य चालनामाह-- तत्तो वकंता वा, इह तदणुमयावयारोऽयं ॥ ६८७॥
सत्थसमुत्थाणत्थो, पायेणोवक्कमो तहाऽयं पि । अथवा-प्रमाणद्वागधिकागत् प्रमीयते वस्वेभिरिति प्र- सत्थस्सोवग्घाओ, को एएसि पइविमेसो।। ६६२ ॥ मा--भावमात्रं नथानां तत्राभिहितम् । इह तु-उपोद्धातनि- श्राह-ननु उपक्रमोऽपि प्रायः शाखसमत्थानार्थमेव, तत्रायुक्त्यनुगमे तेषां सरूपव्याख्यानम् । अथवा-तत्रोपका- नुपूादिभिरिरुपक्रम्य शास्त्रं नामादिन्यासव्याख्यानन्ताः, इह त्वयं तदनुमतावतारश्चिन्त्यते । इदमुक्तं भवति- योग्यतामानीयत इत्यर्थः , तथाऽयमप्युगोद्घातः शास्त्र-- प्रागुपक्रमाधिकागदध्ययन नयैरुपक्रम्यते, इह तु कस्य न- स्योद्देशनिर्देशनिर्गमादिभिरैिरुत्थानमुपवण्ये व्याख्यानयोयस्य कि सामायिकमनुमतम ? रति चिन्त्यत, तथा च व- ग्यतामुपकल्पयति , इति कोऽनयोर्विशेषः ? न कश्वित् । क्ष्यनि-" तब संजमो अगुमा , निर्गथं पवयम् च वव- तत एतयोयोरम्यतर एव वाच्य इत्यभिप्राय इति । हारो। सबज्जुसुयागे। पुण, निव्वाणं संजमा चेव ॥१॥"
प्रत्यवस्थानमालतेषां च नयानामिह समवतरगं, समवतारा यत्र संभव- उद्देसमेत नियो, उवक्कमोऽयं तु तब्विबोहत्थं । नि तत्र दशनीयः, यद वक्ष्यते-'नूनाइय सुयं का-लियं
पाएणोवग्घाओ,नणु भणिोऽयं जोऽणुगमो॥६६३|| तु न नया समायरंति इहं ।' इत्यादीति ।
उहेशमात्रनियत एवोपकमः-नामस्थापनाद्रध्यादिभिः , (३३) मूलद्वारनयैः सहामीषां भदमाह
भानुपूादिभिश्च भेदैरुषकमः शास्त्रमुद्दिशत्येव न तु व्यासामाइयसमुदाय-स्थमेत्तवावारतप्परा एए ।
स्यानयतीत्यर्थः । अयं पुनरूपोद्घातः प्रायेण तस्य शालमूलद्दारनया पुण,सुत्तफासोवोगपरा ॥६८८॥ स्य विबोधार्थो-व्याख्यानार्थः । कुत इचायते, इत्याहसर्वेऽपि चते नय-प्रमाणोक्ताः उपोद्घातनियुक्तिद्वारोला- ननु यस्मादयं प्रस्तुतोऽनुगमो भणितः, उपोद्घातश्चानुगम
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सामाइय
मेह एव
दृस्य
भा
अथवा
बन्धने
पाद
ग्यता
सेव
यस्तायो
यस्मात् सन् उपोद्घातान् पाद्वातशेषः । वविशु ।
देवाचार्थमात्र [ २४ ] अव विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्यकार उद्देशनिर्देशविषयमात्रेव चतस्याशक्य परिहारं तावदाहउ निस्मि, पाय सामनविसेसोचि । उसो तो पढमं निदेसोऽयंतरं तस्स ।। १४८६ ॥ नात् प्रथममुद्देशस्ततो निर्देशः ? इत्याशङ्कय परिहर्गतमित्यादि. सामान्येन हि पूर्व वस्तूद्दिश्य ततः पश्चाद् विशेषतो निर्दिश्यते इति शास्त्रे लोके च स्थितिः । तथा--- ज्ञानमपि प्रायः प्रथमं वस्तुनः सामान्याकारग्राहकमुत्पद्यते, ततो विशेषाकारग्राहकम्। ततः तस्मात् कारणाद् वस्तुनः सामान्याभिधानलक्षणः प्रथममुद्देशः ततस्वस्थैव विशेषाभिधानरूप निर्देश इति गाथार्थः विशे । ( ३५ ) एतानि द्वाराणि क्रमशो व्याख्यानयामि तत्रानुमतद्वारम् । कस्य जीवस्य किं सामायिकम् । साम्प्रतं कस्य सामायिक जयति ? इति द्वारे प्रस्तुते यस्य तद् भवति तदनिधित्सया प्राह
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"
जस्म सामागियो अप्पा, संजमे नियम तवे । दस्त सामाद होइ इ केवलमानि । २६७६ ॥ जो समोसव्वभूएसु, तसेसुं थावरेसु य । तस्म सामाइ हो, हह केवलिभामियं । २६८० ।। यस्य सामायिकः निसंनिहितोऽप्रोषित इत्यर्थः श्रात्मा जीवः । संयमे-मूलगुरू नियम उत्सवासा तपसि - अनशनादिल । भूतस्याप्रमादिनः साय किं भवतीत्येवं केवलिभिर्भाषितमिति । तथा, यः समो अध्यक्ष आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः सर्वभूतेषु सर्वा गिषु वसेषु दीन्द्रियादिषु, स्थावरेषु च पृथिव्यादिषु तस्य सामाधिकं भवतीत्येव केवलिभिर्भावितमिति । साम्प्रतं फलप्रदर्शनद्वारेणास्य करवाविधानं प्रतिपाद्याहसाजोगं परिरक्खणड्डा,
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सामाइयं केवलियं पसत्थं ।
गिहत्यधम्मा परमं ति नया,
कुञ्ज हो यहियं परत्था ।। २६८१ ।।
सायद्ययोगगरिरक्षणार्थे सामायिकं केवलिकं परिपूर्ण-प्र शस्तं पवित्रम् एतदेव हि गृहस्थधर्मात् परमं प्रधानंः ज्ये इम् कुर्यात् विद्वानामहिम-आत्मी
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गागाय
परो मोकु वार्थः ।
अर्थ गाया
परमं
महत्यथम्माथी ।
परं परं वा तदत्थं वा । २६८२३ तामिति-सामायिक
मात्मनो हितम् । क ? इत्याह- इतः इहलोके, परत्र-परलोके प्रति ।
अथ वच्यमाणगाथायाः प्रस्तावनां कुर्वन् भाष्यकार पवादगिहिणा वि सव्चव, दुविहं तिविहे निकालं तं । कायन्यमाह सच्चे को दोसो
मई ।। २६८३॥
परिपूर्ण सामायिक
सम्मा
कारभावाभावेपि गृहस्थावान्सामाविकानि
सर्वशब्दोच्चाररहितं
कर्तव्यमेव
बाह परः- सर्वे - सर्वशब्दाधार को दोषः येन सर्ववर्ज म- इति विशिष्यते ? । भण्यतेऽत्रोत्तरम् - सर्वशब्दोच्चारणं कुर्वतस्तस्य सावद्ययोगानुमतिलक्षणो दोष:, न हि गु हादिषु प्रामनेक धारम्भाः प्रयर्तिताः सन्ति तदनुमतिका सामायिकेष्ठितस्ततः
निषेधं कुर्वतो गृहस्थस्य व्रतभङ्ग एव स्यादिति भावः । इति गाथा पार्थः (विशे० सर्ववरतिविषया 'सम्पविरहवाई' शब्देऽस्मि मागे व्याख्या गता । )
अत्रापेक्ष परिहारौ भाष्यकारः प्राहहाई नसो, किं पक्व नि भन्न नस पुव्वपतिसावज कम्मसाइज मोनुं ॥ २६८५॥ वाशब्दोऽर्थः श्राह पर:- ननु यथाक कारणे तथाऽनुमनमध्यसौ किमिति न प्रत्याख्याति ? | मनाली गृही शक्रः समर्थक मोम किं तत् इत्याह-पूर्वत्रयुक्तस्य आम गृहादिषु प्रवर्तितस्य सावद्यकर्मणः सावद्ययोगस्य ' साइजं ' तिअभिष्यजन प्रतिबन्धविधानमित्यर्थः शक्यमेव धनुष्ठानं पिम् पूर्वप्रवृते व सावयांचे गृहस्थी
मां अतो न सावद्ययोगानुमतिम सौ प्रत्याख्याति, व्रतभङ्गप्रसङ्गादिति ।
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पुनरपि पराभिप्रायमाशङ्कप परिहरणादतिविहं तिविहे, पच्चक्खाणं सुयम्मि गिहिणो वि तं थूलवहाईगं, न सव्वसावजजोगाणं || २६८६ ।। ननु गृहस्थस्य सावद्ययोगानुमतिप्रत्याख्याननिषेधं कुर्वतस्तव श्रुतविरोधः, यतस्त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानं श्रुते गृहिणोऽपि भणितम् - इति शेषः तथा च भगवत्यामुक्रम्-“समणोबासगस्स गं भते ! पुष्यमेव धूले पाणाडहवाए अपचलाए भवइ, से गं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करें ? । गोयमा ! तीयं पडिक्कमइ, पडुपपन्नंसंवरे, अणायं पच्चकखाइ । तीयं पडिकममाणे किं तिषिद्धं निषि तिथि विहे परिक्रम तिविहं बडे पनि जाप देण
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( ७१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामाइय
पडिकोषमा तिथि विहे पडिकमा जान पक्कविहं एक्कविद्देण वा पडिक्कमइ "| तदेवमिह श्रुते त्रिविधं त्रिविधेनापि गृहस्थस्य प्रत्याख्यानमुक्तम् तत् कथमस्य निषेधो भवता विधीयते ? इति । सत्यम्, किन्तु त्रिविधं त्रितिधेन तो प्रत्याययानं स्थूलवधमृषावादादीनामेव द्रव्यम्, यथा कोऽपि सिंहसरभगजादीनां वधादीनतिबादस्त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्याति न पुनस्तत् सामान्येन सावद्ययोगविषयमवगन्तव्यमिति ।
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तो विशेषित एय कचिद विवक्षितसावद्ययोगे त्रिविधं त्रिविधेनापि प्रत्यायानमदोषाय भवतीति दर्शयति
जर किचिदप्पयोग, मध्यप्यं वा विसेसिवं वरयुं । पच्चक्खेल न दोसो, सर्वभूरमणाइ मच्छु व्व ॥ २६८७|| जो वा निक्खमिउमणो, पडिमं पुत्ताइ संतइनिमित्तं । पडिवजे तो वा, करेज्ज तिविद्धं पि तिविहे । २६०८ | जो पुरा पुज्वारद्धा-शुभ सावकम्म संतायो । तदम परियई सो, न तरह सहसा नियचेउं ॥ २६८६ ॥ न विद्यते प्रयोजनं येन तदप्रयोजनं काकमांसादिकं विशेषितं पार्थिवा मनुष्यक्षेत्रादिन्दिस्वचित्रकर्मादिकं किमपि विशिष्ट वयधिकृत्य यदि विविधं विविधेन प्रत्याचक्षीत तदा न कश्चिद् दोषः । यथा कश्चित् संयभूरमणादिमत्स्यानधिकृत्य विध त्रिविधेन प्रत्याचष्ट इति । यो वा व्रतं जिघृक्षुः पुत्रसन्तत्यादिनिमित्तं विलम्बमान एकादशा प्रतिमां प्रतिपयतको पासी विविध त्रितिनाथ सावद्ययोगप्रत्यारुपानं कुर्यादन] दोष इति । यः पुनः पूर्वानुत सावद्यकर्म संतागस्तदनुमतिपरिवति न शक्नोति सहसा निवर्तयितुम्, अतस्त्रिविधं त्रिविधेन नासौ प्रत्याख्याति, इति गाथापकार्थः ।
(३६) तथापि गृहस्थसामायिकमपि परलोकार्थना कार्यमेष, तस्यापि विशिष्टफलसाधकत्वादित्याह
सामायम्मि उकए, समयो इव सावच्यो हवा अम्हा । पण कारणं, बहुसो सामाइये कुजा ।। २६६० ॥
कृते पुनर्गृहस्थः सामायिकेऽपि श्रमण इव श्रावको भवति, यस्मात् प्रायोपांगरहितत्वाद बहुतर कर्मनिर्जरो स भवतीति भावः । अनेन कारयेन बहुशो ऽनेकधा सामायिकं कुर्याद् मध्यस्थो भूयादिति ।
मध्यस्थस्यैव लक्षणमाह
जो न विवइ रागे, न वि दोसे दोएह मज्झयारम्मि | सो होइ उ मरो, सेसा सच्चे अमत्था ||२३६१।। सुगता नवरं मध्ये रागद्वेषयोरन्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थः म रास्तेनापि द्वेषेणेति भावः इति नियुकिगाथाइवार्थः । विशे० ।
आकर्षद्वारमाह
तिय सहस्सपुढचं सर्व पुहतं च होइ पिरईए । एगमचे आगरिया, एवइया हुंति नायव्वा ।। २७८० ॥
सामाइय
आकर्षणमाकर्षस्तत्प्रथमतया, मुकस्य वा प्रहमित्यर्थः । तत्र जया सम्पातदेशविरतिसमाधिकानामेकमवे सहस्रपृथक्त्वमाकर्षाणां भवति । विरतेस्तु चारित्रस्यैकभवे पृथकृत्यमाकर्षाणां भवतीति पयमेत उत्कृष्ट प कमयिका आकर्षाः प्रोक्ताः जघन्यतस्त्येक एव सर्वेषामाकर्ष इति ।
नानाभवगतानाह
दोह पुहत्तमसंखा, सहसपुचं च होइ विरईए । नागभवे आगरिस, सुर अता उ नायम्वा ॥ २७८१ ॥ द्वयोः सम्यत्यदेशाविरति सामायिकयोर्नानाभवेतो संख्येयानि सहस्रपृथक्त्यान्याकर्षाणां सम्भवन्ति । दि सहस्रपृथक्त्वम संख्येयैस्तत्प्रतिपत्तिभवैर्गुणितमसङ्ख्येया-नि सहस्रपृथक्थानि भवन्ति तथा पिरतेश्व चारित्रस्य मानाभवेष्वाकर्याणां सहस्रपृथक्त्वं भवति धुते तु सामान्येनाक्षरात्मकेऽनन्तेषु भवेष्वनन्ता आकर्षा भवन्ति । इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः । विशे० । प्रघ० । श्रा० म० । ० चू० (उद्देशद्वारम् उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे ७८६ पृष्ठ उक्तम् । )
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(३७) अथ कतिविधं सामायिकम् इति द्वारे व्याविण्या सुराद्द
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सामाइ पि तिविदं सम्मत तहा परिषं च । दुविहं चैव चरितं अगारमयमा रियं चैव ।। २६७३ ।। त्रिविधम्-षिमेवं सामायिकम् अनुवारलोपात् सम्यकृत्यम् - सम्यक्त्व सामायिकम् । श्रुतम् श्रुतसामायिकम् । तथा चारित्रम् चारित्रसामायिकम् । चशब्दः प्रत्येकं स्वगतानेकमेवचनार्थः संचेपेण मूलमेतचरित्रं चारित्र सामायिकं द्विविधमेव-द्विभेदमेव तद्यथा-गाः- वृत्तास्ते कृतमगारं तदस्यास्तीति मतुलोपादगारी हस्तस्पे दमगारिकं देशवारिचसामायिक देशविरतिखामाधिकमिति यावत् । तच्च पुनरप्यनेकभेदम् देशविरात्। विद्यतगारं यस्यासावनगारः सातार कं सर्ववारिषसामायिकम् - सर्वविरतिसामायिकमित्यर्थः । इदमपि स्वस्थानेऽनेकमेवमेवेति ।
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(३८) श्रुतसामायिकस्यापि संक्षेपतो भेदकथनार्थमाहअज्झणं पि यतिविहं, सुत्ते अत्थे अ तदुभए चैव । सेसेसु विज्झणे - सु होइ एसेव निज्जुती ॥२६७४ ॥ अधीयते विनयादिक्रमेण गुरुसमीप इत्यध्ययनं सामापेन सामायिकमित्यर्थः शिि धम् - त्रिभेदम् ' सुते. 'त्यादि, सूत्रतः, अर्थतः, तदुभयतचेत्यर्थः । उपलक्षणत्वात् अपिशब्दाद्वा सम्यक्त्वसामादिकमप्योपशमिकाधिकक्षायोपशमिकमेव विविव्यम् । अथ प्रक्रान्तोपोद्घातनिर्यु शेर शेषाध्ययनव्यापितां दर्शयन्नाह - ' सेसेसु बी ' त्यादि, प्रस्तुतसामायिकाध्ययनात् शेषेष्यपि चतुर्विंशतिस्वादिष्वन्येषु वाध्ययमेष्येदोदेशनिर्देशादिका निरुक्तिपर्यवसानोपोद्वारा निर्मिति व सर्वत्र द्रष्टव्येत्यर्थः । आह-- ननूपोद्घातनियुक्तौ सर्वस्यामपि समर्थितायामित्थमशिदेशो दातुं युज्यते, न चेयमद्यापि
"
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय समर्थ्यते भवागरिसफोसणनिरुत्ती' इति निरुक्तिद्वार एव। मानानां द्रव्याः यदा तु सर्वाण्यप्येतानि समुदितानि भेदतस्याः समयष्यमाणवात् ? । सत्यम् , किन्तूपोद्घासनि- तश्चिन्त्यन्ते तदा पर्यायतः पर्यायानाश्रित्यानन्तभदानि द्रष्टयुक्तिमध्यमिदम् , मध्य चातिदेशः कृतः पर्यन्तेऽपि लभ्यते व्यानि । संयमण्यामध्यवसायस्थानानामसंक्येयलोकाका" मध्यग्रहणे माद्यन्नयोग्रहणम्" इति न्यायात् । इति नि- शप्रदेशप्रमाणत्वात् , एकैकस्य चाध्यवसायस्थानस्यानन्तयुक्निगाथाद्वयार्थः।
पर्यायस्वामिति । (३६) मथ भाष्यकारः सम्यक्त्वादिसामायिकाना भेद- 'ससेभु वि अज्झयणेसु' इत्यादेाख्यानमाहनिरूपणार्थमाह
नवीमायस्थयाइसु, सवज्झयणेसु याऽणुभोगम्मि । सम्म निसग्गमोऽहिग-मभो य दसहा य तप्पभेयाभो । एस चिय निज्जत्ती, उद्देसाई निरुत्तंता ॥ २६७८ ॥ कारयरोयगदीवग-महवा खड्याइयं तिविहं ॥२६७॥ शेषेष्वपि चतुर्विशतिस्तवादिषु, चशब्दाद-मन्येषु च शसुत्तत्थतदुभयाई, बहुहा वा सुत्समक्खरसुयाई । सपरिशादियध्ययनेष्वनुयोगे विधीयमान प्रादायवाईखहयाइँ तिहा सामा-इयाई वा पंचहा चरणं ॥२६७६॥
शादिका निरुक्त्यन्तोपोमातनियुक्तिीच्या । इति गाथाच
तुष्टयार्थः । विशे० । प्रा० चू० । प्रा०म० । दुविहतिविहाइ णाणु-व्वयाइ बहु एगदेसचारित ।
(४०) कति सान्तरं सामायिकम् । अथ सान्तरबारमाहवीसुं सव्वाई पुण, पजायत्रओं ऽणतभेयाई ।। २६७७ ॥
कालमणंतं च सुए, अद्धा पारेयो य देसूणो। सभ्यय तायद निसर्गाजधगमतश्चेत्यय द्विधा भवति ।
प्रासायणबहुलाण, उक्कोसं अन्तरं होई ।। २७७५.। तत्र निसर्ग:--स्वभावस्तस्मात् सम्यक्त्वं भवति, यथा नारकादीनाम् , अधिगमस्तीर्थकरादीनां समीपे धर्मश्रवणं इह जीव रकदा सम्यक्त्वादिसामायिकमवाप्य ततस्ततस्मात् सम्यक्त्वं भवतीति प्रतीतमेव, यथा स्कन्दकादी- स्परित्यागे यायता कालेन पुनरपि तदद्यानोति सोऽपान्तनाम् । अथवा-'तप्पभेयानो'त्ति-तस्य सम्यक्त्यस्य प्रक- रकालः-अन्तरमुच्यते । तच सामान्ये अक्षरात्मके श्रुते जघ. एः सूक्ष्मो भेदस्तस्मात् प्रभेदतश्चिन्त्यमाचमिदम् , द्विविध- न्यतोऽस्तर्मुहर्नम् उत्कृष्टतस्त्वनन्वं कालं भवति । इदसुक्तं मपि समुदित दशधा भवति । तत्रौपशमिकसास्वादन- भवति-इह द्वीन्द्रियादिः कश्चित् श्रुतं लब्ध्या मृतो यः क्षायोपशमकवेदकक्षायिकभेदात् , निसर्गज पञ्चधा, एवम- पृथिव्याविषूत्पद्य तत्रान्तमदूत स्थित्वा पुनरपि द्वीन्द्रिधिगमसमुस्थमपि पञ्चधैव । तदेवं समुदितं सद् दशधा भ- यादिष्वागतः श्रुतं लभते तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तबति । अथवा-कारकरोचकदीपकभेदात् क्षायिकक्षायोपश- रं भवति । यस्तु द्वीन्द्रियादिभृत:--पृथिव्यप्तेजोवाधनमिकौपशमिकभेदात् त्रिधा सम्यक्त्वं भवति । तत्र क्षायि- स्पतिषु पुनः पुनरुत्पद्यमानोऽनन्तं कालमवतिष्ठते , ततः कायो भेदाः प्रतीता एव । कारकादीनां त्वयमर्थः-यास्म- पुनरपि द्वीन्द्रियादिध्यागत्य श्रुतं लभते, तस्यायमेकेन्द्रिन सम्यक्त्वे सति सदनुष्ठानं श्रद्धते, सम्यक् करोति च, त- यावस्थितिकाललक्षणोऽनन्तकाल उत्कृष्ठतोऽन्तरं भवति । त् कारयति सदनुष्ठानमिति कारकं सम्यक्त्वमुच्यते । ए- अयं चासख्यातपुरलपरावर्त्तमानो द्रष्टव्यः । शेषस्य तु तकच साधूनां द्रष्टव्यम् । यत्तु सबनुष्ठानं रोचयत्येव केव- सम्यकत्वदेशविरतिसर्वविरतिसामायिकत्रयस्येति रश्यम्लम् न पुनः कारयति तद् रोचकम् . यथा श्रेणिकादानाम् । जघन्यतोऽन्तर्मुहर्वम् , उत्कृष्टतम्तु देशोनाऽपार्धपुनलपरायत्तु स्वयं तत्त्वश्रद्धानरहित एव मिथ्यादृष्टिः परस्य धर्मक- वर्ती उतरं भवति । र चोत्कृष्टमन्तरमाशातनाबहुलाना थादिभिस्तत्वथद्धानं दीपयत्युत्पादयति तत्सम्बन्धि सम्य- जीवानां दृष्टव्यम् , उनं च-"तित्थयरपवयपसुर्य, प्रायरियं कत्वं दीपकमुच्यते, यथाऽकारमर्दकादीनामिदं सम्यक्त्वमु- गणहरमहिहीयं । श्रास्पयंतो बहुसो, परंतसंसारिश्री कयते, परमार्थतस्तु मिथ्यात्यमेवेति । सूत्राऽर्थतदुभ- होह॥१॥" इति नियुकिगाथार्थः । यभेदात्-सूत्रं श्रुतसामायिकं त्रिधा भवति । 'अक्ख
भाष्यमरसराणी सम्म, साइयं खलु सपजवसियं च । गमियंअपबिटुं' इत्यादिना प्रतिपादितादक्षरश्रुताऽनक्षरथुता
मिच्छसुयस्स वणस्सइ-कालो मेसस्स सेससामलो । दिभेदाद् बहुधा वा श्रुनसामायिकं भवति । चरण चारित्र- हीणं भिन्ममुहुत्तं, सव्वेसिमिहेगजीवस्स ।। २७७६ ।। सामायिकं पुनः क्षायिकम् , क्षायोपशमिकम् , औपशमिक
यह योऽयं वनस्पतिकालो वनस्पतेरुपलक्षणत्यादेकेन्द्रिय - मित्येवं त्रिधा भवति । यदिधा-सामायिकच्छेदोपस्थापनीय
कालोऽसंख्यातपुद्गलपरावर्तात्मकः श्रुतस्योत्कृषोऽन्तरं प्रो परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यातभेदात् पञ्चधा तद्
क्ला, स मिथ्याश्रुतस्य मिथ्याश्रुतमङ्गीकृत्य द्रष्टव्यः। 'सेसभवति । यत् त्वगुव्रतायेकदेशविषयं चारित्रं देशविरांत
स्स सेससामरणो त्ति-शेषस्थ तु सम्यक्श्रुतस्य शेषैः सामायिकमित्यर्थः, तद् बहुधा-बहुभेदं भवति । केन ? इस्या
। सम्यक्त्वादिसामायिकैः सामान्यः-तुल्यो देशोनापार्धपुरह-दुविद्दतिविहारण 'त्ति । " दुविहं तिविहेण पदमश्रो,
लपरायतलक्षण उत्कृष्टोऽन्तरकालो द्रष्टव्यः । 'हीणं' तिदुविहं दुबिहेण बीअो हो । दुविहं एक्कविहेणं, एगविहं हीनं-जघन्यमन्तरं सर्वेषामपि सम्यक्त्वादिसामायिकाना वेब तिबिहेणं ॥ १ ॥" इत्यादि-ग्रन्थप्रतिपादितभङ्ग- नियुक्निगाथायामनुक्तवाद् भिन्नमुहूर्तम्-अन्तर्मुहर्त दव्यम् जालेन हेतुभूतेनेत्यर्थः । ' वीसुं ' ति-एतेषा सा
इदं च जघन्यमुत्कृष्टं चान्तरमेकजीवस्य मन्तव्यम् , नामायिकानामेत पूर्वोक्ता भेदा विष्वग एकैकशश्चिन्त्य- नाजीवानां सम्यक्त्याधन्तराभावादिति गाथाथैः ।
२८०
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सामाध्य
( ४१ ) अथ किं सामायिकम ? इति द्वारमायाश्रयमाह-
नदिसि कालगई, भवियसभि(उ) मासदिट्टिमाहार । पानमुनजम्म डिड़वा कसायाऽऽउं ।। २६६२ ।। नागो जीवणा सरीरमंठामपणमा | लेगा परम व यथा कस्मे य।। २६६३ ।। धामपकरणं तहा अलंकार । गठा किं कहियं ।। २६६४ ।। सामुदायिसंहपुराद्वारकानीकपालखीये कि कहिये कि कला
कम्प
दशा कायायाऽऽषि मेति । तथा ज्ञान योगोपयोगी, शरीर संस्थान संहननमानानि श्याणाम, वेदनां समू ज्ञानकर्म अधियालोनमीयम किं क सामायिकम् ? इति तथा निमोद्वर्तन आश्रवकरणख तथाइलङ्कारम आपला खणकथानस्थमाश्रित्य चिन्तनीय 'कि ● सामायिकम् ? | म० ।
(४५) एतानि द्वाराणि धनानुषयाचासुरोप बद सदैव व्यायामम
कनवाककम
(99)
अभिमानराजेन्द्र
1391
सम्मनुयामा लामा,
तिरियलाए स ।
પંડ્ યા વધારવું ૫ કંતારણ ૨
सामान मेरादिषु निस---
गंदा सम्यसामायिकस्य तथा भुलाबामध्यउत्तरकालमं श्रुतज्ञानतया परिणामात् श्रुतसामा लावा भर्वात एचालोकोलोकिका नये म्
कन्यलायां वक्तव्य एवं निग्लो
लामो यः । इह
बहुये
यथोक्तसामायिकलोके यशसामाि ने
विसनुस्ख
तुला विसर्वाणि लभ्यते । इस सब लभ्यत नान्यत्रेति द्रष्टव्यम, मनुष्या पतन्प्रतिपत्ता नान्यइत्यर्थः नियमं तु विशि विदेशामायिक साम चार तिरीति, मनुष्येषु केषुचिदिति ।
योनीत्यमका ि
पुत्रपडिया पूण तीसु बि लोएस नियमश्री तिरह दो नियमावली
२६६६॥
सामाइय सामायिकानां विशिष्य
गिलोय सामायिकस्य योषाधालोकतिरलोकी संपतिपणा नियमतः सन्ति। - पुनः कदाचिति क्षेत्रहाम विशे
,
(४३) विकारम -कस्यां दिशि कि सामायिकमन स्थापनादभिरनधिकार पत्र शेषासु यधामं विकस्य प्रतिपद्यमानकः।
तथा वायः तथा श्रा निपुण दिसाहिं महि सातायतपगमाविलाई तामादी तिथि पडणानिमिति । त्रक्षेत्र मायाह-
बाईपासु महा-दिसासु पश्विमागता हो । पुष्प अपराध दिसा उ ॥
पूर्वादिका क्षेत्रो महादिक विवक्षिकाले म वैयामांग समाविका प्रतिद्यमानको भवनअवस्ताम्यांत न पुनर्भवत्येव कदाचित तालु चनात् पूर्वपतिपक्षः पुमयीमय सामायिकाना मन्यतरस्यां दिशि वाशब्दस्यका
सामापक्रम विशेष या सम्माि
पूर्वादिकम पूर्वप्रतिपक्षको सामायिक नियमेन दक्षिणोत्तरयोस्तु जनाक
|
पुनवसृष्वपि तथा ऊर्षाश्रोदिन चतुर्णामपि सान पूर्वप्रतिपक्षी, नापि प्रतिपद्यमानकः सास्त्रेककिन जीवावगाहनामात् नामा पुनर्भवेपि । तथा वाह भाष्यकार:- दिना बलिरुगादी, विखासु सामायं न मे तासु । सुखासु नाबगादर, जीवो ताश्रो पुगु फुले ॥ २७०७ ॥ सादित्याह
अनियमादीसुद नाता ||
दो
साक्षेत्र प्रज्ञापकविषये च पुनगएर पूर्वादिकास विज्ञ चतुर्णामपि सामायिकानां नियमत् पूर्व
प्रतिपद्यवानस्तु आनन्द वाचत तथा पानीघारू प्रयोमिय *ચાં નવા કેવા પ્રાંતા शानकस्तु भाज्य इत्यर्थः दोराद इत्यादि द्वयोःपुनर्देशांवर तिखामायिक सर्वाधिरतिसामायिकयोरुयधादि शोः स्यात् भजनया, पूर्वप्रतिपक्षः कदाचित्रांत कदाचि प्रांत धन्यः पुनः प्रतिपचमानः स हि । मादित्याह-
उभयामाची टवाइलेटोज उच विशेषाश्यपाय मेरे
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मामाश्य अभिधानराजेन्द्रः।
मामा पंचिदियतिरिएसं. नियमा निगई मिय पवले ॥
अभाधा निग्ये विविध तर्हि का वार्ना ? नारय देव-प्रकम्मय, अंतरदीवेसु दोएह भयणाभी।
ग्याशय भाज्यकार: माह---- कम्मजनरेसु पाउसु, मूल्छसं उभयपजिसेहो ॥
छिम्मावलि रुयगागी, दिमासु सामाश्यं न ज ताम् । पृधियामिषु-पथियजोधायुमूलचीजकम्धनीजाप्रथी
सुद्धामु नायगाइ, जीयो तामा पुण फुमिया ॥२७.७।। जपचीजेषु उमपामावभतुर्माण सामाविकाना , प. বন্ধগলি খিগাথপক্ষার অনमंप्रतिपनोम प्रतिपयमानकः । धिकले वित्रिमतुमिन्द्रि- विपिएसपगागि' शि-हसकाकारणार प्रत्येक मनुप्रा. घेषु प्रतिपम्नी मधे । यास्मानतो विशेषप्रतिपत्तिरि- शिकपोकोऽधोपियोन 'सामा' नि-लमानमिसम्यकापसामायिकश्रुतसामाविकमी कदाचित् पूर्व- मपूर्ण-सामायिक मलभ्यते इति शेषः । इतः स्यारतिनो भवमानावनसम्बवता नषु मध्ये उत्पावसंभ- 'तास्वित्यादि 'पा--पक्ष्मात् नासु शुजाभु कपालाम पात् । प्रतिपयमानस्तु मोपपयले उपदेशभषणाविखाम- परस्यपि जीपः सम्पूगों नायगाइने, तप जपायना :प्रयोगात् ।शविरतिमविरतिसामापियो। पुन पर्षभ
पसरपंचपमंशावगाहित्यान, एलाखोकप्रशिकपन नियमो माfrafevaमानक: , पवियनिर्णा सपिर- चतुष्प्रशिकचन बनावप्रमाणाषामाखम्भधान ।
muniपागामपि सामाषिकामा पूर्वप्रलिपना नियमा-- तमंचरणातीपणालामाषिकबालीपापणन मांगन लिपधने प्रतिपथमामका पात भज प्रशन्न भिगेशन माघार्थः । नाम्। नमा वाधान मान काल कदाचिनति भावः । वर्ष
(४) साम्म कालमाभाधासुगह--- विनिम्नामायिक पुचप्रानपानी नापि प्रतिपद्यमाभकस्तथा भवस्थामास्यात् । मारकण्यकर्मभूमिजान
सम्मत्तस्स मुयस्स य, पडिवती हि विकासम्मि। जीजमनुष्येषुपया खम्यक्त्यनसामापिकयाः पूर्व- विर घिरयाविरई,पडिसना दोसु तिमु बाधि ।।२७०८।। प्रांतपत्रा नियमानि । तर प्रतिपयमानक आज
पापाचरण श्रनयन पोरष्यनयोः सामाधिका प्रति मा पाग पा । 11
शापवायावसा
पास पाविषऽपि खुपमछुपमाविक काल सम्भवति । पुणे पानपनकायमपोर्षिचम्म एम । चिरति बमपचारित्रल नागा , घिरतापिरति-वशाचारित्रासिका पानपत र मिर्पितषांपो काखमाईपमपमानाम गमन माया चावा अपपिएमा गुत्रिषु कालेषु सुषमा सभायाम
पसलमायाम, पुषमायानि । पेलिपwiran
चार ५५ । सांपशम्दानव मलाल पनि मायकवचमामानवता
भवका व सम्मान तिमागकालेषु अप भक्तायनामा
पत्यतया सिपथमानका सम्भवलि, पूर्वनिप .
मेष, चतुर्थ १ प्रतिभाग चतुर्विधस्थागि सामायिकर" मदिमत पग, समासाचा पसंगा ।
प्रतिपद्यमानका सम्भवति, पूर्वमतिपक्षस्तु पिधत एस पाहा - संधषमा चापच, सामाय जत्थ जदुना ।। २.५॥
श्रीपसकालाहिनेषु प्रयाणां सामापिकानां प्रतिन पिम्मान विधामाणे समकावार या पूर्वाधिका पचमानका लम्भवति, पूर्वमनिपासपस्पष, राधाषि पिपिलालाभिरेवत मसं प्रभोज,
w m मम्मी बराची विधाचारणाविपसने पूर्वप्रतिपल लाभधान नाविमा विलापात्पल व पालि निरिगापाथ।। था Animal यस्य विin या 100
से
मथ भाग्यम... समानत पूरा पान, मूलारश्यका समय ,
तामासु तिसुश्रोस-प्पिणी उस्लप्पिणी दोस्तु । वांत गाभाग
नोउस्मापुस्सप्पिणि-काले तिमु सम्मसुताई ॥२७०२।। जन101 , तर ५मत,
पलिभागम्मि पडण, पश्चिई चरणजियमकान ! नागास मदसा mist visiहा ।
परग पि हुजगमणे, सम्म सम्भस्थ साहरण ।।२७१०।।
'ताया तितु पोसपिपणीए 'शि- अषसर्पिपयां - पुथ्वपटिषणमा. अधार कार७०६॥
तीयाविष षिषु कालेषु सुषमयुषमाधि विपरणि पर्वाचा शक
चतपयं
सपिरतिवशषिरामसामाषिको प्रतिपणा महाविच विवक्षित काले चनुमान मान
सम्पत 'स्याहारः । पूर्वत्तिपनसिपह बतुणो . धमानको भवति, तलाभलाया, पुनभेचस्मन मस्यय । एषमतरणागि पूर्वनिपको बधासम्भवमय कदाचित् तस्य तातु भवनात् कदाचिदभवणादिनि । यति' स्सपिणीपासुं' तिउत्सपिएका पूर्वपतिपयका पुनरम्यतरस्यां दिशि भवत्येष । ti पुगोपाषमसुषमाखुषम-पमालपाणयाः कालविषयोमिलिगाया।
। स्तापातपसा माध्यते । 'मायादेवकुरुत्तरतरुप
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(७२०) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाहय सुषमसुषमाप्रतिभागः, हरिवर्षरम्यकेषु-सुषमाप्रतिभा- नि, मिश्रके, अभव्ये च “सिद्धे गो सराणी, नो असरणी, गः , हैमवतैरण्यवतेषु सुषमदुःषमापतिभागः , पञ्चसु नो भव्वे, नो श्रभवे" इति वचनाद् मिश्रकः सिद्धोऽभिधीमहाविदेहषु दुःपमसुषमाप्रतिभागः । इह चतुर्वपि स्थाने- यते । ततश्चैते त्रयोऽप्यसंझ्यभव्यमिश्रकाश्चतुर्णामपि सापूत्सर्गिण्यवसर्पिण्यभावाद् नाउत्सपिण्यवसर्पिणीकालो:- मायिकानां न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानका लभ्यन्त यमभिधीयते, यथाक्रमं च सुषमसुषमादिभिः कालविशेषैः इति भावार्थः । पुनः शब्दादसशी सास्वादनमाश्रित्य सम्यसह प्रतिभागस्य सादृश्यस्य विद्यमानत्वाश्चत्वारः सुषमा कत्व-श्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो भवेदिति द्रष्टव्यम,तसुषमादयः प्रतिभागा एते भण्यन्ते । तदस्मिन् प्रतिभाग- था मिश्रोऽपि भयस्थकवली सम्यक्त्वचारित्रसामायिकचतुष्टयलक्षणे नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीकाले चिन्त्यमाने 'ति- योः पूर्वप्रतिपन्नो भवेदित्यपि उश्यम् । अयं च न संशी नासु' ति-प्रायेषु सुषमसुषमाप्रतिभागादिषुः त्रिषु प्रतिभा- प्यसंझीति मिश्रता एव्या । पाह-यद्येवं सिद्धोऽपि सगेषु द्वे सम्यक्त्वश्रुतसामायिके जीवः प्रतिपद्यते । 'पलि
म्यक्त्वसामायिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यत , अतोऽस्यापिभागम्मि चउत्थे चउम्विहं' ति-महाविदेहेषु चतुर्थे दु:- किमिति सर्वसामायिकनिषधः क्रियते ?। सत्यम् , किम्त षमसुषमाप्रतिभागे चतुर्विधमपि सामायिकं प्रतिपद्यते । सम्यक्त्वयजे सामायिकत्रय संसारस्थानामव सम्भवति. 'चरणवजियमकाले सि-अकाले-कालाभावे याह्यद्वीप- तत्साहचर्यात् सम्यक्त्वसामायिकमपि संसारिणां मम्बसमुद्रेषु चरणवर्जितमाचं सामायिकत्रयं मत्स्थादयः प्रति- न्धि विचार्यत, तथाभूते तु सिने नास्तीति निषिध्यत पचन्ते । 'चरणं वि हुज्ज गमणे' ति-नन्दीश्वरादी विद्या- इत्यदोषः, इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः । चारणादीनां गमने चरणमपि पूर्वप्रतिपन्नं सर्वविरतिसा
पुनःशब्दस्य व्याख्यानं भाष्यकारोऽप्याह- . मायिकमपि भवेदित्यर्थः । 'सव्वं सम्वत्थ साहरणे' त्तिदेवादिना तु संहरणं प्रतीत्य सर्वे चतुर्विधमपि सामायि- पुणसदाउ असामी, सम्मसुए होज पुवपडिबन्नो। के सर्वत्र निःशेषऽपि काले प्राप्यते । इति गाथाद्वयार्थः । मीसो भवत्थकाले, सम्मत्तचरित्तपडिवो ॥२७१३।। गतं कालद्वारम् ।
गातार्था। (४६) इदानी गतिद्वारं बिभणिषुराह
अथोच्छासनिःश्वासकदृष्टिद्वारद्धयाभिधित्सया प्राहचउँसु वि गईसु नियमा, सम्मत्तसुयस्स होइ पडिवत्ती। ऊसासय नीसासय-मीसे पडिसहों दुविह पडिवणो । मणुएसु होइ विरई, विरयाविरई य तिरिएसु ॥२७११॥ दिट्ठी य दो नया खलु,यवहारो निच्छो चेवा२७१४॥
चतसृभ्यपि नारकतिर्यग्नरामरगतिषु सम्यक्त्वश्रुत- उच्छूसितीत्युच्छासकः,निःश्वसितीति निःश्वासकः,पाना. सामायिकयोर्नियमात् प्रतिपत्तिर्भवति, न पुनर्न भवतीत्ये- पानपर्याप्तिपरिनिष्पन्न इत्यर्थः । स चतुर्णामपि सामायिवं नियमो द्रष्टव्यः , भवत्येव सदैव तत्प्रतिपत्तिरित्येवं तु
कानां प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नकस्वस्त्येव , न नियमः , कदाचिदन्तरस्यापि तत्प्रतिपत्तेरिहैव वक्ष्यमा- | इति वाक्यशेषः । मिथः खल्वानापानपर्याप्त्यपर्याप्तो भणत्वादिति पूर्वप्रतिपन्नास्तु सदैव लभ्यन्त इति । तथा ,
एयते । तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य प्रतिषेधः, नासौ चतुर्णामपि मनुष्यषु प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवति विरतिश्चारिवात्मिका,
प्रतिपद्यमानकः सम्भवतीति भावना । 'दुविहपडियमो' त्ति नाम्यगतिषु, पूर्वप्रतिपन्नास्तु तस्याः सदैवेह विद्यन्त -
स एव द्विविधस्य सम्यक्त्वश्रुतसामायिकस्य प्रतिपन्नः ति । विरताविरतिश्च देशविरतिस्तिर्यचु ' भवति' इत्यनुव
पूर्वप्रतिपन्नो भवति देवादिर्जन्मकाल इति । अथवा-मिश्रतते. इहागि सम्भवतस्तत्प्रतिपतिएव्या पूर्वप्रतिपन्नास्तु
सिद्धः, तत्र चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वोक्तयुक्तरुभयथाऽपि सदैय सन्तीति ।
प्रतिषेधः 'दुविह पडिवमो' त्ति-दद मिश्रः शरीररहितत्वाद
नोउच्छासनिःश्वासकत्वेन शैलेशीगतोऽयोगिकवली गृह्यते, अथ भव्यसशिद्वारद्वयमभिधातुमाह
स द्विविधस्य-सम्यक्त्वचारित्रसामायिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो भवसिद्धिओ य जीवो, पडिवजह सो चउपहममयरं । भवति । दृष्टौ विचार्यमाणायां द्वौ नयौ खलु विचारको व्यवपडिसेहो पुणऽसम्मि-म्मि मीसए समिपडिबजे।२७१२॥
हासे निश्चयश्चैव । तत्रास्य यथा मतिज्ञानविचारऽक्षानी क्षा
ने प्रतिपद्यते, तथहाप्यसामायिकी-असामायिकवान् साभवा भाविनी सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्यो जी
मायिकं प्रतिपद्यते, तथाऽसामयिकी दीर्घकालिकी तत्प्रतिघः , स चतुणों सामायिकानामन्यतरत् सामायिकम् | पत्तिः । द्वितीयस्य तु यथा ज्ञानी ज्ञानं प्रतिपद्यते तथात्राप्रतिपद्यते । इदमुक्तं भवति-कदाचित् सम्यक्त्वश्रुत- पि सामायिकी-सामायिकवान् सामायिक प्रतिपद्यते, सा. सामायिके प्रतिपद्यते, कदाचिद् देशविरतिम् , कदाचित् मयिकी च तत्प्रतिपत्तिः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात् । सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यत इति । पूर्वप्रतिपन्नास्तु नाना भ- इति नियुक्किगाथार्थः। व्याश्चतामपि सामायिकानां सदैव लभ्यन्ते इति । एव (४७) मिश्रशब्दभावार्थ व्यवहारनिश्चयनयमतविचारच संश्याप चतुर्णामपि सामायिकानां कदाचित् किञ्चित् प्र
भाष्यकारोऽप्याहतिपद्यते । तथा चाह-'सरिणपडिबजे' त्ति-पूर्वप्रतिपन्ना
मीसो नो उस्सासय-नीसासो तेहि जो अपजत्तो । स्तु संशिनोऽपि भव्यवत् सदैव प्राप्यन्त इति । 'पडिसेहो. इत्यादि, पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतिपद्यमा नकाश्चाश्रित्य चतुर्णा
हज पवमो दोन्नि उ, सेलेसिगो चरितं च।।२७१५।। मपि सामायिकानां प्रतिषेधः कार्यः । क ? इत्याह-असंक्षि- पढमस्सासामइगी, ५डिवजइ विइयगस्स सामइगी।
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सामाइग
ववहारनिच्छयमयं, नेयं मइनाणलाभो व्व || २७१६ ।। इद मिश्रो नो उच्छा सकनिःश्वासको ऽयोगिकेवली गृहाते । तथा ताभ्या मुच्वा सनिःश्वासाभ्यामपर्याप्तकश्रेह मिश्रः । स चापर्याप्तको देवादिजन्मकाले द्विविधस्य सम्यक्त्व
सामायिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते । यस्तु नोउल्लासक नि.श्वासको मिश्रः शैलेशीगतोऽयोगिकेवली, चारित्र सामायिकं चशब्दात्- सम्यक्त्व सामायिकं चाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यत इति । दृष्टौ नयविचारे प्रथमस्य व्यव हारनयस्या सामायिकी - असामायिकवान् सामायिक प्रतिपयंत, द्वितीयस्य तु निश्चयनयस्य सामायिकी - सामायिकचान् सामायिक प्रतिवेदनम मतिज्ञानलाभ इवात्रापि विज्ञेयम् इति गाधाद्वयार्थः ।
(८) अथाहारकपर्यातक द्वारद्वयमाहआहारगो उ जीवो, पटिव सोच हमारे एमेव य पत्ता सम्मत्तसुए सिया- इयरो || २७१७॥ आहारयतीत्याहारकस्तु यो जीवः स चतुर्गा सामाि कानपदतरत् प्रतिषत पर्वप्रतिप दभिः पर्याप्तिभिः पर्यामको विपद्यते पूर्वप्रतिपन्नस्यस्वसम्मत रो' ति- इतरोऽनाहारको पर्याप्त कश्च तत्रानाहारको लगती सम्यक्ते अस्त् पूर्व प्रतिपन्नः प्रतिपयइति वाक्य के तु समुदायस्याहारको द
कद्रवस्य पूर्वप्रतिपत्र लभ्यते, अपलोऽपि सम्यक श्रुतं अधिकृत्य स्यात् पूर्वप्रतिपन्नः । इति नियुक्तिगाथार्थः । अत्र माध्यम्
पुव्यपवमोऽणाहा-रगो दुगं सो भवंतरालम्मि |
,
चर सेलेसाइस इसे दुर्ग अजय ॥२७१८।। गनानां नवरं बर सेसेसासु सिध्दान् समुद्रापरिग्रहः। ततध शैश्यां समुद्रात हारकश्चरणस्योपलक्षणत्वात् सम्यक्त्व सामायिकं यारिसामयिकं चाश्रिस्य पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते । वरस्त्य यतको देवादिजन्मकाले सम्यक्त्या द्विकमाश्रित्य पूर्वप्रति ।
(४६) जन्मद्वारद्वयस्याविक्यानयेद्माद-निदाइभावयवि य, जागरमाणो चउसइमएसपरं । अंडय तह पोयजरी बचाइदो तिथि नउरो वा। २७१६। इह सुप्तो द्विविधः- द्रव्यसुतः, भावसुप्तश्च । एवं जाग्रदपीति । तत्र द्रव्यसुप्तो निद्रया भावसुप्तस्तु मिथ्यादृषिः । तथा द्रव्यजागरो निद्रारहितः, भावजागरः सम्पदः । तत्र निद्रया भावतो सामायिकानामस्वतरत् प्रतिपद्यते पूर्वपतिवार अपिशब्दो विशेषणे । किं विशिनष्टि ? । भावजागर: सभ्य गृह श्राद्य सामायिके प्रतीत्य पूर्वपतिपत्र एवं व्यवहारनयमतेन भवेत्, निश्चयनयमवेन तु तत्प्रतिपत्ताऽपि भयति र देशविनिवाय पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिषयमानका भत निद्रावस्तु चतुर्णाममि १८९
व
( ७२१ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
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,
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सामादय पनि न तु प्रतिपद्यमानकः निद्रासुतस्य तथाविधविशुबादिसामध्यभावात् । भावसुप्तस्तूययविकलः, तस्य भिध्यादृष्टित्वात् वक्ष्यति -- "मिच्छो उ भावसुन्तो न पवजर " इति । अथवा नियमवो निश्चयव्यवहारनयाभिप्रा गात् स भावसुप्तः सम्यक्सामायिकद्वयप्रतिपत्तिकालेसम्यगृष्ट मिध्यादृष्टिर्वाऽभिहितः तथा च वक्ष्यते'खोडवा या सम्मो वा मिवानि हारोऽमिहि' इति । इदमुकं भवति निश्चयनयस्य सम्यग्दष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, व्यवहारनयस्य तु मिथ्याग्दृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते । अतो व्यवहारनयमतेन भावसुतो मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वादिसामायिकद्वयस्य प्रतिपत्ता लभ्यत इति । जन्म चतुर्विधम्- अण्डजम् पोतजम् जरायुजम् औपपातिकं चेति । तत्राण्डजाइंसादयः, पोतजा - इस्त्यादयः, जरायुजा-मनुष्याः, श्रौयतिका देवनारकाः। एतेषां यथासंभव द्वे, श्रीशिवत्वारि वा सामायिकानि भवन्ति । तत्र हंसादयो द्वे त्रीणि
1
सामाविकानिकदाचित्पूर्व
★
,
3
सत्वेषां ते नियमतः सन्त्येव । एवं पोतजा इत्यादयोऽपि चकव्याः जरायुजस्तु मनुष्याश्चत्वार्यपि सामायिकानि प्रतिन् पूर्वप्रतिपन्नास्तु तेषां नियमतः सन्ति देवदरका पुनराधे द्वे सामायिके प्रतिपद्यन्ते, प्रतिपन्नास्त्वस्य सामायिकद्वयस्य त नियमतः सन्ति । इह त्र मूला-श्यक नि शुक्रयामेवं पाठो दृश्यंत अंडज पोयज जराउय तिग कमसो" इति टीकायां तु जन्म-पोज गज
मेदभिनम् । तत्र यथासंख्यं तिगतिगच उरो भवे कमसो'। ततोऽण्डजादीनां त्रयाणामदि व्याख्याने कृते पश्चाद् व्याख्यातम् - औपपानिकास्तु प्रथमयोर्द्वयोरेव ' इति । भाष्यठीका मूलाश्कीका सर्वावस्वमेवलिखितम् माथापपातकानामुपा दानं कृतं दृश्यते । ततोऽस्या गम्भीरोः समाधानं बहुश्रुता विन्ति । अस्माभिस्तु यथा मध्ये तथा व्याख्यातम्, संगमसंग वेति पुनस्त एवं जानन्ति । इति नियुक्तिगाणार्थः ।
अथ भाध्यव्याख्यानम् -
सम्म
किरा-वजागरो दुमि पुव्यपडिवन्नो ।
हो परिज्मायो, चरणं सो देखविरहं च ।। २७२० ।।
च्छोउ भावसुतो,
न पवजह सोsहवा नयमयाओ ।
सम्मो वा मिच्छो वा, पिच्छय-वदहारोऽभिहिश्रो ।। २७२१ ।।
चरो जराउजम्मे
हुज्ज पो पवजमाणो वा । सेतिथि पो
दोश तो वा पवज्जे ।। २७२२ ।। सोऽयुकायेति नपरंसेस तिथि पा
I
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सामाइय
दिनाजपोजल
हा श्रीपपातिकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमाना
•
बोयोरेव भवतीति इम्यमिति ।
पडिवते व नरिथ पडिवो
( ७२२ ) अभिधामराजेन्द्रः । जन्मषमेष -
(५०) अथ स्थितिद्वारमाहकोस,
अजमको से
.
पडिले यानि पडिवणे ।। २७२३ ॥
"
;
आयुर्वजानां ज्ञानावरणादिकर्मणां पित्सागरोपमकोटीकोपादिकायामुत वर्तमान जीवधमपि सामाथिकानां न प्रतिपद्यमानको न यापि पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते, तस्यातिसंक्लिष्टत्वेन तदसम्भवात् । श्रायुषस्त्रयस्त्रिंशरसागरोपमायामुती वर्तमानोऽनुरसुरः पूर्वम धमसामायिकद्वयस्य प्रतिपचः प्राप्यते सप्तमधिपतिष्ठाननारकस्तु षण्मासावशेषा युस्तथाविधविशुद्धियुक्तत्वादस्पेय सामायिकद्वयस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वभ्यते तथा च वक्ष्यति' श्राउक्कोसे दोरिण उ पवज्जमासोपवणो वा' इति । जघन्यायां तु क्षुल्लकभव ग्रहणलक्षखायामायुः स्थिती वर्तमानां निगोदादिश्चतुर्णामपि न प्रतिपद्यमानको नापि पूर्वप्रतिपक्षः प्राप्यते तस्या विशुद्धस्थेन तदयोग्यत्वादिति । शेषे तु ज्ञानावरणादिकर्मसके जघन्यामन्तर्मुहूतादिकां स्थिति बध्नन् दर्शन सप्तकातिक्रातो ऽन्तकृत्केलिप्राप्स्यन् क्षपको देशविरशियर्जितस्य सम्पत्यतसर्वविरतिल सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपत्र लभ्यते तस्यातिथिशुद्ध त्वेनाति जघन्यस्थितिबन्धकत्वात् क्षपकस्य व देशविरतेरसंभवात्, सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तेश्व पूर्वमेव संजात्यादिति । जधन्यस्थितिबन्धकत्वेन वेद अधन्यस्थितिकत्वं गृह्यते पातकर्मसापेक्षयेति, व्याक्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरिति । अजहराणमयुको इत्यादि, अजघन्योत्कृष्टे तु कर्मण्यष्टानामपि कर्मणां मध्यमायां स्थितौ वर्तमानो जीव इत्यर्थः । चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानका पूर्वप्रतिपन्न लभ्यते । इति नियुक्तिगाथार्थः ।
6
अथ भाष्यम्
उकोसहिकम्मो न पनतो न यानि पडिवो । भाउको दुखि उपजमायो पबच्यो वा ।। २७२४ ॥ न जहाा उठिईए, पडिबाइ नेयपुचप डिवच्यो । सेसे पुष्प, देसविरइयजिए होज ।। २७२५ ।।
तार्थे एव
(५१) पापद्वारत्रयं व्याविक्यासुराद्दचउरो वितिविहवे,
चउसु वि सणासु होइ पडिवत्ती । हेट्ठा जहा कसाएँ
सुवयिं तद व इदवं पि ।। २७२६ ।। त्यापि सामायिकानि नपुंसक लक्षणे विविधेऽपि ।
सामाहय
प्राप्यन्ते । इदमुक्त भवति चत्वार्येपि सामायिकान्यधिकृत्य विविध विवक्षितेकाले प्रतिपद्यमानकः संभवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव । अवेदस्तु देशविरतिरहितानां जया
"
6
पूर्वप्रतिपन्नः स्यात् न तु प्रतिपद्यमानकः तथा चतसृष्वपि संज्ञास्वाहारभय मैथुनपरिग्रहरूपासु चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य भवति प्रतिपत्तिः प्रतिपद्यमानको भवति न भवतीत्यर्थः पूर्वमतिपत्रक स्वस्त्येय 'हे' सिधी पथा पदमा उदय नियमा संजो कसाया इत्यादिना पायेषु वर्णितं तथेहापि चित व्यम् सामान्येन तु सकपायी चतुमपि प्रतिपद्यमामानका पूर्वप्रतिपत्र पति पायी तुस्थीन रागो देशविरतिवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपद्यमान इति गतं बेदादिद्वारत्रयम् ।
"
(२२) साम्प्रतमायुनद्वारद्वयाभिधित्वया प्राहसंखेजाऊचउरो, भयया सम्मसुऍऽसंखवासाणं । ओ विभाग पनासी पडिवअए चउरो ।।२७२७|| संख्यातवर्षायुपश्यत्वारि सामाविकानि प्रतिपद्यते - तिपयथेयइति शेषः भय त्यादि भजनावि कल्पना सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोर संख्येय वर्षायुषाम् । इयमत्र भावना विवक्षितकाले उपेयुष सम्यक्त्य श्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्मवति पूर्वप्रतिपद्मवस्येयेतिहारम्' 'त्यादि ओवेन सामान्यतो निश्वयनयमतेन ज्ञानी चत्वार्यपि सामायिकानि प्रतिपद्यते, व्यपदारनयमतेन त्वज्ञानिन एवं सम्यक्त्वमतिपत्तेः ।
--
प्रतिपक्षस्तु शामी चतुर्णामप्यस्त्येव । विभागेन प भेदेन यदा शानी चिन्त्यते तदा मतिश्रुतज्ञानी द्वे सम्यक्व - श्रुतसामायिके युगपत् प्रतिपद्यते । देशसर्वविरतिसामायिके तु भजनया प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नस्तु चतुमध्यपेय अवधिज्ञानी तु सम्यकरषभुसामायिक यो पूर्वप्रतिपक्ष एव न प्रतिपद्यमानकः देशाचरतिखामायिकं तु न प्रतिपद्यते । देवनारकयतिश्रावका हि चत्वारोपधिस्थामिनः । तत्राद्यत्रयस्य देशबिरतिप्रतिपत्तेरसम्भव एव आयकोऽप्यवधिज्ञानं प्राप्य देशविरति प्रतिपद्यत इत्येवं न किन्तु पूर्वमभ्यस्तदेशविरतिगुलः पश्चादवधि प्रतिपद्यते, देशविरत्यादिगुणमाशिपूर्व क्रत्वादवधिज्ञानप्रतिपत्तेरित्येतावद् गुरुभ्योऽस्माभिरवगतम्, तस्वं तु केवलिनो विदन्ति । सर्वविरतिसामादिकं तु प्रतिपद्यते पूर्वप्रतिपक्षस्तु सर्वेषामप्यस्त्येव । मनःपर्यायज्ञानी तु देशविरतिरहितसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव न तु प्रतिपद्यमानः, युगपासह तेन वा चारित्र प्रतिपद्यते तीर्थकृत्, उक्तं च-"डिवमम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्थो " इति । भव
"
केवलसम्पत्व चारित्रसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्न भयति नतु प्रतिपद्यमानकः इति निशिगाथायार्थः ।
"
भाष्यम् -
दोमु जुगवं चिय दुर्ग, भयणा देसविरइए य चरखे य ओहिम्मिन देसवयं, पडिवजह होइ पडिवनो || २७२८|| Hoaraj मा - खसे पवनो समं पि च चरितं ।
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय भवकेवले पवनो, पुच्वं सम्मत्तचारितं ॥ २७२६ ।। प्राह ननु यद्येवमनाकारीपयोगेऽपि लब्धौ सत्यां ' सव्वाउतार्थे एव,नवरं 'दोसु जुग चिय दुर्ग' ति-द्वयोर्मतिज्ञान
श्रो लीश्री सागारोवोग' इत्याद्यागमे साकारोपयोगशुनशानयोयुगपंदेष प्रतिपत्तिमाश्रित्य सम्यक्त्य-धुतसा
स्यैव ग्रहण किमर्थम् ? इत्याशङ्कयाहमायिकद्विकं प्राप्यत इति ।
पायं पवड्डमाणो, लभए सागारगहणया तेण ! (2) স্মথ যাঘামায়ামাখা এই- इयरों उ जइच्छाए, उवसमसम्माद लाभम्मि ॥२७३३।। चउरो तिविहे जोए, उवोगदुगम्मि चउरों पडिवजे ।
प्रायो-बाहुल्येन वर्धमानः-प्रवर्धमानपरिणाम एव जीयो ओरालिए चउक्कं, सम्मसुयविउव्बिए भयणा ॥२७३०||
लब्धीलमते , सेनागमे साकारोपयोगस्यैव ग्रहणं कृतम् । चत्वार्यपि सामायिकानि सामान्यतत्रिविधयोगे मनोवा
इतरस्त्ववस्थितपरिणामो यदृच्छया सकृत् कदाचिदेवापश
मिकसम्यक्त्वादिलाभकाल प्राप्यते इत्यनाकारोपयोगस्य कायलक्षणे सति प्रतिपत्तिमाश्रित्य विवक्षिते काले सम्भवन्ति, प्राक्प्रतिपन्नतां त्वधिकृत्य विद्यन्त एव । विशेषतस्तवी
स्वल्पत्वेन सतोऽप्यविवक्षितत्वात् सूत्रेऽग्रहणम् । श्रादिशदारिककाययोगवति योगत्रय चत्वार्युभयथाऽपि लभ्यन्ते ।
ब्दात्-श्रुतदेशसर्वविरतिसामायिकलाभपरिग्रहः । अयमत्र वैक्रियसहितेतु योगत्रये सम्यक्त्वश्रुत उभयथाऽपि प्राप्येते,
भावार्थः, यथा-" सब्वाश्रो लद्धीओ सागारोवोग" tदेशसर्वविरती तु पूर्वप्रतिपन्ने लभ्यते । श्राहारकयुक्ते तु यो
त्याटिक श्रागमः, तथा-' उवोगदुगम्मि चउगे पविजे' गत्रये देशविरतिरहितानि त्रीणि पूर्वप्रतिपन्नानि भवन्ति,
इत्ययमप्यागम एव , अतः परस्परप्रतिस्पर्दिसैद्धान्तिकचतैजसकार्मणयोग एव केवलऽपान्तरालगताबायं सामायि
चसा व्यवस्था न्याय्या। सा चेयम्-याः सम्यक्त्वं लब्ध्वा
मिथ्यात्वं गतानां पुनरपि कुतश्वित् शुभोदयात् प्रकद्वयं प्राक् प्रतिपन्नतामधिकृत्य प्राप्यते । केवलिसमुद्धाते तु सम्यक्त्वचारित्रसामायिके पूर्वप्रतिपन्ने प्राप्यते । मनोयोगे
तिक्षण प्रवर्धमानाध्यवसायवां सम्यक्त्व-चारित्रादिकेवले न किञ्चित् , तस्यैवाभावात् । एवं वाग्योगेऽपि काय
लब्धयो भवन्ति , याश्वावध्यादिलब्धय उत्पद्यन्ते ताः घाग्योगद्वये द्वीन्द्रियादिपूत्पन्नमात्रस्व सास्वादनस्य पूर्वप्र
सर्वाः साकारोपयोगोपयुक्तस्य द्रष्टव्याः। यास्तु प्रथतिपन्ने सम्यक्त्वश्रुते प्राप्यते इत्यलं विस्तरेण । 'उधोग
मसम्यक्त्वलामकाले उतरकरणपविष्टम्यावस्थिताध्यवसा
यस्य सम्यक्त्वादिलब्धयो भवन्ति ता अनाकारोपयो त्यादि, साकारानाकारभेद उपयोगे उपयोगद्वये चत्वारि प्रतिपद्यते , प्राक् प्रतिपन्नस्तु विद्यत एव । श्र
गेऽपि भवन्ति न कश्चिद दोषः । अन्तरकरणे च वर्तमानः श्राऽऽक्षेपपरिहारी भाष्यकार एव वक्ष्यति ।' श्रोगलिए' इ
सम्यक्त्व-श्रुतसामायिकलाभसमकालमेव कश्चिदतिविशुत्यादि, औदारिकशरीरे सामायिकचतुष्कमुभयथाऽप्यस्ति ।
द्धत्याद् देविरतिम् , अपरस्त्वतिविशुद्धत्वात् सविरसम्यक्त्वश्रुतयोवैक्रियशरीरे भजना-विकल्पना कार्या देवादि
तिमपि प्रतिपद्यतः इत्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभकालेऽवस्थि कदाचित ते प्रतिपद्यते, कदाचिद नेति । देशविरतिसर्वविर
तपरिणामस्यानाकारोपयागवर्तिनोऽपि चत्वार्यपि सामा. तिसामायिक तु वैक्रियशरीरिणास्तर्यगमनुष्या अपि न प्रति.
यिकानि भवन्ति, स्वल्पत्वाच्चैतदत्रागमे न विवक्षितमिति । पद्यन्ते । विक्रियाप्रवृत्तित्वेन किल तेषां प्रमत्तत्वादिाते । पू
(५४)कथं पुनरिदमौपशमिकसम्यक्त्वं जीवस्याभ्युपगन्तप्रतिपन्नस्तु बैंक्रियशरीरे चतुर्णामपि प्राप्यत एव । शेषश
व्यम् इत्याह-- रीरविचारः प्रस्तुतगाथायामेवादी निरूापतयागद्वारानुसा- ऊसरदेसं ददि-लय व विज्झाइ वणदवो पप्प । रत एव भावनीय, इति नियुक्किगाथार्थः ।
इय मिच्छस्स अणुदए, उसमसम्मं मुणेयच्या२७३४॥ यदुक्रम् ' उपभोग दुगम्मि चउरा पविजे' इति । तत्र
যাৰহা খুশি হ বা গ্রাস না ম্বিয়াभाष्यकारः प्रेर्यमुत्थापयन्नाह
यति, इत्यवमन्तरकरणं प्राप्य मिथ्यात्वस्थानुदये मिथ्यासव्वाश्रो लद्धीमा,जइ सागारावभीगभावम्मि ।
स्वोदयवहाधुपशान्त श्रीपशमिकं सम्यक्त्वं जीवस्य मुणिइह कहमुवीगदुगे,लम्भइ सामाइयचउक ॥२७३१॥ तव्यमिति। प्राह ननु, 'सव्वाश्रो लद्धीनी सागारांवोगांवउत्तरस
कदा पुनरिदं भवति? इत्याह-- भवंति" इत्यागमे प्रोक्लम् ,ततो यदि एतस्मादागमात् सर्वा उक्सामगढिगय-स्स होइ उवसामगं तु सम्मत्त । अपि लब्धयः साकारोपयोग पव भवन्ति; तर्हि कथमिह
जोवा अकयतिजो,अखवियमिच्छो लहइ सम्म|२७३५ प्रोच्यते- उपयोगद्वयेऽपि सामायिकचतुष्टय लभ्यते'इति?।
प्रागुतार्था । अत्र परिहारमाह
(x) কর্ঘ তুলঘেীহামিনারুলাম ঘথিবখ-ি सो किर निश्रमो परिव-ढमाणपरिणामयं पड़ इहं तु ।
णामत्वम् ? इस्याह'जोऽवद्रियपरिणामो,लमजसलभिज बीए वि॥२७३२।। जमिच्छामाणुदओ , न हायए तेण तस्स परिणामो। 'सव्वाश्रो लद्धात्रा' इत्यादिको यस्त्वयाऽऽगमोक्कमियमा- जं पुण सयमुवसंतं, न वढए तेण परिणामो ॥२७३६।। ऽभिधीयते स किल परिवर्धमानपरिणामकं जीवं प्रति यद्-यस्मादन्तरकरणे मिथ्यात्वस्यानुदयस्तेन तस्माद् न द्रव्यः । इह च प्रस्तुते योऽस्थितपरिणामो जीधः सामा- हीयते सस्य परिणामः, हानिकारणाभावात् । यस्मात् पुनः यिकानि लभते, स द्वितीयेऽप्यनाकारोपयोगे लभेत शा- सत्तागतं मिथ्यात्वमुपशान्तं विकम्भितोदयमपनीतमिथ्यानि, इति न विरोधः।
स्वभावं च, तेनास्य परिणामो न वर्धते । यथा हि-यनद
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सामाइय
बोर्धते किन्तु विध्यायति इत्येवेद्यस्प मियात्वस्याभावात् तत्क्षपगाया निवृतिकरणवद् नी शमिकसम्यगृहे परिणामो वर्धते किम्वदन्ति एवास्ते, अतोऽस्थितपरिणामत्यमिति ।
( ७२४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
(५६) ' ओरालिए चउकं ' इत्यादेर्व्याख्यानमाहदुगपडिवी पेठ-वियम्मि सच्चाईं पुव्यपडिवो । देव्यवआई, आहाराई तीसुं तु ॥ २७३७ ॥ उक्तार्था । नवरमाहारकशरीरे देश विरतिवर्जसामायिकत्रयं पूर्वप्रतिपन्नमवाप्यते, चतुर्दशपूर्वविदो देशविरतेरभावात् पातु पूर्वप्रतिपत्वेन प्रतिपत्तेरसंम्भवादितितेजसा
योस्तु केवलसमुद्घाते चतुर्थपञ्चमतृतीयसमयेषु सभ्यकृत्यचारित्रसामायिकस्य विग्रहगतौ तु सम्यक्त्यश्रुतयोः पूर्वप्रतिपचः प्राप्यते इति गाथा सहकार्थः ।
(५७) अथ संस्थानादिद्वारमाह
सव्वेसु वि संठाणे - सु लहइ एमेव सव्वसंघयणे । उकोसमह व जिऊ माखे लभे मधु || २७३८ ||
सम
संस्थितिः संस्थानमाकारविशेषलक्षणम् । तच्च चउसे ' बरं निगोदमंडले इत्यादिमंदा पोटात सर्वेष्यपि संस्थानेषु लभते प्रतिपद्यते स्वापि सामायिकानि, प्राकू प्रतिपन्नोऽप्यस्ति ' इत्यध्याहारः ।
·
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( संहनने ) - 'पमेव सहित समस्थिविशेषः तानि च पद्मपंधाराचादिभेदात् पद भयन्ति । एतेषु च यथासंस्थानेष्येवमेव निरवशेषो विचारः कर्त्तव्यः, पूर्वप्रतिपाति प्रतिपद्यमानानि चैतेष्वपि चत्वारि लयन्त इत्यर्थः ।
( अवगाहना ) -
'उक्कोसे' इत्यादि मीयते इति मानं-शरीरस्य प्रमाणमवग्राहमेत्यर्थः । तत्र मनुष्यस्योत्कृष्टमानं त्रीणि गतानि जघन्यं त्वङ्गलायमान ए जघन्यं माने वर्जयित्वा मध्यमशरीरमाने वर्तमानो मनुष्यो लभते प्रति
तेत्यापि सामाधिकानि इति प्रथमागम्यते । पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव । जघन्यावगाहस्तु गर्भजमनुष्यः सम्यक्त्वतयोः पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति । न तु प्रतिपद्यमानका उत्कृष्टापानस्तु विगम्यूतः सम्भूतयोि धाऽप्यस्ति । नारक देवा अपि जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वभूतयोः पूर्वप्रतिज्ञाः सम्पति नतु प्रतिपद्यमानाः । मध्यमोत्कृष्टावगाहनास्त्येतयोः प्रतिपद्यमानकाः सम्भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सत्येत्र, तिर्यञ्चस्तु पञ्चेन्द्रिया जघन्यायगाहनाः सम्यकृत्य श्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति नतु प्रतिपद्यमानका उत्कृष्टावगाहनास्तु पडन्नास्तयोर्डि धाऽपि लभ्यन्ते । मध्यमावगाहनास्तु द्वयोस्त्रयाणां वा सर्वतितानां प्रतिपद्यमानाः सम्भवन्ति पूर्वप्रतिपा
प्रयायां सम्येष इति निक्रिगाथार्थः ।
श्रथ भाष्यम्
न जहन्नोगाहणम, पवज्जए दोरिग होज पडिवनो । उसोगागो दुहा विदो तिग्नि उतिरिक्खो २७२६ ।
सामाइय जघन्यावगाहनो गर्भजमनुष्यस्तिर्यक् च न किञ्चित् प्रतिपद्यते, द्वयोस्त्वाद्ययोः पूर्वप्रतिपन्नो भवेत् । उत्कृष्टावगा
नस्त्वनयोर्द्विधाऽपि पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानकश्च भवति । मध्यमावगाहनो मनुष्यचतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानश्च लभ्यत इति द्रष्टव्यम् । पञ्चेन्द्रियतिर्यक् पुनईयोराद्ययोः त्रयाणां या सर्वविरतिवर्जितान द्विधापि इत्यत्रापि वर्तते पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमान भवति इति गाथार्थः ।
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(५८) अथ लेश्याद्वारमाह
सम्मत्तसुयं सव्वा-सु लहह सुद्धासु तीसु य चरितं । पुब्वपडिवचओ पुग, अभयरीए उ लगाए । २७४० || सम्यक्त्वश्रुत सामायिके सर्वास्वपि कृष्णादिकासु शुक्लाम्तासु पद्स्यगिलेश्वासु लभते प्रतिपद्यते नरकादिः । चारित्रं तु देश सर्ववितिलक्षणं शुद्धास्वेवोपरितनीषु तैजसीप्रतिपद्यते पद्मशुक्ललक्षणासु तिसृषु लेश्यासु पूर्वप्रतिपन्नः पुनः पराणामन्यतरस्यामपि लेश्यायां चारित्री सम्प्राप्यते इति निशिगाथार्थः ।
अथ भाष्यकारः
मुख्यापयचाह-
न महसपाइला भी ऽभिहियो मुद्धास तीसु लेसासु । सुद्धामु अमुद्धा सुप, कदमिह सम्मचलाभ १२७४१॥ ननु पूर्व ज्ञानपञ्चकविचारे मतिश्रुतादिज्ञानलाभः शुद्धास्पेय तेजसीप्रभृतिषु तिसृषु वेश्यास्यामिति तु शुद्धाशुद्धां च पद्यपि सम्यक्त्यधुतलाभोऽभिधीयमानः कथं न विरुध्यते ? इति ।
अत्र परिहारमाह
"
"
सुरनेरइएस दुगं, लब्भह य दव्वलेसया सव्वे । नागेसु भावलेसा-हिगया इह दव्य लेसाओ।। २७४२ ॥ इह तावत् सुरनारयवि सम्पयनसामायिकद्वयं लतसेच सुरनारकाः सर्वेऽप्ययस्थितले म वन्ति यथासम्भवं षडपि कृष्णादिद्रव्य लेश्यास्तेष्वयस्थिताः श्रुते प्रतिपाद्यन्त इत्यर्थः । भावलेश्यास्तु तेषां परावृस्या कस्यचित् कार्यिदेव भवति तिर्थमनुध्यायखिता इष्पलेश्या न भवन्ति किन्तु इवलेश्या भावलेश्या च सर्वेषां परावर्तते । देवनारकाणामपि द्रव्यलेश्यैयावस्थिता भावलेश्वा तु तेषामपि परावृपा कदाचित् कान्चिदेव भवति । ततश्च सुरनारका अपि यदा सम्यक्त्वा - दिकं लभन्ते तदा भालेश्या तेजस्पादीनामन्यतरा व भवति अवा तु नित्यावस्थितत्वात् नेले व द्रष्टव्या न तु भावलेश्या । एवं च स्थिते ज्ञानेषु मत्यादिषु पूर्व लाभविना भावलेश्याधिता मेयाङ्गीकृत्य शुद्धश्वाश ज्ञान उक्त इत्यर्थः तु सम्यत्यसामायिकलामांयां देवनाराय व्यवेश्या अधिकृताः तेनाखासु सर्वासु - श्यासु तल्लाभ उक्त इति भावः । भावलेश्खामङ्गीकृत्य पुनरिहापि शुद्धादेव तिसृषु स्यादिलेश्या भोवगन्तव्यः । इति न कश्चिद् विरोधः । श्राह - ननु यदि देवमारकाणां कृष्णादिका अशुभा इरलेश्याः सदा उपस्थिता
"
"
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अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय भास्त तदा सम्यकत्वादि-लाभकाले कथे तेषां शुभभा- ते सम्यक्त्वचारित्रसामायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्नको लभ्यते। पखेश्यासम्भवः । द्रव्यले श्या हि भावलेश्या जनयन्ति । शषसमद्धातेषु पुनर्देशविरतिबर्जसामायिकत्रयस्य चारित्रसतः कृष्णादिलेश्या द्रव्याण्यशुभामि कथं शुभभावलेश्या- बर्जस्य वा सामायिकत्रयस्य पूर्वनिएनः प्राप्यते इति जनये युः, अशुभकारणात् शुभकार्यायोगात् ? इति सत्यम , नियुक्तिगाथार्थः । विशे० । प्रा० म० । किन्मु-नारकादीनामपि सम्यक्त्वादिलाभकाले कथमपि
(६१) निर्वेष्टनोद्वर्तनद्वारद्वयमाहपधाप्रवृत्तिकरसेन शुभानि तेजस्यादिद्रव्यलेश्याद्रव्याण्या
दव्वेण य भावेण य, निम्वेद॒तो चउएहमरणयरे । तिप्यन्त । ततो यथाऽऽदर्शः श्वेतोऽपि जपाकुसुमादिचस्सुप्रतिबिम्बसंक्रान्तौ रक्तादिरूपता प्रतिपद्यते तथा कृष्णा- नरएसु अणुव्बट्टे,दग तिग चउरो सि उबट्टे ॥२७४५॥ घशुभद्रब्धारयपि तेजस्यादिशुभदव्यप्रतिबिम्बसंक्रमे नि- द्रव्यतः सामान्येन सर्वकर्मप्रदेशान् , विशेषतस्तु तस्य जरूपोत्करतां परित्यज्य तदाभासता प्रतिपद्यन्ते । चतुर्विधस्य सामायिकस्य यदावरणं शानावरणमोहनीयलततो नारकादीनामपि कृष्णाद्यशुभद्रव्यानुभावं मन्दतां नी- क्षण तत्प्रदेशान् निर्वेष्टयन निर्जरयन् , भावतस्तु क्रोधाचन्या शुभामि तेजस्यादिद्रव्याणि शुभां भावलेश्यां जनयन्ति
ध्यवसायान् निर्वेष्टयन् हा(प)ययंश्चतुर्णामन्यतरत्प्रतिपद्यत, बताऽवस्थितायामपि कृष्णादिद्रव्यलेश्यायां नारकदवानां पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्येव । संवेष्टयस्त्वनन्तानुबन्ध्यादीन् न प्रसम्यक्त्वादिलाभकाले शुभभावलेश्यासम्भवा न विरु- तिपद्यते.शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथाऽप्यस्ति । नरकेष्वधिकरभ्यते । इत्यल विस्तरेम । तदर्थना तु-" स नूग भंते !!
णभूतेष्वनुवर्तयंस्तत्रस्थ एवेत्यर्थः , प्राचं सामायिकद्वयं किराहलसा मीललेसं पप्प नो तारूवत्ताए, नो तावन्नताए"
प्रतिपद्यते, तदेव चाधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति । तत उइत्यादि प्रशापनासूत्रं मूलावश्यकटीकादिलिखितमनुसरणी
वृत्तः स्यात् कदाचित् तिर्यक्षुत्पत्रः सर्वविरतिवर्जे सा. यम् इति गाथाद्वयार्थः।
मायिकत्रयं प्रतिपद्यते , कदाचित मनुष्येषत्पन्नश्चत्वार्याप (५६) अथ परिणामद्वारमाह
प्रतिपद्यते , पूर्वप्रतिपन्नस्त्वत्येव इति नियुक्निगाथार्थः । बढ़ते परिणामे, पडिवाइ सो चउराहमएणयरं ।
भाष्यम्एमेव वड्डियम्मि वि,हायंत न किंचि पडिवजे ॥२७४३॥
कम्मं निव्वेदंतो, पवजइ विसेसो तदावरणं । परिणामः-अध्यवसायविशेषः।तत्र शुभशुभतररूपतया वर्ध. दव्वं कम्मपएसे, भावे कोहाइ हावितो ॥२७४६॥ मान परिणामे प्रतिपद्यते स वर्धमानपरिणामो जीवश्चतुर्णा उक्लाथैव । सम्यकत्यादिसामायिकानामन्यतरदिति । एवमेव पूर्वोक्लन्या. तदेवोद्वर्तनाद्वारं तिर्यगादीनधिकृत्याहयनान्तरकरणादाववस्थितऽपि शुभे परिणामे प्रतिपद्यते स
तिरिएसु अणुव्बट्टे, तिगं चउकं सिया उ उच्चट्टे । चतुर्णामन्यतदिति । हीयमान तु क्षीयमाणे शुभे परिणामे न कश्चित् सामायिकम् प्रतिपद्यते, संक्लिष्टत्वात् । प्राकपति
मणुएसु अणुव्बट्टे,चउरो वि तियं सि उबट्टे ॥२७४७।। पन्नस्तु त्रिष्वपि परिणामेषु भवतीति ।
देवेसु अणुव्बट्टे,दुग तिग चउरो सिया उ उबढे । ' (६०) अथ वेदनासमुद्धातकर्मद्वारद्वयमाह
उबदमाणी पुण,सव्वो विन किं चि पडिवजे।२७४८. दुबिहाएँ वेयणाए, पडिपाइ सो चउण्हममयरं ।
तिर्यतु गर्भजेष्वनुवृत्तः संस्त्रिकमायं सामायिकत्रयम
धिकृत्य 'प्रतिपत्ता पूर्वप्रतिपन्नश्च भवति' इत्यध्याहारः । अममोहमोवि एमे-व पुब्बपडिवत्रए भयणा ।।२७४४॥।
'चउक्क'मित्यादि तिर्यग्भ्य उद्वृत्ता मनुष्यादिध्यायातः स्याद्विविधायां वदनायां साता-ऽसातरूपायां सत्यां प्रतिपद्यते |
त् कदाचिच्चतुष्कम् , स्याद् ग्रहणादिदमपि द्रव्यम् । स्थास धनुर्णामन्यतरत् , प्राकप्रतिपन्नश्च भवतीति द्वारम् । सम्
त् त्रिकम् , स्याद् द्विकमधिकत्योभयथाऽपि भवतीति । 'मएकीभाव, उत-प्राबल्य , वंदना-कषायाद्यनुभवपरिणामेन गुपसु अणुब्बट्टे चउरो' त्ति-मनुष्यध्वनुदवृत्तः संश्चत्वारि सहकीभायमापन्नस्य जन्तावेदनीयादिकर्मपुद्गलानां प्राब- प्रतिपद्यते, प्राक प्रतिपन्नश्च भवति । 'बितिय सि उबट्टे' लयन हनन-घातः समुद्धातः । स च केवलिसमुद्धातादिभे- मनुष्यभ्य उदृत्तो देव-नारकेषूत्पन्नः प्रथमं सामायिकददान् सप्तविधः, उक्तं च-केवलिकसायमरणा,वेयणवउव्विते- यमधिकृत्योभयथाऽपि लभ्यते । तिर्यसूत्पन्नः पुनः सर्वविर. याहार । सत्तषिहसमुग्धाश्रा, पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ १॥ तिवर्जसामायिकत्रिकमाश्रित्य विधाऽपि भवतीति । देवेसु ममुद्घात एव कर्म-क्रिया समुद्धातकर्म तद्वार- अणुब्बट्टे दुग' त्ति-देवेष्वनुवृत्तः सन्नाय सामायिकद्वयमितः प्रोच्यते । तत्र केवल्यादिसमुद्धांतन समाहतस्य माश्रित्योभयथाऽपि भवति । तिग चउरो सिया उ उव्वविपक्षोऽसमवहतः । सोऽप्येवमेव वेदनाबद् वाच्यः, चतुर्णा हे' त्ति-देवेभ्य उद्धृत्तस्तिर्यधायातः सर्वविरतिसामायिप्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपम्नश्च भवतीत्यर्थः । 'पुब्बपडिब- कत्रिकम् , मनुष्येषु त्वायातः सामायिकचतुष्कमप्याश्रित्योमाए भयण' त्ति-इदं साध्याहारं व्याख्ययम् , तद्यथा-यस्तु भयथापि स्यादिति । उद्वर्तमानः पुनरपान्तरालगती सोंकवल्यादिसप्तविधसमुदातेन समवहतः स न किश्चित् उध्यमगदिर्न किश्चित् प्रतिपद्यते , प्राक प्रतिपन्नस्तु धयोसामायिक प्रतिपद्यत । पूर्वप्रतिपन्नके तु भजना-सेवना सम- र्भवतीति । धनाविधिः कार्य इति यावत् । समवहतो हि सामायिकत
(६२) श्राश्रवकरणद्वारमाहयस्य त्रयस्य षा पूर्वप्रतिपक्षको भवति । तत्र केवलिसमुद्धा- नीसवमाणो जीवो, पडिवाह सो चउराहममयरं ।
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(७२६). सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय पुष्वपडिवनो पुण,सिय आसवमो व नीसवो२७४६ भिलाप्येषु न प्रवर्तते अविषयत्वात् तेषाम् , किन्वभिला
प्यध्वेवार्थेषु तत् प्रवर्तते । न च द्रव्यं धर्माऽस्तिकायादिकयत् सम्यक्त्वादिसामायिकं प्रतिपद्यते तदावारकं मि
मनभिलाप्यं किन्त्वभिलाप्यमेव । ततः सर्वद्रव्येषु श्रुतं प्रध्यात्वमोहनीयादिकर्म निश्रावयन्-निर्जरयमेव शेषकर्म तु
वर्तते, अभिलाप्यविषयत्वात् , तस्य, न पुनः मर्वपनन्नपि जीवः प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरदिति। यस्तु
भायेषु सर्वपर्यायेषु तेषामभिलाप्याऽनभिलप्यत्वात् श्रुतस्य पूर्वप्रतिपन्नः सः, वाशब्दस्य व्यवहितसंबन्धात् स्यादाश्रावको बन्धक इत्यर्थः, निश्रावको वा निजरकः स्यात् ।
चामिलाप्यमात्रविषयत्वात् , अभिलाष्यानां चानभिलाप्ये
भ्योऽनन्तभागमात्रवृत्तित्वादिति । 'बिइये' त्यादि द्वितीयनिर्वेएनद्वारोक्त पवार्थोऽत्र पर्यायान्तरेणोक्तः, परमार्थ
चरमवते द्वितीयं मृषावादब्रतम् । चरमं तु परितस्त्वात्यन्तिकभेदाभावादिति ।
प्रहवतमाश्रित्येह प्रक्रमे चारित्रं सर्वद्रव्येषु प्रवर्तते (६३) अथालङ्कारशयनाऽऽसनस्थानचङ्कमणद्वारकद
न तु सर्वपर्यायश्चित्युक्तम् , मृषावादस्य वचनरूपत्वेन , म्यकं व्याचिण्यासुराह
परिग्रहस्य च मूर्छा विकल्पात्मकत्वेन द्रव्येष्वेव उम्मुकमणुम्मुक्के, उम्मुच्चंते य केसलंकारे ।
सर्नेषु प्रवनेः . तेषामेवाभिलाप्यविषयत्वात् , पर्यायाणां पडिव जिजं नयर, सयणाईसुं पि एमेव ॥ २७५०॥
घभिलाप्याऽनभिलाप्यत्वात् । अत एवाह-सर्वेषां पर्यायाणां केशोपलक्षितकटककेयूरहारकङ्कणवत्रताम्बूलाचलङ्कारः ।
चारित्रेऽनुपयोगभावात् । अनुपयोगश्चानभिलाप्यानाश्रित्य केशालङ्कारस्तरोन्मुक्ने परित्यक्त , अनुन्मुक्त च-अपरित्य
मन्तव्यः । शेषाणि तु त्रीणि महायतानि सर्वद्रव्यविषयाके, तथा उन्मुञ्चश्व केशाद्यलंकारचतुर्णामन्यतरत् सामा
ण्यपि न भवन्ति, किमुत-सर्वपर्यायविषयाणि ? । अतोयि के प्रतिपद्यते । अत्र च भरतचक्रवर्त्यादय उदाहरणं म
द्वितीयचरमारने एवाश्रित्य सर्चव्या सर्वपर्यायविषयतान्सव्याः । एवं शयने, आसने, स्थाने, चक्रमणे च परित्यक्ते
चारित्रस्य भाविनेति । अपरित्यक्ते परित्यज्यमाने चेतासु तिमृण्वप्यवस्थासु चतु- सर्वपर्यायाणां चारित्रेऽनुपयोगभायात्, इति यदुक्तं तदुएामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक प्रतिपन्नश्च सर्वत्र लभ्यते। जीव्य परः प्रेर्यमाहइति नियुक्किगाथाचतुष्टयार्थः तदेवमुक्तं विस्तरतः 'कहि'
नणु सम्बनहपएसा-णंतगुणं पढमसंजमट्ठाणं । इति द्वारम् ।
छबिहपरिवडीए, छट्ठाणासंखया सेढी ।। २७५५ ॥ अश केषु' सामायिकं लभ्यत इति द्वारमभिधातुमाह
अप्पे के पाया, जेऽणुवउत्ता चरित्तविसयम्मि । सव्यगयं सम्मत्तं, सुपचारित्ते न पञ्जवा सव्वे ।
जे तत्तोऽणतगुणा, जेसिं तमणंतभागम्मि ।। २७५६ ॥ देसविरई पहुच्चा, दोएह वि पडिसेहणं कुजा॥२७५१२॥
अन्ने केवलिगम्म-त्ति ते मई ते वि के तदब्भहिया। अथ केषु द्रव्येषु पर्यायषु च सामायिकम् ?, इति जिशा
एवं पि हुञ्ज तुल्ला, नाणंतगुणत्तणं जुत्तं ॥ २७५७ ॥ सायामुच्यते सर्वद्रव्यपर्यायगतं सम्यक्त्वम् सर्वद्रव्यपर्या
श्राह-मनु संयमश्रेण्यां सर्वजघन्यत्येन यत् प्रथमम्-आद्य यश्रद्धानरूपत्वात् तस्य । तथा-श्रुत-श्रुतसामायिके,चारित्रे. चारित्रसामायिके द्रव्याणि सर्वाण्यपि भवन्ति । विषयप
सयमस्थानं तदपि पर्यायानाश्रित्य सर्घनमाप्रदेशानन्तगुणर्यायास्तुन सर्वे तद्विषयः, श्रुतस्याभिलाप्यविषयत्वात् , प
मागमे प्रोक्रम-यावन्तः सर्वस्यापि लोकालोकनभसः प्रर्यायाणां चाभिलाप्याऽनभिलाप्यरूपत्वादिति । चारित्रस्या
देशास्तदनन्तगुण पर्यायराशियुक्तं प्रथममपि संयमस्थानं श्रु. पि' पढमम्मि सम्बजीया' इत्यादिना सर्वद्रव्याऽसर्चपर्या
तेऽभिहितमित्यर्थः । ततोऽन्यद् विशुद्धितोऽनन्तभागवृद्धम, यविषयतायाः प्रतिपादितत्वादिति । देशविरतिं प्रतीत्य द्व
तदपरं त्यसंख्यातभागवृद्धम् , अन्यत्तु संख्यातभागवृद्धम् , योरपि सकलद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात्-न सर्वद्र
तदपरंतु संख्यातगुणवृद्धम् , अन्यत् वसंख्यातगुणवृद्धव्यविषयम् , नापि सर्वपर्यायविषयं देशविरतिसामायिक
म् , तदपरं स्वनन्तगुणवृद्धमित्येवं पुनः पुनः क्रियमाणयामिति भावः , इति नियुक्निगाथार्थः ।
षड्विधपरिवृद्धथाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणैः पदस्थाअथ भाष्यकारव्याख्या
नकैर्निष्पन्ना संयमश्रेणिर्भवतीति । ततश्च के नाम तेऽन्ये स.
मधिकाः पर्यायाः, ये ' सर्वानुपयोगभावात्' इति वचनाएग पि असद्दहो, जंदव्वं पञ्जवं च मिच्छत्तं ।
चारित्रविषयानुपयुक्ताः प्रतिपाद्यन्ते ?, ये च-'न उ सब्वपञ्च विणिउत्तं सम्मत्तं, तो सब्बयदव्यभावेसु ॥२७५२॥ वेसु' इत्युक्ताभिप्रायात् ततश्चारित्रादनन्तगुणाः, येषां च नाणभिलप्पेसु सुयं, जम्हा न य दम्बमणभिलप्पं ति । पर्यायाणां तचारित्रमनन्तभागेऽभिधीयते ? । अभिलाप्यपसम्बदब्वेसु तयं, तम्हा न उ सबभावेसु ।। २७५३ ।।
र्यायविषयं हि किल चारित्रम् , ते चानभिलाप्यानामनन्त
भाग एव वर्तन्ते, अतो-'न उ सब्वपजवेसुं'इत्युक्तेऽनुपयुक्ताः बिइयचरिमव्ययाई, पइ चारित्तमिह सव्वदव्वेसु ।
पर्यायाश्चारित्रादनन्तगुणाः,चारित्रं तु तेषामनन्तभागे,इत्यनुन उ सव्वपजवसुं, सव्वाणुवोगभावाभो ॥२७५४॥
कमपि सामाद् गम्यत इति । पतञ्च किल परो न मन्यते, यद यस्मादेकमपि द्रव्यं पर्यायं घा जिनप्रणीतमबद्धतः सर्वजघन्यस्यापि संयमस्थानस्य सर्वनभःप्रदेशानन्तगुणपर्यासतो मिथ्यात्वमुक्तम् , ततः सम्यक्त्वं विनियुक्तं सर्वद्रव्य- यत्वात् , पर्यायाणां च त्रिभुवनेऽप्येतावन्मात्रत्वात् , चारिपर्यायेषुः श्रयानभावेन इति शेषः । यस्माच श्रुतझानमन- त्रानुपयुक्तपर्यायाणामसम्भवादिति । 'अने' इत्यादि, अत्रा
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय चार्य ! 'ते' तवैवंभूता मतिर्भवचारित्रोपयुक्नेभ्योऽन्यजपे | ह-केषु इतिद्वारे विषयविषयिणो दो विवक्षित इत्यतो केवलज्ञानगम्या अनभिलाप्या अनन्तगुणाः पर्यायाः सन्ति, निष्कृष्य विषय एव शेयभावेनोक्तः, तत्र तु किं द्वारे ये चारित्रावनन्तगुणाः, चारित्रं तु येषामनन्तभाग इति ।। विषयविषयिणोरभेदोपचार इत्यतो विषयिभूतं सामायिकपरः प्राह-'ते वि के तदब्भहिय' त्ति-तेऽपि केवलज्ञान- मेव सेयभावेन मुख्यतया निर्दिष्टम् । इति गाथानगम्या श्रेयगता अनभिलाप्याः पर्यायाः । के तदभ्यधिकाः पकार्थः । साम्प्रतं ' कथं सामायिकं लभ्यते?' इति द्वारेमतेभ्यश्चारित्रोपयुक्नेभ्योऽभ्यधिका अतिरिकाः स्युः १ न के- हाकटलभ्ये तल्लाभक्रमं दर्शयन्नाह-'माणुस्स ' इत्यादिकाः चनेत्यर्थः , संयमस्थानपर्यायैः सर्वस्यापि त्रिजगत्पर्यायरा- 'अम्भुटाणे विणए' इति पर्यन्ता प्राविंशतिगाथाः । एताशे: कोडीकृतत्वात् तदनुपयुक्तत्वासम्भवादिति । किश्च-ए- व पाठसिद्धा एव. कचिद् वैषम्यसम्भवे मूलावश्यकटीवमपि चारित्रपर्यायाः केवलज्ञानगम्ययगतैः पर्यायैस्तु- कातो बोद्धम्या इति । कथमिति द्वारम् गतम् । विशे० । स्था एव भवेयुः , न पुनस्तेषां केवलज्ञानगम्यपर्यायाणाम- मा० म० । मा० चू०। (कथं सामायिकमवाप्यते इति नन्तगुणत्वं युक्तम् । यावन्तो-हिशेयस्य पर्यायास्तवम्त
'माणुसत्त' शब्द षष्ठे भागे गतम् ।) स्तदवभासकत्वेन ज्ञानस्याप्येष्टव्याः, अन्यथा तदवभास- (६५) मानुषत्वे लब्धेऽपि पतैः कारणैः दुर्लभ सामाकत्यायोगात् । ततश्थशानदर्शनचरित्राध्यवसायास्मिका- यिकमिति प्रतिपादयन्नाहयाः संयमश्रेणरन्तर्गतत्वात् केवलज्ञानस्य संयमश्रेण्यात्म
पालस्स मोहवना, थंभा कोहा पमायकिविणता । कं चारित्रं पर्यायैः केवलज्ञानगम्यानां यगतपर्यायाणां
भयसोगा अनाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा । तुल्यमेव युक्तं न हीनमिति । (६४) एवं परस्यातिप्रेर्यनिपुणत्वमवलोक्य सूरिरतिनि
एएहि कारणेहिं, लवण सुदुलहं पि माणुस्सं । पुणमेव प्रतिविधानमाह
न लहइ सुई हियकरिं, संसारुत्वारणिं जीवो ॥ सेटी य नाणदंसण-पजाया तेण तप्पमाणा सा ।
आलस्यान साधुसकाशं गच्छति णोति था, तथा
मोहात् गृहकर्तव्यतया व्याकुलत्वात् , तथा-अपशातः किइह पुण चरित्तमेत्तो-वोगियो तेण ते थोवा ।।२७५८।।
मेते जानन्तीत्येवंरूपायाः,स्तम्भात्-जाउपादपि,मानात् उत्त. श्रेण्या मानदर्शन-चारित्राध्यवसायात्मिकायां संयमश्रेणी |
मजातीयोऽहं कथमेतेषां भिक्षाचराणां हीनजातीयानां पायें शानदर्शनपर्याया मध्ये सलुलिता विवक्षिताः, तेन तत्प्र- गच्छामीत्यादिलक्षणात् ,क्रोधात्तथा च कोऽपि साधुदर्शमामाणासौ.सर्वनभःप्रदेशानन्तगुणपर्यायराशिप्रमाणाऽसौ प्रो
देव कुप्यति,तथा प्रमादात् मद्यादिप्रसक्तिरूपात् ,कृपणत्वात् का । इह तु ये चारित्रोपयोगिनस्त एव विवक्षिताः, ते
नूनं गतैस्तेभ्यः किमपि दातव्यं भविष्यतीत्येवं रूपात् ,तथाच ग्रहणधारणादिविषयभूता एव केचित् , तेन स्सोका
भयात् साधवो हि नरकाविभयं गतेभ्यो वर्णयन्तीति,शोकाइति न दोषः।
द्वा एवियोगजात् , अज्ञानात् कुष्टिजमितात् , कुबोधात् अथान्यत्प्रेर्यमुत्थापयशाह
व्यापात् अन्यान्यबहुप्रयोजनकरणत भास्मनो व्याकु' नणु सामाइयविसभो, किंदारम्मि विपरूविभो प्रवि। लीभावसंपादनात् , तथा कुतूहलात् नटादिविषयात् , र
कहन पुणरुत्तदोसो, होज इहं को विसेसो वा ॥२७५६।। मणात् नानाविधकुछुटयोधनादिक्रीडाप्रसक्लिरूपात्। एतेहि' ननु पूर्व किंद्वार एव 'तं खलु पश्चरखाणं आवाए -
पभिः कारणैरालस्यादिभिश्च दुर्लभमपि मानुष्यं लम्वाऽपि स्यादिना सामायिकानां विषयः प्ररूपित एव ,ह पुनर
हितकरी संसारोत्तारणी श्रुतिमिति व्रतादिसामनीयुक्तस्तु पि' सम्यगय सम्मत 'इत्यादिना तद्विषयनिरूपणं कुर्षतः कर्मरिघुविजित्याविकलचारित्रसामायिकमाप्नोति । यामाकथं न पुनकक्कदोषो भवेत् ! .को वा विशेषोऽत्र, यमाश्र- | दिगुणयुक्तयोध इव जयलक्ष्मीमिति । स्य पुनरप्यवमुच्यत ? इति।।
तथा चाह-- अत्रात्तरमाह
जाणावरणपहरणे,जुद्धे कुसलत्तणं व नीई य । किं तं ति जाइभावे-ण तत्थ इह नेयभावभोऽभिहियं ।
दक्खत्तं ववसानो, सरीरमारोग्गया चेव ।। इह विसयविसइभेनो, तत्थाभेप्रोवयारो ति ॥२७६०॥
यानम्-इस्त्यादि आवरणम्-कवचादि प्रहरणम्-खड्गादि किं तत् सामायिकम् ? इति जातिभावन विषयविषयिणो
यानायरणप्रहरणानि,तथा-युछे कुशलस्वम्-सम्यक्त्वज्ञानम् रभेदं चेतसि विधाय सामायिकजातिमात्रमेव तत्र पूर्व
नीतिश्च निर्गमप्रवेशरूपा,दक्षत्वम्-श्राशुकारिता व्यवसाय:किंद्वारेऽपरेण जिशासितम् , ततः 'पाया खलु सामइयं '
शौर्य,शरीरमविकलम् आरोग्यता-व्याधिवियुक्तता-एतावइत्यनेन तदेव मुख्यतया प्रोक्तम् , तद्विषयस्तु परेण जि
इणसामग्रीसमन्वित एव योधो जयश्रियमाप्नोति एष - शासितोऽपि विषयिणि पृष्टे तवभिन्नत्वाद् गौणवृत्त्यैव प्रोकारह तु 'केषु' इति द्वारे विषय एवं मुख्यतया परेण
दान्तिकयोजना त्वियम्जिशासितः, अतस्तस्यैव विषयस्य शेयभावेन ज्ञातव्यतयाऽभिहितं स्वरूपमित्युपस्कारः । पाठान्तरं वा-'अभिहिउ'
जीवो जोहो जाणं, वयाणि आवरणमुत्तमाखंति । ति-तत्रायमर्थः-इह तुशेयभावेन-ज्ञातव्यतया विषय
झाणं पहरणमिटुं, गीयत्थत्तं व कोसल्लं ॥ स्वाभिहितः । किमुक्तं भवति?-इत्याह-'इहे ' त्यादि, - । दबाइ जहोवाया-णुरूवपडिबत्तिवत्तिया नीई ।
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सामाइय
दक्ख फिरिया, जं करानहींणकालम्मि ।। करणं सांची पावती साओ एएहि सुनीरोगो, कम्मरिपुं जिगह सव्वेहिं ॥ कर्मरिपुविजयपक्षे -- जीवो योधो, महाव्रतानि प्राणातिपातविरयाचीनि यानम् उत्तमा क्षान्तिरावरणं, ध्यानं ध ध्यानमि पर फसल दि द्वन्यक्षेत्रकालभावेषु यथोपानीयममणि या अनुरूपप्रतिपत्तिवर्त्तिता यथा साधूनामेतत्यान मेनोपायेन मेाचिन तिमीति तथा क्रिया-प्रत्युपावृत्पादनात कां स्वस्व प्रस्तावे श्रहीनं- परिपूर्ण करणं तत्-दक्षन्धम् तथाकरणं तपसेो द्वादशभेदस्य उपलक्षणमेतत् संयमस्य च सहनं चोपसर्गेषु समापतत्तु श्रत्र बहु त्यक्तम् । यदि वायथा स्वयम्भूरमण समुद्रमत्स्येन प्रांतभासं स्थितान् मत्स्यान् प्रतिमासं स्थितानि पद्मानि वा दृष्टा सामायिकमवाप्यत । स्वयंभूरमणे हि मत्स्यानां पद्मानां सर्वाशयपि संस्थामानिस मुक्कंसंस्थ
"
(se) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
[झा० म० १ श्र० ।
दिट्ठे सुभू, कम्माण खए कए उसमे |
यावजांगे, अपसत्ये लम्भए बोही ॥४४॥ भगवतः प्रतिमादी साभाविक पायथाग सेन भगवदर्शनादवाप्तमिति, कथानकं, साथः कथितव बाया यथाऽऽनन्दकामदेवाभ्याम पासमिति अत्र कानमुपरितना अनुभूि बाप्यते यथा पर विपकरप्रमा मेति, कथानकं कथिकातोऽवसेयं, कर्मणां क्षये कृते सति प्राप्यते यथा चण्डकौशिकेन प्राप्तम् उपशमे च सत्यवाप्यते यथाऽपि मागे च प्रशस्त स बोधिः, सामाधिकमनर्थान्तरमिति गाथार्थः ।
"
चाकरणादिभिरामाधिकमित्याह-अनुकंपकामतिरपाल दाविपदि । संयोगवियोगे, वसरणूमधइष्टि सक्कारे ॥ ८४५ ॥ वेजे मेंठे तह इं-दाग कम उतपुप्फसालसुए । सिपमभाउ आहीरमपिता ८४६ ।। अनुकम्पाप्रवत्रितो जीवः सामायिकं लभते शुभणामयुक्तत्वाद्वैववत्, प्रतिशेयमेव समा विशेषत प्रतिष्यिा
वाि
वान् जीवः सामायिक लभते, शुभपरिणामव बालादिन्द्र
शक्ति श्रद्धादानत्वात् कृतपुण्यकवत् श्राराधितविचयत्वात् पुष्पशालसुतवात्, अवाप्तविभङ्गज्ञानत्वात् सापसशिविराज विष योगचित् मथुराद्वयवासिगद्वयवत् अनुभूत व्यसनावात् श्र शकरकन्यापा
प्रियद्वेष्यपुत्रद्वयवत्
अनुभूतोत्सवत्वादाभीरवत् दृष्ट
महादशाहार सत्कारत्वा दिलापुत्रवत् । इयमक्षरगमनिका | साम्प्रतमुदाह
सामाइय रणानि प्रदर्श्यन्ते वारबतीय कल्हस्स वासुदेवम्स दो वेजा-धरी, वैतरणी य । धनंतरी श्रभविश्र, वेतरणां मपियो, सो साधू मिला पण साइति, जजस्व का
यं तं तस्म फासूपणं पडोआरेग साहति । जति से अप खो श्रत्थि श्रोधाणि तो देति धरलंतरी पुरा जाणि साधसयां ताणि साहति श्रसाधुपाश्रोग्गाणि । ततां सालो भति श्रम् कतो एतानि ?, सा भगति - मए समखाणं अडाव अमाइत बेजस, ते दावि महारंभा महापरिहा य सञ्चार बारवतीए तिगिच्छं करेंति । श्रखदा कराडो बासुदेव तिस्वगर पुच्छति- बहू ढंकादी वधकरणं काऊ
कहि गमिस्संति ?, ताधे सामी साधति - एस धरांतरी श्रपतिडाणे णरप उबवजिहिति । एस पुख वेतरणी कालंजरवत्तिणीय गंगाए महाणदीप विभस्त य अंतरा वायरताप पच्चाथाहिति । तां सो वय पत्तो सयमेब जूइति कादिति । तत्थ अरण्या साहुगां सत्ये स मं धाविस्संति । एगस्स य साधुस्स पांद सल्लो लाग्गहिति । तावे ते भांति - अहे पडिच्छामो । सो भक्ति - मा समरामो । वच्च तुम्भे श्रहं भत्तं पञ्चपखामि । ता
काउं सोऽव ठिश्रोण तीरति सलं गीतं । - च्छा दिलं पावितो का ते गता । नाहे सो वाजूहवती तपस एति जत्थ सो साधू । जाब पुरिकलिलाइन तोते जहाहिये ि किलकिलास सो कसते यातून दिले सो साधु । तस्व तं दृट्टू इहा पहा करेंतस्स कहिं मया परिसादिट्ठा ति ?, जाती संभरिता बारवई संभरति । ताह तं साधुं वंति । तं च से सलं पासति । ताहे तिगिच्छं स
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समता गिरिलोहसीओ ओसहीओ य गद्दाय आगतो। ताचे सल्लुद्धरणीय पादा आलिता । ततो एगमुहुत्तण पडिश्रो सल्लो । सीतां नरस पुरतो राि लिहति । जधा- - श्रह वैतरणी नाम वेजो पुध्वभवे बारती आस । तेहिं वि सो सुतपुब्वो, ताधे सो साधू - मं कथेति । न सो भत्तं पश्चक्ाति । तिरिण रातिदियाणि जीवित्ता सहस्सारं गतो ।
तथा चाऽऽह
सो वा जूहवती, कंतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरत्रोंदिधसे, देवो वेमागियो जाओ ||८४७॥ निमदसिद्धा श्रहिं पयुंजति जाय पेच्छति तं ससाधुं तदापति भ ति-मुज्झ यसादे मए देविट्टी लद्ध ति । ततोऽग सो साधू मारितां तेसिं साधूणं सगासं ति । ते पुच्छंति-किस श्रागतो ?, ताहे साहति । एवं तस्स वासरइस सम्मत्तसामाइयसुयसामाइयन्त्ररित्ताचरित्तसा माझ्याण अनुकंपाला जातो, इतरथायोग् कम्माण करता सरयं गतो होन्तो । ततो धुतस्स चरितसामाइयं भविस्सति सिद्धी य १ । पकामजिराए, वसंतपूरे नगर इष्भवधुगा नदीए रहाति अरुणोय तरुणो तं दट्ठू भति" सुराद्दातं ते पुच्छ
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(७२६) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाहय ति, एस पदी मत्तवारणकरोरु !। एते य णदीरुक्खा , अहं
सत्तमे दिवसे उद्वितो। राहणा पुच्छितेण कहितं-जहेगा च पादेसु ते पडिभो ।।६॥"सा भणति-"सुभगा होतु ण
देवी ण याणामि कतर त्ति , ताहे राइणा भेडमा हत्थी दोश्रो, चिरं च जीवंतु जे णदीरुक्खा । सुराहात पुच्छगाण य,
कारितो, सव्वाश्रो अंतपुरियाो भणियाओ-एयस्स घत्तीहामो पियं काउं ॥२॥" ततो सो तीए घरं वा दारं अच्चणियं करेत्ता ओलंडह । सब्बाहि श्रोलडितो , सा पेवा अायणन्तो चिन्तति--"अन्नपानहरेद्वाला , यौवनस्थां च्छति , भणति-अहं बीहेमि । ताहे राइणा उप्पलणालण विभूषया । वेश्यां स्त्रीमुपचारेण , वृद्धा कर्कशसेवया ॥१॥" पाहता, जाव मुच्छिता पडिया। ततो से उवगतं-जतीसे बिज्जियाणि चेडरूवाणि रुक्ख पलोएंताणि अच्छ
धेसा कारित्ति, भणिता-मत्तंगयमारुतीए, भेंडमयस्स ति , तेण तेसिं पुष्पाणि फलाणि य दाऊण पुच्छिताणि
गयस्स भयतिए । इह मुच्छित उपपलाहता, तत्थ न मुका एसा ! , ताणि भणनि-अमुगस सुराहा , ताहे सो
च्छित संकलाहता ॥१॥' पुट्ठी से जोइया , जाव संकलचिनति-केण उवाए एतीए समं मम संपयोगो भ
पहारा दिला, ताह राइणा हथिौठो सा य दुयगाणि बेज्जा ? , ततो गण चरिका दाणमाणसंगहीता काऊण
वि तम्मि हथिम्मि विलग्गाविऊण छंगणकडए विलइताविसजिता तीए सगासं । ताए गंतूप सा भणिता-जधा
गि । भरिपतो मिठा-पत्थ अप्पततीओ गिरिप्पवातं देहि, श्रमुगा ते पुच्छति , तीए रुट्टाए पत्तालगाणि धोवंतीए म- हथिम्स दाहि वि पाहिं वेलुग्गाहा ठविता , जाव हसिलित्तेण हत्थेण पिट्ठीए पाहता , पंचंगुलीश्री जाताओ,
थिणा पगा पादा आगासे कनो। लोगो भणति-किं आबारण य णिच्छुढा । सागता साहति-णाम पि र स
निरिश्री जागति ?, एताणि मारतवाणि, तहावि राया हति । तेण णातं जहा-कालपक्वपंचमीए , ताहे वेण पु
रोसं रण मुयति । ततो दो पादा अागासे ततियवारए रणव प्रेसिता पंचसजाणणानिमिचं वाहे सलज्जाए श्रा
तिन पादा भागासे एक्केण पादेव ठितो, लोगेण अर्कइणिऊण असोगणियाए छिडियाए निच्छूढा । सा गता
। दो कतो-किं एतं हस्थिरय विपासेहि ? , रराणो चिसाहति-णाम पिख सहति , तेण णातो पवेसो, तेणाव
तं श्रोधालितं , भरिणतो-तरसि णियत्तेउं?, भणतिहारेण अइगतो , असोगणियाए सुत्ताणि , जाव ससुरेण
जति अभयं देह , दिगणं , तण णियत्तितो अंकुसण
जहा भमित्ता थल ठितो, ताहे उत्तारेत्ता णिब्बिसताणि कदिट्ठा । त्रेप णातं , जधा-ण मम पुत्तो त्ति, पच्छा से पा.
यागिण । एगस्थ पञ्चतगामे सुन्नघर ठितापि, तत्थ य गामेलदातो उरं गहितं , चेतितं च तीए, भणितो य णाए--
यपारडो चोरा तं सुनघरं अतिगतो, ते भणंति-चढेतुं - पास लहुँ, सहायकिश्चं करज्जासि । इतरी गंतू ग भत्तार।
च्छामो, मा कोवि पविसउ, गोसे घेच्छामो । सोऽपि चोरो भणति-इत्थं धम्मो , जामो असोगवणियं , गतारिण , श्रसागणियाए पसुनाणि, ताहे भत्तारं उट्टवेत्ता भणति
लुटुंतो किहवि तीस दुक्को, तीस फासो वेदिता, सा दुका
भणति-कोऽसि तुमं?, सो भणति-चोरोऽहं, तीए भणितुझ पतं कुलाणुरूवं ? , जं मम पादातो ससुरो उरं
यं-तुम मम पती हाहि । जा एतं साहामो जहा एस चोरो गेगहति । सो भणति-सुवसु लभिहिसि पभाते । थेरेण
त्ति, तेहिं कल्लं पभाए मेंठो गहिश्रोताहे प्रोविद्धो सलाए सिट्टे, सो रुट्टो भणति--विवरीतोऽसि थेरा?, सो भण
भिरागो, चोरेण सम सा वश्चति । जावंतराणदी, सा तेण भति-मए. विट्ठा अरणो , ताहे विवादे सा भणति-अहं
णिता-जधा एत्थ सरत्थंभे अच्छ, जा अहं एताणि वस्थाअप्पा साहेमि । एवं करेहि , राहाता , ताहे जक्खघरं भरणाणि उत्तारेमि, सो गतो, उत्तिएणो पधावितो । साभअगता , जो कारि सो लग्गति दोराहं जंघाणं अंतरेण रणति-"पुराणा णदी दीसह कागजा, सव्वं पियाभंडग तुबोलतो, अकारि मुन्नति , सा पधाविता , ताहे ज्म हत्थे । जधा तुम पारमतीतुकामो, धुवं तुम भंड गहीसो विडा पिसायरूवं काऊण सागतएणं गेराहति । उकामा ॥१॥" सो भाति-" चि (र) संथुतो बालि ! साहे तत्थ गंतूग जक्खं भगति--जो मम पितिदिरण- असंथुरणं , मेल्हे पिया ताव धुश्रोऽधुवेणं । जाणेमि तु
ओ तं च पिसायं मानण जइ अरणं जाणामि ता मे ज्म पयइस्सभावं, अराणो गरो को तुह विस्ससज्जा? तुम जाणासि त्ति जस्खा विलक्खा चितेति-पेच्छह केरिसा ॥१॥" सा भणति-किं जाहिं ?, सो भणति-जहा ते णि मंतति ? , अहं पि बंचिता णाए. गस्थि सतित्तण धु- सो मारावितो एवं मम पि कहनि मारहिसि । इतरो विततीए , जाव चिनेति ताव णिफिडिता । ताहे सो थरो स्थ विद्धो उदगं मग्गति , तत्थेगो सहा, सा भणति-जति सब्बण लागण हीलिता , तस्स ताए अधितीए निहा न- । नमाकारं करेसि तो दमि , सो उदगम्स अट्ठा गती , जाय ट्रा , ताह रागोतं कगणे गतं । रायाणपण अंतेउरवाल- तस्मितेचव सो गामोकारं करेंतो चेय कालगता वामश्री कता , श्राभिसिकं च हन्थिग्यगण रागो वासघरस्स तग जातो। सहा वि आरक्खियपुरिसहि गहितो, सा देवा ट्रा बद्धं अच्छति । देवी य हस्थिमैठ श्रासत्तिया, गवरं श्रोहि पयंजति, पच्छति सगरगं सहूंच बद्ध। ताह सो त्ति हन्थिरमा हस्थो पसारिता,सा पासायाओ आया- सिलं विउवित्ता माएति. तं च पच्छति सरधभे णिलकं, रिया , पुगरवि पभाए पडिविलाता , एवं बच्चति का- नाह से घिणा उप्परागपा, सियालरूपं विउब्बित्ता मंसपेसीए ला । अगणना चिरं जातं नि हन्थिमें ठेगा हस्थिसंकलाए गहियाए उदगतीरेण बोलेति । जाव णदीतो माछो उच्छलिहता , सा भणति--सो पुरिसो तारिसो ण सुनि, मा ऊग नई पडिता, ततो मी ममपमि मातगा मच्छस्स पधारूसह । तं थेगे पेच्छति ,सा चिनि-र्जात एताप्रा वि विता, सो पाणिए पडिनो, मंसपसीवि मगागा गहिता, ताह परिसिश्रा, किनु ताश्री भदियाउ ति सुत्ता, पमान स सियाला कार्यान । ताप भगपति-"ममपसी परिवज्जामन्छ ज्यो लागी उदिता , सा न उद्विता । गया भगति--सुबर पास ज बुआ ! । चुको ममं न मचलं च, कलुगणं झायसि
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय कोराहुभा ॥१॥" तेण भरणति-" पत्तपुडपडिच्छरणे !, हिः ताहे णात्थ त्ति सा अद्धितीए परुरागा , ताओ सएजण यस्स अयसकारिए !। चुक्का पति च जारं च , झियाओ पुच्छंति, णिबंधे कथितं । ताहिं अणुकंपाए अकलुग झायसि बंधकी ! ॥२॥" एव भणिया ना विलिया एग्णाए वि अमाए वि प्राणीतं खीरं साली तंदुला या ताधे थे. जाता, नाहे सो सयं रूवं इंसेति , पराणवित्ता बुता-पब- रीए पायसो रजो, ततो तस्स दारयस्स राहायम्म पायसस्स याहि, तोहे सो गया तज्जितो, तेण पडियराणा , सकारेण घतमधुसंजुत्तस्स थालं भरेऊण उद्वितं । साधूय मासणिक्खंता, देवलोयं गता एवमकामनिजगए मेण्ठस्स ॥२॥ खवणपारणते आगतो, जाव थेरी अंतो घाउला साव बालतवण-वसंतपुरं नगरं , तत्थ सिाढेघरं मारिए उच्छा- तेण धम्मोऽवि मे होउ त्ति तस्स पायसस्स तिभागो विदिनं, इंदणागो नाम दारो, सो छुट्टो , छुहितो गिलाणो राणो । पुणो चिंतितं-अतिथोवं बितिमो तिभागो दिएणो पाणितं मग्गति, जाव सव्याणि मतानि पेच्छति । बारं पि पुणो विणण चिंतित-पत्थ जति अरणं अंबक्ख लगादि लोगण कंटियाहिं दक्कियं । ताहे सो सुणश्यच्छिदेण णि लुभति तोऽवि णस्सति, ताहे तो तिभागो दिएणो । ग्गतग तम्मि णगरे कप्परेण भिक्खं हिंडति , लोगो से | ततो तस्स तेण दब्बसुद्धेण दायगसुद्धेण गाइगसुजेण देह सदेसभूतपुब्यो त्ति काउं, एवं सो संवङ्कइ । इतो य एगो
तिविहेण तिकरणसुद्धण भावेणं देवाउए णिबद्धे, ताधे सत्यवाहो रायगिह जाउकामो घोसणं घोसावेति , तेण
माता से जाणति-जिमिश्रो, पुणरवि भरितं, अतीव रंसुतं, सत्येण समं पत्थितो । तत्थ तेण सत्थे करो लद्धो
कत्सणेण भरितं पोट्टं । ताधे रतिं विसूइयाए मतो देवसो जिमितो ण जिएणो , बितियदिवसे अच्छति, सत्थवा
लोगं गतो, ततो चुतो रायगिहे नगरे पधाणस्स धणाहेण विट्ठो, चिंतेति--रपूर्ण एस उववासिनो सो य अव्वस
वहस्स पुत्तो भद्दाए भारियाए जातो । लोगो य गम्भगते लिंगो, बितियादिवसे हिंडतस्स सेट्रिणा बहुं गिद्धं च दि
भणति-कयपुनो जीयो जो उववरणो , ततो से जातस्स एण, सो तेण दुवे दिवसा अजिएणएण अच्छति । सत्थवा
णामं कतं कतपुराणो त्ति । यहितो, कलाश्रो गहियातो, पहो जाणति--एस छट्टराणकालिश्रो, तस्स सद्धा जाता।
रिणीतो, माताए दुल्ललियगोट्टीए छूढो, तेहिं गणियाघर सो ततियदिवसे हिंडंनो सत्थवाहेण सद्दावितो , कीस
पवेसितो, बारसहिं बरिसहिं णिद्धणं कुलं कनं । तोऽवि उसि कल णागतो?, तुरिहक्को अच्छति, जाणा, जधा
सो ण णिग्गच्छति, मातापिताण से मताणि , भजा य से छटै कतेलयं , ताहे से दिएण, तेणवि अमेवि दो दिवसे श्राभरणगाणि चरिमदिवसे पेसेति। गणितामायाए णानं पण. अच्छावितो। लोगोऽवि परिणतो, अण्णस्स णिमंतेतस्स- स्सारो कतो,ताधे ताणि अमन च सहस्सं पडिविसज्जितं,गरिण वि ण गेराहति । अरण भणंति-एसो एगपिंडिओ, तेण या माताए भएणह-निन्छुभउ एसो मा गच्छति,ताहेमोरियं तं अट्ठापदं लद्धं, वाणिपण भणिता-मा अण्णस्स खणं णीणिो घरं सजिज्जति, उत्तिराणो बाहिं अच्छति, ताहे गेरहेज्जासि , जाव णगरं गम्मति ताव अहं देमि । गता दासीए भमति-णिच्छूदोऽवि अच्छसि ?, ताहे निययघरपं रणगरं, तेण से णियघरे मढो कतो, ताधे सीसं मुंडावेति सडियपडियं गतो, ताहे से भज्जा संभमेणं उटिना, ताहे से कासायाणि य चीयराणि गेएहति, ताधे विक्खातो जणे सव्वं कथितं, सोगेणं अप्फुरणो भवति-अस्थि किंचि ? जा जातो ताधे तस्सधि घरे णेच्छति , ताधे जविसं से अन्नहिं जाइत्ता चवहरामि, ताहे.जाणि श्राभरणगाणि गणिपारणयं तहिवसं से लोगो बाणेइ भत्तं , पगस्स पडि- तामाताए जं च सहस्सं कप्पासमोलं दिरण ताणि से दसि. कछति । ततो लोगो ण याणति--कस्स परिच्छितंति?, ताणि । सत्थो य तदिवसं कंपि देसं गंतुकामओ, सा तंभसाधे लोगण जाणणाणिमित्तं भेरी कता , जो देति सो डमोल्लं गहाय तेण सत्येण समं पधावितो, बाहिं घेउलियाए ताडेति, ताह लोगो पविसति, एवं बच्चति कालो। खटुं पाडिऊणं सुत्तो। एणस्स य वाणिययस्स माताए सुतं, सामी य समोसरितो, ताहे साधू संदिसावेत्ता भणि- जधा-तव पुत्तो मतो वाहणे भिन्ने,तीप तस्स दवं दिएणं, ता-मुहुतं अच्छह , अणसणा , तम्मि जिमिते भ- मा कस्सहकधिजसि, तीए चिंतितं-मा दव्वं जाउ रागिगता भोयरह । गोतमो य ाणतो-मम बयगण उल, पविसिहिति मे अपुत्साए, ताहे रसिं तं सत्थं एति, जा भणेज्जासि--भो अणेगपिडिया! एगडितो ते दठु- कंचि प्रणाहं पासेमि, ताहे तं पासति. पडिबोधित्ता पवेमिच्छति, ताहे गोतमसामिणा भणितो रुटो, तुम्भे अणे- सितो,ताहे. घरं नेतूण रोषति-चिरणटुग ति पुता!,सुण्हागाणि पिंडसताणि श्राहारह,अहं एग पिंडं भुंजामि, तो अहं रंग चउराह ताण कधति-एस देवरोभे चिरणो । सानो चेय एगपिंडिना , मुहुत्तन्तरस्स उपसंतो चितेति-गाए. तस्स लाइताओ,तत्थ यि बारस बरिसारिण अच्छति । तत्थ ते मुसं बदति , किह होज्जा?, लद्धा सुती, होमिश्रणेग. एकेकाए चत्तारि पंच चेडरूवाणि जाताणि । थेरीए भणित पिंडिता , जहिवसं मम पारणयं तदिवस अणेगाणि पिं- पत्ताह णिच्छुभतु, तानो ण तरंति धरितुं । ताधे ताहि संउमताणि कीरति , एन पुण अकतमकारितं भुजति , तं बलमोदगा कता, अंतो रयणाग भरिता, वरं से एयं पामच्चं भनि । चिन्तंतेण जाती मरिता, पत्तेयबुद्धा जा श्रोग्ग हाति,ताधे वियर्ड पाएत्ता ताए चेव देवउलियाए तो , अज्झयण भासति । इंदणागेण अरहता बुतं , सिद्धो श्रासीसए से संबलं ठवेत्ता पड्डियागता। सोऽथि सीतलय । एवं बालतवेण सामाइयं लद्धं तण ॥३॥ दाणेगा . एगा पवणेण संबुद्धो पभातं च, सोऽवि सत्थो तदिवसमाजधा--एगाए घच्छवालीए पुनो , लोगेण उस्सवे पायसं गतो । इमाए वि गवसो पेसिओ,ताहे उटुबित्ता घरं णीओवक्खडितं । तत्थामन्नघरे दारगरूवागि पानि पायसं तो,भजा स संभमेण उट्टिता,संपलं गहितं, पविट्ठो, अभंजिमितागि । ताधे सो मायरं भणेइ-ममऽवि पायसं रंध- गादीणि कति । पुत्ता-य स तदा गम्भिणीए जातो,सो ए
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय कारसवरिसो जाओ , लेहसालाश्रो पागतो रोयति-दहि- धणधन्नहिरण्णाद पइदियह बहुति, चिंता जाया-अस्थि मे भत्तं, मा उवज्झापण हम्मिहामि त्ति । तार ताओ संवल- धम्मफलं ति, तो महं हिरण्णादि बढति, ता पुराणं करेथायातो मोयमो दिमो, णिग्गतो खायतो तत्थ रयणं पा- मि त्ति कलिऊण भोयण कारितं. दाणचणेण विसणं । त्ततो सति, लेहडपहिं दिट्ट, तेहिं पूवियस्स दिम दिवे दिवे पुतं रज्जे ठवेऊण सकततंबमयभिक्खाभायणकदुच्छुगोधअम्ह पोल्लियाओ देहि त्ति । इमोऽवि जिमिते मोयगे भिवति गरणो दिसापोक्खियताबसाण मज्झे तावसो जातो । छट्ठतेष दिवाणि,भणति सुकभरण कताणि, तेहि यहिं तहेव | टुमातो परिसडियपंडुपत्ताणि आणिऊण श्राहारेति । एवं से पवित्रतो । से तणो य गंधहत्थी णदीए तंतुएण गहि- चिट्ठमाणस्स कालेण विभंगणाणं समुप्पन्नं संखजदीबतो , राया प्रादरणो , अभयो भणति-जा जलकतो - समुहविसयं, ततो गरमागंतूण जधोवलखे भावे पाणत्थि तो छदेति, सो राउले अतिबहुअत्तगण रतणाण चि-1 बेति । अण्णता साधवो दिट्ठा, तेसिं किरियाकलावं विरेण लम्भिहिति त्ति काऊण पडहो णिफिडितो- जो ज- भंगाणुसारेण लोएमाणस्स विसुद्धपरिणामस्स अपुब्बलकंतं देति तस्स राया रजं श्रद्धं धूतं च देति ताधे | करणं जातं, नतो केवली संवुत्तो त्ति ॥६॥ (श्राव०) : इवाणि पुविएण दिएणो , णीतो, उदगं पगासितं, तंतुओ जाणति- वयगण, दो भाउगा सगडेण वशंति , चक्कुलेण्डा य थलं गीतो, मुक्को, गट्ठो । राया चिंतेति-कतो?, पुवि- सगडवहाए लोलति, महल्लेण भणियं-उब्वत्तेहि भंडिं, इतयस्स पुच्छति-कतो एस तुज्झे, निम्बंधे सिर्टी-कय- रेण बाहिया भंडी, सा सन्नी सुति, छिएणा चक्केण, मता पुराणगपुत्तेण दिएणो . राया तुट्ठो, कस्स अण्णस्स हो- इत्थिया जाया हत्थिणापुरेणगरे, सो महलतरो पुठचं मरिहिति?, रराणा सदाविऊण कतपुराणो धूताए बिवाहि- ता तीसे पोट्टे पायाश्रो पुत्तो जाओ, इट्ठो, इतरोऽवि तीसे तो , विसनो से दिराणो , भोगे भुंजति । गणिताऽवि भाग- चेव पोट्टे पायामो, जं सो उववरणो तं सा चिंतेति-सिलं ता भवति-एचिरं कालं अहं बेणीबंधेण अच्छिता, स- व हाविज्जामि, गम्भपाडणेहिं बिण पडति, मो सो जाना ब्बवेतालीश्रो तुमं अट्ठाए गवसाविताओ , एत्थ दिट्ठो त्ति, दासीए हत्थे दिराणो,छडेहि, सो सेट्टिणा दिट्ठोणिजंतो, तेण कतपुराणो अभयं भपति-पत्थ मम चत्तारि महिला- घेत्तूण अण्णाए दासीए दिएको, सो तत्थ संवह । तन्म
ओ, तं च घरं ण याणामि , ताहे चेतियघरं कतं , लप्प- हल्लगस्स णाम रायललिओ इयरम्स गंगदत्तो । सो महलो गजक्खो कतपुराणगसरिसो कतो, तस्स अच्चणिया घो- जं किंचि हर ततो तस्स वि दांते, माऊए पुण अणिट्ठा, साविता , दो य वाराणि कताणि , एगेण पंवसो पगेण णि- जहिं पेच्छा तहि कट्ठादीहिं पहणइ । अण्णया इंदमहो प्फेडी। तस्थ अभश्रो कतपुराणो य एगस्थ बारभासे जाओ, तो पियरेण अप्पसागारियं प्राणीश्रो आसंदभासंपवरगया अच्छंति, कोमुदी आणत्ता , जधा पडिम- गस्स हेट्ठा को, जेमाविज्जा, पोहाडिओ ताहे कहविपबेसो अञ्चभियं करेह । यरे घोसितं-सबमहिलाहिं दिट्ठो, ताहे हत्थे घेतूण कडिओ चंदणियाए पक्खितो, ताएसव्वं , लोगोऽवि एति । तापोऽवि ागताओ, चेडरूवा- हे सो रुबर, पिउणा रहाणिो , एत्थंतरे साहू भिक्खस्स णि तत्थ वप्पो त्ति उच्छंगे णिविसति , णाताओ तेण । अतियो । सिट्टिणा पुच्छिो -भगवं ! माउप पुत्तोथेरी अंबाडिता , ताऽवि आणिताओ , भोगे भुजति णिटो भवा?, हंता भवाह, किह पण ?, ताहे भणति-ये सत्तहि वि सहितो। बद्धमाणसामी य समोसरितो , कत- रष्टा वर्णते कोधः, बहश्च परिहीयते । स विशेयो मनुष्येपुराणो सामि चंदिऊण पुन्छति-अप्पणो संपत्ति विप- ण, एष मे पूर्ववैरिकः ॥ ९॥ यं दृष्टा वर्धते स्नेहः, श्रोधश्च त्तिं च । भगवता कथित-पायसदाणं, संवेगेण पञ्चरतो। परिहीयते । स विशेयो मनुष्यण, एष में पूर्वबान्धवः ॥२॥' एवं दाणेण सामाइयं लम्भति ॥४॥ इदाणि विणपण- ताहे सो भइ-भगवं ! पब्वायेह पयं, बादति विसज्जिमगधविसप गोव्वरगामे पुष्फसालो गाहावती , तस्स ओ पब्वहो । सिं प्रायग्यिाण सगासे भायावि से गहाभद्दा भारिया , पुत्तो से पुष्फसालसुश्री । सो मातापिरं गुरागण पव्वइओ, ते साहू जाया इरियासमिया, मणिपुच्छति-को धम्मो ?,तेहिं भरणति-मातापितरं सुस्सू
स्सितं तवं करेति । नाहे पो नत्थ गिदाणं करे-जा - सितव्व-"दो चेव देवताई,माता य पिता य जीवलोमम्मि।
स्थि इमस्स तवणियमसंजमस्स फलं तो श्रागमेसाणे जतत्थ वि पिया विसिट्ठो, जस्स बसे वट्टते माता ॥१॥" णमणणयणाणंदो भवामि, घोरं तवं करेता देवलोयं गओ सो ताण पगे मुहधोवणादिविभासा , देवताणि व ताणि ततो चुत्रो वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जाओ । इयरोऽवि बलसुम्सूसति । अण्णता गामभोइअो आगतो, ताणि संभंता
देवो एवं तेण वसगण सामाई लद्धं ॥ ७॥ उस्सवे एगम्मि णि पाहुगणं करेंति, सो चिंतेति-पताण वि एस देवतं , पतं
पच्चंतियगामे भाभीराणि, ताणि साहुणं पासे धम्म सुणेपूएमि तो धम्मा होहिति, तस्स सुस्सूसं पकतो। अ
ति, ताहे देवलोए वराणेति, एवं तेसिं अस्थि धम्मे सुयुराणता तस्स भोइओ, नस्स वि अराणो, तस्स वि प्रणा,
द्धी । अराणदा कयाइ इंदमहे वा अराणम्मि वा उस्सवे गयाजाव सणियं रायाणं ओलग्गिउमारद्धो सामी समोसढो,
णि णगरि, जारिमा बारबाई, तत्थ लोयं पासन्ति मंडितपसेणिश्री इड्डीए गंतूण वंदति, ताहे सो सामि भणति
साहियं सुगंधं विचित्तणेवत्थं ताणि तं दट्ठण भणतिअहं तुम्भे ओलग्गामि ?, सामिणा भणितं-अहं रयह
एस सो देवलोश्रो जो साहहिं परिणो; एत्ताहे रणपडिग्गहमत्ताए ओलाग्गजामि। ताणं सुणणाए संबुद्धो, जह बच्चामा सुद करेमो, अम्हेवि देवलोए उवयज्जाएवं विणएण सामाइयं लम्भति ॥५॥ इदानी विभंगेण ल- मो, ताहे ताणि गंतूण साहूण साहंति-जो तुम्भेहिं श्रम्ह भति, जधा-अस्थि मगधजणवए सिवा राया तस्स कहि श्री देवलाओ सा पच्चक्खा अम्हेहि दिट्रो । साह भणं
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(७३२) सामाइय अभिधानराजेन्द्र:।
सामाइय ति-ण तारिसो देवलोश्रो, अण्णारिसो, अतो अणतगुणो । तीर्थकरः किं कारणं-किं निमित्तं भाषत सामायिकाध्ययतो ताणि अभहियजातविम्हयाणि पब्वइयाणि । एवं उ-नम् ? । तुशब्दाद-अन्यानि चाध्ययनानि, केवलझानोत्पत्तिस्सवेण सामाइयलंभो ॥६॥ इहित्ति-दसराणपुरे गरे दसा- तस्तस्य कृतकृत्यत्वात् किं तद्भाषणेन ? इत्यभिप्रायः । श्रभहो राया, तस्स पंच देवीसयाणि ओरोहो, एवं सो रुवेण श्रोच्यते--तीर्थकर इति नाम-गोत्रं संशा यस्य तत् तीजोवणेण बलेण य वाहणण य पडिबद्धो, परिसं णस्थि त्ति र्थकरनामसंशकं कर्म पूर्व मया बद्धं तदिदानीमनेन प्रकाअराणस्स चिंतेर । सामी समोसरियो दसराणकडे पब्बते । रेण चेदितव्यम् , इत्यनेन कारणेन स तद् भाषत इति । ताहे सो चिंतेर-तहा कल वंदामि जहा ण केण अगणेण
पुनरत्रैव च विनेयप्रश्नमुत्तरं चाहबंदियपुग्यो, तं च अभत्थियं सक्कोणाऊण चिंतेह-बराओ अप्पाणयं ण याणति । तो राया महया समुदएण णिग्गो
तं च कहं वेइजइ, अगिलाए धम्मदेसणाईहिं । वंदिउं सम्विहिए, सका य देवराया एरावण विलग्गो, तस्स बज्झइ तं तु भगवो,तइयभवो सक्कइत्ता णं ॥२१२।। अट्ठ मुहे विउव्या, मुहे मुहे अट्ट अट्ट दंते विउब्बेई, दंते २ अट्ठ
नियमा मणुयगईए, इत्थी पुरिसेयरो व सुहलेसो । अट्ठ पुक्खरणिो विउबेइ.एकेकाए पुक्खरणीए अट्ट२ पउमे
मासेविय बहुलेहि बीसाए अनयरएहिं ॥२१२४॥ बिउव्येहपउमे २ अट्ट अट्ठ पत्ते विउब्वेद, पत्ते २ अट्ठ२ यत्ती. सबद्धाणि दिव्वाणि णाडगाणि विउब्बइ। एवं सो सब्सिडीए
एतयोाख्यानं पूर्ववदेव , नवरं तत् पुनस्तीर्थकरनामउपगिज्जमाणो आगो, तो एरावणं विलग्गो चव तिक्खु
कर्म बद्धं सत् कथं वेद्यते? इति प्रश्नः । अत्रोत्तरम्-श्र
ग्लान्या-निर्वेदेन धर्मदेशनादिभिः। तच्च भगवतस्तीतो श्रादाहिणं पयाहिणं सामि करेइ, ताहे सो हत्थी - ग्मपादहि भूमीए ठिो, ताहे तस्स हथिस्स दसराणकूडे
र्थकरस्यैव-यस्तीर्थकरो भविष्यति तस्यैव बध्यते-बन्धपब्बते देवतापसापण अग्गपायाणि उट्रिनाणि, तओ से
मायाति । कदा ? इत्याह-सिद्धिगमनभवात् तृतीयभव यावणामं कतं गयम्गपादगो त्ति । ताहे सो दसरणभद्दो चिंतेह
दवध्वष्यय-अपसृत्य । इदमुक्तं भवति-अनेन बनेन भवत्र-. एरिसा को अम्हाणं इहि त्ति?, अहो कएल्लोऽणेण धम्मो, यमेव संसारे ऽवतिष्ठते , ततः सिध्यति । एकस्तावत् स एअहमवि करेमि, ताहे सो सब्वं छऊण पब्बरओ । एवं इ- ब मनुष्यभवो यत्र तद् बध्यते, द्वितीयस्तु देवभवः , न होए सामाइयं लहर ॥१०॥ (भाव)।
रकमवो वा, तृतीयभव तु तीर्थकरो भूत्वा सिध्यति । अहवा इमेहि कारणेहि भो
तच नियमाद् मनुष्यगतायेव प्रारम्भमाश्रित्य सम्यग्दृष्टि
मनुष्यो बध्नाति , नान्यगतायन्यः । कथंभूतो मनुष्यः १ - अब्भुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाए य ।
स्याह-स्त्री पुरुषः, इतरो वा पुरुषः नपुंसकवेदको मन्त्रासम्मइंसणलंभो, विरयाविरईइ विरईए ॥ ८४८॥ दिकारणैरुपहतपुरुषवेदः सन् यो नपुंसकः, न तु क्लिष्टः; अभ्युत्थाने सति सम्यग्दर्शनलाभो भवतीति क्रिया, विनी- परडकादिरित्यर्थः । कथंभूतः पुनः स्यादिः? इत्याह-सम्यतोऽयमिति साधुकथनात् , तथा विनय-अञ्जलिप्रग्रहादावि- ग्दर्शनादिगुणयुक्तत्वात् शुभलेश्यः । कैः पुनः कारणः सोऽति, पराक्रम-कपायजये सति, साधुसेवनायां च सत्यां कथ
पिबध्नाति ? इत्याह-'अरहंत सिद्धपवयण' इत्यादिना पू श्चित् तत्कियोपलम्ध्यादेः सम्यग्दर्शनलाभो भवतीत्यध्याहा
मभिहितैर्षहुलैः पुनः पुनरासेवितः सम्पूर्णविंशत्या काररः। विरताविरतेश्च विरतश्चेति गाथार्थः । कथमिति द्वारं ग
णैः अन्यतर्वैकद्वियादिभिरतिपुष्टिं नीतैरिति । तम् । आव०१ ०। अत्र पुनर्वस्कलचीरिणोऽधिकारः, तथा
(६७) एवं तीर्थकृतः सामायिकाभ्ययनभाषणकारणमकर्मणां क्षये सति प्राप्यते सामायिकं यथाप्राप्त चण्डकौशि
भिधाय , अथ गणभृतामाशङ्काद्वारेण तच्छ्रवणकारणमभिकेन उपशमे सत्यवाप्यते यथा अकर्षिणा तथा मनोवाकाय- धित्सुराहयोगे प्रशस्ते लभ्यते बोधिः-सामायिकमिति । श्रा०म० १ गोयममाई सामा-इयं तु किं कारणं निसामेंति ।। अ०। (अनुकम्पादिभिरवाप्यते सामायिकमिति, अनुकम्पा- नाणस्स तं तु सुंदर-मंगुलभावाण उबलद्धी ।।२१२५॥ दिशब्देषु कथानकानि गतानि । ) ( कारणभेदाः
होइ पवित्तिनिवित्ती, संजमतवपावकम्मअग्गहणं । • कारण' शब्द तृतीयभागे ४६५ पृष्ठे उक्नाः।) ( अत्रत्या
कम्मविवेगो य तहा,कारणमसरीरया चेव ॥२१२६।। व्याख्या 'सकार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता । ) तदेवं नामादिभेदतश्चतुर्विधकारणं विचार्य प्रस्तुते ये
कम्मविवेगो असरी-रयाइ असरीरयाऽणवाहाए । नाधिकारस्तदाह-' अहिगार पसत्थएणन्थ ' त्ति-ह हो अणबाहनिमित्तं,अवेयणुप्रणाउलो निरु॥२१२७/ सामायिक विचार्यमाण प्रशस्तन भावकारणेनाधिकारः । निरुयत्ताए अयलो, अयलत्ताए य सासश्रो होइ । सामायिकाध्ययन हि क्षायोपमिकभावरूपं वर्तते । स
सासयभावमुवगओ, अव्यावाहं सुहं लहई ॥ २१२८!! च प्रशस्तः , मोक्षकारणत्वात् अतो युक्तमुक्तम्-प्रशस्तभावकारणनात्राधिकारः इति । विश।
गौतमादयो गणधराः किं कारणं-किं निमित्तं-किं प्रयो
जमं सामायिकं निशमयन्ति-शृण्वन्ति ? इत्याह--* नाण(६६) अथ कारणद्वार एवं कारगावव्यतानुगतप्रस
स्स 'ति--विभक्तिव्यत्ययाच्चतुर्थीह द्रष्टव्या, सा च तादमनः किश्चिदाह
थें , ततश्च ज्ञानार्थ , ज्ञानायत्यर्थः तेषां भगद्वदनारबितित्थयरी किं कारण, भामह सामाश्य तु अज्झयणं ?।।
न्दनिर्गतं सामायिकमिदं श्रुत्वा तदर्थविषयं ज्ञानमुस्पद्यत तित्थयरनामगोतं, बद्धं म वयचं ति ।। २१२२॥ इति भावः। तत्त झानं सुन्दरमजलभावानां शुभाऽशुभप
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(७३३) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाहय दार्थानामुपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तं भवति । तस्याश्च शु. मान्यश्रुतसामायके,जघन्यतस्त्वेकभवमेव, मरुदेवीवत् । इ. भाऽशुभपदार्थोपलब्धः सकाशात् शुभेषु प्रवृत्तिः, इतरे- ति नियुक्निगार्गः । विशे० । आ. क० प्रा०चू०। श्राव० । भ्यस्तु निवृत्तिर्भवति । ते च निवृत्तिप्रवृत्ती 'संजमतव' ति प्रा० म०। संयमतपसोः कारण-निमित्तं भवतः, अशुभनिवृत्तिः सं- तदेवं 'दब्वे अहाउय' इत्यादिनोपक्षिप्तान कालयमकारणम् , शुभप्रवृत्तिस्तु तपःकारणमित्यर्थः । तयो- भेदान् व्य य प्रस्तुते येनाधिकारस्तमाहश्च संयमतपसोः पापकर्मणोऽग्रहणम्, तथा-कर्मविवेकश्च
एत्थं पुण अहिरो, पमाणकालेण होइ नायव्यो । कर्मनिरारूपो यथासंख्यं कारणं निमित्तं प्रयोजनमिति यावत् । कर्मविवेकस्य च कारणं प्रयोजनमशरीरतैव चेति ।
खेतम्मि कम्मि काल-म्मि भासियं जिणवरिंदेण ।२०८२। 'अथ विवक्षितमर्थमुक्तानुवादेन प्रतिपादयन्नाह--कर्मवि- अत्र पुनरनेकविधकालप्ररूपणायामधिकारः-प्रयोजनं प्र. चेक:-कर्मपृथग्भावोऽशरीरतायाः कारणम् । अशरीरता पु- स्तावः प्रमाणकालेन भवति-ज्ञातव्यः । श्राह-ननु'दब्बे अद्ध नरनाबाधतायाः कारणं भवति । ' हो अणबाहनिमित्त'
अहाउय' इत्यादिद्वारगाथायां 'पगयं तु भावेण' इत्युक्तम् , ति-अनाबाधतानिमित्तम्-अनाबाधताकारणम् अनाबाधत.
इह पुनः अधिकारः प्रमाण कालेन भवति-शातव्यः, इत्युया हेतुभूतयत्यर्थः , अवेदनो-वेदनारहितो भवति जीवः ।
च्यते, तत् कथं न पूर्वापरविरोधः?। अत्रोच्यते-'क्षायिकअवेदनत्वाच्चानाकुलोऽविह्वलो भवति । रोगाद्यनाकुत्स्वा
भावकाले वर्तमानेन भगवता सामायिकाध्ययनं भाषितम् । कच नीरुक-समस्तभावरोगरहितो भवति । नीरुक्कया पु
इत्यभिप्रायवता ' पगयं तु भावेणं' इति प्रागुक्तम् , तथा नरचला, अचलतया च तत्रैवमुक्तिक्षेत्रे शाश्वतो--नित्यो
'पूर्वावलक्षणे प्रमाणकाले च भगवता भाषितं सामायिक भवति । शाश्वतभावं चापगतः सन्नव्याबाधसुखं लभते ।
इत्यध्यवसायवताऽत्रोक्तं प्रमाणकालनाधिकारः ' इत्युभइत्थं पारम्पZणाव्याबाधमुक्तिसुखनिमित्तं सामायिकश्रवणं
यसंग्रहपरत्वाददोषः। अथवा-श्रद्धाकालपर्यायत्वात् प्रमासिद्धम् । इति निर्युनिगाथादशकार्थः ।
णकालोऽपि भावकाल एवेत्यविरोधः । श्राह-ननु कस्मिन्
क्षेत्रे श्रीमन्महावीरजिनवरेन्द्रेण प्रथमतः सामायिकाध्यपताश्च याथाः सुगमत्वात् संक्षेपतो भाष्यकारः किश्चिद
यनं भाषितम् ? , तथा , प्रमाण कालोऽपि दिनप्रथमपौरुव्याचिख्यासुराह
षीपूर्वाह्वादिभेदादनेकविध इत्यतः प्रश्नः प्रमाणकाले च तित्थयरनामकम्म-क्खयस्स कारणमिदं जिणिंदस्स ।
कस्मिस्तजिनवरेन्द्रेण भाषितम्-विनेयः पृच्छति-कस्मिन् सामाइयाभिहाणं, नाणस्स उ गोयमाईणं ॥२१२६।।
क्षेत्रे काले च च सामायिकस्य निर्गमः ? इत्यर्थ इति । तं पि सुभेयरभावो-बलद्धिए सा पवित्तिनियमाणं ।
अत्रोत्तरमाहएवं नेयं कमसो , पुव्वं पुवं परनिमिर्च ।। २१३० ।।
वइसाहसुद्धइक्का-रसीऍ पुवण्हदेसकालम्मि । इदं सामायिकाभिधानं-सामायिकभाषणं जिनेन्द्रस्य
महसेणवणुजाणे, अणंतर परंपर सेसं ॥ २०८३ ॥ तीर्थकरस्य भगवतस्तीर्थकरनामकर्मक्षयस्य कारण-हेतुः।
वैशाखशुकैकादश्यां पूर्वाह्नदेशकाले प्रथमपौरुष्यामित्यगौतमादीनां पुनर्वानस्थ ' तच्छुचणं कारणम् ' इति गम्यते ।
र्थः, कालस्यान्तरङ्गत्वम्यापनार्थमेव प्रश्नाद व्यत्ययेनोत्तरसदपि मानं शुभाऽशुभभावोपलब्धः कारणम् , एपाऽपि प्र
निर्देशः, महासेनवनोद्यानलक्षणे क्षेत्रे चानम्तरं निर्गमः सावृत्तिनियमयोः-प्रवृत्तिनिवृत्त्योः कारणम् । एवं क्रमशः क्रमेण
मायिकाध्ययनस्य । ' परंपर सेस ' ति-अम्येपूर्व परस्य-उत्तरस्य निमित्तं तावउझेय यावत् शाश्वतत्वा
ध्वपि गुणशिलकाद्युद्यानक्षेत्रेषु पश्चात् प्ररूपिनमेव भदव्याबाधं मुनिसुखं लभते । इति गाथाद्वयार्थः । उक्त का
गवता सामायिकम् , किन्तु-महासेनयनात् शषं रणद्वारम् । विशे।
क्षेत्रजातमधिकृत्य परंपरनिर्गमः . तस्य केवलज्ञानोत्पअथ भवद्वारमुच्यते । तत्र कियतो भवानेकजीवः सामा
सावपापामध्यमानगया महासनवनोद्यान एवं प्रथमं तस्य यिकचतुएयमुत्कृष्टतः तपद्यते ? इत्याह--
प्ररूपितत्वादिति । तदेवं 'नाम ठपणा दविए,खने काले तहेष सम्मनदेसविरया, पलियस्स असंखभागमेत्ताओ।
भावे श्र। एसो उ निग्गमस्स,निक्खयों छठियही होह ॥१॥ अद्र भव उ चरित्ते, अणंतकालं च सुयसमए।।२७७६।। अस्थां निर्गमनिक्षेत्रप्रतिपादकगाथायामुहिटी व्याख्याती क्षेसम्यगृहपयो, देशविरताश्व , प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमा अस- त्रकालनिर्गमौ। संययभागमात्रान् भवान् यावद् भवन्ति । इदमुक्नं भवति
श्रथ भावनिर्गममभिधित्सुराहक्षत्रपल्यापमस्यासङ्ख्ययभागे यावन्तो नभःप्रदेशास्तावता खइयम्मि वट्टमाण-स्स भगवो निग्गयं जिणंदस्स । भवानुकृप्रतः सम्यक्त्वं देशविरतिं च प्रतिपद्यन्त, जघन्य- भावे खोवसमिय-म्मि वट्टमाणेहि तं गहिय।।२०८४ तस्वकं भवम् । ततः परं सिध्यन्ति । इह च सम्यक्त्वभ- भावशब्दोऽत्रापि संबध्यते । ततश्च क्षायिके भावे घर्तमावासख्येयकाद् देविरतिभवासंख्येक लघुतरं द्रष्टव्यम् । नम्य जिनेन्द्रस्य भगवतः श्रीमन्महावीरस्य निर्गतं लामाचारित्र तु विचार्यऽधी भवानुकृष्टतस्तत् प्रतिपद्यत , उ- यिकम् । क्षायिकोपशर्मिक भावे च वर्तमानस्तस्मात् मामास्कृष्टताऽटी तस्यादानभवाः, जघन्यतस्वकः, ततः सि- यिकमन्यच्च श्रुतं गृहीतम् (गणधरादिभिः) इति गम्यते । तत्र ध्यति । 'अगतकालं च सुयसमए ' त्ति-अनन्तकालोऽन- भगवतो दर्शनशानचारित्रावरणस्य सर्वथा क्षीणत्यात् न्तमयरूपम्नमनन्तकालमव प्रतिपत्ता भवत्युत्कृष्ठतः सा- क्षायिका भावः,गणधगदीनां तु नदावरगाम्य तदानीं क्षयोप
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाहय शमावस्थत्वात् क्षायोपशमिको भावः । निर्गम एव चात्र प्र- प्रस्ताव चावगच्छतः, श्रावीचिमरणलक्षणं मरणकालं चास्तुतः, यत्तु क्षायोपशमिकभावग्रहणप्रतिपादनं तत् प्रसङ्ग- नुभवतः, जीवादिपदार्थवर्णनाकाले च प्रवृत्तस्य तस्य तन्नितो द्रव्यम् । तत्र श्रीगौतमवामिना निषद्यात्रयेण चतुर्दश गतम् , प्रमाण--भावकालौ त्वधिकृतत्वेनोक्तावेव । पमाणपूर्वाणि गृहीतानि । प्रणिपत्य पृच्छा च निषद्योच्यते। प्रणि- काले चाधिकृतऽद्धाकालाऽधिकृत एव, तस्य तविशेषत्वापन्य पृच्छति गौतमस्वामी-कथय भगवन् ! तत्त्वम् । ततो देवेति । एवं सर्वेऽपि द्रव्यकालादयोऽत्रोपयुज्यन्त एव । केभगवानाचष्टे-"उप्पन्ने घा" पुनस्तथैव पृष्टे प्राह-"वि- वलमाधिक्येन प्रमाणकालो प्रावकालश्वेहोपयुज्येते, इति त. गमह वा" पुनरप्येवं ते वदति-"धुबह वा" । एतास्ति- योर्विशेषतोऽधिकृतत्यमुक्तमिति । विशे०। स्रो निषद्याः। प्रासामेव सकाशात् 'यत् सत् तदुत्पादव्य- (६७) कियच्चिरम् , कालद्वारम | साम्प्रतं तदित्थं लब्धं यध्रौव्ययुक्तम् , अन्यथा वस्तुनः सत्ताऽयोगात्' इत्येवं च्चिरं कालं भवति ?' इति कालद्वारे जघन्योत्कृष्टं तेषां गणभृतां प्रतीतिर्भवति । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो
सायिककालमभिधित्सुराहबीजबुद्धित्वाद् द्वादशामुपग्चयन्ति । ततो भगवांस्तेषां त
सम्मत्तस्स सुयस्स य, छावडी सागरोवमा ठिई। दनुशां करोति । शक्रश्च दिव्यं वस्त्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानां भृत्वा त्रिभुवनस्वामिनः संनिहितो भवति। ततः स्वामी रत्न
सेसाण पुचकोडी, देमूणा होइ उकोसा ।। २७६१ ॥ सिंहासनादुत्थाय परिपूर्णा चूर्णमुष्टिं गृह्णाति । ततो गौ
सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च लब्धिमङ्गीकृत्य 'दो बारे विजतमस्वामिप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदवनततनयः प
याइसु' इत्यादि वक्ष्यमाणन्यायेन षट्षष्टिसागरोपमाणि पूरिपाट्या तिष्ठन्ति । ततो देवास्तूर्यध्वनिगीतशब्दादिनिरो
कोटीपृथक्त्वाधिकानि स्थितिर्भवति । शेषयोर्देशविरतिधं विधाय तूष्णीकाः शृण्वन्ति । ततो भगवान् पूर्व तावदे
सर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वकोटिदेशोना भवति । 'उकोस' तद्भणति-गौतमस्य द्रव्य--गुण-पर्यायैस्तीर्थमनुजाना
त्ति-एण सामायिकलब्धरुत्कृष्टा स्थितिः । इति नियुक्तिमि' इति, चूर्णाश्च तन्मस्तके क्षिपति । ततो देवा अपि चूर्ण
गाथार्थः। पुष्प-गन्धवर्षी तदुपरि कुर्वन्ति गणं च भगवान् सुधर्म
भाष्यकारव्याख्यास्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानुजानाति । एवं सामायिकस्यार्थी दो बारे विजयाइसु, गयस्स तिप्पच्चुए य छावट्ठी । भगवतः सकाशाद् निर्गतः, सूत्रं तु गणधरेभ्यो निर्गतम् , नरजम्मपुव्बकोडी, पुहुत्तमुकोसो अहिलं ॥२७६२।। इत्यल प्रसङ्गेन । इति नियुक्तिगाथात्रयार्थः ।
इयं प्रागिहैव व्याख्याता । यदुनम्-'एत्थं पुण अहिगारो पमाणकालेण' इत्यादि, तत्र अथ चतुर्णामणि सामायिकानां जघन्यस्थितिं भाष्यकार परः पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाह
एवाऽऽहकिह पगयं भावेणं, कहमहिगारो पमाणकालणं ।
अंतोमुहुत्तमित्तं, जहन्नयं चरणमेगसमयं तु । प्राचार्यः प्राह
उवओगतमुहत्तं, नानाजीवाण सम्बर्छ ।। २७६३ ॥
जघन्यां तु लब्धिमाश्रिल्याद्यसामायिकत्रयस्यान्तर्मुहूर्त खाइयभावेऽरुहया, पमाणकालेण जं भणियं ॥२०८५॥
स्थितिः। सर्वविरतिसामायिकस्य तु समयम् , चारित्रपरिअहवा पमाणकालो, वि भावकालो त्ति जं च सेसा वि । पामारम्भसमयानन्तरमेवायुष्कक्षयसम्भवात् । देशविरतेकिंचिम्मेत्तविसिट्ठा, सव्वे च्चिय भावकाल त्ति॥२०८६॥ रप्येवं कस्माद् न भवति? इति चेत् । तदयुक्तम् , तस्याः आहिकेणं कजं, पमाणकालेण जमहिगारो त्ति ।
प्रतिनियतप्राणातिपातादिनिर्वृत्तिरूपत्वात् , तदा लोचनप
रिणतेश्च जघन्यतोऽप्यान्तौहर्तिकत्वात् । तदेष लब्धेः सेसा वि जहासंभव-माउन्जा निग्गमे काला ॥२०८७।।।
स्थितिकालः । उपयोगतस्तु सर्वेषामन्तर्मुहूर्त स्थितिः । ना. तिस्रोऽपि प्राया व्याख्यातार्थाः, नवरं 'अरुहय' ति अर्हता- नाजीयानां तु सर्वाणि सर्वाद्धा इति गाथाद्वयार्थः। श्रीमन्महावीरेण । 'जं च ससा वी'त्यादि यस्माश्च शपा अपि
अथ कतिद्वारमुच्यते-तत्र सम्यक्त्वादिसामायिकानां द्रव्याऽद्धाकालादयः किश्चिदुपाधिमात्रविशिष्टाः सर्वेऽपि विक्षितसमये कति प्रतिपत्तारः, प्रतिपन्नाः, प्रतिपतिता भावकाला पव; तथाहि-द्रव्यम्य या चतुर्विकल्पा स्थितिः वा भवन्ति ? इत्याह-- सा द्रव्यकाल उक्तः, समया-5लिकादयस्त्वद्वाकालः, य
सम्मत्तदेसविरया, पलियस्स असंखभागमेनाप्रो । थायुष्कं चायुष्ककाल इत्यादि । एतच स्थित्यादयः सर्वेऽपिजीवा जीवपर्यायत्याद् भावरूपा एचति परमार्थतो भाव
सढी असंखभागो, सुए सहस्सगसो विरई ।। २७६४।। कालाद न बिशिष्यन्त इति । परं तथापि प्रमागाकालनात्रा- सम्यक्त्वदर्शाबरताः प्राणिनः क्षेत्रपल्यापमस्यासंख्ययभा. धिकारः इति यदुनं तदाधिक्येन चिंशपतस्तन प्रमाणका- गमात्रा एव । इयमत्र भावना-क्षेत्रपल्यापमस्यासइख्येयभालन कार्याति हतोग्बगन्तव्यम् , अन्यथा शा अपि द्रव्या- ग यावन्तः प्रदेशास्तावन्त एवोत्कृष्टतः सम्यकत्वंशविरद्धाकालादयः पारम्पर्यादिना सामायिकनिर्गम यथासंभव- तिसामायिकयोस्कदा प्रतिपत्तारा भवन्ति । किन्त्वयं विशेमायोजनीयाः; यथाहि-क्षायिके भाये वर्तमानम्य सामायिक पा-देशवितप्रांतपनृभ्यः सम्यक्त्वप्रतिपत्ताराऽसख्येयनिर्गत भगवतस्तथा रत्नमयासहासनलक्षणे द्रव्य चोपांव- गुणा इति। जघन्यतस्त्वेको द्वौ त । 'सढी असंखभागा टस्य, यत्र च द्रव्य तत्र तत्स्थिानलक्षणः कालोऽप्यस्त्यवः सुप' नि-इह संवर्तितचतुरस्त्रीकृतलोकस्यैकप्रादेशिकी सप्त. तथा-यथाऽऽयुष्ककालं चानुभवतः, कमाणि चापकामतः, रज्जुप्रमाणा श्रेणिगृह्यते श्रुतमाप सम्यन्मिध्याश्रुतभेदरहितं
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सामाइय
( ७३५) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामान्येनाक्षरात्मकमत्राङ्गीक्रियते ततो यथोक्तायाः श्रेणेरसङ्ख्याततमे भागे याय नमः प्रदेशास्तावन्तो विष शितकाले सामान्यभूतस्योत्कृतः प्रतिपत्तारो लभ्यन्ते, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति । ' सहस्सग्गसों विरह 'सिक दाचिद् विवक्षितकाले उत्कृष्टतः सहस्राशः सहस्रपरिगगनया सहस्रपथ पर प्रतिसारो भवन्ति ज धन्यतस्त्वेका द्वौ बेति । तदेवमुक्ताः प्रतिपद्यमानकाः । विशे० प्रा० म० ।
अथ पूर्वप्रतिपन्चान् प्रतिपादयासम्मत्तदेसविरया, पडिवथा संपई असंखेजा। संखेजाय चरिचे, ती त्रिपाडया अर्थगुण । २७६५| सम्यक्त्व देशविरताः पूर्वप्रतिपन्नाः साम्यतं वर्तमानसम ये जघन्यत उत्कृष्टतश्चासङ्ख्येयाः प्राप्यन्ते, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः । एते च प्रतिपद्यमानकेपोऽसङ्ख्येयगुणाः । सकृपेषाचारित्रे प्रा प्रतिपन्नाः। ए तं तु स्वस्थाने प्रतिपद्यमानकेभ्यः सङ्ख्यगुणाः । त्रिभ्योऽपि चरण-देश- सम्यक्त्वेभ्य एतानेव चरणगुणान् प्राप्य ये प्रतिपतितास्तेऽनन्तगुणाः । तत्र सम्यग्पादिभ्यः प्रतिपद्यमानकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नेभ्यश्च चरणप्रतिपतिता अनन्तगुणाः देशांवररातप्रतिपतितास्तु तेभ्यो ऽसंख्येयगुणाः । सम्ययप्रतिपतिताः पुनस्तंभ्यो ऽसय गुणा इति विशेषो द्रष्टव्य इति ।
"
(६) तदेवमत्र श्रुतवर्जसामायिकश्यस्य पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपतिताः अथ तमाधित्वादसुयपडिया संप, पयरस्य असंखमागमेताओ । सेसा संसारत्था, सुयपडिवडिया हु ते सव्वे ॥७६६ ॥ सम्यग् मिथ्यारूपस्य सामान्यतोऽक्षरात्मकस्य श्रुतस्य ये पूर्वप्रतिपन्नास्ते साम्प्रतं वर्तमानसमये प्रतरस्यासङ्ख्यंधभागमात्रा भवन्ति धनसमचतुरखीकृत लेोकतरस्यास
भागवर्तिनीयाणि यान्तोनदेशा स्तावन्तो विवक्षतसमयं सामान्यश्रुतस्य पूर्वप्रतिपन्ना लभ्यन्त इत्यर्थः । श्रुतप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकेभ्यस्तु ये शेषाः संसारस्था जीवाः भाषालब्धिरहिताः पृथिव्यादय इत्यर्थः, ते सर्वेऽपि भाषालब्धि प्राप्य प्रतिपतितत्वात् सामान्यश्रुतात् प्रतिपतिता मन्तव्याः न हि निरादिके संसारे भ्रभिस्तेमाल पूर्व न सम्पति ते च सम्यक्त्वादि प्रतिपतितभ्योऽ अनन्तगुणा इति स्वयमेव द्रष्टव्यम् । इति निर्युगाचात्र पार्थः ।
'सेढी असंखभागो सुए ' त्ति-इत्यस्य व्याख्यानं भाष्य
कारः प्राह
संवट्टियच उरस्सी कस्स लोगस्स सत्तरज्जूश्रो । सेही तदसंखिञ्जइ - भागो समए सुयं लहइ || २७६७|| उक्तार्था ।
'सुपि परस्स इत्यादेष्यपानमासादी सेहिगुणा, पयरं तदसंखभागग्रेटी | संखाईयाण पए, सरासिमाया सुयपवन्ना ||२७६८ ।।
सामाइय
इयपि गतार्था । नयरं श्रेणिः घेण्या गुणिता प्रतरां म
न्तव्यः ।
'सम्मत देसविरया पलियस्स ' इत्याद्युक्तम्, तत्र सभ्यकृत्यप्रतिपद्यमानादीनां संख्यातीत्यस्य पत्याइय हुत्वं पूर्व न विज्ञातम्, तद् भाष्यकारः माहसह संखाईयने, धोबा देसविरमा दुवियहं पि तदसंखगुणा सम्म - द्दिट्ठी तत्तो य सुयसहिया || २७६६ || मीसे पवज्जमाया सुपस्स सेसपदिवसहिंतो । संखाईयगुण थिए, तदसंखगुणा सुयपवन्ना ॥ २७७०॥ सम्यक्त्य देशावरतानामुभयेषामपि प्रतिपद्यमानानां पत् पमास येयभागवनर्तित्येन संक्यातीतस्येऽसंतु ऽपि सति द्वयोरप्यनयो राश्योः स्तोका देशविता - तिपद्यमानकाः सम्यग्दृष्टयः प्रतिपद्यमानकास्तेभ्योऽसंसंदेगु तेभ्यस्थ प्रतिपद्यमानसम्यग्रष्टिभ्यः श्रुतसहिताः सामान्यप्रतिपद्यमानका असंश्येयगुणाः । मिथेमिलिते समुदितेऽपीत्यर्थः सम्यग्दृष्टिदेशविरतराशिद्व
"
,
,
धयवस्थापिते सामान्यतस्य वे प्रतिपद्यमान कारले, शेषेभ्यः सम्यगृदय मिलितेभ्यः प्रतिपद्मकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नेभ्य इति भावः, 'संखाईयगुण श्चिय' त्ति संख्यातीनगुणा एवासंख्यातगुणा एवेत्यर्थः । तदनेन श्रेणेरसंख्यातभागवृत्तित्वात् सामान्येन प्रतिपद्यमानानां प्रासूचितम् । एवं नाम ते सामान्यश्रुतप्रतिपद्यमानका बहवो येन शेषेभ्यः समुदितसम्यग्दृष्टिदेशविरतेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नेभ्यो ऽप्यसंख्यातगुणाः 'तदसंखगुणा सुयपवन्न ' ति तेभ्योऽ पिश्रुत प्रतिपद्यमान केभ्यस्तस्यैव श्रुतस्य ये पूर्वप्रतिपन्नास्तेऽ सङ्ख्यातमुखा इति ।
अथ पूर्वप्रतिपक्षानां च प्रतिपद्यमानकानां च सम्यग्रहयादीनां स्वस्थानेऽल्पबहुत्वमाह
सट्टा सङ्काणे, पुण्यपवस्था पवज्जमाणेहिं ।
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हुति [असंखज्जगुणा, संखिज्जगुया चरितम्स | २७७१ । सम्यक्त्वावरतानां स्वस्थाने स्वस्थाने पूर्वतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकेभ्यो. संकपेयगुतः चारित्रिणां तु विशेषः तथथा - सर्वस्लोकाः स्वस्थाने चारित्रिणः प्रविद्यमानका पूर्वप्रतिपन्नास्तु समेया इति । अथ सम्यक्त्वादिप्रतिपतितानामत्यवत्यमाहचरणपडिया अयंता, तदसंखगुणा व देसविरईयो । सम्मादसंखगुणिया, तो सुपाओ भतगुणा । २७७२। चारित्रं प्राप्य प्रतिपतितास्ने सम्यकत्वादिप्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपत्रकेभ्यः सर्वेभ्योऽप्यनन्ता अनन्तगुणा देशविरतिप्रतिपतितास्तेभ्यो ऽसयातगुणाः सम्पति तितास्तेभ्योऽखष्यातगुणाः तेभ्योऽपि सुतात् प्रतिपतिता अनन्तगुणा इति ।
"
'सेढी असंखभागां सुए ' इत्यादि यदुक्तम्, तच किं सामान्यश्रुतं सम्यक्त्वश्रुतं वेह गृह्यते इत्याशङ्कायामाह - सामयणं सुयहणं ति तेरा सम्बन्ध बहुतरा तम्मि | इहरा पर सम्मसुर्य, सम्मत्तसमा मुख्यव्त्रा ।। २७७३ ॥
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(28) अभिधान राजेन्द्रः ।
सामाइय
उक्तार्थप्राथा, सुगमा चेति ।
इह सम्यक्त्यश्रुतदेशाविरतिचारित्रलक्षणेषु चतुर्वपि सामायिकेषु पूर्वप्रतिपन्न प्रतिपतितपदयोर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नत्वात् तद्विशेषप्रतिपादनार्थमाह
पांडेयपडिवन्नयाणं, सट्टाणे समहियं जहन्नाओ । सम्वत्कोसपर्य, पवन जाओ येगो ।। २७७४ ।। इह सम्यक्त्वादिप्रतिपतितानां यजघन्यपदं तस्मात् स्वस्थाने यदुत्कृष्टपदं तत् सर्वत्र समधिकं विशेषाधिकमत्रगन्तव्यम् । एवं पूर्वप्रतिपन्नानामपि जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिकमेव । प्रतिपद्यमानानां तर्हि का वार्ता ? इत्याहपवई' त्यादि प्रतिपद्यते सम्यक्त्वादिगुण जघन्यत एको द्वौ वा, उत्कृष्टतस्त्वाद्यसामायिकत्रयमसङ्ख्याताः, चारित्रं तूत्कृष्टतः सङ्ख्याताः प्रतिपद्यन्ते । श्रत इह जघन्यपदादुत्कृष्टपदमसंख्येयगुणं संख्येयगुणं वा द्रष्टव्यम् इति गाथाऽष्टकार्थः । विशे० ।
(६६) अथ यस्य नयस्य यत् सामायिकं मोक्षमार्गत्वेनानु.
मतम् तद्दर्शनस्वरूपमनुमतद्वारं विभणिपुराहूतवसंजमो अणुमो, नेग्गंथं पवयणं च ववहारो । सदुज्जुसुयाचं पुण, निव्वाणं संजमो चेव ।। २६२१ ।। तापयतीति तपस्तत्प्रधानः संयमस्तपः संयमश्चारित्रसामायिकामेत्यर्थः । तथा निम्नमध्यमानमिति भावना प्रययनं सामायिकमित्यर्थः
विपरितानि यपि सामाविकानियमात् न ममानुमतानीति ते व्यवहारयः । एतद्ग्रहणे साधोवतिमी नैगममापि गृहीतो भवतिनैगम संग्रहयवहारात्रिविधमपि सामायिक मामातथाऽनुमन्यते शब्दप्रयोः पुनर्नय निर्वामागभिमतः संयम एव चारित्रसामायिक मेवेत्यर्थः, नेतरे द्वे, र्वसंवररूपचारित्रानन्तरमेव मोक्षप्राप्तेः इति नियुक्तिगाथासंक्षपार्थः ।
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विस्तरार्थ भाष्यकारः प्राहकस्स नवसामयं किं सामाइयहि मोक्खमग्गो नि । मन नेगमसंग्रह-पहाराणं तु सव्वाई ।। २६२२ ।। तवसंजमो ति चरितं निग्गंथं पवयणं ति सुयनाणं । तग्गह सम्मत्त, चग्गहणाओ य बोद्धव्वं ।। २६२३ ।। गाथाद्वयमपि गतार्थम् । नवरं सब्वाई' ति सम्यक्त्वत्रिपाणि श्रपि सामायिकामीत्यर्थः । अथ परंप्रयमाशङ्कय परिहरन्नाहतिमि दिसामइया इच्छंता मोक्खमभ्गनाइल्ला | किं मिच्छहिडीया वयंति जं समुइयाई पि ।। २६२४|| श्राह नन्वाद्या नैगमसग्रह व्यवहारलक्षणास्त्रयां नया उक्लन्यानारम्याणि सामाविकानि मामार्गस्वतः किमिति मिथ्यादृश्यः १ किमिति नयमतमिदं गीतम् नमन कस्मादेन भवति इत्यर्थः । नहि जैनैरपि ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यो ऽन्यदूनमधिकं वा किमपि मोक्षमार्गत्वेनेष्यत ? । श्रत्रोत्तरमाह वयंती 'त्यादि यत्यस्मादयमुद्दिनान्यप्येनैगमा
,
सामाइय
दयः, न तु ज्ञानावियादेवमांश इति नियमं कुनयत्यदानात् एते मिथ्यादृश्यति । 'सदुज्जुसुयारी पुरा ' इत्यादि गाथादलं व्याख्यातुमाहउज्जुसुयाइमयं पुण, निव्वाणपहो चरित्तमेवेगं ।
न हि नादंसणाई, भावे विन तेसि जं मोक्खो | २६२५ । ऋजुसूत्रस्य, त्रयाणां च शब्दनयानां पुनश्चारित्रसामायि कमेवैकं निर्वाणमार्ग इति हि मतम्, हिशब्दः पुनरर्थे, न पुनः श्रुतज्ञानसामाधिकं सम्यग्दर्शनामाधिकं च मोक्षमार्गपामनुमन इत्यर्थः यद्यस्मात् पदर्शनसामायि कयोः सद्भावेऽपि चारित्रमन्तरेण न मोक्षः । तस्मादन्वयव्यतिरेकाभ्यां चारित्रसामायिकमेकं तम्मन मोक्षमार्ग इति । पतदेव भावयति
जं सव्वाणदंसण - लंभे विन तक्खणं चिय विमोक्खो । मोक्खो य सव्वसंवर-लाभे मग्गो स एवाओ । २६२६ । यद्यस्मात् सर्वम्-परानम् : कलशानमिति यावत् तथा सर्वम् सम्पूर्ण दर्शन सर्वदर्शनम् शाम्यमित्यर्थः तयेोनित क्षणमेव विमा मुसिायः भवति न मांदा? इत्याह- सर्व संवररूपचारित्र सामायिकलाभे । श्रतोअन्वयव्यतिरेकाभ्यां स एव सर्व संवररूपचारित्रलाभो मोक्षमार्ग इति ।
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श्रत्र पैर नह
आह नए नागदंसा- रहियस्मै सम्यमं दिट्टो । तस्स हियस्सेव तत्रो, तम्हा तितयं पि मोक्खपहो | २६२७ श्राह ननु सोऽपि - सर्वसवररूपचारित्रलाभो ज्ञानदशंनरहितस्याकस्मादेापजामान न कस्यापि हुए, किं तु तत्सहितस्यैव प्रागुत्पन्न शानदर्शनस्यैव तकी यथोक्तचारित्रलाभः संजायत । तस्मात् त्रितयमपीदं मोक्षमार्ग इति । श्रतोऽयुक्तमुक्तम् ' निव्वाएं संजमो चेव' इति । एवं गादावाडतु जर तेहि विना गरिथचि संपरी ते ताई तस्सेव । जुनं कारणमिह न उ मक्खन | २६२८ |
यदि 'ताभ्यां ज्ञानदर्शनाभ्यां बिना सर्व संवररूपचारिलाभो नास्ति भासिनाय ता दस्त! 'ताई' तिनदर्शने तस्यैव सर्वपरवा रिवस्य कारणमिह क्रममा सवार त्रसाध्यस्य मोक्षस्य तदनन्तरमात्र भावित्वात् ज्ञानदर्शनद्वयानन्तरमभूतत्वाति
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पुनरापराभिप्रायमा परिहरनाअह कारोवगारि नि, कारणं तेा कारणं सच् । भुवनगाई, जइ गो नेयाइ भावें ।। २६२६ ॥ तह साहभावेण वि देहाइपरंपराइबहुभेयं । निव्वाणकारणं ते नागाइनियम को नियमो | २६३०| यह पचातरं हेऊ नेयरमारपि । तो वरमयं चापि मक्ख ॥। २६३१ ।।
"
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(७३७) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय अथ ब्रूषे कारणस्थ सर्वसंवरचारित्रस्योपकारिणी स्वात् यत् यत् सामायिकाङ्गं तत्तत्प्ररूपणं प्रस्तुत यथा साशानदर्शने, इति ते तस्य कारणम्, 'तेण' ति-तर्हि ह- मायिकस्वात्मप्ररूपणमित्यलं विस्तरेण । तत्र यदुक्रम-मान्त ! सर्वमपि भवन यतानदर्शनचारित्राणां कारण प्रा-! स्मा खलु सामायिकर्माित तत्र यथाभूतोऽसौ सामायिकं प्नोति, शेयश्रद्धेयप्रवृत्तिनिवृत्तिभावेन सर्वस्यापि भुवन- तथाभूतमभिधित्सुराहम्य तदुपकारित्वादिति । न केवलं झेयादिभावेनोपकारमा
सावजजोगविरतो, तिगुत्तो छस संजतो । घात् , तथा, साधनभावेनापि-साधकतमत्वनापि देहमा
उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ ।। १४६ ॥ तापितृवस्त्रपात्राऽऽहारभेषजादिकं परम्परया बहुभेद-ब
अवयं मिथ्यान्धकषायनोकषायलक्षणं सहावा यस्य येन हुप्रकारं निर्वाणस्य मोक्षस्य-कारण विद्यते । ततस्ते-तव शानादित्रिक को नियमः ? ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमा
चा स सावद्यः स चासौ योगश्च सावद्ययोगस्तस्माद्विरतो
निवृत्तः सर्वसावद्ययोगविरतस्तथा त्रिभिमनोवाक्कायैगुप्तर्गः' इत्येवभूतः को निश्चयः ?, अन्यस्यापि परम्परया दे
त्रिगुप्तः । तथा पट्सु जीवनिकायषु संयतः-प्रयत्नवान् , हादेबहुप्रकारस्य तत्कारणस्य विद्यमानत्वादिति । अथ
श्रथ अवश्यकर्तब्येषु योगेषु सततमुपयुक्तो यतमान: यबहुप्रकारकारणसंभवेऽपि यदेच प्रत्यासनतरं कारणं तदेव
तनं तेषामासेवनम् । इन्धंभूत श्रात्मा सामायिकमिति । मोक्षस्य हेतुरिथ्यत, न पुनरितर देहादिकमपि परंपरयोपकारकमपि तडतुतयाऽभिधीयते ततो ज्ञानादित्रयमेव मा
इयं मूलटीकानुसारेण व्याख्या । श्रा०म०१०। क्षहेतुरिति नियमः । अत्राच्यते-यदि हन्त ! प्रत्यासनतया
अनन्तरोक्नाशङ्गाऽसम्भवे इत्याहयदुपकुरुते तदेच मोक्षकारणम् , न व्यवहितम्, ततस्तर्हि
अाया खलु सामड्यं, पच्चक्खायं तो हबइ पाया। सर्वसंवरात्मकं चारित्रमेव मोक्षमार्गो नान्यदिति प्रतिपद्यस्व, तं खलु पच्चक्खाणं, आयाए सबदव्याणं ॥२६३४॥ तस्यैवातिप्रत्यासन्नत्वादिति ।
इह सामायिकं कः ? इत्याह-'आया खलु' ति-प्रात्मैवश्राह-ननु यद्येतदनन्तरोक्नं नैगमादिनयमतम् , तर्हि स्थि. जीव एव सामायिकम् , न त्वजीवादिति भावः 'पञ्चतः पक्षः कः? इत्याह
क्खायं तो हवाइ आय'ति-स चात्मा सावद्ययोगं प्रइट्ठत्थसाहयाई, सद्दहणाइगुणो समेयाई ।
त्याचक्षारण स्तत्प्रत्याख्यानं कुर्वन् प्रत्याख्यानक्रियाकाले सा.
मायिकं भवति , निश्चयनयमतेन 'क्रियमाणं कृतम्' इति सम्मकिरियाउरस्स व,इह पुण निव्वाणमिद्वत्थो।२६३२
क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभदात् । न केवल प्रत्याचक्षाणोऽसौ इह नैगमादय एकैकशो व्यस्तान्यपि त्रीणि सामायि- वर्तमान काले सामायिकं भवति , किन्तूपलक्षणत्वात् कृतकानि मोक्षकारणत्वेनेच्छन्ति, ऋजुसूत्रादयस्तु चारित्रमे- प्रत्याख्यानोऽपि सामायिक भवतीति द्रष्टव्यम् । द्वितीयमावैकं तदेतत्धन प्रतिपद्यन्ते, इति तावद् नयमतं प्रतिपा- त्मग्रहणं किमर्थम ? इति चेत् । उच्यते-स एव सावघयोदितम् । स्थितपक्ष तु त्रीश्यपि ज्ञानादीनि सामायिकानि स. गप्रत्याख्यानयुक्तः परमार्थत आत्मा, श्रद्धानज्ञानसावनिवृ. मुमितान्येवेष्टार्थसाधकानि, न त्वेकम् , व्यस्तानि वा, य- त्तिलक्षणस्वस्वभावावस्थितत्वात् । शेषसंसारः पुनरात्मैव न थाsतुरस्य वैद्यभैषजाऽऽतुरप्रतिचारकलक्षणसमुदितच
भवति , प्रचुरघातिकमभिस्तस्य स्वाभाविकगुणतिरस्करतुरङ्गसम्यक्रिया । सम्यक्त्वेन हि सम्यक्त्वं श्रद्धत्ते, शा
णादिति ज्ञापनार्थ पुनरात्मग्रहणमिति । 'तं खलु पञ्चक्खाणं' नेन तु जानाति, चारित्रेण तु सर्वसावद्याद् विरमतीति ।
ति-खलुशब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतित्वज्ञापनार्थः । अतः ‘सद्दहणाइगुणउ 'त्ति-श्रद्धानादिगुणयुक्तत्वात् समु
ततोऽयमर्थः-तच्च प्रत्याख्यानं जीवपरिणतिरूपत्वाद् किदितेभ्य एव ज्ञानादिभ्य इटार्थसिद्धिर्नान्यथा । अत्र प्रयोगः
षयमधिकृत्य - श्रावाए सब्बदब्वाणं ' ति-सर्वेषामपि इह टार्थस्य सामग्येव साधिका न त्वेक किश्चित् , तथैवो
जीवादिद्व्याणामापाते अभिमुण्येन समवाये — निपलम्भात् यथाऽऽतुरस्य चतुरङ्गसम्यक्रियासामग्री त
पद्यते' इति शषः । सर्वाणि जीवादिद्रव्याणि सामादिष्टार्थस्य साधिका । स चेष्टार्थः पुनरिह प्रस्तुत निर्वाणं
यिकप्रत्याख्यानस्य श्रद्धेयज्ञेयप्रवृत्तिनिवृत्तिभावेनोपयुज्यमोक्षा मन्तव्य इति । देवमुक्तमनुमतद्वारम् । तद्भणनेनेव समाप्ता ' उद्देसे निइसे य निग्गमे' इत्याद्युपोद्घातप्रथम- |
म्ते , अतस्तत्समवाये तद् मिष्पद्यत इत्यभिधीयते। न च
सामायिकग्ररूपणे प्रस्तुत तद्विषयनिरूपणमसंबद्धमिति द्वारगाथा। अथ 'किं कइविहं' इत्यादि द्वितीयद्वारगाथावयवभूतं प्र.
वक्तव्यम् , तदङ्गत्वात् तत्स्वरूपवत् इति नियुक्निगाथार्थः । थम किम् ' इत्येतद्वारं व्याख्येयम् । अतस्तत्प्रतिपादक
विशे०। प्रा० म०। साम्प्रतमियमेव गाथा कथं कानियुक्तिगाथायाः प्रस्तावनां कुर्वन्नाह
लिकसूत्रेऽपि प्रतिसूत्र पूर्वमवतेरुर्नया इति सकौतुक
विनयजनानुग्रहाय पूर्वसूरिकृतव्याख्यानुसारेण नयाकिं सामइयं जीवो, अजीवो दव्यमहगुणो होजा ।
ख्यायते । संग्रहनयः ग्राह--प्रात्मा सामायिकं सामायिकिं जीवाजीवमयं, होज तदत्थंतरं व ति ? ।। २६३३॥
कशब्दवाच्यो न तदतिरिक्रं गुणान्तरं , गुणानां द्रव्यात् कि सामायिक जीवः, उताजीयः ? । जीवाजीवत्वेऽपि कि पृथग्भूतानामसम्मवात् , अपृथग्भूतानां द्रव्य एवान्तर्भाद्रव्यं, गुणो वा भवेत् । श्राहीस्विजीवाजीवमयमुभयम् । श्र- वात् , एवं बुवाणं संग्रहं प्रति व्यवहारोऽवोचत्-न शक्यथ जीवाऽजीवाभयेभ्योऽर्थान्तरं खरविषाणवन्ध्यापुत्रकल्प मतत् प्रतिपत्तुमतिप्रसङ्गदोपात् । तथाहि-यद्यसी सामायिकिमपि तद् भवेत् ? इनि द्वादशगाथार्थः । विश०। श्रा०म०। के ततो यो य आत्मा स सामायिकमिति प्रसनं तत एव तथाहि--सामायिक विषयनिरूपणं प्रस्तुतं सामायिकाङ्ग- प्ररूपय-'जयमाणो पाया सागाइयं हाई इति-यतमानो नाम
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सामाइय
प्रयत्नपरस्तथाभूत आत्मा सामायिकं न शेष इति । एवं व्यव हारेणोक्रे सति ऋजुसूत्रनय उवाच-यदि नाम यतमान - रमा सामायिकं तत एवं तामलिप्रभृतयोऽपि स्वच्छन्दसा यतमानाः सामायिकं प्रसक्तास्तेषामपि स्वसयमानुगतयतनामात्र सम्भवात् नचैतदिष्टं तेषां मिथ्यादृष्टित्वात् । तत एवं बुध्यस्व उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति । उपयुक्तो नाम शेयप्रत्याख्येयज्ञान प्रत्याख्यान परिणामः, एवं सति तामलप्रभृतीनां व्यवच्छेतेषां सम्यग्ज्ञानसम्वत्याख्याना सम्भवात् । एवम् ऋजुसूत्रेणोक्ते शब्दनयोऽभाणीत् यद्युपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमेवं तर्ह्यविरतसम्यग् - तेषा
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यो देशावरताथ सामायिकं प्राप्नुवन्ति मपि यथायोगं शेयज्ञानप्रत्याख्येयप्रत्याख्यानसम्भवात् । तत एव माचक्ष्व - 'षट्सु संयत उपसंयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति' पसु पृथिवीकाधिकादिसम्प बोनीत्यायतः संपरितापादिभ्यो विरतः संयतः । एवं चारित्रसम्यग्दृष्टिदेशविरतव्यवच्छेदः तेषां त्रिविधं त्रिविधेन पड्जीवंनिकायपरितापनादिभ्यो विरत्यभावात्। एवमुक्ते समभिरूढः प्राह यदि पदसु जीवनिकायेषु संयत उपयुक्तो यतमान श्रात्मा सामायिकमिति । त्रिगुप्तो नाम- मनोवाक्कायगुप्तः । किमुक्तं भवति-अकुशलमनोवाक्कायप्रवृत्तिनिरोधी कुशलमनोवाक्कायोद्दीपकः 'एकहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायात् पश्ञ्चसु ईर्याभाषैषणादानभाण्डमा श्रनिक्षेपणोधार प्रश्रवणादिपरिष्ठापन रूपासु समितिषु समित इत्यपि गृह्यते । ततः प्रमत्तसेवतानां व्यवच्छेदः तेषां नाविकथाममा दोपेतानां यथोक्ते रूपगुतिसमित्यभावात् । एवं सर्माभरुणाभिहिते एवंभूत वदति यदि नाम यथोक्तस्वरूप आत्मा सामायिकं तसोऽयमत संयतादयोऽपि सामायिक भयेयुस्तेषामपि यथोक्तविशेषणविशिष्टत्वभावात् तत एवं प्रतिपद्यस्यसाद्ययोगविरगुप्तः पद संपत उपयुक्त यतमान आत्मा सामायिकमिति । सावद्ययोगविरतो नाम श्रवद्यं कर्मबन्धः सहावद्यं यस्य येन वा स सावधः योगो व्यापारः सामर्थ्य वीर्यमित्येकार्थ "जोगो विरियं थामं, उच्छाद परको ताबेट्टा सती सामर्थ थिए, जोगस्स [इति पजाया ॥ १ ॥” इति वचनात् सावद्यश्वासौ योगश्च सावद्ययो गस्तस्मात् विरतः -- प्रतिनिवृत्तः सावद्ययोगविरतो परिशया प्रत्याख्यानपरशया च परिज्ञातसमस्तसावद्ययोगः | किमुक्रं भवति निरुमवादमनपि गत कियानिवृत्तिध्यानमपि प्रतिपक्षी नामात्मा सामायिकमिति एवं चाप्रमत्तसंयनादीनां व्यवच्छेदस्तेषां मनोवाक्कायव्यापारवत्तया सावद्ययोगपरिकलितत्वात् "नत्थि हु सकिरियागं अबंधगं किंचि इह अद्धा वचनात् । नैगमस्य स्वनकरामत्यात् समस्तैराद्विशेषायशिष्टां ऽन्यतरेकविशेषणविशिष्टां वा द्वित्रिचतुःपञ्चविशेष
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" मिति
शिष्या सामायिकमित्यतावन्मात्रमभ्युपगम्यते ततः सावयव्यापारयनानामपि सामायिकन्यप्रसङ्गः ततो मा वादीचं, किन्त्वेवं वद-साद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमिति । एवं च सायनसामान्य दासा ऋषः पुनः संयमेव सामायिकम् मन्यते न स
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( ७३८ ) अभिधानराजन्द्रः ।
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सामाइय
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सामायिक धृतसामायिकं या विरस्यभावे तयोर्नि लत्वात्, शानस्य फलं विरतिरिति वचनात! विरतिभावे च तयोस्तत्रैवान्तर्भावात् । तत उक्तप्रकारेण वदन्तं व्यवहारं प्रति स प्राह-विरतिर्नाम परिज्ञानमात्रेऽपि तदा शक्यभावतो लोके व्यवहियते तथाहि केचित् प्रचारिषांवरणीय दयसमेता कदाचित्तीर्थकरादिसमीपे धर्म्मश्रवणवेलायां नरकादिदुःखाकंनतस्तद्भीता विषयानरकादिकुगतिप्रपातहेतू नवबुध्यतेभ्यो विरज्यन्ते । हा धिग् यद्वयमेतेष्वेवंरूपेष्वपि पसला इति. लोकानामपि न तथारूपचेष्टादिदर्शनत एवं प्रत्यय उपजायते यदेते विरक्ता इति । परं तेन तान् विषयान् त्यकुं शक्नुयन्ति प्रबलचारित्रावर की कम्मोदयात्। ततः लावद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमित्येतावन्मात्रोकौ तेषामपि सम्यक्त्व सामायिकवतां च व्यवहारतः सावद्ययोगविसामायिक प्राप्नोति तस्मादेवमभिधानीयं सावध योगविरति आत्मा सामाधिकमिति । त्रिगुप्त इत्यस्य व्याख्यानं प्राम्यत् । त्रिगुप्त ते पञ्चसमित इत्यपि इव्यं शब्दमयः पुनर्देशविरतिसामायिकमपि ने ति। तत एचमभिधान प्रति स भूते-यदि नाम सावद्ययोगविरतखिगुप्त सामाधिकमित्युच्यते ततो देशषिरता अपि सामायिकं प्राप्नुवन्ति तेषामपि सामाविकं कुर्वतां सावद्ययोगविरतत्वात्, यथायोगं पञ्चसमितित्रसभावाच। ततस्तेषां सामायिकत्वप्रतिधार्थमेवमभिद ध्याः - सावद्ययोगविरतस्त्रिगुप्तः पदसु संयतः आत्मा सामायिकमिति । पद संपतो नाम-त्रिविधं त्रिविधेन पदसु जीवनिकायेषु संघट्टन परितापनादिभ्यो विरतस्तत एव देशविरतानां सामायिक्रमपि कुर्वतां सामायिकत्व व्युदासत्रिविधे त्रिविधेन विभावात् द्विविधं त्रिविधेनेति सामायिकसूत्रोच्चारणात् समभिरूढः पुनः प्रमत्तसंयतानामपि सूक्ष्म संपरायपर्यन्तानां सामायिकत्वं नेच्छति । तत उक्तप्रकारेण ब्रुवन्तं शब्दनयं प्रति स प्राह- यदि नाम सावयोगविरत स्त्रिगुप्तः षट्सु संयत आत्मा सामायिकमिति, उपयुक्को नाम - कषायोदयलेशेनाप्यकलङ्कितः सन् समभावें व्यापृतस्ते त्र उपशान्तमोहादय एव न प्रमत्तसंयतादयस्ततस्तेषां व्युदासः । एवंभूतः पुनः समुद्वातादिगतं सपोनिकेमियोगिकेवलिनं या सामायिक शेय तः सामायिकस्य फलं मोक्षस्ततो यैव सम्यक् - समभावे व्यवस्थितस्य समस्तकर्म्मविमोक्षार्थमायोजिका करणसमुद्वातादिका विगतक्रिया निवर्ति ध्यानप्रतिपत्तिरूपा वा क्रिया सैव सामायिकशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्त प्रतस्तत्पतिपत्यर्थ विशेषणान्तरमाह - सावद्ययोगविरत त्रिगुप्तः षट्सु संयतः उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति । एवं चापशान्तमोहादीनां सामायिकत्वप्रतिक्षेपस्तेषां यथोक्रलक्षणक्रियारूपाया यतनाया असम्भवात्, नैगमस्त्यनेकगमत्वादेव प्राग्वत् सामायिकमिच्छन् भावनीयः । श्रा० म० १ श्र० श्रा० चू० ।
"
,
(७०) ननु कस्माज्जीव एव सामायिकं नाजीवादिः ! इत्याशङ्कायां भाष्यकारः प्राह
सरहद्द जागर जओ, पच्चक्वायं तो जो जीवो ।
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय नाजीवो नाभावो, सो चिय सामाइयं तेण ॥ २६३५॥ एवं चारित्तमयं, सव्वद्दव्वविसयं तह सुयं पि। यतो-यस्मात् सम्यक्त्वश्रुतसामायिकाभ्यां वद्धत्ते जा- देसे देसोचरई, सम्मच सवभावसु ॥ २६४०॥ नाति च जीव एव नाजीवादिः, प्रत्याचक्षाणश्च चारित्री- यद्--यस्मात् प्रमस्थावरसूक्ष्मस्थूलसर्वजीवपालनविषयं यतो जीव एव भवति नाजीवो नाप्यभावः, श्रद्धानज्ञान- प्राणातिपातविगतिव्रतम, तस्मात् प्रथमे व्रते सर्वजीप्रत्याख्यानानां प्रेक्षावत्येव संभवात् , अजीवाऽभावयोश्च ।
वा विषयत्वेन सङग्रहीताः। मिथ्या , अनृतम् , मृषेति प्रेक्षाभावात् तेन तस्मात् स एव जीवः सामायिकं नाजी
गर्यायाः। मूी, गृद्धिः , परिग्रह इत्येकार्थाः। उपरवादिरिति ।
मणमुपरमो; नियमः । अयं चोपरमशब्द. प्रत्येकमभिस'ते खलु पच्चक्खाएं' इत्यादेाख्यानमाह
म्बध्यते । ततश्च मिथ्योपरमो मृषावादनियमो द्वितीयत्रसामाइयभावपरिणइ, भावाओ जीव एव सामइयं । तमित्यर्थः । मूछौंपरमः परिग्रहनिगमश्चरमव्रतमित्यर्थः । सद्धेयनेयकिरिओ-वागो सव्वदम्बाई ॥ २६३६ ।।
पतो मिथ्योगरम-मूछोपरमौ द्वितीय-चरमवतविशेषौ
सर्वद्रव्येषु विनियुक्ती सर्वद्रव्याणि प्रत्येकं तयोबिषय इत्यर्थः 'स्खलु शब्दः सामायिकस्य जीवपारणतित्वज्ञापनार्थः' इ.
कथम् ? इति चत् । उच्यत-शून्यवाद सर्थद्रव्यापलापेन, अत्युक्तमेव । ततश्च सामायिकभावपरिणतिभावात् सामायिक- न्यथा प्ररूपणेन वा मृषावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात् , द्विपरिणामानन्यवाजीव एव सामायिकम् । तस्य च जीवप- तीयवतस्य च तत्रिवृत्तिरूपत्वात् सर्वद्रव्यविषयता । पञ्चरिणतिरूपस्य सामायिकस्य को विषयः ? इत्याह--सर्वद्र- मनतस्यापि 'त्रिभुवनाधिपतिरहम् सर्वमपि मदीयम् इत्येव्याणि । कुतः ? । 'सद्धेयनयकिरिनोवोगो' त्ति-यथा- वंभूतमूर्छानिवृत्तिरूपत्वात् सर्वद्रव्यविषयतांत । रूपेषुसंख्यं सम्यकत्वश्रुतचारित्रसामायिकानां श्रद्धेयत्वेन झेय- तिर्यग्मनुष्यदेव स्त्रीपराडकादिलक्षणेषु मूर्तवस्तुषु , रूपसस्वेन, प्रवृत्तिनिवृत्तिक्रियया च सर्वव्याणामुपयोगात् , इति हगतेषु च स्तननयनजघनादिषु विषये तत्सेवानिवृत्तिरूपत्वे. गाथाद्वयार्थः।
न ब्रह्मवतम्-चतुर्थव्रतं प्रवर्तते, न पुनः सर्वद्रव्येषु । तृती(७१) तत्रैकस्मिन्नपि तावद् महावतात्मके चारित्रसामा- यं स्वदत्तादानवतं ग्रहणीय--धारणीयेषु मूर्तेषु ग्रहयिके नियुक्तिकृदेव साक्षात् सर्वद्रव्योपयोगं दर्शयति- णधारणयोग्येषु हिरण्यद्रविणादिषु विषये तदपहापढमम्मि सव्वजीवा, वीए चरिमे य सव्वदव्वाई।
रनिवृत्तिद्वारेण प्रवर्तते , न सर्वत्र । षष्ठमपि रात्रिभोजन
विरमणवतं रात्रिभोजनविनिवृत्तिमात्रव्यापारपरतया न ससेसा महव्वया खलु, तदेगदेसेण दव्वाणं ।। २६३७॥
विषयम् । अतस्त्रयाणामप्यतेषां सर्वद्रव्यैकदेशविषयतेति । प्रथमे प्राणातिपातनिवृत्तिरूपे व्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने पवमुक्तप्रकारेणेदं चारित्रसामायिक सामान्यन सर्वद्रव्यविसर्वजीवात्रसस्थायरसूक्ष्मेतरभेदा विषयत्वेन द्रष्टव्याः, तदनु. पर्य वतविभागविशेषविषयमवगन्तव्यम् । तथा , श्रुतसापालनरूपत्वात् तस्यति । तथा,द्वितीये मृषावादनिवृत्तिरूपे, मायिकमपि " सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु श्रुतम्" हांत वचचरमे च परिग्रहनिवृनिरूपे महावते सर्वटव्याणि विषयत्वे.
नात् पर्वद्रव्यविषयमवसेयम् । देशोपरतिर्देशविरतिसामान द्रष्टव्यानि । कथम् ?। 'नास्ति पञ्चास्तिकायात्मका लोकः,
यिकं तु तद्पत्वादव देशे सर्वद्रव्येकदेशविषयमव मन्तव्यइति मृपावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात् , तन्निवृत्तिरूपत्याच
म् । सम्यक्त्वसामायिकं तु यथावस्थितसमस्तवस्तुस्तोमद्वितीयव्रतस्य । तथा,मुच्र्छाद्वारेण परिग्रहस्यापि सर्वदव्य, श्रद्धानरूपत्वात् सर्वद्रव्यविषयमेव बोजव्यम् । अतस्त्रीण्यविषयत्वात् , चरमतस्य च तन्निवृत्तिरूपत्वादशपद्रव्यवि- पि सामायिकानि प्रत्येक समुदितानि च सर्वद्रव्यविषयाषयतेति । 'ससा' इत्यादि खलुशब्दोऽवधारणे, तस्य च व्य- णीति सिद्धम् । तत्सिद्धी च सिद्धमिदम्-' त खलु पच्चघहितसम्बन्धः । ततश्च शेषाणि महावतानि द्रव्याणां तदे- पखाणं श्रावाए सव्वदव्वाणं' इति । कदेशेनेव ' भवन्ति' इति क्रियाध्याहारः । तेषां द्रव्याणाम
अथ परमतमाशक्य परिहरमाह-- कदेशस्तदेकदेशस्तेनैव हेतुभूतेन विषयत्वेन भवन्ति, न तु किं तं ति पत्थुए किं,थविसयचिंताएँ भन्मइ तो वि। सर्वद्रव्यैरिति भावः । कथम् ? इति चेत् । उच्यते-तृतीय- सामाइयंगभावं,जाड जो तेण तग्गहणं ।। २६४१॥ म्य ग्रहणीयभारणीयद्रव्यादत्तादानविरतिरूपत्वात् , चतुर्थ- किं तत् सामायिकम् ? इति शेयत्वेन प्रस्तुते किमत्र विषय. स्य तु"रूवेसु वा रुवसहगेसु वा दव्येसु" इत्यादिवच
चिन्तया? इति प्रेये भण्यते-प्रतिविधीयते तकोऽपि विषयः नाद् रूप-रूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यनाविरतिरूपत्वात् , षष्ठ
सामायिकस्यालभावं तुभावं याति यस्मात् ,तेन तस्य विस्य च रात्रिभोजनविरमणस्वरूपत्वादिति । एवममीषां स
षयस्य ग्रहणमिह प्ररूपणं कृतमिति न तस्याप्रस्तुतस्वामति । र्घद्रव्यैकदेशविषयता इति नियुक्तिगाथार्थः ।
अथ वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाहकुतः पुनरेवम् ? इत्याशङ्ख्य भाष्यकारोऽप्याह
दव्वं गुणो त्ति भइयं, सामाइयं सम्बनयमयाधारं । जसबजीवपालण-विसयं पाणाइवायवेरमणं । तं दवपज्जवडिय, नयमयमंगीकरेऊणं ॥ २६४२॥ मिच्छा मुच्छोवरमा, सव्वद्दव्येसु विणिउत्ता ॥२६३८॥ इह सामायिक सर्वनयमताधारं सर्वनयविचारविषय इत्य
धः , ततस्तन्मतेन भाज्य भजनीयं द्रव्य गुणो वा भवति । रूवेसु सहगएसुं, बंभवयं गहणधारणिजेसु ।
ततस्तद्रव्यार्थिक-पर्यायास्तिकनयद्वयमतमङ्गीकृत्य विचातइयं छद्रवयं पूण, भोयण विणि वित्तिवावारं ॥२६३६॥ । यत इति गाथापचकार्थः ।
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सामाइय
कथं विचार्यते ? इत्याहजीवो गुणपडिवन्नो, नयस्स दव्वट्ठियस्स सामइयं । सोचैव पञ्जवडिय - नयस्स जीवस्स एस गुणो ॥ । २६४३ ।। जीवः - श्रात्मा गुणैः प्रतिपन्नः श्राश्रितः, द्रव्यमेवार्थो यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थिकस्तस्य द्रव्यार्थिकस्य नयस्य मतेन सामायिकम् । ( अत्रत्या व्याख्या 'गुण' शब्दे तृती यभागे ६०६ पृष्ठे गता । )
( ७४०) अभिधान राजेन्द्रः।
अत्र भाष्यम् -
उपाय विगम परिणामत्रो गुणा पत्तनीलयाइ व्व । संति न उ दब्यभि तब्बिराओ खपुष्फे व ॥। २६४६|| ते जप्पभवा जं वा, तप्पभवं होज होज तो दव्वं । न य तं ते चेय जओ, परोप्परप्पच्चयप्पभवा || २६५०|| गुणा एव सन्ति, उत्पादविगमपरिणामतः उत्पादययप रिणामवत्त्वात् पत्रनीलतादिवदिति । अनभिमतप्रतिषेधमाह - ' न उ' इत्यादि, सन्ति इति बहुवचनव्यत्ययादेकवचनान्तमिहापि सम्बध्यते नतु इयमस्ति यांयार्थिकनयस्य तद्विरहात् उत्पादयपरिणामाभावात् पुष्यदिति । यदि हि यस्मात् प्रभवो येषां ते प्रसिद्धा नीलतादयो गुणाः, 'जं वा तप्पभवं ' ति-यद्वा
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भयो गुणेभ्यः प्रभयो यस्य तत् तरप्रभवं गुणेभ्यो व्यतिरिक्तं किमपि वस्तु 'होज' त्ति-भवेदित्यर्थः ' होख तोति तस्य वस्तु पारमार्थिकं भवेदिनि 'नव तमित्यादि न तद्गुणानां कारणभूतं कार्यभूतं या गुणेभ्यो व्यतिरिक्तं किमपि वस्यस्ति यतस्त एव मीलरशतादयो गुणाः पूर्वापरीभावतः सातत्येन प्रवृत्ता दृश्यन्ते, न पुनस्तदतिरिक्तं किमपि द्रव्यमीक्ष्यते । कथंभूता गुणाः ? इत्याह-' परोपरे ' त्यादि परस्परम् - श्रन्योन्यं प्रत्ययः - प्रत्ययभावः प्रत्ययत्वमित्यर्थः, तस्मात् प्रभवो - जन्म येषां ते परस्परप्रत्ययप्रभवाः प्रतीत्यसमुत्पादेनोत्पन्ना इत्यर्थः । तस्माद् न गुणेभ्योऽतिरिक्तं द्रव्यमस्तीति ।
अत्र कश्चिदाचार्यदेशीयः स्वात्मन्येव व्याख्यावेत्तृत्वमवगच्छ्न्नाह—
आहारक्यागमियं इच्छ दव्यमिह पजवनपि । किं तचैतविभिन्ने, मन्नइ सो दव्वपञ्जए ।। २६५१ ।। उपायाइसहावा पञ्जाया जं च सासयं दबे । ते तप्पभवा न तयं, तप्पभवं तेण ते भिन्ना || २६५२ || जीवस्स य सामइयं पजाओ तेण तं तम्रो भिन्नं । इच्छद पजायनयो, पक्खामियं जहत्थं ति ॥। २६५३।। व्याख्यानिकाभासः कश्चिदाह- ननु पर्यायार्थिकनयमतेन यदिदं सर्वथा व्याभावव्याख्यानं भवद्भिः कृतम् तदयुक् मेष, यत इह पर्यायनयोऽपि द्रव्यमिच्छत्येव, किन्तु परस्परमत्यन्तभिन्नावव द्रव्यपर्यायावसौ मन्यते न पुनः कथञ्चित्, इत्येतावता सिद्धान्तादस्य भेद इति । कुतः पुनः परस्परं तव्य पर्याययोरत्यन्तं भेदः ? इत्यत्र युक्तिमाह-'उष्पाये' त्यादि य रमात्यादययपरिणामस्वभावाः पर्षायाः शाश्वतं नित्यं पु नद्रव्यम्, अपरं च ते गुणास्तत्प्रभवा द्रव्यालब्धात्मलाभाः,
न पुनस्तद् द्रव्यं तत्प्रभवं गुणेभ्यो लब्धात्मस्वरूपम्, तेन तस्मादुपायेन परम्परं मित्रस्वभावत्वादभिन्नास्ते द्रव्यपर्याया अन्योन्यव्यतिरेकेण इति । यस्माश्च जीवस्य शाश्वतस्य तद् व्यतिरिक्तं सामायिक पर्याया धर्मास्तेन तस्मात् सामायिकं ततो जीवादत्यन्तं भिन्नमिच्छति पर्यायनयः । अतो मदीयं व्याख्यानमिदं यथायें घटमानकमिति ।
सामाइय
अत्र सूरिरेतद् व्याख्यानमपाकुर्वन्नाहजर पजायनओ चिय, सम्मन्न दोषि दव्यपनाए । दबडिओ किमत्थ, जड़ व मई दो वि जमभिने || २६५४ ॥ इच्छह सोतेोभय-मुभयग्गा वि स पिहब्भूवं । मिच्छत्तमिहेगं ता-देगतन्नतगाहाओ ।। २६५५ ।। यदि भोः ! पर्यायनय एव द्रव्यपर्यायौ द्वावपि सम्मन्यते ऽभ्युपगच्छति तर्हि इस्पार्थिकः किमर्थे द्रव्यपरिकल्पनायेते' इति शेष पर्यायनवाम्युपगमनापि द्रव्यस्य सिद्ध त्वादिति । यदि वा एवंभूता मतिः स्यात् परस्य । कथं भूता? इत्याह-द्वापि पर्याय परस्परमे मापनाविच्छति स द्रव्यार्थिकनय इति सम्बन्धः, तेन तस्मादिदमुभ पर्यायार्थिकनद्वयमुभयग्रहेऽपि सति प्रत्येक द्रव्यपर्यायाभ्युपगमेऽपि सतीत्यर्थः । किम् ? इत्याह-'विहन्भूयं ति पृथग्भूतं भिन्नं द्रव्यार्थिकात् पर्यायार्थिकः, तस्माच्च पार्थिको दान न पुनरनधारकर्तति, एकस्य पर्या पोरत्यन्तमभेदाभ्युपगमात् अन्यस्य त्वत्यन्तं तदाभ्युपगमानिति । नापि प्रत्येकं पर्यायाः समग्ररूपता, किन्तु मिथ्यात्वम् द्वयोरपि मिथ्यादृष्टिरूपतस्मात् उच्यते इन्तेनैकत्वादन्यत्यमहाथेति । इदमत्र हृदयम् इयार्थिको पर्यायी प रमभिधानिच्छति इष्यतिरिक्रमेव पर्याय
।
"
1
एतस्य विशेषस्व प्राप्त पर्यायार्थिका पार्थिको भिन्नः परिकल्पितः पर्यायार्थिकस्तुपर्यायी परस्परभिन्नाबेच मन्यते । तो इस्पार्थिकाद् भिन्न इष्यते मिथ्या ही प्रत्येकमती इम्यार्थिको द्रव्यपात् पर्यायार्थिकस्तु तयोरन्यत्वग्रहादिति ।
1
च
"
एवंभूता यदि परस्य मतिस्तदा प्रतिविधीयते । कथम् ? इत्याह
एगत्ते न दव्त्रं, गुणो ति पायवयण मित्तमियं । तम्हा तं दव्वं वा, गुणो व दव्वट्ठियग्गाहो ॥२६५६ ॥ जर भिन्नोभयगाही, पजायनत्र तदेगपक्खम्मि । अविरुद्धं चैव तयं, किमत्र दव्वट्ठियनये ? ।। २६५७।। ननु द्रव्यपर्याययोरेकत्वे त्वदभिप्रायतो द्रव्यार्थिकेनेष्यमाणे ' द्रव्यं ' ' गुणाः' इति ध्वनिद्वयमिदमेकार्थवाचकस्वादिन्द्रपुरन्दरादिध्वनियत् पर्यायवचनमात्रमेव स्यात् । तस्मात् तत् सामायिकं यं या तिर्थयमेवेति तम्रो म बेत् न नैमिष्यते ज्यार्थिनमन इयरूपस्य त स्य प्रसिद्धेरिति । तथा, यदि परस्परमत्यन्तभिन्नस्य द्रव्यपर्यायोभयस्य ग्राहकः पर्यायनयस्त्वयेष्यते, तदा हन्त ! एकस्मिन् द्रव्यपक्षे तत् सामायिकमविरुद्धमेव ' द्रव्यत्वेन '
,
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(७४१) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय इति शेषः, 'द्रव्यं सामायिकम्' इति द्रव्यपक्षे पर्यायनय- यते षष्ठीवादिना भवता. तदा तन्नाम' त्ति-'नाम' मतेनाप्यविरोधतः सिजमवेत्यर्थः, अतः किं द्रव्यार्थिक- इत्यभ्युपगमे, मन्यामहे तदित्यर्थः । न हि कल्पितसद्भावानयेनोपन्यस्तेन? इति ।
पादनेऽस्माकं किश्चित् खूयत इति । ततश्च 'तम्भेयकतस्माद् यथाविहितमेव व्याख्यानं श्रेय इति दर्शयन्नाद
प्पणाउ' त्ति-तेन कल्पितद्रव्येण सह भेदस्त दस्ततम्हा किं सामइयं, हवेज दव्वं गुणो त्ति चिंतेयं ।
स्य कल्पनं तद्भेदकल्पनं तस्मात् सकाशात् तत् सामा
यिकं तस्य कल्पित जीवद्रव्यस्य गुणो भवतु, को निवारदव्ववियस्स दव्वं, गुणो य तं पजवनयस्स ।।२६५८।।
यिता ? । कस्य यथा को गुणः ? इत्याह-'पत्तस्से' त्यादि इहरा जीवाणनं, दबनयस्सेयरस्स भिन्नं ति । यथा गुणसमुदयव्यतिरिक्तस्य कल्पितस्य पत्रद्रव्यस्य नीउभयनोभयगाहे, घडेज नेकेकगाहम्मि ॥२६५४।। लतादिगुपः । कथंभूना नीलता ? इत्याह--' तस्संताणे' तस्मात् किं द्रव्यं गुणो वा सामायिकम् ? इतीयं चिन्ता
त्यादि, तस्मिन्नेव पुत्रसम्तान उदिता समुत्पन्ना, अस्तऽत्र प्रस्तुता । अस्यां तु चिन्तायामुच्यते- द्रव्यार्थिकनय
मिता च विनष्टेति । इदमुक्नं भवति-यथा कल्पितस्य पत्रा. स्याभिप्रायण द्रव्यम् , पर्यायार्थिकनयस्य मतेन गुणश्च त
देव्यस्य नीलतादयो गुणा भिन्ना व्यपदिश्यन्ते तथा यद्यत् सामायिकमिति । इतरथाऽन्यथा पुनद्रव्यार्थिकस्य जी
त्रापि परिकल्पितस्य जीवद्रव्यस्य सामायिकं गुण उच्यते वादनन्यत् सामायिकम् , इतरस्य तु पर्यायार्थिकस्य जी
तदा सिद्धसाध्यतैवेति । न च वक्तव्यम्-वास्तव एव सम्बवाद् भिन्नं तत् ,इत्येवमेकैकस्य नयस्य ग्रहेऽभ्युपगमे सति
ग्धिवस्तुद्वये षष्ठी दृश्यते, यथा 'देवदत्तस्य गावः' इत्यादि, " जइ पज्जायनउ श्चिय” इत्यादिपूर्वोक्नयुक्तिभ्यो न 'घटते'
एवमत्रापि वास्तवयोरेव द्रव्यगुणयाः सम्बन्धे षष्ठी युज्यइति शेषः। कथं पुनस्तर्हि घतेत् ? इत्याह-'उभयनोभयगाहे ते न तु द्रव्यस्य कल्पनायामिति, 'राहोः शिरः' 'शिलापुत्रघडेज'त्ति-उभयनयस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकलक्षणस्य कस्य शरीरम' इत्यादिभिर्व्यभिचारादिति। ..... नयद्वयस्य मिलितस्य द्रव्यगुणरूपसामायिकलक्षणस्योभ- श्राह-ननु गुणसन्तानयोरभेद एव नद्भेदनिबन्धनधर्मयस्य ग्रहे सर्व घटेत। इदमुक्नं भवति-यदि द्रव्यनयो - भेदाभावात् घटते तत्स्वरूपवत् , तत् कथं कल्पितस्यापि व्यरूपं, पर्यायनयस्तु पर्यायरूपं सामायिकमिच्छति, त- गुणव्यतिक्रिया व्यस्य सद्भावः । तदयुक्तम् , 'धर्मभेदित्थमुभयोरपि नययोः समुदितयोयथोक्नोभयग्रहे सर्व दाभावात् ' इत्येतस्य हेतोरसिद्धत्वात् । कथम् ? इत्याहसुम्थं भवति, न पुनरेकैकस्य नयस्योभयग्रहे सतीति । अथ यदुक्तम्-'सो चेव पजट्टियनयस्स जीवस्स
उपायभंगुरा जं, गुणा य न य सो त्ति ते य तप्पभवा । गस गुणों' इति,एनदवष्टम्भन पुनरपि परः प्राह
न यसो तप्पभवो त्ति य,जुजड़ तं तवयागो ।२३६३। नणु भणियं पजाय-ट्ठियस्स जीवस्स एस हि गुणो त्ति ।। यद्-यस्मादुत्पादभङ्गुरा गुणा उत्पद्यन्ते व्ययन्ते चेत्यर्थः । छट्ठीएँ तो दव्वं,सो तं च गुणोतो भिन्नो॥२६६०॥
'नय सो' त्ति-न पुनरसौ सन्तान उत्पादभङ्गरः, तस्य प्रवाननु सो चेव पजव'-इत्यादी नियुक्तिगाथोत्तरार्धे
हनित्यतया स्थितत्वात् , इत्येको गुणसन्तानयाधर्मभेदः । भणितं--प्रतिपादितं नियुक्तिकृता-पर्यायार्थिकनयमतेन जी
वथा- य तप्पभवे' त्यादि ते सामायिकादयो नीलतादय। वस्यैष सामायिकलक्षणो गुण इति । हिः-यस्मादेवमुक्तम् ,
वा गुणास्तत्रैव सन्ताने समुत्पन्नत्वात् तत्प्रभवास्तस्मात् ततस्तस्माज्जीवस्यैव गुण इति षष्ठपा षष्ठीनिर्देशादवसी- सन्तानालब्धात्मजन्मानः , न पुनरसौ सन्तानस्तत्प्रभवो यते 'दव्वं सो' त्ति-स जीवो द्रव्यम् तच्च सामायिकम् , गुगणेभ्यो लब्धात्मलाभः, तस्य गुणसादृश्यनिबन्धनत्वात् । 'गुणो तो भिन्नो' त्ति-स च सामायिकगुणस्ततो
तदेवं कारणमेव संन्तानो न कार्यम् , कार्यमेव च गुणा जीवद्रव्याद् भिन्नः, षष्ठीनिर्देशान्यथानुपपत्तेः, तस्मात् न कारणम् , इत्येवमपि गुणसन्तानयोधर्मभेदे युज्यते-घटते पर्यायनयमतेन भिन्नद्रव्यपर्यायोभयसद्भावाद् मदीयमेव
तत्-जीवादिद्रव्यम् । कुतः ? तत्र गुणसन्ताने समानबुव्याख्यानं श्रेय इति परस्याकूतमिति ।
अभिधाननिबन्धनवनोपचार:-कल्पना तदुपचारस्तस्माअत्रोत्तरमाह
निति । तंदवं पर्यायाथिकनयमतं समय पूर्व तम्हा किं उप्पायभंगुराणं, पइक्खणं जो गुणाण संताणो । सामइयं हवेज' इत्यादिनोपसंहारः कृतः। दबोवयारमेतं, जइ कीरइ तम्मि तन्नाम ॥२६६१।।
____ अथ प्रकारान्तरेण तं कुर्वन्नाहतब्भेयकप्पणाओ, तं तस्स गुणो ति होउ सामइयं । अहवोदासीपमयं, दब्बनयं पइ न जीवो भिन्नं । पत्तस्स नीलया जह, तस्संताखो दियत्थमिया।।२६६२॥ भिन्नमियरं पइ जओ, नत्थि तदत्यंतरं जीयो।।२६६४॥ अत्र परं पृच्छामः-ननु पर्यायार्थिकनयमतेन द्रव्यं पार- इदमत्र हृदयम्-तस्मात् 'किं सामायिक द्रव्यं गुणो या मार्थिकं त्वयेष्यते, कल्पनाशिल्पिनिर्मितं वा ? । यद्याद्यः भवेत् ?' इत्यस्यां चिन्तायामुक्तम्-' दवट्टियस्स दवं गुणो पक्षः, सन युक्तः , 'जह पजाय नउ श्चिय, ' इत्यादिना
य तं पज्जवनयस्स' इति । अथवा नास्यां द्रव्यगुणचिन्ताप्रतिविहितस्यात् । अथ द्वितीयपक्षः, तत्रोच्यत-गुणानां यः यामिदमुक्तम् , किन्तु किं सामायिकम् ?' इति द्वारे प्रस्तुसन्तानो गुणानां या सभागसन्ततावनवरतप्रवृत्तिः । किं वि. ते उदासीनमतमिदम्-द्रव्यपर्यायास्तिकयोरेकतरमतेऽभिशिष्टानाम् ? । प्रतिक्षणमुत्पादभङ्गगणाम् । तस्मिन् यदि सा- निविष्टवत उदानिवृत्तिनाऽऽचार्येण शिष्यान् प्रत्यभिहिमानबुद्धयभिधानहेतुत्वेन निबन्धनेन द्रव्योपचारमात्रं कि- तं-युक्तिभिश्च समर्थितमिमित्यर्थः । किम् ? इत्याहव्व
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(७४२) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय नय' मित्यादि । द्रव्यनयं प्रति द्रव्यनयाभिप्रायणेत्यर्थः,जीवा- | संलक्षणादिति । यदि पर्याया न विद्यन्ते, तर्हि कथमुच्यते त् सामायिकं न भिन्नम् , किन्तु जीव एवं सामायिकम् , 'जे जे भावे परिमणइ' ? इत्याशझ्याह-'अपजवे जातदभिप्रायेण वक्ष्यमाणयुक्त्या जीवादेव्यस्यैव सस्वात् , | राणा नत्थि 'त्ति-अपर्याये पर्यायरहिते वस्तुनि केबल्यागुणानां तु तद्व्यतिरेकिणां परमार्थतोऽसत्त्वादिति । इतरं , दीनां परिशा नास्तीति मन्यामहे , केवलमुत्प्रेक्षामात्रेणैव ते तु पर्यायार्थिकनयं प्रति पर्यायाधिकनयाभिप्रायेण भिन्न पर्यायाः, न पुनद्रव्यव्यतिरेकिणः केचनापि वास्तवास्ते जीवद्रव्यात् सामायिकम् । यतो यस्मात् पूर्वोत्रयुक्निभिना- विद्यन्ते । अतो द्रव्यमेव परमार्थसत् , इति नियुक्तिगास्ति तेभ्यः-सामायिकादिगुणेभ्योऽर्थान्तरं भिन्नो जीवः, थार्थः। तन्मतेन जीवादेव्यस्य कल्पनामात्रेणैव सत्त्वादिति । तत्र
अथ भाष्येणैतां व्याच - "पजायनयमिण” इत्यादिना ग्रन्थेन विस्तरतः पर्याया- जाहे जे भावं, परिणमइ तयं तया तोऽणन्न । र्थिकनयमतमुपदर्शितम् ।
परिणइ मेत्तविसिटुं, दव्वं चिय जाणइ जिणिंदो२६६८ (७२) अथ द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्रायं सविस्तरं इह यद् घटेन्द्रधनुरादिद्रव्यं यदा यस्मिन् काले यं रक्तदिदर्शयिषुगह
श्वतादिभावं पर्याय परिणमति प्राप्नोति तत् तदा ततः वीयस्स दव्यमेतं, नत्थि तदत्थंतरं गुणो नाम । पर्यायादनन्यदभिन्नं सद्व्यमेव परिणतिमात्रविशिष्टमविसामन्ना वत्थाणा-भावात्रो खरविसाणं व ।। २६६५॥ चलितस्वरूपं जानाति जिनेन्द्रः केवलीति ।
आविब्भावतिरोभा-चमेत्तपरिणामिदब्वमेवेयं । ननु यदि पर्याया वस्तु सन्तो न भवन्ति तर्हि कथमधिनिच्चं बहुरूवं पि य, नडो व वेसंतरावभो ।।२६३६।।
शिष्टेऽपि सुवर्णादिद्रव्ये कुण्डलाऽङ्गलीयकनूपुरादयो प्रथमनिर्दिष्टपर्यायार्थिकनयापेक्षया द्वितीयस्य द्रव्यार्थिक
व्यपदेशाः प्रवर्तन्ते ? । नचैते निर्विबन्धना एव अति. नयस्य सर्वे सुवर्णरजतादिकं द्रव्यमात्रमेवास्ति , गुणस्तु
प्रसङ्गादित्याशङ्कयाहरकन्वश्वेतत्वादिकस्तदर्थान्तरभूतो नास्ति, तस्य सामान्य-! न सुवस्सादनं कुं-डलाइ तं चय तं समागारं । रूपतयाऽवस्थानाभावात खरविपायाचदिति । एतदेवाह-श्रा पत्तं तब्बवएस, लभइ सरूवादभिन्न ति ॥ २६६६ ॥ विर्भावश्च कुण्डलादिरूपेण, तिरोभावश्च मुद्रिकादिभावे- न सुवर्णादन्यो व्यतिरिक्तः कुण्डलादिरोंऽस्ति , यन न , आविर्भावतिरोभावौ , तावेव तन्मात्रम् , तेन परिण- सुवर्णादिद्रव्यव्यतिरेकिणः कुण्डलादिपर्याया भवेयुः, किन्तु न्तुं-परिवर्तितुं शीलं यस्य तदाविर्भावतिरोभावमात्रपरि
तदेव सुवर्णादि द्रव्यं तं तं कुण्डलकङ्कणाधाकारं प्राप्त णामि सुवर्णादिकं द्रव्यमेवेदमस्ति, न तु तदतिरिक्का गु
सत् तस्य तस्य कुण्डलाद्याकारस्य व्यपदेश लभते । कथंणाः । कथंभूतं द्रव्यम् ? । नित्यमविचलितस्वभावम् , बहु- |
भूतम् ?। पूर्वावस्थास्वरूपादुनरावस्थायामभिन्नमप्यविचरूपं च कङ्कणाऽङ्गदकुण्डलमुद्रिकादिबहुपरिणामम् , राम- लितस्वभावमपीति । ततश्च नेते सुवर्णादिद्रव्य कुण्डसरावणभीमाऽर्जुनादिसम्बन्धीनि वेषान्तराण्यापन्नः प्राप्ती कङ्कणादयो व्यपदेशा निर्निबन्धनाः, तत्तद्विशिष्टाकारनिनट इवति । यथादि-बहून् वेषान् कुर्वन्नपि नटो निज बन्धनत्वात् । न च तदाकारस्य द्रव्याद भिन्नत्वम् , द्रव्यस्य देवदत्तादिस्वभावं न जहाति, सर्वास्ववस्थास्वपि तस्यैक- | निराकारत्वग्रसङ्गात् । तस्मादनन्यत्वं गुणानामिति । स्वरूपत्वात्। एवं सुवर्णादिकं द्रव्यमपि कङ्कणादि
अथान्यत्वमिष्यते , तत्राहबहुरूपाण्यापनमपि सुवर्णादिरूपतां न परित्यजतीति
जइ वा दव्वादन्ने, गुणादओ नूण सप्पएसत्तं । न तव्यतिरेकिणः केचनापि गुणाः । इत्यष्टादशगाथार्थः।
होज व रूवाईणं, विभिन्नदेसोवलंभो वि ।। २६७० ।। अस्यैव द्रव्यार्थिकनयमतस्य समर्थनार्थ नियुक्तिकारोऽप्याह
यदि पुनद्रव्याद् रूपादयो,गुणाः, श्रादिशब्दाद्-नवपुराणाजंज जे जे भावे, परिणमइ पोगवीससा दबं ।
दयः पर्याया अन्ये व्यतिरेकिण इष्यन्ते, तदा नूनं निश्चित
गुणादीनां सप्रदेशत्वमेष्टव्यं भवता । इदमुक्तं भवति-द्रव्यप्रदे तं तह जाणाइ जिणो,अपज्जवे जाणणा नत्थि।।२६६७।।
शा गुणादय इति रूढम् , यदा च ते द्रव्याद् भिन्ना इष्यन्ते, प्रयोगश्चेतनावतो व्यापारः, बिनसा-स्वभावस्ताभ्यां नि- तदाऽनन्यशरणाः सन्तः स्वस्यात्मन एव प्रदेशा अवयवा पनं द्रव्यं प्रयोगविस्रसाद्रव्यमुच्यते । तत्र प्रयोगनि- भवेयुः। न चैतद् दृष्टम् , इष्ट वा, गुणादीनां सदैव पारतपन्नं घटपटादि, विस्रसानिष्पन्नं त्वभ्रेन्द्रधनुरादि । तत्र व्येण परप्रदेशत्वस्यैव रूढत्वात् । न हि वस्तु स्वात्मन प्रयोगविनसाद्रव्यं कर्तृ यान् यान् कृष्णरनपीतशुक्लत्यादी- एव स्वयमवयवो भवतीति क्वापि दृश्यते , युज्यते वेति । न भावान् पर्यायान् परिणमति प्रतिपद्यते, 'तं तह ' ति- किश्च-गुणादीनां द्रव्याद् भिन्नत्व इष्यमाणे रूपरसगबीपसाप्रधानत्वाद् निर्देशस्य तत् नत् तथा तेन तेन रूपे- न्धादीनां घटादिद्रव्याद् भिन्नेऽपि देश उपलब्धिः स्यात् । ण परिणमद् द्रव्यमेव जानाति, जिन:-केवली, न पुनस्त- तथाहि-यद् यतो भिन्नं तत् नतो भिन्नदेश उपलभ्यते, दतिरिकान् पर्यायानिति भावः, तेषामरक्षामायौव स- यथा घटात् पटः, न चैवं रूपादयः, तस्मात् ते घटादिद्रस्वात् । न घुरकण-विफण-कुण्डलिताद्यवस्थायामपि व्यादभिन्ना पवेति द्रव्यमेवास्ति न पर्याय इति । सादिद्रव्यस्य स्वस्वरूपव्यतिरिक्तः कोऽपि पर्यायः संल- अथोपचारतस्तेऽपीष्यन्ते, तर्हि सिद्धसाध्यतेति दर्शयन्नाहज्यते, सर्षावस्थास्वविचलितस्वरूपस्य साविद्रव्यस्यैव जइ पजबोवयारो, लयप्पयासपरिणाममेत्तस्स ।
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इत्याह
(७४३) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
- सामाइय कीरइ तनाम न सो, दव्बादत्थंतरब्भूत्रो ।। २६७१ ॥ मि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं जाव वोसिरामि" "भलयः, लीनता , तिरोभाव इत्यनर्थान्तरम् । प्रकाशः, प्रकट
दंत" इति न भणन्ति, तथाकल्पत्वात् । श्रा०म०१ प्र०ा(लक्षस्वम , आविर्भाव इत्यप्यभिन्नार्थम् । लयश्च प्रकाशश्च लयप्र
णद्वारं लक्षणभेदाच 'लक्खण' शब्दे षष्ठे भागे उक्राः) काशौ पर्यायाणामाविर्भावतिरोभावी लयप्रकाशाभ्यां लयप्र
(७३) अथ सामायिकस्य वैशेषिकलक्षणप्रतिपादनार्थमाह
'अथवापी'त्यादि, अथवाऽपि भावस्य-सामायिकस्य लक्षणकाशरूपतया परिणमनं-परिणामो लयप्रकाशपरिणामः स
मनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः चतुर्विधं श्रद्धानादि एतदेव प्रदएव तन्मात्रं तस्य यदि तत्तद्विशेषबुदयभिधाननिबन्धनस्वेन
यिषुराहपर्यायोपचारः क्रियते, तदा तन्नामेति नामशब्दोऽभ्युपगमे , मन्यामहे तदित्यर्थः, केवलं नासौ पर्यायो वास्तवः कोऽपि
सद्दहणजाणणा खलु, विरई मीसा य लक्खणं कहए । द्रव्यादर्थान्तरभूतो विद्यत इत्येतदेव भुजमुत्क्षिप्य बूम इति । ते वि निसामेंति तहा, चउलक्खणसंजुयं चेव।। ७५३ ॥
यदि न वास्तवः पर्यायः किन्तु कल्पितः, तर्हि खरविषाण- रह सामायिकं चतुर्विधं भवति तद्यथा-सम्यक्त्यसामायि. स्याप्यसौ कथं न भवति कल्पनामात्रस्य तत्रापि सकरत्वात्? कम् श्रुतसामायिकम्,चारित्रसामायिकम्,चारित्राचारित्रसा
मायिकं च । अस्य यथायोगलक्षणं 'सहहण' त्ति-श्रद्धाणं लदव्बपरिणाममेतं, पजाबी सो य न खरसिंगस । । क्षणमिति योगे सम्यक्त्वसामायिकस्य जाणण' त्तिशान-मा तदपज्जवं न नाइ, जं नाणं नेयविसयं ति ॥२६७२॥ संवित्तिरित्यर्थः , सा च लक्षणं श्रुतसामायिकस्य । खलुंविशिष्टो द्रव्यपरिणाम एव द्रव्यपरिणाममात्र पर्यायो नान्यः
शब्दो निश्चयतः परस्परसापेक्षत्वाविशेषणार्थः । तथा 'विई' स च न द्रव्याद् भिन्नः, तथाऽनुपलम्भात् । नाप्यसो
इति विरमणं विरतिः सर्वसावद्ययोगविनिवृत्तिः, सा च सरतस्य पर्यायस्य द्रव्यपरिणामत्वात् , खर
चारित्रसामायिकस्य लक्षणं 'मीसा य'त्ति-मिश्रा-विरत्यवि. स्य च द्रव्यत्वाभावात् । अत एव तत् खरशृङ्गमद्रव्यत्वाद
रतिः, सा च चारित्रसामायिकस्य लक्षणम् , कथयतीत्यनेन पर्यायं सद् न शायते केवलिना , यतो शानं शेयविषय शेयप्रा
स्वमनीषिकापोहमाह भगवान् जिन एवं कथयति,तस्य च कहित्वेन प्रवर्तते । तचेह शेयविषयं नास्ति, खरविषाणस्या
धयतस्तेऽपि गणधरादयो निशामयन्ति-शृण्वन्ति। तथा तेनैव भावरूपत्वात् । अत एव नियुक्तिकृता प्रोक्तम्-'अप
प्रकारेण चतुर्लक्षणसंयुक्तमेव । उक्नं लक्षणद्वारम् । प्रा० म० ज्जवे जाणणा नस्थि ' इति गाथापचकार्थः । तदे
१०। प्रा० चू०। चमवसितं सप्रसङ्गं किं सामायिकम् ? ' इति द्वारम् ।
स्पर्शनाद्वारमाहविशे1 श्रा०म० । श्रा० चू०। (निर्गमद्वारम् , 'णिग्गम'
सम्मत्तचरणसहिया, सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं । शब्दे चतुर्थभागे २०५१ पृष्ठे उक्तम् । ) निर्गमद्वारशेषः तदेवं घोढा निर्गमोऽभिहितस्तत्र जिनगणधरलक्षणद्रव्यनिर्गम
सत्त य चोद्दस भागा, पंच य सुयदेसविरईए ।।२७८२॥ भणनेनैवावसितो द्रव्यनिर्गमः।
सम्यक्त्वचरणसहिताः-सम्यक्त्वचरणयुक्ताः प्राणिन उइदानी क्षेत्रनिर्गमं प्रस्तुतमप्यतिक्रम्य अन्तरगत्यात्कालनि
स्कृष्टतः सर्व लोकं स्पृशन्ति । किं बहिर्याप्त्या ? नेत्याहर्गममभिधित्सुर्भाष्यकारःप्रस्तावनामाह--
निरवशेष-प्रतिप्रदेशब्याप्त्याऽसंख्येयप्रदेशात्मकमपीत्यर्थः ।
पते च केवलिसमुद्घातावस्थायां केवलिनो द्रष्टव्याः । जिणगणहरणिग्गमणं, भणियमनोखेत्तनिग्गमावसरो।
'जघन्यतस्त्वसंख्येयभागं स्पृशन्ति' इति स्वयमेव द्रष्टव्यकालंतरंगदरिसण-हेओतु विवज्जो तह वि ।।२०२६।। म् । सत्त य चोद्दसभागा पंच य सुयदेसविरईए ' तितदित्थं जिनगणधरलक्षणद्रव्यस्य निर्गमन भणितमत ऊ
श्रुतदेशविरत्योरिति यथासङ्ख्येन सम्बध्यते, तद्यथाय नाम ठवणा दविए , खित्ते काले तहेव भावे य' इति
थुते श्रुतस्य सप्तचतुर्दशभागाः स्पर्शनीयाः , चशब्दात्निर्देशक्रमप्रामाययात्क्षेत्रनिर्गमस्यावसरः परं तथापि विप
पञ्च च देशविरती देशविरतस्य पञ्च चतुर्दशभागाः स्पप्रयः कालनिर्गमनं तावदभिधाय ततः क्षेत्रनिगमो भणि
र्शनीयाः, चशब्दाद्-द्वयादयश्चेति । इयमत्र भावना-कध्यत इत्यर्थः। किमर्थम्-इत्याह-कालस्यान्तरङ्गत्वदर्शनहेतोः।
श्चित् तपोधनः श्रुतज्ञानी अनुत्तरसुरेष्विलिकागत्या सअयमभिप्राय:-काल एव द्रव्यस्यान्तरङ्ग क्षेत्रं नु बहिरङ्गम् ,
मुत्पद्यमानो लोकस्य सप्तचतुर्दशभागान् स्पृशति, एकाअतो द्रव्यनिगमानन्तरमन्तरवारकालनिर्गममभिधाय
रज्जुललॊकस्य चतुर्दशभाग उच्यते । ततश्च सप्त रज्जूः स्पूपश्चात्क्षेत्रनिर्गममभिधास्यति 'नाम ठवणा दविए 'इत्यादि
शतीत्युक्तं भवति । एवमुत्तरत्रापि भावार्थों विज्ञेयः । चगाथायां तु नियुक्तिकृता क्षेत्रस्याल्पवक्तव्यत्वादन्यथोपन्यासः
शब्दात् कोऽपि सम्यग्दृष्टिः श्रुतज्ञानी पूर्व नरके बहायुकृत इति । विशे० ( निर्देशः ' णिहस' शब्द चतुर्थ
एकः पश्चाद् बिराधिता-त्यक-सम्यक्त्वः षष्ठपृथिव्यामिभागे २०७३ पृष्ठे उक्तः। ) ( पुरुषद्वारम् पुरुषभदाः, केन
लिकागत्या समुत्पद्यमानो लोकस्य पञ्च चतुर्दशभागान् पुरुषेण प्रशापितं सामायिकमिति च 'पुरिस' शब्द पश्चम- स्पृशति । देशविरतस्त्वच्युतसुरेष्विलिकागत्या समुत्पभागे१०११ पृष्ठे उक्तम् ।)(प्रत्ययद्वारम् , प्रत्ययनिक्षेपः पञ्चय' द्यमानो लोकस्य पञ्च चतुर्दशभागान् स्पृशति , चशब्दाशब्दे पश्चमभागे १२३ पृष्ठे उक्तः ।) सामायिकस्य प्रत्य- त्-शषसुरालयविलिकागत्या समुत्पद्यमानो लोकस्य यः सव्वे तित्थयरा वि य णं सामाइयं करेमाणा एवं, द्वयादींश्चतुर्दशभागान् स्पृशति । आह-नम्वन्यत्र ' छलभणंति-"करेमि सामाइयं सव्वं सावन जोगं पच्चक्खा- च्चुए ' इति पठ्यते तत् कथमिहोच्यते समुत्पद्यमानः
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(७४४) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय पञ्चैव रज्जूः स्पृशतीति निगद्यते ? । सत्यम् किस्वच्यु- अन्ये तु सामायिकसूत्रादिनमस्कारं न मन्यन्ते, किन्त्वन्यतत्रैवेयकापान्तरालमपेक्ष्यान्यत्र षड् रजवः पठ्यन्ते, इह देव किश्चिद् ब्रुवते । किं पुनस्तत् ? इत्याहत्वच्युतंदवलोकमपेक्ष्य पञ्चेति वृद्धसम्प्रदायः । अधस्तु तं चावसाणमंगल-मन्ने मन्नति तं च सत्थस्स । घण्टाला लान्यायेनापि तं परिणाममपरित्यज्य देशविरता
सम्बस्स भणियमंते, इयमाईए कहं जुत्तं ॥ २८०२।। म गच्छन्ति अत ऊर्ध्वलोक एव तत्स्पर्शना दर्शिता नाधस्तादिति । तदेवं क्षेत्रमधिकृत्य स्पर्शना प्रोका।
तं च नमस्कारमुपोद्घातनियुक्निशास्त्रस्यावसानमजलं क
चिद् मन्यन्ते , न पुनः सूत्रादिम् । इदमुक्तं भवति-शास्त्रअथ भावमधिकृत्य तामुपदर्शयन्नाह
स्यादौ मध्ये ऽवसाने च मङ्गलमिष्यत , तत्रापोद्धाननियुक्तसव्वजीयेहि सुयं, सम्मचरित्ताइँ सव्वसिद्धेहिं । गदी नन्दिर्मङ्गलम् ; मध्ये तु जिनगणधरोत्पत्यादिगुणकीभागेहि असंखिज्जे-हि फासिया देसविरई उ॥२७८३।। तनम् , अवसाने तु किलष नमस्कारो मङ्गलमित्यन्येषां वु
द्धिः । सा च न युक्ता । कुतः ? इत्याह-तं च सत्थस्से' त्याइह जीवा द्विविधाः संसारस्थाः, सिद्धाश्च । संसार
दि, इयमत्र भावना-यत् शास्त्रस्यावसानमङ्गलं तैर्गीयते , स्था अपि द्विविधाः-संव्यवहारराशिगताः, असंब्यवहा
तद्भणितमेव भद्रबाहुस्वामिना सर्वस्यापि पडध्ययनात्मकरराशिगताश्च । तत्र संव्यवहारराशिगतैः सधैरपि जीवैः
स्यावश्यकशास्त्रस्यान्ते प्रत्याख्यानलक्षणं मङ्गलम् । प्रत्यासामान्येनाक्षरात्मकं श्रुतं स्पृष्टम् , द्वीन्द्रियादिभावस्य स
ख्यानं हि तपः, तच "धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" इत्यादिवचनाद धैरपि तैः स्पृष्टत्वात् , तत्र च सामान्यथुतसद्भावात् ।
मङ्गलमेव । नतश्शेद नमस्कारलक्षणं मङ्गलं सामायिकस्यादी संव्यवहारराशिगतविशेषणं चेह पूर्वटीकाकारैः कृतम् ,इ
कथमभिधातु युक्तम् , अप्रस्तुतत्वात् ? । अप्रस्तुतत्वं चेहाति नास्माकं स्वमनीषिका सम्भावनीयति । सम्यक्त्वचारित्र तु सधैरपि सिद्धैः पूर्व स्पृष्टे, तत्स्पर्शनामन्तरेण
दिमध्याऽवमानत्वाभावादिति। सिद्धत्यायोगात् । देशविरतिस्तु सर्वसिद्धानां बुद्धिपरि
पुनरपि परमतमाशङ्कथ परिहरनाहकल्पितरसङ्ख्यातै गैः पूर्व स्पृष्टा, एकेन तु तदसङ्ख्ये- होजाइ मंगलं सो, तं कयमाईऍ किं पुणो तेणं | यभागेनासौ प्राग् न स्पृष्टा, यथा मेरुदेवीस्वामिन्या । अथवा कयं पि कीरइ,कत्थावत्थाण मेवं ति ॥२८०३।। इह च सम्यक्त्वादयो जीवपर्यायवाद , भावाः, ततस्ते
अथ सामायिकस्यादौ निर्दिष्टत्वादादिमङ्गलमसौ नमस्कापा स्पर्शनाभावः स्पर्शनोच्यते, इति नियुक्किगाथाद्वयार्थः ।
रो भवेदित्युच्यते । तदयुक्तम् , यतस्तदादि मङ्गलं कृतमेवा (७४) सामायिकपदव्याख्या-तत्रेदं सूत्रम्- दौ नन्द्यभिधानतः , किं पुनरप्यत्र तेन विहितेन ?। अथ करेमि भंते ! सामाइयं सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि कृतमप्यादिमङ्गलं पुनरपि क्रियते , तर्येवं सति क्वावजाव जीवाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए कारणं
स्थानम् । पुनः पुनस्तत्करणप्रसङ्गादनवस्थाप्राप्तेर्न क्वचिद
वस्थानं स्यादिति । न करेमि न कारवमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि
तर्हि भवन्त एव कथयन्तु--किमिह नमस्कारव्याख्याने तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाण
कारणम् ?, इत्युपसन्ने प्रेरके सूगिराहवोसिरामि । आव० १ अ०।
तम्हा सो सुत्तं चिय, तदाइभावादओ तयं चेव । अथ सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिर्वक्लव्या, ततः पूर्वोक्तिमुपसंह- पुवं वक्खाणे, पच्छा वोच्छामि सामइयं ।।२८०४॥ रन्नुत्तरवक्तव्यसम्बन्धनार्थ भाष्यकारः प्राह
तस्माद्-नमस्कारस्तत्वतः सामायिकसूत्रमेव तदादिभाइइ एस उवग्याओ-ऽभिहिरो सामाइयस्स तस्सेव ।
वात्-सामापिकादावुपन्याससद्भावात् , “करेमि भंते ! सा.
माइयं" इत्यादि सामायिकसूत्रावयववदिति। अतः परअहुणा सुत्तप्फासियॉ,निज्जुत्ती सुत्तवक्खाणं ॥२८००॥
मार्थेन सामायिकसूत्रत्वाद् न पुनर्मङ्गलार्थत्वात् तमेव नइति पूर्वोक्रक्रमेणष उपोद्घातोऽभिहितः सामायिकस्य
मस्कारं पूर्वमादौ व्याख्या पश्चात् सामायिकाथै वक्ष्यामि अथ तस्यैवाधुना सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिरुच्यते-सूत्रव्या.
इति गाथापचकार्थः । विशे० । आ० म०। आ००। ख्यानमभिधीयत इत्यर्थः ।
सम्प्रति सूत्रापन्यासार्थ प्रत्यासत्तियोगतः परमार्थेन सूत्रननु सूत्रस्पर्शिकनियुक्रया सूत्रं स्पृश्यते । तच्च क्क सति भ- स्पर्शिकनियुक्तिगतामेव गाथामाहवति ? इत्याह
नंदिअणुयोगदारं, विधिवदुवग्धाइयं च नाऊण । सुत्तं सुत्ताणुगमो, तं च नमोकारपुव्वयं जेण ।
काऊण पंच मंगल-मारंभो होइ सुत्तस्स ।। सो सव्वसुयक्खंध-भंतरभूउ त्ति निद्दिट्ठो ॥२८०१||
नन्दिश्चानुयोगद्वाराणि च नन्द्यनुयोगद्वारं समाहारत्वादेक'कमि भंते ! सामाइयं' इत्यादिसूत्रम् , सूत्रानुगम एत- वचनं विधिवत् यथावत् उपोद्धातं च । ' उद्देसे निद्देसे य' व्याख्यानरूप प्रक्रान्ते सति भवति । तच्च नमस्कारपू- इत्यादिलक्षणं ज्ञात्वा पाठान्तरं भणित्वा अन्यथा कृत्वा पञ्च बकमेव पठ्यत । कथम् ? इत्याह-यन यस्मात् स नम- मङ्गलानि नमस्कारमित्यर्थः। किम् ? आरम्भो भवति सूत्रस्य स्कारः सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यम्तर्भूतः पूर्वमिदेव निर्दिष्टः । त
इह पुनर्नन्द्याापन्यासः किल विधिनियमख्यापनार्थः।नन्द्यातो नमस्कारं व्याख्याय पश्चात् सामायिकसूत्रं व्याख्यास्य- दिशात्वैव-भरिणत्वैव वा सूत्रस्यारम्भो भवति नान्यथेति । त इति भावः।
तथा उपोद्धातः-सकलप्रवचनसाधारणत्वेन प्रधान प्रधानस्य
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(७४५) सामाश्य अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय म सामान्यग्रहणेऽपि भेदनोपन्यासो भवति, यथा ब्राह्मणा | ब्दः प्रतिषेधे , प्राङ् प्राभिमुख्ये , ख्याप्रकथने , ततः प्रमायाता वशिष्ठोऽप्यायात इत्यनुयोगद्वारग्रहणेन तस्य ग्रह- त्याख्यामीति । किमुक्तं भवति-साबद्ययोगस्य प्रतीपमभिमुणेाप पृथगुपन्यासः।
खं व्यापार करोमीति । अथवा-पच्चक्खामीति' प्रत्याचक्षे संबन्धान्तरप्रतिपादनायैवाह
इति शब्दसंस्कारः। चक्षिक व्यक्त्रायां वाचि । अस्य प्रत्यापू
स्य प्रयोगः प्रत्याचक्षे इति । कोऽर्थः प्रतिषेधस्यादरेणाकयपंचनमोकारो, करेइ सामाइयं तु सोऽभिहितो।
भिधानम् । करोमि यावज्जीवयेति च । यावच्छब्दः परिमाणसामाइयंगमेव य, जं सा सेसं अतो वोच्छं ॥१०२६॥ मर्यादावधारणवचनः, तत्र परिमाणे यावन् मम जीवनपरि
सः पचनमस्कारो येन स तथाविधः शिष्यः सा- माण तावत्प्रत्याख्यामीति, मर्यादायां यावज्जीवनमिति, मप्राषिकं करोतीत्यागमः । स च पश्चनमस्कारोऽभिहितो य- रणं मर्यादीकृत्य, अवधारणे यावज्जीवनमेव प्रत्याख्यामि स्माइसौ नमस्कारः सामायिकाङ्गमेव । सा च सामायिका- न तस्मात्परत इत्यर्थः । जीवनं जीवेत्ययं क्रियाशब्दः । परिअता प्रागेवोक्का अत ऊर्द्ध शेष सूत्रं वक्ष्ये । सचदम्-'करेमि गृह्यत तया। अथवा-प्रत्याख्यानक्रिया परिगृह्यते । यावज्जीवो भने! सामाइयं सर्व सावज जोग पञ्चक्खामि । जावजी- यस्यां सा यावज्जीवा तया त्रिविधमिति तिम्रो विधा यस्य वाए निविहं तिविहणं मणण वायाए कारण । न करेमि न सावद्ययोगस्य स त्रिविधः , स च प्रत्याख्येयत्वेन कर्म संकारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भते! पद्यते कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरस्ति । तं त्रिविधं मनोसडकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वासिरामि' । इदं वाकायव्यापारलक्षणं ' कायवान् मनःकर्मयोग' इति व सूर्य सूत्रामुगम एव प्राप्तावसरे अहीनाक्षरादिगुणोपेत- वचनात् । त्रिविधेनेति करणे तृतीया। मनसा वाचा कायेन । मुमचारणीयम् । तद्यथा-अहीनाक्षरमनत्यक्षरम् अव्यावि- तत्र 'मन बुद्धिमतिक्षाने, मननं मन्यते वाऽनेनेति मनः। प्रीद्राक्षरमस्खलितममिलितमव्यत्ययमनानेडितं प्रतिपूर्ण प्रति- णादिकोऽस्प्रत्ययः। तच्चतुर्द्धा । नामस्थापनाद्रव्यभावपूर्णघोपं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं वाचनोपगतमिति । अमूनि च प- भेदात् ,नामस्थापने सुगमे । द्रव्यमनो शरीरभव्यशरीरव्यद्वान प्राग्व्याख्यातत्वाज व्याख्यायन्ते । एवंरूप च सूत्रे उ- तिरिक्तं तद्योग्यपुद्गलमिदम् । भावमनो मनो जीय एव । वच चारिते सति केचिद्भगवतां साधूनां केचन अधिका- । परिभाषणे , वचनम् उच्यते इति च वाक्, साऽपि चतुर्विधा गः अधिगतीभवन्ति, केषांचन त्वधिगताधिगमनाय व्या- नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् । तत्र नामस्थापने सुगमे । ख्या प्रवर्तत । तलक्षण चेदम्-"संहिता च पदं चैव, पदार्थः 'द्रव्यवाग् ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिकाः शब्दपरिणामयोपविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थान, व्याख्या तत्रस्य
ग्यजीवपरिगृहीता पुद्गलाः । भावचाक पुनस्त एव पुद्रला: पडविधा ॥१॥" तत्राऽस्खलितपदोच्चारण संहिता । शब्दपरिणाममापन्नाः। तथा-'वे' वयने । वयनं वीयते इति यथा--' करेमि भंते ! सामाइयमि' त्यादि ' जाव वा कायः , बीत्युपसमाधाना वा संदोहकवादिरिति बेजो वामिममि । पदं पञ्चधा, तद्यथा--नामिक नैपाति- वकारस्य ककारः। पुद्गलान्-अवयवान् पुदलानामेवावयवकमीपसर्गिकमाण्यातिकं मिथं च । तत्र अश्व इति नामि- रूपतया समानात् जीवस्य निवासान् प्रतिक्षण केषांचिकम, खस्विति नैपातिक, परीत्यौपसर्गिकं, धावतीत्या- त्पुरलानां शरणात् । काया-शरीरम् , सोऽपि नामस्थापनास्यानिक, संयत इति मिश्रम् । अथवा-द्विविधं पदं स्याद्य- द्रव्यभावभेदाच्चतुष्पकारः । तत्र नामस्थापने प्रतीते । द्रव्यम्नम . तिवाद्यन्तं च । अत्र पञ्चविधानि वा पदानि, तद्यथा- कायो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तः शरीरत्वयोग्या अगृहीकरोमि भयान्त ! सामायिकं सर्व सावा योग प्रत्याख्यामि तास्तत्स्वामिना वा जीवेन मुक्का यावन्तं परिणाम न मुयावन्नीवया त्रिविधं त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेन,न क- ञ्चति तावद् द्रव्य कायः । भावकायस्तु तत्परिणता जीवगमन कारयामि कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजाने, तस्य भ- संयुताश्च पुद्गलाः । अनेन त्रिविधेन कारणेन त्रिविधं पूर्वायान्न : प्रनिमामि निन्दामि गर्हामि आत्मानं व्युत्सृजामी- धिकृतं सावधं योगं न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्य नि पदानि । अधुना पदार्थः स चतुर्विधः । तद्यथा-कारक- न समनुजानामि-नानुमन्येऽहमिति, तस्येत्यधिकृतस्य सावविषयः, समासविषयः, तद्धितविषयः,निरुक्तिविषयश्च । तत्र द्ययोगस्य प्रतिक्रमामि-निवृत्ते निन्दामि-जुगुप्से गहें इति,स कार कविषयो यथा-पचतीति पाचकः । समासविषयो य- एवार्थः। किं त्वात्मसाक्षिकानिन्दा । गुरुसाक्षिका गति । किं था-राक्षः पुरुषो राजपुरुषः। तद्धितविषयो यथा-वसुदे- जुगुप्से इत्यत श्राह-आत्मानमनतिसावद्ययोगकारिणं व्युचम्यापन्य वासुंदवः । निरुक्तिविषयो यथा-भ्रमति रौति च त्सूजामि विविधार्थो विशेषार्थों वा विशब्द उच्छब्दो भृशार्थः, भ्रमरः । तत्रापि करणे इत्यस्य मिप्रत्ययान्तस्य कृतः, सृजामि-त्यजामिात्रिविध विशेषेण वा भृशं त्यजामीति भावः। ननादरिति उकारे गुणे च कृते करोमीति च भवति । एवं तावत्पदार्थपदविग्रहौ यथासम्भवमुक्तौ । श्रा० म०१ अ० अभ्युपगमश्वास्यार्थः । एवं प्रकृतिप्रत्ययविभागः सर्वत्र वक्त
अधुना चालनाप्रत्यवस्थाने वक्तव्ये । अत्रान्तरे सूत्रस्पर्शव्यः । इह तु ग्रन्थगीरवभयानोच्यते । भयं प्रतीतम् , वक्ष्या
नियुक्तिरुच्यते । स्वस्थानत्वादाह नियुक्तिकार:- . माया उपरिणात् अन्तो-विनाशः भयस्यान्तो भयान्तः । श्र
अक्खलियसंहियादी,वक्खाणचउक्कए दरिसियम्मि । यमेव पदविग्रहः, पदपृथक्करण--पदविग्रहः तस्य सम्बोधनं भयान्त ! सामायिकपदार्थः पूर्ववत् सर्वमित्यपरिशेषवाची
सुत्तप्फासियनिज्जु-त्ति वित्थरत्थो इमो होइ ॥१०१६।। शब्दः । अवचम् -पापं सहावयं यस्य येन चा सावद्यः, अस्खलितादी सूत्रे उपचरिते संहितादौ च व्याख्यानचतुतं सपापमित्यर्थः, योग्यो व्यापारस्तं प्रत्याख्यामि प्रतिश- | ष्टये दर्शिते सति सूत्रस्पर्शनियुक्तिविस्तरार्थोऽयं भवतीति।
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(७४६ ) सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय तमेव दर्शयति
व्यविष्टादिषु क्रियते । कदा वा कारकोऽस्य भवति । 'नयकरणे भए य अंते,सामाइयसव्वए अवज्जे य ।
उ' त्ति-नेगमादिनयमतेनात्रोत्तरं वक्तव्यम् । तथा, करणं जोगे पच्चक्खाणे, जावजीवाएँ तिविहेण ॥१०१६
कतिभेदमिति वाच्यम् । तथा , कथं केन प्रकारेणेदं सा
मायिककरणं लभ्यते इति चाभिधानीयम् , इति नियुक्तिश्राव० १ ० । (करणव्याख्या ' करण' शब्दे तृतीयभागे
गाथासंक्षेपार्थः। ३६६ पृष्ठे गता।)
विस्तरार्थ तु भाष्यकार पाहकिं सामायिकं कस्मिन् करणे
किं कयमकयं कीरइ, किं चातो भणइ सव्वहा दोसो। भावसुयसद्दकरणे, अहिगारो एत्थ होइ कायब्यो ।
कयमिह सब्भावाओ, न कीरइ चिरकयघडु व्व।३३६४॥ नो सुयकरणं गुणगँ-जणे य जहसंभवं होड ।
निच्चकिरियापसंगो, किरियावेफल्लमपरिणिट्ठा वा। श्रा० म०१०।
अकयकयकजमाण-व्यवएसा भावया निच्चे ॥३३६५॥ अथ विनेयः पृच्छति ननक्लस्वरूपाणां नामादीनां पराणां किं कृतं क्रियते सामायिकम् , अकृतं वा ?। किश्चातः ?करणभेदानां मध्ये सामायिककरणमिद किं भवत् ?-क किमनेन प्रश्नेन ? इति गुरुणा प्रोक्त भणति परः, सर्वथास्मिन् भेदेऽवतरेत् ? इत्यर्थः।।
पक्षद्वयेऽपि दोषः-तथाहि-कृतं तावद् न क्रियते, सद्भाअत्र गुरुराह
वादग्रेऽपि विद्यमानत्वात् , चिरकृतघटवदिति । कृतस्य च सव्वं पि जहाजोगं, नेयं भावकरणं विसेसेणं । करणे नित्यं क्रियायाः करणस्य प्रसङ्गः क्रियायाश्च वैफमुयबद्धसद्दकरणं, सुयसामइयं न चारित्तं ॥३३६१॥
ल्यम् , कृतत्वादेवेति । अथ कृतमपि क्रियते , तर्हि कर
स्यापरिनिष्ठा, कृतत्वाविशेषादिति । अपि च कृतं क्रिइदं सामायिककरणं सर्वमपि षविधमपि नामादिकरणं शेयम्-सर्वेष्वपि नामादिभेदेष्ववतरेदित्यर्थः ।
यते' इत्युच्यमाने वस्तुनः सर्वदैव सत्वमभ्युपगतं भवति , कथं ? यथायोग--यथासम्भवम् । तत्र सम्यक्त्व
यच्च सर्वदा सत् तदाकाशवद् नित्यम् , नित्ये च श्रुततपःसंयमादिगुणाना जीवद्रव्यपर्यायत्वात् , पर्या--
वस्तुन्यकृतमिदम् , कृतं वा, क्रियमाणं वा इत्यायस्य च द्रव्यानन्यत्वाद् द्रव्यकरणमिदं भवत्येव । एवं
दिव्यपदेशो न भवति, अनित्यत्वप्रसङ्गादिति । नामादिकरणताऽप्यस्य यथासम्भवं भावनीया । भावकरणं
अकृतपक्षमङ्गीकृत्याहविदं विशेषतो भवति , सम्यक्त्वादिसामायिकानां जीव- अकयं पि नेय कीरइ, अचंताभावो खपुष्फंव। भावत्यादिति । आह--ननु भावकरणं पूर्व बहुभेदमुक्तम् , निच्चकिरियाइदोसा, सविसेसयरा व सुत्तम्मि ॥३३६६॥ तत् किं सर्वेष्वपि भावकरणभेदेषु सर्वमपि सामायिकम
स्पष्टा। वतरति ? नेत्याह-सुए' त्यादि , श्रुतकरणं तथा बद्धश्रु
अथ क्रियमाणं क्रियते, तत्राहतकरणम् , शब्दकरण च श्रुतसामायिकमेव भवति , तस्यै
सदसदुभयदोसाओ, सव्वं कीरइ, न कञ्जमाणं पि। वैतद्रेदरूपताघटनात्, न तु चारित्रसामायिकम् तस्यैतद्रपासम्भवादिति ।
इह सब्बहा न कीरइ,सामाइयमओ को करणं १।३३६७। चारित्रसामायिकं तर्हि कस्मिन् भावकरणभेदेऽवतरति ? तत् क्रियमाणं वस्तु सद्वाऽसद् वा परिकल्प्येत ? यदिइत्याह
सत् , तर्हि कृतपक्षोकाः सर्वेऽपि दोषाः प्रसजन्ति । असगुणकरणं चारित्तं, तवसंजमगुणमयं ति काऊणं ।
स्वपक्ष स्वकृतपक्षदोषानुपङ्गः । श्रथ सदसत् क्रियमाण
मिष्यते, तदप्ययुक्तम् , उमयपक्षोक्नदोषप्रसङ्गादिति । एवं संभवओ सुयकरणं, सुपसत्थं झुंजणाकरणं ॥३३६२॥
सर्वथा सर्वप्रकारः सामायिकं न क्रियते । श्रत. कस्मात् कया कयं केण कयं, केसु व दब्बेसु कीरई वावि ।
तस्य करणम् ? इति। काहे व कारओ नय-ओ करण कइविहं कहं च ॥३२६३।।
अत्रोत्तरमाहगुणकरण चारित्रसामायिकं गुणकरणलक्षणे नोश्रुतभाव- नणु सब्बहा न कीरइ, पडिसेहम्मि वि समाणमेवेदं । करणे प्रथमभेदे एतदवतरतीत्यर्थः , तपः-संयमगणात्मक
पडिसेहस्साभावे, पडिसिद्धं केण सामइयं ? ॥३३६८॥ मिति कृत्वा सम्भवतो-यथासम्भवं श्रुतकरणमप्येतद्भयति । प्रशस्तवाग्रूपायाश्चारित्रभेदभूताया वाक्समितरत्रा
अह कयमकयं न कयं, न कञ्जमाणं कहं तहावि कयं । घतारादिति । तथा , सुप्रशस्तं योजनाकरणमिति नोश्रुत- पडिसेहवयणमेयं,तह सामइयं पि को दोसो ॥३३६६।। भावकरणद्वितीयभेदेऽप्येतदवतरतीत्यर्थः , सुप्रशस्तमनोवा. ननु सर्वथा-सर्वप्रकारैः सामायिकं न क्रियते इत्येवं
कायरूपत्वाच्चारित्रस्य । इति गाथार्थः । (विशे०।) यस्त्वया प्रतिषेधो विधीयते , तत्रापि प्रतिषेधे समानकृताकृतादिभिर्निरूपयन्नाह-'कयाकयमि' त्यादि ननु क- मेयेदम् । किमसौ कृतः क्रियते, अकृतः, क्रियमाणो वेत्यारणक्रियायाः पूर्व सामायिकं किं कृतं क्रियते , अकृतं वा? धुनन्यायेन सोऽपि सर्वथा न क्रियते । अतः प्रतिषेधाउभयथाऽपि वक्ष्यमाणदोषः । अत्रोत्तरमाह-कयाकयं 'ति- भावे केन प्रतिपिद्धं सामायिकम् ? न केनचित् , अतः किनैकान्तेन कृतं क्रियते , नाप्यकृतम् , किन्तु कृताकृतं क्रि- यत गवैतदिति । अथैवं ब्रूष प्रतिषेधवचनमेतत् कृतं वा यत इति । तथा, केन कृतरि वक्तव्यम् । तथा , केषुद्र- सत् , अकृतं वा सद्, न कृतम् , नापि क्रियमाणं कृतम् ,
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सामाइय
तथापि कृतं तावत् केनाप्युच्चारसादिना प्रकारेण हन्त ! यथा केनापि प्रकारे वन तथा सामायिकमपि केनापि प्रकारेण कृतम्, अतस्तत्रापि को दोषस्त्वया दीयते ? इति ।
( ७४७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
अथ कृताकृतपक्षं नयमतेनोपदर्श्य सिद्धान्तपक्ष-मुपदर्शयन्नाह-
अक्रमनार्थ, निच्च नर्म व सामयं । सुद्वारा कथं घट इच कयाक समयसम्भावो ॥ ३३७० ॥ द्रव्यार्थिकरूपाणामशुद्धनयानां नैगमसंग्रहव्यवहाराणामकृतं सामायिकम् नित्यत्वात्, नभोवदिति । शुद्धानां तु निश्चयनयरूपाणामृजुषादीनां कृतं तत् घटवदिति समयसद्भावस्त्वयम् नैकान्तेन कृतं सामायिकं क्रियते नाप्यकृतम्, किन्तु कृताकृत क्रियत इति ।
"
यदि या- सिद्धान्तस्थित्याविपाशात् कृतादिभि तुर्भिः किञ्चिद्वस्तु कियते किञ्चिद् त्वेतेरपि भङ्गैर्न क्रियत एवेति दर्शयन्नाह-
"
कीरइ कयमकथं वा, कया कयं वेह कजमाणं वा । कजमिह विवक्खाए, न कीरए सव्वहा किंचि । ३३७१। इह किञ्चित् कार्य केनापि रूपेण कृतं क्रियते केनचिकृत पिते, केनापि तु रूपेण कृताकृतं क्रियते । केनचित् प्रकारेण किमार्थ वा किञ्चित् क्रियते, अन्य किञ्चिद्वासरपि कृतादिभिः प्रकारे
9
इति ।
अत्र यथासंख्यमुदाहरणम्-
रूपि चि कीरह कच्च, कुंभी संठास अकओ । दोहि वि कथाको सो, तस्समयं कमायो नि।३३७२ ॥ पुण्यकओ घडतया परपआएहि तदुभएहिं च । कतोय पडतया, न कीरए सव्वहा कुंभो ॥ ३३७३ ।। रूपी -- इति कृत्वा पूर्व कृत एव कुम्भस्तद्रूपतया क्रियते, मृत्पिण्डावस्थायामपि रूपादीनां सद्भावादिति संस्थानसाहरणशक्तिभ्यां पूर्वमकृतः क्रियते रूपतया संस्थानशक्ति
प
तिरूपविवक्षितोऽसी पूर्वकृताकृतः क्रियते। तत्सममुत्पतिसमये क्रियमाणोऽसौ क्रियत इति पूर्वतस्तु पूर्व निष्पन्न घटी घटना घटन रपर्यायैस्तु पटादिधर्मैः पूर्वमकृतो घटो न क्रियते, परपर्यायैर्वस्तुनः कर्तुमशक्यत्वात् । तदुभयैस्तु स्वपरपर्यायैर्विवक्षितः कृताकृतोऽसौ न क्रियते, 'स्वपर्यायाणां पूर्वमेव कृतत्वात्, परपर्यायायां तु पूर्वमध्यानां कर्तुमशक्यत्वात् क्रियमाणश्चोत्पत्तिसमये कुम्भः पटतया न क्रियते, अशक्यत्वात् । तदेवं सर्वथा सर्वैरपि कृतादिप्रकारैः कुम्भो न क्रियते, यथोविपक्ष कृतोऽकृतः कृताकृतः क्रियमा
यत इत्यर्थः तदेवं यथामितिविवक्षया क्रियमात्मक्रियमाणत्वं च वस्तुनः प्रोक्तम् ।
अथवा विवक्षान्तरेण सर्ववस्तूनां क्रियमाणत्वमक्रियमाणत्वं च दर्शयितुमाह-वोमानिया, न की रई दव्वयाइ वा सव्यं । कीर व कजमार्ग, समए २ सपअप ।। २२७४ ।।
सामाइय
व्योमा मालदिनादिक वस्तु न कियते नित्यत्वात् । अथवा-- व्याप्त्या सर्वमपि व्योमादि घटविद्युद्वनकुसुमादि च वस्तु न क्रियते द्रव्यतया सर्वस्य सर्वदाऽवस्थितत्वात् । पर्यायतया तु प्रतिसमयं सर्व वस्तु क्रियमाणं क्रियते, सर्वस्याणि समये समयेऽपरापर स्वामु दादिति ।
समय सद्भावकीकरणपूर्वकं प्रकृतयोजनामाहउप्पायइिभंग-स्सभाव इय कया कयं सव्वं । सामाइयं पि एवं उप्पाया इस्सहावं ति ।। ३३७५ ।। उत्पादस्थितिभङ्गस्वभावत्वादित्युक्रप्रकारे सर्वमपि वस्तु कृताकृतस्वरूपम एवं सामायिकमप्युपादादिस्वभावत्वात् कृताकृतस्वरूपं द्रव्यम् अतः कृताकृते इति स्थि
S
तम
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अत्र परः प्राह
न दव्वमणत्थंतर - पजायंतरविसेस हि जुजेञ्ज । उपायाइसहावं, न उ सामॉइयं गुणो जम्हा ।। ३३७६ ।। सो उप्पणी उप्पण व विगो व विगय पवेह | किं समस्स जेहि, कयाकया देसया होज्जा ||३३७७|| ननु द्रव्यमनन्तरभूत पर्यायान्तरविशेषयेत्पादि वं युज्येत, न तु सामायिकम्, 'गुणो जम्छ' प्ति-गुणमात्ररूपत्वादिति। स हि गुण उत्पन्नः समुत्पन्न एव, न तु विगतोऽवस्थिता यदा तु विगतस्तदा विगत पचयोऽय स्थित था। अतः किं शेषमस्तम् येने कृताकृतादेशता - कृताकृतरूपता स्यात् ? इति ।
सूरिरुत्तरमाद
जं चिय दव्वाणन्नो, पञ्जाओ तं च तिविहसन्भावं । तो सो वि तिरू चिय. तत्तो य कषायसहावो । ३३७८ । यस्मादेव पर्याय म्यानम्यः तच्च द्रव्यमुत्पादव्ययश्रीव्यलक्षणत्रिविधस्वभावम्, ततो द्रव्यानन्यत्वात् सोऽपि पर्यायस्त्रिरूप एव अतश्व द्रव्यवत् कृताकृतस्वभावः स्या[देवेति ।
,
अथवा स्वतम्यस्यापि सामायिक गुणस्य पिताटत एवेति । कथम् ? इत्याह
जद वा रूवंतरओ, विगमुप्पाए वि रूपसामय । निच कयाकयमयो, रूवं परपजयाओ वा ॥ ३३७६ ॥ तह परिणामंतरओ, वयविभवे वि परिणामसामयणं । निःश्च कया कयमओ, सामइयं परगुणाओ वा ||३३८० ॥ यथा वा घटादौ रत्वादिरूपाच्छुक्लत्वादिरूपान्तरोत्पसौ पूर्वरूपस्य विगमे उत्तररूपस्योत्पादेऽपि रूप सामन्य नित्यमति रूपगुणस्य त्रिरूपता - अस्माच्च #रूप्यात् कृताकृतं रूपं युज्यते । परपर्यायाद् वा परपर्यायमाश्रित्य कृताकृतं युज्यत इति । तथात्तरोत्तरशुद्धया परिणमतः सामायिक गुणस्य परिणामान्तरात् परिणामोत्पत्तौ पूर्वपरिणामस्य व्यये बिगमे उत्तरपरिणामस्व तु विमयेऽप्युपदेऽपि परिणामसामान्यं नित्यमवतिष्ठतः सा मागुणस्य त्रिरूपता अस्माच्च वैरूप्यात् स्य
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय ताकतत्वम् , परगुणस्वाद्या परगुणमाश्रित्य कताकृतत्व- कर्ता भवत्यसाविति पाह-मनु यद्यन्तर प्रयोज्यः सर्वमिति ।
कारकपरिणामानन्यरूपश्च कर्ता सावादिरिह विवक्षितः, अथवा-मम्यथाऽपि सामायिकस्य कताकतवं वक्तव्यम् ,
तर्हि 'जिनेन्द्रेण गमधरैश्च कृतं तत्' इति कस्मातुशाम् , कथम् ? इत्याह
जिनेन्द्रगणधराणामिहाविवक्षितत्वात् ? । सत्यम् । किन्तुदब्बाइचउकं वा, पहुच कयमकयमहब सामइयं ।।
जिनेन्द्रस्यापि सामायिकस्यान्तरङ्गकर्तृत्वं सर्वकारकपरि
णामानन्यरूपकर्तृत्व प्रायो न विरुध्यते, तेनापि तस्यानुएगपुरिसाइनो कय-मकयं नाणानराईहिं ।। ३३८१॥
एितत्वात् , गणधराणां तु प्रयोज्यकर्तृत्वमपि युज्यत एव, अथवा-द्रव्यादिचतुष्कं द्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयं प्रतीत्य- जिनेन्द्रप्रयोज्यत्वात् तेषामिति । अतो जिनेन्द्रगणधराणाकृतमकृतं च सामायिक भावनीयम् ; तथाशि-एकं शि- मप्युपम्यासोऽज न विरुध्यत इति । गतं 'केन कृतम्' इति बक्षितं पुरुषद्रव्यं प्रतीस्य कृतं सामायिकम् , सादिसपर्यव- द्वरम्। सितत्वात् , नानापुरुषद्रव्याण्याश्रित्य पुनरछतम् , श्रानाद्य- अथ 'केषु द्रव्येषु तत् क्रियते' इति द्वारमभिधिरसुराहपर्यवसितत्वादिति । आदिशब्बार-भरतैरावतक्षेत्राणि प्रती- दग्धेसु केसु कीरह, सामइयं नेगमो मणुमेसु । त्य कृतम् महाविदेहक्षेत्रेच्चकृतम्, अग्निप्रवाहत्वेन
सयणाइएसु मासइ, मणुलपरिणामकारणो॥३३८॥ नित्यत्वादिति । तथा, उत्सर्पिण्यवसर्विणरिकालमाश्रित्य कतम् , व्यवच्छिद्यमानत्वेनानित्यत्वात् । नोउत्सर्पिण्यवसर्गि
नेगतेण मणुन्न, मणुन्नपरिणामकारणं दव्वं । णीकालं त्वाश्रित्याकृतम् , अव्यवच्छिन्नत्वेन नित्यत्वात् भा- वभिचारानो सेसा, विंति तो सम्बदव्वेसु ॥३३८६॥ वं त्वेकपुरुषोपयोग प्रतीत्य कृतम् , नानापुरुषोपयोगाना- केषु द्रव्येषु व्यवस्थितस्य सामायिक क्रियते-निवर्त्यश्रित्य पुनरकृतम् । इत्येवं या कृताकृतं सामायिकमिति । ते?। अत्र नैगमन्यो भाषते-मनोशेषु शयनाऽऽशमादिषु तदेवमुक्त रुताकृतद्वारम् ।
स्थितस्य तत् क्रियते, मनोज्ञपरिणामकारणत्वात् । तथा च अथ 'केन कृतम्' इति द्वारं विधरीषुराह
कैश्चियुक्तम्--" मसुन्नं भोयणं भोच्चा, मणुनं सयणासणं । केप कयं ति य ववहा-रो जिणिदेख गण इरेहिं च। मणुशम्मि अगारम्मि, मणुर्थ झायए मुणी ॥१॥" तस्सामिणा उनिच्छय-नयस्स तत्तो जोऽणनं३३८२ इत्यादि । शेषास्तु संग्रहावयो ब्रुवते-काम्तेन ममोकंदपाठसिद्धा।
व्यं मनोज्ञपरिणामकारणं भवति, व्यभिचारात्, ममोलेअत्राक्षेपपरिहारी प्राह
ऽपि कस्यापि स्वाभिप्रायेस मनोकपरिणामभाषास् , अमनो
क्षेऽपि च कस्यापि मनोशपरिणामसनावात् । ततः सर्वद्रमणु निगामे कयं चिय,कण कयं तंति का पुणो
व्येषु व्यवस्थितस्य सामायिक क्रियते । भाइ स बज्झकत्ता, इहंतरंगो विसेसणं ॥३३८।।
अत्राक्षेपपरिहारावाहपाह-ननु ' उद्देसे निइसे य निग्गमे' इत्यत्र सामायि
नणु भणियमुवग्याए, केसु तीहं को पुणो पुच्छा। कस्य निर्गमे भण्यमाने महाबीरात् तन्निर्गतम्' इत्यादिप्रतिपादनेन केन कृतं तत्' इत्येतद् गतमेव-उतार्थमेय, पु-1
केसु त्ति तत्थ विसओ, इह केसु ठिअस्स तल्लाभो ३३८७ परपीह का पृच्छा ?। भएयतेऽनोसरम-स तीर्थकरादिः | ननूगोद्घाते किं कविई' इत्यादि गाथायां केषु सामासामायिकस्य पाह्यकर्ता तत्रोक्तः, वह तु विशेषणान्तरक- यिकं भवति' इति भणितमेय, इह कुतः पुनरपि पृच्छावकर्ता जिशासितः। स च नैश्चयिकः सामाथिकानुष्ठाता सरः १ । नैवम् , तत्र हि केषु द्रव्यपर्यायाः सामायिकस्य वि साध्वादिष्टव्यः, सामायिकपरिणामानन्यत्वादिति। षये भवन्तीत्यनम्, तथा च तत्र निर्वचनम्-'सव्वगयं सपरिहाराम्सरमाह
म्मत' इत्यादि । इह तु केषु द्रव्येषु स्थितस्य सामायिकलामहवा सततकत्ता, तत्थेह पउजकारगोऽभिमत्रो।
भो भवतीत्युच्यत इति महान् भेद इति । महवेह सव्यकारग-परिणामाणन्नरूवो त्ति ॥३३८४॥
यदि न पौनरुक्त्यम् , तन्यिदूषणम् । किं तत् ? इत्याह
तो किह सबद्दब्बा, वत्थाणं जाइमित्तवयणाओ। अथचा-तत्र निर्गमे भगांस्तीर्थकरः स्वयंबुद्धत्वात् स्व
धम्माइसबदबा-धारो सम्वो जोऽवस्सं ॥३३८८।। तन्त्रकर्ता अभिहितः, इह तस्यैव भगवतस्तीर्थकरस्य यः प्रयोज्या-प्रबोधनीयः सन् कारकः साश्वादिः स कर्ता
ततस्तहि कथं सर्वद्रव्येष्यवस्थान सम्भवति, येनोच्यतेअभिमतः। अथवा-रह कर्ता सर्वकारकपरिणामानन्यरू
'ससा विति तो सम्बदम्वेसु' इति । न हि सधैवाकाशापोऽभिमतः, स च साध्वादिरेष सामायिकानुष्ठाता मन्त
विद्रव्येषु कोऽप्यवतिष्ठत' इति । उच्यते ?-जातिमात्रवचना. व्यः, तथाद्वि-सामायिकं कुर्वनसौ कर्ता, क्रियमाणत्वेन
त् सर्वद्रव्यमात्रस्यह विध क्षणात् , जातिमात्रं च सर्षद्रव्येच कर्मरूपात् सामायिकाबनन्यत्वात् कर्म , सामायिकं ये
कदेशेऽपि प्राप्यत इन्ति । मनु देशतोऽपि किं सर्वद्रव्याधारः माध्यषसायेन कारणभूतेनासौ करोति तस्मादनन्यत्वात्
कोऽपि प्राप्यते ? । उच्यते-प्राप्यत एव, यतो धर्मास्तिकाया करणम्। गुरुणा चास्मै सामायिकं प्रदीयत इति सम्प्र
ऽधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्तिकायजीवपुद्गलाधारः सर्वोऽप्यदानम् , सामायिकं चास्मात् शिष्यप्रशिष्यपरम्परया प्र
वश्यं जीवलोक इति परिहतं प्रासङ्गिक दृषणम् । वर्तिध्यत इत्यपादानम् , स्वपरिणामे च सामायिकमव्यव
अथ प्रस्तुतप्रेयस्य परिहारान्तरमाहछिन्नं धरतीत्यधिकरणमित्येवं सर्वकारकपरिणामानन्यरूपः क्सिमो व उवग्याए, केसु त्ति इह स एव हेउ त्ति ।
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सामाइय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय सदेय नेय किरिया, निबंधणं जेण सामइयं ।।३३८६।। सामायिककर्ता भवति, येन यस्माद मनोशो विशुद्धपरिया-उपोद्घात्ते सर्वद्रव्याणि सामायिकस्य विषये भ
णाम एव तेषां सामायिकमिति । बीयुक्तम् । इह तु स एव सामायिकलाभः सर्वद्रव्येषु हे- अथ पूर्वोक्नमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमार्थमाह-- नभूतेषु भवतीत्युच्यत इति । कथं पुनः सर्वाण्यपि द्रव्या- कत्ता नयोऽभिहिश्रो, अहवा नयउ त्ति नीडो नेत्रो।
सामायिकस्य हेतुर्भवन्ति ? इत्याह-सद्धये ' स्यादि अखेवानि च ज्ञेयानि च चारित्रक्रियाहेतुभूनानि च यानि
सामाइयहे उपउ-अकारो सो नो य इमो ॥३३६५।। व्यारेण तन्निबन्धनं तहेतुकं येन सामायिकम् । न च श्र
तंदवं सामायिकस्य कर्ता नयतो-नयैरभिहितः । अथउपादिभ्योऽन्यानि सर्वब्याणीति , चापि विषयहेतोरेक- वा-कदा वा कारकः' इत्यस्माद नय इति पृथगेव द्वामगन्तव्यम् , विषयस्य गोचररूपत्वात्, जीवधान
रम् । तत्र चायमर्थ:-नयतो-नीतितो विधिना सामायिकवृतेः सर्वजीवबद्धतोरुपष्टम्भकत्वात् , अन्नादिवदिति ।
स्य हेतुः कर्ता सामायिकस्य प्रयोज्यकारको शेयः । कः अन्यदपि परिहारान्तरमाह
पुनरसौ नय इत्याह स चायम् । इति द्वात्रिंशद्गाथार्थः ।
विशः । श्रा० म० । श्रा० चू०। महवा कयाकयाइसु, कजं केण व कयं च कत्त त्ति ।
सम्प्रति नय इत्येतद्वारं विवरीषुराहकम त्ति करणभावो, तइयत्थे सत्चमि काऊं ॥३३६०।।
बालोयणा य विणए, खित्तदिमाभिग्गहे य काले य । अथवा-कृताकृतादिद्वारेषु प्रथमे कृताकृतद्वारे की य
रिक्खगुणसंपयाविय, अभिवाहारे य अट्ठमए॥३३६६॥ क्रियत तत् कार्य सामायिकमुक्नम् ,'केन कृतम् ' इति सद्वितीयद्वारे सामायिकस्यैव कर्ता निर्दिष्टः, 'केषु' इति विशे। तृतीयद्वार तु तृतीयार्थे सप्तमी कृत्वा करणमभिहितम् , कै. इहाभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचनानयः। श्रा० ईवये करणभूतैः सामायिकं क्रियत इति नोपोद्घातेन सह म०१०। श्राव। मौनरक्त्यमिति।
अथालोचनानयं भाष्यकारो विवृण्वन्नाहश्रथ 'कदा कारको भवति' इति नयनिरूपयन्नाह
सामाइयत्थमुवसं-पया गिहत्थस्स होज जइणो वा । उद्दिदु चिय नेगम-नयस्स कत्ताऽणहिजमाणो वि।
उभयस्स पउत्ता लो-इयस्स सामाइयं देजा ।। ३३६७॥ जकारणमुद्दसो, तम्मि य कज्जोवयारो त्ति ॥३३६१॥
तत्र गृहस्थेहाददिष्ट एव गुरुणा सामायिक नैगमनयस्यानधीयानो
आलोइयम्मि दिक्खा-रुहस्स गिहिणो चरित्तसामइयं । ऽपि शिष्यस्तकर्ता भवति । श्राह-ननु कार्यस्थ की भवनि कार्य च सामायिकमुद्देशस्थल नास्ति, तत् कथं त- बालाइदोसरहिय-स्स देज नियमा न सेसाणं॥३३६८।। स्थामा की भवति ! इत्याह-'जम्मि' इत्यादि , यस्मात् स्पष्ट । नवरम् , आलोचिते-भालोकिते विज्ञाते यथा द्रमामायिककारणमुद्देशः तस्मिश्चोद्देशलक्षणे कारण कार्य- व्यतो ज्ञातोऽसौ न नपुंसकादिः, क्षेत्रतस्तु विक्षातो यथा
म मामायिकस्योपचारः क्रियत इति सामायिकस्य क- नायमनार्यः, कालतस्त्ववगतो यथा शीतोष्णादिना न कलाहामी भवतीति ।
म्यति, भावतस्त्ववबुद्धो यथा नीरोगानलसादिरूपः । ततसङ्ग्रहव्यवहारनयमतमाह
श्चैवमालोकिते निश्चित च दीक्षार्हस्य वालादिदोषरहितमंगहववहाराणं, पच्चासत्रयरकारणत्तणयो।
स्य गृहिणश्चारित्रसामायिकं दद्यादिति । उहिम्मि तदत्थं, गुरुपामले समासीणो ॥३३१२॥ ननु गृहस्थस्य सामायिकसूत्रार्थमुपसम्पदित्यवगम्यते, महग्रह व्यवहारयोरुद्दिष्टे सामायिके तत्पठनार्थ गुरुपादमू
श्रमणस्य तु वतग्रहणकाल एवाधीतसामायिकत्वात् कथं ल ममासीनः शिष्यः प्रत्यासन्नतरकारणत्वात् पूर्ववत् तत्र
तदर्थमुपसम्पद् भवेत् ? इत्याहसामयिककार्योपचारतः कर्ता भवतीति ।
सामाइयत्थसवणो-वसंपया साहुणो हवेजाहि। ऋजुसूत्रमतमाह
वाघायमेसकालं, च पइसुयत्थं पि होजाहि ॥३३६६।। उज्जुमयस्स पढंतोतं कुणमाणो वि निरुवओगो वि । यदा गुरुः सूत्रमात्रविदेव भवति , सूत्रं चादत्त्वा परलोश्रामन्नासाहारण , कारणो सद्दकिरियाणं ॥३३६३।।
कीभूतो भवेत् , तदा तच्छिष्यस्य साधोः सामायिकार्थऋजुमूत्रम्यानुपयुक्तोऽपि सामायिक पठन् , तथा कुस्त
श्रवणनिमित्तमन्यत्रोपसम्पद् भवेत् । अथवा-'सुयत्थं पि दक्रियामनुतिष्ठन् सामायिकस्य कर्ता भवति , सामा
होजाहित्ति-व्याघातमेष्यत्कालं वा प्रति ती प्रतीत्येत्ययिकासन्नतरा साधारण कारणत्वात् तद्विषयशक्रिययो
थः, सूत्रमात्रार्थमपि साधोरन्यत्रोपसम्पद् भवेत् । इदमु
क्न भवति-पलानभावन व्यन्तरोपसर्गादिना वा व्याघातेन गिन।
पतिते विस्मृते सामायिकसूत्रे, एयति वा दुःषमाकाल शब्दादिमतमाह
प्रशामान्द्यादसमाप्तसामायिकसूत्रमात्रा अपि साधवो भसामाइग्रोवउत्तो, कत्ता सहकिरियाविउत्तो वि।
विष्यन्तो निजगुर्वभावी भवनादिना कारणेन सर्वस्यासद्दाईण मणुनो , परिणामो जेण सामइयं ॥३३६४॥ पिसामायिकसूत्रस्य पठनार्थम् , असमाप्तस्य वा समाप्त्यशब्दादिनयानां सामायिकोपयुक्तः शब्दक्रियावियुक्तोऽपि धमन्यत्र साधोरुपसम्पद् भवेदिति । तदेवं चारित्रसामा
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(७५०) सामाइय प्रांमधानराजेन्द्रः।
सामाइय यिकमङ्गीकृत्य तदर्थश्रवणार्थ तत्सूत्रमात्रपठनाथ वा सा-। दीनि तु वर्जयेत् । तत्र संध्यागतं यत्र रविः स्थास्यति । यधारन्यत्रोपसम्पदुक्ता ।
प्र नक्षत्रे सूर्यस्तिष्ठति तस्माश्चतुर्दशं पश्वदर्श वा नक्षत्र सअथवा--श्रुतसामायिकमङ्गीकृत्य समस्तद्वादशाङ्गसूत्रार्थो- मध्यागतम् , इत्यन्ये । रविगतं यत्र रविस्तिष्ठति। पूर्वद्वाभयार्थमप्युपसम्पद् भवेदिति दर्शयन्नाह
रिकेषु नक्षत्रषु पूर्वदिशागन्तव्ये ऽपरया गच्छतो विदेरम् , सव्वं व वारसंगं, सुयसामइयं ति तदुभयत्थं ति ।
'सग्गहं'च ग्रहाधिष्ठितम् , विलम्बि यद् भास्वता परि
भुज्य मुक्तम् , राहुगतं यत्र ग्रहणमभूदिति । ग्रहभिन्नं ग्रहहोजा लोइयभाव-स्स देज सुत्तं तदत्थं वा ॥३४००॥
विदारितमिति। अथवा-सर्वमपि द्वादशाङ्गं श्रुतसामायिकं भरायते , अतस्तदुभयार्थ समस्तद्वादशाङ्गसूत्रार्थोभयनिमित्तमप्युपस
गुणसम्पद्वारमाहम्पद् भवेत्। श्रत भालोचितभावस्य दत्तविशुद्धालोचन
पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गोऽवञ्जभीरु असढो य । स्य सूत्रमर्थ वा दद्यादिति । उक्नमालोचनाद्वारम् ।
खंतो दंतो गुत्तो, थिरव्यय जिइंदिओ उज्जू ॥३४१०॥ (७५) अथ विनयद्वारमभिधित्सुराह
असढो तुलासमाणो, समिओ तह साहुसंगइरो य । आलोयणसुद्धस्स वि,देज विणीयस्स नाविणीयस्स।
गुणसंपओववीओ,जुग्गो सेसो अजुग्गो य ॥३४११।। नहि दिजइ आहरणं,पलिय त्ति य कन्नहत्थस्स।।३४०१॥
सुगमे । सुगमा। किमिति विनीतस्यैव दीयते ? इत्याह
अथाष्टममभिव्यवहारनयमाहअणुरत्तो भत्तिगओ, अमुई अणुअत्तो विसेसन्न् ।
नेोऽभिव्बाहारो-ऽभिष्वाहरणमहमस्स साहुस्स। उज्जुत्तो अपरितंतो,इच्छियमत्थं लहइ साहू॥३४०२।।
इयमुहिस्सामि सुत्त-त्योभयो कालियसुयम्मिा३४१२ सुबोधा। नवरम् 'अमुइ' त्ति-अमोचकः, उद्युक्त-उद्य
गुणदव्वपज्जवेहि, भूयावायम्मि गुरुसमाइटे। मपरः, 'अपरितंतो' अनिर्विरण इति ।
वे उद्दिट्ठमियं मे, इच्छामणुसासणं सीसो ॥ ३४१३ ।। क्षेत्रद्वारममिधित्सुराह
अभिव्याहरणमभिव्याहारः सामायिकश्रुतोद्देशादिविषयो विणयवमोवि य कयम-गलस्स तदविग्घपारगमणाए। गुरुशिष्ययोरुक्किप्रत्युक्तिविशेषो शेयः , तद्यथा-अहमस्य देज सुकभोवोगो, खित्ताईसु सुपसत्थेसु ॥३४०३।।
साधोः कालिकश्रुते इदमहं श्रुतस्कन्धमध्ययनमुदेशकं या उच्छुचणे सालिवणे, पउमसरे कुसुमिए व वणसंडे ।
उहिस्सामि , वाचयामि । कथम् ? इत्याह-सूत्रतः, अर्थतः,
तदुभयतश्चेति । इह च सूचनात् सूत्रस्य , इयं भावना द्रगंभीरसाणुणाए, पयाहिणजले जिणहरे वा ॥३४०४।।
व्या-इदमङ्गादिकं ममोहिशत , इति शिष्येणोक्त गुरुर्वदिजन उ भग्गभामिय-मसाणसुत्रामणुनगेहेसु । दति-उहिशामि, ततः शिष्यो भणति-'संदिशत किं भ
छारंगारवक्खरा-मेझाईदव्यदुद्वेसु ॥३४०५॥ णामि ? । गुरुराह-वन्दित्वा प्रवेदय , ततः शिष्यो वदतितिम्रोऽपि सुगमाः, नवरमिवणादीनां समीपे दद्यात्
भवद्भिर्ममेदमङ्गादिकमुपदिष्टम् । गुरुराह-उद्दिष्ट क्षमाश्रसामायिकम् , न तु भग्नभ्रामितगृहादिप्रदेशे । द्रक्षाचन्दन
मणानां हस्तेन सूत्रेण, अर्थेन , तदुभयेन च । लताद्याच्छादितप्रदेशो-गम्भीरः । यत्र जल्पतां प्रतिशब्द:
ततः शिष्य श्राह-इच्छामोऽनुशास्तिम् । ततश्च गुरुराहउत्तिष्ठते स प्रदेशः सानुनाद इति ।
'सम्यग् योगः कर्तव्यः' इति । अच्छाकारक्षमाश्रमणदादिगभिग्रहद्वारमाह
नप्रतिपातकायोत्सर्गकरणादिकः शेषो विधिः स्वयमेव द्रपुव्वाभिमुहो उत्तर-मुहो व दिजाऽहवा पडिच्छेजा।
एव्यः । समुद्देशाऽनुभयोरप्ययमेव विधिः , नवरं तयोर्यथा
संख्यं सम्यग् धारय अन्येषां च प्रवेदय । इति गुरुवचनं जाए जिणादनोवा, दिसाइजिणचेइयाई वा ॥३४०६॥
द्रष्टव्यमिति । भूतवादो-दृष्टिवादः, तत्राप्ययमेवाद्देशादिविपाठसिद्धा।
धिः, केवलं द्रव्येण , गुणैः, पर्यायैश्च · उहिष्टमिदम् ' इति कालद्वारमाह
गुरुः समादिशति । एवं च गुरुसमादिष्टे शिष्यो वदतिचाउद्दसि पयरसिं, बञ्जा अट्टर्मि च नवमि च । उहिष्टमिदं मे , इच्छाम्यनुशास्तिम्' इत्यादीति । तदेवं व्या छढुिंच चउत्थि वा-रसिं च सेसासु देाहि ॥३४०७॥
ख्याताऽभिव्याहारनयः, तव्याख्याने च व्याख्याता 'श्रा
लोयणा य विणए ' इत्यादि प्रतिद्वारगाथा । सुबोधा।
अथ मूलद्वारगाथायां यदुक्तम्-'करणम् कतिविधम् ?' ऋक्षद्वारमाह
इति, तत्राहमियसिरअद्दा पुस्से, तिन्नि य पुव्वाई मूलमस्सेसा ।
करणं तव्यावारो, गुरुसीसाणं चउविहं तं च । हत्थो चित्ता य तहा,दम विद्धिकराई नाणस्स ॥३४०८॥
उद्देसो वायणिश्रा, तहा समुद्देसणमणुना ॥ ३४१४ ।। संझागयं रविगयं, विड्डे सेग्ग₹ व विलंबं वा ।
गुरुशिष्ययोस्तद्विषयः-सामायिकविषयो व्यापारः करणराहुहयं गहभिम, च वजए सत्त नक्खत्ते॥३४००॥
म् , स च गुरुशिष्ययोस्तद्वयापारश्चतुर्विधः, तश्चातुर्विध्यामृगशिरःप्रभृतिषु नक्षत्रेषुदद्यात् सामायिकम् ॥ संध्यागता. त् तत्स्वरूपं करणमपि चतुर्विधम् , तद्यथा-वाचयामि -
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सामाइय अभिधानराजेन्द्र:।
सामाइय ति-गुरुपतिशारूप उद्देशः, ततस्तत्पदसैव सूत्रस्य परिपा- याणुदए पञ्चक्खाणावरणनामधिजाणं । देसिक्कदेसविरई' टीरूपा वाचना, तथा, समुद्देशः अनुज्ञा चेति ।
तथा-बारसबिहे कसाए, स्वविए उबसामिए व जोएहिं । लअत्राक्षेपपरिहारावाह
भाइ 'चरित्तलंभो' इत्यादि वचनात् ; तदावरणस्य क्षयोप
शमात् क्षयादिभ्यश्च सम्यक्त्वादिसामायिकानि लभ्यन्त. नणु भणियमणेगविहं, पुव्वं करणमिह किं पुणो गहणं ।
ति भणितम , पुनरपि चोपोद्घाते किं कविह' इत्यादितं पुबगहियकरणं,इदमिह दाणग्गहणकाले ॥३४१॥ गाथायां 'कथं सामायिकं लभ्यते? , मानुष्यादिभ्यः ' इति ननु पूर्व नामादिभेदतोऽनेकविध करणमुक्तम् , इह किं पुन भणितम् , ततश्चेह 'कथं सामायिकं लभ्यते' इति का पुनः रपि भेदकथनगर्ने करणग्रहणम् ? । अत्रोच्यते-तत् प्रागुक्तं पृच्छा ?-पुनरुक्तत्वाद् नेयमिह युज्यत इति भावः। पूर्वगृहीतस्य दानग्रहणकालादुत्तीर्णस्य सामायिकस्य सिद्धं
परिहारमाहकरणमुक्तम् , इदं त्विह गुरु--शिष्ययोर्दानग्रहणकाले उद्देशा
भणिए खोवसमोस एव लब्भइ कहमुवग्याए । दिविधिना साध्य करणमुच्यत इति विशेषः।
सो चेव खोवसमत्रो,इह केसि होज कम्माणं ।३४१६। विशेषान्तरमाह
'भावे खोवसमिए' इत्यादिनोपक्रमे 'क्षयोपशमादिहेतोः, पुब्बमविसे सियं वा, इह गुरुसीसकिरिया विसेसाश्रो।
सामायिकं लभ्यते ?' इति भणिते पुनरुपोद्धाते स एव क्षयोकरणावसरो वाय, णगं तत्थं तु वच्चासो ॥ ३४१६ ॥ पशमादिहेतुः कथं लभ्यते ' मानुष्यादिसामग्रीतः' रत्युक्तम् । अथवा-पूर्वमविशषितं करणमुक्तम् , इह तु तदेव गुरु- इह तु स एव क्षयोपशमादिः केषां कर्मणां भवेत् ?, इति वि. शिष्योक्तिक्रियाविशेषाद् विशेषितमुच्यते । अथवा--अयमेव चिन्त्यत इति स्थानत्रयभणनस्यापि विषयविभाग इति तदेवं गुरुशिष्योक्तिप्रत्युक्तिकाले सामायिककरणस्य भणनावसरः।
व्याख्यातं कृताकृतादिद्वारैः करणम् । तत्र ताई किामेत्युक्तम् ? इति चेत् । उच्यते-अनेकान्तार्थ अथ 'करोमि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यत्र विनेयपृव्यत्यासोऽस्थानभणनम् । न ह्ययं नियमो यदन्यत्र वक्तव्यं
च्छामाशङ्कयोत्तरमाह-- तदत्र नोच्यते विचित्रा च भगवतः सूत्रस्य कृतिरिति । गतं को कारओ करितो, किं कम्म जंतु कीरई तेणं । करणं कतिविधम् ?, इति द्वारम् ।
किं कारओ य करणं,च होइ अनं अणनं ते?||३४२०॥ इदानीं 'कथम्, इति द्वारमभिधित्सुराह
कोऽत्र तावत् कारकः ? इति कथ्यताम् । सूरिराह--स्वलन्मइ कह ति भणिए, सुयसामइयं जहा नमोकारो।।
तन्त्रत्वात् कुर्वन् सामायिकस्य कर्ता । कर्म तर्हि किमत्र ? सेसाई तदावरण-क्खयो समभो हवो भयो।३४१७ इत्याह-यत् तेन । क्रियते । तुशब्दात्-किं करणम् ? । उच्य. कथं सामायिक लभ्यते ?, इति भणिते सत्युच्यते-श्रुत- ते-मनाप्रभृति । एवमुक्त सत्याह--ते-तव सूरे! किं कारक: सामायिकं तावद् यथा नमस्कारः पूर्वमुक्तस्तथा लभ्यते, करणं च, चशब्दात्-कर्म चेत्येतत् त्रयं परस्परमन्यद् भिन्नम् , नमस्कारस्यापि श्रुतान्तर्गतत्वात् । नमस्कारलाभश्च पूर्व- अनन्यद् वा-अभिन्नं भवति? इति। मित्थमुक्त:
एतदेव विवृण्वन्नाह-- "मह सुयनाणावरणं, दसणमोहं च तदुवघाईणि।
को कारउ त्ति भणिए, होइ करेंतो त्ति भयए गुरुणा। तप्फड़या दुबिहा- सव्वदेसोचाईणि ॥१॥
किं कम्मं ति य भणिए,भएणइ जंकीरए तेणं॥३४२१।। सम्बेसु सव्वधासु, हएसु देसोबधाइयाणं च ।
गातार्था । भाएहि मुंचमाणो, समए समए अणतेहिं ॥२॥
अत्र 'कः कारकः?, इत्यादित एव प्रश्नमक्षममाणः परपढम लहानकारं, इकिकं घराणमेवमरण पि ।
स्तावदाहकमसो विसुज्झमाणो, लहा समत्तं नमोकारं ॥३॥"
केण कयं ति य कत्ता,नणु भणियं तत्थ का पुणो पुच्छा।। यहच सम्यग्दृशामेव नमस्कारो भवतीत्येतावन्माणव दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशम उक्तः । मुण्यवृत्त्या तु नमस्कार
| तबिवरणं चिय इम,केणं ति व होजमा करणं ॥३४२२।। स्य श्रुतरूपस्यात्, सदावरणक्षयोपशमादेवासौ लभ्यत - आह-ननु ' कयाकयं' इत्यादिगाथायां केन कृतम्' त्युक्तं द्रष्टव्यम्। एवं श्रुतसामायिकमपि मति-श्रुतक्षयोपश- इति द्वितीयद्वारे 'की ' इति भणितमेव , तत्र का पुनमाजभ्यत इति दृश्यम् । शेषाणि तु सम्यक्त्वदेशविरति- रपीह कर्तुः पृच्छा ?। सत्यम् , केन कृतम् इत्यत्र कसर्वधिरतिसामायिकानि तदावरणस्य यथासम्भवं क्षयतः- तरि करणे च तृतीया सम्भवति, अतस्तद्विबरणमेवेदम्शमत, उपशमत इत्यर्थः। अथवा--उभयतः क्षयोपशमाद| केन इति--अत्र कर्तरि तृतीया, मा भूत् करणमिति । भवन्तीति द्रष्टव्यमिति ।
अथवा, तेष्वेव कृताकृतादिद्वारेषु सामायिकस्य कर्तारं अत्राक्षेपपरिहारावाह
कर्मकरणभावं च श्रुत्वा कुलालघटदण्डानामिव प्रस्तुते नणु भणियमुवक्कमया, खोवसमत्रो पुणो उवग्याए । कर्तृकर्मकरणानां प्रविभागमपश्यन् पृच्छति-कः कारक लन्भइ कहं ति भणियं,इहं कहं का पुणो पुच्छा।३४१८।
सामायिकस्य ? इत्यत्रोत्तरं कुर्वन्नयमस्य कारकः, किं पुनः आह-ननु पूर्वमत्रैवोपक्रमतोपक्रमप्रस्ताव 'भावे खोव
कर्म ? इत्यत्रोत्तरम्-यत् तेन का क्रियते , तुशब्दाद्समिए दुवालसंगं गि होइ सुयनाणं ।' तथा-'बीयकसाया
मनःप्रभृतिकरणं च द्रष्टव्यम् । एतदेवाह-- गुदए, अप्पच्चक्खाणनामधिजाणं ।' तथा-'तयकसा- अहवा कयाकयाइसु, कत्तारं कम्मकरणभावं च।
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सामाइय
माइक्स बोर्ड, कुलालपदण्डमा व ।। ३४२३ ।। पविभागमपेच्तो पुच्छर को कारओ करेंतोऽयं । किं कम्मं जं कीरइ, तो तेरा सद्देण करणं च ॥ ३४२४|| द्वे श्रपि गतार्थे ।
( ७५२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पत्राक्षेपमाद
"
किं कारयो य करणं, च. होह कम्मं च ते चसद्दाओ । अन्नमयन्नं भरणइ, किंचाह न सव्वा जुत्तं ॥ ३४२५।। कारकः करणं चशब्दात् कर्म च 'ते' तब सूरे ! परस्परं किमन्यद् भिनम् अनन्यदभिन्नमिति ? भण्यतेऽत्रोतरम्- किं चातः ? किमनेन तव पृष्टनः ? इति । अत्राह परःअन्यमनस्य वेति द्वयारेकमपि सर्वथा न युक्तमिति । अन्यत्वे तावद् रामादअमते समभावा- भात्राओं उप्पयोयणाभावो ।
पावइ मिच्छस्स व से, सम्मामिच्छाऽविसेसोऽयं । ३४२६ । कर्मभूतस्य सामायिकस्य कर्तुत्वे मिध्यावि 'से' तस्य कर्तृजीवस्य सामायिकजन्य समभावाभाव एव स्यात्, अन्यत्वाविशेषात् । ततश्च तत्प्रयोजनभूतस्य मोक्षसुखस्याभाव एव प्राप्नोति । अपरं व-श्रयं कृतसामायिका सम्प्रग्रहरि, अयं तु मिध्यादृहि इत्ययमविशेष ए उभयोरपि सामायिक स्यान्यत्वाविशेषादिति ।
"
पर एवाचार्यमाशङ्कते -
हवा मभित्रेण वि, धपेण सघणो त्ति होइ ववएसो । सो य णाभागी, जह तह सामाइयस्सामी । ३४२७/
अथवा - श्रत्र सुरे! तवेयं मतिः स्यात्, मिनेनापि धनेन 'धनः' इति व्यपदेशा लोके भवति, अपरं चासी सघन धनाभागी धनफलभोक्ता यथा दृश्यते तथा भिन्नस्यापि सामायिकस्य स्वामी सामायिकत्वांस्तत्कलभोक्ता भविष्यविश्वासादिति ।
तदेतत् पर परिहरति
,
तं न जय जीवो, सामइयं तेा विफलया तस्स । यन्नत्तणो जुत्ता, परसामइयस्स वाऽफलया | ३४२८ | तंदतत् सूरे ! त्वदुक्तं न यतो जीवगुणः सामायिकम् तेजीवस्य सामायिकस्य गुणिना जीवान्यत्वे विफ लता - निष्फलता युक्ता, धनं तु धनिनो गुणो न भवति तेन तस्य भिन्नस्यापि सफलताऽस्त्विति भावः । यथा परस्सामायिकस्य विवक्षित जीवमपेश्यान्यत्वादफलतेति ।
श्रपि च
,
जई भिन्नं तब्भावे, वित (सो) तस्स भावरहिओ त्ति । अन्नाणी चिय निच वसवे ॥ ३४२६ ॥ यदि कर्तुर्जीवादभिन्नं सामायिकम् तदा तद्भावेऽपि मित्रसम्पत्यादिसामायिक प्रस्तायेऽपि सकोसी की वस्तत्स्वभावरहितः सम्यकृत्यादिसामायिकस्वभावरहित इति कृत्वाऽज्ञान्येव स्यात् यथा भिन्नेन प्रदीपेन समं वर्त्तमानोऽपि स्वस्वधावभूतचतुर्विकलो ऽन्ध इति ।
सामाइय
अथानन्यत् दूषयादएगचे तसे नासो जीवस्स संभवे भवखं । कारगसंकरदोसा, तदिकया कप्पणा वावि || ३४३० ॥ सामायिकतद्वतोरेकत्वेऽनन्यत्वे तन्नाशे - सामायिकनाशे सामायिकवतो जीवस्थापि नाशः प्राप्नोति घटस्वरूपनाशे घटस्येव संभवे वोत्पतौ वा सामायिकस्य जीवस्यापि भवनमुत्पत्तिमत्वं स्यात् । न च तस्य तदिष्यते, नित्यत्वात् तथा कर्तृकर्मकरणकारकाणां संकरदोषः, तदेकता वा स्यात्, कल्पनामात्ररूपता वा कारकाणां भवेदिति । अत्राचार्य उत्तरमाह
3
·
आया हु कारभो मे, सामाइयकम्मकरणमाया व तुम्हा या सामा- इयं च परिणाम इकं ||३४३१ ।। आत्मैव तावत् सामायिकस्य कारकः कर्ता मे-मम, सामायिकमेव क्रियमाणत्वात् कर्म सामायिककर्म तदप्यारमैयन पुनद्वयतिरिक्रमन्यत् किञ्चिदिति शव्दा दमनःप्रभृतिकं करणमध्यात्मैव तस्मादारमा सामायिक शब्दात् करं चेति त्रितयमप्येतदेकमेव कथम् ? प रिणामतः - श्रात्मपरिणामरूपत्वात् । नहि सामायिक म प्रभृतिकरणं चात्मपरिणामरूपत्यमतिक्रम्य वर्तते । अतस्त्रितयमपि परिणाम रूपयेकमेवेदमिति । एतदेव पाचियासुगह
जं नाणाइसभावं सामह जोगमाह करणं च । उभयं च सपरिणामो, परिणामाणन्नया जं च ॥३४३२॥ यस्मात् सामायिकं सामान्येन ज्ञानदर्शनचारित्रनायम् करणपि मनःप्रभृति योगमाद परमगुरुः उभयं चैतदात्मनः स्वपरिणामः परिणामनइतोध यस्मादनन्यरूपतेयेति । ततः किम् ? इत्याह-तेणाया सामइयं करणं च चसहस्रो न भिन्नाई ।
9
नगु भलियमणमत्ते, तन्नासे जीवनासो ति ॥३४३३|| तेन तस्मादात्मा सामायिकम् चशब्दात्- करणं चमनप्रभृति, न परस्परमेतानि भिनानि चानन्येवमनम्यत्वे 'ताशे जीवनाशः' इत्यादिकं दूषति । अत्र सूरिराह
जर तप्पजयनासो, को दोस्रो होइ सव्वदा नत्थि । जं सो उपाय- धम्माताओ ।। २४३४ ॥ सवासी सामायिकादिरूपः पर्याय तत्पतत्ययय तरपर्यायरूपेणा नाशो जीवस्य तत्पर्यापनाशी यदि भवति तदा भवतु नाम को दोष है। वस्तु पर्यापवि नाशे जीवस्य सर्वथा नाशः स नास्ति नेष्यते यस्माइसी जीव उत्पादव्ययीप धर्मा बन्लपक । ततचैकस्य सामायिकादिपर्यायस्य नाशेऽपि कथं तस्य सर्वथा नाशः, शेषानन्तपर्यायैर्विशिष्टस्य तस्य सर्वदानस्थानात् इति ।
"
न लगारमा किन्तु सर्वमपि वस्तु जैनानामुत्पादव्ययमित्यतास्वरूपमेयेति दर्शया
सव्वं चिय समर्थ उप्पज्जइ नासए व नियं ।
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(७५३) सामाध्य अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय एवं चव य सुहदु-क्ख बंधमोक्खाइसम्भावो॥३४३॥ रित्यागेऽपि ग्रन्थिमुल्लङ्घय उत्कृपस्थितीः कर्मप्रकृतीः बसकृद् भाविताथैवेति ।
ध्नाति, आयुषकोत्कृस्थती पुनर्वर्तमानः पूर्वप्रतिपन्न
को भवति. अनुत्तरविमानोपपातकाले देवो, न तु प्रतिपद्यपदयुक्तम् कारकैकत्वम् कारकैकता प्राप्नोति, अत्राप्याह
मानक इति । तुशब्दाद् जघन्यस्थिती च वर्तमानः पूर्वप्रतिएक चेव य वत्थु, परिणामबसेण कारगंतरयं ।
पन्नत्वान्न लभत, आयुष्कजघन्यस्थिती च वर्तमानो न पावइ तेणादोसो, विवक्खया कारगं जं च ॥३४३६॥
पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकः, जघन्यायुष्कस्य सुएकमेव हि बस्तु परिणामवशेन कारकान्तरतां प्राप्नी
लकभवग्रहणाधारत्वात् , तस्य च वनस्पतिषु भावात् , तत्र
च पूर्वप्रतिपनप्रतिपद्यमानकाभावात् , प्रकृतीनां च उत्कर । तथाहि-एक एव देवदत्तः कटादिकर्तृत्वेन परिणतः
ऐतरभेदभिन्ना खल्वियं स्थितिः-आदितस्तिसूणामन्तराकला . स एव यज्ञदत्तादिप्रयोजककरणतया परिणतत्वात्
यस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परास्थितिः , सप्तकरणम् . दिदृक्षणां दृश्यमानतया परिणतत्वात् कर्म , ता
निर्मोहनीयस्य, नामगोत्रयोविंशतिः, प्रयस्त्रिंशसागरोबूलादिदानग्रहणतया परिणतत्वात् सम्पदानम् , स एव
पमाण्यायुष्कस्य, इति, जघन्या तु द्वादशमुहर्ता वेदनीयनियनकटस्य मोचनन परिणतत्वादपादानम् , कटक्रिया
स्य, नामगोत्रयारपी, शषाणामन्तमहर्न (तत्त्वार्थे अ०८ धारन्येन च परिणतत्वादधिकरणमिति । एवमन्यत्रापि भा
सूत्राणि १५.१६.१७-१८-१९-२०-२१) इति गाथार्थः । श्राहबनी यम् । तेन कारकसंकरादिको न दोपः , विवक्षातश्च
किमता-युगपदेव उत्कृष्टां स्थितिमासादयन्ति उत एकबस्मात् कारकाणि भवन्ति , तस्मात् कल्पनायामप्यदोष
स्यामुत्कृपस्थितिरूपायां सातायामन्या अपि नियमतो एवति ।
भवन्ति, आहोस्बिदन्यथा वा वैचित्र्यमति । उच्यते-अत्र तथाहि
विधिरिति, मोहनीयस्य उत्कृष्टस्थितौ शेषाणामपि परणाकुंभी विसिञ्जमाणो, कत्ता कम्मं स एव करणं च ।
मुत्कृष्टव, आयुष्काकृतेस्तु उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु नाणाकारयभावं, लहइ जहेगो विवक्खाए ।। ३४३७ ।। जघन्येति । मोहनीयरहितानां तु शेषप्रकृतीनामन्यतमाया जह वा नाणाणन्नो, नाणी नियोवोगकालम्मि । उत्कृष्टस्थितेः सद्भावे मोहनीयस्य शषाणां च उत्कृष्टा वा
मध्यमा वा, न तु जघन्यति प्रासङ्गिकम् । द्वितीएगा वि तिस्सहावो, सामाइयकारओ एवं ।। ३४३८॥
यगाथाव्याख्या--सप्तानामायुष्करहितानां कर्मप्रकृतीनां या कुम्भो बिशीर्यमाणो विशरणक्रियायाः कर्तृत्वेन विवक्षि
पर्यन्तवर्तिनी स्थितिस्तामङ्गीकृत्य सागरोपमाणां कोटीन कर्ता भवति । स एव च विशरणक्रियाव्याप्यत्वेन
कोटी, तस्याः कोटीकोट्या अभ्यन्तरत एव तुशब्दोऽवधावियन्यमाणः कर्म सम्पद्यते , तेन घटपर्यायेण कृत्वा
रणार्थः, कृत्वाऽऽन्मानमिति गम्यते यदि लभते-यदि प्राविशीयत , इति करणत्वेन विवक्ष्यमाणः स एव करणं
प्नोति , चतुर्णा श्रुतसामायिकादीनामन्यतरत् , तत एव समायने । एवं यथैकोऽपि पदार्थो विवक्षया नानाकारक
- लभत नान्यथेति । पाठान्तरं वा कृन्या सागरोपमाणां स्थिभावं लभंत , यथा वा मत्यादिज्ञानादनन्योऽभिन्नो ज्ञानी
तिं लभते चतुर्णामन्यतरत् इत्यक्षरगमनिका । अवयवार्थोऽ. जीवो निजकात्मविषयः स्वसंवेदनरूपो य उपयोगस्तत्का
भिधीयते-सप्तानां प्रकृतीनां यदा पर्यन्तवर्तिनी सागरोपमनपकोऽपि विस्वभावा भवति; तथाहि स्वापयाग उप- कोटीकोटी पल्यापमासययभागहीना भवति, तदा घनयुज्यमानाऽसौ कर्ता भवति , संवेद्यमानत्वेन तु कर्म , क
रागद्वेषपरिणामोऽत्यन्त दुर्भेदयदारुग्रन्थियत् कर्मग्रन्थिर्मग्गभूतनानानन्यत्वाच्च करणमिति । एवं सामायिककार
वतीति । श्राह च--भाध्यकार:-" गठि त्ति सुदुब्भेश्रो, क* एकोऽपि विवक्षया कर्तृकर्मकरणस्वभावा द्रष्टव्य इति । क्खडघणरूढगूढगंठि व्य । जीवस्स कम्मजणिश्रा, घणरानंदर्य करणे व्याख्यातम् , तव्याख्याने च ' करोमि' इति- गहोसपरिणामो॥ १ ॥” इत्यादि, तस्मिन् भिन्ने सम्यमामायिकस्य प्रथमावयवो व्याख्यातः । विश० । आ० म०। क्वादिलाभ उपजायते , नान्यथेति , तद्भेदश्च मनोश्रा चू०। श्राव०
विघातपरिश्रमादिभिः दुस्साध्या वर्त्तते । तथाहि--स अदुण्हं पयडीणं, उक्कोसठिईउ वट्टमाणो उ ।
जीवः कर्मरिपुमध्यगतः तं प्राप्य अतीव परिश्राम्यति , जीयो न लहइ सामा-इयं चउण्हं पि एगयरं ॥ १०५॥
प्रभूत कर्मारातिसैन्यान्तकृत्त्वेन संजातखदत्वात् , संग्रामशि
रसीव दुर्जयापाकृतानेकशत्रुनरनरेन्द्रभटवत् । अपरस्त्वाहमत्तएह पयडीणं, अभितरो उ कोडिकोडीणं ।।
किं तेन भिन्नन ? किंवा सम्यक्त्वादिनाऽबाप्तन ? यथा:काऊण सागराणं, जइ लहइ चउएहममयरं ।। २०६॥
तिदीर्घा कर्मस्थितिः सम्यक्त्वादिगुणरहितेनैव क्षपिता, प्रथमगाथाव्याख्या-अष्टानाम् इति-संख्या , कासाम् ?- एवं कर्मशेषमपि गुणरहित एव क्षपयित्वा विवक्षितफलज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनाम् , उत्कृष्टा चासौ स्थितिश्चो- भाग भवतु । अत्रोच्यते-स हि तस्यामवस्थायां धर्ममानो:कृष्टम्थितिः तस्यां वर्तमानो भवन् जीवः-आत्मा न ल- नासादितगुणान्तरी न शेषक्षपणया विशिएफलप्रसाधनाभने-न प्राप्नोति, किं तत् ?-सामायिकं-पूर्वव्याख्या- यालम् , चित्तविधातादिप्रचुरविघ्नत्वात् विशिष्टाप्राप्तपूर्वफनम् , किं विशिष्टम् ?-चतुर्णामपि-सम्यक्त्वश्रुत- लप्राप्स्यासन्नत्वात् प्रागभ्यस्तक्रियया तस्यावाप्तुमशक्यदेशविरतिसर्वविरतिरूपाणाम् एकतरम्-अन्यतमत् इति त्वाच्च । अनेकसंवत्सरानुपालिता चाम्लादिपुरश्चरणक्रियायावत् , अपिशब्दात्-मत्यादि च, न केवलं न लभते, पूर्वप्र- सादितगुणान्तरोत्तरसहायक्रियारहितविद्यासाधकवत् तथा ति पन्नोऽपि न भवति, यतोऽयाप्तसम्यक्त्वो हिन पूनस्तत्प- चाह-भाष्यकार:-"पाएगण पुवंसया, परिम उई साहयाम्मि गु.
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सामाइय
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रुतरिश्रा । होति महाविजाए, किरिया पायं सविग्धा य ॥ १ ॥ तद कम्पडिती ख दंसणादिकिरिया, दुलभाषायं सविग्धा य ॥ २ ॥ " अथवायत एव बह्री कर्मस्थितिरनेन उन्मूलिता श्रत एवापचीयमानस्य सम्पत्यादिगुलाम जायते कर्मवित्यन्त पत्र व मोक्ष इति
नि
तो
.
न शेषमपि कर्मगुणरहित एवापाकृत्य मोक्षं प्रसाधयतीति स्थितम् । श्रव० १ ० । ( भदन्तशब्दव्याख्या भेदत शब्दे पचमभागे उक्का) सामाषिकशब्दार्थः पूर्व
व्याख्यातः ।
6
तस्य चेमे पर्यायाः
समया समत पस-त्थ संति सुविदिय सुहं अदिं च । अदुखियम (ग) मरवि-मणवजमिमे वि एगड्डा । १०२३। आव० १ अ० |
(एषां स्वस्व त्याने व्याख्या | ) ( अनन्तशब्दव्याख्या 6 अंत शब्दे प्रथमभागे ५४ पृष्ठ उक्का | ) ( सर्वशब्दार्थः ' सव्व शब्देऽविभागे गतः ) ( सापद्यपदार्थ
सायन शब्देऽस्मिन्नेव भागे वदते ।) अथ सर्वादिपदानां विया सह संवधं कुर्यादसच्च सातिय, जोगो संवर तवं सवं । साव जोगेति व पखक्खामि चि पजेमि ।। ३५०० ।। सर्वो-निरवशेषः सावयोग इति संबध्यते सर्वसा
योग प्रयाप्रामीति किया प्रत्याच वा वर्जयामीत्यर्थः । इह प्रत्याख्याभि प्रत्याच चेति क्रियायेऽपि सावद्ययामस्य प्रत्याश्यानं गम्यते, अतस्तदेव प्रत्याख्यानं व्याचिख्यासुराह-
इह
,
पदो पडसे, खाणं खावणाऽभिहाणं वा । पडिसेहस्सक्खाणं, पच्चक्खाणं निवित्ति त्ति ।।३५०१ || प्रतिशब्दोऽत्र प्रतिषेधं वर्तते, आख्यानं त्वाभिमुख्येन वाssरण वा ख्यापना- प्रकथनं, चक्षिपक्षेऽभिधानं वा, प्रतिषेधस्याख्यानं प्रत्यास्थानं निवृत्तिः इति विशे० (७६) सांप्रतं कण्ठतः स्वयमेव चालनां प्रतिपादयन्नाहको कारओ ? करतो, किं कम्म है, जंतु कीरई तेा । किं कारयकरणाण य, अन्नमणन्नं च १ अक्खेवो १०३४ करोमि भदन्त ! सामायिकम् ' इत्यत्र क कर्मकरणव्यवस्था वक्तव्या यथा- करोमि राजन् ! घटमित्युक्ते कुलालः कर्ता घट एव कर्म दण्डादि करणमिति, एवमत्र कः कारकः कुलालसंस्थानीयः ? इत्यत आह'करैतोकुर्वारमेव अथ कर्म घटादिसंस्थानीयम् ? इत्यत्राss६ - यत्तु क्रियते – निर्वर्त्यते तेन-कत्र तश्च तद्गुणरूपं सामायिकमेव, तुशब्दः करणप्रश्ननिर्वचन संग्रहार्थः, यथा कर्म निर्दिष्टमेवं किं करणमित्युदेशादिचतुर्विधमिति निर्वचनम्, एवं व्यवस्थिते सत्याह' किं कारकरणाण यत्ति-किं कारक करण्योः ?, चशब्दात् - कर्मणश्च परस्परतः कुलालघटदण्डादीनामिवान्यस्यम् आहोश्विदनभ्यस्यमेवेति १ उभयथाऽपि दोषः कधम् ?, अन्यत्वे सामायिकवतोऽपि तत्फलस्य मोक्षस्याभा
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( ७५४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सामाइय
वः, तदन्यत्वाद्, मिध्यादृष्टेरिव, अनन्यत्वे तु तस्योत्पत्तिवि नाशाभ्यामात्मनोऽप्युत्पत्तिविनाशप्रसङ्ग इति, अनिष्टं चैतत्, तस्यानादिस्वाभ्युपगमादित्या क्षेपयालनेति गाधार्थः । विजृम्भितं चात्र भाष्यकारेण-"असावा-भावाची तयाभावो । पायर मिस्स व से सम्माऽिपिसेोय ॥ १ ॥ अव मणिवि दिइयो । सधणां य धणाभागी, जह तह सामाइयस्सामी ॥ २ ॥ तं ण जो जीवगुणों, सामइयं तेरा विफलता तस्स । श्रश्नत्तणश्रो जुत्ता, परसामइयस्स वाऽफलता ॥ ३ ॥ जई भिन्नं तब्भावे ऽवि नो तम्रो तस्सभावरहिश्रोत्ति । राणारिश्चियश्चिं, अंधो व समं पईवें ॥ ४ ॥ मनसे नासो जीव संभव कारगसंकरदोसो, तदेकयाकप्पणा वावि ।। ५ ।। "
इत्यादि, इथं पालनामभिधायाना प्रत्यवस्थानं प्रेतिया
दयश्नाह
,
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"
आया हु कारओ मे, सामाइय कम्म करणमाया य । परिणामे सह आया, सामाइयमेव उपसिद्धि || १०३५॥ इहात्मैव कारको मम तस्य स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तेः तथा सामायिक कर्मतत्वात्करणं बहशादिलक्ष तरित्यादाय तथाऽपि यथान्दो सम्भव एव कुत इत्याह--यस्मात् परिणामे सत्यात्मा सामायिकं परि रामनं परिणामः कथञ्चित् पूर्वपापरित्यागेन तररूपापत्तिरिति उक्तं च- "नार्थान्तरगमो यस्मात् सर्वथैव न चाऽगमः । परिणामः प्रमासिद्धे, इष्टश्च खलु पण्डितैः ॥ १ ॥ " इत्यादि तस्मिन् परिणाम सति अमभावार्थ-परिमे सति तस्य नित्यानित्यायनेकरूपत्वाद्या सामपि भेदावे, अन्यथा सकलसंपदा ङ्गाद्, एकान्तपक्षेणान्यत्वानन्यत्वयोरनभ्युपगमाद् इत्थं त्याने कर्तृकर्मकरध्यवस्थासिद्धेः आ रमा-- जीवः सामायिकमेव तु प्रसिद्धिः । तथाहि-न तदेकान्तेन अन्यत् । तद्गुणत्वान्न चानन्य ( त ) द्गुणत्वादेवतिथं चैतदङ्गीकर्तव्यम् अन्यथा गुणगुनिरकान्त देवगुणमात्रोपलब्धी प्रतिनियतगुपए संश त्योऽपि तस्य भेदाविशे
,
यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखा विसररन्धोदरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यति तदा किमियं पताका किंवा बलाकेत्येवं प्रतिनियतविषयति तु संशयानुत्पत्तिरेव गुण एव तस्यापि गृहीतस्यादित्यविति गा थार्थः ।
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·
"
भाष्यकारदूषणानि त्वमूनि-
आयाहु कार मे, सामाइय कम्म करणमात्रा य । तम्हा आया सामा-इयं त्र परिणाम एकं ॥ १ ॥ हा सामाइजोगमाइकर व उभयं च स परिणामो परिणामाणख्या जं च ॥ ३ ॥ लाया सामर्ष करणं व सह अभिवा
"
भणियम सत्ते, तरणासे जीवणासो ति ॥ ३ ॥ जद्द तप्पजयनासो, को दोसो होउ ? सव्वद्दा नत्थि ।
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( ७५५) सामाहय अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइय जं सो उप्पायब्वय-धुवधम्माणतपजाओ ॥ ४॥
चौदारिकशरीरिणां तिर्यग्-मनुष्याणामवावगतन्तब्यम् । तसवं चिय पइसमय, उप्पजइ णासए य णिचं च । त्रैकेन्द्रियाणां पुनः पुनस्तत्रैवैकेन्द्रियभव उत्पद्यमानानाएवं चेव य सुहदुक्खबंधमोक्खाइसम्भावो ॥५॥ मनन्तानि भवग्रहणान्येतदुत्कृष्टतोऽवसेयम् । द्वीन्द्रियाणां एग चेव य वत्थु, परिणामवसेण कारगंतरय ।
तु संख्यातानि भवग्रहणानि । पञ्चन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां पावर तणादोसो, विवक्खया कारगं जं च ॥ ६ ॥
च सप्ताष्टौ चा भवग्रहणानीति मन्तव्यम् । जघन्यतस्तु कुंभोऽवि सजमाणो, कत्ता कम्म स एव करणं च । सर्वत्र द्वे भवग्रहणे । वैक्रियशरीरिणां तु देवनारकागामिदं णाणाकारगभावं, लहइ जहगो विवक्खाए ॥ ७ ॥
न संभवत्येव, पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्त्यभावादिति । चक्रधग55जह वा नाणाणमो, नाणी नियावागकालम्मि । दीनां तु भोगपुरुषाणां सुरवराणां च देवानां जीवितंएगोऽवि तस्सभावा, सामाइयकारगो चेवं ॥८॥" भोगजीवितमिति । साम्प्रतं परिणामपक्षे सत्येकत्वानेकत्वपक्षयोरवि
शेपजीवितानि तु त्रीण्याहरोधेन कर्तृकर्मकरणव्यवस्थामुपदर्शयन्नाह
संजमजीवियमिसी-णं असंजमजीवियमविरयाणं । एगत्ते जह मुट्ठि, करेइ अत्यंतरे घडाईणि ।
जसजीवियं जसोना-मओ जिणाईण लोगम्मि ।३५१४। दबत्थंतरभावे,गुणस्स किं केण संबद्धं ? ॥१०३६॥
पाठसिद्धा, नवरं ' इसीणं' ति-ऋषीणाम् यतीनामिति । एकत्वे-कर्तृकर्मकरणाभेदे कर्तृकर्मकरणभावो दृष्टः, यथा- जसनामश्री' त्ति-यशोनामकर्मोदयादित्यर्थः । मुष्टिं करोति पत्र देवदत्तः कर्ता, तद्वस्त एव कर्म, तस्यैव नान्येां मध्यात् किं जीवितमिहाधिकृतम् ? इत्याहच प्रयत्नविशेषः करणमिति तथाऽर्थान्तरे-कर्तृकर्मकरणानां नरभवजीवियमहिगयँ, विसेसो सेसयं जहाजोगं । भेदे दृए एव तद्भावः । तथा चाऽऽह-घटादीनि यथा करातीति वर्तते । तत्रापि कुलालः कर्ता, घटः कर्म, दण्डादि
जावजीवामि तयं, ता पचक्खामि सावजं ।। ३५१५ ॥ करणमिति । इह च सामायिकं गुणो वर्तते, स च गुणिनः
भवजीवितरूपं नरभवजीवितं मनुष्यभवजीवितं विशेषता कथञ्चिदेव भिन्न इति । विपक्षे बाधामुपदर्शयति द्रव्यात्
त्राधिकृतम् , मनुष्याणामव चारित्रसामायिकाधिकारात्, सकाशाद् , गुणिन इत्यर्थः , एकान्तनैवार्थान्तरभावे--भेदे
शेष नामादिजीवितं यथायोगं यद यत्र युज्यते तत् तत्र योसति,कस्य ?-गुणस्य, कि केन संबद्धमिति ? , न किश्चित्
जनीयम् । ततश्च स एव मनुष्यः प्रति जानीने-यावदनेन केनचित् संबद्धं , ज्ञानादीनामपि गुग्णत्वात्तेषामपि चा
नरभवजीवितन जीवामि तावत् तकं सावद्ययागं प्रत्याख्याStमादिगुणिभ्य एकान्तभिन्नत्वात् , संवेदनाभावतः स
मीति । व्यवस्थानुपपत्तेरिति भावना । एवमेकाम्तेनानान्तरभा
अथवा-यावच्छब्दस्यार्थमाहवऽपि दोषा अभ्यूह्या इति गाथार्थः । कण्ठतस्ता
जावदयं परिमाणे, मजायाएऽवधारणे चेइ । वदुक्त चालनाप्रत्यवस्थाने, अत एव चात्र पुनरुक्तदोषो- जावजीवं जीवण-परिमाणं जत्तियम्मि त्ति ॥३५१६।। ऽपि नास्ति, अनुवादद्वारेण चालनाप्रत्यवस्थानप्रवृत्तरि
जावजीवमिहारे-ण मरणमजायो न तं कालं । त्यले प्रसङ्गेन । (७७) अथौध-भवजीवितयोविवरणमाह
अवधारणे वि जाव-जीवणमेवेह न उ परमो॥३४१७॥ आउस्सद्दव्यतया, सामन्नं पाणधारणमिहोहो ।
इह यावदयं शदत्रिवर्थेपु वर्तते । तद्यथा-परिमाणे
मर्यादायाम् , अवधारग चेति । तत्र परिमाणार्थ तावभवजीविय चउद्धा, नेरइयाईण जावत्था ॥३५१२।।
दाह-याच जीवमिति । किमुक्तं भवति ?-यावद मे जीवपायुषः-आयुर्मात्ररूपस्य कर्मणः संबन्धीनि यानि सन्ति
नपरिमाणमिहभवायष्कस्य परिमाणं तावन्तं कालं प्रत्याचजीवस्य सत्तावर्तीनि द्रव्याणि तान्यायुःसद्व्याणि तद्भा- क्ष इति । मर्यादार्थमाह-यावज्जीवमित्यादि । अत्र यावज्जीव. व श्रायुःसवव्यता तया अायुःसद्व्यतया संसार परिभ्र- मिति । किमुक्तं भवति ?-आरेण मरणमर्यादाया अर्वाक प्रमतो जीवस्य यत् सामान्य प्राणधारण यदाश्रित्य सि- त्याचक्षे, न पुनस्तत्कालं प्रत्याख्यान ग्रहणकाल एव, किन्तु द्धा एव मृता उच्यन्ते, न संसारिणः, तदिह संसारिणां मरणसीमां यावत् प्रत्याख्यामीति । अवधारणेऽपि-यावजीवितसामान्यमात्ररूपमोघ ओघजीवितमुच्यत इति । दिहभवजीवितं तावदेव प्रत्याचक्षे, न तु परतः, देवाद्यवस्थाभवन्ति प्राणिनाऽस्मिन्निति भवः--संसारस्तत्रावस्थिति- यामविरतत्ये प्रत्याख्यानभङ्गप्रसङ्गात् । 'परता मुत्कलम्' इति हेतुभूतं भवजीवितम् , तच्चतुर्धा । किं पुनस्तत् ? इत्या- विधिरपि न कर्त्तव्यः, भोगाशंसादापानुषङ्गादिति स्वयमेव ह-नारकादीनां या जन्मनः प्रथमसमयाभरमसमय याव. द्रव्यमिति । दवस्थाऽवस्थितिरवस्थानां तद्धे तुत्वात् सा भवजीवितमिति ।
अत्राक्षेपपरिहारावाहतद्भवजीवितं भोगजीवितं चाह
जावजीवं पत्ते, जावजीवाएँ लिंगवच्चासो । तब्भवजीवियमोरा-लियाण जं तब्भवोववन्नाणं ।
भावप्पच्चयो वा, जा जावजीवया ताए ।। ३५१८ ।। चकहराईणं भो-गजीवियं सुरवराणं च ॥ ३५१३।। ननक्कन्यायेन यावज्जीवमिति निर्देश प्राप्त 'यावज्जीवया' 'इपुनः पुनस्तत्रैव विवक्षिते भव उत्पन्नास्तद्भवोत्पन्नास्तेषां ति निर्देशः किमर्थ भगवता सूत्रकृता विहितः?' इति शेषः । तद्भवोत्पन्नानां यज्जीवितं तत् तद्भवजीक्तिमुच्यते । त- अत्र परिहारमाह-'लिंगवच्चासो' त्ति-लिङ्गव्यत्ययोऽत्र भ
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(७५६) अभिधानराजेन्द्रः।
सामाइथ गवतोऽभिमतः, तेनेत्थं निर्देशः कृस इत्यर्थः । अथवा-याव- तो न जहुद्देसं चिय, निद्देसो भन्मए निसामेहि । जीवशब्दाद् भावप्रत्यय उत्पाद्यते, ततश्चत्थं भावप्रत्यये उ
जोगस्स करणतंतो-वदरिसणस्थं विवजासो ॥३५३२।। त्पादिते या यावज्जीवता' इति निष्पद्यते, तया यावज्जीवतया ' प्रत्याख्यामि' इति संबध्यत इति ।
देसियमेवं जोगो, करणवसो निययमप्पहाणो त्ति । नन्वित्थमपि 'यावज्जीवतया' इति प्राप्ते 'यावज्जीवया' इति
तब्भावे भावाओ, तदभावे वप्पभावाओ ।। ३५३३ ।। कधं भवति? इत्याह
अथवा--पूर्व सूत्रे यदुद्दिष्टं 'त्रिविधं त्रिविधेन' इति,
तत्र करणस्य त्रिविधत्वम्--- मणेणं, बायाए, काएजावजीवतया इति, जावजीवाएँ वमलोवाओ। णं' इति सूत्रगतेनैवावयचेन विवृतं व्याख्यातमिति । इदाजावजीवो जीसे, जावजीवाहवा सा उ ॥ ३५१६॥ नीं तु त्रिविधं प्रत्याख्येयं योग सूत्रमनुभाषते--विवृणोति'यावज्जीवतया' इति निर्देश प्राप्त यत् 'यावजीवया' इत्यु
' न करेमि, न कारवेमि ' इत्यादिनैव सूत्रावयवन । कम् , तत् तकारलक्षणवर्णलोपादिति द्रष्टव्यम् । तृतीयं प
अत्राह परः--ननु यद्येवम् , तर्हि किं पुनः कारणरिहारमाह । अथवा-जीवनं जीवा यावज्जीवो यस्यां सा
म् , येन योगमुत्क्रम्यातिलबध करणस्य प्रथम निर्देशः यावजीवेति बहुव्रीहिस्तया यावज्जीवया इत्येवं द्रष्टव्य
कृतः ? । उद्देशकाले हि प्रथमं त्रिविधम्' इत्युद्देशाद् योमिति।
ग एव प्रथममुद्दिष्टः, तदनन्तरं 'त्रिविधन' इत्यभिधा
नात् पश्चात् करणस्योद्देशः कृतः । एवं च सति 'यथोअत्र विनेयपृच्छामुत्तरं चाऽऽह
देश निर्देशः' इति न्यायादिह निर्देशोऽपि प्रथमं योगस्य, का पुण सा संबज्झइ, पञ्चक्खाणकिरिया तया सव्वं । ।
पश्चात् करणस्य प्राप्नोति, तद्यथा--' न करेमि, न कारजावजीवाएऽहं पच्चक्खामीति सावजं ॥ ३५२०॥ वेमि, करंतं पि भरणं ण समाजाणामि मणेण वायाका पुनः पूर्वोक्तबहुब्रीहावन्यपदार्थे संबध्यते ? इत्याह- एकाएण' इति । न चैवं निर्दिष्टम् , व्यत्ययाभिधानादिति । प्रत्याख्यानक्रियेति । तया यावज्जीवया प्रत्याख्यानक्रियया
'तो' त्ति-ततो न यथोद्देशमेव निर्देशोऽत्र संजातः, तत् सब सावद्ययोगमहं प्रत्याख्यामि' इति संबन्ध इति ।
किमत्र कारणमिति वाच्यम् ? । गुरुराह-निशमय-आकर्णय.
भएयतेऽत्र कारणम्-करणादिलक्षणस्य योगस्य करणतन्त्रा. परिहारान्तरमाह
पदर्शनार्थे मनो-वाक-कायलक्षणकरणायसतोपदर्शनार्थमयं जीवणमहवा जीवा, जावजीवा पुरा व सा नेया। व्यत्यासः कृत इति । पतदेव भावयति-देशितमुपदिष्टमेवं नीए पाययवयणे, जावजीवाइतइएयं ।। ३५२१ ॥ व्यत्यासकरणन भगवता सूत्रकृता--योऽयं करणकरणाअथवा-जीवनं जीवेति स्त्रीलिङ्गाभिधायक एवायं शब्दः
दिव्यापारलक्षणो योगः स मनःप्रभृतिकरणवशस्तवायत्त माध्यत , न तु जीव इति पुंलिङ्गाभिधायकः । ततश्च यथा
इति नियतम्-निश्चितं स्वयमप्रधानः, तद्भावे-करणभाव एव पुग-पूर्व तथाऽत्राप्यर्थत्रयवृत्तिना यावच्छब्दन सह समासे
भावात् , तवभावेऽपि च-करणाभावेऽवश्यमभावादिति । मा यावज्जीवाशेया; तद्यथा-यावत्परिमाणा जीया याबजी
किमिति योगः करणभाव एव भवति, तदभावे तु न भवया. एवं मर्यादाऽवधारणयोरपि समासः कार्यः, तया याव
ति? इत्याहजीवया प्रत्याख्यामि; प्राकृतवचने च पर्यन्त एकारनिर्देशन तस्स तदाधाराओ, तक्कारणो य तप्परिणईओ। तृतीययमवसेयेति । विशे।
परिणंतुरणत्थंतर-भावाओ करणमेव तो ॥३५३४|| नंदयं मनःप्रभूति त्रिविधं करणं व्याख्याय प्रस्तुतयो- तस्य-योगस्य तदाधारत्वात्--करणाधारत्वात् , तथाजनामाह
तद्--मनःप्रभृति करणमेव कारणं यस्य स तत्कारणस्तनमा तिविहेण मनसा, वाया कारण किं तयं तिविहं ।
दायस्तरवं तस्मात् , कारणत्वात् तस्य योगस्य, तथा-तपुचाहिगयं जोगं, न करेमिच्चाइ सावज्जं ॥ ३५२६ ।।
स्परिणतित्वात्-करणपरिणतिरूपत्वात्-तस्य, तथा, परिण
न्तुः करणस्याऽनन्तरत्वादनम्यत्वात् तस्य, यतः करण- . तन यथोक्लस्वरूपेण त्रिविधेन करणेन-मनसा वाचा मेव तकोऽसी योगः, ततस्तदात्मकत्वात् तद्भाव एव कायन: मनो-बाक्-कायलक्षणेनेत्यर्थः । किम् ? अत माह- भवति, तदभावे तु न भवति । पाह-यद्येवम् , उद्देशातक पूर्वाधिकृतं त्रिविधं सावध योगं न करोमीत्यादि ऽयवं कस्मादन कृतः ? | उच्यते-योगस्यापि प्रत्यासबभ्यत-'न करेमि, न कारवेमि , करंतं पि अरणं ण स- ख्येयत्वेन प्राधान्यण्यापनार्थमिति । तदेवं योगस्य करणामणु ज्ञाणामि' इति संबध्यत इत्यर्थः।।
त्मकत्वं दर्शितम्। অথ, স্মথ ঘষা
अथ करणयोगयोः पुनः समुदितयोर्जीवात्मकत्वं दर्श
यन्नाद-- पुच्वं व जमुद्दिटुं तिविहं तिविहेण तत्थ करणस्स । निविहत्तण विवरीयं, मणेण वायाए कारणं ॥३५३०॥
एत्तो चिय जीवस्स वि, तम्मयया करण-जोगपरिणामा।
गम्मइ नयंतरानो,कयाइ समए जोऽभिहिय।।३५३१॥ निविदमियाणि जोगं, पच्चक्खेयमणुभासए सुतं ।
यत एव परिणम्तुः परिणामोऽनर्थान्तरमुक्तम् , अत एव किं पुणरुकमिऊणं, जोगं करणस्स निद्देसो ?|३५३१॥' जीक्स्यापि तन्मयता-स्वपरिणामरूपकरणयोगात्मता ग
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( ७५७) अभिधामराजेन्द्रः ।
सामाइय
म्यते । कुत इत्याह- 'करण जोगपरिणाम 'त्ति करणं च योगा करण-योगी ती परिणामः स्वभावीक रणयोगपरिणामस्तद्भाव स्तवं तस्मात् करण गर समस्याजीयस्य स हि करण-योगपरिकामेन परिसुमति | परिणामथ परिवन्तुरनर्थान्तरम् । अतः करयोगात्मता जीवस्व गम्यते कदाचित् कचिद्दर्शयन्नाह नयान्तराद्] निश्चयलक्षणं नयान्तरमाश्रित्येति यतः स मये सिद्धान्तेऽभिहितम् ।
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किम् ? इत्याह
आया अहिंसा आया हिंस चिनिन्छयो एम । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंस हंस इयरो || ३५३६ ।। इह आत्मा मनःप्रभृतिना करवेन हनन पालना -ऽनुमतिल हिंसां नित्तिरूपामहिसां च करोतीतिव्यवहारः । अस्य गाथायां निश्रयनयमन आत्मेय हननादिला हिंसा स एव च निवृतिरूपाऽनिम् नेवारम मकरस्य योगलस्य कर्मकत्यतीति । अत्र परंप्रेमशङ्कयाआगत्ते कत्ता, कम्मं करणं ति को विभागोऽयं ।
पजायंवर - विसेसाओ न दोसो ति ।। ३५३७|| परनन्वेवं तस्याप्येक कर्ता कर्म कर बेति को विभागः - को भेदः । यतेोत्तरम् -पर्यायान्तरेण विशेष पर्यायान्तरविशेषणं तस्माददोषः | इदमुकं भवति एक एव कर्ताऽऽत्मा व्यतिरिकदुभिः कर्मकरणादिपर्यायान्तरविशिष्यत इति मोदीष इति ।
पूर्व भाषितमपीदं पुनरपि स्मारधाडएवं पि सम्यकारण- परिणामाणसभावयामे | नाया नाशात्र, जह विवाहपरिणामं ।। ३५३८ ॥ एकमपि घटादिकं वस्तु सर्वकारक परिणाममन्यान्यभावताम्-अन्यान्यरूपतामेति, यथा ज्ञाना जीवो ज्ञानानन्यः सन् विशेयादिपरिणाममेति । स एव हि स्वज्ञान उपयुज्यमानः कर्ता, करणभृतज्ञानानन्यत्वात् स एव न करं स्वयं संवेद्यमानस्तु स एव विशेय इति सविस्तरेण प्रागुक्रमिति ।
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ननु सर्वे सावद्यं योगं प्रत्याख्यामि' इत्युक्तम, कः पुनरसी सावद्यो योगः ? इत्याह
स व सावजी योगी, हिंसाईओ तयं स सयं ।
न करेमि न करेमि य, न यारणुजाणे करतं पि । ३५३६ | सच सावद्यो योगो हिंसा ऽनुतस्तेयादिको मन्तव्यः सकं सर्वमपि स्वयं न करोमि, न कारयाम्यन्यैः एवं नानुजानामि कुर्वन्तमपीति । विशे० प्रा० म० श्रा० चू० । सामायिक सूत्रसङ्ग्रहः, तत्र करेमि भंते ! सामाइयं ' ति पंच समिई श्री गहिश्रश्र, 'सव्वं सावजं जोगं गच्चकामिति विरिश गुनीओ गहियाओं, एस्थ समिओ पनि गुनीओति पाओ अट्ट पवयमायाओ जाहिं सामाइयं चोदसयपुत्र्वाणि मायाणि, मागाश्री ि मूलं भणियं ति होइ " । इहैव प्रायः सूत्रस्पर्शनियुक्तिवक्लव्य
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सामाइय
ताया उक्तत्वात् मध्यग्रहणे च तुलादण्डन्यायेनाऽऽद्यन्तयोरप्याक्षेपादिदमाह सुत्तफासिज्जु-त्ति विश्वरथो एवं स्पर्शनिशिविरतराधों गतः एवम्उक्रेन प्रकारणेति गाथार्थः ।
साम्प्रतं सूत्र एवातीतादिकालग्रहणं त्रिविधमुक्तमिति
-
सामाइ करेमी, पथक्खामी परिक्रमामिति । पच्चुपपन्नमणागय- अईकाला गहणं तु || १०४६ ॥ सामायिक करोमि तथा प्रत्याख्यामि सायय योगमिति तथा प्रतिक्रमामीति प्राक्कृतस्य इदं हि यथासङ्ख्यमेव प्रत्युत्पन्नानागतातीतकालानां ग्रहणमिति, उक्तं च-ई ि दइ पदुत्पन्नं संवरेइ, श्रणागयं पच्चक्वाइ' त्ति गाथार्थः || २०४६ ॥ साम्प्रतं तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामीत्येतद् व्याख्यायते तत्र तस्य' यधिकृत योगः संयते ननु प्रतिकमामीत्यस्याः क्रियायाः सोऽधिकृता योगः कर्मः कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरतस्तमित्यभिधेये तस्येत्यभिधीयते किमर्थमिति ? श्रह - प्रयोजनार्थ षष्ठी विवक्षातः प्रयुक्ता सम्बन्धलक्षणा; अवयवलक्षण्या वा, योऽसौ योगस्त्रिकालविषयस्तस्यातीतं सावद्यमंशमवयवं प्रतिक्रमामि न शेषं वर्तमानमनागतं वा । केचित् पुनरविभागज्ञाः अविशिष्टमेव सामान्यं योगं सम्बन्धपति अविशिष्टस्य त्रिकालविषयस्य प्रतिक्रमणप्रयोजनाभावात्
पत्तेश्व अविशिष्टमपि संवध्य पुनर्विशेषेऽवस्थापनीयल
द इति प्रथगुरुता यदेतत् प्रतिक्रमणमेतत् प्रायश्चित्तमध्ये पठितमतः प्रायश्चित्तमासेवितऽतीतविषयमिति गतत्वादतीत प्रतिक्रमणमिति न वक्तव्यम्, इह पुनरुक्तत्वप्रसङ्गात्, यस्मादस्य प्रतिक्रमामीतिशब्दस्य कर्मणा भवितव्यमवश्यं, तश्च भूतं सावधयोग मुक्त्वा नान्यत् कर्म भ चितुमर्हति यस्मात्तस्येत्यवयवलक्षणया षष्ठ्या सम्बन्धः । आह- यदेवं पुनरुक्कादियमपरमाश द्वापदमिति दर्शयति
"
तिविहेां ति न जुत्तं, पडिपयविहिणा समाहिचं जेण । अत्थविगप्पण्याए, गुण भावणय ति को दोसो १ । १०४७/ • त्रिविधं त्रिविधेन त्यत्र त्रिविधेनेत्ययुक्तमिति, अन श्रह - प्रतिपदविधिना समाहितं येन, यस्मात् प्रतिपदमभिहितमेव मनसा वाचा कायेने ति । अत्रोच्यते, अर्थविकल्पनया गुणभावनयेति वा को दोषः ? पत भवति--अर्थविकल्पसङ्ग्रहार्थे न पुनरुक्तम् । अथवागुणभावना पुनः पुनरभिधानानीति न दोषः अथवा मनसा वाचा कायेनेत्यभिहित प्रतिपदं न करोमि, न कारयानि नानुजानामीति यथामनुदेशः समानाना ' मिति यथाक्रमनिऐ मा प्रापदिति
त्रिविमाययमेव प्रायः परिहार इति गाथार्थ ||१०४७॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः -- तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामी' त्यत्र भदन्तः पूर्ववद् अतिचारनिवृत्तिक्रियाभिमुखच पिचाऽऽहननु पूर्वमुक्त व मदन्तः स एवानुवाद
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सामाइय
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प्रक्त इत्यतः किं पुनरनेनेति ?, अत्रोच्यते-अनुवर्तनार्थमेव पुनरनुस्मरण्या प्रयुक्तः यतः परिभाषा - अनुवर्तन्ते नाम विधयां न चानुवर्तनादेव भवन्ति किं तर्हि ?, नाति स चायं यन्नः पुनरुच्चारणमिति । अथवासामायिक क्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः श्रनेन चैतत् ज्ञापितं भवति सर्वेकियावसाने गुरोः प्रत्यर्पण कार्यमिति उक्रं च भाष्यकारेण, सामाइयपञ्चष्प- वयोबाऽयं भदंत सही ति । सव्वकिरियावसाणे, भरियं पच्चप्पम ॥ ६ ॥ ' इति कृतं प्रसङ्गेन । प्रतिक्रमामीत्यत्र प्रतिक्रम- मिध्यादुष्कृतमभिधीयते तथ द्विधा यतो भा वतश्च तथा चाह नियुक्लिकारः
..
( ७५= ). अभिधान राजेन्द्रः ।
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दम्म निहगाई, कुलालमिच्छति तत्थुदाहरणं । भावम्मिसी, मिआवई तत्बुदाहरणं ।। १०४८ || द्रव्य इति द्वारपरामर्श इति तदभेदोपचारात् नो अत एवाह-निवादि आदिशब्दाद-अनुपक्रादिपरिग्रहः कुलालमिध्यादृष्टनं तत्रोदाहरणं द एगम्स कुंभकारस्स कुडीए साहुगो ठिया, तत्थेगो - लो तस्स कुंभगारस्स कोलालागि अंगुलिधरहरां पाविश्व कुंभारे पर दो भयो य कीस मे कोलालागि कांग्रेस खुट्टो भाइ-मिच्छामि दुनि एवं खो पुगोऽधिनिधि मन्दामि डुक नि पच्छा कुंभगारेण तस्स खुड्गस्स कन्नामोश्रो दिनों, मो भइ - दुक्खाविओ ऽहं. कुंभगारो भगइ-मिच्छामि दुएवं स पु पु कामोदयं दाऊ मिला दु कडे ति करे | पच्छा चेल्लणो भगइ - अहो सुंदरं मिच्छा मि दुक्कडं ति, कुंभगारो भगइ तुज्झ वि एरिसं चैव मिच्छा दुकडे ति पच्छा डिम्रो विधियव्वस्स । जं दुक्कडं ति पुणे पायें सवाई मायाण्यांसंगो य ॥ १ ॥ एयं दव्वपडिक्कमं ॥ भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति-भाव इति द्वारपरामर्श पत्र तदुपयुक्त एव तस्मिन् — अधिकृते शुभव्यापारे उपयुक्तस्तदुपयुक्तो यत् करोति, मृगापतिः तत्रोदाहरणं दम्भ पदमासामी कोसंबीय समसरिओ नाथ मंदसुरा भगवंत दगा सचिमाणा ओडा तस्थ मियावई अजा उदयगमाया दिवसोत्ति काउं चिरं ठिया,
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माओ साहुणीओ तित्थयरं वंदिऊण सनिलयं गयाआ चंद्रसूरा विडिया सिग्यमेव दिपालीभूमियायई संता गया अजदासगार्थ । नाश्रय ताव पडिक्कताओ, मियावई आलोएउं पवत्ता, श्रजनंदगाए भरागाइ कीस अजे ! चिरं ठियासि ?, न जुनं नाम तुमं उत्तमकुलप्रसूयाए एगागिणीए चिरं अच्छ सिमा मिच्छामि कभी - जनंदगाए पारसु पडिया, श्रजनंदणा य ताए बेलाए संवारं गया, ताहे निद्दा श्रागया, पसुत्ता। मियावईए वि नियम पायपडियाय देव केवला समु समुदाय असंथा स्याही विधी मियायईएमा जिदिति ि महन्थ संधारगं चाविश्र । सा विवद्धा भाइ-कि
श्र
सामाइय
मेयं ति ? अज्ञ वि तुम अच्छसित्तिमिच्छामि दुक्कडं, निइष्पमापणं ण उट्ठावियासि । मियावई भगइ - एस सप्पो माखाहि त्ति ना हत्थो बडाविश्र । सा भएइ-कहिं? सोमादार, अजवंदना अपेदमासी भग अजे ! किं ते असश्र ? सा भगइ - आमं, तो किंछाउमथिओ केवलिओ ति ?, भण्इ - केवलिश्रो, पच्छा - जनंदगा पाए पडिऊण भइ-मिच्छामि दुक्कडं ति । केवली असा त्ति, इयं भावपडिकमणं । एत्थ गाहा - 'जद य पक्किमियव्यं, अवस्ल काऊण पावयं कम्मं । तं चैव न का तो हो पर पति गाथार्थः ॥ १०४॥ इह च प्रतिक्रमामीति भूतात्- सावद्ययोगान्निवर्तेऽहमि त्युक्तं भवति, तस्माश्च निवृत्तिर्यत्तदनुमतेर्विरमणमिति तथा निन्दामीति - गहमि, अत्र निन्दामीति जुगुप्सेत्यर्थः गर्दामीति देवो भवति एवं कोमेकार्थवे, उच्यते-सामान्यार्थामेदे ऽपीष्टविशेषार्थी शब्द यथा - सामान्ये गमनाचे मदतीति मी सर्पतीति सर्पः। तथाऽपि गमनविशेषोऽवगम्यते शब्दार्थादेव एपमाथि निन्दागयोरिति । तं पार्थविशेषं दर्शयति
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सचरित्तपच्छयावो, निंदा तीए चउक्कनिक्खेवो । दव्ये चित्तयरसुआ, भावेसु बहू उदाहरणा ।। १०४६ सचरित्रस्य सत्वस्य पश्चात्तापो निन्दा स्वप्रत्यक्षं जुगुप्सेत्यर्थः उक्तं त्र" आत्मसाक्षिकी मिन्दा 'ती चक्कनिक्खेबो' त्ति-तस्यां तस्या वा नामादिभेदवतुष्को निक्षेप इति तत्र नामस्थापने श्रनादृत्याऽऽह-'दरसुवा, भावेतु यह उदाहरण सिद्रव्यनिन्दायां चित्रकरसुतोदाहरणं, सा जहा ररणा परिणीया अप्पाइति भावनिन्दायां सुहानियोगसंग्रहेषु दयन्ते, लख पुनरिदम'हा कहा ! दु-ठु कारिय 'दुदृठु अणुमयं इति । श्रतो तो इज्भर, पच्छातावेण बेवंतो ॥ १ ॥ ' ति गाथार्थः ।
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गरहा वि तहा जाई, अमेव नवरं परपगासया । दव्यमि मरुअनार्य, भावेसु बहू उदाहरणा ।। १०५० ।। मर्दाऽपि तथाजातीयैवेति-विन्दा जातीयैव नवरमेतावान् विशेषः - परप्रकाशनया गर्दा भवति या गुरोः प्रत्यक्ष जुगुप्सा सा गर्हेति, "परसाक्षिकी गर्छे वचनाद् असावधि चतुर्विधैव तत्र नामस्थापने अनाह त्यैवाह-व्यस्मि मरुणायं भावेसु बहू उदाहरण 'तितयां मरुकोदाहरण तचेदम्दपुरे मह श्रो राहुसाए समे संवालं काऊ उवज्झायरस कहइ, जहा सुविण राहुसाए समं संवासं गश्रो मिति । भावगर्दाए साघू उदाहरणं गुरुगालो, काऊ विण्यमूलं । जह अपणो तह परे, जाणावरा एस गरहा उ ॥ १ ॥ 'ति गाथार्थः ॥। २०४६ ॥ तत्र निन्दामि गद्दमी. यत्र गहाँ जुगुप्सच्यते तत्र किं जुगुप्से आत्मानम्' अतीत सावधयोगकारिणमश्लाध्यम् । अथवा श्रत्राणम्-अतीत सावद्ययोगाविरहितं जुगुप्से, सामायिकेनाधुना श्रासमिति अथवा-मने नमती साथयो सततभयन निवर्तयामीति पुस्तामीति
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सामाइय
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विविधार्थी विशेषार्थो वा विशब्दः, उच्छन्दो भृशार्थः, सृजामि त्यजामीत्यर्थः विविधं विशेषेण वा व्यजामि व्युत्सृजामि, अतीत सावद्ययोगं व्युत्सृजामीति वा श्रत्रशब्दस्याः विशेषेाधः सृजामीत्यर्थः नन्येवं सायांगपरित्यागात् करोमि भन्न सामायिकमिति साथधयोगनिवृत्तिरुच्यते, तस्य व्यवसृजामि शब्दप्रयोग वैपरीयमापयते नन्न, यस्मात् मांसादिविरकियानन्तरं व्यवस् जामीति प्रयुक् तद्विपक्षत्यागो मांसभक्षयनिवृत्तिरभिधीयते एवं सामायिकानन्तरमपि प्रयुक्ते व्यवसृजामिशब्दे तद्विपक्षयागोऽवगम्यत स व द्विपक्षः सुगम एवन्त्र बहुयंत नोच्यते प्रन्थविस्तरभयाद्गमनका नत्वात् प्रारम्भस्य ।
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(GRE) अभिधान राजेन्द्रः ।
साम्प्रतं व्युत्सर्गप्रतिपादनायाऽऽह ग्रन्थकारःव्यवसग्गे खलु, पसन्नचंदो हवे उदाहरणं । पडियागयसंवेगो, भावम्मि वि होइ सो चेत्र ।। १०५१ ।। इह द्रव्यव्युत्सर्गः - गणोपधिशरीरानपानादिव्युत्सर्गः श्रथवा द्रव्यभ्युत्सर्गः श्रर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्ग इति श्रत एवाऽञ्-द्रव्यभ्युत्सर्गे खलु प्रसन्नचन्द्रो भवत्युदाहरणम्, भायुवत्यज्ञानादिपरित्यागः अथवा धर्मशुलध्यायिनः कायोत्सर्ग एव, तथा चाऽऽह-प्रत्यागतसंवेगां भावेऽपि भावव्युत्सर्गेऽपि भवति स एव प्रसन्नचन्द्र उदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १०५१॥ भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदम्-"खिइपइलियर सदोषात मग महावीरो समोसढो, तो रावा धम्मं सांऊण संज्ञायसंवेगो पप गीयरथो जाओ गया जिसक पडियािमो सभावणार अप्पा भावे । तें कालें रायगिहे रायरे मसाणे पडिमं पडियो च महावीरो तत्व समोस लागोऽवि वंगो गीइ । दुवे व वाणियगा खिइपइट्टियाओ तत्थेव श्रायाया पसश्नचंदं पासिऊण एगेण भणियं - एस अदाएं सामी रायलदि परिचय वयसिरिं पडियो। अहां से धनया, बितिएण भणियं कुश्रो एयस्स धरण्या ?, जा श्रसंजायबलं पुत्तं रज्जे ठविऊण पवइश्रो, सो तवस्सी दाइदि परिभषि उत्तम पाव बहु लोगो दुक्ख थियो नि अब एसो तस्स तं सोऊ कोवो जाओ, चिंतियं चणे- को मम पुचस्स अवकरे त्ति ?, नूणममुगो, ता किं तेरा ?, यावत्थगश्रो ं वाघामि, माणससंगामेण रोहाण पवन्नो, हत्थि या विवाह चि विभासा चेतरे से भगवं दोसी, दो मंदिओ य असे इंसिपि निभा तवतिये सुकमा गोगो एस भगवे, ता परिसम्म भाग कालगयस्स का गई भवइ सि भगवंतं पुच्छिस्सं, तत्र गओ वंदिऊण पुच्छिश्रोऽणेण भगवं जम्मि झा डिओ मए वंदिओ पसन्नचंदो तम्मि मयस्स कहि उवाश्रभवद्द ?, भगवया भणियं श्रहं सत्तमा पुढवीए । तति हाकिमेति
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पत्थंतरम्म सदस्य मासे संगाने पहागणनायग सहावडियस्स असिसत्तिचक्ककष्पगिष्पमुहारं खयं गयाई पहराई, सिरत्ताणं वावारमि चि
सामाइय परामुखियमुत्तिमंग, जांदे लोकनित संवेगमाययो महया विसुज्झमाणपरिणामेण प्रत्ताणं निंदिउं पयता, समाहियं गोपुपि सुकं भास्वरम सेवि पण चि पुचि भगभग ! जारिसे भागे संप सोय तारिखे मयस्य का उपयाओ ?, भगवया मणि अनरसुरेति तो मिशि किमना परुवियं उआडु मया अब्रदा अग
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ति ?, भगवया भणियं न अन्नहा परुवियं सेविण भणियं किं वा कहं वत्ति ?, तो भगवया सब्बो घुसंतो साहि श्रो पार्श्वतम् य पसनचदसमीचे दिव्यदे साहो महतो कल उद्धार तथा सेशि भवि भगवं । किमेवं ति भगवया मसित सुमा परिणामस्स केवलणां समुप्परणं, तो से देवा महिम करेंति । एस एव दव्वविउस्सग्ग-भावविउस्सग्गेसु उदाहरणं ।" साम्प्रतं समाप्ती यथाभूतोऽस्य कर्ता भवति सामायिकस्य तथाभूतं संक्षेपतोऽभिधित्सुराद
सावज्जजोगविर, तिविहं तिविहेण बोसिरिय पावं । सामाइयमाईए, एसोऽणुगमो परिसमचो ।। १०५२ ।। सावद्ययोगविरतः, कथमित्याह -- त्रिविधं त्रिविधेन व्युत्सृज्य पापं न तु सापेक्ष एवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा सावयोगविरतः सन् त्रिविधं त्रिविधेन व्युरजति पापमेयं सामायिकादौ -- सामायिकारम्भसमये एषोऽनुगमः परिसमाप्तः । अथवा सामायिकादौ सूत्र इति, आदिशब्दात्-सर्वमित्याद्यवयवपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ १०५२ ॥ उक्काऽनुगमः । सम्पति नयाः ते च नैगमसङ्गव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसम भिरुदेवम्भूताः खबोधतः सप्त नमन्ति स्वरूपं चैतयामधः सामादिकाध्ययने न्यचे प्रद
प्रतम्यते पुनःस्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियायान्त र्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियानयश्च । तथा चाऽऽह-
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विजाचरणनएसुं, सेससमोआरणं तु कायच्चं । सामाइनिज्जुती, सुभासित्था परिसमत्ता || १०५३।। विज्जाचरणनएसुं' ति-विद्याचरणनययोः; ज्ञानक्रियानवयोरित्यर्थः सेससमोयारणं तु काय 'ति शेषनयस मवतारः कर्तव्यः, तुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि ? - तौ च वक्तव्यों, सामायिकनिर्युक्तिः सुभाषितार्था परिलमासेति प्रकटार्थमिति गाथार्थः ॥ २०५३ ॥
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साम्प्रतं स्वद्वार पत्र शेषनपान्तर्भावेनातिमहिमानी अनन्तरोपन्यस्तगाथागततुशब्देन चावश्यवक्तव्यतया विहिती ज्ञानवरयाच्येते, तत्र ज्ञाननपदर्शनमिदं-- ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वात् । तथा
चाऽऽह
नायम्मि गिरि, अगिरिहश्रव्वम्मि चेव अत्थम्मि । जड़ अयमेव इस जो, उवएसो सो नओ नामं ॥। १०५४ ।। 'नाम' न सम्यकपरि गिरि तम् उपादेये 'अगिरियज्यमिचमीत अनु
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शब्दः
सामाइय पादेये देव इत्यर्थः मोहनीय योतत्वानुकर्षणार्थ, उपेक्षणीयमुख्याया एव कारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो दृष्टव्यः ज्ञात एव ग्रहीतव्ये, तथा अग्रहीतव्ये तथोपेक्षणीये च, ज्ञान एव नाते अतिरेकामु सहिका ग्रहीतव्यः दिदिशस्त्रकण्टकादिः, उपेक्षणीयः- तृणादिः । श्रमुष्मिको ग्रहीतब्य:- सम्यग्दर्शनादितमित्यादि उपेक्षसीधी-विषादादिरिति ि
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ति अनुस्वारलापादयति-
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( ७६० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कामुष्मिकफलार्थिना सततमेन प्रवृस्यादि लक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं सम्यज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात् तथा वान्यैरप्यु लम् - " विज्ञप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥ १ ॥ " तथाश्रमुष्मिक फलप्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञात एव यतिष्यम् तथा नागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः यत उक्क्रम् - "पढमं गां सो दया एवं च सत्यसंजय अशी कि काह ति, किंवा गाहिति छेय पावगं ? ॥ १ ॥ " इतचैतदेवमङ्गीकर्तव्यं यस्मात्तीर्थकर गणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा तथा चागमः - " गीयत्थो यविहारो, बितिश्रो गीयत्थमीश्र भणिश्रो। एत्तो तइयविहा रो. सागुरावाओ जिरे ॥ १ ॥ यस्मादन्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमध्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितस्तस्य दीक्षां प्रतिपस्पर योऽपि न ताः संजय जीवाजीमालवस्तुपरकोपप्रमिति तस्माज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । ' इति जो उवएसो सो नयो नाम ' ति-इति एव मुक्तेन न्यायेन यः उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नामः ज्ञाननय इत्यर्थः । श्रयं च चतुर्विधे सभ्यकन्यादिसामायिक सामायिकद्वयच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य देशविर तिसर्वविरतिसामायिके तदायतत्यानेच्छति गुणभूतीतिगाथार्थः ॥ १०५४ ॥ उक्लो ज्ञाननयः अधुना क्रियानयावखरः तह वेदम्- क्रिचैव प्रधानमेहिकामुष्मिक फलमासिकार युक्तियुक्रस्यात् तथा नायमप्युल पक्षसिद्ध गाथामाद यानि गिरिहययस्यादि अ स्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या- ज्ञाते ग्रहीतव्ये, अग्रहीतव्ये वैयकिामुकफलप्राप्त्यर्थमा पनि सत्यमेव न यस्मात् प्रवृत्पादिलक्षणप्रयत्नम्यतिरेकेण ब्रानयोऽप्यभिधीयाशिदेश्यते तथा चाक्रम्क्रियैव फलदा पुंसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगशो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १ ॥ " तथाऽऽमुमिकफलप्राप्त्यर्थिना किया तथा च मुनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम्, यत उक्तम्- "बेइयकुलगण्संघे, श्रायरियां च पव्वयसु य । सव्वेसु वि तेस्
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कर्म तवसेज
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स्मात् तीर्थकरघरे विकलानां शार्मा विफलमेयोक्रम्, तथा चाऽऽगमः-- सुबहु पि सुयम— हीये किं काहि चरयमुस्स ह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ॥ १ ॥ " दृशिक्रियाविकत्वात् तस्येत्यभिप्राय एवं तावत् छायापशमिकं चारित्रम बारिकियेत्यनर्थान्तरं क्षायिकमध्यीकृत्य फलसाधकता एवं विज्ञेयम् यस्मादतो भगवतः समुरगानकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता हवपञ्चाक्षरोङ्गिरसमात्रकालावस्थायिनी सर्व संवररूपा चारित्रक्रिया नावासेति, तस्मात् क्रियैव प्रधाना ऐहिकामुष्मिक फलप्राधिकारणमिति स्थितम् इति जो उबएसो सानो नाति इति एवमुक्रेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयाँ नाम : क्रियानय इत्यर्थः अयं च सम्यक्त्वादौ चतुर्विधे सामापिके देशविरतिसविरतिसामायिकद्वय किया त्मकत्वादस्य, सम्यक्त्व सामायिक श्रुतसामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छति गाथार्थः ॥ १०५४ ॥ उक्तः क्रियानयः । इत्थं ज्ञानक्रियानकान्यादि विनयः संशयापा सम्राह किमच तवं पयेपि युक्तिसम्भवात् आचार्यः पुनराह ' सव्वंसि पि गाहा । श्रथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधावाधुना स्थित पक्षमुपदर्शयन्नाह
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सामाइय
सव्बेसि पि नया, बहुविहवत्तव्यं निसामित्ता । तं सम्पविद्धं चरणगुराडिओ साहू ।। १०५५।। सर्वेषामपि मूलनयानाम् अपिशब्दात्-तद्भेदानां च गयानाम् इच्पास्तिकादीनां बहुविषयां सामान्यमेवविशेषामेवापक्षमित्यादिरूपा धया नामानां नानक के साधुमत्यादि निशम्य श्रुत्वा तत् सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसम्मतं व चने परगुरास्थितः साधु धम्मात् सा एव भावनिक्षेप मिच्छन्तीति गाथार्थाः । श्राव० ।
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'ते' इत्यतिदेशयनाद
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अंति तिब्वभणियं गां चिप भगइ किं पुसो भणियं । सम्बन्ध सोऽहमणियं चादिपउनो नि ।। ३५६७।। अणुवत्तणत्थमेव य, तग्गहणं नाणुवत्तणादेव । अपने विजमिद कया किंतु जने ॥ ३५६८ || 'भंत' इति पदं पूर्वमेव भणितं व्याख्यातम् इति नेह व्यायात तिने कारगोन-नेय हेतुमा पिरो यदि पूर्वमेवेदं भणितम्, तर्हि किं पुनरपीह भागतं सूत्रकृता ?ननु सान्यानुवर्तते एवासी, मणिनं चान्यत्र'श्रादौ प्रयुक्तोऽर्थः सर्वत्रानुवर्तत इति । गुरुराह - सत्यमेचैतत् सूत्रान्तं यावदनुवर्तनार्थमेव तस्य भदन्तशब्दस्य ग्रहणमादी कृतम् केवलं मानुवर्तनादेव नानुवर्तनमात्रादेय यस्मादनुि
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न्तु यत्नेन कृतेन ते भवन्ति, तथा चोक्तं परिभाषासु
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( ७६१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामाइय
'अन्न नामधियन चानुवर्तनादेव भवन्ति कि तर्हि ? यत्नाद् भवन्ति । स चायं यत्नः, यत् तस्यानुस्मरसाथै पुनरुवा
अथवा, पुनस्तद्भणने समाधानान्तरत्रयमाहअहवा समसामा-इसकिरियां सिन्धा । तस्माईआरनिव-नगाइकिरियंतराभिमुहों ।। ३५६६ ।। जं च पुरा निदिई, गुरुं जड़ावासबाई सब्वाई |
पुच्छि करा, तयणेख समत्थियं होइ ॥ ३५७० ॥ सामाइयपचप्पण-वयो वयं भदंतसां नि । सव्वकिरियावसाणे, भणियं पच्चप्पणमणेणं ।। ३५७१ ।। अथवा समाप्तप्रस्तुत सामायिक प्रतिपत्तिस्तिमाल विशुद्धिहतोस्तस्य सामायिकस्य येऽतिचारा-मालिन्यप्रकारास्तेषां यद् निवर्तनादिरूपं क्रियान्तरम् आदिशब्दादनिन्दा गर्दा कियान्तरपरिग्रहः, तदभिमुखः पुनरपि दन्तशब्दमुच्चारयति विनयः इति शेषः । यच्चे हैव पुरा- पूर्व निर्दिष्टं यथा गुरुमावश्यकानि कुर्याद्व नयः । तदनेन पुनरपि मदनशब्दोच्चारणेसमर्थि वनि पूर्व दन्तशब्दोच्चारसाद गुरुसामायिकावश्यकं प्रतिपन्नम् । इदानीं तु तदतीचारप्रतिक्रमगावश्यकं पुनरपि तदुच्चारणात् तमापृच्छ्य कुर्वता यथोक्तार्थः समर्थितो भवतीति । श्रहवा भवतः पृष्ट्रा यत् पूर्व कर्तुमारब्धं सामाधिकं तदिदानीं समर्पितं भदन्त ! मया इत्येवं सामायिक क्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः । अनेन च गुरुमापृच्छयारब्धानां सर्वासामपि क्रियाणामवसाने गुरोः प्रत्यर्पणं-- निवेदनमवश्यं विधेयमिस्पतद्भवित भवति ।
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माइत्यादित्याख्यानार्थमाहनेवं पढिकमामि नि वसावओ निवत्तामि । ततो यजा निवती, तदणुन विरगणं अं ।। ३५७२ ।। निंदामि ति दुगुने, गरिहामि तदेव तो कओ मेओ भइ साममत्था, भए इट्ठो विसेसत्थो ।। ३५७३ ।। जह गच्छत्ति गो सप्पड़ नि सप्पो समवि गच्छत्थे । गम्मइ बिसेसगमणं, वह निंदागरहणन्थानं ॥ ३५७४ ।। ' प्रतिक्रमामि' इत्यस्य व्याख्यानं ज्ञेयम् । किम् ? इत्याह'भूतसाद्ययोगादनियतेऽहम्' इति प्रेरकः पृच्छति भूतसावद्ययोगस्यासेवितत्वात् का नामदानीं ततो निवृत्तिः ?, इत्याह-यत् तदनुमतर्विरमणं न पुनस्तत्करण-कारणाभ्याम् तयोरासेवितादिति । निन्दामि इति कोऽथ जुगुप्येामानमनीनगरम्' इति संबन्धं वक्ष्यति । ' गरहामि ' इत्यनेनाप्येतदवो जुगुप्स इति आह- ततस्तर्हि कुतो निन्दा गर भेद इयर जुगुप्यम्-सा मान्यार्थमवेऽपि विशेषार्थी विशेषदायक गर्दाशब्द इति यथा नीति गीः सर्पतीति सर्पः इत्यनयोः समानेऽपि गत्यर्थे द्वयोरपि विशेषवदेवं गमनं
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सामाइय गम्य-प्रतीयते तथा निन्दा-गर्दार्थयोरपि विशेषरूप वक्ष्यतीति ।
तदेवादसप्पदा, तह निंदामि चि सम्म समए ।
गुरुपचक्खदुगंछा, गम्मइ गरिहामि संगं ||३५७५ || तसा मी सर्पयोगमनस्य सामान्यतोऽपि विशेषतो भेदो दृष्टस्तथा निन्दा-गर्दाभिधेयस्यापि जुगुयस्तो स्ति तथाहि या स्वप्रत्यक्षाssत्मसाक्षिकी जुगुप्सा सा समये सिद्धान्ते ' निन्दामि ' इत्पनन गम्यंत-अवबुध्यते, या तु गुरुप्रत्यक्षा गुरुसाक्षिकी जुगुप्सा सा गहमि' इत्यनेन शब्देन गम्यत इति । अथवा एकार्थयपि निन्दा भृशा-53राम नयन निदर्शयाएगत्थोभयगहणं, भिसादरत्थं च जमुदियं होइ । कुच्छामि कुच्छामि, तदेव निंदामि गरिहामि || ३५७६ || भिसमायरो व पुणे, पुणे व कुच्छामि जमुदियं होइ । पुरुवे नावादादराई ।। ३५७७ ।। कार्ये च भवनिन्दा-हलका तप ग्रहमेकाहि भूतानविरु तन्ध कृष्यामि कृच्छामि पडु अपति नि दामि गरिहामि इत्यनेनापि नंदवोक्तं भवतीति भृशमत्यथेम, आदरतो वा पुनः पुनरेव कुच्छामि' इति यदुक्तं भवति इदमुकं भवतीत्यर्थः । न चेहानुवादादरादिषु पुनः पुनरपि प्रत्युक्तमपि वचः पुनरुक्तमनर्थकं वा भवतीति । निद्रामि गरिहामि इत्यनयोः कर्मपदसंबन्धना
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अथ र्थमाह
किं कुच्छामध्पा, अयमावञ्जकारिणममग्धं ।
नागमणमा सामजति ॥३४७८ ॥ किच्छामि' इत्याह श्रात्मानं । कर्धनम् अतीसागर एवायम प्रशंसनीयम् । अथवा श्रत्राणं- संसार निपततामशरणाम्, अनादिकालात् सानन्यनपुणमतीवयोग ''जुगुप्से, भवान् सर्वविरनिसामायिकस्यैव भवान्धी निमज्जतां त्वादिति ।
अथ 'व्युत्सृजामि इति सूत्रस्य चरमावयवं संबन्धयन्नाहविवि विमेमपा, भि सिरामि नि बोसिरामिनि । मिनिज तमेव समईया || ३५७६ ॥ शार्थी विशेष पादस्तु वृथार्थः ततश्च विविधं विशेषतो वा भ्रमत्यर्थ 'सृज' विसर्गे, सृजामि त्यजामीति यदुक्तं भवति । कम् ? इत्याह-तमेयानीतसावयवगम्यजामि इति वायदोषः शब्दार्थे, विशेषेणाधः सृजामि क्षियामि व्यवसृजामीति । आह-नये नागपरित्यागात् 'करोमि भदन्त ! सामायिकम इति सयोगनियम 'व्युत्सृजामि' इत्युक्ते तत्सावद्ययोगनिवर्तनं व्यजामि इति वैपरीत्य मापद्यते । तन्न । कुतः ? इत्याहसाइविरमगाओ, जोड़ भणियम्मि वोसिरामिति ।
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4
"
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सामाइप अभिधान राजेन्द्रः।
सामाइय तप्पडिवखच्चाओ, गम्मइ सामाइए वेवं ॥ ३५८० ॥ ____ अत्थाणुगमंगं चिय, तेण जहासंभवं तहिं चेव । यथेह मांसादिविरमणादनन्तरं 'व्युत्सृजामि' इति भणि- भणिया तहावि पत्थुय-दारासुन्नत्थमुमेहं ।। ३५८५।। ते नत्प्रतिपक्षन्यागो मांसभक्षणनिवृत्तिरूपो गम्यते-श्रयसी- एवमुक्तप्रकारेण सूत्रानुगमः सूत्रालापकानां च व्यासो नियते-तथा संव्यवहारदर्शनात् . प्रस्तुतसामायिकेऽप्येवमेवा
क्षपः, सूत्रार्थयुक्रिश्च-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिश्चेत्यर्थः. भणिताःवगन्तव्यम्। इदमुक्तं भवति-यथा 'मंसं सुराइयं पश्चक्खा- प्रतिपादिताः। विशे०। ( सामायिके नयौ नानक्रियात्मको मि जायजीवाए चउम्विहं तिविहेणं मणणे वायाए का- शानक्रियादिशब्देषु)- नवग्मनाननयः, अयं चतुर्विधे सभ्यएणं न भुजेमि, न भुंजायम, वोसिरामि ' इति मांसवि- क्वादिसागगायिके सम्यक्त्वसामायिके श्रुतसामायिक वरमणादनन्तरं 'व्युत्सृजामि' इत्युक्ने ' मांसादिभक्षणरूपं त. क्ष्यति, अस्य शानात्मकत्वात्, देशविरतिसामायिकसर्वविद्विपक्षं त्यजामि' इति गम्यते, एवमिहापि तस्स भंते ! रतिसामायिके तु नेच्छति तयोस्तत्कार्यत्वात् गुणकृते वा पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं' इत्येतत्पर्यन्तेन इच्छति । उक्नो ज्ञाननयः । (श्रा०म०) क्रियानयः सम्यकसूत्रण यत् सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानमुक्तम् , तदनन्तरं स्वादिके चतुर्विधे सामायिके देशविरतिसर्वविरतिरूपसा'व्युत्सृजामि' इत्युक्ने ' तद्विपक्षरूपं सावद्ययोगाविरमणं मायिकद्रयमेवेच्छति क्रियाप्रधानत्वादस्य, सम्यकखे सामात्यजामि' इति गम्यत इति ।
यिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वेनाप्रधानत्वानेच्छति गुणभूसे अथ कः पुनः सर्वसायद्ययोगप्रत्याख्यानरूपस्य सामायि- या इच्छतीति । श्रा० म०१ अ०। कस्य विपक्षः? इत्याशङ्कय तदुपदर्शनार्थमाह
(७८) आलोचनादीनि सामायिकवत एव भवन्तीति अतसम्मत्ताइमयं तं, मिच्छताईणि तब्विवक्खो य। स्तत्प्रश्नोत्तरपूर्व फलमाहताण विवक्खो गम्मइ,पभासिए वोसिरामि त्ति ।३५८१।। सामाइएणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सावतच्च सामायिक 'सामाइयं च विविहं सम्मत्तसुयं त- जजोगविरई जणयइ ।। ८॥ हा चरित्तं च' इति वचनात् सम्यक्त्वश्रुताद्यान्मकम् । त- हे भदन्त ! सामायिकेन-समतारूपेण जीवः किं जन-1 तश्च मिथ्यात्वा-ज्ञाना-ऽविरतयस्तद्विपक्षोऽवसेयः । ततः यति । गुरुराह-हे शिष्य ! सामायिकन सावद्ययांग'व्युत्सृजामि' इति प्रभापिते तेषां मिथ्यात्वादीनां विस- विरतिं जनयति कर्मबन्धकारणभ्यः सपापमनोवाकाययोगस्त्यागो गम्यत इति ।
गेभ्यो विरतिं पश्चानिवर्तनां जनयति ॥८॥ उत्त० २६ ०। सदेयं निन्दामि गर्हामि व्युस्सृजामि' इति क्रियात्रयस्य सावद्ययोगविरतिप्रधाने आवश्यकस्य प्रथमे अध्ययनविविषयविभागीदर्शितः । अथवा-अतीतसावद्ययोगमाय- शेषे, पा० । "सामायिकस्य विवर्ति, कृत्वा यदवाप्तमिह श्चित्तसंग्रहार्थमिदं क्रियात्रयमिति दर्शयन्नाह
मया कुशलम् । तेन खलु सर्वलोको, लभता सामायिकं परअहवा तिच्छियमाव-जयोगपच्छित्तसंगहत्थाय ।
मम् ॥ १॥ यस्माजगाद भगवान , सामायिकमेव निरुपमो
पायम् । शारीरमानसाने-कदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥" संखेवो विहाणं, निंदामिच्चाइसुत्तम्मि ॥ ३५८२॥
प्रा०म०१ ०. निंदा-गरहग्गहणा-दालोयण-पडिक्कमोभयग्गहणं । राज्यादिदानपूर्वकं च जगद्गुरुः सामायिकं प्रतिपन्नवानिति होइ विवेगाईणं, छेयंताणं विसग्गाओ ।। ३५८३॥ ।
तत्स्वरूपनिरूपणायाहअथवा-अतिक्रान्तसावद्ययोगप्रायश्चित्तस्य संक्षेपतः सं- सामायिकं च मोक्षाङ्गं, परं सर्वज्ञभाषितम् । ग्रहार्थ · निन्दामि ' इत्यादिसूत्रेऽभिधानमिति । तन्न वासचन्दनकल्पाना-मुक्कमेतन्महात्मनाम् ॥ १॥ प्रायश्चित्तम् । “अलोयणपडिकमणे, मीस विधेगे तहा बिउस्सग्गे। तब छेय मूल अरणय-ट्टया य पारचिए चेव ॥१॥"
समस्य-रागद्वेषकृतवैषम्यवर्जितस्य भावस्याऽऽयो लाभः स. इति वचनाद् दशविधम् । तत्र निन्दा-गह योर्ग्रहणादालो
मायः स एव सामायिकं चारित्रं तश्च चशब्दात्-शानदर्शने च। चनप्रतिक्रमणाभयलक्षणस्याद्यप्रायश्चि तत्रयस्य ग्रहणम् ,
यदाह-“सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षपार्गः" अवधारणा. • व्यवसुजामि' इति विसर्गग्रहणात् पुनर्विवेकादीनां
द्वा चशब्दस्य, सामायिकमेव नतु परपरिकल्पितं कुशलचित्त. छेदान्तानां चतुर्णा प्रायश्चित्तभेदानां ग्रहणं भवति ।
म् । अथवा-चशब्दः पुनरर्थः तस्य चैवं प्रयोगः, इह भगवता मूलादयस्तु त्रयः प्रायश्चित्तभेवा इह न संभवन्ति, तेषां
राज्यदानमहादानादीनि कृतानि सामायिकं पुनस्तेषु मोक्षाचारित्रोत्तीर्णजन्तुविषयत्वात् । इह तु प्रतिपन्नचारित्रस
ङ्गम्-निर्वाणकारणम् । नन्वेवं ज्ञानादीनां तदकारणत्वं स्यास्वप्रक्रमादिति तावद् वयमवगच्छामः, तत्त्वं तु केवलि
दित्यत आह-परं प्रधानमनन्तरमित्यर्थः , सानादीनां हि नो बहुश्रुता वा विदन्तीति । तदेवं व्याख्यातं सामायिकसू
सामायिककारणत्वेन मोक्षकारणत्वम् , यदाह-"णाणाहियत्रम् । तद्याख्याने चायसितोऽनुगमः।
स्स णाणं, हुज्जइ णाणापवत्तए चरण" ति तरिक स्वमति
विकल्पितं नेति आह-सर्वशभाषितम्। अथवा-कथमिदमवततः पूर्वोक्तमुपसंहरन्नुत्तरनयद्वारसंबन्धनार्थमाह
सितमिति चेदत आह-यतः सर्वज्ञभाषितं समस्तवित्प्रएवं सुत्ताणुगमो, सुत्तनासो सुयत्थजुत्ती य ।
णीतम् । मोक्षादयो हि भावा अतीन्द्रियास्ते च सर्वविद्वचभणिया नयाणुजोग-द्दारावसरोऽधुणा ते य ॥३४८४॥ नावसया एव भवन्ति प्रमाणान्तरस्य तेवप्रवृत्तेः । एतच्च
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मामाइय अभिधानगजेन्द्रः।
मामाइय किं सर्वेषां भवति ने याह-वासी-लाहकापकरणविशेषः, मयीति अनेन बोधिसत्त्व प्रात्मानं मिर्दिशति-एकशब्दाःवामीव वासी अपकारकारी तां चन्दनमिव-मलयजमिव चधारणे, तन मय्यव न पुनः परत्र निपततु-नितरामादुग्कृततक्षणहेतुनयोपकारकत्वेन कल्पयन्ति मन्यन्ते वा- पद्यताम् एतत्प्रतिपाणिप्रत्यक्षमथुरणं सांसारिकासुखकारसीचन्दनकल्पाः , यदाह-" यो मामाकरोत्येष , तत्ते- रणं जगतां-प्राणिनां दुश्चरितं-हिंसादिनिबन्धनं कर्म जगनापकरोत्यसौ। शिरामाक्षागायेन , कुर्वाण इव नी- दुश्चरितं, यथत्युपदर्शनार्थः,तस्य चैवं संबन्धः तत्तथौदार्यरुजम् ॥१॥" अथ वास्यामपकारिणि चन्दनस्य कल्प इव यांगऽपि चिन्त्यमानं न तादृशं यथा एतन्मय्यवेत्यादि. तथा बद इव य उपकारियन वन्त ते वासीचन्दनक- मन्सुचरितयोगात्-मदीयाहिंसादिसदनुष्ठानसंबन्धाचशब्दःल्पाः . श्राह च-"अपकारपरऽपि परे, कुर्वन्न्युपकारमेव समुच्चये, मुक्तिः-माक्षः स्याद्-भवेत् सर्वदहिना-सकलसंसा. हि महान्तः। सुरभीकरोति वासी, मलयजमपि तक्षमाणमपि। रिणामिति कुशलचित्तमिति । ॥३॥ "वास्यां वा चन्दनस्यय कल्प श्राचारा येषां ते तथा । | कस्मादिदं तथौदार्ययुक्तमपि न सामायिकसदृशं भवतीअथवा-चास्यां चन्दनकल्पा:-चन्दनतुल्या येते तथा, भाव- त्याहना तु प्रतीतैव , तपां वासीचन्दनकल्पानामुक्तमाभिहित
असंभवीदं यद्वस्तु, बुद्धानां निर्वृतिश्रुतेः । मार्नान्येपामतत्सामायिकम् कषामवं विशेषणानामित्याह-महात्मनाम्-उत्तमसत्त्वयतामिति ।
संभवित्वे स्वियं न स्यात् , तत्रैकस्याप्यनिवृतौ ।। ५॥ सामायिक फलतः स्वामितश्च निरूपितम् । अथ स्वरूप
असंभवि-न संभवनस्वभावम् इदमनन्तरोदितं यद्-यतस्तदेव निरूपयन्नाह । अथवा-मोक्षाएं सामायिकं यत
स्माद्वस्तु अन्यकृतकर्मणोऽन्यत्र संबन्धलक्षणाऽर्थः , कुतश्राह
इत्याद-बुद्धानां-बोधिसत्त्वानां निर्वृत्तिश्रुतेर्निर्वाणगमनश्रनिरवद्यमिदं ज्ञेय-मेकान्तेनैव तत्वतः
वणात् तदागमे,तथाहि-"गङ्गाचालिकासमा बुद्धा निर्वृता"इ.
ति तदागमः।अयमभिप्रायो यदि जगददुश्चरितं बुद्रेन्यपतिष्य कुशलाशयरूपत्वात् , सर्वयोगविशुद्धितः ॥२॥ त्तदा तस्य निर्वाण नाभविष्यत् , इष्यते च तत्तस्येत्यसंभवीदं निर्गतम् अवद्याद्-गर्हितकर्मणो हिंसादिक्रोधादेरिति नि. वस्तु । एतदेवाह-सभवित्वे तु भवनस्वभावत्वे पुनरस्य वग्वयं स्वरूपणदं सामायिक झयं-ज्ञातव्यम् । एकान्तेनैवं-स.
स्तुन इयं स्तूपमाना बुद्धनितिन स्यात्-न भवेत्तत्र तेषु जाधव न पुनरंशेनापि सावधं तथाविधस्य तस्याविशुद्ध
प्रत्सु मध्य एकस्यापि जगत प्रास्तां बहूनामनिर्वृतायनिस्वान् , यदाह-" पडिसिद्धसु य देस,विहिएसु य ईसिराग- र्वाण सति अतोऽसंभविवादस्य वस्तुन एतत्कुशलचित्तं न भार्वाम्म । सामाइयं असुद्धं, सुहं समयाण दोराहं पि ॥१॥" सामायिकसहशमिति । तत्त्वतः-परमार्थता नतृपचारवृत्या उपचरितं ह्यवस्तु त- यदि सामायिकसदृशं नेदं चित्तं ताई किंविधमिदकार्याकरणात् । कुत एतदेवमित्याह-कुशलाशयरूपत्वात्
मित्याहशुभाभिसन्धिस्वभावतस्तस्य सर्वथा निरवद्यत्वाभावे हि
तदेवं चिन्तनं न्यायात , तचतो मोहसंगतम् । कुशलाशयत्वं न स्यादिति ननु । शानदर्शनयोरप्येतदस्तीन्याह-सर्वयोगविशुद्धितः-समस्तमनोवाक्कायव्यापारशुद्धि साध्ववस्थान्तरे ज्ञेयं, बोध्यादेः प्रार्थनादिवत ॥ ६ ॥ भावानहि झानादिषु योगविशुद्धिरस्तीति ।
तदिति-यस्मादसंभवीदं वस्तु तस्मादेवमनन्तरोदितं मअथातरूपसामायिकविलक्षण शाक्यपरिकल्पितं कुश
ग्यवेत्यादिचिन्तनं ध्यान न्यायादुपदर्शितादसंभवित्वलक्षणालचित्तं मोक्षाङ्गतया निषधयन्नाह
भयावत्तत्त्वतः परमार्थचिन्तायां मोहसङ्गते-मोहनीयकर्मोदयत्पुनः कुशलं चित्त, लोकदृष्टया व्यवस्थितम् । यानुगतम्,मोहोदयाभावे हि समस्तविकल्पोत्कलिकावर्जिततत्तौदार्ययोगेऽपि, चिन्त्यमानं न तादृशम् ॥ ३॥
मेव चित्तं भवति । सरागावस्थायां पुनः स्यादप्येवंविधं चि. सामायिकं तावत् मोक्षाङ्गं , तत् पुनर्यदित्युद्दशे पुनरिति
तं साधुता च तस्य स्यादित्याह-साधु-शाभनमनन्तरोविशषणार्थः , कुशल-शुभं चित्त-मनः , किं तत्त्वतः कुशल
दितं प्रणिधानमवस्थान्तरे सरागावस्थायां न पुना राग
क्षय शेयं-ज्ञातव्यम् । किंवदित्याह-बोध्यांदरारोग्यवोधिनन्याह-लोकदृपया सामान्यजनदर्शनेन-लोकोत्तरजनहएघा तु तस्य विचार्यमाणस्य कुशलाभासतैव व्यवस्थितम्
लाभादेरादिशब्दात्-समाधिवरपरिग्रहः, प्रार्थनादिवत्-याप्रतिष्ठितम् , तश्चित्तम् , 'तथे' ति तथाविधस्य सामा
श्चादि यथा । यदाह-' आरुग्गबोहिलाभ, समाहिवरमुत्तम भ्यबुद्धिजनसंमतस्यौदार्यस्योदारताया योगः-संबन्धः त
दितु' आदिशब्दाद्-अर्हदादिरागपरिग्रहः, यदाह-'अरिहंते. दौदार्ययोगस्तत्रापि , श्रास्तां तदयोगोऽपि चिन्त्यमान
सु य रागो, रागो साहूसु बंभयारीसु । एस पसत्थो राविचार्यमाणम् , न-नैव तादृशं-सामायिकसदृशम् । य
गो, अज्जसरागाण साहूणं ॥१॥' अयमभिप्रायो यद्यपि निकल सामायिकादधिकतया संमतं परेषां तद्विचार्यमाणं
प्रार्थनीयानामर्हतां वीतरागतया बोधिलाभादिदानमसंभव तत्सममपि न भवतीति कथं तम्मोक्षामिति ।
तथापि रागवतो भगवत्सु भक्तिमावदयतो भावारकर्षादिदं अथ तव मायापुत्रीयकल्पितं कुशलचित्तमुपदर्शयन्नाह
साध्वेव । श्राह च-'भासा असच्चमांसा , नवरं भत्तीएँ
भाखिया एसा । नहु खीणपज्जदासा, देति समाहिच बाहि मय्येव निपतत्वेतज, जगदुश्चरितं यथा ।
च॥॥' यदि च मोहसंगतमप्यौदार्यमात्रापेक्षया मय्येवेमत्सुचारित्रयोगाच्च, मुक्तिः स्यात्सर्वदेहिनाम् ॥ ४॥ । त्यादिचिन्तनमनवा स्यात्तदैतदनवद्यतरं भविष्यति, यथा
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सामाइय
"अन्धादीनां यदज्ञान -मास्तां मय्येव तत्सदा । मदीयज्ञानयोगाय तेषां सर्वदा" अर्थान्मोहम तिदितरासंभवं तुल्यमेवेति । अस्य कस्य प्रथमपादमन्यथाऽपि पठन्ति । तद्यथा— एवं च चिन्तनं तिस्तु प्रति
दादः स्वकीयमसदामादायनि कुशविर यत तदपि सामायिकांपक्षया असाध्विति दर्शयन्नाहअपकारिसिद्धि-विशिष्टार्थसाधनात् ।
आत्मम्भरित्यपिशुना, तदपादानपेक्षिणी ॥ ७ ॥ अपकारिण- अपकरणशीले मांसभक्षक-उपायादी दु पान्-शोधनोऽयमिति बुद्धिमतिः सद् बुद्धिः कुत इत्याह-विशिष्टार्थस्य- पीडोत्पादकतया कर्मकक्ष कर्तनायककरणतः सकलशरीरमा सीधशिखरारोहणलक्षणस्य प्रधानवस्तुनः प्रसाधनं-निपादनं विशिष्टार्थप्रसाधनं तस्माद्या सद्बुद्धिः सा कि मित्याह आत्मानमेव परं मनित्यात्मभरिलायं पिशुनयति शुचयतीत्यात्मभरित्यपिशुना, कुतः एतदित्याह यतीतेषां शरीरापकारियां व्याघ्रादीनां ये अपाया - दुर्गतिगमनादयस्तान्नापेक्षत इत्येशीला पायानपेक्षिणी धाममरित्वं परापकारानपेक्षित्वं च महद् दूषणं महतामिति ।
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प्रकृतसुपसंहरन्नाह—
सामाइयकड
(७६४) अभिधानराजेन्द्रः । आराहणाइजुत्तो, सम्म काऊण सुविहिओ काल । उको तिथि भने गंतूस लभेज निव्यानं ॥ ८८ ॥ किञ्च श्राराधनया युक्तः प्रयत्नपरः सम्यक कृत्वा सुविहितः कालं पुनश्च उत्कृष्टतः -- अतिशयेन सम्यगाराधनां कृत्वा त्रीन भवान् गत्वा निर्वाणं- मोक्षमवश्यं प्राप्नोतीति । एतदुक्तं भवति यदि परमसमाधानेन सम्यक् काल करोति ततस्तृतीये भवेऽवश्यं सिद्धयतीति । श्राह पर:उत्कृष्ठतोऽभवाभ्यन्तरे सामायिकं प्राप्य नियमात्सिद्धयनीति, जयन्यतः पुनरेकरमय भये सामाि सिती प्रथान्तरं ततख यदुकं त्रीन् भवानीदिनचाप्युएं नाजिय
एवं सामायिकादन्य-दवस्थान्तरभद्रकम् । स्याच्चित्तं तत्तु संशुद्धे - ज्ञेयमेकान्तभद्रकम् ॥ ८ ॥ यमनन्तीत्या मोत्यानिधाना
"
मायिकान्मोक्षमवादिसकलभावात् अन्यद्-अपरं मध्येव निपतत्यिादि परपरिकल्पितम्- बीदिलाभमित्यादि जनकल्पितं च वितमिति योगः | अवस्थान्तरे योग्यताविशेष एव साभिष्वङ्गतायामेव न तु केवलभद्र क्रयस्थान्तरभद्रकं स्थाचित्तं मनः, तत्तु सामायिकं पुनः संशुद्धेः समस्तदोवियोगातोय यमेकान्तभद्र-सर्वचैव शासनमिति । द्वा० २६ श्र० ।
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परिहार्यदाषप्रदर्शनेन अधुनोपदेशाभिधित्सयाऽऽह
·
गडदुर्गुडिगो, अपटियस्म लवासपिणो । सामाइयमा तस्स जं, जो गिमिनेसन झुंजती | २० | तथा शीतोदकम् - अप्रासुकोदकं तत्प्रति जुगुप्सकस्य-श्र प्रासुकोदकपरहारिणः साधो न वियंत प्रतिज्ञा-निदानरूपा यस्य सोऽप्रतिशोऽनिदान इत्यर्थः लवं कर्म तस्मात् 'अपोनि अव पदनुष्ठानं कर्मकम्धीपादानभूत परिरित्यर्थः तस्यैवम्भूतस्य साधीयस्मात् यत् सामायिक समभावमा सर्वज्ञाः यक्ष साधुः गृहमात्रे-गृहस्थभाजने कांस्यपात्रादौ न भुतस्य च सामायिकमाहुरिति संवन्धनीयमिति । ०१०२० २३० त्रिपिटकादिसमीप ते, पुं० । दश० ४ अ० ।
,
रोध इति उच्यते-अनादिसङ्गावेन
च्यते यत्तदुक्तं जघन्यत एकेनैव भवन सिद्धयतीति तद्वज्रर्षभनाराच संहननमङ्गीकृत्योक्क्रम् एतच्च छेवट्टिकासंहननमीत्योच्यते, छबट्टिकासंहननो हि यद्यतिशयेनाराधनं करोति ततस्तृतीये भवे मोक्ष प्राप्नोति । उत्कृष्टशब्दश्वावातिशयार्थे द्रष्टव्यो न तु भवमङ्गीकृत्य, भवाश्रीकर पुनरपि देवट्टिकाः सि द्धयतीति । श्रघ० ।
इत्या
(७२) प्रकीर्णकाः-तथा-श्राद्धः सामायिकं कुर्च्छन् 'दुविहं तिविहे दिना सावद्यव्यापारसम्बन्धिकरणकारणे एव निषेधयति, नत्वनुमोदनम्, तथा च सति सामायिकस्थोऽसौ सावद्यव्यापारं मनोवाक्कायानामन्यतरेण केनाप्यनुमोदन सामायिक खण्डयति नवेति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् -- सामायिकस्थः श्राद्धा मनोवाक्कायैः सावद्यव्यापारमनुमोदयन्नपि सामायिकं न दिनु
पनि
तदा भूयो लाभभाग् भवतीति ॥ ७५ ॥ सेन०९ उल्ला० । तथातीर्थकर मियां मिश्रवाचनवेऽपि साम्योगिक भवति न वा ?, तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वा?, इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् - गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अप किया
•
"
म्भोगिकत्वमपि सम्भाव्यत इति ॥ ८६ ॥ सन० २ उल्ला० । तथाध्यायानवेलायां कृतसामायिका आदी देशमाप्रतिलेख करीत्यन्यथा वेति ? प्रश्नः अत्रेतरम् सामायिकमध्ये प्रतिलेखनादेशमा यक्रिकमिति ॥ १६५ ॥ सन० २ उल्ला० । तथा-पौषधमध्ये चर्चालापकहुरिडका वाच्यते न वा ? इति प्रश्नः श्रत्रोत्तरम् - सा मनसि वाच्यते नतु वादस्वरंग सिद्धान्तालापकगतित्वादिति ॥ १०६ ॥ सेन० ४ उल्ला० । सामाइयउपक्रम सामायिकोपक्रम - पुं० सामायिकम-प्रायश्यक प्रथमाध्ययनम् तस्यानुक्रमः - परिपाटीविशेषः सामायिक वा अनुक्रमः सामायिकानुक्रमः । सामायिकस्य सामायिके वाऽनुक्रमणे, दश० १ श्र० ।
3
सामाइयकड - सामायिककृत - पुं० । सामायिकं सावद्ययोगरिवर्जननिद्ययोगासेवनस्वभावं कृतं विहितं देशनो येन स सामाक्रितः । श्राहिताग्न्यादिदर्शनात् कान्नस्याम्पदम्यम् संयमप्रतिपक्षस्य दर्शनमास्व
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(७६५) सामारयकड अभिधानगजेन्द्रः।
सामाइयकप्पट्टिा छाला रनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावत्तनीया- नः 'अट्टणं' ति--अर्थन--हेतुना एवं भवर' ति--एवंभूतो सपासक प्रतिमा प्रतिपन्ने, स० ११ सम० । प्रतिपन्नाद्यशि- मनःपरिणामो भवति--'नो में हिरने' इत्यादि, हिरण्यासबने. पञ्चा० १ विध० । ( — उवासगपडिमा' शब्द दिपरिग्रहस्य द्विविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातत्यात् , उक्काहितोयभाग ११३० पृष्ठे इयं प्रतिमाना।) (सामायिक- नुनार्थानुसंग्रहेणाह-'नो मे' इत्यादि, धनं-गणिति ग१२.५ का किया क्रियत इति 'किरिया' शब्द तृतीयभागे वादि वा कनकं-प्रतीतं रत्नानि-कतनादीनि मणयः५५ पृष्ट उक्तम् । )
चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि शवाश्च प्रतीताः शिलाप्रवासामायिककृतस्य प्रत्याख्यानभका:--
लानि-बिटुमाणि । अथवा-शिला-मुक्काशिलाद्याः प्रवारायगिहे. जाव एवं क्यासी-आजीविया णं भंते ! थेरे लानि-विमागुणि रतरत्नानि--पारागादीनि तत एषां भगवते एवं वयासी-समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइ- द्वन्द्वस्ततो विपुलानि-धनादीन्यादिर्यस्य स तत्तथा, 'संत' यकडस्म समणोक्स्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अवहरे- त्ति-विद्यमानं 'सार' त्ति प्रधानं 'सावएज' त्ति-स्थापतेयं जाने भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सयं भंडं अ
द्रव्यम् , एतस्य च पदत्रयम्य कर्मधारयः, अश यदि तद्भा
रामभाग भवति तदा कथ स्वकीय तद् गवेषति ? गुगर्वसई परायगं भंडं अणुगवेसइ ? , गोयमा ! मयं
इत्याशयाह-'ममत्ते' त्यादि, पग्ग्रिहादिविषये मनायाभई अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ , तस्स कायानां करण कारण तेन प्रत्याख्याते ममन्यभावः, पुनःवं भंते ! तेहिं सीलव्ययगुणवेरमणपच्चक्वाणपोसहो- हिरण्यादिविषय ममतापरिणामः पुनः अपरिज्ञातः-अप्रवचा मेहिं से भंडे अभंडे भवति ?, हंता भवति । से केणं
त्याख्यातो भवति, अनुमंतरप्रत्याख्यातत्वात् , ममत्वभाव
स्य चानुमतिरूपत्वादिति । भ० ८ श० ५ उ०। ('जाया' खाइ णं अद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुगवेमइ
शब्द चतुर्थभाग १५५४ पृष्ठे बहु वक्तव्यं गतम् ) नो परायगं भंडं अणुगवेस?गोयमा !तस्स णं एवं भवति
सामाइयकप्पद्रिह-सामायिककल्पस्थिति-स्त्री। सामायिकगाम हिरन्ने नो मे सुवन्ने नो मे कसे नो म मे नो मे
म्-संयमविशेषस्तस्य तदेव वा कल्पः करणम्-आचारः सा. विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पयालरत्तरय- मायिककल्पः । स च प्रथमचरमतीर्थयोः साधूनामल्पकालणमादीए संतसारसावदेजे, ममत्तभावे पुंण से अपरिमाए च्छेदोपस्थापनीयसद्भावात् , मध्यमतीर्थेषु महाविदहेषु च भवति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-सयं भंडं अणु
यावत्कथिकच्छदोपस्थापनीयाभावाभावात् , तंदयं तस्याव
स्थितिः-मर्यादा सामायिककल्पस्थितिः : कल्पस्थितिभेद , गवाह नो परायगं भंडं अणुगवेसह । (सू० ३२८x)
स्था० ३ ठा०४ उ०। 'रायगिहं' इत्यादि.गौतमा भगवन्तमेवमबादीत्-श्राजीवि
अथैनामेव यथाक्रमं विवीषुः प्रथमतः का:-गोशालकशिष्या भदन्त ! स्थविरान्-निर्ग्रन्थार भ
सामायिककल्पस्थिति विवृणोतिमायनः एवं-धक्ष्यमाणप्रकारमवादिषुः, यच्च ते तान् प्रध्यवादिपुस्तद्गीतमः स्वयमेव पृच्छन्नाह- समणावासगस्स
कतिठाणद्वितो कप्पो, कतिठाणेहि अद्रितो । न मियादि, 'सामायियकडस्स' त्ति-कृतसामायिकस्य- वृत्तो धृतरजोकप्पो, कतिट्ठाणपतिद्वितो ॥ २८२ ॥ प्रतिपन्नाद्यशिक्षावतस्य, श्रमणोपाश्रये हि श्रावकः सामा- यः किल धूतरजाः-अपनीतपापकर्मा सामायिकसाधनां यिक प्रायः प्रतिपद्यते इत्यत उक्नं श्रमणोपाश्रये श्रासी- कल्प प्राचारो भगवद्भिरुक्तः स कतिषु स्थानेषु स्थितः ?, नम्येति, कइ' त्ति-कश्चित्पुरुषः 'भंड' ति वखादिकं व- कतिपु स्थानेषु अस्थितः ?, कतिस्थानप्रतिष्ठितश्चातः.? । म्न गृहवा साधूपाश्रयवर्ति वा 'अवहरेजत्ति--अपहरेत्
सूरिराह' में 'नि-स श्रमणोपासकः 'तं भंडति-तद्-अपहृतं भा चउठाणे ठिो कप्पो, छहि ठाणहिं अट्ठियो। नाम 'ऋणुगवेसमाणे ' त्ति-सामायिकपरिसमाप्तयन
एसो ध्यरयोकप्पो, दसठाणपतिठिी ॥ २८३ ।। म्न गपयन् 'सभंड' ति-स्वकीय भार' परायगं ' तिपरकीय बा ?. पृच्छताऽयमभिप्रायः--स्वसम्बन्धित्वातत्व
चतुःस्थानस्थितः कल्पः पट्सु च स्थानेष्वस्थितस्तंद
वमेव धूतरजाः सामायिकसंयतकल्पो दशम्यानप्रतिष्ठितः , काय मामायिकपनि पत्तौ च परिग्रहस्य प्रत्याश्यातत्वादस्व
केपुचित् स्थित्या केषुचित्पुनरस्थिल्या; शसु स्थानेषु पतिकायमनः प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-' सभड' ति-स्वभाण्ड, 'तहि'
बद्धो मन्तव्य इत्यर्थः। नि-नर्धिाक्षतर्यथाक्षयोपशमं गृहीतरित्यर्थः, 'सील' त्या
इदमेव व्यक्तीकरोतिदि. नत्र शीलवतानि--अणुवनानि गुणा-गुणवतानि विरमानि-रागादिविरतयः प्रत्याख्यान--नमस्कारसहितादि
चउहि ठितो छहि अठितो,पढमा वितिया ठितादसविहम्मि। पोपधापवास:--पर्यदिनोपवसनं तत एषां द्वन्द्वोऽतस्तैः ,
वहमाणा णिब्बिसगा, जहि वहतेउ णिबिट्ठा ।। २८४॥ रह च शीलवतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्ययोगविर या विर- प्रथमाः--सूत्रक्रमप्रामाण्येन सामायिकसयतास्त चतुपु मगशब्दापात्तया प्रयोजन तस्या एवं परिग्रहस्यापरिग्र- स्थानेषु स्थिताः, पटसु पुनर्गस्थिताः गाथायां सप्तम्यर्थ नृहनानिमित्तत्वेन भारा डस्याभारडताभवनहेतुत्वादिति से | तीया। ये तु द्वितीयाः-छदोपस्थापनीय संयतास्ते दशविध:भंड अभंड भवइति-तत्--अपहृतं भाण्डमभागडं भव- पिकल्पे स्थिताः । पश्चाद्धेन तृतीयचतुर्थकलपस्थित्योः कल्पत्यसंव्यवहार्यत्वात् ।' से केणं ति अथ केन 'खाइणं' ति-पु- शब्दार्थमाह-बहमाणा' इत्यादि । ये परिहारविशुद्धिक
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सामाि
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निर्दिशमानका वस्तु देव तपो व्यूढं ते निर्विकायिका उच्यन्ते आहानि पुनस्तानि चत्वारि पद्या स्थानानि येषु सामायिक संयता यथाक्रमं स्थित श्रस्थिताश्चेति । अत्रोच्यतेसिजायरपिंडे या, चाउामे य पुरिसजेडे य ।
कितिक्रम्मस्स व करणे, चत्तारि अवडिया कप्पा ।। २८५ ॥ ''नि-सूचनात्सूत्रमिति शय्यावर पिएडस्य परिहरणम्, चतुर्यामः पुरुषज्येष्ठख धर्मः कृतिकर्मक रखमेते त्या करपा, सामायिकसाधूनामप्यस्थताः । तथाहि सर्वेऽपि मध्यमसाधवो महाविदेह साधवश्च शय्यातर परिचितुमर्ममनुपालयन्ति पुरुष पेठ धर्म इति कृत्या तया अप्पार्थिकाविदीक्षिता पि तद्दिनदीक्षितमपि साधुं वन्दन्ते । कृतिकर्म च यथा राकिं तेऽपि कुर्वन्ति, अत एते चत्वारः कल्पा श्रवस्थिताः । इमे पुनः पडनवस्थिताःअचेलकुदेसिय सपदिकमये य रायपिंडे य
( ७६६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
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भ्यन्तरादिपदुपगते. जी० ३ प्रति०४ अधि० ।
सामाय श्वामाक-पुं० धान्यविशेष जं० १ ० ।
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मासं पोसवणा, छप्पेते ऽवडिता कप्पा ॥ २८६ ॥ श्रावेलक्यमौदेशिकं सप्रतिक्रमणो धर्मो राजपिण्डो मासकल्पः पर्युपकल्पयेति का मध्यमसाधूनविदेहसाधूनामनवस्थिताः । तथाहि यदि तेषां वस्त्रप्रत्ययो राग द्वेषां वा उत्पद्यते तदा श्रचेलाः, अथ न रागोत्पत्तिस्ततः सचेला महामूल्य प्रमाणातिरिक्रमपि गृहन्तीति भावः । श्रदेशिकं नामसाधु कृतं मनादिकमाधाकर्मेत्यर्थस्तदप्यन्यस्य साधोरर्थाय कृतं कल्पते तदर्थे तु कृतं न कल्पते प्रतिक्रमणमपि यद्यतिचारो भवति ततः कुर्वन्ति अतिचारामांचे व कुर्वन्ति राजपिण्डे यदि वयमाणा दोषा भवन्ति ततः परिहरन्ति, अन्यथा गृह्णन्ति । सामाणियपरिसोववसग-सामानिकपर्षदुपपन्नक - पुं० | अमासकल्प क्षेत्र तिष्ठत दोषा न भवन्ति ततः पूर्वकोटमप्यासते अथ दोषा भवन्ति ततो मासे पू या निम्ति पर्युषायामपि यदि वर्षासु विहरतां दोषा निर्गच्छन्ति भवन्ति तत एकत्र क्षेत्रे असते, अथ दोषा न भवन्ति ततो वर्षात्रेऽपि विहरन्ति । गता सामायिकसंयतकल्पस्थितिः । बृ० ६ उ० । सामाइपचरित सामायिक चरित्र न० सायययोगविरविरु पे चारित्रभेदे भ० ८ श०२ उ० । श्रातु० श्री० सामाइयचरितलद्धि सामायिक चरित्रलब्धि स्त्री० साय द्ययोगविरतिरूपस्य चारित्रस्य लब्धौ, भ० ८०२ उ० । सामाइयज्झयण- - सामायिकाध्ययन-न० । आवश्यकश्रुतस्क न्धस्य सामायिक प्रतिपादके प्रथमे अध्ययने, विशे० । अनु०। श्रा० म० । श्रा० चू० । ( अत्र वक्तव्यम् ' सामाइय' शब्देअनुपदमेवोक्तम् । ) सामाइयपडिमा सामायिकप्रतिमा स्त्री० । 'वरदंसणवयजुत्तो, लामाइयं कुणइ जो उ संकासु । उक्को सेण तिमासं, एसा सामाइयांडमा ॥१॥ इत्येयं रूपायां तृतीयायामुपासकप्रतिमायाम्, उपा०१ अ० त्रीन्मासानुभयकालमप्रमत्तः पूर्वोकप्रति मानुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालयतीति । ०२ अधि
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सामापारी सामाहयपय सामायिकपद १० सामायिकप्रतिपाके पत्र
अनु० ।
सामाइयसंजय सामायिकसंघत पुं० सामापि सर्वसा द्यविरतिरूपं तत्प्रधानाः संयताः सामायिकसंयताः । सामायिकाख्यचारित्रप्रधानेषु साधुषु बृ० ६ उ० । ( सामायि कसंयतानां विस्तरतो व्याख्या 'संजय' शब्द गता ) सामाग- श्यामाक० भामस्य ऋि या नयास्तंड उति खनामख्यां गृहपती स्त्रीजिनस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम्। कल्प० १ अधि० ६ क्षण । श्र० म० । श्रा० चू० । धान्यभेद, वाचः ।
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सामाणिय-मामानिक-पुं० सकारस्य त्वाद्दीर्घः स । । नितिकृते श्र० म० १ ० । सन्निहिते, प्रोषिते, "जस्स सामाणिश्रो अप्पा, संजम नियम तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥ १॥ " विशे० । समानतया इन्द्रतुल्यतया ऋद्धया चरन्तीति सामानिकाः । इन्द्रसमानर्द्धिषु देवेषु, भ० ३ ० १ उ० । स्था० । सामाने-द्युतिवैभवादौ भवाः सामानिका अध्यात्मादित्यादिकरण विमानाधिपतिसूर्यादेवसतिमिवादिकेषु देवेषु रा० ० ०
केषामिन्द्राणां क्रियन्तः सामानिका:चट्टी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा तहेव चत्तारि । भवणवइवाणमंतर - जोइसियाणं च सामाणे ॥ ४४ ॥ द० प० ।
धरणस्स खं खागकुमारिंदस्य लागकुमाररण्यो छ सामाणियसाहस्सी पष्मत्ताओ एवं भूयाणंदस्स वि०जाव महाघोयम्स (मू० ५०६ ) स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
सामाय - पुं०/ साममति "तत्थ श्राश्रो वत्ति तेरा सामाश्री । श्रहवा सामस्स श्राश्री" सर्वेषु जीवेषु मैत्री साम भएयते त त्र साम्नि आयो गमनं साम्ना वा यो गमनं वर्तनं स सामायः । श्रथ वा साम्न आय लाभः सामायः । सामायिके, विशे० । श्रा० म० । रा० । - । सामावारी सामाचारी श्री० [समाचर समाचार, सद्भावः सामाचार्य तदेव सामाचारी । संव्यवहारे, स्था० १० ठा० ३ उ० । श्रागमोक्काहोरात्र क्रियाकलापे, ग० १ अधि० । सामाचारीरूपम्
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सामायारी तिविहा आहे दसहा पयविभागे ।। ६६५ ! समाचरणं समाचार:- शिष्टाचरितः क्रियाकलापस्तस्य भावः “गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च " ( पा०५-१-१२४) इति ध्यम् सामाचार्य पुनः खीवविज्ञायाम्-"पीरादिव्यध" (पा० ४-१-४२) प "यस्येति व" (पा० ६-४-१८४ ) इत्यकारलोपः, “हलस्तद्धितस्य " ( पा० ६-४१५० ) इत्यनेन तदितयकारलोपः परगम सामाचारी | तत्र सामाचारी त्रिविधा - ओहे दसद्दा पदविभागे 'त्ति
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सामायारी
श्रोघः - सामान्यम श्रधः सामाचारी सामान्यतः सपामिधानका सा पीपनिर्युरिति । दशाह २, पदविभावसामाचारी दासीति । तत्रोधसमाचारी नया तृतीयस्तुन आवाराभिधानात्, तत्रापि विंशतितमात्मानात् तत्राप्योघप्राभृतप्राभृतात् निर्व्यूढेति । एतदुक्तं भवति-साम्प्रतकालप्रत्रजितानां तानपरिज्ञानशलिपिक लामामायुष्कादिहासम पेदय प्रत्यासीकृतेति दशविधसामाचारी पुनः पति तमादुत्तराध्ययनात्खल्पतर कालप्रव्रजित परिज्ञानार्थं निव्यूदेति । पदविभागसामाचार्य्यपि छेदसूत्र लक्षणानवम पूर्वादेव निदेति गाथार्थः साम्प्रतमधनिक्रिर्याच्या आव०० तत्रौघसामाचारी तावदभिधीयते श्रस्याश्च महार्थत्वात् कथञ्चिच्छास्त्रान्तरत्वाच्चादावेवाचार्यो मङ्गलार्थ संबन्धादित्रयप्रतिपादनार्थ च गाथाद्वयमाह
अरहंते वंदिना चउदसपृथ्वी तब दस पृथ्वी । एकारसंगसुत-त्थधारए सव्वसाहू य ॥ १ ॥ ओहेण उ निज्जुती, वुच्छं चरणकरणाणुओगाओ । अप्पक्खरं महत्थं, अणुग्गहत्थं सुविहियाणं ॥ २ ॥
तो दिया चतुर्दशपूर्विकः तथैव दशपूर्विय एकादशाङ्गसूत्रार्थधारकान् सर्वसाधूंश्च, एतावन्ति पदान्याद्यगाथासूत्रे द्वितीयगाथासूत्रपदान्तेन तु नियुक्ि ये चरकरणानुयोगात् अल्पाक्षरां महार्थाम् अनुग्रहार्थ सुविहितानाम् । श्रघ० । ( श्रोघनिर्युक्लिपदव्याख्यानम् 'श्रहणिज्जुत्ति' शब्दे तृतीयभागे १२७ पृष्ठे गतम् । ) ( पदविवर चरण ' शब्दे तत्रैव तृतीयभागे ११२५ पृष्ठे विस्तरतो गतम् । ) ( करणपदव्याख्यानम् करण शब्दे तृतीयभागे ३४६ पृष्ठे गतम्) - योगपव्याख्यानम् ' अणुश्रोग' शब्दे प्रथमभाग ३५६ पृहे गतम्) (अल्पाक्षरमार्थपरूपसम्
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श्र
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प्रथमभागे ११४ ष्ठ गतम्) अनुपादायें सुविहितानामित्यस्यार्थविस्तरः ' श्रहणिज्जुत्ति' शब्दे तृतीयभागे १२८ पृष्ठे तथा पहि० (२) इत्यादिगाधायाश्रनिि प्रतिलेखनापिण्डोपधिमा गायनप्रति सेनाऽऽलोचनाविद्वाराणि च सुचितानि ) ( तब प्रतिलेखनाद्वारे प शमा ३३८ मतम्) शिवादिका रणे एकाकिविहारविचारविषयः 'एगल्लविहार शब्दे तृतीयभागे १६ पृष्ठे गतः । )
गव्यूतिमात्रं यावन्मार्ग वहति । कोशद्वयं गव्यूतिः । इदानीं तस्य गच्छतो विधिरुच्यते
अत्थंडिलर्सकमणे, चलवखिततमा गरिए । परिपक्सेस उभयथा, इयरेण विलंबणा लोगं ॥ १३ ॥ स्थरिलादस्थण्डिलं च संक्रामता साधुना पादी रजोद रणेन प्रमार्जनीयाविति विधिः मा भूत् सवित्तपृधिन्या अतिथिन्या व्यापत्तिः तथा च पादयोरसी रजोहरसेन प्रमार्जनं करोति त्सावारिकः पथि अजनाला भगति व्याक्तिमा अनुपयुक्तचेति । तत्र चलोगन्तुं पथि प्रवृत्तः, व्याक्षिप्तो - हलकुलिशवृक्षच्छेदादिव्यग्रः, अनुपयुक्तः - साधुं प्रत्यदत्तावधानः, यदैवंविधः सागारिकी भवति तदा रजहरऐन प्रमुज्य पादी याति । पडि
( ७६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सामापारी
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पक्खेसु उ' इति विसदृशाः पक्षाः प्रतिपक्षाः, श्रसदृशा - स्पर्थः तेषु प्रतिपक्षेषु भजना-विकल्पनाए दुक्तं भवति-नियतिक्षेषु प्रमान क्रियते केचित्तु जैव तु विशेषसाथ कि विशेषयति प्रतिव समुदायरूपेषु भजना कर्तव्या न कैकस्मिन् भङ्ग इति । यदा तु सागारिका स्थिरोउत्पादित उपयुक्त साधुं प्रति भवति तदा इति इदेन रजोनिषयोग्य ते तथा पादौ प्रमार्ष्टि न रजोहरणेन विलंबण' त्ति तां च निषद्यां हस्तेन विलम्बमानां नयति, न तच्छरीरसंस्पशनं करोति किर्ती भुवं यावदित्याह 'बालपण'ति श्र लोकनमालाको पासिर इत्यर्थः अथवा इति केनचिदौपग्रहिके कार्पासिकेन श्रौणिकेन वा चीरेण श प्राग्वत् पश्चात्तं गोपयति । अथवा-' इतरेण विलवणालोयंति काकिनां विधिरुक्रः यदातु - इतरशब्देन साधने तेनेतरेगा सार्येन सह प्रव ता स्थाण्डिल्याच्चास्थाण्डिल्यं संक्रामता किं कर्त्तव्यं सायेपुरतः इत्याह विलम्बने ति विलम्बना कार्या मन्दपतिना सता स्वरिवस्थेन तावत्प्रतिपालन किय काले प्रतिपालनीयम् । यावदालोकनं दर्शनं तस्य सार्थस्य, प्रदर्शनीभूते तुप्सादान्तरित साथै पादयोः प्रमार्जन - स्वा वजतीत्ययं विधिः । उक्ली गाथाऽक्षरार्थः, हदानीमभङ्गिका प्ररूप्यते सा वेयम् - चलो वक्खित्तो श्रणुवत्ती य सागारिो, एत्थ पमजणं, तस्यानुपयुक्तत्वादप्रमार्जन सामाचारीप्रसङ्गात् १. चलवक्खित्तु उवउत्तु एत्थ नत्थि पमज्जं सागारियत्तश्रो २ च० श्रव० अ० एत्थवि पमजणं ३, चल० अ० उ० एत्थ वि रात्थि पमजं ४, अच० ० ० एत्थ पमज्ज ५, श्रच० ० उ० रास्थि पमजणं ६, अच० अ० अ० श्रत्थि पमजणं ७, अच० अ० उ० एत्थ नत्थि पमज्ज ८ तत्थ पदमभंगे नियमेण पमज्जणा, सत्तसु भयणा । एतदुक्तं भवति - केचित्प्रमाजैन केषुचिप्रमार्जना |
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इदानीं साधुर्गमजानानः पृच्छति तत्र को बि पिरित्याह
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पुच्छाए तिथि तिया के पदम जयथा तिपंचविहा
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उम्म दुविहतिविहा, तिविद्दा सेसेसु काट्सु || १४ || पृच्छायां सत्यां तिरिख निग नि-पत्रिका भवन्ति तब पुरुषः स च तत्रैतेषामेकैकार-या लस्तरुणो वृद्धश्चेति एवमेते त्रयस्त्रिका, नवेत्यर्थः तथा तेनैव साधुना गच्छता 'छक्के पढमजयणा' इति षट् पृथिव्यादिलक्षणे यतना कर्त्तव्या तत्र 'पढमजया तिपंचविह' त्ति प्रथमो यः पथ्वीकायः तस्य यतना त्रिपञ्चविधा, तत्र त्रिविधा सचित्तम् अचित्तस्य मिश्रस्य च । पञ्चविधा पृथिविकाययतना कृष्णानीलरक्रपीत शुक्लस्येति, अथवा त्रि विधेति चकाचकारेत्यर्थः तथाहिसश्चित्तः पृथिवीकाय: शुक्लादिः पञ्चधा, एवमचित्तो, मिश्रश्च तथाऽकाये - ' दुविहा ( जहा जयणा) तिविहा य तत्र द्विधा अन्तरिक्षाकावयतना भीमात्रिविधा तु सञ्चिताकाययतना, अश्चित्ता० मिश्रा० त्रिविधा
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सामायारी
तु शेष कांतेजावायुवनस्पतिजसा धम्, सचितादि, महाहाराधायाः समुदायार्थः । अथाद्वारावयवार्थ नलवादपुरिसो इत्थिनपुंसग, एक्केको थेर मज्झिमो तरुणो । साहम्मि अन्नधम्मिअ-गिहत्थदुग अप्पयो तइओ ||१५| यदुक्तमनन्तरगाथायां पुच्छापत्ति-पृच्छायां त्रितयं संभवतिनदा पुरुषः स्त्री नपुंसकं चेति यदुक्तं त्रयस्त्रिकाः तद्दर्शयनाह-एककः स्थविरो मध्यमस्तरुण इत्ययं नवभेदः । स चैकैको नवविधो ऽपि कदाचित्साधर्मिक नियि धापयधार्मिकः स्यादित्याह समाने धर्मे वर्त्तत इति सा धर्मिका धावक आर्थिक नपुंसकं श्रावकं च अन्यधार्मिक मिथ्यादृष्टिः । कियन्तः पुनस्तेन गच्छता पन्थानं इत्यत श्राह - गिहत्थदुग त्ति-साधर्मिक गृहस्थद्वयं पृच्छनीयम्, अन्यधार्मिकगृहस्थद्वयं वा । 'अप्पा तिउ ति श्रात्मना तृतीयो युक्तथाऽन्येषं विदधाति एष तावसामान्योपन्यासः । अथ प्रथमं यः प्रष्टव्यः स उच्यते तत्र यदि साधर्मिकस्ततस्तदेषस पृष्यते तस्य
प्रष्टव्याः
प्रत्यधिकत्वात् अथ नास्ति ततःसाहम्मि अरिमास मज्झिमपुरिसं अणुमविध पुच्छे । सेसेस होंति दोसा, सर्विसेसा संजईवग्गे ।। १६ ।। साधकाभावे ऽन्यधार्मिक मध्यम पुरुषद्वयं पृच्छनीयं कथम् ? -' असुरचित्र ' अनुशां कृत्वा धर्मलाभपु· रस्सरं ततः प्रियपूर्वकं प्रति अन्यधार्मिकमध्यमग्र त्विह साधर्मिक विपक्षत्वादवसीयत एव 'सेसेसु 'तिअन्यधार्मिकमध्यमपुरुषद्वयव्यतिरिक्रेषु अमेनेषु दोषा भवन्ति पृच्छतस्त एव दोषाः सविशेषा:- समधिकाः संयत्तीय संपत्तीयविषये पृतः सतः ।
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(a ) अभिधान राजेन्द्रः । बनना क
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के च ते दोषा इत्याद्दथेरो पहं न याण, बालों पर्वचणेन यागई । पंडिका, इथं न पाति संका य ॥ १७॥ स्थविर - वृद्धः स मार्गे न जानाति, भ्रष्टस्मृतित्वात् बालस्तु प्रपञ्चयति केली किलत्वात् न वा जानाति, चुल्लकत्वाद्, बालस्त्वत्र अवर्षादारभ्य यावत्पञ्चविंशतिक इति श्रसावपि बाल इव बालः, परिगतत्वेन रागान्धत्वात्, मध्यमवयः - पण्डकमध्यवयः स्त्रीपृच्छायां शङ्कोपजायते, नूनमस्य ताभ्यां कश्चिदर्थोऽस्ति 'इयरे न याति इतरशब्देन व्यथिरनपुंसकं पालनपुंसकं स्थविरस्त्री वाला स्त्री वाऽभिगृह्यते एते मार्गानभिज्ञाः शङ्का च स्यात् । क्क तर्हि व्यवस्थितेन पृच्छनीयमित्याहपास िय पुच्छे - वंदमाणं अवंद माणं वा । पुच्छे हिकं मा वा ॥१८॥ पाश्र्वस्थिनः - समीपे व्यवस्थितः पृच्छत् किविशिष्टं तंदनं कुर्यामकुर्या या अथासमीपम तिक्रम्य यात्येव ततः 'अणुवइऊणं च' अनुब्रजनं कृत्या कतिचित्पदानि गत्वा प्रष्टव्यः । अथासौ पृच्छयमानोऽपि न किञ्चिक्ति तूष्णीं व्रजति, ततो नैव पृच्छनीय इति ।
सामायारी
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पंथमासे यदि गोबोई मा य दूरि पुद्धिजा । संकाईया दोसा, विराणा होइ दुबिहा उ ||१६|| तथापायासथितःपालादिः श्रादिशब्दाकरग्रहः स च पृच्छनीय माचरे स्थित गोपालादि पृच्छत् शङ्कादिदोषसद्भावात् नूनमस्वणमस्ति यलीचददि रोतीस्पेवमादयः । दूरे व गच्छतो द्विविधा विराधना-ग्रामसंयमपिया या कण्टकादिभिरितरानाकान्तपृथिव्या याक्रमणेन ।
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यदा तु पुनरन्यधार्मिका मध्यमवयाः पुरुषो नास्ति यः पन्थानं पृच्छयते तदा कः प्रष्टव्य इत्याह-असई ममि घेरो, दस्सुई भओ य जो तरुणो । एमेव इत्थवग्गे, नपुंसवग्मे य संजोगा ।। २० ।। असति मध्यमपुरुषे स्थविरः पन्थानं पृच्छनीयः, किंविशिप्रः ?- ददस्मृतिः अथ स्थविरो न भवति ततस्तरुणः प्रष्टव्यः, कीदृशः ? - यः स्वभावेनैय मद्रकः । स्त्रीवर्गेऽप्यवमेव पृच्छा कर्त्तव्या । एतदुक्तं भवति-प्रथमं मध्यमवयाः स्त्रीमार्ग व्या तदभावे या स्मृति अथ खनि तरुणी या तदभावे भद्रिका की एवं मध्यमययो पुस, तस्यामये परिपुंसकं दिया सनपुंसकं भद्रकम् आह नपुंसकवर्गे च संयोग:मपुंसकवर्गे - नपुंसकसमुदाये एवमेव संयोगा ज्ञातव्याः । परमुकाः न केवलमेतायत एवं संयोगा क न्त्वन्यऽपि बद्दवः सन्ति ।
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आह -
एत्थं पूरा संजोगा, होति अरोगा विहारासंगुणिया । पुरिसित्थिनपुंगे, मज्झिम तह धेर तरुणेसुं ॥ २१ ॥ अत्र पुनः पृच्छामे संयोगा भवन्त्यनेक. कथं १-वि हाणसं गुणियत्ति--विधानेन भेदप्रकारेण संगुणिताः, चारकिया अनेक भिक्षा इत्यर्थः क न ते भयन्ति १-पुरिसियन पुरुषस्त्रीपुंसकेषु किविशिषेषु :-मध्यमस्थचिरतरुणभेदभिन्नेषु उक्लो गाथाऽक्षरार्थः । इदानीं भङ्गकाः प्रदृश्यन्ते तथाचारविारतायदो मणि साहम्मिपुरिया पुएसएको उ २. दोरे माह मे
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भावे दो तह साहम्मिए चैत्र एस तइति ३, । तदभावे दो साहम्मिसीओ मज्झमिश्र महिलातो ४ तत्तो दो थेरीओ साहम्णी व पथम पोर तो साह मिणीओ चित्र दो तरुणीश्र छट्टो सो ६, तदभावे दो साहम्मिश्रा उ मज्झिमनपुंसया पुच्छ ७, तनो दोसाहम्मा अमोद साहम्मितरु नपुंसया चेव ते उ पुच्छज्जा ६ अहवा -- मज्झिमपुरिसो थेरो उदु चव साहम्मी १० मज्झिमपुरिसो साहमिश्र तरुणसाहम्मिश्र उ पुच्छिज़र ११, मज्झिमपुरिसो सम्म मन्मिमहिला साम्मिश्रा १२ म विक्रमपुर साम्मिश्र येथे व साह३ि० रिझमपुरिया साम्य तरुणीय साम्मी १४ म
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सामायारी
२५
१६,
पुरियो सानिमाम्यअनकुलो मज्झिमपुरिसा साहम्मिश्र थेर साहम्मिनपुंसो मारियो साह ितनं २७ अहवा-धरपुरसा साम्मश्र सम्मिश्र १८ साममममहिला २२पुरिस साहम्मिश्र थेरी साहम्मिणी अ २०, थेरपुरिसो म तरुनी २१ मियां साहम्मिच य २२, साइचिन सदा २३
( ७६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
हम्मा०५४
महिला सा२४पुरिस साहम्मि २६ वपुरिया सम श्री साहम्मिणी अ २७ तरुगापुस्सिो साहम्मिश्रमझमनपुंसयसाहम्मिश्र २८, तरुणपुरिसो साहम्मिश्र थेपुंसा ५१ पुरु नपुंससाहम्मिश्र ३० मनिमदिलासा
री साहम्मिणी अ ३१, ममिमहिला साहम्मणी अ तकणी साहम्मिणी ३२, मज्झिममहिला साहम्मिणी म सम्म ३३ महिना साहम्मि णी नपुंसां साहम्मिश्र उ ३४. मज्झिमहिला साहसाह २४ पैसाही तरुणी थेरसाहांम्मणी ३६ थरी साहम्मिणी नपुंसयसाहम्मिश्र अ ३७, थेरी साहम्मिगी मज्झिमनपुंसय साहम्म
उम्
२६ नामभिमनपुंसाम् ४० तरुणी की सामणी घग्नपुनवसामि ४१ साइम्मिणी तरुण्नपुंसयसाहम्मिश्र य ४२, तरुणी साहम्मिश्री मनसाम्मि ४३. पनपुंसयसम्म श्रोतसम्म ४५ तता वाम्म चारविचार लढा ॥ इदानीं अचारविधा एवं स भागमा दो मज्झिमपुरि सेक्को १, अन्नधम्मश्र दो थेरपुरिसा २, अरणधम्मिश्रादो दो महिला ४
पुरियो
पुस सा सम्म
परी ५६ गर्भाश्रममनपुंसा ७ प्रश्न पारमिता दो
म २६, अमरिसो
अपरिपुरिसो
२८ मा
२६.
धम्मिनपुर
३० अस्मिममहिला मरी ३१. अम्मश्रमममहिला अग [चधमिचमहिला
५. अम्मममरिसीमन
१६३.
रिसोड यां
महिला १४ पुरो
धेरी २०, अवधरिपुरिसोनी २९, अरणधम्मिश्रथरपुरिसो अचम्मिश्रमज्झिमनपुंस
२२. अधम्मअंधरपुरस
२३ पुरियो धम्मिश्रण प २४. अण्णधम्मिश्रतरुणपुरमा रणधम्मिश्रमममहिलाय २४ अधमिचसो
२६, अणधम्मिनपुरा २७ अम्मिनपु
पुरियो धमिवरपुरिया २० धमियममा १२. अवधम्मिश्रमनिपुरला अचम्ममममहिला१२. रणधम्मिश्रमज्झिमपुरियो धमिधेरी य १३ अण्णधम्मिश्रमज्झिमपुरिसा अरणधम्मिश्रतरुणी १४, धमिचमरिय
मनपुंस गो य ३३, अण्णधम्मिश्रमज्झिमहिला अम्मिश्र थेरनपुंसगो य ३४, अन्नधम्मिश्रमममहिला अन्नधम्मि तरुपुंगा २५
रुणी य ३६, अधम्मिश्र २७ अ
श्रगुणधम्मग्नपुगो य
यो ३६, अन धम्मिश्रतरुणी अन्नवस्यकमनपुंसगा ४०, अन्नधम्मिश्रण अनमिनलगाय ४९, अन्नवस्मतरुणी अ४२ अ
सामायारी
४२
ज्झिमनपुंस अन्नस्मि यथेरी नपुंसगी अ ४४ अरग्ध
७५
श्ररणधम्मिग्नपुसओ अन्नप्रमिश्रतरुगनपुंसगी अ४६, एवं अन्ननिगिया लड़ा। ते सव्ये नऊई ॥ इन्दाणि साहम्मिश्र अन्नधमिश्र उपचार गंगवार विजइसाम्यव
सामरिक
पुरिस २ सामपरा
सो अ३ साम्य--- महिला ४ सय अध अथेरी अ ५, साहम्मिश्रमज्झिमपुरिसो अगाधस्मिनरुणीश्र ६, साहम्मिश्रमज्झिमपुरिस धम्मिश्रमज्झि मनपुंस
असाही म अन नय साम्यियममपुरसममा लडा
धम्मिश्रमज्झिमहिला अर्थालंधरी रागामिनी असा रामनग
3
असारधम्मिश्र थेरपुरियो २ साहम्मिश्ररपुरियो - ३. सादम्मि अररिया अम ४. साहस्मिथेर पुरिसो साह
अधययन
७ साहस्मिथेर पुरिसो असाहम्मिरपुरस निपुंग ह एते नव रिपुरिमनमादि सदा सातपु रिसोर
साह
1
रामपुर २ सायनरिसी मिश्रतरुपुरसो ३ साइम्मियतरुणपु
-
3
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सामायारी अभिधानराजेन्द्र।
सामायारी रिसो अमधम्मिश्रमज्झिमहिला अ४, साहम्मि अतरुण- यतरुणी अ६, साहम्मिअथेरनपुंसगो अराणधम्मिश्रमज्झिपुरिसो अरणधम्मिश्रथरमहिला य ५, साहम्मितरुणपु- मनपुंसगो अ ७,साहम्मिअथेरनपुंसगी अण्णर्धाम्मअथेरनरिसो रणधम्मियतरुणी अ६, साहम्मियतरुणपुरिसा. पुंसगा श्र८ । साहम्मिअथेरनपुंसगो अम्मर्धाम्मतरुणनएणम्मिश्रमज्झिमनपुंसगो अ७, साहम्मितरुणपुरिसो पुंसगो अह, एते नव साहम्मियथेरनपुसंगण अमुचमाअन्नधम्मिश्रतरुणनपुंसगो अ ८, साहम्मितरुणपुरिसो णण लडा । साहम्मितरुणनपुंसगा अराणधम्मिश्रमज्झिअण्णधम्मिअथेरनपुंसगो अ६, एतवि नव साहम्मितरु- मपुरिसो अ १, साहम्मितरुणनपुंसगा अण्णम्मिअथणममुंचमाणहिं लद्धा । साहम्मिश्रमज्झिममहिला अण्णध- रपुरिसो अ२, साहम्मितरुणनपुंसगा अराणधम्मितम्मिश्रमज्झिमपुरिसोश्र १, साहम्मिश्रमज्झिममहिला अ- रुणपुरिसो अ३, साहम्मितरुणनपुंसगो गणर्धाम्मअमराणधम्मिअथेरपुरिसो अ२, साहम्मियमज्झिममहिला श्र- ज्झिममहिला अ४, साहम्मितरुणनपुंसगो अराणधम्मिराणधम्मिश्रतरुणपुरिसो श्र ३, साहम्मिश्रमज्झिममहिला अधेरी अ५, साहम्मितरुणनपुंसगो अण्णधम्मितअन्नधम्मिश्रमज्झिममहिला श्र४, साहम्मिश्रमज्झिममहि- रुणी अ६, साहम्मितरुणनपंसगो श्रमम्मिश्रमज्झिला अराणधम्मिश्रथेरमहिला अ५, साहम्मिश्रमज्झिममहि
मनपुंसगो अ ७, साहम्मितरुणनपसगो अराणधम्मिश्रला अण्णधम्मितरुणमहिला श्र ६, साहम्मिश्रमज्झिमम •
थेरनपुंसगो अ८, साहम्मितरुणनपुंसगो अण्णधम्मिहिला अधम्मिश्रमज्झिमनपुंसगो अ ७, साहम्मिश्रमज्झि
अतरुणनपुंसगो अ६, एत नव साहम्मितरुणनपुंसगेण ममहिला अराणधम्मिअथेरनपुंसगो अ८, साहम्मिश्रम
अमुचमाणेण लद्धा । एते नव नवगा साहम्मिश्रश्रमधम्मिज्झिममहिला अगणधम्मितरुणनपुंसगो अह । पते नव
अचारणिश्राप होति । एगस्थ मिलिश्रा एक्कासीति । उक्तं साहम्मिश्रमज्झिममहिलाए लद्धा । साहम्मिश्रा थेरी अराण
पृच्छाद्वारम् ।श्रोध०। (षटकायतना पृथीकायिकादिशब्देषु) धम्मिश्रमज्झिमपुरिसो श्र१, साहम्मिअथरी अण्णधम्मिश्र
तदेवं गच्छतस्तस्य पदकाययतनादिको विधिरुतः , स थेरपुरिसो अ२, साहम्मिअथरी अण्णधम्मितरुणपुरिसो
इदानी-गच्छन् ग्रामादौ प्रविशति, तत्र का सामाचारी ?, य ३, साहम्मियथेरी अण्णधम्मिज्झिममहिला अ४, सा.
तद्दर्शनार्थमुपक्रमतेहम्मिश्रथेरी अराणधम्मिश्रधेरी अ५, साहम्मिश्रधरी श्र- पढमबिइया गिलाणे, तइए सभी चउत्थ साहम्मी। रणधम्मितरुणी अ६, साहम्मिअथरी अण्णधम्मिश्रम
पंचमियम्मि अवसही, छटे ठाणढिओ होइ ।।६।। ज्झिमनपुंसगो ७, साहम्मियथेरी अन्नम्मिअथेरनपुंसगो , साहम्मिअथेरी अण्णधम्मितरुणनपुंसगो , प्रथमवार द्वितीयद्वारे च 'गिलाणे'त्ति-ग्लानविषया यतना पते साहम्मियथेरीए अमुचमाणीए लद्धा। साहम्मितरु- वनव्या । तृतीये द्वारे संज्ञी-श्रावको वक्तव्यः । चतुर्थे द्वारे णी अण्णधम्मिश्रमज्झिमपुरिसो य १, साहम्मितरुणी साधर्मिकः-साधुर्वक्तव्यः । पञ्चमे द्वारे वसतिर्वक्तव्या । षष्ठे अण्णधम्मिश्रथेरपुरिसो अ२, साहम्मितरुणी अराणध- द्वारे वर्षाकालप्रतिघातात्स्थानस्थितो भवति । श्राह-तृतीयम्मियतरुणपुरिसो य ३, साहम्मियतरुणी अण्णधम्मिश्र- द्वारे षडाधिकारा भविष्यन्ति, तद्यथा-"वइअम्गामे संखमज्झिममहिला य ४, साहम्मितरुणी अण्णर्धाम्मअथेरी डि, सराणी दाणे अभहे अ" त्ति, ततश्च किमिति संशिन अ५, साहम्मितरुणी अण्णधम्मितरुणी अ६ साह- एव केवलस्य ग्रहणमकारि?, उच्यते-संशिनोऽतिरिक्नो म्मितरुणी अन्नधम्मिश्रमझिमनपुंसगो श्र ७ साहम्मि- विधिर्वक्ष्यमाणो भविष्यात अस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ संक्षिप्र. अतरुणी अन्नधम्मिअथेरनपुंसगो अ८ साहम्मितरुणी
हणमेवाकरोत् । अथवा-तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेन मध्यअन्नधम्मितरुणनपुंसगो अ६, एत नव साहम्मितरु- ग्रहणे शेषाण्यपि गृहीतान्यव द्रष्टव्यानि, श्राह-मध्यमे णीए अमुचमाणण लद्धा । साहम्मिश्रमज्झिमनपुंसगो अन्न- बैतन्न भवति, यतः षडमूनि द्वाराणि, उच्यन्ते, नैतदेवं, धम्मिश्रमज्झिमपुरिसो अर,साहम्मिश्रमज्झिमनपुंसगो अन्न यतः सप्तमं चशब्दाक्षिप्तं महानिनादेति द्वारं भविष्यति,संक्षिधम्मिश्रधेरपुरिसो अ२, साहम्मिश्रमज्झिमनपुंसगा अन्नध. ग्रहणेन मध्यमेव गृहीतमितीयं द्वारगाथा । ओघ० । म्मितरुणपुरिसो अ३,साहम्मि यमज्झिमनसो अन्नध- (साधर्मिकद्वारम् 'साहम्मिय' शब्दे यक्ष्यत । )( श्रमणानां म्मियज्झिमहिला य४,साहम्मियमज्झिमनसो अन्नध मध्ये ये शुद्धास्तेष्वेव संवासं कुर्यादिति ' पडिलेहणा' शब्द म्मिश्रधेरी अ५; साहम्मिअमज्झिमनपुंसश्रो अन्नधम्मिय- पञ्चमभागे ३३८ पृष्ठे गतम् ।) (वसतिद्वारविषयः 'वसहि' तरुणी अ६, साहम्मियमज्झिमनपुंसश्रो अन्नधम्मियमज्झि- शब्दे गतः।)( यैः कारणैः स्थानस्थितो भवति तानि कारणानि मनपुंसो १७, साहम्मिश्रमज्झिमनपुसओ अन्नधम्मिय- 'ठाणहिय' शब्द चतुर्थभागे १७१६ पृष्ठ गतानि । ) थेरनपुंसो अ८, साहम्मिश्रमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मि- ('हिंडग' शब्दे हिराडकस्वरूपं वक्ष्यामि । ) (श्राहिण्डकाअतरुणनपुसओ अ६, पते नव साहम्मिश्रमज्झिमनपुंसंगण नां विषयः 'आहिंडग' शब्दे द्वितीयभागे ५२७ पृष्ठे गतः ।) अमुचमाणण लद्धा । साहम्मिश्रथेरनपुंसओ अण्णधम्मि
अथरनपुसमा अण्णधम्मि- इदानी बालादीनां प्रेषणाहत्त्वे प्राप्ते यतना प्रतिपाद्यश्रमज्झिमपुरिसा अ १, साहम्मिअथेरनपुंसगो अन्नधम्मि
ते, तत्र च गणावच्छेदकः प्रेष्यते, तदभावेऽन्यो गीतार्थः । अधरपुरिसा अ२, साहम्मिअथेरनपुंसगी अन्नधम्गितरु
तदभावेऽगीतार्थोऽपि प्रेष्यते । तस्य को विधिः ?-- णपुरिसो अ ३, साहम्मिअथेरनपुंसगो रणधम्मिश्रमज्झिममहिला अ४, साहम्मिश्र-थेरनपुंसगो अन्नधम्मि
सामायारिमगीए, जोगमणागाढ खवग परावे । अ-थेरी अ५, साहम्मिश्र-थेरनपुंसो भएणधम्मि- वेयावच्चे दायण-जुयलसमत्थं व सहिअं वा ॥ १४२॥
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मामायारी अभिधानराजेन्द्रः।
सामायारी अगीतार्थस्य समाचारी कथ्यते, ततः प्रेष्यते, तदभाव यो- शब्दे द्वितीयभागे १०६४ पृष्ठे गतम् । ) ( नन्दिगी प्रेष्यते । किविशिष्टः ?-' अणागादे' ति अनागादयोगी- भाजनविषयः - दिभायण' शब्दे चतुर्थभाग १७५७ पृष्ठे बाह्ययोगी योग निक्षिप्य पारयित्वा-भोजयित्वा प्रेष्यत,तत. गतः ) ( अनायतनद्वारम् ' अग्णाययण' शब्दे प्रथमस्तदभाव क्षपकः प्रेष्यते,कथम् ?- पाराव' ति भोजयित्वा , भागे ३१० पृष्ठ गतम् ।) (आलोचनाविषयः 'पालोयणा' तदभाव वैयावृत्त्यकरः। एतदवाह-वेगावच' ति वैयावृत्त्यक
शब्दे द्वितीयभागे ४०० पृष्ठे गतः ।) रः प्रष्यने,'दायण त्ति स च वैयावृत्यकरः कुलानि दर्शयति,
दशधा सामाचारीतदभाव 'जुअल' नि युगलं प्रेष्यते-वृद्धस्तरुणसहितः, बा
दसविहा सामायारी परमत्ता, तं जहालस्तरुणहितो चा, 'समशे व सहिअंव' ति समर्थे वृषभे प्रेष्यमाण तरुणन सह वृद्धन वा सह, द्वितीयो वकारः पा
इच्छा मिच्छा तहकारो,आवस्सियाँ निसीहिया । दपूरगाः । पाह-प्रथम वालादय उपन्यस्ताः, तत्कस्मात्तेषा- आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा ॥१॥ मेव प्रेषणविधिन प्रतिपादितः प्रथमम् ?, उच्यते, अयमेव प्रे.
उपसंपया य काले,सामायारी भवेदसविहा उ।(मू०७४६) धरणक्रमः, यदुन प्रथममगीतार्थः प्रष्यते, पश्चाद्योगिप्रभृतय इति पाह-इत्यमेवापन्यासः कस्मान्न कृतः?, उच्यते, अग्रे- स्था० १० ठा०३ उ० । अनु । प्रा० म०। (प्रासां व्याख्या णाहत्त्वं सर्वेषां तुल्यं वर्तते, ततश्च योऽस्तु सोऽस्तु प्रथमि
स्वस्वस्थाने ।) ति न कश्चिदोपः । श्रोघ०। (लब्धायां वसती संस्तारकवि- दसविह सामायारी, जत्थ ठिए भव्वसत्तसंघाए। धिः 'संथारग' शब्देऽस्मिन्नेव भाग गतः।) (शकुनवि- सिझंति य बुज्झति य, ण खंडिजइ तयं गच्छे । चारः' सउण 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे ५ पृष्ठे गतः ।) (का
महा०४ अ०। योत्सर्गविषयः 'काउस्सग्ग' शब्द तृतीयभागे ४१७ पृष्ठे गतः।) (प्रत्युपेक्षणायां पौरुपीप्रमाणम् ' पोरिसी 'शब्दे
तथा तव्यइरित्ते य णामणाईसु'त्ति सोपस्कारत्वान्नामनपञ्चमभागे उनम् ।) ( स्थण्डिलद्वारविषयः 'थंडिल' धावनादिपु सुकराणि यानि द्रव्याणि तानि तद्व्यतिरिक्तो शब्द चतुर्थभागे २३७० पृष्ट गतः । ) ( मार्गप्रत्युपेक्ष
द्रव्याचार उच्यते, यत उक्तम्-"णामणधोयणवासण-सिणाद्वारम् ' पडिलेहणा' शब्द पञ्चमभागे ३५१ पृष्ठ गतम् । )
क्खावणसुकरणविरोहीणि । दव्वाणि जाणि लोए, दब्बा(पिण्डनिक्षेपः । पिंड' शब्द पञ्चमभाग ६१७ पृष्ठ गतः ।)
यारं वियाणाहि ॥१॥" भावे दशविधाया इच्छादिभेदन (लेपपिण्डव्याख्या - लेव ' शब्दे पष्ठ भाग गता।)
सामाचार्या आचरणा, अत्र बहुलग्रहणानियां युद , एव(पात्रकद्वारम् पत्त' शब्दे पञ्चमभागे ३६२ पृष्ठ गत
माप्रच्छनादिष्वपि, भावत्व तु जीवद्रव्यपर्यायवादस्येति । म् । ) ( एपणाविषयः 'एसणा' शब्द तृतीयमागे ५२ पृष्ठे
सम्प्रत्यध्ययननामान्यर्थमाहगतः।) (भावद्वारं 'भाव' शब्दे पञ्चमभाग गतम् ।) (भिक्षाविषयः 'गायरचरिया शब्दे ३ भागे १००४ पृष्ठे ग
इच्छाइसाममेसुं, आयरणं वणिग्रं तु जम्हेत्थ । तः।) (भोजनविधिः 'भोयण' शब्द पश्चमभागे गतः।) तम्हा सामायारी, अज्झयणं होइ नायव्वं ॥ ४८६ ॥ (ग्रासैषणाविधिः 'एसणा ' शब्दे तृतीयभागे ६७ पृष्ठे 'इच्छादिसाम'त्ति सुळ्यत्ययाद् इच्छादिसामसु एषु-अगतः। ) ( परिस्थापनकाविधिः 'परिट्ठवण ' शब्दे नन्तराभिहितेषु पाचरणम्-एतद्विषयमनुष्ठानं वर्णितं-प्र. पञ्चमभागे ५७० पृष्ठे गतः)
रूपितम् तुः-पूरण यस्मादत्राध्ययने तस्मात्सामाचारीतिएसा परिठवणविही, कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता।
सामाचारीनामकमिदमिति प्रक्रमे अध्ययनं भवति-ज्ञातव्य
म् , अयमाशयः-समाचारोऽत्र वरायते ततः समाचार भवसामायारी एत्तो, वुच्छं अप्पक्खरमहत्थं ।। ६२५ ॥
मिति विवक्षायां शैधिकोऽण ,रूढितश्च स्त्रीलिङ्गता, तथा चसुगमा ।
'टिड्डाण'०( पा०४-१-१५) इत्यादिना जीपि सामाचारी___ इदानीं सामाचारी व्याख्यायते
ति भवतीति गाथार्थः । गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः । सन्न तो आगतो चर-मपोरिसिं जाणिऊण अोगाद ।
सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तश्चेदम्पडिलेहणमप्पत्तं, नाऊण करेइ सज्झायं ।। ६२६ ॥ एवं च साधुः सज्ञां व्युत्सृज्यागतः पुनः चरमपौरुषी
सामायारिं पवक्खामि, सव्वदुक्खविमुक्खणि । चतुर्थप्रहरं ज्ञात्वा अवगाढम्-अवतीर्ण, ततः किं करोती- जं चरित्ता ण निग्गन्था, तिप्पा संसारसागरं ॥१॥ स्यत पाह-प्रत्युपेक्षणां करोति , अथासौ चरमपौरुषी
समाचरण-समाचारस्तस्य भावो 'गुणवचनब्राह्मणादिनाद्यापि भवति ततोऽप्राप्तां चरमपौरुषी मत्वा स्वाध्याय
भ्य' इति (पा०५-१-१२४) ध्यञ् , तस्य च पित्करणसातावत्करोति यावच्चरमपौरुषी प्राप्ता । श्रोघ.! (स्वाध्याय
मात् स्त्रियामपि वृत्तिरिति 'पिगौरादिभ्यश्च' (पा०४-१विषयः 'सम्भाय' शब्दऽस्मिन्नेव भागे गतः ।)
४१) इति डीपि सामाचारी तां-यतिजनेतिकर्तव्यतारूपामहं एसा सामायारी, कहिया भे धीरपुरिसन्नत्ता।
प्रवक्ष्यामि सर्वदुःखविमोक्षणीम्-अशेषशारीरमानसासातएत्तो उवहिपमाणं, वुच्छं सुद्धस्स जह धरणा ॥६६॥ विमुक्तिहेतुम् , अत एव यां सामाचारी चरित्वा-आसेव्य सुगमा । उक्तं पिण्डद्वारम् , (उपाधिद्वारम् 'उवहि'। 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, निर्ग्रन्थाः-यतयस्तीर्णाः संसारसा
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सामायारी
गरं, मुशि प्राप्ता इति भावः, उपलक्षणत्वाच्च तरन्ति तरियमित यति सूत्रार्थः ।
यथाप्रतिज्ञानमाह
पढमा आवसिया नामं, बिइया य निसीहिया । पुन्हा व तया चढत्थी पडिपुच्खगा ॥ २ ॥ पंचमा छंदणा नामं, इच्छाकारो छ । सत्तमो मिच्छारो य, सहकारी व अमी ॥ ३ ॥ अब्भुट्टा नवमा, दममा उपसंपया एसा दगा साहू, सामाचारी पवेइया ॥ ४ ॥
( ७७२) अभिधानराजेन्द्रः ।
सूत्रत्रयं स्पष्टमेव, नवरं व्रतग्रहणादप्यारभ्य कारणं विना गुर्वग्रह आशातनादोषसम्भवान्न स्थेयं, किन्तु ततो निर्गन्तव्यं, न च निर्गमनमावश्यकी विनेति प्रथममावश्यकी, नित्य च यत्रतत्रधिपूर्वकमेव प्र
व्यमिति ततु नैवेधिकी, तत्रापि तो मिटना दिविषयाभिप्रायोत्पत्तौ गुरुपृच्छापूर्वक्रमव तत्साधनमत्यनन्तरमापृच्छना, आपृच्छनायामपि गुरुनियुक्तेन पुनः प्रवृत्तिकाले कचित्प्रया एव गुरव इति तत्पृष्ठतः प्रतिकृत्वाऽपि गुर्वनुश्या भिक्षाटनादिकं नामम्भरि सेव भवितव्यमिति तदनु दन्दना प्रागज्ञानेन शेपयतिभिमन्त्रयामिका, तस्यामपि प्रकृयाकार इति तदनु तस्याभिधानम् अयं पात्यन्नमय ततो विधीयते तेन च कथञ्चिदतियामा निन्दितव्य इति तदनु मिथ्याकारः पिवनस्मिन् बृहत्तर दोपसम्भव गुरूणामालोचना दातव्या, तत्र च यदादिशन्ति गुरवस्तत्तथेति मन्तव्यम् इति तथाकारः, तथेति प्रतिपद्य च सर्वकृत्येषूद्यमवता भाव्यमिति तदनु तद्रूपमभ्युत्थानम् उद्यमवता च ज्ञानादिनिमित्तं गच्छान्तरस
कमोऽपि विधेयः तत्र चोपसम्पद्यनन्तरमुपसम्पदुक्का | उपसंहारमाह-एषा - अनन्तरोक्का दशाङ्गाइच्छादिदशावयवा साधूनां यतीनां सामाचारी प्रवेदितातीर्थकरादिभिरुक्रेति सूत्रः ।
एतामेव प्रत्ययय निर्व विधेयाऽभिधातुमाह
।
गमणे आवस्यिं कुआ, टांगे फुजा निमीहियं । कुञ्जा, अच्छा सर्वकरणे, परकरणे पडिपुच्छणा ॥ ५ ॥ छंदणा दव्वजाए, इच्छाकारो अ सारणे । मिच्छाकारो निंदाए, तहक्कारो पडिस्सुए ॥ ६ ॥ अडाणं गुरुपूषा, अच्छी उपसंपा एवं दुषंचसंजुत्ता, सामायारी पइया || ७ || गमन - तथाविधासम्मतो यदिनिःखर आवश्य
"
यावश्यकव्यापारेषु सत्सु भयावश्यकी उ हि " आयस्सिया आय स्वहिं सहिंत्तजोग" त्यादि, तां कुर्याद् - विदध्यात् स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थान- उपाधयस्तस्मिन् प्रविशति शेषः कुर्यात् कां?-- धिकीम् निषेध निषेध:-पापानुष्ठानेभ्यो
"
सामायारी
र्त्तनं तस्मिन् भवा नवैधिकी, निषिद्धात्मन एतत्संभवात् उक्कं हि " जो होइ निसिद्धप्पा, निसीहिया तस्स भावश्रो हो" इत्यादि, आहिनिसकलहत्या
"
प्रच्छना इदमहं कुर्या न वेत्येवंरूपा तां स्वयमित्यात्मनः करणं कस्यचिद्विपक्षिय नियंत स्मिन् तथा परकरणे - अन्य प्रयोजनविधाने प्रतिप्रच्छना, गुरुनियुक्लोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरुं, स हि कार्यान्तरमध्यादिशेत् सिद्धं या सदस्यतः स्वादिति उभयत्र या स्वकरणपरकर उपलक्षणमिति - उच्छ्रासनिः यासी विद्वाय सर्वकार्येण स्वपरसम्बन्धिपुरव्याः, अतः सर्वविषयमपि प्रथमतः प्रच्छनमापृच्छत्युच्यते । तथाच निति सामान्येनयावाचि आपुषा तु कजे "त्ति तथा स्वपरसम्बधिनि सर्वत्रापि कृत्ये गुरुनियुन पुनः प्रतिकाले यद्गुरु सा प्रति तथा "पुण्यनि हो पन्छिन अि
--
"
सूत्र
?
न्दना उरूपात शेषः एवमुत्रापि जान तथाविधाशनादिद्रव्यविशेषेण प्रावृहीतेननि गम्यते सूच कत्वात्सूत्रस्य तथा चाह-" पुव्वर्गाहिएण छंद"ति, इस्वस्तिक-नार्यनियमच्छाकारः, ' सारखे' इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य वा कृत्यं प्रति प्रवर्त्तने, तत्रात्मसार यथेच्छाकांरंग युष्मच्चिकीर्षितं कार्यमिदमहं करोमीति, अन्वाह च "अहगं तुभं एयं करेकिरनि धन्यसाय मम पाल नादि सूत्रदानादि या इच्छाकारेण कुरुति तथा बाबा
"
जर अष्भथि परं कारणजाए करेज से कोइ । नत्थवि इच्छाकारो, कप्पइ बलाभियोगो उ ॥ १ ॥ " तथा मिथ्य त्यलीकं मिध्याकरणं मिथ्याकारादिमिति
9
सा चात्मनो निन्दा - जुगुप्सा तस्यां वितथाचरं हि थिगिदं मिथ्यामया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदिनजिनवत्रनैः, तथाकरणं तथाकार :- इदमित्थं चैवेत्यभ्युपगमः, सत्र किं विषादप्रति प्रतिभूर्त गुरी वाचनादिकं
"
त्वमेतदित्यभ्युपनयस्मिन् तथा यान्याद वायपडिलगाए, उबएस सुत्त अन्थ कहगाए । अवितहमेयं नि तहा, अधिकं तहकारो || १ ||" अभीत्याभिमुख्यनात्थानम् उद्यननमभ्युत्थानं तच्च 'गुरुपूय' त्ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायां, सावगीरवानामानवालादीनां यथाचिताहारभेषजादिसम्पादनम् इह च सामान्याभिधानेऽव्यभ्युस्थानं निमन्त्रणारूपमेवपरित अन एव नियुक्तिकृतै तत्स्थाने निमन्त्रणैवाभिहिता "छेदणाय निमंत" नि । तथा ' अच्छत्ति शासन प्रक्रमादाचार्यान्तरादिसन्नियों अपस्थाने उप-सामना गमनं सम्प
त्ति एवम्
उपपद्यन्तं कालं भवति के मानमित्येवंरूपा व ज्ञानाविधानाम वसंपया यतिविहा, सांग तहस चरित इत्युक्रप्रकारे 'दुनिया दशसंख्यावृक्कामित्यर्थः समायात्वाद् गुरुः शिष्यायेति शेषः अनेन च गुरुणा सदा तदुपदशरणैव भवितव्यमित्यर्थत उक्कम, पठ्यते च- 'एसा दगा साहूं, सामारी पवेश्य ति एतच्च स्पष्टमिति सूत्रत्र्यार्थः ।
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सापायारी
(७७३) अभिधानराजेन्द्रः।
सामायारी एतावता दशविधसामाचारीमभिधायौघसामाचारी वि- उत्तरगुणान् मूलगुणांपेक्षया स्वाध्यायादींस्तत्कालोचितान् यक्षुरिदमाह
कुर्याद्-विदध्यात्, क्व दिनभागे । कमुत्तरगुणं कुर्यादिप्रव्विल्लम्मि चउब्भागे, आइच्चम्मि समुट्ठिए । त्याह-प्रथमां पौरुषर्षी स्वाध्यायं-वाचनादिकं, सूत्रपौरुषीभंडयं पडिलेहिता, वंदित्ता य तो गुरुं ॥८॥
त्वादस्याः , कुर्यादितीहोत्तरत्र च क्रियान्तराभावेऽनुव
यते, द्वितीयां प्रक्रमापौरुषीं ध्यानं 'झियायह' ति ध्यायेपुच्छिा पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इहं ?।
त् , ध्यानं चेहाथपौरुषीत्वादस्या अर्थविषय एव मानसादिइच्छं निओइउं भंते !, वेयावच्चे व सज्झॉए ।।६।।
व्यापारसमुच्यते, ध्यायेदिति वाऽनकार्थत्वादातूनां कुर्यात्, वेयावच्चे निउत्तेणं, कायब्वमगिलायो।
इह च प्रतिलेखनाकालस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादुभयत्रसज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमुक्खणे ॥१०॥ "कालाध्वनीरत्यन्तसंयोगे" (पा०२-३-५) इति द्वितीया, 'पुब्बिलम्मि' त्ति पूर्वस्मिश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते
तृतीयायां भिक्षाचयाँ, पुनश्चतुर्थ्यां स्वाध्यायम् , उपलक्षसमुद्गते. इह च यथा दशाविकलोऽपि पटः पट एवोच्यते,
णत्वासतीयायां भोजन हर्गमनादीनि, इतरत्र तु प्रतिलेएवं किश्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः, ततोऽयमर्थ:- खनाथण्डिलप्रत्युपेक्षणादीनि गृह्यन्ते । इस्थमभिधानं च बुद्धया नभश्चतुर्धा विभज्यते, तत्र पूर्वदिक्संबद्ध किश्चि कालापेक्षयैव कृष्यादरिव सकलानुष्ठानस्य सफलत्वादिनि दुननभश्चतुर्भागे यदाऽऽदित्यः समुदति तदा पादोनपौरु
सूत्रद्वयार्थः । उत्त० २६ अ०। (पर्युषणाकल्पसामाचारी च्यामित्युक्तं भवति, भाण्डकं-पतद्ग्रहाद्युपकरण प्रति
'पज्जुसवणाकप्प' शब्दे पञ्चमभाग २५२ पृष्ठ तथा रात्रिसा. लख्य-सायिकरभाषया चक्षुषा निरीक्ष्योपलक्षणत्वा.
माचारी 'पइदिकिरिया' शब्दे ५ पृष्ठ गता।) स्मृज्य च वन्दित्वा च-नमस्कृत्य ततः-इति प्रति
उपसंपदि मण्डल्यां च द्विविधा सामाचारीलेखनानन्तरं गुरुम्-श्राचार्यादिकं, किमित्याह-पृच्छत्-- पर्यनुयुजीत प्रक्रमाद् गुरुमेव ' पंजलिउड' त्ति प्राग्वत्कृत
दुविहा सामाचारी, उपसंपदे मंडलीऍ बोधब्बा । प्राञ्जलिः, यथा-किं कर्तव्यम्' अनुष्ठेय · मये ' स्यात्म- ऑणॉलोइयम्मि गुरुगा,मंडलिमेरं अतो बोच्छ।।७८१॥ निर्देशः इह--अस्मिन् समय इति गम्यते, कदाचिद् गुरवी
सामाचारी द्विविधा-उपसंपाद. मण्डल्यांच बोजव्या । त. मन्येरन्-स्वाध्यायवैयावृस्ययोरन्यतरस्मिन्नेवास्य नियोग वा
त्रोपसंपत् त्रिविधा-ज्ञानोपसंपत् . दर्शनापसंपत् , बारित्रामछेत्यतो यात्- इच्छामि णियोइ' ति अन्तर्भावित
पसंपत । पासांच सामान्यत इयं च सामाचारी गच्छाम्त एयर्थत्वान्नियोजयितुं युष्माभिरात्मानमिति शेयः - भंते' त्ति
रदिपसपदः प्रतिपत्त्यर्थमायातः साधुः पर्यनुयोक्तव्यः । यन्स! भदन्त ! वयाच्च 'त्ति वैयावृत्त्ये-ग्लानादिव्यापार वा
करवं कुतो गच्छादागतोऽसि, किंनिमित्तमिहायान इत्येचं शब्दा भिन्नक्रमस्ततः 'सज्झाए' त्ति आर्पत्वात्स्वाध्याये
यद्यपर्यनुयुज्य तस्यापसंपदं प्रतीच्छति तदा अनालाचिन वा, इह च पात्रप्रतिलेखनानन्तरं गुरुं पृच्छेदिति यदुक्तं
अपर्यनयुक्ने सति चत्वारो गुरुकाः, यद्वा-अनालोचिते-भा. नमायस्तदैव बहुतरवैयावृत्त्यविधानसम्भवात् । यद्वा-पूर्व
लोचनामदापयित्वा, यदि तं पग्भुित बाचयति वा तदा मा. स्मिनभश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थित इव समुस्थित, बहुत
स्वागे गुरुकाः । अत्र च ज्ञानापसंपदाऽधिकार: 'मण्डलिमरं इप्रकाशीभवनात्तस्य, भाण्डमव भाराडकं ततस्तदिव धर्म
अता बाच्छति-मण्डली-सूत्रार्थमण्डलीरूपा तस्याः सम्बद्रविणोपार्जनातुचन मुखत्रिकायाकल्पादीह भागडक- '
धिनी मर्यादा सामाचारीमत ऊर्ध्व वक्ष्य । वृ०१ उ०१ प्रक०। मुख्यत,ततिलेख्य वन्दित्वा च तता गुरुं पृच्छन् शेपं प्रा
(सांभागिकासांभागिकयाः सह मिलितयोगचार्यायोः सामाखत् । उपलक्षण चैतद्-यतः सकलमपि कृत्यं विधाय पुनर
नारी 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभांग ६६८ पृष्ठे गता ।) (गभिवन्दनापूर्वकं प्रख्या एव गुरव इति , एवं च पृष्ठा यत्क
च्छवासिनां जिनकल्पिकानां च सामाचारी' गच्छवासि' नव्यं तदाह--वैयावृत्त्य नियुक्तन--व्यापारितेन कर्नव्यं ,
'जिगणकप्पिय शब्दयोः ।) (चतुर्विधा सामाचारी'आयारप्रक्रमात यावृत्यम् , ' अगिलायउ' ति अग्लान्यैव शरी
विग्णय' शब्दे द्वितीयभाग ३६० पृष्ठ व्याख्याता । सा चवम्श्रममावचिन्त्यवति यावत् , स्वाध्याय वा नियुक्तन सर्व- ।
संयममामाचार्ग, तपःसामाचारी, गणमामाचारी, एकान्तदाम्वविमोक्षगणे, सकलतपःकर्मप्रधानन्वादस्य, स्वाध्यायो
विहारसामाचारीचतत्र-संयमः सप्तदशप्रकार:तस्य सा. ऽग्लान्यव कर्तव्य इति प्रक्रम इति मुत्रत्रयार्थः ।
माचारी। तपो द्वादशविधं तस्य सामाचा । गणस्य साइत्थं सफलांघमामाचारीमूलत्वान्प्रतिलेखनायास्त
धुममुदायम्य सामाचारी। एकान्तविहारसामाचारी-एका. त्काल सदाविधेयत्वाद् गुरुपारतन्त्र्यस्य तच्चा
न्तविहारप्रतिमास्वरूपा ।) भिधायौत्मर्गिकं दिनकृत्यमाह-- दिवसम्म चउरो भाग, कुजा भिक्ख वियक्खणो ।
सांप्रतमुपसंहरन्नाहतो उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउस्सु वि ॥११॥ एवं सामाचारी, कहिया दसहा समासश्रो एसा । पढम पारिसि सज्झायं, बीयं झाणं झियायई । संजमतवड्वगाणं, निग्गंथाणं महरिसीणं ।। ७२२॥ तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ मज्झायं ॥१२॥ एवमेपा-सामाचार्ग दशधा-दविधा समासतः संक्षा सूत्रद्वयं स्पटमब, नवरं चतुगे भागान् कुर्याद् बुद्धयेत्यु- कथिता । केभ्य-इत्याह-संयमताभ्यामाढ्या:-समृद्धाः संपस्कारः, ' तत' इति चतुभीकरणादनन्तरमिति गम्यते । यमनपाव्यास्तेभ्यो निग्रन्थेभ्या महर्षिभ्यः ।
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सामायारी अभिधानराजेन्द्रः ।
सामुच्छेय समाचार्या सेवकानां फलमुदर्शयति
थाभिः 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे २५२३ पृष्ठे दर्शिताः ।) ए तं सामायारिं, जुजंता चरणकरणमाउत्ता ।
(सच रुचकपर्वतः जम्बूद्वीपमध्यगतः । स च जम्बूद्वीप: साहू खवंति कम्मं , अणेगभवसंचियमणंतं ।। ७२३ ॥
'जम्बूदव ' शब्दे चतुर्थभागे १३७१ पृष्ठे अनादृतनामदेवपताम्-अनन्तरोदितस्वरूप दशविधां सामाचारी यथा
स्वामिको दर्शिनः । )( एवं सर्वे द्वीपाः समुद्राः दिशः विधि युञ्जानास्तथा चरण करणायुक्ताश्चरणं व्रतादि, उक्तं
|- विदिशः देवलोकाः विमानादयश्च सस्वामिकाः इति स्वच-" वय ५ समणधम्म १० संजम १७, वेयावञ्च १० च
स्वशब्दव्याख्यावसरे दर्शितम् ।) बम्भगुत्तीती । नाणाइतिय ३ तब १२ को-हनिग्गहा ४
सामिकत्तिय-स्वामिकार्तिकेय)क-पुंजकृतिकात्मजे स्कन्दे , चेव चरण तु ॥ १॥" करणं पिण्डविशुद्धयादि, तदुक्तम्- प्राचा०२ श्रु० १ ० १ ०२ उ० । " पिंडविसोही ४ समिई ५ भावण ११ पडिमा १२ य इन्दि- सामिकुट्ट-सामिकुष्ट-पुं० । ऐरवते वर्षे वर्तमानावसर्पिण्यां य निरोहो ५ । पडिलेहण २५ गुत्तीश्रो ३ , अभिग्गहा ४ चे- जाते विशे तीर्थकरे , प्रव० ७ द्वार । व करणं तु ॥ १॥" तयाः चरणकरणयोः संयुक्ताः सम्यग्- सामिणी-स्वामिनी-स्त्री०। भर्तृकायाम् , “हले हलि त्ति अ. समन्तात् उपयुक्ताः साधवः क्षपयन्ति कर्म अनेकभवसंचि. निति भहे सामिणि गोमिणि" इत्येवं बंदत् । दश० ७ अ०। तमनन्तमिति । इदानी पदविभागसमाचार्याः प्रस्तावः । सा| मरुदेवी साभिणी य" श्रा० म.१०। च कल्पव्यवहाररूपा बहुविस्तरा, ततः स्वस्थानादवसेया।
सामित्त-स्वामित्व-स्वमस्यास्तोति स्वामी तद्भावः । नायश्रा म०१०।
कत्वे , जं०१ वक्षः। प्रशा। जी। विपा० । स्वस्वामिसविकमवच्छराओ पच्छा सोलसवाससए(१६००) बहकते म्बन्धमात्रे, विपा०१ श्रु०२०। औ० । प्राधिपत्ये , कर्म० के वि तब्भत्तिया सावयसाविया तेसि मूरीणं नाऊण नि. ३ कर्म० । स्वामिभावत्व , स० ७८ सम० । स्वस्वामिभावे, याणिगणपरंपरं ठाइस्संति । के विदरभविया परम्मुहा हो
भ० ३ श० १ उ० । ज्ञा। पं० सं० । विशे० । श्रा००।
(त्रिविधं स्वामित्वम् ' णमुक्कार' शब्दे चतुर्थभागे २८२० ऊण परगणस्म सामायारिं गहिस्संति । अङ्ग.
पृष्ठे दर्शितम् ।) (सामाचारीवैचित्र्यहेतुः 'अणुमा' शब्द प्रथमभागे ३६१ सामिय-स्वामिक-पुं० । अधिपती, शा०१ श्रु०६०। पृष्ठे गतः।)
सामिल-सामिल-पुंगस्वनामख्याते वटुकब्राह्मणे, व्य०२७०। सामायारीउवकमकाल-सामाचार्यपक्रमकाल-पुं० । समाचार्या उपक्रमणमुपरितनाच्छूतादिहानं यत्र स सामाचार्यु
सामिस-सामिष-त्रिका सहाऽऽमिषण-पिशितरूपेण वर्तत ह. पक्रमकालः । उपक्रमकालभेदे , विश०।
ति सामिषम् । सस्पृह भोजनाद्यर्थ लुब्धे , उत्त। "सामि
सं कुललं दिस्स , वज्झमाणं निरामिसं।" उत्त०१४ अ०। सामायारीविराहग-सामाचारीविराधक-पुंगसामाचारी-साधूनामहोरात्रक्रियारूपा सद्गच्छमर्यादा तस्या विराधकः ।
सामीविय-सामीप्यक-पुं० सामीपाधारे, यथा गङ्गायां घासामाचारीखण्डके , ग०१ अधिक।
पः । श्रा० म०१०।। सामायारीसीयंतचोयणा-सामाचारीसीदच्चोदना-खी।सा सामुच्छेय-सामुच्छेद-पुं०। समुच्छेदो-वस्तुविनाशः समुच्छेमाचार्या यथायोगं सीदतः शिथिलीभवतश्चोदनायाम् ,
दमधीयते तद्विदन्तीति वा सामुच्छेदिकाः । तद् वेत्तीत्यण । व्य०१ उ०।
क्षणक्षयिभावप्ररूपकेषु अश्वमित्रमतानुसारिषु निवेषु,ौ०। सामालिय(मालिय)पोंड-शाल्मलीपौएड-नाशाल्मलीपुष्पे,
प्रा० म० । प्रा० चू० । विश० ।
अथ चतुर्थवक्तव्यतामाह"एग सामा)लियपोंडं, बद्धो पामोलतो होइ । " उत्त० ३०। ('अंग' शब्दे प्रथमभागे ३६ पृष्ठे व्याख्या गता।)
बीमा दो वाससया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स | सामास-श्यामास-पुं० । श्यामा-रजनी तस्यामाशनमाशः । सामुच्छइयदिट्ठि, मिहिलपुरीए सामुप्पन्ना ।। २३८६ ।। रात्रिभोजने, प्राचा० १ श्रु०२ १०५ उ० ।
विशत्युत्तरं वर्षशतद्वयं तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्यासीत्ततो. सामासिया-सामासिकी-स्त्री०। मतार्यमातुर्मातङ्गायाः प्रति- ऽत्रान्तरे सामुच्छेदिकदृष्टिमिथिलापुर्या समुत्पन्नेति । बेशिन्याम् , प्रा० म०१ अ०।
यथोत्पन्नस्तथा दर्शयन्नाहसामि (ण)-स्वाभिन्-पुं० । स्वमस्यास्तीति स्वामी । मिहिलाए लच्छिहरे, महगिरिकोडिन्नासमित्ते य । नायक , प्रा०म०१०। प्रभौ, उपकर्तरि , श्राश्रये , पिं०। नेउणिय-णुप्पवाए, रायगिहे खंडरक्खा य ॥२३६०॥ शा० । पा०। प्रभुः स्वामीत्यनान्तरम् । आव०४० । राज- मिथिलानगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्य महागिरिसूरीणां कौण्डिन्योनि, अनु० । जगद्गुरी, सू० प्र०१पाहु० । लोगणाहाणं' पुद्ग-1 नाम शिष्यः स्थितस्तस्याप्यश्वमित्रो नाम शिष्योऽनुप्रवादाभिलपरावर्तः संसार इति कृत्या लोकनाथाः (भगवन्तः) ल । धानपूर्व नैपुणिक नामवस्तु पठतिस्म,तत्र छिन्नच्छदनकनयव(चतुर्दशरज्वात्मकोऽयं लोक इति ‘लोग ' शब्दे पष्ठ- क्तायामालापकाः सामायातास्तद्यया "पडप्पन्न समयनरइया भागे गतम् ।) (चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकगतरुचकपर्वतात् । सव्वे वोच्छिजिस्संति एवं जाव वेमामाणिय त्ति । एवं बीरक्षप्रभाप्रथिव्यां दश दिशः गण्यन्त, ताश्च-'जस्स ज- याइसमास वि वत्तव्वं' अत्र तस्य चिकित्सा जाता ,तआप्राइचो उदइ सा भवइ तस्स पुवदिसा" इत्यादिगा- द्यथा प्रत्युत्पन्न समयनारकाः सर्वेऽपि तावद् व्यवच्छदं प्रा
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( ७७५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सामुदे
"
पस्यन्ति ततश्च कुतः सुकृतदुष्कृतकर्मफलवेदनम् . उत्पादानस्तरं सर्वजीयानां नाशादित्येवमादि स्वमतिकल्पितं रूपन् पदममाययुनिर्गुरु महाप्यमानोऽपि यावत्कथमपि प्रशन उद्घाटन कृतः समुदाई रूप पन् काम्पिल्पपुरनगरं "राजा" गतः तत्र च खडरताभिधानाः श्रावका श्रासन् ते शुल्कपालास्तैश्च सेवाः समागता विज्ञाता मारविन वारन्धाः ततो भीतैरश्वमित्रादिभिस्ते प्रोक्ताः -वयं न जानीमः श्रावका यूयम् तत्किमस्मान् भ्रमणान्सतो मारयथ ?, ततस्तैरुक्तम्- ये श्रमणास्ते युष्मत्सिद्धान्तेन समुच्छिन्नाः, यूयं तु वीरान्त केचिदिति मारयामः ततस्तै तमु निजाग्रहः संबुद्धाश्व दत्तमिथ्यादुष्कृता गता गुरुपादमूल इति विशे० (बाइ (स्) शब्दे तृतीयभाग ७०८ पृष्ठे बिस्तरो गतः । ) सामुदाइय- सामुदायिक- त्रि० । समुदाये भवं सामुदायिकम् । उत्त० १७ श्र० । जनमीलकप्रयोजने, शा० १ श्रु० ५ श्र० । सामुदायि- सामुदानिक न० । समुदान- भिक्षा तत्र भव सामुदानिकम् । सूत्र० १ श्रु० १६ श्र० । श्राचा० । भिक्षापि ण्डे, आचा० २ श्रु० १ ० १ ० ४ उ० । समुदाने लब्धः सामुदानिकः । " अध्यात्मादिभ्य इकण्" । ६ । ३ । ७८ । इति इकण् प्रत्ययः । उच्चावचेषु कुलेषु अटित्वा लब्धे पिराडे, बृ०१
उ०२ प्रक० ।
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सामुद्दिय - सामुद्रिक - पुं० । समुद्रेण प्रोक्तं वेत्यधीते वा ठञ् । स्त्रीपुरुषशुभाशुभलाभ्येतरि तत्तरि च । वाच० । ( तानि लक्षणानि 'लक्खणवंजणगुणावत्रय शब्र्दे पष्ठभागे गतानि ।) समुद्रस्यैते सामुद्रिकाः । भ० ५ श० २ उ० । समुद्रयात्रिषु निर्यामकेषु ० ० १ ० ० म० "श्रत्थि भंते ! सामुद्दिया वाया ईसि हंता अस्थि" सन्ति सामुद्रिका वाता ईषद्वाता हन्त सन्ति । भ०५ श०२ उ० । सामूहिय सामूहिक ५० समूहाचे प्रत्यये विशे० । साय-सात - न० । सुखे, स्था० ।
प्र० १० पाहु० ।
सायणा - शातना - स्त्री० । खण्डनायाम्, स० ३२ सम० । स्वादना--स्त्री० । अभिलाषे, श्राचा० १ श्रु० ८ श्र०५ उ० । सायमी - शायनी स्त्री० [शायपनि निद्रा करोति सा शायनी । शेते वा यस्यां सा शायिनी शयिनी वा स्था० १० ठा० ३ उ । शतायुषः पुरुषस्य नवतिवर्षात्परतो दशवर्षात्मि कायां दशायाम्, तं० ।
भन्नस दो, विवरीओ विचित्तयो ।
दुब्लो दुई संपत्तो दस िदसं ।। १० ॥ डीनस्वर:- लघुध्यनिः मित्रस्वरः-स्वभावः दीनः करुणत्वं गतः पिपरीतः पूर्वावस्थानः विचितः यचित्रो वा नानास्वरूपः दुर्बलः- कृशाङ्गः दुःखितो-रोगादिपीडालसन्यासः एवंविधो जीवः स्वपिति स्वशरीरे स्वदे वासं प्राप्तः कां दशमीं दशामिति । तं० । सायत्त - स्वायत्त--त्रि | स्वाधीने, शा० १ ० ६ ० । सायत्थ-स्वात्मस्थ - त्रि० । परभिन्नस्थे, पां० ६ विव० । सायबंध- सातबन्ध--पुं० । सुखसंबन्धे, द्वा० २५ द्वा० । सायय - सायक- पुं० । वाणे, पाइ० ना० ३६ गाथा | सायरसइडिदेउ सातरसाद्विहेतु ० सामु रखोमाधुर्यादेव ऋषिकादिदो तो यस्मिन् प्रयोजने तत्सारसडिडेतुकम् रखा, "सायरस गभावेणं कुणइ
" ग० २ अधि० ।
सायवडिया सातप्रतिज्ञा स्त्री० सुखार्थे धावा० २ ० १ चू० ३ ० २ उ० ।
सायवाइ (न्) - सातवा दिन्- पुं० । सातं - सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवादी । श्रक्रियावादिभेदे स्था० । कचित्सुखमेानुशीलनीयं सुखार्थिनाननब्रह्मचर्यादिकारानुपकार्यस्य न हि शुभ रारब्धः पटो रक्तो भवति, अपि तु शुक्ल एव, एवं सुखा55सेवनात् सुखमेवेति । उक्लं च-' मृद्वी शय्या प्रातरुत्थायपेया भक्तं मध्ये पानकं चापराह्णे । द्राक्षाखण्डं शर्कराचाराम शाक्यपुत्रेण ॥ १ ॥ क्रियावादता चास्य संयमतसोः पारमार्थिक प्रशमसुखरूपयेोः नाभ्युपगमात् कारणानुरूपकार्याभ्युपगमस्य च विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्याभ्युपगमेन बाधितत्वादिति ।
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स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
सायसोक्खपविद्ध-सातसौख्यप्रतिपद्ध-पुं० [सातात्पुण्यप्रकृतेः सकाशापासीन्य-सुखं गन्धरसस्पर्शलक्षय
।
ठा० ३ उ० ।
सायंकार सायंकार - पुं० शुद्धवागनुयोगनंदे, स्था० साप-विषयात प्रतिवजस्तत्पर सातिः । सातसौख्यप्रतिबद्धः
।
|
पच्विधसात स्वरूपम्छवि साते पत्ते, तं जहा- सोइंदियसाते० जाव नोइंदियाते । (सू० ४८८ X )
स्था० ६ ठा० ३ उ० । सूत्र० । श्राव० । उत्त० । उन्मग्नत्वे प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार | मनश्राह्लादकारिणि, श्राचा० १० ४ ० २ उ० । प्रीत्युत्पादके, अनु० । स्था० । विशे० । स्वाद्यते शारीरं मानसं च सुखमनेनेति सातम् । सातावेदनीये कर्मणि, उत्त० ३३ श्र० । शा० | प्रब० । दश० । पुण्यप्रकृतौ स्था० ६ ठा० ३ उ० | दशमकल्पविमानभेदे, स०२० सम० । स्वाद-पुं० | स्वादनं स्वादः । स्था० ३ ठा १ उ० । खर्जूरद्राक्षापानादिस्वादने, प्रव० ४ द्वार । हरितवनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा० १ पद ।
सायम् - अव्य० । प्रदोषे, आव० ५ ० । संध्यासमये, सू०प्र० [२] पाडु पञ्च० ० ० उ० सूत्र० सत्ये स्था० १०
| । । । ।
सायसोक्खप•
मिति निपातः सत्यार्थस्तस्माद्वणीरकारप्रत्ययः करणं या कारस्ततः सायंकार इति । तदनुयोगो यथा - सत्यं तथा वचनसद्भावप्रश्नेष्विति । स्था० १० ठा० ३ उ० । सायंभुव-स्वायंभुव-पुं० स्वयंभुवोऽपस्ये प्रथममुनी स्पा० ॥ ( 'अगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे ४२४ पृष्ठे बिस्तरो गतः । ) सायंसमय - सायंसमय पुं० दिवसावसान समय ०
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(७७६ ) सायमोक्रवप० अभिधानराजन्द्रः।
मारस सुजप्रतिबद्धे , ' सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ ' इति । अकारः । प्रा०शृङ्गस्य विकारः । श्ररणा शृङ्गजाते, वाच० । विप्राकृते दीर्घमध्योऽपि । स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
एणुधनुषि नपुं० । को०। मायाउल-साताकल-त्रि० । भावसुखार्थव्याक्षिप्ते, वश०४० मागोव-मागजात-पं० । वाघेल क्षत्रिये गर्जग्धरित्रीसायागारव-सा(त)तागौरव--न । सातया गौरवं सातागीरव- श्वरती०२५ कल्प । म् । स०३ सम० । सानं-सुखं तन गौरवम्-गर्वः । अहमेव सारंगी-सारङ्गी-स्त्री० । हरिण्याम् , पाइ० ना० ४५ गाथा । सुखीत्यभिमान. श्रातु।
सारंभ-सारम्भ-त्रि० । सहाऽऽरम्भेण जीवोपमर्दादिकारिणा सायागारवंझाण-सातगौरवध्यान-न । सात-सुख तेन व्यापारण वर्तत इति तदभावेऽप्यौहेशिकादिभोजित्वात्मारगौग्व-गर्वस्तस्य ध्यानम् । 'नीरपठो ससिगय' ति गाथाज्ञ- म्भः । सूत्र० १ श्रु० १ १०४ उ० । गृहस्थेषु । सूत्र०१ श्रु० शशिराजस्थव गर्वोधुरे दुयाने. अातु ।
३१०३ उ० । जीवोपमदादिकारिषु , सूत्र.२७०१ श्र। सायागारवणिस्मिय-सातगौरवनिश्रित-त्रि० । सुखशील- पृथिव्यादीनां परितापकर प्रारम्भ , स्था० । तायामासक्ने. सूत्र० श्रृ०१०।
सत्तविहे सारंम , पप्पत्ते , तं जहा-पुढविक्काइयसारंभ सायाणुग-सातानुग-पुं०सात-सुखमनुगच्छतीति साता. जाव अजीवकाइयश्रारंभे । (सू०५७१४) स्था०७ नुगः । सुवाल, सूत्र. १ श्रृ०२ १०३ उ ।
ठा० ३ उ०। सायावेयणिज-सातवेदनीय-न० । सात-सुखं तद्रूपेण यद् वेद्यत तत्सातवेदनीयम् । वदनीयभेद, कर्म० ६ कर्म । स०।
संरम्भ-पुं० । बहुकल्पे , भ० श०। पं० सं० । स्था।
साक्खणाणुबंधि-संरक्षणानुबन्धिन-त्रि० । संरक्षणे सोंसायासुक्ख-सातामोख्य-न । सानासातवेदनीयकर्मणः स- पायः परित्राण विषयसाधनम्य धनस्यानुबन्धो यत्र तत्संकाशात्सुख शर्म सातसुखं सातं च तत्सुखं च सातसुखम् अ
रक्षणानुबन्धि । आर्तध्यान, भ० २५ श० ७ उ०। औ.।' तिशयसुख, 'सायासोक्खमणुपालंतागं पा० । श्राहादप्रधान
मारक्खणा-संरक्षणा-स्त्री० । संगोपनायाम् , प्रा०म० अ०। सौख्ये. जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० ।
सारखणोवघाय-संरक्षणोपघात-पुं० । संरक्षगन शरीगादमार-सार-पुं० प्रधान, विश० । सामध्ये, विभवे, सूत्र. २ विषये मूर्छयापघातः परिग्रहविरतरिति संरक्षणोपघातः । श्रृ०१० । परमार्थ ,सूत्र श्र०११
या उपघातभदे, स्था००ठा०३ उ०।। काष्ठमय, स्था०४ ठ/०१ उ०। श्राचा। नियन्द, पा० । सारक्खमाणी-संरचन्ती-खी । अपायेभ्यः संरक्षण कर्वभ० । प्रा० ० । परमार्थप्रधान.सत्र.१२०११ श्र। त्याम,विता... .। स्था० । नि०। श्राचाज्ञा । प्रकाशजीभ । स०। न्याय्ये, मारक्वित्ता-मंरक्षयित-त्रि० । चौगदिभ्या रक्षणं कुति, • एवं खु नागिणा सारे, जन्न हिसद किंचण । 'सूत्र स्था०७ ठा०३ उ० । ग०। श्रृ० अर४ उ० । उत्त प्रक,श्राचा.११०५०१०। । सारय-मारक-त्रि० । अन्येषां विस्मृतार्थस्मरणकर्तरि , क. सफले, श्रा० म० १ अ० । स० । उत्कृष्टवलकारषु ,
ल्प अधि.क्षण।। द्वा० १२ द्वा० । शुभपुद्गलापचयजन्य धनुर्यिशप, जं०३ वक्षः । साग द्विधा-बाह्यः, श्रान्तरश्च । बाह्या गुरुत्यमा
२ शारद त्रि०। शर्गद ऋतो जातं शारदम्। उत्त० १. स्तर: सन्दाहः।आव०४अज्ञानादी (शाय०४०। सद्भांच, ।
। अ. । शरत्काल जाते. ज्ञा०१ श्रु. ५ अ.। जी। श्राव० । निएायाम् , श्रा०चू०१ अ०। प्रा० म० । विवक्षितकर्मगाः ।
श्रा० म० । उपा। वृल। परमार्थे नंगा. म. । विषयगणस्य प्राप्ती, आचा०१० सारा
सारचिय-मारचित वि० । संमार्जिते , 'काउं गिराहतुवहि, ३ अ०२3.। बले.पाइ० ना०१६४गाथा। धन पाEO ना० मारचियपाएमया पूठिय' सारचितः-संमार्जिनः प्रतिश्रयो ४६ गाथा । कर. पाइ० ना० ६४ गाथा ।
यैम्त सारचितप्रतिश्रयाः । वृ०१ उ०२ प्रक०। प्रह-धा० । मागे, "प्रह - (अः)गः सारः"॥ ८।४।४॥
सारणा-गारगणा-स्त्री०। चिम्मृतस्मारणायाम् , विस्मृत इति प्रपूर्वस्य धातोः सार इत्यादेशः । साग्इ। पहरह।
क्वचित्कर्तव्य भवतदं न कृतमिति सारगा। ग०२ अधिः । प्रहर्गत , प्रा०४ पाद।
मारवंत-सारवत-त्रि० । गाशब्दादिवद्वहुपर्यायक्षम, । विशे० । मारंग--मारङ्ग- पं., । चतुरिन्द्रिय जीवविशेष. जी०१ प्रति अर्थन युक्ने, स्था० ७ टा० ३ उ० । सामायिकशब्दवत् प्रज्ञा० । मग, प० ७ अष्टः । पाद ना० । चातकखग बहुपयाय गुणवत्सूत्र, प्रा० म०१०। हरिण, गज, भृङ्ग. खगभेदे , छत्र , गजहंस, चित्रमंग , सारवणा-सारापना-स्त्री० । संगोपनायाम् , "होही पत्तीवाद्यभेदे. वस्त्र, नानावर्ग, मयूर , कामदव, चाप, कशे, ति मारयणा ।" आव० अ०। स्वर्ग, श्रामरगा, पा. शेख्य, चन्दन, कपूर, पुष्प, कोकिले , मारवय-मारपद-न० । ज्ञानादिक सारसहिते पदे , श्राचा मघ.मिह । गत्री,भृमी,दीप्ती च । स्त्रीलाशा गाउप्यत्र वाचाथ.५०१ उ०। मागङ्ग-न । प्रधानकारण. प्रतिः । ज०।
सारविजंत-सार्यमाण-त्रिक । ध्रियमाणे , व्य०४ उ०। शाईनिशाई डा पूर्वोऽत् ।। ८।२।१.०० ॥ इति ङात्पूर्वः सारस-सारस-त्रिका दीर्घजानुकं लामपक्षिविशेषे, तं०। जी ।
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सारस अभिधानराजेन्द्रः।
सालंयमेवि(ए) स्था०1 प्रक्षा० । कल्प० । श्री। रा०। प्रश्न । शा०। मारूवियसिद्धपत्त-सारूपिकमिद्धपत्र-पुं० । मुण्डितशिरस्के सारमार-सारमार-पुं० । सारस्यापि सारभूत, प्राचा० १श्रु० रजोहरणरहित अलघुपांत्रण भिक्षामटति सभार्ये अभार्य ५०. उ० । श्रा० म०।
वा गृहस्थे, व्य०८ उ०। सारसावएज-सारमापतेय-न० । प्रधानद्रव्ये , कल्प०१ श्र- सारुह-संरुष्ट-त्रि० । मनसा रुऐ , भ० ७श : उ०। धि०४क्षण।
माल-माल--पुं० । अशीतितमे महाग्रहे, स्था० ३ ठा० ३ उ०। सारसी-सारसी-स्त्री० । पट्जग्रामस्य पाठयां मूर्छनायाम् ,
कल्प० । सू० प्र०। चं० प्र०। (साख ) वृक्षविशेष, स्था०४ स्था० ७ ठा ३ उ०।
ठा०४ उ०। अनु० । प्रशा० । जं० । आचा० । स० । सारस्सय सारस्वत-त्रि० । सरस्वतीसम्बन्धिनि मन्त्रादी,
शाखायाम् , ज्ञा०१२०१०। जी० । पृष्ठचम्पानगाः स्यागासरस्वतीयोक्तव्याकरणे,नपुं०। कल्प०१ अधि०२ क्षण। स्वनामख्याते राजनि , उत्त० अ०। श्रा० क० । ती० । कृष्णराज्यन्तरालपर्तिविमानवासिनि लोकान्तिकदेव , पुं०।
तद्वृत्तम्स्था०६ ठा०३ उ० । प्रच० । शा० । श्रा०म०।
"बदमाणसामी पिटिचं पाए नयगए सुभूमिभागे उजाणे सारह-सारघ-न । मधुनि, पाइ० ना०२२४ गाथा।
समोसढो , तत्थ य सालो राया , महासाला जुबसारहि-सारथि-पुं० । नतरि , दश०८५०श्रा०म० । सूते,
राया। सेसि भगिणी जसवती , तीसे भत्ता पिठरा , पुत्तो
य से गागलीनाम कुमारी, ततो सालो भगवतो समीव पाइ० ना० २२३ गाथा।
धम्म सोऊण भण-जं नवरं महासाले रखे अभिसिसारिक्ख-साक्ष्य-त्रिका "छोऽदयादी" ॥८।२।१७॥ इति ।
चामि ततो तुम्हं पादमूले पब्वयामि , तेरम गंतूण भणिसंयुक्तस्य छो वा । मारियख । प्रा० । साधर्म्य, स्था० १ ठा।। तो महासालो-गया भवसु, अहं पब्बयामि । सो भणइमारिणी-मारिणी-स्त्रीवादीर्घिकाख्ये जलाशयविशपे, अनु। अपि पव्ययामि. जहा तरह शारामा मेटीपमा नसारिय-मारित-त्रि० । हिते प्रवर्तित ,५०३ अधिक। पा०।। हा पब्वइयस्स वित्ति, ताहे गागली कंपिल्लपुरातो आण उं शिक्षित , व्य० ७ उ० ।
रजे अभिसिंचितो । तस्स माया जसवती कंपिल्लपूर न
गरे दिपिया पिठररायपुत्तस्स , तेण ततो आणिो , तेसारिया--सारिका-स्त्री० । कोशलविषये मेवराजस्य कुटुम्बिनो
ण पुण तसिं दो पुरिससहस्सवाहिणीश्री सीयाश्रो काभार्यायाम् , पिं०। मैनापक्षिणि , प्राचा० १ श्रु०१ १०६ उ० । रिया, जाव ते पब्बइया । सा वि तेसि भगिणी समणासारिस-मादृश्य-श्रव्य० । यथाऽस्मिन देश घटा ऊय ग्रीवा वासिया जाया, तऽवि एक्कारसंगाई अहिजिया । अगणया अवस्तात्परिमगडला विपुलकुक्षयस्तथा अन्यष्यपि देशधि- य भगवं गयगिहे समोसढो, ततो भगवं निग्गतो वर्ष त्यादिसाधम्य, प्रा० म० १ अ०।
जतो पधायितो , ताहे सालमहासाला सामि पुच्छंतिसारी-देशी-ऋषीणामासने , मृत्तिकायामित्यन्ये , द. ना. श्रम्ह पिटिचं वच्चामो , जद नाम कोइ तसिं पब्बएन्ज
सम्मतं वा लभज्ज । सामी जाण-जहा ताणि संबुज्म= वर्ग २२ गाथा।
हिन्ति , ताह तेसि सामिणा गोतमसामी बिइजी दिसारीर-शारीर-त्रि० । शरीरसंभवे, प्रय० २६८ द्वार । श्राव०।
राणा, साभी चपं गतो, गोयमसामीऽवि पिट्टिपं गतो, तसारीरमाणमाणेगदुक्खमोक्ख-शारीरमानसांनकदुःखमोक्ष- स्थ समवसरणं, गागलि, पिठरो, जसवती य निग्गयाणि, पुं० । सकलदेहदुःखक्षये , पं० ३० ३ द्वार ।
तारिण परमसंधिग्गाणि, धम्म सोऊप गागली पुत्तं रज्जे असारीरसम-शारीरसम-न०। कलाभेद , कल्प०१ अधिक
भिसिचिऊण मातापितिसहितो पब्यहो। गोयमसामी ता
णिं घेता चंप बच्चाइ, तेसिं सालमहासालाणंच बच्च७क्षण ।
ताणं हरिसो जातो-संसारातो उत्तारियाण ति, ततोसारूवि(गा)--सारूपिन-पुंगा सारूपिके, "मुंडसिरोया सुक्कि
सुमेणऽझवसाणेग केवलनाणं उष्पन्न ।” श्राव० अ०। श्रा० लवत्थधरो न वियत्थं । हिंडइ न वा प्रभजो, सारूवी परिसो म० । श्रा० चू०। होई ॥ १ ॥” इति तल्लक्षणम् । जी०१ प्रति० ।
श्याल-पुं। भार्याभ्रातरि, अनु० । सारूविय--सारूपिक-पुं०। समान रूप-सरूपं तेन चरती- सालकायण--सालंकायन--पुं० । कौशिकगोत्रान्तर्गते पुरुषति सारूपिकः । रजोहरणवसाधुवेषधारिणि गृहस्थे, विशेष, तत्प्रवर्तिते गात्रविशेषे च । स्था०६ ठा० ३ उ० । "सावी धारोह निसिज्जं च एग अोलंबगं चेव” यस्तु 'सालकलाण--सालकल्याण--पुं० । वृक्षविशषे,भ०८ श०३उ० । सारूपिकः स एकनिपद्यम्-एकनिषद्योपेतं रजाहरणमव
सालंब-सालम्ब--त्रि० । श्रालम्बनमवलम्बमाने , नि० च. लम्बकदण्डकमुपलक्षणमतत् पात्रादिकं च धारयति शिरश्च मुगडात । व्य०४ उ० । नि० चू० । सारूपिक:
१ उ.शानादिषुपालभनयुक्ने , दशा० १ ० । श्राव० । शुक्राम्बगे मुण्डोऽबढ़करछो रजोहरणरहितोऽब्रह्मचर्योs- नि० चू. । विकटिभिः प्राणितः सन् नि भायां भिक्षाग्राही । ध१५ अधिक । मुगिडतशिराः शुक्लवासः मानादि ग्रहाण्यामात्यालम्बनसाहत, व्य० ४ उ० । पग्धिायी कलछामबनानोऽभार्यको भिक्षां हिण्डमानः सारू- नि० चू० । पिक उच्यते । वृ. ४ उ० ।
। सालंबसथि( गम् )-मालम्बसेविन्-त्रि० । पुष्टालम्बमप्रतिष
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सालंयसेवि
।
विणि, "काहं छिर्ति अदुवा अधीहं, तोवहाणेसु य उज्ज मिस्सं । गणं च गीती श्रणुसारविस्सं, सालंब सेवी समुवेति मोक्खं ॥ १ ॥ " । श्रा० चू० ३ श्र० । सालंवडत्या भरण- सालम्बहस्ताभरण जि० सह आलम्बन न- प्रलम्बेन वर्त्तते सालम्बं तानि च हस्ताभरणानि यस्थाधामुखं गमनवशादसौ सालम्बहस्ताभरणः । हस्तयोः परिद्दिताभरणे. भ० ३ ० २ उ० । सालको इय- सालकोष्टक न० मेग्रामस्य वहिरुतरपूर्वदिग्भागे स्वनामख्याते चैत्ये, भ० ३ ० २३० सालग - शालक — पुं० [अष्टम्भसमन्वित आसनविशेने, दश० ६ ० । दीर्घशाखायाम्, आव० १ ० । रसे, श्राचा०२ श्रु० १ चू० ७ श्र० २ उ० । श्रद्धं भिन्नं बाहिरा छल्ली सालं भण्णइ | नि० चू० १५ उ० | सालग पुरा तस्स बाहि रा छल्ली । सालगं बाहिरा छल्ली भसति । नि० ० १६ उ० । सालगिह शालागृह - न० शालागृहवसे, तत्र अड्डा सालागि चू० ८ उ० ।
-
-
(=00)
"
सालघर- सालगृहक -न० । शाला:- शाखाः । अथवा शालावृक्षविशेषास्तत्प्रधानं गृहकम्। शालाप्रधाने गृहके, ज्ञा० १ श्रु० १ ० । शा० जी० । पट्टशालाप्रधान गृह, ग० । साल साला स्त्री० [बहुशालकनामप्रामसमीपपनि शालवनोद्यानवास्तव्यायां व्यन्तर्याम् आ० म० १ ० । ( 'वीर' शब्दे षष्ठभागे तत्कथा गता । ) सालपरियाय सालपर्याय-खालस्य पर्याया धर्मा-बहु लच्छायान्याय्यत्वादयो यस्य स सालपर्ययः सालसधर्मिणि पुरुषजाते. स्था० ४ ४० ४ उ० । सालभंजिया शालभञ्जिका स्त्री० सम्पुत्रिकायाम् ग्रा०
श्रभिधान राजेन्द्रः ।
+6
३ उ० । सालाडवि-शालाटवी श्री० विजययोरसेनापतिपालिता यां चौरपल्ल्याम्, विपा० १ श्रु० ३ श्र० । सालाहण- सातवाहन-पुं० । सर्वत्र लवरामचन्द्रे " ॥ ८ ॥ । २ । ७६ ॥ इति वलुकि सति । “अतसी-सातवाहने लः” ॥ ६ । २ । २१२ ॥ इति तस्य लः । सालाहणो । प्रा० । गोदाव रीतटवर्त्य प्रतिष्ठाननगरराजे, बृ० ६ उ० ।
अस्मादिवाहनासागनिसालि शालि पुं० कलमादिके धान्ये खा० ३४० १३०
म० १ श्र० । ज्ञा० ।
सालरुक्ख- शालच पुं०" वृक्षः रुख-दी
6
"
| ६ | २ | १२७ ॥ इति वृक्षस्य रुक्खाऽऽदेशः । प्रा० । शाला विशेष २०१४ ० ० ० ( अस्य भावि जन्मान्तरवृत्तम् 'वणफइ' शब्दे षष्ठभागे गतम् । ) साललडिया शालपष्टिका बी० स्तम्भ २०१४
क्षण ।
सालखंड शा लिखण्डन न० शालिधान्यखराउने तर लायाम्, कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
?
सालिग्गाम- शालिग्राम पुं० मगधजनपदेषु स्वनामस्या ग्रामे, आ० क० १ श्र० । आ० चू० । सालिपिडु शालिपिष्ट १० शालचू, जं०१० सालिपिट्ठसि - सालिपिष्टराशि-पुं० । शालिक्षोदपुञ्जे, रा० । सालिवाहण - शालिवाहन- पुं० | स्वनामख्याते प्रतिष्ठानपुरराजे; विशे० । ('अणुश्रोग' शब्दे प्रथमभागे २८५पृष्ठे उदाहरणम् ।) सालिभंजिया - शालिभञ्जिका स्त्री० । पुत्तलिकायाम्, रा० ।
श० उ० | ( इह च यद्यपि शालवृक्षादावने के जीवा भवन्ति तथापि प्रथमजीवाम्यम् एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं श्रांता
"
रमय भगवता गीतमेन कृता इति वद शब्दे | सालिमद शालिभद्र पुं० राजगृहे स्वनामख्याते गोमपृष्ठभागे गतम् । )
- - ।
99
सालिभद
याम् . शा० १९०४ श्र० । स्था० | सूत्र० । रा० जे० । जत्थ भंड विकासासाला । श्रहवा सकुट्टिमं गिहूं। अकुट्टिमा साला । नि० चू० १२ उ० । श्रशीतितमे महाग्रहे, स्था० । दो साला ( सू००+) स्था० २ ठा० ३ उ० । सालाइयतंत - शालाक्यतन्त्र- न० । शलाकायाः कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादकं तन्त्रं शालाक्यतन्त्रम् । स्था० = ठा० ३ उ० । पिपा० आयुर्वेदा तदि ऊयतिगतानां रोगाणां ध वणवदननयनघ्राणादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति । स्था० =
सालवण - शालवन - न० । बहुशालकनामग्रामसमीपवर्तिनि
उद्यान, आ० म० अ० । श्रा० चू० । सालवाहय शालवाहन पुं० स्वनामख्याने महाराजे, कल्प० ३ अधि०६ क्षण | व्य० | ( शालवाहनचरित्रम् ' परिहि ' शब्दे पञ्चमभागे ३८३ पृष्ठे गतम् । ) सालहिया देशी खी० मेना' इति याते पक्षिविशेषेपा
ना० २३६ गाथा ।
साला- शाला- स्त्री० । वृक्षस्कन्धे, शा० १ ०१ अ० । शाखा
श्राचा० । सूत्र० । प्रज्ञा० । ६० । बृ० । रा० । बो० । व्रीहिविशेषे, ज्ञा० १ ० १ श्र० । कलमशाल्यादिकूरे व्य ६ उ० | भ० | जं० । श्राचा० । तत्थ पुञ्चरहे साली चुप्पइ । अवरहे जेम्मति । श्र० म० १ ० । सालिउदेस-शान्युदेश-पुं० पहशतस्य सप्तमांशक भ०
११ श० ११ उ० ।
सालिंगणवडिय - सालिङ्गनवर्तित त्रि० । शरीरप्रमाणेनोपधानेन वर्तमाने, सूत्र ० १ ० १ ० ३ उ० । सालिक्खेन शालिक्षेत्र न० धान्यक्षेत्रे ०१०१
-
श्रेष्ठिनः पुत्रे, स्था० । शालिभद्र ' इति यः पूर्वभवे सङ्गमनामा वत्सपालोऽभवत्, सबहुमानं च साधवे पायसमदात्, राजगृहे गोभद्रः श्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनोत्पन्नो देवीभूतगोभद्रश्रेष्ठसमुपनीतभोजनयसन कुसुमविलेपन भूपणादिपिता सह भूमिकयनलगतो लगति म । यानिजको पनी लक्षमूल्य रत्नकम्वला गृहीताः, भद्रया शालिममात्र बधूनां पात श्रवणाज्जातकुतूहले दर्शनार्थे गृहमागते श्रेणिकमहाराजे जनन्याऽभिहितोः यथा त्वां स्वामी द्रष्टुमिच्छतीत्यवतर प्रा सादश्टङ्गात् स्वामिनं पश्येति वचनश्रवणादस्माकमप्यन्यः
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(७७६) सालिभह अभिधानराजेन्द्रः ।
सावग (य) स्वामीति भावयन् वैराग्यमुपजगाम । वर्धमानस्वामिसमी- 'सालिहीषिय'ति सालेयिकापितनाम्नः श्रावस्तीनिवासिनो पेच प्रथवाज, विकृतपसा क्षीणंदहः शिलातले पादपोप- गृहमेधिनो भगवतो बोधिलाभिनोऽनन्तरं तथैव सौधर्मगागमनविधिनाऽनुत्तरसुरेषू पन्नवानिति सोऽयमिह संभाव्य- | मिनो वक्तव्यतानिबद्धं सालेयिकापितृनामकं दशममिति । त, केवलमनुतरोपपातिकाङ्गेनाधीत इति । स्था० १० ठा० दशाप्यमी विंशतिवर्षपर्यायाः सौधर्मे गताश्चतुःपल्योपम३ उ०।ती। कपिलमहर्षेः स्वगृहे भोजयितरि श्रावस्तीया
स्थितयो देवा जाना महाविदेहे च सेत्स्यन्तीति । स्था० स्तव्ये व्यवहारिणि , उत्त०८ ०। (कविल' शब्दे तृती
१० ठा०३ उ०। यभागे ३८७ पृष्ठ कथा उक्का ।) सालिभसेल-शालिभसेल-पुं०।बीहिकणिकशूके, उपा० २
साव-साप-पुंगनावर्णात्पः।८।१।१७६ इति पस्य लुक न । प्रा० ।
पो वः ॥८६॥२३१॥ इति पस्य वः । श्राक्रोशे , प्रा०१ पाद । अ०। सालिया-शाटिका-स्त्री० । परिधानवने,विशे० । श्राव। सावइत्ता-श्रावयित्वा-स्त्री० । श्रावणं कृत्वेत्यर्थे , "नामगं सा. शालिका-स्त्री० । सम्मूर्छजसुदजन्तुविशेष , प्राचा० १ १० वाता" स्वकीयं नाम श्रावयित्वा यदुताहं भदन्त ! शक्रो
देवगजो भवन्तं बन्द नमस्यामि चेत्येवम् । भ०१६ श०२ उ०। सालिसच्छियामच्छ-शालिसाक्षिकामत्स्य-पुं० । मत्स्यभेद ,
। श्रावयित--त्रि० । श्रवणं कारयितरि, सूत्र०२ श्रु० ३ ० । भ०१श०२ उ०।
, सावएज--स्वायतेय-न० । धने , जी. ३ प्रति० ४ अधि० । सालिसय-सदृशक-त्रि० । समाने, रा० । स्था० । शा०। द्रव्ये , भ०८ श०५ उ० । प्राचा०। सालिसीस-शालिशीर्ष-पुं० । स्वनामख्याते प्रामे , स्था। सावकंख-सावकाक्ष-न । सह अवकाया वर्तत इति सा. ग्रामाकसन्नियेशात् शालिशीर्षग्रामे उद्यान प्रतिमास्थस्य चकाङ्कम् । घटियाद्यनन्तरमहं भोजनं विधास्यामीति वास्वामिनो माघमास तिपृष्ठभवापमानिता अन्तःपुरि मृत्वा छासहितेऽनशने , उत्त० ३० अ०। ध्यन्तरीभूत्वा तापसीरूपं कृत्वा जलभृत जटाभिरन्यदुःसहं सावग(य)-श्रावक-पुं० । शृणोति जिनवचनमिति श्रावकः । शीतोपसर्ग चक्रे, कल्प०१ अधि०६क्षण।
- "अवाप्त प्रयादिविशुद्धसम्पत्-परं समाचारमनुप्रभातम् । शृ. सालुज्जाण-शालोद्यान-न। बहुशालकनामावहिरुधरने ।
पोति यः साधुजनादतन्द्र-स्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः॥१॥" श्रा० चू०१०।
इति । अथवा-श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति सालुय-शालूक-पुं० । उत्पलकन्द , भ०११ श०२ उ०। श्राः,तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति (शालकोद्देशकः ‘वणप्फर' शब्दे उक्तः)
वाः, तथा किरन्ति क्लिष्कर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततःक
र्मधारये श्रावका इति भवति । जिनवचनश्रद्दधाने , स्था०४ सालइया ( सालिही ) पिया-शा ( सा ) लेयिकापितृ-पुं० ।
ठा०४ उ० (एकविंशतिगुणयुक्त एव श्रावको भवतीति 'धस्वनामख्याते गृहपती , उपा।
म्मरयण' शब्दे चतुर्थभाग २७२७ पृष्ठे उक्तम् । ) शृणोएवं खलु जबतिण कालेणं तेणं समएणं सावत्थीणयरी को- ति साधुसमीपे साधुसामाचारीमिति श्रावकः । ग. दुए चेइए जियसत्तू राया, तत्थ णं सावत्थीए णयरीप सा- २ अधि० । लिपियाणाम गाहावई परिवसइ । अड़े दित्ते चत्तारि हिर- श्रावकधर्मस्य प्रक्रान्तत्वात्तस्य श्रावकानुष्ठातृकत्वापकोडीओ णिहाणपउत्तानो चत्तारि हिरमकोडीयो बुद्धि
छावकशब्दार्थमेव प्रतिपादयतिपउत्तानो चत्तारि हिरमकोडीओ पवित्थरपउत्तानो चत्तारि
संपत्तदंसणाई, पइदियहं जइ जणा सुणेई य । वया दस गोसाहस्सिएणं वएणं । फग्गुणी भारीया सामी
सामायारिं परमं, जो खलु तं सावकं बिन्ति ।। २ ।। समोसढो जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ ,
संप्राप्तं दर्शनादि यनासौ संप्राप्तदर्शनादिः । दर्शनग्रहणाजहा कामदेवो तहा जेट्ठ पुतं ठवेत्ता पोसहसालाए स
त्सम्यग्दृष्टिगदिशब्दाद्-अणुव्रतादिपरिग्रहः,अनेन मिथ्याह
व्युदासः। स इत्थंभूतः प्रतिदिवसं-प्रत्यहं यतिजनात्सामणस्स भगवा महावीरस्स धम्मपरमत्तिं उपसंपजित्ता णं
धुलोकात् गायव किं सामाचारी परमाम् । तत्र समाचरण विरइ । नवरं निरुवसग्गाओ एक्कारस्स वि उपासगपडिमाओ समाचार:-शिष्टाचारत; क्रियाकलापः तस्य भावः 'गुणवचतहेव भाणियब्याओ एवं कामदेवगमेणं नेयव्वं जाव सोह- नब्राह्मणादिभ्यःकर्मणि च्यामिनिष्यञ् सामाचार्य पुनःस्त्रीत्वम्मे कप्प अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववाम । चत्तारि प
विवक्षायाम् "पिदौरादिभ्यश्चे"ति डीए। यस्येति चेत्यकारला.
पः। हलस्तद्धितस्ये" त्यनेन तद्धितयकारलोपः परगमनं सा. लिओवमाई ठिई महाविदेहे वासे सिज्झिहिति ।५६। दसराह माचारी तां सामाचारी परमां प्रधानां, साधुश्रावकसंबद्धावि ओवमाइं संवच्छरे वट्टमाणाणं चिंता उववरणा । दसराह मित्यर्थः । यः खलु य एव शृणोति तं श्रावकं ब्रुवते-तं श्राविवीसं वासाइसमणोवासयपरियाओ। एवं खलु जंबूस
वकं प्रतिपादयन्ति भगवन्तः-तीर्थङ्करगणधराः । तत
चाय पिण्डार्थः । अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि मणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं
प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामगारिणां च सामादममस्स अज्झयणस्स अयम8 पएणत्ते । (सू० ५७)। चार्ग शृणोतीति श्रावकः इति । श्रा० ।
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सावग (य)
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आयकधर्म इति पदार्थमाह परलोयहियं सम्मं, जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो । इतिव्वकम्मविगमा, सुकोसो सावगो एत्थ ॥ २ ॥ यो जिनवचनं शृणोति स श्रावक इत्येवमिह क्रियाभिसंबन्धः । तत्र य इति सामान्यनिर्देशः । तेन यः कश्चित्ताग्रीन पुनर्नियत कुलोत्पन्न एव यथा ब्राह्मकुलोपन एच ब्राह्मणो भवतीति क्रियाविशेषनिबन्धनात्यकस्थेति । ननु श्रवणमात्र निबन्धनं श्रावकत्यमेवं स्यात्तश्च सर्वस्याद्रियन्धमतः संभवति, विशिषं च तदिष्यत इत्याशङ्कायामाह निर्मा तवचनं वा, तस्याप्रमाणतया विवक्षितार्थासाधकत्वेन श्रवणानुचितत्वात् । किंभूतं तदित्याह - परलोको जन्मान्तरं प्रधानं जन्मा तम्मे हितं पथ्यं परलोकहितम् जिनमाराधनाद्धि परलोकोऽनुकूल एवं भवतीति । स्वरूपप्रतिपादनपरं चेदं विशेषणं परलोकहितस्य जिनवचनस्य सर्वभावेन व्याभावान् अथवा पश्चिमचनमिलोकहितं निमित्तशास्त्र ज्योतिषप्राभृत (योनिप्राभृनिविष्यति । पर्या ज्योति पद्माभृतादिकमभिप्रापविशेषतः परलोकहितं तथापि रूपनृपेोदितमेव । अथाभिप्रायनिशे
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कहितं तत्परलोकहितमेव, एवं तर्हि सर्वाण्यपि कुशासनानि तथा भवन्तु किमेकमेव जिनवचनं परलोकहि तमित्युच्यते सर्वेषामपि तेषां विवक्षया परलोकहितस्येनेष्टत्वात् यदाह - " जे जत्तिया य हेऊ. भयस्स ते चैव तनियामा लागा. दोराह वि पुसा भये तुझा ॥ १ ॥ " श्रतोऽनेन विशेषणेन यत्साक्षात्परलोकहितं साधानुष्ठानग जिनको भी यभिहितम् । श्रतएवान्यत्र पूज्यैरेवोक्तम्- " संपन्न देसाई, पदिय ज जगा सुई य । सामायारिं परमं जो खलु तं सावयं विति ॥ १ ॥ " कथं शृणोतीत्याह- सम्यगशठनया, प्रत्यनीकानि श्रावको भवतीति भावः । अथवा ननु कपिलादिवचनमपि परलोकहितं भवति, कथमन्यथाऽभिधीयते - 'जावैति बंभलोश्रो चरणपरिव्वायउवा उत्ति' । अतस्तस्यागेन कथं जिनवचनमेव शृण्वन् श्रावको भवतीत्याशङ्कायामाह - सम्यक् समीचीनमत्यन्तं परलोकहि तमिति यावत् । यथा हि जिनवचनं साक्षात्पारंपर्येण वा मायाम् परलोकहितं न तथा पिसादियचन मिति भाति किंभूतः सनित्याह-उपयु दावधानोऽनुपयुक्त एवार्थ मुकम् - " निद्दा बिगहापरिव-जिएहि गुचेहि पंजलिउडेहिं । भत्तिमा १॥" हेतुमाह अथवा ननु व्यवहारोपयुनियनम मध्यपि कस्याचिस्यान तत्कथमसौधायकः स्यादित्याशङ्कयाह- अतितीव्रस्यात्युत्कटस्य कर्मणो ज्ञानाधरणीयमध्यात्यादेविंगमो विनाशोऽति तीव्र कर्मधिगमस्तस्वात्। न हि तीको शेषः पाननान्तरपतु विशेषतः यतोऽयतितीकर्मविगम एव विवक्षितश्रावकत्थं भवति । यदाह - "सत्तरहं प गडीं, श्रभंतर उ कोडिकोडीए । काऊण सागरां, जह
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( ७८० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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"
सावग (य) लहति चउराहमरणयरं ॥ १ ॥ स इत्यनन्तद्दिवसो'ति उत्कृष्यत इत्युत्कर्ष उत्कृष्टः प्रधानो मुख्यश्रावकव्यपदेशस्य यद्वा-शुक्रः-शुपाक्षिक प्रार्थ परावर्ताभ्यन्तरीभूतसंसार इत्यर्थः । स उक्तस्वरूपधावकः शृणोतीति शब्दव्युत्पतिविषयतनामा अ कधर्मविमानेऽन्यत्र पुनर्विशेष पसेन धावन दा नामादिभेदभिन्नो वा श्रावको भवतीति गाथार्थः । पञ्चा० १ सम्यकृत्वा पतिभ्यः प्रत्यहं कथाम् ।
।
शृणोति धर्मसंबद्धा - मसौ श्रावक उच्यते। " श्राव०६ श्र० स पदर्शनमक्रिमान् विधावश्यकमिरतः षट्स्थानकयुक्तश्च श्रावको भवति । शा० १ ० १६ अ० । यतिवचनामृतपाननिरते, भ० २ ० १ उ० । श्रमणोपासके, अनु० । स्था० । पञ्चा० । जिनशासनभक्का गृहस्थाः श्रावका भरायन्ते । श्राव०४ श्र० । सावगा गहितागुञ्चता. अग हिताच्चता वा । नि० चू० १ ३० । बंभी पञ्चश्या भरहो सा बगो जाओ । श्रा० म० १ श्र० । श्रावकाः धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः । अनु० | श्रावका ब्राह्मणाः, प्रथमं भरतादिकाले श्रावकाणामेव सतां पश्चाद् ब्राह्मणत्वभवनात् । अनु० ज्ञा० ('उस' शब्द द्वितीयमागे २२४३ पृष्ठे पक्रिम) अधुना श्रावकस्यैव निवासादिविषयां सामाचारी प्रतिश
दयश्नाह
च
निवसि तत्थ सड्डो, साहूणं जत्थ होइ संपाओ | चिराइ जस्थ य, तयनसाहम्मियां चैष ।। ३३६ ॥ निवसेत्तत्र नगरादौ श्रावकः साधूनां यत्र भवति संपातः । संघननं संपानः श्रागमनमित्यर्थः या स्मिस्तदन्यसाधर्मिकाचैव श्रावकादय इति गाथासमासार्थः । अधुना प्रतिद्वारं गुणा उच्यन्ते तत्र साधुसंपाते गुणानाहसाहय बंदगी, नासह पावं असंक्रिया भाषा फायदा निजर, उग्गहो नाममाई ॥ ३४० ॥ सानां चन्दनेन करणभूतन कि नश्यति पाषु बहुमा नात्तथा अशङ्किता भावास्तत्समीपे श्रवणात् प्रासुकांन निर्जरा । कुतः ? उपग्रहां ज्ञानादीनां ज्ञानादिमन्त एव साथव इति । उक्ताः साधुसंपाते गुणाः । चैत्यगृहे गुगाना
"
मिच्छादंसण महणं, सम्मविद्धिहेडं च । चिदाइ विहिणा, पन्नत्तं वीयरागेहिं ।। ३४१ ॥ मिथ्यादर्शनमथनं मिध्यादर्शनं - विपरीत पदार्थश्रद्धानरूपं, मध्यते विलोक्य येन तसा न केवलमपायनिधनदनमेव किन्तु कहाकारकारि खाह-सम्यग्दर्शनविविहेतु विपरीतस्वार्थनं सम्यग्दर्शन मोक्षादिसोपानं तद्विशुद्धिकरणं किं त्यवन्दनादि श्रादिशब्दात्पूजादिपरिग्रहः । विधिना सूत्रोक्न प्रज्ञप्त - प्ररूपितं वीतरागैरर्हद्भिः स्थाने शुभाध्यवसाय प्रवृत्तेरेत चैत्यगृहे सति भवतीति गाथार्थः । उक्का चैत्यगृह गुणाः । सांप्रतं समाधार्मिकगुणा नाह
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साहम्मियथिरकरणं पच्छ मासगस्स सारो नि । मग्गसहाय, नहा अणासो धम्माच ॥ ३४२ ॥
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सावग (य)
( ७८१ ) अभिधान राजेन्द्रः । सावग (य) समानधार्मिकस्थिरीकरणमिति, यदि कश्चित्कथंचिद्धर्मात् | शुद्धिविचित्रवर्णतारेखाशुद्धिनानाभावप्रतीतिवत् । प्रकृतप्रवते ततस्तं स्थिरीकरोति, महांश्चायं गुणः । तथा वात्सल्ये क्रियमाणे शासनस्य सार इति सार सेविता भवति । उक्तं च-" जिएसासगुस्स सारो " इत्यादि लति च तस्मिन् वात्सल्यमिति तथा तेन तेनोपबृंहणादिना प्रकारेण सम्यग्दर्शनादिलक्षणमार्ग सहायत्वादनाशश्च भवति, कुतो धर्मात पंतगाथार्थः । उक्ताः समानधार्मिकगुणाः ।
गुणाः पुनः सर्वधर्माणां साधारणभूमिकेव चित्रकराणामितिसूक्ष्माभावनीयम् यदुक्तम्-"दुविधम्मरोग से स्वीसमुह - संपका हो सुत्थि त्ति ॥ १ ॥" ते च सर्वेऽपि गुणाः प्रकृते संविग्नादिविशेषणपदैरेव संगृहीता इति सद्धर्मग्रहणाई उक्तः ॥ २० ॥ ( ध० १ अधि । श्रा० ) एषां च भेदानां यथासंभवं ज्ञानश्रद्धाचरणविधया सम्यक्त्वमुपयेोगित्वमिति ध्येयम् । इत्थं च देवादितत्वश्रद्धानविकलत्वे तथाविभाजकाती: आयकाकारधरणे यामेव
सांप्रतं तत्र निवसतो विधिरुच्यते तत्रापि च प्रायो भावसुप्ताः श्रावकाः ये प्राप्यापि जिनमतं गाईयमनुपालयत्योषिद्वारेटनक्कारेण विमोहो, अनुसरणं सायओ क्याम्मि | जोगी चिदमी, पचवला च विधि || ३४३ || नमस्कारेण वियोध इति रथन नमस्कारः पडितस्यः तथा आयको मिति बतात योगः कायिकादिः चैत्यवन्दनमिति प्रयत्नेन चैत्यवन्दनं क र्तव्यं ततो गुर्वादीनभिवन्द्य प्रत्याख्यानं च विधिपूर्वकं सम्यगाकारशुद्धं ग्राह्यमिति ।
१॥
पवम भावयकय तु यथोविधिप्रतिपद्यसम्प स्थानियतिभ्यः सकाशाश्रित्य धर्मश्रवणादेय यदुक्रमायश्वकवृनी" ह्यभ्युपेतसम्यक्त्यो, यतिभ्यः प्रत्यकथाम् । शृणोति धर्मसम्बद्धा मसौ श्रावक उच्यते अभ्युपेतसम्यक्त्व इत्यत्राभ्युपेतावतोऽपीति व्याख्याले - श इति । तच्चेहाधिकृतं भावस्यैव मुख्यत्यात्, भावश्रावको दर्शन गुणाकभेदाद् विधितिरस्तु मनमङ्गाधिकारे दर्शयिष्यते श्रागमे चान्यचापि श्रावकदा. भूपते तथाचा
गोसे सयमेव इमं, काउं तो चेड्याण पूयाई ।
साधु
साहुस कुत्रा, पचवाणं महामहिये ।। ३४४ ॥ गो-प्रत्युपस स्वयमेवेदं कन्या हादी नानां पू जागिसमानादिपादादिः कुर्यात्थितमिति । अत्र च यद्यपि श्रावकयतिधर्मभेदाज में द्विधा । श्रावचमोऽपि अविरतावाद विवा तथाविनायकधर्मस्यगिरी अस मनसुनी जो मुडिओ पुच्छ्रमाणो || १ | " इत्यादिनाऽधिकारी निरूपितः विरतायकधर्मस्य "संगाई प
उ
स
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इजा सुई । सामायारिं परमं, जो खलु तं सावयं विति ॥ १ ॥ " तथा " पर लोगद्दिश्रं ध ( स ) मं, जो जिउपतोगमा उक्कोनी साग ॥ १ ॥" इत्यादिभिरसाधार त्तिहेतुभिरधिकारित्वमुक्तम् । यतिधर्माधिकारिणोऽप्येवं तप्रस्ताव वक्ष्यमाणा यथा
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पवजाए अरिहा, श्ररिश्रसम्मि ज समुपपन्ना जाइकुलेहि बिसिट्टा, तह खीणप्या य कम्ममला ॥ १ ॥ तमिल दुबई मन्नभ। जम्मा मरणानिमित्तं चबलाश्र संपयाश्रो श्र ॥ २ ॥ विसया य दुक्खहेऊ, संजोग निश्रमश्र विश्रोगु ति । पइसमयमेव मरणं, इत्थ विवागां श्र श्रइरुदो ॥ ३ ॥
"
पवित्र अवगवसंसारगुहाया तसो अनव्विरता, पयरणुकसायप्पहासा य ॥ ४ ॥ सुफपन्नुचा पिडीचा रायामधिकारी अ कल्लागंगा सड्डा, धीरा तह समुवसंपन्ना ॥ ५ ॥ इति पृथक पृथक प्रतिपादितास्तथाऽमरेका गुणैः कतमधर्मस्याधिकारित्वमिति व्यामोद कार्यों यत पतानि सर्वाण्यपि शास्त्रान्तरीयाणि लक्षणानि प्रायेण ततद्गुपस्पाङ्गभूतानि वर्त्तन्ते । चित्रस्य वर्गक
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भाइसमाणे, मि
पाजामागे
मागे खासमा
से
समाये" इति परमे साहिति न पार्थक्यशङ्कालेशः । एषामपि नामधावकादिष्ववतारणवि चारे व्यवहारयते भवधायका येते आपक निमित्तमात्र योगेन तथाव्यवन्हियमाणत्वात् निश्चयनयमंत पुनः सपत्नीखग्टसमानौ मिथ्यादृष्टिप्रायौ द्रव्यश्रावकौ, शेषास्तु भावश्रावकाः ।
सगा परत्ता, तं जहा श्रम्नापिसमा समास-उपासमा
·
यतस्तेषां स्वरूपमेचमागमे व्याख्याय"निखिल मि हो नि। एतच्छलो जइ जणस्स जणणीसमो सद्धो ॥ १ ॥ हिश्रए ससिद्दो विश्र, मुखीण भंदायरो वियणकम्मे । भारसमोसा पराभये होर सुहाओ २॥ मित्तसमाणो माणा. ईसिं रूस अपुच्छिश्रो कज्जे । मतो अप्पा, मुगीय गाउ अहि ॥ ३ डायलिति निष्चमुच्वर । सद्धी सबत्तिको साहुजं तरणसमं गराइ ॥ ४ ॥ तथा द्वितीय
"गुरु विवि अनि म जस्स । सो आयंससमाणाः सुसाश्रो वनिश्रो समए ॥ ५ ॥ पवणेण पडागा इव, भामिजर जो जणेण मूढें । अविच्छिगुरुवयणो, सो होइ पडाइश्रातुल्लो ॥ ६ ॥
सम्मान मुद्दामख वि खासमासो एस सीजन ॥ ७ ॥ सोमो ऽसि। इश्र सम्म पिकतं खरंदर सी खरंटसमो ॥ ८ ॥ जह सिढिलमसुइदव्वं, लुप्पनं पि हु मरं खरंटे | सामपि दृ, दूसतो भन्न खरंटो ॥ ६॥
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मावग (य) अभिधानराजेन्द्रः।
सावग (य) निच्छयो मिच्छ नी, खरंटतुल्लो सवत्तितुल्लो वि। मा अतिथिसंविभागसंपादनादिना प्रत्याख्यानं च करवा ववहारो उ सहा, जयंति जं जिणगिहाईसुं॥ १०॥" तदनन्तरमेव पुनर्भोगेऽपि प्रन्थिसहितादीनि । इत्यलं प्रसङ्गेन ।
सेविज तो साहू, करिज पूयं च वीयरागाणं । अत्रोपयोगित्यात् पूर्वरिप्रणीतानि भावभावकस्य लिङ्गानि धर्मरत्नप्रकरणे यथोपादिष्टाति तथोपदर्यन्ते । तथाहि
चिइवंदणसगिहागम-पइरिकम्मि य तुयट्टिा ॥३५४|| "कयवयकम्मोतहसी-लवं च२ गुणवं चउज्जुववहारी।
सेवत ततः साधून पर्युपासनविधिना कुर्यात् पूजा च गुरुसुस्सूसो ५ पवयण-कुमलो खलु सावगो भावे ॥१॥" |
वीतरागाणां स्वविभयौचित्येन,ततश्चैत्यचन्दनं कुर्यात् , ततः कृतम्-अनुष्ठितं व्रतविषयं कर्म-कृत्यं येन स कृतवतका १, खगृहागमन तथंकान्ते तु त्वरवर्तनं कुर्यात्स्वपेदिति । अथैनमेव सप्रभेदमाह
कथमित्याह"तस्थायराणणजाणण२,गिराहणपडिसेवणेसुधउज्जुत्तो।। उस्सग्गभयारी, परिमाणकडो उ नियमो चेव । कयचयकम्मो चउहा, भावत्थो तस्सिमो होइ॥२॥" सरिऊण वीयरागे, सुत्तविबुद्धो विचिंतिजा ।। ३५५ ।।
तत्राकर्णन विनयबहुमानाभ्यां व्रतस्य श्रवण १, ज्ञानं उत्सर्गतः प्रथमकल्पेन ब्रह्मवारी प्रासेवनं प्रति कृतपरिबतभङ्गभेदातिचाराणां सम्यगवबोधः २, ग्रहणं गुरुस- माणस्तु नियमादेव श्रासेवनपरिमाणाकरणे महामोहदोषात् मीपे इत्वरं यावत्कालं बा वतप्रतिपत्तिः ३, आसे- तथा स्मृत्वा वीतरागान् सुप्तविबुद्धः सन् विचिन्तयेवनं सम्यपालनम् ४।
द्वक्ष्यमाणमिति । अथ शीलवत्स्वरूपं द्वितीयलक्षणं यथा
भूएसु जंगमत्तं, तेसु वि पंचेन्दियत्तमुक्कोस । "आययण खुनिसेवइ १,यज्जइ परगेहपविसणमकजे२। निच्चमणुब्भडवेसो३, न भणइ सविधारथयणाई ४ ॥३॥
तेसु वि अ माणुसत्तं, मणुयत्ते आरिओ देसो ॥३५६।। परिहर वालकील ५, साहब कजा महुरनीईए ६।
भूतेषु-प्राणिषु जङ्गमत्वं द्वीन्द्रियादित्वं तेष्वपि पञ्चेन्द्रियइअछब्बिहसीलजुश्रो , बिन्नेो सीलबंतोऽत्य ७॥४॥"
स्वमुत्कृष्टम्-प्रधानं तेष्वपि पश्चेन्द्रियेषु मानुषत्वमुत्कृष्टमिति आयतन धर्मिजनमीलस्थानम् , उक्तंच--" जत्थ सा
वर्तते मनुजत्वे पार्यो देश उत्कृष्ट इति । हम्मिश्रा बहवे , सीलबंता बहुस्सुपा । चरिताया
देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे य जाइ उक्कोसा। रसंपन्ना , श्राययणं तं विप्राणाहि ॥१॥" तत्सेवते तीइवि रुवसमिद्धी, रूबे य बलं पहाणयरं ॥ ३५७ ॥ भावधावको नवनायतनमिति भावः ॥ १ शेष- देशे पायें कुल प्रधानम् ,उग्रादिकुले प्रधाने च जातिरुन्कृपदानि सुगमानि , बालक्रीडां द्यूतादिकं ५, मधुरनीत्या सा टा-मातृसमुत्था, तस्यामपि जातौ रूपसमृद्धिरुत्कृष्टा सकमवचनेन स्वकार्य साधयति , न तु परुषवचनेनेति षट् शीला- लानिष्पत्तिरित्यर्थः, रूपे च सति बल प्रधानतरं सामर्थ्य नि ६ । अधुना तृतीय भावभावकलक्षणं गुणवत्स्वरूपं यथा- मिति । "जाइवि गुणा बहुरूवा,तहावि पंचहि गुणेहि गुणवंता। होइ बले वि य जीयं, जीए वि पहाणयं तु विनाणं । इन मुणिवरेहि भणिो , सरूवमेसिं निसामहि ॥५॥
विनाणे सम्मत्तं,सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥३५८॥ सज्झाएर करणम्मि अर,विणयम्मि अनिच्चमेव उज्जुत्तो।
भवति बलेऽपि च जीवितं प्रधानतरमिति योगः,जीविते:सम्वत्थऽणभिनिवेसो ४, वहइ रुई सुट्र जिणवयणे ५॥६॥"
पि च प्रधानतरं विज्ञान, विज्ञाने सम्यक्त्वं क्रिया पूर्ववत्, स्वाध्याये पञ्चविधे १ , करणे--तपोनियमवन्दनाद्यनु
सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति। ठाने २ , बिनये-गुर्वाद्यभ्युत्थानादिरूपे , नित्यमुद्युक्तः प्रयत्नवान् भवति ३ , सर्वत्र प्रयोजनेषु अनभिनिवेशः
सीले खाइयभावे, खाइयभावे य केवलं ना। प्रज्ञापनीयो भवति ४, तथा वहति धारयति, रुचिम्-इच्छा केवलिए पडिपुन्ने, पत्ते परमक्खरे मुक्खो ॥ ३४६ ।। श्रद्धानमित्यर्थः , सुष्ठ-बाढं जिनक्वने ५, इति पञ्च गुणाः । शीले क्षायिकभावः प्रधानः, क्षायिकभाचे च केवलशान,प्र(सम्यक्त्वग्रहणं ' सम्मत्त ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) तिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति, कैवल्ये प्रतिपूर्णे प्राप्ते परमासामाचारीशंषमाह
क्षर मोक्ष इति । सुणिऊण तो धम्म, अहारविहारं च प्रच्छिउमिसीणं ।। न य संसारम्मि सुह, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स । काऊण य करणिजं, भावम्मि तहा ससत्तीए ।। ३५२ ।। जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेभो ॥३६०॥ श्रुत्वा ततो धर्म क्षान्त्यादिलक्षण साधुसकाशे इति गम्य
न च संसारे सुख जातिजरामरणदुःखगृहीतस्य जीवस्याते । यथाविहारं च तथाविधचेष्टारूपं पृष्ठा ऋषीणांसंबन्धिनं
स्ति, यस्मादेवं तस्मात् मोक्ष उपादेयः । कृत्वा च कारणीयम् ऋषीणामेव संबन्धिभाव इत्यस्तिता
किंविशिष्ट इत्याहयां करणीयस्य स्वशक्त्या स्वविभवाद्यौचित्येनेति ।
जच्चाइदोसरहिओ, अव्यावाहसुहमंगो इत्थ । ततो अणंदियं खलु, काऊण जहोचियं अणुद्वाणं। । तस्साहणसामग्गी, पत्ता य मए बहू इन्हिं ॥३६१।। भुनूण जहाविदिणा, पञ्चक्खाणं च काऊण ।। ३५३॥ जात्यादिदोषरहितोऽव्यायाधसुखसंगतोऽत्र (संसारे )तततस्तदनन्तरमनिन्द्यं खलु इहलोकपरलोकानिन्द्यमेव कृत्वा
त्साधनसामग्री प्राप्ता च मया बह्वीदानीम् । यथोचिनमनुष्ठानं यथा बाणिज्यादि तथा भुक्त्वा यथाविधिः । ता इत्थ जं न पत्तं, तयत्थमेवञ्जम करेमि त्ति ।
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सावग (य) अभिधानराजेन्द्रः।
सावग (य) विबुहजणनिदिएणं, किं संसाराऽणुबंधेणं ॥ ३६२ ।। । श्रवणामिउत्तमंगा, तं बहु मनंति सुहझाणा ॥३६॥ नदत्र ( सामग्यां) यन्त्र प्राप्तं तदर्थमेवोद्यमं करामीति वि- तेऽपि च साध्वादयः कृताञ्जलिपुटा रचितकरपटाञ्जलयः बुधजननिन्दितेन किं संसारानुवन्धन । इति निमदसिद्धा श्रद्धासंबेगपुलकितशरीरा:-श्रद्धाप्रधानसंवेगतो रोमाश्चिगाथात्रयार्थः।
नवपुषोऽवनामितोत्तमाङ्गाः सन्तस्तद्वन्दनं बहु मन्यन्ते शुइत्थे चिन्तनफलमाह
भध्यानाः-प्रशस्ताध्यवसायाः। वेरग्गं कम्मक्खय-विसुद्धनाणं च चरणपरिणामो ।
इत्युभयोः फलमाहथिरया आउय बोही, इय चिंताए गुणा हुंति ॥३६३।। तेसिं पणिहाणाओ, इयरेसि पि य सुभाउ झाणाओ। इत्थं चिन्तयतो वैराग्य भवत्यनुभवसिद्धमवैतत् , तथा क- पुन जिणेहि भणियं,नो संकमउत्ति ते मेरा ।। ३७०॥ मक्षयः तत्त्वचिन्तनेन , प्रतिपक्षत्वात् विशुद्धशानं च निव- तेषामाद्यानां वन्दननिवेदकानां प्रणिधानात्तथाविधकुशधनहानः , चरणपरिणामः प्रशस्ताध्यवसायत्वात् , स्थिरता लचित्तादितरेषामपि च बन्द्यमानानां शुभध्यानात्तच्छ्रवणधर्म प्रतिपक्षासारदर्शनात् , अायुरिति कदाचित्परभवायु
प्रवृत्त्या पुण्य जिनैणितम्-अर्हद्भिरुक्तं नच संक्रमत इकबम्धस्ततस्तच्छुभत्वात्सर्व कल्याणं बोधिरित्थं तत्त्वभाव- ति न निवेदकपुण्यं निवेद्यसंक्रमण यतश्चैवमतो मर्यादियनाभ्यासात् । एवं चिन्तायां क्रियमाणायां गुणा भवन्त्यवं मवश्यं कार्यति । चिन्तया वेति ।
विपर्यये दोषमाहगोसम्मि पुब्बभणिो , नवकारेणं विबोहमाईओ ।
जे पुणऽकयपणिहाणा, वंदित्ता नेव वा निवेयंति । इत्थ विही गमणम्मि य, समासओ संपवक्खामि।३६४।
पच्चक्खमुसाबाई,पावा हु जिणेहि ते भणिया ।।३७१।। गोसे-प्रत्युपसि पूर्वभणितो नमस्कारेण वियोधादिः
ये पुनरनाभोगादितोऽकृतप्रणिधाना वन्दित्वा नैव वा वअत्र विधिः इति गमने च समासतः संप्रवक्ष्यामि विधि
न्दित्वा निवेदयन्ति अमुक स्थान देवान्वन्दिता यूमिति मिति।
प्रत्यक्षमृपावादिनोऽकृतनिवेदनात्पापा एव जिनैस्ते भणिता अहिगरण खामणं खलु, चेइयसाहूण वंदणं चेव ।।
मृषावादित्वादेवेति । संदेसम्मि विभासा, जइ गिहिगुणदोसविक्खाए ३६५।
जे वि य कयंजलिउडा, सद्धासंवेगपुलइयसरीरा । श्रधिकरणक्षामगं खलु मा भूत्तत्र मरणादौ वैरानुबन्ध इति
बहु मन्नंति न सम्म,वंदणगं ते वि पाव त्ति ॥३७२।। तथा चैत्यसाधूनामेव च चन्दनं नियमतः कुर्यात् गुणदर्शनात्,संदेशे विभाषा (यतिगृहिगुणदोषापेक्षयति) यतेःसंदेश
येऽपि च साध्वादयो निवेदिते सति कृताञ्जलिपुटाः श्रद्धासं. को नीयते न सायद्यो गृहस्थस्य इति चैत्यसाधूनां वन्दनं वगपुलकितशरीरा इति पूर्ववत्र बहु मन्यन्ते न सम्यक वन्द. चेति यदुक्तं तद्विस्फारयति ।
नकं कुर्वन्ति तऽपि पापा गुणवति स्थाने ऽवज्ञाकरणादिति ।
क्वचिद्वेलाभावेऽपि विधिमाहसाहूण सावगाण य, सामायारी विहारकालम्मि । जत्थ स्थि चेइयाई, वंदावंती तहिं संघं ॥ ३६६ ।।
जइ विन बंदणवेला, तेणाइभएण चेइए तह वि । साधूनां श्रावकाणां चोक्तशब्दार्थानां (२) सामाचारी-व्य
दहणं पणिहाणं, नवकारेणावि संघम्मि ॥ ३७३ ।। वस्था का विहरणकाले-विरहणसमये, किं विशिष्टत्याह- यद्यपि क्वचिच्छून्यादौ न वन्दनवेला स्तनश्वापदादिभयषु यत्र स्थाने सन्ति चैत्यानि बन्दयन्ति तत्र संघ चतुर्विधमपि चैत्यानि तथापि दृष्टा अवलोकननिबन्धनमपि प्रणिधानं प्रणिधानं कृत्वा स्वयमेव वन्दत इति ।
नमस्कारेणापि संघ इति संघविषयं कार्यमिति । पढ़मं तो य पच्छा, बंदंति सयं मिया ण बेल ति। तम्मि य कए समाणे, वंदवणागं निवेइयचं ति । पदम चिय पणिहाणं, करंति संघम्मि उवउत्ता॥३६७।। तयभावम्मि पमादा,दोसो भणिो जिणिदेहि।।३७४॥ प्रथमिनि-पूर्वमेव सई बन्दयन्ति ततः पश्चात्सलवन्द तस्मिन्नपि एवंभूते प्रणिधाने कृते सति वन्दनं निवेदनोत्तरकालं वन्दन्ते,स्वयम्-आत्मना आत्मनिमित्तमिति स्या- यितव्यमेव वस्तुतः संपादितत्वात् , तदभाव-तथाविधप्रणिन वेलेति-स्तेनादिभयसार्थगमनादौ तत्रापि प्रथममेव धानाकरणे प्रमादा तोर्दोषा भणितो जिनन्द्रर्विभागायातवन्दने प्रणिधानं कुर्वन्ति संघविषयमुपयुक्ताः संघं प्रत्येत
शक्यकुशलाप्रवृत्तेरिति । द्वन्दनं संघोऽयं वन्दत इति ।
उपसंहरनाहपच्छाकयपणिहाणा, विहरंता साहुमाइ दट्टणं । एयं सामायारिं, नाऊण विहीइ जे पउंजंति । जपति अमुगठाणे, देवे दाविया तुम्भे ॥ ३६८ ॥ ते इति इत्थ कुसला, सेसा सब्वे अकुसला उ॥३७शा पश्चात्तदुत्तरकालं कृतप्रणिधानाः सन्तस्तदर्थस्य संपादि- एतामनन्तरोदितां सामाचारी-व्यवस्थां ज्ञात्वा विधिना तत्वाद्विहरन्तः सन्तः साध्वादीन् दृष्टा साधु साध्वीं ये प्रयुञ्जते यथावद् ये कुर्वन्तीत्यर्थः, ते भवन्त्यत्र विहरणविश्रावक श्राविकां वा जल्पन्ति व्यक्तं-च भणन्ति । किम् अ- धौ कुशलाः शेषा अकुशला एव-अनिपुणा एव; नचेमुकस्थाने-मथुगदी देवान्बन्दिता यूयमिति ।
यमयुक्ता संदिपवन्दनकथनतीर्थस्नपनादिदर्शनादिति । श्रा ते विय कयंजलिउडा, सद्धासंवेगपुलइयसरीरा। (श्रावकदिनक्रिया 'सावगदिणकिरिया' शब्दे वक्ष्यत ।)
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(७८४) सावग (य) अभिधानराजेन्द्रः।
सावगदिणकिरिया अथ श्रावकस्य भावगतानि तान्याह
सांप्रतं मध्याह्नादिविषयं यत्कर्त्तव्यं तदर्शयन्नाह"भावगयाइँ सत्तरस, मुणिणा एअस्स बिति लिगाई। मध्यावेऽर्चा च सत्पात्र-दानपूर्व तु भोजनम् । जाणि अजिणमयसारा,पुवायरिश्रा जो प्राह ॥ ११ ॥
संवरणकृतिस्तद्विजैः, साधं शास्त्रार्थचिन्तनम् ।। ६५ ॥ इन्थि१,दिअत्यसंसा-रविसय५श्रारंभ६गेह ७दसणो । गइरिगाहपवाहे पुरस्सरं पागमपवित्ती १०॥ १२॥
मध्याह्ने-मध्याह्नकाले चः पुनरर्थे पूर्वोक्नविधिना विशिष्य दाणाह जहासत्ती, पबत्तणं ११ विहिप १२ रत्तदुटे अ१३॥
च प्रधानशाल्योदनादिनिष्पन्नविशेषरसवतीढौकनादिनाद्वि
तीयवारमित्यर्थः । अर्चा-पूजा धावकाधिकारप्रस्तावाजि. मज्झत्थ १४ मसंबद्धो १५, परत्थकामोवभागी श्र १६५१३॥
नपूजाविशषतो गृहिधर्मो भवतीत्यन्वयः, एवमग्रेऽपि । तवेसा इव गिहवास, पालइ १७ सत्तरसपयनिय तु।
था सत्पात्रं साध्वादि तस्मिन् दानपूर्व दानं दत्त्वेत्यर्थः, भावगयभावसाघग- लक्वणमेनं समासणं ॥ १४॥" भोजनम्-अभ्यवहरणं तुरेवकारार्थस्ततः सत्पात्रदानपूर्वमेव श्रामा काचिद्याख्या-स्यादिदर्शनान्तपदाटकानां द्वन्द्वे स- भाजनमिति निष्कर्षः, अन्बयस्तत एव । अत्र च भोजनमिप्सम्यर्थे तसिल (इतरेभ्योऽपि दृश्यन्ते इति)अयं भावः--स्त्री. स्यनुवादः मध्यातिकपूजाभोजनयोश्च न कालनियमः, तीवयशवर्ती न भवेत् १, इन्द्रियाणि विषयेभ्यो निरुणद्धि, बुभुक्षार्हि बुभुक्षाकालो-भोजनकाल इति रूढेः, मध्याह्नादा २, नानर्थमूलेऽर्थे लुभ्यति ३. संसारे रतिं न करोति ४, । गपि गृहीतं प्रत्याख्यानं तीरयित्वा देवपूजापूर्वकं भोजम कु. विषयेषु न गृद्धिं कुर्यात् ५ , तीवारम्भं न करोति, करो- न दुष्यति । अत्र चाय विधिः-भाजनवेलायां साधून्निमध्य ति दनिच्छन्नेव ३, गृहवासे पाशमिव मन्यमानो घसेत् तैः सह गृहमायाति स्वयमागच्छतो वा मुनीन् दृष्टया समु७, सम्यक्त्वान्न चलति ८, गडरिकप्रवाहं त्यजति , श्रा- ख गमनादिकं करोति, साधूनां हि प्रतिपत्तिपूर्वक प्रतिलगमपुरस्सरं सर्वाः क्रियाः करोति १०, यथाशक्ति दाना- म्भनं न्याय्यं श्रावकाणां, सा चेत्थं योगशास्त्र-“श्रभ्युदौ प्रवर्तते ११, बिहीको निरवद्यक्रियां कुर्वागी न लज- स्थानं तदा लोके, ऽभियानं च तदागमे । शिरस्यञ्जलिसते १२, संसारगतपदार्थेषु अरक्तद्विष्टो निवसति १३, धर्मा- श्लेषः, स्वयमासनढोकनम् ॥१॥ श्रासनाभिग्रही भक्त्या, दिस्वरूपविचार मध्यस्थः स्यात् , न तु मया श्रयं पक्षोऽ वन्दना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चति, प्रतिपत्तिरियं गुङ्गीकृत इत्यभिनिवेशी १४, धनस्वजनादिपु सम्बद्धोऽपि क्ष- रोः ॥२॥" दिनकृत्यऽपि-"श्रासणरण निमंतेत्ता, तो प. णभङ्गरतां भावयनसम्बद्ध इवास्ते १५, परार्थम् अन्य जन- रिश्रणसंजुओ । बंदए मुणिणो ताहे, खताइगुणसंजुए ॥१॥" दाक्षिण्यादिना भोगोपभोगेषु प्रवर्तते , नतु स्वतीवरसेन । एवं प्रतिपत्ति विधाय सविनयं संविग्नासंविग्नभाविनक्षेत्र १६, वेश्येय निराशंसो गृहयासं पाल यतीति १७॥ध०२अधि० । १ सुभिक्षदुर्भिक्षादिकालं २ सुलभदुर्लभादिदेयं च द्रव्यं [श्रमणेभ्यः श्रावकभेदः 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे |
३ विचार्य प्राचार्योपाध्यायगीतार्थतपस्विबालवृद्ध ग्लागतः । ] [ श्रावकस्य साधोः अन्तरम् 'मरण' शब्दे
न
नसहाऽसहादिपुरुषाद्यपेक्षया च स्पर्द्धामहत्वमत्सरस्नेषष्ठभागे गतम्।]" एवं व्रतस्थिती भक्या, सप्तक्षेच्यां धनं
द्दल जाभयदाक्षिण्यपरानुवर्तना प्रत्युपकारेच्छामायाबिलचपन् । दयया चातिदीनपु, महाश्रावक उच्यते ॥१॥" ।
म्बानादरविनियोक्तिपश्चात्तापदीनाननादिदोषवर्जमकान्ता-- इति ('महासावग' शब्दे पष्ठमागे गतम्)। श्रावकस्य
स्मानुग्रहबुद्धया द्विचत्वारिंशद्भक्षादोषाद्यदूषितं निःशेषएकविंशतिर्गुणास्ते च पूर्वमुक्ताः । दर्श०२ तत्व ।
निजान्नपानवस्त्रादेर्भोजनाद्यनुक्रमेण स्वयं दानं दत्ते दाप
यति या पावें स्थित्वा भार्यादिपार्वाद यतो दिनकृत्येश्वापद-पुं० [मायो मांसाहारादिविशेषणविशिष्ट व्याघ्रादी,
"देसं खितं तु जाणित्ता, अवत्थं पुरिस तहा । विजं. २ वक्षः । मकरग्रहादौ, स० । जलचरक्षुद्रसत्वे , शा.. उजो ब्व रोगिमस्सेब, तो किरिश्रं पउंजए ॥१॥" ११० अ०। सिंहादिषु, शा० १०१ अ० । आ० म० देशं मगधावन्त्यादि साधुविहारयोग्यायोग्यरूपं १ क्षेत्र संवि. व्याघ्रादिपु, स०१सम०। प्रश्न।
ग्न वितमभावितं वा, तुशब्दात्-द्रव्यमिदं सुलभं दुर्लभ वा, सावगकुल-श्रावककुल-नाश्रावकान्वये, 'बंसाणं जिगवं. अवस्था सुभिक्षदुर्भिक्षादिकां पुरुषमाचार्योपाध्यायबालवृसो सब्यकुलाण च साययकुलाई संथा। केड एगीसगुण
द्धग्लानसहाऽसहादिकं च ज्ञात्वा विज्जु व रोगिअस्स' साचगाण भवंति, तेहि सावरहि य परंपरागयं सावयकुलं
त्ति-यथा किल भिषग् देशकालादि विचार्य ब्याधिमाश्चभंडिय।' अह्न
कित्सां करोत्यवं श्रावकोऽपि ततः क्रियामाहागदिदानरू
पां प्रयुजन इति तद्वृत्तिः । तत्र च साधूनां यद्योग्यं तत्सर्व सावगणंदण-श्रावकनन्दन-पुं० । श्रावककुमारे, आ० क.
विहारयितुं प्रत्यहं नामग्राहं कथयति, अन्यथा प्राक कृत१०।
निमन्त्रगास्य वैफल्यापत्तेः, नाम ग्राहं कथन तु यदि साधसावगदिणकिच्च-श्रावकदिनकृत्य-न० । श्रावकप्रतिदिनाक
यो न विहरन्ति, तथापि कथयितुः पुरायं स्यादव, अकथयाप्रांतपादकें स्वनामख्याते ग्रन्थे,ध०२ अधिश (श्राद्धदि
नेतु विलोक्यमानमपि साधा न बिहरन्तीति हानिः ।
एवं गुरून्प्रतिलम्भ्य बन्दित्वा च गृहद्वारादि यावदनुवनकृत्यमित्यपरं नामास्य । )
ज्य च निवर्तत । साध्वभावे त्वनभ्रवृष्टिवत्साध्यागमनं जातु सावगदिणकिरिया-श्रावकदिनक्रिया-स्त्री०। श्राद्धप्रतिदिन
स्यात् तदा कृतार्थः स्यामिति दिगाला कं कुर्यात् .तथा चाहुःकृत्ये, ध०।
| "जं साहरा न दिन्नं, कहि पि तं सावया न मुंजंति ।
.
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सावदिकिरिया
31
,
पते भोषणसमय वारसाला ॥ १ ॥ (० 1 ) " भोजनानन्तरं वाम कटिस्था परिकाद्वयम् | शयन निद्राया हीनम् - यद्वा पदशतं ब्रजेत् ॥ १३ ॥ " अथोसरार्द्धव्याख्या - संवरणे' त्यादि भोजनानन्तरं संवरणंप्रत्याख्यानं दिवसचरमं ग्रन्थिसहितादि वा, तस्य कृति क्र र, सति संभवे देवगुरुवन्दनपूर्वमित्यनुक्तमप्यवसेयं, यता दिन देवं गुरुं वदिता कार्ड रद इति । तथा ततः प्रत्याख्यान करणानन्तरं, शास्त्रार्थानां शाप्रतिपादितभावान स्मरणं विचार वादतितिरमिति यावत् कथं साई सह कैः तज्ज्ञेः तं शास्त्रार्थ जानन्तीसि तज्ज्ञास्तगीतार्थयतिभिः प्रचचनकुशल थाकपुत्रैर्वेत्यर्थः गुरुमुखाच्छ्रुतान्यपि शास्वार्थरस्यानि परिशीलनायिकानि नचेतसि सुद तिष्ठानि भवन्तीति कृत्वा ।
"
,
संम्प्रति संध्याविषयं यत्कर्तव्यं तदाहसायं पुनर्जिनाभ्यर्चा, प्रतिक्रमणकारिता । गुरोर्विश्रामणा चैव स्वाध्यायकरणं तथा ।। ६६ ।। सायं-संध्यासमयेऽन्तर्मुहूर्तादक पुनस्तृतीयवार-मित्यर्थः जिनाभ्यर्चा- देवपूजनं विशेषतो शुद्धिधर्मे इति संङ्कः । एवमयेऽपि । अत्र चार्य विशेषः-सर्गतः केकयारभोजिनेय भाग्यम् यदभाष दिनकस्य उस चित्ताहार इक्कासणगभोई अ, मयारि तब य ॥ १ ॥ " यश्चैकभक्तं कर्तुं न शक्नोति स दिवसस्याष्टमे भागेऽस्तमुद्वलक्षये यामिनीमुखादौ तु रजनीमोजनमा प्रसादय कालिकं करोति तोदिन नसकेर
।
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काउं जो एभतं जत्रो गिद्दी । दिवसस्स में भागे, तना भुंजे सुसा ॥१॥" वैकालिकानन्तरं च यथाशक्ति दि यसवर सूइयान्तं मुख्यवृत्या दिवसे सति द्वितीयपदे किरोति संध्या दर्शनपुनरपि यथाविधि जिन पूजयति सा दीधूपरूपा यसेपेति भाषा तथा प्रतिक्रमणस्य सामायिकम् चतुर्दि शतिस्तो २, वन्दनकम् ३, प्रतिक्रमणम् ४, कार्योत्सर्गः ५, प्रत्याख्यानं ६ चेति षड्विधावश्यकक्रियालक्षणस्य कारिता करणम्, विशेषतो गृहिधर्म इति संबन्धः । श्रयं भावः--संध्यायां जिनपूजनानन्तरं श्रावकः साधुपार्श्वे पौधशालादौ वा गत्वा प्रतिक्रमणं करोति । प्रतिक्रमणशब्दश्चावइयकविशेषवापि पत्र सामान्येव सानप दविधावश्यक कियायां रूद्र अध्ययनविशेषवाचिनोऽपि प्र तिक्रमणशब्दस्य नाश्रागमतो भावनिक्षेपमपेश्य षडावश्यकरूपज्ञानक्रियासाधात् क्रियारूप एकदेशे आगमस्यामापात्रो आगमनस्य देशनिषेधार्थ सू. उ"फिरिक्षागमा डोस्यो सो नि" समाधिकारीद्रयान पराग धर्म नकरन शत्रु मित्राश्चनादिषु समता, तश्च पूर्वमुकं चतुविंशतिस्तयः चतुर्विंशतत्तीर्थकराणां नामोत्कीर्तनपूर्वकं गुणकीर्तनं तस्य च कार्योत्सर्गे मनसाऽनुध्यानं शेषका लं पपपाठ: अपि पूर्वमुक्तः चन्दनं पन्दनयोग्यानां
"
,
१६७
,
( ७८५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
3
सावगधम्म
धर्माचार्याणां पविशत्यावश्यकविशुद्धं द्वाविंशदोषरहितं नमस्कर नवयमेव
रात्रिकर्त्तव्यं
सयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् । )
अथ निद्वान् किं कर्तव्यमित्याहनिद्राक्षयेऽङ्गनाऽङ्गाना-मशौचादेर्विचिन्तनम् | इत्याहारात्रिकी चर्या, आवकाणामुदीरिता ॥ ६८ ॥ ततः परिणतायां रात्रौ निद्रायाः क्षये-नाशे सत्यनादिभवाभ्यासरसोल्लसद् दुर्जयकामरागजयार्थम् अङ्गनाः स्त्रियस्तासामङ्गनानां दीपावित्र्यं तस्य विनि
विशेष विचारणय आदिशब्दात्-जम्बूस्वामीस्थूलभद्रादिमहर्षिसुधाद्धादि दुप्पालनशी लपालन पवित्ररित्रकषायजयापायभवस्थिस्यत्यन्तः स्वताधर्ममनोरथानां हराम्ययामपि चिन्तनमित्यर्थः तद्विशेषतो ि भवतीत्यस्वयः । ध० २ अधि० ।
अमारियामाइयङ्गाइ सही कारण फासए । पोसई दुरओ पक्खं एगराई न हावए ।। २३ ।।
1
अगारी - गृहस्थः सामायिकाङ्गानि सामाधिकस्याि सामायिकाङ्गानि निःश मूढप्रमुखाणि कायेन स्पृशति, कीदृशः सन् श्रद्धी-श्रद्धावान् सन् पुनर्गृहस्थः उभयोः- शुक्लकृष्णपक्षयोः पौषधं सेवते चतुर्दशी पूर्णिमास्यादिषु पौषधम् आहारपीपधादिकं कुर्या त् एकरात्रिमपि - एकदिनमपि न हापयेत्-न हानि कुर्यादित्यर्थः । रात्रि दियाय्याकुलतयां रात्री आणि पौष कुर्यात् । चेत् एवं न स्यात् तदा बहुदेशी मी मि दाकल्यास पूर्णिमा चतुर्मात्रस्य दिप कुर्यात्। सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धे भेदेनोपादानमादरख्यापनार्थम् ।
"
उत्त० ५ ० |
सावगधम्म- आयकधर्म-पुं० भावका सामुदान दुर्गनगरपरिणामस्व कधर्मः । पञ्चा० १ वि० । आव० सम्यक्त्वमूलेऽबत शि गुरारूप में समागत
यासाध्ये, ल० । ध० । श्र० । पञ्चा० ।
साम्यतं द्वादशविधं आपकधर्ममुपन्यस्यन्नाहपाईगुवाई हुंति तिव
सिक्खावयाइँ चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा ॥ ६ ॥ पति कावधारणं पश्यन
ड्डा । अणूनि च तानि व्रतानि चाणुव्रतानि महाव्रतापेक्षयाचात्यमिति स्थूणातिपातादिविनिवृत्तिरूपाशीत्यर्थः । गुरुतानि च भवन्ति यूनाधिकानि वा असु तानामेवोत्तरगुणभूतानि व्रतानि गुणवतानि दिवतभोगोभोगपरिमाण करणामधे द्रडविरतिलक्षणानि एतानि च अयन्ती शिक्षापदानि शिक्षातामियात शिक्षा - अभ्यासः स च चारित्रनिबन्धनविशिष्टक्रियाकलापविषस्तस्य पदानस्थानानि सद्विषयाणि वा जनानि शिक्षानि पानि च चत्वारि सामायिकदेशानकाशिकपोधोपपासातिथिविभागाच्यानि एवं आवक द्वादशद्वार इति नाथासमासार्थः ।
1
ܪ
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सामगधम्म अभिधानराजेन्द्रः।
सावगधम्म अषयवार्थे तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव पश्यति । नात् ,तथाहि-नामश्रावकः , सचेतनाचेतनस्य पदार्थस्य तथा चाह
यत् श्रावक इति नाम क्रियते ।स्थापनाश्रावकश्चित्रपुस्त(का)एयस्स मूलवत्थू , सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि।
कर्मादिगतः । द्रव्यश्रावको ज्ञशरीरभव्यशरीरब्यतिरिक्तो देखयउवसमाइ तिविहं,सुहाय परिणामरूवं तु ॥७॥
घगुरुतत्वादिश्रद्धानविकलस्तथाविधाऽऽजीविकाहेतोः श्राएतस्यानम्तरोपन्यस्तस्य श्रावकधर्मस्य मूलवस्तु सभ्य
वकाकारधारकश्च । भावभावकस्तु-" श्रद्धालुतां श्राति
शृणोति शासनं, दीने चपेदाशु वृणोति दर्शनम् । कम्तक्त्वम् । वसन्त्यस्मिन्नणुवतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति
त्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षबस्तु । मूलभूतं च तवस्तु च मूलवस्तु किं तत्सम्यक्त्वम् ।
णाः॥५॥" इत्यादिश्रावकशब्दार्थधारी यथाविधि श्रावश्रा० । श्राव० । (एतानि व्रतानि स्वस्वस्थाने ।)
कोचितब्यापारपरायणो वक्ष्यमाणः-स चेहाधिकृतः-शे'इत्थ पुण समणोबासगधम्मे पंच अणुब्यया तिनि गुण
पत्रयस्य स्यात्कथंचिदेव भावादिति । ननु-आगमेऽन्यथा ब्बयाई प्रायकहिया चत्तारि सिक्वावयाई इत्तरियाई,
श्रावकभेदाः श्रूयन्ते-यदुक्तं श्रीस्थानाके-'चउब्धिहा समपाव०६ अ०भा०चू०। ध०२०। ननु धर्मों द्विधा-श्रावकधर्मों, यतिधर्मश्च । तत्रायोऽविरतविरतश्रावकधर्मभेदात्
णोबासगा पन्नता , तं जहा-अम्मापिइसमाणे , भायसद्विधा। तत्राविरतश्रावकधर्मस्याम्यत्र"तस्थऽहिगारी प्रस्थी,
माणे, मित्तसमाणे, सयत्तिसमाणे । प्रहबा-चाउम्बिहा सम- .. समथनो जो न सुत्तपरिकुटो । प्रत्थी उ जो घिणीश्रो,
पोषासगा पन्नसा, तं जहा-मायंससमाण, पडागसमाणे,
स्वाणुसमाणे, खरंटसमाणे" पते च साधूनाधिस्य द्रष्टव्याः। समुटिनो पुच्छमाणो य" ॥१॥ इत्यादिमाऽधिकारी निरूः | पितः,विरतश्रावकधर्मस्य तु "संपत्तसणार, पदवियह जा.
तेवामीषां चतुर्णा मध्ये कस्मिन्नवतरम्तीति ?. उच्यते-व्य
यहारनयमतेन भावभावका एवैते तथा व्ययहियमाणजणा सुणेई य । सामायारिं परमं, जो खलु ते सायं विंति" ॥२॥तथा-परलोगहियं सम्मं, जो जिणघयणं सुणे। उबउत्तो।
स्वात् , निश्चयनयमतेन पुनः सपनिखरएटसमानी मिथ्यामाइतिब्बकम्मविगमा, उक्कोसो सायगो इत्थं ॥३॥" इत्यादि.
रष्टिपायौ द्रव्यश्रावकी,शेषास्तु भावभावकाः । तथाहि-तेषां भिरसाधारणैः श्रावकशब्दप्रवृत्तिहेतुभिः सत्रैरधिकारित्य
स्वरूपमेवमागमे व्याख्यायतेमुक्तम् । यतिधर्माधिकारिणोऽप्यन्यत्रैवमुक्ताः, तद्यथा
"चिंता जा कजाई, न विट्टखलिश्रो विहोर निन्नेहो।
एगंतवच्छलो जह-जणस्स जपणीसमो सहो ॥१॥ पव्यज्जाए अरिहा, मायरियदेसंमि जे समुप्पन्ना। जारकुलेहि विसिट्टा , तह खीणप्पा य कम्ममला ॥१॥
हियए ससिणेहो चिय, मुणीण मंदायरो विणयकम्मे । तत्तो य विमलबुद्धी दुलह मणुयत्तणं भवसमुहे।
भाइसमो साहूण, पराभवे होर सुसहामो ॥२॥ जम्मो मरणनिमित्तं, चवलामो संपयानो य॥२॥
मित्तसमाणो माणा, ईसिं रूसा पुग्छि मो कजे । विसया य दुक्खहेऊ ,संजोगे नियमो विमोगु ति
मन्नतो अप्पाणं, मुणीण सयणाउ अमहियं ॥ ३ ॥ पासमयमेव मरणं , इत्थ विधागो य पारुहो ॥३॥
थचो छिापही, मायखलियाणि निघमुधरह।
सहो सबत्तिकप्पो, साहुजणं तपसम गणा ॥४॥" एवं पर्याप चिय , अवगयसंसारमिगुणसहाया ।
तथा द्वितीयचतुपकेसती य तस्बिरता , पयणुकसायप्पहासाय ॥४॥
गुरुभणियो सुतस्थी, विपिजर अषितहो मणे जस्स । सुकयानुया पिणीया, रामाणिमविककारी य ।
सो मापसलमाणो, सुसायनो पमित्रो समए ॥ १ ॥ कक्षागंगा सहा, थिरातहासमुषसम्पमा ॥५॥"
परणेण पडागा ब, भामिजाजी अणे महेण । स्यापि । तवेभिरेकर्षिशल्या गुण। कतमस्य धर्मस्याधिकारिस्वमुत्रमिति, मनोच्यते-पतानि सर्षापयपिशाखा
अधिणिछियगुरुषपणो, लोहोर पारपातुनो ॥६॥ तरीयाणि लक्षणानि प्रायेण तत्तगुणस्याभूतानि वर्त
परियनमसगाई, नमुया गीयस्थलमपुसिको पि। म्ते, चित्रस्य पर्णकशिविचित्रवर्णाता-सरेणाराशिमामा
पाणुसमाणो एसो, अपनोसिपमुणिजणे नवरं ॥३॥ भावप्रतीतियत् , प्ररुतगुणाः पुनः सर्वधर्माण साधारणा
उम्मग्गोलमो मि-यो सिनो लिवधम्मो सि । भूमिकेव चित्रप्रकाराणामिति सूधमाधुरपा परिभाषीयम् ।
इह सम्म पि कहत, बरंटए सो खरंटलमो ॥४॥
जह लिहिलमसुश्वब, छुपंतं पिनर सटेड। बषयतिब-"दुषि पि धम्मरयण , तर नरो भिमधि
एषमणुलासग पि, पूसतो मना बरंटो ॥५॥ गलं सो। जस्सेगषीसगुणरप- संपया सुस्थिया अस्थि ॥१॥" (ति)।
निच्छयो मिन्छसी, बरंतु सपत्तिमो बि।
पबहारमो उ सहा, वयंति जिभगिहाई॥६॥" मत एषाह
इत्पलमतिप्रसनेन तस्य पुनर्माषभायकस्य लक्षणानिधिसह एयम्मि गुणोहे, संजाय भावसावगतं पि।
हाम्येतानि बषयमाणानि भणम्ति-अभिवधति-रामगुरयः तस्स पुण लक्खणाई, एयाइँ भणति सुहगुरुणो॥३२॥ संविमसूरय इति । ध० २०१अधि० । ध० ('णासति विद्यमाने एतस्मिन्ननन्तगत गुगौघे संजायते-सम्भ- लदइज' शदे चतुर्थभागे २०१३ पृष्ठे श्रायकगतविधिवति भावश्रावकत्वमपि-दूरेतावद भावयतित्यमित्यपेरर्थः। रुक्तः । ) जिनवल्लभसूरिकृतप्रकृतालापकरूपदीपालिकापाह-किमन्यदपि श्रावकत्वमस्ति , येनैवमुच्यते भावधा- कल्पे लिखितमस्ति' पडिगरूवो सावगधम्मो बुन्छिवकत्वमिति ?, सत्यम्-इह जिनागमे सर्वेऽपि भावाश्चतु-| जिस्सा' इति, तेन तत्रत्यपुस्तकेष्वयं पाठोऽस्ति न वा ? विधा एव ," नामस्थापनाद्रव्यभावैस्तम्यास" इति वच- इति प्रश्नः,अत्रोतग्म्-जिनवल्लभसूरिकृत बालपकरूपो दी
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(७८७) सावगधम्म अभिधानराजेन्द्र:।
सामजकिरिया पालिकाकल्पोरशे नास्ति, जिनप्रभसूरिकृतस्त्वत्रालापक- सावगधम्मपत्ति-श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति-स्त्री० । सम्यक्त्यमूलरूप एव वर्तते, तत्रच 'पडिमारूवो साधगधम्मो बुच्छि
स्य द्वादशविधस्य श्रावकधर्मस्य प्रतिपादके हरिभद्रसूरिजिस्सा 'इत्यक्षराणि सन्तीति ॥ ४६॥ सेन० १ उल्ला। विरचित ग्रन्थभेदे, श्रा०। "एल्थ सामाचारी-सायंगण पोसधं पारेतेण णियमा सा
सावगपाढण-श्रावकपाठन-न० । श्रावकेभ्यः सूत्रप्रवान,जी. धूणम दातुं ण पारेयव्वं, अन्नदा पुण अनियमो-दातुं वा
१ प्रति० । । श्रावकसिद्धान्तगाथापाठनविचार: पाढयंत' पारेति पारितो या देश ति, तम्हा पुवं साधूणं दातुं पच्छा पारतव्वं, कधं ? , जाधे दसकालो नाध अप्पणो सरीरस्स
शब्दे पञ्चमभागे ८२४ पृष्ठ गतः ।) . विभूसं काउं साधुपडिस्सयं गंतुं णिमंतति, भिक्खं गराह- सावगभजा-श्रावकभायों-स्त्री०। श्रावकपम्याम् , अनु० । ध त्ति साधूण का पडिव त्ति ?, ताध अराणो पडलं अ- (अस्या 'श्रणणुयोग' शब्द प्रथमभागे २८५ पृष्ठे कथा गता।) एणो मुहर्णसय अण्णा भाणं पडिलेहति, मा अंतगइयदोसा
सावगवय-श्रावकवत-न० । सम्यक्त्वाणुव्रतादिप्रतिपत्ती, उर्षितगदोसा य भविस्संति,सो जति पढमाए पारुसीय णि
ध०२ अधि० । महा। मंतेति अस्थि णमोकारसहिताइतो तो गेज्झति,अधव णस्थि गा गज्झति, तं यहितम्वयं होति । जति घणं लगजाताधे
सावगाभास--श्रावकाभास-पुं०। सम्यक्त्वाणुनताविश्रजागेज्मति संचिक्खायिजति । जो वा उग्घाडाए पारिसीए
धर्मरहिते नमस्कारगुणनजिनाचनयन्दनाभिग्रहप्रतिमाह के पारति पारणालो प्रणा वा तस्स दिज्जति, पच्छा तेण
श्रायके, ध०२ अधिक। सायगेण समग गम्मति, संघाडगो पञ्चति , एगो ण घ- सावज-सावध-म०। भषचं-पापं सहायचेन धर्तन इति इति पसितुं, साधू पुरो सायगो मग्गता, घरं णऊण | सावचम् । सपाप,विशः । स्था। दश । प्रश्न । महायचेन मासणण उपणिमंतिजति । जति णिबिट्टगा तो लट्ठयं; म- दोषण वर्तत इति सायद्यम् । उत्त०६ श्रका सहायधेन गर्हित. धण णिसंति तधाथि विणयो पउत्सो, ताधे भत्तं पाण कर्मणा-सादिना वर्तत इति सावद्यम् । हिंसादिदोषयुक्ने, सय चेव इति । अथवा भाण धरेति भजा देति, अधया भी। प्राचा० । भाषा उत्त० । श्रा०चू० । विश०। ठितीना अच्छति जाव दिएणं, साधू वि साबसेस ब्वं अथ षष्ठं सायद्यपदं व्याचिख्यासुर्गाथोत्तरार्धमाहगयहति, पच्छाकम्मपरिहारट्ठा, दातूण वंदितु विसज्जति,
गरहियमवजमुत्तं, पावं सह तेण सावजं ॥३४६६।। यिसत्ता अणुगच्छति, पच्छा सय भुजति । जं च किर साधूण ण दिएणं तं सायंगण प भोत्तम्व, जति पुण साधू
गर्हितमित्यादि, गहित-निन्द्य वस्त्ववद्यमुक्तं तच्चह पत्थि साधे देसकालयलाए विसालोगो कातव्यो, विसु
पापम् , सह नावचन धर्तते इति सावधस्तं साषचं योगं अभायण चितियव्यं-जति साधुणो होता तो णिस्थारितो
प्रत्यापयामीति वश्यमाणं गभ्यत इति । होतो शिविभासा"।वमपि च शिक्षापयतमतिवाररहिन.
अथषा-अन्यथा सायपशब्दो व्युत्पात इत्याहमनुपालनीयमिति, मत माह-अतिथिसंविभागस्य-प्रा- महवेह बाणिजं, बजं पावं ति सहसकारस्स । ननिकीपतशम्पार्थस्य भमणोपासकेनामी पशानिचारासा
दिग्पत्ता देसामी, सह वजेणं ति सावजं ।। ३४६७ ।। सध्यान समाचरितम्याः, तपथा-सचित्तनिक्षेपणं--स
प्रथह पर्जनीय बर्यत इति वर्जे पापमुख्यत, सह बजेबिघुबीयाविषु निक्षेपणमसांवरदामधुझ्या मातस्था
सपर्सन इति सहस्य सभायात्सर्जः,सकारस्य व प्राकृतस्ये. मना, एवं सबिनविधान-सबितेन फलादिना विधाम
नवीषिधानासायमित्युक्तम् । विश० । हिमाचीर्यास्थगमिति समासः, भाषना प्राण्यत् . 'कालानिकम' इति
विगाहनकर्मालम्बने, स्था० ७ ठा० ३३० भ० । ग० । प्रकालस्यातिक्रमः कालानिक्रम पनि उचिती या भिक्षाकालः
भ०।१०। गहिसकर्मयुक, प्रश्न०२प्राभाद्वारा प्रायः । साना तमतिकम्यामागतं पा भुरऽतिकाम्त था, तथा
प्रति गह,सप०१७०१०२ उ०। प्रवचं-मिध्यास्थल. सकिन लम्धनापि कालातिकाम्नस्यात् तस्य, उप
लगाकवायलक्षणं सहप्रयचं यस्य येनपा स सायचः । श्रि०। "काले विएणस्त पधे-पणस भगघो ण तीरने काउं। त
प्रबंधन सह पर्तमान, मा० म०१०। मा०५० । साथसब प्रकालपणा-मियस्स गएहतया णस्थि ॥१॥" 'पर
चामाम-कर्मचम्धी प्रयासह तण जो सो साया। व्यपदेशात भात्मण्यतिरिक्तो योऽम्यः स परस्तस्य व्यपदेश
जागोतिषापामारो सिधा पीरियं तिषा सामरथं ति था इति समासः, साधोपापधापयासपारणकाले भिक्षायै स
एगह । माचू.१०। सायजमणुबिलु ति पा पाषकम्म. मुपस्थितस्य प्रकरमन्नादि पश्यतः भाषकोऽभिध-पर
मासषितं तिथा वितहमा ति पा एगट्ठा । भा० कीयमिमिति, नाम्माकीममतोमवामि, किश्चियाचितो
१० । साबजमणाययणं असोहिट्ठा कुसीलसम्मा थाऽभिधने--विद्यमान पयामुकस्यमास्त, तत्र गस्था मा- | एगा । मौ०। गयत यूयमिति । 'मात्सर्यम्' इति याचितः कुप्यनि सपदि
सावजकडा-सावधकता-खी। साषचभाषायाम् , भाय० नवनि, 'परोन्ननियमनस्यं च मात्सर्य' मिति, एतन ताबदमकणा याचितेन दतं किमहं ततोऽप्यन इति मान्सगद ददाति, कषायकलुषितेनैव चिन्तन तो मात्सर्यमिति सावअकिरिया-सावधक्रिया-स्त्री० । पञ्चविधश्रमणाचर्थकव्याख्यातं सातिचारं चतुर्थ शिक्षा पदव्रतम् । आव०६०।। तबसतो, स्थानादिकुर्वतस्तथाविधे उपाश्रये, प्राचा।
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सावज्जजोग सापद्ययोग पुं० धि० । श्रा० म० ।
सावज्जचागख्य
सावज्जचागरूव- सावद्यत्यागरूप-त्रि० । निखिलपापण्या
पारपरिहारस्वभावे, पञ्चा०५ विव० ।
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साम्प्रतं सावद्यावयवव्याख्यानार्थमाहकम्ममवज्रं जंगर - हियं ति कोहाइगो व चत्तारि । सह तेहि जो उ जोगो, पक्खाणं भवइ तस्य ॥ कम्-अनुष्ठानमय किमविशेषेण नेत्याह-पत् गर्हितमिति पनिन्यमित्यर्थः अथवा क्रोधादयत्वारोऽयं तेषां सर्वावद्यहेतुतया कारणे कार्योपचारात् सह तेनावन यो योगो व्यापारस्तस्य सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं निषेधलक्ष संभवति । पाठान्तरम् 'कम्मं घजं ञं गरहिये 'ति तत्र 'वृजी' वर्धन, पते इति शेष पूर्ववत् नवरं सह बर्जेन सवर्जः प्राकृतत्वात् सकारस्य दीर्घत्वं सावर्जमिति भवति । श्र० स० १ ० सावज्जजोगपरिवजणा-सावद्ययोगपरिवर्जना- स्त्री० । सपापव्यापारपरिद्वार निरवद्ययोगासंघायाम्, पञ्चा० १० विव० । सावज्जबहुल - सावद्यबहुल- त्रि० । पापभूयिष्ठे, दश० ६ श्र० । सावज्जा-सावद्या- श्री० श्रमसाधुनिधावेंदन सापाय बसतो, श्राचा०२ श्रु०१ चू० २ ० २० । ( 'वसहि शब्द पष्टभागे सूत्रमुक्तम् । ) सावज्जायरिय-सावद्याचार्य पुं०। कुवलयप्रभाचार्य, गण श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्याया दिपापभादिचतुर्विंशतिकायाः प्रागनकालन याऽतीता चतुर्विंशतिका तस्यां मत्सदृशः सप्तहस्ततनुधर्मश्रीनामा चरमती भूषि
सायणि अभूवन् यपूजयत्तायामने के था नारियनिवासिनां भूवन् । सबैको मरकतद्विनामनगारी महातपस्य उहारी शिष्यवृतः समागादिग्यम्अवरात्रिकं वा यथा
भवन्ति कुस्माकम् गोसाव मिनाईन
(220)
अभिधान राजेन्द्रः ।
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तीर्थाजिनम् कृत भयोः । ततस्तैः सर्वैरमतं कृत्वा तस्य सावद्याचार्य इति नामं दत्तं प्रसिद्धि नीनं च । तथाऽपि तस्य तेची पदपि कोपा नाभूत् । अन्यदा तेषां लिङ्गमात्रप्रव्रजितानां मिथः श्रागमविचारो बभूव । यथा श्राद्धानामभावे संयता एव मठदेवकुलानि रक्षन्ति पतितानि च समारचयन्ति । अन्यदपि यत्तत्र कतानिषः संयमी मीक्षनेता, नेता केचिद् ऊचुः प्रासादायक पूजा सरकाग्यांचि घानादिना समय गमनम् । एवं
पदम्य आगमकुशलो नाल कोपि यो विवाद भनक्क । सर्वैः सावद्याचार्य एव प्रमाणीकृत ग्राका
देशमा एक
मायनायरिय
द
श्रद्धावशात् प्रदक्षिणीकृत्य झगिति मस्तकेन पादौ सङ्घट्टयन्त्या ववन्दे दृस्तैर्वन्द्यमानः । श्रभ्यदा स तेषामग्र श्रुताकथनेऽस्य महानिशीथस्य पञ्चमाध्या गतेयं गाथा, "अस्थित्थी करफरिसं, अंतरियं कारणे वि उपने । अरिहावि करिज्ज सयं तं गच्छं मूलगुणमुकं "आत्मशङ्कते चितिं सायन्दनम मस्ति सावद्याचार्य इति नाम पुराऽपि दत्तम्, साम्प्रतं तु यथार्थकथनेऽन्यदपि किमपि करिष्यन्ति, अन्यथा प्ररूपणे तु महत्याशातना अनन्तसंसारिता च स्याताम्, ततः किं कुर्वे । अथवा यद् भवति तद्भवतु यथार्थमेव व्याकरोति ध्यात्वा व्याख्याता यथार्थ गाथा । तैः पापैरुक्तं यद्येवं तत् त्वमपि मूलगुणद्दीनो यतः साध्या वन्दमानया भवान् स्पृए रातो पास वी किमुत्तरं ददे । आचा दिना किमपि पापस्थानं न सेवनीयं त्रिविधं त्रिविधेन, [[]] सोऽनन्तरं कि न] दस का यमङ्गीकृत्क्रम् अयोग्यस्य ना न दातव्यः "ग्राम घंड निद्दत्तं, जहा जलं तं घडे विणासह | इन सिर्द्धनरहस्से, अप्पाहारं विणासे ॥ १ ॥ " इत्यादि तैरुच-किमसम्बद्धं भाषसे, अपसर दृष्टिपथात् श्रहो स्पर्माप संधेन प्रमाणीकृतोऽसि । ततस्तेन दीर्घसंसारित्वमङ्गीकृत्यालम्, उदेगमः स्थितो न जानी" मि एगंत उतं जिवास आखा अंतःस प्रशंसितः सचनसंसारित्यमुपास्यति कान्ती त्या व्यस्त यभूय है। सन्प्रोषितप्रतिकायाः प्रतिवासुंदवही कुलक कभीताभ्यां पितृभ्यां निर्विषयीकृता सा क्वापि स्थानमलभमाना दुर्भिक्षे कल्पपालगृहे, दासीत्वेन स्थिता मद्यमांसदोहदो ऽस्याः सञ्जातः । बहूनां मद्यपायकानां भाजनेपृच्छि मद्यमांस च भुङ्क्ले, कांस्यद्स्यन्द्रविणानि चोरयित्वाऽन्यत्र विकीयांसे गुस्यामिना राम्रो निवेदनम् । राजा मारयाय प्रसूतिसमर्थ यायचा लानाम् ।" अप्रसूता न हन्यते " इति तत्कुलधर्मत्वात् । प्रसूता बालकं त्यक्त्वा नष्टा राज्ञा पञ्चसहस्रद्रविणदा'नेन बालः पालितः । क्रमात् सूनाधिपतौ मृते राजा स एव तद्गृहस्वामी कृतः पञ्चशतानामीशः २ ततो मृत्वा सप्तमपृथिव्यां ३३ सागगयुः ३ तत उद्वृत्यान्तरद्वीपे एकोरुकजातिर्जातः, ४ ततो मृत्वा महिया २६ वर्षायुः ५, ततो मनुष्यः ६. ततो वासुदेवः ७, ततः तिन गजकर्णो मनुष्यो मांसाहारी
तो मृत्या सप्तमपृथिव्याम प्रतिष्ठान गतः १० ततो महिषः ११. ततो बालविधवा बन्धकी ब्राह्मणसुताकुक्षायुत्पन्नः, गशाननपालन क्षाराचू योगराधिपरिगती कुष्ठकृमिनिर्भरमा गर्भाधितः लोकनियमानः सुधाकृमिभिर्भक्ष्यमाणां लोकैर्निन्द्यमानः दिपीडितो दुःखी सप्तवर्षशतानि द्वौ मासौ चत्वारि दि १२. मृतां स्वस्तोः१३. ततः सूनाधिपो मनुष्यः २४, ततः सप्तम्यां २५, ततश्चात्रिकगृहे वृषभो वाह्यमानः क्वथितस्कन्धो मुक्तो गृहस्वामिना का
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सावज्जायरिय अभिधानराजेन्द्रः।
सावज्जायरिय करुमिश्वानादिभिर्चिलुप्यमानः २६ वर्षायुर्मुसो १६. बहुव्या- | एवं च केइ भणंति-संजमं मोक्खनेयारं । अग्ने भणंति जहा धिमामिभ्यपुत्री धमनविरेचनादिदुःखवास्यगतो मनुष्य- णं पासायवाडिमए प्रयासकारबलिविहाणाइसणं तित्थत्थाभषः १७, एवं चतुर्दशरज्ज्यात्मक लोकं जन्ममरणैः परिपूर्य अनन्तकालेनाऽगरविदेहे मनुष्योऽभवत् । तत्र ला
पणाए चेव मोक्खगमणं । एवं तेसिमविइयपरमत्थाणं पावकानुवृत्त्या गतस्तीर्थकरबन्दनाय, प्रतिबुद्धः , सिद्धः । भत्र कम्माणं जं जं सिद्धता तं चेव मुद्धा मुक्खलक्षणं मुप्रयोविंशतितमश्रीपार्श्वजिनस्य काले गौतमोऽमाक्षीत्- हेणं पलवंति । ताहे समद्रियं वादसंघटुं तत्थ य कोइ नत्थि किंनिमित्तमनेन दुःखमनुभूतम् ?, गौतम ! उत्सर्गापयादैरा
आगमकुसलो तेसि मज्झे । जो तत्थ जुत्तं वियारेइ, जो गमः इत्यादि यद् भणितं तनिमित्तम् । यद्यपि प्रवचने उसर्गापवादी अनेकान्तश्च प्रशाप्यन्त, तथापि अकायप- पमाणमुवइस्सइ । तहा एगे भणंति जहा अमुगो अमुगगरिभोगस्तेजःकायपरिभोगो मैथुनसवनं चैकान्तेन निषि- च्छमि चिट्ठइ अन्ने भणंति-अमुगो, अन्ने भणंति किमित्थ द्धानि, इत्थं सूत्रातिक्रमादुन्मार्गप्रकटनं ततश्चाक्षाभङ्गः, त-! बहुणा पलबिएणं सब्वेसि अम्हाणं सावज्जायरिओ एत्थ स्माच्चानन्तसंसारी । गौतमोऽप्राक्षीत्-किं तेन सावद्या
पमाणं ति तेहिं भणियं जहा एवं होउ त्ति हक्काराविहं लहूं। चार्येण मैथुनमासेविनम् ?, गौतम ! नो सेवितं नोडसेवितम् ,यतस्तेन बन्दमानार्या स्पर्श पादौ नाकुञ्चितौ । भगवन् ! तो हक्काराविनोगोयमा सो तेहिं सावज्जायरिश्रो आगतेन तीर्थकरनामकर्मार्जितम् । एकभवावशेषीकृतश्वासी ओ दूरदेसाओ अप्पडिबद्धत्ताए विहरमाणो सत्तहिं मासेहिं । योदधिः, तत्कथमनन्तसंसारं सम्भ्रान्तः ? गौतम ! निजप्र- जाव ण दिट्ठो एगाए अज्जाए । सा य तं कटुग्गतवच्चरमाददाषात् , यतः सिद्धान्तेऽप्युक्रमस्ति-" चोहसपुब्बी
णमोसियसरीरं चम्मद्विसेसतणुं अच्चंतं तवसिरीए दिप्पंतं आहा-रगा वि मणनाणिवीयरागा य । हुँति पमायपरयसा , तयखंतरमेव च उगइया ॥१॥" इत्यादि । तस्मात् गच्छा
। सावजायरियं पेच्छिय सुविम्हियतक्करणा विउक्किउं पपन्ना। धिपतिना सर्वदा सार्थेषु अप्रमत्तेन भाव्यम् । इति पू- अहो किंएस महाणुभागोण सोअरहा, किंवाण धम्मो चेव चार्यसंस्कृतसावधाचार्यसम्बन्धः। ग०१ अधिक।
मुत्तिमंतो, किं बहुणा तियसिंदवंदाणं पि वंदणिज्जो पाजहा णं भयवं ! जइ तुममिहाइ एक्कवासारत्तियं चाउ
यजुओ एस त्ति चिंतिऊणं भत्तिभरनिब्भरा आयाहिणं म्मासियं पउंजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालगे
पयाहिणं काऊणं उत्तिमंगेणं संघ माणी झगिति निवडिया भवन्ति, नूगं । तज्झाणत्तीए ता कीरउ अणुग्गहमम्हाणं.
• चलणेसु । गोयमा ! तस्स णं सावज्जायरियस्स दिट्ठो य इहेव चाउम्मासियं । ताहे भणियं तेण महागुभागेणं,
सो तेहिं दुरायारेहिं पण मिजमाणो । अन्नया णं सो तेसिं गोयमा ! जहा भो भो पियं वए जइ वि जिणालए तहा विसावजमिणं णाई वायामित्तेणं पि (णाय) आय
तत्थ जहा जगगुरूहि उवइ8 तहा चेव गुरूवएसाणुसारेणं रिजा । एवं च समयमारपरं तत्तं जहट्ठियं अविपरीअं
आणुपुवीए जहट्ठियं सुत्तत्थं वागरेइ ते वि तहा चेव सद्दति णीसंक भणमाणेण तेमि मिच्छद्दिट्टिलिंगीणं साहुवेस
अत्रया ताव वागरियं गोयमा ! जाब णं एकारसएहमंधारीण मज्झे गोयमा। आसकलियं तित्थयरनामकम्म
गाणं चोद्दसराहपुवाणं दुवालसंगस्स णं सुयनाणस्स गोयं तेणं कुवलयप्पभेणं पगभवावसेसीकओ भवोयही ।
णवणीयसारभूयं सयलपावपरिहारट्ठकम्मनिम्महणं आतत्थ य दिदो अणुविज नाम संघमेलावगो आसितेहिं च गयं इणामेव गच्छमेरापवत्ताणं महानिसीहसुयक्खंधस्स बहहिं पावमईहि लिंगिणियाहिं परोप्परमेगमयं काऊणं पंचम अज्झयणं । अत्थेव गोयमा ! ताव ण वगोयमा ! तालं दाऊण विप्पलोइयं चेव । ते तस्स महाणु
क्खाणीयं जाव ण आगया इमा गाहा-" जत्थित्थीकभागसुमहतवस्सिणो कुलयप्पहाभिहाणं, कयं च से सा- रफारस, अतारय कारण वि उप्पन्न । अरहा वि करज वञ्जायरियाभिहाणं सद्दकरणं गयं च पसिद्धीए । एवं
सयं, तं गच्छं मूलगुणमुक्कं ॥१॥" तो गोयमा अप्पसंस च वदिजमाणो वि सो तेणाऽपसत्थसद्दकरणेण तहा वि किएणं चव चितियं तेण सावज्जायरिएणं । जइ इह गोयमा! इमि पिण कुप्पो । अहऽनया तेसिं दरायारणं एवं जहट्टियं पनवेमि तो जं मम बंदणगं दाउमासद्धम्मपरम्मुहाणं अगारधम्मोऽणगारधम्मोभयद्वाणं लिंग- णीए तीए अज्जाए उत्तिमंगेण चलणंगे पुढे तं सव्वे हिं मेत्तनामपव्वइयाणं संजाओ परोप्परं आगमवियारो । जहा पि दिट्ठा इमेहिं ति । ता जहा मम सावज्जायरियाभिणं सडगाणं असइ संजया चेव भट्ठदेउले पडिजागरेंति । हाणं कयं तहा अन्नमवि किं चि एत्थ सदं किं खंडपडिए व समारयति । अन्नं च जाव करणिशं तं । काहंति । अह अनहा सुत्तत्थं पनवेमि ता णं महती पइसमारंभे कज्जमाणे जइस्मावि णं नत्थि दोससंभवं आसायणा; तो किं करियरमेत्थ त्ति, किं एयं गाहं एव उ१- विजपत्तो ' इति महानिशीथे ।
वचयामि, किंवा गं अन्नहा पनवेमि । अहवा- हा हा सा
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सावज्जायरिय अभिधानराजेन्द्रः।
सावज्जायरिय जुत्तमिदं उभयहा वि अवंतगरहियं भायहियट्ठीणमेयं जे यखरस(म)च्छरीभूभो एस तमो संखुद्धमणं खरमच्छरीभृयं उणमेस ममाभिप्पानो जहा ण जे भिक्ख दुबालसंगस्स कलिऊणं च सणियं तेहिं दु(सोयारेहिं जहा जाव णं तो णं सुयनाणस्स असई चुक्तावलियपमाया संकादी स- छिन्नभिन्ममासंसयं ताव णं उर्दु वक्खाणं अधिती एत्थं तं भयतणं पयक्खरमत्ताबिंदुमत्रि एक पविजा , अब- परिहारगं वायरेजा । ज पोहजुत्तीखमं कुग्गहणिग्गहपश्चलं हा या पत्रवेञ्जा संदिद्धं वा सुत्तत्थं वक्खाणेजा - तितो तेण चिंतियं । जहा नाहं अदिमेणं परिहारगेणं चुविहिए अप्रोगस्स वा वक्खाणेजा, से भिक्खू अणंतसं- किमो एसि ता किमित्थ परिहारगं दाहामि त्ति । चिंतयंतो सारी भवेजा। ता किं एत्थं जं होही तं च भयउ पुणो वि गोयमा भणियो ,सो तेहिं दरायारेहिं जहा किजहट्टियं चेव गुरूवएसाणुसारेण सुत्तत्थं पवक्खामि ति मचिंतासागरे णिमनिऊ ठिमो सिग्धमेत्थ किंचिपचितिऊणं गायमा ! पवक्खाया णिखिलावयवावसु-! रिहारगं वयाहि , णवरं तं परिहारगं भणेआ जं जहत्तत्थद्धा सा तेण गाहा, एयावसरंमि चोइओ गोयमा ! किरियाए अव्यभिचारि । ताहे सुइरं परितप्पिऊर्ण हियएणं सो तेहिं दुरंतपतलक्खणेहिं , जहा जइ एवं ता तुमं पि भणियं सावज्जायरिएणं , जहा एएणं भत्थेणं जगगुताव मूलगुणहीणो जाव णं संभरसु तं, जं तद्दिवसं तीए रूहि वागरियं जं प्रमोग्गस्स सुत्तत्थं न दायव्वं । जोप्रजाए तुझं बंदणगं दाउकामाए पाए उत्तमंगेणं पुढे, "मामे घडे निहत्तं,जहा जलं तं घड विणासेइ । इय ताहे इहलाइगाऽपयसहीरू खरम(म)च्छरीहूओ गोयमा! तरहस्स,मप्पाहारं विणासेइ ॥१॥" ताहे पुणो पि तेहिं भसो सावजायरियो चिंति उ जहा से जं मम सावायरि- णियं जहा किमेयाइं भरडवरडाइं असंबद्धाई दुम्भासियाई याऽभिहाणं कयं इमेहिं तहा य किं पि संपइ काहिंति,जेणं तु पलवह,जह परिहारगं दाउंन सको ता उप्फिडसु सुभासणं सब्बलोए अपओ भविस्सं ता किमित्थ परिहारगं दाहा- भोसर सिग्धं इमामो ठाणो किं देवस्स रूसेजा,जत्थ तुम मि ति चिंतमाणेण संभरियं तित्थयरवयणं । जहा गं पिपमाणीकाऊणं सव्यसंघेण समयसम्भावं वायारेउ जं जे केइ पायरिण्ड वा गणहरेइ वा गच्छाहिवई सुयहरे समाइडो तमो पुणो वि सुइरं परितप्पिऊणं गोयमा ! भवेआ से गंजे किंचि सबन्नहिं मणतनाणीहिं पावाय- भन परिहारगमलभमाणेणं अंगीकाऊण दाहसंसार भणियणट्ठाणं पडिसेहियं तं सव्वं सुयाणुसारेणं विनायं स- यं च सावज्जायरिएणं । जहा णं उस्सग्गाववाएहि भागमो यहा सवपयारेहिं णो समायरजा , णो णं स- ठिो तुझे ण याणह । “एगंतं मिच्छतं जिणाणमामायरिजमाणं समणुजाणेजा, से कोहेण वा माणेण वा णामणेगंता" एयं च वयणं गोयमा ! गिम्हाय बसता वि मायाए वा लोभेण वा भएण वा हासेण वा गारवेण एहिं सिहिउलेहिं वा । अहिणवपाउससजलघणारनिमिव स
प्पण वा पमाएण वा असता चुकखालएण वा बहमाणं सामाइयत्थितेहिंददसोयरिहिं,तो एगवयणदोदिया वा राम्रो वा एगो वा परिसागमो वा सु- सणं गोयमा! नियंधिऊणाऽणंतसंसारियत्तणं अपडिकमिते वा जागरमाणे वा तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए ऊणं च तस्स पायस्य समुदायमहाखंधमेलावगस्स मरिऊणं कारणं एतेसि मे पयाणं जे केइ विराहगे भवेजा , उपवनो वाणमंतरेसु सो सावज्जायरियो। तो चुभो से णं भिक्खू भूयो भूयो निंदणिजे गरहणिजे खि- समाणो उपवनो परसियभत्ताए पडिवासुदेवपुरोहियधृसणिज्जे दुगुंछणिजे सव्वलोगपरिभूए बहुं बाउवे- याए कुच्छिसि । श्रहऽनया वियाणिो जणणीए पुरोहित यणापरिगयसरीरो उक्कोसहिइए अणंतसंसारसागरं प
यभजाए। जहा णं हा हा दिग्नं मसीकुच्चयं सधनियकुलस्स रिभमेजा । तत्थ णं परिभममाणे खणमेकं पि न कह
इमाए दुरायाराए मज्झ ध्याए साहियं च पुरोहियस्स । वि कयाइ निव्वुइं संपावेजा। ता पमायगोयरगयस्स तो संतप्पिऊण सुइरं बहुं बहियएणं साहारेउं निधिण में पावाहमहीण सत्तकाउरिसस्स इहई चेव समुट्टियाए सया कया सा तेणं पुरोहिएणं ए महंता असज्झदुन्निवामहंता पावई,जेणं ण सक्को महमेत्थजुत्तीखमं किं वि प- रश्रयसभारुणा । प्रहऽनया थोवकालंतरेणं कहि वि धाडिउत्तरं पयाउ,जे तहा परलोगे य अणंतभवपरंपरं भममाणो ममलभमाणी सीउपहवायविम्भंडिया दुक्खस्खामकंठा घोरदारुणाणतसोयदुक्खस्स भागी भविहामि । हं मंदभा- दुभिक्खदोसणं पविष्ठा दासत्ताए रसवाणिजगस्स गेहे । गो ति चिंतयंतोऽपिलक्विनो सो सावायरिभो। गो- तत्थ य पहूणं मञ्जमाणगाणं संचियं साहरेइ । मयमा तहि दरायारपाकम्भदवसीयारेहि जहाणं अलि गुममयं वृधिगं ति । महऽनया मादिर्य सा
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(७६१) सावज्जायरिय अभिधानराजेन्द्रः।
सावज्जायरिय हरमाणीएम दहणं च बहुमज्झपाणगे मञ्जमापिवमाणा लिऊणं श्रणेगसंगामारंभपरिग्गहदोसणं मरिऊण गमो सपोग्गलं च समुद्दिसते तहेव तीए मञ्जमंसस्सोवरि दोहलगं समाए । तत्रो वि उच्चट्टिऊणं सुइरकालाओ उपवनो गसमुप्पन्नं जाव णं जं तं बहुमजपाणगं नडनदृछत्तवारणं यकन्नो नाम मणुयजाई । तो वि उबट्टिऊणं पुणो वि भंडोडावेउ तकरसरिसजातीसु मुजिय खुरसीसपुंछकत्तट्ठि- उववन्नो तिरिएसु महिसत्ताए, तत्थ वि णं नरगोवमं दुयमयगयं उच्चिद्रं बच्छरसंडं तं समुदिसितुं समारद्धा । ताहे क्खमणुभवित्ता णं मश्रो समाणो उबवन्नो बालविहवाए तेस चेव उच्चिद्रकोडियगेसु जं किंचि विणाहीए मझ विव- पुंसलीए माहणध्याए कुञ्छिसि । महऽनया निउत्तपच्छके तमेव सोइउमारद्धा । एवं च कइवयदिणाइक्कमेणं मज- अगम्भसाडणपाडणक्खारचुनजोगदोसेणं प्रणेगवाहिवेमंमस्मोरिं ददं गेही संजाया। ताहे तस्सेव रमवाणिअगस्स यणापरिगयसरीरो सिडिहडंतकुट्टवाहीए परिगलमाणे गेहाओ परिमुसिऊणं किंचि वि कंसदसदविणजायं अन्न- सलसलिंतकिमिजालेणं खजंतो नीहरिभो निरभोवमस्थ विकिणिऊणं मजं मंसं परिभुजइ । तं च णं विनाय घोरदुक्खनिवासाम्रो गम्भवासाओ , गोयमा ! सो तेण रसवाणिजगेण, साहियं च नवरहणो, तेणावि बज्झा सावज्जायरियजीवो तो सबलोगेहिं निंदिज्जमाणो समाइदा । तत्थ य राउले एमो गोयमा! कुलधम्मो- गरहिजमाणो खिसिज्जमाणो दगंछिजमाणो सब्बलो"जहा णं जा काइ प्रावनसत्ता नारी अवराहदोसेणं सा गपाणखाणभोगोवभोगपरिवजिओ गम्भवासपसितीए चेजावणं नो पसूया ताव णं नो वावाएयव्या" । तेहि वि व विचित्तसारीरमाणसिगघोरदुक्खसंतत्तो सत्त संबच्छरणिउत्तगणिगितगेहिं सगेहे नेऊण पमूइसमयं जाव णियंति- सयाई दो य मासे चउरो दिणे य जाव जीविए रक्खेयव्या। अहऽनया णीया तेहिं हरिए सजाइहिं स- ऊणं मओ समाणो उववन्नो वाणमंतरेसु, तमो य गहि कालकमेण पमूया य दारगं तं सावजायरियजीवं । उपवन्नो मणुएसु, पुणो वि सूणाहिवइत्ताए, तो पसूयमेत्ता चेव तं बालचं उज्झिऊण पणट्ठा मरण- तो वि तक्कम्मदोसेणं सत्तमाए, तमो वि उन्धभयदिया सा गोयमा! दिसिमेकं गंतू वियाणियं च तेहिं द्विऊणं उपवनो तिरिएK चक्कियघरंसि गोणचाए । तत्थ पावेहि, जहा पणट्ठा सा पावकम्मा साहियं च नरवइणो य चक्कसगडलंगलपट्टणेण अह तिसंझ वारोवणेणं पतिसूणाहिवइणा । जहा णं देव ! पणट्ठा सा दुरायारा कय
ऊण जुहियाउच्छियखधं समुत्थिए य किमी ताहे, अक्खलीगम्भोवमंदारगं उज्झिऊणं । रत्ना वि पडिभणियं । जहा मीहयं खधं जवधरणस्स विन्नाय पिट्टीए वाइउम रद्धो तेणं णं जइ नाम सा गया ता गच्छउ तं बालगं पडिवालेजासु चक्किएणं । अहऽन्नया कालकमेणं जहाखधं तहा कुच्छिऊसव्यहा तहा कायब्वं जहा तं बालगं ण वावज्जे, गि- ण कुहयपिट्ठी तत्थ वि समुत्थिए किसी सडिऊण विगयं च रहेसु इमे पंचसहस्सा दविणजाइ । तओ नरवइणो
पिढिचम्म ताधि परं निप्पोयणं ति णाऊण मोकलियं । संदेसेणं सुयमिव परिवालिओ सो पांसुलीतणो । अ
गोयमा ! तेणं चक्किएणं तेसल्लं सत्तकिमिजालेहिं गंवनया कालकमेणं मो सो पावकम्मो सुणाहिवई । तो
इल्लमावजायरियजीवं । तो मोकलिमो समाणो पडिसरबा समणुजाणिउं तस्सेव बालगस्स घरसारकरी पंच- डियचम्मो बहुकायसाणं किमिकुलेहिं सबझन्भतरो वि. एहं सयाणं अहिवई । तत्थ य सूणाहिवइपइदिओ लुप्पमाणो एकूणतीसं संबच्छराई जाव अहाउगं परिवालेसमाणो ताई तारिसाइं अकरणिजाई समणुट्टिताणं तो ऊण मओ समाणो उप्पन्नो अणेगवाहियेयणापरिगयसरीसो गोयमा! मत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणनामे निरयावासे रोमणुएसु महाधणुस्स णं विजगहे । तत्थ य वमणविरेसावजायरियजीवो । एवं तं तत्थ तारिसं घोरपचंडरोई
यणखारकडतित्तकसायतिहलागुग्गुलकाटगेश्रावीयमाणस्स सुदारुणं दोक्खं नित्तीसं३३ सागरोत्रमं जाव कहवि लेसेणं निच्चचिसोसिराहिं च असज्माणुवसमे घोरदारुणदुक्खेहिं समणुभविऊणं इहागो समाणो उववन्नो अंतरदीवे ए- पजालियस्सेव । गोयमा ! गो निष्फलो तस्स मगोरुयजाई । तो वि मरिऊण उववन्नो तिरियजाणीए णुयजम्मो । एवं च गोयमा ! सो सावज यरियज वो महिसत्ताए, तत्थ य जाई काई वि णारगदुक्खाई तेमि तु | चोदसरज्जुयलोग जम्मणमरणेहिं णं निरंतर पडिऊणं सरिसनामाई अणुभविऊणं छब्बीसं संवच्छराणि तो सुदीहाणंतकालाप्रो समुप्पन्नो मणुयत्ताए अवरविदेह । गोयमा ! मओ समाणो उववन्नो मणुएसु । तो वासुदे-! तत्थ य भागवसेण लोगाणुवत्तीए गो तित्थयरस्स बंदवत्ताए सो सावञ्जायरियजीवो । तत्थ वि अहाउयं परिवा- णवत्तियाए पडिबुद्धो य पव्वइओ सिद्धो य । इह तेवीसह
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सावज्जायरिय अभिधानराजेन्द्रः।
साविक्ख मतित्थयरसासणस्स काले। एयं च गोयमा ! सावजा- यसयासे सालिभद्दइभदासचेडी वयणणं दो मासयसुवस्मकयरिएणं पावियं । महा० ५ अ.।
ए वञ्चतो कमेण सय बुद्धो जाश्रो। पडिबाहिऊण पचसय
चोरसहिओ सिद्धो श्र। इत्थेव तिंदुगुजाणे पंचसयसमणश्र. सावण--श्रावण-त्रि. श्रवण गयोजककतैरि, पो०११ विवा।
जियासहस्सपग्वुिडा पढमभिरहयो जमाली ठिी , ढंकेणश्राव । श्रोत्रेन्द्रियजे ज्ञाने, नपुं० । द्वा०२६ द्वा० । श्रवणयु- कुंभयारण पढम निसालासंठिश्रा भगवो धूश्रा पियपौर्णमासीघटिते मासे, पुं० । ज्यो० १ पाहु० ।
दसणा अजा माडिया एगदेस अंगारं छोदण. 'कयमाग कि. सावणमास-श्रावणमास-पुं०1 त्रिंशदाक्रिन्दिवात्मके कर्म- यमिति चीरवयणं पडियम पडिवजाबिया तीए य सेससामासे, ज्यो०१ पाहु।
हुणी साहुगो पडियोहिया सामी चव अल्लीणा एगो चेव ज
माली बिप्पडियनो ठिो । उत्थेव तिदुगुज्जासे केसीउमारसावणसंवच्छर-सावनसंवत्सर-पुं० । ऋतुसंवत्सरे, स्था० ५
समणो गणहरो भगवया गोयमसामिणा कुटुओ जाणाश्री ठा०३ उ०।
प्रागतूण परुप्परं संवायं च काउं पंचजामं धम्म कारिओ । सावतेय-स्वापतेय-न। शुद्धे द्रव्यजाते, सूत्र०२ श्रु०१०
इत्था एग वासारत्तं समणो भय महावीरो ठिो खंडपसावस्थिया-श्रावस्तिका--स्त्री० । उडुपाटिकगणस्य प्रथमशा- डिमाए सकेगा य पृडओ चित्तं च तबोकम्ममकासी। इत्थेय खायाम् , कल्प० २ अधि०८ क्षण।
जियसनू धारणीपुत्तो खंदगायरिओ उणणो । जो पंचस
यसीससहियो पालगग कुंभयारकडनयरे जतेण पीलिश्रो। सावत्थी-श्रावस्ती-स्त्री० । कुणालजनपदप्रधाननगर्य्याम ,
इत्थव जियसनुरायपुत्तो भद्दो नाम पब्वइत्ता पडिम पडियन्नो प्रज्ञा०१ पद । भ० । ज्ञा०। एक श्रावस्त्याम् । कल्प० १ अ- बिहरंतो घेरजे संपत्ती चारिउ त्ति काऊण गहिरो गयपुरिधि०६ क्षण । प्रव०। उत्त० । ज्ञा० । आव० भ० । स्था० । सेहिं तत्थ य गोखीरं दाउं कक्कडदज्झेहिं वेढियो मुको सिद्धो श्रा०क०। प्रा०म०।
अ जहा गयगिहाइसु नहा इत्थ वि नयरीए बंभदत्तहिडी 'दुहसरितारणवत्थी, सावत्थी सयलसुक्ख पसवस्थी।
जाया। इत्थेव खुड्गकुमारो अजियसेणायरियसीसो जगणी नमिऊण संभवजिणं, तीस कप्पमि कप्पलवं ॥१॥
मयहरिया पायरिय उवज्झायनिमिनं बारस बरिसारिण अस्थि इहव दाहिणद्धभारह वासे अगणिज्जगुणविसए
दव्बो सामरणो ठिो, नट्टविहीए सुटु गाइयं, सुटु वाइय कुणालाविसए सावत्थीनाम नयरी, संपइ काले महचित्ति- दिव्बाई गीयं सोउ जुवरायसत्थवाहभजा सम्मि तेहि रूढा जत्थ अज वि घणगहणवणमहिट्टियं सिरिसंभवनाह
सम पडिबुद्धो, एवमाईण अणेगसिं संविहाणगरयणाणं उपडिमाविभूसियं गयणग्गलग्गसिहरं पासट्रियजिबिंब- पपत्ती एसा नयरी रोहणगिरिभूमि त्ति । मंडियदेव उलियाअलंकरियं जिणभवणं ति चिटुइ पायारपरि "सावस्थिमहानिन्थ-स्स कप्पमेयं पढंतु बिबुहवग। यरियं । तस्स चेइयम्स दुबारे अदूरसामने विहिरउल्लिसिहरं जिगागवयगणभत्तीए. इय भणइ जिगप्पही सूरी ॥ १॥" अतुल्लपल्लवसिणिद्धच्छाश्रो महल्लसाहाभिगमोरेत्तमो अपा-। इति श्रीश्रावस्तीकल्पः । ती० ३६ कल्प। ययो दीसह । नस्स य जिणभवणस्स पउल्लीए जे कवाडसपुडा पासि ते माणिभद्दजक्खाणुभावाश्रो मूरिए अत्थ
| सावयगुण-श्रावकगुण-पुं० । अक्षुद्रत्वादिषु श्राद्ध गुणषु, मिते सयमेव लग्गति म्ह , उदिए य दिणयरे सयमेव उ
"धम्मरयणम्स जुग्गा , अक्खुद्दो रूवयं पगयसोम्मा । ग्घउंति म्ह । कलिकालदुल्ललिअवसेण अल्लावदीणसुरत्ताण- ।
लोगविषयो प्रकृरा, भीरू असढो सुदक्खिन्नो ॥ १॥ लजा
लुओं दयालू , मज्झत्थो सोमदिट्रिगुणरागी। सकह सुम्स मल्लिक्केगा हब्बसनामेणं 'बहडाइनच' नगराओ श्राग
पकजुत्तो,सुदीहदंसी निसेमन्नू ॥२॥" ध०र०१अधि० गुण । तूण पायारभित्तिकवाडाइ बिंबाणि अ भग्गागि , मंदप्पभावा हि भवंति दूसमाए अहिटायगा। तहा तस्सेव चइ
साबसलोणी-स(वांश)लावण्य-स्त्री० । सर्वाशैावण्ययुक्तायम्म सिहरे जतागयसंघेणं कीरमाणे राहवणाइमहूसवे श्रा- याम , "सावसलोणी गारडी,नवखी कवि बिसगंठि । भनुगंतण एगो चित्तगो ठविस्मइ । न य कस्स वि भयं जा- पञ्चलिओ सो मरइ,जासुन लग्गइ केठि॥२॥"सर्वस लावण्या ण इ । जानमंगलपईवेकर सट्टाणमुवगच्छइ त्ति इत्थेय नयरीए काऽपि नवीना विषग्रन्धिः यस्य कण्ठे न लगति स उच्चाययण चिटुइ जत्थ समुहवंसीया करा दल्लनरिंदकुल- भटः कामुकः प्रत्युत सम्मुख नियत इत्यर्थः । प्रत्युतेत्यस्य संभया रायागो छत्तभत्ता अज वि नियदेवयस्स पुरट्रम- स्थानेऽनेन पञ्चलियाऽऽदेशः। प्रा०ढ०४पाद। इग्घमुलं पल्लाणीयं अलंकियं विभूसियं महाउरंगमं ढोअंति।।
सावसेस-सावशेष-त्रि० । अनस्तमिते, कल्प० ३ अधि० । "अंगुलीविजा" य इत्थेव बुद्धेण संपयासिया महप्पभावा ।
क्षण । प्रश्न । इत्येव निप्पजंति नाणाबिहा साली। जेसि सब्यसालिजाईणं इक्किके कम्मि निखिप्पमाणे आसिह भरिजइ महतं
सावा -शाया-स्त्री० । भुजपरिसर्विणीविशेषे, जी०२ प्रति। खोरयं । इत्धेव भय संभवसामिणो चवरणजम्मण केवलनाणु- सावासग-स्वावासक-पुं० । स्वनीड, सूत्र०१श्रु०१४ अ०। प्पत्तिकल्लाणगाई सुरासुरनरभवणमरणरंजणाई अकारि । को
सावित-श्रावयत-त्रि० । इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभृतवचासंवर्धापुरीए उप्पन्नो जियसननिवसचिवकासपुत्तो, जस्स
सि श्रवणपथमानयति , भ० ६ श० ३३ उ०। कुच्छसंभूश्रो कठिनो महरिसी, जणयम्मि विवन्ने विजाअहिजगत्थं एयं नयरिं समागश्री पिउमितइददत्त यज्मा- साविक्ख-सात-पुं० । सह अपेक्षा गचलम्यति गम्यत ये
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( ७६३) साविक्रव अभिधानराजेन्द्रः।
सासयजत्ता षां ते सापेक्षाः । गच्छवासिषु , व्य० १ उ० ।
जीवाः शाश्वता अशाश्वता घा?गुरुगच्छादिसाहाय्यमपेक्षमाणो यः प्रवज्यां परिपालयति स | जीवा गं भंते ! किं सासया, असासया य । गोयमा! सापेक्षः । ध०३ अधिः । श्राचार्यस्य शिष्यैः प्रातीच्छिकैश्च
जीवा सिय सासया, सिय असासया । से केणद्वेणं भंते! सर्व कर्त्तव्यं ते च तथा कुर्वन्तः सापेक्षा उच्यन्ते । व्य०४२० ।
१२ बुच्चइ-जीवा सिय सासया , सिय असासया?। गोसावि(न)-स्वापिन-पुं० । स्वमशोले . वृ० १३०२ प्रका।
यमा! दन्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया । से ते-- सास--श्वास-पुं०। प्रागले,अतिशयत ऊर्ध्वश्वासरूपे रोगभेदे,
णद्वेण गोयमा! एवं बुच्चइ० जाव सिय असासया । नेशा० १ श्रु० १३ अ० जी० । । विपा० ।
रइया णं भंते ! किं सासया असासया । एवं जहा जीवा शश्य--न० "लुप्त य-रव-श-प-सांशष-सा दीर्घः" ८१४३॥
तहा नेरइया वि एवं. जाव वेमाणिया० जाव सिय इत्यादेः स्वरस्य दीर्घः । श्य इत्यस्य यलोपे सासम् । धा
सासया सिय असासया। (सू० २७४४) न्यवनस्पती, प्रा० १ पाद।
'दब्बट्टयाए'ति-जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थः। भावट्टयाए'त्ति-नासासंत--शासत-शिक्षा ददति, उत्त० ११० । आशापयति, रकादिपर्यायत्वनेत्यर्थः । भ०७ श०२ उ० । उत्त०१०।
पूर्वकृतकर्मणश्च वेदना तद्वत्ता च कथञ्चिच्छाश्वतत्वे सति सासचउक-श्वासचतुष्क--न० । उच्छासोधोतातपपराघात- युज्यत इति तच्छाश्वतत्वसूत्राणि , तत्र चसमूहे, कर्म० ५ कर्म।
नेरइया ण भंते ! किंसासया असासया?, गोयमा! सासग-शश्यक-पुं०। रत्नविशेषे, कल्प०१ अधि० ३ क्षण। सिय सासया सिय असासया। सेकेणटेणं भंते ! एवं सासण--शासन-न० । शास्यन्तेऽनेन जीया इति शासनम् ।
वुच्चइ नेरइया सिय सासया सिय असासया ?, गोयमा! द्वादशाके , आव०१०। प्रवचने, प्रश्न ५ संव. द्वार।
अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए सासया वोच्छित्तिणयट्ठयाए असम्म० । श्रावायाम् , जं. ३ वक्षः। प्रव० । सूत्र। वृ०। सासया ,से तेणद्वेणंजाव सिय सासया सिय असासया प्रतिपादने , नं० । शिक्षणे, अनु० । शा० । शिष्यते एवं० जाव वेमाणियाजाव सिय असासया । सवं भते ! प्रतिपाद्यत इति शासनम् । शिक्षणीय, प्रश्न० १ संव० सेवते ! ति( म०२८०) द्वार। सूत्र।
'अयाच्छित्तिणयट्टयाए 'त्ति अव्यवच्छित्तिप्रधानो नयोसासणगरिहा--शासनगर्दा-स्त्री० । प्रवचननिन्दायाम् , प
ऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थी-द्रव्यमव्यवच्छित्तिनथार्थस्तद्भाश्वा० ७विव०।
चस्तथा तया अव्यवच्छित्तिनयार्थतया-द्रव्यमाश्रित्य शासामणमालिप्म--शासनमालिन्य--न० । जिनप्रवचनस्य लोक- श्वता इत्यर्थः , 'बोच्छित्तिणयट्ठयाए' ति व्यवच्छित्तिप्रधाविरुद्धाचरणोपघात, हा०२३ अष्ट० । ('पभावणा' शब्दे
नो यो नयस्तस्य योऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा पञ्चमभाग ४३८ पृष्ठे विस्तरोगतः । )
व्यवच्छित्तिनयार्थता तया पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता
नारका इति । भ०७श०३उ० । निर्वाणे, जी० प्रति०। औ० । सासणसुरी-शासनसुरी--स्त्री०। प्रवचनदेवतायाम् , पश्चा०
जन्ममरणादिरहितत्वात् । सिद्धे , स्था० २ ठा०१ उ०। विव
त्रिकाले फलदायकत्वात् ब्रह्मचर्ये , उत्त० १६ १०। सासणाम--श्वासनामन्--न । उच्छासनामनि,कर्म०५ कर्म। स्वाशय-पुं० । स्वकीये श्राशये , स्वदर्शनाभ्युपगमे , सूत्र० सासय-शाश्वत-त्रि० । शश्वद् भवतीति शाश्वतम् , सूत्र.१ |
१ श्रु० १ १०३ उ० । शोभनाध्यवसाये , ध०२ अधिः । ५०५ ०२ उ । शश्वद्भावाच्छाश्वतम् । सततोपयो
स्वाश्रय-पुं० । स्व-मात्मीय उत्पत्तिप्रत्ययो यासु ताः गे, विशे० । श्रा० म० । नं० । श्राचा० । नित्ये . स्वाश्रयाः । अविनष्टयोनिषु , आचा० २0१च०१ सूत्र० २०१० । आव०। विशे०। ध्रुव, विशे०।
अ०१उ०। अनादी , स्था०५ वा०३ उ०। सूत्राशा०। प्रतिक्षसत्ता- स्वासक-पुं०। दर्पणाकारे अश्वालङ्कारविशेषे, जं३ वक्षः। लिङ्गत्वादस्थिते, स्था०५ ठा। ३ उ०। सूत्र प्रय० । श्रा-सासयचेडय-शाश्वतचैत्य-न० नन्दीश्वरादिष्यवस्थिते चैत्ये, चा० । शश्वद्भवनस्वभाव, जी०३ प्रति०४ अधि०।।
जीतः। अविनाशिनि , सूत्र०१ श्रु०१०१उ। शश्वदभाविनि , प्रज्ञा०३६ पद । शश्वद् भवनस्वभावे , नं० प्रतिक्षण सद- सासयजत्ता-शाश्वतयात्रा-खी० । नन्दीश्वरादिषु वमानिकभावात् (भ०२ श०२ उ०१) अनादिनिधन , स्था०१ठा०३ देवैः कृतायां तीर्थयात्रायाम् , ध० । अष्टाहिकास्यपि चैत्राउखादश०। अपुनरागामिनि,दश०६अ०४ उ०। साद्यपर्यवसित, विनाष्टाहिके शाश्वत्यो, तयोर्वैमानिकदेवा अपि नन्दीश्वरा. प्रश्न. ४ संव. द्वार । सर्वकालभाविनि , प्रा० म० ११०।। दिषु तीर्थयात्राघुत्सवान् कुर्वन्ति । यदाहुः-- सदाभाविनि , स० । आ० म०। सूत्र०। द्रव्यार्थतयाऽविच्छ- | "दो सासयजत्तामो , तत्थेगा होइ चिनमासम्मि । देन प्रवृत्त. स०
अट्ठाहिश्राहिमहिमा , श्रिा पुग्ण अस्मिा मासे ॥१॥
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( ७६४) सासयजत्ता
अभिधानराजेन्द्रः। एमाओदो वि सासय-जत्ताओं करिति सव्वदेवा वि। म्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमाणोत्कृतः षड्भिरावनन्दीसरंमि खयरा, हवा निमपसु ठाणसु ॥२॥ लिकाभिरगच्छतीति । ततः सहासावनेन वर्नत इति सातह चउमासियतियगं, पजोसवणा य तह य इन छक्क। । सादनम् । यता-साखादन सत्र सह सम्यक्त्व लक्षणजिणजम्मदिक्ख केवल-निव्वाणाइस्सऽसासया ॥३॥" रसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनम् , यथाहि-भुक्तक्षीरा
अत्र जीवाभिगमे त्वेवम्-" तत्थ णं बहवे भवणवाइ- अविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरानरसमास्वायाणमंतरजोइसबैमाणिश्रा देवा तिहिं चउमासि तिहिं दयति, तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्य चउमासिएहिं पजोसवमाए अढाहिओ तहा महिमायो | कत्वस्योपरि व्यालीकचित्तस्य पुरुषस्थ सम्यक्त्यमुधमतकरिंति" इति । ध०२ अधि ।
स्तद्रसास्वादो भारतीति पदं सास्वादनमुच्यते इति ।
कर्म० ४ कर्म०। पं० सं० । प्रा०चु० । तत्वश्रद्धानरसासासयद्वाण-शाश्वतस्थान-न० । मोक्ष, प्रव० १ द्वार ।
स्वादनेन सह वर्तते इति सास्वादनम् । कणद्घण्टालालसासयदुक्खधम्म-शाश्वतदुःखधर्म-पुं० । शश्ववतीति |
नन्यायेन प्रायः परित्यक्त्रसम्यकृत्ये, पाव०४१०। शाश्वतं यावदायुस्तच्च तद् दुःखं च शाश्वतदुःखम्
सासादनसम्यक्त्वमाहतद्धर्मः स्वभावो यस्मिन् स तथा । नरके, सूत्र० १ ध्रु०१
उवसमसम्मा पढमा-णाश्रो मिच्छत्तसंक्रमणकालो । भ०१उ०।
सासायणछावलितो, भूमिगपत्तो व पवडतो ॥१२॥ सासयबुद्धि-स्वाशयवृद्धि--स्त्री०। कुशलपरिणामबर्द्धने, ध० २ अधिक। (स्वाशयवृद्धिश्चैत्यनिर्माणे 'बेश्य ' शब्दे तु
मिथ्यात्वसंक्रमणकाले मिथ्यात्वसंक्रमणाभिमुख उपतीयभागे १२६३ पृष्ठे उक्ला ।)
शमसम्यक्त्वात् प्रपतन् जघन्यत एकसामायिक उत्कर्षतः
षडायलिकासासावनो भवति। फिरूपः स इत्याह-भूमिमप्राप्त सासयसुह-शास्वतसुख-न० । शाश्वतं-नित्यं च तत्सुखम् ।
इव प्रपतन् यथा मालात्प्रपतन् भूमिमप्राप्तोऽपान्तराले वनिर्वाणजनितानन्दे, हा०१ अष्ट।
सते तथोपशमसम्यक्त्वात्प्रपतन् मिथ्यात्वमद्याथ्यप्राप्तोऽपासासयसोक्ख--शाश्वतसौख्य-न० । निर्वाणसाते , जी. १
न्तराले वर्तमानः सासादम इति । पतिः । नित्यसुखे, पश्चा०७ विव० ।
अथ कथं स सम्यग्दृष्टिरुपशमसम्यक्त्वतः प्रध्यवमानसासया-शाश्वती-स्त्री० । विनश्वर्याम् , औ०।
स्वात् , उच्यते-च्यवने ऽप्यव्यक्तमुपशमगुणवेदनाद् । अत्रैव सासयाणतय-शाश्वतानन्तक-न० । अक्षये जीवादिद्रव्ये, दृष्टान्तमाहस्था० १० ठा० ३ उ०।
आसादेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुद्द जा मुयति । सासयाऽसासय-शाश्वताशाश्वत-त्रि०ा शाश्वतं-नित्यं सर्व- सायं श्रादेतो, सासादो वावि सासाणो ११२६।। वस्तुजातं द्रव्यास्तिकनयाश्रयादशाश्वतं वा नित्यं प्रतिक्षण- यथा कश्चित्पुरुषो गुडमास्वाद्य तदनन्तरमोहीरति नि. विनाशरूपं पर्यायनयाश्रयणात् । द्रव्यास्तिकपर्यायास्ति- द्रायते,न पुनः सुष्ट अद्यापीति । स च निद्रायमाणोऽव्यक्तकनयाश्रयणेन नित्यानित्ये, सूत्र०१ श्रु० १२ १०।
मास्वादिनगुडमाधुर्यमनुभवति । एवम् उपशमसम्यक्त्वात् सासयासाऽसयाणुप्रोग-शाश्वताऽशाश्वतानुयोग-पुं० । शा. प्रच्यवमानो मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्तोऽव्यक्तमुपशमगुणं वेदयन श्वतं च शाश्वतं च शाश्वताऽशाश्वतम् । तदनुयोगः। द्र
इति सम्यग्दृष्टिः । संप्रति सासादनशब्दव्युत्पत्तिमाहव्यानुयोगभेदे , तत्र जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं
स्वमात्मीयम् , आय स्वायं यत्र “सासादो बावि सासाणो" तदेवापरापरपर्यायाप्राप्तितोऽशाश्वतमिस्येवमतो-द्रन्यानुयो
सास्वादो व्यक्लोपशमगुणस्तत्सहित इति कृत्वा सास्वादनः। गे, स्था० १० ठा० ३ उ०।
सहास्वादनं यस्य स तथेति व्युत्पत्तेः। वृ०१ उ०१प्रक०। सासवणाल-सर्षपनाल-न । सर्षपभर्जिकायाम् , पातु० । सासायणगुणट्ठाण-सास्वादनगुणस्थान-न। द्वितीयगुणसर्षपकन्दल्याम् , आचा०२ श्रु०१ चू०१ १०८ उ०। ।
स्थाने, कर्म० २ कर्म। सासायण-सास्वाद(शात)(साद)न-पुं०। निरुक्तविधिना वर्ण- सासायणभाव-सास्वादनभाव-पुंगसास्वादनसम्यग्दृष्टित्वे, लोपः सहेषत्तस्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनम्।
मा कर्म०४ कर्म। प्रथापि मिथ्यात्वोदयाभावावनन्तामुबन्ध्युदय कलुषितत्वश्र
सासायणसम्मत्त-सास्वादनसम्यक्त्व-न० । सम्यकत्यभेदे, इधानरसास्वादमात्राश्चिते सम्यक्त्वे,प्रो-समन्ताच्छातयन्ति ध०। सास्वादनं च पूर्वोक्नौपशमिकसम्यक्त्वात्पततो जमुक्तिमार्गाद् भ्रंशयन्तीत्याशातनम्।अनन्तानुबन्धकषाययेदने, घन्यतः समये उत्कषेतश्च षडावलिकायामवशिष्टायामनसहाशातनेन,वर्तत इति साशातनम् । सम्यक्त्वभेदे, विशे।
मतानुबन्ध्युदयात्तमने तदास्यादनरूपम् । यतः-"उवसमससासादनं तत्र श्रायमीपशमिकसम्यक्त्वलक्षणं सादयति
स्मत्ताओ,चयो मिच्छ अपायमाणस्स । सासायणसम्मत्त, अपनयति प्रासादनम् अनन्तानुबन्धिपाययेवमम । अत्र तयतरालम्मि छावलिश्र ॥२॥" इति । ध०२ अधिक। पृषोदरादित्वाद्यशब्दलोपः (३-२-१५५) रम्यादिभ्यः कर्मय- सासायणसम्मदिद्विगुणहाण-सास्वा(सा)दनसम्यग्दृष्टिगणनट् प्रत्ययः (५-३-१२६) सति हिअस्मिन् परमानन्दरूपान- स्थान-न० । कर्म० । प्रायम्-औपथमिकसम्यक्त्वलाभलक्षण म्तसुखदो निःश्रेयसतरबीजभूतो प्रन्थिसंभवौपशमिकस- सादयति अपनयतीत्यासादनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम्
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सासायण अभिधानराजेन्द्रः।
साहम्मिउग्गह पृषोदरादित्यायशब्दलोपः, कृद्ध दुलमिति कर्तर्यन्ट् । सति ह्य- साहट्ट-संहत्य-श्रव्य । शरीराभिमुखमाक्षिप्येत्यर्थे , प्रास्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखफलदो निःश्रेयसतरुबाजभूत- चा०२०१च०३०१ उ.। विपा०।दश। विधायेऔपशमिकसम्यक्त्वलाभो जबन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः
त्यर्थे, उपा०२ अग अपनीयेत्यर्थे:सूत्र०११०६ १० बावमि पहभिरावलिकाभिरपच्छतीति, ततः सह प्रासादनेन व- पादौ कमी जिनमुद्रया व्यवस्थाप्येत्यर्थे,पश्चा०१८ विव०।
ठे इति सासादनः , सम्यग्-अविपर्यस्ता दृष्टिर्जिनप्रणीत- | जिनमुद्रया संहती कृत्वेत्यर्थे, दशा०७ अ०। वस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः सासादनश्चासो सम्यग्- साहद-संहष्ट--त्रि० । उघुषिते, 'साहटुरोमकूवहि' संहष्टरोरविश्वासासादनसम्यग्दृष्टिस्तस्य गुणस्थानं सासादनसम्य- मकरुदषितरोमभिरित्यर्थः । स०। ग्रष्टिगुणस्थानं , सास्वादनमिति वा पाठः । तत्र सह स
साहम्म-साधन-न० । साध्यन्ते मोक्षादयोऽनेनेति साधनम | म्यक्त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः । यथाहि-भुक्तक्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तवमनका
शानदर्शनाचारित्रादिके (विशे०।) करणे, ध० ३ अधिः ।
कारणे, प्राव०४०। उपकरणे, उत्त०२३ भ० । भा० ले क्षीरानरसमास्वादयति , तथैवोऽपि मिथ्यात्वाभिमु
म। निष्पादने , संथाप्रमाणे , विशे। साध्यतेऽनेनेति खतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुखमन् तद्रसमास्वादयति। ततः स चासो सम्यग्राषिच तस्य गुण
साधनम् । साधकतमकरणे , पा०।। स्थानं सास्वादनसम्पग्रष्टिगुणस्थानम्। गुणस्थानभेदे, (कर्म)
साहणण-संहनन-न । संघाते, संयोगे.भ० १२ श०४ उ०। प्रान्तमौहर्तिक्यामुपशाम्ताद्धार्या परमनिधिलाभकरूपायांज. | साहणणाबंध-संहननबंध-पुं०।संहननमवयवानां संघातमनघन्यतः समयशेषायामुस्करतः पडावलिकाशेषायो सत्या | म्तमेत यो बन्धः स सहननबन्धः । दीर्घत्वादि चेह प्राकस्यचिन्महाविभीषिकोत्थानकापोऽनन्तानुबम्ध्युक्यो भव-कशैलीप्रभवमिति । भ०८श उ० अलिपनबन्धभेदे .भ. ति, तदुदये चासौ सास्वादनसम्यग्रष्टिगुणस्थाने वर्तते । ८श०१3०1 ('बंधण' शब्दे पश्चमभागे १२२४ पृष्ठे व्याउपशमश्रेणिप्रतिपतितो घा कश्चित्सासादनत्वं याति त
ज्यातमेतत् ।) दुत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिध्यारष्टिर्भवतीति। कर्म०२ कर्म० ।-दर्श०। पं० सं० । ०। आव० । स०।
साहणणाभेदाणुवाय-संहननभेदानुपात-पुं० । दीर्घः प्राकृत.
स्वात्संहननं-संघातो भेदश्च वियोजनम्-तयोरनुपातोसासिउं-सासितुम्-अव्य० । उपदेष्टुमित्यर्थे , सूत्र० १श्रु०१ |
योगः संहननभेदानुपातः। सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां प्र०२-उ० ।
संयोगे, भ० १२ श०४ उ० । सासित-शासयत्- त्रिशिक्षयति, औ०। .
साहणय-साधनक-न। प्रकृष्टोपकारकेषुझानदर्शनसंयमतसासु-सासु-त्रि० । असवः-प्राणाः सहासबो यस्य येन पस्सु, प्राचा०१७०५ १०१ उ०। वा सरसासु । सचित्ते, व्य०६ उ०।
साहणी-साधनी-स्त्री० । 'प्रत्यये ङीन वा" ।।३।३१॥ इति श्वश्रु-स्त्री०। श्वशुरस्य खियाम् , 'घरे सासुयाए कहिय' ।
स्त्रियां डीवी। साहणी । पो-टाप् साहणा । निष्पाप्रा०म०१०। 'अत्ता सासू' पाइ० मा० २४३ गाथा ।
दयन्त्याम् , प्रा० ३ पाद ।। सासेरा-देशी-अचेतनायां यन्त्रमय्यां नर्सक्याम् , १०६ उ०।
साहमंत-संहन्यमान-वि० संघातमापद्यमाने ,स्था०२ठा०३७०।
साहत्थ--स्वहस्त-पुं० । साक्षादर्थे , उपा०७०। साहइत्ता-साधयित्वा-प्रव्य० । सम्यगाराभ्येत्यर्थे, सूत्र०१
साहत्थिया-स्वाहस्तिका-स्त्री० । स्वहस्तेन निवृता साहश्रु०१४ अ०।
स्तिका । स्वहस्तगृहीतजीवादिना जीवं मारयतः क्रियाभसाहजणी-शाखाञ्जनी--स्त्री० । खनामख्याते नगरीभेदे, य
दे, स्था०५ठा०२उ०भाव।। सुभद्रासार्थवाहपुत्रः सनत्कुमार मासीत् । स्था०-१० साहत्थिया किरिया दुविहा पत्ता,तं जहा-जीवसाहठा०३ उ०।
स्थिया चेव , अजीवसाहत्थिया चेव । (सू०६०+) साहकुमरसिंह--साहकुमरसिंह-०। नासिक्यपुरमहादुर्गब्रह्म
स्था०२ ठा०१ उ०। गिरिस्थितजिनमासाबस्योद्धारकारके ईश्वरपुत्रमाणिक्य
साहम्म-साधर्म्य-न । समानः-तुल्यः साध्यसामान्यान्वित; पुरे परमश्रावके, ती० २७ कल्प।
समानः धर्मो यस्यासौ सधर्मा । साधये रातापेक्षया, स. साग-साधक-त्रि० । सिद्धिजनके, वृ. ३ उ० ।
धर्म तस्य भावः साधर्म्यम् । सम्म० ३ काण्ड । सारश्य , साहगतम-साधकतम-न०। क्रिया प्रति करणे, "साधकतम स्था०.१ वाविशे। करणम्"मा० म०१०।
साहम्मता-सधर्मता-स्त्री०। समानधर्मतायाम् , नि०चू०५७०। साहस--साहाय्य-म०। सहायतायाम् मा०म०१०। साहम्मभाव-साधर्म्यभाव-पुं० । सारश्यसद्भावे, पश्चा०१४ 'अणगारे रससाहिज्जे दिखे।' अन्त० १७० ३ बर्ग ८०। विव०। माहह-संव-धा० । संघरणे, "संगेः साहर-साहहौ" ।। साहम्मिउग्गह-साधर्मिकावग्रह-पुं०। समानेन धर्मेण चर ४।८२॥ संवृणोतेः साहर-साहह इत्यादेशौ । साहहह । तीति साधर्मिकाः, साधर्मापेक्षया साधव एव तेषामवनसंबर । संवृणोति । प्रा०४ पाद ।
इस्तवाभाव्यपचक्रोशपरिमाणक्षेत्रमृतुबखे मासमेकं वर्षा
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माहम्मिडरगर
सु चतुरो मासान् यावदिति साधर्मिकावग्रहः । श्रवग्रह
दे भ० १६ श० २ उ० । प्रति० । श्राचा० ।
"
( ७१६ ) अभिधान राजेन्द्र
०३३०
साइम्मिणी- साधर्मिणी-स्त्री० संवत्याम् साहम्मिय- साधर्मिक पुं० समानेन चरतीति साध र्मिकः । भ० १६ श० २ उ० । समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरतीति साधर्मिकः । स्था० १० ठा० ३ उ० । प्रतिपनैकप्रवचने, प्रव० ७२ द्वार । लिङ्गप्रवचनाभ्यां स मानधार्मिके, प्रति० । साम्भोगिके, श्राचा० २ ० १ चू० १ श्र० ६ ॐ० । व्य० । नि० चू० । स्था० । प्रश्न० । समानधर्मयुक्रे साधौ, स्था० ६ ठा० ३ उ० । पञ्चा० । वृ० प्र० । य० । साहम्मियाण अड्डा, चउव्यिहो लिंगओ जह कुटुंबी मंगलमासमणी, जे वा कथं तत्थ आदेसो ॥६६॥ स्वाधम्मिकाणामर्थाय कृतं न कल्पते सध स्तत्र लिङ्गतः साधमिकस्तीर्थकरो यथा कुटुम्बी | ततस्त निमित्तं कृतं कल्पते । श्रन्यच्च भगवतां मङ्गलनिमित्तं शाश्वतो मोक्षस्तन्निमित्तं च भक्त्या यत् क्रियते समवसरण - मायतनं वा तत्रादेशो ऽनुज्ञावस्थानस्येति भावः । व्य० ६ उ० ।
सम्पति साधर्मिकस्य द्वादश निक्षेपमाह नामं उणा दविए, खेने काले व पत्रपणे लिंगे । दंसणनाणचरिते, अभिग्गहे भावणाओ य ।। १३८ ॥
6
नाम' ति नाम्नि साधर्मिकः । १। स्थापनायां साधर्मिकः २ इयेयः साधर्मिका ३ क्षेत्रस्वाधर्मिका | ४ | कालसाधर्मिकः । ५। प्रवचनसाधर्मिकः । ६ । लिङ्गसाधर्मिकः कः । ७ । दर्शन साधर्मिकः । ८ । ज्ञानसाधर्मिकः ॥ चा
धर्मिकः १० अर्मकः ११'भाओ यत्ति-भावनातश्च साधर्मिको भवति ॥ १२ ॥ पिं० ।
तत्र नामस्थापनाद्रव्यसाधमिक प्रतिपादनार्थमाहनामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कटुकम्ममादीसुं । दम्बम्मि उ जो भवियो, साहम्मिसरीरगं चेव ।।१३।। नाम्नि नामविषये साधम्मिको यः सदृशनामा यथा देवदत्ता देवदत्तस्य स्थापनायां साथमिक कामादिषु स्वाप्यमानः पथा वादिशब्दात् पुस्तकम यराटकादिपरिग्रहः इयरूपता साधको यो भव्यो भावी स च त्रिप्रकारः, तद्यथा एकभविको मद्धायुकोऽभिमुखनामगोत्र ग्रामीणां य भावना इष्यभि वायनीया च साधर्मिकशरीरं स्वप शिलातलादिगतं तत् द्रव्यसाधम्मिकः
·
भूतभावत्वात् ।
,
द्रव्यता. चास्य
क्षेत्र कालप्रवचनलिङ्गसाधर्मिकानाहखेचे समासदेसी, कालम्मि उ एककालसंभृती | परागयरो, लिंगे रहरपुनी ||१४||
शेषतः साधर्मिकः समानदेशी यथा सौराष्ट्र सौराष्ट्रस्य । काले कालतः साधमिकः एककालसंभूतां यथा वर्षाजातो वर्षाजातस्य, प्रवचनमिति प्रवचनतः साधमिकः संघमध्ये एकतरः श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चेति जिङ्गे
साहम्मिय
लिङ्गतः साधम्मिकः ' रजोहरणमुहपोत्ति ' ति रजोहरमुखपोतिकायुक्तः ।
संप्रति दर्शनादिसाधम्मिकानाह
दंसणा चरणे, तिग पण पण तिविद होइ उ चरिते । टाओ अभिग्गह अह भारसमो अणि बाई ॥१५॥ दर्शनसाधमिकः 'तिग' त्ति-त्रिविधस्तद्यथा- क्षायिकदर्शनिनः क्षायिकदर्शनी औपशमिकदर्शननः श्रपशमिक दर्शनी क्षायोपशमिकदर्शनिनः क्षायोपशमिकदर्शनी । श्रन्ये पुनराहुसम्यगष्टि मिध्यामि
थ्यादृष्टिः मिश्रस्य मिश्रः । ज्ञानतः साधम्मिकः, 'पण' तिपधिः, तद्यथा-भिधिनी अभिनियोधिकजानिन एवं तावधिमनः पर्यायकेयलेष्वपि भावनीयम् । चरणतः साधम्मिकः 'पण' ति-पञ्चप्रकारः सामायिकसामायिकचारित्री एवं स्थापन परिहारविशुद्धिपरायचाव्याप्यपि वाच्यम्' - रिते' इति - त्रिविधः- त्रिप्रकारो भवति चारित्रं चारित्रतः साधर्मिकः । तथा-सायिकवारित्र क्षायिकवारिविण इत्यादि 'यादी अभिमाह त्ति - श्रभिः साधम्मिका द्रव्यादौ - वेदितव्यः, तद्यथा द्रव्याभिग्रही द्रव्याभिग्रहिणः। क्षेत्रेका अपि माध्यम् तुशब्दोऽनुक्तसमुचयार्थः। तेन षष्ठादिक्षपणाभिग्रही षष्ठादिक्षपणाभिग्रहिण इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्। भाषनातः साधकोऽनित्यवादी वथा एक नित्यत्वभावन भावयत्यपरोऽप्यनित्यत्वमिति भावनासाधमिकः एवं शेषाश्यपिपासु व्यम्। तदेषमुक्तः साधयिकस्य द्वादशको
संमति
लिने भयति मात्र इति तदेतत् व्याधिक्यासुरादसाहम्मिएहि कहिए - हिं लिंगाई होइ चऊभंगा | नामं वा दविए, भावे विहारे य चत्तारि ।। १६ ।। साधयिषु कथितेषु सत्सु गाथायां तृतीया सप्तम्य प्राकृतत्वाशिङ्गादी प्रवचनादिभिः सह भयति प्रत्येकं चतु भङ्गी गाथायां पुंस्त्वमापत्वात् विहारे ये चत्वारो नेदा प्रागुक्रमे तद्यथा - नामवहारः स्थापनाविहारो द्रव्यविहारो भावविहार
तत्र लिङ्गादिषु प्रवचनादिभिः सह प्रत्येकं चतुर्भङ्गमात्रिर्भावयः प्रथमतो लिङ्गप्रवचनेन चतुर्भङ्गी सूचामाह
लिंगेा उ साहम्मी, नो पवयणश्रो उ निरहगा सच्चे । पत्रयण साहम्मी पुण, लिंगे दस होंति ससिहागा || १७ | लिङ्गेन रजोदरादिना सानो इत्येको भङ्गः । के ने इत्याह-सर्वे निह्नवास्तेषां संघबाह्यत्वात्, रजोहरणादिलिङ्गोपेतत्वाश्च तथा प्रवचनतः साधमिको न पुनः लिङ्गे लिङ्गतः एष द्वितीयः । के ते एवंभूता इत्याह--दश भवन्ति सशिखाकाः अमुण्डि - तशिरस्काः श्रावका इति गम्यते । श्रावका हि दर्शनयतादिप्रतिमाभेदेन एकादशविधा भवन्ति,
तत्र
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साहसिय अभिधानराजेन्द्रः।
साहम्मिय पश सकेशाः, एकादशः प्रतिमाप्रतिपन्नस्तु लुश्चितशिराः | मिको न लिङ्गतः। प्रत्यकबुद्धस्तीर्थंकरो लिङ्गतोऽपि समानदश्रमणभूतो भवति ततस्तव्यवच्छेदाय सशिखग्रहणम् ।। शनी साधुः । नापि लिङ्गतो नापि दर्शनतः एष शून्यः । तथा एते हि दश शसिखाकाः प्रवचनतः सार्मिका भवन्ति , लिङ्गनः साधर्मिको न मानतः निहवा विभिन्नशानी वा सातेशं संघातभूतत्वान्न लिङ्गतः रजोहरणादिलिङ्गरहितत्वात् । धुः सामनो न लिङ्गतः समानज्ञानी धावकः प्रत्येक बुद्धस्तीतृतीयचतों तु भङ्गी सुप्रतीतत्वानोकी ती चेमी प्रवचन- करावालिङ्गतोऽपिशानतोऽपि समानज्ञानी साधुःन लिङ्गतोऽपि साम्मिको लिङ्गतोऽपि साधुः एष तृतीयः । न प्र-मोऽपि नापि ज्ञानतः एष शून्यः । तथा लिङ्गतो न चारित्रतोवचनतो नापि लिङ्गतः इति चतुर्थः । एष शून्यो भङ्गः । त- निदवा विषमचारित्री वा साधुः चारित्रतो न लिङ्गतः प्रत्येदेवं लिङ्गप्रवचनेन सह चतुर्भङ्गिकोक्ता।
कबुद्धस्तीर्थकरो वा, चारित्रतोऽपि लिङ्गतोऽपि समानचासंप्रति दर्शनादिभिः सह चतुर्भनिकाप्रतिपादनार्थमाह- रित्री साधुः । न लिङ्गतो नापि चारित्रतः एष शून्यः। तथा
लिङ्गतो माभिग्रहनः विचित्राभिग्राही साधुर्निवो वा अएमेव य लिंगेणं,दंसणमादी उ होंति भंगा उ।
भिग्रहतो न लिङ्गतः समानाभिग्रही श्रावकः प्रत्येकबुद्धभइएसु उवरिमेसुं, हेडिल्लपदं तु छड्डेजा ॥ १८ ॥ स्तीर्थकरो वा लिङ्गतोऽप्यभिग्रहतोऽपि समानाभिग्रही
साधुः लिङ्गनो नाप्यभिग्रहतः । एष शून्यः । तथा एवमेव-प्रवचनगतेन प्रकारेण लिङ्गेन सह दर्शनादिषु भङ्गा
लिङ्गतः साम्मिको न भावनातः विषमभावनाकः साधुभवन्ति-सातव्याः । उक्नेषु च उपरितनेषु सर्वेष्वपि भावना
निहवो चा, भावनातो न लिङ्गतः समानभावनाकः श्रावकः पर्यन्तषु अधस्तनं लिङ्गलक्षणं पदं त्यजेत् त्यक्त्वा च तदनन्त- प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकर वा, लिङ्कतोऽपि भावनातोऽपि समाद्वितीयपदं गृह्णीयात् । अभिगृह्य च तेनापि सह चतुर्भ
नभावनाकः साधुः , न लिङ्गतोऽपि न भावनातः एष शून्यः। निकाक्रमेण योजयेत् । तत्राप्युपरितनेषु सर्वेषु भङ्गेषु तदध
तदेवमुक्ता लिनेन सह दर्शनादिषु भङ्गाः । संप्रति लिङ्गपदं स्तनं पदं त्यजेत् । अग्रेतनमनन्तरमाश्रयेत् । तत्राप्ययमेव
त्यक्त्वा दर्शनपदमभिगृह्यते । तेन सह ज्ञानादिषु उच्यन्ते । क्रमः एवं तावद्वाच्यं यावदन्तिमपदद्वयचतुर्भलिका । इह दर्शनतः साधर्मिमको न मानतः, क्षायिकदर्शनी यः एकः केवललिङ्गन सह दर्शनादियु भङ्गसूचा कृता तत्र लिङ्गग्रहणमुपल
शानी एको दिक्षानीति शानतः साधम्मिको न दर्शनतः समाक्षणं ततः प्रवचनेनापि सह भा द्रएब्याः त चामी प्रवचन
नशानी विभिन्नदर्शनी दर्शनतोऽपि मानतोऽपि समानदर्शसाधाम्मका न दर्शनतः। एष ज्ञायिके औपशामके क्षायोपश
नज्ञानी । न दर्शनताऽपि न ज्ञानतः एष शून्यो भङ्गातथा दर्शमिकेवा । उक्तं च-'विसरिसदसणजुसा, पवयसाहम्मिया
नतः साधम्भिको न चारित्रतः समानदर्शनी श्रावका चानसणतो'। इति दर्शनतः साधर्मिको न प्रवचनतस्तीर्थ
रित्रतो न दर्शनतः समानचारित्री विभिन्नदर्शनी साधुः , करः प्रत्येकबुद्धश्च तेषां संघानन्ततित्वाद् ,श्राह च-"ति- चारित्रतोपि दर्शनतोऽपि समानदर्शनचारित्री साधुः, न चास्थयरा पत्तेया, नो पक्यणदंससाहम्मी"। प्रवचनतोऽपि
रित्रतोऽति नापि दर्शनतः एष शून्यः। तथा दर्शनतो न अभिप्रसार्मिको दर्शनतोऽपि समानदर्शनी । संघमध्यवर्ती न प्र
हतः समानदर्शनी विचित्राभिग्रहः श्रावकः साधुर्वा,अभिप्रबचनतो नापि दर्शनत इति चतुर्थः । एप शून्यः । उक्ता प्रव- हतो न दर्शनतः, सामानाभिग्रही विचित्रदर्शनतः श्रायकादिः, चनेन सह दर्शनस्य चतुर्भङ्गिका । संप्रति शानस्याच्यते-प्र- दर्शनतोऽपि अभिग्रहतोऽपि समानदर्शनाभिग्रहीन श्रावकावचनतः साधर्मिको न ज्ञानतः, एको द्विज्ञानी एकत्रिज्ञानी
दिःन दर्शनता नाप्यभिग्रहतः एष शून्यः। तथा दर्शनतो न भा. चतुर्शानी केवलज्ञानी वा ज्ञानतः साधर्मिको न प्रवजनतः
वनातः। समानदर्शनो विचित्रभावनाकः श्रावकादिः, भावतीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा प्रवचनतो शानतोऽपि तृतीयः । न
नातो दर्शनतः समानभावनाको विचित्रदर्शनः श्रावकादिः,प्रवचनतोऽपि नापि ज्ञानतः इति चतुर्थः । एष शून्यः। तथा दर्शनतोऽपिभावनातोऽपि समानदर्शनभावनाकः श्रावकादिः, प्रवचनतः साधर्मिको न चारित्रतः श्रावकः, चारित्रतो न
न दर्शनतो नापि भावनातः एष शून्यः । तदेवमुक्ता दर्शनेनापि प्रवचनतः तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा , प्रवचनतोऽपि साधुः, सह शानादिषु भङ्गाः अधुना दर्शनपदमपहाय ज्ञानपदमभिन प्रवचनतो नाऽपि चारित्रत एष शून्यः । तथा प्रवचनता गृह्यते । तेन सह चारित्रादिषु प्रदर्श्यन्ते । ज्ञानतः साधम्मिनापि अभिग्रहतः । साधर्मिकोऽनभिग्रहतः । श्रावको यति
को न चारित्रतः समान ज्ञानो विचित्रचारित्रसाधुः यदिया उभयारप्यन्योन्याभिग्रहयुक्तत्वात् । अभिग्रहतो न प्रवचः वा-श्रावकः चारित्रतः सामिको न शानतः समानचारित्री नतो निहवः, तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा । उक्लं च-"साहम्म
एकः केवली एकः छमस्थः । ज्ञानतोऽपि चारित्रतोऽपि भिग्गहेण, नोपवयणनिराहतित्थपत्तेया" । इति प्रवचनतो:
समानज्ञानचारित्री साधुन ज्ञानतोऽपि न चारित्रतोऽपि एष प्यभिग्रहतोऽपि श्रावको यति, समानाभिग्रहः न प्रवचन
शून्यः।तथा ज्ञानतो नाभिग्रहतः। सामान ज्ञानो विचित्राभिग्रहः तो नाप्यभिग्रहत इति शून्यः। तथा प्रवचनतः साधाहको न
श्रावकादिःअभिग्रहती ज्ञानतः। समानाभिग्रहो विचित्रज्ञानी भावनातो भिन्नभावनाकः श्रावको यति; भावनातः। साध
साधुस्तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा, ज्ञानतोऽप्यभिग्रहतोऽपि सर्मिको न प्रवचनतः समानभावनाकस्तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो
मानज्ञानाभिग्रही साध्वादिः,न ज्ञानतो नाऽप्यभिग्रहतः शून्य निद्ववो वा प्रवचनतोऽपि भावनातोऽपि समानभावनाकः एषः । तथा ज्ञानतो न भावनातः समानशाना विचित्रभावश्रावको यतिर्वा न प्रवचनतोऽपि नापि भावनातः एप शून्यः। नाकः श्रावकादिः। भावनातो ज्ञानतः समानभावना विचिउक्ताः प्रवचनेन सह दर्शनादिषु भङ्गाः । संप्रति लिङ्गन सहा- प्रशानी श्रावकादिः। शानतोऽपि भावनतोऽपि समान ज्ञानभाच्यन्त-लिङ्गतः साधर्मिको न दर्शनतः निह्नवः,दर्शनतः साध बनाकः । श्रावकादिर्न ज्ञानतो नाऽपि भावनानः एष शून्यः ।
२००
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( ७६८) माहम्मिय अभिधानराजेन्द्रः।
साभिनय उका ज्ञानेन सह चारित्रादिपु भङ्गाः । संप्रति ज्ञानपनं विमुख्य | नालोचयति-निवेदयतीति द्वितीय, बास्कोकम गुलापारत्रय गृहीत्वा तेन सहाभिप्रहभावनयोर्भङ्गा उच्यन्ते- दिष्टप्रायश्चितं न प्रस्थापयति-कर्नु नारभक्त इति तृतीर्य, बरणनः साधर्मिको नाभिग्रहतः समानचरणो विचित्राभि- प्रस्थाग्य न निविंशति-न समस्त प्रवेशयति, प्रथया-निर्धेस: प्रही साधुः, अभिप्रहतः साधर्मिको न चरणतः श्रावकादिः, एरिभाग ' इति वचमा परिभुक-नासेवत इत्यर्थः बरगतोऽपि अभिग्राहतोऽपि साधुः, न चरणतो नाप्यभिग्र- इति चतुर्थम् , यानीमानि सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षालि स्थविहनः एभ्यः । तथा चरणसोन भावनामः विचित्रभाव- राला-स्थयिरकरिएकानां स्थिती-समाचार प्रकल्प्यामाकः साधु..भाषमानो न घरणनः भावकः सामासभाव- नि-प्रकल्पनीयानि योम्यामि विशुद्धपिण्डशम्यादीनि स्थिसाकः साधुर्वा विसहशवरणः, चरणतोऽपि भावनातोऽपि तिप्रकल्प्यानि, अथवा-स्थितिन-मासकल्पादिका म.समानचरलभावनाकः साधुःन चरमतो नाऽपि न भावनातः ल्यानि घ-पियडादीनि स्थितिप्रकल्पयानि तानि 'भयंबन्न पप संप्रत्यभिग्रहेस सह भावनाया भङ्गा:-अभिग्रहतः चिय प्रायचिय 'त्ति-अतिक्रम्यातिक्रम्येत्यर्थः, प्रतिषेयते सार्मिको न भाषतः, समामाभिग्रही विचित्रभावनाकः श्रा- तदन्यानीति गम्यते । अथ साटकादिः साधुस्वं पर्यालोबकादिक, भावनात्तः साधम्भिको नाऽभिग्रहनः विचित्रs- चयति-यथा नैतत्पतिषिमुचित गुपी याकरिभिप्रहः श्रावकादिः, अभिमहतोऽपि भावनातोऽपि समा- ष्यति, तत्रेतर माह- 'सेइति तदकल्प्यजातं ''तिमाभिम भावनाका भावकादिः, नाभिहतोऽपि नापि कोरखामा बचनं, इमित्वकारप्रपा प्रतिषेधामि किं भावनातः एष भकः शून्यः । तदेवमुक्का भङ्गाः।
मम स्थविरा-गुरवर कस्यिन्ति १, न किधित कारपि मे सांप्रतममीयां भङ्गानां विषयविशेषप्रतिपादनार्थमाह- कर्मुसक्यते इति खोपवन पवामिति । पारखिय' निपत्तेयबुद्ध वियहग-उवासए केवलीयमानज। शमप्रायश्चित्तवषम्तमपललितादिकमित्यर्थः कुर्वकातिसहवाइए य भाषे, पहुच भंगो व जोएजा ॥ १९॥
कामशिलामाथिकमिति गम्यते। कुले-चनद्राविक बस
लिच्छवासीस्थईस्तस्यैव कुलस्य भेदाभ्योऽयमधि-- प्रत्येक युद्धान् निहवान उपासकान् केवलिनश्चाश्रित्य तथा
करणोत्यायवेनाभ्युत्थाता भवति। यतन इत्यर्थः स्वेकम् अषं मायकादीन् भाषाम् प्रतीत्य प्राश्रित्य भाकान् अनन्त
गास्थापीत द्वितीय, तथा हिमत-जथं सनका प्रेक्षते-- रमदितान योजयेत् । तद्यथा-न प्रवचनतः साधम्मिको लि
नवेषयतीति हिंसाप्रेक्षीति तृतीय, हिसार्थमेवापभ्राजमार्थ न एष भगः प्रत्येकबुद्धात्केवलिनश्च । जिनानाश्रित्य यो
या चित्राणि ' प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति चिनप्रेक्षीति जनीयः । लिमतो न प्रवचनतः इत्ययं निहवाम् , प्रवचनतो
चतुर्थम् अनीचलमितीह पुनःशब्दाः ततधाभीचमभीषणः मलित हत्येष श्राधकान् , प्रवचनतो न दर्शनत इत्यादय
पुनः पुनरित्यर्थः, प्रश्ना--अङ्गछकुल्याश्नादयः सावधानमततायोपशमिकवर्शनशानचारित्रादीनाश्रित्य योजयित
ष्ठानपरछा का त एषायतनान्यसंयमस्य प्रमायतनामि प्रयोग्यास्त च तथैव यथास्थानं योजिला पवेति । व्य०२० ।
का भवति प्रयुक्त इत्यर्थः इति पश्चमम् । स्था०५ डा०१०। समानपार्मिको हि सम्यग्डष्टिः साधुः साध्वी भाषकः श्राविका । भा० । (साधर्मिकाणां स्तन्यं कुर्वतोऽनषस्थाप्यो
इदानी साधर्मिकदारप्रतिपादनाया-- अपनीन्युक्तम् प्रणाषण ' शब्द प्रथमभागे २६३ पृछे) स
दिमदिशा दुविहा, णत्यगुणा चेव इति अमाथा । स्थापिके, समाचारीस्थे. प्राचा०१५०८०५ उ० ।
भड्डिा बिय दुबिहा,सुय भसुय पसस्थमपसस्था ॥६५॥ पंचहिं डाणेहिं समणे णिग्थे साहम्मितं संमोतितं मिसं
सामिका द्विविधा--रा, भराध । 'पायगुणा मोतिनं करेमाणे णातिकमति,तं जहा-सकिरितवाणं पडिसे
सहाय श्रेय मनाया' येते साधर्मिशास्तशिविचाकबिता भवति१ पडिसेषित्ता णो भालोए।२ मालोइत्ता णो |
बाचित् हातगुणा भवन्तिकाचिनहानगुणाः, प्रदिशा थिय भवति ३ पडवेत्तायोणिविसति जाई इमाईथेसणं ठि- चिहा' येऽपरः साधर्मिकारतेऽपि विक्षिधामुयनिषक पाई भवति ताई-अतिथिय २ परिसेवेति । से दई असुप' शि-शुतगुणा, मश्रुतगुणाबा 'पसत्यापसस्थति
येतेशातगुणास्ते द्विविधा--प्रशस्मशासगुणा,प्रमशस्तक्षापहिमेवामि कि मंथरा करिस्सति १५ । पंचाहि ठा
सगुलाब पेऽपि ते हातगुणारतेऽपि विविधा:--प्रास्ताकेहि समणे निग्गंथे साहम्मित पारंचितं करेमाणे णाति
हातगुणा,प्रमशस्ताक्षातणावेति । येऽपि ते भुतगुणारतेसमति, तं०-सको वसति सकुलस्स भेदाते प्रभुत्तिाऽपि विधिया-प्रशस्तभतगुणाः, अप्रशस्तश्रुतगुणाबा घेऽ. भवति १गणे वसतिगणस्स भेतात असता भवतिर पितेऽश्रुतगुणास्तेऽपि द्विविधाताभुतालाः, अप्र
पप्पेही ३ छिप्पही ४ ममिक्खणं पतिणाततणा रास्ताश्रुतगुणाचा पउँजित्ता भवति ५ । (सू० ३६८)
भाह--ये रास्ते कथमहातगुणा भवन्तीस्थत माहस्वाम्भोगिकम्-पकभोजनमण्डलीकाधिक विसाम्भोगिकं-- | दिडा व समोसरणे, म य नायगुणा हवेज से समखा । मानसी बाह्य कुर्वनातिमामति अक्षामिति गम्यते, उचि-1
सुश्रगुणपसत्थ इयरे, समाथिभरे य सव्वे पि ।।६।। तत्वादिति । सक्रियं-प्रस्तावादशुभकर्मबन्धयुक्त स्थानम् | अकल्यविशष लक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्येकं, प्रतिषेच्य मुरवे दृक्षाः-उपलब्धाः सामान्यतो झटिति क -समवसर
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साहम्मिय अभिमानराजेन्द्रः।
साहरित्तए णे-स्नात्रादौ, न च मानगुणास्ते भवेयुः धमणाः, : सुग्रगु- हा। प्रतदर्थों यथा विस्वतस्य धमकल्यस्य बाप्रनं णपसत्थ इयरे'त्ति-इतरे इति अपानां परामर्शः, ते अशाः स्मारणा, तथा कुसंसर्गाद्यकत्यस्य निषेधनं वारणा,एतयोश्च 'सुयगुणे'ति-श्रुनगुणा अपि सन्तः 'प्रसस्थात्त-प्रशस्त भूत-1 सततं क्रियमाणयाहि कस्यचित्प्रमादबहुलस्य नियममग्नगुणा गृह्यन्ते , तदनेन 'सुयगुणपत्थ ति-भाबित.म् , लितादौ युक्तम् , कि श्राद्धकुलोत्पन्नस्य तवत्थं प्रवर्तितुमि'इयर' त्ति-इतरे इत्यहणानां परामर्शः ते मरणाः श्रुतगुणा त्यादिवाम्यैः सोपालम्भं प्रेरणं चोदना, तथा तत्रैवाऽसकृत इत्ययमनन्तरगाथोपन्यस्तभङ्गकः एकः सूचित इति सम- स्खलितादौ धिम् ते जन्मत्यादि निष्ठुरवाक्यैर्गादतरंपरणुनियरे य सब्बेऽवि ' सर्वेऽपि चैते भूतादिमुणभेदभिन्नाः णा प्रनिचोनना । उक्तं च-"पम्हट्रे मारणा बुत्ता,अणायारम्स माधवः समनोक्षा इतरे च-असमनोचा इति च , साम्भो- चारणा। चुक्काण चोप्रणा होइ,निटरं पांडवोश्रणा॥१॥" त्तिा ए गिका असाम्भोगिकाश्चत्यर्थः । भोघ।
सच्च भाववात्सल्यम । यतो दिनकृत्ये साहम्मिश्राण बच्छलं,
एअं अन्न विवाहि अं । धम्मट्ठाणेसु सीअंतं, सब्वभावेण चोसाहम्मिअणुववृहण-साधर्मिकानुपबृंहण-न० । सम्यग्दृष्टिः
प्रणा ॥१॥" साधर्मिकाणां वात्सल्यमेतदन्तरोनं द्रव्ययात्मसाधुः साध्वी श्रावकः श्राविका च एतष्पं कुशलमार्ग
ज्यम् , अम्यदिति भाववात्सल्यमिति तदर्थः इत्थं चनेप्रवृत्तानामतिचारे, भा०।
षां प्रतिपत्तिरेव श्रेयसी नतु तैः सह कलहादि, यतः "निघायं साहम्मियचेइय-साधर्मिकचैत्य-न० । चारितकम्माध्यादीनां कलहं चंब पयहा परिवजए। साहम्मिएहि सदितु, जो प्रतिकतिरूपे चैत्ये, जीता।
पविभाडिनं ॥२॥ जो किर पहा साह-स्मिम्मि को
वेण दसणं यम्मि । पासायणं तु सो कुण-तिकिया लोगसाहम्मिमचविणय-साधर्मिकत्वविनय--पुं। सम्मकत्वन
धणं ॥२॥" इति साधभिवात्सल्य द्वारम। ध०२ अधिक। नसे, व्य० १० उ०।
(साधर्मिकस्य वैयावृत्त्यकरणफलम् 'महाणिजर' शब्द षष्ठसाहम्मियपीइ-साधर्मिकप्रीति--स्त्री०। समानधर्मजनविष- | भागे गतम्।) सप्रेमजन्यवात्सल्ये, काय कारणोपचारान सामानधर्मका- साहम्मियबेयावच्च-साधर्मिकौयावृत्य-न० । साठयाः सानुरामे , पश्चा० ३विव०॥
धोर्वा वैयावृन्ये , औ०। साहम्मियवग्ग--साधर्मिकवर्ग-पुं० । स्वजनातिरिक्रसमान- साहम्मिया-साधर्मिकी-स्त्री० । समिण्यमं संयम्याम् , वृ० धार्मिकजने, पञ्चा० ६ विव०।
३ उ०। साहम्मियवच्छख-साधर्मिक्रवात्सन्य--न । साधर्मिकाणां साहय-संहत--त्रि० । संक्षिप्ते , त। प्रा० म० निमन्त्रमा मेरजने, ध० । मार्मिकाणां वात्सल्यमपि प्रति- | साहयसोशंद-सहतसौबन्द-न० । ऊवीकृते उदृखखाविकावर्षे यथाशक्ति कार्य, सर्वेषां तत्करणाशक्तेनाप्य कवचावी- में, जी । " साहयसोगा इमसखरपण" संहनसोनम नाम मामवाय तत् काये समानधर्मागो हि प्रायेगा दुष्प्राणः, यतः | कीकृतमुख लाकृतिकाप्रम्-तकच मध्ये तनु उभयोः पाश्य. "संवः सर्ये मिशः समे-सबरवालम्धारणः । मधर्मिका- योपरत् मुशलं प्रतीतम दर्पणशब्देनहायवे समुदायोपविषम्ध-लम्धारस्तु मिताः कचित् "॥१॥ तेषां महरपु- चारार्पणगएडो गृह्यते । जी०३ प्रति अधिक। गयलभ्यम्मंगमामा प्रतिपत्तेस्तु फलमतुल ष यतः ।
माहर-ग-पा० । संघरणे, " सगेः साहर-साही " " एगस्थ सम्मरमा , साहम्मिय पगस्थ। बुद्धिदुलार तुमिमा, दो मिनुलाई भयिामा॥॥"सा
॥ ४॥ १२॥ व संगो साहरादेशः । संपूणोति । धर्मिकवात्सहयमेव च राहामातथिसाबभागाधन रा
मासमा ३वा... प्राचा०। जपिएजस्य मुनीनामकात्याविति तद्विधिस्त्वयम्-सांतसा. साहरग-साहरक-पु० । इपके , मि०पू०१०। मध्ये प्रत्यहमकम्पाविसाधर्मिकाणामन्यथा तु स्थपुत्रादि
साहरण-संहरण-१० । ननयमे, भ.श.३१०। जन्मोत्सषे विवाहऽम्यस्मिन्नपि प्रकरणे साधर्मिकजबामासविनयं निमन्त्रणं, भोजनबेलामो स्वयं पानमसालनाविमतिप
| साहरमाण-संहरत--त्रि० । अन्यत्र नयति, भ०५०४०। लिपुरस्म निशिशासनेषु संभिषेश्य प्रबरभाजनमुना- साहरावित्तए--संह म्-मन्य० । मोचयितुमित्यर्थे , करप०१ नाग्यानसहितमिशिवभौजनताम्बूलपात्राभरणाविज्ञानम् । अधिक । भापभिमानात सधनव्ययेतायुद्धरण । मन्त- साहरिज्जमाण-संघियमाण-नि० मीयमाने , ज० १ यतः । रायपास मिभमनये पुनः पूर्वभूमिकागणपणम् । जी। चाया। यानिक. शीतलीझरणार्थ महावि जि. अकमपि-"मयं वीणुधरणं, न कयं साहिम्मिमाण स्तारितं तत्पूनर्भाजने क्षिप्यमाणं संहियमाणमच्यते । औ०। बरुछन । बिप्रायस्मि बानराम्रो, न धारिश्रो हारियो जम्मा ॥१॥" .धर्मे व विपीदना लेन देन ,प्र
साहरिजमागाचरय-संद्रियमाणचरक-पुं० । संहियमाणस्यैव कारेण स्थैर्यारोपण , समानतांज स्मारपवारणकोदन पति
पिण्डस्य तशाविभाभिप्रहांवशेषाद । भिक्षाचरे, औ० । चोमनाविकरणम् । यतः-" सारस्यामारणा लेख , चाणा मादरिना-पंहर्त्तम-श्रव्य० । प्रवेशयितुमित्यर्थे, भ० ५ श० पांडचाया । सावरणावि दायम्या, सावायरस हाव-४ उ० ।
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(८००) साहरिय अभिधानराजेन्द्रः।
साहारण साहरिय-संहत-त्रि०ानीते, स०। तस्मादन्यत्र क्षिप्त, ग०१ श्रा० म० । संकीणे, विश०। प्राचा० स० साधारणअधि० । प्रव० । स्था। प्राचा० । पञ्चा० । दानानुचितं
शरीरनामकर्मोदयवर्तिनि, प्रश्न. १ श्राश्र० द्वार । धनसचित्तेषु पृथिव्यादिषु अचित्तेषु वा केषुचित्पात्रेषु निक्षि
न्तकायिके, प्रव०४ द्वार । निचू० । उपकारे, स० ३० प्य तेन रिकीकृतपात्रकेणैव भक्तं ददत उत्पादनादोषे, ध० ३
सम० । (साधारणवनस्पतिकायिकानामपि किं सर्वकालअधिक। पं० चू० । (संहृतद्वारम् ' एसणा' शब्दे तृतीयभागे
शरीरावस्थामधिकृत्य किं प्रत्येकशरीरत्वमुत कस्मिंश्चिद५६ पृष्ठे उक्तम् ।)
वस्थाविशेषे ऽमन्त जीवत्वमपि संभवतीति · अणन्तेसाहस-साहस-न० । अकार्यकरणे,सूत्र०१ ध्रु०४ अ०१ उ० ।
जीव ' शब्दे प्रथमभागे २६४ पृष्ठे उक्तम् ।) ('वणकर' साहस्र-त्रि० । सहस्रमूल्ये, वृ० ३ उ० ।
शब्दऽपि षष्ठभागे उक्नम् ।)
सम्प्रति साधारणलक्षणमाहसाहसकारि(ण)-साहसकारिन्-त्रि० । साहसं कर्तुं शीलम
समयं वकंताणं, समयं तेसिं सरीरनिव्वत्ती। स्येति साहसकारी । अकार्यकारिणि,सूत्र०१ श्रु०१० अ० ।
समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसासनीसासो ॥६॥ (अत्रोदाहरणम् । 'आउक्खय' शब्दे द्वितीयभागे २७ पृष्ठे गतम् ।)
इकस्स उजं गहमं, बहण साहारणाण तं चेव । साहसविवञ्जिय-साध्वसविवर्जित-त्रि० । अविमृश्य प्रवृत्तिः जं बहुयाणं गहणं, समासो तं पि इक्कस्स ।।१६।। साध्वसं तद्विवर्जितः । सम्मुखीभूय युद्धप्रदानलक्षणसाध्व
'समयमि' त्यादि गाथाद्वयम् , समयं-युगपद् व्युसरहिते, व्य०१ उ०।
स्क्रान्तानाम्-उत्पन्नानां सतां तेषां-साधारणजीवानां साहसिय-साहसिक-पुं० । सहसाऽविमर्शात्मकेन बलेन वर्त- समकम्-एककालं शरीरनिर्वृत्तिर्भवति , समकं च प्रा
णापानग्रहण-प्राणापानयोग्यपुगलोपादानम् , ततः समकते इति साहसिकः । भाविनमर्थमविभाव्य प्रवर्तमाने, स्या० ।
म्-पककालं तदुत्तरकालभाविनाधुरासनिःश्वासी, तअवितर्कितकारिणि, शा० १७० २ ०। धैर्यवति, प्रश्न
था एकस्य यत् आहारादिपुद्रलानां ग्रहणं तदेव बाहना३ आश्रद्वार। सात्त्विके, औ०। प्रविमृश्य पापकर्मनिवृत्ते,
मपि साधारणजीवानामवसेयम्। किमुक्कं भवति?--यत् श्रादशा० ६ ० । अकृत्यकरणपरे, दश० ६ अ० २ उ० । हारादिकमको गृह्णाति शेषा अपि तच्छरीराश्रिता बहअसमीक्षितकारिणि, शा०१थु०१८ श्र० सहसाऽवितर्य बोऽपि तदेव गृहन्तीति , तथा च यद्बहूनां ग्रहणं प्रवर्तत इति साहसिकः पुरुषः, तत्प्रवर्तितत्वात्साहसिकः । सत्संक्षेपादेकत्र शरीरे समावेशात् एकस्यापि ग्रहणम् । साहसिकप्रवर्तिते प्राणातिपाते, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार ।
सम्प्रत्युक्तार्थोपसंहारमाहसाहस्सिय-साहसिक-पुं० । सहस्रयोधिनि मल्ले,व्य० १ उ०।
साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च । साहस्सी-साहस्री-स्त्री० । सहने, भ०१ श०२ उ० । साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं ।।१७।। साहा-शाखा-स्त्री० । “ खघथधभाम्" ॥८ । १ । १८७ ॥ सर्वेषामप्यकशरीराश्रितानां जीवानामुक्तप्रकारेण यत् साइत्यनेन खस्य हः । एकाचार्यसंततावेव पृथक्पृथगन्धये वि- धारण साधारणः, सो नपुंसकतानिर्देशः पार्षयात् प्रापक्षिताद्यपुरुषसंतती,यथा अस्मदीया वारस्वामिनाम्नी 'व
हार: आहारयोग्यपुद्गलोपादानम् , यथ साधारण प्राणाइरी' शाखा । विशे० । एकदेश, कल्प०१ अधि०६ क्षण ।
पानयोग्यपुद्गलोपादानम् उपलक्षणमेतत् यौ साधारणाधुपलव,अाचा०२ श्रु०१चू०१०७ उ० । वृक्षडाले, दश०
च्छासनिःश्वासौ, या च साधारणा शरीरनिवृत्तिः पत
साधारण जीवानां लक्षणम् । प्रशा०१ पद । ४ अ० । वृक्षभुजायाम् ,दश०६ अ०२ उ० । स्था० । स्थूलाः शाखाः सूक्ष्माः प्रशाखाः। सम्म०३ काण्ड । उत्त० नि००
सम्पति पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवेदस्य ऋषिभेदाद्भिन्नपाठे,प्रा०म० अ० साहाहेउं सही
वानां प्रमाणमाहउं महामोहं पकुव्वई"वशीकरणादिप्रयोगः श्लाघाइतोः स- पत्तेया पजत्ता, पयरस्स असंखभागमित्ता उ । खिहेतामित्रनिमित्तमित्यर्थः। स०३० सम।
लोगाऽसंखापज-त्तयाण माहारणमणंता ॥१०२॥ स्वाहा- श्रब्य० । देवतायै द्रव्यत्यागार्थ प्रयुज्यमाने शब्द,
एएहि सरीरेहिं , पच्चक्खं ते परूविया जीवा । प्रति।
सुहुमा आणागिझा, चक्खुप्फासं न ते इंति ॥१०३।। साहाणुसाह-अयं पारसीकः शब्दः । राज्ञामपि राजनि ,
पत्तया पजत्ता' इत्यादि । पर्याप्ताः प्रत्येकवननि० चू०१ उ०।
स्पतिजीवाः घनीकृतस्य सम्बन्धिनः प्रतरस्य असंख्येसाहाभंग-शाखाभङ्ग-पुं० । वृक्षडालैकदेशभने, दश०४०। यतमे भागे यावन्त श्राकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा भवसाहामय-शाखामृग-पुं० । वानरे, पाइ० ना।
न्ति , अपर्याप्तानां पुनः प्रत्येकतरुजीवानामसंख्यया
लोकाः परिमाणं , पर्याप्तानामपर्याप्तानां च सासाहारग-साधारक-त्रि० । साधारे, प्रा० म०१०।
धारणजीवानाम् अनन्ता लोकाः । किमुक्तं भवति?-असत्यसाहारण-साधारण-न । सामान्ये, प्राचा०२ श्रु०१चू०१
यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा अपर्याप्ताः प्रत्येकतरवः, अनन्तअ० १ उ० । द्रव्यकारणे, "कारणं ति वा कारगं ति या सा- लोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च साधारणहारणं ति वा एगट्ठा" प्रा० चू०१० । द्रव्या० । प्राव० ।। जीवा इति । प्रज्ञा०१पद ।
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(८०१) साहारणकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
साहएमाल साहारणकप्प-साधारणकल्प-पुं० । शय्योपध्यादिसाधारण- ना कोडीकृतं, ततः कथं तत्रान्येषां जीवानामवकाशः न खलु सामाचार्याम् , पं० भा० ।
देवदत्तशरीरं देवदत्त इव सकलशरीरेण सहान्योन्यानुगमएसो साहारणं वोच्छं।
पुरस्सरमन्येऽपि जीवाः प्रादुस्सन्ति तथा दर्शनात् । अपि
च-सत्यवकाशे येनैव तच्छरीरं निष्पाद्यान्योन्यानुगमनेन सेज्जुबहिसायमाहा-रमेव साहार तह य अणुकंपा । कोडीकृतं स एव तत्र प्रधान इति तस्यैव पर्याप्तापर्याप्तव्यव. पादिपणगं तु तुल्लं, भइयं अणुसासणाए तु ।।
स्था प्राणापानादियोग्यपुद्रलोपादानं वा भवेन्न शाणामिति ।
तदेतदसम्यक् जिनवचनपरिवानाभावात् , ते हनन्ता अपि सेज्जुबहिसायाहा र पसिद्धा एते होंति चत्तारि ।
जीवास्तथाविधकर्मोदयसार्थ्यनः समकमेवोत्पत्तिदेशमसाहारणकप्पे पुण, मूलगुणा उत्तरगुणा य ॥
धितिष्ठन्ति, समकमेव तच्छरीराश्रिताः पर्याप्ति निर्वर्तयितुसाहरणं तु किं पुण, सेजादुप्पादगाण सम्बेसि । मारभते, समकमेव च पर्याप्ता भवन्ति, समक्रमेव च प्राणा. सामस्मगुणा ते उ, तम्हा साहारणं जाण ॥
पानादियोग्याम्पुद्गलानाददते । यच्चैकस्य पुद्रलाभ्यवहरण त.
दन्यामनन्तानामपि साधारणम् । यश्चानन्तानन्ततद्विवक्षि. मादिपणगं दुतुल्लं, जाणसु सेजाति जाव साहारं ।
तस्यापि जीवस्य ततो न काचिदनुपपत्तिरिति । पं० सं०३ ठियमट्ठियाण दोण्ह वि, एते खलु होति तुल्ला तु ॥
द्वार। अहवादिपणगमूलं, (गुण)पंचते होंति दोएहि तुल्ला तु।
साहारणसरीर-साधारणशरीर-न। अनेकजीवसामान्ये शसमणाण व समणीण व, तम्हा साहारणं जाण ॥
रीरे, भ०२० श०१ उ०॥ दारं।
सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाहभइयमणुसासणंती, अणुकंपण सासस्य त्ति एगट्ठा । से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ?, साहाकोइ कदाइ अणिउणो, ण तरति अणुसासणं काउं ।। रणसरीरबादरवणस्सइकाइया अगविहा पत्रचा, तं जहासुहमारियएणं, होति विसुद्धो य अंतरप्पा से । "अवए पणए सेवा-ले लोहिणी मिहुत्यु हुत्थिभामा (य) तस्स व होति वताई, पंच वि साहारणाई तु ॥ अस्सकन सीहकनी , सिउंदि तत्तो मुसुंदी य ॥४३॥ आणा तित्थकराणं, सामखा संजता सम्बेसि । रुरु कुण्डरिया जीरु, छीरविराली तहेब किट्टीया ! सुहमे वि तप्पमाए, अणुसासणयं कुणति जो तु ।। हालिद्द सिगबरे य, यातूलुगा भू(म)लए इय ।। ४४॥ तेसि अणुकंपया णि-च्छएण जम्हा उवद्विता होति । कंबूयं कन्नुक्कड,सुमत्ता बलइ तहेव महुसिंगी। तपऽणुसहिऽणुकंपा, एगट्ठा होंति णायव्वा ।। नीरुह सप्पसुयंधा, छिन्नरुहा चेव बीयरुहा ॥ ४५ ॥ साहारकप्पो एसो । पं० भा० ५ कल्प ।
पाढामियवालुंकी, महुररमा चेव रायवत्ती य । याणि साहरणकप्पो तत्थ गाहा-सज्जोवहि,सो कई भवाइ, पउमा मादरि दंती-चंडि किट्ठी ति या अवरा ॥४६॥ उच्यते-शय्योपध्याहारादिभिः प्रायत्तो। कई सो साहार
मॉमपरिण मुग्गपएणी, जीवियरमहे य रेणुया चेव । णो भवइ, उच्यते-एवं ताणि अाहाराईणि साहयताणं म
काअोली खीरकाओली, तहा भंगी नहीं इस ॥४७॥ हम्वयासि साहारणाणि भवंति सामान्यानीत्यर्थः । सम्बेसिं पि आहाराई साहयंताव संपत्ताणं संजयाणं ताणि किमिरासि भद्द मुच्छा, णंगलई पेलुगा इय । विद्यन्त स्वाध्याययोगयुक्तानाम् । अणुकंपत्ति वा अणु सासणं किएहपउले य हढे, हरतणुया चेव लोयाणी ॥ ४८ ॥ ति या एगट्ठा । कयाह को अनिउरणो न तरह अणुसासिउ न कण्हे कंदे बजे, सूरणकंदे तहेव खज्जरे। सुहमारियाए सुत्तत्थतदुभयाणं अब्बाच्छित्ति काउंवत्थपायाइसु वा संविभागं भावसुद्धा पुण तस्स वि साहारणाणि
एए अणंतजीवा, जे यावन्ने तहाविहा ॥ ४६॥ भवन्ति चेव । एस साहारणकप्पो । पं० चू०५ कल्प।
‘से किमि ' त्यादि । श्रथ के ले साधारणशरीरबादसाहारणगुणप्पसंसा-साधारणगुणप्रशंसा-स्त्री० । लोकलो
वनस्पतिकायिकाः, सूरिराव-साधारणशरीरबादरवनस्पकोचरयोः सामान्याना गुणानां प्रशंसायाम् , ध०१ अधिक।
तिकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-'अवए' त्यादि , पते
च कांचदतिप्रसिद्धत्वात् केचिदेशविशषतः स्वयमवसाहारणद्विय-साधारणस्थित-त्रि० । साधारणाधग्रहस्थित,
गन्तव्याः 'जे यावन्ने तहाविहा' इति। येऽपि चान्ये व्य०४ उ०।
उक्लव्यतिरिक्तास्तथाप्रकारा-उक्नप्रकारास्तऽप्यनन्त जीवा शा. साहारणणाम-साधारणनामन्-न० । नामकर्ममेदे, कर्म० ६ तव्याः। प्रज्ञा०१ पद । जी० । स०। (पृथ्व्यादीनां साधाकर्म। श्रा० । यदुदयादनन्ताना जीवानां साधारणमेकं शरीरं
रणशरीरवत्वं 'पुढवीकाइय' शब्दे पञ्चमभागे गतम् ।) भवति तत्साधारणं नाम । कर्म०१ कर्म० । प्रव० । ननु
साहारमाण-संहियमाण-त्रि० । स्वस्थानादचलति तेन हियकथमनन्तजीवानामेकं शरीरमुत्पद्यते । तथाहि-य एव प्रथ- माणे, व्य! ममुत्पत्तिमागतस्तन तच्छुरीरे मिथ्यादि तमनेन च सर्वात्म- अह माहारमार्ण तु, बट्टेउं जो उ दावए ।
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(०२) साहारमाण
अभिधानराजेन्द्र दालए प्रचलितो, छट्ठी एसावि एमणा ॥
साधयतीति साधुः । भाष० ४ ० । निर्वाणसाधकयोअथ वर्तयितुं संझियमाणे यो दापयेत् तस्य बननतः सप
गसाधनारसाधुः। दश०१०म०। अष्टादशदोषाणां बर्जके, रिवेषकस्तस्मात्स्थानात् मनागप्यचलितोदयात् . पतरसंहि--
दर्श०४ तस्त्र । सुयती , दर्श०४ तस्व । यती, पशा० ११ यमाणमुच्यते एचाऽपिषष्ठी एषणा दरम्या । ब०६ उ ।
विष० । मुक्तिसाधके, विशः । यथावस्थितयती, भाचा. २ भु०३००। ध०र०। मुनी,
पासूत्राशामर्शमचारित्रसाहाविय-स्वाभाविक--त्रिका प्रकृत्रिम, भाव०४०। वि.
क्रियोपेते मोहामार्गव्यवस्थितसाधौ ०२४०५०। शे० । दर्श० । सहजे,मा.१०१०।।
सामादिक्रियाभिर्मुशिसाधमप्रवणे साधी, ५० प्र०१ पाए। साहिऊण-साधयित्वा-प्रय० । साधन रुत्वेन्यथै , दर्शक
श्रेष्ठ, सूत्र०२७०२० । प्राचा० । विशे० । भिशी, ४ तस्व।
सूत्र.१ धु०१३ १०। सदाचार,सूत्र०१७०-३०१०। साहिंत-साधयत्-त्रिका प्रतिपाति , सत्र.१ भु०१० पारमार्थिकन्यतौपं०.४ द्वार । ब्रह्मचर्यादिगुणाम्बिते, २ उ० | प्रश्न
स्था०१० ठा० ३-उ6।। साहिगरण-साधिकरण-वि० साहाधिकरसेन साधिकार
सत्युत्तगुणी साहू, ण.सेस इह णो पइसा मह हेऊ । णः । युद्धार्थमुपस्थिते,स्था०५ ठाउ०। कलहयति, स्था० अगुलना इति खेमो,दिलुतो पुण सुवर्ण च ॥११६१॥ ६ ठा०३ उ०। सह अधिकरणेन वर्तते इति साधिकरणः । कपायभावशुभभाषाधिकरणसहिते, नि०० १० उ०..
शाखोकगणी साधु एवंभूत एव न शेषाः-शास्त्रवाला नोड
स्माकं प्रतिका पक्ष इत्यर्थः।बहनशेपा इति अत्र हेत:-साधकः साहिगरणि(ण)-साधिकरणिन्-त्रि०ा सह भाषनाऽधिकरणे
भगुणस्वादिति शेयः; सद्गुणरहितत्वादिस्यर्थः । दृष्टान्तः न शरीरादिना वर्तत इति समासान्तविधेः साधिकरणी ।
पुनः सुवर्णमिवात्र व्यतिरेकत इति गाथार्थः। शरीरादिसहिते , 'साहिगरणी जीये' साधिकरणी-संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदेव सह
सुवर्णगुणानाहचारित्वात्साधिकरणत्वमुपदिश्यते शस्त्राधिकरणापेक्षया विसपाइरसायणमं-गलत्थविणए पयाहिणावत्ते। तु स्वस्वामिभावस्थ तदविरतिरूपस्य सह वर्तियाळीवः गुरुए अङभकुत्थो, अट्ठ सुवो गुणा हुंति ॥११६२॥ साधिकरणीत्युच्यते । भ०१६ श०१ उ०।
विषघाति सुवर्ण तथा रसायनं वयस्तम्भनं मालार्थ मसाहित्थलव स्वाभीष्टार्थलव-पुं०। स्वाभिमतार्थलेशप्राप्ती,
मलप्रयोजनं विनीत कटकादियोग्यतया प्रदक्षिणावर्तमप्रति०।
ग्नितप्तं प्रकत्या गुरु सारतया अदाखं सारतयैव अकथनीसाहिय-स्वाहित-त्रि सुष्टु बाहित-उपलब्धः स्वाहितः ।। यमत पषमष्टी सुवर्से गुणाः भवन्त्यसाधारणा इति गाथार्थः। स्वजातज्ञानादौ, "अयेस प्रवरे धम्मे, णायपुत्तेण साहिए।"
दान्तिकमधिकृत्याहश्राचा०१ श्रु०८ १०८ उ० ।
इम(इ)ह मोहविसं घायह,विज्जुबएसा रसायणं होइ। साहिज-साहाय्य-न० । सहायकृत्यकरण, व्य०३ उ ।
गुणोश्र मंगलत्थं,कुणइ विणीमो प्रजोंग त्ति।११६३॥ साहिया-साहिका-स्त्री० । गृहपको, १ उ०३ प्रक० ।
इति नोहविर्ष घातयति, केषांचिद् वैद्योपदेशात्तथा रसासाही-साही-खी। गृहपती,नि००३ उ० । भाषः। यने भवत्यत एव, परिणतान्मुख्यं गुणातच मालाथै कसाही-पारसीकः शब्दः । राजनि , नि०० १० उ।
रोति, प्रकृत्या घिनीतश्च योग्य इति कृत्वैष गाथार्थः। साहीण--स्वाधीन-त्रि० । अपरायत्ते, दश०२०। तं । मग्गणुसारिपयाहिण, गंभीरो गुरु अश्रो तहा होइ । प्राचा० । स्वायत्ते, मा०१ श्रु० अ०।
कोहग्गिया अडझो, अकुत्थी सुइसीलभावेणं।११६४। साहीणभोगचागि(ण)-स्वाधीनभोगत्यागिन--पुंज स्वजन
मार्गानुसास्त्विं सर्वत्र प्रदक्षिणावर्तता गम्भीरश्चेतसा गुक्रियमाणमद्यानारागाधनास्वादने, व्य०२ उ०।
रुस्तथा भवति । क्रोधामिनाऽवाखो, शेयः अकुथनीयस्सदो
चितेन शीलभावेनेति गाथार्थः । साहु-साधु-न० । "ख-घ-थ-ध-भाम्"८११८॥इति धस्य
एवं दिद्रुतगुणा, सज्झम्मि चि एस्थ होंति णायच्चा । हः। प्रा० शोभने, सूत्र०२ श्रु०१० पाया। श्री। निदोघे, द्वा०११ द्वारा पुं०। सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैमोक्ष साधयतीति
ण हि साहम्माभाचे, पायं छोइ दिद्वंतो ॥११६५ ।। साधुः । दर्श०१ तत्व। साधयति सम्यग्दर्शनादियोगैर
एवं रग्रान्तगुणा विषधातिवादयः साधेऽप्यत्र साधापवर्गमिति साधुः । दश०१ ० । साधयति-पोषयति
भवन्ति-सातव्याः, नहि साधाभाव एकान्तेनैव प्रायो याद विशिक्रियाभिरपवर्गमिति साधुः । उत्स०१०। विशे०।
यस्माद्भवति दृष्टान्त इति गाथार्थः । साधयति ज्ञानादिशक्तिभिमौक्षमिति साधुः। समतां च सर्व
चउकारणपरिसुद्धं, कसछेअत्ताहतालणाए, श्र। भूते ध्यायतीति निरुतम्यायात् साधु: । साहायका वा सं- जं तं विसघाइरसा-इणाइ गुण संजुश्र होइ॥ ११६६॥ यमकारिणं साधयतीति वा साधुः । दशा० १० । भ०। चतुकारणपरिशुद्धं चैतद्भवति, कषेण छेदन तापन ताडभभिलषितमर्थ साधयतीति साधुः । ऋवापाजास्यादिना नया चेति, यदेयंभूतं तद्विषघातिरसायनादि गुणसंयुक्त भउण्प्रत्ययः। प्रा० म०१०। निर्वाणसाधकान् योगान् । बति नान्यत्परीक्षणीयमिति गाथार्थः।
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( ८०३ ) अभिधानरराजेन्द्रः ।
इमम्मि कवाई, विसिलेसा तरेगसारखं । अवगारिणि अणुकंपास अनिल ११६७ इतरस्मिन् साधी कपादयो यथासंवयमेते, यदुन-विशिष्टकप:- लेश्या, तरीकार व कारिकाः व्यसने प्रतिनिश्चलं मितं ताड़ना, एषा परीक्षेति गाथार्थः । सेकसिणगुणोंवे दो सुन सेस जुनी ।
विवामरूमि- सामगुणो वह साहू ॥ ११६ ॥ तत् कृत्स्नगुणोपेतं सद्भयति सुबरा तास्त्रिकं, न शेषकम् 'युक्तिरिति युक्तिसुवर्णे, नापि नामरूपमात्रेण ब्राह्येन एवंगुणेन युक्तं सुवर्ण भवति । एवमगुणः सन्नुपेक्षणीयो भवति साधुरिति गाथार्थः ।
जुत्तीसुवायं पुण, सुवमवाप्यं तु जर वि कीरिता (आ) ।
होम सेसेहि गुणेहि संहिं । ११६६॥ किं पुनः अतास्थिकं सुचराचरणमेव यद्यपि क्रियेत कथंचित्तथापि न भवति, तत्सुवर्णे--- शेषैर्गुणैर्विषधातित्वादिः सद्भिरिति गाथार्थः । प्रस्तुतमधिकृत्याह
जे इह सुत्ते भणिमा, साहुगुणा तेहि होइ सो साहू । जय संते गुहम् ॥ १२०० ॥ य इह शास्त्रे भणिता मूलगुणादयः साधुगुणास्तैर्भवस्य सौ साधु, बर्खेन सता जात्यव च सति गुरानिधी विषयातित्वादिरूप इति गाथार्थः ।
दातिकमधिकृत्याह
जो साहू गुणरहिओ, भिक्ख हिँडइ स होइ सो साहू । वो जुत्तिसुव-मयं च संते गुणणिहिम्मि || १२०१ ।। यः साधुर्गुणरहितः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ साधुः, ए वं वर्णेन सता केवलेन, युक्तिसुवर्णवत् असति गुणनिधौ इतिगाथार्थः ।
उकिर्ड भुंज, छकायपमद्दणो घरं कुणइ |
पक्वं च जल गए, जो पिच कह सो साहू ।। १२०२ ॥ उद्दिश्य तं मुझे कुडिया, पापमर्दनो निरपेक्षतया, गृहं करोति, देवव्याजेन प्रत्यक्षं च जलगतान् प्राणिनो यः पयः कथं त्यसी खाने गाथार्थः ।
अउ कसाईया, फिर एए इत्य होन्ति यायच्या ।
आहि परिखा साहुपरिखेद काया ।। १२०२ ।। अन्वाचार्याःस्थमिद्धति-कपादयः प्रागुक्रा फिल ते उद्दिष्टभोक्तृत्वादयः अत्र साध्यधिकारे यति-तया यथाक्रमम् । किमुक्तं भवति - पताभिः परीक्षाभिर्भाबसाराभिः साधुपरीक्षा कति यथार्थः।
निगाहतुम्हा जे इह सत्थे, साहुगुणा तेहि होइ सो साहू | अचंतसुपरिसुद्धेहि, मोक्खसिद्धि त्ति का ऊणं ।। १२०४ ॥ तस्माद्य इह शास्त्र भणिताः साधुगुणाः प्रतिदिनक्रियादयस्तैः करणभूतैर्भवत्यसो भावसाधुः, नान्यथा । अत्यन्त सुप
साई
रिश्वैस्तैरपि न इन्यमानरूपैयाँ सिद्धिरिति कृत्या भाष मन्तरेण तदनुपपतेरिति । ००४ द्वार 1 कृत्स्नसंयमप्रधानविदुषि, प्रतिः । निः खू० । ज्ञानाश्रीनि साधयतीति साधुः । साधयति शान्तिमिति साधु । दश० १ अ० । आचार्या विशिष्टाः सूत्रार्थदेशका अपरे तूपाध्यायाः सूत्रपाठकाः, अन्ये त्वेतद्विशिष्टाः सामान्य साधव पवेति विशे० । सकललोकगीत शिटाचाररते ध० १ अधि
जिलो अबंधुलोमा, सॉहूँ सिंधुणों पारगा महाभागा । नागाइएदि सिवसुखसाहमा साहुको सरणं द०प० । “नैवास्ति राजराजस्य सुखं नैव देवराजस्य सु वझररहिनस्येति । स्वा०१०डा० ३३० ॥ विहरता दुविधा गवासियां गता । गच्छ्वासि यो उ मा विहति गिता जिस प जिपमा अदादिया सुपरिहारिया व ००२० उ० | श्राव० । धात्यविहारभाषाचमस्थानकर्मांचे साधुरिति दर्श०४ तस्यापूर्ण पडोसकोपादादि कम्मबंध विश्येवमादि । ० चू० ४ श्र० ।
सामनविसेसोभय- भैया वत्तब्वया बहुविह चि । अहवानामाई, इच्छाह को कं नओ सा ||३५६८ || सोउं सद्दहिऊण य, नाऊण य तं जिणोवएसेग । तं सव्वनयविति सव्त्रनयसम्मयं जं तु ॥ ३५६६ ।। चरणगुणसुडिओ होइ, साहू एस किरियानो नाम । चरण गुणसुट्ठियं जं, चरणनया बिंति साहु त्ति | ३६०० सो जेल भावसा, सम्पनया जं च भावमिच्छति ।
"
नाण - किरियानोभय- जुत्तो य जओ सया साहू ३६०१ एता अपि गतार्थाः नगरं अहवा नामाईणमित्यादि अथवा, नाम-स्थापना- द्रव्य भावसाधूनां मध्ये को नयः कं साधुमिच्छति ? इत्यादिकां वक्तव्यतां श्रुत्वा श्रद्धाय ज्ञात्वा यावबुध्येत्यर्थः एस किरियानओ नाम 'ति प ज्ञानादिगाभूतकिवालो नयो नीतिपक्षः स्थितप इत्यर्थः यस्माच्चरण्नयाश्चरणवृत्तयः परममुनयश्चरणगुणसुस्थितमेव साधुबुवते, नापरं स च येन यस्माद् भावसाधुरि गृह्यते । सर्वनयाश्च यस्माद् भावसाधुमिच्छन्ति ज्ञानक्रियानयोभययुक्तश्च यतः सर्वदैव भावसाधुरुच्यते, तस्माज्यानक्रियास्थितः साधुरित्यर्थ सम्पि
इदानीं योऽसौ श्राचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरः श्राद्धलेषु प्रविशति सनिरिति नियालाप:असं घरं सुचिरं खम कोमायमायलोहिनं । को ऊहलपडिबद्धं, वेयावच्चं न का रिजा ।। १३३ ।। ( भा० ) असोसित सोयेयायचं नकारे जांद का रवे श्रसमाचारी, सो बालस्सेण ताव अच्छा जाब फिडियो देखकाली, ताई पच्छायाजिं किंचि देति ते आयरिश्राणं विराहणा । श्रहवा सो अप्पर वरच
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(2०४) अभिवानराजेन्द्रः।
साहुसामग्गी कम्म निब्वाहिश्र होउ ति, ताहे तत्थ अकाले वञ्चतस्स साहदसणभाव-साधुदर्शनभाव-पुं० ।मुनिजनावलोकनाध्यतस्स ते चेव दोसा। अथवा ताणि धम्मसडिया प्रोस- वसाय, पश्चा०७विव०। कणदोसे उस्सकणदोसेवा करेजा ठवियगदोसा वा। अहवा मादामी-माधदासी-स्त्री०। मथुरामगरीवास्तव्यस्य जिपायरियाणं निमित्तं पए वा उस्सूरे उवक्खडेजा , एते एवमाइया अलसे दोसा । घसिरो-बहुभक्खगो, सोविण
नदासस्य श्रावकस्य भार्यायाम् , प्रा० चू०१० । कल्पा पट्टवेयवो, सो पदम चेव अप्पणो अट्टाए हिडइ गज्जत्तं ,
साहुधम्म-साधुधर्म-पुंछ। श्रमणसंबन्धिचारित्रधर्मे, पश्चा० जाय सो अप्पणी पज्जत्तं हिंडा ताव फिडिा वेला।
। विव०। (सच क्षान्त्यादिको विधः · अणगारधअहवा तत्व पढम वश्च पच्छा तत्थ य ण चेव वेला
म्म' शब्द प्रथमभागे २७६ पृष्ठे दर्शितः।) होइ , ते वोस्सवणादिश्रा दोसा अहवा तत्थ सहकुले साहुभाव-साधुभाव-पुं० । मालवदेशमण्डले ११८५ संवत्सरे पभूयं गेराहताहे उम्गमदोसा न सुज्झति । सुविरो ताव श्रीनेमिनाथस्य मन्दिरनिर्माणकारके, स्वनामख्याते गृहएसुबह जाव फिहिना भिक्खावेला । अहवा पढमं तत्थ गंतुं ती, ती०४ कल्प। अबेलाए पच्छा सुयह ते चेव दोसा । स्वमश्रो जड अप्पणो साहमग्ग-साधमार्ग-पुं। मुनिगथे, गै०१अधिक। हिंडर ताहे पायरिया परितावणादि पार्वति । अह खमी साहुमाइ-साध्वादि-पुं०।निर्ग्रन्थशाक्यावी.पश्चा० १३विया
आयरित्राणं गेरहद ततो अप्पणो परितावणादि पावर। कोहिलो पुवलाभाओ फिडितो सकोहिओ संतो भणर
साहमाणि(ण)-साधुमानिन-त्रि० । पारमोत्कर्षायाऽसदभम्ह राणतो लभामः, तं पितझ पच्चपणन राहामो नुष्ठानमानिान, सूत्र०१०१३० महवा थेवं लम्भर तत्थ भंडा, अहवा ऊणं पाणेण वा
साहुया-साधुता-स्त्री० । साधुभाव, उत्त०२० तेमणेण वा तत्थ विलसति । माणिो जहन अभटिजति साहुरंग-साधुरंग-पुं०। जिनचन्द्रसूरिशिष्यपुण्यप्रधानशिष्यतो पुणो न एड. को विसेसो सावगाणे ति? । माइलो सुमतिसागरशिष्यविद्याविशारदशिष्ये, अष्ट ३२ अप० । भइग अप्पसागरिझं भोच्चा पंतं प्राणेति । लोभिल्लो ज- साहरक्खिय-साधुरक्षित-पुं० । स्वनामख्याते स्थविरे, एष तिलभति तं सव्वं गेराहति, एसणं बा लोभेणे पेलेजा।
मित्रवाचकक्षमाश्रमणानामादेशः । साधुरक्षितक्षमाश्रमणाः कोऊहलिलो जत्थ नडादि पेच्छा तत्थ पेच्छंतो अच्छद ।
पुनरेवं युवते । व्य० १ उ०। । पडिबद्धो जो सुत्तत्थेसु अल्लिो तो सो ताव अच्छड जावकालबेला जाया । एए दोसा तम्हा परिसं साहुं बेयायचं
साहुरयण-साधरत्न-पुं० । सोमसुन्दरगुरूणां शिष्ये, ग.
३ अधि० । स०। येन सोमप्रभसूरिविरचितयतिजीतकल्पस्य न कारेजा। श्रोघ०।
वृत्तिः कृता । पञ्चा० १ विव० । साहुकार-साधुकार-पुं। साधु कृतं तत्सुष्टु कृतमिति वि
साइली-देशी-स्त्री० । वृक्षशाखायाम् , नि० चू०१ उ०। द्वद्भ्यः प्रशंसायाम् , श्रा० म.१०।पि० । नं०।
साहुलूमय-साधुलूषक-त्रि० । साधुमोषके, सूत्र.१ धु० ३ साहुजणाचरिय-साधुजनाचरित-न० । साधुजनैरासेविते ,
। अ०२ उ०। प्रश्न. ४ संव० द्वार।
साहुबग्ग-साधुवर्ग-पुं० । साधूनां वृन्दे, ग०१ अधिक। साहुजीवि(ण)-साधुजीविन-पुं०। साधु-शोभनं परोपका
साहुवयण-साधुवचन-न० । असत्यसत्यामृषावचनपरित्यागे, रपूर्वक जीवितुं शीलमस्य स साधुजीची। सूत्र०२ श्रु०५ संथा उद्घाटापौरुषीत्यादिके विभ्रमकारिखि,ध०२अधि० । श्र० । साधुना विधिना जीवितुं शीलं यस्य स साधुजीवी ।
साहुबसण-साधुव्यसन-न० । दुष्टराज्यादिजनितायां शिष्टसूत्र०१ श्रु० ३ अ०३ उ० । सूत्रोक्तं श्रमणब्यापारे, पं० व
जनानामापदि, नि० चू० ६ उ०। २ द्वार।
साहुवाय-साधुवाद-पुं० । वर्णवादे, स्था० १० ठा०३ उ० । साइजोणिय-साधुयोनिक-पुंछ। साधुपक्षके.नि० चू.१ उ०!
प्रा०म० । द्वी। साहणिक्खेवण-साधुनिक्षेपण-न० । साधर्मिकाणामशिवा
साइमक्खिय-साधुसाक्षिक-न० । साधवो-मुनयस्ते सातिदिकारणैनिक्षिप्तधारक, नि० चू० १५ उ० ।
शयशानवन्त इतरे वा विरतिप्रतिपत्तिसमकालसमयससाहुणी-साध्वी-श्री० । रत्नत्रयधारिण्यां श्रमण्याम् , ध०२ मीपवर्तिनः साक्षिणो यत्र तत्तथा। साधून साक्षिणः कृअधिः । तपस्विन्याम् , पश्चा०२ विव० । प्रा० चू०। तथा
त्या कृते, पा० साध्वी श्राद्धानामने व्याख्यामं न करोतीत्यक्षराणि कुत्र साहसच्चेडा-साधसच्चेष्टा-स्त्री० । साधूनां विनयादिरूपायां ग्रन्थे सन्तीति । अत्र दशवकालिकवृत्तिप्रमुख ग्रन्थमध्ये य- | सचेष्टायाम् , पो०१२ विव० । तिः केवलश्राद्धी सभाग्रे व्याख्यानं न करोति रागहेतुत्वादि- साहसमिक्खा-साधसमीक्षा-स्त्री०। साध्वी चासी समीक्षा त्युक्तमस्ति, एतदनुसारेण साध्यपि केवलश्राद्धसभाग्रे व्या- । च साधुसमीक्षा । यथावस्थिततस्वपरिच्छितो, समतायाश्च! ख्यानं न करोति रागहेतुत्वादिति ज्ञायते। ही० ३ प्रका।
कराति रागहतुत्वादिति सायत। हा० ३ प्रका०। सूत्र. १ श्रु०६ अ०। साहुदंसण-साधुदर्शन-न। मुनिजनावलोकने , पश्चा० ७ साहसामग्गी-साधुमामग्री-स्त्री० । साधूनां ज्ञानादिरूपायां विधा
| सामथ्याम् , द्वा।
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प्साहुसामग्गी अभिधानराजेन्द्रः।
सासाहुमग्गी जिनभक्तिप्रतिपादनानन्तरं तत्साध्यं सामध्यमाह- इदं च सज्ज्ञानावरणस्य व्ययात्-क्षयोपशमात् प्रादुर्भवति । ज्ञानेन शानिभाषः स्या-शिक्षुभाषच भिक्षया ।
तदाह-"सज्ज्ञानावरणापायम्" इति । वैराग्येण विरक्तत्व, संयतस्य महात्मनः ।।१।।
निष्कम्पा च सकम्पा च, प्रवृत्तिः पापकर्मणि । शानेनेति-व्यक्तः ।
निरवद्या च से त्याहु-लिङ्गान्यत्र यथाक्रमम् ॥६॥
निष्कम्पा चेति-पत्रोक्लेषु त्रिषु भेदेष्वज्ञानसज्ज्ञानत्वेन विषयप्रतिभासाख्यं, तथात्मपरिणामवत् ।
फलितेषु यथाक्रम पापकर्माण निष्कम्पा दृढा प्रवृत्तिः, तत्यसंवेदनं चेति, त्रिधा ज्ञानं प्रकीर्तितम् ॥२॥ सकम्पा चाहढा निरघद्या च सा प्रवृत्तिरिति , लिमातत्त्वं परमार्थस्तस्सम्यमवृत्तापहितस्वेन वेद्यते यस्मि
न्याहुः । तदुक्तम्--"निरपेक्षप्रवृत्त्यादि लिङ्गमेतदुदाहृतम् ।" स्तच । तस्वपदेन मियाज्ञाननिवृत्तिः तद्विषयस्येतरांश
तथा-" तथाविधप्रवृत्त्यादिव्यङ्गय सदनुबन्धि च" तथानिषेधावच्छिनत्वेनातत्स्वस्थात् , सम्यकप्रदेनाधिरतसम्यग्ट
" न्याय्यादौ शुद्धवृत्त्यादिगम्यमेतत्प्रकीर्तितम् । " इति । शिक्षानेन निवृत्तिः, तस्य शानाज्ञानसाधारणप्रतिभासरत
ननु कैतानि लिङ्गान्युपयुम्यन्त इत्यत पाहप्रयोज्यविषयप्रवृत्याधुगहितत्वेऽपि ज्ञानस्वप्रयोज्यविरतिम- जातिभेदानुमानाय, व्यक्तीनां वेदनात् स्वतः । वृत्त्याद्युपहितत्याभाषादिति । इत्यमुना प्रकारेण विधा मानं तेन कर्मान्तरात कार्य-भेदेऽप्येतद्भिदाऽक्षता ॥७॥ प्रकीर्तितम् । तदाह-" विषयप्रतिभासं चा-त्मपरिगति. जातीति-जातिभेदस्य-निष्कम्पपापप्रवृत्यादिजनकताबमत्तथा । तस्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुमहर्षयः॥१॥" (श्रात्मप- च्छेदकस्यानानादिगतस्य अनुमानाय उक्नलि लिलानीति रिपतिविषयः 'भातपरिणा' शब्दे द्वितीयभागे १६० पृष्ठे संबन्धः । व्यक्तीनाम्-प्रज्ञानादिव्यक्तीनां स्वतो-लिङ्गनरपेक्ष्येगतः।)
शैव वेदनात्-परिज्ञानात् ,तेन कर्मान्तरात्-चारित्रमोहादि आद्य मिथ्यादृशां मुग्ध-रत्नादिप्रतिभासवत् ।
रूपादुदयक्षयोपशमावस्थानावस्थितात् । कार्यभेदेऽपि-सा
वद्यानवधप्रवृत्तिवैचित्र्येऽपि । तद्भिदा अज्ञानादिभिदाऽक्षता। अज्ञानावरणापाया-ग्राह्यत्वाद्यविनियश्चम् ॥३॥
प्रवृत्तिसामान्य ज्ञानस्य हेतुत्वात्तद्वैचित्र्येणैव तद्वैचिच्योश्राद्यमिति-श्राद्यं विषयप्रतिभासमानं मिथ्यारशामेव
पपत्तेः । प्रवृत्तौ कर्मविशेषप्रतिबन्धकत्वस्यापि हेतुविशमुग्धस्याज्ञस्य रत्नप्रतिभासादिवत् तत्तुल्यम् । तदाह-"वि
विघटन विनाऽयोगात् । वस्तुतः कार्यस्वभावभेदे कारषकण्टकरत्नादी बालादिप्रतिभासवत्" इति । अज्ञानं म
णस्वभावभेदः सर्वत्राप्यावश्यकः , अन्यथा हत्वन्तरसमत्यज्ञानादिकं तदाबरण यत्कर्म तस्यापायः क्षयोपशमस्त-|
वधानस्याप्यकिचित्करत्यादिति विवेचितमन्यत्र । स्मात् । तदाह-“अज्ञानावरणापायम्" इति । ग्राह्यत्वा
योगादेवान्त्यबोधस्य, साधुः सामग्र्यमश्नुते । दीनामुपादेयत्यादीनामावनिश्चयोऽनिर्णयो यतस्तत् ।तदाह“त देयत्वायवेदकम्" इति । यद्यपि मिथ्यारशामवि घटा
अन्यथा कर्षगामी स्यात् , पतितो वा न संशयः ॥८॥ दिशानन घटादिग्राह्यता निश्चीयत एव, तथापि स्वविष
योगादिति-अन्त्यबोधस्य-तत्त्वसंवेदनस्य योगादेवयत्वावच्छेदेन तदनिश्चयान्न दोषः, स्वसंवेद्यस्य स्वस्यैव त- संस्काररूपसंबन्धादेव साधुः सामध्य-पूर्णभावम नुते । दनिश्चयात् ।
अन्यथा तत्त्वज्ञानसंस्काराभावे पुनयोगशक्त्यनुवृत्तौ श
काकाहादिना कर्वगामी वा स्यात् , तदनुवृत्तौ च पतितो भिन्नग्रन्थेर्द्वितीयं तु, ज्ञानावरणभेदजम् ।
वा न संशयोऽत्र कश्चित् , बाह्यलिङ्गस्याकारणत्वात् ।(द्वा०) श्रद्धावत्प्रतिबन्धेऽपि, कर्मणा सुखदुःखयुक् ॥४॥ (भिक्षाविषयः 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे १००७ पृष्ठे भिन्नग्रन्थरिति-भिन्नग्रन्धेः सम्यग्दृशस्तु द्वितीयमा- गतः।) त्मपरिणामवत् ज्ञानावरणस्य भेद:-क्षयोपशमस्तजम् । स्वोचिते तु तदारम्भे , निष्ठिते नाविशुद्धिमत् । तदाह-"ज्ञानावरणहासोन्थम्" इति । श्रद्धावत् वस्तुगु
तदर्थकृतिनिष्ठाभ्यां, चतुर्भझ्या द्वयोग्रहात् ।। १७॥ णदोषपरिज्ञानपूर्वकचारित्रेच्छान्वितम् ,प्रतिबन्धेऽपि चारि
स्वोचिंते-इति स्वाचिते तु स्वशरीरकुदुम्बादेयोग्ये तु श्रात्रमोहोदयजनितान्तराललक्षणे सति कर्मणा पूर्वार्जितेन ।
रम्भे पाकप्रयत्ने निष्ठिते चरमन्धनप्रक्षेपेणोदनसिद्धघुपहिसुखदुःखयुक-सुखदुःखान्वितम् । तदाह-" पातादिपर
ते । तत् स्वभोग्यातिरिक्तपाकशुन्यया संकल्पकं स्वार्थमुपतन्त्रस्य तदोषादावसंशयम् । अनर्थाद्याप्तियुक्नं च,आत्मपरि
कल्पितमन्नम् “इतो मुनीनामुचितेन दानेनात्मानं कृतार्थणतिमन्मतम् ॥ १॥"
यिष्यामि" इत्याकारं नाविशुद्धिमत् न दोषान्वितं तदर्थ स्वस्थवृत्तेस्तृतीयं तु, सज्ज्ञानावरणव्ययात् । कृतिराद्यपाकः, निष्ठा च चरमः पाकः, ताभ्यां निष्पन्नायां साधोर्विरत्यवच्छिन्न-मविघ्नेन फलप्रदम् ॥५॥ चतुर्भपयां-तदर्थ कृतिस्तदर्थ निष्ठा, अन्याथै कृतिस्तदर्थ स्वस्थेति-स्वस्थाऽनाकुला वृत्तिः कायादिव्यापाररूपा य. निष्ठा,नदर्थ कृतिरन्यार्थ निष्ठा,अन्याथै कृतिरन्यार्थ च निष्ठा, स्य तस्य साधोः तृतीयम् विरतिः सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्या- इत्ययरूपायां द्वयोर्भङ्गयोहाच्छुद्वत्वेनोपादानात् । तदुक्तम्त्मिका तयाऽवच्छिन्नमपहितम् । अविन-विघ्नाभावेन, फ- " तस्स कडं तस्स निट्टियं च उभंगो तत्थ दुचारमा सुद्धा"। लप्रदम् । तदाह-" स्वस्थवृनेः प्रशान्तस्य तद्धेयत्वादिनि- यदि च साश्च पृथिव्याधारम्भप्रयोजकशुभसंकल्पनमपि गृश्रयम् । तत्वसंवेदनं सम्यग् यथाशक्ति फलप्रदम् ॥ १॥"! हिजो दुष्ट स्यात्तदा साधुवन्दनादियोगोऽपि तथा स्यादिति न
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साहुसामग्गी अभिधानराजेन्द्रः।
साहुसामग्गी किंचिदेतत् । तदिदनं-"स्वोचिते तु यदारम्भे,तथा संकल्प एकान्तेति-एकान्तः सर्वथा सन् क्षयी या य आत्मा तस्य नं कचित् । म दृष्टं शुभभावत्या-त्तच्छुद्धापरयांगवत्॥१॥" ग्रहादुम्पनं यद्भवनैर्गुण्यदर्शनं ततः शान्तस्यापि प्रशमप्राय एवमलाभः स्या-दिति चेद्बहुधाऽप्ययम् ।
वतोऽपि लोकहप्रथा , द्वितीयं मोहान्वितं वैराग्यं भवति ।
पतञ्च सन् शक्त्यावस्थितो यो ज्वरस्तस्यानुदयो वेलासंभवीत्यत एवोक्तां, यतिधर्मोऽतिदुष्करः ।। १८ ।।
प्राक्काललक्षणस्तत्सन्निभं तेषां भवेत् । द्वेषजनितस्य वैराप्राय इति-एवमसंकलि तस्यैव पिण्डस्य ग्राह्यत्वे प्रायोऽ- ग्यस्योत्कटत्वेऽपि मिथ्याशानवासनाऽविच्छेदोदपायप्रतिलाभः स्यात्-शुद्धपिण्डाप्राप्तिः स्यात्, इति चेत् बहुधाऽपि- पातशक्तिसमन्वितत्वात्। संकल्पातिरिक्तबहुभिरपि प्रकारैः शङ्कितम्रक्षितादिभिरय
स्याद्वादविद्यया ज्ञात्वा, बद्धानां कष्टमङ्गिनाम् । मलाभः संभवी। अथवा-एवं प्रायोऽसंकल्पितस्यालाभः स्यादिति चेद्वहुधाऽप्ययमसंकल्पितस्य लाभः संभवि । श्र
तृतीयं भवभीभाजां, मोक्षोपायप्रवृद्धिमत् ॥ २४ ॥ दिसूनां भिक्षु णामभावेऽपि च बहूनां पाकस्योपलब्धेः । स्थाद्वादेति-स्याद्वादस्य सकलनयसमूहात्मकवचनस्य तथापि तद्वत्ते दुष्करत्वात्तत्प्रणेतुरनाप्तता स्यादित्यत श्राह
विद्यया बडानामङ्गिनां कष्टं दुःख ज्ञात्वा भवभीभाजां इत्यत एच यतिधर्मो मूलोत्तरगुणसमुदायरूपोऽतिदुष्करः
संसारभयतां तृतीयं ज्ञानान्वितं वैराग्यं भवति । तच
मोक्षोपाये-त्रिरत्नसाम्राज्य लक्षणे प्रवृत्तिमत्-प्रकृएवृत्त्युउक्तः । अतिदुर्लभं मोक्ष प्रति अतिदुष्करस्यैव धर्मस्य हे
पहितम् । तुत्वात् .,कार्यानुरूपकारणवचनेनैवाप्तसिद्धेः।।
सामग्र्यं स्यादनेनैव, द्वयोस्तु स्त्रोपमर्दतः । संकल्पितस्य गृहिणा, त्रिधा शुद्धिमतो ग्रहे ।
अत्राङ्गत्वं कदाचित्स्या-दुगुणवत्पारतन्त्र्यतः ॥२५॥ को दोष इति चज्ज्ञाते, प्रसङ्गात्पापवृद्धितः॥ १६॥
सामग्र्यमिति-अनेनैव-ज्ञानावितवैराग्येणैव सामन्य संकल्पितस्येति-गृहिणा-गृहस्थेन संकल्पितस्य-यत्यर्थ
सर्वश्रा दुःखोच्छेदलक्षणं स्यात् , शानसहितवैराग्यस्याप्रतिदित्सितस्य त्रिधा शुद्धिमतो-मनोवाकायशुद्धस्य सा- पारशक्रिप्रतिबन्धकत्वात् । द्वयोस्तु-दुःखमोहान्वितराधाग्रहे- ग्रहणे को दोषः । श्रारम्भप्रत्याख्यानस्य लेशतोऽप्य- ग्ययोः स्वोपमर्दतः-स्वांवनाशद्वारा अत्र-शानान्वितचराव्याघातादिति चेत् , शाते-“मदर्थे कृतोऽयं पिण्डः" इति ग्येऽङ्गत्वमुपकारकत्वम् कदाचिच्छुमोदयदशाया स्यात् । झाते सति तद्रहण प्रसङ्गात् , गृहिणः पुनः तथाप्रवृत्ति- गुणवतः पारतम्यम्-आज्ञावशवृत्तित्वं ततः.शानवरपारतलक्षणात् पापवृद्धितः तनिमित्तभावस्य परिहार्यत्वात् । व्यस्यापि फलतो ज्ञानत्वात् । यत्यर्थ गृहिणश्चेष्टा, प्राण्यारम्भप्रयोजिका ।
ननु गुणवत्पारतन्त्र्यं चिनाऽपि भावशुद्धद्या बैरायतेस्तद्वर्जनोपाय-हीन सामग्यघातिनी ॥२०॥
___ग्यसाफल्य भविध्यतीत्यत आहयत्यर्थमिति-यत्यर्थ गृहिणः प्राण्यारम्भप्रयोजिका चेष्टा नि
भावशुद्धिरपि न्याय्या, न मार्गाननुसारिणी। ष्ठितक्रिया। तद्वर्जनोपायैराधाकर्मिककुलपरित्यागादिलक्षण- अप्रज्ञाप्यम्य बालस्य, विनैतत्स्वाग्रहात्मिका ॥ २६ ॥ हीना सती यतेः सामध्यघातिनी गुणश्रेणिहानिकी । भावेति-भावशुद्धिरपि यमनियमादिना मनसोऽसंक्तिवैराग्यं च स्मृतं दुःख-मोहज्ञानान्वितं त्रिधा।
श्यमानताऽपि । एतत् गुणवत्पारतन्ध्यं विना अप्रज्ञाप्यस्यआर्तध्यानाख्यमाद्य स्या-द्यथाशक्त्यप्रवृत्तितः॥२१॥
गीतार्थोपदेशावधारणयोग्यतारहितस्य बालस्य-अक्षा
निनः स्वग्रहात्मिका-शास्त्रश्रद्धाधिकस्वकल्पनाभिनिबैराग्यं चेति-दुःखान्वितं मोहान्वितं शानान्वितं चेति
वेशमयी मार्गो-विशिष्टगुणस्थानावाप्तिमवणः स्वरसवाहीत्रिधा वैराग्यं स्मृतम् । श्राद्यं दुःखान्वितं श्रार्तध्यानाख्यम्
जीवपरिणामस्तदननुसारिणी न न्याय्या । यदाहस्यात् । यथाशक्ति-शक्त्यनुसारेण मुक्त्युपायेऽप्रवृत्तितः ।
"भावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी । तात्विकं तु वैराग्यं शक्निमतिक्रम्यापि श्रद्धातिशयेन प्रवृ
प्रज्ञापनाप्रियाऽत्यर्थ, न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥१॥ तिं जनयेदिति ।
रागो द्वेषश्च मोहश्च, भावमालिन्यहेतवः । अनिच्छा पत्र संसारे, स्वेच्छालाभादनुत्कटा।
एतदुत्कर्षतो झयो, इन्तोत्कर्षों य तत्त्वतः ॥२॥ नैर्गण्यदृष्टिज द्वेष, विना चित्ताङ्गखेदकृत ॥ २२॥ तथोत्कृष्टे जगत्यस्मिन् , शुद्धिौ शब्दमात्रकम् ।
अनिच्छेति-अत्र हि वैराग्ये सति संसारे-विषयसुखे - स्वबुद्धि कल्पनाशिल्पि-निर्मित ..र्थवद्भवेत् ॥ ३॥ निच्छा-इच्छाभावलक्षणा प्रात्मपरिणतिः नैर्गुण्यदृष्टिज संसा
मोहानुत्कर्षकृच्चैत-दत एवापि शास्त्रचित् । रस्य बलवदनिष्टसाधनत्वप्रतिसन्धानजम् द्वेषं विनाऽनुत्क
क्षमाश्रमणहस्तेने-त्याह सर्वेषु कर्मसु ॥ २७ ॥ टा। अत एव चित्तानयोः खदकृत्-मानसशरीरदुःखोत्पा
मोहेति एतद्-गुणवत्पारतन्मयं च माहानुत्कर्षकत् स्वाग्रदिका । बिच्छेदो हि द्विधा स्यात् अलभ्यविषयत्वज्ञा
हहेतुमोहापकपनिबन्धनम् । तदाह--"न मोहाद्रिकताभावे, नाद द्वेषाः प्राद्य इष्टाप्राप्तिज्ञानाद दुःखजनकः, अन्त्यश्च न
स्वाग्रहो जायते कचित् । गुणवत्यारतन्ध्यं हि, तदनुत्कर्षतथेति ।
साधनम् ॥१॥" अत एव गुणवत्पारतव्यस्य मोहानुकएकान्त.त्मग्रहोद्भूत-भवनैर्गुण्यदर्शनात् ।
कृस्वादेव शास्त्रविदाप-आगमशोऽपि सर्वेषु कर्मसुशान स्यापि द्वितीय स-ज्ज्वरानुद्भवसन्निभम् ॥ २३॥ दीक्षादानोदेशसमुद्देशादिषु क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह । इत्थ
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साहुमामग्गी
अभिधानराजेन्द्रः।
सिंगार मभिलापस्य भावतो गुरुपारतन्त्र्यहेतुत्वात् तस्य च मोहा- सिवाल-शृगाल-पुं०।" इत्कृपादी"।८।१।१२८ । इनि पर्षद्वागऽतिचारशोधकत्वात् । दाह--" अत एवा
ऋत इत्त्वम् । जम्बूके, प्रा०२ पाद । गमज्ञोऽपि, दीक्षादानादिषु ध्रुवम् । क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह
सिउंठा-असिकुण्ठा-स्त्री० । साधारणशरीरवनस्पतिभेद, सर्वेषु कर्मसु ॥१॥"
प्रशा०१ पद । जी। यस्तु नान्यगुणान् वेद, न वा स्वगुणदोषवित् ।
सिं-एतस्य-एतद् स् "वेदंतदेतदोङसाऽऽम्भ्यां सेसिमो' स एवैतन्त्राद्रियते, न त्वासनमहोदयः ।। २८॥
ne|३|०१॥ इति श्रामा सहितस्य एतस्य स्थाने सिमायस्त्यिति-व्यक्तः।
देशः । सिं गुग्पा । सिं सील । तेषां शीलम् । प्रा०३ पाद । गुणवदहमानाद्यः, कुर्यात्प्रवचनोन्नतिम ।
सिंग-शृङ्ग-न० "महणमृगाङ्कमृत्युशृजधृष्टवा" ॥८॥ अन्येषां दर्शनोत्पत्ते-स्तस्य स्यादुन्नतिः परा ॥२६॥ १३० ॥ इति ऋत उत्त्वम् । प्रा० । विषाणे , विशे० । अनु० । गुणवदिति-गुणवता-सानादिगुणशालिना बहुमानात् यः ।
प्राचा० । श्रा० चू० । प्रश्न प्रा०म०।। प्रवचनस्योन्नति-बहुजनश्लाघां कुर्यात् तस्य स्वतोऽन्येषां
सिंगक्खोड-शृङ्गचोट-न। शृङ्गप्रदेशे, ध०३ अधिक भोपा दर्शनोत्पत्तेः परा-तीर्थकरत्वादिलक्षणा उन्नतिः स्यात् । सिंगणाइय-शृङ्गनादित-न० । सर्वेषु कार्येषु शृङ्गभूते कार्य, कारणानुरूपत्वात्कार्यस्य । तदाह-“यस्तून्नती यथाशक्ति, "कजेसु सिंगभूतं कजंतु सिंगणाइयं होड"। पं०भा०३ सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् । अन्येषां प्रतिपद्येह, तदेवाप्नोत्य
कल्प । वृ०। पं०चू०। नुत्तमम् ॥१॥ प्रक्षीणतीवसंक्लेशं, प्रशमादिगुणान्वितम् । नि
सिंगधम-शृङ्गधम--त्रि० । गृहं धमति मधमः। वारके, मित्तं सर्वसौख्यानां, तथा सिद्धिसुखावहम् ॥ २॥"
'सिंगं धमति । अक्षया वा तपोवासेण चोरा गावीनोहरं यस्तु शासनमालिन्ये-ऽनाभोगेनापि वर्तते।
ति तेण समावतिए धंतं चोरो कुट्रो प्रागो' ति । नि. बध्नाति स तु मिथ्यात्वं, महानर्थनिबन्धनम् ॥ ३०॥ चू० १ उ० । यस्त्यिति-यस्तु शासनमालिन्ये-लोकविरुद्धगुणवनिन्दा
सिंगपाय-शृङ्गपात्र-न० । लमये पात्रे , आचा०२ भु०१ दिना प्रवचनोपघाते अनाभोगेनाप्यज्ञानेनापि वर्तते, स तु
चू०६ १०१०। शासनमालिन्योत्पादनावसर एव. मिथ्यात्वोदयात् महान
सिंगभेय-शृङ्गभेद-पुं० । महिषादिविषाणच्छेदे, शा०१० थनिबन्धन-दुरन्तसंसारकान्तारपरिभ्रमणकारणं मिथ्यात्वं | २०। विषाणविशेषे च । ओघ०। बध्नाति । यदाह-“यः शासनस्य मालिन्ये-उनाभोगेनापि सिंगमाल-शृङ्गमाल-पुं० । मजातिविशेष , जं.२ पक्ष। वर्तते । स तन्मिध्यात्वहेतुत्वा-दन्येषां प्राणिनां ध्रुषम् ॥१॥ सिंगरीडी--शृङ्गरीटी-स्त्री०चतुरिन्द्रियजीवभेदे,उत्त०३६मा बध्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् । विषाकदारुणं
सिंगवंदण-शृङ्गयन्दन-न०। शृङ्गेन उत्तमाकदेशेन पम्दनम् घोरं, सर्वानर्थनिबन्धनम् ॥२॥"
इति वन्दनम्। शिरसा वन्दने, भाव०३०मा०म०मा० स्वेच्छाचारे च बालानां, मालिन्यं मार्गबाधया। चूला "सिंगं पुण कुंभगणिवातो" कुम्भकशब्देनेह ललाटमुगुणानां तेन सामग्न्यं, गुणवत्पारतन्व्यतः ॥ ३१॥
च्यते तस्य वामपार्श्वयोर्निपातो हस्ताभ्यां स्पर्शन तएकप. स्वेच्छेति-बालानाम्-अशानिनां स्वेच्छाचारे च सति । मार्ग
म्दन मुध्यते । एतदुकं भवति-अहो काय इत्याचावी. स्य-बाधया “ अप्रधानपुरुषोऽयं जैनानां मार्ग" इत्येवं
न कुर्वन् कराम्यां ललाटस्य मध्यदेश स्पृशति । कि तुपाम
पार्श्व दक्षिणपार्श्व वा न स्पृशतीति । पृ. ३ उ०। जनप्रवादरूपया मालिन्यं भवति मार्गस्य । तेन हेतुनः गुणवत्पारतन्त्र्यत एव गुणानां शानादीनां सामग्यं पूर्ण
सिंगवेर-- शृङ्गवेर--न० । माईके , उत्त० ३६ ०। सूब। त्वं भवति ।
जी० । प्रशा। प्राचा। इत्थं विज्ञाय मतिमान् , यतिीतार्थसङ्गत् ।
सिंगार--शृङ्गार-पुं० । कृपादित्वादित्वम् । प्रा०१ पाव । #
सर्वरसेभ्यः परमप्रकर्षकोटिलक्षणमियति गच्छतीति । कत्रिधा शुद्धयाचरन् धर्म, परमानन्दमश्नुते ॥ ३२ ॥
मनीयकामिनीवर्शनादिसंभवे रतिप्रकस्मिके सर्वरसमधाने इत्थमिति-स्पष्टः। इति साधुसामध्यद्वात्रिशिकाद्वा०२६द्वारा रसविशेष, धनः। साहेमाण-साधयत-त्रि० । प्रतिपादयति, शा० १ श्रु०१३
शृङ्गाररसं लक्षणतरुत्वाहअ० । नि० चू।
सिंगारो नाम रसो, रतिसंजोगाभिलाससंजणणो। साहेल्लता-साहित्य-न० । सहिततायाम् , दशा० ४ अ०। मंडणविलासविबो-अहासलीलारमणलिंगो ॥४॥ साहोहासिय-साध्ववभाषित-न० । संयतेन याचिते, पश्चा० |
सिगारो रसो जहा१३ विवः।
महुरविलाससललिअं, हियउम्मादणकरं जुवाणाणं । सिपा-स्यात-अव्य० । “स्थाद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" | तामा सहद्दाम, दाएती मेहलादामं ।। ५॥ ॥८।२।१०७ ॥ इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इद् । प्रा० । कदा- शृङ्गारो नाम रसः किं विशिष्ट इत्याह-रती' स्याविरतिरा. चिदर्थे, करप०३ अधिक्षण |
ब्देनेह रतिकारणानि सुरतव्यापाराङ्गानि खलनादीनि एखाम्ते,
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सिंगार
सिंधु
मैः सार्द्धं संयोगाभिलापजनकः, तस्य तत्कार्यत्वादेव तथा सिंघली पुं० [देशीले देशविशेषे त्रितवासिनि जने मण्डनविलासवियो कहा स्पली लारमणानि लिङ्गं यस्य स त
"
था, तत्र मण्डनं कङ्कणादिभिः विलासः कामगर्भो रह्यो नय: नादिविभ्रमः विग्बोय'त्ति देशिपदम् अविकारा प्रतीनं लीला कामगमनभाषितादिरमणीयवेश, रमणं-कीडनमिति । उदाहरणमाह- 'सिंगारी' इत्यादि - 'महुरगाहा' श्यामा | स्त्री मेखलादाम रसनासूत्रं दर्शयति प्रकटयति इत्यर्थः । कथंभूतमित्याह - रणन्मणिकिङ्किणिस्वरमाधुर्यान्मधुरं तथा विसानः-शालितं--मनोहारि तथा दोहास्थिम् किमिति इत्याह-यती-हृदयीमान रम्बलमरदीपनं यूनामिति शृङ्गारप्रधानचेष्टाप्रतिपादनादयं शृङ्गारो रस इति । अनु० | हा० । विपान | प्रश्न० । मण्डनपाठोपे जं० ९ वक्ष० । अलङ्कारादिकृतायां शोभायाम्, तथी[गाष्करम् शृङ्गारमिव शृङ्गारम् अतिशुशोभायति, भ० २ ० १ ० । अलङ्कृते रा०नि० चू०| देवानामेकान्तात्यन्तिकमनो प्रकृत्यादिरूप कामभेदे, नायरन्योन्यरक्लयो रतिप्रकृतिः शृङ्गारः इति ।
(core) श्रभिधामराजेन्द्रः ।
,
स्था० ४ ठा ४ उ० ।
सिंगारकहाविरय-शृङ्गारकथाविरत - त्रि० । कामकथा निवृत्ते,
पञ्चा० १० वि० । सिंगारमद-शृङ्गारमति स्त्री० मूलपिण्डे उदाहृतस्य सिन्धुरा जस्य भार्यायाम्, पिं० । ('मूलकम्म' शब्दे षष्ठभाग व्यापाया।)
9
"
सिंगारमंजरी-शृङ्गारमञ्जरी-खी० शीतलराजस्य भगिन्यां
विक्रमसिंहस्य भार्यायाम् ०२ द्वारा सिंगाररस- शृङ्गाररस-५० मन्मथदीपके दश० ३ ० सिंगाररसोवेय--शृङ्गाररसोपेत त्रि० । कामोत्को चके, शा० १
9
ध्रु० ६ ० ।
"
सिंगारागार - शृङ्गारागार-न० ० शृङ्गारस्य विशेषस्था गारमिवागारम् । शृङ्गां ० ० १ ० शृङ्गाराकार-त्रिशृङ्गारो मदन भूषणादिस्तत्प्रधान - कारः - श्राकृतिर्यस्येति तथा । मण्डनप्रधानाकृतिसहिते, [झा० १ ० १ ० भ० जी० । श्र० सिंगारागारचारुवेसा--शृङ्गारागारचारुवेषा- त्रि० । शृङ्गा मण्डन भूषणा टोपस्तत्प्रधान आकारो वास तान्या वावेषा मनोहरवेषाः मनोहरनेपथ्याः पश्चात् कर्मध रथः। श्रथ वा-शृङ्गारस्य प्रथमत्यस्यामाथि गृह मित्रा शर्मा तास्तथा | जं० ( वक्ष० । कृतसुन्दरत्रेषायाम्, रा । प्रश्न० । मू० प्र० । विशे० । चं० प्र० । श्र० । सिंगारिय शृङ्गारिक पुं० शृङ्गाररसपति उपा० ८० सिंग (ए) शृङ्गिन् ५० शृङ्गस्येति विप
--
,
--
शौ, अनु । आ० म० । सिंघ सिंह पुं० " हो घोऽनुस्वारांत् ॥ २६४॥ इनि हस्य घो वा । मृगाधिपे प्रा० १ पाद ।
--
च भ० श० ३३ ५० ।
सिंघाडग-शृङ्गाटक- न० । त्रिकोणे. जलजफलविशेषे, स्था० ३ डा० ३ ॐ० प्रा० शृङ्गाटकाति
आ० म० १ ० । अमु० | शा० । स्था० । प्रश्न० । कल्प० । रा० । चन्द्र सूर्य वा गृह्णतो राहोः कृष्णपुद्गले, नं० प्र० २० पाहु० । भ० | कल्प० । औ० । दशा० । रा० । जं० सू० प्र०१ श्राचा० । वृ० । श्राय० ।
निपाणसिद्धारा २० नाशिकाप्रेमनि
००३
उ० | स० | ध० नं० । उत्त० । नाशिकाद्भवे श्रेष्मणि, स्था० ५ ठा० ३ ० । कल्प० । शा० | तं० । सिंच-सि-पा० शरणे "सिसिसिपी" ४४ ६६ ॥ इति सेचतेः सिञ्चादेशः । सिंचाइ । सिञ्चति । प्रा० ।
श्राचा० ।
"
सिंदी - सिन्दी स्त्री० । खर्जूर्याम् आ० म० १ ० । सिंदुवार - सिन्दुवार पुं०
डा० | आचा० ।
सिंदुवारकुसुम- सिन्दुवारकुसुम--न सिंदुवारकुसुम- सिन्दुवारकुसुम-१० निर्गुडीपुष्पे पञ्चा०५ विव
॥ ॥
सिंदूर- सिन्दूर-म० इद् वा ८५ ॥ पते इकार एव सेन्दूरं । सिन्दूरं । वर्णकद्रव्यविशेषे प्रा० १ पाद । सिंधव सैन्धव-१० "इत् सैन्धय-शनैश्वरे ॥ १४६ ॥ इति ऐत ३६ वा । प्रा० । सिन्धुदेशोद्भव लवणे, अश्वे, पुं० । सूत्र० १० ५ ० १ उ० । स्था० । श्राम्रा० ।
सिंधु - सिन्धु-पुं० । वीतिभयनगरप्रतिबद्धे जनपदभेदे, प्रा० ६ पद । सूत्र० । श्रा० म० । आ० क० स्त्री० । जम्बूद्वीपे मन्दर दक्षिणेन पश्चिमसमुद्रगामियां मदानाम् स्था०८ ठा० ३ उ० | पाइ० ना० । आ० चूट | स० । ( अस्याः सिन्धुमहानद्या वक्तव्यता गङ्गाया इव । गंगामहानदीवक्तव्यता' गंगा' शब्दे तृतीयभागे ७८२ पृष्ठे गता । )
।
२००
।
66
०
एवं सिंए अच्यं जाय तस्स यं पउमदहस्स पथत्थिमिले तोरणं सिंए आवनकडे दाहिणाभिमुही सिंधुष्पवायकुंड सिंधुद्दीवो अट्ठो सो चेवं ०जाव आहे तिमिसगुहा अपव्ययं दालदत्ता पच्चत्थिमाभिमुही श्रवत्ता समाणा चोद्दससलिला अंह जगई पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं ० जाव समप्पेइ सेसं तं चैव नि । ( ० ७४ X )
अथ गङ्गानद्या श्रायामादीन्यत्रावतारयति 'एवं सिन्धु' इत्यादि । एवं सिन्ध्वा श्रपि स्वयं नेतव्यं यावत्तस्य पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी निर्गता सती पश्चिमाभिदुखीपयोजनशतानि पर्वतन गरया सिध्वानकूडे घा वृत्ता सती पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रीकोनविंशतिभागान् दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता
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सिंधु
(८०१) अभिधानराजेन्द्रः।
सिंहसेण घटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्प्रधातेन प्रपतति, सिन्धुमहानदी सिंधसेवण--सिन्धसेवन-पुं० । वानीरनाम्न्याः ब्रह्मदत्तचक्रिधनः प्रपतति अत्र महती जिद्विका वाच्या.सिन्धुगहानदी यत्र भार्यायाः पितरि, उत्त० १३ अ०। प्रपतति त सिम्प्रपातकण्डं वाच्यम्, तन्मध्ये सिम्धुद्वीपोती
। सिन्धना पासघाः मौघाच्योऽर्थः स एव, यथा गङ्गाद्वीपप्रभाणि गङ्गाद्वीपवर्णाभा
धीरा जनपदविशेषाः सिन्धुसौवीराः । यीतिभयनगरप्रधानेषु नि पानि तथा सिन्धुद्वीपप्रभाणि-सिन्धुद्वीपवर्णाभानि प.
जनपदविशेषेषु. भ०१३ श०६ उ० । दर्श०। प्रतिः । स्था। मानि सिन्धुद्वीप इत्युच्यते । अत्र यावत्पर्यन्तं सूत्रं वाच्यं तथा',
सिंभ--श्लेष्मन-न० । श्लेष्मणि,बृ० १ उ०२ प्रक० । कफे,तं०। ह-यावदधस्तमिस्रागुहाया इत्यादि , अत्र यावत्करणादिदम्-"तस्स ग सिन्धुपवायकुंडस्सदिक्खिणिलेणं तोरणणं
सिंभिय--श्लेष्मिक-त्रि०। श्लेष्मभवे, तं। सिंधुमहाणाई पवूढा समाणी उत्तरद्धभरहवासं एजेमाणी २ सिंबली--शाल्मली--स्त्री० । बल्ल्यादिफलौ,दश०५ १०१ उ०। सलिलासहस्सेहि श्रापूरेमाणी २" इति संग्रहः । अधस्तमि- । वनमयभीषणकण्टकाकुलायां नरकपालविकुर्वितायां शासागुहाया वैताब्यगर्वतं दारयित्या' देशदर्शनादेशस्मरणमि- ल्मल्याम् , सूत्र० १ श्रु० ५ ० १ उ. । वृक्षविशेष , भ. ति'दाहिणाहभरहवासस्स बहुमज्झदशभागं गन्ता' इति पदा
बाध्याान, पश्चिमाभिमुखा श्रावृता सती चतुदेशभिः स-सिंह-सिंह-पुं० । मृगराजे, स्था०६ ठा०३ उ०। स्वनामलिलासहौः समग्रा-पूर्णा जगतीमधो दारयित्वा पश्चिमायां | ख्याते वीरानगारे,यो हि गोशालकतजालेश्यया रुग्णस्य वीलवणसमद्रं समुपसर्पति, शेषम्-उक्कातिरिक्त प्रवाहमुखमा- रजिनस्य दःखादिव दुःखितः चनं गत्वा प्रारादीत्,प्राषिच नादि तदेव-गामानसमानमेव शेयम् । ज०४ वक्षः। रेवत्यन्तिके कुछटमांसकाहरणाय । प्रश्न० ५ संघ द्वार ।
जंबूदीवेणं दीवे चउद्दस महानईओ पुवावरेणं लवण- ऋषभदेवस्य द्वानवतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण । ससुई समप्पयति तं गंगा सिंधु०स०१४ समकास्था सिंहकप्पी-सिंहकी-खी। औषधिविशष , श्राचा०९७० जंबूदीवे णं दीवे मंदरस्स दाहिणेणं-सिंधु महाणदि पं
१०५ उ० । प्रज्ञा । च महानदीनो समति,तं जहा-सतह विभासा वितत्था,
सिंहकेसर-सिंहकेशर-पुं० । सिंहस्य सटायाम् , सिंहसटा
सहशेषु,जी. ३ प्रति०४ अधि। एरावई चंदभागा । स्था० ५ ठा० ३ उ० । ।
सिंहगइ-सिंहगति-पुं० । अमृतगतरमृतवाहनस्य च पश्चिसिन्धुनद्यधिष्ठायां देव्याम् , जं० ३ वक्षः । | मोत्तरदिग्व्यवस्थित लोकपालयोः , स्था० ४ ठा० १ उ०। सिंधकंड-सिन्धकुण्ड--न । यतः सिन्धुमहानदी प्रवहति सिंहगिरि-सिंहगिरि-पुं०। श्रीवजस्वामिना गुरौ,स्था०४ ठा० नपत्ये कुण्ड, जं०४ वक्ष ।
३ उ० प्रा०क०। ध० र०। सिंधुड-सिन्धकूट-न । हिमवर्षधरपर्वतस्य सिन्धुदेव्य-सिंगुहा-सिंहगुहा-स्त्री० । बङ्कचूडपालिते चौरपल्लीविशिषे , धिष्ठित स्वनामख्याते कुटे, स्था० २ ठा० १ उ०।
विशे०।
सिंहगुहावासिमुणि-सिंहगुहावासिमनि-पुं०। सुस्थितार्ये, सिंधुणिक्खुड--सिन्धनिष्कुट--न। सिन्धुकूले, प्रा०म० अ०
ती०३५ कल्प। सिंधुदत्त-सिन्धुदत्त--पुं० । ब्रह्मदत्तचक्रिभार्याया धनराज्याः
सिंहपुर--सिंहपुर-न । सिंहरथराजपालिते स्वनामख्याते नपितरि, उत्त० १३ अ०।
गरे,स्था०१० ठा०३ उ०। काम्पिल्ये गलामले सिंहपुरे च वि सिंधदेवी-
मिटवी-स्त्री० । सिम्धनधिष्ठायां देव्याम. मलनाथः। ती०४३ कल्प । सिंहपुर स्तम्भतीर्थ पातालगङ्गाश्रा०म० अ० ज०।
भिधः श्रीनेमिनाथः । ती०४३ कल्प। सिंधुदेवीकूड--सिन्धुदेवीकूट--न । खुद्राहिमवर्षधरपर्वतस्य ।
सिंहल-सिंहल-पुं० । अनार्यदेशविशेष, तदवासिनि जने च । सिन्धुदेव्यावासीभूते अष्टम कूटे, जं० ४ वक्षः । ( गंगा'
| त्रि० । शा० श्रु०१०। कल्प। शब्दे तृतीयभागे ७८२ पृष्ठे वक्तव्यता गता।)
सिंहलदीव-सिंहलद्वीप-पुं० । जम्बूद्वीपे स्वनामख्याते भारसिंधुप्पवायदह--सिन्धुप्रपातहद-पुं०। यतः सिन्धुः प्रपतति
तवर्षीये दक्षिणसमुद्रमध्यवर्तिनि भूखण्डे, प्राचा० १ श्रु०६
अ०६ उ० । ती। तस्मिन् इदविशेषे,स्था०२ ठा०३ उ०। (अस्य गंगाप्रपातह- सिंहलय-सिंहलक-पुं० । सिंहलदशोद्भवे मनुष्ये, जं. ३ दवद्वक्तव्यता।)
वक्षः । श्रा० चूना मानुष्यां सिंहली । रा०। सिंधुर-सिन्धुर-पुं०। हस्तिनि, को।
सिंहविक्कमगइ-सिंहविक्रमगति-पुं० । अमितगत्यमितवाहसिंधुराय-सिन्धुराज--पुं० । संयुगनामनगरस्य स्वनामख्याते नेन्द्रस्य लोकपाले, स्था० ४ ठा० उ० । राजनि, पिं०।
सिंहसेण-सिंहसेन-पुं० । सहसोहाहपूर्वभवजीवेषु प्रतिष्ठ
नगरराजे,यो हि-श्यामाख्यायाः स्वभार्याया अर्थाय५०० स्वसिंधुवद्धण-सिन्धुवर्धन-न० । स्वनामख्याते नगरभदे, प्रा.
रानीग्वा नरकं गतः। स्था० १० ठा० ३ उ० । चम्पाया क०४०।
नगर्याः स्वनामख्याते राजनि, यन्मन्त्री रोहगुप्तः धर्मवि२०३
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सिंहसेण अभिधानराजेन्द्रः।
सिक्खा चाराय 'सकुण्डले वा वयणं न वसि समस्या ददौ । श्रा- प्राध्ययनरूपण, आसवना शिक्षा प्रक्षपणादिका । तत्र को:चा. १ श्रु०४०२ उ । स्वनामख्याते श्राचार्य, यो वादे | पि प्रवजितः सन्नासेवनाशिक्षा सम्यगम्यस्यति , न पुपराजितेनरिधामात्येन यद्यमानोऽमशमं प्रतिपद्य स्वर्गतः।। नम्रहणशिक्षाम् तत्राचार्यैः मातेन गजेन श्लोपदेन चरसंथा।
पान्तः क्रियते,तृतीयं च उदाहरणम् श्रातुरविषयम् , चतुर्थः सिक्क-सेक्य-त्रि । सेवनीये, पाव०६अ।
अन्धस्थविरविषयं कर्तव्यमिति गाथासमासार्थः । सिकग-शिकक-न । आकाशे दध्यादिभाजनावलम्बनाय द- अध विस्तगर्थोऽभिधीयते । तत्रासौ गुरुभिरादिष्टः सौबरकमयेऽवलम्बनके, उपा०२ अनिघूरा०ा भाषा
म्य ! गृहाण त्वमेनां ग्रहणशिक्षाम् , अधीष्य विधिवद्यथाक्रजे भिक्खू सिकगं वा सिकगपंतगं या सयमेव करेइ
ममाचारादि श्रुतम् । स वाहकरतं वा साइजह ।। ११ । नि० चू० २ उ०1
पव्वइओ इइ समणो, निक्खित्तपरिग्महो निरारंभो । अन्यपूथिकः कारबति
इति दिक्खिये मेगममो,धम्मधुराए दढो होमि।।३४२।। जे भिक्खू सिक्कगं वा सिकगणंतगं वा अप्सउत्थिएण
समितीसु भावणासु य, गुतीपडिलेहक्णियमाईसु । वा गारथिएण वा करेति करतं वा साइजइ ॥ १३ ॥
लोगविरुद्धेशु य बहु-विहेसु लोगत्तरेसु च ॥२४॥ जे भिक्खू सिक्कग इत्यादि,सिक्कगयसि जारिस वा परिब्धा
मजविरयस्स य सयं, संजमजागेसु उञ्जयमइस्स । यगस्स सिक्कगणतो उपाणश्रो उच्छाडण भाति जारिसं किंमझ पढिएणं, भाइ सुण ताव बेनाए ॥३४४॥ कावालिस्स भोयगग्गुलियाणं । नि००१ उ०।
भदन्त प्रवनितोऽहं श्रमयाः-तपस्वी निक्षिप्तपरिग्रहो मिरासिक्कयणतय-शिक्ककानन्तक-नाशिककपिधाने,नि० चू०१
रम्भश्च संजात इत्यतो दीक्षित गाथायां मकारोऽलाक्षणिकः उ०।
एकाग्रमना धर्मधुरायां-धर्मचिन्तायां दृढो-निष्कम्पो भनासिक्ख-शैक्ष-युं० । नवतरदीक्षिते,शिक्षा च । प्रव०६६द्वार । मि । किं च-समिसिष्बीर्यादिषु भावमासु द्वादशसु पर्विशसिक्खग-शक्षक-पुं० । नूतनप्रबजिते , दश०१ अ०। सूत्र निसंख्याकामु वा गुप्तिषु-मनोगुप्त्यादिषु प्रत्युषेतगायां विपंथो पुबुद्दिट्ठो, दुधिहो सिस्सो य होति खायव्यो ।
नये अभ्युत्थानादिरूपे प्रादिशब्दाद्वैयावृत्त्यादिषु व्यापारे
षु युक्तस्य प्रयत्नवतः। तथा लोकविरुद्धेषु जुगुप्सितकुलभिपव्यावण सिक्खावण, पगयं सिक्खावणाए उ॥१२७।।
क्षाग्रहणादिषु बहुविधेषु-नानाप्रकारपु लोकोत्सरविरुद्वेषु ग्रन्था द्रव्यभावभेदभिन्नः क्षुल्लकनैर्ग्रन्थ्यं माम उत्तरा- नवनीतचखितावग्रहणादिषु चशब्दादुभयविरुद्धषु च ।मध्ययनेष्वध्ययनम् तत्र पूर्वभवे सप्रपञ्चोऽभिहितः, इह | धादिषु विरतस्य-प्रतिनिवृत्तस्य संयमयोगेषु च-श्रावतु ग्रन्थं द्रव्यभावभेदभिन्नं यः परित्यजति शिष्यः श्रावा- श्यकव्यापारेषु उद्यतमतेः एवंविधस्य मम किं पठितनरादिकं या ग्रन्थं योऽधीतेऽसौ अभिधीयते,स शिष्या ।व- पाठेन कार्य ; न किंचिदिति भावः । भायते मुधिम्योत्तविधो द्विप्रकारो ज्ञातव्यो भवति । तद्यथा-प्रवज्यया, शिक्ष- रम्-वत्स ! यदर्थ भवान् बनजितः स एवाओं मनमीति । या च । थस्व प्रवज्या दीयते शिक्षा वा यो माह्यते स विप्र- तथाचात्र शृसु बाबरनुशाते द्वे निदर्शने । कारोऽपि शिष्यः। इह पुनः शिक्षा शिष्यण प्रकृतम्-अधिका
ते पत्र यथाक्रममाहरो या शिक्षां गृह्णावि शैक्षकस्त कियक्ष यह प्रस्ताव इत्यर्थः।
जह यहाउं तिनगो, बहुअतरं रेणुयं छुभइ शंये। यथाप्रतिक्षातमधिकृत्याहसो सिस्खगोय दुविहो,गहणे श्रावस्या यथायब्बो।
सुट्ठ वि उज्जममाणो, तह अन्नाणी मलं चिणइ॥३४॥ गहणम्मि होति तिविहो,सुत्ते अत्थे तभए ५ ॥३०६।।
जं सिलयइ निहायतितं लगयति चेलणेहि भूमीए । सूब०१७०१४ म०। ('सो सिक्खगो य खुयिहो'इत्यादि, एवमसंजमपंके, चरणसयं लाइ अमुकलो ॥३४६।। व्याख्या 'सिस्स' शब्दे कच्यते ।।
यथा गजः सरसि नद्यादौ मलापतयनार्थ स्नात्वा तीर्णः सिक्खमाण-शिक्षमाण-त्रि. शिक्षां कुर्बाणे, सम्मान सन् बहुतरान रेणून करेण गृहीत्वा स्वकीये अङ्के क्षिपति तमाने, सूत्र० ११० १४ १०।
था स्वाभाव्यात् ,तथा सुष्ठपि अतिशयेनाप्युद्यच्छमान:-उसिक्खा-शिक्षा-स्त्री०। अभ्यासे, सूत्र०११०५० १०॥
चमं कुर्वाणोऽशानी-जीयो मसंन्यर्भर ओमललक्षणं निमोश्रावक का ध्यापारणे, प्राचा० १९०२ म० उ०।
ति, स्वमपि कर्ममलनिर्वातनार्थ प्रचजितः परं श्रुत्ताआसेबने, प्राचा०१श्रु०८ ०.८ उ० । उद्यमेत प्रहगो, सू
ध्ययनमन्तरेण प्रवचनविरुद्धानि समाचरम् प्रत्युत भूयस्त
रेण कर्मरजसात्मनं गुण्डयिष्यसि । तथा श्लीपदनाम्ता त्र०१.श्रु०१०।
रोगेण यस्य पादौ शनी शिलावन्महाप्रमाणौ भवतः स एवंवि. श्रथ शिक्षापदद्वारमाह--
शामलीपदी प्रथा क्षेत्रं मिदायप्ति; सिद्धिणनीत्यर्थः, सच पवइयस्स य सिक्खा, गयएहते सिलिपती य दिइंतो।
यदल्पमात्रं सस्यं निदायति तनयस्तरं चलनाभ्यमंप्रादातइयं च आउरमी, चउत्थगं अंधलो थेरो ।। ३४१ ।। भ्यामाक्रम्य भूमौ लगयति-मर्दयतिब्र, एवं श्रुतपाठ विता प्रवजितस्य च सतोऽस्य शिक्षा दातव्या , सा च द्वि- 'मुणंतो' अजानन् 'चरणसयं' ति-चरणसस्यमसंयमपके धा-ग्रहणशिक्षा, श्रासेवनाशिक्षा च । तत्र ग्रहणशिक्षा सू. पृथिव्याधुपमईकई मेन लगयित्वा च सकलमाप मर्दयति ।
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(=!1) अभिधातराजेन्द्रः ।
मिक्ला
पचमाचार्यैरु शिष्य श्रातुररान्तमाहभन्ते ! वह रोगतो, पुच्छति वेजं न संहियं पढड़ | कम्मामयविजे, पुच्छिय तुब्भे करिस्सामि ||३४७ || भगवन्! यथा रोगाः पृच्छति न पुन कसंहितां पठति एवमहमपि युष्मान् कर्मामधान-करोगचिकित्सा पृष्ट्वा सर्वामपि क्रसं करिष्यामि न पुनः श्रुतं पठिष्यामीति ।
गुरुराह
न सो सचिव, करेति किरियं अपुच्छि रोगी । मायव्वी अहिगारो, तुमं पि नाउं तहा कुपसु || ३४८ || महयते त्रोतम्-- यद्यपि वासी रोगी चैनपृष्ठ स्वयमेव क्रियां करोति, तथापि तस्य झतव्ये क्रियायाः परिज्ञानेऽधिकारोऽस्ति यथा स वैद्यो भूयो भूयः प्रमुच्यो नभयति एवं यद्यपि त्वमस्मान पृष्ठा सर्वामपि कि फ्रां करिष्यसितथापि सूपमधीत्य पत्कारविधि जानीत्वा च तथा कुरु बहुशः प्रव्यं न भवति । शिष्यः प्रतिभवति
दूरे बस तिमिच्छी, व्याउरपुच्छा उ जुखई तेां । सारेहि ति सीखा, गुरुमादि जो न हिनामि ॥ २४६ ॥ तस्यानुरस्य दूर-दूरवर्ती सचिकित्सीय अन आतुरस्य पिया अपने वैचान्ति पृच्छा ते मम पुनरव श्रादिशब्दाद्-उपाध्यायादयः स्वाधीना एव धनो ज्ञास्यन्ति ते भगवन्तः स्वयमेच मदीयं स्खलित ज्ञात्वा सम्यग् मां सारयिष्यन्ति । यत स्वमत एवाहं नाधीये-न पठासीति । सूरिराह
गाढकारणेहिं, गुरुमादी ते जया न होर्हिति । तइया कहं तु काहिसि, जहा व सो अंधलो थेरो । ३५० | गादे: कुलानि करदाते गुदा खाधीना न भविष्यन्ति तदा कथं नाम त्व' काहिसि करिष्यास । यथा वा सः अन्धः स्थविरः ।
तथाहि
सुयथेरल- अत्थि मे बहूणि अच्छी णि । अप्पट्टणप्पलित्ते, डहणं अपसत्यगपसत्थे || ३५१ । उजेपीनाम नगरी । तस्थ सोमिलो नाम वंभणा परिवसति । सा य अधलीभूय तम्स य अ पुत्ता, तेसिं अट्ठभास पुनेर्हि सति, अच्छी किरिया की रउ । सो पंडि भति भट्टसह पुत्ताण सोलस अच्छी सुरहाण वि. सय परिव एंत चैव पभू
सभी दोपित स्स जाणि अच्छी ताणि सव्वाणि मम या | अन्नया घरं पलित्त तत्थ तेहि अप्पत्तर्हि सो न च तत्रो नीणिश्रो तत्थेव रडतो दहो । एस अपसत्थो दिठतो । मा एक
हिसि संसारे असुभ कस्मेहिं । इमो सत्थ तत्थेव अधलपथरो नबर ति ए किंकरिंग कारिया सो मणुस्साएं भोगां अभोगी जाओ। एष तुम किजाकज वियाणिता ससारातो न तिरिद्धिसि ।” अथ गाथाक्षरायः- सोमिल स्थविरस्याष्टौ सुताः परं तस्यान्धत्यं बभूव । गायायामन्धशब्दात्-"विद्युपत्रपीतान्धाल्लः ॥ ८ । २ । १७३ ॥ इति प्राकृते स्वार्थिको लः प्रत्ययः । स च पुत्रैश्चतुश्चिकित्साकारणार्थमुक्तः सन् वक्ति
सि
सन्ति मे पुत्रान्यक्षी तैरेव मदीयं कार्य सत्स्यति । दाद्वेग' नि आत्मरक्षण परास्त्वरितं प्रनष्टाः स्थावरान्धस्य प्रदाप्त गृहे दद्दनम् । एषोऽप्रशस्तां दृष्टान्तः । प्रशस्तस्तु विपरीतः स पदर्शितएव उपनययोजनाऽपि कृ 1 नमोऽसी न प्रतिपद्यते श्रुताध्ययनम् । अतो भयो वि करुणापरीतचेतसः [ सूरयः प्राहुः
म एवमसगाई, गिग्रहसु गिरहसु सुयं तद्वयचक्खु । किंवा तुमेऽनिलसुतो न स्यन्वो जढो गया | २५२ ॥ सौम्य मेघमसाई गृहाण, गृहारा सूक्ष्मम्यहतादिष्यका asनिलनरेन्द्रसुनो यवां राजा । बृ० १ ३०२ प्रक० । उत्त० । आ० चू० । श्रा० क० श्राव०। ('जयराज' शब्दे चतुर्थभागे कथा | ) ( वाऽध्ययने अमी गुणा आत्महितादयः 'सुय' सेवा शिक्षा क (संपूर्ण कामविहागन्दे प्रथमभाग ३३८ पृष्ठे 'अवंतिसुकुमाल' शब्दे च ७८७ पृष्ठ गता ।) पञ्चमशिक्षाद्वारमाहविश्वमभकुसगं रायगि पाटलीपु नदगडा धूल-भदसिरिए बररुई का ॥ १८३ ॥
{י
० क०४ श्र० । श्रव । ( कथाः स्वस्वस्थानतोऽनखेयाः । ) ( "ग्रह पंचहि ठाहि, जेहिं किम्वा न लग्भइ । धम्मा कोगाय ॥१॥" "ब'
भागे ध्यानया )
पंचहि ठाणेहिं सुतं सिक्खेजा, तं जहा गाखट्टयाए दंसट्टयाए चरितट्टयाए बुग्गहविमोयणट्टयाए अहत्थे या मांजासामिचि (०-४६०) परवशनम् तेषामेव चरित्र मनुष्ठानं व्युनग्रहो मिध्याभिनिवेशस्तस्य ताद्वा परेषां वि मोचन व्युद्ग्रहविमोचनं तदर्थाय तदर्थतया वा श्रहत्थे त्तियथास्थान यथावस्थितान् यथार्थान् वा प्रयोजनान् भावान् जीवादीन्यथार्थान्वार - यथाद्रव्यान् भावान् पर्यायान् शास्यामीति कृत्यः इति देतो। शिक्षत इति। स्था०५४०२३०| उद्यमेन ग्रहणम् । सूत्र० १० ८ ० । ( पण्डको वातिकः क्लीवश्च न शिक्षणीय इति ' पव्वज्जा' शब्दे पञ्चमभागे ७५६ पृष्ठे गतम | ) ( लघुबालकं प्रवाज्य तस्मै ग्रहणशिक्षा सादसर्वकालिकादिसूत्रं पाठनीयम् सेवनाशिता यत्परिधाप नादित्यादि ७७५ छ। शिष्यं यथाचार्यः शिक्षयेत्-गुणसपदयेोग्यान् कथेचित्प्रमा दिनोऽघमानुगः मधुरवचोराचार्यस्तान् शिक्ष तू यथा ते मनःप्रसादमेव विशिष
इनको प्रतिकारणमिति उ मइएहि अइसु-दरेहिं कारणगुणोवणीपछि पल्हायेती य पसी आयरिश (अन्ययूधिकं गुस् यादित भाग ४७५ पृष्ठे उक् म्) (अन्तरगृहे शिक्षा न कर्तव्येत्युक्रम् अंतरहि श देशमभागे ६ पृष्ठे ।) शिक्षयितुं द्वे दिशौ ग्राह्ये प्राचीना, उदीचीना च । स्था० २ ठा०५ उ० ।
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(८१२) मिक्वा अभिधानराजेन्द्रः।
सिक्वावधव्यय तस्सव मंतरायम्मि, सिक्खं सिक्खेज पंडिए । पुनः पुनरुचार्ये इति भावनापोषधोपवासातिथिसंविभागौ तु संलेखनानुरूपां शिक्षा भक्तपरिवङ्गितमरणादिकां वा शि- प्रतिदिवसानुष्ठेयो न प्रतिदिवसाचरणीयाविति । प्रायः । क्षेत्। तत्र ग्रहणशिक्षया यथावन्मरणविधि विज्ञायासे- सामायिकं देशावकाशिकं पोषधोपवासः अतिथिसविभागवनां शिक्षतेति । सूत्र०१ श्रु० ८ ०। ( 'अट्ठावयं न
श्चेति, स्वल्पकालिकत्वाथैतेषां गुणवतेभ्यो भेदः । गुणवतानि सिक्खिज्जा।' इति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्यातम् ।)
तु प्रायो यावजीविकानि एतेष्वपि सामायिकदेशावकाशिके ("सत्यमेगे तु सिक्खंता, अतिवाया य पाणिणं । एगे मंते प्रतिदिवसानुष्ठे ये पुनःपुनरुचारणीये पोषधोपवास अहिजंति, पाणभूयविहेरिणो।" (सूत्र०१ श्रु०८०)
विभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुष्ठयो न प्रतिदिवसाचरणीइति 'वीरिय' शब्दे षष्ठभागे उदाहतम् ।)
याविति विवेकः आवश्यकवृत्तिकृतः । ध० २ अधिक। सिक्खण-शिक्षण-न। प्राचारग्रन्थे , कल्प०१ अधि०१
इयाणि सिक्खावया, शिक्षा नाम यथा सिष्यकः पुनः पुनर्विचामभ्यस्यति । एवमपि याणि चत्तारि सिक्खा
वयाणि पुणो २ अध्भसिजति अणुब्बयगुणेब्बयाणि । एकसिक्खावण-शिक्षण-२० । अश्वादीनां चतुष्पदानां परिक
सिं गहियाणि चेव ताणि सिक्खावयाणि सामातियं देसावमणि , नि० चू० १ उ०।
गासियं पोसहोववासो अतिहिसंविभागो। श्रा०चू०६अ। सिक्खावणा-शिक्षापणा-स्त्री० ग्रहणासेवनारूपशिक्षाग्रहणे,
(प्रथम शिक्षापदवतं सामायिकं तव 'सामाइय 'शब्दपं०भा०१ कल्प । शिक्षापणा त्रिविधा-लोइया, लोउत्तरिया, ऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो दर्शितम् ।) ( द्वितीयं देशाकुप्पावणिया । लोइया ताव व्याकरणनाटकादिषु शिक्षा- वकाशिकवतम् 'देसाबगासिय' शब्ने २६३३ पृष्ठे उनम् ।) दि कुप्रावचनिका-रक्तपटादीनां या शिक्षा, त्रिपटिकादिषु द्र- ( तृतीयं पौषधोपचासः 'पासह' शम्ने पञ्चमभागे व्यशिक्षा लोकोत्तरा द्विविधा-ग्रहणशिक्षा, सवनाशिक्षा गतम्।) (चतुर्थमतिथिसंविभागवतम् 'अइहिसंविभाग' च। गहणसिक्खा सुत्तत्थतदुभयाण श्रावणा-पडिलेहणा, शब्दे प्रथमभागे ३३ पृष्ठे प्रतिपादितम्। ) चतुर्थशिक्षापदयते पप्फोडणा य उबट्ठावणा लोइया लोउत्तरा कुप्पावणि- वृद्धाला समाचारी-श्रावकेण पोषधं पारयता निया। लोइया राया रायमचठवणा। कुप्पावणिया भिक्खु यमात्साधुभ्यो दत्त्वा भोक्तव्यम् , कथम् ? यदा भोजनकालो माझ्याण उपसंपदा लोउत्तरा असंयतत्वात् , व्रतेषु स्था- भवति, तदाऽऽत्मनो विभूषां कृत्वा प्रतिश्रयं च गत्या सापना उपस्थापना । पं० चू०१ कल्प।
धूनिमन्त्रयते, 'भिक्षां गृह्णीतेति' साधूनां च तं प्रति का
प्रतिपत्तिः? उच्यत-तदेकः पटलमन्यो मुखानन्तकमपरा सिक्खावय-शिक्षापद-न० । शिक्षायाः पदं शिक्षापदम्। शि
भाजनं प्रत्युपेक्षते, माउन्तरायदोषाः स्थापनादोषा वाऽभूव वा पद-स्थान शिक्षापदम् । विधिना प्रवजितस्य सतः
बनिति । स च यदि प्रथमायां पौरुष्यां निमन्त्रयते, अस्ति शिक्षाधिकारे, विशे० । ध०र०।
च नमस्कारसहितप्रत्याख्यानी ततस्तद् गृह्यत, अथ नास्त्यशिक्षाव्रत-न । शिक्षा-अभ्यासस्तत्प्रधानानि बतानि पुनः
सौ तदा न गृह्यते , यतस्तद्वोढव्यं भवति, यदि पुनर्घनं पुनरासवााणि । सामाथिकादिषु श्रावकधर्मेषु , पश्चा०२ लगत् तदा गृह्यते संस्थाप्यते च । यो वा उद्घाटपौरुष्यां पिव० । “दुवालसवि गिहिधम्म पडिवमा" अत्र त्रयाणां पारयति पारणकयानन्यो वा, तस्मै तदीयते । पश्चातन गुणवतानां शिक्षाबतेषु गणनात् सप्त शिक्षाक्तानीत्युक्तम् ।। श्रावकेण स संघाटको ब्रजति , एकोन वर्तत प्रेषयितुं, श्रा० । चत्वारि शिक्षाप्रतानि भवन्ति , तद्यथा--सामा- साधू पुरतः श्रावकस्तु मार्गे (मार्गतो) गच्छति, ततोयिकम् देशावकासिकं पौषधोपवासः अतिथिसंविभागः । ऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमन्त्रयते , यदि निविशते प्राय०६ १०।
तदा भव्यम् , अथ न निविशेते तथापि विनयः प्रयुक्तो भवसिक्खावयव्यय-शिक्षापदग्रत-न० शिक्षण शिक्षा अभ्यास- ति । ततोऽसौ भक्तं पानं च स्वयमेव ददाति ,भाजनं वा स्तस्यै तस्या वा पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापद
धारयति, स्थित एव वाऽऽस्ते यावदीयते , साधू अपि प्रतानि । सामायिकादिषु श्रावकधर्मेषु. ध अधिका' सत्त
पश्चात्कर्मपरिहारार्थ सावशेषं गृहीतः ततो वन्दित्वा विय सिक्खावयाई' सप्त च शिक्षाप्रधनानि व्रतानि. गुणवता
सर्जयति, अनुगच्छति च कतिचित्पदानि, ततः स्वयं भुते । नामपि नित्यमभ्यसनीयतया शिक्षाव्रतत्वेन विवक्षणात् सप्त
यदि पुनस्तत्र प्रामादौ साधयो न भवन्ति तदा भोजनशिक्षावतान्युक्तानि । श्रातु।
वेलायां द्वारावलोकनं करोति, विशुद्धभावेन च चिन्तयति
यदि साधवोऽभविष्यन् नदा निस्तारितोऽभविष्यमिति । एष अथ यदवतयोगाद्देशविरतो भवति तानि तान्याह
पोषधपारणके विधिः । अन्यदा तु दत्त्वा भुने, भुक्त्वा वा पंच य अणुव्वयाई, सत्त उ सिक्खा उ देसजइधम्मो ।
उ सिक्खा उदसजइधम्मा। ददातीति । उमास्वातिवाचकविरचितश्रावकप्रशती तु प्रतिसम्वेण व देसेण व, तेण जुप्रो होइ देसजई ।। २॥
थिशदन साध्यादयश्चवारो गृहीताः, ततस्तषां संविभासप्त च शिक्षाप्रधानानि बतानि गुणवतानामगि नित्यमभ्य- गः कार्य इत्युक्तम् ,तथा च तत्पाठः "अतिथिसविभागो नासनीयतया शिक्षाबतत्वेन विवक्षणात् सप्त शिक्षावता- | म अतिथयः-साधवः साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाच, एतेषु न्युक्तानि । पातु । शिक्षा-अभ्यासस्तस्याः पदानि स्था- गृहमुपागतेषु भक्त्याऽभ्युत्थानासनादप्रमार्जननमस्कारानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापदब्रतानि । " चत्तारि सि- दिभिरर्चयित्वा यथाविभवशक्ति अन्नपानवस्त्रौषधालयादिपखापयन्वयार" प्रतिदिवसानुष्ठेये सामायिकदेशावकाशिक: प्रदानेन संविभागः कार्यः" इति । एतताराधनायैव प्रत्य
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सिकलावयव्य
आपके
साम वत्यपरिग्रह केवल पात्र पुंछ जासंधारणं श्रोसहमेसजे मय "इत्यादिनागुरुपिते भांगसमृद्धि साम्राज्यादि संपाद्यन्तादानामि सर्व प्रसिद्ध पारम्पर्येस मोक्षोऽपि फलमस्ति वैपरीत्ये तु दास्यदौर्गत्याद्यपीति । अभिहितं चतुर्थ शिक्षा पदवतम् । ध० २ अधि० गुणवता यामधीयन्ते तानि एनपि भवन्ति, तद्यथा-दिग्वसम् उपभोग भोग परिमाणम्, अनर्थदण्डपरिवर्जनमिति भाव०६ ० । (पञ्चमं शिक्षादानम् 'दिसिब्बम 'शब्देवतुर्थभागे २५४० पृष्ठे गतम्) (शिक्षापरिभोगपरिमाण' शब्दे द्वितीयभागे ८६ पृष्ठे गतम् । ) शिवम् द्वाडविरमण ने प्रथ मभागे २८४ पृष्ठ मतम् । ) विविध)- शिक्षित वि० दिवादिते। पञ्चा० ५ विव० । श्राप्तोपदेशदाने, भ० श० २३० । निक्खाविनए शिवयितुम् अन्यः प्रत्युषेादिसामाचारी प्रावितुमित्यर्थे स्था० ३ डा० ४ ० प्रगशिक्षापेक्षया सूत्रार्थी प्रादयितुमासेवनाशिनेा तु प्रत् क्षयितुमित्यर्थे, स्था० ३ ठा०२ उ० । मिक्खावेउं - शिक्षयितुम् अव्य० 1 ग्रहणशिक्षादि ग्राहयितुमित्यर्थे, पं० ० ३ द्वार ।
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( ८१३ ) अभिधावराजेन्द्रः ।
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पाप-वाम
पीढफलगसिअलुग्गा का फलं
मिजा
सेवा अभिगच्छा "भूतं निःशेषसास्पदभूनम् । दश० १ चू० । सिग्वगह शीघ्रमति
।
मिक्खासमावन - शिक्षासमापत्र - त्रि०। शिक्षया-वतांसवनया समापन्नो युक्तः । शिक्षिते, उत्त०५ श्र० । मिक्खिऊण - शिक्षित्वा श्रव्य० । श्रधीत्येत्यर्थे, “सिक्खिऊण भिक्खे सण सोहिं संजयाएं बुद्धा सगासे " दश०५०२ उ० । मिक्खिय-शिक्षित शिक्षा जाताऽस्येति शिक्षितः । उ० ४० शिताग्राहिने, उन० ४ घ० । अभ्यस्ते, श्री० । उत्त० । पठनक्रिययान्तं नीते, ग०२ अधि० । विशे० । गृहीत नं० प्र० २० पाहु० । अनु० । सूत्र० आ० म० । सिक्खित- शिवत् त्रि० । शिक्षां प्राचायें सूत्र favorant दुबिहा गहणे श्रासेवणे वेव' शिक्षयन्नपि द्विषिधः, एको यः शिक्षाशास्त्रं ग्राहयति पाडयत्य परस्तु तदर्थ दशविथयष्यात सामावन सेवपति सम्पनुष्ठान का व्यति । सू० १ ० १४ श्र० । सिंगया-सिकता - स्त्री० । बालुकायाम्. सू० प्र०१८ पाहु० । सिगाल - शृगाल- पुं० । जम्बूके, श्राचा० ॥ सिगाली शृगाली बी० शिवायाम् अनु० सिगुसिगुपु० विशेष आक०१० सिग्ग- देशीयपत्रमेतत्। परिश्रमे, व्य० ४:३० । सिग्य शीघ्र न० शब्दार्थे स्वये काले अ० । ० म० । दर्श० । रा० । वेगवतां मध्ये ऽतिशीघ्रे, श्री० लाध्य त्रि० । प्रशंसास्पदे, दर्श० ४ . स्व। “सिग्धं निस्से- मिज्जा-शय्या स्त्री० । शेरनेऽस्यां साधव इति शय्या । यु० २
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गतिरस्त्वस्य लगनले, सू० प्र० पाहु (सूर्यादीनां कः शीघ्रमगतिरिति 'जोइसिय' शब्दे चतुर्थमागे १६०५ पृष्ठे गतम् । ) (अस्य दर्शनं वीरशब्दे पहभागे गनम् । ) सिगमन शीघ्रगमन-सूर्यामदेषस्य वैकुर्विचिमा रा सिचय--सिचय - पु० । वस्त्रे, ०५०५ उ० ।
सिजंभव - शय्यम्भव- पुं० । प्रभवस्वामिनां शिष्ये चतुर्दशपूर्वधरे दशालिककर चायें, इ० १० । कल्प० । पा० । नं० ति० महा० । स्था० । नि० चू० । अस्य पर्यायः ११२३ सर्वायुः ६२ वर्षाणि, स्वर्गतिः वीरमोक्षात् ६८ वर्ष जै० ० । सिज्जंस- श्रेयस् - त्रि । परमप्रशस्ये, जी० १ प्रति०, श्रेयांस पुं० । भारते वर्षेऽस्थामवसर्पिण्यां जाते एकादशे जिने, स०७६ सम० । अनु० | प्रब० । श्रा० चू० । कल्प० । इदानीं श्रेयान् समस्तभुवनस्य हितकारित्यात् प्रशस्यतरः या इान्दसत्वात् सित सर्वे भगवन्लोक्यस्यापि प्रेयांसइति विशेषमाहमहरिहारुम्मि डोडली तेरा होइ सिसो तस्य राज्ञः पितृपरंपरागता देवतापरिगृहीता शथ्या अवस्तामाधयति तस्योपसर्ग देवता करोति। नर्मगते भगवति दिव्य दौहृदमजायत, शय्यामारोहामि । तत्रोप विष्टा देवता समारसितुमपक्रान्ताः। सा हि तीर्थकरनिमित्तं देवतया रक्षिता एवं गर्भवतीदेव्याः यो जातमिति श्रेयांसमिति नामकृतम् । श्रा० म० २ ० । ध० । श्रा० चू०| सिसे गं भरा असी घई उ उच्च होत्या । ( सू०८० X ) स० ८० सम० । सिद्धंसस्स से अरह छावहिं गया जान गए हरा होत्या (०६६ + ) सम० ।
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सिजसे खं अरहा चउरासीइं वाससयसङ्घस्साई सव्वाउयं पालदचा सिद्धे •जाब सम्दुक्खप्पीसे ( ० ८४ + )
श्रेयांसः - एकादशस्तीर्थक्करः एकविंशतिवर्षलक्षाणि कुमाये तावत्येव प्रवज्यायां द्विचत्वारिंशद्वाज्ये इत्येवं चतुरशी तिमायुः पालयित्वा सिद्धः । स० । सर्वाऽस्य वक्लयता ' तित्थयर' शब्द चतुर्थभागे २२४७ पृष्ठे गता । ) गजपुरनगरे भरतस्य राज्ञः पुत्रे, मतान्तरेण बाहुबलिनः सुतस्य सोमप्रभस्य । श्राचू०१० आ०म० येन प्रथम मृषभखामिन भिक्षा दत्ता | श्र० चू० १ ० । स पश्चात् प्रवजितः भगवत श्रात्मभवसम्बन्धानन्त्रीकथत् । प्र०क० १ अ सिद्धार्थनरेन्द्रे महावीरस्वामिनः पितरि ति० । कल्प० । अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तद्वितीय कल्प० १ अधि० ६ क्षण द्वादशमासानां लोकोत्तररीत्या पौषमासे ४० प्र० १० पा० । जं० सू० प्र० ।
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सिजा अभिधान राजेन्द्रः।
सिजापडिमा उ०। शीए स्वमे , अस्य क्यप्रत्ययान्तस्य कृत्यल्युटो | सर्पपान् वपग्निर्गतः, सर्षपाच वर्षाकाखन जातातबहुलमिति वचनात् शयनं शय्या। श्राव०४० "ध-रप- स्वदनुसारेणान्यं राजानं प्रवेश्य सा पक्षी समस्ता खुष्टियो जः"८।२।२४॥इति संयुक्तस्य विस्वम् । प्रा०"एच्छय्यादौ" ता दग्धा च । गौतमेनापि बमस्या उदरं पाटमित्या, सा. ॥८।१।१७ ॥ इत्यादरस्यत्व या । सिज्जा । सेजा। प्रा० । वशेषजीवितदेहाया उपरि सुप्तमित्येषा पा सचित्ता द्रव्यसर्वाङ्गीणषसतो , ध० २ अंधि० । बृहत्संस्तारके, भ०२ शय्येति । श०५ उ० । शयने, ध०२ अधि । अनु०। श्राप० । ओघ०।
মুহামলাनि । स० । दशा० । झा। उत्तः । श्रमणोपाश्रये, व्य० ४ उ० प्राचा० उत्स। शून्यगृहादिकायां वसती, दुविहा य भावसिंजा, कायगए छबिहे य भावम्मि |
आचा०१ श्रु०१०। शयनीये, शा०१श्रु०१ अगस्था० । भावे जो जत्थ जया, सुहदुहगम्भाइसिआसु.॥३०१॥ 'प्राचा०। श्राव। सूब भा “सबंगिया सेजा." ग०१
हे विधे-प्रकारायस्याः सा द्विविधा. तद्यथा-कावविषया , अधि०। पं० भा०। प्रा० म० । यत्र वा प्रसारितपादैः
षड्भावविषयान । तर यो जीवः यत्र औदयिकादी भाव सुप्यते सा शय्या संस्तारको वा । आसने . नि० चू०
यदा-यस्मिन् काले बर्तते सा तस्य पभाषरूपा भाव१३ उ०। प्रश्न प्रा०म० प्रा००। प्रायवृ० । व्य०।।
शय्या , शयनं शय्या स्थितिरिति कृत्वा । तथा च्याविकातत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे शय्यैषणेति , तस्या निक्षेपविधा
यगतो गर्भत्येन स्थितो यो जीवस्तस्य ख्यादिकाय एव नाय पिण्डेपणानियुक्तिर्यत्र संभवति तां तत्रातिदिश्य प्रथ
भावशय्या , यतः ख्यादिकाये सुखिने दुःखिते सुप्ते उधिमगाथया अपरासां च नियुक्तीनां यथायोग संभवं द्वितीयगा.
ते घा, ताहायस्थ एव नदन्तर्वती जीयो भवति, प्रतः थया आविर्भाव्य निक्षेपं च तृतीयगाथया शस्थाषटूनिक्षपे
कायविषया भावशय्या द्वितीयेति । अध्ययनार्थाधिकारः प्राप्ते नामस्थापने-अनाहत्य नियुक्तिकृदाह
सर्वोऽपि शय्याविषयः। प्राचा० २ श्रु०१ चू० २ प.. दवे खित्ते काले, भावे सिज्जा य जा तहिं पगयं ।। उ० । शय्या-संस्तारकः । प्राचा०२७०१ चू.२१०१ केरिसिया सिज्जा खलु,संजयजोग ति नायव्वा 108 उ०। (अस्व महात्म्यम् - "संथार' शब्देऽस्मिन्नेव भाग द्रव्यशय्या क्षेत्रशय्या कालशय्या भावशय्या , अत्र च या।
गतम् । ) एतत्प्रतिपादके प्राचाराद्वितीयश्रुतस्कम्धद्रव्यशध्या तस्यां प्रकृतं, तामेव च दर्शयति-कीरशी सा
स्य द्वितीये अध्ययने, स०। द्रव्यशय्या ? संयताना योग्येत्येवं सातव्या भविष्यति । सिजाकप्पविहिम-शय्याकल्पविधिज्ञ-पुलापाचाराने शय्या द्रव्यशय्याव्याचिण्यासयाऽऽह
यां संस्तारग्रहण, येन स सूत्रतोऽधीतोऽर्थनश्च शय्याकल्प. तिविहा य दवसिआ, सचित्ताऽचित्त मीसगा चेव। विधिज्ञः। शय्याकल्पसूत्रार्थो . नि०चू०२ उ० । खित्तम्मि जम्मि खित्ते,काले जा जम्मि कालम्मि २६६।। सिञ्जाकप्पिय-शय्याकल्पिक-पुं० । शय्याया ग्रहणार क्षगात्रिविधा द्रव्यशय्या भवति, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता, धारणप्रवणे, पृ० १ उ०। मिश्रा चेति । तत्र सचित्ता पृथिवीकायादौ . अचित्ता त
- सिजाकर-शय्याकर-पुं० । शय्यां पतिश्रयं करोतीति शरया. त्रैव प्रासुके, मिश्राऽपि तत्रैवार्द्धपरिणते । अथवा-सचित्तामुत्तरगाथया स्वत एव नियुक्निकद भावयिष्यति । 'क्षेत्र'मिति
| करः। नि० चू०८ उ० । वसतिस्वामिनि, पृ.२ उ० । तु क्षेत्रशय्या , सा च यत्र प्रामादिके क्षेत्र क्रियते, कालश- सिञ्जादाता-शय्यादात-त्रि० शय्याया यसतेदानान् शय्या तु या यस्मिन्नृतुबद्धादिके काले क्रियते ।
य्यादाता | सागाारके , वृ०२ उ०। तत्र सचित्तद्रव्यशय्योदाहरणार्थमाह
सिजाधर-शय्याधर-पुं० शय्यां पतन्ती छादनलपनाभ्याम् उक्कलकलिंग गोअम, वग्गुमई चेव होइ नायव्या ।
आदिशब्दात् स्थूणादानादिभिश्च धारयति अतः शय्याधर । एयं तु उदाहरणं, नायव्वं दवसिजाए ॥ ३०॥ या-तथा शय्यया साधूनां विस्तीर्ण या नरकादम्मान अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः , तदम-कस्याम-' धारयतीति शय्याधरः। सांगारिक, वृ०२ उ०। निच टव्यां द्वौ भ्रातराखुस्कलकलिङ्गाभिधानी विषमप्रदेशे पल्लि (अत्र विस्तरः 'सागरिय' शब्देऽस्मिन्नेव भाग गतः । निवेश्य चौर्येण वर्तते । तयोश्च भगिनी बल्गुमती नाम , ' सिजापडिमा-शय्याप्रतिमा-खी। शय्यते यस्यां सा शय्या तत्र कदाचिद् गौतमाभिधानो नैमित्तिकः समाया
। संस्तारकस्तस्याः प्रतिमा-अभिग्रहा:-शय्याप्रतिमाः । - तः, ताभ्यां च प्रतिपन्नः । तया च वल्गुमत्योनं-यथा नायं
सतिविषयकाभिग्रहे, स्था। भद्रकः , अत्र बसन् यदा तदाऽयमस्माकं पल्लिविनाशाय भविष्यत्यतो निर्धाट्यते , ततस्ताभ्यां तद्वचनान्निर्धारितः। चत्तारि सिज्जापडिमाओ परमत्तानो । ( मू०३३१ सतम्यांपमापन्नः प्रतिक्षामग्रहीद, यथा-नाई गीत- जामिनाशातिमा नयां I amar मा भवामि यदि बल्गुमत्युदरं विदोय तत्र न स्वपिमीत । शय्या-संस्तारकम्तस्याः प्रतिमा अभिग्रहाः शय्या प्रतिमा अन्य तु भणन्ति-संघ बल्गुमत्यपत्यानां लघुत्वात्पल्लिस्वा- तत्रोहिष्ट फलकादीनामन्यतमत् ग्रहीष्यामि नेतरादित्येक मिनी , उत्कलकलिङ्गी नैमित्तिकौ , सा तयामक्लया. गौतम नान्यिित द्वितीया । तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे पूर्वनैमित्तिकै निहाटितवती । अतस्तत्पद्वेषात्प्रतिक्षामादाय भवति ततो गृहीष्यामि मान्यत् प्रानीय सत्र शनि
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(१५) सिजापडिमा अभिधानराजेन्द्रः।
सिज्जायरपिंड इति वतीया । सदपि फमकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवा- पके बाऽऽश्रय अध्यासीत-सुखं तुःखं वाऽधिमहेत, प्रतिस्ते ततो प्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी । आसुच प्रतिमासु माकरिपकापेक्षं चैकरात्रमिति , स्थविरकल्पिकामाघयोःप्रतिमयागच्छनिर्गतानामग्रहः,उत्तरयारम्यतरस्या पेक्षया तु कतिपया रात्रयः , विचसोपलक्षणं च रात्रिमभिग्रहो, गच्छाम्तर्गतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्ते इति । प्रहर्णामति सूत्रार्थः । स्था०४ ठा० ३ उ०।
अत्रनिदद्वारम् , हच'श्रय पावगंति सूत्रावयवमर्थन: सिजापरिसह-शय्यापरि(A)पह-पुंशरबा-वसतिस्तत्परि- स्पृशन् उदाहरणमाह नियुक्तिकारःपहणं च तजन्य दुःखादेपेक्षा । भ० = श. - उ. ।
कोसंबी जम्मदत्तो, य सोमदत्तो. य सोमदेवो य । समविषमभूमिकापाशूत्करप्रचुरमतिशिशिरं बहुधर्मकं वा
पायरिय सोमभूई, दुराहं पि य होइ खायच्वं ॥१.८॥ उपाश्रय मृदुकठिनादिभेदेनोच्चाववं वा संस्तारकं घा प्राप्योधगाकरणे , प्रथ० ८६ द्वार । " शुभाशुभायां सम्बाइगमणं वियड-रग्गा दोषि ते नईतीरे । शय्यायां , विषदेत सुखासुखे । रागद्वेषी न कुर्षीत ,! पाओवगया नइपू-रएण उदहिं तु उवणीया ॥१०॥ प्रातस्माज्येति चिन्तयेत् ॥ १." ध०३ अधि०।
व्याख्या-कोशाम्बी यशदत्तः सोमदत्तश्च सोमदेवश्च प्राषेधिकीतश्च स्वाध्यायादि कृत्वा शय्यां प्रति निवर्तेता
चार्य। सोमभूतियोरपि च भवति-सातव्यः। स्वशानिग. तस्तत्परीषहमाह
मनं विकटवैराग्यात् द्वायपि तौ नदीतीरे पादपोपगती उच्चावयाहि सिजाहिं, तवस्सी भिक्खू थामवं । नदीपूरकेणोदधिं तूपनीतौ इति गाथाद्वयाक्षरार्थः । हाइवेलं विहलिजा, पावदिट्ठी विहामाइ ।।२२।। (सू०)
भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः , स चायम्
कोसंबीए णयरीए जराणदत्तो धिज्जाइओ, तस्स दो पुऊर्च चिता उच्चा, उपलिप्ततलाद्युपलक्षणमेतत् , यद्वा
त्ता-सोमदत्तो सोमदेवा य । ते दोडाव निम्बिएणकामभीशीतातपनियारकत्वादिगुणैः शय्यान्तरोपरिस्थितत्वेनोचाः.
गा पब्बतिया सोमभूईअरणगारस्स अंतिए, बहुस्सुया बतद्विपरीतास्त्ववचाः, अनयोर्द्वन्द्व उच्चावचा. नानाप्रकारा
हुअागमा य जाया। ते अन्नया य सत्रायपल्लिमागया, तेबोचावचास्ताभिः,शय्याभिः-वसतिभिः तपस्वी-प्रशस्य
सिं मायापियरो उज्जेणिं गतल्लिया। तहिं च विसर धितपाऽम्बिता, भिक्षुः प्राग्वत्, स्थामवान्-शीतानपादिस
जाइणो वियर्ड प्रावियंति । तेहि तसिं वियर्ड अनेण दहनं प्रति सामर्थ्यवान् नातिवेल-स्वाध्यायादिवे लातिक
चण मेलेऊण दिगण । केऽवि भणति-वियर्ड चव प्रयामेण विहन्यात्-हनेगतावपि वृत्तरत्राहं शीतादिभिरभिभू
मंताण दिराणं, तेहि बि य तं विसेसं अयाणमाणहिं पीयं । त इति स्थानान्तरं गच्छेत् । यद्वा-श्रतिवेलाम्-अन्यसमया
पच्छा विय इत्ता जाया .ते चिंतेति-अम्हहिं अजुतं कतिशायिनी मर्यादा-समतारूपामुख्चा शय्यामबाण्याहो !
य, पमाश्रो एस, वरं भतं पश्चक्खार्यति । ते एगाए णदीसभाग्यो ई यस्येशी सकल सुखोत्पादिनी मम शय्येति,
ए तीरे तीसे कट्ठाण उरि पानावगया । तत्थ अकाल अवचावाप्तौ या अहो! मम मन्दभाग्यता येन शय्यामपि शीतादिनिवारिकां न लभे इति हर्षविषादादिना न विह
परिसं जायं, पूरो य ागतो , हरिया, बुज्झमाणा य उ
दएण समुई णीया। तेहिं सम्म अहियासियं , अहाउयं , न्यात्-नोलञ्जयेत् , किमित्येवमुपदिश्यत इत्याह-पावदि
पालियं, सेज्जापरीसहो अहियामितो समविसमाहिं सेट्ठी विहन्नह 'त्ति ग्राम्वदिति सूत्रार्थः ।
ज्जाहिं । एवं एसा अहियासियन्बो ति। उत्त. २ श्रा किं पुनः कुर्यादित्याह
"सेज" त्ति शय्या संस्तारकः-चम्पकादिपटी मृदुकपइरिकमुवस्सयं लद्धं, कल्लाणं अदुव पावगं ।
ठिनादिभेदेनाचायचः प्रतिश्रया वा पांशूस्करप्रचुरः शिशिकिमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थहियासए ॥२३॥(सू०)
रो बहुधर्मको वा तत्र नोद्विजत ११, पाव०४ अ०।
सिजापरिसहविजय शय्यापरी(रि)पहविजय-पुं०विविधमप्र. 'पइरिक स्यादिविरहितत्वेन विविनमव्याबाध वा उपा
चुरशर्कराशकलसंकुलेषु शीतषा एघु वा देशेषु मृदुफठिनादि श्रय-वसतिं लब्ध्वा-प्राप्य कल्याण-शोभनम् 'अदुव' त्ति अथवा पापं-पांशूल्कराकीर्णत्वादिभिरशोभनं, किं?.न कि- भदाभन्नचम्पकादिपट्टषु वा निद्रामनुभवतः सम्यक प्रवचनाश्चित् , सुखं दुःखं चेति गम्यते, एका रात्रिर्यत्र तदेकगत्रं नुसारेण तस्कृतवाघासहन, अरागगमने च । पं० सं०४ द्वार । करिष्यति-विधास्यति? कल्याणः पापको बापाश्रय : सिज्जाभंड-शय्याभाएड-त० । शय्यापकरण, भ०१५. श. इति प्रक्रमः । कोऽभिप्रायः ?-केचित् पुरोपचितसुकृता वि- उ०। विधमणिकिरणोदयातितासु महाधनसमृद्धासु महारजतर- मिजाया-शयातर-पुं० । शय्या-वसतिस्तया तर्गत सजतोगनिनभित्तिषु मणिनिर्मितोरुस्तम्भासु तदितरे तु जीर्ण ।
| सारमिति शय्यानरः । साधूनां बसनिदानरि, दश० ३ १०। शाणभन्नकण्टकस्थूणापटलसवृतद्वागसुकचवस्तुपमू ('सागारिय'शब्देऽस्मिन्नेव भागे६०६पृष्ठेऽस्य व्याख्या गता।) पकोत्करपांशुबुमभस्मविभूत्रावसङ्कीर्णासु श्वनकुलमाार
( शय्यातरेण कीशन भवितव्यमिति 'णिगंथी ' शब्दे मूत्रप्रसेकदुर्गन्धिष्वाजन्म वसतिषु वसन्ति । मम त्वद्यवे
- चतुर्थभाग २०४८ पृष्ठे गतम् । ) यमीहशी श्वोऽन्या भविष्यतीति किमत्र हर्षेण विषादेन!. वा?.मया हि धर्मनिहाय विविक्तत्वमेवाश्रयस्थान्येयं,कि सिज्जायरपिण्ड-शय्यातरपिण्ड-पुं० । शय्यातरो-यसतिमपरेष?, 'एवमिति-अमुता प्रकारेण 'तंत्र' ति कल्याणे पा- स्वामी तस्थ पिराडः । सागारिकण दीयमाने अशनादिद्वादश
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सिह
सिज्जायरपिंड
अभिधानराजेन्द्रः। विधे पिण्डे दश०३०। ( 'सागारियमिएड' शब्देऽस्मिन्नेव वेति-"वेदनामास्यमन्वृत्वम् ” एतावदेव शिष्टलक्षणम् भागे उदाहतम् ।)
माझपताडित बौद्धेऽतिव्याप्त, तेनापि “ क्षः प्रमाणम् " सिजायरभत्त-शय्यातरभक्क-न। शय्यातरगिरडे, नि० चू० इत्यभ्युपगमात् । स्वारसिकं च तत् वेदप्रमारणमन्तृत्वं
द्विजे ब्राह्मणऽव्यासम् । अयं भावः-स्वारसिकत्वविशेषलेन ११ उ०।
बौद्धेऽतिव्याप्तिनिरासेऽपि स्वारसिकवेदप्रामाण्यमन्तृत्वम् ' सिजावाली--शय्यापालिका-खी० ।' शय्यारक्षिकार्या शय
यदा कदाचिद्वाच्यं सर्वदा वा? श्राद्ये बौद्ध एवातिव्यानीयस्तरिकायाम् , प्रा० म०१०।
शितादवमध्यं, तस्यापि जन्मान्तरे वेदप्रामाण्याभ्युपगमीसिजासंथार--शय्यासंस्तार--पुं० शरते ऽस्यामिति शय्या-ब- व्यात् । अन्त्ये च शयनादिदशाय केदयामाझ्याभ्युगगणासतिः सैव संस्तारकः, यद्वा-शय्या-वसतिरेव संस्तारको
भाववति ग्राह्मणऽन्याप्तिरिति । द्विधा-परिशाठी,अपरिशाटी नेति शय्योफ्लपितरसंस्तार- तदभ्युपगमाद्याव- तद्वयत्ययमन्तृता । काम्यामस्तारकः श्रभ्या-शम्पनं वदर्थः संस्तारकः-सं
तावच्छिष्टत्वमिति चे-सदप्रामाण्यमन्तरि ॥ १८ ॥ स्तारकभूमयः ।अथवा-शय्याया-बसती संस्तारकाः शय्या
तदिति-तस्य वेदप्रामाण्यस्यायुपगमात् यावत्र तश्यसंस्तारकाः । प्रा० १७० १०। शय्यासंस्तारकोभये,
स्ययस्य केदाप्रामायणस्य मन्तताऽभ्युपममः तावच्छिष्पत्यम् वृ०१ उ०३ प्रक० [आवा० । आव० । नि० चू०। पं० भाग
शयनादिदशायां च वेदप्रामाण्यानभ्युपगमाद नाणे नाव्याग० । स०
तिरिति भावः । अप्रामासयमन्यस्यपि स्वारसिकस्य प्रहसिज--सिध्मन्-न० । खुद्रकुष्ठविशेषे, भ०७ श०६।०।
णाद्वौद्धताडिते ब्राह्मणे वेदाप्रामाण्याभ्यपगन्तरि नातिव्या. सिमिया-साध्यापिका-स्त्री० । प्रातिवेश्मिकांखया , वृr सिः अप्रमाकरणत्वाभावयोश्च द्वयोरपि प्रमाण्यक्रोिधि१. उ०२प्रक।
त्वेन संग्रहाकाहेऽस्याभ्युपगन्तयतिन्याप्तिः । अत्राइमिड-सिच-धा। क्षरणे, "सिचे सिञ्चसिम्मी" HEIRIE६॥
इति चेत्तवग्राम्सण्यमन्तरि-वेदाप्रामाण्याभ्युपगन्तरि । इति सिचधातोः सिसिम्पादेशीः । सिचर । सिम्पद । __ अजानति च वेदत्व-मच्याप्तं चेद्विवक्ष्यते। सेबाद । सेचति । प्रा०४ पाद ।
वेदत्वेनाभ्युपगम-स्तथापि स्याददः किल ॥ १६ ॥ सिद-शिष्ट--पुं० । शिष्यते स्म शिष्टः । वृत्तस्थानवृद्धसेयोप
प्रजाति चेति-क्वस्वं च वेदेऽजानति ब्राह्मणे अश्या लम्धविशुद्धसेवामनुजविशेष, ध०१अधिः । साधुजनसमते,
लक्षणमेतत् तेन वेदाप्रामाण्याभ्युपगमात् । अथ चेद्यT०२२ द्वा। वेदस्मृत्यायनुसारिणि, पशा. १३ विव० ।
दि वेदत्वेनाभ्युपगमो विवक्ष्यते वेद एव वेश्यमजानसन विशिष्टजने, पञ्चा०१३ विवा क्षोणदोषे सम्यग्दृष्टी,डा०। नवेदत्वेनाप्रामाण्याभ्युपयमः किं त्विदमप्रमाणमिति दसम्बक्षणम्
त्यादिनैवेति नाव्याप्तिः, तथाप्यद पतल्लक्षणे कित । अंशतः वीणदोषत्वात , शिष्टत्वमपि युक्तिमत् । ब्राह्मणः पातकात्प्राप्तः, काकभावं तदापि हि । अत्रैव हि परोक्तं तु, तलचणमसंगतम् ॥ १६ ॥ व्यामोतीशं च नोत्कृष्ट-ज्ञानावच्छेदिका तनुः ॥२०॥ अंशत इति-अंशता-देशनः क्षीणदोषत्याापक्षयव- ब्राह्मण इति-यदा ब्राह्मखः पातकात् काकजन्मनिबन्धस्यात् शिवत्वमपि अत्रैव-सम्यग्दृवावेव युक्तिमत् ग्या- नाद् दुरितात् काकभावं प्राप्तः तदापि हि स्यात् ब्राह्मयोपेतम् । “क्षीणदोषः पुरुषः शिष्ट" इति लक्षणस्य निर्वा
ण्यदशायां वेदप्रामाण्याभ्युपगन्तृत्वात् काकदशायां च वेधत्वात् । सर्वदोषक्षयण सर्वथा शिष्यत्वस्य सिद्ध केवाल
दाप्रामाण्यानभ्युपमन्तृत्वात् । उत्कृष्टमानावच्छेदिका च तनि वा विश्रान्तत्वेऽपि सम्यग्दृष्टेरारभ्य देशतो विचित्रस्य
नुरीशं-भवानीगति न ब्यानोति । तथा च काके तिव्याशिएत्वस्यान्यत्रानपायत्वात् । न चैवं शिष्टत्वस्यातीन्द्रि
सिवारणार्थमुस्कृष्टवानावच्छेदकारीवस्वः सतीति विशेषयत्वेन तुर्ग्रहत्वाच्छिष्टाचारेण प्रवृत्त्यनापत्तिरिति शनीयं
णाने ईश्वरे ऽव्याप्तिरित्यर्थः । प्रशमसंवेगादिलिङ्गस्तस्य सुग्रहत्वात् । दोषा रागादय एवं तेषां च दिव्यज्ञानाद कन क्षयमुपलभामहे, न वा तेषु
अन्याङ्गरहितत्वं च, तस्य काकभवोत्तरम् । निरक्यवेवंशाऽस्ति येनांशतः तत्क्षयो वर्क शक्यतेति चेत्र, देहान्तराग्रहदशा-माश्रित्यातिप्रसक्रिमत ।।२१।। अत्युचितप्रवृत्तिसंवेगादिलिगकरवलतदुपक्षयस्यैवांशतो- अन्येति-अन्यानरहितत्वं च अपकृष्टज्ञानावच्छेदकरायीरदोपक्षयार्थत्वात् . प्रात्मानुग्रहापघातकारित्वेन चयोफ्न- सहित्यं च तस्य ब्राह्मस्पभवानन्तरप्राप्तकाकभवस्य, कायवतः सावयवस्य कर्मरूपदोषस्य प्रसिद्धत्वाच इत्यन्यत्र कभवोसरं देहान्तराग्रहदशा-शरीरान्तरानुपादानावस्थाम् चिस्तरः । हि-निश्चितं परानं तु द्विजन्मोडावितं तु आश्रित्य अतिप्रसक्किमदतिव्याप्तं तदानीमपकृष्टतानावच्छेदतस्य शिष्टस्य लक्षणम् असंगतमयुक्तम् ।
कशरीरराहित्यात्।। तथाहि
अवच्छेदकदेहाना-मकृष्टघियामथ । वेदप्रामाण्यमन्तृत्त्रं, बौद्धे ब्राझताडिते!
संबन्धविरहो यावान , प्रामाण्योपगमे सति ॥ २२ ॥ अतिव्यासं द्विजेन्न्यानं, स्वाये:स्वारमिकं न तत् ।।१७।। अन्नकछेदकेति-अध प्रामास्योपामे, सति--वेदप्रामाण्या
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सिड
युपगमकाले यावान् अधियाम् अवदानाम अपानायच्छेदकवि-संबन्धाभावः
(१७) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अप्रामाण्यानुपगम स्वावत्कालीन एव हि । शिष्टत्वं काकदेहस्य, प्रागभावस्तदा च न ||२३||
अामास्यति तायकालीन एव हि सफलतासमानकालीन एव अमरापगमो वेदमामापाज्युपगमपर
शिस्य प्रागभाषी वेदप्रामाण्याभ्यपण मसमानकालीनः, तदा च काकस्य मरणानन्तरं शरीरास्वरादशायां नास्तीति मायासियाकालं वेदत्वेन वेदाप्रामाएपायुपगमस्य विरह वेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकाली नयावदप्रकृष्टशा नावच्छेदकशरीरसंबन्धाभाव समानकालीनस्तावन्तं काले स शिष्टः । प्र.पोऽपि बडो जातो यावन्नाभ्युपगतबान्ता एव बोयोऽपि ब्राह्मणजातोमायाकृतशिष्ट पंतप अनाथः अत्र वेदप्रामापाम्युपगमसमान कालीब बस सामानाधिकरण्यमपि वादयम् । धोतरका स्कालीनं यत्किचिद्रपधिकरणा प्रकृशानावच्छेदकशरीरसं बन्धप्रामापनाशेनान्यान्यापः ।
नैवं तदुत्तरे विप्रेऽब्याः प्राक् प्रतिपतितः । प्रामाण्योपगमात्तन्न, प्राक् तवेति न सेति चेत् ||२४|| नैवमिति - नैवं यथा विवक्षितं प्राकृतदुत्तरे विप्रे काकभवोत्तरमासाद्य प्राप्रतिपतितः प्राग्भयीयदामामाश्रित्याभ्याप्तेः तदानीं तया
I
विरहस्य प्रक्रीयामारुपाभ्युपगमसमानकालीनवापदप्रकृशाना वच्देवशरीरसंबन्धविरहासमानकालीनस्यादान्तरालिककाकभय एय काकशरीरसंबन्धप्रागभावनाशात् । प्रामाण्योपगमाद्वेदप्रामाण्याभ्युपगमात् प्राकू तत्र काकभवोत्तरब्राह्मणे तच्छुत्वं न इति हेतोरलक्ष्यस्वादेव न खाऽस्याधिः वेदमाभ्युपगम
वेतिभावः इति चेखवेयं यदिमायाभ्युपगम
एव प्राह्यः ।
तथा च
यत्किञ्चिद्म पश्चात् प्राक् च काकस्य जन्मनः । विप्रजन्मान्तराले स्पा-त्सा ध्वंसप्रागभावतः ||२५|| यदिति यत्किञ्चिद्वदे-परिदाप्रामाण्याभ्यु पगमस्य लक्षणमध्यनिवेशे काकस्य जन्मनः पश्चात् प्राक्मनोरन्तरालेऽप्राप्तिविलेपाभ्यां मध्यभावे वं सप्रागभावतः काकशरीर संबन्ध ध्वंसप्रागभावावाश्रित्य सा प्रसिद्धाऽतिव्याप्तिः स्यात् । अयं भावः यो ब्राह्मणः काको जातस्तदनन्तरं च ब्राह्मणो भविष्यति तस्य मरणानन्तरं ब्रा
शरीराग्रहदशायामुत्तरखा राभवकालीनवेदप्रामाण्याभ्यु पगमसमानकालीन काकशरीरध्वंसेनैव लक्षणसाम्राज्यादव्याप्तिः । प्राशन का कशरीरसंबन्धप्रागभावस्तु न तत्समानकालीन एवेति तस्यैव ब्राह्मणभवत्यागानन्तरं काकशरीराग्रहदशायां प्राक्तनब्राह्मणभवकालीनवेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनका शरीरसंबन्धप्रामानाच्या तिरिति । किं च
-
मिट्ट
यो ब्राह्मणः प्राग् बौद्धो वृत्तस्तस्य स्वागादिदशायां वेदाप्रामा याभ्युमगमविरहस्याग्रिमग्राह्मणभवीयनिरुयावच्तुरीरसं बन्धाभावसमानकालीनत्या सत्रातिव्याप्तिरिति योध्यम् । जीववृत्तिविशिष्टाङ्गा - भावाभावग्रहोऽप्यसन् । उत्कर्षापकर्ष-व्यवस्थो वदपेक्षया ।। २६ ।। जीपति जीवनिविशिष्ट क्षेत्रवृत्तित्यशिष्योऽङ्गाभाव उत्कृष्टज्ञानावरुन करारीराभावद्भावोऽपि तदभावनिवेशोऽपि काकेश्वरयोरतिव्याप्तिवारणर्थमसनदुष्टलक्षवाधानासमर्थः यद्यमाकर्षापकर्ष अपेक्षा व्य स्थितः कोटिकादिज्ञानापेक्षयोत्कृष्ट-वात् काकादिज्ञानस्य ब्राह्मणादिज्ञानस्य च देवादिज्ञानापेक्षयाऽपकृष्टत्वात् । इत्थं च तदवस्थ एवातिव्याप्यव्याप्ती । न च काकादिशानया मनुष्यादेशानसाधारणमुत्कर्षे नाम जातिविशेषमाद्रियन्ते भयन्तः, अन्यथा कार्यमात्रवृत्तिजाः कार्या सत्यनियमेन तदनुगत कारण कल्पनायत्तिः ईश्वरज्ञानसाधारण्यास तस्य कार्यमाश्रवृत्तित्वमिति चेत्तथापि देवतादिजन्यतावच्छेदिक या उपकर्षविशेषेय व सांकर्यान जातित्वं ततदुङ्गा नावच्छेदक शरीरसंबन्धाभावकूटस्तुदुर्मद इति न किंचित्।
ननु एकजम्माचच्छेदेन स्वसमानाधिकरणस्योत्तरवेदाप्रा
मागषाभ्युपगमध्यंवानाधारवेदयामापाभ्युपगमात्तरकाल
वृत्तित्वविशिष्टा॒वेदाप्रमायाभ्युपगमविरहः शिष्टत्वमिति निबेचने न कोऽपि दोषो भविष्यतीत्यत आह
अपि चाव्याप्त्यतिव्याप्ती, कार्त्स्यदेशविकल्पतः ।
ग्रहे स्वतात्पर्यात्र दोष इति चेन्मतिः ॥ २७ ॥ अपि संति-अपि च देशविकल्पतः कृत्खयेमायाभ्युपगमविवचित देशभ्युपगमो पति विवेच वेदयामायाभ्युपगमस्य ब्राह्म व्यप्यभावात्। न हि मेशन्तिनो नैयायिका प्रमाणयन्ति, नैयायिकादयो वा वेदान्त्यभिमतां यत् किंचिद्वेदप्रामाख्यं व बीजाइयोऽप्यभ्युपगच्छन्ति “न हिंस्यात् सर्वभूतानि अग्निर्द्विमस्य भेषजम्" इत्यादिनां तेषामपि संतत्वादिति स्वतात्पर्यात्स्वाभिप्रायमपेय आहे यावद्वेदप्रामापाभ्युपगमनिदेशे न दोषः स्वस्पतात्पर्ये प्रमाणं श्रुतिरिति हि सर्वे नेपाधिकादीनामभ्युपगमः । इति चेन्मतिः कल्पना भवदीया ।
।
नैवं विशिष्य तात्पर्य- ग्रहे तन्मानताऽग्रहात् । सामान्यतः स्वतात्पयें, प्रामाएयं नोऽपि संगतम् ||२८|| नैवमिति एवं मतिर्नियुक्ता कस्याश्चिद् दुरवबोधायाः श्रुतेविशिष्य स्वकल्पितार्थानुसारेण तात्पर्याग्रह तन्मानतायास्तत्प्रमाणताया अप्रधात् । स्वतात्पर्य सर्ववेदप्रामाण्याभ्युगगमस्य दुत्यादनाकलितात्पर्यायामपि श्रुती मोहि तत्याग्रहेऽपि प्रमाकरणत्वस्य सुग्रहत्वाश्न दोष इत्यत आहसामान्यतो नयरूपत्वेन स्वतात्पर्ये स्वाभिप्रायप्रमारये वेदप्रामाण्यं नोऽस्माकं जैनानामपि संमतम् । यावन्तो हि परसमयास्तायन्त एव नया इति श्रुतपरिकर्मितमतेः सर्व
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अमिधानसजेन्द्रः।
सिपल मेष राम - ममाणीकुतिः समलवेदमामायणाभ्युपगमो- भेष्ठिन-पुंछ । नगरमुल्यम्यवहारिणि, कल्प. १ प्रधिक उमपाय एवति । द्वा. ५ वा. शिष्ठसमयानुपालनार्थ यादौ सवधाभिधानम्-कोऽपि शिष्योऽरप- सिदिर-शिथिर-त्रिका “मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथम श्रम्प श्रुतः कंचिहाचार्य पूर्वगन्सूनार्थधारकं चालभ्य श्रुतसा
ढः" ८१२१५॥ इनि शस्पदः । शिधिले, प्रा०१मद । गरगारगतं शिरसा प्रणम्य विज्ञपयति स्म । यथाभगनिम्छामि युष्माकं श्रुतनिधीनामन्ते यथावस्थितं का
सिदिल-शिथि(र)ल-त्रि०। "मथि-शिथिर-शिथिल-प्रथम लविभागं शामिति । तत एवमके सतिप्राचार्या -- चस्प ढः" २.५॥ इति थस्य दः । हरिद्रादिस्वाटम्यल। ए वत्स! सावदित्यादि, तथा-तदारतीयाभृतवृत्तावपि स
ami प्रा०। मनवीय , प्राचा०१थु०५ १०३ उ० श्लथ, भ. सणास्थामविसहशत्चमाधिस्योक्तम् , यथा-ह स्कन्दिलाचा
१ मा०२ उ०। र्यप्रवृत्ती दुापमानुभाषतो बुर्मिक्षप्रवृत्या साधूनों पठनगु
सिदिलत्तया-शिथिलता-स्त्रीका शैथिल्य,भ०१६ श०५ 3. । सामादिक सर्वमण्यनशत् ततो दुर्मिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती शिथिलत्वच-स्त्री० श्लथयमणि भ० १६ श०४३० ।
का वलभ्याम् , सिदिलीकय-श्लिष्टीकत-त्रि० । सूत्रपद्याग्निततलोहरालाका को मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो
कलापवन्निधत्ते, भ० ६ श०१ उ०।। जातः । विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटते भवत्यव
शिथिलीकत--त्रि० । मन्दपिपाकीकृते , भ०६ श०३०। श्य वाचनाभेदोन काचिदनुपपत्तिः। ग०१अधिक। सुष्ट-२० । एकीभूते, स्था०३ डा०३ उ०। कृपादित्यास्त मा०१पाद ।
सिणाण-स्नान-न । सोत्तमानशौचे,माचा०२ श्रु०१ चू०. विष्ट-न । मिलिते, स्था० ३ ठा० ३ उ०।
म०१०। स्मानं । देशस्मानं सबस्नामश्च देशस्नान-हस्त
पादमुखप्रक्षालनम् । सर्चस्नानं शिरसा स्नातरखे सत्यागमप्र. सिद्त्त-शिष्टत्व-न० । शिष्टभावे , वक्तः शिष्टत्वसूचने , प्र
सिद्धथा । पा०६ विव० । स्तानं च देशसर्वभेदभिनं ३भिमतसिद्धान्तोकार्थत्तायां वक्नुः शिष्टतासूचकत्वे च । स० शस्नानमधिष्ठामशौचातिरेकेणाक्षिपदमप्रक्षालमपि । सब३५ सम । दशमे सत्यवचनातिशये, रा०।
स्नानं प्रतीतम् । "राइभत्ते सिणाणे य गंधमले य बीयगण " सिमिहत्थ-शिष्टगृहस्थ-पुं० । वेदस्मृत्याद्यनुसारिणि गृह
अनाचरितम् , पश०३ ०। जीत । स्नानं द्रव्यभावसं यास्थे, पञ्चा० १३ विध०।
जितम् ,स्नानं वा विलेपनं चन्दमकुङ्कुमादिभिः। घोयिबा सिट्ठजन-शिष्टनन-पुं० । विशिष्टभव्यतोके, पो०८ विनः । अभ्यापूर्वकेऽजप्रक्षालने , सञ्चायतनयाऽत्र संसक्नभूम्यां सिद्धाऽऽयार-शिष्टाचार-पुं० शिष्टचारते,धा तथा शिष्य
संपातिमसत्त्वाकुले वा काले वस्त्रापूतजलेन वा यन्
कृतम् । आया०१ ध्रु० अ०४ उ.। स्माने लेलान्तेस्म शिष्टाः वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवोपलब्धविशुद्धशिक्षा मनु
भ्यङ्गादिपूर्वकं देवपूजार्थ करणेम नियमभङ्गः लौकिकजविशेषास्तेषामाचारश्चरितम्। यथा"लोकापवादभीरुत्वं, दीनाभ्युद्धरणादरः ।
कारणे च यतना रक्ष्या । ध०२ अधिक। कृतलतासु दाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः॥१॥
साम्प्रतं स्नानप्रतिपादक सप्तदशस्थानमाहसर्वत्र निम्दासत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु ।
वाहिमो वा अरोगी वा. सिणाणं जो उ पत्थए । आपथदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदि नम्रता ॥२॥
बुकंतो होइ मायारो, जढो हवइ संजमो ।। ६० ।। प्रस्ताव मितभाषित्व-मयिसंवादनं तथा ।
संतिमे सुहुमा पाणा, घमासु भिलुगासु अ। पतिपत्रक्रिया बात, कुलधर्मानुपालनम् ॥ ३ ॥ असव्ययपरित्यागः, स्थाने चैध क्रिया सदा ।
जे अभिक्खू सिणायंतो, विभडणुप्पलावए ॥६१।। प्रधानकार्य निर्वधः, प्रमादस्य विधजनम् ॥४॥
तम्हा ते म सिणायंति, सीएण उसिणेण पा । लोकाचारामुवृत्तिश्च, सर्वत्रोचितपालनम्।।
जावज्जीवं वयं घोरं, अमिणाणमहिटगा ।। ६२ ।। प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कसठगनैरपि ॥५॥"
सिणाणं अदुवा ककं, लुद्धं पउमगाणि अ। इत्यादि । तस्य प्रशंसा-प्रसंशनं पुरस्कार इत्यर्थः, यथा-- "गुणेषु यन्तः क्रियतां, किमाटोलः प्रयोजनम् । विक्रीयन्ते
गायस्सुब्बट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ।। ६३ ।। न घण्टाभि-र्गावः क्षीरविर्जिताः॥॥" तथा-"शुद्धाः
'वाहिनो घ' सि सूत्रम् , व्याधिमान् वाप्रसिद्धिमायान्ति,लघघोऽपीह नेसरे । तमस्यपि बिलाश्यन्त,
च्याधिग्रस्तः अगेगी वा-रोगविप्रमुक्तो वा स्नानम्दस्तिक्ला न दन्तिनः ॥६॥" इति ॥ ०१ अधि।
अङ्गप्रक्षालनं यस्तु प्रार्थयते-सेवत इत्यर्थः , तनन्थसिद्धाज्यारपसंसा-शिष्टाचारप्रशंसा-खी। शिष्टाचारपुर
भूतेन ब्युन्कान्ता भवति, श्राचारो-बाबतपोरूप..
अस्नानपरीपहानतिसहनात् , 'जढः' परित्यको भयान कारे, ध०१ अधि।
संयमः--मासिरक्षरसादिकः, भकायादिविराधनादान सिद्धि-शिष्टि-स्त्री० । "स्यामुष्टेष्टासंदष्टे" ॥८॥२॥३५॥ इति ।
सूत्रार्थः ॥ ६॥ प्रासुकस्नानन कथं संयमपरित्याग इप्रस्य ठः । प्रा० । " इत् कृपादो" ।।८।१।१२८॥ इति ऋत त्याह-'संतिम' ति सूत्रम् , सन्ति ए-प्रत्यक्षाइत्वम् । प्रा० । रचनायाम् , अष्ट०२२ अप० ।
पलभ्यमानस्वरूपाः सूचमः-श्लक्षणाः 'प्राणिना-द्वी
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मि अभिशामराजेन्द्र
सिमग्र न्द्रियादग्रः धापासु-शुधिरभूमिपु भिलुगासु साना तथा- याने बारुणांना साप निम्यमेव च। विद्याभूमिराजीपु प. यांस्तु भिक्षुः सामाजलोझमकिपमा पाभिवं सनसं चैब, स्नानं समयिनं स्मृतम् ॥२॥ विमलेश-मासुक्रोदकेनोमाचनति तथा च तद्विराधनात संग माग्नेय भस्मना सन-सवगाहां लुबारुणम् । बमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ निगमनबाह-व्हति आपोहिष्ठामयं ब्राह्मणं, वायव्वं तु.गवां रजः ॥ ३॥ सूत्रम्, यस्मादेवमुक्नदोषप्रसस्तस्मात्ते-साधयो न सास्ति सूर्यवं यद् . जहिल्यमृषयो विदुः । शीतेन वोषणेनोदकेन मासुकनानासुकन वेत्यर्थः, किंनिश्चि- पार्थिवं तु मृदा स्नान, मनःशुद्धिस्तु मानसम् ॥४॥" यास्त इवाह-यावलम्वम्-माजन्म व्रत प्रारम्-दुग्नु- स्था०५ ठा०३ उ०। प्राचा०। स्नास्यमेनेति स्नानम् । चरमस्नानमाश्रित्य अधिष्ठातार:-अस्यैव कार इति सूत्रा- मन्धोदकादिके, उत्त०२११०। सुगन्धिद्रव्यसमुदाय, प्रार्थः ॥ ६२ ॥ किंच-' सिणाणं' ति सूत्रम्-नानं-पूर्वोक्तम् । मा०२ श्रु.१०२.०१०। अथवा-कर-चन्दनकाकादि लोधं-गन्धद्रव्य पनमानि ब-हमकेसराणि, शब्दावन्यधिविध मात्रस्य ।
सिणाय--स्नात (क)--पुं० । क्षालितसकलघातिकर्ममलत्या. डद्वर्तनार्थम्-उद्वर्तननिमित्तं नाबान्ति कदाचिपि.याव
स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः। ध०३ अधिक । घातिकजीवमव भावसाधव इति सूत्रार्थः ॥६॥ दश० ६ ०२०।
ममलक्षालमायाप्तशुद्धस्नानस्वरूपे निर्ग्रन्थभेद, स्था० ३ "मलमालपकमाला, भूलीमाला न ते नरामाला।
०-२-उ० भ०। जे पापपंकमइला, ते मला जीवलोयम्मि: १६६ ॥ सिणाते पंचविधे पलत्ते, तं जहा-अच्छवी १ असरले २ खणमित्तं सलिलेहि, सरीरदेहस्स सुद्धिजभांजं। प्रकम्मसे ३ संसुद्धमापदंसणधेरे परहा जिणे केवली ४ कामंग ति णिसिद्ध, महेसिणं तं ननु सिणाणं" ॥ १७॥ अपरिसावी ५.६। (मू०४४५४) उक्रंच
स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः , सयोगोऽयोगो वा “सानं मददर्पकरं, कामा प्रथम स्मृतम्।
केवलीति । अथुनैन एव भेदत उच्यन्ते, तत्र पुलाक इतस्मास्काम परित्यज्य, नैव सास्ति दमे स्ताः" ॥१७२०
त्यासेवापुलाकः पञ्चविधो, लब्धिपुलाकस्यै कविधत्वात् , त. ध०र०१ अधि०१० गुण।
अ स्खलितमिलितादिभिरविचारैनिमाश्रित्यात्मानम् - तथा-खाबाचि
सारं कुर्वन् शानपुलाकः, एवं कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दशनपुला"नन्दकक्लिन्नगात्रोऽपि, स्नात इत्यभिधीयते ।
का, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः , यथोक्नालाधिस स्नातो यो दमस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥१७४॥
कग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्गकरणाद्वा लिपुलाकः, किश्चि. चित्तमन्तर्गतं दुष्यं, तीर्थस्नानैर्न शुध्यति ।
प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथा सूक्ष्मपुलाको नाम पशतशोऽपि जलैधौत-सुराभाण्डमिवाशुचि" ॥१७॥ श्चम इति । बकुशा द्विविधोऽपि पश्चविधः , तत्र शरीरोपध० ० १ अधि० १० गुण । गृहस्थानां वानसं- करणभूषयोः सश्चिन्त्यकारी श्राभोगवकुशः, सहसाकार। लाके न तिष्ठत् । श्राचा०२ ७०१ ० १ ० ६ अनाभोगवकुशः , प्रच्छन्नकारी संवृतवकुशः , प्रकटकारी १० । स्नानं मनोमलत्यागो' योगश्चेन्द्रियराधनम् । अ- असंवृतवकुशः , मूलोत्तरगुणाश्रित वा संवृतासंवृतत्वं भेददर्शनं ज्ञानं , ध्यानं निर्विषयं मनः॥१॥ न तु बाह्या- किश्चित्यमादी अक्षिमलाद्यपनयन् वा यथा सूक्ष्मवकुशी नाम विशुद्धिः “जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, ण तं सुदिटुं पञ्चम इति । कुशीलो द्विविधोऽपि पश्वविधस्तत्र ज्ञानदर्शनकुसला पयंति।" जयघोषं प्रति विजयघोषः स्नाननिरूप- चारित्रलिकाम्युपजीवम् प्रतिसवनती ज्ञानादिकुशीलो लिशायाह-"व्यतो भावतश्चैव,द्विधा स्नानमुदाहनम् । बाह्य- स्थाने कचित् तपो दृश्यत तथाऽयं तपश्चरतीत्येवमनुमाध्यात्मिकं चेति,तदन्यः परिकीर्त्यते॥"उस२२० । मोद्यमानो हर्षङ्गच्छन् यथासूक्ष्मकुशीलः प्रतिसेवनयवेति , "पामो लिखाणादिसुपस्थि मोक्खोखारस्त लोगस असा कषायकुशीलोऽप्येवं नचरं क्रोधादिना विद्यादिशानं प्रयुञ्जासपण । ते मजमंस लसणं च मोबा, अमाल्यवासं परिक्र- नो ज्ञानकुशीलो.दर्शनग्रम्थं प्रयुञ्जानो दर्शनतः, शापं ददयाप्पयंति ॥१॥" सूत्र०१ श्रु०७ म०। (कुसील शब्दे तृतीयभागे रित्रतः कपालिङ्गान्तरं कुर्वन् लिङ्गतो, मनमा कषायान् कु६१० पृष्ठ व्याख्यातैषा 1)“दगेण जे सिद्धिमुदाहरति,सायं च र्वन् यथासूक्ष्मः। चूर्णिकाकारल्याख्या स्वयं सम्यगाराधनपायं उदर्ग फुसंता निगम फासण सिवा यं सिद्धि,सिज- विपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना। सा पञ्चसुशासुपारचे इगंसि।":सून० १.श्रु०७०। ('उनण' शब्द- दिषु येषां ते प्रतिसवनाकुशीलाः कषायकुशीलास्तु पञ्चसु द्विसीयभागे ७६६ पृष्ठ स्याख्यातेवामान निर्म- सानादिषु येषां कषायविराधना क्रियत इति । अन्तर्मुहसंयलीकत. गात्रं स्नानशतैरपि । अश्रान्तमेव नोसोभि-रुतिरत्र | माणाया निग्रन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमान पकः शुषेषु, यभिर्मलम्॥१॥" उत्त०२० । अपत्यार्थ मन्त्रौषधीभिः संस्कृ द्वितीयः अन्तिमे तृतीयः शेषेषु चतुर्थः सर्वेषु पञ्चम इति वि. तजलैर्मूलादिस्नाने, गेगमुक्तस्नाने च । उत्त०१५ अ०। (ग्ला- क्क्षया भेद एषामिति । छुविः-शरीरं तदभावात्काययोगनिनस्य स्नान गिलाण'शब्दे तृमीयभाग ८८८ पृष्ठे गतम् ।) रोधे सति अच्छविभवंति अव्ययको वा १, निरतिचारत्वादा सप्तस्मामामि. वौकिकैः पुनरिवं-समधोकम् । वाह- शवलः २, तपितकमत्यादकांश इति ३ तृतीयः । शानान्तरे। "सप्त स्नानानि प्रोकानि. स्वयमेव स्वयंभुवा।
णासंपृक्तत्वात्संशुवमानशनधर: पूजाईत्यादईन् नास्थ रहा- . द्रव्यभावविशुद्धयर्थ-मृषीणां ब्रह्मचारिणाम् ॥ १॥ रहस्यमस्तीत्या का जितकषायस्वात् निमः,केवल परिपूर्ण
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(०२०) सिणाय अभिधानराजेन्द्रः।
सिरहाय ज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवलीति चतुर्थः । निक्रियत्वात् शमित दर्शनः शमितं-ध्वस्तं दर्शन-मिथ्यादर्शनं येन स रुकलयोगनिरोधे अपरिश्रावीति पञ्चमः ५। क्यचित्पुनः- शमितदर्शनः । अथवा-सम्यकप्रकारेण इतं-प्राप्तं दर्शनं सअर्हन जिन इति पञ्चमः। स्था०५ ठा०३ उ० भ०। प्रव। पं० म्यक्त्वं येन स समितदर्शनः एतादृशः संयमी एतदर्थ-पूर्वो भा०'सिणाए ण' मित्यादौ 'नो उपसंतवेयए होजा वीण- कमर्थम् अशरणादिकं 'संपहाए'-स्वपक्षया-स्वबुद्धया 'ग धेयए होज' सि-क्षपकरायामेव स्नातकस्वभावादिति । से' इति-पश्यत् हृदि अवधारयेत् च-पुनः गहि गृद्धि रस. भ० १२ श०५ उ० । “ सुहमाणजलविसुद्ध , कम्ममला- लाम्पटय-पनः स्नेहं पुत्रकलत्रादिषु राग छिन्द्यात् । पुनः विक्खया सिगाउ त्ति । दुविहो य सो सजोगी, तहा अजोगी पूर्वसंस्तवः-पूर्वपरिचयः एकया प्रामादिवासस्तं न स्मरेत् । विणिहिटो ॥१४॥" ध०र०३ अधि० ७ लक्ष । तथा- उत्त०६अ। विधभार्यादेशवशवर्तित्वन स्वनामख्याते पुरुष, पिं०। ('मा
नमिऊर्णऽरहताणं, सिद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं । नपिंड' शब्दे षष्ठे भागे अस्य कथा कथिता।)
सयणसिणेहविमुक्का-ण सव्वसाहण भावेणीनि०चू०१उ। सिणायग-स्नातक-पुं०। स्नाते, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् । हा०२ अट । जिनगृहे स्नपनं स्नात्रं तदपि प्रत्ययं पर्वसु
“रवापयः किसलयानि च सम्लकीनां, विन्ध्योपकगठविया, करणाशक्तेनापि प्रतिवर्षमकैकं साडम्बरसमग्रसामग्रीमे
पिनं स्वकुलं च हित्वा । किं ताम्यसि द्विप! गतोऽसि लमादिपूर्व कार्यम् । स्था० ४ ठा० १ उ० । ध० । पर्वसु
। घश करिगयाः, स्नेहो नियन्धनमनर्थपरंपरायाः" ॥१॥ सूत्र जिनगृहे सपनं कार्यम् । देवस्मातको देवश्रेष्ठः । सूत्र०२ श्रु० १ ध्रु०२ ०.२ उ० । प्रा० २० । बोधिसत्ये, सूत्र.२१०६अघातिकर्ममलक्षाल- सिणेहकाय-स्नेहकाय-पुंछा अप्कायविशेष, भ०१ श०६ उ० मायाप्तशुयज्ञानस्वरूपे निग्रंथभेदे, स्था०५ ठा०३ उ० । सियोजभवसाग-सोहाध्यवसान-नबहइत्यध्यवसानोंपदकर्मभिरतेषु वेदाध्यापकेषु शौचाचारपरतया नित्यं स्ना
दे, प्रा० क० ४ । यिषु ब्रह्मचारिषु, "सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयर णितिए माहणाणं ॥२६॥" सूत्र०२०७ १०। (अत्र दूषणम्
सिणेहद-स्नेहा-ना अभिष्यकेनादें जीवभेदे, सूत्र०२० 'भगकुमार' शब्दं प्रथमभागे ५५५ पृष्ठे उक्तम् ।.) पर्वसु त्रिपञ्चसप्तकुसुमाअलिप्रक्षेपादिपूर्वे भगवतः स्नपने, ध.२ सिणेहपयवञ्जिय-स्नेहपयोवर्जित-न० । स्नेहेन कृतादिना - अधि० । ( सविस्तरपूजायसरे च नित्ये विशेषतश्च पर्वसु यसा क्षीरेण वर्जितं भक्तम् । घृतपयोवर्जिते भक्ने, ओघ०। त्रिपक्षसप्तकुसुमाञ्जलिप्रक्षेपादिपूर्व भगवतः स्नानं विधेयमि ति'चेझ्य' शब्दे तृतीयभागे १२८७ पृष्ठे गतम्।)
सिणेहपरूवणा-स्नेहप्ररूपणा--स्त्री० । कर्मपुद्गलानां संबन्ध
जनकस्नेहप्ररूपणायाम् , पं० सं०५ द्वार। सिणिद्ध-स्निग्ध-त्रि० । आर्द्र, भाचा०२ ध्रु०२ चू०१० १ उ० । स्था० । घने, और। अरूक्षे, शा० १.श्रु. ६०।शु
सिणेहपाण-स्नेहपान-न० । व्यविशेषपक्कघृतादिपाने भैषभकान्ती, राम।
ज्यविषये, शा० १ श्रु० १३ अ०। सिणेह-स्नेह-पुं० । स्वजनादिषुमणि, उत्त०१०। सू
सिणेहराग-स्नेहराग-पुं० सिणेहरागो नाम यो यस्मिन् वि. पास्निग्धभावे, सूत्र०२ श्रु०३ असा स्था। "छदणे भेद
पये मूछितस्तस्य तद्विषयमूर्छायाम् , श्रा० ० १ ०। ण चव, घंसण पासणे तहा। अभिघाते सिणह य , कार
(अनोदाहरण, राग' शब्दे षष्ठे भागे समुपदर्शितम् ।) खारत्ति याबरे ॥१॥" नि० चू०१ उ०। तैलघृतादौ, स्था०१० सिणेहविगइ-स्नेहविकृति-स्त्री० । स्नेहरूपासु विकृतिषु, ठा०३ उ.। मात्रादिसंबन्धहेती, औ०। जले, कल्प०३ - स्था०४ ठा०१ उ०। धिक्षण । रागस्नेहयोः कः प्रतिविशेष-इत्यच्यते. रू- सिणेहसहम--स्नेहसूक्ष्म-न० अवश्यायहिममिहिकाकरकहपाद्याक्षपजनितः प्रीतिविशषी रागः, सामान्यतस्त्वपत्यादि- रतनुरूपे सूक्ष्मभेद, स्था०८ ठा० ३ उ० । गोचरः स्नेहः । आव०१ श्रा
से किं तं सिणेहसुहमे२पंचविहे परमत्ते,तं जहा-उस्सामाया पिया एहुसा भाया, भजा पुत्ता य मोरसा ।
हिमए मिहिया करए हरतणुए जे छउमत्थेणं जाव पडिनालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥३॥
लेहियब्वे भवइ से तं सिणेहसुहुमे । (मू०४५४ ) पण्डितः इति विचारयेदिति अध्याहारः कर्त्तव्यः इतीति, किम् पते मम त्राणाय-मम रक्षायै न अलं-न समर्थाः ।
कम्प०३ अधिक क्षण | दश। कथंभूतस्य मम, स्वकर्मणा पीड्यमानस्य । एते के माता पि- सिणेहाययन-स्नेहायतन--न । जलाऽऽवाहनस्थाने, कल्प तास्नुसा-पुत्रवधू भ्राता-सहोदरः भार्या-पत्नी पुत्राः पत्र- ३ अधि०६क्षण । ज्येन मानिताःच-पुनः औरसाः स्वयमुत्पादिताः, पते सर्वेऽ- सिएह--शिश्न-पुं०। "सूक्ष्म-प्रन-हण-स्त्र-ह-ह-दणां राहः " पिस्वकर्मसमुद्भूत दुःखाद् रक्षणाय न समर्थाः भवन्तीत्यर्थः।
॥८।२७॥ति। संयुक्तस्य श्नस्य रहः । पुरुषचिहे, प्रा० । अमट्ठ सपेहाए, पासे सभियदंसणे ।
सिराहाय-स्नानीय-पुं० । स्तानकरणयोग्यजलाधारे , उत्त. छिदे गहि सिणेहं च, न कंखे पुवसंथवं ॥ ४॥ १२ अ० । त्रिः । शुचिभूते, उत्त० १२ अ०।
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सित
सित-सित- त्रि० । बद्धे, नं० ।
मित-मि-म० के
०१ अधि००।
० रा० । उदककुटने कृतसेवने, औ० । जी० । मिति - सिति-पुं० । ऊर्ध्वमधो वा गच्छतः सुलोत्सारावतारहेश्री दिपधि०१०३० ( भसपणारा शब्दे पशुमत्यपितरो मतः । )
( ८२१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सित्थ--सिक्थ-न० | 'क-ग-ट-उ-ल-द-स-ना-पस-पासू लुक् ॥८२॥७७॥ एषां संयुक्तवर्ण संबन्धिनामूर्ध्व स्थितानां लुपति । प्रिक्थं सिद्धं । कसे, प्रा० । ग० । श्रा० म० । अनु० । प्रश्न० विषा मधुपदार्थे, नील्पाम पुलाक्रे, ग्रासे च । पुं० | बाच० |
"सिद्ध-सिद्ध० बेन गुसेन निष्पक्षाः परिनिष्ठिताः सिद्वौदनन्नद्; म पुनः साधनीया इत्यर्थः । ध० २ अधि० ।
कल्पन
एगे सिद्धे | ( सू० ४६+ )
सियति स्म कृतकृत्यो भवेत् सेधयति स्म वा-गच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्रमिति सिद्धः । सितं वा बद्धं कर्म मतं दग्धं यस्य स इति निरुक्तात् सिद्धः । कर्मप्रश्वनिर्मुक्तः, स च को इष्यार्थतया पर्यायार्थतवनन्तपर्याय इति, अथवा - सिद्धानामन्तत्वेऽपि तत्सामान्यांदेकत्वम् । श्रथवा - कर्मशिल्पविद्या - मन्त्रयोगागमार्थयात्रादितपःकर्मक्षयभेदेननिकायेऽप्यस्यैकत्वं सिद्धशब्दाभिधेषस्वाम्यादिति कर्मस्य च परिनिर्वानम् to [१०] कर्मना अपगतफलकम चं० प्र० १ पाहु० । दशा० भ० । दश० । छा० अशेष सू० १ ० सूत्र० ९ श्रु० १ ० ४ जु० 1 शुरुप्यानानसनिर्दग्धमुपाजी पा श्रपगत सकलक मोशेन परमसुखिनि एकान्तकृतकृत्ये श्रा० म० २ | कर्मणिमात् कृत ० श्राव०२ श्र० । निर्दग्धानेकभवकर्मेन्धने, ल० | जी० । सूत्र० । सेवा० | पं० सू० । श्रा० चू० । सिद्धा खेत्त लोगस्स निरवसेसां च कम्मपगडी जो खाइ भावलोगो तस्स उत्तमा खीणसम्म ति भणितं होति । प्रा० चू० ४ श्र० । शिवः विशे० ।
।
"
"
श्रथ सिद्धनमस्कारं व्याचिख्यासुराहसिद्धो जो निष्पन्नो, जेण गुणेण स य चोइसविगप्पो । नेथ नामाईओ, श्रीयगसिइओ दब्बे ॥। २०२७ ।।
इह 'सिद्ध' इति कोऽर्थः । उच्यते - 'विध संराखी' 'राध साथ संसिद्धी' 'प्रि शास्त्रे मा च सिध्यति स्म सिद्धो यो येन गुणेन परिनिष्ठितः पुनः साधनीयर्थः स सिद्धः सामान्यतो नामसादिभेदाच्चतुर्दशविधो इयः । तत्र नाम खापनासिद्धी सुगमी द्रव्यसन्त सि यो निष्पन्न श्रोदनः सादिन्दात् पाकोण्डा२०६.
3
यंत अदनान परिनितिधावत्येवम्यत्वात् इति मायार्थः ।
,
शेषामेकादश सिखभेदानाह
कम्मे सियेव विजाए, मंते जोगे य भागमे ।
अथ जचा अभिष्याए, तो कम्मर इस ॥२०२८||
"
"
कर्मसिद्ध शिल्पसिडी विद्यासिद्धः मन्त्रसिद्ध योगसिद्धः आगमसिया अर्थसिद्धः यात्रासिया, अभिप्राया बुद्धिपर्यायस्ततो बुद्धिसिद्धः, तपःसिद्धः, कर्मक्षयसिद्धः । इति निर्युक्तिश्लोकसमासार्थः ।
एतेषां च कर्मादिसिद्धानां स्वरूपप्रतिपादनपराः 'कम्मं जमगाईयो' इत्यादिकान जो तसा लियाधापर्यन्ता एकचत्वारिंशद् गाथाः सकथानकभावार्था मूलावश्यक सेवा इति अथ कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपअतो निरविधिना प्रतिपादया
मिय
दहिकालर जंतु कम्स से सियमडुहा ।
सियं तं ति सिद्धस्य, सिनाह ॥३०२६।। व्याख्या- दाघः संतावापेक्षयाऽनादित्वात् स्थितिबन्धकालो पर तीर्धकालम् मिर्गीस्याजुखना माखिम्याद रज असत
यं भवतीति साम्याद् रजः, सूक्ष्मत्वसाम्याद् वार इति कर्म एव विशेषणम् वीर्घकालं च तद् रजश्चेति दीर्घकालरज'नं तु कम्मं ति' दीर्घकालर जोरूपं यत् कर्म दीर्घकालस्थित रजोरूपं यत् कत्यर्थः तचैवंविधं कर्म, तुशब्दस्य विशेषणार्थवादव भव्यस्य, संबन्धि गृह्यते, नाभव्यस्य तस्य वक्ष्यमाणमात्तत्वायोगात् अथवा भव्यसंबन्धित्यहि कर्मणो ध्यातत्वसामर्थ्यादेव लभ्यते । यच्छन्दोऽपि साचादुपाकर्मणि तथाविधं साफल्यमनुपतिकमंइत्येतदन्यथा व्यापायते
"
9
अर्जीवस्तस्य कर्मक इ-बद्धं यत्कर्मेत्यर्थः कथंभूतं यत्कर्म जन्तुकर्म का इत्याह--' से सियमह ' त्ति अनावरणाद्यष्टप्रकारैः पूर्व' से ' तस्य सितं बद्धमित्यर्थः । अथवा ' से सियं ' ति धनाभोमनितियथाप्रवृत्त करणेन सम्यग्ज्ञानापायत मे
पितं शेषं कृतं स्थिस्यनुमवादिभिरस्पी कृतमित्यर्थः । तद् दीर्घकालस्थितिकं रजोरूपं भव्यस्य संबन्धि यस्कर्मजन्तुकर्म या पूर्वमभाव तत्कर्म सत् किम् ? इत्याह-- सियं धनं ति सि सितमित्थं ब
•
ध्यानं तीमध्यानानलेन दयं पितं महाग्निना - मलयदस्येति सिद्ध इति निरुक्तिः एवं च कर्मदहनान स्तरं सिद्धस्यैव सतः सिद्धत्वमुपजायते नासिद्धस्य, ने रद्दसु उपयई' इत्यादिनिश्चयनयमताश्रयणादिति । उपजायत इति तदात्मनः स्वाभाविकं सत्यादिकमतदागमेनाविर्भवत्येव न पुनरसदुपजायत इति प्रतिपत्तव्यम्, श्रसतः खरविषाणस्येव जन्मायोगादिति । श्रथवा सिद्धस्य मिद्धत्वं सद्भावरूपमुपजायते नतु प्रदीपकल्पमभावरूपमिति एवं नयम
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मिद्ध
(८२२).
अभिधामराजेन्द्र तान्तरव्यवच्छेदार्थमेतत् । तथा चाहुरेके- दीगो । किं पुनस्तदित्याशङ्कय 'जन्तुकम्म' इत्यस्य व्याख्यानमाहयथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
कम्म ति तुसद्दो, विसेससे पूरणेऽहवा जीवो। दिशं न काश्चिद्विदिशं न काञ्चित् , स्नेह क्षयाकेवलमति शान्तिम् ॥१॥ जीवस्तथा निवृतिमभ्युपेतो, नैवावनि गच्छति
जंतु त्ति तस्स जंतो, कम्मं से जं सियं बद्धं ॥३०३॥ नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद्विदिशं न काश्चि-स्नेहक्षयात्के- यद् दीर्घकालरजोरूपं दीर्घकालरयं वा कमैति । तुशब्दो वलमेति शान्तिम् ॥२॥" इत्यादि एवंविधसिद्धत्वाभ्युपगमे विशेषणे । तेन विशेषता भव्यस्य सम्बन्धि तद गूदीक्षादिप्रयासबैयानिरन्वयक्षणभरमय चाघटमानत्वा- ह्यते । अर्थ मानत्वाम्तावादेव भव्यसम्बन्धित्यं कमदिति । अथवा-दीदकालस्य ' इति पतदन्यथा व्याख्यायते यो लभ्यते. तर्हि पूरयतीति पूरणेः, तुशब्दः पूरणार्थः । रयो वेगश्चेष्टाविशेषः फलमनुभव इत्यनर्थान्तरम् . ततश्च स- अथवा-जीवो जन्तुस्तस्य जन्तोः कर्म जन्तुकत्येवं तानेनानुभूयमानत्वाहीर्घकालो रयोऽनुभो यस्य नहीघ- व्याख्यायते । 'से-सिप' इत्यस्य व्यास्यामाहस' तस्य कालस्यं यद्भव्यकर्म जन्तुकर्म वा तथा 'सासय मिति एत- जीवस्य यत् सितं बद्धं, 'पिम्बन्धने, इत्यस्य धातोनिष्ठादप्यन्यथा व्याख्यायने-लेश्याविशषालषितं यययोगोलक न्तस्य प्रयोगादिति। न्यायाजीधन सह संश्लेषमुपगतम् । अष्टधा सिमित्या
अथ 'सेसियं' इत्यस्यापराण्यापिण्याख्यानान्तराण्याहदि तु तथैवेति नियुक्तिश्लोकसंक्षेपार्थः ।
अहवा सेसियमसियं, गहियं वत्तमइसंसिलिट्रं वा। आह ननु यच्छेषितं भवोपग्राहि चतुर्विध कर्म तद्यदि पर्यन्ते समस्थितिकं भवति तदा समकालमेच क्षपयित्वा
जं वा विसेसियम?-ह ति खयसेसियं वत्ति ॥३०३६॥ मोक्षं गच्छनीत्यर्थादवगम्यते, यदा तु विषमस्थितिकं तद् अथवा-'से' तस्य जीवस्य सर्वमपि कर्म संसारानुवभवति तदा किं करोतीत्याह ?
न्धत्यादसितं; कृष्णमशुभमित्यर्थः। अथवा-यो' अन्तकर्मणि नाऊण वेयणिजं, अइबहुयं आउयं च थोवागं । 'गाहियं वत्तं 'ति-जीवन गृहीतं व्याप्तं व्याप्तिमानीनमिति गंतूण समुग्घायं, खवेइ कम्मं निरवसेसं ॥ ३०३०॥.
सितम् । अथवा-'सेसियं' ति-लेश्याविशेषात् श्लेषित जी
येन श्लेषविशेषमानीतमिति, संश्लिष्ट बाधकं कृतमिति सम्यगपुनविन उत्प्राबल्येन कर्मणां हनन-घातः प्रलयो यस्मिन्प्रयत्नविशेषे असौ समुद्धातः।
संश्लषितम् । 'जं वा विसेसियमट्रह'त्ति अथवा-एकदेशन
समुदायस्य गम्यमानत्वाद् यदएधा विशेषितं व्यवच्छिन्नं तत्स्वरूपमेवाह
तत् शेषितं विशेपितमिहोच्यते । अथवा-क्षयेण क्षपणया दण्डकवाडे मन्थ-न्तरे य साहगया सरीरत्थे।।
क्रमशः शेषितं स्थित्यनुभवादिनाऽल्पीकृतमित्यर्थः । भास.जोगनिरोह, सेलेसी सिजणा चेव ॥ ३०३१॥
अथ सितं ध्यातमस्येति सिद्ध'इति निरुतविधिमुपदनन्यवंभूतः समुद्घातगतानां विशिष्टः कर्मक्षयो भवतीति
र्शयन्नादकोऽत्र हेतुरिति । अत्रोच्यते प्रयत्नविशेषः । किं पुनरत्र निदर्शनमित्यत्राह
नेरुत्तियं सियं धं-तमस्स तवसा मली व लोहस्स । जह उल्ला साडीया, यासु सुक्का विरल्लिया संती। इय सिद्धस्सेयसी, सिद्धत्तं सिज्मणा समए ॥३०३७।। तह कम्मलहुयसमए,वचंति जिणा समुग्घायं ॥३०३२॥ उवजायइ ति ववहा-रदेसणमभावया निसेहो वा। एता अपि तिस्रो नियुक्तिगाथाः ।
पजायंतरविगमे, तप्पञ्जायंतरं सिद्धो ॥ ३०३८ ॥ अथ दोहकालरय' मित्यादेः भाष्यकारो व्याख्यामाह
द्वे अपि गतार्थे । नवरम् 'अभावया निसेहो व' ति-निर्वासंतागो अणाई, दीहो ठिइकाल एव बंधाओ।
णप्रदीपकल्पतदभावरूपं सिद्धत्वमिति यत् कैश्चिदुन्यते. तजीवाणुरंजणाओ,रउत्ति जोगो त्ति सुहमो वा।।३०३३॥ दभिमताया अभावरूपतायाः 'सिद्धत्वमुपजायते' इत्यनेन सो जस्स दीहकालो, कम्मं तं दीहकालरयमुत्तं।
निषेधो वा क्रियते , सिद्धत्वं भावरूपमुपजायते , न पुनः अइदीहकालरंजण-महवा चेट्ठाविससत्थं ।। ३०३४ ॥
पूर्वपर्यायस्प भाव एव भवतीत्यर्थः । 'बंधानु'त्ति-बन्धमाश्रित्य सन्तानतः-सन्तानभावन अ- अथ 'नाऊण वेयणिज्जं' (३०३०) इत्यादिगाथायाः प्रस्तानादित्याहीर्घः स्थितेः कालो यस्य तद्दीर्घकालं जीवस्यानु- वनार्थमाहरञ्जनात्-मालिन्यापादनाद्रजः, अथवा-'जोगो' त्ति
कम्मचउकं कमसो, समंति खयमेइ तस्स भणियम्मि । स्नेहन बन्धनयोग्यो भवतीति साम्यद्रिजः । अथथा- सुहुमो ' ति सूक्ष्मत्वसाम्यद्रिजःकर्म भरायते
समयं ति कए भासइ, कत्तो तुल्लट्ठिई नियमो?।३०३६। सो जस्स ' इत्यादिना समासः , स च विहित एव । भवोपग्राहिकर्मचतुण्यं तस्य मुमुक्षामोक्षगमनसमये क्रमकिमुक्तं भवतीत्याह-'अइदीह'त्यादि अतिदीर्घकालं जीवस्य । शः क्षयमेति , समकं वा युगपदिति कथ्यताम् ? । एवं र अन-मालिन्यापादने रज इति । अथवा--रय इत्येतत्पदं भणिते परेण पृऐ सूरिराह- समयंति ' त्ति-समकं-युगचाविशेषार्थ, ततश्च दीर्धकालो रयो वेगश्चाविशेषो जीवे- पत् तस्य तत् कर्मचतुष्क क्षयमेति न तु क्रमशः इति । भयो यस्य तद्दीर्घकालस्यमित्यर्थः ।
एवं च सूरिणात्तरें कृते पुनरपि भाषते पर:-कुतः कर्म
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सिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सिन्द বন্ধ সিলিম, বিঘমলিয়ন ঘিম- তুমু যি ৰক্স কমমম্বা ল ম 'যােনি स्थितिकत्वस्यैव युज्यमानन्यात् इति ।
प्रागुक्तमेव । तेदेवमेतावता 'नाऊण बेयणिज' स्यादिअथ विषमस्थितिकमपि समर्क क्षपयति । तदयुक्तम् । कु
नियुक्तिगाथा व्याख्यातेति । तः? इत्याह
अथ परप्रेर्यमाशङ्कय परिहरनाह
असमढिईण नियमो , को थोवं भाउयं न सेसं नि । कह व अपुनदिइयं, खवेउ कत्तो व तस्समीकरणं ।
परिणामसभावाभो, अधुवबंधो व्व तस्सेव ।।३०४५।। कयनामाइभयाउ, तो तस्स कमक्खो जुत्तो।३०४०॥
"असमस्थितिकानां कर्मणां स्तोकमायुरेव . म शं वेदकथं वा स मुमुक्षुरपूर्णस्थितिकमायुष्कापेक्षया दीर्घस्थि
नीयादिकम् ' इति कोऽयं नियम... येनोच्यते-नाऊम्प तिक वेदीय-नाम-गोत्रकर्मत्रये इस्वस्थितिकायुष्कानु
वेयणिजं प्राइवहुयं पाउग च धोवाग' इति । इनर्माण करोधन पियतु-हस्वीकरोतु, कृतनाशप्रसङ्गात् ? । कृममाश
स्माद् नोच्यते-'नाऊण श्राउयं खलु अइबहुयं यावयं न चैवमेवाधिकस्य खगडयित्वा नाशनात् । अथायुषकं वृद्धि
वेयणियं' इति । अत्रोच्यते-बन्धपरिणामस्वाभाम्यान . मुंगभीय घेदनीयादिभिः सह समस्थितिकं कृत्वा समकमे
एवंभूतो घायुषः कोऽपि बन्धपरिणामो वर्नते, येन पयंचक्षपयतीत्याशङ्कयाह- कत्ती ये 'त्यादि कुतो वायुष्क
से वेदनीयायपेक्षया समं स्तोकं वा भवति, नत्यधिकळमस्य बेदी यादिभिः सह समीकरण-समस्थिनिकेत्यापाद
ति । अत्र दृष्टान्तमाह-यथा बन्धपरिणामस्वाभाव्यादध्रुवनम् , अकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । तत्प्रसङ्गश्च स्वस्यायुषो
बन्धस्तस्यौवायुषो भवति , अन्तर्मुहर्तमात्रबन्धकालन्यान् . दीर्घत्वापादनात् । ततस्तस्य मुमुक्षाइँदनीयादिकर्मणां कर्म
न तु वेदनीयाः तस्य धूवबन्धित्वात् , पवमत्रापि स्तोकक्षय एव युक्तः प्रथममायुषस्ततः शेषाणामिति ।
त्वमायुष एव , न तु वेदनीयादेगिते। अत्र गुरुरुत्तरमाह
पाह-ननु समुदातगता जातुर्वदनीयादिकर्मणः किं कराभस्मइ कम्मखयम्मी, जयाउमाईऍ तस्स निद्वेजा। ति ? इत्याहतो कहमत्थउ सभवे,सिज्झउ व कहं सकम्मंसो १।३०४१॥ विसमस करेइ समं, समोहो बंधणेहि ठिइए य । भएयतेऽत्रोत्तरम्-कर्मक्षये मुक्तिगमनसमयवर्तिनि कर्मक्ष
कम्मद्दव्याई बं-धणाई कालो ठिई तेसि ॥३०४६।। यकाल , पाठान्तरतः फर्मक्षये वा यद्यायुगदावव तस्य निस्तिष्ठत्-निष्ठां यायात् , क्षीयेतेत्यर्थः, शेषाणि तु क्रमशः
स समवहतः केवलिसमुद्धानगतो जीव आयुष्कालधिपश्चात् , ततः कथमसौं क्षीणायुकः शेषकर्मक्षपणार्थं भवे
कत्वेन विषम वेदनीयादिकर्मत्रयमपवर्तमानः स्वम् यिन्या
श्रायुकेण समं करोति । कैः कन्या समं करोति ? इत्यातिष्ठतु, तदवस्थाननिबन्धनस्यायुषकस्याभावात् ? । अथ तदभावात् सिध्यत्वमी, किं निवार्यते ? । तदयुक्तम् ,यत श्रा
ह--बध्यते जीवो येस्तानि बन्धनानि तैर्बन्धनैः कर्मदयुषि क्षीण ऽपि सहवेदनीयादिकोशैर्वर्तते इति सकर्मीशः
व्यैः , स्थित्या च काललक्षणया । अत एवाह-कर्मद्रव्याग्णि कथं सिभ्यतु, 'सकलकर्मक्षयादेव मोक्षः' इति वचनात् ?
बन्धनानि भरायन्ते, कालस्तु स्थितिस्तेषां घेदनीयादीनाइति।
मिति । समीकुर्व श्वैतशिष्टदलिकनिपकणान्तर्मुहूनास्थीत__ तर्हि किमत्र युक्तम् ? इत्याह
कं सर्व करोति। तम्हा तुल्लट्ठिइयं, कम्मचउकं सभावो जस्म ।
कथम् ? इत्याह-- सोअकयसमुग्घाओ, सिम्झइ जुगवं खवेऊणं॥३०४२॥ प्राउयसमयसमाए, गुणसढीऍ तदसेखगुणियाए । जस्स पुण थोवमाउं, हवेज सेसं तयं च बहुतरयं । । पुव्वरइयं खबहिइ, जह सेलेसीऍ पइसमयं ।।३०४७॥ तं तेण समीकुरुए-गंतूण जिणो सग्यायं ।। ३०४३ ॥
वेद्यमानस्यायुषो यावन्तःसमयाः शषा अवतिष्ठन्ते तत्सम
यसमानयाऽन्तर्मुहर्तप्रमाणयेत्यर्थः, दलिकमाश्रित्यासंख्येय - अपि सुगमे । नवरं तेण 'ति-तत् शेषकर्मत्रिकमप
गुणया प्रथमसमयनिधिक्कदालिकाद् द्वितीयसमयनिषितमम यननातः खण्डयित्वा तेनायुष्कण समं कुरुत इति ।
ख्येयगुणम् ,ततोऽपि तृतीयसमयनिपिनमसण्ययगुणम् ए नन्येवं कृतनाशादिदोष उक्रः स कथं परिहर्तव्यः ? इत्याह
यं यायश्चरेमसमयनिषिक्रमसंख्येयगुणमितिः एवमर्मस्पेय - कपनामाइविधाओ, को पुरा जह य नाण किरियाहिं।।
मुणया स्थानान्तरप्रसिद्धया गुयाश्रेण्या तद् वेदनीयानिक कम्मस्स कीरइ खोन चेदमोक्खादो दोसा।३०।। त्रयं केवलशानाभोगेनाकलय्य तथा रचयति यथाऽनन्त रोक कृतनाशादिदोषाणां विघातः-परिहारः कृताऽस्माभिःन प्रकारेण पूर्वरचितं तदेतत् शैलश्यां प्रतिसमयं क्षपयंश्वरक? पुरा-पूर्वमुपक्रमकालविचारे, "न हि दोहकालियर मसमये सर्वमसौ क्षपयिष्यति । अत्र गुण घि, नासो तस्साणुभूइश्री खिप्पं । बहुकालाहारस्स: थ्रगिस्थापना आयुषस्तु गुणणिनं भवनि, दुयमग्गियरोगिणो भोगी ॥१॥" इत्यादिना ग्रन्थेगा । यथा । किन्तु यथावद्धमेव तद् वेद्यते । अतस्तस्यै-
- च शान-क्रियाभ्यां चिरकालस्थितिकस्यापि कर्मणः क्षि- ना-'जह उल्ला साडीया' इत्यादिगाथायाः- पूर्वाधमप्रमेव क्षयः क्रियत, तथा प्रापि 'सज्ममुवकामिजा, ए
गमत्वाद् न व्याख्यानम् । उत्तरार्ध तु यदुक्तम्-तह कम्नतो चिय सज्झरोगी व्व।' इत्यादिनाऽनेकशः प्रोक्तम् । न
लहुयसमए'ति तत्र कर्मलघुनायाः समयः कः इत्यचेदपक्रम इयत, तमोक्षादयो दोषा इत्यपि जाता- कम्मलहुयाएँ समो, भिन्नमहत्तावसेसमो कालो।
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सिद्ध
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(१४) मित्र
अभिधामराजेन्द्रः। बो जहअमेय, छमासमुक्कोसमिच्छति ॥ ३०४८ ॥ व पण्ड पूर्वापरविग्रहयप्रसारणादुभयपाध्यतो लोकारतकर्मण प्रायुषी लघुतायाः समयोऽत्र भित्रमुहविशेषकालो गामिनं कपाटमिव कपारं करोति । तृतीयसमये तुमजधन्यतः, उत्कृष्तश्चान्तमहनीवशेष निजमायुर्विज्ञाय सक्ष
व कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्खयप्रसारणेन मन्थसहशत्वाल्लोकाधिक वेदनीयादिकर्मस्थितिविधाता; केधली समुद्धातमार
स्तप्राप्तमेव मन्थानं करोति । एवं च लोकस्य प्रायो बहुअंत त्वः, अभ्ये तु सूरय एनं भिन्नमहर्मलक्षणे अघम्यमेव
पूरितं भवति मन्थान्तराणि त्वप्रिनानि तिष्ठन्ति , जीवकाल मन्यम्ने.सत्कृसुषमासानिलम्ति--जघन्यतोऽन्त
पुद्रलयोरमणिगमनात् । ततश्चतुर्थसमये तान्यपि मन्धा
तराणि सह निष्कुटैः पूरयति ततश्च सकललोकः परितो महानशवायुष्क उत्कपतस्तु परमासावशेषायुः समुदातं क
भयतीति । 'साहारणा' इत्यादेास्यामाह-'पडिलोम मिरोनीति केचिद् मन्यन्त इत्यर्थः ।
न्यादि, इदमत्रदयम्-लोकपूरणानन्तरमेव पचमे समये यतदेनमभ्यमतमयुक्तमिति दर्शयत्राह--
थोक्नक्रमात् प्रतिलोम मन्थान्तराणि संहरति , जीवप्रदेशासे नाणम्तरसेले-सिवयणी जंच पाडिहराण । न सकर्मकान् सङ्कोचति, षष्ठ समये मन्धानमुपसंहरतिपञ्चप्पणमेव मुए,इहरा गहणं पि होजाहि ॥३०४६।। घनतरसकोचात् । सप्तमसमये तु कपाटमुपसंहरति, दण्डा
स्मनि सक्कोचात् अपमे तु समये दराडमप्युपसंहत्य शसंदेसदस्यमतं न युक्तम् ,भागमविरोधात् । प्तद्विरोधश्च स
रीरस्थ एव भवतीति ।। महानानन्तरं तत्र शैलशीप्रनिपत्तिवचनात्, शलेश्यनन्तरं
माह-ननु समुदातगतस्य मनो-वाक-काययोगेषु मध्ये चसिद्धिगमनात् कमः षण्मासविशेषायुकत्वम् । पानम्त
को योगः कस्मिन् समये व्याप्रियते ? इत्याशङ्कथाहपभिरपि मासैर्विवक्षया घटत पवति चेत् ? इस्याशङ्कया ह-ज च' त्यादि. यस्माश समुद्धाताद निवृत्य शरीरस्थ- न किर समुग्धायगो, मणवइजोगप्पोषणं कुणइ । स्य प्रातिहारक-पीठफलकादीनां "कायजोगं जुजमाणे
ओरालियजोगं पुण, जुजइ पदमट्ठमे समए ॥३०५४॥ प्रागच्छेजा वा, चिट्टेजा वा, निसीएजा वा, अनुघट्टिखा
उभयच्चावाराओ, तम्मीसवीय छ? सत्तमए । धा, उलंघन्जा वा, पाडिहारियं, पीढफलगं , संथारगं , पपिहिणिज, ति प्रथापनासूत्ररूपे धृते प्रत्यप
ति चउत्थ पंचमेक-म्मयं तु तम्मत्तचेट्ठाओ ॥३०५५।। मैमोक्तम् । इतरथा गगमासावशेषायुष्कत्वेन चिजीवित्वे किलशब्द प्राप्ताको इह समुद्धातगतः केवली मनोवामेयां ग्रहणमपि स्यात्, न च तत्रोत्रम् । तस्मानम्तर्मुहर्ताव- ग्योगयोः प्रयोजनं व्यापारणं तावद् न करोत्येव , प्रयोशपायुरेव समुदातं करोतीति।
जनाभावात् । औदारिककाययोग पुनः प्रथमाष्टमसमयोर्युश्रय समुदातशब्दार्थ समुहातारम्भात् पूर्वव्यापारनिरूप
नक्ति-व्यापारयति , दण्डकरणादिक्रियायां तत्प्रयत्नविसाचा:
धानात् । द्वितीयषष्ठसप्तमसमयषु तु तन्मिश्रम्-श्रीदारि
कंकामपन मिश्रे व्यापारयति, उभयप्रयत्नसद्भावात्। तृतत्थाउयसेसाहिय-कम्मसमुग्घायर्ण समुग्धाओ।
तीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु पुनः 'कम्मय' ति-कार्मणकाययोतं गतमणो पुत्र, आवजीकरण मज्मेइ ॥३०५०॥ गमेव व्यापारयति तन्मात्रचे नादिति । भावजणमुवओगो, वाचारो वा तदत्थमाईस ।
समुद्धाताद् निवन्तः किमसौ करोति इत्याहअंतोमुहुत्तमेतं, काउं कुरुप समुग्घायं ॥३०५१।। विणिवचसपुग्धाम्रो, विधि विजोए जिगार पाउंजेछ। तयुशवाणामधिकस्थितिकानां वेदनीयादिकर्मा समु- सच्चमसच्चामोसं, च सो मणं तह बईजोगं ।। ३०५६॥ द्वातनं समुद्धानः । तं च गन्तुमनाः--प्रारिपुः पूर्वमारी- ओरालियकाओगं, गमखाई पाडिहरियाणं चा। करणमभ्येति--विदधाति । कथंभूतं तत् ? इति । उच्यते--
पञ्चष्पणं करेजा, जोगनिरोहं तयो कुरुए ॥३०५७ ।। तदर्थ समुद्धातकरणार्थमादौ कवलिन उपयोगो 'मयाऽधुनेदं कर्तव्यम्'इत्येवंरूपः उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपा ब्या
इह समुहातगतस्तावद् न कोऽपि सिध्यति, निवृत्तसमपागवाजवर्जनमुच्यते । तथाभूतस्य करणमाब करमत
द्वातोऽन्ततं भव पब केवली तिष्ठति । सत्र च तिम्दन्त, मात्र कालं कृत्वा ततः समुद्धातं कुरुत इति ।
प्रसी मनो-वाक-कायलक्षणांस्त्रीनपि योगान् प्रयुञ्जीत ।
सत्र मनोयोग , वाग्योगं च सत्यमसत्यामपंच प्रयुक्त, कथंभूत तदित्याशक्य दंडकबाडे' इत्यादिगा व्याचि
असत्य-मिश्रयोस्तस्यासम्भवात् । काययोग वौदारिक क्यासुराह--
प्रयुजानो गमनागमनादिकं प्रत्यावरणीयगृहीतपीठफलकाउडाहाययलोगं-तगामिणं सो सदेहविक्खमं । दिप्रत्यर्पण वा कुर्यात् , तत पतेषां योगानां निरोध करोपढमसयम्मि दंडं,करेइ बिइयंम्मि य कवाडं । ३०५२॥ तीति। सहयसमयम्मि मंथं, चउत्थए लोगपूरणं कुणइ ।
अथ परप्रश्नमाशङ्कयोत्तरमाहपडिलोमं साहरणं, काउं तो होइ देहत्थो ॥३०५३॥
किन सजोगी सिज्झइ, सबंधहेउ त्ति जं सजोगो य । ऊर्चमधश्चायन दीर्थमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं स्वदे
न समेइ परमसुकं, स निराकारणं झाणं ।। ३.५८ ॥ हप्रमाविष्कम्भं केवली केवलशानाभोगतः प्रथमसमये ननु किमिति योगनिरोधं करोति, सयोना पचासौ किं जीव दशसंघातात्मकं दण्डं करोति । द्वितीयसमये तु तमे-। नसिध्यति? इति परेण प्रए सत्याह-यस्मात् स विधि
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सिद्ध
सिद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। धोऽपि योगः कर्मणो बन्धहेतुः, कर्म सम्बन्धश्च संसारनिब- णम्मि' इत्यादिवचनात् त्रिविधेऽपि मनोवाक्कायलक्षणे कमधममेव , इति कथं सयोगः सिध्यति ?। किञ्च-पर्यन्ते | रणे समय सिद्धान्ते ध्यान भणितमेव । ततो मनोविशेष एव सकलकर्मनिर्जरायाः परमशुक्लध्यानमेव कारणम् , तच्च स- ध्यानमित्यनैकान्तिकम्, वाकायव्यापारेऽपि ध्यानस्योकयोगः सन् जन्तुर्न समेति न प्राप्नोति , सयोगस्य सक्रि- त्वादिति भावः। यत्वात् , परमशुक्लध्यानस्य च समुद्धाताशेषप्रियारूपन्चात्
यतः परिभाषाइति कुतः सयोगः सिध्यतीति? | तस्माद योगनिरोधः
सुदपयसवावा-रणं निरोहो व विजमाणाण । कर्तव्यः । कथं पुनस्तं करोति ? इत्याह
झालं करणाणमयं, न उ चित्तनिरोहमित्तागं ||३०७१।।
यतश्च मनोवाकायलक्षणानां करगणानां सुद्धप्रयखेन व्यापजत्तमित्तसन्नि-स्स जत्तियाई जहनजोगिस्स ।
पारणम् , विद्यमानानां पूर्वोतक्रमेण निरोधो वा ध्यानं भगहोति मणोदच्चाई, तम्बावारो य जम्मत्तो ।।३०५६॥ । वतां मतम् , न पुनश्चित्तनिरोधमात्रकम्, ध्यधातोरनेका. तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो।। र्थत्वात् करणनिरोधार्थेऽपि वर्तनादिति । मणसो सम्बनिरोई, करे असंखजसमएहिं ।। ३०६०॥ पज्जत्तमेतविदिय, जहन्नवइजोगपज्जया जेउ ।
होजन मणोमयं वा-इयं च झाणं जिणस्स तदभावे । तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो।।६०६१॥ कायनिरोहपयत्त-स्स भावमिह को मिवारेइ ॥३०७२।। सब्बवइजोगरोह,संखाईएहिं कुणइ समएहिं ।
तदभावे मनसोभावे केथलिनो मनोमयं मनोविशेषरूपम, ततो य सुहुमपणय-स्स पढमसमोववनस्स ॥६०६२॥ तथा मनःपूर्वकत्वाद् विशिष्टवचसो चाचिकं च ध्यान न जो किर जहनजोगो, तदसंखेजगुणहीणमेकेके ।
भवेत् , तद् मा भूत् , यत् पुनः कायनिरोधप्रयास्वभावं
ध्यानमिह , तत् तस्य को निवारयते-न कोऽपीति । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचती ॥ ३०६३ ।।
अपि चरंभइ सकायजोगं, संखाईएहि चेव समएहिं ।
जइ छउमत्थस्स मणो, निरोहमेत्तप्पयचयं झाणं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावयामेइ ।। ३०६४॥
कहकायजोगरोह-प्पयत्तयं होइ न जिणस्स ॥३०७३।। पाठसिद्धा एव । विशे।
प्रकटार्था। शैलेशीकालप्रमाणमाह
पुनरपि परः प्राहहस्सक्खराई मज्झे-ण जेण कालेण पंच भमंति।
आहाभावे मणसो, छउमथसेव तं न झाणं से। अस्थइ सेलेसिगओ, तत्तियमे तो कालं ॥३०६८।।
अह तदभावे वि मयं,झाणं तं किंन सुत्तस्स ॥३०७४॥ नातिशीघेर्न चाप्यतिस्थिरैः, किन्तु-मध्यमभञ्या यायता
प्राह पर:-मनसोऽमावे' से' तस्य केचलिनश्वस्थस्यैकालेन'श्रदउ ऋ लूइत्येतानि पञ्च हस्ताक्षराणि भण्यन्ते
केन्द्रियादेरिव तत् सूक्ष्मक्रियानिवृत्त्यादिकं ध्यान न घटपतावन्तं काल शैलेशीगतस्तकोऽसौ तिष्ठतीति ।
ते। अथ तदभावेऽपि मतं ध्यानम , ततः सुप्तस्य तत् किं किं पुनस्तत्र ध्यानं ध्यायति ? हत्याह
नेष्यते , मनोऽसत्त्वस्य तुल्यत्वात् ! इति । तणुरोहारंभाप्रो, झायइ सुहमकिरियानियट्टि सो।।
पर एवाचार्यमतमाशङ्क्याह-- वृच्छिन्नकिरियमप्पडि-वाइं सेलेसिकालम्मि ॥३०६६।। अहव मई सुत्तस्स हि,न कायरोहप्पयत्तसम्भावी। ननाः काययोगस्य निरोधारम्भसमयात्प्रभृति सूक्ष्मक्रिया- एवं चित्ताभावे, कत्तो य तो जिणस्सावि १३०७५॥ निवृत्तिरूपं शक्तध्यानमसी ध्यायति ततः सर्वयोगनिरोधा
होज्ज व किंचिम्मेतं,चित्तं सुत्तस्स सचहा न जिसे । दृश्य शलेशीकाले समुच्छिचक्रियमप्रतिपाति शुकभ्यानं ध्यायतीति।
जइ सुत्तस्स न झाणं,जिणस्स तं दृरयरएणं ॥३०७६।। अत्र प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाह
अथवा , आचार्यस्य मतिः-सुप्तस्य स्फुटमेव ज्ञायते न
कायनिरोधप्रयत्नसद्भावः, किन्तु तदभाव एव , तत् कुतमाणं मणोविसेसो, तदभावे तस्स संभवो कत्तो।
स्तस्य ध्यानम् !, जिने त्वस्त्यसाविति तस्य ध्यानं भवभामइ भणियं झाणं,समए तिविहे वि करणम्मि।३०७०।
त्येव । अनोच्यते-नम्बेवं तह्यमनस्कत्वाकिसत्ताभावे जिनननु 'ध्यै' चिन्तायाम् , इति वचनाद मनोविशेषो मनसः स्थापि केवलिनः कुतस्तकोऽसौ कायनिरोधप्रयत्मसद्भावः? काऽपि निश्चला चिन्तावस्थैव ध्यानमुच्यते । मनश्व-"अमन- भवेद वाऽद्यापि किञ्चिन्मात्रं चित्तं सुप्तस्यापि , जिने तु स्काः केवलिनः" इति वचनात् तस्य नास्ति । ततस्तदभाव कालिन्यमनस्कत्वात् तत् सर्वथा नास्ति, ततश्च सुप्तस्य मनसोऽसत्त्वे तस्य ध्यानस्य केवलिनः कुतः सम्भवः ।। यदि म ध्यानमिष्यते , तर्हि जिनस्य तद् दूरसरकेण-दअतः 'तनुरोहारंभावो' इत्याद्यघटमानमेवेति । सूरिराह- रतरण नेष्टव्यम् , सर्वथा चित्ताभावेन कायनिरोधप्रयत्नाभएयतेऽत्रोत्तरम्-भंगियसुयं गुणतो वह तिविहे विमा- भावादिति ।
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सिद्ध
सूरि प्रतिविधानमाह
जुचं जं खउमरथस्स करणमेतानुसारिनास्स | तदभावम्मि पयत्ता-भावो न जिणस्स सो जुत्तो । ३०७७/ चमत्थस्त मनोमे-सविडियजत्तस्म जह मयं भागं । कह तं जिणस्स न मयं, केवलविहियप्पयत्तस्स १ । ३०७८ युक्तं रथस्य करणमत्र मनः तम्मात्रानुसारिका नस्य तदभावेावस्थायां मनःकरणाभावे निरोधप्रयत्नाभावः । जिनस्य पुनरसौ न युक्तः, मनोज्ञानाभावेऽ वि केवलशान सद्भावादिति । किञ्च यदि मनोमात्रविहितयनस्य छद्मस्थस्य साध्वादेर्मतं ध्यानम्, तर्हि कथं जिनस्य फेलिनः सकललोकावलोकविलोकन भावलाविहितप्रयत्नस्य तद् ध्यानं नाभिमतम् इति । अपि च
( ८२६ ) अभिधानरजिन्द्रः ।
पुव्वप्ययोग विय, कम्मविअिरगडेउथो वावि । सत्थबहुत्ताओ, तह जियचंदागमाओं व ॥ ३०७६ ॥ चिंता व सपा, हुमोवरय किरिया अमेति । जीवोवोगसम्भावओो महत्थस्स झाणाई ||३०८० ॥ भवस्वस्य केधिताया अमावेऽपि सदा सूक्ष्मक्रियानिवृत्त्युपरतक्रियाप्रतिपातिलक्षणे हे ध्याने भस्येते इति सम्बन्धः हर्ष व प्रतिक्षा देतुमाह-जीयोपयोगखाभायात् तज्जीवोपयोगस्य तस्यामवस्थायामेवंविधस्वभावत्वादित्यर्थ: : तथा पूर्वप्रयोगात् पूर्वविहितध्यानसंस्कारादित्यर्थः । तथा कर्मनिर्जरणहेतुत्वात् ते ध्याने अभिधीयेते छग्रस्थस्पधादिति तथा शब्दस्यार्थानां धातोरनेकार्थत्वादित्यर्थः तथा जिनागमे भणितत्वादिति ।
,
"
पाठसिया एय नयर तदिति वेदनीयादिकर्म जिएनाम ' ति तीर्थकरनाम । हद च तीथकरस्यैव सम्भवति, अतः सम्भवतः इत्युक्तम् । सामान्यकेवली तु शेषा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यादिका द्वादशैव प्रकृतीश्वरमसमये चपयतीति ।
अथ प्रेये परिहारं वाहजइ अमणस्स वि झाणं,
केवलियो कीस तं न सिद्धस्स । भाइ जं न पयत्तो,
तस्स जओ न य निरुद्धव्वं ॥। ३०८१ ॥ यथमनस्कस्यापि केवलिनो ध्यानमिष्यते तर्हि सिस्य किमिति गम्यते भयले त्रसम्पद्यस्मात् तस्य - सिद्धस्य कारणाभावेन प्रयत्नो नास्ति, नत्र योगलक्षणं निरोजव्यमस्ति श्रतः प्रयत्नाभावात् प्रयोजनाभावाच न सिद्धस्य ध्यानमिति ।
भवतु केवलिनी ध्यानम् किन्तु शैलश्यां वर्तमानः किमसौ करोति ? इत्याहतदसंखेअगुणाए, गुणसेटीए र पुराकम्मं । समय समय खवियं, कमसे सेलेसिकाले । ३०८२ ।। सख तं पुरा निवं किमि दुवरिमे समए । किंचिच होइ चरिमे, सेलेसीए य तं वोच्छं ।। ३०८३ ॥ मणुयगइजा इतसत्रा - यरं च पञ्जत्तसुभयमाएअं । अभयरवेयणिअं नराउमुखं जो नामं ।। २०८४ ॥ संभत्र जिणनामं, नराणुपुत्री य चरिमसमयम्मिति
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अन्यदपि तत्र कमी करोति इत्याह-
रालियाहि सव्वा - हि चयइ विप्पजहणहि जं भणियं । निस्सेसतया न जा, देसचाए सो पुष्पं ॥ ३०८६ ।।
अपरं च तदा तस्य किं निवर्तते किं वान इति दर्शयन्नाह
औदारिकतेजसकार्मणशरीरत्रयं सर्वाि
म मियजनाभिपत्य किमु भनि इस्याह भणियमित्यादिशेनदारिकादिशरी रत्रयं तदा त्यजति न तु यथा पूर्व भये भ्राम्यन् संघानंपरिसाठाभ्यां देहत्यागेन स्ववानिति व भवति एतदि
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तात्पर्यमित्यर्थः ।
सिद्ध
1
तस्सोदइयाईया, भव्यत्तं च विवित्तए समयं । सम्मत्तनागदंसण- सुहसिद्धत्ताइँ मोत्तूगं ।। ३०८७ ॥
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6
1
प्रा
तस्य सिद्धिं गच्छत श्रदयिकादयो भावा भव्य चसमकं युगपत् विनिवर्तते । भवा भाविनी सिद्धिर्यस्यासौ हि भव्य उच्यते, न च सा तस्य भाविनी साक्षात्सञ्जानत्वात्, ततोऽसौ न मध्य इति सि ये तो "इति सम्यकत्वादीनि सियावपि भवन्ति, अतस्तनिवृत्तिवर्जनम् । इति पञ्चपञ्चाशद्द्रापार्थः यदारिकादिशरीराणां कथं सर्वधा स्यागः कर्मशरीर सन्तानस्यानादित्वात् श्रनादेश्चानन्तत्वात् ? इत्याशङ्कयोत्तरम्, प्रासङ्गिकमन्यदपि बाह- नए सन्तागोड़गाई' इत्यादिद्वाविंशातगाथाः पताका पूर्व यो लिखिता व्याख्याताश्वेति नेति इति । क्रियता कालेन पुनरसौ सिध्यति ? इत्याह-रिउसे पवित्र, समयपए संतरं अममाणो । एगसमएस सिम्झा, अह सागारोवन सो।। ३०८८॥ सुबोधा | नवरं समये ' त्यादि, एकसमयादन्यत् । समयान्तरमस्पृशनवगाढप्रदेशेभ्यो ऽपराकाशप्रदेशात्स्वस्पृशन-. चिन्तया शक्त्या सिद्धिं गच्छतीति भावार्थः । विशे० । श्रा म० उत० | धा० (कथं पुनरसो साकारोपयोग हान 'उवोग' शब्दे द्वितीयभागे ८६९ पृष्ठे उक्तम । ) सिद्धां नाम साधनः यत्कुतः जिनमतः इति कृत्वा सर्वशैरर्थस्य भाषितत्वात् सर्वसम्पात् सिद्धं
."
6
नियमानयर्थः भांतिपुण सिद्धं प्रतिष्ठितं प्ररूढं सर्वकालं सर्वकालिकं नित्यमित्यर्थः । 'जिम' तथाहि दुवाल किना सीन कमाइ नन्थि न कयाइ न भविस्सति । श्रभूत् भवभविस्सह य एवमादि सिद्धं जिणमते भी हत्या मन्त्रणे ।
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सिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्ध पयतो प्रयत्नपरः पुणो वि भत्तिबहभाणतो णमो इत्याह ।। जिझमाए जाय सम्बदुक्खप्पहीणे"। (उत्सपिण्यामपि व अहवा-प्रयतो भूत्वा नमस्करोमि एताश्रो य गंदीओ सदा | प्रथमतीर्थकरो दुषमसुषमायामेकोननवतिपक्षेषु व्यतिमंजमे भवंतु । श्रा० चू० ५ ० ।
कान्तेषु जायते, यतो भगवर्द्धमानस्वामिसिद्धिगमनस्य भ. अनन्तराऽऽदिसिनप्ररूपणा--
विष्यन्महापचतीर्थकरोत्पादस्य चान्तरं चतुरशीतिवर्षसह
स्राणि सप्त वर्षाणि पञ्चच मासाः पठयन्ते) तथा चाहातात सिद्धाः--सत्पदनरूपणा १ द्रव्यप्रमाण २क्षेत्र
कम्-'चुलसीवाससहस्सा. वासा सत्तेव पंच मासा य । ३ सशंमा ४ काला ५ ऽन्तर ६ भावा ७ स्पबहुत्व- वीरमहापउमाणं , अंतरमेयं जिणुद्दिष्टुं ॥ १॥" तत उत्सर्गि८ रूपैरएभिरनुयोगद्वारैः परम्परसिद्धाः सत्पदग्ररूपणा द्र
ण्यामपि प्रथमतीर्थकरो यथोक्नकालमान एव जायते , तथा व्यप्रमाण क्षेत्रस्पर्शनाकालान्तरभावाल्पबहुत्वसनिकरूपैर्न
उत्सपिण्यां चतुर्विशतितमः तीर्थकरः सुषमदुषमायामेचभिरनुयोगद्वारीः क्षेत्रादिषु पञ्चदशसु द्वारेषु सिद्ध
कोननयतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु जन्मासादयति , एकोननप्राभृते चिन्तिताः ततस्तदनुसारेण वयमपि विनेयज
बतिपक्षाधिकचतुरशीतिपूर्वलक्षातिक्रमे च सिध्यति , नत मानुग्रहार्थ लेशतश्चिन्तयामः । क्षेत्रादीनि च पश्चदश द्वारा
उत्सपिण्यामवसर्पिणयां वा दुषमसुषमासुषमदुषमयोरायमूनि--"खेत्ते १काले २ गइ ३ वे-य ४ तिन्थ लिंगे ६
रेव तीर्थकृतां जन्म निर्वाणं चेति २। गतिद्वारे चरित्त बुद्धेय । माणा गाहु १० कस्से ११, अंतर
प्रत्युत्पननयमधिकृत्य मनुष्यगतावेव सिध्यम्तः प्राप्य२२ मणुसमय २३ गणण १४ अप्पबह १५ ॥१॥" तत्र
न्ते , न शेषासु गतिषु । पाश्चात्यमनन्तरं भवमधिकप्रथमत पषुद्वारेषु सत्पदमरूपणया अनन्तरसिमाश्चिमस्य
स्य पुनः सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्य आगताः सिश्यस्ते, क्षेत्रद्वारे त्रिविधेऽपि खोके सिमाः प्राप्यन्ते ,
म्ति, विशेषचिन्तायां पुनश्चतस्भ्यो नरकपृथिवीभ्यो , म सपथा-ऊर्चलोके अधोलोके तिर्यग्लोके च, तत्रोललोके
शेषाभ्यः, तिर्यग्गतेः पृथिव्यम्बुवनस्पतिपञ्चेन्द्रियेभ्यो न पराडकवनादी अधोलोके-अधोलौकिकेषु प्रामेषु तिर्यगलोके मनुष्यक्षेत्रे , तत्रापि निर्व्याघातेन पञ्चदशसु क
शेषेभ्यः, मनुष्यगतेः स्त्रीभ्यः पुरुषेभ्यो वा, देवगतेश्चतुभ्यों
देवनिकायेभ्यः । तथा चाह भगवानार्यश्यामः-"नेराया गं र्मभूमिषु, व्याघातेन समुद्र नदीवर्षधरपर्वतादावपि । व्या
मंते! अणतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतघातो नाम संहरणम् , उक्तं च-"दीवसमुदेहाइ-जापसु बा
किरिश्र करति ?, गोमा !खतरागया वि अंतकिरिश्र पाय खेसो सिद्धा। निम्बाधारण पुणो , पनरससुं कम्म
करेंति परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति , एवं रयणप्पभाभूमीसुं॥१॥" तीर्थकृतः पुनरधोलोके तिर्यग्लोके वा ।
पुढविनेस्यावि० जाव पंकप्पभापुदबिनेराया, धूमपभापुसमाधोलोकेऽधोलौकिकेषु प्रामेषु तिर्यग्लोके पश्चदशसु
दविनेरहयाण पुच्छा, गोयमा! नो अणंतरागया अंकिकर्मभूमिषु न शेषेषु स्थानेषु शेषेषु हि स्थानेषु संहरणतः
रिश्र करेंति , परंपरागया अंतकिरियं करेंति , एवं० जाव संभवन्ति, न च भगवतां संहरणसम्भवः । तथा काले
हे सत्तमपुढविनेराया। असुरकुमारा० जाव थणियकुमाकालद्वारेऽवसर्पिण्या जन्म चरमशरीरिणां नियमतः तृती
रा । पुढविभाउवणस्सहकाइया असंतरागया वि अंतकिरियं यवतु रकयोः, सिद्धिगमनं तु केषाञ्चित् पञ्चमेऽप्यरके
कति परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति, तेउवाउवइंदिययथा जम्बूस्वामिनः, उत्सपिण्यां जन्म घरमशरीरिणां
तेइंदियचउरिदिया नो अणंतरागया अंतकिरियं करेंति दुष्पमादिषु द्वितीयतृतीयचतुर्थारकेष, सिद्धिगमनं तु तृती
परंपरागया-अंतकिरियं करेंति सेसा अरणतरागयायचतुर्थयारेव, उक्नं च-" दोसु वि समासु जाया', सिज्मं
वि अंतकिरियं करेंति परंपरागया वि" सार्थकृतः तोस्सप्पिणी कालतिगे। तीसु य जाया श्रोस-प्पिणी'!
पुनर्देवगतेनरकगते ऽनम्तरागताः सिध्यन्ति, म शेषगसिझति कालदुगे॥१॥" महाविदेहेषु पुनः कालः सर्व
तेः, तत्रापि नरकगतेः निसृभ्यो नरकपृथिवीभ्यो, न शेषदेव सुषमदुषमाप्रतिरूपः, ततस्तद्वक्तव्यताभणनेनैव तत्र
भ्यः, देवगतेबैमानिकदेवनिकायेभ्यो, न शेषनिकायेभ्यः । बकव्यता भणिता द्रष्टव्या, संहरणमधिकृत्य पुनरुत्सपि
तथा चाह भगवानार्यश्यामः-" रयणप्यभापुढविनेरख्या श्यामवसर्पिण्यां च षट्स्वप्यरकेषु सिध्यन्तो द्रष्टव्याः, ती
ण भंते ! रयणप्पभापुढविनेगदएहितो अगतरं उव्यट्टिता थैकृतां पुनरवसविण्यामुत्सपिण्यां च जन्म सिद्धिगमनं
तिथयरतं लभेजा ?. गोयमा ! अन्धेगइए लभेजा. प्रत्येगच सुषमदुष्षमादुरुषमसुषमारूपयोरेवाकारयोर्वेदितव्य, न
इए नो लभेजा, से के राष्ट्रेणं भते! एवं बुन्चा अत्धेगरए शेषेष्वरकेषु । तथाहि-भगवान् ऋषभखामी सुषमदुरुप- लभेजा भरथेगाए नो लभेजा ?, गोत्रमा ! जस्म रयणपमारकपर्यन्ते समुदपादि, एकोननवतिपक्षेषु शेपेषु सिद्धि- भापुढविनेरदयस्स तित्थयरनामगोनाकम्माबजार पुट्टा मगमत् , बर्द्धमानस्वामी तु भगवान् दुषमसुषमारकप- कडा निबद्धाई अभिनिव्वलाई अभिसमन्नागया मानो यन्तेषु एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु मुक्किसौधमध्यमध्यास्त, उपसंताई भवति से गं रयणप्पभापुढविनेरइए रयणप्पभातथा खोक्लम्--"समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई पुढावनेराएहिंतो उठ्यहिता तिस्थयरतं लभेजा, जस्स गं अगारवासमज्मे वसित्ता सारेगाई दुधालस संबछराई छ. रयणप्पमापुढाधनेगरयस्स तित्थयरनामगोत्सा कम्माई नो उमस्थपरियागं पाउखित्ता बायालीसं बासा सामनपरिया. बजाई जाव नो मा उपसंताई भवति से ण रयणपहागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाणि सव्वाउयं पालइत्ता खीण पुढविनेगर ग्यणप्पभापुढपिनेसपाहिनो उब्वहिता तिस्थबेयणिजमाउयनामगोए दूसमसुसमाए बहुविताए यरतं मोलभेजा, से एएणडेणं गोयमा! एवं दुरुचा-प्रतिहिं वासेहिं अवनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं पाषाए म- त्थेगइए लभेजा अत्थंगइए नो लभेजा। एवं जाव बालुय
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सिद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। प्पभापुढविनरहितोतिन्थयरतं लभेज्जा। पंकप्पभापुढवि. तटीकायाम्-'मरुदेवी वि पाएसन्तरेण नाभितुन 'ति.तनरहया भंते! पंकणभापुढविनरहरहितो प्रसंशतरं उच्चट्टित्ता त आदेशान्तरापेक्षया मरुदेव्यामपि यथोकप्रमाणावगाहणा तित्थयरतं लभेजा, गोश्रमा!, मो इगद्वे समटे अंतकिरियं | द्रष्टव्या, उक्तं च-"श्रोगाणा जबत्रा, रयणिदुर्ग मह पुपुण करेजा। धूमप्पभापुढविनेरइप ण पुच्छा..गोप्रमा! नो णो उ उक्कोसा। पंचेव अणुसयाई, धणुहपुत्तेण अहिइसा समद्रे, विर पण लभेजा,तमापूढविपुच्छा.मोयमा!मो याई ॥ १॥" अत्र पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची बहुत्वं चेहएइण? समढे, विरयाविरई लज्जा, अहे सत्तमाए परछा, मो- श्चविंशतिरूपं द्रष्टव्य, सिद्धप्राभृतीकाया तथाव्याख्यानायमा! नो इण्टु समढे, संमत्तं पुण लभेजा। असुरकुमारा-1 "त: तेन पञ्चविंशत्यधिकानीत्यबसेयं, शेषा त्वजघन्योत्कया पुच्छा, मोयमा ! ना इम्म? सम?. अंतकिरियं पुणो करेजा टावगाहना, तीर्थकृतां तु जघन्यावगाहना सप्तहस्तप्रमाएवं निरंतरं जाव आउक्काइया,ते उक्काइप से भंते ! उका- णा उत्कृष्टा पञ्चधनुःशतमाना शेषा त्वजधम्योत्कृष्टा १०, इपहिलो अणंतरं उब्वहिता तित्थयरत्तं लभेजा?, गोयमा! उत्कृथ्वारे सम्यक्त्वपरिभ्रष्टा उत्कर्षतः कियता कालेन सिना इण्टु समंटु, केलिपन्नतं धम्म लभेजा सवण्याए, एवं ध्यन्ति !, उच्यते, देशोनामार्बपुद्रलपरावर्तसंसारातिऋमे, याउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गोत्रमा! नो इण्टे अनुत्कर्षतस्तु कचित्सवयेयकालातिकमे केचिदसायेयकासमंट्र, अंतकिरियं पुण करेजा। बेहवियतइदियचरिदियाण लातिक्रमे , केचिदनन्तेन कालेन ११, अन्तरद्वारे जघन्यपुच्छा, गोत्रमा ! नो इगट्टे सम? मणपज्जवनाणं पुणा उप्पाडे- त एकसमयोऽन्तरम् उत्कर्षतः परमासाः १२, निरन्तरद्वारे जा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सवारणमंतरजोइसिपसु जघन्यतो द्वौ समयो निरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्त उत्कपुच्छा.गोयमा! नो इगट्टे समटे,अंतकिरियं पुण करेजा। सो- तोऽग समयान १३, गणनाद्वारे जघन्यत एकस्मिन् सहम्मगदेवे रंग भत! अपनरं चहत्ता तित्थयरत्तं लभेजा?, गो०! मये एकः सिध्यति उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शत, तथा चास्मिअत्धंगाए लभेजा अनोला एवं जहा रयणप्पभापुढविनरह- न भरतक्षत्रऽस्यामवसपिण्यां भगवतः श्रीनाभेयस्य निर्वायम्स एवं जाव सब्वटुगेदेव"३.वेदद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमधिक- समय श्रूयताष्टोत्तर शतमेकसमयेन सिर्च, तथा चौक्तं न्यागतवद एव सिध्यति, तद्भवानुभूतपूर्ववदाप्रेक्षया तु सर्वे सादासगणिना वसुदेवचरिते-" भयवं च उसभसामी स्वपि वेदेषु, उक्नं च-"अवगयवेश्रो सिज्झा, पच्चुपपरणं नयं जयगुरू, पुचसयसहस्स बाससहस्सूणयं विहरिऊणं केपहुधा उ । सब्बेहि वि वेपहि,सिरझर,समईयनयवाया ॥१॥" वली अद्यावयपब्वए सह दसहि समरणसहस्सेहिं परिनिनीर्थकृतः पुनः स्त्रीवेदे वा पुरुषवेदेवा, न नपुंसकवेदे ४, तथा
ब्वाणमुबगते चोइसेणं भत्तणं माघबहुले पकने तेरसीए नीर्थद्वारे तीर्थकरतीर्थे सार्थकरीतीर्थे च प्रतीच सिध्यन्ति
अभीरणा नखत्तेस एग्णपुत्तसएणं अट्ठहि य भत्तुपति ५.लिद्वार अन्यलिङ्गे गृहिलिने स्वलिले वा, पनच सर्व द्रव्य- सह एगसमरणं निम्बुप्रोसेसाण वि अग्णगाराणं दस सलिङ्गापेक्षया द्रव्यं, संयमरूपमावलिकापेक्षया तु स्वलिङ्ग
हस्साणि अट्ठसयऊपगाणि सिद्धाणि, तम्मि चेव रिकुखे एव, उक्तं च "लिंगेण अनलिगे, मिहस्थलिके तहेव य सलि- समयंतरेसु बहूसु" इति । १४, अल्पबहुत्वद्वारे युगपद् द्वि* । सयहि दवलिके, भावेण सलिंगसंजमश्रो ॥१॥"६, त्रादिकाः सिद्धाः स्तोकाः,एककाः सिद्धाः समपेयगुणाः, चारित्रद्वारे प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया यथास्यातचारित्रे, तद्भवा- नक्तं च-"संखाएँ जहनेणं, पक्को उक्कोसपण अटुसये । सि
भूतपूर्वचरणापेक्षया तु केचित्सामायिकसूदमसम्परायय- खाणेगा थोवा, एगगसिद्धा उ संखगुणा ॥१॥" ५५ । तंदवं धाख्यातचारित्रिणः केचित्सामायिकन्छदोपस्थापनसदम- कृता पश्चदशस्वपि द्वारेषु सत्पदग्ररूपणा ॥ सम्पति द्रव्यसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, केचित् सामायिकपरिहा- प्रमाणमभिधीयते-तत्र क्षेत्रद्वारे ऊर्ध्वलोके युगपदेकसमयेन रविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रिणः, कोचत्सामा- चत्वारः सिध्यन्ति द्वौ समुद्रे चत्वारः सामान्यती जलमध्ये यिकच्छेदापस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूमसम्पराययथाख्या. तिर्यगलाके एशतं विंशतिपृथक्त्वमधोलोके, उक्तं च-"वनचारित्रिणः, उक्नं च-"चरणमि अहक्खाए पच्चुप्पने- त्तारि उद्दलाए, जले चउकं दुवे समुदम्मि। अट्ठसयं तिरिमग सिझर नएणं । पुवाणंतरचरणे, तिच उक्कगपंच- यलाए, वीसपुडुत्तं श्रदोलोए ॥" तथा नन्दमयने चत्वारः, गगमणं ॥ १ ॥” तीर्थकृतः पुनः सामायिकसूक्ष्मस- 'नंदणे चत्तारी' ति वचनात् ,एकतमस्मिस्तु विज़ये विंशतिः, म्पराययथाख्यातचारित्रिण एव , बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धाः उक्रं च-सिद्धप्राभूतटीकायाम्-"बीसा एगयर विजये" तथा स्वयम्बुद्धा बुद्धबोधिता बुद्धीबोधिता वा सिध्यन्ति ८ , सर्वास्वप्यकर्मभूमिषु प्रत्येक संदरणतो दश २, पण्डकयने दो, शानद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमपेक्ष्य केवलझाने , तद्भवानुभूतपू- पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु प्रत्येकमष्टशतम् , उक्नं च-"संकार्यानन्तरमानापेक्षया तु केचिन्मतिश्रुतज्ञानिनः केचिन्मति- मणाए दसगं, दो चव हवंति पंडगवणम्मि । समएण य अधृतावधिशानिनः केनिन्मतिश्रुतमनःपर्यायझानिनः केचि- दुसर्य,पराणरससु कम्मभूमीसु ॥ ॥" कालद्वारे उत्सपिण्याम्मतिश्रुतावधिममःपर्यायज्ञानिनः , तीर्थकृतस्तु मतिश्रुता. मबसविण्यां च प्रत्येकं तृतीये चतुर्थे चारकेऽष्टशतम् , अवधिमनःपर्यायशानिन पवई, अवगाहनाद्वारे जघन्याया
वसपिण्यां पञ्चमारके विशतिः , शेषष्वरकेषु प्रत्येकमुत्समपि अवगाहनायां सिध्यन्ति उत्कृष्टायां मध्यमायां च , पिण्यामवसपिण्यां च संहरणतो दश२, तथा चाकं सिसत्र द्विहस्तप्रमाणा जघन्या, पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःश- ग्राभृतटीकायाम्--" सेसेसु अरएसु दस सिझंति,दोसुसप्रमाणा उत्कृषा, सा च मरदेवीकालवर्तिनामबसेया , म- वि उस्सप्पिणी मोसप्पिणीसु संहरणती।" सिद्धप्राभृतसूरुदेव्यप्यादेशान्तरेण नाभिकुलकरतुल्या । तदुक्तं सिद्धमाभ्र- । प्रेऽप्युक्तम् “उस्सपिणि श्रोसप्पिणि,तइयच उत्थयसमासु श्र.
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सिद्ध
( ) सिद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। दृसयं । पंचामयाए वीसं, दसगं समं च सेससु॥१॥"बुद्धाश्चस्वारः स्वयम्बुद्धा, अष्टशतमतीर्थक्कुप्ता विंशतिः ननिहारे-देवगतरागतामामष्टशत; शेषगतिम्य भागताः स्त्रीणां, तोकयौ। लिङ्गद्वारे-गृहिलि चरवार, अन्य प्रत्येक दश दश, उक्तं च सिजधामृत-'सेसाख मा बसद
लिने दश, स्वलिङ्गे अष्टशतम् ,उन्नं च-चउरो इस अट्टसर्य, सग' भगांस्त्यार्यश्यामः पुमरेवमाह-मरकगोरागता -
गिहनलिङ्गे सलिले य'। चारित्रद्वारे-सामायिकसूदमसश, तत्रापि विशषचिन्तायां रत्नप्रमापृथिव्याः शर्कराप्रमा
म्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदापस्थापनम्वा वालुकाप्रभायाश्च पृथिव्या श्रागताः प्रत्येक दश वश, पप्रभायाः पृथिव्या भागताश्चत्वारः, तथा तिर्यग्गरागताः
चमसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां च प्रत्येकमष्टशतं,सामायिसामाम्यतो दश, विशेषचिन्तायां पुनः पृविधीकायेभ्योऽप
कपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणा साकाययश्चागताः प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारः, वनस्पतिकायेभ्य
मायिकच्छदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाआगताः षट् , पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिपुरुषेभ्य भागता यश,
ख्यातचारित्रिणां च दशकम् २, उक्तं च-"च्छाकई चरिपद्रियनिर्यग्योनिखीभ्यो ऽप्यागता दश, तथा सामान्व
तं, तिगं च उकं च तेसिमट्टसर्य। परिहारिएहि सहिए, देसतो मनुष्यगतेरागता विंशतिः, विशेषचिन्तायां मनुष्यपुरु
गं दसगं च पंचगडे ॥१॥' बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धानां इसके , पभ्य भागता दश, मनुष्यस्त्रीभ्य भागता विंशतिः , तथा
बुद्धबोधितानां पुरुषाणामष्टशत , बुद्धबोधितानां स्त्रीणां सामान्यतो देवगतेरागता अष्टशतं , विशेषचिन्तायामसुर
विशतिः, नपुंसकाना दशक, बुद्धीमिबोधिताना स्त्रीण वि. कुमारेभ्यो नागकुमारेभ्यो यावत् स्तनितकुमारेभ्यः प्रत्ये
शतिः, बुद्धीभिर्वोधितामामेव सामान्यतः पुरुषादीनां विकमागता वश वश, असुरकुमारीभ्यः प्रत्येकमागताः पश्च
शतिपृथकत्वम . उल व सिप्राभूतडीकायाम्-'बुद्धीदिवेव पच, ग्यन्तरदेवेभ्य भागता दश, व्यस्तरीभ्य मागता
बोहियाणे पुरिसाण सामनेण बीसपुतं सिज्म' त्ति, पश्च, ज्योतिष्कदेवभ्य भागता दश ज्योतिष्कदेवीभ्य। बुद्धी च मल्लिस्वामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी सामाम्यसाठया. भागता विशतिः , वैमानिकनवेभ्य आगता प्रशतं. दिंका वा घेदितव्या , यतः सिद्धप्रामृत टीकायामेवोन-"वैमानिकदेवीभ्य भागता विंशतिः , तथा च प्रशाप
डीओ वि मल्लीपमुहाश्री अन्नाश्रो य सामन्नसाहुणीपमुक्षानाग्रन्थ:-"अगसरागया णं भंते ! नेरइया एगसमपर्ण
ओ बोहेति ति" शानद्वारे-पूर्वभावमपेक्ष्य मतिश्रुतशानिनो केवड्या अंतकिरिअं पकरैति ? , गोश्रमा!, जहणं पक्को युगपदेकसमयेनोत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्ति, मतिश्रुतमनःया दो वा तिन्नि वा उक्कीसेणं दस, रयणप्पभापुढधिनेरइ- पर्यायशानिनो दश , मतिश्रुतावधिशानिनो मतिश्रुतावधियावि पर्व चव, जाव धालुयप्पभापुढविनेरइया, अंतरा- मनापर्यायक्षानिनो या अष्टशतम् । अवगाहनावारे-जघन्या. गया णं भंत ! पंकप्पभापुढाधनस्या एगसमयेणं केवइया यामवगाहनायां युगपदेकसमयेनोस्कर्षतचत्वारः सिध्यअंतकिरिश्र पकरेति ? , गोत्रमा !, जहण एको वा दो म्ति, उत्कृष्टायां दी, अजघम्योत्कृष्टायामष्टशतं, यवमवा तिनि वा उक्कोसेणे चत्तारि, अणंतरागया ण भैत ! ध्येऽष्टौ , उक्त -" उक्कोसगाहणाए , दो सिद्धाअसुरकुमारा एगसमए णे केवंड्या अंतकिरिअं परैति ?, हीति एकसमपणं । चत्तारि जहन्नाए , अट्ठसयं मज्मिगोश्रमा ! जहनेणं एक्को वा दो वि तिनि वा, उक्कोसेण दस, माए उ॥ " अत्र टीकाकारण व्याख्या कृता-गाअतरागया ण भंते असुरकुमारी श्री एगसमपणं केवड्याश्रो | थापर्यन्सवर्तिनस्तुशध्दस्याधिकार्थसंसूचनात् ' जबकिरिये पति ?,गोश्रमा! जहनेणे पक्को वा दो बा तिमि
मज्झे अट्ट ' इति उत्कृष्टद्वारे येषां सभ्यत्वंपरिभ्रया उकोसणे पञ्च,एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव
घटानामनन्तः कालोऽगमत् तेषामष्टशत , सङ्ख्यातिका . थणियकुमारा, अतरागया ण भंते ! पुढविकाइया एगसम- लपतितामामसंख्यातकालपतितानी व वशकं दशकम, एणं केवड्या अतकिरिश्र पकरेंति'. गोश्रमा! जहन्नेणं इको श्रप्रतिपतितसम्यक्त्वानां चतुष्टयम्, उक्त्रं च-"जेसि या वो वा तिन्नि या उक्कोसेणं चत्तारि, एवं श्राउक्काइया वि, | श्रणतकालो, पडियाओ तेसि होर अटुसयं । अप्पधणस्सइकाइया पंचेवियतिरिक्वजोलिया दस,पंचेदियतिरि
डिवडिए चउरो , समं दसगं च सेसाण ॥१॥" क्खजोणिणाओ वि दस, मणुस्सा दस , मणुस्सीओ बीसं,
श्रम्सरद्वारे-एको वा सान्तरतः सिध्यति बहवो वा, थाणमंतरा दस बाणमंतरीनो पञ्च, जोइसिया दस, जोइसि
तत्र बहयो यावदष्टशतम् । अनुसमयहार-प्रतिसमयमेको णीओ वीस, वेमाणिया अट्ठसयं, क्मारिणणाओ वीस" मि
घा सिध्यति, बहवा वा?। तत्र बहूनां सिध्यतामियं प्ररूपणाति तत्वं पुनः केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । वेदद्वारे
एकादयो द्वात्रिंशत्पर्यन्ता निरन्तरमुत्कर्षनोऽष्टौ समयान् पुरुषाणामष्टशतं, स्त्रीणां विंशतिः, वश मपुंसकाः, उक्तं च
यावत् प्राप्यन्ते । इयमत्र भावना-प्रथमसमये जघन्यत एको 'अट्टसय पुरिसाण, बीसं इस्थीण वस नपुंसाण' तथा इह पु- द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशत् ,सिध्यन्तः प्राप्यन्ते,द्वितीयसमये कफेभ्य उद्धृता जीवाः केचित्पुरुषा एव जायन्ते केचित्
जघन्यतएको द्वौ वा उत्कृर्षतो द्वात्रिंशद एवं तृतीयसमयेऽपि, स्त्रिया केचिन्नपुंसकाः, एवं स्त्रीभ्योऽण्यद्धृताना भनत्रयम् ,
एवं चतुर्थसमयेऽपि एवं यावदष्टमेऽपि समये जघन्यत एको एवं मपुंसकभ्योऽपि, सर्वसण्यया भङ्गा भव । तत्र ये पुरु- द्वीचा उत्कर्षसो द्वात्रिंशत्ततः परमवश्यमन्तरम् । तथा त्रयनि
भ्य उद्धृताः पुरुषा एव आयन्ते तेषामष्टशतं , शेषेषु शदादयोऽटचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तर सिध्यन्तः, सप्त सम. वाटसु भरेषु दश २, नथा बोक्तं सिजप्राभृते-'ससा उ यान् यावत्प्राप्यन्ते,भावमा प्राग्वत् ,परतो नियमादन्तरं,तथा अट्ट भंगा, सगसगे तु होर एकेक तीर्थद्वारे-तीर्थकतो एकोमपञ्चाशवादयः यष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्कर्षतः युगपरेकसमयेन उत्कर्षतश्चत्वार, सिध्यन्ति, दश प्रत्येक- । षट् समयान् यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरं, तथा एक
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सिद्ध
यादयोतिपर्यन्ता निरन्तरमुत्कर्षतः सभ्यतात्कर्षतः पञ्च समयान् यावत्प्राप्यन्ते, ततः परमन्तरं, तथा त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तरं सिद्धयन्तः उत्क र्षतः चतुरः समयान् यावत्प्राप्यन्ते, तत ऊर्ध्वमन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः परणवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्कधनवीन समयान यादवाप्यन्ते परतो ऽवश्यमन्तरम् । तथा सप्तनवत्यादयोपुरपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्न उरकतो द्वौ समयौ यावदवाप्यन्ते, परतो नियमादन्तरं तथाव्युत्तरशतादयोऽष्टोत्तरशतपर्यन्ताः सिध्यन्तो नियमादेक
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सतपणसा
समयं यादवाप्यन्ते न द्वित्रादिसमवानिति । एतदर्थसंग्राहिका चेयं गाथा - " बत्तीसा अडयाला, सट्ठी बावन्तरी बोम्बा बुलसी, दुरहियमदुत्तरखयं च ॥१॥" अत्रासामायिकेभ्य आरम्य दिसामायिकपर्यन्ता निरन्तरं सिद्धाः एकैकरिंथ विकल्पे उत्कर्षः पृचका संख्यापरिमाणं, गणनाद्वारमल्पबहुत्वद्वारं च प्रागिव द्रष्टव्यं तथा भूपद्रव्यप्रमाणचिन्तायामेतयोर्द्वारयोः सत्य दप्ररूपणोव गाथा भूयोऽपि परावर्त्तिता - "संखाएँ अह को कोस अस सिद्धा देगा घोषा एक गसिद्धा उ संखगुणा ||१||" तदेवमुक्तं द्रव्यप्रमाणम् ॥ सम्प्रति क्षेत्रप्ररूपणा कर्त्तव्या - तंत्र पूर्वभावमपेक्ष्य सत्पदप्ररूपणायामेव कृता । सम्प्रति प्रत्युत्पन्ननयमतेन क्रियते तत्र पञ्चदशस्वप्यनुयोगद्वारेषु पृच्छा, इह सकलकर्मक्षयं कृत्वा कुत्र गतो भगवान् सिध्यति ?, उच्यते-ऋजुगत्या मनुष्य क्षेत्रप्र माणे सिद्धिक्षेत्रे गतः सिध्यति, यदुक्तम्- “इह बोदि चहत्ता संतस्थ मंसिरमा गतं क्षेत्रद्वारम् । सम्पति स्पर्शनाद्वारम् स्पर्शना क्षेत्रायमाहादतिरिका यथा परमाोः, तथाहि परमावोरेकस्मिन् प्रदेशेऽवगाह सप्तप्रादेशिकी व स्पर्शना । उक्तं च- " एगपएसोगाढं य से फुलणा " सिद्धानां तु स्पर्शना एवमवगन्तव्याफुस ते सिद्धे सव्वपरसहि नियमसो सिद्धो । ते असंखेज्जगुणा, सपपसेहि जे पुट्ठा ॥ १ ॥ " गत स्पर्शनाद्वारम् ॥ सम्प्रति कालद्वारम्-तत्र चेय परिभाषा - सर्वेष्वपि द्वारेषु यत्र यत्र स्थानेऽष्टशतमेकसमयेन सिध्यदुकं तत्र तत्राष्टौ समया निरन्तरं कालो वक्तव्यः यत्र यत्र पुनविंशतिदेश वा तत्र तत्र चत्वारः समयाः, शेषेषु, स्थानेषु द्वौ समयौ, उनं च - " जहि असयं सिज्झर, अट्ठ उ समया निरंतरं कालो । वी सदसपसु चउरो, सेसा सिज्यंति दो समय ॥ १ ॥” सम्प्रति एतदेव मन्दविनेयजनानुग्रहाय विभाव्यते तत्र क्षेत्रद्वारे जम्बूद्वीपे धातकीखराडे पुष्करवरद्वीपे च प्रत्येकं भरतैरावतमहाविदेहेषूत्कर्षतोऽष्टौ समयान यावनिरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, हरिवर्षादिष्वधोलोके च चतुरश्चतुरः समयान् नन्दनवने गडकधने ही हो समयी कालद्वारे-उसमवसपिण्यां च प्रत्येकं तृतीयचतुर्थारकयोरष्टाष्टौ समयान शेषेषु चारकेषु चतुरचतुरः समयान् गतिद्वारे - देवरागत उत्कर्षतोऽष्टौ समयान् शेषगतिभ्य श्रागताचतुरः समयानिति वेदद्वार - पश्चात्कृतपुरुषवेदा अष्टौ समयान पश्चात्कतश्रीक्षेत्र नपुंसक वेदाः प्रत्येकं चतरचतरः
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( ८३०) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सिद्ध
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समयान् पुरुषवेदेभ्य उद्धृत्य पुरुषा एव सन्तः सिध्यन्तोऽष्टौ समयान् शेषेषु वष्टिसु भङ्गेषु चतुरश्चतुरः समयानिति तीर्थद्वारे तीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीती या तीर्थकरसिद्धा उत्कर्षतोऽष्टौ समयान्, तीर्थकराः तीर्थकर्यश्च द्वौ दो समय वारे- स्वीयान् अलि प तुरः समयान् गृहिलो समय चारित्रद्वारे अनुभूतपरिहारविशुद्धिकारित्राश्चतुरः समयान् शेषा अष्ट
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व समयान् द्वारे बुद्धा ही समधी, बुद्धबोधता अौ समयान् प्रत्येकबुद्धा बुद्धीबोपिताः खियो बुद्धिबोधिता एवं सामान्यतः पुरुचादयः प्रत्येकं चतुरचतुरः समयान्, ज्ञानद्वारे - मतिभुतहानिनो द्वौ समयी, मतिश्रुतमनः पर्यायशानिनश्चतुरस्समयान् मतिथिज्ञानिनां मतिभूतापनि पर्याप निमो वा समयान् अवगाहनाद्वारे उत्कृष्टायां जय बागानायां दो ही समय, यवमध्ये चरः द्वौ समयान् उक्रं च सिकायाम् जयमा यचतारि समया' इति, अजघन्योत्कृष्टायां पुनरवगाहनायामष्ट समयान् उत्कृष्टद्वारे अतिपतितसम्यक्त्वा दी समयी सं रूपेालप्रतिपतिता अकामनिपतिताश्चतुरचतुरस्समयान्, अनन्तकालप्रतिपतिता अष्टौ समयान्। श्रन्तरादीनि चत्वारि द्वाराणि नेहावतरन्ति गतं मौकाल इति द्वारम् ॥ सम्प्रति षष्ठमन्तरद्वारम् अन्तरं नाम सिद्धिगमनविरहकाला सच सफलमनुष्यत्यदप्ररूपणायामेवोक्तः, यथा जघन्यत एकसमय उत्कर्षतः - . रामासा इति, ततः इह क्षेत्रविभागतः सामान्यतो विशेषतश्रोच्यतेच्यते तत्र जम्बूद्वीपे धातकीखण्डे च प्रत्येकं सामान्यतो वर्षपृथक्त्वमन्तरं जघन्यत एकसमयः, विशेषचिन्तायांजम्बूदीपविदेवे धातकी खरडविदेह योधोत्कर्षतः प्रत्येकं वर्षपृथक्त्वमन्तरे जघन्यत एकः समयः, तथा सामान्यतः पुष्करवरद्वीपे विशेषचिन्तायां च तत्रत्वयोरपि दि देदयोः प्रत्येकमुत्कर्षतः साधिके वर्षमन्तरे अचम्पत एकः समयः । उक्तं च- "जम्बूदीचे धावद प्रोह विभाने यतिसु विदेदेतुं । वासं अंतर पुषखरमुभर्दवासहिये ॥१॥" कालद्वारे भरतेश्वैरावतेषु च जन्मत उत्कृष्टमन्तरं किञ्चि दूना अष्टादश सागरोपमकोटीको ट्यः, संहरणतः संख्ये - यानि वर्षसहस्राणि जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, गतिद्वारे निरयगतेरागत्योपदेशतः सिध्यतामुमन्तरं वर्षसहस्रं हेतुमाधित्य प्रतिबोधसम्भवेन सितां संरूपेपानि वर्षसहस्राणि जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः तिर्यग्योनिकेभ्य श्रागत्योपदेशतः सतां - शतपृथक हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधतः सिं यानि वर्षसहस्राणि जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः तिर्यग्योनिक स्त्रीभ्यो मनुष्येभ्यो मनुष्य स्त्रीभ्यः सौधर्मेशानवयेभ्यो देवस्य च समागत्योपदेशः सि प्रत्येकमुक्तोऽन्तरं खातिरेक वर्ष मात् तिबोधतः सिध्यतां संख्येयानि वर्षसहस्राणि जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, तथा पृथिव्यध्वनस्पतिभ्यो ग भैग्यान्तेभ्यः प्रथमद्वितीयनरकविभ्यामीशानदेवेभ्यः
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सिद्ध
मिद्ध
(८३१)
। अभिधानराजेन्द्रः। सौधर्मदेवेभ्यश्च समागत्योपदेशेन हेतुना व सिध्यता। ऊध्र्वलोकादौ च चतुष्काः सिध्यन्ति ये च हरिवदिषु सुप्रत्येकमकृयमन्तरं सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणि जघन्यत घमसुषमादिषु च संहरखतो दश दश सिध्यन्ति ते परएकः समयः. वेदद्वारे-पुरुषवेदानामुत्कर्षतोऽन्तरं सा- स्परं तुल्योः, तथैवोत्कर्षतो पुगपरेकसमवेग प्राप्यमाधिकं वर्ष, स्त्रीनपुंसकवेदानां प्रत्येक सयेयानि वर्षस- णत्वात् , तेभ्यो विंशतिसिद्धाः स्तोकाः, तेषां स्त्रीषु दुष्पहस्राणि, पुरुषेभ्य उदृत्य पुरुषत्वेन सिध्यतां साधिकं मायामेकतमस्मिन् विजये वा प्राप्यमाणत्वात् , तथा चोवर्ष, शेषेषु चासु भाकेषु प्रत्येक सङ्ख्येयानि वर्षसह- कम् “धीसगसिद्धा इत्थी, ऽहलोगेगॅविजयादिसु प्रोनमाणि, जघन्यतः सर्वत्राप्यकः समयः, तीर्थद्वारे-तीर्थ- उरो । दसगेहिंतो थोवा" तैस्तुल्या विशतिपृथकृत्यसिद्धाः, कतां पूर्वसहपृथक्त्वम् उत्कर्षतोऽन्तरं, तीर्थकरीणामन- यतस्त सर्वाधोलौकिकग्रामेषु बुद्धीबोधितस्यादिषु वा लन्तः कालः, अतीर्थकराणां साधिकं वर्षे, नोतीर्थ- भ्यन्ते , ततो विंशतिसिद्धस्तुल्याः, यदुक्तम्-" बीसपुतं सिद्धानां संक्येयानि वर्षसहस्राणि नोतीर्थसिद्धाः प्रत्ये
सिद्धा सम्वाहोलोगबुद्धीबोहिया: प्रो बीसहि तुल्ला" कबुद्धाः , जयभ्यतः सर्वत्रापि समयः । उक्तं च-" पुग्व
क्षेत्रकालयोः स्वल्पत्वात् कावाचिकत्वेन च सम्भवादिति सहस्सपुहुतं, तित्थकरानंतकाल तित्थगरी । नोतित्थकरा
तेभ्योऽष्टशतसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च-"चउ सगा बासा-द्विगं तु सेसेसु संखसमा ॥ १ ॥ एएसिं च जह
नह पीसा , वीसपुदुत्ता यजे य अट्ठसया । तुमा थोवा तुसमओ। 'संखसमात्ति-सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणि, लिङ्ग
सा, संखेज्जगुणा भवे सेसा ॥१॥" गतमरुपबहुत्वद्वारम् । द्वारे-स्वलिङ्गादिषु सर्वेश्वपि जघन्यत एकः समोऽन्त
कृताउनन्तरसिद्धप्ररूपणा । रम् उत्कर्षतोऽन्यलिने गृहिलिनेच प्रत्येक संख्येयानि व
सम्पति परम्परसिकपणा क्रियतेसहस्रालि, स्वलिले साधिक वर्षम् , चारित्रद्वारे-पूर्वभा- तत्र सत्पदप्ररूपणा पञ्चदशस्वपि क्षेत्रादिषु द्वारेखयमपेक्ष्य सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणामु- नन्तरसिद्धबदविशेषेण द्रष्टव्या, द्रव्यप्रमाणचिन्तायां सस्कृष्टमन्तरं साधिकं वर्ष , सामायिकच्छेदोपस्थापनसचम- बैंबपि हारेषु सर्वत्रैवानन्ता वक्तव्याः, क्षेत्रस्पर्शने प्रासम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकपरिहारविशुद्धि- गिव, कालः पुनः सर्वत्रापि अनादिरूपोऽनन्तो वक्तव्यः, कमचमसंपराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोपस्था
अत पवान्तरमसम्भवान्न वक्तव्यम् , तदुक्तं द्रव्यप्रमाणम् ,कापनपरिहारविशुद्धिकसूदमसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां च
लमन्तरं चाधिकृत्य सिद्धप्राभृते-" परिमाणेण प्रणता, किश्चिनाष्टादशसागरोषमकोटीकोट्यः , जघन्यतः सर्व
कालोऽणाई अणतो तेसिं । नस्थि य अंतरकालो " ति, प्राप्येकः समयः, बुद्धद्वारे-बुद्धबोधितानामुत्कर्षतोऽन्तरं
भावद्वारमपि प्रागिव, सम्प्रत्यल्पबहत्वं सिद्धप्राभृतक्रमसातिरेक वर्षे, बुद्धयोधितानां स्त्रीणां प्रत्येकबुद्धानां च स-|
णोच्यते-समुद्रसिद्धाः स्तोकाः तेभ्यो द्वीपसिद्धाः संख्यख्येयानि वर्षसहस्राणि, स्वयम्बुद्धानां पूर्वसहनपृथक्त्वं,
यगुणाः, तथा जलसिद्धाः स्तोकाः तेभ्यः स्थलसिद्धाः सजघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः । उक्नं च-"बुद्धेहिं बोहिया
ण्येयगुणाः, तथा ऊर्चलोकसिशाः स्तोकाः तेभ्योग. वासहिय सेसयाण संस्खसमा । पुब्बसहस्सपुहुतं,होर। अधोलोकसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तिर्यग्लोकसयंबुद्ध समइयरं ॥१॥" 'समइयर' मिति-इतरज्जघन्यम-] सिद्धाः संख्यगुणाः । उक्तं च-"सामुद्ददीब जलथल, दुराई दुम्तरं समयः,शानद्वार-मतिश्रुतज्ञानिनामुत्कृष्टमन्तरं पस्यो
राहं तु थोषसंस्त्रगुणा । उहअहतिरियलोए, थोबा संस्खागुणा पमासंख्येयभागः , मतिश्रुताबधिशानिनां साधिकं वर्ष ,
संखा ॥१॥" तथा लवणसमुद्रसिद्धाः सर्वस्तोकाः तेभ्यः मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनां च संख्येयानि वर्षसहस्राणि |
कालोदसमुद्रसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपसिजघन्यतः सर्वत्रापि समयः, अवगाहनाद्वारे-जघन्याया
शाः संख्येयगुणाः तेभ्यो धातकीखण्डसिद्धाः संख्येयगुणाः मुत्कृशयां चोवगाहनायां यवमध्ये चोत्कृष्टमन्तरं श्रेण्यसं- तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपासिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं चस्येयभागः, अजघन्योत्कृष्टायां साधिकं वर्षे , जघन्यतः पु- "लवणे कालोप था अंदीवे य धार्यासंडे । पुक्रबरे य नः सर्वत्रापि समयः , उत्कृष्टद्वारे-अप्रतिपतितसम्यक्त्व- दीव, कमसो धीषा य संस्खगुणा ॥१॥" तथा जम्बूद्वीपे संसागरोपमासंख्येयभागः, संख्येयकालप्रतिपतितानामसंख्ये- हरणतो हिमवच्छिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः १,तेभ्यो हैमवते. यकालप्रतिपतितानां च संख्येयानि वर्षसहस्राणि, अनन्त- रण्यवतसिखाः संख्येयगुणाः २, तेभ्योऽपि महाहिमबहुकालप्रतिपतितानां साधिकं वर्षे , जघन्यतः सर्वत्रापि स- क्मिसिद्धाःसंख्येयगुणाः३,तेभ्योऽपि देवकुरुत्तरकुरुसिजाः मयः , उक्तं च-उवहिमसंखो भागो, अप्पडिवडियाण से- संख्येयगुणाः ४. तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः संख्येयगुस संखसमा । बासमहियमणते, समश्री य जहमानो हो- णा, क्षेत्रबाहुल्यात् ५. तेभ्योऽपि निषधनीलवत्सिद्धाः सं
॥१॥" अन्तरद्वारे-सान्तरं सिध्यतामनुसमयद्वारे नि- क्येयगुणाः ६, तेभ्योऽपि भरतराषतसिद्धाः संख्येयगुणाः रन्तरं सिध्यतां गणनाद्वारे एककानामनेकेषां च सिध्य- स्वस्थानस्यात् ७, तेभ्यो महाविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः स. तामुत्कृष्टमन्तरं संक्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनः दाभावात् ८, सम्प्रति धातकीखण्डे क्षेत्रविभागनोच्यतेसर्वत्रापि समयः। गतमन्तरद्वारम् । सम्प्रति भावद्वारम्- धातकीखण्डे संहरणतो हिमवशिस्त्ररिसिद्धाः सर्वस्तोकाःतत्र सर्वेष्वपि क्षेत्रादिषु द्वारेंषु पृच्छा, कंतरस्मिन् भावे घ- १. तेभ्यो महाहिमबटुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः २, तेभ्योऽसमानाः सिध्यम्तीति ?, उत्तरं-क्षायिके भावे, उक्कं च- पि निषेधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः ३, तेभ्याऽपि ईमय'खेत्ताइएसु पुच्छा, वागरण सहि खाए'। गतं भाव- तेरण्यवतसिजा विशेषाधिकाः ४ तेभ्यो देवकुरुत्तरकुरुसिद्वारम् । सम्प्रत्यल्पबहुत्वद्वारम्-तत्र ये तीर्थकरा ये च जले। ग्राः संख्येयगुणाः ५, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिखा विशे
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सिद्ध
( १२) अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्ध नाधिकाः ६, तेभ्योऽपि भरतैराबसिद्धाः संख्ययगुप्या ७, सर्बस्लोकाः,तत उत्सबिरमां दुषमासिजा विशेषाधिकाः, तभ्योऽपि महाविदेहसिद्धाः सख्येयगुणाः ८, तथा पुष्कर- ततोऽयसमिरमा कुषमासिद्धाः संख्येयगुणा , तेभ्योऽपि वरीपाढे हिमवच्छिम्नरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः १, तेभ्योऽपि बयोरपि दुप्चमसुषमासिद्धाः संख्ययगुग्गाः , तताऽवसनिमहाहिमबक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि निषध एयां सर्वसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽण्यत्सपिणीसर्वसिभीलवसिद्धाः संस्थेयगुणाः ३, नेभ्योऽपि हैमबर्तरगयच- द्वा विशेदाधिकागतं कालद्वारम् । सम्प्रति गतिद्वारं ततसिजा। संस्पयगुणाः ४, तेभ्योऽपि देवकुरूतरकुरुसिद्धाः मानुषीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्चस्तोकाः , ततो संख्येयगुणा: ५,तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः विशेषाधि- मामुषेभ्योऽनन्तरागता सिद्धाः संख्येयगुणाः, तभ्योऽपि काः ६, तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाः संख्ययगुणाः ७, स्व- नैरयिभ्योऽमन्तरागताः सिद्या संख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि स्थानमिति कृत्वा, तेभ्योऽपि महानिदेहसिद्धाः संख्येयगु- तिर्यग्योनिस्त्रीभ्यो ऽमन्तरागता सिद्धाः संख्येनगुणाः, तरयाः, क्षेत्रबाहुल्यात स्वस्थानाच ८, सम्प्रति त्रयाणामपि भ्योऽपि तिर्यग्यानिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संस्थेयगुसमवायनाल्पबहुत्वमुच्यते-सर्वस्तोका जम्बूद्वीपे हिमब- णाः, तेभ्योऽपि देवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुलिछखरिसिद्धाः १,तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवतसिद्धाः संख्येय- णा,तेभ्योऽपि देवभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, गुणाः २,तेभ्योऽपि महाहिमवदिशासिद्धाः संख्येयगुणाः३, उक्त च-" मणुई मणुया मारव , तिरिक्खिली सह तेभ्याइपि देवकुरुत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः ४, तेभ्योऽपि निरिक्ख देवीश्री । देवा य जहाकमसो, संखेजगुणा मुणेहरिधर्षरम्यकसिद्धाः संख्येयमुसा ५, तेभ्योऽपि निषध- यम्वा ॥१॥" तथा एकेन्द्रियेभ्योऽनन्तरागता: सिद्धाः मीलबत्सिखा सबस्यमुखाः ६, सेभ्योऽपि धातकीखण्ड- सर्यस्तोकाः, ततः पश्चेन्द्रियेभ्योऽनन्तगगताः सिद्धाः संहिमपच्छिमारिसिद्धा विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्पर भयेयगुणाः, तथा बनस्पनिकायभ्यो ऽमन्तरागताः सियाः तुल्याः ७, ततो धातकीखण्डमहाहिमवक्मिपुष्करपरती- सर्यस्तोकाः, नतः पृथिवीकायेभ्योऽमस्तरागनाः सिदद्याः पानिमवच्छिखरिसिकाः संख्ययगुणाः, स्वस्थाने तु संख्ययगुणाः,ततोऽयकायेभ्योऽनन्तरांगताः सिद्धाः संख्य चत्वारोऽपि परस्परं तुल्याः ८, ततो धातकीखएडनिष- यगुणाः,तेभ्योऽपिसकायभ्योऽनन्तरागताःसिद्धाःसंख्ये. धनीलवस्सिद्धाः पुष्करवरद्वीपा“महाहिमवक्मिसिद्धाश्व यगुणाः,उक्तं -"एगिविपहिं थोबा,सिद्धा पञ्चेदिएहि सं. संख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ६, ततो धातकी- खगुणातरुपुढविभाउतसका-इएहि संखागुणा कमसो।।" मराहमयतैरण्यवतसिद्धा विशेषाधिकाः १०, तेभ्योऽपि
तथा चतुर्थपृथिवीमोऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः नेम्यपुष्करबरद्वीपाईनिषधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः११, ततो
स्तृतीयपृथिवोतोऽनम्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तधातकीखण्डंदवकुरूसरकुरुसिद्धाः संख्ययगुणाः १२,तभ्यो- भ्यो ऽपिद्वितीयपृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुऽपि धातकीखण्ड एव हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशेषाधिकाः१३ लाः, नेभ्योऽपि पर्याप्तवादरप्रत्येकवनस्पतिभ्योऽमन्तरागस्तः पुरकरवरद्वीपार्द्धदैमवतैरण्यवतसिताः संख्येयगुणाः साः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादर पृथिवी१४तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपाड़े एव देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः कायभ्योऽनन्तरामताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पसंख्येय गुणाः १५, तेभ्योऽपि तत्रैक हरिवर्षरम्यकसिङ्गा वि. र्यातबादरापकायेभ्योऽमन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः,ते. शेषाधिकाः १६, तेभ्योऽपि जम्बूलीपभररावतसिद्धाः भ्योऽपि भवनपत्तिवेवीभ्यो ऽमन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगु. संख्ययगुणाः १७, तेभ्योऽपि धातकीखण्डसत्कभरतैरा- णाः, सेभ्योऽपि भघमवासिदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संबतसिद्धाः संख्येयगुणाः १८, तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्ध- स्येयगुणाः, ततोऽपि व्यन्तरीभ्योऽनन्तरागताः सिदद्याः सं. भरतरावतसिद्धाः संख्ययगुणाः १६, तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपे ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि व्यन्तरंदवेभ्योमप्रगगताः सिद्धाः विकसिद्धाः संख्येयगुणाः २०, ततो धातकीखण्डविवेह- संख्येयगुणाः,तेभ्योऽपि ज्योतिष्कटेची यो नन्द गाःसि. सिद्धाः संख्येयगुणाः २१, ततोऽपि पुष्करवरद्वीपार्ने विदेह- धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवेभ्योऽनन्तरागसिद्धाः संख्येयगुणाः २२, इवं च क्षेत्रविभागेनापबहावं- ताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्यस्त्रीभ्याऽप्यनसिद्धप्राभृतटीकातो लिखितम् । गतं क्षेत्रद्वारम् । अधुना का. स्तरागताः सिद्धाः संख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्येभ्यो:खद्वारम्-तत्रावसपिण्यां संहस्णत एकान्त दुष्पमासिद्धा. न्सरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथममरकसर्वस्तोकाः, इतो दुषमासिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्यः सुष- पृथिवीतोऽन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि निमदुषमासिद्धा असंख्येयगुणाः कालस्यासंख्येयगुणत्वात् , र्यग्यानिस्त्रीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तभ्यो तेभ्योऽपि सुषमासिद्धा विशेषाधिकाः , तेभ्योऽपि सुष- उपि तिर्यगयोनिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्ययगुणाः, मसुषमासिद्धा विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि दुष्पमसुषमासि- तेभ्योऽपि अनुत्तरोपपातिकदेवेभ्योऽमन्तरागताः सिजाः सं. द्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च-"अइसमाइ थोवा संख अ- सयेयगणा तेभ्योऽपि वेयकेभ्योऽमन्तरागताः सिद्धाः संस्खा दुवे विसेसहिया । दूसमसुसमा संखा-गुणा उ ओस. संख्ययगुणाः, तभ्योऽप्यच्युतंदवलोकादनन्तरागताः सिद्धाः प्पिणीसिद्धा॥१॥" एवमुत्सर्दिपण्यामपि द्रष्टव्यम् , तथा संस्येयगुणाः, तेभ्योऽएि श्रारणदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिचोकम्-"असमाइ थावा, संखअसंखा उ दुन्नि सवि खाः संख्ययगुणाः एवमधामुखं तावन्नेयं यावत् सनत्कुसेसा दूसमसुसमा संखा-गुणा उ उस्सप्पिगीसिद्ध ॥१॥" मारादनन्तरागताः सिद्धाः संख्ययगुणाः, तत ईशाममेघीसम्प्रत्युत्सपिण्यवसपिण्योः समुदायेनाल्पबहुत्वमुच्यते- भ्याऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्ययगुणाः , ततोऽपि सौधतत्र द्वयोरप्यत्सपिण्यवसपियोस्कान्तनुपमासिद्धाः। मवीभ्योऽनन्तगगताः सिद्धाः संख्ययगुणाः, तेभ्योऽपि
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(८३३) सिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्ध ईशानदेवभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्यो- शेष उपदर्श्यते-सर्वस्तोकाः सप्तहस्तप्रमाणावगाहनासिद्धाः ऽपि सौधर्मदेवेभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, | तेभ्यः पञ्चधनुःशतप्रमाणावगाहनासिद्धाः संख्येयगुखाः,
ततो न्यूनपञ्चधनुःशतप्रमाणावगाहनासिद्धाः संख्येयगुणाः, "नरगच उत्थापुढवी, तच्चा दांचा तरू पुढधि पाऊ। तेभ्योऽपिसातिरेकसप्तहस्तप्रमाणावगाहनासिद्धा विशेषाभवणवा देवि दवा, एवं पणजोइसाणं पि ॥१॥
धिकाः, उत्कृष्टद्वारे-सर्वस्नोकाः अप्रतिपतितसिद्धाः तेभ्यः मणुई मणुस्स नारय-पढमा तह तिरिक्खिणी य तिरिया या संख्येयकालप्रतिपतितसिद्धा असंख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यसंदेवा अणुतराई, सव्ये वि सणकुमारंता ॥२॥
स्येयकालप्रतिपतितसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यनम्तसाणदेवि सोह-मदेवि ईसाणदेव सोहम्मा।
कालप्रतिपतितसिद्धा असंख्येयगुणाः, उक्तं च-"अप्पडि. सव्वे वि जहाकमसो,अवंतरायाउ संखगुणा ॥ ३॥" । पाइयसिद्धा,संखाखा अणतकालाय । थोष असंखेजगुणा, गतं गतिद्वारम् ॥ सम्प्रति वेदद्वारम् अत्र सर्व- संखेजगुणा असंखेज ( ख ) गुणा ॥१॥" अन्तरद्वारेस्तोका नपुंसकसिद्धाः, तेभ्यः स्त्रीसिद्धाः संख्येय- सर्वस्तोकाः परमासान्तरसिद्धाः तत एकसमयान्तरसिगुणाः, तेभ्योऽपि पुरुषसिद्धाः संरपेयगुणाः , उक्तं द्धाः संख्येयगुणाः ततो द्विसमयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः च-"थोवा नपुंस इत्थी, संखा संखगुणा य तो पुरिसा।" ततोऽपि त्रिसमयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः एवं तावद्वाच्यं ार्थद्वारे-सर्वस्तीकाः तीर्थकरीसिद्धाः, ततः तीर्थक- यावद्यवमध्यम् , ततः संख्येयगुणहीनास्ताबहलव्या यावदेरीतीय प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थ- कसमयहोनषण्मासान्तरसिद्धेभ्यः षण्मासान्तरसिद्धाः करीतीर्थे श्रीयफरीसिद्धाः सख्येयगुणाः,तेभ्योऽरि तीर्थ- संख्ययगुणहीनाः , अनुसमयद्वारे-सर्वस्तोकाः अष्टसकरीतार्थ एवातीर्थकरसिद्धाः संख्येयगुणाः,तेभ्यः तीर्थकर- मयसिद्धाः ततः सप्तसमयसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्यः सिद्धाअनन्तगुणः,तेभ्योऽपि नीर्थकरतीय प्रत्यकबुद्धसिद्धाः षट्समयसिद्धाः संख्येयगुणा एवं समयसमयहान्या तावसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि नीर्थकरतीर्थ एव साध्वीसिद्धाः सं- द्वाच्यं यावद् द्विसमयसियाः संख्येयगुणाः, उक्तं चख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थ पवातीर्थकरसिद्धाः "अटुसमम्मि थोवा, सखेजगणा उ सत्त समया उ । एवं संख्येयगुणाः, लिङ्गद्वार-गृहिलिङ्गसिद्धाः सर्वस्तोकाः पडिहायंते, जाव पुणो दोन्नि समया उ॥१॥" अत्र 'श्रतेभ्योऽप्यन्यलिङ्गसिद्धा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि स्खलि- ट्ठसमयंमि' इत्यादी द्विगुसमाहारत्वादेकवचनं, गणनाद्वारेसिद्धा असंख्येयगुणाः । उक्तं च-" गिहिअनलिगेहि- सर्वस्तोका अष्टशतसिद्धाः ततः सप्ताधिकशतसिद्धा अनसिद्धा थोवा दुवे असंखगुणा" चारित्रद्वार-सर्वस्तोका. म्तगुणाः तेभ्योऽपि षडधिकशतसिद्धाः अनन्तगुणाः तेभ्यः श्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूचमसम्पराययथाख्यातचा- पश्चाधिकशतसिद्धा अनन्तगुणा एवमेकैकहान्या अनन्तगुरित्रसिद्धाः, नेभ्यः सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धि- णाः तायद्वाच्या याबदेकपञ्चाशतसिद्धेभ्यः पञ्चाशत्सिद्धा कसूचमसम्पराययथाख्यानचारित्रसिधाः संख्येयगुणः, ते- अनन्तगुणाः, ततः तेभ्य एकोनपञ्चाशत्सिद्धा असंख्यगुभ्योऽपि छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाण्यातचारित्रसिद्धा णाः तेभ्योऽप्यष्टचल्यारिंशत्सिद्धा असंख्येयगुणाः एवमेअसंख्येयगुणाः , सामायिकरहितं च छेदोपस्थापनं भन्न- कैकपरिहान्या तावदच्यं यावत्पडिशतिसिद्धेभ्यः पञ्चविंचारित्रस्यावगन्तव्यं, तेभ्योऽपि सामायिकच्छेदोपस्थापनसू. शतिसिद्धा असंख्ययगुणाः, ततः तेभ्यश्चतुर्विशतिसिद्धाः मसम्पगययथाख्यानचारित्रसिद्धाःसंख्येयगुणाः,तेभ्योऽपि संख्येयगुणा,तेभ्योऽपि त्रयोविंशतिसिद्धाः संख्येयगुणाः एसामायिकसूचमसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः संख्येयगु वमेकैकद्दाम्या संख्येयगुणाः तावद्वाच्या यावद् द्विसिद्धेभ्य णाः , उक्नं च-" थोचा परिहारचऊ , पंचग संखा असंख- एकैकसिद्धाः संख्येयगुणाः। उक्रं च-"अटुसयासद्ध थोचा, छेयलिग । छयच उकं संखे, सामाइयतिगं च संखगुणं ॥ १॥" सत्तहियसया अणंतगुणिया य । एवं परिहायंते, सयगाओ बुखद्वारे-सर्वस्तोकाः स्वयम्बुद्धसिद्धाः, तेभ्यः प्रत्येकबुद्ध- जाव पन्नास ॥ १॥ तत्तो परणासाओ,असंखगुणिया उ जाय सिद्धाः संख्येयगुणाः,तेभ्योऽपि बुद्धीबोधितसिद्धाः स- पणवीसं । पणवीसा आरंभा,संखगुणा होति एग जा ॥२॥" ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि बुद्धबोधितसिद्धाः संख्येयगुणाः, सम्प्रति अस्मिन्नेबारपबहुत्वद्वारे यो विशषः सिद्धप्राभूत शानद्वारे-मतिश्रुतमनःपर्यायशानिनः सिद्धाः सर्वस्तो- दर्शितः स विनेयजनानुग्रहाय दर्यते-तत्र सर्वस्तीका अकाः, तेभ्यो मतिश्रुतशानिसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि धोमुखसिद्धाः, ते च पूर्ववैरिभिः पादेनोत्पाटय नीयमाना मतिथुतावधिमनापर्यवशानिसिद्धा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽ. अधोमुखकायोत्सर्गव्यवस्थिता वा बेदितव्याः, तेभ्य ऊर्ध्वपि मतिश्रुतावधिशानिसिद्धाः संख्येयगुणाः , उक्तं च-"म- स्थितकायोत्सर्गस्थिताः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि उत्कुटुणपज्जयनाणतिगे, दुगे च उके मणस्स नाणस्स। थोवा सं- कासनसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वीरासनसिद्धाः व असंखा , श्रोहितिगे हुंति संखेजा ॥१॥" अवगाहना- संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि न्युजासनसिद्धाः संख्येयगुणाः, द्वारे-सर्वस्तोका द्विहस्तप्रमाणजघन्यावगाहनासिद्धाः ते- न्युब्जोपविष्टा एवाधोमुखा द्रष्टव्याः, तेभ्योऽपि पार्श्वस्थितभ्यो धनुःपृथक्त्वाभ्यधिकपश्चधनुःशतप्रमाणोत्कृष्टावगा
सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्युत्तानस्थितसिद्धाः संख्येहनासिद्धाः असंख्येयगुणाः, ततो मध्यमावगाहनासिद्धा यगुणाः, तथा चैतदेव पश्चानुपाऽभिहितम्-"उत्तानग. असंख्येयगुणाः , उक्नं च-"श्रोगाहणाजहाना, थोबा उक्को- पासिल्लग, निउज्ज वीरासणे य उक्नुहुए । उद्घट्टिय श्रोमसिया असंखगुणा । तत्तो वि असंखगुणा, नायव्बा भज्झि- थिय, सखज्जगुणण हीणा उ ॥१॥" तदेवमुक्तमल्पबहुत्वद्वामाए वि ॥१॥"अत्रैव सिद्धग्राभृनटीकाकारोपदर्शितो वि- रम् ॥ सम्प्रति सर्वद्वारगतापबत्यविशेषापदर्शनाय सन्नि
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सिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्ध कर्षद्वारमुच्यते--सन्निकों नाम संयोगः , हस्वदीर्घयोरिव लोकादावुत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्तः प्राग्यन्ते तत्र एवं व्या. विवक्षितं किश्चिप्रतीत्य विवक्षितस्याल्पतया बहुत्वेन वा- प्तिः-एककांसद्धाः सवय हवा, नेभ्या द्विकादकासद्धा ऽवस्थानरूपः सम्बन्धः , उक्तं च-"संजोग सन्निगासो असंख्येयगुणहीनाः,तभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिधा अनन्तगुणपहुच्च सम्बन्ध एगट्ठा" तत्रय व्याप्तिः-यत्र यत्राएशत- हीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुस्सिद्धा अनन्तगुणहीनाः, अत्र मुपलभ्यते तत्र तत्रोपरितनमएकरूपमङ्कमपनीय शेषस्य संख्येयगुणहानिन विद्यत, नदुकम्-"जरथ चत्तारि सिद्धा शतस्य चतुर्भिर्भागो हियते , हृते च भागे लब्धाः दिट्टा तत्थ संखेजगुणहाणी नस्थि संखेजविवजिय चउक्के" पञ्चविंशतिः । तत्र पञ्चविंशतिसंख्येयप्रथमचतुर्थभागे इति वचनादिति । यत्र पुनर्लवणादौ द्वौ द्वावुत्कर्षतः सिक्रमेण संख्येयगुणहानिवनव्या । तद्यथा-सर्वबहव ध्यन्तौ दृशौ तत्रैवं व्याप्तः-एककसिद्धाः सर्वबहवः, ततो एकैकसमयसिद्धाः , ततो द्विकद्विकसिद्धाः संख्येयगु- द्विकद्विकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, तदुकम्-" लवणादौ णहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः , दो सिद्धा दिट्ठा तत्थ एक्कगसिद्धा बहुगा, दुएवं ताद्वाच्यं यावत्पञ्चविंशतिसिदधाःसंख्येयगणहीनाः,उन गसिद्धा अणतगुणहीणा । " तदेयमिह सन्निकर्षो च-"पढमो चउत्थभागो,पणीसा तत्थ सखेज्जगणहाणी।। द्रव्यप्रमाण संग्रपञ्च चिन्तितः, शेषेषु द्वारषु सिदटुब्ब" ति द्वितीये पुनश्चतुर्थभागे क्रमेणासंख्येयगुणहानि- ग्राभूतटीकातो भावनीयः , इह तु ग्रन्थगौरवभयानोच्यतेवक्तव्या, तद्यथा-पश्चविंशतिसिद्धेभ्यः पइविंशतिसिद्धाः
"सिद्धप्राभृतसूत्र,तद्वृत्ति चोपजीव्य मलयगिरिः । सिद्धसंख्येयगुणहीनाः. एवमकैकवृद्धया असंख्येयगुणहानिः ता.
स्वरूपमेत-निरवोचच्छिष्यबुद्धिहितः॥१॥” (नं०।) यद्वक्तव्या यावत्पश्चाशत् , तदुक्तम्-"बिइए चउत्थभागे ,
तीर्थसिद्धादीनां व्याख्यानम्असंखगुणहानि जाव पन्नासं" ति , तृतीयस्माच्चतुर्थभागा.
तीयते संसारसागरोऽननेति तीर्थ यथास्थितसकलजीवादारभ्य सर्वत्रापि अनन्तगुणहानिवनव्या , तद्यथा-पञ्चा.
जीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचन,तच्च निशत्सिद्धभ्य एकपश्चाशस्सिद्धाः अनन्तगुहीनाः तेभ्यो
राधारं न भवतीति कृत्वा सङ्घः प्रथमगणधरी या वेदिनऽपि द्विपञ्चाशत्सिद्धा अनन्तगुणहीनाः एवमेकैकवृद्धया
व्यम् , उक्तं च-"तित्थं भंते ! तिथं तिस्थकरे तित्थं ?, अनन्तगुणहानिस्तावनव्या यावदष्टाधिकशतसिद्धा अन
गोश्रमा! परहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चा. न्तगुणहीनाः, उक्तं च-" तहपयं श्राइकाऊण च उत्थप
उब्वलो समणसंघो पढमगणहरो वा" तस्मिन्नुत्पन्न ये सियं जाव अट्ठसयं ताव अणंतगुणहाणी एगवन्नाश्रो प्रारंभ
द्धाः ते तीर्थसिद्धाः, तथा तीर्थस्याभावोऽतीर्थ तीर्थस्यादव्या । " सिद्धप्राभृतसूत्रेऽप्युक्तम्-" पढमे भागे संखा
भावश्चानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो घा तस्मिन् ये सिबिदए असंख अणंत तइयाए ।" तथा यत्र यत्र विंशतिसि
द्धाः ते ऽतीर्थसिद्धाः, तत्र तीर्थस्यानुत्पादे सिद्धा मरुदेधाः तत्र तत्रापि व्याप्तिरियमनुसतव्या, प्रथमे चतुर्थभा
वीप्रभूतयः , न हि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पग संख्येयगुणहानिः, द्वितीये असंख्येयगुणहानिः तृतीये च.
नमासीत् , तथा तीर्थस्य व्यवच्छदश्चन्द्रप्रभस्वामिसुविधितुर्थे चानन्तगुणहानिः, तद्यथा-एकैकसिद्धाः सर्वबहवः
स्वाम्यपान्तराले तत्र य जातिस्मरणादिनाऽपवर्गमवाप्य तेभ्योऽपि द्विकद्विसिद्धाः संख्ययगुणहीनाः एवं तावद्वा
सिद्धाः ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः, तथा तीर्थकराः सन्तो य रुय यावत्पश्च, ततः पडादिसिद्धा असंख्येयगुणहीना या
सिद्धाः ते तीर्थकरसिद्धाः, अन्ये सामान्य केवलिनः, तथा बद्दश , तत एकादशादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणहीनाः , एवम- स्वयम्बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः त स्वयम्बुद्धसिद्धाः, प्र. धोलोकादिष्यपि विंशतिपृथक्त्वसिधा प्रथमे चतुर्थभागे त्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, अथ संख्येयगुगहानिः , द्वितीयचतुर्थभागेऽसंख्येयगुणहानिः, तृ स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते-बोध्युतीयस्माश्चतुर्थभागादारभ्य पुनः सर्वत्राप्यनन्तगुणहानिः , पधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-स्वयम्बुद्धा बाह्यप्रत्ययषु तु हरिवर्षादिषु स्थानेवृत्कर्षतो दश दश सिध्यन्ति यमन्तरेणैव बुध्यन्ते , स्वयमेव वाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव नितत्रैव व्याप्तिः-त्रिकं यावत्संख्येयगुणहानिः, ततश्चतुष्क प- जजातिस्मरणादिना बुधाः स्वयम्बुद्धा इति व्युत्पतेः, श्क चासंख्येयगुणहानिः, ततः पटादारभ्य सर्वत्रापि अ-! ते च द्विधा-तीर्थकराः तीर्थकरव्यतिरिक्ताच, इह नन्तगुणहानिः, तद्यथा- एककसिद्धाः सर्वबहवः, ततो द्वि- | तीर्थकरब्यतिरिक्तरधिकाराः, श्राह च चूर्मिकम्-"ते कद्विकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकास- दुविहा तित्थयरा, तित्थयरवहरित्ताबा, इह वररित्तेहि अ
धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुःसिद्धाः असं- हिगारो" इति। प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य बुध्यन्ने,प्र. ख्ययगुणहीनाः , तेभ्योऽपि पञ्चपञ्चसिद्धाः आस- त्येकं बाह्य वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा प्रत्येकख्ययगुणहीनाः , ततः पडादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणही- बुद्धाः इति व्युत्पनेः, तथा च श्रूयते-बाद्यवृषभादिप्रत्ययनाः यत्र पुनरवगाहना यवमध्यादावुत्कर्षतोऽपी सि-- सापेक्षा करकराड्डादीनां बोधि . बोधिप्रत्ययमपेक्ष्य च बुद्धाः भ्यन्तः प्राप्यन्ते तत्रैवं व्याप्तिः-चतुष्कं यावत्संख्ययगु- सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति, न गच्छवासिन इव ण हानिः, ततः परमनन्तगुणहानिः , नद्यथा--एककसिद्धाः संहताः, श्राह च चूर्गिणकृत्-“ पत्तेयं-बाह्य वृषभादिकरणसबबहवः, तेभ्योऽपि द्विकद्विकसिधाः संख्येयगुणहीनाः, मभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बहिः प्रत्ययप्रतिबुद्धानां तभ्योऽपित्रिकत्रिकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि च "पत्तयं नियमा विहारी जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा" चतुश्चन सिद्धाः संख्थेय गुणहीनाः, परं पञ्चपञ्चादयोऽन- इति, तथा स्वयम्बुद्धानामुपधिर्वादशविध एव पात्रादिकः, न्तगुगगहानाः, अत्रासंख्येयगुण हानिन विद्यते,यत्र पुनरूज़- प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा-जघन्यतः, उत्कर्षतश्च, तत्र जघन्य
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सिद्ध
तो द्विविधः उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, श्राह च चूसिंगकृत् -" पत्तेयबुद्धारा जहस्रेणं दुविहो उक्कोसेणं नवविहो नियमा पाउरवज्जो भवइ । तथा स्वयम्बुद्धानां याधीनं भतया न वा यदि भवति ततो लि देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधो वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि चैकाकी विहरणसमर्थ इच्छा च तस्य तथारूपा जायते तन एकाकी विहरत्यन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते । अथ पूर्वाधीतं श्रुतं न भवति तर्हि नियमाद् गुरुसन्निधौ गत्वा लिङ्ग प्रतिगद्यते, गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, उक्कं न चूर्तिगकृता• पुग्वाधीतं से सुयं हवइ वा न वा, जइ से नत्थि तो लिङ्गं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जर, गच्छेय विहरह त्ति, अहवा-पुत्रवाधीतसुयसंभवो श्रत्थि तो सेल देवया पच्छ गुरुसन्निधे वा पडिवज्जद, जइ य एगागिविहरणजोग्गो इच्छा वा से तो एक्को चैव विहरद्द, अन्ना गच्छेविरहसि प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वा तं निय मतो भवति, तश्च जघन्यत एकादशाङ्गानि उत्कर्षतः किचिन्यूनानि दश पूर्वाणि तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयया कदाचिद्भवति तथा वाह चू कृत्-" पत्ते पुण्याची सुर्य नियमा भवर, जह फारसा उसे मिश्रदपुण्य देवया पलिंगवजिओ वा भवति जनो भणियं-"रुपययुद्धा" इति तथा बुद्धाश्राचार्यस्यधिताः सन्तों ये सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धा, पते च सर्वेऽपि के निम् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः श्रिया लिने स्त्रीहिं स्त्रीत्यस्योपलक्षयमित्यर्थः तच विधा तथा-वेदः शरीरनिर्वृतिनेपथ्यं च तत्रेह शरीरनिर्वृत्या प्रयोजनं न वेदनेपथ्याभ्यां वेदे सति सिद्धत्वाभावात्, नेपथ्यस्य त्राप्रमाणत्वात्, आह व चूर्णिकृत् — “इस्थिर लिंग इत्थिलिगं, इत्थिए उयति भवति तं चतिषिद्धं देवो सरीराने
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( ८३५ ) अभिधानराजेन्द्रः।
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सीनेयस्य इद सरीरनियती अहिगारो नपनेस्थ िति तस्मिन् खील वर्तमानासम्तो ये सिया ने सिधा परोन पदाराशास्य-नियांणमिति, तदपास्तं द्रष्टव्यम् श्रीनिर्यातस्य वाज्ञादनेन सूत्रेणाभिधानात् तत्प्रतिषेधस्य च युक्त्यनुपपत् तथाहि मुपियो ज्ञानदर्शन परिभावि "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " ( तस्वा० अ० १ सू० १ ) इति यत्रनात् सम्पदर्शनादीनि च पुरुषाणामय स्त्रीणामपि यदि कलानि, तथाहि दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनाधमभिरोचयमानाः, जानते च षडावश्यक कालिकोत्कालिकाभूतं परिपालयन्ति सप्तविधमलई संय धारयति च देवसुगामपि दुध ब्रह्मवतप्यते तपांसि मासपणादीनि ततः कथमिय तासां न मोक्षसम्भवः १, स्यादेतद्-श्रास्त स्त्रीणां सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च न पुनश्चारि संघमाभावात् तथाहि खीणामवश्यं यत्ररिभोगेन भवितव्यम्, अन्यथा विवृताङ्गयस्ताः निर्यकत्रिय व पुरुषाणामभिभवनीया भवेयुः, लोके च गहौंपजायते; तामिखं परिभोग्य वस्त्रपरिभोगे व सपरिपहता, सपरिप्रत्वे व संयाति सिद्धान्ताऽपरिज्ञानात् परिप्रो हि परमार्थतो
सम्प
सिद्ध
धीयते, 'मुच्छा परिग्गहो बुतो ' इति वचनप्रामाण्यात्, तथाहि मच्छीरहितो भरतवती सान्तःपुरोउाद यतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा केवलोत्पादासम्भवात् अपि याद मृदीया प्रभावेऽपि वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत् ततो जिनकल्पं प्रतिपन्नस्यकस्यचित् साधोस्तुशरकरणानुषक्के प्रपतति शीते केनाप्यविषपान शीतमिति विभाव धम्मर्थिना शिरसिप परिक्षिप्ते तस्य परिग्रहता भवेत् न देता तस्मान्न संसर्गमात्रं परिग्रहः, किन्तु मूच्छी, सा च स्त्रीणां वस्त्रादिन वियते तस्योपादानात्
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न खलु तावत्रमन्तरेणात्मानं रक्षितुमीशते, नापि शीतकालादिष्वर्वाग्दिशायां स्वाध्यायादिकं कर्त्तुं ततो दीर्घ-. तरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुञ्जाना न ताः परिग्रहवत्यः । अथोच्येत सम्भवति नाम स्त्रीणामपि सम्यग्दर्शनादिकं खयम् परं न तत् सम्भवमात्रेण मुषिदापके भवाने, किन्तु प्राप्तम् अन्यथा दज्ञानन्तरमेष सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिदासिसक्नेः सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयप्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्भवी, ततो न निर्वाणमिति । तदप्ययुक्तम्, स्त्रीषु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवग्राहकस्य प्रमास्याभावात् न खलु सकलदेशकालव्याच्या श्री रत्नत्रयप्रकर्षासम्भव्याहकं प्रत्यक्षमनुमान वा प्रमाणं विजृमते, देशकालविप्रकृष्टतया तत्र प्रत्यास्यामः तदप्रवृत्तौ चानुमानस्याप्यसम्भवात् नापि तासु रत्नत्रयप्रकर्पासम्भवप्रतिपादकः कोऽव्यागमा विद्यते, प्रत्युत सम्भप्रतिपादक: स्थाने स्थानेऽस्ति यथा इदमेव प्रस्तुतं सूत्रं सतो न तास रामसम्मः अथ मन्येधाःस्व भावतयानमेव श्रत्यन ततस्तदसम्भवोऽनुमीयते तदयुक्तम्, युक्तिविरोधात् तथा द्वि-रत्नकर्षः स उच्यते यतोऽनन्तरं मुक्तिपदप्राप्ति, स चायोग्यवस्थानम्मसमये प्रयोग्यावस्था चास्मादृशापप्रत्यक्षा, ततः कथं विरोधगतिः ? न हि श्रदृष्टेन सह विरोधः प्रतिपनं शक्यते मा प्रात् पुरुषङ्गः ननु जगति समाप्तिः सर्वोकृष्टेनाध्यवसायेनावा नान्यथा नशामय रत्याययोरागमभासि सर्वोत्कृष्टे च द्वे पदे-सर्वोत्कष्टं दुःखस्थानं सर्वोत्कृष्टं सुखस्थानं न । तत्र सर्वोत्कृष्टदःस्वस्थानं सप्तमनरक पृथिवी, अतः परं परमदुःखस्थानस्याभावात्, सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं तु निःश्रेयसं ततः परमन्यस्य सुखस्थानस्यासम्भवात् ततः स्त्रीणां समनरक पृथिवीगमनमागमे निषिद्धं निषेधस्य च कारणं ननयोग्यताधि सर्वोत्कृष्ट मनोपर स्वभावः ततः सप्तमपृथिवीगमननिषेधादीनाति स्त्रीणां विचणम् निर्माण हेतोः तथारूपसर्यो
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मनो रिणामस्यासम्भवात् तथा चात्र प्रयोगः - असम्भवनि योगाः खियः समपृथिवीगमनत्वाभावात् सम्मूमादिवत् तदेतदयुक्तम् यतो यदि नाम स्त्रीणां सप्तमनरक पृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः तत एतावता कथमवसीयते ? निःश्रेयसमपि प्रति तासां सर्वोकृष्ट मनोपर्यपरिषद यो भूमिकादिकं कर्म कर्त्तुं न शक्नोति स शाखारय
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सिद्ध
सिद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। त्यवगार्दन शक्नोतीति प्रत्येतुं शक्य , प्रत्यक्षविरोधात् । अलावु, एरराडफलम् , अग्निधूमौ , पुर्धनुर्विमुक्तः, अमीअथ सम्भूचिमादिषुभयमपि प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीयपरि-बां यथा तथा गमनकाले स्वभावतस्तनिवन्धनाभावेऽपि देगत्यभावो राष्टः ततोऽत्राप्यवसीयते, ननु यदि तत्र स्तर्हि | शादिनियतैव गतिः पूर्वप्रयोगेण प्रवर्तते , एवमेव व्यवकथमत्रावसीयते ?, न खलु बहिाप्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवः हिततुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् सिद्धानामपि गतिरित्यक्षरार्थः । ति, किन्तु-अन्तप्ल्यिा , अन्तर्याप्तिश्च प्रतिबन्धबलेन सि- अधुना भावार्थः प्रयोगैनिदर्श्यते-तत्र कर्मविमुक्तो भ्यति न चात्र प्रतिबन्धो विद्यते, न खलु सप्तमपृथिवीग- जीवः सक दूर्घमेवाऽलोकागच्छति , असत्वेन तथाविमनं निर्वाणगमनस्य कारणं, नाप्येयमेवाविनाभाषप्रतिय
धपरिणामत्यादष्टमृत्तिकालेपलिप्ताधोनिमाक्रमापनीतमृत्ति ग्धतः सप्तमपृथिवीगमनाबिनाभाधि निर्वाणगमनं , चरम
कालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधालाबुबत् , तथा छि
प्रबन्धनत्वेन तथाविधपरिणतेस्तद्विधैरएडफलबत् , तथा शरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाणगमनभायात् . न च प्रतिबन्धमन्तरेण एकस्याभावेऽन्यस्याभावो,
स्वाभाविकपरिणामस्वादग्निधूमवत् , तथा पूर्वप्रयुक्तत्किमा प्रापद्यस्य तस्य वा कस्यचिदेकस्याभावे सर्वस्याभा
यातथाविधसामर्थ्याद् धनुःप्रयत्नेरितेषुवद् , इषुः-शर इति बप्रसाः, यद्येवं तहि कथं सम्मच्छिमादिषु निर्वाणगम
गाथार्थः ॥६५७॥ श्राव०१०॥ नाभाव इति ?, उच्यते-तथाभवस्वाभाव्यात् , तथाहि
___ स्फुटं भावार्थः कथानकादबसेयस्तश्चेदम्ते सम्मूञ्छिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यग्दर्शनादि
"एगो धिज्जारतो दुईतो अविणयं करेर सो ताो थाणाश्रो
नीणितो हिंडतो चोरपत्रिमजिणो मेणावणा पुत्तो गहिओ। कं यथावत् प्रतिपतुं शक्नुवन्ति, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः , स्त्रियस्तु प्रागुतप्रकारेण यथावत्सम्यग्दर्शनादिर
तम्मि मम्मि सो चेव सेणावती जाश्री निक्किवं पयणइ त्ति
मनप्पहारी से नामं कयं । सो अन्नया सेणाप समं नत्रयसम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणाभावः । अपि च
एग गाम हेतुं गो तत्थ य एगो दरिदो , तेण पुत्तभभुजपरिसर्पा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति , न परतः, परपृथिवीगमनतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात् ,
डाण मग्गंताण दुद्धं जाएत्ता पायसो सिद्धो , सो य राहाइडं तृतीयां यावत् पक्षिणः, चतुर्थी चतुष्पदाः , पश्चमीमुरगाः,
गो चोरा य तत्थ पडिया, एगेण सो तम्स पायसो अथ च सर्वेऽप्यूर्वमुत्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, तन्ना
दिट्टो छुहिय त्ति तं गहाय पहावितो,ताणि खगरूवाणि रोधोगतिविषये मनावीर्यपरिणतिवैषम्यदर्शनार्द्धगतावपि
चंताणि पिउमूलं गयाणि , हिो पायसी त्ति सा गेसेरा
मारेमित्ति पहाविप्रो महिला अवसित्ता अच्छद तहवि जाइ, तद्वैषम्यं, तथा च सति सिद्धं स्त्रीपुंसामधोगतिवैषम्येऽपि निर्वाण सममिति कृतं प्रसङ्गेन । तथा पुँल्लिड़े शरीरनिर्व
जहि सो चोरसणावई गाममज्झे अच्छइ , तेण गन्तृण त्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुंलिङ्गसिद्धाः,
महासंगामी को । सेणावणा चिन्तिय-एएण मम एवं नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, यथा स्वलिङ्गे-रजोहरणादिरू
चोरा परिभविजन्ति ततो असि गहाय नियं छिन्नो । पे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते स्वलिङ्गसिद्धाः, तथा
महिला से भणइ-हा निकिव ! किमयं कयं ति, पच्छा सा पन्यलिने-परिवाजकादिसम्बन्धिनि वल्कलकषायादिव
धि मारिया , गम्भो वि दो भाग कता फुरुफुरेइ, तस्स किया खादिरूपे द्रव्यलिहे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्तेऽन्य
जाया अधम्मो कतो त्ति, चेडरूवहितो दरिद त्ति पउसी लिङ्गसिद्धाः, गृहिलिके सिद्धा गृहिलिङ्गसिधा मरुदेवी
उवलद्धा ततो दढयरं निब्बेयं गतो को उवाश्रोत्ति साईदि. प्रभूतयः, तथा 'एकसिद्धा' इति-एकस्मिन् २ समये एककाः
डा पुच्छिया य?,अाण भयव! को पत्थ उवाओ त्ति तेहि धसन्तो ये सिद्धास्ते एकसिद्धाः, 'अणेगसिद्धा' इति एक
म्मो कहियो,सो य से उवगतो पच्छा चारित्तं परिवजिय कस्मिन् समय अनेके सिद्धाः अनेकांसद्धाः अनेके चैक
म्माण समुग्घायणटाए घोरं स्वति अभिग्गई गरिहय तत्थेव स्मिन् समये सिध्यन्त उत्कर्षताऽष्टोत्तरशतसंख्या वेदित
विहर। ततो हीलिजा हम्मद य सो सम्म अहियासेर, घोव्याः। श्राह--मनु तीर्थसिद्धातीर्थसिद्धरूपभेदद्वये एव शे
राकारं च कायकिलेस करेह असणाहचा अलभंतो सम्म अ. षभेदा अन्तर्भवन्ति तत्किमर्थ शेषमेदोपादानम् ?, उच्यते
हियासेजाब अण्ण कम्मं निग्धाइयं कवले से उप्पन, पच्छा सत्यम् , अन्तर्भवन्ति परं न तीर्थसिदधातीर्थसिद्धभेदद्वयो
सो सिद्ध" त्ति । उक्तस्तपःसिद्धः। साम्प्रतं कर्मक्षयसिद्धपादानमात्रात् शेषभेदपरिक्षानं भवति , विशेषपरिज्ञानार्थ
प्रतिपादनाय गाथाचरमदलमाह-'मो कम्म' इत्यादि सकचैप शास्त्रारम्भप्रयास इति शेषभेदोपादानम् । नं० ।
र्मक्षयसिद्धो यः किं विशिष्ट इत्यत आह-सर्वक्षीणकौशः प्रशा० । श्री० । दश । उत्त। विश० । ध०र० । प्रव० । पं०
सर्वे निरवशेषाः क्षीणाः कौशा:-कर्मभेदाः यस्य सः तथा. सू०। न० 1 (केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे ६४७ पृष्ठे सिद्धके
विध इति गाथार्थः । बलझानप्रस्ताव अनन्तग्परम्परभेदाः सिद्धस्य दर्शिताः ।)
अधुना कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुक्तविधिना प्रतिसाम्प्रतं यदुक्तं 'शैलशी प्रतिपद्यते सिध्यति च' ति, तत्रा
पादयनिसावकसमयेन लोकान्ते सिध्यतीत्यागमः, इह च कर्ममु
दीहकालरयं जंतु, कम्मं से सिय मट्ठहा । क्रम्य तद्दनियमन गनिनोपपद्यत इति मा भूदव्युत्पन्न- मियं धंतं ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायई ।। ६५६॥ विभ्रम इत्यनस्तानरासनणार्थसिद्ध्यमिदमाह
दीर्घः सन्तानापक्षया अनादित्वात् स्थितिबन्धकालो यस्य
तद्दीघकालं निसर्गनिर्मलजीबानुरञ्जनाद्रजः कम्मैव भलाउअ एडफलं, अग्गी धूमे उसू धणुविमुके।
रायत दीर्घकालं न नद्रजश्च दार्गकालरजः . यच्छनः सर्वनागहन्यपयांगंगा, एवं मिद्राण विगी ।। ६५७॥ । मत्यादहशवचनं याकर्म इत्थंप्रकारं नुशब्दो भव्यकर्मवि
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सिद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। सेरणार्थःन खस्वभव्यकर्म सर्वथा मायते ततोऽयमर्थः, अथ कथं पुनस्तत्र तेषामुपपातोऽवगाहना चेत्यत प्राहदीर्घकालरजो ययकम्मेति शेषितं शचीकृतं स्थित्यादिभिः उत्ताणो व पासि-खो व अहवा निसनो चेव । प्रभूतं सत् स्थिस्यनुभावासंख्यापेक्षया अनाभोगसद्दर्शनशा
जो जह करेइ कालं, सो तह उववजए सिद्धो ॥ मचरणाघुपायतः शेषम कृतमिति भावःप्राधिभूतं सत्
उत्तानको बा पृष्ठतो व अर्धावनतादिस्थानतः पार्थस्थितो शेषितमित्यत आह-अष्टधा ज्ञानावरणादिभेदनाएप्रकारं सत्
वा,तिर्यक स्थितो वा,अथवा-निषसाश्चैवेति प्रकटार्थम् , कि सितं--सितवर्ण सित' वर्णबन्धनबोरिति वचनात् , 'पिम्' ब.
बहुना यो यथा येन प्रकारेणावस्थितः सन् काल करोति धने इति वचनात् वा, बधं कर्म मातं 'ध्मा'शमाग्मिसंयो
स तथा तेन प्रकारेणोपपद्यते सिद्ध इति । गयोरिति वचनात् ध्यानानलेन दग्धं महाग्निना लोहमलयत्
किमित्येतदेवमित्यत श्राहयेन स सिद्धः । प्रा० म०१०।
इह भवभिनागारो, कम्मवसानो भवंतरे होई । कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइडिया।
नय तं सिद्धस्स जमो, तम्मी तो सो तयागारो ॥ कहिं बोदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ॥१॥
बहभवादधिकृतभावाद् भिनाकारः इहभवभिनाकारो क प्रतिहवा:-क प्रतिस्फालिताः सिद्धा-मुक्काः, तथा जीवः कर्मयशेन भवान्तरे स्वगादी भवति तदाकारभेदस्य क सिद्धास्तथा प्रतिष्ठिता-व्यवस्थिताः बोन्दिस्तनु- कर्मभेदनिबन्धनत्वात् . न च तत्कर्म आकारमेदनिबम्धनं शरीरमित्यमर्थान्तरं क बोदिं स्यक्त्या-परित्यज्य गत्वा यतो यस्मादस्ति ततस्तस्मिनपवर्गे ततोऽसौ सिधस्तसिद्धयन्ति निष्ठितार्था भवन्ति । अत्रानुस्वारलोपो द्रष्टव्यः । दाकारः पूर्वभवाकारः । श्रा०म०१ अ०। औ०। अथवा-एकवचमतोऽप्येवमुपन्यासः सूत्रशैल्या अविरुद्ध ए. साम्प्रतमुत्कृष्पादिभेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुगहव ततोऽन्यत्रापि प्रयोगः , 'बत्थगन्धमलङ्कारं , इत्थीभो तिनि सया तित्तीसा, धणुविभागो य होह बोद्धब्बा । सयणाणि य । अच्छंदा जे ण भुञ्जन्ति, न से चार त्ति बुच्चई
एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया ।। .१॥" इति ।
त्रीणि धनुषां शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुविभागस्य इत्थं चोदकेनोक्ने सति प्रतिसमाधाममाह
बोद्धव्या,एषा एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानामुत्कृष्ठावगाह. अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइडिया ।
ना भणिता तीर्थकरगणधरैः । ननु भगवती मरुदेव्यपि सि
द्धा सा च नाभिकुलकरपत्नी नाभेश्च शरीरप्रमाणं पश्चधमुःइहं बोंदि चइत्ता णं,तत्थ गंतूण सिझई ।।
शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि यावश्च शरीरप्रमाणं तायदेव अलोके केवलाकाशास्तिकाये प्रतिहताः प्रतिस्फालिताः |
तत्पत्नीनामपि - संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेच कुलगसिद्धा इह प्रतिस्खलनं तत्र धर्मास्तिकायाधभावात्तदानन्तर्य- रेहि सम' मिति वचनात् ततो मरुदेव्या अपि शरीरप्रमा. वृत्तिरेव द्रष्टव्यं न तु सम्बन्धे सति भित्तौ लोएस्येव वि
णं पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि यावच शरीरप्रघानः अमूर्तत्वात् , तथा लोकाग्रं पञ्चास्तिकायात्मकलो
माणं तायदेव तत्पत्नीनामपि । तस्य विभागे पातिते सिकमूनि च प्रतिष्ठिताः अपुनरागमवृत्त्याः: व्यवस्थिता इत्यर्थः
द्धावस्थायाः सार्धानि त्रीणि धनु शतानि अवगाहना प्रा. तथा इह अद्धतृतीयद्वीपसमुद्रमध्ये बोन्दि-तनुं मुक्त्वा-प
माति,कथमुक्तप्रमाणा सिद्धानामुत्कृष्टाऽवगाहनेति, नैष दोषः रित्यज्य सर्वथा किं तत्र लोकाग्रे गत्वा समयप्रदेशान्तरम- नामिकुलकरमानाद् हि प्रमाणतोऽसौ किश्चिन्यूना तथा सं. स्पृशन्तो गत्वा सिध्यन्ति-निष्ठिताएँ भवन्ति सिद्धति
प्रदायात्ततः साऽपि पञ्चधनुःशता प्रमाणवेत्यदोषः। यश्व 'कुवैति गाथार्थः । श्रा०म०। (ईषत्प्राग्भागस्वरूपम् , 'इसि- लगरहिं सम' मित्यतिदेशः सोऽपि कियता न्यूनाधिक्येऽपि पभारा' शब्दे द्वितीयभाग ६५४ पृष्ठे उक्नम् ।)
अतिदेशानामागमे दर्शनादराधकः। अथवा-भगवती हस्ति. अस्याश्वोपरि योजनचतुर्विंशतिभागे सिद्धास्तथा चाह- स्कन्धाधिरूढा सती सिधा हस्तिस्कम्धाधिरूढा च सईसीपब्भाराए, उवरि खलु जोअणस्स जो कोसो ।
प्रचिताङ्गीति यथोक्लावगाहनाया अविरोधः। उनं च-किह कोसस्स य छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भणिया । ।
मरुदवा(घी)माणं, नाभीयो जेण किंचिदृणा सा। तो किर
पंचसय श्चिय, अहवा संकोयो सिद्धा ॥१॥" ईषत्प्रारभारायाः पृथिव्या उपरि यत् खलु योजनं तस्य यो
अधुना मध्यमावगाहनामानमाहजनस्य उपरितने कोशो-गव्य तस्य कोशस्योपरितने प.
चत्तारि य रयणीओ, रयणितिभागूणिया य योद्धया। बभागे सिद्धानामवगाहना तीर्थकरगणधरैर्भणिता, 'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् ।
एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमोगाहणा भणिया ।। अमुमेवार्थ समर्थयमान पाह--
मध्यमा ननु जघन्याजघन्यत्वनिषेधपरं सूत्रमिदम् । नन्वे
तावदेव मध्यमावगाहनामानं हस्तद्वयादृय पश्चधनुःशतेतिनि सया तेत्तिसा , धणुत्तिभागो य कोमछब्भागो। भ्योऽर्वाक सर्वत्रापि मध्यमावगाहनाभावात् । जं परमोगा ऽहो यं, तो ते कोसस्स छम्भाए ॥
सम्प्रति जघन्यावगाहनाप्रतिपादनार्थमाहयस्मात् परम उत्कृष्टः सिद्धानामवगाही वर्तते त्रीणि
एगाइ होइ रयणी, अद्वेव य अंगुलाई साहीया । धनुषां शतानि प्रयस्त्रिशदधिकानि धनुषस्त्रिभागश्च क्राशम्य एमा खलु सिद्धाणं, जहन्न ओहणा भणिया ।। पहभागः, नतम्तम्मात् कोशस्य पवभाग सिद्धा इत्युक्तम् । एको रत्मिः श्रावेष चाङ्गलानि माधिका अभिरक्ष
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( ३८).
अभिधानराजेन्द्रः। लैरधिक इत्यर्थः । एषा एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानां ज- परिवसन्तीति,' एवं सिद्धिगंडिया निरबससा भाणियव्व' घन्यतोऽवगाहना भणिता । एपा बद्धहस्तिप्रमाणानां कृ-त्ति-एघमिति -पूर्वोकसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमण सिद्धिमीपुत्रादीनामवसातव्या । अन्य त्ययं त्रुवते सप्तहस्तानामय गरिडका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा वाक्यपद्धतिरोपपायन्त्र पालनादिना संवर्तितगात्राणि सतां सिद्धानामवगन्त- कंप्रसिद्धाऽध्येया । भ० ११ श. ( उ० । व्या,नम्बागमे सिद्धिर्जघन्यपदे सप्तहस्तोमिळूतानामभिहिता
से ण भंते ! तहा सजोगी सिजिझहिइ० जाव अंतं करेनतः कथमुच्यते विहस्तप्रमाणानां कुर्मीपुत्रादीनामिति ? उच्यते-सा जघन्यपद सिद्धिस्तीर्थकरानधिकृत्योक्का शेषाणां हिइ ?, णो इणद्वे समझे, से ण पुण्यामेव संमिस्स पंचिंतु केवलिनां सिद्धिहस्तप्रमाणानामप्यविरुद्धेत्यदोषः। उ. दियस्स पञ्जत्तगस्स जहणजोगस्स हेट्ठा असंखजगुणक्नं च-"सत्तूणिएसु सिद्धी, जहन्नतो किहमिहं विहत्थेसु ।
परिहीणं पढम मणजोगं निरंभइ, तयाणंतरं च णं विंसा किर तित्थयरेसु, सेसागमियं तु सिद्धाणे ॥१॥ ते पुण होज चिहत्था , कुम्मीपुत्तादयो जहन्नेणं । अन्ने संवट्टियस
दियस्स पञ्जत्तगस्स जहएणजोगस्स हेट्ठा असंखजगुणत्तहत्थसिद्धस्स हीण ॥२॥त्ति" ॥ अथवा-यदिदं सूत्रे जघ- परिहीणं बिइयं वइजोगं निरंभइ, तयाणतरं च णं सुन्य मानमुक्तं सप्तहस्तम् ,उत्कृष्टं पश्चधनुःशतानि तत् बाहल्या हुमस्स पणगजीवस्स अपञ्जत्तगस्स जहाजोगस्स हेट्ठा मधिकृल्यालमन्यथाऽङ्गलपृथक्त्वे जघन्यपदे धनुःपृथक्त्वे उ
असंखजगुणपरिहीणं तईयं कायजोगं णिरुंभइ , से गं स्कृष्टपदे यथाक्रमं हीनमभ्यधिकं यावद्वेदितव्यं तेन कर्मीपुत्रमरुदेव्यादिमिर्न कश्चिद्विरोधः । न खल्वाश्चर्यादिक किश्चित्
एएणं उवाएणं पढममणजोगं णिरुंभइ, मणजोगं णिसामान्यश्रुतं सर्वमुक्तमस्तिः। अधका-निबद्धपि तदस्तीति | रंभित्ता वयजोगं णिरुंभइ, वयजोगं णिभित्ता कायजोगं श्रद्धायातपञ्चशतादेशवचनवत् तथेदमपि सिद्धं गच्छनां णिरंभइ, कायजोग निलंभिसा जोगनिरोह करेइ , जोद्विहस्तमान सपादपञ्चधनुःशतमान श्रद्धीयतामिति । उक्त
गनिरोहं करेता अजोगतं पाउणति, अजोगत्तं पाउणिच-“बाहल्लती य मुल-म्मि सुत्तपंचय जहन्नकोस । इह राजीगाउमहिय,हो जंगुलधणुपुहत्तहि ॥१॥ अत्थिरयादी कि त्ता इसिं हस्सपंचक्खरउच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोची, सामन्नसुगन देसियं सव्यं । होज व अनिवदधं वि य, मुहुत्तिय सलेसि पडियजइ , पुचरइयगुणसेहीयं च ण पञ्चसया देसवय च ॥२॥" प्रा० म०१ अ०।
कम्म तीये सेलेसिमद्धवाए असंखजाहिं गणसढीहिं. अभंत त्ति भगवं गोयमे समण भगवं महावीरं बंदइ नम- गते कम्मंसे खवेति वेयणिजाउयणामगुत्ते, इच्छेते चसह वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवाणं भंते ! सि- त्तारि कम्मंसे जुगवं खवेइ वेदणिज्जा २ ओरालियतेज्झमाणा. कयरम्मि संघयणे सिझंति ? , गोयमा !- याकम्माई सबाहिं विप्पयहणाहिं विप्पजहइ । ओरालियरोसभणारायसंघयणे सिज्झति,एवं जहेव उववाइए त- यतेयाकम्माई सव्याहिं विप्पयहणाहिं विप्प यहित्ता उहेव मंघयणं संठाणं उच्चतं आउयं च परिवसणा , एवं ज्जूढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उडू एकसमएणं अविसिद्धिगंडिया निरवसेसा भणियब्याजाव अव्याबाहं मो- ग्गहेणं गंता सागारोवउत्ते सिज्झिहिइ । ते ण तत्थ क्खं, अणुहवं (हंती)ति सासया सिद्धा । सेवं भंते ! सिद्धा हवंति सादीया अपज्जवसिया अमरीरा जीवघणा भंते ! त्ति । (सू० ४१६)
दंसणनाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा निरयणा नीरया हिम्मला भंत ति-इत्यादि अथ लाघवार्थमतिदेशमाह-' एवं ज
वितिमिरा विशुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति । से के हये' त्यादि एवम्-अनन्तरदर्शितेनाभिलापेन यधोप
णतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सापातिक सिद्धानधिकृत्य संहनानायुक्तं तथैवेहापि याच्य , तत्र च संहननादिद्वारागां संग्रहाय गाथा पूर्वार्द्धम्-' स-दाया अपजवासया०जाव चिट्ठति ?, गोयमा ! से जघयण संठाणं उच्चतं आउयं च परिवसगति । तत्र से- हाणामए वीयाणं अग्निदड्राणं पुणरवि अंकुरुप्पत्तीण हननमुक्कमेच, संस्थानादि वेवम्-तत्र संस्थान पाम संस्था- । भवइ, एवामव मिद्धाणं कम्मवीए दड्डे पुणरवि जम्मुनानामन्यतम्मन सिद्धान्त, उच्चब तु जघन्यतः स
प्पत्ती न भवइ , से तेणगुणं गोयमा ! एवं वुसनिप्रमाण उत्कृष्टतस्तु , पञ्चधनु शतक , श्रायुषि पुनर्ज-- घन्यतः सातिरेकाष्टवर्पप्रमाणे उत्कृष्टतम्तु पूर्वकोटीमाने, प
कचइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपग्विमना पुनरेवम-उन्नप्रभादिपृथिवीनां सौधर्मादीनां नेष । जवसिया जाव चिट्ठति । जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा
प्राग्भागन्तानां क्षेत्रविंशाणामधी न परिवन्ति सिद्धाः। कयरम्मि संघयण सिझंति ?, गोयमा ! वइरोसभणाराकिन्न-सर्वार्थमिदमहाविमानम्योपरितनास्तृपिकांग्रादृय यसंघयणे सिझंति, जीवा ण भंते ! सिझमाणा कयद्वादश योजनानि व्यतिक्रम्यपत्प्राग्भागनामपृथिवी' पञ्च
रम्मि संठाणे सिझति ?, गोयमा! छराहं संठाणाणं चत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्याम . वर्णतः | वेताऽन्यन्तरम्यास्ति नम्याश्चोपाग्यांजने लोकान्ता भवति,
| अपतरे संठाणे सिझंति , जीवा णं भंते ! सिझमातस्य च याजनम्योपरितनगव्यतोपरितनपहभाग सिद्धा-। णा कयरम्मि उच्चत्ते सिमति , गोयमा । जहएणणं
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सिद्ध
सत्तरयणीओ उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिज्यंति । जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए मिज्यंति :, गोमा ! जहां सारे गडवा साउए उक्को सेणं पुन्त्रकोडिवाउए सिति । अस्थि गं भंते! इमीसे स्वगप्पाए पुढवी हे सिद्धा परिवसंति ?, यो इणट्ठे समट्ठे, एवं० जाव अहे सत्तमाए । अत्थि गं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस आहे सिद्धा परिवति है, यो इाडे सट्टे एवं स सिं पुच्छा, ईसागरस सकुमारस्य जाव अच्चुयस्स विअविमाया अपरचिमायाणं । अस्थियां मेवे ! ईसीपारा पुढची आहे सिद्धा परिवर्तति है, यो इस ?, समट्ठे से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवर्सति ? गोयमा ! ( श्र० ) ईसीपम्भाराए गं पुढवीए सीयाए जो खंमि लोगंते, तस्स जोयणस्स जे से उबरले गाउए तस्स गं गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिषु तत्थ सिद्धा भगवंतो सादीया अपजयसिया अमजा इजरामरण जो सार कलंकली भावपुरा - भवगम्भवा ससीपर्वचसमहकता सासयमा गयमदं चिति (०४२ x )
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'से पुवामेव सनिस्से' त्यादि, अस्थायमर्थ:-स- केवली मिलले पूर्वमेव श्रादाय योगनिघावस्थायाः से नो मनोलन्धिमतः पश्चेन्द्रियस्येति स्वरूपविशेषणं यतः संभवति, 'पजतस्व'नि-मनः पर्यापर्यासस्य, तदन्यस्य मनोलब्धिमनोऽपि मनसोऽभाव एवेति पर्याप्तस्येत्युक्तं स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि स्यादित्याह'जहरण जोगिम्स' ति जघन्यमनोयोगवतः 'हेड' त्ति श्रधो यो मनोयोग इति गम्यते, जघन्यमनोयोगसमानो यो न भवतीत्यर्थः, मनोयोगश्च - मनोद्रव्याणि नद्वयापारश्चेति, जघन्यमनयोगाधोभागदयमेव दर्शयन्नाह असंखेगुणपरिही ति अपरिहयो यः स तथा तं जघन्यमनोयोगस्यासंख्येयभागमात्रं मनोयोगं निरुणद्धि ततः क्रमेणानया मात्रया समय समये तं निरुन्धानः स मनोयोग निरुणजि. अनुत्तरेणाचिन्त्येन प्रकरणवीर्येति, एतदेवाह पद जोन सि प्रथमं शेषवागादियोगापेक्षया प्राथम्येन श्रादितो मनोयोगे निरुद्धीति । उक्तं च- " पज्जतमेत्तसन्नि स्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदण्याई, तव्वावारो य जम्मत्तो ॥ १॥ तदसंखगुणविहीगं, समए समय निरंभमाणो सो । मणसो सव्धनिरोद्दं, करें असम ॥२॥ ति एवमम्पदपि सूत्रद्व नेयम्, अजोगयं पाउण्ड चि योग प्राप्नोतीति 'ईसिंहस्रपंच खरुच्चारणद्धार' सि 'ईसि ति-पत्स्पृष्टानि हस्वानि यानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुच्चारणं तस्य याऽद्धा-कालः सा तथा तस्याम्, इदं चोश्चारण न विलम्बितं द्रुत वा, किन्तु मध्यममेव गृह्यते यत अ." इसराईम जेण काले पंच भरांति । श्रच्छर सेलेसिगश्रो, तत्तियमेत्तं तो कालं ॥१॥ शैलेशी- मेहस्तस्येव स्थिरतासाम्पाद या
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( ८३१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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सिद्ध
अवस्था सा शैलेशी अथवा शीलेशः सर्ववरवारि प्रभुतस्येयमवस्था योगनिरोधरूपेति शैलेश ता प्रतिपद्यते, ततः पुस्रखेदीयं चति-पूर्व-शैले श्ययस्थायाः प्राग् रचिता गुरुश्रेणीक्षणोपक्रमविशेषरूपा यस्य तत्तथा, गुणश्रेणी चैवम् सामान्यतः किल कर्म बहुपमल्पतरमस्पतमेवेत्येवं निर्जरणाम स्वयति, पदा तु परिणामविशेषात्तत्र तथैव रचिते कालान्तरवेद्यमल्पं बहु बहुतरं बहुतमं चेत्येवं शीघ्रतरक्षपणाय स्वयति तदा सा गुणश्रेणीत्युच्यते, स्थापना चैवम्-' कम्मं ति वेदनीयादिक भयोपप्राहि 'तीसे से 'लेसिमटार ' सितस्य शैलेश्वा-शैलेशीकाले पति योगः श्रसंखेजाहिं एतदेव विशेशाही ि संख्यातानीमः शैलेश्ययस्थाया असंधानसम यत्वेन गुणश्रेण्यप्यसख्यातसमया ततः तस्याः प्रतिसमयभेदकल्पनया असंख्याता गुणश्रेणयो भवन्ति, अतोऽसंख्याताभिः गुणश्रेणीभिरित्युक्तम् असंख्यातसमयेरिति हृदयम् अति कसे तो तिल पन्यादनन्तास्तान कमशान भयोपग्राहि कर्ममेदान पपनिर्जरयन् 'वेयणिज्जाउयगामगोप त्ति वेदनीये सातादि आयुः मनुष्यायुष्कं नाम मनुष्यत्यादि गोत्र-''बिचारचि चतुरः कर्मसे' चि-कर्माशान मूलत: सियोगपद्येन निर्जरयतीति । एतश्चैता भाष्यगाथा अनुश्रित्य व्याख्यातम् यदुत
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तं
'तदसंखेजगुणाए, सेडीए विरइयं पुरा कम्मं । समए समय खवयं, कम्मं सेलेसिकाले ॥ १ ॥ यं किंचिदुर सम किंचिच्च होर चरमे, सेलेसीए तयं वोच्छं ॥ २ । मणुयगइजाइत सवा-परं च पज्जतसुभगमा जं यश्वेणि नराउ जसो नामे ३ ॥ संभव जिखनामं, नराणुपुत्री य चरिमसमयस्मि । संसारसम्म निति ॥ इति साहिविष्या तिसर्याधिःपाःविशेषेण विविधं प्रकर्षतो हानयः- त्यागा विप्राणयो व्यपत्यपेक्षा बहुवचनं ताभिः किमु यति-सर्व प रिशाटनं नतु यथा पूर्व सङ्घातपरिशाटाभ्यां देशत्यागतः 'विप्पत्ति' निरित्यज्य 'उज्जुसेदिपडिभिजुअवा प्रे:ि- आकाशप्रदेशपट्टि लाम् ऋ जुथेति प्रतिपन्नः प्रथितः 'प्रमाण' सि अस्पृशन्ती प्रदेशान् गति सोऽस्पृशङ्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्श दिन समयेन सिद्धि एव समयः, य एव वायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वासमयः श्रतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालप्रद - शानामसंस्पर्शनमिति । सूक्ष्मश्चायमर्थः केवलगभ्यो भावत र्शत 'गेम'वि-कुत इत्याह-अतिहितेन च पचहि समयान्तरं सति प्रदेशान्तरं च स्पृशनीति, 'उहं गंता' ऊ त्या सागारीसानोपयोगवान् सिध्यति ल
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इति । गतमानुषङ्गिकम् । अथ प्रकृतमाह-किं च प्रकृतम् ?, से जे इमे गामागर ०जाव सन्निधेसेसु मरणुया हवंति सम्यकामवि
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(८४०)
अभिधानराजेन्द्रः। रया जाव अट्ठ कम्मपयडीओ खवासा उपि लोगग्गपट्टा. णसुवममइति-अर्जुनसुवर्ण-श्वेतकाञ्चनम् अच्छा आकाशरणा हति' नि--लोकाग्रप्रतिष्ठानाश्च सन्तो यारशास्ते भव स्फठिकमिव 'सराह' त्ति-श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्धनिष्पना श्लन्ति सहीयतुमाह- तन्थ सिद्धा हवंति सि-ते पूर्वोह णतन्तुनिषत्रपटवत्लगह'त्ति-मसृणा धुरिटतपटवत् , 'घटावशषणा मनुष्याः, तत्र-लोकाग्रे निष्ठितार्थाः स्युरिति. ?'ति-घृष्य पृष्टा खरशानया पाषाणतिमावत् , 'मट्ठ' नैन में यत्केचन मन्यन्त . यदुन-'रागादिवासनामुक्त, चि- सि-भूषव मृष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रसमेव निरामयम् । सदाऽनियतदेशस्थं ,सिद्ध इत्यभिधीयते माजेनिकयेक , अत एवणीरय' त्ति-नीरजा-रजोगहि
' यच्चापरे मन्यन्ते-"गुणसत्वान्तरज्ञामानिवृतप्रकृति- ताणिम्मला' कठिनमलरहिता 'पिप्पंक' त्ति-निष्पकाक्रियाः । मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति , व्योमवत्तापवर्जिताः ॥२॥" आमलरहिता अकलका वा 'णिकंकडच्छाय'त्ति-निकतदनेन निरस्तम् ,यच्चोच्यते-सशरीरतायामपि सिहत्यप्र- कटा-निष्कवचा; निरावरणत्यर्थः , छाया-शोभा यस्याः निपादनाय, यदुत-"अणिमाद्यविधं प्रा-ध्यैश्वर्य कृतिनः सातथा अकलशोभा वा, समरीचिय' क्ति-समरीधिसदा । मोदन्ते मिवृतात्मान-स्तीर्णाः परम दुस्तरम् ॥ इति का-किरणयुक्ता, अत एव 'सुप्पम 'सि-सुष्ठ प्रकर्षण च तदपाकरणायाह--अशरीरा-अविद्यमानपश्चप्रकारशरीरा:, भाति-शोभते या सा सुप्रभेति, पासादीया'सि-प्रासातथा जीवघ नि-योगनिरोधकाले रन्ध्रपरणेन विभागाना- दो-मनःप्रमोदः प्रयोजन यस्याः सा प्रासादीया 'दरसउबंगाहनाः संम्तो जीवघमा इनि, 'दसणनाणोवउत्त'क्ति-झा- णिज' सि-दर्शनाय-चलुापाराय हिता दर्शनीया, तां प. ने-साकारे दर्शमम्--अनाकारं तयोः क्रमेणोपयुका येते त. श्यशचुन धाम्यतीत्यर्थः , 'अभिनव 'त्ति अभिमतं सर्प था, 'निट्टिय'सि-निष्ठिताः -समाप्तसमस्तप्रयोजना नि. यस्याः सा अभिरूपा , कमनीयेत्यर्थः , पडिरूव 'तिद्रष्टारेयण' ति निरेजनाः-निश्चलाः 'नीरय' ति-नीरजसो-व- रं द्रष्टारं प्रति वर्ष यस्याः सा प्रतिरूपा, 'जोयणमि लोध्यमानकर्मरहिता नीरया वा-निर्गतीत्सुक्या: 'निम्मल ति- गते 'नि इह योजनमुत्सेधाङ्गलयोजनमवसेयं , तदीयस्यैव निर्मलाः पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुलाः द्रव्यमलवर्जिता या विति- हि क्रोशषड्भागस्य सत्रिभागस्त्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रयीमिर ति विगताज्ञानाः विसुद्ध'ति-कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुप- प्रमाणत्वादिति , 'श्रणेगजाइजरामरण जोणिवेयण ' अनकगताः 'सासयमणागयधं कालं चिटुंति'शाश्वतीम्-अविन- जातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तम् , श्वरी सिद्धत्वस्याविनाशाद,अनागताद्धा-भविष्यत्कालं ति. (श्री०) ('संसारकलंकलीभाव' पदव्याख्या 'संसाष्टन्तीति 'जम्मुपती'ति-जन्मना--कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्ति- र, लंकलीभाव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता ।) पार्या सा तथा , जन्मग्रहणेन परिणामान्तररूपात्तदुत्पत्तिर्भव ठान्तरमिदम्- अणगजाइजरामरणजाणिसंसारकलंकलीतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वात्सद्भावस्येति, 'ज भावपुणभवगम्भवासवसहिपवंचसमहकंत' त्ति-अनेकजाहराणेग सात रयणीए' सि-सप्तहस्ते उच्चत्वे सिध्यन्ति म- निजरामरलप्रधाना योनयो यत्र स तथा सचासौ संहावीरवत् , ' उक्कोसेणं पंचधणुम्सए त्ति-ऋषभस्वामिवद् , सारश्चेति समासः , तत्र कलङ्कलीभावेन यः पुनर्भवन एतच्च द्वयमपि नीर्थङ्कगपेक्षयोक्रम् , अतो द्विहस्तामान पुनः पुनरुत्पत्या गर्भवासबसतीनां प्रपञ्चस्तं समतिक्रान्ता कर्मापुत्रेण न व्यभिचारोन वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनु:
येते तथा ॥४३॥ शतप्रमाणयेति, 'साइरेगट्ठवासाउपत्ति-सातिरेकाण्यष्टौ व
अथ प्रश्नोत्तरद्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाहपाणि यत्र तत्तथा तच्च तवायुश्चति तत्र सामिरेकाष्टवर्षायुघि , तत्र किला वर्षवयाश्चरणं प्रतिपद्यते , ततो वर्षे
कहिं पडिहया सिद्धा,कहिं सिद्धा पडिट्ठिया ?,। अतिगते केवलज्ञानमुत्पाद्य सिध्यतीति , · उक्कोसेगा कहिं बोंदि चइत्ता ण, कत्थ गंतूण मिज्झइ ? ॥१॥ पुब्धकोडाउए' त्ति-पूर्वकोट्यायुनरः पूर्वकोश्या अन्त अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिट्ठिया । सिध्यतीनि न परतः । 'ते ण तत्थ सिद्धा भवंति' त्ति
इहं बोदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई ॥२॥ प्राक्क्रनवचनाद् यद्यपि लोकाग्रं सिद्धानां स्थानमित्यवसी
जं संठाणं तु इहं,भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि । यत. तथापि मुग्धविनेयस्य कल्पितविधिधलोकाग्रनिरासतो निरुपचरितलोकाग्रस्वरूपविशेषावबोधाय प्रश्नोत्तरसू
पासी य पएसघणं, तं संठाणं तर्हि तस्स ।। ३ ।। त्रमाह-'अस्थि ण' मित्यादि व्यकम् , नवरं यदिदं रत्नप्रभा- दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं । या अधस्तदेव लोकामिति तत्र सिद्धाः परिवसन्तीति तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया ।। ४ ।। प्रश्नः, तत्रोनरम्-नायमर्थः समर्थ इति , एवं सर्वत्र , 'से
तिमि सया तेतीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वा । कहि खाद गं भंत!' त्ति-इत्यत्र 'सेनि-ततः 'कहिं ' तिक देश 'खाइ णं' ति--देशभाषया वाक्यालङ्कारे (ईषत्या
एसा खलु सिद्धाणं , उक्कोसोगाहणा भणिया ॥ ५ ॥ ग्मारापृथ्वीप्रश्नोत्तरम् ईसियभारा' शब्दे द्वितीयभागे चत्तारि य रयणीओ, रयणितिभागूणिया य बोद्धव्वा । ६५४ प्रष्ठ गतम् ।) 'सेय ' ति-श्वेता , एतद- एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमयोगाहला भणिया ।।६।। पाह-'आयसतलविमलसोलियमुणालदगरयतुसारगावीरहारबाम ' ति-व्यक्तमेव , नवरम् आदर्शतलम्--दर्प
एका य होइ रयणी, साहीया अंगुलाई णट्ठ भवे । णतलं करि लमिति पाठः, आदर्शतलमिव विमला
एसा खलु सिद्धाणं, जहएणोगाहणा मणिया ॥७॥ परसा तथा , 'सोल्लिय' सि-कुसुमविशषः , ' सव्वज्जु
योगायणाएँ सिद्धा, भवत्तिभागेण होड़ परिहीणा ।
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सिद्ध
ठाणमणिरथंथं जरामरणविप्यकाणं ॥ ८ ॥ जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणता भवक्खयविमुक्का चरणो ममवगाढा, पुट्ठा सच्चे य लोगंते ॥ ६ ॥ म असं सिद्धे, सब्दपरमेहि नियमयो सिद्धा । ते व सखेञ्जगुणा, देसपएसेहि जे पुट्ठा ।। १० ॥ अउरी जीवथा उपउता दंससे यखाखे य सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ११ ॥ केवलगाच उता, जाती सम्वभावगुणभावे । पासंति सव्वओ खलु केवलदिट्ठी भगंताहिं ॥ १२ ॥
त्रित्थि माणुसणं, तं सोक्खं गवि य सव्वदेवाणं जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ १३ ॥ जं देवागं सोक्खं सव्वद्धापिंडियं प्रणतगुणं ।
अभियानदराजेन्द्रः ।
पावइ मुत्तिसुहं गताहि वग्गग्गूहिं ॥ १४ ॥ सिद्धस्स सुहो रासी, सब्वद्धापिंडिओ जर हवेजा 1 सोऽवग्गमओ, सव्वागासे समाएजा ।। १५ ।। जह गाम कोइ मिच्छा, नगरगुणे बहुविहे विथातो । न चएइ परिकहेउं, उयमाऍ तहिं असंती ॥ १६ ॥ इय सिद्धाणं साक्ख अयोवमं गत्थि तस्स ओवम्मं । किंचित ओवम्ममि सुबह बच्खं ।। १७ ।। जह सम्वकामगुखियं, पुरिसो मोनूय भोग कोइ । तहान्छुहाविसुको अच्छेज जह। श्रमियतितो ॥१८॥ इस सम्यकालतिता, अतुले निम्या सिद्धा । सासय मन्त्राबाई, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १६ ॥ सिद्धतिय बुद्ध नि य पारगय नि य परंपरगय ति । उम्मुककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ॥ २० ॥ गिच्छिम्मसन्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधय विमुक्का ।
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वाचा सुक्खे, अहोती सामयं सिद्धा ॥ २१ ॥ अतुल सुहसागरगया, अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता । सब्वमणागयम, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता || २२ ॥ 'कहिइत्यादिलोकद्वयं क प्रतिहताः-क प्रस्खलिताः सिद्धा मुक्ताः ?, तथा क सिद्धाः प्रतिष्ठिता व्यवस्थिता इत्यर्थः १, तथा क बन्द - शरीरं त्यक्त्वा ?, तथा क गत्वा ज्झति - प्राकृतत्वात् ' से हु चाइ ति बुम्बई ' त्यादिवत् सिध्यन्तीति व्याख्येयमिति ॥ १ ॥ अलांके-श्रलोकाकाशास्तिकाये प्रतिहताः - स्खलिताः सिद्धा - मुक्ताः, प्रतिस्खतन बेदानन्तर्यवृतिमात्रं तथा लोकाचास्तिका भाग्यलोकमूर्धनि प्रतिष्ठिता-अपुनरागत्या व्यवस्थि इत्यर्थः तथा मनुष्यक्षेत्रे बोदित परित्यज्य तत्रेति लोक गत्वा सिति-सिध्यन्ति-निठितार्था भवन्ति ॥ २ ॥ किञ्च ज सठाणं' गाहा व्यका, नवर प्रदेशघनमिनि विभागेन रन्धपूरणादिति, तर्हि ' ति-सिद्धक्षेत्र 'तस्स' त्ति सिद्धस्येति ॥ ३॥ तथा चाह- 'दीहिं
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ਜਿਵ
वा' गाहा, दीर्घ वा पञ्चधनुः शतमानं हवं वा-हस्तद्वयमानं, वाशब्दान्मध्यमं वा. यश्चरमभवे भवेत्संस्थानं ततःतस्मात् संस्थानात् भावना विभाग द्धानामवगाहना - अवगाहन्ते श्रस्यामवस्थायामिति श्रवगाहना स्वावस्यैवेति भावः, भगिता-उक्ता जिनैरिति ॥ ४ ॥ अधावगाहनामेवो'तिरिव सपे' त्यादि इयं च पश्चधनुः शतमानानां 'चत्तारि ये' त्यादि तु सप्तहस्तानाम 'याद दिलानानामिति। इयं च विविधाप्यूर्ध्वमानमाश्रित्यन्यथा सप्तस्तमानानां च उपविष्टानां सिदयतामन्यथाऽपि स्यादिति परिहारी पुनरेवमत्र - ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुः शतमानः प्रतीतताऽपि मरुदेषी त्माउ कुलगरेहिं सम' मिति वचनात् श्रतस्तदवगाहना उत्कृष्टशबगाहनातोऽधिकतरा प्रानोतीति कथं न विरोधः फूलतुल्तयोषितामयुक्रं तथापि प्रादिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुम्भ्यो लघुतरत्वात् पञ्चेत्र धनुः शताम्य सावभवत्, बृद्धकाले वा सङ्कोचात् पश्ञ्चधनुःशतमाना सा श्रभवद्, उपविष्टा वाऽसौ सिद्धेति न विरोधः। अथवा बाहुपाशमिवगाहनामानं मरुदेवी त्याकार्यकस्येत्येयमन विरोधः ननु जघन्यतः सप्तहस्ति तानामेव सिद्धिः प्रागुक्ता, तत्कथं जघन्यावगाहना श्रष्टाङ्गुलाधिकहस्तप्रमाणा भवतीति ?, त्रोच्यते. सप्तहस्तोच्छ्र तेरा तन्तु द्विता अपि कर्मपुत्रादयः सिद्धाः अतस्तेषां जघन्याऽवसेया, अन्ये त्वाहुः-सहस्तमानस्य संवर्तिताङ्गोपाङ्गस्य सिद्धयतो जघन्यावगाहना स्यादिति ||७|| `श्रोगाहणार' गाद्दा व्यक्ता, नवरम्' अपित्थंथं' वि प्रकारापतिष्ठतीति इन इथे स्थम् अनियन केनचिकिकप्रकारे स्थितमिति ॥ ८ ॥ अनेक देवानाम्यथेत्यस्थामाशङ्कायामाद' जत्थ य' गाहा, यत्र ब -यंत्रैव देशे एकः सिद्धो निर्वृतस्तत्र देशेन किमया' इति भव विमुक्ां भावमुद्राः अनेन स्वेच्छया भयायतरखरात्रिविच्छेदमाह । श्रभ्योऽन्य समयगादा तथाविधाि न्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति, स्पृष्टश:- लग्नाः स
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च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्म्मलितत्वाद्, अत एव 'लोवने व पट्टिया युक्रमिति ॥ तथा 'फुल' गाहा, स्पूशत्यनन्तान्सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसम्बन्धिभिः खियमसो ' ति-नियमेन सः तथा संवेगा वर्तते देशे। प्रदेशश्च ये स्पृष्टाः, केभ्यः ? - सर्व प्रदेशस्पृडेभ्यः, कथम् ?सर्वात्मप्रदेशैस्तावदनन्ताः स्पृष्टाः, एकसिद्धावगाहनायाममन्तानामवगाढत्वात् तथैकैकदेशेनाप्यनन्ताः एवमेके कमाना प एव नवर देश-द्वपादिदेशसमुदायः प्रदेशस्तु - निर्विभागोंऽश इति । सिद्धआसव्वदेशप्रदेशात्मकः ततश्व मूलानन्तकमयेयेशानन्तरसंयेरेव च प्रदेशानन्तं यथोक्रमेव भवतीति ॥ १० ॥ अथ सिद्धानेव लक्षणत श्राहअसरांरा गाहा, उक्लाथी, संग्रहरूपत्वाच्चास्या न पुनरुक्त्वमिति ।। ११ ।। ' उवत्ता दंसणे या य' सियदुकं तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वत्रिषयतामुपदर्शयन्नाह- केव
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सिद्ध
ल' गाहा, केवलज्ञानीपयुक्ताः सन्तः न त्वन्तःकरणोपयुक्ताः भावतस्तदभावात् जानन्ति 'सर्वभावगुणभावान्' समस्तपात्र गुणाः सहवर्तमः पर्यायास्तु क्रम बर्तिन इति , नद्या पश्यति सर्वतः सर्वत एवेत्यर्थः केवलहाटे मिरनम्ताभिः - कवलवशेनरनन्नैरित्य त्या विषयाम के वरष्टिनानिरित्युक्रम् इह बादीअनया तमुपयोगव्याः सिध्यतीति शापमार्थमिति ॥ १२ ॥ अथ सिद्धानां निरुपमसुखतां दर्शयितुमाह-वि श्रस्थि' गाहा व्यक्का, नवरम् 'अव्याबाई' ति- विविधा आयाघा व्यापाधा afsiादन्याबाधा तामुपगतानां -मातानामिति ॥ १३ ॥ कस्मादेवमित्याह-- 'जं देवा' गाहा, पतो यस्माद्देवानाम् अनुसर सुगमतानां सौख्यम् - त्रिकाल - कसुखं सर्वादया- श्रतीतानागतवर्तमानकालेन पिरिडसम्मुडानिं तथाऽनन्त कम्पनीका कामदेवाय
लोफाकाशानन्नप्रवेशपुर खेमामस्तं भवति नच प्रातिनैव मुनि लभते धनमन्तस्वास्सिद्धसुखस्य (किंविधं देवसुखमिति 'धग्गबष्ठभागेन श्री०
खण्डितं सिद्धसुखं तदीयानन्तानन्ततम खण्डसमतामपि मलभत इत्यर्थः ततो नास्ति सम्पादन सुखं प सिद्धानामिति प्रकृतम् १४ ॥ सस्यैचोस्कर्षणाय मङ्गयन्तरे- 'सिस्गादा, सिद्धस्य मुक्तस्य सम्प भी सुना सको राशि समूहः सुखसङ्गात इत्यर्थः सर्पाचा पिडित सर्वकामगुति दि भवेद्, अमेन चास्य कल्पनामात्रतामाह, सोऽनन्तधर्मभ
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-अन्तर्गापवर्तित सम्म पनि भावार्थ:afer' लोकालोकरूपे म मायात्, जयमंत्र भावार्थ:-इह कि विशिष्टाद्वादरूपं सुखं गृह्यते मत यत आरम्भ शिस्तिमाहात्म विदो विशिष्यते यावदनावृया निरनिपनि गतः ततया सावत्वन्तांगमातीकान्तिकत्वनिवृत्तिरूपः स्तिमितममडोल्प
माहाद एव सदा सिजानां भवति, तस्माचारात्यथमाध्येम गान्तरालवर्तिमो ये तारतम्येादशेश सर्याकाशप्रदेश भवन्तीत्यतः किमोक्रममाझिया प्रतिनियनदेश पथि
( ८४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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कथं नेपामिति सरयोति ॥ अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्वायं भावोर्थः-- य एते सुमेदास्ने सपना व्यतिपात स्वमेवोपमानमा मनोपराम्
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शिब्धकलाबा सहस्रं समयशस्तु शर्मा, सहस्रं च शतम गुणितं जासं लक्षं, गुणनं च कृतं सर्वसमयसम्बन्धिनां सुखपर्यायाणां मीलनार्थम्। तथाऽनन्तरा फिल
इसमे अतः पूज्यैरुक्रम्-समीभूत एपे 'ति भावार्थ इति । सुखरामवर्त च तदेयं सम्धापयाम मंत्र लितिया
सिद्ध
न्तकरूपाती महास्वरूपेणापवर्तित किञ्चिदशिष्यते, स राशिरति महान् ततश्च सिद्धसुखरा शिर्महानिति बुद्धिजननाचे शिष्यस्य तस्य वा गतिमार्गे व्युत्पत्तिकरा धमिति । अन्ये पुनरिमां मायामेव व्याख्यान्त-सिद्धसुखपर्यायराशिः नभः प्रदेशाग्र गुणित नभः प्रदेशाप्रमाणः, तत्परिमाया सिद्ध पर्यायानां सर्वाजापिण्डिनः सर्वसम यसम्बन्धी सङ्कलितः सन् स चानन्तैः अनन्तश इत्यर्थः, वर्ग: वर्गमूर्मः अपवर्तित: अयन्तं बघून इत्यर्थः यथा किल सर्वसमयसम्बन्धी सिद्धसुखराशिः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षशिकचेति (६५५३६) स च वर्गेापयजाते (२४९) सोऽपि स्ववर्गापवर्तितो जाताः षोडश ततश्चत्वारः ततो द्वावित्येवमतिलघूकुतोऽपि सर्वाकाशे न मायाद् एतदेवाद- 'सवायासेनमज्जनि-अप सम्पन्न ह - 'जद' गाहा. पूर्वार्ध व्यक्तं न चर' सि न शक्नोति परियनिगरगुणानरयमागतो यचासिम्लेभ्यः
कुत इत्याह
उपमा नगरप्रये वाऽसत्यमिति कथानकं पुनरेवम्-
"च्छुः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः । श्रन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः ॥ १ ॥ नागोर याचितम् । प्रापितश्च निजं देश, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥ २ ॥ ममायमुपकारीति कुतो राम्रागीर विशिष्टयोगभूतानां भाजजनपूजितः ॥ २ ॥ ततः प्रासादशृङ्गेषु रम्येषु काननेषु च ।
मृतो बिलासमा भोगासी ॥ ५ ॥ अन्यदाप्रावृषः प्रती मेमादम्बरमतिम् ।
व्योम दृष्ट्रा ध्वनि श्रुत्वा, मेवानां स मनोहरम् ॥ ५ ॥ जाई जान प्रति विसर्जितश्च राज्ञाऽपि प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः ॥ ६ ॥ है।
पृथायास्तं नमन
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स स्वभावाम् पुनः सर्वान् जानात्येच हि केवलम् ॥ ७ ॥ न शशाक तकां तेषां गदितुं स कृतोद्यमः ।
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वने वनेचराणां हि नास्ति सिद्धपमा यतः ॥ = ॥" १६ | अथ दाष्टन्तिकमाह-' इय' गाहा, इनि-एवम् - ये नगरगुणा इवेत्यर्थः सिद्धानां समनुवर्तते, किमित्याह-यतो नास्ति तस्योपम्यं तथापि बालजनप्रतिपत्तये डिशेसाद'नो' दिव द्विसुखम्य इतो वाऽनन्तरम् श्रपश्यम् - उपमानम् इदम्वक्ष्यमाणं शृणुन वदये इति ॥ १७ ॥ 'जह' गाहा, 'ग्रंथ' स्युदाहरन्यासार्थः सर्वकामगुणज्ञानमस्तकम नीयगुणं शेषं व्यक्तम् इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्यप्रविष प्राय पनि सुदर्शन साधा सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव नि ॥ ८ ॥ इय' गाहा, 'इय एवं सर्वश्वत्वान्नमुपागताः सि
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सर्वदा सत्सुक्य निवृत्तः, यतश्चैक्मनः शाश्वतम्सर्वकालभाषियाबाधं उपावाध वर्जितं सुखं प्राप्ताः सु.
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सिद्ध
निस्तीति योगः सुखं हन्यु
मिति चेन्न दुःखाभावमा श्रमुमिनिरासेन वास्तव्य प्रतिपादनात्यादम्य तथाहि--अशेषदोषतः शाख तमव्याबाधसुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तः तिष्ठन्ति न तु दुःखरभावमात्रम्बिता एवेति ॥ १६ ॥ साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपी यशब्दान् प्रतिपादयन्नाह - सिद्ध पत्ति' गाइा, सिकाइति का तेषां नाम कृतकृत्यत्वाद्, एवं बुद्धा इति केवलज्ञानेन बिश्वावबाधात्, पारगना इति व भवार्णवपारगमनात् 'परंपर नवनियाजनकनन् परम्परया गताः परम्परगता उच्यते, उन्मुक्तकर्मकपचाः सकलकर्मा तथा अजरा वयसोऽभावाद अमरा आयुषोऽभावात् सकलशा 'यादा 'अतुल' मादा पार्थ॥२५ श्री तथा किंव
(८४३)
अभिधानराजेन्द्रः ।
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जंठा तु भवं पर्वतस्य परमसमयस्मि । श्री य पसघणं तं संठाणं तर्हि तस्स ।।
यदेव तुशब्दस्य व्यवहितस्यैवकारार्थत्वात् संस्थानमिह-म. नुष्यभवे भवं संसारं मनुष्य भवं वा त्यजतः सतश्च चरमसम आसीत् देशवनं तदेव संस्थानं तत्र तस्य भवति । तच्त्र मनुष्यभरापेक्षा भागी-भागो
तथा बाह
दीहं वा इस्सं वा, जं चरमभवे हवेज्ज संठाखं । ततो विभागीया, सिद्धानो गाहा महिया ।। दीवान मार्गस्था वा शब्दाद-मध्यमं वा विचित्रं यश्चरमभवे संस्थानं ततस्तस्मात् संस्थानात् त्रिभागद्दीना सिद्धानाम् श्रवगाहन्ते अस्यामि स्ववगाहना स्वावस्यैव भणिता तीर्थ करधरैः । कस्मात् त्रिभागनियोग
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विविधभावनः रित्या हीनो जातः, नच वाच्यम् संहरणं तावत् प्रदेशानां सम्भयति तवः प्रयत्नविशेषः प्रदेशमाशोऽपि कस्मान्नायतिहुने इति तथाविधसामर्थ्याभावात् योगनिरोधक वापि सकर्मकात् तथा जीवस्वाभाव्याच्च । उक्कं च-"संहावा वा सामरपाईसामभक्त मंत्र सिद्धे" तदवस्थ एव भवति श्राह च देह तिभाग सुसरं तप्पू सो जगनि श्चिय, जातो वि त य तदवस्थो" नच सिद्धस्य सतः प्रदेश संहारसम्भवः प्रयत्नाभावादप्रयत्नस्य गतिरेव कथमिति उप-समाहितमेतत्यादिति हेतुनिरिति उन "सिद्धो वि देहरहितो, सपयत्ताभावतो न संहरइ । अपयन्तस्स किह गई, नयू भणियम संगयादीहि ॥ १ श्र० ।
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आ० म०
साम्प्रतमुक्रानुयाने संस्थानविज्ञानाममिधानुकाम आह
ओगाहाय सिद्धा, मविभागे हुति परिहीणा । संताराम पित्थंथं, जरामरणचिपमुकाणं ॥ अवगाहनया सिद्धा भवत्रिभामेन भगवतः शरीरत्रिभा
सिद्ध
न पारहीना भवन्ति तनस्तेषां जरामरणविप्रमुक्कानां संस्थानमनित्थंस्थं वेदितव्यम् । इत्थं प्रकारमात्रमित्थम् तिप्रतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थं न केनचिदपि लोकिकेन प्रकारेण स्थितमिति भावः । इयमत्र भावना ग्रामनि रोकाले देहविभावस्य सुपिरस्य प्रदेशेरापूरणात् पूर्वस्थानान्यथाव्यवस्थाननोऽनियताकारं संस्थानमनियताका रत्वादेव तदस्यिय न सर्वथा तद्भावः स
दिगुणेष्वपि यः सिद्धानां से न दीछे न इस्से' इत्यादिवत्रनेन दीर्घपत्यादीनां प्रतिषेधः सोऽप्यनित्स्थः सर्वथा यादवसेयो न पुनः सर्वथा तेषामभावतः । जलं च"सुसिरानो ब्यागारं वहा । हमारे ॥२॥ एत्तो चित्र पांडहो, सिलाइ दीहयाईं । जमणित्थ (थं) त्थं पुण्या-गाराक्खाएँ नाभावो ॥ २ ॥ " आह किमेते सिद्धा देशभेदेन स्थिता उत नेति उच्यतेनेति धूमः कुत इति चेत् उच्यते-पस्मात् ।
जस्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अता भववयविमुक्का |
श्रोत्रसमोगाडा, पुट्टा सध्ये व लोमंते ॥
यत्रैव चास्यैवकारार्थवादे एका सिद्धो-निर्वृतस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ता भवक्षत्रेण विमुक्ताः, श्रमेन सेा भवावतरणशुक्रिमसिपच्छेदमाह-
य
अन्नान्ननमोगाढा, पुट्ठा सच्चे य लोगते " अन्योन्यसमबगादाताविधतत्परमात्पापादित् 'पुट्ठा सच्चे लागते ' इति स्पृष्टा-लग्नाः सर्वे लोकान्ने वा, पाठान्तरम् पुट्ठो सम्वृद्दि लोगंतो ' स्पृष्टः सर्वैः लोका न्तः लोकांग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् । तथाअसिद्धेय सन्तो सिद्धा । गुणा, देसपदि जे पुट्ठा ॥
ते
ये असंख्येयगुणा वर्त्तन्ते ये देशप्रदेशः स्पृष्ाः । केम्योऽसंख्येयगुणा इति चेत् उच्यते - सर्व प्रदेशस्पृष्टेभ्यः कथमिति चेत्, उच्यते-इह एकस्य सिद्धस्य यदवग्राहना क्षेत्रेकस्मिन् श्रपि परिपूर्ण अयगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ता एवं द्वित्रिचतुः प्रञ्चादिप्रदेशहान्या ये श्रवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः । तथा तस्य मूलक्षेत्रस्य एकैकं प्रदर्श परित्यज्य यऽपि श्रवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशहान्या ये श्रवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः । एवं म सति प्रदेशपरिनियम परि पूर्णक्षेत्रावगाडेभ्योऽयेा भवन्ति प्रदेशमकैका प्रदेशपरिवृानियां प्रतिप्रदे रामनन्तानां सिद्धानामवगाहनात् । उक्रं च गवसे ने सेना परिपाणि ततो । होनि असंखगुणा, संपरसो जमवगाहो १
साम्प्रतं सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयतिअमरीश जीवपणा, उपउता सखे य नाशे य । सागारमयागारं लक्खयमेयं तु सिद्धाणं ॥ अविद्यमानशरीसः अशरीरा: श्रीदारिकादिपरी
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(८४४) अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्ध ररहिता इत्यर्थः । जीवाश्च ते पनाश्च शुचिरापरणात् जी-1 साम्प्रतमेवरूपस्यापि सतोऽस्य निरूपमा बंधनाः उपयुक्ता दर्शने झाने च।
प्रतिपादयतिकेवलशानदर्शनयोर्विशेषविषयतामुपदर्शयति
जहनाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वि याणंती। केवलनाणुवउत्ता, जाणंता सञ्चभावगुणभावे ।
न चएइ परिकहेउं, प्रोमाइ तहिं असंतीए । पासंति सब्बतो खलु, केवलपिट्ठीहिणताहि ॥
यथानाम कश्चिन् म्लेच्छो नगरगुणान् सदननिवासाडीकेवलझानेनोपयुक्ता जानन्ति-अवगच्छन्ति सर्वभावगु- न बहुविधान्-अनेकप्रकारान् अरण्यगतः सन् अन्यम्लणभावान् सर्वपदार्थगुणपर्यायान्। प्रथमो भायशब्दः पदार्थ- च्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुम ,कुतो निमिशादित्यत पावचनो द्वितीयः पर्यायवचनः , गुणपर्यायभेदस्त्वयम्-सह
ह-उपमायां नासत्यां तद्विषये उपमाया अभावादिति वर्तिनो गुणाः , क्रमवर्तिनः पर्यायाः । तथा ' पश्यन्ति भावः, एल गाथाक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादबसेयः, तसर्वतः स्खलु ' खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात सर्वत एव दम्-"एगा महारावासी मिच्छो रस चिट्ठाइतो य केवल हष्टिभिरनम्ताभिः केवलदर्शनैरनम्तत्वात् सिद्धाना- एगो स्या प्रासेण अवहरितो तं अडर्षि पवेसितो तेमा मिहादौ शानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिद्धयन्तीति विट्ठो । सकारेऊण राजपयं नीतो। रमा वि सो नगरमाणीतो ज्ञापनार्थम् । आह-किमेते युगपज्जानन्ति पश्यन्ति च श्रा- पच्छा उवगारि नि मारवमुवचरित्ता जहराया तह चिट्ठा। होश्वित् अयुगपदिति । उच्यते अयुपगत् ।
धवलघराइवि भोगणं विभासा। कालेण रगणं सरिउमाढत्तो ___ कथमेतदवसीयत इति चेत् , यत श्राह
प्रारमिगा पुच्छंति केरिसं नगरं ति, सो वि याणति वितत्थे. नाणम्मिदसणम्मिय, एत्तो यं एगयरम्मि उवत्ता ।
वमाभावा न सका नगरगुणा परिकहे" एष दृष्टान्तः । सबस्स केवलिस्स हु, जुगवं दो नत्थि उवोगो॥
अयमर्थोपनयःशाने दर्शने च 'एनो'ति-अनयोरेकतरस्मिन्नुपयुक्ताः, कि
इय सिद्धाणं सोक्ख, अणोवमं नत्थि तस्स प्रोवर्म । मिति यतः सर्वस्य केवलिनः सतो युगपद् एकस्मिन् काले किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खमिणं सुणह, बोच्छं। हो न स्त उपयोगी,तत् क्षायोपशमिकसंवेदने तथा दर्शनात्। इति एवमुक्तेन प्रकारेला, सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते । भत्र बहु वक्तव्यं तच नन्द्यध्ययनटीकातोऽवसेयमिति । किमित्यत ग्राह-यतो नास्ति तस्य औपम्यम् उपमी
साम्प्रतं निरुपमसुखभाजस्ते इत्युपदर्शयन्नाह- यमानता उपमानासम्भवात् । तथाऽपि चात्मनः प्रतिपन वि अस्थि माणुसाणं,तं सोक्खं न विय सव्वदेवाणं तये किंचिद्विशेषेण 'एत्तो' त्ति-आर्षत्वादस्य सादृश्यमियं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उबगयाणं ।।
दं वक्ष्यमाणलक्षणं शृणुत तदहं वक्ष्ये इति। नैवास्ति मानुषाणां-चक्रवादीनामपि तत्सौख्यं न चैव
प्रतिक्षातमेव निर्वाहयतिदेवानामनुनरसुरपर्यन्तानामपि यत् सिद्धानां सौख्यम् 'अ- जह सबकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ । ग्यावाधामुपगतानां, विविधा श्राबाधा व्याबाधा न व्याबा- तराहाछुहाविमुक्को, अच्छेज जहा अमियतित्तो ।। धा अव्याबाधा तामुप-सामीप्येन गतानां प्राप्तानाम् ।
यथेत्युदाहरणोपल्यासार्थः सर्वकामगुणितं सकलसौन्द___ यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयति
र्यसंस्कृतं भोजनं भुज्यते इति भोजनं कृहुलमिति, वनसुरगुणसुहं समत, सम्बद्धा पिडियं अणंतगुणं ।
नात् कर्मण्वनट , कश्चित् पुरुषो भुक्त्वा तृट्खुद्विमुक्तः न य पावइ मुसिसुहं, ताहि वि वग्गवग्गृहि ॥ सन् यथा प्रासातः अमृततृप्तः श्रावाधारहितत्वात् इह सुरगणसुखं समस्तं देवसंघातसुख समस्तं सम्पूर्ण
च रसनेन्द्रियमधिकृत्येष्टविनये प्राप्ता. औत्सुक्यविनिवृत्तः मतीनानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः । पुनः सद्धिापि
सुखदर्शमं सकलेन्द्रियार्थावाप्तथा शेषोत्सुक्यनिवृत्युपलक्षणगिडतं समयैर्गुणितं ततः पुनरयनन्तगुणम् । किमत
णार्थः । अन्यथा वाधान्तरसम्भवतः सुखाभावः स्यात् सर्वभवनि--सर्वाद्धासमयगुणितं सत् यत् प्रमाणं भवति
बाधाविगमेन वात्र प्रयोजनम् । उक्तं चनावत्प्रमाण किलासंकल्पनं वा एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे "वेणुधीरणामृदादि-समायुक्नेन हारिणा । स्थाप्यते. इस्येवं सकललोकाकाशानन्तप्रदेशपूरग्पलक्षणे नान- लाध्यस्मरकथाबद्ध-गीतेन स्तिमितः सदा ॥१॥ नगुणकारेण गुणितमिति । एवं प्रमाणस्य सतः पुनर्वगों कुट्टिमादौ विचित्राणि, दृष्टा रूपाण्यनुत्सुकः । विधीयते । तस्याऽपि वर्गितस्य भूयो वर्गः पवमनन्तर्ग- लोचनानन्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि ॥२॥ वगैर्गितं तथापि तथा प्रकर्षगतमुक्तिसुखं न प्राप्नोति । अम्लानगुरुक पर-गन्धमाघ्राय निस्पृहः तथा चैतदभिहितार्थानुवाद्यवाह
नानारससमायुक्त, भुक्त्याउन्नमिह मात्रया ॥३॥ सिद्धस्स सुहोरासी, सम्वद्धवापिंडितो जइ हवेजा। पीत्वोदकं च तृप्तारमा, स्वादयन् स्वादिम शुभम् । सो गंतवम्गभइतो, सम्यागासे न माइआ॥
मृदुकूलासमाकान्त-दिव्यपर्यङ्कसस्थितः ॥४॥
सहसाम्भोदसंशब्द-श्रुतेर्भयघनं भृशम् । मिधमम्बन्धे सुखाना राशिः सुखराशिः-सुखसवात इ.
इप्रभार्यापरिष्वक्त-स्तद्धनान्तेऽथवा नरः ॥१॥ त्यर्थः सथाद्धापिण्डितः सर्वकालसमयगुणितः । श्रा० म०१ श्र० । श्री० । दर्श० । कर्म० । प्रति। पं० सू०।
श्रीयफाशिकण्यार न हो वैविध्यमिति न पुनः शक्तिः। .
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(८४५) सिद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्धंत सर्वेन्द्रियार्थसम्प्राप्त्या, सर्वावाधानिवृत्तिजम् ।
(सिद्धानामाशातना आसायणा ' शब्दे द्वितीयभागे यवेदयति सद्हा , प्रशान्तेनान्तरात्मना ॥६॥
४८२ पृष्ठे गता ।) पण्डितहापर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा-- मुक्तात्मनस्ततोऽनन्त, सुखमाहुर्मनीषिणः ॥" इति। अन्यच्च सिद्धजीवानां करचरण पादाङ्गलीनां साद्यवयवा
काराः संभाव्यन्ते नयेति ? | अन्यच्च सिद्धजीवानां इय सव्यकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगय सिद्धा ।
करचरणाचाकारः संभाव्यते, यतः--' अरूविणो जी-- सासयमव्याबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥
घघणा ' इत्यत्र घनाश्च शुधिरपूरणतो निचितप्रदशतयेति इनि-एवमुक्नेन प्रकारेण सर्वकालतृप्ताः स्वस्वभा
श्रीशान्तिसूरिबचनेन शरीरातर्वति शुषिरपूरणमेव दृश्यते, बावस्थितत्वात् अतुलं निवाणमुपगता सिद्धाः स
नत्ववयवानां बाह्यान्तरपूरणमिति, तथा श्रीहरिभद्रसूरि. वंदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तेः , यतश्चैवमतः शाश्वतम् श्रीमलयगिरिप्रमुखैरपि शुषिरपूरणमेयोक्नमस्तीति । ही० सबकालभावि श्रव्यावाध-व्याबाधापरिवरिवर्जितं सुखं २ प्रका०। सिद्धानां वर्गणा ' वग्गणा' शब्द षष्ठभागे प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्ति । अथ सुखं प्राप्ता इत्युक्त सु-गता "सिद्धा में मंगल " प्राव. ४ श्र०। (" सिखिन इत्यनर्थकम् , नैष दोषोऽस्य दुःखभावमात्रमुक्तिसुखनि
द्धा लोगुत्तमा ” अस्य पदस्य व्याख्या ' पष्टि-- रासेन वास्तवसुखप्रतिपादनार्थत्वात् , तथा ह्यशेषदोषक्षयतः
कमण ' शब्द पश्चमभागे २७० पृष्ठे गता। ) अहत्प्रशाश्वतमव्यायाधं सुखं प्राप्ताः सन्तः सुखिनस्तिष्ठन्ति न तु
तिमायाम् , स्था० ४ ठा २ उ० । शाश्वते , स्था० ४ ठा०२ दुःखाभावमात्रान्विता एवेति । श्रा०म० १ ०।
उ० । साधितार्थे , कल्प० १ अधि०६क्षण । कृतार्थे , पा० । सिद्धो भूत्वा व परिवसेत्
स्था । घ० । (सिद्घानामहतां च नमस्कारे क्रमप्रदर्शनम् ।
'समुक्कार' शब्ने चतुर्थभागे १८४३ पृष्ठ दर्शितम् । तत्रैव सिसे भयवं जरामरणाई अणेगसंसारियदुक्खजालविमुक्के
द्धनमस्कारहेतुफले च दर्शिते । ) · अट्ठसयं सिद्धा'अष्टशतसमाणे जनं कहिं परिवसेजा,गोयमा! जत्थ णं न जरा ण सिद्धा निवृता इत्यनन्त कालजातमित्याश्चर्यम् । स्था० १० मच्चू न वाहीओ.णो अपसज्झक्वाणं संता बुब्वेगकलिक- ठा० ३ उ० । साधन विचाल्यश्रुतज्ञाने प्रतिष्ठिते, प्रा. चू. ५
अ०। 'कम्मटुक्खयसिद्धा, साहासियनाणदंसव समिधा।' लहदारिद्ददहपरिकिलेसणइट्ठविप्रोगो किंबहुणा एगंतेण
दश० । लोकोत्तररीत्या पक्षस्य द्वितीयदिवसे , चं अक्खयधुवसासयनिरुवमं अणंतसोक्खं परिवसेज चि
प्र०१० पाहु० । कल्प० । निष्पादित , निष्पन्चे , नि. बेमि । महा० २ चू०।
चू०२० उ० । बृ० । निर्णीते , हा० २६ श्रष्ट० । साम्प्रतं सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयति
निश्चितप्रामाण्ये ,"सिद्धं सिद्धट्ठाणं (१ गा०)।" सम्मर
१ काण्ड । प्रख्याते, प्रथिते,नि० चू०१ उ०। प्रतीत , पना० सिद्ध ति य बुद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय त्ति।
११ विवा प्रतिष्ठिते, पो०४ विवादश०। ग० । फलाव्यभिउम्मुक्तकम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ।
चारा प्रतिष्ठिते सकलनयव्यापकत्वे त्रिकुटीपरिशुद्धत्वन मिदा इति कृतकृत्यत्वात् बुद्धा इति केवलज्ञानदर्शनाभ्यां वि. च प्रत्याख्यात,ल०धा सिद्धं भी पयतो नमो जिणमये,नंदी श्वावगमात,पारगता इति भवास्वपारगमनात्, परम्परागता ।
सया संजमे' आव०५ अ० । दिव्यपुरुषे, द्वा०२६ द्वा० । माइति पुराबबीजसम्यक्रवज्ञान चरणक्रमप्रतिपन्नत्वात् , परेपर- ल्यवद् वक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे , जं. ४ वक्षः । अजनया गताः । उन्मुक्तकर्मकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात् , तथा
पादलेपतिलकगुटिकाशकललूताकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिअजग वयसोऽभावात् , श्रमरा आयुषोऽभावात् असङ्गाश्च
दधयस्ताभिः सिध्यति स्म सिद्घः । लब्धिमति , अएसु प्रसकल क्लेशाभावात् ।
भाबकेष्वन्यतमे, प्रव०१४८ द्वार । ध०। वसुश्रेष्ठिपुत्रे,ध०र० साम्प्रतमुपसंहरति
२ अधि०। (तत्कथा 'वसु' शब्दे षष्ठे भागे उक्ला ।) नित्थिन्नसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का ।
सिध्म-पुं । कुष्ठमेदे , प्रश्न०५ संव० द्वार । अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहवयंती सया कालं ।।
सिद्धंत-सिद्धान्त-पुं० । सिद्धं प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं संवेमिस्तीर्णम्-अतिक्रान्तं सर्वम्-अशेषं दुःखं यैस्ते निस्तीर्ण
दनं निष्ठा रूपं नयतीति सिद्धान्तः । श्रागमे,अनु। विशेष
पार्षवचने, द्वा०२१ द्वा० । समये, जी०१प्रति। वृ०। सर्वदुःखाः जातिर्जन्म, जरा-वयोहानिमरण-प्राणत्यागः बन्धन-संसारबन्धहेतुरटप्रकारं कर्म तैर्मुक्का अव्याबाधं व्या.
अधुना सिद्धान्तद्वारमाहबाधारहितं सौख्यं सदाकालमनुभवन्ति । श्रा० म०१०।
जेण उ सिद्धं अत्थं,अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो। श्रा० । " सिडा निगोयजीवा, वणस्सई कालपुग्गला चेव । सो सव्यपडीतंतो, अहिगरणे अभुवगमे य ।। १८२ ।। सव्यमलोगागासं, छप्पेए गलया गया ॥१॥" नं०(कवली स. येन कारणेन प्रमाणतः सिद्धमर्थमन्तं नयति--प्रमाणको. मुद्धातं कृत्वा सिद्धयतीनि केलिसमुग्धाय'शब्दे तृतीयभा- टिमारोहयतीति तेन कारणण सिद्धान्त उच्यते । स गे ६५६ पृष्ठे उक्तम् । )"कणादादिपरिकल्पिताऽनादिः सिद्धः। एष द्रव्यतः-आगमनोप्रागमतो व्यतिरिक्तः पुस्तकपत्रउत्त०२०। (ज्ञानमनिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतः । न्यस्ताभावतश्चतुर्विधः,तद्यथा-सर्वतन्त्रसिद्धान्तः प्रतितन्त्रऐश्वर्य चैव धर्मश्व. सह सिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥” इत्यादिको सिद्धान्ता, अधिकरणसिद्धान्तोऽभ्युपगमसिद्धान्तश्च । विशेषः 'परिसह 'शब्दे पञ्चमभागे. ६४२ पृष्ट गतः।) पृथ१३०१प्रका विशे०। श्रागमालानुष्ठाने, ग०२ अधि।
२१२
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(८४६ ) सिद्धृतकहा अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्धगुण सिद्धंतकहा-सिद्धान्तकथा-स्त्री० । स्वसमयकथायाम् , पो | सिद्धगइनामधेञ्ज-सिद्धगतिमामधेय-न० । सिद्धगतिरिति १४ विव०।
मामधेयं यस्य तत्सिद्धगतिमामधेयम् । सिद्धस्थाने, स० १
सम० । रा० । सिद्धंतपडिपीय-सिद्धान्तप्रत्यनीक-पुं०। सिद्धान्तविनाशके, पं०व०४द्वार।
| सिद्धगंडिया-सिद्धगण्डिका--स्त्री। सिजनलाव्यताप्रतिक्दा
यां ग्रन्थपद्धती. भ. १९श उ01(सा'सिद्ध 'शटदे सिद्धंतपरम्मुह-सिद्धान्तपराङ्मुख-पुं० । भागमोक्तानुष्ठान
ऽस्मिन्नेव भागे दर्शिता ।) शून्ये, म०२ अधिक।
सिद्धगुण-सिद्धगुण-पुं० । सिद्धसहभाविगुणेषु, प्रमा सिद्धंतरहस्स-सिद्धान्तरहस्य-न० । आगमगुप्तार्थे, 'अामे घडे
इदानीं 'सिद्धेगतीसगुण ति षट्सप्तत्वधिकनिहतं, जहा जलं तं घडविणासह । श्य सिद्धन्तरहस्सं,
द्विशततमं द्वारमाहअप्पाघारं विद्यासेई" ॥१॥नं०।
नवदरिसणंमि हचत्ता--रि आउए ४ पंच प्राइमे भने। सिद्धंतसार-सिद्धान्तसार-पुं० । आगमस्य सारभूते, ध० १
सेसे दो दो भेया ६, खाणेऽभिलावेण इगतीसं ।१६०७ अधिक।
वर्शने दर्शनावरणीये कर्मणि, चुर्दर्शनाचतुर्वर्शनावधिसिद्धताणणुवाइ- सिद्धान्ताननुपातिन-पुं० । स्वच्छन्दबुद्धि
হলফনাবালিকানিরাসকালাহলফস্বল रचितत्वेन जैनागमाननुसारिणि, प्रथ० २ द्वार।। णा भेदाः,तथाऽयुषि नारकतिरामरायुलक्षणाश्चत्वारः.त सिद्धूतामयपडिपुनकम्मापुड-सिद्धान्तामृतप्रतिपूर्णकर्ण थादिमे ज्ञानावरणीये मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानाटक-पुंगागमसुधासम्भृतश्रवणच्छदपत्रे,जीया०२४अधिक। करणीयस्वरूपाः पञ्च, अन्त्येऽप्यन्तरायाख्ये कर्मणि दानला
भभोगोपभगवीर्यान्तरावरूपाः पञ्चैव भेदार, शेषे च कर्मसिद्धतिय-सैद्धान्तिक-सिद्धान्तवेत्तरि, प्रव०१.द्वार।
चतुष्क प्रत्येक छौ हौ मेनौ, तात्र वेदनीये साताऽसातासमको, सिद्धूतियचयण-सैद्धान्तिकवचन-न। अागमणिते, जी० मोहनीय दर्शनमोहनीयारित्रमोहनीयलक्षणो, नामकर्मास्य १प्रति।
शुभनामाशुभनामको गोत्रे चोचगाँधनीचैर्गोत्राभिधौ भदौ
भवत इति तदेयमेते सर्वेऽपि भेदाः क्षीणाभिलापन क्षीसिद्धकंचणया-सिद्धकाश्चनता-स्त्री० । सिद्धसुवर्णत्वे, पो.
णशब्दविशेषितत्वेन प्रोच्चार्यमाणा पक्रप्रिंशसंख्या सिक्वि०।
द्धानां गुणा भवन्ति, शीलावतुर्वर्शनावरण इत्यादिकश्चासिद्धकूड-सिद्धकूट-पुं० । न० । महाहिमवतः प्रथमकूट.स्था. भिलापः कार्यः । ठा० ३ उ० । शिखरिवर्षधरपर्वतस्य प्रथमकटे ,
अथवा प्रकारान्तरेणकत्रिंशत्सिद्धगुणानाहस्था० २ ठा० ३ उ० । जम्बूद्वीपे सौमनसे वक्षस्कार- पडिसेहण संठाणे, य वनगंधरसफासवेए य ।। पर्वतस्य गन्धमादनस्य पर्वतस्य प्रथमकूट, स्था० ७ ठा० पण ५ पण ५ दुग २ पण ५ ऽदुः- तिही ३, ३ उ० रुक्मिवर्षधरपर्वतस्य प्रथम कूटे,स्था०८ठा०३ उ० ।
एमतीसमकायसंग २ रुहा ३॥ १६०८॥ निषधवर्षधरपर्वतस्य प्रथमकृटे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । दक्षिणभरतदीर्घवैतादयस्य प्रथमकूटे, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
प्रतिभ्येन-मिषेधन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां क्रमे (अस्य व्याख्या कूड' शब्द तृतीयभागे ६१८ पृष्ठे गता। )
ण पञ्चपञ्च द्विपश्चाष्टत्रिभेदानां, तथा अकायासकारुचपनकच्छादिविजयक्षेत्रदीर्धवैताच्यानां प्रथमकूटे , स्था० ६ ठा०
त्रितयेन, चैकत्रिशत्सिद्धगुणा भवन्ति, तत्र संतिष्ठन्से पशि
रिति संस्थानानि-प्राकाराः, तानि च पञ्च परिमण्डलवृत्त३ उ० । विद्युत्प्रभवक्षम्कारपवतस्य प्रथमकृटे, स्था०६ठा०
ध्यनचतुरसायतभेदात् तत्र परिमण्डलं संस्थान बहिवृत्त३ उ०। नीलबक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकुटे, स्था० ठ०३
तावस्थितप्रदेशजनितमन्तःशुषिरं यथा वलयस्य, तदेवान्तः उ० । एरवंत दीर्घवैताव्यस्य प्रथमकृष्टे, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
पूर्ण वृत्तं यथा दर्पलस्य , उयनं-त्रिकोणं यथा शृङ्गाटकमिद्धकेवलनाण-सिद्धकेवलज्ञान-ना सिद्ध केवलक्षणने,स्था।
स्य, चतुरस्र-चतुःकोणं यथा स्तम्भाधाकुम्भिकायाः, श्रासिद्धकेवलणाणे दुविहे पामते ,तं जहा-सिद्धकेवलनाणे
यतं दीर्घ यथा दण्डस्या, धनपतरादिप्रतिभेदव्याख्या च कृ
हदुत्सराध्ययनटीकादिभ्योऽवसेया, तथा वर्णाः पञ्च श्वेतचेच, परंपरसिद्भकेवलणाण चेव । स्था०२ ठा० १ उ० ।
पीतरक्कनीलकालभेदात् , गन्धो द्विधा-सुरभीतरभेदात् ,र(व्याख्या स्वस्वस्थान)
साः पञ्च तिलकटुकषायामलमधुरभेदात् , स्पशी अष्टौ-गुवसिद्धखेत्त-सिद्धक्षेत्र-न० । शत्रुञ्जयपर्वते, ती. १ कल्प। लघुमृदुकर्कशशी मागणस्निग्धरूक्षभेदात् , वेदाश्रयः-स्त्रीपुंन
पुंसकभेदात् , तथा सिद्धा अकायादिकायपञ्चकविमुक्का, सिद्धगह-सिद्धगति-स्त्री०। सिद्धयन्ति-निष्ठिनार्था भवन्ति तेषां सिद्धत्वं प्रथमसमयः एव सर्वात्मना त्यक्तस्यात् , तथा यस्यामिति सिदधिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणासैव गम्यमानत्वाद् असङ्गा बाह्याभ्यन्तरसङ्गरहितत्वात् तथा अरुहान रोहम्ति तिः। रा०।दश। सासिधैर्गम्यमानायामीषत्प्रारभारायां भूयः संसार समुत्पद्यम्ते इत्यरुहाः, संसारकारणानां कर्मपृथिव्याम् , भ०१२०१ उ० । स्था।
| रणां निर्मलकापंपितत्वात् ,उकंच--दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं
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सिद्धगुण
निरः । कर्मबीजे तथा दुग्धे न रोहति भवार ॥ १ ॥ तदेवमष्टाविंशतिसख्यानां संस्थानादीनां निषेवाङ्गादारुद्धत्यविधानाच्च सिद्धानामेकविंशद्गु
धाइ
संख्यानाद्यभावाऽकायन्यादिसद्भावन
gafari, orang-"au dik."(o!004) इत्यादि सूत्र लोगसार ' शब्द षष्ठभागे गतम् ।) पतस्त्र स्विगुणप्रतिपादकं द्वारम् । प्रय० २७६ द्वार । निद्धघोष - सिद्धघोष - पुं० । परवते वर्षे भविष्यति द्वितीयती
(249) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
शंकरे, प्र० ७ द्वार ।
सुरभिपुरा नामांना० म० । ( सत्कथा कंबल
भिजण सियात्र पुं० विके. आ० क० १ ० शब्दे तृतीयभाग १७६ पृष्ठ गता । ) मिजोग) सिद्धयोगिन् पुं० रागद्वेषाभावेनोपशमी
नायें, अ० ६ ० । निजोगिसंसरणजोग-सिद्धयोगिसंस्मरणयोग- पुंसिद्धाः प्रतिष्ठिता लब्धात्मलाभा ये योगिनस्तेषां संस्मरणयोग:-- म्रध्यापारः । इष्टफलसिद्धये यो हि यत्र कर्मणि सिद्धपो०१५ वि०
निद्रामा मिद्धस्थान-१० स्थापनेमिश्रित स्थानमित्यचिकाधनोऽयं शब्दस्ततश्च सिद्धस्य स्थानं सिद्धस्थानम सिजनने, विशे० । निश्चितप्रामाण्ये, स०२५ सम० । सिद्धग्ध-सिद्धार्थ ५० सिद्धा अनि सिद्धार्थः ।
ह
प्रति।
4
"
डा० । अनु० । स्था० ।
मिद्धत्थमजाल - सिद्धार्थकजाल - न० । सिद्धार्थाः - सर्पणाः येन जालन गृह्यन्ते तस्मिञ्जले, नि० चू० ११ उ० । मिरगाम सिद्धार्थग्राम पुं० सिवाप्रधाने प्रा सह विनयान० ६ ० १ ० विसिद्धार्थनृप पुं० श्रीमद्दाचीरस्वामितिरि,
न हि तेषां पदानि केचिदबाय तुं शक्यन्ते तेषां सर्वशोक्नानुसारित्वात्स्वसमये जीवस्थानगुणस्थानरूपेषु पदेषु, कर्म० ५ कर्म० । सिद्धा-सिद्धप्राभृतन० नामक्या सिद्धाधिकार प्रतिपादके ग्रन्थे, नं० ।
३ ग० रा० । श्रमगस्य भगवतो महावीरस्य पितरि क्षत्रियकुण्डग्रामराजे, स० । श्राव० । श्राचा० । दर्श० श्रा०
सिद्धपुत्त- सिद्धपुत्र- पुं० । मुण्डे सशिखाके सभार्थके गृह
सुक्कंबरधरो खुरमुंडो ससिद्दी प्रसिद्दी वा यिमा अडंडगो अपत्तगो य सिद्धपुत्तो भवति । नि० चू० १ उ० । जी० । नं० । श्र० म० ।
म कल्प० ति० प्र० । अस्थिग्रामे वीरं प्रत्युपसर्गस्थे, वृ० ३ उ० । ध । ग० । सभार्यको ऽभार्थको वा खियमाकूपनः श्रनार्यस्य निग्राहके स्वनामख्याने पक्षा १० ठा० ३ उ० | आ० क० (उउंबरदत्त' शब्दे द्वितीयभागे ६०३ पृष्ठ कथा गता । ) पाटलिखण्डनगरराजनि, विपा० १ ०६० मे स्वनामध्या बविजि आ ०१ श्र० । वीराङ्गदस्य प्रव्राजके स्वनामख्याते श्राचार्य, नि दशम काचमानंभेदे, स०० सम० । जम्बूद्वीपे पेरवते वर्षे उत्सर्पिण्यां भविष्यति द्वितीये तीर्थकरे, स० । रुद्रे, दे० ना० = वर्ग ३१ गाथा । मिग-सिद्धार्थक- ० सर्पपे पञ्चा०ि०
सिद्धपुर-सिद्धपुर-न० गुर्जरयां स्वायते पुरे अथ श्रीमदूयशोविजयापाध्याये पवद् ज्ञानखाभिधं शास्त्रं रचितं तत्क्षेत्रादिप्रतिपादकं वृत्तमुच्यतेसिद्धिं सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्द्धा लब्धवान् चिद्दीषोऽयमुदारसार महसा दीपोत्सवे पर्वणि । एतद्भावनभावपावनमनवचचमत्कारिणां
त्र
द्विग्धपुर-सिद्धार्थपुरवतो वारि
सानो ग्गिया पढमसरए सिद्धत्यपुरं गया' आ० म० १ श्र० | कल्प० । संघा० । यत्र गोशालस्तिलस्तम्बं दृष्टवान् । आ० चू० १ अ० । श्रा० म० ।
सिद्धपुर
सिद्धत्थव सिद्धस्तव न० । सिद्धानां स्तंवे, श्रुतस्तवसिद्धतवयोः कस्मिनावश्यके ऽस्तभाव इति रंम-धुतस्तपसस्तवयोः कायोत्सर्गावश्यके ऽन्तर्भाव इत्यावश्यक बृहद्वृत्यनुसारण ज्ञायते ॥ ३ ॥ सन० १ उल्ला० । सिद्धत्थवण-सिद्धार्थवन- न० । ऋषभदेवस्य निष्क्रमणवनें, आ० म० १ श्र० । कल्प० । श्रा० चू० ।
सिद्धत्थसारहि - सिद्धार्थसारथि - पुं० । सिद्धार्थनरेन्द्रसारथौ, सिद्धार्थसारथिदेवेन गृहीतहरिशवो बलदेवः प्रतिबोधित इति । सूत्र० १ ० १ १ उ० । सिद्धत्थसु-सिद्धार्थसुत- पुं० । सिद्धार्थनरेन्द्रस्य सुतोऽपत्यम् । वर्धमानस्वामिनि क० प्र० १ प्रक० । सिद्धत्था सिद्धार्था-श्री० संरराजनार्थायामभिनन्दन नमानरिनि० "विसमस्या अभि
,
सीसां । सव्वधीरियधयस्स, सिद्धस्था संवर सुयस्स" ति० श्रावण | अभिनन्दनजिनस्य निष्क्रम शिविकायां सर्वपत्रमासुरचितसुमन ठिकायाम् श्री० सिद्धपष सिद्धपद - १० सि-प्रतिष्ठितं चालयतुमशक्य ततः पषु ते ि
""
"
सूत्रर
तैस्तैः सुनिश्रयमतैर्नित्योऽस्तु दीपोत्सवः ॥ १३॥ सिद्धि सिद्धपुर होसपुरे नगरे सुरचमया सिद्धिं लब्धवान् उदारसार महसा-प्रधानसारतेजसा दीपोत्सवे पर्वणि- दीपालिकादिने संपूर्णतां गतः, कथंभूतोऽयं ग्रन्थः ? चिद्दीपः - ज्ञानप्रदीपः एतद्भावनभावपाचनमनश्चञ्चश्चंमत्कारिणां जीवानाम् एतस्य ग्रन्थस्य भावना आत्मतन्मयता तस्या भाया श्रर्थप्राप्त समाध्यवसायाः तैः पावनं - पवित्रं मनः- चिसं तत्र चञ्चन् मनोहारी च मत्कारो येषां तेषां तैः तैः निर्मलोपयोगलक्षणे : दीपशतैः सुष्ठु निश्चयो वस्तुधर्मः तस्य यद् ज्ञानदेवइष्टं तैः तेषां ज्ञानचमत्कारिणां दीपोत्सव: निस्यः निन्तरः
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सिद्धपुर अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्धाइया प्रस्तु-भवतु, इत्यनेन यथार्थज्ञानगृहीतास्मरसममानां नित्यं | सिद्धसेणिय-सिद्धसेनीय-पुं० । सिद्धसेमदिवाकरशिष्ये, दीपोत्सव पवास्ति ॥ १३ ॥ अष्ट० ३२ अष्ट ।
आ० म०१०। सिद्धपुरिस-सिद्धपुरुष-पुं० । विद्यासिद्ध पुरुषे , 'तप्पहावे
सिद्धसेणियापरिकम्म-सिद्धश्रेणिकापरिकर्मन-नाष्टियाणं सो महासिद्धिहि अलंकियो सिद्धपुरिस त्ति विक्खा
दान्तर्गतपरिकर्मसूत्रभेदे, सः । स्था।' एगट्टियपयसिखसे ओ।' ती० ५४ कल्प।
णियापरिकम्म' श्रुतविशेष. स.।। सिद्धभाव-सिद्धभाव-पुं० । सिद्धत्वे , पं० सू०४ सूत्र ।
सिद्धसोक्ख-सिद्धसौख्य-न० । मुक्तस्य सुने, औ०। (एत सिद्धभूमि-सिद्धभूमि--पुं०। ईषत्प्रारभारायां पृथिव्याम् ,श्रा०
'सिद्ध ' शब्दे दर्शितम् ।) म०१ अ०। सिद्धमग्ग-सिद्धमार्ग--पुं० । हितप्राप्तिपथे, उपा०२० । सि
सिद्धहेमचंद-सिद्धहेमचन्द्र-न० । हेमचन्द्रविरचिते भ्याकर
णभेदे, कल्प.१ अधि० १क्षण । पुन स्वनामण्याते प्राचा. द्धिशब्दन श्रमणधर्मस्य यशीकारस्तस्य मध्यं लक्षणया
ये, है । ( अत्रयविस्तरः 'हेमचंद' शब्दे वक्ष्यते ।) प्रकर्षः । कल्प०१ अधि०५क्षण । सिद्धमणोरम-सिद्धमनोरम--पुं० । द्वितीयदिवसे, जै० ७ व- ।
सिद्धाइगुण-सिद्धादिगुण-पुं०। प्रादौ गुणाः श्रादिगुणाः
युगपद्भाविना; न क्रमभाविनः, सिद्धानामादिगुणाः सिखा
दिगुणाः । आभिनिबोधिकावरणादिक्षयम्वरूपेषु सिजत्वप्रसिद्धराय-सिद्धराज--पुं० । चौलुक्य वंशे अणहिलपट्टनराजे
थमसमयेषु सिद्धसहभाविगुणेषु, स० ३४ सम० । जयसिंहदेवे, "तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रताप-तिग्मद्युतिः
प्रा० चू० क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः । येन स्ववंशसवितयंपयाचिते च , श्रीसिद्धराज इति नाम निज व्यलेखि ॥१॥" प्रा० ४ पाद ।
एक्कतीस सिद्धाइगुणा परमत्ता , तं जहा-खीणे श्रासिद्धवरसासण-सिद्धवरशासन-न० । सिद्धानां-निष्ठितार्थानां
भिणियोहियणाणावरणे , खीणे सुयणाणावरणे, खीखे वरशासन-प्रधानाशा सिद्धवरशासनम् । सर्वज्ञाऽऽझायाम् , ओहिणाणावरणे , खीणे मणपजवणाणावरणे , खीणे प्रश्न०१ संव. द्वार।
केवलणाणावरणे , खीणे चक्खुदंसणावरणे , खीणे सिद्धसक्खिय--सिद्धसाक्षिक-त्रि० । सिद्धाः मुक्लिपदप्राप्ताः अचक्खुदंसणावरणे , खीणे ओहिदंसणावरण , खीणे
साक्षिणा दिव्यज्ञानभावेन समक्षभाववर्तिनो यत्र सत् केवलदसणावरण, खीणे निहावरणे० , खीणे णिहासिद्धसाक्षिकम् । सिद्धं साक्षिणं कृत्वा कृते, पा०।
णिद्दा०, खीणे पयला, खीणे पयलापयला०, खीणे सिद्धसरण-सिद्धशरण--न । सिद्धाश्रयणे, " कम्मटक्खय
थीणद्धी०,खीणे सायावेयणिज्जे, खीण असायावेयणिज्जे, सिद्धा, सहट्टिया नाणदसणसमिद्रा। सब्बटलट्ठसिद्धा, ते
खीणे दसणमोहणिजे,खीणे चरित्तमोहणिजे,खीणे नेरइमिद्धा सतु मे सरणं । १॥"द० ए०। सिद्धमूरि-सिद्धमूरि--पुं० । स्वनामख्याते गर्गाचार्यशिष्ये, मा
आउए , खीणे तिरिआउए , खीणे मणुस्साउए , खीणे घावपितृव्यपुत्रः सिद्धनामा निर्वेदाद् गर्गाचार्यसमीपे दी
देवाउए , खीणे उच्चागोए , खीणे नीचागोए , क्षां गृहीत्वा सिद्धसूरिनामा जातः । अनेन धर्मदासगणि- खीणे सुभणामे, खीणे असुभणामे , खीणे दाखंतराए , कृताया उपदेशमालायाष्टीका उपमितभवप्रएश्चकथा चेति । खीणे लाभतराए, खीणे भागंतराए , खीणे उवभोगग्रन्था रचिताः । विक्रम-२६२ संवत्सरेऽयं स्वर्गतः,अपरश्च । ताराए , खीणे वीरिअंतराए ॥ ३१ ।। स० ३१ सम० । सिद्धसूरिः उकेशगच्छीयो देवगुप्तसूरिशिष्यः तेन विक्रम-१९६२ संवत्सरे वृहरक्षेत्रसमासवृत्तिनामा ग्रन्थो र
प्रकारान्तरणचितः। जै० इ०।
एकतीसाए सिद्धादिगणेहिं सिद्धाणं आदीए गुणा
सिद्धादिगुणा सिद्धेहि सह भाविन इत्यर्थः । ते य सिद्धसेणदिवागर--सिद्धसेनदिवाकर--पुं० । समयोद्भूतसमस्तजनताहातमोविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्ध
अपजयसिया ते य इमे, तं जहा-से ण परिमंडले न
चट्टे २ न तसे ३ ण चतुरंसे ४ ण श्रायने ५ ण किरहे ६ सेनदिवाकरः । सम्म०१ काण्ड । सम्मत्यादिविविधग्रन्थका
ण गले ७ न लोहिए ८ न हालिई ६ न सुकिल्ल १० न सुरके स्वनामख्याते प्राचार्य.पं०व०४द्वार । नं०। श्रा०म०।
भिगंधे ११. न दुब्भिगंधे १२ न तित्ते १३ न कहुए १४ न नि०चू० । आय०। (कुडुंबेसर' शब्दे तृतीयभाग ५७६ पृष्ठे
कसाए १५ न अंविल १६ न मधुरे १७ न कक्खडे १८न एतन्नमस्कारेण महाकाललिङ्गमञ्जनं दर्शिनम् ।)
मउप १६ न गुरुर २० न ल हुए २१ नसीने २२ न उराहे२३न सिद्धसेणसूरि--सिद्धसेनमूरि--पुं० । चन्द्रगच्छ श्रीदयगुप्तसू- निट्रे २४ न लुक्ख २५ न संग २६ न रु २७ न काऊ २८ न रिशिष्य, तेन विक्रम-११९२ संवत्सर प्रवचनसारोद्धारटी- इत्थी २६ न पुरिस ३० न नपुंसके ३१ । आ० चू०४ अ०। का कृता । जै० इ०। इति श्रीसिद्धसेनसूरिविरचिता प्रवचन- सिद्धाइया-सिद्धायिका-स्त्री वीरजिनशासनदेव्याम् श्रीवीसागेडाग्वृत्तिः ममाता । प्रव० ७६ द्वार।
रजिनस्य सिद्धायिका देवी हरितवर्णा सिंहवाहना चतुर्भुजा १ मूल रामस्य ।
पुस्तकाभययुक्नदक्षिणकरद्वया वीजपूरकवीणाभिरामवामक
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सिद्धि
सिद्धाइया
अभिधानराजेन्द्रः। रद्वया च । प्रव०२७ द्वार। स्वनामख्यातायां देवतायाम .! सूत्र० । अशेषद्वन्द्वप्रच्युतौ , सूत्र १ श्रु० १ अ. ४ यदुद्देशेन तको विशेषः क्रियते । पञ्चा० १६ विव० । उ०। सेघनं सिद्धिः। हितार्थप्राप्ती, आव०४०।क्षा० । मिद्धाबद्ध-सिद्धाबद्ध-न । सिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, सा।
निष्पत्ती, " सिद्धिः स्याद्वादात्" ॥ १।१।२॥ है । (सि
द्विग्ररूपणा 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे ५२२ पृष्ठे गता।) सिद्धाययणकूड-सिद्धायतनकूट-नासिद्धानि-शाश्वतानि
"घोरं पंडिऊण पाच्छित्तं संविग्गो भासिनो घोरवीरतवं सिद्धानांबा शाश्वतानामाईत्प्रतिमानामायतनं-स्थानं सि- काउं सुभकम्म खवेतो य सुक्कझाणो समारुहिय केवलं दधायतनं तदाधारभूतं कूटं सिद्धायतनकूटम् । भरतवैना- पप्प सिज्झ" महा। व्यपथमकूट, जं०१ वक्षका तुलहिमवर्षधरे पर्वतकूटे, जं०४ वत । महाविदेदे माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे.ज०४
केवली ण भंते ! मरणूसे तीतमणतं सासयं समयं वक्ष । हिमवद्वर्षधरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि कटे, स्था०२ठा० | जाव अंतं करेंसु ? हंता सिझिसु जाव अंतं करेंसु, ३ उ० । चित्रकूटवक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे,ज०४यक्ष०ाग- एते तिन्नि आलावगा भाणि यया छउमस्थस्स जहा न्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे. जं०५वक्षः। महाविदहे
नवरं सिझिसु सिझंति सिज्झिस्संति । से गुणं ब्रह्मकटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमट, जं.४ वक्षः। (वर्षक: 'फूड' शब्दे तृतीयभागे ६१८ पृष्ठे गतः।)
भंते ! तीतमणतं सासयं समयं पडुप्पन्नं वा सासयं
समयं अणागयमणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा सिद्धालय-सिद्धालय-पुं०। सिद्धावस्थिते क्षेत्रे, विशासि धानामाश्रयत्वात्सिद्धालयः। ईपत्भारभारायां पृथिव्याम् ,
वा अंतिमसरीरिया वा सम्बदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति स्था०८ ठा०३० सिधिमागें, स०१५५ समापं० सं०।। वा करिस्संति वा सम्बे ते उप्पन्ननाणदसणधरा भरहा सिद्धालयमग्गणिग्गय-सिद्धालयमार्गनिर्गत-त्रिका सिद्धा- जिणे केवली भवित्ता तो पच्छा सिझति जाव खयमार्गानिर्गताः ।शानादेर्निगतेषु, स० १४५ सम०।।
अंतं करेस्संति वा ? हंता गोयमा ! तीतमणतं सासयं सिद्धाबास-सिद्भावास--पुं० । मोक्षधासनिबन्धनवादाहिसा- समयं जाव अन्तं करेस्संति वा (सू० ४२+)।भ०१ याम् , प्रश्न १ संव० द्वार।
श०४ उ० । एएण सिद्धी पजवसाणफला परमत्ता । सिद्धि-सिद्धि--स्त्री०। सिद्धपन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा भ०१७ श०३ उ०। सिदधिोलोकाग्रेईपप्रारमारायां पृथिव्याम् . स्था०१०ठा०३ अष्टगणश्चर्यसिद्धिः-अणिमा लघिमा गरिमा प्राकाम्यमी. उ० दशासरा प्रा० म०स० भ०ी पं०प० । संथा।
शित्वं वशित्वं प्रतिघानित्यं यत्रकामावसाबिस्वमिति । सूत्र यथा परमाणोस्तथाविधेकत्वपरिणामविशेषादकत्वं भवति
१७०१०३ उ०। पं० सू० । स्या० । प्रतिष्ठायाम् , तथा तत एवानन्ताणुमयस्कन्धस्यापि स्यादिति दर्शयन्
विशे०। सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीपत्प्रारम्भाराभिधानं पृथिवीस्कन्धं प्ररूपयवाह
समाधिविनाभ्युत्थान-सिद्धयः प्रातिभं ततः। एगा सिद्धी (सू. ४६ +)
श्रावणं वेदनादर्शा-स्वादवाताश्च वित्तयः ।। ११ ॥ सिद्धयन्ति कृतार्थाभयन्ति यस्यां सा सिद्धिः , सा च समाधीति-ततः स्वार्थसंयमाह्वयात्-पुरुषसंयमादभ्यस्ययद्यपि लोकाग्रे , यत श्राह-'इदं बुन्दि चइत्ता रंग सत्थ। मानात् प्रातिभं पूर्वोक्तं ज्ञानं, यदनुभावात् सूक्ष्मार्थाविकमर्थ गंतूण सिजमा 'ति-तथापि तत्प्रत्यासत्येपम्प्रारभाराऽपि पश्यति । श्रावण-धात्रेन्द्रियजं ज्ञानं,यस्मात्प्रकृष्टादिव्यं शब्द तथा व्यपदिश्यते । श्राह च-बारसहि जायणेहि सि- जानाति । चंदना-स्पर्शनन्द्रियजं ज्ञान, वेद्यते ऽनयेति कृत्वा,
द्धी सम्बटुसिद्घाउ'त्ति । यदि य-लोकानमेव सिद्धिः तान्त्रिक्या संशया व्यवहियते , यत्प्रकर्षाद्दिव्यस्पर्शविषयं स्यात्तदा कथमेतदनन्तरमुक्तं 'निम्मलदगरयवन्ना, तुसारगो. ज्ञानमुत्पद्यते । श्रादर्शः-चक्षुगिन्द्रियजं ज्ञानम् , श्रा-समन्ताद् खीरहारसरिबन्ने' त्यादि . तत्स्वरूपवणने घटने लोकाग्र- दृश्यत-अनुभूयते रूपमनेनेति कृत्वा यत्प्रकर्षाहिव्यरूपक्षानस्थामूर्तत्वादिति, तस्मादीपत्याग्भारा सिद्धिरिहोच्यते । मुत्पद्यते । आस्वादो-रसनेन्द्रियजं ज्ञानम् , अास्वाद्यतऽनेनेति सा चैका द्रव्यार्थतया पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणस्क. कृत्या,यत्प्रकर्षाद्दिव्यरससंविदुपजायते ।वार्ता-गन्धसंवित्तिः, म्धस्यकपरिणामस्वात् , पर्यायार्थतया घनन्ता । अथवा- वृत्तिशब्देन तान्त्रिक्या परिभाषयाघ्राणन्द्रियमुच्यते,वर्तमान कृतकृत्यत्वं लोकाग्रमणिमादिका वा सिदाधा,एकत्वं च सा- गन्धविषये प्रवर्तत इति कृत्या, वृत्ती-घाणेन्द्रिय भवा वामान्यत इति । स्था० १ ठा० । जी० । भ० । अंश- ता, याप्रकर्षादिव्या गन्धोऽनुभूयते । एताश्च वित्तयो-शानापकर्मक्षये , सूत्र.२ थु०१०। संथा० । निवृत्ती.स्था० नि भवन्ति । तदुक्तम्-"ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शा [श१ ठा० । पश्चमगतो, श्रा० म० १ ०। अशेषद्वन्द्वीपरम, ना] स्वाददाता जायन्त" [३-३३] । एताश्च समा सूत्र.१ श्रु०१०४ उ० । माक्षे, सूत्र०२ २०११० । पं० गच्छतः सता विघ्ना हर्षविस्मयादिकरणन तच्छिथिलीकरघ। जी। कृतार्थीभबने,कल्प०३ अधि०३क्षण। कृतक- खात् व्युत्थाने-व्यवहारदशायां च समाध्युत्साहजननाद्वित्यतायाम् , श्रीला नि०। मोहनीयज्ञयेणानिष्ठितार्थतायाम् , शिष्टफलदायकत्वाच्च सिद्धयः । यत उक्तम्-"ते समाधाश्रा० चू० १ अ । उत्कर्षविशेष , द्वा० १५ द्वा० । वुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः " (३-३७) द्वा० २६ द्वा० ।
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सिद्धि
सिद्धि
अभिधानराजेन्द्रः। "कहतेणेव भवेन निव्वुया सव्यकम्मो मुक्का कई तइयभ- दितम् ) (अन्तर्धानविषयता 'अंतकाण' शब्दे प्रथमभागे वेण सिभिस्संति ।" भ० ७ श० ६ उ० ।
६३ पृष्ठे उक्ला।) अदृपयारकम्मक्खएण सिद्ध सज्ज मेते संति सिद्धा सि-- संयमात् कर्मभेदाना-मरिष्टेभ्योऽपरान्तधीः । य सजायमेसमिति वा सिद्धा । सिद्धिनिट्ठिए पहीणे सय- मैन्यादिषु बलान्येषां, हस्त्यादीनां बलेषु च ।।७।। लपवयणवायकयं वमेतेसिमिति वा सिद्धा । महा० एवमन्येऽपि । तेषां संयमादिदं शीघ्रावपाकमिदं च मन्द३ अ०।
विपाकमित्याद्यवधातदायजनितादरिष्टभ्य अध्यात्मिका
धिमौतिकाधिदैविकभेदाभेनेभ्यः कर्णपिधानाकालीनकोष्टय शुद्धतस्वसाधने, “एवं परमत्थसाहगं रूवं पुण होह सिद्धि
वायुघोषाश्रवणाकस्मिकविकृतपुरुषाशक्यदर्शनस्वर्गादिपदाचिय" इत्युक्तायां.(अष्ट. २७ अष्ट।) क्रियासिद्धौ, सूत्र.१
र्थदर्शनलक्षणेभ्योऽपरान्तस्य करणशरीरवियोगस्य धानिश्रु०१०२ उ०। निष्पत्ती, द्वा०२१ द्वारा सिडिल
यतदेशकालतया निश्चयः सामान्यतः संशयाविलतद्धियोक्षणम् 'धम्म' शब्द चतुर्थभागे २६७० पृष्ठे गतम् ।)
ऽरिप्रेभ्यो योगिनामपि संभवादि ध्येयम् । तदुक्तं--" सोसिद्धिशब्दः सम्बन्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि सिद्धि.
पक्रम निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्तज्ञानमरिभ्योभवतीत्युक्त इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयते । दश० १ ० । वति" ( ३२२) । मैञ्यादिषु मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्येषु सिद्धिप्राप्त्युपायमाह
संयमादेषां मैन्यादीनां बलानि भवन्ति. मैञ्यावयस्तथा प्रप्रतीतानागतज्ञानं, परिणामेषु संयमात् ।
कर्ष गच्छन्ति यथा सर्वस्य मित्रत्वादिकं प्रतिपद्यते योगी
त्यर्थः । तदुक्तं-" मैयादिषु प्रज्ञानि" (३.२३) बलेषु च हशब्दार्थधीविभागे च, सर्वभूतरुतस्य धीः ॥ ५ ॥
स्त्यादिसंबन्धिषु संयमाद्धस्त्यादीनां बलान्याविर्भवन्ति सনবমী নাম গ্রায়ানমাঘিমানুষ। যা- सामर्थ्ययुक्तस्यात् नियतपलसंयमेन नियनबलप्रादुर्भावात् । "प्रयमेकत्र संयमः" इति (३-४)। एतदभ्यासात् खलु एवं विषयवत्या ज्योतिष्मत्याश्च प्रवृतेः साविकप्रकाशप्रसहेयशेयादिप्रज्ञाप्रसर इति पूर्वभूमिषु ज्ञास्योत्तरभूमिष्षयं बि. रस्य विषयषु संन्यासात् सूचभव्यवहितविप्रकृयार्थज्ञानमपि नियोज्यः । तदाह-"नज्जयात्प्रज्ञालोकः ( ३-५) तस्य भू- द्रव्यं सान्तःकरणेन्द्रियाणां प्रशक्नितापत्तेः । तदुनं-"प्रमिषु विनयोग इति" (३-६) । ततः परिणामेषु धर्म- वृत्त्यालोकसंभ्यासात्सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्ज्ञानमिति " (३लक्षणावस्थारूपेषु संयमाञ्चितस्य सर्वार्थग्रहणसामर्थ्य- २५)॥७॥ प्रतिबन्धकविक्षेपपरिहारात् । अतीतानागतज्ञानमतिकान्ता.
सूर्ये च भुवनज्ञानं, ताराव्यूहे गतिर्विधौ । नुत्पन्नाथपरिछेदनं योगिनो भवति । तदुक्तं-" परिणामप्रयसंयमादतीतानागतवानमिति"। (३-१६) शब्दः श्रोत्रे
ध्रुवे च तद्गते भि-चके व्यहस्य वर्मणः॥८॥ न्द्रियग्राह्यनियतक्रमवर्णात्मा क्रमरहितः स्फोटात्मा ध्वनिसं.
सूर्ये चेति-सूर्ये च प्रकाशमये संयमाद्भवनानां सप्तानां स्कृतवुद्धिमायो वा, अर्थों जातिगुणक्रियादिः, धीविषया
लोकानां ज्ञानं भवति । तदुक्रं-"भुवनशानं सूर्ये (र्य) कारा बुदधिवृत्तिः, पता हि गौरिति शब्दो गौरित्यर्थों गौ
संयमात्" (३-२६)। तागव्यूहे ज्योतिषां विशिष्ट संनिरिति च धीरित्यभदेनैयाध्यवसीयन्ते । कोऽयं शब्द इत्या- वेशे संयमाद्विधौ चन्द्र गतिर्ज्ञानं भवति , सूर्याहततेजदिषु प्रश्भेषु गौरयमित्येकरूपस्यैवोत्तरस्य प्रदानात् । तस्य
स्कतया ताराणां सूर्यसंयमात्तदानं न शक्नोति भधिचैकरूपप्रतिपत्तिनिमित्तकत्वात् । तत एतासां विभागेचे
तुमिति पृथगयमुपायोऽभिहितः। तदुक्तं-"चन्द्रे ताराशब्दस्य तत्वं मद्वाचकत्वं नाम, दं चार्थस्य यद्वाच्यत्वं,
व्यूहलानं" (३-२७) । ध्रुवे च निश्चले ज्योतिषां प्रइदं च धियो यत्प्रकाशत्वमित्येवलक्षणे । संयमात् सर्वेषां भू.
धाने संयमात्तासां ताराणां गतेनियतदेशकालगमनक्रियातानां मृगपशुपक्षिसरीसृपादीनां रुतस्य शब्दस्य धीर्भवति । अनेनैवाभिमायण अनेन प्राणिनाऽयं शब्दः समुन्चारत
या गतिर्भवति, इयं तारा इयता कालेन अमुं राशिमिदं वा इति। तदुत-"शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्र
क्षेत्र यास्यतीति । तदुनं-"ध्रुवे तद्गतिज्ञानं" (३--२८ ।) प्रति (प्रवि) भागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानमिति" (३१७) ॥५॥
नाभिचक्रे शरीरमध्यवर्तिनि समग्राङ्गसन्निवेशमूलभूत
संयमाद्वर्मण:-कायस्य व्यूहस्य रसमलनाड्यादीनां स्था( कायरूपस्य संयमात् ६४) ।
नस्य गतिर्भवति । तदुक्तं- नाभिचके कायव्यूहमानम्" कायः-शरीरं तस्य रूपं-चक्षुर्यायो गुणः तस्य नास्त्य
(३-२६)॥८॥ (तच 'सरीर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) स्मिन् काये रूपमिति संयमापस्य चतुर्भाह्यत्वरूपायाः
(भुवनखरूपम् 'भावणा' शब्दे पञ्चमभागे गतम् ।) शनः स्तम्भे भावनावशात्प्रतिबन्धे सति तिरोधानं भवति ।
जुत्तृव्ययः कण्ठकूमे, कूर्मनाड्यामचापलम् । चतुषः प्रकाशरूपस्य सास्विकस्य धर्मस्य तद्ग्रहणव्यापाराभावात् । तथा सयमवान् योगी न केनचिद् दृश्यत इत्यर्थः ।
मधज्योतिषि सिद्धानां, दर्शनं च प्रकीर्तितम् ।।१।। एवं शवोदितिरोधानमपि शेयम् । तदुक्तं-" कायरूपसंयमा- बुदिति-कण्ठ-गले कृप इव कृपो गर्ताकारः प्रदेशस्तत्र तद्ग्राह्य शक्तिस्तम्भे चक्षुषः (दु:) प्रकाशासं (प्र) योगे- संयमात् चुतृषोळयो भवति । घाएटकाश्रोतःप्लावनामृप्तिन्तधानम्" (३-२१) । एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तमिति ॥६॥ सिद्धेः । तदुक्क्रम्-" कराठो क्षुत्पिपासानिवृत्तिः" (३-३०) (परचित्ताभिधानं 'परचित्तणाण' शब्दे पश्चमभागे प्रतिपा- कर्मनायां कराठकूपस्याधस्ताद्वर्तमानायां संयमादचापलं म
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(८५२) सिद्धि अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्धि यति, मनःस्थैर्यसिद्धेः । तदुक्तम्-“कूर्मनाड्यां स्थैर्यमिति" याकाशयोः संबन्धसंयमालधुतूलसमापत्तेरा (श्चा ) काश(३-३१) । मूर्घज्योतिर्नाम-गृहाभ्यन्तरस्य मणेः प्रसर- गमनम्" (३-४२)। (द्वा०) (पूर्वार्धव्याख्या ' महाधिती प्रमेव कुम्भिकादौ प्रदेश. हृदयस्थ एवं सात्त्विकः प्र- देहा' शब्द षष्ठभागे गता।। काशो ब्रह्मरन्धे संपिरिडतत्वं-भजन नत्र संयमाञ्च सिद्धा- स्थूलादिसंयमाद्भूत--जयोऽस्मादणिमादिकम् । नां दर्शनं प्रकीर्तितम् । द्यावापृथिव्योरन्तरालयतिनो ये दिव्यपुरुषास्तानेतद्वान् पश्यति, तैश्चायं संभाष्यत इति भा
कायसंपच्च तद्धर्मा-नभिघातश्च जायते ॥१५॥ वः। तदुक्तम्-"मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्" (३-३२)॥६॥
स्थूलादीति स्थूलादीनि स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्यानि
पञ्चानां भूतानामवस्थाविशेषरूपाणि । तत्र भूतानां परिप्रातिभात सर्वतः संवि-चेतसो हृदये तथा।
दृश्यमानं विशिष्टाकारवत्त्वं स्थूल रूप-स्वरूप च पृथिव्यास्वार्थे संयमतः पुंसि, भिन्ने भोगात्परार्थकात् ॥१०॥ दीनां कार्कश्यनेहोष्णताप्रेरणावकाशदानलक्षणं सूक्ष्म च प्रातिभादिति-निमित्तानपक्ष मनोमात्रजन्यम् अविसंवाद- यथाकम भूतानां कारणत्वेन व्यवस्थितानि गन्धादितम्माकं झगित्युत्पद्यमानं ज्ञान प्रतिभा । तत्र संयमे क्रियमाण त्राणि । अन्वया गुणाः प्रकाशप्रवृत्तिस्थितिरूपतया सर्वयदुत्पद्यते शानं विवेकख्यातः पूर्वभावि तारकमुदेष्यति , योपलभ्यमानाः । अर्थघत्त्वं च तेष्वेव गुगषु भोगापवर्गसंसवितरीव पूर्वप्रभा, ततः सर्वतः संविद्भवति । संयमा- पादनशक्तिरूपम् । तेषु क्रमेण प्रत्यवस्थं संयमाद्भूतजयो भनरानपेक्षः सर्व जानातीत्यर्थः । "प्रातिभावा सर्वम्" यति । कृतैतत्संयमस्य संकल्पानुविधायिन्यो बरसानुसारि(३-३३) इत्युक्तः । तथा दये-शरीरप्रदेशविशेषेऽधोमु- एय इय गाधो भूतप्रकृतयो भवन्तीत्यर्थः । तदुक्रम्-" स्थूखस्वल्पपुण्डरीकाकारे संयमात् बत्मः सेवित्-खपरचित्त- लस्वरूपसदमाघयार्थवस्यसंयमाद्भूतजयः" इति (३-४४) पतवासनारागाविज्ञानं भवति । तदुक्तम्-"दये चित्तसंधि- अस्माद्तजयात् अणिमादिकं भवति । अणिमा, गरिमा , त्" (३-३४) । परार्थकात् सत्त्वस्य स्थार्थनरपेक्ष्येण स्थभि- लघिमा, महिमा, प्राकाम्यम् 'ईशवं. वशित्वं. यत्रकामावअपुरुषार्थकाद्रोगात् सत्वपुरुषाभेदाध्यवसायलक्षणात् स-1 सायित्वं चेत्यणिमादिकम् । तत्राणिमा-परमाणुरूपतापत्तिः, यस्यैव सुख दुखकर्तृत्वाभिमानादिने स्वार्थे स्वरूपमा- गरिमा-यजयगुरुत्यप्राप्तिः लघिमा-तूलपिण्डवल्लघुत्बप्राप्तिः, पालम्बने परित्यक्ताहंकारे सत्त्व विच्छायासंकान्तौ पुसि
महिमा-महत्वप्राप्तिः अङ्गल्यग्रेण चन्द्रादिस्पर्शनयोग्यता । संविद्भवति । एवंभूतं स्वालम्बनशानं सस्वनिष्ठं पुरुषो जा
प्राकाम्यम्-इच्छानभियानः शरीरान्तःकरण योशियम-सनाति, न पुनः पुरुषां जाता ज्ञानस्य विषयभावमापत, शेय
चंत्र प्रभविष्णुता । वशित्वम्-यतः सर्याएयेव भूतानि पचन रखापतेः । ज्ञातवेययोश्चात्यन्तविरोधादिति भावः । तदुक्नम्।
नातिकामग्ति । यत्रकामावसायित्वम्-स्वाभिलषितस्य समा. "सस्वपुरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयोःप्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थः
प्तिपर्यन्तनयनम् । कायसंपच उत्तमरूपादिलक्षणा। "रूपला(र्थात् ) स्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानमिति।"(३-२५)१०। (द्वा०1)
वण्यबलवनसंहननत्वानि कायसंपत्" (३-४६) इत्युक्तः । समानस्य जयाद्धामा-दानस्यावाद्यसंगता।
तवानभिघातश्च तस्य कायस्य धर्मा रूपादयस्तेषामदिव्यं श्रोत्रं पुनः श्रोत्र-व्योम्नोः संबन्धसंयमात ॥१३॥
भिघातो-नाशस्तदभावश्च जायते न घस्य रूपमग्निदहति , ' समानस्येति-समानस्याग्निमावेष्टय व्यवस्थितस्य सामा
न वा मापः वयन्ति ,न या वायुः शोषपतीति । तदिदमुभाग्यस्य चायोर्जयात् संयमेन वीकारानिरायरणस्याग्ने
लम्-" ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत्तधर्मानभिधासर्वगत्वात् धाम-तेजः तरणिप्रतापवदवभासमानमाविर्भ
तश्चेति " ( ३-४५) ॥ १५॥ (द्वा०।) पति,येन योगी ज्वलनिव प्रतिभाति । यदुकम्- समान- __ मनोजयो विकरण-भावश्च प्रकृतेर्जयः॥१६+॥ जयाज्ज्वलनः (म्)" (३-४०)। उदानस्य कृकाटिका- तत इन्द्रियजयान्मनाजवः-शरीरस्य मनोवदनुत्तमगतिला. देशादाशिरोवृत्तेर्जयादितरषां वायूनां निरोधादूर्ध्वगतिन्व- भः। धिकरणभाषम कायनरपेक्ष्येन्द्रियाणां वृत्तिलाभ: सिद्धः । ( द्वा० ) श्रोत्रं शब्दप्राहकमाइंकारिकमिन्द्रियं प्रकृतेः-प्रधामस्य जयः सर्ववशित्वलक्षणो भवति । तदुक्क्रम्ग्योम , शब्दतन्मात्रजमाकाशं , तयोः पुनः संबन्ध- "ततो मनाजचिन्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च"(३ ४८)।१६॥ संयमाहेशदेशिभावसंबन्धसंयमाहिव्यं युगपत्सूक्ष्मव्यवहित- स्थितस्य सञ्चपुरुषा-न्यताख्यातौ च केवलम् । विप्रकृष्शब्दग्रहणसमर्थ श्रोत्रं भवति । तदुक्तम्-"श्रोत्रा
सार्वश्यं सर्वभावाना-मधिष्ठातृत्वमेव च ॥ १७ ॥ काशयोः संबन्धसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम्" (३-४१)॥१३॥
स्थितस्येति-केवल सस्वपुरुषयोरन्यताख्यानौ गुणकर्तृलघुतूलसमापच्या, कायव्योम्नोस्ततोऽम्बरे।
स्वाभिमानशिथिलीभावलक्षणायां शुद्धसात्त्विकपरिणामगतिमहाविदेहातः, प्रकाशावरणक्षयः ॥ १४ ॥
रूपायां स्थितस्य सावश्यं सर्वेषां शान्तोदिताव्यपदेश्यलविति-कायः- पाश्चभौतिक शरीरं , व्योम च प्रागुनं, त
धर्मत्वेन स्थितानां यथावद्विवेकजं मानलक्षण सर्वेषां योः । ततोऽवकाशदानसंबन्धसंयमात् । लघुनि तूले समा
भावानां गुणपरिणामानामधिष्ठातृत्वमेव च स्वामिवदोक
मणलक्षणं भवति । तदुनम-“सत्त्वपुरुषाम्यतःख्यातिमात्रस्य पत्या तम्मयीभावलक्षणया प्राप्ताभ्यन्तरलघुभावतयाऽम्बरप्राकाश गतिः स्यात् । उनसयमवान् प्रथमं यथारुचि जले
सर्वभावााधष्ठातृत्वं सर्वज्ञत्वं च" ( ३-४६) ॥१७॥ (द्वा०।) संचरन् क्रमेणोर्णनाभतन्तुजालेन संचरमाण आदित्यरश्मि
स्मृता सिद्धिर्विशोकेयं, तद्वैराग्याच्च योगिनः । भिश्च विहरन् यथेष्टमाकाशे गच्छतीत्यर्थः । तदुक्तम्- का- दोपवीजक्षये नूनं, कैवल्यमुपदर्शितम् ।। १८ ।।
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(५२) सिद्धि अभिधानराजेन्द्रः।
सिद्धिया (केवल' शब्द तृतीयमागे १६० पृष्ठे ऽस्य व्याख्या गता।) सिद्धिगई विगईणं, मुत्तिसुहं.सव्यसुक्खाणं ॥६॥" संथा। असङ्गश्चास्मयश्चैव, स्थितापनिमन्त्रणे ।
स्था० । पश्चभ्यां गतो, सूत्र०१ श्रु०६अ। बीजं पुनरनिष्टस्य, प्रसङ्ग स्यात्किलान्यथा ।। १६॥
सिद्धिगहनामधेज-सिद्धिगतिनामधेय-त्रिका सिद्धयन्ति-नि
छितार्था भवन्त्यस्यां प्राणिनः इति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलप्रसन्नश्चति-उपनिमन्त्रणे उक्तसमाधिस्थस्य देवैर्दिव्यत्री
क्षणा सैव गम्यमानत्याङ्गतिः सिदिधगतिरेव नामधेयं यस्य रसायनाद्युढिाकानन भोगनिमन्त्रण सङ्गश्चास्मयश्चैव स्थि
स तथा। सिद्धिगत्यास्ये,ध०२ अधिकाजी। ल०। कला। भी बीजम् । सङ्गकरणे पुनर्विषयप्रवृत्तिप्रसङ्गात् स्मयकरणच कृतकृत्यमात्मानं मन्यमानस्य समाधाबुसाहभङ्गात् । एत
सिद्धिगइपञ्जवसाय-सिद्धिगतिपर्यवसान-त्रिशमोक्षान्ते सि. वाह-अन्यथाऽसहास्मयाकरणे पुनः किलेति सत्येऽनिष्ठ--
विधगतिः पर्यवसान संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगतिश्य प्रसाइति विवमुक्तम्-" स्थित्युपमिमन्त्रेण सरस्म
पर्यवसानः । जीवे, स्था० ५ ० ३ उ । याकरणे पुमरमिष्टप्रसङ्गादिति" (३-५१)॥१६॥ (द्वा०) सिद्धिगंडिया-सिद्धिगपिडका-स्त्री० सिद्धिस्वरूपप्रतिपादन तारकं सर्वविषयं, सर्वथा विषयाक्रमम् ।
परायां वाक्यपद्धती, औ० । भ० । शुद्धिसाम्येन कैवल्यं, ततः पुरुषसच्चयोः ।। २१ ॥
सिद्धिजम-सिद्धियम-पुं०चतुर्थयमे, द्वा० । “परार्थसाधिका भारमिति-तप विवेकशाम तारयत्यगाथारसंसारप
वेषा,सिविधा शुदधान्तरात्मनःचिम्स्यशहियोगम,चतुर्थी बांधयोगिनमित्यावर्धिक्या संशया तारकमुच्यते । तथा स
यम उच्यते । २८ ॥"EO १६ द्वा०। ('जम' श चतुर्थविषयं सर्वाणि तस्वानि महदादीनि विषयो यस्य तत्त
भागे १३६१ पृष्ठे व्याख्यातमिदम् ।) था। तथा सर्वथा सबैः प्रकारैः सूचमादिभेदैविषयो यस्य
सिद्धिजोग-सिद्धियोग-पुं० । महानयोगसाधनसिधे,मएक तमन्त्र तवक्रमं च निःशेषनानावस्थापरिणतत्वतः मा
। १०० थिकभावग्रहणे क्रमरहितं चेति कर्मधारयः । बास्य सिद्धिणगर-सिद्धिनगर-२० । मोक्षपुरे, जी० ११ अधिक। संशाविषयखभाया व्याख्याताः । तदुक्तम्-"तारकं सर्वधि-सिद्धिणाह-सिद्धिनाथ-पु० गमवाणखाार
सिद्धिणाह-सिद्धिनाथ-पुं०।निर्वाणखामिनि,हा० ३२भए। षयं सर्वथा (र्थि) विषयमक्रमं चेति (विवेकजंहानम्)" (३.
सिद्धिदय-सिदिदत--पुं० सिद्धिसमागमहेती, यो०बि०। ५४ ) । ततस्तस्मात् हानात् पुरुषसत्वयोः शुद्धिसाम्येन कैबल्यं भवति । तत्र पुरुषस्य शुद्धिरुपचरिता भोगाभायः ।
सिद्धिपडागा-सिद्धिपताका-खी। सिद्धिसुखहेतुत्वादारासस्यस्य तु सर्वथा कर्तृत्वाभिमाननिवृस्या स्वकारणेऽनुप्र
धनायाः पताकेय पताका , सिधिरेष पताका । मोक्षपता
कायाम् , संथा। घेश इति । तदिवमुक्तम्-"सस्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति" (३।५५) ॥२१॥
सिद्धिपत्त-सिद्धिप्राप्त-पुं० । मोक्षं गते, उत्त० १६७०। इत्थमम्यैरुपदर्शिते योगमाहात्म्ये उपपश्यनुपपस्यो
सिद्धिपत्तण-सिद्धिपत्तन-न । निर्वाणपुरे, आव०४०। दिशा प्रदर्शयनाह
सिद्धिपब्बय-सिद्धिपर्वत-पुं० । शत्रुञ्जयपर्वते,ती० ११ कल्प। यह सिद्धिषु यैचित्र्ये, बीजं कर्मक्षपादिकम् । सिद्धिपह--सिद्धिपथ-० । सिद्धानां सम्बन्धनीयेयमनन्तरं संयमचात्र सदस-प्रवृत्तिविनिवृत्तितः ।। २२॥ गतिरुता सैवेद्द सिद्धिगभिप्रेता,तस्या यः पन्थाः-शानदर्शनरहेति-इह प्रागुतग्रन्थे सिद्धिषु वैचित्र्ये कर्मक्षयादिकं बी- चारित्रलक्षणः स सिद्धिपथः। विशे० । पश्चमगतिरूपायाः जम् , तथा ज्ञाने तथा कानावरणक्षयोपशमादेवायविशेषे च सिद्धर्मार्ग, श्रा०म०१०। बीर्यान्तरायक्षयोपशमादेहेतुत्वात् । संयमश्चात्रालसिद्धिषु स- सिद्धिपहप्पएसय-सिद्धिपथप्रदेशक-पुं० सिद्धिपदस्य प्रधा प्रवृत्यसभिवृत्तिभ्यां तथाविधक्षयोपशमाद्याधानद्वारैव,बी- नादेशकाः । सिद्धिहेतुभूतसामायिकादिप्रतिपादकेषु तीर्थजं न तु तत्तद्विषयज्ञानप्रणिधानादिरूपः । अनन्तविषयक- कृत्सु, प्रा०म०१०।। भानस्य प्रतिविषय संयमासाध्यत्वाद्विहितानुष्ठानप्रणिधा-सिद्धिपर-सिद्धिपर-न० । माक्षे, श्रा०चू०१०। प्रा०म०॥ नभात्रसंयमेनैव मोहक्षयात्तदुपपत्तेः । चित्तप्रणिधानार्थ त्यालम्बनमा क्यापि न वारयामः, केवलमात्मप्रणिधानप
| सिद्धिपुरवासि(ण)--सिद्धिपुरवासिन-पुंगसिद्धिपुरे-लोकान्ते यषसान एष सर्वः सयमः फलयानित्यात्मनी शेयत्वं विना।
वस्तुं शील येषां ते तथा । मुक्तिवासिषु, पं० सू०१ सूत्र । सर्व बिलूतश्शीगा भवेदित्यधिकं स्वयमहनीयम ॥ २२॥सिद्धिबहूवरसंगलालस-सिद्धिबध्वरसमलालस-पु०। मुक्तिद्वा०२६ द्वा०।
कान्ताप्रधानताभिष्वङ्गलम्पटे, जीवा० २५ अधि। सिद्धिगइ-सिद्धिगति-स्त्री० । सिद्धौ गमनं निर्विशेषणत्वा- सिद्धिमग्ग सिद्धिमार्ग--पु०। साधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्ति रुचानेन सामान्या सिद्धिगतिः । स्था० १० ठा० ३ उ० ।। स्तस्या मागेः सिद्धिमागः । श्राव०४ अ०। सूत्र० । क्षपक. गमन गतिर्गम्यते इति वा गतिः क्षेत्रविशेषा गम्यतेऽन- श्रेणिकेवलोत्पत्यादिरूप मागे, वृ०१ उ०२ प्रक०सम्यगया कर्मपदलसंहस्येति गतिम कर्मोत्तरप्रकृतिरूपा सिदधौ दशनादिरूप (दश०३ अ० ।) हितार्थप्राप्प्युपाये, भ०६ गतिः सिद्धिश्चासौ गतिश्चेति सिद्धिगतिः । स्था० श० ३३ उ० । प्रा० चू०। ५ ठा० ३ उ० । मोक्षगमने, प्रश्न संवद्वार | सिद्धिया-सिद्धिका-स्त्री० । जितशत्रोमथुराराजस्य दु" सारां जिगवंसा, सध्यकुलागं च मावगकुलाई । वितरि, श्रा००१०। मा०म० ।
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(८५३) सिद्धिविग्गहगह अभिधानराजेन्द्रः।
मिप्पसिद्ध सिद्धिविग्गहगइ-सिद्धयविग्रहगति--स्त्री सिद्धावविग्रहेण सिप्पसिद्ध-शिल्पसिद्ध-पुं० । शिल्पभदे, प्रा०म०। अवफ्रेण गमनं सिद्धविग्रहगतिः। विशिएसिद्धगती, स्था०
___ सम्प्रति शिल्पसिद्धं सोदाहरणमभिधातुकाम पाह१०ठा०३ उ०।
जो सवसिप्पकुसले, जो वा जत्थ सुपरिनिवितो होइ । सिद्धिविणिच्छय--सिद्धिविनिश्चय--पुं० । स्वनामख्याते सि
कोकासवड्डई विव, सातिसतो सिप्पसिद्धो त्ति ॥ द्धिप्रतिपादक ग्रन्थ, पो०१५ विव०।
यः कश्चिद निर्दिष्टस्वरूपः सर्वसिल्पेषु कुशलः यो वा यत्रै. सिद्धिसुगइगित्तम--सिद्धिसुगतिग्रहोत्तम-न० । सिद्धिलक्षणा
कस्मिन्नपि शिल्पे सुपरिनिष्ठितः साऽतिशयश्च कोकाससुगतिः सिद्धिसुगनिः । अथवा-सिद्धिश्च सुगतिश्च सु-1 बर्द्धकिवत् स सिल्पसिद्ध इति एष गाथाक्षराथः । श्रा० म० देवत्वसमानपत्यलक्षणा सिद्धिसुगती , तल्लक्षणं यद् गृहा-१०। प्रा०क०। । खामुनम गृहोजमं वरमासादः । सिद्धिस्वरूपसुगतिगृह,
कथा चेयम्स०८३ सम।
"पुरं सोपारकं तत्र, रथकारोऽभवरसुधीः । सिद्धिसहर-सिद्धिशेखर-न । शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प ।
तहास्याश्च द्विजाज्जातः, कोकासो नाम दारकः ॥१॥ मिध-सीध-पुं० । गुडधातकीसम्भव मद्ये, विपा०८ अ०। स चासीन्मूकभावन, समीपेऽप्यश्रवा इति । मिनात-सात- त्रिय--पां रिय-सिन-सटाः क्वचित्'।'
रथकारः सुशिल्पानि, शिक्षयत्यङ्गजानिजान् ॥ २॥ ।४।३१४॥ इति स्त्र इत्यस्य स्थाने सिनादेशः। स्नातम् । सिनातं।
न तेऽगृह्णन्किमप्यशा , दासेरः सर्वमग्रहीत् ।
रथकारे मृत राजा, दासरे तच्छूियं न्यधात् ॥३॥ शुधीभूते, प्रा०४ पाद।
इनश्चाजयिनीपुर्या-माईतः श्रावको नृपः । सिन्दी-दशी-स्वर्जूर्याम् , दे० ना०८ वर्ग २६ गाथा।
चत्वारः श्रावकास्तस्य , सन्ति कर्मसु कर्मठाः ॥ ४॥ सिन्दुवण-देशी-अग्नौ, दे० ना०८ वर्ग ३२ गाथा।
करीत्येको रसवती, ताक् पाकवती, यथा। सिन्द-देशी-रज्ज्वाम् दे ना ८ वर्ग २८ गाथा ।
जीर्यत्यन्नं भुक्तमात्र-मथवा याममात्रतः ॥ ५॥ सिन्दूर-देशी-राज्ये, दे० ना०८ वर्ग ३० गाथा ।
यथा द्वित्रिचतुःपञ्च-यामेभ्यो जीर्यत क्रमात् ।
यथा वा कुरुते येन, सर्वथाऽपि न जीयति ॥६॥ सिन्दोला-देशी-खजूर्याम् , ३. ना०८ वर्ग २६ गाथा।
अभ्यनक्ति द्वितीयस्तु. स तैलकुडवं प्रधीः । सिन्धो -देशी-राही, दे० ना०८ वर्ग २ गाथा।
प्रवेशयाते देहान्त-स्तावन्निस्सारयत्यपि ॥ ७॥ मित्र-मैन्य-न० । “सैन्ये वा"॥८।१ । १५०॥ इति सैन्यश- तार्तीयीको रचयति, शय्यां ताग्विधां यथा । ब्दे ऐत इवा । सैन्यम् । सिन्नं । सैनिके, प्रा०१ पाद ।
जागर्ति प्रथमे यामेऽथवा द्वित्रिचतुर्थक ॥८॥
श्रीगृहाधिकतस्तुर्य-स्तस्मै तन्मतिवैभवम् । सिप्प-सिल्प-न। अनाचार्यके कर्मणि, नित्यव्यापारे च ।
प्रविष्टो ह्यपरस्तत्र, न किञ्चिदपि पश्यति ॥६॥ स्था० ४ ठा०४ उ०। भ० । चित्रादिविज्ञाने, स्था०५ ठा० ३ स च दमाभूदपुत्रत्वा-द्राजकार्येषु शीतलः। उ० । पि० । क्रियासु कौशले, प्रा०म०१० । अकम- निर्विरणकामभागोऽस्ति, यावदवतकृतोद्यमः ॥१०॥ ईनादिके, औ० । कल्प० । दश० । शिल्पशतम्। शि
इतश्च पाटलीपुत्रा-जतशत्रुः क्षितीश्वरः । ल्पानि कुम्भकारक्रियादीनि नैपुण्यानि वा लेख्यादिकला
लङ्कापुरी राम इव, रुरोधागत्य तत्पुरीम ॥ ११ ॥ लक्षणानि । दश अ० २ उ० । शिल्पशतं च कालनिधी
तदाऽवन्तीपतेः शूल-मुत्पन्नं देवयोगतः । वर्नते, तथा च-"घट १ लोह २चित्र ३ वस्त्र ४ नापित
विधायानशनं सोऽथ , जगाम त्रिदशालयम् ॥ १२ ॥ शिल्पानां प्रत्येकं विंशतिभेदात् । स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
नागरैरथ तस्यैत्र, पाटलीपुत्रभूभुजः । चित्रादिके,प्रश्न. ६ श्राश्र द्वार। क्रियाकौशले, रा०ा साति
अर्पिता नगरी तेन , श्रावकारते च शब्दिताः ॥ १३ ॥ शय प्राचार्योपदेशज ग्रन्थनिबद्ध व्यापार, श्रा०म०१०।
चत्वारोऽप्यागताः पृष्टाः, पदाऽभूतोऽत्र कुत्र कः । श्रा०चू। अनाचार्यकं कर्म, साचार्यकं शिल्पम् । अथवा-का
कोश कोशाधिकृत्तत्रा-दर्शयद्रिनमैक्षत ॥ १४॥ दाचित्कं शिल्पम्,सार्वकालिकं कर्म । नं०। प्रा० म।।
शय्यापालस्तु शय्यां च , सज्जयामास तादृशीम् । स्त्रिह-धा०। प्रीती. "स्मिह-सिचोः सिप्पः" ॥ ८।४।२५५॥
मुहूतं च मुहर्त च, यस्या उत्थीयते जवात् ॥ २५॥ अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादशो भवति क्यलुक च । सूदनान्नं तथा राद्धं, येन भुक्ने क्षरणे क्षण। सिप्पाइ । स्निह्यते । प्रा०४ पाद ।
अभ्यक्ताऽन्येन चैकस्मा-तैलमाकर्षि पादतः ॥ १६ ॥ मिच-धागसेचन, पूर्ववत् सिप्पादेशः। सिप्पद सिक्यतामा ऊचे व्यस्तेऽस्थिमत्तुल्यः , सोऽन्यतस्तैलमाकृषेत् ।
प्रावृजन्नथ सर्वेऽपि, निजस्वामिवियोगतः ॥ १७ ॥ सिप्पसत्थ--शिल्पशास्त्र-न । यः शिल्पनिमित्तादिशास्त्राणि
तेन तैलेन तस्यांहि-दह्यमानः क्रमादभूत् । ग्राहयति स इहोपचारतः शिल्पशास्त्रम् । शिल्पशास्त्रग्राहके,
काकश्यामस्ततः सोऽत्र, काकजक इति श्रुतः॥१८॥ विश।
इतश्च सोपारपुरे, दुर्भिक्षमभवत्तदा । सिप्पमय-शिल्पशत-न० । भगवत प्राचार्योपदेशजं शिल्प
आजगाम ततोऽवन्त्या, पुर्या कोकासवकिः ॥१६॥ मिति। तच्छ्रने, कल्प० १ अधि०७ क्षण ।
राक्षः स्वज्ञापनायाथ, शालीन्काष्ठकपनिकैः।
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सिप्पसिद्ध
२२ ॥
अपाहरत्प्रतिदिनं कोष्ठागाराक्षरेशितुः ॥ २० ॥ नियुक्तैः कथिते राशा - ऽऽनाय्य कोकासवर्धकिः । रथकारपदे चक्रे, पूज्याः कुत्र गुणा न वा ॥ २१ ॥ के कालेन गरुडो नृपतेः कृते । यः कीलिकाप्रयोगेण उपोगामी सजीव अथ राजा सराशीकः, कोकासेन समं सदा । व्योम्ना गरुडमारूढः सर्वा संचरते महीम् ॥ २३ ॥ मारयिष्याम्यहं युष्मान् व्योम्नागत्य वदनिति । भापयित्वा परान्सर्वान्, भूपतीन् करदान् व्यधात् ॥ २४ ॥ तां देवीमपराः प्राहु- रेप कीलिकया कया ।
"
( ake ) श्रभिश्वानराजेन्द्रः ।
गरुत्मान् चलते ब्रूहि, साऽऽर्जवादाख्यदेतया ॥ २५ ॥ या 55 ही विनीलिकाम् । तथैवागान्नृपस्तेन, चाहितस्तु न सोऽचलत् ॥ २६ ॥ अयोदामं लक्ष्यों महायाताभिघातः ।
३२ ॥
कलिङ्गेषु तडागान्ते, भङ्गपक्षः पपात सः ॥ २७ ॥ तस्य सङ्घटनाद्देतो- र्वास्याद्यानेतुमुत्सुकः । कोकास नगरेऽयासी - तत्रान्यो रथकृता ॥ २८ ॥ काष्ठकर्मालये राशी, रथं कुर्व्वन्समस्ति सः । तेनैकं निर्मितं चक्र-मन्यदस्त्य निर्मितम् ॥ २६ ॥ कोकासनार्थि राख, तज्ञोपकरणानि खः । सोऽभ्यधादर्पयिष्यामि, गृहादानीय तान्यहम् ॥ ३० ॥ इतो मैतानि लभ्यगृहे । कोकासेना निष्पन्नं, तचक्रं घटितं क्षणात् ॥ ३१ ॥ प्रक्षिप्तं याति वेगेन, स्खलितेऽपि पतेन्न तत् । किंतु पायाति स्थल र श्रागतः सोऽथ तचक्रं दृष्ट्रा गत्वा सपथपि । राम्रो विज्ञापयामास पथा कोकास आयी १३ ॥ यद्बलात्काकजङ्गेन, नृपाः सर्वे वशीकृताः । धृतोऽसौ ताडनाचाय-द्धृतो राजाऽथ सप्रियः ॥ ३४ ॥ दण्डिताः स्मो वयमिति तयोर्भक्तं निवारितम् । नागरैरयशोभीतैः काकपिराडी चर्तिता ॥ २५ ॥ कोकासं च स राजोत्रे, प्रासादं शत भूमिकम् । मम पुत्रशतस्य त्वं कुरु मध्ये च मत्कृते ॥ ३६ ॥ पधादापयिष्यामि, राजकं सर्वमप्यम् । कोकासो ज्ञापयामास, काजकृतमूरुहम् ॥ ३७ ॥ सपुत्रं संहरिष्यामि नृपमेतं दिने मुके । श्रमन्तव्यं त्वयाऽवश्य - मंत्र तद्दिवसोपरि ॥ ३८ ॥ कृत्वा प्रासाद कोकासो, नृपमारुह्य सात्मजम् । संजड़े कीलिकापातात् संकृत्य जयात् ॥ ३८ ॥ काकजङ्घतनूजेन तत्र तत्कालमीयुषा ।
,
नगर जगृहेऽमोचि, पिता माता च वर्द्धकिः ॥ ४० ॥ विधायाथ महोत्साहं, सर्वेऽपि स्वपुरं ययुः । शिल्पसिद्ध इति ख्याति प्राप कोकास४१ आ० क० १ अ० ।
सिप्पं- देशी - पलाले दे० ना० २० गाथा । सिप्पा शिप्रा स्त्री० खनामख्यातायामुञ्जयिन्यां महानचा
म् आ० म०१ श्र० । श्र० क० ।
"
मिथकमा
कर्म तेन जीवति जीविकां कल्पयतीत्यर्थः । शियोषजीविनि स्था० ५ ठा० १ ४० प्रा० । सिप्पायरिय- शिल्पाचार्य पुं० । तुन्नकादिषु शिल्पिषु प्रज्ञा० १ पद । ( 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे ३०३ पृष्ठे गलमेतत् ।) सिप्पि -शिल्पिन्- पुं० | चित्रकारसूत्रधारलोहकारस्वर्णकारस्थपतिप्रभृतिषु, उत० १५ अ० । श्री० । रा० । हा० । शुक्ति- स्त्री० । दीन्द्रियजीवविशेषे, प्रशा० १ पद "सिष्पिषु' डगसठाणसंठिय" उपा० २ श्र० । सिप्पिय-शिल्पिन - न० विशेषे प्रा० १ पद सिप्पिसंपुट- शुक्रिसंपुट त्रिसंपुटपाक्षु, प्र०१ पद श्र० । नि० चू० । जी० । सिप्पोस शिषगत भि० शिल्पं किया कौशल तः प्राप्तः । रा० शिपसमयले नियोग अनुभ सिप्पोवदेसमइ - शिल्पोपदेशमति--स्त्री० । श्राचार्यस्य शिपोपदेशानुरुपदेशा जायमानायां बुडी, श्री० । सिफा- शिफा "फो मही" ॥ ८१०२३६॥ इति फ
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भहौ । सिफता । सिभा । वृक्षाणां जटाकारे मूले, प्रा० १ पात्र । सिमिय- स्वप्न पु०।" मनीष ति वस्य मो वा । सिमिणो । सिविणो । स्वापात्रस्थायाम्, प्रा० मिम्मि देशीभूत वर्ग ४० गाथा । सिम्बाडी - देशी - नासिकानादे, दे० ना०८ वर्ग २६ गाथा । सिम्बोरं - देशी - पलाले, दे० ना०८ वर्ग २८ गाथा | सिम्भ-- श्लेष्मन् पुं० । “ सर्वत्र लबरामचन्द्रे" ॥८२॥७६॥ इति ललुक । हस्वः संयोगे दीर्घस्य ॥ १८४॥ इत्येकारस्येकारः । "शषोः सः ॥ | १ | २६०॥ इति शस्य सः। "पक्ष्म-श्म-मस्म ह्मां म्हः ॥ ८ ॥ २७४ ॥ इति काचित्कत्वादत्र म्भः । शिम्भो । कफे, प्रा० । अपभ्रंशे तु पक्ष्म-श्मति महादेशे “अम्भो वा" प्रा० ० १ पाद इति म्हेत्यस्य स्थाने मकाराकान्तो
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भकारः । प्रा० ।
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सिय-शित ०ि यतिलेखिते रा० बजे परिप्रारम्भेध्यासने, सूत्र० १ ० १ ० ४ उ० । विशे० । स्था० । पुत्रकलत्रादिभिर्वद्धे , श्राचा० । सूत्र० । भ० । ('कमलेसियमा इति सिद्ध शब्दे सिता उक्ताः । ) चामरे, दश० ४ श्र० । श्राचा० । सूत्र० । सित-त्रि० । शुक्रे, चं० प्र० १८ पाहु० । सूत्र० । संथा । प्राचा० सितच 'थिम' बन्धने इति वचनात् खितपट्टे, प्रश्न० ३ श्र० द्वार । आ० म० प्रा० ६० । स० । धित जि० सम्बद्धे सू० १ ० १ ० २४० ि
"
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सिप्पाजीव- शिल्पाजीव- पुं० शिल्पं सूर्यमादि साचार्य या सियकमल- सितकमल न०
स० ३३ सम० ।
स्यात् - अव्य०। प्रशंसास्तित्वविवादविचारणाने कान्तसंशयप्रश्नादिषु प्रज्ञा०५ पत्र । अनेकान्तद्योतने, स्या० भ० रा० सियंवर-श्वेताम्बर पुं० तेने आय० ६ ० सियंबुज श्वेताम्बुज १०
"
पुण्डरीके ०म० अ०
पुराडरीके, औ० ।
"
"
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सिपणाम
सिरसाम-सितनामन्न० नाव
सितंवति कर्म० १ कर्म० ।
,
ततः
सियवत्थ - सितवस्त्र- न० शुक्लवाससि पञ्चा० २ विव० । सिवाय स्याद्वाद पुं० स्वादित्यव्ययाची स्याद्वादः। अनेकान्तवादे निम्यानित्यायने थर्म स्युपगमे, स्था० । उस० । “स्यादस्तीत्यादिको वादः स्याद्वा द इति गीत नयी नावादिनी॥३॥
1
-
(x) अभिधानराजेन्द्रः ।
शरीरं
त्यस
1
द्रव्या० ७
स्याद्वादः परमेश्वरैः॥४॥ उत्त० १ ० जिनागमे, अध्या० | अनु० । ( श्रत्र यद्वक्लव्यं तद्' अगंतवाय 'शब्दे प्रथमभागे ४२३ पृष्ठ उक्क्रम् । )
"
यस्तु यवादान्तरनिरपेक्षता स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणायधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेतुमभिप्रैति स नयः, वस्त्वेकदेशपरिग्राहकत्वान्नय इत्युच्यते स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव यथास्थितार्थवस्तुपरकत्तपत्रस ये नया मिन्दायाइग " इति यत एव च नयवादो मिथ्यावादस्तत एव च जिनप्रवचनतस्ववेदिनो मिथ्यावासर्वमपि स्पारकारपुरस्सरं भाषते म मतु अनुविपि स्यात्कारविरहिनम् पद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतन सर्पदा साक्षात्स्यात् प्रति प्रयुक्तेऽपि सामर्थ्यात्स्याच्छन्दो द्रष्टव्यः प्रयोजकस्य कुशलन्यात्, उक्तं च – “श्रप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते विधी निषेधः अब अन्यत्रापि इति अनुवादाविदेशादिवाक्येषु । नतु यदि सर्वत्र स्वात्पप्रयोगात मुलारणविधिः परस्परमेतयोर्विरोधात्, तथा हि-अवधारणमम्यनिषधपस्थात्पप्रयोगस्तु अम्पसंग्रहणशील इति त
॥"
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स्वात्पद
सम्यक वस्तुतस्याज्ञानात् स्वहिव चितवनुयायी धर्मान्तरसेम वलः अयधारणविधिस्तु तत्तदा शङ्कितान्ययोगव्यवच्छेदादिफलः, तथाहि ज्ञानदर्शनः कि जीया भवति । किवा नेत्याशङ्कायां प्रयुज्यते स्याज्जीय एप अत्र जीवशब्देन निबन्धनं जीवशब्दवाच्यत्यमभिते चकारेण यदाङ्कितं परेणाजीवशब्दवाच्यत्वं तस्य निषेधः, योगा शानदर्शनसुखादिरूपा साधारणणा स्वत्वा संख्यात प्रदेशसूक्ष्मत्वलक्षणा धमाधम काशस्तिकाय पुद्गलैः साधारणाः च सत्यमेत्यधर्मादयः सर्वे पदार्थैः साधारणास्ते सर्वेऽपि प्रतीयन्ते । यदा तु ज्ञान दर्शनादिलक्षणो जीवः किं वाऽन्यलक्षण इत्याशङ्का तदैवमधारणविधिः स्यात् ज्ञानादिलक्षण एव जीवः अत्र जीवशदेन जीवाध्यतामा प्रतीयते ज्ञानादिना एवंत्य म्यलक्षणव्युदासः । स्यात्पदप्रयोगातु साधारणाऽसाधारणधर्मपरिग्रहः । यदा तु जगति जीवोऽस्ति, किंवा नेत्यसम्भबाशङ्का धारण स्पादस्य जीवः अत्रापि जीवब्दप्रयोगाज्जीवशब्दवाच्यताधिगतिः स्थात्पदप्रयोगाद् साधारणा साधारणधर्मपरिग्रहः अस्त्येवेत्यवधाराशङ्काव्यवच्छेदः एवमन्यत्रापि साक्षाद्गम्यमानतया स्यात्पदप्रयोगपुरःसरं यथायोगमवधारणविधिः सम्यक् प्रवचनार्थ जानानेन प्रयोकम्पा अवधारणाभावे तु जीवाजीवादि
सिवाय
,
वस्तुतस्यव्यवस्थाषिङ्गः तथाहि यद्यन्यव्यवच्छेदेन शामदर्शनोपयोग लक्षणी जीव एवेति नावधार्यते तर्हि - जीवोऽपि तलक्षणः स्वादिति जीवा
पः । तथा यदि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एव जीव इत्यन्ययोatreछेदो नाभ्युपगम्यते ततोऽन्यत् किमप्यजीवानुगतमजीचसाधारणं वा तथा लक्षणमाशङ्कयेत तथापि जीवतरविभाग परिक्षामानाथः ततो यथा सम्यादित्यमिता सर्वत्र स्यादयोगः खान्मनुमीयते तथा यथायोगमवधारणविधिरपि, अन्यथा यथावस्थित वस्तुतत्वप्रतिपरवनुपपत्तेः नयायधारणविधिरपि सिद्धान्तेनानुमत इति
पं तत्र तत्र प्रदेश नेशो ऽवधारविधिदर्शनात् नया हि " किमयं भंते! कालो त्ति पश्चद गोयमा ! जीवा सेय अजया "स्वानायुक्रम्" इस लो स दुपडोयारं तं जहा - जीवा बेव, श्रजीवा चेत्र तहा जद्द व मोक्खफला आणा श्राराहिया जिगिदाणमि"त्यांदि या चावधारणी भाषा प्रवचने निषिध्यते सा कचित् तथारूपवस्तुनश्वयाभावात् कविदेकान्तप्रतिपादिका वा [न] सम्पास्थितवस्तुस्वनिर्णये स्थात्पदप्रयोगावस्थायामिति । दैगम्बरी स्वियं प्रमाणनयभाषा सम्पूर्णवस्तुकथनं प्रमाणवाक्यं यथा स्याजीवः स्याद्धर्मास्तिकाय इत्या दि । वस्त्वेकदेशकथनं नयवादः, तत्र यो नाम नया नयान्त रसापेक्षः स नय इति वा सुनय इति वा प्रोच्यते (आ० म०) नपचिन्तायापि च ते दिगम्बराः स्थास्पदप्रयोगमिच्छन्ति । तथा चाकलङ्क एव प्राह-नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तंवियः स्यादिति । अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता- नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्ये, न केवलं प्रमाणप ब्दार्थः तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्, यथा स्यादस्त्येव जीव इति, स्यात्पदप्रयोगाभावेतु मिथ्यैकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्थादिनि, तदेतदयुक्रम् प्रमाणनयविभागाभावः तथादि स्थाजीत फिल प्रमाणवाक्यं स्वादस्त्येव जीव इति नयवाक्यम् । एतच्च द्वयमपि लघयस्तयाऽलङ्कारे साक्षादकलङ्केनेदमुदाहृतम् अत्र बोलपत्रापि विशेषः तथाहि स्वात् जीव एवेत्य जीयशवंदन प्रावधारयन्धिना जीवाध्यता प्रतिपत्तिः,
अस्तीत्यननाद्भुताकारशब्दप्रयोगाददाताप्रति
षेधः स्याच्छब्दप्रयोगतः श्रसाधारणसाधारणधर्माक्षेपः । स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताप्रतिपतिरस्तीत्यनेनानविज्ञास्तित्वाय गतिः कारयोगसु यदाशङ्कितं सकलेऽपि जगति जीवस्य नास्तित्वं तद्वयवस्वापयोगसाधारणधार धर्मप्रतिपतिरित्युभयत्राण्यविशेष एव । तथा व-सिद्धव्याख्याता म्यापविचारविनी स्वारस्येव जीव इति प्रमाणवाकयमुवन्यस्तवान् तथा च ततो ग्रन्थः यदा तु प्रमाणव्यापारम विकले परामृश्य प्रतिपातिपदे श्रीनगुणप्रधानभावाशेषधर्मसूचक कथादविभूषितया साधारणया च वाचा स्यादस्त्येव जीव इत्यादिकया, अतोऽयं स्वचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य वाचादुपन्यस्तजीयापियां प्रधानम वस्यावधारणव्यवस्यि वस्तुनः सम्
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सिवाय
भयो,
त्यु प्रमाणसम्यकथनमिति यावदित्यादि तस्मादस्य प्रमाणनयव्यवस्था समीचीना यथा यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः परमार्थतः स्यात्पदप्रयो गमभिलषन् सम्पूर्ण वस्तु गृह्णातीति प्रमाणान्तरभावनीयम्, मयान्तरनिरपेक्षतु वो नयः स च नियमामध्याव सम्पूर्णवस्तुग्राहकत्वाभावादिति । श्रा० म०१ अ०।" स्याद्वादा नमस्तस्मै विना सकलाः क्रियाः । लोकद्वितयभाविनैव- - साङ्गत्यमासते ॥ १ ॥ " स्था० ६ ठा० । सकलनयसमूहात्मकवचने, द्वा० ६ द्वा० । 44 नयास्तव स्थापलाञ्छना इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यत्रिफला यस्तो भवन्तमार्याः प्रवृतादि॥१॥" श्रा० म० १ श्र० । अनु० । सूत्र० । सियायमंजरी स्याद्वादमञ्जरी - श्री० [देमन्द्रविन तायाः वर्तमानजिनस्तुतिलवाया अन्ययोगव्यवच्छेदत्रिशिकाया व्यापार प्रबंधि शेषे, स्या ।
"येषामुयल हेतुदेति रुचिरा प्रामादिकाभ्यपू देमाचार्यसमुद्भवस्तयनभूरर्थः समर्थः सखा । तेषां दुर्नयदस्युसम्भवभयाऽस्पृष्टात्मनां संभवस्यायासेन विना जिनागमपुरप्राप्तिः शिवश्रीप्रदा ॥ १ ॥ धातुर्विध्यमहोदधेर्म गवतः श्रीमसूरेनिं गम्भीरार्थविलोकने यदभवद् दृष्टिः प्रकृष्टा मम । द्राघीयः समयादुराग्रह पराभूतप्रभूतावमं, सम्बूनं गुरुपादणुकणिकासि जनस्यॉर्जितम् ॥ २ ॥ अन्यान्यशास्त्रतरुसङ्गतचित्तहारि, पुष्पोपमेयकतिनिचितप्रमेयैः ।
डब्धां मयाऽन्तिम जिनस्तुतिवृत्तिमेनां, मालामाल हृदये वहन्तु ॥ ३ ॥ प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमंत्र
( ८५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
यत्किञ्चिदुकं मतिमान्यशेषात् । मात्सर्यमुत्सार्य तदार्यचित्ताः, प्रसादमाधाय विशोधयन्तु ॥ ४ ॥ उयमेव सुधाभुजां गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारिणो, यत्रेयं प्रतिभाभरादनुमितिर्निर्दम्भमुज्जृम्भते । कि वामी विबुधाः सुघेति वचनोद्वारं वदी मुदा, शंसन्तः प्रथयन्ति तामतित्तमां संवादमेदस्विनीम् ॥ ५ ॥ नागेन्द्रगोविन्दबतो अलङ्कारकी स्तुनाः ।
से विश्ववन्द्या नन्द्यासु - रुदयप्रभसूरयः ॥ ६ ॥ युग्मम् । श्रीमणिरभिरकारितमदिनमणिभिः । वृत्तिरियं मनुरविमित- शाकाब्दे दीपमहसि शनौ ॥७॥ श्रीजिनप्रभसूरी, साहाय्यासीरमा ।
॥ ८ ॥
तास सतां वृतिः विभ्रा किल नि तद्दधस्तुतिवृत्तिनिर्मितिमा क्रिया विस्तृता । दूषणे निजगिरा तथार्थये सजनान तस्यास्तस्वमकृत्रिमं बहुमतिः साऽस्त्यत्र सम्यग् यतः॥६॥" स्था० ।
सिवायमुद्दानइभेइ - स्याद्वादमुद्रानतिभेदिन्- त्रि० | म्याद्वा
•
सिया
द: अनेकान्तवादनित्यानित्याद्यनेकधर्मशव लेकवयभ्युप गम इति यावत् । तस्य मुद्रा - मर्यादा तां नाऽतिभिनत्तिनातिक्रामति स्याद्वादमुद्रानतिभेदी । अनेकान्तवादमर्या व्यवस्था तथा शब्दे प्रथमभागे ४२३ पृष्ठ विस्तरां गतः । ) सियवायरयणागर- स्याद्वादरत्नाकर - पुं० | देवसूरिभिर्विरचिते प्रमाणनयतस्वालोकालङ्कारटीकाग्रन्थे, रत्ना० । "वर्धमानः स्वात् ली।
1
यूटीवी
पराभूतिः ।
पेर या दिगम्बरस्यापि प्रत्यक्षं विबुधानां जयस्तु ते देवसूरयो नव्याः ॥ २ ॥ स्वाद्वादमुद्रामयभित्
मालीम जिनेश्वराणाम्। सन्यायमागांनुगतस्य वस्
सा श्रीस्तदन्यस्य पुनः स दण्डः ॥ ३ ॥ " इदमोदीषो ऽर्था चुाक्षरक्षीरनिरन्तरे तत इस दृश्यमानस्याद्वादमहामुद्रा मुद्रितापस तरङ्गभङ्गिसङ्गसौभाग्यभाजने, अतुलफलभरभ्राजिष्णुभूविद्यागमाऽभिरामातुरच्छेदसम्म हाइलासकानननिकुञ्ज, निरुपममनीषामहायान पात्र व्यापारपरायणपुरुषप्राप्यमाणाप्राप्तपूर्व रत्नविशेषे, कचन वचनरचनाऽनवद्यगद्यपरपालालजटिले कवन सुकुमारकान्तालोकनीयाश्लोकी कमी लिकप्रकरकरति कचिदनेकान्तवादक पिताको ज्ञासितोदाम दूषणादिव्यमायांकतीर्थिकनकचक्रवाले, कविताशेषदोषानुमा
9
"
नाभिधानाद्वर्तमानासमानपाडीनपुराउछोटो
तुदर्शीकर क्षेत्रायमानमाडचमत्का रेका तीर्थकथग्रन्थिसाधसमर्थक दर्शनस्थापिता स्थिती पायमानवमान ज्वलन्मणिन्द्र सह दसैद्धान्तिकता कियेयाकरणकविवर्तिसुविदितसु गृहीतनामधेयास्मद्गुरुदेव सुरभिर्विरचिते स्वाद्वार नाकरे न खलु कतिपयमा पातीर्थम जानम्। पाठीना अभीवराश्व वे प्रभविष्णुः इत्यतस्तेषामवतारप्रवेष्टुं दर्शनं कर्तुमनुरूपम् तब संक्षेपतः शास्त्रशरीरपरामर्शमन्तरेण नोपपद्यते। सोऽपि समासतः सूत्राभिधेयावधारणं दिनान इति प्रमाणनयतश्वालोकाव्यं तत्पार्थमाकाशनपरा रत्नाकरावतारिकानाम्नी लघीयसी टीका प्रक टीक्रियते । तत्र चेह यत्र क्वचिदपि प्रयर्तमानस्य पुरुषस्वानिमानिनोऽनेकप्रकारत गुगोपदर्शनादिसंस्का रस्याद्वाय स्मृतिकोटिपी कनीया भवन्त्युपकारिः अपकारिणश्च विशेषता ये पत्र तदभिमततश्वाधार नारिराधथिषिताः तदोषापान पराचिकीविताश्व इयेऽपि वामी - परापरमेदात् बाह्यान्तरक्रमेाच] इत्यस्मिन् प्रमाणनयतस्व कृतास्तत्र भवस्तस्तेषां प्रागेव स्मृत चिकीर्तत् । रत्ना० १ परि० ।
सिया स्वात्अ० श्रशृङ्कायाम् आशङ्का नाम विभाषा, स्यादिति कोऽर्थः कदाचित् कदाचित भाव्य०९४०
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(४७) सिया अभिधानराजेन्द्रः।
सिरि उत्त। दश अवधारणे, निचू०१ उ०। भवत्यर्थे, श्राश- सिरि-श्री-खो। "ई-श्री-ही-कृत्स्न-फ्रिया-दिष्ट्यादिधिकाया भजनायां वा । तत्र भवत्यर्थे सुसिद्धः.आशङ्कायां यथा त्"८२१०४॥ इनि संयक्तव्यञ्जनात्पूर्व इकारः।"दब्यस्थ उ भावत्थउ, दब्वत्थउ बहुगुण त्ति बुद्धि सिया" भ- दम्याम् ,ज्ञा०१ श्रु०१०। उपा० । द्वा०। सम्पदिका०१ जनायां यथा-"सिय तिभागे सिय तिभागनिमागे" इत्यादि।
शृ. ६ अ०। शोभायाम् , ज्ञा० १ श्रु० १ अ०। कल्प। नि। १०१ उ०२ प्रका
जम्बूद्वीपे पाहदाधिष्ठातृदेव्याम् , स्था० ६ ठा० ३ उ०। श्रसिता-स्त्रीलामृद्विकादीनां संग्रहे, प्राचा०१ श्रु०२०५उ०।
म्तरञ्जिकानगरीराजे, यत्र त्रैराशिकनवाचार्यस्य रोहगुप्तस्य सियाणकरण-श्मशानकरण-न० । श्मशानस्थापनायोग्य
परिवाजन सह शास्त्रार्थोऽभवत्। विशे । सौधर्मकरूपे प्रत्युपेक्ष, वृ०१ उ०२ प्रक०।
स्वनामख्याते विमाने, तहव्याञ्च। नि० । सियाल-शृगाल-पुंग गोमायौ, प्रशा० ११ पद । वृ० । जम्बुके,
एवं खलु जंबू तेणं कालणं तेणं समएणं रायप्रश्न.१ अधद्वार । वृ० । गाला वै एप जायते यस्सप-! रीवा दहा। प्रा०म०१०। नरकपालक्लिविते जम्बक.
। गिहे नगरे गुणमिलए चइए सेणिए राया सामी समोसूत्र० १७०५ अ०२ उ०। प्रक्षा।
' सह परिसा निग्गया। तेषं कालणं ते समपणं सिरिसियालखाइता-शृगालखादिता-स्त्री०। शृगालस्तुभ्यम्वृत्यो- ती मोकाश
देवी मोहम्मे कप्वे सिस्विडिसए विमाणे सभाए मुहम्मापात्तस्थाच्यान्यस्थानमक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वति ।। एमिरंमि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सेहि चउप्रवक्याभेदे, स्था०४ ठा०४ उ० । सियालता-शृगालता-स्त्री० । दीनवृत्तौ , स्था०४ ठा०३ उ।
हिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा बहुपुत्तिया • जॉब सियाली-भृगाली-स्त्री० । शृगालभार्यायाम् , प्रज्ञा० ६ पद २
नविहि उवदंसित्ता पडिगता, नवरं दारियाओ नस्थि द्वार।
फुधभवपुच्छा, एवं खलु जंबू ! तेणं कालणं तेणं समसिर-मुज-धा० । सधी, “सजोरः" ॥८।४।२२६ ॥ इत्य- एणं रायगिहे नयरे गुणमिलए चइए जियससू राया। तस्य रः । सिरह । सृजति । प्रा०४पाद ।
तत्थ ण रायगिहे नगरे सुदंसणो नाम गाहावई परिशिरस-न। उत्तमाते, तं। सूत्र। दशा औ०। "श्नमदाम
वसति, अड्ड० । तस्स णं सुदंमणस्म गाहावइस्म पिशिरोनमः"।८.१।३।इत्यत्र शिरःपर्युदासात् शिरसः पुस्त्वं न।
या नाम भारिया होत्था सुमाला । तस्स णं सुदंसणस्स प्रा०। उपचाराच्छिरोबन्धने,औ०। मस्तके,"सिग्णमियकरयः । लेजलि" शिरसि-मस्तके नमितो निवेसितः करतलयोहस्त
गाहावइस्स धूया पियाए गाहावतिणीए अत्तिया भूया योग्खलिईस्तविन्यासविशेषो यत्र करणे तत्तथा कर्तव्यमित्ये नामंदारिया होत्था वुड्डा वुडकुमारी जुन्ना जुन्नकुमारी पतात्क्रयाविशेषणमिदमिति । पश्चा० ४ विव० । " सीस सिरं डितपुतत्थणीवरपरिवज्जिया यावि होत्था। तेणं कालणं उत्तमंग च" पाइ० ना० १११ गाथा।
तेणं समएणं पासे अरहा पुरिमादाणीए० जाव नवरयसिरपरिरय-शिरपरिरय-पुं०। करभ्रमणाभिमन्त्रणे , पं-व०
णीए वामा सो चेव समोमरणं परिसा निग्गया। तते द्वार। सिरपाल-शिरस्थाल--पुं०। विंगउल्लीदेशीयविगलनगरराज , णं मा धृया दारिया इमीसे कहाए लट्ठा सामाणी हती०५१ कल्प । ('अंतरिक्स्वासणाह ' शब्दे प्रथमभागे | द्रुतुट्ठ जणव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छह उवागन्छि६ पृष्ठे कथा ।)
ता एवं वदामी एवं खलु अम्मताओ पासे अरहा पुरिसासिरमुंड-शिरोमुण्ड-पुं० शिरसा मुण्डे,स्था० १० ठा०३ उ०।
दाणीए पुवाणुपुब्बि चरमाणे. जाव देवगणपडिबुडे वि सिरय-शिरोज-पुं० । मस्तककेश , प्रशा०१ पद ।
हरति, तं इच्छामो णं अम्मयाओ तुम्भेहिं अब्भणुना-- मिररुह-शिरोरुह-पुं० । केशे, प्रज्ञा० १ पद ।
या समाणी पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स पादसिरवेयणा-शिरोवेदना-स्त्री० । “नोद्वाऽन्यान्य-प्रकाष्ठा
वंदिया गमिनए । अहासुहं दवाणुप्पिया ! मा पडिबंधंतोद्यशिरोवेदना-मनोहर-सरोरुहे नोश्च वः"। ८।१।१५६। एषु
करेह । तते णं सा भूया दारिया न्हायाजाव सरीरा चेडीश्रोत्वं वा भवति । तत्सन्नियोगे च यथासम्भवं ककारतकारयाऽऽदेशःसिरवियणा । सिरोवेयणा। शिरःपीडायाम,प्रा०
चकवालपरिकिन्ना साओ मिहाा पडिनिक्खमति पडिमिरसंभया-श्रीसम्भृता-स्त्री० । पक्षस्य षष्ठयां रात्री, ज्यो०४ निक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणेव उवापाहु।
गच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरंदुरूढा । तते ण सा सिरसावत्त-शिरसा(स्या)वर्न-पुंगा शिरसाश्रावन श्रानिग..
भृया दारिया निययपरिवारपरिवुडा रायगिहं नगरं मझ वर्तन परिभ्रमण यस्याऽसौ। सप्तम्यलोपाच्छिरस्यावनः। भ०
मज्झेणं निग्गच्छतिता जणव गुणमिलए चइए तेणेव उ२ श० उ० । शिर्गस मस्तके श्रावतः प्रदक्षिणभ्रमग यस्वति । कृतिकर्मणि क्रियमाणे श्रावृत्ते ऽञ्जली, कर्म०१ कर्म
वागच्छह उवागच्छित्ता छनादीए तित्थकरातिमए पामति जी। औ० । रा॥
पासिसा धम्मियाओ जाणपवगा पचीसभिति० २ ता मिरा-शिस-बी । धमन्याम , जी०.१ प्रति० । ०। चेडी चकमाल परिकिन्ना जेणत्र पास अरहा पूरिमादमारिए -
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सिरि
अभिधानराजेन्द्रः ।
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तेणेव उवागच्छर्इ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो वंदति वंदित्ता० जाय पज्जुवासति पज्जुवासित्ता तते गं पासे अरहा पुरिसदा भूयाए दारियाए तीसे महति महलियाए धम्मकहाए धम्मं सोचा खिसम्म हट्ठतुड्डा वंदति वंदित्ता एवं व यासी - सदहामि यं भंते! निग्गंथं पावयणं० जाव अब्भुडेमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं । से जहे तं तुम्भे वदह जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि तते णं अहं० जात्र व ( प ) व्वत्तए श्रहासुहं देवाणुप्पिया ! तते गं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरुहति दुरुहित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेखेव उवागता, रायगिहं नगरं मभं मज्झें जेणेव सए गिहे तेणेव उवागता, रहाओ चोरुहित्ता जेणेव अम्मापितरो तेणेव उवागता, करतल• जहा जमाली आपुच्छति । अहासुई देवाणुप्पिए ! राते णं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेति मित्तनाति श्रमंतेति ०जाव जिमियत्तरकाले सुईभूते निक्खमखमाखित्ता कोई बियपुरिसे सहावेति कोचियपुरिसे सदावित्ता एवं - दासि - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भूयादारियाए पुरिससहस्वाहिणीयं सीयं उबट्ठवेह ०जाव पचप्पियह । तते णं ते ०जाक पच्चप्पियंति। तते गं से सुदंसणे गाह। वई भूयं दारियं हायं ० जात्र विभूसियसरीरं पुरिस सहस्वाहिणि सीयं दुरुहति दुरुहित्ता मित्तनाति० जाव रखेणं रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणेव गुण मिलए चे इए तेणेव उवागते, छत्ताईए तित्थकरातिसए पासति सीयं ठावेति ठाविता भूयं दारियं सीयाश्रो पच्चो रुहेति पचोरुहित्ता, तते णं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरतो काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागते तिक्खुत्तो वंदति नम॑सति वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वदासी एवं खलु देवाप्पिया ! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इड्डा, एस गं देवाणुपिया ! संसारभउब्बिग्गा भीया ०जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा ०जात्र पन्त्रयति पव्त्रयित्ता एवं णं देवाखुप्पिया ! सिस्सिणी भिक्खं दलयति, पढिच्छंतु गं देवाखुपिया । सिस्सि वीभिक्खं । अहासुरं देवाणुपिया ! तते गं सा भूता दारिया पासेणं अरहा० एवं बुत्ता समाणी हट्टा उत्तरपुरमिं सयमेव आभरणमल्लालंकारं उम्मुयह, जहा देवागंदा पुष्फलागं अंतिए जाब गुत्तबंभयारिणी । तते गं सा भूता अज्जा अमदा कदाइ सरीरपाओसिया जाया यानि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे भोति पादे भोवति, एवं सीसं घोवति, मुहं घेोवति, सिरिकंता - श्रीकान्ता - स्त्री० । भोगपुरवास्तव्यस्य वरुणश्रेष्ठि
,
For Private
सिरिकता
थणगंतराई धोवति, कक्खंतराई घोवति, गुज्यंतराई जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिअं वा निसीहियं वा चेति तत्थ तत्थ विणं पुव्वामेव पाणएणं श्रभुक्खेति । ततो पच्छा ठाणं वा सिअं वा निसीहियं वा चेतेति । तते गं तातो पुष्कचूलातो अजातो भूयं अ एवं वदासी- अम्हे गं देवाप्पिए !नमणीओ निधीओ इरियासमियाओ ०जाब गुत्तरंभचारिणाओ, नो खलु कप्पति अहं सरीरपाओसियाणं हो नए, तुमं च सं देवाणुप्पिए ! सरीरपाओसिया अभिक्खणं अभिक्खणं ह त्थे घोस •जाव निसीहियं चेतेहि, तं गं तुमं देवाणुपिए एयस्त ठाणस्स आलोएहि त्ति, सेसं जहा सुभछाए ० जाव पाडियक्क उवस्सयं उवसंपजित्ता गं विहरति । तते गं सा भूता अजा अणाहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोत्रति ०जाव केतेति । तते णं सा भूया अजा बहूहिं चउत्थछट्ट० बहूहिं वासाईं सामापरियागं पाउखित्ता तस्स ठाणस्स श्रणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिवर्डिस विमाणे उववायसभाए देवसयणिअंसि •जाव ओगाहणा सिरिदेविनाए उववमा पंचविहाए पजतीए भासामणपतीए पञ्जता । एवं खलु गोषमा ! सिरीए देवीए एसा । दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता, ठिई एगं पलिओवमं सिरी गं भंते ! देवी ०जाव कहिं गच्छिहिति ? महाविदेहे वासे सिज्झिहिति एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ। । नि० १ ० ४ वर्ग १ अ० ।
कुन्थुनाथस्य मातरि प्रय० ११ द्वार । स० । वणिग्ग्रामे मि नामकस्य राशेो भार्यायाम्, विपा० १० २ श्र० । क्षुद्रहिमवद्देव्याम् आ० म० १ अ० । उत्तररुचकवास्तव्यायां दिकुमार्याम् आ० चू० १ ० । वाराणस्यां भद्रश्रेणिजीर्णष्टिले भार्यायाः सुनन्दाया दुहितरि, आ० चू० ४ ० । देवताप्रतिमाविशेषे, ० १ ० १ ० । हिमवद्वर्षधरपर्वते स्वनामख्याते षष्ठे कूटे, स्था० २ ठा० ३ उ० ॥ सिरिन - श्रीक-पुं० | सूर्यभद्रस्य भ्रातरि ही ० ३ प्रका० । सिरिश्रभिसेय- ध्यभिषेक-पुं० । लक्ष्म्यभिषेके, जं० २ वृक्ष० । सिरिउववेय- श्युपपेत- त्रि० । लक्ष्म्योगगते,दश॰ १ चू० । सिरिंग- देशी - विटे, दे० ना०८ वर्ग ३२ गाथा । सिरिकंत - श्रीकान्त पुं० । अयोध्यानगरीराजस्य मिथ्यादृष्टेः श्रीवीरस्य पुत्रै, अष्ट्र० २५ श्रष्ट० । ( 'राग' शब्दे षष्ठे भागे कथा 1 ) षष्ठे देवलोके विमाने , स० १४ सम० । श्रीकान्ता नगरी वास्तव्ये व्यवहारिणि, कल्प० १ अधि० १ १ क्षण ।
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(३५६) सिरिता अभिधानराजेन्द्रः।
मिरिपम नो भार्यायां सुलभकुमारमातरि, ध० र०२ अधिः । मरुदे- सिरिदत्त-श्रीदत्त-पुं० । कुल्लाकसनिवेशवासिनि स्वनामख्यावस्य षष्ठकुलकरस्य भार्यायाम् , प्रा० म०१०। स्था० । तेश्रेष्ठिपुत्र, ध०र०२ अधि०(श्रीदत्तवदिति तदृष्टान्तस० । स्वनामख्यातायां सार्थवाह्याम् , श्राव० ४ ० । । श्च संसार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तः । ) ऐरयतेऽस्यामप्रा० म०। प्रा० क०। ('अलोभया' शब्द प्रथमभाग ७८५ | वसर्पिण्यां जातेडएमे तीर्थकारे, प्रव०७द्वार। प्रष्ट कथोना । ) स्वनामख्यातायां नगर्याम, यत्र विजयसेनापति-सीतारा० शोभावन्मालायामा .. . माम राजा श्रीकान्तास्यश्च व्यवहार्यासीत् । कल्प०१ अधिक
८० । अनेकरत्नखचिते दर्शनसुभगे पाभरणविशेषे, प्रा. १क्षण । जम्न्याः सुदर्शनाया अपरस्यां दिशि नन्दापुष्करिण्या
म०१०। मथुरायां नन्दिवद्धनस्य नन्दिषेणस्य विपाकम्, जी०३प्रति०४ांध०। जं० । पुरिमतालनगरराजस्य उदितोदयस्य भार्यायाम् , नं० । श्रा० म०। श्रा०चू० । च
थुतोकस्य पितरि, स्था० १० ठा० ३ उ० । विपा० । एका
दशदवलोकविमाने, स०२१ सम। म्पायां नगर्या दत्तराजस्य पुत्रमहाचन्द्रराजभायोयाम् , विपा०२ श्रु० ६ ०।
सिरिदामगंएड-श्रीदाम(गण्ड)काण्ड-पुं०।श्रीदाम्नां शोभा. सिरिकंदल-श्रीकन्दल-पुं०। एकखुरजीवविशेष, प्रशा०पद।। धचित्ररत्नमालानां गएडं गोलवृत्ताकारत्वात् , काण्डं वा स
मूहः श्रीदामगण्डम् । श्रीदामकाण्डं वा। अथवा-गण्डो दण्ड सिरिकूड-श्रीकूट-पुं० । न०। श्रीदेवतानियासभूते हिमवर्ष
स्तद्वद्यत्तद् गएड एवोच्यते श्रीदाम्नां गएडः श्रीदामगएडः । धरस्य षष्ठे कूटे, स्था०२ ठा०४ उ० । ।
श्रीदामसमूहे. जं०५ पक्ष । स्था। शा। सिरिखंड-श्रीखण्ड-२० । मलयजे, मा० म०१०। स्था० सिरिदेवी-श्रीदेवी-स्त्री० । दीर्घदशानां चतुर्थाध्ययनोकायां सिरिगुप्त-श्रीगुप्त-पुं० । भार्यसुहस्तिनः शिष्ये अन्तरनिका- सौधर्मकल्पदेव्याम् , स्था०१०ठा०३ उ०(अस्याः कथा.'सि. यां नगर्यो राशिकाचार्यस्य रोहगतस्य गरी शर्वि- रि' शब्दऽस्मिन्नेव भागे उक्ला ।) ण्याचार्ये, विश०। उत्त। श्रा०म०। प्रा०५०। कल्प० ।। सिरिद्दही-देशी-पक्षिपानपात्रे, दे० ना०८ वर्ग ३२ गाथा। विन्ध्याद्री पार्श्वनाथे, ती० ४३ कल्प।
सिरिधम्म-श्रीधर्म-पुं० । स्थविरस्यार्यसुहस्तिनः काश्यपसिरिघर-श्रीगृह-न० । भाण्डागारे, शा०२७०२ १०। विशे०।। गोत्रस्य शिष्ये दशपूर्विणि स्थविरे, कल्प० २ अधि० - मा० । भ० । प्रा० म०। पार्श्वनाथस्य षष्ठे गणधरे, स्था० ८ क्षण । उपजयिन्यां मुनिसुव्रतस्वामिशिष्यसुव्रताचार्यस्थ ठा०३ उ०।
बन्धनकर्तरि राजनि, ती० २० कल्प । सिरिघरपडिरूवय--श्रीगृहप्रतिरूपक-त्रि०। रत्नमयत्वाना-सिरिधर-श्रीधर-पुं० । स्वनामख्याते नैयायिके, स्या० । एडागारतुल्ये, भ० ११ श० ११ उ० ।
सिरिपभ-श्रीप्रभ-पुं० । स्वनामख्याते राशि, ध० र०। सिरिघरिय-श्रीगृहिक-पुं०॥श्रीगृहं भाण्डागारं तदस्यास्तीत्य
श्रीप्रभमहाराजकथा चेयम्
"सौधोज्ज्वलप्रभाभि-निरन्तरप्रसृतधूपधूम्याभिः । तोऽनेकस्वरादीतीकप्रत्ययः । श्रा०म०१०। भाण्डागारिके, विशे० । भाण्डागारनियुक्त, व्य०३ उ० । प्रा. म. ।
जितसुरसरिदर्कसुता-सकाऽस्ति पुरी विशालेति ॥१॥ सिरिचंद-श्रीचन्द्र-पुं० । ऐरवते वर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यति
सुरलोकावधिविदल-द्विवकिलकलिकामलं यशो यस्य
प्रबलबलशत्रुसंहति-कूलक्षयावधि सदा शौर्यम् ॥ २॥ षष्ठे तीर्थकरे, स० । ति०। प्रव० । भारते वर्षे भषिष्यति
स्यागस्तर्कुकजनवा-ञ्छितावधिः सागरावधिर्वसुधा। तृतीयचक्रवर्तिनि, ती०२० कल्प । मलधारिश्रीहेमचन्द्र
श्रीजिनपतिपदकमल-द्वयप्रमाणावधिभक्तिः॥३॥ सूरिशिष्ये, विक्रम ११२१ वर्षे भृगुकच्छनगर श्रेष्ठिनो धवल
शेषः पुनर्गुणगणो, निरवधिरवधीरितान्यदोषभरः । शाहनाम्नः प्रार्थनया मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रकारके प्राचार्य
स श्रीचन्द्रनरेन्द्र-स्तां नगरी पालयामास ॥४॥ च । जै००।
तितिपतिहदयकुशेशय-शया सदाचरणरागपरिकलिता । सिरिचंदा-श्रीचन्द्रा--स्त्री० । जम्ब्वाः सुदर्शनाया अपरोत्तर
शुद्धोभयपक्षाऽजनि, हंसी हंसीव तस्य जनी ॥५॥ स्यां दिशि नन्दापुष्करिण्याम् , जी०३ प्रति०४अधिः । तनयो तयोरभूतां, परिभूताखिलविपक्षसंदोही। सिरिजगसूरि-श्रीजगत्सूरि--पुं० । सत्यपुरनगरे नाहकारित- ज्येष्ठः श्रीप्रभसंश-स्तथा कनिष्ठः प्रभाचन्द्रः ॥६॥ श्रीवीरप्रतिमाप्रतिष्ठापके स्वनामख्याते सूरी, ती० १५
तत्र ज्येष्ठो गम्भीर्यसागरो रूपविजितरतिकान्तः । कल्प।
सौम्याकृतिः प्रकृत्या, लोकप्रियगुणमणिकरणः ॥ ७॥ सिरिह--ध्याय--पुं०। स्थविरस्यार्यमहागिरेरेलापत्यसगोत्रस्य | अक्रूरचित्तपरिणति-निर्जरजम्बालिनीहिमानीभृत् । स्वनामख्याते शिष्ये, कल्प. २ अधिक्षण।
शिवसुखघातकपातक-भीरुत्वसरोजदिननाथः ॥८॥ सिरिणाभिअजिण-श्रीनाभेयजिन-पुं० । नाभेरपत्यं नाभेयः।
शठतालतालवित्रं , दाक्षिण्यहिरण्यमेरुगिरिसरशः । श्रीयुतो नाभेयः श्रीनाभेयः स चासो जिनश्च श्रीनाभेयजि
संततमकार्यलज्जा-स्फुरदलिनीकमलिनीतुल्यः ॥ En नः । ऋषभदेवे, द्रव्या० १० अध्या।
जीवदयाकैरविणी-शशभृत् माध्यस्यहस्तिविध्याद्रिः।
गुणर गजनवतंसा, साघुकथाकथनपथपान्थः ॥१०॥ सिरिणिलया-श्रीनिलया-स्त्री० । जम्ब्याः सुदर्शनाया अप
जिनधर्मदक्ष सतप-क्षकक्षसेवनपयोधरप्रतिमः। रोत्तरस्यां दिशि नम्वापुष्करिण्याम् , जी० ३ प्रति०४ प्र- स्फूर्जदुरुदीघ्रदर्शि-स्वतारकातारकामार्गः । ११॥ धि० ज० । स्था।
जिनपरिवृढगदितागम-विशेषविज्ञत्यकेलिधामसमः।
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सिरिप्रभ अभिधानराजेन्द्रः।
লিফি सद्बुद्धिवृद्धजनसे-वनैकसरसी वरमरातः ॥१२॥
धर्माधर्मविजार-श्चिन्त्यो माध्यस्थ्यसुस्थचेतोभिः। .. विनयनयबद्धताः , कृतज्ञताकृलिनीधुनीनाथः ।
स्वजनधनादिषु निबिडा, प्रतिवन्धी नो विधातव्यः ॥३७॥ परहितकरणप्रवणः , सुलब्धलक्ष्यश्च कृत्येषु ॥१३॥
भोगोपभोगतृष्णा, कृष्णाहिविनिग्रहे प्रयतितव्यम्। .. तत्रापरेधुरागात् , केवलकलिता गुरु वनभानुः ।
सतनं यतिधर्मधुरो-बरणोधुरकन्धरैर्भाव्यम् ॥ ३८॥ तं नन्तुमगान्नृपतिः, सुतसामन्तादिपरिकलितः ॥ १४ ॥
एवं भ्रमरणोपासक-धर्म विधिना विधाय विमलमनाः ।। कृत्वा प्रदक्षिणात्रय-मानम्य गुरुं गरिष्ठया भक्त्या ।
मुचरित्रमाप्य लभते, भवाएकस्यान्सरपवर्गम ॥ ३६॥ . उचितस्थाने न्यषद-द्यनिपतिरथ देशानां चक्रे ॥ १५॥
इत्याकरार्य श्रीम-न्द्रनरपतिर्भुवनभानुगुरुमूले। इह भवगहने उनम्ते, भ्राम्यन् जीयः सहसानभरम् ।
श्रीप्रभसुनादिमहितो, जगृहे गृहमेधिनां धर्मम् ॥ ४०॥ जातिकुलप्रभृतियुतं , कथमपि लभते मनुजजन्म ॥१६॥
अथ नत्वा गुरुचरमो, निजधाम जगाम वसुमतीनाथः । तदवाप्य भव्यलोकाः!, जिनधर्म कुरुत सकलदुःखहरम् ।
बिजहार हारनिर्मल-गुणोच्चयः सूरिरन्यत्र ॥४१॥ स पुनद्वेधा प्रोक्तो , यतिगृहिधर्मप्रभेदेन ॥१७॥
चतुर्भिः कलापकम्तत्राचे पश्च यमाः, प्रत्येक पञ्च भावनाः पाल्याः।
अपरगुः श्रीचन्द्र-क्षितीशितुः सविनयं तनूजाभ्याम्। हिमालीकस्तेया-ब्रह्मपरिग्रहबिरतिरूपाः ॥ १८ ॥
संबाह्यमानचरण-वयस्य सुकुमारकरकमलम् ॥४२॥ समितिभिरीर्यादाम-पमाभिरनिशं तथा मनागुप्ल्या। मौलिमणिरुचिररोची , रचितसदःसदनभूरिहरिचापैः। दृष्टान्तादिग्रहणेन भावयेन्प्रथमयमममलम् ॥१६॥
भक्त्या पर: सह-रवनिधवैः सेव्यमानस्य ।। ४३ ॥ विविधैर्नियमविधानैः , प्रत्याख्यामनिरन्तरं मतिमान् ।
राज्यभरभवनधरण-स्तम्भैः सद्बुद्धिभिर्विगतदम्भैः । पालोच्य भाषणेना-पि भावयत् सूनृतं च यमम् ॥२०॥
शतशः सचिववरिष्ठै-रलंकृतासन्नदेशस्य ॥४४॥ याचनमवग्रहस्या-लोच्यावग्रहबिमार्गणं च भृशम् ।
बहसमसमरसंप-बम्पटभटकोटिभिः परिवृतस्य। । सततं समनुनापित-भक्तासाभ्यवहृते करणम् ॥२१॥ करकलितकनकदण्डो, विज्ञपयामास वेत्रीति ॥ ४५ ॥ " साधर्मिकती याचन-मवग्रहस्योचकैस्तथाऽस्यैव ॥ देव ! दिदृचार-समल्लनामा नटाग्रणी रुद्धः। मर्यादाकरणमिमा , अस्तये भावनाः पश्च ॥ २२ ॥
संक्षेपनिबद्धसन-त्कुमारनाट्यप्रबन्धोऽस्ति ॥४६॥ नारीपएडकपशुम-निवासकु उद्यान्तरासनोज्झनतः । लघु मुश्चन्युक्त सति, महीभुजा वेत्रिणा सानायि । स्त्रीरम्यागनिरीक्षण-नजाङ्गसस्कारपरिहारात् ॥ २३ ॥ कृत्वा त्रिपात्रकिंकर-मित्याशिषमथ नृपस्यादात् ॥४७॥ स्निग्धाऽत्यशनत्यागात्-सरागयोपित्कथाविवर्जनतः ।
तद्यथापूर्वरनास्मरणेन-ब्रह्म सदा भावयद्वीमान् ॥ २४॥
पट्खण्डामबनि निधीव चतुःषधि सहस्रारिप च, स्पर्श रसे च गन्ध, शब्द रूपे शुभाशुभ सततम् ।
स्त्रीणां क्षोणिभुजां तदर्द्धमपरं द्विःसप्त रत्नानि च । रागद्वेपत्यागो, हि भावनाः पश्चमयमे स्युः ॥ २५ ॥
यस्त्यक्त्वा तृषवद्भवातिविधुरो जैन वतं शिधिये, एवं व्रतानि पश्चा-पि पञ्चभिः पञ्चभिः सुवास्य भृशम् । राजर्षिः स सनत्कुमार इह ते भूपाल ! भूयाच्छिये ॥४॥ सद्भावनाभिरगम-नसुमन्तः शिवपदमनन्ताः ॥ २६ ॥ अथ नाटकावलोकन-कातुकरसविवशमानसं सकलम् । गृहमधिनां तु धर्मे, निशम्य सम्यक सुसाधुगुरुपार्थे । निजतनयप्रभृतिजनं, नृपतिर्विस्पष्ट मैक्षिष्ट ॥ ४६॥ हात्वा तथा गृहीत्वा, व्रतानि परिपालनीयानि ॥२७॥ तस्यानुवृत्तिवशतः, सविलासामुज्ज्वलां ततो दृष्टिम् । प्रायतनसेवनाय, शीलं परिशीलनीयमनवरतम् ।
तदभिनयकृते स कृती , नटनेतरि पातयाञ्चके ॥ ५० ॥ सद्भिः, समर्जनीयः, स्वाध्यप्रभृतिविभवभरः ॥२८॥ बुद्धाऽथो नृपहृदयं, हृदयंगमया गिराऽगृणात् सोऽपि । व्यवहारशुद्धिरनिशं, भव्यैरब्याजभावनैः कार्य ।
भो भो पापंद्यजनाः !, श्रीचन्द्रनरेश्वरप्रमुखाः ! ।। ५१ ॥ गुरवश्वरणविहंगम-तरवः शुश्रूषणीयाश्च ।। २६॥
क्षणमेकमेकतानी-भूयः शृणुत तुर्यचक्रिणश्चरितम् । भाव्य प्रबचनकौराल-सुपेशलैगलितसकलपापमलैः । इति जल्पनट उच्च-स्तदभिनयं कर्तुमारभे ।। ५२ ।। स्त्रीणां वश्योऽवश्य, नात्मा कार्यः कदाचिदपि ॥ ३०॥
तथाहिसुज्ञानशृङ्खलाभि-हृषीककपयः समन्ततो रोध्याः। श्रीहस्तिनापुरपतेः, सनत्कुमारस्य नृपतितिलकस्य । गृद्धिर्नचार्थसाथै, क्लेशायासाकरे कार्या ॥३॥
षट्खण्डभरतभर्तुः, प्राज्य सामाज्यमनुभवतः ।। ५३ ।। निर्वेदः संसारे, दुःखागारे सदा विधातव्यः।
अप्रतिमरूपलक्ष्मी-विलोकनोत्पनविस्मयोत्कर्षः । विषयाः कुनृपाधिष्ठित-विषया इव दूरतस्त्याज्याः ॥ ३२॥ मध्ये सभं निलिम्पान् ,सुरपतिरिति निगदति स्म मुदा॥५४॥ तीवारम्भा दम्भा, इव निर्दम्मैः कदापि नहि सेव्याः । भो भो अमराः ! पश्यत , सनत्कुमारस्य सार्वभौमस्य । सकलक्लेशनिवास,न गहवासे रतिः कार्या ॥ ३३ ॥
पूर्वार्जितशुभनिर्माण कर्मनिर्मितलसन्मूर्तेः ॥ ५५ ॥ धार्य निरतीचार, सुदर्शन स्थगितदुर्गतिद्वारम् ।
सा काऽपि रूपलना , वरेण्यलावस्यकान्तिपरिकलिता। मोहनृपविजयभेग, न लोकहेगे मनो धेयम् ॥ ३५॥
सुरसा जन्मिनामपि, या प्रायो नैव सभवति ।। ५६ ।। शुद्धागमविशदविधिः, समस्तकल्याणशयाधः सेव्यः । अश्रद्दधताविति सुर-पतेर्वचो विजयवैजयन्ताख्यो । दानादिकश्चतुर्दा, धर्मः शिवशर्मकृत् कार्यः ॥ ३५ ।। क्षिप्र वसुंधरायां , हायमृतभुजाववातरताम् ॥ ५७ ॥ न्याय्य पथि प्रवृत्त-विमुग्धहसितेऽवधारणा धया । अत्रान्तर च सर्वे-ऽपि विस्मयस्मेरलोचना लोकाः । हेयौ रागद्वेषौ, भवभाविषु सकलभावेषु ।। ३६ ॥
किमितो भवितेत्यवाहित-चित्ता याकर्णयामासुः ॥ ५ ॥
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सिरिपभ अभिधानराजेन्द्रः।
सिरिपभ तौ तदनु विप्ररूप--ण भूपरूपावलोकनसतृष्णौ ।
येन किमोहितमतयो, हितमाहितं चिन्तयन्ति नहि जीवाः । द्वारसमीपेऽस्थातां, प्रासाद्रद्वारि भूमिभुजः॥६६॥ तद्यौवनमिह वनमिव , जरा श्वानलसिखा दहति ॥ ३ ॥ श्रासीत् सनत्कुमागे, मुक्नालंकारसारनेपथ्यः।
अवलिप्तो येन जनः , कृस्वाहत्यं न येत्ति तपम् । प्रारब्धमजनोऽभ्य-सङ्गमले वहन्नुच्चैः॥६॥
म विनश्यति धातु-क्षोभे हिमपात इव कमलम् | दौवारिकेण तो वि-प्रपुङ्गवी द्वारसंस्थितौ कथितौ ।
अय श्वोऽथ विनाशिन, पतस्य शगरकस्य तदिदानीम् । प्रावीविशत्तदाप्ये-प चक्रवर्ती स नयवर्ती ॥६॥
गृहाम्यविनश्वरफल-मिति नृपतिश्चेतसि विभाव्य ॥५॥ अप्रतिरूप रूप, नौ दृष्टा तस्य राजगजस्य ।
प्राज्य साम्राज्यमिदं , विहाय लोका अहो निरीक्षध्वम् । मौलि विधूनयन्ती. दध्यतुरिति विस्मितौ मनसि ॥ ६२३ आदत्ते जिनदीक्षां, तारतरीमिव भवाम्भोधौ ॥८६॥ पतस्य भालपट्टो-यमस्तशस्ताष्टमीरजानजानिः ।
सागरमिव दशमद्वा-ररोधिनं चिकुरनिकरमसितरुचिम् । नीलोत्पल जयपत्र, नेत्रे कर्णान्तविश्रान्त ॥ ६३॥
पश्यत पश्यत पुरतः, समूलमुन्मूलयत्येषः ॥ ८७ ॥ दन्तच्छदयुगमभिभू-तपक्वबिम्बी फलच्छविविकाशम् ।
पुरतोऽवलोकयध्वं, मणिरत्नोत्कटकिरीटहारादिः । जितशुक्तिः श्रुतयुगली, कण्ठोऽयं पाञ्चजन्यजयी ॥६५॥ आभरणसमूहोऽय , निर्माल्यमिवामुनाऽस्याजि ॥ ८८।। स्तम्बरमराजकरा-कारतिरस्कारकारिणी बाह।
निध्यात नाथमुक्तं, क्रन्दत्यन्तःपुरं स्फुरदुःखम् । यक्षःस्थलममराचल-पृथुलशिलानीविलुएटाक्रम् ॥ ६५॥ खतरसमीरलहरी-प्रकम्पितं खगकुन्तमिवाग्रे ॥८॥ कटरे करचरणतलं, तर्जिनकाम्किलिपल्लवप्रचयम्।
हा नाथ! नाथ! किं वय-मेकपदेऽप्यशरणास्त्वया त्यक्ताः । किमपरममध्य सर्या-श्रीनहि गोचरो वाचाम् ॥६६॥
एवं विलपन्ति जना, सर्वस्था इवेक्षध्वम् ॥१०॥ कोऽप्यस्याहो लाय-एयसरित्परो निरर्गलो येन ।
इति तेन भरतभर्नु-निष्क्रमणब्यतिकरस्तथाऽदार्थ। जानीयो नाभ्य, भविभामिय चारुचन्द्रिकया ॥६॥
श्रीचन्द्रनपोऽपि यथा , तत्कालं जातवैराग्यः ॥११॥ वर्ष यति स्म यथेन्द्र-स्तथवमाभाति समधिकं चापि ।
स्मृतपूर्वभवश्रुतशु-खसमयः पञ्चमुधिकृतलोचः । म कदाचनापि मिथ्या, बदम्ति वाचं महात्मानः ॥ ६॥
सुरवत्ससाधुषो-बिनियो राजमन्दिरतः ॥ १२॥ किमिहागती भवता-पिति पृष्टौ चर्चाकणाऽथ तो जगतुः।
नटविलासतमिदमखिलं, निर्माथामाथ! मा स्म नस्त्याक्षी अप्रतिम तब रूप, त्रिजगत्यां गीयते भूप॥६६॥
एवं सत्यपि जने, विहतः स ऋपिर्यथाभिमतम् ॥१३॥ दूरावपि तत् भुत्या, तरङ्गितामुद्र कौतुकसमुद्रौ।
अथ पितृषियोगषिकल-चित्तमनिकछन्तमश्रुपूर्णाक्षम् । अयलोकयितुमिहाऽऽया-मायाय नरेन्द्रशार्दूल!॥७॥
श्रीप्रभमुच्चै राज्य , कौमारन प्रभाचम्द्रः ॥१४॥ ग्यावर्य मानमतुलं, तब रूपं शुश्रुधे यथा लोके ।
विनियेश्य बिनयनत्रैः, सामन्तैः सचिवपुषवैधोक्तम् । नरवर ! ततोऽपि सविश-षमेतदालोक्यतेऽस्माभिः ॥ ७१॥
प्रस्तोकशोकशङ्क-सुरणप्रवणैरिनं बचनैः ॥ ५ ॥ ध्रुत्वति विप्रबचनं, स्मितविच्कुरिताधरो नृपः प्रोच ।
मा देव ! कृथाः स्वपितुः, शोकमशोच्यो खसी महाभागा । कान्तिरिय किल कियती, परितोऽप्यके कृताभ्य॥७२॥
खलमहिलेव विमुक्का , यन समप्राऽपि राज्यश्रीः॥६६॥ क्षणमात्रमितो भूत्वा, भो भो द्विजसत्तमौ प्रतीक्षथाम् ।
को नाम प्रारभते , दुष्करमेवंविधं श्रमणधर्मम् । मजनकक्षण एपी-ऽस्माभिनित्यते यावत् ॥ ७३ ॥ रचितविचित्राकल्प, विभूषितं भूरिभूषणगणेन ।
प्रायो वैराग्यमतिः , क्षणमेकं मतिमतामपि यत् ॥ १७ ॥
शोच्यास्त एव ये का-लधर्मतामुपगता अकृतसुकृताः। रूपं मम पश्येतं, सरत्नमिव काञ्चनं भूयः ॥ ७४ ॥
यैरुद्यतमतिधर्मे , ते भुवने पश्चषाः पुरुषाः ॥८॥ तदनु स्नातविलिप्तो-लकृतिनेपथ्यभूषितो भूपः ।
निशमयति को न समयं ?, कः सर्व नेक्षते क्षणविनाशि!। अध्यासामास सदा-सदनं गगनं गगनमणिवत् ॥ ७ ॥
प्रतिसमयभाविमरणं, शरीरिणां को न भावयति?En समनुसातौ भूयो-ऽपि भूगरूपं द्विजौ प्रपश्यन्तौ ।
को वा इदि नहि धत्ते, गुरूपदेशं सदा सुखनिवेशम् । दवदग्धकीचकाविव, विच्छायो झगिति तौ जातौ ॥७६॥
कस्य नवा प्रियमक्षय-मनन्तमसदृशममृतसौण्यम् ॥१०॥ किमेतदिति सर्वेऽपि,सभ्याः साकूतं परस्परमुदीक्षामासुः।
किंतु चलचित्तभाया-सदनुष्ठान भृश गतोत्साहाः । अनलंकृतेऽपि पूर्व-मपि हटे हर्षितौ युवां विप्रो ।
गिरिगुरुका अपि पुरुषा , अवसपेन्तो विलोक्यन्ते ॥१०॥ समलंकृतेऽपि संप्रति, दृश्येथे किमिति सविषादौ ? ॥७॥
देवेन पुनस्तत्किम-पि साहसं व्यवसितं महामतिना। इति चक्रभृता पृष्टौ-भूदेवौ तौ जजल्पतुर्भूप!।
यदसमसाहसिकाना-मपि चेतः खलु चमत्कुरुते ॥ १० ॥ अधुना तावकदेहे, संक्रान्ता व्याधयः सप्त ॥ ७ ॥
एषोऽपि देव ! परमो-पकारिभावेन नाटकविधाता। तद्वशविनश्यदतुला-रूपलावण्यवर्णकान्तिगुणः । सद्धर्मसूरिरिव चा , विशेषतश्चार्चितु युक्तः॥ १०३ ॥ स्वं वर्तस इत्यावां , प्रतिपत्रौ शोकसंभारम् ॥ ७९ ॥ एवं निशम्य राजा, रजाचार्य प्रपूज्य विससर्ज । कथमतद्विज्ञायत, इत्येवं प्रश्निती भरतपतिना ।
किंचिदुपशान्तशोको, नीतिलतासजलजलवाहः ॥१०४ तो शिष्टयथास्थितस-र्वपूर्वसुरराजवृत्तान्तौ ॥ ५० ॥ नीद्दारहारधवलान् , मध्यविहारान् विधापयन् बहुशः । प्रकटितनिजस्वरूपी, गीर्वाणौ प्रतिगतौ यथास्थानम् । गुरुगौरवेण कुर्वन् , साधर्मिकलोकवात्सत्यम् ॥१०५॥ वैराग्योपगतर्मात-चक्रधरोऽचिन्तयदथैवम ॥८॥ मुग्धजन सद्ध में, स्थिरयन् जिनशासनोन्नतीस्तम्पन् । भवनजनयुवतिचतुर-संग्रहो यस्य कारणात् क्रियते।
नामारपौषधमुपधर्मनिरतोऽजनि प्रायः ॥१०६॥ तदारु दारुगाधुणे रिव रोगैलुंप्यते गात्रम् ॥८॥
अच सततं धांधत-मजिगी श्रीदा ।
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सिरिपभ अभिधानराजेन्द्रः।
सिरिपभ अरिदम क्षतिपस्त-दृशमुपद्रोतुमारभत ॥ १०७ ॥ अरिदमननृपः श्रीप्रभ-नृपेण कलभो महागजेनेव । सात्वेदं चरमुखतः , स भाणितः श्रीप्रभेण दूतेन ।
परिभूतः पश्चाङ्मुख-मवक्षमाणाः पलायिष्ट ॥ १३०॥ किं ननु कतिपयसीम-ग्रामकुटीरकविलुपटनतः ॥ १०८ ॥
अथ तस्य श्रियमखिला,रथकटया श्वीयहास्तिकप्रमुखाम् । पूर्वविहितप्रणय-प्राग्भारमसारमारचय्य भृशम् ।
जगृहे श्रीप्रभराज-स्तस्य श्रीविक्रमो यस्य ॥ २३१॥ पाहत्य दुर्जनत्वं , विप्रियमेवं मम विधत्से ? ॥१०॥ श्रापूर्ण इवाम्बुधरी, निवृत्य रणसागरादवन्तीशः ।
कृतसकललोकतोपो, निजनगरीमाजगाम ततः ॥ १३२ ॥ यतः
तत्र त्रिवर्गसारं, राज्यश्रियमनुभवन्नसौ नृपतिः । ते धन्याः सत्पुरुषा, येषां स्नेहो ह्यभिन्नमुखगगः ।
भूयांसमनेहांस, स्वःसुरपतिवदतिचक्राम ॥ १३३ ॥ वृद्धि गच्छन्ननुदिन-मृणमिव पुत्रेषु संचरति ॥ ११०।। तत्र प्रभासगुरवः, समवस्ता अन्यदा सुमुनिसहिताः। तस्मादितोऽपराधा-दद्याप्युपरम मयाऽऽग पतत्ते ।। बन्धुपरिवारयुक्त-स्तानन्तुं निर्पयो राजा ॥ १३४॥ क्षान्तं, नएयेगू-भवाम्यहं स्नेहतरुभेदे ॥ ११ ॥
सम्यक धिनभ्य मुनिपति-मिलातलाश्लिष्टमस्तका नृपतिः। श्रुत्वत्यरिदमननृप-स्तं दूतं प्रतिहसन्निति जजल्प। निप्रसाद यथास्थानक-मथ गुरुरिति देशनां विदधे ॥१३॥ भो भो त्वया निजप्रभु-रेवं वाच्यो मदीयगिरा ॥ ११२॥ इह हि भवसमुद्रे संसरन् भूरिकाल
कथमपि मनुजत्वं प्राप्नुयात् काऽपि जीवः । यथा
तदपि कथमपीह प्राप्य सद्धर्मकर्मतय पार्थिव ! धर्मार्थ, सविस्तरारब्धकुशलकत्यस्य ।
क्षमतनुबलमायुर्दीर्घकालालमेत ॥ १३६ ॥ पृथ्याः परिपन्थनया, कृतमनयाऽनर्थकारण्या ॥ ११३ ॥ इनमपि समवाप्य प्रौढमिध्यात्वलुप्तमथ वाञ्छस्येनामपि तद् दूरं मुश धर्मकर्मेदम् ।
स्फुटविशदधिवेकः पापतापातिरेकः । एकत्र कथं संभव-ति खलति सीमन्तसंघटनम् ? ॥ ११४॥
पुनरपि च भवेऽत्राऽनम्तशाऽनम्नदुःखअथ लोकरञ्जनामा-त्रमेष प्रारभ्यत स्वया धर्मः ।
व्यतिकरविधुरो यं संभ्रमी यम्भ्रमीति ॥ १३७ ॥ तद् भव निश्चिन्तमना,न हन्मि तब देशमहमधुना ॥ ११५॥
इति भवजलराशौ मजनोन्मजनानि, पूर्वप्रणयप्रकटन-मवनीशानां पर जिगीषूणाम् ।
प्रविदधविह देवादाप्य भूयोऽपि नृत्वम् । दृषणमेव गरिष्ठं , गाढमसामर्थ्यमथवाऽपि ॥ ११६॥
दृढगुणगणलब्धां जैनदीक्षांतरीयभुत्वति दूतमुखतः , श्रीप्रभराजः प्रदीप्रकोपाग्निः ।
च्छूयत भविकलोकाः क्लेशयिच्छेददक्षाम् ॥१३॥ किंकरगणेन सहसा, रणभेरी ताडयामास ॥ ११७ तच्छब्दाकर्णनझगि-ति मिलितचतुरसेन्यपरिकलितः। प्रत्युत्कटभटकोटी-रथहरिकरिनिकरबलभरसमृद्धाः । शबु प्रति प्रतस्थे, प्रदेशसीमान्यगात् क्रमशः ॥ १८ ॥ यैर्जीयन्ते रिपवः, परः शता जगति ते पुरुषाः ॥ १३६ ॥ अरिदमननृपोऽप्यस्या-शु संमुखे समजनिष्ट रणरसिकः। येन पुनः स्थास्माऽसा-बनल्पकुविकल्पकल्पनाकलितः । अलसा न युधे शूरा, विप्रा इव भोजनायेह ॥ ११६ ॥ जीयेत तेन विजितं, त्रिजगदिदं परमशूरोऽसौ ॥ १४० ॥ अथ सैन्ययो योरपि , सुभटान तत्र चित्रशस्त्रभृताम्।।
तथा चार्षम्संफोटोऽजनि गगने , सविद्युतामिव पयोदानाम् ॥ १२० ॥
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे । अत्यद्भुतभटवादै-रथ मालबभूभुजः सुभटसंधैः।
एग जिणिज्ज अप्पाणं, एस से परमो जो ॥१४१॥ परयलमभज्याता द्भुत-मुद्यानमिव द्विपैमत्तैः ॥ ११ ॥
एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दम। अथ रथमध्यारूढो , भग्नं संधीरयन्न कं स्वम् ।
दसहाउ जिणित्ताण, सव्यसत्तू जिणिज तो ॥ १४२ ॥ उदतिष्ठतारिदमनः, समरायास्फालयश्चापम् ॥ १२२॥ इत्याकार्य श्रीप्रभ, पानम्य गुरूनुवाच वः पार्थे । युगपद्विमुक्तशितविशि-खसंचयैः सोऽप्यधत रिपुसैन्यम् । प्रव्रज्यामादास्ये, राज्यं न्यस्य प्रभाचन्द्रे ॥ १४३॥ तटपर्वतमिव जलधः , प्रसरद्वलासलिलपूरैः ॥१२३ ॥ देवानुप्रिय !, माऽस्य, व्यधाः प्रमादमिति सूरिणा गदित । क्षणमात्रादरिदमनः, परसैन्यमदैन्यभुजबलोऽभालीन् ।
राजा च सपरिवारो.निजधाम जगाम मुदितमनाः ॥१४४॥ . कुटकोटि लकुट इव , प्रभञ्जनो वृक्ष लक्षमिव ॥ १२४ ॥
अथ सकलराजलोक-प्रत्यक्ष भ्रातरं प्रभाचन्द्रम् । निजसैनिकभङ्गेन, क्रुद्धः श्रीप्रभनृपो विपक्ष बलम् । संस्थाप्य राज्यभारे,प्रददाविति नरपतिः शिक्षाम्॥१४५॥ उत्तस्थ संहर्नु । कीनाशस्यानुजन्मेव ॥ १२५ ॥
वत्सान्तरङ्गशत्रून्-सदा जयेरविजय यतस्तेषाम् । नैव मनागपि सेहे , मालबपतिरापतन् परानीकैः ।
विजिता अप्यजिताः खलु, बलवन्तः शत्रयो बाह्याः॥१४६॥ भुजगैरिव बिनतायाः , सूनुहरिणैरिय व्याघ्रः ॥ १२६ ॥
परिपालयेः प्रजासत्यं, मालिक इव सुमनसः प्रयत्नेन । विद्रुतसैन्यं पुरतः , स्थितमरिदमनं नृप रणायाथ।
सर्वत्राप्यौचित्यं. हृदये दध्या जिनन्द्रमिव ॥ १४७॥ आह्वास्त मालवेशो , बलानुजन्मेव भूरियलः ॥ १७॥ इतरेतगविघात-न वत्स ! धर्मार्थकामपुरुषार्थात् । तदनु विचित्रैः शस्त्रै-रस्त्रैरपि तौ नृपावयुध्येताम् । प्रतिलेखनादिचेष्टाः सुसाधारव साधयः सततम् ॥ १४८॥ वन्येभ्याविच दशन-रन्योन्यवधाभिलापमती ॥ १२८ ॥ सिचयमिवानलदूषित-मुज्झेनिजमपि नयेन परिहीणम् । युद्धा चिरमरिदमनं, गुरुशक्तिमालवाधिपश्चक ।
दुदैममिन्द्रियवर्ग दमयेस्तुरगाहिनियमिव ॥१४६॥ गतवीर्य गतशत्रं , भुजग निर्षिपमिव नरेन्द्रः ॥ १२६ ॥ परिवर्जयेः कुसर, द्विदलात्ते घोलभीजनमियोः ।
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(८६३) सिरिपभ अभिधानराजेन्द्रः।
सिरिपभ सेवेथा आर्यजनं, घनं यथा चातकसमूहः ॥ १५० ॥ पाहता वरवैद्याः, किग विचित्राश्च तैः समारब्धाः । बन्धो बन्धुरभक्त्या, बन्धुमिव श्रावलोकमञ्चथाः। न च जज्ञे कोऽपि गुणो, व्यचिन्तय तत इति नरेन्द्रः ॥१७॥ रक्षेनेयेन वसुधां. सुधां यथा भोगिनां भर्ती ॥ १५१ ॥ द्रव्योषधैः किमेभि-ज्येष्ठ पुत्रं निवेश्य राज्यभरे । प्राधारस्वमास भुवो, नाधारस्तव समस्ति कश्चिदपि । कौमारे च कनिष्ठं, श्रयामि धर्मोषधमिदानीम् ॥ १७५ ।। श्रात्मानमात्मनैव हि, तत्सततं धारयेत्स !॥१५२ ॥ अत्रान्तरे च सहसा, संजातप्रचलशलरोगेण । इत्युक्त्वा तूष्णीकी-भूते श्रीपभनृपे-प्रभाचन्द्रः ।। अपि वैद्यैः क्रियमाणो-पचार आपन्मृति पन्नः ॥ १७६ ॥ एवमिति प्रतिपेदे , सर्व भक्त्या नमग्रीवः ॥ १५३ ॥ अथ तनयमरणमाक-र्य नपतिरस्तोकशोकसंतप्तः। अथ सुस्नातविलिप्तो, रत्नालंकारभूषितशरीरः ।
दम्भोलिनिहतगिरिरिव, मूच्छीविवशः पपात भुवि ॥१७७॥ सदशांशुकसिवयधरो, दददर्थिभ्यो महादानम् ॥ १५४ ॥ पवनायुपवारवशा-दवाथ्य चैतन्यमिति नृपो व्यलपत् । कृतसकलसंघपूजा, भ्रातृविधापितसहस्रनरबाह्याम् । हा पुत्र ! कासि गतः?, प्रतिवचनं किं न मम दत्से?॥१७॥ शिविकामध्यासामा-स पुष्पकं यक्षराज इव ॥ १५५ ॥ उदियाय पूर्णचन्द्रो, हा ग्रस्यत मत सैहिकेयन। चतुरङचमूयुक्ने-न बन्धुभूपेन विनयननेण।
अहह फलेपहिरभवत् , तरुरुदमूल्यत महाकरिणा ॥१७॥ अनुगम्यमान उच्च-मार्गाधः कृतजयजयाराकः॥ १५६ ॥ पोतः प्राप पयोनिधि-पारं तटशिखरिणा हहाऽभजि!। पुर्या मध्यं मध्य-न निर्ययौ नरपतिमहाभूत्या ।
रौ निधिर्विशालो, हा हा हाऽहियन हनविधिना ? ॥२८॥ गुरुपदपावितमुद्या-ममाप्य शिबिकात उदवारीत् ॥१५७॥ उदनमदम्भोवाहा, नभस्वताऽक्षिप्यत क्षणेनाहो !। मथ भूषणसंभारं विश्वं विश्वम्भरापति गिति ।
राज्योचितोऽजनि हहा, तनयः समहरि देवेन!॥११॥ उदतारयदनाद् भुज-दण्डादिव वसुमतीभारम् ॥ १५८ ॥
एवं प्रलपन् सचिव-व्यबोधि कथमपि नृपोऽकरोत् सूनोः । सिद्धान्तगदितविधिना, गुरुणाऽथ श्रीप्रमः परिव्राज्य । मृतकृत्यमल्पशोकः, कालेनैवं मनसि वध्यौ ॥ १२॥ परमां मुदं दधत्सा, भारत्या समनुशिष्ठ इति ॥२५॥ ये दर सात् सुमेरुं, पृथिवीं वा छत्रसात् क्षमाः कर्तुम् । कमठेन्दुदर्शनमिव , प्राप्य दुरापां जिमाधिपतिदीक्षाम् । तेऽपि स्वमन्यमथितु, नालं कि हन्त पुनरितरे !॥१३॥ शयनासनादिवेश, सकलाऽपि हि यतनया कार्या ॥१६॥ पीयूषपोषपुषः, पविमीषणपाणिरमरकरवृतः। यतः
सुरपतिरपि सुरलोका-हव्यवते पकं फलमिव द्रोः ॥१४॥ यतना सुधर्मजननी , यतना धर्मस्य पालमी नित्यम् ।
पष्टिं पुषसहस्रान् , संगरचक्यपि न रक्षितुमधीशः। तवृद्धिकरी यतना, सर्वत्र सुखावहा यतना ।। १६१ ।।
ज्वलनप्रमाद्यमादिव, तोऽपि किं त्वं बलिष्ठतरः ॥१५॥ एकामेव हि यतना, संसेव्य विलीनकर्ममलपटलाः ।
कृत्या पातकमपि यान , पुष्ये दुस्पश्यतामपि हि तेषाम् । प्रापुरनन्ताः सत्वाः, शिवमक्षयमव्ययं स्थानम् ॥ १६२ ॥
र इव यमेन भकी, गतशरणो नीयते कष्टा ॥ १८६ ॥ एवं शिक्षा दया, प्रभासगुरवो विजहरम्यत्र ।
नीतस्ततश्च नरके, सहते खलु वेदनाः परमघोराः। शारदिकवारिदा दव, तिष्ठन्स्येकत्र न हि मुमयः ॥ १६३ ॥
जन्मान्तरानुधावी-नि देहिनामहह कर्माणि ! ॥१८७॥ श्रीप्रभराजर्षिरपि, प्रतिसमयविशुध्यदमलपरिणामः ।
जननी मे जनंको मे, भ्राता मे सुतकलत्रयों में। यूथपतिनव कलभः, सततं बिजहार सह गुरुणा ।। १६४।।
मिथ्यैव बुद्धिरेषा, न देहमपि वस्तुतः स्वीयम् ॥१८॥ जिनपरिवृढगदितागम-सूत्रार्थसुधां पिबन्नमर्त्य इव ।
पुत्रादीनामेषां, भिन्न स्थानात्समेयुषां स्थाने । पञ्चमहावतभारं, दधदवनीभारमिव शेषः ॥ १६५ ॥
एकत्र निवासः खलु, विहगानामिव तरौ सायम् ॥१६॥
गच्छन्ति ततोऽपि पुनः, पृथक पृथक स्थानकेषु देहभृतः । पञ्च निशाताः समिती--ईस्तशरानिव धनुर्धरो विभ्रत् ।
एकत्र निशि सुषुप्ता, निशावसाने यथा पान्धाः ॥१६॥ तिम्रो गुप्तीः शनी-नरपतिरिव धारयन् शुद्धाः॥ १६६ ॥
अरघघटीन्याया-दथैहिरेयाहिरा () क्रियां सततम् । मार्गानुसारिणीमिह, कुर्वन् सकलां क्रियां सुपान्थ इव।
इह कुर्वतां तनुभृतां, को हन्त स्वः परः को बा १९६१॥ श्रद्धां प्रवरा धर्म, तन्वन् मकरन्द इव भृतः॥ १६७ ॥
एवं यावत् संवे-गसंगतश्चिन्तयत्ययनिनाथः। प्रज्ञापनीयभावे-न संयुतो भद्रवारण इयोः । साधुक व विद्यासु , प्रमादमुक्तः क्रियासु सदा ॥ १६८॥
सावत् तत्रोद्याने, कुमारनन्दी गुरुः प्राप ॥ १६२॥
गुर्वागमनं ज्ञात्वा, गत्वा तत्र प्रणम्य मुनिनाथम् । श्राद्रियमाणः शक्या-नुष्ठाने योग्यमन्द इव वैद्यः।
उचितस्थाने निषसा-द देशनामथ गुरुर्विदधे ॥ १६३ ॥ हृष्यन् गुणाव्यसने, सरउत्सरे मराल इव ॥ १६६ ॥ दिग्भ्यः सर्वाभ्योऽपि, स्वतोऽन्यतचापतविपत्रिबहाः । पाराधयन् गुरुजनं, परमात्मानं यथा परमयोगी।
यमदन्तयन्त्रसंस्थाः, कएं जीवन्ति तनुभाजः ॥१६॥ सुचिरं निरतीचारं, चरणं परिपालयामास ॥१७॥ जीवातुभिरगदगणे-रायुर्वेदेन समभेदेन । अथ वर्गप्रयपालन-परायणस्य प्रभेन्दुराजस्य ॥
मृत्युंजयादिभिर्वर-मन्त्रैर्नहि रयते मृयोः ॥ १६५॥ तनयाधुभावभूता, हरिषेणः पनसंभश्च ॥ १७ ॥
अहह खलमार्यमधनं, महाधनं मन्दमेधसं प्राशम् । तौ सकलकलापूर्णी, पूर्णेन्दुश्व समस्तजनसुखदौ । कवलयति सततमशरण-मविशेषेणेव समवर्ती ॥१६॥ अपराविव भुजदण्डौ-रेजाते तस्य भूपस्य ॥ १७२ ॥ तापापहमजरामर-पदमन्दश्रमणधर्मममृतसमम् । अपरेपुरयनिजाने--रजनिष्टारोचिकत्वममादी।
मुक्त्वा तदत्र भुवने, कचिदपि नान्यच्छरणमस्ति ॥१॥ मरुनिपतितहसव, प्रतिदिनमक्षीयत ततोऽसौ ॥ १७३।। इत्याकर्ण्य नरेशो, विनम्ध यतिपतिपदौ जगादेति ।
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सिरियस
(६४) सिरिपभ
अभिधानेराजेन्द्रः। यतिधर्मेच्छोरनिश, पालितगृहमेधिधर्मस्य ॥ १६ ॥ मैत्रीप्रमोदकरुणा-माध्यस्थ्यमहार्णवावगाढाय । पूर्वभवार्जितगुरुतर-रोगभरप्रसरविधुरदहस्य ।
अतिदुष्करतरतपसे, नमो नमस्ते महाभाग !॥२२३ ॥ दीक्षां गृहीतुमनले-भूषणोचितं किमधुना मे ? ॥ १६॥ इनि तन नूयमानोऽ-पि सर्वथात्कर्षवर्जितः स मुनिः। अल्पायुष्कत्वमथो, जानन्नृपतगुरुर्बभाणदम् ।
तत्कालं त्रुटितायुः, परमं ध्यानं समधिरूढः ।। २२४ ।। स्वातीचारान् विकटय, यमांश्च पुनरुचर नरेश ! ॥२०॥ मुकवा तनूमवक्रय-कुटीपरित्यागहेलयात्रैव । क्षमयस्व प्राणिगण, व्युन्सज सर्वाणि पानकपदानि । सर्वार्थवरविमाने, त्रिदशवरिएः समजनिष्ट ।। २२५ ।। जिनसिंद्धसाधुध, सम्यक शरणं प्रपद्यस्व ॥२०॥
हरप्रकर्षकलित-रथ तस्य कलेवरस्य सन्निाहतैः। गर्हस्व दुष्कृतभरं, कुरुष्व सुकृतानुमोदनं भूप!।
विबुधैर्विदध महिमा,गन्धोदककुसुमवर्षेण ।। २५६।। शुभभावनां च भावय, मुदितोऽनशनं प्रपद्यस्व ॥२०२॥ देवः स तत्र हस्तो-च्छयो निशाकरकरप्रतिमरोचिः । पश्च नमस्कारं स्मर, विमुच ममता व राज्यराष्ट्रादौं। त्रियुतशिजलधि-स्थितिरहमिन्द्रो विगतमानः ।। २२७ ॥ इति गुरुगिरी निशम्य, प्रमुदितचित्तो महीभर्ता ॥२०३॥ सुखशय्यामधिशयितो,निष्प्रतिकर्मा सदा बिमललेश्यः । निजतनये हरिषेणे. हर्षेण निवेश्य वसुमतीभारम् ।
मुक्तस्थानान्तरगति-रकृतोसरवैक्रियविकारः ॥२२८॥ संघं न क्षमयित्वा, विधाप्य पूजां जिनगृहेषु ॥ २०५॥ पायुःसागरसंण्यैः पक्षः कुर्वन् सुगन्धि निःश्वसितम् । सुगुराः समक्षमनशन-मुररीचके समाहितमनस्कः । वर्षसहस्रस्ताव-द्भिरेष आहारयन् मनसा ॥२२६॥ स्वाध्यायध्यानपरो, बासरसप्तकमतीयाय ॥२०॥
भिन्नां च लोकनाली, विलोकयन्त्रवधिसंपदा मुदितः । विदलबरगाधारक-कर्मचयोऽत्रान्तरे प्रभाचन्द्रः। निवृतिसुखंदशीयं, सुखमनुभूय प्रबरतेजाः ॥२३०॥ विहिताअलिगुरु प्रति, विज्ञपयामालियानेयम् ॥२०६॥ स्वरष स्थानारुरुयुम्या, श्रीप्रभजीयः प्रभेन्दुजीयश्च । दीक्षा जगृहे न मया, प्रभोऽल्पसरवन पूर्वमधुना किम् । अपरविदह मुक्ति, लप्स्येते शुमचरणेन ॥२३१॥ सा समुचिता प्रहीतुं. नवेनि ? गुरुराह भो भूप!॥२०७॥ एवं संयुन एकविंशतिगुणैः स श्रीप्रभः दमापतिः, एकाहमपि प्राणी, प्रवश्यां पालयेदनम्यमनाः।
साधुश्रायकधर्मभारधरणे धीरेयकोऽजायत । यदि नहिगच्छेम्मोक्ष, स भयद्वैमानिकोऽवश्यम् ॥२०॥ सद् भी भव्यजनाः ! समातनसुखम्थानाप्तिषशावरा!, तत्संस्तारकदीक्षा-मधुनाऽपि विधेहि धेहि समभायम् । एतान् मूलगुणानुपार्जितुमही यत्नं विधत्ताम्यहम् ॥२३२॥ श्रुत्यय मुदितमनाः, संस्तारकयत्यभून् नृपतिः ॥२०॥ (इति श्रीप्रभमहाराजकथा।) ध० र० ३ अधि०७ लक्षः। मानश श्रुतिपत्रपुर-न पियन समयामृतं बिगततृष्णः।।
सिरिमह-देशी-मन्दमुखे, २० ना०८ बर्ग ३२ गाथा। अघगाढो हंस इब , स्फूनिरवधिसमाधिहरे ॥२१॥
सिरियक--श्रीयक-पुं० । स्थूलभद्रस्वामिभ्रातरि सकटालसुते, पत्तं विहितानशनः, पश्चनमस्कृतिमनुस्मरन् मनसि ।
प्रा०क०४०। मृत्वा स वैजयन्त, महर्खिरमरः समुत्पदे ॥२१॥ प्रामपुरकर्बटादिषु, साई विहरन् प्रभासमुनिपतिना। सिरिवो-दशी-हंसे, दे० ना० ८ वर्ग ३२ गाथा। धीप्रभमुनिररिदमन-क्षिति पतिजनपदमथायासीत् ॥२१२॥ सिरिवच्छ--श्रीवत्स-न० । माहेन्द्रकल्पस्य स्वनामख्याते पारितत्रच निशम्य लोकात् , प्रमेन्दुराजस्य मरणवृत्तान्तम् । यानिके बिमाने , स्था० ८ ठा० ३ उ० । जं० । प्रव० । वैराग्योपगतमना , एवं स महामना दध्यौ ॥२२३॥
श्री । एकादश देवलाकविमाने, स०२१ सम० । माङ्गलिकधन्यः कृतकृत्योऽयं, कृतार्थजन्मा नृपः प्रभाचन्द्रः।
चिह्न दे, जं०१ वक्षः। ग०। महापुरुषाणां वक्षोऽन्ततिनि पण्डितमरणं लब्धं, भवकोटिसुदुर्लभ येन ॥२१४॥ अभ्युनताऽवयव लाग्छनविशेष. जं. ३ यक्षः । सुगिरिधीरेणापि च, मर्तब्य फसमीरुणाऽपि तथा।
श्रीपा -पुं० जिनादिवक्षश्चिह्नविशेषे, रा० प्रा०म० स० उभयनियते मरणे, धौरतयां तद्वर मरणम् ॥२१५ ॥ तद्वेधाकृतसंले-खनस्य चिरविहितविमलचरणस्य ।
मिरवच्छा-श्रीवत्सा-स्त्री०। श्रीश्रेयांसस्य शासनदेव्याम् मअभ्युद्यतमरणं खलु, विधातुमुचितं ममाप्यधुना ॥२१६॥
: नान्तरण-मानवी गौरवर्णा सिंहवाहना चतुर्भुजा वरदमुद्गएवं विभाव्य ,स मुनि-गुरूननुज्ञाप्य पापरिपमुक्तः।
मालदक्षिणकरद्वया कलशाशसंयुक्तवामकरद्वया च । प्रव० प्रतिसमयशुध्यदध्यब-सायो देहेऽपि च निरीहः ॥२१॥ समशर्मित्रभायी , निर्जन्तुशिलातलं समनुसृत्य ।
मिरिवच्छंकियवच्छ-श्रीवृक्षाङ्कितवक्षम्-०। श्रीवृक्षणाङ्किविदधे विधिना सुमना, अनशनमथ पादपोषगनम् ॥२१॥ तं लाच्छित या येषां ते श्रीवृक्षाङ्किनक्षसः । श्रीवत्सअत्रान्तरे चरमुखा-दरिदमननृपो निशम्य तवृत्तम् । चिह्नाङ्कितेषु, जी. ३ प्रति ४ अधि०। । अन्त । पागम्य तत्रह-स्तस्य मुनरिति नुर्ति चके ॥२१६॥ सिरिवडिंमय-श्यवर्तमक-न० । सौधर्मकल्पविमानभंद, नि० जय जय मुनीशविकसित-शतदलपटलबिमलकात्तिभर,।। १.३ वर्ग १० अ.। निःशेषसत्यसंहति-रक्षादक्षाशय ! सुधीर ! ॥२०॥ शुचिसत्यवचनरचना-प्रपञ्चपीयूषमितभवदाह ।
सिविण-श्रीवन--न । पोलासपुर नगर स्वनामख्याते उदशनविशोधनमात्रेऽ-पि परधने निःस्पृहमनस्क ! ॥२२१॥
का द्याने , अन्त। जितभुवनमदनमदकल !, कुम्भस्थलदलनसरिवरिष्ठ । मिरिबान-श्रीए-न । भहिलपुरस्योत्तरपौरस्त्ये विग्भागे पदलग्नधूलिलीला-परिमुक्त! प्राज्यसाम्राज्य ! ॥२२२॥ स्वनामख्यात विमाने, अन्त० १ ० ३ वर्ग १ अ० ।
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मिरिवणी
सिविम्मी - श्रीपर्णी - स्त्री० । लोकप्रीतोपविविशेषे, आचार २ श्रु० १ ० १ ० ६ ० । प्रा० । सिद्धिमा-श्रीवर्द्धमान पुं० बीरजिने, स्पा० श्रीवर्तमानमिनि विरामविशेषानेश्रिया चतुरिंशदतिशय समृद्रय तुभवात्मकमावान्त्यरूपया वर्तमानं नितिशयानां परिमित सिद्धान् प्रसिद्धत्वात्कथं वर्द्धमानतोपपत्तिः ? इति चेत् न । यथा निशोचून मारला
-
( ८६५ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
उपलानां सत्वादीनामानन्त्यमुक्तम्, पचमतिश्यानामधिकृत परिगणनायागेऽप्यपरि मितत्वमत्रिरुद्धम् । ततो नातिशयश्रिया वर्धमानत्वं दांत्रा
अय इति । स्पा० ।
सिखिप्पर श्री०करं मथुरा वीरविक
सिविर - श्रीवर- पुं० । अयोध्यानगरस्य स्वनामक्यांत राजनि. ०२५ श्रष्ट। शोभाप्रधाने, कल्प० १ अधि० ३ ० । सिरिवसह श्रीवृषभ-पुं० पनामा
च० १४८ द्वार ।
सिरिवारिसे भी वादे जाते चतुर्थशतिजिननाथे, प्र० ७ द्वार ।
सिरिविजय श्री विजय पुं० श्रीरामविजयपरिशिष्ये क रूपसुवोधिकावृत्तिकरणाद्यर्थके सूरी, कल्प० ३ अधि०
क्षण |
मिरिदीर - श्रीपीर पुं० वीरजिने, “सिरिवीरविंद क
विवागं सामासश्रो कुच्छ । " कर्म० १ कर्म० । सिरिवीरधवल - श्रीवीरधवल पुं० । गुर्जरधरित्रीराजे पोरवा रकुलमण्डने, ती० ४ कल्प ।
सिरिस शिरीष-पुं० [वृस्था० १ ० ३ ० सिरिसंभूया - श्रीसंभूता - स्त्री० । षां रात्रितिवो, चं० प्र०१
पालु० कल्प० । जं० ।
सिरिसमुदाय - श्रीसमुदाय - पुं० । शोभासमूदे, कल्प ०१ अधि०
३ क्षण ।
सिरिसही - श्रीसखी-स्त्री० । श्रीविजय सेनस्य
राजस्य भार्यायाम, श्रीकान्तावयव्यभार्यायां च कला० १ अधि० १ क्षण ।
मिरोहमा
सिरिसोम श्रीसोम - पुं० । अर्बुदपर्वते कषोपलमयविम्बप्रतिठापयतस्तेजःपालस्य तत्पूर्ववंश्यानां मूर्तिनिवेशनिदेशकृत्ति श्रावके, ती० ७ कल्प | भरत वर्षे भविष्यति स्वनामख्यमतं सप्तमे कुलकरे, ती० २० कल्प ।
सिरिहर - श्रीधर - त्रि० । शोभावति, शा० १ श्रु० ६ श्र० । भार तातीते सप्तमे जिनेश्वर, प्र० ७ द्वार। पार्श्वनाथस्य षष्ठे गप्रकल्प अधि०१ शेत द्वी० । स्था० । श्रीगृह- - न० । रत्नादिस्थाने, नि० चू० १ ३० । ० ० ॥ सिरिहरय- श्रीगृहक-न० । भारडागारे, व्य० ६ उ० । सिरिहरिय- श्री गृहिक - पुं० । श्रियों गृहं भाण्डागारं तद्विय यस्य स श्रगृहिक भागारिके कर्म० १ कर्म० । सिरिहरिसपुर- श्रीहर्षपुर- न० | स्वनामख्याते नगरे, यत्र समजांन" ज्ञानादिकुसुमनिचित फलिनः श्रममुनीपुरीना मास्ति ॥ १ ॥ " ।" अनु० 1
66
.
सिरिहल - श्रीफल - न० बिल्वे, पाइ० ना० १४८ गाथा । सिरी- श्री ख० अनन्यसाधारणपविभूती विषा २ श्रु० १ ० | लक्ष्याम् दशा० १० अ० । स्था० । श्रीमंकलात् प्रभवति प्रागल्भ्यात्संप्रवर्द्धते । दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं, संयमात्प्रतितिष्ठति ॥ १॥" ० १ अधि । "कमला सिरी य लच्छी" पाद० ना० ६६ गाथा स० । पञ्चा० । आव० । विभवे, सम्पत्ती, पाइ० ना० । शोभायाम्, रा० अ० । जं० । देवकान्ती श्र० म० १ ० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिम पद्महृदाधिप्रातृदेवतायाम्, स्था० ३ ठा० ४ उ० । अनु० । उत्तरकार्यादिकमार्गमहरिका याम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० । श्रा० म० प्रा० क० । जं० । पोलासपुरनगरराजस्य विजयस्य भार्यायामतिमुक्रकुमा रमातरि स्था० १० ठा० ३ उ० । अन्त० । कुन्थुजिनमातरि, ती०८ कल्प |
?
'चन्द्रकान्तानग
शिरोविशुद्ध शिरोविशुद्ध १० या स्वरः शिरःप्राप्तः सन् सानुनासिको भवति ततः शिरोविडम् करविजे गेय, रा० ।
सिरिसिर्द्धतमहोदधि-श्रीसिद्धान्तमहोदधि - शोभनागम- सिरोवेदणा--शिरांवेदना - स्त्री० । शिरः पीडायाम् जी० ३ बृहत्समुद्रे, जा० १ प्रति० ।
सिरीस - शिरीष - पुं० | वृक्षविशेषे, रा० । जं० सिरोरुह शिरोरुह १० पा० ० १०२ गाथा । सिरोवत्थी - शिरोवस्ति स्त्री० । शिरसि बद्धस्य चर्मकांस्य संस्कृततैलापूरलक्षणे वैद्यकर्मणि शा० १ ० १३ अ० । विपा० ।
"
--
प्रति० ४ अधि० ।
सिरिसिबय-श्रीसिवय-पुं० । अस्यामक्सर्पिण्यां जाते परव- सिरावेह - शिरोवेध-पुं० । नाडीवधन रुधिरमोक्षणे, हा० १ तदशर्माजने, प्र० ७ द्वार । सिरिसिहर - श्री शेखर - पुं० | स्वनामख्याते कुम्भपुरभगरराजे, सिरोहमआ-शिरोहमज्जा- स्त्री० । स्वनामख्यातायां नगर्याम्, दर्श० १ मस्व ।
श्रु० १३ अ० ।
ती०८ कल्प |
२१७
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सिरोहरा
सिव
सिरोहरा शिरोधरा श्री० प्रीवायाम् पाइ०ना०११० गाथा सिलिप श्रीपदिन् भि० की पदनाम्ना रोगेण यस्य पा
1
दी शूनी शिलायन्महाप्रमाणो भवतः । तस्मिन् बृ० १३०
२ प्रक० ।
सिलओ देशी - उच्छे, दे० ना०८ वर्ग ३० गाथा । सिलग्य-साध्य प्र० धनीये, आ०म० १० । । सिलवाल - शिलाप्रवाल-२० शिलाले श्रिया - शं वा प्रवालं श्रीप्रवालम् । वर्णादिगुणोपेते विक्रमे, सूत्र०२० १ श्र० । जी० । शिलाप्रवालानि विद्रुमाणि । अन्ये त्वाहुः शि ला राजपट्टादिरूपाः प्रवालं विद्रुमम् । दशा० ६ श्र० | २० | रा० । औ० । सं० । सिला-शिला - स्त्री० । राजपट्टे, गन्धयेषशिलायाम्, शा० १
-
० १ ० पनयोग्ये देवकुलपीठापयोगिनि महति पा
श, जी० १ प्रति । प्रा० | दशा० | दश० । विषा० । स्फटिका, स्था० ठा० ३ ० । ० । कल्प० । तीर्थकजन्माभिषेकसिहासनाधारभूना लिया ० १ ० शिलायाम्, सूत्र०२० १ अ० । राजपट्टके, गन्धपट्टे इत्यन्ये । अनु० । कात्यायभगोत्रस्प वृषभस्य वुडिनर माद सचक्रवर्तिनो भाषायाम्, उत्त० १३ अ० । पाषाणे, पाइ० ना० ११३ गाथा । सिलाइच-- शिलादित्य - पुं० । स्वनामख्याते बलभीपुरराजे, ती० १६ कल्प | ( तरकथा सन्रडर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २७३ पृष्ठे गता । ) सिलागइत्थ-शलाका हस्त पुं० श्रयः शलाकादिरूपे (१०० ४०.) शलाकासारूप सरित्पशिलाका इस्तके, रा० सिलागा--सलाका स्त्री० [बेषादी नि० ० १ ४०शलाकादौ, दश० ४ अ०
( ८६६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सिलाषा - लाषा बी० । गुणोद्द्घट्टने, स्था० ४ डा० ४ ० । लोके, यशश, आव० ४ अ० । सूत्र० ।
सिलाविहिय- शिलानिहित त्रि० शिलामाले ० ३ ० । सिलापट्ट्य- शिलापट्टक- पुं० । मखुणशिलायाम्, मा० म० १
अ० । ज्ञा० ।
सिलावुड - शिलाइट-रिकाटं वर्षणम् । करकादिवृष्टौ दश०८ प्र० ।
'सिलावुट्ठि - शिलावृष्टि--स्त्री० । पाषाणनिपतने, करकादिशिवर्ष च । प्रव० २६८ द्वार । व्य० ।
सिलिंद - शिलिन्द - पुं० । मुकुटधान्यविशेषे, ग० २ अधि० ।
दश० । ६० ।
"
सिलिंघ शिलीन्ध्र ५० के ० १ ० १ ० ० भूमिस्फोटे, शा० १ ० १ ० । भूमिस्फोटक छत्रके, औ० सिलिंगपुष्पप्पगास शिलीन्ध्र पुष्पप्रकाश-चि० शिली - । शिलीन्ध्रकुसुमपत्सिते, औ० ।
मिलिंग देशी- शिशी ३० ना० वर्ग ३० गाथा
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सिलिड - श्लिष्ट त्रि० । रुत्रिरे, विशिष्टे, शा० १ ० १ ० । सुसंहतावयवे, प्रा० म० १ ० । संगते, औ० । सुछु जु मित्यनन्तरम् । श्र० चू० १ ० ।
सिलिम्ह लेप्मन् पुं० [" ला " || ८|२| १०६ ॥ - युक्तस्यास्त्यभ्यञ्जनापूर्वीत् सिलो" ष्मणि वा " || ८ | २ | ५५ ॥ श्लेष्मशब्दे ष्मस्य को भवति । फादेशाभावे । सिलिन्छ । प्रा० खेले, आव०४ श्र० । सिलिय - सिलिक- पुं० । प्रतलपाषाणरूपशस्त्र तीक्ष्णीकरणार्थे, किराततिक्तकादितृ च । शा० १ ० १३ अ० । विशे० । सिलीमुह शिलीमुख० बा, पा० ना० २६ सिलीवय- श्लीपद- न० । पादादौ काठिन्यरूपे रोगे, आचा १ ० ६ ० १ ३० ।
सिलेलियमच्छ-शिले सिकामत्स्य पुं० मत्स्य मेरे जी०१
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प्रति
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सिलेस श्लिष-- धान झालिङ्गने, “श्लिषेः सामग्गावयास परि अन्ताः ॥ ८ । ४ । १६० ॥ निष्यतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति । पक्षे सिलेसह । लिष्यति । प्रा० ४ पाद । क्षेप पुं० [पयतीति षः । लालू ॥ ६ ॥ २ ॥ १०६ इति सुलात्पूर्वनिकारः । प्रा० सर्जरसादी बाबा ० १ ० १ अ० ५ उ० । भावे घम् । समाश्रयणं, सूत्र० २ ० २ ० । वज्रलेपे, ४०८ ० १ ३० । सिलोग - श्लोक - पुं० आत्मश्लाघायाम्, सूत्र० १ ० १३ ऋ० । पा० । विशे० । लाधायाम्, सूत्र० १ ० १३ ० । अनु० । ज्ञा० । कीर्ती, स्था० ७ डा० ३ उ० । भ्रात्रा० । अनुछन्दसि स० । जं०] ज्ञा० | गुणवचनैर्यर्णनायाम्, नि०
चू० १ उ० । स० ।
सिलोगगामी - लोककामिन् श्रि० । श्रात्मश्लाघाभिलाषिण,
सूत्र० १ ० १२ अ० ।
लोकगामिन् भ० लोक साया कीर्तिस्तगामी पा यो सू० १ ० १३० सिलोगाणुवाइ - श्लोकानुपातिन् - त्रि० । श्लोकं - क्यातिमनुपतति इति श्लोकानुपाती। यशोऽर्थिनि, स्था०ह ठा०३३० । सिलोचय-शिलोच्चय शिलानां पाहू शिलादीनामूर्यशिरस उपरि च यत्र सम्भवो व शिलोच्चयः । ०४ बक्ष० । मेरुपर्वते, सू० प्र० ५ पाहु० चं० प्र० । पर्वतमात्रे,
पाइ० ना० ।
सिन्हग सिल्हक - न० । गन्धद्रव्यविशेषे, श्रा० म०१ अ० । । व्यन्तरकृतोपद्रवाभावे, । सिव शिवम० व्यन्तरकृयामा ०१०२० भ० | कल्प० । स्था० । व्य० । मन्त्रादिसामर्थ्यादुपशमितोपद्रव, अनु० । सकलद्वन्द्ववर्जितत्वात् । प्रश्न० १ श्र० द्वार । दर्श० । उपद्रवोपशमहेतुत्वात् । शा० १ श्रु० १ ० । सर्वोपद्रवरहितत्वात् । श्रौ० । ध० रा० । ल० ॥ भ० ॥ ४० ॥ मोक्षपदे, सूत्र० १ ० १ श्र० । विशे० आ० म० । स० । अबाधके, सर्वदुःखमोक्षे, निर्वाणे, स० । प्रा० म० ।
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सिव
(८७) अभिधानराजेन्द्र।।
सिव सर्वोपद्रवभावतानाबाधे, उत्त० २३ अ.। स० । भ० । सुख, वभई कुमार रजे ठावेत्ता तं सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छु. विश । उपद्रवहरे, कल्प०१ अधि०२ क्षण । शिवहेतो.प्रश्र० यं तंबियं ताव सभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था २भाश्रद्वार । शान्ती , रा० । निरुपद्रवकारिणि, कल्प०१
ताचसा भवंति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जबई अधि०३क्षण । सदा मङ्गलोपेते, जे०१ वक्ष० जी० । सामा
सईई थालई जं च उदंतुक्खलिया उम्मञ्जया संयिक, श्रा० चू०१ अ। श्राव० । तस्योपद्रवकारित्याभावात् । प्रा० म० १ अ०। पञ्चमबलदेववासुदेवयोः
मजगा निमअगा संपखाला उद्धकंडूयगा महोपितरि, स० । श्राव०। ति० । स्था० । श्रावणादिगणनया पौधे कंड्रयगा दाहिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमया कूमासे, ज०७ वक्षः । सूत्र० । प्राकारविशषधरे देवताविशेष,
लधमगा मितलुद्धा हत्थितावसा जलाभिसेयकिदिरा०। जी । भ० । अनु । व्यन्तरराविशेषे , ग०२ अधिः ।
णगाया अंबुवासिणो वाउवासिणो जलवासियो महादेवे, शा०१ श्रु०१० महादेवशब्देनाईन्त एव, तेषामेव महादेवत्वात् । हा० १ अप० । उत्त० । अकोपन तत्र या
चेलवासिणो अंबुभक्खिणो वायभक्खिणो सेवालभक्खिहरति, पञ्चत्रिंशत्तम सूरिगुणविशिष्ट, प्रव० ६५ द्वार । क- णो मूलाहारा कंदाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा फलाहाराल्याणकरे, दर्श० १ तस्व । रा०। सौम्ये, सुखकारिणि, कल्प बीयाहारा परिसडियकंदमूलपंडुपत्तपुप्फफल हारा उदंडा १ अधि० ३क्षण । तगरायां नगर्यो कस्यचिदाचार्य स्याटानां रुक्खमूलिया वालवासिणो बकपासिणो दिसापोक्खिया शिष्याणां तृतीय सुशिष्ये, व्य० १० उ० । भ० । स्था० । प्रा० मायावणाहि पंचग्गितायेहिं इंगालसोनियं पिव कंडमोलिचू । प्रा० म०। श्रीयीरेण सह प्रबजिते (स्था०८ ठा०३
यं पिच कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं जाव करेमाणा विहरति उ०1) स्वनामख्याते हस्तिनापुरनगरराजे , भ०।।
जहा उववाइए. जाव कटुसोल्लियं पिर अप्पाणं करेमाणा शिवराजसिंविधान नबमोद्देशक प्राह, तस्य
विहरति । तत्थ णं जे ते दिसा पोक्खियतावमा तेसि भंचेदमादिसूत्रम्--
तिय मुंडे भविना दिसापोक्खियतावसत्ताए पचहत्तए , तेणं कालणं तेणं समएणं हस्थिणापुरे नाम नगर
पब्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिहोत्था वसओ । तस्स ण हस्थिणापुरस्स नगरस्स बहिया
गिविहस्सामि-कप्पइ मे जावजीवाए छठें छडेणं अनिक्खिउत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं सहरसऽम्बवणे णा
तेणं दिसाचकवालेणं तवकिम्मेणं उझं बाहामी पगिज्झिमं उआणे होत्था, सम्वोउयपुष्फफलसमिद्ध रम्म णदणयपगिन्मिय जाब विहरितए त्ति कह,एवं संपेहेति संपेवणसंनिगासे सुहसीयलच्छाए मणोरमे सादुफले प्र
हेना कल्लं जाव जलते सुबहुं लोहीलोहजाब घडावेत्ता कंटए पासादीए जाब पडिरूवे । तत्थ णं हस्थिणापुरे
कोडुंबियपुरिसे सहावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव नगरे सिवे नामं राया होत्था, महयाहिमवंत • वनभो ।
भो देवाणुप्पिया! हथिणागपुरं नगर सम्भितरवाहिरियं तस्स ण सिवस्स रनो धारिणी नामं देवी होत्था सुकु
भासिय जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति,तए णं से सिये रामालपाणिपाया वन्नो । तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते
या दोचं पि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति सद्दावेत्ता एवं बयासीधारणीए अत्तए सिबभद्दए नाम कुमारे होत्था सुकुमाल.
खिप्पामेव भी देवाणुप्पिया! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं जहा मूरियकते. जाव पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे
३ विउलं रायाभिसेयं उबट्ठवेह । तए णं ते कोडुबियपुरिसा विहरइ । तए णं तस्स सिवस्स रनो अनया कयावि पुच्च
तहेव उवद्वेति । तए णं से सिवेराया प्रणेगगणनायगदंरत्तावरत्तकालसमयंसि रजधुरं चिंतेमाणस्म अयमेयारूवे डनायगजाव संधिपालसद्धि संपरिचुडे सिवभदं कुमार सीअब्भत्थिए .जाव समुप्पञ्जित्था-अस्थि ता मे पुरा पोरा
| हासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेन्ति २ ता अट्ठसएणं णाणं जहा तामलिस्स जाव पुत्तेहिं बढामि पसूहि व
सोवन्नियाणं कलसाणंजाव अट्ठसएणं भामेजाणं कलसाड्रामि रजेणं वडामि एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोमेणं णं सब्बिड्डीए०जाव रखेणं महया २ रायाभिसेएणं अमेसिकोट्ठागारणं पुरेणं अंतेउरेणं बड्डामि विपुलधणकणगर- चइ २ ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिए गंधकासाईए गायाई यण जाव संतसारसावएजेणं अतीव अतीव अभिवडामि | लूहेइ पम्ह० २ तासरसेणं गोसीसेणं एवं जहेब जमालिस्स तं किन्नं अहं पुरा पोराणाणंजाब एगंतसोक्खयं उव्वेह- अलंकारो तहेव०जाव कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसिय माणे विहरामि ?, तं जाव ताव अहं हिरन्नेणं बड्वामि तं करेंति २त्ता करयल नाव कहसिवभई कुमारं जएणं चिजएचेवाजाव अभिवडामिजाव मे सामंतरायाणो वि वसे बटुंणं बद्धाति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता ताहिं इवाहि कंताहिं ति ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभयाए जाव जलते सुबहुं पियाहिं जहा उववाइए कोणियस्स० जाव परमाउं पालयालोहीले हकडाहकडुच्छुयं संघियं तापसभंडगं घडावेत्ता सि- हि इट्ठजणसंपरिवुडे हस्थिणातुरस्स नगरस्स अन्नसिं च ब
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सिप
अभिधानराजेन्द्रः। प्रसंगामागस्नमर जाब बिहराहिात कह जयजपसदं पठ- उवागच्छित्ता दन्भेहि य कुसेहि य वास्लुयाएशीय अति । लए मं से सियभ कुमारे राया जाए महमा हिम- वेति रएति वेर्ति रएत्ता सरएणं अरणि महेति सरएता अंत बसमा जाप विहरद्द । तएवं से मिचे राया अभया अग्गि पाडेति अत्ता अग्गि संधुक्केइ अत्ता समिहाकट्ठाई क्या सोमांसि तिहिकरणदिवममुहुत्तमक्ख संसि विपुल पक्खिबइ समिहाकट्ठाई पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ भ. भरणपाणखाइमसाइमं उपक्खडावेंति उवषखडावेत्ता मि- ता, अम्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादरे । तं जहाजणाइमिषमजार परिजथं रायाणो य खत्तिया आमंतेति “सकहं वक्कलं ठाणं, सिजा भंडं कमंडलुं । दंडदारं तहा मामतेत्ता तमो पच्छा सवाए जाब सरीरे भोप- पाणं, अहे ताई समावहे ॥ १॥" महुणा य घएस य बलाए भायणमंडसि सुहासणवस्यए तेणं मित्तणा- तदुलाह य माग्ग हुणइ, अाग्ग हुाणता
तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अग्गि हुणिता चरुं साहेइ, ति फिगसपण जाब परिजणेणं राएहि य खचिएहि चळं साहेत्ता बलिवइस्सदेवं करेइ , पलिवइस्सदेवं कबसद्धि विपुलं असणषाणखाइमसाइमं एवं जझा ता- रेचा अतिहिपूयं करेइ अतिहिपूयं करेत्ता तमो पच्छा मली मार सकारेति समायति सकारत्ता संमाणेचा तं शप्पणा माहारमाहारेति । तए णं से सिये रापरिसी दोमित्तणाति जाब परिजणं रामाणो अखटिए यनि-चं अट्ठक्खमणं उपजिला ण विहरइ, तए णं से सिवे पमई च रायाणं आपुच्छइ आपुच्छिचा सुबहुं लो- रायस्मिी दोच्चे छडक्समणपारमगंसि मायाक्मभूमीहीलोहकडाहकडच्छुयं० जाच मंडं गहाय जे इमे गंयाकुल- ओ पच्चारुहइ अायावण. ता एवं जहा पढमपारणगं गा याणपत्था वाचसा भवंति तं व जाब तेसि नवरं दाहिणगं दिसं पोक्खेति पो०त्ता दाहिणाए दिमाए अंतिए मुंडे भविचा दिसापोक्खियतावसत्ताए पब्बइए, जमे मह राय पत्थाणे पत्थियं सेस तं चेच आहारमाहापन्यइएऽवि यण समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि- रेइ । तए ण से सिवराय रिसी तच्च छक्खमणं उरसंमिराहइ-कप्पड़ मे जावजीवाए छटुंतं चेव जाव - पजिसाण विहरति । तए णं से सिव रायश्मिी से तं भिग्गहं अभिगिरहइ अभिगिमिहत्ता पढम छक्खमणं चेव नवरं पच्चच्छिमाए दिसाए वरुणे महाराया पस्थाउपसंपञ्जित्ता णं विहरइ । तए णं से सिवे रायरिसी णे पत्थियं ससंत चेष० जाव आहारमाहासह । तए ण से पढ़मक्खमणपारणामंसि भायाषणभूमीए पचोरुहइमा- सिवे रायरिसी चउत्थं छटुक्खमणं उवसंपजिला णं विहयावणभूमीए पचरुहिता वागलपत्थानयत्थे जेणेव सए सइ, तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठक्कमणं एवं उडए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छिता किदिणसंका- संचव नवरं उत्तरदिसं पोक्खेइ उत्तराए दिसाए वेसमणे इयग गिरहइ गिरिहत्ता पुरच्छिमंदिसं पोक्लेइ पुरच्छि- महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं, सेसं चेव माए दिमाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ जाघ तो पच्छा अप्पणा माहारमाहारेइ । (म्मू०४१७) सिव रायरिसी अभि० २, जाणि य तत्थ कंदाथि य म- ताणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुं छठेणं अनिक्खिलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य तेण दिसाचकवालेणं जाव पायावेमाणस्म पगइममाए बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउ ति कह पु- जाव विणीययाए अन्नया कयात्रि तयावरणिजाणं करच्छिमं दिसं पसरति पुर०त्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य म्माणं खोवसमेणं ईहापोहमग्गणगवसणं करेमाणस्स
जाव हरियाणि य ताई गेपहइ गेमिहत्ता किदिणसंकाइयं विभो नाम नाणे समुप्पो , से णं तेग त्रिभंगणा-- मेरेइ किदि० ता दम्भे य कुसे य समिहाश्री य पत्तामोडं णेणं समुप्पमेण पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त च गेण्हइ गरिहत्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ समुद्दे तेण परं न जाणति, न पासति । तए णं तस्स सि२त्ता किढिणसंकाइयगंठवेइ किढि०त्ता वेदि बडई वेदि वड्डि- वस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुत्ता उबलेवणसमजणं करइ उवत्ता दब्भमगब्भकलसाह- प्पजित्था--अस्थि णं ममं अइससे नाणदंसणे समुप्पन्ने स्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ गंगामहा. एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुदा तेण परं नदी भोगाहेति २ ता जलमजणं करेइ २ ता जलकीडं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, एवं संपहेइ एवं संपेहेत्ता माकरइ करेना जलाभिसेयं करेंति करता पायंते यावणभूमीमो पच्चोरुहइ आया०हित्ता वागलवत्थानयत्थे चौक्ख परमसुइभूध देवयपितिकयकब्जे दग्भसगब्भ- जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ.उवा०त्ता सुबहुं लोहीकलसाहत्थगए गंगाओ महानईग्रो पच्चुत्तरइ पच्चुत्त- लोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडगं किढिपसंकाइयं च मे रिता जेणेव सए उडए तर उबागच्छद तणेच एहइ गरिहत्ताजेणेव हथिणापुरे नगरे जेणेव सावसाप
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सिम अभिधानबराजेन्द्रः।
"सिव सहे तमेव उपागच्छइ उचागच्छिना भंडनिक्खेचं करइ । म अफासाई पि अनमनबहाई अन्नममपट्ठाई. जाव घभंडचाहत्थियापुरेनगरे सिंघाउगप्तिगजाब पहेसु बहु-डताए चिट्रति इंता अस्थि अस्थि ण भैते धायइसंड दीवे अणस्स एवमाइक्खइ० जाव एवं परूबेह-अस्थि ण देवाणु- वाई-सवाई पिसाव एवं चव एवंजाब संयंभूरमसप्पिया! ममं अतिससे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अ-मुहे ?, मावहता अस्थि । नए णं सा महतिमहालिया सि.लोएजाव दीवा य समुदा य । तए गं तस्स सिव-महचपरिसा समणस्स भगवान महावीरस्स अंतियं - स्स रायशिसिस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हस्थिणा- यमटुं सोचा निसम्म हटुंतुछा समणं भगवं महावीरं पुरे नगरे सिंगाडगतिग. जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्सदइ नमसइ वंदिता ममंसिसा जामेव दिसं, पाउचभूया एचमाइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे तामेव दिस पङिगया । तए प हथिणापुरे भगरे सिंघाडरायंरिमी एवं प्राइवइ जाव परूवेई अस्थि गंदेवाशु- गजाब पहेसु बहुजमो अन्नमभस्म एवमाइक्खइ. जालिया! ममं अतिमसे माणदंसणे जाच तेल परं कोच्छि-बपरूबई-अनं देवाशुपिया! सिधे रायरिसी एक्माना दीवा य, समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं ?। तेणं क्वइन्जाव परूबेह-अस्थि ण देवाणप्पिया! ममं अतिकालेण तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा जाव पडि- सेसे नाणे गाव समुद्दा य तं नो इण8 समढे, समणे मगया। तेशं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो म- गवं महावीरे एवंमाइक्खइ० जाय परूवेइ-एवं खलु एफहावीरस्स जेट्ठ अंतवासी जहा वितियसए नियंठुद्देसए . स सिवस्स रायरिसिस्स छटुं छटेणं तं चेव. जाव भंजाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ बहुजणो अन्नमन- डनिक्खेवं करेइ भंडनिक्षेचं करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे स एवं प्राइक्बइ एवं • जाव परूवेइ-एवं खलु देवा- सिंघाडग. जाव समुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ . जाव परूवे- सिस्स अनियं एयमढे सोचा निसम्म जाव समुद्दा य तसं इ-अस्थि ण देवाणुप्पिया! तं चैवजाव वोच्छिन्ना दी- भिच्छा, समण भगवं महावीरे एवमाइक्खइ० जाच परंवेदका समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं । तए णं भगवं एवं खलु जंबुद्दीवादिया क्षवा लवणादिया समुद्दा तं चेगोयमे बहुजणस्स अंतिय एयमढे सोचा निसम्म जाव व० जाव असंखेजा दीवसमुद्दा पनत्ता समणाउसो।। सड्डे जहा नियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा। तए ण से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयमटुं य समहा य , से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमादिसमणे सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसभगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-जन्नं गोयमा! मावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था । तएतसे बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ तं चेव सव्वं स्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स जाव कभाणियब्धं जाव भंडनिक्खेवं करेति हस्थिणापुरे न- लुससमावनस्स से विभंग नाणे 'खिप्यामेव परिवडिए । गरे सिंघाडग० तं चेव ०जाव वोच्छिन्ना दीवा य म- तए णं तस्स सिवस्स रायरिमिस्स अयमेयारूवे अभमुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिमिस्म अंतिए एय- थिए० जाव समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं ममटुं सोचा निसम्म तं चेव सव्यं भाणियव्वं जाव तेण । हावीरे श्रादिगरे तित्थगरे०जाव सधन्नू सम्बदरिसी प्रापरं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तमं मिच्छा , अहं गासगएणं चक्केण जाव सहस्सऽम्बवणे उज्जाणे अहापपुण गोयमा ! एवमाइक्वामि० जाव परूवेमि-एवं खलु डिरूवंजाब बिहरइ , तं महाफलं खलु तहारूवाणं अजंबुद्दीवादीया दीया लवणादीया समुद्दा संठाणा एग-1 रहताणं भगवंताणं नामगोयस्स जहा उववाइए. जाव विहिविहाणा वित्थारओ अणगविहिबिहाणा एवं जहा गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं बंजीवाभिगमे जाव सयंभृग्मणपज्जवसाणा अस्सि तिरिय- दामिजाव पज्जुवासामि , एयं णे इहभवे य परभवे लोए असंखेल्जे दीवसमुद्द पन्नत्ते समणाउसो !। अस्थि यजाव भविस्सइ त्ति कटु एवं संपेहेति एवं संपेहित्ता खं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दव्याई सवन्नाई पि अव- जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छिचा भाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि मरसाई पि अरसाई तासावसहं अणुप्पविसति अणु सित्ता सुबहुं लोहीलोपि सफासाई पि अफामाई पि अन्नमन्नबद्धाई अन्न- हकडाह० जाव किढिणसंकातिगं च गेराहइ किढि० गएिहत्ता मन्नपुट्ठाई० जाव घडत्ताय चिट्ठति ?, हंता अस्थि । तावसावसहाम्रो पडिनिक्खमति ताव: त्ता परिवडियबिअन्थि ण भंते ! लवणसमुद्द दवाई सवन्नाई पि अवन्नाई ब्भंगे हथिणागपुरं नगरं मन्झ मज्झणं निग्गच्छद निपि मगंधाई पि अगंधाई पि मग्माड पि अम्मा पि सफामाई ग्गच्छिना जेणेब सहस्संबवणे उजाणे जेणेच समणेभ
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सिष
अभिधानराजेन्द्रः । गवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्र तेणेव उवागच्छित्ता स- 'इंवउटुंति-कुण्डिकाश्रमणाः 'तुक्खलिय'त्ति फलभोजिनः मणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिणपयाहिणं करेइ
'उम्मजाग' ति-उन्मजनमात्रण ये खान्ति 'समजागतिवंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदरे
उन्मजमस्यैवासकृत्करणेन ये सान्ति 'निमज्जग' ति-स्था
नाथै निमग्ना एव ये क्षणं निष्ठन्ति 'संपखाल' ति-मृतिजाव पंजलिउडे पज्जुवासइ । तए णं से समणे भगवं कादिघर्षणपूर्वकं येऽक्षालयन्ति 'दक्षिणालग' ति--2महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए गङ्गाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूलग' ति--3
जाव प्राणाए माराहए भवा। तए गं से सिवे रायरिसी नविपरीताः 'संखधमग'ति--शसं ध्मात्या ये जेमम्ति यसमस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा नि
चन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'कुलधमग' सि--ये कुले स्थि
स्वा शब्दं कृत्वा भुखत 'मियलुभय'त्ति-प्रतीता एव - सम्म जहा खंदो० जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं भव
स्थितावस ' ति-ये हस्तिनं मारयिया तेनैव बहुकालं कमइ अवत्ता सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किदिणसं- भोजनतो यापयन्ति 'उइंडग' त्ति-ऊर्यकृतदराडा ये संचकातिगं एगते एडेइ एकता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति
रम्ति 'दिसापोक्खियो' नि-उदकेन विशः प्रोक्ष्य ये फल
पुष्पादि समुश्चिन्वन्ति 'बकलवासियो' त्ति-वल्कलवासस: सयमे ता समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसमदत्ते
'चेलयासिणो' ति-व्यक्तं पाठअन्तरे वेलयासिरोक्ति-सतहेव पव्वइमो तहेव इकारस मंगाई महिअति तहेव स
मद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जलवासियोति-ये जलनिमा ध्वं जाव सम्बदुक्खप्पहीये । (सू०४१८)
एवासते, शेयः प्रतीताः , नवरं 'जलाभिसेयकिढिणगाय' 'तेणं कालण'-मित्यादि, 'महया हिमयंत वन्नो'ति- त्ति-येऽस्नात्वा न भुञ्जते स्नानाद्वा पारादुरीभूतगात्रा इति अनेन 'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे' इत्यादिरा- वृद्धापकचित् 'जलाभिसेयकदिणगायभूय' त्ति-दृश्यते, तत्र जवर्णको वाच्य इति सूचितम् , तत्र महाहिमवानिव महान्
'जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः-प्राप्ता येते तथा, रंगाशेषराजापेक्षया तथा मलयः-पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः
लसोल्लिय'ति-अनाररिव पकं 'कन्दुसोलिय 'ति कन्दुपमहेन्द्रः-शकादिर्देवराजस्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा,
कमिवात । 'दिसाचकवालएवं तवोकम्मेणे'ति-एकत्र पा'सुकुमाल • पन्नो' ति अनेन च सुकुमालपाणिपाये
रणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहय भुक्त स्यादि राशीवर्णको वाच्य इति सूचितम् , सुकुमालजहा सू
द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिकवक्रबालेन यत्र तपःरियकंते जाव पच्चुवेस्खमाण २ विहर' ति अस्थाय
कर्मणि पारणकरणं तत्तपःकर्म दिकचक्रवालमुख्यते तनतमर्थः-'सुकुमालपाणिपाए लक्खणयंजणगुणोयए' इस्या
पःकर्मणेति ताहिं इटाहि कंताहि पियाहि' इत्यत्र एवं जहा दिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने प्रन्थे सूर्यकान्तो राजकु
उपवार' इत्येतस्करणादिदं दृश्यम्- मस्सुनाहि मणामाहि मारः 'पञ्चुवेक्खमाणे २ विहरा' इत्येतदन्तेन वर्णकन ब
जाव बग्गा अणवरयं अभिनंदता य अभिथुणता य एवं व. गितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः, पच्चुवेक्खमाणे २ विहरह'
यासी-जयरनंदा!जयरभदा जयरनंदा भदंते अजिय जिगणाइत्येतश्चैवमिह सम्बन्धनीयम्-'सेणे सिवभरे कुमारे जु
हि जियं पालियाहि जियमझ बसाहजियं च जिणार वराया यावि होत्था सिवस्स रनो रजं च रटुं च बलं
सनुपक्वं जियं च पालेहि मित्तपक्वं जियविग्यो ऽवि यबन वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च
साहितं देव ! सयणमझेरंदो इव देवाणं चंदो वताजणवयं च सयमेव पच्चुवेश्खमाणे विहरह' त्ति । ' वाण
राणं धरणो हर नागाणं भरहो व मणुयाणे बयापत्थति-बने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था-अवस्थितिः,
साई यहां वाससयाई बहू वाससहस्साई प्रणहसमग्गे य वानी प्रस्था येषां ने वानप्रस्थाः । अथवा-" ब्राह्मचारी गृ- हट्टतुट्ठो' सि, एतच व्यक्तमेवेति । 'बागलपत्थनियत्य' तिहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा" इति चत्वारो लोकप्रती
बल्कलं-वस्कस्तस्येदं वाल्कलं तवलं निवसितं येन स ता प्राश्रमाः, एतेषां च तृतीयाश्रमवतिनो वानप्रस्थाः,
बाहकलवस्त्रनिवसितः 'उडए' ति-उटजा-तापसगृई 'हात्तिय'-त्ति अग्निहोत्रिकाः 'पोत्तियत्ति-वस्त्रधारिणः 'सो
'किदिणसंकाइयगं' ति, 'किढिण' सि--वंशमयस्तापलिय'-त्ति कचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः - जहा उययाइप '
सभाजनविशेषस्ततश्च तयोः साहायिक-भारोबहनयन्त्र इत्येतस्मादतिदेशादिदं रश्यम्-'कोतिया जन्नई सहा थालाई किदिणसाकायिकम् 'महाराय'सि-लोकपालः 'पत्थाणे प९वउट्ठा तुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मज्जगा निमज्जगा स्थियं 'ति-प्रस्थाने-परलोकसाधनमार्गे प्रस्थितं-प्रवसंपाला दक्निकलगा उत्तरकुलगा संखधमगा कल- तं फलाचाहरणार्थ गमने या प्रवृतं शिवराजर्पिम् । दम्मे धमगा मिगलुक्या हत्थिताबसा उदंडगा दिसापोक्विनो य'ति-समूलान् 'कुसे य ' त्ति दर्भानेव निर्मलार घकवासिगो चलवासिणो जलवासिणा हक्खमूलिया अं- समिहामो य' ति-समिधः-काष्ठिकाः 'पत्तामोडं च' दुभक्रिखणो बाउभकिवणो सेवालभक्विणो मूलाहारा कं- तभशास्त्रामाटितपत्राणि 'बेदि बहे।' तिघेदिकां-केदाहारा तयाहारा पताहारा पुरफाहाग फलाहारा बीया- बार्चनस्थानं वर्खनी-बहुकरिका तां प्रयुक्त इति वर्धयतिहारा परिसहियकंदमूलतपपत्तपुष्फफलाहाग जलाभिसेय- प्रमार्जयतीत्यर्थः, 'उबलेवणसमजणं करेइ 'सि-रहोपलेपकदिगागाया मायावणादि पंचम्गितायेहि गालसोल्लियं कं- नं गोमयादिना संमार्जनं तु जलेन समार्जनं वा शोधन
सोनियंति-तत्र 'कोसिय'त्ति-'भूमिशायिनः' 'जनाद'ति- भकलसाहत्थगए' नि-दर्भाश्च कलशश्व हस्ते गता यस्य पक्षमाशिनः महाति-भाडाः 'थाला' सि-पडीतभाण्डाः । स तथा 'नमसगमकलसमहत्थगए ' ति-कचित्ता
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सिव
(८७.) अभिधानराजेन्द्रः।
सिवभर भैण सगों यः कलशकः स हस्ते गतो यस्य स त- सिवक(ग)र-शिवकर-पुं० । स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, सन । था जलमजणं' ति-जलेन देहशुद्धिमात्रं 'जलकीडं 'ति- ('पडिलाभ' शब्दे पञ्चमभागे २३८ पृष्ठे तत्कथा गता।) देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं ' जलाभिसेयं ' ति-जलक्षरणम्
सिवकुमार-शिवकुमार-पुं० । अपरविदेहे पुष्कलावतीविजय 'आयते 'त्ति-जलस्पर्शात् 'चोक्खे' त्ति-अशुचिद्रव्यापग
बीतशोकानगरीराजस्य पद्मरथस्य पुत्रे, ध० २०२ अधिक। मात् । किमुक्नं भवति?-'परमसुइभूए' त्ति-'देवयापा
(शिवकुमारकथा 'गिहवास' शब्दे तृतीयभाग ८६७ पृष्ठ कयकज्जे 'त्ति-देवतानां पितृणां च कृतं कार्य-जलाजाल
गता।) दानादिकं येन स तथा , ' सरपण अरणि महे' त्ति-शरकेन-निर्मन्थनकाष्ठेन अरणिं--निमन्थनीयकाष्ठं मध्नाति- सिवकोट्टग-शिवकोष्ठक-पुं० । तगरायां नगर्यो सुव्यवहारिघर्षयति , 'अग्गिम्म दाहिणे' इत्यादि सार्धः श्लोकस्त
त्वेन प्रसिद्ध स्वनामख्याते पुष्पमित्रादीनां सुव्यवहारिणामपथाशब्दवर्जः, तत्र च 'सतंगाई' सप्ताङ्गानि समादधा
न्यतमे , व्य० ३ उ०। ति-संनिधापयति सकथा १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभा- मिवग-शिवग-पुं० । महादेवे, नि००१ उ०। रडं कमण्डलुम् ५ दण्डदारु ६ तथा उस्मान ७मिति, नत्र
सिवगइ-शिवगति-स्त्री० । सिद्धगती, पुं० । सिजगतिप्राप्ते, सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थानं-ज्योतिः
विश। भारतातीते चतुर्दशे जिने, प्रव०७ द्वार । स्थानं पात्रस्थान वा शय्याभाराडं--शय्योपकरणं दराहुदारु-दण्डकः अात्मा प्रतीत इति , 'चलं साहेति' ति-च- सिवगय-शिवगत-पुं० । परमपदं प्राप्त , प्रव०४४ द्वार । रु:-भाजनविशेषस्तत्र पच्यमानद्रव्यमपि चरुरेव तं चलंय- सिवतित्थ-शिवतीर्थ--न० । काश्याम् , प्रा०१पाद । लिमित्यर्थः साधयति-रन्धयति 'बलिवइस्सदेवं करेर 'ति
सिवदत्त-शिवदत-पुं० । इन्द्रपुरवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्रह्मबलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः, 'अतिहिपूर्य करे ' त्ति- दनपितगि, उत्त०१३ अ०। श्रावस्त्यां नगर्यो स्वनामयाते अतिथेः-श्रागन्तकस्य पूजां करोतीति । 'से कहमय मन्न | सिमि शा० म००। एवं'ति-अत्र मन्येशब्दो वितर्कार्थः 'बितियसए नियंठु-
शि -01 पामिश' शब्ने पश्चमभागे उदाहने इसए 'ति-द्वितीयशते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः - एगविहिवि. हाण 'त्ति-एकेन विधिना-प्रकारेण विधान-व्यवस्थानं ये
सम्मतसाधुभागन्य तैलरूपऋणप्रद वणिजि, पिं०। पां ते तथा , सर्वेषां वृत्तत्वात् , वित्थरानो प्रणेगविहि- सिवपह-शिवपथ-न। शिवो-मोक्षः पारमार्थिकनिरुपम विहाण'त्ति-द्विगुण २ विस्तारत्वात्तेषामिति एवं जहा जी. | द्रव्यस्थानं तस्य पन्था-मार्गः शिवपथः। मोक्षाध्वनि, वर्श वाभिगमे' इत्यनेन यदिह सूचितं तदिदम्-' दुगुणादुगुणं ३ तत्त्व । पप्पाएमाणा पवित्थरमाणा श्रोभासमाणवीडया' अयभासमानवीचयः-शोभमानतरङ्गाः, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणम् ,
सिवपुर-शिवपुर-न० । शिव एव पुरं शिवपुरम् । शिवनगरे, बहुप्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयस.
मोक्ष, दर्श० ३ तस्व । यपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपप्फुल्लकेसरोवया'बहूनामु सिवभद्द--शिवभद्र-पुं०। एकादशशतनवमोद्देशकाभिहिते देस्पलादीनां प्रफुल्लानां-विकसिताना यानि केशराणि तैरुप- घराजर्षिपुत्रे , भ०७ श०३ उ०। ('सिव' शब्देऽस्मिन्नेव चिताः सयुक्ताय ते तथा,तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमु. भाग कथा गता।) स्वनामख्याते मुनौ, ध०र०। दानि चन्द्रबोध्यानि पुण्डरीकाणि-सितानि शषपदानि तु रू.
तथाहिदिगम्यानिपनेयं पत्तेयं पउमवरवइयापरिक्खित्ता पत्तेयंरव "इड कोसंविपुरीए , पुचदिसुजाणभवणकयनासो। णमंडपरिक्खित्त'त्ति । 'सवन्नाई पित्ति-पुद्गलद्रव्याणि 'अ- संनिहियपाडिहेरो, जक्खो निवसइ फरसुपाणी ॥१॥ बनाई पित्ति-धर्मास्तिकायादीनि 'अन्नमन्त्रबद्धाति प
अन्नदिण तब्भवणे, सुत्तत्थविऊ सुंदसणी साहू। रस्मरण गाढालेपाणि 'अन्नमन्नपुट्ठाई' ति-परस्परेण गाढा.
का उस्सग्गेण ठिो. विसेसपडियननवकम्मो ॥२॥ सेपाणि. इह यावत्करणादिदमेवं दृश्यम्-'अन्नमन्त्रबद्ध
तश्चित्तखोहणत्थं, जक्खो तं डसह भुयगरूवेणं । पुढाई अन्नमनघडताए चिटुंति' तत्र चाभ्यो ऽभ्यबद्धस्पृ
करिरूवर्ण पीडइ, तस्सर अट्टहासहि॥३॥ धान्यनन्तनगुणद्वययोगात् , किमुक्तं भवति ?-अभ्योऽन्य
तह थि हु अक्खुहियमणं तं समण दट्टु फरसुपाणिसुरो। घटतया-परस्परसम्बद्धतया तिष्ठन्ति'तावसावसंहात्ति ता
नमिउं विन्नवह इम, उच्छलियातुरुछहरिसभरो॥४॥ पसावसथः-तापसमठ इति ॥ अनन्तरं शिवराजः सि
उवमग्गवग्गमुग्गं , जंतुह मुणिपवर ! पावभरसज्जो। धिरुना । भ०११ श० उ० प्रा०चू० । प्रा०म०।
सज्जागसालिणो विहु, काहमहं स्वमसुतं भंते ! ॥५॥
इय चरणजुयलसंदवि-य मउलिकमलो खमाविउ साहूं। मिवकर-शिवंकर-न० । शिवं-मोक्षपदं तत्करणशीलम् ।। सीसा व्व समविगो , जाखो तं सबए सम्मं ॥ ६ ॥ शलेश्यवस्थागमन, सूत्र. १ श्रु० ११ अ० ।
अह तन्थ दुवि पुरोहिय-पुत्ता सिवभइसिरियगभिडाणा ।
पत्ता तं अइदुक्कर, तवकिसियंगं नियंति मुणिं ॥ ७॥ मिवंबतरु-शिवाम्रतरु-पुणशिवो-मोक्षः आम्रतरु-श्चूतमः तो तेहि सहासमिण, पयंपियं जं मुणिन्द ! धम्मत्थं। शिवाम्रतक । मिदिराल वृतविशेषे . दर्श०१ तस्व। पीडिजाइकिर अप्पा, वाढमजुत्तं तयं एयं ॥८॥
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सिबमह अभिधानराजेन्द्रः।
सिवभह जनो
छत्रं अब्बत्तरसं. सद्दाउलयंति तुरियसण । धम्माओ धरणलाभो, तत्तो कामो तो य संसारो। तं चेव य पच्छितं, बालोयइ बहुजणाण पुरो ॥ ३५॥ धम्मस्स अजण ता, मूलाउ च्चिय दढमजुत्तं ॥६॥
अध्यत्तस्स अगीय-स्स तस्स श्रासेवगो य तस्सेवी।। इय ते उवहासपरे, दछु जक्खो फुरंतगुरुकावो ।
इत्तो दस पालोयग-गुणा इमे हुंति नायव्वा ॥३६॥ उध्याडिय सियफरसु, पहाविमो तेसि हणणत्थं ॥ १०॥ । जाइकुलविणय उवसम-इंदियजयनाणदंसणसमग्गा । तयशु भयखाललोयण तरीलयतारा पकंपिरमरीरा। श्रणणुत्ता वि अमाई, चरणजुया लोयगा भणिया ॥ ६६ ॥ लग्गा मुणिचलणसुं, भगिरा "तं अम्ह सरणं" ति ॥२१॥ जाइजुप्रो पारणं, न कुणइ असुह कयं तु श्राजोए । ते वदछु साहुसरणे, जाखो जाओ पसंतमन्नुभरो। कुलसंपन्ना सम्म, पनिछत्तं घहइ गुरुदिन्नं ॥ ३८॥ पारियउस्मग्गेणं, अह मुणिणा ते इमं बुता ॥ १२॥ नागी किच्चाकिच्चं, जागइ सद्दहद दसगी साहि। (भइत्यादि धम्म' शब्द चतुर्थभाग २६६० पृष्ठे उक्तम् ।)
चरणी तं पडिवजइ, ससपया हुति पयडत्था ॥३६॥ जं पिदु धणभोगाई, भणियं भवकारणं तमवि इत्थ ।
मायारव माहारच, वक्हारुव्यीलए पकुञ्ची य । नेय किलिटुसत्ता-ण न उण इयराण जंभणियं ॥ १७॥
अपरिस्सायी निजव, अवायदंसी गुरू भगिनो ॥४०॥ सा काऽवि कला मायं-ति नियम जामिण परमत्थं ।
नाणायाराजुओ, आयास्य सीसकहियमवगई। महायंति बहसपण चि, छिप्पंति न बिंदुणा चव ॥ १८॥
धारतो आहारब, बबहारो पंचहा इणमा ॥४२॥ सुश्चइ य भरवसगरा-दणो इदं सुचिरभुतवरमोगा।
पागमसुयप्राणाधा-रणा य जीयं च हाइ ववहारो। हाउ अकिलिटूममा, लोयग्गठियं पयं पत्ता ॥ १६ ॥ केालमणा हि च उदस,दमनवयुब्बी य पढमो स्थ ॥ ४२ ॥ इय सोउ पडिबुद्धा, पुणो पुणो स्वामिउं तमवराह । मायारपकमाई, सव्व सेस सुयं विणिन्टुिं । सस्स मुणिस्स समीय, ते दो वि वयं पयजति ॥ २०॥
देसंतरट्टियाणं गूढपयालोयगा आणा ॥१३॥ मुणिय जइजुम्गकिरिया. गुरुमूले पडियबहुयसुत्तत्था ।
गीयत्या पुब्बि, अवधारिय धारगे तईि दिते । सुचिरं उग्गविहारा, खंतिपहाणा तवंति तवं ॥ २१ ॥
पायच्छित्त जीयं, रूढं वा जं जहिं गच्छे ॥४४॥ भर असुहकम्मवसो,सिरिनो सिढिलेइ चरणकरणभरं ।
लज्जाइनियनं, अवलज्जं कुणइ सो उ उब्बीलो। धरस मणे जाइमयं, न कुणइ विणयं गुरुसु पि ॥ २२ ॥
गरुयस्स बि पावस्स उ, सुद्धिसमन्थी पकुब्बी य॥ ४५ ॥ तो सिवभद्दो सिरियं, भणइ भो भद्द ! चरणकरणम्मि ।
अपपरिसाविगभीरो, निजबगो दुश्बलस्स निम्बद्दगो। भवसयसहस्सदुलहे.खणं पि किद्द होसि सिढिलमणा?।२३।
नरगाइदुक्खदेसी, अवाबदसी ससाणं ॥ ४६॥ गुरुविण परो निच्नं, मणं पिमा कुगासु जाइमयमवं ।
श्रवियजं जाइमयाईहिं, दुहिनो परिभमइ भवगद्दणे ॥२४॥ सालुद्धरणनिमित्तं, खित्तम्मी सत्त जोयगासयाई। उक्तं च
काल बारस बाला-गीयस्थगवसणं कुज्जा ॥४७॥ आइकुलरूपवलसुय-तवलाभिस्सरिय अट्टमयपत्तो।
जमेएयाई चिय बंधइ, असुहाई बहुं च संसारे ॥ २५ ॥
नासेइ अगायत्थो, चउरंगं सब्बलोयसारंगं । तो भद्दनिय दासं, एयं गीयत्थसुगुरुमूलम्मि ।
नटुम्मि य चउरंग, नहु सुलह होउ चउरंगं ॥४८॥ तं भालायसु सम्म, नाउं भालोयगाइविहि ॥२६॥
तद्यथापडिसेवा पडिसेवग-दासगुणा गुरुगुग्गा य इह नेया।।
अक्वडियचारित्तो, वयगहणाओ य जो य गीयाथो। सम्मविमोही गुग्णा, सम्ममणालोयो सिक्खा ॥२७॥
नस्स सगासे दसण, वयगहणं साहिगहणं च ॥ ४६॥ तह पडिसवादप्प-प्पमायणाभांगसहसकार य ।
एयविहगुरुपासे, व(ल) जागारवभयाइ मात्तणं । पाउरावाइसकिय-भयप्पोसा य वीमसा ॥२८॥
सव्वं पि भावसलं, उद्धरियव्वं जो भणियं ॥ ५० ॥ घग्गगामाई दापो, इह कंदप्पा उ भन्नइ पमाना।
जह पाला जपनो, कज्जमकजं च उज्जा भणः । यम्ाग्यमगाभागा, महमाकारा अकम्हति ॥२६॥
सं तह पालोबजा, मायामयविप्यमुको उ ॥२१॥ छुहतगहवाहिन्या , जे मवह श्राउग भव एमा।
दारंदब्बाइअलम पुगा, च उठिवहा श्रावई हाइ॥ ३० ॥
लहुयाल्हाईजणणं, अपपरनिवित्तिअजब सोही । सकिय मा कम्हा मा-इमंकि मीहमाईण च भयं । दुकरकरणं अट्ठउ , मिस्सलत्तं च सोहिगुणा ॥ ५३॥ कोहाइा पासा, वीममा सहमाईण ॥ ३१ ॥
बालोयणा परिणो , सम्म संपटिओ गुरुसगासे।
जह अंतरावि काल , करिज अाराहगो तह वि ॥३॥ "आकंपत्ता अगुमाग इत्ता", जे दिटुं वायरं व सुहुमं वा। प्रागंतुं गुरुमूले , जो पुरम पयजेइ अत्तमो दोस। छन्नं सद्दाउलय, बहुजग्गअव्वत्त तस्सेवी ॥ ३२॥
सो जइ न जाइ मोक्खं , अवस्सममरत्तणं लहइ ॥ ५४॥ इय पसिबगदोसा, आकपिय तस्थ भत्तिमाईहिं ।
जो पुण इय नाऊण वि, सम्मं न कहेड अत्तण सल्ले । गुरुवराई लया-गुमाणातहय पालोए ॥३३॥ चोएयब्बो तो सो, निसीहणिएहि नापहि ॥ ५५ ॥ जं दिटुंति परणं, बालोयइ वायरं ति नहु सुहुमं ।
जड कम्सइ नरवाणो , एगो पासो समग्गगुणकलियो। श्रह सुहमं ालायइ, विस्संमत्थं न उगा थूलं ॥ ३४ ॥ तस्स पभावण निव-स्स बट्टए सब्यसंपत्ती ॥ ५६ ॥
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( ८७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
सिवभर
ग्रह सेसनिवा भाँति, नियनियठाणेसु संठिया एवं । भो तिथ कोइ पुरिसो, जो तं श्रासं श्रवहरिजा ॥ ५७ ॥ भवियं चारनरेहिं, सो नरपंजरगओ सया कालं । हरि रानी ॥ ४८ ॥ जर नवरं मारिज्जर, रन्ना भणियं इमं पि ता होउ । तत्तो सो तत्थ गो, न लहद्द तुग्यस्स श्रवगासं ॥ ५६ ॥ तो ये खुदिया- सरमुहठिण वस्तुरश्र । कद्दमवि विद्धो सो ते सलिओ सुहुम सल्ले ॥ ६०॥ सोनि भुतो विजयसार तोरना सो विज-स्स दाइ ओ तेरा भणियमिं ॥ ६१ ॥ न हि कांद्र धाउखोद्दा, प्रत्थि हु अवत्त सल्लभयस्स । सो जमगमगमेसो, ६२ ॥
लपसे आसो, उरदत्त य पढममुवाओ । नाऊण तो सल्ले, नीणिय आसो कओ सज्जो ॥ ६३ ॥ अनो पुराजद भासी अनि भुपरि तद साहू विसरलो, कम्मजयं काउ असमत्यां ॥६४॥ देवायि ! सम्मं, लज्जागारवमयाइ ता मुत्तुं । आलोयसुनियसलं, मा मरसु ससज्ञमरणेण ॥ ६५ ॥ जयो
नवितं सत्यं व विसं, व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जंत व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमाइश्रो कुद्धो ॥ ६६ ॥
कुस उत्तमकालम्मि | दुल्लभवोद्दीप तं प्रणतसंसारियत्तं च ॥ ६७ ॥
सिपिडितो चरं विराहिऊं, उववन्ना भवण्वासी सु ॥ ६८ ॥ सिवमद्दो उण कंटग - पहछलगानायो कह वि जायं । ना नियमइयारे, आलीया भसि गुरुमूले ॥ ६८ ॥ पति सम्मे धारादिऊन साम
उबबन पवरसुरो, सोहम्मे हेमवन्नाभो ॥ ७० ॥ तो चइिभर, बेम गययपुरम् । सिरिकण्यकेउरन्नो, देवइनामाइ देवीए ॥ ७९ ॥ जाओ पहाणत्तो, सिवचंदो नाम पत्ततारुनो । परिसर विज्जो ॥७२॥ सिरिओवित वट्टिय, जाओ तस्सेव बंधवो लहुआ । कपसोमचंदनामो मे ॥७३॥ अह सोमचंद कुमर-स्ल पढियनिरवज्जपवरविज्जस्स । जाया कथावि बुद्धी, मायगि साहिउं विज्जं ॥ ७४ ॥ सीम कल्पण कर दिये। सावदी विदेषा, परिनियमारंग ॥ ७५ ॥
मका पिडा, पारितोषि स सुबहु खलिज्जतो वि हु. गश्री कुणालाइनयरीए ॥ ७६ ॥ तत्थ बहुदाणपुब्वं, मायंगसुयं विवाहए एगं । सिढिलिया साग - पायारो गलियसुखमई ॥७७॥ अगलियस कुलकको दूना। मी शिरलो, कमेण जावासि डिभागि इय तस्स मलीमस चिट्ठियम्स श्रयं तपावनिरयस्स । पिउभायपमुहलोए - ण संकहा दूरश्रो चत्ता ॥७६॥ दिदि हरिरिरह जोहपरियरियो | तो व पिाहयो ||5|| २१६
सिवभूह
परमाणारूढो, सिर उवरिधरिज्ज मागसियछत्तो । पासपइडियखयरी, जगढा लिजंत सियचमरो ॥ ८१ ॥ अपमान पहुचयडियविधिसमररिविज कलकंठ कंठगायण - गिज्जंतमहंत गुनिवहो ॥ ८२ ॥ सुचिरं सुरसरिसुरगिरि-वसु नह जंबुदीवजगईए ।
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मग फीलिम ८३ ॥ कविकुलानपरी उपओ निर्मि नेहें ओरिकण सायरं भायरं भगइ ॥ ८४ ॥ किं भी बंधव! तुमए, इहेव श्रच्चंत निंदियकुलम्मि | कारण व मयगकले - वरम्मि बद्धा रद्द दूरं ॥ ८५ ॥ किं मूढ विश्वगंध-बंधनादिना । दूंरेण वयमाणं, जणं इत्रो न हु पलाएसि ? ॥ ८६ ॥ एत्थ अधिक भर ि अवरत्थ गिद्धवायस-दुपिच्छे किं न नियसि इमं ? ॥७॥ तं सोड सोमवंदो, श्रयंडतडिदंडताडिओ व दढं । विच्छाओ लज्जावस मिलतनयां भगद्द एवं ॥ ८८ ॥ भो भाय ! को न याणा, दुहमसममिमं परं कहेसु इमं । पुग्भवपिदुम्म भारदोसे केस अहं ॥ ८ ॥ मिलफलवाचिमुझे विमुकतुसरिसबंध परिसविजाइवावा र सायरे पाडिओोऽम्हि दहा ? ||६|| तो विहिना सिदो सविसरिय रोदिगि दि पुच्छरकडे भयवह मह बंधयपुण्यभयन्यरियं ॥ २१ ॥ उरुहिनामुकिडि सयपतस्त्र पुग्भवं । देवी रोहिणी फुडपवमिमं समुजविषं ॥ २२ ॥ जाइमाई पुनि सम्ममा लोइयं जमेस । तेसो तुह भाया विडंबणं परिसं पत्तो ॥ ६३ ॥ जं सुहुम बिहु खलिए, निस्सल्ला लोयणा कया तुमए । तं जाओ सिइय सुद्दी इय भणिय तिरोहिया देवी ॥ ६४ ॥ दिवं सरिया भो भाप ! | तिमि ॥ नियदुक्कयाइँ श्रालो - इऊण काऊ तिब्वतवचरणं । एयरस दुक्खनिवह स्स देसु सलिलजलि भाया ! ॥ ६६ ॥ अह भण्इ सोमचंदो, भाय ! इमा भारिया मह श्रणाहा । श्रासन्नपसवसमया, इमाई डिम्बाई लहुयाई ॥ ६७ ॥ ताकद मुमि कई इस तं मूढं निर्णय दि दूरं न धम्मजुग्ग-त्ति वयह पत्तो नियं नयरं ॥ ६८ ॥ मायाविण पिसो कदमयि चारणमुद पवित्रजनन, सिद्धि पत्ता वकिलेसो ॥ २८ ॥ इयरो विकाउ विविहं, पार्व कालम्मि कालमासज्ज । पत्तो नर घेोरे, दुद्दिश्रो भमिद्दी भवकडिल ॥ १०० ॥ वेति द्विफटना घटना निरस्त कर्मवजस्य शिवभद्रमुनश्चरित्रम् । वाचंयमा नियमिताखिलदोषजाला,
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"
यमदा स्खलितशुद्धिविधी व्यधत्त ॥ १०॥ इति शिवभद्रमुनिकथा । ध०र० ।
सिव
सिवभृति-पुं० परिवारासो स्य स्वनामख्यातेऽन्तेवासिनि कौत्सगौत्रे श्राचार्ये, कल्प० १ अधि०४ क्षण | म्वनामख्याते रघुवीर परवान्तध्ये साहस्रिकम
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(८६४) सिवभूह अभिधानराजेन्द्रः।
सिवभूइ ल्ले, यः प्रवज्य बोटिकनिहवानस्थापयत् । मा०म०१ अ०। कपायहेतुत्वात् । कुतः ? इत्याह 'जेणत्यादि' येन यस्मा भाष्यम्
दास्तां तत्प्रगीतो धर्मः, किन्तु-स त्रिभुवनबन्धुः-निष्कारउबहिविभाग मोउं, सिवभृई अञ्जकरहगुरुमूले ।
णवत्सलः सर्वसत्वानां जिनोऽपि भगवान् तीर्थकरोऽपि क्लि. जिणकप्पियाइयाणं,भणइ गुरुं कीस नेयाणि? २५५३।
एकर्मणां गोशालकसंगमकादीनां कषानिमित्तं संजातः ।
एवं धर्मस्तत्प्रणीतः, तदुक्तधर्मपरा अपि तदेकनिष्ठाः साजिणकप्पोऽणुचरिजन,
धवः, जिनमतं च द्वादशाङ्गीरूपम् , सर्वमप्येतद् गुरुकनोच्छिन्नो ति भणिए पुणो भणइ ।
मणां दुःखैकरूपदीर्घभवभ्रमणभाजां प्रत्यनीकानां जिनशातदसत्तस्सोच्छिजउ,
सनप्रतिकुलवर्तिनां कषायनिमित्तमेव, इत्येतदप्यग्राह्य प्रावुच्छिाइ किं समत्थस्स ! ॥ २५५४ ॥
जोति, न चैतदस्ति । तस्मात् 'यत् कषायहेतुस्तत् परिह
तव्यम्' इत्यनेकान्त एवेति।। पुच्छस्स पुबमणापुच्छ,
अर्थतहोपपरिजिहीर्षोः परस्याभिप्रायमाशङ्कय परिहरनाहछिम्मकंबलकसायकलुमिओं चेव ।
अह ते न मोक्खसाहण-मईऍ गंथो कसायहेऊ त्रि सो बेइ परिग्गहो,
वत्थाइमोक्खसाहण-मईऍ सुद्धं कहं गंथो ? ॥२५६शा कसाय मुच्छा भयाईया ॥ २५५५ ॥
अथ मन्येथाः-ते देहादयो जिनमतान्ताः पदार्थाः कपादोसा जो सुबहया,सुए य भणियमपरिग्गहत्तं ति ।
यहेतवोऽपि सन्तो न ग्रन्थो-न परिग्रहः, मोक्षसाधनमत्या जमचेला य जिणिंदा,तदभिहिशोजच जिणकप्पो२५५६ गृह्यमाणत्वादिति । हन्त ! यद्येवम् , तर्हि वस्त्रपात्रादिकजं च जियाचेलपरि-महो मुणी जं च तीहि ठाणेहिं । मप्युपकरणं शुद्धमेषणीयं मोक्षसाधनबुद्धा गृह्यमाणं कवत्थं धरिज नेगं-तो तोऽचेलया सेया ॥२५५७।।
थं ग्रन्थः ?-न कथञ्चिदित्यर्थः, न्यायस्य समानत्वादिति। सर्वा अप्युक्तार्था पव, नवरं जं च जिणा चेले ' त्यादि,
तदेव कपायहेतुत्वादग्राह्य वस्त्रादिमित्येतद् निराकृतम् । यस्माच्च 'जिताचेलपरिषहो मुनिः' इत्यागमऽभिहितम् । अथ मू हेतुत्वेन तत् परिहरणीयमित्येतदपाकर्तुमाहजिताचेलपरिषहत्वं च किल त्यावस्त्रस्यैव भवतीत्यभि- मुच्छाहेऊ गंथो, जइ तो देहाइअो कहमगंथो । प्रायः । यस्माच्च त्रिभिरेव स्थानैर्वस्त्रधारणमनुज्ञातमागमे
मुच्छावो कहं वा, गंथो वत्थादसंगस्स ? ॥२५६२।। नैकान्ततः, तथा चागमवचनम्-"तिहिं ठाणेहिं वत्थं धंरिज्जा-हीरिवत्तियं , दुगंछायत्तियं, परीसहयत्तियं"। तत्र
अह देहाऽऽहाराइसु, न मोक्खसाहणमईऍ ते मुच्छा । हीर्लजा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य धारणस्य तत् का मोक्खसाहणेसुं, मुच्छा वत्थाइएसुं तो ॥२५६३॥ नथा, जुगुप्सा-लोकविहिता निन्दा सा प्रत्ययो यस्य तत्स- अह कुणसि थुल्लवत्था-इएसु मुच्छ धुचं सरीरे वि । था, एवं परीषहाः-शीतोष्णदेशमशकादयः प्रत्ययो यत्र | अक्केज दुल्लभयरे, काहिसि मुच्छं विसेसेणं ।। २५६४ ॥ तत्तथा । उपसंहरनाह-ततस्तस्मादुक्लयुक्तिभ्योऽचलतेय श्रे
वत्थाइगंथरहिया, देहाऽऽ हाराइमित्तमुच्छाए। यस्करीति पूर्वपक्षः।
तिरिय सबरादो नणु, हवंति निरओवगा बहुसो ।२५६५ अत्रोत्तरपक्षमभिधित्सुराह
अपरिग्गहा वि परसं-तिएसु मुच्छाकसायदोसेहिं । गुरुणाभिहिनो जइ जं, कसायहेऊ परिग्गहो सो ते।। तो सो देहो चिय ते, कमायउप्पत्तिहेउ ति ॥२५५८।।
अविणिग्गहियप्पाणो, कम्ममलमणंतमजंति । २५६६ ।
देहत्थवत्थमल्ला-गुलेवणाऽऽभरणाध रिणो के इ। गुरुणा-आयकृष्णेनाभिहितः शिवभूतिः-यदि हन्त ! यद् यत् कषायहेतुः, तत् तत् ते तव परिग्रहः, सच मुमुक्षुणा उबसग्गाइसु मुणो, निस्संगा केवलमुर्विति । २५६७। परिहर्तव्य पवेत्येकान्तः । ' तो सो' इत्यादि ततस्तहि स्व- एताः सुगमा एव, नवरं यदि यो मूच्छाहेतुः स ग्रन्थः कीयो देह एव 'ते' तव स्वस्यात्मनोऽपि कषायोत्पत्तिहेतुरि- परिग्रहः , परिग्रहत्वादेव च त्याज्यः। ततस्तर्हि 'मुच्छावउ' ति परिग्रहः परिहरणीयश्च प्राप्नोति । अतोऽपरिग्रहत्यस्य | नि-मूच्छावतो वक्ष्यमाणयुक्त्या मूर्छायुक्तस्य देहाऽऽहापरिग्रहाणां चोत्सना कथेति ।
रादिकस्तव हन्त ! कथमग्रन्थः ? अपि तु ग्रन्थ पच, ततः अथवा-किमेको देह एव, ननु व्याप्त्यापि घूमः, नद्यथा- सोऽपि परित्याज्यः प्राप्नोति । कथं वा ममत्वमूर्खारहितअस्थि व किं किंचि जए,जस्स व तस्स व कसायवीयं ।। त्वेनासकस्य-सविप्रमुक्तस्य साधोवस्त्रादिकं प्रन्यो गीयवत्थु न होज एवं,धम्मो वि तुमे न घेतब्बो ॥२५५६।। ।
ते भवता?-न भवत्येव तथाभूतस्य तद् ग्रन्थ इति । अथ
देहाऽऽहरादिषु ते-तब मूर्छा नास्ति, मोक्षसाधनमत्या तेजेण कसायनिमित्तं, जिणो वि गोसालसंगमाईणं । ।
षां प्रहणात् , तर्हि मोक्षसाधनखेन तुल्येष्वपि पखादिषु धम्मो धम्मपरा वि य,पडिणीयाणं जिणमयं च:२५६० तव हन्त ! का मूच्र्छा ? इति । अथ स्थूलेषु बाह्यत्वात् . क्ष. किं हि नामैतावति जगति तद् वस्तु, यद् यस्य वा तस्य था। णमात्रेणेवाग्नितस्करायुपद्रवगम्यत्वात् , सुलभत्वात् , ककरायाणां बीजं-कारणं न भवेत्। एवं च सति श्रुत-चारित्र- निएयदिनान्ते म्नयमेव विनाशधर्मकत्वात् शरीराद नितभवभिन्नो धर्मोऽपि स्वया न ग्रहीनमः, तम्यापि कम्यचित् ग......युवमादिषु मच्छों करोपियम् . नाहि -नि
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(८७५) सिवड अभिधानराजेन्द्रः।
सिवभूड श्चितं शरीरेऽपि विशेषतो मूछो करिष्यसि । कुतो विश- गृहीते किलावश्यंभावी, रौद्रध्यानभेदत्वाच रौद्रध्यानमिषेण तत्र तत्करणमित्याह-'अक्केज दुल्लभयरे' त्ति-विभ- ति। एवं रौद्रध्यानहेतुत्वाद् वस्त्रादिकं दुर्गतिहेतुः शस्त्राक्लिव्यत्ययात् शरीरस्याक्रय्यत्वात्-क्रयेणालभ्यत्वात् । न हि दिवत् , ततो न ग्राह्यमिति तव बुद्धिर्भवेत् । नहि यदुवस्त्रादिवत् शरीरं क्रयेण कापि लभ्यते । अत एव वस्त्रा- नयुक्त्या रौद्रध्यानं तदिदं देवानांप्रिय ! देहादिष्यपि तुल्यम्, द्यपेक्षया दुर्लभतरत्वात् , तथा, तदपेक्षयैवान्तरङ्गत्वात् , ब- तेष्वपि जल-ज्वलन-मलिम्लुच-श्वापदा-हि-विष कराटहुतरविनावस्थायित्वात् , विशिष्टतरकार्यसाधकत्याच वि- कादिभ्यः संरक्षणानुबन्धस्य तुल्यत्वात् । अतस्तेऽपि पशेषण शरीरे मूछो कारष्यसीति । अथ देहादिमात्रे या रित्याज्याः प्राप्नुवन्ति । अथेह देहादेमोक्षसाधनाङ्गत्वाद मूली सा स्वल्पव. वस्त्रादिग्रन्थमूर्छा तु बही, ततो दे- यतनया तत्संरक्षणानुबन्धविधान प्रशस्तं न दोषाय । ययेहादिमात्रमू संभवेऽपि नग्नश्रमणकाः सेत्स्यन्ति, न भ- वम् , तर्हि तथा तेनागमप्रसिद्धेन यतनाप्रकारेणेवापि वस्त्रावन्तः, बहुपरिग्रहत्वादित्याह-वत्थाई' इत्यादि, गाथात्रय- दो संरक्षणानुबन्धविधानं कथं न प्रशस्तम् ? । ततः कथं म् । अयमिह संक्षेपार्थः-तियक्-शबरादयोऽल्पपरिग्रहा - यस्त्रादयोऽपि परित्याज्याः? इति । अथैवं ब्रूष-वस्त्रादिपि, तथा शेषमनुष्या अपि महादारिद्रयोपहताः क्लिष्टमन- परिग्रह एव मूर्छादिदोषहेतुत्वाल्लोकस्य ' भवभ्रमणकारसोऽविद्यमानतथाविधपरिग्रहा अप्यविनिगृहीतात्मानो लो. णम् इत्येतदपि प्रतीतं वस्त्रादिपरिग्रहवतः साधारपि भादिकपायवर्गवशीकृताः परसत्केष्वपि विभवेषु मूर्छाक- कथं न स्यात् ? इत्याद-'जे जत्तियेत्यादि । इह ये याकषायादिदोः कर्ममलमनन्तमर्जयन्ति ,तद् बहुशो निरयो- चन्त शयन-पान-भोजन-गमना-वस्थान-मनो-चाक-कापगा भवन्ति, न मोक्षमापकाः । अन्ये तु महामुनयः केनचि- यचेष्टादयः प्रकारा अविरतानामसंयतानामप्रशस्ताध्यवदुपसर्गादिवुद्या शरीरासञ्जितमहामूल्ययस्त्राभरणमाल्य- साययतां लोके भयहेतबो जायन्ते, त एय तावन्तः प्रकारा विलपनादिसंयुक्ता अपि सर्वसविनिर्मुक्का निगृहीतात्मा- विरतानां संयतानां प्रशस्ताध्यवसायानां मोक्षायैव संपनो जितलोभादिकपायरिपथः समासादितविमलकेवलालो- द्यन्ते । तस्माद यखादिस्वीकारेऽपि नेतरजनवत् साधूनां काः सिद्धिमुपगच्छन्ति । तस्मादवश्यात्मनां क्लिष्टमनसांना मूलोच्छेदिनलोभादिकषाय-भय-मोहनीयादिदोषाणां तदुन्यमात्रमिदमकिश्चित्करमेवेति ।
द्भावितदोषः कोऽप्यनुषज्यत इति । अथ यदुक्तम्-'भयहेतुत्वेन वस्त्रादयम्त्याज्याः' इति । त- अपि च, यदि वस्त्रादिक ग्रन्थः, मूर्खादिहेतुत्वात् , कनकाअप्रतिविधानमाह
दिवदिति हेतु-दृष्टान्तोपन्यासमात्रेणैव वखादेग्रन्थत्वं साजइ भयहेऊ गंथो, तो नाणाईण तदुवघाईहिं । धयति भवान् , तर्हि वयमपि तदुपन्यासमात्रेण कनकादेभयमिह ताई गंथो, देहस्स य सावयाईहिं ।।२५६८॥ |
रप्यग्रन्थत्वं साधयामः । कथम् ? इत्याहअह मोक्खसाहणमई-ऍ न भयहेऊ रि ताणि ते गंथो ।
पाहारो बन गंथो, देहत्थं (व.) विसघायणट्ठाए । वत्थाइ मोक्खसाहण-मई सुद्धं कहं गंथो १॥२५६६।।
कणगं पि तहा जुबई, धम्मंतेवासिणी मे त्ति ॥२५७२।। पदि यद् भयहेतुस्तद्ग्रन्थः,तहि शान-दर्शन-चारित्राणा
कनकं तथा युवतिश्च धर्मान्तवासिनी मे ममेति बुद्धधा मपि तदुपघातकेभ्यः . देहस्य च श्वापदादिभ्यो भयमस्ति,
परिगृह्णतो न ग्रन्थ इति सम्बन्धः , एषा किल प्रतिज्ञा । इति ताम्यपि ग्रन्थः प्राप्नुवम्ति । शेष व्याख्यातप्रायम् ।
कुतः १ इत्याह-देहार्थमिति कृत्या, अयं च हेतुः, देहाथअथ यदुक्तम्-'परिगहनो कसाय-मुच्छा-भयाईय' त्ति
स्वात्-देहप्रयोजनत्वात्-देहोपकारित्वादिस्यर्थः । ननु तत्रादिशब्दसंगृहीतं वस्त्रादीनां रौद्रध्यानहेतुत्वमभ्युपदर्य
युवनेदेहोपकारित्वं किल प्रतीनम् , कनकस्य तु तत् कपरिहरनाह
थम् ? इन्याह-'विसघायणट्टाए ति' विषघातकत्वादि
त्यर्थः। उक्तं च-" विसघाय-रसायण-मंगल-च्छवि-गयासारक्खणाणुबंधो, रोइज्माणं ति ते मई हुआ।
पयाहिणायत्ते । गुरुए अढज्झकुटे, अट्ट सुबम्ले गुणा होति तुलमिय देहाइसु, पसत्थमिह तं तहेहावि ।।२५७०॥ ॥१॥" आहारवदिति दृष्टान्तः । कनक-युवत्यादयोऽपि न जे जत्तिया पगारा, लोए भयहेअवो अविरयाणं । प्रन्थः, देहार्थत्वात् , आहारवदिति तात्पर्यम् । अत्राह
ननु यद्येवम् , तईि समुच्छिन्ना प्रन्था-ऽग्रन्थविभागकथा, ते चव य विरयाणं,पसत्थभावाण मोक्खा य ॥२५७१।।
प्रन्थत्वेन प्रसिद्धस्य कनकादेस्त्वयाऽग्रन्थत्वसाधनात् , अ. दहागमे रौद्रध्यानं चतुर्विधमुक्तम् , तद्यथा-" से कि ग्रन्थत्वेन च ममाभिमतस्य देहस्य 'प्रन्थो देहः, कषायातं रोहझाणं? । रोहमाणे चउब्धिहे पन्नत्ते । तं तहा- दिहेतुत्वात् , कनकादिवत्' इत्येवं प्रन्थत्वस्य साधनात् । हिंसाणुबंधी, मोसाणुबंधी, तेयाणुबंधी सारक्खणा
ततो भवन्त एव कथयन्तु-को प्रन्थः कश्चाग्रन्थ इति ? । गुबंधी " । तत्र हिंसायाः सत्ववधादिरूपाया अ
सदित्थमुपन्यस्य परस्य वचनमाशयोपसंहारपूर्वकं प्रनुबन्धः सातत्येन चिन्तनं यत्र तद हिंसानुबन्धि ।
स्था-ऽप्रस्थविभागमुपदिदर्शयिषुराहमृषा-असत्यं तस्यानुवन्धो यत्र तत् तथा । स्तेयं-चौर्य
तम्हा किमत्थि वत्थु, गंथाऽगंथो व सव्वहा लोए । तस्यानुबन्धो यत्र तत् तथा । संरक्षण-सबैरिणाद्युपायैस्तस्करादिभ्यो निजवित्तस्य संगोपनं तस्यानुबन्धः सा
गंथोऽगंथो व मो,मुच्छममुच्छाहिनिच्छयो।२५७३ ॥ तत्येन चिन्तनं यत्र रौद्रध्याने तत् तथा । एवं च सति
वत्थाइँ तेण जं जं, मंजमसाहणमरागदोसस्स | संरक्षणानुबन्धोरीमध्यामस्य चतुर्थो भेवः । स च वस्मादौ तं तमपरिग्गहो चिय, परिग्गहो जं तदुवघाई।।२५७४॥
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सिवमूह अभिधानराजेन्द्रः।
सिवभूह तस्मात् किं नाम तद् वस्त्वस्ति लोके यदात्मस्वरूपेण ।
जे य गुणा संभोए, हयंति ते पायगहणे वि॥१॥ सर्वथा अन्धोऽप्रन्थो वा १-नास्त्येवैतदित्यर्थः । ततश्च "मु
अतरंतबालबुड्ढा-सेहाएसा गुरु असहुबग्गा । कछा परिग्गहो वुत्तो, इइ बुतं महेसिणा।" इत्यादिवचनाद् साहारणुग्गहाऽल-द्धिकारणा पायगहणं तु ॥२॥ यत्र वसु-देहा-ऽऽहार-कनकादौ मूर्छा संपद्यते तद् निश्च. प्रायरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लहे सहसदाण । यतः परमार्थतो ग्रन्धः । यत्र तु सा नोपजायते तदग्रन्थ - संसत्तभत्तपाणे, मत्तगपरिभोगणुराणा उ ॥ ३॥" इति । ति । एतदेव व्यक्ती करोति- वत्थाई तेणन्यादि, 'तेन तस्मा. यदुक्तम् 'सुप भणियमपरिग्गहतं' इति, तत्राहत् । शेषं सुगममिति । (विशे०) (वस्त्रादिग्रहणाग्रहणधि
अपरिग्गहया सुत्ते,त्ति जा य मुच्छा परिग्गहोऽभिमओ। षयता 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे २३१ पृष्ठे ऽप्युक्ता।) "कप्पा श्रायपमाणा, अट्ठाइज्झाइवित्थडा हत्था ।
सबद्दव्बसु न सा,कायन्ना सुत्तसम्भाश्रो ॥२५८०॥ दो चच सोत्तिया उ-निनो य तो मुणयव्यो ॥१॥
या च सव्वाश्रो परिग्गहाओ वेरम'-इत्यादिनाऽपरिग्रहतणगहयाणलसेवा-निवारणाधम्ममुक्कझाणट्ठा।
ता सूत्रे प्रोक्नति त्वया गीयते. तत्रापि मूव परिग्रहस्तीदिटुं कप्परगहण, गिलाणमरणटुया चेव ॥ ॥
यकृतामभिमतो नान्यः , सा च मूख्छा यथा वस्त्रे तथा ससंपायमरयरेणु-पमजणट्ठा ययंति मुहपत्ति ।
श्वपि शरीराऽऽहारादिषु द्रव्येषु न कर्तव्येति सूत्रसद्भानासं मुहंच बंधा, तीए वसहि पमज्जंता ॥ ३॥
वः-सूत्रपरमार्थः, न पुनस्त्वदभिमनः सर्वथा वनपरिस्याआयाणे निक्खेवे, ठाणे निसीएँ सुयपट्टसंकोए।
गाऽपरिग्रहतेति सूत्राभिप्रायः । तस्मादपरिक्षानसूत्रभावार्थों पुब्बं पमजणट्ठा, लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥४॥
मिथ्यैव खिधसे त्यमिति हृदयम् । विशे। (तीर्थकरावबेउब्वेऽवायडे वा-दए हि खड़े पजणणे चेव ।
खारहिता अपि संयमविराधनादिदोषान् न प्राप्नुवन्तीति तसिं अणुग्गहट्ठा, लिंगुदयट्टा य पट्टामा ॥ ५॥"
'तित्थयर' शब्दे चतुर्थमागे २२४७ पृष्ठे गतम् ।)
जिनकल्पिकादयस्तु सदैव सचेलका इति दर्शयन्नाहसत्र प्रजनने-मेहने वेउब्धि'त्ति-वैक्रिये विकृते , तथा, अग्रवृत-अनावृते, वातिके चोसूनत्वभाजने,हिया-लज्जया
जिणकप्पियादओ पुण, सोवहां सबक लमेगतो । सत्या वह बृहत्प्रमाण 'लिंगुदयटु' त्ति-स्त्रीदर्शने लिङ्गोदय
उवगरणमाणमेसिं,पुरिसाविक्खाए बहुभेयं ।।२५८४॥ रक्षणार्थे च पटश्चालपट्टो मत. इति । अथ पात्रस्य मात्रकस्य
अयमत्राभिप्रायः-तीर्यकरदृशान्तायटम्मेन, जिनकल्पिकोच संयमोपकारित्वं दर्शयन्नाह-'ससत' त्यादि । संसक्लस- दाहरणावएम्मेन च त्वमचेलकत्वं प्रतिपद्यसे । एतच सर्वे कतुगारस-द्राक्षादिपानक-पानीयगतसत्वप्राणरक्षणार्थ पा- भवतो दुर्बोधविलसितमेव, यतस्तीर्थकरा अपि पूर्वोतप्रामति संबन्धः । पात्राभावे हि संसक्नगोरसादयो हस्त ए
न्यायेन न तावदेकान्ततोऽवेलकाः। जिनकल्पिक-स्वयंबुद्धायानाभोगादिकारणाद गृहीताः क क्रियेरन् ?, तद्गतसत्त्वानां
दयः पुनः सर्वकालमेकान्तेन सोपधय पयति । अत एव दुग प्राणविपत्तिरेव स्यात् पात्र तु सति समयोक्नविधिना ते प- तिग च उक्क पणगं' इत्यादिना पूर्वमतेषामुपकरणमानं पुरुषारिम्थाप्यन्त । तथा च सति तद्गतसत्त्वप्राणरक्षा पात्रेण सि. पेक्षया बहुभेदमुक्तम् ,न पुनः सर्वथा निरुपकरणता । तदयं यध्यतीति । तथा पात्राभावे पाणिपूट एवं गृहीतानां घृतगो
स्त्वया सर्वथोपकरणत्यागः कृतः स दृष्टान्तीकृताना तीर्थकररसादिरसानां परिगलने सति यत् कुन्थु-कीटकादिप्राणघा
जिनकल्पिकादीनामपि न दृश्यते, केवल नूतनः कोऽपि तनम् ; ये च भाजन-धावनादिभिः पश्चारकर्मादया दोषा- त्वदाय पवाय माग हात। स्तेषां परिहारार्थे च पात्रमिष्यते जगद्गुरुभिः । तथा, ग्ला
अथ प्रकारान्तरेण परमतमाशङ्कय परिहरनाहम-बाल-दुर्बल-वृद्धाधुपग्रहार्थं च दिष्यते । पात्रे हि सति भरहता जमचेला, तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते । गृहस्थेभ्यः पथ्यादिकं समानीय ग्लान-बालादीनामुपग्रह तो तन्वयणाउ चिय,निरतिसो होहि माऽचलो २५८५ उपष्टम्भः क्रियते, तदभावे पुनरसौ न स्यादेवति। अपरञ्च
यद् यस्मादईन्तोऽचलाः-चेलरहिता नाम्यधारिणस्तेन तपात्र सति भक्तपानादिकं समानीयान्यस्य प्रयच्छता साधू- स्मात् कारणादचेलत्वं-नग्नत्वं यदि तव मतं-संमतम् ,"जानां दानमयधर्मस्य साधनं-सिद्धिर्भवतिः पात्राभावे चैतदन!
रिसयं गुरुलिंग, सीसेण वि तारिसेण होयब्वं । न हि होइ स्यात्। तदसत्वे कम्यापिकेनचिद भक्क्रपानादिदानासंभवात।।
बुद्धसीसो, सेयवडो नग्मस्खयण वा ॥१॥” इति बचना'समया चवं परुष्परउ' त्ति-एवं च पात्रे परिग्रह सति लब्धि
दिति । ततस्तर्हि तद्वचनादव-तीर्थकरोपदेशादेव निरुपममतामलब्धिमतांच, शक्कानामशक्कानांच वास्तव्यानां प्राघूर्ण
धृतिसंहननाद्यतिशयरहितोऽवेलो-नग्नो मा भूस्त्वम् । कानां च सर्वेषामपि साधूनां परस्पर समता-स्वास्थ्य तुल्यता
इदमुक्तं भवति-यदि तीर्थकरशिष्यत्वात् तद्वेषस्तव प्रमाणभवति । पात्रे हि सति लब्धिमान् भनपानादिकं समानीय
म् तहि तत एव हेतास्तदुपदेशोऽपि भवतः प्रमाणमेव । न हि लब्धिमते ददाति । एवं शक्तोऽशक्ताय , वास्तव्यः माघूर्ण
गुरूपदेशमतिक्रम्य प्रवर्तमानः शिष्योऽभीष्टार्थसाधको भवति कारा तत् प्रयच्छति । इति सर्वेषां सौस्थ्यम् , पात्राभावे तु
परमगुरूपदेशश्चैषं वर्तते-निरुपमधृतिसंहननाद्यतिशयरहिनैतत् स्यादिति । इह च पात्रग्रहणस्य गुणकथनेन मात्रक
तेनालकेन नैव भवितव्यम् । तत् किं त्वमित्थं गुरूपदेशस्यापि तत्कथनं कृतमेव द्रष्टव्यम् , प्रायः समानगुणत्यात् ।।
बाह्येन नाग्न्येनात्मानं विगोपयसीति । उक्तं च
अथ यथा गुरोरुपदेशः कर्तव्यस्तथा तद्वेष-चरिते अध्य"छकायरक्खट्टा, पायग्गहणं जिणेहि पन्नत्तं । । वश्यमाचरणीये । तदयुक्तम् , तदुपदेशानुष्ठानस्यैव कार्य
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सिव भई
साधकत्वादिति दशयति
रोगी जोपण करेइ बेजस्त्र हो अरोगो य । न उ बेसं चरियं वा करे न व पउखड़ करतो ॥२५८६ ॥ वह जिस कुणमायोऽवेद कम्मरोगाओ। न तत्रो, तेसमाएसमकरंतो ।। २५८७ ॥ इह यथा रोगी वैद्यस्योपदेशं करोति, तत्करणमात्रेणैव च शेवा पुनरसी द्वेष करोति नापि रितमाचरात न च तत् कुर्वाणोऽप्यसौ प्रगुणीभवति, प्रस्युतपादयेये नायादिकं तद्वेषं कुर्वन् सर्वसाध [[]] न भुझानचरितानुष्ठायी संनिपान पितादेशानुष्ठानमेव रोगिमा महेतुः । प्रस्तुत योजनामाह-'तह' त्यादि तथा तेनैव प्रकारेण जिनवैद्यस्यादेशं कुर्वाणस्तद्वेषचरिते अनाचरपि कर्मरोगादपैति - वियुज्यते, न पुनस्तेषामादेशमकुर्वाणस्तनेषपचरिने विभागोऽपि तम्माद वियुज्यते केव पारहितत्वापयति वर्तमान उन्मादादि
भाजनमेव भवतीति ।
किञ्चपदि तीर्थकरने चरितानुष्ठानयत भवान् तर्हि किं सर्वथा तैः सह वेष-चरिताभ्यां साधये भवतः, उत देशतः ? | यद्याद्यः पक्षः, तर्हि यत् ते कुर्वन्ति तत् सर्वमपि भवता कर्तव्यं प्राप्नोति किं पुनस्तत् ? इत्याह
न परोवसवसया, न य छउमत्था परोवएसं पि । दिति न व सीसयर, दिक्खति जिला जहा मध्ये २५८८ तह सेसेहिं वि सव्वं, कजं जड़ तेहिं सव्यसाहम्मं । एवं च कथ तिथे, न वेदवेली चिको गाहो । २५८६ यदि तेजिनेस्तीथकरः सह लिरिताभ्यां सर्वसा यथा ते स्वयंस्याद् न परोपदेशा:न परोपदेशेन तं न चास्यायां प्रतियोधाये परस्याप्युपदेशं ददति न च शिष्यवर्ग दीक्षन्ते, तथा शरैरपि तच्छृष्य-प्रशिष्यैः सर्वमेतत् त्वदभिप्रायेण काये करी प्रमोति भवत्येवं सर्दि को दोषः ? इति चेत् इत्याह एवं वसति कुतस्तीर्थम् कस्यापि प्रतिबोधानावाद दीक्षायभावाच्च ? | न चेदिति अथ न तैः सह सभवाम्यहम् इति क स्तव ग्रहः ?, अचिन्त्यत्वात् तच्चरितस्येति । अथ सीधे सह सर्वसाधम्माचेऽबेलताग्रहः किमिति न कर्तव्यः ? इत्याह
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जहन जिसिंदेह समं, सेमाइम एहि सव्यमाहम्मं । तह लिंगेणाभिमयं चरिएण चि किंचि साहम्मं । २५६०/ था जिन्स उनावाइसयसता इत्यादिना प्रन्धेन प्रतिपादितेर्लिङ्गारिताशेषतः सर्ववतः किस ? किञ्चित् साधर्म्यमेव, तथा तेनैव प्रकारेण लिङ्गेन चरितेन सिधा सहाभिमतमस्माकम् न तु सर्प तच किञ्चित्सङ्गितो लांचर मात्रेण न पुनरत्न परिवेषणीयाहारपरिभी
"
२२०
(53) अभिधान राजेन्द्रः ।
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·
सिप भई
मानियवासादिना तु पाणिजन्येन निरतिशयश्वेन तद्योग्यत्वादस्मदादीनाम्। तस्मात् किञ्चित् साध स्योक्कन्यायेनान्यथापि सिद्धेः कोऽबेलताद्याग्रहो भवतः ? इर्शन (जिनकल्पविषयः (विशे०) 'जिप' शब्दे चतुर्थभाग १४८६ पृष्ठे उक्तः । )
यथोक्तम्यजिपाचेखपरिसहा मुली' इत्यादि, ताहजइ चेलभोगमेना-दजिओचेलयपरीसह तेण । अजियदिगिंछाइपरी - सहो वि भत्ताइभोगाओ। ।। २५६४ ।। एवं तुह न जियपरी - सहा जिनिंदा वि सव्वहावनं ।
हवा जो भत्ताइसु, स विही चेले वि किं नेट्ठी ।।। २५६५ || जह भत्ताइविसुद्धं, राग-द्दोसरहियो निसेवंतो । विजिषदिगिछाइपरी - सहो मुखी सपडियारो वि। २५६६ । तह चेलं परिसुद्धं, राग-द्दोसर हिओ सुयविहीए ।
मन्या
"
"
होइ जियाचेलपरी - सहो मुणी सेवमाणो वि || २५६७॥ जिताचेलपरीषदो जिलालपरी मुभिर्भवतीति वयमपि मंडे । केवलम प्रयोऽसि कि बेलाय तालपरीषहत्वं भवति येन भवता सर्वथा वस्त्रपरित्यागः क्रियते, आहोस्विदनेष णीयादिदोषदुष्टवस्त्रपरिभोगेण ? | ईत्यादि यदि बेलभोगमात्रादपि तेन खाधुनाऽऽप जिन इति स्वया प्रोच्यते वर्दिमादिपरिभोगमा निदिदिपरीपोऽपि वाचैव साधुः स्यात् । पतदुभयमिइह देशीवचनत्वाद् दिगिंछाशब्देन तुत् प्रोच्यते, आदिशब्दात्-पिपासादिपरिग्रहः । ततश्च यद्येपणीयादिगुणोपेतवस्त्र पात्र परिभोगाजिताचेलपरीपहां नेष्यते तपणादिगुणसंपन्नभलपानादिपरिभोगा जिन क्षुत्पिपासादिपरीपहोऽपि गति स्यात् भवत्येवम्न नि क्षूयत इति चेत् । अत्राह - एवमित्यादि एवं सति त्वदभिप्रायेण जिनेन्द्रा अपि भगवन्तो निरुपन धृतिसंहननाः सत्यैकनिधयो न जितपरीपहा इति सर्वप्रकारैरापन्नम् । अर्थोद्गमादिदोषनिविशुराम-द्वेपदिती भक्त-पानादिकं सवमानोऽपि जितक्षुत्पिपासादिपरीषदो मुनिर्भवति, तर्हि योऽयं भक्तादिषु विधिरुच्यते स चेलेऽपि वस्त्रेऽपि भण्यमानः किं नष्टः क्वापि ?- ननु तदध्येपण रागादिदोषरहितः परिभुजानो जितालपो मुनिः स्यादेवेति भावः तदेव व्यीकुर्याद'' इत्यादि गाथाद्वयं स्पष्टम् । नरं 'सडिया वित्ति-विमुत्तापिपा सा-शीतोष्णादीनां भक्त-पान-वस्त्रादिभिः सूत्रोक्तयतनया कृतः प्रतीकारः प्रतिविधानं येन स तथा । इदं च डमरु - कमराम्यान गाथायेऽपि संबध्यते तस्मादपण यादिदोषदुपरिभोगेणैवाजिताचेलपरीषद्दत्वं भवति, तु सूचना तदुपभुञ्जत इति ।
न
आननु यदि परिभुले साधुः, तहिं तस्य कथमचे लपरीषदसहिष्णुत्यम् लास् तदुपपत युक्रम् सति असतिलकरपस्यागमे लांक रूढकत्वात् एतदेवाह
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मदमंतचे लगोऽत्रे - लगो य जं लोगममयमंसिद्धो ।
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सिवभूइ
शेणाचेला मुग, संतेहि जिया असंतेहिं ॥ २५६८|| सन्नासच्च सदसती चेले यस्यासौ सदसथेलो यद् य समालोके समये पालकः संसिद्धः प्रसिद्धः । चशब्दः प्रस्तावनायाम् । सा च कृतैत्र । तेन तस्मादिह मुनयः सामासाधवः सद्विचार लाभले. जिनास्तु तीर्थकरा असद्भिर्मुख्यवृस्था उचेला व्यपदिश्यते । इदमुकं भवति इदासेल द्विविधम-मुख्य उपचरितं
दान मुख्यमन्यं संयमेोपकारि न भवति अत औपचारिकं गृह्यते, मुख्यं तु जिनानामेवासीदिति । मेयरम
परिसुद्ध जय कुलय, घोवाऽनियपभोग भोगेहिं ।
ओ मुच्छारदिया, संतेहि अपेक्षा होति ॥ २५६६।। मुनयः सारहिताः सद्भिरपि बेरो बेलका भवन्ति । कथंभूरी ले इत्याह-'परिसुख' - Cafe भक्तदर्शनात् परिशुद्धैरेषणीयैः तथा जीवितैः, कुत्सितैरसारैः स्लोकैर्गणनाप्रमाणतो ही नैस्तुच्र्या, 'अनि भिभोगेन कारिकाय भागः परिभोगः परिभोगी येषां तानि तथाभू सहिष्णुपचारतो बेला मुनयो तथा 'भोग भोगे' ति पत्रमपि योज्यते । ततश्च लोकरूडकाराभ्यप्रकारेण भोगः- श्रासेवनम् प्रकारलक्षणस्य मध्यप स्य लोपा योगायोग मांगा-परिभोगोप तानि तथा तैरप्यभूती को लेबेलकावं लोके प्रसि यथा कटीवस्त्रेण वेष्टितशिरसो जलावगाढपुरुषस्य । साघोरपि कच्छादन्धाभावात् पराभ्यामभाग एव बोलपट्टकस्य धरणात् मस्तकस्योपरि प्रावरणाद्यभाषा लीकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण बेलभोगो द्रष्टव्यः । सदेवं 'परिसुन- गण - कुष्य इत्यादिविशेषणविशिष्टेः सङ्गि रपि तावत्कार्याकरणात् तेषु भावाच्य मुनयो बेला पदिश्यते तात्पर्यम्।
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प्राह--ननु चतस्वान्यथा परिभव मिल यः कपिः ? इत्याशङ्कप तदुपदर्शनार्थमाह-जह जलमवगाहतो, बहुवेला वि सिरवेद्विकडिल्ली । pers नरो अचेलो, तह मुत्र संत चेला वि ॥ २६०० ॥ गतार्था ।
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जीर्णादिभिरपि परचेलक लोकरुडमेवेतिभाव तह थोवजुन कुच्छिय - चेलेहि वि भन्नए अचेलो त्ति । जइतर सालिय! लहुं, दो पोलि नग्गथामो नि। २६०१। यमपि सुगमा नवरं जइत्तरेत्यादिशन्तः यथेह काऽपि योषित् कटौती शाटिका कञ्चित् कोलिकं वदति - ' त्वरस्व भोः शालिक ! शीघ्रो भूत्वा मदीपोक्त शार्टिका विर्वाप्य ददस्व समर्पय, नझिका वर्ते'इम्' । तदिह सवखायामपि योषिति नाग्न्यवाचकशब्दप्र वृत्तेः “जस्लट्ठा कीरह नग्गभावो मुंडभावो भरद्वायं अदसवण्य" इत्याद्यपि न विरुध्यत इति ।
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(द) अभिधान राजेन्द्रः ।
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अथ यदुक्तम्- 'जं च तिद्दि ठाणेहिं वत्थं धरेज इत्याद तंत्र प्रतिविधानमाह-
सिवनूह
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विहियं सुए च्चिय जो, धरेज तिहि कारणेहि वत्थं ति तेयं चिप तदवस्, निरतिसरणं भरेयथं ।। २६०२ ।। जिण कप्पाजोग्गाणं, ही कुच्छपरीसहा जनस्सं । ही लज ति व सो सं-जमो तदत्थं विसेसे गं ।। २६०३ ।। मनु त्रिभिः कारणे धरणीयम् - इत्यागमोक्रं दर्शयता भवताऽस्मत्पक्ष एव समर्थितो भवति परं शून्यहृदयत्वाद् भवान् न लक्षयति तथाहि इदानीं वयमणि कुंशक्नुमः - ' त्रिभिः कारणैर्वखं धरेत्' इति सूत्रे ऽपि विहिनंप्रतिपादितं तवात् तेनैव प्रकारेण तद् परि तिन तथाविधप्रतिननादिरदिनेनानारीति कुतः इत्याह-पतो यस्माद् निरतिशय न जिनकल्याण्यानां साधूनां कुर अणकारपूर्णनिश्यिम संपति धरतीयमेव पत्रम् परिया-कुलपात तथापी खास संपल सा धरम् अन्यथाऽग्रिवलनादिना संय मापसेरिति ।
?
अथोपसंहार पूर्वकं संक्षिप्योपदेशमाहजर जिम पमाणं तुह तो मामुपसु वत्थ-पाई पुनदोसाल, लम्मिसि मा समिषार्य च ॥ २६०४ । अणुवाले उमसचो ऽपत्तो न समत्तमेमदासमियं । वत्थरहिश्रो न समिभो, निक्षवादावोसग्गा । २६०५ | यदि जनमतं तव प्रमाणम्, ततो या पात्रादि मा मुख मा त्याक्षीः । कुतः ? इत्याह-' तेणगहणानलसेवा-' इत्यादिना पूर्वमुकं दोषजालं मा लब्धाः। तथा समितिघानं तत्परिस्थाने माहि मिति कस्याः पुनः समितेः पाजायनाये विधानः इत्याह-अनुवामित्यादि प्र शको समधौ भवत् । किं कर्तुम् ? । समस्तां परिपूर्णामेत्र णासमितिमनुपालयितुम् । कथंभूतः ? अपात्रः पात्र विरहितः पुनर्निपादानसमित्या समित्या व समिती न भवेत् उपलक्षत्वाद भाषासमित्याऽपि समितोनयेत्या जोहरसमुखपत्रिकाचभावात्तदभावे व यथोक्तसमिति त्रयासिद्धेरिति ।
•
"
एवं प्रज्ञापितोऽसौ किं कृतवान् ? इत्याहइयपष्पवि वि बहुं, सो मिच्छतोदयाकुलियभावो । जिण मय मसद्दतो, छडियवत्थो सजाओ || २६०६ || तस्य भगिणी समुझियवस्था तह क्षेत्र तदणुरागेणं । संपत्थिया नियत्था, तो गणियाए पुणेो मुयइ || २६०७|| तीए पुणो विबद्धो-रसेगवत्था पुणेो विछडिति । अच्छउ ते ते चिय, समणुमाया धरेसी य || २६०= || कोडिनको पञ्जाबेसी य दोसि सो सीने तत्तो परंपराफा - सोऽक्सेसा समुप्पन्ना || २६०६ एताश्चतस्त्राऽपि गतार्थाः नवरं समुज्जाउ ति त्यक्तवस्त्र उपाश्रयात् समुद्यात निर्गतः । 'नियत्थ ति ततो गया निरुसिता वस्वं परिधापितेत्यर्थः । तीर
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( ७१) सिवड अभिधानराजेन्द्रः।
सिमुपाल ति' तया गणिकया ' बद्धोरसेगवथ ति' बद्धमुरस्येक सा
भार्यायाम् . उपा०१०। प्रा०चू०। पत्रं यस्याः सा तथेति । 'तत्तो परंपरेत्यादि' ततः पर- सिविण-स्वम--पुं०। "इ. स्वप्नादौ" ॥11॥४६॥ त्यापरया योऽसौ स्पर्शो गुरुशिष्यसंबन्धस्तस्माद् बोटिक- देरस्य इत्वम् । मा० । "स्व नात्"॥12१०८॥ स्वप्रशसंतानवर्तिनोऽवशेग बोटिकाः समुत्पन्ना इति । एतासां ब्द नात् पूर्व इद् भवति । प्रा० । स्वापाबंस्थायां गजादिदर्शने, च बोटिकव्यतिकरसंबद्धानां सर्वासामपि गाथानामथै सं- प्रा० क०१०। क्षिप्य इह यो यदर्थी न स तनिमित्तोपादानं प्रत्यना- सिविया-शिविका-स्त्री० उपरिच्छादिते कोष्ठाकार जम्मानवृतः, यथा घटार्थी मृत्पिण्डोपादानं प्रति , चारित्रार्थिन- विशेष,जी. ३ प्रति. अधि० । शा० । सूत्र० । अनु० । च यतयः, तनिमित्तं च चीवमिति, न चास्यासिद्धत्व
| औ०। प्रा० मा जादशाभारा। प्राचा० अन्त। म. इत्यादिना सूत्र-वस्त्र-पात्रपरिग्रहविषयं वादस्थानकं वृ-सामोरेमोखमापना विरचिनमास्ते, तमोत्तराध्ययनेषु द्वितीये परीषहाध्यय
विद्यः। मेवाचेलक्यपरीरहे बृहट्टीकायां तदथिनाऽन्वेषणीयम् । तथा, 'ह खलु यम्य यत्रासंभवो न तस्य तत्र कारणावैक- |
| सिध्वण-सीवण-न। परिकर्मणि, नि० चू०१६ उ०। स्यम , यथा शुद्धशिलायां शाल्यरस्य, अस्ति च तथा
सिविणी--देशी-सूच्याम् , ३. ना.८ वर्ग २६ गाथा। विधस्त्रीषु मुक्नेः कारणावैकल्यम्, न चायमसिद्धो हेतुः, सिची-देशी-सून्याम् , दे.मा.- वर्ग २६ गाथा । इत्यादिना विरचितं श्रीनिर्वाणविषयमपि बाद स्थानकं त
सिसिर--शिशिर--पुं० । लोकोत्तरसंशया माघ मासे,ज्यो. अंष पदिशत्तमाध्ययने एण्यम् ॥ इति षष्टिगाथार्थः ।
पाहु।०प्र० । ०। सू०प्र०ा शीतकाले,नि००१ उ.। "विश०मा०कामाचदिगम्बरे, ध०२०। मा०ाभायस्तीनवरीधास्तम्यश्रीभद्रारमजे, मा० चू० १ ० । स्था० ।
दग्नि, दे० ना०८वर्ग ३१ गाथा।
सिसिरकाल--शिशिरकाल--पुलाशीतकाले,प्रश्न०५संबद्वार । सिवमग्ग-शिवमार्ग-पुं०। दर्शनहानचारित्रलक्षणे मोक्षमार्ग,
सिसिररत्त--शिशिररात्र-पुं० । पौरमाघमासयारमकेतुविशे०
भेदे, स्था०६ ठा० ३ उ०। सिवय-शिवक-पुं० । उदकाभासनामकस्य बेलन्धरमागराज
सिसिरली--शिशिरली-स्त्री०प्रनम्तकायकम्बभेद, भ०५00 स्य भावासपर्वते, स्था०४ा०२ उ०। ('लवणसमुर' श
८ उ० । साधारणबनस्पतिकायविशेष, जी०१ प्रतिः। ब्दे वक्तव्यता।) सिवद-पुं० शिवं दवातीति शिवदः । मोक्षपदे,पो.विया
सिसु-शिशु--पुं०।बालके, विशे० । नि००। सिबलिया-शिवलिका-खी। कलायाभिधानधाम्यफलिका
सिसुनाग-शिशुनाग--पुं० मलसे, सर्पाकृती मुद्राक्षके पर्या
जन्ती, शिशुनागो गणपदः । उत्स. ५ । 'समायाम् , भ०७ २०१०।
हि' शब्दे उदाहने सुदर्शनपुरवास्तव्य स्वनामख्याते गृहपसिववत्त-शिववर्मन्-न० । शैवानां परिभाषया मोशे, द्वा०
तौ, प्रा०क०४०। आव०। २४ द्वा।
सिसुपाल--शिशुपाल--पुं० । वसुदेवसुतायो माद्रपा दमघोंसिवसम्ममरि-शिवशर्मसरि-पुं०1शतकाव्यकर्मप्रधकर्तर्या
षेण जाते पुत्रे, सूत्र। खायें, कर्म०५ कर्म । शा०।
तवेदमसिवसोक्खद-शिवसौख्यद-पुं० । शिव-मोक्षस्तस्य सौख्यं "वसुदेवसुसाएँ सुनो, दमघोसणराहियेण महीयें ।
जामो चतुभुजो भुज-बलकलिम्रो कलहपत्नहो ॥१॥ निराबाधलक्षणं पदातीति शिवसौख्यदः । मोक्षफलके, धं०३ अधिक।
बट्टण तो जगाणी, चतुम्भुयं पुत्तमम्भुयमणग्छ ।
भयहरिविम्ह यमुही, पुच्छहणेमित्तियं सहसा ॥२॥ सिवहत्थ-शिवहस्थ-प्रारोग्यकरहस्से,विशा०१श्रु०७०।
णमित्तिाण मुग्गिऊ-ण साहियंतीद हट्टहिययाए । सिवा-शिवा-स्त्री०। सौर्यपुरे नगरे दशदशाराणां मध्ये ज्येष्ठ
जह एस तुब्भ पुत्तो, महायलो दुजों समरे ॥३॥ समुद्रविजयस्य राज्ञो भार्यायाम् ,स्था०८ ठा०३ उ०। उत्ता
पयस्स य ज ददठू-ण होइ साभायियं भुभाजुप्रलं । कल्प। प्रव०। श्रा०म० स०। उज्जयिनीराजस्य प्रद्योतस्य होहि ततो चिय भयं, सुतस्स ते णत्थि संदेहो ॥४॥ भार्यायाम् , चेटकराजदुहितरि,प्रा० ०४ अा"लोहजंघा
सा वि भयवेवियगी. पुत्तं दंसह जाव कराहस्स। लोहहारी अग्मिभीरुस्तथा रथः । स्त्रीरत्नं च शिवा देवी ग
तावषिय तस्स ठियं, पयइत्थं वरभुयाजुगलं ॥ ५॥ जोऽनलगिरिः पुनः ॥२॥" प्रा० क०४१० । ति। श्राव०। तो कराहस्स पिउच्छा, पुत्तं पाडेर पायपीटम्मि । पञ्चदशतीर्थकरस्य प्रथम प्रवर्तिभ्याम् , स० । प्रव० । अवगहखामणत्थं, सो वि सयं से खमिस्सामि ॥६॥ शक्रस्य देवेन्द्रस्याग्रमहिच्याम् , भ०१० श०५ उ० ।
सिसुपालो यि हुजुब्वण-मरण नारायणं असम्मेदि। स्था । (अस्या' अग्गमहिनी' शब्दे प्रथमभाग १७३ पृष्ठः
चयहि भगाह सो विहु, खमह खमाए समत्था वि॥७॥ पूर्वोत्तरजन्मकथा ।) शृगाल्याम् , शृगाली अशिवाप्य- अवराहसप पुराण, वारिजंतो ण चि?ई जाहे । मालिकशब्दपरिहारार्थ शिवा भएयते । अनु० ।
करदेण तो छिम, चकेणं उत्तमंग स॥८॥" सू०१७०३ सिवाणंदा-शिवानन्दा-स्त्री०। प्रानन्दस्य श्रमणोपासकस्य
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सिसुमारिया अभिधानराजेन्द्री
सिहरि सिसमारिया-शिशुमारिका-स्त्री० वार्यावशेष, रा०। ।
तच्चेदम्
गथं विहाय इह सिक्खमाणो, सिस्स-शिष्य-पु०। प्रवज्यां शिक्षां च ग्राहित , सूत्र० २७० ७ ० । प्राचा० । ज० । श्राव०। प्रा०चू०।
उहाय सुबंभचेरं वसेजा। शिक्षणायोपाध्यायस्योपासके , जं. २ वक्षः।
ओवायकारी विणयं मुसिक्खे, गंथो पुबुद्दिट्ठो, दुविहो मिस्सो य होति णायव्यो ।
जे छय विप्पमायं न कुजा॥१॥ पव्यावण सिक्खावण,पगयं सिक्खावणाए उ ।। १२७॥ 'इह' प्रवचने भातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोसो सिक्खगो य दुविहो,गहणे आसेवणाएँ णायव्यो ।
स्थितो प्रध्यते श्रान्मा येन स ग्रन्थो-धनधाम्यहिररायद्वि
पदचतुपदादि-विहाय-त्यक्या प्रवजितः सन् सदुमहणम्मि होति तिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए या॥१२८॥
स्थानेनात्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षा [च] आसेवणाएँ दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । कुर्वाणः-सम्यगासेवमानः सुष्टु शोभनं नवभिब्रह्मचर्य गुप्तिमूलगुणे पंचविहो, उत्तरगुणे बारसविहो उ।।१२।। भिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य वसेत्-तिष्ठेत् , यदिवा-सुग्रह्मचयआयरिश्रोऽवि य दुविहो, पव्वावंतो व सिक्खवंतो य ।
मिति-संयमस्तद श्रावसेत्-तं सम्यक कुर्यात् प्राचा
यान्तिके यावजी वशमानो यावदभ्युद्यतविहारं म सिक्खावंतो दुविहो, गहणे आसेवणे चेव ।।१३०॥
प्रतिपद्यते तायदाचार्यवचनम्यावपानी-निर्देशस्तकार्यवगाहावितो तिविहो, मुत्ते अत्थे य तदुभए चेव । पातकारी बचननिर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, यिनीयतेमूलगुण उत्तरगुणे, दुविहो आसेवणाए उ ॥ १३१ ।।
अपनीयत कर्म येन स विनयम्तं सुष्टु शिक्षेद्-विदध्यात्
ग्रहणासवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति । तथा यः ( गंथो० इत्येतद् १२७ गाथाच्याख्या 'सिक्ख' शब्देऽस्मि
छेको-निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेश या विविध नेव भागे गता।)
प्रमादं न कुर्यात् , यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेश कुर्वन् अहर्निशमनुतिष्ठति स एवंविधो ग्रहणासेवनाभेदभिन्नः |
लाघां लभते रोगोपशमं च एवं साधुप सावद्यग्रन्थपरिशिष्या सातव्यो भवति , तत्रापि ग्रहणपूर्वकमासेयनमिति
हारी पापकर्मभेषजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि विदधदपकृत्वाऽऽदावेव ग्रहणशिक्षामाह-शिक्षाया ग्रहणे-उपादा
रसाधुभ्यः साधुकारमशेषकर्मक्षयं चावाप्नोतीति ॥१॥ मेऽधिकृते त्रिविधौ भवति शैक्षकः, तद्यथा-सूत्रे, अर्थे, तदु
दु सूत्र. १४ अ०। भये च । सूत्रादीन्यादावेव गृह्णन् सूत्रादिशिक्षको भवतीति
शीर्षन-न० । उत्तमाले, नं। भावः । साम्प्रतं ग्रहणोत्तरकालभाविनीमासवनामधिकत्याह-यथावस्थितसूत्रानुष्ठानमासेवना तया करणभूतया
सिस्मिणी-शिष्या-स्त्री० । स्वहस्तदीक्षितायाम् , व्य० २ द्विविधो भयति शिक्षकः , तद्यथा-मूलगुणे-मूलगुणवि
उ० । आव०। पय आसवमानः-सम्यग्मूलगुणानामनुष्ठानं कुर्वन् तथा
सिह-काक्ष-धा० । कालायाम् "काझेराहाहिलङ्काहिललवउत्तरगुणे च-उत्तरगुवषयं सम्यगनुष्ठानं कुर्वाणो द्वि- चवम्फमहसिहविलुम्पाः" ॥८४.१६२॥ इति कालतेः सिह रूपोऽप्यासेवनाशिक्षको भवति , तत्रापि मूलगणे पश्चप्र- इत्यादेशः । सिहइ । काङ्गते । प्रा०४ पाद। कार:-प्राणातिपादिविरतिमासेवमानः पञ्चमहाव्रतधार- स्पृहि-धा० । स्पृह णिच् । इच्छायाम् , “ स्पृहेः सिदः" णात्पश्चविधो भवति मूलगुणेष्वासेवनाशिक्षकः, तथोत्तर
॥८।४। ३४॥ इति यन्तस्य स्पृहः सिह इत्यादेशः । सिहर । गुणविषये सम्यकपिराइविशुद्धयादिकान् गुणानासेवमान
स्पृहयति । इच्छति । प्रा०४ पाद । उत्तरगुणासेवनाशिक्षको भवति ,ते चामी उत्तरगुणाः
सिहंडइल्लो-देशी-बालदधिसरमयूरेषु,देना०८ वर्ग ५४गाथा। 'पिंडास जा विसोद्दी, समिईया भावणा तवो दुविहो । प
सिहंडि-शिखण्डिन-त्रिका शिखाधारिणि,भ०६ श०३३ उ० । जिमा अभिग्गहावि य , उत्तरगणमो बियाणाहि ॥ १॥ यदिवा-सत्स्वप्यन्येघूनरगुणेषु प्रधाननिर्जराहेतुनया तप ए
दशा। व द्वादशविधमुत्तरगणन्वेनाधिकृत्याह-उत्तरगुणे-उत्तरगु
सिहर-शिखर-न० । पर्वतोपरिवर्तिकूटेषु,शा०१ श्रु०१०। णविषये तपो द्वादशभेदभिन्नं यः सम्यग् विधत्ते स श्रा- स्था०नि०चू।"चूलं ति वा विभूसणांत वा सिद्दरं ति या सेवनाशिक्षको भवतीति । शिष्यो ह्यचार्यमन्तरेण न भव- एते एगट्ठा" नि०चू०१ उ० जी० । सू०प्र०। उपरितने भागे, त्यत प्राचार्यनिरूपणमा ( णाया) इ--शिष्यापेक्षया श्रा०म० अ०। शिखराणि ऋतुपक्षे वृक्षसम्बन्धीनि पर्वतपते हि प्राचार्यों द्विविधो-द्विभेदः, एको यः प्रवज्यां ग्राह- कृटानि । ज्ञा०१ श्रु०६०। प्रश्न। यत्यपरस्तु यः शिक्षामिति, शिक्षयन्नपि द्विविधा-एको यः सिहरभ-शिखरभूत-त्रि०। शिखरकल्पे, प्रश्न०५संव०द्वार ।
यत्यपरस्तु तदर्थ दशविधचक- सिहरि-शिखरिन्- ० । जम्बूद्वीपस्य षष्ठवर्षधरपर्वते, जं. घालसमाचार्यनुष्ठानतः सेवयति-सम्यगनुष्ठान कारयति । तत्र सूत्रार्थतदुभयभेदाद् प्रायन्नप्याचार्यत्रिधा भवति ।
दो सिहरिकूडा । स्था० २ ठा० ३ उ०। प्रासेवनाचार्योऽपि मूलोत्तरगुणभेदाद द्विविधो भवति। गतो
अथ षष्ठवर्षधरावसरःनामनिपनो निक्षेपः,तदनन्तरं किं तत् सूत्रानुगमेऽस्खलिता
कहिण भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सिहरीणाम वासहरपदिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यम्।
ब्धए पहलते?, गांप्रमा! हरयस्स उत्तरेणं एरावयस्स
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सिहरि
दाहिणे पुरत्थि मलवणसमुहस्स पचत्थिमें पचत्थिमलवस्प समुहस्स पुरस्थि मेणं, एवं जह चेच चुल्लहिमवन्तो तह चेत्र सिहरी वि वरं जीवा दाहिणेणं धणुं उत्तरे असतं चैव पुण्डरीए दद्दे वामला महागई दाहिया जहा रोहिना पुरन्धिमेगं गच्छ कहिमित्यादि क भ जम्बूदीप शेशि नाम वर्षचरपर्वतः प्रशः गौतम हैरण्यवतस्योसरस्याम् ऐरावतस्य वक्ष्यमा सप्तम क्षेत्रस्य दक्षिणस्यां 'पुरत्थिमे त्यादिप्रात् एवमुक्रालापेन पथादवान्तयेव नवीन
(==) अभिधानराजेन्द्रः ।
4
वर्ग ५५ गाथा ।
सीअवेयमहण शीतवेगमधन न० । शीतगनवारणात् : सूर्ये, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । सीमा- देशी-विदे० ना० २४ गाथा । सीईभूय-शीतीभूत- वि० सुख आया १०३०१ ४० सीउग्गयं-- देशी-सुजाते. दे० ना०८ वर्ग ३४ गाथा । सीउएह- शीतोष्ण - न० । शीतं च उष्वं च शीतोष्णम् । ननुकूलप्रतिकूल परीषदे, सूत्र० १० २ श्र० २ उ० । - विद्युत्प्रभवक्षस्कार श्री ओगड शीतोदककूट-प स्वनामस्याने कूटे, जं० ४ बक्ष० ।
सोप्पवाय - शीतोदाप्रपात-पुं० । शीतोदामहानदी प्रवाहे इनमे वत्र शतदा विपतति शीतोदाननिषेधात् स
पानः । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
सीओोग- शीतोदक- न० । शीतं शीतलं स्वरूपस्थ-तोयपलक्षणमेतत् । स्वकापादिश्रानुपहतममाशुकमित्यर्थः तथ तदुदकं शीतोदकम् । उत० २ ० । श्रप्राकजले, उत्त० २ अ०] ष० " नीता माटवापी पुष्करिल्पादि शीतसूत्र० । परिणामे जी० [१] प्रति० नि०० सचित्तपानीये दश० १० अ० नि० चू० प्रा० ॥ सीमोदगदुगंधि- शीतोदकजुगुप्सिन् पुं० [कोपरिहारिखि, जं० २ बक्ष० ।
राधिकयेनोपजनितवासा कूरमध्ये माथबनाया शिरलीयते ०२४००० आचा० 1 प्रश्न० । मार्जितायाम्, ३० ना०८ वर्ग ३३ गाथा । सिहरिल्ला - देशी- मार्जितायाम्, दे० ना० ८ वर्ग ३३ गाथा । सिहलि-शिखा बी० चूडायाम् ०४ अ० । श्र० । सिलिं या धारती के 'सिहलि' त्ति शिखा । पञ्चा० १० चित्र० । सिहा- शिखा श्री० शिरसि व्य० २४० शिरसि सर्व सीओदगविषडशीतोदकविकृत १०। ।
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1
।
,
शीतोदकं च तद्विकृतं च शीतोदकाचकृतं संदेव विकटं विगतजीवम् । शीतो
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जानां केशानां समूहे, व्य० ३ ३० । अनु० । स्था० । सूत्र० । सिहाचारण- शिवाचारण- पुं० । अग्निशिखामुपादाय तेज:काधिकारास्वाविहारनिषेवा रणभेदे, ग० ३ अधि० ।
सिहि शिखिन् पुं शिवाऽस्यास्तीति शिथी। अनु म - यूरे, भ० ७ श० ६ उ० । कल्प० । संघा० | को० । जं०। विशे० । निर्धूमेऽग्नौ कल्प० १ अधि०१ क्षण । य० । अग्नि
दिशीण विकार प्रापिते प्राशुकीकृते, पृ०२ उ० नि० चू० । श्रचा० | दशा०) (यत्रोपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शीतोदकविकृतिः स्यात्सत्र न वासः कर्त्तव्य इति 'वसहि' शब्दे षष्ठे भागे उक्तम् । ) सीमोदा-शीतोदा-श्री० जम्बुद्वीपे पूर्वापरे । लवणसमुद्र समुत्सर्पन्त्यां महानद्याम्, स०१४ सम० । सीतोयामहानदी चोवतरि जोयणसयाई साहियाई उत्तराहिमुही पहिला बहरामयाए जिम्भियाए चठजो-यणायामाए पचासजोयणविक्खंगाए वइरतले कुंडे महया षडमुपचिणं मुनावलिहारसंडासेठियां पवाएवं महवा स पचड, एवं सीता विवाहमु ही माशिषच्या ( ० ७४+ )
सीतोदाया महानद्याः पर्वतस्योपरि अनुरतिताम्बेकविंशत्यधिकानि कला चैकेत्येवं प्रवाह। भवति, 'वहरामयाप जिमिया चि-वज्रमच्या जिह्निकया प्रणावस्थमकरमुखज़िकिया योजना पश्चाशद्योजक विष्क
"
हिमकरणमेव तत्र पुण्डरीको हृदः अ०४ यक्ष० । स्था० 1 स० | शिखरेण समन्विते पर्वतमात्रे च । नं० सिहरिकूड - शिखरिकूट - न०। जम्बूमन्दरस्योत्तरे स्वनामख्याते कूटे, स्था० ६ ठा० ३ उ० | जं० ॥ सिहरिणी-शिखरिणी-बी० । करमतिरयुक्तदधिनि।
रुपने अपरकरे ०१ अ
।
जा दहिसरम्मि गालिय-गुलेग चउजायसुगयसंभारा। कूरम्मिष्पमाणे, बंधति सिहरं सिहरिणी उ ॥ १८॥ दवा शरे मालितेन गुडेन या निष्पक्ष अपरं च चतुजीसकसुकृतसंभारापात्तमानागकेशरातुभिर्ग
मात्रे, श्राय०५ श्र० ।
सिहंडिनी - शिखण्डिनी स्त्री० शिवाचारिण्याम् श्री० सिहिणा - देशी - स्तनमेः ३० ना० ६ वर्ग ३० गाथा | सिटी देशी कुकुडे हे०० वर्गगाथा । सीम-देशी-विदे० ना०८ वर्ग ३२ गाथा था। सीमणयं - देशी- दुग्धपारि श्मशानयोः, दे० ना० क वर्ग ५५
गाथा ।
सीअप्पवायदह- शीता प्रपातहूद पुं० । इदविशेषे, स्था० । यtweeः शीता भिपतति यश्च चत्वार्यशीत्यधिकानि
२२१
सीचोदा
योजनशनानि आदराति
विशेषन्यूनानि परिक्षेषेण यस्य च मध्ये शीताद्विीपः चतुष्य
योजनाको उत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेषः ज लान्ताद् द्विकोशोच्छ्रितः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीताप्रपानहदः । स्था० २ डा० ३ उ० । सीमली-देशी-हिमाल
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सीनोदा अभिधानराजेन्द्रः।
सीमोमणि म्भया 'वारतले कुण्डे ति निषधपर्वतस्याधोवर्तिनि बज- रिशोकमहावससम्पन्नस्य लोकविजयाध्ययन प्रसिद्धसभूमिके प्रशीत्यधिकचतुर्योजनशतायामविष्कम्भे वशयो- यमव्यवस्थितस्य विजितकषायादिलोकस्य मुमुक्षोः कदा-- जनाबगाहे सीतोदादेवीभवनाध्यासितमस्तकेन तवी- चिदनुलोमप्रतिलोमाः परीषहाः प्रादुष्यन्ति , तेऽविकनालंकृतमध्यभागे सीतोदाप्रपातहदे 'महय'ति महाप्रमा- तान्तःकरसेन सम्यक सोढव्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिणेन यत्पुनः 'दुहो' ति-कचित् श्यते तदपपाठ इति मन्य- बमध्ययनम् , अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि ते 'बडमुहपवत्तिएणं' ति-घटमुखेनेव-कलशवदनेनेव प्रव- भवन्ति । तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वधा, तत्राप्यध्ययनार्थार्तितः-प्रेरितो घटमुखप्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनां-मुक्ताफ- धिकारोऽभिहितः । उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनार्थ तु निर्युलशरीराणां सम्बन्धी हारस्तस्य यत्संस्थानं तेन संस्थितो
निकार आहयस्तेन प्रपात:-पर्वतात्प्रपतज्ज्लसमूहस्तेन महाशब्देन
पढमे सुत्ता अस्सं जयत्ति १ बिइए दुह अणुहवंति २ । महाध्यमिना प्रपतति, एवं सीताऽपि । स०७४ सम० ।
तइए न हुदुक्खणं, प्रकरणयाए व समणुत्ति ३।१६८। प्रथामाद्या उत्तरेण नदी प्रवहति तामाह
उद्देमाम्मि चउत्थे, अहिगारो उ वमणं कमाया। तस्स मंतिगिछिद्दहस्स उत्तरिनेणं तोरणेणं सीमो- पावविरमओ विउणो, उ संजमो इत्थ मुक्खु त्ति ४।१६६। पा महाणई पब्बूढा समाणी सत्त जोत्रणसहस्साई च
प्रथमोद्देशक यमर्थधिकारो, यथा--भावनिद्रया सुप्ताः --
सम्यग्विवेकरहिताः, के ?-असंयता:-गृहस्थास्तेषां च भाचारि म एगवीसे जोमणसए एगं च एगूणवीसहभाग
वसुप्तानां दोषा अभिधीयते, जाग्रतां च गुणाः, तद्यथा-- जोमणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं मंता महया घडमुह- 'जरामच्चुवसावणीए नरे' इत्यादि १. द्वितीये तु त एवासंपविचिपणं जाव साइरेगचउजोमणसइएणं पवाएणं प- यता यथा भावनिद्रापना दुःखमनुभवन्ति तथोच्यते । तद्यबडइ । सीमोमा णं महाणई जमओ पवडइ एत्थ णं महं था-'कामेसु गिद्धा निचयं करंति' २, तृतीय तु 'न हु' नैएगा जिम्भिमा पमत्ता चत्तारि जोषणाई मायामेणं
व दुःखसहनादेव केवलाच्छ्रमणः प्रकरणतयैव-अक्रिययैव
संयमानुष्ठानमन्तरेणेत्यर्थः वक्ष्यति च--'सहिए दुक्खमापडासं जोमणाई विक्खम्भेणं जोअणं वाहल्लेणं मगरमुह
या य तेणेव य पुट्ठो नो झंझाए' ३, चतुर्थो देशके स्वयमधिविउद्यसंठाणसंठिमा सव्ववइरामई अच्छा । (सू०८४) कारो, वथा-कपायाणां वमनं कार्य.साफ्स्य च कर्मणो विर.
तिः, विदुषो-विदितवेद्यस्य संयमोऽत्रैव प्रतिपाद्यते क्षपश्रे'तस्सणं तिमिछिदह'इत्यादि,व्यवं,गिरिगन्तव्य तु हरिनद्या
णिप्रकमात् केवलं भयोपवाहिक्षयान्मोक्षश्चेति गाथाद्वयार्थः । स्यायसेयम् , अथास्या जिहिकास्वरूपमाह-'सीओप्रा'
नामनिष्पन्ने तु निक्षणे शीतोष्णीयमध्यनमतः शीतोष्णइत्यादि, उत्तानार्थ, नवरमायामेन चत्वारि योजनानि, हरि
योनिक्षेपं निर्दिदिक्षुराहबदीजिटिकाद्विगुणस्यात् , पश्चाशद योजनानि विष्कम्भेन
नाम ठवणा सीयं, दब्बे भावे य होइनायव्यं । हरिनदीप्रवहतो द्विगुणस्य सीतादाप्रवहस्य मातव्यत्यात्, एवं बाइल्यमाप पूर्वजिहिकातो द्विगुणम वसेयम् ।
एमेव य उएहस्स वि,चउविहो होइ निस्खेवो॥२०॥ जं०४ वक्षा
सुगमा।
सत्र नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यशीतोष्णे दर्शयितुमाह-- सीयोभास-शीतावभास-त्रि०ाषच्छीतलाभे, रा०। “सए
दव्वे सीयलदव्यं, दव्युएहं चेव उराहदव्यं तु । सीमोभास" ति-शीतस्पर्शापेक्षया कुल्याचाकाम्तत्वादिति
भाचे उ पुग्गलगुणो,जीक्स्स गुणो अणेगविहो ॥२०१॥ वृद्धाः । का०१ श्रु०१०।
शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यशीनं शीतगुणोपेतं गुणसीनोयप्पवायदह-शीतोदाप्रपातहूद-पुं० । शीतोदानद्याः प्र. गुणिनोरभेदात् शीतकारणं वा यदद्रव्यं द्रव्यप्राधान्याच्छीपानस्थाने, यत्र निषधाच्छीतोप्या निपतति स शीतोदाप्रपा-| तलद्रव्यमेवं द्रव्यशीतं--हिमतुषारकरकादि , एवं द्रव्योतहा। शीतोदाप्रपातहदसमानः सीतादेवीद्वीपभवनसमानः एएमपीति । भावतस्तु द्वेधा--पुद्रलाश्रितं, जीवाश्रितं च . शीतोदादेवीद्वीपभवनधेति । स्था०१ ठा।
गाथाशकलेनाच --तत्र पुद्गलाश्रित भावशीत पुरलस्य
शीतो गुणो गुणस्य प्राधान्यविवक्षयति, एवं भावोष्णमपि । सीमोयाकूड-शीतोदाकूट-२० । शीतोदानदीदेवनिवासभूते
जीवस्य तु शीतोष्णरूपोऽनेकविधो गुणः, तद्यथा--औदनिषधवर्षधरपर्वतस्य कूटे, स्थावर डा० ३ उ०।
यिकादयः षद् भावाः, तत्रौदयिकः कर्मोदयाविर्भूतनार
कादिभवकषायोत्पत्तिलक्षणः उष्णः, श्रीपेशमिकः कम्मोपसीमोसणिज-शीतोष्णीय-२० । शीतं चोष्णं च शीतोष्णे ते
शमाचाप्तसम्यक्त्वविरतिरूपः शीतः, क्षायिकोऽपि शीन एवं अधिकृत्य कृतमध्ययनं शीतोष्णीयम् । शीतोष्णस्पर्शान
सायिकसम्यकवचारित्रादिरूपत्वाद् , अथवाऽशेषकर्मदातवेदनाप्रतिपादके प्राचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य तृतीयेम- हाभ्यथानुपपनेरुष्णः,शेषा अपि विवक्षातो द्विरूपा अपीति । ध्ययने, स० । स्था। प्राचा० ।
अस्य च जीवभावगुणस्य शीतोष्णविवेक स्वत एष नि शीतोष्णयोरनुहलप्रतिफलपरिषहयोरतिसहनं कर्तव्यं, युक्तिकारः प्रचिकटयिषुराहतधुना प्रनिपाचने , अध्यनमसम्बन्धस्तु शस्त्रग- सीयं परीसहपमा-युषसमविरई सुहं च उगहं तु ।
पा
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सीमोसणिज अभिधानराजेन्द्रः।
सीखोसलिस परीसहतबुञ्जमकसा-य सोगाहियाई दक्खं ॥२०॥ पशमात् शीतीभूतो भवति, क्रोधानिज्वालानिर्वाणान परि'शीत' मिति भावशीतम् : तरह जीवपरिणामस्वरूप ए.
निव॒तो भवति । चः समुच्चये। रागद्वेषपावकोपशमादुपखते,स चाय परिणामो-मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोदव्याः
शान्तः, तथा क्रोधादिपरितापोपशमात् 'प्रहादितः' मापपरीषहाः, प्रमाद:-कार्यशैथिल्यं शीतलविहारता, उपशमो
मसुखः, यतो खपशान्तकाय एव एवम्भूतो भवति तेमोहनीयोपशमः, सच सम्यक्त्वदेशविरतिसर्पपिरतिलक्षण, .
नोपशान्तकमायः शीतो भवतीति । एकाथिकानि वैतानीति उपशमश्रेण्याश्रितो वा, तत्क्षयो वेति, विरति' रिति प्रा
गाथार्थः। सातिपातादिविरत्युगलक्षितः सप्तशविचः संयमा, सुख च
अधुना विरतिपदव्याल्यामाहसातावेदनीयविपाकाविर्भूतमिति । एतत् सो परीषहादि अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवइ सीओ। शीतमुष्ण च माशाशकलेनाह-परीपहा:-पूर्वव्याव- अस्संजमो य उपहो, एसो अंबोडा पजामो॥२०७॥ र्णितस्वरूपाः तपस्युद्यमो-यथाशक्ति द्वादशप्रकारतपोऽ- अभयकरणशीलः, केषाम् ? जीना, शीत-सुखं तद्गृहनुष्ठानं कषायाः-क्रोधादयः-शोकः-महाप्राप्तिविनाशोङ्गवः
तदावासः, कोऽसौ ?-संयमः-सप्तदशभेदः, अतोऽसौ शीतो प्राधिः वेदः-स्त्रीपुनपुंसकवेवोदयः परतिः-मोहनीयवि
भवति, समस्तदुःखहेतुद्वन्द्वोपरमाद्, पंतद्विपर्ययस्त्वसंयम पाकाचित्तदोस्थ दुःख च-मसातावदनीयोदयादीनि, एतानि
उष्णः , एवं शीतोष्णलक्षणः संयमासंयमयोः पर्यायोऽन्यो परीषहादीनि पीडाकारित्वादुष्णमिति गाथासमासार्थः।।
वा सुखदुःस्वरूपो विवक्षावशाबतीति गाथार्थः । व्यासाथै तु नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे-तत्र परीषहाः
साम्प्रतं सुखपदविवरणायाहशीतोष्णयो योरप्यभिहिताः, ततो मस्दबुद्धरनभ्यवसायः
निव्वाणसुहं सायं , सीईभृयं पर्य प्रणाबाई । संशयो विपर्ययो वा स्यात् तस्तदनोदार्थमाह
इहमवि जं किंचि सुई, तं सीयं दुक्खमवि उण्।।२०८।। इत्थी सकारपरी-सहो य दो भावसीयला एए ।
सुखं शीतमित्युक्तं , तथ समस्तद्वन्द्वोपरमादात्यन्तिकैकासेसा वीर्स उQहा, परीसहा हुंति नायब्बा ।। २०३॥ न्तिकानाबाधलक्षणं निरुपाधिकं परमार्थचिन्तायां मुक्तिसुखसीपरीवहः सत्कारपरीषहश्च द्वाषप्येतौ शीती, भावम- मेव सुख नापरम् , पतच्च समस्तकंम्मोपतापाभावाच्छीतनोऽनुकूलत्वात् , शेषास्तु पुनर्विशतिरुष्णा सातव्या भव- |
मिति दर्शयति-'निर्वाणसुख' मिति, निर्वाणमें-अशेषक. न्ति , मनसः प्रतिकूलत्वादिति गाथार्थः ।
र्मक्षयस्तदवाप्ती वा विशिशाकाशप्रदेशः तेन तत्र या सुख ... यदिवा परीपहाणां शीतोष्णत्वमम्यथा पाच- निर्वाणसुखम् । अस्य चैकाधिकानि-सातं शीतीभूत पदमजे तिव्वप्परिणामा, परीसहा ते भवंति उपहा उ।
मायामिति । इहापि संसारे यत्किञ्चित् सातार्दनीयविपा
कोद्भूतं सात-सुम्वं तदपि शीतं मनाहादाद , एतद्विपर्यजे मंदप्परिणामा, परीसहा ते भवे सीया ॥२०४॥
यस्तु दुःख, तच्चोष्णमिति गाथार्थः । तीवा-दुःसहः परिणामः-परिणतिर्येषां ते तथा, य
___ कषायादिपदव्याचिख्यासयाऽऽहएवम्भूताः परीषहास्ते उष्णाः, ये तु.. मम्दपरिणामास्ते
डझइ तिव्वकसाओ, सोगभिभूओ उइअवेभो य । सीता इति । इसमुक्तं भवति-ये शरीरदुःखोत्पादकत्वेनोवीर्णाः सम्यकसहनाभावाउचाधिविधायिनस्त तीव्रपरिणा
उएहयरो होइ तवो, कमायमाईचि जं डहाइ ॥२०॥ मत्यादुष्णाः, ये पुनरुंदीर्णाः शरीरमेव केवलं दुःखमु
दह्यते-परिपन्यते, कोऽसौ ?-तीबा-उत्कटा उदीर्णा त्पादयन्ति महासस्वस्य नमानसं ते भावतो मन्दपरिणामाः,
विपाकानुभवेन कवाया यस्य स तथा, न केवलं कषायाग्नियविधा-ये तीवपरिणामाः-प्रबलाविभूतस्वरूपास्ते उष्णाः,
ना यात , 'शोकाऽभिभूतश्च 'इवियोगादिजनितः शोकये तु मम्दपरिणामाः--ईपलक्ष्यमाणस्वरूपास्ते शीता इति ।
स्तेनाभिभूतः तिरोहितशुभव्याणराऽसागि वखने , तथा यत्परीषहानन्तरं प्रमादपदमुपन्यस्तं शीतत्वेन यच्च
उदी विपाकापनो वदो यस्य स तथा उदीर्णवेदो हि पुमा. तपस्युचम इत्युष्णत्वेन तदुभयं गाथयाऽऽष्ट--
न नियं कामयते, साउणीतरं, नपुंसकस्तमयमिति, तत्प्राधम्ममि जो पमायइ, भत्थे वा सीमलु ति तं विति ।
पत्यभावे कालोद्भूतारतिदाहेन दह्यते। चशब्दादिच्छाकामा
प्राप्तिजनितारतिपावन दह्यते, तदेवं कषायाः शाको बेउज्जुत्तं पुण अन्न, तत्तो उएहं तिणं चिंति ॥२०॥
दोश्यश्च दाहकत्वादुष्णः , सर्व था मोहनीयमप्रकारं था धर्मे--श्रमणधमें यः प्रमाद्यति--नोधमं विधसे 'अ- कम्मोगाम् , ततोऽपि तदाहकत्वादुणतरे तैपनि गाथा
पा'अयंत इत्यों--धनधान्यहिरण्यानिस्तत्र तदुपा- शकलेन दर्शयति-उष्णतरं सपो भवति, किमिति ?-यनः ये वा शीतल इत्येवं तं युवते-नाचक्षते, उद्युक्तं पुनर- कवायादिकमपि दहति , आदिशदाच्छोकादिपरिग्रह इति म्यं ततः--संयमोघमात् कारणादुष्णमित्येवं युवते, णमिति गाथार्थः। बाक्यालङ्कार इति गाथार्थः।।
येनाभिप्रायेण द्रव्यभावभेदभिन्ने परीषहप्रमादोधमाविरूप उपशमपदव्याचिस्यासयाऽऽह--
शीतोष्ण जगादाचार्यस्तमभिप्रायमाविस्करीतिसीईभूभो परिनि-वुश्री य संनो तहेव पन्हायो । सीउएहफामसुहदुह-परीसहकसायवेयसोयसहीं। होउवसंतकसाओ, तेणुवसन्तो भवे जीवो ॥२०६।। हुज समणो सया उ-ज्जुओ य तबसंजमोवसमे ॥२१॥ उपशमो हि कोधोद्युदयाभावे भवति , ततश्च पायाग्न्यु शीतं चोष्णं च शीतोष्णे तयोः स्पर्शः तं सहत इति सम्ब
२०६॥
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(८८४) सीनीसणिज अभिधानराजेन्द्रः।
सीभीसणिज ग्धः.शीतपोष्णस्पर्शजनितवेदनामनुभवनातभ्यानापगतो। स्य न स्यादेवेति भजनार्थः । अथ किमिति द्रव्यसुप्तस्य धभवतीति यावत् । शरीरमनसोरनुकलं सुखमिति, सद्विपरीतं म्ों न भवतीति ?, उच्यते-द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति, दुःख, तथा परीषहकसायवेवशोकान् शीतोष्णभूतान् सहत | साच दुरन्ता । किमिति !, यतः स्त्यानचित्रिकोदये सम्यइति । तंव शीतोगादिसहः सन् भवेत् श्रमणः-यतिः स- पवावाप्तियसिद्धिकस्यापि म भवति, तद्वन्धश्च मिथ्यादोघुक्कच, क?-तपःसंयमोपशमे इति गाथार्थः।
दृष्टिसास्वादनयोरनन्तानुबन्धिबन्धसहचरितः, क्षयस्त्वनिसाम्प्रतमुपसंहारख्याजेन साधुना शीतोष्णातिसहन कर्त
वृत्तिबादरगुणस्थानकालसंख्ययभागेषु कियत्स्वपि गतेष व्यमिति दर्शयति
सत्सु भवति, निद्राप्रलयोरपि उदये प्राम्यदेव । बन्धोप
रमस्त्वपूर्वकरणकालसंक्येयभागान्त भवति, क्षयः पुनः क्षीसीयाणि य उपहाणि य,भिक्षणं इंति वि महियवाई।
णकषायद्विचरमसमये , उदयस्पशमकोपशाम्तमोहयोरपि कामा न सेवियब्वा,सीमोसणिजस्स निज्जुत्ती ॥२११।। भवतीस्यतो तुरन्तो निद्राप्रमादः । शीतानि-परीषहप्रमावोपशमविरतिसुखरूपाणि याम्यभि- यथा च द्रव्यसुप्तो दुःखमयामोत्येवं भावसुप्तोऽपीति हितानि, उष्णानि च-परीषहतपउद्यमकषायशोकवेदार
दर्ययितुमाहस्यास्मकानि प्रागभिहितानि तानि भिvणां-मुमुक्षणां वि
जह सुत्त मत्त मुच्छिय, भसहीणो पायए बहुं दुक्खं । पोढव्यानि, न सुखदुःखयोः उत्सेकविषादी विधेयौ, तानि बैवं सम्यग्रहरिना सहन्ते यदि कामपरित्यागो भवतीति गा.
तिब्बं अप्पडियारं, पि वढ्डमाणो तहा लोगो ॥२१३ ।। थाशकलेनाइ-कामा' इत्यादि गाथा सुगमम् ।
सुप्तो निद्रया, मत्सो मदिरादिना, मूर्छितो गाढमर्मप्रहागतो नामनिरुपमा निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्मलिता- रादिना, भलाधीनः-परायत्तो वातादिदोषोयग्रहादिना विगुग्णोपेतमशेष दोषवातविकलं सूत्रमुचारयितव्यम् , त- यथा बहु दुःखमप्रतीकारमयामोति, यथा भावस्वापे-मि
ध्यावाविरतिप्रमादकषायादिकेऽपि वर्तमानः-प्रवतिष्ठसुत्ता प्रमुणी सया मुणिणो जागरंति । (सू० १०५) मानो लोकः-प्राणिगणो नरकभवादिकं दुःखमयामोतीति अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः , स चायम्-इह
गाथार्थः। दु.सी दुःखामामेवाबर्समनुपरिवर्शत इत्युकं, तदिहापि भा
पुनरपि व्यतिरेकडधान्तद्वारेणोपदेशानायाssपसुप्ता महानिनो दुःखिनो दुःबानाभवावर्तमनुपरिवर्तन्ते एसेव य उवएसो, पदित्तपयला य पंथमाईसुं । इति । उहंच-"नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकार- अणुहवइ जह सचेो,सुहाई समणोऽवि तह चेष।।२१४॥ साम् । यथाऽज्ञानमहारोगो, दुरस्तः सर्वदेहिनाम् ॥१॥"
एष एव-पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकावियेकजनितः, तथाहिइत्यादि, इह सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । तब निद्राप्र
सचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनुभवति, मादधम्तो द्रव्यसुप्ताः, भावसुतास्तु मिथ्यात्वाज्ञानमयमहा
पथिविषये च सापायनिरपायविवेकशः, भाविग्रहणादन्यनिद्राव्यामोहिताः, ततो ये अमुनयः--मिथ्यारष्टयः सततं
स्मिन्वा दस्युभयादो समुपस्थिते सति , यथा विवेकी भावसुप्ताः सद्विशानानुष्ठामरहितत्वात् , निद्रया तु भजनी
सुखेनैव तमपायं परिहरन् सुखभाग भवति, एवं श्रमणोऽयाः, मुनयस्तु सद्वोधोपेता मोक्षमार्गावचलन्तस्ते सतत
पि भावतः सदा विवेकित्वाजाप्रवस्थामनुभवन् समस्तकम-अनवरतं जाग्रति-हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते, भ
स्याणास्पदीभवति । अत्रच सुप्तासुप्ताधिकारगाथा:तो द्रव्यानद्रोपगता अपि कचिद् द्वितीयपौरुष्यादी सततं जा
"जागरहगरा णिच्चं, जागरमाणस्स बहुए बुद्धी। गरूका एवति ।
जो सुबहन लो धनो, जो जग्गा सो सया धन्नो ॥१॥ एममेव मावस्वापं जागरणं च विषयीकृस्य नियुक्तिकारो सुअर सुअंतस्स सुश्र, संकिय स्खलियं भवे पमत्सस्स । गाथा जगाद--
जागरमाणस्स सुभ, चिरपरिचिश्रमप्पमत्तस्स ॥२॥ सुत्ता भमुणिनो सण,मुणिमो सुत्ता वि जागरा हुंति। नालस्सेण सम सुक्ख, न विजा सह निया। धम्मं पहुच एवं, निदासुत्तेण भझ्यन्वं ॥२१२॥ मवेरांग पमाएणं, नारंभेण दयालुया ॥३॥ सुप्ता विधा-द्रव्यतो, भाषतश्च । तत्र निद्रया द्रव्यसुप्ता
जागरित्रा धम्मीणं, अहम्मीणं तु सुत्सया सेश्रा। - गाथान्ते वक्ष्यति. भावसुप्तास्त्वमुनयो-गृहस्था मिथ्या
घच्छाहिवभगिणीए, अकस्सुि जिणो जयंतीए॥४॥ स्वाहानवृता हिंसाचालवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः, मुनयस्त्व.
सुयाय अयगरभूओ,सुपि से मासई अमयभूनं। पगतमिथ्यात्वादिमितयाऽवातसम्यक्त्वादियोधा भावतो
होरि गोणभूमो, नटुम्मि सुए अमयभूए ॥५॥" जागरूका एय। यपि कचिदाचार्यानुसाता द्वितीयौसष्या
सदेवं दर्शनासारखीयकर्मविपाकोयन कचित्स्वपत्रपि यः पौ वीर्घसंयमाधारशरीरस्थित्यर्थ मिद्रायशोपगता भवन्ति
सविनो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाजाप्रतथापि सदा जागरा एव, एवं च धर्म प्रतीस्यालाः सु
स्वस्थ एवेति । सा जानवयस्थाचा द्रव्यानद्वासुलेन तु भाग्यमेतद्-धर्मः
ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्रवन्ति, अशानं च महादुःख दुःखं स्याद्वा न वा, यासी भावतो जागर्सि ततो निद्रासुप्त
ब जन्तूनामहितायेति दर्शयांतस्थापि धर्म स्यादेव, यादवा-भावतो जापतो निद्राप्रमा
__ लोयसि जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणिदाषष्टव्धान्तःकरणस्य न स्यादपि । यस्तु व्यभावसुतस्त- त्ता, इत्थ सत्थविरए, जास्समे सहा य रूव। य रसा य
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( ८८५ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सीभोस पिज्ज
गंधाय फासा य अभिसमभागया भवंति । (सू० १०६) सोफे पाये जानीहि परिच्छिन्द्या दुःखहेतुत्वादनं मोहनीयादिनाय नरका दिभवव्यसनोपविताय वा बन्धयधशारीरमानसपीडा जायन इत्येतजानीहि परिज्ञानाचेतत्फले, यदुनइत्यधावस्थापाज्ञानरूपात् दुःखहेतोरपणमिति किं चान्यत् -' समय ' मित्यादि, समयः - श्राचागेऽनुष्ठानं तं लोकस्पासुमज्ञानस्य हान्या अत्र खोपरतो भवेदित्यु तरसूत्रेण सम्बन्धः । लोको हि भोगाभिलाषितया प्राण्युपदिकातु कम्मपादाय नरकादियानाधूत्पद्यते, ततः कथञ्चिदुवस्यावाप्य वाशेषक्लेशवातन ध धर्मकारणमार्यक्षेत्रादौ मनुष्यजन्म पुनरपि महामोहमोहिनमतिलसदारभते येन येनाधोऽधो मजति संसारा मजनीति । श्रयं लोकाचारस्तं ज्ञात्या, अथवा-समभावःसमता ज्ञात्वा 'लोकस्य ' सप्तम्यर्थे षष्ठी, ततश्चायम - लोके - जन्तुसमूहे समतां - समशत्रुमित्रतां समात्रात्वा यदिया - सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जन्तवः सदा स्वात्पतिस्थानरिरंसवो मरणभीरवः सुखे - यो दुःख इत्येभूसमा किं कुर्यादित्याह-' एत्थ सत्थोवरए ' अत्र अस्मिन् पद्कायलोके श खाद्यभावमेदादुपरतो धर्मजागरणेन जागृहि यदिवायद्यत्वानिपाताचा म्रपद्वारे शब्दादिपञ्चकाकामगुणाभिष्वा वा तस्माद्य उपरतः स मुनिरिति । श्रह - जस्सिमे' इत्यादि, यस्य मुनेग्मेि प्रत्यात्मवेधाः समस्तत्राभिगमेन्द्रियप्रवृत्तिविषयभूताः शब्दरूपरसगन्धस्प
"
"
मनोतरभेदभिन्नाभिसमम्यागता इति अभिःश्रभिमुपेन सम्पानिधारयामिति शब्दा दिखरूपावगमात् पश्चादागताः - ज्ञाताः परिच्छिन्ना यस्य लोकं जानातीति सम्बन्धःभषांइष्टेषु न रागमुपयाति, नापीतरेषु द्वेषम् एतदेवाभिसमन्वागमनं तेषां नान्यदिति । यदिहैव शब्दादयो दुःखाय भवत्यास्तां तावत्परलोक इति उक्तं च-" रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नामो रसे च वारिवरः भुजग ननुचिनः ॥ ॥ पञ्चराः पचवि-नए पत्रगृहीत परमार्थाः । एकः पञ्चसु रक्तः प्रयाति भस्मान्ततामबुधः ॥ २ ॥ " अथवा शब्दे - पुष्पशालाद्भद्वा ननाश, रूपे अर्जुनकतरकरः, गन्धे गन्धमियकुमार, रसे- सौदासः, स्पर्धेसम्यकिः, सुकुमारिकापतिर्वा बलिताः परत्र च नारकादियाना व्यानयमिति ।
9
,
से आप नारा बेषवं धम्मयं वैभवं पद्माहिं परिवा साइलो, मुलीति बुबे, धम्मविऊ उज्जू आवसोए संगमभिजाइ | (सू० १०७ )
यो हि महामाद्दानद्रा ते लां दुःखमहिताय जानानो लो कसमय शस्योपरतः सन् शब्दादीन् कामान्दुःकहेनभिसमम्यागच्छति परिक्षा प्रत्ययापरिच प्रत्याचष्टे स मुमुरान्मवान् - आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्ती
सीनोसज्जि
त्यात्मवान् शानिपरित्यागेनात्मानं भवति अन्यथा नारके केन्द्रियादिसत्यात्मकार्यकर स्यात्मेति पाठान्तरं वा 'से आयबी नारावी' आत्मानं श्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारे देतीत्यात्मवित् तथाि पापरिक्षेत
,
रूपम् अनेनेति वेदः - श्राचागद्यागमः तं वेतीति वेदवित् तथा - दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म वे सीति धर्मवित् एवं ग्रह्म अशेषमलकलङ्कविकलं योगिशर्मतीत ग्रह्मवित् यदिया- अष्टादशधा ब्रह्मेति एवम्भूतासी प्रज्ञायते ज्ञेयं येस्तानि प्रज्ञानानि मत्यादीनि तैर्लोकं यथास्थितं तदा या क्षेत्र जानाति - परिभवति य एव शम्यापि इस एच यथास्थित लोकप्रति
गुणोपेतः स किं वाप्य इत्यत आह-मुखी स्वादि पी मानायान् वेदान् धर्म्मवान् ब्रह्मान समस्तैर्वा लोकं जानाति स मुनिर्वाच्यो, मनुते, मम्यते वा ज मतस्त्रिकालावस्थां मुनिरिति कृत्वा किं च- 'धम्म' इत्यादि, धम्मं - चेतनाचेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा वेतीति ध मंचित्, 'ऋजु रिति ऋजो:-- ज्ञानदर्शनचारिश्रास्यस्य मांक्षमार्गस्यानुष्ठानाकुटिलो यथास्थितरूपपरिष् दाद्वा ऋजुः सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्र इति यावत् । तदेषं धर्म्मविजुनिः किम्भूतो भवतीत्याह- 'आय' इत्यादि, भाषाव
"
- जन्मजरामर रोगांसोपनिपातात्मकः संसारति, उक्लं हि - "रागद्वेषवशाविद्धं मिथ्यादर्शनदुस्तरम् । जन्मावर्त्ते जगत्क्षितं प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् ।। १ ।। " भावश्रतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः, नंत श्रावर्त्त श्रोतसी तयो रागद्वेषाभ्यां सम्बन्धः-सङ्गस्तमभिजा नाति श्रभिमुख्येन परिच्छिनत्ति यथाऽयं सङ्गः श्रावर्त्तश्रो तसोः कारणं. जानानश्च परमार्थतः कोऽभिधीयते ?, योऽन थे शाखा परिहरति, ततश्चायमर्थः - संसारश्रोतः स रागद्वेषात्मकं ज्ञात्वा यः परिहरति स एव श्रावर्त्तस्रोतसोः सङ्गस्याभिज्ञाता ।
सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितः सन् शीतोष्यत्यागी सुखदुःखा
एवं शब्दादीनुभयदुःखस्वभावानवगम्य यः परित्यजेदसौ नभिलाषुकः शीतोष्णरूपी वा परीषद्दावतिसहमानः संयक गुणमान्वादित्याहमासंयमरस्यरतिसदः सन् गरुप कर्कशतां पीडाकारितां परीषाणामुपसर्गाणां वा कर्मक्षपणायोद्यतः साहाय्यं मम्यमानो 'नो 'न तान् पीडाकारित्वेनामीत्युकं भवति । यदिषा-संयमस्य तपसो वा परुपयां शरीरपत्यदात् कर्मले संसारोमा बाध म्मुख : 'न वेति न संयमतपसी पीडाकारित्वेन गृह्णातीति याव
किं - जागर' इत्यादि असंयमनिद्रापगमा जगतीत जागरः, अभिमानसमुत्थोऽमर्थावेशः परापकाराध्यवसायो. पैरं तस्मादुपरतो, बैरीपरतो जागरश्वासी वैरीपति
सुप्तजाग्रतां दोषगुणपरिच्छेदी के गुलमवाप्नुयादित्याह-सी उसिचाई से निर्मधे अरहरइसहे, फरुसगं नो वेएइ, जागरवेरोवरए, बीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरामच्चुवसोवणि नरे समयं मूढे धम्मं नाभिजागर । (सू० १०८ )
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(८६) सीओसणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
मीभोमणिज्ज विगृह्य कर्मधारयः, क एवम्भूतः ?-वीरः-कर्मापनयन- पेक्षमाणो मरणं मारस्तदभिशङ्की--मरणादुद्विजस्तत्करोशक्युपेतः,एवम्भूनश्च त्वं वीर ! प्रान्मानं परं वा दुःखाद दुः | ति यन मरणात् प्रमुच्यते । किं तत्करोतीत्याह--'अप्पमखकारणाद्वा कर्मणः प्रमोक्ष्यसीति । यश्च यथोक्काद्विपरीतः स' इत्यादि, कामैर्यः प्रमादस्तत्राप्रमसो भवेत् । कश्चाप्रमश्रावतश्रोतसोः समुपगतोऽजागरः स किमाप्नुयादित्या- तः स्याद् ?, यः कामारम्भकेभ्यः पापेभ्य उपरतो भवतीह-जरा च मृत्युश्च ताभ्यामात्मवशमुपनीतो नरः-प्राणी- ति दर्शयति-- उवरो' इत्यादि, उपरतो मनोबाकायैः, सततम्-अनवरतं मढो-महामोहमोहितमतिधर्म-स्वर्गा- कुतः?--पापोपादानकर्मभ्यः, कोऽसौ?--बीरः, किम्भूतो?पवर्गमार्ग नाभिजानीते-नावगच्छति तत् संसारे स्था- गुप्तात्मा, कश्च गुप्तो भवति?, यः खेदज्ञो, यश्च खेदशः स कं नमेव नास्ति यत्र जरामृत्यू न स्तः , देवानां जरा- गुणमवाप्नुयादिस्याह--'जे परजव' इत्यादि "शब्दादीनां उभाव इति चेत् , न , सत्राप्युपान्त्यकाले लश्यावलसुख- विषयाणां पर्यवाः--विशेषास्तेषु--तनिमित्तं जातं शस्त्रं प्रभुत्ववर्णहान्युपपता, अस्त्येव च तेषामपि जरासद्भावः, पर्यवजातशस्त्रं--शब्दादिविशेषापादानाय यत्प्राण्युपघातउक्तं च-"देवा भंते ! सब्बे समयमा?, ना इण? समटे, से कार्यनुष्ठान तत्पर्यवजातशत्रं तस्य पर्यवजातशत्रस्य यः केगाऽटेणं भंत! एवं वुश्चइ?, गोयमा! देवा बिहा-पुब्बोवव- वेदना--निपुणः सोऽशवस्य-निरपद्यानुष्ठानरूपस्य संकम गा य, पच्छोयवमगा य । तत्थ ण जे ते पुब्बावयागा ते णं यमस्य वंदशः , यश्चाशस्त्रस्य संयमस्य खेदशः स पर्यवअविसुद्धयम यरा,जे ण पच्छोववमगाणे विसुद्धवमयरा" जातशत्रस्य खेदज्ञः । इदमुक्नं भवति--यः शब्दादिपर्यायाएवं लेश्याद्यपीति, च्यवनकाल तु सर्वस्यैवैतद्भवति, तद्य
निष्टानिधात्मकान् तत्प्राप्तिपरिहामानुष्ठानं च शस्त्रभूनं वेत्ति था-"माल्यम्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वास- साऽनुपघात कल्वात्संयममयशस्त्रभूतमात्मपरोपकारिणं वेत्ति सां चोपरागः । दैन्यं तन्द्रा कामरागाङ्गभङ्गी, दृष्टिभ्रान्ति
शस्त्राशस्त्र च जानानस्तत्प्रातिप्ररिहारी विधत्ते, एतत्फलवेपथुश्चारतिश्च ॥ १॥"
त्वात् शानस्यति । यदिवा-शब्दादिपर्यायेभ्यस्तजनितरागद्व. यतश्चैवमतः सर्व जगमृत्युपशोपनीतमभिसमीक्ष्य 'किं पपर्यायेभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणीयादि कर्म तस्य यच्छकुर्यादित्याह
खं दाहकत्वात् तपस्तस्य यः खेदशः तपज्ञानानुष्ठानतः सोपासिय पाउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मेता य' मइम,
ऽशस्त्रस्य संयमस्यापि खेदज्ञः, पूर्वोकादेव तो, हेतुहेतुपास प्रारंभ दुक्खमिणं ति णच्चा, माई पमाई पुण एइ
मद्भावाच्च योऽशस्त्रस्य वेदशः स पर्यवजातशस्त्रस्यापि
खेदक्ष इति, तस्य च संयमतपःख दज्ञस्यानवनिराधादनागन्भं, उवेहमाणो सद्दरूवेसु उज्जू माराभिसंकी मर- दिभवापातकर्मक्षयः । कर्मक्षयाच्च यद्भवति तदप्यतिणा पमुचई, अप्पमत्तो कामेहिं , उवरो पावकम्मे हिं, दिशति--(प्राचा०) 'कम्ममुग्णा ' इत्यादि , उपाधीवीरे पायगुत्ते खेयन्ने, जे पज्जवजायसत्थस्स खेयाले
यते--ठ्यपदिश्यते यनेत्युपाधिः-विशेषणं स उपाधिः कसे असत्थस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयमे से पजवजा
र्मणा-झानावरणीयादिना जायते, तद्यथा-मतिश्रुताव
धिमनःपर्यायवान् मन्दमतिस्नीक्षणी वत्यादि, चक्षुर्दशनी यसत्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स ववहारो न विजह, कम्मु
अचक्षुर्दशनी निद्रालुरित्यादि, सुखी दुःखी बेति, मिथ्याणा उवाही जायइ, कम्मं च पडिलेहाए। (सू०१०६) दृष्टिः सम्यम्मिथ्याष्टिः स्त्री पुमानपुंसक. कपायीत्यादि, स हि भावजागरस्तैस्तैर्भावस्वापजनितैः शारीरमानसै- सोपक्रमायुष्को निरुपक्रमायुष्कोऽल्पायुरित्यादि , नारकः दुःखैरातुगन्-किंकत्तयतामूढान् दुःखसागरावगाढान प्रा- तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियः पर्याप्त कोऽपर्याप्तकः सुभगणान् -अभदोपचारात् प्राणिनो दृष्ट्वा-ज्ञात्वा अप्रमत्तः परिवः । गा दुर्भग इत्यादि. उच्चैर्गोत्रा नीचर्गोत्रा वति, कृपणत्याजद्-उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठान विध्यात्। अपि च-मंता'इ- गी निरूपभोगो निवार्यः, इत्येवं कर्मणा संसारी व्यपदित्यादि, हे मनिमन् !-सश्रुतिक! भावसुप्तातुरान् पश्य, म- श्यते । यदि नामेवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-'कम्मं च' त्वा चैतजाग्रत्सुप्तगुणदोषापादनं मा स्थापमतिं कुरु । कि इत्यादि, कर्म-शानावरणीयादि तत्प्रत्युपक्ष्य बन्धं वा च-प्रारंभज' मित्यादि, प्रारम्भः-सावधक्रियानुष्ठान प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदशात्मकं पर्यालाच्य, तत्सत्ताविपाकातस्माजातमारम्भ, किं तद् ?-दुःख तत्कारणं वा कर्म । पत्रांश्च प्राणिनो यथा भावनिद्रया शरत तथाऽवगम्या'इद' मिति-प्रत्यक्षगांचरापन्नमशेषारम्भप्रवृत्तप्राणिगणानु- कर्मतोपाय भावजागरण यतितव्यमिति । तदभावश्चानन भूयमानमित्येतत् शात्या-परिच्छिद्य निरारम्भा भून्या- प्रक्रमण भवति, तद्यथा--अष्टविधसत्कर्मापूर्वादिकरणक्षऽऽत्महित जागृहि । यस्तु विषयकपायाच्छादितवेता भा- पकश्रणिप्रक्रमेण मोहनीयक्षय विधायान्तर्मुहूर्तमजघन्याएं वशायी स किमाप्नुयादित्याह-'माई' इत्यादि, मध्यग्रह- काले सप्तविधसत्कर्मा, ततः शषघातित्रये क्षीणे चतुर्विणाश्चाद्यन्तयाग्रहणं, तन क्रोधादिकपायवान्-मद्यादिनमा- धभवोपनाहिसत्कर्मा जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कृष्टतो दशोनां दवानारकदुःखमनुभूय पुनस्तिर्यक्षु गर्भमुपैति । यस्त्वक- पूर्वकाटिं यावत् , पुनरू? पञ्चइस्वाक्षरोद्भिरणकालीयां शनपायी प्रमादरहितः स किम्भूतो भवतीत्याह-'उबद्द' - श्यवस्थामनुभूयाऽकर्मा भवति । साम्प्रमुत्तरप्रकृतीनां सदस. त्यादि, बहुवचनमिशादाद्यों गम्यते , शब्दरूपादिषु यी कर्मताविधानमुच्यत-तत्र ज्ञानावर णीयान्तराययाः प्रत्यः रागद्वेषों तावुपक्षमाणः-अकुर्वन् जुर्भवति-यतिर्भव- कमुपात्तपञ्चमंदयाश्चतुईशस्वपि जीव स्थानकषु गुणस्थानकेनि, याँतरव परमार्थत ऋजुः, अपरस्त्वन्यथाभूतः स्या- षुच मिथ्या गरभ्य कवलिगुणस्थानादारतोऽपरविकल्पा दिपदाथान्यथाग्रहणादकः । किच-स ऋजुः शब्दादीनु-भावात् पश्वविधसन्कम्र्मता दर्शनावरणस्य त्रीणि सत्कर्म
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मीनोसणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
सीमोसणिज्ज सास्थानानि. तद्यथा-नवविधं निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसम- | सप्ततिः, तत्राशीतेः षट्सप्तते; तीर्थकरकेलिशैलेश्यान्वयाद् एतत् सर्यजीव स्थानानुयायि, गुणस्थानेष्वप्यनिवृ- पहिचरमसमये तीर्थकरनाम्नः प्रक्षेपात् वेद्यमाननयक---- त्तिबादरकालसङ्गधेयभागान् यावत् १, ततः कसिचित्संख्ये- मयकृतिग्युदासेन क्षयमुपगते शेषनाम्नि अन्स्यसमये नवसयभागावसान स्त्यानत्रियक्षयात् षदसत्कर्मतास्थानं २,त- स्कर्मतास्थानं, ताश्च वेद्यमाना नक्माः, तद्यथा-मनुजतः क्षीणकषायद्विचरमसमये निद्राप्रचलाद्वयक्षाचतुःस- गति १ पञ्चन्द्रियजाति त्रस ३ चादर ४ पर्याप्तक ५ शुभस्कर्मतास्थानं, तस्यापि क्षयः क्षीणकषायकालान्त इति । गादेय ६-७ यशःकीर्ति तीर्थकररूपाःt, एता एवं घेदनीयस्य व सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा- अपि सातासाते शैलश्यन्त्यसमये सत्तां विभ्रति , शवास्तु एकसप्ततिः सप्तइत्येकम्',अन्यतरोदयारूढशैलेश्यवस्थेतरद्विचरमक्षणक्षये स
पटिया विचरमसमये क्षयमुपयान्ति , एता पव नव अतीति सातमसानं या कम्र्मेति द्वितीयम् २।माहनीयस्य पञ्चदश
र्थकरकेवलिमस्तीर्थकरनामरहिता अष्टौ भवन्ति, मतोsसत्कर्मतास्थानानि, सद्यथा-षोडश कषाया. नव नोकषाया
त्यसमयेऽसत्कर्मतास्थानमिति । सामान्येन गोत्रस्य दे दर्शनत्रय सति सम्यग्दृष्टरष्टाविंशतिः१, सम्यक्त्वोचलने स
सत्कर्मतास्थाने , तद्यथा--उच्चनीचगात्रसद्भाये सत्येक म्यमिध्यारः सप्तविंशतिः २...दर्शनद्वयोवलनेऽनादिमि
सत्कर्मतास्थानं, तेजोवायूच्चैर्गोत्रोदलने कालंकलीभावाध्यार्वा पडिशतिः ३,सम्यग्दृष्टरष्टाविंशतिसत्कर्मणोऽन
वस्थायां नीचैगोत्रसत्कर्मतेति द्वितीय, यदिवा-प्रयोगिन्तानुबन्ध्युद्वलने क्षपण या चतुर्विंशतिः ४, मिथ्यात्वतये त्र- द्विचरसमय नीचैगोत्रक्षये सत्युच्चैर्गोत्रसत्कर्मता , एवं योविंशतिः ५, सम्यग्मिध्यात्वक्षये द्वाविंशतिः ५, क्षायिक- द्विरूपगोत्राऽवस्थाने सत्येकं सत्कर्मतास्थानमन्यतरगोत्रसम्यग्दृष्टरेकविंशतिः ७; अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्षय सद्भावे सति द्वितीयमित्येवं. कर्म प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्तापप्रयोदश ८, अन्यतवेदक्षय बादश ६, द्वितीयवेदक्षये सत्ये
गमाय यतिना यतितव्यमिति । .. ..... कादश १०, हास्यादिशब्दक्षये पश्च ११, पुवेदाभावे चत्वारि १२, संज्वलनक्रोधक्षये त्रयः १३, मानक्षये द्वौ १४, मायाक्षये सत्येको लोभः १५, तत्क्षये च मोहनीयासत्तेति । प्रायु- कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहि पोद्वे सत्कर्मतास्थाने सामान्येन , तद्यथा-परभवायुष्कब
अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिनाय मेहाची विइत्ता लोगं बंता न्धोत्तरकालमायुष्कद्वयमेकम्?,द्वितीयं तु तद्वन्धाभाव इति। नानो द्वादश सत्कर्मतास्थानानि,तद्यथा-त्रिनवतिः १ द्वि
लोगसन से मेहावी परिकमिज्जामि त्ति बेमि । (सू०११०) नवतिः २ एकोननवतिः ३ अष्टाशीतिः४ पडशीतिः ५ अशी. कर्मणो मूल-कारण मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः , तिः ६ एकोनाशीतिः ७ अष्टसप्ततिः ८ पदसप्ततिः पश्वस- चः समुच्चये , कर्ममूलं च प्रत्युपेक्ष्य यत्क्षण-मिति प्ततिः १० नव ११ अष्टी १२ चेति, तत्र त्रिनवतिः--गतयश्च
'क्षणु' हिंसायां, क्षणनं-हिंसनं यत्किमपि प्राण्युपघात. तस्रः ४ पञ्च जातयः,५ पश्च शरीराणि ५ पञ्च सजाताः ५ब
कारि तत् कर्ममूलतया प्रत्युपेक्ष्य परित्यजत् । पाठान्तरं न्धनानि पञ्च ५ संस्थानानि षट् ६ अङ्गोपाङ्गत्रयं ३ संहनना
था · कम्ममाहूय जंछणं' य उपादानक्षणोऽस्य कर्मणः नि पद ६ वर्णपश्चकं ५ गन्धद्वयं २ रसाः पश्च५ अष्टी स्पाः
तत्क्षणं कहिय-कम्मोपादाय तत्क्षणमेव निवृत्ति कुर्याद् । ८अानुपूर्वीचतुष्टयम् ४श्रगुरुलघूपघातपराघातोच्छासातपो
इदमुक्तं भवति-अज्ञानप्रमादादिना यस्मिन्नेव क्षणे कर्महेयोताः पद ६ प्रशस्ततरविहायोगतिद्वयं २ प्रत्येकशरीरप्रस
तुकमनुष्ठानं कुर्यात्तस्मिन्नेव क्षणे लब्धचेताः तदुपादानशुभसुभगसुस्वरसूक्ष्मपर्याप्तकस्थिरादेययशांसि सेतराणीति
हेतोनिवृत्ति विदध्यादिति । पुनरप्युपदेशदानायाह-'पडिले. विंशतिः २० निर्माण तीर्थकरत्वमित्येवं सर्वसमुदाये त्रिन- हिअ' इत्यादि प्रत्युपेक्ष्य, पूर्वोक्तं कर्म तद्विपक्षमुपदेशं च सर्वे पतिर्भवति ६३, तीर्थकरनामाभावे द्विनवतिः ६२, त्रिनवते
समादाय-गृहीत्वा अन्तहेतुत्वादन्ती-रागद्वेषौ ताभ्यां सराहारकशरीरसवातबन्धनाङ्गोपाङ्गचतुपयाभावे सत्येकोन
हादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो या तत्कर्म तदुशदोन वा नवतिः ८६, ततोऽपि तीर्थकरनामाभावेऽष्टाशीतिः ८८, दे
रागादिकं सपरिक्षया परिक्षाय प्रत्याख्यानपरिंशया परिहरेदि. बगतितदानुपूर्वीद्वयोवलने पडशीतिः ८६, यदिवा-प्रशीतिः
ति रागादिमाहितं लोकं विषयकषापलोकं वा शांत्वा वाम्बा सत्कर्मणो नरकतिप्रायोग्यं बध्नतः तदत्यानुपूर्वीद्वयवैकि- च लोकसंशां-विनयपिपासासंशितां धनायाग्रहरूपां वा यचतुष्कबन्धकस्य पडशीतिः, देवगतिप्रायोग्यबन्धकस्य ब
। स--मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सन् पराक्रमेत--संयति ततो नरकगत्यानुपूर्वीद्वयक्रियचतुष्टयोद्वलनशीतिः००,
मानुष्ठान उद्युक्तो भवेत् विषयपिपासामरिमार्ग वाऽएप्रपुनर्मनुष्यगत्यानुपूर्वी द्वयोवलनेऽष्ट सप्ततिः ७८, एताम्यक्षा
कारं वा कम्मबिष्टभ्याद् । इतिः परिसमाप्ती ब्रवीमीति पूर्वकाणां सत्कर्मतास्थानानि । क्षपकश्रेण्यन्तर्गतानां तु प्रोच्य
वत् । इति शीतोष्णीयाध्ययनप्रथमोद्देशकटीका समाप्ता। न्ते, तद्यथा-त्रिनवतेनरकतिर्यग्गतितदानुपूर्वीद्वयकद्वित्रिच
उक्रः प्रथमोद्देशकः। साम्प्रतं द्वितीय प्रारभ्यते, अस्य चातुरिन्द्रियजात्यातपायोतस्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपैर्नर कति- यमभिसम्बन्धः, पूर्वोदेशके भावसुप्ताः प्रदर्शिताः, इह तु यग्गतिप्रायोग्यैस्त्रयोदशभिः १३ कर्मभिः क्षपितरशीति- तेषां स्थापविपाकफलमसानमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धनावति , विनवतेस्त्वेभित्रयोदशभिः पितरकोनाशी
थातस्यास्य सूत्रानुगमे सूत्रमुथारयितव्यम् , तथेदम्-- तिः , याऽसावाहारकचतुपयापगमेनैकोननवतिः साताततस्त्रयोदशनाम्नि क्षपिते षट्सप्ततिर्भवति, तीर्थकरनामा- जाई च बुद्धिच इहऽज! पासे,भृएहि जाणे पडिलेह सायं। भावापादिताऽधाशीतिः, अष्टाशीतेस्त्रयोदशनामाभावे पञ्च- तम्माऽतिविज्जे परमं तिणचा,संमत्तदंसीन करेइ पावं ।
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( पद) सीनोसणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
सीअोसणिज्ज जातिः-प्रसूतिः बालकुमारयौवनवृद्धावस्थावसाना वृ- एष-इत्यनन्तरोक्को मूलाग्ररेचको निश्कर्मदर्शी मरणाद्विः इह-मनुष्यलोके , संसारे वा, अद्यैव कालक्षेपमन्तरे- द-आयुःक्षयलक्षणात मुख्यते श्रायुषा बन्धनाऽभावाद् . यरा-जातिं च वृमि च पश्य--अवलोकय । इदमुक्नं भवति
दिवा-पाजवंजवीभावादाचीचीमरणाद्वा सर्व एव संसारो जायमानस्य यद् दुःख वृद्धावस्थायां च यच्छारीरमानसमु
मरण तस्मात्प्रमुच्यते । यश्चैवं स किम्भूतो भवतीत्याहस्पद्यते तद्विवकच खुपा पश्य । उक्तं च
से हु' इत्यादि, सः अनन्तरीको मुनि संसाराद्भयं स“जायमाणस्स जे दुक्ख, मग्माणस्स जंतुनो।
सप्रकारं वा येन स तथा, हुरवधारणे दृएभय एव । किं चतेण दुक्खेण संतत्तो, न मर जाइमप्पणी ॥१॥ 'लायसि' इत्यादि, लोके द्रव्याधारे चतुद्देशभूनग्रामान्मके विरसरसियं रसता, तो सा जोगीमुहाउ निष्फिडइ।
वा परमो-मोक्षस्तत्कारणं वा संयमः तं द्रष्टु शीलमस्येमाऊर अप्पणोऽवि अ, वेश्राम उलं जणमारणो ॥२॥" ति परमदर्शी, नथा' विविक्तं ' स्त्रीपशुपण्डकसमन्वितशतथा
य्यादिरहितं द्रव्यतः , भावतस्तु रागद्ववर्गहतमसक्लिएं " हीणभिमसरो दीणो, विवरीयो विचित्तो।
जीवितुं शीलमस्यति विविक्तजीवी, यश्चैवम्भूतः स इन्द्रिदुबलो दुक्निो वसई, संपत्तो चरिमं दस ॥ ३॥" य-नोइन्द्रियोपशमादुपशान्तो, यश्चोगशान्तः स पञ्चभिः सइत्यादि । अथवा-आर्य ! इत्यामन्त्रणं भगवान् गौत- मितिभिः सम्यग्वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः, यश्चैव ममामन्त्रयति, इह आर्य ! जाति वृद्धि च तत्कारणं कर्म स ज्ञानादिभिः सहितः-समन्वितो, यश्च ज्ञानादिसहितः कार्य च दुःख पश्य , दृष्टाऽवबुदयस्व , यथा च जात्यादि। स सदा यतः-अप्रमादी । किमवधिश्चायमन्तरोना गुणोकं न स्यात् तथा विधत्स्व । किं चापरम्-'भूपहि' मित्या- पन्यास इत्याह-'काल' इत्यादि. कालो-मृत्युकालस्तमादि , भूतानि-चतुर्दशभूतग्रामास्तैः सममात्मनः सात-सुख काशितुं शीलमस्येति कालाकाली स एवम्भूतः परिः-सप्रत्युपेक्ष्य-पर्यालाच्य जानीहि , तथाहि-यथा त्वं सुखप्रि- मन्ताद जपरिव्रजेत् , यावत्पर्यायागतं पण्डितमरण नाय एवमन्ये ऽपीति , यथा च त्वं दुःखद्विडेवमन्ये ऽपि जन्त- बदाकाजमारणो विविक्रजीवित्वादिगुणोपेतः संयमानुष्ठा-' यः , एवं मत्वाऽन्येषामसानोत्पादनं न विदध्याः, एवं च ज.. नमार्गे परिवष्कदिति । स्यादेतत्-किमर्थम् एवं क्रियते ? न्मादिदुःखं न प्राप्स्यसीति । उक्तं च-" यथेएविषयाः सा- इत्याह-मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रत-मनिया इतरत्तव । अन्यत्रापि विदित्वैवं , न कुर्यादप्रियं । देशबन्धात्मकं बन्धोदयसत्कर्मताव्यवस्थामयं तथा यजन ॥१॥" यद्यवं ततः किमित्याह-- तम्हा'-इत्यादि, द्वस्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थागतं कर्म तच न इसीयसा तस्मात्-जातिवृद्धिसुखदुःखदर्शनादतीव विद्या-तस्वपरि
कालेन क्षयमुपयातीत्यतः कालाकाङ्क्षीत्युक्तम् , तत्र बन्ध्रछेत्री यस्यासावतिविद्यः स-परमं मोक्ष ज्ञानादिकं वा त- स्थानापक्षया नावन्मूलोत्तरप्रकृतीनां बहुत्वं प्रदीत, तमार्ग शात्वा सम्यक्त्वदर्शी सन् पापं न करोति , सायद्य- द्यथा-सर्वमूलप्रकृतीबंधनतोऽन्तर्मुहूर्ने यावदष्टविधम् . प्रा. मनुष्ठानं न विद्धातीत्युक्तं भवति ।
युष्कवज सप्तविधं , तज्जघन्येनान्तमुहर्तमुत्कृष्टतस्तद्रहपापस्य न मूलं नहपाशस्तदपनोदार्थमाह
तानि पराखिशासागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिउम्मुंच पास इह मच्चिएहि,
कानि , सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयबन्धोपरमे आयुष्काप्रारंभजीवी उभयाणुपस्मी।
न्धाभावात् पड्धिम् , एतच्च जघन्यतः सामयिकमुत्क
एतस्त्वन्तर्मुहर्तमिति । तथोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवकामेसु गिद्धा निचयं करंति,
लिनां सप्तावधबन्धोपरम सातमेकं बनतामेकविधं बसंसिच्चमाणा पुणरिति गम्भं ॥ २॥
म्धस्थानं, तच जघन्येन सामयिकमुत्कृष्ठतो देशानपूर्वरह-मनुथ्यलोके चतुर्विधकषायविषयविमोक्षक्षमाधारे म
कोटिकालीयम् । इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धस्थानान्यभिधीयन्ते. यः सा द्रव्यभावभेदभिनं पाशम् उत्-प्राबल्येन मुञ्च-अ- तत्रज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चभेदयोरप्येकमेव ध्रुवबन्धिपाकुरु , स हि कामभोगलालसस्तदादानहेताहिसादीनि पा
त्याद्वन्धस्थान, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि बन्धस्थानानिपाम्यारभते अतोऽगदिश्यते--' आरंभ' इत्यादि , प्रारंभेण । निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्यसमन्वयाद् ध्वन्धित्वानवविधं जीवितुं शीलमस्येत्यारम्भजीची-महारस्परिग्रहपरिकल्पि- १, ततः स्त्यानिित्रकस्यानन्तानुबन्धिभिः सह बन्धोपरम पजीवनोपायः उभयं-शारीरमानसपैहिकामुष्मिकं वा द्रष्टुं परिधम् २, अपूर्वकरणसङ्गल्येयभागे निद्राप्रचलयोर्यन्धोपशीलमस्येति स तथा , किं च-'कामेसु' इत्यादि कामाः- रमे चतुर्विध बन्धस्थानम् ३। वेदनीयस्यैकमेव बन्धस्थानइच्छामदनरूपास्तषु गृद्धाः-अध्युपपन्ना निचयं-कर्मोपच- सातमसातं वा बध्नतः, उभयोरपि योगपद्येन विरोधियं कुर्वन्ति । यदि नामैवं ततः किमित्याह-'संसिच' - तया बन्धाभावात्। मोहनीयवन्धस्थानानि दश, तद्यथात्यादि , तेन कामोपादानजनितेन कर्मणा संसिच्यमानाः- द्वाविंशतिः-मिथ्यात्वं १ षोडश कषाया १७ अभ्यतरवेआपूर्यमाणा गर्भादर्भान्तरमुपयान्ति , संसारचकवाले रघ. दो १८ हास्यरतियुग्मारतिशोकयुग्मयोरभ्यतर २० दयं २१ दृघटीयन्त्रन्यायन पर्यटन्ते, प्रासत इत्युक्तं भवति । (प्राचा०) जुगुप्सा २२ चेति १, मिथ्यात्वबन्धोपरमे सास्वादनस्य सेएस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि
वैकविंशतिः२,सैव सम्यग्मिध्याह रविरनसम्यग्दृऐर्वा श्रपरमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सयाजए
नम्तानुबन्ध्यभावे सप्तदशविधं बधस्थानं ३, तदेव देश
विरतस्याप्रत्याख्यानबन्धाभावे प्रयोदशविध ४, खदेव प्रकालकंखी परिवए, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं ।
मत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां यतीनां प्रत्याख्यानावरणबन्धा(सू०१११)
। भावानवविधम् ५, एतदेव हास्यादियुग्मस्य भयजुगुप्सयो
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(८ ) सीोसएिज अभिधानराजेन्द्रः।
सीओसणिज्ज धापूर्वकरणचरमसमय बन्धोपरमात्पञ्चविधं ६ , ततो- वरए' इत्यादि, अत्र-अस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उप-श्राऽनिवृत्तिकरण सङ्ख्ययभागावसाने पुंवेदवन्धोपरमाच्च- मीप्यन रतो-व्यवस्थितो मेधावी-तत्त्वदर्शी सर्वम्-अशेष सर्विवं ७, तताऽपि तस्मिन्नव सङ्ख्ययभागे क्षय- पापं कर्म संसारार्णवपरिभ्रमणहेतुं झोषयति--शोषयति मुपगच्छति सति क्रोधमानमायालोभसज्वलनानां ऋण
क्षयं नयतीति यावत् । उक्नोऽप्रमादः। तत्प्रत्यनीकस्तु प्रमादः। बन्धोपरमात त्रिविधं ८ द्विविध: मेकविध १० चेति, त- तेन च कपायादिप्रमादेन प्रमत्तः किंगुणो भवतीत्याह-- स्पाप्यनिवृत्तिकरणचरमसमय बन्धोपरमान्मोहनीयस्थाब
अणेगचित्चे खलु अयं पुरिसे , से केयणं अरिहए पुरिन्धकः । श्रायुषः सामान्येनेकविध बन्धस्थानं चतुर्णामन्यतरत् , हुपादागपचेन बन्धाभावो विरोधादिति । ना
। एणए , से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अएणपरिग्गहाए नाडौ बधस्थानानि,तद्यथा-त्रयोविंशनिस्तिर्यग्गतिप्रा- जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए । योग्य बनतस्तियग्गतिरेकेन्द्रियजातिरौदारिकतैजसकार्म- (सू० ११३) णानि हुराडसंस्थानं वर्षगन्धरसस्पर्शास्तिर्यम्गनिमायोग्या- अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावलगनादीनि यस्यासाव. नुपूर्वी अयुरुलघूपघातं स्थावरं बादरसूक्ष्मयारम्यतरदप- नेचित्तः, खलुग्यधारण, संसारसुखाभिलाध्यनकचित्त एव र्याप्तकं प्रत्यक साधारण योग्न्यतरत् अस्थिरं अशुभम् दुर्भगम् भवति , 'प्रय पुरुष' इति प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसार्यपदिश्यअनादेयम भयशकीतिनिर्माणमिति,इयमकेन्द्रियापर्याप्तक- ते, अत्र च प्रागुपभ्यस्तदधिघटिकया कपिलदरिद्रेण च ह. प्रायोग्य बनतो मिथ्यादृष्टर्भवति १, इयमय पराघाती- शान्ता वाच्य इति । यश्चामकचित्तो भवति स किं कुर्यादिच्छासहिता पञ्चविंशतिः, नवरमपर्याप्तकस्थान पर्याप्त- त्याह-'से केयण' मित्यादि, द्रव्यक्तन चालिनी परिपूर्णकमेव वाच्यम् २.इयमेव चातपोद्योतान्यतरसमन्विता प- कः समुद्रा वेति, भावकेतनं लाभच्छा तदसाबनेकचित्तः कहिंशतिः, नवरं बादग्प्रत्येके एव वाच्ये ३, तथा देवगति- नाप्यभूतपूर्व पूर्पयतुमहति , अर्थितया शक्याशक्यविचारा. प्रायाग्य बनताऽपविशातः, तथाहि-देवगातः १ पश्च- क्षमाऽशक्यानुष्ठानाऽपि प्रवर्तत इत्युकं भवति । स च लोभेन्द्रियजातिः२ वैक्रिय ३ तेजस ४ कार्मणानि ५ शरीराणि : च्छापूरणव्याकुलितमतिः किं कुर्यादित्याह-से अराणवहा समचतुरस्रम्६अङ्गो चाङ्गम्व र्णादिचतुष्टयम्११प्रानुपूर्वी १२ ए' इत्यादि, स लोभपूरणप्रवृत्तोऽन्येषां प्राणिनां बधाय भव.
गुरुलघु १३ पधात २४ पराधाता १५ च्छासाः १६ प्रश- ति, तथाऽन्येषां शारीरमानसपरितापनाय, नथाऽन्येषां द्वि. स्तविहायागतिः१७त्रसम्वादरम्१६पर्याप्तकम् २०प्रत्येकम् । पदचतुष्पदादीनां परिग्रहाय, जनपद भया जानपदाः कालप्र. २. स्थिरास्थिरयोरभ्यतरत् २२ शुभाशुभयारम्यतरत् २३
टादयो राजादयो वा तद्वधाय, मगधादिजनपदा या नद्वधासुभगम् २४ सुस्वरम् २५ श्रादेयम् २६ यशःकार्ययशाकीयों
य, तथा जनपदानां लोकानां परिवादाय-दम्युग्य पिशुना म्यतरतु २७ निर्माणमिति २८, परेव तीर्थकरनामसाहता वेत्येवं मांदघनाय, तथा जनपदानां-मगधादीनां परिग्र. एकोत्रिशत् , साम्प्रतं त्रिशत्-देवगतिः १ पश्चेन्द्रियजा
हाय , प्रभवतीति सर्वत्राध्याहारः । तिः२ चैक्रिया ३ हारका ४ङ्गोपाङ्ग ५-६ चतुष्टयम् तेजस ७ : किं य एते लोभप्रवृना वधादिकाः क्रियाः कुचन्ति ते तकाम्मण ८ संस्थानमाद्यम् ह वर्णादिचतुष्कम्१३मानुपूर्वी १४ थाभता एवासते उतान्यथाऽपीति दर्शयतिअगुरुलघू ५ पघातम् १६पराघातम् १७ उमछासम् १८प्रश
__ आसेवित्ता एतं (वं) अटुं इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्मा तं स्तबिहायागतिः१६ त्रसम्२० बादरम्-१पर्याप्तकम्२२प्रत्येकम् ।
विइयं नो संवे , निस्सारं पासिय नाणी , उववाय चवणं २३ स्थिरम्२४शुभम् २५सुभगम् २६ सुस्वरम२७अादयम् यशः कीर्ति २६ निर्माण ३० मिति च बनत एकं बन्ध-।
। णच्चा , अणएणं चर माहणे , मे न छणे न छणावए म्यानम ६. एपेव त्रिशतीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् ७, छणंतं नाणुजाणइ, निव्विद नंदि, अरए पयासु, अणोपते च बन्धस्थानानामे कन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियनरकग- मदंमी, निमाणे पावेहि कम्मे हि । (सू०११४ ) न्यादिभेदन बहुविधता कर्म ग्रन्थादबसेया. अपूर्वकरणा. । ___ एवम्-अनन्तगकमर्थमन्यवधपरिग्रहपरितापनादिकमासदिगुणस्थानकत्रये दवगतिप्रायोग्यबन्धोपरमाद्यशःकीर्तिमेव
व्य इत्येवेति लोभेच्छाप्रतिपूरणायैव एक भरतगजादयः स. बनतः एकविधं बन्धस्थानमिति,तत ऊर्ध्वं नाम्रो बन्धा
मुत्थिताः-सम्यग्योगत्रिकणोत्थिताः संयमानुष्ठाननाद्यतास्तेभाव इति । गोत्रस्य सामान्येनैक बन्धस्थान-उच्चनीच
नैव भवेन सिद्धिमासादयन्ति । संयमसमुत्थानन च समुत्थायोग्भ्यनरत् । योगपद्यनोभयोबन्धाभावो विराधादात । कामभोगान हिंसादीनि चाम्रवद्वागिण हित्वा कि विधेयनदेव बन्धद्वारेण लेशतो बहुत्वमावेदितं कर्मग्गां, तश्च बहु
मित्याह--'तम्हा' यम्माद्वान्तभोगतया कृतप्रतिशस्तस्माद्भो. कम्म प्रकृतं बद्धं प्रकटं वा, तरकार्यप्रदर्शनात् , सलुशब्दा
गलिन्सुतया तं द्वितीय मृपावादमसंयम वा नासवेत । विष. बापालङ्कारे ऽवधारण वा, बढेव तत्कर्म ।
यार्थमसंयमः सत्यते न च विषया निःमारा इति दर्शयतियदि मामेवं ततस्तदपनयनार्थ किं कर्तव्यमित्याह
'निस्सारं' इत्यादि . सारा हि विषयगणस्य तत्याप्ती तृप्तिमञ्चम्मि धिई कुव्वहा; एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं ।
पइ कुव्वहा; एत्थावरए महावी सव्वं पाव स्तदभावानिःसारस्तं हटा शानी-तत्त्ववदी न विषयाभिला कम्मं जासइ । (सू०११२)
विदध्यात् न केवलं मनुष्याणां, देवानामपि विषयसुखास्पमद्या हितः सत्यः-संयमस्तत्र धृति कुरुध्वं, सत्यो वा दानन्यं जीवितमिति च दर्शयति--'उवयायं चवणं गचा' मौनीन्द्रागमो यथावस्थितवस्तुस्वरूपाविर्भावनात् नत्र भग- उपपानं-जन्म च्यवनं--पातम्तनच ज्ञावान विषयमङ्गोन्मयदाज्ञायां धृति कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति,कि च-पत्थो। खो भवेदिनि , यतो निःमाग विषयग्रामः समस्तः संसारो
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(८०) सीनोसणिज अभिधानराजेन्द्रः।
सीओसगिन बा सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि, ततः किंकर्तव्यमित्या- संयम चरेदिव्याह-'उम्मज वधु'मित्यादि, इह मिया- मिथानिमोजमायो सयमो नाग्योऽन- स्वादिशवलाच्छादितसंसारहवे जीयक छपः श्रुतिश्रद्धान्यः-सानादिकस्तं चर 'माहण' इति मुनिः । किं च-'से न संयमयीयेरूपमुन्मजनम भासाच-स्तब्ध्वा.अन्यत्र सम्पूर्णमाछणे' इत्यादि, स मुनिरनन्यसेवी प्राणिनो न क्षणुयात्-न क्षमार्गासम्भवात् मानुष्यमित्युक्तम् . स्वाप्रत्ययस्योत्तरकिहन्यात् नाप्यपरं घातयेत् घातयन्तं न समनुजानीयात् ।चतु- यासव्यपक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'नो पारिगण' मित्यादि, प्राथंवतसिद्धये त्विदमुपदिश्यते-'निर्दिबद' इत्यादि , नि
णा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां प्राणान्-पश्चेन्द्रियभित्रिविन्दस्व-जुगुप्सस्व विषयजनितां · नंदी' प्रमोदं , धबलोच्छासनिःश्वासायुष्कलक्षणान् नो समारभेथाः-न किम्भूतः सन् प्रजासु-स्त्रीषु अरनो-गगरहितो , व्यपगेपयेः, तदुपघातकार्यनुष्ठानं मा कृथा इत्युक्तं भवति । भाषयेच यथैते विषयाः किम्पाकफलोपमा-स्त्र पुषीफलनि- इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । शीतोष्णीयाध्ययने बन्धनकटवः, अतस्तदर्थे परिग्रहाग्रहयोगपराङ्मुखो भ- द्वितीयोद्देशकटीका समाप्तति । उक्नो द्वितीयादेशकः । बेदिति । उत्तमधर्मपालनार्थमाह-'अखोम' इत्यादि, अ- | साम्प्रतं तृतीय श्रारभ्यते , अस्य चायमभिसम्बन्धः, यमम्-हीन मिथ्यादर्शनाविरत्यादि तद्विपर्यस्तमनवमं त- इहानन्तरोद्देशके दुःख तत्सहनं च प्रतिपादितं , न च त द्रष्टुं शीलमस्येत्यनवमदर्शी सम्यग्दर्शनशानचारित्रवान् ,ए- सहनेनैव संयमामुष्ठानहितेन पापकर्माकरणतया या बम्भूतः सन् प्रजानुगां नन्दि निर्विन्दस्वति संटङ्कः । य- श्रमणो भवतीत्येतत् प्रागुंदेशार्थाधिकारनिर्दियमुच्यते , चानवमसंदर्शी स किम्भतो भवतीत्याह-निसन्न इत्या- ततोऽनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सदि, पापोपादानेभ्यः कर्मभ्यो निषण्णो-निर्विरणः पापक- प्रमुच्चारयितव्यम् , तदम्-. मभ्यः पापकर्मसु वा कर्त्तव्येषु निवृत्त इति यावत् ।
संधि लोयस्स जाणिता पायो बहिया पास, तम्हा किंच
न हंता न विधायए, जमिणं अन्नमववितिगिच्छाए पकोझइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं । ...
डिलेहाए न करेइ पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सि'तम्हा य वीरे विरए वहाओ,
या ? | (सू० ११५)
(अत्र 'सन्धि लोयस्स जाणित्ता ' अस्य पदस्य व्याछिदिज सोयं लहुभूयगामी ॥ १॥
ख्या 'संधि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता । ) 'पागंथं परिमाय इहज ! धीरे,
यत्रो' इत्यादि, यथा ह्यात्मनः सुखमिष्टमितरत्वन्यथा सोयं परिणाय चरिज दंते ।
तथा बहिरपि-श्रात्मनो व्यतिरिकानामपि जन्तूनां सुखप्रिउम्मञ्ज लई इह माणवेहि,
यत्वमसुखामियत्वं च पश्य-अवधारय । तदयमात्मस
मतां सर्वप्राणिनामबधार्य किं कर्त्तव्यमित्याह-'तम्हा ' नो पाणिणं पाणे समारभिजा ॥२॥
इत्यादि, यस्मात्सर्वेऽपि जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवत्ति बेमि।
स्तस्मात्तेषां न हन्ता- ब्यापादकः स्थानाप्यपरैस्तान् क्रोध आदियेषां ते क्रोधादयः मीयते-परिच्छिद्यतेऽननेति जन्तून विविधैः-नानाप्रकारैरुपायैर्धातयेदिति । यद्यपि कांमान-स्थलक्षणम् अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषः,क्रोधादीनां मानं श्चित् स्थूलान् सत्वान् स्वयं पापण्डिनो न प्रन्ति तथाऽक्रोधादिमानं, क्रोधादिर्वा यो मानो-गर्वः क्रोधकारणस्तं ह- प्यौदेशिकसन्निध्यादिपरिभोगानुमतेरपर्धातयन्ति । न चैम्यात्, कोऽसौ?-वीरः, द्वेषापनोदमुक्त्वा रागापनोदार्थ- कान्तेन पापकर्माकरणमात्रतया श्रमणो भवतीति दर्शभाह- लोहस्स' इत्यादि, लोभस्थानन्तानुवन्ध्यादेश्चतुर्वि- यति-'जमिण' मित्यादि, यदिदं-यदतत् पापकर्माकरधस्यापि स्थिति विपाकं च पश्य, स्थितिमहती सूक्ष्मसम्प- खताकारणं, किं तद् ?, दर्शयति-अन्योऽन्यस्य परस्पर रायानुयायित्वाद् विपाकोऽप्यप्रतिष्ठानादिनरकापत्तेर्महान् , या विचिकित्सा-प्राशङ्का परस्परतो भयं लज्जा वा तया यत भागमः-"मच्छा मणुप्रा य सत्ताम पुडविं" तेच म
तां वा प्रत्युपेश्य परस्पराशयापेक्षया वा पाप-पापोपाहालोभाभिभूताः सप्तमपृथिवीभाजो भवन्तीति भावार्थः। दानं कर्मानुष्ठानं न करोति-न विधत्ते, किं: प्रश्ने क्षरे यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्मालो- वा । तत्र-तस्मिन् पापकर्माकरणे किं मुनिः. कारण भाभिभूताः प्राणिवधादिप्रवृत्तितया महानरकभाजो भवन्ति, स्यात् ?, किं मुनिरिति कृत्वा पापकर्म न करोति?, काका तस्माद्वीरी लोभहतोः-वधाद्विरतः स्यात्। किं च-'छिदि- पृच्छति,यदिवा-यदि नामासौ यथोक्लनिमित्तात्पापानुष्ठानज'इत्यादि, शोकं भावोतो वा छिन्द्यात्-अपनयेत् , विधायी न समझे किमेतायतैव मुनिरसी ?, नैव मुनिरिकिम्भूतो?-लघुभूतो-मोक्षः संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति त्यर्थः । अद्रोहाध्यवसायो हि मुनिभावकारण, स च तत्र खपुभूतगामी, लघुभूतं वा कामयितुं शीलमस्येति लघुभून- न विद्यते, अपरोपाध्यादेशात् , बिनयो वा पृच्छति-यविवं कामी । पुनरप्युपदशदानायाह- गन्थ' मित्यादि, प्रन्थम्- परस्पराशझ्या आधाकादिपरिहरणं तन्मुनिभावागतां बाह्याभ्यन्तरभेदभि सपरिक्षया परिहाय हाथैव कालान- यात्याहोस्विनेति ?, प्राचार्य आह-सौम्य ! निरस्तारतिपातेन धीरः सन् प्रत्याश्यानपरिजया परित्यजेत् । किंच. ब्यापारः शृणु-'जमिण 'मित्यादि , भपरोपाधिनिरस्त'सोय' मित्यादि, विषयाभिष्वा संसारभोतस्तत् शास्वा दा- हेयव्यापारत्वमेव मुनिभावकारणमिति भावार्थः । यतः शुभागत इन्द्रिय-नोइन्द्रियदमेन संयम चरेदिति। किमभिसन्धाय । स्तःकरणपरिणामव्यापारापावितक्रियस्य मुनिभावो नाम्य
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(mit). अभिधावराजेन्द्रः ।
सीमोमवि
विनयाभिव्यवाय सेयो हि सम्भारमाधनध्य पर समान साधु लज्जया गुर्खाद्याराध्य भयेन गौरवेण ur केनचिदाधाकर्मादि परिहरन् प्रत्युपेक्षखादिकाः क्रियाः करोति । यदि तीर्थोद्वासनाथ माक्षपापादिका जनविह्नाताः क्रियाः करोति, तत्र तस्य सुनिभाव एव कारणं तद्वयापारापादितपारम्पर्थशुभाध्यवसायोपपतेः। तदेवं शु सः।
भान्तःकरणव्यापारविलस्य
कथं तहिं नैश्वयिका मुनिभाव इत्यत श्राह - समयं तत्धुहा अध्याय विष्पसायर (आचा० 1 ) - विरागं वेहिं गच्छा महया खुड्डएहि य । ( सू० १६+ ) समभावः समता तां तत्रोत्प्रेक्ष्य-पर्यालोच्य समताव्यवस्थितो यद्यत्करोति येन केनचित्प्रकारेणानेपणीयपरिहरादिना जनविदितं योगवासादिनिभा कारणमिति, यदिवा समयम् - श्रागमं तत्रोत्प्रेक्ष्य यदाममोविधिनाऽनुष्ठानं तत्समुनिकारणमिति भावार्थः । तेन चागमोक्षन समतोयेक्षया चाऽऽत्मानं प्रसादयेद्-विविधं प्रसाद्गेदागमपर्यालोचनेन समतादृथा वा आम्मान विविधैरुपावैरिन्द्रियमिधानाप्रमादादिभिः प्रस विदध्याद् । श्रात्मप्रसन्नता च संगमस्थस्य भवति । श्राचा०|) "आहारार्थं कर्म कुर्यादनिन्द्यं स्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् । प्राणाः धार्यांस्तत्त्वजिज्ञासनाय, तस्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् ॥ १ ॥" सैवात्मता कथं स्यादिति चेदाह विरा गमित्यादि, विरञ्जनं विरागस्तं विरागं रूपेषु मनोशेषु चगोचरीभूतेषु गच्छेद् - यायात् रूपमतीचाऽऽक्षेपकारी अतो रूपग्रहणम्, अन्यथा शेषविषयेष्वपि विरागं गच्छेदित्युक्तं स्यात् । महता - दिव्यभावेन यद्रथवस्थितं रूपं तुशकेषु वा मनुष्यरूपेषु सर्वत्र विरागं कुर्यादिति अथवा दि. व्यादि प्रत्येकं महत् क्षुल्लं चेति क्रिया पूर्ववत् । नागार्जुनीवास्तु पठन्ति विसर्या पंचम्म विदुषमिति तियं । भाव सुठु जाणित्ता, से न लिप्पर दो वि ॥ १ ॥ " शब्दादिविषयक पनि विदधे हीनमध्यमोरभेदमित्येतत् भावतः परमार्थतः सुष्ठु झाल्यास मु निः पापेन कर्मणा द्वाभ्यामपि रागद्वेषाभ्यां न लिप्यते, तदकरणादिति भावः । ( श्राचा० । )
स्यात् किमास्क संयमित्याह
" हा परिचज, बालीयगुनो परिब्दए। पुरिसा !तुममेव तुमं किं बहिया मिचमिच्छसि ॥ १ ॥ " ( सू० ११७x ) पुनरप्युपदेशदानायाह-' सब्ब' मित्यादि, सर्व हास्यं त दास्पदं वा परित्यनिरोधादिकालीनः आली गुल मनोकाभिमंयद्वा-वृतगात्रः थालीनश्वासौ गुप्तश्चालीनगुप्तः स एवम्भूतः परिः- सम. न्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत् - संयमानुष्ठानविधायी भवेदिति । तस्य च मुमुक्षोरात्मात्मानं फलयति न परोपरोधेति दर्शयति-' पुरिसा' इत्यादि, यदिवा त्यक्तगृहपुत्रकलत्रधत्तधान्यहिरण्यादितया अकिञ्चनस्य समतृणमणिमुक्रालेाचनस्य समुोरुपसर्गय्याकुलितमते कहामित्राद्याशंसा भयेपनोदार्थमा पुरिसा' इत्यादि
>
सीयोसuिr
पूर्णः सुखदुःखयोः पुरि शयनाद्वा पुरुष- जन्तुः पुरुषद्वारा पुरुषस्येयोपदेशात्वानसमर्थन्याचे ति कश्चित्संसारादुद्धिझो विषमस्थितो वाऽऽत्मानमनुशास्त्रि, परेस वा साध्वादिनाऽनुशास्यने-यथा हे पुरुष ! हे जीव ! बसनुष्ठानविधायित्यात्यमेव मिर्च मित्र किमिति महिमित्रमिन्स -- मृगयस यनोपकारि मित्र स चोपकारः पारमार्थिकात्यन्तिकैकान्तिक गुणोपेतं सन्मार्गपतितमात्मानं विहाय नान्येन शक्यो विधातुं, योऽपि संसारसाहाय्योपकारिता मित्रासमानस्वयोविजृम्भितम् यतो महाम्यनोपनिपाताद मित्रवासी भवति श्रात्मैवात्मनोऽप्रमतोम अन्यन्तिकान्तिकपरमसुखोत्पादनात् पर्यायव पर्ययो न बहिर्मिंत्रमन्वेष्टव्यमिति यस्त्वयं बाह्य मित्रामि विकल्पनिमित्तत्यादीपचारिक इति उद्दि 'दुपस्थिणि सुस्थियो अमितं सु हदुक्खकारणाश्रो, अपा मित्तं श्रमित्तं च ॥ १ ॥ " तथा"अप्येकं मरणं कुर्यात् कुचलवानरः । मरणानि स्वनन्तानि जन्मानि च करोत्ययम् ॥ १ ॥ "
"
3
"
यो हि निर्वाण निर्वर्त्तकं व्रतमाचरति स श्रात्मनो मित्रम् । च चैवम्भूतः कुतोऽवगन्तव्यः ? किंफलश्चेत्याह
61
"
जे जागिना उस लक्ष्यं तं जाणिना दूरालावं, जं जाणि दूरालइयं तं जाणिजा उच्चालइयं, पुरिसा ! - ताणमेवं अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमुच्चसि, पुरिसा ! ( आचा० ) सहियो धम्ममाया य सेयं समनुपस्सद ( सू० ११८x )
यं पुरुषं जानीयात् परियारक
नां चोच्चालयितारम् श्रपनेतारं तं जानीयाद् दूरालयिकमिति दूरे सर्वधर्मेभ्य इत्वालयो दूरालय:- मोक्षस्तमाया सविद्यते यस्येति मत्वर्थीयन् दूरालयिकस्तमिति । हेतुहेतुमद्भावं दर्शयितुं गतप्रत्यागनसूत्रमाह-' जं जगजेत्यादि षं जानीयादपि जानीलयितारमिति । एतदुकं भवति यो हि कर्म्मणां तदात्रमहाराणां चोचालविता-पतास मोक्षमाव्यवस्थि तो मुक्तो बेति, यो वा सन्मार्गानुष्ठायी स कर्मणामुत्रा - लवितेति स च आत्मनो मिषमतोऽपदिश्यते- 'पुरिसा' इत्यादि, जीव ! आत्मानमेवाऽभिनिगृह्य धर्मपानाइदिविषयाभिष्वङ्गाय निःसरन्तमवरुध्य ततः एवम् श्रनेन प्रकारेण दुःखात्सकाशादात्मानं प्रमोक्ष्यसि । एवमात्मकमाम उपपालयिताऽऽमनो मित्र भयनि । पु रिसा' इत्यादि, ('सच्च' मित्यादि 'सक' शब्देऽस्मि क्षेत्र भागे गतम् ।) किं च 'सही' त्यादि सहितो-ज्ञानादियुक्रः सह हितेन वा युक्तः सहितः धम्मैथुनचारिवाम् दादा, किं करोतीत्याह श्रेयः पुमान्मा सम्यग् - अविपरीततयाऽनुपश्यति समनुपश्यति ।
दोऽप्रमत्तः नद्गुणा, पिपमाह दुओ जीवियस परिबंद मागणार, जंसि ए
मे पमायंति । ( ११६ )
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सीश्रोमणिल
द्विचा राग पत्रकारद्वयेनात्म परनिमित वैदिकामुष्मिकार्य यादिवाद्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां दो दिवा न स किं कुर्याद? जीवितम् कदलीगनेः सारस्य तडिल्लतासमुल्लसितचञ्चलस्य पारेवन्दनमाननपूजनार्थ हिंपरिय-परिसंवतदर्थमालायादो मासुन्दरमल जा सुखमेव परिषदिष्यन्नं श्रीमान् जीवा पनि वर्ष सहस्रीत्येवमादि परिचन्दनं तथा माननार्थम्मीपचिनोति रसवलपराकर्म मामऽयुधानविनयासनदानाञ्जलि प्रग्रहैर्मानयिष्यन्तीत्यादि माननं तथा पूजनार्थमपि प्रवर्त्तमानाः कर्मास्रवैरात्मानं भावयन्ति मम हि कृतविद्यस्योपचिनद्रव्यवास्वारस्य परो दानमानसाकार सेवाविशेषैः पूजां करिष्यतीत्यादि पूजनं तदेवमर्थ कर्मोपनिति कि जैपि इत्यादि यस्मिन् प एक रागद्वेषोपहताः प्रमाद्यन्ति न ते
|
1-'
श्रात्मने हिताः ।
एतद्विपरीतं त्वाह
सहि दुक्खमत्ता, पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए लोकाला कपचा मुच्चइ त्ति बेमि । ( १२० )
"
+
9
"
सहितो ज्ञानादिसमन्वितो हित वा दुखपसर्गजनितया व्याध्युद्भवया वा स्पृष्टः सन् नो भंभाए ' कुलितमतिर्भवेत् तदननाथ न
,
रागा निवासी उपि च मुभयप्रकारामपि व्याकुलतां परित्यजेदिति भावः । किं चपासिम मित्यादि मुद्दाकांदरम्यान या यत् तमिममर्थ पश्य परिधि कर्तव्याकर्तव्यतया विकेनापधारय कोऽसी भूतो मुनिमनयोग्यः साधुरित्यर्थः । एर्वभूतध के गुणमवाप्नोति लो
इत्यालोकः कम्मति पत्र बांके चतुईशरवात्मके श्रा सोको सोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः पर्याप्तकापर्याकसुभगादिद्वन्द्रविकल्पः तद्यथा-नारको नारकत्वेनावलोक्यते केन्द्रियादिद्रिय (याद) एवं पर्याप कार्याणि भूतान्यान्मुच्यते चतुर्दशजीवस्थानान्यतरव्यपदेशा भवतीति यावद। इतिः परिसमासी वीमीति पूर्ववत् । इति शीतोष्णीयाध्ययने तृतीयोद्देशकटीका समाप्ता ।
उस्तृतीयदेशक साम्यस्नायमभिसम्बन्धः इदानन्तरोदेशके पावकांकरता दुः खसद्दनादेव केवलाच्छ्रमणो न भवतीति अपि तु निष्पत्यूह संयमानुष्ठानादित्येतत्प्रतिपादितं निष्प्रत्यूहता च कपायवमनाद्भवति, यातना प्रदेशाधिकारनिर्दिष्टं
"
( ८६२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
9
प्रतिपाचनसम्बन्धेनापातस्यास्योदेशक
2
गंम सूत्रवारयितव्यम् तच्चदम्
"
"
से संता कोई मार्ग च मायं च लोभं च एवं पा सगस्स दंसणं उपरयसत्यस्य पलियंतकरस्स समदमि (०१२१ )
आवा
स- ज्ञानादिसहितो दुःखमावास्पृष्टोऽव्याकुलिनमतभूतो को पञ्चात् मुरुदेश्यः स्वपरापकारि को
,
सीओसणिज
प्रमिता' इयम् ह्नि' इत्यस्मात्तालिन योगे च पथाः प्रतिषेधे क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं चैतत्, या हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी सोऽचिरात् कोधं वमिष्यति । 'एवमुनरपि यथासम्भवमापम्बरमा अमीयो पधानकारिणि कोकमेवियाकोदवारको जातिल पलादिसमुत्या गर्यो मानः परवचनाध्ययायो माया तुपरिग्रहणमो लोभः क्षयोपशमममाश्रित्य च क्रोधादिक्रमोपन्यासः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्या नायलन स्वगतभेदाविर्भावनाय वस्तनिर्देशः च शब्दस्तु पर्वतपृथ्वीरे जलराजिललोपस्य शैलस्तम्यास्थिकानिनिशलतालाक्षको मानस्य पं मूषिका लेखकलगलको मायायाः, मगरको लोभस्य तथा याय
1
+
,
T
"
"
जीवसंवत्सरचातुर्मास्याविमो घमानमाया लोभवमनादेव पारमार्थिकः श्रमणभावो, न तत्सभवे सति यत उक्तम्- 'साममणुचरंत स्स कसाया जस्स उक्कडा हुंति । मन्नामि उच्छुपुष्कं व निष्फलं तस्स सामं ॥१॥ डीए किसा इयमेत्तो, हा नरो मुहुत्तें ॥ २ ॥ " | स्वमनीषिकापरिद्वारा गीतमस्वाम्पा एमित्यादि पायवमनमनन्तरमुप्रादेशि तत् पश्यकस्य दर्शनं सर्व निरावरणत्वात्पश्यति उपलभत इति पश्यः स एव पश्यका तीर्थकृत् श्रीवर्तमानस्यामी तस्य दर्शनम् - अभिप्रायः यदा ते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्श नम्-उपदेशो न स्यमनीषिका किम्भूतस्य पश्वकस्य दर्शनमित्याह - ' उवरय' इत्यादि, उपरतं द्रव्यभावशस्त्रं यस्यासाबुपरतशस्त्रः शस्त्राद्वोपरतः शखोपरतः भावेश स्वसंयमः कषाया वा, तस्मादुपरतः । इदमुक्तं भवति-तीर्थतोऽपि रूपाययमनस्तेन निरावरण सकलपदार्थग्राहिपरमझानावात्रिः तदभावे च सिद्धियसमागमसुखाभावः एवमन्येनापि मुमुक्षुधा तदुपदेशवर्त्तिना-तन्मार्गानुयायिना कामनं विधेयमिति शस्त्रपरमकार्य दर्शयन् पुनर तीर्थंकर विशेषणमाह-' पलियंतकरस्स पर्यन्तं कर्मणां संसारस्य वा करोति तच्छीलश्चेति पर्यन्तकरस्तस्यैतद् दर्शनमिति सण्टङ्कः । यथा च तीर्थकृत् संयमापकारिकपायशश्रीपरमात्मन्दमन्यो अनुस ( आबा० ) तीर्थकापरकृतकक्षप भावात् स्वतग्रहणं तीर्थकरेवापि परकृतकक्षोपायो न व्यज्ञायीति चेत्, तन्न, तज्ज्ञानस्य सकलपदार्थसत्ताव्यापित्वेनावस्थानात् ।
त
ननु च हेयोपादेयपदार्थहानोपादानोपदेशशो ऽसौ न सर्वश इस परोपकारकत्वेन सीधेरोप पत्तेः तदेतन समस्यानन्दनियुक्तिवि यतः सम्यग्ज्ञानमन्तरेण हिताहितप्रातिपरिहारोपदेशासम्भ यो यथावस्थितकपदार्थपरिष्द न सर्वतान्तरेति दर्शयितुमाह
जे एवं जागर से स जागाइ, जे सम्यं जागर से एगं जागर (० १२२१
"
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मीमांसपिज
3
य:- कविशेषितः परं परमात्यादि पुरस्कृतपर्यार्थ स्वपत्पर्यार्थ या जानाति परि स सर्व स्वपरपर्यायं जानाति अतीतानागतपयविद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिष्दाविनाभावित्वाद् इदमेव हेतुहेतुमद्भावेन लगयितुमाह-' जे सब्व मित्यादि यः सर्व संसारोदरविवर वस्तु जानाति स एकं घटादि वस्तु जानाति तस्यैवातीतानागतपर्यायवापरयाऽनाद्यनन्त कालतया समस्तवस्तुस्वभावगमनादिति । तदुक्तम् - " एगदचियस्स जे अ-त्थपजवा घयसपजवा वाचिताभूवा च द१॥" संदेयंत सर्वत्र सम्भविनमेव सर्वसयोपारसमुपदेशं ददातीति दर्शयति
सव्वच पमणस्म भयं सव्वभो अप्पमनस्स नत्थि भयं जे एगं नामे से बहुं नामे, जे बहुं नामे से एगं नामे । दुक्खं लोगस्स जाणिता बंता लोगस्स संजोगं जंति घीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावरुंखंति जीवियं । ( ० २२३)
सर्वतः सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना ययकारकमपादीय से ततः प्रमत्तस्य मद्यादिप्रमादवतोर्थ-भीतिः - यह कम्मोपचिनोति यः सर्वेरात्मदे दिव्यस्थित कालोऽनुसमर्थ भावतो हिंसादिभिः सर्वत्र सर्वतोभयमहामुत्र च एतद्विशिवस्य च नास्ति भयमिति । श्राह च सम्बन्धी ' इत्यादि सर्वतः मुयिका पापाद् अप्रमत्तस्य- आत्महितेपुजाग्रतो न भर्थ संसारापात्सकाशात्कदा या । अप्रमतता व कषायाभावाद्भवति, तद्भावाचा शेष मोहनीयाभाषः, ततोऽप्यशेषकम्यः संयमकामा नामभावसम्भवः । ( आचा०|) ' दुक्ख 'मित्यादि, 'दुःखम् ' असातोदयस्तत्कारणं वा कर्म तत् ' लोकस्य ' भूतग्रामस्य परिशया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च यथा तदभावो भवति तथा विदध्यात्। कथं तदभावः ? का वा तद भाषे गुणावाप्तिरित्युभयमपि दर्शयितुमाह- वंता' इत्यादियास्वा त्यक्त्वा लोकस्य श्रात्मव्यतिरिक्तस्य धनपुत्रशरीशदेः संयोग- ममत्यपूर्वक सम्बन्धं शारीरः खादिहेतुतयेकम्मोपादानकार या यान्ति गच्हन्ति धीरा-कर्मविदारणसहिष्णवः । पात्यनेन मोतमिति
-
२२४
5
(३) अभिधानराजेन्द्रः ।
•
मीभोसणिज
"
पश्चात्- तरोपपातिकपर्यन्तमधितिष्ठन्ति पुनरपि ततश्च्युतस्यावातमनुष्यादिसंयमभावस्याशेषकर्म्मक्षयान्मोक्षः, तदेवं परेलसंयमेोविधिना परं स्वर्ग पारम्पर्येापमपि या ति यदि वा परेण सम्यगुणस्थानेन परं देशविल्या योगनिमांघठिन्ति परे बाउनतानुबन्धिपेोथानाः परं दर्शन मोहनीय चारित्रमोहनीयक्षयं घातिभवोपप्राहिकर्मणां वा क्षयमवाप्नुवन्ति एवंविधाश्च कर्म्मक्षपणोद्यता जीवित कियङ्गतं किंवा शेतीत्वं नालिय स्तीत्यर्थः असंयमजीविनतीति परे परं यतीयुत श्यामली
9
1
च - "जे इमे अञ्जसाए समग्रा निग्गंथा विहरांति पर सं कस्स तेथलेस्सं बीईवयंति ? गोयमा !, मासपरियार समणे निग्गंथे वाणमन्तराणं देवाणं तेथलेस्सं वीश्वय एवं दुमासपरियार असुरिदवज्जियां भवणवासी देवाणं, तिमाखपरियार असुकुमारा देव चमासपरियार देवाणं गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियां देवाएं पञ्चमासपरियार चंदिमसूरियां जोइसिंदाणं जोइसराईं तेउलेस्सं छम्मासपरियार सोहम्मीसागाएं देवाएं, सत्तमा सपरिवार संकुमारमाहिंदा देवाणं, अमासपरियार लोग देवाएं नयमासपरिचाए महासुस स्वारां देवा इसमासपरियार प्राणयपाण्यचारणप्राणं देवाएं, पगारसमासपरियार गेवेजाणं, बारसमासे समये निर्माता देवतेची ते परं सुके सुक्क भिजाई भवित्ता तो पच्छा सिञ्झा।" यमानमानुबन्ध्यादिषतः सव
T
चानक भयकोटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकम्मोंदयात् स्वमायानिमित्त मदन विशेष्यसे, महश्च तद्यानं च महायानम् यदिवा महद्द्यानं सम्यग्दशनादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षतं यान्तीति सम्बन्धः । स्यात् किमेकेनैव भवेनावाप्तमहायानदेश्यचारित्रस्य मोक्षावाशिरुत पारम्पर्येण ?, उभयथाऽपि ब्रूमः, तद्यथा-नवामतद्याग्यक्षेत्रकालस्य लघुकतेनेय भयेन मुत्ययातिरपरस्य त्वन्यथेति दर्शयति- 'परेण पर' मित्यादि, सम्यकत्वप्रतिषिद्धनरकगतितिर्यग्गतयो ज्ञानावातियथाशक्तिप्रति पालितयमा आयुषः यत् सोधर्मादिकं देवलोकमा यन्तिनमा पुण्यशेषतया कम्मभूम्याक्षेत्रल स्वारोग्यावगमादिकमवाप्य पनि स्वर्गमनु
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9
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उत] नेत्याह-
एगं विर्गियमाणे पुढो विगिंचर, पुढो वि, सड्डी प्राणाए मेहाची लोग च आणाए अभिसमिया अधोभवं अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं । (०x१२४ ) एक नानुपधने को लपकत्वादः क्षपयन् पृथगन्यदपि दर्शनाधिक उपयति, बजारकोऽपि दर्श
सप्त वाण्यति पृथगम्यदपि क्षपयद्मवश्यमनस्यानुवधनापति पृथग्-अन्य क्षयाम्यधानुपपतेः किं गुणः पयोभ्यो भवतीत्याह सही इत्यादि भ्र
मोमागमेच्छा विद्यते यस्यासी प्रजावान् पात्रया तीर्थागमानुसारेण यथाक्रानुष्ठानभाषी मेपायी-मपतिः मर्यादस्थितः पर किलो इत्यादि चः समुच्य जीवनकायात्मकं पायलीकं वा आयाममोपदेशेन भिसमेत्य हावापजीवनिकायाकल्प यथा न कु मिताभपति तथा विधेयम् कपालप्रत्ययानपरि हानाच तस्यैव परिमुपजायत इति लोक बा चराचरमाया- श्रागमाभिप्रायेणाभिसमेत्य न कुतश्विदेहिकामुष्मिकापायसंदर्शनतो भयं भवति । ( श्राचा० । ) एतदेव प्रतिसूत्रे लगयितव्यमित्याह-जे कोसी से मागसी, जे मामदसी से माषादमी,
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सीोसणिज अभिधानराजेन्द्रः।
मीमंधर जे मायादंसी से लोभदंसी,जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, सीधु-सीधु-न। मद्यभेदे, उपा०८ ०। । मे पिज्जदंसी से दोसदंसी,जे दोसदमी से मोहदंमी, जे सीमर-सीभर-त्रिका मुखेन सी इति शब्द कुर्वति,व्य०३ उ। मोहदंसी से गम्भदंसी,जे गम्भदंसी से जम्मदंसी,जे जम्म-तमंकर-सीमङ्कर--त्रि० । सीमा-मर्यादा करोति यमा एवं दंसी से मारदंसी,जे मारदंसी से नरयदंसी,जे नरयदं- वातंतव्यमेवं नेति सीमङ्करः। रा०। मर्यादाकारिणि, स्था सी से तिरियदंसी ,जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी । से मे
८ ठा० ३ उं०। सूत्र० । नाग जम्बूद्वीपे आगामिन्यामवसर्पि
ण्यामरवते वर्षे भविष्यति द्वितीयकुलकरे, स. 1 जम्बूद्वीपे हावी अभिणिवट्टिजा कोहं च पाणं च मायं च लोभ च
भारत वर्षऽस्यामवसर्पिण्यां जाते पञ्चदशानां कुलकराणां पिजं च दोसं च मोहं च गम्भं च जम्मं च मारं च नर | चतुर्थे कुलकरे,ज०२ वक्षः। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्र आगामिन्या यं च निरियं च दुक्खं च । एयं पासगस्स दंसणं उबरय-- मुत्सर्पिण्या भविष्यति प्रथम तीर्थकरे, स्था० १० ठा०३ उ० । सत्थस्स पलियंतकरस्म, आयाणं निसिद्धा सगडभि सीमंत-सीमन्त-पुं० । प्रथमपृथियो प्रथमप्रस्तट मध्यभागकिमत्थि आवाही पासगस्स? न विजइ?, नऽस्थि
वर्तिनि वृत्ते नरकेन्द्र, स०।
वा त्ति बेमि । (सू० १२५)
सीमन्तए ण णरए पणयालीसं जोयणसहस्साई बाया या हि क्रोधं स्वरूपतो वेत्ति अनर्थयरित्यागरूपत्वासा- मविक्खंभेणं पलत्ते । ( स०४५ समः । स्था। नस्य परिहरति व स मानमपि पश्यति परिहरति चेति । सीमंतगो गरगो रयणप्पभाए पुढवीए पढमा। नि० ० यदिवा-यः क्रोधं पश्यत्याचरति स मानमपि पश्यत्रि , १ उ०।। मानाध्माता भवतीत्यर्थः , एवमुत्तरत्रापि प्रायोज्यं , यावत् सीमंतगप्पभ-सीमन्तकप्रम-' । रत्नप्रभायो पृथिव्यां सीमस दुःखदर्शीति , सुगमत्वान्न विवियते । साम्प्रतं क्रोधा- | मन्तकस्य नरकेन्द्रकस्य पूर्वास्यां दिसि नरकेन्द्रके, “सीमदेः साक्षानिवर्त्तनमाह-'से' इत्यादि , स मेधावी अभि- तगपभो खलु निरओ सीमन्तग़स्स पुव्येणं" स्था०६ ठा० निवर्तयद्-व्यावर्तयत् , किं तत्?-क्रोधमित्यादि यावद्दुः- ३ उ०। ख-सुगमत्वाद्वयाख्यानाभावः , स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह सीमंतगमज्झिम-सीमन्तकमध्यमक-पुं० सीमन्सस्य नर'एय' मित्यादि , एतद्-अनन्तरोनमुद्देशकादेरारभ्य पश्य
केन्द्रस्योत्तरनरकेन्द्रके, स्था। कस्य-तीर्थकृतो दर्शनम्-अभिप्रायः, किम्भूतस्य ?-उपरत
सीमन्तगमज्झिमो उत्तरपासे मुणेयव्यो । स्था०६ ठा. शस्त्रस्य पर्यन्तकृतः , पुनरपि किम्भूतोऽसौ ?-'श्रायाण, मित्यादि ,अादानं-कर्मोपादानां निपध्य पूर्वस्वकृतकर्म- ३उ० । भिदसाविति । किं चास्य भवतीत्याह-'किमत्थी' त्यादि, सीमंतगावसिद्ध-सीमन्तकावशिष्ट-पुं० । रत्नप्रभायां प्रथमपश्यकस्य-केवलिनः उपाधिः-विशेषणं उपाधीयत इति नरकेन्द्रकस्य दक्षिणपाश्ववर्तिनि नरकेन्द्रके, स्था०६०। बापाधिः, द्रव्यतो हिरण्याविर्भावतोऽप्रकारं कर्म , स सीमंतावत्त--सीमन्तावत-पुं० । सीमन्तस्य नरकेन्द्रकस्य पडिविण्यपाधिः किमस्त्याहास्विन्न विद्यत?,नास्तीति, पश्चिमटिशिनर केन्द्र के.स्था एतदहं ब्रवीमि , सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति ,
सीमन्तावत्तो पुण निरओ सीमन्तगस्स अवरमं । स्था० यथा सोऽहं ब्रवीमि येन मया भवगत्पादारविन्दमुपास(य) ता सर्वमेतदश्रावि तद्भवते तदुपदिार्थानसारितया ६ ठा० उ० । कथयामि, न पुनः स्वमतिविकल्पशिल्परचनयेति । गतः सीमंतिऊण-सीमान्तयित्वा-श्रव्य-विक्रीयेत्यर्थे, इति गृहसूत्रानुगमः, नद्गती च समाप्तश्चतुर्थो इंशकः । तत्स- स्कल्पचूर्णिकारः । वृ० ३ उ०। माप्ती चानीतानागतनयविचागतिदशात् समाप्तं शीतो- सीमंतिणी-सीमन्तिनी-स्त्री० । सीमन्तः पासोऽस्या अस्ती. कायाध्ययनामांत । श्राचा० श्र०५०१ उ.। ति सीमन्तिनी । प्रवरयोषिति, प्राचा०१ श्रु०२१०४ उभ सीमिणच्चाइन् शीतोष्णत्यागिन -त्रि। सुखदुःखानभि
सीमंधर-सीमन्धर-त्रि० सीमां-मर्यादां पूर्वपुरुषकृतां धार
, आचार यति नात्मना विलोपयति यः स तथा । कृतमर्यादापालके, ३ अं.१ उ.।
बस स्था०६ ठा०३ उ० । झा० । रा०पी०। जम्बूद्वीपे भरतसीग्रामिणफाममह-शीनाषणम्पर्शमह-त्रि० । शीतं चारण :
क्षेत्र आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति द्वितीयकुलकरे,स्था च शीता नयाः पशम्नं महते इति शीतोष्णम्पर्शसहः ।। निम्पर्शाषणपशजांनतंबदनामनुभवति, आचा० १ श्रुः |
१० ठा० ३.१० । जम्बूद्वीप एरवते भविष्यति तृतीयकुल३०१०।
" करे, स०। महाविदेहस्य पूर्वविदह वर्तमाने तीर्थकरे, प्रा०
क०४ अ । सीमन्धरस्वामिमातृनामादि, तथा महाविदहे सीग्रामिणा शनिंगणा-स्त्री० । शीतोष्णरूपोभयस्पर्शप
श्रीसीमन्धरस्वामिस्थाने यस्तीर्थकर उत्पत्स्यते तस्य किं ना. ग्गिामाया बदनायाम , प्रज्ञा०६ पद । प्रज्ञा ।
म?, तथा तत्र वस्त्रवणादिविधिः कथं?, तथा विहरमाणसीन-मदन त्रि० । मयमारमन्न, "मीतता गाम जा थिर- ।
विशतितीर्थकृतां मातापितृप्रामादिनामानि कुत्र शास्त्रे ससंघयणा धिानमंपम्मा द्रोपण उजमात खमग्णादि । निचू. न्तीति ?, ॥ १॥ अत्र महाविदेहे श्रीसीमन्धरस्वामिस्थाने
उत्पत्स्यमानतीर्थकरनाम शास्त्रे दृष्यं नास्ति, तथा सत्र वन
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(८५) सीमंधर अभिधानराजेन्द्रः।
सीयपरिसह नदिविधिरिहत्याजिनादिद्वाविंशतितीर्थकृतामनुसारेणेति सघसम्बान्धनां च परस्परं व्यवहारे जाते समदर्शी तथा तथा-विहरनाणविंशतितीर्थकृतां मातापितृग्रामादिनामानि संस्तवेषु पूर्वसंस्तुतेषु पश्चात्संस्तुतेषु चान्यैः समं व्यवहारे टितपत्रादौ कथितानि सन्तीति । ही० ३ प्रका० । आव०। जाते 'समदर्शी अतः स संघः सीतगृहोपमः यथा शीतश्रा००। जम्बूद्वीपे भारते वर्षे जातानां पञ्चदशानां कुल
गृहमाश्रितानां स्वगरविशेषाकरणतः परितापहारि तथा व्य. कराणां चतुर्थे कुलकरे ,नं.२ वक्षन
वहारार्थमागतानां संघोऽपि स्वपरविशेषाकरणतः परितापसीमच्छेय-सीमाच्छेद-पुं० । मर्यादाकरण, वृ० । सीमाच्छेदो। हारीति भावः । न्य० ३ उ० । पं० चू। नाम-साहिकानामावाटकादिविभजन यथा अस्यां साहि- सीयच्छाय-शीतच्छाय-त्रि० । साबिसंवादितया शीतत्वे, कायां भवद्भिः पर्यटनीयम् अस्यां पुनरस्माभिरित्यादि । यद्वा- छायाशब्द आतषप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः । का ये तत्र क्षेत्रे समकं प्राशास्तैः समच्छेदेन कस्तव्यं यथा युष्माकं मीयजोशिय-शीतयोनिक-
त्रिशीतां वेदनां वेदयन्ति किसचिचम् अस्माकम् अचित्तम् ,अथवा-युष्माकमन्तः अस्मा
। तु-जाणां घेदना न वेदन्ति ते हि शीतयोनिकाः । शीतयोकं बहिः, युष्माकं श्रियः अस्माकं पुरुषाः, युष्माक श्राद्धाः
निस्थानिषु नारकेषु. केवलं हिमानीप्रख्यशीतप्रदेशात्मत्वाप्रस्माकम् अधाद्धाः । अथवा-या यलप्स्यते तत्तस्येव, न|
तदुत्पनिस्थानानाम् । जी० ३ प्रति०१ अधि०२ उ० । दातव्यम । वृ०३ उ० । व्य०। सीमा-सीमन-खी०। पूर्वपुरुषकृताया मयादायाम , स्था०सीयपरिरी)सह-शीतपरि(पह-पुं० । शीतं शिशिरस्पर्शठा० ३.१० । सीमा मेरा मर्यादा इत्यनर्थान्तरम् । आ० चू० ।
स्तदेवं परीषहः शीतपरीषहः । शीताधिसहने , प्रव० ।
शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः परित्राणजिनो अारा। सीमागार-सीमाकार-पुं० । ग्राहभेदे, जी. १ प्रतिका प्रशा।
माकल्यानि वासांसि गृह्णाति शीतत्राणाय. आगमोक्न
विधिना एषणीयमेव कल्प्यादि गवेषयेत् परिभुजीन सीमाधर-सीमाधर-सीमां-मर्यादां धरतीति सीमाधरः ।
वा । नापि शीतातों गलनं.,ज्वालयेत् अन्यज्यालित ঘ ২ আঘ। রানাঘানাগৰিঘনাঘা নাম, মা । वा नासेवेत एवमनुतिष्ठता शीतपरीषहजयः क्रूनो भवति । ५ अ० प्रा० चू० ।
प्रय०८६ द्वार । उत्त० स०1शीतादिसहने ऽपि यतिस्त्वगव सीमाविखंभ-सीमाविष्कम्भ-पुं० । पूर्वापरतश्चन्द्रस्य नक्ष
रत्राणवर्जितो वासोऽकल्प्यं न गृह्णीयादग्निं नो ज्वालयेदपि । त्रमुक्तिक्षेत्र विस्तार , स० ६७ सम० । (रणवत्त ' शब्द प्रा०म० १ ० । ध। चतुर्थभागे १७७८ पृष्ठे दर्शितोऽयम् ।)
तम्य च संयमानुष्ठाने परिजनो यत्स्यालदाहसीय-शीत-त्रि० । श्यायते-धातूनामनेकार्थत्वात्कठि- तं भिक्खु सीयफासपरिवेवमाणगायं उबसंकमित्ता गानीभवत्यम्मिन् जलादि इति शीतम् । उत्त० १ अ०।। हावई बूया-आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा 'श्यैङ्' गनौ इत्यस्य गत्यर्थत्वात् करि क्लस्ततः " द्रवमूतिस्पर्शयोः " इति सम्प्रसारण स्पर्शवाचित्वात् “श्यो
उव्याहंति ?, पाउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधउस्पर्श" इति नत्वाभाचे शीतम् । शिशिरस्पश, प्रव०
म्मा उब्याहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अ ८६ द्वार । सू.प्र० । शणातीति शीतम् । उत्त०२ अ०। हियासित्तए, नो खलु में कप्पा अगणिकार्य उजालित्तप्रालयाद्याथिते, कर्म०१ कर्म० । वैशद्यकृत्स्तम्भनस्वभाव,
ए वा पजालित्तए वा कार्य प्रायावित्तए वा पयाबिस्पर्शभदे, स्था०१ ठा० । श्रात्यन्तिकहिमे, स्था० ४ ठा०
त्तए वा,अन्नेमि वा वयणाओ सिया स एवं वयं तस्स प. ४ उ० । सूत्र। शीतकाल , शा० १ श्रु०५०। श्री० । सूत्र । उत्त० । रा० । अनुकुले , स्थाठा०३ उ०।
रो अगणिकायं उजालित्ता पजालित्ता कार्य प्रायाविज ('सीओसणिज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे शीतनिक्षेप उक्तः ।) वा पयाविज वा, तं च भिक्ख पडिलेहाए आगमित्ता सीयघर-शीतगृह-न० । चक्रवर्तिनस्तथाविध गृह , शीत- आणविजा अणासेवणाए त्ति बेमि । (सू०२१०) गृहं नाम वर्द्धकिरननिर्मितं चकवतिगृहम् , तत्र च वर्षास्व- तम-अन्तप्रान्ताहारतया निस्तेजसं निष्किञ्चन भिक्षणनिर्वातप्रवातं शीतकाले सोमं प्रीष्मकाले शीतल यथा शील भिनुमतिकान्तसोम यौवनावस्थं सम्यक्त्वकमाणाभाचतचक्रवर्तिनः सर्वतुक्षम तथा द्रमकादरपि प्राकृतपुरुषस्य यतया शीतस्पर्शपरिवेपमानगात्रम् उपसंक्रम्य-आसन्नतामेतत्सर्वतुक्षममेव भवति । वृ० १ उ० ३ प्रक०।।
त्य गृहपतिः-ऐश्वयोधमानुगतो मगनाभ्यनुविद्धकश्मीरजय. सीसो पडिच्छतो वा, कुलगणसंघो वएति इह लोए।
हलरसानुलिप्तदेहो मीनमदागुरुघनसारधूपितरल्लिकाच्छाजे सञ्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएति ॥ ३३८॥
दितवपुः प्रौढसीमन्तिनीसन्दोहपरिवृतो वार्तीभूतशीता
र्शानुभवः सन् किमयं मुनिरुपहसितसुरसुन्दरीरूपसम्पसुगमा।
दो मत्सीमस्तिनीरत्रलोक्य सात्त्विकभावोपेतः कम्पते. उत शीतगृहसमः संघ इत्युक्तं तत्र शीतगृहसमतां व्याख्यानयति
शीतेनेत्येवं संशयाना ब्रूयात् भो आयुष्मन् ! श्रमण ! कुसीसे कुलच्चिए य, गणच्चिय संघच्चिए ये समदारसी।
लीनतामात्मन आविर्भावयन प्रतिषधद्वारेण प्रश्नायति-नों वत्रहारसंथवेसु य, सो सीयघरोवमो संघो ॥ ३३६ ।। भवन्तं प्रामधर्माः-विषया उत्-प्राबल्येन बाधन्ते ? , एवं शिध्य स्वदीक्षित 'कुलश्चिसि स्वकुलमम्बन्धिनि संघसंब- गृहपतिनाके विदिताभिप्रायः साधुगह-अस्य हि ग्रहपधिनि व्यवहार समदर्शी, किमुक्तं भवति-शष्याणां कुलगण तरात्मसवित्त्या जनावलोकनाऽविष्कृतभावम्यामत्याश..
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परिसह
भूद अतोऽहमस्थापयामीत्येवमभिसन्धाय साधुभा आयुष्मन् ! गृहपते !' नो खलु ' नैव ग्रामधर्म्मा मामुद्राघन्त यत्पुनपभानगात्रयष्टि मामीयांप विज्ञांम्भतं न मनसिजधिकारः शीतस्परीमहं न तु शक्रोयधिस मुहः सन् भक्तिकरुणरसा
"
यात् प्रज्वलित किमिति न सेवसे, महामुनिराह - भो गृहपते ! न खलु मे कल्पतेऽझिकार्य मनाग् ज्यालयितुम् उज्ज्वलयितु प्रकर्वे ज्यालयितुं प्रालयि तु स्वत उचखितादी कार्य- शरीरमपत् तापयितुमातापापवितुं प्रतापवितुं वा अन्येषां वा वचनात् ममैतत्कर्त्तुं न कल्पते, यदिवाऽग्निसमारम्भायायो या न करते ममेति तं वदन्तं साधुमगम्य गृपतिः कदाचिदेतदित्याह-स्पात् कदाचि स- परो गृहस्थ एवमुनीयावदतः साधार ज्ज्वालय्य प्रज्वालय्य वा कायमातापयेत् प्रतापयेद्वा, तचोज्ज्वलनातापनादिकं भिक्षुः प्रत्युपेक्य- विचार्य स्वसन्मत्या परव्याकरणेनान्येषां वाऽन्तिके श्रुत्वा अवगस्य शा
तं गृहपतिमाज्ञापयेत् प्रतिबोधयेत् कया?, अनासेवनया, यथैतत् ममायुक्रमासेवितुं भवता पुनः साधुभक्त्यक पाभ्यां पुण्यप्राग्भारोपार्जनमकारीति, प्रीतिशब्दाला
। आचा० १० ८ ० ४ ० । शीते मद्दत्यपि पतति जीवनः परित्राण्यर्जितो माकन्यानि वासांसि गृही यात् परिभुञ्जीत या नापि शीतान्तोऽग्नि ज्वालयेदन्यज्वा...लितं वा नासेवेत । श्राव० ४ ० ।
एतदेव सूत्रकृदाह-
चरं चिरयं लू सीयं कुसइ एगया ।
"
नाइवेलं मुणी गच्छे, सोचा गं जिणसासणं ॥ ६ ॥ तत्परीषहमाह
(८१६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
चरंतं विश्वं लूदं सीयं फुस एगया ।
"
-
नाइवेलं विभिजा, पावदिट्ठी विहनइ || ६ || ( सू० ) व्याख्या- चरन्तम् ' इति ग्रामानुग्रामं मुक्तिपथे वा - जतं धर्ममामा पारितम् अग्निसमारम्भादेनिंजन्तं, तराईति खानखिग्धभोजनादिपरिहारे किमित्याह- मृणाति इति शीतं स्पृशति -- भिद्रवति, वरदादिविशेषणविशिष्ट हिनाध्यते एकदेति शीतकालादी प्रतिमाप्रतिपस्यादी या. ततः किमने बेला सीमा मर्यादा - स्तरं ततीति शेषसमयेभ्यः स्यविरांपेक्षा जिनकपिकापेक्षा च स्थविरकल्पाच्चातिशायिनी ला शक्त्यपेक्षतया व सर्वधानपेक्षतया च शीतसहनलक्षणा मर्यादा तां विहन्यात् । कोऽर्थः ? - श्रपध्यानस्थानान्तरसशादिभिरामं किमेषमुपदिश्यत इत्याह-पासयति पायति वा भवावइति पापा, सारशी दृष्टि:-बुद्धिर स्पेति पापदृष्टिविहार' इति सूत्रस्याद्विदन्ति प्रतिका मत्यतिवेलामिति प्रक्रमः । श्रयमत्र भावार्थ:- पादटियो
"
रूपमर्यादातिक्रमकारी, ततः पापबुद्धिकृतत्वादस्य सद्बु दिभिः परिहारो विधेयः पठ्यते च " नाइल मुली ग छ. सुन्ना एंजिल्सास ' तत्र वेला स्वाध्यायादिसम
,
9
मीयपरिसह
यात्मिका तामतिक्रम्य शीतेनाभिहतोऽहमिति मुनिः-तपस्थी न गच्छेत् स्थानान्तरमभिसत् सोति त्या समिति वाक्यालङ्कारेाजिनागमम अ म्यो जीवोऽभ्यश्च देहस्तवितराश्च नरकादिषु शीतवदनाः प्राणिभिरनुभूतपूर्वा इत्यादिकमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥
अन्यन्त्र
रण में शिवार अस्थि, छवित्ताणं न विजड़ । अहं तु रिंग सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए ||७|| नमे मम नित निषिध्यतातादीति निवारण - सौधादि अस्ति-विद्यते, तथा छवि:स्वक् त्रायते-- शीतादिभ्यो रयतेऽनेनेति छत्र--- कम्बलादि न विद्यते निवारादि तथा वृद्धास्तु या न विद्यतन भयनि असी हि शीतोरणादीनां ग्राहिकेनिअन मिया त्मनिर्देशः, तुः पुनरर्थः, तद्भावना च येषां निवारणं छवित्राणं वा समस्ति ते किमिति श्रग्नि संवयुः ?, अहं तु तद्भावादत्राणः तत्किमन्यत्करोमीत्यग्नि संचे 'इती' भिक्षुः यतिः न चिन्तयत्नात् विस्तानिषेध सेवने पास्तामति मूषार्थः ॥ ७ ॥
इदानीं लयनद्वारं तत्र च नातिचेलं मुनिर्गच्छेदित्यादिसूत्रावयवसूत्रितं दृष्टान्तमाह-
रायगिम्मि वसा, मीमा चउरो उ भहबाहुस्स | वैभारगिरिगुहाए, सीयपरिगया ममाहिगया ॥ ६१ ॥ राजनगर वयस्याः शिष्याम्यारन्तु भद्रवाहोमा गिरिगुहायां शीतपक्षिर्थः॥१॥ भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, नश्चेदम्-"रायगड सरे बनारस या सहा ते भद्दा तिर धम्मं सोचा पव्वइया, ते सुयं बहुं अहिजित्ता अनया कयाह पगलविहारडिमं पविना ते समायती विहरता गोवि रायगिहं नगरं संपत्ता । हेमंती य वट्टति, ते य भिक्खं काउं तयार पोरिसीए पदिनियता तसि भारगिरितं ततस्थ पदमगिरिगुहार परिया पोरिसी गदा दिश्री बिस्स उज्जाणे, ततियस्स उज्जाणसमीवे, चउत्यस्स नगरमासे वेव तन्थ जो गिरिगुह्रमासे तस्ल निगगं सीयं सो सम्मं सहतो खमंतो श्र पढमजामे चेष कालगती । पत्रं जो नगरसमीचे सो बन्थे जामे कालगतो, निसि जो नगरभासे तस्स नगरुगुहाए न तदा सी तेरा पच्छा कालगतो, ते सम्मं कालगया । एवं सम्मं श्रहियासिय जहा तहिं नहिं अहियासियं " । उत्त० २ श्र० । श्रत्र भद्रबाहुशिष्याणं कथाः -- राजगृहे नगर चत्वारो वयस्या - गिजः श्रीभद्रबाहुतिप्रवृत्तं चायकित्वं प्रतिमा विहरन्तस्तत्रैव ईयुः तदा हेमन्त श्रासीतूने भिक्षामजनमादाय पनि पुरावतेामेभाराद्विगुदाद्वारे गाढा तत्रैव सांस्यात् द्वितीयः पुरोधाने तृतीयस्तु उद्यानसरामम हातव्यथितो रजन्या श्रवयामे मृतः, उद्यानस्थां द्विती
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1
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सीयपरिमह अभिधानराजेन्द्रः।
मीयल यमाने मूतः , उद्यानासनस्ततीये यामे मृतः , पुरासनस्तु
तत्कथा चैवम्पुरोमणाऽल्पशीतत्वेन चतुर्थे प्रहरे सूतः । सर्वेऽप्येते सा
"अवनीवनिताभाल-तिलक श्रीपुर पुर । धवो विपद्य दिवं जग्मुः शीतपरिषहः सोढव्यः । उत्स०
प्रतापाकान्तदिक्चक्रः, क्षमापालः शीतलोऽजनि ॥१॥ २०
सर्वज्ञशासनक्षीर-नीरधौ सद्गनिस्तुनः ।
शुद्धपक्षद्वयो गज-हंसः क्रीडति यः सदा॥२॥ सीयपरिसह विजय-शीतपरिषहविजय-पुं०। महाप शात
तस्याभूद्भगिनी भाग्य-सौभाग्यैकनिकेतनम् । पतति परित्यक्ताकल्पनीयवाससः प्रवचनोक्न विधिना सद्धर्मकर्मनिर्माण-परा शृङ्गारमञ्जरी ॥३॥ कल्पनीयवासांसि परिभुजानस्य वृक्षवदनवधारितालयचि- सा च विद्युमसिंहस्य, राझी जाता जगत्पतेः । शेषस्य पक्षमूले पथि सम्पागारेऽन्यत्र वा कापि निवस- सल्लक्षणे कमात्पुत्र-चतुपयमजीजनत् ॥४॥ तो हिमानीकणसम्मिश्रशीतानिलसंमिश्रेऽपि तत्प्रतीकार- शीतलश्च महीपाल-श्चारुवैराग्यरङ्गितः। हेतूपादानं प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतीकारहे- श्रीधर्मघोषसरीणा-मन्तिके व्रतमग्रहीत् ॥ ५॥ तूनस्मरतः सम्यग्भावनागर्भशीतसहने, पं०सं०४ द्वार।
तं च विज्ञानसिद्धान्त-तत्त्वं गीतार्शशखरम् । सीयपिंड-शीतपिण्ड-पुंशीतः शीतलःपिण्ड अाहारः, शी- गुरवस्तद्गुणैस्तुष्टाः, स्वपदऽथ न्यबीविशन् ॥ ६॥ तश्चासौ पिण्डश्च शीतपिण्डः। शाल्यादिपिण्डे, “पंतागि
अन्येधुनिजपुत्राणां, कलाकौशलशालिनाम ।
शृङ्गारमञ्जरी राशी, रहस्यवमवोचत् ।। ७॥ चैव विजा, सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं।" आचा०१श्रु०
वत्सास्त्वदीय पवैकः, श्लाघ्यो जगति मातुलः । १०४ उ०।
येन साम्राज्यमुत्सृज्य, जगृहे व्रतमुत्तमम् ॥ ८॥ सीयप्पवायदह-शीताप्रपातहद-पुं०। यत्र नीलवतः शीता यश्च निःशेषशास्त्राब्धि-पारदृश्वा मुनीश्वरः । निपतति यत्र चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि श्राया
निस्सङ्गं विहन्नित्य, प्रयोधर्यात देहिनः ॥ ६॥ मविष्कम्भः पञ्चदशाणादशोत्तगणि विशेषन्यूनानि परिक्षे
पचेलिमं यथा ग्राही, संसारस्यामुना फलम् । पण यस्य च मध्ये शीताद्वीपः चतुष्पष्ट्रियोजनायामवि- तथा वत्सास्तदादातुं, भवतामपि युज्यत । १० ॥
यतःएकम्भा द्वयुत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेपः जलान्तात् द्विकोशो
कोटिशा विषयाः प्राप्ताः, संपदश्च सहस्रशः। मिळतः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीता
राज्यं च शनशा जीव-च धर्मः कदाचन ॥१२॥ प्रपात हद इति । शीतादेव्या निवासभूते शीतानद्या जलप्र
इत्थं मातुर्वचः श्रुत्वा, संविग्ना जनकं निजम् । पातस्थान, स्था०२ठा०३उ०।
तऽनुवाण्याइती दीक्षा, जगृहुः स्थविरान्तिके ॥ १२ ॥ सीयफास-शीतस्पर्श-पुं० । शीतापादितदुःखविशेष, आ
संजातास्ते च गीतार्था, बन्दितुं निजमातुलम् । चा०९ श्रु०८ अ०४० । शीतले, प्राचा० १ श्रु. ६
अवन्त्यां च गताः सायं, तद्वाह्यायामस्थिताः ॥ १३ ॥ अ०३उ०1
श्रथ गन्ता पुरीमध्ये, धावकः कोऽपि तद्गि। सीयफासणाम--शीतस्पर्शनामन्-न० 1 नामकर्मभेदे, यदुदा
श्रीशीतलमुनीन्द्राय, तत्स्वरूपं न्यवेदयत् ॥१४॥ याजन्तुशरीरं शीतं शीतलं मृणालादिवद् भवति तत् शी
इनश्चतस्पर्शनाम । कर्म० १ कर्म ।
शुभेनाध्यवसायेन, तेन तन महात्मनाम् ।
तेषां निशि समुत्पन, चतर्गामपि केवलम् ॥१५॥ सीयल-शीतल-त्रि० । शीतवेदनोत्पादके, स्था० ४ ठा० ४
ततश्च कृतकृत्यत्वा-द्यावत्तत्रैव त स्थिताः। उ० । श्रा० म०। औ०। चन्द्र सूर्य वा गृहतो राहोः कृष्ण
प्रभात नागमंस्ताव-दुत्कः श्रीशीतलाउजनि ॥१६॥ पुद्गलः एकः शीतलः । चं० प्र० २० पाहु०। दशमे तीर्थकरे, अहो दुणा अमी शैक्षा, निर्लजा इत्यवत्य सः । सम्प्रति शीतलः सकलसर्वसंतापकरणविरहादाबादजनना
क्रोधामातो ददौ तेषां, चतुर्णामपि वन्दनम् ॥ १७ ॥ व शीतला,तत्र सर्वेऽपि भगवन्तः शत्रूणां मित्राणां चोपरि यामादूर्व स्वयं तपा-मन्तिक ऽसौ गतस्ततः । समानास्ततः शेषमाद
अनादरपगंस्तांश्च, वीक्ष्य संस्थाप्य दराडकम् ॥१८॥ पिउणो दाहोबसमो, गभगए सीयलो तेणं ।
ऐर्यापर्थी प्रतिक्रम्य, समालोच्यैवमभ्यधात् । भगवतः पितुः पूर्वोत्पन्नाऽसदृशः पित्तदाहोऽभवत् .स चौष
वन्दऽहं भवता ह्यत्र, समागत्यापि सांप्रतम् ॥१६॥ धैर्नानाप्रकारोंपशाम्यति, भगवति तु गर्भगते देव्या परामर्श
कषायकण्टकारुढं, तमूचुस्ते त्वया पुग। सदाह उपशान्तस्तेन शीतल इति नाम । प्रा० म०२०।
द्रव्यतो वन्दनं दत्त-मिदानी देहि भावतः ॥ २० ॥ ध० । प्रव । श्रा०चू । स०। कल्प०। (अस्य वक्तव्यता 'ति
किमेतदिति जानन्ति, भवन्त इति सोऽब्रवीत् । स्थयर' शब्दे चतुर्थभागे २२६० पृष्ठे गता।) शीतलस्य अशो
तेऽपि तं प्रत्यवाचन्त, जानीमा नितरामिदम् ॥ २१ ॥ का देवी । प्रव०७ द्वार ।
आचार्यः कथमित्याह, ते प्याहुनितः स च ।
व्रतीति कीदृशात्ते च, यन्त्यप्रतिपातितः ॥२२॥ सीयल(ग) शीतल(क)-पुं० । स्वनामख्याते नृपती,शीतलको
पापनाशातिता एते, मया केवलिनो हहा। नपतिः परित्याराज्यसमृद्धिः गृहीतसर्वशदीक्षोऽसेन तदी- इत्थं निन्दनिवृत्तोऽसौ, कण्टकस्थानतस्ततः ॥२३॥ यगुणन प्रमोदमानमानसैनिजगुरुभिर्विश्राणितश्रमणानन्दा- क्रमात्तेषु चतुर्थाय, ददतस्तस्य वन्दनम् । दिमूरिपदो द्रव्यभावभभिन्न वन्दन के उदाहरणम् ।
केवलज्ञानमुत्पन्न-मपूर्वकरणादिना ॥२४॥ २२५
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(cte) तीयल अभिधानराजेन्द्रः।
सील द्रव्यतो वन्दनं पूर्व . कषायोपेतचेतसः ।
कहिं णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीमाए जज्ञे पश्चात्तनस्तस्य, शान्तस्वान्तस्य भावतः ॥ २५॥" प्रव०२द्वार।
महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे परमत्त १, सीयलगत्तया-शीतलगात्रता-स्त्री० । अलोपालानां शीतल
एवं जह चेव उत्तरित्नं सीअामुहवणं तह चेव दाहिणं पि स्पर्श, वृ० ३ उ०।
माणिअव्वं , णवरं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीयलविहारि-शीतलविहारिन-पुं० । नित्यवासित्वादिना सीपाए महाणईए दाहिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चशिथिलाचारे , श्राव० १ ०।
स्थिमेणं वच्छस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे सीयलिया-शीतलिका-स्त्री०। शीतस्पर्शायां लूतायाम् ,आ० दीवे महाविदेहे वासे सीमाए महागाईए दाहिणिले सीमाम.१० । नहि लूतादिकं शीतलिकाभिधानान्तरमाणा- मुहबणे णामं वणे परमत्ते, उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवरं न्यथात्वं भजते । सूत्र०१ श्रु० ११ अ०।
णिसहवासहरपव्ययत्तेणं एगमेगूणवीसहभागं जोअणस्स सीयलेस्सालद्धि-शीतलेश्यालब्धि-स्त्री०। अगण्यकारुण्यव.
विक्खम्भेणं किएहे किण्होभासे जाव महया गन्धद्धणि शादनुग्राह्यं प्रति तेजोलश्याप्रशमनप्रत्यलशीतलेजोविशेपविमोचनसामध्ये , प्रवः । यथा भगवतो महावीरस्य
मुअंते जाव प्रासयन्ति उभो पासिं दोहि पउमवरवेहपुरा किल गोशालकः कूर्मग्रामे करुणारसिकान्तःकरणत
आहिं वणवलमो इति। या स्नानाभावाविर्भूतप्रभूतयूकासंततितायिनं वैशिकायन
"कहिण' मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविबालतपस्विनमकारणकलहकलनतया अरे यूकाशय्यानरे
दहे वर्षे शीतामहानद्या दाक्षिणात्य शीतामुखवनं शीतानिस्याद्ययुक्नोक्तिभिः कोपाटोपाध्मायमानमानसमकरोत् तदनु षधमध्यवत्तीत्यर्थः, अतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्र स्वयं भाव्यं, वैशिकायनस्तस्य दुरात्मनो दाहाय वज्रदहनदेश्यां तेजोले- पर वच्छस्य विजयस्य-विदहद्वितीयभागाद्यविजयस्य पूश्यां विसर्ज। तत्कालमेव च भगवान्बर्द्धमानस्वामी प्रगु- वंत इति । जं०४ वक्षः। णितकरुणस्तत्वाणत्राणाय प्रचुरपरितापाच्छेदछेकां शीतले- सीयावण-शीतापन-न । शीतकरणे, नि००१ उ० । श्याममुचदिति । प्रव० २७० द्वार । पा० । स्था।
सीरकता-सीरकान्ता-स्त्री०। मूर्च्छनाविशेष, स्था०७ ठा०३ सीयवेगमहण-शीतवेगमथन-न० । प्रातपेन शीतयेगनिवारणे , कल्प०१ अधि० ३ क्षण।
सीरि-सीरिन्-पुं० । बलदवे, को० । सीया-सीता-स्त्री० । जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरे नीलवतो वर्षध
सील-शील-न । शील-समाधौ धातोर्घ । नपुंकत्वे शीरपर्वतस्य केशरहदानिर्गतायो महानद्याम् , स्था। शीता म
लत्वे शीलम् । श्रा० चू०१०। समाधाने, विशे० । स्था। हानदी केशरइदस्य दक्षिातोरणेन विनिर्गत्य कुरडे पति
तं० । व्रतादिसमाधाने, आव०४०। प्रश्न । यमनियमत्वा मेरोः पूर्वतः पूर्वविदेहमध्येन विजयद्वारस्याधः पूर्वसमु
रूपे, सूब०१ श्रु०६ अ० । क्रोधाद्युपशमरूपे, सूत्र०२ श्रु०६ द्रं शीतोदानामानं प्रविशतीति । स्था०२ ठा०३ उ० । पश्चि
अ०। अनुष्ठाने,सूत्र०२ श्रु०१ अवतविशेषे, मूत्र०२ श्रु० मरुचकवास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम् ज०५ बक्षण
२०। शीलमुत्तरगुणाः । शा०१ श्रु०७ अ०। प्रव० । श्रा० प्रा० क०। श्रा०म०। रा०। औ० । प्रश्न भ० । ईपरप्रा
म०। प्रा०चू० । शीलान्यणुवतानि । उपा०२०। परद्रोहग्भारायां पृथिव्याम् , प्रा० म०१०। लागलपद्धती , प्रा.
विरतो,दश०६.१उ०। उद्युक्तविहारित्वे, सूत्र०१श्रु०१३१०। म० अ० । पुरुषोत्तमस्य चतुर्थवासुदेवस्य मातरि , श्रा
चारित्रे, सूत्र०१श्रु०११०२ उ०। सूत्र।दश। व०१ अ०। शिविकापुरुषसहस्रवहनीयकूटाकारशिखरा
निक्षपःछादिते जम्मानविशेषे, प्रव०६द्वार । भ०। तीर्थकृतां २४
सीले चउक्क दन्वे, पाउरणाभरणभोयणादीसु। शिविकाः 'तित्थयर' शब्द चतुर्थभाग २२७८ पृष्ठ गताः।)
भावे उ ोहसीलं, अभिक्खमासेवणा चेव ॥८६॥ सीयाकूड-शीताकूट-पुंगानानीलवर्षधरपर्वतस्य चतुर्थे कटे, स्था०२ ठा० ३ उ०। जम्बूमन्दरस्य उत्तरे नीलवन्तवर्षध
शीले-शीलविषये निक्षेपे क्रियमाण चतुष्क' मिति ना
मादिश्चतुर्धा निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने सुराणत्वादनारपर्वतस्य स्वनामख्याते चतुथै कुटे, स्था०२ ठा०१ उ० । महाविदेहे माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य सीतासरित्सुरीकूटे,
हत्य 'द्रव्यम् ' इति द्रव्यशीलं प्रावरणाभरणभोजनादिषु
द्रष्टव्यम् । अस्यायमर्थ-यो हि फलनिरपेक्ष स्तत्स्वभावादेय जं०४ वक्षः।
क्रियासु प्रवर्तते स तच्छीलः । तत्रेह प्रावरणशील इति सीयाण-श्मशान-न० । शवदाहस्थाने , व्य०७ उ०।
प्रावरणप्रयोजनाभावेऽपि नाच्छील्यान्नित्यं प्रावरणस्वभावः; सीयायवतत्त-शीतातपतप्त-त्रि०रात्रौ शीतेन दिवाऽऽतपेन
प्रावरणे वा दत्तावधानः, एवमाभरणभोजनादिष्वपि द्रव्य. रसशोख प्रापिते , जं० २ वक्षः।
मिति । यो वा यस्य द्रव्यस्य चेतनाचेतनादेः स्वभावस्तद सीयामुहवण-शीतामुखवन-ना महाविदेहे वर्षे शीताया म- द्रव्यशीलमित्युच्यते , भावशीलं तु द्विधा-प्रोघशीलम्,हानद्या उत्तरस्यां नीलवतो वक्षस्कारपर्वतस्य दक्षिण पूर्वल- भाभीक्ष्ण्यसेवनाशीलं चेति । वणसमुद्रस्य पश्चिमे,पुष्कलावतीविजय क्षेत्रस्य पूर्व स्वनाम
तत्रौघशीलं व्याविण्यासुराहख्यात बने , जं०।
मोहे मीलं विरती, विरयाविरई य अविरतीऽसीलं ।
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सील अभिधानराजेन्द्रः।
सील धम्मे णाणतवादी,अपसत्थ अहम्मकोवादी ।।८७॥ । तथा-"देसणनिम्भेयण या,चरित्तनिब्भेयणी य अणवरयाजस्थ सामान्य सामान्येन सावद्ययोगविरतो विरताविरतो वा पयट्टइ विगहा.तमणाययणं महापावं ।।" इति प्रथमं शीलम् । शीलवान् भरायते, तद्विपर्यस्ताऽशीलवानिति । भाभीय
तथा वर्जयति परगृहप्रेवशनमन्येषां मन्दिरषु गमनमकार्ये गुसेवायां तु-अनबरतसेवनायां तु शीलमिदम् , तद्यथा-धर्म
रुतरकार्याभावे नष्टविनष्टादावाशङ्कासंभवादिति द्वितीयं शी. धर्मविषये प्रशस्तं शीलं यदुतानवरतापूर्वज्ञानार्जनं विशि
लम् । तथा नित्यं सदाऽनुद्भटवेषोऽनुल्वणनेपथ्यो भवति भा.
वश्रावक इति तृतीयं शीलम् । न भणति न ब्रूत सविकाराणितपःकरण वा, आदिग्रहणादनवरताभिग्रहगणादिकं परिगृ
रागद्वषविकारोत्पत्तिहेतुभूतानि वचनानि वाच इति चतुर्थ ह्यते । अग्रशस्तभावशाल स्वधर्मप्रवृत्तिर्वाह्या, प्रान्तरा तु
शीलम् । तथा परिहरति न सेवते बालक्रीडां बालिशजनवि. क्रोधादिषु प्रवृत्तिः, आदिग्रहणात्-शेषकषायाश्चौर्याभ्या
नोदव्यापारं द्यूतादिकमिति पञ्चमं शीलम् । तथा साधयतिस्यानकलहादयः परिगृह्यन्त इति ।
निष्पादयति कार्याणि-प्रयोजनानि मधुरनीत्या सामपू"सीले नियकुलनहयल-ससि व्व कित्ती पयासए भुवणे ।
चकं " सौम्य ! सुन्दरैवं कुरुष्वे" त्यादिनति षष्ठं शीलम् । सुरनरसिवसुद्दकरण-पालेयव्यं सया सीलं ॥१०॥
इति पूर्वोक्तप्रकारेण षड्विधशीलयुतो विज्ञेयः शीलवानजाइकुलरूवबलसुय-विजावित्राण बुद्धिरहिया वि।
त्र श्रावकविचार इति । सम्वत्थ पूणिज्जा-निम्मलसीला नरा हुंति ॥१०६॥ तं पुण सील दुबिह, देसे सब्बे य होइ नायब्वे ।
संप्रत्येतदेव शील षट्कं व्याख्यानयन पथमं शीनं प्रायतदेस गिहीण दसण-मूलाणि दुवालस वयाणि ॥११०॥
नलक्ष गाथापूर्वार्द्धन गुणोपदर्शनपूर्वकं भावयतिसागसव्यसील, जे सीलंगाण अट्रदससहस्सा।
आययण सेवणाओ, दोसा निजंति वडाइ गुणोहो । बुज्झति निरइयारा, जावजीवं अविस्सामं ॥१२॥
आयतनमुक्तस्वरूप तस्य सवनादुपासनादोषा मिथ्यात्वालघुकम्मा गुरुसत्ता-सत्ता विसमावईसु पत्ता वि । दयः क्षीयन्त हीयन्त क्षयं यान्तीति भावः-बर्द्धत वृद्धिमुपैति मणधयणतणुविसुद्धं, सील पालंति सीय व ॥१२॥" गुणोघो ज्ञानादिगुणकलापः, सुदर्शनस्येव । ध०र० । इत्युक्तः ध० २०२ अधि० ६ क्षण । ( कुशीलसुशाले 'कुसी- शीलवतोऽनुद्भटवेष इति तृतीयो भेदः । ( सविकारल ' शब्दे तृतीयभागे ६११ पृष्ठ उक्त ।) सर्वसंबर, वचनवर्जनरूपश्चतुर्थभेदः ‘सवियारवयणवजण' शब्द तश्रा० म०२० । अष्टादशसहस्रमेदसंख्ये संयमे , कथानकं च 'मित्तसेण' शब्दे उक्तम् ।) श्राचा०१ध्रु०५ ०२ उ० । उत्त० । संथा। मद्यमांस- संप्रति बालक्रीडापरिहाररूपं पञ्चमं भेदमनिशाभोजनादिपरिहाररूप प्राचारे, उत्त० १४ अ० ।
भिधित्सुर्गाथापूर्वार्द्धमाहव्यवहारे, ध० १ अधि० संघा० ज०। शीलमष्टादशशी
बालिमजणकीला वि हु, मूलं मोहस्सऽणत्थदंडाओ। लाङ्गसहनसंख्यं, यदि वा-महावतसमाधानं पश्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहः त्रिगुप्तिगुप्तता चैतत् शीलम् । आचा०२ १०६
बालिशजनक्रीडापि-बालजनाचरितक्रीडाऽपिघूनादिरूपा। अ०४ उ० । शीलं सदाचारो विरतसम्यग्दृशाविरतिमतानु
उक्तं चदेशसचिरस्यात्मकं चारित्रम् । उत्त०७० । नं०। शील
च उरंगसारिपट्टिय-बट्टाईलावयाइजुद्धाई।
पणहतरज(म) म्म गाई-पहेलियाईहिनो रमह॥॥ (इति) समाधानं तद्रूपत्वात् शीलम् । अहिंसायाम् , प्रश्न०१संव० द्वार । ब्रह्मचर्य, स० । वृ० ।नं। "वर प्रवेशा ज्वलित
भासतां सविकारजपितानीत्यपिशब्दार्थः , हुरलंकारेहुनाशन, नचापि भग्नं चिरसंचितव्रतम् । वरं हि मृत्युः
लिङ्ग चिह्न मोहस्यानर्थदण्डत्वात् निष्फलप्रायारम्भप्रवृत्तेरिसुबिशुद्धचेतसो,नचापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ १॥"
हाप्यनर्थजनकत्वेन च , जिनदासस्येव । ध०र०.इत्यु
क्नं शीलवतो बालक्रीडापरिहार इति पञ्चमो भेदः । सूत्र. १ ध्रु० २०२ उ० । दानेन महाभोगो, दहिनां सुरगतिश्च शीलेन । भावनया च विमुक्ति-स्तपसा सर्वा
संप्रति पुरुषवचनाभियोगपरित्यागलक्षण षष्ठं शीलभेदमणि सिद्धयन्ति ॥ २॥" सूत्र० १ थु० १२ अ०।
भिधित्सुर्गाथोत्तरार्द्धमाहश्रावकस्य शीलानि
फरुसवयणाभियोगो, न संमओ सुद्धधम्माणं॥४१॥ संप्रति शीलवत्स्वरूपं द्वितीयं लक्षणं व्याख्यानयन्नाह
परुषवचनेन 'रे दरिद्र ! दासीपुत्रे' त्यादिनाऽभियोग श्रापाययणं खुनिसेवइ, वजइ परगेहपविसणमकजे ।
शादानं न संगतो-नोचितः शुद्धधर्माणां प्रतिपन्नजिनमतानां
धर्महानिधर्मलाघवहेतुत्वात्। निच्चमणुब्भडवेसो, न भणइ सवियारवयणाई॥३७॥
तत्र धर्महानिःपरिहरइ बालकीलं, साहइ कजाइँ महुरनीईए।।
"फरुसवयणेण दिणतव-महिक्खिवतो य हणइ मासतवं। इय छव्धिहसीलजुओ,विनेओ सीलवंतो त्थ ॥३८॥ वरिसतवं सवमाणो,हणइ हणंतोय सामना" इति वचनात्।
आयतन धार्मिकजनसीलन स्थानम्-उक्नं च"जत्थ साहम्मि धर्म लाघवं पुनः "अहो धार्मिकाः! परपीडापारहारिणः! सया बहवे,सीलवंता बहुस्सुया। चरित्ताचारसंपन्ना, प्राययण विवेकाश्च श्रावका यदेव ज्वलदङ्गारोत्कराकारा गिरो गितं वियाणाहि" | खुरवधारणे प्रतिपक्षप्रतिषेधार्थ:-ततश्चा- रन्ती"त्यादि लोकोपहासात् । यतनमेव निवते भावशावको, नानायतनमिति योगः । "न
तथाभिलपल्लीसु न चोरसंश्रये,न पार्वतीयेषु जनेषुसंवसेत् । न हिं- "अमियमुक्काः पुरुषाः, प्रवदन्ति द्विगुणमप्रियं यस्मात् । स्रदुणाशय लोकसंनिधौ, कुसंगतिः साधुजनस्य निन्दिता।।" | तस्मान्न वाच्यमप्रिय-मप्रियमश्रोतुकामेन ॥१॥
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सील
पिरश्यते परीवारो नित्यं कर्कभाषिकः । परिग्रह विरक् च प्रभुत्वं हीयते नृणाम् ॥ २ ॥ किंचअशिक्षितारमण ग्लानिं याति यतः प्रभुः । अतः शिक्षा प्रदातव्या, प्रत्यहं मृदुभाषया ॥ ३ ॥ स्वाधीने माधुर्ये मधुराक्षरसंभवेषु वाक्येषु । किनाम यतः पुरुषाः परुषाणि मापते ॥४॥ इत्यादि । श्रत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना महाशतकमहाश्रावकः सपिपजते प्राय चाहितम् इति मतान्तरे पुनरदुराराध्यताभिधानं पीपरुषभाषित्वेन संगृहीतमेव ।
( १०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महाशतकसंविधान निम्
रायविहपुरखरांवर विभूसां गवई जलहरु य सिरिलो भ्रमरदियो, माल पयं महासयगो ॥ १ ॥ अडकण्यकोडी विडिवुद्धि पवित्रता दस गोसहस्सपरिंग- या तस्स (चेव) अट्ठ वया ॥ २ ॥ रेवा रख-भज्जाओ तत्यरेषां उ
।
पिउगे संतिया, कोडीओ श्रट्ट कण्गस्स ॥ ३ ॥ दगो सदस्यमाया परिया। किडी सासदस्सो पुढो व वो ॥ ४ ॥ अह तत्थ समोसारियो, गुणसिलए चेइए जियो वीरो । या पदरेहि समं महासयगो ॥५॥ नमिति उपाये निविदुओ एसी । भययं पि श्रभयनिस्सं-दसुंदरं कहर हर धर्म ॥ ६ ॥ इड दुलई गिहिधम्मं सहि साज पदिवसे तस्त्र विसुद्धिनिमित्तं दिराचरिया इह विद्देयब्वा ॥ ७ ॥ तथाहिसुत्तविडोस सम्म सुमरिज पंचनवकारं । जाइकुलदेवगुरु-विनितिज्ञा ॥ ८ ॥ तो माय-मडि दाइ दिवसमुद्दे । सियवत्थो मुहकोसं काउं पूरज गिहर्बिषं ॥ ६ ॥ पश्चक्खाणं काऊ ण इडिपत्तो महाविभूईए । गच्छ जिन्दगिद्दे, पविसिज तेहि समयविहिणा ॥ १०॥ पूर्णव जिणं वंदि-ज तयणु बच्चिज्ज सुगुरुपासम्मि । काऊण तेसि विणुयं पञ्चक्खाणं च पयठेडं ॥ ११ ॥ धम्मं सुख सम्म सुद्धं विति शाश्री कुजा । म
,
पुग्ण पूयं, विहिज्ज जिगनाहपडिमा ॥ १२ ॥ पडिलाभिज्ज मुशिंदे, फासूयएसणिय असगदाणेण । साहम्प्रियवर्श कर दीगाचकं ॥ १३ ॥ बहुवीयताया- इयभिषणं तथा कुजा । देवगुरु ॥ १४ ॥ तो सत्थरहरुसाई, कुसलमईहिं समं वियारिया । इगभत्तासत्तो पुरा, भुंजिन दिडुमे भागे ॥ १५ ॥ संभामा पुरा दिजा श्रवस्मयं वि हे, करिज्ज सज्झायमेगग्गो ॥ १६ ॥ नियमास ततो हिज धम्मंगहाम्रो उचिये । पातो, सीले पालिज पच्ये ॥ १७॥ कयंत्र उसरगगमाई, सावज्जं चय गंठिसाहिए । पंचनमुक्कारपरो, थवं सेविज तो निदं ॥ १८ ॥
',
-
सील
नामिति विसय सुरसिषपुरगमगर, पर्व व मोर कु॥१८॥ सिरिअरिहंतो देवो, सुना चरणा सुसाडुणो गुरुलो । तत्तं जिपन्नत्तं भवे भवे इय मद्द दविजा ॥ २० ॥ जिम्मवासियम, बेडोस। जिधम्मेण विमुको, कथावि मा श्रवट्टी थि ॥ २१ ॥ मलमखित जरमलिनीसंग परिमु महुयरचितिपदा, कया करिस्यामि मुनिचरिये ॥ २२ ॥ च कुसीलसंगं, गुरुपयपंकयरयं परिफुसंतो । जोत का काई ॥ २३ ॥
।
हरसिपमा आ बुट्टा मिगजूहपड्डू, अग्धादस्संति मं कइया ॥ २४ ॥ मिले मि-पादाये । मुक्ये मये भमिस्से का नियम ॥ ५५ ॥ एवं पदिकरिये, कुणमाणो माणवो निहियमाणो । गिडवासे वो कुरा सिद्धि ॥ २६ ॥
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सुयि महामं तुझे सांग, विहर असामी वि ॥ २७ ॥ तस्संसग्गवसे वि, पाविट्ठा रेवई न पडिबुद्धा ! मज्जरसपिसियगिद्धा, खुद्दा भणियं धणे लुद्धा ॥ २८ ॥ अविसदिगदिलासा दिसतो । इस्सरथपओगे॥ २६ ॥ दुपयच उप्पयधणकण-गभाइ तासि संतियं लहू । बहुपाख्याणी कू - रमाणा चिट्ठा साचि ॥ ३० ॥ बुट्टे य अमाघार, पलमलहंनी कयावि तो एसा । माराविय समयाओं, आणावा पाय दुगं ।। ३१ ।।
समरिसा, कुमाउ सुवं । पोससालं पविसद, विरसचित्ती महासयगो ॥ ३२ ॥ सामजपासना, दाविवादविवाद तं उवसग्गाइ बहुसो, अहियासइ सुछु स महष्णा ॥ ३३॥ सम्मं समणोषासग-पडिमा इक्कारसा वि फासेह । माऊण चरिमसमर्थ, विहिया पडिए ३५ ॥ सो सुभावव सुप्प न श्रहिनारोग लवणजलहिम्मि उत्तरवजहिसासुं नियइ पुट्ठो जोयणसहस्सं ॥ ३५ ॥ उत्तर हिमवंत, हिट्टा रयणाइलोलुयं नरयं । बुलसीवास सहरस-ट्ठिइयं जाणेह पासे ॥ ३६ ॥ इत्तो य मज्जमत्ता, सा पावा रेवई तर्हि पता । उसमा दुस्सहरागसिंहता ॥ ३७ ॥ तो किमयमेरी इस विषकमा ओहिना । नायं तीसे सयल, चरियं तह नरयगामित्तं ॥ ३८ ॥ सकुविण भणिया, हा पाषि नि!ि निम्लज्जे ! श्रज्जवि पा व पुंजमज्जेसि केवइयं ॥ ३६ ॥ सतरतो. धारपवाहिणा समभिभूषा मरिक गमिस्वसि गिरगापासम्म लोप ।। ४० ।। सुयि अगमा कवियो मे महागो मरणभवियंगी दुनिया सा गया गेहे ॥ ४१ ॥ इत्तो य तत्थ पत्ते - वीरनाद्देण गोयमो भणिश्रो । तं वच्छ गच्छ पभणसु, मह वयणं महासयगं ॥ ४२ ॥ भद्द !न कंप्पइ उत्तम गुणां सङ्काग भांसिउ फरुले ।
"
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(१०१) सील अभिधानराजेन्द्रः।
सीलेस परपीडाए जणग, विसेसो उत्तमम्मि ॥४३॥ |सीलगुणोववेय-शीलगुणोपपेत-त्रि० । शीलं चारित्रं तदेव सा तस्स तुमं दुष्भा-सियस्स गिराहाहि भह ! पच्छित्तं । गुग्यो, यद्वा-गुणः पृथगेव ज्ञान, ततः शीलगुणेन शीलगुणातत्तो तह सि भणिउ, गोयमसामी तहिं पत्तो ॥४४॥ भ्यां वा चारित्रज्ञानाभ्यामुपपेताः शीलगुणोपपताः । शानिषु कहिओ पहुआएसो, संवेगगो तो महासयगो । संयतेषु, उत्त० १ ०। बंदिनु गोयमपहुं. आलोयह तं अईयारं ॥ ४५ ॥ सीलऽऽड-शीलाढ्य-त्रि०। अष्टादशसहस्रब्रह्मचर्यभेदैः शीलैः पडिवजह पच्छितं, तो पत्तो गोयमो पहुसमीचे ।
| पूणे, उत्त० १६१०। इयरो वि समाहिजुआ, सुमरंतो चीरपयकमल ॥ ४६॥ मीलपरिघर-शीलपरिगह--वाचारित्रस्थाने, प्रश्न०२ सकयट्ठिभत्तछेत्री, विहिणा मरिउं सुहम्मकप्पम्मि।
व० द्वार। अरुणाभम्मि विमाने, चउपलियठिई सुरो जाओ ॥ ४७ ॥ तत्तो चविय विदेहे, विसिट्टदेहो लहित चारितं ।
सीलभंग-शीलभङ्ग-पुं० ब्रह्मवतनाशे, व्य०७ उ०। (संयतीनां स महासयगस्स जियो, अफरुसभासी सिवं गमिही ॥४॥
ब्रह्मवतभा 'खग्रायारशब्द' तृतीयभागे७१५पृष्ठे उपापादि।) महाशतक पालपन् पुरुषवाक्यमालोचना,
सीलभद्द-शीलभद-पुं० । स्वनामख्याते प्राचार्य , यच्छिगणाधिपतिगीतमाद् भुषनभानुना माहितः।
ध्येण चन्द्रसूरिणा संवत् १९७४ वर्षे निशीथचूर्णेविंशतिइति स्फुटमवेत्य भो विमलशीलभाजो जनाः!,
तमोद्देशकस्य व्याख्या निर्ममे । नि० चू०२ उ०। सुधामधुरमुत्तमं वदत संगतं तद् वचः॥ ४६॥"
सीलभूय--शीलभूत-त्रि० । शीलं चारित्रं भूतः प्राप्ता यः स समर्थितः शीलवतः परुषवचनाभियोगत्याग इति षष्ठी शीलभूतः । शीलयुक्त, उत्त०२७ १०।। भेदः। ध०र०२ अधि०२ लक्ष । स्था०।"कुरंडरपुत्तणदुम्भगाई,ज्झतति दुविसकन्नगाई। जम्मंतरे खंडियसीलभावा,
सीलमंत-शीलवत-त्रि० । शीलमस्यास्तीति शीलवान् । श्रामाऊण कुजा दढसीलभावं ॥१॥" कल्प० १ अधि० ४
व० ३ अ०। आयतनसेवादिषड्विधशीलयुक्त श्रावके, ध० क्षण । शीलं च सदाचाररूपमष्टादशशीलाङ्गलक्षणम् ब्रह्मवत्
३ अधिक ध० र०। (शीलवत्स्वरूपं द्वितीयलक्षणं 'सावग' रूपं चेति त्रिविधं यदुच्यते । ग०२ अ०। स्वभावे, उत्त० १३
शब्दे अस्मिन्नेव भागे प्रतिपादितम् । ) सदाअ०। प्रकृती, पं० चू० २ कल्प। स० । फलानपेक्षप्रवृत्ती,
चारे, उत्त० ७ अ० । शीलयुक्ने, पं० व० १ द्वार । स०।
अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणि, श्राचा०२ १० १० १
अ० उ० । सामान्यन लाघवयोगविरतो वा शीलवान्सीलंग-शीलाङ्ग-न । शील-समाधानं तस्याङ्गानि करणा
भण्यते । सूत्र०७ अ०। यः प्राशुकमुद्रमादिदोषरहितमाहार नि । दर्श० ४ तत्त्व । चरणांशषु, पञ्चा० १४ विव० । पृथिवी.
भुक्ते तं शीलवन्तं वदन्ति तज्ज्ञाः । सूत्र०१ श्रु०७ अ०। कायसमारम्भपरित्यागादिषु, आव० ४ अ० । ( शीलाङ्गानां परिमाणम् 'अट्ठारससीलगसहस्स' शब्दे प्रथमभागे २५१
सीलरयणमूरि-शीलरत्नसरि-पाश्चालगच्छीयजयकीर्तिपृष्ठ उक्तम । ) "जोए करणासन्ना, इंदियभोगाइसमणधम्मे सूरिशिष्ये, तेन च संवत्-१४६१ वर्षे श्रीमरुतसरिकय। सीलङ्गसहस्साणं, झारसगस्स निष्फत्ती ॥ १ ॥ " तमेघदूतस्य टीका कृता । जै०१०।। घर०३ अधि०७ लक्षः। संघा० । दर्श०। (अत्रत्या स्थाप-सीलवार-शीलवादिन-पुं० । शीलवन्तमात्मानं वादयितु ना गुरुकुलवास' शब्दे तृतीयभाग ६४० पृष्ठ उक्ता ।) शील यस्य स शीलवादी । कुशले शीलवत्वख्यापक, सूसीलंगजुय-शीलाङ्गयुत-त्रि०ा चरणांशयुते, पञ्चा०४ विव०॥ १०१ श्रु०७०। सीलगायरिय-शीलाङ्गाचार्य -पुंग तत्त्वादित्यापरनाम्न प्रा. सीलवित्ति-शीलवृत्ति-स्त्री० । हिंसानृतादत्ताब्रह्मपरिग्रहविचार्य, येन सं० ७६८ वर्षे आचाराङ्गटीका वाहरिगणिसाहा- रमणकुशलानुष्ठानवर्तने, हा० २५ अष्ट । येन कृता । श्राचा०२ श्रु० ४ चू०। सूत्रकृताङ्गटी
सीलव्यय-शीलव्रत-न० अणुवते,प्रा० क० १ ०। स०। काऽपि तेनैव वाहरिसाधुसहाय्येन चक्रे । आचा। अयं श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रवणस्य शिष्य श्रासीत् , अस्य कोट्या
दशा० । भ० । औ०। चार्येत्यपर नाम । जै० इ० ।
सीलसागर-शीलसागर-पुं० । शीलेन सागर इव शीलसा. सीलकरण-शीलकरण-न। अनुष्ठानसेवने, प्रश्न०४ संब० गरः । शीलवतां प्रधान, प्रा० म०१०। द्वार।
सीलायार-शीलाचार-पुं० । शीलं समाधिस्तत्प्रधानस्तस्य सीलकलिय-शीलकलित-त्रि०। सुशीलतया परिहारविरते, वाऽऽचारोऽनुष्ठानम् शीलेन वा स्वभावेन वा श्राचरण, प्रश्न०२ श्राश्र० द्वार।
स्था०४ ठा०१ उ० । सीलखलियपप्पवणा-शीलस्खलितप्रज्ञापना-स्त्री० । शील- सीलायारसममिय-शीलाचारसमन्वित-त्रि०। शीलदोषरस्खलितानां व्यामोहितानां यथास्थितार्थप्ररूपणायाम् , हिते, व्य० १ उ० । सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ उ०।।
सीलेस-शीलेश-पुं० । शीलं समाधनं तश्च निश्चयतः प्रकसीलगुण-शीलगुण-पुं० । शील समाधानं तदेव गुणः शी
पंप्राप्तः समाधानरूपत्वात् सर्वसंवरस्ततस्तस्य सर्वसंवरलगुणः । समाधानरूपे गुणे, प्रश्न १ संव० द्वार । आचा। रूपस्य शीलस्येशः शीलेश। शैलेशीमवस्थां प्रतिपन्ने, विशे।
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(१०२) सीवण अभिधानराजेन्द्रः।
सीस सीवण-सीवन-नासूच्या वस्त्रखण्डसन्धाने, नि०यू०१२उ०। कश्चिनु तद्यवस्थित ग्राम-नगरादिभेदन,अपरस्तु समस्ततदुप्राचा(अचेलस्य स्फुटितवस्त्रस्य वस्त्रसीवनार्थ सूच्यादि- स्थगुण-दोषाण्यानद्वारेणापि तमुपदिशति । दान्तिकयोयाचनम् 'अचेलपरिसह' शब्दे प्रथमभागे १८१ पृष्ठे उक्नम्।)। जना तथैव । एवमेतानि भाषक-विभाषक-व्याक्रीकरविषया. सीस--शिष-धा० । विशेषणे, "रुषादीनां दीर्घः" ॥८४॥२३॥ एयुदाहरणानि प्रतिपादितानि । इति नियुक्तिगाथासंक्षपाथः। इति स्वरस्य दीर्घः । सीसह । शिष्यते । प्रा०४ पाद ।
विस्तारार्थ भाष्यकारः प्राहशीर्षन-न । “सर्वत्र लरामचन्द्र" २७६॥ इति रलोपः।
पढमो रूवागारं, धूलावयवोवदसणं बीओ। "लुप्तयरवशषसां शपसां दीर्घः"॥१॥४३॥ इति स्वरस्य दीर्घः।
तइश्रो सव्वावयवे, निदोसे सबहा कुणा ॥१४२६॥ प्रा० । शिरसि, प्रा. चू०१०। मस्तके, दर्श०४ तत्व ।। कट्ठसमाणं सुत्तं, तदत्थरूवेगमासणं भासा । प्रज्ञा प्राचा०। उत्त।
थूलत्थाण विभासा, सन्वेसि वत्तियं नेयं ॥ १४२७ ॥ शिष्य-त्रि० । शासितुं शक्यः शिष्यः । उत्त। शिक्षाधा.
प्रथमगाथायां प्रथम-द्वितीय तृतीयशब्दवाच्या रूपकारः, रके, उत्त० २० अ० । स्वदीक्षिते , व्य० । उपाध्याय
द्वितीयगाथायां तु दार्शन्तिकयोजना। तत्र काष्ठस्थानीय स्योपासके, जी. ३ प्रति० ४ अधि० । शिष्ययोग्यतायां
सूत्रम् । 'तदत्थरुवेगभासणं' ति तस्य च सूत्रस्याथस्तदगोण्यादयो दृष्टान्ताः । विशे०।।
धस्तस्य चानन्तरूपत्वाद् यदेकरूपभाषणं सा भाषा-स अथ भाषक-विभाषक-वार्तिकविद पवान्यथा प्रतिपिपाद
भाषकव्यापार इत्यर्थः , स्थूलार्थानां तु कियतामपि भाषण यिषुराह
विभाषा. सर्वेषां तु निरवशेषाणामर्थानां भाषणं बार्तिकं ऊणं सममहियं वा, भणियं भासंति भासगाईया।
झेयमिति । अहवा तिएणवि साहे-अ कट्टकम्माइनाएहिं ॥१४२४॥
पुस्तदृष्टान्तं व्याख्यातुमाहअनुयोगाचार्येण यद् भणितं-व्याख्यातं तस्मादृनं यो:- पोत्थं दिवागारं, दिद्वावयवं समत्तपज्जायं। न्यस्य भाषते-व्याचष्टे स भाषक उच्यते । तद्याख्यातस्य
जह तह सुत्तं भासा, विभासणं वत्तियं चेव ॥१४२८॥ समं तु भाषमाणो विभाषकः । प्रशातिशयवांस्तदधिकं भाष
यथा पुस्तं लप्यं प्रथममिन्द्रादिसंबन्धिरूपस्य राकारमात्र माणो वार्तिक कृदिति। अथवा-किमेतेन बहुना?. श्रीनप्येतान्
भवति । ततः क्रमेण दृष्टतदवयवम् , ततोऽपि क्रमाद् निभाषकादीननन्तरवक्ष्यमाणकाष्ठ कर्मादिभितैिरुदाहरणैः सा
वर्तितनिःशेषतत्पर्यायं संपद्यत, तथा सूत्रमाश्रित्य भाषा, धत्-कथयेदिति । अनन्तरनियुक्किगाथाप्रस्तावनेयम् ।
विभाषा, बातिकं च जघन्य-मध्यमो-त्तमव्याख्यानरूपं यतान्येव काष्ठकर्माधुदाहरणान्याह
थासंख्यं शेयमिति । कडे पोत्थे चित्ते, सिरिघरिए पोंड-देसिए चेव ।
चित्रदृष्टान्तं विवरीषुराहभासग-विभासए वा, बत्तीकरणे याहरणा॥१४२५
कुडे वत्तीलिहियं, वएणभिन्नं समत्तपजायं । 'काष्ठ' इति काष्ठविषयो दृष्टान्तः । यथा काष्ठे कश्विद्
जह तह सुत्तं भासा,विभासणं वत्तियं चरिमं ॥१४२६।। रूपकार श्राकारमात्रमेयोन्मीलयति , कश्चिद् तु तत्रैव स्थूलावयवं रूपं किश्चिद् निष्पादयति , अपरस्तु सुविभक्त
यथा किञ्चिविह मसृणं धवलं कुड्यम् । तच्च प्रथम धर्तिविचित्रोत्कृष्टनिःशेषाङ्गोपाहावयवयुक्त निर्वर्तयति । एवं
काभिस्तदालेख्यरूपकाणां लिखिताकारमात्रं भवति । ततश्च काष्ठकल्पं सामायिकादिसूत्रम् । तत्र भाषकः किश्चिदर्थ- वर्णकोद्भिनं संपद्यते , हरितालादिवर्णकैरुन्मीलितं गौरवमात्रमेव ब्याच) । विभाषकस्तु तस्यैवानेकप्रकारैरर्थमा- दिस्वरूपं भवतीत्यर्थः । ततः समस्ताः समाप्ता या पर्याया ख्याति । बार्तिककारस्तु निरवशेषैरपि व्याख्याप्रकारैस्तदर्थ श्रालेख्यधर्मा निष्पन्ना यत्र तत् समस्तपर्यायम् , समाप्तप्रतिपादयति । पुस्तं लेप्यम् , तदृष्टान्तेऽपि काष्ठवदेव सर्वे पर्यायं वा भवति-सर्वात्मना निष्पन्नं भवतीत्यर्थः । तथाच वाच्यम् । चित्रदृष्टान्ते तु-यथा कोऽपि चित्रकारो वर्ति- कुडयस्थानीयं सूत्रम् । तत्र भाषा, विभाषा, वार्तिकं च चकाभिः कुड्यादिषु रूपस्याकारमात्रं लिखति । कश्चितु तत्रैव रमं तृतीयं भवतीति । हरितालादिवर्णकैौरवर्णादिभावान् दर्शयति । कश्चित्तु नि
श्रीगृहिकोदाहरणार्थमाहरवशेषानपि तद्गतभावान् सत्यापयति । दान्तिकयोजना
भाणे जाई-माण, गुणे य रयणाणं मुणइ सिरिघरियो । तु तथैवेति । श्रीगृहं भाण्डागारम्, तदस्यास्तीति श्रीगृहिको भाण्डागारिकः । तत्र कोऽप्यसौ 'अत्र भाजने रत्नानि
जह तह सुयभाणे भा-सगादो पत्थरयणाणं ।१४३०॥ सन्ति' इत्येतावन्मात्रमेय जानाति , अपरस्तु सजाति-माने श्रीगृहिको भाण्डागारिकः, स च यथा कश्चिद् ‘रत्नान्यत्र अपि वेत्ति, अन्यस्तु सर्यास्तद्गुण-दोषानप्यवबुध्यत एव । ताम्रकरण्डिकादिभाजने सन्ति' इत्येवं मुणतीति सोपस्कार एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयथीगृहिकतुल्या यथासंख्यं भा- व्याख्येयम् । अपरस्तु तेषामेव रत्नानां जाति मानं च जाषक-विभाषक-वार्तिककरा विज्ञेयाः । पाण्डमविकसिता- नाति । अन्यस्तु ज्वरादिरोगापहर्तृत्व-त्-पिपासा-श्रमावस्थं कमलम् । तच्च यथेषद्विकसिता-ऽर्धविकसित-सर्व- पनेतृत्वादीस्तद्गुणानपि वेत्ति । अथवा-अन्यथा योज्यतेविकसितभेदात् त्रिधा भवनि, एवं भाषकादिव्याख्यानमपी- यथा श्रीगृहिकः कश्चिद् रत्नभाजने मरकतादिकां तजाति ति । देशनं देशः कथनं सोऽस्यास्तीति देशिका, तत्र यथा जानाति , अपरस्तु माष-वल्ल-गदियाणादिकादिकं तन्मानकश्चिद देशिकः पन्थानं पृष्टो दिङ्मात्रोपदेशेनैव तं कथयति, मपि बुध्यते, अन्यस्तु पूर्वोक्तास्तद्गुणानपि समस्तान् वेत्ति,
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सीस अभिधानराजेन्द्रः।
सीस तथा रत्नभाजनस्थानीये श्रुते स्तोक-बहु-बहुतरार्थवेत्तारो सुपरिच्छियकेया इव,थाणवियारक्खमो इट्ठो ॥१४३७॥ भाषकादयो विशेया इति।।
कस्यापि धूर्तस्योपचितसर्वाङ्गसुन्दरस्वरूपाऽपि गौः कथपोएडधान्तब्याख्यामाह
मपि संस्थानीयप्रदेशे स्थिता भग्ना । ततश्वोस्थातुं न शक्नोबोंडं विभिनमीसंदरफुलं वियसियं विसेसेण । ति, इत्युपविष्टव तिष्ठति । ततस्तेन धूर्तेन कस्यापि मुजह कमलं चउरूवं, सुत्ताइचउक्कमप्पेवं ॥ १४३१ ॥
ग्धस्य केतुस्तथैवोपविष्टा मूल्येन प्रदत्ताऽसौ । स्वयं पुनर
पसृतः । क्रेताऽपि यावत् त्तामुत्थापयति, तावद् न शक्नोपोण्डमविकसितावस्थं कमलम् । तस्य च पश्चात् तिम्रो
त्युत्थातुमसौ । ततस्तथैव स्थिताऽभ्यस्य मूल्येन दातुमाऽषस्था जायन्ते , तद्यथा-'विभिन्नमीसं 'ति पिद्विभि
रब्धा तेनेयम् । स च दक्षत्वादधःप्रभृस्यवयवानां निरीक्षणार्थ अमित्यर्थः । तथा 'वरफुलं' ति अर्धविकसितमित्यर्थः ।
तामुत्थापयति मूलकेता च तत्कर्तुं न ददाति । वदति च तथाः 'वियसियं विसेसेण' ति सर्वात्मना विकसितमि
मयोपविष्टवेयं गृहीता, त्वमप्युपविष्टामेवामुं गृहाण। एवं त्यर्थः । एवं च सति यथा कमलं चतूरूपमुक्तम् , तथा
चन कोऽपि गृह्णाति, उपहसति च तमिति । अथ प्रकसूत्रादिचतुष्कमपि विशेयम्-अविवृतं मुकुलितं सूत्रम् ,
ते योज्यते-भमा सती निविष्टा भननिविष्टा तां भन्ननिवितथा , अल्प-बहु-बहुतरव्याख्यानरूपास्तस्य तिनोऽवस्थाः,
टां 'गोर्णि' गां यथा मुग्धः कश्चिदुपविष्टामेव क्रीत्वोपइत्येवं चतूरूपतेति।
विष्टामेवाऽन्यस्य ददत्-प्रयच्छन् केतोपहासविषयत्वादयोস্মথ ইন্ধিছালামাই
ग्यः । न सुयमायरिउ' त्ति एवामाचार्योऽपि 'न' नैव योपंथो दिसाविभागो, गाम-पुराइगुण-दोसपेयालं । ग्यो भवति; किं कुर्वन् ?, श्रुतं ददत्-प्रयच्छन् । कथंभूनः जह पहदेसणमेवं, सुत्तं भासाइतिययं च ।। १४३२ ॥ सन् ?,इत्याह-'एवमविचारितमेव मयाऽप्येतत् श्रुतं गृइह पन्थाः कश्चिद् प्राम-नगरादीनां भवति । तं च पृष्टः हीतम् , त्वमप्यविचारितमेव गृहाण ' इति शिष्यं प्रति ज कोऽपि दिविभागमात्रमेव कथयति , अन्यस्तु तद्व्यव- ल्पन्निति । इत्थंभूतस्य सूरेः पावें न श्रोतव्यम् , संशीतिस्थितनामनगरादीन् कथयति, अपरस्तु मार्गगतनिःशेष- पदेषु निश्चयाभावेन मिथ्यात्वगमनप्रसङ्गात् । अतो व्यागुण-दोषविचारमपि कथयति । इत्थं यथा पथो मार्गस्य ख्यानस्यायमयोग्योऽभिधीयत इति । कथंभूतः पुनर्योग्यः,?, देशनं त्रिविधं प्रवर्तते , एवं भाषा-विभाषा-वार्तिकल
इत्याह-'अविगलेत्यादि' सुगमा । तदेवं गुरोरयोग्यस्य क्षणमपि त्रितयमवगन्तव्यम् । तदिह सर्वेष्वपि काष्ठादिह
योग्यस्य च खरूपमुपदर्य शिष्यस्यापि तदाह-सीसो वी' टान्तेष्वयं परमार्थः-जघन्य-मध्यमो-स्कृष्टव्याख्यातारो
त्यादि, शिष्योऽपि 'न' नैव प्रधानतरः, किन्त्वयोग्यः। कथंभाषक-विभाषक-व्यक्तीकरा उच्यन्त इति । तदेवं जिनप्रव
भूतः ?, इत्याह-मुग्धगोक्रेतेवैकान्तेनाऽविचारितग्राही । यचनोत्पत्तिः, प्रवचनकाथिकानि , तद्भिभागश्चोक्तः ।
स्तु स्थानविचारक्षम अाग्रहरहितो विचारयोग्ये वस्तुनिअथ क्रमप्राप्तमपि द्वारविधि 'दारविही वि महत्था तत्थ
विचारकः स सुपरीक्षितगवादिक्रांयक इव सिद्धान्तश्रवयि वखाणविहिविवज्जासो, मा होज' इत्यादिपूर्वोक्त
णे इष्टो योग्यः शिष्य इति । कारणादुल्लबध , व्याख्यानविधिमेवेह तावदभिधित्सुः प्र
अथ चन्दनकन्यादृष्टान्तविवरणमाहस्तावनामाह
जो सीसो सुत्तत्थं, एयस्स को णु जोग्गो, वत्तुं सोउं च केण विहिणा वा ।
चंदणकंथं व परमयाईहिं। पुब्बोइयसंबंधो, वक्खाणविही विभागामो ॥१४३३ ॥ मीसेइ गलियमहवा, एतस्य च वदयमाणस्य 'उद्देसे निइसे य' इत्यादिद्वारवि
सिक्खियमाणेण स न जोग्गो ॥१४३८॥ धेः, सर्वस्य वाऽनुयोगस्य को वक्तुं योग्यो गुरुः ?, कश्व
कंथीकयसुत्तत्थो श्रोतुं योग्यः श्रोता? , केन वा विधिनाऽसौ वक्तव्यः ?, इत्येतदभिधानीयम् । अत एव तस्मात् प्रवचनैकार्थिकवि
गुरू वि जोग्गो न भासियबस्स । भागादनन्तरं दारविही वि महत्था' इत्यादिना पूर्वप्रति
अविणासियसुत्तत्था, पादितसंबन्धो व्याख्यानविधिरुच्यते । पाठान्तरं वा 'वि
सीसाऽऽयरिया विणिद्दिवा ॥१४३६॥ भासाउत्ति' सामान्येन पूर्वमुद्दिष्टस्येदानी व्याख्यानविधि
इह भावार्थस्तावत् कथानकेनोच्यते-द्वारवयां नगयों वाविशेषेण भाषणं भाषा भणनं 'क्रियते इति शेषः। इति गाथा
सुदेवस्य राज्यं पालयतो गोशीर्ष-श्रीखण्डमय्या देवतापएकार्थः । (१४३४ गाथा' वक्खाण' शब्दे षष्ठे भागे उक्ला।) रिगृहीतास्तिनो भर्य भासन् , तद्यथा-सांग्रामिकी, औद्भूविस्तरतस्तु गोदृष्टान्तं भाष्यकारः प्राह
तिकी, कौमुदिका । तत्र प्रथमा संग्रामकाले समुपस्थिते भग्गनिविट्ठ गोणि,केउं दंतो व्व न सुयमायरिओ। सामन्तादीनां ज्ञापनार्थ वाद्यते, द्वितीया पुनरुद्भूते-आगएवं मए वि गहियं,गिएिह तुमं पित्ति जंपंतो।१४३।। न्तुके कस्मिंश्चित् प्रयोजने सामन्ता-मात्यादिलोकस्यैव अविगलगोविकेया,व जो वि मंदक्खमो सुगंभीरो।
ज्ञापनार्थ वाद्यते । तृतीया तु कौमुदीमहोत्सवाघुत्सयज्ञाप
नार्थ वाद्यते । चतुर्थ्यपि गोशीर्ष-श्रीखण्डमयी भेरी तम्याअक्खेवनिमयफ्स-गपारो सो गुरु जोग्गो ॥१४३६॥
सीत् । इयं तु पक्षण्मासपर्यन्ते वाद्यते, यश्च तच्छन्द सीसो वि पहाणयरो, णेगताणावियारियग्गाही। ।
शृणोति, तस्यातीतम् , अनागतं च प्रत्यकं पारमासिक
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सीस अभिधानराजेन्द्रः।
सीस. मशिवमुपशाम्यति । इयं च प्रकृतोपयोगिनी चतुथी मेरी ।
श्राराहिओ स देवो, अन्नं भेरिं च सो देइ ॥ २३ ॥ इति तदुत्पत्सिर्लिख्यते
अन्नो य केसवेणं, को तहि भेरिपालश्रो सो य । कदाचित् सौधर्मदेवलोके समस्ताऽमरसभापुरस्सरमभि
रक्खइ तं जत्तेणं, लहेइ लाभं च तो हरिणो ॥ २४ ॥" हितं शक्रेण
अथ गाथाक्षरार्थः कथ्यते स शिष्योऽनुयोगश्रवणस्य न
योग्यः, किम् ?, इत्याह-यः सूत्रम् , अर्थ वा चन्दनकन्था"पेच्छ अहो ! हरिपमुहा, सप्पुरिसा दोसलक्खमझे धि।
वत् परमतादिभिर्मिश्रयति । गलितं वा विस्मृतं शिक्षितमा. गिएहति गुण चिय तह, न नीयजुज्झेण जुझंति ॥१॥
मेन-शिक्षितत्वाहङ्कारेण परमतादिभिर्मिश्रयित्वा संपूर्ण एय असतो , कोइ सुरो चितए किह णु एवं ।
करोति । इदमुक्तं भवति-यथा भेरीपालकेन गोशीर्षश्रीसंभवद जं अगहिउँ, परदोस चिट्ठए कोड ॥२॥
खण्डमेरी इसरचन्दनखण्डैर्मिश्रयित्वा कन्था कृता , एवं यः इय चितिऊण इद्दई, समागो तो विउब्बए एसो।
शिष्यः सूत्रमर्थ था परमतेन , श्रादिशब्देन स्वकीयेनैव प्रबीभत्थकसिणवानं , अरदुग्गंध मयगसुणयं ॥ ३ ॥ न्थान्तरेण मिश्रयित्वा कन्धीकरोति, अथवा-विस्मृतं सूतस्स य मुहे विउब्वइ, कुंदुजलपवरदसणरिंछाली। अमर्थ वा 'मुशिक्षितः स्वयमेधाहम् , नान्यं कश्चित् कदानेमिजिणवन्दणत्थं, चलियस्स पहम्मि हरिणो य ॥४॥
चित् किमपि पृच्छामि' इत्यहङ्कारेण परमतादिभिरपि मिसं उबदसर सुणय , भगं गंधेण तस्स हरिसेनं ।
श्रयित्वा संपूरण विदधाति , सोऽनुयोगश्रवणस्य न योग्यसयल पि उप्पणं, वच्चइ कराही उण सरूवं ॥५॥ इति । एवं कन्थीकृतसूत्रार्थों गुरुरप्यनुयोगभाषणस्य न विविहं भावंतो पो-गलाण वच्चा पहेण तेणव । योग्यः, किन्त्वविनाशितसूत्रार्थाः शिष्याचार्या अनुयोगस्य दळूण य सुणयसवं , पभणइ गुरुयत्तणणेवं ॥ ६॥ योग्या विनिर्दिष्टा इति।। अहमसिणकसिणवत्थं-चले ब्व वयणे इमस्स पेच्छ अहो ।
अथ चेरिदृष्टान्तो विधियतेमुत्तावलि व्व रेहद, निम्मलजोरहा दसणपती॥ ७॥ अह चिसिय सुरेणं , सच्चं जं श्रमरसामिणा भणियं ।
अत्थाणथनिउत्ता-भरणाणं जिएणसे द्विधूय व्य ।। नूण गुण चिय गुरुया, पिच्छति परस्सन हु दोस ॥८॥ न गुरू विहिभणिए वा,विवरीयनिओयो सीसो।१४४० श्रह अनदिणे देवो, तुरयं श्रवहरइ वल्लई हरिणो ।
सस्थाणत्थनिउत्ता, ईसरधूया सभृसणाणं व। .. सिन्नं च तस्स सयलं, विणिजियं तेण कुटलग्गं ॥६॥
होइ गुरू सीसोऽवि य,विणिोएता जहाभणिय।१४४१॥ तो अप्पणा वि विण्ड, तुरगस्स कुढावयम्मि पडिलग्गो ।
भावार्थः कथानकेनोच्यते-वसन्तपुरे नगरे ऽग्रेतनः श्रेष्ठीअह देणं भणिय, जिणि उ घेप्पति रयणा ॥१०॥
राक्षा पदात् स्फेटितोऽन्यो नवश्रेष्ठी विहितः । तथापि तो जुज्झामो ति भण-द केसवो किं रहवरे अहयं ।
जीर्णश्रेष्ठिदुहितुर्नवश्रेष्ठिदुहिता सह कथमपि महती प्रीतिः तो गेराह तुम पि रई, जेण समाणं हवाइ जुझ ॥११॥ मेच्छर एयं देवो, तुरएहि गयाइएहि वि स जुज्झ ।
संजाता । परं तथापि जीर्णश्रेष्ठिपुत्रिका हृदये कालुष्यं न
मुश्चति-'वयमतैः पदात् परिभ्रंशिताः' इति । अन्यदाच जा नेच्छ ता भणियो, हरिणा तो भणसु तुममेव ॥१२॥
ते द्वे अपि जलाशये क्वचिद् गते। ततश्चाभरणानि तटे मुदेवेग तो भणिय, परंमुहा दो वि होइऊण पुणो ।
पत्वा नवश्रेष्ठिदुहिता जीर्णश्रेष्ठिपुत्रिकया सहैव मजानार्थ जुज्झामो पूयघाए-हि भणइ तो केसवो देवं ॥१३॥
प्रविष्टा । ततश्च जीर्णश्रेष्ठिदुहिता झगित्येव जलाद् निर्गजह पर्व तो विजिश्रो, अहयं तुमए तुरंगमं नेहि।
त्य नयष्ठिदुहितसत्कान्याभरणानि गृहीत्वा चलिता। - जुज्झामि पुणो कहमवि,न हु परिसनीयजुज्झेणं ॥१४॥
तरया तु जलमध्यगततयाऽप्युश्चैः स्वरेण निषिद्धा। सतसंजायपञ्चो सो, पञ्चक्खो होइऊण तो देवो ।
श्व'का त्वम् ?' कानि च तानि त्वदीयाभरणानि ? मया भणर अमोह देवा-रण देसणं भणसु कि पि वरं ॥ १५ ॥
घेतान्यात्मीयाम्येव गृहीतानि, इत्यादि जल्पन्ती गाढमाक्रोश्रह भणह केसवो असि-वपसमणि तो पयच्छ महरि।
शन्ती च सा गृहं गता । कथितं च निजमातापित्रोः अनुदिना य सुरेणागम-णवइयरं साहिउंथ गश्रो ॥१६॥
मतं च तत् ताभ्याम् । भणिताऽसौ तूष्णीं विधाय तिष्ठ छराई छण्हं मासा-] साइवाइजए तहि भेरी।
त्वम् । तत् इतरयाऽपि निजपित्रोस्तत् कथितम् । याचिताजो सुण ती सई, पुष्पन्नाउ चाही ओ॥१७॥ नस्संति तस्स अपरा,ताउ(तह)यन हुहोति जाव छम्मासा
नि च ताभ्यां तान्याभरणानि । न समर्पयन्ति चेतराणि । . अह अन्नया कयाई, वणिो श्रागंतुओ कोर॥१८॥
ततो राजकुलव्यवहारो जातः । कारणिकैश्च साक्षी पृष्टः । दाहज्जरण धणिय, अभिभूश्रो भेरिरक्खयं भगइ ।
न च कोऽप्यसौ संजातः । ततस्ते द्वे अपि दारिके आकार्यदीणारसयसहस्सं, गेराहसु मह देसु पलमेगं ॥ १६॥
जीर्णश्रेष्ठिदुहिता प्रोक्का यदि स्वदियान्याभरणानि, तर्हि का भेरीएँ छिंदिऊणं, दिन्नं तेणावि लोभयसगेणं । ।
गित्येवामून्यस्माकमेव पश्यतां परिधार्य दर्शय । यावच्चैषा अन्नण चंदणेण य,भेरीए थिग्गल दिन्नं ॥२०॥
तानि परिधातुमारब्धा, तावदनभ्यासादयस्थानोचितमाइय अन्नाण विदित-ण तेण कंथीकया इमा भेरी।
भरणमन्यत्र नियोजयति । यदपि किश्चित् स्थाने नियुक्त श्रह अन्नया य असिवे,हरिणा ताडाविया एसा ॥ २१॥ तदयश्लिष्टमेवाभाति, भितत्वेन च न किञ्चिदसौ जानाति कंथत्तणण तीसे, सहो सुच्चइ हरिसभाए वि। | ततो नवश्रेष्ठिदुहिता तैरुक्ता । तया च खभ्यस्ततया स्थाकंथीकरणवइयरो, विनाओ केसवेण तओ ॥२२॥ . नौचित्येन सर्वागययामरणानि मगित्येव "परिहितानि', माराविमो य सो भे-रिरक्खो तेण अट्ठमं काउ । श्लिष्टा चातीय शोभन्ते । ततस्तैः पुनर्सप सा प्रोक्का
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सीस
गित्येवमुञ्च तानि तया च क्रमेणावतायं तथैव मुक्कानि । ततो ज्ञातः कारणिकैः सद्भावः । दण्डितश्च शरीरनिप्रवरा जीडी तद्दुहिता चामाजाता एवं दुहिने वाथ रानामस्याने ऽर्थानां निर्वाक्रान गुरु गुरुवदयोग्यासी न ऐहिकामुनिसंख्या भाजनमसी संपते । विधिमविते च गुरुया यथावत् प्ररूपितेाज्ञानादिना विपरीतयोजकः शिष्योऽपि 'न' नैव श्रवणयोग्यः: नापि
पाणावित्यर्थः । सस्थाने वर्धानां नियोलाई द्वितेय गुरुयोंग्पो भवति । शिष्योऽपि गुरुभिर्यथोपदि तथैव नियोजयन् श्रवणयोग्यः कल्याणभा च भवतीति ।
(३०५) अभिधानराजेन्द्रः ।
श्रावकोदाहरणमाप्यम्चिरपरिचियेपि न सरह, सुत्तत्वं सा जो न स जग्गो सीसी, गुरुगं तस्स दरे कथानक सायगमत्रा' इत्यादी कथितमेव यथा चिरपरिचितामपि स्वभायां परकलद्धया भुजानो न स्मरति, एवं चिरपरिचितर्माणि सूत्रार्थे यः शून्यहृदयतया नस्पतिस शिष्यनयोग्यः शिष्यस्यापि तस्य दूरेणैवेत्यर्थः ।
२२७
समज व
अबधिरगोदोहोदाहरणम्-
अ] पुट्ठो अर्थ, जो साहइ सो गुरू न बहिरु ब्य नय सीसो जो अनं, सुणेइ परिभासए अन्नं ॥१४४३ ॥ afarsarai प्रागुक्रमेव । गाथाक्षरार्थस्तु सुगमः । अथवा बधिरश्वासौ गोदोहश्चेति कर्मधारयो न क्रियते, कस्तु धिर गोदीत इन्द्रः ततो गोदोहो-ग्रामेयकः, तत्कथानकं तु भिन्नमेवेह प्रागुक्तं द्रष्टव्यम् । उपनयस्तु स्वयमभ्यूहाः यो ग्रामेष्वद्यावन्यामुतामामेव स्वयं द्रव्यक्षेत्रकालाद्यौचित्यविरहितो वक्ति, स शिष्यत्वेऽप्ययोगुरुतु
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अथ टङ्कणकव्यवहारदृष्टान्तभाष्यम्
॥१४४२ ॥ तत
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क्खेवनिष्यपसं-गदाणगहणाणुवत्तिणे दो वि । जग्गा सीसायरिया, टंकण वणिश्रोमा समए ॥१४४४ ॥ हवा गुरुविण सुय-पयाणभण्डविओिगओ दो वि । निजरलाभयसहिया, टंकणव विमा जोग्गा ।। १४४५ । इतराये देशे कचिद् द्वणाभिधाना म्लेच्छाः । ते च सुवर्णसट्टेन दक्षिणापथायातानि क्रयाकानि गृह्णन्ति परं वाणिज्यकास्तद्भाषां न जानन्ति तेऽपीतर भाषां नावगच्छन्ति । ततश्च कनकस्य क्रयाकानां च तावत् पुत्रः किवते, यावदुपपचस्वापीच्छा परिपूर्ति, पापकस्यापि पक्षस्येच्छा न पूर्यते तावत् कनकपुञ्जात् क्रयाएकपुञ्जच्च हस्तं नापसारयन्ति, इच्छापरिपूर्ती तु तमपसारयन्ति पर्वतेषां परस्परमीतिबहारः । श्रथोपनयगाथाद्वयं व्याख्यायते, तद्यथा-टङ्कणाश्च जितेषामुपयं समये पहिता पथेने विज परस्परमीलितप्रतीप्सितव्यवहारेण व्यवहरन्ति एव - माक्षेपनिर्णयप्रसङ्गदानग्रहणानुवर्तिनो द्वयेऽपि शिष्या -
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"
मीस चाचानुगोग्या भवन्ति भवति यथा - या विजय परस्परेपरिपूर्ति यावत् स्य थाणकस्य च पुञ्जान् करोति एवं शिष्योऽपि तावदाक्षेपं पूर्व करोति यावत् स्वार्थममुच्यते न पुनर्भपलजाऽहङ्कारादिभिरेवमेवापानि गुरुद् निर्णयं प्रति बाप्यः सूत्रार्थमवति । प्रासङ्गिकं च तावद् गुरुः कथयति यावन्मात्रं शिष्योऽवधारयति । शिष्योऽपि यथाशक्ति तत् सर्वे गृह्णातीति । एवं दानप्रदानुवर्तिन इथेऽपि शिष्याचा योग्याः । तप दानं च ग्रहणं च दानग्रहणे, प्रसङ्गस्य प्रसङ्गात्तस्य दानवे प्रसन्नहने आक्षेप निपधप्रसङ्गदानप्रये व तानि तथेति समासः तदनुवर्तनशीला येऽपि शिष्या उपाय योग्या भवन्ति । प्रकारान्तरेणापि टरावणिगुपमानं भावयति - श्रहवे 'त्यादि गाथा । अथवाशिष्यतीखित्यानतिक्रमात् कर्म सर्वोऽपि गुरुविनयः गुरुणाऽपि शिष्यौचित्येन कर्त्तव्यं सर्वमपि श्रुतप्रदानम् । गुरुविपथप्रदानं ते प्रादेकपाके तयोर्विनियोग विनिमयस्तस्माद् गुरुपदानभारनियोगाद्येऽपि शिष्याऽऽचाचः कर्मनिर्जरालामाटपमा अनुयोगस्य योग्या भवन्ति । विपर्यये तु विपर्यय इति । तदेवं ' गोणी चंद' इत्यादिना योग्या याग्योश्वोक्ताः शिष्याऽऽचार्याः ।
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इदानी शिष्यस्य विशेषत एव योग्यायोग्यत्वमभिधित्सुः प्रस्तावनामाह
अत्थी स एव य गुरू, होइ जओ तो विसेसओ सीसो । जोग्गोऽजोग्गो भन्नइ, तत्थाजोग्गो इमो होइ ।।१४४६ ।। य इदानीं श्रुतस्यार्थ शृणोति स एव शिष्यः कालान्तरे[] अर्थयुपगतस्त्रार्थः सन् यस्माद् गुरुर्भवति नायः तस्माद योग्योऽयोग्य विशेषतः शिष्यो भगवते । तयोग्यतावदयं मा भवति इति द्वादशगाथार्थः ॥ कस्स न होही देसो, अमुवाओ य निरुवगारी य । अप्पच्छंद मई, पत्थिय गंतुकामो य ।। १४४७ ॥ कस्य गुरोर्न भविष्यति द्वेष्योऽप्रीतिकरः शिष्यः अपि तु भविष्यत्येव । किं सर्व एव ? न इत्याहअनभ्युपगताः संपदाऽनुपपत्र निवेदितात्मेत्यर्थः । अनुपम्पत्येऽपि तथा निरुपकारी गुरूणामनुपकारका सर्वथा गुरुकृत्येष्वप्रवर्त्तक इत्यर्थः, तत्राप्यात्मच्छन्दमतिः स्वामिया कार्यकारीत्यर्थः तथा प्रथितो यो योऽन्यः कोऽपि शिष्यो जिगमिषुः तस्य तस्य द्वितीयः । तथा गन्तुकामश्च सदैव गन्तुमना य आस्ते वक्ति च 'कोऽ स्य गुरोः संनिधानेऽवतिष्ठते ?, समतामेतत् श्रुतस्कन्धादि ततो यास्यामि इत्येवं चित्त एव सदैवास्ते । तदेयंभूतः शिष्योऽयोग्य एव अययस्येति भाषातिनिगिधार्थः ।
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अनभ्युपगतादिस्वरूपं भाष्यकारोऽप्याहभग्रह अवगणुसंपत्र सुपपदया। गुरुणो कराई, अकुव्वमायो निरुवगारी १४४८ ।
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( १०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अप्पच्छंदमईओ, सच्छंद कुण सव्वकआई। पत्थिय संपत्थिप-जिओ निचगमिड ब्वा १४४६। गंतुमणो जो जंप, नवरि समप्यउ इमो सुयक्खंधो। पढिउं सोउं च तत्र गच्छं को अत्थए एत्थ १ । १४५० । तिस्रोऽपि गतार्थाः । नवरं निश्चगमिड व 'त्ति यो यः प्रस्थितस्ततद् द्वितीयः प्रस्थित उच्यते नित्यग्रामी पथिक इवेत्यर्थः ।
अथ योग्यशिष्यगुणान्याविएहि पंजलि-यडेहि छंदमणुयत्तमाणेहिं ।
राह गुरुजी, सुयं बहुविहं लहुं देइ ॥ १४५१ ।। विनयन्दनादिना निपायनतास्तैररथे भूतैः सद्भिः, तथा पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यैस्ते कृतप्राअलपस्तैः तथा इन्दो- गुर्वभिप्रापतमिङ्गिताकारादिनादिज्ञाय
तदध्यवसितश्रद्धानसमर्थनकरणकारणद्वारेणानुवर्त्तमानैराधितो गुरुजनः तं सूत्राऽर्थोभावरूपं विधमनेकप्रकारे लघु शीतिप्रति इति निगा थार्थः ।
भाष्यम्
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विभिवंद, पढए पुच्छए पडिच्छर वा गं । पंजलियडो अभिमुहो, कयंजली पुच्छणाईसु || १४५२ | | सदर समत्थे य, कुणइ करावेइ गुरुजणाभिमयं । बंदमपत्तमायो, स गुरुजणाराहणं कुराइ || १४५३ ।। कार्थे ।
अथ प्रकारान्तरेणापि योग्यायोग्यशिष्यानुपदर्शयन्नाहसेलघणकुडगचाला परिपूणगहंसमसिमे से य । मसगजलूगविराली जागगामेरि माहेरी || १४५४ || 'सेल' सि-मुङ्गरीलः पापाविशेषः, घनो-मेघः मुद्रलव घनश्च तदुदाहरणं प्रथमम् कुटो- घटः, चालनी प्रतीता, परिपूणकः सुघरीचिंटिकागृहम्, हंसमहिषमेषमशकजलूकाविडाल्यः प्रतीताः, जाहकः- सेहुलकः, गोभेरी,
मेरी बेति योग्यायोग्यशिष्यविषयाणि वायुहरणानि इतिनियुकिगाथा पार्थः ।
उदाहरणं च द्विविधं भवति चरितं कल्पितं च । तत्रेह प्रथमं करितमुदाहरणम्। तच भाष्यकारो दिशा
उल्लेऊण न सको, गजइ इय मुग्गसेलोऽरने । तं संवषमेहो, गंतु तस्सोवरिं पढ ।। १४५५ ।। दविउ तिम्रो मेहो, उल्लोऽम्हि नव ति गजई सेलो । सेलसमं गाहिस्सं निब्बिज गाहगो एवं ।। १४५६ ।। इह कचिद ये पर्वतासन्न प्रदेशे समन्ताद् निविडो मुद्रयद् वृत्तत्वन्यच्यत्वादिधर्मयुक्तः किश्चिद भूतले निमन कि चिन् प्रकाशधिकविकायमानो बददिमालपो मुझशैलः किलासीत्। स च गर्जति खाजपति कथम् है इत्याह-ब्रहमाले केनापिन - क्य इति । तश्च मुद्गशैलस्य सम्बन्धि गर्ववचः कुतश्चिद् नारकल्पात् श्रुत्वा संवर्त्तको नाम महामेघः ' तद्गर्व
सीस
मद्यादनयामि इति सा तं मुझ गया सं प्य तस्यैवोपरि पतति - निरन्तरं मुशलप्रमाणधाराभिर्वतीत्यर्थः संवर्तमेोहियां शुनीकाले पू दग्धभूम्याभ्वासना वर्षति त्यागने प्रतिपाद्यते । तस्य च सम्बन्धि जलमतीव भूम्यादेर्द्रावकं वासकं च भवति, इति विशेषतस्तस्येह ग्रहणम् । एवं-सप्ताहोरात्राणि म हावृष्टिं कृत्वा 'ठि मेघो' त्ति स्थितो वृष्टेरुपरतोऽसौ मेघः । कया बुद्ध्या ? इत्याह--' दविउ ' ति--द्रावितः या नीतीमासी मुलामी वापरायली भूतोऽसौ चिकचिकामा मुद्रशैलः पुनरपि गर्जति कथम् ? इत्याह-उद नव' ति-आर्द्राऽस्म्यहं न वा ? इति सम्यग् निरीक्षस्व । भोः पुष्करावर्तक! किमित्येवमेव स्थितोऽसि भागमात्रमपि ममाद्यापि न भिद्यत इति भावः । ततो लजितो भूतः स्वस्थानमुपाधितो मघः । तदेवं मु शैलोदाहरणमभिधापनमा सेलसममित्यादि यस्य वचनकोटिभिरपि वित्तं न भिद्यते । एकमप्यक्षरं तन्मध्यात् न परिणमतीत्यर्थः स एवंभूतः शैलसमो; मुख्य इत्यर्थः तं तथाभूतं शिष्यं ज्ञात्वाऽपि क बिद् ग्राहयतीति ग्राहको गुरु, “चाचार्यस्यैव ता यो नावबुध्यते गावो गोपालकेनैव कुतीगाथतारिताः ॥१ ॥ इत्यादि श्लोकार्थविभ्रमितमतिर्गर्वाद् 'अहममुं प्राहविष्ये इति प्रतिज्ञाय समागतो महता पसर म्भेणाऽध्यापयितुमारब्धः, तथापि स मुद्रशैलोपमः शिष्योऽक्षरमपि न गृह्णाति । न च मनागपि स्वाग्रहग्रस्तत्वेन बुध्यते । ततवं यथा पुस्करावर्त्ताः तथैव सुचिरं केशमनुभूय निर्विद्यतेलीभूत श्व निवर्त्तते तद्ग्रहणादयमाचार्य इति । एवंभूतस्य शिष्यस्य वादाने आगमे प्रायधितमुक्रम् |
कुतः ?, इत्याह
आयरिये सुत्तम्मिय, परिवाओ सुत्तप्रत्थपलिमंथो । असि पि यहाणी, पुट्ठावि न दुद्धया वंझा | १४५७७ एवं समस्यापि शिष्यस्य सूत्राऽर्थाने प्रवृत झालासुत्रेऽपि चागमे परिवादोवादी लोकसम पति तथा अहो ! नास्य सूरे प्रतिपादिका शक्ति, नापि तथाविधं किमपि परिक्षानं यतो मुमध्ये शिष्यमवयोधयितुं न क्षमः, आगमो ऽत्यमीषां संबन्धी निरतिशयो युहिलि इनरथा कथमथमेको उपस्थाद्वायुस्यादि । तथा सूत्राऽर्थयोरन्तरायसम्भवात् परिमन्धनं
विनाशनं सूत्रापरिमन्धः तस्ि रेरात्मनः सूत्रपठनपरावर्त्तनव्याख्यानभङ्गो भवतीत्यर्थः । अपरं च तद्न्यां शिष्याणां सूपार्थहानिः तद्ग्रहणभङ्ग इत्यर्थः । न च बहुनाऽपि कालेन तथाविधः शिष्यः किञ्चिदपि शक्यः कुतः शङ्कयात्रा हान्तमाह डावी त्यादि नियमनेन निय
स्तनेषु का स्टाऽपि बन्ध्या मी तुदुग्धदा भवति एवं मुद्गतसमः शिष्योऽपि ग्राहकुशलेनापि गुरुणा ग्राह्यमाणोऽपि नाक्षरमपि गृह्णाति ततस्तादृशस्य
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मीस
पान ली शाद भवात् शनि पत्नी मो
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बाद-ननुखः केवलं पापा
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( १०७) अभियान राजेन्द्रः ।
घादीनी जल्पः श्रभिपूर्विक
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प्रवृत्तिनिवृत्त्य किमेवेदम् सत्यम् किन्तु पूर्वमुनिभिरेवाशं प्रतिविधानम् । तद्यथा - " चरियं च कपियं चिय आहरणं दुविमेव पन्नसं । प्रत्थस्स साहण्या, इंधणमिव ओयलट्ठाए ॥ १ ॥ न वि अस्थि न वि य होही. उल्लावो मुग्म सैलमे हाणं । उपमाएका जोहार" इत्य
मनांत ।
ताव
अथ मुद्गशैलप्रतिपक्षभूर्त धनन्तमाहबुडे वि दोगामेडे, न कएहभोमा पलोडए उदयं । गणधरणासमत्थे, इय देयमछि ति कारिम्मि । १४५८ । यावता वृटेनाकाशबिन्दुभिर्महती गर्गरी म्रियते, मालवण मेघो मेष उच्यते तस्मिन्पेऽपि स ति कृष्णा भूमिर्वत्र प्रदेशेऽसी कृष्णभूमः प्रवेशस्तस्माद् न लोति पपि सम्मेलन लुडिया किन्तु प्रतिभावः । एवं शिष्योऽपि स कचिद्भवति यो गुरुमिवधारयति न पुनररमपि पार्श्वतो नीति पर्वभूते च सूत्रार्थग्रहणाधारणासमर्थे शिष्ये सूत्रार्थयोः शिष्यप्रशिष्यपरम्पराप्रदानेनाव्यवच्छेदकारिणि देयं सूत्रार्थजातम्, नान्यस्मिन्नअन्तराभिहितमुद्र इत्यन्ययव्यतिरेकात्मकत्या कमेवेदमुदाहरणम् ।
अथ द्वितीयं कुटोदाहरणं विवृण्वन्नाह - मायि इयरेय कुडा, अपसत्यपसत्यभाविया दुविहा । पुष्काईदिपसत्था, सुरतेला ईहि अपसत्या | १४५६ ॥
माय वम्मा विय, पसत्थवम्मा उ होति अग्गेज्मा । अपत्यम्मा चिय, तप्पविक्खा मये गेभा १४६० कुप्पवासने हि भाविया एवमेव भावकुडा । संविग्गेहि पसत्था, चम्माऽवम्मा य तह चैव ।। १४६१।। कुटा घटा, ते तावद् द्विविधाः पके आपको नूतना अन्याप्रियमाणवाद्यापि पुष्पलतादिनाऽमादिताः अन्येतु व्यात्रियमात्वाद्भाषिताः विशे० (भाषि तविषयः 'भाविय' शब्दे पञ्चमभागे उक्तः । ) तत्र येप्रशस्तवाम्याः प्रशस्त भावं वमयितुं शक्यास्तेऽप्राया भवन्ति, श्रनादेयाः; असुन्दरा इति यावत् । तथा येऽप्रशस्तभावं घमयितुमशक्या अप्रशस्तावाम्यास्तेऽप्यग्राह्मा भवति । 'पडिवखा भवे गेज्म' सि-तेषां प्रशस्तवाम्यानाम्,
प्रशस्तावास्यानां च ये प्रतिपक्षाः प्रशस्ता वाम्याः, प्रशस्तवाम्याश्च ते ग्राह्या श्रदेयाः सुन्दरा भवन्ति । तदेवं द्रव्यकूटास्तावत् प्ररूपिताः । भावकूटा अपि प्रशस्ताप्रशस्त साधारत्वापजीवा एपमेव भाविताभावितादिभेदात् द्रष्टव्याः केवलमत्र पछे कुप्रवचनावसन्नादिभिर्भाविताः ' श्रप्रशस्तभाविता उच्यन्ते इत्यध्याहारः । संविग्नेव साधुभिर्भावितास्ते प्रशस्ताः प्रशस्तभातु विता इत्यर्थः । ' चम्मा अम्मा य तह चेव 'ति-वाक्या
सीस
वाम्यभावनाथा द्रव्यकुटपणे तचैव माट द्रष्टव्येत्यर्थः । सा चैवम् प्रशस्तभाविता वाक्याः, अप्रशस्तभावितास्त्ववाम्याः एते उभयेऽप्यग्राह्याः । उक्तविपरीतास्तु ग्राह्या इति । तदेवमुको भाक्तिकुटपक्षः । अथानापित कुटपक्षमधिकृत्याह-
जे उस अभाविया ते, चउव्विहा अह वि मो गमो भो । किडमिनखंडे, सगले य परूवणा तेर्सि ।। १४६२ ।। ये पुनरभाविताः कुटास्ते छिन्नभिन्नखण्डसकलभेदाश्चतुविधाः | अथवा भाविताऽभावितपक्षनिरपेक्ष एवायमभिक्षादिको गमः प्रकारो त्यर्थः । तमेवा'छिड़कुडे' त्यादि, इह कुटो-घटः कोऽपि तावच्छिद्र - वति, बुग्ने सच्छिद्रो भवतीत्यर्थः । अन्यस्तु भिन्नो राजिमान् भवति । तृतीयस्तु चतुर्थस्तु सकतः परिपूर्ण एव भवति । एतेषां च चतुमपि फुटशां दान्तिकमधिकृत्य प्ररूपणा स्वयमेव कार्या, यथा कोऽपि शिष्यः श्रुतमाधित्य टिकल्यो भवति कि भिन्नघटकल्प इत्यादि वाच्यमिति ।
अथ कममा चान्युदाहरणमनिधित्सुः मङ्गलच्छिद्रकुटचालन्युदाहरणानां परस्पराभेदोद्वावशिष्यमतं च निराचिकीर्षुराहसेले य छिडचालणि, मिहोकहा सोउमुट्ठियाणं तु । छिट्टाह तत्थ विट्ठो, सुमरिंसु सरामि नंदाणि । १५६३॥ एगेण विसर बीए - ण नीइकत्रेण चालणी आह । धनस्थ आह सेलो, जं पविस नी या तुकं ।। १४६४ ॥ शैलब्द्रिकुटवालग्युदाहरसे प्रतिपादिताः शिष्या अप्युपचारात् तथोच्यन्ते, तत्सादृश्यात् । ततश्च शैलच्छिद्र - कुटशिष्याणां गुर्वन्तिके व्याख्यानं या उत्थायान्यत्र गतानां मिथः परस्परं कथा समभवत् । की, इत्यादिशियः प्राह किम् इत्याह-तत्र गुरुसमीपे उपविष्टस्तदुकमस्मार्थमहम्, इदानीं तु न किमपि स्मरामि । छिद्रघटा ह्येवंविध एव भवति । सोऽपि स्थानस्थितो मुङ्गादिकं प्रक्षिप्तं धरति अन्यत्र तूत्क्षिप्य नीतस्य तन्न प्राप्येत, अविगलित्वा निःस्यात्कल्पः शिष्यो उपस्थमाइति भावः निशिया
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नील्या शे' स्यादि चालनी कल्पः शिष्यव लनी, स प्राह- मोश्छिद्रकुट ! शोभनस्त्वम्, येन गुरुसमीपस्थेन त्वया तावदवधारितं तद्वत्रः पश्चादेव विस्मृतम् मतिकेऽपि खितस्यैकेन कसैन विशति, द्वितीयेन नितिन पुनः किमपि हृदये स्थितम् । तु कलिकादियाला अपि हि जलादिकमुपरिभागे विशिष्यते तु न तु किमपि संहिते दुपमः शिष्योऽपीत्यमेवादेति भावः । तदेवं कूटचालनीभ्यामेवमुक्रे मुल माह पनयेत्यादि मुशैली बदधिम्यात्र युवाम् पद्यात्कारणाद्
अतस्त
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यस्ता किमपि प्रविशति निति । मम त्वेतदपि नास्ति, तदुक्तस्य सर्वथाऽसि मध्ये प्रवे
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(१०८) सीस अभिधानराजेन्द्रः।
सीस शाभावात् , उपलस्यैवंविधत्वादेवेति । तदेवं चालन्यु
अथ हंसोदाहरणव्याख्यामाहदाहरणस्य स्वरूपमुक्तम् , शैलच्छिद्रघटचालन्युदाहरणानां
अंवत्तणेण जीहाए, कूचिया होइ खीरमुदगम्मि । परस्परं विशेषश्चाभिहितः ।
हंसो मुत्तूण जलं, आवियइ पयं तह सुसीसो ॥१४६७।। अथ चालनीप्रतिपक्षमाहतावसखउर कठिणयं,
दुग्धं च जलं च मिश्रयित्वा भाजने व्यवस्थाप्य कोऽपि चालणिपडिवक्खों न सवइ दव्वं पि ।
हंसस्य पानार्थमुपनयति , स च तम्मध्ये चञ्चु प्रक्षिपति ।
तस्य च जिह्वा स्वभावत एवाम्ला भवति । सेन च जिपरिपूणगम्मि, उ गुणा,
द्वाया आम्लत्वेन हेतुभूतनोदकमध्यगतं दुग्धं विलित्या गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ १४६५ ।।
कृचिका बिन्दुरूपा बुदबुदा भवन्तीत्यर्थः । ततश्च जलं चालनीप्रतिपक्षः भवति' इति शेषः । कीदृशः ? इत्याह- मुक्त्वा तद् बुबुदीभूतं दुग्धमापिबति हंसः। तथा सुशितापसानां भोजनादिनिमित्तमुपकरणविशेषः 'स्व उरकठि- योऽणि गुरोर्जलस्थानीयान् दोषान् परित्यज्य दुग्धस्थारणक' उच्यते। तच्च किल वंशं शुम्बादिकं च द्रव्यमतिश्ल- मीयान् गुणान् गृह्णातीत्यर्थ इति । वणं कुट्टयित्वा कमठकाकारं क्रियते । इदं चातिनिविडत्वा
अथ महिषोदाहरणं विवृण्वन्नाहस द्रव्यं , जलमपि प्रक्षिप्तं न स्रवति, किन्तु सम्यग धरति एवं शिष्योऽपि यो गुरुभिराख्यातं सर्वमेव धरति, न वि
सयमवि न पियइ महिसो,नय जूहं पियइ लोडियं उदगं। स्मरति, स ग्राह्यः, चालनीसमस्त्वग्राह्य इति भावः । अथ विग्गहविगहाहि तहा,अत्थकुपुच्छाहि य कुसीसो।१४६८ परिपूणकोदाहरणमाह--'परिपूणग'-इत्याद्युत्तरार्धम् । प- स्वयथेन समं वनमहिषो जलाशये क्वचिद् गत्वा तन्मरिपूणको नाम सुबरीचिटिकाविरचितो नीडविशेषः , तेन ध्ये च प्रविश्योद्वर्तनपरावर्तनादिमिस्तथा तज्जलमालोडच किल घृतं गाल्यते, ततस्तत्र कचवरमवतिष्ठते, घृतं ग
यति यथा कलुषितं सद् न स्वयं पिबति , नापि तयूथम् । लित्वाऽधः पतति, एवं परिपूणकसदृशः शिष्योऽप्युपचा- एवं कुशिष्योऽपि व्याख्यामण्डलिकायामुपविष्टो गुरुणा, रात् परिपूणकः । तत्र हि श्रुतसम्बन्धिनो गुणाः सर्वेऽपि अन्येन वा शिष्येण सह विग्रह कलहमुदीरयति, विकघृतवद् गलन्ति , दोषास्तु घृतगतकचवरवद्वतिष्ठन्ते, श्रु- थाप्रवन्धं वा किञ्चिच्चालयति , संबद्धासंबद्धरूपाभिरनवतस्य दोषानेव गृह्णाति , गुणांस्तु सर्वथा परिहरत्यसी , रतमुपर्युपरिपृच्छाभिश्च तथा कथञ्चिद् व्याख्यानमालाडअतोऽयोग्य इति भाव इति ।
यति, यथा नात्मनः किश्चिद् पर्यवस्यति, नापि शेषविनेयाअत्र प्रेर्यमुत्थाप्य परिहरनाह
नामिति । सधएणुप्पामन्ना, दोसा हुन संति जिणमए केह।
मेषोदाहरणमाहजं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवेज्ज ॥१४६६॥ अविगोषयम्मि वि पिवे, सुढियो तणुयत्तणेण तुंडस्स । ननु सर्वक्षप्रामाण्यात् सर्वक्षोऽस्य प्रवर्तक इति तोर्जि- न करइ कलुसंतोयं, मेसो एवं सुसीसो वि ॥ १४६६।। नमते दोषाः केचिदपि न सन्तीत्यर्थः, तत् कथमस्य को.
जलभृत कचिद् गोपदेऽपि सुढिो' त्ति-संकुचित्ताको ऽपि दोषान् ग्रहीष्यति, असत्त्वादेव ? इति भावः । सत्य
मेष ऊरणकः पिज्जलम् , न च तत् कलुपं करोति । केन म् , किन्तु यद्यपि जिनमते दोषा न सन्ति, तथाऽप्यनु
हेतुना ? इत्याद-तनुकत्वेनाग्रभागे श्लपणत्वन तुण्डस्य-मुपयुक्तस्य गुरोर्यत् कथनं व्याख्याविधानं तदाश्रित्य दोषा
खस्येति। अग्रपादाभ्यामवनभ्य तीचणेन मुखन तथासी जभवयुरिति सम्बन्धः। अथवा-अपात्रम्-अयोग्य शिष्यमङ्गी
लं पिवति यथा सर्वथैव कलुषं न भवति । एवं सुशिष्यो:कृत्य जिनमतेऽपि तदुत्प्रेक्षिता दोषा भवेयुः , निर्दोषेऽपि
पि तथा गुरोः सकाशाद् निभृतः श्रुतं गृह्णाति यथा तस्य जिनमतेऽपात्रभूताः शिष्या असतोऽपि दोषानुद्भावयन्त्ये
परिषदो वा न कस्यचिद् मनोबाधादिक कालुप्यं भवतीति । वेत्यर्थः । तथा च ते वक्रारो भवन्ति । तद्यथा"पागयभासनिबद्धं, को वा जाणइ पणीय केणयं ।
मशकजलूकादाहरणद्वयविवृतिमाहकिं वा चरणणं णु, दाणेण विणा उ हवा त्ति ॥१॥ मसउ ब तुदं जच्चा-इ पहि निच्छुब्भए कुसीसो वि । कायायया य तच्चिय, ते चेव पमायअप्पमाया य । जलुगा व अमंतो,पिबइ सुसीसो वि सुयनाणं ।१४७०। मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहि किं कज? ॥२॥
यथा मशको जन्तूंस्तुदते-व्यथयति । ततश्च वस्त्राश्चलाको पाउरस्स कालो, मइलंबरधोयणे य को कालो?।
दिभिस्तिरस्कृत्य दूरीक्रियते, तथा कुशिष्योऽपि जात्यादिजइ मोक्खहेउ नाणं, को कालो तस्सऽकालो वा ? ॥३॥"
दोषोद्धाटनैर्गुरुं तुदन-व्यथयमानो निष्कास्यते परिहियत इत्यादि । असन्तश्च सर्वेऽप्यमी दोषाः, “बालस्त्रीमूढमू
इति । जलूका पुनर्यथाऽसृग् पिबति, नचासृग्मन्तं व्यथयर्खाणां, नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहार्थे तत्त्वः , सि
ति , तथा सुशिष्योऽपि गुरुभ्यः श्रुतज्ञानं पिबति-गृह्णातिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ॥१॥" "पुब्बभणियं पिजं वत्थु ,
न तु जात्युद्धाटनादिना दुनोतीति । भन्मए तत्थ कारण अस्थि । पडिसेहो य अणुन्ना , वत्थुविसेसोवलंभो वा ॥१॥” इत्यादिना शास्त्रान्तरे विस्तरेण
बिडाल्युदाहरणमाहनिराकृतत्वादिति ।
छडेउं भृमाए, खीरं जह पियइ दुट्ठमारी।
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परिसदुट्टियों पासे, सिक्स एवं वियमंसी । १४७१। यथा दुष्टमार्जारी तथाविधस्वभावतया स्थाल्याः क्षीर भूमौ छर्दयित्वा पिवति न पुनस्तत्स्थम् । तथा च सति न तस्यास्तथाविधं किञ्चित् पर्यवस्यति । एवं विनयाद् भ्रश्यतीति विनयभ्रंशी - विनयकरणभीरुः कुशिष्यो गोष्ठामाहियत् परिचादीनामिव शिक्ष
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हामि न तु गुरोः समीपे नियत्। इद दुमाजरीस्थानीयः कुशिष्यः भूमिकल्पस्तु परि पत्थिताः शिष्याः दुग्धपान तु afafa |
(202) अभिधान राजेन्द्रः ।
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जाइकोदाहरणमाह
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पाउं थोडं थोडं खीरं पासा जागो (जह ) लिहइ । एमेजयं काउं, पुच्छर मइमं न खेएइ || १४७२ ॥ यथा भाजनगतं क्षीरं स्तोकं स्तोकं पीत्वा ततो जाहका सह(डुलको भाजपा लेडि पुनरपि यस्तोकं तत् पीत्वा भाजनपार्श्वानि लेढि एवं पुनः पुनस्तावत् करोति यावत् सर्वमपि क्षीरं पीतमिति । एवं मतिमान् सुशिष्योऽतनं गृहीतं श्रुतं जितं परिचितं कृत्वा पुनरन्यद् गृह्णाति एवं पुनः पुनस्तावद् विदधाति यावत् सर्वगुरोः सकाशाद द्वाचिगुरुं यतीति । अथ गोदृष्टान्त उच्यते तत्र च केनापि यजमानेन वेदान्तर्गत ग्रन्थविशेषाध्ययननिमित्तचरणशब्दवाच्येभ्यश्चतु· क्यों शेषेभ्यो गोत मातेन ते ब्राह्मणाः पारकेणासी भवद्भियग्पण्या इति । अम्बे योऽपि च चतुश्वाद्विजेभ्यो गौरका तेन प्रदत्ता | तेऽपि च तेन तथैवोक्ताः । तत्र च प्रथमद्विजानां मध्ये ज्येष्ठमासेन केनचिद गौः स्वगृहे नीत्या दुग्धा 1 तथाप्रदानवेलायां चिन्तितं तेन ।
"
किम् ? इत्याहभो दो कल्ले, निरस्थि किं बहामि से चारिं । उचरणगवीउ मया, अवनदासी व बहुया । १४७३ । सेनेथिस्तितम इन्त धारकास म्पो ग्राह्मणः कल्पे तादेति ततः किमद्य निर्थिकामस्याधारी यहामि योऽपि हि तां दास्यामि इति विनिश्चित्य
तस्याश्वारी प्रवृत्ता । ततो द्वितीय दिने द्वितीयेनापि द्विजातयेन तथैव कृतम्। एवं यदिने ना चतुर्थे दिने चतुथेनापि तथैव चेष्टितम् । इत्थं च चारिविरहिता दुह्यमाना कतिपयदिनमध्ये चतुर्ण चरणानां सम्बन्धिनी सा गौर्मृता । ततश्च तेषां बहूनां गोहत्या समभवत् । | जने चाववादी जातः, हानिश्च तेषां ततो यजमानात्या वादामामायादिति चतुर्भिश्वर गर्लब्धा, तन्मध्ये प्रथमद्विजस्तां दुग्ध्वा चारीप्रदानवेलायामचिन्तयत् किम् ?. इत्याह
"
मा मे हो अवलो, गोवज्झा वा पुणो वि न दविजा । वयमचि दोकामो पुरा अहो अद्धेपि ।। १४७४ ।। मा भूजनमध्ये ममाययादः गोहत्या वा मा भूत् यस्याधारी प्ररुद्धामि यदि तु न दास्यामि तदा संजा २२८
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सफलाभ्यं पुनचादिकं किमपि कोऽपि न दास्यतिं । श्रपरञ्च, एतस्याश्चारीप्रदाने को दोषः ? प्रत्युत गुण एच बतधारीप्रदानमेतां पुनरपि वारा वयमेव घोदामः दिवान्येनापि ब्राह्मणेन दुग्धायामेतस्याममेवानुमद इति ।
अयोपनमाह
सीसा परिच्छगाणं, भरो त्ति ते वि य हु सीसगभरो ति । न करेंति सुतहागि, अमरथ दुलई तेसिं ॥१४७७ ॥ चि गुरोर्विकर्मकर्त्तव्ये स्वीचिताः शिष्यास्ता चच्चिन्तयन्ति । किम् इत्याह- प्रतीच्छकानामुपसंपन्नानामागन्तुक शिष्याणामयं गुरोर्विनय करवाया रः किमस्माकं तेषामेव साम्प्रतं वल्लभत्वात् ? इति । तेऽपि च प्रतीच्का एवं संप्रधारयन्ति निजशिष्याणा मेवाऽयं भरः, किमस्माकमागन्तुकानामद्य समागतानामन्येइति एवं संप्रधार्योमयेऽपि रोकचिनियास्यादिकं कुर्वन्ति ततख गुरुषु सीदन् सूत्राहानिः अन्यापि च मतानां तेषां दुर्बिनीसानां दुर्लभं सूत्रम् । अयंध उपलक्षणत्यादयेयवादादयो दोषाः स्वयमेवाभ्युह्याः । श्रयं च दुर्विनीतशिव्यपनयः कृतः सुविमानस्तुस्थि यमेव कर्त्तव्य इति ।
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भेरीदृष्टान्तमाह
कोमुइया तह संगा-मिया य उम्भुवा य मेरीओो । कस्सासिता, असमी उत्थी ।१४७६ ।। सकपसंसा गुणगा - हिकेसवो नेमि वंद सुखदंता । आसरयणस्स हरणं, कुमारभंगे व जुद्धं । १४७७॥ नेहि जिओ म्हि ति अहं, असिवोवसमीऍ संपयां च । छम्मासियघोसणया, पसमइ न य जायए अन्नो । १४७८ । आगंतुवाहिखोभो, महिडिमुल्लेण कंथ दंडण्या | श्रमश्र राहणन भेरिअनस्स ठवणं च ॥१४७६ ॥ श्रासां भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्च 'गोणीचन्दनकंथा' इत्यत्र सविस्तरं कथितमेव । इह चेत्थमुपनयोऽपि द्रष्टव्यः । यः शिष्योऽशिवोपशमिकां भेरी प्रथमरक्षक इव जिनगर रूपां मेरी परमतादिि न्थीकरोति स न योग्यः, यस्तु नैवं करोति स द्वितीयभेरीरक्षक इव योग्य इति ।
अथाऽमी विवाह-
मुकं तया अगहिए, दुष्परिग्गहियं कयं तथा कलहो । पिट्टा अचिरविकप- गए चोराय उग्ये ॥ १४८० | इह च कथामकैन भावाचे उच्यते तथा कुर्नाश्चद् ग्रामाद् गोकुलाद् वाऽऽभीरीसहित श्राभीरो घृतचारकाणां गन्त्री भृत्वा विक्रयार्थ पत्तने समागतः । विक्रयस्थाने च ग
अस्ता] भूमायाभीरी स्थिता । श्राभीरम्परि स्थितस्तस्या घृतचारकं समर्पयति तानुयोगन से मर्पण या तारके मझे आभीरी याद-भारा !
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अभिधानराजेन्द्रः।
सीस नगरतरुणीनां मुखान्यवलोकयमानेन त्वया घृतचारकोऽयं चनास्तु परिणामपरिणामाः । विशे। श्रा० म०। (विनीतमयाऽगृहीत एव मुक्तः, ततो भग्नः । श्राभीरस्वाह-रण्ड ! स्यैव सामायिकं दीयते इति 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव नगरयूनां बदनानि वीक्षमाणया त्वयैव दुष्परिगृहितोऽयं भागे उक्तम् । ) कोइ सुसीसो पायरियकुलवासिकृतः, ततो भग्नः, इत्युभयोरपि कलहः समभवत् , पिट्टिता जातिकुलरूबसुयायारसत्तविणयसंपन्नो ण दुगुंछो अच तेनामीरी । कलहयतोश्च तयोरन्यदपि घृत बहु छर्दित- भीरुसत्तिो विणेश्रो गंभीरो अदीणो न रुसणो न कुसीम् । उद्वरितशपेण च घृतेनोत्सूरेऽर्थो ऽप्यूनो लब्धः । इतरे- लो ण चवलो ण बहुभासी रण गारावितो ण तुरितो - षु सार्थिकेषु घृतं विकीय गतेषु तयारेकाकिनोर्गच्छतो. संपसारो ण पेसुणो ण परोवताईरण अत्तट्टगुरुओण मच्छरी तद्रम्मा गन्त्री बलीबर्दाश्च सर्व तस्करैरपहृतमिति ।
न अकयन्नू ण श्रहाच्छदो न मंदो ण संदिट्टयादी सढो एवं दृष्टान्तमभिधायोपनयमाह
ण दिनकयपससी ण दिनकयपच्छाणुनावी णातिसिद्दी ण
पडिकलो नालसो ग तरहालू ण छुहालू ण असंतट्रो मा निएहवइ य दाउं,
नादसकालन्नू ण वट्टा णाकालचारी ण मूढो ण णिज्जा उबजुञ्जिय देहि किं वि चिंतेसि ।
णाणस्स कारणे विप्पवसति एगागी। ण कंदप्पिो ण बच्चामेलियदाणे,
कोकुइतो ण मोहरितो ण श्रागारभावसुत्तवयतेणो उज्जुकिलिस्ससि य तं च हं चेव ॥१४-१॥
भावा विसुद्धसंमत्तो दढचरित्तो दढाभिग्गहो सुगुत्तो स
मितो समयन्नू दढोग्गहो दढीहो इढायाश्रो दढधारणो चिन्तनिकाद्यवस्थायां वितथं प्ररूपयन् , अधीयानो वा
णायरियपारिभासी, भत्तिगतो अणुरत्तो पडिरूवेहि ति उ गुरुणा शिक्षितः शिष्या जगाद-त्वयैव मत्थं व्याख्यातं ,
अणुलोमो गणसोभी संघसोभी छंदन्नू , अवायन्नू सुहदुपाठितो वा त्वयैवैवविधम् , अतस्तवैव दोषोऽयम् , किं
क्खन्नू अणुइ-ऽणुत्तन्नू विसेसन्नू उज्जुत्तो अपरितंतो मां शिक्षयसि ? । प्राचार्यः प्राह-न मयैवमुपदिष्टम् । कुशि
बहुस्सुतो ग अंतरकहापुच्छी ण समइच्छितपुच्छी गा उ. ध्यो ब्रवीति-हन्त ! साक्षादेव मम पुरस्सरमित्थं सूत्रमर्थ वा दत्त्वा सूरे !.मा निहोष्ठास्त्वम् । इत्थमुक्त श्राचार्यः किमप्य
द्वितपुच्छी सुहासविणयपुच्छी मेहावी धितिम विसुद्धवा.
को पियधम्मो दढधम्मो संविग्गो महविप्रो अमाई चिरपव्व. न्तायन् पुनरप्यक्रः शिष्याभासन-किं बलीवत पाति
इओ सुपडिचोइओ अविसाई अपारस्साई पब्बयभूश्रो पत इव विचिन्तयसि , भव्यगत्योपयुज्योपयुक्तो भूत्वा देहि
नयभूतो अणुनतमाणो सुत्तत्थभावपरिणामो एवमादिएहि सूत्राऽर्थी, व्यत्यानेडितदाने वितचसूत्रार्थप्रदाने केवलं त्वम् ,
गुणेहिं उववेतो बहुसुपरिसपरंपरागयं चिरपरूढजिणिदवरअहं च क्लेशमेवानुभवावः । तदित्थं स्वदोषाप्रतिपत्तौ गुरुदो
सासणं कालावस्सगं सोउकामो। प्रा० चू०१०। पोद्भावनेनाभीरमिथुनस्येव गुरु-शिष्ययोः कलह एव प्रवर्तते। तथा च सति व्याख्याव्यवच्छित्ति-सूत्रार्थहान्यादयो दोषाः। साम्प्रतमेतेषां मुद्गशैलसदृशादीनामाभीरीसदृशपर्यवसानापत्र प्रतिपक्षः स्वयमेव द्रष्टव्यः , तथाहि-अन्योऽप्या- दाने प्रायश्चित्तमाहभीरः किल सकलत्रस्तथैव कापि नगरे घृतविक्रयार्थे गतः । कल त्रस्य च चारके समर्पिते भग्ने 'अहो ! मयाऽनुपयुक्तेन
सेलकुडछिद्दचालणि, सुद्धो चउगुरुग घडिदुवे होति । समर्गितोऽयम्' इति ब्रुवाणो झगिति गन्त्र्याः समुत्तीर्य परिपूणमहिसमसए, विरालिबाभीरि एमेव ॥ ३६५ ॥ कपरकैघृतं संवृणोति । भार्याऽपि धिम् मयाऽनुपयुक्तया
एमेव गोणिभेरी, हंसे मेसे य जाहगजलूगा। दुष्परिगृहीतः कृतोऽसौ.तेन भग्नः' इति वदन्ती तथैव तत संवृणोति । ततश्चान्योन्यं कलहे अजात उभयसंवृत्या घृतं चउलहुगमदाणम्मि, पावति एतेसु आयरितो ॥३६६।। शीघ्रमेव विक्रीतम् । सार्थिकैश्च सह क्षेमेण स्वस्थानं जग्मतुः। एवं गुरु-शिष्या अपि स्वदोषं प्रतिपद्यमामाः परदोषं तु निह्न
मुद्गशैलछिद्रकुटचालनीसमानानां गुणनालक्षणेन कार्य स
मापतिते सूत्रमर्थ वा प्रयच्छन् शुद्धो न खलु तत्र तस्यान्येषां याना येऽन्योन्यं न विवदन्ते, त एव सूत्राऽर्थग्रहणप्रदान
चा शिष्याणां सूत्रार्थहानिः, अकार्येषु तेषु सूत्रार्थों प्रयच्छयोयोग्या भवन्ति, निर्जरादिलाभभागिनश्चेति ।
तश्चतुर्गुरु। तथा घटिद्विके प्रशस्तवाम्ये अप्रशस्तवाम्ये । । तदेवं योग्या योगान् गुरून् शिष्यांश्चोपदोपसंहारपूर्वकं अथवा-चोडकुटे भिन्ने कुटे व्याख्यानद्वयेन संग्रहतश्चतुतत्फलमाह
र्थः तेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चतुर्गुरु । परिपूणकसदृशे मभणिया जोग्गाऽजोग्गा, सीसा गुरवो य तत्थ दोएहं पि।
शकतुल्ये विडालीसमाने आभारीसदृशे अप्रशस्तगोस
मुपलक्षितधिग्जातीयतुल्ये कन्थाकारिभेरीपाल कसदृश एपेयालियगुणदोसो,जोग्गो जोग्गस्स भासजा ॥१४८२।।
तेषु सप्तसु सूत्रार्थो प्रयच्छतः प्रत्येक प्रायश्चित्तमेवमेव चतभणिता योग्याऽयोग्या गुरुशिष्याः। तत्रद्वयोरपि गुरुशिष्य- गुरुकमित्यर्थः, एतेषां ये प्रतिपक्षा हंसादयो ये च प्रशस्तगी. योर्विचारितगुणदाणे योग्यो गुरुयोग्याय शिष्याय सूत्रार्थी- भेरीदृष्टान्तसूचितास्तेषां सूत्रार्थी प्रयच्छन् शुदः, यदि पुनर्न भाषेतेति । विशे० प्रा०म०शिष्यास्त्रिविधास्तद्यथा-अपरि ददाति तदा प्रायश्चित्तं प्राप्नोति चतुर्लधु । बृ० १ उ०१प्रक०। णामा, अतिपरिणामाः, परिणामपरिणामाश्चेति । तत्राविपुल- 'समणाउसो' त्ति संबोधनेनापृच्छतोऽपि शिष्यस्य हिताय मतयो गीतार्था अपरिणतजिनवचनरहस्या अपरिणामाः,अ. तत्त्वमाख्येयम् । स्था०३ ठा०२ उ०। श्रायुष्मानित्यनेन ग्रहण तिव्यानरपवादप्रयोऽतिपरिणामाः, सम्यकपरिणतजिनव- धारणादिगुणवते शिष्याय शास्त्रार्थो देय इति । स्था० १
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सीस अभिधानराजेन्द्रः।
सीसगधम ठा० । “ महुरेहिं निउणेहि, वयणहिं चोययंति पाय- | ति , अहे णं से तं भट्टि केलिपण्णत्ते धम्मे प्राघवत्ता रिया । सीसे कर्हिति चलिए, जह मेहमुणि महावीरे ॥१॥" परणवत्ता परूवइत्ता ठावतित्ता भवति ,तेणामेव तस्स झा०१ श्रु०१०
भट्टिस्स सुपडियारं भवति ॥२॥ केइ तहारुवस्स समणस्स श्राचार्यसेविनः शिष्या धन्याः
वा महणस्स वा अंतिय एगमवि पायरियं धम्मियं सुव
यणं सोचा निसम्म कालमासे कालं किच्चा अन्नतधना पायरियाणं, निच्चं पाइञ्चचंदभूत्राणं । रेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने । तए णं से देवे संसारमहनवता-रयाण पाए य णिवयंति ॥ ३१ ॥ तं धम्मायरियं दुभिक्खाओ देसाप्रो सुभिक्खं देस इहलोइयं च कित्ति, लहंति आयरियभत्तिराएणं ।
साहरजा , कंताराओ या निक्वंतारं करेजा , दी
हकालिएण वा रोगायंकेणं अभिभूयं विमोएजा, तेण वि देवगईसु चिसुद्धं, धम्मेण अणुत्तरं बोधिं ॥ ३२॥
तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति । अहेम से तं ध देवा वि देवलोए, निच्चं देवोहिणा वि आणीता। म्मायरियं केलिपएणत्तानो धम्माओ भटुं समाणं भुजो के
वलिपन्नत्ते धम्मे श्राघवत्ता जाव ठाबइत्ता भवति, तेणाआयरियाणुसरंता, पासणसयणाणि मुंचंति ॥ ३३ ॥
मेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियार भवति ॥३॥, तथा देवा वि देवलोए, निग्गंथं पवयणं अणुसंरतो।। सर्वेष्वपि गुरुः सुदुष्करतरप्रतीकारः ।यदुनं श्रीउमास्वाअच्छरगणमझगया, पायरिए वंदिया हुँति ॥ ३४ ॥ तिवाचकपादैः प्रशमरतिग्रन्थे-"दुष्प्रतिकारौ माता-पितरौ द०प०।
स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुदुष्करत.
रप्रतीकारः ॥ १" इति , अनुष्टुपच्छन्दः॥१॥ग०१ अधिका यः शिष्योऽपि गुरोर्वैरी तमाह
(अथ शिष्यस्वरूपप्रतिपादनद्वारेण गच्छस्वरूपप्रतिपादनं सीसो वि वेरिओ सो उ, जो गुरुं न विवोहए । ' गच्छ' शब्दे तृतीयभागे ८०२ पृष्ठे प्रतिपादितम् ।) पमायमइराघत्थं, सामायारीविराहयं ॥ १८॥
(राजपुत्रस्य शैक्षाकृतस्य कारणे संयत्युपाश्रये स्थापनमिति
'वसहि' शब्दे षष्ठभांग गतम् ।) ( शिष्यस्य हस्ताशिष्योऽपि-विनेयोऽपि स वैर्येव-शत्रुरेव । तुः-एवकारार्थों भ्यां ताडनम् 'अणयट्टप्प' शब्द प्रथमभागे २६७ पृष्ठे गतम्।) भिन्नक्रमच,सच योजित एवायो गुरूं-धर्मोपदेशन थियो (शैक्षविषयोऽवग्रहः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे ७१६ पृष्ठे धयति-हितोपदेशदानेन धर्म न स्थापयति । किंभूतं गुरुमित्या. उक्तः ।) (शिष्याऽऽभवनव्यवहारः 'ववहार' शब्दे षष्ठभागे ह-प्रमादमदिराग्रस्तम्, प्रमादो-निद्राविकथादिरूपः स एवं गतः ।) (परिहारतपःप्रतिपद्यमानेन प्रवजिताः शिमदिरा-वारुणी प्रमादमदिरा तया ग्रस्तः, तथाविधतत्त्व- प्याः कस्यति 'अायरिय' शब्दे द्वितीयभाग ३२४ शानरहित इत्यर्थः तम् , पुनः किंभूतं गुरुं सामाचारीविराधकं पृष्ठे उक्तम् । ) (हेमन्त ग्रीष्मयोर्विहारप्रस्तावे प्रवजिषुर्गशैलकाचार्यवत् । किंञ्च-महोपकार्यपि शिष्यादिः केवलिप्र- च्छेत्कस्य सः इति खेत्त' शब्दे तृतीयभागे ७६५ पृष्ठे गशप्त धर्म स्थापनं विना गुवोदः प्रत्युपकारकारी न स्यात् । तम्।) ('णायबिहि'शब्दे चतुर्धभाग २००८पृष्ठे तत्र शिष्यलाभे यदुक्तं स्थानाङ्गे-'तिर दुप्पडिआर समणा उसो, तं जहा-अ- कस्येत्युक्तम् ।) (चारिकाप्रविष्टस्योपसंपद्यमानस्याध्ययनावम्मापिउणो १, भट्टिस्स २, धम्मायरियस्स ३ । संपातो वि सरे शैक्ष श्रागच्छेत् स कस्येत्युक्तम् ' चरियापविट्ठ ' शब्दे यण केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं ते- तृतीयभागे ११६२ पृष्ठे । ) ( ''उपसंपथा' शब्दे द्वितीलहिं अमंगेत्ता सुरभिणा गंधवट्टएण उध्वट्टित्ता तिहि उ- यभागे १००३ पृष्ठे द्वयोरेकेन लाभे कस्येति गतम् । ) दगेहि मजावेत्ता सव्वालंकारविभूसियं करेता मणुनं था
('संजोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे संयोगनिक्षेपस्यानके लीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउल भोयणं भोयावेत्ता जावज्जी- शिष्यगुणा उक्नाः।) वं पिट्ठिवडिसियाए पांडवहेज्जा, तणावि तस्स अम्मापि- सीस-न० । धातुभदें, प्रशा० ११ पद । उस्स दुप्पडियारं हवा' । दुःखेन-कृच्छेण प्रतिक्रियते
सीसउच्चंपिय-शीर्णोच्चम्पित-न० । शीर्षम् उत् प्राबल्येन चप्रत्युपक्रियते इति दुष्प्रतिकारं प्रत्युपकर्नुमशक्यमिति याबत् । अहे णं से तं अम्मापियर केवलिपन्नत्ते धम्मे श्रा
पितं यत्र तच्छीर्षाचम्पितम् । तस्मिन् , यद्वा-शीचे उत्घवत्ता परणवत्ता परुवइत्ता ठावइत्ता भवति , तेणा
प्राबल्यन चम्पितमाऋमितं यत्तत्तथा, तस्मिन् , शयोंमेव अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो!' सु
चम्पिते कमलकोष्ठाकारे , सं०।। खेन प्रतिक्रियते-प्रत्युपक्रियते इति सुप्रतिकारं तद्भवति, सीसकवाल-शीर्षकपाल-न० । दुर्गन्धिमस्तकापरे, तं। प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः। धर्मस्थापनस्य महोपकार- सीहखाइय-सिंहखादित-न० 1 सिंहभक्षणे, पं०व०२ द्वार । स्वात् १ । केति महश्चे दरिइं समुज्जा , तए णं से
| सीसग-सीसक-ना पारदजे धातुभदे, प्रशा०१ पद । प्राचा दरिद्दे समुकिटे समाण पच्छा पुरं च ण विपुल भोगस
पारदे , जी. १ प्रति०। सूत्र। स०। प्रज्ञा । मितिसमरणागर यावि विहरेजा । तर णं से महश्च अराणया कयाइ दरिद्दीहए समाणे तस्स दरिद्दस्स अंतिय ह
सीसगपाय-सीसकपात्र-न । सीसकधातुमये पात्रे, प्राचा ब्वमागच्छेजा, तए ण से दरिदे तस्स भट्टिस्स सव्वस्स
२ श्रु०१ चू०६०१ उ० मवि दलयमाणे तेणावि तस्स भट्टिस्स दुप्पडियारं भव- सीसगभम-शिष्यकभ्रम-पुं० । शिष्या एव शिष्यकाः तषां
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मीसगभग
विपी० १ ० ३ ५० । शीर्षक भ्रम पुं० शीर्षकं शिर एवं शिरः कर्थ वा तस्य अमो व्यभिचारतया शरीररक्षकत्वेन वा येषु ते शीर्षक भ्रमाः । राज्ञामभ्यन्तरपुरुषेषु, विपा० १ ० ३ ० । सीसगुण-शिष्यगुण- पुं० । शुश्रूषादिके शिष्ययोग्यतागुणे, "सुरसा हिच ईओ चं करणं सम्मं, एमाई होति सीसगुणा ॥ १॥" उत्त० १ ० । सीसघडी - शीर्षघटी - स्त्री० । शीर्षमेव घटी तदाकारत्वात् शीर्षघटी। मस्तकहड्डे, उपा० २ श्र० । तं० । 'सीसघडी कंजिय-शीर्णपटीकाकन० कपालकरखरसे
(१२) अभिधान राजेन्द्रः ।
सीहगड
शिष्यकक्षमाः विनीतया शिष्यनुरूपेषु |सीसागुगुण-शिष्यानुगुण्य- त्रि० विनेयमभिप्रायानुरोधे
द्वा० १४ द्वार ।
सीसावेद- शीर्षावेष्ट- पुं० । श्रचर्मादिमये शिरीबन्धने,
सी घडी विणिग्गय शीर्षघटी विनिर्गत त्रि० । शीर्षमेय घटी सदाकारत्वात् शीर्षघटी, तस्या विनिर्गत इव विनिर्गतम् । शिरोघटीमतिक्रम्य वर्तमाने, उपा० २ श्र० । 'सीसता- शिष्यता- स्त्री० । शिक्षणीयतायाम् भ० १२ २०
,
७ ॐ० ।
1
सीसदुपारिया शीर्षद्वारिका श्री० शीर्षस्थावर नि० पू० ३. उ० । ( अन्य यूथकेन शीर्षद्वारं न कर्त्तव्यमिति श्रमकिरिया' शब्दे प्रथमभागे ४८० पृष्ठे गतम् । ) 'सीसपहेलियंग- शीर्ष टेलिफाङ्ग १० तुरशीलिगु
चूलिकाकाले भ० ६ श० ७ उ० । चतुरशीतिलक्षगुणिते महौघे, ज्यो० २ पाहु० । स्था० । अनु० । 'सीसपहेलिया - शीर्षप्रहेलिका- स्त्री० । वाचनान्तरेण चतुरशी'तिमहौघशतसहस्राराधेकशीर्षप्रहेलिकाङ्गम् । ज्यो० २ पाहु० । म० चतुरशीति शीर्षदेखिका अनु० । शीर्षदेखिका चतुरशीलिकाति । अस्याः स्वरूपमङ्कतोऽपि दर्श्यते - ७५८.६३२५३०७३० '१०२४११५७६७३५६६६७५६६६४०६२१८६६६८४८०८०९८३२६ | ६, अग्रे चत्वारिंशं शून्यशतम् १४० तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वानिवत्यधिकशत संयाम्यस्थानानि भवन्ति | अनु । कर्म० । स्था० । सीसपूगशीर्षपूरक ० मस्तकानं
'सीसवग्ग - शिष्यवर्ग-पुं० । श्रन्तेवासिवृन्दे, ग० ५ अधि० । सीसवेणा - शीर्षवेदना - स्त्री० । सर्वमस्तकवेदनायाम्, तं० । सीसहिया शिष्पहिता स्त्री० [इरिभङ्गाचार्यनिर्मितायामाच श्वकवृत्ती, आप०६ अ० ।
V
सीसागर सीसाकर पुं०
ठा० ३ उ० | नि० चू० ।
[सीसपातूरपशिखानी, स्था०८
१- जम्बूद्वीपे स्थापना चैवम् - ७५८२६३२५३०७३.१०२४११५७६७३५
६६२७१६६६६६६२१८६६८४८८ १८३२६६ ।
आ० म० १ श्र० स० । प्रश्न० । श्राव० | दशा० ।
सीमुकंपिय शीर्षोरकम्पित २० शीर्षकम्पको र्गकरणरूपे कायोत्सर्गदोषे, प्रव० ४ द्वार । " सीसं पकंपमागो, जक्खाटु व्य कुणइ उस्सग्गं । " श्र०५ श्र० सीसुला - शीर्ष - ० प्राकृतभाषया सीखुला इति देशः। शिरसि, ती० ३२ कल्प ।
"
सीसोबहार- शीपपहार-पुं० पादशी ०२
श्राश्र० द्वार ।
सीह शीघ्र त्रि० वेगवति शीघगवत्याः गतिवि यो गतिगोचरस्तात् सू०२०३० शीघ्रः शीघ्रगति विषयः शीघ्रत्वेन तद्विषयोऽप्युपचाराच्छीघ्र उक्तः । प्रति० भ० ।
सिंह पुं० दिनस्तीति सिंह पिशव्यादिवादनुवा रस्य लुक् । प्रा०१ पाद । केशरिणि, जी०.३ प्रति० ४ श्रधिः। सूत्र० । प्रज्ञा० | जं० प्रश्न० । बले सिंह एवायम् । प्रा०२ पाद । पुं० | सप्तमदेवलाक विमानभेदे, स०१७ सम० । पुं० । खनामख्याते भगवतो महावीरस्य अनगारे, यो गोशालकतेजोलेश्या रोगाकारले रेवती प
9
नार्थमगमत् । भ० १५ श० । (तत्कथा गोसालग' शब्दे वृत्तीयभागे १०३२ पृष्ठे गता । ) " सी कासवगुत्तं धम्मं पि श्र कासवं वंदे ।” थेरस्स णं श्रजधम्मस्स सुब्वयगोत्तस्य श्रजसीहे थेरे श्रवासी कासवगुत्ते" कल्प० २ अधि०८ क्षण । कोलामजिये ग्रामणीपुत्रे यो हि विद्युत् स्या सह क्रीडन् हसितो गोशालकेन कुट्टितवाँश्च नम् । कल्प० १ अधि० ६ क्षण । श्र० म० श्रेणिकस्य धारयां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, अन्न० १ ० २ वर्ग १० प्र० । अ० । ( सचवी रान्तिके प्रव्रज्य सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुरोपपातिकस्य द्वितीये पर्गे सूचितम् । ) सीहत- सिंहकान्त - न० । सप्तमदेवलोकस्थे विमाने .
स०
,
१७ सम० ।
सीदका सिंहक पुं० स्वनामख्याते अन्तरद्वीपे १ पद ।
"
सीहकणी सिंहकर्णी- श्री कन्दविशेषे भ० ७०३५० सहिकेसरय- सिंहकेशरक- पुं० । तथाविधे मोदकभेदे, धर्मलाभस्थाने सिंहकेशरा इति भणनात् तथानाम्ना प्रसिद्वे नगारे, पिं० । पं० व० । दर्श० । श्रातु० । शा० । 'लोभ' श दे भागे तत्कथानकम् । ) । सीखाइता सिंहखादिता श्री० सिंहः पुनः शीर्यातिरेकादवडयोपान्तस्य यथारण्यभक्षयेन या खादिता तथाविधकृतिर्वा सिंहः । प्रयज्याभेदे स्था० ४ ठा० ४ उ० । सीहगइ - सिंहगति-पुं० दिक्कुमारेन्द्रस्य अमितगतेः पश्चिमलोकपाले भ० १ ० १ ३० ।
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सीहगड
शीघ्रगति ० शीघ्रगमनशक्तिसम्पत्रे ०३०२०
सीह गिरि - सिंहगिरि- पुं० । स्थविरस्यार्यस्य स्वनामख्या शिष्ये, कल्प० २ अधि०८ क्षण । अस्य द्वौ शिष्यो धनगिरिरार्यवज्रश्च । श्र० म० १ ८० । प्रा० चू० । ग० | कल्प० । उत्त० । प्राय० ।
( ६१३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
1
सीहगुहा- सिंहगुहा- बी० । राजगृहनगरस्यादूरे दक्षिणपौरसत्ये दिग्भाग: व्यवस्थितायां चोरपल्ल्याम्, शा० १ ० १८
अ० ।
सीप-सिज पुं० श्री० सिहालेखपचिपे
अ, रा०
3
सहिया सिंहनाद- पुं० सिंहस्य करणे प्रश्न ३ श्राश्र० द्वार । ती० । श्रौ० । श्रा० म० । श्राय० । सीहस्सेव स. रिसं णायं करेति । नि० चू० १७ उ० ।
तिर्हि ठाणेहिं देवा सीहणायं करेजा - अरिहंतेहिं जायमाहिं, अरिहंतेहिं प्रब्वयमाणेहिं, अरिहंताणं गाणुप्पायमहिमा | स्था० ३ ठा० १ ३० ।
सहगिफीलिय- सिंहनिष्कीडित
सिंहनितिसिंह गमनं तदव यत्तपस्तत्सिंहनिष्कीडितमित्युच्यते तमव चातिक्रान्तदेशावलोकनतः एवमतिक्रान्ततः समासेवनापूर्वतपसोऽनुष्ठानं यत्र तत् सिनिष्कीदितम्। तपोदे, त द्रकं महश्येति द्विविधम् । श्रौ० । ज्ञा० । अन्त० ।
तते गां ते महम्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुट्टागं सीनिक्की लियं तवोकम्मं उवसंपजित्ता गं विहरति, तं जहाचउत्थं करेंति चउ०२त्ता सव्वकामगुणियं पाति २त्ता छटुं करेंति२त्ता च उत्थं करेंति२चा अट्टमं करेंति२त्ता छई करेंति २त्ता दसमं करेंति २ ता अमं करेंति २ ता दुबालसमं करेति २ ता दसमं करेंति २ चा चाउद्दसमं क - रेंवि २ चा दुबालसमं करेंति २ ता सोलसमं करेंति २ ना चोदसमं करेंति रत्ता अट्ठारसमं करेंति २त्ता सोलसमं करेंति रत्ता वीसइमं करेंति २त्ता अट्ठारसमं करेंति२ बीस करेंतिरता सोलसमं करेंति२चा अट्टार० करेंतिरत्ता चोदसमं करेंति२त्ता सोलसमं करेंति२त्ता दुबाल० करेंतिरत्ता चाउ६० ० करेंति२त्ता दसमं करेंति२सा दुबाल० करेंतिरता अट्टमं करेंति२त्ता दसमं करेंतिर त्ता छठ्ठे करें तिरता अट्टम करेंतिरता चउर करेंतिरता ई करेंशि छटुं
-M
सीतिलग
परिवाडी नपरं पारणए अलेवार्ड पारेति एवं चउत्थावि परिवाडी नपरं पारण आयंबिले पारेति ॥
'सीनिक्कीलिये' ति सिंहनिष्कीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं, सिंह हि हिरन पश्चाद्भागमवलोकयति एवं पत्र तपस्य/सद् विधीयते तपः सिंहनिष्कीडितम् । तच्च द्विविधं महत्तमनुलोमगती चतुर्भशादि विशवितमपर्यन्तं प्रतिलोमगतौ तु विंशतितमादिकं चतुर्थान्तम् उभयं मध्येऽष्टादशकांपेतं चतुर्थषष्ठादीनि तु एकैकवृद्धयैकोपवासादीनि । स्थापना स्वयम्१२.१/३/२ | ४ | ३ | ५ | ४ ६ ५ | ७ | ६ ६ | ७ १ |२| १|३ |२| ४ | ३ | ५ | ४ | ६ | ५ | ७ | ६ | ८ ७ ६ अतिसार २ चतुर्थादीनि श्रीपादशानि विशतितमे दे चतुष्पञ्चाशदधिकं शतं तपोदिनानां त्रयस्त्रिशच पारणदिनानामेवमेकस्यां परिपाट्यां परमासाः सरात्रिन्दिवाधिका भवन्ति प्रथमपरिपाट्यां च पारस्कं सर्वकामगुणिकं सर्वे काम कमीदयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, द्वितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामारिचतुमायामा म्यमिति प्रथमपरिपाटीप्रमाणे चतुर्गुणं सर्वप्रमाणं भवतीति । ज्ञा० १ ० ८ ० । अन्तः । 'खुट्टासीमिसिनियामासिंहनिपीडिता पक्षया क्षुद्रकं सिंहनिष्क्रीडितं सिंहगमनं तदिच यतपस्वरसहनिष्क्रीडितमित्युच्यते, तगमनं चातिकान्तदेशावलोकनतः, एवमतिक्रान्ततपः समासेवनेनापूर्वतपसोऽदुष्टानं यत्रतत् सिंहनीति तचैवं चतुर्थ ततः षष्ठचतुर्थे ष्मष्ठे दशमारंभ द्वादशदशमे चतुर्दशद्वादशे अदशशे विंशतितमाविशनितचेति कर्मविधत ततः पोडशाशदशे चतुर्दशा द्वादश्चतुर्दश दशमादमदमे पातुपष्ठ चतुर्थ चेति । स्थापना चैवम्
i
२३४५६७८६ ४५ ७६५४३२१ ६ । 1 १ ।
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१२३४५६७८ ४५. ८७६५४३२ परिपाट्यां दिनमानं नवकसंकलन द्वे । ४५ । ४५ । एकसंकलनाका ३६ सप्तक संकलनक दिनानि ३३ सर्वाग्रम् । १८७ । एवं च मासाः ६ दिनानि च । ७ । चतसृषु परिपाटिष्वेतदेव चतुर्गुणं स्यात्तत्र वर्षे वर्षे दिनानि । २८ । तत्र प्रथमपरिपाठ्यां पारणकं सर्वकामगुणितं द्वितीयस्यां निर्विकृतिकं तृतायायामलेपकारी चतुर्थ्यामाचामास्लमिति । श्र० । ( एवं महासिंहनिष्कीडि तमपि तथ 'महासील शहा) |मीहणिसिज्जाययण सिंहनिषद्यायतन - न० सिंहनिषद्यायुगडे, अट्ठाय गय जरथ सिद्ध ज रागवरो भगवं श्रइगरो त्थ य भरहेसरसीह निसिजाययं ति । " ती० ११ कल्प | उत्थं करें० सव्वत्थ सव्वकामगुणिएवं पारंति, एवं सीहरिसाइसिंहनिषादिन् पुं० सिंहयत् निद खलु एसा खुट्टामसीह निकीलियस्स तवोकम्मस्स पदमा शीलः सिंहनियादी यथा तिनं पादयुगलमुत्तभ्यपरिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहि य अहोरतेहि य अहासुत्ता पातु पापु संकोच्य नाभ्यां मना निधी• जाप आराहिया भवइ, तपासंतरं दोबाए परिवाडीए दति सिहोपवेशनेनोपविष्टे जी०३ प्रतिश० । उत्थं करेंति नवरं विगइव पारेंति, एवं तच्चावि सीहतिलगमूरि-सिंहतिलकसूरि-पुं० । अञ्चलगच्छीये धर्मप्र
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।
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शत्र च यकस्यां
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सीहतिलगसरि
अभिधानराजेन्द्रः। भरिशिष्ये महेन्द्रप्रभसरिगुरौ, अस्य जन्म विक्रमसंवत् दो सीहसोयायो । स्था० २ ठा० ३ उ०। १३४५ स्वर्गतिः विक्रमसंवत् १३६५ । जै०१०।
सीहा-सिंहा-स्त्री०। सिंहगतिसमानायां श्रमाभावे दाये सीहपुन्छ-सिंहपुच्छ-पुं० । पृष्टिवधे,सूत्र. १७०५ १० १३० ।
स्थिरतायाम् , भ. ३ श०१ उ० । प्रश्न । सीहपुच्छण-सिंहपुच्छन-न० । सेपस्रोटने,प्रश्न०५संवद्वार ।
| सीहाणुग्ग-सिंहामुग-पुं० । सनिषद्यास्थिते प्राचार्य,नि०० सीहपुरी--सिंहपुरी-खी। सुपचमविजयक्षेत्रराजधाभ्याम् ,जं.
धान्याम् ज० २० उ०। वाभाव
सीहासण-सिंहासन-101 सिंहप्रधानमासनं सिंहासनम्। दो सीरपुरीभो । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
मा०म०१०। सिंहारितेनुपासने, जं. ३ पक्ष। सिंहा. सीहमहदीव-सिंहमुखदीप-पुं० । लवणसमुद्रस्थान्तीपषि
कृतियुक्त विपरे , पश्चा० २ षिष०ाजीसत्र। भी।
स्था । रजतमयः सिंदरुपशमिते नृपास , मा० म०१ रोष,स्था० ४ ठा०२ उ० प्रा० । ०। ('अंतरदीव' शब्दे
माजी० । सिंहस्थ मृगाधिपतेरासनं सिंहासनम् । मदप्रथमभागे १६ पृष्ठे वक्तव्यतोला।)
स्थानविशेषरूपे कृर्जिले अनाकुले उपवेशने,षो०१४ विव०। सीहया-सिंहता-स्त्री० । ऊर्जवृत्ती,स्था० ४ ठा० ३ उ० । पारपीठे, दशा०१०म०। सीह (म)(भोर-शीकर--पु० "शीकरे भही षा" ॥११॥ सीहासणवरगय-सिंहासनवरगत-त्रि० । सिंहासनाना मध्ये इति भकारहकारी पक्ष-सीभरो।अम्बुकणे,माला भक्षरादि- यवरं तसिहासनबरं , तत्र गतो व्यवस्थितो यः स तथा। भिः समे,"सत्तस्स (स)रसीहरा" स्था०७ठा०३३० । म्लेच्छ- श्रष्ठासहासनासान, स्था०९० ठा०३० जातिविशेष, प्रशा०१ पद ।
सीहासणसंठिय-सिंहासनसंस्थित-विका सिंहासनस्येष संमीरा-सिंहरथ-पुं० । स्थनामख्याते पुण्यर्धनमगरराजे, स्थितं संस्थानं यस्य स तथा । सिंहासनाकृती, रा०। उत्त. ७०। (जग्गा ' शम्वे पतुर्थभागे १७६५ सीडी-सिंडी-स्त्री० । परिवाजकप्रयुक्ताया बराहीविद्यायाः पृष्ठे कथाऽस्योका ।)
प्रतिमधियां सिंहविकुर्षणात्मिकायां विद्यायाम् , मा० म०१ मोहलिपासग-शिखापाशक-पुं० । घेणीसंयमनाथै ऊर्णा- मा०क०। मये करण, "सीहलिपासगंचमाणाहि" सूत्र० १९०५ सीह-सीध-म० । तालवृक्षदुग्धोमवे, ( उत्त १६ १०) म.१०।
मद्यविशेषे , प्रश्न ५ संब० द्वार । सीहवाहणा-सिंहवाहना-स्त्री०सिंहारूढायामम्बिकायाम् ,
सु-सु-श्रव्य० । सुष्टु शोभने , सूत्र. १ श्रु०१४ ० ० ती०कल्प।
प्राअतिशये,सूत्र०१ श्रु०२ १०३ उ० । सुरित्ययं निपातः सोडविध-सिंहविद-न० । सप्तमदेवलोकस्थे विमानभेवे, स० | प्रशंसायां शुद्धविषये वर्तते । सूत्र.१७०७० उत्त। वि१७ सम।
शे०। औ०। रा०। प्रा० म० । स० । प्रातु। सीहविकमगइ-सिंहविक्रमगति-पुं०। विक्कुमाराणाममितग- सुभ-शुक-०। कीरे, जं०१ वक्षः । भ० । त्यमितामितवाहनयोर्लोकपाले, भ० ३ श०८ उ० । स्था०।। स्वप-धा० शयने, "स्वपः कमवस-लिस-लाहाः " सीदसर-सिंहस्वर-त्रि०। सिंहस्येष प्रभूतदेशव्यापी स्वरोय. १४६॥-पक्षे-सुभाइ । स्वपिति । प्रा०४ पाद । स्येति । सिंहनिहदिवति, तं०।
सुभंग-श्रुताङ्ग-न० । श्रुतस्य प्रवचनस्य पुरुषरूपस्यानावय. सीहसेण--सिंहसेन-पुं० । भरतक्षेत्रजविमलजिनसमकालिक व इति कृत्या ; समवायाने स०। ऐरवतजिने, ति० । प्रव० । " विमलो य भरहवासे सुमक्खायधम्म--स्वाख्यातधन-त्रि० । सुष्टु आख्यातो एरवप सीहसेजिणचंदो" ति० । अजितजिनस्य प्रथम- धर्मोऽस्येति स्वाण्यातधर्मा । संसारभीरुत्वाद्यथारोपितभागणधरे, ति० । अनन्तजिनस्य पितरि, प्रघ०१०द्वार। रवाहिनि , प्राचा०१७०६०३ उ० । सा महासेनस्य रामः पुत्रे, विपा० १७०६०। (अयं सुप्रण-सुजन-पुं०। उत्तमलोके, "सरिहि न सरेहि,न सरबरेबपरभवे देवदत्ता नाम दारिकाऽभवदिति 'देवदत्ता' शब्द मनानगार्टि सरखमा होति बढ.निवसतह सम२६१८ पृष्ठे कथा) श्रेणिकस्य राहो धारण्यां जाते स्वनाम- ोति प्रा०४ पाद। "वच्छहे गृण्डर फल जणु कडुपल्लव वजा क्याते पत्रे,अणु०२वर्ग १३ अा(सच वीरान्तिक प्रवज्य | रातोवि महददम सुश्रण जिव,ते उच्छगि धरह"प्रा०४ पाद! सर्वार्थसिद्ध उपपच महाविदेहे सेत्स्यतीति 'महासीहसण' शब्द षष्ठे भागे सूचितम् ।)
सुमणलस-स्वनलस-त्रि० । कृतोचमे प्रशस्तपुरुषे , ग०३ सीहसोया-सिंहश्रोतस्-स्त्री०। जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे भागे सी.
अधिक। तादायां महानद्यां संगतायां स्वनामग्यातायामस्तनपामसुअप्परोग--स्वल्परोग--पु.। मन्दव्याधी, छा० २१ द्वार । स्था० ३ ठा०३०
सुभमुह--शुकमुख--न०। शुकचञ्चपुटे,करप०१ अधि०३ क्षण।
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सुप्रलंकिय अभिधानराजेन्द्रः।
सुहभूय सुअलंकिय-स्वलकत-त्रि० । अतिशयेन रमणीयतयाऽलंक-1 किं शौचमिति पृष्टः सन् , हरिणा युगबाहुना.॥८॥ त, जी० ३ प्रति०४ अधि० । रा० । जं० ।
सत्यं शौचमिति प्रोचे, तद् ज्ञात्वा नारदस्ततः।
गतोऽपरविदेहेऽथ, जिनस्तत्र युगन्धरः ॥ ६॥ सुनहर-श्रुतधर-पुं० । पूर्वधरे, प्रा० क०१०।
तदा तदेव तत्रापि, पृष्टस्तत्रत्यविष्णुना। मुबाहिजिय-वधीत-त्रि० । सुष्टु कालविनयाचाराधनेना. सोऽपि स्वामी तदेवाख्य-त्तदण्याकर्य नारदः। . धीते , स्था० ३ ठा०४ उ०।
हारवल्यां ययौ शौचं, सत्यं विष्णोरचीकथात् ॥१०॥ . सुभाइक्ख-स्वाख्येय-त्रिका प्रकृच्छाक्येये,स्था०५ ठा०१०।।
किं सत्यमिति भूयोऽपि, विष्णुना ऽपूरिछ नारदः ।
ऊचे मया प्रभो ! सत्यं , न पृश्चिन्तयंस्तथा ॥ ११ ॥ सुभाहिय-स्वाख्यात-त्रि० । स्वरूपविधिलिः प्रतिपादिते , ।
जातिस्मृन्या ज्ञातशौचः, सोऽगात्प्रत्येकबुताम् । सूत्र०१ श्रु०५।
एवं शौचेन सर्वेषां शुचिः स्यायोगसंग्रहः ॥ १२॥" मुह-शुचि-त्रि० । पवित्रे, औ० । स्था० । कल्प: । प्रा०
प्रा० क०४०।०र०। म०। हा० । शुचिना भवितव्यं संयमयतेत्यर्थः । प्राय
"इह अज अंब! ताओ !, वीरजिणो आगमो तयं नमि। ४ अपि ।स।
तहेसणंच सोई, अहं गमिस्सामि तत्थ लहुं ॥२१॥
जं पुष्वायरमबिरु-खसुद्धसिद्धततत्तसवणामण। शुचिद्वारे कथामाह
भालस्समाइयहुविह-हेजहिं सुदुलई भणियं ॥ २२ ॥ "सारी य सरयर यि य , सिट्ठी मधणंजए सुभदाय।
तथाचागमःवीर अ धम्मघोसे, धम्मजसे सोगपुच्छा य ॥२॥
मालस्से मोहना, धंभा कोहापमाय किवणचा। पुरं सौर्यपुरं नाम , यक्षस्तत्र सुराम्बरः।।
भयसोगा अन्नाणा, १० वक्नेयकुऊबला १२ रमणा १२॥२३॥ भासीसनंजयश्रेष्ठी, सुभद्रा तस्य वल्लभा ॥२॥
एएहि कारणेहि, लवूण सुदुलह पि मण्यस्तं । नत्या यहं कृतं ताभ्यां पुत्रार्थमुपयाचितम् ।
न लहर सुरं हियरिं, संसारुत्तारणि जीयो ॥ २४ ॥ करिष्ये सेरभशत-यतेऽने सुते सति ॥३॥
किं पुण जिणययणबिणि-गयस्स पणतीससुगुणसहियस्स तयोर्दैवावभूत् पुत्र-स्तत्र बोध तयोर्विदन् ।
संसयरयहरणसमी-रणस्स घयणस्स किर सघणं ॥ २५ ॥ श्रीवीरः समवासार्षीत् , श्रेष्ठी नन्तुं प्रभु ययौ ।।।। तो वुत्तो पियरेडिं, हेपुत्ता ! अज्जुणो भिसं रुट्ठा।। प्रबुद्धो धर्ममाका -णुचतान्यग्रहीततः ।
पइदिवसं सत्त जणे, हणमाणो विहरए इत्थ ॥ २६ ॥ लभ्यं लक्ष ययाचे तं, न ददौ स दयापरः ॥५॥
ता पुत्त! जिणं नमिउं, धम्म सोउंच माहु गच्छाहि। यक्षस्तं खण्डशः कर्तु-मररेभ श्रेष्ठिपुजयम् ।
मा ण तुह देहस्स वि, वायत्ती होहि खिप्पं ॥ २७ ॥ " . कियत्स्वपि सुखण्डेषु. कृतेषु श्रेष्ठयचिन्तयत् ॥ ६॥
ध० २०२ अधि० १ लक्ष । अकसुषमतौ, दश०८१०। धन्योऽहं यन्मया सत्वं, नाा संयोजितोऽनया।
शक्रस्य स्वनामख्यातायामप्रमाहव्याम्, स्था०४ ठा० .' एवं परीक्ष्य तत्सत्त्वं, स्वयंबुद्धः सुसंवरः ॥७॥"
२ उ०। शा। एतद्देशशुचिश्रावकत्यम् ।
श्रुति-स्त्री। श्रूयन्ते इति श्रुतयः। वेदेषु. संथा। चोदनाका अथ सर्वशुचिः
क्ये, प्रति० । शब्दे , भ० १५ श० । द्रव्या०। योगे, शा० १ "द्वौ श्रीवीरप्रभोः शिष्या-वशोकस्य तरोरधः ।
श्रु० १६ अ० । विशे० । वार्तामाने, शा० १ श्रु०२ अ०। श्रत धर्मघोषो धर्मयशा, गुणयन्तौ श्रुतं स्थितौ ॥१॥
वर्ण-श्रुतिः, अन्यार्थप्रकरणादेः सामान्यशब्दा अपि विशेषेऽपूर्वाहे ऽथापरात च, न च्छाया पर्यवर्तत ।
वतिष्ठन्ते इति न्यायात् धर्माकर्णने, उत्त० ३ ०। विशः । उवाचैकोऽथ लब्धिस्ते, द्वितीयस्तेऽभिधात्ततः ॥२॥
सुखलक्षणफलबहुलतायाम् , झा०१ श्रु०६०। षोडशएकोऽगात्कायिकी मूर्मि, द्वितीयोऽप्यगमत्तथा।
तीर्थकरस्य प्रवर्तिन्याम् , स०। स्थिता तथैव तच्छाया, शातं लब्धिर्न कस्यचित् ॥३॥
सुइकरण-शुचिकरण-त्रि०। शुचीनि पवित्राणि निरुपलेपाअथ पृष्टः प्रभुः किं न , छायाऽस्य परिवर्तते ।
नीति भावः करणानि-चक्षुरादीनि इन्द्रियाणि येषां ते प्रभोर्मुखेन वृत्तान्तं , तस्य ब्रूते स्म शासकृत् ॥ ४॥ चिकरणाः । पवित्रन्द्रियेषु. जी. ३ प्रति०४ अधिक। सोरिअसमुहविजए, जन्नजसे चेय जन्नदत्त ।
सुइत्ता--सुप्त्वा अध्य० । यित्वेत्यर्थे, स्था०३ ठा०२ उ०। सोमित्ता सोमजसा, उच्छघिहिना उ उप्पत्ती ॥५॥
सुइभृय-शुचिभूत-त्रिका शीचप्राप्ते, स च द्रव्यतो,भावतश्च । अणुकंपा अढे, मणिकंचणवासुदेवपुच्छा य ।
तत्र द्रव्यतः स्नातः श्रीचन्दनानुलिप्तगात्रःसितवसननिवसनसीमधरजुगबाहू , जुगंधरे चेव महबाहू ॥६॥
शुचिविद्याक्लुप्तगात्रश्च भावतस्तु विशुद्धधमानमानसः। प(पतद्वनव्यता 'णारय' शब्दे ४ भागे २०१२ पृष्ठे उता।) श्चा०२ विव०। शुचिताप्राप्ते , भूतशम्दस्य प्रकृतिमात्रार्थपृष्टः कृष्णन किं शौच-मिति प्रश्नोत्तराक्षमः ।
त्वाद् भावप्रत्ययस्य लुप्तस्य दर्शनाद्भूतशम्नस्य प्राप्स्यर्थकथान्तरेण व्याक्षेपं कृल्या , नारद उस्थितः॥७॥ त्वाच्च । अथवा-शुचिश्वासी भूतश्च संवृतः प्राणी या पयौपूर्वविदेऽथ, तत्र श्रीमन्धरा प्रभुः ।
शुचिभूतः । विशुद्धमते , पञ्चा० ४ विष० । सूत्र० । स्था!
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अभिधानराजेन्द्रः।
संवकट सइय-शुचिक-त्रि०। पवित्रे, शा०१ ध्रु०१५। भ०।। सुंदरभाव-सन्दरभाव-पुं०। शुभभावे, पश्चा०४ विव० । शुचीकृत, .१०२ प्रक० ।
सुदरमंगुलभाव-सुन्दरमालभाव-पुं० । शुभेतरपदार्थ, प्रा. सुइर-शुचिरम्-अन्य । प्रभूते , माद०४०।
म. १०। सुइसेह-शुधिशैक्ष-पुं०बोक्षशिष्ये, व्य०६०। ।
सुंदरिय-सौन्दर्य-न।" स्याद्रव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्" सुउज्जुमार-सुजुकार-पुं० । सुष्ठतिशयेन अस्तस्करणशीलः । संयते, सून.१४०५०।
॥८।२ । १०७ ॥ इति यात्पूर्व इत् । प्रा०। प्रषिकलशरीर.
स्वे, मा० म०१०। मुउरिस-सुपुरुष-पुं० । "क-ग-ब-ज-त-द-प-य-धौ प्रायो
सुंदरी-सुन्दरी-खी०। ऋषभदेवस्य सुनहाया भार्यायाम् , लुक" ।।१।१७७॥रतिपस्य खुकि। "खरस्योवृत्ते" ॥ १ T॥ति संधिषिरहः । उत्तममनुष्ये । प्रा०१ पाद ।
पाहुबलिना सहजनिताया भरतचक्रिस्त्रियाम् , कल्प०१.
धि०७ क्षण मा०म० । भा० ० । पचास्सा भ्रमणी सुए-श्वम्-अध्य० । प्रभाते प्रागामिदिने , उत्त०२०।।
जाता । श्रा०म०१०। सुभोयारा-सुखावतारा-स्त्री०। सुखनाषतारो जलमध्ये प्रवे.
सुंदरी प्रजा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तणं पन्नत्ता । शनं यासु ताः सुखावताराः। प्रक्रिपतीयां बाप्याम् ,रा| सुखोतारा-सा० । सुखमोत्तारो जलमभ्याइदिमिर्गमनं
स्था० ५ ठा०२ उ० । सुन्दरी प्रजा पुव्यसयसहस्साई यासु ताः सुखोत्ताराः। प्रतिष्टतीर्थायां पाप्याम् , रा०।
सध्याउयं पालयित्ता सिद्धा। स०८४ सम०। सुंक-शुल्क-न० । विक्रेयतया भाण्डे,हा० १ भु०१०। नासिक्यपुरे नन्दभार्यायाम , नं० । प्रा० म०। प्रा००। सुंकलितण-शुकलितृण-न० । क्षणभेने , प्रहा० १ पद । सुंदरीणंद-सुन्दरीनन्द-पुं० । नासिक्यपुरे सुन्दरीनाम्या सुंग-शुक-पुं० । खनामख्याते ऋषी, जं०७वक्षः। खिया भर्तरि, नासिकं नगरं नंदो वणियजो सुंदरी से भसंठ-शुण्ठ-पुं० । पर्वकवनस्पतिभेदे, प्राचा० १ श्रु०१०
जा। सा तस्स अतीव बल्लहा खणमपि तस्स पास न मुं५उ०।
चा त्ति लोगेण सुंदरीनंदो ति तस्स नामं पाइयं । मा० मुंठय-शुएठक-म० । मांसपेशीपचनके , स्था० ४ डा०४ उ०
म.१०। सूत्र०।
संदेर-सौन्दर्य-न। “एच्छय्यादी"||५७॥ इत्यादेरस्य वि. संठी-शुपठी-खी। शुष्कलवरे, प्रा००१मा प्रवः।
कपनत्यम् ।प्रा०"उरसौन्दर्यादौ"८१११६०॥इति प्रोत उस्व. संड-शौएड-पुं०। "उत्सौन्दर्यादौ" ॥८१॥१६॥ इति भौतः
म् । प्रा०"ब्रह्मचर्य-तूप-सौन्दर्य-शौण्डीये यो रः॥८२।६३॥
इति यस्य राप्रा० । सुन्दरस्य भावः व्यम्। चारुतायाम्,"अ. उस्वम् । धूर्ने , प्रा०१ पाद।
अप्रत्यककानां यः, सन्निवेशो यथोचितम् । सुश्लिष्टः सन्धिसुंडा-शुएडा-स्त्री०। हस्तिनासायाम् , प्रा०म०१०।
बम्धः स्यात् , तत् सौन्दर्यमुवाहतम् ॥१॥" इत्युक्त अनादीनां सुंडिया-शुण्डिका-स्त्री०। पिटिकाकारे सुरापिएस्थेवन
मनोहरत्वे, वाच० प्रा० । भाजन , स्था०८ ठा० ३ उ०।
| संभ-शुम्भ-पुं० । नमिनाथस्य प्रथमगणधरे, प्रव०८ द्वार । सुंदर-सुन्दर-त्रि० । शोभने, मा०म०१०। मनोहरे, स०। वैरोचनेन्द्रबलिभार्यायाः शुम्भायाः पूर्वभयपितरि,का।शुब्य० । मौकानपुंग युक्ते, पिं० ज०। पुं त्रयोदशजिनस्य पू
म्भायाः सिंहासने, नपुं० । हा०२ श्रु० २ वर्ग १०। प्रभवे जीवे, स०।
संभय-शुभक-त्रि० । शुभ्रवर्णकारिणि, अनु। सुंदरंग-सुन्दराङ्ग-न० । रुचिरशरीरे, अधिनदेहे , ध०३
सुंभवडिंसग-शुम्भावतंसक-न० । बलिचञ्चाया राजधान्या अधिक।
पल्यप्रमहिष्याः शुम्भाया मायासविमाने, शा०२ श्रु०२५सुदरगुरुजोग-सुन्दरगुरुयोग-पुं०। ज्ञानादियुतगुरुसम्बन्धे,
र्ग १०। पश्चा०२विव०।
सुभसिरी-शुम्भश्री-स्त्री० । बल्यप्रमहिध्याः शुम्भायाः पूर्वसुंदरजत्त-सुन्दरयत्न-पुं० । सुन्दरसरमधाने उपममात्रधर्मे , पञ्चा०थिय।
भवमातरि, शा०२ श्रु० २ वर्ग १ अ०। सुंदरतर-सुन्दरतर-त्रि० । शोभनतरे, पं० ब०१बार। संभा-शुम्मा-स्त्री० । बलेवैरोचनेन्द्रस्याग्रमहिष्याम् , स्था०५ सुंदरपास-सुन्दरपार्थ-त्रि० । पार्श्वगुणोपेते पाय, प्रा०४ ठा०१ उ० । (अस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे आश्रद्वार।
१६६ पृष्ठे उक्ला ।) सुंदरबाहु-सुन्दरबाहु-पुं०। सप्तमतीर्थकरस्य पूर्षभषजीये, संव-संव-न० । घल्कलरज्ज्वाम् , भ० १५ श० । धीरणतणे, साभारते वर्षे भविष्यति तृतीये पाये, ती०२० तजनितायां दधरिकायाम् , खी०। विशे०। कल्प । ति।
सुवकट-सुबकट-पुं० । बीरपकटे, भ० १३ श०६०।
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(419) अभिधान राजेन्द्रः ।
सुमा
सुसुमा संसुमा श्री० । राजगृहवास्तव्यस्य धनश्रेष्ठिनः कव्यायाम् आ० क० १ ० ० ति० । श्रा० चू० । संथा० । ( 'चिलाइपुस' शब्दे तृतीयभागे १९८८ पृष्ठे कथा ।) सुंसुमार - शिशुमार - पुं० | मत्स्यविशेषे, उत०३६ ० | जी० | प्रज्ञा० । सूत्र० । श्रा०सू०| स्वनामख्याते नगरे, यंत्रैकरात्रिकीप्रतिमाप्रतिपक्षं वीरजिनं शकतिरस्कारार्थी भ्रमरः प्रणनाम । स्था० १० ठाउ० प्र० म० । सुक शुक- पुं० । कीरे, प्रश्न० २ श्र० द्वार । सुकंत--सुकान्त-पुं० । शृषभदेवस्य पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण | सुकान्तः कान्तियोगात् । स० । सुकच्छ-सुकच्छ-पुं० द्वितीयविजय क्षेत्रयुगले, जं०४वक्ष० । ( अस्य वर्णनं ' गाहाबई' शब्दे तृतीयभागे ८७३ पृष्ठे उक्तम् । ) मुकच्छकूड-सुकच्छकूट - पुं०] नपुं०। जम्बूद्वीपे सुकच्छदीर्घ ताढ्यस्य स्वनामख्याते कूटे, स्था०२ ठा० १ उ० | जं० । सुकड-सुकृत--त्रि० । स्रुष्ठु निर्वर्त्तिते, उत० १ अ० । सुटुकृते, उत० १ श्र० । श्राचा० । दश० । सुकड क्खनिरिक्खिय--सुकट दनिरीक्षित - न० । सुष्ठु नेत्रविकार निरीक्षणे, तं० । सुकडाइभाव सुकृतादिभाव- पुं० । सुकृतदुष्कृतकर्मपुरुषाका रानयत्यादिभाव, पा० ४ विव० ।
सुकड सेवण--सुकृतासेवन - न० | सुकृत्यस्य सति विवेके नियतभाषिणो खण्डभावासिद्धेः पर कृता मोदनरूपस्य सेवने,
पं० सू० १ सूत्र । सुकढ़िय-सुक्यथित - श्रि० । यथोक्ताग्निपरितापिते, जी० ३ प्रति० ४ श्रधि० । सुकण्ह--सुकृष्ण-पुं० । कूणिकस्य महाराजस्य सुकृष्णाया श्रप्रमहिष्याः पुत्रे, नि० । ( स च संग्रामे हतो नरके उपपद्य महाविदेह सेत्स्यतीति निरयायलिकानां प्रथमवर्गस्य पञ्चमे श्रध्ययने सूचितम् । )
सुकण्हा - सुकृष्णा -- स्त्री० । स्वनामस्यातायां श्रेणिकाप्रम हिण्याम्, अन्त० ।
एवं सुकरावि नवरं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं उब-संपत्ति यं विहरइ पढमे सत्तए एक्केकं मोयणस्स दर्ति पडिगति एक्केकं पाणगस्स । दोचे सतए दो दो भोयणस्स दो दो पाणयस्स पडिगाहेति । तच्चे सतते तिष्ठि भोयणस्स तिमि पाणयस्स, चउत्थे सत्तए ४, पंचमे सत्तए ५, बडे मत्तए ६, सत्तमे सत्तते सत्त दत्तीतो भोयणस्स पडिगाहेतिसत पाणयस्स, एवं खलु एयं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं गूणपसा रातिदिएहिं एगेण य छनउरण य भिक्ख|सतेणं श्रहासुत्ता ०जाव आाराहेला जेणेव श्रज्जचन्दा अज्जा तेणेव उवागया, अज्जचंदणं श्रअं वन्द
२३०
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सुकरण
ति नम॑सति २ चा एवं क्यासी-प्रच्छामि यी प्रजातो तुम्मेहिं श्रब्भणछाया समाथी अमिय भिक्खुपडिमं उवसंवजिसा णं विहरेत्तते, महासुरं । तते यं सा सुकहा जा भजचंदणाए अब्भणुष्पःता समाणी श्रद्धमियं भिक्खुपडिमंउवसंपज्जित्ता गं विहरति । पढमे अट्ठए एकेकं मोयणस्स दसिं पडि० एकेक पाणयस्स० जाव अट्टमे अट्ठए अट्टट्टभो
स्म पडिगाहेति अड्ड पाणगस्म । एवं खलु एयं अड्डमियं भिक्खुपडिमं चउसट्टिए रातिदिएहिं दोहि य अट्टासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहा जाव नवनवमियं भिक्खुपडिम उवसंपत्ति णं विहरति । पढमे नवके एकेक भोय
स दर्त्ति पडिगाहेति एकेकं पाणयस्स० जाव नवमे नव नव२ भोयदति पडिगाहेति नव२पाणयस्स पडिगाहेति । एवं खलु एतं नवमियं भिक्खुपडिमं एकासीयरातिदिएहिं उहि य पंचुत्तरेहिं भिक्खासतेहिं महासुतं दस दसमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जिता खं विहरति । पढमे दससे एकेक भोयदतिं पडिगाहेति एकेक पायगदसिं० जाब दसमे दस दस दस भोगणदति पडिगाहेति दस दस पाणस्स दर्त्ति पडिगाहेति । एवं खलु एवं दसदसमियं भिक्खुपडिमं एकेणं राईदियस एां श्रद्धछट्ठेहि य भिक्खा सतेहिं महासुतं • जान धाराकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरति । तए गं सा कहा हेति २सा बहुहिं चउत्थ० जाव मासद्धमासविविहतवो
०
जातेयं उरालेयं ० जाव सिद्धा । (०२१४ ) मन्त० १ श्रु ८ वर्ग ४ श्र० ।
सुकप्प - सुकल्प-पुं० शानदर्शनादिषूपयांगे, पं० भा० । दंसणनाणचरिते, तत्रविण विकालमुज्जुसो । चिं पसंसि य, वयणम्मि तं जासु सुकप्पं । सुकष्पविहारीणं, एगंताऽऽराहणा य मोक्खा य । आराहणा य मोक्खे, चेत्र च्छिष्मो य संसारो । पं० भा० ३ कल्प |
इयाणि सुकष्पो तत्थ गाहा। दंसणनाणाइसुनि पसंसिश्रो पवणे सो भणति । गाहा सुकष्पविहाराह । गाहासिद्धं एस सत्या सुकव्यपकव्ये श्रणुगंतव्या, श्रकल्पबिहारी आराहणा य मोक्त्रेण चेष छिनो उ संसारो । पं० सू० ३ कप ।
सुकम्माण- सुकर्म्मम् श्रि० । सुकृतकर्मकारिणि, प्रा० ३ पाद । सुकय- सुकृत त्रि० । सुष्ठु रचिते. उपा० अ० शोभिते, प्रा०
म० १ ० | कप० । प्रज्ञा० बो० मी० रा० प्रश्न० ।
सुकर - सुकर - त्रि० । कर्तुमलं समर्थे, श्राचा० १ ०६ अ०१३० । सुकरण - सुकरण - न० । बधादिकानामेकादशानामन्यतमस्मिन् शोभले करणे, प्रश्न० २ श्र० द्वार
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सुकहिय
अभिधानराजेन्द्रः। सुकहिय-सुकथिक-त्रि० । शोभनो मध्यस्थः कथकः प्रतिपा- गते , नं । भ० । अकर्कशम्पर्श , जी० ३ प्रति०४ ६का यस्य तत् सुकथिकम् । यथार्थशानिभिः प्रतिपादिते, अधि० । स्था० । औ० । रा० । अन्त० । नं० । 'सुकुप्रश्न.२ संवन्द्वार ।
मारलंगभद्द' सुकुमारश्चासौ भद्रश्च भद्रमूर्तिरिति समा. सुकथित-त्रि० । न्यायाबाधितत्वेन कथिते, प्रश्न १ संव०
सो लकारककारी स्वार्थिको । भ० १६ श० १ उ० ।
सुकुमालपाणिपाया" सुकुमारी कोमली पाणी च पादौ द्वार।
च यस्य स सुकुमारपाणिपादः । स्था०६ ठा०३ उ० । रा०। सुकाल-सकाल-पुं०। सुकाल्या अय पुत्रः सुकालः । कूणिक
"सुकुमालविकिसकेसहत्था" सुकुमारः स्वरूपेण विकीणों महाराजाग्रमहिष्याः सुकाल्या अात्मजे, अन्त। (सच
व्याकुलचित्ततया केशहस्तो धम्मिल्लो यस्याः सा सुकुसंग्रामहेतार्नरकं गत्वा तत उद्धृत्य महाविदेहे सेत्स्यति।)
माला वा विकीर्णाः कशा हस्तौ च यस्याः सा तथा । भ. जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएण चंपा नामं श० ३३ उ.। नगरी होत्था । पुनभद्दे चेइए कोणिए राया । सुकुमालिया-मुकुमारिका--खी० । भारते वर्षे चम्पायां नगपउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स या सागरदत्तसार्थवाहपुत्र्याम्, एव परभवे द्रौपदी नाम दा. रनो भज्जा कोणियस्स रनो चुल्लमाउया सुकाली नामं
रिका जाता । झा०१ श्रु० १६ अ० । (तत्कथा 'दुबई' शब्ने
चतुर्थभागे २५८२ पृष्ठे उक्ला ।)स्पशेन्द्रिये उदाहतायां बसन्तदेवी होत्था, सुकुमाला । तीस पं सुकालीए देवीए |
पुरराजस्य जितशत्रो र्यायाम , श्रा०म० ११०। श्रा० पुत्ते सुकाले नाम कुमारे होत्था, सुकुमाले । तते णं से
चू० । ग०।०। श्राचा सुकाले कुमारे अन्नया कयाति तिहिं दंतिसहस्से हिं जहा
सुकुल-मुकुल-न० । इक्ष्वाक्वादियंशे, स्था० । तथा-सुकुले कालो कुमारो निस्वसेसं तं चव जाव महाविदेह वासे इक्ष्वाकादिके प्रत्यायातिर्जन्मतो सुलभमिति । अत्राभिअंतं काहिति ॥ २॥ नि०१ श्रु० १ वर्ग २ अ०।। हितम्-"आर्यक्षेत्रोत्पत्ती, सत्यामपि सत्कुल न सुलभं स्यासुकाली-सुकाली-स्त्री० । स्वनामख्यातायां कृणिकस्याग्रम
त् । सच्चरणगुणमणीनां, पात्रं प्राणी भवति यत्र ॥६॥” इति ।
स्था० ८ ठा० ३ उ० । सुकुले इक्ष्वाकादौ देवलोकात् प्रहिष्याम् , अन्त।
तिनिवृत्तस्याजातिजन्म आयातिर्वा आगतिः सुकुलप्रत्यातेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं गयरी होत्था, जातिः सुकुल प्रत्यायातिर्वा तामिति । स्था० ३ ठा०३ उ०॥ पुस्मभद्दे चेतिए कोणिते राया । तत्थ णं सेणियस्स रमो श्राचा० । ०। भजा कोणियस्स रमो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी सुकृत-सुकत-नक स्वराणां सरा प्रायोऽपभ्रंशे" ॥८।४।३२६॥ होत्था, जहा काली तहा सुकाली विनिखंता जाव बहू- इति ऋत ऋत्वम् । सुकृतम् । पुण्ये, प्रा०४ पाद । हिं चउत्थं जाव भावेमाणे विहरति । तते णं सा सुकाली सुक-शुक्र
| सुक्क-शुक्र-न । सप्तमे धातौ , ज्ञा० १ नु१०। रेतसि ,
स्था०२ ठा०३ उ०) वीय, तं०। (अकादानाच्छ्क्रनिष्काशनअजा अप्पया कयाती जेणेव अजा चंदणा अजा जाव
म् 'अंगादाण' शब्दे प्रथमभागे ४० पृष्ठे गतम् ।) महाशुक्रम्य इच्छामि णं अज्जो तुब्भेहिं अम्भणुमाया समाणी क- सप्तमदेवलोकस्य देवे, विशे० प्रव० । सप्तमदेवलोकविणगावलितवोकम्म उवसंपज्जिता णं विहरति । तो एवं जहा। मानभेदे . । स०१७ सम० । सप्तमदेवलोकस्येन्द्र , स्था० १० रयणावली तहा कणगावली वि नवरं तिसु थाणेसु श्र
ठा०३ उ०। दुमातिकरे जहा रयणावलीए छट्ठातिं एकाए परिवाडीए
___ नच्चरित्रम्एगे संवच्छरे पंच मासा वारस य अहोरत्ता चउराह पंच
जंबू तेणं कालेणं तेण समएणं चंपा नाम नगरी होवरिसा नव मासा अट्ठारस दिवसा सेसं तहेब नव वासा
स्था , पुनभद्दे चइए, कूणिए राया, पउमाई देवी। तत्थ परियातो पावणिता जाव सिद्धा ।। ५ ।। अन्त०१ श्रु.
ण चंपाए नयरीए सेणियस्स रनो भजा कोणियस्स रन्नो । ८ वर्ग १ अ०।
चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था। तीसे ण सुकाली
ए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे । तस्स ण सुकालस्स कुमारसुकिद-सुकृत-न०। " स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे"॥४॥
स्स महापउमा नाम देवी होत्था,सुकुमाला । तते णं सा म३२६ ॥ इत्यपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः । सुकिदु।
हापउमा देवी अन्नदा कयाई तसि तारिसगंसि एवं तहेव सुकिश्रो । सुकिउ । पुण्ये, प्रा०४ पाद। सुकुमारकोमल--सुकुमारकोमल-त्रि० । अत्यन्तकोमले, औ०। महापउमे नामं दारते जाव सिज्झिहिति नवरं ईसाणे
कप्पे उबवानो उक्कोसटिइओ तं एवं खलु जंबू! समणेसुकुमाश्या--सुकुमारता-स्त्री० । कोमलस्पर्शतायाम् , यू०१। उ०३प्रक०।
ण भगवयाजाव संपत्तेण एवं सेसा वि अट्ठ नेयव्या । मा सुकुमाल सुकुमार-त्रि० । अतिकोमले, शा० १ थु०१० । तातो सरिसनामाअो। कालादीण दसएहं पुत्ता प्राणुपकामले, ० १ ३० ३ प्रक० । उत्त० । स्था० । जी० । मृदुल्यं वीए-"दोपहं च पंच चनारि, तिरहं तिराहं च होति ति
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सुक
मेव । दोहं च दोसि वासा, सेखियनत्तूण परियातो ॥१॥" उबवतो आणुपुत्री-पढमो सोहम्मे बितितो ईमाणे, ततितो सकुमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, asो लंतए, सत्तमश्रो महासुक्के, अट्ठमश्रो सहस्सारे नत्रममो पाणते, दसम अच्चुए । सव्वत्थ उकोसट्टिई भाणियच्या, महाविदेहे सिद्धे ॥ १० ॥ कप्पवडिंसियाश्रो समत्ताश्रो | त्रितितो वग्गो दस अज्झणा || २ || (नि०) जइ णं भंते ! समणेणं भगवता जाव संपत्तेणं उक्खेबतो भाणियन्वो, रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेइए०, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेां कालेणं तेण समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कवर्डिसए बिमाणे सुकंसिसीहासांसि उहिं सामाणियसाहस्सीहिं जहेब चंदो तहेव आगयो, नट्टविहिं उपदंसिता पडिगतो, भंते ति कूडागारसाला । पुन्वभवपुच्छा । एवं खलु गोयमा! ते कालेवणारसी नामं नगरी होत्था । तंख्य । णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवर्ति अड्डे० "जाव अपरिभूते रिउब्येय० जाव सुपरिनिट्ठिते । पासे अ रहा पुरिस दाणी समोसढे परिसा पज्जुवासति । तए गं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समा
स्म इमे एतारूवे अज्झत्थिए - एवं पासे अरहा पुरिसा - दाणीए पुन्त्रापुवि० जाव अंबसालवणे विरहति । तं गच्छामि पासस्स अरहतो अंतिए पाउन्भवामि । इमाई च एपारूबाई अट्ठाई हेऊई जहा पतीए । सोमिलो निग्गतो खंडिविणो० जाव एवं वयासी - जत्ता ते भंते ! जवणिअं च ते ! पुच्छा सरिसवया मासा कुलत्था एगेभ० जाव संबुद्धे सावगधम्मं पडिवजित्ता पडिगते । तते पासे अरहा श्रण्णया कदायि वाणारसीओ नगरीश्रोत्रसालवणातो चेहयाओ पडिनिक्खमति बसाल
( ६१६ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
,
सुक
अतिही पूजिता, अग्गी हुया, जूवा निक्खिता । तं सेयं खलु ममं इदाणि कल्लं० जाव जलते वाणारसीए नगरीए ब हिया बहवे अंबारामा सेवावित्तए, एवं माउलिंगा बिल्ला कविट्ठा चिंचा पुष्फारामा रोवावित्तए, एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं० जाव जलते बाणारसीए नयरीए वहिया अंबारामे य ० जाव पुप्फारामे य रोवावेति । तते यं बहवे अंबारामा य जाब पुप्फारामा य श्रणुपुत्रेणं सारक्खिखमाणा संगोविजमाणा संवडिय - माणा आरामा जाता किएद्दा किएहाभासा ०जाब रम्मा महामेहनिकुरंबभूता पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियगरेभैमाणा चिद्वेति । तते णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स रिमाणसिरिया अतीव अतीव उवसोभेमाणा उबसेअदा कदापि पुत्र्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झतिथए ०जाब समुप्प - जित्था एवं खलु अहं वाणारसीए रायरीए सोमिले नाम माहणे अचं माणकुलप्पसूते । तवे गं मए वयाई चिलाई जाय जूवा शिक्खित्ता । तते गं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा ०जाव पुप्फारामा य रोत्राविया, सेयं खलु ममं इदाणि कल्लं ०जाव जलते सुबहुं लोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तात्रसभंड घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाह • आमंतित्ता तं मित्तनाई यिग० विउलेणं असण ०जाब सम्माणि - ता तस्सेव मित्त ० जाव जेडुपुत्तं कुंटुंबे ठावेत्ता तं मित्तनाइ० जाव श्रापुच्छित्ता सुबहुं लोहकडाहकडच्यं धियतावसमंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला वाणपत्या तापसा भवंति, तं जहा - होत्तिया पोत्तिया कोलिया जंनती सती घालती हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मञ्जमा संमजगा निमगा संपक्खालगा दक्खिकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुया हत्थितावसा उदंडा दिसापोक्खिणों वक्कवासिणो बिलवासिणो जलवासियों रुक्ख
तो चेयातो पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति । तते गं से सोमिले माह अम्मदा कदायि मूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खियो साहुदंसणेण य अपज्जुवासगताए य मिच्छत्तपज्जवेहिं परिमाणेहिं २ सम्मत्तपज्जवेहिं परिहायमा रोहिं मिच्छत्तं च पडिवन्ने । तते गं तस्स सोमिलस्स माहणस्स
मूलाऽऽहारा कंदाऽऽहारा तयाऽऽहारा पत्ताहारा पुप्फहारा फलाहार बीयाssहारा पडिसडियकंदमूलतयपत्तपुष्फफलाहारा जलाऽभिसेयकढिणगायभृता आग्रावणाहिं पंचग्गीताचेहिं इंगालसोल्लियं कंदसोल्लियं विप्र
पदाकदायि पुञ्चरत्ताववरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं
जागरमाणस्स अयमेयाख्ये अज्झत्थिए० जाव समुप्पजिप्पाणं करेमाणा विहति । तस्थ णं जे ते दिसापोक्खि
त्था एवं खलु अहं वाणरसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे अच्चतमाहणकुलप्पनए । तते गं मए वयाई चिसाई, वेदा य अहिया, दारा श्र हूया, पुत्ता जणिता, इड्डीओो समागी, पसुवधा कया, जमा जेट्ठा, दक्खिणा दिना,
या तासा तेसि अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पञ्चहत्तर पन्चयिते वि य णं समाणे इमं एयारूवं श्रभिग्रं अभिगिहिस्सामि कप्पति मे जावजीवाए बडं बणं भणिक्खित्ते दिसाचकवाणं तवोकम्मैणं उडुं नाहातो पगि
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अभिधानराजेन्द्रः। झिय २ खराभिमुहस्स आतावणभूमीए पातावमाणस्स जाणिय तत्थ कंदाणिय जाव अणुजाणउ ति का विहरितए ति का एवं संपेहेइ २ ता कल्लं जाव जलंते दाहिणं दिसिं पसरति । एवं पञ्चस्थिमे गं वरुये सुबहुं लोह जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पश्चइए २त्ता महाराया. जाव पचत्थिमं दिसिं पसरति । उच-- वि यणं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं जाव अभिगिहि- रेणं वेसमणे महाराया० जाव उत्तरं दिसि पसता पढम छद्रुक्खमणं उपसंपजिता णं विहरति । तते णं रति । पुब्बदिसागमेणं चत्तारि विदिसाम्रो भाणियसोमिले माहणे स्सिी पढमढक्खमणपारणं सि मायाव- व्याप्रो० जाव पाहारं माहारेति । तते णं तस्स सोगभूमीए पच्चोरुहति २ त्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उ- मिलमाहणरिसिम्म अमया कयायि पुब्बरतावरत्तकाहए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गेएहति लममयंसि अणिचजागरियं जागरमाणस्स भयमेयासो किदि. त्ता पुरच्छिमं दिसि पुस्खेति पुरच्छिमाए दिसाए प्रज्झस्थिए० जाव समुप्पअित्था, एवं खलु अहं वासोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलमा- णारसीए नगरीए सोमिले नामं माहणरिसी अञ्चंतमाइणरिसिं अभि० २ जाणिय तत्थ कंदाणि य मुलाणि हणकुलप्पमए , तते णं मए वयाई चिम्म इं० जाव जुवा य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य निक्खित्ता । तते णं मम वाणारसीए०जाव पुष्फारामा य: बीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजाणउ ति कह पुर- जाव रोविता । तते णं मए सुबहुलोह. जाव घडावित्तार च्छिमं दिसं पसरति पुरच्छि० ता जाणि य तत्थ कंदाणि जाव जेट्ठपुत्तं ठावित्ता० जाव जेट्टपुत्तं आपुच्छित्ता सुपजाब हरियाणि 4 ताई गएहति, किढिणसंकाइयं बहुलोह ०जाय गहाय मुंडे जाव पब्बइए विय वं मरेति किदिणसकाइयं भरित्ता दम्भे य कुसे य पत्तामोडं समाणे छटुं छद्वेणं • जाय विहरति । तं सेयं खल च समिहाकवाणि य गेएहति समिहा. ता जेणेव सए मम इयाणि कलं पादु जाव जलते चहरे तावसे दिउडए तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्त। किदिणसं- डा भट्ठे य पुवसंगतिए य परियायसंगतिए अापुकाइयगं ठवेति किदित्ता वेदि बड़ेति बेदि बड़ेत्ता उबले- च्छित्सा भासमसंसियाणि य बहूहिं सत्ससयाई अणुमा-- घणसमजणं करेतिउबलेवरेत्ता दमकलसहत्थगते जेणेव इत्ता वागलवत्थनियत्थस्स कढिणसंकाइयगहितसभंगंगा महानदी तेणेव उवागच्छद तेगाव उवामच्छित्ता गगं डोवकरणस्स कट्ठमुदाए मुहं बंधिता उत्तरदिसाए उत्तरामहानदि भोगाहति गंगं महान० ता जलमजणं करेति | भिमुहस्स महपत्थःणं पत्थाइत्तए एवं संपेहेइ एवं संपहिजल. त्ता जलकिड्ढे करेति जल. त्ता जलाभिसेयं करेति
त्ता कल्लंजाब जलंते चहवे तावसे य दिट्ठा भट्ठ य पुब२त्ता आयंते चोक्खे परममइभृए देवपिउकयकजे दम्भ
संगतिते य तं चेव जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति, वंकलसहत्थगते गंगातो महानदीमो पच्चुत्तरति जेणेव सते |
घित्ता अयमेतारूवं अभिग्गहं अभिगिएहति जत्थेव वं उडए तेणेव उवागच्छइ दम्भे य कुसे य वालुयाए य वे
अम्हं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निसिदि रएति, वेदि रएत्ता सरयं करेति, सरयं करेत्ता अरणि
वा पचतंसि वा विसमंसि वा गडाए वा दरीए वा पकरेति, अर० ता सरएणं अरणिं महेति, सर० ता अग्गि
क्खलिज वा पचडिज वा नो खलु मे कप्पति पच्चुपाडेति, अग्गि पाडेता भरिंग संधखेति. अगि मंत्तास.
द्वित्तए ति कट्ठ अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिएहति , मिहाकट्ठाणि पक्खिवति, समिकतामगि उजालेति - उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहपत्थाणं ( महपत्थाणं) पगि उ०त्ता "अग्गिस्स दाहिणे पासे सत्तंगाई समादहे। "|
थिए से सोमिले माहणरिसी पुब्धावरणहकालसमयंसि सं जहा-"सकथं वकलं ठाणं. सिजं भंडं कमंडलुं ! जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागते , असोगवरपादंडदार तहप्पाणं, मह ताई समादहे ॥ १॥" यक्स्स अहे कदिणसंकाइयं ठवेति, कढि० ठवेत्ता वेदि मधुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणद, चळं साधे- वड्डेइ वे० चा उबलेवणसंमजणं करेति उव० करेता दति चरुं साधेत्ता बलिवइस्सदेवं करेति बलिकत्ता अतिहि- भकलसहत्थगते जेणेव गंगामहानई जहा सिवो. पूयं करोति अति त्ता तभो पच्छा अप्पणा माहारं प्रा- गंगातो महानईओ पच्चुत्तरह, जेणेव असोगवरपायके हारेति । तते णं सोमिले माहणरिसी दोच्च छ8 व ख- तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता दन्भेहि य कुसेमणपारणगंसि तं चेव सन्नं भाणियव्वं गव माहारं हि य वालुयाए वेदि रतेति , वालुत्ता, सरगं करेति भाहारेति. नवरं इमं नाणतं दारिणा दि. र जमे म- जाव बलिवइस्सदेवं करेति बलि. त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं हाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्ख सामिलं हरिसिं बंधति तुसिणीए संचिति । तते सं नस्स सोमिन
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(१२) अभिधानराजेन्द्रः।
सक माणरिसिम्स पधरतावरत्तकालसमयं सि एगे देवे अं- से सामिले पंचमदिवसम्मि पुव्यावरएहकालसमयमि जेतियं पाउम्भूते । तते णं से देवे सोमिलं माहणं एवं
णेव उंबरपायवे उंबरपायवस्स आहे किठिणसंकाइयं 8वयासी-हं भो सोमिलमाहणा ! पब्बइया दुप्पचहतं वति, वेई वड्डेति जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति जाव तुते । तते णं से मोमिले तस्स देवस्स दोच्च पि तच्चं सिणीए संचिट्ठति । तते णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुच्चपि एयमद्वं नो आढाति नो परिजाणइ जाव तुसि - रत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासी-हं भो णीए संचिट्ठति । तते णं देवे सोमिलेगं माहण
सोमिला ! पव्वइया दुप्पबइयं ते पढम भणति, तहेव तुरिसिणा अण्णादाइजमाणे जामेव दिसिं पाउम्भृते ता
सिणीए संचिट्ठति । देवो दोश्च पि तच्चं पि बदति सोमि-- मेव जाव पडिगते । तते ण से सोमिले कलं जाव ला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते । तए णं से सोमिले तणं जलंत वागलवत्थनियत्थे कढिसंकाइयं गहियग्गिहो
देवेणं दोच्च पि तचं पि एवं वुत्ते समाणे तं देवं एवं व तभंडोवकरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेति, कट्ठ० बंधेत्ता उत्तरा
यासी-कहाणं देवाणुप्पिया! मम दुप्पवइतं ? । तते भिमुहे संपत्थिते । तते पं से सोमिले बितियदिवस
णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाम्मि पुयावरणहक लसमयंसि जेणेव सत्तिवन्ने अहे णुप्पिया ! तुमं पासस्स अरह ओ पुरिसादाणीयस्स अतिकदिणसंकाइयं ठवेति कढि० ठवेत्ता चेति बड्ड्रेति वेति यं पंचाणुव्यए सत्त सिक्खावए दुवालसविहे सावगधम्मे वड्डेता जहा असोगवरपायवे . जाव अग्गि हुणति, पडिबन्ने, तए गं तव अम्मदा-कदाइ पुवरत्त० कुटुंब. कट्ठमुदाए मुहं बंधति , तुसिणीए संचिति । जाव पुव्वचिंतितं देवो उच्चारेति जाव जेणेव भसोगतते रंग तस्स सोमिलस्स पुब्धरत्तावरतकालसमयंसि ए- वरपायवे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता किढिण गे देवे अंतियं पाउम्भूए । तते णं से देवे अंतलिक्खप
संकाइपं० जाव तुसिणीए संचिट्ठसि । तते णं पुब्बरतावडिवत्रे जहा असोगवरपायवे जाव पडिगते । तते गं रत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि हं भो सोमिला ! पचसे मोमिले कल्लं जाव जलते वागलवत्थनियत्थे कति- इया दुप्पव्वतियं ते तह चैव देवो नियवयणं भणति जाणसंकाइयं गेण्हति कदित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति कढ० व पंचमदिवसम्मि पुवावरणहकालमसयंसि जेणेव उंबना उत्तरादिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिते । तते णं से सो- रबरपायवे तेणेव उवागते किदिणसंकाइयं ठयति वेदि मिले ततियदिवसम्पि पुव्यावरणहकालसमयंसि जेणेव अ- बड्डेति उबलेवणं समजणं करेति सम्मकता कदमुद्दाए मुसोगवरपायवे तेणेव उवागच्छह उवा०त्ता असोगवरपा- हं बंधति, कट्ठमुद्दाए मुहं पंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि, तं यवस्स अंह कणिसंकाइयं ठवेति, वेतिं बड्रेति जाव एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव दुप्पव्ययितं । तते णं से गंगं महानई पच्चुनरति गंगं० २ ता जेणेव असोगवरपा- सोमिले तं देवं वयासी--(कहं णं देवाणुप्पिया ! मम यवे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छिनावेति रएति वेति सुप्पव्यइतं ?, तते ण से देवे सोमिलं एवं बयासी) रएत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति कट्ठ०त्ता तुसिणीए संचि- जइ णं तुम देवाणुप्पिया ! इयाणि पुवपडिवामाई पंच श्र दृति । तते णं तस्स सोमिलस्स पुब्धरत्तावरत्तकाले एगे गुब्बयाई सयमेव उवर्मपञ्जित्ता ण विहरमि, तो ण तुझदेवे अंतियं पाउन्भूया तं चेव भणति जाव पडिगते । इदाणि सुपध्वइयं भविजा । तते णं देवे सोमिलं वंदति तते णं से सोमिले जाव जलंते वागलबत्थनियत्थे क- वंदित्ता नमसति नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भृतेजाव दिणं संकाइयं जाव कमुद्दाए मुहं बंधति कट्ठ. बंधिता पडिगते। तते ण सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं बुत्ते उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए । तते ण से सोमि- समाणे पुव्वपडियन्नाइं पंच अणुव्वयाई सयमेव उवसंपजिले चउत्थदिवसपुब्वावरणहकालसमयंसि जेणेव वडपायवे त्ता णं विहरति । तते ण से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्ठट्ठम० तेणेव उवागते वडपायवस्स अहे किहिणं संठवेति किढ० जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पात्ता वेई बड्डेति उवलेवण संमजणं करेति जाव कदमदाए णं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति मुहं बंधति, तुसिणीए संचिट्ठति । तते णं तस्स सोमिल- बहू • णित्ता अमासियाए संलेहणाए अनाणं पाउणस्स पुबरत्तावर तकाले एगे देवे अंतिय पाउन्भूया तं चेव ति यह णित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झसेति भणति जाव पडिगते । तते णं से सोभिले जाव ज- अद्धमा०त्ता तीसं भत्ताईअणसणाए छदेति अणत्ता तस्स लते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकायियं जम्ब कट्ठा- ठाणस्स प्रणालोइयपडिकंते विराहियसम्मत्ते कालमासे छाए. मुहं बंधति, उत्तराए उत्तराभिमुहे संपत्थिते । तते णं कालं किच्चा सुकाडिसए विमाणे उववातसभाए देवसय
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सु
सिसि जाव भोगाइगाए मुकमहमाहचाए उपत ते से सुके महग्गहे अगोपवले समाये जाय मामामणपतीए एवं खलु गोयमा ! सुकेणं महग्गहेणं सा दिव्वा जाव अभिसमभागए एगं पलियोवमट्ठिती सुके यां भंते ! महग्गहे ततो देवलोगाओ उक्खए कहिं गहितका सिज्महिति है, गोषमा ! महाविदेवासे ?, सिज्झिहिति । नि० १ श्रु० ३ वर्ग ३ अ० ।
द्वाचत्वारिंशत्तमे महाप्रदे, कल १० १ अधि० ६ क्षख । चं० प्र० । स्था० । सूर्यादि प्रद्देष्यन्यतमे प्रदे, स्था० ८ ठा० ३ ॐ० । प्रज्ञा० | सू० प्र० । श्री० ।
दो सुका । स्था २ ठा० ३ उ० ।
एव
शुक्ल - न० | शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं वा शोकं क्लमयस्यपनयतीति निरुक्तविधिना शुक्तम् । प्र६० ६ द्वार । चातु० । श्राव० । चा० चू० । ध्यानभेदे, उत्त० ३० अ० । व। एतदपि पूर्वगतश्रुतानुसारिनानानयमतैकद्रव्योत्पत्तिस्थितिभङ्गादिपर्यायानुस्मरणादिस्वरूपबाधसंमोहादिलि गम्यं माचादिसाधकं विश्वम् अत्र व धर्म तपसी निर्जरार्थत्वात् नार्लरौद्रे बन्धहेतुत्वादिति । प्रव० ६ द्वार । संवत्सरादूर्ध्वं क्रियामलत्यागेन संवत्सरे कालात्ययेन शुक्रं ध्यानं भवति । पो०१२ विव० । अभिनवृत्ते श्रमत्सरिणि कृतज्ञैः सदारम्भिणि हितानुबन्धे, पं०सू० ४ सूत्र । " सुके सुक्का भिजाइए " । भ० ८ श० ५ उ० । अष्ट० । त्रि । शुभे सूत्र० १ ० ६ ० । शुल्क- न० । मूल्ये, शा०१ शु०८ प्र० । कल्प० । दाने, भ० ५५ श० । राजदेये द्रव्ये, इत्यन्ये । पृ० १३०२ प्रक० नि० । शुष्क - त्रि० । नीरसे, भ० २ ० १ उ० । स्तोकव्यञ्जने, नश० ५ ० १ उ० । वहयचणकादौ श्राचा० १ ० ६ अ० ३ उ० । सुकच्छगिया-शुष्कदनिका श्री० शुष्कगोमयपि
( १५५) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अणु० ।
मुकच्छेवाडिया शुल्कच्छेवाडी- श्रीपशुका
दिफलिकायाम् देवानादिफलासादेशविशेषका तीय शुकवर तूपमानत्वेन ते । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । रा० । सुकजलोपा - शुष्कजलीका श्री० [जलीका जलजन्तुषि शेषस्थास्थित, अणु० । सुपरभाग- शुध्यानन० शुक्लामपीतिश चिन्तायां व्यायने ि नेता काचिविधइत्यर्थः शुन
"
नं च शुक्लध्यानम् । तस्मिन् आव० ४ श्र० । दोषमलापगमाच्छुचित्वं तदनुषङ्गाच्छुक्लध्यानम् । सम्म० ३ काण्ड । शुक्रं शुभाषिसरितं वनमन्तःकर यस्मिन् ध्यान ध्यानमा ०४ अथ शुक्लमादति पृथक्त्वेन का धितानामुपादादिपर्यायान या वि भाषेनेत्यभ्ये, वितक-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानान
•
"
"
सुझाव यानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु वितर्कः श्रुतालक्ष्यनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम् श्रर्थाव्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे तथा मनःप्रभृतीनां योगानामम्यनरस्मादन्यतरस्मिधिति विचारो पागलङ्क्राति'रिति ( तस्या ६ अ ४६ सू० ) वचनात् सह वि चारे सवारि सर्वधनादित्यादिसमासान्तः, उ “उपायद्वितिगाई या जगदमि नानापज्जयाणं । नाणानयागुसरणं. पुव्वगय सुयानुसारे ॥ १॥ सवियारमत्थवंदण - जोगंतर पदमसुहोति सचिवारमा मावस्स || २ ||” इत्येको भेदः, तथा 'एगत्तवियक् त्ति एकत्वेन - श्रभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यन मैकपययालम्बननयेत्यर्थो विरा:- पूर्वगता रूपरूप वा यस्य तदेकत्ववितर्कम्, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोतिरादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादम्यत्र निर्यात प्रदीपस्य स्रीति पूर्वपदिति, उच" सयं निवासरईमिय वि उप्पायरिगाम पाए ॥ १ ॥ अवियारमत्थवंजण- जोगंतरश्र तयं बिइयसुकं । पुत्र्वगय यालवण-मेगत्तवियक्कमविया रं ॥ २ ॥” इति द्वितीयः तथा 'मकिरिति निप
"
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बाग्योगस्थानियकाययोगस्थैनम् अतः सूक्ष्म कियाकायिकी उपादिका सिधा न
यत इत्येवंशीलमनिवर्ति प्रबर्द्धमानत र परिणामादिति । भ नेि च - " निव्यागमणकाले, केवलिखो दर निरुद्ध जोगइस सुमरियान कार्याकिरिय॥" इति दतीयः तथा समुरिए सिमु क्षीय क्रिया कार्यपादिकाशीकर निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, 'अप्पडियार' त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह - " तस्सेव य सेलेसी-गयस्स सेलो व निप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियप्पाड - बाई झाखं परमसुककं ॥ १ ॥ इति इद यान्ये शुक्लमेदद्वये अयं कमः - केवलीकिलान्तर्मुहूर्त भाषिनी परमपदे भयोपग्राहिक - नीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण या समस्थितिषु सत्सु यो गनिरोधं करोति तत्र च
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'पजत्तमेत्तसन्नि - स्स जत्तियाई जश्न जोगस्स ।
ति मणोदया, तब्बावारो य जम्मेत्तो ॥ १ ॥ समम निमाणो सो मणसो सम्वनिरोधं, कुण्इ श्रसंखेजसमपहिं ॥ २ ॥ परमेर्विदिय जोगाउ तदसंखगुणविहीणे, समय समय निरंतो ॥ ३ ॥ सय्यबजोगरोदर समाई। तत्तो श्र सुडुमपणग-स्स पदमसमश्रावयन्नस्स ॥ ४ ॥ जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेज्जगुणहीणमेकेके । समय निरंभमाणो, देहविभाग व मुश्चंतो ॥ ५ ॥ संमह स काय जोगे, संखाईतेहि चैव समाह । तो कयजोगनिरोधो, सेलेसीभावणामेइ ॥ ६ ॥ " शैलेशस्येव - मेरोरिव या स्थिरता सा शैलेशीति, “हरामश्च भति
"
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सुक्कज्माण अभिधानराजेन्द्रः।
सुक्खवाय सेलोसगो, तत्तियमेत ना काल ॥१॥नणुरोहारंभा- ( ननु देवाना शुक्रवताः सन्ति उत नेत्युक्त 'गम्भ शम्दे ओ, झायर सुहुमकिरियाणियहिं सो । वोच्छिन्नकिरिय- तृतीयभागे ८३२ पृष्ठे।) मप्पडि-वाई सेलसिकालाम्म ॥२॥" इति । स्था०४ठा०९उ० ।
सुकमास-शुक्लमास-पु० । लघुमासे , वृ० ३७० । ध्यानभदे, स०३ सम। श्राव०। प्रव० । कल्प० । श्रा० म०।
सुकलेस्सा-शक्कुलेश्या-खी। शुचं क्रमयतीति शुक्रा सा अणुत्तरं धम्ममुईरात्ता, अणु तर माणवर झियाया।
चासौ लेश्या च शुक्ललेश्या । लेश्यामेदे, भातु। स० । सुसुक्कसुरक्वं अयडगसुकं , संखंड पगंतयातसुकं ॥१६॥"
। उत्त। उपा०। सूत्र०१ ध्रु०६०। (व्याख्या ' चीर ' शब्दे षष्ठ भागे १३६० पृष्ठे गता।)"यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पगडमुखानि, सुकबडिसग-शुक्रावतंसक-न० । शुकदेवेनाधिणिते विमाने, संकल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः स च त्रिभिरहो नि- नि०१ १०१ वर्ग ६ अ०। भृतान्तरात्मा,ध्यानोत्तम प्रधरशुक्रमिदं वदन्ति ॥१॥" दश०९
सुकवाद-शुष्कवाद-पुं० । परानों लघुवं च,विजये च परा. १०। शुक्के तु जन्मक्षयः । दर्श०४ तस्व । ग० । संघा०॥
जये। यत्रोक्री सह दुष्टेन,शुष्कवादः प्रकीर्तितः ॥१॥"इत्युक्तप्राय० । पौ । प्रा० चू०
लक्षण वादभेदे, द्वा० ७ द्वा० । अप० । सकड-सकृत-न० । शुभकर्मणि , 'सुक्कडदुकडकम्माणं फल- | सक्कसोणियसंभव-शक्रशोणितसम्भव-त्रि० । शुक्रं-रेतः शोविवागे प्राधयिषजति' स०१४५ सम० । कल्याणविणाके कर्म- | णितम्-धात ताभ्यां संभया येषां ते तथा । बीयरजोभ्याणि, सूत्र०२ श्रु०१०। कृत, त्रि०। सूत्र०२ श्रु०१०। मुम्पनेषु. स्था०२ ठा०३ उ०॥ सुकणाम--शुक्लनामन्-न । वर्णनामकर्मभेदे ; यदुदयाजन्तु
दो सुक्कसोणियसंभवा परम ता, तं जहा-मणुस्सा चेव, शरीरेषु शुक्लो वर्णो भवात तत् शुक्लनाम । कम० ६ कर्म० ।। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया चेव । (सू० ८५ x ) सुक्कणिरोद-शुक्रनिरोध-पुं० । मैथुनाकरणाद्वीर्यनिरोधे, पं०- स्था० ३ ठा० ३ उ०। चू० । शुक्रनिरीधे चापुरुषत्वं स्यादिति । श्राह-यद्येवं शुक्र
मुकाभिजाइय-शुक्राभिजात्य-पुं० । शुक्रप्रधाने तथायिधे निरोधे अपुरुषत्वं भवति, नदेयमव्यवस्था यस्मानी भ
श्रावके, भ०४ श०५ उ० । भित्रमत्सरता-कृतज्ञता-सदारगवन्तः साधव पूर्वकोट्ययुषका अपि ब्रह्मचर्य धारय
म्भ-हितारम्भप्रधाने, पं० सू० । भ० । न्ति न च तेषामपुरुषत्वं भवत्यतः समयविरुद्धमुदाहतम्। आचार्य श्राह-न: सिद्धान्तापारज्ञानात् इह सामान्येन सुक्काभोग-शुक्लाभोग--पुं०। शुद्रशानोपयोगे,पो०१३ विव०। सूत्रमभिहितम्-तत्र ये शकुनिनस्तत्कर्मसेविनः पक्षिका मक्षि- मुक्किय-मुक्रीत-त्रि० । सुष्टु क्रीते , 'सुक्किय वा सुविक्कियं' का इव शाल(लू )काद्या उत्कटवेदास्तान्प्रतीत्य सूत्रनिपातः- सुक्रीतं चेति केनचिकीत सत् दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न यस्मातेषां वेदप्रादुर्भावनिरोधेन नपुसकत्यमापद्यते ततो व्यागृणीयात् । दश०७०। न विरोधः । पं० चू०२ कल्प।
मुक्किल-शुक्ल-त्रि० । "लात्" ॥ ८।२।१०६ ॥ इति पूर्व सक्वपक्ख-शुक्लपक्ष-- । ज्योत्स्नायति मासा, ज्यो०४ पा
इत् । सुक्किल । सुइलं । प्रा० । शुक्लवर्णयति, स्था० १ हु। यत्र धूवराहुः चन्द्रविमानमावृत्तं मुञ्चति तेन ज्योत्स्ना-ठा० । श्रा० म०। जी । प्रज्ञा। सू०प्र०। प्राचा।स। धालतया शुक्ल पक्षः स शुक्रपक्षः । जं०७ वक्षः। लघुमासप्रायश्चित्ते, सुकिल्लतेयलहुया सुकिल्ला नाम लहुगा।' सुक्कपक्खिय-शुक्लपाक्षिक-पुं० । शुक्लपक्षसंभव, स्था।
नि० चू०१उ । स्था।
मुक्कीड-सुक्रीड-पुषसुक्रीडो देवगजानां सुष्टु-अतिशयेन विहाणेरड्या परमत्ता, तं जहा-किरहपक्खिया चेच, परमरमणीयतया क्रीयते इति सुक्रीडः । परमक्रीडास्थाने, सुक्कपक्खिया चव जाव वेमाणिया । (सू० ७६+) ज्यो०१० पाहु। शुक्लो विशुद्धत्वात्पक्षोऽभ्युपगमः शुक्लपक्षस्तेन चरति
सुक्ख-शुष्क-त्रि० । “शुष्कस्कन्दे था" ॥।२५॥अनेन शुक्लपातिकः शुक्लत्वं च क्रियावादित्वेनेनि , आह च
कस्य वा खकारः । सुक्खं । सुकं । शोषमुपगते, प्रा०। "किरियावाई भब्वे . नो अभव्वे सुक्कपक्खिए किराह
स्था। नि० चू०। पक्खिए" त्ति-शुक्लानां नास्तिकत्वेन शुक्लानां पक्षा
सौख्य-न० । भागसम्पाद्यानन्दविशेषे, स्था०४ ठा०४ उ० । वर्गः शुक्लपक्षम्तत्र भवः शुलपाक्षिकः । स्था० २ ठा० दसविहे सुक्ख पमत्ते,तं जहा-"प्रारोग्गदहमाउं,अङ्ग्रेजं २ उ० । पं० सू० । श्रा० । अपार्टपुद्गलपगवताभ्य- काम भोगसंतोसे अस्थि सुखभोगनिक्ख-म्ममेव तत्तोश्रतरीभूते संसार, पश्चा० १ विव०। ध०। स्था० । पं० णावाहे ॥१॥" (सू०७३७x) स्था०१०ठा०३ उ०। म०। ग०। प्रज्ञा । यो०बि० । भ० ।
सुक्खदिय-शुष्कहति-पुं०। शोषमुपगते धर्मम यजलाधारसुक्कपाल--शुल्कपल-पुं० । राजकरग्रहणस्थाने, स्था० ८
भाजनविशेष, अणु। ठा०३उ०।
मुक्खवाय-शुष्कवाद-पुं०। शुष्क पब शुष्को--भारसा, गलसक्कपोग्गल--शुक्रपदलपुं। रेतास. स्था०५ ठा०२०।। तालुशोषमात्रफल इत्यर्थः , स खासी यावथ कमपि वि
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सुक्खवाय
अभिधानराजन्द्रः। प्रतिपत्तिविषयमाश्रित्य विप्रमिवादिना सह वदन शुष्कवादः। "सुगन्धवरगान्ध सुगन्धाः-सुरभया ये वरगम्धाः प्रधानचूर्णा"अत्यन्तमानिना सार्द्ध, क्रूरचितेन चढम् । धमीदष्टेन मू- नितेशा गन्धो यत्रम तथा। कल्प. अधि०२क्षण । 'सुगदेन. शुष्कवादस्तपस्विनः ॥॥" इत्युक्तलक्षण वादभेद, न्धधरगंधिश्री' शाभनो गन्धों येषां त सुगन्धास्ते च ते वरहा. १२ अधः।
गन्धाश्च वासाः सुगन्धधरगन्धास्तेषां गन्धः स एवास्तीति सुक्खोदण-शुम्कौदन-पुं०। शुष्करे, वृ०५ उ०३ प्रक०। सुगन्धधरगन्धिकः । जी०३प्रनि. ३ आंध। सुगन्धय
म्सद्गन्धा वरगन्धाः प्रवग्वासाः सान्त यत्र तत्तथा। भ० ११ सुखगह-सुखगति--स्त्री०। प्रशस्तविहायोगती,कर्म०५ कमे।
श० ११ उ०।१०।जी। मुंखविवाग--सुखविपाक-पुं० : पुण्यकर्मफल, सुखानां वा
सुगंधि-सुगन्धि-त्रि० । शोभनो गन्धो यस्येति सुगन्धिः । सुखविणाकहेतुत्वात्पापकर्मणां विपाकास्ते यत्राभिधेयतया सन्त्यसो “वरणानगर" मिति न्यायान्सुखविपाकाः। वि
जी० ३ प्रति. ३ अधि०। परमगन्धोपेते , जी. ३ प्रति.
४ अधिः। श्रा०म०। परमगन्धिकलिते, जी०३ प्रति० ४ पाकभुतम्य द्वितीये स्कन्धे, विपा० १ थु.१०।
अधिः । तं । प्रज्ञा । विशिष्टगन्धादिवासिते , कल्पः । सखित्त-सुक्षेत्र--न । शोभने क्षेत्रे, द्विगृद्धिदशानां चतुर्थे -
अधि०२ क्षण । औ० । शा० भ० । ध्ययने, स्था० १० ठा० ३ उ०। सुग-शुक-पुं० । कौरे, जी० ३ प्रति. ४ अधिः । था। सुगंधिपुष्फ-सुगन्धिपुष्प-नका जात्यादिकुसुमे, पो०८वियन प्रक्षा० । जं० । शा० । अनु ।
सुगंधिय-सुगन्धिक-त्रि० । परमगन्धोपेते , जी०३ प्रति०४ सुग(ग्ग)इ-सुगति- स्त्री सुष्ठु-शोभना गतिः-गमनं सुगतिः | अधिक । जलरुहविशेष, नपुं० । प्रशा०१ पद । सुदेवन्यसुमनुजन्यादिकायां गतौ, दर्श०५ तत्त्व । स्वर्गाप- सुगय-सुगत-त्रि० । सुम्गे, स्था० । अनु। वर्गादिकायां गतो, दर्श०५ तस्य । पञ्चा० । स्था० । शोभन- तो सुरगया पएणत्ता, तं जहा--सिद्धमुग्गया देवसुगती, उत्त० २७ श्र० । स्था।
ग्गया मणुस्ससुग्गया । (सू० ) स्था० ३.० तो सुग्गइनो पनत्ताओ, तं जहा-सिद्धिसोग्गई देव सोग्गई मणुस्ससोग्गई । स्था० ३ ठा० ३३० ।
सुगतो द्रव्यतो धनी भावनो हानादिगुणवानिति । शोभना गतिरस्माजमानचारित्राति सुगतिः, "ज्ञानक्रिया
स्था० ४ ठा० ३ उ० । शोभनं गतं-शानमस्येति । बुद्धे भ्या मोक्ष" इति म्यायात् । शानक्रिययोः, सत्र०१ श्रु०११ अा शाक्यमुनी, स्था०२ ठा० उ०। श्राव० । शुद्धोदनापत्ये
चत्तारि मु(ग) ग्गईयो पत्ताओं, तं जहा-सिद्धिसोग्गई शाक्यासहे, विश। देवसोग्गई मणुयसोग्गई सुकुलवच्चायाई । स्था० ४ ठा० सुगारिहत्थ--सुगार्हस्थ्य-न० । शोभनगृहस्थभाये, ध० १ उ०।
१ अधिक। पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोग्गइं गच्छति ,तं जहा-पा- मुगिम्ह-सग्रीष्म-पुं०। चैत्रपौर्णमास्याम् , स्था० ५ ठा० २ णाइवायवेरमणेणं जाव परिग्गहरमणेणं । स्था. ५ उ० । श्राव०। ठा० १०॥
मुगुत्त-मुगुप्त-पुं० । कौशाम्बीनगरीराजस्य शतानीकस्यामा. सुगइगइ-सुगतिगति--स्त्री० । सुगतयः-सिद्धास्तेषां गतिः ल्ये, श्रा०म० १ ०। कल्प० । श्रा० ० । सुगतिगतिः । पञ्चभ्यां मोक्षगतो. श्रा.म.१०।
सुगुरु-सगुरु-पुं० । शोभनश्चासौ गुरुश्चेति सुगुरुः । सदाचामुगइगमण-सुगतिगमन--न० । सिद्धयादिप्राप्तो. स्था०५ठा०
रगुरौ, दश। १ उ० । स्वर्गावाप्ती. सूत्र० १५० ७ १०।
तं सुगुरुसुद्धदेसण-मंतक्खरकन्नजावमाहप्पं । सुगइगामि--सुगतिगामिन-पुंज सुगतिं गमयतीति सुगतिगा
जं मिच्छत्तपसुत्ता, वि केइ पावेंति सुहबोहं ॥ ४३ ।। मी। भवान्तरे ईश्वरत्वेनोत्पत्स्यमाने, स्था०४ ठा०३ उ०।।
तादति भण्यमानं तं सुगुरुशुद्धदेशनामन्त्राक्षरकर्णजापसुमइगुरुलाभ-सुगतिगुरुलाभ-पुं० । सुगतिश्च सुमानुषत्वा
माहात्म्यं , तत्र शोभनश्चासौ गुरुश्व सुगुरुः; सदाचारदिलक्षणा गुरुश्च धर्माचार्यस्तीर्थकरादिस्तयोयो लाभो ज- गुरुरित्यर्थः; तस्येत्थंभूतस्य शुद्धा-श्राशंसादिदोषरहिता
मास्तरापेक्षया प्राप्तिः स तथा । सुगतेः सुगुरोश्च लाभे, सर्वथाऽऽगमानुसारिणी दशना शुद्धदेशना तदस्वित्वं प्राकृपश्चा० १२ वियः।
तप्रभयं सैव मन्त्रातरः समस्तकम्मविषापहाारत्वात् तेन सुगंध- सुगन्ध-पुं० । शोभनगन्धे,सू० प्र०२० पाहु । सुरभी, कर्णजापस्तस्य कर्णजापस्थ माहाला-प्रभाव सामर्थ्य यत् प्रश्न. २ श्राश्र० द्वार । “सुगन्यवरकुसुमचुमसमोरयारक- कियत्वाप्नुयन्ति-लभन्ने के जीवा इति शेषो रश्यः, किं लिय' सुगन्धीमि यानि घरकुसुमानि चूर्णा एतव्यतिरिक्तं सुलभवाधं समस्तान्यदर्शनशिरोरत्नसहशाईत्प्रणीतागमाष. तथाविधीयनोपचाराश्च तैः कलितं यत्तसथा । 'भ० ११ बोध मिथ्यात्यविषप्रसप्ता अपि मिथ्यात्वमोहनीयकर्मव
शवर्तिनोऽपीति गाथाथैः । दर्श०४ तस्व।
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सुग्गीव
सुग्गीवमुद्रीय पुं० सुन्दरया प्रीया कलिते खनामा नगरमे, उस०] १२ ० पत्र बलराजभाषा मृगाहत्या मृगापुत्र आसीत् । उत्त० १६० भूतानन्दस्य नाग कुमारेन्द्रस्य अश्यानी काधिपतौ स्था०५ ठा० उ० भ विष्यती नमवासुदेवस्य प्रतिशत्री सती
9
करस्य श्रीशीतलनाथस्य पितरि, स० । प्राय० ति० । प्रथ० । - | सुयश भि० शुक्रे हो या ॥ ८२ ॥ ११ ॥ इति
-
( २६५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
संयुक्रस्यास्यादेशः सुसुखं सिते, ०२ पा सुप सुख-०" अमादात
फांग-वध-ब-भाः " ॥ ८|४ | ३६६ ॥ इति खस्य घः । साते, "सुषे चिंतिज्ज इमाणु । प्रा० ४ पाय । सुघड - सुघट - पुं० । शोभनो घटः सुघटः । पूर्णकलशे, कर्म० । १ कर्म० 1
|
"
प।०२ अ० । २३२
मुचोइयमुचोदित ०ि आचार्यादिप्रेरिते, “वित्तीय इस नियं विष्णं इवर सुबह जब सुक, किच्चा कुडबई सया ॥१॥ " उत० १ ० । रामुचोयय-सुधोदक-भि शोभनरचितरि०१
।
सुचरित० सदाचरणे
अधि०६ सं० । प्रश्न० । सुष्ट्राचरिते, स्था० ६ ठा० ३ उ० । सुविधा सुचीर्य - वि० सुष्ठु चीर्णम सुवीर्थम् सूत्र०१० १३ श्र० | तीर्थकरदानादिके कर्मणि, स्था० ४ ठा० ३ उ० । सम्यक्प्रकारेण कृते संयमतपः प्रमुखे कर्मणि, उत्त० १३ श्र० । जी० ।
सुचिकम्म सुचीकर्मन्न० सुचरितायां दानादिक्रिया
याम्, उपा० २ ० ।
सुचिकलीफल - वि० सुचरितं सुरक स्पुण्यकर्मबन्धादि तदेव फलं येषां तानि । तथा । शुभफलेपु, औ० "सुचिमा कम्मा सुचिफला भवन्ति" सुचरिता किया. दानादिकाः सुताः-पुनाति -
1
सुचिरकोण सुचिरक्रोधन- वि० चिरं क्रोध
त० २७ अ० ।
अ० ।
मुखय-सुखद शोभनपटे, श्री त्रि० । ।
-
सुषरा मुगृहा- बी०
[पयाशिवाम् पातालवृतादिषु ०१०३० (सुन्दरं नीटं करोति तन्त इहलोके निन्दायां सुधरो दृष्टान्तः कप्प ' शब्दे तृतीयभागे २२२ पृष्ठे गतः । ) सुघरा नाम सउनिया भन्नति ।
० ० ० चटका शेषे विशे० प्रा० म० नं० सुर्जपिय-सुजन्पितन००१०२१४० । सुघोष - सुघोष-पुं० | स्वनामख्यातायां शक्रघण्टायाम् आ० म० १ ० | देवप्रसिद्धे घण्टाविशेषे जी० ३ प्रति० १ फेन्द्रस्य हरिनामदेवः सुपः। भ० १६० २४०० भरतीतायामुन्स गियां जाते स्वनामस्याने पष्ठ कुलकरे, स्था० ७ ठा० ३ उ० । स० तृतीयदेवलोकस्थे स्वनामख्याते विमाने, स०६ सम० । ऋषभदेवस्य पञ्चसप्ततितमे पुत्रे. कल्प ०१ अधि० ७ क्षण | सुन्दर घोषयति, त्रि० । जी० ३ प्रति० १ अधि०२ उ० सुघोषा सुघोषा खा० गीतरतिगीतपण सोगंध
सुजया-सुजया स्त्री० राजगृहे नगरे श्रेणिकस्य राशः स्वनामख्यातायामप्रमहिष्याम्, अन्त० ( सा च वीरान्तिके धर्मे प्रविशतिवर्षपर्यायासिद्धेति अन्तरदशानां सप्तमवर्गस्य एकादशेऽध्ययने सूचितम् । )
२०
सुजस सुयशस् पुं० वभ पूर्वभवजीवस्य वज्रनाभस्य सारची पूर्वभय जी ००१० देवस्य सप्तत्रिंशतितमे पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण | सुजसा सुयश श्री० [पुरापस्य शिशुनागस्य भार्यायाम्, आव० ४ ० । श्रा० क० । श्रा० ० । ( 'स माहि' शब्देऽमिव भागे कथा गना) जम्बूदीपे भारते घश्यामपस जातस्य धर्मस्य तीर्थकरस्य मातरि, स० । नाच० | अनन्तजिनस्य मातरि प्रब० १० द्वार । सुजाइ सुजाति० भद्देषस्य निपतितमे पुत्रे, प०
दियो ०९००२ ३० स्था० (तत्पूर्वोतर जम्मकथा अगमसिने प्रथममा १७० पृष्ठ गता । ) सुचंद - सुचन्द्र -- पुं० | जम्बूद्वीपे ऐरयते वर्षे अस्यामवसर्पिजाते द्वितीय तीर्थकरे, स० । ति० ।
१ अधि० ७ क्षण । सुजाब-सुजात- वि० सुनिष्य. शा०१ २०१० सी० स्था०]] प्रश्न० | जं० सू०प्र० । परिपाकागते, जं०२वक्ष० । शोभनं जातं यस्य स सुजातः विशुद्धमणिकनकरत्नमुपपतेिजम्मदोषरहिते, जं० ४ वक्ष० । रा० बीजाधानादारभ्य जन्मदोपहिते ०२ यक्ष सुजन्मनि ओ० तथा सुजातानि यथोपमायोपपत्येोभवजन्मानि यानि शिप्रभृतीनि सुन्दर सम सुजातसमुन्द्राङ्गाः जी० ३ प्रति अधि० २३० । सुजातमिव सुजातम् । पूर्णदिनजाते, उपा० २ अ० । स्था० । गुणयोग्यता ० १ ० १ ० भी० " तुजायसुविमत्त सुरुत्रगा " सुजातम् - सुनिष्पन्नं जन्मदोषरहितस्यात् सुविक्रानां योनित्यभाषात् रूपं शोभनं समुदायगतं येषान्ते -
सुच्छि सुच्छिन्न- त्रि० । स्रुष्ट्रांच्ने शाकपत्रादी, उस० १
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सुजाय
अ० । दश० ।
सुच्छेता सुक्षेत्रा- स्त्री० | स्वनामस्याते प्रामे यत्र दशस्थषिहारेण गतेो भगवान् प्रियं पृष्टः । प्रा० म० १ ० । सुक्षेप्रायां प्राये पीरसहित गोशालो कि विकुति वान् । आ० म० १ ० ।
पुजइ- सुयति- पुं० । साधुसमाचारचरणप्रवणे साधी, दर्श० ३ तत्व ।
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सुजाय तसुविभक्तस्वरूपकाः । जी० ३ प्रति० ४ अधि०२ उ० । जं० । शा० । श्रौ । ( मूलद्रव्यशुद्धे उदाहरणम् ) " सुजापरजापरूपमगविसालसाला" सुजातं मूलद्रव्यशूद्धं परं पधानं यत् जातरूपं तदात्मकाः प्रथमका मूलभूता विशाला शाला शाखा यस्याः सा सुजातचरजातरूपमथप्रकविशालशाला । जी० ३ प्रति०४ अधि० ५ उ० । शोभने जन्मनि,नपुं । आ० क० ४ म० । स्त्रनामख्याते श्रावके, पुं० । सुजातकथा बेयम्
,
"
"रियमपाय पापायविजय रुप मित्तपो नाम नियो, सधमिणी धारणी तस्स ॥ १ ॥ सिट्टी प धम्मरतो धमिलो सुपणकमलचणमिती । भजा तम्स धणसिरी, सिरी व वररूवलायना ॥ २ । ताणं जाओ तो बहुओबाइयसपाहि सुपवितो । संजणि जणचमको तयुष्पहापडलचिचिको ॥ ३ ॥
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जाओ इरिखे फुलके जाप से
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भाइ जणेण ते नाम कयं से सुजाओ शि ॥ ४ ॥ डिगो, निरुत्र लवणि तुरुवरुवधरो । सो कलाकुललो, कमेण तरुणतमणुपत्तो ॥ ५ ॥ कश्या विपवितो. जिरायाहि पाणिपाणिवलं । गुरुपकमलं विमलं, कयायि भमर उम्र सेतो ॥ ६ ॥ काहे विजयपथमा पो तो पासप ॥ ७ ॥ लिपि मगरे सहयगमेहि भगिण मयरे नयरे हिले, कस्स न सो कासि तोसभरं ॥ ८ ॥ इसोपि नामिया मोतिषिया । पेसपहियाउ चिरा, गयाउ तजे दासीश्रो ॥ ६ ॥ ताम्रो भांति सामि मा कुष्प सद जय अडिक दडुं सुजायरूवं कस्स न मोहिज्जर हिययं ॥ १० ॥ सा पहिलाओ, जया समे साहे मम साइज्जद्द, तं सुइयं जेण पिच्छामि ॥ ११ ॥ विजय सपरिगयं तं पार तम्मि पदे । जन दास कहिये निवड पि सवन्तिया ॥ १२ ॥ मम्मरुवम दुप्फर, भंजणपवणं निए वि तं एसा । पण धन्ना स च्चिय, नारी जीसे बरो एसो ॥ १३ ॥ कार्ड सुजाप अगर कयादि या अमे अग सवती के चिट्ठाहिं ॥ १४ ॥ इत्तो पत्तो मंती, गिद्ददारं निट्टगं ति कलिऊण । अमसपिऊ स िकवाडदेव पिच्छेद ॥ १२ ॥ अंडरचिता बिराद्वयं एयं । होडी रहस्मे
सुरंतो
१६ ॥
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लहर फूड, जाय! तुम मई से कहिये। अह बंधिय अप्पिस्सं मित्तपदं दसदिणस्संते ॥ १७ ॥ किंतु विवि इचार नियंस निप त्रित निवों विद्धवि, एयम्मि इमं कहूं घड६ ॥ १८ ॥ श्रहवा लोहंधाण नराण किं अकरणिजमिह भुच । ता तो एसो, रक्खयन्धो जण्डववाश्रो ॥ १६ ॥ तो नवजमिसे. सलेहमप्पिय स पेसिश्रो रन्ना । नॅयरी अररकुरीप, चदज्यांनवइपासम्म ॥ २० ॥
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( ६४६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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सुजाय
सो दनिवासं, तस्स य रूवं विचितए चिते । न घड परिसरूवे, इमम्मि नरवद्दविरुद्धमिणं ॥ २१ ॥ यत उक्तम्
माचिपमेयाः समेः समाचाराः। करबरइन्तनासिकः पुरुषाः ॥ २२ ॥ अह ओसारिय सव्यं, साहर दंसे नवइलेहं च । भगइ सुजाओ नरवर ! कुणसु तुमं सामिश्रासं ॥ २३ ॥ दोष न तुमारेमि किंतु पसिऊण किलिपत्थादि ॥ २४ ॥
•
य भणिऊणं तेणं, नंदजलानामिया निया भरणी । तपोमय दिशा से हरिले ॥ २५ ॥ तसंग सा सावयधमनिराला जाया । निकिविरा, सुरंग संवेगरंगिला ॥ २६ ॥ गहियामा सम्माि मासुरबध जाओ सोहम्ममासुते ॥ २७ ॥ पत्तोस पडतोही. नमिउं जाणाविडं व अप्पा । मह सुजायं सामिय!, कहेसु किं ते करेमि पियं ॥ २८ ॥ सो पियरे पिना गहमि प
प्रामिणं नाउं अमरो पापुर्ति उवरेि ॥ २६ ॥ घिउले सिलं विउ, तो नियममुहा जया भिसं भीया । धूवकडच्छुग्रहस्था, भांति सिरमिलियकरकमला ॥ ३० ॥ भो भो मेसो चिट्टि
अवितासह पिसो कहि गमिम्सह दहा दासा ॥३१॥ पाखं सुखायचो तिम्रो अजेय । चूरेमि तेण तुरियं, अज्ज राजे तु सब्बे ॥ ३२ ॥
इह जड नं नाम नरसिररयणं तो जो भएछ । सा संपर कत्थ सुरो, भरेगा इत्येव उज्जाणे ॥ ३३ ॥ नायरजण सहिए. निवेण सो स्वामिश्रो नहिं गंतुं । सिंधुर-मधरं ॥ ३४ ॥ सो सोडतो सिर-रि धरिदमधामधल बीजंनो सुरसरि-लहरीसरसेवकमरेहिं ॥ ३५ ॥ जलभरि जयगुरुदविदे दिनो दाणं मणन - क्कियाहियं सक्कियजगाए ॥ ३६ ॥ धम्मुदा तुह रूवं. तुह उदधो धम्मदेउ इय पीई । अन्तु दो पिरा, इमिसुतो ॥ ३७ ॥ धन्नो अहो इमो खलु, जस्स सुरा श्रवि कुंति श्रापमं । धम्मो वि एस पवरो, कुतिं जं परिसा पुरिसा ॥ ३८ ॥ इचार जणसास - भावणं सो कुन श्री सगिहे । पत्तो परामर अम्मा-पिऊण पत्रकमल ममलमणो ॥ ३६ ॥ इलो य धम्मघोसो, मंती वज्भो निषेण श्राणत्तो । मोयाविश्रो 'सुजाए- कारिश्रो तह वि निम्बिसन ॥ ४०॥ अदा निषपद, धम्मे पुनि तह सुजाश्रो पियरेहि समं दिखं, गिराहर दुविहं तहा सिक्खं ॥ ४१ ॥ कय दुक्कर तवचरणा, निम्मल केवलकलाहिकंतिल्ला । तिनिवि तिनपन्ना, सिवमयलमरणुत्तरं पत्ता ॥ ४२ ॥ मंत्री बोसो, राम्रो फुरंतो । गुरुमूलगदिपदिकयो, पपडमाविदारो य ॥ ४३ ॥ वारसपुरे भवले व रायवारजतिमेदम्मि
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सुजाय
निवड
( ६२७ ) श्रभिधान राजेन्द्रः । खरं. सघयमहुं श्रगहियो बलियो ॥४४॥ किं न हु गहिया मित्रखा, मुखिया इय जाव चितए मंती । निज्जूहठिश्रोता तत्थ मच्छिपाओ निलीणाश्रो ॥ ४५ ॥ frees घरको इलिया, तं सरडो तं पि दुडुमज्जारो । तं पयंतियसुण, तं पि य वन्थव्वश्रो सुखश्रो ॥ ४६ ॥ से फलते दठ्ठे उघट्टिया तप्पहू पहूयबला । जायं च महाजुज्झ, तो मंत्री चितर चिते ॥ ७७ ॥ इय कारणा न गहिया, भिक्खा ते ति सुखभावयसा । जाइसरो गहिषयचो, पत्तो सो सुसुमारपुरे ||४८|| तस्य निवधुंधुमागे, अंगारबई सुया य से तं च । परिणयक मग्गर, पजोओ देह न य इयरो ॥४६॥ अह रुट्टो पजोश्रो, पथलबलो संभव तयं नगरं । अप्पयलो मज्झनियो, पुच्छर नेमित्तियं भीश्रो ||५०|| सो विनिमित्तनिमितं, भेसह डिभाणि ताणि भीषाणि । गागहरे बारसय - बरणे सरणं पवन्नाणि ॥५१॥ तो सहसाकारें, मा बीडंड सि पभणियं मुलिला । नेमित्तिएण कहिये, निवस्स जं तुह अनो नूणं ॥ ५२ ॥
सत्थो मज्झरहे, पजोनो धिन्तु धुंधुमारें । नौ नियनयरीप अंगारबई य से दिना ॥५३॥ पुरि भमिरो जोश्रो, अपवलं तु धुंधुमारनियं । कह गड़िओ इं पुट्ठा, दइया सा कहर मुणित्रयणं ॥५४॥ कहर नियो तुज्झतमो, नेमित्तियाग ! सो वि उबडशो । आप सुमह, बेडसवरं नवरं ॥ ५५॥ आलोयपडितो, बारतरिसी परंपयं पश्तो । भणिश्रमं तु पसंगा, सुजायचरिएण इह पगयं ॥ ५६ ॥ यंत्र धर्मोन तिहेतुरुषी जीतः सुजातः शुचिरूपरूपः । तमुक्तं यदमीष्टरूपो, जीवो भवेद्धर्मसुरक्षयोग्यः ॥५७॥ इति सुजातकथा । ध० २० १ अधि० । श्रधस्तनोपरितन मैवेयक विमानप्रस्तटे नपुं० । स्था० ६ ठा० ३ उ० । चम्यां धनमित्रस्य सार्थवाहपुत्रे, पुं० श्राव० ४ प्र० प्रा० चू० । ( 'संवेग' शब्देऽस्मन्नव भागेऽस्य कथा गता । ) सुजायदंत--सुजातदन्त--त्रि० । सुजाता जन्मदोषरहिता दन्ता येषां ते सुजातदन्ताः । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । जं० । सनिष्पन्नदशनेषु श्र० ।
सुजायपास - सुजातपार्श्व - त्रि० । सुनिष्पक्षपार्श्वे, जी०३ प्रति० ४ अधि० । पार्श्वगुणोपेतपार्श्वे प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार । सुजायपीवरंगु लिय-- सुजातपीवर । ङ्गुलिक - त्रि सुजाताः सुमिष्पन्नाः पीवरा श्रङ्गुलिकाः पदाप्रावयवा येषां ते तथा । सुनिष्पन्नचरणाग्रेषु, नं०
सुजाया-सुजाता स्त्री० । भूतानन्दस्य नागकुमारस्याग्रमहिष्याम् भ० १० श० ५ उ० ।
सुजेडा-सुज्येष्ठा - स्त्री० 1 बेटकराजदुहितरि घाव० ४ ० |
० क० । (साच कुमारिका एवं प्रजिनेति 'णियंठिपुत शब्दे चतुर्थभागे २०८ पृष्ठे उक्तम् ) बेटकमहाराजदुहिता सुज्यष्ठाभिधाना वैराग्येण पवजिता । स्था० ६ ठा० ३३० । सुजोग - सुयोग - पुं० | शुभव्यापारे, पश्चा० २ विव० ।
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सृज्जसिरी सुजोसिय-सुझोषित - त्रि०। सुष्ठु क्षिप्ते, "तेसि सुविधेगमाहिए पणमा जेहि सुजोसिश्रं धू (धु) यं" सूत्र०१ श्रु०२ श्र० २३० ॥ सुज - सूर्य - पुं० । रौ, स० ६ सम० । (सूर्यादेव दिग्विभाग इति 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे दर्शितम् ।) सुप्रभजिनस्य प्रथमगणधरे, ति० । रूप्यविशेष. जी० ३ प्रति ४ अधि० । सुअकंत-सूर्यकान्त-म० स्वनामस्याले ब्रह्मलोकषिमाने, स०
६ सम० ।
सुजसिरी- सूर्यश्री - स्वी० । सूर्यशिवस्य दुहितरि महा० । तरकथा वैधम्
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अस्थि इहं चैव भारहे वासे अवंतीनाम जणवभो । तत्थ यसंयुके नामं खंडगे, तर्हिस य जम्मदरिद्दे निम्मेरे णिfat far frणुकंपे अकूरे निकलुये निर्चिसे रोहे चंडे रोहपयंडदंडे पात्रे अभिग्राहियमिच्छदिट्ठी अणुच्च रियनामधे सुखसित्रे नाम धिजाई प्रहेसि । तस्स य धूया सुज्जसिरी । साय परितुलियसयल तिरुयणनरनारी गण लावतिदित्तिरूवसोहग्गाइसएणं भयोवमा | अन्नदा तीए अमभवंतरम्मि इमो हियए दुचितियं महेसि । जहा गं सोहणं हविआ - जड़ इ मस्स बालगस्स माया वावजे तो मज्झ असतं भवे एसो य बालगो दुञ्जीवियो भवद्द ताहे मज्झ सुयस्स रायलच्छी परिणमे अति । तकम्मदो सेयं तु जायमेत्ताए चैव पंचतमुवगया जगणी | तो गोयमा । तेणं सुसङ्केणं मह या किलेसे छंद माराहमाणा बहूणं श्रहिणवपमूयजीवaj घराघरं तं पाऊलं जीवाविया सा बालिया । अहनया जाव बालभावमुत्तिना सा सुखसिरी तात्र आगयं मायापुतं महारोरवं दुवाल ससंवच्छरियं दुग्भक्खं ति जाव णं फेडाफडीए जाउमारद्धे सयले विगं जणसमूहे । अनया बहुदिवसखुतेणं विसायमुवगएणं जहा
hi वावाऊणं समुद्दिसामि किंवा णं इमीए पोग्गलं. वि aruni अ किंचि विपरिणमग्गाओ पडिग्गाहित्ता ं पाणवितिं करेमि । गुणमने केइ जीवधारणोवाए संपर्य मह विजति । श्रवा हा घी हा हा व जुत्तमिणं किं तु जीवमाणि चैत्र विक्किणामिति नितिऊणं विक्किया सुज्जसिरी महारिद्धिजुबस्स चोहसविजाठाणपारगयस्स णं माहणगोविंदस्स गेहे । सो उ बहुजणेहिं घिीसोव तं देतं परिचिच्चा से गश्रो अभदेसंतरं ।
असिवो तत्थ वि सं पयट्टो । सो गोयमा ! इत्थेव विअमाणो जाव णं श्रसि कन्नगाच अवहरित्ता २ - नत्थ विकिणिऊण मेलिगं सुअसिषेणं बहुं दविणजायं । एयावसरम्मि उ समझते साइरेंगे अट्ठ संवछरे दुम्भिक्खस्स ० जाव णं वियलियमाणविहवं तस्स वि णं गोविंदमाह-
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मुज्जसिरी
(६६८) अभिधानराजेन्द्रः।
मुज्जसिरी णस्स तं च वियाणिऊणं विसायमुवगएण चिंतियं गोय- अन्नाणमंदरमएणं दीहेण खवह मा मा विगयजलाए सरीमा तेणं गोविंदमाहणेणं । जहाण होही संघारकालं मज्झ राए बुज्झेह मा मा अरजुपहिं पासेहिं नियंतिए.,मज्झकुडुंबस्स, नाहं विसीयमाणे बंधवे खणद्धमवि दणं सकु- माहे णाणप्पेह जहा णं किल एस पुत्तो एसा धूया एम णं णोमि ता किं कायव्वं संपयमम्हेहिं ति चिंतिगमाणस्सेवा णत्तुगे एसा णं सुन्हा एस णं जामाउगे एसा बंधवा एसा गया गोउलाहिवाणो मजा खड्यगविक्किणणत्थं तस्स गेहे | णं माया एस णं जणगे एसो भत्ता एस ण इडे मिटे पिए जाव ण गोविंदस्स भज्जाए तंदुलगेणं पडिग्गहियाओ च- कंते सुहियसयणमित्तबंधुवग्गे इहयं पचक्खमेवयं णिदिले उरो घयविगईभी मीसंखइयगंगोकुलियाउत्तंच-पडिग्गहि- अलियमलिया चव सकअत्थी चव संभवए लोमो, पयम्मि तमेव पडिभुतं डिंभेहि,भणियं च महयरीए-जहा णं | रमत्थो न कोई सुही जाव णं सकजं ताव णं माभट्टिदारिगे!पयच्छाहिणं तमम्हाणं तंदुलमुल्लगं चिरं चिडे या ताव णं जणगे ताव णं धूया ताव ण जामाउगे ताव ण जेणमम्हे गोउलं बयामो । तो समाणीता गोयमा! तीए णतुगे ताव णे पुत्ते ताव ग मुन्हा ताव ण कंता ताव माहणीए सा सुज्जसिरी, जहा णं हला तं जम्हा णरवइ- णं इंट्ठ मिट्ठे पिए कते सुही सयणयणमिते बंधुपरिवग्गे णा णिसावयं एहि पयच्छ जं तंदुलमुल्लगं तमोगहि ल. सकअसिद्धिविरहेणं तु.ण कस्सइ कइ माया ण कस्सा # जेणाहमिमीए पयच्छामि णं जाय ददं वसिऊण नीह- केइ जणगेण कस्सइ काइ धूया ण कस्सइ केइ जामाउ-- रिया मंदिरं सा सुज्जसिरी, नोवलद्धं तंदुलस्स मुलगं,सा- गेण कस्सइ केह पुत्ते ण कस्सइ काइ सुबहा न कस्सइ हियं च माहणीए,पुणो वि भणियं माहणीए. जहा हला ! केइ भत्ता ण कस्सइ केइ कंता कस्सइ केइ इडे मिट्ठ पिए अमुगं अमुगया मम णो ध्या अन्नेसिं ऊणमाणेह पुणो कंते सुही सयण मित्तबंधुपरिवग्गो जेणं तु पेच्छ पेच्छ मए वि पइट्ठा प्रालिंदगे जाव ण ण पिच्छे ताहे समुट्ठिया स- अगोवायसोवलद्धे साइरेगणवमासकुच्छीए विधारिऊयमेव सा माहणी जाव लावसं तीए विणिद्दिदं तं पुण णं च अगणिद्धमहुरउसिणतिक्खसुललियसणिआहामुचिम्हियमाणसा निउणमन्नेसिउं पयत्ता, जोव्यणं पिच्छे । रपयाणसिणाणुव्वदृण धूपकरणसंवाहणधन्नपयाणाइणि हिं गणिगासहायं पढमसुयं पयरिक्के पोयणं समुद्दिसमाणं णं एतमहं तमणुस्सीकए जहा किल अहं पुत्तं रजम्मि पुत्ततेणावि पडिदई जणणीए गच्छमाणीए चिंतियं अहनेणं पुत्तमणोरहमुहं सुहेणं पाए ण इमाणं पूरियासा काल जहावरिया अम्हाणं पोयणं अवह रिउकामा ण य मे सा। गमिहाभि,ता एग्सिं संपयं इयरंमि एयं च णाऊणं मा धवाना जइ इहासनमागच्छिही तोऽहमेयं वावाएसामि ति ईसुं करेह खणद्धमवि अणुं पि मा पडिबंधे जहा णं इमे य मचिंतयंतेणं भणिया , दासमा चेव महया सद्देणं सा ज्झ सुए संबुते तहा णं गेह जे केई भए जे केई वटुंति जे माहणी । जहा णं भट्टिदारिए जइ तुम इहई समाग- | केई भविंसुए तहा णं परिसेवि बंधुवग्गे केवलं तु सकालुद्ध च्छिहिसि तो मा एवं तं वोच्छिया । जहा णं णो चेव घडिया मुहत्तपमाणमेव कंचि कालं नएजा वा ता परिकहियं निच्छयं , अह एयं वावाएसामि एवं च | भो भो जणा ण किंचि कजं एसेणं कारिमं बंधुसंताणणं अणिढवयणं सोचा णं वजासणिहया इव धसति मुच्छऊ- अणंतसंसारपोरे दुक्खपदा य गेण्हंति एगे चेव वाहं निणं नियडिया धरणिपिढे, गोयमा! माहणि ति । तो साणुसमयं सुविसुद्धासए भयह (महा०) ल द्वेल्लियं च बोहिं रणं तीए मइयरीए परिवालिऊण किंचिकालक्खणं वुत्ता जो णाणुचिट्ठे अणागयं पिच्छ भो भो अमं बोहिं लहिहिसा सुज्जसिरी, जहा णं हला कन्नग अम्हाणं चिरं बट्टे सि कयरेण मुल्लेणं । जाव णं पुबजाईसरणपच्चएणं सा ता भणस सिग्धं नियजणणि जहा णं एह लहुं पयच्छ माहणीय सीय वागरेइ , ताव णं गोयमा! पडिबुद्धमतुमम्हाणं तंदुलमुलगं अम्हाणं तंदुलमुलगं विप्पणहूं सेसं पि बंधुजणं बहू णागरजणो य । एयावसरम्मि उ तो णं मुग्गमुल्लगमेव पयच्छसु ताहे पयिट्ठा सा सुज्ज- गोयपा! भणियं सुविदियसोग्गइपहेणं तेण गोविंदसिरी अलिंदगे जाव णं दट्टणं तमवत्थंतरगयं माहणी माहणेणं जहा णं धिद्धिद्धि वंचिया । एयावतं कालं जातो महया हाहारवेणं धाहावियं पयत्ता सा सुजसिरी । उयमूढे अहोण कड़गन्नाणं दुन्विन्नेयमहाभागधाह खुद्दतं चाइत्तिऊणं मह परिवग्गणं वाइओ सो माहणो मह- सतेहिं अदिघोरुग्गपरलोयपञ्चबाएहिं अतत्ताभिणिविट्ठदियरीए । तो पवणजलेण आसामिऊणं पुट्ठा सा तेहिं डीहिं पक्खवायमोहसुधुक्कियमाणसेहिं रागदोमोवहयबुद्धीजहा भटिदारगे किमेयं ति? तीए भणियं जहा मा मा। हिं परततधम्मं हो सञ्जीवमेव एरिमसुए एवयं काल
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सुजसिरी अभिधानराजेन्द्रः।
सुजसिरी समयं । अहो ! किमेस णं परमप्पा भारियाछलेणासी म- जीवमाणीए पावाए। माहं कम्मपरिणइवसेणं महापावत्थीज्झ गेहे उदाहुणं जो सो णिन्छिो मीमसएहिं सव्वएणु- चवलसहावत्ताए एतस्स तुझं सरिसणामस्स णिम्मलजससोझिए समरिए इव ससयतिमिरावहारित्तणं लोगावभा- कित्तीभमियभुवणोयरस्स णं कुलस्स खयणं काहं; जेण से मोक्खमग्गसंदरिसणत्थं सयमेव पयडीहुए अहो महा- मलिणीभवेञ्जा सव्वमवि कुलं अम्हागं ति । तमो गोयमा! इसयत्थपसाहगामो मज्झ दइयाए वायाए । भो भो जम्म- चिंतियं तेण नरवइणा,जहा णं अहो धम्मोऽहं जस्स अपुत्तयत्तविएहुयत्तजयदेवदत्तामिहसुमच्चादो! ममं अंग- स्सऽवि य एरिसा धूया, अहो विवेग बालियाए , अहो या अन्भुट्ठाणारिहा ससुराऽसुरस्सावि णं जगस्स एसा बुद्धी अहो पला अहो वेरग्गं अहो कुलकलंकभीरुयत्तेणं तुम्ह जणणि त्ति । भो भो पुरंदरपभितियो! खंडिया वि- अहो खणे खणे बंदणीया एसा जीए ए महत्ते गुणेता यारहण साबजाय भारियाओ जगवयाणं दाउं कसिणकि- जात्र णं मज्झ गेहे परिवसे एसा ताव णं महामहअसणिज्जुहणसीलामो बायाभो पसएहो अज तुम्ह गुरू ते मम सेए । अहो दिवाए संभरियाए सलाविया चेव सुभौराहणेकसीलाणं परमप्पं बलं जजणजाजणज्झयणाइणा आयए इमाइ ता अपुत्तस्म ण मज्झं एसा चव पुततुछकम्माभिसंगणं तुरियं विणिजाणह, पंचिदियाणि परि- लत्ति चिंतिऊणं भणियं गोयमा! सा तेण नरवइणा । जच्चयह ग कोहाइए पावे वियाणेहि णं । अमेज्झाइ व हाणं न एसो कुलक्कमो अम्हाणं वच्छे ! जे कट्ठारोहणं कीबालयकपडिमा सुची कलेवरो पविस्सामो व णं तं इच्छेवं रइति ता तुमं सीलचारित्तं परिवालेमाणी दाणं देसु जअणेगाहिं बेरग्गजणणे हिं सुहासिएहिं वागरंत चो- हिच्छाए, कुणसु य पोसहोववासाई विसेसेणं तु जीवदइसविज्जाठाणपारंगमं गोयमा ! गोविंदमाहणं सोऊण यं, एयं रजं तुज्झत्ति ताणं गोयमा ! जणगणेवं भणिअचंतजम्मजरामरणभीरुणो बहवे सप्पुरिसे सव्वुत्तमं ध- या ठिया सा समप्पिया य कंचुइणं अंतेउररक्खपालाणं । म्म विमरिसिउं समारद्धे । तत्थ केइ वयंति जहा एस धम्मो एवं वच्चंतेणं कालसमए तो णं कालगए से परिंदे अवरो,अञ भणंति-जहा एस धम्मो पवरो जाव णं सोहि
पया संजुज्झिऊणं महामइहिं ण मंतीहिं को नीए का पमाणीकया गोयमा! सा जातीसरा माहिणि ति। तीए य लाए रायाभिसेो। एवं च गोयमा! दियहे २देइ अत्थीणं । सपञ्चक्खायमहिंसोवलक्खियमसंदिळू खताइदसविहस- अन्नया तत्थ णं बहुवंदवट्ठभट्ठनडिगकप्पडिगचउरशियमणधम्म दिटुंतहेऊहिं व परमपच्चयं विमायं । तेसिं तु तोय
क्खणमतिमहंतगाइपुरिसमयसंकुलं अत्थीण मर्डवमज्भते तं माहणं सव्वन्नुमिति काऊणं सुरइयकरकमलंजलि
म्मि सीहासणोवविद्वाए कम्मपरिणइबसेणं सरागाहिलाणो सम्मं पण मिऊणं गोयमा! तीए माहणीए सद्धिं अदी
साए चक्खूए नीसए तीए सव्वुत्तमरूपजोवणलावणसिणमणसे बहवो नरनारीगणे चिच्चा णं सु(य)जणमित्तबंधुप
रीमंपोववेए भावियजीवाइपयत्थे एगे कुमारवरे । मुणियं रिवग्गगिहविहवसोक्खमप्पकालियं निक्खंते सासयसोक्ख- च तण गायमा कुमारण जहाण हा हा मम पाच्छय गया सुहाहिलासिणो सुनिच्छियमापसे समणयत्तेणं सयलगुणो
एसा वराई घोरंधयारमणंतदुक्खदायगं पायालं, ता सुहं इधारिणो चोदसपुरधरस्स चरिमसरीरस्सणं गुणधरथवि- नो अहं जस्स णं एरिसे पोग्गलसमुदायतरणू रागजणगे,किं रस्स सयासे ति। एवं च ते गोयमा! अञ्चतघोरवीरतवसंज- मए जीविएणं हंदि सिग्धं करेमि अहं इमस्स ण पावसरीमाणद्वाणसज्झायज्झाणाइसु णं असेसकम्मक्खयं का- रस्स संथारं,अब्भुमिण सुदुक्करं पच्छित्तं जावणं काऊण ऊणं तीए माहणीए सम्म विहूयरयमले सिद्धे गोविंदमाह- सयलसंगपरिचायं समणुचिट्टेमि णं सयलपावणिद्दलए अ. णादनो णरणारीगणे सव्वे वि महायसे त्ति। (महा०) जेणं णगारधम्मे सिढिलीकरेमि णं अणेगभवंतरविइस्मेसु दुविभवंतरेसु विण होसि सयलजणसुहप्पियागारिया सव्वं प- मोक्खे पायबंधणसंघाए । घिद्धी अञ्चणवस्थियस्स णं रिमय गंधमनतंबोलसमालहणाई जहिच्छियभागोवभो- जीवलोगस्स । जस्स ण एरिसे अणप्पवेसे इंदियग्गामे अगवजिया हयासाहु जम्मजाया दढनामिया रंडा । ताहे हो अदिदुपरलोगपञ्चवायया लोगस्स, अहो एकंजम्माभिगोयमा! सा तह त्ति पडिव अिऊण पगलंतलोयणंसुजल-णिविट्ठविनया अहो अविणायकजया अहो निम्मेरया खिजायकबोलदेसा ऊसरसुभसमणघरसारा भणि उमादत्ता। अहो निप्परिहासया प्रही अपरिचत्तलजया हा हा न जहा ऽएणुमपाणिमोहं पभूयमालवित्ता णंतिगे थावेह | जुत्तमम्हाणं खणमवि विलंबिउं एत्थ । एरिसे सुन्निवारए लहुं कटेरएहिं हवि चियणिहहेमि अवाणगंण किंचि मए असञ्जए पावागमे देसे । हा हा घिद्यारिए अहमेणं कम्मट्ठ
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सुखसिरी
सुजसिरी
अभिधानराजेन्द्रः। रासी जं मुइरियं मुईए रायकुलबालियाए इमे संकट्टपावे अद्वारसखंडखञ्जियवियणं स्वाभाविद्यमाहारं एयावसरम्मि सरीररूवपरिदसणेण सयणेस रागाहिलासे परिच्चच्चा | भणियं नरवइणा जहा रंग भो भो महासत्त! भण मुणीशं इमे विसए,तमो गएहामि पब्बझं ति चिंतिऊ भणियं स! को तुम संपयं तस्स णं चक्खुकुसीलस्स णं सद्दकरणं । गोयमा तेणं कुमारवरेणं । जहाणं खंतमरिसीयं बीसलं | कुमारेण भणियं-जहाण नरनाह! मणिहामि णं भुत्तुत्ततिविहं तिविहेणं तिगरणसुद्धाए सबस्स भ थाणमउंच
रकालेण । णरवाणा भणियं जहा भो महासत्त! दाहिरायउलपुरजणस्सेति मणिऊणं विणिग्गो रायउलाभो,। पाकरधरएणं कवलेणं संपर्य चेव भणसु जेणं खु जपत्तो य निययाऽऽवासं । तत्थ णं गहिय पत्थियण दो खडि एयाइ कोडीए संठियाण केइ विग्धे हवेजा,ताणहण्हाव काऊणं बसियफलावलीतरंगमउयं मुकुमालवत्थं परिहिए- सुदिइपच्चएसु चेव पुरपुरस्सरे उवज्झाणत्तीए अनहीय शं अडफलगे गहिऊणं दाहिणहत्थेणं सुयणजणहियए समलबिदामो । तमोसंगोयमा भणिमंतेग कमारेख इव सरलचित्तलखंडे तओ काऊण तिहुयणकगुरूणं 'जही ' एयं पयं प्रमुगं सद्दकरणं तस्स चक्खुकुसीलाभरहताणं भगवंताणे जगप्पवराण धम्मतित्थंकराणं ज- हमस्सण दूरंतपंतलक्खणभदट्टब्बदुजायजम्मसत्ति ता गोहुत्तविहिणा भिसंथवणं बंदणं से णं से णं चलचवल- यमा ! जाव चवइयं समुल्लवे से ण कुमारवरे ताव पं गइप्पत्तणं गोयमा! दूरं देसंतरे से कुमारे जाव णं हिर- अमेण हि पवित्तिएव समम्भासियं तस्वणा परचक्केणं, तं एणुक्करडी णाम रायहाणी । तीए रायहाणीए धम्मायरि- रायहाणि समुट्ठाइए य समद्धबद्धकवए णिसियकरवालकुंयाण गुणविसिवाणं पउत्तिं प्रलेसमाणे चिंतिउं पयत्ते से तविप्फुरंतच्चाइपहरणाडोववञ्जपाणी हण २ रावभीरुणा कुमारे, जहा णं जाव णं करेइ गुणविसिटे धम्मायरिएम- | बहुसमरसंघट्टादि णं पिट्ठीजीयंतकरे अतुलबलपरकमे णं प समुबलद्धे ता विहई चेव मरवि चिट्ठियध्वं तो गयाणि माहायले जोहे । एयावसरम्मि य कुमारस्स चलणेसु सिवकावयाणि दियहाणि । भवामि णं एस बहुदसचिरकाय-| डिऊणं दिद्रुपच्चए मरणभयाउलत्ताए अगणियकुकित्ती नरवरिंदे एवं च मंतिऊणं जाव णं दिवो राया, रूप लक्कमपुरिसगारविप्पणासे दिसिमेकमासइत्ता णं सपरिगरे च कायध्वं, सम्माणिमो य णरणाहेणं पडिच्छियावा- | पणढे से णं नरवरिंदे । एत्थंतरम्मि चिंतियं गोयमा! से अमया लद्धावसरेणं पुट्ठो सो कुमारो गोयमा !| तेणं कुमारेणं जहा णं नाम पुरिसकुलकमं अम्हाणं जं पतेणं नरवाणा । जहा भो भो महासत्ता ! कस्स नामा- डिदाविजइ णो णं तं पहरियव्वं मए कस्सावि णं अहिंलकिए एस तुज्झ हत्थम्मि विरायए मुद्दा, रमा को वा ते- सालक्खणं धम्मं बियाणमाणेणं कयमाणाइवायपञ्चक्खासि ठिमो एवइयं कालं । के वा भवमाणए कर तुह सा- णेणं च ता किं करेमिण सागारे भत्तपाणाईण पञ्चक्खाणे । मिणि ति । कुमारेणं भणियं-जस्स णामालंकिए णं इमे अहवाण करेमि जमो दिद्वेणं ताव मए दिट्ठीमित्तकुसीलस्स तु दारयणे से णं मए सेविए एवइयं कालं, तभो णामग्गहणे णाविए महंते संविहाणगे तासंपये सीनस्सावि नरवइणा भणियं जहा णं किं तस्स सद्दकरणं ति । कुमा- । एवत्थं परिक्खं करेमि त्ति चिंतिऊणं भणिउमाढत्ते णं रेण भणिय-नाम अजिमिएणं तस्स चक्खुकुसीलाहमस्स गोयमा! से कुमारे । जहाण जइ अहयं वायामित्तेणापि कुसीगं सहकरणं समुच्चारेमि । तमो रमा भणियं-जहाणं भो लो ताण मा णीहरेजा हु अक्खव्वंतणुखेमणं एयाए रायमहासत्त! केरिसो उण सो चक्खुकुसीलो भले किं वाणं हाणीए ।प्रहाणं मणोवइकायतिएणं सवप्पयारेहिं सीभजिमिएहिं तस्स सद्दकरणं णो समुच्चारिए । कुमारेण
लकलियो ता मा यहिज्जा ममोवरिं इमेसु निसिए दारुभणियं-जहाणं चक्खुकुसीलो ति । सद्धीए ठाणंतरेहिं- णो जीयंतकरे पहरणाणि हए, णमो अरिहंताणं 'ति जह विरत्तो इह तं दिवपच्चयं होही तो पुण बीसत्थो भणिऊणं जाव णं पवरतोरणदुवारेण चलसाहीहामि, जं पुण तस्स अजिमिएहिं सहकरणं । एतेषं
चवलगई जाउमारद्धो जाव ण पडिक्कमे थोवं भूमिण समुच्चारीए जहा ण जइ कहा भजिभिएहि व भागं ताबयं हल्लावियं कप्पडिगवेसणं गच्छह एस नतस्स चक्खुकुसीलाहमस्स णामग्गहणं-कीरए ताणं णत्थिरबा ति काऊणं सरहस्सं हर हर मर मर ति भणमाणो तम्मि दियहे संपत्तीपाणभोयणस्स ति, ताहेगोयमा! पर- तिक्खकरवालादिपहरणेहिं पवरवरजोहहिं जाव णं सममविम्हइएणं रमा कोउहल्लेण लहुं हकाराबिया रसबई उव- ग्पाइए अचंतभीरुणा जीयंतकरे पवरबलजोहे,ता विरतं भविडोय भोयणमंडवे राया सह कुमारणं असेसपरियणेणं च विसममणुदयाभीयए अचंतभदीपमाणसे पं गोयमा!
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.सुज्जसिरी
अभिधानराजेन्द्रः।
सुज्जसिरी मणियं कुमारणं । जहा रे णं भो! भो! दुद्दपुरिसा ममो- विहं जइ य सीलं। ४॥"ति भणिऊण गोयमा झत्ति मुक्का चरि चेह एरिसेणं घोरतामसभावेणं अत्तिए असयं कुमारस्सोवरि कुसुमवुट्ठी पवयणदेवयाए पुणो वि भणिउपि सुहझवसायसंचिए पुरसप्पन्भारे एस अहं से तुम्ह माढत्ता देवया । तं जहा--"देवस्स देंति दोसे, एवं चित्र पडिसत्तू असुगो परवती मा पुणो भणिज्जासु । जहा अत्तणो सकम्मेहिं । ण गुणेसुंठविऊणं, सुहाइ मुद्धा य णं विणिमुको अम्हा णं भएणं ता पहरेजमु जइ भत्थि जोएंति ।।१।। से जत्थ भाववत्ती, समदरिसी सब्बलायवीबीरियं ति जावत्तियं भाणियं ताव णं तक्खणं चेव सासो । निक्खेवयपरियतं.दिव्यो न करेइ तं दोय ॥२॥ता थंभे एते सब्बे गोयमा ! परबलजोहसीला हिवाति- बुज्झिऊण सम्वु-त्तमं जणा सीलगुणमहिदायं । नाम सयमाणं तियमाणं पि भलंघणिजा एतस्स भार- भावं चिचा, कुमारपयपकँपणमेह ॥३॥" त्ति भणिऊणं असीए जायए निब्बलं देह । तो य णं धस ति मुच्छि- दंसणं गया देवया इति । ते छइनपुरिसे लहुं च गंतूण ऊणं णिपिढे णिवडिए धरणिपिढे से कुमारे । एया- साहियं भावसभावयं तेहिं नरवइणो । तो भागओ बहुवसराम्म गोयमा । तेण नदिंदाहमणं गूहियमाया- विकप्पकलोलमालाहियो उ रजमाणहिययसागरो हरि. विणो वुत्ते धीरे सव्वत्थी वीसमत्थे सबलोयसामंतधीरे सविसायवसेहिं सीमोदयो तत्थ किर ठिइउ सणियं भीरू वियक्खणमुक्के सूरे कायरे चयरे चाणक्के बहुप- गुज्झसुरंगखडकियादारणं कंपंतसव्वगत्तो महया-- बंचभए संधिविग्गहिए निउत्ते (त्थ) छइल्ले पुरिसे कोउहलणं कुमारदंसणुकंठिो य समुद्देस्मेव दिवो य जहा णं भो ! भो तुरियं रायाहाणीए वजिज्ज नीलस- तेणं सो सुगहियणामधेजो महाजसो महासत्तो महा सिसूरकंतादीए पवररमणीयरणरासीए हेमतवणीय- | गुभावो कुमारमहरिसी अप्पडिवाई महोही पबजएणं सा जंबूणयसुवनभारलक्खणं । किं बहुणा विसुद्धबहुजचमो- हेमाणो संखाईयभवाणुभूयं दुक्खसुहं सम्मत्ताइलभ संसा. त्तिगविहुमक्ख रिलक्खपडिपुनस्स णं कोसस्स चाउरं--- रसहावं कम्मबंधद्वितीविमोक्खमहिंसालक्षणमणगारवेगस्स बलस्स विसेसो णं तस्स सुगहियनामगहणस्स पु- (य)रबंधणं एवमादिएणं सुहणिसम्मो सोहम्माहिबई धाररिससीहस्स णं सीलसुद्धस्स कुमारवरस्सेति पउत्तिमाणेह | उवविरिप्पउ पवत्तो । ताहे य तमदिट्ठपुब्बमच्छेरगं दट्टण प. जेणाहं णिचुत्रो भवेज्जा । ताहे नरवइणो पणामं क.ऊ- डिबुद्धो सपरिग्गहो पबइअोय,गोयमासो रायरक्खाहिबई णं गोयमा ! गए ते निउत्तपुरिसे जाव णं तुरियं विएत्यंतरम्मि पहयमूसरगहिरगंभीरदुंदुभिनिग्घोसपुव्वेणं चलचवलजइणकमणपवणवेगाह णं आरुहिऊण ज- समुग्घुटुं चउविहं देवनिकायेण । तं जहा-"कम्मदृगंथिसु. चतुरंगमेहिं विपिनगिरिकंदरुद्देसपइरिक्कामो खणणं पत्ते | समृरण ! जय परमेद्विमहायस! जय जय जयाहि चारित. तं रायहाणं , दिहो य तेहिं वामदाहिणभुया- दसणनाणसमणिय ! सच्चिय जणणी जगे एक्का बंदणीया पल्लवेहिं बयणसिरोरुहे विलुपमाणो कुमारो । तस्स खणे खणे जीसे मंदरगिरिगुरुकम्मपउरे वुच्छेत्तुं समासय पुरनो सुकन्नाभरणणेवत्था दसदिसामुजोयमाणी णि" ति भाणिऊणं विमुंचमाण सुरभिकुमुमवुट्ठी भजयजयसद्दमंगलमुहला रयहरणबद्धाभयकरकमलरइयं-त्तिभरणिभरे चिरइयकरकमलंजलिउ (डो) त्ति निवाडिए जली देवया तं च दद्दण विम्हियणयणे लिप्पकम्मणि- ससुरासुरे देवसंधे । गोयमा ! कुमारस्स णं चरणारविंद म्माविए एयावसरम्मि उ गोयमा! सहरिसरोमंचकंचुइय- पणचियाओ य देवसुंदरीओ पुणो २ संथुणिय णमंमिय पुलइयसरीराए-"णमोअरिहंताणं"ति समुच्चारऊण भाखरे चिरं पज्जवासिऊणं सहाणेसु गए देवनिवहे । से भयवं गयणद्वियाए पवयणदेवयाए से कुमारे। तं जहा-"जो दलइ कहं पुण एरिसे मुलभवोही जाए महाजसे सुगहियणामुट्टिपहरेहि,मंदरं धरइ करयले वसुहं । सव्योदहीण वि जलं, मधेजे से ण कुमारमहरिसी । गोयमा ! तेणं समणपाइरिसह इक्वघोडेणं ।।१॥ भूयले सग्गं मोहरि , कुणइ भावदिएणं अमजम्मम्मि वायादंडे पउत्तेणं अहेसितं सिवं तिहयणस्स वि खणणं । अक्खंडियसीलाणं,कुद्धो वि निमित्तेणं जायजीवमूलव्यए गुरूवएमेणं साधए ण सो पहप्पेजा।।शालहवा सो च्चिय जाओ, गणिज्जए अन्नं च तिन्नि महापावट्ठाणे संजयाणं । तं जहा--पाउतेउतिहयणस्स वि स बंदो। पुरिसो वि महिलिया वा, कुल- मेहणे एते सम्बोवाएहिं परिवजिए, तेणं तु से मुलभग्गयो जो न खंडए सीले ॥३॥ परमपवित्तं सप्पुरिससे- बोही जाए अहमया णं गोयमा! बहुसीसगणपरियरिए से वियं सयलपावनिम्महणं । सव्वुत्तमसुक्खनिहिं , सत्तरस । पं कुमारमहरिसी पत्थिए संमेयसेलसिहरे देहच्चायनिमित्ते
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( १२ ). अभिधानगजेन्द्रः ।
सजा मिरी
यं कालक्कमेय तीए चेत्र वत्तणीए जत्थ गं से य कुलदारिया गरिंदे चक्खुकुसीले जाणावियं च रायउले, भागो व वंदणवत्तियाए सो इत्थीनरिंदो उजाणवरम्म कुमारमइरिसियो प्रणामपुत्रं च उबविट्ठो सपरिसरो जहोइए भूमिभागे । सुणिणा विपबंधेण कया देसखा तं च सोऊण धम्महानसाणे उवडियो सपरिवग्गो णीसंगताए tours गोयमा ! सो इत्थीनरिंदो । एवं च अचंतघो रबीरुग्गकङ्कदुकरतवसंजमाणुड्राय कि रियाभिरयाणं सव्वेसिं पि अपडिकमसरीराणं अपडिबद्धविहारत्ताए अचंतणिप्पि - हा संसारिए चक्करसुरिंदाइपभिइ समुदयसरीग्सुखेसुं गोयमा ! बबइ कोइ कालो जाव णं पत्ते संमेयसेल सिहरे ! भासतो भाणिया गोयमा ! तेण महरिसिया कुलबालिया रिंसमणी । जहा णं दुकरकारिगे सिषं अणुधूयमाणसा सब्वभावंतरेहिं णं सुविसुद्धं पच्छाहि मं गी सलमालोयणं, आढवेयध्वा पसंसयं सव्येहिं अम्हेहिं देहच्चायकरणे व बुद्धलक्खेहिं णीसल्ला इय निंदियगरहियजहुतसुद्धास्यज होवइडकयपच्तिनि डियसलेहिं चणं कुसलगिद्दिडा संलेदयति । तभो गं अहुत्तविहीए सम्बमालोयंतीए रायकुलबालियाए गरिंदसमणी जाब णं संभारियं तेणं पहाणमणिया । जहा गं जमहं तथा रायत्थाणमुत्रविद्वाए तए गारत्थभावम्मि सरागाहिलासाए संविभो महेसि । तमालोएय हे दुक्करकारिए ! जे तुम्हं सव्युत्तमविसोही हवइ । तभो सीएम सा परितपिऊ अहचवणासयनियडिनिकेयपाषित्थी सभावताए या गं चक्खुकुमील त्ति अनुगस्स धूया समयीणमंते वसमाग्री परिभविहामि ति चितिकणं गोमा ! भणियं तीए प्रभागधिजाए। जहा गं भगवं! णाम तुम एरिसे भट्ठे सरागाए दिट्ठीए परिणिओइभो जभो अहयं ते अहिलसेज किं तु जारिसेां तुम्भे सब्बुत्तमरूवतारुष्पजोष्वणलावष्णकंतिमोहग्गकला कलावणियाणासाइम माइगुणो विद्धमंडिए होत्था विसएसु निर हिला सुचिरं ता किमेयं तह सि किं वा यो त तिथि तुज्यं पमाणं परितोलणत्थं सरागाहिलासं चक्खू पडत्ता यो णं वा भिलसिउकामाए । महवा - इयमस्थे बेबाऽऽलोइउं भवउ कि मिरथ दोसंति मज्झमवि गुणाबहेयं भवेजा। किं तित्थं गंतूय मायाकवडेणं सुवष्यस कोइ पयच्छे, ताहे ण किंपित्ति अर्थ तगरुयसंवेगमावण षि दिसंसारच लित्थीस भावस्स संति चितिऊणं भणियं मुखिवरेणं जहा गं धिद्धिरन्थ पाचित्थीचलसभावस्स जे तु पेच्छ पेच्छ यदहमेसा कालसमए
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सुज्जमिरी केरिसा नियडी पउत ति, अहो खलित्थी चलचवलचडुलचंचल सिट्ठिएगट्टमाणसाणं खणमेगमवि दुअम्मजायागं हो सयलकभंडेहलियाणं महो सथलायम कित्तिबुड्डिकराणं श्रहो पावकम्माभिणिविट्ठज्भवसायाणं अहो अभीरुयाणं परलोगगमणन्धयारघरदारु दुक्ख कंडूकडा हसामली कुंभीपा यदुरहियासाणं एवं च बहुं मणसा परितप्पऊण यत्तणाविरहियधम्मियकर मियसुपसत वयणेहिं पसंत महुरक्खरेहिं सां धम्मदेसणापुव्वगेणं भणिया कुमारेग रायकुलचालिया नर्रिदसमणी गोयमा ! तेणं सुखिवरेगं । जहा गं दुक्करकारिगे! मा एरिसेणं मायापबंघणेणं अश्वंतघोरवी रुग्गकसुदुक्करतवसंजमसज्झाणाईहिं समजिर निरणुबंधे पुष्पन्भारे शिष्फले कुणसु ण किंचि एरिसेणं मायाडंभेण अयंत संसारदा यगेणं पयोयणं, नीसल्लकम्मालोयत्तणे खीसल्लमत्ताणं कुरु । अहवा अंधयारे णं ठियासं धवि यसुवा मंत्र ( एक्काए फुयाए ) जहा तहा रित्थयं होही तुम्भेहिं लुप्पाड - भिक्खा भूमि सेजा-वावीस परिसहोवसग्गाहिया सगाइए कार्य किलसे ति । तत्र भणियं तीए भग्गलक्खणाए जहा भगवं । किं तुम्हेहिं सद्धिं धम्मेणं उल्लविज विसेषेण आलोय दाउमाणेहिं रसिकपत्तियाणा व मए तुमे तकालं श्रभिल सिउकाभाए मरागाहिलासाए चक्खए निजः इउं किं तु तुज्झ परिमाणतोलणत्थं गिजाश्रो नि भणमाखी चैव निहणं गया कम्मपरिणईए य च समजि
बद्ध निकायं उकोसहियं इत्थीवेयं कम्मं, गोयमा ! रायकुलबालिया नरिंदसमणि त्ति । तत्र य ससीसगणो गोयमा ! से गं महच्छेरयभूए सयंबुद्धकुमारमहरिसी विहीए संलेहिऊ अत्तागं मासं पायवगमणेणं संमेयसेल सिंहरमितं केवलित्ता" सीसगणसमलिए परिथिवुडेति । महा० २ चू० ।
से भयवं जेणं केइ सामयमन्भुआ से णं एक्काइ० जाव यां सतह भवंतरेस नियमेणं सिज्झिजा, ता किमेयं श्रणुलात्रियं लक्ख भवंतरपडियङ्कणंति । गोयमा ! जे यं केइ निरइयारे सामने निव्वाहेजा से गं नियमेणं एकाइ ० जाव णं अनुभवंतरेसु सिज्झिजा । जे पुए सुडुमे वा बायरे वा केई मा वासल्ले वा भाउकायपरिभोगे वा तेउकायपरिभोगे वा मेहु यकजे या अभयरे वा केई भाणाभंगे काऊ सामनमहयरेज से गं जं लक्खभवग्गहणेणं सिज्झे तं महालाभे जो गं सामयमयरिना बोहिं पि लभेजा । दुक्खं खं एसा गोयमा । तेणं माहणीजीवेगं माया कया जीए य एंडइसे लाए वि एरिसे पात्रे दारुणविवागिति से
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मुजसिरी अभिधानराजेन्द्रः।
मुज्जसिरी भयवं! किं तीए महयरीए तेहिं से तंदुलमुनरो पयच्छीए ।।शविऊणं भणियं परिक्खह जहा इमाणं परममयीय करेह किंवा णं सा वि य महयरी तत्थेव सिं समं असेसकम्म-मतिण सकिरियं तेसिं सवंकाऊ, ताहेम. खयं काऊणं परिनिम्बुडा हवेजति गोयमा तीए मह- गिया नरवाणा-जहाणं भो भो मणिकखंख्यिा ग.
तस्स ण तदुलमुनस्साए ताए मारणाए धूय तिथि का इत्थ जेणं एएसि मुलं करिजा ता गियासु काऊणं गच्छमाणी प्रचंतराले चेव भवहरिया सासुअसिरी।
खं मुलं दसकोडी दविणजायस्स । सुसिवेणं भणियं. जहाण मज्झंगोरसं परिभोत्तूणं कहिं गच्छसि संपर्य ति ?
जं महारानो पसायं करेति, णवरं इसमो प्रासापायमाह-वच्चामा गोउलं अमं च जइ तुर्म मज्झं विणीमा
समिहिए महा णं गोउले तत्थ एग जोपर्ण जाप हवेजा ता अहियं तुम्भे जहिच्छाए ते कालियं बहुगुणध
गोणीण गोयरभूमी तं प्रकरं विष सति । तमो नररेखं अणुदियहं पच्छिहामि जाव णं एवं भणिया ताव
वाणा भणिय-जहा एवं भवउ ति । एवं च गोयणं गया सा सुअसिरी तीए महयरीए सद्धिं तेहिं प
मा ! जम्मद रिहस्स करमरे गोउले काऊणं तेणं अणुरलोगाणुडाणकसुहज्झवसायखित्तमाणसेहिं न संभरिया
परियनामधेओण परिणीया सा निययध्या सुजसिसा गोविंदमाहणाइहिं । एवं तु जहा भणियं महयरीए त- सअसिवेणं । जाया परोप्पर तेसि पीई जाब ण नेहा चव तस्स घयगुलपायसपयत्थे, महऽभया कालकमेण
हाणुरागरंजियमाणसे गमेंति कालं, किचि ताबण दहगोयमा । वुच्छिम्म णं दुवालससंवच्छरिए महारोरवे दारु
ण गिहागए साहुणो पडिनियत्ते,हा हा कदं करेमाणी पुणे दुभिस्खे जाए य णं रिद्धीए य समिद्धे सब्वे विज
हा सुअसिवेणं सुअसिरी । जहा पिए एवं प्रदिपुवए। प्रहऽभया पुख वीसं अणग्धेयाणं पवरससिमरकंता
धं भिक्खायरजुयलं दहणं किमेयावत्थं गयासि , तमो ईशं मणिरयणाणं घेत्तूणं सदेसगमसनिमित्तेणं दीहद्धाए |
तीए भणियं-जहा णणु मझ सामिणीए एएसि महया परिक्सित्तभंगयडी पहपडिमणेणं तत्थेव गोउले भविय
भत्तपाणेणं पत्तभरणं कि.रयं । तमो पहातागणसा ब्वयानियोगेणं प्रागए अणुच्चरियनामधेञ्ज पावमती सु
उत्तमंगेणं चलणगे पणमयंती नामए मज एएसि पअसिवे । दिवा य तेणं सा कन्नगा जाव णं परितुलिय सिमेणं सा संभारिय ति । ताहे पुणो वि पुडा सा सयलतियणणरणारीरूवकंतिलावन्नं तं सुअसिरिं पासि
पावा तेणं जहडिए काउं तुझं सामिणी अहेसी । तभी प चेव लाभाए इंदियाणं रम्मयाए किंपागफलोवमा
गोयमा ! णं दर्द उसुरुसुं भंतीए समनुगथेरषिसंपुलगियंतदक्खदायगाणं विसयाणं विजियासेसतियणस्सणं
राए साहियं सव्वं पि णिययवुर्सतं तस्मेति । ताहे बिगोयरमएणं मयरके उणा, भणिया णं गोयमा ! सा सु
माय तेण महापावकम्मेण जहा पं निच्छर्य एसा सा आंसरी तेणं महापायकम्मेणं सुसिवेणं । जहा णं हे हे
ममंऽगया सुजसिरी। अम्हाए महिला एरिसी कबकन्नगे जइ णं इमे तुम्भ संतिए जणणी जणगे समणु
कंति-दिति-लावलं सोहग्गसमुदयसिरी भवज तिथिमर्मति ताणं तु अयं ते परिणेमि, अमं च करेमि सव्वं
तिऊणं भणिउमाढत्तो । तं जहा-"एरिसकम्मरया जैन प पि ते बंधुवग्गाणं दरिइंति तुम्भमवि घडावेमि पलसय-डेड घडहडितयं अवजंतंरगुण इमं चिंतिय, सो विजहिमणूणगं सुवमस्स, तो गच्छ अइरेणावसाहेसु मायावि- च्छिदिनो मे कत्थ सुन्झिस्संति" मणिऊणं चिंतिउपयमामं । तमो गोयमा ! जाव णं पहडतुट्ठा सा सुञ्जसिरी तो सो महापावयारी । जहाणं किं जिंदामि महमं सा. तीए महयरीए एवं वइयरं परिकर ताव णं ताखणमा-त्थेहिं तिलं तिलं सगतं । किं वाणं तुंगगिरिताउ प. गंतूण भणियो सो महयरीए, जहा भो एवं से हीणं जं ते स्खिविउ दर संमुत्तो, मा इणमो मणतपावसंघायसमुदमझ धूयाए सुवनपलसएसुं किए । ताहे गोयमा एवं स- दई । किंवा गं गंतूणं लोहयारसालाए सुतत्तलोहए तेणं पवरमणी । तभो भणियं मायरीए जहा तं सुवण- खंडमिव पणखंडाहिं पुतामि । सुइरमत्ताणगं केवलायं स्स सयं दाएहिं , किमेएहिं डिंभरममगेहिं पवियह-कालावेऊण मज्झो मज्झाए लिक्खकरवतेहिं भत्ताणगेहिं । वाहे भरिणयं सुज्वसिवेणं-जाणं हि वच्चामो मं पुणो संभाराबेमि भंतो सुकडिय तत्ततंपकबगर, दंसेमिणे ग्रह तज्झमिमा पवियगा.माहप्पं ।। सलोहलोणसझियाखारस्स । किंवा मं सहरणं सभोपभाए गंतूण नगर एयंसिय पियं ससिमरकंतपत्र- छिदमि उत्तभंग, किंवा संपविसामि मयरपर, किंवा रमणिशुयलग तेणं नरवइणो दाविया, नरवइया वि स- गं उभयरुस्खेसु महोमई विणिबंधाविऊणमत्ताण
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(६३४) अभिधान राजेन्द्रः ।
जसरी
सुख सिरी
ट्ठा पञ्जालावेमि जलं । किं बहुणा णिच्छुहेमि कहिं | तघोरवीरुग्गकसुदुकरतवसंजम किरियाए बङ्गमाणेणं अ
अत्ताणगं ति चिंतिऊणं जाव सुमसाणभूमीए गोयमा ! विरइया महती चिई, ताहे सयलजगसमक्खं सुइरं निंदिऊणं अत्ताणगं साहियं च सव्वलोगस्स । जहा गं मए एरिस कम्मं समायरियं ति भाणिऊणं आरूढो चियाए जाव जं भवियन्त्रया नियोगेणं तारिसदव्वनजोगाणुसङ्को ते सव्वे विदारुति काऊ फूइअ - माणे गपयारेहिं तहा वि णं ण पञ्जलिए सिही तय धिद्धिकारेणोवहओ सयललोगवयणेहिं जहा भो भो पिच्छ पिच्छह हुयासणं पिण पजले पावकम्मकारिस्सति भाणिऊणं निद्धाडिए ते वि गोउलाओ एयावसरम्मि उ असासमणिवेसाओ आगएवं भत्तपाणं गहाय तेणेव मग्गेयं उज्जाणाभिमुहे मुखीणं संघाडगे तं च दणं श्रणुमग्गेणं ए एते चि पाविट्टे एते य उज्जाणं जाव णं पेच्छति सयलगुणोहधारिं चउन्नायसमन्नियं बहुसील गणपरिकिन्नं देविंदनरिंदवंदिजमाणपायारविंदं सुगहियनामधियं जगाद नामं अणगारं । तं च दट्ठूणं चिंतियं तेहिं जहा (गा) गंदे मग्गेसि विसोहिपयं एस महापुरुसे ति चिंतिऊणं तो पणामपुच्वगेणं उबविट्ठेत्ता जहोइयभू - मिभागे पुरो गणहरस्स भणिश्रो य सुमित्रो तेण गणहारिणा । जहा गं भो भो देवाप्पिया ! खीसल्लमालोएता लहुं करे सिग्घं असेसपाविदुकम्मनिडवण पायच्छित्तं । एसा उण आवन्नसत्ता, एयाए पायच्छितं णत्थि
|
। सूया | ताहे गोयमा ! सुमहच्चंतपरममहा संवेगग एस सुसिवे श्राजम्माओ नीसल्लालोयगं पयच्छिऊणं जहोवइङ्कं घोरं सुदुक्करमहंतं पायच्छित्तं अ णुचरिता तो अच्चंत विसुद्ध परिणामो सामपमन्युट्ठिऊणं छब्बीसं संवच्छरे तेरस राईदिए अच्चंत घोरवीरुग्गक दुक्क - रतवसंजमं समणुचरिऊणं जाव णं एगदुतिचउपंचछम्मा सिएहिं खमयेहिं खवेऊणं निष्पडिक्कम सरीरत्ताए अप्पमायता सन्वत्थामेसु अणवरयमहनिस्सासमयं सययं सज्झायज्झाखाइसु णं सिद्दहिऊणं सेसकम्ममलम उच्च - करणेणं खबगसेढीए अंतगड केवली जाए सिद्धे य । से भययं तं तांरिसं महापावकम्मं समायरिऊणं तहवि कई एरिसे णं से सुञ्जसिव लहुं थोत्रेणं कालेयं परिनिव्वुडे ति ?, मोमा ! तें जारिसभावट्ठिएणं आलोयणं विइनं जारिससंवेगगएणं तं तारिखं घोरदुक्करं महंत पायच्छितं समुद्वियं जारिसं सुविसुद्धसुहृज्झासाएवं तं वारिसं अच्चं -
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खंडियअविशहिए मूलुत्तरगुणे परिपालयतें निरइमारं सामनं णिव्वाहियं जारिसे रोहट्टज्झा व विप्प मुकेणं गिट्टियरागदो समोहमिच्छत्तमयभयगारवें मज्झत्थभावेणं मदीयमाणसेणं दुवाल सवासे संलेहखं काऊचं पाचोवगमणमणसणं पडिव तारिसेखं एगतं सुभज्झाणज्भवसा॰णं, ण केवलं से एगे सिज्भेजा जह से कहाइ परकयकम्मसंक्रमं भवेजा तो मं सब्वेसिं भव्वसत्ताणं अ सेमकम्मक्खयं काऊ सिज्भेजा वरं परकम्मकवादी
कस्सइ संकमेज, जं जेण समज्जियं तं तेणं समशुभfarai | गोमा ! जया णं निरुद्धे जोगे हवेजा तथा णं असेस पि कम्मरासि अणुकालविभागेणेव गिड्डा
सुसंडासेसासवदारे जोगनिरोहेणं तु कम्मक्खए दिट्ठे ण उण कालसंखाए । जो गं काले तु खत्रे कम्नं कालेयं तु पबंधए एगगं बंधे एगगं खवगे । गोयमा ! कालमसंतगं णिरुद्धेहिं तु जोगेहि वे कम्मं ण बंधए, पोराणं तु पई एजा यवगस्साभावमेव
| एवं कम्म विदारणेयेत्थं कालसमुद्दे से श्रणाइकाले जीवे य तहवि कम्मं ण गिट्ठए खओवसमेण कम्माणं जया विरयं समुच्छले कालं खेत्तं भवं भावं संपप्प जीवे तया अप्पमादी खवे कम्मं जे जीवे तं कोडिं वडे । जो पमादी पुणो णं तं कालं कम्माणि बंधेयाणि वसेज चउरगईए उ सन्वत्थचं तदुक्खिए तम्हा कालं खेत्तं भवं भावं संपप्प गोयमा ! मइमं अइरा कम्मल करे से भयवं ! सासुअसिरी कहिं समुत्रवना १, गोयमा ! छट्टीए गरयपुढवीए से भवयं ! के अद्वेग गोयमा ! तीए पडिपुष्याणं साइरेगाणं णवएवं मासाणं इणमो वेरित्तियं जहा गं पच्चूमे गन्धं पाडवेभि त्ति एवमज्झत्रसमाथी चैव बालयं पसूया - पसूयमेत्ता य तक्खण निहां गया तएां अद्वे गोयमा सा मुञ्जसिरी छट्ठयं गय त्ति से भयचं ! जं तं बालगं पसविकयां मया सा सुसिरी तं जीवियं किंवा या व ति ?, गोया ! जीवियं । से भयवं ! कहं १, गोयम ! पसूयमेतं तं बालगं ता रिसेहिं जरजेरजलुस जंवा लपइरुहिरखारदुग्गंधा सुईहिं विलित्तमणाहं विलवमाणं दहूणं कुलालचकस्सोवरि काऊणं साखेण समुद्दिसिउमारद्धं ताव ग दिहं कुलाले । ताहे धाइ सघर सिओ कुलालो । श्रविणा सियचालत णू पडो सायो । तत्रो कारुमहियएवं अपुत्तस्स गं पुतो एस मज्झ होहि त्ति बियाप्पऊणं कुलाले समप्पिऊ से बाले । गोयमा ! सदइयाए तीए सम्भावणं परिवालि -
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( ६३५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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ऊण मालुमीकर से बालगे । कयं च नामं कुलालेखं लोगाणुवित्तीय सजणगांहिहाले गं० जहा णं सुसढो । अनया कालकमेणं गोयमा ! सुसाहुसंजोगदेसवा पुत्रेणं पडिबुद्धेणं सुसढे पब्वइए जाव णं परमसद्धासंवेगवेरग्गगए अच्चतघोरवीरुग्गकसुदुकरं महाकायकिलेस करेइ सं जमजयणं ण जाणइ, अजयणादोसेणं तु सम्वत्थ असं - जमएस अरजे । तम्रो तस्स गुरूहिं भमिगं जहा भो भो समहासत ! तर भाणदोसओ संजमजयणं भवाणमाणए महंते कायकिलेसे समात्ते नवरं जड़ निच्चालोयणं दाऊणं पायच्छितं ण काहिसि तो सव्वमेयं नि फलं होही । ता जाव गुरूहिं चोइए ताव गं से अणवरयालोयणं दाउणं पयते । सेविग गुरू तस्स तहा पायच्छिते यच्छ जहा गं संजमजयणं भूयं एगतेणेव महाभे सासमयं रोहट्टज्झाणा इचिप्यमुके सुहज्झवसायनिरंतरे य विहरेजा । अहया गं गोयमा! से पात्रमती जे केइ बट्टट्ठम दस मदुवाल मद्धमासमास जाव ग छम्मासखवखाइए अअरे वा सुमहं काय किले सागए पच्छिते से तह तिसमणुट्टे जे य उण एगतसंजम किरियाणं जयागमणे वइ | कायजोगमयलासव निरोहे सज्झायज्झाणावस्सगाइए अबमने णं असद्दहे सिढिले जाव णं किल किमित्थ दुकरं ति क!ऊणं न तहा समणुट्ठे । श्रनया गं गोयमा ! अहा-रियसुदुव्विमोक्खदुक्खजालस्स गं विमुखेज्जा । एतें
तुहिय हवेजा। जो ं गोपमा ! भाऊ तेऊ मेहुणे एए तत्रोऽवि महापावद्वाणे मनोहिदायगे एगंतेयं विवजिगच्चे, एगंतेगं बा समायरियच्चे सुमंजपहिं ति । एतेलं असं तं च ते च विष्णाय ति ( महा० ) से मयवं । किं संजमजयणं समुप्पेहमाणे समनुपालेमा ये समखुट्टे समाया श्रइरेणं जम्मजरामरखादी त्रिमुखेअ १, गोयम प्रत्थेगे जेणं ण भइरेणं विमुच्चेजा, से भयवं ! केणं अट्ठेयं एवं वुच्चर जहा से अत्गे जे शं यो भइरे विमुच्चेजा, अत्थेगे जे भइरें विमुच्छेजा १, गोयमा ! अत्यगे जे यं किंचि उ ईसिगं अतायगं श्राणोवलक्खेमाणे सरागससले संजमजवणं समगुडे । जे गं एवंविहे से गं चिरेां जम्मण जरामरणाइभगसंसारियदुक्खाणं विमुच्चे । प्रत्थेगे जे गं गिम्मूले ठिपसब्बसले निरारंभपरिग्गहे निम्ममे निरहंकारे ववगयरागद समोहमिच्छत्त कसायमलकलंके सब्वभावभावंत रेहिं सं सुविसुद्धासएं प्रदीयमाणसे एगंतेयं निजरापेही परमसद्धा संवेगवेरग्गगए विमुके सेसमयगारव विभाणगे पमालंब जाव णं विजियघोरपरीस होवसग्गे ववगयरोहऽदृज्झाणे असेसकम्मक्खयङ्काए जहुत संजमजयणं समणुहिजपाले समणुपालेजा • जाव णं समखुट्टेजा जे य गं एवंविहे से अरे संजमजरामरणाइ अगसंसा
अग एवं वुच्चर जहा से ग्रोयमा ! अत्थेगे जे णं णो भइरे विमुच्वेज्जा प्रत्येगे जे यं भरेगं च विमुच्चेजा । महा० २ चू० ।
-
सुजसिव-सूर्यशिव- पुं० । स्वनामख्याते अवन्तीवास्तव्ये धिरजाती, महा० २ ० ।
जर
सुखावत- सूर्यावर्त - म० । ब्रह्मलोकस्य स्वनामकयाते विमा
उयं परिवाऊ से सुसड्डे मरिऊणं सोहम्मे कप्पे इंदसा - मणि महड्डी देवे समुपमे । तो वि चविऊण इहयं वा सुदेवो होऊणं सतमढवीए समुप्यने। तो उच्च समायो महाका हत्थी होऊणं मेहुणाऽऽसत्समागमे मरिऊ गंतवणस्सतीए गयति । एस गं गोयमा ! से सुसड्डे जे गं आले| इयनिंदियगरहिएणं कयपायच्छिते भवित्ता खं णं श्रयाणमाणे भमिहिइ सुहरं तसं सारे से भयवं ! कयरा उण तेणं जयणा तं विनाया जन्मो णं तं तारिसं दुकरं काय किलेसं काऊ पितहा वि णं भमिहिर गं मुइरं तु संसारे । गोयमा ! जयणा ग्राम अट्ठारसयहं सीलंगसहस्साणं संपुष्पाणं अखंडियविराहिया जावजीव महत्तिसाणुसमयं धारणं कसिणं संजमकिरियं श्रणुमति तं च तेण न बिष्मायं ति तेणं तु से अहले भमिहिर सारं तु संसारे । से भयवं फेणं श्रद्वेयं तं च देश व विष्ठायं ति यमा ! तखं जाइए कायकिलेसे कए तावइमस्स अभागे यत्र जइ से बाहिरपणगं विवर्जते वा सिद्धीए समणुवयं ते । णवरं तु तेणं बाहिरपाणगे परिश्रुते बाहिरपायगपरिभोइस्स यं गोयमा ! बहुए वि कायकिले से खिरत्थगे
न, स०६ सम० ।
सुज्झ-शोध्य - त्रि० । शोधनीये, प्रा० ४ ० । सुज्झाइय--सुध्यात-म० सुष्ठु सुविधिमा गुहसकाशात् व्यास्थानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यासमनुपेक्षितं श्रुतमिति यं सुध्यातम् । सुष्ठु अनुपेक्षिते, स्था० ३ ठा०४ उ० । सुडिच्या सुस्थाय - अव्य० । सुष्ठु स्थिस्येत्यर्थे, सूत्र० १०
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१४ प्र० ।
पं०सू० २ कप । लवण समुद्राधिपतिदेये, भाष०४ अ० ० सुट्टिय-सुस्थित त्रि०। शोभनं स्थितः सुस्थितः। सुव्यवस्थित, गोमुह संभेदे, ३० ५० स्था०हा० जी० । प्रास्ति शिष्ये
कोटिकगच्छीया खायें, "तदनु व सुस्थिशिष्यों, कौटिक - काकन्त्रिक प्रजायेताम् सुस्थित सुप्रति, कौटिक गडगुप्तो राजा चाणक्यो मन्त्री सुस्थित आचार्यः । नि००१३ स्ततः समभूत् ॥१॥" ग० ३ अधि० । पाटलिपुत्रे नगरे चन्द्र उ० । ती० करप० । सुष्ठु प्रतीष खाते, ०१०३ प्रक
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सुट्टिय
(६३६) अभिधानराजेन्द्रः।
सुणंद धान्ते, पृ०१ उ०३ प्रक० । सुविहितक्रियानिष्ठे, कल्प०२ ता सामभयदाणा- मुनु संगहन अन्नमपि नीम्। अधि०८ क्षण।
रिउविजए पिच्छामो, ता देव ! हं कुणसु जुत्तं ॥८॥ सुठियप्प-सुस्थितात्मन्-पुं० । शोभनेन प्रकारेण प्रागमनी
जत्रात्या स्थित प्रात्मा येषां ते सुस्थितात्मानः। सुविहितेषु, सामेण कोर मित्तो, परो विभेएण-भिज्जद सुही वि। दश० ३ अ०।
दाणेण सेलघडिया , देवा वि वसं पवज्जति ॥..॥ सुट्टिया-सुस्थिता-स्त्री० । सुस्थितस्य लवणसमुद्राधिपते जह जोगमिम नणु जु-जिऊण दंडे वि जर समुज्जमसि । राजधान्याम् , जी० ३ प्रति०४ अधिक।
मसिकुच्च अरिवयण-सु तयणु तं देव ! देसि धुवं ॥१०॥ सुट्ट-सुष्टु-अव्य० । अतिशये, प्रतिः। प्रश्न। अतीवाथे, इय कयजत्ता पत्ता , तुच्छा वि निवा अतुच्छलच्छिभेरं। श्राव०४ मतं । वाढे, ध०२ अधि० प्रश्नका शोभने,
गरुत्रा वि गया निहणं, इत्लो विवरीयनीइस्या ॥११॥ वृ०१उ०३ प्रति०।प्राकृतभाषयाऽधिकारे, ध०३म
ता देव ! सनुसाम-तमंतिमित्ताण जाणिउहियवं ।
तदुचियसामाइ पउँ-जिऊण पच्चइयपुरिहि ॥ १२॥ धि०। प्रश्न।
कुणसु बहु विजयजतं,जयलच्छि लहसु फुरियजसपसरो। सुतरमायामा-मुष्ठुतरायामा-स्त्री०। गन्धारग्रामस्य षष्ठयां
भंजसु भड्वायं रिउ-मडाण कयनीइसंनाहो ॥१३॥ मूर्छनायाम् , स्था०७ ठा०३।
य सोउ मंतिवयणं , इसि हसिऊण जीपय रना। सट्टयर-सुष्ठुतर-त्रिका प्रतिशोभन, आव०३० प्रा० म०। पणियाण माहणाण य , होइ मई एरिसाचेच ॥१४॥ सदिय-देशी-श्रान्ते, बृ०१ उ०३ प्रक०।
कहमन्त्रह दुजयरिउ-करडिघड़ा विघडणिककेसरियो।
मज्झ वि पुरश्रो एवं, रणकम्ममहम्ममुवइसह ? ॥१५॥ सुण-श्रु-धा० श्रवणे,“चि-जि-धु-हु-स्तु-लू-पू-धू-गां-णो
इच्चिय अविमंसिय, जहा नहा इह जला पयंपंता। . इस्वश्च" ॥८।४॥२४१ ॥ इत्यन्तो कारागमः। सुण ।
हुँति तणाउ वि लहुया , वच्चंति पराभवटाणं ॥१६॥ शृणोति । प्रा० । स्था1'श्राया सदाई सुणे' इत्या
इय पभणिय भालत्थल-कयउडभडभि उडिभासुरो राया। दि"सुण संखवाणि सदा दिट्टिवायस्स" श्राचा। । उकपियरि उचक्की, लहु ताडावेह जयढकं ॥१७॥ सुण-शुनक-पुं० स्त्री० । कुक्कुरे , श्राव०४ अधि० । तातीह सद्दपसरे-ण मिलियचउरंगपबलबलकलिओ। पुणड-मनति--त्रि० । शोभना नतिरबनतावसाने यस्मिन्नसौ
बज्जाउह मित्तविदि-न अग्गसिनिलयावारो॥१८॥ सुनतिः । शोभननतिके, जी०३ प्रति०४ अधिः। ।
अविलंबियप्पयाणे-हिं स तु निवमंडलं अणुपक्टिो ।
नाउ तदागमणं झ-त्ति श्रागो समुहो भीमो ॥ १५॥ मुणंद--सुनन्द-पुं०। ऋषभदेवस्य द्वाविंशतितमे पुत्रे, कल्प
अह जोहमुक्कहक्का , भयभरनस्संतकायरनरोई। १ अधि०७ क्षण । श्रा० मबम्पानगरीयास्तव्ये यहरिंकारभडनिवडण-दुग्गपहाउलभमंतजणं ॥२०॥ स्वनामख्याते श्रावके, ती०६४ कल्प। उत्त०। (चंपा' जणय यजणासंकिय-अवितक्कियपलयकालमागमणं । शब्दे तृवीयभागे १०६६ पृष्ठे ऽस्य कथोक्ता ।) पार्श्वनाथस्य दुराह वि अग्गाणीया-गुजाण जायं महाजुझं ॥२५॥ स्वनामख्याते श्रावके, उत्त०२३ अ० । भविष्यतः सप्तमती ग्रह खणमित्ताम्म गए , लद्धोगासहि परबलमडेहि। धकृतः पूर्वमवजीवे , स०। सप्तमदेवलोकस्य विमानभदे, भग्गं सुनंदसिन, सीयं पिव भाणुकिरणेहिं ॥ २२॥ मपुं०। स० १५ सम०। द्वादशतीर्थकरस्य भिक्षादायके, बज्जाउहजयकुंजर-ससुजयमाइणो महीवाणो। (स.1) स्वनामख्याते राजौ, पु०।०र०।
पडिया समरमहीए, सुनंदराएण नायमिणे ॥२३॥ सुनन्दराजर्षिकथा पुनरेवम्
मह सचिवेहि भणियं.अज्ज वि विरमेसु देव! समरामो। "इह कापल्लपुरे सो, अपवलपयावनिन्जियदिणसो।
मा प्रसु रिऊणं , मणोरहे, नियसु नियसति ॥१४॥
अजहायलमारंभो. वयस्स मूलं वयंति इह विबुहा। उपाडियरिउकंदो , आसि नरिंदो सुनंदु त्ति ॥१॥
तो सध्यपयारेहि, अप्पच्चिय रक्सियति सुद्धगिद्दिधम्मपरिपा-लणुज्जुनो सत्ततत्तकुसलमई।
॥२५॥ पाहि पिहु दाश्रो, मित्तो बजाउदो तस्स ॥२॥
जोअइसरयऽऽगमणुप्प-अपयलउस्सासरुद्ध कठेण ।
विक्कमवलेण पुणरथि, अजिजइ चिरगया वि रायसि। कइयावि सुनंदनियो , इय भणिो संधिपालेणं ॥ ३ ॥ देवगयं पुण जीयन लभए तम्मि जम्मम्मि ॥२६॥ देव ! महच्छरियमिणं, जं किर केसरभरो वि केसरिणो ।
भावय गहुमुहाओ , नीहरि उमखंडमंडलो मरो। तोडिजर हरिणणं , रवीवि जिप्पर तमभरेण ॥४॥ भवहरि उंरायसिरिं परतेयभरं पुणो हर ॥ २७॥ उत्तरदिसि पहुणा भी-मराणा दुहमेण गुणनिवहो। सुच्चय पुगबि इमं, अपसवेल मुणे वि अप्पाणं । इंदियगामेणं पिव, देसो तुह. हम्मद सयलो ॥५॥. बंभो चक्की नट्ठो, सपरियणो जादवपरवि ॥२८॥ तं सोउ नियो कुविओ , जा ताडाचेइ झत्ति रणभेरिं। इय सचिवेहि भणिमा, नियकुग्गहविरहिनो सुनंदनियो । ता सुद्ध बुद्धिजुत्ते-ण मंतिबग्गेण इय बुतं ॥६॥
प्रोसरिमी समराओ, जं अवसरवेइणो विबुहा ॥२६॥ मेयेस ! श्ररी सुरकय-सनिज्मो संगरे गई विसमा। पंडिग्गं पडिवखं, पलायमाण निप वि भीमनियो। संददो पुण घिजए , पहाणपुरिसक्यो य धुवं ॥ ७॥ । बलियो अणुकंपाए, सप्पुटिपहारमकरित्ता । ३०॥
3च २०
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सुद
चखाउमरखेणं, परायेण सुनंदनरनाहो ।
३१०
अह निसि चिंतावसगय-निहो गया सुरेल एगे । भो भो नसो, निलो पाउही तुम्झ ॥ ३२३ सारिराहि माढपदाकि मुवि भ्रणं । मोहरिडं समरंगण महीद परिवार ॥३३॥ उद्धरिय दुविहसलो, गरिहियपावो सामहि संजु तो । नवकारं समरंतो, जाश्रो श्रमरो पढमकणे ||३४|| ओहिवले चियाशय, तुह दुक्खं सत्तुपरिभवसमुत्थं । इयं पत्तोऽहं परमे ॥३५॥
तामित ! मुयसु खेयं, प्रभाषसमय हयेसु ग्मजो | निम्महियरिडं सरय- भविष्भ लहसु कित्तिभरं ॥ ३६ ॥ हम सो वा विपासिमुहसोहो । सामोसा, पडि पडि पनि॥३७॥ अह उरसमरसंप-त विजयगव्यो पुणो वि तं इत्तं । मिनिसोथोऽमि ॥ ३६॥ श्राश्रोणं च लग्गं, नवरं मित्तामराणुभावेण । विजिओ सुनंदरन्ना, भीमनरिंदो पदममेव ॥३६॥
सेवा र तत्वयि सुद
नियदे पर बलिश्रो, सुरो गओ पुए सठामि ||४०|| दोपि पनि सिरिजाये। पढमजिणभवणपासे, मुणिमेगं तरुतलनिसन्नं ॥४२॥ तस्स य पुरो एवं पर्वगमं पउरलोय मज्भगयं । मुदितना
सो विमभरभरि राम नवरं । जा तत्थ निसीयह ताव वानरो मरणमपत्तो ॥ ४३ ॥ श्रद्ध भइ निचो मुणिपहु-भुज मिगं जं श्रईव चवलमणा । इत्थं पवंगमा वि हु, जिणधम्मे निश्चला हुति ||४४ ॥ सा कह पुरा को श्रा-सि एस साहू वि साहद्द नरिंद! | महुरासि एसोसियो इतो भवे तय ॥४४॥ गोवा दियां सुभद्गुरुमूले भावसुनरिओ पि ॥४६॥
( ३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
"
कार्ड जाओ अमरीकन्यम्मि छम्माससेसमाउं, वियाणिउं अपणो सो उ ॥४७॥ देह केवल दिऊछ हत्तो चुपस मे मंते ! | कती दोती व पडु योदिलाभो य हो के पते मरिण वानरो तुं, होहिसि सिरिपुरवरुज्जाणे ॥४६॥ जिगदिदं तस्य हिस्ससि तुमं कवि बोर्डि इयं सोउं सोनियसो, लहु उज्जाणं इमं पत्तो ॥ ५०॥ तो
।
सिदा-पद सिद्दिमसिहरिसिहर मरम्मं । पपपपप-मजा ॥२१॥ इज्यंत पपरधसाध थंभ सहस्ससमेयं, मणिमयभासंतभित्तिलं ॥ ५२ ॥ सो सिरिजुगाइ जिग्बर- भवमिगं तुट्टमाणसो काली । बढाउन वहिमवान जाओ ॥२३॥ कह कह विख भमिरे-इत्थ इत्तो श्रई तइयदि । पितं लड्डु आइसर च ॥५४॥ तो वैरगगश्रो सो, मह पासं पप्य श्रसं काउं । २३५
सुद
पंचपरमिमं सुरंतो मनो
इय जा वानरवरिये, कहइ मुखी ता पवंगजीयो सो । सोहम्मदेव लोए, हिमाहे वरविमाणम्मिः ॥५६॥ सांकरसिधदेवं संय सुरसय सुद सुतिपुडंटो मुना- हल व्य जाश्रो सुरो पवरो ॥५७॥ उत्पत्ति अंतरदू-रविहियदयंसुश्रो उवधिसित्ता ।
चिदिपपो, पिच्छतो सलदिनि बत जय जय नंदा जय जय. भद्दा इन्नाहमहुग्वयलाई । अमग्र नियगणं, हरिनिययियाण निसुतो ॥५३॥ किं दिनं किं तवियं किं जिटुं वा मए पुरा जम्मे 1 इयनितापसो श्रो हिनाविधायभवो ॥१०॥ सव्वा देवकाइ मुनु बहुदेव देवि परियरिश्रो । तत्थेव लहुंपतो. पण विणण-मुखिचरणे ॥६२॥ सिरिनाभेयजिदिं त्रिय मंच श्रेचियसरीरो । साप-मसुरो सगं ॥६२॥ इन संग्गो तस्सा मूले। सदमा उपपिरियरखो दिवं पच ।।१३।।
पडिला
हमारा मऊ सुनंदरायरिथि । कंपिशपुरे पत्तो तिमारं कुर||१४ सुचिरं सुनंदसाहू. विहरइ गुरुणा समं महिलयाम्म | दसवारी मनी ।।६।। सोपा विपरी गाओ सानो ।। ६६ ।। पडिलेहखापमज्जण -- पमुद्दविहाणं विणा वि किर सुगई । - लग्भइ जियेहि नियइ-भावो निच्छियं एवं ॥ ६७ ॥ कद्दमशहा महाहव-वाधारनि उत्तचित्तविरिश्रो वि । देवत्तं संपत्तो, मित्तो बजाउहो मज्झ ? ॥ ६८ ॥ श्रसुद्धचरण किरिया - विगलो वि तया स वानरस्स जी श्री । उत्तनोतियसो समु६६ ॥
सूर्यति य समए चि हु, तह भव्यत्त (तु) जयंतसामन्था । अकरम पा ॥ ७० ॥ ता तह भव्वतं त्रिय, कल्लाणकलायकारणं परमं । मारो ॥ ७१ ॥
पापा सो मि
,
मरुदेवी पहा तस्बिर कि कभी पागो ॥ ७२ ॥ एवं चरणावारंग, कम्मचिरुज्अंतसुद्ध परिणामो । सो साइरिया-सुसि मायरो जायो ॥७३॥ अपना गुरु साहुस्तरणार्थ सुगपदविवादमा काइिसिपमा ॥ ७४ ॥ न य एते नियइ-मायश्री होइ कज्जसंसिद्धी । पुरस्कारकालाई मदिया ॥ ७५ ॥
-
तथा चक्रम
-
9
कालो सहाय नि पुरिसारखे गंता । घ. समासो हुति सम्मतं ॥ ७६ ॥ जं पहु मरुदेवी पु-व्यम कयतय नियमसंजमविलेसा । तज्जम्मिलिय सुभा-बजोग सिद्धिमता ॥७७॥ जय अच्छेयभूयं वदुदाहरणं तहा वि त्रिवुदेहि । यवहारविलोचा याविति ॥ ७८ ॥
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(410) अभिपोनराजेन्द्रः ।
सुनंद
तथा बागमः
आइ.जिनमयं पवादः ता मा ववहारनिच्छु मुयह । बहारच्छे, निपुच्छ्रेयो जो भागो ॥ ७६ ॥ बहारो वि हु बलवं. जं बंद केवली वि छमन्थं । कम्मं भुंजा, सुगयवहारं पमां तो ॥ ८० ॥ किंव
मिहिपतमन्त्रो पत्थितो जह जो निरुतप्पो । इह नासह तह पते-बुजलछि पडितो ॥ ८ ॥ तह भव्बलाउ चिय, सिक्लाभो दुक्कगर किरियाए । करमे सुंदरंभग ५ ॥ तित्थयसे चउनाणी, सुरमहिश्रो सिमियन्वयधुयक्रिम । अणिमूहियबलविरो, सम्बन्धामेण उज्जम ॥ ८३ ॥ हजर ते विहु नित्थि - अपायसंसारसायरा वि जिया । अम्भुजमंनि तो से--सयाण को इत्थ वामोहो ॥ ८४ ॥
मियकुग्ग-निगमंतोष गिरं गुरुयो । कोर्ड सुनंदा पो महाभागो ॥ ८५ ॥ मालोत गुरु मूले। सर्विसलो, अकलं कुरा बारि ॥ ६ ॥ सुचिरं चरितु चरणं, दहिउँ झाणानले कम्मबद्ध । प्रातिमिरतरी-सिद्धि पत्तो नंदी ॥ ८३ ॥ सुनदराजर्विचरित्रमेवं-
श्रुत्वा मनः स्थैर्यकरं सुधर्मे । मुमुक्षवोऽद्य निग्रहाय -
प्रज्ञा पनी यत्वमिदं श्रयन्तु ॥ ८ ॥ " घ० १०३ अधि० ३ लक्ष० । सुखंदा-सुनन्दा- श्री पार्श्वनाथस्वामिनः प्रवर्तिम्याम् ०म० १ ० | कल्प० । बाहुबलिसुन्दयोंर्मातरि ऋष भदेवभार्याणाम् आ० सू० १ ० "उस शब्देशिती
भागे ११२१ पृष्ठे कथा) दक्षिणाखाना दे दे क्षियदि कस्थायां मन्दापुष्करिण्याम्, ती० २६ कल्प । भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य लोकपालानामप्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० १३० ॥ म० वज्रखामिना मातरि धनगिरेर्माया धनपालति रि, प्रा०क० १ ० अ०म० श्र० धूणकरूप० तृतीयचक्रिय। मघवतो भार्यायाम्, स० ।
सुगंदि --सुननदि - स्त्री० सत्समृद्धिके घोचे, डा० १०१ प्र० । सुराक्खच सुनपत्र १० पुष्पादी शोभन श्०२
अभ० द्वार । काकन्दीनगरी वास्तव्य भद्रायाः सार्थवाह्यः पुत्रे, पुं० । अणु० ।
1
'जति यं भंते ! उक्खेवओो एवं खलु जंबू । तेणं कालेयं तख समयं कागंदीए बगरीए भद्दाणामं सत्यवाही परिवसति भट्टा, तीसे गं महाए सत्यना दीप चुसे सुखक्खते णामं दारए होत्था, भहीण ०जाव सुरू पंचधातिपरिक्सिले जहा पर वहा बीम'दाओ ०जाव उप्पि पासागवडेंमए विहरति । तेणं कालेणं तेयं समरणं समोसरणं जदा धनो वहा सुखखरोड, सिम्ते 1. जद्दा थात्रापुलस्य वहां
वि
सुचिउप क्खमणं •जान अणगारे जाते इरियासमिते जाब बंभवारी । ततेां से सुगसने अथगारे जं चैव दि सं समणम्स भगवतो महावीरम्स अंतिए मुंडे ० जान
तंत्र दिवस अभिग्ग सहेब जाय चिलमिव श्राहारेति संजमेणं •जाव विहरति, चहिया जणवयविहारं विहरति एकारस अंगाई जति जमे तवमा अ प्पा भावेमाणे विहरति तते गं से सुणक्ख ते ० श्रोरा लेणं जहा खंदतो तेयं कालेयं ते समय सबगिहे नगरे गुण मिलए चेतिए सेखिए राया सामी समोसढे परिसा हिमता राया हिम्मतो धम्मका राया परिगओ प रिसा परिगता । तते गं वस्त्र मुस्स भय क याति पुन्दरतावरणकालमसि धम्मजारियं जाग० जहा सदयस्स बहु वासा परियातो गोतमपुच्छा तदेव फहेति ०जा सम्यसिद्धे विमाणे देने उपवछ तेतीस सागरोवमाई ठिती पत्ता, से णं भंते ! महाविदेहे सिज्झिदिति । अणु० १ ० ३ वर्ग स्था० ।
स्वनामध्याते कीरालजनपद पीरजिनानगारे ५० एवं खलु देवाप्पिया अंतेवासी कोमलजयवर मुगक्खने वाम अथगारे पगह भद्दा जाव दिखीए । म ० १ ५० गोशाला हिरयेति मोसालयशब्दे ती १०३० पृष्ठे उक्तम् । )
सुक्खत्ता-सुनक्षत्रा- स्त्री० । पक्षस्य द्वितीयायां तिथौ, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । जं० सं० प्र० ।
सुराग-सुनक- पुं० । कौलेयके, प्रश्न० १ माध० द्वार। जं० । नं० | आचा० । स्था०] उत्त०] अनुः। मृगदेशे, प्रज्ञा० ११ पद । सुसरा श्रवण-म० धीरेन्द्रका डा०३४० मुख्य- सुनय पुं० । स्वांशग्राहिणि इतरांशप्रतिक्षेपिणि नये, द्रव्या० ५ अध्या० । नयलक्षणलक्षिते अपेक्षावचन दिगम्बरव्यवस्थायाम् नं० । सुगपण-सुनयन- श्र० शोभने नयने यस्य सः सुनयनः । सुलोचने, आ० म० अ० । सुबह- शुनक कुकुरे । सुखहमड-शुनक मृत-पुं० । मृते श्वदेद्दे, जी० ३ प्रति० १
धि०२ उ० ।
सुखासीर सुनासीर पुं० पा० २५ गाथा । सुखाइ सुनाथ-धुं० । ऋषभदेवस्य पश्ञ्चनवतितमे पुत्रे क
रूप० १ अधि० ७ क्षण । अपरकङ्कानगरीराजस्य पद्मनाभस्य पुत्रे, शा० १ ० १६ अ० ।
सुखिउ - सुनिपुण - त्रि० । सुसूक्ष्मे, सुष्ठु निश्चित गुणे च ।
स/ ६४० सम० ।
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सुशिऊल अभिधानराजेन्द्रः।
सलवाय मुणिऊण--श्रुत्वा--प्रय० । “चि-जि-श्रु-हु-स्त-लू-पू-धू- মাস্কায়াক্কালে স্বী নামময়াখা गां यो हम्बन"॥८४२४१॥रति गकारः बहुलाधि- सिद्धिप्रदशनपूर्वकमुपहमनाहकाराद्विकल्पेन इम्बः । सोऊप । साणऊ।। प्राकण्येत्यर्थे,
विना प्रमाणं परवन्न शून्यः. 'सुणिता' अत्र । प्रा० पात । सत्र।
स्वपञ्चसिद्धेः पदमश्नुवीत । मुणिडिय-सुनिष्ठित-त्रि० । सुष्टु-निष्ठितम् भतिशयेन रस
कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाणप्रकपर्वतात्मिका निष्ठां गते, उत्त०१०।दश।
महो! सुदृष्टं त्वदमूयिदृष्टम् ॥ ७॥ मुचिप्पकंप-मुनिष्प्रकम्प-त्रिका प्रतीव निश्चले,दर्श०४ नस्व।
शून्यः-शून्यबादी प्रमाणे प्रत्यक्षादकं विना अन्तरेण म्बन मुणिम्मिय-सुनिर्नित-त्रि० । सुष्ठु-अतिशयेन निर्मितं सुनि
पक्षसिद्धेः- स्वाभ्युपगतशून्यवादनिष्णतेः पदं प्रतिष्ठा नाश्नुनितम् । सुधिरचिते, जी. ३ प्रति०५ अधिक। कल्प“सु.
बीत-न प्राप्नुयात् । किंवत् ?, पग्वत्-इतरप्रामाणिकवत् , निम्मियसुगूढजाणुमंडलसुबड़ा" सुष्टु अतिशयेन निर्मितः
वैधयेणायं रान्त । यथा इतरे प्रामाणिकाः प्रमाणेन सुनिर्मितः, एवं सुगूढ-मांसलतया अनुपलक्ष्यमाणं जानु
माधकतमेन वपक्षसिद्धिमश्नुयते, एवं नायम, अस्य मते मण्डलं सुबड स्नायुभिरतीव ब यास ताः सुनिर्मितसु
प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारस्यापारमार्थिकरचात् “ मव एवागूढजानुमण्डलसुषद्धाः । सुबदशदस्य निष्ठान्तस्य परनि
यमनुमानानुमयव्यवहारो बुस्पारूढन धर्मधर्मिभावेन न पातः सुखादिदर्शनात , प्रारुत्वाद्वा । जी०३ प्रति०४ अ- बाहि"सदसवमपेक्षते" इत्यादिवचनात् । अप्रामाणिकश्च पि.। उत्त।
शून्यबादाभ्युपगमः कथमिव प्रेक्षावमामुपादेयो भविष्यति मणिय-श्रुत्वा-अव्य० । प्राकसयेत्यर्थे, प्राचा०१७०५ १० प्रेक्षायत्त्वव्याहतिप्रसङ्गात् । अथ चेत् स्वपक्षसंमिजये कि३ उ०। प्रशा० प्रा० म० ।
मपि प्रमाणमयमङ्गीकुरुते, तत्रायमुपालम्भ, कुत्येदिन्यादि'
प्रमाण प्रत्यक्षाचन्यतमत् स्पृशते पाश्रयमाणाय, प्रकरणासुणिरुद्धदसण-सुनिरुदर्शन -त्रिका सा-अतिशयेन निरु
दस्मै-शून्यवादिने,कृतान्तस्तत्सिद्धातः कुप्येत्-कोपं कुर्या. जम्-प्रावृतं दशनं सम्यगवयोधरूपं यस्य स तथा । दर्शन
त: सिद्धान्तयाधः स्यादित्यर्थः । यथा किल सेवकम्य विमोहनीयकर्मणो शानदर्शनावरणकर्म गोचोंदये वर्तमाने. है
रुद्धवृत्त्या कुपितो नृपतिः सवस्वमपहरति, एवं तत्सिनानिहु सुनिरुदंससे मोहानजण कडेण कम्मुणा' । सूत्र०१ म्तोऽपि शून्ययादविरुद्धं प्रमाणव्यवहारमझी कुर्वाणम्य नश्रु.२ १.३ उ०।
स्य मवम्बभूतं सम्यग्बादित्यम पहरति । किश्व-स्वागमासुणिविद्ध-सनिविष्ट वि।सुखोपवि. ग.२ अधिक।
पदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररुप्यते, इति स्वीकृतमाणसंत-सुनिशान्त-त्रि०। परिचिते. प्राचा० १ ध्रु०८ मागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपत्तसिद्धिः, प्रमाणाप्र. उ. । श्रुते, गते च । आचा०२ श्रु.१ चू० २ अ.
कीकरणात् ? । किञ्च-प्रमाणं प्रमेयं बिना न भवतीति प्र२३०।
माणानङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम् । ततश्चास्य मूकतैव सणिसिय--मुनिशित--त्रिका अतितेजिते, जी. ३ प्रति युक्ना , न पूनः शून्यवादोपन्यासाय तुरा उताण्डवाडम्बरं ४अधि०। प्रतिनिशिते, प्रश्न०३ पाश्र० द्वार। उज्ज्वालिते,
शून्यवादम्याऽपि प्रमेयत्वात् । अत्र च स्पृशिधातुं कृताम्नदश. १००।
शब्दं च प्रयुञ्जानम्य सूरेरयमभिप्रायः-यद्यसौ शूल्यवादी
दुरे प्रमाणम्य सर्वथाङ्गीकारो यावत् प्रमाणस्पर्शमात्रमपि सुणी-शुनी-स्त्री०। कुक्कुर्याम् , सूत्र०१ श्रु० ३ ० १
विधत्ते, तदा सम्मै कृताम्नो-यमराजः कुप्येत् , तत्कोगो उ० | उन.
हि मरणफलः । ततश्च स्वसिद्धान्तविरुद्धमसौ प्रमाणयन् सुणेवत्थ-सुनेपथ्य-त्रि० । सुप्रावृते, ०३ उ०।
निग्रहम्थानापन्नत्याद् मृत एवेति । एवं सति 'अहो'इत्युसुम-शुन्य-न० । श्वभ्यो हितमिति वाक्ये उगवादिभ्यो | पहासप्रशंसायाम' तुभ्यमसूयन्ति गुणेषु दोषानाविष्कुर्वन्ती यदिन्यत्र (पा०५।१।२) शुनः संप्रमारणं दीर्घत्वमिति य- त्येवंशीलास्त्वदसूपिनस्तन्त्रान्तरीयास्तै मत्यज्ञानवशुगबनतो यति प्रत्यये संप्रसारणे दीर्घत्वे च शून्यम् । उसे ,
निरीक्षितमहो! सुई-साधु इष्टम । विपरीनलक्षणयापहा जब.२५०। विशे।
सान सम्यग् इष्टमित्यर्थः, अत्राऽसूयधातोस्ताच्छीलिकसुमगिह-शून्यगिह-न० । शून्यागारे, नि० चू०८ उनसूत्र।
णप्राप्तावपि बाहुलकारिणन् । प्रसूयाऽस्त्येषामित्यमयिनश्राव।
स्त्वय्यसूयिनस्त्वदसूयिम इति मत्यर्थाथान्तं वा । स्वदस्यु
इष्टमिति पाठऽपि न किञ्चिदबारु , असशब्दस्योदन्तसुमवम्गणा-शन्यवर्गणा-खी०। वर्गणान्तरबाहुल्यपरिमा
स्योदयनाचैायनात्पर्यपरिशुद्धपादौ मत्सरिणि प्रयोगानार्थ प्रकपणामात्रायां लोकप्रसिखायां वर्गणायाम् , पं० सं०
दिति । इह शून्यवादनामयमभिसंधिः-प्रमाता, प्रमेयं, प्रमा५ द्वार।
णं, प्रनितिरिति तस्वचतुष्यं परपरिकल्पितमयस्त्वेव विचामुमबाय-शून्यबाद-पुं०। सर्वस्य जगतः शून्यताहीकारेण
रासहन्यात, तुरटायत् । तत्र प्रमाता ताबदारमा नस्य च सबमास्तत्वयादे, स्या।
प्रमागमाहत्यामायोदभावः,तथाहि-न प्रत्यक्षण तरिसद्धिरि. अथ तपम्यवस्थापकपमाणादिचतुश्यव्यवहारापलापिनः न्द्रियगोचरातिकाम्नत्वात्। यतु महङ्कारप्रत्ययेन तस्थ मानएल्यवादिनः सौगतजातीयस्तिस्कीकतपक्षसाधकस्य प्र- सप्रत्ययसाधनम, तवयनकाम्तिकम, तम्यागौरःश्या
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(iio ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सुरुवाय
"
मोत्यादी शरीरात पचले कि देवमहा प्रत्यय आत्मगोचरः स्यात् तदा न कादाचित्कः स्यात् । श्रामनः सदा संविहितात्, कादाचिकं हि स्कारपूर्वकं यथा सौदामिनी ज्ञानमिति । नापमानेन श्रव्यभिचारलिङ्गाऽग्रहणात् । आगमानां च परस्परविरुद्धार्थवादिनां नास्त्येव प्रामाण्यम् । तथाहि एकेन कथमपि कचिदर्थो व्यवस्थापितः अभियुक्तहरेणाऽपरे सपा..न्यथा व्यवस्थाप्यते, स्वयमध्यवस्थित प्रमाण्यानां तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्यम् इति नास्ति प्रमाता प्रमेयं वा ह्योऽथः स चानन्तरमेव बाह्याथप्रतिक्षेपक्षले निलोडितः प्रमाणं च स्वपरावभासि ज्ञानम्, तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विषयक अर्थसमकाल प्रका या तद् ग्राहक पत्रिभुवनवर्तिनोपिपास्तासरन्: समकालत्वाविशेषात् । द्वितीये तु निराकारम साकारं वा तत् स्यात् । प्रति पदार्थपरिच्छेनुपपत्तिः द्वितीये तु किमयमाकारोव्यतिक्रिया अतरेके, ज्ञानमेवाय म तथा च निराकारण उदोषः । व्यतिरेके पथ विक नदानीमाकारोऽपि वेदकः स्यात्, तथा - श्रयमfe निराकारः साकारी वा उद्रेदको भवेत् ? हत्याघर्त्तनेनाऽनवस्था | अथ - अचिरूपः किमज्ञात, ज्ञातो वा तज्ज्ञापकः स्यात् ? । प्राचीने विकल्पे, चैत्रस्येव मैत्रस्थापित
7
व
कोसी स्यात् । उदुसरे तु निराकारेण माकारेण वा न तस्यापि ज्ञानं स्यात् इत्याचा तायनस्यति इ प्रमाणाभावे तत्फलरूपा प्रमितिः कुनस्तनी? इति सर्वशून्यतैव परं तत्त्वमिति तथा च पठन्ति यथा यथा विचार्यते, वि शीर्यन्ते तथा तथा । यदेतद् स्वयमर्थेभ्यो, रोचते: तत्र के यम् ॥ " इति पूर्वपक्षः विस्तरतस्तु पोपप्लवसिंहावलोकनीपम् ॥ अत्र प्रतिविधीयते ननु पदि शून्यचादन्ययस्थापनाय देवानांप्रियेस यसनमुपन्यस्तम् ; तत् शून्यम् श्रशून्यं वा ? शून्यं चेत्, सर्वोपाख्याविरहितत्वात् पेनाने निय ते वा । ततच्च निष्प्रतिपक्षा प्रमाणादितस्व च तुष्टयीव्यवस्था । अन्यं चेत् प्रलीनस्तपस्वी ने सर्वशून्यताया व्यभिचारात् तत्रापि निष्कण्टकैव सा भगवती । तथापि प्रामाणिक समय परिपालनार्थ किश्चित् नत्साधनं दृध्यते । तत्र यत्तावदुक्तम्- प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिद्धिः इन्द्रि गोचराऽतिक्रान्तस्यादिति, तत्सिद्धसाधनम् । यत्पुनः, श्र इंप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वमनैकान्तिकमित्युक्तम् तदसिद्धम् अहं सुखी, अहं दुःखी इति श्रन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य श्रास्मालम्वनतयैवोपपत्तेः । तथा बाहुः "सुखादि चेत्यमानं हि, स्वानुभूपतेमा सिद्धं प्रणमात्मनः
॥१॥ इदं सुखमिति श
रामनोऽपि प्रकाशिका |
गौर श्यामः" इत्यादिबहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकमला शरीरे प्रथाऽहमिति शः । यच्च शप्रत्ययस्य कादाचित्कत्यम्, तत्रेय वासनामोगल, सच सारामाकारोपयोगयोर 'म्यतरस्मिंश्रियमपयुक्त पय भवति
प्रत्यपोऽपि थो
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सुरणवाय प्रयोगविशेष एव तस्य च कर्मक्षयोपशम वैविध्यात् इन्द्रि यानिन्द्रियादिषयादिनिमित्तसव्यपेक्षया प्रवर्तमान[रूप] कादाचित्कस्यमुपमेय यथा- बीजं सत्यामप्यरोजननशी पृथिव्युदकादिसहकारिकाकलापसमयहितमेवाजनयति नान्यथा न चेतावना तयारास्पादने कादाचित्केपि शरिणि कादाचित्की, तस्याः कथाचन्नित्यत्वात् । एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् । यदयुक्तम्तस्याऽव्यभिचारि लिङ्गं किमपि नोपलभ्यत इति । तदप्यसारं पखारं साध्याविनामाथिको नेकस्य तिम्रो पलब्धेः तथाहि - रूपाझुपलब्धिः सकर्षका, क्रियात्वात् छिदिक्रियावत् यश्चास्याः कर्त्ता स श्रात्मा । न चात्र चक्षुरादीनां कर्तृत्यम् तेषां कुठारादिवत् करणत्येनास्यतत्रयात् । करण चैषां पौङ्गलिकायेनान पत्यात्प्रयोक्तृष्णापारांनरपेक्षपापात् यदि दि इन्द्रियाणामेव फलं स्यात् नदा तेषु विनषु पूर्वा'अनुभूतार्थस्मृतेः ' मया दृष्टम, स्पृष्टम् घ्रातम् आस्थादिनम् श्रुतम्' इतिप्रत्ययानामेकक तुकत्वप्रतिपत्तेश्व कुतः संभवः । किञ्च स्वयपययत्वेन रूपर सोः साहचर्यप्रतीती व सामर्थ्यम् । तथाि फलादेरुपरंपरानुमन्तम् दन्तोदयानुपपतेः तमभयोगवा कपोरातः प्रेक्षक इय: द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोदेर्शी कश्चिदेकोअनुमीयते तमकरणान्येतानि यां व्यापारविता स श्रात्मा । तथा साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका विशिष्टक्रियात्वात् रथकियावत शरीरं न प्रयत्नवदधिष्ठितम् विशिक्रियाश्रयत्वात् रथवत् । यश्चाऽम्याऽधिष्ठाता, स श्रात्मासारथियन तथा पूर्वाध्यायत्वाद् भावत् वायुश्च - प्राणापानादिः यश्चान्याधिठाना. म आत्मा, भस्त्राध्मापयितृवत् । तथाऽत्रैव पक्षे, इच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद् : " दारुयन्त्रवत् । तथा शरीरम्य वृद्धिक्षतभग्नसंरोहणं च प्रयत्नच कृतम् वृविक्षनभग्नसंरोहणत्वात् गृहवृद्धिक्षतमग्नसंरोहणवत् । बृक्षादिगतेन वृद्धयादिना व्यभिचार इति चेत् । न तेषामपि एकेन्द्रियजन्तुयेन सारमकरयात्। यचैषां कर्ता स मा. गृहपनिवत्। वृक्षादीनां सात्मकत्वमाचारादेव सेयम् . किंचिद्वयते च । तथा मे मनः अभिमतविषयसंबन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद्दारकहस्तगतगोलकत् यश्चास्य प्रेरकः, स श्रात्मा, इति । तथा, श्रात्म-चेतन-क्षे जीव पुरुषादयः पर्यायान निर्विषयाः पर्यायवा घट-कुट-कलशापयत् व्यतिरेके पष्ठभूतादि यां विषयः स श्रात्मा तथा अस्त्यात्मा समस्त पर्यावाच्यत्वात् यो यो साइतपर्यायमाः। तथा सुखादीनि इष्पाश्रितानिया रूपवत्, योऽसी गुणी, स श्रात्मा, इत्यादिलिङ्गानि । तस्मावनुमानततोऽपामा सियः स्पा०
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श्राभाष्य भगवता किमुक्तोऽयमित्याहकिं मये अस्थि भूषा, उपाहु नरिथ नि संसयो तुज्झ ।
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सुवा
पास अर्थ व जागसी तेसिमो भरथो। १६८६|| सुधागारगय शून्यागारगढ़ स्थि पृथिव्यतेजोवाच्या कालानि पञ्च भूतानि तानि व किं सम्ति नया इति त्वं मन्यसे । संशयश्च तवायं विरुद्धवेद
मं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विशेय' इत्यादि, तथा'द्यावापृथ्वी' इत्यादि, तथा 'पृथिवी देवता आपो देवता' - स्यादि एतेषां चायमर्थस्तव प्रतिभासते 'स्वप्नोपमं स्वप्रस
(evt) अभिधानराजेन्द्रः ।
•
मनिपातोपधागे सफलम् शेषं जगदिन्येष ब्रह्मविधि- परमार्थप्रकार असा-गुनाना सव्यः, इति । तदेवमादीनि वेदपदानि किल भूतनिव पराणि, द्यावापृथिवीत्यादीनि तु सत्ताप्रतिपादकानि, अनस्तव संशयः तदेव न जानासि शादियं
د
सुतपसि सुतपस्विन् पुं० [सुख-शोभत पोऽस्यास्तीति सुतपस्वी । सूष० १ ० ६ ० | सुषिकृष्टतपोनिस्तप्तदेद्दे. सूत्र० १ ० १० अ० । स० । सुतारा सुतारा श्री० अयोग्यराजस्य हरिद्रस्य भा र्यायाम्, ती० ३७ कल्प। शान्तिजिनस्य मातरि उत्त० १८ ४० ।
•
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तितिक्षम् । तितिक्षयितुं सुशक्ये परीषदादिके, स्था० ५
न वेत्सि तेन संशयं कुरुये। तेषां चायमर्थो वक्ष्यमाणलक्षइति । विशे० सम्म० रा० । ( सर्वशून्यताशङ्की वं निरयशेषमपि लोकं मायोपजेन्द्रजालस्यं मन्यसे ? किम्, नेति ८ भाप शब्दे पञ्चमभागे साधितम् । ) ( शून्यवादिनो नये आदित्योङ्गमनक्रिया निरोधो भवतातिमा शब्दे विक्रम्) सुतितिक्ख-सुतितिच त्रिसुखेन तितिति चन्द्रमा प्रत्यहं क्षीयमाणः समस्तक्षयं यावत्पुनः कलामिया प्रवर्धमानः संपूयवस्था (ख) यां यावदध्य 1 तथा सरित प्रावृषि जलकोलाविला स्यन्दमाना दृश्यन्ते । वायवश्च वान्तो वृक्षमङ्गकम्पादिभिनुमीयते । यत्रो भवना - सर्वमिदं मायास्वमेन्द्रजालकल्पमिति तदसत् यतः सर्वभावे कस्यचिदमायारूपस्य सत्यस्याभावान्मायाया एवाभावः स्यात् यश्च मायां प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वभूम्या त्कुतस्तद्रववस्थितिरिति १ तथा स्वभाऽपि जाग्रदवस्थायां सत्यां व्यवस्थाप्यते तस्या श्रभावे तस्याप्यभावः स्यात् ततः स्वनमभ्युपगच्छता भवना तन्नान्तरीयकतया जानवस्था वश्यमभ्युपगता भवति, तदभ्युपगमे च सर्वशून्यस्वहानिः न च स्यनो उपभावरूप एव स्पने ऽप्यनुभूतादेः सद्भावात् तथा चोक्रम "पि विवादेवाऽसूया सुमिम्स निमित्ता पुरा पा
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भायो ।। १ ।। " इन्द्रजालव्यवस्था ऽप्यपरसत्यत्वे सति भयति तदभावे तु न कस्य केन्द्रजालं व्यवस्थाप्येत ?, शिवप्रतिमासोऽपि गयी सत्यामेकधि चन्द्रमस् लम्भकसा ये च घटते, न सर्वशून्यरकेन चाभावः कस्याचि ययरूपोऽस्ति शशविषाण कूर्मरोम गगनारविन्दा नामत्यन्ताभाषाविज्ञान मापामा यो न प्रत्येकपदवाच्यार्यस्येति तथाहि शशो ऽप्यस्ति विवाणमप्यस्ति किं त्वत्र शशमस्तकसमवायि विषाणं मास्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते देवं संमाम नियमस्पतिको स्वभाव इति । एवमन्यथापि
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,
मिति
विद्यमानायामप्यस्तीत्यादिकायां क्रियायां स्त्रीपिंका पिचादति सू० १४० १२०
و
सुखागार शून्यागार १०
म्यागारम् । सुरू ०२ अ० शून्य गृहे कल्प० १ अधि० ५ क्षण ।
प्रश्न० उत्त० । स्था० सू० ।
२३६
१ ५०
अ० २३० ।
सुरहा - सास्ना स्त्री० । “डः सास्ना - स्लावके ॥ ८ । १ । ७५ ॥ इनि आदेश उत्पम् गयादिगलमांसे प्रा० पाद
पाखी' पायां रहो न था । ८ । १२६॥इि . काराकान्तो इकारः । सुराहा। सुसा । प्रा० । पुत्रभार्यायाम्, स्था० ४ ठा० ३ ३० । विशे० । विपा० । श्राचा० ।
सुतवसिय सुतपसित १० सुख इद लोकस्य प्रशंसारहित। सुष्ठु त्वेन तपखितम् तस्याने सुपखितम् स्वनुष्ठिते स्था० ३ ठा० ४ उ० ।
ठा० ९३० ।
सुतिर - स्वप्तृ त्रि० । "शीलाद्यर्थस्येरः ॥८२॥ २४५॥ इति प्राभयचापि यस्येादेशः प्रा० मी ले, पृ० १ ० २ प्रक० ।
सुतिहि सुतिथि श्री पञ्चानां नन्दादीनामन्यतरस्यां तिथौ, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार ।
सुन-सुत त्रि० । निद्रायुक्ते, उत्त० ४ श्र० । रात्रिमध्ययामद्वये निद्रां गते, पा० " प्रमुी सपा मुबि जागरंति " ('सीओसणिज ' शब्देऽस्मिमेव मागे इंदं व्याख्यातम् । ) बाल्याtorक्तचेतने, शा० १ ० १ अ० । श्री० ( द्रव्यभावसुताः 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो दर्शिताः 1) ( सुख कि स्पर्म पश्यति इति महासुनिए शब्दे पडे मागे दर्शितम्) स्वपनं कृतम्। निद्रायाम् नपुं० पृ० १ उ० १ प्रक० | मदिराकोले देशविशेषसि ३० ।
सूत्र-म० अर्थानां सूचनात् सूत्रम् । अनु० । विशे० । तत्तवचनात् प्रीणादिकस्यतिः ०१
० म० । जीत० । सर्वद्रव्यपर्यायभयाद्यर्थसूचनात्सूत्रम् । स्था० ४ ठा० १ ३० | आगमे, स्था० ४ ठा० । ० प्रथ सूत्र० १ ० १४ अ० । विशे० ।
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निरुक्रम
सुतं च सुतमेव उ अहवा मुतं तु तं मये लेसो । अत्थस्सया वा सुतमिति वा मये सुषं ॥ ३१२||
नाबोधि सुप्तमिव सुतं प्राकृतश्या सुनम् । 'अथवा-सूत्रं नाम तद्भवति षः तुरूपमित्यर्थः यथा तन्तुना द्वे श्रीणि बहूनि वा वस्तूनि एकत्र संहम्यन्ते एवमेकेनापि सुमेय बदयोऽर्थाः संपात्यन्ते इति सूत्रमिव सूत्रम् अर्थ
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(६४२)
अभिधानराजेन्द्रा सूत्रनाद्वा सूत्र, सुष्टु उक्तमिति वा सूत्रम् । प्राकृतशैल्या तु
सूत्रपदनिक्षेपमाहसुत्तमिति।
दव्यं तु पोएडयादी , भावे सुत्तमिह सूयगं नाणं ।' सम्प्रति सूत्रशब्दस्यैव निरुक्तान्याह
सम्मासंगहवित्ते, जातिणिबद्धे य कत्थादी॥३॥ नेरुत्तिया तस्स उ, सूयह सिब्बइ तहेब सुबइ ति ।। नामस्थापने अनाहत्य द्रव्यसूत्रं दर्शयति-'पोराउ पाई' अणुसरति त्तिय भेया,तस्स य नामा इमा हुति।। ३१३॥
ति-पोण्डगं च बनीफलादुत्पन्नं कासिकम प्रादिग्रह
णाद् अराउजबालजादेप्रेहणं. भावसूत्रं तु इह-अस्मिन्नधिकारे तस्य सूत्रम्य निरुक्तान्यमूनि-सूचयतीति सूत्रम् । अथ
सूत्रकं ज्ञान-श्रुत शानमित्यर्थः , तस्यैव स्वपरार्थसूचकरयाबा-सीव्यतीति सूत्रम् । यदिवा-स्वपतीति सूत्रम् 'अथ
दिति । तच श्रुतज्ञानसूत्रं चतुर्दा भति , तद्यथा-संज्ञासूबा-अनुसरतीति सूत्रमिति निरुक्तस्य भेदाः, नामानि पुनस्त
त्रम् . संग्रहसूत्रम् , वृत्तनिबद्धम् , जातिनिबद्धं च । नत्र सस्येमानि सुप्तादीनि भवन्ति।
ज्ञासूत्र यत् स्वसंकेतपूर्वकं निबद्धम, तद्यथा-"जे छेए मा. तान्येवार्थतो व्याख्यानयति
गारियं न संव , सब्बामगंध परिमाय णिगमगंधो परि. पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं ण तं जाणे ।
व्वए" इत्यादि . नथा लोकेऽपि पुद्गलाः संस्कारः क्षेत्रमा
इत्यादि , संग्रह सूत्रं तु यत्प्रभूतार्थसंग्राहकम , नद्यथा-द्रव्यलेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे ॥ ३१४ ॥
मित्याकारिते समस्तधर्माधर्मादिद्रव्यसंग्रह इति । यदिवायथा द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसुप्तः सन् न किञ्चि- 'उत्पादव्य यध्रोव्ययुक्तं सदिति, वृननिबद्धमत्रं पुनर्यदनेकतासां कलानां जानाति एवमर्थेनाबोधितं न किंचिदर्थविशे- प्रकारया वृतजात्या निबद्धम् , तद्यथा-'बुद्धिजति तिउट्टि पं जानाति, यदा त्यर्थेन प्रबोधितं भवति तदा सर्वेषां तद- जे' त्यादि, जातिनिबद्धं तु चतुर्दा, तद्यथा-कथनीयं-कम्तर्गतामां भावानां ज्ञायकमुपजायते । यथा स एव पुरुषः ध्यमुत्तराध्ययनज्ञानाधर्मकथादि. पूर्वर्षिचरितकथानकवायप्रबोधिनस्तासां कलानामतः प्रसुप्तसमं सूत्रम् । अथवा- त्वानस्य, तथा गद्यम्-ब्रह्मवर्याध्ययनादि. नथा-पद्यम्-छश्लेषसरशं तत् सूत्रम् , तथाहि-तेन श्लेषसहशेन-तन्तुसह- न्दोनिबद्धम् ,तथा-गेयम्-यत् स्वरसंचारेण गीतिकापायनिक्षेण बहवोऽर्थाः संघातितास्ततः श्लेषसएशम् ।
बद्धम् , तद्यथा-कापिलीयमध्ययनम्, 'अधुवे श्रसासयम्मि संप्रति अर्यस्य सूचनादिति व्याख्यानयति
संसारम्मि दुक्खपउराए 'इत्यादि । सूत्र०१U०१ १०१ सूइजइ सुतेणं, सुई णट्ठा वि तह सुएणऽत्थो । उ० । " अार्थ भासद अरिहा. सुनं गुंफंति गणहरा निउणं । सिधइ अत्थपयाणि व, जह सुतं कंचुगाईणि ॥३१॥
सासणम्स हियटाए. ततो सुत्त पवत्त ॥" दशा०४ अ०।
तत्र गणधरा विशेष्यन्ते निपुणाः सूक्ष्मार्थदर्शित्वात् निययथा सूची नया सूत्रेण सूख्यते सूत्रण चापलक्ष्यते, तथा थु
तगुणा निगुणा वा सन्निहितसमस्तगुणत्वात् , श्राहसेनार्थः सूख्यते इति अर्थस्य सूचनात् सूत्रम् , एसेन सूत्रय
तत्पुनः सुत्रं किमादिकं किंपर्यवसानं कियत्परिमाणं को तीति निरुक्तं व्याख्यानम् । अधुना सीव्यतीति व्याख्यानय
वास्य सार इत्यत श्राहति-यथा सूत्र कञ्चुकादीनि सीव्यति एवमर्थः पदान्यनेकानि सीव्यतीत्यर्थः, सीवनात् सूत्रम् ।
सामाइयमाईयं, सुयनाणं जाब विंदुसाराओ । सव (सुचयतीति अस्य व्याख्यानमाह
तस्स चि सारो चरणं,सारो चरणस्स निमाणं । सूरमणिं जलकतो, व अत्थमेव तु पसबई सुत्तं । तत् श्रुतज्ञानं सामायिकमादिर्थस्य तसामायिकादि यावत् पणियसुयअंधकयवर-तदणुसरंतो सुयं एवं ।। ३१६॥ बिन्दुसारात् बिन्दुसारं यावत् बिन्दु-साराख्यचतुर्दशपूर्वयथा सूर्यकान्तोऽग्नौ, जलकान्तो जले, दीप्ति स्रवति एवं |
मित्यर्थः । तच मूलभेदापेक्षया द्विभेदम् , तद्यथा-अजयसूत्रम् अर्थ प्रस्रवतीति सूत्रम् । अनुसरणं द्विधा द्रव्यतो,भा.
विधम , अनङ्गप्रविष्ट च। अङ्गमावष्टं द्वादशभेदमाचागदि. यतश्च । तत्र द्रव्यो वणिकसुतोऽन्धः कचबरे दृष्टान्तः। एक
भेदाद् । अनङ्गमविष्टमने कभेदमावश्यकं तद्वयतिरिक्त कालिस्य घणिजः पुत्रोऽन्धः,वाणजा चिन्तितम-एम घराको निर्दि |
कोत्कालिकादिभेदात् । उक्तं च-द्वयनेकद्वादशभेदं धुत$ भुकं भुक्त्वा परिभवस्थान गाढतरं भविष्यतीति द्वौ स्त- मिति । श्रा० म०१०। अनु० । म्भौ निहत्य तत्र रज्जुर्वदा । ततः सोऽन्धः पुत्रो रज्ज्वनु- से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुधे. सारेण कचबरं वहिस्त्यजति, एप रष्टान्तः । अयमर्थोपनयः- | जाणयसरीरभविसरीरवइरित्तं पत्तयपोत्थयलिहिअं, अधणिस्थानीय श्राचायः, अन्धस्थानीयाः साधवः, रज्जुस्था- |
हवा-जाणयसरीरभविसरीरवइरितं दधसुध पंचविहं नीय सूत्र, कचवरस्थानीयमष्टप्रकारे कर्म । तथा चाह-एवं यगिकसुनान्धहटान्तप्रकारेण तत्सूत्रमनुसरन् अप्रकार
पसतं, तं जहा-अंडयं, बोंडयं, कीडयं, बालय, बागयं । कर्म कचबरस्थानी यमपनयति । ततः सरणात् सूत्रं, सुन्छु अंडयं हंसगब्भादि, बोंडयं-कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं उक्नं सक्रमिति नाम तु प्रतीतमिति न व्याख्यानम् । ०१ पमतं, त जहा-पट्टे, मलए, अंसुए, चीणंसुए, किमि उ०प्र० । स्था। सूत्र०। प्रव०। गणधरादिकते पञ्चसा'क्षिकधर्मप्रतिपादनप्रायोगिकसूत्रादौ, संघा०१ अधि०१प्र.
रागे, (अनु० ) बागयं सणमाइ, से तं जाणयसरीस्ता० सुतं ति वा पययणं ति वा एगट्ठा । प्रा० चू० १
रभवियसरीरवरितं दध्वसुधे । से तं नोयागमतो मा सिमागमें, दर्श० ३ तत्त्व।
दबसुग्रं, से तं दध्वसुधे । (सू० ३७१)
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अभिधानराजेन्द्रः। अत्र निर्वचनम-जाणयसरीरभविश्रसरीरबहरिनं दब्ब- प्रमचन्ति, नाश्च कीलनेषु लग्नाः परिगृह्यन्ते, इत्येतत् प. सुत्र' मित्यादि. यत्र शसरीरभव्यशरीरयोः सम्बन्धि अन- दृसत्रमभिधीयते । अनेनैव क्रमेण मलयविषयोत्पन्नं तदेव स्तरोक्लस्वरूप न घटते तत् ताभ्यां व्यतिरिक्तं-भिन्न द्र- मलयम् , इत्यमेव चीनविषये बहिस्तादुत्पन्नं तदेवांशुकम् व्यभूतम्, किं पुनस्तदित्याह-पत्तय पोत्ययलिहिय' ति प. इस्थमेव चीनविषयोत्पन्नं तदेव चीनांशुकभिधीयते, क्षेत्रप्रकाणि-तालतास्यादिसंबन्धीनि तरसंघातनिष्पन्नास्तु पुस्त- विशेषाद्धि कीटविशेषस्तद्विशेषात् तु पट्टसूत्रादिव्यपदेश काः , तमश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखितं पत्रकपु- इति भावः । एवं कचिद्विषये मनुष्यादिशाणतं गृहीत्वा स्तकलिखितम् . अथवा-पोत्थय' ति-पोतं-वस्त्रं पत्रका- केनापि योगेन युक्रं भाजनसम्पुटे स्थाप्यते, नत्र व प्रभूणि च पोतं च तेषु लिखितं पत्रकपातलिखितं शरीरभव्य ताः कृमयः समुत्पद्यन्ते, तेच वाताभिलाविको भाजच्छिशरीरयतिरिक्त द्रव्यश्रुतम् , श्रषच पत्रकादिलिखितस्थ ट्रैर्निर्गस्य श्रासचं पयटनो यन्नालाजालमभिमुश्चन्ति तत् हैश्रुतस्य भावभ्रनकारणत्वात् द्रव्यन्यमयसेयम, नोश्रागम- मिरागं पट्टसूत्रमुच्यते, तच्च रक्तवर्णकृमिसमुत्थत्वात् स्व'वं तु श्रागमतो द्रग्बश्रुत इव प्रागमकारणम्यात्मदेहशब्द- परिणामत एवं रक्तं भवान । अन्ये स्थभिदधति-यदा प्रयरूपस्याभावाद् भावनीयम् । तदेवमे केन प्रकारेण शश- तत्र शोणिते कमयः समुत्पन्ना भवन्ति तदा सकृमिकमेगरभग्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रष्यश्रुतमुक्तम् । साम्प्रतं तदेव प्र- व तन्मलित्वा किट्टिसं परित्यज्य रसो गृह्या . तत्र च ककागन्तरेण निरूपयितुमाह-'अहवे' त्यादि. अचा-श्रुतं श्चिद् योगः प्रक्षिप्यत, ततस्तेन यद् रज्यते पट्टसूत्रं तत् क. पञ्चयिधं प्रशप्तम् , तद्यथा-'अंडयभि ' त्यदि, मत्राऽऽह- मिगगमुच्यते । नच धीताचवस्थासु मनागपि कश्चिद्राग मनु श्रुत प्रक्रान्ते सूत्रस्व प्ररूपणमप्रस्तुतम्, सत्यम् , किन्तु- न मुञ्चति, 'से तमि'त्यादि निगमनम् । अथ चतुथों भेद उमारुतशैलीमङ्गीकृत्य श्रुतस्पासादिसूत्रस्य च सूत्रलक्ष- च्यते-से किं तमि' त्यादि, अत्रोत्तरम्-(अनु० ।) (बालणेनैकेन शब्देनाभिधीयमानत्वसाम्यादिदमपि प्ररूपयतीत्य- यपदव्यास्था 'बालय' शब्द पश्चमभागे गता।) दोषः । प्रसङ्गतोऽजादिसूत्रस्वरूपज्ञापनेन शिष्यव्युत्प- अथ पञ्चमो भेदोऽभिधीयत-से कि तमि' त्यादि, वल्कासिश्चैवं कृता भवति, अत एव भावथुते प्रक्रान्ते नामथु
जातं वल्कजं.नच सणमभृति, क्वचित् पुनरतस्यादीति पासादिषरूपएमप्रस्तुतमित्याद्यपि प्रेमपाम्तं , तस्थापि शि
ठ, तत्रातसीसूत्र मालबादिदेशप्रसिद्धम् , ' तमि' त्यादि ज्यव्युत्पादनादिफलत्वात् । न च भावचत प्रतिपक्षस्य नाम
निगमनम् । उक्तं पञ्चविधमण्ड जातिसूत्र, नगणन बोक्नं - श्रुतादः प्ररूपणमन्तरेण भावश्रुतस्य निर्दोषत्यादिस्वरूपनि
शरीरभव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतम् , अतस्तदपिनिगमश्चयः कर्तुं पार्यते, 'जे सव्यं जाणा से एणं जाणा'त्ति च
यति-से तं जाणामे' त्यादि, एवद्भपनन च समर्पितं नोचनाद् इत्यलं विस्तरेण । अत्राद्यमेदशापनार्थमाइ-से कि
श्रागमतो द्रव्यथुतमतस्तदपि निगमयति-से तं नोभागत 'मित्यादि, अत्रोत्तरम् - अंडयं हंसगम्भाति -अण्डा
मो' इत्यादि , एतत्समर्थन च समर्थितं द्विविधमपि ज्जातमण्डजम् , हंसः-पतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः, गर्भ
द्रव्यश्रुतमतस्तदपि निगमयति-से . तं दब्बसुश्रमि' स्तु तनिवर्तितः कोसिकाकारः, हंसस्य गर्मो हसगभः .
त्यादि । अनु। तदुत्पन्नं सूत्रमण्डजमुच्यते , श्रादिशब्दः स्यभेदप्रण्यापनप रः । ननु यदि इंसग व्पन्नसूत्रमण्डत्तमुच्यते तर्हि सूत्र'
विध्युद्यमादिसूत्राणिड्यं हंसगन्माइ 'तिमामानाधिकरययं विरुध्यते , हंसग
चिहि १ उज्जम २ बन्नय- ३ भय ४ भस्य प्रस्तुतसूत्रकारणत्यादेव, सत्यम् । कारो कार्योपचा उस्सग्ग ५ ऽववाय ६ तदुभयगयाई ७ । रात् तदविरोधः, कोशकाग्भवं सूत्रं चटकसूत्रमिति लोकं मुत्ताइँ बहुविहाईप्रतीतमण्डजमुच्यत इति हृदयम् . पश्चेन्द्रियहंसगभसम्भ
समए गंभीरभावाई ॥१०६॥ बमित्यन्ये । 'से तमि'-त्यादि निगमनम् । अथ द्वितीयभेद
ध०र०३ अधि. ३ लक्षः। (अस्याः व्याख्या' सखा उच्यते-से किंत' मित्यादि. अत्र निर्वचनम-बोडय फ
शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) लिहमाइसि-बोण्डं वमनीफज समाजातं बोराडज, फलि
अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयम् । किं तत् इत्याहही-चमनीतस्याः फलमपि फलिहं कामाश्रयं कोशकरूपं सदिहापि कारणे कार्योपवाराडोएडजं सूत्रमुच्यते इति भा
अप्पगान्थमहत्थं, बत्तीसदोसविरहियं जं च । यः । स तमित्यादि निगमनम् । अथ तृतीयभेद उच्यते- लक्खणजुतं सुत्तं, अडहि य गुणेहि उववेयं ॥8880 'से किं तमि' त्यादि, अनोत्तरम्-'कीड्य पंचबिहमि' अल्फ्यन्य महाथै च सूत्रं विशेयम् , उत्पादव्यय-व्ययुस्यादि, कीटाज्जातं कीटजं सूत्रं तत् पश्चाबधं प्राप्तम् , क्तं सत् "इत्यादिवत् सूत्रमल्पग्रन्थ महार्य च भवतीत्यर्थः, तद्यथा-पट्टे' ति पट्टसूत्रं मलयम् अंशुकम् , चीनांशुकं कृ यश द्वात्रिंशद्दोषविरहितम् , तल्लक्षणयुक्तं सूत्रमुच्यते । ते मिरागम् । अत्र वृद्धव्याख्या किल यत्र विषये पट्टसूत्रमुत्प- चैतेऽन्यत्रोक्ता द्वात्रिंशद् दोधाःचते, तत्रारण्ये धननिकुञ्जस्थाने मांसचीडादिरूपस्याऽऽमि- "अलियमबघायजण्यं निरस्थयमवस्थयं छल दुहिलं । षस्य पुजाः फ्रियन्से, तेषां च पुञ्जानां पार्श्वतो निम्ना उन्न- निस्सारमहियमूखं. पुणरुतं वाहयमजुतं ॥१॥ ताश्च सान्तरा बहवः कीलका भूमौ निखायन्ते, तत्र बना- कमभिन्नवयणभिन्न, विभत्तिभिन्नं च लिगभिन्नं च । म्तरेषु संचरन्नः पतकीटाः समागत्य मांसाधभिलाचोप- अणमिहियमपयमेव य. सहावाणं वाहियं च ॥२॥ मोगलुब्धाः कीलकान्तरेध्यितस्ततः परिभ्रमन्तो लाला:-I कालजइच्छविदोसो, समयविरुद्धं च धयणमत्तं च।'
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अभिधानराजेन्द्रः। अन्यायतीवोसो, नेनो भसमासदोसो य ॥३॥
म्यार्थो भवति, लक्षणहीनस्य स्वभावतस्ततो यघिमित्तउवमा कयगदोसो.निहेमपयत्थसंधिदोसो य ।
मुपनिबद्धं सत्रं तस्याप्रसिडिरेव। तथा चाह-लक्षणनः बलु एए उ सुत्सदोसा, बत्तीसं होति नायव्वा ॥४॥
विवक्षितस्यार्थस्य सिकिस्तदभावे कशणाभावे-तत्म में विशे० । शाका
माधयति विवक्षितमर्थम । इदं सर्वत्राणि लोके मिजं यकिअस्खलिताविपदानां ग्याल्या--
चिन्मण्याविद्रव्यं लाभार्थ क्रीतं तक्षक्षणहीनं लाभं साथसलिए पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धो वावणता।
यति लेन-कारणेन लक्षणयुक्तं सूत्रमिष्यते। मत्ताइविंदुवझे, घोसाइ उदत्तमाईया ।। २६६ ॥
रिश लक्षणयुक्तं सत्रमत नाहस्वलितं विधा-द्रव्यतो. भावतश्च। तत्र द्रव्ये प्रस्तरसीता
अप्पग्गंथमहत्थं, बत्तीसदेसिविरहियं जं च । प्रस्तगकुलं क्षेत्रे नस्मिन हि बालथानानि हलकुलिकादीनि
लक्खणजुतं सुतं, भट्ठहि य गुणेहिं उववेयं । २७६।। उत्सृज्य अन्यत्र निपतन्ति, पवं भावस्खलितं यदन्तरान्तरा- अल्पग्रथम-अल्पाक्षर महार्थमत्र चत्वारो भनाः-अल्पाक्ष भालापकान् मश्चनि यथा अहिसा 'देवा वितं नमंसग्नि' रमपार्थम , यथा कापसादिकम् । अल्पाक्षरं महाथै यथा "पुष्फेसु भमरा जहा पत्थित्ते चेव दोसा य" मिलितमपि सामायिककलाव्यवहारादि। महाक्षरमल्यार्थम, यथा-"जी द्विधा-द्रव्यतो,भावतश्च । तत्र द्रव्यतो मिलितं बहूनां ग्रीहि मूबेड वा अंजणेदवा" इत्यादिभियहुभिरक्षरैयणव्यावणेनम् पवादीनां धान्यानामेकत्र मिश्रीकृतानां धापनता-वपनं भा- महाक्षा महाथें यथा पिवादः तत्र यदल्याक्षरं महाथै नार. बतो मिलितं यदन्यस्यान्यस्योद्देशकस्याध्ययनस्य पालाप- श सूत्रमिति गमिष्यते तथा यदद्वात्रिंशद्दोपविरहितं तदिकानेकत्र मीलयति सर्वजिनवचनमिति हत्या यथा" सब्ये- ष्यते । ते च द्वात्रिशदोषा वक्ष्यमाणास्तथाभिगुणैर्वेक्ष्यमापाणा पियाउगा सम्ये जीवा वि इच्छति जीविउन मरिजिउं | यदुपेतं तदिश्यते पवंभूतं लक्षणयुक्तम् । इत्थ न नजद किं कालिय उछालियं छेयसुर्य था" अत्र प्रा
धुना द्वात्रिंशद्दोघानाहयश्चित्तं दोषाश्च प्राग्वत् । परिपूर्ण द्विधा द्रव्यतो, भावनश्च ।
अलियमुवघायजणयं, णिरत्थगमवत्थयं बलं दुहिलं । तत्र द्रव्यतः परिपूर्णो घटः , भावे परिपूर्ण मात्रादिभिः, माविग्रहणात्-पदैबिन्दुभिर्वरक्षधापरिपूणे तदेव प्राय
निस्सारमहियमूणं, पुनरुतं वायमजुतं ॥ २० ॥ श्चित्तं दापाचा मात्राभिरपरिपूर्ण यथा “धम्म मंगलमुक्किटुं"। कमभिनययणभिये, विभत्तिभिन्नं च लिङ्गभित्रं च । पदैरपरिपूर्ण यथा--" धम्मं उचिटुं" बिन्दुभिरपरिपूर्ण य
प्रणभिहियमपयमेव य,सभावहीणं वचहियं च।।२८१॥ था-" धम्मो मगलमुक्टुिं" इति वगैरपरिपूर्ण यथा "धम्म
कलजुतिच्छपिदोसो, पमयविरुद्धं च वयणमित्तं च । लउछिट्टमित्यादि , घोघा उदानादयः । तत्र उमेरुदासः मीचैग्नुदानः समाहारः स्वरितः । उचैः शब्देन यथा
अत्थावत्तीदोसो, हवइ य असमासदोसो य ॥ २८२॥ "उप्पम्ने वा" इत्यादि नीचैःशब्देन यथा-" जे मि- उवमा रूवगदोसो, परप्पबत्ती य संधिदोसो य । पखू हत्थकम्मं करे " इत्यादि घोषैरयुक्तं कुर्वतस्त
एए उ सुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति नायव्वा ॥२८३॥ (बृ०) देव प्रायश्चित्तं त एव च दोषाः।
अष्टभिर्गुणरुपेतमित्युक्तमतः स्थाने चाष्टौ गुणानाहसम्प्रति व्यायानेहितादीनां पशाना प्रकारान्तरेणार्थमभि
निदोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलं कियं । মানুঙ্কাম আই--
उवणीयं सोवयारं च, मियं महरभेव य ।। २८४ ॥ मुचूण पढमविइए, भक्खरपयपायबिंदुमत्ताणं ।
निर्दोष १ सारवत् २ हेतुयुक्तम् ३ श्राएरतम् ४ उपनीतं सम्बेसिसमायारो, सहाणे चेष चरमस्स ॥३०॥
सोपचारं ५मितं ६ मधुर समान । प्रथम हीनाक्षर दितीयमधिकाक्षरमेते व पद मुक्स्था शे
नत्र निह पाविपदव्याख्यानार्थमाहআ্যা বখালা ঘাঘনঘালাম হোসমাধ্যায়
दोसा बलु भलियाई , बहुपजायं च सारवं सुस। ममवतारः कर्तव्यः , यथा व्यन्यानेडितं नामाम्यशास्त्राणा
सोहम्मेयरहेऊ, सफारणं चापि उजतं ।। २८५ ।। मरैः पदैः पाविन्दुभिमात्राभिघोषयाच्याविधि तम्यैव शाखस्य अधस्तनान्युपरितनान्यधोऽरपदानि यत्करोति
उबमाइअलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं । स्वलितं पश्चभिरेव पदादिभिः मिलिहम,यथा-सामायिकपदे काहलमणोषगारं, दंडगमगियं तदा महुरं ॥२८६॥ दशवकालिकोनगध्ययनप्रभृतीनामनेकानि पदानि मीलय- दोषाः खल्वलीकावयः प्रागभिहितास्तैर्जित निकोप साति, अपरिपूर्ण पञ्चभिरेवाक्षराविभिः स्वगते. सहाणे श्रेय
रखधाम बहुपर्यायमेकैकस्मिअभिधेये यत्रानेकाम्यभिधानापरिमल " पोषपुतं घोरेवापरिपूर्ण नाक्षरादिभिः । १०१ नीत्यर्थः । हेतुयुक्तं साधर्मेण या हेतुना युक्तम । अथवा-हेतुः उ०१ प्रक० । भाचा० प्रा०म० ।
कारण निमित्तमध्यनन्तरं सतो यत्सत्कारणं सजे तुयुक्तमट गुणाः सूत्रस्य नत्र प्रथमे लक्षणद्वारमाह
मिति , यथा-'सुतर सेयं जागरियनं या सेयं' इत्यादि, लक्खएमो खलु सिद्धी, तदभावे तंण साहए मत्थं । ।
अलंकृतं यत्रोपमाविरलकारः । तत्रोपमायक्रम , यथा-"सूरे सिद्धिमिदं सम्बत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुतं तेण ॥२७८॥ व सेणाइममत्तमाउहे" आदिग्रहणेन-"नियमा अक्खरलंभो. इह लक्षणहीनं सूत्रं न भवति , ततो लक्षणयुक्तसूत्र-| मारकमममिटर सुधीजमगं । मात्तबमस्थाय-या
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सुप्त
सुनेकारा" इति परिग्रहः उपनीनं खलु सोपनयं सोपसंहारम् अनुपचारं नाम - यत्कालं फ प्रायं तद्विपरीतं सोपचारम, मितं परैः कामय मधुरम् अर्थमधुरम, उमयमधुरम् एतैरष्टमितम् अपारादिशब्देषु सत्यानार्थः)
.
( ६४५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
साम्प्रतमेतेषु हीनाक्षरादिषु प्रायश्चित्तमाहखलियमिलियवाइद्धं, ही अक्खरं वयंतस्स । विषामेलियनप्पति पुत्रघोसे व मासल ।। ३०१ ।।
लिमिलितं व्यापि दीनासरमायातिम अपरिपूर्णघोषं च वदतः प्रत्येकं प्रायश्चितं मासलघु | स्वामिनः श्रशाभने चतुर्गुरु । स तथाऽन्येऽपि करिष्यन्तीति गुरु | यथाकारी न भवति माधुविधा श्रात्मविराधना च संयमधिनात्म देवतया समम् संयमविराधना कोऽपि खारयेत् साधुर्वारयेत् मा पालितानि कुरुत ततः कद आत्मविना परितापः महाग्लानाद्यारोपणा संययविराधना सूत्रस्यान्यथो धारणादर्थे विसंवादः, अर्थविसंवादे भरणभावाभावे मोक्षाभाव इति दीक्षा निर पिंकी लघुकमपि सुमित
था
दीर्घस्य सूचनम् । तत्र गुरुकमिति वा अनुद्धातीति वा काल कमिति वा गुरुकस्य नामानि । लघुकमिति वा उद्घातमिति या शुक्रमिति या लघुकस्य नामानि अत्र गुरुलघुविशविस्तर परिज्ञानार्थमाचार्यस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं दर्शयति-तथा दानप्रायश्चितं तपःमायश्चित्तं कालप्रायश्चित्तं वा । तत्र दानप्रायश्चितं गुरु लघु च तपःकालप्रायि
पि गुरुलघुके प्रत्येकं वक्तव्ये ।
प्राधिगुरुमाह
जं तु निरंतरदार्थ, जस्स व तस्स व तपस्स से गुरुकं । जं पुरा संतरा, गुरू बि सो खलु भवे लहुआ | ३०२ | यस्य वा तस्य वा तपसो गुरुकस्याष्टमादेरगुरुकस्य निर्वृ तिकादेर्य निरन्तरं दानं तद्भवति दानप्रायश्चित्तं गुरु । यत्पुनः सान्तरमष्टमादेर्गुरुकस्य तपसो दानं तत् गुर्वपि खलु भवतिलघु यथा आपत्तिश्चतुर्लघुकस्य बदलघुकस्य वा तामदमग सारादयन्ते पदानमा गुदलरुयोंविशेषः ।
सम्प्रति तपःकालयोराद्द
कालतचे सजप, गुरु वि होई लहड लहूगुरुगो । कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइतको लहू सेसो ॥ ३०४ ॥ कालं तपश्चासाद्य गुर्वपि लघु भवति, लभ्यपि च गुरु । तत्र काल गीष्मो गुरुः, तपोऽष्टमादि शेषः कालस्तपश्च लघु । इयमभावना, सभ्यपि यदादिमा पाउने तपो शुरु | त्रिविकृतिकादिना षष्ठपर्यत लघु तथा य मीकाले उद्यते तत्काल सम्मका
लघु । तदेवं यतः स्वलितायुच्चारणे प्रायश्चित्तमज्ञानमिथ्यात्वधिनाथ दोषास्तस्मात् सूक्ष्मवलितादिदोवरहितमुकवारणीयम् - पठनीयं च । एवं पठितस्य सूत्रच्याक्या कर्त्तव्या । ० १ ० १ प्रक० । अनु० । ० म० । २३७
अथ वे सर्वज्ञभाषित सूत्र लक्षणम्अप्पक्चरमसंदिदं सारयं विस्सतोस
श्रत्थोभमणवजं च, सुत्तं सव्वराणुभासियं ॥ २८६ ॥ अल्पाक्षरं नाम मिताक्षरं यथा सामायिकसूत्रम्, असंदियसैन्धवशादयत् परयोटा
न भवति सारयत्-बहुपर्यायं प्रतिमुखमनेकार्थाभिधायक बा. विश्वतोमुखम् अनेकमुखं प्रतिमनुयोगचतुष्टयामि धानात्तो वाहिकारात्रिपूरास्तोक न्यम् स्तोभका निपाता इति पूर्ववैयाकरणेषु प्रसिद्धेः, अनवद्य म् श्रगम्-न हिंसाप्रतिपादकं षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनात् न्यूनामि ॥१॥"नमिय नदियाविधायकम्भू सर्वशभाषितमिति । आ० ० १ ० ।
एकस्मात् सूत्र होते उसीपवादादयः सूत्रभेदाःएयारिसम्म वासी व कप्पती जति वि तातो । अव्वागडो व भणितो, आयरियों उबेहती मत्थं ||२५|| एताशे उपाधये वासो यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातः तथापि न
यतः अध्यायार्थः सूत्र भरतः परम् श्राचार्यस्तमर्थमुत्प्रेक्षितचिपचिभाग करने नान्मीलतिय था किसकस्मात् पिडात् कुलालनेकानि पठारापादिक मायायऽप्येकस्मात् द नेकेषामर्थविकल्पानामुपदर्शनं करोति । यथा वा सान्धकारगृद्दादौ विद्यमाना अपि घटादयः पदार्थाः प्रदीपं विना न विलोकयन्ते तथा सूत्रे उप्पर्थविशेषाः आचार्येणाप्रकाशिताः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते ।
सुत
किच
जं जह सुने भणियं तदेव तं जह विद्यालया नत्थि । किं कालियागो, दिट्ठो दिट्टिप्पहाणेहिं ॥ २६ ॥
स्तुत्येन विधि या प्रकारे सूत्रे सचैव यदि प्रतिपशय्यं विचारणा-विषयविभागव्यवस्थापनायुक्तः विमर्शो वा नास्ति न क्रियते, ततः किं केन हेतुना कालिकभूतस्यानुयोगो टो
नै सामानरूपालोचनप्रदस्ती करणारैः। अथवा प्रधानैर्नैगमादित्यमतिविशारदः श्रीभद्रबाहुस्यामिभिः किमिति निक्तिकरणद्वारेण कालिकतानुयोगो दृष्टः प्रतिपादितः ।
-
"
अपि चउस्सग्गसुतं किंचिय, किंचि य अववातियं भवे सुतं । तदुभयमुतं किंचिय, सुत्तस्स गमा सुषव्या ॥ २७ ॥
विसर्ग चित्पुनरापचादिकं सूत्रं किञ्चिन यसूत्रम् । तत्र द्विधा- औत्सर्गापवादिकम् अपवादसर्गि कम् । एते सूत्रस्य गमाः प्रकाराश्चत्वारो ज्ञातव्याः । अथवागमा नाम विचारणीयानि पदानि तद्यथा - उत्सग्गौरलर्गिकम्पादिकम् । एवमेते द्वौ भेदौ बम्बारा प्रागुक्ता इस्मे सुत्रस्य च मे संजाताः ते च पुरस्तादाहरिष्यन्ते ।
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अभिधानराजेन्द्रः। अम्येऽपि सूत्रस्य भेदा भवन्तीत्याह-
हंसि वा पासइत्तए वा. जाव काउस्सग्गं वा असं ठाइणेगेसु एगगहणं, सलोमणिनोमभकसिणे अइणे ।। त्तए ति ॥ विहितभिबस्स गहणं, भववाउस्सग्गियं सत्तं ॥ २८॥ यत्तु प्रयाणां जराभिभूतादीनां निषचा कल्पते इत्येवं लक्ष. भनेकेषु कषायेन्द्रियाश्रवादिष्वर्थेषु प्रीतव्येषु क्वापि सूत्रे एकस्याम्यतरस्य प्रहणं भवेत् , यथा यत्र सूत्रे क्रोधनिग्रहः
तच्चेदम्साक्षानुपतिस्तत्र माननिग्रहादयोऽप्यर्थत उक्ला द्रष्टव्याः। मह पुण एवं जाणिजा जराजुमो वाहिए बाहिओ तबएपमिन्द्रियाश्रयादियपि भाषनीयम् । कानिचित् तु सूत्राणि स्सी मुच्छिा वा एवं एहं कप्पड अंतरगिहंसि भासइत्तए । साधूनां साध्वीनां व प्रत्यकविषयाणि यथेहेव कराध्ययने
इदं पुनरपवादौत्सर्गिकम्-'मंस दल मा अट्टि 'त्ति-पुरलं सलोमसूत्रं था।
प्रयच्छ मा अस्थीति । तद्यथा
नो कप्पति व अभिनं, अववाएणं तु कप्पती मिन्नं । नो कप्पा निग्गंथीणं सलोमाई चम्माई धारित्तए वा
कप्पति पकं भिन्नं, विधी य अववायउस्सग्गं ॥३१॥ परिहरित्तए वा ॥ ३॥ कप्पइ निग्गथाणं सलोमाई च
नो कल्पते अभिन्नं तालप्रलम्बं प्रतिग्रहीतुम् । एतद् वा उ म्माइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा । से वि याई परिहा- | त्सर्गसूत्रम् , यत्पुनरपवादपदेनाध्वादाववमौदर्यादिषु भिन्न रिए नो पेव णं अपरिहारिए । से वि याइं परिभुत्ते नो प्रतिग्रहीतुं कल्पते इत्येवंरूपं तदपवादिकम् । यत्पुनर्निग्रचेवणं अपरिभुते । से वि याई एगराइए नो चेव णं
स्थीनां कल्पते पक्कं तालमलम्ब विधिभिन्नं विधिभिन्ममिति
सूत्रं तदपवादौत्सर्गिकम् । एतत्प्रागुतमपि स्पष्टीकरणार्थमणेगराइए ॥४॥ नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गन्थीण
मिहाभिहितम् । बा.कसिखाई चम्माइं धारिसए वा परिहरित्तए वा ॥५॥
इदं त्वौत्सर्गापवादिकम्कानिचिनु सामान्यसूत्राणि भवन्ति, यथा अकृत्स्नाजिन- नो कप्पइ राप्रो वा वियाले वा सेज्जासंथारयं पडिगाविषयं सूत्रम् । तच्चेदम्
हित्तए ननत्थ एगेणं पुवपडिलेहिएणं सिजासंथारएणं ।
इदं पुनरौत्सर्गिकम्कप्पा निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अकसिणाईच
नो कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा म्माइंधारित्तए वा.परिहरित्तए वा ॥ ६॥
पढमाए पोरिसीए पडिगाहित्तए एत्थम्मि पोरिसिं उबाइमथानानुपाऽपिव्याख्यानमिति तत्पदयोदर्शनार्थ प्रागुक्तसूत्रषटमध्याचतुर्थभेवमुदाहरति 'विहिभिमस्स य' इत्यादि,
णावेत्तए से य पाहच्च उवाइणावित्तए सिया जो तं भुजह इहैव प्रन्थे यद् विधिभिन्नस्य प्रहणमुक्तं तदपधादौत्सर्गिक भुजंतं वा साइज्जह से भावजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठासं सूत्रम । तच्चेदम
उग्घाइयं । कप्पद निग्गंथीणं पक्के तालपलंवे भिन्ने पडिगाहित्तए से
तथा येषु सूत्रेवपवादो भणितस्तेष्वेवार्थतः पुनरनुमा प्रव. विय विहिभिमेनोचवणं अविहिभिमेशा (वृ०१ उ०)
तते तान्यपवादापवादिकानि ।
किं चान्यत्पाह-यद्यपवादेनानुशातं तर्हि भूयः कथं प्रतिषिध्यते -
कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भमंति णिरवसेसाई। स्याहउस्सग्गद्विइसुद्ध, जम्हा दव्वं विवजयं लभति ।
उक्कमकमजुत्ताई, कारणविसो निउत्ताई ॥ ३२ ॥ णय तं होइ विरुद्धं, एमेव इमं पिपासामो ।। २६ ।।
कचित् सूत्रे अभिधेयपदानां देशतो ग्रहणं क्रियते, कुत्रापि
च निरवशेषाण्यभिधेयपदानि भण्यन्ते, तथा कानिचिन्सूत्रा उत्सर्गस्थितावुल्सर्गपदेषु शुद्धमुन्द्रमादिदोषरहितं यन
ण्युत्क्रमयुक्तानि, कानिचित्तु क्रमयुक्तानि कारणविशेषतःपानादि द्रव्यं प्रहीतुं कल्पते तदेवापचादपदे यस्मारिप
कारणविशेषमाश्रित्य नियुक्तानि गणधरादिभिः श्रुतधरैर्विरयेयं परीत्यं लभते इत्यर्थः, न च-नैव तथा गृह्यमाणं वि
चितानि । रखं भवति । ज्ञानाविगुणोपकारकत्वादविरुद्धमेति भावः ।
एतदेव विवृणोतिएवमेषानुमतमपि प्रकृतमर्थ कल्पते-निर्ग्रन्थीनाम् पर्क
देसग्गहणे बीएँहिं, मूयिया मलमादिणो हुँति । तालप्रलम्ब भित्रं प्रतिग्रहीतुमित्यपयादेनानुज्ञातस्याप्यषिधिभिन्नतिषेधरूपमविरुद्धमेव पश्यामः ।
कोहादिमणिग्गहिया, सिंचंति भवं निरवसेसं ॥३३॥ भयोत्सर्गसूत्रोदाहरणाम्याह
देशमहणे कृते सास तज्जातीयानां सर्वेषामपि प्रहणं भवति उस्सग्गगोयरम्मि य, निसेलकप्पाववादए तिएहं ।
यथा 'सालीणि या घीहीधिया' इत्यादापस्मिन्नेव च सूत्रे बी.
जैगृहीमलादयोऽपि भेदाः सुचिता भवन्ति,कुत्रापि च सूत्रे मा संदल मा अडी, भववादुस्सग्गियं सुतं ॥ ३०॥
निरवशेषारयभिधेयपदानि गृह्यन्ते, यथा यशवैकालिके कोप्रौत्सर्गिक सूत्रं गोचरं पयटतः साधोगहन्यापान्तरा- सोनियरिताः सम्तो भयं-संसारं निरव ले या निषधा-निषदनं तद्विषयम् । तमेवम्
गतिकमपि सिञ्चन्तीत्युक्तम् , तथा च तस्त्रम् "कोहा य नो कप्पाइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अनन्तरा गि- माणो य अणिग्गद्दीया,माया य लोभो य प्रहमाणा। चत्ता
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( ६४७) अभिधानराजेन्द्रः ।
सुप्त
रिपए कसिा कसाया. सिंचंनि मूलाई पुणम्भवस्स ॥१॥" अयोत्क्रमक्रमयुक्रानि दर्शयति-सत्यपरिष्ा । दुकम्मे, गोयरपिंडेसथा कमेणं तु । जं पिय उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादिट्ठा ||३४| परदेश वायुकायोदेशका क्रमप्राप्तोऽपि नोक्तः; किंतु वनस्पतित्र सकायोद्देशक प्ररूप्य पर्यन्ते स भवादिष
मेन भवन्ति यथाही गोचरभूमयः त था- "पडाश्रा श्रद्धपडा-गोमुत्तिया पत्तंगविहिया। अंतोसंबुका वा, बाहिं संबुक्का उज्जगीयं तु पव्वागं ।" तथा सप्तपिण्डेपापमपि मनिष मन्तव्य तथा"सट्टा असंसट्टा उठवडा श्रवलेवाङग्गद्दिता उज्झितधम्मिया ।" अथवा पिप्रथमं पिण्डप तत एवापदं यत्रीधनियादी सूत्रे यथाक्रमं प्ररूप्यते तत् मम चिकमक परिहाराय यने तदभिनवधर्माद्यर्थम् किमु भति अभिनयधर्माः समाचारजना पा युक्तोऽयं परिस्फुटमनुपलभ्यमानतया प्रथमतः प्ररूप्यमाणं न सम्यक् प्रतिपद्यते, अतो वनस्पतित्रसान् प्ररूप्य यदा तेषु सम्यग् जीवत्थं प्रतिपन्नस्तदा वायुकायं जीवत्वेन प्ररूप्यमाणं सुनेयादिभिः कामकरणं मन्तव्यम्। अथ 'बी' सूक्ष्या मूलमा पिया-बीए कंदमादी, विसूइया तेहि सव्ववणकाम | भोम्मादिगा बनाओ, सभेदसारोपणा भविता ||३५|| बीजेाः कन्दमूलादयोऽपि मेदाः सूचिताः तेष्वपि निष्ठतः प्रायश्चित्तं भवतीति भावः । तैश्च कन्दादिभिः सर्वोऽपि वनस्पतिकायः परीतानन्तमेभिः सुपितः तुस्पतिमा भीमादयः कायाः सूचिताः वर्ष सभेदा: -- मेदसहिताः पचि कायाः सारोपणाः समायचित्ता भणिता अवसातव्याः ।
जरथ उ दसग्गह, तत्थ बसेसाई पसे । मोनू अहिगारं अयोगधरा पभाति ॥३६॥ एयमचापि पत्र देश तथाशेपायपदानि सूचितस्वभावत्वप्रत्ययः ताशेनाय गन्तव्यानि तथा कुत्रापि सूत्रे अनुयोग अधिकार प्रस्तुता मुकन्या सूत्रानुपाति प्रसङ्गागतमर्थ प्रथमतः प्रभाषन्ते । यथा पिण्डाधिकारस्तुते " पुढची श्राउक्काए, तेऊबाऊवणस्सई चेष । विहयतिइस बउरो संधि-दिया य लेयो दसम ॥ १॥" इत्यादि स काय प्ररूपणा कृता । एवं विचित्राणि सूत्राणि भवन्ति । अत एव यावदमीषामर्थः सूर नव्हताच सम्यगवगमति । अधीन्सर्गिकपयाविषयविपविभागमाइउसणं भणिया-णि जाणि भववादतो य जाणि भवे । कारण जातेन मुखी, सव्वाणि वि जाणितव्वाणि ||३७|| उत्सर्गेणा यानि सूत्राणि भणितानि यानि चापवादः माथि सामि हे मुझे ! कारणजालेन सपि ज्ञातव्यानि । किमु भवति--प्रतिषिद्धस्पायरहेतुःकारणं नामादि गोस्वर्णकेषु माथि
"
सृत्त
"
यो निबन्धः श्रर्थतस्तु कारणजाते तत्राप्यनुज्ञा मन्तव्या । अपयापसूत्रेषु पुनः कारराजानमुद्दिश्य सासद निबन्धः अर्थस्तु तथाप्युत्सम इष्टव्यः। एवं सर्वत्रेषु तत्त्वत उत्सर्गापवादाषुभावपि निवडाव गन्तव्यौ । अत्र किं पुनरनयोः स्वस्थानमित्य ॥ ६ उस्सग्गेण निसिद्धा-इँ जाइ दव्वाइँ मंथरे मुणियो । कारणजाते जाते सव्वाणि विताणि कप्पंति ।। २८ ।। उत्सर्गेण संस्तरणमाश्रित्य यानि द्रव्याणि प्रलम्बादीनि मुनेः संयतस्य प्रतिषिठानि तान्येव कारणजाते- विशुडासम्बनप्रकारे जाते समय सति पर्याय कल्पते।
"
"
अथ परः प्रश्नयति
जं चिय पर्य सिद्धं तं चिय जति भूयों कप्पती तस्य । एवं दो अवस्था, ग प तिरथं शेष सम्यं तु ॥ ३६ ॥ देव प्रलम्बादिकं प्राप्तपूर्वे निषिद्धं तच यदि भूषःपुनरपि तस्य - साधोः कल्पते तत एवं सूत्रार्थस्य य च्छाप्रवृत्तो चरणकरणस्थानवस्था भवति ततश्च न तीर्थमनु जति नैव च प्रतिषिद्धं समाचरतस्तस्य असंयमो भवति, तदभावे दीक्षा निरर्थिका, तनिरर्थकतायां मोक्षस्याध्यभावः प्राप्नोति ।
उम्मतवायसरि
अपि चखुदंसणं यय य कप्पकन्यं तु । अह ते एवं सिद्धी, होज्ज सिद्धी उ कस्सेवं ॥ ४० ॥ आचार्यः पूर्वमेकत्र सूत्रे प्रतिषिध्य पुनस्तदेवानुज्ञायते इदं भयतो दर्शनमुन्यनवाक्य मोति तथा नापि मे कल्पमिदमकल्पमिति व्यवस्था भवति । यदि चैवमपि - वतः सूत्राभिप्रेतार्थसिद्धिर्भवति तर्हि कस्य न सा भवति चरकपरिव्राजकादीनामप्यसमञ्जसमलापिता सा भविष्यती
"
ति भावः ।
9
.
सूरिगहविकिंचियं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । एसा तेसि आया करजे सच्चे होतब्वं ।। ४१ ।। हे नोदक ! यदेतद्भवता प्रलपितं तत्प्रचचमरहस्यानभिशासूचक या जिनरेन्द्र याविधकारमा नापि दिपनीयमनुका कारना प्रतिषिद्धं किंतु पीताम् निश्चयवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाशा मन्तव्या । यदुत कार्ये ज्ञानादावालवने सत्येन सद्भावानुसारे साधुना नविन मातृस्थानता यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः । अथवा - सत्यं नाम संयमः तेन कार्ये समुत्पन्ने भवितव्यं यथा यथा संयम उरसर्पति तथा तथा कर्त्तव्यमिति भावः ।
"
शाह व बृहद्भाष्यकारः
कनाथादीयं सम्पुण होइ संजमो नियमा
,
जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्त्रयं होइ ॥ ४२ ॥ इनमेव भावयतिदोसा जेण निरुमं ति जेय खिति पुण्यकम्माई । सो सो मोक्षो, रोगावत्थासु समयं वा ॥ ४३
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सुस
येनानुष्ठामवशात्रशेषा दोषा रागादयो निरुध्यन्ते पूर्वोपत्रि तानि कर्माणि येन क्षीयन्ते सोऽनुष्ठानविशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः । रोगावस्थासु - ज्वरादिरोगप्रकारेषूपशमनमियोचितपद्यमाना व्याधिपरिहारायानुष्ठानमिव यथा तेन विधीयमानेन ज्यरादिरोगा तयमुपगच्छति प मुत्सर्गे उत्सर्गम् अपवादे अपवादं समाचरतो रागादयो दोषा निरुध्यन्ते पूर्वकर्माणि च क्षीयन्ते । अथवा यथा कस्या पिरोगिणीषधादिकं प्रतिषिध्यते कस्यापि पुनः त वानुज्ञायते, एवमत्रापि यः समर्थस्तस्याकलां प्रतिषिध्यते असमर्थस्य तु तदेवानुज्ञायते च परा"उत्पाद्येत हि सावस्था, देशकालामयान् प्रति । श्रतश्चैवमका
•
CLUE ) अभिधान राजेन्द्रः ।
कार्यचापि विवर्जयेत् ॥२॥ एवंविधं योगावि भागमगीतार्थो न जानाति । वृ० २३० नि०० । उत्सर्गेऽपापा वा उत्सर्गे कुर्यात् इति 'कष्पीभ २२३ पृष्ठे मतम् ) ( पञ्चप्रकारे सूत्रं वाचदिति
,
3
वायणा' शब्दे षष्ठभागे उक्तम् । ) पञ्चभिः स्थानैः सूत्र शिक्षेदिति 'सिक्खा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम् । ) ( दृष्टिवादस्य अष्टाविंशतिसूत्राणि दिवाय शब्दे २५१४ पृष्ठे उक्कानि ) ( पूर्वमा इति 'अणुश्रोग' शब्दे प्रथमभागे ३४४ पृष्ठे गतम् । ) इदाि सुत्तं भक्षति तथा च "नंदिमश्रगदारं, बिहिवादुवघाति यं च यातू । कातूण पंचमंगल-मारंभ हानि सुत्तस्स ॥ १ ॥ कतपंचनमोकारो, करेति सामाइयं ति सोऽभिहितो । सामाह यंगमेष प. सोसे तु तं ॥२॥ प्रागुपदपथ सुत्ताणुगमे सुत्तालावगंमि निष्फलो निक्लेवो सुन्तभास्वियनिज्जुती समकं गमिस्संति । श्रा० चू० २ श्र० । उत्त०] "सुतं सुत्तागुगमो, सुत्तालागको य निखेयो । फासिज्जु-मिया समतु पनि का चिदपि सूत्रं विषमं न भवति । व्य० १ ० । नि० चू० ।
सूत्रस्यान्यथा व्याक्याने प्रायश्वितम्
से भयवं ! जेणं केइ आयरिएड वा गणहरेइ वा असइ कहिं चि का तहा संविदागमासज इसमा निम्गन्धं पवयमा पद्मवेज से गं किं पावेखा ? गोमा जं साब जारिएणं पावियं । महा० ४ श्र० । यथासूत्रमर्थः करणीयःआयरियपरंपरए- आगयं जो उ छेयबुद्धीए । को वेइ छेयवाई, जमालिनासं स खासिहिति ।। १२५ ।। आचार्थी:- सुधर्मस्यामिजम्बूनामप्रभवार्थरहिताचाय प्रणालिका - पारम्पर्यं तेनागतं प व्याख्याने सुत्राभिप्रायः तद्यथा-व्यवहाराभिप्रायेण क्रियमाणमपि कृतं भवति । यस्तु कुतर्कदपध्मातमानसो मिथ्यात्यो पद्दतहष्टितया छेकबुद्धया निपुणबुद्धया कुशाग्रीयशेमुषीकोऽहमिति कृत्या कोपयति दूषयति-सम्पदा समर्थ सर्वश गीतमा कृतं कृत्यमित्येवं पा
यति
न हि मृत्पिण्डक्रियाकाल एव घटो घटो निष्पद्यते कर्मभ्यपदेशानामनुपलधिः स प यादी-निपु
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सुप्त मियादी जमालिनाश-जमात् सर्वमविकोषको नियति-टीयायेन संसारचक्रवाले भ्रमिष्यतीति । न चासी जानाति वगकः, यथा श्रयं लोकी घटाथाः क्रिया मृत्खननाद्या घट एवोपचरति, (तस्वतः) तासां च क्रियाणां क्रियाकालनिष्ठाका लयोरेककालत्वात् क्रियमाणमेव कृतं भवतिने वहा लोके, तद्यथा देवद से निर्गत कान्यकुजे देश - कोक्त्या ) तथा दारुणि छिद्यमाने प्रस्थकोऽयम् ( इति ) व्यपदेश इत्यादि ।
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साम्प्रतमन्यथावादिनोऽपायदर्शनद्वारेणोपदेश
दातुकाम आह
करेति दुक्खमोक्खं उज्जममाशोऽवि संजमतवेसुं । तुम्हा अनुकरियो वन्यो जतिजां ।। १२६ ।। यहि दुर्गृहीतविद्यावदपध्मातः सवशवचनैकदेशमध्ययथाव्यास एवंभूतः सन् संयम कुर्या सोऽपि शारीरमानमानां दुःखानामसातोनोक्षं विनाशं न करोति आत्मगर्वाध्मातमानसः, यत एवं तस्मादात्मोत्कर्ष अमेय सिद्धान्तादी गाउपि स् मनुयाऽस्तीत्येवंरूपोऽभिमानो वर्जनीयः स्याज्य पतिजनेन - साधु लोकेन । अपरोऽपि ज्ञानिना जात्यादिको म दोन विधेष किं पुनर्ज्ञानमदः तथा चक्रम्-ज्ञानं मद दर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ? | अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ? ॥ १ ॥ सूत्र०१ श्रु० १३०॥ (सूत्रं देवनाधिष्ठितमित सराय' शब्दे (सूत्रार्थयोः को महान् होत असेस' शब्दे प्रथमभागे २४ पृष्ठे गतम् । ) ( सूत्रमर्थो वा बलवान् इति ' खत्त' शब्दे तृतीयभागे ७६६ पृष्ठे उक्तम् । ) यस्य सूत्रस्य कर्त्ता नोपलभ्यते तस्य गणधरः । प्रति सूत्रं विधे शासूत्रादि ० । प्रथमतः संज्ञासूत्रमाद्द
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उवयार निरया, कत्थीदाण मा हु निच्छका | जे दे आमगंधा दिया सामु ते ।। २१६ ।। सामायिक सूभयते तत् सूत्र पथा 'जे छे से सागारियं परिहारे' तथा 'आमगंधा' इति सम्यामगंधं परिज्ञाय निरामगंधो परिव्यय ' तथा 'आरं' ति श्रारं दुपारंगसमिति ष: देस लागारिकः मिथुनं 'प रियारे' परिवर्जयति तथा श्रममविशोधिकोटिगन्धंविशोधिकोडिः, परिक्षा द्विविधा परिक्षा प्रत्याख्यानपरि ज्ञाच । तत्र शपरिक्षया सर्वमामगन्धं परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्याय निरामगन्धः सन् परि-समन्तात् परिजेहिरेदित्यर्थः। धारः - संसारस्तद् वि रागेण दोषेण च परिवर्जयति । पारं मोक्षस्तमेकेन गुणेन रागद्वेषपरिहारलक्षणन साधयति । श्रथ कः संज्ञासूत्रेण गुण इत्यत आह-उपारं त्यादि पूर्वा संज्ञावचने दि कपि जुगुप्सितेऽर्थे प्रयुज्यमानं तद्विषयमुपचारवचनं भवति । उपचारयचनेन च मध्यमाने तस्मिन् जुगुप्सिन निष् रतेति अनिष्ठुरता, तथा कार्ये समापतिते स्त्रियाः सा सूश्रदानमाहुः पूर्वसूरयः, ततस्तस्याः साधुसमीपे पठन्त्याः सुखेनालापको दीयते । श्रन्यथा व्यक्तमभिधीयमाने कथा भि
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अभिधानराजेन्द्रः। मा भवति । ततः सा निश्छेका-निलजा जायते । यादृशं च | था-कप्पा मिग्गंधीण अंतोलि परिममय धारिसए"काले' कार्ये साध्वीसमीपे पठति तदुपरिणादयते तेन संज्ञा
ति--कालविषयं किमपि सूत्रं यथा--अनागतं कालमङ्गीसूत्रमिष्यते । कारकसूत्र नाम यथा पाह-"कम्मं न भुज्ज- कृत्य।"नयालभेजा निउणं सहाय.गुणाहियं या गुणामो सम माणे से समणे णिग्गंधे कर कम्मपगडीमो बंधति, गोयम्मा । पा।" इत्यादि । 'अयणा'ति-पचममेकाहियायचमाविकं पोर पाउबज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति । से केणट्रेण भंते ! शधा यथा--पीठिकायां तथा तत्प्रतिपावकं सू-यथा माएथ वुच्चई" त्यादि,प्रमोगलापकः। ननु सर्वप्रमाण्यादेव- चाराले भाषाध्ययने 'पगषयणं वयमाणे एगषयण पपजा तत् श्रद्धीयते यथाऽऽधाकर्मभुआन प्रापुर्जानां सप्ताना दुययणं क्यमाणे दुवयण पपज्जा बहुषयणं षयमाणे बहुषकर्मप्रकृतीनां बन्धकस्ततः कस्मादुच्यते केनार्धन भवन्त ! यसं वइजा इत्थीचयणं ययमाणे इत्थीययणं' "इत्थी" इत्यापवमुच्यते इत्यादि।
दिमादिशब्दाद्भूयः सूत्रादिपरिग्रहः । इत्थमनेकधा सूत्राणां संभवे तदर्थश्रयणमन्तरेण न शक्यते कीरशमिति विवेकःक
तुमिति कर्तव्यमर्थग्रहणम् । अथ ते शिष्या युः । यः कण्ठतः सब्बएणुप्पाममा, जइ वि य उस्सग्गतो सुयपसिद्धी।
सूत्रे निबद्धोऽर्थस्तेनैव वयं तुष्टाः किमस्माकं दुरधिगमत्यावित्थरोऽपायाण य, दरिसण मिइ कारगं तम्हा।३२०। दहुपरिफ्रेश 'मजणनिसणजमक्खा' इत्यादि प्रक्रियापुरयद्यपि सर्यशप्रामाण्यादुत्सर्गत एकाम्तेन भुतस्य सर्वस्या- सरमर्थप्रहणप्रयासेनेति ते इत्थं युवाणाः प्रक्षापयितव्याः। पिप्रसिद्धिः तथापि विस्तरतोऽपायानां दर्शनं स्यादिति ,
कथमित्याहतस्मादधिकृतार्थप्रसिद्धिकारकम् ‘से केणमि स्याविसूत्र- जे सुत्तगुणा खलु ल-क्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाई य । मुपन्यस्यते ।
अत्थग्गहणमराला, तेहिं चिय पमविअंति । ५२२।। इदानी प्रकरणसत्रमाह
पीठिकायां लक्षणद्वारे ये सूत्रस्य गुणाः " निहांसपगरणभो पुण सुत्र्त, जत्थ उ अक्खेवनिमयपसिद्धी। सारवंतं च" इत्यादिना कथिताः । गद्वा-- सुत्तमाईय' नमि गोयमकेसिज्जा, अद्दगनालंदइजाय ॥ ३२१ ।। त्ति--"सुतं तु सुतमेव उ" इत्यादिना प्रतिपादिताः तैरेष प्रकरणतः सूत्रं नाम यत्र-खसमय पवाक्षेपनिर्णयप्रसि
हेतुभिरर्थग्रहणे मरालाः अलसाः शिष्याः प्रज्ञाप्यन्ते । यथा शिरुपयर्यते , यथा नमिप्रवज्या गौतमकेशीयम , आईकी.
भो भद्रा! निदोषसारवद्विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य गुणा भवयनालन्दीयमिति । तदेयमुक्रं संझादिभेदतस्त्रिप्रकारं सूत्रम्।
न्ति । ते च यथाविधे गुरुमुखार्थे श्रूयमाण एव प्रकटीभवन्ति। १०१ उ०१ प्रक०। (उत्सर्गागवादभेदतो द्विविधसूत्राणि
किंच यथा-वासप्ततिकलापरिडतो मनुष्यः प्रसुप्तः सन्न कि'उस्सग्ग' शब्दे द्वितीयभागे ११६७ पृष्ठे गतानि ।)
चित् तासां कलानां जानीते पवं सूत्रमप्यर्थेनाबोधितं सुप्तसनाइँ सुत्तससमय, परसमोसग्गमेव अववाए।
मिव द्रष्टव्यं विचित्रार्थनिबद्धानि सोपस्कराणि च सूत्राणि
'भवन्ति, अतो गुरुसम्प्रदायादेव यथायदवसीयन्ते यतः, तत होणाहियजिणथेरे, अजाकाले य वयणाई ॥४२१।।
इत्थं युक्तियुक्कैचोभिः प्रशापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यते इह मौनीन्द्रे प्रबचने अनेकधा सत्राणि भवन्ति तत्र
गुरूणामुपदेशं गृहन्ति द्वादश वर्षाणि विधिवदर्थमिति । गत. किंचित् संहासूत्रं यथा “ यो छए से सागारियं न सेवे",
मर्थग्रहणद्वारम् । वृ०१ उ०२ प्रक० लक्षणे, स०२८ सम०। यश्छेकः-पण्डितः स सागारिक मैथुनं न सेवेत । अथवा
धर्मार्थकामार्जनोपायप्रतिपादनपरे प्रम्थे, प्रा०म०१०। • सव्वामगंध परित्राय निरामगंधो परिब्बए' प्रामम्-अ
सूक-न० । सुभाषिते, अष्ट० ६ अप० । यिशोधिकोटिः गन्धं-यिशोधिकोटिः, तथा "श्रारं दुगुणवं पारं एगगुणेग" श्रारं संसारस्तं द्विगुणेण रागद्वेषयगलेन
|सुत्तक-सूत्रक-न० । कटीसूत्रके,प्रश्न०४ माथद्वार। पारं निर्वाणं तदेकगुणेन रागद्वेषपरिहारलक्षणे जीवः प्रा- |
सुत्तकड-मूत्रकृत--नासूत्रानुसारेण तस्यायबोधः क्रियते - मोतीति गम्यते,आदिग्रहणाद्देशीभाषानियतं सूत्रं गृह्यते.य- स्मिन्निति स्वनामख्याते द्वितीयेले.सूत्र०१०१०१०। था "दिगिंछा परीसहे" दिगिछेति-बुभुक्षा स्वसमयसूत्रं यथा सुत्तकप्प--सूत्रकन्प-पुं०। सूत्राध्ययनसामाचार्याम् ,पं० भाग "करेमि भंते! सामाइयमि"त्यादि परसमयसूत्रं यथा"पंचख. ... ... ... अधुणा,सुत्तकप्पं तु बोच्छामि । धे ययंतेगे,वालाइ रणजोइणो।" उत्सर्गसूत्रं यथा"अभिक्खणं
जे तस्स हाँति विधयो, अहिजए जेण वा विधिणा ।। निधिगयं गया य"इत्यादि अपवादसूत्रं यथा-'तियह समयरागरस, निसिज्जा जस्स काई । जराए अभिभूयस्स,बाहि
दुविहम्मि पागमम्मि, सुत्ते अत्थे य जे जहिं भावा । यस्स तयस्सियो"हीनमिति-हीनाक्षरं यैरक्षरैबिना सूत्रस्या.
मुत्तममुसकडाणं, पवित्थर ताण भत्थेणं ।। थों न पूर्यते।अधिकमित्यधिकाक्षरम् ,एवंविधं यत्पूर्वमहानतः
वित्थरो याम सुत्तम्मि, गहिए अत्थो तु दिजती। सूत्रमधीनं तस्यार्थ सम्यगवगम्य हीनं प्रतिपरयति अधिक मुत्ने महिजियब्वे य, मजादा तु इमा भवे ।। परित्यजति । जिनकरिषकसूत्रं यथा-"तेगिन्छन भिन्नं वि
पडिलेहण काऊणं, सज्झायं पडवे तुवढादि । जा, संविक्खत्तगयेसए । एवं खु नस्स सामनं, ज न कुजान
पायरियादि णिसेज, करेति पच्छा य सज्झायं ।। कारखे।"स्थविरकल्पसूत्रं यथा-'भिक्खू इच्छिज्जा अन्नपर तेगिकछ भाउ वित्तए"अथवा-जिनकल्पस्थयिरकल्पयोः सामा
पोरुसि सातुं सातुं, चरमाए पुडियपत्तपडिलेहे। भ्यस्त्रमिदम-' मम्मट्ठकप्पेण चरिज्ज भिव' पासूत्रं य- ताहेतु मत्थपोरुसि, इमिया विहिणा करेंती त॥
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सुत्तरुप्प
( १५० ) 'अभिधानेराजेन्द्रः ।
काउस्सग्गोयकथा य विकंदा विसोनिया पती। अबुट्टा वा को लगा व अक्खेवमाहरणा || विय सुतकप्पो, सो इन्भगमंडलीमराइणिए । अणुयोगम्मता, कितिकम्मं होति कायन्त्रं ॥ पं० भा० ४ कल्प |
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इयां सुपाड़ा-दुनिए सुने - विहे यागमे जहिं भाववत्तिया सुतं सुत्तकडस्ल दिजइ । पवित्थरो नाम सुत्ते गाहिए ताहे त्यो दिजर जं जेण अहिजिये । गाहा— काउस्सगंग सुत्तं पढियवं । मज्जाया भन्नाले गुरुपरमाई उपसा
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दस
पटुवेडं निसेज्जं आयरियागं काऊ पृच्छा सज्झापट्ट बणियार काउस्सग्गे कप समागे वक्खेवो न कार्यव्वो । वि कहाओ यहीका विसोतिया नाम-सोता हीरंति, अभुट्टा बाउलणा जइ भुट्टेह सुत्तपोरुसीए मासलहुं, अत्थपोसीए मासगुरु । श्रयरिश्रो उवउतो श्रासायं देह मंगाया बाल भंग राहतो फिर जिस्स सहावे खुर्द से मोग से पवन उद्दे, तितिकरो | आयरिश्रो तित्थकरद्वाणे इयरे गणहरा निसामेतया किंचि श्रभुद्राणे वाउलगाए दोसा । श्रायरिनो श्रक्खेवा श्राहरणा वा उस्सग्गेण वा श्रववारण या रोगापातो वा मेडिकामा बालासन गति दिन वारियार जडा र गस्स कुटुंबियस्त धंन जाए अत्थारियाश्रो पारियाण यस व सेयहत्थी दिट्ठो । भणियंत्रण - श्रहो से यहत्थी दरिसणिज्जो ते लावया तओ हुत्ता य, जोइया दिवसो हत्यिकहाए चैव गओ । तं पि छेत्तं न लूगं । एवमत्थमण्डली विवाहा म भतस्स वा पराहुस्सइ । विश्यपए जहा पलंबसुते समत्ते ववद्दारस्स वा पढमसुत्ते समत्तं आरोवणासु का समत्तासु कालवेला या जस्स वा पागो मा कन्जेस अम्भूको गावि
सुयको सो य रायणियार जो य उट्टिया अणुश्रोगमंडली अणुभासह तस्स किइकम्मं काय । एस सुयकप्पो पं० चू० ४ कल्प । सुनकपिय-सूत्रकल्पिक पुं० सूत्रमाशतरि १० सूत्रकल्पिकमाह
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सुनरम करितो खलु आवस्यगमादि जाय आवारो। ते परं यरिमादी, पकप्पमादीऍ भावेणं ॥ ४०८ ॥ आवश्यकमादि कृत्वा यावदाचारस्तावन्सर्वोऽपि सूत्रस्थ कल्पको भवति नारकोऽपि पठन विनिवार्यते ततः परं त्रिवर्षप्रव्रजितमादिं कृत्वा यत् यत् व्यवहारे दशमोद्देशकपर्यन्ते यथा भणितं तत्तथा उपदिश्यते यावद्विशतिवर्षपर्यायः सर्वश्रुतानुपाती भवति । न घरमाचाकल्पमादि कृत्वा याम्यपवादबाहुलान्यध्ययनानि यानि निशान्यरूपी यदा भावे परिणत भयदिहियन्ते ।
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सुतत्काव्य त्रिषु वर्षेष्वपरिपूर्णेचाचारे पठिते कि कुर्यात सुतं कुणति परिणतं, तदत्थगहणं पन्नगाई वा । इति अंगज्भय, होति कमो जाइयो नायं ॥ ४०६ ॥ यत्पठितं सूत्रं तत्परिजितं कुर्यात् दिया तस्य सूत्रस्यार्थप्रद- विदध्यात्मककादि वा सुतोऽधीते एवमङ्गानामध्ययनानां वातिशायिनां यावत् कल्पिको भ वति तावदेष क्रमो ज्ञातव्यः । जाहकज्ञातं चात्र-पूर्वोपन्यस्तमुपन्यसनीयम् । जाहक इव परिजितौ सूत्रार्थी कुर्यादिति भावार्थः । वृ० १३० १ प्रक० ।
सुनतिकहा- मुनृपकथानक न० शय्यायपस्थितनृपतिश्रव्याऽऽख्यायिकायाम्, पो० ६ विव० । ( 'सुस्सा' शब्देऽमिव भागे कथनकं वक्ष्यामि । ) सुनगिद्ध सूत्रनिषद् शासन १८० । सुत्तणित्राय-सूत्रनिपात-पुं० । सूत्रावतारे, वृ० १ ० २
प्रक० ।
1
सुत्तसी-ब्रजनीति स्त्री० आगमन्याये पञ्चा० १० सुवत्थ छत्रार्थ पुं० सूत्रं च अर्थ निर्युक्रिमायसंग्रह सिचूर्णिकादिरूप इति सूत्रार्थी शब्दवाप्ययोः स०६
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सम० । व्य० ।
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सुत्तत्थकप्पिय – सूत्रार्थकल्पिक - पुं० । स्वार्थतदुभयसामाचारीज्ञातरि वृ० ।
"
अधुना तदुभयकल्पिकमाहतदुभयकप्पियतो तिगम्मि एमाहिए ठाणेसुं । पम्म जभीरू, ओम्मं अवइरेहिं ।। ४११ ।। तदुभयं सूत्रमर्थं च तस्मिन् कल्पिको युक्तः । किमुक्तं भवति-यो द्वापि षार्थी युगपद् प्रहीतुं समर्थः स तदुभयक ल्पिकः । अथवा तदुभयकल्पिकः- त्रिके एकाधिकयोः स्थापनो के नाम-सूत्रधिकः श्रर्थादधिकमुभयम् । एवमकस्मादर्थाधिके ये उभे स्थाने सूत्रार्थरूपे तत्र युक्तो योग्यः तदुभयकल्पिकः । श्रथवा- प्रियधर्मा इति चत्वारो भङ्गाः सूचिताः । प्रियधर्मा नाम को न दृढधर्मा । दृढधर्मा नामैको न प्रियधर्मा । एकः प्रियधर्माऽपि हृदधर्माऽपि । एको न प्रियधर्मा नापि दृढवमात्र यस्तु शेषमपित एकस्यादेकैकगुणयुक्तात् स्थानात् प्रथमभङ्गरूपात् द्वितीयभङ्गरूपाद्वा ये श्र धिके स्थानेषधर्मत्वमेतयोर्युक्तः स च नियमादयधभी गर्भवति कर्मच अभी" भयकल्पिकः प्रतीपम्पमा कर्णाभ्याहृतं सूत्रं कृतवान् पश्चात्तस्य उद्दिष्टसमुद्दिष्टमनुज्ञातमर्थश्च द्वितीयायां कथित एवमन्यस्थापि द्रष्टव्यम् ।
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"
तथा चाह
पुव्यभवेऽपि अही कम्पाहडगं च बालभावम्मि | उत्तममेहाविस्स वि, दिजति सुतं पित्थो वि ।।४१२ ॥ यस्य पूर्वमधीमागच्छति वासभा या तस्य उत्तममेधाविनो वा युगपत्स्नमपि अर्थोऽपि च दी
तं
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सुत्तफा
सुत्तत्थकप्पिय
अभिधानराजेन्द्रः। बते एप उभयकल्पिकः । १०१३०१ प्रक० । नं। सुत्तफासियणिज्जुत्ति-सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति-स्त्री० । सूर्ण स्मृसुतस्थकहणा-सूत्रार्थकथना-स्त्री० । व्याख्याने , ध० ३ | शनीति सूत्रस्पर्शिका, सान नियुक्तिश्चेति सूत्रापशिकनियुअधि ।
निः। सूत्रव्याख्याने, "अहुणा सुत्तफासियणिमहती सुत्तसुत्तत्थकीसल-सूत्रार्थकौशल-न । सूत्रार्थतदुभयपरीक्षणे, वक्खाणं " विशे० । प्रा०म०। ('णिज्जुत्ति' शब्द चतुर्थदर्शवासूत्रम्-जिनागमः तत्र कौशल्यं कुशलतां जानाति यथे। भाग २०६१ पृष्ठ दर्शितषा ।) पूर्वापराव्याहतत्वेन जिनशासनमेव । यत्पुनरम्यारशे स्मृतिवेसुत्तफा(फा)सियाणिज्जुसिमागम-सूत्रस्पर्शिकनियुक्तचनदबाक्यादिवत् पूर्वापर व्याहृतियुक्तं न तदागम इति । कुशल-गम-
पंसत्रावयवाना नयैः साक्षेपपरिहारमर्थकथने, आ. विषयविभागवेदिनि उत्सर्गापवादशातरि, दर्श० ३ तत्व। चू. १ अाअनु०) सुत्तत्थगहियपेयाल-मूत्रार्थगृहीतपेयाल-मिका सूत्रार्थयोहीतं पेयाल-परिमाणं यन स सूत्रार्थगृहीतपेयाखः । सम्य
से किं तं सुत्तप्फासिंनिज्जुत्तिणुगमे १, सुनप्फासियग्बिनिश्चितसूत्रार्थे , न्य. ३ उ०।
खिज्बुत्तिणुगमे सुतं उच्चारेमध्वं मक्खलिर्भ अमिलिसुत्तत्थतदुभयविउ-सूत्रार्थतदुभयविद्-पुं० । सूत्रं च अर्थश्च अं अन्यच्चामेलि पडिपुण्णं पडिपुराणघोसं कंठोडविप्पततुभयं चेति तच्च तत्सूत्रार्थलक्षणम् , उभयं च सत्रार्थत- मुक्कं गुरुवायणोवगयं, तमो तत्थ णजिहिति ससमयपयं दुभयानि विदन्तीति सूत्रार्थतदुभयविदः। सूत्रे चिन्तायां वा परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइभपयं सूत्रस्यार्थचिम्तायाम् अर्थस्य तदुभयचिन्तायां तदुभयस्य वा णोसामाइअपयं वा । तमो तम्मि उच्चारिए समाणे शातरि , व्य १ उ०।
केसिं च णं भगवंताणं केइ अत्थाहिगारा अहिंगया भमुत्थपडिबद्ध-सूत्रार्थप्रतिबद्ध-त्रि० 1 सूत्रार्थयोः प्रतिबद्धः
वन्ति,केइ अत्थाहिगारा अणहिगया भवन्ति , ततो तेर्सि सूत्रार्थप्रतिबद्धः । गृहीतसूत्रार्थे , नि० चू०१० उ० ।
अणहिगयाणं अहिगमणाए पयं पएणं वनइस्सामिसुत्तत्थपरूवणा-सूत्रार्थप्ररूपणा-स्त्री०। सूत्रार्थतदुभयानां क. थने, सुसंवा अत्थं वा तदुभयं या परवेजा कुलगणसंघ
"संहिया य पदं चेव , पयत्थो पयविग्गहो । चालमा य वज्जो'। महा० १ चून
पसिद्धी प्र, छविहं विद्धि लक्खणं ॥१॥" से सुत्तसुत्तत्थविय-सूत्रार्थविद-पुं० । उचितसूत्रार्थक्षातरि, ध०३ |
फासियनिज्जुत्तिअणुगमे । (सू० १५५ +) अधि०।
आह-मनु यदि यथोक्लनीत्या सूत्रानुगमे सत्येव सूत्रस्पसुत्तत्थमासय-सूत्रार्थभाषक-पुं०। सूत्रार्थ प्रवचनार्थ भाष- शिकनियुक्त्या प्रयोजन , तर्हि किमित्यसाबुपोद्घातनियुते बक्ति इति सूत्रार्थभाषकः । यथायस्थितागमार्थप्रशापके
क्त्यनन्तरमुपम्यस्ता? , यावता सूत्रानुगमं निर्दिश्य पश्चासूत्रस्यार्थस्य तदुभयस्य च सापके, ध० ३ अधिः ।
त्किमिति मोच्यते ? , सत्यं किन्तु-नियुक्तिसाम्यात्तत्तपं० चू०।
स्ताव एव निर्दिष्त्यदोषः । प्रकृतमुच्यते-तत्रास्खलिता
दिपदानां व्याख्या यथेहैव प्राग्द्रव्यावश्यकषिचारे कृता सुत्तत्थविसारय-सूत्रार्थविशारद-पुं० । सूत्रार्थयोर्विशारदः
तथैव द्रष्टव्या , अयं च सूत्रदोषपरिहारः शेषसूत्रलक्षणसूत्रार्थविशारदः । व्य०३ उ० । सम्यक्सूषार्थतदुभयकुशले,
स्योपलक्षणम् , तदम्-- व्य. २.उ०। पं० भा० । पं० चू० । सूत्रस्यार्थस्य तदु
"अप्पग्गंथमहत्थं, बत्तीसदोसविरहियं च । भयस्य च शापके , नि० चू०१ उ०।
लक्खणजुतं सुत्तं , अट्ठहि य गुणाह* उपवयं ॥१॥" मुत्तत्थाणुसरण-सूत्रार्थानुस्मरण-न० । सूत्रार्थयोरनुचिन्त-.
अस्था व्याख्या--अल्पग्रन्थं च तत् महाथै चेति सने, पञ्चा० १८ विव०।
माहारद्वन्द्व : * उत्पादत्ययधीव्ययुक्त सदि' स्यादिवत्सूत्रसुत्तदोस-सूत्रदोष-पुं० । द्वात्रिंशत्सूत्रदोषे, विश। अनु। मल्पग्रन्थं महाथै च भवात्यर्थः, यरुन द्वात्रिंशदोषविरहिसुत्तधर-मूत्रधर--पुं० । सूत्रमात्रपाठके , स्था० ४ ठा० १ उ०।
तं तत्सूत्र भवतिके पुनस्ते द्वात्रिंशदोषाः ये सूत्र वर्जनी
याः , उच्यतेसुत्तपरिकुट्ठ-मूत्रपरिकुष्ट-त्रि० । आगमनिषिद्धे , प्रश्न० ३ सं.]
“अलियमुवधायजण, निरस्थयमवस्थ छल दुहिलं । व० द्वार।
निस्सारमहियमूर्य, पुखरु बाहयमजुनं ॥१॥ सुत्तपेढिया-सूत्रमीठिका-स्त्री०॥ निशीथकल्पव्यवहारप्रथम- कमभिनवयणभिनं, विभक्तिभित्र च लिंगभिमंच। पीठिकागाथारूपायां पीठिकायाम् , व्य०१ उ०। नि०चूल।
प्रणभिडियमण्यमेध य, सहविहीण वहियं च ॥२॥
कालजतिच्छविदोसो, समयविरुद्धं च ययणामसं च। सुत्तपोरिसी-सूत्रपौरुषी--स्त्रीका सिद्धान्तोक्तविधिना स्वाध्या- अत्थावत्तीदोसो,नेत्रो असमालोसोय॥३॥ यप्रस्थापने. इयं च मण्डली सूत्रमण्डलीत्युच्यते साचाधेपी- उपमारूषगदोसो , मिइसपयत्वसंधिदोसोय । रुषीप्रमाणेति । पाद्या पौरुष्यपि सूत्रपौरुषीत्युच्यते। ध०३ | एए प्रसुत्तदोसा , बत्तीसाहुति नाक्या ॥ ४॥" अधि०। प्रव०।
तपानृतमभूतोद्भावनं भूतनियश्च , यथा ' बरकत
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सुत्तफा●
जगदि स्पायभूतोद्भावनं, मास्त्यात्मेत्यादिकस्तु भूतमिव | १, उपघातः-सस्य घातात्रि:, तज्जनकं यथा वेदविहिता हिंसा धर्मायेश्यादि २, निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशमाममुपलभ्यते मत्वर्थी पथा अ आ इ ई इत्यादि ि ३, असम्बद्धार्थकमपार्थकं यथा दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिने पललपिएरकोटिके दिमुदीचिमि त्यादि ४ यत्रानस्यार्थान्तरस्य सम्मा पघातः कर्तुं शक्यते यथा नवकम्बलो देवदल इत्यादि ५ जन्तूनामहितोपदेशकत्वेन पापव्यापार पोषकं यथा पायानेच लोकोऽयं यायामि
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( ६५२ ) अभिधान राजेन्द्र
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भद्रे ! ब्रुकपत्रं पश्य यद्वदन्त्यबहुश्रुताः ॥ १ ॥ विवखाद बारुलो! यदतीतं बरगात्रि ! तन ते। न हि भीरु ! समयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ २ ॥ इत्यादि ६, घेश्यनादियत् तथाविधयुक्रिरहितं परिफल्गु निःसारम् ७, अतरपदादिभिरतिमाश्रमधिकम् तेरे दीनम् नम् अथ वाहतो तस्य वाऽऽधिक्ये सत्यधिकं यथा - अनित्यः शब्दः कृतकल्यम्यज्ञानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि, एकस्मिन् साध्ये एक एव हेतुर्दष्टान्तश्च यशव्यः अत्र प्रत्येकं इयाभिधानादाधिक्यमिति भावः । हेतुरनन्ताभ्यामेष होम-कर्म यथा अनित्यः शब्दो घटपतिनित्यः शstः कृतकत्वादित्यादि पुनरुक्तं द्विधा -- शब्द तोऽर्थतब्ध तथाऽर्थादापन्नस्य पुनर्वचनं पुनरुकं तत्र शब्दतः पुनरुकं यथा घटो घट इत्यादि अर्थतः पुनरुकं यथा घटः कुटः कुम्भ इत्यादि अर्थादापनस्य थानोदयान मुत्यु
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"
• रात्रौ भुङ्क्ते इति तत्रार्थापनमपि य एतत्साक्षाद् ब्रूयातस्य पुनरुक्ता १०, व्याहतं यत्र पूर्वेण परं विहन्यते यथा'कर्म चास्ति फलं चास्ति, कर्ता न त्वस्ति कर्मणा 'मित्या
११. अयुक्तमनुपपतिक्षमं यथा-'तेषां कटतट भृष्टैर्गजामरिया १२. कमभि यत्र मो
पथा परमप्राणः त्रासामर्थाः परसगन्धअपराध इति परस्परूपधरा इति यात् इत्यादि १३ यत्र पचनव्यत्ययो यथा वृक्षाः ती पुष्पितः इत्यादि १४, विक्रम विपि यथा वृक्षं पश्य इति वक्तव्ये वृक्षः पश्य इति ब्रूयादित्यादि १५. लिङ्गमि यत्र लिभ्यत्ययो यथा श्रयं स्त्रीत्यादि १६. श्रनभिहित: पदपथाः पार्थो शपथ - तिरुपधि साप दुःमार्गनिरोधरामरायातिरिकं या बीजत्यादि १७ पोऽधिकार tsधकार छन्दोऽभिधानं तदपदम् यथाऽऽर्यापदेऽ मध्ये येनासीद्यादित्यादि १८ पत्र वस्तुस्वभाषोऽन्यथा स्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत्स्वभावही मं यथा शीतो हि मूर्तिमदाकाशमित्यादि १६, प्रकृतं स्याकृतं व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमु यते तद्वहितम् २०, कालदोषो यद्वातीतात्रिकालव्यत्ययो यथा रामो वनं प्रथिश्रेशेति वक्तव्ये रामो बनं २१. तनोतिः सर्वारिनि
यत्र
सुतफा०
र्यम्, येशेषिकस्य वा सहिति २४. वचनमा निर्हेतुकं यथा कश्चिद्यथेया कश्चित्प्रदेशं लोकमध्यता जनेभ्यः प्ररूपयति २५. पापथा कुक्कुटोन तथ्य इत्युक्रेऽर्थापत्या पातोड २६ समासविधिवासी समासं न करोति उपत्ययेन वा करोति तासमासः २७ उपमादोषो प
मोम पिते तथा मेरुः सर्पपोपमः अधिकोषमा या क्रियते, यथा सबैपो मेरुसन्निभः, अनुपमा वा यथा मेरुः समुद्रोपमइत्यादि २० पदोषः स्वरूपभूतानामपान व्यत्ययो यथा पर्वते मिरूपयितव्ये शिखरादींस्तदवयवात्रिरूपयति, अभ्यस्य वा समुद्रादः सम्बन्धिनोऽवयवस्त
नीति २८. निर्देशदोषस्तन यह निर्विपदानामेकवाक्यता न क्रियते, यथेह देववतः स्थास्यामोदनं पचतीस्वभिधातव्ये पचति ३० - स्तुति पयोऽपि न पदार्थान्तरन्येन कल्प्यते यथा स तो भावः सत्तेति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेपिके पसु पार्थेषु मध्ये परार्थान्तरत्वेन ते ता युक्रम वस्तूनामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थानस्यप्रसङ्गादिति ३१ यह सात तं न करोति या करोति तस दोषाः पतेर्विरहितं सूत्रम् । अष्टाभिश्व गुणैरुपेतं यत्तलक्षणयुक्तमिति वर्तते । ते मे गुणाः" निहोसार उलमकिये उपणीयं सोयारं च, मियं महुरमेव य ॥ १ ॥ " तन निर्दोष सर्वदोषविप्रमुक्तं १, सारवङ्गोशब्दद्वयम् २, हेतवः-श्र पपतिरेका २ उपमालङ्कारेलकृतम् ४, उपनयोपसंहतमुपनीतम् ५, प्राम्यभणितिरहि सोपचार वर्णामपरिमार्गमनम् ७ - सूत्रस्य पयते ।
३२
मनोहरं मधुरम्
"
•
तद्यथा - " अष्पकखरम संदिजं सारखं विस्सनोमुहं । अत्थोभमणवज्जं च सुतं सम्यराणुभासियं ॥ १ ॥ यत्राणाक्षरम् - मिताक्षरं यथा सामायिकसूत्रम् - दिग्ध सम्पशन सनतुरगाधने कायकारिन प्रति सारस्वं पूर्ववत् विभ्वतोमुखं प्रति चरणानुयोगानुयोगचतुष्पाक्षमम् यथा-धम्मो 'मंगलमुकिट्ट ' मित्यादिश्लोके चत्वारोऽप्यनुयोगा क्याक्यान्तेनार्धन्य तो विश्वतोमुखं ततः सारसारस्यैव हेतुभावेनेदं यो
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यायाने पचे गुणा भवन्ति स्तोभका:-बकारवा शब्दादयो निपातास्तैर्वियुक्तमस्तोभकम् । अनवधं कामादिपव्यापारापकम् एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति । येस्तु पूर्वे भ्रष्ट सूत्रगुणाः प्रोक्तास्तेऽनन्तरलोकोक्कगुणास्वासु गुण्यभचयन्ति ये नन्तर सोको लानेव सूत्रगुणामिति से अमभिरेव पूर्वोक्रानामानामपि सेप्रहं प्रतिपादयति वर्ष सूत्रानुगमे समस्तदोषविप्रमुक्के लक्षणयुक्ते सूत्रे उच्चारिते ततो ज्ञास्यते यदुतैतरस्यसमयगतजीवाद्यर्थप्रतिपादकं पदं स्वलमयपदं परसमगधनेश्वराद्यर्थमनिषादकं परं परमम् अनयो
,
1
र्या २२, छविः - श्रलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं विशेष: २३. सम-रेव मध्ये परसमयपर्व देहिनां कुग्रासमाहेतुत्यादूग्धपदम् यावरुतं स्वस्तिविरुद्धं यथा माख्यस्यासत् कारणे का
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इतरतु मोधकारम्याससमिति लाये 2
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सुतफा०
ब्याचक्षते प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशलक्ष भेदभिन्नस्य बन्धहय प्रतिपादकं पदं वन्धपत्रम्, संद्बोधकारणत्वात् कृत्स्नकर्मपदस्य मोहस्थ प्रतिपादके पर्व पदमिति । पापा
समयपदाचातिरिष्यमिति मेोपन्यासः १. सत्यम् किन्तु समयपरस्याप्यभिधेयवैविध्य दर्शनार्थी मेनोप सामावितिपादकं प
मित्यादादिभेदेनोपादानं सार्थकमिति सामायिकव्यति रोमानि
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कपदमित्येतच सूत्राच्चारणस्य फलं दर्शितम् । इदमुं भ यिनः समुधरते समयपदादिपरिहार्य भ तिततस्तरीयमेव तदि उपरिमात्र एप सति केषायां समय
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के
धारा अति केचि क्षयोपशम चियानधिगता भवन्ति ततस्तेषामनधिगतानामर्थाधिकाराणामधिगमार्थ पवेन परं पर्णविष्यामि प कैकं परं व्याक्यास्यामीत्यर्थः । तत्र व्याख्या लक्षणमेव ता
(१५३ ). अभिधान राजेन्द्रः ।
दाह-संयायेयादिपदोच्चार से हिता, यथा करोमि भयान्त । सामायिक 'मिस्यावि, पत्र तु करोमीत्येकं पत्रम् भयान्त इति द्वितीयम् सामायिकमिति तृतीयम् इत्यादि पदार्थस्तु करोमीत्यभ्युपगमो भयान्त इति गुमन्त्रण समस्यायः सामादिकमित्यादिकः पर विग्रह समासः सचानामेक
'
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था भयस्यान्तो भवान् इत्यादि स्थास्या - पा चालना तस्येनिकोपपत्तिभिस्त स्थापन प्रसिद्धिः एते च बालनाप्रसिद्धी आवश्य के सामायिककग्राख्याच सरे स्वस्थान एवं विस्तग्यत्यो द्रष्टव्ये, एवं पविधं विवि जानीहि लक्ष व्याख्याया इति प्रक्रमालभ्यते इति श्लोकार्थः । अत्राह नन्वस्याः परिभ्राख्याया मध्ये क्रियान् सूत्रानुगमस्य विषयः १ को या सूत्रालापकनिक्षेपस्य ? कक्ष स्पकिनियुकि विषय क्रियते १ उच्यते--सूत्रं समुदवं तदभि धाय सूत्रानुगमः कृतप्रयोजनो भवति । सूत्रानुगमेन सूत्रे समुचितेालायकानामे मामख्यापनादिनामनिधाय सूत्रा
,
सात "शेषन्तु पदार्थपदविग्रहादिनियोगः स योऽपि पशिक परमाखमानामपि प्रायः सपदार्थादिधियारो विषयः ततो वस्तुपा सूत्र स्पर्शिक नियुक्त्यन्तर्मान एवं नयाः। श्राह च भाध्यकारः सुसुगागमो सुतालाबगनासो, नामाइग्रास ॥१॥ सुप्फॉसिपनिति विश्रागी सेस भी पयस्थाद। पार्थ सो थिय नेगम-नयागोसे होइ ॥ २ ॥ अनेन विधिना सूत्रे व्याक्यायमाने सूत्रानुगमादपथ युगपत्समाध्यन्ते मत आह भाग्यसुधाम्भोनिधि" सुनागमो तालापककोफॉस, नया सममं तु ति ॥ १ ॥ इथलं विस्तरेण । अनु० । सुतबंधन सूत्रबन्धन - न०- सूत्रमये मत्स्यादिबन्धने, पिपा० १४०८५० । २३४
可
و
2
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सुत्तमभषिय
सुत्तभणिय-सूत्रभणित- न० । आगमोक्ले, पश्चा० ४ विय० । सुखभावा सूत्रभावना श्री० [तस्वप० । अथ सूत्र भावनामाहू
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जइ वि य सनाममित्र परिअभिभाई
फालपरिमाणहे भो,
तहा वि खलु तजयं कुखई ।। ५२० ॥ यद्यपि स्वनाम एव
यदि अक्षरम् अनम दिगुचापि कालपरिमापतोयं सुताभ्यासं करोति ।
परिचित न
कथमिति चेदुच्यते-'उसासा पा तभी उधोवो तभी वियचो
तेहि पोरिसी भो जाये निसा व दिवसा । ५११॥ परावर्तनानुसारेणैव सम्पगुरुङ्घासमानं कलयति तत उच्चासात् प्राण उठास निःश्वासात्मकः तता प्राणात् ततोऽपि यस्तोका दि कामागायत तामि पीपभिर्निशा दिवस जानाति ।
तथा-
मेसु वि, उभभो कालसहा उमगे ।
हाइ भिक्खपंचे, नाहिद कालं बिया छाये ॥ ५१२ ॥ मेघादिना छत्रेष्वप्यनुपलक्षेषु विभागेषु उभयकालं क्रियाणां प्रारम्भपरिसमाप्तिरूपम् अथवा उपसर्गे दिदिसरजम्यादिव्यत्ययकरत्युपेक्षापा आदिशब्दादावश्यककरणादेः, 'भिक्ख' सि-भिक्षायाः पथि मार्गस्य विहारस्येत्यथः तेषां सपामपि यः काल हायां बिना खयमेव शास्यति ।
•
अथ सूत्र भावनाया एवं गुणानाह-
गया सुमहान जस य नेवमिम्मि पतिमंधो। न पराही नाणं, काले जह मंसचक्खूणं ॥ ५१३ ॥ परायानि सुमती निरा भवति। स्वाध्यायविधानप्रत्ययायेय हामि सूत्रार्थध्यायातलारीय कायादिकालविषयं पराचीनं सूर्यातम् । यथा अन्येषां मांसप छग्रस्थानां साधूनाम् ।
उपसंहरन्नाह-
सजयं च परिणम |
सुभावनाएँ ना तो उपयोग परियो, सुयमवहितो समाये ।। ५१४ ॥ थुतभावनया श्रात्मानं भाषयन ज्ञानं दर्शनं तपः प्रधानं सम्परिमयति तत्त उपयोगपरि तोपयोग
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मायाला सन्ः समापयतीति गता सूत्रभावना । ० १ ३०२ प्रक० । सुत्तमभविसूत्राभयित न० । मकारस्था लाक्षायकत्वात्
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भविष
सूत्राभणितम् । साननुज्ञाते सर्वथागमनिषिद्धे श्रीकरस्प
शोत्रिके, ग०२० । सुरकर- वि०
णाम् । सूत्र० १ ० १ सुरज्जुग त्ररज्जुक
(A) भवराजेन्द्रः ।
सुत्तरुद्द सूत्ररुचि- स्त्री० सूत्रे - आगमे रुचिः । सुतरुचिः । आगमतस्त्रजाने उत्स० २८ प्र० भ० । तथाविधविसम्पत्रे, प्र० ।
चत्यात्सूत्र
० १३० । नि०
कासिम रखो, उपा०७०
सूत्रविमाह
जो सुनमडिजतो, सुरण मोगाइ उ सम्मर्थ । अंग्रे बाहिरे व सो सुनरुद वि नायब्यो ॥६८॥ यः सूत्रमागममधी पान:-पनवेल-वी
नेनाप्रािचारादिना पोटाश्यादिना
समादते प्रतिस्थाधिकार्थसू सनप्रसन्नताध्यवसायश्च भवति स गोविन्दवाचकवन् स्वरुचिरिति ज्ञातव्यः । प० १४६ द्वार। प्रज्ञा० । | सुलई 'सुलं पडतो संवेगमावति । आ० ० ४ ०।
सूत्र प्-श्रागमस्तव तस्माद्वा काचः । स्था० ४ ठा० १ ३० ।
सुतविद्ध-सुप्तविबुद्ध - कि । बिद्वापगमेन जाप्रति, ०१ |
विष० ।
सुतविपत्रविनय पुं० सूत्रवाचनादिके, दशा० । से किं तं सुचविणए सुतवियर से चि तं जड़ा सुवाति अत्यं वारति इयं वापति, नितंबाति सुतवियर दशा० ४ ० सुनविरोह सूत्रविरोध से पश्चा० १७ बिष० ।
1
"
सुभाष खत्रवृद्धिभावार्थी पञ्च०१८ विद्य०
-
सुतहरसदत्रभरष्टवि
मिति शब्दभाव संतुष्ट, सम्भ० ३ कार
सुतहार - सूत्रधार - पु० । वर्ज की, स्था० १० ठा० ३.४० । सुतायुगम- सूत्रानुगम-पुं० । सुवच्याक्याने, अनु० । सूनानु-गमरूपे पदच्छेदरूपे चानुगमे, मात्रा० १ ० १ ० १ उ० । उत० प्रा० ० । " होह कयस्थो योतुं पयत्येवं सुयं सुथाणुगमो 'सि । स्था० १ डा० । ० म० । गोपनीयः इति तमेव संवाद
स
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वेदाथि सुनं सुभागमेऽभिम
,
अक्खसिपाह बिसु, सलक्खयं लक्खयं चेमं ॥ ६६८ ॥ प्रेम सूत्र सम्येच सूत्र
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सूत्रानुगम क्रमप्राप्त सूत्रमभिधयम् । कथंभूतम् ? अनवद्यम क्रमाधिक्यादिदोषापचरहितम् पुनःझंतिमिलादिमि सह पश्यमान लक्षणेन प्रवर्तत इति सलक्षणम्। तथ पमिदम्।
किं तत् इत्याह-
अप्पमन्थमत्थं बत्तीसादोखविरहियं जं
विशे० ।
पापा से तफासिय चिशब्दे डेपो)
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सुत्ताणुमह- सूत्रानुमति-श्री० । श्रागमानुमतस्ये, प्रा०४ विषयः।
मुनालावग मूत्रालापक-पुं भुतं मे आयुष् पदपु, स्था० १ ठा० ।
मुनालायगशिरखेव शालापक निशेष
यादपदानां नामादिभ्यास ०१ डा० । ('णिक्खेव' शब्दे चतुर्थभागे २०२७ पृष्ठे भेदसूत्रम् । ) सुति- शुक्ति- खी० । मुहायोमी जलचरदेद्दे, प्रा० २ पादः । मुसिमई-सू.क्कमती - बी० । बेदिजनपदाजधाभ्याम्, सूत्र
१ ० ५ ० १ ३० ।
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अधि०
अहि य. मुमेहि उपवेयं ॥ २६६
० क्षण ।
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सुतिय सौत्रिक - त्रि०-सत्रयविक्रयकारिणि व्य० ६७० त्रित वि०सू० सुतित्तिया- सूक्तिप्रत्यया स्त्री० । स्थविरा दुलरबलिमानिर्गतस्योतलिसडगस्य द्वितीयायायाम्
म
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"
सुदंसण - सुदर्शन - पुं० "शे शेत-बजे बा २०१० इति संयुकान्तपना-पूर्वकारः सुरस - दंसणो । प्रा० । शोभनं जम्बूनदमयनया ग्लबहुलतया. मनोवृतिकरं दर्शनं पश्यासी सुदर्शनः। - प्र० ४ पाहु० । सूत्र० । जं० सू० प्र० । वस्वानरीवास्तव्ये स्वनामख्याते भावके, प्रा० ० ५ प्र० । भाष० । ती० ॥ 'सेम' पारस बेपुनी, सोमा यो अटुमिचा उद्दसीसु नपरे उदासगपडिमं पडिवज्जर, सो महादेवी परिमाि
و
श्री देवपडिम नि वत्थे नेडीए बेडिडं अंडरं अतिसीमा ! देवी निधेवि कप नच्छर, पडद्वाप. कोलाहलो कओ । रराया बज्झो श्राणतो, निजमाये भजाप से मिलवनीप सावयाए सुतं, सहवागजकखस्सा मवणार काउसो ठिता. सुसाहस वि अट्ट खंडा कीरंतु ति संसा हितो, पुष्करा को मुख रातो साधे मिलवतीय पारियं । भाषः ५ ० | राजगृहवास्त स्वनामस्याते श्रेष्ठिन, ध० २० ।
तत्कथा बेथम्"कामस
अनियमि
बहुगुणा समवायपरो सुरुव वयसेसि ब्व तत्थ त्थि नरबरो सेखिमा नाम ॥ २ ॥
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अभिवानराजेन्द्र सरथेव भारसारा. मालागारो वमा अनुगमओ।
बंदिर जिदिन बाजार सय कुल ३॥ सुकुमालपाणिपाया. बंधुम पणदणी नस्स । ३॥
भुषणजिन्याय सरचा जिना यसिहाय मनसाहय। मुग्मामाणिज. नियकुलदेवं पुरस्म बाहिठियं ।
तहकेलिगवनो. धम्मो सरण महो ॥३॥ पसरेहि कुसुमेहिं. अज्जुणनो निवास॥४॥
मोसेसजंतुसंता- नाण पम्मनपावलियो। नन्य य ललिया गोट्टी, जयसुकया समस्थि हरिया। तिहुराणजणलयालणो, वीरजियो पत्र ममगई। मम्मि पुरे अनविणे, महूलबो काऽवि संपत्तो ॥५॥ मागारं मवरलं. करे खामे जंतुनो सन्थे।
लाहहंति इस्य कुसुमारय विनिते। निदेह दुका अगुमोयह मयलसुकमाई ॥३६॥ मखमो मकलतो, गामे उजाणमारतो. ॥६॥
जामुधिस्समियानो, उवमागाओ तो य पारिस्सं। गाउं कुसुमा तमो, जा जाखगिहं ममेह तुहमण।
इस वितिय नवकारं.मायतो ठाइ उस्माग ॥३७॥ ला बहि जम्वगिहट्ठिय-गुट्टियपुरिसेहि सो दिट्ठो ॥७॥
मुग्गरमुल्लालतो, जक्सो त अकमउमवयंतो।" भस्पति अनामनं, भा भो भद्दा समेह एस रई।
पुरनो चिट्ठा संतो. अणमिसनयणेहि पिछतो ॥३८॥ प्रजण मालागारो, बंधुमईए पियाइ समं ॥८॥ २ सयं णे पर्य, पंधिनु इमरस भारियाइसमं ।
खणमित्तेख. सठाण. नो नियमुग्गरे गहिर जक्यो । भोए भुलु ने बिहु, भन्नु परिसुणंति इमं ॥६॥
चिन्नता व्य ज्युबमो. परिणो सहस सि धरणीय ॥३ सोते कबाडाच्छा. भाग चिटुंति निहुयनवयसे ।
माऊण निकासगं, सिट्टी गाय तयणु उस्सरगं। तो इसरो पत्ती. जयवं पूरब एगम्मा ॥ १०॥
अंग सुदसणं पहायवे बहु लहियचेय. ॥४०॥ मह यदवस्स निस्सरि-यते यत तो तयं निबंधति । कोऽसि तुर्मकस्थय प-शिनो सिसोभणामायनोमयं। बंधुमाए सचि. किलिफिलिमाणा पीलंति ॥ ११ ॥ संपस्थिमा मिहबीर, नमिड सोउंच धम्मक ४१॥ तं वदछु असरिस. अमरिय शिवसो विनिए एसो। मह भणा मयुगोवि.लिहितए सहमजिणं नमि। जाखभिम निचमई. पमि बरेहि कुसुमेहि ॥१२॥
सोउंमधम्ममिछा-मि माह मिट्टी तमो एवं ॥४२॥ जाइरथ को हुंती, जक्खो तो सहतमो नेवं ।
भर!हमणुयजम्म-समारफलभिनयंथिय जयस्मि । परपरिभवममहंता. नृणमिमी पारा चेव ॥१३॥
अंकीरह जिधरण, धम्मकहामवणमाथि ॥४३॥ सगणु मणुकंपियमरणे. जक्लो प्रयुगतणुमणपबिहो। इय भगिय तेण सहिमो. सुवंसको पनमा समोसरणे । सो तडतड सि तोडइ, बंधणं पामततु च ॥ १४ ॥ पणविह अभिगमपुरवं, गयो पणमे जिणानाहं ॥४४॥ गहिउँ लोहमयं पल-सहस्समार्ग स मुग्गर सकरे। हस्सं सुपुत्रनयणो. वियसियवयणो कयंजली सुमणी । मे छवि पुरिस लहु-स्थिसत्तमे हण लाए ॥ १५॥ भत्निबहुमाषपवणो, इय निसुलह देसणं पहुणो II इय पारिणमज्जुणो, छप्पुरिसे इस्थिसत्तमे रण।
तथाहिकमसो एसो जाओ. बुततो पायो नयरे ॥१६॥
भो भबिया! कहमबि लाहि-य मनुयजम्न दवेर पवणमणा । भह सेणिपण नयरे. घासाधियमिय ग्रहो नयरलोगा। निग्गंतब्बन तुमेहिजाब हगियान सत्तं जगा॥१७॥।
जिणधरपक्षयणसवणे. दुहहरण सयलगुणकरणे सम्मि य समये सामी, समोसढो चरमजिणवरो नत्थ।
जोपडुगायबंदणत्थं, निमाछा का विन भएण॥२८॥ सुभा जाणहकना.सुमा.जाणा पायर्ग । तस्थ स्थि विमलदिट्ठी, अधम्मट्टी सुदसणो सिट्टी। उभयं गिजा सुना.सेयं समायरे ॥४७॥ जिणपत्रयणसवणाई, नवतत्तवियारसारमई ॥ १६॥ अंडःसहनिभूधरे कुलिशनि कोधानले नीरति. सो सिरिधीरजिणेसर, ययणामयाण उस्सुमो पहियं । स्फूर्जजास्पकमोभरे मिहिरनि योद्यम मेपति। सम्ममभिगम्म अम्मा, पिऊण नमिऊगा भणम॥२०॥
माद्यम्मोहममुद्रशोषणविधा कुम्भोगवस्यम्बई. (घ. 10
सम्यग्धर्मविचारमारखननम्याकी देहिनामा ता बंदसु भगयंनं, समग यी जट्रिनो सेवा
धम्मो यसत्थ दुविहो. सम्बे से पनत्य सम्बंमि। सुमरेसु सुणियपुब्बं. सुदेसणं भययनो पछ! ॥२८॥ पंचय महेश्ययाई. से पुण बारम वया ॥vti.. अंगर सुदंसणो विह, तिलोयनाहे सयं र पन।
यह सुणिय हताहा, सिट्टी नमिङ जिणिवायकम। भनमिय मसुणिय धम्म.च किहए किर गुज्जए भुतुं ॥२६॥ ककि मचतो. अणावं नियमिदं पनो ॥५०॥
अज्जुणनो पुष बेरमपरिगमो जिरिदयगमूले। मिरिषीरवयणसवणा-मयपाणसुसित्तसम्बगत्तरस।
सामसभिग्गहनं दिक्पयजे ॥५॥ घिसमविसं पिय किए-म मज्म काहिरवं मकान अकोसतालणा, सहिउाउं वयवसम्मासं। सम्हा जंकिंनिवि-स्थ होहत होउ इय भणियबादं: पास सलिहिड, सिगमा बविय कम्मा ॥२॥ वियरो य मानयिउं, निग्गच्छा सामिनमणत्थं ॥ ३१॥ सिट्टी सुदंसणो वि.चिरकासं इस पभाषित्ता। संपासिषि प्रणा , मुग्गरमुग्गाविउं पहाविस्था। पालंका यार. सुक्खा भाग जानो ॥५३॥ विट्ठो मुसणेणं, सोतो कुषियकालु व ॥ ३२ ॥
स्यागमाकर्णनबजनिसः सुस्शनःप्राप कविशिवम् । वा अभीयचित्तो, भुवं पमजितु पुततेषा।
ततःसुधर्मक्रमवाटिकाया,धर्मभुती भापजनापताम् ।।
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सुक्ष्मण
अभिधानेरीजेन्द्रः।
सुदंसणा घ० र० २अधिक लक्ष (अजग' शब्द प्रथमभागे २२५ | ४ासे किं तं पमाणकाले ?, पमाणकाल दुविहे पत्ते, तंपृष्ठे अन्तकहशागतोऽप्यस्य कथा)सीगान्धक्या नगया नग
जहा-दिवसप्पमाणकले १. राइप्पमाणकाले य २ चरश्रष्ठिनि.
शाच०५अायेन शुकपरिवाजकेन सह विवादः कृतान'थायद्यापुत्त शदे चतुर्थभागे २५० पृष्ठ घर
उपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया राई भवइ । (सू०४२४) सस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कुञ्जरानी काधिष- 'तेण'मित्यादि, पमाणकाले ति-यमीयत-परिछियते येन तोहस्तिहाजे स्था०५ठाउ.पुस्तीनाम्न्या प्रादकि- वर्षशतादि नत प्रमाण स चासौ कालश्चात प्रमाणकाला: भार्यायाः पितरि , उत्त०१३ १० अरस्वामिन पितरि प्र- प्रमाण वा-परिच्छेदनं वादेस्तम्प्रधानस्तदर्थों बा, कालः घ०१३ द्वार । आव० । साति। भारतवर्षेऽस्यामवसर्पि- प्रमााकालेः-प्रद्धाकालम्य विशेषा दिवसाादलक्षणः, श्रीएयां जाते पञ्चमे बलदेवे , प्रव० २०९ द्वार । भाविबलदे- | हच-"दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च हो या घे, ती. २० करय । प्राय साचू । श्रा० मा । चउपोरिसिश्रो दिवसो, राई चउपोरिसी चेध ॥ १ ॥" धातकीखण्डस्य पूर्वाधिपता देवे, जी. ३ प्रति. ४अधिः। श्रद्धा निश्चतिकाले' त्ति-यथा-येन प्रकारेण युगो निवृस्था । स्वयंभुवस्तृतीयवासुदेवस्य पूर्वभवजीवे, सब । कु- तिः-बन्धन तथा यः काला-अवस्थितिरसौ यथायुर्गिमथुनाथस्य पूर्वभव जीये. स०। भरतचक्रिणश्चके, प्रा. चू० बृत्तिकालो-नारकाधायुष्फलक्षण, अर्थ चाद्धाकाल एवा१मा विश्वासुदेवस्य चक्रे, ति०। प्रा० चू० । अन्नक- युःकर्मानुमयविशिष्ठः सर्वेषामेव संसारिजीधानां स्यात्, शायथमघर्गपञ्चमाध्ययनोलवक्तब्यताके अन्तकृत्साधी. आहब-नेरायतिरियमण्या, देवाण अहाउथं तु अं स्था० १० ठा० ३ उ० । सौधर्मकल्पवासिन्याः श्रीदेव्याः ! जेणं । निव्यत्तियमनभये, पालेतिं अहाउकालो सा ॥१॥" पितरि, जि. १७०३ वर्ग १० अ० । वाणिजग्रामवास्तव्ये 'मरणकाले त्ति-मरोन विशिष्टः कालः मरणकाल:-श्रद्धास्वनामस्थाते श्रेष्ठिनि, भ०।
कालः एव, मरण मेन बा कालो मरणस्य कालपर्यायवा__ तत्कथा चैवम्
म्मरणकालः, 'श्रद्धाकाले 'सि-समयादयो विशेषास्लप:
कालोवाकालः-चन्द्रसर्यादिक्रियाधिशिर्ड तनीयद्वीप तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगास नाम नगरे हो
समुद्रान्तर्वती समयादिः, श्राहच-"समयावलियमुहुत्ता, स्था, वनमो, तिपलासे चेइप, वनो जाब पुढविसि- दिवसहोरनपक्षमासा य। संबन्छरजुगपलिया, सागलापट्टयो । तत्थ णं वाणियगामे नगरे मुदसणे 'नाम से- रोस्सपिपरियट्टा ॥१॥" भ०११ श. ११ उ०। ही परिवसई अड़े. जाव अपरिभूए समणोवासए अभ- एएहिणं भैते ! पलिभोवमसागरोवमेहिं किं पयोयण' गयजीवाजीवे जाव विहरह, सामी-समोसडेजाव परिसा सुदंसणा! एएहिं पलिअोवममागरोवमेहिं नरइयतिरिक्खपज्जुवासइ । तए मं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कमाए ल- जोणियमणुस्सदेवाणं पाउयाई मविजंति । (सू०४२६x) द्घ8 समाणे हद्वतुढे एहाए कय जाव पायच्छिते
(एनका महब्बल" शब्दे षष्ठे भाग उना।) सवालंकारविभूसिए सायो गिहाम्रो पडिणिस्वमसुदंसणकूह-सुदर्शनकूट-न० । पाश्चास्यरुवकवरपर्वतस्य श्र. सानो गिहाम्रो पडिनिस्खमित्ता सकोरेंटमल्ल
टने कूट. स्था० १० ठा०३ उ०। दामेणं छतेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं महया
सुदंसणपुर-सुदर्शनपुर--न० । मालवदेशीये स्वनामख्याते
नगरे, उत्त । सुदर्शनपुरै शिशुनागो नाम गृहपतिः। पुरिसवग्गुरापरिक्खिसे वाणियमामं मगर मज्झं म- |
प्राय०४०। ('समाहाण' शदेऽस्मिन्नव भागे कथा गता।) ज्मेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेच दतिपलासे चेइए सदसणा -सदर्शना-स्त्री०। शोभनं दर्शनं दृश्यमानतया यजणेव समणे अगवं. महावीरे देणेव उवामाछह तेणेव म्याः जगतमनोहारित्वात् सा सुदर्शना । जम्म्यां सुदशनाउवागच्छित्ता समकं भगवं महावीरं पंचविहेणं याम् , कल्प०१अधि०७ क्षण । जी0 स्था। ज० । प्रअभिगमेणं अभिगच्छति। 60-सबित्ताणं दव्या
म । पृथ्वी परिणाम उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्ष, स.। णं जहा उसमदत्तो जान तिधिहाए पज्जुवासण ए
जंबू णं सुदंसाणा अट्ठजोभणाई. उच्चतेणं पणत्ता। पज्जुवासइ । तर णं समणे भगवं महावीरे मुदंसस्स
स०८ सम से दिस्स तीसे य महतिमहालवाए जाव श्वासहए भ
(जब'शब्द वक्तव्यतोक्का पाश्चास्याअनपर्यतस्य उत्तरविङ्न
दापुस्करिण्याम् , स्था० ४ ठा०२ उ० । जी० । ती० । घइ । हए णं से सुदंसणे सट्ठी समस्स भगक्भो
अषमजिनस्य निक्रमणशियिकायाम , प्रा० चू०१ १० । महावीरस्स अंतिर्य धम्म सोचा निसम्म हड्तुदु उद्याए स०। प्रा०म० । धग्णस्य नागकुमारेन्दस्य लोकपालानाटेवइ उद्वित्ता समणं भगवं मद्यवीरं तिखुतो .जाव न- मप्रमहिण्याम , स्था०४ ठा० १ उ० । कालमहाकालयोः मंसित्ता एवं यासी-कधिहे भंते ! काले प
पिशाचेन्द्रयोरप्रमहिष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ० । शकटकु
मारस्य गणिकायाम् , स्था० १० ठा०३ उ०। ('सगर' शम भत्ते ?, सुदंमणारेबउब्धिहे काले पमत्ते, तं जहा-पमा
कथा ) चतुर्थवलदेयमातरि, स० । प्रायः । जमालीभार्याएकाले १ अहाउनिव्वत्तिकाले २ मरणकाले ३ अद्भाकाले। या चीरहितरि, श्रीमहावीरस्वामिनो दुहितुः ज्येष्ठेति षा
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सुदंसणा
सुदर्शनेति या अनवद्याङ्गीति या नामेति । विशे० । ." जेट्ठा सुदंसणा जमालिणो व्य सि" ज्येष्ठा सुदर्शना अनयद्याङ्गीति जमालिगृहिणीनामानि । श्रन्ये तु व्याचक्षते ज्येठा महती सुदर्शना नाम भगवतः श्रीमन्महावीरस्य भगिनी तथा पुत्र जमली नाम भगवतो दुहिता जमालिगृहिणीति । विशे० स्था० उत्त० । कल्प०। श्रा० क० । श्र० म० । श्रा० चू० । श्राचा० । सामिस्स जेट्ठा भगिली सुदंसणा तीसे पुतो जमाली । श्र० चू० १ श्र० । सिंहलद्वीपराजस्य चन्द्रगुप्तस्य दुहितरि ती० ६ कल्प | साकेतनगरराजस्य चन्द्रावतंसकस्य भार्यायां सागरचन्द्रमुनियमांतरि ० ० १ ० धन गिरिदुहितरि आ० चू० १ अ० ।
सुदक्खिण- सुदक्षिण - पुं० । प्रार्थनाभङ्गभीरौ श्रावके, ध०१० १ अधि० १ गुण ।
|
सुदक्षिणा सुदाक्षिण्य न० गम्भीरधीरचेतसः प्रहीय प्रकृत्याभियोगपरत्यनिरुपधिपर महाराष्ट्रायाम्
द्वा० १२ द्वा० ।
-
(६५७ ) अभिधान राजेन्द्रः ॥
"
प्रश्न०
सुदिट्टि - सुदृष्टि - स्त्री० | सुशब्दः प्रशंसायाम् । शोभना दृष्टिः सुः । प्र०म० १ ० । सम्यग्रही, डा० १७ द्वा० म्यक्त्वे, विशे० । सुदीहनीहारी सुदीर्घनिदिन् जि० प्रतिरये प्र० त्रि० ।
स
३ श्राश्र० द्वार ।
दाक्षिन्य गुण रायाउपयरद्द सुदक्खिओ, परेसिमुज्झिषसक अवाचारी | तो होइ गज्भवको ऽणुवत्तसीओ य सव्वस्स || १५शा उपकरोत्युपकारतया प्रवर्त्ततेऽभ्यर्थितसारतया सुदाक्षियः शोभनाथान् को उर्थी यदि परलोकोपका रि प्रयोजनं विदासियन पुनः पापतापसुद्दे सुदेवदाशिविशेषितम्। पश्यामन्येषां कथमित्याह कार्यव्यापार परियोजनवृत्तिः त तः कारणाद्भवति प्रायो ऽनुमीयादेश: तथाऽनुव नीमच। ष्टता सर्वस्य धार्मिकलोकस्य सहि
किल सुदाक्षिण्यगुणेनाकामोऽपि धर्ममासेवते शुल्लक कु मारवत् । ध० ० १ अधि०८ गुण । सुघोषवर सुपोततर वि० [सुविशोधिते २०६० १ ० सुदाद-सु-स्वनामस्याले नागकुमारे, यः पूर्वभये सुद्ध-शुद्ध-वि० " शषोः सः॥ १६०॥ | सिंहत्वे मारितः वीरजिनेन्द्रं गङ्गां नाथा तरन्तमुपसृष्टवान् कम्बलशम्बलाभ्यां निवारितः । श्र० चू० १ ० । नागो-ना
।
कुमारः सुदंष्ट्रनामा सिंहजीवो भगवत उपसर्ग कर्तु - मारब्धवानिति । श्र० म० १ श्र० । श्रा० क० । नि० चू० । सुदाम सुदाम ० जम्बूदीपे भरतले ततायामुसपियां जांते कुलकरभेदे, स्था० ७ ठा० ३ उ० । स० । ति० । सुदिट्ठ- सुदृष्ट- त्रि० । सम्यग्दृष्टे, उत्त० १२ अ० स्था अतीन्द्रियार्थदर्शिभिः रमपवर्गादिहेतुतयोपधे २ संव० द्वार ।
,
सुदीइसी सुदीर्घदर्शिन् पुं० [सुपर्यालोचित परिणामसुन्दकार्यकारिणि, ध० १० १ अधि०१ गुण । स किल पारिलामिक्या बुद्धया सुम्दर परिणामत्वैदिकमपि कार्यमारभते (प्रथ० २३६ द्वार) इति पञ्चदशे श्राषकगुणे, ध०र० १ अधि० १. गुण । दर्श० ।
२.४०
सम्प्रति पञ्चदशं दीर्घदत्यगुणमाहआवद्द दोहदंसी सयलं परिणामसुंदरं कर्ज । बहुलाभमप्पकेस, सिला हिणिअं बहुजणा || ३२ ॥
रमते प्रतिजानते परिणामसुन्दरं कार्यमिति गम्यते, क्रियाविशेषणं वां द्रष्टुमवलोकयितुं शीलमस्येति दी. दश सफलं समस्तं परिणामसुन्दरम् श्रायतिसुखावहं कार्यम् - कृत्यं तथा बहुला-बुरामीसिमि स्तोकायासं श्लाघनी प्रशंसनी बहुजनानां स्वजनपरज नानां शिष्टानामिति भावः स हि किल पारिणामिक्या बुद्धया सुन्दर परिणाममैहिकमपि कार्य करोति धनष्टिवत् । ततो धर्मस्यापि स एवाधिकारीति । ध० २०१ अधि १५ गुण । सुदुकर- सुदुष्कर
I
,
-त्रि० । सुतरां दुष्करे, उत० १६ अ० । सुदुर- सुदुस्तर जि० दुखोसा स० १४५ सम० सुलह सुदुर्लभ०ि अतिशयपुरा, उत०अ०] विपा०| सुदेशिय सुदेशित - त्रि० । पर्षदि नानाविधप्रमाणैरभिहिते,
प्रश्न० १ संव० द्वार ।
-
सुद्धणय
सुद्दार मुद्दार पुं० उपनिनरवानरे, ती०३ - कल्प | ( यो हि द्वारमुद्घाटयन्नपि न लक्ष्यते विचित्रकार्यकृश्चेति ' उज्जयन्त' शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठे उक्तम् । ) - मूदयितुम्० विनाशयितुमित्यर्थे नि००१०४० सुन्दरबुद्धौ, सुधीसुधी पुं० [सुष्ठु धीर्यस्य परिडते सुन्दरी, सुष्ठु ध्यायति सु-ध्ये किप् । सुबुद्धियुक्ते. त्रि०/वाच०| प्रशस्तबुद्धी, ध० १ अधि० " क्रिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधी स्तु फलमश्नुते । दन्ता दलन्ति कडेन, जिह्वा गिलति लीलया ॥ १ ॥ " कल्प० १ अधि० ७ क्षण ।
-
1
॥ इत्यनेन शकारस्य सकारः। प्रा० । अवदाते, सूत्र० १ ० १४ अ० । निकलङ्के, आव० ६ श्र० । सूत्र० । शुद्धादिना उज्ज्वले, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । निर्दोषे, सूत्र० १० ११०० प ञ्चा० । कषायका लुण्यरहिते, उत्त० ३ प्र० । केवले, विशे० । उमादिदोष निरुपाधी, सूत्र० १६ अ० अलेपकृते, स्था० ३ ठा० ३ उ० । अवदाते, सूत्र ०१ श्रु० ११ प्र० । जात्यादिना निर्मलज्ञानादिगुणतया कामापेक्षया वा शु, स्था० ४ ठा० १ उ० | पापानुबन्धरहिते, श्राचा० १ ० ४ ० १ ० चिमले जी०३ प्रति० १ अधि०२० म०प्र० २० पाहु० । पूर्वोक्तयचन दोषरहिते, प्रश्न० १ संघ० द्वार । सुद्धगंधारा- शुद्धगन्धारा श्री० गान्धारग्रामस्य चतु मूर्छनायाम्, स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
"
सुद्धचरणजोग- शुद्धचरणयोग-पुं० मोशे संयतव्यापारेषु । मुखकादिप्रत्युपेक्षखादिषु पं० ० १ द्वार सुद्धजाइकुलपिय- शुद्ध जातिकुलान्वित- त्रि० । शुजा विशुजाता जात मातृपक्षः कुलं पितृपक्षस्ताभ्यामन्यितरसम्पन्न मातापितृसम्पत्रे ०३० मुद्रणय - शुद्धनय पुं० । निश्वयनये, प० चू० ४ कल्प |
,
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(x) अभिधान राजेन्द्रः ।
दाद
सुच्यादिशुद्धायादि २०
हारग्रहणे, कृष्या० १ अध्या० ।
खुदवा मुदा स्त्री० शुद्धखभावे व्या० १२ अध्या० ।
तदन्वये मनुष्ये सुद्धप्यवम-शुद्धप्रवेश्यानि तानि प्रवेश्यानि
। स्था०३ डा०३ उ० ('अंतरदीय' शब्दे प्रथमभागे १७ पृष्ठे यता उहा ।) राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्याच्यायां भायां जाते पुत्रे व वीरान्तिपराजयले उपपद्म महाविदेड सेल्सीयस रोपपातिकदशानां द्वितीय fer पञ्चमे अध्ययने सूचितम् । )
शुद्धप्रयेश्यानि । राजसभाप्रवेशोचितेषु श्र० । पुद्धबुद्धसहाव- शुद्धबुद्धस्वभाव- त्रि० । शुद्ध:- सर्वपुत्रला मराहनः बुत: नमयः स्वभावो यस्य सः शुभाः वः । विशुद्धज्ञानमय स्वभावोपेते, अष्ट० ११ अष्ट० । उद्धबोहप्पसर- शुद्धोषप्रसर- पुं० प्रधानमत्यधकारी, जीवा ११ अधि० ।
,
तपासा-शुद्धदन्ती पार्श्वनाथ पुं० [दीनपिनासी० ३२ कर सुद्धधम्मरयणस्थि-शुद्धधर्मरत्नार्थिन् चिरखानि जीनि तानि अर्थयन्तीत्येवं शीला येते, यहा—तैरर्थः प्रयोशुद्धधर्म पर महा माणिक्यं शुद्धधर्मरक्षं तस्यार्थिनो बाछायन्तः । शुद्धधर्मकरमहा मूल्यमाथि प०२
सुद्धधम्मसंपति शुद्धधर्म सम्प्राप्ति - श्री
धर्मभावप्रासी,
पं० सू० । शुद्धधर्मसंप्राप्तिः कुत इत्याहसुद्धधम्मसभ्यती पावकम्मचिगमा
।
धर्मो यथोदितः तस्य सम्यक्प्रातिः सम्प्राप्ति: - भावमा तिरित्यर्थः पापकर्म- मिध्यात्वमोहनीयादिनस्य विगमः-वि शिष्टो गमः अनधकत्वेन पृथग्भाव इति यावत्तस्मात्पाकर्मवगमात् ००१० सुद्धधी- शुद्धधी-स्त्री० । निर्मलबुद्धी द्रव्या० ७ अध्या० । सुद्धपउम - शुद्धपद्म - न० । कुसुमान्तरवियुक्ते पुण्डरीके, उपा० १ अ० ।
|
सुपावयिययमत शुद्धपर्यायार्थिकनयमत न
र्यायार्थिकनसिजाते, नयो० ।
सुद्धपरिणाम- शुद्धपरिणाम भि० सम्यम्मार्गोपदेशके पं०
।
योगा वा
सदासय fuft स्वरूपत्वभोक्तृभ्यादिधर्मोपेते. अष्ट० ४ ० पपिचि शुद्धात्मप्रति श्री० निरषचकियाथाम् पश्चा ७ विष० ।
--
सुद्धभाव शुद्धभाव-पुं० [सदनुष्ठाने पा० १४० सुस्वभावे, प्रश्न० ५ संव० द्वार ।
सुमह शुद्धमति पुं० एकविंशति भारतातील जिने,
- |
प्रथ० ७ द्वार ।
सुद्रपत्थ- शुद्धवख १०
तवाससि च । पञ्जा० ४ विव० ।
विषसने उत्तरीपवाससि ि
सुद्धवाय शुद्धात
जीवलोकं
स्तोकं प्रयान्ति । उत० ३६ अ० । मन्दस्तिमितवायौ भ० १५ श० । वस्तीत्यादिगत इत्यन्ये । जी० १ प्रति० शीतकालादिषु शुद्धः वातः । श्राचा० १ ० १ ० ७ ० । सुद्धवाय (या) णुयोग-शुद्धवागनुयोग- पुं०। शुद्धा अनपेक्षित या अनुयोगांविचारः शुद्धवागनुयोगः । सूत्रविचारे, अनु० । ('अणुश्रीप्रथमभागे ३४३ स्वरूपमुक्रम्) सुद्धविशुद्धविकट न० उष्णोदके, क
-
क्षण स्था० । पर्णान्नरादिमा शुद्धजले ग०२ अधि० । सुद्धबुद्धिजोग-शुद्धबुद्धियोग पुं० निमेशबोधसंबन्धेति. त्रि० । पञ्चा०८ विष० ।
-
सुद्धचेष- शुद्धतम् त्रि० विलम्मद्दामोद्दलम्पटमानले
।
हा० ३१ अ० ।
ब० २ द्वार |
नायाम्, स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
सुद्धपरिहार- शुद्धपरिहार- पुं० । यत् विशुद्धस्सन् पञ्चयाम- सुद्धसज्जा-शुद्धशय्या स्त्री० । षड्जग्रामस्य सप्तभ्यां मूईमनुत्तरं धर्म परिहरति परिहारशब्दस्य परिभोगेऽपि वर्कमानत्वात्स शुद्धपरिहारः । शुद्धस्य सतः परिहारः पञ्चयामानुत्तरधर्मकरणं परिहार इति व्युत्पते। यदि बा यो विकास परिहारः शुभा सौ परिहारका शुद्धपरिहारः । परिहारमेवे व्य० १ उ० । परिहार ६६० ठेपतो) सुद्धपरूत्रग- शुद्धप्ररूपक- भि० । सम्यग्मार्गोपदेशके दर्श०
३ लक्ष्य !
सुद्धसभाव- शुद्धस्वभाव त्रि० । उपाधिभावरहितान्तर्भावपरिणते. द्रव्या० १२ अध्या० । सुद्धमुचशुद्धसूत्र त्रिशुद्धमवदातं यथास्थितवस्तुरूपणतोऽध्ययनतश्च सूत्रं-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः । यथानिरूपके, सू० २ ० १४० सुद्धागणि-शुद्धाग्नि- पुं० । श्रयःपिण्डानुगतेऽग्नौ विद्युतादिरूपे था। जी० ३ प्रति० १ अधि० २४० । सुद्धादाय शुद्धादान- - त्रि० । शुद्धमवदातमात्रानं चारित्रं यस्य सः । निर्मल चारित्रे, सूत्र० १ ० १६ अ० । सुद्वायाय शुद्धानस्तस्पर्श
भयानक
सुद्धप्प - शुद्धात्मन्- त्रिशुद्ध मारमा - अन्तरात्मा यस्य सः। निर्मातः करणे, सूत्र० १ ० १५ प्र० । सुद्धपदब्य शुद्धात्मद्रव्य निर्मले सकलपुत्रसानोर हिते ज्ञानदर्शनचा त्रिवीर्याच्या बाधा मूर्त्ताद्यनन्त गुणपर्यायनित्यानित्याद्यनन्तखभावमये असंचयप्रदेशी खभायपरिया | सुद्धा मय शुद्धाशय पुं० निर्मसाध्यवसाये, १० विचल
भ० १५ श० ।
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सुहासयजोग अभिधानराजेन्द्र
सुद्धोदय मावास्यजोग-शद्धाशययोंग-पुं० । शुभाध्यवसायसंबन्धे, पशि शुद्धिस्तदन्यानम्यविषयेत्यर्थः। पनवं भवति-मादेशशुभाज्यवसायाद्धि बोधिबीजं स्यात् । पञ्चा० १६ विधा।
भावनिईिविधा-अन्यावे. अनन्यखे च । अन्यत्वे यथा
शुद्धभावस्य साधोगुरुः. मनस्यत्वे राजभाष हात गाथार्थः । मुद्धि-शुद्धि-स्त्री"शपोः सः" १२६०ा इत्यनेम शका
प्रधानभावशाजमा:रस्य सकारः । प्रा०1 पापक्षयेण निर्मलतायाम् , पापेशामा बग्णीयादि सम्यग्ज्ञानादिगुणविघात तुघातिकोच्यते ।
दंसणनाणचरित्ने, तबोविसुद्धी पहाणमाएसो । तत्क्षयेण यावती काचिद्देशतोऽपि निर्मलता संभवति सा जम्हा उ विमुद्धामलो, तेण विसुद्धो हाइ सुयो । र८७॥ शिरुध्यते । षो० ३.विव० ।
दर्शनामचारिश्रेषु दर्शनशानचारित्रविषया तथा तपोषिअधुना शुद्धिमाह
शुद्धिः भाचाम्यावेश इति-यदर्शनादानामाविश्यमानाना णामं ठवणा सुद्धी, दन्चसुद्धी अभावसुद्धी ।
प्रधान सा प्रधानभावशुशिः, यथा वर्शमादिषु क्षायिकााग
शानदर्शनचारित्राणि, तपःप्रधानभावशुद्धिः-मास्तरतपो. एएसिं पत्तेचं, परूवणा होइ कायब्धा ।।२८शा
उनमामाराधनामिति । कथ पनारय प्रधानभावयनामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिद्रव्यशुद्धिश्च भावविश्व । पते- विरिति ?, उच्यते-एभिर्वर्शनादिभिः शुद्धेर्यस्मादिषां नामशुद्धयादीमा प्रत्यकं अरूपणा भवति-कर्तव्येति सुखमलो भवति साधुः: कर्ममलरहित इत्यर्थः । गाथार्थः।
तेन च मलेन विश्वो-मुक्की भवति सिंह इत्यतः प्रधातत्र नामस्थापन हुएणत्वादनीकृत्य द्रव्यशुशिमाह
লমাখযুক্মিখীক্ষাজ হলীগীনি শাখা । • ৩ तिविहा उहब्बसुद्धी, तहव्वादेसभी पाहाणे ।
मा० । संथा। बांक्य शुद्धिस्वरूपम् वक्षसुद्धि' शब्ने षष्ठ
भागे गतम् । ) शोधनं शुद्धिः तत्र द्रव्यशुद्धिः, भाषातहब्बगमाएसो, भणएणमीसा हवइ सुद्धी ॥२८४॥
विश्च । द्रव्यशुजिर्जलामन्यादिका , उक्तं च-" अंकारत्रिविधा तु द्रव्यशुद्धिर्भयात तद्रव्यत इति तवपशुद्धिः,
लोहमहीणं , कमसो जह मलकलकपकीणे । सुज्झाभादेशन इति आदेशद्रव्यशुद्धिः, माधान्यतश्चेति-प्राधाम्बद्र
वणयगसेसो , होहिति जलानलाइच्चा ॥१॥" व्यशुद्धिश्च । तत्र तद्रव्यशुद्धिः। अनन्यति अनन्यद्रव्यशुद्धिः, भावशुद्धिस्तु सत्यमस्य चारित्राणि इति . जलारण्याविशुयद् द्रव्यमनेन द्रव्येण सहासंयुक्त सम्छुद्धं भवति क्षीरंद
वीना मध्ये यथादर्शनं यथाख्यातमम्यक्त्वं पुनर्मिध्यास्थाऽ. धि वा असौ तद्रव्य शुद्धिः, श्रादेशे मिश्रा भवति शुद्धिर
गमनात् , तन्महती अधिस्तथेयमपीति भावः । संथा। न्यानस्यविषया। एतदुक्तं भवति-आदेशतो द्रव्यशुद्धि
शुग यखागताभ्यां रातःद्विविधा-अन्यत्वेनानन्यत्वेन च । अन्यत्वे यथा शुद्धयासा
"पुरं राजगृहं नाम, श्रेणिकस्तत्र भूपतिः। देवदत्तः , अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः ।
रजकस्यार्पयत्कीम-युगलं शालनाय सः॥१॥ ___ प्राधान्य द्रव्यशुद्धिमाह
तेम तार्ययोर्दत, वसिष्णोः कौमुदीमह । वएणरसगंधफासे, समणुप्मा सा पहाणो सुद्धी।
अभयभ्रेणिको तत्र, पश्यन्तौ छन मुस्सवम् ॥२॥ तत्थ उ सुकिलमहुरा, उ संमया चेव उक्कोसा ॥२८॥
तत्ताम्बूलाईमैक्षिष्ट, रजकस्ते गृहागत ।
रष्ट्रा कौमे संतता , सदाकारैरशाधयत् ॥३॥ वर्णरसगन्धस्पर्शेषु य ममोक्षता - सामान्येन कम- प्रातरानीतवान् पृष्टः, सद्भाव रजकोऽब्रवीत् । नीयता, अथवा-मनोज्ञता यथाभिप्रायमनुकूलता सा प्र- द्रव्यशुद्धिर्भावशुद्धि-स्तत्कालालोचने यतेः ॥४॥" मा० धान्यतः शुद्धिरुच्यते । तत्र चैधंभूतचिम्ताव्यतिकरे शुरू
क०४०। मधुरौ वर्णरसौ। तुशवात्-सुरभिमृद् गन्धस्पीच
सुद्धिपत्त-शद्धिप्राप्त-त्रि० । अवाप्तक्रिटकर्मक्षयोपशमे, पक्षा समंती, यथाभिप्रायमपि प्रायो मनोशी, बहूनामिस्थ प्र
४चिव। वृत्तिसिद्धः, उत्कृष्टौ च कमनीयौ च । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः । उक्ला द्रव्यशुद्धिः । सुद्धसण-शुद्धषण-त्रि० । दशैषणादोषरहिते माहारादी. अधुना भाषशुजिमाह
प्राचा०१७०६०२७०। पमेव भावसुद्धी, तन्भावाएसमो पहाणे भ।
सुद्धेसणिय-शुद्धषणिक-त्रिसुवैषणा-शादिषपरिहारसबझावगमाएसो, भणममीसा इबइ सुद्धी ।। २८३॥
तः पिएशमहणं तसंच शुषणिकः। भ० २५ २०७०।
शुजस्य वा निर्यानस्य हरारेषणा येषामति से तथा । 'एमेव"तियथा ग्यशिस्तथा भावशुद्धिरपि, विधि
सूत्र०२४०२०। तथाविधाभिमहात् एपणारावधाहके, धेस्यर्थः, तनाव इति-तप्रायशुद्धिः प्रविशत इति-मा
मौ० स्था। देशभावशुशि प्राधान्यतति-प्राधान्यभाषाद्धिधात
सदोदण-शुद्धोदन-१० । पशाकाविवर्जिते मोदने , भ.. नब्रायशुद्धिः अनम्येति-अनन्यभाषशुद्धिस्तनावशुद्धिः। यो भाषोऽन्येन भाषेन सदासपुतः सन् शुद्धो भवति बुमु-1
श०१ उ०। शाक्यसिंहस्य पुरस्य पितरि,पुगसम्म०३ का क्षितादेरखापभिलाषयवसौ तब्रायशुद्धिः। आदेश मिश्रा भ- सुद्धोदय-शुद्धोदक-म० । अन्तरिक्षसमुद्रवे नधादिगते व
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अभिधानराजेन्द्रः।
सुपभकत -जले :प्रशा०१ पद । स्वभावनिर्मलोदके, कल्प० १ अधि० सप्रतीत-पुं० । अहोरात्रस्य पञ्चमे मुहते, कल्प०१:३ पण । स्वाभायिके जले ,शा०१ श्रु०१० । तडागस
धि०६ क्षण। मुद्रमदीदाबटादिगते जले, प्राचा० १५० १ १०३ उ० ।
| सुपक-मुपक्क-त्रि० । सुष्ठ पक्वं सुपक्यम् । सुन्दरपरिणते , सुद्धोयणि-शौद्धोदनि-पुं० । " उत्सौन्दर्यादी" ॥८।१।१६०॥
दश० ७ ०। इस्यनेम मौकारस्य उकारः । प्रा० । शाक्यसिंहनामके गौ
सुपक्कक्खोयरस-मुपक्वक्षोदरस-पुं०। सुपकः सुपरिपाकासमगोमोरपने बौखे,आचा०१ श्रु०२ १०५ उ०। सूत्र०।।
गतो यः क्षोदरसः इक्षुरसः तनिष्पन्न प्रासयोऽपि सुपक्यसुधीरधम्म-सधीरधर्मन-त्रि० । धी:-बुद्धिस्तया राजते इति चुरसः। मद्यभेदे, जी० ३ प्रति०४ अधिन धीरः,धीरः सुप्रतिष्ठितो धर्मः श्रुतचारित्राख्यो येषां ते सुधी- सुपक्कक्खोदरसवरसुरा--सुपक्वक्षोदरसवरसुरा--स्त्री० । सुपरिरधर्माणः । श्रुतचारित्राख्यधर्मवत्सु । सूत्र०१श्रु०१३ अ०। पाकागतो यः क्षोबरसा-इसुरसस्तनिष्पन्ना घरसुरा सुप
क्वक्षोदरसबरसुरा । सुपरिपाकागतेदुरसनिष्पनायां श्रेष्ठसुपइट्ठ-सुप्रतिष्ठ-न० । लोकोत्तरे भाद्रपदे मासे , कल्प० १
सुरायाम् , जी० ३ प्रति०४ अधिः । अधि०६क्षण । सू० प्र० । खनामख्याते नगरे , यत्र सिंहसेनकुमारपिता महासेननामा राजा अभूत् । विपा०१० सुपक्कल-सपक्व-त्रि० । शोभनपरिपाके, श्राव०४०। ६ १०। (तरकथा 'देवदत्ता' शब्दे चतुर्थभागे २८१८ सपकेक्खरस-मपक्केचरस-पुं० । सुपक्वेशुमूलदलनिष्पने रपृष्ठे गता।) श्रावस्त्यां नगर्यो जाते गृहपती , अन्त.
से, प्रज्ञा० १७ पद ४ उ०। .६ वर्ग १० अ०। (सच पीरान्तिके प्रवज्य सप्तविंशातर्षाणि भ्रामण्यं परिपाल्य विपुले पर्वते सिद्ध इत्यन्त
सुपक्खजुत्त--सुपक्षयुक्त-पुं० । सुशीलानुकूलपरिवारोपेते, कृशानां षष्ठवर्गस्य पश्चमेऽध्ययने सूचितम् ।) पुष्पपात्र
ध०र०। विशेषे , जं०२ वक्षः।
स च चतुर्दशो गुणःसुपइदुग-सुप्रतिष्ठक-न० । आधारधिशेषे, रा।
अणुकूलधम्मसीलो, मुसमायारो य परियणो जस्स । तेसि ण तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिद्वगा पामत्ता ,
एस मुपक्खो धर्म, निरंतरायं तरइ काउं ।। २१ ॥
यह पक्ष परिवारः परिकर इत्येकोऽर्थः, शोभनः पक्षो यतेणं सुपतिहगा णाणाविहपसाहणभंडविरइया इव चिट्ठ- |
स्य स सुपक्षः । तमव विशेषेणाह-अनुकूलो धर्माधिनकाति सम्बोसहिपडिपुस्मा सव्वरयणामया अच्छा० जाव री धर्मशीलो धार्मिकः सुसमाचारः सदाचारचारी पपडिरूवा।
रिजनः-परिवारों यस्य एष सुपक्षोऽभिधीयते । स च धर्म
निरन्तरायं निष्प्रत्यूई 'तरर' त्ति शक्नोति कर्तुमनुष्ठातुंभ'तेसि णमि' त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सुप्रतिः |
द्रनन्दिकुमारवदिति । ध० २०१ अधि०१४ गुण । टकौ-आधारविशषौ प्रज्ञप्ती, तेच सुप्रतिष्ठकाः सुसरूषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्णः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुप
सुपडिबद्ध-सुप्रतिबुद्ध-त्रि० । सुष्ठु प्रतिबुद्धः सुप्रतिबुद्धः । रिपूर्णा व तिष्ठन्ति , उपमाभाबना प्राग्यत् । ' सव्यरयणा | आचा० १७०५ अ०२ उ० । सुशाततत्त्वे काकन्दिकापरनामया' इत्यादि, तथैव । रा०। स्थापनके, जं० २ वक्षः।। मक श्रार्य स्वहस्तिशिष्ये , कल्प०२ अधि०८क्षण । "सुपाटा या संठिाए लोप" सोहारोपितजधारकादि सपणिहि-सप्रणिधि-पुं०। प्रणिधान प्रणिधिः शोभन: प्रगृह्यते । भ०११ श०१० उ०। शराधयम्त्रके, तच्चेह उपरि णिधिः सुभणिाधः। शोभनप्रणिधाने, दशा०४ श्रा स्थापितकलशादिकं प्राह्यम् । भ०७ श०१ उ०।
सुपणिहिइंदिय--सुप्रणिहितेन्द्रिय-त्रि० । श्रोत्रादिभिः स्वपा-सप्रतिपाभ--1०। उत्तरयोः कृष्णराक्योर्मध्ये लो- विषय गाढमुपयुक्त, दश०५ १०२ उ०। कान्तिकविमाने , यत्र माया देयता निवसन्ति । स्था० ८ सुपा-सुप्रज्ञ-त्रि० । सुष्टु शोभना वा प्रज्ञाऽस्येति सुप्रक्षः । ठा० ३ उ० । भ० । स०।
स्वसमयपरसमयवेदिनि गीतार्थे, सूत्र० १ श्रु०६०। शोसुपइद्विय-सुप्रतिष्ठित-नि०। सुण्ठ मनोबतया प्रतिष्ठिताः
भन भाषाद्वयोपेते, सूत्र०१ श्रु० १४ १०। सुप्रतिष्ठिताः । जी०३ प्रति०४अधिकाजासत्पतियान सुपप्पस-सुप्रज्ञप्तत्रि० । सुष्टु प्रकारेण कथिते, प्राचा०१ बस्सु , तं० । रा०।
श्रु०८०१ उ०। सुष्टु प्रशप्ता यथाचारे ख्याता तथैव
सुष्ठु सूचमपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थः , मुपहडियजस-सुप्रतिष्ठितयशस्-पि० । अव्याहतच्यातिके ,
अनेकार्थत्याद्धातूनां शपिरासेवनार्थः । दश०५०। प्रश्न०२ संघ द्वार।
सुपरथा-सुप्रस्था-स्त्री० । अधोधास्तव्यायां निक्कुमारिकासुपइय-सुपतित-पुं० । सूर्यस्य ज्योति केन्द्रस्य पूर्वभवजीधे याम् , ति। श्रावस्तीवास्तव्ये स्थमामख्याते गृह पतौ, नि०.१ श्रु०३ ध- सुपभकंत-सुप्रभकान्त--पुं० 1 हरिकाम्तेन्द्रलोकपाले,हरिसहे. ग११०। ('सूर' शब्दे कथा पश्यते।)
न्द्रस्यापि लोकपाले , स्था० ५ शा० १३० ।
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सुपरह
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सुपरह- सुपद्म-पुं० [अम्बरराजधानी विजय० २ ठा० ३ उ० । जम्बूद्वीपे मेरोः पश्चिमभागस्थे सीतोदाया महानद्या दक्षिणभागस्थे चक्रवर्त्तिविजयक्षेत्रे, स्था० ८ ठा० ३ ॐ० | स्वनामख्याते ब्रह्मलोकविमाने, नपुं० । स० ६ सम० । दो सुपरहा । स्था० २ ठा० ३ उ० । सुपरकंत सुपरक्रान्त-वि० सुष्ठु पराक्रान्तं पराक्रमः तपः प्रभृतिकं येषु तानि । शोभनपराक्रमवत्सु भ० ३ ० १ ० । सुपरिउड सुपरिवृत - त्रि० । निरुपद्रवस्थाननिवेशिते, गृहस्थावस्थास्थावित्तं । सुपरिचाइ सुपरित्यागिन् भि० सुष्ठु शोभनेन प्रकारेण राज्यादि परित्यजतीत्येवंशीलः सुपरित्यागी शोभनप्रकारेपरित्यागवति, उत्त० १८ श्र० ।
"
सुपरिच्छिय कारण सुपरीचितकारक- वि० सुष्ठु देशकालपुरुषौचित्येन श्रुतबलेन च परीक्षितं तस्य कारकः सद्यः न यथाकथंचनकारी । तस्मिन् व्य० ३ उ० । ( तत्स्वरूपम् 'बहार' शब्दे षष्ठभागे उक्तम् । ) सुपरिडियमुपरिस्थित त्रि० शोभनतया परिस्थित नि० चू० १३० ।
सुपरिचिडिय-सुपरिनिष्ठित वि० अतिनिपुणे २०१२ त्रि० । कल्प०
(२६१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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श्रधि ।
सुपरिसुद्धि-सुपरिशुद्धि-स्त्रा० सुष्ठु विशुद्ध, पञ्चा०११ विव० सुपरथ- सुप्रशस्त- त्रि० अतिशुभे पश्चा० १८ प० ।
।
1
श्राव० ।
सुपात्रय सुपापक- त्रि०/ पापयुते, उत्त०१२ न० | "कोहो य मागोय बढो य जेर्सि, मोमं श्रदनं च परिग्गदं च । ते माणा जातु ताई सुपाया ॥१॥" उत्त१२० सुपास सुपार्श्व ० खनामच्या तीर्थकरे शा० म० ।
सम्पति सुपार्श्वः तस्यापमोचतो नामान्यर्थः शोभवान पापा पार्थः । तत्र सर्व एव भगवन्त एवं भूतातो विशिष्टं नामान्यर्थमनिधित्सुराह
1
भ
गभगए जं जगी, जावसुपासा ततो सुपासजियो । यतो गर्भगते भगवति तत्प्रभावतो जननी जाता सुशोभना ततो जिनः सुपार्श्व इति नाम विषवीकृत एवं सामान्याभिधानं विशेषाभिधानं वाऽधिकृत्यान्वर्थाभिधानविस्तरो भावनीयः प्रा०म० १ ० ० ० ६० जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अस्यामवर्दिए जाते रूपमें तीरे अनु जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुसजि त्रिष्यतृतीय तीर्थंकरे, स० | प्रब० । ति०। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे जाते तृतीये कुलकरे, ब० खा० महावीरस्य पितृव्ये, आचा०२० ३०० (सुपार्श्वस्थ सर्वात तिथवर चतुर्थमा २२४७पृष्ठे उक्का) "तो उपायो सुपासो" तृतीय उपाधिजीयः सुपार्श्वः उदारजीवो भविष्यति । ती० २० कल्प। स्था० । सुपार्श्वस्य पञ्चनवतिर्गया पश्ञ्चनचतिर्गणधराच ति० सुपासस्स णं श्ररहयो पंचाणउड़ गया पंचणउइ गणहरा होत्था । स० ६४ सम० ।
1
२४१
सुप्पराय
रहा दो धणुसयाई उई उच्चतेय होत्था 1
मुपासे
स० १५० सम० ।
सुपासस्स र ८६ सम० ।
छलसीइ वाइसया होत्था । स०
[पापीयायां पार्श्वनाथशिष्य
सुपासा सुपार्श्व श्री० शिष्यायाम्, स्था० ।
अजावि सुपासा पासावचिजा आगमेस्साए उस्सप्पणी चाउञ्जामं धम्मं पद्मवित्ता सिजिहिंति ०जाब तं काहिंति । ( सू० ६६२ X )
आयोऽपि खार्थिकापि सुपा सुपायाभिधाना-पा पत्यीया पार्श्वनाथशिष्य शिष्याः चत्वारो यामा महाव्रतानि यत्र स चातुर्यामस्तं प्रज्ञाप्य सेत्स्यन्ति । एतेषु च मध्यमतीर्थङ्करत्वेनोत्पस्यन्ते केचित्केचित्तु केवलित्वेन "भवसिद्धिश्रो उ भय सिक्रिमा रातित्थम्मि" इति वचनादिति भाषः । स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
सुषिवासिय सुपिपासित - वि० सुतरामतिशयेन पियासितः । श्रत्यन्तं तृषिते, उत्त० २ श्र० ।
सुपीठ - सुपीठ - पुं० । पञ्चमेऽहोरात्रमुहूर्ते, जं० ७ वक्ष० । सुपुत्र सुपुत्र ५० सुशिक्षित नसून - ।
स्था०
६ ठा० ३ उ० |
सुपुरिस - सुपुरुष - पुं० | दाशिणात्यानां किंपुरुषाणामिन्द्रे
स्था० ४ ठा० १ उ० | उत्तमतरे, पञ्चा० १२ विव० । सुपरिसपुर- सुपुरुषपुर १० स्वनामध्यात नगरे यत्र न जिद्राजा निवसति । प्रा० चू० ४ अ० । सुपेसल सुपेशल - त्रि० । सुतरामतिशयेन पेशलानि मनोराणि । श्रत्यन्तमनोहरे, उत्त० १२ श्र० ।
1
सुप्प - सूर्य - न० । धान्यशोधक भाजनविशेषे, शा० १ ० ८ अ० । सूत्र० । नि० चू० । प्रश्न | आचा० । सुप्पच सूर्यकत्रि० सू माने बालके यः 3 शू कृत्वा व्यज्यते तस्य सूपक एव नाम स्थाप्यते । अनु० । सुप्पट्ट - सुप्रतिष्ठपुं० सूर्यदेवस्य पूर्वभये जीये, स्था० १०
डा० ३ उ० ।
सुप्पइडुग-सुप्रतिष्ठक न० आधारविशेषे जी० ३ प्रति०
"
४ श्रध० ।
मुप्पहड्डिय-सुप्रतिष्ठित भि० शोभनतया श्रेष्ठे, 'सुपाडिय कुम्म व्व चारुचरणा" सुष्ठु शोभनं यथा भवति एवं प्रतिष्ठिताः कूर्मवत् उन्नतत्वेन चारवश्चरणाः पादा येषां ते तथा । जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
सुप्पइया सुप्रतिष्ठा स्त्री० दक्षिणचकसंवन्धिकानफूटवास्तव्यायां महर्द्धिकविषकुमारिकायाम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० । जं० ।
।
सुप्पउन सुप्रयुक्त त्रि० सुष्ठु प्रयुक्तं प्रयोग व्यापारो यस् स तथा । शोभन व्यापारवति, शा० १ ० १ श्र० । सुप्पराय - सूर्पगत- न० | सूर्पाकारे व्यजने " 3 सुप्परायकक्षाकारं भवति । सब्वजणवयम्पसिद्धं तेण वायं करेति " मि० बू० १ ३० ।
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(५१) सुप्पडिबुद्ध अभिधानराजेन्द्रः।
सप्पबुद्धा मुप्परिद-मुप्रतिबुद्ध-० । आर्यसुदस्तिनः शिष्ये , कल्प० सुप्पणहा-सूर्पणखा-स्त्री० । सूर्णमिव धान्यशोधकभाजनवि२ अधिक्षण | "तदनु च सुहस्तिशिष्यो, कौटिकका- | शेषवनखा यस्याः सा सूर्पणखा । स्वनामख्यातायां राबकम्बिकापजायताम् । सुस्थितसुप्रतिबुद्धी, कौटिकगच्छ- णभगिन्याम् , ती०२७ कल्प। स्तमः समभूत् ॥१॥" ग० ३ अधि।
सुप्पणिहाण-सुप्रणिधान-न० । सुष्ठु-शोभनं प्रणिधानं सुनसुप्पडियामंद-सुप्रत्यानन्द-त्रि० । उपकृतेन कृतोपकारस्य | णिधानम् । पं० सू०१ सू०। प्रणिधानविशेष, स्था। मन्तरि, स्था०४ ठा०३ उ०।
तिविहे सुप्पणिहाणे पामते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, मुप्परियार-मुन्नतिकार-नासुखेन प्रतिक्रियते-प्रत्युपक्रिय
वयसुप्पडिहाणे कायमुप्पणिहाणे । संजयमणुस्साणं तिते इति सुप्रतीकारम् , भावसाधनोऽयं तद्भवति । प्रत्युप- विहे मुप्पणिहाणे पसते , तं जहा मणमुप्पणिहाणे ; कारकरणे . स्था। अहणं से तं अम्मापियरं केवलिपबत्ते धम्मे प्राघवइत्ता
वयसुप्पणिहाणे , कायसुप्पणिहाणे (१३६४) स्था०
३ ठा०१ उ०। . पभाषित्ता परूवित्ता ठावइत्ता भवति । तेणामेव तस्स अम्मा
चउबिहे सुप्पणिहाणे पाम ते, तं जहा-मणसुप्पणिहापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो!1, (मू १३५४) 'रेप से' त्ति-अथ चेत् णमित्यलङ्कारे स पुरुषस्त
णे०जाव उवगरणसुप्पणिहाणे । एवं संजयमणुस्साण वि । म्-अम्बापितरं धम्म स्थापयिता-स्थापनशीलो भवति ,
सू० २५४४। अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः । किं कृत्वस्याह-'प्राघवात्ता' शोभनं संयमार्थत्वात्प्रणिधानं मनःप्रभृतीनां प्रयोजन थर्मामाच्याय-प्रहाय बोधयित्वा-प्ररूप्य प्रभेदत इति । अथ सुप्रणिधानमिति । इदश्च सुप्रणिधानं चतुर्विंशतिदण्डकपा-माख्याय सामान्यतो यथा कार्यों धर्मः, प्रशाध्य विशेष- निरूपणाय मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेव भवति चातो यथाऽसाबहिसादिलक्षणः प्ररूप्य प्रभेदतो यथा अष्टा- रित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याह-एवं संजयेत्यादशशीलासहनरूप इति, शीलार्थतन्नन्तानि वैतानीति । दि । स्था०४ ठा० उ०। 'तेणामेव' त्ति-ततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव न परिवहनेन । अ- कइविहे ण भंते ! सुप्पणिहाणे पामते? , गोयमा! तिविहे थवा-तेनैव धर्मस्थापकपुरुषेण न परिवाहिना तस्य-प्रत्यु- सुप्पणिहाणे पसत्ते, तं जहा-मणसुप्पणिहाणे, वयमुप्पणिपकरणीयस्याम्बापितुः 'सुप्पडियारं' ति-सुखेन प्रतिक्रियत
हाणे, कायसुप्पणिहाणे । मणुस्साणं भंते ! कइविहे सुप्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकारं, भावसाधनोऽयं, तद्भवति प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः , धर्मस्थापनस्य महोपकार
प्पणिहाणे पलत्ते ? , एवं चेव • जाव माणियाणं । स्वान् । आह च-" संमत्तदायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहु- (सू० ६३३४) भ०८श०७ उ० | पसुं । सम्वगुणमेलिया हि वि, उवगारसहस्सकोडीहिं॥९॥" सुप्रणिधानं शोभनेन प्रणिधानेन नात्र कालो नियम्यइति १ । स्था।
ते किंतु सुप्रणिधानमिति यदा यदा क्रियते तदा तदा प्रहेणं से तं भट्टि केवलिपपत्ते धम्मे प्राघवइत्ता पमवइ- सुप्रणिधानं कर्तव्यमित्यर्थः । सुप्रणिधानस्य फलमिद्धौ ता परूवत्ता ठावइत्ता भवति । तेणामेव तस्स भट्टिस्स प्रधानाचात् । उक्तं च-"प्रणिधानकृतं कर्म, मतं तीवधि
पाकवत् । साऽनुबन्धननियमा-च्छभांशाचैतदेव तत् ॥१॥"। मुप्पडियारं भवति, २ (स्था०) अहे णं से तं धम्मायरियं
इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् १ इत्याह-कर्तव्यमिदं भूयो भूयः,केवलिपनत्ताभो धम्मामो भट्ठ समाणं भुजो वि केवलि- पुनः पुनः संलशे सति तीव्ररागादिसंवेदनरूपे परतावुपमसे धम्मे प्राघवतित्ता जाव ठावतित्ता भवति तेणा- | त्पन्नायामिति यावत् । तथा त्रिकालं-त्रिसन्ध्यं कर्तव्यमेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं भवति ३। ( सू० मिदम् । पं० सू०१ सू०।। १३५ +)
सुप्पणिहियजोगि--सुप्रणिहितयोगिन-त्रि०। सुपरिणहितप्र. धर्मस्थापनेन तु भयति कृतोपकारः । यवाह-"जो जण जम्मि| जिते, दश० अ०१ उ० । ठाण-म्मि ठाविमो सणे व चरणे वा । सोतं तो चुयं सुप्पतिद्र-सुप्रतिष्ठ-त्रि० । शोभनावस्थाने, पश्चा०८विव०।। त-म्मि खेब काउं भवे निरिणो ॥१॥" ति, शेष सुगम- सप्पदंत-मर्पदन्त-
पुंक्षीरवरद्वीपस्य देवे. सू०प्र० १६ पाहु। स्वास स्पृष्ठमिति धर्मस्थापनेन चास्य भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः रुनः स्यादिति । स्था० ३ ठा०१ उ०।
सुप्पद त्ता-सुप्रदत्ता-स्त्री० । दक्षिणरुचकवास्तव्यायां दिक्कसुप्पडिलेहिय-सुप्रत्युपेक्षित-त्रि सुष्टु प्रत्युपेक्ष हेयोपादे
गा-गोभित्र-त्रिवासण्ठ प्रत्यक्ष हेयोपा मार्याम् , प्रा० क० १ ० । प्रा०म० । द्वी० । श्रा००। यतया सीर्थिकवादे सर्वज्ञवाद.प्राचा०१ श्रु० ५ ०.६ उ०।
| सुप्पबुद्ध-सुप्रबुद्ध-न० । उपरितनमध्यमवेयकविमान. स्था० सुतु शङ्कादिव्युदासन प्रत्युपेक्षितम् । सुष्टु सामीप्येन शाते ६ ठा० ३ उ०। शुद्धप्रत्युपेक्षख्या प्रत्युपेक्षिते, प्राचा०२७०१०१ सुप्पबद्धा-सप्रबद्धा-रखी। दक्षिणरुचकपर्वतस्य सिद्धायतप्र०१उ०।
नकूटवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम् , जं.५ वक्षः। सुप्पडिवेसिय-सुप्रतिवेशित-त्रि०। शोभना-शीलादिसम्पन्ना
श्रा०म० । द्वी०। श्रा० क० । सुष्टु अतिशयेन प्रबुद्धा उत्फु. प्रातिथिमका यत्र । शोभनप्रातिश्मिके,ध.१ अधि०। । योगादियमप्युत्फुल्ला । जम्ब्यां सुदर्शनायाम, जा
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सुप्पभ अभिधानराजेन्द्रः।
सुभग सुप्पभ-सुप्रभ--पुं० । भरतक्षेत्रे श्रागामिन्यामुत्सपिण्यां । म
सुबहत्तरगुणभ्रंशी । पिण्डविशुभयादिनाशके, जीतः । भविष्यति तृतीये कुलकरे. स्था०७ ठा० ३ उ० । विद्युत्कुमा- सुबहस्सुय-बमुहश्रुत-त्रि० । अतिशयागमछे , जीवा० २० रेन्द्रयोः हरिकान्तहरिशिखग्योदक्षिणदिग्लोकपाले , भ०
अधि०। ३ श०८ उ० । उन्मर्पिण्यां जाते चतुर्थबलदेवे, ति।
सुबाहु-सुबाहु-पुं० ऋषभपूर्वभवजीवस्य यजनाभस्य भ्रातसुप्पभे णं बलदेवे एकावनवासस यसहस्माई परमाउं
रि, मा० चू०१ श्रा याहुबलि पूर्वभवजीचे, पञ्चा०१६ विष०। पालइत्ता सिद्धे बुद्ध जाच सव्वदुक्खप्पहीण जाए ।
('उसह' शब्दे द्वितीयभागे १.१५ पृष्ठेऽस्य कथा गता।)“बा(सू० ५१४)
होबलं सुबाहुश्च, साधुविधासनां ध्यधात् ।" श्रा०क०१० 'सुप्पहे' त्ति-चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिननाथकालभावी त
भरतपूर्वभवजीव , प्रा० चू०१ श्र० । महापीठेन सह क्येकपाशवर्ष लक्षाण्यायुरुक्कम आवश्यकेतु पञ्चपश्चाश. जातायामृषभदेवस्य कन्यायाम प्रा० चू०१० । रुक्मिदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति | मकाउमर्पिरायां भावष्यश्चतु
कुणालराजस्य दुहितार च । स्त्री० । शा० १७०८१०। र्थबलदवे, स० । ती० । ति० । इक्षुवरद्वीपस्य देवे, सू० प्र० १६ पाहु । वी० । शिखरितलपर्वतकृटदेवे, द्वी० । श्रा. चू।
सुबाहुकुमार सुबाहुकुमार--पुं० । धारिण्यां देव्यां जाते -
दीनशत्रोः सुते, विपा०२ श्रु०१० । सुप्पभकंत-सुप्रभकान्त-पुं० । विद्युत्कुमागणां देवे. भ० ३ श०८ उ० । हरिसहहरिकान्तयोगिन्द्रम्य लोकपाले, स्था०
सुबुद्ध-सुबुद्ध--त्रि० । सम्यकशाते, पं० ० ४ द्वार । ४ ठा०१ उ०।
सुबुद्धि-सुबुद्धि-पुंगवाकुवंशोत्पन्नस्य प्रतिवुद्धिनामराजसुप्पभा-सुप्रभा-स्त्री०। धरणेन्द्रस्य नागकुमारेन्द्रस्य काल- स्यामात्ये, शा. १ धु०८०। सागरचक्रवर्तिना महामामहाकालशङ्खपालशैलपालानां लोकपालानामग्रहिष्याम् .
स्ये, न० । पभप्रपौत्रश्रेयांसपालितहस्तिनापुरवास्तव्ये श्रेस्था०४ ठा०२ उ०। तृतीयबलदेवस्य मातरि,स०। प्राय।
ष्ठिनि, कल्प०१ अधि०७ क्षण । ध० र अजितस्वामिनः शिविकायाम् . म०।
सुबोहिया-सुबोधिका-स्त्री० । विनयविजयनिर्मितायां कल्पसुप्पमजिय-सुप्रमार्जित-त्रि० । सुष्ठ प्रमार्जिते. श्राचा० २ सूत्रटीकायाम् .कल्प०३ अधि०६क्षण । "प्रणम्य परमश्रेयध्रु०१ चू०११०२ उ।
स्कर श्रीजगदीश्वरम् ।कल्पे सुबोधिकां कुर्वे,वृत्ति बालोपकासुप्पबुद्ध-सुप्रबुद्ध-पुं० । उपरितनमध्यमवेयकविमानप्रस्त- रिणीम ॥२॥" कल्प० । अधि०१ क्षण । टे, म्था. ठा०३ उ.। सुष्ठ-अतिशयेन प्रयोग प्रबधा समि--सरभि-पि० । सुरभिगन्धपरिणते, यथा धीखराडामणिकनकरत्नानां निरन्तरं सर्वतश्चाकचिक्येन सर्वकाल- दयः । प्रज्ञा०१ पद । श्राचा०। मुन्निद्रे, त्रि.। जी० ३ प्रति०२ उ० ।
सुभिगंध-सरभिगन्ध-पुं। सौमुख्य कारके गन्धभेद, स्था० सुप्पबुद्धा-सुप्रबुद्धा-खा० । दांक्षणरुचकसम्बन्धिकाञ्चनकू-१ठा०। श्राचा०। टवास्तव्यायां महर्द्धिकदिकुमारिकायाम् . स्था०८ ठा०३ उ० सुरभिगन्धि-त्रि० । सुरभिगन्धारिगने, प्रशा०१पद । स्थान सुप्पसारय-सप्रसारक-त्रि० । सुखन प्रमायेते पिराडादिप्रह-सभिसह--सरभिशब्द-पुं० । मनोज्ञशब्दे, शुभशब्दे, स्था० णार्थं प्रवयते इति सुप्रसारः । सुप्रसार एव सुप्रसारकः । १ ठा० । प्रशा। उत्त०२०। सुनेन प्रसार्य, उत्त०२०।
सुभ--सुख--न । पुण्यप्रकृतिरूपे, स्था०४ ठा०४ उ० । कर सप्रसाये-त्रि० । सुखेन प्रसारितु योग्ये, उन०२०।। सुखाने कारणस्य स्वपर्यायः१,उच्यते-जीवपुण्यसंयोगः सुसुप्पसिद्धा-सुप्रसिद्धा-स्त्री०। अभिनन्दनस्वामिनः शिविकाः | खस्य कारणं तस्य च सुखपर्याय एव । विश ! याम, स०।
शुभ-त्रि० । मङ्गलभूते, जी०३ प्रति०४ अधिः । शोभमाने, सप्पाव-समाप-त्रि० सुलभे, सूत्र०१६०२ भ०१ उ० । कल्प०१अधि०३क्षण । पार्श्वस्वामिनः प्रथमगणधरे, पुं०। कृच्छूलभ्ये, स्था०६ ठा० ३ उ०।
कर्म०५ कर्म० । नमिनाथस्य प्रथमगणधरे, स०। सुप्पिय-सुप्रिय-पुंअहोरात्रस्य पञ्चमे मुहलें,स०३० सम०।
सुभंकर-शुभंकर-न० । दक्षिण्योः कृष्णराज्यामध्ये वरुणलोसुफणि-सुफणिन्-न० । सुष्टु सुखेन वा फण्यते-क्वाध्यते कान्तिकदेवानामावासीभूते विमाने, स्था० ८ ठा० ३ उ० । तक्रादिकं यत्र सत्सुफणि । स्थालीपिठराविक भाजने, सूत्र | सुभकम्म-शुभकर्मन-न० । शुभवद्यकर्मणि , सू० प्र०१६ १ श्रु०४ अ०२ उ०।
पाहु० । मुबन्धु-सुबन्धु-पुं० । द्वितीयबलदेवस्य पूर्वभवधर्माचार्य,
सुभक्षण-सुभक्षण-पुं० । षष्ठे ऋषभदेवसूनी, कल्प०१ अ तिः । बिन्दुसारराजस्यामात्य, दश० ३ ० ।
धि०७ क्षण। सुबद्ध-मुबद्ध-त्रि० । सुतरां शुद्धे. सुवद्धसन्धिः सुबद्धौ स्वा
सुभखेत-शुभक्षेत्र-न । शुभस्थाने, सू०प्र०१६ पाहु । युभिः संधी यस्य स सुबद्ध सन्धिः । प्रश्न. ४ श्राश्र० द्वार ।
सुभग-सुभग-नला पनविशेष, नी० ३ प्रति०४ अधिकापा. सुबलि-सुबलिन्-पुं० । सुष्ठु बलवति, सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ०।
म० । प्रक्षा। रा० । ज०। वरधनुःपिमित्रे परिव्राजक, पुं०। सुबहुत्तरगुणम्भंसी-सुबहूत्तरगुणभ्रंशिन-त्रि। सुबहुसरगु उत्त० १३ १०। सौभाग्यगुक्ने, त्रि० । चं० प्र०२० पाहु । खान पिण्डयिशुद्धपादीन् अंशयति-विनाशयतीत्येवंशीलः | सू० प्र० । जमवालभे, स० ।
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(१६४) सुभगचउक अभिधानराजेन्द्रः।
सुभसीलगणि सुभगचउक सुभगचतुष्क-न०।सुभगसुस्वरादेययशःकीर्ति तंसिकानां चतुर्थेऽध्ययने सूचितम्)। नि०१७०२ वर्ग ४० रूपे चतुष्क, कर्म० ५ कर्म ।
म्वनामख्याते विमाने, नपुं०। स०१७ सम०। सुभगजालुजाल-सुभगजालोज्ज्वाल--पुं०। सुभगानि-रष्टि | सुभद्दा-सुभद्रा-स्त्री०। कोणिकम्य राश्याम , औ० । अहोकराणि यानि जालानि मुक्तागुच्छास्तैरुज्ज्वालः । नेत्रसुख
रात्रद्वयेन संपाद्यमाने प्रतिमाविशेष, स्था०४ ठा०१ उ० सौ. कारिमुक्कागुच्छोज्ज्वाले,कल्प०१ अधि०२क्षण ।
र्यपुरे धनञ्जयश्रेष्ठिनो भायाम ,प्राव०५०ी वसन्तपुरवास्तसुभगजोग-सुभगयोग-पुं० । सद्व्यापारे, प्रश्न०५ संव० द्वार। व्यस्य जिनदत्तश्रेष्ठिनस्सुनायाम् .श्राव ०५०। पूर्वादिदिक
चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टये कायोत्सगकरणरूपायामहोरामुभगणाम-सुभगनामन्-न। सुभगात् सुभगनामोदयन स
प्रद्वयमानायां प्रतिमायाम् , स्था० २ ठा० ३ उ० । चम्पानबजनेष्टो भवति, यदुदयादनुपकार्यपि सर्वस्य मनःप्रियो
गरीवास्तव्यजिनदत्तस्य दुहितरि.पाचू०५ अ०। (तदुदाभवति तत्सुभगनामेत्यर्थः । तदभ्यधायि "अणुवकए वि
हरणं च 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे ४२७ पृष्ठे गतम् ।) बहूर्ण, होर पित्रो तस्स सुभगनामुदओ" त्ति "सुभगुदर वि
ऋषभदवस्य प्रथमश्राविकायाम् , पा० म०१ अ कल्पा कोड, कंची आसज्ज भगो जइवि। जायह तद्दोसाओ,जहा
श्रा० चू० । वाराणसीनगरीवास्तव्यस्य भद्राभिधानसाथअभब्वाण तित्थयरो ॥१॥" "सुभगाओ सब्बजणटो" |
वाहस्य भार्यायाम् , सा च बन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमायकर्म०१ कर्म । नाभेरुपरितनभागादिषु । श्राका प्रव०।
तमायसिंघाटकं पुत्रलाभं पप्रच्छ । स च धीमचीकथत प्रा. सुभगतिग-सुभगत्रिक-न० । सुभगसुखरानेयम्वरूपे त्रिके,
वाजीच सा । स्था०१० ठा० ३ उ०। गोशालकमातरि . कर्म०५कर्म०।
स्था० १० ठा० ३ उ । भूतानन्दस्य नागकुमागेन्द्रम्य चित्रा सुभगा-सुभगा-स्त्री० । खताभेदे. प्रशा० १ पद । सुरूपना. ख्यलोकपालकस्य स्वनामख्यातायामग्रमहिष्याम् .भ..श. स्रो भूतेन्द्रस्याग्रमहिष्याम् , स्था०४ ठा०१ उ०।
५ उ० । भम्भसार पुत्रस्य कोणिकस्य भार्यायाम् . श्रो। सुभगाकारा--सुभगाकारा-स्त्री०। सुभगमाकरोतीति सुभगा चम्पायां स्वनामस्थातायां देव्याम् . ती०३४ कला । सुदर्शकारा । दुर्भगवस्तुनः सुभगकारिकायां विद्यायाम् . सूत्र०२
नायां जम्म्याम . सुभद्रा शोभनकल्याणभागिनी. मह्यम्या: ७०२ १०।
कदाचिदुपद्रवसंभवो महर्दि केनाभिनयात् । जं०४ बक्ष। सुभगुरुजोग-शुभगुरुयोग-पुं० । सुन्दरधर्माचार्यसम्बन्धे, प- नन्दायां पुष्करिण्याम . द्वी। अयन्तियास्तव्यायामयन्तिशा०४ विव० । विशिष्टचारित्रयुक्ताचार्यसंबन्धे, ल ।
सुकुमालमारि, प्रा. क०४ अ। मौर्यपुरे वास्तव्यस्या, सुभघोस--शुभघोष-पुं० । पार्श्वनाथस्य द्वितीये गणधरे, स०
धनञ्जयश्रेष्ठिनः पल्याम् , पा० क०४०। दाक्षणाअनाद्रे
दक्षिणभागस्थायां म्बनामख्यातायां पुष्करिण्याम् , दी। ८सम०।
वैरोचनेन्द्रस्य बले रामस्सोमस्य महाराजस्य स्वनामन्यातासुभजोग-शुभयोग-पुं० । कुशलव्यापारे, पं०व०२द्वार।
यामग्रमहिष्याम् , स्था० ४ ठा० । द्वितीयबलदेवमातरि, सुभड--सुभट--पुं० । शोभनयोडरि,सूत्र.१७०३ १०१ उ०।
प्राय० १ १०। बहुपुत्रिकायाः पूर्वभवजीवे सार्थवाहस्य सुभडपाल -सुभटपाल-पुं० । त्रिशतजिनभवनचतुःशत लौकि
भार्याम् . नि०१ श्रु०३ वर्ग ३ अ०। (तत्कथा च ' यहुप- . कप्रासादाष्टादशशतविप्रगृहपत्रिंशच्छनवणिग्गेहनवशनारा- त्तिया' शब्दे पश्चमभागे उका।) भरतचक्रवर्तिनो भार्यामसप्तशतवापीद्विशतकूपसप्तशतसत्रागारविराजमानस्य अ- याम् , स० । भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजमेरुनिकटवर्तिनो हर्षपुरस्याधिपतौ, यत्र पुरे श्रीप्रिय- जस्य कालवालमहाराजस्याग्रमद्दिष्याम् , स्था०४ ठा०१ उ०॥ प्रन्थसूरयोऽभ्युपेयुः । कल्प०२ अधि०८ क्षण ।
सुभमह-शुभमति-पुं०। ऋषभदेवस्य नवाशीतितमे पुत्रे, सुभणाम--शुभनामन्--न । तीर्थङ्करादौ पूज्ये चस्था० नाम
कल्प.१ अधि०७ क्षण। कर्मभेदे, यदुदयानाभेरुपर्यवयवाः शुभा भवन्ति तच्छुभनाम। सुभमग्ग-शुभमार्ग-पु० । शानस्य प्राधान्य व्यवहारस्य च यच्छिरःप्रभृतिभिः स्पृष्टः परोहष्यतीति तेषां शुभन्यम्। कर्म० गौणता यत्र भवति स शुभमार्गः। उत्तममार्गे, द्रव्या०१ ५कर्म। नाभेरुपरितनभागादिषु. स्था०२ठा०४ उ०। श्रा०। अध्या। सुभत्ति-सुभक्ति-स्त्री०। प्रान्तरप्रीती, जीवा०६ अधि। सुभय-सुभग-त्रि० । सौभाग्ययुक्त , भ० १२ श०६ उ०। सुभदीहाउत्ता-शुभदार्घायुष्कता-स्त्रीवादीर्घायुष्कतायाम्, सुभल-सुभल-पुं०। शेखरके मस्तकाभरणविशेषे , मा०१ स्था० ३ ठा०१ उ०। (व्याख्या 'माउ'शब्ने द्वितीयभागे श्रु०८१०। १२ पृष्ठे गता।)
| सुभवेयणतर-सुखवेदनतर-त्रि० । अतिशयितः सुनेन मोसभट्ट-सभद्र-पुं० । अधस्तनमध्यमवेयकविमानप्रस्तटे , हजन्योन्मादापेक्षया अक्लेशन बेदनमनुभवनं यस्यासौ सुस्त्रस्था०६ ठा०३ उ०। षष्ठयक्षनिकाये, प्रशा०१ पद । शाखाञ्जनी- वेदनतरः । मोहजनितग्रहापेक्षया अकृच्छानुभवनीयतरे, भ० नगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे शकटपितरि,स्था०१० १श०७ उ०। ठा०३ उ विपा०शिस्त्ररितलकूटविशेषदेवे, दी। भद्रबाहु- | सुभसीलगणि-शुभशीलगणिन-पुं०। तपागच्छीयमुनिसुस्वामिनि,पं०चू०१कल्पा कूणिकपुषस्य कृष्णकुमारस्य पुत्रे,(स न्दरसूरिशिष्ये,येन स्नात्रपश्चाशिका पश्चास्तिकायप्रबोधो भ. च वीरान्ति के प्रवज्य वर्षचतुष्टयं बतपर्यायं परिपाल्य उत्कृ- रहेश्वरस्तोत्रवृत्तिश्चेत्यादयो अन्था रचिताः। विक्रम १५२९ घमायुरनुपाल्य ततश्युतो महाविद सेत्स्यति इति कल्पाव- संवत्सरे मयं वर्तमान भासीत् । जै००।
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सुभा
(६६५) अभिधानराजेन्द्रः ।
सुमह सुभा-शुभा--स्त्री० । रमणीयविजयराजधान्याम् ,जं०१ वक्ष सब्भिसह-सुरभिशब्द-पुंसौख्यकृच्छब्दे,स्था०३ठा०१३० । दो सुभायो । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
सुमइ-सुमति-पुं० । शोभना मतिरस्येति सुमतिः। तथा गर्भसुभाविय-सुभावित-त्रि० । तत्त्वभणनात्मुष्ठु भाविते , श्री स्थ जनन्याः सुनिश्चिता मतिरभूदिति सुमतिः।ध०२अधिः। सुभावियचित्त--सुभावितचित्त-त्रि० । सुभाषितान्तःकरणे ,
श्रा० म०। दर्श०४ तत्व।
शोभना मतिरस्येति सुमतिः । सर्व एव च भगवन्तः सुमसुभासिय-सुभाषित-न० । सुष्ठु-अतिशयेन भाषितम्-प्र- तय इति विशेषाभिधानप्रतिपादनार्थमाहतिपादितं सुभाषितम् । श्रातु । शोभनव्यक्तबापे , प्रश्न०२ जणगी सम्बत्थ विणि-च्छएसु सुमइ त्ति तेण सुमइजियो। संव० द्वार ।" तीसे सो वयणं सोचा , संजयाण सुभा- येन कारणेन गर्भगते भगवति सर्वेषु विनिश्चयेषु कर्तसियं।" उत्त०२८ १०
व्येषु सुमतिरतीब मतिसंपन्ना जाता तेन कारणेन भगवान् सुभाश्रित--त्रि० । कल्याणयुक्ने, प्रश्न० २ संव० द्वार। सुमतिजिनः,जननीसुमतिहेतुत्वात् सुमतिरिति भावः। शोभसुखाश्रित-त्रि० । सुखसंयुते, प्रश्न०२ संव० द्वार ।
ना मतिरस्मादभूदिति व्युत्पत्तेः । तथा च वृद्धसम्प्र
दायः-"जणणी गभगए सवत्थ विणिच्छएसु अतीव मति. सुधाश्रित-त्रि० । अमृतमाश्रिते , प्रश्न०२ संव० द्वार ।
संपन्ना जाया,दोरहं सवत्तीणं मयपझ्याणं वबहारो छिनो । सुभासुभ--शुभाशुभ--त्रि०। शुभवर्णगन्धादिष्नु अशुभवर्णग
जहा मम पुत्तो भविस्सइ सो जोव्यणस्थो एयस्स असोगन्धादिषु च । भ०६ श० ३२ उ०।।
घरपायवस्स अहे ववहारं तुभं छिदिहिति ताव एगाड्या उ सुभिक्ख-सुभिक्ष-त्रिका शोभना शुभा भिक्षा दार्शनिकानां यत्र
भणइ एवं भवतु, पुत्तमाया नेच्छा, भणइ-ववहारो छिज्जउ । तत् । रा० । झा० । अन्नादीनां सम्भवे, व्य०३ उ० । सुकाले , ततो भावं नाऊण छिन्नो ववहारो दिनो तीसे पुत्तो, एवस्था०१ ठा० । सुभिक्षसंयुते , ना० १ श्रु०१० । स्था। मादी गभगुणेणं जणणी सुमती जाय त्ति सुमतिनामं कयं ।" श्री० । सुलभे, वृ०१ उ०३ प्रक० । धायंति वा सुभिक्ख प्रा०म०२अास्यामवसर्पिण्यां भरतक्षेत्र जाते पञ्चमतीर्थति वा पगट्ठा । नि० चू०५ उ०।
करे,पश्चा०१६विव०स० नं० श्रा०चूला कल्पना अनुभव। सुभूम--सुभम--पुं०। भरते वर्षे अस्यामवसर्पिरायां जाते को- स्थाका स्वनामख्याते राशिगोशालको देवलोकाच्च्युतः सन् रख्यगोत्रोत्पन्ने अष्टमचक्रवर्तिनि तारायां जनिते कार्तवीर्यपु.
विन्ध्यगिरिपादमूले पुण्डूकेषु शतद्वारे नगरे सुमते गशो भ. बे, प्रव०२०८ द्वार। दश । ('माण' शब्दे षष्ठभागे कथोक्रा।) द्रग्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोत्पत्स्यति । भ० १५ श० । स्व
नामख्यानेऽनगारे, महा। सन्ती कुन्थू य अरो, हवइ सुभूमो य कोरवो । स० । सिज्जैसे सत्ततरी, पढमो सिस्सो य गोत्थुमो होइ।
से भयवं! जे ण से सुमती से भव्ये उयाहु अभब्बे?, गोछाबट्ठी य सुभूमो , बोधव्वा वासुपुजस्स ।। ति।
यमा! भब्वे । से भयवं! जइ ते णं भव्वे ताणं मए समा
णे कहिं समुप्पन्ने?, गोयमा परमाहम्मियासुरेसु । से भयवं ! .' सुभूमो मृत्वा नरकं गतः । स्था०२ ठा०४ उ०।
किं भव्ये परमाहम्मियासुरेसु समुप्पञ्जइ ?, गोयमा! जे केह, मुभूमिभाग-मुभूमिभाग-न०। पृष्ठचम्पाया बहिरुधाने, सू१०१ श्रु०८ श्र० । झा०।
घणरागदोसमोहमिच्छत्तोदएणं सुखासियं पि परमहिमोवसुभेरव-सुभैरव--त्रि० । अत्यन्तभयानके, उत्त०१६ अ०। एसं अवमन्ने ता णं दुवालसंगं च सुयअन्नाणी मइअन्नासुभोग-सुभोग-न० । शतद्वारस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौर- णी किरियं अयाणित्ता य समयसम्भावं अणायारं पसंसिस्त्ये दिग्भागे स्वनामख्याते उद्याने , भ०१५ श० ।
याणं तमेव उत्थपेजा , जहा सुमइणा उत्थप्पियं भसभोगा-सभोगा-स्त्री० । अधोलोकवासिन्यां विकमार्याम. वति । एए कुसीले साहुणो । अहा णं एग वि कसीले तो प्रा०म० १० प्रा० क० । श्रा० चूछ । ति० महाविदेहवर्षे
एत्थ जगे न कोई सुसीलो अत्थि, निच्छियं मए एतेहिं माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य सागरकूटवासिन्यां दिकुमा- समं पव्वजा न कायध्वा,तहा जारिसो यं निब्बुद्धिो तारीदेव्याम् , जं०४ वक्षः।
रिसो सो वि तित्थयरो त्ति एवमुच्चारेमाणे णं गोयमा ! सुभोदय--शुभोदक-न० । तीर्थजले, कल्प० १ अधि० ३ क्षण।
सहतं पि तवमणुढेमाणे परमाहम्मियासुरेसु उववज्जेजा। सुभोम--सुभौम--पुं० । जम्बूद्वीपे भरते वर्षे आगामिन्यामुत्स
कहं उक्चजे १ । से भयवं! परमाहम्मियासुरदेवाणं उब्वडे पिण्यां भविष्यति स्वनामख्याते द्वितीयकुलकरे,स्था०७ ठा०
समाणे से सुमती कहं उववजेजा?, गोयमा! तेणं मंदभा३ उ० । यत्र ग्रामे छद्मस्थत्वेन विहरन महावीरस्वामी स्त्रीखामग्रतोऽअलिकरणरूपेण गोशालकदोषण ताडिता । श्रा०
गणं अणायारपसंसुस्थपणं करेमाणेणं सम्मग्गपणासणं अम०१०।
भिणंदिय तकम्मदोसेणं अनं असंतसंसारियत्तणमहिजियं, सुम्भि --सुरभि-पुं० । शुभे, प्रश्न०५ संव० द्वार।
तो कित्तिए उववाए तस्स साहेजा, जस्स णं अणेगसम्भिगंध-सुरभिगन्ध-घु मनोज्ञगन्धे, स्था० १ ठा। . पोग्गलपरियडेसु वि णत्थि चउगइसंसाराओ अवसाणं ति ।
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सुमह अभिधानराजेन्द्रः।
सुमा तहा वि संखेवो सुणसु गोयमा ! इणमेव जंबुद्दीवं दीवं | चेव जोगेणं पभूयमच्छियामहूए अभंतरे उ अञ्चंतले-- परिक्खित्रिऊण ठिए जे एस लवणजलही एयस्स पंज- वाडाइ काऊण तो तेसिं पक्कमंसखंडाणि बहुणि ज-- धा स सिंधू महानदी पविट्ठा तप्पएसानो दाहिणणं दि- च्चमहुमअभंडगाणि पक्खिवंति । तो एयाई करिय सुसाभागेणं पणपन्नाए जोयणेसु वेइयाए गम्भंतरं अस्थि प- रुंददीहमहद्दमकडेहिं आरुभित्ता णं सुसाश्री पोराणमज्जस्सिं ताव दायर्ग नाम अद्धतेरसजोयणपमाणं हत्थिकुंभायारं अत्थिगामहूओ य पडिपुन्ने बहूए लाउगे गहाय पडिसं छलं-तस्स य लवणजलोवरि णं अट्ठजोयणाणि उस्सेहो। ताव दायगत्थलमागच्छंति जाय गं तत्थागए समाणे तहिं च णं अच्चंतघोरतिमिरंधयारात्रो घडियालगसंठाणा- ते गुहावासिणो मणुया पेच्छंति ताय ग तेसिं रयण
ओ सीयालीसं गुहाओ । तासु च णं जुगलं निरंतरे जल- दीवगणिवासिमणुयाणं वहाय पडिधाति । तो ते तेयारिणो मणुया परिवति । ते च वञ्जरिसमनारायसंघय- सिं महुपडिपुनं लाउगं पयच्छिऊणं अब्भत्थपोगेणं रण महाबलपरक्कमे अद्भुतेरसरयणीपमाणेणं संखेजवासाओ तं कट्ठजाणं जइणयरवेगं दुवं खेविउं रयणदीवामहुमञ्जमंसप्पिए महावहो इत्थिलोले परमदुव्बन्नसुउमाल
भिमुहे वचंति । इयरे य तं महुमंसादी य पुणो मुट्टयरं अणिट्ठखररूसियतणू मायंगवइकयमुहे सीहघोरदिट्ठी क
तेसि पिदिए धावंति, ताहे गोयमा! जाव णं अच्चासन्ने यंतभीसणे अनामियपिट्ठी असणि व्य निट्ठरपहारा दप्पुटुरे
भवंति ताव णं सुसानो महुगंधदवसकारियपोराणमय भवंति। तेसिं ति जाओ अंतरंडगगोलियाओ ताओग
ज्जं लावुगमेगं पमोत्तुणं पुणो वि जइणयरवेगेणं रयण--
दीवाभिमुहा वच्चंति । इयरे य तं सुसाश्रो बहुगंधदव्वसं-- हाय चमरीणं संतिएहि सेयपुच्छवालेहिं गुंथिऊणं जे के
सकरियपोराणमञ्जसंसाइ य पुणो सुदुक्खयरे तेसि पिट्टिए इ उभयकन्नेसु निबंधिऊम्म महरघुनमजच्चरयणत्थी सागरमणुपविसेजा से गं जलहत्थिमहिसगोहिगमयरमहा
धावति । पुणो वि तेसिं बहुपडिपुन्नं लाउगमेगं मुंचं--
ति । एवं ते गोयमा ! महुमजलोलीए संपलग्गेत्ता वा मच्छतंतुसुंसुमारपभितिहिं दुद्रुसावतेहिं अभीए चेव सव्वं
णयंति जाव ण ते घरट्टसंठाणे वइरसिलासंपुडे , तो पि सागरजलं आहिंडिऊण जहिच्छाए जच्चरयणसंगह
जाव णं तावइयं भूभागं संपरायंति ताव णं जमेवासन करी य अयसरीरे आगच्छउ । ताणं च अंतरंडगगो
वइरसिलासंपुडं जंभायमाणपुरिसमुहागारं ( विडाडियं ) लियाणं संबंधेणं ते चरण गोयमा ! अणोवमं सुघोर
विहाडियं चिट्ठइ तत्थेव जाई महुमजपडिपुन्नाई समुद्ध-- दारुणं दुक्खं पुव्यजियरोद्दकम्मवसगा अणुभवंति । से भ
रियाई सेसलाउगाई ताई तेसि पेच्छमाणाणं तत्थ मोत्तणं यवं ! केणं अद्वेणं?, गोयमा! तेसि जीवमाणाणं को सम
नियनिलएसु वच्चंति । इयरे य महुमजलोलीए त्थो ताओ गोलियाो गहेउं । जे जया उण ते घेप्पंति
जावणं तत्थ पविसंति ताव णं गोयमा ! जे ते पु-- तया बहुविहाहिं नियंतणाहिं महया साहसेणं सन्नद्धवद्ध
ब्वमुक्के पक्कमसखंडे जे य ते महुमजपडिपुन्ने भंडगे जंच करवालकुंतचक्काइपहरभट्ठोवेहिं बहुमूरधीरपुरिसेहिं बुद्धिपु
महुए चेवालित्तं सव्वं तं सिलासंपुडं पेक्खंति ताव णं तेसि बगेण सजीवियडोलाए पप्पंति । तेसिं च घिप्पमाणाणं
महंत परिश्रोसं महंतं तुट्ठी महंतं पमोदं भवइ । एवं तेसिं जाई सारीरमाणसाइं दुक्खाई भवंति ताई सब्बेसु ना
महमञ्जपकमंसं परिभुजेमाणाणं जाव णं गच्छंति सत्सद ग्यदुक्खेसु जइ परं उबमेआ। से भयवं! को उण तायो
दस पंचेव वा दिणाणि ताव णं ते रयणदीवनिवासिणों अंतरंडगगोलियारो गण्हेजा, गोयमा! तत्थेव लवण
मणुया एगे सन्नद्धबद्धमाउहकरगतं बहरसिलं वेढिऊणं समुद्दे अस्थि रयणदी नाम अंतरदीवं तस्मैव प
सन्नद्धपतीहिं णेच्छति । अन्ने तं घरदृसिलासंपुडं मायाडिसं ताव दावगाओ थलाओ एगतीसाए जोयणसए
लितागं एगट्ठ मेलंति । तम्मि य मेलेज्जमाणे गोयमा ! हिं तन्निवासिणो मणुया य भवंति । से भयवं! कयरे- जइ णं कहं वि तुडिविभागो तेहिं एकस्स दोराहं पि ग पोगणं खत्तमभावासिद्धपुव्यपुरिसेणं च सिद्धेणं च वाणिप्फेडं भवेजा तो तेसिं रयणदीवनिवासिमणुयाणं विहाणेणं । से भयवं! कयरे उण से पुवपुरिमसिद्धे वि- संविडविपासायमंदिरसबयाणं तक्खणा चेव तेसि हत्था ही तेसिं ति ?, गोयमा! तहियं ति रयणदीवे अस्थि वी- संथारकालं भवेजा । एवं तु गोयमा! तेसिं तेणं बञ्जसिसं एगूणवीसं अद्वारससतधणूपमाणाई घरट्टसंठाणाई व- लाघरसंपूडेणं गिलियाणं पितहियं चेव जाव णं सस्वइरसिलासंवुडाई ताई च विघाडेऊणं ते रयण- व्यदिए दलिऊणं ण संपीसिए सुकुमालिया य ताव णं दीवनिवासियो मणुया पुठवसिद्धखेत्तसहावामिद्धेणं तेसिंणो पाणाइकमं भवेज्जा । ते य भट्ठी वइरमिय दुहले ।
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सुमा
अभिधानराजेन्दः। तेसिं तु तत्थ य वइरसिलासंपुढं कएहंगगोणगेहिं प्रा- त्तमाए सो वि गोणे तमो वि मणुए महासम्मदिड्डीउत्तमादरेण अरहट्टघरघरसणिहगचकमिव परिमंडल भ-- अबिरए चकहरे तो वि पढमाए तो वि इम्भे सभी मालिय ताव णं खेडंति जाव णं संवच्छरं। ताहे तं ता- समणे अणगारे तो वि अणुत्तरसुरे तभो वि चकारे रिसं अच्चंतघोरदारुणं सारीरमाणसं महक्खसन्निवार्य महासंघयणी भवित्ता णं निचित्रकामभोगे जह समणुभवमाणाणं पाणाइकमं भवइ,तहा वि णो तेसि अ-| संपुनं संजम काऊण गोयमा ! से ण सुमइजीवे परिनिबुडिगणो फुडति,णो दो फले भवंति, णो संदलिज्जति णो डेज्जा । तहा य जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पासंडीणं पसंसं विदलिज्जति णो पहरिसंति णवरं जाई कायविसंधिसं- करेजा जे याविणं निराहगाणं पसंसं करेजा जेणे नियहयाणं धाणबंधणाई ताई सब्बाई निच्छुडे ताणं वि जज्जरी अणुकूलं भासेजाजेणं निएहयाणं माययर्ण पविसेजाजेणं भवंति । तो पुण इयरुवलघरट्ठस्सेव परसवियं चुम्ममिव |
निएहगाणं गंथं सत्थपयक्खरं वा परवेजा जे णं निराहगाणं किंचि अंगुलाइयं अद्विखंडं दट्टणं ते रयणदीवगे परिश्रो संतिए कायकिलेसाइए तवेइ वा संजमेइ वा जाणेइ वा विमासमुन्वहंते सिलासंवुडाई उबिघाडिऊणं ताओ अंतरंड- इ वा सुएइ वा पंडिचेइ वा अभिमुहमुद्धपरिसामझपगोलिगाओ गहाय जे तत्थ हणे ते अणेगरित्थंसघाएण
रिगए सिलाहेजा से विणं परमाहम्मिएसु उववजेजा । जविकिणंति । एतेणं विहाणेणं गोयमा ! ते रयणदीवनि
हासुमती। से भयवं! तेणं सुमइजीवे णं तकालं समणतंभवासिणो मणुया तामो अंतरंडगोलियाओ गेएहति । से
णुपालियं तहा वि एवंविहेहिं नारयतिरियनरामरविवुत्तोषाभयवं ! कहं ते तं संतारिमं अच्चंतघोरदारुणसुदुस्सहं
एहिं एवइयं संसाराहिंडणं । गोयमा! णं जमागमवाहाए दुक्खनिरयं विसहमाणे निराहारपाणगे संवच्छरं जाव लगग्गहण कारइत डभमव काल सुदाहससारहउभूय। णा पाणे वि धारयति । गोयमा! सकयकम्माणुभावाओ। ।
णं तं परियायं लिक्खइ,तेणेव य संजमं दुकरं मन अमंच (शषं तु प्रश्नव्याकरणवृद्धविवरणादवसयम् ।)
समणुत्ताए से य पढमे संजमे संजमपए जं कुसीलसंसग्गसे भयवं! तो वि से मए समाणो से सुमतिजीवे कहं णिरिहरणं । महा ण णो णिरिहरेत्ता संजममेव ण ठाएजा उववायं लभेजा ?, गोयमा! तत्थेव परिसं ताव दायगत्थ- ता तेणं सुमइणा तमेवायरियं तमेव पसंसियं तमेव उम्सप्पिलाभणेव कमेणं सत्तभवंतरे । तयो विदसाणे तो वि यसलाहियं तमेव अणुट्टियं ति । एयं च सुत्तमइकमित्ता ण कण्हे तो वि वाणमरे तो वि लिंबत्ताए वणस्सइए पच्छा एए जहा सुमती तहा अनेसिमवि सुंदरविउरसुदंतो वि मणुएसु इत्थित्ताए तो वि छट्ठीए तो वि सणसहरणीलभद्दसुभोमेयखग्गधारिभणेगसमणदुईतदेवरमणुयत्ताए कुट्ठी तो वि महक्काए जुहाहिवती गए । तो क्खियमुणिणादीणं को संखाणं करेजा,ता एयमडं वियत्ताणं वि मरिऊण मेहुणासत्ते अणंतवणप्फतीए तो वि कुसीलसंजोगे सम्बहा वाणीए। से भयवं किं ते साहुणोतअणंतकालाओ मणुएसु संजए तो वि मणुए महाने- स्स णं णाइल सङगस्स छंडेणं कसीले उयाहु भागमजुमित्तिए तो वि सत्तमाए तो वि महामच्छे चरिमो- तीए?, गोयमा! कहं सगस्स पवरयस्सेरिसो सामत्थो जेयहिम्मि तो सत्तमाए तो वि गोणे तो वि मणुए णं सच्छंदत्ताए महाणुभावाणं सुसाहूणं प्रवन्नवार्य तो वि विडवकोइलियं तो वि जलोयं तो विम- भासे । तेणं सट्टयेणं हरिक्सतिलयमरगयछविणो बावीसहामच्छे तो वि तंदुलमच्छं तो वि सत्तमाए तो वि यधम्मतित्थयरअरिट्ठनेमिनाहस्स सयासे वंदणवत्तियाए रासहे तो वि साणे तो वि किमी तो वि दडुरो गएणं आयारंग अणंतगमपजवेहिं पन्नविजमाणं समतो वि तेउकाए तो वि कुंथू तो वि महयरे तो वधारियं । तत्थ य छत्तीसपायारे पन्नविअति । तेसिंच वि चडए तो वि उद्देगिं तो वि वणप्फईए तो णं जे केइ साहू वा साहुणी वा अभयरमायारमइकमेजा से सं वि अणंतकालाओ मणुएसु इत्थीरयणं तो वि छद्रीए गारस्थिहिं उवम्मेयं अहन्नहा समणुढे वायरेजा, पन्नविजा तो वि कणेरू तणो वि सामंतियं नामपट्टणं, तत्थोव- वा तओण अणंतसंसारी भवेजा,गोयमा । जेणं तु महणंज्झायगेहासन्ने लिंबपत्तेणं वणस्सई । तो वि मणुएसुं खु. तगं अहिंगं परिग्गहियं तस्स ताव पंचमहब्बयस्स भंगो। जेणं ज्जित्थी तो वि मणुयत्ताए पंडगते तश्रो वि मणुयत्तेणं तु इत्थीए अंगोवंगाई णिजाइकणं णालोइयं तेणं तु बंभचेदुग्गए तो वि दुमए तो वि पुढवादीसु भवकायट्रिए | रगुत्ती विराहिया। तश्विराहणेणं जहा एगदेसदो पडो पत्तेयं । तो वि मणुए तो वि बालतवस्सी तमो विदडो भन्नइ तहा चउत्थमहव्वयं भग्गं । जेण य सहत्थे उवाणमंतरे तो वि पुरोहिए तभी वि मच्छे तो विस- १-कुश लसतर्गत. प्रसत्रमा पाइलग ' वर्णनमुक्तम् ।
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( ६६८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सुमह
सुमणा
प्याडिऊण दिना भूये पडिलाहिया तेरा तु तहयमहस्वयं भग्गं, जे अग्ग विसूरिओ उग्गओ भणिओ तस्स य विश्यवयं भग्गं, जेणं उस अफासुओदगे अच्छी पघातिहा अविहिए य थंडिला संकमणं कथं मयं सुमहरि सुमतिरिपुं० स्वनामरूपाते लक्ष्मीसागररि
भना मतिः सुमतिः । रागद्वेषरहितमतौ, त्रि० | कल्प०३ अधि०६ क्षण । पाण्डुसेनराजस्य सुतायां मतेर्भगिन्याम, स्त्री० । आ० क० ४ श्र० । श्राव० ।
शिष्ये, ग० ३ अधि० ।
।
कार्य वा अयं वासाकम्पस्स अंचलग्गेणं हरियं संघट्टय विज्जर फुसिओ मुहणंतगेणं अजयसार फडफडस्स वा उफायमुदीरियं तेगं तु पढमं महब्वयं भग्गे तभंगे पंच पि महब्ववाणं भंगो कओ तो गोयमा ! आगमजुतीएएते कुसीले साहु जओ से उत्तरगुणाणं पिगं इडुं किं पुरा जे मूलगुहा से भयवं ताए जयगाएवियारिऊणं महत्वए घेत्तव्वे । गोयमा ! इमे श्रट्ठे समहे से भय के अद्वेग गोयमा ! सुक्षमणे वा सुमा वएड वा तइयं मेयंतरं अहवा जहीच सुसमखुनम गुपालिया ग्रहाणं हीच सुसावगतमगुपालिया गोसमो समणत्तमणुमइयरेजा । यो स्रावगो सावयत्तमइयरेखा निरइयारं वयं पसंते वर्ष समगुडे, सवरं जे समयधम्मे से असंतघोर दुसरे ते असेसम्मक्खयं जहां पि अभयंतर मोक्सो । इमरे तु युद्धे देवचाई समास वा सो व परंपरेश मोक्खो नवरं पुणो चिं ते संजमाउत्ता जे से समणधम्मे से आवियारे सुविधारे पणवियारे तह त्ति समणुपालिया, उवासगाण पुण सहस्वाणि विधाये जो जं परिवाले तस्वाहारं च सभ भवे तमेव गिराहे से भयवं सो पुरा वाइलसङ्कगो कहिं समु पन्नो, गोयमा ! सिद्धीए । से भयचं ! कहं ?, गोयमा ! तेां महाणुभागेणं तेसिं कुसीलागं शितुट्टेऊणं तीए चेव बहुसावयतरुडसंकुलाए पोरकंताराईए सव्वपावकलिमलकलंकविष्यमुकं तित्थयरवयणं परमहियं सुदुल्लाहं भवसएस पि ति कलिऊणं अच्चंत विसुद्धा एवं फामुद्देसंमि निष्पडिकम्म निरायारं पडिवन्नं पायवावगमणमणससंति । अह अन्नया ं तेणेव परसेणं विहरमाणो समागयो तित्थयरो अरिदुनेमी तस्स य अगहने य अगुग्गहड्डाए तेरा य अचलियो भव (सतो) सिकाऊ उत्तमट्ठाए साहणीकया साइसया देसण । तमावन्नमायो सजलजलहरनिनायं देवदुंदुही निरघोस तित्थयरभारई मुहझवसायपरो यस्तो सवगसेटीए अम्बक रमे अंतगटकेवली जाओ । एते असं एवं बुच्चइ ! जहा गं गोयमा ! सिद्धीए । ता गोयमा कुलसम्म विष्पजहियाए एवइयं अंतरं मत्रइति चेमि । महा० ४ अ० । ऋषभस्य नवतितमे पुत्रे, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । शो
!
-
सुमउय - सुमृदुक - त्रि० । सुतरां मृदुकं सुमृदुकम्। श्रत्यन्तकोमले, कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
-
,
सुमंगल सुमङ्गल १० प्रयन्तनगर र वर्षे वि । विशेषे, यतिष्ठतीर्थकरे, पुं० प्र० ७ द्वार । श्राव० । श्र० म० । स्वनामख्याते प्रामे, कृतपरमासान्तपारणको वीरस्वामी य त्रागतः सन्सनत्कुमारेण वन्दितः, प्रियं च पृष्टः । आ० ०१ श्र० । श्रेणिक महाराजस्य पूर्वभवजीवे, आ० क०४ अ० । जम्बूद्वीपे भरते वर्षे आगामिन्यामुसर्पिरयांविष्यति - धर्म तीर्थकर स० शत्रुञ्जपश्यद्वारकारके स्वनामच्याते गृहस्थ. ती० १ कल्प | सुमंगला-सुमङ्गछा- बी० गजपुरनगरवास्तव्यस्य रामसञ्चयश्रेष्ठिनो भार्यायां गुणसागरमातरि ध० २०२ अधि० । भूयां पुणचूलस्य मातर ती ४१ कहा। भरताह्मी रूपयुगलस्य एकोनपञ्चाशत्पुत्रयुगलस्य च मातरि, ऋषभपत्त्याम्, कल्प०१ अधि०ऽक्षण । श्राचू०| स० । श्रा० म० । " सुमंगला जसवई भद्दा सहदेवी अहरसिरिदेवी आय० १ ० । " ।
,
L
सुमग्गिय सुमार्गित त्रिशोधनले पं० ०१ सुमड-सुमृत - त्रि० । सुष्ठु मृते, दश० ७ श्र० । सुमड-सुमृत० द०७०। सुमण-सुमनस् - - त्रि० । शोभनं धर्मध्यानादिप्रवृत्ततया मनश्चित्तं यस्य सः सुमनाः। सद्गुणान्वितमनस्कत्वे, पञ्चा० १० विव० । ० म० । सुखिनि, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । स्वनामयामापरिवाजकशिध्ये ० ० २ तश्य रुचकसमुद्रस्य पूर्वा०३०४ अधि डी० । गुच्छमेदे, प्रज्ञा० १ पद पुष्पे, नपुं० । बृ० १ उ० ५ प्रक० । अन्त० । दश० । सूत्र० । ज्ञा० ।
सुमणदाम- सुमनोदामन् - न० | पुष्पमालायाम्, शा० १ ०
१ श्र० ।
सुमणभद्द - सुमनोभद्र - पुं० । कस्यचिद् द्वीपस्य समुद्रस्य
०भावस्ती नगरीवास्त
"
गृहपती, अन्त०] । ( स च वीरान्तिके प्रव्रज्य बहुवर्षपर्यायं श्रामण्यं परिपाल्य विपुले पर्वते सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां पड़े बर्गे द्वादशेऽध्ययने सूचितम्) यक्षनिकाय, प्रज्ञा० १ पद ।
सुमन सुमनम् ० नन्दीश्वरसमुद्र पूर्वाध देवे ० २०१६ पाहु० । पूर्वार्धाधिपती सू० प्र० सुमखा--सुमनस्-स्त्री० । शक्राश्रमहिष्याः पद्माया दक्षिणपौ
।
रस्त्यरतिकर पर्वते राजधान्याम्, स्था० ४ ठा० २ उ० । स० [भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य लोकपालानामप्रमादच्याम् भ० १० श० ५ उ० । स्था० | चन्द्रप्रभस्य अनुमती
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सुमणा
सुय
,
जागरिका-निद्रानिरोधः स्वप्नजागरिका । स्वप्नसंरक्षणार्थे निद्रानिरोधे २०११ ० ११० ।
करप प्रथमशिष्यायाम् ति खनामरूपतायां मे | सुमिराजागरिया स्वप्नजागरिका स्त्री० स्वप्नसंरक्ष खिकमहाराजभार्यायाम्, अन्त० । ( सा च वीरान्तिके प्रत्रज्य विशतिवर्षाणि भ्रमस्यं परिपाल्य सिद्धेत्यन्तदशानां पथर्गस्य द्वादशेऽध्ययने सुचितम्) शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनाः। जम्भ्यां सुदर्शनायाम् भवति हि तां पश्यतां महर्द्धिकानामपि मनः शोभनमतिरमणीयत्वात् । जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
सुमिण भइ- स्वप्नभद्र - पुं० । माढरसगोत्रस्य संभूतविजयस्य षष्ठे शिष्ये, कल्प० २ अधि० ८ क्षण ।
सुमिरणुग्गह- स्वप्नावग्रह - पुं० । स्वप्नानां स्मरणे, करूप० १ अधि० ३ क्षण ।
"सरेभर-भर-भर-न-द
।
नमः
- - |
सुमर स्मृधा० समरसे, तङ्गणधरे बिम्हर- सुमर-पपर-पहा:" ८४७४५ इति मरते सुमित- सुमित्र- पुं० महिती सहज ॥ ज्ञातकुमारे ० १ ० अ० श्री पुरनगरवलयस्य सुमर इत्यादेशः । सुमरइ । स्मरति । प्रा० ४ पाद । समुद्रदत्तस्य पुत्रे, ध० २०२ अधि० ३ लक्ष० । (मिश्रीभाषोसुमरिचए - स्मर्तुम् - श्रग्य० । श्राध्यातुमित्यर्थे, “पुष्वकीलियाई परिकथा उबदार शब्दे द्वितीयभागे ७४१ पृष्ठे उज्जुबवद्दार सुमरित्तर " श्रान्रा० २ ० ३ ० । गता । ) स्वनामख्याते परिव्राजके, दर्श० २ तस्व । सुमरुवा सुमस्तु श्री० खनामरुयातायां अधिकमहाराजमा सुमितविजय सुमित्रविजय पुं० एकविंशतीर्थंकर - सुमरुत्-स्त्री० | यार्याम्, अन्त० १ थु ६ वर्ग ७ ० । (साच वीरान्तिके प्रव्रज्य पितरि, आय० १ ० | ति० | प्रब० स० । जम्बूद्वीपे भरते शिषित परिपाल्य सिद्धेत्यन्त कुद्दान वर्षे अस्यामुत्खयां जातस्य सगरमपर्तिनः पितरि था पष्ठवर्गस्य सप्तमेऽध्ययने सूचितम् । ) तितीर्थंकरस्य प्रथमभिक्षादायके, स० ६ सम० । सुमिता सुमित्रा श्री० । मुनिसुतमातरि, ती० १० कल्प । सुमहन्त - सुमहत् - त्रि० । अपारे, द्वा० २२ द्वा० । सुमहम्प सुमहार्थ ० मूल्य अधिमुदिव शि० अहिरे, श्री० श्री० ।
1
सुमुख सुझाव ०ि ते ०२ अधि० । सुपरमत्य-सुझातपरमार्थ प्र० परिज्ञातपरमार्थे, २ अधि० ।
1
सुमागहमागध पुं० [स्पयामभ्याले पीरस्वामिया पितृ
1
वयस्यराष्ट्र के प्रा० म० २ श्र० । श्रा० चू० । सुमालि सुमालिन् ५० लङ्कापुरीम्बरस्य देशमचस्य नि सुमुह-सुमुख पुं० स्पामख्याते काम्पिल्यराजे ० ० - पुं० । -
। ।
जके, ती० ५१ कल्प
,
9
सुमित सुन बाधविशेषे आ० ० १ ० सुमिण स्व० सामान्यफले स्वाये भ० १२० ११ उ० । ( एतेषां सम्यक् स्वरूपं वीरस्य १० स्वप्राश्य 'सुविण' शब्देवयन्ते) (जादि १० खरूपं 'वीर' शब्दे पष्ठभागे ।। "दुसुमं वा कुसुमं वा उग्गहएज्जा सर ऊसासाग
काउस्सगं " महा० १ चू० ।
'कंपिलं नगरं तस्य सुमुदो राया, सोनपासति खोके महितं श्रगकुडभी सहस्सपरिमंडिताभिरामं पुणो य विलुत्तं पडितं च मुत्तपुरीसारा मज्झे सो वि संबुद्धो, जो इंद्रकेतुं सुयलंकियं पासति सो विहरति । ” बिमलवाहनस्व राहो मन्त्रिणि श्र० चू० ४ श्र० । ती० । कल्प० । जम्बूद्वीप भरते वर्षे उत्सर्पियां भविष्यति सूक्ष्मापरमामके कुलकरे, ती० २० ति० संवदेवस्य धारिणीकृतिसंभूने पुणे, अत० ३ वर्ग:अ० (सच अरिनेः समीपे प्रम्रज्य गजसुकुमार इव दीक्षां परिपाल्य सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां तृतीय वर्गे नमेऽध्ययने सूचितम् । ) सुमुहुत-सुमुहूर्त्त - पुं० | सुन्दर मुहूर्ते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । सुमेरुपम- सुमेरुप्रम- पुं० मेघकुमारस्य तृतीयपूर्यमय जीये. कल्प० १ अधि० १ क्षण । ( ' मेघकुमार ' शब्दे षष्ठे भागे कथा गता । )
--
पापस्वनं दृष्ट्वा श्रालोचयेत् ।
( २६६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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वरं सुहासु सम्मं, सुविसगं समवधारए ।
जं तत्थ सुविशंग पाये, मारिसगं तं तदा भवे ।। ५१ ।। जां सुंदर पासे, सुमिखगं तो इमं महा परमत्वतनसारत्थं सदर सुपेतु गं ।। ५२ । देखा घालोयां सुद्धं, अट्टमट्ठाखविरहियो । रतो धम्मतित्थयरे, सिद्धे लोगग्मसंठिए ।। ५३ ।। महा० १ ० ।
तथा सुस्वप्नदुःस्वप्नाभ्यां यत्कथ्यते शुभाशुभं तत् स्वप्नाक्यं निमितम्। यथा-" देवेश्वात्मजान्योत्यगुरुच्छत्राम्बुजमेधं प्राकारद्विरदाम्बुरमविरमासाद संगम अम्भोधेन सुरासुतपोदनप स्थितं शिवदे स्वाये - गाम् ॥ १ ॥ इत्यादि । प्रष० २५७ द्वार ( मानुषत्वदौलभ्ये स्वप्नदृष्टान्तः 'मालुमत ' शब्दे षष्ठभागे गतः । ) २४३
तथा
"
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-
सुमेहा सुमेधा श्री ऊपलोकवासियां स्वनामयातायां दिक्कुमारिकायाम् आ० म० १ ० । स्था० ति० प्रा० चू० । सुमोक्ख- सुमोच - पुं० । भावरूपाविव्युदासेन मिरुपमसुखे,
पं० ० ३ द्वार ।
सुव-शुक-पुं० व्यासपुत्रे, डा० १०४०. धायात' शब्दे चतुर्थभागे २४०६ पृष्ठे कथा गता । ) पक्षिविशेत्रे,
प्रज्ञा० १७ पद ४ उ० ॥ श्र० । प्रश्न०
०
उ० सू० अवधारि उत्त० २ श्र० स० । श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृते, स्था० ८ ठा० ३३० ।
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ग्रुप
अवगते, सूत्र० १ ० १५ श्र० । श्रवणपथमुपागते, सूत्र० १ ध्रु० ५ ० १ उ० । श्रोत्रेन्द्रियेण विशेषतोऽभिमते, सूत्र० २ ० ४ अ० । उपलब्धे सूत्र० १० ५ ० १ ५० । अधीते, सूत्र० १ ० ३ ० ३ ० । श्रूयने इति श्रुतम् । भावे प्रत्यये कृते नपुंसकता । शब्दे, पा० । " सुर्य मे "भूपते तदिति प्रतिविशिष्टतानफलेपायोगार्थ भगवता निएम ग्रात्मीयकोटरायोपशमिकापरिणामाविष मित्युच्यते ततिम् अवधारितमिति यावत्। दश० ४ ० । ( सराणा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽत्रत्य'विस्तरो गतः । )
1
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सुयं मे उसंत भगवया एवमक्वायं । ( ० १ ) अस्य व व्याख्या संहितादिक्रमेणेति, आह व भाष्यकारः"पथी संभवतो विग्गदो विधाय दूसियसिद्धी ६ नयमय बिसेसओ नेयमसुतं ॥ १ ॥ " तत्र सूत्रमिति संहिता सा चानुगतेय सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वादिति । आह च" होइ कत्थो योतुं पयच्छेयं सुयं सुवाणुममो ति सूत्रे चास्त्रलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता उपास्यामेदो भयति अनधिगतार्थाधिगमाय च पादयो व्याख्यामेदाः प्रवर्त्तन्त इति तत्र प दानि - श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातमिति पपदेषु व्यवस्थापितेषु चालानिष्यनि पावसरः । तत्र वयं व्यवस्था- जस्थ उ जं जाज्जा, निक्खेवं निखिवे निरवसेसं । जत्थवि ण य जाणेज्जा चक्कयं निक्खिवे तत्थ " ॥ १ ॥ सि तत्र नामधुतं स्थापमाधुर्त प्रतीतम्। तमधीयानस्यास्य प पुस्तकम्यस्तं वा, भावश्रुतं तु श्रुतोपयुक्तस्येति । इह व भावयोगाधिकार (वा.)
संगमायुषा यशः कीययुवा वाधिकार इति, एवं शेषपदानां यथासम्भव निक्षेपो वाध्य इति उक्तः सूत्रालापकनिष्यन्ननिशेषः । पदार्थः पुनरेवम्-इकिल सुधर्मलामी पञ्चमो गलधरदेषो जम्बूनानानं स्वशिष्यं प्रति प्रतिपादयाश्चकार भूत-कति मे मया ''त जीवितं तत्संयमप्रधानता प्रशस्तं प्रभू या विद्य पस्यासापायुधामन्युध्यन् !-शिष्य!''
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1
निः सन्निहितस्यवहितसूक्ष्मवादबाह्याध्यात्मिकवकसंपदार्थेष्वव्याहतत्वेन जगति प्रतीतः अंध
- पूर्वभवोपासनी करनाम कर्मादिलक्षणपरमपुरुषप्राग्भा रो विलीनानादिकालीनमिध्यादर्शनादिवासना परितमहाराज्यों दिव्याद्युपसर्गवर्गसंसर्गाविवलितशुभध्यानमार्गे भास्कर व घनप्रातिकर्मघनाघनपटलविघटनोलसितत्रिम - लकेवलमानुमण्डली विबुधपतिद्पश्पटलजुप्रपादपद्ममभ्यमाभिधानपुर प्रथमचिनो जिनो महावीर स्तेन - भगवता अट महाप्राप्तिहार्य रूप समत्रैश्वर्यादियुक्रेन - मित्यमुना मानेकत्वादिमा प्रकारे 'पास' मिति मर्यादापा समस्त वारण्यापन क्या
(१७०) अभिधानराजेन्द्रः
"
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।
सुच कथित रूपातमारमादि वस्तुजातमिति गम्यते त्र श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवाम्यस्यै प्रतिपादनीयमित्याद-अन्यथाऽभिधाने प्रत्युनापायसाध वात् उक्तञ्च - " किं एतो पावयरं ? सम्म अहिगयधम्मसम्भावो । अन्नं कुठेसणार, कटुयरागम्मि पाडे " ॥ १ ॥ सि "म" त्यने । पकमद्वाराभिहितभावमाहारमनात्मानन्तर परम्परभेदभिन्नागमेऽयं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्नरागमः सूत्रतस्त्वान्मागम इत्याह - " श्रायुष्मन्नि ' स्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनःप्रह्लादयताचार्येोपदेशो देव इत्यादि कारणगुणोवती पहातो मसी आयरिश्रो ॥ १ ॥ " सि । श्रायुष्मत्वाभिधानं चात्यन्तमाहा दकम् प्राणिनामायुषो ऽत्यन्ताभीष्टत्वाद्, यत उच्यते " सब्बे पाया पियाज्या अपियवहा सुहासया दुक्खपडिकूला सधे जीविकामा समेत जीवयंपियं" ति । तथापि न मन्यन्ते पुत्रदारार्थसंपदः जीवि साथै नरास्ते तेषामायुरतत्रियम् ॥ १ ॥ इति । अथवा – आयुष्मनित्वनेन ग्रहणधारणादिगुणवते शिध्याय शास्त्रार्थी देय इति ज्ञापनार्थे सकलगुणाधारभूतस्वेनाशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रसमकारि । यत उक्तम् -" बुट्टे वि दो मेहे, न कराइभूमाउ लो
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"
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,
उधरणासमध्ये इ देयमति कारिभिम ॥ १ ॥” विपर्यये तु दोष इति । श्रह व " श्रायरिए सुतम्मिय, परिवाच तत्थपलिये अप णी, पुट्ठाषि न दुद्धा वंझा ॥ १ ॥” इति । तथा " 'तेने 'त्यनेत्यादिसिद्धताऽभिधायकेन प्रस्तुताध्ययनमायमाह - वक्तृगुणापेक्षत्वाद्वचनप्रामाण्यस्येति, 'भगवते' स्यनेन तु प्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, अतिशयवान् किसोपानेयः, तद्वचनमपि तथेति मेनोपोत नियुक्त्यन्तर्गतं निर्गमद्वारमाह, यो हि मिथ्यास्वतमः प्रभृतिभ्यो दोषेभ्यो निर्गतस्ततो निर्गतमित्रमध्यबनं पापायां कालतो शायद पूर्वा भाये क्षायिके वर्तमानादिति एवं च गुरुपर्यक्रम लक्षणः सम्बन्धोऽस्य प्रदर्शितो भवति, तथा तथाविधेन भगवतायदुक्तं तत् सप्रयोजनमेव भवतीति सामान्यतः सप्रयोजनता चास्योका, न हि पुरुषार्थानुपयोगि भगवन्तो भापते भगवत्वाने, वास्योपायमा
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सम्बन्धोऽपि दर्शितः, इदं हि भगवदाख्यातं प्रन्थरूपापभ्रमुपायः पुरुषार्थस्तूपेय इति अत एव चात्र श्रोताराः श्रवणे प्रवर्त्तिताः, यतः - " सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं, श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ १ ॥ " इति । एव ' मित्यनेन तु भगवद्वचनादात्मवचनस्यानुतीर्णतामाह, अत एव स्ववचनस्य प्रामाण्यम् सर्ववचनानुवादमात्रत्वादस्वेति अथवा एव मिथेकत्वादिः प्रकारोऽभिधेयतया निर्दिष्टः निरभिधेयताssशङ्कया श्रोतॄणां काकदन्त परीक्षायामिवाप्रवृत्तिरत्र माभूदिति, प्राक्यातमित्यनेन तु नापौरुषेयवचनरूपमिदम् तस्यासम्भवादित्याह यत उलम् बेयव न मायं अपोसेयं तिमि -
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(समर्थ)
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सुप अभिधानराजेन्द्रः।
सुय विरुदं , ययणं च अरोरुसेयं च ॥१॥जं बुच्चर ति तुर्योरेवैकवचनान्तस्यास्मत्पदस्य, 'मे' इत्यादेशादिति, अघयणं , पुरिसाभाये उ नेयमेवं ति ,ता तस्सेवाभावो, निय. रोच्यते-'मे' इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्ययशब्दस्तृती. मेण अपोरुसेयत्ते ॥२॥" इति । अथवा-पाख्यातं भगवते- यैकवचनान्तोऽस्मच्छब्दार्थे वर्मत इति नदोषः । अर्थवं, न कुख्यादिनिःसृतम् , यथा कैश्विदभ्युपगम्यते--"त- तस्तु चालना-ननु वस्तु नित्यं वा स्यादनित्यं वा ?, स्मिन् ध्यानसमापने, चिन्तारत्नवास्थिते । निःसरन्ति य- मित्यं चेत्तर्हि नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वरूपत्वाचा थाकामं, कुडयादिभ्योऽपि देशनाः ॥१॥" इत्यस्यानेनान- भगवतः सकाशे श्रोतृत्वस्वभावः स एव च कथं शिष्योपभ्युपगममाह, यतः-“कुड्यादिनिःसतानां तु, न, स्यादा- देशकस्पस्वभाष इति ?, किंच-शिष्योपदेशकत्वं त्वस्य - प्लोपदिएता । विश्वासश्च न तासु स्या-केनेमाः कीर्तिता
स्वभावस्यागे स्यादत्यागे वा ?,यदि त्यागे हन्त हतं वस्तुमा इति ॥१॥" समस्तपदसमुदायन स्वात्मौलत्यपरिहारे
निस्यत्वं,वस्तुनः स्वभावाव्यतिरिकत्वेन तत्क्षये तत्क्षतेरिति, ण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेयेत्या
अपरित्याग इति चेत्, न, विरुद्धयोः स्वभावयोयुगपदह, एवं हितेषु भक्तिपरता स्यात् , तया च विद्यादेरपि
सम्भवादिति । अथ चानित्यमिति पक्षस्तदपि, न, निरम्बसफलता स्यादिति , यदुक्रम्-“ भत्तीएँ जिनवराण , खि
यनाशे हि श्रोतुः धयणकाल एव विनत्वात् कथनांयसरेजति य पुब्वसंचिया कम्मा। पायरियनमोकारेण , वि
ऽन्यस्यैवोत्पन्नत्वादकथनप्रसङ्गः , यज्ञदत्तश्रुतस्य देवदनाजा मंता य सिझंति ॥१॥ "त्ति । नमस्कारश्च भक्तिरवै
कथनवदिति । अत्र समाधिनयमतेनेति नयद्वारमवतरति, ति । अथवा-'पाउसंतेणं ति--भगवद्विशेषणम् , अायुष्म
तत्र नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशनसमभिरुदैवम्भूना नयाः, ता भगवता , चिरजीविनेत्यर्थः, अनेन भगवद्वहुमानगर्भेण
तत्र चाधास्त्रयो द्रव्यमेवार्थोऽस्तीति वादितया द्रव्यार्थिक मालमभिहितम् । भगवद्हुमानस्य मङ्गलत्वादिति चोक्कमेव
अवतरन्ति, इतरे तु पर्याय एवार्थोऽस्तीति वादितया पर्यायद्वा--'आयुष्मते ' ति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धार
यार्थिकनये,तदेवमुभयमताश्रयणे द्रव्यार्थितया नित्यं वस्तु यता न तु मुक्किमवाप्यापि तीर्थनिकारादिदर्शनात् पुनरि
पर्यायार्थितया त्यनित्यमिति नित्यानित्यं वस्त्विति प्रत्ये-- हायातेनाभिमानादिभावतोऽप्रशस्तम्। यथोच्यते कैश्वित्
कपक्षोक्तदोषाभावो गुडनागरादिधदिति । एवमेव च सक"झानिनो धर्मतीर्थस्य , कर्तारः परमं पदम् । गत्वाss
लव्यवहारप्रवृत्तिरिति । उकंच-" सम्वं बिय पइसमयं, गच्छन्ति भूयोऽपि , भवं तीर्थनिकारतः ॥१॥" " यदा
उपजा नासए य नि च । एवं चेव य सुहदु-सवंयदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत! । अभ्युत्थानमधर्म
धमोक्खादिसम्भायो॥१॥" ति । उक्नः सूत्रस्पर्शिकनियुस्य , तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥२॥" एवं ह्यनुन्मूलितरा
क्त्यनुगमः । स्था०१ ठा। श्रूयते सदिति श्रुतम् प्रतिविशिगादिदोषत्वात् तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात् , निःशेषोन्मूल. धार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमा भगवता निस्ष्टम् । श्रात्मीने हिरागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति । अथ
यश्रवणकोटरप्रविष्टं क्षायोपशामिकभावपरिणामाविर्भावकाया-आयुष्मता-प्राणधारणधर्मवता न तु सदा संशु
रणं श्रुतमित्युच्यते,श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः।दश. हेन, तस्याकरणत्येनाल्यातृत्वासम्भवादिति । यदिवा- ४०। श्राचा । श्रवण श्रुतम् । अभिलापप्रापितार्थग्रहण'आउसंतेण ' ति-मयेत्यस्य विशेषणम् , तत्त श्राडिति-गुः। स्वरूपे उपलब्धिविशेषे, अनु० । वाच्यवाचकभावपुरस्सरुदर्शितमर्यादया वसता , अनेन तरवतो गुरुमर्यादावर्ति- रीकारेण शब्दसंस्टग्रहणहेतावुपलब्धिविशेषे पषमाकार स्वरूपत्वात् गुरुकुलबासस्य तद्विधाममर्थत उक्कम हाना
वस्तु कालधारणाद्यर्थक्रियासमर्थघटशब्दवाच्यमित्यादिदिहेतुत्वात्तस्य । उक्तश्च-"णाणस्स होह भागी, थिरय
रूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामे शब्दारो दसणे चरित्ते य । धन्ना श्रावकहाए , गुरुकुलवासं न
थपर्यालोचनानुसारिणि इन्द्रियमनोनिमित्ते अवगमविशेष, मुंचति ॥१॥ गीयावासो रती धम्में , अणाययणबज्जणं ।
श्रा०म०१०। प्रव० । अर्थश्रवणे, नं० । डा० । शृणोतीनिग्गहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं ॥२॥" ति ।
ति श्रुतम् । अात्मनि तदनन्यत्वात् । श्रुतज्ञाने च । श्रा०म०१ अथवा-'प्रामुसंतेणं' ति-प्रामृशता भगवत्पादारविन्द
अ०। "तं तेण तो संमिव सुणे सो वा सुयं तेणं"। अनु० । भक्तिः करतलयुगलादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसकलशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणादिविनयकृत्यं न मोक्तव्यम्. अथ श्रुतव्युत्पतिमाह-'तं तेण' इत्यादि श्रूयते प्रारमउक्नं हि-"जहा हि अग्गी जलण णमंसे णाणा हुती मंतप- ना तदिति श्रुतं शब्दः । अथवा-भ्रूयतेऽनेन श्रुतझानायाभिसितं। पवायरीयं उवचिटरजा, अणतणाणोऽवगोऽवि वरणक्षयोपशमेन श्रूयते तस्मात् क्षयोपशमाच्यते तस्मिसंतो॥१॥" ति । यहा-'श्राउसंतेणं' ति-श्राजुषमाणेन-श्रव- न क्षयोपशम सतीति श्रुतं क्षयोपशमः 'सुणेर सोब' तिणविधिमयांदया गुरुमासेवमानेन, अनेनाप्येतदाह--विधि- शृणोतीति श्रुतमसौ प्रास्मा इति वा व्युत्पत्तिरित्यर्थः, 'मुर्य नैयोचितदेशस्थेन गुरुसकाशाच्छोतव्यम् , नतु यथा कथ- तेण' ति-येनैवं व्युत्पत्तिस्तेन कारणेन श्रुतमुख्यत इत्यर्थः । श्चित् । यत आह-"निहाविगहापरिव-जिएहि गुत्तेहि पं. विशे० । स्था० । गुरुसमीपे श्रूयते इति श्रुतम् । अनु० । कजलिउडेहिं । भलिबमाणपुब्वं, उवउत्तेहिं सुणेयब्वं ॥१॥" मर्म । ०। द्वादशाके, स्था०२ ठा० १३० । प्रागमे, स्था० इत्यादि , एवमुक्तः पदार्थः । पदविग्रहस्तु सामासिकपदवि- ३ ठा०२ उ० । अङ्गोपाङ्गप्रकीर्णादिमिन्ने भागमे , उस. १ षयः स चास्यातमित्यादिषु दर्शित इति । इदानी बाल अका स्था० । पा० धादर्शक सका। जीयादिपदार्थमाप्रत्यक्षस्थाने, तेच 'शम्बताऽर्थतश्च । तत्र शम्दतः- सूचके.सूत्र०१ श्रु०६०।सूत्रे, श्रुतप्रथसिद्धान्तप्रवचनामनु 'मे' इत्यस्य मम मा चेति व्याख्यानमुचितं षष्ठीच-बोपदेशागमादीनि भुतकार्थिकमामानि ।
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सुय
सुषमुत्तगंधसिद्धं तसास
एसो
पत्रामागम इय, एगट्ठा पजवा सुते ||
,
सूत्रस्य पर्यायानाह -
१७७ ॥
श्रुतम् सूत्रम् ग्रन्थः, सिद्धान्तः, शासनम्
श्राशा, व
,
चनम्, उपदेशः, प्रज्ञापना, श्रागम इति एते दश पर्याया एकार्थः । वृ० १३० १ प्रक० । विशे० । उत्त० । श्राय० । श्रुतं सामायिकादिविन्दुसाराम्तम् । श्राव० ४ ० । ० । ६० स्वाध्याये स०३० सम० स्वदर्शनपरदर्शनानुमतसकलशास्त्रे, मं० । श्राचा० । ( मतिश्रुतभेदः खास ' शब्दे तुमा १८४१ पृष्ठे गतः । )
श्रुतनिक्षेपः
"
"
से किं तं सुतं सुतं चउब्विहं पातं । तं जहा नामसुत्रं, ठवणासुअं, दव्त्रसुनं, भावसुनं । ( सू० २६ ) अथ किं तत् श्रुतमिति प्रश्नः अत्र निर्वचनं सुखं ब forest' त्यादि श्रुतम् - प्राग्निरूपितशब्दार्थ चतुर्विधं
( ७२ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
प्रज्ञप्तम्, तद्यथानामश्रुतम्, स्थापनाश्रुतम्, द्रव्यश्रुतम् भावभुतं ।
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तत्राऽऽद्यभेदनिर्णयार्थमाह
,
से किं तं नामसूचं १, गाममु जस्स गं जीवस्स वा • जाव सुए ति नामं कअइ से तं नामसु । ( सू० ३० ) अत्र निर्वचनं नामश्रुतम् ' जस्स रामि' इत्यादि, यस्य जीवस्स वा जीवस्य वा जीवानां वा श्रजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयानां वा श्रुतमिति यश्नाम क्रियते तनामधुतमित्यादिपदेन सम्बन्धः, नाम च तत् श्रुतं चेति व्युत्पत्तेः । अथवा — यस्य जीवादेः श्रुतमिति नाम क्रियते तज्ञ्जीबादि वस्तु नामश्रुतम्, नाम्ना नाममात्रेण श्रुतं नामश्रुतमिति व्युत्पत्तेः । तत्र जीवस्य कथं श्रुतमिति नाम सम्भवतीत्यादिभावना यथा नामावश्यके तथा तदनुसारेण यथासम्भवमभ्यूह्य वाच्या, ' से तमि' त्यादि निगमनम् । उक्तं नामश्रुतम् ।
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अथ स्थापनाथुतनिरूपणार्थमाह
से किं तं पणासु १, जं खं कफम्मे वा ०जाब ठ गा विज से वं उपासु नामटवणार्स को पड़ विसेसो १, नाम भावकहियं ठत्रणा इत्तरिया बा होजा कहिया वा । ( सू० ३१ )
1
अत्र निर्वचनम् -' ठवणासुनं जं रामि' त्यादि, अत्र व्याक्यानं यथा स्थापनावश्यके तथा समपचं द्रव्यम्, नगरमावश्यकस्थाने भृतमुच्चारणीयम् कामुकर्मादिषु पठ नादिक्रियायत एकादिसाध्यादयः स्वाप्यमानाः स्थापनाभूतमिति तात्पर्यम्। तमित्यादि गमनम्। "नामउबा की पविसेस" इत्यादि पूर्वभाषितमेव वानातन नामपताच महिषाची इत्येतदेव रस्ते, आवश्यक नामस्थापनास प्रायो ऽभिसार्थम्यात्भुतामस्थापनेऽप्युक्ते एव भवतः इत्यतो नात्र ते पुनरुच्येते इति भावः ।
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द्रव्यश्रुतनिरूपणार्थमाह
से किं तं दय है, दब दुबि सं जहाआगमतो अ. नो भागमतो अ (सू० ३२ )
अत्र निर्वचनम् हिमित्यादि द्रव्यश्रुतं द्विविधं प्रहतम् तथा श्रागमत अमेयार्थमाह
से किं तं भगमतो दब्वसुनं १, आगमतो दब्वसूयं जस्स गं सुए ति पयं सिक्खियं ठियं जियं० जाव अणुप्पेहाए कम्हा?, अणुवओोगो दव्त्रमिति कटु, नेगमस्य
एगो अणुवत्तो आागमतो एवं दव्वसुयं • जाव कम्हा, जर जाए अबउसे न भवद से तं भागमतो दब्वमुत्रं । ( सू० ३३ )
अन निर्वचनम् आगम अमित्यादि यस्य कस्यचित् श्रुतमिति परं भूतपदाभिधेयमाचाराविशा शिक्षितं स्थितं यावद्वाचनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचनानादिभिर्वर्तमानोऽपि नोपयोगेऽमात्यादागमतः आगममाश्रित्य द्रव्यश्रुतमिति समुदायार्थः । शेयो शेषपरिहारादिप्रपञ्चनयविचारणा च इष्यायश्यकवत् द्रष्टव्या श्रत एव सूत्रे ऽप्यतिदेश कुर्वता 'जाव कम्हा १. जर जाणए' इत्यादिना पर्यन्तनिर्दिष्टानां शब्दनयानां सम्बन्धि सूत्रालापको गृहीतः काशिदेव वाचनामाश्रित्य व्याख्यायते वाचनान्तराणि तु दीनाधिकान्यपि दृश्यन्ते. ' से तमि' त्यादि निगमनम् । उक्तमागमतो भुतम्। इदानीं
सुय
"
गतस्तदेयोच्यतेसे किं तं नोश्रागमतो दव्त्रसुत्रं १, नोचागमतो दब्वसुश्रं तिविहं पष्पतं तं जहा - जाणय सरीरदव्वसु भविअसरीरदव्वसु जाणयसरीर भविश्र सरी खइरितं दव्वसु । (यू० ३४ )
अत्र निर्वचनम् -' नोश्रागमतो दव्वसु श्रं तिविधमि' त्यादि, 'जाण्यसरीयसुद्धं भविश्यसरी सरीरभविश्र सरीरइरितं व्यसुनं । अत्राssधभेदज्ञापनार्थमाह-
से किं तं जाण सरीरदव्त्रसुत्रं ?, जाणयसरीरदव्वसुर्य सुचि पयत्थाहिगारजायपस्स जं सरीरवं वनगयचाविश्रचतदेहं तं चैव पुष्वभणिचं भाणिश्रव्वं ० जाव सेतं जाण यसरीरदध्वसु । (०३५)
अत्रोत्तरम्' जाणपसरीरदयसुतीत्यादि तयामिति शस्तस्य शरीरं तदेवानुभूतभावा शरीरस्यभूतं तमिति यत्परं तदर्थाधिकार er region उपगतादिविशेषणविशिष्टं तशरीरयमर्थः ननु यदि जीवविप्रमिदं कथं तस्य soreतत्वम् ?, लेट्रादीनामपि तत्प्रसङ्गात् तरपुङ्गलानामपि कदाचित् कर्तृभिः गृहीत्या मुक्त्यसम्भवादिस्वाशवाद जागमिथादिशेायस्याया
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सुप
( ७ ) सुय
अभिधानराजेन्द्रः। दिप्रपञ्चो शरीरद्रव्यावश्यकवत्, भ्रताभिलापतो वाच्या, अत्र निर्वचनम्-'लोइयं भाचसुनं जं इममि ' स्यादि, यायत् ‘से तमि' त्यादि निगमनम्।
लोकैः प्रणीतं लौकिकं, कि पुनस्तदित्याह-यदिदमहानिकैद्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह
मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं तनीकिकं भा
वश्रुतमिति सम्बन्धः तत्राल्पज्ञानभावतोऽधनवदशीलबद से किं तं भविभसरीरदब्बसुमं?, भविसरीरदब्वसुयं
वा सम्यग्योऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्तेऽत श्राह-मिथ्यारजे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते जहा दवावस्सए तहा भा- टिभिः स्वच्छन्नमतिबुद्धिविकल्पितम्। ईहावग्रहे बुद्धि, अणिभब्बं जाव से तं भविभसरीरदब्वसुधे । (सू०३६) पायधारणे तु मतिः स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण तस्वतः सअत्र प्रतिवन:--'भविप्रसरीरदब्बसुनं जे जीवे ' इत्यादि,
शप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्व
च्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितम्--स्वबुद्धिविकल्पनाशिल्पिनिविवक्षितपर्यायेण 'भविष्यतीति भव्यो--विवक्षितपर्यायाईः |
मितमित्यर्थः। तत्प्रकटनार्थमेवेदमाह--तद्यथा-'भारतमि' तयोग्य इत्यर्थः, तस्य शरीरं तदेव भाविभावभुतकारण
त्यादि, एतच भारतादिकं नाटकादिपर्यन्तं श्रुतं लोकप्रस्वात् द्रव्यश्रुतं भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम् ,किं पुनस्तदिति अत्रो.
सिद्धिगम्यम् । अथ प्रकारान्तरेण लौकिकश्रुतनिरूपणार्थच्यते-यो जीयो योनिजन्मत्वनिष्क्रान्तोऽनेनैव शरीरसमुच्छयेणादत्तेन जिनोपदिऐन भावेन श्रुतमित्येतत् पदमागा
माह-- अहया पावत्तरिकलाओ' इत्यादि, तत्र कलनानि-- मिकाले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं
वस्तुपरिज्ञानानि कलास्ताश्च द्विसप्ततिः समवायानादिभव्यशरीरं द्रब्यश्रुतमित्यर्थः । शेष द्रव्यावश्यकवत् श्रुता
प्रन्थप्रसिद्धाः, चन्वार घेदाः सामवेदऋग्वेदयजुर्वेदाधर्षभिलापेन सर्व वाच्यम्, यावत् स त 'मित्यादि निगमनम्।
गयेदलक्षणाः सालोपालाः, तत्रालानि--शिक्षा १ कल्प २
व्याकरण ३ च्छन्दो ४ निरुक्त ५ ज्योतिषकायन ६ लक्षणाअनु०॥
नि, षद् उपाकानि तव्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते इति अथ भावभुतनिरूपणार्थमाह--
सालोपात्रा से तमि' त्यादि निगमनम्। उनं नोभागसे किंतं भावमयं , भावमयं दुविहं पएणतं, तं जहा- कोनोकि भावना आगमतो अ, नोभागवतो । (सू० ३८)
अथ लोकोत्तरिकं तदेवाह-- अत्रोसरम्-भावसुधे दुधिहमि' त्यादि , विवक्षितप
प- से किं तं लोउत्तरिमं नोमागमतो भावसुयं , लोउत्तरिणामस्य भवनं भावः स चासौ श्रुतं चेति भावश्रुतं भाबप्रधानं वा थुनं भावश्रुतं, तद् द्विविधं प्राप्तम्-भागमतो,
रिमं नो आगमतो भावमयं जं इमं मरिहंतेहिं भगवंतेहिं मांत्रागमतश्च ।
उप्पएणणाणदंसणधरेहिं तीयपच्चुप्पएणमणागयजाणएतत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह
हिं सब्बएणूहिं सम्बदरिसीहिं तिलुक्वहितमहितपूइएहिं भसे किं तं आगमतो भावसुधे ?, भागमतो भावसुयं । प्पडिहयवरणाणदंसणधरेहि पणीनं । (अनु.) से तं जाणए उवउत्ते, से तं भागमतो भावसुधे । (सू० ३६) नोमागमतो भावसुभं । से तं भावसुभं । (सू०-४२४) अनोत्तरम्-श्रुतपदार्थशस्तत्र चोपयुक्त श्रागमतः-भागम
लोकोत्तरैः-लोकप्रधानरहद्भिः प्रणीतं लोकोत्तरिकम् ,कि माश्रित्य भावथुनम श्रुतोपयोगपरिणामस्य सद्भावात् तस्य
पुनस्तदित्याह- लोउत्तरियं भावसुझं जं इममि' स्यादि, वागमत्वादिति भावः 'से तमि' स्यादि निगमनम् । अथ द्वितीयभेद उच्यते--
यदिदमहद्भिः-द्वादशा गणिपिटकं प्रणीतं तल्लोकोत्तरिक
भावश्रुतमिति सम्बन्धः, तद्यथा-' मायारो सूयगडमि' से किं तं नोआगमतो भावमुनोत्रागमतो भाव--
स्यादि, तत्र सदेवमनुजासुरलोकविरचितां पूजामहन्तीति सुयं दुविहं परमत्तं , तं जहा-लोइभं, लोगुत्तरिमं च । आईन्तस्तैः, एवंभूताश्चातीर्थकरा अपि केवल्यादयो भयम्स्य(मु०-४०)
तस्तीर्थकरप्रतिपत्तये पाह- भगवद्भिरि 'ति, समस्तैश्वअत्रोत्तरम्--'नोभागमो भाषसुधे दुविहं पलत्तं , लो- यनिरुपमरूपयशःश्रीधर्मप्रयत्नवद्भिरित्यर्थः , इत्थंभूताच इमं लोउत्तरिश्रमि' त्यादि ।
अनायप्रतिघनानादिमन्तः केचित् कैश्चिवभ्युपगम्यम्ते, उर्फ अत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह
चैतद्वादिभिः-"शानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । से किंतं लोइमं नोमागमतो भावसुधे, लोइमं नो
ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥" इत्यादि। भागमतो भावसुयं जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छट्ठिीहिं
अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-शानावरणक्षपणादिप्रकारेणोप
नेन तु सहजे ज्ञानदर्शने धरन्तीत्युपमहानदर्शनधरास्तैः, सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं, तं जहा-भारहं रामायणं भीमा
न च प्रस्तुतविशेषणग्यवच्छेचा . अप्येयंभूता एष-- मुरुकं कोडिलयं घोडयमुहं सगडमदिभाउ कप्पासियं णा सह सिकं चतुष्टयमि' स्यादिवचनविरोधप्रसङ्गात् , तर्हि गमुहुमं कणगसत्तरीवेसियं वइससियं युद्धसासणं काविलं सुगता इत्थंभूतो अपि भविष्यन्तीत्याशापाऽऽह-तीयपलोगायतं सद्वियंतं माढरपूराणवागरणनाडगाइ। अहवा
सचुप्पो' स्यादि, अतीतवर्तमानभविष्यवर्थशायकैरियर्थः ,
मच सुगतानामतीतभविष्यदर्थशावत्वसम्भवः, एकाग्तक्षबावचरिकलाभो, चत्तारि वेमा संगोवंगा, से तं लोइयं नो
याभस्वादिधेन सदसस्वाभ्युपगमाद् असतां च प्रहणे:भागमतो भावयसुं । (मू०४१)
निप्रसाद । अथ सन्तानद्वारग कालत्रये उपयर्धानां सम्रा
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त्वं विनाशकृपाद 'सर्वदर्शनिरिति सर्वम् एकेन्द्रियवादि स्तु केवलज्ञानेन जानन्तीति सर्वज्ञाः, तदेव सर्व केवलदशं पश्यतीति सर्वदर्शिनस्तैः शाक्यानां त्वतीतापर्यज्ञात्येऽपि सर्वज्ञादित्वं मोपपद्यते कतिपयधमद्यमीपदार्थात्यस्यैव तेष्यभ्युपगमाद यत उक्ती:* सर्वे पश्यतु मा वाडला- विष्टमर्थे तु पश्यतु । कीटसङ्ख्या परिज्ञानं तत्र न कोपयुज्यते ॥ इत्यादि यथोकगुणविशित्वात् तिल्लुक पडियमहिये' त्यादि 'पडिय सि - विगलद्वहलानन्दो दृष्टिभिः सह निरीक्षिता यथावस्थितानन्य साधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्तवेन महिता - अभिष्ठुताः सुगन्धिपुष्पकर क्षेपादिना तु द्रव्यस्तवेन पूजिताः तत एषां इन्दनपतियन्तरनर विद्याधर वैमानिकादिसमुदाय लक्षणेन वहितमहितपू जितास्तैः अत्राऽऽह-ननूरूप ज्ञानदर्शनधरैरित्युक्तम् उस्पतिमत् प्रतिधै रहं पथा मूर्तेष्ववध्यादिज्ञानम
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"
((७४), अभिधान राजेन्द्रः ।
दर्शने अभ्युपगतस्ताभ्यां ज्ञान -नः प्राप्नुवन्ति तथा च पूर्वोक्त सर्वशत्यां दिहानिरित्याशङ्कया ssa - ' अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरैरिति समस्तावरणक्षयसम्भूतस्यादतिदते मूर्त मूर्तेषु समस्तवतुष्वलिते अत एव बरे-प्रधाने केवलज्ञानदर्शनलक्षणे ज्ञानदर्शन धरन्ति ये ते तथा तैः । यत्त्ववध्यादेः संप्रतिघत्वं तनोत्पत्तिमन, किं तर्हि ?, आवरण सद्भावात् श्रतोऽप्रति घकेव लक्षा मदर्शने समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वात्, तत्क्षयेऽपि प्रतिधन्याभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गाद् इदं च विशेष कस्याधिदेव याचनायां दृश्यते न सर्वत्र तदेवं यथोक्तप्रकारेण तावद् व्याख्यातान्यमूनि विशेषणानि श्रन्यथा वाऽविरोधतः सुया यानि कथनद्वारे तरूपितम् द्वादशानं श्रुतम् अनु० । ( एतद्वक्लव्यता' दुबालसंग शब्दे चतुर्थभोगे उक्ला । ) पनत व समर्थितं द्विविधमपि नागमतो भावथुनम् अतस्तदपि निगमयति'सेतं नागमो भावसुधं इत्यादि । एतद्भराने चो सर्वमपि भावतमतो निगमयति-' से तं भावसुधमिति । देयं स्वरूपत उक्रं भावभूतमनेनेव चात्राधिकार हत्य सोऽस्यैव पर्यायनिरूपणार्थमाह
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तस्स णं इमे एगडिया गाणाघोसा गाणावंजणा नामधे - आ भवन्ति तं जहा "सुधमुतगंध सिद्धं तसासये भायाक्यण्उपरसे पद्मपण आगमेऽवि अ एगड्डा पजवा सुने ।। १ ।। ( ४ ) से तं सुमं। (०४३)
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तस्य- धुतस्य अमान- अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षाणि एकाfर्थकनि-तत्वत एका नानापाषाणि पृथगृभिश्रोदात्तादिस्वराणि नानाव्यञ्जनानिपृथगभिचाक्षराणि नामधेयानि पर्यायश्वनिरूपाणि भवन्ति । सद्यथा-' सुअगाहा. व्याख्या- गुरुसमीपे श्रूयत इति श्रुतम् । प्रार्थानां सूचनात् सत्रं विप्रकीर्णार्थग्रन्थाद् ग्रन्थः, सिद्धप्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तम् संवेदननिष्ठारूपं नयतीति सियान्तः मिध्यात्याविरतिरूपायादिमन जीवानांना शिक्षणाच्छासनं, प्रवचनमिति पाठान्तरम्, तत्रापि प्रश
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सुय
स्तं प्रधानं प्रथमं वा वचनं प्रचचनं, मोक्षार्थमाशस्यन्ते प्राणिनो ऽनयेन्याशा उक्ति:- वचनं वाग्योग इत्यर्थः हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशना दुपदेशः यथावस्थित जीवादिपदाज्ञापनात् प्रज्ञापना आचार्यपारम्पर्येागस्यागमः आप पागम इति सूत्रे सूत्रविषये एकार्थाः पर्यायातिमाचार्थः ॥ १ ॥ इत्यादिदे तामादितमित्यर्थः । अनु
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अथ तपदस्य तं चिकीर्षुरिदमाहभागमओ दब्वसुर्य, बत्तासुतोवयोगनिरवेक्लो ।
जाण - भव्वसरीरा - ऽहरितमिदं । ८७७ नामस्थापने गमनागमन नोआगमतश्च । तत्रागमतो द्रव्यश्रुतं चक्ला तदुपयोगनिरपेक्षः : अनुपयुक इत्यर्थः नोचागमतस्तु विविधमश्रुतम् शरीरस्यधुतम् तद्व्यतिरिक विश्यक
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तद्व्यतिरिक्ते त्विदं किम् ?. इत्याहपत्ताइगयं सुत्तं, सुत्तं च जमंडजाइपंचविहं । आगमी भावसुर्य, सुयोवडतो तथां णो ॥८७॥ इह श्रुतं सूत्रं च द्वे अपि किलैकार्थे । नत्र तलनालयादिप्रभ वाणि पत्राणि प्रतीतानि तेषु गर्न लिि निशब्दादपधाननिष्पन्नाः
गतम्
पुस्तकाः वस्त्रादयश्च गृह्यन्ते तेष्वपि लिखितं सूत्रं शरीर-भव्यशरीरस्यतिरिक्तं द्रव्यमुच्यते अथवा थपि दागमे पञ्चविधं सूड की डबल बागपत सूत्राभिधानसाम्याद्व्यतिरिमुच्यते शे नितकोशकाररूपा जनम सोनीने चटक
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,
फलं तस्माजात कर्यामसूत्रमित्यर्थः पञ्चविधम् तथा पट्टे म सुर, वीर, मिरा" ते चापि पट्टसूत्रपाः। पालमपि पञ्चविधम नया' उट्टिए मिगलोमिए, कोतवे, किट्टिसे ' । तत्र मूपिकलोमनिष्यन्नम्कोयम् ऊतिकिसिन सूत्रे किसिम् अथवा ऊर्णादीनां द्विकादिसंयोगनिष्पन्नं किट्टिसम्, यदिया उशेषाऽश्वादिजयो किसिम शेषं प्रगीतम्। तस्यादिप्रभवं पल्कजम्। तदेतत् सर्वमपि व्यरितं द्रव्यश्रुतम् । भावश्रुतमपि द्विधा - श्रागमतः मोक्षागमाथ तत्र श्रुतोपयुध्येताऽऽगमत भावधुतम् मनूपयोग एव भावतं युज्यते तमि तान् गृह्यते ? इत्याह-' तत्रोऽणशो' त्ति-ततः श्रुतोपयोगादनन्य इति कृत्योपचारतः स एव भावश्रुतमुच्यत इति । नोश्रागमतो भावश्रुतमाहनोगम भावे, लोइय लोउत्तरं पुराभिहियं । सम्मत्तपरिग्गहियं सम्मसुयं मिच्छमियरं ति ॥८७॥ नागमो भवद्विविधम्-लौकिक
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तत्र लौकिकं भारत - रामायणादि । इदं चैव पूर्व भुतानविचारे प्रोक्रम् लोकतादिम
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सुय
सुरा
अभिधानराजेन्द्र:। पूर्व तत्रैवालम् । एतच्च सर्व सम्यक्त्यपरिगृहीतं सम्य- | इदमुक्तं भवति-चरणादिमिश्रमपि श्रुनोपयोग भित्रं विवकभुतं, मिथ्यात्वपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमिति ।
क्षितत्वादागमतो भावश्रुतमुख्यत इति । अत्र प्रेरकः प्राह
ईि नोागमतो भावभुतं किम्, हत्याहमागममो भावसुयं, जुत्तं नोभागमे कई होइ । चरणाइसमेयम्मि उ,उवभोगो जो सुए न तो समए। जइ नागमो न सुचं,मह सुत्तमणागमो किह णु१।८८०।। नोभागमो त्ति भम्मइ, नोसदो मीसभावम्मि ||८८४|| यदागमतो भावभुतमुक्तम् तद् युक्तम्-घटत एव । मो- चरणादिसमेते तु श्रुते यश्चरणादिमिश्र उपयोगस्तकाभागमतस्तु भायश्रुतं कथं भवति ?-न घटत पवैतदि- ऽसौ समयप्रसिद्धचा नोमागमतो.भावश्रुतमुच्यते । नोशत्यर्थः । तथाहि-नोशनस्तावद् निषेधवचनः, ततश्च यदि मह मिश्रवचन इति । निषेधवचनस्तु नोशब्दोऽत्र ने''-नेवागमः, ताई न धुतम् , तस्याऽऽगमरूपत्वात्। ध्यंत, यतोऽसौ सर्यनिषेधवचनो वा स्यात् , देशनिषेधअथ धनम् . तयनागमः कथम् । तस्माद् नोप्रागमता वचनावा। भावभुमिति माता वनवा' इत्यादियद् विरुखमेवेति ।
तत्र सर्वनिषेधषचनत्ये नोशम्दस्य दोषमाहप्रेरक पवाऽऽशङ्कचाहउपभोगो जम्मत्ते, तं तं जइ वागमोऽवसेसं तु ।
सम्बनिसहे दोसो, सब्बसुयमणागमो पसओजा । नोआगमो ति एवं, किमसुक्उत्तम्मि दधसुयं?।।८८१॥
होजा वाऽणागमो, सुयवञ्जमणागमसुयं तु ॥८८५ यदिवा-एवं मिडाम्नवाड़ी घूयात्-यावमात्र यत्र यत्र
सर्वनिषेधवनने नोशनउन गृह्यमाणे दोषः प्रसज्यत । अनाध्यनार नदुपयोगम्तत्तदागमतो भावश्रुतम् . यत् व
कः?, इत्याह-'सब्बसुयमित्यादि' नोप्रागमतो भावभुअशषमनुगयुक्तस्याध्यतुः श्रुनं नद् नोमागमतो भायश्रुन
तामति । कोऽर्थः ?-अनागमः सर्वमपि यद् भावथुनामतिमिति सर्व सुस्थमिति । हन्त ! तर्हि 'भागमा दम्बसुयं
सर्वानषेधवाचकत्व नोशब्दस्य सर्वस्यापि भावभुतम्याड यत्ता सुत्तोषगनिरवेक्खा' इत्यननाऽनुपयुक्ने वक्तार यत्
गमानषेधः स्यादिति भावः । अयुक्तं चैतत् . श्रुतस्यापूर्व द्रव्यर्धनमुक्तं तत् किं स्यात् , तद्विषयस्यदानी नो- गमत्यन सुप्रतीतत्वात् । अथवा-सनिषधवाचक नाशप्रागमना भावभुतवन त्वया प्रतिपायमानत्वात् ?-मि
ने नाबागमती भावशूनमित्ययमर्थः स्यात् । कः ?.इत्यविषयमेव तत् स्यादिति भावः।
त्रोच्यते-मनागमतोऽनागमत्वात् श्रुतवजे मत्यादिचतुएपर एवाचार्यमतमाशय परिहरनाह
यात्मकं यदनागमरूपं ज्ञानं तत् श्रुतं भाषश्रुतं भवदिति।
अधुतरूपस्यापि मल्यादिक्षानचतुण्यस्य श्रुतप्रसङ्ग स्यादिति अविसुद्धनयमएण व, जइ लद्धिसुयमणुवउत्ते वि।
भावः । भावसुयं चिय पढो, किमणुवउत्तस्स दब्बसुयं १८८२।
देशनिषेधवचनेऽप्यत्र मो शब्दे दूषणमाइ-- यदि च रिरेतद् गत्-श्रावशुद्धनयमन श्रुतलब्धि
देसनिसेहे सयलं, नोभागमो सुयं न पावेजा। रपि भायश्रुतमुच्यते । ततश्चानुपयुक्नऽपि लब्धिसंपन्न जीवे नलम्धिरूपं श्रुतं लब्धिश्रुतं भावभुतमेवाऽङ्गीक्रियते , श्र- भिन्नपि व तं देमो,चरणाहणं पसओजा ॥८६॥ म्यत्नु लम्ध्यादिशून्यस्य यत् श्रुतं तद् द्रव्यधुनम् , इति
देशनिषेधवचन नाशद सकलमप्याचारादि श्रुतं मोन तस्य निर्विषयतति भावः । हन्त ! सानुपयुक्तस्य प
श्रागमतो भायश्रुतं न प्राप्नुयात्-न स्यात् , किन्तु. ठतो वक्तुः किं द्रव्यश्रुतम् ? , तस्यापि श्रुतलब्धिसद्भा
तदेकदेश एव नोागमतो भाषश्रुतं स्यादित्यर्थः। सर्वबता भावश्रुतप्राप्त्या तदवस्थैव द्रव्यश्रुतस्य निर्विषयतेति
श्रुतस्य चैतदिष्यते, समस्तस्यापि द्वादशागणिपिटकस्य भावः । न हि श्रुतलब्धिरहितः कोऽपि पठति । तस्मादे
सान-दर्शन-चारित्रपर्यायपिण्डाऽऽत्मकत्वाद नोश्रागमत्वेन तदपि वाङ्मात्रत्वाद् न किञ्चिदिति ।
सिमान्ते रूढत्वात् , एतच्च मिश्रवचन एवं नाशने घअथाचार्यः प्रतिविधानमाह
टते.नान्यथेति भावः । अत्रैकमेशनिषेधपक्ष दृषणास्तरमाहआगम सुअोवोगो, सुद्धो चिय न चरणाइसंमिस्सो ।
'भिन्नं पिवेत्यादि''या' इति-अथवा, भिन्नमणि पृथग्भू
तमपि सत् तद्-भावश्रुतं चरणादीनामेकदेशः प्रसज्येत, मीसेऽवि वा विवक्खा, सुयस्स चरणाइभिन्नस्स।।८८३|
अभिनवेशं चेष्यत तचरणादिभिः सह, धात्वजनकपिशइह तावत् सर्वस्याप्यस्य प्रक्रमस्य भावार्थ उच्यते-परण
वर्णकवत् । अन्यथा संकरैकत्यादिदोषप्रसङ्गादिति । निषधवचनं नोशब्दमवगम्य पूर्वपक्षः कृतः । प्राचार्यस्तु
किश्न,देशनिषेधको नोशम्न एकदेशवाचकः, तत्र-- मिश्रवचनं नोशनं चतसि निधाय प्रतिविधसे । मिश्र
चापराऽपि. दोषः । कः ?, इत्याह-- वचननापि नोशब्दन द्रव्यश्रुतम् , आगमती भावभुतम् ,
होज व नोभागमभो,सुभोवउत्तो वि ज स देसम्मि। माभागमतो भावभुतं वेत्येतत्त्रितयं कथं पृथगुपपद्यते ? इति चेत् । उच्यते-अनुपयुक्तस्य श्रुताध्येतुस्तावद् द्र
उवजुअइन उ सब्बे, तेणायं मीसभावम्मि ८८७॥' ज्यभृतं 'मागम ' त्ति एकदशेन समुदायस्य गम्यमान- यः श्रुतोपयुक्तः पूर्वमागमतो भायथुनमुक्तः, सोऽपिनीस्वादागमता भावभुतमुच्यते । किम् ?, इत्याह शुद्ध एव शब्दस्य देशवचनत्ये नोभागमतो भावथुतं भवेत् । कुतः !, भुतोपयोगः, न चरणादिमिश्रः। यदि वा-वरणादिमिदं- इत्याह- यद् यलात् स श्रुतैकदश-एवोपयुज्यते, न तु ऽपि भुतोपयांमे सद्भिो भुतोपयोगस्य विवक्षा क्रियते ।। सर्वस्मिन्नषि ध्रुत, सर्वस्यापि श्रुतस्याऽनन्ताभिनाध्यार्थ
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अभिधानराजेन्द्रः।
सुष विषयत्वात् , एतदुपयोगस्य चैकदाऽसंभवात् । ततश्चैक- स्य घटादेनीवादिग्वि श्रुतं देश एकदेश इति कृन्या नोदेशवचनत्वे नोशम्दस्याऽयं नो भागमः । तस्माद् येनैवं श्रागमतो भावभुते बिचायें नोशम्दो देशेऽपि युज्यने । सति भागम--नोमागमभावश्रुतयोरविशेषः प्रामोति, तेना- इदमुक्तं भवति-यथा सामान्येन परिपूर्णघटादेरिहाऽखत्यं नोशम्दो मिश्रभावे ग्राह्य इति ।
एडस्यैकदेशो ग्रीवादिनोंघट उच्यते , एवमविशेषितभेदस्य अथ प्रेरकाभिप्राथमाशङ्कमान पाह--
ज्ञान-क्रियापरिणामरूपस्याऽस्खण्डस्य वस्तुनः श्रुतमेकदे
श इति कृत्या शान-क्रियापरिणामो नोआगमतो भावभाह नणु मीसमावे, नाभिहिओ अभिहिरोयनोसहो।
ध्रुतमिति स्थितम् । देसे तदनभावे , दब्वे किरियाएँ भावे य ||८८८॥ |
अथ मतान्तरमुपदर्श्य परिहरनाहमाह-प्रतिषेधवाचकत्वाद नोशब्दो मिश्रभावे न क्वचिदभि
नोमागमो केई, सद्दसहायमुवमोगमिच्छति । हितः। किनहि?.देशादिषु पञ्चस्वथैवभिहितः । तत्र देशे नोघटो घंटकदेश उच्यते , यतो घटैकदेशस्ताबदघटो न बक्र
नणु सुतरमागमतं, हि दन्व-भावागमे जुत्तं ॥ ११ ॥ व्यः , नापि घटः, किं तर्हि ? , मोघटः । तथाहि--घटैकदे
केचिदाचार्याः शब्दसहाय श्रुतोपयोग नोश्रागमतो भावशस्य ग्रीवादेरघटत्वे तदन्यदेशानामपि तददेवाऽघटत्वात्
थुमिच्छन्ति । अयमभिप्राय:-श्रुतोपयोगपूर्वकं युवाणस्य सर्वघटाभावप्रसाः , पवं, पट-शकटादायप्यभावप्रसकेन।
यः श्रुतोपयोगसहितः शम्दः स नोागमतो भाषश्रुतम् । सर्वशून्यतापतिः । नापि घटैकदेशो घटः , एवं हि प्रत्यय
तत्र किलोपयोग-शब्दसमुदाये उपयोगलक्षणस्याऽऽगमययं घटप्राप्यैकस्मिपि घटे घटबाहुल्यापत्तिः, तथा च
स्यैकदेशत्वात् , शम्दनिरपेक्ष तुपयोगमात्रमागमतो भावभुसत्येकपटविषयप्रवृति-निवृत्यादिव्यवहारोच्छेदप्रसाः।त.
तमिति । पतचायुक्तमिति दर्शयति-'नरिवत्यादि 'नन्यत्र हि स्मात् पारिशेध्याद् घटैकदेशो नोघट पयोच्यते, पर्याय
स्फुटं श्रुतोपयोगो भावागमः , शब्दस्तु द्रव्यागमः , इति शब्दत्यादनयोः। तदन्यभावेऽपि नोशब्दो रश्यते , यथा 'मो. सुतरामागमत्वमेव युक्तम् . आगमत एव श्रुतं युज्यते, न घटः' इत्युक्त तदन्यः पटादिः प्रतीयते, यथा 'नो ब्राह्म- तु नोभागमत इत्यर्थः । यदि हि केवलोऽपि श्रुतोपयोग श्राहाः' इत्यभिहिते क्षत्रियादिगम्यते । द्रव्ये तु नोशग्दो घटैक- गम उच्यते, तर्हि द्वितीये शब्दलक्षणे द्रध्यागमे मिलते देशवचनादिः-नो घटः, नो पटः,नो स्तम्भ इत्यादिघटा- सुनरामयमागम एव युज्यते, न तु नोपागमः, पागमायेकदेशवाचक इत्यर्थः । ननु देशवाचकादस्य को भेदः ?, ऽनागमसमुदाय एव तस्य युज्यमानत्वादिति भावः। इति चेत् । उच्यत--तत्र घटादिसंबद्ध एव तदेकदेशो पराभिप्रायमेवाशङ्कप निराचिकीर्षुराहमोघटादिकता , अत्र तु स एव घटायेकदेशो श्रीवादिः पृ- अह नागमो त्ति सद्दो, नोप्रागमया य तदहियत्तणभो। थग्भूतो रश्याविपतितः स्वतन्त्र एव गृह्यते । स च घटा
भागमओ दन्चसुयं, किह सद्दो नागमो जइ सो।।८६२॥ देः पार्थक्येन वर्तमानत्वात् पृथगेव स्वतन्त्रं द्रव्यम् .इति द्रठये नाशनः । क्रियानिषेधवचनो नोशब्दः-'नो पचति, नो
अथ परो मन्येत-शब्द प्रागमो न भवति, तत उपयोगस्प
सदाधिकन्यादनागमरूपशब्दाधिकत्वात् नोभागमता, भागपक्रव्यमित्यादि । भावनिषेधे तु नोशम्दो 'नो शय्यते , नो
माउनागमसमुदाये श्रागमस्यैकदेशत्वाद नोश्रागमत्वमित्यस्थीयते' इत्यादि । भाव--क्रिययोश्च विशेषः सिद्ध--सा
भिप्रायः । अत्र सूरिराह-इन्त ! यद्यसौ शब्द प्रागमो न ध्यतादिरूपः कोऽपि शब्दशास्त्रादिगतो बोद्धव्यः । इत्येवं
भवति तांगमतो द्रव्यश्रुतं स्यात् ।। सुप्रतीतमप्यस्येविवक्षावशाद् देशादिश्वर्थेषु रष्टो नोशम्नः, न तु मिश्रभाव
स्थमागतो द्रव्यश्रुतत्वं न स्यात् , अनागमत्वात् । तइति।
स्माद् द्रव्यत मागम एवाऽयम्, अतो द्रव्यागमसहायो अत्रोत्तरमाह
भावागम पागमत एव भावभुतम् , न तु नोमागमत सच्चमयं देसाइसु, तह वत्थवसेण सहविणिभोगो।।
इति स्थितम् । भमियत्था य निवाया, जुज्जइ तो मीसभावे वि ८६।
अथान्यदपि मतान्तरमुपन्यस्य दूषयतिसत्यम् , देशप्रतिषेधादिवचनोऽयं नोशब्दः, तथाप्यर्थवशा- भन्ने नोभागमो, सामित्ताणासियं सुयं चेति । छम्दानां विनियोगः-यो यत्रार्थों घटते , तस्मिन्नथें तत्र
जइन सुयमणुवभोगे,नणु सुयरमणासिय नस्थि।।८६३|| ते प्रयुज्यन्त इत्यर्थः । पाह-नन्वेकस्यापि शब्दस्य किममेका विद्यन्ते , येनैवमुच्यते ?, इत्याशझ्याह-पोतकत्ये
अन्ये तु केचनाऽप्याचार्याः स्वामिनमाश्रितं श्रुतोपयोगं
भाषश्रुतं घुघते, स्वाम्यनाश्रितं तु तमेव नोागमतो भावमापरिमितार्थाश्च निपाता इति मिश्रवचनोऽपि प्रयुज्यते
भुतं युवते, पतवातिफल्म्वेवेति दर्शयति-'जईयादि' यमोशनः, न किश्चित् सूयत इति ।
धनुपयुक्नेऽपि वक्तरि श्रुतं नोक्लम् , किन्तु विशिष्टेऽपि तस्मिन् अथवा-देशवचनोऽपि भवत्वत्र नोशब्दः , न कश्चिद् दो
खामिनि द्रव्यश्रुतमेव पूर्वमभिहितम् । मूढ ! तर्हि सुतरापः, इति दर्शयन्नाह
मेवाऽनाश्रितं भाषथुतं नास्ति, स्वामिनमन्तरेण पुस्तकादिप्रविसेसियसंमिस्सो-वभोगदेसु तिवा सुय काउ। लिखिते ते उपयोगस्य दोत्सारितत्वात् , उपयोगमम्तरेस नोभागमभावसुए, नोसदो होज देसे वि ।।८ ।। च भावश्चतस्य सर्वथाऽसत्वात्। 'स्वाम्यनाधितं च श्रुतं भविशेषितवासी ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां परिपूर्णघटा- क्याप्यस्ति' इति प्रतिपादयितुर्महासाहसिकत्वमिति यत् विरिवाऽखण्डः समिधोपयोगश्चाविशेषितसंमिनोपयोगस्त-। किञ्चिदेतदिति । तदेवमुक्कं नोनागमतोऽपि भावभुतम् ।
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सुय अभिधानराजेन्द्रः।
मुंय | অথ গুনাথিলামাই--
अभिलप्यानपि तान् श्रुतज्ञानविशवाननन्तान् सर्वानपि वसुय-सुत्त-गंथ-सिद्धृत-सासणे-आण वयण-उवएसो ।। क्तुं न शक्नोति । कुतः ?, इत्याह-येन कारणेन 'से' तस्योपरमवण भागमो वि य, एगट्ठा पज्जया सुत्ते ॥८६४॥
स्कृष्टथुतशानिनो वदतः कालो न प्रभवति-न पूर्यते, प्राएतेषां च नानामर्थः प्रागतिदेशेनोक पवेति । तदेवं विहितः
युषः परिमितत्वात् , पाचश्च क्रमवर्तित्वात् । यंदा चोश्रुतस्यापि नामादिन्यासः । विशे० । उत्त० । प्रा० म०।
स्कृष्टः श्रुतधरोऽपि सर्वान् श्रुतभेदान् वक्तुं न शक्नोति, स्था० । दश । ०। सूत्र । ( श्रुतैकार्थिकानां व्याख्या
तदाऽन्यस्याऽस्मददिः का वार्ता ? इति भावः । विश०। खस्वस्थाने।)
श्रुतझानस्य अनन्ता भेदाःश्रुतज्ञानस्य अनन्ता भेदाः
श्रुतशानं पुनर्भवति मतिपूर्वे मतिकारकं भुतहानं कत्तो मे वएउं,सत्ती सुयनाणसम्बपयडीयो।
हि वाच्यवाचकभावेन शब्दप्लावितस्यार्थस्य ग्रहणं
वाक्यवाचकभावेन चशम्दः प्रवर्तते मत्यवधारितेऽर्थे चोहसविहनिक्खे,सुयनाणे प्रावि वोच्छामि ॥४४॥
इति, तत्पुनः श्रुतमानं सर्वमपि मूलभेदापेक्षया द्विविकुतो में शक्तिः सामर्थ्यम् ?, नॉस्त्येवत्यर्थः । किं कर्तुं ? ।
धम् , तद्यथा-स्वमतिसमुत्थं, परोपदेशाद्वा; परोपदेशसवर्णयितुम् । का?, श्रुतशानसर्वप्रकृती:-सर्धास्तवान् । त
मुत्थं चेत्यर्थः, तत्र स्वमतिसमुत्थं प्रत्येकबुद्धानां पदानुसातश्चतुर्दशविधश्वासी निक्षेपश्च चतुर्दशविधनिक्षेपो-ग्यासस्तं
रिप्रजानां वा। परोपदेशसमुत्थमस्मदादीनाम् । तत्कतिविवक्ष्यामि-भणिष्यामि, श्रुतझाने श्रुतविषयं, चशब्दात्--श्रु- धमिति तनेदप्रदर्शनार्थमाह । वृ०१ उ०१प्रक०। सामानविषयं च, अंपिशब्दाद्-उभयविषयं च । तत्र श्रुतक्षाने सम्यकवते,श्रुताशाने असन्नि-मिथ्याश्रुते,उभयते वर्शनपरि
'चोइसविहनिक्ख'इत्याधुत्तरार्ध ब्याचिण्यासुराहप्रहविशेषावक्षरा-ऽनक्षरादिश्रुते । इति निर्युनिगाथार्थः ।। नाणम्मि सुए चोद्दस-विहं चसद्देण तह य प्रमाणे । अथैतद्भाव्यम्
अविसदेणुभयम्मि वि, किंचि जहासंभवं वोच्छं।४५३। पयडि चि जो तदंसो, हेऊ वा तस्स तस्स भावो वा।
सम्यकश्रुतादौ श्रुतझाने चतुर्दशविधं निक्षेप बशब्देन
श्रुताशाने च मिथ्याश्रुतादौ, अपिशब्दादुभयरूपे च वर्शनवे यापंता सव्वे, तमो न तीरंति वोत्तु जे ॥४५॥
परिग्रहविशेषादक्षराऽनक्षरादिश्रुते किंचिद् यथासंभवं निइह प्रकृतिरिति किमुच्यते ?, इत्याह--यस्तदंशः-भुतक्षा- संप पक्ष्ये । इति गाथार्थः।। नांशस्तशिदोजमविष्टादिरित्यर्थः। हेतुर्वा बाह्याभ्यन्तर
तमेव चतुर्दशषिधं निक्षेपमाहभेदभित्रो यः श्रुतज्ञानस्य स प्रकृतिः । तत्र बाटो हेतुः
अक्खर सम्मी सम्म, साईयं खलु सपज्जवसियं च । श्रुतमानस्य पत्रलिखिताक्षराविः, प्रान्तरस्तु त तुः क्षयोपशमवैचित्र्यम् , तस्य श्रुतस्य स्वभावो वैकेन्द्रियादीनां च
गमियं अंगपबिटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥४५४॥ तुर्वशपूर्वधरान्तानां जीवानां तारतम्येन भिन्नरूपः प्रकृतिः
अक्षरादीनि सप्त द्वाराण्यनक्षरादिप्रतिपक्षसहितानि चतुप्रोच्यते । एते चांशाः,हेतवः,स्वभावाचाऽनम्ताः सर्वेऽपि,
देश भवन्ति । विशे०। श्रत प्रायुषः परिमितत्वाद् वाचश्व कमवर्तित्वात्न शक्यन्ते
सकलचरणकरणक्रियाधारभृतवानस्वरूपजिज्ञासया शिवक्तुम् । 'जति निपातोऽलङ्कारार्थ इति ।
ध्यः प्रश्नयतिएतदेव मावयति
से किं तं सुयनाणपरोक्ख, सुयनाणपरोक्खं चोदजावतो वयणपहा, सुवाणुसारेण केइ लभंति । सविहं पनत्तं, तं जहा-अक्खरसुयं १ मणक्खरसुयं २ ते सब्वे सुयनाणं, ते याणंता मइविसेसा ॥४५१॥
समिसुनं ३ असमिसुअं४ सम्मसुध ५ मिच्छसुभ६ इह यावन्तः केचन श्रुतानुसारेण संकेताः श्रुतप्रथा- | साइनं ७ अण्णाइअं८ सपञ्जवसिअंह अपज्जवसिअं१० नुसारेण लभ्यन्ते-प्राप्यन्ते बचनस्य पन्थानो-मार्गा मति- गमिमं ११ अगमि १२ अंगपविट्ठ १३ भणंगपविद्रं ज्ञानविशेषा इति तात्पर्यम् , ते सर्वेऽपि श्रुतज्ञानमिति । एवं
१४ । (सू० ३७) 'ते विय मषिसेसा सुयनाणभंतरे जाण'' इत्यादि मति-- भुतभेदविचारे पूर्व प्रतिपादिताः , ते व श्रुतानुसारिणी
अथ किं तच्छ्रतक्षानम् ? , प्राचार्य पाह-श्रुतक्षानं चतुईमतिविशेषा अनन्ता इति । ननु यदि मतिविशेषाः कथं
शविध प्रशप्तम् ,तद्यथा-अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं संलिश्रुतमसंश्रुतमानम् ? , इति तु न प्रेर्यम् , भुतानुसारिणो बिशिस्य
विश्रुतं सम्यकश्रुतं मिथ्याश्रुतं सादि अनादि सपर्यवसितमतिविशेषस्यैव श्रुतत्वात् । एतच्च पूर्व विस्तरेण सम
मपर्यवसितं गमिकमगमिकमप्रविष्टमनङ्गप्रविधं च । मनु थितमेवेति ।
अक्षरश्रुतानमारभुतरूप एव भेदद्वये शेषभेदा अन्तर्भवन्ति यदि मामाऽनन्ताः श्रुतभेदास्तथापि ते वक्तुं शक्यन्त
तकिमर्थं तेषां भेदोपन्यासः?, उच्यते--इहाव्युत्पन्नमतीनां एव, इत्याशङ्कयाह--
विशवावगमसम्पादनाय महात्मनां शास्त्रारम्भप्रयासो, न उकोससुयबाणी, विजाणमायो वि तेऽभिलप्पे वि।।
चाक्षरध्रुतामक्षरथुतरूपभेदद्वयोपन्यासमात्रादव्युत्पन्नमतयः
शेषभेवानवगन्तुमीशते, ततोऽव्युत्पन्नेमतिविनेयजनानुग्रहाय न तरह सच्चे वो, न पहुप्पा जेश काली से ॥४५२।। शेषयोपन्यास इति । ०। (अक्षरश्रुतानिपदानां व्याख्या उकएभुतज्ञामलम्धिसंपन्नोऽपि चतुर्दशपूर्वधरो जाननपि, | स्वस्वस्थाने।)
२४५
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इति।
(१७) सुय
अभिधानराजेन्द्रः। अथ संशिथुतमभिधित्सुराह
'तउ' ति तकोसी 'कालिकसंशी' इत्यभिधीयते । सप्लिस्स सुयं जं तं, समिसुयं सो य जस्स सा सम्मा।
यस्य किम् ? , इत्याह-'अस्स तर' ति यस्थाऽसौ का
लिकसंझा प्राप्यते । स च को विज्ञेयः ? , इत्याह-'सो होइ तिहा कालियहे-उदिहिवाओवरसेणं ॥ ५०४ ॥
य जो मणाजोग्गत्यादि' स च-कालिकसंझी विज्ञेयो 'यो' संनिश्रुतं तावत् तदेवाऽभिधीयते यत् संशिनः संबन्धि ।।
यः कश्चिद् मनोशानावरणकर्मक्षयोपशमाद् मनोलब्धिसंपसोऽपि संशी स एव यस्याऽसौ संशा समस्ति । सा
नो मनोयोग्यानन्तान् स्कन्धान् मनोवगणाम्यो गृहीन्या च संज्ञा त्रिविधा भवति-दीर्घशब्दलोपाद् दीर्घकालिको- मनस्त्वेन परिणमथ्य मन्यते चिन्तनीयं बस्त्विति । स च पदेशेन, हेतुवादोपदेशेन, रप्टिवादोपदेशेन चेति ।
गर्भजस्तियङ् मनुष्यो वा, देवः, नारकश्चेति । अत्र परः प्राह
अस्य चैधभूतस्य संक्षिनः किं भवति?, इत्याहजइ सम्मासंबंधे-ण समिणो, तेण समिणो सम्बे ।
रूवे जहोवलद्धी, चक्खुमो दंसिए पयासेणं । एगिदियाइयाण वि, जं सम्मा दसविहा भणिया।।५०५।। संज्ञा विद्यते येषां ते संशिनः, इत्यवं संज्ञासंबन्धाद यदि सं
तह छबिहोवोमो, मणदब्वपयासिए अत्थे ॥१०॥ शिन इष्यते तदा तेन संशासंबन्धेन सर्वेऽप्यकेन्द्रियादयो
यथा रूपे घट-पटादिसंबन्धिनि चक्षुष्मतो लोचनयुजीवाः संशिनः प्राप्नुवन्ति, न पुनः कऽप्यसंशिनः इत्येवमति
क्लस्य जन्तोरुपलब्धिश्चक्षुर्विज्ञानमुत्पद्यते । कथंभूते रूपे?, व्याप्तिप्रसाः,यतः सर्वजीवानामेकेन्द्रियादीनामपि प्रज्ञापना
दर्शिने प्रदीपादिप्रकाशन, तथा तेनैव प्रकारेण मनोविज्ञादिषु संज्ञा दशविधा भणिता,तद्यथा-"एगिदियाण भंते ! कइ
नावरणकर्मक्षयोपशमवतो जीवस्य चिन्ताप्रवर्तकमनस्वविहा समा पन्नत्ता? । गोयमा ! इसथिहा,तं जहा-श्राहार
पणितमनोद्रव्यप्रकाशित शब्दरूपादिक ऽर्थे मनःषष्ठेन्द्रियसम्मा, भयसराणा, मेहुणसराणा, परिग्गहसराणा, कोहसराणा.
पञ्चकभेदात् पविधोपयोगस्त्रिकालविषयोऽपि समुपजायत माणसराणा, मायासराणा लोहसराणा, ओहसण्णा, लोगसराणा" एवं द्वीन्द्रियादीनामपि वाच्यम् । तत् के मामत्थम
अत्र विनेयः पृच्छति । नन्वसंशिनः किं सर्वथैवेन्द्रियोसंशिनः?, प्रोक्ताश्चैतेऽनेकशस्तेषु तेषु प्रदेशयागम, ततः
पलब्धिर्न भवति?, इत्याहकथमेतत् ? इति ।
अविसुद्धचक्खुणो जह, नाइपयासम्मि रूवविएणाणं । अत्र परिहारमाह
असएिणो तहत्थे, थोवमणोदब्बलद्धिमओ ॥५११।। थोवा न सोहणा बि य, जसा तो नाहि कीरए इहई।
यथाऽविशुद्धचक्षुषो नातिप्रकाश मन्दमन्दप्रकाशान्वितप्रकरिसावणेण घणवं, न रूबवं मुत्तिमेत्तेण ॥ ५०६॥
देशेऽस्पष्टा रूपोपलब्धिर्भवति , एवमसंशिनः सन्मूछन
जपश्चेन्द्रियस्य स्वल्पमनोविज्ञानक्षयोपशमयशादतिस्तोकजह बहुदब्बो धणवं, पसत्थरूबो अरूबवं होइ।
मनोद्रव्यग्रहणशक्तेः शब्दाद्यर्थे ऽस्पटैबोपलब्धिर्भवतीति । महइऍ सोहणाए य, तह सम्मी नाणसमाए ।। ५०७॥
यदि सन्मूर्छनजपञ्चेन्द्रियस्यैवंभूतमस्पटं शानं भवति, यद्-यस्मात् कारणात् सा दशविधा संज्ञा काचित् ताव- तहकेन्द्रियादीनां तत् कथंभूतं भवति ?, इत्याहदोघसंझात्मिका स्तोका इति स्वल्पा, ततोऽत्र नाधिक्रि
जह मुच्छियाइयाणं, अव्वत्तं सव्वविसयविण्णाणं । यते-न तया संशी वक्तुं युज्यत इति भावः। न हि कार्षापणमात्रास्तित्वेन लोकेऽपि धनवानुच्यते । श्राहार-भय
एगेंदियाण एवं, सुद्धयरं बेंदियाईणं ।। ५१२।। परिग्रह-मैथुनादिसंशात्मिकाऽपि च भूयस्यपीह नाधि
यथा मूञ्छितादीनां सर्वेष्वप्यर्थेष्वव्यक्तमेव ज्ञान भवनि, क्रियत, तामप्याश्रित्य न 'सही' इति निर्दिश्यत इत्यर्थः,
एवमतिप्रकटावरणोदयादेकेन्द्रियाणामपि तत' शुद्धतरं शुयतो नाऽसौ शोभना-मोहादिजन्यत्वेन नासौ विशिष्ट- ख़तम द्वीन्द्रियादीनामापञ्चेन्द्रियसन्मूछजभ्यः, ततः सर्वत्यर्थः । न चाविशिष्टया संशया ' सही ' इत्यभिधातुं यु
स्पएनम संझिनामिति । श्राह--कुनः पुनश्चैतन्ये समानेऽपि ज्यते । न हि लोकेऽप्यविशिष्टेन मूर्तिमात्रेण · रुपवान् '
जन्तूनामिदमुपलब्धिनानान्वम् ? । उच्यते--सामर्थ्यभेदात् । इत्यभिधीयते । तर्हि कीदृश्या संशयाऽत्र संझी प्रोच्यते ?,
सच क्षयोपशमवैचित्र्यात् । इत्याह-यथा लोके बहुद्रव्य एवं धनवानभिधीयते, प्रश
एतदेवाह-- स्तरूपश्च रूपवान् भवनि, तथाऽत्रापि महत्या शोभनया तुल्ले छयगभावे, जे सामत्थं तु चक्करयणस्स। चशानावरणकर्मक्षयोपशमजन्यमनोज्ञानसंशयैव संशा व्यप
तं तु जहकमहीणं, न होइ सरपत्तमाईणं ॥५१३ दिश्यते-संशानं संशा मनोविज्ञानमित्यर्थः, तपा महती,
ईय मणोविसईणं, जा पडुया होइ उग्गहाईसु । शोभना च संझहाऽधिक्रियते, नान्येति भावः । ततश्चैषा ममाझानरूपा संहा येषामस्ति ते संशिनः, नान्य इति । विशे०।
तुल्ले चेयणभावे, अस्स(स) एणीण न सा होइ ॥५१४।। एषा च संशा यस्थाऽस्त्यसौ कालिकसंशी, स च या
इह यथा तुल्येऽपि छदकभाव चक्रवर्तिसंबन्धिनश्वकभवति, पतद् दर्शयति
रतस्य यच्छेदनसामध्यं तदन्येषां सह-दात्र-शरपत्रादीनां
छेदकवस्तूनां न भवत्येव । कुतः?, इत्याह--यतो यथाकालियसमिति तो,जस्स तई सो य जो मणोजोगगे।
क्रमहीनं क्रमशो हीयमानमेव तत् तेष्विति । प्रकृते योजखंधे णं ते घेत्तुं, मन्नइ तल्लद्धिर्मपालो ।। ५०६ ।। । यन्नाद--'ईय' ति दीर्घत्वं प्राकृनत्वात् , इत्येवं चैतन्ये
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सुब
तुल्येऽपि मनोविषयितां संशिनामवग्रहेहादिषु यावत्स्ववबोधापटुता भवति सा तथाविधक्षयोपशमविकलानां यथादीर्घकालिक संज्ञारदितानां सम्बन्द्रिय विकलेन्द्रि - केन्द्रियाणामसंशिनां न भवत्येव कशी हीनत्यादिति । तदेवं कालिकसंज्ञा उपदेशक कालि कोदेशस्लेन प्रोक्त संझी । सांप्रतं हेतुः, निमित्तं, कारणम्, इत्यनर्थान्तरे तस्य वदनं वादस्तद्विषय उपदेशः प्ररूपणं हेतुवादोपदेशस्तेन संवाभिधित्सुराह-जेपुरा संचिते, हड्डा-बिसयवत्सुं ।
ति निति व सदेहपरिपालखाहेउं ।। ५१५॥ा. पाए संपए चिय, कालम्मि न याइदीहकालएगा । ते देउवासम्मी, निच्चे होंति अस्सरणी ।। ५१६ ।। ये पुनः संचिन्त्य संचिन्त्य इष्टानिषेषु छाया-नया-द्वारादिविषयवस्तुषु मध्ये स्वदेह परिपालनाहेतोरिष्टेषु वर्तन्ते, अनिष्टेभ्यस्तु तेभ्य एव निवर्तन्ते प्रायेण च सांप्रतकाल एय नवतीतानागतकालावलम्बिनः प्रायोग्रा केचिदतीतानागतायलवियनोऽपि नातिदीर्घकालानुसा रिया, ते पद हेतुवादोपदेशेन संज्ञिनो विशेषाः । तथाहि-- संशिनो द्वीन्द्रियादयः संचिन्त्य संचिन्त्य हेयोपादेयेषु निवृतिप्रवृतिदेवं देतुयादिनोऽभिप्राय निधेष्टाः पृथिव्यादयाचिन इति
9
अथ दृष्टिर्देर्शनं सम्यक्त्वादि तस्य वदनं वादस्तद्विषय उपदेशः प्ररूपणं तेन संज्ञिनमसंशिनं च प्ररूपयन्नाह-सम्मद्दिट्ठी सरणी, संते नाणे खच्योवसमियम्मि । अस्सी मिच्छन- म्मिदियाओवसे ॥५१७|| डिष्ट्रिवादोपदेशेन क्षायोपशमिकाने वर्तमानः सम्यमष्टिविशिष्टायुक्तत्वात् मिध्यादृष्टिशी विप यस्तत्वेन वस्तुतः संज्ञारहितत्वादिति
- यदि विशिष्टसंज्ञायुक्तत्वात् सम्यग्रदष्टि संशष्यते, तर्हि किमिति क्षायोपशमिकशाने वर्तमानोऽसौ गृह्यते । ज्ञानेहि तस्य विशिष्टतरासी प्राप्यते ततस्तद्वृत्तिरप्यसौ किं नाङ्गीक्रियते, येनोच्यते--' संते नाणे. खश्रोमियम' इति । एतदाशङ्कय पूर्वमुत्तरमाहखयनाणी किं सरणी, न होइ होइ व खश्रोत्रसमनाणी | संख्या सरणमणागय-चिंता य न मा जिये जम्हा | ५१८ प्रावरणस्य सर्वचैव क्षण हामी क्षयज्ञानी फेयसीत्यर्थः, असी संशी किमिति न त कमायो freerat संशी भवतीति व्याख्यायते भवता । एवं परेशोले सत्याह--' सत्यादिकेली न भवति यतोऽतीतार्थस्य स्मरणम्, अनागतस्य च विन्ता संशोच्यते सा च जिने यखिनि नास्तीति सर्वदा सर्वार्था मासकरन केलिनां स्मरण सिम्तायतइति शायोपशमिकाम्येव सम्यगृष्टिः संशीति ।
}
3
·
1
(202) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
"
पुनरपि प्रकारान्तरेणाऽऽ६ परः-
मिच्छो हियाहियविभा - गनासण्यास मणिभो कोइ । दीसह सो किममराणी, सय्या जमसोहणा तस्स ५१६ ।।
सूच
,
ननु मिथ्यादृष्टिरपि कश्चिदिकाद्यर्थवहिताहितविभागज्ञानात्मक स्पष्टसंज्ञासमन्वित एव दृश्यते ततः किमित्यसी संधी न भवति येन यादोपदेशेनामी प्रोच्यते इति गुरुराह-यद्यस्मादशोभनाता स्प मियाःसंज्ञा तेन सत्याऽपि तयाऽपीति । श्राह - नतु यद्यप्यशोभनाऽस्य संज्ञा, तथापि कथं तस्या अभावः ?, इत्याह
"
जह दुब्वणमवणं, कुछयसी असलमसईए । भाइ तह नाणं पि हु मिच्छद्दिस्सि असावं ||५२०|| यथा दुर्वचनं कुत्सितं वचनं सदप्यवचनं लोके भगयते, असत्याश्व संबन्धि कुत्सितं शीलं विद्यमानमप्यशीलं यथाअभिधीयते तथा मिथ्यारनमपि मिथ्यादर्शनादयपरि महादानं वम्भरूपतेः संज्ञाऽयोध्यत इत्यर्थः ।
कस्मात् पुनस्तस्य ज्ञानमप्यज्ञानं भवति ?, इत्याहसदसदविसेसणाओ, भवहेउज हिच्छिवलंभाओ । नागफलाभावाओ मिच्छद्दिडिस्सा ॥५२१ ।।
"
प्राग् व्याख्यातार्थैव ।
याद ननु देव नारक- गर्भजति मनुष्यलो मिथ्यादिर्घकालिक संज्ञामाश्रित्य दृष्टिवादोपदेश संशाविचा रेऽपि संशी कस्माद् नोच्यते ?, इत्याह-
ऊहो न हेउए हे उई न कालम्मि भाई था ।
जह कुच्छिणाओ, तह कालो दिट्टिचामि ॥ ५२२|| यथा ऊहः पृथिव्यादीनां संधी घमात्र संज्ञेत्यर्थः, न 'उप' ति हेतुवादसंज्ञायां विचार्यमाणायां कुत्सितश्चात् संज्ञा भण्यते, यथा वा 'कालमि सि दीर्घकालिक - संज्ञायां विचार्यमाणायांनी ज्ञान भ पंत तथा 'काली' तिदीर्घकालिपि संज्ञा यादीप्रदेशसंज्ञायां विचार्यमाणार्या कुत्सितत्वादेवानरायते । श्रतो नेह देवादिरपि मिथ्यादृष्टिः संशीति भावः ।
9
देयं दीर्घकालिक हेतुवाद- ष्टिवादोपदेशेन विविध सं शां निरूप्य अथैतासां मध्ये कस्य जन्तोः का भवति ?, इति निरुपमाह
,
पंचमूहमा देउसा बेदियाई ।
3
सुर-नारय- गम्भव-जीवाणं कालिंगी सप्ता ॥४२३॥ छउमत्थाणं सपा, सम्मदिट्ठीय होइ सुयनाखं । मइवावारविमुका, सलाईआ उ केवलियो || ५२४ || पञ्चानां पृथिव्यतेजोवायु-वनस्पती मामूदा स्पारोहणाद्यभिप्रारूपोपाभयति सा विविधसंज्ञामध्येऽत्रेयमूह संज्ञा नोक्लैव, अत एवैकेन्द्रिया इह स
वाशिम एव तु कृत्याच्यता इति भवतैवोक्तमेव प्राकू, तत्कथमत्र स्वामित्व प्ररूपणायामियमेतेषां संज्ञा प्रोक्ला ? | सत्यम्, किम् केन्द्रियाणामे वोहसंज्ञा भवति, न तु हेतुवादादिसंज्ञा, इत्येवमेतत्संज्ञात्रनिषेधानोऽयं निर्देशो यो न तु तस्याश्वोsसंज्ञाया यथा संज्ञात्वं तथा प्रागेवोक्तमिति । भवत्येवम्, तथाप्येकेन्द्रियाणामाहार- क्रोधादिका संज्ञा
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(९८०)
अभिवानराजेन्द्रः। दशविधा समये प्रोक्का , तत्कथमेकैवोहसझाऽत्रैषामुक्ता ?| छतसगावे सम्यग्रष्टिरेव भवति न मिथ्यारष्टिरिति भा. सत्यम् , बल्ख्यादिग्वियं व्यक्तवोपलभ्यते किञ्चिदिति शे- | पोपलक्षणार्थमेव निर्दिष्टा, इत्यलं प्रसनेनेति । द्वि-त्रि-च
वः। सेसए भयण' ति-शेष भिन्नदशपूर्वादिके सामातुरिन्द्रिय-सम्मूईनजपश्चेन्द्रियाणां तु हेतुवादसंझा प्राण्य
यिकपर्यन्ते श्रुते भजना-विकल्पना एतच्छुतसद्भावे को ते । देवनारकाणां गर्भज-तियङ्-मनुष्याणांच कालिकी संझे
पि सम्यग्दृष्टिः , कश्चित्त मिथ्यात्वोदयाद विपर्यस्तो मिति.। रष्टिवादोपदेशेन छमस्थजन्तूनां सम्यग्रष्टीनामेव सं
ध्याटिरपि भवति । ततश्चैतत् श्रुतं सम्यक्त्वपरिग्रहात् पा प्राप्यते । ततश्च तेषां यच्छ्रुतबानं तत् संमिश्रुतं भव
सम्यकश्रुतं , मिथ्यात्योदयाद् मिथ्याश्रुतमपि स्यादिति भा. ति' इत्यध्याहारः। एवं च सति स्मरण-चिन्तादिमति
वः । मत्य-वधिविपर्यासऽपि मिथ्यात्वं मिथ्यात्वोदयो श्रुतव्यापाररहिता भवस्थाः ; सिद्धिं गताच केवलिन एव
भवति , न पुनः शेष--मनःपर्याय-केवलझानद्वये । इदसंशातीताः संहारहिताः, शेषजन्तनां केषांचित् कस्याश्वित्
मुक्तं भवति-मिथ्यात्वोदयाद् मतिज्ञानं विपर्यस्तं सद् मत्यसंज्ञाया उनत्वादिति भाव इति।
शानं भवति , अवधिरपि तदुदयाद् विपर्यासमापनो वि
भङ्गपदव्यपदेश लभते , मनःपर्याय-केवलझाने तु कदापि अत्राह परः
मिथ्यात्वोदयाद् विपर्यासं न गच्छतः , तत्सद्भावे नदुदयमोत्तण हेउ-कालिय, सम्मत्तकम जहुत्तरविमुद्धं ।। स्यैवासंभवात् । मनःपर्यायानं हिचारित्रिण एव भवति, किं कालिप्रोवएसो, कीरइ आईऍ मुत्तम्मि ॥ ५२५॥ केवलज्ञानं तु क्षीणघातिचतुष्टयस्य , इति कुतस्तदावे मिनन्यविशुद्धत्वात् प्रथम हेतुवादसंहा, ततो विशुद्धत्वात्
ध्यात्योदयः इति । एतबह मिथ्यात्वोदयसंभवाऽसंभकालिकसंशा, ततोऽपि विशुद्धतरत्वाद् दृष्टिवादसंहा, -
षप्रस्तावादनुषङ्गत एवोक्तम् , प्रस्तुतं पुनरत्र सम्यग्मिस्येव यथोत्सरविशुद्धममुं क्रम मुक्त्वा किं कालिकसंझोप
ध्याश्रुतमेषेति। शादौ प्रथमं सूत्र नन्दिलक्षणे क्रियते ?, तथा च भ
अत्र किल परः किंचित् प्रेरयतिबताऽपि तदनुरोधेन पूर्वमुक्तम्- सा सरणा होइ तिहा तत्तावगमसहावे, सइ सम्मसुयाण को पइविसेसो। कालिय-हेउ-दिट्टिवाओवएसेण' इति ।
जह नाणदंसणाणं, भेओ तुल्लेऽवबोहम्मि ॥ ५३५ ॥ अनोत्तरमाहसमित्ति असएिण त्ति य, सव्वसुए कालिभोवएसेणं ।
नाणमवाय घिईओ, दंसणमिg जहोग्गहेहाभो।
तह तत्तई सम्म, रोइजइजेण तं नाणं ॥ ५३६ ।। पायं संववहारो, कीरइ तेणाइए स को ।। ५२५ ॥ इह सर्वस्मिन्नपि श्रुते-पागमे योऽयं संक्षा' इति ध्य
उभयत्रापि तत्वावगमस्वभावत्वे तुल्ये सति कः सम्यवहारः स सर्वोऽपि प्रायो बाहुल्येन कालिकोपदेशेनैव
कन्व--श्रुतयोः प्रतिविशषः , येनोच्यते- सम्यक्त्वपरिप्रक्रियते । तेनाऽऽदौ स एव कालिकोपदेशः कृतः । इवमुक्तं हात् सम्यकश्रुतम् 'इति?। इदमुक्तं भवति-'रागाविदोषभवति-यतः स्मरण-चिन्तादिदीर्घकालिकमानसहितः स
रहित एव देवता, तदाशापारतन्ध्यवृत्तय एव गुरवः , मनस्कपञ्चन्द्रियः संझीत्यागमे व्यवहियते, असंही तु प्रस
जीवादिकमेव तस्वम् , जीवोऽपि नित्याऽनित्याद्यनेकस्वभाप्रतिषेधमाश्रित्य यद्यप्यकेन्द्रियादिरपि लभ्यते, तथापि घः, कर्ता, भोक्ता , मिथ्यात्यादिहेतुभिः कर्मणा बध्यते, समनस्कसंही तावत् पञ्चेन्द्रिय एव भवति । ततः पर्य
तपः-'संयमाऽऽदिभिस्तु यतो मुच्यते' इत्यादिबोधात्मकमेव क्षसाश्रयणादसंश्यप्यमनस्कसम्मूच्र्छनजपश्चन्द्रिय पवा55- सम्यक्त्वमुच्यते, श्रुतमप्येवमाघभिलाषात्मकमेव , तदनयोः गमे प्रायो व्यवाहियते । तदेवंभूतः संज्ञा-संझिव्यवहारो दी- को विशेषः , येनोच्यते--'सम्यक्त्वपरिगृहीतं सम्यकश्रुतर्घकालिकोपदेशनैवोपपद्यते । अतः प्रथम स एष सूत्रे , त- म् ' इति । अत्रोत्सरमाह-' अहे ' त्यादि यथा व-- दनुरोधेनाऽत्र च निर्दिष्टः । इति त्रयोविंशतिगाथार्थः विशे। स्त्वषयोधरूपत्वे तुल्येऽपि कथंचिहान--दर्शनयो दः , अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्व-मिश्रस
तथा तस्वावगमस्वभाषे तुल्येऽपि सम्यकत्व-श्रुतयोम्यक्त्वपुजलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीये सर्वथा क्षी
रिहाऽपि कथञ्चिद्भेदः । कथं पुननि--दर्शनयोरन्य-- णे. क्षायिकं सम्यक्त्वं भवतीति । तदेवमेतत्सम्यक्त्वपञ्चक
प्र तावद् भेद उक्तः, इति चेत् । इत्याह-'नाणे' त्यादि परिग्रहात् सम्यकश्रुतम् , मिथ्यात्वपरिप्रहानु मिथ्याश्रुतं
यथाऽपायश्च धृतिश्चाऽपायधृती , एते वचनपर्यायग्राहभवतीति प्रतिपत्तव्यमिति । विशे।
कत्वेन विशेषावबोधस्वभावत्वाज्ज्ञानमिष्टम् , अवग्रहश्वेहा
चाऽर्थपर्यायविषयत्वेन सामान्यावबोधाद दर्शनम् । तथाsअत्राह-ननु कियत् सम्यकश्रुतमेव भवति !, कियच्च मि
प्रापि जीवादितत्त्वविषया रुचिः श्रद्धानं सम्यक्त्वं भण्यते, ध्याश्रुतम् , शेषस्य च मत्यादिक्षानचतुष्यस्य मध्ये मि
येन पुनस्तज्जीवादितत्त्वं रोच्यते--श्रद्धीयते तज्ज्ञानम् । ध्यात्वोदयात् कस्य विपर्यासो भवति, कस्य च न?,
अयमत्राभिप्रायः-दर्शनमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिना या इत्याशङ्कयाह
तस्वश्रद्धानात्मिका तत्त्वरुचिरुपजायते । तया तस्वश्रद्धाचोद्दस दस य भभिन्ने, नियमा सम्मत्तसेसए भयणा।
नात्मकं जीवादितस्वरोचकं विशिष्टं श्रुतं जन्यते, ततस्तत् महमोहिविवञ्जासे, वि होड मिच्छे न उण सेसे ॥५३४॥ भतज्ञानव्यपदेशं परिहत्य श्रुतज्ञानसंज्ञां समासादयति । एवं चतुर्दशपूर्वेभ्यः प्रारम्य यावत् संपूर्णवशपूर्वाणि तावद् । च सति परो मन्यते-विशिष्टतत्वावगमस्वरूपं श्रुतमेव सनियमात् सम्यकभुतमेव भवति, न मिध्याभुतम्-एताव- म्यक्त्वं, न पुनस्ततोऽतिरिकं किश्चिदुपलभ्यते, इति कथ
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सुय
मुच्यते सम्यक्त्यपरिग्रहात् सम्यकभुतम् इति । सिजान्तवादी तु मन्यते यथा शानदर्शनयोर्यस्य पयोधरूपतयेयेऽपि विशेषसामान्यवस्तुग्राहकत्वेन मे तथापितामरूपे धुने तत्वधानांशः सम्यक्त्वं शिष्टं तु तत्वरोचनमित्यनयोर्भेदः पतपोक सम्ययोगपज्ञामेऽपि कार्यकारणभावाद भेदः ।
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उक्तं च
कारण कजविभागों, दीवपणासाण जुगजम्मे वि जुगपन्नं पि तहा, हेऊ नारास्स सम्मत्तं ॥ १ ॥ जुगवं पि समुत्पन्नं, सम्मत्त अहिगमं विसोहेइ । जह कयगमंजणाई - जलबुट्टीओ विसोर्हिति ॥ २ ॥ " अतो युक्तमुक्रम् सम्पत्यपरिगृहीतं सम्पतं विपर्य चालु मिथ्याथुनम् । इति गाथादशकार्थः । विशे० ।
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सोच्चा व अभिसमेच्च व तत्तरुई चेव होति सम्मत्तं । तत्थेव व जा विरुई, इतरत्थ रुई प मिच्छ । भुवा केवलप्रभृतीनामुपदेशमिति समेत्य या जातिस्मर खादिना या तस्वेषु रुचिर्भवति सा सम्या या तत्रेय तवेषु विचिरितरेतरयेषु खचः सा मिध्यात्वमिति । उक्तं सम्यक्त्वश्रुतं मिथ्यात्वश्रुतं च । बृ० १ ० १ प्रक० । से किं तं साइ सपञ्जव से, अणाइ अपञ्जवासि च १, इच्चेयं दुबालसंगं गणिपिडगं बुच्छि चिनयट्टयाए साइअं सपञ्जवसिअं अवच्छित्तिनयट्टयाए अणाइअं
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पञ्जवसि । ( सू० - ४२X )
अथ किं तत्सादिपर्ववसितमनादि, अपसतं? तत्र सद्दादिना वर्त्तते इति सादि, तथा पर्यवसानं पर्यवसितं भावे कप्रत्ययः, सह पर्यवसितेन वर्त्तते इति सपर्यवसितम्, आदिरहितमनादि, न पर्यवसितमपर्यवसितम् आचार्य द्वादशागणिपिटक
-
"
( ६८१ ) अभिधानराजेन्द्रः |
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यवाद इत्यादि व्ययतिपादनपरो नयो प चिनिय पर्यायास्तिक हत्यर्थः तस्यार्थीनिदार्थ पत्ता ना शता तथा पर्यायांपेक्षयेत्यर्थः किमित्याह सादिपव सितं नारकादिभवपरिणत्यपेक्षया जीव व 'अवच्छित्ति नयनुयाए ति अध्ययनप्रतिपादनपरो नयोऽय
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,
विस्तस्यार्थः अव्यवच्छित्तिनवार्य इव्यमित्यर्थः । तद्भावस्तत्ता तया; द्रव्यापेक्षया इत्यर्थः । किमित्याह श्रनादि पर्यवसितं त्रिकालावास्थायित्याज्जीववद् | नं० । इदानीं सादि सपवसितं च तं प्रतिपक्षमुच्यते-अस्थि ति नयस्तेयं अशाइपअंतमत्थिकाय व्व । इयरस्स साइ संत, गइपजाएहि जीवो व्व ॥ ५३७ ॥ अमीत नयो नित्यवादी इव्यातिस्तस्याभिप्राये द्वादशाङ्गभूतमनादि अनित्यत्वात् पञ्चाति कायवत् तथाहि - यैर्जीवद्रव्यैः श्रुतमिदमधीतं, याम्यधीयन्तेयानि तानि नपि
,
इति तेषामनादिता पर्यन्ता च ततः श्रुतस्थापितत्पययभूतस्य तद्व्यतिरेकान्तपतेय न हि
।
૨૬
"
"
सुख सर्वथाऽसत्काप्युत्पद्यते सिकतामपि तैलानिय ङ्गात् । नापि सतोऽत्यन्तोच्छदः सर्वशून्यतापत्तेः । यदि हि यद् यद्देव - नारकादिकं घटपटादिकं च विनश्यति तत्तद्यदि सर्वथा निरन्ययमपैति तदा कालस्याऽपर्य यतित्यात्मेण सर्वस्यापि जीवङ्गलरा सर्वमेव विश्वं शून्यं स्यात् । तस्माहुताधारव्याणां सर्वदेव सत्वात् तस्यतिरेकिणस्तस्यापिपतेतिथितम् इतरस्य उपचित्तिनयस्याऽनित्यवादिनः पर्यायास्तिकस्य मतेन सादि, सपर्यन्तं च श्रुतम् अनित्यत्वाजीवस्थ, भारकादितिपर्यायवत् ताहि निरन्तरमपरापरे वायुपयोगाः प्रसूयन्ते प्रलीयन्ते च । न च तेभ्योऽन्यत् किमपि नमस्ति तत्कार्यभूतस्य जीवादित्यापस्याऽन्याऽदर्शनात् तदनुपलम्भेऽपि तस्करूपनायामतिप्रसङ्गात्। इज्यादिषु च भुतोपयोगः सा सवसित एवेति ।
अथवा नयविचारमुत्सृज्य-क्षेत्र काल-भावानाथत्येदं साद्यादिस्वरूपं चिन्त्यत इति । एतदाहदव्वाइणा व साइय-मखाइयं संतमंतरहियं वां । दव्यम्म एमपुरिनं पच साई सनि च ।। ५२८|| इत्यादिना या यशेषकाला धुतं खादिकमनादिकं, सान्तमनन्तं न भवति । इह च द्रव्यतः श्रुतमेकं बहूनि च पुरुषद्रव्याण्याश्रित्य चिन्तनीयम । तत्रैकपुरुषं द्रव्यमङ्गीकृत्य तावदाह - द्रवमत्यादिव्यत एकपुरुषं प्रतीत्य सादि सनिधनं च श्रुतं भवति । विशे० । आ परः केन पुनः कारणेन अक्षरानक्षरश्रुते प्रथममुपाते तत श्राह
सुतीति सुयं तेणं, सब पुरा अक्खरेपरं चेत्र । तेक्खरे तरं वा, सुयनाणे होति पुव्वं तु ॥ १५० ॥ हद हि यस्मात्प्रतिपतेर्यदुच्यमानं शृणोति तेन कारयेन तत्तमित्युच्यते भूपते इति श्रुतमिति व्युत्पते। श्रयणं पुनरक्षरस्य वाऽनक्षरस्य तेन श्रुतज्ञाने प्ररूप्यमाणे पूर्वमक्षरमक्षरं वोपात्तमिति । वृ० १३० १ प्रक० ।
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से किं तं गमियं ?, दिडिवाओ, अगमि कालि सु, सेत्तं गमियं, सेतं अगमिश्रं । श्रहवा - तं समास
दुविहं पचं तं जहा अंगपपि, अंगवाहिरं च से किं तं अंगवाहिर, अंगबाहिरं दुविहं पष्मतं तं जहाआवस्यं च आवस्यवइरितंत्र से किं तं वस्सय १ श्रावस्तयं छव्वहं पम्पतं । तं जहा सामाइअं चउवी:सत्थओ बंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पंचक्खाणं, सेतं आवस्य से किं तं भवस्यवहार है आवस्मयदहरितं दुपि तं जहा कालियंच, कालिच ( ० ४३ X )
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किंमत
सुयं मे
भगाएमा त्यादि एवं म इह खलु "
भूयो भूयस्तस्य आउ
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सुप
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ध्यावसानयोरपि यथासम्भवं द्रष्टव्यं गमा अस्य विद्यन्तेइति गमिकम् 'अतो नेरात्ययइफप्रत्ययः । उक्तं च चूर्णे - श्रहण मज्डवसाणे वा किंचि विसेसजुत्तं दुगाइयग्गसो तमेव पढिज्जमां गमियं मन्नइत्ति, तथ गमिकं प्रायो दृष्टिवादः तथा चाह - 'गमियं दिवा' तद्विपरीतमगमिकं तच प्राप श्राचारादि कालिकश्रुतम् असदृशपाठात्मकत्वात् । तथा चाह--'अग मियं कालियसुयं सत्त' मित्यादि, तदेतद्भमिकमगमिकं व । 'तं समासश्रो' इत्यादि, तङ्गमिकमगमिकं च, अथबा तत् -- सामान्यतः श्रुतमहंदुपदेशानुसारि समासतः-सद्विविधं तथापि च । अवाद-मनु पूर्वमेव ननुदेशनेदोद्देशाधिकारे मवायुपन्यस्तं किमर्थ भूगस्तरसमासत पन्यासेन तदेव स्यस्यते इति उच्यते-इस श्रुतभेदा श्रङ्गानङ्गप्रविष्टरूपे भेदद्वय एवान्तर्भवन्ति तदर्थापनार्थ भूयोऽप्युद्देशेनाभिधानम्
•
,
प्रविष्टम दुपदेशानुसारि ततः प्राधान्यस्थापनार्थ भूयोऽपि तस्योद्देशेनाभिधानमित्य दोषः तत्राप्रविष्टमिति । ( नं० ) तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथममङ्गबाह्यमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह- 'से किं तमिस्वादि किं वा ? सुरिराह- अङ्गवायं श्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा श्रावश्यकं चावश्यकव्यतिरिक्तं च । तत्रावश्यं कर्म श्रावश्यकम् अवश्य कर्त्तव्यक्रियानुष्ठानमित्यर्थः, अथवा गुणानामभिविधिना श्रवश्यमास्मानं करोतीत्यावश्यकम् - श्रवश्य कर्त्तव्य सामायिकादिक्रियानुष्ठानं तत्प्रतिपादकं श्रुतमपि आवश्यकं चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः 'सेल' मित्यादि अथ किं तदावश्यकम् , सूरिगह आवश्यकं षड्विधं प्रशतं. तद्यथा'सामायिक' मित्यादि निगदसिद्धं, 'सेल' मित्यादि तदेतदावश्यकं ' से किं त' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकंव्यतिरिक्रमावार्य आवश्यकतरि द्विविर्ध प्रज्ञप्तं तद्यथा--कालिकम् उत्कालिकं च । तत्र यद्दिवसनिशाप्रथम पश्चिमपीपीद्वय एव पठयते तत्कालिक कालेन निवृतं कालिकमिति व्युत्पत्तेः यत्पुनः कालवेलाच पठवते तदुत्कालिकम, आहस्थ कालिये जे दिनराई (ए) पदमबरमपोरिससुपदि जे पुरा कालबेलावजं पढिज्जर तं उक्कालियं ति, तत्राल्पवक्तव्यत्यास्प्रथममुत्कालिकमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह--'से किं त' मिस्यादि अथ किं तदुत्कालिकं श्रुतं ? सूरिराह-- उत्कालिकं श्रुतमनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-- दशवैकालिकं तच्च सुप्रतीसं, तथा कल्पकल्पप्रतिपादकमध्ययनं कल्पकल्पं तथा कल्पनं कल्पः - स्थविरादिकल्पः तत्प्रतिपादकं श्रुतं कल्पतं तद्यथा 'जय महा एक महाग्रन्थमत्पार्थे च द्वितीयं महाग्रन्थं महार्थे च शेषश ग्रन्थविशेषाः प्रायः सुप्रतीताः तथापि लेशतोऽप्रसिद्धान् व्याख्यास्यामः । तत्र 'परणवण 'त्ति जीवादीनां पदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना, सेव बृहत्तरा महाप्रज्ञापना, तथा प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रसादाप्रमादम्।नत्र प्रमादस्वरूपमेवं प्रचुर कम्मैन्धनप्रभवनिरन्तराविध्या शारीरमानसानेतु बहुत ज्यालाकलापपरीतमशेषमेच
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-
•
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(२८२) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
.
प्रविष्ट
त्या एय
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ਰਰ
सुय संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवस्यपि सति च तन्निर्गमनापाये वीतरागतधम्मचिन्तामणी पती विचित्रकमदयसाथियजनितात् परिणामविशेषादपश्य मि गणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवाले जीवः स खलु प्रमादः, तस्य च प्रमादस्य, ये देतवो मद्यादयस्तेऽपि प्रमादास्तत्कारणत्वात् उक्तं च- " मज्जं विलय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एप पंच पमाया जीवं पाडंति संसारे ॥ १ ॥ " एतस्य च पञ्चप्रकारस्यापि प्रमादस्य फलं दोगिक उप
"योग भी लाशेन । संसारबन्धन गते -नं तु प्रमादः क्षमः कर्तुम् ॥ १ ॥ अस्यामेव दि जातो, नरमुपम्पादिताखे वा । श्रासेवितः प्रमादो. हन्याज्जन्मान्तरशतानि ॥ २ ॥ यन्न प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यश्च प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनायः, प्रमाद इति विनिश्चतमिदं मे ॥ ३ ॥ संसारबन्धगतो जातिजराव्याधिमरणदुःखार्त्तः । नोद्विजते सत्यः सोऽप्यपराधः प्रमादस्य ॥ ४ ॥ शायते यशस्तुपाशिपादनेन । कर्म च करोति बहुविध मेतदपि फलं प्रमादस्य ॥ ५ ॥ इददि मनमनसः सोम्मादम निभृतेन्द्रियाखपलाः । यत्कृत्यं तदकृत्वा, सततमकार्येऽष्चभिपतन्ति ॥ ६ ॥ नेपामभिपतिताना मुद्धा हानाम् । वर्द्धन्त एवं दोषा वनतरव इवाम्बुसेकेन ॥ ७ ॥ उसने विि
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,
-
तीरं नीतापि भ्राम्यति वायुना नोः । लध्वा वैराग्यं भ्रप्रयोगः प्रमादा
द्भूयो भूयः संसृतौ बम्भ्रमीति ॥ ८ ॥ "
,
एवं प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादस्यापि स्वरूपादयो धाच्याः, नन्दीत्यादि सुमरियपनि नि यां अपने पांचसाः तथापी मण्डल' मिति पुरुषः शङ्कुः पुरुषशरीरं वा तस्मान्निष्यन्ना पौरुषी 'तत आगते ' ॥६।३।१४६॥ इत्यण, श्राह व चूर्णि
पुरोति संकू पुरिससरीरं वा तत्र पुरिसाथ निष्कग्रा पौरिसी' इति, इयमच भावना सर्वस्यापि वस्तुनो यदा स्वप्रमाणच्छाया जायते तदा पौरुषी भवात पनच पौरुषी प्रमाणमुत्तरायणस्यान्ते दक्षिणायनस्यादौ वैक दिनं भवति ततः परमलपाहावेपष्टिभागा दक्षि लायने वर्द्धन्ते उत्तराय एवं मराइले मराइले अ म्या या पौरुषी पत्रायते तद्य पौरुषमण्डल तथा यत्राध्ययने चन्द्रस्य सूर्यस्य च दक्षिणेषु उत्तरेषु च मण्डलेषु सञ्चरतो यथा मण्डलात् मण्डले प्रवेशो भवनि तथा व्यावर्ण्यते तदध्ययनं मण्डलप्रवेशः, तथा 'विद्याचरणविनिश्चय' इति, विद्येति ज्ञानं तच सम्यग्दर्शनमहितमवगन्तव्यम्, अन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, चरणचारित्रमेतेषां फलविनिश्चयप्रतिपादको प्रन्थो विद्याचर
विनिश्चयः, ( नं०) तथाऽऽत्मनो - जीवस्थालोचनप्रायश्चितप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्रकारेण विशुद्धिः - कर्मविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां ग्रन्थपद्धती साऽऽत्मविशुद्धिः, तथा बीतरागधुत मिति सरागम्यपोदेन वीतरागस्वरूपं प्रतिया
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सुप
यते यत्राध्ययने तीतरागर्त तथा संलेखनात ' मिति इम्यभावसंलेखना पत्र धुते प्रतिपाद्यते तत्संलेखनाथुतं तत्रोत्सर्गत इयं द्रव्यसंलेखना -
,
" चत्तारि विचित्ताई, विगईनिज्जूहियाइ चत्तारि । संवरे उ दोनि उ, एगंतरियं च आयामं ॥ १ ॥ माइविगिट्ठो य तवो, म्मासे परिमियं च श्रायामं । अषिय मासे दो विगि तयोक ॥ २ ॥ बासं व कोडिसहियं, श्रयामं कट्टु श्रणुपुब्वीप । गिरिकंदरम्म गंतु, पायवगमणं अह करेइ ॥ ३ ॥ " मासंलेखनात कोधादिकषायप्रतिपक्षाभ्यासः तथा ' विहारकल्प ' इति विवरणं विहारः तस्य कल्पो व्यवस्था स्थविरकल्पादिरूपा यत्र वर्यते प्रन्थे स विहारकल्पः, तथा 'चरणविधि' रिति चरणं चारित्रं तस्य विधियंत्र व स चरणविधिः, ( नं० ) महाप्रत्याख्यान ' मिति महत्प्रत्यास्थानं यत्र वर्यते तम्मद्दाप्रत्याख्यानम्, इह चूर्णिकारेण कृता भावना दर्श्यते" थेरकपेण जिकपेण वा विहरिता अंते थेरकप्पिया बारस वाले संलेहं करेता जिएकपिया पुरा विहारेणेव संलीढा तहाविजहाजुत्तं संलेहणं करेत्ता निव्वाघायं सचेट्ठा चेव भवचरिमं तिसरं परिजनमउप महापञ्चखाएं [हड्डीका रकमेतत् ] एवं सायद्मन्यध्ययनानि एतान्यध्ययनानि जानिास्थाणिभणियाण समित्यादि निगमनं तदुत्कालिक
"
1
लक्षणं चेतदिति उनमुकालिकं से किं तमित्यादि. अथ किं तत्कालिक है, कालिकमनेकविधं प्रतं तद्यथेस्यादि उत्तराध्ययनानि सर्यापपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यन्येव रूशोत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि 'दसाओ' इत्यादि प्रायो निगदसिद्धं निशीथमिति विशीचवनिशीथम् इदं प्रतीतमेव तस्मात्परं यद्मन्यार्थाभ्यां महत्तरं तम्महानिशीथे तथा प्रालिका
4
.
(३) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
तथा
नामितरेषां या विमानानां वा प्रविभक्तिः प्रविभजनं यस्यां प्रपद्धती सा विमानप्रविभक्तिः, सबैका लोकग्रन्थार्था द्वितीया महाग्रन्थार्था, तत्राऽऽद्या तुलिका विमानविभक्तिः, द्वितीया महाविमानप्रविभा, 'अङ्गचूलिके' ति श्रङ्गस्य श्राचारादेश्चूलिकाऽङ्गचूलिका, भूविका नाम उक्तानुकार्थसंग्रहारिका ग्रन्थपद्धतिः तथा वर्गचूलिके' ति वर्गः अध्ययनानां समूदो यथाऽन्तदशास्वष्टी वग्ग इत्यादि तेषां चूलिका तथा व्यापाभगवती तस्याश्चू । लिका व्याख्याचूलिका (नं०) । तथा ' उत्थानश्रुत' मिति उत्थानम् - उद्वसनं तद्धेतुः श्रुतमुत्थानश्रुतं तच्च शृङ्गनादिते कार्ये उपयुज्यते, अत्र चूसिंकारकृता भावना--" सजेंगस्स कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्य वा रायद्दाणीए वा समसे कयसंकध्ये सुरुते चंडिक्किए अप्पसने अप्सनलेसे विसमासुहास गत्थे उबउसे समाये उद्वाससुपर परिषद एवं दो या तिfरण वा वारे ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणीए श्रहमप्ये विलवंते दुयं दुषं पावेते उडु उ प्रतिभयं दो "सि तथा समुत्थानभूतमिति
"
*
·
,
सुय
,
.
समुपस्थानं - भूयस्तत्रैव वासनं तद्धतुः श्रुतं समुपस्थामधुतं वकारलोपाच सूत्रे “समुद्धारा" ति पाठः तस्य चेयं भावना - " तो समते कर्ज तस्सेव कुलस्लं वा जावराहाणी वासे वेव समणे कयसंकप्पे तुटु पसन्ने पसलेसे समसुदासाचे उप समाहे समुद्वारायज्यतं परियतं एवं नो तिथि या वारे वाहे से कुले बागामे वा जाब गहाणीए वा पट्टचिते पसरथं मंगलं क लयलं कुणमाणे मंदार गईए सललियं भागच्छद्द समुवट्ठिए-श्रावासइतिवृत्तं भवर, सम्मं उ ( मु ) बट्टारासु ति बसध्ये वकारलोपामुद्रात लिहा - पणावि पुग्छुट्टियं गामाइ भवइ तहाबि जइ से सम एवंकयकव्ये अपर्ण परिषद तम्रो दुरभि भाषासे" तथा नागरियादिय' सिजागा नागकुमारास्तेषां परि शापस्यां प्रथपडती भवति सा नागपरिक्षा तथा हितोपदर्शिता भावना" आहे ते समनि गंधे परियह ताहे शकयसंकम्पस्स वि ते नागकुमारा तत्थरथा मेष समयं परियाति-वंदति नर्मतिमा क रेवि, सिंगनादितसु व वरदा भयंति' तथा 'निरयाबलियाश्रो' ति यत्रावलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकावासाः प्रसङ्गतस्नामिना नरास्ता पता निरयापलिका एकस्मिन्नपि ग्रन्थे वाच्ये बहुवचनशब्दः शक्तिस्वाभाव्यात्, यथा पाञ्चाला इत्यादौ, तथा 'कल्पिका' इति याः सौधर्म्माविकल्पमनवक्तव्यतागोचरा प्रन्थपद्धतयस्ताः कल्पिकाः, एवं कल्पासिका द्रष्टव्याः, नवरं तासामियं चूर्णिकृतोपद चिंता भावना 'सोहम्मी आणि कप्पविमायाणि ताथि पयखिताविति तेसु कम्पयडिसमासु देवी जातोसेसे उबरा एयं वि परिणताओ कप्पवासियाओ बंति' तथा 'पुष्पिता' इति वासु ग्रन्थपतिषु गृहचासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्यिताः सुखिता उषिता भूयः संयमभाव परित्यागतो दुःखाचाशिमुकुलनेन मुकुखिताः पुनस्तत्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिता -
अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः । नं० ) माइत्यादिति नामग्राहमापातुं शक्यलेकानि तत एवमादीनि चतुरशीतिः प्रकी राकसहस्राणि भगवतोऽर्हतः श्रीॠषभस्वामिनस्तीर्थकृतः तथा संख्येयानि प्रकीकसहस्राणि मध्यमानामजितादीनां जिनवरेन्द्राणां तीर्थकराणाम् एतानि च यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि तथा चतुर्दश प्रकीर्णकस्राणि भगवतोऽहंतो वर्तमान स्वामिनः । इयमत्र भावना - इइ भगवत - षभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्रसंख्याः श्रमणा आसीरन् ततः प्रकीर्यकरूपाणि प्राध्ययनानि कालिकोटकासिमे दभिन्नानि सर्वसंख्यानि चतुरशीतिसहस्र संख्यान्यभवन्, कथमिति चेत् १ १, उच्यते-इह यद्भगवदईदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवन्तः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्वे प्रकीर्णकमुच्यते, अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनादिषु प्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्व प्रकीर्यकम् भगवत कामिन उत्कृष्टा भ्रमयसम्पा
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सुय
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आसीत् चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा ततो घटते क काम्यपि भगवतश्चतुरशीतिसहस्रसंख्यानि एवं मध्यम श्रीकृतामपि संयानि की एक सहस्राणि भावनीयानि भगवतस्तु वर्तमानस्यामिचतुईश अमसहस्राणि कीटकाम्यपि भगवतु सहस्राणि एके सूरयः प्रज्ञापयति किल चतुरशीतिसहखादिकं मादीनां तीर्थ परिमाणं प्रधानस्त्रविरचन
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समर्थान् श्रमणानत्ति तथा पुनः सामा न्यश्रमणाः प्रभूततरा अपि तस्मिन् तस्मिन् ऋषभादिकाले आखीरम, अपरे पुरे
प्र
--
जीवनामिदं चतुरशीतिसहखादिकं श्रमणपरिमार्ण प्रवादतः पुनरेकैकस्मिन् तीर्थे भूयांसः भ्रमापेदितव्याः तत्र ये प्रभागसूत्रविरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्ध अत कालिका अपि तीर्थे वर्तमानास्तत्राधिकृता या प तदेव मतान्तरमुपपादयेत्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने यस्य भारतीकृती यायन्तः शि प्यास्तीर्थे श्रीपत्तिक्या चैनविक्या कजया पारिणामिक्या चतुर्विधवा युवा उपेताः समन्विता वसीरन् तस्य - ऋषभादेस्तावन्ति प्रकीर्णक सहस्राण्यभवन् लेकबुद्धा अपि तावन्त एव श्रत्र के व्याचक्षते - इद्द एकैकस्य तीर्थकृतस्तीर्थेऽपरिमाणानि प्रकीराकानि भवन्ति, प्रकीर्यकारिणामपरिमात्यान् केवल रचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि प्रकीर्णकणरिमाणेन प्रत्येकबुद्ध परिमाण प्रतिपादनात् स्यादेतत्प्रत्येकानां शिष्यभायो विरुध्यते तदेतदसमीचीनं यतः प्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावोनिनिरोपदिशासनप्रतिपनापि ततो न कश्चिद्दोषः । तथा च तेषां ग्रन्थः-- " इह तित्थे अपरिमाणा पक्षमा पानमसामि अपरिमाणत्तो, किंतु इद्द सुत्ते पत्तेयवृद्धपणीयं परन्नगं भाणियव्यं कम्हा ?, जम्दा परागपरिमाण चेव पत्तेयदपरिमाणं कीर (इति) भणियं पयबुद्धा वि तत्तिया चेव ति सोया पासिसभावयविरुभार अवरोह नित्यपरचय सापडत स्वीस इति अन्ये पुनरेव दुःसामान्येन प्रकीर्ण
,
कैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं न तु नियोगतः
( ६८४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
;
तेन
-
,
प्रत्येकबुद्धरचितान्येव कानीति सेनं तदेतत्कालिकम् नं० 1 (बज्रमबद्धं चेति द्विविधं श्रुतम् 'करण' शब्दे तृतीयभागे ३६८ पृष्ठे मतम् । )
संदेय नियतं मतिमतः अथ कियां
स्तद्विषयनिरूपयितुमाह-
उतो सुनी सन् दन्याएँ जागा जहरथं । पास यह सो पुरा तमच ति ॥ ५५३ ॥ उपयुक्तोपयोगः श्रुतज्ञानी सर्वे इत्यादि यथार्थ-यशायद यथा सर्वोष तथा जातः पञ्चास्तिकार्यद्रव्याणि, क्षेत्रं लोका--ऽलोकाकारं, कालमतीतादिकर्प, भाषागायिका जाना-भामा'तु सामान्यादिना दर्शनेन पश्यति
--
सुय
तस्य तद्संभवात् यथा हि मनःपर्यायज्ञानं स्वभावेनैव स्पष्टार्थग्राहकम् इति न तत्र दर्शन एवं श्रुतज्ञानेऽपि तदपि विनावस्थायान्तजल्पाकारत्वाद विशेषमंत्र गृह्णाति न सामान्यमिति भावः । तथा च नन्दित्रम"तं समासो उद
•
"
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सश्रो, कालश्रो, भावश्रो दव्वश्र णं सुयनाणी उवउत्तो सव्वदव्वाई जाणाइ न पासइ, एवं सव्वखेत्तं सव्वकाल, सव्वभावे जाणइ न पासइ " इति । श्रन्ये तु नञः पाठं न मन्यन्ते । ततश्च "जागर पासव " इति पठन्ति । अतः दर्शनेन पश्यति इति ते मन्यन्ते यच्चासी दर्शनेन पश्यति तदचक्षुर्दर्शनेनेति मन्यन्ते । इदमत्र हृदयम्यस्य श्रुतज्ञानं तस्य मतिज्ञानमवश्यमेव भवति । मतितज्ञानस्य व दाद विभेद दर्शनक्रम्। तत्र फिल हुने मतिज्ञानं पश्यति असु दर्शनेन पुनः नमिति ।
एतत् तेषां मतमसमीक्षिताभिधानत्वाद् यदृच्छावादमात्रमिति दर्शयन्नाह - सिमचक्खुदंसण- सामलाओ कहं न मइनाणी । पास पास व कहं, सुयनाणी किंकओ भेश्रो ॥ ५५४|| तेषां नमः पाठमनभ्युपगच्छतां मतिज्ञानं श्रुतज्ञानयोरिन्द्रिय-- मनोनिमिनतासाम्यादच सुदर्शन समानेऽपि कथं मेन मनिशानी न पश्यति, कर्य या नानी पश्यति । यदि निशानी तेन पश्यति समितिपितु प्रवासी न पश्यति तहींतरोऽपि माऽपश्यतु । ननु किंकृतोऽयं भेदो, यदन्यक्षदर्शने समानेऽपि नेशानं पश्यति अपरं तु न पश्यति ? । स्वेच्छाभाषितस्यमानं विहाय नापरमत्र कारणं पश्याम इति भावः । तस्मात् जाणइ न पासह " इति स्थितमिति । अथम ज्ञापनोां पश्यतामाश्रित्य राज्ञानेऽपि पश्यता युक्ता । ततश्च जागाइ पासइ इत्यपि पाठो युक्त इति दर्शनाद
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मइभेयमचक्खुर्द - स च वजितु पासया भणिया | पवणाए उ फुडा, तेरा सुए पासला जुत्ता ॥ ५५५ ॥ मतेर्भेदो मतिभेदो मतिज्ञान-मत्यज्ञानलक्षणस्तं तथाऽचतुर्दर्शनं च वर्जयित्वा येन कारणेन प्रज्ञापनायां शिवमपदे पश्यत्ता स्फुटा व्यक्ता भणिता, तेन श्रुते श्रुतज्ञानेऽपि पश्यत्ता युक्ता जागर पासइ" इति पाठो युक्त इत्यर्थः । (विशे०) केषुचि पुस्तकेषु "तेरा सुए. पासणाऽजुत्ता' इत्यकारप्रश्लेष दृश्यते तत्रायमर्थः -- पूर्व गाथायां पासद य केद्र सो पुरा तमचषखुदंसणेण ' इति वचनादचतुर्दर्शनमाश्रित्य श्रुतज्ञान या पश्यत्ता प्रोक्का सा, इत्यतोऽप्ययुक्ता । कुतः ? इत्याहयेन प्रज्ञापनाय मतिभेद दर्शनं वर्जयित्व ता प्रोक्ता । श्रतोऽचतुर्दर्शनमाश्रित्याऽयुक्तैव श्रुतज्ञाने पश्यता । ततो ""जाईन पासई " इति पाठ इति स्थितम् । इयं च गाथा पूर्वटीकाकारैगृहीता, कण्ठया इति च निर्दिशा न तु व्याख्याताः अस्माभिस्तु यथावबोध किञ्चि चिन्ता, सुधिया स्वग्या उपरोधतो व्याख्येयेति । तदेवं मेदोष निरूपितं श्रुतज्ञानम्।
"
६.
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अभिधानराजेन्द्रः। सांप्रतं सत्यदप्ररूपणतादिभिर्नवभिरनुयोगद्वारेर्गत्यादिमा- काले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारगणास्थानेषु तद् गमनीयम् । एतश्चाभिन्न स्वामित्वात् पूर्वो
कंतारं अणुपरिश्रदृति, इच्चेइअं वालसंगं गणिपिडगं क्रमतिशानेन समानम् , इत्यतिदिशमाह
अणागए काले अणंता जीवा प्राणाए विराहिता चाउरतं जह नवहा मइनाणं, संतपयपरूवणाइणा गमियं ।
संसारकंतारं अणुपरिट्टिस्संति । इच्चेइयं दुवालसंग तह नेयं सुयनाणं, जे तेण समाणसामित्वं ॥५५६।।
गणिपिडग तीए काले अणंता जीवा आणाए पाराहित्ता गताथैव । श्रथोत्तरनियुक्निगाथासबन्धनायाह
चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइंस, इच्छेइ दुवालसंगं गणिसध्वाइसयनिहाणं, तं पाएणं जमो पराहीणं । पिडगं पडुप्पामकाले परिता जीवा आणाए आराहिता तेण विणेयहियत्थे, गहणाबायो इमो तस्स ॥५५७॥ । चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयंति , इच्चेइयं दुवालसंग तश श्रुतक्षानं यतो यस्मादनेकातिशयनिधानं प्रायः परा-| गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए काले धीनं च गुर्वायत्तम् ,तेन कारणेन तस्य श्रृतवानस्याऽयं
आराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं वीईवइस्संति । इच्चेअं वक्ष्यमाणो ग्रहणोपायो-ग्रहणविधिः 'तीर्थकर-गणधरैरुक्कः' इति शेषः । इति गाथापचकार्थः।।
दुवालसंग गणिपिडगं न कयाइ नासी न कयाइ न भवई कः पुनर्ग्रहणोपायः?, इत्याह
न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे आगमसत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहि अहिं दिहूँ निए सासए अक्खए अबए अवट्ठिए निच्चे से चेति सुयनाणलंभ, तं पुन्वविसारया धीरा ॥२५॥
जहानामए पंचस्थिकाए न कयाइ नासीन कयाइ नस्थि पूर्वेषु विशारदा विपश्चितो धीरा-व्रतानुपालनस्थिराः
न कयाइ न भविस्सइ भुवि च भवइ भविस्सइ अधूवे श्रुतज्ञानस्य लाभ त्रुवते-प्रतिपादयन्ति । किं तत् ?, इत्याह- नियए ससाए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे । एवामेव 'तं' ति तदेवागमशाखग्रहणम् । यत् किम् ?, इत्याह-यद् बु- दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि न द्विगुणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैरष्टभिर्दिष्ट्र शास्त्रे, इत्यक्षरयोजना ।
कयाइ न भविस्सइ भुवि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे अयमर्थः-शिष्यते शिक्ष्यते बोध्यतेऽनेनेति शास्त्रं तश्चाविशषितं सामाम्येन सर्वमपि मत्यादिवानमुच्यते, सर्वेणापि
निए सासए अक्खए अव्वए अवदिए निच्चे । से मानेन जन्तूनां बोधनात् । अतो विशेष स्थापयि
समासो चउबिहे पणत्ते, तं जहा-देवो, खित्तओ, तुमाह-आगमरूपं शाखमागमशानं श्रुतशावमित्यर्थः, त- कालो, भावो । (सू० ५७४) स्य ग्रहण गुरुसकाशादादानं तदेवं श्रुतलाभं बुवते, यद् ।
'इत्येतस्मिन् द्वादशाले गणिपिटके' एतत्पूर्ववदेव व्याबुद्धिगुसैरएभिः शास्त्रे दिष्टं, नान्यदिति-वक्ष्यमाणशुश्रू
ख्येयं, अनन्ता भावा-जीवादयः पदार्थाः प्रज्ञप्ता इति योपादिगुणाष्टककमेणैव श्रुतज्ञानं प्राय, नान्यथेति तात्पर्यम् ।
गः, तथा अनन्ता अभावाः-सर्वभावानां पररूपेणासत्त्वाइति नियुक्किगाथार्थः।
त् त पवानम्ता अभावा द्रष्टव्याः, तथाहि-स्वपरसत्ताअत्र भाष्यम्--
भावाभावात्मकं वस्तुतत्त्वं, यथा जीवो जीवात्मना भावसासिअइ जेण तयं, सत्थं तं चाऽविसेसियं नाणं । रूपो अजीवात्मना चाभावरूपः , अन्यथाऽजीवत्वप्रसनाआगम एव य सत्थं, आगमसत्थं तु सुयवाणं ॥५५६।। त् , अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरवभयादिति, तस्सायाणं गहणं, दिटुं जं मइगुणेहिं सत्थम्मि ।
तथाऽनन्ता 'हेतवो' हिनोति-गमयति जिशासितधर्म
विशिष्टमर्थमिति हेतुः, ते चानन्ताः , तथाहि-वस्तुनोऽचेति तयं सुयलामं, गुणा य सुस्सूसणाईया ॥५६०॥
नम्ता धर्मास्ते च तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकास्ततोगतार्थ एव । विश।
ऽनन्ता हेतबो भवन्ति , यथोक्तहेतुप्रतिपक्षभूता अहेतवः, ___ साम्प्रतमाधनो द्वादशाङ्गाभिधेयमुपदर्शयति
तेऽपि अनन्ताः , तथा अनन्तानि कारणानि घटपटादीमां इच्चइयंमि दुवालसंग गणिपिडगे अणंता भावा अर्णता निर्वर्तकानि मृत्पिण्डतम्त्वादीनि, अनन्तान्यकारणानि, अभावा अणंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा
सर्वेषामपि कारणानां कार्यान्तराण्यधिकृत्याकारणअणंता अकारणा अणंता जीवा अणंता अजीवा अणंता
त्वात् , तथा जीवाः-प्राणिनः , अजीवाः परमा
णुद्वथणुकादयः, भव्या-अनादिपारिणामिकसिद्धिगमभवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिा अणंता सिद्धा अणंता
नयोग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः, सिद्धा अपगतअसिद्धा पामत्ता, तं जहा-"भावमभावा हेऊ-महेउ कारण- कर्ममलकलङ्काः, असिद्धाः संसारिणः , एते सर्वेऽप्यनन्ताः मकारणे चेव । जीवाजीवा भविश्रम-भविश्रा सिद्धा असि- प्रशताः, इह भव्याभव्यानामानन्त्येऽभिहितेऽपि यत्पुनरसिद्धा य ॥१॥” इच्चेइ दुवालसंग गणिपिडगं तीए काले
द्धा अनन्ता इत्यभिहितं तत्सिद्धेभ्यः संसारिणामनन्तगु
णताख्यापनार्थम् । सम्पति द्वादशाङ्गविराधनाफलं त्रैकाअणंता जीवा आणाए बिराहित्ता चाउरतं संसारकतारं
लिकमुपदर्शयनि-श्वेश्य' मित्यादि, इत्याद् द्वादशा अणुपरिअद्दिसु, इच्छेइ दुवालसंगं गणिपिड़गं पड़प्पाम- गणिपिटकमतीत कालेऽनन्ता जीवा प्राशया--यथोक्ता55
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सुप
(१८६)
अभिधानराजेन्द्रः। हापरिपालनाऽभावतो विराभ्य चतुरन्तं संसारकान्तारं तमत्रैव दृष्टान्तमाह-से जहानामे' त्यादि , तद्यथानाम पविविधशारीरमानसानेकदुःखविटपिशतसहस्रदुस्तरं भवग- श्वास्तिकाया:-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासनित्यादि हनम् ' अणुपरियादिलु' अनुपरावृत्तवन्त आसन् । इह द्वा- पूर्ववत् , 'एवमेवे' त्यादि निगमनं निगदसिद्धं, 'से समादशाचं सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं. द्वादशानमेव चाडमा सो' इत्यादि , तद् द्वादशाकं समासतश्चतुर्विधं प्रवतं, नप्राक्षाप्यते जन्तुगुणो द्वितप्रवृत्ती यया साऽऽक्षेति व्युतात्तेः, यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । ततश्चाशा त्रिविधा, तद्यथा-सूत्राशा. अथार्ता, उभयाझा च ।
तत्थ दव्यश्रोणं सुअनाणी उववत्ते सम्बदन्वाइं जाणद सम्प्रति अमूषामाशानां विराधनाश्चिन्त्यन्ते-तत्र यदा. ऽभिनिवेशवशतोऽन्यथा सूत्रं पठति तदा सत्राशाविरा
पासइ, खित्तो ण सुभनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जासह धना, सा च यथा जमालिप्रभृतीनां, यदा स्वभिनिवेश- पासइ, कालो.ग सुअनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जागइ वशतोऽन्यथा द्वादशालार्थ प्ररूपयति तदाऽर्थाशाविरा- पासइ, भावो. सुमनाणी उवउत्ते सव्वे मावे जाण्इ धना, सा च गोष्ठामाहिलादीनामवसेया, यदा पुनरभि
पासइ । (सू० ५७४) निवेशवशतः श्रद्धाविहीनतया हास्यादितो वा द्वादशा
तत्र द्रव्यतो 'ण' मिति याक्यालङ्कारे श्रुतझानी उपयुक्तः अस्य सूत्रमर्थ च विकुट्टयति तदा उभयाशाविराधना, सा
सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यति , तत्राह-ननु पश्यतीति च दीर्घसंसारिणामभव्यानां चानेकेषां विज्ञया । अथवा
कथं ?, न हि श्रुतानि श्रुतमान यानि सकलानि वस्तूनि पञ्चविधाचारपरिपालनशीलस्य परोपकार करणकतत्परस्य
पश्यति, नैष दोषः, उपसाया अत्र विवक्षितत्वात् , पश्यनीव गुरोहितोपदेशवचनम् श्राक्षा, तामन्यथा समाचरन परमा
पश्यति, तथाहि-मेर्वादीन पदार्थानदृष्टानप्याचार्यः शिष्येभ्य थतो द्वादशाङ्ग विराधयति, तथा चाह चूर्णिकृत्-'श्रह
प्रालिस्य दर्शयति ततस्तेषां श्रोतृणामेवं बुद्धिरुपजायते वा आणत्ति पञ्चविहायारायरणसीलस्स गुरुणो हियोच
भगवानेष गणी साक्षात्पश्याशिव व्याच इति , एवं एसवयणं आणा, तमन्नहा आयरतण गणिपिडगं विरा
क्षेत्रादिष्वपि भावनीयम् , ततो न कश्चिद्दोषः । अन्ये हियं भवा' ति। तदेवमतीते काले विराधनाफलमुपदर्थ्य
तुन पश्यतीति पठन्ति , तत्र चोद्यस्यानवकाश एव , सम्प्रति वर्तमानकाले दर्शयति-'इच्चाय'-मित्यादि।
श्रुतज्ञानी चेहाभिन्नदशपूर्वधरादिश्रुतकेवली परिगृह्यते , सुगम नवरं 'परिता' इति परिमिता नत्वनन्ता असलये
तस्यैव नियमतः श्रुतक्षानबलेन सर्वद्रव्यादिपरिक्षानया वा, वर्तमानकालचिन्तायां विराधकमनुष्याणां सत्ये
सम्भवात् , तदितरे तु ये श्रुतशानिनस्ते सर्वद्रव्यादिपरियत्वात् , 'अणुपरियटृति.' त्ति अनुपगवर्तन्ते-भ्रमन्ती
शाने भजनीयाः , केचित्सर्यद्रव्याणि जानन्ति केचिन्नति स्यर्थः, भविष्यति काले विराधनामुपदर्शयति- इच्चेदय ,
भावः । इत्थम्भूता च भजमा मतिचैचित्र्याद्वेदितव्या,पाहच मित्यादि, इदमपि पाठसिद्धं, नवरं 'परियट्टिस्संति' ति
चूर्णिकृत्-"धारो पुण जे सुयनाणी ते सध्बदवनाणपाअनुपरावर्तिध्यन्ते-पर्यटिश्यन्तीत्यर्थः, तदेवं विराधनाफ
सणासु भइया, सा य भयणा माघिसेसओ जाणियव्य ति"। सं त्रैकालिकमुपदर्य सम्प्रत्याराधनाफलं त्रैकालिकं दर्शयति-इच्चेश्य' मित्यादि. सुगम नवरं 'बीइवाइंसु' त्ति
संप्रति संग्रहगाथामाहव्यतिक्रान्तवन्तः संसारकान्तारमुल्लकय मुक्निमवाप्ता इत्यर्थः। "अक्खर सनी सम्म, साइभं खलु सपज्जवसिमं च । 'बीदवासंति' ति व्यतिक्रमिष्यन्ति, एतच्च त्रैकालिक गमिअं अंगपविट्ठ , सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥१८२॥ विराधनाफलमाराधनाफलं च द्वादशाङ्गस्य सदाऽवस्था
सुस्सूसइ१पडिपुच्छइ२,सुणेइगिएहइ अईहए यावि। यित्वे सति युज्यते , नान्यथा, ततः सदावस्थायित्वं तस्याह-इच्नेय , मित्यादि, इत्येतद्वादशाकं गणिपिटकं
तत्तो अपोहए वा६,धारेइ ७ करेइ वा सम्मं ॥१८३॥ न कदाचिन्नासीत् , सदैवासीदिति भावः, अनादित्वात् , मृअं हुंकारं वा, बाहकार पडिपुच्छ वीमंसा । नया न कदाचिन्न भवति , सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां तत्तो पसंगपारा-यणं च परिणिट्ट सत्तमए ॥१८४॥ भवतीति, भावः, सदैव भावात् . तथा न कदाचिन्न भ
सुत्तत्थो खलु पढमो, वीओ निज्जुत्तिमीसित्रो भणिभो। . विष्यति, किन्तु भविष्यच्चिन्तायां सदैव भविष्यतीति प्रतपत्तव्यम् , अपयवसितत्वात् , नदेवं कालत्रयचिन्तायां ना
तइयो य निरविसेसो,एस विही होइ अणुओगे।।१८५॥" स्तित्वप्रतिषेध विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति- से तं अंगपविढं । से तं सुअनाणं । 'भुवि च' इत्यादि. अभूत् भवनि भविष्यति चेति । एवं 'अक्सरसन्नी' स्यादि, गतार्था । नवरं सप्ताप्येते पक्षाः सन त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवं मर्वादिवत् , ध्रुवत्वादेव सदैव तिपक्षाः, ते चैवम्-अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतमित्यादि (नं.) जीवादिषु पदार्थेषु प्रतिपादकत्वेन नियतं पश्चास्तिकायेषु किमुक्तं भवति ?-यदेव जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिक्षानं मोकवचनयत् नियनत्वादेव च शाश्वतं-शश्वद्भवनस्वभावं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं, न शेषामिति । बुद्धिगुणैर भिरिशाश्वतत्यादेव च सननगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि(पन्न) पु- त्युक्तम् , ततस्तानेव बुद्धिगुणानाह-'सुस्सूसईत्यादि, पूर्व शरीकइन इय वाचनादिप्रदानेऽपिअक्षयं-नास्य क्षयोऽस्ती तावत् शुश्रूषते-विनययुक्नो गुरुवदनारविन्दाद्विनिर्गच्छस्यक्षयमक्षयत्वादेव च अव्ययं मानुषोत्तरादहिः समुद्रवत् । द्वचनं श्रातुमिच्छति , यत्र शङ्कितं भवति तत्र भूयोऽपि भव्ययत्वादेव सदैव प्रमाणेऽवस्थितं जम्बूद्वीपादिवत् , ए- विनयनमूतया वचसा गुरुमनःप्रहादयन् पृच्छति , पृणे व पंच सदाऽरस्थानेन चिन्त्यमानं नित्यमाकाशवत्, साम्प्र- सति यद् गुरुः कथयति तत्सम्यक व्याक्षेपपरिहारेण माव
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सुय
अभिधानराजेन्द्रः। धानः शृणोति, श्रुत्वा चार्थरूपतया गृह्णाति गृहीत्वा च | रागारो॥१॥" सुबहयो या एता अष्टादश लिपयः श्रूयन्ते,तथा ईहते पूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति, चशब्दः समुच्चयार्थः, हि-"हंसलिवी भूयलिवी, जक्खी तह रक्खसी य बोधव्वा । अपिशब्दात्प(ब्दःपर्यालोचयन किश्चित् स्वयुद्ध्याप्युत्प्रेक्षते | उडी जवणि तुरुकी,कीरी दविडीय सिंधवियामालविखी इति सूचनार्थः, ततः पर्यालोचनाऽनन्तरमपोहते एवमेतत् नडिनागरि,लाडलिवी पारसी य बोधब्बा । तह अमिमित्तीय यदादिष्टमाचार्येण नान्यथेत्यवधारयति, ततस्तमर्थ निश्चितं लिवी, चाणकी मूलदेवी व ॥२॥" व्यञ्जनाक्षरमकासविद्धस्वचेतसि विस्मृत्यभावार्थ सम्यग्धारयति करोति च स- कारपर्यन्तमुच्यते । तदेतद्वितयमझानात्मकमपि श्रुतकारणम्यग्-यथोक्लमनुष्ठान, यथोक्लमनुष्ठानमपि ध्रुतमानप्राप्तिहेतुः
स्वादुपचारेण श्रुतम् । लण्यक्षरं तु शमश्रवणरूपदर्शनादेतदावरणक्षयोपशमनिमित्तत्वात् । तदेवं गुणा व्याख्याताः । रर्थप्रत्यायनगर्भाक्षरोपलब्धिः । यदाह-"जो अक्सरोवलंसम्प्रति यच्छुश्रूषते इत्युक्तं तत्र श्रवणविधिमाह-'मूय' मि
भो,सालद्धी तं च होइ विनाणं । इंदियमणोनिमितं,जो श्रात्यादि,मूकमिति प्रथमता मूकं शृणुयात् किमुक्तं भवति धरणक्खोवसमो ॥१॥" ततोऽक्षरैरभिलाप्यभावानां प्रति१-प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत् , ततो द्वितीये
पादनप्रधानं श्रुतमक्षरश्रुतम् । नन्वनभिलाया अपि कि केश्रवणे हुकारं दद्यात् । यन्दनं कुर्यादित्यर्थः, ततस्कृतीये
चिद्भावाः सन्ति, येनैवमुच्यतेऽभिलाप्यभाधानां प्रतिपादवाढंकारं कुर्यात् , बाढमेवमेसन्नान्यथेति, ततश्चतुर्थे श्रव
नप्रधान श्रुतमिति, उच्यते-सन्त्येव । यदाहुः श्रीपूज्या:णे तु गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपूच्छां कुर्या
" पलवणिज्जा भावा, अणतभागो उ अभिलप्माणं । त् . कथमेतदिति ?, पश्चमे मीमांसां-प्रमाणजिज्ञासा कु
पलवणिजाणं पुण, अणतमागो सुयनिबद्धो ॥१॥ र्यादिति भावः, षष्ठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं
जं चउदस पुग्वधरा, छट्ठाणगया परुप्परं दुनि। चास्य भवति, ततः सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा गुरुवदनुभा
तेण उ अणतभागो, पनवणिजाण जं खुत्तं ॥२॥ पते । एवं तावच्छ्वणविधिरुनः। सम्प्रति व्याख्यानविधि
अक्षरलंमेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसणं (हिं)। मभिधित्सुराह--'सुत्तत्थों' इत्यादि, प्रथमानुयोगः सूत्रार्थ:
ते विहु मईविसेसा, सुयनाणभंतरे जाण ॥ ३॥" सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, स्खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधा
अनक्षरश्रुतं वेडितशिर:कम्पनादिनिमित्तं मामालयति बारणे । ततोऽयमर्थः-गुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधा
रयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानम् । तथा संशिश्रुतं तत्र मलक्षण एव कर्त्तव्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मति
संहानं संझा "उपसर्गादातः" ॥५॥ ३ । ११०॥ इत्यप्रत्ययः । माह, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्रिमिश्रितो भ
सा च त्रिविधा दीर्घकालिकी हेतुवादोपदेशिकी रष्टिवादोणितस्तीर्थकरगणधरैः , सूत्रस्पर्शिकनियुक्रिमिश्रितं द्विती
पदेशिकी । यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिःयमनुयोग गुरुर्विदध्यादिस्थाण्यातं तीर्थकरणधरैरिति भा
"इह दीहकालिगि त्ति, सन्ना नेया जया सुदीई गि। वः, तृतीयश्चानुयोगो निरवशेषः-प्रसकानुप्रसक्तप्रतिपाद
संभए भूयमेस्सं, चिंतेइ यकिह णु कायव्वं ॥१॥ असक्षण इत्येषः-उक्तलक्षणो विधिर्भवस्यनुयोगे व्याख्या
जे पुण संचितेउ, इटाणिटेसु विसयवत्थूसु । याम् । श्राह-परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्नं, प्रयश्चानुयोगप्रका
बटुंति नियतंति य, स देहपरिवालणाहेउं ॥२॥ रास्तदेतत्कथम् ? , उच्यते-त्रयाणामनुयोगानामन्यतमेन
पाणए संपयं चिय, कालंमि न यावि दोहकालं-जा। केनचित्प्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन सप्त वाराः श्रवण का.
ते हउवायसन्नी, निश्चिट्ठा हुंति अस्सरणी ॥३॥ येते ततो न कश्चिद्दोषः, अथवा-कञ्चिन्मन्दमतिविनयमधिकृत्य तदुक्रं द्रष्टव्यं, न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः,
सम्महिट्ठी सन्नी, संते नाणे खोवसमियंमि । उद्घटिताविनेयानां सकृच्छ्वणत एवाशेषग्रहणदर्शनादिति
अस्सरणी मिच्छतं-मि दिष्ट्रिवारोबएसेणं ॥४॥" कृतं प्रसङ्गेन । ' से 'मित्यादि, तदेतच्श्रुतज्ञानम् । नं०।
ततश्च संज्ञा विद्यते येषां ते संक्षिनः परं सर्वत्राप्यागमे
ये दीर्घकालिक्या संशया संझिनस्ते संझिन उड्यन्ते , ततः सांप्रतं श्रुतक्षानं व्याचिख्यासुराह-"चउदसहा वीसहा
समिनां श्रुतं संक्षिश्रुतं समनस्कानां ममःसहितैरिन्द्रियैर्जव सुयंति"। श्रुतं-थुतशानं चतुर्दशधा चतुर्दशभेदं विंशति
नितं श्रुतं संशिश्रुतमिति भावः । मनोरहितेन्द्रियजं श्रुतधा विंशतिप्रकारं वा भवतीति । तत्र प्रथमं श्रुतस्य चतुर्द
मसंक्षिश्रुतम् । तथा सम्यग्दृष्टरहत्प्रणीतं मिथ्यारष्टिप्रणीतं शभेदान् व्याख्यानयन्नाह
या यथास्वरूपमवगमात् सम्यकश्रुतं , मिथ्यारः पुनः - भक्खर सनी संमं, साइधं खलु सपञ्जवसियं च । ईत्प्रणीतमितरद्वा मिथ्याश्रुतं, यथाखरूपमनवगमात् । प्रागमिय अंगपविटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा ॥६॥ ह-मिथ्याहऐरपि मतिश्रुते सम्यग्दृष्टेरिव सदावरणकर्म
क्षयोपशमसमुद्भये सम्यग्दृष्टेरिव पृथुबुध्नोदरायाकारं घटावह श्रुतशब्दः पूर्वगाथातः संबध्यते । ततोऽक्षरश्रतं, सं
दिकं च संविदाते, तत् कथं मिथ्यारष्टेरशाने ?। उच्यते-सशिश्रुतं, सम्यच्छ्रतं, सादिश्रुतं, सपर्यवसितश्रुतं, गमिक
दसद्विवकपरिक्षामाभावात्। तथाहि-मिध्यारष्टिः सर्वमप्ये. भुतम् , अङ्गप्रविष्टधुतमित्येते सप्त भेदाः सप्रतिपक्षाः श्रुत- कान्तपुरःसरं प्रतिपद्यते, न भगवदुक्रस्याद्वादीत्या , ततो स्य चतुर्दश भेदा भवन्ति । तथाहि-अक्षरश्रुतप्रतिपक्षमन- घट एवायमिति यदा ब्रूते तदा तस्मिन् घटे घटपर्याहरभुतम्, एवमसंक्षिश्रुतं मिथ्याश्रुतमनाविश्रुतमपर्यवसित यव्यतिरेकेण शेषान् सरखशेयत्वप्रमेयत्वादीन् सतोऽपि "धभुतमगमिकश्रुतमङ्गबाह्यश्रुतमिति । तत्राक्षरं त्रिधा संशाव्य- निपलपति, अन्यथा घट एवायमित्येकान्तेनावधारणानुगअनलम्धिभेदात् । जनं स्व-"तं सन्नावंजणल-द्धिसानिय ति- पत्तेः । घटः सन्नेवेति युवाणः पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपग विडमक्खरं भणियं । सुबहुलिविभेयनिययं, समक्खरमक्ख-! मात् पररूपतामसतीमपि तत्र प्रतिपद्यते। ततः सम्तमसन्त
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(६८) अभिधानराजेन्द्रः।
सुय प्रतिपयत ऽसम्तं च सम्तमिति सदसद्विशेषपरिशानाभावा- उपाय पयकोडी, अग्गाणीयंमि छनवालक्खा । दर्शन मिथ्यारष्टेर्मतिथुतें । इतश्च ते मिथ्यादृष्टेरजाने, भव- वि (घी) रियपवाए अछि-पयाइ लक्खा सयरिसट्ठी ॥४॥ हेतुस्यात् । तथाहि-मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते पशुवधमैथुनादी. एगपऊणा कोडी, पयाण नाणप्पवायपुवंमि । नां धर्मसाधकत्वेन परिच्छेदके ततो दीर्घतरसंसारपथप्र- सश्चप्पवायपुश्वे, एगा पयकोडि छच्च पया ॥५॥ बर्तिनी । तथा यहच्छोपलम्भादुन्मत्तकविकल्पयत् । तथाहि- छब्बीस पयकोड़ी, पुब्बे प्रायप्पकायनामंमि। उन्मत्तकविकल्या वस्त्वनपेक्ष्यैव यथाकथंचित् प्रवर्तन्ते । कम्मपवायधुव्वे, पयकोडी असिइलक्खजुया ॥६॥ यद्यपि च ते कचिद्यथावस्थितवस्तुसंवादिनस्तथापि सम्य- पञ्चक्खाभिहाणे, पुब्बे चुलसीद पयसयसहस्सा। ग्यधावस्थिनवस्तुतत्त्वपर्यालोचनाविरहेण प्रवर्तमानत्वात दसपयसहस्सजुया, पयकोडिविजापवायम्मि ॥ ७ ॥ परमार्थतोऽपरमार्थिकाः । तथा मिथ्यारधीनां मतिश्रुते कल्लाणनामधिज्जे, पुबम्मि पयारण कोडिछब्बीसा । यथावद्वस्त्वविचार्यव प्रवर्तेते, ततो यद्यपि ते कनिद्रसो- छप्पनलक्खकोडी, पयाण पाणाउपुब्बंमि ॥८॥ ऽयं स्पर्शोऽयमित्यादायवधारणाध्यवसायाभावे संवादिनी, किरियाविसालपुब्वे, नव पयकोडी उ बिंति समयविऊ। तथापि न ते स्याद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथा प्रवृत्ते, किं सिरिलोकबिन्दुसारे, सहतुवालस य पयलक्खा ॥६॥" तु यथाकथञ्चित् , अतस्ते अज्ञाने । तथा शानफलाभावात् , अजयाचं श्रुतमावश्यकदशवकालिकादि । इति व्याख्यातं मानस्य हि फलं हेयस्य हानिरुपादेयस्य चोपादानं, न च | चतुर्दशधा श्रुतम् । संसारात्परं किंचन हेयमस्ति, न च मोक्षात्परं किंचिदुपा
संप्रति विंशतिधा श्रुतं व्याख्यानयनाहदेयं, ततो भवमोक्षावकान्तेन हेयोपदियौ, भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः, ततः साऽवश्यं तत्ववे
पञ्जयअक्खर पयसं-घाया पडिवत्ति तह य अणुोगो। दिना कण्या , सैव च तत्त्वतो ज्ञानस्य फलम् । तथाचाह
पाहुडपाहुडपाहुड-वत्थूपुब्बा य ससमासा । ७॥ भगवानुमास्वातिवाचकः-"ज्ञानस्य फलं विरतिरिति"। सा च मिथ्यारशेर्नास्तीति शानफलाभावादनाने मिथ्याह
पर्यायश्चाक्षरं च पदं च संघातश्च पर्यायाक्षरपदसंघाताः
'पडियत्ति ' त्ति प्रतिपत्ति । प्राकृतन्याल्लुप्तविभक्तिको धर्मतिश्रुते । यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः-“ सदसदविसे
निर्देशः । तथा चानुयोगोऽनुयोगद्वारलक्षणः, प्राभृतप्राभृतं सणाओ, भवहेउ जहिन्छिनोवलंभाभो । नाणफलाभावो,
च प्राभृतं च वस्तु च पूर्व च प्राभृतप्राभृतप्राभृतवमिच्छद्दिटिस्स अन्नाणं ॥१॥" इति । तथा-" साइयं,
स्तुपूर्वाणि । प्राकृतत्वाल्लिाव्यत्ययः । यदाह पाणिनिः सपज्जवसियं, अणाइयं, अपज्जयसियं , इच्चे दुवाल
स्वप्राकृतलक्षणे "लिक व्यभिचार्यपि"। 'चः 'समुच्चये ।
एते पर्यायादयः श्रुतस्य दश भेदाः । कथंभूता इत्याहत्तिनतट्याए प्रणाइयं अपज्जयसियं ,तं सामासो चह- मसमास' भिसामा मंगा. मी विपन्नततं जहा-दव्यत्रो खित्तओ, काला, भावो, समासेन वर्तन्ते ससमासास्ततश्च प्रत्येकं संबन्धः । दव्योग समसुयं पग पुरिस पहुच साइयं सपज्जवसिय, तथाहि, पर्यायः पर्यायसमासः, अक्षरमक्षरसमासः , बहवे पुरिस पडूय प्रणाइय अपरजवलियं, खित्तो ग पदं पदसमासः, संघातः संघातसमासः, प्रतिपत्तिः पंच भरहाई पंच परवयाई पहुच साइये सपज्जवसियं, प्रतिपत्तिसमासः, अनुयोगोऽनुयोगसमासः, प्राभृतप्राभृतं पंच महाविदेहार पच्च श्रणाइयं अपज्जवसियं, कालो! प्राभतप्राभूतसमासः, प्राभृतं प्राभृतसमासः, वस्तु वस्तुण उस्सप्पिणि अवसप्पिणिं च पडुरुच साइयं सपज्जवसियं
समासः पूर्व पूर्वसमासः, इति विंशतिधा श्रुतं भवतीति नोउस्सपिणि नोअवसप्पिणि च पहुच्च अणाइयं अपज्जय- गाथाक्षारार्थः । भावार्थस्त्वयम्-पर्यायो शानस्यांशा विभासिय" | नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी चेति कालो महाविदेहे। गः परिच्छेद इति पर्यायाः । तत्रैको मानांशः पर्यायाऽनेघुशेयस्तत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणकालाभावात्। "भावाश्रो के तुझानांशाः पर्यायसमासः । एतदुक्तं भवति--लब्ध्यपणं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविपति पाविज्जति! र्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत् सर्वजघन्यं श्रुतमात्र तपरूविजति दसिजति निदंसिजंति, ते तया पहुच्च सायं स्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकश्रुतमानांशो विभागपरिच्छेसपज्जवसियं, स्थाओवसमियं पुण भावं पड़श्च अणाइयं अप- दरूपो वर्धते स पर्यायः ॥१॥ ये तु द्वपादयः श्रुतमाजयसियं । अहवा भवसिद्धियस्स मुयं साइयं सपज्जवसियं" | नविभागपरिच्छेदा नानाजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुकेवलज्ञानोत्पत्तौ तदभावात् ,"नटुंमि उ छाउमथिए ना- दिताः पर्यायसमासः ॥२॥ आकारादिलण्यक्षराणामन्यसे" इति वचनात् । “ अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं तरदक्षरम् ॥३॥ तेषामेव द्वयादिसमुदायोऽक्षरसमासः अपज्जवसिंयं"। बह च सामान्यतः श्रुतशब्दन श्रुतज्ञानं ॥४॥ पदं तु अर्थपरिसमाप्तिः पदमित्याधुनिसद्भावभ्रताशानं चोच्यते । यदाह--"अविसेसियं सुयं सुयनाणं ऽपि येन केनचित्पदेनाष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा आचारासुयअन्नाणं च"। तथा गमाः सहशपाठास्ते विद्यन्ते यत्र दिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते , तस्यैव द्वादशानथुतपरितद्रमिकम् , “अतोऽनेकस्वराद"७-२-६ इति (सूत्रेण) इक- माणेऽधिकृतत्वात् , श्रुतभेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् , तस्य प्रत्ययः तत् प्रायो राष्टिवादगतम् । श्रागमिकमसरशाक्षरा- च पदस्य तथाविधानायाभावात्प्रमाणं न ज्ञायते , तत्रैकं लापकं तत् प्रायः कालिकश्रुतगतम् । कर्म ।
पदं पदमुच्यते ॥ ५ ॥ इत्यादिपदसमुदायस्तु पदसमासः परिकम्म, सुसपुव्या-णुओगपुब्वगयचूलिया एवं । ॥६॥'गाइदिए य काए 'इत्यादिगाथाप्रतिपादिततापण विहिवायभेया, चउदस पुब्बार पुब्बगयं ॥३॥ रकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्यापेकदेशो यो नर
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CEL)
अभिधानराजेन्द्रः। कगत्यादिकस्तत्र जीवादिमार्गणा यका क्रियते स संघा- जे णं केइ अमुणियसमयसम्भावे होत्था विहीए वाभतः ॥ ७ ॥ धादिगत्याअवयवमार्गणा संघातसमासः
विहीए वा कस्स य गच्छायारस्स य मंडलिधम्मस्स य वा ॥॥ गत्यादिद्वाराणामन्यतरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारेण जी
| छत्तीसइविहस्स णं सप्पत्तेयनाणदंगणचरित्ततवधीरियाबादिमार्गणा प्रतिपत्तिः ॥ ६॥ द्वारद्वयादिमार्गणा तु प्रतिपत्तिसमासः ॥ १० ॥ "संतपयपरुषणया दवपमाणं
यारस्स वा मणसा वा वाया वा कहिं वि अभयरे ठाणे च" त्यादि, अनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोगद्वाग्मुच्यते केद गच्छाहिवई मायरिएइ वा अणंतो विसुद्धपरिणामो ॥ ११ ॥ तद्वयादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासः वि होत्था णं । असुई वक्केज वा (खज्जेज वा) परूवमाणे ॥ १२ ॥ प्रभृतान्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभूतप्राभृतं
वा अणुहमाणे वा से मं पाराहगे उयाहु अण्णाराहो', ॥ १३ ॥ तद्वयादिसमुदायस्तु प्राभृतप्राभृतसमासः ॥१४॥ वस्त्वन्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतम् ॥ १५ ॥
गोयमा! अणाराहगे । से णं भयवं! केणं अटेणं एवं बुच्चा नवयादिसंयोगस्तु प्राभृतसमासः ॥ १६ ॥ पूर्वान्तर्वर्ती | एवं जहा गं गोयमा! अणाराहगे णं इमे दुवालसंगे अधिकारविशेषो वस्तु ॥ १७ ॥ तद्वयादिसंयोगस्तु घ- सुयनाणे अणपज्जवसिए प्रणाइनिहणे सम्भुयत्थपसाहगे। स्तुसमासः ॥ १८ ॥ पूर्वमुत्पादपूर्वादि पूर्वोक्लस्वरूपम्
अणाइसंसिद्धे से णं देविंदविंदवंदाणं अतुलबलवीरिए ॥ १६ ॥ तवयादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः ॥ २० ॥ एघमेते संक्षेपतः श्रुतमानस्य विंशतिर्भदा दर्शिताः, वि
सरियसत्तपरक्कममहापुरिसायारकंतिदित्तिलावभरूवसोहस्तरार्थिना तु बृहत्कर्मप्रकृतिरन्वेषणीया । एते च पर्या- ग्गसकलकलाकलावविछहपडियाणं प्रणतणाणीणं । सयं यादयः श्रुतमेवा यथोत्तरं तीवतीवतरादिक्षयोपशमलभ्य
संबुद्धाणं जिणवराणं प्रणाइसिद्धाणं अणंताणं वडमाणस्वादिस्थं निर्दिया इति परिभावनीयमिति । अथवा च
समयसिझगाणं । अमेसिंच भासमपुरक्खडाणं अणंताणं तुर्विधं भुतहानम् , तथाहि-द्रव्यतः क्षेत्रातः कालतो भायतश्च । तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याण्यादेशेन जा- सुगहियनामधिजाणं महायसमणं महासत्ताणं महाणुभानाति, क्षेत्रतः सर्यक्षेत्रमादेशेन श्रुतज्ञानी जानाति , काल- माणं तिहुयणेक्कनिलगाणं तेलोक्कनाहाणं जुगपवराणं तः सर्व कालमादेशन भुतहानी जानाति, भाषतः सर्षा
जगेबंधूर्ण जगगुरूणं सम्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं पवरवरन भाषानादेशेन भुतहानी जानातीति व्याख्यातं सविस्तरं भुतहानम् ।
धम्मतिस्थकरावं अरहताणं भगवंताणं भूए सबभविसा-
इयाणं गयवङमाणनिखिलासेसकसिणसगुणसपजयसवउपधामवताऽध्येतव्यम्
वत्युविदियसम्भावाणं असहाए पवरे एक्कमेक्कमग्गे से से भय! कि जहा पंचमंगलं तहा सामाइयाइयमसेसं
णं सुरूवत्ताए अच्छत्ताए गंधत्ताए । तेसि पिणं जहडिए पि सुपनाणमहिजियध्वं ?, गोयमा ! तहा चेव विणो
चेव पत्रवणिजे जहडिए अणुणिजे जहडिए चेव भासविहाणेणमहिएयव्वं, गवरं महिअणिउकामेहि भट्ठविहं
हिजे जहडिए चेव परूवाणिजे जहडिए चेव वायरणिजे चव नाणायारं सवपयत्तेणं कालादी रक्खेजा प्रमहा
जहडिए चेव वायणिजे जहडिए चेत्र कहणिजे । से णं इमे महया सायणं ति 'अनं च दुवालसंगस्स सुयनाखस्स
दुवालसंगे गणिपिडगे। तेसि पिणं देविंदाणं णिखिलजगपढमचरिमजाम मानिसमझयणझावखं च पंचमंगलस्स
विदियदव्वसपज्जवगइनागइहासवुड्डी जीया य तत्थ जाव सोलसद्धजामियं । अन्नं च पंचमंगलं कयसामइए वा
णं वत्थुसहावाण अलंघणिजे अणइक्कमणिज्जे अणसा अकयसामइए वा, अहीए सामाइयं तु सयं च सारंभप
यणिज्जे । तहा चेव इमे दुधालसंगे सुयनाणे सम्बजगजी रिग्महे जावजीवं कयसामाइए अहिअिणइण उण सा
याणं भूयसत्ताणं एगतेणं हिए सुए खमे नीमेसिए भाणरंभपरिग्गहे । भकयसामाइए तहा पंचमंगलस्स आलावगे
गामिए पारगामिए पसत्थे महत्थ महागुणे महाणुभागे य प्रायंबिलं तहा सकत्थवाईसु वि दुवालसंगस्स पुण महापरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए दुक्खक्खयाए मोसुयनाणस्स उद्देसगज्झयणेसु । महा० ३ अ० ।
क्खयाए संसारुत्तारणयाए त्ति कह उवसंपत्तिा णं विहश्रुतज्ञानस्य विराधकः
रिंसु किं सुतमन्नेसिं ति। ता गोयमा! जे ण केइ भमुणिएएसि पयाणं अभयरपए खलेजा । जो सहसा देसू- यसमयसम्भावे का विइयसमयसारेइ वा विहीए वा.प्रविपुचकोडी ताव णं गोयमा ! मुझेज वा ण वावि । हीए वा गच्छाहिबई वा मायरिएइ वा अंतोविसुद्धपरिणा" एवं गच्छवियत्री, तह ति पालेत जं जहा मणियं । मे वि होत्था गच्छायारमंडलिधम्मा छत्तीसइविहायारादि रयमलकिलेसमुके, गोयम! मुक्खं गएणं तं ॥१॥ गच्छति जावणं अनयरस्स वा भावस्सगाइ करणिजस्सणं पवयणगमिस्संति य, ससुरासुरजगणमंसिए वीरे। भुवणेकपाय- सारस्स असत्नी चुक्केज वा खलेज का तेणं इमे दुवालसंगे डजमे. जह भणियं गुणट्टिए गणिणो ॥२॥" से भयवं सुयनाणे अन्नहा पयरेजा जेणं इमे वालमंगं मयनाण
२४८
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अभिधानराजेन्द्र निबद्धतरोवगयं एकपयक्खरमवि प्रबहा पयरे से णं उ-1 उत्सर्गेण सामान्योक्ने विधिना , विहंडिय' त्ति-देशीशम्मग्गे पयंसेजा,जे ण उमग्गे पयंसेजा से णं अणारहागे भ- |
ग्दो विनाशार्थः, ततो विनाशितः शुद्धयोद्धप्रसरः प्रधानम
त्यवकाशलक्षणो येषां ते भणन्ति-जल्पन्ति एवं वक्ष्यमाणवेजा। ता एएणं अद्वेणं एवं वुच्चद-जहाणं गोयमा! एगते |
न्यायेन अन्य पर । तदेवाह-पावस्थादिसमीगे, तत्र पाश्वअणाराहगे। महा०५० "जत्थक्खलियममलिय चा- स्था उक्तलक्षणा:, श्रादिशग्दाद-श्रवसनादिग्रहः । नयाँ इपयं यक्खरबिसुद्धं । त्रिणवहाण पुव्वं, दुवालसंग पि
निकटे सूत्रादिकम् , अादिशब्दाद्-अर्थानिग्रहः न प्रहीत
व्य-न स्वीकर्तव्यमिति गाथार्थः। सुयनाणं ॥१॥" महा० ४ अ०।
अत्रोत्तग्म्परोपदेशः श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते विशेअविनीतो वि
समवि न छयग्गन्था-णुसारि वयणं जो जइंदस्स । कृतिप्रतिबजो व्यपशमिनप्राभृतश्चैते न वाचनीयावृ०४३०।
भणियं निसीहगंथे, उस्सग्गववायजलहिम्मि ॥६॥ (विनीतस्य सर्वोऽपि विनयः 'विण्य' शब्द षष्ठभाग गतः।) भुतं द्विविधं बद्धम् , अबद्धं य । बद्धं द्वादशाकीरूपम् ।।
सदणि सुत्रादिनिषेधकरणं न केवलं पूयोक्तमित्यपिशब्दाअबवं तु भारतादि लौकिकम् । श्रा० म०१०।
धः, 'न' नैव छेदग्रन्थानुसारि वचनम् उत्साहकशाखसं
वादिभणनं, यस्माद्यति-साधुमुद्दिश्याश्रित्य भणितम्-उकं मायारदमाकप्पो, ववहारो नवमपुव्वणीसंदो।
निशीथप्रन्थे-प्रकल्पशाखे। किंविशिष्टे उत्सर्गापवावजलचारित्तरक्खणट्ठा, सूयगडस्सुवरिठविताई। पं० भा०१ धौ-सामान्यविशेषनीरनिधाविति गाथार्थः। कल्प।
तदेवाह('अायारपकप्प' शब्दे द्वितीयभागे ३५० पृष्ठे व्याकृता ।) संविग्गासंविग्गे, पच्छाकडसिद्धपत्तसारूबी। ('सिक्खा' शम्नेऽस्मिन्नेव भागे सूत्राध्ययनरूपा शिक्षा उता।) पडिकंते अविसेसं,नीरनिधावावि तत्थेव ॥६६॥
आत्महिताविज्ञानं सूत्राध्ययनस्य फलं--श्रुताध्ययनेऽमी सुगमा । भावार्थस्तु कथ्यता प्रथम संविनस्योद्युतस्य सूत्रा. अभ्यधिका गुणाः
निपुणस्य समीपे साधुमिः श्रोतव्यं,तदभावेऽसविनस्यापि प्रातहियपरिमा भा-बसंवरो नवनवो असंवेगा। गीतार्थस्य, तस्याप्यभाव पश्चात्कृतस्यामुालास्य । सब निकंपया तपो नि-जरा य परदेसियत्तं च ॥३६०॥
द्विरूपो भवति-एकः सिद्धपुत्रोऽभ्यश्च सारूपी । अनयोभ
स्वरूपमाभ्यामु-काभ्यामवगन्तव्यम् ।। मात्महितं १ परिक्षा २ भावसंवरो ३ नबनवश्च संवेगः ४ निष्करपता ५ तपो ६ निर्जरा च७ परदेशिकत्वं च ८
"समज मोवाविसमज मोवा,नियमेण दोसुकिलवस्थधारी। इति द्वारगाथासमासार्थः। १०। “जयह सुयाणं पभयो,
खुरेण मुंडो असिही सिही वा, अदंडपतो विय सिद्धपुत्तो। बीरजिणो।" नं० । (व्याख्या 'भागम' शब्दे द्विती
मुंडसिरो दोसुक्किलवस्थधरोन बिय बंधए कच्छं । यभागे ५३ पृष्ठे उता।)
हिंडा नवा प्रभजो, सारूबी परिसो होड ॥२॥" एकमप्यारं श्रुतस्य जानानो नाचारीभवति
पतयोश्च देशनां कृत्वाऽभ्युद्यम कार्यो, यदि कुरुतस्ततो
लाएं, न चेत् , तनोन्यत्र नीयते, यदि न गच्छतः ततस्मात्रैव भय जो रत्तिदियह सिद्धतं पदसुणेइ वक्खाणेइ चितेइ
सिमान्तोक्नविधिना तत्समीपे पठितव्यम् , पठनिच यदि सततं सो किं प्रणायारमायरे ? सिद्धतगयमेछां पिअक्खरं
निवाहों न भवति तयोस्ततः स्वयं सर्व करणीयं, जो वियाणइ सो गोयमा! मरते वि अगायारं नो श्रावकैश्च कारयितव्यम् । तथा च तत्रैव निशीथे भणितम्समायरे । महा०६ अ०।
"चोया से परिवार, अकरिति य वा भणार तो सहे। (प्रवलवाय' शब्ने प्रथमभागे ७६३ पृष्ठे ध्रुतावर्णवादः।)
अब्योछितिकरस्स उ, सुयभत्तीए कुणह पूयं ॥१॥" तथा
उपदेशमालायाम्-"सुग्गामग्गपावं" इत्यादि प्रकरणे च सुयं पडुच्च तो पडिणीया पसता, तं जहा-सुत्तपडि
प्रायश्चित्त भणितमिति गाथार्थः। सीए, अस्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए । स्था० ३ ठा०
एवं स्थित जीयोपदेशमाह-- ४ उ०।
ता सिद्धिनगरसम्म-ग्गपयडणे नाणमणिपईवम्मि। ( प्रवजितस्य श्रुतदानं ' पब्वजा' शब्ने ७४५ पृष्ठेऽस्ति)
कुणसु पयतणं जीव!, मच्छरं चाय सवत्थ ।।७०। प्राचार्योपाध्यायादत्तां गिरं गृह्णतः प्रायश्चित्तम् । नि० चू०
तस्मासिद्धिनगरसन्मार्गप्रगटने मोक्षपुरणदीप्रकाशके १६ । (स्वगणे संविनाद्यभावे ध्रुतग्रहणम् ' उद्देस ' शग्ने
झाने-श्रुतक्षाने तदेव वाताधक्षोभ्यत्वेन प्रकाशकत्वने न द्वितीयभागे ८१६ पृष्ठ गतम्।) अपूर्वज्ञानग्रहण,महा०१०।
मणिप्रदीपस्तस्मिन् कुरु--विधहि प्रयत्नम्--प्रादरं जीव ! ('सुयकप्प' शब्दोऽप्यत्र वीचयः । ) ( स्थानादिप्रवृत्तियोगरहितस्य सूत्रानं महादोष इति प्राचार्या हरिभद्रादयः।)
भो प्रात्मन् ! मत्सरम्--रोषं त्यक्त्वा-प्रोज्झय सर्वत्र पा
वस्थादिसमीपे , किञ्च-श्रावकान् पार्श्वस्थाविसमीगेश(भावकेभ्यः भुतप्रदानं 'पाढयण' शम्दे ५ भागे निरस्तम्।) पार्श्वस्थादिभ्यः श्रुतग्रहणम् ।
रावती वारयत, स्वयं च पूर्वोक्लयुक्त्या निष्कारणं नित्यभाव
कधर्मकथनेन पार्श्वस्था भवन्तोऽपीत्थं जलपस्यहोमोहबिलअधुना पार्श्वस्थादिसमीप सुनिषेधो विधीयते
सितमित्यवस्थितमतोऽयमस्म दुतो जीयोपदेश इति गाथार्थः। उस्सग्गविहंडियमु-मोहपसरा भणंति एवं थे।
जीवा० ११ अधि० । । संयतः किं भुतमध्येतुं शकोतीति पासस्थाइसमीके, सुनाईयं न घेत्तन्वं ।। ६७ ।। 'संजग' शदे गतम् ।) श्रुते-श्रुतविषये उद्देशसमुद्देशानुशा
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( E ) अभिधानराजेन्द्रः।
सयभरणाण प्रस्थापनाप्रतिक्रमणश्रुनस्कन्धानपरिगुणनादिषु प्रविधिना | तह प्रागमपरिहीणो, चरित्तसोहिन याणाइ॥ ८७॥ विधाने कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम् । " जगगुरुहि गदिउ जं
तम्हा तिन्थयरपरू-विअम्मि नाणम्मि भत्थजुनम्मि । भद्धंगयस्म सुत्तर न दायब्वं" अत्र सावधाचार्यसबन्धः ।
उज्जोओ कायब्धो,नरेण मुक्खाभिकामण।।८।०५०। प्रतिध्रुतझाने, उत्त० १ ०।
इक्कम्मि वि जम्मि पए, संवेगं वीभरायमग्गम्मि । श्रुतमामप्रशंसा
पञ्चह नरो अभिक्खं, तं मरणं तेण (न) मुत्तम्बं ॥३॥ जाणंति बंधमुक्खं, जीवाजीवे अ पुनपावे ।
इक्कम्मि वि जंमि पए, संवेगं कुणा वीयरायमए । सामवसंवरनिजर-तो किर गणं चरणहेडं ॥ ७० ॥
सो तेण मोहजालं, खणे अज्मप्पजोगणं ।। ६४॥ नायाणं दोसाणं, विवजणा सेवणा गुणाणं च ।
इक्कम्मि वि जम्मि पप, संवेगं बीयरायमग्गम्मि । धम्मस्स साहणाई, दुन्नि किकिर नाणसिई॥७२॥
बचइ नरो अभिवं. मरणं तेन मुत्तन्वं ॥६५॥ नाणा व अपट्टतो, गुणेसु हो से सुते अवजित्तो ।
इक्कम्मि वि जंमि पए, संवेगं कुणइ वीभरायमए । दोसाणं च न मुंचइ, तेसिं न वि ते गुणो लहई ॥७२॥
सो तेण मोहजालं, खणेइ अझप्पजोगेणं ।। ६६॥ नाणण विणा ण करण, करणं न विणा न तारयं नाणं।
इक्कम्मि वि जम्मि पए, संवेग वच्चर नरोभिक्खं । भवसंसारसमुई, नाणी करणडिओ तरइ ।। ७३ ॥
तं तस्स होइ नाणं, जे एए वीयरागम्मि ।। ६७ ॥ अस्संजमेण बद्धं, अन्नाणेण य भवेहि बहुएहिं ।
महुमरणमि उवग्गो, सक्को वारसविहो सुयक्खंधो । कम्ममलं सुह असुह, करणे य दढो धुणइ नाणी । ७४॥
सन्चो अणुचितेउं, धणियं पि समस्थचित्तेणं ।।६८॥ सत्येण विणा जोहो, जोहेण विणा य तारिसं सव्वं ।
तम्हा इक्कम्मि पयं, चिंतंतोतं निदंसकालम्मि । नाणेण विणा करणं, करणेण विणा तहा नाणं ॥७शा
भाराहणावउत्तो, जिणेहि भाराहगो भणिभो ॥६६॥ नादसणस्स नाणं, न वि अनाणस्स हुंति करणगुणा।
पाराहणोवउत्तो, सम्म काऊण सुविहिनो कालं । भगुणस्स नस्थि मुक्खो,नस्थि असुत्तस्स निघाण।।७६।।
उक्कोसं तिन्नि भवे, गंतूग लभिज निब्याणं ॥१०॥ जं नाणं तं करणं, ज करणं पवयणस्स सो सारो।
नाणस्स गुणपिसेसा, केईमे बनिया समासेणं । जो पवयणस्स सारो, सो परमत्थो त्ति नायवो ॥७७।।
चरणस्स गुणपिसेसे, मोहिनहिनया निसामेह ॥१०॥ परमत्थगहिप्रसारा, बंधं मुक्किं (ति) च ते वियाणंता ।
भावेण अणनमणा, जे जिणवयणं सया अणुचरंति । नाऊण बंधमुक्खं, खवंति पोराणयं कम्मं ।। ७८ ॥
ते मरणम्मि उवेया, न विसीयंति य गुणसमिद्धा ।१०३। नाणेण होइ करणं, करणं नाणेण फासियं होई ।
६०५०। (१०२ गाथा धम्मशग्दे) इन्हें पि समानोगे, होइ विसोही चरित्तस्स ॥ ७ ॥
सीयोत ते मणूसा , सामनं दुलहं पि लणं। नाणं पगासयं सो-हमो तवो संजमो य गुत्तिकरो।
जे अद्धःणनिमत्ता, दुक्खविमुक्खामि मग्गम्मि।।१०४॥ तिविधं पि समानोगे,मुक्खोजिणसासणे मणिभो।।८०॥
दुक्खाण ते मणूसा, पारं गच्छति जे दढधिईभा। किं अ लढयरं, अच्छेरतरं च सुंदरतरं वा ।
भारेण भणन्नमणा, पारं तेहिं गवेसाते ॥ १०५॥ चंदमिव सबलोगा, बहुस्सुयमहं पलोयंति ॥१॥
मग्गति भपरमसुई, ते पुरिसा, जोगेहि न हायति । चंदामो निमजुन्हा, बहुसुयमुहाउ निभइ जिणवयणं ।
ते लद्धपोयसंजति-बग्मा पच्छान हायति ।१०६।०५०। जं सेऊण मरणूसा, तरीत संसारकंतारं ॥२॥
(सूत्रवाचनाप्रकारः 'गीयस्थ' शम्दे तृतीयभागे १०२ पृष्ठे पूई जहा ससुत्ता, न नसई कयवरम्मि पडिमा वि।
गतः।) (श्रुतस्याशातना 'पासायणा' शम्दे द्वितीयभागे जीवो तहिं ससुत्तो, न नस्सइ गमो वि संसारे ।।८३॥ ४८४ पृष्ठे गता।) (एकेन्द्रियाणामपि भुजतानमस्तीति मई जहा असुत्ता, नासइ सुत्ते अदिस्समाणम्मि ।
'णाण' शब्दे चतुर्थभागे १६५२ पृष्ठ गतम् । ) रष्टिवादे थुजीवो जहा असुत्तो, नासह मिच्छत्तमजुतो ।। ८४ ॥
तमानं चैतदाख्यायते श्रूयते अनेन अस्मादस्मिन्निति बेति परमत्थम्मि सुदिवे, प्रविणद्वेसु तवसंजमगुणेसु!
वृतम् । श्रुनझानाधरणकर्मक्षधे परोक्षनया कालिकाबो
धनसमथें, "कदाहुलम् ।" इति वचनात् कर्मादायपि तपस्ययः। लम्भह गई विसिट्ठा, सरीरसारे विणते वि || ८५ ॥
मा० म०१०। साश्रुनशानायरणक्षये, उत्त० ३४.१०। जहभागमेण विजओ, जाणइ वाहि तिगिच्छगो निउणो। धूयते इति थुनम् । व्यवहारभेदे, प्रब०१०७ द्वार । सह भागमेण नाणी, जाणइ सोहिं चरित्तस्स ॥८६॥ सुयप्रमाण-श्रृताज्ञान-मामिथ्याटेमाने,प्रा०पू०१ मा जहभागमेण हीखो,विजो वाहिस्सन मुणह-तेगिच्छं।। अक्सिखियं सुयं सुयणाणं च सुपत्रमाणं च । विसेसियं
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(१२) अभिधानगजेन्द्रः।
सुयणाण सुयं सम्माहिडिस्स सुयं सुयणाणं । मिच्छादिहिस्स सुर्य ग्रहणहेतुरुपलग्धिविशेषः एषमाकारं वस्तु जलधारणाचर्थसुयप्रमाणं । नं.।
क्रियासमर्थ घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकतारें
कालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी सुयभाराहमा-श्रुताराधना-स्त्रीणसिमान्तस्याराधनायाम,
इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यथः । श्रुत च तत्मानं उत्त०॥
च श्रुतज्ञानम् । अथवा-श्रूयते अनेन अस्मात् अस्मिन्बेति सुयस्स भाराहणयाए णं भंते जीवे किंजणयह सुयस्स थुनं तदाबरणकर्मक्षयोपशमः "रुदहुलम" इति वचनात्कबाराहणयाए सं प्रमाण खवेहन य संकिलिस्सइ ॥२४॥
रणादावपि प्रत्ययः, तज्जनितं श्रुतं कार्येण कारणोपचा
रात्, गोतीति वा भुतमान्मा तदनन्यत्वात्मानमपि भुतं, हेभवन्त! श्रुतस्य भागधनया जीवः किं जनयति । गुरुरा- श्रतं च तत् शानं चेति समासः। ('सुय'शम्दे भुतहानमुक्तम्।) ह-हेशिय! श्रुतस्य भाराधनया-सम्यगासेवनया प्रज्ञानं
प्रा०म०१०। श्रुतज्ञानं स्वच्छस्वादुपध्यसलिलास्वादतुक्षपयति विशिष्टतस्वावबोधस्य अवाप्तेश्च पुनर्न संक्तिश्यते त्यम् । पो० १० विव० । इन्द्रियमनोनिमिसे भुतप्रथारागद्वेषजनितं फ्रेशं न भजतीति भावः । उत्त० २६१०।। नुसारिणि बोधे , भ०८ श०२२० । दा० । प्रब० । ध. सुयकप्प-श्रुतकल्प-पुं० । प्रवचनभणने, पृ० १०१ प्रक०।। २० । स्था। सुयकरण-श्रुतकरण-मा बजाववादिश्रुतकरणे, मा० चू०१ सुरनाणे दुविहे पसत्ते, सं जहा-भंगपविढे चेव, भंगम। सूत्र०।
बाहिरे चे५ । (सू० ७१४) स्था० २ ठा। सुयकेवली--श्रुतकेवलिन-पुं० । चतुरंशपूर्वघरे, जीवा० १४
अथोत्तरगाथासंबन्धनार्थमाहअधिः । संघा०।
कत्तो पसूयमागय-मायरियपरंपराइ सुयनाणं । "जो सुपणाभिगच्छर, प्रमाणमिणं तु केवलं सुखं ।
सामाइयाइयमिदं, सव्वं चिय सुत्तमत्थो वा ॥१०६२॥ तं सुगकेयलमिसिणो, भणीत लोगप्पईवकरा ॥
अनु पूर्व भवतेवमुक्तम्-' प्राचार्यपरम्परया समागतां जो सुप्रमाणं सम्वं, जाणइ सुभकेवली तमाहु जिणा ।
सामायिकनियुक्रिमहं वक्ष्ये'। तवं पृच्छयते-' कत्तो नाणं भायं सव्वं, जम्हा सुयकेवली तम्हा ॥२॥"
पसूयमित्यादि ' भादी कुतः पुरुषविशेषात् प्रसूतामुत्पा मए०१३ अ टी0"केवली चरमो जम्बू-स्वाम्यथ प्र- सती तत भाचार्यपरम्परयातामायातां तां सामायिकभवः प्रभुः सख्यम्भवो यशोभद्रः , संभूतविजयस्तथा।।॥
नियुक्ति त्वं वक्ष्यसि ? इत्युपस्कारः । तथा, इदमपि पृच्छयभद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेवलिनो हि पद।" कल्प० २
ते । किम् ?, इत्याह- सुयनाणमित्यादि ' सर्वमपि च अधि०८ क्षण।
सामायिकादिकं बिन्दुसारपर्यन्तं सत्रार्थरूपं भुतहानमिदं मुगक्खंध-श्रुतस्कन्ध-पुं० । द्वादशातरूपे श्रुतपिएडे, भातु। प्रथमं कुतः प्रस्तुतं सत् पश्चादाचार्यपरम्परयाऽत्रागरष्टिवादे श्रुतसमुदायत्वात्तस्य । स०।
तम् इति।
एवमुत्तरगाथाप्रस्तावनां कुर्वनाचार्य प्रारमनः सुयक्खाय-स्वाख्यात-त्रिकासुष्टु पाख्यातं स्वास्यातम् । पू.
. प्रेर्यमाशय परिहरमाहवोत्तराविरोधितया युक्तिभिरुपपन्नतयाऽभिहिते,सूत्र.१७०
। एवं नणु भणियं चिय, अत्थपुहत्तस्स तेहि कहियस्स । २५ असुप्रशते, सूत्र०२ धु०२०। लोकश्रुतिपरम्परया चिरन्तनाच्यासुधा परिक्षाते, सूत्र०१७० १६० ।
इह तेसि चिय सीला-इकहणगहणं फलनिमेसो।१०६३१
मनु' सामायिकनियुक्तिः श्रुनशानं वा सर्व कुतः पुरुषात् सुरक्खायधम्म-स्वाख्यातधर्मन्-त्रि० । सुष्टु माख्यातः
प्रथम प्रसूतम् ? , इत्यत्र यदुत्तरं तदेतद् भणितमेव-प्रोक्लश्रुतचारित्राख्यो धर्मों येन साधुनाऽसौ स्वाक्यातधर्मः।
मेव निर्णीतार्थमेवेत्यर्थः ।क?, इत्याह- अत्थपुहत्तस्सेशामसमाधियुक्त, सूत्र० १ ध्रु० १० अ०।
स्यादि तैस्तीर्थकर-गणधरैः कथितस्याऽर्थपृथक्त्वरूसुयगम्भ-श्रुतगर्भ-पुं०। भागमगर्भ, पो०१ विवः। पस्य श्रुतमानस्य भगवतो नियुक्ति कीर्तयिध्ये ' इत्युक्ते तीर्थमुयग्गाह श्रुतग्राहिन-पुं०। परमपूरुषप्रणीतागमग्रहणाभि. कर-गणधरेभ्यः सर्वमपि श्रुतज्ञानमादौ प्रसूतम् , इत्युक्तलाषिणि. दश अ०२ उ०।
मेव, तत् किमिति पुनरपि प्रश्नः ? । अत्र प्रतिविधानमाह
येत्यादि' सत्यम् , हातमेवेदं यत्--तीर्थकर-गणधरेभ्य सुयण--स्वपन-१०। शयन, पर्श०१ तत्व ।
एव सर्वमिदमादी प्रसूतम् , किन्विह तेषामेव तीर्थकर-- भुयणजण-सुजनजन-पुं० । सर्वपापविरतानां समूहे, प्रम०४
गणधराणां शीलादिस्वरूपकथनम् ..प्रन्थनम् , फलविशेषश्च प्राथद्वार।
विशेषतोऽभिधास्यते, इत्ययं पुनरपि प्रश्नोत्तरोपन्यासः । मुयनसुंद-सुजनसन्द-पुं०। भरतक्षेत्रजाजितजिनसमकालिके तत्र तीर्थकता तपो-नियमझानानि शीलमाभिधास्यते , मा
दिशब्दः स्वगतमेवप्रख्यापकः, तान्येव वृक्षः , तदारुढस्य ऐरवतजिने , ति।
पुष्पप्रक्षेपकल्या तु देशना-कथनम् , तत्फल्यविशेषस्तु भव्यमुबणास-श्रुतज्ञान-नाकामविशेष, श्रा०म० अ०ा भाव।
जनविबोधनातेति । गणधराणां तु बुद्धिमयपटेन तीर्थभवणं श्रुतं वाकयवाचकभाषपुरस्सरीकारेण सनसंसृष्टार्थ- करोक्नं गृहीत्वा सत्रग्रन्थन प्रतिपादयाराने , फलयिशेषस्तु
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सुखलाल
प्रवचनाथता, सुखग्रहणाद्यनुग्रहश्व इति गाथाऽष्टकार्थः । अथोक्करश्नस्यैवोत्तरमाह-
तव नियम - नागरुक्खं श्रारूढो केवली अमियनाणी । तो यह नागवुर्द्वि, भवियजयविवोहगडाए ||१०६४॥ तं बुद्धिम पडे- गणहरा गिरिहउं निरवसेसं ॥ तित्थयरभासियं गं - थंति तो पवयणड्डा ॥ १०६५ ॥ रूपकमिदं द्रष्टव्यम् । तत्र वृक्षो द्विधा- द्रव्यतः, भावतश्च । द्रव्यतः प्रधानः कल्पवृक्षः, यथा च तमारुह्य कश्चिद् गन्धादिगुणविशिष्टानां कुसुमानां संवयं कृत्वा तदधोभागवर्तिनां नदारोहणासमर्थानां पुरुषाणामनुकम्पया कुसुमानि विसृजति, तेन भूपति- रजोगुण्ठनभिया विमलविस्तीर्णपटेषु प्रतीच्छन्ति, ततो यथोपयोगमुपभुञ्जानाः परेभ्यश्चोपकुर्याः सुखमाप्नुवन्ति । एवं भाववृक्षेऽपि सर्वमिदमायोज्यम् ; यद्यथा-- तपश्च नियमश्च ज्ञानं च तान्येव वृक्षस्तम् तपो बाह्य-ऽभ्यन्तरभेदतो द्वादशधा प्रतीतमेव । इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमस्तु नियमः । तत्र श्रोत्रादीन्द्रियाणां निग्रह इन्द्रियसंयमः कषायादीनां तु निग्रहो नोइन्द्रियसंयमः । ज्ञानमिह केवलं संपूर्ण गृह्यते । एतत्त्रयरूपं वृक्षमारूढः । ज्ञानमकेवलरूपमपि स्यात् तद्वयवच्छेदार्थमाह- केवली, केवलशब्दस्येद्द संपूर्णवाचकत्वात् केवलं संपूर्णमस्या - स्तीति केवली । अयमपि श्रुत क्षायिक सम्यक्त्व- क्षायिकशानभेदात् त्रिविध अथवा श्रुताऽवधि-मनःपर्यायकेवलज्ञानभेदाच्चतुर्विधः तत्र शेषव्यवच्छेदार्थमाह-मितज्ञानी' क्षायिकज्ञानकेवली; सर्वज्ञ इत्यर्थः । स चेह प्रक्रमाद् भगवांश्चतुस्त्रिंशदतिशय संपन्नस्तीकरः । ' तो चि ततो वृक्षाज्ज्ञानरूपकुसुमवृष्टि कारणे कार्योपचाराज्ज्ञानकार भूतशब्द कुसुमवृष्टिमित्यर्थः । किमर्थम् ?, भव्याश्च ते जनाश्च तेषां विबोधनं तदर्थं तन्निमित्तमिति । तां च ज्ञानकुसुमवृष्टि बुद्धया निर्वृतो बुद्धिमयस्तेन विमलवुद्विमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो ग्रहीतुं गृहीत्वाSSदाय निरवशेषां संपूर्णम्, ततस्तीर्थकरभाषितानि कुसुमकानि भगवदुक्ानि चिचित्रप्रधानकुसुममालावद् ग्रश्नति । किमर्थम् ? प्रगतं, शस्तम्, श्रादौ वा वचनं प्रवचनं द्वादशाङ्गम् प्रवक्लीति वा प्रवचनं संघस्तदर्थे तनिमित्तम् । इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः ।
भाष्यकारः प्राह
( १९६३ अभिधानराजेन्द्रः ।
,
रुक्खाहरूत्रयनिरू-बणत्थमिह दव्वरुक्खदितो । जह कोई बिउलवणसं - मज्झयारट्ठियं रम्मं ॥ १०६६ ॥ तुंगं विलक्खधं, साइस कप्परुक्खमारूढो । पत्तगहियबहुविह- सुरभि कुसुमाऽणुकंपाए || १०६७॥ कुसुमत्थिंभू मिचिट्ठिय पुरिसपसारियपडेसु पक्खिवइ । गंथांत ते वि धेनुं, सेसजणागुग्गहडाए || १०६८ || लोगवणसंडमज्झे, चोत्ती साइसय संपदोवेओ । तत्र-नियम-नाणमयं स कप्परुकखं समारूढो ॥१०६६ । मा होज नाणगहण -म्मि संसओ तेरा केवलिग्गहणं । सो विचउहा ततोऽयं मन्ययर अभियनाणि ति । ११००
For Private
सुयलाल
पजननाकुसुमो, ताई छउमत्थभूमिसंथेसु । नागकुसुमत्थिगणहर - सियबुद्धिपडेसु पक्षि । ११०१ ।
पि सुगमा एव. नवरमिह वृक्षादिरूपकनिरूपणार्थे द्रव्यवृक्षान्तो ऽभिधीयते । कः पुनरसौ ?, इत्याह- 'जह कोईत्यादि' | 'साइसउ ' त्ति वक्ष्यमाणकेवलिस्थानीयः सातिशयः कोऽपि नरः । उक्तो द्रव्यवृत्तदृष्टान्तः । अथ प्रस्तुते भाववृक्षे सर्वं योजयन्नाह - 'लोगवण संडेत्यादि' । छद्मस्थत्वमेव भूमिश्छद्मस्थत्वभूमिरिति भावप्रधानोऽयं निदेशः, तत्संस्थेषु । ज्ञानकुसुमार्थिनो ये गधेरास्तच्छेतबुद्धिविति ।
अथ प्रेरकः-
की कई कइत्थो, किं वा भवियाण चैव बोहत्थं । सव्वोवायविहिरणू, किं वाऽभव्त्रे न बोहेइ १ ।। ११०२ ।। शब्दवमोचन तीर्थकृतां धर्मकथनं सूचितम् तत्र कृतार्थोऽप्यसौ भगवान् किमिति कथयति ? । भव्यजनविवोधनार्थमिति चोक्तम् तत्र क्रिमसौ भव्यानेव बोधयति ?, यावता सर्वोपायविधिः सन्यानपि किमिति न बोधयति ? इति ।
श्रत्र प्रतिविधानमाह-
गते कत्थो, जेणोदिनं जिणिन्दनामं से । तदबंझफलं तस्मय, खवणोवाच्योऽयमेव जओ ।। ११०३ ।। जं व कयत्थस्स त्रि से, अणुत्रकयपरोवमारिसाभवं । परमहियदेसयत्तं, भासय साभच्यमित्र रविणो ॥११०४ ॥ किं व कमलेसु राम्रो, रविणो बोहेइ जेल सो ताई । कुमुसु व से दोस्रो, जं न विबुति से ताई ? ।। ११०५ ।। जं चोहमउलखाई, सूरकरामरिसओ समाया ओ । कमणकुमुयाण तो तं, साभवं तस्स वेसि च ।।११०६ ।। जह बोलूगाईणं पगासधम्मा चिसो सदोणं । उइओ वि तमोवो, एवमभव्वाय जिससूरो ।।११०७ || सज्यं तिगिच्छमाणो, रोगं रोगी न भए बेजो। मुणमाणो य असज्यं, निसेहतो वह श्रद्रोंसो ॥ ११०८ ।। तह भव्वकम्मरोगं, नासो रागवं न जिवेओ । न य दोसी भव्वास- ज्भकम्मरोगं निसेतो ॥। ११०६ ॥ मोमोग्गं जोग्गे, दलिए रू करेइ रूयारो | न य रागद्दोसिलो, तहेव जोग्गो विबोहंतो ॥१११०॥ सर्वा श्रपि सुगमाः, नवरं नैकान्तेन तीर्थकरः कृतार्थः, येन तीर्थकर नाम से तस्योदीर्णम्, तच्चाऽवन्ध्यफलम् इति नावेदितं क्षीयते । तत्क्षपणोपायश्च यस्मादयमेव धर्मकथनादिकः, ततः कथयतीति । किञ्च कृतार्थत्वे सत्यपि रवेर्भासकस्वाभाव्यमिव यद् यस्मात् ' से' तस्य भगवतस्ती करस्य कृतार्थस्यापि यदिदं परमहितदेशकत्वं तदनुषकृतोपकारिणः स्वभावो ऽनुप कृतोपकारिस्वभावस्तस्य भाaisपकृती पारिस्वाभाव्यं तस्मात् कथयति । कृतार्थह्याऽप्यनुपकृतोपकारिणो भगवतः परोपदेशदातृत्वं स्व
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( Y) सुपणाण
अभिधानराजेन्द्रः। भावत एब, इत्यतस्तत्स्वाभाब्यात् कथयतीति तात्पर्यमिति त्यादि विवक्षया पद-वाक्यादिक्रमेग, विरचितं सत् तत्पदाय. न च भव्यानेव प्रतिबोधयतस्तस्य राग-द्वेषी , इति नुसरता सुखेनैव श्रुतं गृह्यते, एवं माद्यपि सुखं भवस्याम्तेन दर्शयति-'किं व कमलेसु' इत्यादि । 'स' ति । विशे०। ति।से' तस्य रखेः प्रतिबोधयतोऽपि यत् तानि कु
उत्तरनिर्युनिगाथासंबन्धनार्थमाहमुदानि न विबुध्यन्त इति । तस्मात् कोऽत्राभिप्रायः ?, जिणभणिइ चिय,सुत्तं गणहरकरणम्मि को विसेसोथ। इत्याह-जं बोहेन्यादि' समानादपि सूरकरपरामर्शाद यतो बोध मुकुलनानि यथासंख्यमेव कमल-कुमुदानां जा
सो तदविक्खं भासइ, न उ वित्थरो सुयं किंतु।१११८। यमानानि शनि. 'तो' ति ततो ज्ञायते-तस्य रवे ,
ननु नित्थयर भासियाई गंथंति ' इत्यादिवचनाज्जिनतेषां च कमल-कुमुदानां स्वभावोऽयं यद्--रविः कम-1
भणितिरेव-तीर्थकरोक्तिरेव तर्हि श्रुतम् , गणधरसूत्रीकरणे लान्येव बोधयति न तु कुमुदानि , कमलाम्यगि रवेः तु तत्र को विशेषः । अत्रोन्यते-स तीर्थकरस्तदपेशं सकाशाद् बुध्यन्ते न कुमुदानि, न पुनरिह कस्यापि रा- गणधरप्रज्ञापेक्षमेव किश्चिवां भाषते, न तु सर्वजनसाग-द्वषो । एवं भगवतोऽपि भव्याभव्येषु योज्यमिति ।। धारण विस्तरतः समस्तमपि द्वादशा श्रुतम् , किन्तु यद् रष्टान्तान्तरमाह-'जयेत्यादि' उलूकादीनां रात्रिश्चरा- भाषते तद् दयते । इति गाथार्थः । णां घुकादीनां 'सो' सि रविः । अपरमप्यत्र दृष्टान्तमा
किं पुनस्तत् ?, इत्याह-- ह-'सज्झमित्यादि' । अत्रैवोदाहरणान्तरमाह-'मोनुमित्या- अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । दि' दलिके काष्ठादौ रूयारो' रूपकारः । इति व्याख्याता
सासणस्स हियट्ठाए, तो सुत्तं पवत्तइ ॥ १११६ ॥ प्रथमनियुक्तिगाथा।
अर्थमेवाऽईन भाषते, न सूत्रं द्वादशा रूपम् । गणधराअथ द्वितीयनियुक्तिगाथाब्याख्यानमाह
स्तु तत् सूत्रं सर्वमणि निपुणं सूदमार्थप्ररूपकं बहथ चेतं नाणकुसुमधुडिं, घेत्तुं बीयाइबुद्धो सव्वं । त्यर्थः, अथवा-नियताः प्रमाणनिश्चिता गुणा यत्र तद्
गंथंति पवयणट्ठा, माला इव चित्तकुसुमाणं ॥११११॥ नियतगुणं निगुणं प्रश्नन्ति । ततः शासनस्य हितार्थ सूत्र 'प्रवचनार्थ प्रश्नन्ति' इत्युक्तम् । अथवा प्रयोजनान्तरमाह- प्रवर्तते । इति नियुक्तिगाथाक्षरार्थः।
घेत्तुं व सुहं सुहगुणण-धारणादाउँ पुच्छिउं चेव ।। भावार्थ त्वभिधित्सुर्भाष्यकारः प्रेय परिहारं च प्राहमुत्कल भगवता तीर्थकरेणोक्तं वचनवृन्दं मुत्कलकुसुम
नणु अत्थोऽणभिलप्पो, स कहं भासइ न सहरूबो सो। निकुरम्बमिव प्रथितं-सूत्रितं सद् प्रहीतुं वाऽऽदातुं सुखं सद्दम्मि तदुवयारो, अत्थप्पञ्चायणफलम्मि ॥११२०॥ भवति । इदमुक्नं भवति-पद-वाक्यप्रकरणा-ध्याय-प्राभृता
पाह-ननु भाष्यमाणः सर्वत्र शब्द एव दृश्यते, यस्त्वर्थः दिनियतक्रमस्थापितं जिनवचनमयत्नत एव ग्रहीतुं शक्य
सोऽनभिलाप्य:-शब्दात्मकत्वाद् वक्तुमशक्य एव, इति म्-'एतावदस्य ग्रहीतम् , ' एतावच्चाद्यापि पुरस्ताद् प्र
कथं सतीर्थकरस्तमशब्दरूपमर्थ भाषते? | उच्यते-अर्थहीतव्यम्' इत्यादिविवक्षया प्रथितं सत् सुखेनैव प्रहीतुं श
प्रत्यायनफले शब्द एव तदुपचारोऽथोपचारः क्रियते । - क्यमित्यर्थः । तथा. गुणनं च धारणा च गुणन-धारणे , ते
तदुक्तं भवति-अर्थप्रतिपादनस्य कारणभूते शऽर्थोपअपि प्रथिते सूत्रे सुखं भवतः । तत्र गुणनं परावर्तनमभ्या
चारं कृत्वाऽर्थ भाषत इत्युच्यत इत्यदोष इति । सः, धारणा त्वविच्युतिरविस्मृतिः । तथा , दातुं प्रष्टुं च
प्रेरकः प्राहसुस्वमेव भवति । तत्र दानं शिष्येभ्योऽतिसर्जनम् , प्रश्नस्तु संशयापत्रस्य निःसंशयार्थ गुरुप्रच्छनम् । एतैः कारणैः कृतं
तो सुत्तमेव भासइ, अत्थप्पञ्चायगं न नामत्थं । रचितं गणधरैः । अतः समस्तगणधरैरेतस्मादपि हेतोः कृतं गणहारिणो वितं चिय,करेंति को पडिविसेसो स्थ?।११२१ भुतम् इदम्' इति शेषः । इति नियुक्निगाथार्थः । विश० । ततस्तहि त्वदुनयुक्त्या शब्दभाषकस्तीर्थकरः सूत्रमेवाअत्र भाष्यम्
ऽर्थप्रत्यायकं भाषते, न स्वर्थम् । गणधारिणोऽपि तदेव मुक्ककुसुमाण गहणा-इयाई जह दक्करं करेउं जे।
कुर्वन्ति, तत् को नामोभयत्र विशेषः ?-न कश्चिदिति ।
प्राचार्यः प्राहगुच्छाणं तु सुहयरं, तहेब जिणवयणकुसुमाणं ॥१११४॥
सो पुरिसाविक्खाए, थोवं भणइन उ बारसंगाई। पय-वक्क-पगरण-ज्झा-य-पाहुडाइनियतक्कमपमाणं ।
प्रत्थो तदविक्खाए, सुत्तं चिय गणहराणं तं ।।११२२।। तदणुसरता सुहं चिय,प्पड़ गहियं इदं गेझ॥१११॥
ननु प्रागेवोक्तं यत्-गणधरलक्षणपुरुषापेक्षया स तीर्थएवं गुणणं धरणं , दाणं पुच्छा य तदणुसारेणं । करः " उपनेह या, विगमेह वा, धुवह वा" इति मातयथा मुत्कानां मुत्कलानां कुसुमानां ग्रहणादीनि कतुं दुक- कापत्रयमात्ररूपं स्तोकमेव भाषते, न तु द्वादशानि । राणि. प्रथितानां तु सुकराणि,तथा जिनवचनकुसुमानामपि ततश्च तद् मातृकापदत्रयमात्रं शब्दरूपमपि सत् तदपेक्षद्रव्यम् । अतो गणधरास्ता प्रश्नन्ति । 'अज्झाय' ति अध्य या द्वादशाङ्गापेक्षया तदर्थसंक्षेपरूपत्वादों भरायते । गयनम् , प्राभृतं पूर्वान्तर्गतः। श्रुतविशेषः 'गहिय इनं गेजति णधराणां तु गणधरापेक्षया वित्यर्थः, तदेव मातृकापदप्रयं पतावरस्य पटीनम . पतायचाचापि पुरस्ताद ग्रहीतम्यम्शब्दरूपत्वात् सूत्रम् , इति नोभयत्र समानतादोष इति ।
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सुयणाण अभिधानराजेन्द्रः।
सुयदेवया पाह-मनु मातृकापदत्रयस्य शब्दरूपत्वात् सूत्ररूपना पूरादिना पूजामात्र सर्वदाऽपि सुकरं तदशक्नेनापि प्रतिवबुध्यते, अर्थरूपतां तु तस्य नावगच्छाम इत्याशङ्कय पुन- मेकैकशः कार्या । ध०२अधिकाश्रा०चू श्राव० श्रुतज्ञानारपि तस्य तां समर्थयन्नाह
धरणक्षयोपशमजनितं श्रुतज्ञानम् । नं०। अंगाइसुत्तरयणा-निरवेक्खो जेण तेण सो अत्थो। सुयणाणकरण-श्रुतज्ञानकरण-न० । गुरूपदेशादिना थुनअहवा नसेसपवयण-हियउत्तिजहबारसंगमिणं।११२३॥
ज्ञानकरणे , विश। पवयणहियं पुण तयं, जं सुहगहणाइ गणहरोहितो।।
सुयणाणपमाण-श्रुतज्ञानप्रमाण-त्रि०ा आगमप्रामाण्ये,पिंग बारसविहं पवत्तइ, निउणं सुहमं महत्थं च ॥११२४॥
सुयणाणारिय-श्रुतज्ञानार्य-पुंश्रुतक्षानित्वेनायें, प्रशा०१पदा प्रता-ऽनङ्गादिविभागेन विरचितमेव सूत्रं प्रसिद्धम् ,
सुयणाणावरण-श्रुतज्ञानावरण-न० । श्रुतं च तत् ज्ञानं च अयं तु मातृकापदत्रयरूपः शब्दो येन कारणेनाऽनादि
श्रुतक्षानम् , तस्यावरणं श्रुतज्ञानावरणम्। शानावरणीयक
मभंद , कर्म० ६ कर्म। विभागेन या सूत्ररचना तन्निरपेक्षस्तत्समुदायार्थरूपत्वेन महिर्भूत इत्यतः सोऽर्थ इति व्यपदिश्यते । अथवा-शे
सुयणाणी-श्रुतज्ञानिन्-पुं० । श्रुतज्ञानसम्पन्ने, “जह केवली षस्य गणधरापक्षयाऽभ्यस्य संघरूपस्य प्रवचनस्य यः सु
बियाणइ, दव्यं नेतं च कालभावं च । तह चउलक्षणखग्रहण-धारणादिभ्यो हितः शब्दाशिः स एव सूत्रतया मव, सुयनाणामय जानाति । व्य०१० उ० । (ववहारशब्द प्रोक्नः । अयं तु मातृकापत्रयरूपः शब्दो न शेषप्रवचनस्ये
व्याख्यातेषा।) स्थं हितः , यथेदं द्वादशाङ्गम् , अतो नासौ सूत्रम् . कि- सुयणिघस-श्रुतनिघर्ष-पुं०। थुतं निघर्षयन्तीति श्रुतनिघत्यर्थ इति । तत्पुनः शब्दजालं शेषप्रवचनस्य हितमेव । यत् पांः। स्वर्णवन्तपरीक्षकेषु, यथा सुवर्णकारस्तापनिकषच्छेकिम् ? , इत्याह-यत् सुखग्रहणादिकारणेभ्यो द्वादशधा- दैः सुवर्ण परीक्षते । व्य० ३ उ० । प्राचारादिद्वादशभेदं गणधरेभ्यः प्रवर्तते । अतस्तदेव सूत्र- |
सुयणिबद्ध-श्रुतनिबद्ध-त्रि० । सूत्रैरुपाते, " पलवणिज्जासं म् , मातृका पद त्रयं त्वर्थ इति स्थितम् । श्रथ 'निउणं' इति नियक्तिगाथावयवस्यार्थमाह-तदाचारादिकं द्वादशबिधं सू
| पुण अणतभागो सुणिबदो" सूत्र०१ श्रु०१ १०१ उ०। नं कथम्भूनम् ? , निपुणं सूक्ष्मं सूक्ष्मार्थप्रतिपादकत्वात् ,
सुयणिस्संद-श्रुतनिस्यन्द-पुं०। सिद्धान्तोपनिषद्भूते , ग. महानपरिमितोऽर्थो यस्मिंस्तद् महाथै च निपुणमिति ।
३ अधि०। अर्थान्तरमाह
सुयणिस्सिय-श्रुतनिश्रित-न० । श्रुतं कर्मतापनं निश्रितम्निययगुणं वा निउणं निदोसं गणहराऽहवा निउणा ।
आश्रितम् अनेनेति श्रुतनिश्रितम् । श्राभिनियोधिकशानभेद,
यत्पूर्वमेव श्रुतकृतोपकाराश्चेदानी पुनस्तदनुपक्षमेवानुप्रवर्ततं पुण किमाइपजं-तमाणमह को व से सारो ॥११२।। न्ते तदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिधितमिति । स्था०२ ठा०१ उ० अथवा-नियतगुणं निश्चितगुण निगुणं संनिहितसमस्तसू- यनु पूर्वश्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले पुनः पुनः श्रुतानुअगुणत्वाद् निदोषमित्यर्थः । 'निउणा' इति पाठान्तरे ग- सारितया समुत्पद्यते तळूतनिधितम् । स्था। गधरा विशेष्यन्ते-निपुणाः, सूक्ष्मार्थदर्शित्वात् , निगुणा वा सुयनिस्सिए दुविहे पाते,तं जहा-अत्थोग्गहे चेव. वंगणधराः , संनिहितसमस्तगुणत्वादित्यर्थः। घक्ष्यमाणनियुक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाह-तत् पुनः श्रुतं किमादि ! ,
जणोग्गहे चेव । अस्मयनिस्सिए वि एवमेव । स्था० किंपर्यन्तमानं-कियत्परिमाणम् ? , को घाऽस्य सारः ?
२ ठा०१ उ०। इति गाथाषद्कार्थः।
मतिमानभेद, “से किंतं सुयनिस्सियं मइनाणं?,सुयनिस्सिअनन्तरपृष्टस्यैवोत्तरमाह
यं महनाणं चउम्बिई पातं । तं जहा-उग्गहो ईहा प्रवाए धा
रणा।" कर्म०१ कर्म० । नं०।। सामाइयमाईयं, सुयनाणं जाब बिंदुसाराभो।
सुयतुंडपईवनिम-शुकतुण्डप्रदीपनिम-त्रि० शुकच खुपदी. तस्स वि सारो चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं ।११२६।
पार्चिःसदृशे, उत्त० ३४ अ०। तरुच श्रुतमान सामायिकादि वर्तते; चरणप्रतिपत्तिकाले सयत्थ-श्रतार्थ-पुं० । श्रुतागमे , द्वा०१८ द्वा०। सामायिकस्यैवादी प्रदानात् । यावद बिन्दुसारादिति बि
सयत्थधम्म-श्रुतधर्माथे-पुं०। प्राकृतत्वात्तथारूपम् । गीतासाराभिधानचतुर्दशपूर्वपर्यन्तमित्यर्थः, यावच्छब्दादेव
थे, दश०६०२ उ०। बहुपनेक-द्वादशपरिमाणं तद् धेदितव्यम् । तस्या
सुयत्थय-श्रुतस्तव-पुंज पुष्करवरेत्यादिलक्षणे श्रुतस्तुती, पं० पि धतज्ञानस्य सारश्चरणाम् । सारशब्दोऽत्र प्रधानवचनः
व०२द्वार। फलषचनश्च मन्तव्यः , तस्मादपि श्रुतक्षामाच्चारित्रं प्रधा
सुयत्थेर-श्रतस्थविर-पुका श्रुतेनागमेन स्थविरो वृद्धः श्रुतस्थमम् , तस्य फलं तदित्यर्थः । अपिशमात्-सम्यक्त्वस्यापि
विरः। तृतीयचतुर्थानधरे साधौ, 'ठाणसमवायधरेणं निग्गंथे सारभरणमेव । अथवा-अपिशम्नस्य व्यवहितः संबन्धः,
सुयथेरे।' स्था० ३ ठा०२ उ० । तस्य भुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि । विशे। "सोहोर अहिगयई, सुयनाणं, जेण प्रत्थम्रो दिटुं। सेबारसमंगाइ.पानगं
सुयदाण-श्रुतदान-नाअङ्गप्रविष्टादिश्रुतोदेशने,जं.१ वक्षः। विहिवामी य"उस०२८० तशामस्य पुस्तकादेः-सुयदेवया--qवदेवता--स्त्रीला जिनवाण्याम्, पं० सं०५द्वार।
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मुयदेवया अभिधानराजेन्द्र।।
सुयधम्म ('सुयदेवीपसा० १५१'गाथा'पंचसंगह' शब्दे५भागे उक्ला।). श्रुतदेवताविद्यां लक्षधा जपत्भुवदेवतां प्रशापयितुमाह
वंदिनु चइए सम्म, छट्ठभत्तेण परिजवे । सुयदेवया भगवई. नाणावरणीयकम्मसंघायं ।
इमं सुयदेवयं विजं, लक्खहा चेइयालए ॥ ४७ ।। तेसिखवेउ सययं, जेसिं सुयसायरे भची ॥१॥
उवसंता सबभावेणं, एगचित्तो सुनिच्छो । श्रुतमहत्प्रवचनं श्रुताधिष्ठात्री देवता धृतदेवता । संभवति च श्रुताधिष्ठातृदेवता, यदुक्तं कल्पभाष्ये -"सव्यं च लक्खगो.
पाउत्तो अववक्खित्तो, रागरइअरइवजिओ ॥ ४८ ॥ धेयं, समाहिति देवता।सुनं च लक्खणायेयं,जेण सम्बएणु- अउम् ण् अम् उक् उद् भद् उठ् ईण भम् अउम् भासियं ॥१॥'इति भगवती पूज्यतमाशानावरणीयकर्मसंघा- ण् अम् उम् अय् प्राण उस पार ईसा अम् । अत्री तं शाम कमनियह तेषां प्राणिनां क्षपयतु क्षयं नयतु सततमनधरतं येषां किमित्याह-श्रुतमेवातिगम्भीरतयातिशयरत्न
मम् अम् ओस् अम् भइमम् उ ईण अम् अउम् ग प्रचुरतया च सागरः समुद्रः श्रुतसागरः तस्मिन्भक्तिबहुमानो
मम । उखईरे भासवलद्धईण मम् अउम् याम् । विनयश्व समस्तीति गम्यते । ननु श्रुतरूपदेवताया उतरूपवि.
उ सबउ । उसहिल ईण अम् भउम् ण् अाम् उ । बापना युका श्रुतभक्तेः कर्मक्षयकारणत्वेन सुप्रतातत्यार श्रुः अक्खई अम् । अह आण सल ईण अम् । अउम् म् । ताधिष्ठातृदेवतायास्तु व्यन्तरादिप्रकारायान युक्ता तस्याःप- मम् उ भगवउ अरहउ महइमहावीरवद्धमाणं धम्मतित्थंक रकम्र्मक्षपणे ऽसमर्थत्वादिति । तन्न श्रुताधिष्ठात्री देवना गोपरशुभप्रणिधानस्यापि स्मतुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहितस्यात्
रस्स अउम् णम् उ सबधम्मतित्थंकराणं । अउम् णम् यदुक्रम्-"सुयदेवयाए जीए संभरण कम्मखयकर भणियं न
उ सबसिद्धाणं अउम् णम् उ सव्वसाहणं । अभोम् । स्थिति अकजकरीव एवमासायणा तीर" त्ति किंचेहेदमेव णम् उ भगवतो मइण आणस्स । अउम् णमउ व्याख्यानं कर्तुमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे भक्तिस्तेषां श्रुता. भगवो सुयणप्राणस्त । अउम् णमउ भगवो ओह धिष्ठातृदेवता ज्ञानावरणीयकर्मसंघानं क्षपयत्यिति वाक्या
इण प्राणस्स | अउम् पमउ भगवो मणपज्जपणा-- घोपपत्तेः । व्याख्यानान्तरे तु श्रुतरूपदेवता श्रुते भक्तिमतां कर्म क्षपत्विति सम्यग्नोपपद्यते । श्रुतस्तुतेः प्राग्बहुशोs
णस्स | अउम् णमउ अम् णमउ र अम् अउ अम् ण भितत्याश्चेति । ततः स्थितमिदमईत्याक्षिकी श्रुतदेवतेह गृ- अउ अम् णमउ । आउ अभिवत्तीलक्षणम् । सम्मदंसह्यत इति । पा०1 "सुदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थे" | णम् । अमो अम् णम् उप्रभारसत्रम् ईल अग-- म्यादि च पठिन्वा श्रुताधिष्ठातृदेवतायाः स्मर्तुः कर्मक्षयहेतु
सहस्साहिटियस्स णई स । अमगेस्य इणइ प्राणण इमस्वेन तत्कायोत्सर्ग कुर्यात् , तत्र च नमस्कारं चिन्तयति, देवनाचाराधनस्य स्वल्पयत्नसाध्यत्वेनाष्टोच्छासमान एवायं |
लणइ । सयसल्लमे तु भगवो कए व लण् श्राणस्स । कायोत्सर्ग इत्यादि हेतुः संभाव्यः,पारयित्वा च तस्याः स्तु- अउम् ण उम् भो भगवतीए सुयदाएवय पाए सि-- तिं पठति-"सुदेवया भगवई" इत्यादि अन्येन दीयमानां ज्झउ मम् अाहिवाविजा । अउम् णम् उ भगवओ या शणोति । ध०२ अधि०।" यस्याः प्रभावमतुलं, संप्राप्य
णसर । अले सव्वदुक्खणिम्महणपरमनिव्वुइकरिस्म णं - भवन्ति भव्यजननियहाः । अनुयोमोदिनस्ता, प्रयतः श्रुतदेयतां वन्दे ॥१॥" अनु० । श्रुतदेवता तिमिरं पणासेतु । भ०।
वयणस्स परमविन्नु तमस्मेति एसा विजा सिद्धतिकुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटवेटसंकासा। एहिं अक्सरेहिं लिखिया । महा० २१०। सुयदेवया भगवती,मम मतितिमिरं पणासेतु ॥१॥भ०॥ सयदेवयातव-श्रृतदेवतातपम-न० । एकादशसु एकादशीवियसियभरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिया देवी। पण्यासो मौनव्रतं श्रुतदेवनापूजा चेति क्रियात्रयात्मके तपोमझ पि देउ मेह, बुहविबुहणमंसिया पिच्चं ॥१॥ भेदे, पश्चा०१६ विछ। सुयदेवयाए पणमिमो, जीऍ पसाएण सिक्खियं णाणं। सुयधम्म-श्रुतधर्म-पुं०। श्रुतं द्वादशाकं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः । भवं पवयणदेवी, संतिकरी तं नमसामि ॥२॥ स्वाध्यायवाचनादिरूपे धर्मभेदे, तस्वचिन्तार्या धर्महेतुन्धस्य सुयदेवयाए जक्खो, कुभधरो बंभसंतिवेरोट्टा । धर्मत्यम् । दश० १ ० । श्रा० म० । श्रुतस्य धर्म:विजा य अंतिहुंडी, देउ अविग्ध लिहतस्स ॥ ३ ॥
स्वभावः श्रुतधर्मः श्रुतस्य योधस्वभावत्वात् श्रुतस्य धम्मों
बोधो बोद्धव्यः । अथवा--श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधाभ० १४१ श०।
रणात् श्रुतधर्मः । यदि चा--जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य सुयदेवयाए भासायणाए ।
श्रुतं च धर्मश्च श्रुतधर्मः । उक्तं च--"बोहो सुयस्य धम्मो, श्रुतदेवताया-पाशातना-थुनदेवता न विद्यते अकिंचि- सुयं च धम्मो सजीवजोता। सुगईने संजमंमि य, धरणाम्करी वा न शनधिष्ठितो मौनीन्द्रः खल्वागमः अतोऽसावस्ति तो वा सुपं धम्मा ॥१॥" श्रा०म० १० । स्थाध्याये, स्था. नवा अकिंचित्करी नामालम्व्य प्रशत्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात्। ३ ठा० ३ उ०। नं० । चारित्रधर्मव्यवस्थाकारिणि धर्मभेद, भाव० ४ अ । सुतदेवताए जीए सुत्तमद्विट्टियं तीए प्रासा- पं० २०४द्वार । स्था० ।( धृतधर्मस्तुतिः 'काउसम्म ' जणा णस्थि सा अकिंचिकरी वा एवमादि । प्रा०चू०४०। शब्द हनीयभागे ४१६ पृष्ठे उक्का ।) श्रुतधर्मस्योच्यते
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सयधम्म
अभिधानराजेन्द्रः। "तमतिमिरपडलविद्धंसणस्स सुरगण." इत्यादि तमः-- सुयमाण-शयान-त्रि० शयनं कुर्वति, तं०।। प्रशानं तदेव तिमिरम् । अथवा-तमो बद्धस्पृष्यनि
सुयरयण-श्रुतरत्न-नाद्वादशाजीरूरत्ने, प्रमा०१ पद । धत्तं शानावरणीयं निकाचितं तिमिरं तस्य परलं वृन्दं तमस्तिमिरपटलं तद्विध्वंसयति नाशयतीति तमस्तिमिरपटल
सुपरयणभरिय-श्रुतरवभूत-त्रि०। श्रुताम्येषाचारादीनि निविध्वंसना तस्य । आव०५०।
रुपमसुखहेतुत्वाद्रत्नानि श्रुतरत्नानि नै सं परितम् । परिपू
गमे , नं। सुयधम्मे दुविहे पन्नत्ते, तं० सुत्तमुयघम्मे चेव अत्थमुयधम्मे चेव । (सू०७२४) स्था० २ ठा० १ उ० ।
सुयरहस्स-श्रुतरहस्य-नाश्रुतनिष्कर्षे, संथा।
सुयरागि (ण)-श्रुतरागिन्-त्रि० । श्रुते प्रवचने रागो भाक्लि"सुयधम्मो तिघा तिस्थ ति वा मग्गो ति वा पवयण
र्यस्य स श्रुतरागी। प्रायचनिके, ध० ३ अधि० । ति वा एगट्टा" प्रा० चू०१०। श्रतधर्मन-त्रि० । श्रुतो धर्मो येनेति आकर्णिताणुवतादिन- उषा
सुयलंभ-श्रुतलाभ-पुं० । द्रव्यश्रुतलाभे, वृ०। तिपादनप्राप्तवचने , ५०२ अधि०।
दट्टण जिणवराणं, पूनं अनेण वावि कजेण ।
सुयलंभो उ अभब्बे, भविज यंभेणं उवणीए । सुयधम्मकहण-श्रुतधर्मकथन-न०। श्रुतधर्मस्य वाचनाप्रच्छनापरावर्तनानुपेक्षाधर्मकथनलक्षणस्य सकलकुशल
वृ०१ उ०९ प्रक०। कलापकल्पद्रुमविपुलालवालकल्पस्य कथने , ध० । यथा
सुयवग-श्रुतवक-पुं० । तृणवनस्पतिभेदे, प्रमा०१पद । "चतुष्मन्तस्त एवेह,ये श्रुतज्ञानचक्षुषा । सम्यक सदेव पश्य- सुयवतार-श्रुतवक्त-त्रि० । द्वादशाङ्गस्य प्रवचनस्य सूत्रतः न्ति, भावान् हेयेतरानराः॥१॥" अयेच श्रुतधर्मः प्रति- प्रवाचके, विशे०।। दर्शनमन्यथाम्यथाप्रवृत्त इति नासावद्यापि तत् सम्यम्भायं
सुयववहार-श्रुतव्यवहार-पुं० थुतं श्रुतमानं शेषमानभवः विधेचयितुमसमित्याह बहुत्वात्परीक्षावतार इति। यस्य हि
तदेव व्यवहारः । द्वितीये व्यवहारभेदे, पञ्चा. १६ वियः । बहुत्वाच्तधर्माणां श्रुतधर्म इति शब्दसमानतया विप्र
अष्टाघेका वसानपूर्वधरैकादशानिनिशीथाचशेषश्रुतशेध. लब्धबुद्धः परीक्षायां त्रिकोटिपरिशुद्धिलक्षणायां श्रुतधर्म- २ अधिक। सम्बन्धिन्यामवतारः कार्यः । ध०१ अधिक।
अथ श्रुतव्यवहारं शृण्वतामेव कथयतिसुयधारय-श्रुतधारक-त्रिका श्रुतक्षातरि, प्रश्न०५ संवद्वार ।
नि(ब्बू)ज्जूढं चोद्दसपु-बिएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं । सुयपज्जवजाय-श्रुतपर्यवजात--न । उद्देशकाध्ययनादिषु पंचविहो ववहारो, दुवालसंगस्स नवनीतं ।। ५७८ ।। श्रुताध्ययनप्रकारेषु,स्था०५ टा० उ०। सूत्रार्थप्रकारे, ग. यत् भद्रबाहुस्वामिना चतुर्दशपूर्वधरेण पञ्चविधो व्यवहारः अधि।
पञ्चविधव्यवहारात्मकं नियूदं द्वादशाङ्गस्य नवनीतं मथित
स्य नवनीतमिव द्वादशाङ्गस्थ, सारमित्यर्थः। एतेन द्वादशासुयपारायण-शुकपारायण-ना अर्थपरिसमाप्त्या पदच्छदेन सूत्रोचारण संहितायाम् , व्य०३ उ०।
प्रानि नियूंढमावेदितव्यं तत्सूत्रं धुतमुख्यते । तेन व्यवहारः
धुतव्यवहारः। सुयपिच्छ-शुकपिच्छ-पुं०। शुकपक्षिश्लदणपक्षे , जी. ३
जो सुयमाहिजइ बहुं, सुत्तत्थं च निउखं न याणेइ । प्रति०४ अधि० । प्रज्ञा । रा०।
कप्पे ववहारम्मि य, सो न पमाणं सुयहराणं ॥५७६।। सुयबुद्धोधेय-श्रुतबुद्धचपेत-त्रि० । श्रुतेन बुजिभाषेन च
जो सुयमहिजइ बहुं, सुत्तत्थं च निउणं बियाणे। समन्विते, दश ६ म. २ उ०।
कप्पे ववहारंमि य, सो उ पमाणं सुयहराणं ॥५८०॥ सुखभत्ति-श्रुतभक्ति-स्त्री०।थुनविषये बहुमाने, मथ०१० द्वार।
यः कल्पव्यवहारे च सूत्रं बीते न सूत्रार्थ निपुणं-जासुयमद--श्रुतमद-पुं। विशिष्टश्रुतनिमित्ते मदर्भदे, स्था०८ माति,स व्यवहारविषये न प्रमाणं श्रुतधराणाम् । यस्तु करणे ठा०३ उ० । उत्स०। (अत्र कथानकं 'पराणापरीसह ' शम्दे व्यवहारे च सूत्र बहधीते सूत्रार्थ च निपुणं विजानाति स पञ्चमभागे ३६० पृष्ठे उक्तम् ।) श्रुतेन मदः श्रुतमदः । मदस्था
प्रमाण व्यवहारे श्रुतधराणाम् । नभेदे , सा
कप्पस्स य निज्जुर्ति,ववहारस्स व परगनिउणस्म । सुयमयणाण-श्रुतमदज्ञान-न०। शाम्दाने, "वाक्यार्थमात्र- जो अत्थतो न जाणइ, ववहारी सो नणुमातो ।।५८१॥ विषयं,कोष्ठकगतबीजसग्निभंज्ञानम्। श्रुतमदमिह विशेय,मि- कप्पस्स य निज्जुर्ति, ववहारस्से परमनिउणस्स । ध्याभिनिवेशरहितमलम् ॥१॥" इत्युक्तलक्षणेशानभेद,घो०११
जो अत्थतो बियाणे, ववहारी सो अणुपातो ॥५८२॥ विव० । (वक्तव्यता 'याण' शब्ने ५ भागे १९८१ पृष्ठे उका।)
कपस्य-कल्पाध्ययनस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य सुयमयमेत्तापोह-श्रप्तमयमात्रापोह-पुं०। श्रुतवादेन निवृत्तं
यो नियुक्तिमर्थतो न जानाति स व्यवहारी नानुज्ञातः । यस्तु
नितिन श्रुतमयं तदेव तन्मात्रमवधृतस्वरूपम् अन्यज्ञानद्वयनिरपेक्ष करपस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य नियुक्तिमर्थतो जानातदपोहस्तनिराशः। श्रुतवादमात्रनिराश, पो०१. विव०।। तिस व्यवहारी अनुशानः ।
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सुगवबहार
तं वमते यवहारविहं पजति अ
एसो सुश्रववहारी, पण तो धीरपुरिसेहिं ॥ ५८३ ।। कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रवाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निर्व्यूढं तत्रैव भजन निपुनरार्धपरिधायनेन मध्ये विराम उपवहारविधि यथोक्तं सुषमुच्चार्य तस्यार्थ निर्दिशन या प्रयुक्
वहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः व्य० १० उ० । श्रुतव्यवहारिणश्च अशेषपूर्व एकादशाङ्गधारिणः कल्पव्यवहारादिस्वार्थतदुभयविदश्च । व्य० १ उ० | श्रुतव्यवहारिणश्च
सप्तषट्पञ्चचतुस्त्रिद्वधेकार्द्ध पूर्विणः एकादशाङ्गधारिणो निशीथवहारदशाभूतस्करकल्प
( ६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
पार्थाभिज्ञाश्च श्रुतव्यवहाराश्चाचाराङ्गादीनामष्टपूर्वाणामेव, अनुक्रम्" प्रायाग्यकरपा से सूर्यहिंदु" इति प्रवाह कश्चित् किमपूर्वास्तमेव तं नवमर्यादांनत्यम् रयते श्रागम्यन्तं परिपदार्थागमन
से नवमदन शेकेल यार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेश: शेष नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽधःतोऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः । जीत० । सुयवहारि श्रुतव्यवहारिन् पुं०यारे व्यवह सेरि, जी० १ प्रति ।
श्रुतसंगच्चतुर्द्धा । यथाजुगपरिचिय उस्सग्गो, उदात्तघोमावविनेश्रो नि५४७X नत्र सूचना मिति युमो युधानागमः परिचितसूत्रः क्रमोन्नवाचनादिभिः स्थिरसूत्रः उत्सर्गः उत्सर्गापवादः स्वयम्वरमयादिवटी | उदघोषादिः उदासानुदानादि स्वरविशुद्धिविधायी अन्य बहुतता परिचिता २ विचित्रता घोषविकिरता येति पचने, अर्थस्तु स एव । प्रब० ६४ द्वार ।
अव्यवहारिणः प्राशुः
कप्पपकपी उ सुए, आलोवा चैति ते उ तिक्खुनो । सरिसत्थमप लिउंचि वि, अस रिसपरिणामतो कुंची । १३७/ कल्पग्रहणेन दशाश्रुत स्कन्धकल्पव्यवहारा गृहीताः, प्रकल्पप्रहणेन निशीथः । कल्पश्च प्रकल्पश्च कल्पप्रकल्पं तदेषामस्तीति कल्पप्रकल्पिनः दशाकल्पहारादिमुत्रार्थस्तु शब्दत्वात् महाकल्पधुनमा पनिशी पनि क्लिपीडिकाध राश्र श्रुतव्यवहारिणः प्रोच्यन्ते व्य० १ उ० । सुविणय- श्रुतविनय पुं० । विनयभेदे, व्य० ।
सम्प्रति श्रुतविनयमाहसुतं अत्यंच तहा. हियणिस्सेमन्तहा पंवाए । एसो चउच्चिहो खलु, सुयविणओ होइ नायव्चो ॥ ३०० ॥ सूत्रं प्रयासपति तथा अहिले यद्यस्थोचितं त प्राचयति नेतरम् तथा निक्षेप परि धः खलु विनय भवति ज्ञातव्यः ।
सुसमाहि
एतमेव व्याचष्ट
सुतंगड़ उज्जुत्तो, अत्थं च सुणावर पयत्तेण । जं तस्स होइ जोरगं, परिणामगमाइयं तु हियं ॥ ३०२ ॥ निस्सेसमपरिसेस, जाव समत्तं तु ताव वाएइ ।
सो सुतख वच्छं 'विवा' । ३०२ ॥ उद्युक्तः सन् शिष्यान् सूत्रं ग्राहयति एवं सूत्रप्राहणचिनयः तथा प्रयत्नेन शिष्यमर्थ श्रावयति एषोऽर्थश्रावविनयः । परिणामकादीनां यत् यत् यस्य भवति योयं तत्तस्य द्वितं सत्रतोऽर्थतश्च ददाति एवं हिनप्रदानविनयः तथा निःशेषभपतिनाथज्ञानयति एवं निःशेषवाचनाविनयः उपसंहारमाह-एष चतुर्विधः खलु श्रुतविनयः । व्य० १० उ० | प्रब० ।
सुयट शुकन्त पु० त्रीन्द्रियजीद जी०३ प्रति० १ अधि० । प्रज्ञा० ।
सुवसंपवा श्रुतसंपद्स्त्री० श्रुतम् [आगमस्तस्मिन पा संपरसमृद्धिः श्रुतसंप स्था० ० ३ ०
('गणि संप) शब्द तृतीयभागे ८२६ पृष्ठे व्याख्यानैषा । ) (द्विविधनसंपत्ववहार शब्दे भागे ६०५ पृष्ठे
7
गता । )
सुय संवाय- शुकसंवाद- पुं० । शुकाख्यपरिवाजकेन सह वादे, ग० २ अधि० ।
धर्मशास्त्रश्रवणे,
सुयमद्दहण्या- श्रुतश्रद्दधानता - स्त्री० स्था० " श्राहश्च सबणलद्भु, सद्धा परमदुलहा । सोचा नेयाउयं मग्गं, बहवे परिभम्सइ ॥ ॥ " स्था० ६ ठा० ३ उ० । सुसमाहि श्रुतसमाधि-पुं० तेनाहा समाधिः श्रुतस माथि समाधिदे I
भुतसमाधिमाह
,
चच्चिहा खलु सुसमाही भवइ, तं जहा - सुखं मे भ विस्सह ति अन्काइव्यं भवइ १ एगम्गचितो भवि स्वामिनि प्रकाइअव्ययं भव २, अप्पा डावइस्सामिति माइश्रव्ययं भवइ ३, ठिम्रो परं ठावइस्साभाव्यं भवइ ४, चउत्थं यं भवइ भ व इत्थ सिलोगो - " नाण मेगग्गचित्तो अ, ठिश्रो अ ठावई परं सुध्याणि म अहिजिना, रथो सुखसमा। -
मिति
हिए ॥ ३ ॥ " चतुर्विधः समाविति 'तय'वहारोपन्यासा में आवारा भविष्यतीत्यनया बुद्धयाsध्येतव्य भवति, न गौरवाचालम्बनेन १, तथाऽध्ययकुर्वाचित तिचित इत्यध्येत भयत्यनेन चालम्बनध आत्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेन साम्यनेनाध्येतव्यं भवति ३ तथाऽध्ययनफलान् स्थितः वयं धर्मे 'परं ' यानि तथैवेत्यच्येतस्य भवत्यनेनारूम्यनेन
+
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( E) सुयसमाहि अभिधानराजेन्द्रः।
सुरद्वार ४, चतुर्थ पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् । सुरक्खिय--सरक्षित-त्रि० । सुष्टु-अत्यन्तं रक्षितं रक्षण पास चायम-'शान' मित्यध्ययनपरस्य शानं भवति एकाग्र- लनं यस्य स तथा । अत्यन्तं पालिते , प्रश्न०४ संबद्वार। चित्तश्च तत्परतया एकाग्रालम्बनश्च भवति 'स्थित' इति । विवेकाधर्मस्थितो भवति स्थापयति पर' मिति स्वयं ध
सुरगन--सुरगज--पुं० । ऐरावणे , को। में स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति, श्रुतानि च नानाप्रकारा- सुरगह-मुरगति--स्त्री० । सुरेषु विषये गतिः सुरगतिः। - ण्यधीतेऽधीत्य च रतः-सक्लो भवति श्रुतसमाधाविति वगतौ कर्म० ४ कर्म । सूत्रार्थः॥ ३ ॥ दश अ०४ उ० ।
सुरगण--सुरगण--पुं० । चतुर्विधामरनिकाय, ध०२ मथि। सुयसागर-श्रुतसागर-पुं० । ऐग्वतवर्षे भविष्यति चतुर्थे ती- प्रान० 1 स०। थकरे,
तिथत कल्पव्यवहारादिरूप नदेव गम्भीरत्वादि- सुरगणणरिंदमहिय-सुरगणनरेन्द्रमहित--त्रि०। सुरगणैश्चगुणैः सागरः श्रुतसागरः । थुतसमुद्रे,ग०१ अधि० । दर्श०। तुर्विधामरनिकायैनरेन्द्रश्चक्रवादिभिर्महिता-पूजितःवै । सुयसहायया-श्रुतसहायता-स्त्री। श्रुतमेव सहायो यस्याऽ- राजभिश्च पूजिते ल। सौ श्रुतसहायस्तद्भावस्तत्ता। श्रुतमात्रायलम्बन, भ०१७ सुरगणसुह--सुरगणसुख--न० । देवसम्धानसुख, "सरगरपसुहं श०३ उ०।
सम्मत्तं सब्यथा पिडिअं अणतगुणं " प्रशा०२ एन । सुयसामाइय-श्रुतसामायिक-न०। श्रुतमुक्तस्वरूपमेव सामा
सुरगिरि-सुरगिरि-पुं०। मेरुपर्वते, सत्र.१७०६०। यिकमिति श्रुतसामायिकम् । सामायिकभेदे, विशा (णा
सुरगीय-सुरगीत-त्रि०। सुरैर्देवैर्गीतस्तदगुणगानेन । प्रमरण' शब्दे चतुर्थभागे १६५४ पृष्ट सर्या वक्तव्यता।)
सीर्तिते, संथा० सयहर-श्रतधर-पु० दशपूर्वधरे, प्रा० म०१०। थुतमहा-सरगविणेय--सहगरुविनेय-० घारूपत्य बाके, ल। र्णवपारगामिनि, पं० सं०५ द्वार।
सुरगोव--सुरगोप-पुं०। इन्द्रगोपकाभिधाने रक्तयणे कीट, सुया-सुता-स्त्री०। प्रात्मजायाम् , जी. ३ प्रति०४ अधिक।
मा० १ श्रु०६अ। शान्तिजिनस्य प्रयतिन्याम् , ति।
सुरजाल-सुरजाल-न० । इन्द्रजाले, वृ०१ उ०२ प्रक० । सुयाग-सुयाग--पुं० शोभनयशे, श्री।
सरट्र--सुराष्प-पुं० । द्वारवतीनगरीप्रतिबद्ध जनपदभंदे, "वासुयाणुसार-श्रुतानुसार--पुं० । श्रागमोद्देशे; पञ्चा०४ विवा
रीय सुरट्टा" प्रव० २७५ द्वार | आव०। सूत्र । प्रशा० । शब्दार्थालोचनानुसारे, कर्म.४ कर्मः।
सुरवद्धण-सुराष्ट्रवर्धन-पुं० । अवन्तिगजस्य प्रद्योतस्य सध्य-सूर्य--पुं० "न वा यो ग्यः" ॥८।४।२६६ ॥ इति शौर
पौत्रे, प्रा. क०४ श्रा सन्यां यस्य स्थाने व्यः । रवी , प्रा०। ( अस्य वक्तव्यता 'सूर' शब्दे वयामि ।)
सुरणय-सुरनत-त्रि० । देवजिते, यश०१०। मुर-मुर-पुं० । सुष्टु राजन्त इति सुगः। यदि घा--सु
सुरणर-सुरनर-पुं०। देवमनुष्ये, “ तम्हाउ सुरनराणं पुखठु राति ददाति प्रणतानामीसितमर्थ लयणाधिप इव
त्ता मंगलं सया धम्मो।" दश०१ अका खवणजलधी मार्ग जनार्दनस्येति सुगः । यद्वा-'सुर सुरणुचर-स्वनुचर-त्रि० रफः प्राकृतत्वात् । सुखमा ऐश्वर्यदीप्त्याः । सुरान्त विशिष्टमैश्वयमनुभवन्ति दिव्याभ- यत्वात् अकृच्छ्रेणानुष्ठातव्ये, स्था०५ ठा० १ उ०। रणसंभारसमृद्धपा सहनिजशरीरकान्त्या था दीप्यन्ते । इति सुराः । कर्म० ४ कर्म० । शक्रादिकेषु देवेषु , नं० ।
सुरत्तकणवीर-सुरक्तकरवीर-न०। प्रतिरकरवीरपुष्पे,प्रश्न अनिमषिषु , श्रा० म० अ० । व्य० । श्रा०म० कर्म ।
३ आश्र० द्वार। प्रो०। प्राचा।
सुरत्ताण-सुरत्राण-पुं० । पारसीकभाषाप्रसिद्ध नगे, ता. मुरड्य-सुरचित-त्रि० । शोभनं रचितं सुरचितम् । शोभनप्र- २५ कल्प। कारण निर्मिते , जी. ३ प्रति० ४ अधि० । । सुरत्ताणसमसुद्दीन-० । पारसीकः शम्नः । महाराजे, श्रीहसुरंगा-सुरङ्गा-स्त्री० 1 उपर्यविदिते भूमिखातमार्ग,न। प्रा० म्मीरसुरत्ताणसमसुद्दीनः । ती. ३५ कल्प । का श्राव।
सुरतिग मुरत्रिक-न। सुरगतिसुरानुपूर्वीसुरायुर्लक्षणे देसुरंदर-सुरम्बर-पुं०। शौर्यपुग्पूज्यमाने स्वनामख्याते यक्षे, वत्रिके, कर्म० ५ कर्म । श्राव०४ अ०। प्रा.क.("सुस । शब्दे ऽस्मिव भागे सरदत्त-सुरदत्त-पुं० । जयन्तीनामनगरीवास्तव्ये स्वनामकथा गता। )
ख्याते गृहपती, पिं० । हेमपुरनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते सुरकुमार-सुरकुमार-पु. । श्रीवासुपूज्यजिनस्य शासनयो , श्रेष्ठिनि, दर्श०१ तस्व। प्रय । श्रीयासुपूज्यस्य सुरकमारी यक्षः देशों सुरदग-सुरद्विक-न० । सुरगतिसुरानुपूर्वी लक्षणे नेवद्धिके, वाहनश्चतुर्भुजो बीजपूरकयाणान्वितदक्षिणकरद्वयो मकुल- *म०५ कम। कनुयुक्रवामपाणिद्वयथा प्रब०२६ द्वार।
सुरदुवार सुरद्वार-न० । देवगृहद्वारे, ती० २५ कसप ।
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सुरपूहष
पारे
सुरपूय सुरपूजित जि० सुरा देवास्तः पूजितः इन्द्राविदेवैः पूजिते, दश० १ ० ॥ सुरपिय मुराप्रिय याने स्वनामख्याते यक्ष, शा० ०५ ०] संधा०॥ श्रा० म० । अन्त०। तत्र (साकेतपत्तने) शान कोणेऽस्ति, मेदिनीमुकुटोपमम्। सुरधियस्य यस्यायतनं शिवम् ॥ १॥" आ० क० १ अ० । आ० चू० । नि० । श्रा० म० । सुरभि --सुरभि - पुं० | सौमुख्यकृति गन्धभेदे, अनु० । प्रशा० । श्री० | रा० । स० । श्राचा० । नं०। गवि, सकलगोमातरि, पृ० । प्रलम्बभेदे, पृ० १३०२ प्रक० । सुरभिकुसुममलिया-सुरभिकुसुममनिका श्री० । सुगन्धपुष्पमाल्ये, करुप १ अधि० ३ तख । सुरभिगंध-सुरभिगन्ध-पु० सुगन्धे, रा० सुरभिगन्धणाम- सुरभिगन्धनामन् - न० । शरीरेषु सुरभिगन्ध उपज्ञायते यथा तपासुन शतपत्रमालती दीनां तत्सुरभिगन्धनाम । नामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म०/०सं० । सुरभितर- सुरभितर- त्रिण अत्यन्त सुगन्धिनि, कल्प ०१ अधि०
यदुदयवशाज्जन्तु
३ क्षण | प्रश्न० ।
सुरभिदुर- सुरभिपूर- २० गङ्गातटीये नगरमे १ अधि० क्षण । गङ्गाया उत्तरभागस्थे स्वनामख्याते नगरे, आ० ० १ अ० । प्रा० क० । दर्श० । श्रा० म० । सुरम् सुरम्य अतिश्रमी जी०३ प्रति०४धि० । श्री० स० सुष्ठु - श्रतिशयेन रम्यं सुरम्यम् । मनोरमणीये, चं० प्र० २० पाहु० । सुरम्मा-सुरम्या- - स्त्री० । वैताढ्यपर्वते उत्तरश्रेण्यां स्थनामख्यातायां नगर्याम्, ती० ६ कल्प। रा० । सुख-मुरतन० सियायाम् दर्श० मतस्व । सुररिउ - सुररिपु-पुं० । दैत्ये असुरे, को० । सुरलो गभूय-सुरलोगभूत - त्रि० । सुरलोकोपमे, रा० । सुरलिया - सुरलिका - स्त्री० । वनस्पतिविशेषे, रा० सुरवर - सुरपति पुं० । इन्द्रे, को० । श्रा० म० । सुरवदय-सुरपतिऩपुंजित ०ि महिने, “सुरवरसंपूइयां " सुरपतिसंपूजितानां प्रच्छुक निर्णायकपूजनात् । स० ।
१
सुरारस- सुरारस- -युं समुद्र विशेषे, “एगा जोय एकोडी, छथ्वीसा दसओयणसहस्सा गतिविरहियं सुरारसे सागरे खित्ते ॥ " द्वी० ।
1
सुरालय सुरालय-पुं० [स्वर्गे सू० १ ० ६ ० सुरावियडकुम्भ-सुराबिकटकुम्भ-पुं० । सुरारूपं यद् विकटं जलं तस्य कुम्भो यः स तथा । मद्यभृतघटे, भ० १६ श०६३० । सुरासुरमयपूइय-सुरासुरमनुजपूजित- - त्रि० । ज्योतिष्कवैमानिन्तरभवन पतिभिः पुरुषविद्याधरैश्च पूजिते पं० सू० १ सूत्र ।
सुरवर-सुरवर-पुं० ऋषभदेवस्थानयतितमे पुत्रे,
अधि० ७ क्षण | देवप्रवरे, प्रश्न० ४ श्र० द्वार । सुरवराभिराम - सुरवराभिराम त्रिवरैः शोभिते
"
( १०००) अभिधानराजेन्द्रः ।
19
१ अधि० ३ क्षण |
सुरसिद्ध-सुरसिद्ध-पुं० । अपरविदेहे पुष्पकलावतीविजय क्षेत्रे चम्पाया नगर्या राजनि, ती० ६ कल्प। सुरहि- सुरभि - पुं० । सुगन्धे, शा० १ श्रु० ६ श्र० जी० । ००१० मे आया ०१०१०२४० सुरहिगन्ध-सुरभिगन्ध-अनुज पद्मशुकले
,
सुरासुरमनुष
गंगाः सुरभिगन्धाः 'पिष्यमाणगन्धवासा ' सुरभिकुसुमादिभ्यो ऽध्यनम्न गुणपरमसुरभिगन्धोपेतत्वात् । प्रशा०१७पद । सुरभिजयगंध-सुरभिजनितगन्ध-पुं०] मनोका १ श्रु० १ श्र० ।
सुरहि विलेवण-सुरभिविलेपन - न० । सुरभिश्रीखण्डाद्यनुलेप
ने, पञ्चा० ४ चित्र० ।
।
।
सुरासुरा श्री चन्द्रासमधे मधे उ०१० सू० । कामदेखि होति" दिना संधिमा पिन यद् विभवति सा सुरा ०२ उ०] स्था० | पञ्चा० | दश० कपालगृहेषु किलालशब्दसमुधारित सुरा विनश्पति अनुपि सिभ्यां दिक्कुमार्याम्, ति० । द्वी० ॥ श्र० चू० । सुराउ-सुरायु-१० देवायुषि फर्म० [१] कर्म० । । चजे, को० । सुराउह-- सुरायुध - न० सुरादेव मुरादेव पुं० वाणासीनगरीयास्थ्य स्वाम ते विजिया सुरादेवी गृहपतिर्यासारखीनिवासी परीक कदेवस्य पोडशानङ्कान् भवतः शरीरे शमकमुपनयामि । यदि धर्मनीति वचन लिन पुनरा लोकान्तरतय दिवंगत इति यन्यताभाष सुरादेव इति ॥ ४ ॥ स्था० १० ठा० ३ उ० । उत्त० । ( सुरादेवकथा 'स' शब्दे तृतीया ११२६ पृष्ठे मता ।) सुरादेवी-सुरादेवी- स्त्री० । पश्चिमरुचकवरपर्वतवास्तव्यायां दिक्कुमारी महत्तरिकायाम्, स्था०२ डा० १ ३० | जं० श्रा०कन नामयातायां सीधा मि०१०४ वर्ग अ० | श्रा० म० । (साच पार्श्वान्तिके प्रव्रज्य सौधर्मे उपपद्य महाविदेहे सम्स्यतीति रियालिकानां चतुव ऽध्ययने सूचितम् । ) सुरादेवीकूड--सुरादेवीकूट १० शिरवर्ष वरपर्यत पक्षमे कूटे, जं०४वक्ष० । (स्थानाङ्गवृत्ताविदं चतुर्थम् ।) सुरादेव्यावासभूते पर्वते, जं० ४ वृक्ष० । स्था० । सुराधालय सुरास्थालक-न०याः स्थालकं सुरास्थालकम् । कोशलादिके, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० । सुराम-सुराम- अपर ज्योमध्ये लोकान्तिकविमाने, तत्र तुपिता देवाः । स्था० ८ ठा० ३ ३० । सुराभियोग--सुराभियोग - पुं० । कुलदेवतादेः सुरस्याभियोगे, ध० २ अधि० ।
।
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1ctout 2 अभिधानराजेन्द्रः ।
सुरिंद
सुरिंद- सुरेन्द्र पुं० सुद्ध राजन्ते इति सुरास्तेषामिन्द्रः'प्रभुः सुरेन्द्रः सुराणां देवानां वा इन्द्रः सुरेन्द्रः । शक्रे, उपा० २ अ० । ति० | स० । द्वात्रिंशत् सुरेन्द्राः । प्रश्न० ५ संव० द्वार । रिन्ददत्त-सुरेन्द्रदत्त पुं० । इन्द्रपुरनगरराजस्येन्द्रदत्तस्य स्वामात्यसुताकुक्षिसंभूते पुत्रे, आ० म० १ ० | मथुरामाताया निर्वृत्ते स्वयंवरवरके, ती०८ कल्प ।
-
दयायां सुरेन्द्रदत्तचरितनिदर्शनमाह"पांडेय, इंसिजीवदास विचा किंपि जोहरचरियं भणामि संवेगरसभरिये ॥ १ ॥ अस्थिपुरी, जन्थ जो विमखसीलदुलियो । कलिओ विश्वभरें, न कयावि नियइ परदारं ॥ २ ॥ अमरु अमरचंद, सुहास तर असि नरनाहो । वरलावनमणहरा, जसोहरा तस्स पाणपिया ॥ ३ ॥ तागवितोस, सुदिदो सुख सुरिं प परमेस गुतमेई ने वय याचि वारकरो ॥ ४ ॥ निय संगम उज्जीविय, मयणासारयस संकसमवयणा । तरस य नीलुप्पलदल - नयणा नयणावली भज्जा ॥ ५ ॥ अभिरं पुने संकमिष अमरचंद नियो । पडियो कयन्नो, समग्रत्तं असम सुमणतं ॥ ६ ॥ महिर बुज्नकरो, पयडियकमलो यहणियरिउतिमिरो । रियो वि महसुदियं ॥ ७ ॥ अह अदि रम्रो सारवियानामिया दासी ।
"
पलले कडियो समागध धम्म ति ॥ ८ ॥ ततो चिंते निवो, अधिरत्तं श्रहह सब्वभावाणं । ही तुच्छया भवस्स य ह हा चलत्तं तरुण्या ॥ १ ॥ दिवसनिसा घडिमालं, श्राउयसलिलं जणस्स वित्तूं। चंदाच्चबद्दल्ला, कालरहटुं भमाईति ॥ १० ॥ जीवियजलंमि खीणे, सरीरसस्संमि परिसुसंतंमि । को विनस्थिउट, तद्दवि जो पावमायर६ ॥ ११ ॥ तो कि मी रंगभंगुरतराए । निलाइ नरपुरसर सरसीद ॥ १२ ॥ गुदरकुमरं गुण कुलहरं ठाचिकण निरखे। पुण्वपुरिरचिन्नं, सामनं अयुवरामिति ॥ १३ ॥ तो लिट्टो दवा नियमिष्याओ निषेण सा आद खंभे रोय तं कुल-सु नाद न करेमि विग्धमहं ॥ १४ ॥ किंतु अपि गहि सहेच पण्यम उसेगा। चिट्ठा पच्छा जुरहा, फुडमुडवाणो विणा कह णु ॥ १५ ॥ तो चिंता नरनाहो, श्रहो अहो मज्झ उवरि देवीए । अनिविडो पडिबंधो, श्रहो अहो विरद्दभीरुत्तं ॥ १६ ॥ इत्तरं मदिर समय दाहिणकरेण । कालनिवेश नियम १७ ॥ लधुं पसिद्धमुदयं, पयावपसरं कमेण वद्दित्ता | उज्जोविता भुवणं, संप श्रत्थमह दिगनाहो ॥ १८ ॥
सोडवित नदी, दान को नही इतिय दाउ विसी, पददिवलं सहद्द सूरो वि ॥ १६ ॥ संझाकियां तो का उ ठाउ मत्था मंडवंमि खं । नयाली समलं किमि पत्तो रद्दगिहांने ॥ २० ॥ संसारसकनिकष
પૂર્ણ
सुरिन्द
"
सियविमुहरसरनो दूरं श्रसरियनिस्स ॥ २९ ॥ सुनो निवु सि उकड मया नयावली समुह । ग्वा वासहाओ | २२ ॥ नियोकि एसानिया मदभाषियरद्दभीरू नू मरिदिति वारेमि ॥ २३ ॥ तय अपुट्टिमेई, इ जाइ जा नरवई गहियश्रासी । पासागपाल ता-च खुजश्रो ती उट्ठविभो ॥ २४ ॥ अह ते दोवि पमन्ते, करालकरवालघाय पायाले । जा खिबिद्दी कोयवसा, निवई इय चिंतर ताय ॥ २५ ॥ उम्मडरिडर्सडिय-कर डिडकरटदलदुलो वियलिय सीले इमे-सु एस कह वह मह खग्गो ॥ २६ ॥ अव किमिमी चिंता- पत्थुयत्थस्स अणगुरुवाए । इय चलिय विलियचित्तो, सिज्जाठाएं निवो पत्तो ॥ २७ ॥ तिर लणिज्जगओ, अहो महेला अनामिया बाही। विसकदली अभूमा, विसया भोयरोग पिता ॥ २८ ॥ बी अकंपरा तह. अणरिंग चुडली अवेयणा मुच्छा । निवड निवडमलो, अकारणो तह य मच्युति ॥ २४ ॥ इय जा चिंते इमो, ता देवी तत्थ श्रागया सखियं । गंभीरयाइ नहु किं-पि जंपियं नरवरेण तया ॥ ३० ॥ इत्तो समाहयाई प्रभायतू गइ किंकरगणेण । कालमिवेगपुर - गहियसद्देग इय पढियं ॥ ३१ ॥ सावधारयणी, विमुकगुरुतिमिरचिदुपभारा। दाडं जलंजलि पिय, परलो गगयस्स सूरस्स ॥ ३२ ॥ तो काउ गोलकिच्चं अत्थाणसद्दाइ श्रागश्री राया । पण य मंतिसामंतसिसिम्पादयमुदे । ३३ ।। कदिओ नियभिपाओ, निवेण मिलनमामंतीण | भालयलमिलियकरको -रगेहिं तेहिं पि विनचियं ॥ ३४ ॥ देव ! न श्रज वि जायइ, कवयहरो जाब गुणहरो कुमरो । ताव सयं त्रिय सामी, प्याउ पयाउ पालेउ ।। ३५ ।। भराइ नियो मंतिवर, किं श्रम्ह कुले समा गए पलिए । कोवि ठिश्रो गिवासे, भांति ते देव ! नहु एवं ॥ ३६ ॥ इय सह मंतीहि नियो विविद्दालावेहि तं दिशं गमिउं । सुदो वीय विरामसम नियर सुमि ॥ ३७॥ जह सत्तभूमिमंदिर - उचरिं सीहासांमि उबविट्ठो । पडिकूल भासिणी, अंबार पाडिओ हिट्ठा ॥ ३८ ॥ निवडतो पत्तो इं, भूमीश्रां सत्त तह य अंबावि । उडिय कई पि मंदिर- गिरिसिहरं पुरावि श्ररूढो ॥ ३६ ॥ अह गयनिहो राया, चिंता आवायदारुवियागो । परिणामसुहो सुमियो एसो कि भाषि नहु जाये ॥ ४० ॥ अत्रान्तरे पठितं प्राधानिककालनिवेदनपतितोऽपि दैवयोगात् पुनरुत्पातं क्षणेन किल लभते । कन्दुक सहसो न भवति चिरकालविनिपातः अह कयपयभायकिरुवो, ना अत्थामि उवविस राया । बहुपरिपरिपरिया, जसोहराता हाई पत्ता ॥ ४२ ॥ अम्बुट्टिया निषेयं निवेखिया आस अहमहंते । पुच्छर बच्छ ! कुसलं, स भरा बापसारण ॥ ४३ ॥ चितइ य नित्रों मज्झ, वयगहणं कहणु मन्निही अंबा | अधि अधिक दोबा
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(२००२) सुरिन्ददत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सुरिन्ददत्त संचव सुमिणयं तह, कहेमि पडिघायहेउ जह तस्स । तो हाहारव मुहला-इतीह धरिश्रो भुयावंडो ॥६६॥ भन्न मह मुणिवेसं, पव्वाश्रो च्चिय तो अहयं ॥ ४५ ॥ । भणियो य पदविवन्ने, बच्छ ! अहं किं नु जीविहं पच्छा। इय सामस्थिय कहिओ, सुमिणो जणणी! अंब!जह अज।
माइवहो चेव इमो, ता तुमप बसिना इस्थ ॥७॥ गुणहरकुमरस्त अहं , रजं दाऊण पव्वरो ॥ ४६ ॥
इत्तो य कुक्कुडेण, कुइयं सुणिश्रो य तीइतस्सहो। धवलहराउ निबडिओ , इश्व सुणित ती भीयाए। भणियं य वच्छ! निहणसु, एयं जं अस्थि रहकप्पो ॥७॥ थुत्थुक्किय च घाम-कमेण प्रकमियमहिवलयं ॥४७॥
एरिसकज्जे पगए, जस्स सरो सुम्मए तयं हएिउं। यशोधरा प्राह
तप्पडिबिंब अहवा. करिज ससमीहियं पुरिसो ॥७२॥ एयरस विधायकए, दाउ कुमरस्स रज्जामत्तरिय ।
. राजागिरहेर समणलिंग , (राजा) एवं जे आणवा अंबा ॥४॥ हे माय ! कायमणवर, जोगेहि हणे न जावमन्त्रमहं। यशोधरा
यशोधरानिवडणनिमित्तयं पुण , जलथलखेयरजिए बहुं हणिउं ।। जह एवं पिटुमयं, पि कुक्कुडं हणसु ता यच्छ ! ॥७३॥ कुलदवयच्चणणं , करेहि तं संतिकम्मं ति ॥ ४६॥
तो माइनेहमोहिय-मणेण सछन्ननाणनयणेण । राजा
जणणीवयणं रुन्ना, पडिवनं गयविवेपण ॥७॥ जियघाया यण संती, दहा कई अंब! ते समाइट्ठा।
यद्वाजं धम्मेण संती , सो पुण धम्मो दयामूलो ॥५०॥ (१००) बहुयं पिहु बिन्नाणं , नाइसय होइ निययकजंमि । (अभयदानकथनम्-'अभयदाण' शब्दे प्रथमभागे७०६ पृष्ठे सुट्टु विदरालोयं, न पिछए अपये लच्छी ॥७५॥ द्रष्टव्यम्।
नरनाहवयणपरिपे-रिएहि सिप्पीहि झत्ति निम्मविनो। सं अंय ! संनिकम्म, तं चिय सम्वत्थ साहणसमत्थ । पिट्ठमयतंमचुडो, जमोहराए समुवणीयो०६॥ जं प्रदथेवं पि पर-स्स नेव चिंतिउजए पाव ॥ ५७॥ सा वि तो निवसहिया, गंतुं कुलदेवया पुरो भण। यशोधरा
इय कुकुडेण तूसिय, मह सुयकुसुमिणहरा होसु ॥ ७७ ॥ पुत्तय! परिणामवसा, पुत्रं पावं च होइ अहयावि।
अह नीद गेरिएण. निवेण असिणा स कुक्कुडो बहिनो। देहारुग्गनिमितं, पावं पिहु कीरए इत्थ ॥ ५८ ॥
भक्खसु एयं मंसं, ति जपिए तेण पडिभणियं ॥ ७८॥ यत उनम्
घरमंय ! विसं भुत्तं, नउ मंसं नरयदुसहदुहहे । पावं पिहुकायचं, बुद्धिमया कारणं गणतण।
तसजीवयहुप्पन्न, दुग्गंध असुहवीभत्थं ॥ ७ ॥ तह होड किं पिकजं, विसं पिजह पोसह हार ॥५६॥
तत्तो जसोधराए, जसोहराए य पत्थिो बाढं । राजा
पिटुमयतम्बचूड-स्स नरवरो भंजए पंस ॥२०॥ जा वि परिणामयसो , पुग्नं पावं हवेइ जीवाणं ।
अह बीयदिणे कुमरं, रजे मठविय जान पन्चाही। तह वि य जयंति सन्तो, परिणामविसोहिमिच्छता ॥६॥ ता देवीप भणियो, पडिवालसु देव! अज्ज दिणे ॥२॥ जो पुण हिंसाययणे-सु बट्टई तस्स नणु परीणामो।
पब्बाहमहं शि सुए. अणुहविडं अज! पुत्तरजसुई। दुट्ठो न य तं लिंगं, होह विसुद्धस्स जोगस्स ॥ ११ ॥ चिंता निवो इणीप किमिशा पुत्वावरविरुद्धं ॥२॥ किंच
अहवा चयर जियंतं, मयं गि अणुमण्ड कावि भत्तारं । पुनमिणं पापं चिय, सेवतो तं फलं न पावे,
विसहरगई व वंकं. को जाणइ चरियमिन्थीए ॥ ८३॥ हालाहलविसभोई, न जीवई अमयबुद्धी वि ॥ १२॥ ता पिच्छामि किमेसा, करो तो भणइ देवि !य होउ। जय तिहुयण वि पार्य, अन्नं पालाइवायो गरुय।
सा चिनेर जहन रमं, जणुख्याइतो मज्झ॥४॥ जं सव्वे वि य जीवा, सुहेसिणो दुक्खभीरू य ॥ ६३ ॥ होही पर कलंको, कहाव बावाइए पुण निवंमि। देहारुम्गकए बिहु. जीवदया चेव अंष ! कायव्या ।
बालसुयपालणकए, अणणुमरंती बिन दोसो ॥५॥ मारुम्गमाइ सव्वं, जं जीवदयाफलं नूण ॥ ६४ ॥
इय चिंतिय सा रत्री, नहसुत्तीसठिप विसं देह । तथाहि
भुजंतम्म तो सो, जाश्रो विहलं घलो झत्ति ॥८६॥ पारुग्गमुदग्गमप्पडिहयं प्राणेसर फुडं,
नाश्रो विसपोगो, पाहूया विसविधायगा विजा। रूवं अप्पडिरूथमुज्जलतरा कित्ती धणं जुठवणं ।
विजाहरण नहु सु-दरं ति चिंतितु अह देवी ॥ ८ ॥ दीहं आउ प्रबंचलो परियणो पुत्ता सुभत्ता सया,
सोयभरकंता इय, धस त्ति निवडा नरवरस्सुवरि । सं सव्वं सचराचरंमि वि अए नूप दयाए फलं ॥ ६५॥ गलअंगुष्टुपोगे-ण इण निययं पहं पावा ॥८॥ बयणकलहेण इमिणा. अलं मम चिय करसुतं वयणं । अह अट्टज्माणपरो, काया मरिउ सिबंधसेलमि। इय अंपिरा नरवाई. जसोहरा धरह बाहाए ॥ ६६ ॥
जाओ मऊरपोश्रो, गहिरो चयनामयाहेण ॥ ८॥ तत्तोनियो चि चितर, एगत्तो अंबयाधयणलोया।
नंदायाडयगामे, चंडतलारस्स दिन्नो तेग । अन्नत्तो जीयवहो. इत्थ मए किंतु कायव्वं ॥ ६७ ॥ सत्यगपत्थपणं, सो तं सिक्खबह नट्टकलं ॥१॥ महवा वि भातुरतो, गुरुवयगविलोबो षि ययभंगो। बहुविहरयणा मेलय, सछ। बहुपिच्छभाररमणीयो।
प्राण पिहणिय, रखियो पाणिणो हरिह ॥ ६ ॥ सो पाहुडं ति तेणं, पट्टयित्रो गुणहरनिवस्स ॥१॥ प चितिउं मियागा, पकहियं मंडलग्गमइउग्गं ।
इसो जसोहरा वि.मुयमरणुप्पन भटुझायपरा ।
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( १००३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सुरिन्द्रदत
तद्दिवसं चैव मया, धन्नउरे कुक्कुरे जाश्रो ॥ ६२ ॥ प्रिय गुरसेव । कोसल्लियं ति पहिलो, पत्ता ते समगमुवनिवई ॥ ६३ ॥ घर सुपालाएं, समप्पिया निवइणा पहिए ।
अतिथि पाति जसे ॥ २४ कालमे मरि ते दो विहु दुप्पवेसनामबसे । जावा साधन्तु भक्ति मया ॥ ६५ ॥ ते मीणसुंसुमारा, जाया सिप्पा नईइ मज्झमि । परिसियन कमावि साखिया निइया ॥ ६६ ॥ तो उज्जेणिपुरिए, मेसो छग़ले य ते समुप्पन्ना । पारद्धिपसत्तें, गुणहररना कयावि हया ॥ ६७ ॥ सत्येय पुणो जाया, मेसो महिसो व गुदरनिवेश । सोलु हाबिया कहा८ ॥ भवियन्वयावसेणं, पुणवि तत्थेव ते विसालाए । मायंगपाडयंमी, उवचन्ना कुक्कुडीगन्भे ॥ ६६ ॥ सीए कुक्कुडियाए, दुट्ठविरालेख खज्रमाणीए । मीवार अंड, परिगलिये कयपरस्परं ॥ १०० ॥ इत्तोय तेसिमुर, बीए कजश्र परिद्वविधो । तस्सुन्द्दार कमसो, कुक्कुडपोया दुबे जाया ॥ १०१ ॥ सिचंद-दिमा धवलयाई जावाई धूला समुष्भूषा, सुमुदगुंजरागसमा ॥१०२॥ कइयावि कालनामे - तलवरेण इमे निरऊं । उसी ति काउ गुदरनदि ॥१०३॥ भणियं निवेण तलवर, जन्थ अहं जामि तत्थ तुमए वि । ए सह या इमो वि गवाह एवं ति ॥ १०४॥ मसमर्थमि, उरजुनियो पत्तो कुसुमावरमारामे, कुक्कुड गयकालो वि॥१० सत्थ य कयलीहर मज्झ माहवीमंड ठिश्रो राया । कालो असोषविडी इतरछे मुखपरं ॥१०६॥ सोते भावसहियं, ति बंदिश्रो तस्स मुणिवरेणावि । दिन्नो य धम्मलाभो, संपाडियसयल सुहलाभो ॥१०७॥ संबंडु पगइउवसे-तर्कतरुवं पसम्नसहवयं । हिट्ठो भगइ तलारो, भयवं ! को तुज्झ धम्मु त्ति ॥ १०८ ॥ साह मुखी महायस, असे सत्ता रक्खं सययं । कुच्चय धम्म विभागो मो॥१०६॥
तथाहिजीवदय सच्चयणं, परधणपरियजणं सया बंभं । सयमपरिमयाओ, विजयसिस ॥११०॥ बायाली सेस दो-ससुद्धपिंडस्स भोय विहिणा । अप्पविद्धविहारो सारो धम्मो ह ज ॥१९२॥
तलव पुरा, महस्यम्मी कहेसु मे भवयं ! | परपारिको मुवि जंप तो पर्व ॥ ११२ ॥ अरिहं देवो गुरुणो, सुसाहुगो जिणमयं मह प्रमाणं । इय सम्मतपुरस्सर - मिमाइँ बारस वयाइँ इ. ॥११३॥ sofreeराहा. दुहा तिहा तस जिया न तया । कन्ना चिाह मुहं धूलमलीयं न यत्तव्यं ॥१४॥ खत्तखराणाइचोरं, कारकरमदिन्नयं न घेतव्यं । परदारपरीहारी अद्यापि सदारतोसो. ॥११४॥ धधन्नापरम्मद परिमार्कमा काय ।
सुरिन्ददत्त
किच्ची साडी र ई ॥१६॥ मसाईबाबा का विगमुद्दपरिणा। जसो जेडो १११७ सममाया साम खतिं स्यादि काय देसावासिये पु प ०११ देसे सम्य दुद्दा, ससत्ति पोसहवयं वियवं । साहू सुद्धदा, भत्तीए संविभागवयं. ॥९९६॥
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एयं दुवालसविहं गिद्दिधम्मं पाणिणां विद्दियविहिरा । कमसो विसोहियं क मकयवरं जंति परमपयं ॥१२०॥ तं सोड भग कालो भय! एवं करेमि गद्द
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किंतु मागयमे दिये सोम न ह ॥ १२३ ॥ वागर तो साहू, जइ एयं नो चरसि भो भद्द ! | इस कुक्कुड मिहुरां पित्र, तो लहिसि भवे श्रसत्रं ॥ १२२॥ सो ग्राहकहमिमेहि, जीववदं श्रचउं दुह पत्तं " तो मूलाश्र कहिया, मुणिया तेसि भया एवं ॥ १२३ ॥ ४ सुरजी लिहिसाणा, सग्रही मीसुमारा । मेगली मेस महिला कुक्कुजुर्ग जाय ||१२४३ निलय अर्गाणि दंदोलि विसुद्ध संगो पभण्इ भत्तीए दंडपासिश्रो वासिनो हियए ||१२|| भवं निधार इमाउ भवभीमकृवकुदरा fifeधम्मवरताप, निष्पन्नाप गुणगरोहिं ॥ १२६ ॥ तो
साहुणा तलवगे, सावयधम्मस्स भायं विहिश्रो । पञ्च परमिट्टिमनं, निर्भतं तदय सिक्खवित्रों ॥ १२७ ॥ अहि देहि फुडे सुगंहि । पर्ण जाईसाएं, तदेव गिडिम्वरस्य ॥ १५८॥ श्रनिव्यपरेहिं संविग्गमणेहि हरिसविवसेहि । महया महया सद्दे ण कूइयं तं सुयं रन्ना ॥ १२६ ॥ उच्च मह सरवेदिनं जामिय नरवणा इगइ सुखा, ते दोषि दया गया निहं ॥ १३० ॥ गभे जावली, पुत्तत्ताए सुरिंददत्तजिनों । सुपीओ पुल पुतिभावेण ॥ १३४॥
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५
यादेवी सामरिया सदिया।" जिण्पवयण सर्वणमई, संजाया अभय दारु ॥ १३२ ॥ नी से सजीव अभय डोलतीसे । नयर पयडेउ अमा-रि घोसणं पूरिश्रो रना ॥ १३३ ॥ कफमेदेलियन तो कारवियं नयरे, नित्रेण वज्रावणं गरुयं ॥ १३४ ॥ अहं बारसंमि दिवसे, ठवियं कुमरस्त श्रभयरुद्द नाम । कुमरी अभयम, ति दोषि बहुत सु ॥१३२॥ निम्मलकलाकलावा, कमेण जुग्वणमयुत्तरं पत्ता । ता हट्ठमुचिते - राणा चिंतियं एवं ॥ १३६॥ सामेताइसम जुवराज पर उयेमि कुमरमई । कुमरी रूवविजिया-उमरी कारेमि वीवाहं ॥ १३७ ॥ इस चिंतिऊण पत्तो, पारजिकए भिराममारामं fast य सुरविणे - पिच्छ संयलदिसि ॥ १३६॥ ता तत्थ तिलयतरुवर-तलमि कंमगिरिव्यनितों # नानपिनो सुलनामा मुखी दिट्ठो ॥१३॥ हा अति पर्व विजय कृषि भू मुरक
पडला १४०
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सुरिन्ददत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सुरिन्ददर पातिकवदंतदाढा, उग्गाढा हरिणावणजइणगई।
इत्थ नियाणं मिच्छ-तसंगयं पायहेउ अन्नाणं । ललकमाणजीहा, ते पत्ता मुणिसमीचंति ॥१४॥
तं चहा ठियाणं, भावाण, अन्नहा गहणं ॥१६५ ॥ जलिरजलणं व तवसा, दिसं तं ददा निप्पहा जाया। सुमप वि चितियं निव! अवसउणं समणो इमो दिट्ठो। साणा श्रोसहिभरभ-गगउग्गरना.विसहरु ब्व ॥१४२॥ अवसउसत्ते य इम, निमित्तमपझवसियं भद ! ॥ १६६ ॥ कार्ड पयाहिणतियं, प्रणप्पमाहात्रो मुणिवरस्स।
जह किर एसो चिकण, मलमलतणू सिणाणपरिबजी। चरणे पडियं मयित्व-मिलंतमउलि सुणयवंदं १४३॥ सोयायारविमुको , परघरभिश्लोबजीयि ति ॥ १६७ ॥ तं दा विलयचित्तो, चिंतइ राया वरं इमे सुणया। ता मज्झत्थो होउ, खणमेगं मालबेस ! निसुणसु । म उण अहं जो अकुसल-कारी एयस्स वि मुणिस्स ॥१४४॥ | मलमलिणतं मइल-स कारणं नो जो भणियं ॥ १६ ॥ मह निवाइवालमित्तो, सिट्रिसुनो नाममो अरिहमित्तो।। धार। जिणमुभिपवयणभत्तो, मुणिनमणत्थं तहिं पत्तो ॥१४५॥
किंचनाओ य तेण मुणियर, उबसग्गपरो नियस्सऽभिप्यायो।
आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा, भणियं च देव! किमिण, सविसायं प्राहराया वि ॥१४६॥
सत्यावहा शीलतटा दयोमिः। भो मित्त ! अलाहि मम, चरिएणं पुरिससारमेयस्स ।
तत्राभिषेकं कुरु पाण्डपुत्र !, इयरो वि भणमा देव! परिसं वयणमुल्लवसु १४७॥
नवारिणा शुध्यति चान्तरात्मा, सहु भोयरसु तुरंगा, भवयंत बंदिमो सुदत्तमुर्णि । मुवणच्छरिय परियं, इमस्स किं देव !न सुयं ते ॥१४॥
अक्खंडियवयनियमा, गुत्ता गुत्तिदिया जियकसाया। मह संभंतेण निये-ण पभणियं कहसु कद्दसु भो मिस !।
अइ सुद्ध बंभचेरा.सुरणो इसिलो सया नेया ।१७२राघरा सुपुरिस कहावि जापा-व तिमिरहणणिकसूरपहा ॥१४६॥
सत्यं शौचं तपः शौचं , शौचमिन्द्रियनिग्रहः । जर अरिहमित्तो, कलिंगपहुअमरदत्तनरवहणो ।
सर्वभूतदया शौचं, जलशीचं च पश्चमम् ॥ १७६॥ पुत्तो पासि सदतो,राया नापावदायमई ॥१५०॥
आरंभनियंतस्स य, अप्पडिबद्धस्स उभयलोए वि। तस्स य कयावि चोरो, उवगीश्रो तलवरेण भणियं च।
भिक्खोवज्जीविगत्तं , पसंसियं सव्यसत्थेसु ॥ १७७॥ देव ! इमो वदनरं, बाबाइय मुसिय अमुगगिहं ॥ ११ ॥
उक्नं चमणिकणगरयणधणजा-य माइ बहु गिरिदउंच गच्छतो।
अवधूता च पूनां च , मूर्खाद्यैः परिनिन्दिताम् । अम्हेहि अज पत्तो, संपर देयो पमाणं ति ॥ १५२ ॥ चरेम्माधुकरी वृत्ति , सर्वपापप्रणाशिनीम् ॥ १७८ ॥ तो धम्मसस्थपाठी, अवराई कहियं पुच्छिया रना। चरेम्माधुकरी वृत्ति-मपि प्रान्त कुलादपि । एयरस को गु दंडो, तेहि वि एवं समुल्लवियं ॥ १५३ । एकान्तं नैव भुञ्जीत. बृहस्पतिसमादपि ॥ १७६ ॥ करचरणसवणपण , पुवमिमो अरिहए वह नेय । एवं च गुणग्धविय, नियसाणं वि मंगलं समगुरुवं । तं साउ चिता नियो, धिरत्थु एयस्स रजस्स ॥ १५४ ।
मुणहर नरनाह ! कह, अवसउणतेण ने गहियं ॥१०॥ जीवबह-अलियभासण-प्रदिन्नगिरहण-प्रबंभचेरा। पमाइ सुणिय राया, अइहिट्ठो नट्ठदुटुमिच्छत्तो। प्रासबदारा दारा, व कुगइणो जत्थ यट्ठति ॥ १५५ ।। मुणिना पयलग्गो, खमावए निययमवराह ॥ १८१. जे तश्री सुदत्तो, ठविउं श्राणद नामजामेयं ।
भणा मुगी वि नरेसर, इद्दहमित्तेण संभमेण कर्य। पासे सुहम्मगुरुणो, दिक्खं गिरहद इमो साहू॥ १५६ ॥
नणु खमियं चेव मप, खंति थिय जं समणधम्मो ॥१२॥ अह उत्सरियं तुरियं , तुरयाश्रो हरिसिओ महीनाहो।
नत्थिा मुणिवरना-स्स अविसोइय विचितिउं रखा। नमा मुणि तेणवि, दिनो से धम्मलाभुत्ति ॥ १५७ ॥
तायस्स अज्जियाए, गईबिसेसं मुणी पुट्ठो ॥ १८३॥ तं दा साहुरूपं तब्बयणं सवणसुहयरं सुणिउं ।
मुणिणा वि पिटकुक्कुड, वहमूला तेसि सयलवुत्तो। लज्जाभरोणयमुही, अणुतावा चिंता नरिंदो ॥ १५८॥
कहिश्रो जयावलीग-भ संभवावश्चतम ॥ १८४॥ कहकहमि नस्थि सुद्धी,रिसिघायणधवलियस्सह मज्झं।
तो चिंतियं निवहणा, अहह अदो महिलियाण करतं । इमिणा असिणाता लहुलुणामि कमल वनियमउलि ॥१५६॥
ही मोहस्स गुरुतं, भवस्स धि कुछुणीयतं ॥ १५॥ इय झायंतो वुतो, मुणिणा मणनागिणा महाराया।
जा संति निमित्तं पि हु. विहिरो पिट्मयकुक्कुडवहो वि। चिंता अलभिणीए, जं आययही वि पांडसिद्धो ॥१६॥ तायजियाण जाओ, एवंविहदारुणविवागो ॥ १८६॥ प्राइच
हा महयं किह होई, निरत्थयं जेण जियनिया पहिया। भावियजिणययणाणं, ममत्तरहियाण नस्थि उ बिसेसो। रकोहलोहमोहा, ऽभिभूयचित्तेण निच्चं पि ॥ १८७॥ अध्यामि परमि य, तो वजे पीडमुभश्रो वि॥ १६१॥ ता नणं गंतव्वं, सरसरलेणं पहेण नरयंमि । मय अनं पावकल-क पंकपक्खालणक्खमं राय!
नस्थि इत्य उपाश्रो, अहया पुच्छामि भयवंतं । १८८॥ जिणधरपणीयपवयण-वयणाष्ट्राणवारि विणा ॥१६॥ मह मुणिउं निवहिययं, आह मुणी सुणसु नरवर ! उवाये। मह हिययगयाभिष्पा-र्य कहणी रंजिनो भिसं राया। मणबयणतणुविसुद्धा, जिणिंदसद्धम्मपडियत्ती॥ १८ ॥ परिसंसुपुत्रनयणो, नमिउं विन्नवा मुणिपवरं ॥ १६३॥ मित्ती पमोय करुणा, मज्झत्थं सव्वयाधि कायब्वं । प्रयवं! किं प्रच्छिस इमस्स पावस्स घायमालमत्थं। नीरूजियगुग्णाहिय, किलिस्समाणा विणीएसु ॥ १०॥ शशिधार नियामधिन-जण पडियाखासेवा, १६४॥ एव काउं सम्म, परिपालियनिरहयारवयनियमा।।
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(१००५) सुरिन्ददत्त अभिधानराजेन्द्रः।
सुरिन्ददत्त निवियभट्टकम्मा, परमपयं जंति अचिरेण ॥ १६१ ॥
ठाविजहि कंचणपुन्न कलस ॥ २१४॥ महतुट्ठो भणइ नियो,भय ! अहमयि वयस्स किं उचिो । एवं भूमिपहु जम्म महामहु, घागरर गुरू नरवर !, अन्नो को नाम उचिउत्ति ॥ १६२॥
___ कारिय दस दिवसइ नयरि। तो रना नियपुरिसा, बुत्ता भो भो कहेह मंतीणं ।
तउ कुमर मणोहरु नामु, जह देवाणुपिपर्हि, कुमरो रजे भिसित्तब्बो ॥१६॥
जसोहरू संठावर अइहरिसभरि ॥ २१५॥ नय काययो खो, गहेमि दिक्खं सुदत्तगुरुपासे।
सो बट्टतो नवनव, कलाहि नवससहरु व्य परदिवसं । तेहि वि तहेव कहिय, गंतूणं मंतिपमुहाण ॥ १६५॥ जायो य जुम्वणत्थो,जसधवलियसयलदिसिवलो॥२१६॥ ते संभंता सव्वे, अंतेउरित्राउ कुमरकुमरीओ।
अह अस्थि कुसुमनयर,ईसाणो इव तिसत्तिपरिकलियो। सेसो परियणलोश्रो, तत्थ.ऽऽरामे लहुं एत्तो ॥ १६५ ।। ईसाणसेण राया, विजया नामेण से देवी ॥२१७॥ मेइणितलासणथं, विच्छड़ियछत्तचामराडोवं!
सो अभयमई जीवो, सग्गाश्रो चविय तीइ उयामि। कहकहवि निवं नाउं, सगग्गयं ते भणंति इमं ॥ ११६॥
घरधूया संजाया, विणयबई नाम विक्खाया॥२१८॥ गयडादु व्व भुयंगो, वारीढ व्व मत्तमायंगो।
पत्ता य तरुणभावं, सयंवरा पेसिया नरिंदेण । सीहो व्य पंजरो , किं झायसि रजभट्टु ब्व ॥१७॥
बहुभडचडगरसहिया, कुमरस्स जसोहरस्स इमं ॥२१॥ तो रमा सम्पसि, मुणिययणं साहिय निग्यसेसं ।
विणयंधरस्स रनो, य बहुमए नयरबाहिरुज्जाणे । तं सुणिय जाइसरणं, संजायं कुमरकुमरीणं ॥१६॥
श्रावासिया य एसा, विवाहदिवसे य अह पत्ते ॥२२०॥ संघगभाविपहि, भवउब्बिग्गेहि तेहि उल्लविय ।
लच्छिवई पमुहहिं, कुमरो मणिग्यणकणयकलसेहिं । साय ! अलं अम्हाणं, भोगेहिं भोगिभीमेहिं ॥१६॥
मजाविश्रो विलवण, वत्थाहरणहि लकरिश्रो ॥२२॥ गिएिहस्सामो अम्हे, वि तायपापहि सह समणभावं ।
आरोविश्रो गइंदे, वीरजंता य चारुचमरहिं। पडिभणियं नरवडणा, मा पडिबंध कुणह वच्छ!॥२०॥
सिरधरियधवलछत्ता, थुब्वंतो मागहजरेपण ॥ २२२ ॥ तो विजयवम्मनियभा-इरिगज कुमरे उविनु रजभरं ।
सिंधुरखंधगएण, अणुगम्मतो निवाइलो एणं । जिणनाहचेएसु, काउं अट्टाहियामहिमं ॥ २०१॥
पइदिसि वि सहरह तुरि-य घट्टकलिश्रो य जा जा ॥२२३ काययअंतेउरपु-त्तपत्तिसामंतमंतिमाइजुश्री। गिराहा सुदत्तगुरुणो, पासे गुणहरनियो दिक्त्रं । २०२॥
ता फुरियकारवाहिण-नयणेण जसोहरेण कुमरे । कारुबसुपुत्रेयं, विश्नसो कुमर साहुणा सूरी।
कल्लाणसिजिभवणे,कल्लाणगिई मुणी विष्टो ॥ २२४ ॥ मपणापलि पि भयचं!, नित्थारसु भवसमुहाओ ॥ २०३॥
मन्ने परिसरूब, कत्थ वि मे दिट्ठपुश्वयं ति इमो। भणा गुरू करुणायर!, सा संपर कुट्टबाहिबिहुरता ।
ईहापोहगयमणो, समुच्छिो हस्थिबंधमि ॥२२५॥ भच्छिन्नमच्छिया जा-ख परिगया लोयपरिभूया ॥२०॥
धरिश्रा य निवडमाणो, पासट्रियरामभरसिट्रण ।
किं किंति जपमाणा, निवाइणो थिय तर्हि पत्ता ॥२२६॥ परखणफुरंतरह-ज्माणवसा बद्धतइयनरगाऊ।
चंदनजलपडपवण-पयाण पउणीको कुमारवरी। प्रवीहरसंसार, धम्मस्सुचिया न थेवं पि ॥२०५॥ तो गुरुवेरग्मगनो, चरणं पालितु अभयरसाहू।
सुमरियजाई पुट्ठो, रना!किंवच्छ! एयं ति ॥२२७॥ सहप्रभवर्मा समणी, जाया देवा सहस्सारे ॥ २०६ ॥
कुमार:इस्थेष भरहखित्ते, खित्ते इव करिसपाहि कयसोहे।
ताय अगहिर संसा-र विलसियं दारुणं इमं एवं । संकेयनिकेयं बर, सिरोह पुरमत्थि साएयं ॥२०७॥
राजाविणयंधरो धरो इय, सुपाटो सफलश्रो निषो तत्थ ।
को इत्य अयसरी भव-बिलसियचिंताइते बच्छ ! ॥२२॥ लछिमई तस्स पिया, पियामहस्सेव सावित्ती ॥२०॥
कुमार:प्रहसो भयहाजीयो, ततो विऊण तीर उयरंमि । एसा कहा महंती, ता ताय ! कहिं पि एगदेसंमि । मुत्तामणि व्व सुत्ती, पुडसु चित्तो समुप्पनो ॥ २० ॥
उपविसह जेण एवं, कहेमि सयल निययचरियं , ॥२२६॥ पडिपुग्नेसु दिगासु, ससुमिण पिसुणियसुपुत्रपम्भारं।
रम्नावि तहेब कए, कुमरो साहा सुरिंददत्तभषा । सा पसवा मलयमहि, व्य चंदणं नंदणं परमं ॥२१०॥
प्रारम्भ पिट्ठकुक्कुड-बहजणियकिलसभरविरसं ॥२३०॥ माऊण इमं राया, पियवयादासचेवियणाओ।
नियवुत्तंतं जाइ, सुमरणपजंतयं तय सुणिउ । कारहट्टतुट्ठो, नयरे बद्धावणं एवं ॥ २११ ॥
भणड निवाइजणो कह, बिरसा जियवहविगप्पो वि ॥२३॥
तो कयअंजलिबंधो, कुमरो जंपर पसीय मह ताय !। तथाहि
अणुमन्नसु चारितं, तरेमि जेणं भवसमुहं ॥२३२॥ मुचंति झत्ति पुरगुत्तियाई, वाणा महंति पयत्तियाई।
पुत्त! अइनहमोहिय-मई नरिंदो कहिं पिजा कुमरं । निरुवम किजह हट्टसोह,नश्चंति पउर पाउल प्रखोहं ।२१२। न विसज्जा ता इमिणी, महरसरं विन्नवियमेयं ॥२३३॥ भावंतिबहुयजण अक्खवत्त,गायंति कुलबहू कमलनित्त ।
संसागे दुहहेउ, दुक्खफलो दुसह दुक्खरूयो य। तहि पडहिं नगारिय भट्ट बह दीसंति ठाणडाणंमि नह२१३ नेहनियलेहि बद्धा, न चयंति तहावि तं जीवा, ॥२३॥ बझंति हु घरि घरि तोरणाई.
जह न तरह भारुहिउं, पंके खुत्तो करी थलं कह वि सोहिन्जा वररत्थामुहाई।
तद्द नेहपंकखुत्तो, जीयो नारुहद धम्मथलं ॥२३॥ उभिजाजूवह मुसलसहस्स,
छिज्ज सोसं मलणं, बंधं निप्पीलणंच लायमि।
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अभिधानराजेन्द्रः।
मुलभवोहिप जीवा तिला य पिच्छह, पावंति सिणेहपडिबवा ॥२३॥ सुरूव-सुरूप--त्रिकासुविभक्कावयवचारदे, सूत्र०१ ०१ दुझियमज्जाया, धम्मविरुद्धं च कुलविरुद्धं च।
अ०२ उ० । चं० २० । उत्त। शोभनं रूपं येषान्ते सुरूपाः । किमकजं जं जीवा, न कुणति-सिणेहपडिबद्धा ॥२३७॥
अत्यन्तकमनीयरूपेषु, जी०३ प्रति० ४ अधिः। शोभनंथेवोवि जाव नेहो, जीवाणं ताब निखुर्ड कत्तो।
रूपमाकारो यस्य सः । रा०। शोभनमतिशायि रूपमप्रनेहक्खयंमि पावद, पिच्छ पईचोवि निब्बाणं ॥२३॥
स्यकावयवसनिवेशविशेषां यस्य स सुरूपाः। सू० प्र० २० इय सोउ निबो जंपाद, एवमिणं किंतु वच्छ! श्रासन्छ।
पाहु । शोभनाकारे, विपा०२ श्रु०१०ा "एगे सुरुवे" मनो. ईसागरायधूया, एसा कह होहिहि वराई २३६॥
क्षरूपे, स्था०१ठा दाक्षिणात्यानां भूतानामिन्द्रे, प्रज्ञा०१ पद। कुमरा भगाइमा वि हु. साविजा एस वायरो ताय ।
विशिष्टानावयवसनिवेशसौन्दर्य, नपुं०।०७ वियः। सोऊण इमं सम्म, कयावि बुझिज जिणधम्म, ॥२४०॥ जुत्तं इमं ति रन्ना, पुरोहियो संखवद्धणो नाम ।
सुरूवा--सुरूपा-स्त्री० । शोभनरूपायां त्रिपाम् , स. था। पढविभो तत्थे यं, संबंध कहसु कुमरीए, ॥२४१॥
यशोयतस्तृतीयस्य कुलकरस्य परम्याम् , स्था० ७ ठा०३ सो वि हु गंतूण खणे-ण अागो भणइ निवकुमारस्स । उ०। ति।सुरूपप्रतिरूपयोभूतेन्द्रयोरग्रमहिष्याम, धा. सिद्धा मणोरहा किह. निवेण पुट्टो इमो श्राह॥२४२॥ ४ ठा०१ उ भूतानन्दस्य स्वनामख्यातायाममहिष्याम्, देव! इश्रो हं पत्तो, तत्थेवं पभणिया मए कुमारी। भ०१००५ उ०। (पूर्घोत्तरजन्मकथा 'अम्गमहिसी' शब्दे पगमणा होउ नणं, देवाएसं सुणसु भहे ? ॥२४३३ प्रथमभाग१७१ पृष्ठे ।) मध्यमरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमनीरंगीपिहियमुही, कयजली चत्तपासणा सावि । हत्तरिकायाम् , जं०५ वक्षः। द्वी०। स्था० । प्रा०म० । प्राइससु ति भणंति, पयंपिया मे निवपुत्ती ॥२४४॥
सुलद-सुलष्ट-त्रिका सबै प्रकारैः शोभने, उत्तरप्रपा बह तस्स कुमार-स्स, साहुदसणवसेण अजेव । जायं जाईसरणं, संभरियं पुब्बभवनवगं ॥२४॥
मन्दरे, दश०७ श्रा तथाहि
सुलद्ध-सुलब्ध-त्रि० । सुखेन प्राप्ते,"तुझं सुलब्धं खु मणुमासि विसालाइ नियो, सुरिंददत्तो जसोहरापुत्तो। स्सजम्म।" उत्त०११ अ०। बुत्ते इत्तियमित्ते, वि झत्ति मुच्छगया कुमरी ॥२४६॥
सुलद्धिय-सुलब्धिक--त्रि० । अनेकलब्धिसम्पने, व्य०१० खणमित्तेणं संप-सचेयणा जंपिया मया एसा। किमियं ति तीइ वु, जसोहरा भद्द! इंचव ॥२४७॥
सुलभ-सुलभ-त्रि० । सुप्रापे, स्था। ता कुमरेण व सम्ब, कहिऊणं जंपियं रमंतीए ।
छट्ठाणाई सव्वजीवाणं ण सुलभाई भवंति । तं जहावीवाहेण बलं मे, जे रुचा कुणउतं कुमरो॥२४८।।
माणुस्सए भवे पायरिए खित्ते जम्म सुकुले पञ्चायाति केव→ सुणिय आगो इं, एवं कहिए पुरोहिया निवो। संठवा लहुं पुत्तं, मणोरहं नाम नियरज्जे ॥२४॥
लिपनत्तस्स धम्मस्स सवणया सुयस्स वा सहहणया सकुमर जसोहर साम-त मंतिअंतेउरेण परियरिश्रो।
दहियस्स वा पत्तियस्स वा रोइयस्स वा सम्म काएक सिरिइंदभूगणहर-पासे दिक्खं पवज्जे ॥ २५० ॥ फासणया । (सू० ४८५४) अह सो जसोहरमुगी , छज्जीवनिकायपालगुज्जुत्तो।
'छटाणाई' त्यादि , षट् स्थानानि-पद् वस्तूनि सर्वजीदुद्धरतवचरणजलं-च जलणनिद्दहियदुरियतुमो ॥ २५१ ॥
धानां 'नो' नैव सुलभानि-सुग्रापाणि भवन्ति, कृच्छूलगुरुपायपसाय विबु-द्ध सुसिद्धंतसारसम्यस्सो ।
भ्यानीत्यर्थों, न पुनरलभ्यानि, केषाश्चिज्जीवानां तल्लाभोपसव्वस्सोयविमुक्को, उक्कोसचरित्तसुपवित्तो ॥ २५२ ॥ संपत्तायरियपश्रो, पोसरहिओ हिशोवएसेहिं।
लम्भादिति, तद्यथा-मानुष्यको-मनुष्यसम्बन्धी भवा-अम्म नित्थारियभषियजण , उप्पाडियकेवलं नाणं ॥ २५३ ॥
स नो सुलभ इति प्रक्रमः, प्राइच-" ननु पुनरिदमसिदुर्लभदुमूलपगई, उत्तरपगईण अवनसयं ।
मगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतक-तडितास्वविठं निवियदुहो , पत्तो अयरामरं ठाणं ॥ २५४॥
विलसितप्रतिमम् ॥१॥" इति, एवमार्यक्षेत्रे अर्द्धविंशतिविरायवई विहु सव्वं, जणगाईण कहेवि नियचरियं ।
जनपदरूपे जन्म-उत्पत्तिः, इहाप्युक्तम्-'सत्यपि च मासंबुद्धा पठवाया, सुगईए भायणं जाया ॥ २५५ ॥
नुषत्वे, दुर्लभतरमार्यभूमिसम्भवनम् । यस्मिन् धर्माचरणएव दुःपरंपरामसुमतः संकल्पितस्यापि भोः,
वणत्वं प्राप्नुयात्.प्राणी ॥१॥" इति, तथा सुकुले-दबयाकाभारम्भेण यशोधरस्स सततं श्रुत्वा पुराजन्मसु ।
(का)दिके प्रत्यायातिः-जन्मनो सुखभमिति , अत्राभिहितम्। दुःखावंसकरी भवार्णयतरी सद्धर्मबासस्तुरी,
"मायक्षेत्रोत्पत्ती,सत्यम्मपि सत्कुलं नसुलभं स्यात् । सबरनित्यं जीवदयां हताखिलभयां भव्या विधत्ताऽक्षयाम् २५६"
णगुणमणीनां, पात्रं प्राणी भवति यत्र ॥१॥" स्था०६ठा०३उ०॥ ध०र०।
सुलभवोहिय-सुलभबोधिक-त्रि० । सुलभ बोधिर्भवान्तरे सुरिरध--स्रग्ध-पुं०। देशविशेषे.प्रा०२पाद ।
जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभबोधिकः । रा। सुखन जिनसुरूया-मुरूपा-स्त्री०। मध्यमरुचकवास्तव्यायां विकमा- धर्म प्राप्ते , स्था०1 ग०। प्रतिकारा। रीमहतरिकायाम् , श्रा० म०१०।
दुविहा गरइया पसत्ता, तं जहा-सुलमबोहिया चेव .
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सुखभषोहिय
दुल्लभबोहिया चेत्र • जाप घेमाणिया । ( ० ७६ X )
०
स्था० २४० २ उ० ।
( १००७) अभिधानेराजेन्द्रः ।
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खुलमभिक्ख-सुलभ श्रि० सुलमा भिक्षा यंत्र तत् । सुखेन भिक्षालाभस्थाने व्य०४ उ० । सुखलिप-ललित० सरघोलनाप्रकारेण दाति । शुद्धातिशयेन ललतीष यत्सुकुमालं तत् सुललितम् । गेयगुणमेमे, रा० । सुलस- सुलस- पुं० | कालसौकरिकसुते, प्रा० क० ४ ० । प्रा० चू० । श्रात्र० । भोगपुरराजस्य वरुणस्य पुत्रे ध० २ अधि० । (अस्य 'वरुण' शब्दे षष्ठभागे कथा गता । ) कौसुम्मवस्त्रे, दे० मा० ८ वर्ग ३७ गाथा । सुलसद्दह - सुलसद्रह - ५०। जम्बूदीप मन्दरस्य दक्षिणे देवकुरुषु खनामख्याते इदे, स्था० ५ ठा० २ उ० । सुलता मुलसा- श्री सिकरधिकस्य नागस्य भार्यायाम, श्र० ० ४ श्र० । ध्रा० क० । श्रा० म० । कल्प० । ( 'गजसु कुमाल' शब्दे तृतीयभागे ८४३ पृष्ठे कथा ) सुलसाया जीवं वन्दे निर्ममम् प्रय०४ द्वार खुलसा यो - पञ्चदशं । । यशस्तीर्थकरो भविष्यति । स० । भद्दिलपुरवास्तव्यस्य नारास्य हृदयामनीशकुमार मातरि असुलसाधाविका मुलसा राजगृहे प्रसेनजितो राहः संवन्धिनो नागाभिधानस्य रथिकस्य भार्या बभूव । यस्यारिफिल तथा पुत्रायें स्वपतिराम सुबकिय सुवर्तित स्वनभिहितो परिवेति स च यस्तव पुत्रस्तेने प्रिये! प्रयोजनमिति भगिरथानान् तस्याः शु कालये सम्यक्त्वप्रशंसां श्रुत्वा त्वया तत्परीक्षार्थं कोऽपि देवः सा
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"
रुपेशागतस्तं न यन्दित्वा बभारा-किमागमनप्रयोजनम्, देवोऽवदत्-त गृहे लक्षपार्क तैलमस्ति तच मे वैद्येनोपदिष्टमिति सद्दीयतां ददामीत्यभिगता गृहमध्ये अवतारयन्त्याश्च भिनं देवेन तद्भाजनमेवं द्वितीयं तृतीयं चेत्येवमखेदातु देवो द्वात्रिंश च गुटिका दावेकैकां खानेद्वात्रिंशत् ते सुता भविष्यन्ति, प्रयोजनान्तरे चाहं मर्त्तय इत्यभिधाय गतोऽसी चिन्तितं चानया सर्वाभिरपि एक एव मे पुत्रो भूयादिति, सर्वाः पीता आता द्वाशित् पुत्राः वर्तते स्म जठरमरतिश्च ततः कायोत्सर्गमकरोदागतो देवो निवेदितो व्यतिकरो विहितो महोपकारो जातो लक्षणचत्पुत्रगण इत्यादि । स्था०हा०३ उ० । श्रावण ( अ च कथाखण्डं 'सेगिय' शब्दे वक्ष्यते ।) (सा ह्यम्बडपरिमाजी उपलभ्यापि न सम्मोदं गता इति 'ड' शब्थभागे १२२)
सुलसुल|यंत मं ( सपुङ) सोड-सुलसुला यमानमसपुर- त्रि० । सुलसुलभूतं मांसपुढं क्षरति, तं० ।
सुलिट्ठ - सुश्लिष्ट त्रि० । संबद्धे, जं०१ वक्ष० । सुघटने, औ० । सुली - देशी- उल्कायाम्, दे० ना० ८ वर्ग ३६ गाथा | सुलूह जीवि (ग्) - सुरूक्षजीविन् पुं० । सुष्ठु रूक्षमतप्रान्तं जीवितुं प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्पासी
सुरूक्षजीवी । अन्तप्रान्तादिमक्षिणि, सूत्र० १ ० १३ श्र० । सुलोया सुलोचना श्री० सुनयनायाम् मानि हृतस्य गुणचन्द्राभिधानस्य कौटुम्बिकस्य गृहिण्याम्, पि०। वासवमृपतेर्दुहितरि ध० ० १ अधि० ।
। । सुरसुजन० लोकविमानस० १३- सम० । सुवंत - स्वपत् - त्रि० । शयाने, ०२ उ० ।
सुवग्गु सुवलगु- -पुं । मन्दरस्य पश्चिमायां शीतोदाया महानया उत्तरमवनिविजय क्षेत्रयुगले स्वा० ० ३ ० । सुबहगुर्विजयः खपुरी राजधानीमानी अन्तनंदी ज० ४ वक्ष० ।
दो सुवग्नू । स्था० २ ठा० ३४० ।
सुवच्छ-सुवत्स - पुं० । कुण्डलाख्यनगरीयुक्तविजय क्षेत्रयुगले, स्था० २ ठा० ३ उ० | जम्बूमम्दरपूर्यै शीताया महानद्या दचिक्रवर्त्तियुगले स्था० डा० उ० " सुपच्छे विज कुंडला रायहाणी तत्तजला अजई गई। " जं० ४ चक्ष० । सुवच्छा-सुवस्साखी अधोलोकवास्तव्यायां दिक्कुमा। रीमद्दतरिकायाम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० । मन्दरपर्वते नन्दनवनस्य रजतकूटवर्त्तिन्यां देव्याम्, स्था० ६ ठा० ३ उ० । ऊर्ध्वलोकवासियां दिक्कुमारी महत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष० श्राव० । श्रा० म० । श्रा० चू० +
अतिशयेन वर्त्तितं पतिम्। - त्रि० । सुवर्तितम्
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1
सुषराय सुवर्ण-ज० पीतकान्तिमनि रा० कनके, ४०२ । । अधि० उपा० उपो० घटितं हिरण्यम् अघटितं सुव 1 आ० म० १ अ० । कल्प० । श्राय० । सूत्र० । पं० व० । प्रज्ञा० । मानं च कामग्रियणे, जं० 'पडिसेवा' शब्दे एकेन्द्रियविमानसेवा नि० ० १ ० अशीति आप्रमाणे कनके, भ० २०५ उ० । ० । अथ सुवर्णगुणानाह
सिपाइ रसायणमंगलस्थविरार पाहिगावचे । गरुए अच्छे अट्ट सुप गुगा होंति ॥ ३२॥ विषद्यानि-मरलो पहननी च भवति रसायनम लार्थविनीतं कर्मधारयपदं तत्र रसायनं वयस्तम्भनं मङ्गलाप्रयोजनं विनीतमित्र विनीत कटकेयूरावयविशे पैः परिणमनात् तथा प्रदक्षिणावर्तयद्वितापनेन प्रदक्षिणवृत्ति । तथा गुरुकमलघुसारत्वात् श्रदाह्याकुत्स्त्रमिति कर्मधारय तादाम् अहमीयं सारत्याययम् अकुसमीयकृतिगन्धत्वात् म--- निगुणागुणाः साधारणधम भवन्ति स्युरिव गाथार्थ
,
एतत्समानतयाऽथ साधुगुणानाह
इय मोदवि पाय सिवोवएसा रसायनं होति । गुण य मंगलत्थं, कुणति विणीओ य जोगो ति ॥ ३३ ॥ मग्गसारिपयादिण, गंभीरो गरूयश्री तदा दोइ ।
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(१००८) अभिधानराजेन्द्रः।
सुवरणरेहा कोहग्गिणा अडज्झो, अकुच्छो सइ सीलभावेणं ॥३४॥ सुवमकूला सुवर्णकूला-स्त्री०हैरण्यवतवर्षे शिखरिवर्षधरपइति-एवं; सुवर्णवदित्यर्थः , मोहविषं विवेकचैतन्यापहा- । तस्य पुण्डरीके महाहदानिर्गच्छन्त्यां महानद्याम , सुवालरि घातयति-नाशयति केषांचित् साधुरिति प्रक्रमः, कुतः ?, | कूला महानई दाहिणणं णेयव्या जहारोहियंसा" तस्मात् (पु. इत्याह-शिवोपदेशाद्-मोक्षसाधनप्ररूपणात् तथा स एव च राडरीकहदाद् )सुवर्णकूला महानदी दक्षिणन निर्गता नेतव्या रसायनमिव रसायनं भवति-जायते शिवोपदेशादेवाजरा- परिवारादिना च यथा रोहितांशा सा च पश्चिमाया समुद्र मरत्व हेतुत्वात् , तथा गुणतश्च स्वगुणमाहात्म्येन प्रविशति इयं च पूर्वस्यामित्यत आह-"पुरस्थिमे णं गच्छ." च मङ्गलार्थ-मङ्गलप्रयोजन दुरितोपशममित्यर्थः , करो- एवमुक्ताभिलापेन सुवर्णकूलायाः रोहितांशातिदेशन्यायेन । ति-विधत्ते विनीतश्च प्रकृत्यैव भवत्यसौ योग्य इति कृत्वा | जं०४ वक्षः। श्रो० । स्था०रा० स०। दक्षिणोत्तरवा'मग्गणुसारि पयाहिण' त्ति-"सूचनात्सूत्रमि" ति न्यायान् चालयोर्मध्ये वहन्त्यां नद्याम् , श्रा० चू०१०। मार्गानुसारित्वं सर्वत्र यत्साधोस्तत्प्रदक्षिणावतित्वमुच्यते
सुवरमकूलाकूड -सुवर्णकूलाकूट-न० । शिखरिवर्षधरकूटस्य गम्भीरोऽतुच्छचेता गुरुकको-गुरुक इत्यर्थः, तथेति समुच्चये भवति स्यात्तथा क्रोधाग्निना अदाह्यो भवत्यग्निना सुवर्णव
चतुर्थे कूटे, जं०३ वक्षः। (अस्य चक्रव्यता · कूड' शम्दे त्, तथा अकुत्स्यः सकृत्-सदा-शीलभावेन शीललक्षणसौग
तृतीयभागे ६२७ पृष्ठे गता। ) सुवर्णकूलानदीसुरासत्के, भ्यसद्भावनेति गाथाद्वयार्थः । पञ्चा० १४ विव०। अर्धतृती
स्था०२ ठा०३ उ०। यानि धरणानि एकः सुवर्णः संख्याविशेषे , पुं०। ज्यो० २ सुवमखलय-सुवर्णखलक-पुं० विनामख्याते ग्रामे, यत्र वीपाहु । षोडशकर्षमाषका एकः । सुवर्णः । स्था० ८ ठा० ३ रजिनैः सह विहतस्य गोशालकस्य भग्नस्थालीदृष्टवादनियउ०। शोभनो वर्णः सुवर्णः । प्रतप्तचामीकरचारुदहे, सूत्र० २ तिवादे अाग्रहोऽदायि । श्रा० म०१०। भु०१ अ०। सवणे,
त्रिज्योतिके भवनपतिविशेषे,पुणौ। "पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्" सुवर्णकुमाराः। प्रव० १६४
| सुवामगुलिया-सुवर्णगुलिका-स्त्री० । स्वनामख्यातायां रमद्वार । उत्त० । "बावत्तरि सुवन्नाणं" स० । स्था० । प्राचा० ।
ण्याम् ,नि०० १० उ०। प्रति० स०। (सुवर्णगुलिकायाः
हते संग्रामोऽभूदिति चेय' शब्दे तृतीयभागे १२३८ सुपर्ण-पुं० । गरुडे, उत्त०.१४ १०।।
पृष्ठ गतम् ।) सुवमकार-सुवर्णकार-सुवर्णकरणशिल्पनि,जं० ३ वक्षः।
सुवाजुत्ति-सुवर्ण युक्ति-स्त्री० । सुवर्णस्य यथोचितस्थाने सुवामकुमार-सुवर्णकुमार-पुं० । सुपर्णाः सुवर्णाः वा कुमारा विनियोजन, जं० २ वक्षः । इव कुमाराः सुवर्णकुमाराः। भवनवासिदेवभेदेषु,प्रज्ञा०१ पद। सवमजहिया-सुवर्णयथिका-स्त्री० । सुवर्णवर्णपुष्पायां यूम्था०। (कुत्र सुवर्णकुमाराः परिवसन्तीति, 'ठाण' शब्दे थिकायाम् , जे०१ वक्ष० । रा०। प्रज्ञा० । चतर्थभागे १७०५ पृष्ठे उक्तम् ।)
सवपणंदण-सुवर्णनन्दन-पुं० । भारते वर्षे चौलविषये सुवमकुमारा णं भंते ! सचे समाहारा एवं चेव सेवं |
काञ्चनस्थलनगरस्य राजनि, दर्श० ३ तत्व । मो! भंते ! ति । (सू०६१२)
सुवातित्थ-सुवर्णतीर्थ-न० । उज्जयन्तपर्वते स्वर्णया नद्याभ० १७ श० १४ उ० । स० । अनु० । स्था।
स्तीरे म्वनामख्याते जलायतारे, ती० ३ कल्प । सुवासकुमारावास-सुवर्णकुमारावास--पुं० । सुवर्णकुमाराणा
सुवमतेय-सुवर्णतेजस्-पुं० । दृढशक्तिविद्याधरपुत्रे कनमावासे, स०।
कमालाया भ्रातरि, उत्त० अ०। ('णग्गई'शब्दे चतुर्थभागे पावत्तरि सुवमकुमारावाससयसहस्सा पमत्ता । (सू०७२४)| १७६८ पृष्ठे कथोक्ला।)
स०७२ सम । सुवर्णकुमाराणा द्विसप्ततिलक्षाणि भवना- सुधमदार-सुवर्णद्वार-न० । सिद्धायतनानामुत्तरदिशि सुवनि । कथम् !, दांक्षणनिकाये अष्टत्रिंशत् उत्तरनिकाये तु णकुमारावासभूत द्वारे, स्था०४ ठा०२ उ०। चतुनिशदिति।
सुवामपयरग-सुवर्णप्रतरक-न० । सुवर्णपत्रके , जी. ३ सुवपकूलप्पवायदह-सुवर्णकूलप्रपातहूद-पुं०। हैरण्यवतवर्षे |
प्रति० ४ अधि० । “सुवरणपयरमंडियाणि" सुवर्णप्रतरमशिखारवर्षधरपर्वते सुवर्णक्लानदीप्रपतनहदे, स्था० । रिडतानि सुवर्णप्रतरकेण सुवर्णपत्रकेण माण्डतानि सुवर्णएवं हेरनवते वासे दो पवायदहा पसत्ता, तं जहा-बहु
प्रतरमण्डितानि । जी० ३ प्रति ४ अधि० । रा०। समतुल्ला अविसेसमणाणता अमममं नातिवदंति आया- सुवमपाग-सुवर्णपाक-पुं० । कनकसिद्धौ, शा० १ श्रु. मक्खिंभे उम्बेहसंठाणपरिणाहेणं. सुवरणकूलप्पवायदहे १० । ज० व रुप्पकूलप्पवायदहे चेव । (सू०.८८४)
सुवस्मयार-सुवर्णकार-त्रि०। सुवर्णसंप्रथनोपजीविनि, कमा. 'एवमि' त्यादि. सुधमकूलारूप्यकूलाप्रपात हदो रोहितां. रनन्दा सुचणकारः । प्रा० म०१ शारोहित्प्रपात हदसमानवकव्यौ विशेषस्तूह्य इति । स्था० सुवलरेहा-सुवर्णरेखा-स्त्री०। जीर्णदुर्गसमीपे वहन्त्यां नद्याम, २००३ उ०।
। ती०४ कल्प।
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सुगरणबालुवा सुवण्णवालुया सुवर्णवालुका- स्त्री० | दक्षिणोत्तरयोश्चाबालजनपदयोर्मध्ये वहन्त्यां नद्याम् आ० म० १ ० । ती० । सुवरणसिला- मुवर्णशिला स्त्री० | महौषधिभेदे, ती०६ कल्प। सुसुत्र न०, ०२३०। आचा० ।
सुपथ मुम्भरपयवालुया सुवर्णरजतवालुका-बी० । सु वातिदेशेषतं प्रतीतं तन्मयो बालुका यासु ताः सुवर्णशुभ्ररजतवालुकाः । नदीविशेषे, रा० सुवागर सुवर्णाकर पुं० [सुरांनो जी०प्र०१ अधि० २ उ० । यत्र सुवर्ण ध्माप्यते । स्था० ८ ठा० ३ उ० । सुचि सौवकि पु० साउथम् सुय
.
(२००१) अभिधानराजेन्द्रः ।
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क्रयविक्रयकारिणि, प्रा० १ पाद ।
सुरच सुम्पन ०ि फुटे १६०३ वर्ग सुवत्थ- सुवस्त्र -- पुं० । दाक्षिणात्यशक्रेन्द्रे, स्था० २ ठा० ३ उ० । सुत्रप्प-सुपप्र—-पुं०। शीत।हाया महान उतर उत्तरविजय क्षेत्र युग
ले, स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
दो सुवप्पा | स्था० २ ठा० ३ उ० । सुवा सुवर्मन् पुं० [ऋषभदेवस्य त्रयस्त्रिसमे पुत्र,
कल्प०१ अधि० ७ क्षण ।
सुवय सुवचम् - त्रि० । शोभनवचने, सूत्र० २ श्रु० ७ श्र० । सुवरण- सुवचन - न० । श्रोतव्ये वचने, स्था० ३ ठा० १ उ० । सुया-सुव्रताखी० तेनखिपुत्रस्य पोहिलाया द्वारिकायाः
कायाम् ०१० १४० सुवाय सुवात
सुवास सुवासव पुं० वासवकुमारे, उपा
विजयपुरं यरं गंदणवणं उज्जाणं असोगो जक्खो चासवदत्ते राया कण्हा देवी सुवासवे कुमारे भद्दापामोक्खाणं पंचसया देवी •जाव पुव्वभवे कोसंबी रायरी पालो राया बेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिए इह ० जाव सिद्धे । विपा० २ ० ४ अ० । सुविमंजिय-सुव्यर्जित-त्रि०जिनापूर्वक
|
तृतीयदेवलोकविमानभेदे ०५०
सुवियसंस
या व कहिये । ते मतिमंदमंडलसरिस पोलिये लदेसि । लद्धा घरच्छाहणिया अणावि दिट्ठों से रहाऊ पुष्पफलामहाय सुधारक तेरा भ
णियं - 'राया भविस्ससि' इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो पुतो सोय निश्चि श्रच्छति -जाय आसोदियास आगतो, तेण तं दट्ट्ठूणं दिसियं पयक्तीको य ततो दिलतो पट्टे एवं सोराया जातो ताहे सो सु
ति जहा ते विदिट्ठो एरिसो सुवितो । सो य श्रासफलेख किर राया जातो। सो विनेति वच्चामि जस्थ गोरसो संपविता सुयामि जाय पुणो यि तं सुचिर्ण पच्छामि । अवि पुणेो सो पेच्छेजा ए माणुसातो ।” उत्त०३ श्र० सूत्र० ('भाव' शब्दे पञ्चमभागे स्वमस्य भावविषयो गतः । ) स्वमशाखे, गजारो श्रीमतिः श्रीफलागमात्। पुत्रातिः फलिताम्रस्य सौभाग्यं माल्यदर्शनात् ॥१॥ १० अ० । पा० । पञ्चा० ।
सुपित स्वप्नान्त स्वास्थ विभाग अलाने च ।
।
भ० १ ० ८ उ० ।
सुवितिय स्वप्नान्तिक त्रि० । स्वमप्रत्यये शाक्यसमये, सूत्र० १ ० १ ० । (चतुर्विधं कर्म नोपचीयते तत्रान्यतरत्स्यमान्तिकं तच 'सूयगड' शब्दे चक्ष्यते । ) " अवियारमण्ययणकायवक्कम्स सुविणमवि अप्पसओ पावे कम्मे कजर ' सूत्र० २ ० ४ श्र० ।
1
।
सुविदं स्वप्रदर्शन न० स्थापयानुगतापस्वानुभवने ०१०२० लोकदर्शन
स्था० ८ ठा० ३ उ० ।
सुविणय - स्वमक पुं० । स्वनफलप्रतिपादके निमित्तशास्त्रे,
1
स्था० ८ ठा० ३ ३० ।
मुविगलवखपाट-स्वलचणपाठक १० स्वलक्षणप्रतिपादक, कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
सुविणा - स्वमा- स्त्री० | स्वप्नात् पुष्पच्चूलाया इव या स्वप्ने
प्रतिपद्यते या स्वप्ना प्रवज्याभेदे स्था० १० ठा० ३ उ० ।
9
सुविणिच्छिय-- सुविनिश्चित--त्रि० । ज्ञाततत्वं, पं० १०४ द्वार सुविणियप्प - सुविनीतात्मन् त्रि० चिन्ययति, जन्मान्तर कृतविनये निरतिचारधर्माराधके, दश० अ० २३० ।
निरन्तरक
,
त्रि० शिष्येषु सुष्ठु श्री० सुविकम सुविक्रम- पुं० भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य कुछ सुविगीय सुविनीत विनियोजिते | विय शोभनविनययुक्ते, ग०२ अधि० । ( शब्दे रानीकाधिपतौ हस्तिराजे, स्था०५ ठा० १ ३० । मागतः विनीतः । ) सुविण स्वप्न पुं० २०११ २०११ ४० निद्राविकृतविज्ञानप्रतिमासार्थविशेषे स्था० १० ठा० ३ उ० । सुविणीयसंसय-सुविनीतसंशय त्रि० सुतराम् श्रतिशयेन विनीत दूरीकृतः यस्य सः सुविनीत संशयः सम्धरह महामि शब्दे पाने वर्तनम्) ( 'सीश्रोणिज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तः । ) स्वप्नं गजस्पेन सुष्ठु अतिशयेन विनीतः सुविनीतः । प्रसादितगुरुव वृषभ सिंहादिकम् । सूत्र० २ ० २ श्र० । स्वप्नगते शुभाशुभशास्त्रपरमार्थसमर्पणन संशयो दोलायमानमानसात्मकोऽस्ये लक्षणे, न० उत्त० १५०। स्वप्नगते शुभाशुभकथने, यथा-" गाय ति सुविनीत संशयः । अवगतसंशये, उत्त० १० । मे. रोश्नं ब्रूया चर्त्तने बधबन्धनम् । इसने शोचनं ब्रूयात्पटने सुविनीत संसत्क- त्रि० । सुविनीता संसत्-परिषद्स्येति कलहं तथ ॥१॥” इति । उत्त०१४ अ० स्वप्न उदाहरणम्- "सु. सुकिः। विमीतस्य हि वयमतिशयविनीनेय परि दो गतिपति इति ते विनयपरिगेते. उ० प्र०
२५३
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सुविध
सुविधि सुविधि पुं० [समित्रस्य वज्रसंघीयानम्हस्य पितरि आ० क० १ ० ।
सुविभज- सुविभज - श्रि० । श्रकृच्छ्रेण विभजनीये, स्था० ५
(१०१०) अभिधानराजेन्द्र ।
डा० १ उ० ।
सुविभत्त सुविभक्त - त्रि० । यथास्थानस्थित सर्वावयवे, करूप० १ अधि० २ क्षण । सुविविक्ते, औ० रा० । सुप्रकटे, जं० २ बक्ष० । सू० प्र० । सुविच्छित्तिके, जं० १ यक्ष० । सुविभत्तरायमग्गा - सुविभक्तराजमार्गा स्त्री० । सुविभक्लो बि वो राजमार्गों यस्य सा तथा स्फुटराजमार्गसहितायां नगर्याम् रा० ।
•
सुभिषसिंग- सुमितमृङ्ग-० विभागस्थलम "से सुजा सुमितसिंग, जो पासिया बसमं गोमके। "
श्राष० ४ अ० ।
सुविभत्तिय सुविभक्तिक- त्रि०। सुविच्छिसिके, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
सुविभाविप सुविभावितात्मन् त्रि० सुष्ठु विविधभावितो धर्मवासना वाति ग्रात्मा पस्यासी सुविधाथि तात्मा । धार्मिकमनस्के, सूत्र० १ ० १० श्र० । सुविमुक सुविसु रागद्वेषात्मकेन श्रीसम्पर्केण मुझे सूत्र ०१ ० ४ ० २७० । सुपिदिय सुविस्मित त्रि० संजातार्ये उत्त० २०० सुबिर स्वम त्रि० शीलास्रः ८२१४४॥ इति प्राकृत
1
सूत्रेण तु इत्यस्येरादेशः । प्रा० । स्वमशीले, ० १ ३०२ प्रक० सुविरइय- सुविरचित - त्रि० सुनिर्मिते, जं० २ ० । ० ।
-
००जी० उपा० ० "सुविरहयरयता" सुछुविरचितं रजारामाच्छादनविशेष परिभोगावस्थामिला। भ० ११ श० ११३० रा० । सुविवेग-विवेक विवेकः सुवियकः परिक्षाने, सूत्र० १० २ ० २३० । सुविसद- सुविशद- त्रि०/ सुविषिक्ते, कल्प०१ अधि० १ क्षण । सुबिसुद्ध लेस्स - सुविशुद्धलेश्य - त्रि०। सुष्ठु विशेषेण शुद्धा स्त्रीसम्पर्क परिसंहाररूपतया चिगनकला श्यान्तःकर सर्वस्येति परिपातिशालिनि सू० १०४०३० सुविसोज- विशेष्य-वि०सुविशोधनीये पा०१७ सुविहि- सुविधि-पुं० 1 शोभनो विधिः सुविधिः । समनुष्ठाने, प्र० ५ संव० द्वार। प्रा० क० स० । ( 'धवंतरि' शब्दे चतुर्थभागे २६६०- पृष्ठे कथा उक्ला ।) शोभनो विधिः कौशलमस्येति सुविधिः २० भारते स्यामस एय जाते पुष्पदन्तापरनामके नवमे तीर्थकरे, प्र० ७ द्वार। अ०म० | कल्प० । अनु: । (सुविधिः पुष्पकालिका मनोहरदन्तत्वात्पुष्पदन्त इति द्वितीयं नाम सर्वाऽस्य वक्तव्यता तिथवर शब्दे च २२४७ पृष्ठे पता ) सुविहिपुप्फदं तेणं अरहा एगं धणुमयं उकं उच्च नेणं होत्था । स० १०० सम० ।
सुव्वय
सुविहिस्स पुष्कदंतस्स भरहओ पद्मत्तरिजिणसया होत्था । स० ७४ सम० । आ० चू० ।
सुविहिस्स से पुष्पदंतस्स भरओ लसीय गया छलसी गहरा होत्या । स० ८८ सम० । प्रव० | आव० । सव्वविहीन कुसला, गन्भगए तेरा होइ सुविहिजियो । गाह - भगवंते भगर सम्मधी सेव बिसेसो कुसला जति जे ते सुविहित ग्रामं कथं ।
श्राव० २ श्र० ।
सुविद्दिय सुविहित त्रिशोभनं विहितः सुविहितः सुखवस्थिते, पं० ० २ कल्प। सदनुष्ठानोद्यते, ग० २ अधि० । श्रोघ० । साधी, पृ० १ उ० ३ प्रक० । प्रश्न० । दर्श० । श्राष० । प्रतिनि, जी० १ प्रति । तपस्विनि, दश० १ ० । शोभनं विद्दितमाचरितं येषां साधुसाध्वीश्राचिकाणां ते सुविहिताः । संथा० नि० ० । सुबुट्टि - सुदृष्टि स्त्री० [म्पादित ३
I
" भ०
श० ७ उ० । श्रा० म० ।
सुवेकय श्वःकृत खरे पड़े यीः
०२११४॥ एकइत्येतयोरपवति ।
श्वः कृतं । सुखे कथं । प्रातः कृते, प्रा० २ पाद । सुव्व-सु- धा० । प्रसवे, कर्मप्रत्ययान्तः । "न वा कर्मभावे वः क्यस्य च लुक ४२४२॥ कर्मणि भावे या वर्तमानानां सम्पा दीनामन्ते द्विरुक्तवकारो भवति । सुब्बइ। सूयते । प्रा०४ पाद । शुद्र-म० " सर्वत्र सपरामचन्द्र २७॥ इति लुक अब इत्यादिनामुभयमास यथाननं लोपः शुल्यम् । सुब्बं च । ताने, जलसमीपे प्रा० २ पाई । सुब्बय सुव्रत-साधन
नि हिंसाविरमणादीनि यस्य सः । उत्त० अ० निरतिचानियम (०४ डा० ३०) साधी, उ०प्र० आाम्रा० । सूत्र० । प्राय० । शोभनचित्तवृत्तिकरणे, प्र० । प्रश्नः । शोभनाणुव्रतधारके सुभावके, पृ० ३ ३० । प्राय० ।
४ ।
तीर्थकरस्य पद्मप्रभस्य प्रथमशिष्ये, स० शिशुनागस्य सुपरभार्यायां जाते पुत्रे ० ० ० Histo | आष० । अङ्गारकाचष्टाशीतिप्रहेषु एकाशीतितमे प्रहे चं० प्र० २० पाहु० | करूप० । स्था० । पार्श्वनाथस्य प्रथमधावके, कल्प० १ अधि० ७ क्षण । लोकोत्तर परिभाषया दिवसमे पनि दिवसे वीरस्वामिनः नियम केवल 'च जातम्, कल्प०१ अधि० ५ क्षण । ऐरयते वर्षे भविष्यति स तदशे तीर्थकरे, प्र० ७ द्वार। शोभनं जनमस्य, सुमती वा मातापितरावस्येति सुव्रतः। साम सम्पेसिविसेसो गम्भगता माता पिता य सुब्बता जाता । सामं सब्वेसिं प सहानामिता । भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते विशे तीर्थ . करे, आ० खू० २ श्र० । " जगन्मित्रं यत्र मिश्रः, सुमित्रान्वयपहजे अश्वोधन ती०१० कल्प | प्रथ० कल्प०। मुनिसुव्रतेति विशिष्टं नामास्य । मुखिष्य से भरा बीसर उ उसने होरा।
37
स०२० सम० ।
"
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सुव्वय अभिधानराजेन्द्रः।
सुमंगलप्प मुणिसुब्बो पि चउपनवासलक्खहि सुब्बयनामातोणमी | सुसंवड-ससंवृत-त्रि० । सुसंवृतः परिगतः तथा सुष्टु संलक्खेहि छहि उपपन्नो । प्रा० चू०१०।
वृतं परिहितं येन सः । झा०१७०१० परिहितदृष्यरत्ने, मुणिमुक्यस्स णं अरहओ पंचास अजियासाहस्सिो कल्प०१ अधि० ३ क्षण । सूत्र० । सुष्ठु संवृतः इन्द्रियसंवहोत्था । स०४६ सम०
रणन यः सः सुसंवृतः । जितेन्द्रिये, उत्त०२ १०। सूत्र। लोभशब्दे उदाहते स्वनामख्याते साधी, पिं०। “वंदामि सन्निरुद्धात्मनि, उत्त०२ श्र० । अजधम्मं, सुब्वयं सीललद्धिसंपन्नं । जस्स निक्ख मणे देवो, सुसंवुय--सुसंवृत--त्रि० । सुष्ठु संवृतं परिहितं येन सः छत्तं वरमुत्तमं वहई ॥१॥" गोत्रविशेषप्रवर्त्तके ऋषी, कल्प० सुसंवृतः । सुपरिधाने , औ०।। २ अधि० ८ क्षण । शोभननियमे, नपुंग प्रश्न०२ संव० द्वार ।
सुसंहय-सुसंहत-त्रि० । सुष्टु अविरले, औ०। एकाशीतितमे महाग्रह, स्था० ।
सुसज्ज-सुसज-त्रि० । सुष्ठ अतिशयेन सजः । स्वसामग्रीदो सुव्वया । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
युक्ततया प्रगुणीभूतेषु, श्रा० म०१० । “सुसज्जवम्मियसुब्बया-सुव्रता-स्त्री० । धर्मनाथस्य पञ्चदशतीर्थकरस्य मा
सरणद्धबद्धकवाय" सुसज्जाः वर्मणि नियुक्ताः बार्मिकास्तैः तरि, प्रव०११ द्वार । तत्र वेश्याकुकुलप्रदीपः पश्वदशतीर्थप
सन्नद्धः कृतसन्नाहः सुसजवार्मिकसमशः बद्धः कवचिका तिर्विजयविमानदेवतीर्थश्रीभानुनरेन्द्र वेश्मनि सुव्रतादेवीकु- सन्नाहविशेषो यस्य सः तथोक्तः । भ०७ श०१० उ० पी०। क्षौ तनयतयाऽवततार । ती० १८ कल्प । स०। अरि
सुसढ-सुसढ--खनामख्याते अनगारे, महा। नेमेस्तीर्थकरस्य प्रथमश्राविकायाम् , कल्प० १ अधि० ७
जहा भयवं ! को उण सुसदो कयरा वा सा जयक्षण । बहुपुत्रिकापूर्वभवजीवभद्रासार्थवाहीप्रवाजिकायाम् , नि०१ श्रु० ३ वर्ग ४ अ०।
णा जमजाणमाणस्स ग तस्स पालोइयनिंदियगरहिमो सुष्वयायरिय-मुव्रताचार्य-पुं० मुनिसुव्रतस्वामिनः स्वनाम
विकयपायच्छित्तस्स वि संसारंणय विणिट्ठियं ति । गोयमा! ख्याते शिष्ये, "अज्जमहत्थरिणो पम्नविसु जहापुव्वं उज्जे
जयणा णाम अट्ठारसएहं सीलंगसहस्साणं सत्तरसविहणीए पुरीए उज्जाणे सिरिमुणिसुव्ययसामिसीसो सुव्यया
स्स णं संजमस्स चोद्दसएहं भूयगामाणं तेरसएहं किरियायरिओ समोसढो।" ती०२० कल्प।
ठाणाणं सबज्झन्भंतरस्स णं दुबालसविहस्स णं तवोणुमुम्ववहारकुसल-सुव्यवहारकुशल-त्रि० । सुष्ठतिशयेन व्य
हाणस्स दुवालसस्स णं भिक्खुपडिमाणं दसविहस्स णं समपहारः सुव्यवहारः। स पञ्चविधस्तत्र कुशलो निपुणः । णधम्मस्स णवण्हं चेव बंभगुत्तीण अट्ठएहं तु पवयणमाईणं व्यवहारनिपुणे, ग० १ अधिः।
सत्तएहं चेव पाणपिंडेसणाणं छएहं तु जीवनिकायाणं सुसंगुत्थ-मुसमानत्थ-पि. देवगुरुप्रसङ्गसम्भवे,अष्टमा
पंचएहं तु महव्वयाणं तिएहं तु चेव गुत्तीणं जाव ण मुसंगोविय-सुसङ्गोप्य-पि० । सुगोपनीये, तं।
तिएहं चेव सम्मइसणनाणचरित्ताणं भिक्खू कंतारदुम्भिमुसंजमियमण-सुसंयमितमनस्-पि० । संवृते चेतनाहेती, |
खायंकाईसु णं महं समुप्पोमु अंतोमुहुत्ताबसेसप्रम ३ संवाद्वार। सुसंजय-सुसंयत-त्रि० । सुष्ट संयतः सुसंयतः। र्मयत् सं
ठगयपाणेसु विणं मणसा वि उ खंडणं विराहणं ण करेयतगात्रे, निरर्थककायक्रियारहिते, सूत्र. १ श्रु०१६ अ०।
आण कारवेजाण समणुजाणिजा जावणं नारभिजाण सुसंधि-मुसंधि-पुं० । सुष्टु सम्धामे,जी० ३ प्रति०४ अधि।
समारभिआ जायज्जीवाए ति,से णं जयणाए धुवे से णं जसुसंधिय-सुसंधित-नि० । सुबजे, सूत्र०२ २०१०।
यणाए पवक्खे से णं जयणाए बियाणेति । गोयमा ! सुसंपग्गहिय-सुसंप्रगृहीत-त्रि० । सुष्मृतिशयेन सम्यङ्मगा
सुसढस्स उण महती संका परमविम्हियजयणी य चूलिगप्यचलमेन परिगृहीते, जी०३ प्रति०४ अधि० । रा०।।
या पढमा एगंतनिजरा । मे भय ! केणं अद्वेणं एवं मुसंपिण-सुसंपिनडु-त्रि०ा भतिशयेन बखे,"संपिणखा- बुच्चइ १, तेणं कालेणं तेणं समएणं सुसढनामधेजा रगमंडलधूसगस्स" सुप्कृतिशयेन सम्यक पिम पखमरकम
भणगारे इह भगवंतेणं व एगग्गसणं पक्खस्स तो पभूयट्ठाएडलं धूश्च यस्य स सुसपिनद्वारकमण्डलस्तस्य । रा०।
णीश्रो पालोयणाओ वि दिनाओ मुमहिंताईच प्रचंतसुसंभंत-सुसंम्रान्त-त्रि० । अस्यन्तं व्याकुलमा प्राप्त, उत्त. घोरसुदुक्कराई पायच्छित्ताई समणुचिमाइं सहावि तेणं च२०१०॥
रएणं विसोहिपयं न समणुवलद्धं ति एतेणं अडेणं एवं सुसंभिय-सुसंभृत-त्रि० । सुष्टु अतिशयेन संभृतः-संस्क
खुच्चइ | महा० १ चू० । तः सुसंभृतः । सम्यक संस्कृते सजीकृते, उत्त०१४ मा ।
सुसरणप्प-मुसंज्ञाप्य-त्रिका सुखेन संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते यो. सुसंलिट्ठ-सुसंश्लिष्ट-त्रि० । साते, जी०३ प्रति०४ अधिक।
ध्यन्त इति सुसंत्राप्याः। सुनेन प्रज्ञापनीयेषु, स्था० ३ ठा०४ मसंविद्ध-सुसंविद्ध-त्रि० । रुतसोधे, औ० । “सुसंविद्धच- | उ०।०। कमंतधुराणं" सुष्छु संविशेषके यत्र मण्डलावृत्ताच धर्यत्र तश्रा मुसएणप्पा पराणत्ता, तं जहा-अढे। अमरे, सेवा, सुसंविनचक्रमएडलधुराणाम् , भ०७०६०। अग्गाहिए । (सू०८)
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सुसरणप्प अभिधानराजेन्द्रः।
सुसमसुसमा प्रयः सुसंज्ञाप्याः सुखप्रज्ञापनीयाः प्राप्तास्तद्यथा-प्रदुष्टः । ति व्युत्पत्तेः । एतैर्लक्षणैः कालिकश्रुतं देयम् । वृ० ४ अमूद अब्युमाहितश्चेति । पाह-पूर्वसूत्रेणवार्थापत्या - उ०। स्था०। बमवसीयते यदेतद्विपरीता अदुष्ठादयः सुसंशाप्यास्तत् सुसह-सशब्द-पुं० । शोभने माङ्गलिके वा शम्ने, भाचा०२ किमर्थमिदमारब्धम् ।
धु०१ चू०४ अ०२ उ०। उच्यते--
सुसमत्थ-सुसमर्थ-त्रि० । सुष्टु समथे, 'सुसमत्था व समकामं विपक्खसिद्धी, अस्थावत्तीइ होहि बुत्ता वि।। स्था कीरति अप्पसत्तिया पुरिसा।" सूत्र०१ ० ४ . तहवि विवक्खो वुच्चति,कालियसुयधम्मता एसा।३५०।। १०। कामम्-अनुमतमिदं विपक्षस्य प्रतिपक्षार्थस्य सिद्धिरनुक्ता- सुसमण-सुसमन-पुं० । युगलिकमनुष्यजातिभेदे , जं. २ प्यापस्या भवति, तथापि विपक्षो मोक्षादुच्यते। कुत, वक्षः। पत्याह-कालिकक्षुतस्य धर्मता स्वभावः शैली एषा, यदर्था
सुसमसमा-सुषमदुःषमा-स्त्री० । दुष्टाः समा अस्यामिपत्तिलयोऽप्यर्थः साक्षादभिधीयते।
ति दुःषमा,सुषमा चासो दुःषमा च सुषमदुःषमा। सुषमातथा च सहसणान्येव दर्शयति--
नुभावयहुलमरूपदुःषमानुभावे अवसर्पिण्यास्तृतीय उत्सववहारत्थावत्ती, भणप्पिए ण य चउत्थभासाए ।
पिण्याश्च चतुर्थेऽरके, जं०२ वक्षः। ('दो सागरोवमको
डाकोडीश्रो सुसमदूसमा' सा 'श्रोसप्पिणी' शब्दे तृतीयभागे मृतमय भगमियत्तेण य-कालेण य कालियं नेय।३५१।
१०१ पृष्ठे व्याख्याता।) 'वहारे' ति नैगमसंग्रहव्यवहाराख्यास्त्रयो व्यवहारनया
सुसमपलिभाग-सुषमप्रतिभाग-पुं०। सुषमायाः-सुषमसुषउच्यन्ते-जुसूत्राचास्तु चत्वारो निश्चयनयाः,तत्र व्यवहारेण-व्यवहारनयमतेन कालिकQते प्रायः सूत्रार्थनिबन्धो
मायाः प्रतिभागः सादृश्यं यत्र काले स तथा । देवकुरूभवति, 'अहिगारो तीहि उस्सन्नति वचनात् 'अत्थावत्ति'
त्तरकुरुषु सुषमसुषमासदृश काले, भ०२४ श० ३ उ० । त्ति अर्थापत्तिः कालिकश्रुतेन व्यवहियते, किंतु-तया लब्धो- सुसमसुसम(मा)य-सुषमसुषम(मा)ज-पुं० । सुषमसुषमा उज्यर्थः प्रपश्चितक्षविनेयजनानुग्रहाय साक्षादेवाभिधीयते। जात इति "सप्तमीपञ्चम्यन्ते जनेर्डः" ( का०० ६६१) इति अथोत्तराध्ययनेषु प्रथमाध्यपने 'प्राणानिहेसकरे' इत्यादि प्रत्यये सुषमसुषमजः। प्रथमारकजे मनुष्य , अनु०। ना विनीतस्वरूपमभिधायापत्तिलम्धमप्यविनीतस्वरूपम् । 'भाणा अनिदेसकरे' इत्यादिना भूयः साक्षादभिहितमिति सुसमसुसमा-सुषमसुषमा-स्त्री०। सुष्टु शोभनाः समा वर्षाणि 'अणप्पिएण' त्ति-अनर्पितं विषयविभागस्यानपणं तेन का- यस्यां सा सुषमा 'निर्दुःसुवेः समसूतेः' (श्रीसि.२-३-५६), लिकश्रुतं चरितं विशेषाभिधानरहितमित्यर्थः , यथा--' इति षत्वम् । सुषमा चासौ सुषमा च सुषमसुषमा । द्वयोः सभिक्खू हत्थकम्मं करेह से पावज्जद मासियं अणुग्धाश्यं सनार्थयोः प्रकष्टार्थवाचकत्वादत्यन्तसुखस्वरूप, जं०२ वक्ष। तत्र च यस्मिन् अक्सरे यथा हस्तकाऽऽसेवमानस्य मास- अपसपिण्याः प्रथमारके, उत्सपिण्याश्च षष्ठे अरके, ज्यो०२ मुरुकं भवति स विशेषसूत्रे साक्षानोक्नः परमादवगन्तव्यः, |
पाहु । स्था० । । ति०। प्रा० चू। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् । 'चउत्थभासाए ' ति इह सत्यामृषामिश्रासल्यामृषाभेदाश्चतस्रो भाषाः । तत्र कारणेन सह एगा सुसमसुसमा (सू०५०x) स्था०१ ठा० । विप्रतिपत्ती सत्यां वस्तुनः साधकत्वेन बाधकत्वेन वा प्रमा- चत्तारि कोडाकोडोि कालो सुसमसुसमा । ( सू० ) लान्तरेरघाधिता या भाषा भाज्यते सा सत्या, सैव प्रमाणे
भ० ६ श० ७ उ०। धिता मृषा, सैव बाध्यमानानाबाध्यमानरूपा मिश्रा तु बतुसाधकरवायविवक्षया व्यवहारपतिता स्वरूपमात्राभि- परमाणू दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ वावहारिए धित्सया प्रोच्या, सा पूर्वोक्तभाषात्रयविलक्षणा असत्यमृषा
अ । अणताणं सुहुमपरमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइसमानाम चतुर्थी भाषां भएयते । सा चामन्त्रणाज्ञापनीप्रभृति
गमेणं वावहारिए परमाणू णिप्फज्जइ,तत्थ णो सत्थं कमस्वरूपतया कालिकश्रुतनिबद्धा यथा “गोयमा!" इत्यामपत्रणा"सबे जीवा न हन्तब्वा" इत्याशापनी इत्यादि । राष्टि
इ। 'सत्थेणं सुतिक्खेणं वि,छर्नु भित्तुं च जं.किर ण सका। बादस्तु नैगमादिनयमतप्रतियोति पुनयुक्तिभिर्वस्तुतत्वव्य
नं परमाणु सिद्धा,वयंति आई पमाणाणं ॥१॥' वाववस्थापकतया सत्यभाषानिबद्ध इति भावः । तथा मूढा- हारिअपरमाणूणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सविभागेनाव्यवस्थापिता नया यस्मिन् तत् मूढनयं , एहसएिहबाइ वा सएिहसबिहाइवा उद्धरेणू इ वा तसभावप्रधानश्चायं निर्देशस्ततो मूढनयत्वेन कालिकं विज्ञेयम् ,
रेणू इ वा रहरेणू इ वा वालग्गे इ वा लिक्खा इ वा जूश्रा इ तथा गमा भङ्गा गणितादयः सदृशाठा वा सैर्युनं गमिकं तद्वि परीतमगमिकं तेनागमिकत्वेन कालिकश्रुतज्ञायी 'गमियं दि
वा जवमझे इ वा उस्सेहंगुले इवा,अट्ठ उस्सएहसगिहट्टिवाओ अगमियं कालिय' इति वचनात् कालेन हेतुभूतेन यात्रा एगा सएहसाएहा, अह
याओा एगा साहसएिहया , अट्ट सएहसरियामो निवृत्तं कालिकं काल-प्रथमचरमपौरुषी लक्षणे पठ्यते इ-! सा उद्धरेणु अट्ठ उद्धरेगो सा एगा तसरेरण. अद्ध
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(२०११) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
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सुसम सुसमा धारामासोऽपि सति न च भिद्येतस्यर्थः यद्यनन्तेः परमाणुभिर्निष्यन्नाः कादयः शखकाष्ठादयः च्छेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तस्यानन्तभेदत्वात्तावत्प्रमारोग निष्पन्नोऽद्यापि मान्छेदादिविषयतामा सादयतीति भावः एतेनाग्निदाह्यता जलाई गति श्रीतोविहन्यमानना जलकोथादिकं सर्वमपि निरस्तं म
सर्वेषामपि तेषां त्वाविशेषात् । श्रत्रार्थे प्रमा
माद-शस्त्रेणापि सादिना द्विधा क कुं मेनुम अनेकथा विदारवितुं सूच्यादिना यखादिद्वा सच्छिद्रं कर्नु वा -- विकल्पे, यं-पुङ्गलादिविशेषं किलेति निश्चये न शक्ताः केऽपि पुरुषा इति शेषः, तं व्यावहारिकपरमाणु सिद्धा इय सिदा भगवन्तोऽर्ड - त्पन्न कवलशाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वचनयोगासम्भवादिति आदि-प्रथमं प्रमाणानां वक्ष्यमाणोच्सयादीनामिति पतेन अडान प्रति मभिहितं, तर्कानुसारिणः प्रति प्रयोगः-- अणुपरिमाणं क चिद्विश्रान्तं तरतमशब्दवाच्यत्वात् महत्परिमाणवत्, यत्र
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निवास परमाणु विपणे वस्तुनः स्थूलताऽपि - सिध्यन् परमनिकृष्टो निरंश एव सिध्यत् अन्यथा ऽनवस्थापपद्यते, न च द्वयणुकादि नार्थान्तरमिति वाच्यं सच सर्पसुमेर्वोस्तुल्यपरिमाणापत्तिश्च ततः सिद्धः परमाणुः । ननु सिध्यतु सः सूक्ष्मत्वाच्च न चक्षुरादिगम्यः परं यदनमः परमाणुमिरेको व्यावहारिकः परमासुरारभ्य तेस तुगद्यगोचरः शस्त्रच्छेदाच गोचरचेति तन्मन्दम्, उविविधो हि पुलपरिणाम सूक्ष्म याद त सूक्ष्मपरिणामपरिगतानां पुलानामनित्यमगुरुलघुपर्यायस्वं प्रच्छेद्यविषयत्वमित्यादयो धर्मा भवतितेनाप्यनुपपत्ति धूपते चागमे पुलानामेवं सूक्ष्मत्वासूक्ष्मत्वपरिणामो यथा द्विप्रदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नभः प्रदेशे माति स एव च द्वयोरपि मातीति संकोचविकाशकृतो भेदः दृश्यते च लोकेऽपि पिचितरुतपुलो परिमाण इत्यविस्तरवेति । अथ प्रमाणान्तरलक्षणार्थमाह- अनन्तानां व्यावहारिक परमान समुदयसमिति समागमेन या परिमाणमात्रति गम्यते सैका प्रतिशयेन श्लक्ष्णा लक्ष्णलक्ष्णा सैव लक्षणलक्षिणका उउत्-प्रायेन उ दक्षिणका इतिरुपदर्शने, वा उत्तरापेक्षया समुच्चये, एवं
"
परमाणुर्द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - सूक्ष्मश्च व्यावहारिकश्च । शस्त्रात्रिषयत्वादिको धर्म उभयोरपीति समानतातनार्थे प्रत्येकं चकारः, तत्र सूक्ष्मस्य " कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्ग ॥ १॥" इत्यादिलक्षणलक्षितस्यात्यम्य परमनिकृष्टतालक्षणं स्वरूपमतिरिच्यापरं वैशेषिकं रूपं न प्रतिपादनीयमस्तीति तं संस्थाप्यापरं स्वरूपतो निरूपयतिअनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुरूपपुद्गलानां सम्बन्धिनो ये समुदयाः त्रिचतुरादिमेलकास्तेषां याः समिती-बहूनि मीमानिस समायमेन संयोगनेकी मायेनेति बहारिका परमारेको निष्पद्यते भवति-निश्यनयो हि निर्विभागं सूक्ष्मं पुद्गलं परमाणुमिच्छति, यस्तै कम्मेपन
दिएकेति वा इत्यादिष्वपि वाच्यम् । एते च - कादयोऽङ्गुलान्ताः प्रमाणभेदा यथोत्तरमष्टगुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाणुकत्वं न व्यभिचरन्त्यतः निविशेषितमयुक्रम् सहसा येत्यादि प्राशनप्रमासापेक्षयाऽष्टगुणत्वेन स्थौल्या दूर्ध्वरेण्यपेक्षया त्वष्टभागमागत्यात्मकेम्युरुते स्वतः परतो वा ऊ
व्यवहारनयस्तु तदनेकसङ्घातनिष्पन्नोऽपि यः शस्त्रच्छे-धस्तिर्यकूचलनधम्र्मो जालप्रविष्टसूर्यप्रभाभिव्यङ्गयो रेणुरूदाग्निदाहादिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थूलभावप्रतिपतेः परमपविनोसोनिय तः स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिकः परमाणुरुक्तः । अयं च स्कन्धत्वात् काष्ठवत् छेदादिविषयो भवतीति वादिन प्रत्याह-तत्र शस्त्र न कामांत न पञ्चर
ध्वंग्णुः प्रस्थति- पौरस्त्यादिवायुप्रेरितों गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः रथगमनात् रेणुः स्थगेणुः वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः, देवकुरूत्तरकुरुहरिवर्षरस्य कादिनिवासि मानवानं केशस्थूलतामेव क्षेत्र शुभाभावानिर्मायीया प्रायविदेहावरेदाश्रयमनुष्याणामपालामाथि काल
२५४
सुसम सुसमा
तसरे सा एगारहरेणू भट्ट रहरे से एंगे देवकुति रूत्तरकुराखं मनुस्साखं पालग्गे अट्ठ देवकुरूत्तरकुराणं मस्सा वालग्गा से एगे हरिवासरम्पयवासाय मणुस्साणं वालग्गे एवं हेमवयहरण्यवयाणं मणुस्सायं पुव्वविदेवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ट लिक्खाओ सा एगा जुम्रो भट्ट जुम्राओ से एमेव जनमज्झे अ जनमज्झा से एगे अंगुले एते अंगुल - प्यमाणंच अंगुलाई पाओ वारस अंगुलाई विदत्थी arati अंगुलाई रयणी अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी
उअंगुलाई से एगे अक्खे इ वा दंडे इ वा धरणू इ वा जुगे वा मुसले इ वा खालिया इ वा । एतेणं धणुप्पमाणेयां दो धणुसहस्साई गाउ चचारि गाउभाई जो अगं, एएवं जोअप्पमाणेणं जे पल्ले जोश्रणं श्रायामविक्खंभेण नोयणं उडुं उच्चत्ते, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खवेणं, से गं पले गादिश्रवेहिपथि उकासेयं सचर परूडाणं संमट्टे सष्ठिचिए भरिए वालग्गकोडीणं । ते गं वालग्गा णो | कुत्थेज्जा यो परिविसेखा, यो अग्गी दहेजा, सो पाए हरेजा, यो पूत्ताए हव्वमागच्छेज्जा । तो गं वाससए वासए एममेगं वालग्गं अपहाव जाप काले पल्ले खी खीरए खिल्लेवे गिट्टिए भवइ से तं पलिश्रोत्रमे । "एएसिं पल्लागं, कोडाकोडी हवेज दसगुणिश्रा । तं सागशेवमस्स उ, एगस्स भये परीमागं ॥ १॥" एएवं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओो कालो सुसममुसमा १ ॥ (०१६+ )
से
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सुममसभा
क्षा, ता अष्ट थूका, अष्टौ यू का एकं यवमध्यम् अष्टौ यवमयानि एकमङ्गुलम्, एतेनाङ्गुलप्रमाणेनति न तु न्यूनाधिकत या षडङ्गलानि पादः पादस्य मध्यनलप्रदेशः पादैकदेशस्वात् पादः, अथवा पाशे हस्तचतुर्थीश, द्वादशाङ्गुलानि वितस्तिः सुखावबोधार्थमेवमुपन्य सः, साघवार्थे तु द्वौ पादौ वितस्तिरिति पर्यवसिताऽर्थः अन्यथा पादसंज्ञाया नैरर्थ क्यापत्तिः, एवमग्रेऽपि चतुर्विंशनिरङ्गुलानि रनिरिति सा मयिकी परिभाषा नामकोशादी तुरिनि रिति चत्वारिंशदि
"
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ऽक्ष इति वा शकटावयवविशेषः दण्ड इति वा धनुरिति वायुगमिति वा वोदृस्कन्धकाष्ठं मुसलमिति वा नालिका इविष्टिविशेषः अत्र व धनुषोपयोगः संज्ञान्नराखि
9
"
सो लिखितानि धन्यषयोगीनीति एतेन धनु:प्रमाणेन धनुःसहस्रे चार तानियोजनम् । एतेन योजनप्रमाणेन यः पल्यो - धान्याश्रयविशेषः स इव समयात्मा इति योजनायामदि माभ्यां समत्वात् प्रत्येकमुत्सेधाङ्गलनिष्पत्र योजनं योजनमूर्ध्वोच्चत्वेन तद्योजनं त्रिगुणं सविशेषं परिरयेण वृत्तपरिधेः किञ्चिम्युपभागाधिकत्रिगुणात् 'एगादिवेदिवसि पयहुयन्नलोपाकादिकयादिकयादिकायामुत्कर्षतः सप्तदिवसोडूनपर्य महान भूपालामकोटीनामिति सम्बन्धः समुदिते शिरस्येकेनाहा यावत्प्रमाणा वालाग्रकोटय उत्तिन्ति ता प्रकादियः तुपाला चाहियः पिभिस्तु उपा हिक्यः कथंभूता इत्याह-संमृष्ट-ग्राकर्णपूरितः सत्रिचितः प्रचयविशेषानिविडीकृतः पालानामग्रकोटय:- प्रकृ डा विभागा इत्यर्थः यद्वा-वालाग्रकोटीनामिति वालेषुविदेइनरवालाद्यपेक्षा सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽप्राणिप्रेष्ठानि पालाप्राणि, फुरुररोमाणि तेषांक:कोटाकोटिप्रमुखाः सङ्ख्याः स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्" इत्यादिवत् तथा वालाग्रकोटीनामिति तृतीयार्थे षष्ठी यथा माषाणां भृतः कोष्ठ इति, तेन वालाकोटीभिर्भृत इति सुखावबोधाऽक्षरयोजना कार्या इति, बालाग्रसंस्वद्यानयनोपायस्त्वयं देवकुरूत्तरकुरुनरवालाग्रतो
9
9
"
•
+
"
•
( १०१४ )
अभियनराजेन्द्रः ।
9
"
गुणे हरिवर्षपकनरवालायामति पत्र हरिवर्षण्यकवालानं तत्र कुरुनरवाला प्राण्यष्ट तिष्ठन्ति यत्र चैकं ईतरतनरवाला तथ कुरुनरवानाग्राणि चतुः षष्ठिः एवं विदेहनरवालाग्रे ५१२ लिक्षायां ४०६६ यूकायां ३२७६८ यवमध्ये २६२१४४ अङ्गलेऽङ्कतः २०६७१५२, अत्रासमुत्सेधा ब्राह्यम् आत्माङ्गलस्थानियतत्वात् प्रमाणगुलस्यातिमात्रत्वात् अत्र सर्वत्र पूर्वप्रमाणापेक्षयोतगेतरप्र माणस्याष्टाष्टगुणकारेयं संख्या समुत्तिष्ठति, अथायं राशितुतिगुइचतुर्विंशत्यमानत्वादस्य स चैवम्५०३३१६४८ नामतः पञ्च कोटयत्रीणि लक्षापक शिरसहनाणि षट् शतान्यष्टत्वारिंशदधिकानि एष राशिश्चतुर्गुणो धनुषि चतुर्हस्तमानत्वादस्य अतः २०१३२६५२नामतो विंशतिः कोटयोः सहस्राणि पश साहित्यका
असोसि
१- वक्तामर स्तोमे ।
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सुममसुसमा
नत्वादस्य अङ्कतो यथा-४०२६५३१८४००० नामतः चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते पञ्चषष्ट्रपधिक कोटीनां एकत्रिंशलक्षाणि चतुरशीतिः सहस्राणि पुनरयं राशिचतुर्गुणो योजने चतुःक्रोशप्रमाणत्वादस्य, अङ्कतः १६१०६१२७३६००० नामतः एक लक्षनेक षष्टिः सहस्रायेकपद्यधिकानि कोदीनां तथा सप्तविंशतिलक्षाणि पत्रिंशत्सहस्राणि त्रि
सप्त
नये गणितं बोध्यम्, अर्थ सूचीराशिरमेनेव गुणितः प्रतरसमचतुर योजने शून्य शूनगुविताया एव प्रत रत्वात् अङ्कतः २५६४०७३३८५३६५४०५६६६०००००नामतो यथा पञ्चविशक्तिः शतानि चतुर्नवत्यधिकानि कोटाको डिफोडीनां तथा सप्त तचाणि यखत्सहस्रः एव श ताधिकानि कोटाकोडीनां तथा पि पित्याशत्सहस्राणि पक्षशतान्येोत्यधिकनि कोटीन तथा पहिले अयं राशिषः पूर्वराशिनागुखतो धनरूपो रोमराशिः स्यात् तथाहि अतः १०४७६३२५८८१५८४२७७८४५४४२५६००००००००० नामनः एकचत्वारिंशत्कोटयां चत्वारि सहस्राणि शतानि पिष्टयधिकानि कोटाकोडिकोटाको दीनां तथा पञ्चविंशतिलक्षाण्यष्टाशीतिः सहस्राएयेकं शतमपञ्चाशदधिक कोटाकोटिकोटीनां तथा चियारिशक्षाणि सप्तसप्ततिः सहखाय शतानि पारि धिकानि कोठाकानां तथा चतुधत्वारिंशखाणि पञ्चि शनिः सहस्राणि पद शनानिकोटीनामिति । अर्थ राशिः समयतुरस्रपनयोजनमित्यगतः समत्तपनयोजनप्रमित पल्यगतराश्यपेक्षया कियद्भागाभ्यधिकस्तेनाचिकभागपातनायें सौकुमार्याय स्थूलोपायमाह-अनन्तरोंराशेतुर्विंशत्या २४ भागे ते १७५०८५३१००२४५०६६०११५७६८६३४४००००००००० श्रयं चैकोनविंशत्या १६ गुणितः समवृत्तघनयोजनपल्यगतो राशिर्भवतीति, स चातो यथा ३३३०७५२१०४२४५५५, २५४२१६६५०-६१५३५००००००००० अयमर्थः पारशेधतुर्दिशत्यामागेः समचतुरस्रघनयोजन प्रमिनल्पगतो रोमराशिर्भवति ताहरेकोनविंशत्या भागैः समवृत्तधनयोजनप्रमित पश्ययतो राशियति ननु चतुर्विंशत्या भागहरणमेकोनविंशत्या गुणनं च किमर्थम् ? उच्यते - एक योजनप्रमाण्वृत्त क्षेत्रस्य करणरीत्यागतं योजनत्रयमेकश्च योजनवभागः ३ है सबने च जातं है एतच वृत्तपल्यपरिधिक्षेत्रम् अनेन सह समचतुरस्रपल्पपरिधिक्षेत्रं चतुर्योजनरूपं गुरुयतेस्थापना यथा अनयोः समच्छेदे लाघवार्थे द्वयोरपि केापनयने जानं १६-२४ किमुक्तं भवति समचतुर परिधि क्षेत्रात् वृत्तपरिधिक्षेत्रं स्थूलस्था पञ्चभागन्यूनमिति तत्करणार्थोपमुपक्रम इति स्मृतिअ] योजनभागस्य किचिधिकतया अविक्षत् - थ प्रकृतं प्रस्तुमः' ते ' मिति प्राग्वत्, तानि वालाप्राणिन कुप्रविशेषादिराभावाद्वापोरसम्म वाच्य नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः अतो न परिविसेर न कतिपयपरिज्ञानमयीकृत्य न विषयं गच्छेषुः - धेषशामिपरिणाम इति तानि नातिन गुरेदतीव निचितत्पवनावपि
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9
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सुमसुमा
3
स्वर्थः । तानि च न पूतितया - पूतिभावं कदाचिदागन चिन्धित प्राप्नुयुरित्यर्थः अथ केतकर्तव्यता, तामेवाद- ततस्तेभ्यो वालाप्रेभ्यः अथवा त इति तथाविधपल्पभरवानन्तरं वर्षशते २ एकैकं षालाग्रमपहृत्य कालो मयेत इति शेषः ततश्च यावता का लेन स पल्यः क्षीणो-वालाग्रकर्षणात् क्षयमुपागतः श्राकृष्टभाग्यकोष्ठागारयत्, तथा (नीरजा) निर्गनरजःकपसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टभ्राम्यरजः कोष्ठागारयत्, निर्लेपो ऽत्यतसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारादपनीतधान्यलेप - कोष्ठागारवत् निष्ठितोऽपनेतव्यद्रव्यापनयनमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत् कार्थिका वा पते शब्दा अत्यन्तविशुद्धिमद्विपादनपराः। वाचनात श्यमानं याम्यदपि पदानुसार व्यावदेतत्योपममिति, इदं च पययतवालाग्राणां सङ्घयेयैरेव वबैस्तदपहारसम्भवात् संख्येयवर्धकोटा कोटीमानं बादरपश्योपयन् न चानेनात्र वश्यमापमपमादिकालमानादादधिकारः परं सूक्ष्मपल्योपमस्वरूपसुखप्रतिपत्तये प्रकपितमिति ज्ञायते तेन पूर्वोक्तमेकैकवालाप्रम संख्येयखण्डीकृत्य भृतस्योत्सेधाङ्गुलयो जनप्रमाणायामविष्कम्भावना इस्य पत्यस्य वर्षशते वर्षशते एकैकवालाप्रापहारेण सकलवाला प्रखण्ड निर्लेपना कालरूपम संपेपकोटा कोटीप्रमा पोपविविकृतिराचार्यस्येति सूत्रकारेणा नुक्तमपि स्वयं ज्ञेयं तेनैव च प्रस्तुतोपयोगः । अन्यथाऽनुयोगद्वारादिभिः सह विरोधप्रसङ्गादिति सर्वे सुस्थम् । एवमप्रे सागरोपमेऽपि ज्ञेयम् अथ सागरोपमस्वरूप गाथापयेनाह एप पाण मित्यादि एतेषामननिमित पदेकदेशे, पत्रसमुदायोपचारात् पल्योपमानां या दशगुणिता कोटाकोटियेत् तत्सागरोपमस्यैकस्य भवेत् परिमाणम ति, प्रायः सर्वे कण्ठथं, नवरमेतेन सागरोपमप्रमाणेन न म्यूनाधिकेनेत्यर्थः चतस्रः सागरोपमकोटा कोटयः कालः सुमेसुषमा । जं० २ वक्ष० ।
श० ७ उ० ।
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( २०१४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
मुसमा सुषमा स्त्री० । सुष्ठु समा यस्यां सा सुषमा । अवसर्दियां द्वितीये उत्सर्पिषाञ्च पञ्चमारके, स्था० १ डा० । तिथिस सागरोपमकोडीओ कालो मुसमा । म० ६
"
सुषमा संसारिणं सुखाय चेति प्ररूपणायाहसत्तर्हि ठाणेहिं श्रगाढं सुसमं जाणेजा, तं जहा - अका ले वरिस है, काले परिम २ असा पूजेति ३, मा पुति ४, गुरू िजसो सम्मं पवित्र ५ सु (दु) हया ६, वइसु (दु) हया ७ । ( सू० ५५६+ ) 'ओगाट' गाया
मणो
,
-
काल:- असाच संवताः गुरुपु मातापितृबार्थेषु'मिच्छे'मियाभावं विनयमित्यर्थः प्रतिपचः' श्रितः, 'मणोदुहय'ति मनसो मनसा वा दुःखिता दुःदुःखारिया का एवं वयदुवेस्यपि व्याधेयमिति । सम्मे' ति सम्यग्भावं विनयमित्य
"
•
थे । स्था० ७ डा० ३ ५० ।
सुसवण दसहि ठाहिं भोगाई सुसमं जायजा तं जहा-भकाले न वरिसर, तं चैव विपरीतं, ०जाव मणुचा फासा । ( सू० ७६५ + ) स्था० १० ठा० ३ उ० । सुसमाउत्त-सुषमायुक्त - त्रि० । सुष्ठेकीभावेन युक्ते, दश०५० सुसमाहरण-सुषमाहरण- न० । सुष्डूद्योगेन प्रइणे, सूत्र० १
ध्रु० ८ प्र० ।
सुसमाहि-मुसमाधि-श्री० । स्वस्थचित्तवृत्ती, सुत्र० १०
३ ० ४ उ० ।
सुसमाहिइंदिय- सुसमाहितेन्द्रिय - त्रि० । सुप्रणिहितेन्द्रिये .
दश० ७ ० ।
सुसमाहिय सुसमाहित- त्रि० दर्शनादिषु सम्यगाहते
३० ज्ञानदर्शनचारित्ररूपसमाधियति दशा० ५० ज्ञानादिषु यत्नपरे, दश० ३ प्र० । उद्युक्रे, दश० ६ ० । निवृत्तविषयस्यापारे व० २ ० सुतराम्-प्रतिशयेन समाधियुक्ते, उत्त० २० अ० ।
से किं तं जोगपडिलीणया १, जोगपडिसंलीणया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - अकुसलमण निरोहो वा कुसल - मणउदीरणं वा मणस्स वा एगती भावकरणं, अकुसलवरनिरोदो वा कुसलवइउदीरणं वा बहर वा एमसी भावकरणं । से किं तं कायपडिलीयया है, कायपडिलीयया जं
णं सुसमाहियपमंतसाहरियपाणिपाए कुम्मो इत्र गुलिदिए अल्ली पल्लीणे चिट्ठति । सेत्तं कायपडिसंलीणया । ( ० ८०२x)
•
मणस्स वा एगत्ती भावकरणं ' मनसो वा 'एल ि विशिष्ऐकारयेनेकता तद्रूपस्य भावस्य करसमेताभावकरणम्, आत्मना वा सहाय्यैकता- निरालम्बनत्वं तद्रूपो भावस्तस्य करणं यततथा 'वईए वा एगसीभावकरणं' ति साचो या विशिषेकान्येने कतारूपभाव करमितिमा हिपसंत साहरिययाशिवाय चि सुसमाहितः-समा चित्रात बहिया सा बासी प्रशान्तभ्रान्तस्य यः स तथा संहृतम् - अविक्षिप्ततया धृतं पाणिपादं येन स तथा ततः कर्मधारयः ' कुम्मो इव गुतिदिए' ति गुप्तेन्द्रियो गुप्त इत्यर्थः । क इव ? - कूर्म्म इव कस्यामवस्थायामित्यन एवाह'पीलीन पीनः पूर्वी पात् प्रकर्षेण लीनस्ततः कर्म्मधारयः । भ० २५ ८० ७ उ० । सुसमाहिपप्पण - सुसमाहितात्मन् भि० मनोवाक्षायेविशुवे, दश० अ० ४ उ० ।
1
सुसमाहिपलेस्स सुसमाहितलेश्य - वि० सुण्डु असावधानष्ठानात् शोभना समाहिताः गृहीता लेश्याः अन्तः-करणवृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो वा येन सः सुसमाहितलेश्यः । अकहमषवृत्तौ प्राचा० १ श्रु० ८ ० ५३० । सुसमिय- सुसमित त्रि० । सुष्ठु पञ्चभिः समितिभिः सम्यम् इनः मानादिकं मोमो सुसमितः । समितिसहिते, सूत्र० १ ० १६ प्र० । ० । सुवय-सुश्रवयजि० सुष्टुभव शम्भो येषां ते
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सुमवण अभिधानराजेन्द्रः।
सुसेण सथा। शोभनश्रवणेषु, जी. ३ प्रति०४ अधि०। प्रश्न । दो सुसीमाओ । स्था० २ ठा० । सुसागय-सुस्वागत-नाअतिशयेन स्वागत भ०२ श०१ उ०।
जम्बूदीप महाविदह वर्षे वत्सो विजयः प्रशतः , सुसामा सुसाण-श्मशान-न० । पितृवने, शवस्थाने, उत्त० ३४ अ०। राजधानी बिजयविभाजकश्चित्रकूटनामा वक्षस्कारपर्वतः प्राचा० । कल्प० । प्रश्न । श्रा०म० ।
सुवत्सो विजयः । जं. वक्षः। ('वच्छ' शब्द षष्ठ सुसाणकम्मत-श्मशानकर्मान्त-न० । श्मशानगृहे, यत्र शव
भागे इयं दर्शिता । ) धराभिधानस्य कौशाम्बीदाहः क्रियते । प्राचा०२७० १ चू०२ अ०२ उ०।
महाराजस्य भायायां पनप्रभस्वामिमातरि, स्था०५ ठा० ३
उ० स०। प्रव० श्राव। स्वनामख्यातायां कृष्णवासुदसुसाणमिह- श्मशानगृह-नका पितृयनगृहे, ४०३ श०७ उ०।। वाग्रमहिष्याम् , स्था०८ठा०३ उ० । सुसाम-सुसामन्-नासप्तमदेवलोकविमानभेदे,स०१७सम० । सुसील-सुशील-न० । शोभने समाधान, चारित्रे च । उत्त. सुसाममया-सुश्रामण्यता-स्त्री०। शाभनः पार्श्वस्थादिदो- १२ १० । उद्युक्तविहारिणि, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० । सु. पवर्जिततया मूलोत्तरगुणसंपन्नतया च स चासौ श्रमणश्च । ४
ठु शीलं-स्वभावो यस्येति । उत्त० २ ०। शोभनाचारवति, तगावस्तत्ता । निरतिचारचारित्रे, स्था० १० ठा० ३ उ०। ।
औ० । अादशसहस्रशीलाङ्गोपेते. ध० ३ अधिक। सुसामसरय-सुश्रामएयरत-त्रि० । शोभने श्रामण्ये रते. सुसीलभय-सशीलभूत-त्रि० । सुष्टु शोभनं शीलं समाधान भ०२ श० १ उ० । अतिशयेन श्रमणकर्माशक्त, औ०।
चारित्रं वा प्राप्ने , उत्त० १२ अ०। मुसामाइय--सुसामायिक--त्रि० सुष्ठु समभावतया सामायिक
सुसीलसंसग्ग-सुशीलसंसर्ग--पुं०। शीलवद्भिः सम्बन्धे, द
श० १० अ०। समशत्रुमित्रभावो यस्य स सुसामायिकः । सामायिकस्य शोभने ऽनुष्ठानके, सूत्र० १ थु०१६ अ०।
सुसुक्कसुक्क-सुशुल्कशुल्क-न० । सुष्टु शुल्कवच्छुल्के धान्ये, सुसावग--सुश्रावक-पुं० । सम्यक्त्वाणुवतादिसकलक्रिया- सूय०१ श्रु०६०। कलापोपेते, दर्श० ३ तत्त्व । श्रमणोपासकविशेषे, पञ्चा०
सुसुज-सुसूर्य--न। विमानभेदे, स०। १२ विव०।
सुमुजं सुजवित्तं सुजप्पभं (स.) विमाणं जे देवत्ताए सुसाहिय--सुमाधित--त्रि० । सुष्टु प्रतिपादिते,प्रश्न० ४ संघ० उववणा तेसि णं देवाणं णवसागरोवमाई ठिई पमत्ता । द्वार । साधौ, प्रश्न. ४ संव० द्वार।
(सू०६)स.६ सम० । सुसाहु-सुसाधु-पुं० । निर्वाणसाधकयोमसाधनपरे साधौ ,
| सुसुत्त-सुसूत्र--न० । सुष्ठु सत्ये सूत्रे, श्राव० ५ ० । कणात. प्रश्न०४ संव० द्वार ।
मतानुगामिभिः-"सुसूत्रमासूनितम" सम्यगागमः प्रपश्चिसुसाइयुत्त-सुसाधुयुक्त-त्रिकासुसाधोरुद्यतबिहारिणो ये समा
तः। अशना-सुसूत्रमिति क्रियाविशेषणं शोभन सूत्रं-वस्तुचारास्तैः समायुक्तः मध्यमपदलापी समासः । स्थानशयना
व्यवस्थाघटनाविज्ञानं यत्रैवमासूत्रितं तनकछास्त्रार्थोपनिवसनादावुपयुक्ने,"परक्कमेयाधि सुसाहुजुत्ते"सूत्र०१ श्रु०१४१० म्धः कृत इति हृदयम् , सूत्रं तु सबनाकारिग्रन्थे तन्तुव्यव. सुसाइवाइ--सुसाधुवादिन--पुं० सुष्टु शोभनं हितं मितं प्रियं । स्थयोरिति अनेकायनात । स्या० । वदितुं शीलमस्येत्यसौ सुसाधुवादी । सम्यग्भाषासमिते , |
सुमुमार-सुसुमार-पुं० । जलचरविशेषे, प्रज्ञा० । सूत्र०१२० १० अ०। सुसिक्खा-सुशिक्षा-स्त्री० । ग्रहणासेवनाभ्यां सम्यकपाल
से किं तं सुसुमारा सुसुमारा एगागारा पत्ता, सेत ने, सूत्र० १ २०१५ श्र० । व्यः ।
सुसुमारा। (मू० ३३ +) प्रज्ञा० १ पद । सुसिगिद्धदंत--सुस्निग्धदन्त-त्रि। अरुक्षदन्ते, तं०। सुसुविण-सुस्वप्न-पु०। शाभनाः स्वमा सुस्वप्नाः। श्वेतससुसिर--सुषिर--न० । अनतादिषु विमानेषु अन्यतमे विमाने ,
| रभिपुष्पवस्त्रातपत्रचामरादिनाप्नेषु, षो०१४ विवः । म०१६ समः । श्री० । काहलादिवत् कोलवाये, स्था० २
सुसूर-सुनर-न० । चतुर्थदेवलोकविमानभेदे, स.।। ठा०३उ०।०।
सुसूरं सुरावत्तं (स.) विमाणं देवत्ताए उववमा तेसि रणं ससिलिट्ट--सुश्लिष्ट-त्रि० । सुसन्धिके , शा० १ श्रु०१०। देवाणं उक्कोसेणं पंचसागरोवमाई ठिई परमत्ता । (सू०५४) त। अत्यन्त सकते,पश्चा०१८ विव० । १० । कल्प० । सुघ- स० ५ सम। टिते,प्रश्न. ४ श्राश्र० द्वार । रा०। सम्बद्ध रा० । अयिशवरे,
शवर, सुसेण-सुषेण-पुं० । अष्टसप्ततितमे ऋषभदेवपुत्रे, कल्पक १ भ० ११ श०११ उ०।
अधि०७ क्षण । भरतचक्रिणः सेनापतौ , जं. ३ पक्ष । सुसिलिट्ठपरिघट्ट-सुश्लिष्टपरिघृष्ट--त्रि० । यथा भवत्येवं प-!
श्रा० म०। ('भरह'शब्दे चतुर्थभागे १४४३ पृष्ठ कथा गता। रिघष्ट, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
शाखाअनीराजस्य महाचन्द्रस्यामात्ये, विपा० १ ० सुसीमा--सुसीमा--स्त्री०। मन्दरस्य पूर्षे शीताया महानद्या द
४ अ० । ( 'सगड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा क्षिण वत्सस्य विजयक्षेत्रस्य राजधान्याम् , "सुमीमा कुंडला. गता ।) शाखाखम्यां नगर्यो सुभद्राख्यसार्थवाहचेच जाय" त्ति करणात् । स्था०८.टा० ३ 301
अद्राभिधानतद्भार्ययोः पुत्रः शकट: सच सुषेणाभि
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सु
.त्रि
धानामात्येन सुदर्शनाविधानाम्पतिको समतिको सुस्सायणकर-शुश्रूषावचनकर विनाशितः । स्था० १० डा० ३ उ० । करणशीले, दश० ६ ० २३० ।
मुसेखा - मुषखा- बी० । रक्तामहानदी सङ्गताय महानद्याम्
स्था०५ ठा० ३ ३० ।
सुस्समय- सुभ्रमण-पुं० मुनी, शाखा० २ ० ४ ० । सुस्सर मुस्वर-त्रि शोभनाविश्वरविशेषे प्रश्न संब० द्वार । आ० म० रा० । सुस्वरघोषे जा० ३ प्रति० ४ अधि० । “मुस्सरानो सुस्सरघोसानो" जी० ३ प्रति० अधि० । नि० चू०| जं० । सुस्सरणाम सुस्वरनामन् १० स्वरनामकर्ममे यदुदयवजीवस्वः तत्स्रनाम
पं० [सं० ३ द्वार । कर्म० श्र० प्र० रा० । जं०
(१०१७) अभिधानराजेन्द्रः ।
सुस्सरपरिवायिणी -मुस्वरपरिवादिनी स्त्री० बीयाविशेष
-
प्रश्न० ५ संव० द्वार । सुरुवरा मुस्दरा श्री
गीतरतेग्धर्वेन्द्रस्य स्वनामस्यानायामप्रमहिष्याम्, स्था० ४ ठा० ३ उ० । ज्ञा० प्रा० चू० | स्वस्य सुश्रुततम् शोभनमाति बहु च भुतं येन स सुश्रुतबहुश्रुतः । तथाविधे बहुश्रुते, यस्य
विधुतं न विस्मृतिपथमुपयाति स सुश्रुतबहुश्रुतः। अथवा बहुश्रुतोऽपि सन् यस्तस्योपदेशेन वर्तते सम्मार्गानुसा रित्वात् स सुश्रुतबहुश्रुतः । उग्र० १० उ० । सु-श्री० [परखियम् ०२४० । मुस्यू गुज्म-भृगुद्ध १० सम्बम्धिनि मुझे ०२ उ० कीनूहले स्वभूगुखरान्तःपसहि शब्दे ।। भागे यतः) सुस्स्र्मण-सुश्रूषण–न० । विधिवदनतिदूरासन्नतया सेवने,
दश० ६ ० १ उ० । व्य० । आचा० ।
महाविदय--सुश्रूषयाविनय-पुं०दर्शनविनम० २५ श० ७ उ० । ( ' विद्यय' शब्दे षष्ठभागे स्वरूपम् । ) सुस्स्रसमाय--सुश्रूषमाण- त्रि० । श्रोतुमिच्छति विनययुक्रे, नि० १ ० १ वर्ग १ अ० श्राव० । श्रा० म० । औ० सू० प्र० । ८० । ज्ञा० । दश० । भ० । श्राचा०| श्रोतु प्रवृत्त, सूत्र०२ ० १ ० । परिचरांत ६० २५ अनु० । सुश्रूषां कुर्वाणे, सूत्र० १ ० ६ का । धर्मे श्रोतुमिच्छति श्राचा० १ ० ६
अ०५ उ० ।
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सुस्मा -- शुश्रूषा - स्त्री०। गुगेरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा सुश्रूषा । १०० विधि सेवने. द्वा० २८ द्वा० । पञ्चा० । श्रा० म० । सद्बोधावन्ध्यनिबन्धनधर्मशास्त्र पक्षा ६ विष यो० बि० । श्रायाम्, शा० १४० १३ म० । पञ्चा० । झुस्सा भावकरण--- तमाशुश्रूषाभाषः परिणामस्य कर निर्वर्तनं श्रोतुस्तैर्वचनैरिति । भोतुः श्रवलेोत्पादने शुभूषामनुत्पाद्यधर्मकथनेन पयते पिशामकी काय पनि पाच ति । ध० १ अधिः ।
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पूजा
सुस्सु शुश्रूषुभि० श्रोतुमुपस्थिते ० अधि० ।
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॥ ८ । ४ । २६० ॥ सुटु सुष्ठु - श्रव्य० । “ इष्ठयोः सुः द्विरुकस्य टकारस्य प्रकाराक्रान्तस्य टकारस्य च मागध्यां स्काराक्रान्तः सृकारो भवति । इति ष्ठस्य सृः । शोभने, प्रा० । सुह-शुभ-न० । पुराये आव० ४ श्र० । उत० । सूत्र० आ० म० । संक्लेशविरहिते, उत्त० •० । सुकर्मणि, ०६ डा० ३ ३० । श्री० शुभगन्धस्पत्मके कर्मलि. जी० १ प्रति० । शोभने, त्रि० । श्राव० ४ अ० । स्था० । उत्त० । कल्याणहेतौ, कल्प० १ अधि० ३ क्षण | रा० । कोमले, रा० । प्रधाने, रा० । जं० मङ्गलभूते, रा० । शुभाध्यवसाये तदात्मकत्वात् सामायिके, नं० प्रा० म० १ प्र० । म० ।
"
सुख-१० सुखयतीति सुखम् शर्मणि १०१ अ० ज० । दशा० | भ० । निर्वृत्तौ कल्प० १ अधि० ३ क्षण। सातोइये, सूत्र० १ ० २ श्र० । यथेप्सित विषये, उत० ७ प्र० । तृषितस्य जलपान इवानन्दे स्था० ३ ठा०४ ३० । प० । आत्मनो विशेषगुगे, सुखयुक्ते. त्रि० । विशे० । गुरोः सुवत्यमिति व्युत्पत्तिः सुखत कथमाचार्य इत्याह
सुपसंसत्थो खारिंग- दियाणि सुद्धिदिश्रो सुहो ऽभिमश्रो । वसिदियो जमुनं अमुह अजिदियो ऽभिम।। ३४४३ सुहमहवा निव्वाणं तथं समुपधारथो ऽभिमयं । तस्साहसं गुरु तिय, सुमचे पाणसन्न ॥ ३४४४ ॥ सुशब्दः प्रशंसार्थी निखानि इन्द्रियाणि शोभना खानि यस्यासी सुखः योऽभिमतः किमुकं भवतिश्येन्द्रिय-निर्विकारेन्द्रिय इति भवति अजय स्तु सुखोऽभिमत इति अथवा सुखयतीति निoverri निर्वाणमुच्यते, शेषं तु सांसारिकमुपचारतः सुखमभिमतम् । ततोऽस्य द्विविधस्यापि सुखस्य साधनं कारणं गुरुरित्यसुखम् कारये कार्योपचाराने म संज्ञापदिति, प्रादृष्टिन्युला इत्यादिवाभयरूपसुखहेतुत्वात् सुबो, गुरुरित्यर्थः ।
अथवा अन्यथा सुखशब्दार्थमाहजं च सियं खेहिं तो, गुग्गहरूवं तम्रो सुहं तं च । अभया तप्पयाया, सुमितम्भभिमादाश्री ||३४४६ ॥
याप्रयः।
करणभूतैर्थः निपातनात् कुतः प्रासम् दत्याह ततो गुरोः सकाशातच सर्वे जीवा न हन्तव्या त्यादि गुरुकृतानुग्रहरूपमभयप्रदानादि द्रष्टव्यम्, आदिशज्ञात्ज्ञानादिपरिग्रहः गुरुप्रदत्तेनाभयप्रदानादिना जीवाः पशुभिपीद्रियैः सुखमनुभवन्ति । अतस्तत्प्रदाता अभयादिमाता गुरुरी सुखम्, तद्भक्तिभावात्सुखोपकारकारणे कार्योपत्रागादित्यर्थः । विशे० । शरीरावेदाभावे, औ० । ० । प्र० । दर्शः । उत्त० । "गामाणुगामं सुरं सुगं बि
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(१०१८) अभिधान राजेन्द्रः ।
सुहदव्याहसमुदय हरमाण" मुखं सुखन-शरीरावेदाभावेन संयमबाधाभावेन सुहकम्माणुबंध-शुभकर्मानुबन्ध-पुं०। कुशलकानुबन्ध,पं० च विहारेण वा ग्रामादिषु विहरन् । रा०।.. .... सू०१ सूत्र ।
सुखं सामान्यत श्राह-... सुहकामय-सुखकामक-त्रि । सुखमानन्दरूपं तं कामयत इ.दमविहे सुखे पएणत्ते,तं जहा-"आरोग्ग १ दीहमाऊ२,
ति । सुखच्छौ , भ० १५ श०। प्रतिः । ... . अड्डेजं ३ काम ४ भाग ५ संतोसो ६ । अत्थि७ सहभाग सुहग-सुभग--त्रि० । सुरूपे , श्री ........ निक्ख-म्ममवह तत्ता अणावाहे १०॥१॥"मित्र०७३७) सुहगइ-सुखगति- स्त्री० । प्रशस्तविहायोगती,कर्म० २ कर्म । *दसबिहे ' त्यादि , 'आगेग्ग' गाहा, आरोग्य-नीरोगतार
सुहगुरुजोग शुभगुरुयोग-पुं०। विशिष्टचारित्रयुक्ताचार्यसंदाघमायुः-चिरं जीवितं. शुभमितीह विशेष
बन्धे. ध०२ अधिक। नि२. 'अहुज्ज' सि श्राव्यवं-धनपतित्वं सुखकारणत्या
सुहजीवि-मुखजीविन पुंगसुखेन जीयनशीले,"मज्झिमस्सन्सुखम् , अथवा-श्रा ये क्रियमाणा रज्या प्रजा श्राव्यज्या. रमंताश्रा, हवंति सुहजीवियो । खायर पिपई देई, मज्झिमप्राकृतत्वादहेजत्ति ३..'काम' ति कामौ-शब्दरूपे सुख
। स्सरमिस्सी ॥२॥" अनु। ... कारणत्वात् सुखम् ४. एवं भोग ति भोगाः-गन्धरसम्प- सुहजोग--शुभयोग-पुं० । साधकचन्दनक्षत्रादिसम्बन्धे, प
Mः ५, तथा सन्तोषः-अल्पच्छता--तत्सुखमेव आनन्द- श्वा०८ विव०। शुभे संयमव्यापार, प्रश्न १ संव. द्वार । रूपवान्मन्तोषस्य, क्रं वजन आरोगसारियं मा-गुसन प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापांग्षु , ध० ३ अधिक। सथसारिश्री धम्मा । विजा निच्छयसारा , सुहाई संतोससाराई ॥१॥” इति । अन्थि नियन यन या सुहज्झाण--शुभध्यान--न० । धर्मशुक्ललक्षण ध्यान दे , जनं तसत्तदा तदाऽस्ति-भवनि जायते इति सुखमान- अ ब्दहतुत्वादिनि ७, "सहभाग 'त्ति शुभः-श्रनिन्दिता भी- सुहड--मुहत-त्रिकासुष्ठु हृतं तुद्रस्य चित्तमिति सुहृतम्।दशा गो-विषयेषु भागक्रियनि स सुखमेव सातादयसम्पाद्य- अ० सम्यकहते , उत्त०१०। सुहड त्ति ना वए' तत्र त्वात् तस्येति ८,तथा ' निक्खम्ममेव 'नि निष्क्रमणं नि- सुहृतमुपकरणशिवापशान्तये । उत्त०१ श्रा क्रमः-अविरति जम्वालादिति गम्यते , प्रवज्यत्यर्थः , इह महणाणज्माणमग्ग-शुभज्ञानध्यानमग्न--त्रिका शुद्धे यथार्थय द्विर्भाधा नपुंसकता च प्राकृतवात् , एवकाराऽवधारण, परिच्छदनभेदज्ञानविभवम्वपरस्य च स्वस्वरूपकत्वानुभवअयमर्थ:-निष्क्रमणमेव भवस्थानां सुख , निरायाधस्या- तन्मयन्वध्यानमग्न , अप० २ अष्टः। .. यसानन्दरूपत्वात् , अत एवोच्यत-'दुवालसमासपग्यिा. ए समणे निग्गंधे अणुतगणां देवागं ने वीरवयर" सुहणाम-शुभनामन-न० नामकर्मभद , यदुदयवशानाभेरुसि । तथा" नवास्ति राजराजस्य, सत्सव व दवराज- पर्यवयवाः शुभा भवन्ति । कर्म०६ कम। था। पं० सं० । स्य । यत्सुखमि हैव साधा-लोकव्याधरहितस्य ॥१॥" इ- सुहणामा-शुभनामा-स्त्री०। लोकोत्तरगत्या पक्षस्य पञ्चम्यां ति.शषसुखानि हि दुखप्रतीकारमात्रयात् सुखाभिमान- तिथी. ज०७ वक्षः। स०प्र० । चं० प्र०।। जनकत्वाच तत्वता न सुख भवतीनिह, 'नत्तो प्रणवाहि'
ह' सुहणिसम्म--मुखनिषाम--त्रिका अनाबाधवृत्त्योपविष्टे, प्रश्न०१
मनिसा..त्रिका अनाबाधवत्योपविणे नि ततो निष्क्रमणसुखानन्तरम् अनाबाध-न विद्यते पाया।
संवद्वार। धा-जन्मजगमरगा पिपासादिका यत्र तदनाबाधः मोक्षसुमित्यर्थः , पतदेव च सर्वोत्तम , यत उक्रम"वि सुहणुपाल--मुखानुपाल-त्रि० । सुखेनानुपाल्यते इति सखाथि माणुसाणं तं मोक्ख न वि य सब्दवाण । ज सिद्धानुपालः । सुरक्षे , पश्चा०१७ विव। सोमवं, अव्वाबाहं उबगया ॥ ॥” इति १०, निष्क- सहत्थ--सखार्थ-
त्रिसुखनिमित्ने, रा०। मगासुखं चारित्रसुखमुक्तम् । स्था० १० ठा० ३ उ० । महत्थि-महस्तिन-पुं० । गन्धहस्तिनि, भ०१५ श० । स्थू"दव्यादिहि निश्चा, एगतेणेव जेसि अप्पाओ। होइ अमावा तसि, सुह दुहसंसारमोक्खागं ॥" दश०७ श्र०। (सिद्धसुखं '
लभद्रस्वामिनां दशपूर्वधर शिष्य , कल्प, २ अधि०८ क्षण ।
स्था० शा० । श्रा० म० । आव० । श्रा०क० । नं। । श्रा० 'सिद्ध' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् ।) (सुखदुःखका-।
चू०। राजगृहवास्तव्येषु कालोदाय्यादिष्वन्ययथिकेषु अन्य। रणयोः सिद्धिः 'कम्म' शब्दे तृतीयभाग २५३ पृष्ठे उता।)
। तमे. भ७०१० उ०। मन्दरस्य दक्षिणपूर्व शीताया सुखंहतत्वात् सुखम् । उपशमधरायां शमक प्रत्यपूर्वकरणा- दुनियादिगहस्तिकटे. जे०५वक्ष०।निवृत्तिबानरसूक्ष्मसंपरायरूमायां गुगाघ यावस्थायाम,मूत्र०१ ११० विपाका राज्यश्वर्यादी, अप० २१ अट। अना
सुहद-सुहृत्-पुं०। 'स्वगदसंयुक्तस्यानादेः" ॥८॥ ॥१७६॥ इत्यायास, नं० । शरीरमनमोऽनुकृले , श्राचा०१ श्रृ० ३०
धिकारात् । क-ग-च-ज-त-द-प-य-वाँ प्राया लुक ॥ ८॥१॥
१७७ ॥ समास तु वाक्यविभक्त्यपक्षया भिन्नपद्रवर्माप वि१उ०। प्राव। अष्ट।
वक्ष्यते तन नत्र यथादशनमुभयमपि भवति । सुहंदा । सुहो सुह(प्रा)-शुभग(गा)-पुं० । स्त्री० " ऊन्सुभगमुमले वा" इत्यादि । मित्रे, प्रा०पाद। । ॥८१।११३॥ इन्य नयारांदेरुत विकल्पन। स्त्रीभिः काम्ये पुरुष. सुहृदयाइसमुदय शुभद्रव्यादिसमुदय-पुं०। प्रशस्तद्रव्यप्रपुरुषेगा च काम्यायां स्त्रियाम् , प्रा.१.पाद । "
भृतीनां समवाये, पञ्चा०१५ विव०। . .:
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सुधाउजोगभाव अभिधानराजेन्द्रः।
सुहम्मा सुहधाउजोगभाव शुभधातुयोगभाव-पुं० । शुभाना सुन्दरा
सुहमण-मुभमनम्-त्रि० । असंक्लिष्टचेतसि , प्रश्न १ गां धातूनां यातपित्त कफानां योगानां कायादिव्यापाराणां सपं द्वार। भावः सत्ता शुभधातुयोगभावः । शुभानां धातूनां सम्बन्ध, सुहमेत्त-सुखमात्र-न० । सामान्य नैव वैषयिकं सुखे पदपथ्या. पश्चा०५ विय।
हारतृप्तिजनितपरिणामासुन्दरसुखकल्प खपरजीवप्रतिष्ठिनं सुहदक्षसंपयोग-सुखदुःखसम्प्रयोग-पुंसुखदुःखयोरक
। तत्सुखमात्रम् । स्वपनिष्ठित परिकश्चित्सुखे पो०१३ विव०। 'ल्पिते योगे, दश० १ ०।
सुहमोय-सुख मोच-त्रि०। सुखन माध्यन्त इति सुखमाचाः। सहदक्खसममिय-सुखदःखसमन्वित--त्रि०। सुखमानन्दरूप। सुखपरित्याज्यपु, वृ०२ उ०।, ... ... ... दुःखमसातोदयरूपमिति ताभ्यां समन्वितो युक्तः । साता
सुहम्म-सुधर्मन्-पुं० । वीरजिनेन्द्रस्य पश्चमे गणधरे,कल्प.२ सानयुक्त , सूत्र १ श्रु० १ अ० ३ उ० ।
अधि०क्षण । (श्रीवीरपट्टे श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चमो गणधरः सुहदुक्खिय-सुखदुःखित--त्रि० । सुखदुःखोपसर्पनके , व्य०
४ तद्वणनम् 'अजसुहम्म' शब्द प्रथमभागे २१६ पृष्ठे गंतम्।) .४-उ०।
अथ पञ्चमगणधरवक्तव्यतामभिधिसुराहसुहद्हनिब्बिसेम--सुखदुःखनिर्विशेष--त्रि० । हर्षशोकादिर
ते पब्बइए सोउं, मुहम्म आगच्छई जिणसगास ।' हित , प्रश्न ५ संव० द्वार। ..
.
| .. बच्चामि ण वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासामि ।। १७७० ॥ सुहपगइ-शुभप्रकृति--स्त्री । पुण्यप्रकृतिषु. कर्म०५ कर्म०।।
___ व्याख्या पूर्ववत् , नवरं सुधर्मनामा द्विजोपाध्यायोऽत्र सुहपडिबाहा--मुखप्रतिबोधा--स्त्री०। सुखेनाकृच्छेण नखच्छा
वक्तव्यः । टिकामात्रणापि प्रतियोधा-जागरण स्वप्तुर्यस्यां स्वापवा- .. अागतस्य तस्य भगवता किं कृतमित्याहस्थायां सा सुख प्रतियोधा । निद्राविशेष, कर्म०१ कर्म०।
श्राभट्ठो य जिणेणं, जाइजरा-मरणविप्पमुक्केणं । सुहपय--सुखपद-न० । जइ वि अवराहं रण पत्ता तहा विप
नामेण य गोतेण य, सव्धएणू सव्वदरिसीणं ॥१७७१।। छिनं भवतीति लक्षणे प्रायश्चित्तदाने , नि० चू०.१ ३०।। सुहपरिकम्मणा--सुखपरिकर्मणा--स्त्रीला सुखा-सुखकारिणी
व्याख्या पूर्ववदिति । विशे० । कल्प। श्रा० म०। (सुधर्म.
स्वामिन श्रायुरादि गणहर' शब्दे तृतीयभागे ८१६ उक्तम् । ) परिकर्मणा कृतविश्रामणे यस्यां सा सुखपरिकर्मणा। अ- सहम्मा-सधर्मा-स्त्री० । चमरादीनामिन्द्राणां सूर्यादीनां च ङ्गसम्बाधनाभेदे. कल्प०१ अधि० ३ क्षण।
। महकिदेवानां सभा सुधर्मासभा, । देवसभायाम् , ग» । महासत्त-मखप्रसप्त-त्रि० । सुखेनेच शयाने, प्रा० म०१ प्रतिः। ०। प्रा० म०। प्रश्न० । सभानां मध्य सुधम्मा श्र० श्राव
श्रेष्ठा । सूत्र०१ ध्रु०६ अ० स्था। सुहप्पदाया-सुखप्रदातृ-त्रि० । सुखदे, " सर्मणि सवानि ।
चमरस्म णं असुरिंदस्स असुररएणो सभा सुहम्मा छसुख रतानि , सर्वाणि दुःखाश्च समुद्विजन्ति । तस्मात्सुखा
तीस जोयणाई उड्डे उच्चत्तणं होत्था । (मु०.३६४) ी सुखमेव दद्यात् . सुखप्रदाता लभते सुखानि ॥२॥"सूत्र० १ध्रु०३०४ उ०।।
स०३६ सम। ... सुहफल-शुभफल-त्रि० । अभिमतफले , पञ्चा०४ विव०। चमरस्स णं असुरिंदस्स अमुररएमो सभा सहम्मा , सुहफास-सुखस्पर्श-त्रि० । सुखः-कोमलः स्पशों यस्य स एकावन्न खम्भसयसन्निविट्ठा परमत्ता । (सू०५१४) सखस्पर्शः । शुभस्पर्श, ग०। चं० प्र० सू०प्र० स०। जं०। स०५ समः।(सूरियाभ' शब्द वक्ष्यते एपा).. सुखहतुस्पर्श , ग०। श्रा० म० । चं० प्र०।
सुधर्मावर्णकःसहभाव-शुभभाव-त्रि. । गुणानुगगरूपेषु शाभनपरिणा- कहिणं भंते ! मकस्म दविंदस्स देवरको सभा मुहम्मा मषु, पश्चा.७ विव०। प्रायश्चिततया विवक्षितसपरिणाम, पञ्चा० १६. विव० । उदारनया प्रवर्धमानप्रशस्ताध्यवसायेषु,
पएणत्ता ?, गायमा ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पश्चा०८विव०।
दाहिणणं इमीम रयणप्पहाए पुढवीए० एवं जहा रायप्पसुहभावजुय-शुभभावयुत-त्रि० । विशिष्ट्रक्रियावत् प्रशस्ता- मेणइ जे जाव पंचडिंसगा पण्णता, तं जहा–असोध्यवसायविशपोपते, पञ्चा० १८ विद्य० ।
यवडिंसए जाव मज्झे सोहम्मवर्डिसए से णं सोहम्मत्रसहभाववृद्धि शुभभाववृद्धि-स्त्री० । कुशलाशयवृद्धी, पं. वं० , डेमा महाविमाणे अद्धतेरस य जोश्रणसयसहस्साई श्रा५ द्वार । पञ्चा। सुहभोग शुभभोग-पुंगा शुभा-निन्दिती भोगा विषयेषु भा
यामविक्खंभेणं । एवं जहा सूरियाभे तहेव माण तहव गक्रिया यस्येति । अनिन्दितक्रियायुक्त, स्था० १० ठा०३ उ०।
उववाभो । सकस्स य अभिसो तहेव जहा मरिनाभस्म .. सुखभोग पुर। सुखमेव सानोदयसंपाद्यत्वात्तस्य भोगः अलंकारप्रचणिया तहेव जाव श्रायरक्ख ति, दोमासुखभोगः । सुख मेंद, स्था० १० ठा० ३ उ०! ......
गरोवमाई ठिई० । सके णं भंते ! देविदे देवराया के सुहभोगि-सुखभोगिन-त्रि० । सुखम्-आनन्दरूपं भुनक्रीति महिड्डीए जाव के महसोक्खे ?। गोयमा ! महिडीए सुखभोगी। सुखाऽऽस्वादके, आचा०१ श्रु० २ अ. ३ उ०। जाव महमोक्खे से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयस
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(१०२०) अभिधानराजेन्द्रः।
सुहवुद्धि हस्साणंजाव विहरइ, एवं महिडीएजाब महासोक्खे सके रेणं उत्तरपुरच्छिमेणं चउरासीईसामाणियसाहस्सीओ देविंदे देवराया सेवं भंते ! सेवं भंते !ति (सू०४०७+)|
निसीयति. पुरथिमेणं अट्ट अग्गमाहिसीश्रो, दाहिणपुरस्थिमे
णं अभितरिया परिसा वारसदेवसाहस्सीओ निसीयति.दा. कहिण' मित्यादि “एवं जहा रायप्पणबजे" इत्यादिकरः |
हिणणं मज्झिमियाए परिसाए चोइसदेशसाहस्सीनो दाहिणादेवं रश्यम्-"पुढबीए बहुसमरमणिज्जाश्री भूमिभागाओ
णपच्चरिथमे णं बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीउई चंतिमसरियगहगणनक्वत्ततारासवाणं बरई जोयणाई श्रो पचत्थिमेणं सत्त अणीयाहियाइयो। तए णं तस्स सकस्स बहुरं जोयणसयाई एवं सहस्साई एवं सयसहस्सा
देविंदस्स देवरएको चउहिसि बत्तारि प्रायरक्वं देवबहुप्रो जोयणकोडीनो बहुओ जोयणकोडाकोडीयो उह
चउरासीइसाहसीओ निसीयंति ' इत्यानीति , के दूरं वीरवाता एत्थ णं सोहम्मे नाम कप्पे पराणत्ते" इत्यादि 'असोयवडिसए' इह यावत्करणादि रश्यम्-"सत्तवनवडे
महिहीए ' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-के-मह
ज्जुए महाणुमागे के महाजसे के महाबले' ति। 'पत्तीसाएसप चंपगब.सए अयबसर" ति विर्वाक्षताभिधय सूचिका वेयमतिदेशगाथा-"एवं जह सूरियाभे, तहेव माणं तहेव
विमाणावाससयसाहस्साणं' इह यावत्करणादिवं रश्यम्-- उपवाओ । सकस्स य अभिसेश्रो, तहेव जह सूरियाभ
"चउरासीए सामाणियसाहस्सी तायत्तीसाए तायत्तीस
गाणं अट्टणं अग्गमहिसीखं जाव असिंच बहूण देवार्य इस ॥१॥" इति एवम्-अनेन क्रमेण यथा रिकामे विमाने राजप्रश्नकृतास्यग्रन्थोक्ने प्रमाणमुक्त तथैवास्मिन् वाध्य तथा
देवीण य माहिवञ्च० जाव कारेमाणे पालेमाणे" ति । भ०१० यथा सरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात उक्तस्तथै
श०६ उ०। घोपपातः शक्रस्यह वाच्योऽमिषेकश्चेति,तत्र प्रमाणमायाम
सुहय--सुभग-त्रि० । मनोरमे, 'लटुं वंतं सुहयं मणोरमं चार विष्कम्भसम्बन्धि दर्शितम् शेषं पुनरिदम्-"ऊयालीसं च स. | रमणिज्जं, 'पाइ ना०८ वर्ग। यसहस्साईबावनं सहस्साई अट्रय अडयाले जोयणसए सुहर--सुभर--त्रिका न्यूनोदरतया आहारपरित्यागिनि, वश परिक्लेवेणं ति॥" उपपातश्चैवम्-'तेणं कालेण तेणं सम
प्र० एणं सके देविंदे देवराया पाहुणोववन्त्रमेते चेव समाणे पंच
| सहरा-नेशी-चटिकाभेदे, यस्या अधोमुखं न भवति । बिहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छद,तं जहा-माहारपज्जसीए' इत्यादि, अभिषेकः पुनरेवम्-'तए णं सक्के देविदे देव
मा०८ वर्ग ३६ गाथा। राया जेणेव अभिसंत्रसभा तेणेव उवागन्छ। तेणेव उबाग
सहरासि-सुखराशि-पुं० । सुखसंघाते,प्रा०म०१०। लिछता अभिसेयसभं अणुप्पयाहिणीकरेमा अणुप्पयाहि-सहरिसिगा-सहरिशियका-खी। वनस्पतिविशेष, जी०३ रणीकरेमाणे पुरच्छिमिलेणं वारेणं अणुपविसाजणेव सीहा- प्रति. अधिक। मणे तेणेव जबागच्छा तेणव उवागछित्ता साहासणवरगए
सहरूव-सुखरूप--त्रि० । सातागीरयस्वभावे, सूत्र० ११० पुरस्थाभिमुहे निसले,तपण सकस्स * देविंदस्स देबरायस सामाणियपरिसोववरणगा देवा प्राभिप्रोगिए देवे स
६अ। हाति सहावित्ता, एवं वयासी-खियामेव भो! देवाणुप्पि
सुहलेस्सा--सुखलेश्या-स्त्री० । सुखदतेजसि, जं. ७वक्षः। या!सहस्स ३ महत्थं महग्घे महरिहं विउल इंदाभिसेयं उय.
सुखलेश्याश्चन्द्रमसो न शीतकाले मनुष्यलोक स्वास्यम्तदुषह' इत्यादि, 'अलंकारअञ्चणिया य तहेव' सि, यथा सूरि
शीतरश्मय इत्यर्थः, सू० प्र १६ पाहु.।। काभस्य तथैवालारोऽनिका चेन्द्रस्य धाच्या , तत्र सहवाससरभिगंध-शुभवाससुरभिगन्ध-पुं०।शुभवारी सुम्द. अलङ्कारः, 'तए से सके देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए चूर्णैः सुष्टु गन्धे, तं०। सुरभीए गंधकासाइयाए गाया लूहर लूहेत्ता सरसेणं
सहविष्मप्प-सुखविज्ञाप्य-त्रि०। सुखेनैव प्रबोध्ये, सुहविखगोसीसचंबणेणं गायाई अणुलिपह अणुलिपित्ता नासानी
पा सुहगणो ति । नि० चू०२ उ०।। सासवाययोज्झचक्खुहरं वरणफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलकणगखचियंतकम्मं प्रागासफालियसमपभंदि-सुहविष्मवरणा-सुखविज्ञापना-स्त्री०। सुखन विज्ञापना-प्रार्थवं देवदूमजुपलं नियंसेति नियंसित्ता हारं पिणखेति' इत्या- ना यस्यां सा । अनायाससाध्यायां सुप्रतिसेव्यायां खिदीति अर्बनिकालशस्त्वेयम्-तप क से सके * ३ सिद्धाययणं । याम , पृ० १ उ० ३ प्रका। पुरथिमिल्लेणं दारणं अणुप्पविसह अणुष्पविसित्ता जेणेव सहविवाग-शुभविपाक-पुं० । शुभकर्मपरिणामे विपाकभुते, वेषछनए जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छा तेराव उधाग-1 प्रथमविपाके दर्शितोऽयम् । स०१४६ सूत्र । छिछत्ता जिणपडिमाणं बालोए पणामं करेह, पालो करेला
सहविवागोत्तम-शुभविपाकोनम-त्रि०। शुभविपाक उत्तमो लोमहत्या गणहरलोम० रिहत्ता जिणपडिमानी लोमहत्येणं
येषां ते शुभविषाकोत्तमाः । सुखैषिषु, स० १४६ सूत्र । पमजा जिण जित्सा जिणपडिमात्रा सुगंभणा गंधावरणं पहाणे तिजाव प्रायरम्व नि. अनिकायाः पगे प्रन्थ
महविहार-सुखविहार-पुं०। सुखेनैव वासकल्पविधिना विस्तावहाच्यो यावदाम्मरक्षास मेयं लेशतः-सएसेसळे- हतुं शक्ये, पृ.१ उ०१प्रका। देवि देवपाया सभ मुहम्मं अणुप्पविमा अणुप्यविसित्ता मुहबुद्धि-शुभवृदि-स्त्री० कल्याणमेपचये सुखवीने, पक्षा सीदारणे पुरस्थाभिमुहे निसीयतएगा मनामश्रधातविया ।
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सहयणतर अभिधानराजेन्द्रः।
सुहसेजा मुहवेयणतर-मुखवेदनतर-त्रि०। सुखेन अक्लेशेन वेदनम्- | सहसीलवियत्त--सखशीलव्यक्त-त्रिकासुख शीलं व्यक्तं येषां ते अनुभवन यस्थासौ सुखवेदनतरः । अक्लेशेनैव येथे, भ०१४ सुस्त्रशीलव्यक्ताः । पार्श्वस्थादिमन्दधर्मसु, नि० चू० १६ उ०। श०२ उ०। सहवेयतर-मुखवेद्यतर-त्रिका प्रकृच्छानुभयनीये . स्था. सुहसुरभिमणहर-सुखसुरभिमनोहर-पुं०। गन्धान्तरेभ्यः स
| काशान्मनोहरेषु , रा०। ठा० १ उ०। मुहसंकमण-मुखसंक्रमण-नासुखस्य मुक्तिरूपस्य-या विशि सुहसे उकेउबहुल-शुभसेतकेतबहल-त्रि० । शुभा:-प्रधामाः एगुणप्रकृतिरूपस्य संक्रमणं-संक्रान्तिः सुख संऋणम । संसा- सतवो-मागो प्रालवालपाल्यो वा केतवा-ध्वजा बहुला रदुःस्वादशुभाद्वा निःसरणेन सुखप्राप्ती, "सुसमणणरिंदचंदा, |
अनेकरूपा येषां ते तथा । अनेकैः शुभैः सेतुभिः केतुभिसुहसंकमणं ममं किंतु।" संथा।
| श्च कलिते , जी. ३ प्रति ४ अधि० । मुहसंगय-सुखसंगत-त्रि० । श्रानन्दयुक्ने, हा० ३२ अष्ट । सुहसेजा--सुखशय्या-स्त्री०। सुखदाः शय्याः सुखशय्याः। मुहसंथरण-सुखसंस्तरण-न०। सुखेन निस्तारहेतो.व्य०४ उ०। सुखदशय्यायाम् , पा० । ध०। मुहसणा-मुखसंज्ञा--स्त्री०। वेदनीयोदयजे सातानुभये , आ- "चत्तारि य सुहसिजाओ पन्नताओ । तत्थ खलु इमा पढमा चा० १५०१०१ उ०।
सुहासेजा-सेकं मुरडे भवित्ता अनाराओ अणगारियं पब्व
इए निम्मंये पाययणे निस्संकिए निखिए नियितिगिच्छे मुहसयण-शुभस्वजन-पुं० । असंक्लिष्टबान्धवे , पश्चा० ७
ना भेयसमावने नो कलुससमायने निग्गंथं पाययणं सविव०।
दहा पत्तियह रोएइ निग्गंध पावयणं सहहमाणे पत्तिसुहसाय-सखशात-पुं० । सुखस्य वैषयिकस्य शातः सुखशा
यमाणे रोपभाणे नो मणं उचाययं नियच्छह नो विणितः। वैषयिकस्य सुखस्य स्पृहानियारणेनापयने , उत्त० । ग्घायमावज्जा । पढना सुहसेज्जा ॥१॥ अहावरा दोश्चा सु
संयमादिप सत्स्वपि सुखशातेन एव प्रवर्तनीयम् अतस्त- हसेजा-सण मुण्डे भवित्ता जाव पव्यरएसएणं लाभण तु. त्फलमाह
स्सह परस्सलभ नो श्रासाए नो पाहा नो पत्थहनो श्र
भिलसइ परस्स लाभं अण्णासाएमाणे जाव अणभिलससुहसाए भंते जीचे किं जणयही मुहसाएणं अणुस्सुयत्तं
माणे नो मणं उच्चाययं नियच्छइ नो विणिग्यायमावजा जण यह अणुस्सुएणं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे वि
दाचा सुहसेजा॥२॥ अहावरा तचा सुहसेजा, से गं गयसोगे चरितमोहणिजं कम्मं खयेइ ।। २६ ॥
मुण्डे भवित्ता जाब पवइए दिव्यमाणुस्सए कामभाग नो हे भदन्त ! हे स्वामिन् ! सुखस्य वैषयिकस्य शातः स्पृहा
श्रासाएह जाव नो अभिलसा दिवमाणुस्सए कामभोए निवारणेन अपनयनं सुखशातस्तेन जीवः किं जनयति , गु
प्रणासाएमाण • जाव अभिलसमाणे नो मणं उच्चावयं
नियच्छह नो विणिग्घायमावजइ । तच्चा सुहसजा ॥३॥ रुगह-हे शिष्य! सुखशातेन अनुत्सुकन्वं जनयति,विषयसुखे
"अहायरा चउत्था सुहसेजा, सेणं मुराडे जाव, पऽनुत्तालत्वं जनयति अनुत्सुकश्च जीवोऽनुकम्पते अग्रेतनं
व्यइए , तस्स ग एवं भवर जद ताव अरहन्ता भगवन्ता जीवं दृष्ट्वा अनुकम्पको; दयावान् भवतीत्यर्थः। पुनग्नुद्भटोऽभिमानरहितः शारादिशोभारहितः स्यात् । पुनस्तादृशः
हट्टा अरोगा बलिया कल्लसरीरा अन्नयराई उरालाई कल्ला
णाई विपुलाई पयत्ताई पगहियाई महानुमागाई कम्मपत्रसन् विगतशोकः इह लौकिककार्यभ्रंशादावपि शोचनं न
यकारणाई तबोकम्माई पडिवजन्ति , किमा! पुण अहं कुरुते पुनस्तादृशो मोक्षार्थी शुभाध्यवसायवर्ती कषायनो
अखभोवगमि उचक्कमियं वेयणं तो सम्म सहामि खमामि कपायरूपचारित्रमोहनीयरूपं कर्म क्षपयति । उत्त०२६ श्रा
तितिक्खेमि अहियासेमि , ममं च णं अम्भोयगमिउयकसुहसाय-सुखास्वाद-त्रि० । सुखम् अानन्दरूपमास्थादय
मिथ वेयणं सम्मं असहमाणस्स भणहियासेमाणस्स किं न्तीति सुखास्वादाः । सुखभोगिषु, सुखैषिषु, प्राचा०१ श्रु० मन्ने कजइ ? एगंतसो मे पावे कम्मे कजर, ममं च णं २०३ उ०।
अब्भोयगभिउ जाय सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेसुहसायग-सुखास्वादक-त्रिका अभिष्यादिना प्राप्तसखभो- | माणस्स किं मन्ने कजह ? एगन्तसो मे निजरा कज्जा । . नरि , दश० ४ ०।
उत्था सुहसेजा ॥४॥" सहसील-शुख(शुभ)मील-त्रि०। सुखं शुभं वा सुखकरत्या
अस्य चतुर्थसूत्रस्य व्याख्यानम्-'हट्टत्ति-शोकाभाबनाया
यहाः, अरोगा 'ज्वरादिवर्जिताः, बलिकाः-प्राणवन्तः, च्छीलं स्वभावो यस्य सः सुखालः शुभशीलो वा। स० । सु
कल्पशरीराः-पटुशगराः , अन्यतराणि अनशनादीनां मध्ये खेन जीवनशीले , नि० चू०१ उ०। (' मूलगुणपडिसवणा'
एकतराणि, उदाराणि प्राशंसादोपरहिततयोदारचित्तयुक्ताशब्दे षष्ठभागे ऽत्रयविस्तरो गतः।)
नि, कल्याणानि मङ्गलस्वरूपत्वात् . विपुलानि बहुदिनत्वात् , सुहसीलगुण-सुखशीलगुण-पुं०। सुखशीलस्य-शाताभिला
प्रयतानि प्रकृष्टसंयमयुक्त्वात् , प्रगृहीतानि पादरप्रतिपन्नपिणो गुणाः-पार्श्व स्थादिस्थानानि सुखशीलगुणाः । पार्श्व- त्वात् . महानुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तत्वात् , द्धिधिस्थादिष शीलगुणेषु , ग०१ अधिक।
शुषकारणत्वादा कर्मक्षयकारणानि मोक्षसाधनत्वात् , २५६
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सहमेजा
अभिधानगजेन्द्रः। वप.कर्माणि ता क्रियाः, प्रतिपयन्ते प्राधयन्ति, 'किम! सुखावासा । शा०१७.६अ। सुखदयससी,गौ० पुण' ति-किं प्रश्ने, अलेयामन्त्रणेऽलङ्कारे. सा पुनरिति
सुहासणत्थ-शुभासनस्थ-त्रि०। शुभेमासमे निषएणे. व्य. पूर्वोकार्थवलक्षण्यदर्शने , शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवाभ्युपगमिकी उपक्रम्यतेऽनेनारित्युपक्रमो ज्वरातीमा
सुहासय शुभाशय-पुं० । शुभपरिणामे, पो १ विय। रादिस्तत्र भषा या सौपक्रमिकी नां वेदना, सहामि नदुस्पायविमुखतया. क्षमे विकोपतया. तितिक्षामि अदीनन
शुभचित्ते, प्रति। या. अध्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण नत्रैव वेदनायामवस्था- सुहासव-शुभाश्रव-पुं०। पुण्याश्रवे, व०४ अ। नं करोमीत्यर्थः । मन्ये निपातो वितर्कार्थः, क्रियते भवती- सुहासा-सुखासा-स्त्री० । सुखेच्छायाम् , अा० १६ अgon त्यर्थः।पा
सुहि-सुखिन-त्रि० । सुखमस्यास्तीति सुखी। दश०२०। मुहहत्थ-शुभहस्त-पुं० । प्रशस्तकरे, विपा० १७०७०।।
सुख प्राप्त, प्रौ० । प्रज्ञा।उत्ता "पा श्रामध्ये सौ बेनो नः" सुखहस्त-पुं०। सुखहेतुहम्त, विपा. १ शु०७०
॥४॥२६३ ॥ शौरसेन्यामिनो नकरम्यामन्ये सौ परे - मुहहेउ-सुखहेतु-पुं० । भाविसुखकारण, पञ्चा० १५ विष०ा कारो भवति । सृहिया!। प्रा०५ पाद । सहा-सुधा-स्त्री०। अमृते , अष्ट०११ अप० । स्था०। प- सुहत-पुं० । मित्रे, ध०२ अधिक। सूत्र। कपाषाणशर्करासु शुभ्रायाम् , पश्चा०२विधा
सुहिभाव-सुखिभाव-पुं० । सुखिरवे,अनेक अधिक। शुभा-स्त्रीशुभविपाकायां कर्मप्रकृती.पं०सं०३द्वार। यास्तु
स०३द्वार। यास्तु सुहिय-सहित-त्रिवसुष्टु हिनं शानादित्रयं येषां ते सुदिताः। जीवप्रमोदहेतुपसोपेतास्ताःशुपाः। पं०सं०३द्वार । प्रनि। रत्नाधिकेषु. ध०२ अधि। जी०। प्राचा। सप्तदशस्य तीर्थकरस्य प्रथमप्रवर्तिन्याम् , प्रव०६ द्वार। सहद-पुं०। मित्रे, वृ०१ उ.६ प्रक० । नि०। मुखा-स्त्री। विशियालादरूपायाम , पञ्चा०३ विधः। ।
सुहियजण-सुहजन-पुं० । हितैपिणि, स्था० ४ ठा० ३ उ० । मुहाकम्म-सुधाकर्मन-न० । यत्र भुधापरिकर्म क्रियते ता
मुहिरमिया-सुहिररियका-स्त्री० । बनस्पतिविशेषे, मा. दशे, स्थाने, तशा० १० अ०। प्राचा०।
ग०१०। ग०। प्रशा० । नं० । मुहावंड-सुधाकुराहु-न० । श्रीजीवदधीरस्वामिप्रतिमाथिभू
सुहिरीमण--सुहीमनम्-त्रि०। सुष्टु होर्लजा तस्यां मनोऽन्तःबिते म्बनामख्याते नी, ती० ४३ कल्प ।
करणं येषां ते सुईगमनसः । लजालुषु, सूत्र. १५० सुहागदेवी-मुहागदेवी-खी। जिनदासाभिधश्रायकभार्या
१६ अ०। थाम् , सेन. ३ उडा०। ('सिकर' शब्देऽस्मिन्नेय भागे सुहत्तमबरिदु-उत्तमसुखबरिष्ठ-त्रि. 1 उत्तमं च तरसुखं व कथा गता।
तेन परिठा बरतमाः । सुखोत्तमेन भेष्टेषु, भाचा०१७०५ सुहाणुबंध-शुभानुबन्ध-पुं० । अविच्छिन्नकल्याणसन्साने,
प्र.१ उ०। पशा०७ विषः । कुशलानुबन्धे, पश्चा० ७ धियः । | सहसर-सुखोत्तर-त्रि० । सुखेन तीर्यते इति सुखोत्तरः । सुसहाणधि शभानुवन्धिन-भिलाकुशल प्रत्यायाति पुन योधि | ARE
धि खालानीये, उत्त०२०। लाभभोगप्रवण्याकेबलशेलेश्पपवर्गानुवन्धिषु.पाय०४०। सहम-सूक्ष्म-त्रि०] "तातुल्येषु" मा२११३॥ उकागता मुहाभिगम-मुखाभिगम-त्रि० । सर्वजननयनानां कान्ते, स०)
डीप्रत्ययान्तास्तम्धीतुरूपास्तेषु गनुरूम्यानत्यम्यअनात्पूर्व . सुहायपरिणामरूप-सुधात्मपरिणामरूप-त्रिका प्रशस्त जीया. कारो भवति, कचिदम्पत्रापि भाय। सहुमं । सूकम्प । प्रा०। ध्ययसायस्थभावे, पश्चा०१० विव।
अल्पे, पा० मन्दे, स्था०७ ठा० ३ उ.। अत्यन्तगहने, मामहारूडमहोत्तार-सुखारोहसुखोत्तार-पिका सुखेमारोहणमू- य०४ अ०सूचनामकम्मोदयात् सूक्ष्माते ये सर्वस्तोकागमन सुखेनोनारोऽधस्तादयतरणं यस्य सोपामपत्या
पन्नाः । स्था०६ ठा०१ उसे येषां परिणामस्सूचमस्ते सम्मान विभिः स सुखासेहसुखोत्तारः। सुखेनोयमधस्ताव गन्तरि,
स्था०१8०३ 3.1 उत्त। सारे.का.१७०१०। लो. जी. ३ प्रति०४ अधिक।
भाणून-येदयन् सूचमो भए पते सूरम सम्पराय इत्यर्थः । भासुहायवोध-सुखाययोध-पु.॥ सुखपरिक्षाने, पो०४ वियः ।
२०४०। सूत्र । सुबमोऽसंख्यातकिहिकावेदनमः, स्था
२ ठा०१ उ० । प्रव०। मृदु स्पर्श अ. जी०३ प्रति०४ सुहावह-सुखा(शुभा)यह-त्रि० । सुख शुभं था प्रावहतीति
अधिः । सूचमनामकर्मोद्ये दर्श- ४ तत्व । प्रश्न । पं. सुखायहः । स्था. १० ठा० ३ उ०। दश० । उभयलोकसुखकरे, सं० । सूरमनामकर्मोदयवर्तित्वात् ,पृथिव्यादिषु एकेन्द्रियेजम्बूद्वीपे मदरस्य पक्षिमे शीतोदाया महानद्या यक्षिणे षु, स० । मं० । स्था। स्वनामच्याते वक्षस्कारपर्वते,स्था० ४ ठा०१ उ० । देवकुरुषु
अष्ट सूचमाणिविजयक्षेत्रपुलस्यनामख्यातायां नगर्याम् , स्था।
अट्ठ सुहमा पलता, तं जहा-पाणसुहमे पणगसहमे दो सुहायहा । स्था० २ ठा० ३ उ०।
धीयसुहुमे हरियसुहुमे पुष्फमुहुमे अंडसुहुमे लेशमुहमे सहावासा-सखावासा-खी । विश्वस्तानां निर्भयानामनुस् सिगोरसहो। म.91
सिणेहमूहुसे । (मु०६१५) काबा पाखः खबरुणः शाबासो यस 'म सुहम ' त्यादि, सूक्माणि लात्वावल्पाचारायच
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सुहम
अभियानराजेन्द्रः।
सुहुमकाय तत्र प्रापसूक्ष्मम् अनुदरिः कुन्थुः स हि चलन्नेव बिभाब्यते सिणेहं पृष्फसहमंच, पापुचिंग तहेब या म स्थितः सत्मत्वादिति १, पनकसूभं पनकः-उल्ली . स |
पणगं बीय हरियं च, अंडसुहुमं च भडमं ॥१५॥ च प्रायः प्रावृद्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति. स एव सूक्ष्ममिति एवं सर्वत्र २. तथा बीजसुभ
'सिणेहं' ति सूत्र, 'स्नेह मिति स्नेहसुक्ष्मम-अवश्यायशाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका लोके या तुपमुखमित्यु
हिममाहिकाकरकहरतनुरूप, पुषसूक्ष्मं चेति वटोदुम्बगली यते ३, हरितसूधाम-अत्यन्ताभिनवोद्भिनधिबीसमान
पुष्पाणि, तानि तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते 'पाणी' वणे हरितमेवेति ४. पुष्पसूक्ष्म-बटोदुम्बराणां पुष्पाणि ना
नि प्राणिसूचममनुद्धरिः-कुन्थु , स हि चलन विभाव्यते, न नि नवनि सूदमाणीति न लदषन्ते ५. अण्डसूक्ष्म-मक्षि
स्थितः, सूचमत्वात् । 'उनिगं तथैव चे' न्यत्तिकसूरमं--
कीटिकानगरं, तत्र कौटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्वा भवन्ति । काकीटिकागृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलास्याद्या कमिति६.ल.
तथा 'पनक' मिति पनकसूक्ष्मं प्रायः प्रावृद्काले भूमिपनसूचम लयनम्-आश्रयः सस्वानां तव कीटिकानगर
काष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनः पनकाति तथा बीजमधर्मकादि । तत्र कीटिकाश्चान्ये च सूचनाः सत्वा भवन्तीति ७. नेहसूक्ष्ममवश्यायहिममहिकाकरकारिततनुरूपमिति ८ ।
शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका. या लोके तुरमुखमित्युस्था०८ ठा० ३ उ०। (प्राण सूचनादीनां व्याख्या स्वस्वस्थान ।)
च्यते. 'हरितं च ' नि हरितसूरमं .तचात्यन्ताभिनवोद्रिय (दश सूबभा इति 'महाई शब्दे पष्ठे भागे उक्तम् । ) प्रसा|
पृथिवीसमानवर्णमेवेति, 'श्रण्ठसूक्ष्मं चाएम' मिति । एतच तस्तट्टीका इह प्रदयते-प्राणसूचभम , अनुद्धरिः कुन्थुः |
मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकावासीकृकलासाद्यएडमिति-- पनकसवनम् उल्ली , यायाकरणादिवं द्रव्यम्-बीजसमं
सूत्रार्थः ॥ १५॥ दश ८ अ० २ उ० । नि० चूत। बीह्यादीनां कणिका हरितसूचमं भूमिसमबर्गत पुष्पसदर्भ
समयपरिभाषया सूक्ष्मकायिके पुष्पे." पुष्पाणि य कुसुबटादिपुष्पाणि, अर उसूचौ कीटिकाद्या दुकानि. लयमसमर्म
माणि य. फुल्लाणि य तहेब होति पमघागिण। सुमणाणि य सुहुकीटिकानगरादि, स्नेहसूबमम् अयश्यावादीत्यष्टमस्थानक
माणि य, पुल्लाणि य होति एगट्ठा।" दश.१ अ०ा वृथा"सुहुमो भनितमेव, इदमपरं गणितसूक्ष्मं गणितं सलनादि तदेव
य बायरो वा. दुविधो लो उत्तरो समासेणं । सुहुमो लोउत्तसूचभ सूचमबुद्धिगम्यत्वात् श्रूयते च बज्रान्तं गणितमिति ।
रिमो.णायच्यो इमेहि ठाणेहि ॥"सुहुमबायरमरूयं वक्खमाणं। भासवर्भ-मका भङ्गका वस्तुविकल्पास्ते च द्विधा स्थानभ
नि००१ उ० ! इसिमंतभावे सुहुमो परिगहो भरणनि । काः, क्रममाकाश्च । नत्राचा यथा द्रव्यनो नामका हिंसा
नि००१ उ० । आगामिम्यामुन्सारियां भविष्यति सप्तम भावना, प्रन्या भावतो न द्रव्यतः, अन्या भावतो द्रव्य -
मे कुलकरे , पुं० । स्था७ ठा० ३ उ०। सम. अम्या न भायनो मापि द्रव्यते इति, इतरे तु व्यतो सहमभपजत-सूचमापर्यप्त--पुंज सूचमनामकोश्ययसिषुषहिसा भावतश्च इग्यतोऽम्यान भावनः, नद्रव्यनोऽभ्या केन्द्रियापयर्याप्तकेषु, स०१४ सम। भावतः, अन्या न द्रव्यतो न भावत इति. नक्षसं समं भ. सुहममायार-सूक्ष्मातिचार-पुं० । लघुबारित्रमण्डेषु, पं0 असूक्ष्म, सूकमना बास्य भजनीयपदबहुस्खे गहनभायेन सू
घ०३ द्वार। मयुजिगम्यत्वादिति पूर्व गणितसूधनमुक्तमिति । स्था०१०
सुहमकम्म-सूचमकर्मन--न । सूचमेषु केवलज्ञानदर्शनयथाडा०३ उ०।दश। सूपमधिधिमाह
क्यानचारित्राचाबरकेषु कर्मसु , डा0१५डा। भट्ठ सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु मंजए ।
सुहमकाय--सूचमकाय-पुं० । इस्ताविक वस्तुनि, इति - दयाहिगारी भूएसु, मास चिढे सएज वा ॥ १३॥ ।
डाः । अन्ये त्याहुः--यने, भ. १६ श. ३० । स
मकार्य इस्तादिकं वस्तु मृषा । अम्गे स्याहुः सूचमकाभरी सचमाणि पचपमागामि प्रेयोपयोगनः मासीन तिष्ठेच्छयात येति योगः । किविशिरानीत्याह-यानि हात्या
यं यत्रम् , इति । प्रति। संयतो सपरिया प्रत्याख्यानपरिशया मक्याधिकारी भूतेषु
पृथिव्यादिषु कतरः कायः सूचम इनिकायमाश्रित्य
तेषामेवरेतरापेक्षा मूरमध्यनिरूपणायाहभयस्यम्यथा नयाधिकार्येव नेति, तानि प्रेक्ष्य सहित एया सनादीनि कुर्यात् , अन्यथा ने सातिचारतेति सूत्रार्थः।
एयरस णं भंते ! पुरविकाइयस्स भाउकाइ० तेउकाइ. माह
वाउकाइ० बणस्सइक इयस्स कयरे काये सव्वसुहमे कयरे कयराणि अदु सुहमाणि, जाइ पनिछा संजए। काए सबसुहुमतराए , गोयमा! बणस्सइकाइए सबइमाणि ताणि महावि, भाइक्खि वियक्खणो ॥१४॥ । सुहमे ! बणस्सइक इए सब्वसहमतराए १, एयस्स खं कतराण्याची सूचआणि याति दयाधकाारत्याभायभयात् भंते ! पुढविकाइयस्स भाउकाइ० ते उक्काइ चाउकाइयपृच्छेन संयतः " अनेन दयाधिकारेण एव एवंविधेषु य- स्स कयरे काये सधमुहुमे कयरे काये सब्बसुहमरनमाह--स ह्मवश्यं नदुरकारकार पकारकाणि च पृकछति अत्रैव भावयतिबन्धादिति । अमूति तान्यनन्तरं वामा
तराए ', गोयमा! वाउकाए सव्यसहमे चाउकायिपानि मधाबी पाचशीत विचक्षण इत्यनेनाप्यतंदवाई म
सपमुहमतराए २, एयस्स णं भंते ! पुढविकाहयंदावर्तिना नसेन तन्धरूपणा कार्या, एवं हि पोतुस्तत्रापा
यस्स पाउकाइयस्स तेउकाइयस्म कयरे काये म-. देयबुद्धिर्भवस्यन्यथा विपर्यय इति सूत्रार्थः। । बमुहुमे कयरे काए. सधमहुमनराए 2, गोयमा।
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सूक्ष्माकाराणि
माह्यतामात्रेण पा सूक्ष्मः सर्वसूक्ष्मः
(१०२४) सुहुमकाय अभिधानराजेन्द्रः।
मुहमसंपराय तेउकाए सबसुहुमे तेउक्काए सव्वमुहुमतराए ३, ए- सुहमपयत्थ--सूक्ष्मपदार्थ--पुं० । अस्थूलवस्तुषु कर्मात्मपरियस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स भाउकाइयस्स क- णामादिषु, पश्चा० १ विव०। यरे काए सबमुहुमे कयरे काये सधमुहुमतराए १, सुहमपुदविकाय-सूक्ष्मपृथिवीकाय-पुं० । सूचमनामकर्मोदये गोयमा ! भाउकाए सव्यमुहुमे, आउक्काए सन्चमु-| वर्तमाने पृथिवीकायिके, प्रशा० १ पद । हुमतराए ।
सुहुमोदिकलेवर-सूक्ष्मबोन्दिकलेवर-पुं० । सूचमबोन्दीनि'पयस्से' त्यादि , 'कयरे काए'त्ति-कतरो जीवनिका- सूदमाकाराणि कलेवराण्यसंख्यातखण्डीकृतवालुकाकणयः 'सव्यसुहुमे' लि-सर्वथा सूचमः सर्वसूचमः, अयं च | रूपाणि यत्रोद्धारे स तथा गोशालकपरिभाषया उद्धारचक्षुरप्राह्यतामात्रेण पदार्थान्तरमनपेक्ष्यापि स्याद् यथा कालभेदे, भ० १५ श०। सूक्ष्मो घायुः सूक्ष्मं मन इत्यत्र पाह-'सव्यसुहुमतराए' त्ति सुहमभावकुसलमइ-सूक्ष्मभावकुशलमति--पुं० । लोकशासर्वेषां मध्येऽतिशयेन सूदमतरः स एव सर्वसूचमतरक नगतास्थूलार्थनिपुणबुद्धिके, पश्चा० १५ विय० । इति । भ०१६ श०३ उ०।
सुहममहापाण-सूक्ष्ममहाप्राण-न० । सूचमे महापाणध्यासहमकाल-सूक्ष्मकाल-पुं०। यावता यालाग्रसङ्गयातखण्डेः ने, “पुयाणं अणुप्रोगो, संघयणं पढमं च संहाणं । सुस्पृशश्चास्पृष्टाश्चोद्धियन्ते स कालः सूचमः । सूक्ष्मे काले , हुममहापाणाणि य, योच्छिन्ना थूलभद्दम्मि ।" ति। स्था०२ठा०४ उ०।
| मुहमरययदीवाल-सूक्ष्मरजतदीर्घवाल-भि० । सूक्ष्मा रजसहमकिरिय-सूक्ष्मक्रिय-न०। सूचमा क्रिया यत्र निरु- तमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा । सूचमरजतमयमालववाङ्मनोयोगत्वं सत्यनिरुद्धयोगत्यात्तत्सूक्ष्मक्रियम् । शु.
त्सु, जी०३ प्रति०४ अधिक। क्लध्यानस्य तृतीयभेदे , भ० २५ श० ७ उ० । स्था० । | सुहमवायुसरीर-सूक्ष्मवायुशरीर--पुं०। वायुरेव शरीरं येदर्श । ग०। श्राव।
षां ते तथा , सूचमाश्च ते वायुशरीराश्च वायुकायिकाः मुहमगणिपवेसग-सूक्ष्माग्निप्रवेशक-पुं०। सूचमानौ-सू- सूक्ष्मवायुशरीराः । सूचनवायुकायिकेषु, भ०१८ श०३ उला धमाग्निकाये प्रवेशनमत्पादो येषां ते सुचमानिनवशकाः । सुहुमवियार-सूक्ष्मविचार-पुं०। यतिसमाचारप्रकाशनस्वसूक्ष्मानेरुत्पन्नेषु जीयेषु , क० प्र०१ प्रक० ।
भाव. दर्श० ३ तत्त्व। सुहमणाम-सूक्ष्मनामन-न० । नामकर्भमेदे , प्रव० २१६ सुहुमसंपराय--सूचमसम्पराय--न । सम्पति संसारमनेद्वार । यदुदयात्सूधमो भवति, अत्यन्तसूक्ष्मः अतीन्द्रिय -
नेति सम्परायः कषायोदयः सूचमो लोभांशावशेषः सत्यर्थः । श्रा० । सूचमा नाम यदुदयादहनामपि समुदिता
म्परायो यत्र तत्सूचनसम्पगयम् । चारित्रभेदेषु चतुर्थे चानां जन्तुशरीराणां च खता न भवति । पं० सं० ३ |
रित्रे, प्रा० म०१०। विशे० । इदमपि द्विविधं विशुद्धयद्वार । यदुदयात्सूचमाः पृथिवीकायिकादयः पश्च भवन्ति ,
मानकम् , संक्लिश्यमान च । तत्र विशुद्घमानकं क्षतदपि जीवविषाकिसूक्ष्मनामकर्मेति । कर्म १ कर्म०। बादर
पकोपशमणिद्वयमारोहतो भवति संक्लिश्यमानकं तपशत्वं परिणामविशेषः, यदुदयात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुश
मशेणेः प्रच्यवमानस्य प्राप्यते । विशे० । " सेदि बिलरीरस्य चक्षुह्यत्वाभावेऽपि बहुनां समवाये चतुर्ग्रहणं भव
ग्गतो तं , बिसुद्धमाणं ततो चयंतस्स । तह संकिलिति । तद्विपरीतं सचमनाम । कर्म० ६ कर्म०।
समाणं, परिणामवसेण विन्नेयं ॥१॥ श्राम०१ ०।
उत्त०। पा० । स्था० । विशे० । भ० । इह सस्यानि लोभसुहुमतस-सूक्ष्मत्रस-पुं। तेजोवायुषु , बीन्द्रियादीनां या
खण्डानि उपशमयन् बादरसम्पराय उच्यते, चरमस्य त दरत्रसत्यात् । स्था०६ ठा० ३ उ०।
संख्येयखण्डस्यासंख्पयानि खण्डानि प्रतिसमयमेकैकखसहमतिग-सूक्ष्मत्रिक-त्रि० । सूक्ष्मपर्याप्तसाधारणरूपे सू
एडमुपशमयन् सूचनसम्परायः । श्रा० म०१०। मोपलक्षिते त्रिके, कर्म०५ कर्न० । क०प्र०।
तथा चाहमुहुमत्थवियार-सूक्ष्मार्थविचार-पुं० । सूचमो मन्दमतिना
लोभाणू वेयंतो, जो खलु उवसामगो य खवगो वा। गम्यो योऽर्थः-शब्दाभिधेयं तस्य विचारो विचारणं सू
सो सुहमसंपरायो, अहक्खयाऊणश्रो किंचि ।। चमार्थविचारः । सरलस्यार्थस्य विचारणे कर्म०४ कर्म० ।
लोभस्य संज्वलनलोभस्य अणूनसंख्ययतमस्य खण्डस्यासुहमत्थालोयणा-सूक्ष्मार्थालोचना-खी। सूबभाश्च तेs- |
संख्येयानि खण्डानि धेदयमानोऽनुभयन् उपशमकः क्षपको र्थाश्च बन्धमोक्षास्योपाम् भालोचना सूक्ष्मालोचना ।
या भवति । सोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत्सबमसंपरायो भएयते । धन्धादिषदा, पो०१२ विव० ।
श्रा०म०१०। पं. भा०। सुहमसंपराइयं जो पञ्चति सो सुहमदव्यपुग्गल-सूक्ष्मद्रव्यपुद्गल-पुंग। द्रव्यपद्रलपरावर्त
सुहमसंपरागो। सुहुम नाम थोवं,कई थो , पाउयमोहभेदे, अथ द्रव्ये द्रव्यविषयः सूक्ष्मपुरलपरावतों भवति , णिज्जयजाश्रो छ कम्मपपडीयो सिदिलबंधणबद्धाओ अप्पयदौदारिकादिशगराणामेकेनाम्यतमन शरीरेणैको जीयः कालट्ठितिकात्रो महाणभावानो अप्पदेसगाश्रो सुटुमसंपरा. संसारे परिभ्रमन् सर्वानपि पुद्गलान् स्पृष्ट्वा परिभुज्य | गस्स वझाति, एवं योचं संपराइयं कम्मं तं स यज्भाति । मुञ्चति । प्रव० १६२ द्वार।
सुहुमो संपरागो वा जस्स सो सुहुमसंपरागो, सो य असं
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सुहमसंपराय
अभिधानराजेन्द्रः। स्नेजसमइयो अंतीमुहुत्तिो विसुज्झमाणपरिणामो वा प्रभया दीप्यमाने , जी०३ प्रति०१ अधिक। पडियत्तमाणपरिणामा वा भवनि ति । श्रा० चू०४० भोली-देशी-सुखे, दे० ना०८ वर्ग ३७ गाथा । सूचमसंपराया दशमगुणस्थानतिनः । पञ्चा० ६ विव०।।
| सुहेसग-सुखैषक-त्रि० । सुखस्य एषकः सुखैवकः याजकादि सुहमसंपरायगुणट्ठाण-सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान-न० । सूक्ष्म
स्वात्समासः । सुखार्थिनि, श्राचा.१० २१०३ उ०। सम्परायो द्विधा-क्षपका, उपशमको वा । क्षपयति उपशमयति धा लोभमेकमिति कृत्वा तस्य गुणस्थानं
सुहेसि-सुखैपिन-त्रि० । सुखलालसे , दर्श० ३ तत्त्व । श्रासूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् । (एतच केवलिन्येव भवतीति चा। सूत्र। विशेषणद्वारेणाह-) तथा छाद्यते केवलज्ञानं केवल- सुहोदय-शुभोदक-न० । पवित्रस्नानाहते गन्धोदके ,शा०१ दर्शनं चात्मनोऽनेनति छा ज्ञानावरणदर्शनावरणमोह- श्रु० १ ० । तीर्थोंदके, जं. ३ वक्षा। मीयान्तरायकर्मोदयः मति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात् | शुभोदय-न० । शुभ उदयो यस्य तच्छुभोदयम् । योगिना सपगमानन्तरं चात्पादात् छद्मनि तितीति छमस्थः। स च शुभोद चित्ते, पो०१४ विव। सरागाऽपि भवतीत्यतस्तद्वयवच्छेदाणे वीतरागग्रहणं यीतो
सुखोदक-न० । नात्युष्णशीते जले, श्री। विगतो रागो मायालोभकपायोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासौ छम स्थश्च वीतरागछमस्थः , सच क्षीणकपायो:- सुहावोग-शुभोपयोग--पुं०। प्रशस्ताध्यवसाये, पञ्चा०१५ पि भवति तस्यापि यथोक्लरागापगमात् ,अतस्तद् व्यवच्छे- | विव। दार्थमुपशान्तक वायग्रहणं 'कपशिष' त्यादि दण्डकधातुहि- सूअरवल्ल-शूकरबल-पुं० । शूकरसंशके कन्दविशेष, प्रय० ४ सार्थ: , कपन्ति कष्यन्ते च परस्परमस्मिन् प्राणिन इति द्वार। कपः संसार:. कपमयन्त-गच्छन्त्यभिजन्तव रति कपायाः सरलंळणा-शकरलालन-न०। स्वनामख्याते क्षत्र, "जत्थ क्रोधादय उपशान्ताः उपशमिता विद्यमाना एय संक्रमणोढ़
। तस्सेय भगवश्रो सूअरलंछणाणन्थणं पडुच्च देवेहिं महिमा मनाटिकरगोन्यायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कपाया येन स कया. ताथ यसभरखेत्तं पसिद्धिमवगयं" ती०२४ कल्प। उपशान्त कषायः । कर्म०५कर्म।गुणस्थानभेदे, दर्श०५तस्व।।
सूत्रा--मूआ--न० । धान्यविशेषे, ध०२ अधिः । सुहमसंपरायचरित्तलद्धि-मूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि-स्त्रीका
सूइअ--सूचित--नि० । तिरस्कृते , वृ. ३ उ०। व्यञ्जनासंपति-पर्यटति संसारमेभिरिति सम्परायाः-कपायाः ।!
। दियुक्ने, दश० ५ ० १ उ० । श्लाधित. वृ० १ उ० । मूहमा लोभांशावशेषरूपाः सम्पराया यत्र तत् तस्य चारित्रस्य लब्धिस्तथा । चारिप्रभेदे, भ०८ श०२ उ० ।
सूई-सूची--स्त्री० । वस्त्रसीवनापकरणे, पृ. ३ उ० । जीत । सहमसल--सूक्ष्मशल्य-न० । सूधमे गर्यात्मक शल्य, सूत्रः। सूत्र० । यया यर सीव्यते, ध०३ अधिक।
जे भिक्ख अविहीए मूह जायति जायंतं वा साइजह।२३। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज संथवं ॥ ११ ॥
जे मिका अथिहीए सुति जाति । का अवधी ? किमिति ? यतो गर्वात्मकमेतत्सूभ शल्यं यत्तते सूममन्याच
इमादुरुद्धरं दुःखनोजतुं शक्यते, अतो विद्वान् सदसदियकसस्तत्तावत् संस्तयं परिचयमभिष्यङ्गं परिजह्यात्-परित्य
वत्थं सिव्यिस्सामि-त्ति जाइउं पादसिव्वणं कुणति । दिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति
प्रहवा वि पादसिव्वण, करेंतो सिव्वती वत्थं ॥१७॥ "पलिमन्थम वियाणिया, जा वि य चंदण पूयणा । कंठा। सुहुमं सलं दुरुखरं, तं पि जिसे एएण पंडिए ॥१॥" तं दट्टण सयं वा, अहवा अमेसि अंतियं सोचा। अस्य चायमर्थ:-साधोः स्वाध्यायध्यानपरस्यै कान्त- उभयेणं मग्गहणं, कुजा दुविधं च वोच्छेदं ।। १७६ ।। निःस्पृहस्य योऽपि चायं परैर्चन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते , असावपि सदनुष्ठानस्य सद्र्या
सूतिसामिणा अविहीप सिब्बतो सयमय दिट्ठो, अण्ण - महान्
स्स या समीये सुतं श्रभावणाश्रो अराणस्स पुरश्रो खिपलिमन्थो विघ्नः, श्रास्तां तावच्छदादिष्वभिण्यास्तमि
सति, अग्गहण साहू अणायारं करोति. दुयिधो योच्छेनो स्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं दुरुहरं चातस्तमपि जयेद
तब्येण दव्याग या तस्स वा अरगास्स या साहुस्स। अपनयेत्, पण्डितः एतेन पक्ष्यमाणेनेति । सूत्र. १ ध्रु०२ १०२ उ.।
जे भिक्खू अप्पणो एगस्स अट्ठाए सूई जाइत्ता प्रमसुहमुस्सास-सूक्ष्मोच्छ्ास-पुं० [अल्पे अल्पपरिमाणे उच्छासे. मन्नस्स अणुपदेइ अणुपदंतं वा साइजइ ।। २४ ॥ "सुहुमुस्सासं तु जयणाए त्ति" सूक्ष्मोच्छासमेव यतनया अहगं सिव्विस्मामि, त्ति जाइउं सो य देति अमेसि । मुञ्चन्ति नोल्वणं मा भूत्सत्त्वघातः । श्राव० ५ ०।
अम्मो वा सिव्विहिती, सो सिधणमप्पणा कुणति।१७७/ सहय-सुहत-त्रि० घृतादितर्पिते,शा०१ शु०५ ०। औ०।
अपणो अट्ठाए जाएउ अण्णस्स अलद्धियसाहुस्स देति सुहुयायासण-हुतहुताशन-पुं० । घृतादितर्पितवैश्वानरे,
ताणि या कुलागि जम्स साहुम्स उयसमंति तस्स सुययासयोग्य तेयमा जलते'घृतादितर्पितवैश्वानरव-! गामेगा मांग अपणो सिव्वेति । को दोसा ? ।
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अभिधानराजेन्द्रः।
सूयम हमा--
मूड-भञ्ज-धा० । आमर्दन, “ भञ्जर्वेमय-मुसुमूर- मूर-- तं दहण सयं घा, अहवा अमेसि अंतियं सोचा। सूर-सूड-विर-पधिरज-करञ्ज-नीरजाः ॥८।४।१०६ । प्रोभावणमग्गहणं, कुजा दुविधं च वोच्छेदं ॥१७॥ भञ्जरेते नवादेशा वा भवन्ति । सूडइ । भनि। प्रा०४ पाद । सई वा प्रविधीए, जे भिक्खू पाडिहारियं अप्पे । सूणत्त-मूनत्व-न० । वातपित्तलष्मसन्निपातकाभिघातजे तस्कजसंधसं वा, कुजा छक्कायघातं वा ।। १७६ ।।
शोथे, वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघातजोऽयं षोढा, उक्नं जंती मूईए कजं तं कनं गहणपणेण वा छक्कायघातं वा
च--" शोफः स्यात् षडिधो घोरो, दोषैरुत्सेधलक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्वापीह, तथा रक्ताभिघातजः ॥१॥" प्राचा०१
श्रु०६ १०१ उ०। इदाणि च उराह वि सुत्ताण विधी भएणतिसम्हट्ठा जाएजाज सिव्वे कस्स कारणा वादि ।
सूणया-सूनृता-स्त्री० । वाङ्मनसोयथार्थत्वे, द्वा०२१ वा। एगतरमुभयतो वा, अक्खेवेत्तुं तहा भिक्ख ॥ १८०॥ सूणा-सूना-स्त्री० । वधस्थाने, तं० । ग० । अप्पटाए जापज्जाजं वा वत्थादि सिब्बे तबट्टाए जाएजा अथ गाथाचतुष्केनोत्सर्जनीय गच्छं दर्शयतिजस्स साहुस्स कजं नम्मामेण जाएज्ज, अप्पणो परस्स उ
जत्थ गोयम ! पंचएहं,कह वि सूणाण इक्कमवि हुज्जा। भयट्टा वा जाएज्जा जहा काउकामो तहा अखिउ जाति
तं गच्छं तिविहेणं, बोसिरिय वइज अनत्थी ।।१०१॥ यवं, एस परमत्थी। अप्पणणे विधी भस्मति
यत्र गच्छे गौतम ! कथमपि पञ्चानां मनानां-यधस्थानानां
मध्ये एकाऽपि भवेत् , तं गच्छ त्रिविधेन मनोवाकायलागेन गहणम्मि गिरिहऊणं, हत्थे उत्ताणगम्मि वा काउं ।
ग्युत्सृज्य-त्यक्त्वा अन्यत्र सद्गच्छे यजेत् । तत्र घट्टिका १ भूमीए च ठतुं, एस विही होति अप्पणणे ॥१८१।।
उदृखलं २ चुल्ली ३ पानीयगृह ४ प्रमार्जनी चति५, पञ्च गहणपासश्रो तम्मि सयं गेरिहऊणं आणिऊगं गिहत्थस्स सूनाः, उक्नं च शुकसंवादेऽपि-"खण्डनी, १ पेषणी २ चुल्ली ३, अप्पेति, एवं संजयपोगण भवति , अप्पाणगंमि या हत्थे जलकुम्भः ४ प्रमार्जनी५ । पञ्च सूना गृहस्थ स्य,तेन स्वर्ग वि तिरिच्छं आणिएण वा ठवेति एवं भूमीएण वि ठवेति । न गच्छति ॥१॥” इति गाथाछन्दः । पतेसिं च उगह वि सुनाणं इमे वितियपदा--
सूणारम्भपवतं, गच्छं वेसुज्जलं न सेविज । लाभपरिच्छा दुल्लभ, अचियत्ते सहम अप्पणणे । जं चारित्तगुणेहि तु, उजलं तं तु सेविज ।। १०२ ॥ चउसु वि पदेसु एते,अवरपदा होंति णायया ॥१८२॥ सूनारम्भप्रवृत्तं खण्डन्याद्यारम्भकर्तारं, तथा वषेणोज्ज्वलं साह खतपडिलहगा गता, किं सूती मग्गिता लम्भति गण. वेषोज्ज्वलम् , एवंविध गच्छ न सेवेत संसारबर्द्धकत्वात् । बत्ति अमट्ठाए मग्गेज्जा, पतसिव्यणट्ठाए दुल्लभाअो सूती- ननु उज्ज्वलवषस्य को दोषः? उच्यते-उपवलवेषण विभूषा ओ वत्थसिब्बण? मवि गीयाए पत्तं सिविज्जति, तं पुण ज
भवति विभूषातश्च चिकणः कर्मबन्धः ततश्च संसारपटर्यठनयणाए सिब्बति जहा ण दीसति खाइयभावेण अवियत्तो- मिति । ग०२ अधिक। साहुगाण लम्भति तस्स वा णामेण ग लम्भति ताहे अप्प- भपतरा-शनारम्भप्रवर्तक-त्रि० । खण्डन्याद्यारम्भणो अट्ठाए जाउं तस्स देज्जा सहसाऽणाभोपण वा श्रबिहीए अप्पगोज्जा । नि० चू०१ उ०। फलकसंबन्धिघना
कर्नरि, ग०२ अधिक। भावहेतुपादुकास्थानीय ऽर्थे, जी०३ प्रति०४ अधि०। जानिक मू(सु)तम-सूत्तम-त्रि० । अतिप्रधाने , ग०१ अधिक। चू० । विपा०। पं० भा० । सदावतस्वसंख्य यैरग्निजीबरेकै- सूदग-सूद्रक-पुं । प्रतिष्ठानपुरे सातवाहननृपतिमित्र स्वनाकाकाशप्रदेशब्यवस्थापितघेनो मन्तव्यः, द्वितीयोऽपि धन
| मख्याते द्विज, ती०२६ कल्प । ('सातवाहन' शब्देऽस्मिन्नेव इत्यमेव भवति एवं प्रतरस्तथा सूचिरपि । विशे०। (अप्रन्या भागे कथा ।) याण्या माहि' शब्दे तृतीयभागे १४८ पृष्ठ गता।) म-Ne
सावीतैलविशेष.स.१ उ०२ प्रका। अर्याम् , ३० ना०८ वर्ग १ गाथा ।
पं०याचम्पानगर्या सागरदत्तसार्थवाहस्य सुतायाम , शा० मईतल-सूचीतल-न० । ऊर्ध्वमुखसूचीके भूतले , प्रश्न १
१ श्रु०१६ अ० । ('दुई शब्द चतुर्थभागे २५८४ पृष्ठे कथा।) आश्रद्वार।
सूय-सूत्र-नका 'सूच् पैशून्ये,सूचनात्सूत्रं निपातनात् रूपनिष्पमईफलय-सूची फलक-न० । सूचीभिरसंबन्धितेषु फलक
तिः भावप्रधानश्वायं सूत्रतायाम् . नं। प्रदेशेषु, जी०३ प्रति०४ अधिक।
सूच्-धा० । चुग० । झापने, सूएइ । सूचयति । वृ०२ प्रक० । सहमह--सूचीमुख-न । यत्र प्रदेशे सूवी फलकं भित्त्या मध्ये
सूयग-सूतक-न । श्राशौचे. व्य०१ उ०1" जायमजायसूय. प्रविशति तत्प्रत्यासने देश, जी. ३ प्रति०४अधि० । रा०। द्वीन्द्रियजीवभेदे,प्रशा०१ पद । पक्षिभेद,प्रश्न०१आश्र० द्वार।
गेसु निज्जूढा" व्य०१ उ० । सूतके विचार:-पुत्रजन्मनि तद्गे
हे दशदिनपर्यन्तं भोजन न कर्तव्यम् । ही०४ प्रका०।०। HT4)शकर-पुण बराह, प्रम०२भागबार। ही। "तस्ल परे तिनि पक्खी सूयतो मयणसलागा कुकुड
"HERuो तिलिएकवी मयतो म:
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(१०२७) सूयग अभिधानराजेन्द्र:।
सूयगड गो, " श्रा०म०१ ० । सूगर्भद इति प्रसिद्ध तृणवि- तृतीयभागे ३६ पृष्ठे गता।) शेष, प्रव०६० द्वार । जायमयसूयगाई निज्जूढा " इत्यादि- इहानन्तरसूत्रकृतस्य निरुक्तमुक्तमधुना सूत्रपदस्य निरु-- सूतकशब्दः प्रत्येकं सम्बद्धयते, जातकसतकं नाम जन्मान- क्राभिधित्सयाऽऽहस्तरं दशाहानि गावत् , मृतसूतकं मृतान्तरं दश दिवसान सुत्तेण सुत्तिया चिय, अत्था तह सूइया य जुत्ताय । यायत्तत्र यज्यं तद् द्विधा- लोग'सि लौकिकम् ' उत्तर'
तो बहुविहप्पउत्ता, एयपसिद्धा अणादीया ॥ २१ ॥ त्ति लोकोतरम् , लौकिक द्विधा-इत्थरम् .यावत्कधिकं च ।
'सुत्तेणे' स्यादि, अर्थस्य सूचनात्मूत्रम्-तेन सूपेण कतत्त्वरम्-यत्सकं मृतकादि.तथाहि-लोके सूनकादि दश दिवसान् यावद्वय॑त इति,यावत्कथिकच-यरुडछिम्पक
चिदर्थाः साक्षात्सूत्रिता मुख्यतयोपासास्तथा परे सूचिता धर्मकार डोम्बादि, एतान्यक्षराणि व्यवहारसूत्रवृत्ती सन्ती
मर्था पत्याक्षिप्ताः साक्षादनुपादानेऽपि ध्यानयनचीवनया स्युक्त्वा सूतकगृहं दश दिवसान् यावत्खरतरास्त्यजन्तः स
तदाधारानयनचोदनावदिति । एवं च कृत्या चतुर्दशपूर्यविदा न्ति,प्रश्नोत्तरप्रन्थे तु दशदिननिर्बन्धोशातो नास्ति इत्युक्त
परस्परं पदस्थानपतिता भवन्ति, तथा बोक्लम्-"अक्खरलंमस्ति, तत्कथमिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-व्यवहारसूत्रवृत्ती
भेण समा , ऊणऽहिया हुंति मतिविसेसेहि। तेचि य मई
विसेसा , सुयणाणभंतरे जाण ॥१॥"तत्र ये सालापासूतकविषये यद्दशदिनवर्जनं नहेशविशेषपरत्वेन , ततो यत्र
तास्तान् प्रति सर्येऽपि तुल्याः, ये पुनः सूचितास्तदपेक्षया देश सूतकविषये यावानवधिस्तावन्ति दिनानि वर्जनीयानि,
कश्विदनन्तभागाधिकमर्थ वेत्ति अपरोऽसंख्येयभागाधिसम प्रश्नोत्तरग्रन्थेन सह न कोऽपि विरोध इति ॥ २६० ॥
कम् , अन्या संख्येयभागाधिकम् , तथाऽन्यः,संख्येयासंख्येसूतकगृहं साधव श्राहारार्थ यान्ति नति?प्रश्न:-अत्रोत्तरम्
यानन्तगुणमिति,ते च सर्वेऽपि युक्ता युक्त्युपपन्नाः सूत्रोणायत्र देशे सूतकगृहे यावद्भिर्वासराह्मणादयो भिक्षार्थ व.
ता पर बेदितव्याः, तथा चाभिहितम् 'ते घिय माविसेजम्ति तत्रास्माभिरपि तथा विधेयमिति वृद्धव्यवहारः।२०१॥
से' इत्यादि , ननु किं सूत्रोपात्तेभ्योऽन्येऽपि केकार्थाः स. सन०३ उल्ला।'जायमयसूयगाइसु निज्जूढा 'सूतकशब्दः
न्ति येन तदपेक्षया चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानपतितरवमुद्प्रत्यकमभिसम्बध्यते जातसूतकं नाम जन्मान्तरं दशाहानि
घुष्यते बाद विद्यन्ते यतोऽभिहित-" परणयणिज्जा भावा, यावत् मृतकसूतकं नाम मृतानन्तरं दश दिवसान् यावत् तत्र
अणतभागो उ अभिलप्पाणं। परणयणिज्जार्ण पुण, प्रजातकसूतके घा आदिशब्दात्तदन्येषु तथाविधेषु शद्रगृहादिषु णतभागो सुयणिबद्धो ॥१॥" यतश्चैव ततस्ते अर्था श्राये कृतभोजनाः सन्तो धिग्जातीयैर्नियूढा असंभाष्याः कृता गमे बहुविधं प्रयुक्ताः, सूत्रैरुपाताः केचन साक्षात् केचिइति । व्य०१ उ० । उत्त । पा०।
दर्थापत्या समुपलम्पम्ते । यदि वा-कचिद्देशप्रहणं कचित्ससूचक-पुं० । पिशुने , पिशुनं सूचकं विदुरिति वचनात् , र्थोिपादानमित्यादि, यैश्च पदस्तेऽर्थाः प्रतिपाद्यन्ते सानि आव०४०। प्रश्न । राज्ञां सूचनाकारके. ये सामन्तरा
पदानि प्रकर्षेण सिद्धानि प्रसिद्धानि न साधनीयानि, तथा ज्येषु गत्या अन्तःपुरपालकैः सह मैत्री कृत्वा यत्नत्र रहस्य
अनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि, तथा चेयं द्वादशाङ्गी नरसंर्व जानन्ति पश्चादनुसूचकेभ्यः कथयन्ति । व्य०१ उ०।
शब्दार्थरसनाद्वारेण विदेहेषु नित्या भरतराषतेष्वपि शब्दर
चनाद्वारेणैव प्रतितीर्थकर क्रियते अन्यथा तु नित्यैव, एतेन एयगड-मूत्रकृत-न० । प्रवचनपुरुषस्य द्वितीयेऽके ,नं० ।
योधरितप्रध्वंसिनो बर्णा इत्येतन्निराकृतं येदितव्यमिति । 'सूच' पैशून्ये, सूचनात्सूत्रम् , निपातमापनिष्पत्तिरिति
साम्प्रतं सूत्रकृतस्य धुतस्कन्धाध्ययनादिनिरूपणार्थमाहभावप्रधानश्चायं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थः-सूत्र कृतं सूत्ररूपतया कृतमित्यर्थः , यद्यपि च सर्वम सूत्ररूपतया
दो चेव सुयक्खंधा, अज्झयणाईच हुँति तेवीसं । कृतं तथापि रूढिवशादेतदेव सूत्रकृतमुच्यते, न शेषमाम् ।
तेत्तिसुदेसणकाला, पायारामो दुगुणमंगं ।। २२ ।। नं०। (सत्रस्य करणस्य च निक्षेपी स्वस्वस्थाने उनी ।) 'दो चेथे' त्यादि, द्वावत्र श्रुतस्कन्धौ प्रयोविंशतिरध्ययलौकिकम्यस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् कर्तुरशुभध्यायित्वमय
नानि प्रयखिशदुद्देशनकालास्ते चैयं भवन्ति-प्रथमाध्ययंन चसेयम् , हतु सूत्ररुतस्य तावत् स्थसमयेन शुभाध्यबसा
स्पारो द्वितीय त्रयस्तृतीये चस्यारः एवं चतुर्थपश्चमयोहीद्वी येन च प्ररुतं यस्मादणधरैःशुभयानावस्थितेरियमचंत
तथैकादशस्वेकस रकेष्वेकादशैवेति प्रथमथुतस्कम्धे । तथामिति ।
द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तयोद्देशनकाला एसूत्रकृनपर्याया:
बमेते सर्वेऽपि प्रयस्त्रिशदिति । एतन्नाचारामात् द्विगुणमा सूयगडं अंगाणं, वितियं तस्स य इमाणि नामाणि ।
पदिशपदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः । सूत्र०१०१०। सूयगडं सुतकडं, सू(या)यगडं चेत्र गोणाई ॥२॥
सूत्रकृतःसूत्रकृतमिति-पतवमानां द्वितीयं तस्य चामून्यकार्घिकानि,
तवीसं सूयगडज्झयणा पसत्ता,जहा-समए वेयातद्यथा-सूत्रमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृद्भ्यः ततः कृतं
लिए उवसग्गपरिला स्थीपरिक्षा नरयविभत्ती महावीरप्रन्धरचनया गणधरैरिति , तथा सूत्रकृतमिति सूत्रा- धुई कुसीलपरिभासए वीरिए धम्मे समाहिमग्गे समोसरनुसारेण तत्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति तथा सूचा
णे पाहत्तहिए गंथे जमईए गाथा पुंडरीए किरियाठाणा कृतमिति रवपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिन् कृतेति , एतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानीति । सत्र०.१ भु.
पाहारपरिमा भपक्खाणकिरिया अणगारसुयं प्रदरखं २०१० । ( सूत्रकृतनियम्याग्या' करब: सदा सालंदाबा(सू० २३x)
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( १०२८) अभिधानराजेन्द्रः ।
सूयगड
सूत्रकृतस्य सप्तपञ्चाशदध्ययनानि, स० । तत्राबारे प्रथमतस्कन्धे नयाध्ययनानि द्वितीयेोडश निशीथाध्ययन स्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात् षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परितत्वात् शेषाणि पञ्चदशसूत्र द्वितीयाने प्रथमथुतस्कन्धे पोडश द्वितीये सप्त स्थाना शेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति स० अध्ययनानां प्रत्येकांच
कारः । स० ।
साम्यतं कृताङ्गनिक्षेपानन्तरं प्रथमस्कन्धस्य नाम
निष्पद्यनिपाभिधित्वयाऽऽह
"
"
भव्य
"
निक्खेवो गाहाए, चउब्विहो छव्विहो य सोलस्सु । निक्खेवो य सुमि व संधे य चउन्विहो होइ ॥ २३२ ॥ इहायश्रुतस्कन्धस्य गाथापोडशक इति नाम, गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथेति तत्र गाथाया मामस्थापनाइय्यभावरूपश्यतुर्विधो निक्षेपः नामस्थापने प्रसिद्विधा नमो गोश्रागमन श्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः ' अनुपयोगो द्रव्य मितिफन्या नागमतस्तु विधा- इशरीरगाथा - शरीरद्रव्यगाथा ताभ्यां विनिर्मुक्ता च "विसमे, ण से हया ताण छट्ट राह जलया । गादार पच्छडे, भेशो को सिरककलो १ ॥ " इत्यादि पत्र स्तकादिन्यस्तति भागाचाणि द्विविधा श्रागम-नोश्राग मभेदात् तत्राऽऽगमतो गाथापदार्थशस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव गाथा ययमध्ययनम् श्रागमैकदेशत्वादस्य षोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् षोढा निक्षेपः । तत्र नामस्थापने तुरणे, द्रव्यपोडशकं ज्ञशरीरभरी सवितादीनि पोि क्षेत्र कारादेशाः कालपोडकंपोस मयाः एत कालावस्यापि या इव्यमिति मत्यषोडशकमिमेड सायोपशमिकाचवृत्तित्वादिति । तस्कन्धयोः प्रत्येकं चतुर्विधो निक्षेपः स चान्यत्र भ्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते । साम्प्रतमध्यमानां प्रत्येकमधिकार दि ससमयपरसमयपरूवणा य गाऊ बुज्झणा चैत्र । संबुद्धस्वसग्गा, रवीदोसविवजया चैव ।। २४ ॥ उपसग्गभीरुणोत्थी बसस्स गरएस होज उपवाओ एवमहप्पा वीरो जयमाह तदा जरजाह ।। २५ ।। परिचतनिखीलसील सुसीलसंविग्गसील प गाऊन परिवदुर्ग पंडियपीरिय पयट्टेई (वगड)।। २६ । धम्मो समाहिमग्गो, समोसा पउम्र सव्ववादी । सी गुलदसणा, गंधमि सदा गुरुनिवासो ॥२७॥ श्रादायि संकलिया, आदाणीयंभि आदयचरितं । अप्परगंधे पिंडिय, वययेयं होइ महिगारो ॥ २८ ॥ तत्र प्रथमाध्ययने स्वसमय पर समय प्ररूपणा द्वितीये स्वसमयगुणान् परसमयदोषाँश्च ज्ञात्वा स्वसमय एव बोधी विधेय इति तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन् योपसर्गसद्विष्णुर्भवति चतुश्रीदोष
,
"
,
सूयगड
•
7
9
"
"
विजेता पञ्चमे त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा - उपसर्गासहिश्रातइति पठ्ठे पुनरेषमित्यनुकूलतिफुलोपसर्गसमेत दोपवर्जनेन च भगवान् महावीरो जेतव्यस्य कर्मणः संसारस्य वा पराभवेन जयमाह - ततस्तथैव यक्षं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयते समेत यथा-निःशीला - दस्थाः कुशलास्त्वम्यतीर्थिकाः पार्श्वस्यादयो वा ते परिस्य कायेन साधुना स परित्यननिःशीलकुशील इति तथा सुशीला उद्युक्रेविहारिणः संविद्माः संवेगात्सेवाशीलः शीलवान् भवतीति श्रष्टमे त्वेतत्प्रतिपाद्यते, तद्यथा-ज्ञात्वा वीर्यद्वयं पण्डितवीय प्रयत्नो विधीयत इति, नवमे वार्थाधिकारस्त्वयम् तद्यथा-यथावस्थितो धर्मः कथ्यते ; दशमे तु समाधिः प्रतिपाधने एकाइशे तु सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः कथ्यते द्वादशे स्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा - समवसृना अवतीर्णा व्यवस्थिताश्चतुर्षु मतेषु क्रियाक्रियाज्ञानवैनयिकाख्येष्वभिप्रायेषु त्रिषटयुत्तरशतत्रयसंख्याः पाषण्डिनः स्वीयं स्वीयमर्थ प्रसाधयन्तः समुचिता तदुपन्यस्तसाधनदोषद्वावनता निराकियन्ते त्रयोदशे स्विदमभिहितं तद्यथा - सर्ववादिषु कपिलकणादाक्षपादशौद्धोदनिजैमिनिप्रभृतिमतानुसारिषु कुमार्गप्रणेतृत्वं साध्यते चतुर्दशे तु प्रन्थान्येऽध्ययनेऽयमधिकारः, तद्य या शिष्याणां गुरुदोषकथना तथा शिष्यमुखसम्पदुपेतेन मिनेन नित्यं गुणानुरूपगुरुकुलपासो विधेय इति पञ्चदशे त्यादानीयाख्यऽध्ययनेऽर्थाधिकारोऽयम्, तद्यथाश्रदीयन्ते गृहान्से उपादीयन्ते इत्यादानीयानि पदान्यथ वा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरर्थैश्च प्रायशोऽत्र संकलिताः, तथा चरित्रं सम्यकुचरित्र मोक्षमार्गसाधकं तथा इति षोडशे तु गाथा सपथ यनेऽयमथ व्यावर्ण्यते, तद्यथा - पञ्चदशभिरध्ययनैर्योऽर्थोऽभिहितः सो ss परिडतवचनेन संक्षिप्ताभिधानेन प्रतिपाद्यत इति । "माहाबोला पिंडो पनि समाये । एसो
"
9
"
किं पुरा, अभयं कित्तइस्सामि ॥ १ ॥ " सूत्र० 1 (समयाध्ययनस्थाधिकारमायाः २६ 'समय' शब्देऽस्मि भागे उक्ताः । )
साम्यतं प्रामुपन्यलादेशाधिकाराभिधित्सयाह-महपंचभूय एक प्यए व तज्जीयतस्सरीरे य तह य अगारगवाई, अच्छडो अफलवादी ॥ ३० ॥ बीए नियईवाओ, अगाशिय तय नागवाईओ कम्मं चयं न गच्छइ, चउन्विहं भिक्खुसमयंमि ।। ३१ ।। तर आहाकम्मं, कडवाई जह य ते पवाईओ । किच्चुवमा चउत्थे, परप्पवाई अविरएम ॥ ३२ ॥
'महपंचभूये' त्यादि गाथात्रयम्, श्रस्याध्ययनस्य चत्वाउदेशकालस्य पर्याधिकारा आयगाथाऽमिहिताः, तद्यथा - पञ्च भूतानि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाख्याति महान्ति च तानि सर्वलोकव्यापित्वात् भूतानि च महाभूतानि इत्ययमेकोऽर्थाधिकारः, तथा चेतनाचेतनं सर्वमेयात्मविदत्यात्मा प्रतिपाद्यतइत्यधिकारो द्वितीयः स चासौ जीवश्च तज्जीवः कायाकारो भूत
"
4
"
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सूयगड
परिणामस्तदेव च शरीरं जीवशरीरपोरेयमिति यावदिति तृतीयोऽधिकारः तथा कारको जीवः सर्वस्याः पुण्यपा पक्रियाया इलेवनादीनि चतुर्थोऽधिकार तथात्मषष्ठ इति पञ्चानां भूतानामात्मा षष्ठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पञ्चमोऽर्थाधिकार तथा फलवादीति न विद्यते कस्याश्वित् क्रियायाः फलमित्येयवादी इति पष्ठोऽयषि कार इति द्वितीयबत्वारोऽधिकाराः, नद्यानियतवादस्तथा अज्ञानिकमतं ज्ञानवादी च प्रतिपाद्यते कर्म मुच चतुर्विधमपि न लिमये या इति चतुर्थोऽर्वाधिकारः चतुर्विध्यं तु कर्मोपचितं अधिज्ञानमविज्ञातयोपचितमना भोगकृतमित्यर्थः यथा मातुः स्तनाग्रामन पुत्राणायप्यनाभांगात कर्मपथीयते । तथा परिज्ञानं परिक्षा केवलेन मनसा पर्यालोचनम्, तेनापि कस्यचित् प्राणिनो व्यापादनाभावात् कर्मोपच थाना इति तथा तेन जनित प्रत्यं किमर्थन गच्छति, पदनामसंपेरभावादिति तथा स्मान्तिकं स्वत्कर्म - चीयते, यथा स्वप्नभोजने तृप्त्यभाव इति । तृतीयांशके त्वमधिकारः तद्यथा-साधा मंगलवार दोषोपदर्शनमिति तथा कृतवादी भा रेण कृतोऽयं लोकः प्रधानादिकृतो वा यथा च ते प्रचादिनः श्रात्मीयमात्मीयं कृतवादं ग्रहीत्वोत्थितास्तथा भरायन्ते इति द्वितीयोऽर्थाधिकारः । चतुर्थोद्देशकाधिकारस्त्वयम् तद्यथा-अविरतेषु गृहस्थेषु यानि कृत्यानि श्रनुष्ठानानि स्थितानि संयमवादी परतीर्थिक
,
"
उपमीयत इति । सूत्र० १ ० १ ० १ ३० । स० । सूत्रकृतस्य विषया:
(२०११) अभिधान राजेन्द्रः ।
·
-
से किं खूप खूषगडे खोए लोए बज, लोपालोए इज्जइ जीवा सहजंति जीवा सहज्जेति जीवाजीवा सूहज्जंति, ससमए सूइज्जइ परसमए सूज्जइ ससमयपरसमए सूइज्जह, सूर्यगदेय असीयस्स किरियावाइसयस्य चउरामीईए अकिरिया बाई सती अमानियाई - सीमा बेपवाई तिर तिमट्टी पाडियम या वृई किच्चा सममए ठापि बगटे परिना बायणा संखिजा अणुओगदारा संखिज्जा बढा खिज्जासिलोगा संखिज्जाओ निज्जुनीया संखिउजाओ पडिवतीओ से गं अंगवाए वि अंगे दो सुववधा तेवीसं अभषणा तेली उद्देशकाला तेत्तीसं समुद्देसणकाला छत्तीसं पयसहस्साये पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अता पवा, परिता तसा अता बावरा पासकडनिपढ़निकाइया जिगपापता भावा आपविति परूविनंति सिति निर्देसित उपदंसिजति मे एवं
"
२५८'
सुर विमाया एवं चरणकरणप सूगडे (खू० ४६ )
।
अथ किं उत्सूत्रकृतम्- 'सूत्र' शून्ये सूचनात् सूत्रे निपानः नात् रूपनिष्पत्तिर्भावप्रधानश्चायं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थःसूत्रेण कृतं सूत्ररूपतया कृतमित्यर्थः । यद्यपि च सर्वम सूत्ररूपतया कृतं तथापि रुढिवशादेतदेव सूत्रकृतम्च्यते; न शेषमङ्गम् । श्राचार्य श्राह - सूत्रकृतेन अथवा - सूत्रकृते समिति पाक्यालङ्कारे लोकः सूयते इत्यादि दसिद्धं यावत् 'असीयस्स किरियावाइसस्स इत्यादि । सूत्र० १ ० १ ० । ( लोकस्य सुमनम् 'लोक' शब्दे पष्टभाग । 'भावणा' शब्दे पञ्चमभागे च गतम् ।) (श्रलोकस्वरूपम् श्रन्नग' शब्दे प्रथमभागे ७८५ पृष्ठे गतम् । 'लोक' शब्दे च पष्ठभाग सविस्तरमुक्रम् ) ( जीवसूचनम् 'जीव' श चतु शब्दे भागे १५९६ पृष्ठे गतम् ।) (अजीवसृत्रनम् ' अजीव ' श दे प्रथमभागे २०३ पृष्ठे गतम् । ) ( जीवाजीवसूचनम् 'जीवाजीव शब्दे चतुर्थभागे १५५६ पृष्ठे उक्तम् J ( स्वसमय स्वरूपम् 'ससमय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् । ) ( पर समय स्वरूपम् परसमय -शब्दे पञ्चमभागे ५४ पृष्ठे प्रतिपादिनम् ) (क्रियावादिनः किरियाबार शब्दे तृतीयभागे ५५५ पृष्ठे उक्लाः । ) ( अक्रियावादिनः श्रकिरियावद्द शब्दे प्रथमभागे १२६ पृष्ठे गताः । ) ( श्र ज्ञानिकवादिनः अनादि शब्द प्रथम मताः ) ( वनविक्रयादिनः शब्दे भग दर्शिताः ) " भारदाजसगोने सूपडं महासमनाम । गुणत्तीससतेर्हि, जो हि वरिसाण वोच्छिन्ना ॥ ति० ॥ सूमो सूतगमी खी० अभिनयगषि वि परिसम्पति सूयगो व श्रदूरए । सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । सूयपाय- शूनपाद- वि० संजातपादांचे विषा श्रु० ७ ० ।
.
"
आया से एवं नाया से एवं रूपया आघविज्जह से
6
1
•
1
,
(अ) र शूकर-५० पशुविशेषे चिरांद पं० २०१ द्वार। सूत्र । विपा० प्रा० म० । 'सुखियाभावं सालस्स, सुगरस्स नरहसय । विणण ठचिज अध्यारी, इच्छेतो हियमप्पणी ||" उत्त० १ ० ।
परिय- शौकरिकविरुधाबीती रिकाः। शूकरमांसोपनि अनु०
?
सूया - मृचा - स्त्री० । व्याजे स्था० ३ ठा० ३ उ० । श्र यो दोसे भासति न परस्स एसा असूया ण अप्पलो परस्स फुडमेव दोसे भासति एमा सूया 1 नि० चू० १० उ० | स्वपरसमयसूचने, सूत्र० १ ० १ १ उ० । स्वव्यपदेशेन परस्वरूपकथने वृ० १३० १ प्रक० । सूर भञ्ज-धा० । “भञ्जर्वेमय मुसुमूर मूर-सर- सूड-विरपविरञ्ज - करञ्ज-नीरञ्जः ॥ ६ ॥ ४ ॥ १०६ ॥ इति भ अतेः सूरादेशः | सूरह । भनक्ति । प्रा० ४ पाद शूर पुं । अक्षोभ्य
33
आचा० १ ० ६ ० ३ ०
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(१००) सूर
अभिधामराजेन्द्र।। प्रमु० । उत्तक । कुन्थुजिमस्य पिपरि, स० । प्राय: ।। सालं सूरं रस्सीसहस्सपयलियदितसोहं ७॥ (सू०३६) सुभरे, संथा० । ति । प्रय० । विक्राम्तभदेव (तो पुणो) ततः पुनः चन्द्रदर्शनानन्तरं सप्तमे स्वमे = अ । हा० । प्राप० । स्था० । तथाविधे दातरि,
सूर्य पश्यति, अथ किंविशिष्ट सूर्यम्-तमपडलपरिष्फुर) अभ्यतनिर्वाह. भ. ११ श० १ उ.। अङ्गीकृतनिर्वाहे, तमःपटलम अन्धकारसमूहस्तस्य परिस्फोटकं-नाशकमिमा०१४०१०सूत्र०। “सूरा मो मन्नता, कैतवियाहि त्यर्थः (चेष) निश्चयेन, पुनः किंवि० (तेसा पज्जलंत(3) यहि पहाणाहिं । गहिया हु अभयपनो क्लबाला- रूपं) तेजसव प्रज्वलत् जाज्वल्यमानं रूपं यस्य स तदिगो पाये।" सूत्र. १ श्रु० ४ ० १ उ० । (एतद्- थात, स्वभावतस्तु सूर्यबिम्बधर्तिमो बादरपृथ्वीकायिका व्याख्या' मधी' शब्दे द्वितीयभागे ५६६ पृष्ठे गता।)। शीतला एव , किस्मातपनामकमांदयासेजसैव एते अनं समथै, सूत्र. १ श्रु०४० १ उ० । कल्प० । भ० । व्याकुलीकुर्वन्तीति शेयम् , पुनः किवि० (रत्तासोगं) रक्ता(अत्रस्या व्याख्या 'उपसग्ग' शब्ने द्वितीयभागे १०२२ शोकोऽशोकवृक्षविशेषः ( पगासकिसुत्र) प्रकाशकिंशुकः पु. पृष्ठे गता। ) पराक्रमयति योधे च, स्था।
पितपलाशः (सुहमुहगुंजद्ध। शुकमुखं गुजार्धे च प्रसिद्ध पत्तारि सूरा पम्म ता, तं जहा-खंतिसूरे तवसूरे दाण- (रागसरिसं) एतेषां वस्तूनां यो रागो रक्तस्वं तेन सरशं, बरे जुद्धमरे, खंतिसूरा भरहंता सबसूरा अखगारा दाण
पूर्वोक्लवस्तुवत् .. वर्थः, पुनः किंधि० (कमलवणा
संकरण) कमलवनानाम् अलङ्करणं शोभाकारकं, विकाशकबरे वेसमसे जुडघरे वासुदेवे । (मू० ३१७)
मिति यावत् , विकसितानि तामि मलकृतानीष विभा'चत्तारि सूरे स्यादि, सूत्रद्वयं कराठयम किन्तु शूरा धीराः
स्ति, पुनः किंवि० (अंकणं जोइस ) ज्योतिषस्य ज्योशान्तिपूरा भाईम्तो महावीरवत् ,तप:शुरा अनगारा दृढ
तिश्चक्रस्य अङ्कने , मेषादिगशिसंक्रमणादिना लक्षणशाप्रहारिवत् , दानशूरो वैश्रमण उत्तराऽऽशालोकपालस्तीर्थ
पकं, पुनः किाय (अंबरनलप) पम्बरतले प्रदीपं श्राकराविजम्मपारणकदिने इति,उक्त च-"वेममणवयणसंघो
काशतलप्रकाशकं, पुनः किंचिपडलगलग्गह) हियाउते तिरिय भगा देवा कोडिग्गसो हिरम, रयणाणि
मपटलम्य-हिमसमूहस्य गवग्रहं गलहस्तदायक: हिमस्फो. बताय उपनि" ति। स्था०४।०३ उप
रकमिन्यर्थः , पुनः किंवि० (गहगणोरुनायगं) ग्रहगणस्य भदेवस्य पकोनविंशतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७क्षण।।
पहममहस्य उरुमहान् नायको यः स तथा तम्, पुनः बर-पुं०। प्रादित्ये, स. १३८ सूत्र । विशे० । अस्मादेव
किंवि० ( रत्तिविणासं) रात्रिविनाश, रात्रिविनाशकारणपूर्वादिदिशा व्यवस्था। नं० । रा०प्रव० । संथा।
मित्यर्थः , पुनः किंवि० (उदयत्थमणेसु मुहुतं सुहसणं) मर्य-पु. । ज्योतिषकाणामिन्द्रे, भ० ३ श०८ उ० । संथा। उदयास्तसमययोः उदयबेलायां अस्तवेलायाश्च मुहले यासूत्र०(भस्य व्याख्या 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) बत् सुखदर्शनं सुखेन अवलोकनीयमित्यर्थः (दुन्निरिक्तसूर्यस्य पूर्वोत्तरजन्मकथा
रूवं ) अन्यस्मिन् काले दुर्निरीक्ष्यरूपं सम्मुखं बिलोकयितुं बेचिणं भंते ! अजस्स सुसमणेणं भगवया जाव संपत्तेणं
न शक्यते इत्यथैः । पुनः किंवि० ( रत्तिमुदत ) रात्री उ
खताः स्वेच्छाचारिणः . मकारोऽत्र प्राकृतस्यात् , एवंविके भढे पम्मत्ते,एवं खलु जं! तेणं कालेण तेणं समएणं राय
धा ये [ दुप्पयारप्पमहणं ] दुष्प्रचागश्चौरादयोऽन्यायकागिहे नामं नगरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया सामी सरणं रिणस्तान् प्रमईयति यस्तम् , अन्यायकारिप्रचारमिबारकजहा चंदो तहा सूरो वि मागतो, जाव नङ्कविहिं उवदंसिता मित्यर्थः . पुनः किंवि० (सीअवेगमहणं) शीतवेगमथनम् , पडिगते पुब्बभवपुच्छा सावत्थीए नगरीए सुपविते नामं
प्रातपेन शीतवेगनिवारणात् ( पिच्छा) पेक्षते इति क्रियागाहावई होस्था, अद्वे अहेव अंगती जाव विहरति पासे |
पर प्रायोजितं . पुनः किंवि० (मेमगिरिसययपरिश्रयं)
मेरुगिरेः सततं परिवर्तकं, मेहमाश्रित्य प्रदक्षिणमा भ्रतसमोसढे, जहा अंगती तहेव पवइए तहेब विहारियसामने
समिति यावत् , पुनः किंवि० (बिसालं) विशाल विजाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति एवं स्तीर्णमसलं (सूरे) सूर्यम् इत्यपि विशेष्यं योजितं , खलु जंबू! समणेणं निक्खेवतो। नि०३ वर्ग २ अास्थान पुनः किंवि० ( रस्सीसहस्मपलिश्र) रश्मिसहस्रेण कि(सूर्योऽप्युल्लिखित इति मर्यस्य कथा 'महादेव' श रणदशशत्वा कृत्वा प्रदलिना स्फोटिता ( वित्तसाहं )
दौसानां चन्द्रतारादीनां शोभा येन सजाते, बेन स्वषष्ठे भागे उता।) ('भग्गमहिसी' शये तदनमहिष्यः ।)
किरणः सर्वेषामपि प्रभा बिलुभाऽस्तीति भावः, अत्र हो सूर्यो, इति सूर्यवर्मकमाह
सहस्रकिरणाभिधानं लोकप्रसिद्धत्वात् , अन्यथा कला तमो पुणो तमषडलपरिप्फुडं चेव तेअसा पजलत
विशेष अधिका अपि तस्य किरणा भवन्ति, तथा चोक्नं रूबरतासोगपगासकिंसुमसुभमुहगुंजद्धरागसरिसं कमल- लौकिकशास्त्रेषुपखालंकरणं अंकणं जोइसस्स अंबरतलपईवं हिमपड
"ऋतुमेवात्पुनस्तस्या-ऽतिरिच्यतेऽपि रश्मयः। लगलम्गहं गहगणोरुनायगं रत्तिविणास उदयत्थमणेसु
शतानि द्वादश १२०० मघौ, प्रयोदश १३०० तु माधव
चतुर्दश १४०० पुनज्येष्ठ. नभोनभस्यबोस्तथा १४००। मुहुर्त सुहदसणं दुभिरिक्खरूवं रत्तिमुद्धंतदुप्पयारपम
पञ्चदशैव १५०० त्वाषाढ, पोडव १६०० तथाश्विने ॥२॥ दखतीभगमहर्ष पिबा मेलगिरिसयषपारअखं कि कार्तिके त्वैकादश च-१९०० स्थितान्येवं तपस्थति।
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(१०३१) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
सूर
मार्गे च दश सार्धानि १०५०, शतान्येवं १०५० व फाल्गुणे ॥ ३ ॥ पौष एव परं मासि, सहस्रं १००० किरणा रवेः ॥ ७ ॥३६॥” कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
ता के ति चिन्नं पडिचरंति आहितेति वदेजा, तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पत्ता, तं जहा- भारहे चैव सूरिए, एखए चैत्र सूरिए । ता एतें दुबे सरिए पत्तेयं पत्तेयं तीसाए तीसाए मुडुनेहिं एगमेगं अद्धमंडलं परंति सएिसए एगमेगं मंडल संघातंति, ता क्खिममाणे शिक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिया हो अरणमस्पस्स चियं पडिचरंति दिसमाया खलु एते दुवे रिया भ्रमणस्य चि परिचरंति तं सतमेगं चोयालं तत्थ को हेऊ वदेज्जा १, ताश्रयं णं जंबुद्दींचे दीवे ० जाव परिक्खेवेां तत्थ गं प्रयं भारदे से वरिए जंपुचे दीवे पाईपढीचायत उदी दाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीस एवं सतेणं बेला दहियापुर थिमिमि परभागमंडलसि बापत प सूरियमयाई जाई अपणा चिमाई परिचरति, उत्तरपच्चत्थिमेल्लंसि च भागमंडलंसि एका उर्ति सूरियमताई जाई सूरिए अप्पणो चैव चि पडिचरति, तत्थ अयं भारहे सूरिए एरावयस्स सूरिश्वस्य जंबूदीवस्स दीवस्स पाईपडीयाय ताप उदीगदाहियाय ताए जीवाए मंडलं चडवीएमएबेला उत्तरपुरथिमिस चउभागमंडलसि बागडत सूरियमताई (सूरियमताई) जाई सूरिए परस्स चिषं पडिचरति, दाहिणपच्चत्थि मेल्लंसि च भागमंडलंसि एकोणउति सूरियमताई जाई सूरिए परस्स चेत्र चिरखं पडिचरति, तस्य अर्थ एचए मूरिए जंबूदीवस्य दीवस्स पाईपडसावतार उदयदाहिणायतार जीपाए मंडल चबीएसए देना उत्तरपुर स्थिमिस चभागमंडलदेव सि बाउति सूरियमताई जाव मूरिए अप्पो चिपडिचरति, दाहियापुरथिमिनंसि चठभागमंडलसि एकाणउर्ति सूरियगताई जाई सूरिए अप्पणो नेत्र चिमं परिचरति, तत्थ गं एवं परावए सूरिए भारहस्स रियरस जंबूदी० दीपस्स पाईल पडीगावताए उदीय दाहिणाताए जीवाए मंडलं चउवीसएगं सतेगं छित्ता दाहिणपच्चत्थिमेइंति परभागमंडलसि बागाउति सूरियमताई परि परस्म चिमं पडिचरति, उत्तरपुररिथमेसि पठमागमंडलसि एकाणउर्ति सूरियमताई जाई रिए परस्स चैव चिएखं चिरति । ( ० १४४ )
ता के ते' इत्यादि, ता ' इति प्राग्वत्, कस्त्वया सूर्यः स्वयं परे या सर्वेक्षेप्र तिचरति प्रतिवरन् प्राण्यात इशि देव १, एवं भगवता
9
1
गौतमेो भगवान् पातयत्यद तन जम्बूद्वीपे परस्परं भीतर--]] चिन्तायां खलु निश्चितं यथावस्थितं वस्तुतस्वमधिकृत्येमी हो सूर्यो प्रशतौ तद्यथा--भारतचैव सूर्य, ऐरावतश्चैव सूर्यः । ' ता एएस' मित्यादि तत् एतौ '' मिति वाक्यालङ्कारे द्वौ सूर्य प्रत्येकं त्रिंशता मुहूरकैकमर्डमण्डलं चरतः षष्ट्या पष्ट्या मुहूर्तेः पुनः प्रत्येकमेकैकं परिपूर्ण मानयतः पूरयता थममाया इत्यादि इतन सूर्यास महा सूर्वी सर्वाभ्यन्नरान्डलाधिकामतीन उम्योऽन्यस्य परस्परेण वी क्षेत्र प्रतिपरत कोपरी क्षेत्र प्रतिचरति नाप्यपरोऽपरेख बीसमिति भावः इदं तु स्थापनाबशादवसेयम् सा न स्थापना सर्वशादयन्तरी प्रविशन्तीद्वा
नि
3
1
सूर
4
उत्पस्य परस्परंग बीले प्रतिचरतः व यथा- शतमेकं चतुखारं मुशि धिकशन सख्यैर्भागैर्मण्डलं पूर्यते, तेषां चतुश्चत्वारिंशदधिकं शनम । उभयसूर्य समुदायचिन्नायां परस्परे तिथीमें प्रतिमवाप्यते इति गमामा'तत्थ को हेऊ ?' इति तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्वव्यवस्थाया श्रवगमे को हेतुः का उपपत्तिरिति ? श्रत्रार्थे भगवान् वदे त् श्रत्र भगवानाह - 'ता श्रयम' मित्यादि. इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादकं वाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयम्. ' तत्थ 'मित्यादि तत्र जम्बूद्वीपे समिति प्राग्वत् 'श्रयं भारहे चेत्र सूरिए' इति सर्वग्राह्यस्य मण्डलस्य दक्षिगस्मिन्नर्द्ध मण्डले यश्चारं चरितुमारभते स भरतक्षेप्रकाशकन्याद्भारतत्युच्यते पतिरस्तस्य सर्पास्प मगडलस्योत्तरस्मिन् अमराइसे चारं चरति स ऐरक्तक्षेत्रकाशकन्या प्रत्यक्ष उपलक्ष्यमा नो जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डल परिभ्रमति सम्मडलं तुत्यधिकेन वनाविभा चतुर्दिशत्यधिकख्यान् भागान् यतस् मण्डलस्य परिकल्प्येत्यर्थः सूर्य-चापाचीनतया उदग्दक्षिणायतया च जीवया प्रत्यञ्चयाः दवरिकयां इत्यर्थः तम्मण्डलं चतुर्भिर्विभज्य दक्षिवपरये दक्षिणपू आग्नेये को इत्यर्थः, 'बडभागमण्डलसिया
9
पश्यत्ययो मण्डलचतुर्भागे तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे
भागे सूर्य संवत्सरसत्कद्वितीय पत्मासमध्ये द्विनवर्ति सूर्यगतानि दानपतिसंक्यानि मण्डलानि स्वयं सुगठानिकी निकिमुतपूर्व समाशिष्कामता स्वचांनि प्रतिचरतीति गम्यते एतदेव व्या
"
- 'जाई सरिए अप्पा चिरागं पडिवर ' इति--यानि सूर्य भ्रात्मना स्वयं पूर्वे सर्वान्तरात्मनिष्क्रमकाले इति शेषः चीणोनि प्रतिचरति तानि च द्विनवतिसंक्यानि मण्डलानि चतुर्भागात चीन प्रतिचरति न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि किन्तु वलयनच विंशत्यधिकशतसादशाहादशनागममितानि ते पाश दशाष्टादश भागा न सर्वेष्वपि मण्डलेषु प्रतिनियते एवं इसे फिल् अपि ममवले चापि केवलं दक्षिणी
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अभिधानराजेन्द्रः। रूपचतुर्भागमध्ये ततः 'दाहिणपुरस्थिमंसि च उभागमंड-। सरपूर्व एकनवतिसंख्यानि भारतसूर्यचीर्णानि प्रतिवरलंसि' इन्युक्तम् एवमुत्तरेष्वपि मण्डल चतुर्भागेष्वष्टादशभा- तीत्येत प्रतिपादयति-तत्थ अयं एरवर सूरिए ' इत्यादि, गप्रमितत्वं भावनीयम् . स एव भारतः सूर्यस्तेषामेव द्वि- एतच्च सकलमपि प्रागुक्रसूत्रव्याख्यानुसारेण स्वयं व्यातीयानां परमासानां मध्ये उत्तरपश्चिमे चतुर्भागमण्डले ख्येयम् । सू० प्र० १ पाहु० । द्वात्रिंशत्याधिक मयां मण्डलचतुर्भागे एकनतिसंख्यानि मण्डलानि स्वस्वमण्ड- मनुष्यलोके जम्बूद्वीपगतमेरोः परितः पङ्कत्या परिभ्रममंगतचतुर्विंशत्यधिकशतसत्काटादशाप्टादशभागप्रमितानि- न्ति । चं० प्र०१ पाहु । (द्वयोः सूर्ययोश्वरतारन्तरख्यास्या स्वयं मतानि स्वयं सूर्येण पूर्व सर्वाभ्यन्तगन्मण्डलान् नि
'अंतर 'शब्दे प्रथमभागे ६८ पृष्ठतो द्रव्या ।) कमणकाले चीणानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव ध्याच- कियन्त द्वाप समुद्र वा सूयाऽवगाहतात त
कियन्तं द्वीप समुद्रं वा सूर्योऽवगाहते ? , इति ततस्तदिऐ-'जाई सरिए अप्पणा चेच चिराणाई पचिरह' एतद् । षयं प्रश्नसूत्रमाह-- पूर्ववत व्याख्येयम . इह सर्ववाद्यान्मराडलात शेषाणि मरातु- ता केवतिय दीवं समुदं वा श्रोगाहिता मरिय लानि उयशीत्यधिकशतसंख्यानि तानि च द्वाभ्यामपि सू- चारं चरति, आहिता नि बदेजा ?, तत्थ खलु इमायो र्याभ्यां द्वितीयषणमासमध्ये प्रत्येक परिभ्रम्यन्ते , सर्वध्वपि
पंच पडिवत्तीओ पापनाश्री-एगे एवमहंसुःना पगं च दिग्विभागेषु प्रत्येकमेकं मण्डलमेकेन सूर्येण परिभ्रम्य
जोयगासहस्सं एगं च तेत्तीस जोयणसतं दीवं या ममुई ते द्वितीयमपरेण एवं यावत् सर्वान्तिम मण्डलं , नत्र ददिग्णपूर्वदिग्भावे द्वितीयषणमासमध्ये भारतः सूर्यो दिन
वा भोगाहित्ता मूरिए चारं चरति एग एवमाहमु १ । वनिमण्डलानि परिभ्रमति , एकनवतिमण्डलानि ऐरा- एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणमहस्सं एगं चउतीमं यतः उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे द्विनवतिमण्डलान्यैरावतः प- जोयणमयं दीवं वा समुहं वा भोगाहित्ता सुरिए चार रिभ्रमति , एकनवतिमण्डलानि भारतः , एतच पट्टि
चरनि, एगे एवमाहंसु २ । एगे पुण एबमाईमु-ता 'कादी मण्डलस्थापनां कृत्वा भावनीयम् , नत उक्तम्-दक्षिण पूर्व द्विनवतिसंख्यानि मराडलानि उत्तरपश्चिमे त्वेकन
एग जोयणसहस्म एगं च पणतीसं जोयणमतं दीवं चतिसंख्यानि भारतः स्वयं चीर्णानि प्रतिचरतीति । त- वा समुदं वा ओगाहित्ता मूरिए चारं चरति, एम देवं भारतसूर्यस्य स्वयं चीरणप्रतिचरणापरिमाणमुक्तम् , इदा- एवमाहंसु ३। एगे पुण एवमाहंसु ता अब दीवं नीं तस्यैव भारतसूर्यस्य परीर्ण प्रतिचरणपरिमाणमाह
वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति , 'नाथ य श्रय भारहे' इत्यादि , तत्र जम्बूद्वीपे अयं प्र
एगे एवमाहंसु ४। एगे पुण एचमाहंसु-ता एगं स्यक्षत उपलभ्यमानो जम्बूद्वीपसम्बधी भारतः सूर्यो य- | स्मिन् मण्डले परिभ्रमति तनन्मएडलं चतुर्विंशधिक- जायणस
जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयणमतं दीयं वा समुदं का न भागशतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनापाचीनागतया। ओगाहित्ता मूरिए चारं चरतिशतत्थ जे ते एवमाहंस-ता उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया च तत्तन्मडलं चतुर्भि- एग जोयणसहस्सं एगं तेत्तीस जोयणसतंदी वा समुदं वा विभज्य उत्तरपूर्वे-ईशाने कोणे इत्यर्थः, चतुर्भागमण्डले त-
उग्गाहित्ता मूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु, जता णं
सारिना स्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थे भागे तेषामेव द्वितीयानां परामासानां मध्ये ऐगवतस्य सूर्यस्य द्विनवतिसूर्यमतानि विनवति
सुरिए सबभंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तया संख्यान्यैरावतेन सूर्यण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्र- णं जंबुद्दीवं एग जोयणमहस्सं एगं च तेत्तीस जोयण मतं तिचरति , एतदेव व्यक्तीकरोति 'जाई सूरिप परस्स चि- श्रोगाहित्ता मूरिए चारं चरति, तता णं उत्तमकट्ठपते उमाई पडियरर ' यानि सूर्यो भारतः 'परस्स चिन्नाई' -
इ - कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहमिया दुवालन्यत्र षष्ठी तृतीयाथै , परेण ऐरावतेन सुर्येण निष्क्रमण
समहुत्ता राई भवई, ता जया णं सूरिए सब्बबाहिरं मंडल काल चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे च मराजुलचतुगि एकनवतिम्-एकनवतिसंख्यानि ऐश्वतस्य सूर्यस्येत्य
उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं लवणसुमुदं एग जोयणप्रापि सम्बद्धयते , ततोऽयमर्थः--एरावतस्य सूर्यस्य सम्ब- सहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं प्रोगाहित्ता चारं चरइ. म्धीति सूर्यमतानि,किमुक्नं भवति ?-ऐरावतेन सूर्येण पूर्व तयाणं लवणसमुहं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीस जोयनिष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति , एतदेवाह- 'जाई
णसयं भोगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उकोसरिए परस्स चिलाई पडियग्इएतापूर्ववद् व्याख्येयम् , अप्राप्येकस्मिन् विभागे द्विनतिरेकस्मिन् भागे एकनयतिरि
सिया भट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहलिए दुवालसमुहुने त्यत्र भावना प्रागिव भावनीया। तदव भारतः सूर्यो दक्षि- दिवसे भवइ । एवं चोत्तीस जोयणसतं । एवं पणतीस गापूर्वे द्वितिसंख्यानि उत्तरपश्चिमे एकनयतिसंख्या- जोयणसतं । ( पणतीसेऽवि एवं चेव भागियव्वं.) तत्व नि स्वयं चीनि उत्तरपूर्वे द्विनवतिसंख्यानि दक्षिणप
जे ते एबमासु ता अवटुंदी वा समुदं वा भोगाहिना श्चिमे एकनयतिसंख्याम्यैरवितसूर्यचार्णानि प्रतिवरतीत्युप
सरिए चार चरइ, ते एवमा हंसु-जता णं सूरिए सयभंपादितम् । सम्प्रति ऐरावतः सर्य उत्तरपश्चिमे दिग्विभाग द्विनवतिसंख्यानि मण्डलानि दक्षिणपूर्व एकमबतिस
त्तरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति , तता णं अवडं जं. व्यानि स्वयं चीर्णानि दक्षिणपश्चिमे द्विनप्रतिसंख्यान्यु धुरीमद भोगाहिता.चारं चरति, तताणं उसमकपडत्ते
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सूर
वरं प्र
,
1
"
उकोस अट्ठारममुहुत्ते दिवसे भवति, जहमिया दुवालसमुदुषा राई भवति एवं सम्यबाहिरए पि बड्डुं लवणसमुदं तता गं राईदियं तहेव, तत्थ जे ते एवमाता को किचि दीवं वा समुहं वा श्रोगादिना सूरए चारं चरति ते एवमाहंसु-ता जता णं सूरिए सब्वमंतरं मंडल उपसंक्रमिता चारं चरति तता ये यो किंचि दीवं वा समुदं वा श्रगाहित्ता सूरिए चारं चरति तता गं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुते दिवसे भ वति, तत्र पुव्वं सव्ववाहिरए मंडले, गवरं णो किंचिलबणसमुदं भोगाहिता चारं चरति, राईदियं तहेव,
( १०३३) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
6
,
मासु | (सू०१६ )
9
9
ता वही समु वा श्रगाहिता सूरिए बारं पर इइत्यादिता इति पूर्ववत् कियन्तं कियत्यमार्थीपं समुद्रं वा श्रवगाह्य सूर्यश्चारं चरति ? वरम्नाख्यात इति वदेत् एवं प्रश्नकरणादनन्तरं भगवाशिर्वचनमभिधातुकाद्विषये परतीधिकप्रतिपत्तिविध्यामादोपदर्शनार्थ मतस्ता पत्र परतीर्थिकप्रतिपत्तीः सामान्यत उपन्यस्यविइत्यादि तत्र सूर्यस्य चारं बरतो द्वीपस मुद्रागाद्दनविषये खल्विमा :- वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च प्रतिपत्तयः -- परमतरूपाः प्रशप्ताः, तद्यथा-एके तीर्थान्तरीयाः एवमाहुः - ता इति तावच्छब्दस्तेषां तीर्थान्तरीयाणां प्रभू
,
एगे एमासु' एके पुनः पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवमादुन किंचिद् द्वीपं समुद्रं वा श्रवगाह्य सूर्यश्चारं चरति श्रत्राये भावार्थ:- यदापि सर्वाभ्यन्तरं मलमुपसंम्प चरति तदापि न किमपि जम्बूद्वीपमयगाहते कि पुनः श मण्डलपरिभ्रमणकाले यदापि सर्वबाह्यमण्डलमुपमंत्रम्य सूर्वधारे चरति तदापि समुद्रं किमप्ययगान किं पुनः शेषपरिकाले किन्तु द्वीपसमुद्रयांपा न्तराल एव सकलेष्वपि मण्डलेषु चारं चरति, अत्रोपमं हारमाह-' एंगे एवमाहंसु ' तदेवमुक्का उद्देशतः पश्चापि प्र तिपत्तयः । सम्प्रत्येता एव स्पष्टुं भावयति तत्थ जे पचमासुइत्यादि प्रायः समस्तमपी व्याख्यानार्थमुग मंच, नवरं ' चोत्तीसे वि' त्ति एवं यरिंशदधिकयोजनशतविषयप्रतिपत्तिवत् चतुर्खिशे शते या प्रतिपतिस्तस्यामालापको वक्तव्यः स चैवम् तत्थ जे ते एवमाहंसु वर्ग जीएसहस्से एगे पडती जयम दीयं समुद्र या योगादित्ता बारं बरहने मासुजया गं सूरिए समंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं परति तथा जंबूदीपं दीव एव बोस जोयस योगाहिता चारं चरइ तपा - समकडुपले उफ्रोस अङ्गारसमुटु दिवसेज शिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । ता जया सुरिए सञ्चबाहिरं मंडल उवसकमित्ता चारं चरइ तथा ं लवसमुदं एगं जोयणसहस्सं एगं च बोत्तीस जोयस श्रगाद्दित्ता चारं चरति तया ं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्टारसमुद्दा राई भयति जहर दुबालखमुडुते दिषमे भव पणती विमुकार पञ्चत्रिंशदधिक जनशतविषयायामपि प्रतिपत्ती सुभसुगमत्यात्स्वयं भावनीयम् एवं वाि विति एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल च साऽपि मरा आपको वक्तव्यः, नवरं जम्बूद्रीपस्थाने 'अवद्धलचल - समुद्रगादिना इति पक्रव्यम् तच्चेपा सूरिए सबबाहिर मंडलमुवसंकमित्ता चारं चार तया पदं श्रगादित्ता बारे चरति तयाएं रा इंदपणापासंग चितया ' मिति पूर्वरात्रिदिपरिमाणं जम्बूद्वीपापेक्षया विपरीतं वक्तव्यम्, यजम्बूदीपावा दिवसप्रमाण पत दिवसस्य, तच्चैवम् -' तया गं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुडुत्ता राई भवर जहने दुबालसमुडुतं दिवले हव' पत्रमुत्तरसूत्रे ऽप्यक्षरयोजना भावनीया ।
पोषक दर्शनार्थः एकं योजनसमे यस्त्रिशदधिकं योजनशतं द्वीपं समुद्रं वा श्रवगाह्य सूर्यश्वारं चरति, किमु भवति या सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंकम्य चारं चरति तदा एकं योजनसहस्त्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपाचारं चरति तदा च परमप्रकर्षप्राशोऽष्टादशमुहूर्त्ती दिवसो भवति सर्वजघन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः । यदा तु सर्ववाां मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरितुमारभते तदा लवणसमुद्रमेकं योजन सहस्रमेकं प्रयोजनमा सूर्यधारं चरति त दा चोत्तमकाष्ठाप्राप्ता श्रष्टादशमुहूर्त्त प्रमाणा रात्रिर्भवति सजम्पमा दिवसः अत्रेयोपसंहारमादमासु के रतिया एवमाता इति पूवत् एकं योजन सहस्रमेकं च चतुस्त्रिंशदधिकं योजनशतं द्वीपं समुद्रं वा श्रवगाह्य सूर्यश्वारं चरति भावना प्राग्वअत्रैषोपसंहारमाह - एगे एवमाहंसु' एके पुनस्तृतीत्. यामाहुए योजनसहस्रमेव पयो जनशतमवगाह्य सूर्यश्वारं चरति अत्रापि भावना प्रागिव,
"
1
तदेवे परतीर्थप्रतिपत्ती सम्प्रत्येता मिथ्याभाबोपदर्शनार्थ स्पर्शयति-
"
योपसंहारमा 'एवमाहंस एके पुनश्चतुस्तीर्थान्तरीया एवमाहुः - श्रव' ति अपगतं सदप्यवगाहाभावतो न विवक्षितमर्द्ध यस्य तमपार्द्धमर्ज हीनम् श्रर्द्धमात्रमित्यर्थः द्वीपं समुद्रं या अत्रगाश्य सूर्यश्वारं चरति, इयमंत्र भाषमा पदासयन्तरं समुपक्रम्य सूर्यधार पति जम्बूनच दिवसा परम प्रकाशमुनि सर्वज समुद्रमा रात्रिः पश पुनः काममुपग्यमकपणे उकोमए अट्ठारहुने दिवमे भवति खिया
वयं पुण एवं वदामो-ता जया णं भूरिए सव्वम्भतर मंडल उपसंकमिला चारं चरति तता से जंबुद्दीवं दी अमियं जयमतं श्रगाहिता चारं चरति तदा यं उत
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सूर्यधारं परति तदा अर्डम् अपरिपूर्ण लवसमुद्रमाहते तदा सर्वोत्कर्षकाला अष्टादशमु
त्रिः सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्त्ता दिवसः । अत्रैवोपसंहारपाह
सुर
+
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(१०३४) अभिधानराजेन्द्रः।
- . सरपएणत्ति दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सव्यबाहिरेऽवि , णवरं सूरदीव-सूर्यद्वीप-पुं० । जम्बूद्वीपगतसूर्यदेवके लवणसमुविशिनी जोमाने गारिना चा द्रगत द्वीपे, जी०३ प्रति०४ अधि०। (अत्रत्या व्याख्या
'चंददीव' शब्दे तृतीयभागे १०७२ पृष्टे गता।) चरति तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारममुहुत्ता ,
सूरदेव-सूरदेव-पुं० । जम्बूद्वीपे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भराई भवइ, जहएणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, गा
विष्यति द्वितीये तीर्थकरे , प्रव०.७ द्वार । ती०। स०। थारो भाणितधाओ । (सू०१७)
सूरद्धा-देशी-दिने , दे० ना०८ वर्ग ४२ गाथा । 'वयं पुण'इत्यादि,वयं पुनरुत्पन्न केवलशानदर्शना एवं वक्ष्यमा
सूरपामनि-सूर्यप्रज्ञप्ति-स्त्री० । सूर्यचर्याप्रज्ञापनं यस्यां प्ररणप्रकारेण बदामस्तमेव प्रकारमाह--यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुसंक्रम्य चारं घरांत तदा जम्बूद्वीपमशीत्यधिक
स्थपद्धतौ सा सूर्यप्राप्तिः। नं। पहस्यागमस्योपाने, स्था०
४ठा०२उ०। योजनशतमवगाहा चारं चरति तदा चोत्तमकाष्ठाप्राप्त
अत्रत्याः प्राभृतार्थाधिकाराःउत्कर्षकोऽदशमुहतों दिवसो भवति सर्वजघन्या द्वा
सूर्यप्राप्तिमहं, गुरूपदेसानुसारतः किञ्चित् । दशमुहूर्ता रात्रिः, एवं 'सम्बबाहिरे वि' त्ति--एवं सर्वा
विवृणोमि यथाशक्ति, स्पष्ट स्वपरोपकाराय ॥४॥ भ्यन्तरमण्डल इव सर्वबाहोऽपि मण्डले पालापको ब- अस्या नियुक्तिरभृत् , पूर्व श्रीभद्रबाहुसूरिकता। तव्यः । स चैवम्-'जया णं सवबाहिरं मंडलं उयसंक- । कलिदोपात् साऽनेशद् , व्याचक्षे केवल सूत्रम् ॥ ५॥ मित्ता चारं चर' इति-नयरमिति सर्वबाह्यमण्डलग- तत्र यस्यां नगर्यो यस्मिन्नुद्याने यथा भगवान् गौतमतादालापकादस्यालापकस्य विशेषोपदर्शनार्थः,तमेव विशेष- स्वामी भगवतस्त्रिलोकीपतेः श्रीमन्महावीरस्यान्त सूर्यवमाह--'तयाणं लवणसमुहं तिरि तीसे जायणसए श्रोगा- नव्यतां पृष्टवान् यथा च तम्मै भगवान् व्यागृणाति स्म हित्ता चारं चरह तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अ- तथोपदिदर्शयिषुः प्रथमतो नगर्युद्यानाभिधानपुरस्सरं सद्वारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्नए दुबालसमुहुत्ते दिवसे कलवक्तव्यतोयक्षेप वनुकाम इदमाहभवः' इति, इदं च सुगम, क्वचिनु 'सव्वबाहिरे वि' इत्यनि- तेणं काले णं ते णं समए णं मिथिला नाम नयरी देशमन्तरण सकलमपि सूत्र साक्षाल्लिखितं दृश्यते 'गाहाओ भाणियब्वाश्रो' अत्रापि काश्चन प्रसिद्धा विवक्षिता
होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धा पमुइतजण जाणवया जाव यसंग्राहिका गाथाः सन्ति ता भाणितव्याश्च,ताश्च सम्प्रति
पासादीया. एक(ह(४)तीसे ण मिहिलाए नयरीए बहिव्यवच्छिन्ना इति न कथयितुं व्याख्यातुं वा शक्यन्ते यथास
या उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए एत्थ णं माणिभद्दे णाम म्प्रदाय वाच्या इति । सू० प्र०१ पाहुन ('सग्मंडल'शब्देऽस्मि चेहए होत्था वमो । तीसे ण मिहिलाए जितसत्त नेव भागे पञ्चदशभिरैः सूर्यप्ररूपणा वक्ष्यते।) ('उउ'शब्दे राया, धारिणी देवी, वमो , ते णं काले णं ते णं द्वितीयभागे ६७६ पृष्ठे सूर्यर्तवः।) चतुर्थे देवलोकस्थे विमा
समए णं तंमि माणिभद्दे चइए सामी समोसडे, परिसा नभेदे,नपुंस०५ सम०। औ०। स्वनामख्याते हीपे. समुद्रे च । सू०प्र०२० पाहु०। (सूर्यस्यावृत्तयः युगे कति भव
निग्गता, धम्मो कहितो, परिसा पडिगया जाव राजा न्तीति 'अाउट्टि' शब्दे द्वितीयभागे ३० पृष्ठे गतम् ।)
जामेव दिसिं पादुम्भृए तामेव दिसिं पडिगते । (मू०१) सूरग-देशी-प्रदीप, दे० ना०५ वर्ग ४२ गाथा।
'ते णं काले ण' मित्यादि, 'ते' इति प्राकृतशैलीवशात् त
स्मिन्निति द्रष्टव्यम् , अस्यायमर्थः-यदा भगवान् विहरति सूरकंत-सूर्यकान्त-पुं० । सूर्यखरकिरणसम्पादन्धकारमोच.
स्म तस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे दृष्टश्चान्यत्रापि णशके सणिभेदे, प्रक्षा०१ पद। उत्त० । सूत्र० । भ० । चतु
ब्दो वाक्यालङ्कारार्थे यथा 'इमा णं पुढवी' इत्यादाविति, थदेवलोकस्थे विमानभेदे, नपुं० । स०५ सम।
काले अधिकृतावसपिणीचतुर्थभागरूपे , अत्रापि शब्दो सूरकूड-सूर्यकूट-न० । चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०
वाक्यालङ्कारार्थः, 'तेरणं समए णं' ति-समयोऽवसरवा. ५ सम।
ची, तथा च लोके वक्रारो-नाधाप्येतस्य वक्रव्यस्य समयो सूरखेत्त-मर्यक्षेत्र-न० । उदयास्तरूपे नमःखण्डे, ध०३
वर्तते,किमुक्नं भवति?-नाधाप्येतस्य वक्तव्यस्यावसरोवर्तन
इति, तस्मिन् समये भगवान् प्रस्तुनां सूर्यवक्तव्यतामचअधिक।
कथत् , तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभयत् , सूरचरिय--सूर्यचरित-न० । रविचरिते, सूर्यचरितं विवं
नन्धिदानीमपि सा नगरी वर्तते ततः कथमुक्रमभवदिति ?, सूर्यमण्डलपरिमाणराशिपरिभोगोयोतावकाशराहपरागा
उच्यते-वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्रविभूतिसमन्विता नदेवादिकम् । सूत्र० २७०२ अ । स०।।
भवत् न तु ग्रन्थविधानकाले, एतदपि कथमयसेयमिति सूरण-शूरण-पुं० । अर्शोनकन्दे, प्रय० ४ द्वार । द० चेत् ?, उच्यते-अयं कालोऽवसर्पिणी, अवसनियां च ना० । औ० । प्राचा० । "उत्त० । जी० । प्रज्ञा० । प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्तीति, पतच्च सुप्रतीभ०। स०। स्वनामख्याते एकचत्वारिंशतितमे ऋषभ- तं जिनप्रवचनवेदिनाम् , अतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधदेवस्य पुत्र, कल्प० ११०७ क्षण। पा० ।
भाक् । सम्प्रति अस्या नगर्या वर्णकमाह--'
रिस्थिमियससरदह-सर्यहद-पुं० । जमीपे देवकुले स्वनामख्याते १-पत्र 'ह' शब्दः संभाव्यते । निशीथचूणिमन्थे चतुणों पूर्वोक्ताको महाहन, स्था०० अ० उ०।
संकेत इति बहुषु स्थलेषु लभ्यते ।
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सूरपत्ति ___अभिधानराजेन्द्रः।
सूरपरणति मिद्धा पमुइयजण जाणवया जाच पासाई या० 'एक' (व्ह)(४) ' सौवस्तिकादिप्रशस्तलक्षणोपेतपाणितलः सुजातपायों म. इति, द्धा-भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपगताधू बृद्धा- पोदरः सूर्यकरस्पर्शसञ्जातविकोशपोपमनाभिमण्डलः सिं. विति वचनात् स्तिमिता-स्वनक्रपरचकतस्करडमरादिसम्- हवसंवर्तितकटीप्रदेशो निगूड जानुः कुरुविन्दवृत्तजक्तायुगस्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता समृद्धा-धनधान्यादिविभूति- लः सुप्रतिष्ठित कर्मचारुचरणतलपदेशः अनाश्रयो निर्ममः युक्ता, ततः पादत्रयस्यापि कर्मधारयः, तथा 'पमुहयजणजा- छिन्नश्रोता निरुपलेपोऽपगतप्रेमरागद्वेषश्चतुखिशदतिशयाणवय' ति-प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोद हेतुवस्तूनां तत्र पेतो देयोपनीतेषु नवसु कनककमलेषु पालन्यास कुर्वन्नासदायाजना-नगरीवास्तव्या खोका जानपदा-जनपद- काशगतेन धर्मचकेण आकाशगतेन छत्रेण श्राकाशगताभ्यां भयास्तत्र प्रयोजनप्रशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदित- चामराभ्याभाकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिकविशेषमयेन सपाजनजापदा , यावच्छब्देनौपपातिकग्रन्थप्रतिपादितः सम- दपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृष्यमाणेन प्रकृष्यमापन स्तोऽपि वर्णकः 'श्राइनजणसमूहा मणुस्सा ' इत्यादिको धर्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्रैः षट्त्रिंशत्संख्यैरार्यिद्रष्टव्यः । (सू०१) स च प्रन्थगौरवभयान लिख्यते , केव
कासहस्रैः परिवृता यथास्वकल्पं सुखन विहरन् यथारूपलं तत एवीपणतिकादवसेयः, कियान् द्रष्टव्य इत्याह- मवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन् स'पासाईया 'व्ह' इति अत्र 'व्ह' शब्दोपादानात् प्रासादीया मवस्तः , समवसरणवर्णनं च भगवत औषपातिकग्रइत्यनेन पदेन सह पदचतुष्टस्य सूचा कृता , तानि च | स्थादवसेयम् । (सू०१० यावत् ३३ ) 'परिसा निग्गय'त्ति पदान्यमूनि-प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा, त- मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवत्र प्रासादेषु भया प्रासादीया; प्रासादबहुला इत्यर्थः, अत म्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थ स्वस्मादाश्रयाद्विनिर्गत इ. एष दर्शनीया-द्रषु योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात् , त्यर्थः, तन्निर्गमश्चैवम् -- तए ण मिहिलाए नयरीप तथा अभिमुखमतीवोनरूपं रूपम्-श्राकारो यस्याः सा श्र- सिंघाडगतियच उक्कचच्चरचउम्मुहमहापहेसु बहुजणो अभिरूपा प्रतिविशिष्टम्-असाधारण रूपम्-श्राकारो यस्याः नमन्नस्स एवमाइक्खा , एवं भासेह, एवं पन्नवेड , एवं सा प्रतिरूपा, 'तीसे णं महिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुर- परूवेइ--एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे छिमे दिसीभाए पत्थ ण माणिभद्दे नाम चेहए होत्था श्राइगरे जाव सम्वन्नू सव्वदरिसी भागासगएणं छत्ते रंग वराणो 'इति तस्या मिथिलानगर्या बहिर्य श्रीत्तरपौर
जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे इह प्रागए इह समागए इस्त्यः-उत्तरपूर्वरूपो दिग्विभाग ईशानकोण इत्यर्थः , ए- ह समोसढे इहेव मिहिलाए नयरीए बहिश्रा माणिमहे कारो मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः, यथा 'क- चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिरिहत्ता अग्हिा जिगो यरे श्रागच्छह दित्तरूव' (उत्त० १२-६) इत्यादौ , ' अ- केवली समणगणपरिषुडे संजमेण तवसा अपपाणं भा
'अस्मिन् श्रौत्तरपौरस्त्य दिग्विभागे माणिभद्रमिति ना- वेमाणे विहरइ, तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहाम चैत्यमभवत् , चितेर्लप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चै- सवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए त्यं , तच संज्ञाशब्दत्याहवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं . ततस्तदा- किमंग! पुण अभिगमणवंदणनमंसपपडिपुच्छणपज्जुवासणश्रयभूतं यद्देवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्यं , तच्चेह व्यन्त- याए ?, तं सेयं खलु एगस्स वि पायरियस्स धम्मियस्म रायतनं द्रष्टव्यं , नतु भगवतामईतामायतनमिति । ' वरण- सुधयणस्स सवणयाए, किमंग! पुण विउलस्स अट्टस्स गश्रो 'त्ति तस्यापि चैत्यस्य वर्णको वक्तव्यः , स चौपपा- हणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुपिया ! समण भतिकग्रन्थादवसेयः (सू०२)। तीसे गं मिहिलाए' - गवं महावीरं बंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणमो कत्यादि , तस्यां च मिथिलायां नगर्या जितशत्रुर्नाम राजा , लाणं मंगलं देवयं चइयं पज्जुवासामो, एयं णो इहभव तस्य देवी-समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणधार- परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए प्राणुणाद् धारिणीनाम्नी देवी , 'वरणो' त्ति तस्य राज्ञः त- गामियत्ताए भविस्सइ, तए णं मिहिलाए नयरीए बहवे स्याश्च देव्या औपपातिकग्रन्थोक्लो वर्णकोऽभिधातव्यः । उग्गा भोगा' इत्याचीपपातिकग्रन्थोक्तं (सू० २७) सर्वमवसे(सू०७) ते ण काले या ते णं समए गं तंमि माणि- यं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका पर्षत् पर्युपासीना तिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो क- ठति । 'धम्मो कहिओं' त्ति तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेहिश्रो, परिसा पडिगया' तस्मिन् काले तस्मिन् समये त- पजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म उपदिष्टः , स्मिन् माणिभद्रे चैत्ये 'सामी समोसढे 'त्ति स्वामी जग- स चैवम्-'अस्थि लोप अस्थि जीवा अस्थि अजीवा' दगुरुर्भगवान् श्रीमहावीरोऽहन्. सर्वशः सर्वती सप्त- इत्यादि, तथा-"जह जीवा बज्झति, मुति 'जह य हस्तप्रमाणशरीरोच्छ्यः समचतुरनखस्थानो बजपभनारा- संकिलिस्संति । जहः दुक्खाणं अंते, करिति केई अपवसंहननः कज्जलप्रतिमकालिमोपेतस्निग्धकुश्चितप्रदक्षिणा- डिबद्धा ॥ १॥ अनियट्टियऽचित्ता, जह जीवा सावर्तमूर्धजः उत्तप्ततपनीयाभिरामकेशान्तकेशभूमिगतपत्रा- गरं भयमुर्विति । जह य परिवीणकम्मा , सिद्धा सिकारोतमासनिवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरव- द्धालयमुर्विति ॥२॥'तहा आइक्वा' ति 'जाव राजा दनशोभः पयोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासो वदनविभागप्रमा- जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए' इति, अणकम्बूपमचारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्ध- त्र यावच्छब्दादिदमीपपातिकप्रन्थोक्न द्रव्यम्-'तपणं सा प्रदेशों महापुरकपाटपधुलवक्षःस्थलामोगो यथास्थितलक्ष- महामहालिया परिसा समणस्स भगवो महावीरस्स लोपेतः श्रीवृक्षगरिघापमालम्बबाहुयुगलो रविशशिचक- अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हसतुवा समणं भगव म
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सूरपएणप्ति अभिधानराजेन्द्रः।
सूरपणत्ति हाबीरं निक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ तिक्खु० करित्ता रोत्सेधयोः समत्वात्समचतुरस्रम् तच्च तत्संस्थानं च समबंदह नमसा वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाप चतुरस्रसंस्थानम्-आकारस्तन संस्थितो-व्यवस्थितो यः ण भंते ! निग्गथे पावयणे , नत्थि य के अन्ने समणे वा स तथा, अयं च हीनसंहननोऽपि केनचित्सम्भाव्यते तत माहण वा एरिस धम्ममाइक्खित्तए , एवं वदित्ता जामेव श्राह-'बजरिसहनारायसंघयणे' नाराचम्-उभयतो मर्कदिसं पाउम्भूया तामेव दिस पडिगया , तए ण से जिय- टबन्धः ऋषभ:-तदुपरिवेष्टनपट्टः कीलिका अस्थित्रयस्यापि सत्तू राया समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्म भेदकर्मास्थ एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, जाव एवं वयासी' सुच्चा निसम्म हट्टतटे जाव हयहियए समण भगवं महा- इति , यावच्छब्दोपानादिदमनुक्तमध्यवसेयम्- कणगपुलवीरं बंदह नमसाबंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ पसि० गनिधसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे महातवे उराले घोरे घोर. पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परियाइत्ता उठाए उट्टेइ, उट्ठाए उ. गुणि धोरनवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे सखित्तट्टित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइनमंसद, स० वंदित्ता नमंसि- बिउलने उलसे चउद्दसपुब्बी चउणाणोवगए सव्वक्खरसंता एवं वयासी-सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे जाव निवाई समणस्स भगवश्री महावीरस्स अदूरसामंत उहुंएरिसं धम्ममाइक्खित्तए, एवं बहत्ता हस्थि दुरूहइ दुरू- जाणू अहोसिर झाणकोट्टोबगए संजमेणं तवसा अप्पाणं हित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभ- भावेमाणे विहरह। तए ण से भयवं गोयमे जायसढे जायदो चेहयाो पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव संसप जायकोउहले उत्पन्नसढे उत्पन्नसंसए उप्पन्नको उहल्ले दिस पाउठभूए तामेव दिस पडिगए ।' (सू० ३५-३६-३७) समुणसट्टे समुप्पन्नसंसए समुष्पन्नको उहल्ले उट्ठाए उट्टेइ इति , इदं च सकलमपि सुगम, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य,! उठाए उट्टित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे नेणव उवागकिमुक्तं भवति?-यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः-सम- च्छड उवागच्छित्ता समण भगवं महावीरं तिक्खुतो घसरणे समागतस्तामेव दिस प्रतिगतः ।
प्रायाहिण पयाहिणं करेइ, आयाहिणण्याहिणं करित्ता
वंदहणमंसह वंदित्ता नमसित्ता पचासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमा. ते ण काले ण ते ण समए ण समणस्स भगवतो महा
रंग नमसमाणे अभिमुहे विणएण पंजलिउडे पज्जुवासेवीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभृती णामे (मं) अणगारे- माणे पर्व वयासी'-अस्यायमर्थः-कनकस्य-सुवर्णस्य यः गोतमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिस- पुलको-लवस्तस्य यो निकपः-( कषः) पट्टक रेखारूपः, हनारायसंघयणे • जाव एवं वयासी-1 (सू०२)
तथा पन्नग्रहणेन पन कसराण्युच्यन्ते , अवयवे समुदायो
पचारात् , यथा पन कसराण्युच्यन्ते , अवयवो देवदते ण कालणं ते णं समए णं समणस्स भगवतो महावी
त्तः , तथा च देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्टा लोको वदतिरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे गोत्ते
देवदत्तो मया स्पृष्ट इति, ततः कनकषु (कस्य ) पुलण सत्तुस्सेहे समच उरंससंठाणसंठिए बजारसहनारायसं
कनिकषवत्पझकेसरवच्च यो गौरः स कनकपुलकनिकषपघयणे . जाव एवं वयासी' इति-तस्मिन् काले तस्मिन्
अगौरः । अथवा-कनकस्य यः पुलको-ठुतत्वे सति बिन्दु. समये , णशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः , श्रमणस्य भगवतो
स्तस्य निकपो-वर्णः तत्सदृशः कनकपुलकनिकषः, तमहावीरस्य ज्येष्ठ इति--प्रथमः, अन्तवासी-शिष्यः, अनेन शा पद्मवत्--पकेसर इव यो गौरः स पनगौरः, ततः पपदद्वयेन तस्य सकलसंघाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूति- दद्वयस्य कर्मधारयः समासः । अयं च विशिएचरणरहितोऽ. रिति मातापितकृतनामधेयः, 'नाम' ति प्राकृतत्वात् वि- पि शक्यत अन पाह--'उम्गतवे' उग्रम्--अप्रधृष्यं तपःभक्तिपरिणामेन नाम्नति द्रष्टव्यम् अन्तवासीच किल वि- अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यपक्षया श्रावकोऽपि स्यात् अतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमा- ते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा ह-अनगारः न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः , अयं च दीप्त---जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतविगीतगोत्रोऽपि स्यादत श्राह-गौतमो गोत्रेण गौतमाह- या ज्वलितं तपो--धर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवे' यगोत्रसमन्वित इत्यर्थः , श्रयं च तत्कालोचितदेहपरि- त्ति-तप्त तपो येन स तप्ततपाः, एवं हितेन तपस्तप्तं येन समाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत पाह--सप्तोत्से- ण्यप्यशुभानि कर्माणि भस्मसात्कृतानीति, महत्--प्रशधः-सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्लायः , अयं चेत्थंभूतो लक्षण- स्तमाशंसादापरहितत्वात्तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उहीनोऽपि सम्भाव्येत अतस्तदाशकापनोदार्थमाह- सम- राल 'ति-उदार:--प्रधानः, अथवा--ओरालो--भीष्मः, उ. चतुरस्रसंस्थानसंस्थितः ' समाः--शरीरलक्षणशास्त्रोक्रप- प्रादिविशेषणतः पावस्थानामल्पसवानां भयानक इत्यर्थः, माणाविसंवादिन्यश्चतम्रोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्रम् अ. तथा घोरो--निघृणः परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधित्रयस्त्विह चतुर्दिविभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्र- कृत्य निर्दय इत्यर्थः, तथा घोरा--अन्य दुरनुचरा गुणा--क्षाएव्याः , अन्ये स्वाहु:--समा--अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्य- नादयो यस्य स तथा , तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी, 'घोरनयो यत्र तत्समचतुरस्रम् , अनयश्च पर्यङ्कासनोपवि. बंभचेरवासि' ति घारं--दारुणं अल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वात् व. एस्य जानुनोरन्तरम् १, श्रासनस्य ललाटोपरिभागस्य चा- ह्मचर्य यत्तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा , उच्छूढम्-उज्झितरम् २, दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम् ३ , वाम- तमिव उरिझतं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन-स उच्छबकम्धस्य दक्षि एजानुनश्चान्तर४ मिनि.अपरे याहुः-वित्ता । दशरीरः, 'सखित्तधिउलतेउलेसे 'त्ति-संक्षिप्ता--शरीरान्त.
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सूरपण्यत्ति गतत्वेन स्वतां गता विस्तीर्णा अनेकयोजन प्रमाणक्षेत्राधिवदनसमर्थत्याने जोलेश्या विशिपजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, चउस चतुर्दश पूर्णणि विद्यन्ते यस्य तेनेव ति चितत्वात् पूर्वी अंन तस्क तामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत श्राह- चउ नाणोबगर ' मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानरूपज्ञानचतुष्टसमन्वित इत्यर्थः उक्तविशेषयुक्तोऽपि कधि सम नोभवनि चतुर्वविदामपि पदस्थानपतितत्वेन श्रवणादत श्राह सर्वाक्षरसन्निपाती पिता:- संयोगाः सर्वे च ते अक्षरसपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयानि स तथा, फिमुकं भवति ? - या काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूयया सम्मपतिताः खर्या अपि जानातीति एवं गुणविशिष्ठो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादिति कृत्वा शिष्याचारत्वाच्च भ्रमणस्य भगवतो महावीरस्स अदूरसामन्ते पिरतीति योगः सामन्तं सत्रिएं तत्प्रतिषेधसामन्तम् सत्र नाहिरे नानिनिकटे इत्यर्थः किविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत श्राह ' उहुंजाणु 'त्तिये जानुनी पम्पासी जाधिप्यासनगादीपकिनिषद्यायास्तदानीमनायाच उत्स त्यर्थः अधः शिरा नोतिग्वा विमदृष्टिः किन्तु नियतभूभाग नियमितदृष्टिरिति भावः झाकोोग त्ति ध्यानं-- धर्म्य शुक्लं या तदेव कोष्ठः कुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः यथाहि कोष्ठके धावं प्रविप्रसृतं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽचिप्रकीन्द्रियान्तःकरण वृत्तिरित्यर्थः संयमेन पञ्चाश्वनिरोधादिलक्षगेन तपसाधनशनादिना शब्दोऽत्र समुच्चयाय लुमो द्रष्टव्यः संघननग्रहर्ण चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थम्, प्राधान्यं व संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुखेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, ताहि--अभिनय कमनुपशमात् पुरापा जायते सम्यक्षको मोक्षः, ततो भवति संयम तपसा प्रति प्राधान्यमिति, 'अप्पा भावेमा वि रडू' इति श्रात्मनं भावयन् - वासयन तिष्ठतीत्यर्थः, 'ततो से इति ततो ध्यानकोष्ठोपमन विहरबाइनन्तरं समिति वाक्यालङ्कारार्थः स भगवान् गौनमः जायस इत्यादि जातधदादिविशेषणः सन् उतिष्ठतीति योगः तत्र जाना प्रवृत्ता श्रद्धा - इच्छा वक्ष्यमाणार्थतस्वज्ञानं प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नामानवधारितार्थ ज्ञानम्, स चैवं भगवतः - इह सूर्यविक्लव्यता अन्यथा, अन्यथा व तीर्थास्तरीयेरुपदिश्यते मनः किं तमिति संशयः तथा 'जायको नि जात कुतूहलं यस्य स जानकुतुहलः। जातैौत्सुक्य इत्यर्थः यथा कथमेता भगवान् प्रापयिष्यतीति तथा 'उत्पन्नस' त्ति उत्पन्ना प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासीप जान इत्यतापदेपास्तु किमर्थत्पन इत्यभिधीयते ? प्रत्येोत्पत्वस्य
9
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3
-
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(१०३७१ अभिधान राजेन्द्रः ।
1
सुरपति
लब्धत्वात् न ह्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तत इति श्रत्रोच्यतेहेतुत्यदर्शनार्थम् तथाहि कथं प्र उच्यते
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यत उत्पन्नश्रद्ध इति हेतुत्वप्रदर्शनं चोपपन्नम् तस्य काव्यारलङ्कारत्वात् तथा प्रदीपा (प्र) पतारकरां, प्रका पवृत्तभास्करां, शयां बुबुधे विभावरी मित्यत्र पर्याप यावृतभास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रीपत्वादेर्हेतुतयोपन्यस्तमिति समीचीनम् ' उप्पन्नसडे उपअसं उत्पन्नकोउडले ' इति प्राग्यत् तथा संज्ञाय इत्यादि पदपद प्राम्यत् न प्रद चनो दितयः ततः उडाए उह इति उत्थानमुत्याऊर्ध्वं वनं तथा सति इत्युके किवारप्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते ततस्तद्यच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तम्, 'जेणेवे' त्यादि, प्राकृतशैलीत्रशादव्ययत्वाश्च येनेति यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यम्, यस्मिन् दिग्भागे धमयो भगवान् महावीरो व शि-तस्मिन् दि. ग्भागे उपागच्छति, इह वर्त्तमानकालनिर्देशस्तत्कालापेक्षया उपागमनक्रियाया वर्त्तमानत्वात् परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्यम् उपागम्य च श्रमण भगवन्तं महावीरं काकरो ति दस्तादारभ्य प्रदक्षिण-परितो आयतो दक्षिण दिक्षितं करोति कृत्या चन्नते-नीति नमस्थति कायेन प्रयमति दिया नमप्रतिनिकट अपरिहा रान् अथवा नात्यासन्नस्थाने वर्तमान इति गम्यम्, तथा 'न' नैयातिदूरेऽतिथिप्रकृष्टोऽनौचित्यपरिहारात् नातिदूर स्थाने सुस्समाणे 'ति भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन, 'अभिमुद्दे तं प्रति मुखमस्येत्यभिमुखः विषये 'ति विनयेन हेतुना ' पंजलिउडे ' त्ति प्रकृष्ट-- प्रधानो ललाटनटघटितत्वेन श्रञ्जलिः- हस्तविशेषः कृतो विदितोयेन स प्राकृत भाष दादराकृतिगणतया कृतशब्दस्य पानिपातः 'पज्जुवासेमाणे' इति पर्युपासीनः सेवमानः अनेन विशेषणकदम्बकेन श्रवणविधिरुपदर्शितः, उक्तं च "निहाविगहा परिव-जिपहिं तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुध्वं उबउ तेहिं सुगेव्वं ॥ १ ॥ " इति । एवं वदासि सि एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण सूर्यादिवतव्यताविषयं प्रश्नमवादीत् उक्तवान् ।
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कथमुक्तवानिति शिष्यस्य प्रश्नापकाशमाशय प्रथमता विशती प्राकृतेषु यद्ययं तदुपनि गाथापकमाह
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कह मंडला व १, तिरिच्छा किं च गच्छई २ । प्रभास केवइयं ३, सेयाइ किं ते संठिई ४ ॥ १ ॥ कपिडिया लेसा ५, कहिं ते ओठ ६ के सूरियं वरयते ७, कहं ते उदयसंठिई ८ ॥ २ ॥ कह कट्ठा पोरिसीछाया है, जोगे किं ते व चाहिए १०। किं ते संवच्छरेणादी ११, कया संवच्छराइ य १२ || ३ || कदम बुड्डी १३ कया वे दोसिया बट्ट १४ । के सिग्घगई कुत्ते १५, कहं दोसियलक्खणं १६ ॥ ४ ।। गोवा १७ उथने १८ मूरिया फड आदिया १६
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सूरपरणत्ति
। १०३८) अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरपणत्ति अणुभावे के व संवुते २०,एवमेयाइँ वीसइ॥५॥ (सू०३)। णिक्खममाणे सिग्धगई, पविसंते मंदगई ह य । प्रथमे प्राभृते सूर्यो घर्षमध्ये कति मण्डलान्येकवारं कति
चुलसीइसयं पुरिसाणं , तेसिं च पडिवत्तिो ॥१०॥ था मण्डलानि विकृत्यो बजतीत्येतनिरूपणीयम् , किमुक्तं उदयम्मि अट्ठ भणिया, भेदग्घाए दुवे य पडिवत्ती। भवति-एवं गीतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्वे तद् विषय निर्वाचन प्रथमे प्राभृते वक्रव्यमिति । एवं सर्वत्रापि
चत्तारि मुहुत्तगइए, हुंति तइयम्मि पडिवत्ती ।। ११ ॥ भावनीयम । द्वितीय प्राभृत 'किं' कथं बाशब्दः सर्वग्राभू
(मू०-६) सयक्तव्यतापेक्षया समुडबये तिर्यग्वजतीति । तृतीये चन्द्रः प्रावलिय १ मुहुत्तग्गे २, सूयौं था कियक्षेत्रमबभासयति-प्राकाशयतीति ३, चतुर्थे एवं भागा य ३ जोग्गस ४ । श्वेततायाः-प्रकाशस्य किं कथं 'ते'-जय मते संस्थितिः-व्यवस्थेति ४ , पञ्चमे कस्मिन् सूर्यस्य प्रतिह
कुलाई.५ पुनमासी ६ य, ता लेश्येति ५, षष्ठे कथं-केन प्रकारेण किं सर्यकालमे
सभिवाए ७ य संठिई ८ ॥ १२ ॥ करूयस्थायितया उतान्यथा श्रोजसः-प्रकाशस्य संस्थि- तारं (य) गं च ह नेता य १०, ति:-अयस्थानमिति ६. सप्तमे के पुद्गलाः सूर्य परयन्ति
चंदमग्ग त्ति ११ यावरे । सूर्यलेश्यासंसृष्टा भवन्तीति ७, अष्टमे कथं-केन प्रकारेण भगवन् ! ते-तव मतेन सूर्यस्योदयसस्थितिः ८ , न
देवताण य अज्झयणे १२., बमे कतिकाष्ठा-किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया, दशमे योग मुहुत्ताणं नामया इ य १३ ॥ १३॥ इति वस्तु किं ते-त्वया भगवताऽख्यातमिति १०, ए- दिवसा राइ वुत्ता य १४ , कादशे कस्ते-तय मतेन संवत्सराणामादिरिति ११ , द्वाद
तिहि १५ गोत्ता १६ भोयणाणि १७ य । शे कति संवत्सरा इति १२, त्रयोदशे कथं-केन प्रकारेण चन्द्रमसो वृद्धिः-वृद्धिप्रतिभासः उपलक्षणमतत्तेन वृ
प्राइच्चवार १८ मासा १६ य, अपवृद्धिप्रतिभास इत्यर्थः १३ , चतुर्दशे कदा--कस्मिन् पंच संवच्छराइ य २० ॥१४॥ काले 'ते'-तय मतेन चन्द्रमसो ज्योत्स्ना बहुः-प्रभूतेति जोइसस्स य दाराई २१, १४, पञ्चशे कश्चन्द्रादीनां मध्ये शीघ्रगतिरुक्त इति १५,
नक्खत्तविजए विय २२ षोडशे किं ज्योत्स्नालक्षणमिति वक्तव्यम् १६, सप्तदशे चम्द्रादीनां च्यवनमुपपातश्च स्वमतपरमतापेक्षया व
दसमे पाहुडे एए, कव्यः १७, अष्टादशे चन्द्रादीनां समतलाद्भूभागादूर्ध्वमुच्च
बावीसं पाहु (ड) पाहुडा ।। १५ ।। (सू०-७) स्थ-यावति प्रदेश व्यवस्थितत्वं तत्स्वमतपग्मतापक्षया प्र- प्रथमस्य प्राभृतस्य सत्के प्रथम प्राभृतप्राभृते महीनां तिपाद्यम् १८, एकोनविंशतितमे कति सूर्या जम्बूद्वीपा- दिवसरात्रिगतानां वृद्धथपवृद्धी वक्तव्ये १, द्वितीयेऽर्द्धमण्डदायाख्याता इत्यभिधेयम् १६, विंशतितमे कोऽनुभावश्चन्द्रा लस्य द्वयोरपि सूर्ययोः प्रत्यहोरात्रमर्द्ध मण्डलविषया संस्थि. दीनामिति २०॥ एवम्-अनन्त रोक्नेन प्रकारेण एतानि अनन्त- तिः- व्यवस्था वक्तव्या २, तृतीये तब मतेन कः सूर्यः किरोदितार्थाधिकारोपेतानि विंशतिः प्राभृतान्यस्यां सूर्यप्राप्ती यदपरेण सूर्येण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचराति निरूप्यम् ३, चवक्तव्यानि । स०प्र०१ पाहु०। (प्राभृतशब्दार्थः 'पाहुड' श- तथं द्वायपि सयौँ परस्परं कियत्परिमाणमन्तरं कृत्वा चार मे पश्चमभागे ६१४ पृष्ठे गतः।)
चरत इति प्रतिपाद्यम् ४, पञ्चमे कियत्प्रमाण द्वीप समुद्र सम्प्रति प्रथमे प्राभृते यान्यपान्तरालवर्तीन्यष्टी प्राभूतप्रा- वाऽवगाय सूर्यचार चरतीति ५, षष्ठे एकैकन राधिम्दिभूतानि तेषामर्थाधिकारान् उपदिदिक्षुराह
धेन एकैकः सूर्यः कियत्प्रमाण क्षेत्र विकम्य-विमुच्य चार बड्डोबड्डी मुहुत्ताण १, मद्धमंडलसंठिई २।
घरतीति ६ , सप्तमे मण्डलानां संस्थानमभिधानीयम् ७,
अटमे मण्डलानामेव विष्कम्भो-बाहल्यमिति, एवमके ते चित्रं परियरइ ३, अंतरं किं चरति य ४॥ ६ ॥ र्थाधिकारसमन्धितानि प्रथमे ग्राभृतेऽष्टी प्राभृतप्राभूताउग्गाहइ केवइयं ५, केवतियं च विकंपइ६।
नि । सम्प्रति प्रथम एष प्राभृते चतुरादिषु प्राभृतप्रा(सू०-४)
भूतेषु यत्र यावत्यः प्रतिपत्तयः परमतरूपास्तत्र तावतीमंडलाण य संठने ७,विखंभोट भट्ठ पाहुडा ॥७॥
रभिधित्सुराह-'छापंचे' त्यादि, प्रथमस्य प्राभूतस्य
चतुरादिषु प्राभूतप्राभूतेषु यथाक्रममेताः प्रतिपत्तय:-गर छप्पं च य सत्तेव य, अट्ठ तिमि य हति पडिवत्ति ।
मतरूपा भवन्ति , तद्यथा-चतुर्थे प्राभूतप्राभृने षद् प्रतिपपढमस्स पाहुडस्स, हवंति एयाउ पडिबत्ती ॥८॥ त्तयः ६. पञ्चमे पश्च५, षष्ठे सप्त ७, सप्तमे अछौ ८ अष्टमे
तिन ३ इति । सम्प्रति द्वितीये प्राभृते यदर्थाधिकारोपेता
नि त्रीणि प्राभृतप्राभृतानि तान् प्रतिपादयति- परिवपडिवत्तीभो उदए, तहा प्रथमणेसु य ।
ती' स्यादि , द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमे प्राभूतप्राभृते मियवाए कपकला , सहुताय गतीति य॥8॥
। सूर्यस्योदये अस्तमयनेषु च प्रतिपत्तय:--परमतरूपा प्र.
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(२०५९ सूरपणति अभिधानराजेन्द्रः।
सूरपणत्ति तिपाद्याः स्वमतप्रतिपत्तिश्च । द्वितीये भेदधातः कर्णकला । नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि--प्रधीयते ज्ञायते एघ वक्रव्या , किमुक्तं भवति ?-भेदो मण्डलस्यापान्तरालं भिरित्यध्ययनानि--नामानि वनाव्यानि १., प्रयोदशे मुहूतत्र घातो-गमनम् ' हन् हिंसागत्योरिति वचनात् , स नां नामकानि वक्तव्यानि १३, चतुर्दश दिवसा रात्रयएकेषां मतेन प्रतिपाद्यः , यथा विवक्षिते मण्ड- श्वोक्ताः १४, पञ्चदशे तिथयः १५, षोडशे गोत्राणि नक्षत्राणां ले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरं सूर्योऽपरमनन्तरं १६ सप्तदशे नक्षत्राणां भोजनानि याच्यानि, यथेदं नक्षत्रमण्डल संकामतीति , तथा कर्णः-कोटिभागः तमधि- मेवरूप भोजने कृते शुभाय भवतीति १७, महादशे प्रादिकृत्यापरेषां मतेन कला वक्तव्या , यथा विवक्षिते मण्डले त्यानामुपलक्षणमेतच्चन्द्रमसच चारा चक्रव्याः १८, एकोनद्वावपि सूर्यो प्रथमक्षणे प्रविगै सन्तौ पूर्वापरकोटिद्वयं विंशतितमे मासाः १६. चिंशतितम संवत्सराः २०, एकालक्षीकृत्य बुस्या परिपूर्ण यथावस्थितं मण्डलं विधक्षित्या शतितमे ज्योतिषां--नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि चक्रव्यानि, सतः परमण्डलस्य कर्ण-कोटिभागरूमभिसमीक्ष्य ततः यशाऽमूनि नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि अमूनि च पश्चिमद्रागकलया १ मात्रयार इत्यथैः, अपरमण्डलाभिमुखमभिसर्पन्ती | पीत्यादि २१, द्वाविंशतितमे नक्षत्राणां विचय:-चन्द्रसूर्यचारं चरत इति । तृतीये प्राभृतप्राभृते प्रतिमण्डलं मुहर्तेषु योगादिविषयो निर्णयो चक्रव्य इति । तदयमुना प्राभूतप्रागतिः-गतिपरिमाणमभिधातव्यम् तत्र निष्कामति प्रविशति | भृतसंख्या तेषामधिकाराश्च २२। सू०प्र०१पाहु। घा सूर्य याशी गतिर्भवति ताहशीमभिधित्सुराह--
उपसंहारमाह'निक्स में' स्यादि निष्क्रामन्-सर्याभ्यन्तरान्मण्डलादहिनिगच्छन् सूर्यो यथोत्तरं मण्डलं संक्रामन् शीघ्रगतिः शीघ्रतर
इय एस पाहुडत्था, अभव्वजणहिययदुलहा इणमो। गतिर्भवति, प्रविशन्-सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरमागच्छन्
उक्कित्तिता भगवता, जोतिसरायस्स पमत्ती ॥१॥ प्रतिमण्डल मन्दगतिः मन्दमन्दगतिः, तेषां च मण्डलानां एस गहिता वि संता, थद्धे गारवियमाणि पडिणीए । चतुरशीतं चतुरशीत्यधिकं शतं सूर्यस्य भवति.तेषां मण्डला
अबहुस्सुए ण देया, तब्धिवरीते भवे देया ॥२॥ मां च विपये प्रतिमुहूर्त सूर्यस्य गतिपरिमाणचिन्तया पुरुपाणां प्रतिपत्तयो नाम मतान्तररूपा भवन्ति । सम्पति क
सद्धाधिति उहाणु-च्छाहकम्मबलविरियपुरिसकारेहिं ! स्मिन् प्राभूतप्राभृते कति प्रतिपत्तय इत्येतस्प्ररूपयति-द्वि
जो सिक्खिमो वि संतो, अभायणे परिकहेजाहि ।।३।। सीये प्राभृते त्रिष्यपि प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेवं संख्याःप्र- सो पत्रयणकुलगणसं-धबाहिरो णाणविणयपरिहीणो । तिपत्तयो भवन्ति.तद्यथा-प्रथम प्राभृतप्राभूते उदये-सू- अरहंतथेरगणहर-भेरं किर होति वोलीणो ।। ४ ॥ योदयवन व्यतोपलक्षिते अष्टो भणिनास्तीर्थकरगणधरैः प्रतिपतयः, द्वितीये प्राभृतग्राभृत भेदधाते--भेवघातरूपे पर
तम्हाधितिउट्ठाणु-च्छाहकम्मबलविरियसिक्खि अंणाणं। मतवक्तव्यतोपलक्षिते द्वे एवं प्रतिपत्ती भवतः, तृतीये प्राभृ
धारेयव्वं णियमा, ण य अविणीएसु दायध्वं ।। ५ ।। सप्राभृते मुहूर्तगती-मुहूर्तगतिवक्रव्यतोपलक्षिते चतस्रः इति-एवम्-उक्नेन प्रकारेण अनन्तरमुहिएस्वरूपा प्रकप्रतिपत्तयो भवन्ति, 'चत्तारी' ति च सूत्रे नपुंसकत्यनिर्देशः टार्था-जिनवचनतत्ववेदिनामुत्तानार्था,इयं चेत्थं प्रकटार्थी प्राकृत्यात् .प्राकृते हि लिकं व्यभिचारि,यदाह पाणिनिः स्व. ऽपि सती अभव्यानां हृदयेन-पारमार्थिकाभिप्रायेण दुर्लभा, माकृतलक्षणे-'लिङ्ग व्यभिचार्यपी' ति । सम्प्रति दशमप्राभूते भावार्थमधिकृत्याभन्यजनानां दुर्लभेत्यर्थः , अभव्यत्वादेव याम्यपान्तरालवर्तीनि द्वाविंशतिसंख्यानि प्राभृतप्राभृतानि तेषां सम्यगजिनवचनपरिभावात् , उत्कीर्तिता-कथिता सेषामर्थाधिकारमाह-दशमे प्राभृते एतानि-सूत्रे पुंस्त्यनि
भगवती-मानेश्वर्या देवता ज्योतिषराजस्य-सूर्यदेशः प्राकृतत्वात् एतदर्थाधिकारोपेतानि द्वाविंशतिः प्राभृ- स्य प्राप्तिः । एषा च स्वयं गृहीता सती यस्मै न दातप्राभूतानि भवन्ति,तद्यथा-प्रथमे प्राभूतप्राभूते नक्षत्राणा- तण्या तत्प्रतिपादनार्थमाह-'एसा गहिया वि' इत्यादि, मावलिकाक्रमो धनव्यः यथा अभिजितावनि नक्षत्राणि भव. गाथाद्वयम्, एपा-सूर्यप्राप्तिः स्वयं सम्यकरणेन गृहीताऽपि तीति १, द्वितीये नक्षत्रविषयं मुहर्ताप्रं मुहर्तपरिमाणं सती " व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति पचनात्-चतुध्य) यक्तव्यम् २, वतीये 'एयं भागा ' इति 'पूर्यभागा' इति सप्तमी, ततोऽयमर्थ:-'थये' इति स्तम्धाय स्वभावत पर पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण भागा पक्रव्याः ३, चतुर्थे 'योगस्स' मानमरुत्या विनयभ्रंशकारिणे, गारविय'ति, अद्यात्ति-योगस्यादितव्यः, तथा व वक्ष्यति-ता कहते दिगौरवं संजातमस्येति गौरावतस्तस्मै अखिरससातामाजोगस्स भाई आहियत्ति वाजा' इति ४, पञ्चमे कुलानि मन्यतमेन गौरवेण गुरुतरायेति भावः , श्रद्धयानिमदोपेचशदादुपकुलानि कुलोपकुलानि च यतम्यानि ५. षष्ठे पौ- तो ह्यनिम्त्यचिन्तामणिकल्पमपी सूर्यप्राप्तिप्रकीर्णकमाचा. र्णमासीति-पौर्णमासी यतन्यता अभिधेया ६, सप्तमे 'समि- र्यादिकं स तसारमयज्ञया पश्यति, सा चाया तुरन्तपात इति प्रमावस्यापौर्णमासीसन्निपातो वक्तव्यः ७, अष्टमे | नरकादिप्रपातहतुरतस्तदुपकारायैप-सस्मै वानप्रतिषेधःनक्षत्राणां संस्थितिः-संस्थानं वक्तव्यम् , मबमे नक्षत्रतारानं. यं च भावना स्तब्धमायादिष्यपि भावनीया, तथा मानिनेसारापरिमाणमामधेयम् दशमे नेता यक्तव्यो, यथा कति न- जात्यानिमदोपेताय प्रत्यनीकाय-दरभव्यतया अभध्यतया या सपाणि स्वयमस्तामनेनाहोरात्रपरिसमाप्त्या के मासं सिद्धान्तवचननिकुहनपराय ,तथा अल्पश्रुताय-प्रवगादभयन्तीति १०, अपरसिकादशे प्राभृतप्राभूते चन्द्रमागः स्तोकशास्त्राय , स हि जिनवचनेषु (अ) सम्यग्भावित. चन्द्रमण्डलानि नक्षत्राधिकृत्य कन्यानि ११, बादशे स्वात् , शब्दार्थपर्यालोचनायामारपत्याच यथावत्कस्य
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(१०४० 2 अभिधान राजेन्द्रः ।
सूर पत्ति
सूरमंडल
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मानमपि न समरोचयते इति न देया किन्तु रिप्पम सूर्यप्रभ० चतुर्थ देवलोक विमानमेंरीता तया भवेत्। तदस्य भावप्युपादानं दातव्यत्वावधारणार्थे तद्विपरीताय दानब्यैव नातव्या । प्रदाने शास्त्रव्यवच्छेदप्रसक्त्या तीर्थव्य बच्छेदक्तेः एतदेव व्यक्लीकुर्वन्नाह' सद्धे त्यादि, अदा अर्थ प्रति यादा प्रतिः-विवक्षितं जनय सत्यमेव नान्यथेति मनसोऽवष्टम्भः, उत्थानं-श्रवणाय गुरु प्रत्यभिमुखगमनमुत्साहः -- श्रवसथियन क निकाविशेषः यद्वशादिदानीमेव यदि मे पुरापयशात् सामश्री सम्पद्यते शृणोमि च ततः शोभनं भवतीति परिणाम उपज्ञायते कर्म-वन्दनादिल बलं शारीरो वाचनादिविषयः प्राणः वीर्यसूक्ष्मसुमायनश पुरुषकाः तदेव वीर्य साधिताभिप्रयोजनम्। एते कार या स्वयं शिक्षितोऽपि गृहीत ऽपि सन् यो दाक्षिण्यादिना श्रन्तेवासिनि श्रभाजने प्रयोये प्रतिक्षिपेत्-सूत्रतोऽर्थेत उभयतो वा न्यसेत् 'सो पत्रय' त्यादि स प्रवचनकुलगा ज्ञानविनयपरिहीसो-ज्ञानावारपरिगो भगवदरस्थविरम भगवदनादिकृत व्यवस्था भवति किल व्यतिकान्तः । किलेल्या प्तवादसूत्रकम् इत्थमाप्तवचनं व्यवस्थितं यथा सनूनं भगवदादिव्यवस्थापतिकान्त इति तदतिक्रमे व सरिता 'नम्हे स्यादि तस्माद युस्थानोत्साह कलत्ज्ञानं सूर्यादि स्वयं सुमुकु वा शिक्षितं तन्नियमादात्मन्येव धर्तव्यम् न तु जातुचिदव्यनिषु तय्यम् उक्तप्रकारेण नहाने
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वेद प्रदानविधिः । इयं च सूर्यशरितो मिथिलायां नगर्यो भगवता परिवर्तमान स्वामिना साक्षादुक्ला ।
सूर्यशतिमिमा मतिगम्भीरां वियता कुशलम् । दयापि मगरसा साधुजनस्तेन कृती । ३. " सू० प्र० २० पाहु० । यो० वि० । “कालियसुयं च इसिभासियाहूँ तो अ सूरपन्नत्ती । सव्यो उ दिट्टिवाओ, चउगो होइ अणुश्रोगो । " श्रा० क० १ श्र० ।
घरपरिवेस सूर्यपरिवेष-पुं० सूर्यस्य परितो वलयाकार परिणती अनु | जी० । सूरपव्यय-सूर्यपर्वत पुं० [मेरुपर्वतस्य पश्चिमविक्रान्तविजयस्य दक्षिणस्यां दिशि पर्वतभेदे, स्था० २ ठा० ३ ७० ।
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दो सूरपव्त्रया । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
तोवाया उत्तरे पावें महाकविजयक्षेत्रे वक्षस्कारपर्यंते, जं० [४] वक्ष० । स्था० ।
सूरपाणिलेह - सूर्य पाणिलेख- पुं० । सूर्य इव सूर्याकाराः पागिलेथाः सूर्याकृतिरेखा युतहस्तेबु, जी० ३ प्रति ४ श्रधि | प्रश्नः । सूरपुरंगम - शूरपुरंगम- पुं० शूराणामप्रगामिनि सूत्र १ शुक्रे ऋ० रे. उ०
दे, स०५ सम० ।
सूरप्पभा सूर्यप्रभा - स्त्री० । एकादशस्य तीर्थकृतो निष्कशिविकायाम, स० जी० सूर्य ज्योतिष्केन्द्रस्याग्रमहिण्याम्, स्था० ४ ठा० १ उ० ।
सूरप्पमाण भोइ- सूर्यप्रमाणभोजिन् - पुं० । सूर्योदयादस्तमयं यावदशनपानाद्यम्यवहारिणि स० २० सम० 1 आ० चू० । दशा० । “सूर एवं प्रमाणं तस्स उदयमेते श्रारो जाय अत्थमेद ताय भुंजह सज्झायमादी न करेइ परिचोइओ रुस्सर अजीरगावी समाधी उप्पजति । श्र० ४ श्र०
रभसूर्यभद्र-सूर्यदेवे जी०३ प्रति०४ अधि० सूरमंडल - सूर्यमण्डल - न० । श्रादित्यविमानवते, स० १० सम० । सूर्यवव्यतायां पञ्चदश द्वाराणि तत्रेमानि - पश्चदशानुयोगागमण्डल संख्या मण्डलशेषम् २ मा न्तरम् ३ विश्वायामविष्कम्भादि मेरा क्षेत्रबाधा, ५ मलायामादिद्धिदानी ६ मुगतिः ७ दिवसत्रिवृद्धिहानी = ताप क्षेत्र संस्थानादि ६ दूरासन्नादिदर्शने १० ११ तथैव कियाप्रश्नः १२ ऊदिदि प्रकाशयोजनसंख्या १३ मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योति स्वरूपम् १४ इन्द्राद्यभावे स्थिति तब मण्डलसंख्यायामादिसूत्र
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कहत ! सूरमंडला पश्यना ?, गोमा ! एंगे चउरासीए मंडलसए पम्पत्ते इति । जंबुद्दीचे णं भंते ! दीये केवइथं अंगाहिता केवइया सूरमण्डला पथना गोयमा युद अमी जोअवसयं श्रगाहिना पर से पचमट्टी सूरमण्डला परणना लवणे से भंते! समुदे वह भोगाहिता कंथा सूरमंडला परवडा १ मोचमा लवखे समुद्दे तिमि तसे जो अगाहिना एत्थ एगूणवीसे वरमंडलसए पते एवामेव सपुव्यावर जंबुद्दीचे दीवे लवणे अ समुद्दे एगे चुलसीए सूरमंडलसप भवतीतिमवखायं ति ॥ १॥ (० १२७ )
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कमित्यादि कति भदन्त ! सूर्ययोदेशिकोतराय कुर्वतोर्निजविस्त्रप्रमाणचक्रवालविष्कम्भानि प्रतिदिन भ्रमिक्षेत्रलक्षणानि मण्डलानि प्रशप्तानि ? मण्डलत्वं चैषां मण्डलसदृशत्वात् न तु तात्विकं, मण्डलप्रथमक्षणे यद् व्यास क्षेत्र तत्समधल्य पनि पुरः क्षेत्र -
या तास्थिकी मण्डलता स्यात् तथा च सति पूर्वमण्डलादुत्तरमण्डलस्य योजनद्वयमन्तरं न स्यादिति, भगवाना- गौतम ! एकं चतुरशीतं चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं प्रशप्तम् यथा वैभिचार क्षत्रपूरणं तथा अनन्तरद्वारे रूप प्रताम्य भाग द्विधा विभ ज्योतसख्यां पुनः प्रश्नयति- जंबुद्दीन सि जम्बूद्वीपे द्वीपे भदन्न ! कियक्षेत्र मघगाह्य किंयांत सूर्यमण्डलानि प्रज्ञतानि
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(१०४१) सूरमंडल अभिधानराजेन्द्र:।
सूरमंडल गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतम्--अशीत्यधिक यो-! सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यपर्यवसानैाप्तमा. जनशतमवगाह्यात्रान्तरे पञ्चषष्ठिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञ- काश,तश्चक्रवालविष्कम्भतोऽवसेयम् । उक्नं मण्डलक्षेत्रद्वारम्। तानि , तथा लवणे भदन्त ! समुद्र कियदवगाह्य
अथ मण्डलान्तरद्वारमाहकियन्ति सूर्यमण्डलानि प्राप्तानि गौतम ! लवणे सूरमंडलस्स ण भंते ! सूरमंडलस्स य केवइयं पावाहाए समुढे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि सूत्रेऽल्प
अंतर पमत्त ?, गोअमा! दो जोषणाई अवाहाए अंतरे स्वादविवक्षितानप्यप्रचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् अबगाह्यात्रान्तरे एकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं प्राप्तम् , अत्र
पएणते ।।३।। (सू० ६२६) पञ्चषष्ट्या मण्डल'कोनाशीत्यधिक योजनशतं नय चैकष
'सूरमंडल' इत्यादि, भगवन् ! सूर्यमण्डलस्य सूर्यमण्डप्रिभागा योजनस्य पूर्यन्त , जम्बूद्वीपेऽवगाहक्षेत्र चाशी
लस्य च कियदबाधया-अव्यवधानेनान्तरं प्राप्तम् ?, स्यधिकं योजनशतं तेन शेषा द्वापञ्चाशद्भागाः षट्पष्टित
गौतम ! द्वे योजने अबाधया अन्तरं प्राप्तम् , अन्तरशमस्य मण्डलस्य बोध्याः अल्पत्वाच्चात्र न विवक्षिताः ।
ब्देन च विशषोऽप्युच्यते इति तन्निवृत्त्यर्थमबाधयेत्युक्तं , अत्र च पश्चषटिमण्डलानां विषयविभागव्यवस्थायां सम
कोऽर्थः ?-पूर्वस्मादपरं मण्डलं कियद् दूरे इत्यर्थः, अत्र यथा हणीवृत्त्यायुक्तोऽयं वृद्धसम्प्रदायः-मेरोरेको निषधम्र्द्ध
योजनद्वयमुपपद्यते तथाऽनन्तरमेव मण्डलसंख्याद्वारे दनि त्रिषष्टिमण्डलानि हरिवर्षजीवाकोट्यां च द्वे द्वितीयपा
र्शितम । गतं मण्डलान्तरद्वारम् । खें नीलवन् मूर्थिन त्रिषणिः, रम्यकजीयाकोख्यां च वे इति ,
। अथ बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम्एवमेव सपूर्वावरेण पञ्चषष्ट्येकोनविंशत्यधिकशतमण्ड
सूरमंडले भंते ! केवइ आयामविखंभेणं केवइथं लमीलनेन जम्बूद्वीपे लवणे च समुद्रे एकं चतुरशीतं सूर्य- परिक्खेवणं केवइ बाहल्लेणं पएणत्ते ?, गोत्रमा ! अडमराडलशतं भवतीत्याख्यातं मया चान्येस्तीर्थकृद्धिः। गतं | यालीसं एगसद्विभाए जोअणस्स ायामविवखंभेणं तं भण्डलसंख्याद्वारम् ।
तिगुणं सविसे परिक्खेवेणं चउवीसं एगसट्ठिभाए जोअथ मण्डलक्षेत्रद्वारम् , तत्रसूत्रम्
अणस्स चाहल्लेणं पण्णत्ते इति॥४॥ (सू०१३०) सयभंतराओणं भंते ! सूरमंडलाओ केवइनाए अवा
'सरमण्डले ण ' मित्यादि , सूर्यमण्डलं एमिति प्राग्वत् हाए सव्वबाहिरए सूरमंडले परमत्ते?, गोथमा ! पंच
भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपण कियदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए सूरमडल द्वाहल्येन-उच्चत्वेन प्राप्तम् ?,गौतम! अष्टचत्वारिंशद्भागान् परमत्ते ॥ २ ॥ ( सू० १२८)
योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां प्राप्तम् , अपमर्थः-एकयोजनसयम्भतराश्रो ' मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरात्-प्रथमात्
स्यैकष्टिभागाः कल्प्यन्ते तद्पा येऽएचत्वारिंशद्भागास्तावसूर्यमण्डलात् भदन्त ! कियत्या अबाधया-कियता अन्त
प्रमाणावस्यायामविष्कम्भावित्यर्थः, तत् त्रिगुणं सविशेषरेण सर्वबाह्य-सर्वेभ्यः परं यतोऽनन्तरं नैकमपीत्यर्थः सूर्य
साधिक परिक्षेपण,अष्टचत्वारिंशत् त्रिगुणिता योजन द्वाविं. मण्डलं प्रसप्तम् ?,गौतम! दशोत्तराणि पश्चयोजनशतानि अ
शतिरेकषष्टिभागा अधिका योजनस्येत्यर्थः.चतुर्विशतिरेकष. बाधया-अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपया सर्वबाह्य सूर्यमण्डलं
टिभागान योजनस्य बाहल्येन,विमानविकम्भस्याभागेनो
च्चत्वात् । गतं बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम् । जं०७ वक्षः। प्रशप्तम् , अत्रानुक्का अपि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 'ससिरविणो लवणम्मि अजोश्रणसतिमि तसअहि
जंबूदीवे दीवे वासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तोसंकआई' इति वचनादधिका ग्राह्याः, अन्यथोकसंख्याङ्कानां मित्ताण चारं चरइ,तं जहा-निक्खममाणे य, पविसमाणे मण्डलानामनवकाशात् , कथमेतदवसीयते ?, उच्यते- य। (सू०८२४) सर्वसंख्यया चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतम् , एकैकस्य च तत्र जम्बूद्वीपे ज्यशीत्यधिक मण्डलशतं सूर्यस्य मार्गशतं मण्डलस्य विष्कम्भोऽष्टचत्वारिंशदे कषष्टिभागा योजनस्य , तद्भवतीति वाक्यशेषः, किंभूतं ?, यत्स्यों द्विकृत्यो द्वौ वारी ततचतुरशीत्यधिकं शतमष्टाचत्वारिंशता गुण्यते , जाता- संक्रम्य प्रविश्य चारं चरति , तद्यथा-निएकामंश्च जम्बूद्वी. न्यष्टाशीतिः शतानि द्वात्रिंशदांधकानि, एतेषां योजनान- पात् , प्रविशश्व जम्बूद्वीप एवेति । अयमत्र भावार्थ:-किल यनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, हृते च लब्धं चतुश्चत्वारिं
चतुरशीत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति , तत्र सर्वाभ्यन्तरे शदधिकं योजनशतम् १४४ , शेषभवतिष्ठतेऽष्टचत्वारिंशत् , सर्वबाहो सकृदेव संक्रामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति । चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां च मण्डलानामपान्तगलानि इह च द्वन्यशीतिरिक्षयैवेदं यशीतिस्थामकेऽधीतमिति ज्य शीत्यधिकशत संख्यानि सर्वत्रापि ह्यपान्तरालानि रूपो- भावनीयम् । यद्यपि जम्बूद्वीपे पश्चषष्ठिरेच मराडलानां भवति नानि भवन्ति तथा च प्रतीतमेतत् चतसृणामड-लानाम- तथापि जम्बूद्वीपादिक सूर्यचारविषयत्वाच्छेपारयपि जम्बूपान्तरालानि त्रीणीति , एकैकं मण्डलान्तगलं च द्वि- हीपन विशेषितानीति । स०८२ समः। योजनप्रमाण,ततस्यशीत्यधिकं शतं द्विकेन गुण्यते,जातानि बाहिरायो उत्तराओ णं कट्ठामो सरिए पढम छश्रीणि शतानि षट्पट्याधिकामि ३६६ , पूर्वोक्तं च चतुश्चत्वारिंशं शतमत्र प्रक्षिप्यते, ततो जातामि पश्च शतानि दशो
म्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति सराणि योजनानि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ,
एगसट्ठिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुवेत्ता रयअनेन म मण्डलक्षेत्रस्य प्रमाणमभिहितम् । मण्डलक्षेत्रं नाम हि खेत्तस्स अभिनिवुझेत्ता मूरिए चारं चरह
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(१०४२) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल दक्षिणकट्ठामो णं मूरिए दोर्च छम्मासं अयमाणे सयभंतरे सूरमंडले पामते । (सू० १३१+ ) चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीइ इगसद्विभागे मुहुत्तम्स
'जबुहीचे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीप द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य स्यणिखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनि बुड्डि--
पर्वतस्य कियस्था अबाधया सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं
प्रक्षप्तम् ?,गौसम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अट घ ताणं म्ररिए चारं चरइ । (मू० ८८+)
विशत्यधिकामि योजमशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं सूर्यम'बाहिराणो ण" मित्यादि, बाह्याया. सर्वाभ्यन्तरमण्डल
मण्डल प्राप्तम् , अत्रोपपत्तिः--मन्दरात् जम्बूदीपविष्कम्भः रूपाया उत्तरस्याः काष्ठायाः क्वचिद् ' बाहिराओ' त्ति-न
पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, इदं हि मएबुलं जगतीतों दृश्यते सूर्यः , प्रथम घरामासं दक्षिणायनलक्षणं दक्षिणा
द्वीपदिशि श्रशीत्यधिक योजनशतोपसङ्क्रमे भवति , तेन यनादित्वात्संवत्सरस्य 'श्रयमाणे' त्ति-प्रायन , आगच्छन्
४५००० योजनरूप द्द्वीपविष्कम्भादियति १८० योजनको चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽयाशीतिमपष्टिभागान्-'दि.
शोधिते जातं यथोक्नं मानम् , एतच चक्रवालविष्कम्भन चसखेत्तस्स 'त्ति-दिवस्यैव 'निवुहेत 'त्ति-निबद्धर्थ-हाप
भवति तेनापसूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्याप्यनेनैव " करणेनैयित्वा — रयणिखेसस्स' त्ति-रजन्यास्तु अभिवद्धर्य सूरिए चारं घरह' ति-भ्राम्यतीति , इह च भावनैवम्-प्रतिमण्ड
तावत्येवाबाधा बोजव्या, एतेन यदन्यत्र क्षेत्रसमासटीकादौ
मेरुमयधीकृत्य सामान्यतो मण्डलक्षेत्राबाधापरिमालद्वारं ल दिनस्य मुहूतेकषष्ठिभागाद्वयहानेर्दक्षिणायनापेक्षवा चतुश्वत्वारिंशतमे अपार्शतिर्भागा हीयन्ते रात्रेस्तु त एव वर्द्ध
थक् प्ररूपित तदननय गतार्थम् ,अस्यैवाभ्यन्तरतो मण्डलस्त रति, सूर्य ग्रहण चेह दिनमाभिननाद
क्षेत्रस्य सीमाकारित्वात् । कल्पनया सती न पुनसक्रमबसेयमिति । इदं च सूत्रमसप्त
अथ प्रतिमण्डलं सूर्यस्य दूरदूरगमनावबाधापरि
माणमनियतमित्याहतिस्थानकसूत्रपाचनीयमिति , 'दक्षिणकट्टाभो' इत्याविसूत्र पूर्वसूत्रबदरगन्तव्यम् , मघरमिह दिनवृद्धिः रात्रि
जंबुद्दीवे गं ! दीव मंदरस्स पब्वयस्स केवइबाहाए हानिश्च भावनीयेति । स० ८८ सम। ('माउट्टि' शब्दे
सव्वम्भंतराणंतरे सूरमंडले पपत्ते !, गोयमा चोप्रालीम द्वितीयभागे ३१ पृष्ठे मण्डलाऽवृत्तय उक्नाः।)
जोअणसहस्साइं अट्ठ य बावीसे जोमणसए अडयालीसं च मथ सूर्यस्य सर्यमण्डलेषु प्रतिमुहर्त गतिप्रमाणमा- एगसदिमागे जोयणस्स अबाहाए अभंराणंतरे सूरमंडले मज्झि दुवभिगवना, सपा य चउवन संजुभा पाहिं।।
पमत्ते । (सू० १३१४) सूरस्स य अट्ठारस, सट्ठीभागाणमिह बुडी ।। २१ ॥
"जंयुहीये ण' मित्यादि. जम्बूद्वीपे भवन्त ! द्वीप मदरस्य सर्वमध्यमण्डले वर्तमानस्य जभ्यूहीपसत्कसूर्यस्य तु द्वि
पर्यतस्य कियत्या प्रयाधया सर्याभ्यन्तरादनन्तरं-निरन्तर. पञ्चाशम्छतानि एकपश्चाशवधिकानि योजनानामिति योगः,
सया जायमानत्वात् द्वितीयं सूर्यमण्डलं प्राप्तम् ?, गौतम ! एकस्मिन्मार्ते गतिरेतायती भयति-५५५११६ ये छोपरित
चतुश्चत्यारिंशद्योजनमास्राणि अट च योजमशतामिछामांशाः सूत्रे स्तोकस्यानोकास्ते चन्द्रसूर्य यांमुहमयसमानाs.
विंशस्याधिकानि अपचवारिंशतं चैकपशिभागान योजनबसरे चिन्तयिष्यन्ते। या च सर्यमध्यमण्डले मुहर्त गति सूर
स्याबाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं सूर्यमण्डलं प्रशन, पर्यस्माचस्थ बचतुःपक्षाशयोजनसंयुतारुता सती सर्वबाह्यमसडले ।
दत्राधिकं तद्विम्बयिष्कम्भावन्तरमानाथ समाधेयम् । प्रतिमुहले मतिर्जायते यथा-५३०५१ पत्र प्रतिमराडला किञ्चिदूनानामावशष्टिभागामाम् वृद्धिः यतोऽष्टादशा
अथ तृतीयमण्डलं पृच्छमाहमां ध्यशीत्यधिकशतगुणने ३२६४ जायते, तेषां पहुंचा भा
जंघुद्दीवे ण भंते ! दीवे मंदरम्स पब्वयस्स केवइमाए गहारे लब्धानि चतुःपश्चाशद्योजनानीति ।
प्रवाहाए अभंतरतच्चे सूरमंडले पामते ?, गोयमा ! अथ अधिकारान्नक्षत्राणां प्रतिमुहूर्त गतिप्रमाणमाह- चोभालीसं जोमणसहस्साई अट्ठ य पण से जोअणसए पणसहस्सदुसयसाहिम, पपट्ठी जोअग्णाण मज्झिगई।
पणतीसं च एगसट्ठिभागे जोअणस्स अबाहाए भन्भंचउपनहिासा बहि-मंडलए होइ रिक्खाणं ॥ २२॥ तच्चे मामंडले यामते इति । ( स० १३१४) "गणसहस्स'सि-सर्वाभ्यम्तामण्डले वर्तमानामां नक्षत्रा 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि. व्यक्तं नवरम् 'अम्भंतरं तच्च' मिति खामेककस्मिमुहर्ने गतिः पञ्चमहस्राणि द्वेशले पञ्चषष्टिश्च
अभ्यन्तर तृतीयम् अनेन बाह्यतृतीयमण्डलस्य व्यवच्छेदः उसाधिका योजनानाम् ५२६५ सा च सर्वाभ्यन्तरम- सरसूत्रे चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्ट शतानि पञ्चविराडलगनिश्चतु पश्चाशद्योजनाधिका क्रियते तदा सर्वबाह्य- शत्यधिकानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्याबाधया मगरले धर्तमानानां नक्षत्राणां प्रातमुहर्न गतिर्यथा ५३१६ अभ्यन्तर तृतीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ,उपपत्तिस्तु द्वितीयमण्ड
अत्र प्रतिमण्डल वृद्धिः सम्यग् न ज्ञायते यतो मण्ड लाबाधापरिमाणे ४७८२२ योजन इत्येवंरूपे प्रस्तुतमण्डललानामन्तरं सर्वत्र तुल्यं नास्ति ! मण्ड । जे०।
सरके सान्तरबिम्बविष्कम्भ प्रक्षिप्त जातं यथोक्नं मानम् । श्रथ मेरुमण्डल योग्बाधाद्वारम् , तत्रादिसूत्रम्
एवं प्रतिमण्डलमबाधावृद्धावनीयमानायां मा भूद् ग्रन्थजंबद्दीवे भंते ! दीवे मंदरस्स पबयस्स केवडाए गौरयं तेन तजिज्ञासूनां बोधकमतिदेशमाहप्रवाहाए मध्यभतरे सूरसंडले पामते ?,गोश्रमा! चोप्रा- एवं खलु एतेणं उबाएणं णिक्खममाणे सरिए तयणंतरालीम जं.अणसहस्साई अढ य वीसे जोअणसए अवाहाए ओ मंडलाश्रो तयणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो
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(२०४३) सरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरमण्डल दो जोश्रणाई अडयालीमं च एगमद्विभाए जोअणस्म त् सान्तरमगउलविष्कम्भयोजन २४ शाधिते जातं यथोक्नं एगमेगे मंडल अचाहावुहिं अभिवढेमाणे अभिवद्भेमाणे
मानं, पूर्वमगडलाङ्को ध्रुवाकस्तत्र सबिम्बविष्कम्भाऽन्तर
कम्भः शाध्यस्तत उपपटाते यथोकं मानम् । सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइत्ति (मू०१३१४)
उन्नावशिष्टषु मण्डलष्यतिंदशमाह'एवं खलु इत्यादि. एवमुक्कररीत्या, मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः,
एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए तयाणंतएतेनोपायेन-प्रत्यहोगत्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्कामन्-लवणाभिमुख मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तगत् विव
राओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे क्षितात पूर्वस्मात् मण्डलात् तदनन्तरं-विवक्षितमुत्तरम- दो दो जोअणाई अडयालीसं च एगसविभाए जोयणस्स एडख संक्रामन् संक्रामन द्वे द्वे योजने अपचत्वारिंशतं चेक
एगमेगे पडले अबाहाबुद्धिं णिवुद्धमाणे णिवुद्धेमाण सप्टिभागान् योजनस्य एकैस्मिन् मण्डले अवाधया वृद्धिमा भिवर्द्धयन्रसर्वबाह्यभण्डलमुपक्रम्य चारं चरति, यश्चात्राति
ब्बभंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ ।। (सू० १३१) देशरुचिर्गप सूत्रकृन्मण्डलत्रयाभिव्यक्किमदर्शयत् तत्प्रथम
'एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, अवाङ्कदर्शनार्थ द्वितीय मण्डलाभिवृद्धिदर्शनार्थ तृतीयं पुन
एतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण प्रविशन् स्तदभ्यासार्थमिति ।
जम्बूद्वीपमिति गम्यम् , सर्यस्तदनन्तगन्मण्डलात्तदनन्तरं अथ पश्चानुपूर्यपि व्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलादारभ्य
मण्डलं संक्रामन् २ द्वे तु योजने अचत्वारिंशतं चैकपतिमेरुमण्डलयोरबाधां पृच्छन्नाह
भागान योजनस्य एककस्मिन् मण्डले अबाधावृद्धि निव
संयन् २इदं समवायाङ्गवृत्त्यनुसारेणात यथा वृद्धेग्भाचो जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्म केवइमाए
निवृद्धिः निशब्दस्याभावार्थत्वात् निवग कन्येत्यादिवत् , प्रवाहाए सव्वबाहिर सूरममल पामत्ते!, गोयमा ! पणया- तां कुर्यन निवृद्धयन् २ इदं स्थानाङ्गवृत्त्यनुसारि, सूर्यप्रक्षप्तिलीसं जोअणसहस्साई तिमि अतीसे जोअणसए अवाहाए वृत्त्यादी तु नियतयन् नियष्टयन इन्युक्तमस्ति पत्र सर्वत्रासव्वबाहिरे सूरमण्डल पमत्ते । (मु० १३१४)
पिहापयन् हापयन् इत्यर्थः , सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसकम्य जबुदाय'ति जम्बूद्वीप भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्यतस्य
चारं चरतीति , गतमवाधाद्वारम् । कियत्या अबाधया सयाज़ सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? , गौत
अध मण्डलायामादिवृद्धिहानिद्वारम्म! यश्चजत्वारिंशद्योजनसहस्राणि श्रीणि च योजनशतानि
जंघुद्दीव दीवे सयभंतर ण भंत! सरमण्डले केवडअं त्रिंशदधिकामि अयाधया सर्वबाह्य सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् , आयामविक्खंभेणं केवइझं परिक्खेवणं ५मत्ते ?, तत्र मन्दरात् पश्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि जगती ततो
गोयमा! णवण उइं जोअणमहस्साई छच्च चत्ताले जोलवण त्रीणि शतानि त्रिंशदधिकानि ।
अणसए आयामविक्खंभेणं तिमि य जोयश्रणयमहस्सातथा द्वितीयमण्डलपृच्छा-- जबुढीव णं भंते ! दीवे मंढरस्स पव्वयस्स कवइयाए
इं पहमरस य जोमणमहस्साई एगूणण उई च जीपणाई
किंचि विसेसाहिआई परिक्खवणं । (सू० १३२+ ) प्रवाहाए सव्वबाहिराणंतरे सूरमंडले पाते?, गोत्रमा ।
'जंबुद्दीये 'इत्यादि , जम्बूद्वीप दन्त ! ठीए सर्वाभ्यन्नपणयालीसं जोअणसहस्साई तिमि अ सत्तावीसे जोअण
रं सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियच्च परिक्षेपण सए तेरस य एगसद्विभाए जोपणस्स अबाहाए बाहिराणं- प्रशप्तम् ? गौतम ! नवनवति योजनसहस्राणि पद् च तरे सूरमंडले पण ते । (सू० १३१+)
योजनशतानि चन्धारिंशदधिकानि श्रायामविष्कम्भायां , 'जम्बुद्दीव' त्ति प्रश्नसत्र बाह्यानन्तरम्-पश्चानुपूयाँ द्विती.
श्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश च योजनसहस्रारायकोन यमित्यर्थः, उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथै
नवतिं च योजनानि किश्चिद्विशपाधिकानि परिक्षेपण, तत्रा. व जगती ततस्त्रिशदधिकत्रिशतयोजनातिकमे यन्सूग्मण्डल.
यामविष्कम्भयोरुत्पतिर बम- जम्बूढीपयिष्कम्भादुभयोः पा. मुक्तं तस्मादम्तरमाने बिम्बविष्कम्भमान च शोधिते जातं
वयाः प्रत्यकमशीत्यधिकयोजनशनशोधने यथाक्नं मानम् , यथाक्नं मानमिति ।
तद्यथा- जम्बूद्वीपमानम् १००००० अम्मानशीत्यधिकयोजनअथ तृतीयम्
शत १८० द्विगुणित ३६० शाधित सति जातम् ६६६४० इति, जंबुद्दीचे णं भंते ! दीदे मंदरस्स पबयस्म केवइयाए
परिक्षपस्वस्यैव गशः 'विक्खम्भवग्गदहगुणे त्यादिकरणव.
शादानेन व्यः ग्रन्थविस्तरभयान्नात्रांपन्यस्यते,यदिवा-यदेकअबाहाए बाहिरतच्चे सूरमंडले पणते ?, गोयमा ! पण
तो जम्बूद्वीपविष्कम्भादशीत्यधिक योजनशतं यच्चापरतो - यालीसं जोअणसहस्साई तिमि चउबीसे जोअणसए पितषां त्रयाणां शतानां षष्टयधिकानाम् ३६० परिरयः छब्बीसं च एगसद्विभाए जोअण्णरस वा बाहिरतचे एकादश शतान्यष्टत्रिंशदधिकानि ११३८, पतानि जम्बूद्वीपसूरमंडले पामते । (सू० १३१४)
परिरयात् शोध्यन्ते , ततो यथोक्त परिक्षेपमानं भवति ।
अथ द्वितीयमण्डल तत्पृच्छा'जम्बुद्दीये ' ति व्यनं. नवरं उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्यो जनसहस्रागि त्रीणि च शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षड्दि
अब्भंतराणंतरे ण भंते ! मूरमडले कवाअं आयामविशतिं च एकपष्टिभागान् योजनस्यति, अत्र पूर्वमण्डमझा- खंभेणं केवइयं परिक्खयेणं पाते?, गांयमा! णवणउई
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(१०४४) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल जोश्रणसहस्साइं छच्च पणयाले जोअणसए पणतीसं च द्धेमाणे अभिवद्धेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोअणाई एगसद्विभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिमि जोपण- परिरयवुद्धिं अभिवद्धेमाणे अभिवद्धेमाणे सब्बबाहिरं मंसयसहस्साई पमयस्स य जोयणस्सहस्साई एगं सत्तुत्तरं डलं उवसंकमित्ता चार चरह । (सू० १३२४) जोअणसयं परिक्खेवेणं पएणते । (सू० १३२४) 'एवं खलु पतेण' मित्यादि,एवम्-उक्तरीत्या मण्डलत्रयद'अभंतराण' मित्यादि,अन्वययोजना सुगमा, तात्पर्यार्थ
शितयेत्यर्थः , पतेन-उक्तप्रकारेण निष्कामयन् निष्कामयन् स्वयम्-सर्वाभ्यन्तरानन्तरं च--द्वितीयं सूर्यमण्डलमाया
सूर्यस्तदनन्तरात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् पञ्च मविष्कम्माभ्यां नवनवर्ति योजनसहस्राणि षट् च योज
पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशतं चकष्टिभागान् योजनस्यकैक
स्मिन् मण्डल विष्कम्भवृद्धिमभिवर्द्धयन् २ तथा उक्तरीत्यैनशतानि पश्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभा
व अष्टादश योजनानि परिरय वृद्धिमभिवई यन् परिरयवृद्धिगान् योजनस्य ६६६४५१५ तथाहि-एकतोऽपि सर्वा
मभिवर्द्ध यन् सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति । भ्यन्तरानन्तरं मण्डलं सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टचत्वारि--
अथ प्रकारान्तरेण प्रस्तुतपिचारपरिक्षानाय पश्चानुपूर्व्या शरसंख्यानेकपष्टिभागान् द्वे च योजने अपान्तराले विमुच्य
पृच्छन्नाहस्थितमपरतोऽपि,ततः पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशश्चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्वमण्डलविष्कम्भादस्य मण्डलस्य विष्कम्भ
सब्बबाहिरए गं भंते ! सूरमंडले केवइयं पायामविबीते , अस्य च सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलस्य परिक्षेप- खंभेणं केवइयं परिक्खवेणं पाते ?, गोयमा ! एगं स्त्रीणि शतसहस्राणि पश्चदश सहस्राण्येकं च शतं सप्ता- जोयणसयसहस्सं छच्च सटे जोश्रणसए आयामधितरं योजनानाम् ३१५१०७,तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य बि
क्खंभेणं तिमि जोश्रणसयसहस्साइंश्रद्वारस य सहस्साई कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशश्चैकठिभागा योजनस्य वर्द्धन्ते, पश्चानां च योजनानां पञ्चत्रिंशत्संख्यकभागाधि
तिमि अपस्मरसुत्तरे जोश्रणसए परिक्खेवेणं । (म०१३२४) कानां परिरयः सप्तदश योजनानि अष्टत्रिशकपष्टिभागा: 'सब्वबाहिरए' इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् , उत्तरसूत्रे पकं समधिकाः योजनस्य परं व्यवहारतो विवक्ष्यन्ते परिपूर्णानि योजनरूक्ष षट्पष्टयधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाअष्टादश योजनानि, तानि पूर्वमण्डलपरिक्ष यदाऽधिकानि भ्याम् , उपपत्तिस्तु जम्बूद्वीपो लक्षम् उभयोः पार्श्वयोश्व प्रक्षिप्यन्ते तदा यथोक्तं द्वितीयमण्डलपरिमाणं स्यात् ।।
प्रत्यकं त्रिंशदधिकानि श्रीणि योजनशतानि लयणान्सरमतिअथ तृतीयमण्डल त पृच्छा--
कम्य परतो वर्तमामवादस्य इदमेव मान,श्रीणि योजनलक्षाअभंतरच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्ख
एयष्टादश च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोतराणि योजन
शताति 'व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्ति' रिति किश्चिदनानि भेणं केवइयं परिक्खेवेणं पसत्ते? , गोयमा ! णवणउई
परिक्षेपेण भवन्ति , किश्चिदूनत्वं चात्र परिक्षेपकरणेन स्वयं जोअणसहस्साई छच्च एकावले जोअणसए णव य एगस- योध्य, संवादश्चात्र विष्कम्भायाममाने लक्षोपरि यानि षष्यद्विभाए जोअणस्स आयाम विक्खभेणं तिलिय जोमणस
धिकानि षट् योजनशतान्युक्तानि तस्य परिरयमानीय
तस्य च जम्यूद्वीपपरिरये प्रक्षेपणाद् भवति । यसहस्साई पसरस जोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोअणसयं परिक्खेवेणं । (सू० १३२+)
अथ द्वितीयमण्डले तत्पृच्छा
बाहिराणंतरे णं भंते ! सूरमंडसे केवइ आयामविक्खं'अभंतरतच्चे ण' मित्यादि व्यक्तं, नवरमुत्तरसूत्रे नवनवति
भेणं केवइयं परिक्खेवेणं पलत्ते ? , गोयमा! एगं जोयोजनसहस्राणि षट् च एकपञ्चाशानि योजनशतानि नव चैकषष्टिभागान् योजनस्याभ्यन्तरतृतीयाख्यं मण्डलमायामधि- अणसयसहस्सं छच्च चउपहले जोअणसए छब्बीस कम्भेण, अत्रोपपत्तिः पूर्वमण्डलायामविष्कम्भेद६६४५योज- च एगसहिभागे जोअणस्स पायामविवखंभेणं तिमि म१४ इत्येवंरूपे एतन्मण्डलवृद्धौ५योजन प्रक्षिप्तायां यथो. अजोश्रणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोमि य सनं मानं भवति, परिक्षेपेण च त्रीणि योजनलक्षाणि पश्चदश
ताणउए जोश्रणसए परिव खेवणं ति । (सू. १३२+) योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिक योजनशतम् । तत्रोपपत्तिः--पूर्वमण्डलपरिक्षेपे ३१५९०७ योजनरूपे प्रा
'बाहिराणतरे ण भंते ! सूरमंडले' इत्यादि प्रश्नः प्राग्व
स, उत्तरसूत्रे गौतम! एकं योजनलक्षं षट् चतुःपञ्चाशागुक्तयुक्त्याऽऽनीते अष्टादश १८ योजनरूपायां वृद्धौ प्रक्षि
नियोजनशतानि षड्विंशति चै कषष्टिभागान् योजनम्यायामायां यथोक्नं मानं भवति ।
मविष्कम्भाभ्यां , संवदति चेदं सर्घबाह्यमण्डलविष्कम्भात् अनोलातिरिक्कमण्डलायामादिपरिज्ञानाय लाघवार्थमति
पश्चत्रिंशदे कषष्टिभागाधिक पञ्चयोजनेषु शोधितेथिति , त्रीदेशमाह--
णि योजनलक्षारयष्टादश च सहस्राणि द्वे च सप्तनघएवं खलु एतेण उवाएणं णिक्खममाणे मूरिए तया
तियोजनशते परिक्षेपेण । कथमुपपद्यते चेदिति वदामः , मंतराओ मंडलाओ तयाणं तरं मंडलं उवसंकममाणे उ- पूर्वमण्डलपरिरयादष्टादशयोजनशोधने सुस्थमिति । वसंकममाणे पंच पंच जोनणाई पणतीसं च एगस
अथ तृतीयमण्डले तत्पृच्छाद्विभाए जोपणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धिं अभिव- बाहिरतच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खं.
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(२०४५) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल भेणं केवइयं परिक्खवेणं पणते ?, गोयमा! एग जो- मेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परिसमाप्यते प्रतिसूर्य चाअणमयसहस्सं छच्च अडयाले जोअणसए बावम
होरात्रगणने परमार्थतो द्वावहोरात्री भवतः । द्वयोश्वाहाच एगसट्ठिभाए जोअणस्स मायामविक्खंभेणं तिमि
रात्रयोः पष्टिमहतास्ततो मण्डलपरिरयम्य पथ्था भाग हते
यल्लभ्यते तन्मुहूर्तगतिप्रमाणम् , तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमजोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोमि अ
राडल परिरयस्त्रीणि लक्षाणि पश्चदश सहस्राण्यकोननवत्यप्रउणासीए जोअणसए परिक्खेवेणं । (सू० १३२ +) धिकानि योजनानाम् ३१५०८६, एतेषां पटया भागे हते • बाहिरतच्चे ण' मित्यादि , प्रश्नः पूर्ववत् , उत्तर- लब्धं यथोक्तं मुहूर्तगतिप्रमाणम् ५२५१ . अथ विनयासूत्रे बाह्यतृतीय पट् एकं योजनलक्षं चाष्टाचत्वारिंशानि
वर्जितमनस्केन प्रज्ञापकनापृच्छतोऽपि विनेयस्य किश्चिदयोजनशतानि द्वापञ्चाशतं चैकपष्टिभागान् योजनस्या
धिकं प्रज्ञापनीयमित्याह-यत्तदोर्निन्याभिसम्बन्धादनुक्तमयाविष्कम्माभ्याम् , युक्तिश्चात्र-अनन्तरपूर्वमण्डलात् प- पि यच्छन्दगर्भितवाक्यमत्रायमरणीय तेन यदा सूर्यः एश्वत्रिशदेकपष्टिभागाधिकपश्चयोजनवियोजन साधु भवति, केन मुहूर्तेन इयत् ५२५११६, प्रमाण पच्छति तदा सर्वात्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे चैकोनाशीते भ्यन्तरमण्डलसंक्रमणकाले इहगतस्य मनुष्यस्य अत्रयोजनशत परिक्षेपेण, पूर्वमण्डलपरिधेरष्टादशयोजनशोधने जातायेकवचनं ततोऽयमर्थः--इहगतानां-भरतक्षेत्रगतानां यथाक्न प्रस्तुतमण्डलस्य परिधिमानम् ।
मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहनाभ्यां च त्रिपष्टाअत्रातिदेशमाह
भ्यां त्रिषध्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च योएवं खलु एएणं उवापणं पविसमाणे सूरिए त-- जनस्य षष्टिभागैरुदयमानः सूर्यश्चतुःस्पर्श-चक्षुर्विषयं हयणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे
व्य-शीघ्रमागच्छति, अत्र च म्पर्शशब्दो नेन्द्रियार्थसनिक
पपरश्चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेन तदसम्भवादिति, काऽत्रोपपसंकममाणे पंच पंच जोअणाई पणतीसं च एगस
त्तिरिति चेत् , उच्यत-इह दिवसम्याउँन यावन्मानं क्षेत्र द्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभधुद्धिं णि- व्याप्यते तावति व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते,स एव लोके उदवुद्धमाणे णिवुद्धमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोअखा- यमान इति ब्यवहियते,सर्वाभ्यन्तरमण्डले दिवसप्रमाणमटा. इं परिरयवुद्धि णिबुड्डमाणे णिबुड्डेमाणे सयभंतर दशमुहूर्तास्तेषाम. नव मुहूर्ताः एकैकस्मिश्च मुहर्ते सर्वामंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ । ६ । (सू० १३२+)
भ्यन्तर मण्डले चारं चरन पञ्च योजन सहस्त्राणि द्वे च योज
नशते एकपञ्चाशदधिके एकोनविंशतं च पटिभागान् योज'एवं खलु पएण' मित्यादि, प्राम्बद्वाच्यम् , व्याख्यातार्थ
नस्य गच्छति, एतावन्मुहूर्तगतिपरिमाणं नवभिमुहूर्तेर्गुण्यंत स्यात् । गतमायामविष्कम्भादिवृद्धिहानिद्वारम् ,अनेनैव क्र
ततो भवति यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमिति, एवं मेण द्वयोः सूर्ययोः परस्परमबाधाद्वारमप्यभ्यन्तरबाह्यमण्ड
सर्वप्वपि मण्डलेपु स्वस्थमुहूर्तगतौ स्वस्थदिवसार्द्धगतमुहस्लादिष्ववसेयम् ।
राशिना गुणितायां दृष्टिपथप्राप्तता भवति, दृष्टिपथप्राप्तता __ सम्प्रति मुहूर्तगतिद्वारम्
चक्षुःस्पर्शः पुरुषच्छाया इत्येकार्थाः । सा च पूर्वतोऽपरतश्च जया णं भंते ! सूरिए सबभंतरं मंडलं उबसंक-- समप्रमाणेच भवतीति द्विगुणिता तापक्षेत्रमुदयाऽस्तान्तरमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगणं मुहुत्तेणं केवइ-- मित्यादिपर्यायाः, इदं च सर्वबाह्यानम्तरमण्डलात् पश्चानुपूभं खेत्तं गच्छइ ?, गोयमा! पंच पंच जोमणस- ा गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततमं, प्रतिमण्डलं चाहोरात्र हस्साई दोषिण अ एगावराणे जोअणसए एगूणतीसं
गणनादहोरात्रोऽपि ध्यशीत्यधिकशततमस्तेनायमुत्तरायणच सद्विभाए जोअणस्स एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छइ,
स्य चरगे दिवसः, अयमेव च सूर्यसंवत्सरस्य पर्यन्तदिवस
उत्तगयणपर्यवसानकत्वात् संवत्सरस्येति। अथ नवसंवतया ण इहगयस्स मणूसस्स सीअालीसाए जोअण
सरप्रारम्भप्रकारप्रज्ञापनाय सुत्र प्रारभ्यते-से मिक्खममासहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहिं जोग्रणसएहिं एगवीसाए अ णे इत्यादि. अथाभ्यन्तरान्मण्डलोनिष्क्रामन् जम्बूदीपान्तः जोअणस्स सद्विभाएहि मूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छ- प्रवेशऽशीत्यधिकयोजनशतप्रमाणे क्षेत्रे चरमाकाशनदशस्पइत्ति, से णिक्खममाणे मूरिए नवं संबच्छरं अयमाणे
शनानन्तरं द्वितीयसमये द्वितीयमण्डलाभिमुखं प्रसन्न
त्यर्थः, सूर्यो नवम्-आगामिकालभाविनं संवत्सरमयमानः पढमंसि अहोरसि सव्वभंतराणतरं मंडलं उवसंक
२-श्राददानः प्रथमेऽहोरात्र सर्वाभ्यम्सरानम्न मण्डलममित्ता चारं चरइ त्ति । (मू० १३३४)
पसंक्रम्य चारं चरति, एप चाहोरात्रो दक्षिणायनस्याद्यः सं. "जया ण भंते ! सूरिए सयभंतरं' इत्यादि, यदा भगव- वत्सरस्यापि च दक्षिणायनादिकत्यात् संवत्सरस्य अत्र न् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति इ- चाधिकारे समवायाङ्गसूर्यप्रज्ञप्तिचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रादर्श प्रस्तुतति तदा एकैकेन मुहर्तेन कियत क्षेत्रं गच्छति ? , गौतम ! सूत्रादर्शषु च 'अयमाणे अयमाणे' इत्यस्य स्थाने 'अयमीणे' पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्व चैकपश्चाशे योजनशते ए- इति पाठो दृश्यते नेन यदि स समूलस्तदा भाषन्यादिहेतुना कोनविंशतं च परिभागान् योजनस्यैकैकन मुहूर्तेन गच्छति, साधुरेव, 'अयमाणे' इति तु लक्षगामिद्धः, अर्थ तूभयत्राणि कमिदमुपपद्यते इति चेत् , उच्यते-इह सर्वमपि मण्डल- स पवति । जं. ७ वक्षः।
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सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरमण्डल 'मराउलानां विष्कम्भो वक्तव्यः ' ततस्तद्विषयं
तचं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं मूरिए प्रश्नस्त्रमाह
अम्भितरं तच्चं मंडलं उबसंकमित्ता कारं चरति तया गं ना सध्या विणं मंडलवया केवतियं बाहल्लेग केव- सा मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्म बाहतियं मायामक्खिंभेणं केवतियं परिक्वेवणं पाहि- लेणं णवणवतिजोयणसहस्साई छच्च एकावले जायणमन तातिवदेा?, तत्थ खलु इमानो तिमि पडिवत्ती- य य एगविभागा जोयणस्स आयामविक्खंभेणं निमि यो पमनायो, तत्थेगे एवमाहंसु-ता सव्या वि ण मं• जायणमयसहस्साई पन्नरस य सहस्साई एगं च पणवी डलवता जायणं बाहलेणं एमं जोयणसहस्सं एगं ते- जोयणमयं परिक्खेवेणं परमता, तताण दिवसराई तहेव । नीसं जोयण मतं पायामविक्खंभेणं तिमि जोयण- एवं खलु एएणं णएणं निक्खममाणे मूरिए त-- सहस्साई तिएिण य नवणउए जोयणसते परिक्खवेणं ताऽणंतरातो तदाणंतरं मंडलतो मंडलं उवसंकममाग पामते, एगे एवमासु ?, एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वावि उपसंकममाणे जायणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जायणं मंडलवता जोयणं बाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एगं णम्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुडि अभिवड्डमाणे अभि - चच उत्तीस जोयणसयं पायामविक्खंभेणं तिरिण जोय- बडेमाण अट्ठारस अट्ठारम जायणाई परिरयवुद्धि अभिणसहस्साई जोयणमय आयामविक्खंभेणं तिरिण जोय- वड्डमाणे अभिववेमाणे सध्यबाहिरं मंमलं उवर्मकमित्ता णसहस्साई चनारि विउत्तरे जोयणसते पक्वेिवेणं पामते चारं चरति, ता जया णं मूस्एि सव्वबाहिरमंडलं उवएगे एवमासु २, एगे पुण एवमाहंसु-ता जोयणं बा- संक्रमित्ता चारं चरति तताण सा मंडलवता. अडताहल्लेणं एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयण मतं लीसं एगद्रिभागा जोयगासयसहस्सं छच्च सद्धे जोयण
आयामविखंभेणं तिनि जोयणमहस्साई चत्तारि पंचु- सते आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसयमहस्साई अट्ठात्तरे जोयणमते परिक्खवेणं पणता, एगे एवमासु ३। रस सहस्साई तिमि य पएणग्सुत्तरे जोयणमत्ते परिकावेवयं पुण एवं वयामो ता सव्वा वि मंडलवता अडया- वेणं तदा ण उक्कोमिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति लीस एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं अणियता आया- जहएणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एम णं पढमे मविक्खेभेणं परिक्खेवेणं आहिता ति वदेजा, तत्थ ण छम्मामे एम णं पटमस्म छम्मासस्स पञ्जवसाणे । से पको हेउ त्ति वदेजा, ता अयं णं जबुद्दीचे दीवेजाव प-। विसमाण सरिए दोच्च छम्मासं अयमासे पढममि अहोरिक्वेवणं, ता जया ण सूरिए सबभतरं मंडलं उव- रत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उपमंकमित्ता चारं चरति । संकामित्ता चारं चरति तया णं सा मण्डलवता अडयालीसं ता जया मूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उपसंकमिना एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहलेणं णवणउइजोयणमहस्साई चारं चरति तता णं सा मंडलवता अडतालीम एगट्ठिछच्च चत्ताले जोयणमते आयामविक्खंभेणं तिम्मि जोय- भागे जोयणस्स बाहल्लेणं एग जोयणसयसहस्सं छप चउणमतसहस्साई परागरसजायणसहस्साई एगृणणउति पम्मे जोयणमत छब्बीस च एगविभागे जायणस्म श्राजोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेणं तता णं उत्त- यामविक्खंभेणं तिनि जोयणसतसहस्माई अहारसमहमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवस भवति, जहप्लि- स्साई दोरिण य सत्ताण उते जायणसते परिक्खे वेग या दुवालसमुहत्ता राई भवति, से णिवममाणे मूरिए पएणता, तता ण राईदियं तहेव, से परिममाणे मूरिएं णवं संवच्छरं अयमाणे पद पंमि अहोरतमि अभित- दोच्चे अहोरसि बाहिरं तच्चं मंडलं उबसंकभित्ता चार राणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति , ता जया णं चरति , ता जया णं मूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसूरिए अभितराणतरं मंडलं उघसंकमित्ता चारं चरति कमित्ता चारं चरति, तताण सा मंडलवता अडयालीस नदा णं सा मंडलवता अडयालीसं एगद्विभाग जोयणस्म एगट्ठिभामे जोयणस्स बाहल्लणं एगं जोयण सतसहस्वं बाहलणं णवणवइजोयणसहस्माई छच्च पणता- छच्च अडयाले जोयणमए रावण्णं च एगट्ठिभागो ले जायणमते पणतीसं च एगट्ठिभागे जो- जोयणस्म आयामधिक्खभेणं तिमिण जोयण सतयणस्स भायामविक्खंभेणं तिमि जोयणमतमहस्साई सहस्माई अट्ठारससहस्साई दोरिण अउणातीसं जोपत्ररसं च सहस्साई एगं च उत्तरं जायणमतं किंचि वि- यणसते परिक्वेषण पामते, दिवसराई तहेव। एवं खजु सरणं परिक्खेयेणं तदा णं दिवमरातिप्पमाणं तहेव । एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तताऽणतरातो तदाणंतर से मिक्सममणे मरिए दोसि महोरसि अम्भितरं! मंडलातो मंडलं मंकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयबाई
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(१०४७) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल पणतीस च एगद्विभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले वि- स्तिस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः , तद्यथा-तत्र तेषां प्रयाणा खंभवुति णिवुड्डमाणे णि वुड्डमाणे अट्ठारसजोयणाई
परतीथिकानां मध्ये एके तीर्थान्तरीया एयमाहुः- ता '
इति प्राग्यत् , सीण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि परिग्यबुद्धिं णिवुद्धमाणे णिवुद्धेमाणे सयभंतरं मंडलं
'जोयण याहलण' नि-प्रत्येक योजनमेकं बाहल्येन-पिराडेउबसंकमित्ता चारं चरति, ता जता गं मूरिए सबभं- न एक योजनसहनमकं च त्रयविश-प्रविशवधिक योसरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तताण सा मंडल- जनशतम् , ' आयामविक्खभेणं तिप्रायामश्च विष्कम्भव यता अडयालीस एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहलेणं णवण
श्रायाविष्कम्भ समाहारो द्वन्द्वस्तन प्रत्येकमा यामेन विष्क
म्भेन चेत्यर्थः, त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि च नवनवतानि रति जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले जोयणसए आयाम- योजनशतानि परिक्षेपतः प्राप्तानि । इह च येषां तीर्थान्तविक्खंभेणं तिम्मि जोयणमयसहस्साई पामरस य सहस्साई रोयाणां मतेन मण्डलस्यायामविष्कम्भमेकं योजनसहनअउणाउति च जोयणाई किंचि विसमाहियाई परिक्खे
मेकं योजनशतं च प्रयस्त्रिंशदधिकमायामविष्कम्भाभ्यां ते
परिरयपरिमाणं वृत्तपरिमाणात् त्रिगुणमेव परिपूर्णमिच्छ . वेणं पामते, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहु
ति, न विशेषाधिकमतस्त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि शते दिवसे भवति, जहमिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति , तानि नबनवतानीत्युक्तम् । तथाहि-सहस्रस्य श्रीगि सहएस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं स्राणि शतस्य त्रीणि शतानि प्रतिशतश्न नयनवतिरिआदिच्च संवच्छरे एस णं आदिच्चस्स संवच्छरस्म प
ति, इदं परिरयपरिमाणं 'बिक्खंभवागदहगुणकरणीयदृस्स
परिग्यो होइ' इति । परिरयगणितेन व्यभिचारि, तेन हि अवसाणे , ता सम्धावि णं मंडलवता अडयालसिं एग
परिग्यपरिमाणानयने त्रीणि योजनसहस्राणि पश्चशतानि द्विभागे जोयणस्स बाहनेणं, सव्वावि णं मंडलंतरिया दो
द्वयशीत्यधिकानि किश्चित्समधिकान्यागच्छन्ति , तथाहिजायणाई विक्खंभेणं, एस णं अद्धा तेसीयसतपडुप्पामो एक योजनसहनमेकं च योजनशतं प्रयस्त्रिंशदधिकमित्येपंचदसुत्तरे जोयणसते आहिता ति वदेआ, ता अभितरा- कादशयोजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि ११३३ , एतेषां वतो मंडलवताओ बाहिरं मंडलवतं बाहिराओ वा अभि
गों विधीयते,जात एकको द्विकोऽष्टकस्त्रिका पटोऽएको नवतरं मंडलवतं एस णं श्रद्धा केवतियं श्राहिता ति वदेजा।।
कः १२८३६८६, ततो दशभिर्गुणितेन जातमेकमधिकं शू
न्यम् १२८३६८१०, एतेषां वर्गमूलानयने आगच्छनि यथोता पंचदसुत्तरजोयणमते श्राहिता ति वदेआ , अभित
क्नं परिरयपरिमाणमतस्तन्मतेन परिग्यपरिमाणं व्यभिचाराते मंडलवताते बाहिरा मंडलक्या बाहिराओ मंडलता- रि, एवमुत्तरमपि मतद्वयं परिभाक्नीयम् , अत्रैव प्रथममते तो अभितरा मंडलवता एस णं अद्धा केवतियं श्राहिता उपसंहारः 'एगे एयमासु' १, पके पुनरेवमाहुः--सर्वाति वदेज्जा ?, ता पंचदसुत्तरे जोयणसते अडतालीसं च
रायणि सूर्यमण्डलपदानि प्रत्येकमेक योजनं याहल्येन
एकं योजनसहनमेकं च योजनशतं चतुर्विंशं चतुरिंशदधिएगट्ठिभागे जोयणस्स आहिता वदे जा, ता अभंतरातो कमायामयिष्कम्भाभ्यां ११३४ श्रीणि योजनसहस्राणि चत्वा. मंडलवतातो बाहिरमंडलवता बाहिरातो मं० तो अभंतर- रियोजनशतानि द्वयत्तराणि ३४०२. परिनेपतः । तथाहिमंडलवता एम ण अद्धाकेवतियं श्राहिता ति वदेजा, ता एतेषामपि मतेन विष्कम्भपरिमाणात् परिरयपरिमाणं परिपंचणवुत्तरे जोयणसते तेरस य एगट्ठिभागे जोयणस्स प्रा
पूर्णत्रिगुणरूपं, ततः सहस्रस्य त्रीणि सहस्रारिम शतस्य हिता तिवदेजा , अभितरा ते मंडलवताए बाहिरा मं
त्रीणि शतानि चतुस्त्रिंशतो द्वयुत्तरं शलमिति । अत्रयोगसं
हारमाह-'पंग एवमाइंसु एके पुनरेयमाहुः सर्वाण्यपि डलवया बाहिराते मंडलवताते अभंतरमंडलवया , एस
मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकमकं योजनं याहस्येन ग प्रद्धा केवतियं आहिता ति यदेजा ?, ता पंचदमुत्तरे एक योजनसहनमेकं च योजनशतं पञ्चत्रिंशं-पञ्चत्रिंशदधिजोयणसए श्राहिय त्ति वदेजा । (मू० २०)
कमायामविष्कम्भाभ्याम:३५त्रीणि योजनसहस्राणि त्या
रि योजनशतानि पञ्चात्तराणि ३४०५ परिक्षेपतः, तथाहि'ना सध्या विग मंडलवया' इत्यादि. 'ता' इति पर्वयत् । एकस्य योजनसहनस्य त्रीणि योजनसहस्राणि शतस्य सर्वाश्यपि मगडलपदानि मण्डलरूपाणि पदानि मण्डल- श्रीणि शतानि पश्चत्रिंशतः पञ्चोत्तरं शतमिति , पतानि पदानि सर्यमगडलस्थानानीत्यर्थः कियन्मानं याहल्येन कि- पीरायगि मतानि मिथ्यारूपाणि परिरयपरिमाणमाबेऽपि बदायामविकम्भाभ्यां कियपरिक्षपेण-परिधिना पाण्या- व्यभिचारात् , यता भगवान् तेभ्यः पृथक स्वमतमुपदर्शयति. नानि इति वदेत् सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्राकृ- 'वयं पुण' इत्यादि , वयं पुनरव-वदयमाणप्रकारेण वामः , हिलिङ्गं व्यभिचारि . यदाह पाणिनिः-स्वप्राकृत लक्ष- तमेव प्रकारमाह-'ता सब्बावी' त्यादि. ताइति पूर्ववत्
लिङ्ग व्यभिचापि' इति , एवं भगवता गौतमन प्रश्न | सर्वारयपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि प्रत्येकं बाहल्येकने सनि भगवानेतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्या- नाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्भपभायोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एयोपन्यम्यनि-'तत्थ स्' रिक्षण-पायामयिष्कम्भपरिक्षःपुनरनियतानि पाख्याता. म्यादि तत्र मण्डलवाहण्यादिविचार्गवषये खरिखमा- नि, कस्यापि मण्डलस्य कियान् पायामा विष्कम्भः परिक्ष
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सूरमण्डल
पति भाषइति स्वशिष्यत्वा गौतमः पृच्छति तत्थ को छेऊ इति वइजा तत्रमण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिपाऽनियत को हेतुःका उपपतिरिति भगवानादमयादि
"
जम्बूदीपापं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं परिभावनीय व्याख्यानीयं च 'ता जया णमित्यादि, तत्र यदा समिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तम्मण्डलप सूखीत्यनिर्देशः प्रकृतत्वाद् पादस्माचत्वारिंशदेकभागा योजनस्य ज्ञातव्यम् श्रायामविष्कम्भाभ्यां नवनवतियजनसहस्राणि षट्शतानि त्याधिकानि १६६४०, तथाहि एकतोऽपि सर्वास्यस्तरमण्डलमशीत्यधिकं योजन जम्बूद मपरतोऽपि ततोऽशीत्यधिकं योजनशतं द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षष्यधिकानि ३६०, एतानि जम्बूद्रीपरिष्कम्मपरिमाणाशरूपात्यन्ते ततो यथाक्रमायामधिकम्मपरिमाणं भवति त्रीणि योजना प शसहस्राणि एकोननवत्यधिकानि परिक्षेषतः तथा हि तस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतियोंजनसहस्राणि प्रदर्शतानि बन्यारिंशदधिकानि६६६७० एतेषां वर्गों विधीयते, जातो नयको नवको द्विकोsटक एकको द्विको नवकः षट्को द्वे च शून्ये ६६२८१२६६००, ततो दशभिर्गुणन जातमेकमधिकं शून्यम् ६२= १२६६०००, श्रस्य वर्गमूलानयनेमलम् पथो परियम शेषं निष्ठति द्विक एकाएक शून्यं सप्तको नवकः २१८०७६ एतत् त्यक्तम् ' तया मित्यादिना रात्रिदिवपरिमाणं सुगमम्' से निमा' इत्यादि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलाझाकरणनिक्रामन् नव संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमंऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदमष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य वाहस्पेन नवनवतियजनसहस्राणि पद शतानि पञ्चचत्यारिंशदधिकानि पञ्चत्रिंशश्चैकटिभागा योजनस्यायामविष्कम्भायां, तथाहिएकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यस्रमगता नष्टाचारित षष्टिभागान्] योजनस्यापरे च योजने बहिरयभ्य द्वितीये मण्डले चारं चरति, द्वितीयोऽपि ततो द्वयोर्योजन - योरष्टाचत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानां योजनस्य द्वाभ्यां गुणने पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकपटिभागा योजनस्येति भपनि एतत्प्रथममण्डलकम्मपरिमाणेऽध
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ततो भवति यथा द्वितीयमण्डलविष्कम्भायामपरिमाण मिति । तत्र त्रीणि] योजनशन सहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकं च सप्तोत्तरं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिरयेण [प्रप्तम् तथाहि पूर्वमल विष्ायामपरिमाणादस्य म एडलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पश्ञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकटिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्यन्ते, ततोऽस्य राशेः पृथक परिश्रमानेयम् तत्र जनकप टिमागकरणामेकपद्मा गुरुयन्ते जातानि त्रीणि शता०४ मध्ये उपरितनाः पशपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातानि त्रीणि शनिबा
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( १०४५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
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·
"
सूरमण्डल रिशदधिकानि ३४० तेषां वर्गों विधीयते वर्गा च दशभिर्गुणनात् ततो जात एकक एककः पञ्चकः पङ्कस्त्रीणि शून्यानि १९५६००० तत एषा वर्गमूलानयने लस्थानि दश शतानि कानि १०७५ ते योजनाऽऽनयनार्थमेकपष्टधा भागे हृते लब्धानि सप्तदश याँजनानि एकभागा योजनस्य
"
मण्डलपरिपरिमाणेऽधिकस्येन प्रक्षिप्यते ततो यथो मधिकतमण्डपभिति द्विशेषानता
,
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किनियोनिता व्या, 'त यां दिवसरापमां तह खेव ' तदा-द्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्रिप्रमाण तथैव-प्र - प्राग्वत् ज्ञातव्यम्, या अट्टारसमुदु दिवसे यह दोहि एगट्टिभागमुहुतेहिं ऊणे दुवालसमुडुता राई भ यति दोहि पट्टिभागमुहुसंहिं अहिया से ि क्ममाणे ' इत्यादि, ततः सूर्यो द्वितीयस्मान्मण्डला दुक्लप्रकारेण निष्काम सरसा के द्वितीयेऽहोरात्रे - मितियन्त राम्मण्डलीय प क्रम्य चारं चरति, ' ता जया गु' मित्यादि ततो यदा सूयः सर्वाभ्यन्तरामण्डल मण्डलमुपक्रम्य पारं पर ति तदा ततृतीयं मण्डलपदम् अष्टाचत्वारिंशदे कषष्टिभागा योजनस्य बाहयजनपद यो जनशतान्येकपञ्चाशदधिकानि नय सैकषष्टिभागा योजनस्य २६६२१६ आयाम आविष्कम्भाभ्यां नथाहिप्रागिवायापि पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणात् पश्च योज मानि पत्रपष्टिभागा योजनस्याधिक ततो यथोक्रमाणामपि भवति त्रीणि योजन
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सहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकं च पधियो जनशतं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तं तथाहि पूर्व मण्डलादस्य विष्कसेप योजनानि टिममा योजनाकिन प्राप्य ततो मायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, तस्य च पृथक् परिश्यपरिमाणं सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच्च एकषष्टिभागा योजनस्य एतनिश्चयनयमतेन, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमनमवलम्ब्य परिपूर्णान्यष्टादशयोजनानि विवक्षितानि व्यवहारनयमतेन हि लोके कि चिनमपि परिपूर्ण विषयते तथा यदपि पूर्वमण्डलप रिश्यपरिमाणे किञ्चिदूनत्वमुक्तं तदपि व्यवहारनयमतेन परिपूर्णयिते ततः पूर्वमण्डलपरिपरिमा प्रादश योजनान्यधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते इति भवति यथोकमधिकृत मण्डलपरिश्यपरिमाणम् 'तया से दिवसराई तहे
,
इति तृतीयमण्डलबारचरणकाले दिवसरात थेय प्रागिव पव्ये राधेयम् तथा अट्टारसमुत्ते दिवसे भयति च भागमुदिऊ - हुत्ता राई भवति चदहि एगट्टिभागमुतेहिं दिया 'एवं खलु' इत्यादि एवम् प्रकारेण तु निधननोपायेन प्रत्यहोरात्र के कमलमोचनरूपेण निष्का मन्सूर्यस्नल डामर - कैकस्मिन् एडले पञ्चपञ्चापागा योजनस्येत्येच परिमाणां विष्कम्भवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवयन् एकैकस्मिन्नेतन्मण्डले अष्टादश अष्टादश योजनानि प
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(१०४६) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल रिग्यवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवर्दयन् इहापादश अष्टादशेति व्य- कानि ३२२५, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयपरिमाणे चहारत उक्कम , निश्वयनयमतेन तु सप्तदश सप्तदश योजना- त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि नवाशीत्यधिकानि ३१नि मात्रिशते चैकपष्टिभागा योजनस्यति द्रव्यम्, एतच
५०८६ इत्येवंरूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते , जातानि त्रीणि प्रागेव भावितं, न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितं , यत उक्त लक्षाणि प्रशदश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशातद्विचारप्रक्रमे पव करणविभावनायाम्-'सत्तरस जोय- त्तराणि ३१८३१४, तथा सप्तदशानां योजनानाम् अष्टाणाई अद्वतीसं च एगट्ठिभागा १७ निम्छरण संव- विशनश्चैकपष्टिभागानामुपरि यानि त्रीणि शतानि पञ्चस चहारेण पुग्ण अट्ठारस जोयणाई' इति , प्रथमपरामासार्य- सत्यधिकानि ३७५ शेषाणयुद्धगन्ति ताति ज्यशीत्यधिकेन चसानभूते उयशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे सर्चबाह्यं मण्ड- शतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टसहस्राणि पट् शतानि पञ्चलमुपसंकम्य चारं नरति , ता जया ण' मित्यादि, तत्र
विंशत्यधिकानि ६८६२५ , तेषां छेदराशिना पञ्चाशदधिकया णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वचाह्यमण्डलमुपसं- कविंशतिशतरूपेण २६५०, भागो हियते . लब्धा एकत्रिंशऋस्य चारं चति तदा तत्सर्वबाह्य मण्डलपदम् अपच
देकप्टिभागा योजनस्य, शेष म्तोकत्वात् त्यक्त, परं व्यवत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन एकं योजनशत
हारतः परिपूर्ण योजनं विवक्षितमिति पश्चदशोत्तराणीत्युसहस्र पर शतानि षष्टयधिकानि १००६६० पायामविष्क
कम् , ' तयाण' मित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं षण्मासोभन-आयामविष्कम्भाभ्याम्, सथाहि-सर्याभ्यन्तरान्म- पसंहरण च सुगमम्, 'से पविसमाणे ' इत्यादि, ततः स ण्डलात्परतः सर्चबाह्य मसले पर्यवसानी कृत्य यशीत्य
सूर्यः सर्वबाह्यान्मण्डलात् प्रागुनप्रकारेणाभ्यन्तरं मण्डलं धिक मसडलशतं भवति , मण्डले मण्डले च विष्कम्भे
प्रविशन् द्वितीय परामासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य विष्कम्भ परिवर्द्धन्ते पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिशकपष्टि
प्रथमे अहोरात्रे सर्यबाह्यानन्तरमाकनं द्वितीय मण्डलमुभागा योजनस्य , ततः पञ्च योजनानि इयशीत्यधिकेन
पसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया समित्यादि तत्र यदा शतेन गुण्यन्ते. जातानि नव शतानि पश्चदशोत्तराखि
णमिति वाक्यालङ्कार सर्ववाद्यानन्तरमर्यातनं द्वीतीयं म११५ , येऽपि च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ते ण्डलमुपसंगम्य चारं चरति तदा तन्मण्डखपदम् अष्टाअपि यशीत्यधिकानि शतेन गुण्यन्त जातानि चतुःषष्टिः
चत्वारिंशदेकपरिभागा योजनस्य बाहल्येन , एकं योजनंशतानि पञ्चोत्तगणि ६४०५, तेषामेकपष्टया भागे हुते शतसहस्रं पद न योजनशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि पलब्धं पश्चोत्तरं योजनशतम् १०५, एतत्पूर्वस्मिन् राशौ प्रति- विशतिश्चैकपष्टिभागा योजनस्य २००६५४६ आयामविप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि १०२० , एतानि कम्मेन-आयामयिष्कम्भाभ्याम् ,नवाहि-एकतोऽपि,तन्मसर्वाभ्यन्तरमण्डलविष्कम्भायामपरिमाये अधिकत्वेन प्र- एडले सर्वबाह्यमण्डलमतानष्टाचत्वारिंशतमकपष्टिभागान् क्षिप्यन्ते , ततो यथोक्नं सर्वबाह्यमण्डलगनविष्कम्भा- योजनस्यापरे द्वे योजने विमुच्याभ्यन्तरमचस्थितमपरतोऽपि यामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अ- ततो योजनद्वयस्याष्टाचत्वारिंशतश्चैकपष्टिभागानां द्वाभ्यां शादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशातराणि ३१८३१५ गुणमे पञ्च योजनानि पश्चत्रिंशच्चै कषष्ट्रिभागा योजनस्येति भ. परिक्षपतः, नवरं पञ्चदशोत्तराणि किञ्चिन्यूनानि द्रष्टव्या- पति, एतत्सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणात् शोनि, तथाहि-अस्य मण्डलस्य विष्कम्भो योजनलक्ष पद- ध्यते, ततो यथोक्लमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाण में योजनशतानि षष्टयधिकानि १००६६०, अस्य वर्गों विधी- वति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अपादशसहस्राणि द्वे यते.जात एककः शून्यमेककस्त्रिको द्विकश्चतुष्करित्रकः पश्चकः योजनशत सप्तनवत्यधिक ३९८२६७, परिक्षेपतः प्रक्षिप्त, तपटको द्वे शून्ये १०१३२४३५६००, ततो दशभिर्गुणने जात- थाहि-पूर्वमण्डलादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे प. मेकमधिकं शून्यम् १०१३२४३५६०००, अस्य वर्गमूलानयने श्चयोजनानि पञ्चत्रिशश्चैकप्रिभागा योजनस्यति टयन्ति, लब्धानि त्रीणि योजनशनसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि पश्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतश्चैकापटिभागानां परिरये सप्तत्रीणि शतानि चतुर्दशोत्सराणि ३१८३१४, शेषमुद्वरति, दश योजनानि अपात्रिंशकपष्टिभागा योजनस्य भवन्ति,पर पञ्चकः पञ्चकनिकश्चतुष्कः शून्यं चतुष्कः ५५३४०४ , छेद- सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि वि गशिः पत्रिकः षट्कः पदको द्विकोऽष्टकः ६३६६२८, वक्षितानि, प्रागुक्तात्सर्वबाह्यमण्डलपरिरयपरिमाणात् त्रीतत्र एतेन पञ्चदशं योजनं किश्चिदून किल लभ्यते इति व्यवः | णि लक्षाणि अष्टादशसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोहारतः सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षित्वा पञ्चदशोत्तराणीत्यु- त्तराणि इत्येवंरूपादष्टादश योजनानि शोध्यन्त, ततो यथोक्लम् । अथवा-मण्डले मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलात्परिरयवृद्धौ | क्लमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, ' तया ण राईसप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टाविंशच्चैकषष्टिभागा यो- दियाणं तह चव' त्ति-तदा रात्रिन्दिवं रात्रिदिवसौ तथैजनस्य लभ्यन्ते , ततः सप्तदश योजनानि व्यशीत्यधिकेन व वक्तव्यौ. तौ चैवम्-'तया णं अहारस मुहुत्ता राई शतन गुण्यन्ते , जातान्यकत्रिंशच्छतान्येकादशोत्तराणि भवति दाहि पगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा दुवालसमुहुत्ते दि३९११. येऽपि चाष्टात्रिशदकपएिभागास्तऽपि यशीत्यधि- बसे हवइ दोहि एगट्टिभागामुहुत्तेहि अहिए ' इति , ' से केन शंतन गुगयन्ते , जातान्यकोनसप्ततिशतानि चतुष्प- पविसमाणे' इत्यादि, ततः स सूर्यस्तस्मादपि द्वितीयस्माचाशदधिकानि ६६५४, तशं योजनानयनार्थमकपष्टया भा- मण्डलात्प्रागुक्क्रयकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्थ परामा. गा-हिंयते, लब्धं चतुर्दशोत्तरं योजनशनम् ११४, तरच पूर्व-1 सस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलार्वाननं तृतीय राशी प्रक्षिप्यते जातानि द्वात्रिंशच्छतानि पञ्चविंशत्यधि- मण्डलमुपंसकम्य चारं चरति,तत्र यदा सूर्यः सर्ववाह्यान्म
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सूरमण्डल अभिधानगजेन्द्रः।
सूरमण्डल एडलादर्वातनं तृतीय मराजुलमुपसंक्रम्य चारं चरनि तदा या, 'अभितराए' इत्यादि.अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अतन्मण्डलपदम् अाचत्वारिंशदकषष्टिभागा योजनस्य याह- भ्यातराम्मण्डल पदादारभ्य यावद बाह्य-सर्वबाह्य मराडलपर्द, ख्येन एक योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि श्रष्टाच- यदिवा-याान सर्वबाहन मण्डलपदन सर्यवाह्याम्मएडलपवारिंशदधिकानि द्विपश्चाशच्चैकपष्टिभागा योजनस्य दादारभ्य यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलम् एष एतावान् अध्या १०.६४८४३ श्रायामविष्कम्भेन-श्रागाविष्कम्भाभ्यां, त- कियानाख्यात इति बंदत् ?, भगवानाह-'ता पंचे 'त्यादि थाहि-पूर्वस्मान्मण्डलादिदं मण्डलमायामविष्कम्भन पश्च- स एतायान् अध्वा पञ्चदशातरागिण योजनशताम्यष्टाचत्वाभियोजनः पञ्चत्रिंशता चैकपष्टिभागैयोजनस्य हीनं., ततः । शिश्चकषष्टिभागा योजनस्यत्याख्यात इति यदत्, पूर्वस्मापूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादेकं योजनशतसहस्रं षट दध्वपरिमाणात् एतस्याध्यपरिमाणस्य सर्ययाधमएलगतन शतानि चतुष्पश्चाशदधिकानि पविशतिश्चैकष्टिभागा बाहल्यपरिमाणेनाधिकत्वात् , 'ना अम्भितर' त्यादि.ता इति योजनस्येत्येवंरूपात्पश्च योजनानि पञ्चत्रिशच्चैकष्टिभागा
अभ्यन्तरान्मण्डलपदात्परता बाह्यमएडलपदात्-सवेबाह्यमयोजनस्य शोध्यन्ते, ततो यथोकमधिकृतमण्डलविष्कम्भा- एडलादाक. यद्वा-बाह्यमण्डलपदादाक अभ्यन्तरमण्डला यामपरिमाणं भवति , तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्परत एष अध्वा कियानाख्यान इति वदेत?, भगवानाह-'ता अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकानाशीन्यधिक-३१८२७६
पंचे'त्यादि.पञ्च योजनशतानि नवोत्तराणि त्रयोदश चैकाष्ठपरिक्षपतः प्रक्षिप्तं, तथाहि-प्राक्तनमण्डलादिदं मण्डलं प
भागा योजनस्य आख्यात इति वदत् , पूर्वस्मादध्वपरिमाश्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चकांटभागेयोजनस्य विष्कम्भतो
णादम्याध्यपरिमाणस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतसर्यबाह्यमहीनं, पञ्चानां योजनानां पचत्रिंशतश्चैकष्टिभागानां परि
एडलगतबाहल्यपरिमाणेन पञ्चत्रिशदेकर्याष्टभागाधिकैकग्यपरिमाण व्यवहारतोऽष्टादश योजनानि , ततस्तानि
योजनरूपण हीनत्वात् ,तदेवमभ्यन्तरान्मराडलात्परतो यावपूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्लमधि
त्सर्वघाह्य मण्डलं सर्वबाह्याद्वा मण्डलादर्वाक यावत्सर्वाभ्यकृतपरिरयपरिमाणं भवनि 'दिवसराई तहेव' ति-दिवस
न्तरं मण्डल तथा सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलाभ्यां सह तथा रात्री तथैव प्रागिय वक्रव्ये, ते चैवम्- तयाणं अट्ठारसमुहुन्जा
सर्वाभ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलाभ्यां विना यावदश्वपरिमाणं राई भवर चउहि एट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्त
भवति तावन्निरूपितम् ,सम्प्रति सर्वाभ्यन्तरेण मण्डलेन सह दिवसे भवाह चउहि एगट्रिभागमुहुत्ताह अहिए ' इति, एवं
सर्वाभ्यन्तरान्मएडलात्परता बाह्यमण्डलादर्वाक, यदिवाखलु' इत्यादि एतत्सूत्रं प्रागुक्रव्याख्यानुसारेण स्वयं परिभा
सर्वबाह्यमण्डलन सह सर्वबाह्यमय डलादर्याक सर्वाभ्यबनीयं, नवरं 'निव्यहमाण' इति निर्येष्टयन निर्वेयन् हाप
न्तरान्मण्डलात्परता थावदध्यपरिमाणं भवति तावनिरूयन् हापयन्नित्यर्थः, ता जया ण' मित्यादि सुगमम् , अधुना
पति--'अभितराप' इत्यादि, अभ्यन्तरण मण्डलपदन प्रस्तुतवक्तव्यताएसहारमाह-'ता सध्या विण' मित्यादि,
सह अभ्यन्तरान्मराडलात्परतः, सर्वबाह्यान्मराडलादागिततः सर्वारयपि मराडलपदानि प्रत्येकं बाहल्यनाष्टाचत्वारिंशदकेष्टिभागा योजनस्य, उपलक्षणमेतत् , अनियतानि
ति गम्यते . यदिवा-मब ह्यन मण्डलपदन सह सर्वचायामविष्कम्भपरिधिभिः तथा सर्वारयपि च मण्डलान्तर
बाह्यान्मएडलादर्याक सर्वाभ्यन्तरान्मए इलात्परत इति गम्यकाणि-मण्डलान्तराणि , सूत्र स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् ,
ते,याऽध्या एप णमिनि वाक्यालङ्कारे अध्वा कियानाख्यात द्वे द्वे योजने विष्कम्भेन, तत एष द्वयोजन अटचत्वारिंश
इति वदेत् ?, भगवानाह-'ता' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशाचैकपष्टिभागा योजनस्यत्ययंरूपो, णमिति वाक्यालङ्कारे अ
तराणि योजनशतानि आख्यान इति बंदत् , भावना सुगध्या-पन्थास्थ्यशीत्यधिकशतप्रत्युत्पन्नः-यशीत्यधिकन शते.
मत्वान्न क्रियते । सू० प्र०८ पाहु० । न गुणितः सन् पञ्चदशात्तराणि योजनशतान्याख्याता इति, ___ यथा 'मण्डल मण्डले प्रतिमुहूर्त गतिर्यक्तव्ये ति, तनपंदत् , तथाहि-द्व योजने उयशीत्यधिकेन शतन गुण्येते | स्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहजातानि त्रीणि शतानि पदपष्टयधिकानि ३६६, यऽपि च अष्टचत्वारिंशदेकपणिभागास्तऽपि यशीत्यधिकानि शंतन
ता केवतियं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेगां मुहत्तेणं गच्छति गुण्यन्त जातानि सताशीनिशतानि चतुरशीन्यधिकानि आहिता ति वदेजा ?, तत्थ खलु इमातो चत्तारि पडिव८७८४, तेषां योजनानयनार्थमकपष्टया भागो हियत, लब्धं | तीओ परमत्ताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु-ता छ छ जोयचतुश्चत्वारिंशं याजनशतम् १४४, तत् पूर्वराशी प्रक्षिप्यते,
णसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तणं गच्छति,एगे एवमाजातानि पञ्च शतानि दशात्तराणि ५१०,अस्यैवार्थस्य व्यक्तीकरणार्थ भूयः प्रश्नसूत्रमाह-'ता अम्भितराओं' इत्यादि, 'ता'
हंसु?, एगे पुण एवमाहंसु ता पंच पंच जोयणसहस्साई इति तत्र अभ्यम्तगत्-सर्वाभ्यन्तगन्मएडलपदात् परता
सरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति एगे एवमाहंसु २, एगे यावद्वाह्य-सर्वबाह्य मण्डलपदं बाह्याद्वा-सर्वबाह्याद्वा मण्ड- पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूलपदावर्वाक यावत्सबाभ्यन्तरं मण्डलपदमेष एतावान अध्या रिए एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमासु ३, एंगे कियान्-कियत्प्रमाण पाण्यात इति वदेत् ?, एवमुक्ने गौतमे
पुण एवमाहंसु-ता छ विपंच वि चत्तारि वि जोयणसहस्साई म भगवानाह-'ता' इत्यादि, ताबानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि पाण्यात इति वदेत् ? वशिष्यभ्यः पञ्चद
सूरए एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ४, धोत्तरयोजनशतभावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं परिभावनी- तत्थ जे ते एवमाहंसु ता छ छ जोयणसहस्साई मरिए
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(१०५१) सूरमण्डल अभिधानगजन्द्रः ।
सूरमण्डल एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति ते एवामाहंसु-जता णं मूरिए स- चारं चरति तताण राइंदियं तहव,तस्सि च णं दिवसंसि व्यम्भंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तयाणं उत्तमकट्ठ- एगद्विजोयणसहस्साई तावक्खत्ते परमत्ते,तता ण छ वि पंच पत्ते उक्कांसे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति,जहणिया दुवालस- वि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगणं मुहुत्तेणं मुहुत्ता राई भवति , तेसिं च णं दिवसंसि एगं जोयण- गच्छति, एगे एवमाहंसु ।। वयं पुण एवं वदामो-ता सासतसहस्सं अट्ठ य जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते परमत्ते , ता तिरेगाई पंच पंच जोयणसहस्साइं सरिए एगमेगणं मुहुजया णं मूरिए सन्धबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति त्तेणं गच्छति, तत्थ को हेतु त्ति वदेजा,ता अयमं जंबुद्दीवे तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भ-दीवे परिक्खवेणं ता जता णं सुरिए सव्यम्भंतरं वति , जहपए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, तेसिं च णं | मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तताण पंच पंच जोयदिवसंसि बावतरं जोयणसहस्साई तावक्खत्ते परमत्ते, त- णसहस्साई दोणि य एकावण्णे जोयणसए एगूणतीसं या ण छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छति,तताणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता पंच पंच जोयणसह- इहगतस्स मणुस्सस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि स्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, ते एवामाहंसु- य तेवढेहिं जोयणसतेहिं एकवीसाए य सद्विभागेहि ता जता पं सूरिए सधभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति, तया णं चरति, तहेव दिवसराइप्पमाणं तंमि च णं तावक्खेत्तं दिवसे राई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं नउइजोयणसहस्साई , ता जया णं सव्वबाहिरं मंडलं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणंतर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता गं तं चेव राइंदियप्पमाणं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया ण मूरिए अभितरातंसि च खं दिवमंसि सढि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते प- णंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच पंच मने, तता ण पंच पंच जोयणसहस्साई मूरिए एग- जोयणसहस्साई दोणि य एकावले जोयणसते सीतालीसं मेगणं मुहुत्तेणं गच्छति । तत्थ जे ते एवमाहंसु , ता जया च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छति,तता ण ण सूरिए सव्यम्भतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता इहगतस्स मणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउण दिवसराई तहेब, तंसि च ण दिवससि बावत्तार जोय
णासीते य जोयणसते सत्तावपाए सद्विभागेहिं जोयणस्स णसहस्साई तावखेने पामते , ता जया णं मूरिए सम्ब- सद्विभागं च एगडिहा छत्ता अउणावीसाए चुमियाभागेहिं बाहिरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरति तता राइंदियं सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति,तताणं दिवसराई तहेव । तहेव तसि च प दिवसंसि अडयालीस जोयणसहस्साई से णिक्खममाणे सूरिए दोचसि अहोरत्तंसि अभिततावक्खेत्ते पपत्ते तता णं चत्तारि चत्तारि जोयणसह- रतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया ण स्साई मूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ जे ते मूरिए अभितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति एवमाहंसु छ वि पंच वि चत्तारि वि जोयणसहस्साई तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोरिण य बावणे मारिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति ते एवमाहंसु-ता जोयणसते पंच य सट्ठिभागे जोयणस्स एगमंगणं मुहुत्तेणं सरिए ण उग्गमणमुहुत्तेणं सिय अत्थमणमुहुतं गच्छति, तता णं इहगतस्स मरणूसस्स सीतालीसाए जोयणसिग्घगती भवति, तता णं छ छ जोयणसहस्साई एग- सहस्सेहिं जोयणस्त सढि भागं च एगद्विधा छेत्ता दोहिं मेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमतावक्खेत्तं समासादेमाणे भागेहिं जोयणस्स सर्टि भागं च एगद्विधा छत्ता दोहिं समामादेमाणे मूरिए मज्झिमगता भवति, तताण पंच चुण्णियाभागेहिं मूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छपंच जोयणमहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति,मज्झि- ति , तता णं दिवसराई तहेव , एवं खलु एतेण म तावखेतं संपत्ते सरिए मंदगती भवति ,तता णं चत्तारि उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताऽणं तराश्री तदा-- जोयणसहस्साई एगमेगणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ को- णंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठाहेउ ति बदेज्जा ?, ता अयमं जंबुद्दीवे दीवे जाव रस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले महत्तगतिं परिक्खवेणं, ता जया णं सूरए सव्वभंतरं मंडलं उव- अभिवुड्डमाणे अभिवुड्डमाणे चुलसीतिं सीताई जोयणाई संकभित्ता चारं चरति तताण दिवसराई तहेव तंसि च पुरिसच्छायं णिवुड्डेमाणे२ सम्बबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता ण दिवसंसि एकण उति जोयणसहस्साई तायखेत्ते परम- चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकसे, ता जयाण सरिए सम्बवाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता मित्ता चारं चरति तता गं पंच पंच जोयणसहस्साई तिमि
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(१०५२) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सुरमंडल य पंचुत्तरे जोयणसते पामरस य सहिभागे जोयणस्स | द्वारसमहत्ते दिवसे भवति , जहालिया दुवालसमुहुत्ता एगमेगेणं मुहत्तेणं गच्छति तता णं इहगतस्स मणूसस्स राई भवति , एस ण दोच्चे छम्मास एस ण दोच्चस्स एकतीसाए जोयणेहिं अट्ठहिं एकतीसेहिं जायणसतहि छम्मासस्स पजक्साणे एस णं आदिच्चे संवच्छरे एस नासाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुष्कास णं आदिचसंवच्छरस्स पञ्जवसाणे । (सू०-२३) हव्यमागच्छति, तताणं उत्तम कट्ठपत्ता उकोसिया अट्ठार- 'ता केवतियं ते वित्तं सुरिए,' इत्यावि, 'ता' इति पूर्व . समुहुत्ता राई भवइ, जहम्लए दुवालसमुहुत्ते दियसे भवति । बस् , कियन्मात्र क्षेत्र भगवन् ! 'ते' त्वया सूर्य एकैकन मुएमण पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पञ्जब- हुतेन गच्छति , गच्छन्नाख्यात इति वदेत् ? , पवमुक्त ससाणे । स पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे प
ति भगवान् एतद्विषयपरतीथिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोषदर्श
नाय प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरूपदर्शयति-तत्थ' इत्यादि ढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता
तत्र प्रतिमुहूर्तगतिपरिमाग्मचिन्तायां खल्विमाश्चतस्रः प्रतिचार चरति ता जता ण मूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उव
पत्तयः प्राप्ताः, तद्यथा-तत्र तेषां चतुर्णा घादिनां मध्य संकमित्ता चार चरति तता गं पंच पंच जोयणसह- एके पवमाहुः-पट पट योजनसहनाशि सूर्य एकैकेन मुहर्तन स्साई तिमि य चउरुत्तरे जोयणसत्ते सत्तावमं च स- गच्छति, अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु १. एवमग्रतनान्यु.
पसहारवाक्यानि भावनीयानि, एके पुर्दिनीया एक्माहुःद्विभाए जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं
पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहतेन गच्छति। इहगतस्म मणूसस्स एकतीसाए जोयणसहस्सेहिं नवहिं
एके पुनस्तृतीया एवमाहुः-चत्वारि चत्वारि योजनसहस्रा य सोलसेहिं जोयणसहिं एगणतालीसाए सद्विभागेहिं णि सूर्य एकैकेन महर्नेन गच्छति, ३ । अपर पुनश्चतुर्था एवजोयणस्स सद्विभागं च एगडिहा छेत्ता सट्ठिए चुरिण
माहुः-पडपि पश्चापि चन्यापि योजनसहस्राणि सूर्य एकैके
न मुहतेन गच्छति,नदेयं चतस्रोऽपि प्रतिपत्तीः संक्षेपत उपयाभागे मूरिए चक्षुफासं हव्वमागच्छति , तता गं
दर्य सम्प्रत्येतासां यथाक्रम भावनिकामाह-'तत्थे' स्यादि, राईदियं तहेव , से पविसमाणे मूरिए दोच्चंसि अहोर
तत्र य ते बादिन एयमाहुः-पट् पद योजनसहस्राखि सूर्य एतैसि बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति , कैकन मुहर्तेन गच्छति ते एवमाहुः-यदा सूर्यः सर्वाभ्यता जया णं सूरिए बाहिरतचं मंडलं उबसंकमित्ता चा- न्तर मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्रार चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिन्नि य
प्तः परमप्रकर्षप्राप्ताऽयादशमुहूर्तों दियसो भवति स
जघन्या च द्वादशमुहर्ता रात्रिः, तस्मिश्च दिवसे तापचउरुत्तरे जोयणसते ऊतालीसं च सद्विभागे जोयणस्स
क्षेत्र प्राप्तम् एकं योजनशतसहस्रमष्टौ च योजनसहस्त्राएगगेगेणं मुहुनेणं गच्छति तता मं इहगतस्स मणू- णि, तथाहि-तस्मिन्नपि मण्डले उदयमानः सूर्यो दिवसस्यासस्स एगाधिरोहिं बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एकाव- छैन यावन्मात्रं क्षेत्र ब्यानोति ताचति व्यवस्थितश्चक्षुर्गोमाए य सद्विभागेहिं जोयणस्स सद्विभागं च एगद्विधा
चरमायाति तत एतावत्किल पुरतस्तापक्षेत्रम् , यावशपुर
तस्तापक्षेत्र तावत्पश्चादपि, यत उदयमान इवास्तमयमानोछेत्ता तेवीसाए चुम्मियाभागेहिं सूरिए चक्खुफामं हव्व
ऽपि सूर्यो दिवसस्यान यावन्मानं क्षेत्रं व्यामोति तावति मागच्छति , राइंदियं तहेव , एवं खलु एतेणुवाएणं प- व्यस्थितश्चक्षुषोपलभ्यते, एतच्च प्रतिपाणि सुप्रसिद्धं ,सविसमाणे मूरिए तताणंतरातो नताणंतरं मंडलातो मं- र्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसस्याद्धे नव मुहस्तितोऽrडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभा
दशभिमहर्यावन्मात्र क्षेत्रं गम्यं तावत्प्रमाणं तापक्षेत्रम् ,
एकैकेन मुहूर्नेन पट् षट् योजनसहस्राणि गम्यन्ते, ततः गे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई णिबुड्ढ्ढेमाणे णि
षमा योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणने भवत्येकं योजनशबुड्डेमाणे सातिरेगाइं पंचासीति पंचासीनि जोयणाई पुरि
तसहस्रमष्टौ योजनसहस्राणीति , एवमुत्तरत्रापि तत्तन्म:-- मच्छायं अभिवुट्टेमाणे अभिपाणे सबभंतरं मंडलं एडलगतदिवसपरिमाणं प्रतिमुहूर्तगतिपरिमाणं च परिभाउवसंकमित्ता चारं चरति, ता जता णं मूरिए सव्वन्भं
व्य तापक्षेत्रपरिमाणभावना भावनीया । यदा च सर्वबाह्य
मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता अपातरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति ता तता णं पं
दशमहती रात्रिर्भवति सर्वजघन्यश्च द्वादशमहत्तों दिवच पंच जोयणसहस्साई दोमि य एकावण्णे जोयणस- सः, तस्मिश्च दिवसे तापक्षत्रपरिमाणं द्विसप्ततियोजनए अद्वतीसं च सद्विभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहत्ते- सहस्राणि ७२०००, तदा हि-तापक्षेत्रपरिमाण द्वादशमण गच्छति तता णं इहगयस्स मरणूमस्स सीताली
हुर्तगभ्यप्रमाणम् , अत्रार्थे च भावना प्रागुक्तानुसार
स्वयं भावनीया, मुहर्सेन च षट् घट् योजत्रसहस्राणि गच्छसाए जोयणसहस्मेहिं दोहि य दोबट्ठहिं जोयणसतेहिं ए
ति, ततः घमा योजनसहस्राणां द्वादशभिर्गुणने भवन्ति कवीरगए य सविभागेहिं जोयणस्स मूरिए चक्खुफा
द्वासप्ततिरेव योजनसहनाणीति.इमामेवोपपत्ति लेशत पाहसं हव्यमागच्छति , नता णं उत्तमकदुपत्ते उक्कोसए अ- वसिग 'मित्यानि, नेपां हि तीर्थान्तरीयाणां मसेन सूर्यः
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(१०५३) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल षद पद योजनसहस्रागय कैकेन मुहूर्तेन गति त- तस्मिश्च सर्यवाह्यमण्डलगते द्वादशमुहुर्त प्रमाणे दिवसे तः सर्वाभ्यन्तरे सवामे च मण्डले यथोक्नमेव तापक्षेत्र- तापक्षेत्र प्राप्तम्-अष्टाचत्वारिंशद्योजनसाहस्राण ४८०००, परिमाणं भवतीति, तथा 'तत्थे' त्यादि. नत्र--तेषां वादि- तदा हि तापक्षत्रं द्वादशमुहूर्तगम्यम् एकैकन च मुहर्तेन नां मध्य य ने पवमाहुः-पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य ए चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि गच्छनि, ततश्चतुग्गों कैकेन मुहुर्तेन गच्छनि त एवमाहुः-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं योजनसहस्रागां द्वादशभिर्गुणनेऽष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि भमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तहेव दिवसराइपमाण'मि- ।
वन्ति , इमामेवोपपति लेशता भावयनि-'तया ' इत्याति-पत्र प्रस्तावे दिवसरात्रप्रमाण तथैव-प्रागिव द्रष्टव्यम् ।
दि , तदा सर्वाभ्यन्तरमराउलचारकाले सर्वबाह्यमण्डलधा'तया गं उत्तमकट्टपने उक्कोसए अट्ठारसमुहुने दिवसे ह
रकाल च यतश्चत्वारि योजनसहस्राणि एकैकन महान घद, जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई इनि, 'तस्सि च ण'
गच्छति ततः साभ्यन्तरे सावा ह्ये च मराजुले यथोक्तं मिन्यादि, तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽादशमुहूते
तापक्षत्रपरिमाणं भवति३॥ 'तत्थे त्यादि, तत्र येत वादिप्रमाणे दिवसे तापक्षत्र-तापतेत्रपरिमाण प्राप्तं, नवति
न एवमाहुः-पडपि पश्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्रागि योजनसहस्राणि, तदा हि प्रागुक्तयुक्तिवशादादशमुहूत्त
सूर्य एकैकेन मुहर्तेन गच्छति ते एवमाहुः--एवं सूर्यचार प्रमाणं तापक्षेत्रम् , एकैकेन च मुहूर्तेन गच्छति सूर्यः पञ्च
प्ररूपयन्ति, सूर्य उद्गगमनमुहर्ते अस्तमयनमुहूते च शीघ्रग
तिर्भवति ततस्तदा-उद्गमनकाल ऽस्तमयनकाले च सूर्य पश्च याजनसहनाण, ततः पञ्चानां योजनसहस्त्राणामटा
पकैकेन मुहून पद पड् योजनसहस्राणि गच्छति , तदनदभिर्गुणनेन नवतिरेव योजनसहस्राणि भवन्ति, 'ता जया ण मित्यादि, यदा सूर्यः सर्ववाद्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं |
न्तरं साभ्यन्तरगनं मुहर्तमात्रगम्यं तापक्षेत्र मुकचा शेष चरति तदा 'तं चेव राइदियप्पमाण' मिति, तदेव प्रागुनं
मध्यम तापक्षेत्रं परिभ्रमण समासादयन् मध्यमतिर्भव
ति, ततस्तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि एकैकेन महरात्रिन्दिवप्रमाणं-रात्रिदिवसप्रमाण वक्तव्यम् , तद्यथा
तेन गच्छति , सर्वाभ्यन्तरं तु मुहर्गमात्रगम्यं तापक्षत्र "उत्तमकटुपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई हवइ जह
सम्प्राप्तः सन् सूर्यो मन्दगतिभवति , ततस्तदा यत्र तत्र घिर दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवतीति" 'तस्सि च ण' मि- वा मण्डले चत्वारि चत्वारि योजन सहस्राणि एकैकेन स्यादितस्मिन् सर्वबाह्यमण्डलगन सर्वजघन्ये द्वादशमुह- मुहलेन गच्छति । अत्रैव भावार्थ पिपृच्छिपुराह--- 'तत्थे'
प्रमाणे दिवस तापक्षेत्र प्राप्त पष्ठियोजनसहस्राणि त्यादि, तत्र एवंविधवस्तुतत्त्वव्यवस्थायां को हेतुः ?-का ६०००० , तदा नन्तरोनयुक्तियशाद् द्वादशमुहूर्नगम्यप्र- उपपत्तिरिति बंदत् , एवं स्वशिष्यण प्रश्न कृते सति ते मार तापक्षप्रमेकैकन च मुहूर्तेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि
एचमाहुः ‘ना अयम्म' मित्यादि , अत्र जम्बूद्वीपवाक्षं पूर्वगच्छति, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां द्वादशभिगुणने भ- वत् स्वयं परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च । 'जया ण ' ति पटियो जनसहस्रागि, अचोपपत्तिलेशमाह-'नया णं मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मराडलमुपसभ्य पंच पने' त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमरा उलचारचरणकाले चार चरति तदा दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्य , सर्वबाह्यमण्डलचाग्चरणकाले च पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि । ते चैवम्--'तया रंग उत्तमकट्टपत्ते उकासए अट्ठारसमुहुत्ते सूर्य एकैकन मुहूर्तेन गच्छति, ततः सर्वाभ्यन्तर सर्ववाहाच दिवस भयर जहनिया दुवालसमुहुत्ता राई भवई' 'तमण्डत्व यथोक्तमानपक्षेत्रपरिमाणं भवति २ ॥ तत्थ' त्यादि, स्सि च ण' मित्यादि , तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगते:तत्र येत वादिन एवमाहुः-चत्वारि चत्वारि योजनसहस्रा. टादशमुहूर्तप्रमाणदिवस तापक्षेत्र प्राप्तम् । एकननियोजणि सूर्य एकैकन मुहर्नेन गच्छति त एवं सूर्यतापक्षकारू- नसहस्राणि ६१००, तानि चैवमुपपद्यन्ते उद्गमनमुहूतें:पणां कुर्वन्ति-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य स्तमयनमुहले च प्रत्यकं पड़योजनसहस्राणि गच्छनीन्युभयचारं चर्गत तदा दिवसरात्री तथैव-प्रायिव वक्तव्य , ने मीलन द्वादशयोजनसहस्राणि १२०००, सर्वाभ्यन्तरं मुहर्नचैवम्- तया ग उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुने दि- मात्रगम्यं तापक्षेत्र मुक्त्वा शुषे मध्यमे तापक्षेत्रे पञ्चचस हवइ जहनिया दुबालसमुहुत्ता राई भया' इति, 'त- दशमहतप्रमाणे पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छनीति स्सि च ग 'मित्यादि, मस्मिश्च सर्याभ्यन्तरमण्डलगत - पञ्चानां योजनसहस्राणां पञ्चदशभिर्गुणने पञ्चसप्ततियोंयादशमुहर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्र प्रज्ञप्तं द्विसप्ततियों- जनसहस्राणि ७५००० सर्वाभ्यन्तरे तु मुहर्तमात्रगम्ये जनसहस्राणि ७२०००, नथाहि-एतेषां मनेन सूर्य एकैकन नापक्षत्रचत्वारि योजनसहस्राणि ४००० गच्छुतीति समहतैन चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि गच्छति , स- चमीलने एकनवतियों जनसहस्राणि ६१००० भवन्ति , न र्याभ्यन्तरे च मण्डले तापक्षत्रपरिमाणं प्रागुक्तयुनिवशाद
चैतान्यन्यथा घटन्त, तथा-'ता जया ण' मित्यादि , तधादशमहर्नगम्यं , ततश्चतुणा योजनसहस्राणामादशाभ- त्र यदा सर्ववाहां मण्डलमपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा गुणन भवन्ति द्विसप्तनियोजनसहस्राणि , 'ता जया ण' रात्रिदिवं-गनिदिधारमाणं तथैव प्रागिव वेदितव्यं , तमित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य च्चैवम्-'तया णं उत्तमकटुपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता चारं चरति, तदा 'गयिं तच' त्ति-गत्रिन्दिवं-रा- गई भवइ.जहम्मए दुवालसमुहुने दिवस' 'तस्सि च ण' मित्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव बक्तव्यं, तच्चैवम्-' नया ग प्यादि.तम्मिश्च सर्वबाह्यमण्डलगते द्वादशमुहर्तप्रमाणे दिवसे उत्तम कटुपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता गई भयर, जहन्न तापक्षत्रं प्रज्ञप्तम , एकष्टियोंजनसहस्रमरिण ६१०००.तानि चैवं प दुघालसमुहुत्ते दिवसे भवति' ' तस्सि च 'मित्यादि, घटाग्राञ्चन्ति-उद्गमनमुह अस्तमयमुहलेच प्रत्येक घट पद
२६४
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(१०५४) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल योजनसहस्राणि गच्छन्ति, सत उभयमीलने द्वादश योजन- क्षत्रं व्याप्यते तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्यः उपसहस्राणि भवन्ति १२००० , सर्वाभ्यन्तरं मुहर्नमात्रगम्यं लभ्यते, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहुर्नप्रतापक्षेत्रं मुक्त्वा शेष मध्यमे तापक्षेत्रे नवमुहूर्तगम्यप्रमा- माणस्तेषामद्धे नब मुहूर्ताः, एकैकस्मिश्च मुहुर्ते सवाभ्यन्तरे णे पच पच योजनसहस्राणि एकैकेन मुहतेन गच्छनि, मण्डले चार चरन् पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते नतः पश्चानां योजनसहस्राणां नवभिर्गुणने पञ्चचत्वारिं- एकपश्चाशदधिके एकोनत्रिशतं च पणिभागान् योजनस्य शधोजनसहस्राणि भवन्ति ४५००० , सर्वाभ्यन्तरे तु मु- गच्छति , तत एतावन्मुहुर्तगतिपरिमाणं नवभिर्मुहुर्तगुइतभानगम्ये तापक्षत्रे चत्वारि योजनसहस्राणि ४०००, गयते, ततो भवति यथोक्नं इष्टिपथप्राप्तताविषये परिमाणगच्छति, सर्यमीलने एकपरियोजनसहस्राणि, न चैताभ्य- मिति , 'सया रण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचाभ्यथोपपद्यन्ते, ततः 'तया ण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्त- रचरणकाले विवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये , ते चैवम्रमण्डलचारकाले सर्यबाह्यमण्डलचारकाले चोक्कप्रकारेण 'तया णं उत्तमकटुपले उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते विषसे भपडपि पश्चापि चत्वापि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन | या, जहरिणया दुवालसमुहुत्ता राई भवा' इति, ‘से निमुहतेन गच्छति, अयोपसंहारः-'एगे एक्माहंसु ' एके स्त्रममाणे' इत्यादि , नतः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलारागुक्तचतुर्था वादिन एवम्-अनन्तरोक्नेन प्रकारेणादः ॥ तदेवं प्रकारेण निक्रामन् सयों नवं संवत्सरमावदानो नवस्य परताधिकप्रतिपत्तीरुपवयं सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति
संवत्सरस्य प्रथमे ऽहोरात्रे 'अमितरानंतरं' ति-सर्वाभ्य. 'वयं पुण ' स्यादि, वयं पुनरुत्पत्रकेवलज्ञानाः केवल
स्तरस्य मण्डलस्यानन्तरं द्वितीय मण्डलमुगसंक्रम्य चार जानेन यथावस्थितं यस्तूपलभ्य एवं-यक्ष्यमायप्रकारेण च
चरति 'ता जया ण' मित्यादि तत्र यदा समिति वाक्यालदामः । तमेय प्रकारमाह-'ता साइरेगाई' इत्यादि, 'ता'
कारे , सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीय मण्डलमुपसंक्रम्य चार इति पूर्वयत् सातिरेकाणि-समधिकानि पञ्च पञ्च योज
चरति तदा पम्य योजनसहस्राणि योजनशते एकमसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूतेन गन्छति, वह कापि म- বাহাথিঙ্ক শনাল ও পুষ্টিমান স্বাক্সसडले कियताऽधिकेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति,
नस्य ५२५११५ एकैकैन मुहर्तेन गच्छति , तथाहि-प्रततः सर्यमण्डलमाप्तिमपेक्षय सामान्यत उनं सातिरेका
स्मिन् सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीय मण्डले परिरयपरिमाणं गीति, एवमुक्ने भगवान् गौतमस्थामी स्थशिष्याणां रूप- त्रीणि योजनलक्षणानि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं व्यवहा. राषषोधनाय भूयः पृच्छति-'तरथे' स्यादि, तत्र' एवंवि- रतःपरिपूर्ण सप्तोसर निश्वयमतनत कियिम्यनम् ३१५१ भायाममस्तरोदितायां यस्तुव्यवस्थायां को हेनु:-का उ- ०७, ततोऽस्य प्रागुनयुक्तियशात् पापा भागो हियते लब्ध पपत्तिरिति यत् , भगवान् पर्वमानस्थामी माह-'ता। यथोक्रमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम् , मथया-पूर्वमयप्रयम' मित्यादि वंच जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्वयत्स्वयं परिपू- लपरिरयपरिमाणावस्य मण्डलस्य परिरयपरिमाणे व्यवहा. से परिभावनीयम् , ' ता जया ण ' मियादि, तत्र यदा रतः परिपूर्णान्यष्टावश योजनानि बर्षम्ते, निश्चयतः किश्चि. सूर्यः सर्याभ्यन्तरं मलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा লালি , ছায়ানা স্ব স্বলতানা আমার লম্বা पच पच योजनसहस्राणि वे योजनशते एकपश्चा- प्रधादश पटिभागा योजनस्य, ते प्राननमण्डलगतमुहर्स शवधिक एकोनत्रिंशतं च पष्टिभागान् योजनस्य ५२५१ गतिपरिमाणेऽधिकत्येन प्रक्षिष्यम्ते, ततो भवति यथोक्त
एकैकेन मासेन गच्छति, कथमेतदवसीयते इति चे- मत्र मण्डले मुहुर्तगतिपरिमाणमिति , अत्रापि रष्टिपथप्रान. उच्यते-दाभ्यां सूर्याभ्यामेकं मण्डलमेकेनाहोरा- सताविषयं परिमाणमाह-'तया ण' मित्यादि सदा-सर्वाप्रेण परिसमाप्यते, अहोरात्रश्च त्रिशमुहर्सप्रमाणः । प्र- भ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचरकाले रगतस्य मनुष्यस्य तिसूर्य चाहोगत्रगणने परमार्थतो द्वाभ्यामहोगत्राभ्यां म- जातायेकवचनम् इहगताना मनुष्याणां मप्तचत्वारिंशता राडल परिभ्रमणतः परिसमाप्यते, द्वयोश्चाहोरात्रप्रमाण-। योजनसहरकोनाशीत्यधिकेन योजनशतेन सप्तपञ्चाशता योमहर्ताः परिभवन्ति, ततो मण्डलपरिरयस्य पश्या भार्ग पष्टिभागैरकं च पष्टिभागमेकपटिधा विस्था तस्य सत्कैरेको हारयेत् , भागलब्धं भवति तन्मुहूर्तगतिप्रमाणं, तत्र सर्वा- नविंशत्या चूर्णिकाभागः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहिभ्यन्तरे मराउल परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि पादशसहस्रा- अस्मिन् मराउले मुहुर्तगतिपरिमाणं पश्च योजनसहस्राणिणि नवाशीत्यधिकानि ३१५०८६ अस्य पएघा भागे हते लब्धं द्वे शते एकपश्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशच षष्टिभागा योजनयथोक्त मुहर्तगतिपरिमाणनिति । अत्रास्मिन् सर्वाभ्यन्तर स्य ५२५१४४ दिवसोऽयादशमुहु प्रमाणो द्वाभ्यां मुहुर्समण्डले कियति क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य इहगता- कपष्टिभागाभ्यामूनस्तस्यार्द्ध नव मुहुर्ता एकेन पकष्टमां मनुष्याणां चाँचरमायातीति प्रभावकाशमाशङ्कया- भागेन हीनाः, ततः सकलैकपाटभागकरणार्थ नव महा ह-'तया स्म' मित्यादि, तवा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरण- एकषष्ठया गुण्यन्ते , गुणयित्वा च तत पर्फ रूपमपनीयते, काले उदयमानः सर्य बहगतस्य मनुष्यस्य, अत्र जाता- जातानि पञ्चशतान्यवत्वारिंशदधिकानि ५४८ , ततोऽस्य येकवचनं, ततोऽयमर्थः-बहनतानाम-भरतक्षेत्रगतानां म- द्वितीयस्य मण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि पनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहर्वाभ्यां विषाभ्यां ञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरमिति ३१५१०७.तत्पश्चभिः त्रिषधिकाभ्यां योजमशताभ्यामेकविंशत्या च पष्ट्रिभात शनैरवाचत्वारिंशनधिकैगुण्यते, ततो जात एककः सप्तको
योजनस्य च स्पर्श'हब्य'ति-शीप्रमागच्छति का अत्रो द्विकः षटुः सप्तकोऽष्टकः पटुखिका पटुः १७२६७७६३६, पपचितिचे उच्यत-सह दिवसस्थान यावन्माणं ततो योजनानयनार्थमेकषः पप्पा गुगिणताया पावान्
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(१०५४) सरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल गशिर्भवति न भागो हिवते. एकपल्या च पश्या गु-! लब्धात्रयविशत्यष्ठिभागाः एकस्य च षष्टिभागस्य पितायां षट्त्रिंशन्छनानि पश्यधिकानि भवन्ति ३६६०, सत्की द्वावेकपष्टिभागी 'तया हा ' मित्यादि , तदा भांग हृते लब्धं सप्तचत्वारिंशसहस्राणि शतमेकोनाशी- सर्वाभ्यन्तरवतीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तवैवयथिकं योजनानां, शेषमुहरति चतुस्त्रिशच्छतानि पक्षण प्रागिय वेदितव्ये,ते चैवम्-'तया अट्ठारसमुहुने दिवसे हस्यधिकानि ३४६६, ततोऽस्माद् योजनानि नायान्तीति वा.हि एट्टिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुना राई भयर पष्टिभागानयना छेदशिरकपपिनियते, तेन भागेरते चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया इति, सम्प्रति चतुर्थादिषु स्तब्धाः सप्तपञ्चाशत्वष्टिभागाः एकस्य च पष्टिभागस्य मण्डलेष्यतिदेशमाह-एवं खल्वि'त्यादि , एवम्-उक्नेन प्रकासत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा इति । 'तया ण' मित्यादि. रेण खलु-निश्चितमतेन-अनन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैसदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिव- स्तहिमण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्-'तयाण अट्ठारसमु. स्तराम्मएडलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण संक्रामन् सं. हुस दिवस हवा दाहिं एगट्ठिभागमुहुनेहि ऊणे दुवालस- क्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र सत्रे द्विमुहुना राई भवइ दोहि पगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया ' इति | तीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्याद् भवति प्राकृतलक्षणयशात् सप्त
से निमखममाणे' इत्यादि, द्वितीयस्मादपि मण्डलात् स भ्यर्थे द्वितीया , यथा-'कसो रसिं मुद्धे ! पाणियसद्धासूर्यः प्रागुरूप्रकारेण निष्क्रामन् नवस्य संवत्सरस्य सत्के सउणयाण' मित्यत्र ततोऽयमर्थः मुहर्तगती अावश अटाद्वितीयेऽहोरात्रे 'मभितरतयंति-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् | यश पष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः दतीय मण्डलमुगसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया बमित्यादि। किश्चिदूनानभियर्सयमामः२'पुरिसच्छाय' मिति पुरुषस्य तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान्माइलाकृतीयं माडलमुपसंक्रम्य चार छाया यसो भयति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथपरति नर पश पच योजनसहनामिरे पोजनशते हिप- मतः सूर्यस्योदयमानस्य रहिपथप्राप्ताना, अत्रापि द्वितीया श्वाशे द्विपचाशवधिक पक्षच परिभागान् योजनस्य ५२५२ सप्तम्यर्थ, ततोऽयमर्थः--तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले चतुरभएकैकन मुहतेन गच्छति,तथाहि-अस्मिम्मएडले परिरय- शीतिः २'सीयाई' ति-शीतानि किश्चिन्यूनानीत्यर्थः, योपरिमाणं त्रीणि योजना क्षणानि पञ्चदशसहस्राणि शतमेकं जनानि निर्वेष्टयन निर्वेष्टयन्-हापयमित्यर्थः इन च स्थूपञ्चविशत्यधिकम् ३१५१२५ , ततोऽस्य प्राशुलयुक्तियशात् | लन उतं. परमार्थतः पुनरिवं द्रष्टव्यम्-उपशीतियोजनानि षष्ट्या भागो हियते,लब्धं यथोक्नमत्र मण्डले मुर्तगतिप- प्रयोविंशतिश्च वष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य रिमाणम् , अथवा-पूर्वमण्डलमुर्तगतिपरिमाणावस्मिन् एकपष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिशकागाति रधिमण्डले मुहर्तगतिपरिमाणचिन्ताया प्रागुनयुक्तिवशावाद पथप्राप्तताविषय विषयहानी 5वं, ततः सर्याभ्यन्तराम्मश एकपष्टिभागा योजनस्याधिका प्राप्यन्ते , ततस्तत्वक्षेपे एउलानतीयं यन्मएडलं तत प्रारभ्य यस्मिन् यस्मिन् भवति यथोक्लमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम् । अत्रापि- | मगरले इष्टिपथप्राप्तता मातुमिष्यते तत्सम्मएडलसंख्यया रपिशप्राप्तताविषयपरिमाणमाह-'तया ण' मिस्यादि, तदा पत्रिंशद् गुण्यते,तपथा-सर्वाभ्यन्तराम्मएडलातृतीये मएकसर्वाभ्यन्तरानन्तरतृतीयमण्डलबारकाले इहगतस्य मनुष्य- ले एकेन चतुर्थ द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यायत् सर्पयाधे मण्डले स्य-जातायेकवचनस्य भाषाविहगतानां मनुष्याणां सप्त- द्वपशीत्यधिकेन शतेन, गुणयित्या च भ्रवराशिमध्ये प्रक्षिचत्वारिंशता योजनसहरैः परवत्या च योजनैखनि- ध्यते , प्रक्षिप्ते सति यद्यति तेन हीना पूर्वमण्डलगता शता च षधिभागोंजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छि इपिथप्राप्तता-यस्मिन् विवक्षिते मण्डले रष्टिपथप्राप्तता स्था तस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्याम् ४७०६६ दष्टव्या, अथ ध्यशीतियोजनानीत्यादिकस्य प्रवराशेः कथ२७ सर्यश्चक्षु स्पर्शमागच्छति , तथाहि-अस्मिन् म
मुत्पत्तिः ?, उच्यते-दह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले टिपथपडले दिवसोऽपादशमहतप्रमाणश्चतुर्मिमुहूर्सकषष्ठिभाग- प्राप्ततापरिमारण सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि वे शते त्रिपकनस्तस्या नधमुहर्ता द्वाभ्यां मुहतकषष्टिभागाभ्यां हीनाः ष्टयधिके योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य ततः सामस्त्येनैकपष्टिभागकरणार्थ नवापि मुहूर्ना एकपष्ट्या
४७२६३१३, पतच्च नवमुर्तगम्यम् , नत एकस्मिन् महनेगुग्यन्ते, गुणयित्वा च द्वाकपरिभागी तेभ्योऽपनीयेते
कपष्टिभागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहर्ता एकसती जाता एकष्टिभागाः पञ्चशतानि सप्तचत्वारिंशता
पष्टया गुण्यन्ते,जातानि पञ्च शतान्येकोनपश्चाशदधिकानि अधिकामि ५४७ , ततोऽस्य तृतीयमण्डलस्य यत्परिरय- ५४६, नैभागो हियते, लब्धा पडशीतियोजनानि पञ्च पष्टिपरिमाणं त्रीणि योजनलनाणि पञ्चदशसहस्राणि शतमेकं भागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य एकषष्टिधा पञ्चविंशत्यधिकमिति २१५१२५ , तत्पश्चभिः शतैः सप्तच- छिन्नस्य सरकाश्चतुधिशनिभांगाः ८६।३५ । पूर्वस्मान स्थारिंशदधिकैर्गुण्यते, जाताः सप्तदश कोटयनयोविंशतिः
पूर्वस्मात् च मण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परियपशतसहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पश्च सप्त
रिमाणचिन्तायामष्टादश अष्टादश योजनानि व्यवस्यधिकानि १७२३७३३७५, एतेषामेकपष्टया षष्ट्या गुणि- हारतः परिपूर्णानि यन्ते , ततः पूर्वपूर्वमएलगतनया ३६१० भागो हियते, लब्धानि सप्तचत्वारिंशत्सह- मुह गतिपरिमाणादान्तरानन्तर मराडले मुहूर्तगतिपमाणि परमवत्यधिकानि ४७०६६, शेषमुद्वरति विंशतिशतानि रिमाणचिन्तायां प्रतिमहतमष्टादशाष्टादश पष्ठिभागा पञ्चदशोत्तराणि २०१५, ततोऽस्मायोजनानि नायान्तीति | योजनस्य प्रबर्द्धमाना द्रष्टव्याः,प्रतिमुहूतेकपष्टिमाग चापठिभागानयमार्य छदराशिरे कपर्धियत, तेन भागे हते | ष्टादश एकस्य पप्टिभागस्य सत्का एकपप्टिभागाः स
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सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल र्याभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीय मण्डले सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो | पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षट् एभवनि नवभिर्मुहतैकषष्टिभागेनोनयावन्मात्र क्षत्रं व्याप्यते | कपष्टिभागाः ८५६इह पत्रिशत एवमुत्पत्ति:-पूर्वतावति स्थितम्ततो नव मुहूर्ता एकपट्या गुण्यन्ते, गुण- स्मात् पूर्वस्मात् मण्डलादनन्तरेऽनन्तर मण्डले दिवसो द्वायित्वा च तेभ्य एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्च शतानि भ्यां २ मुहतैकषष्टिभागाभ्यां हीनोभवति, प्रतिमहतैकपटिअष्टाचत्वारिंशदधिकानि ५४८, तैरष्टादश गुण्यन्ते, जा- भागं चाष्टादश एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभातान्यष्टनवतिः शतानि चतुःषष्टिसहितानि ६८६४ , तेषां गा हीयन्ते , तत उभयमीलने पत्रिंशद्भवति . ते चाटादषष्टिभागानयनाथैमेकपष्टया भागो हियते , लब्धमेकप . ण एकषष्टिभागाः कलया न्यूना लभ्यन्ते न परिपूर्णाः , पर ष्ट्यधिकं शतं पष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागस्य व्यवहारतः पूर्व परिपूर्ण विवक्षिताः , तच्च कलया न्यूसत्का एकपष्टिभागाः । तत्र विंशत्यधिकेन नत्वं प्रतिमण्डलं भवेत् यदा द्वयशीत्यधिकशततमे मपष्टिभागशतेनद्धे योजने लब्धे पश्चादेकचत्वारिंशत्पष्टि- एडले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा एकपष्टिरेकषभागा अवतिष्ठन्ते, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिंशत्पष्टि- ष्टिभागास्युट्यन्ति , एतदपि व्यवहारतः उच्यतेभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारि- परमार्थतः पुनः किश्चिदधिकपि त्रुटयदवसेयं , ततोऽमी शदकपष्टिभागा इत्येवरूप प्रागुक्लात् पडशीतियोजनानि पञ्च अपपटिरेकषष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारण पञ्चाशीतिषष्टिभागा योजनस्य एकषष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकप- योजनानि नव पाटभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागटिभागा इत्येतस्माच्छाध्यते, शाधिते च तस्मिन् स्थितानि प- स्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ८५६।। इति जातं, ततः श्वात् उयशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः पष्टिभागा योजनस्य सर्वबाह्यमण्डलानन्तगर्वाननद्वितीयमण्डलगतात् दृट्रिपथएकस्य षष्ठिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकपष्टिभागाः८३१४ प्राप्ततापरिमायादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि पोडशो। १६ । एतावद् द्वितीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषये सर्वाभ्य- नगणि योजनानामेकोनचत्वारिंशष्टिभागा योजनस्य एन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् हानौ प्राप्यते , कस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३१६१६६६। किमुक्तं भवति ?-सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततायां | है । इत्येवंरूपात् शोध्यन्ते , ततो यथोक्नं सर्वबाहो महानी ध्रुवम् , अत एव ध्रुवगशिपरिमाणात् द्वितीये मराहु- ण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, नचाग्रे स्वयमेव सूले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेतावनाहीनं भवतीति , एतच्चो- त्रकृद् बन्यति ,तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां सरोत्तग्मण्डलविषयष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ ध्रुवम् , द्वितीयादिषु केषुचिन्मण्डलेषु चतुरशीनिं चतुरशीति किअत एव ध्रुवराशिरिति ध्रुवराशरुत्पत्तिः, ततो द्वितीयस्मान् । श्चिम्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु मराडलेवधिकानि मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डल एष एव ध्रुवराशिः एकस्य अधिकतराणि उक्लपकारेण निर्वेष्टयन निर्वेष्टयन् तावदपधिभागस्य सत्कैः षट्त्रिंशतकपष्टिभागः महितः सन् | वसेयं यावत्सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति , ' ता यावान् भवति , तद्यथा-व्यशीतियोजनानि चतुर्विंशतिः जया ण' मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्वबाह्यपष्टिभागा योजनस्य सप्तदश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का। मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकन मुहूर्तेन पपकषष्टिभागा इति , पतावान् द्वितीयमण्डलगतात् दृष्टि- श्च पश्च योजनसहस्राणि त्रीणि त्रीणि शतानि पञ्चदश पथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते , ततो भवति यथोक्नं तस्मिन् च पष्टिभागान् योजनस्य ५३०५१४ गच्छति, तथाहि-अतृतीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणं , चतुधे म- म्मिन् मण्डले परिरगपरिमाणं त्रीणि योजनसहस्राणि एडले स एव ध्रुवराशिर्वासप्तत्या सहितः क्रियते , चतुर्थ हि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणिमण्डलं तृतीयापेक्षया द्वितीयं , ततः पत्रिंशद् द्वाभ्याम् ३१८३१५,तत एतस्य प्रागुक्रयक्निवशात् षष्टया भागो हियते, गुण्यते , गुणिताच सती द्विसप्ततिर्भवति , तया च सहितः ततो लब्धं यथोक्नमत्र मुहूर्तगांतपरिमाणमिति, अत्रैव सन् एवरूपो जातस्यशीतियोजनानि चतुर्विंशतिः पष्टि- दृएिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-'तया ण' मित्यादि, तदाभागा योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकस्य पष्टिभागस्य सत्का एक- सर्वबायमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य-जातांवकषष्टि गाः ८३१।। ५३ । एतावान् तृतीयमण्डलगतात् - बचनमिहगतानां मनुष्याणां एकत्रिंशता योजनसहस्रैरटटिपथप्राप्ततापरिमाणात् शाध्यते , ततो यथावस्थितं चतुर्थे भिरेकत्रिंशदधिकैयोजनशतैस्त्रिंशता च षष्टिभागैयोजनस्य मण्डले दृष्टिपथप्राप्तहापरिमाणं भवति , तच्चेदम्-' सप्त- ३१८३१३. सूर्यः शीघ्रं चक्षुःस्पर्शमागच्छति , तदा ह्यस्मिचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टि- न् मण्डल चारं चरति सूर्य द्वादशमुहुर्नप्रमाणो दिवसो भभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दश पकष- वति, दिवसस्य चाडैन यावन्मात्र क्षेत्र व्याप्यते तावति टिभागाः ४७०९३६।१६। सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयम- व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहुण्डलापेक्षया द-यशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्तता- निामद्धे पद मुहुर्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहुर्तगतिपपरिमाणं ज्ञातुमिप्यते तदा सा पदत्रिंशत् द्वघशीत्यधिके- रिमाणं पश्च योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पश्चोत्तरान शतन गुरायत, जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशद- णि पश्चदश च षष्ट्रिभागा योजनस्य ५३०५६ तत् पद्दभिर्गु धिकानि ६५५२ , ततः षष्टिभागानयनार्थमकपष्टया भागो एयत, ततो यथोक्तपत्र दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, अहियत , लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानाम् १०७, शेषाः त्रापि दिवसरात्रिप्रमाणमाइ–' तया ण ' मित्यादि , सुगपञ्चविंशतिरेकपष्टिभागा उद्वन्ति २५, एतत् धूवराशी प्र- मम् । से पविपमाणे' इत्यादि , स सूर्यः सर्वबाह्यमक्षिप्यते , ततो जातमिदं-पञ्चाशीतियोजनानि एकादश एडलादुक्लपकारणाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् द्वितीयं ष
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सूरमण्डल
रामासमाददानो द्वितीयस्य घरमासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बादिरानंतर' तिसर्यवाह्याम्परहरद्वितोयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्यानन्तरमर्वाक्कनं द्वितीयं मण्डसमुहबारे बरति तदा एकेन मुन पपअ] योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनानि सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्य ५३०४१५ गच्छति, तथाहि - अस्मिन् मराले परिश्यपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानाम् ३१०२६७ तस्य प्रागुक्रयुक्रिपशात् पष्ट्या भागो हि पते, तेच मागे लप्यं यथोक्रम ले मतियरिमाणम्, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-- ' तथा ' मित्यादि, तदा इद्गतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनम् - गतानां मनुष्यानेति योजन
,
षोडशो योजनशतेरे कोनचत्वारिंशता च पष्टिभागयज्ञनस्य एकं च षष्टिभागमे कषष्टिधा छित्वा तस्य सत्कैः पाचूर्णकामा: स्पर्श, तथाहिअस्मिन् मण्डले सूर्ये वारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तसमाथी गृह कषष्टिभागाभ्यामधिकचा पदम एकेन मुकपट्टियांगना भ्यधिका ततः सा मस्त्यनेक पष्टिभागकरवार्थे पडपि मुहूर्ती एका गु रायन्ते गुणचित्वा च एकषष्टभागस्तथाधिक प्रक्षिप्यते ततो जातानि श्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानां ३६७, ततः सर्वग्राह्यादर्वाक्कने तस्मिन् मिराले यत्परित्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके ३१८२६७, समभिः शनैः सप्तषष्यधिकैर्गुण्यते जाता एकादश फोटोऽधितुर्दश सहस्राणि नय शतानि नवनवत्यधिकानि ११६८१४६६६ गुणितया ष्टया ३६६० भागो हियते, हृते व भागे लब्धायेशिसहस्राणि न शतानि षोडशरा ३१२१६ शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिः शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि २४३८, मचातो योजनाम्यायान्ति ततः परभागानयनार्थ मेकपष्ट्या भागो लिएको गारि
"
एतस्य एकषष्टपा
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,
३६ एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३ तथा राईदियं तच तदा सर्वदाह्यानन्तरा कमद्वितीयमण्डलपोधारकाले राम्रादिप्रमा घारसमुडुता राई भवति दोहि एगट्टिभागमुहुत्तेहि ऊणो, दुबालसमुहुसे दिवसे वह दोहि एगट्टिभागमुडुतेहि श्रहिए' इति, 'से ततः सर्वान्तरापमा
तथैव-प्रायम्यम्-तथा
·
दपि कारण प्रविशन सूर्यो द्वितीयस्य परमासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे ' बाहिरतच्च ति सर्वबाह्यात्मण्डलादर्यानं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा यमिति पूर्ववत् सर्वबाह्यान्मएडलादर्यानं दतीर्थ मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा पञ्च पञ्च योजन सहस्राणि श्रीणि चतुरुत्तराणि योजनालानि कार्ति च परिभागान् योजनस्य ५३०४२६ पक्कन मुहूर्तेन गच्छति, तस्मिन् हि मण्डले परिश्यप२६५
(२०५७) अभिधान राजेन्द्रः ।
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सूरमण्डल रिमाणं तिस्रो लक्षा श्रष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके इति ३१८२७६, अस्य षष्ट्या भागो हियते हृते भागे वधं यथाक्रमत्र मण्डले मुहसंगतिपरिमाणम्, अत्रापि हि दृष्टिपथासाविषयपरिमाणमाह तथा ' मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनस्य भावादिहागतानां मनुष्याणामेकाधिकैर्द्वात्रिंशता सहस्रैरेकोनपञ्चाशता षष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा विवा तस्य सोया चूर्णिकाभागः सूर्यःस्पर्श मागच्छति, तथाहि श्रस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणधतुभिरेक पष्टिमानैरधिकस्तस्था पदमु मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामधिकाः ततः सामस्त्येन कषष्टिभागफरणार्थं मुहर्त्ता एकष्टया गुरुय च द्वावेकयष्टिभागौ प्रक्षिप्येते, ततो जातानि त्रीणि शताम्यष्ट्यधिकान्येकभागानाम् ३६ ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परित्यपरिमाणं त्रीणि लक्षाण्यप्रादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७६ इति तदेभिस्त्रिभिः शतैरपष्ट पधिगुरुवते जाता एकादश फोटया एक्सततिः शतसहस्राणि पशतिः सहस्राणि वद् शानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२, एतस्य षष्टया एकषष्टया गुचितया ३६६० भाग हिते, मानशत्सहस्राणि एकोत्तराणि ३२००१ शेषमुद्रति श्रीणि सहआणि द्वादशोरा २०१२ मा गायनशिधा भागो हियते सम्धा एकोपा माया यो विंशतिश्च एकस्य पष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा है इति, 'रतिदियं तद्देव' सि-रात्रिदिवं रात्रि दिवसपरिमाणमत्र तथैव - प्रागिव वक्तव्यम्, तच्चैवम्- 'तयां अझरसमुडुता राई भवर उदिमागमा दु 3 बालसमुपसेवा च भागमु हिर' इति सम्पति सान्डलादनेषु चतुरादिषु एदलेषु अतिदेशमाद एवं खचित्यादि एवम् उक्रेन प्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन शनैः रातरानन्तरमर डानिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संकामन् संक्रामन् एकैकश्मिन् मण्डले मुगतिमित्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे मुसंगती मुसंगतिपरिमाणे अश दश पट्टिभागान योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् मिश्रयतः किमिनि२२ इत्यर्थः पूर्वपूर्वमएडलापेक्षया श्रभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य परियमधिकृत्याशनियोजनत्वात् पुरुषायामित्यत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे ततोऽयमर्थः पुरुषच्छायायां विरूपा सातिरेकाथि पचाशीतिः पञ्चाशीतिः योजनानि अभिपर्ययन् अभिवर्द्धयन एवं सर्ववाद्यान्न कतिपयानि प्रथमद्वितीयादिमण्डलान्यपेक्ष्य स्थूलत उक्तम्, परमार्थतः पुनरेवं द्रष्टव्यम् - इद्द येनैव क्रमेण सर्वाभ्यस्वरामापरता विनिर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वग्राह्याम्मरलादर्यानेषु मण्डलेषु दृष्टिपथप्राप्तनामनिधन प्रशितिसाह्या दृष्टिपथासनापरिभावात् साम पहले पञ्चाशीतियोंजनानि नयनागार योजनस्य एकं
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सूरमण्डल
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विभागमेकषष्टिधा दिवा तस्य सत्कान् षष्टिभागान् द्वापयति एतच प्रागेव भाषितं, ततस्तस्मात्सर्व बाह्यान्मएडलादर्याने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवर्द्धयति भुवं ततोऽर्वाननेषु मण्डलेषु यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता परिमां ज्ञातुमिष्यते तत्र तत्र तृतीयमण्डलादारभ्य तत्तन्मपलसंक्या पशिद्गुरु तथा दीडबिन्तायामेकेन चतुर्थमण्डल चिन्तायां द्वाभ्याम् एवं यावत्स वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां शीत्यधिकशतेन च
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(24) )
अभिमानराजेन्द्रः ।
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त्या पलभ्यते तद्वराशेरपनीय शेषेण भुवराशिना सहितं पूर्वपूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राततापरिमाणं तत्र तत्र मण्डले द्रष्टव्यं तद्यथा-तृतीये मण्डले पनिशद् के पी जाता पि शत्रेव सा भुबराशेरपनीयते, जातं शेषमित्रं पश्चाशीतियों जमानि न पहिमागा योजनस्य एकस्य परिमागस्य सरका एकपट्टिभागा
,
1
पूर्वगतं पिचासतापरिमाणम् - किन हामि पोडोस योजनानामेोचत्वारिशत्वविभागा योजनस्थ एकस्य पडिभागस्य सत्कार पि कटिभागाः ३१ पिते तोधनी म पो हिपथमाहापरिमा भवति तच्च प्राणेोपम
"
गुपते गुणया भुमराशेरपनीय शेषेण भूम राशिमा तृतीयमगतं दृष्टिपथासापरिमाणं सहितं
,
सतत परिमाभपति- आणि पीत्यधिकानियोजनानामपाशय षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सरका] पादपडिमा ३२०० ३२ एवं मिडलेषु भावनीयं यदा तु सर्वाभ्यन्तरे म
पथमानता परिमार्गातुमिष्यते तदा शिद्धशीत्यधि तृतीयमण्डलादारम्य सर्वाभ्यन्तरस्य म
.
सूरमण्डल ष्टभागाः ४७१७६ ।। ई । इत्येवंरूपं सहितं क्रियते यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति तच सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्टधाधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ४७२६३ । दृष्टिपाता कतिपयेषु मण्डलेषु सातिरेकाथि पञ्चाशीति योजनाविप्रेषु चतुरशीर्तिर्यथाधिकसहितानि व्यशीर्ति योजनानि अभिवर्तयन् अभिवर्द्धयन् तायद् वक्तव्यः यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य वारं वरति 'ता जया ण' मित्यादि तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्य-स्तरमुपसंचारे परति तदा पक्ष पक्ष योजन सहस्राणि हे एकपञ्चाशदधिके योजनशते एकोनत्रिंशनं च पद्विभागान योजनस्य ४१५१ केन मुच्छति, तदा च तस्य मनुष्यस्य- जातायेकचनम् तान मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहभ्यां त्रिपा विधिका योजनाभ्यामेक विद्यया पभा जनस्य ४०२१३ सूर्यमागच्छति एतच्च मुहसंगतिपरमार्थदयिमासापरिमाणं प्रागेव माथि हम् महताऽपि प्रस्ताव तो
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"
,
दोषः ' तथा एं उत्तमकडुपले ' इत्यादि सुगनं यावत्प्राधुसमावृतपरिसमाति।
अथाऽत्र गतिप्रमाप सूत्रम्
जया णं भंते ! सूरिए प्रभंतरातरं मंडलं उपसंकभिसा चारं चरति तथा यं एगमेगेणं मुहुतेयं केवह खतं गच्छर ?, गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोछि अएगाबधे जोयणसए सोमालीसं च सडिभागे जोनयस एगमेगेयं मुहुतेयं गच्छर, तया णं इहगयस्स मखू सस्स सीचालीसाए जो अब सहस्सेहिं एगुणासीए जोभलसरसावा असडिमारहिं जोभणस्स सहभागं च एगसद्विधा छेचा एगुणषीसाए चुलिश्राभामेहिं सूरिए
सि अहोरसि अम्भंतरचं मंडलं उपसंकमित्या चारं र (०१३३+ )।
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एडलस्य पीत्यधिक जान पचिक्ष्फास हव्यमागच्छर से सिक्खममासे रिए दोशतानि द्विपाशदधिकानि ६५५२ तेषामेकपल्या भागे ते लब्धं सतोत्तरं शतं षष्टिभागानां शेषं पञ्चविंशतिः ॥ २५॥ तस्यञ्चाशीतियजनानि नव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य भागस्य सत्काः पहिरेकाः ८५ इत्येवंरूपात् भुवराशेः श्रोष्यते, जातानि पश्चात् व्यशीतियोंजमानि द्वाविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह षट्त्रिंशत् २ एकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते एतच प्रागेवो, त कलाम्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वपशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् विम्यते तदा अष्टषष्टिरेक षष्टिभागा लभ्यन्ते ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यतेसतो जानमिदम् उपशीतियोंजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा बहुजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषविभागाः ३ ॥ पतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डल -
जया 'मित्यादि, यदा भगवन् ! सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं दक्षिणायनापेक्षा सार्थ मराड चार परति तदान किया है, मौत 1 पच पच योजनसहखाणि चैकपयेोजनशते सप्तच वारितं पष्टिभागान् योजनस्यैकेन सडुन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते-मिडले परिश्यपरिमाश्री
च
दृष्टिपथापरिमार्फ सचस्वारिंशत्स आणि शतमे कोनाशीत्यधिकं योजनानां सप्तपञ्चाशत् षष्टिभागा योनाम दचिभागस्य सरका एकोनविंशतिरेकप
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हारतः परिपूर्ण निपतु ३२५१०७ ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागे लब्धं यथोकमत्र मण्डले मुडप्रमाणम् ५२५२ अथा पूर्वमपरिश्यपरिमा सारस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः पूर्णान्यष्टादश योजनानि वर्जन्ते निश्चयमतेन तु किञ्चिदूनानि अष्टादशानां योजनानां
भागे लब्धा अष्टादश पष्टिभागा योजनस्य ते प्रानमलमुगलिपरिमाधिकत्वेन प्रचिप्यन्ते
तो
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अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल भवति यथोक्तं तत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणमिति, अत्रापि । मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे रष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणमाह-यदा अभ्यम्तरद्वितीये |
| जोश्रणस्स एगमगे मंडले मुहुत्तगई अभिवड्डेमाणे अभिमण्डले सूर्यश्वरति तदा इहगतस्य मनुष्यस्य--जातावेक
बड्डेमाणे चुलसीइं चुलसीइं समाई जोषणाई पुरिसच्छाचं घचनमित्यत्र गतानां मनुष्याणां सप्तवत्वारिंशता योजनसहस्ररेकोमाशीत्यधिकेन योजनशतम सूत्रे तृतीयाथें सप्त
णिव्वुद्धेमाणे णिव्वुद्धमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उबसंकमिमी प्राकृतस्यात् , सप्तपश्चाशता च षधिमार्योजनस्य ष- चा चारं चरइ । सू०-१३३४) हिभागं च पकपपिधा छित्त्वा-एकपष्टिसाण्डान् कृत्वा सेणिक्खममाणे सरिए दोसि'इत्यादि, अथ निष्काएकषष्ठिधा गुणयित्वेत्यर्थः, तस्य सत्कैरेकोनविंशत्या च- मन् सूर्यों द्वितीयेहोरात्रे प्रस्तुताऽयमापेक्षया द्वितीयमण्डल णिकाभागैः-भागभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि- इत्यर्थः अभ्यन्तरं तृतीयमण्डलमुपसंगम्य चार वरति तदा सर्वाभ्यन्तरानम्तरे द्वितीये मगडले दिवसप्रमाणं द्वाभ्या- एकैकेन मुहुर्तन क्रियत् क्षेत्रं गच्छति ?, भगवानाह-गौरम! मेकपरिभागाभ्यां हाना प्रधादश मुहूर्तास्तेषाम नब मु
पच पच योजनसहस्राणि द्वे च द्विपञ्चाशयोजनशते पश्चतरी एकनकर्षापभागेन हीनास्ततः सामस्त्य नकषधिभा
पश परिभागान् योजनम्यै कैकेन मुहुर्तेन गच्छति, वंच गकरणार्थ नयापि मुहूर्ता एकपप्पा गुरबते, तेभ्य एकषधि
प्रस्तुतमण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भजने संवादमावते , - मागोऽपनीयते, ततः शेषा जाता एकपष्टिभागाः पधश
दावाहगतस्य मनुष्यस्य सप्तस्वारिंशता'योजन सही ताम्यावस्पारिशवधिकामि, प्रस्तुतमारले मुसंगतिः
पएणवत्या व योजमैत्रिशता व पधिभागोजमम्य परिभा५२४५ पोजनानि अब राशिः परिच्छेद इति योजन
में बेकम् एकपश्थिा विस्था द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्या राशि षष्टया गुणपिरषा सपर्यते जातम् ११५१०७, भय
सयेश्चतुःस्पर्श हवं ' शीघ्रमागच्छति . तथाहि-पत्र ममेष राशिः करणधिभाषनायो मलयगिरीय क्षेत्रसमालपत्ती
पडले दिनप्रमाणमष्टादश मुहुचितुभिरेकषधिभागहमाव परिधिराशिरिनि कस्या दर्शितो लाप्रथात् भाग्यराशि- सेवामथ नषद्वाभ्यामकहिभागाभ्यां हीमास्तता सम्भस्य भाजकराशिना गुणने मूलरांशरेष लाभात् , ए- सापसत्येनेकपधिभागकरणाथै मधापि मुहर्ता एकपएण पराशिः पश्चभिः शतैरवाचवारिंशवधि गएयते जाता। गुपयम्ते तेभ्य द्वाषेकषष्टिभागायपनीयेते शेषा पक्ष शसप्तदशकोटपः पर्विशतिर्लक्षाः भरसप्ततिः सहस्राणि तानि सप्तमत्वारिंशदधिकानि ५४७ , प्रस्तुतमण्डले मुहर्नपद् शतानि शिवधिकानि १७२६७८६३६, भयं वरा- गतिः ५२५२१स्येचंकां योजमराशि षष्ट्या गुणयित्वा शिर्भागभागात्मकत्यान योजनानि प्रयच्छतीति एकषष्टः सयपर्यते जातम् ३१५१२५ , अयमेष राशिरण्यैः परिधिपएपा गुणिताया यावान् राशियति तेन भागो बियते राशिषेन निक्षपिता, अस्य सप्तमत्वारिंशदधिकपश्चशगच गणितप्रक्रियालाघधार्थिका अन्यथाऽस्य राशेरेकष- तैर्गुणने जानाः सप्तदशकोत्पत्नयोविंशतिः शतसहस्राणि ध्या भागेरते षटिभागा लभ्यते तेषां च षष्टपा भागे त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पश्चसप्तव्यधिकानि ते योजनानि भवन्तीति गौग्वं स्यात्, एकपष्टयां च ष- १७२३७३३७५ , पतेषां षष्टिगुणितया एकषष्ट्या ३६६० टया गुणितायां षधिशच्छतानि षष्टपधिकानि ३६६०, ते- भागे ते मागतानि सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि पराणआँगैहते आगतं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोना- बस्यधिकानि ४७०६६, शेषं विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तगशीत्यधिक योजनानाम् ४७१७६, शेष ३४६६, छेदराशेः
णि २०१५, छेवराशेः षष्ट्या उपयतेनाया जाता एकषष्टिः एघाऽपवर्तना क्रियते जाता एकषष्टिः ६१ तया शेषरा
না থাইমলৰ লগ্রামসহানু থমাসাঃ ৪ शेर्भागो हियते लब्धाः सप्तपश्चाशत् षष्ठिभागाः एको
शेषौ च द्वावेकस्य षष्टिभागस्य सत्कावेकषष्टिभागी - नविंशतिश्चैकस्य षष्टिभागस्य सत्काः एकषष्टिभागाः । ति। सम्प्रति चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-एवं खलु
पतेणं उबाएण' मित्यादि, पयम्-मण्डलत्रयावर्शितरीप्रथाभ्यन्तरतृतीयमण्डलस्वचार पिपछि.
स्या सालु-निश्चितमेतेनानन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनैस्तराधस्त्रं सूत्रयति
सदहिमण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्पस्तदनन्तजया ण भंते ! सूरिए अब्भंतरतच्चं मं- राम्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुनप्रकारेण संक्रामन् २ डलं उघसंकमित्ता चारं चरइ , सया णं एग- एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र प्राकृतत्वात् समेगण मुहुत्तेणं केवइग्नं खेत्तं गच्छइ १, गोभमा ! पंच
सभ्यर्थे द्वितीया तेन मुहूर्तगती अष्टादश अष्टादश पंच जोमणसहस्साइं दोलि म बावसे जोमणसए पंच |
पष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः
किश्चिदनान अभिवर्जयमानः चतुरशीति चतुरशीति योम सद्विभाए जोमणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ , तया जनानि शीनानि-किश्चिन्यूनानि 'पुरिसच्छाय' मिति-पुकइहगयस्स मरणूसस्स सीनालीसाए जोमणसहस्से हिं| रुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेहप्रछस्मउदए जोभणेहिं तेत्तीसाए सद्विभागेहिं जोमणस्स सहि
स्तावात प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य रष्टिपथप्रामता, ममागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहिं चुलिमाभागेहिं सरिए च
प्रापि सप्तम्यर्थे द्वितीया, ततोऽयमर्थः-तस्या निघई
यन् २-हापयन् पयर, कोऽर्थः१-पूर्व पूर्व मण्डलमखुप्फासं हवमागच्छति, एवं खलु एतेमं उवाएणं णि
सत्कपुरुषच्छायातो बायाधमण्डलपुरुषरछाया किशि खममाणे सरिए तयाणेतरामो मंडलामो तयाखंतरं| म्यनैश्चतुरशीत्या पोजनेहीना इत्यर्थः, सर्वानमाइलसूप
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(१०६०) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
मुरमण्डल संक्रम्य चारं घरति , यश्चात्रोक्तम् ८४ योजनानि किश्चि- प्राप्ततापरिमाणे हीन स्यात् . पनच्चोत्तरोत्तरमण्डलदृष्टिप. म्यूनानि उत्तरोत्तरमण्डलसस्कपुरुषच्छायायां हीयन्ते इति थप्राप्तताचिन्ताया हानी ध्रुवम् अत एव भवराशिरिन्युज्यते, तत्स्थूलत उक्रम, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यम्-उयशी- ततो द्वितीयस्मान मण्डलादनन्तरे तृतीर्य मण्डले एष एव तियोजनानि प्रयोविंशतिश्व प्ठिभागाः योजनस्य एकस्य ध्रुवराशिरेकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पत्रिंशता भागभागैः पधिमागस्य एकषष्टिधाच्छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंश
सहितो यावान् राशिः स्यात् , तथाहि-व्यशीति2 जनानि नागाति रष्टिपथप्राप्तताविषये हानौ ध्रुवं , ततः सर्वा
चतुर्विशतिः पष्टिभागा योजनस्य सप्तदश च पष्टिभागस्य भ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीयं यन्मएडलं ततः प्रारभ्य य
सत्का एकपष्टिभागा इति तावान् द्वितीयमण्डलगताद् स्मिन् मण्डले राष्ट्रिपथप्राप्तता शामिभ्यते तत्तन्मण्डल
दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते, ततो भवति यथोकसंख्यया पत्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मएयुला
मंत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणम चतुर्थमण्डले स एव नृतीये मण्डले पकेन चतुर्थ द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्या
ध्रवराशिासप्तत्या सहितः क्रियते . चतुर्थ हि मण्डलं तृतीबत् सर्वबाह्यमण्डले द्वघशीताधिकशतेन गुणयित्वा भ्रवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते सति यद्भवति तेन ही
यमगडलापेक्षया द्वितीयम, ततः पत्रिंशद द्वाभ्यां गुणिता ना पूर्वमण्डलसत्करछिपथप्राप्तता तस्मिन् विवक्षिते म
द्विसप्ततिः स्यात् तया सहितख्यशीत्यादिको राशिः ८३६४।
११ इत्येवं स्वरूपणे जातः, अयं च तृतीयमण्डलगतात् एडले दृष्टिपथप्राप्तता शातक्या, अथ ध्यशीतियोजनादिकस्य
हटिपथप्राप्ततापरिमाणाग्छोध्यते ततो यथावस्थितं तुर्य(४)भ्रवराः कथमुपपत्तिः ?, उच्यते-सर्वाभ्यन्तरमण्डले
मराडले उपथमाप्तिमानम् , तच्ने दम् सप्तचत्वारिंशद्योदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाण सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रि. जनसहस्राणि प्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च परिभागा योजषष्टयधिक योजनानामेकविंशतिश्च पष्टिभागा योजनस्य नस्य पकस्य च पष्टिभागस्य सत्का दशैकपष्टिभागाः, ४७२६३११,पतच नयमुह गम्यं तत एकस्मिन् मुहूकषष्टि- सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया ब्राशीत्यधिभागे किमागच्छतीति चिन्तायां नब मुही पक्रपष्टयां गुण्य- कशततमे यदा हाटपथप्राप्तिजिज्ञासा तदा पत्रिंशद् धम्ते अतानि पञ्चशतान्येकोमपञ्चाशदधिकानि ५४६ तै गहते शास्यधिकशतेन गुण्यते जातानि पञ्चपष्टिशतानि हिपलब्धानि परशीतियोजनानि पञ्च पष्टिभागा योजनस्य एकस्य श्वाशधिकानि ६५५२ ततः पष्टिभागानयनार्थमेकपच्या व पष्टिभागस्यैकपष्टिधाछिन्नस्य चतुर्विंशतिर्भागाः ८६१। भागे लब्धं सप्तोत्तरं शतं पष्टिभागानां पञ्चविंशतिरपशिष्टा
इयं च सर्वाम्बम्तरे मण्डले एकस्य मुहतैकषष्टिभागस्य. पतद् प्रवराशी प्रक्षिप्यते जातं पञ्चाशीतियोजनामि एकागम्यम् , भय द्वितीयमण्डलपरिरयवृद्धभजनावल्लभ्यते दश पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः महकषष्टिमागेन तच्छोधनार्थमुपक्रम्यते, पूर्वपूर्वमण्ड- पंडकषष्टिभागाः ८५ह पत्रिंशत एवमुलावनम्तरानम्तरे मएडले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टा- त्पत्तिः-पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् मण्डलादनन्तरे ऽनन्तरे मराजुदशाष्टादश योजनानि व्ययहारतः परिपूर्णानि वर्धन्ते ,ले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागाभ्यां हीन: नतः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहर्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे
स्यात् , प्रतिमुहकपष्टिभाग चाष्टादश एकस्य मएडले मुहगतिपरिमाणचिम्तायां प्रतिमुहर्तमष्टादश- पष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागाहीयन्ते, ततः उभयमीप्रतिमुहर्तमष्टादश पष्टिभागा योजनस्य बर्द्धन्ते , प्रति- लने पदप्रिंशत् स्युः, ते चाष्टादश भागाः कलया न्यूना: मुहकवष्टिभाग चाष्टादशैकस्य पष्टिभागस्य सत्का एक- लभ्यन्ते न परिपूर्णाः परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः, पष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीयमण्डले नवमु- तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवेत् यदा इयशीस्यइतरेकेन महसकपष्टिभागेनोनैर्यावत् क्षेत्रं व्याप्यते तावति धिकशततममण्डले एकत्र पिरिडतं सत् चिस्यते तदा स्थितः सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति ततो नव मुहर्ता अएपहिरेकषष्टिभागास्ट्यन्ति , एतदपि व्यवहारत उक्वं पकपएषा गुण्यन्ते जातान्यष्टानयतिशतानि चतु-प- परमार्थतः पुनः किश्चिदधिकमपि त्रुट्यदयसेयम्, ततोऽमी
यधिकामि १८६४ , तेषां षष्टिभागानयनार्थमेकपष्टया अएपप्टिोकपष्टिभागा अपसार्यन्ते,लदासारण पश्चाऽशीभागो हियते लब्धमेकपष्टयधिकं शतं षष्टिभागानां त्रि- तिर्योजनानि नय पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागचत्वारिंशत् षष्टिभागस्य सत्का एकपष्टिभागाः १६१४३, स्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ८५61 इति जातं सर्वतत्र विशत्यधिकेन षष्टिभागशतेन लब्धे द्वे योजने अय- बाह्यमण्डलानन्तरार्वाकृतनद्वितीयमण्डलगतरष्टिपथप्राप्त-- शेषा एकत्वारिंशत् षष्टिभागाः एकस्य च षष्टिभागस्य तापारमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तर्माण सरकाखिवत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, पतश्च द्वे यजने एक- योजनानाम् एकोनचत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य चत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का-1 पष्टिभागस्य सत्काः पष्टिरेकषष्टिभागाः ३१६१६ निचत्वारिंशवेकषष्टिभागा इत्येवंरूपं प्रागुक्तात् षडशी-इत्येवं रूपाच्छोध्यते ततो यथोक्नं सर्ववाहामण्डल दृष्टितियोजनानि पश्चषष्ठिभागा योजनस्य एकस्य अप्टिभागस्य , पथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तरुचाग्रे स्वयमेव वक्ष्यति, सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्मान्छोध्यन्ते, शोधिते; तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु च तस्मिन् स्थितानि ध्यशीतियों जनानि प्रयोविंशतिः षष्टि- केचिन्मराउलेषु चतुरशीति किश्चिन्यूनानि उपरितनेषु भागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारि- मण्डलेवधिकान्यधिकतराणि उक्लपकारेणाभिवर्द्धयन्२ ताव. शदेकटिभागाः ८३१३. पतावरच सर्वाभ्यन्तरमराड- दवया यायसवबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, सत्र तु लगतराष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाद् द्वितीयमएलगतहाथ-' पञ्चाशीर्ति योजनानि साधिकानि हापयतीत्यर्थः, साधि
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सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल कम्यशौतिचतुरशीतिपञ्चाशीतियोजनानां सम्भवेऽपि सूत्रे । पढमे छम्मासे , 'एस ' मित्यादि, एप च दक्षिणायनसयञ्चतुरशीनिग्रहणं तद् देहलीप्रदीपन्यायेनोभयपार्श्ववर्ति- कन्यशीत्यधिकशतदिनरूपो राशिः प्रथमः परमासः-- म्योरुयशीतिपञ्चाशीत्योहणार्थमिति ।
यनरूपः कालविशेषः, षटसंख्याङ्काः मासाः पिण्डीभूता अथोने एव मरा उलक्षेत्र पश्चानुपूर्या सूर्यस्य
यति व्युत्पत्तेरिद समाधेयम् , अन्यथा प्रथमः पमुहुने गत्याद्याह
एमास इत्येकवचनानुपातिरिति । अथवा-पाध्यादिगणा
न्तः पाठात् स्त्रीत्याभाये अदन्तद्विगुखेऽपि न छीप्रत्ययजया णं भंते ! सूरिग सब्धवाहिरमंडलं उपसंकमित्ता
स्तेनैव तत्प्रथमं परामासम् , आपत्वात् पुंस्त्वम् एतश्च प्रचार चरइ तया णं एगमगेणं मुहुतेणं केवइअं खेतं गच्छ- थमस्य परामासमय दक्षिणायनरूपस्य पर्यवसानम, अथ ३१, गोयमा! पंच पंच जोत्रणमहस्साई तिमि अ.पंचुतरे सर्वानामगरलचारानन्तरं सूर्यो द्वितीयं परमासं प्राप्नुवन् जोयणसए पामरस य सविभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहु
गृह्णन् त्यर्थः , प्रथमे अहोरात्रे उत्तरायणस्येति गम्यम् तेणं गच्छद, तया सं इहगयस्म मणुस्सस्स एगतीसाए
बाह्यानन्तरं पश्चानुपूर्त्या द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार
नरति। जोत्रणसहस्से हिं अद्यहि अएगतीसेहिं जोश्रणसहि ती
अथात्र गत्यादिप्रश्नार्थ सूत्रमाहसाए असद्विभाएहिं जांअणस्स सूरिए चक्खुप्फास हव्व
जया णं मंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकभिमागच्छइ त्ति, एस शं पढभे छम्मासे,एस णं पढमस्स छ
ता चार चरइ तया ण एगमेगण मुद्दत्तेणं केवइग्नं खचं म्मासस्स पजपसाणे,से मूरिए दोचे छम्मासे अयमाणे प.
गच्छइ.१, गोश्रमा! पंच पंच जोपणसहस्साई तिमि भ ढमंसि अहोरतमि बाहिराणंतरं मंडलं उवसकमिचा चार
चउरुत्तरे जोअणसए सत्तायामं च सद्विभाए जोअणरस चरइ । (सू० १३३४) 'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्यबाह्य मण्डल
एगमेगणं मुहुनेणं गच्छइ, तया ण इहगयस्स मणुस्सरस मुपसकम्य चार चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियते क्षेत्रं
एगतीसाए जोअयसहस्सेहि णवहि असोलसुत्तरेहिं जोगच्छति ?, गौतम! पञ्च पञ्च योजनसहन्नाणि त्रीणि पश्चो- अणमएहिं इगुणालीसाए असट्ठिभाएहिं जोअणस्स सतराणि योजनशतानि पश्चादश षष्टिभागान योजनस्य५३०५ द्विभागं च एगसद्विधा छेत्ता सट्ठीए चुलिमाभागेहिं सू१४ पकेन महसेन गच्छति, कथमिाते चेत् १. उरूपन--
रिए चक्खुप्फास हबमागच्छइ ति, से पविसमाणे सूअस्मिन मगडले परिरयपरिमाणं तिम्रो लक्षा श्रादश सहस्रावि त्रीरिप शतानि पञ्चदशोत्तराखि ३१-३१५ सतो
| रिए दोच्चंसि अहोरसि बाहिरतच्चं मंडल उवसंकभिउस्म धागुकयुक्तिवशात पश्या मक्ते लब्धं यथाक्रमत्र माडले चा कारं चरई । (मू०-१३३४) मुहूर्तगतिपरिमाणमिति. अत्रष्टिपथपासतापरिमाणमाह- 'जया 'मित्यादि , यदा भगवन ! सूर्यः वाह्यानन्तरसदा-सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले इगतस्य मनुष्यस्ये- माननं द्वितीय मण्डलमुपसंक्रम्ब चार चगति तवा भति प्राग्वत् एकांत्रशता योजनसहनैरष्टभिश्चैकत्रिंशदधि- गवन् ! एकैफेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गम्छनि !, भगवाना. कैशेजनशतैत्रिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य ३१८३३३१ ह-गौतम ! पक्ष पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तसूर्यः शीघ्र चवु पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मराउ- राणि योजनशनानि सप्तपञ्चाशनं च षष्टिभागान् योजनस्यै. ले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहर्तममागो, दिवस- केंकन मुहूर्तेन गच्छति ५३०४६, तथाहि-अस्मिन् मण्डले स्याईन याचम्मा क्षेत्र व्याप्यते तावति स्थित उदयमानः परिरयपरिमाय त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि वे शते सूर्यः. उपलभ्यन्ते द्वादशानां च मुहूर्तानाम पद मुहूर्तास्त- सप्तनयत्यधिक योजनानाम् ३१८२९७ , ततोऽस्य पापा तो यदत्र मराजले मुहूर्तगतिपरिमा पञ्च योजनसहस्राणि भागे हृते लम्धं यथोकमत्र मण्डले मुर्तगतिप्रमाणम्, श्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि पश्चदश च पष्टिमागा यो- अत्रापि दृष्टिपथमाप्ततापरिमाणमाह-तदा रगतस्य मजनस्य ५३.५१४ तत् पद्भिर्गुण्यते, दिवसाईगुणिताया नुष्यस्येति प्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहनैः षोडशापर मुहर्नगतेदृष्टिपथप्राप्तताकरणत्वात् , ततो यथोक्त- धिकै नभिश्च योजनशतेरेकोमचत्वारिंशता च षष्टिभामत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, यद्यप्युपा- गैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमकपष्टिधा दित्त्वा तस्य म्त्यगए डल दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् पञ्चाशीतियोजनानि सकै पष्टया चूर्णिकाभागैः ३१६१६६।६। सूर्यश्वशुःमव पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः। स्पर्शमामच्छति । तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारचरति पष्ट्रिरेकषष्टिभागाः इत्येयं रायै शोधिते इनमुपपद्यते ए..| दिवसो द्वादशमुहुर्नप्रमाणो द्वाभ्यां मुहूते कषष्टिभागाभ्यारुच प्राग भाविस तथापि प्रस्तुतमण्डलस्योत्तरायणगत- मधिकः तेषां चा पट मुहूर्ताः एकेन मुहतक कष्टभागमण्डलानामयधिभूतवेनान्यमण्डलकरणनिरपेक्षतया क-- | नाभ्यधिकाम्ततः सवर्णनार्थ षडपि मुहूती पकषष्टया गुरणान्तरमकारि, इदं च सर्वाभ्यन्त रानन्तरमण्डलात पूर्वा-1 रायन्ते तत एकः पष्टिमागस्तत्राधिक प्रक्षिप्यते, तो मुपुर्या गरायमानं व्यशीत्यधिकशततमम् , प्रतिमण्डलं चा- जातानि त्रीणि शतानि सप्तपष्टयाधिकानि एकपष्टिभाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि व्यशीत्यधिकशततमस्तेमायं द-गान ३६७, ततः प्रस्तुतमले यत्परिमाणं त्रीणि क्षिणायनस्य चरमो दिवस इत्याद्यनिधातुमाह- एस | लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिक
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(१०११
अभिधानराजेन्द्रः। ११८२९७, इदं च योजनराशि अष्टया गुणयित्वा सवर्णिता अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहर्तप्रमाणश्चतुमुहर्सगतिरिति यथा व्ययहियते तथा प्रागुक्तम् , पतदेभित्रि. भिर्महकपष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्ध षट् मुहर्ता - भिः शतेः सप्तपश्यधिकैर्गुरायते जाता एकाश कोट्यो- | भ्यामेकपष्टिभागाभ्यामधिकाम्नतः सामस्त्ये नेकपष्टिभाएपहिलक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि नव शतानि नयनवत्यधिकानि | गकरणार्थ पडपि मुहर्ता एकषष्टया गुण्यन्ते गुणाय१९६८१४६EL , पतस्य एकपष्टया गुणितया षटया ३६६०, त्वा च तत्र द्वावकषष्टिभागी प्रक्षिप्येते ततो जातानि भागो हियते लब्धाम्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोड- श्रीणि शतानि अष्टपष्टयधिकानि एकपष्टिभागानाम् ३६८, शोत्तराणि ३१६१६, शेषमुद्धरति चतुर्विंशतिशतानि एको- ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयप्रमाण त्रीणि लक्षाणि श्रमवत्वारिंशदधिकानि २४३६, न चातो योजनान्याया-1 ष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके ३१८२७६ एतत् मिल ततःवष्टिभागानयमार्थमेकपष्टया भागो हिपते लब्धाः । त्रिभिः शतैः अष्टपष्टयधिकैर्मुरायते जाता एकादश कोएकोनत्यारिंशत् पष्टिभागाः ३६ एकस्य च षष्ठिभागस्य | टयः एकसप्ततिः शतसहस्राणि पविशतिः सहस्राणि सरकाः पहिरेकष्टिभागाः अथवतीय मण्डलम्-'से पथि. षट् शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ११७१२६६७२ , अस्य - समाण'इत्यादि । अथ प्रविशन्-जम्बूदीपाभिमुख चरन् कषष्टया गुणितया षष्टया ३६६० भागे लब्धानि द्वात्रिसूर्यः द्वितीयेऽहोरात्र उत्तरायणसत्के इत्यर्थः बाह्यवतीयम- शत्सहस्राणि एकोसराणि ३२००१ शेषं श्रीखि सहस्राणि एडलमुपसंक्रम्य चार चरति ।
द्वादशोत्तराखि ३०१९ तेषां षष्टिभागानयनार्थमेकपष्टया ___तदा किमित्याह
भागे हो लब्धा एकोनपञ्चाशत् षष्टिभागाः। एकस्य जया यं भंते। सरिए बाहिरतचं मंडल उवसंकमित्ता
पष्टिभागस्य सरकारयोविंशतिश्चूर्णिकाभागाःति ,
समवायाने तु त्रयस्त्रिंशत्समवाये-'जया रंग सूरिए पाहिराचारे चरह तया णं ऐगमेगण मुहत्तणं केवइ खत्तं ग
शंतरं न मंडलं वसंकमित्ता चारं चरह तथा गं इहछह, गोंप्रमा! पश्च पञ्च जोश्रणसहस्साई तिथि अ गयस्स पुरिसस्स तेतीसाए जोवणसहस्सेहिं किंचि विचउरुत्तरे जाणसए इगुणालीसं च सद्विभाए जोअणस्स | सेसूणेहिं चक्खुप्फासं हब्बमागच्छइ 'त्ति, एतद्वृत्तौ च गमेंगणं मुहुत्तेणं गच्छइ , तया णं इहगयस्स मणुयरस
इह तु पदुक्तं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्न्यूनास्तत्र सातिरेकयोएगाहिएहिं बत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं एगृणपसाए अस
जनस्यापि न्यूनसहनता विवक्षितेति सम्भाव्यते इति, प्रथा
त्रापि चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि , विभाएहिं जोमणस्स सट्ठिभागं च एगसद्विधा छेत्ता ते
एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन-शनैः शनैः तबीसीए चुस्लिाभाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमाच्छा त्तदनन्तराभ्यन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे , सूरिए तया
शन सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् नदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २
एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र द्वितीया पूर्ववत् २ मांतरामो मंडलाभो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकम
मुहर्तगतिपरिमाणे अष्टादश अष्टादश षष्टिभागान् योजमाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे नम्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किञ्चिदूनान निवर्द्धमंडले मुहतगई निवड्डमाणे निवड्रमाणे सातिरेगाई पंचा- यन्न हापयन्नित्यर्थः, पूर्वमण्डलात् अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलसीर्ति पंचासीतिं जोषणाई पुरिसच्छायं अभिवद्धमाणे स्य परिरयमधिकृत्याष्टादशयोजनहीनत्वात् , पुरुषच्छायाअभिवर्तमाणे सव्यम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ,
मित्यत्रापि द्वितीया पूर्ववत् , तनोऽयमर्थ:-पुरुपच्छायायो
दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां नवमिः पष्टिभागैः षष्टया च चूर्णिएस ण दोश्चे छम्मासे , एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स
काभागैः सातिरेकाणि-समधिकानि पञ्चाशीतिं पश्चाशीति पञ्जवसाणे , एस णं आइच्चे , संबच्छरे गस णं प्राइच्च- योजनान्यभियद्धयन्नभिवर्द्धयन् प्रथमवितीयादिषु कतिस्स संबच्छरस्स पज्जवसाणे परमते । (सू०-१३३+) पयेषु मण्डलेषु इयं वृद्धि या , सर्यमण्डलापेक्षया तु 'जया ण 'मिस्यादि , यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यतृतीयं म
येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मए डलात्परतो दृष्टिपथप्राप्तता एडलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन महसन कि- हापयन्निगतस्तेनैव क्रमेण सर्धवाह्यान्मण्डलादकतनेषु यत् क्ष गच्छति ?, भगवानाह-गौतम ! पञ्च पञ्च योज- दृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्द्धयन् प्रविशति, तत्र सर्ववाह्यमण्डमसहस्राणि श्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनच- लादकतनद्वितीयमण्डलगतान् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् भ्वारिंशतं च षधिभागान् योजनस्य ५३०४१।। एकैकन मु- सर्वबाह्ये मण्डले पञ्चाशीर्ति योजनानि नव पष्टिभागान् इर्तन गच्छति , तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमा- योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकपष्टिधाभित्त्या तस्य सत्कान् ण तिम्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधि- पष्टिभागान् हापयति , एतच्च प्रागेव भावितं तस्मात् के ३१८२७१ अस्य च पष्ट्या भागे हते लब्धं यथोक्लमत्र सर्वबाह्यादर्याकतने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तायद्योऽपि मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणम् , अथात्र दृष्टिपथप्राप्तवा-सदा दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवद्ध यति तच्च धव, ततोऽर्वाकप्रगतस्य मनुष्यस्य एकाधिकैर्वात्रिंशाता सहस्ररेको- तनेषु मण्डलषु यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथमाया ज्ञातुमिपश्चाशता च षष्टिभागैरेकं च पष्टिमागमेकपष्टिधा। ष्यते. तृतीयमण्डलादारभ्य तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशद्
वा तस्य सत्कैनयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः ३२००१ ।। गुण्यते,तद्यथा--तृतीयमा इलबिन्तायामेकेन चतुर्थमयडलHIN। सूर्यः चस्पर्शमागच्छति, तथाहि- चिन्तायां द्वाभ्याम् एवं यावत् सर्वाभ्यम्तरमण्डलचिन्तार्या
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सूरमण्डल
प्रशीत्यधि इत्थं चभ्यवद् अपनी शेषेण अशिना सहितं पूर्वपूर्वम परिमात मडले इष्टव्यम् यथा तृतीये राउले पनि गुरुते एकेन च देव भवतीति' जाता शिवसा वीजा शिषमिदं पञ्चाशीतियोंजनामि नय पष्टिभागा योजनस्य एकस्य च पष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागाः
होपतेन पूर्वमतपरिमा एकत्रिंशत् सहस्राणि नव शतानि षोडशीराणि योजमानामेकोनचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः ३२६२६ इत्येवंरूसकियते कृते व ती थपिय प्राप्ततापरिमाणं भवति तच प्रागेव प्रदर्शितं चतुर्थ मण्डगुरुपले गुन्या अपनी शे राशिना सुनील परमार्थसहितं क्रियते तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमार्ग भवति द्वात्रिंशसहस्रादिपत्यकानि योज नानामष्टपञ्चाशत् पष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सत्काः एकादशैकषष्टिभागाः ३२०८६६ । । एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयम्, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा पद्त्रिशद्धशीत्यधिकेन शतेन गुरुयते दुतीयमण्डलादार भ्य सययस्तस्य मलस्य द्वयशीत्यधि
,
ततो जातानि पश्ञ्चषष्टिः शतानि द्विपच्चाशदधिकानि ६५५२ तेषामेकप मागे हुते स सप्ततरं शतं प ष्टिभागानां शेषाः पञ्चविंशतिः । । । एतत्पञ्चाशीतियों जनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य पष्टिभागस्य सरका भाग। इत्येवंरूपा अवशे शोध्यते, जातानि पश्चाद् त्र्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागाः योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिशकषष्टिभागाः हद पिलागाः कलया यूना परमार्थ प्रदर्शितम्, तब फलया ग्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशीत्यधिकशततममण्डले एकत्र पिण्डितं सच्चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिकसभ्य ततले भूयः प्रतिजान मिदं व्यशीतियजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागाः योजमस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिमागाः ८३ । । एतेन सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यपि योजना सप्तपञ्चाशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागम्य सन्का एकोनविशतिरेकपष्टिभागाः ४७१७६ । । इत्येवंरूपसहितं क्रियते, तो यो सतर मराइले दष्टापरिमागं भवति तच्च सत्यादिषयधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य ६७२६३ एवं दृष्टिपथप्राप्तायां कतिपयेषु मण्डलेषु पञ्चाशीत २ योजना अग्रेतनेषु चतुरशीति पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि प्रयशीर्ति योजनानि अभि
"
( २०६३ ) काभिधान राजेन्द्रः ।
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सुर मण्डल पर्ययन् अभियन् गायद यो यावत् सर्वाभ्य रमण्डलमुपसंचारे पनि च सर्वाभ्यन्तरमसर्पवाह्यनन्तरात् मला पखानु गरा मानं उग्रशीत्यधिकशततमं प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि प्रयशीत्यधिकशतनमस्तेनायमुत्तरायणस्य प रमो दिवस इत्याद्यभिधानुवाद- एस से दो इम्मासे' इत्यादि पत्र द्वितीयःपानशेषो ज्ञातव्यः, एतद् द्वितीयस्य परमासस्य पर्यवसानं उपशीत्यधिकशततमाहोरात्रात् परमादित्यः संवत्स रः - श्रादित्यचारोपलक्षितः संवत्सर इति इत्यनेन नक्षत्र त्रादिसंवत्सरव्युदासः, एतच्चादित्यस्य संवत्सरस्य प
साम चरमाचरमदित्यात् इति समाहर्तगति द्वारम्, तत्सम्बन्धाच्च दृष्टिपथ वक्तव्यताऽपि । जं० ७
यक्ष० । स० ।
जंबुद्दी से दीवे अतीउत्तरं जोयवखयं भोगाचा सूरिए उत्तरकडोवगए पढमं उदयं करेइ । ( सू० ८०+ ) 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, श्रगाहित' ति-प्रविश्य उत्तरको सिउता दिशः उत्तर काष्ठोपगतः प्रथममुदयं करोति सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः । स०८० सम० ।
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3
,
अथाष्टमं दिनरात्रिवृद्धिहानिद्वारं निरूप्यते
जया गं भंते ! सूरिए सम्बन्धंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा गं केमहालय दिवसे केमहालिया स भवइ ?, गोमा ! तया गं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अड्डारस दिवसे भट्ट, जहलिया दुबाला राई भवइ, से शिक्खममाणे सूरिए एवं संवच्छरं श्रयमाणे पदमंसि अहोरतंसि अन्मंतरायंतरं मंडल उपसंकमिशा चारं चर (०- १३४ X ) ।
'जया ग' मित्यादि. यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा को महान् श्रलयोव्याप्य क्षेत्ररूपः आश्रयो यस्यामी किंमहालय :: क्रियानित्यर्थः दिवसो भवति. किंमहालया - कियती रात्रिर्भवति ?, भगवानाह - गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठां प्राप्तः- उत्तमायस्यां प्राप्तः आदिश्य सेासरसत्पष्टयधिकशतदिवसमध्ये यतो नापरः कश्चिदधिक इत्यर्थः श्रत एवोत्कर्षकः उत्कृष्ट इत्यर्थः श्रष्टादशमुहूर्त्त प्रमाणो दिवसो भवति, यत्रामा दिवसमा शेषा) अहोरात्रप्रमाणा रात्रिरिति जघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिः सर्वस्मिन् क्षेत्रे काले वा अहोरात्रस्य त्रिशन्महूसंख्याकत्वस्य नैयत्याद्, म ननु यदा भरतेऽष्टादश मुहूर्तप्रमाणो दिवसस्तदा विदेहेषु जघन्या द्वादशमहूर्तप्रमाणा गत्रिस्तर्हि द्वादशमुहर्तेभ्यः परं रावेरतिकान् पावकेन कालेन भयम् एवंभरऽपि वाच्यम्, उच्यते श्रत्र मुहूर्त्तगज्यक्षेत्र वशिष्टे सति तत्र सूर्यस्यादयमानत्वेन दिवसेनेति तच सूयादयास्तान्तरविवारयेन तम्मण्डलगतचा सुपपश्नम् श्राह - एवं सति सूर्योदयास्तमयने अनियते आपने भवतु नाम न चैतदनार्थम्, यदुक्तम्
व
"
·
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सूरमण्डल
4.
जद जह समय समए, पुरओ संचरः भक्खरो गयये । तह तह विनियमा, जायद रयणी भावस्थ ॥ १ ॥ एवं च स नराणं. उदयन्थमाई होतऽनिययाई । सह देसकालमेए. कस्सर किंची य दिस्सर नियमा ॥ २ ॥
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( १०६४ ) अभिचामराजेन्द्रः ।
केसरी जेसि ॥ ३॥ " ति । सूर्य सूर्यमस्या समयरशिया युगादी एक सूप पूर्वस्या एकश्वो दक्षिणापरस्यां द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां विश्व उत्तरपूर्वस्यामित्युकं तद मूलोदयापेक्षया इति बोध्यम् श्रयं च सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्वपश्रस्य चरम दिवस इति वा सममाइत्यादि प्रथम नवर मयमानः--प्रापद्यादान इत्यर्थः प्रथमे अहोरात्रभ्य तरानन्तरे द्वितीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति इति । अथ दिनविवृद्वयपवृद्ध घर्थमाह-
,
जया गं भंते ! सूरिए अब्भंतरातरं भंडलं 'उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा सं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भव है, गोमा तथा अद्वारसमुने दिवसे भ इ. दोहिं एट्टिभागमुहुतेहिं ऊणे दुवालसमुहुना राई भवर दोहि अ एट्टिभागमुचेहिं हि नि से खि
मारिए दोसि मोरनंसि •जाब चारं च तय गं महालय दिवसे केमहालिया राई भवद १, गोयमाता से अट्ठारह दिवसे भवइ चदि एमविभाग उसे दुवालसमुराई भवइ चहिं एसहभाग अदिति एवं खलु एए उदाए निक्समा सूरिए तयातरा मंडलाओ तपातरं मं डलं कममा दो दो एगडिभागहुमेहिं मंडले दिवसतस्स निव्बुद्धेमा २ स्यणिखित्तस्स अभिवद्धेमाणे २ सव्यबाहिरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइति । (मू० १३४४)
जया समित्यादि यदा भगवन् ! सूर्यः श्रभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा भगवन् ! मालपत्रमा दिवसः किम रात्रिः । भगवानमीम! सदा घटा सो द्वाभ्यां मुष्टियानो दिव सूत्रे प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः, द्वादशमुहूर्तप्रमाणा द्वाहमामाभ्यामधिका गोपपि
"
अदददरमु हर्त्ताः ते च मण्डलानां व्यशीत्यधिकशतेन वर्द्धन्ते चापवईनिधिपदवर्द्धन्ते तदा मन किं वर्द्धते चापवर्द्धते ?, स्थापना यथा-१८६१ अत्रान्त्यगशिना एकफसक्षसेन मध्यराति पदको गुरुप गुणिनेच एकेन गुणितं तदेव भवती 'ति षडेव स्थितास्ते चादिराशिना भज्यन्ते श्रपवाद् भागं न प्रयच्छन्तीति भाग्यमाजरा श्योखिलेगा फायो जात उप
·
9
सूरमण्डल गशिविकरूपः अधस्तन एकषष्टिरूपः श्रागतं द्वायेष्टिमांगी मुहर्तस्य श्रतो दिवसे वर्द्धते -- रात्रीच बर्द्धते इति एवमग्रेऽपि करण्भावना कार्या । श्रथातनमण्डलगते दिनगत्रवृद्धिहानी पृच्छवाह - 'से खिममा' इत्यादि अथ मिष्क्रामन्र सूर्यो दक्षिणायनसत्के द्वितीये अहोरात्रे अत्र यावच्छब्दात् 'श्रमंतरत मंडप इति ज्ञेयम् सर्वाभ्यन्तरमापारं चरति तदा किं माणो दिवसः किमाणा रात्रिर्भवति ? गौतम! तदा श्रादशमुहूर्त्त प्रमाणो द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्याम् द्वाप्रस्तुत भावभवति
,
•
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·
भिर्महाभागैरधिका रात्रिर्भवति, उक्रातिरिकमण्डलेप्यतिदेशमाह-' एवं खलु एषण' मित्यादि एवं मण्डदर्शिता निश्चितमेतेनोपाये न म दिवसरात्र सम्पष्टि दारूपे निष्काम-दक्षि
गन्मात महक
षष्टिभागावेकैकस्मिन् मण्डले दिवसक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् निवर्जयन्- हापयन् २ रजनिक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्द्धयन् २, कोऽर्थः ? - मुहर्तेक षष्टिभागद्वयगम्यं क्षेत्रं दिवसक्षेत्रे हापयन् तावदेव रजनिक्षेत्रे श्रभिवर्द्धयन्निति सर्वबाह्यमण्डल - मुपसंक्रम्य चारं चरति, प्रतिमण्डलं भागद्वयहा निवृद्धी उक्ले । जं० ७ यक्ष० ।
उत्तरायणनियट्टे गरिए पढमाओ भंडलाओ एगूणचतालीमइमे मंडले अहर्त्तारं एगसडिभाए दिवसक्खे तस्स निवृत परिस अभिनिता से चारं चर एवं दक्शिणायण नियट्टे वि । ( सू० ७८ x)
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'सू
-
उत्तरापति- उत्तरा उत्तर दिग्ामना' निवृत्तः उत्तरायणनिवृत्तः प्रारब्ध दक्षिणायन इत्यर्थः रिप' ति श्रादित्यः 'पढमाओ मंडलाओ' ति दक्षिणां दिशं गच्छतो खेर्यत्प्रथमं तस्मात् न तु सर्वाभ्यन्तर सूर्यमार्गात् 'नालीसमेत एकोनाशनमे मण्डले दक्षिणायनप्रथममण्डलापेक्षया सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे हरिं ' ति अष्टसप्ततिः ' एगसट्टिभाए ' समुहसंस्थेकसि-दिवसल सस्य क्षेत्रस्य दिवस' मन पपित्वेत्यर्थः तथा 'रयगिखेत्तस्स' कि रजन्या एव ' थमिनिबुद्धेत्त' मि- अभिनिवड ः वर्जयित्वेत्यर्थः, 'चारं पतिपतीत्यर्थः भावार्थोऽस्य
जयदेनी
सर्वान्तरमहलयसक्रम्य चारं चरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि पट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यन्यो ऽन्यमन्तरं कृत्याचारजम्बूदाय मगड भवति हि दर्द ते यथोकमन्तरं भवतीति तथा तत्र तयोश्वरतोरुत्कृष्टोदो भवति यया त रात्रभवति, ततोऽभ्यन्तर मण्डलानिष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्र
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(१०६५) सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल ऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य यदा चारं चरतस्तदा पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं गई भवति, एएणं अभिलावेणं नवनवतियोंजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजन
नेयव्वं । जदा खं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्डे पढमा शतानि पञ्चत्रिंशच एकषष्टिभागा योजनस्यान्तरं कृत्वा। चारं चरतः , तदा चाष्टादशमुहूत्र्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां
श्रोसप्पिणी पडिवाइ, तदा णं उत्तरड्डे वि पढमा ओसमुहर्तस्यैकधिभागाभ्यां न्यूनः , द्वादशमुहूर्ताच रात्रिर्भव- पिशी पडिबजइ । जदा णं उत्तरड्डे पढमा प्रोमप्पिणी ति द्वाभ्यां मुहूर्त्तकपष्टिभागाभ्यामधिकेति , एवं दक्षिणाय
पडिबज्जइ तदा णं लवणसमुद्दे पुरिच्छिमपच्चत्थिमे गं नस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योऽन्यातरप्रमाणस्य पश्चभिः पञ्चभियोजनैः पञ्चत्रिंशता चैकष
नेवत्थि ओसप्पिणी २ समणाउसो! ?, हंता गोयमा ! ष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या,द्वाम्यांच मुहूर्त्तकपष्टिभागा
जाव समणाउसो ! । धायईसंडे णं भंते ! दीवे मूरिया भ्यां दिनहानी रात्रिवृद्धिश्चेति , एवं च एकोनचत्वारिंशत्त- उदीचिपादीणमुग्गच्छ जहेब जंबुद्दीवस्स बत्तव्यया भ-- में मण्डले सूर्ययोरन्तरं नवनवतिः सहस्राण्यष्ट शतानि स- मिया सच्चेव धायइसंडस्स वि भाणियव्वा, नवरं इमेणं प्तपश्चाशच योजनानां प्रयोविंशतिश्चैकषभागाः, दिनन
अभिलावेणं सब्वे आलावगा भाणियव्या । जया णं माणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्ताश्चतुश्च
भंते! धायइसंडे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवति तदा णं उत्वारिंशच्चैकपष्टिभागा मुहूर्तस्य , रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां त्तरले विजया णं उत्तरड्ले वि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदसिप्तायां त्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकष्टिभागाश्चेति , राण पब्धयाणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं राती भवति? , हंता एव ' दक्षिणायणनिय? ' त्ति-यथोत्तरायणनिवृत्त एको.
गोयमा! एवं चेव० जाव राती भवति । जदाणं भंते ! नचत्वारिंशनमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान् हा पयति, वर्द्धयति च । एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान्
धायइसंडे दीवे मंदराणं पबयाणं पुरच्छिमेण दिवसे हापयति, वर्द्धयति च । केवल दक्षिणायने दिनभागान हाप- भवति तदा णं पचत्थिमेण वि, जदा णं पच्चस्थिमेण यति. रात्रिभागांश्च वर्द्धयति । इह तु दिनभागान् बर्द्धयति, वि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पब्बयाणं भवति रात्रिभागाँश्च हापयति । स० ७८ सम० । जं०।
उत्तरेणं दाहिणेणं राती भवतीति ?, हंता गोयमा! . जया ण सूरिए सव्वभंतराओ मंडलायो सव्वबाहिरं जाव भवति, एवं एएणं अभिलावेणं नेयव्यं० जाव मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सबभतरमंडलं जया णं भंते ! दाहिणड्डे पढमा ओसप्पिणी तया पखिहाय एगणं तेसीएणं राइंदिअसएणं तिमि छावडे णं उत्तरले जया णं उत्तरड्डे तया णं धायइसंडे दीवे एगसद्विभागमुहुत्तसए दिवसखेत्तस्स निव्बुद्धत्ता रयणि
मंदराणं पबयाणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं नत्थि ओसप्पिखेत्तस्स अभिवुद्धत्ता चारं चरह । (सू०-१३४+) णी०जाव ? समणाउसो! हंता गोयमा ! जाव समणाजया ण' मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मएडला
उसो!, जहा लवणसमुदस्स पत्तव्यया तहा कालोददित्यन “यम्लोये पश्चमी पशष्या" तेन सर्वाभ्यन्तरं मरातु
स्स वि भाणियव्या,नवरं कालोदस्स नामं भाभियव्यं । लमारभ्य सर्पवाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा | अम्भितरपुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधाय-मर्यादीकृत्य ततः पर- जहेव धायइसंडस्स बत्तव्वया तहेव अम्भितरपुक्खरद्धस्म स्माद् द्वितीयान्मएडलादारभ्येत्यर्थः एकेन व्यशीतेन
वि भाणियध्वा नवरं अभिलावोजाव जाणेयब्बो० जाव उयशीत्यधिकेन रात्रिमिदवानाम् अहोरात्राणां शतेन श्रीणि । षट्पष्टानि-षट्पष्टयधिकानि मुहूतैकष्टिभागशतानि दि
तया णं अभितरपुक्खरद्धे मंदराणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं बसक्षेत्रस्याभिवद्धर्थ , कोऽर्थः?-पट्पष्टयधिकत्रिशतमुहूर्ते- नेवस्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी अवट्ठिए ण तत्थ कपष्टिभागैर्यावन्मात्र क्षेत्रं गम्यते ताबमात्र क्षेत्रं हापयित्वा काले पन्नत्ते समणाउसो ! सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । इत्यर्थः, तावदेव क्षेत्र रजनिक्षेत्रस्याभिवद्धर्य चार चरति,
(मू०-१७६) भ०५ श०२ उ०।। अयमर्थः दक्षिणायनसत्कव्यशीत्यधिकमण्डलेषु प्रत्येक हीयमानभागद्वयम्य व्यशीत्यधिकशतगुणनेन षट्पष्टयधिक
तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था, त्रिशतराशिरुपपद्यत इति तावदेव रजनिक्षेत्रे वर्चते इत्यर्थः।। वन्नो ,तीसे णं चंपाए नगरीए पुम्लभ नामे चेहए होजं०७ वक्षः।
स्था वमत्रो, सामी समोसढे जाप परिसा पडिगया । लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीजच्चेव जंबुद्दीवस्स बत्तव्बया भणिया सच्चे सव्वा | रस्स जेढे अंतेवासी इंदभूती णामं अणगारे गोयमगोअपरिसिया लवणसमुद्दस्स वि भाणियव्वा, नवरं अ- त्तेणंजाब एवं वदामी-जंबूदीवे णं भंते ! दीये तूभिलाबो इमो णेयम्बो-जया ण भंते ! लवणे समुद्दे रिया उदीणपादीणमुग्गच्छ पादीणदाहिणमागच्छति, पा दाहिण दिवसे भवति तं चेवजाव तदाणं लवणे समुद्दे दीणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडीण मागच्छंति दाहिणपदी.
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सूरमण्डल
मुग्गच्छ पडी उदीरणमागच्छति पदौणउदीणं उग्गच्छ जदीचिपादीण मागच्छति ?, हंता । गोयमा ! जंबुद्दीवे
सूरिया उदीचिपाईमुग्गच्छ •जाव उदीचिपाईणमागच्छंति । (सू०१७६x)
* सूरियत्ति - द्वौ सूर्यो, जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् 'उदीलपाई ति उदगेव उदीचीनं प्रागेव प्राचीन उदीचीनं च तदुदीच्या श्रासन्नत्वात् प्राचीनम् च तत्प्राच्याः प्रत्यासन्नत्वाद् उदाचानप्राचीनं-दिगन्तरं क्षेत्र दिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगित्यर्थः ' उग्गच्छ ' त्ति उद्गत्य क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थः ' पाईणदाहिणं' ति प्राचीनदक्षिण दिगन्तरं पूर्वदक्षिणमित्यर्थः श्रागच्छति ' ति श्रागच्छतः क्रमेवास्तं यात इत्यर्थ, इह चोद्गमनमस्तमयं च द्रष्टृलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि--येषामदृश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्थानां ते तयोरुङ्गमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यौ सन्तावदृश्यौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्तीत्यनियतः षुद्र स्तमयौ । आह च
सूरमण्डल
( १०६६ ) अभिधान राजेन्द्रः । त्ता राती भवति १, हंता गोयमा ! जदा गं जंबू० जाव दुबालसमुहुत्ता राती भवति । जदा जंबूदीवे २ मंदरस्स पुरच्छिमे गं उकोसए अट्ठारस० जाव तदा गं जंबुद्दीचे दीवे पच्चत्थिमे ण वि उक्कोसए अ डारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जया णं पञ्चत्थिमें उकोसए अट्टारसमुहुते दिवसे भवति तदा गं भंते ! जंबूदीचे दीवे उत्तर० दुवालसमुहुत्ता० जाव राती भवति १, हंता गोयमा ! ० जाव भवति । जया गं भंते ! जंबू० दाहिणड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा ग उत्तरे अहारसमुहुताणंतरे दिवसे भवति जदा गं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा गं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पन्त्रयस्स पुरच्छिमपचfत्थमे णं सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राती भवति हैं, हंता गोयमा ! जदा गं जंबू० जाव राती भवति । जदा णं भंते ! जंबूदीचे दीवे पुरच्छिमे गं अ द्वारसमुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं पञ्चरिथमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति, जदा पचत्थिमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा ! ०जाव भवति । एवं एतणं कमेणं श्रोसारेय सत्तरसमुहुते दिवसे तेरसमुहुत्ता राती भवति, सत्तरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा तेरसमुहुत्ता राती, सोलसमुहुत्ते दिवसे चोदसमुहुत्ता राई, सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगचोद्दसमुहुत्ता राती, पभरसमुहुते दिवसे पन्नरसमुहुत्ता राती भवति । पन्नरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा पन्नरसमुहुत्ता राती, चोदसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राती, चोहसमुहुत्तागंतरे दिवसे सातिरेगा सोलममुहुत्ता राती तेरसमुहुते दिवसे सत्तरसमुहुत्ता राती तेरसमुहुत्ताणंतरे दि बसे सातिरेगा सतरसमुहुत्ता राती । जया गं जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे जहाए दुबालसमुहुत्ते दिवसे भवति
गं उत्तरड्ढे वि, जया गं उत्तरड्डे तया यं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे गं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा ! एवं चेत्र उच्चारयन्बं० जाव राई भवति । जया गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे गं जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया गं पच्चत्थिमे ण वि० तया गं जंबूदीचे दीवे मंदरस्स उत्तरदाहिये गं उक्कोसिया अङ्कारसमृहुत्ता सती
"जह जह समय समए, पुरश्री संचरह भक्खरो गयणे । तह तह इश्रो विनियमा, जायद रयणी य भावत्थो ॥१॥ एवं च सइ नग, उदयस्थमणाइँ होतऽनिययाई । सह देसमेऍ कस्सह, किंची ववदिस्सए नियमा ॥२॥ सहचैव य मिद्दिट्ठो, भ (रु) मुहुत्तो कमेण सध्धेसि । केसिवीदाणि पिय, विसयपमाणे रवी जेसि ॥ ३ ॥ "
इत्यादि, अनेन च सूत्रेण सूर्यस्य चतसृषु दिक्षु गतिरुक्का, ततश्च ये मन्यन्ते सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन गस्वा पुनः पूर्वसमुद्रमुदतीत्यादि तन्मतं निषिद्धमिति ।
इह च सूर्यस्य सर्वतोगमने ऽपि प्रतिनियतत्वात्तत्प्रकाशस्य रात्रदिवस विभागोऽस्तीति तं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह -
जया णं मंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे दिवसे भवति तदा उत्तरडे दिवसे भवति जदा गं उत्तरड्डे वि दिवसे भवति तदा गं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिम पच्चत्थिमेण राती भवति १, हंता गोमा ! या गं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे वि दिवसे० जाव राती भवति । जदा गं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस पव्त्रयस्स पुरच्छिमे से दिवसे भवति तदा यं पच्चत्थिमे गं पि दिवसे भवति, जया गं पच्चत्थि मे णं दिवसे भवति तदा गं जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहितया
राती भवति १, हंता गोयमा ! जदा गं जंबुद्दीवे मंदरपुरच्छिमे णं दिवसे ०जाव राती भवति, जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे उच्कोसए अट्ठारसमुहने दिवसे भवति, तदा से उत्तरंड वि उक्कोसम् अट्ठारसम्मुहुत्ते दिवसे भवति, जदा गं उत्तरद्धे उक्कोसए अट्ठारसमुहुते दिवसे भवति तदा गं जंबूदीचे दीवे मंदरस्स पुरच्छिमपचत्थिमे गं जहनिया दुवालसमुहु
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सूबमएडल
अभिधानराजेन्द्र:। भवति?, हंता गोयमा! . जाव राती भवति । मुहर्तकांष्ठभागाभ्यां दिनस्य वृद्धौ ध्यशीत्यधिकशततसे
मण्डले षड् मुहर्ता वर्द्धन्त इत्येवमष्टादशमुहत्तों दिवसो (सू० १७७)
भवति, अत एव द्वादशमुहर्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहर्त'जया ण ' मित्यादि , इह सूर्ययभायादेकदेय दिग्द्वये
त्यादहोरात्रस्य । 'अट्ठारसमुहुत्ताणतरे'त्ति यदा सर्वाभ्यन्तर. दिवस उक्तः , इह च यद्यपि दक्षिणार्धे तथोत्तराः इत्युक्तं मण्डलानन्तरे मण्डले वर्तते सूर्यस्तदा मुह तकपष्टिभागसथाऽपि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोद्धव्यम्,-अर्द्ध- द्वयहीनाष्टादशमुहतो दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहताशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् , यतो यदि दक्षिणायें उत्त- दिवसादनन्तरोऽधादशमूहुर्तानन्तरमिति व्यपदिष्टः, 'सातिरा च समग्र एव दिवसः स्यातदा कथं पूर्वेण अप- रेगा दुवालसमुहुसा राईत्ति-द्वाभ्यां मुहूर्त्तकपष्टिभागाभ्यारेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत , श्रद्धद्वयग्रहणत सः | मधिका द्वादशमुहर्मा राई भवईत्ति-रात्रिप्रमाण भयतीत्यर्यक्षेत्रस्य गृहीतत्यात् , इतश्च दक्षिणार्धादिशब्देन दक्षि- र्थः,याता भागेन दिन हीयते तावता रात्रिर्द्धते,त्रिंशन्मुहू. णादिदिग्भागमात्रमेवाबसेयं न त्वर्द्धम् श्रतो यदाऽपि दक्षि- तत्वादहोगत्रस्येति । एवं एएणं कमेण एवपित्युपसंहारे,पनेणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति तदाऽपि जम्बूद्वीपस्य | न-अनन्तरोनेन 'जया ण भंते !जबूडीवे दीवे दाहिगड्ढे इत्यबशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं म्याद्, दश- नेत्यर्थः, 'ओसारेय' त्ति-दिनमानं हस्वीकार्य, तदेव भागद्वयमानं च पूर्वपश्चिमयोः प्रत्येकं रात्रिक्षेत्र स्यात्, दर्शयति-सत्तरसे' त्यादि, तत्र सर्वाभ्यन्तरमगडलानसथाहि-पया मुहूर्तः किल सूर्यो मण्डलं पूरयति उत्कृ- स्तरमा हनादारभकत्रिंशत्तममगडलार्दै यदा सूर्यस्तदा सएदिन चाटादशभिर्मुहत रुक्तम् अष्टादश च षष्टेर्दश भाग- तदशमुहूनों दिवसो भवति, पूर्वानहानिक्रमेण त्रयोदशत्रितयरूपा भवन्ति, तथा यदाऽष्टादशमुहतों दिवसो भव- । मुहर्ता च रात्रिरिति । 'मत्तग्समुहुत्तरणतरे 'ति-मरतेति तदा रात्रिर्वादशमुहूर्ता भवति , द्वादश च षष्टेर्दशभाग- कपष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, अयं च द्वयरूपा भयन्तीति, तत्र च मेरुं प्रति नव योजनसहस्राणि द्वितीयमदारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्द्ध भवति, एवमनन्तचत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योज- रत्वमन्यत्राप्यूह्यम्-'सारेगतेरसमुहु ता राई' त्ति-मुहर्तक नस्यत्यतत्सर्वोत्कृष्टदिवसे दशभागत्रयरूपं तापक्षेत्रप्रमाणं षष्टिभागवयन सातिरेकत्वम् , एवं सर्वत्र ' सोलसमहत्ते भवति ६४८६, कथम्?, मन्दरपरिक्षेपस्य किश्चिन्यूनत्रयो- दिवसे 'त्ति-द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले पोडशमुहूविशत्युत्तरषट्शताधिकैकत्रिशद्योजनसहनमानस्य३१६-२३
तो दिवसो भवति, पन्नरसमुहुने दिवसे' ति-द्विनवदशभिर्मागे हते यल्लब्धं ३१६२११ तस्य त्रिगुणि- तितममण्डलाबें वर्तमाने सूर्ये, 'चोइसमुहुत्ते दिवसे' त्तितत्वे एतस्य भावादिति । तथा लवणसमुद्रं प्रति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले, 'तेरसमहुत दिवसे' तिचतुर्नयतियोजनानां सहस्राणि अष्टौ शतान्यष्टपटपधिकानि साढद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे मण्डले. 'यारसमुहुत्ते दिवसे' चत्वारश्च दश भागा योजनस्येत्येतदुत्कृष्ठदिने तापक्षेत्र- त्ति-व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले; सर्वबाह्य इत्यर्थः । प्रमाणं भवति ६४८६८, कथम् ? जम्बूद्वीपपरिधेः किञ्चि
कालाधिकागदिदमाहन्यूनाष्टाविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्रोपेतयोजनल
जया ण भंते जंबूदीवे दीये दाहिणारे वासाणं पढमे समए क्षत्रयमानस्य ३१६२२८ दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावादिति । जघन्यरात्रिक्षत्रप्रमाणं चाप्यव
पडिवअइ तया ण उत्तरढे वि वासाणं पढमे समए पडिमेव, नवरं परिधदेशभागो द्विगुणः कार्यः तत्राचं षड्योज- | वाइ । जया णं उत्तरड्डे वि वासाणं पढमे समए पडिवाइमानां सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षट्चद | तयाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपच्चश भागा योजनस्य ६३२४ द्वितीयं तु त्रिषष्ठिः सहस्राणि द्वे
त्थिमे णं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमे समए पश्च चत्वारिंशदधिके योजनानां शते षट् च दशभागा योज
पडिवजइ ?, हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दामस्य ६३२४५, सर्घलघी च दिवसे तापक्षेतमनन्तरोलरात्रि. अतुल्यं रात्रिक्षेत्र त्यानन्तरोक्नतापक्षत्रतुयमिति, आयामत- हिणड़े वासाणं पढमे समए पडिवाइ तह चेव जाव स्तु तापक्षेत्र जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चचत्वारिंशद्योजनानां सह- पडिवाइ। जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पनाणीति . लवणे च त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्र- व्वयस्स पुरच्छिमेण वासाणं पढमे सगए पडियजइ तवा यस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य ३३३३३. उभयमीलने त्यष्टसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि प्रयरिंशदधिका
शं पच्चस्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिवाइ, नियोजनविभागश्चेति ७८३३३३। “उक्कोसए अट्ठारसमुहुने
जया पं पच्चस्थिमेण वि वासाणं पढमे समए पडिबजइ निषस भव" ति । इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं म
। तया णं जाव मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणंदगडलशनं भवति तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डला- रपच्छाकडसमयंसि पासाणं पढमे समए पडिवो भवति', नि भवन्ति एकोनविंशत्यधिकं च तेषां शतं लवणसमुद्रस्य
हंता गोयमा! जया णं जंबूदीवे२ मंदरस्स पब्धयस्स पुरमध्य भवति, नत्र च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्तते सूर्यस्तदाऽष्टादशमुर्ती दिवसो भवति, कथम् ?, यदा सर्ववा
च्छिमे ण,एवं चेव उच्चारेयवं. जाव पडिवन्ने भवति । घमण्डले घर्ततेऽसी तदा सर्यजघन्योद्वादशमहत्तों दिवसो
एवं जहा समएण- अभिलावो भणियो वासाणं तहा भवति, ततश्च द्वितीयसरडलावारभ्य प्रतिमण्डल द्वाभ्यां प्रावलियाए वि २,भाणियब्बो, भाणापाणण वि ३.थो
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सूरमण्डल अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल वेण वि४, लवेण वि ५, मुहत्तेण वि ६, अहोरत्तेण वि स-श्रावलिका असंख्यानसमयात्मिका अानप्राणः-उनल्ला७, पक्खेण वि ८, मासेण विह, उउणा वि १०, एए
सनिःश्वासकालः स्तोकः-सप्तप्राणप्रमाणः लवस्तु-सप्तसिं सव्वेसिं जहा समयस्म अभिलावो तहा भाणियब्बो।।
स्तोकरूपः मुहर्नः-पुनर्लवसप्तसप्ततिप्रमाणः, ऋतुस्तु-मा
सद्वयमानः, - हेमंताणं' ति-शीतकालस्य ' गिम्हाण व' जया भंते ! जंबूदीवेर दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे समए पडिव
त्ति-उष्णकालस्य पढमे अयणे' त्ति-दक्षिणायनं श्रावअति जहेव वासाणं अभिलायो तहेव हेमंताण वि२०गि
णारित्वात्संवत्सरम्य भएण मिति-युग-पश्वसंवत्सरम्हाणं वि३० भाणिययोजाव उऊ,एवं एए तिमि वि ए-|
मान 'पुढचंगेण वि' ति-पूॉङ्ग चतुरशीनियर्षलक्षाणाम् एसिं तीसं आलावगा भाणियब्धा । जया भंते ! जंबू- 'पुल्येण वित्ति-पूर्व पूर्वाश्रमेव चतुरशीतिवषेलक्षेण गुदीवे दीवे मंदरम्स पब्वयस्स दाहिणड्डे पढमे अयणे पडि- णितम् . एवं चतुरशीतिवर्षलक्षगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भ. वजइ तया ण उत्तरड्डे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ, जहा
ति, चतुर्नवत्यधिकं चाशतम्तिमे स्थाने भवतीति । समएणं अभिलावो तहेव अयणेण विभाणियव्यो जा
'पढमा ओसप्पिणि' सि-अवसप्पयति भावानित्यवंशी
लाऽवसपिणी तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसर्पिणी, व अणंतरपच्छाकडसमयंसि पदम अयणे पडिबन्ने भवति,
'जस्सम्पिणि'सि-उत्सायति भावानित्येवंशीला उत्सजहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणि- पिणीति । भ०५श. १०। ययो, जुरण वि वाससएण वि वाससहस्सेश वि वासस
एतदेव पश्चानुपूर्या पृच्छतियसहस्सेण त्रि पुगेण वि पुत्रेण वि तुडियंगेण वि
जया ण भंते ! जरिए सव्ववाहिर मंडलं उपसंकमित्ता तुडिएण वि, एवं पुब्वे २ तुडिये २ अडडे २ अबवे २
चारं चरइ तया ण केमहालए दिवसे केमहालिया राई हुहुए २ उप्पले २ पउमे २ नलिणे २ अच्छणि उरे २
भवइ ? गोयमा तया ण उत्तमकपत्ता उक्कोसिया अअउए २ णउए २ पउए २ चूलिया २ सीमपहेलिया २ पलिअोवमेण वि सागरोवमेण वि भाणियब्यो । जया णं
ट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहमए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भभंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिखड्डे पढमा ओसप्पिणी
वइ त्ति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मा
सस्स पज्जवसाणे । से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासं पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्ले वि पढमा ओसप्पिणी जया
अयमासे पढममि अहोरत्तंसि चाहिराणंतरं मंडलं उवसंणं उत्तरड्डे वि पडिवज्जइ तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स
कमित्ता चारं चरह, जया ण भंते ! मूरिए बाहिराणतरं पचयस्स पुरच्छिमपच्चत्थिमेण वि, णवत्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी अवदिए णं तत्थ काले पनते ?
मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया ग केमहालए समगाउसो ! हंता गोयमा ! तं चव उच्चारेयव्यं जाव
दिवसे भवइ केमहालिया राई भवई ?, गोयमा! अट्ठासमणाउसो!, जहा अोसप्पिणीए आलावो भणिो ,
रसमुहत्ता राई भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणा एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियन्यो । (सू० १७८)
दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगमाविभागमुहुत्तेहिं 'जया ण भंते ! जंबूदीये दीवे दाहिणडू वासाणं पढमे स
अहिए, से पविसमाणे मूरिए दोच्चसि अहोरत्तंसि बामए पडिजाइ' इत्यादि, 'वासाणं' ति--चतुर्मासप्रमाण- हिरतच्च भडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ , जया वर्षाकालस्य सम्बन्धी प्रथमः-श्राद्यः समय:-क्षणः प्रतिप- णं भंते ! मरिण बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चते-संपद्यते भवतीत्यर्थः 'श्रगतरपुरक्खडे समयंसि'
चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया ति--अनस्तरो-निर्व्यवधानो दक्षिणाचे वर्षाप्रथमतापेक्षया सचातीतोऽपि स्यादत श्राह-पुरस्कृतः-पुरोवती भविष्य
राई भवइ ?, गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ नित्यर्थः, समयः-प्रतीतः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोs- चउहिं एगसद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे तस्तत्र, 'अणतरपच्छाकडसमयंसिति-पूर्वा परविदेहवर्षा- भवइ चउहिं एगसद्विभागमुमुत्तेहि अहिए, इति । एवं प्रथमस्रयापेक्षया योऽनन्तरपश्चास्कृतोऽतीतः समयस्तत्र
खलु एएणं उबाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ पक्षिणोत्तरयोर्बर्षाकालप्रथमसमयो भवतीति । ' एवं जहा
मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संक्रममाणे संकममाणे दो दो समपण 'मित्यादि, आवलिकाऽभिलापश्चैवम्-'जयाणं भंते : जब्दीघे दीवे दाहिणढे वासाणं पढमा श्रावलिया प- एगसद्विभागमुहुत्तेहिं एगमेग मंडले रयणिखेत्तस्स निबुद्धेडिखजति नया गा उत्तरदेवि , जया ण उत्तरहे घासाणं माणे २ दिवसखेत्तस्स अभिबुद्धेमाणे २ सयभंतरं मंडलं परमायलिया पश्चिमति तया णं जंबूदीये दीये मंदरस्स प
उबसंकमित्ता चार चरइ त्ति, जयाणं भंते! सूरिए सबब्धयस्स पुरछिमपावरियमेण प्रणतरपुरक्खडसमयसि यामाण पढमा प्रायलिया पविजइ? , हेता गोयमा !'
बाहिराओ मंडलामो सयभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार इत्यादि । एपमानप्राणानिपदेण्यपि, पावलिकायर्थः पुनरय- चरह तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगणं तेसिएणं
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(१०६६) सूरमण्डल ... अभिधानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल राइंदिअसएणं तिलि छावडे एगसहिभागमुहत्तसए। उत्तरपासे गं तीसे दो बाहामो अवधिप्राओ हवंति पणस्यणिखेत्तस्स णिव्वुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवत्तिा चारं यालीसं २ जोअणसहस्साई आयामेणं, दुवे अण तीसे चरह , एस मं दोच्चे छम्मासे एस णं दुचस्स छम्मासस्स बाहाम्रो अणवडिआओ हवंति,तं जहा-सयभंतरित्राचेपजधसाणे एस णं आइच्चे संबच्छरे एस णं प्राइच्चस्स | व बाहा सव्यबाहिरिया ने बाहा,तीसे णं सव्वम्भंतरिमा संवच्छरस्स पज्जवसाणे पाते । ८ । (सू०१३४+) बाहा मंदरपञ्चयंतेणं णवत्रणसहस्साई चत्तारि. छल'जया णमित्यादि,प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे गौतम ! तदा सीए जोअणसए णव य दसभाए जोअणस्स परिक्खवणं, उत्तमकाष्ठां प्राप्ता-प्रकृष्टावस्थां प्राप्ता अस एवोत्कर्षिका
एस णं भंते ! परिक्खेवविसेमे को प्राहिएति वएजा?, उत्कृष्ट , यतो नान्या प्रकर्षवती रात्रिरित्यर्थः , अष्टायशमुर्नप्रमाणा रात्रिर्भवति तदा त्रिंशन्महूर्त समयापूर्णा
गोयमा! जेणं मंदरस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं य जघन्यको द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति त्रि
गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेवशन्मुहूर्तत्यादहोगत्रस्य, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्य चरम | विसेसे पाहिएति वदेजा । तीसे णं सव्वबाहिरिश्रा बाहा इत्यादि प्रज्ञापनार्थमाह-'एस 'मित्यादि, एतच्च प्रा- लवणसमुदंतेणं चउणवई जोअणसहस्साई अदुसढे जोमगुक्लार्थम् , अथात्र द्वितीय मण्डलं पृच्छन्नाह--'जया ण' मि.
रणसए चत्तारि अ दसभाए जोश्रणस्स परिक्खेवेणं, से ण स्यादि , यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वबाह्यानन्तरं द्वितीयं मएडलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंप्रमाणो दिवसो
भंते ! परिक्खेवविससे को आहिएति वएजा १ गोयभवति, किंप्रमाणा रात्रिर्भवति? , गौतम ! अष्टादशमुहर्ता मा! जे णं जंबुद्दीवस्स परिक्खये तं परिक्खेवं तिहिं गुणेद्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामूना रात्रिर्भवति , द्वादशमुह- त्ता दसहिं छेत्ता दसभागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवनों द्वाभ्यां मुहकषष्टिभागाभ्यामधिको दिवसो भव
विमेसे पाहिएति वएजा इति । तया ण भंते ! तावरिखते ति भागयोन्यूनाधिकरयकरणयुक्तिः प्राग्यत् , अथ तृतीयम
केवइयं श्रआयामेणं परमत्ता ?, गोयमा! अद्वात्तरि जोराहुलप्रश्नायाह--‘से पविसमाणे 'नि-प्राग्यत् प्रश्नसूत्रमपि तथेय, उत्तरसूत्र गौतम ! तदा अष्टादशमुहर्मा द्वाभ्याम् पू
अणसहस्साई तिमि म तेत्तीसे जोमणमए .जोमणस्म मण्डलसत्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्याम इत्ये तिभागं च आयामेणं पसत्ते, 'मेरुस्स मज्झयारे, जाव य चं चतुर्मिः-चतुःसयाकैर्महूतेकपटिभागैरूना रात्रिर्भवति,
लवणस्स रुंदछब्भागो। तावायामो एसो, सगडुद्धीसंठिभो द्वादशमहत्तश्च तथैव चतुर्भिमहत कषष्ठिभागैरधिको विव
नियमा ॥१॥" तया णं भंते ! किंसंठिया अंधकारसो भवति , उकातिरिक्लेषु मण्डलेवतिदेशमाह--' एवं खलु इत्यादि , एवं मण्डलत्रयदर्शितरीन्या एतेनानन्तरोने
संठिई पसत्ता ?, गोयमा! उद्धीमुहकलंबुमा पुप्फसंठाणभोपायेन प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसन्कमुह कषष्टिभागद्वय- संठिया अंधकारसंठिई पमत्ता, अंतो संकुभा चाहिं विवृद्धिहानिरूपण प्रविशन् जम्बूद्वीपे मण्डलानि कुर्वन् सू
त्थडा तं चव जाब तीसे णं सबभंतरिमा बाहा मंदरपयस्तदनन्तराम्मगडलात् तदनन्तरं मण्डलं सङ्क्रामन् २द्वी द्वौ महतैकष्ठिभागी एकैकस्मिन् मण्डले रजनिक्षेत्रस्य नि
| यंतेणं छोणसहस्साई तिथि अचउवीसे जोमणसए .. वयम् र विषसक्षत्रस्य ताधाभिवयन २ सर्वाभ्यन्तरम- छच्च दसभाए जोमस्स परिक्खेवेणं ति, से णं भंते ! एडलमुपसंक्रम्य चारं चरति , अत्रापि सर्घमण्डलेषु भा- | परिक्खेवविसेसे को प्राहिएति वएआ-१, गोयमा ! गानां हानिवृद्धिसर्वाग्रं निर्दिशन्नाह-'जया ण' मिस्यादि
जेणं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिस्खेवं दोहि यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वबाह्यात् सर्वाभ्यम्सरमण्डलमुपस
गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस णं कम्य चारं चरति तदा सर्यबाह्य मण्डलं प्रणिधायमर्यादीकृत्य तदर्याक्तनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः
परिक्खेवविसेसे पाहिएति वएज्जा, तीसे णं सवबाहिएकेन उपशीयधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि पदपश्यधि- रिमा बाहा लवणसमुदंतेणं तेसढि जोमणसहस्साई कानि मुहकपष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निवद्धर्य २ दोम्मिय पणयाले जोअणसए छच्च दसभाए. जोमयस्स दिवस क्षेत्रस्य तान्येवाभियर्थ २ चारं चरति एष चाशे
परिक्खेवणं, से णं भंते ! परिक्खेवधिसैसे कमी माहिगत्र उत्तरायणस्य चरम इत्यादि निगमयन्नाह-'पसण' मित्यादि प्राम्बत् ।
एति वएज्जा ?, गोयमा ! जे ण जंबुद्दीपस्स परिक्खेवे तं . अथ नवम तापक्षेत्रद्वारम्
परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता जाच तं चेव, तया णं भंते ! अंध-'; बया ण भंते ! मूरिए सध्यभतरं मंडलं उवसंकमित्ता यारे केवइए आयामेणं पसते ?, गोयमा! अट्ठहत्तर जोचारं चरइ तया णं किंसंठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता ?, अण्णसहस्साई तिमि अ तेत्तीसे जोपणसए तिभागं च गोयमा ! उद्धीमुहकलंधुआपुप्फसंठाणसंठिा ताबखेत- आयामेणं पमत्ता । जया णं भंते ! मूरिए सवंबाहिरसंठिई पामत्ता अंतो संकुत्रा बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिया नावविला अंतो प्रकमुहसंठिा बाहिं सगडुद्धीमुहमंठिा खित्तसंठिई पाप ना ? , गोयमा ! उद्धीमुहकला
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सूरमण्डल
(२०७०) श्रभिधान राजेन्द्रः । पुष्ठासंठिया पत्ता, तं चैव सव्वं अव्यं वरं शायचं जं अथयारसंठिएर पुण्यवणि पमार्थ तं तावखिनडिए अन्यं तावखिटिई पृथ्वप मार्ग तं धयारसंठिए अति (सू० १२५ )
"जया समित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वान्यन्तरमण्डलसुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंसंस्थिता किंसस्थाना ताप क्षेत्रस्य सूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डस्य संस्थितिः - व्यवस्था प्रज्ञता ? सूर्यातपस्य किंसंस्थानमिति यावत् भगवानाह - गौतम ! ऊर्ध्वमुखम अधोमुखत्वे तस्य वक्ष्यमालाकारासम्भवात् यत् फलम्बुका मालिका पुष्पं नस ता प्रशसा मया शेवैश्च तीर्थकृद्भिः इदमेव संस्थानं विशि नहि अन्त मे सबिता राशि वस्तु ता तथा अन्तः- मेददिशि वृला अवलयाकार सर्वतो मेहमान ही या दरा भागान अभिव्याप्याश्या उपस्थितत्वात् बहिः- लवणदिशि पृथुला - मुस्कलभाये देवसंस्थान पति - पद्मासनपसिप समय ग्धस्तस्य सुखम् अप्रभागोऽई वलयाकारस्तस्यैय संस्थित संस्थानं यस्याः सा तथा वहि:- लयपदिशि शफट स्पोर्जिः प्रतीना तश्या मुर्ख यतः प्रभृति निधेतिकायाः फलानि विस्तृतं भवति तत्संस्थाना अन्तर्षडिर्मासति विस्तृत इति भावः - रेवा बोस्य समुहसडिया' पाठस्तत्र स्पस्ति कः प्रतीतस्तस्य मुखम् अभागलस्पेयातिथिस्ती संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अथास्या आयाममाहउपमित्यादि उपमन्दरस्यो - भयोः पार्श्वयोः तस्य स्थिते सूर्या व्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकभावेन े बाहे- द्वे द्वे पार्श्वे पश्थिािनिया सम नियतपरिमाणे भवतः श्रयमर्थः -- एका भरतस्थ सूर्यकृता दक्षिणपार्श्वे, द्वितीया ऐरयतस्थसूर्यकृता उत्तरपार्श्वे इति द्विकारा, सार २ योजनचखाणि श्रायामेन मध्यवर्त्तिनो मेरोरारभ्य योदेखिको तरागयोः प
,
मी प्रतीत्य यथा
:
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स्पारिंशता योजनसहित जम्बूद्वीपपर्यन्ते व्य स्थितस्यात् पूर्वापरभागयोरपि यदा तत्र सू तदाऽय भाषामो बोध्यः एतच जम्दगापाममपेदय योध्य समुद्रे तु श्रयत्रिसहस्राणि पति शानि शदधिकानि एकश्च विभागो योजनस्येति एतच्त्र एकत्र पिडाः सहस्रति योजनानां चीणि शतानि इत्यादिकं सूचयति तत्र सोपपनि निष्प तेनात्र पुनरुक्तभिया नोक्तम् । सम्प्रत्यनवस्थितया हा स्वरूपमाह--दुवे मित्यादि तस्या एकैकस्यास्तापक्षेत्र संस्थित बा अनभिः प्रतिमण्डल पथायोगं हीयमानयमानाया तथा सर्वाभ्यन्तरा सर्ववाला देवशब्दी प्रत्येकमनय स्थितभावार्थी तत्र या मेरुपार्श्वे विष्कम्भमधिकृस्य बाह्रा सा सर्वाभ्यन्तरा या तु लवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यस्तमधिकृत्य वादा सा सर्वबाधा, छायामश्च दक्षिणोत
च
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3
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प्रतियति सर्वाभ्यन्तरा परिमाणं निर्दिशनि- 'तीसे ण' मित्यादि नया क्षेत्रस्थितः सर्वाभ्यन्तर दशा मे
रिसमी योजना बारजनशतानि नय दश भागान् योजनस्य परिक्षेपण, अत्रोपपस्यर्थ प्रश्रमाह--' एस ' मित्यादि एषः-- अनन्त. रोप्रमाणः परिचेपविशेषो मन्द परियपरिशेषः कुतः करमात् मायातो न ऊनो अधिको वा इति यदेत् ? भगवानाह - गौतम ! यो मन्दरस्य परिक्षेपस्तं विभिदशभिशासनभिज्
सूरमण्डल
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दश इयमाने सति
प
पविशेष आवयात इति यदेत् स्वशिष्येभ्यः । अयमर्थमेणाप्रतिमानः सूर्यातपोध रिशिष्य स्थित इति मेदसमीपेऽन्तरनापदिकमचिन्तायं सति स योनिमाधिस इस्पोजमानः सर्वोऽपि मेहपरिधिरस्य तापस्य दि माइति नरे
*
"
मानः सूर्योदीतलेश्या कश्या जम्बूद्वीप क्रयालस्य यत्र तत्र प्रतपाल क्षेत्रानुसारेण सभागार का शयति दशभागानां त्रयाणां मीलने यावत् प्रमाणं शेता यर्थः परिकरणं किमर्थम् दशनागानां विधा गुनास्यात्सत्यं दि या सुधा भगवती भरियादा दशभागलब्धं त्रिगुणं चक्रुरिति अथ दशभिर्भागे को हेतुरिति चेत् उच्यते जम्बूदीपयालक्षेत्रस्य त्रयो भागा मेरा प्रयतश्येयोत्तरपा हो भागी तो ही चारतः सर्वभीलने दश तत्र भरतगतः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले अन् श्रीन् भागान् दाक्षिणात्यान् प्रकाशयति नTमहान देवतगतः सदा ही गरजमी द्वौ चापरतोऽपि यथा यथा क्रमेण दाक्षिणात्य औतराहो वा सूर्यः सञ्चरति तथा तथा तयोः प्रत्येकं तापक्षेत्रम तो पते पृष्ठीयते एवं मेरी तापक्षेत्रे यदेकः सूर्यः पूर्वस्यां परोगरा यते तदा पूर्वपदिशः प्रत्येकीन भागाभागी दक्षिणोत्तर प्रत्येकं रजनीति अथ गतिकर्मविधानं तत्र मेव्यासः १०००० एषां वर्गों दश कोट्यः १०००००००० सनो भने जातं फोटिशतम् १००००००००० अप वर्गमूलानयने सम्वात्रिंशद्योअन सिपा प्रयोविंशत्यधिकानि ३२६२३ पप राशिभिर्गुजातानि चतुवतिः सहस्राणि अटी शताम्येकोनससत्यधिकानि ४८६मान नययोजना - त्यारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च शभागा योजनस्य । अथ सर्पवाह्यवाद मित्यादि तस्या:--तापक्षेत्र संस्थितः समुद्रस्यास मीपे चतुर्नयतिः योजनसहस्राणि श्रष्टौ च षष्ट्यधिकानि योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्थ परिक्षेत्रेण । अत्रोपपादकसूत्रमाह से मंते ! परिइत्यादि स भदन्त परिक्षेपवि इति स
स्र
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सूरमण्डल
चाख्यात इति गौतमो वदेद् वदति | भगवानाह - गौतम ! यो जम्बूद्रीपपरिक्षेपस्तं परिक्षेषं त्रिभिर्गुत्वा दशभिशिवा दशभिर्विभज्य इदमेव पर्यायेादशभिर्मागे हिमाले एष परिशेषविशेष आस्पातो मयाऽधरिति देव स्वशिष्येभ्यः इदमुपप परमधिष्ठ प्रतिपादयिषतः सच जम्मूरिधिः स्थाप्यः, योजन ३९६२२७क्रोश ३धनूंषि १२६ अङ्गुलानि १३] योजनमेकं किचिनमिति हारतः पूयते सांगतो निरंशराशेर्गुणिनस्प सुकरस्यात् ततो जातम् ३१६२२८
जातानि नय लक्षाणि अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि षट् शतानि चतुरशीत्यधिकानि भने सान पतियोंजन सहस्राणि शतानि धिकानि चत्वारश्च दश भागा योजनस्य, अभाषि त्रिगुणकरणारी युक्तिः प्राग्यत् सम्यन्यत्र 'रथियो उपस्थम्तर- उपवास इस पीसापाला
दि
॥१॥ अपरं प्रकाश साप मामेति बे सर्वाभ्यन्तरमरावती सू मन्दरविधि जम्बूवरूप पूर्वतो परताशीत्यधिकं शतं योजनानामवगाह्य परंपर विगाशीत्यधिकशतयोजनामा ३६०
"
( १०७१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
सरत छायामपरिमार्तिनापिबि परिसेनि एनमेवार्थ सामयेन इडपतिमेस मझवारे 'इस्पानि र मेहा सूर्यप्रकाशः प्रतिहस्पत इत्येषां मतमनेन
•
- पगाथा एवं व्यापार करो मध्ये कारो] मध्यकारमध्ये परमेश् की
अर्थः पालक्षेत्रक्षेत्र मे मध्ये हा पा यज्ञवणस्य सदस्य निर्देशस्य भावप्रधानम्याहुतायाःविस्तारस्य वद्भागः--यष्ठां भागः एनावरप्रमाण: तापलाक्षेत्रायामः मेरोराज्य पर्य वाचस्पत्यरिरायोजन तथा विस्ता योजनल तयोः पष्ठो भागलपखशद्योजन सहस्राणि श्री
वर्गदशगुणम्नामयमे जालानि ११३० परिधितः ३६२२७ रूपात् शोच्यते ततः स्थितम् ३१५०८६. अस्य दशभिर्भागे भागतम् ३१५०८ अवशिष्टभाणि योजनशतानि त्रयत्रिरायोजनानि पको योजनविभाअनयोरंशच्छेदयोः प्रभिर्गुणने जातम् अंधाकरागुणमेस
२२६
सूक्ष्मेनिस्वमस्मेि तमिति भाग्यम्, श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृत सूर्य मण्डलविचारेऽस्य विचार प्रस्तुते पापमानिस यसमा न परिधिनः परतो लवणोदवड्भागं यस्यत् प्राप्यमाणे तापक्षेत्रे तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण तत्र विष्कम्भसम्भवात् परमविस्तव कथनीय इति-निरस्तम् अयमेव चयनि सहस्रपञ्चादियोजनादिको राशिब
ग इति रूपः तत उभमीलने यथोक्तप्रमाणः एवं निमात् कोडि (ख) को (विस्थानः पहिस्तृित इति अथ सूर्यइति मर्त तेषामथरवायेगाथा सत्य चैव्यामोहरा पायबलवन्तापभागः एतेन मन्दरार्द्ध सत्कपयोजन स दस्राणि पूर्वराशी प्रक्षिप्यते जायते च शीतिसहस्र जनानि पीति योजनाधिकानि एकअयो जनत्रिभाग ८३३३३ अनेन मन्दरगत कन्दरादीनाम व्यन्तः प्रकाशः स्यादिति लभ्यते यस्यस्मिन् दयाख्याने श्रीमलयगिरिपादैः सूर्य" सम्भावन या क्षेत्रायामपरिमाणमन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये क्षेत्र पञ्चचत्वारिंयोजन सपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो हिर्निष्क्रामति तथा तत्प्रतिवद्धं तापक्षेत्रमपि ततो यदा सूर्यः सर्ववामरालमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वधा मन्दरसमीपे प्रकाशो न प्राप्नोति अथ च तपि तत्र म
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तस्मा
मः करणसंघादिस्थात्, तथाहि - स्वस्वमण्डल परिधिः पया भक्को मुहूर्त गतिं प्रयच्छति सा च दिवसार्द्धगतमुहूर्त राशिना गुणिना चक्षु स्पर्श सा बोदयतः सूर्यस्था प्रतो यावानस्तमयनश्च पृष्ठतोऽपि तावानिति द्विगुणितः सन्तापक्षेत्रं भवति एतच्च चतु स्पर्शद्वारे सुक्क निपितमस्ति । इदं च तापशेषकर सर्वषाह्यमसर दरपरिषपरिक्षेपण विशेष परिमामयते, । सापवाद्यवाहानिरूपये विभाषयिष्यत इति नाथोदा हियते यदुकं चेत् दशभागान् प्रकाशयति इति तत्र भागः परमु १ सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चरति सूर्ये दिवसोऽष्टादशमुहूर्तमानः नवमुहूर्ताक्रमणीये च क्षेत्रे स्थितः सूर्यो दृश्यो भवति, तत एतात्प्रमाणं सूर्यात् प्राक् तापक्षेत्रं तावन्न परतोऽपि इत्थं चाष्टादशमुहूर्ताक्रमणीय क्षेत्र प्रमाणमेकस्य सूर्यस्य ता पक्षेत्र, तच्च किल दशभागत्रयात्मकं ततो भवत्येकस्मि
पादलिप्तसूरियाख्यानमभ्युपगन्तव्यमि " त्युक्तं, तत्र तत्र भवत्पादान गम्भीरमा विद्याह्यममास्तापक्षेमस्वस्थ प्रतिपादना उका सर्वाभ्यन्तरे मद्रले नापवेथितिः सम्यति प्रका शपृष्ठलप्रत्वेन तद्विपर्यभूतत्वेन च सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽकारस्थिति पृतिमन्तेइत्यादि दा-सर्याभ्यन्तरमण्डलचरएकाले फातिदिने किसंस्थाना अधकारस्थिति
यद्यपि प्रकाशव
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सूरमण्डल
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न दशमागे परामुहीतेति । सम्पति सामस्त्यनापामतस्तापक्षेत्र पर पराता 'मित्यादि यदा भगवन् ! एतावांस्तापक्षेत्र परमविष्कम्भ इति गम्यं तदा भगवंस्तापक्षेत्रं सामस्त्येन दक्षिणोतरायततया कियदायामेन मशतम् ? भगवानाह - गौतम अनि योजन नहस्राणि त्रीणि च प्रयदिचिकन योजनशतानि योजनस्यैकस्य त्रिभाग व यायदायामन पक्ष पञ्चबन्धारियो जनसहस्राणि पतानियोजन योजनशतानि - पत्रिका उपरि च योजनविभागाने ल मतानिने मागम्य पक्षियो
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सूरमण्डल अभिवानराजेन्द्रः।
सूरमण्डल मसोः सहावस्थायित्वविरोधात् समानकालीनत्वासंभवः ६८ इत्यरूपं प्रमाण तदन्धकारसंस्थितेनेंतव्यं द्वीपपरितथापि अवशिष्टेषु चतुर्पु जम्बूद्वीपचक्रचालदशभागेषु स- धिदशभागसत्कभागत्रयप्रमाणत्वात्, यद तापक्षेत्रस्याम्भायनया पृच्छत प्राशयान्नोक्नविरोधः, ननु आलोकामा त्वं तमसश्चानल्पत्वं तत्र मन्दलेश्याकत्वं हेतुरिति, एवं सर्वाबरूपस्य तमसः संस्थानासंभवेम कुतस्तत्पृच्छौचितीमच- भ्यन्तरमण्डलेऽभ्यन्तरबाहविष्कम्भे यसापक्षेत्रपरिमाणम्नि, उच्यते-नील शीतं बहलं तम. इत्यादिपुद्गलधर्मा- १४८ इत्येवंरूपं तदत्रान्धकारसंस्थितेयं यच्च तत्रैव वि. णामभ्रान्तसार्वजनीनव्यवहारसिद्धत्वेनास्य पौगलिकत्वे सि. कम्भेऽन्धकारसस्थिते.६३२४६ इत्येवं तापक्षेत्रस्यात्र मन्त. द्ध संस्थानस्यापि सिद्धेः, यथा चास्य पौद्गलिकत्वं तथा- व्यम् ,ननु इदं सर्वबाह्यमण्डलसत्कतापक्षेत्रप्ररूपणं,यदि तन्मऽन्यत्र पूर्याचायः सुचर्चितत्वान्नात्र विस्तरभिया चर्च्यते एडलपरिधौ ३१८३१५ रूपेषष्टिभक्ते लब्धा ५३०५ रूपा मुहूर्त इति , ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता अन्धकार- गतिः तदा च सर्वजघन्यो दिवसो द्वादशमुहूर्त प्रमाणोऽतो संस्थितिः प्रसप्ता, अन्तः संकुचिता बहिबिस्तृतेत्यादि द्वादशभिः सा गुण्यते तथा च कृते ६३६६३ इत्येवरूपो राशिः तदेव-तापक्षेत्रसंस्थित्यधिकारोक्कमेव ग्राह्य, कियत्पर्यन्त
स्यात् . यदि योलपरिधिद्विगुणितो दशभिर्भज्यते तदपरमेमित्याह-यावत्तस्या:-अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्नरि
बराशिद्धिधाकरणरीतिलब्धस्तरिकमेतस्मात् सूत्रोकराशि
विभिद्यते ?, उच्यते-सूत्रकारेण द्वीपपरि ध्यपेक्षयैव करणरी. का बाहा मन्दरपर्वतान्ते षड् योजनसहस्राणि त्रीणि चतुर्चि
तेर्दयमानत्वान्नात्र दोषः , अभ्यन्तरमण्डले परिधिर्यथा न शत्यधिकानि योजनशतानि पद च दशभागाम् योजनस्य
न्यूनीक्रियते तथा बाह्यमण्डले नाधिकीक्रियते तत्र विधव परिक्षेषेण, अत्रोपपत्ति सूत्रकृववाह-'से रम' मिति , प्रश्न
हेतुरिति। सूत्रं प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे यो मेरुपरिक्षेपः स त्रयोविंशतिषट्
सम्पति सूर्याधिकारादेतत्सम्बन्धिनं दूरासन्मादिदर्शनरूपं शताधिकैकत्रिशद्योजनसहनमानस्तं परिक्षेपं द्वाभ्यां गुण
विचारं वक्तुं दशमं द्वारमाहयित्या , सोभ्यन्तरमण्डलस्थे सू तापक्षप्रसत्कानां प्रयाणा भागानामपान्तराले रजनिक्षेत्रस्य दशभागवय २ मान- जंबुद्दीचे गं भन्ते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुर्तसि दूरेभ स्यात् यशभिबिमज्य-शभिर्भागे हियमाणे एष परिक्षे- मृले अदीसति मन्झंतिमुहत्संसि मूले भरे पदीसति पविशेषे पाण्यात इनि बददेतद्भगवन् ! गौतमः स्वशिप्येभ्यः . तथाहि-३१६२३ एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि
अस्थमण मुहुत्तसि दूरे अमूले श्रदीसंति ,हंता गोयमा ! निषष्टिसहस्राणि शते षट्चत्वारिंशदधिके ६३२४६ एषां
तं चेवजाब दीसंति, जम्बुद्दीवे णं भन्ते! सूरिया उग्गवशभिभाँगे लब्धं यथोक्तं मानम् । अथ बाहमिहि--'तीसे मणमुत्तंसि अ मज्झतिभमुहुत्तंसि अस्थमणमुहुरासि ण' मियादि. तस्याः-अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाहाकाहा पू.
म सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, हंता तं चेव. जाव पंताडपरतश्च परमविष्कम्भो लवणसमुद्रान्ते त्रिषष्टि योजनसहस्राणि द्वे च पञ्चचत्वारिंशदधिके योजनशते पट च
उच्चत्तेणं , जइ णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे मरिदशभागान् योजनस्य परिक्षेपणेति,मत्रोपपत्ति सूत्रकृदेवाह- भा उम्गमण मुहुर्ससि अ मज्झं० प्रथम सम्वत्थ समा 'से ण 'मित्यादि, व्याकं, नवरं जम्बूदीपपरिक्षेपः ३१६२२८ उच्चत्तेणं, कम्हा सं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिया सं परिक्षेप प्रागुनहेतुना द्वाभ्यां गुणयित्या दशभिर्भागे
उग्गमणमुहुर्चसि दूरे भ मूले अदीसंति हन्ता!, गोयमा! हियमाणे एष परिक्षेपविशेष प्राण्यात इति धदेश .अथास्या शायस्थितबाहामाह-'तया ण' मित्यादि. सदा सर्वाभ्य
लेसापडिघाएणे उग्गमणमुहससि दूरे भ मूले भदीसति म्तरमण्डलचारफाले अन्धकारं कियवायामेन प्राप्तम् ?,
इति लेसाहितावेणं मझतिपादत्तंसि मृले अ.दरे भ गौतम ! अष्टसप्ततिं योजनसहस्राणि त्रीणि व प्रखिशव- दीसंति लेसापडिघाएणं अस्थमणमहत्तांस दूरे अ मूले अ धिकानि योजनशतानि योजनत्रिभाग चकम् अवस्थितनाप-दीसति. एवं खलु गोश्रमा!तं चेव० जाब दीसति १०। क्षेत्रसंस्थित्यायाम यायमपि बोध्यः सेम मन्बराचसरकरश्चसहस्रयोजनाम्यधिकानि मन्तव्यानि सूर्यप्रकाशाभावयति
(मू० १३६ ) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिया किं क्षेत्रे स्वत एवान्धकारप्रसरणात् ,कन्दरादौ तथा प्रत्यक्षदर्श-| ती खत्तं गच्छन्ति पडुप्पएणं खेत्तं गच्छन्ति प्रणागयं नात् .सूत्रेऽविवक्षितान्यपि व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति । खेतं गच्छन्ति ?, गोयमा ! णो ती खेत्तं गदर्शितानि । अथ पश्चानुपूर्ध्या तापक्षेत्रसंस्थितिं पृच्छति-'ज च्छन्ति पद्धप्परणं खेतं गमछन्ति णो अण्णागयं खतं पाण' मित्यादि.यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसं
गच्छन्ति ति, सं भन्ते । किं पुटुं गच्छन्ति जाव कम्य धारं चरति तदा किंस्थानसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्राप्ता,गौतम ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता प्र
नियमा छदिसिं ति, एवं ओभासेंति , तं भन्ते ! साप्ता, तदेव-अभ्यन्तरमण्डलगततापक्षेत्रसंस्थितिसत्कमेव । कि पुष्टुं श्रोभासेंति ? एवं आहारपयाई णेबाई पुट्ठोसर्षमवस्थितानवस्थितबाहादिकं नेतव्यं,नघरमिदं नानात्वं
गाढमणंतरअणुमहादिविसयाणुपुवी पजाब णिश्रमा विशेषः यदम्धकारसंस्थितेः पूर्व-सर्गभ्यन्तरमण्डलगतताप
छद्दिसि, एवं उज्जोति तवेंति पभाति ११ (सू०१३७) क्षेत्रसंस्थिनिप्रकरणे वर्णितम् ६३२४५ इत्येवरूपं प्रमाणं सत्तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाण नेतव्यं, द्वीपपरिधिदशभागस
जम्बुद्दीवे णं भन्ते! दी सूरिश्रा णे कितीते खित्ते कभागद्वयप्रमाणत्वात् ,पसापक्षेत्रसंस्थितेः पूर्ववर्णितम् । किरिश्राकज्जा पडुप्पोमणागए०? गोयमा! णो नीए
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(२०७०) सामण्डल
अभिधानराजेन्द्रः। खिते किरिया काइ, पडुप्पएणे काइ, णो अणागए,
निषेधार्थत्यान्नातीतं क्षेत्रं गच्छतः, अतीतक्रियाविषयीकसा मन्ते ! किं पुट्ठा कज्जइ १, गोश्रमा! पुट्ठाकजइ णो
ते वर्तमानक्रियाया पचासम्भवात् , प्रत्युत्पन्नं गच्छदः
वर्तमानक्रियाविषये वर्तमानक्रियायाः सम्भवात् , ना अप्रणापुटा कजह जाव णिमा छहिसिं । (सू० १३८)।
नागतम् अनागतक्रियाविषयेऽपि तदसम्भवात् ,अत्र प्रस्ताजम्बूद्वीपे भदन्त ! सूर्यो उद्गगमनमुह--उदयोपलक्षिते वाद् गतिविषयं क्षेत्र कीटक स्थादिति प्रष्टुमाहसार्ने पवमस्तमनमुहर्ते, सूत्रे यकारलोप पार्षत्वात् , दूरे 'तं भन्ते ! कि पुट्टे' इत्यादि, अत्र यावत्पदसंग्रहोऽयम्च--द्रष्ट्रस्थानापेक्षया विप्रकृष्टे मूले च द्रप्रतीत्यये
'पुटुं गच्छति.गोश्रमा ! टुं गच्छति, रणो, अपुष्टुं गच्छन्ति, तं क्षया आसन्ने दृश्यते, द्रष्टारो हि स्वरूपतः सप्तचत्वारिं- भन्ते ! किं श्रोगाढं गच्छन्ति अगोगादं गच्छन्ति ?,गोश्रमा! शता योजनसहसः समधिकर्व्यवहितमुद्गमनास्तमनयोः सूर्य प्रोगाद गच्छन्ति, णो श्रणोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते . कि पश्यन्ति, श्रासनं पुनर्मन्यन्ते, विप्रकृष्ट सन्तमपि न प्रति- अणंतरोगाढं गच्छन्ति,परंपरोगादं गच्छन्ति ?, गोश्रमाअ. पद्यन्ते, मध्यान्तिकमुहर्स इति-मध्यो--मध्यमोऽन्तो- गंतरोगाढं गच्छन्ति यो परंपरोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते। विभागो यमनस्य दिवसस्य या मध्यान्तः स यस्य मुहुर्म- कि अगुं गच्छति बायरं गच्छंति ?, गोयमा! अणुं पिगस्यास्ति स मध्यान्तिकः, स चासौ मुहूर्तश्चेति मध्यान्तिको- च्छंति बायर पि गच्छंति, ने भन्ते ! किं उद्धं गच्छति अहे मध्याह्नमुहर्स इत्यर्थः । तत्र मूले चासने देश द्रष्टुस्थाना- गच्छंति तिरियं गच्छन्ति ?, गोत्रमा ! उद्धं पि गच्छन्ति पेक्षया दूरे च-विप्रकृष्टे देशे द्रष्ट्टप्रतीत्यपेक्षया सूर्णे दृश्यते तिरिपि गच्छन्ति अहे थि गच्छन्ति, तं भन्ते ! किं आई द्रष्टा हिमध्याह्ने उदयास्तमयनदर्शनापेक्षया प्रासनं रवि
गच्छति मज्झे गच्छंति पजवसाणे गच्छति ?, गोश्रमा! यात, याजनशताष्टकनय तदाऽस्य व्यवाहतत्यात् प्राई पि गच्छति मज्झे वि गच्छति पावसाणे बिगच्छति, मन्यते पुनरूदगास्तमयनप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति, अत्र तं भन्ते ! किं सविसयं गच्छंति , अविसयं गच्छंति, सर्व काका प्रश्नोऽबसेयः। अत्र भगवानाह-तदेव यद्भ- गोत्रमा ! सविसयं गच्छति, णो अविसयं गच्छंति, तं मपताऽनन्तरमेव प्रश्नविपीकृतं तत्तथैवेत्यर्थः यायद दृश्यते
न्ते ! किं श्राणुपुब्धि गच्छति अगाणुपुर्दिय गच्छंति?, इति, अत्र चर्मशां जायमाना प्रतीतिमा शानदृशां प्रतीत्या
गोयमा ! आणुपुब्धि गच्छति णो अणाणुपुर्डिव गच्छंति, सह विसंवदत्विति संबादाय पुनौतमः पृच्छति-'जम्बूदीये
भन्ते ! कि एगदिसि गच्छति छद्दिसि गच्छंति ?, गोयमा ! णमित्यादि,जम्बूद्वीपे भदन्त !द्वीपे उद्गमनमुहूः च मध्या. नियमा छद्दिसि गच्छति 'त्ति, अत्र व्याख्या-तद् भदन्त ! मिकमुहूतेच अस्तमयनमुहूर्ते च अत्र चशब्दा वाशब्दार्थाः
क्षेत्रं किं स्पृष्ठ-सूर्यविम्बेन सह स्पर्श मागवं गच्छुतःसूर्ण सर्वत्र-उक्लकालेषु समौ उच्चत्येन, अत्रापि काकुपाठा| अतिक्रामतः उताऽस्पृष्टम्, अत्र पृच्छुकस्यायमाशय:-गश्यत् प्रश्नावगतिः, भगवानाह-तदेव यद्भवता मां प्रति पृष्टं मानं हि क्षेत्रं किश्चित् स्पृष्टमतिक्रम्बते यथाउपवरकक्षत्र याय दुच्चत्वेनेति, सर्वत्र-उद्गमनमुहर्तादिपु समौ समय- किंचिच्चाउम्पृहुं यथा देहली क्षेत्रमतोऽत्र कः प्रकार इति, बधानाखुन्नत्येन समभूतलापेक्षयाऽष्टौ योजनशतानीति- भगवानाह-स्पृष्टम् गच्छतः नास्पृष्टम ,अत्र सूर्यबिम्बेन सह कन्या, न हि सती जनप्रतीति वयमपलपाम इति भगवदु- स्पर्शनं सूर्यबिम्बायगाहक्षेत्राद्वहिरपि सम्भवति स्पर्शनाया कमेबानुबदनत्र विप्रतिपत्तिबीज प्रष्टुमाह-'जहण' मि- अवगाहनातोऽधिकयिपयन्यात् ,ततः प्रश्नयति-तबदन्त ! स्यादि, प्रश्नसूत्रं स्पष्टम् . उत्तरसूत्रे गौसम ! लेश्यायाः- स्पृष्ठं क्षेत्रम् अवगाढं--सूर्यविम्बेनाश्रयीकृतम्-अधिष्ठितमि. सूयमण्डलगनतेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्यादुद्गप्रनदेशस्य त- त्यर्थः उतानयगादं तेनानाश्रयीकृतं; नाधिष्ठितमित्यर्थः, मदपसरणेनेत्यर्थः उद्भगमनमुहूसे दूरे च मूले च दृश्यते. लेश्या- गवानाह-गौतम ! अयगाढं क्षेत्रं गच्छतः नानवगाढम् , प्रतियाते हि सुखदृश्यत्वेन स्वभावेन दूरस्थोऽपि सूर्य ग्रा- श्राश्रितस्यैव स्यजनयोगात् , अथ यद्दन्न! अवगादतसम्रप्रतीति जनयति, एवमस्तमयन मुहतऽपि व्याख्येयम् , दनन्तराचगाढम्-अव्यवधानेनाधयीकृतम् , उत परम्पराधइयोः समागमकत्वात् , मध्याग्तिकमुतु लेश्याया अभि- गाढं-व्यवधानेनाश्रयीकृतं ?, भगवानाह-गौनम! अमत. सापेन-प्रतापेन सर्वतस्तेजःप्रतापेनेत्यर्थः, मूले च दूर च राबगार्टन पुनः परम्परावगादम् . किमुक्तं भवति?-यस्मिरश्येते. मध्याह्ने ह्यासन्नोऽपि सूर्यस्तीवतेजसा दुर्दर्शत्वेन आकाशवराडे यो मण्डलायययोऽव्यवधानेनायगाढ स
प्रतीति जनयति एयमेबासनत्येन दीप्तलेश्याकत्वं दिन- मण्डलावयवस्तमेयाकाशखराडं गच्छति न पुनरपरमरमविधादयो नाचा दूरगतत्येन मन्दलेश्याकर दिनहा- लावयवावगाढं नस्य व्यवहितत्वेन परम्पंगवगाढस्यात् निशीतादयश्च याच्याः, उद्गमनास्तमयनादीनि च ज्योति- तच्चाल्पमनरूपमपि स्यादिल्याह-तद्भदन्त ! अणुं गच्छनः काणां गतिप्रवृत्ततया जायन्ते इति । तेषां गमनप्रश्नायैका- बादरं वा ?. गौतम ! अण्यपि सबोभ्यन्तरमण्डल क्षेत्राणेपशं द्वारमाह-'जम्बुहीये ग' मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! क्षया बादरमपि सर्वबाह्य पण्डलक्षेत्रापेक्षया. तत्सच्चक्रयाजीपे सूची किमतीतं-गतिथिवीकृतं क्षेत्रं गच्छतः-- लक्षेत्रानुसारेण गमनसम्भवात् , गमनं च अधिस्तितिकामतः उत प्रत्युत्पन्न-वर्तमानं गतिविषयीक्रियमाणं यग्मतित्रयेऽपि सम्भवेदिति प्रश्नयति-तद्भदन्त ! क्षेत्रमूउत अनागतं गतिविषधीकरिष्यमाणम्, एतेन इह च यदा- मधस्तिर्यग्या गच्छतः १, गौतम! ऊधमपि तिर्यगच्यकाशरूपडं सूर्यःसतेचसा व्यामेति तत्क्षेत्रमुच्यते तेना- धोऽपि. ऊवधिस्तियक्त्यं च योजनेकपष्टिमागरूपबतुर्यिक्यातीनेत्यादिव्यवहारविषयत्वं नोपपद्यते अनादिनिधन- शतिभागप्रमाणोत्सेधापेक्षया द्रष्टव्यम् ,अन्यथा 'जाच निस्यादिति शास्ता । भगवाबाह-गौतम ! नोशब्दस्य , यमा छरिसि'इति चरमसूत्रेण सह विरोधः स्यात्, खंच
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सुरमरहल
वाक्यानं प्रज्ञापनोपादानमा
हारपदगतोऽस्तिविषयक निर्वाचनसूत्रव्याख्यानुसारेण कुममिति बोगमा सामायित्वात् त्रिकालनिर्वर्तनीया स्यादित्यादिमध्यादिपश्नः सकि माटो गच्छतः किं मध्ये उत पर्यवसाने वा ? भगवानाह - गौतम ! षष्टमुहुर्तप्रमाणस्य मण्डलसंक्रमकालस्यादावपि मपि पर्यवसानेऽपि वा गच्छतः उक्तप्रकारत्रयेण मण्डलकालसमापनात्, अथ तद्भदन्त ! स्वविषय- स्वोचितं क्षेत्रं गतः उत अविषयं वा स्वानुचितमित्यर्थः गौतम ! स्वविषयं स्पृष्टावगाढनिरन्तरावगाढस्वरूपं गच्छतः न श्रविषयम्-अस्पृष्टानवगाढ़परम्परा वगाढक्षेत्राणां गमनायोग्यत्वात्, तद्भदन्त ! आनुपूर्व्या - क्रमेण यथासन्नं गच्छतः उत - मानुपूर्य - क्रमेणानामन्नमित्यर्थः सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे free! अनुगच्छतः न अनानुपूर्या व्यवस्थाहानेः, प्रागुक्तमेव त्रिप्रनं व्यक्त्या आह-तद्भदन्त ! किमेकदिविषयकं क्षेत्रं गच्छतः यावत् दिग्विषयकम् ?, गौतम ! नियमात् पविशतिदि उदितः सन् स्फुटमेव गच्छन् दृश्यते. ऊर्ध्वाधोदिग्गमनं च यथोपपद्यसे तथा प्रदर्शितम् सत्येतदेशेनावभासनादिसूत्राएग्राह एवं श्रोभासेति' इत्यादि, 'एव' मिति-गमनसूत्रप्रकारेण अवभासवतः षडुद्योतयतः वचा स्थूरतरमेव दश्यते तमेव प्रकारमीषदर्शयति-तद्भदन्त क्षेत्रं स्पृएंसूर्यतेजसा व्याप्तम् अवभासयतः उताम्पृष्टम् ?, भगवानाह - (, दीपादिभास्वरद्रव्याणां प्रभाया गृहादिस्पपृष्ममापृएम्. शेपूर्वकमेवावभासकत्वदर्शनात् एवं- स्पृष्टपदरीत्या श्राहापानिपत हारकाणि पदानि द्वाराणि नेतव्यानि तद्यथा-' पुट्ठो' इत्यादि, प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रम्, ततोऽवगाढसूत्रं ततोऽणुबादरसूत्रं तत ऊर्ध्वाधः प्रभृति सूत्रम् तत 'आई' इति उपलक्ष
दिमध्यावसानसूत्रं ततो वसू तदनन्तरमानुपूर्वीतोपदिशति सूत्रम् अत्र यथासम्भवं विपक्षसुत्रारायुपलक्षणाद् ज्ञेयानि अत्र चोर्ध्वा दिदिग्भावना सूत्रकृत् स्वयमेव वक्ष्यति। एवमुद्योतयतोप्रकाशयतः यथास्थूलमेव दृश्यते यतः अपनी तशीतं कुरुतः, यथा सूक्ष्मं पिपीलिकादि दृश्यते तथा कुरुतः, प्रभासयता प्रतितापयाविशेषतो प
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(२०७४) अभिभाराजेन्द्र
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सूक्ष्मतरं शिष्यहिताय प्रकारान्तरेण प्र अपितुं द्वादशद्वारमा 'जम्बुमित्यादि जम्बूद्वीपे भन्यो-रू क्रिया-समादिका क्रियते कर्मकर्तरि प्रयोगोऽयं तेन भवतीत्यर्थः प्रत्युत्पन्ने अनागते या ? भगवानाह - गौतम ! मोती क्षेत्रे क्रिया ते नो अनागते, व्यायानं प्राग्वत् सा क्रिया भगवन ! किं स्पृष्टा क्रियते ?, उकाश कि गौतम मा क्रप्रत्ययविधानात् तद्योगाद् या सा स्पृदा उच्यते, कोऽर्थः १सूर्यतेजसा क्षेत्रस्पर्शनेऽवभासनमुद्योतनं तापनं प्रभासनं बत्यादिका क्रिया स्यादिति अथवा स्पृश-स्पर्शना विनि पक्षमीपता व्यास्येयं न अस्पृश कपते पत्र यावत्पदात् श्रहारपनि प्रह्यागि। तत्रयं सूत्रपद्धतिः
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सूरमण्डल "से भरते कि भोगादा अलोगाडा, अंगदा असोगादा।"पि माये प्रत्ययविधानाद्यगादम् दगाहनं क्षेत्रे तेनावस्थानं तद्योगाचा सामा क्रिया, एवमनन्तरावगाढ परम्परावगाढसूत्रम् 'सा गं भन्ते! अणू किज्जह? वायरा किजह? गोश्रमा ! अवि बायरा वि' सिसा किया अवभासनादिका किम बाग या क्रियते गौतम सर्वाभ्यन्तरमराड क्षेत्राचभावनापेक्षा बादराऽपि सर्व बाह्य मण्डल क्षेत्रावभासनापेक्षया, ऊर्ध्वाधस्विभावां सुत्रकृदनन्तरमेव करिष्यति सा भन्ते कि आई कि माझे किया अवसा किज्जर ?, गोयमा ! आई पि किज्जा मज्भं वि किजर जबसा वि किज्जर 'ति गमनसूत्र इवात्राणि भावना । एवं विषयसूत्रमानुपूर्वीसूत्रं च ज्ञेयमिति ।
अथ त्रयोदशद्वारमाह
जम्मूदीचे खं भन्ते दवे सूरिया फेव खेनं उद्ध तत्रयन्ति अहे तिरियं च १, गोयमा ! एगं जो णमयं उद्धं तवयन्ति अट्ठारससयजोगाई आहे तवयन्ति सीमाली जोभणसहस्साई दोषि अ तेवढे जोश्रणसए एमबी च सट्टिभाए जो श्रणस्स तिरियं तवयन्ति ति १३ । (सू० १३६ ) । श्रतो गं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्त्रयस्स जे मंदिरअगगगगक्खततारारूवा गं भन्ते ! देवा किं उद्घोववागा कप्पोववणगा विमाणोववलगा चारोववलगा चारहिया मारहआ गमावला, गोयमा ! अंतो माणुसुतरस्य पयस्स जे पन्दिमरिच ०जाय तारारूबे ते सं देवा गो उद्देश्य को कप्पोमा विमाखोवगा चारोववगा यो चारट्ठिा। गइरह्या इसमा
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गाउमुहका पुष्कर्मठागमं डिजीसाह स्सिएहिं तावखेनेहिं साहस्पि आहिं बेउलिहिं वाहिराहि परिसाहिं महया हयणट्टगी अवाइतं तीतलतालतुडित्रघणमुगपदुप्पवाइअरवेशं दिव्बाई भोग भोगाई जमाया महया
figसीहा बोलकलकलरवेणं अच्छं पव्चयरायं पयाहिगावतमण्डलचारं मेरुं अणुपरिश्रवृति १४ । (सू० १४०)
जम्बूदी समित्यादि सूपक्रम उत्तरमीम ऊर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः स्वविमानस्योपरि योजनशतप्रमाणस्यैव तायक्षेत्रस्य भाषात् अष्टादशशतयोजनाम्यधस्तापयतः कथं ? सूर्याभ्यामप्रासु योजनशतेष्वधोगतेषु भूतलम्, तस्माच्च योजनसहरुले अधोग्रामाः स्युस्तांश्च यावलापनात् सप्तचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि इत्यादि प्रमागं क्षेत्रं तिर्यक् तापयतः, एतश्च सर्वोत्कृदिवस तुःस्पर्शापेक्षा बोध्यम् तिकथनेन पूर्वपमोरे म् उमरस्तु १८० म्यून ४५ योजनसहस्राणि याम्यतः पुनद्व १८० योजना-३३ खाग ३ शतानि
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यशदधिकनियोजनभिगतानीति अथ मनुष्यक्षेत्रयलिज्योतिष्वरूपं चतुर्दशद्वारमाह-'अंत गं भन्ते !' इत्यादि, अन्त-मध्ये भदन्त ! मानुषोत्तरस्य मनुष्ये
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सूरमण्डल
उत्तरः- अपकृत्य मनुष्याणामुत्पत्तिविपत्तिसिद्धिसम्पत्तिप्रभृतिभावात् । श्रथवा मनुष्याणामुत से--विद्यादित्यभावेन मानुषोत्तर प स्य चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतागरूपज्योतिष्काः ते भदन्त ! अभिगम्योधनं पुनब्धके अत्युच्छुकस्य भगवन्नामोचारेऽतिनमस्यात देवाः किमूपासीदियो द्वादशभ्यः क यकानुत्तरविमानेषु तत्क स्योपधाः सौधर्मादिदेवलको विमानेषु ज्योतिःसम्ब न्धिषु उपपन्नाः चारो - मण्डलगत्या परिभ्रमण तमुपपन्नाआश्रितवन्तः उत चारस्य पथोस्वरूपस्य स्थितिः समायो येषां ते चारस्थितिका; अपगतचारा इत्यर्थः, गतौ रतिःप्रीतिने तिरका अमेगनी रतिमा
साक्षाद्गतिं प्रनयति गतिसम्पन्नाः- मतियुक्ताः १, इ-गौतम ! अन्तरमानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहणगणनक्षत्रतारारूपज्योतिष्काले देया गोष्योपपन्नाः नो कल्पोपपन्नाः विमानोपचा चारोपपन्नाः जो पारस्थिति काप्रत एवं गतिरतिका गतिसमायुकाः ऊर्ध्वमुख फलम्बु कापुष्प संस्थान संस्थितैरिति प्राग्वत्, योजनसाहस्रिकैः अनेकयोजन सहस्रमागैस्तापक्षेः अत्रेत्यभावे तपा भूतैस्तैस्तैर्मेरुं परिवर्त्तन्त इति क्रियायोगः, को ऽर्थः ?- -उक्तस्थरूपाणि तापक्षेत्राणि कुर्वन्तो जम्बूद्रीपगतं मेरुं परितो भ्रमन्ति, तापक्षेत्रविशेषणं चन्द्रसूर्याणामेव नतु नक्षत्रादीनां यथासम्भवशेषस्यात् अचेतन साधार म विशेषयन्नाह - साहस्रिकाभिः - अनेक सहस्रसङ्ख्याकाकुर्विकामिविकृतिनानारूपधारीभिर्वाद्यामि:अभियोगिककर्मकारिसीमिः नव्यान
भगवानाह
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(१०७८) अभियनराजेन्द्रः ।
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स्वात् न तु तृतीयपचंद्रूपाभिः पर्षद्भः देयसमूदरूपाभिः कर्तृनाभिः माया महता प्रकारे नाहितानि नाटये गीते यादसिनेइत्यर्थ
तानि शेषं प्राग्वत्, तथा स्वभावतो गतिरतिकैः- बाह्यपर्षदमुख्य ने यी च बोलली कियेते, बोलो नाम मुझे इस्ते दवा महता शब्देन पूत्करणं, कलकलश्च-व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण महता महता- समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणा मेरुमिति योगः, किविशिष्टमित्याह श्रच्छम् अतीव- निर्मलं जाम्बूनदमयत्यात् रायडुलत्याच पजंदगावमण्डलचार' मिति सर्वादिणुविदिषु परि चन्द्र दक्षिण एवं मेदयति पस्मिनावर्णनेमण्डलपरिभ्रमण प्रदक्षिण मध्य येषां मण्डलानां तानि तथा तेषु यथा चारो भवति तथा कियामडलं पारं यथा पाया मे परियन्ते न योग्यम् अयमर्थः चन्द्रादयः सर्वेऽपि समयक्षेत्र परितः प्रदचिएमएलचा
भ्रमन्तीति ।
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अथ पश्चदशं द्वारमाह-
तेसिं भन्ते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ से कहमि - वायें पकति है, मोयमा ! ताहे चचारि पंच या सामाजि
।
सूरमण्डल आ देवा तं ठाणं उवसंपजित्ता गं विहरति ०जाव तत्थ इंदे व भवइ । इंदट्ठाणे णं मंते ! केवहां कालं उववाणं विरहिए ?, गोयमा ! जहोणं एवं समयं उपोसे इम्मासे उपवास चिरहिए बहिया से भन्ते! माणुसुतरस्स पब्ययस्स जे चंदिन जाव तारारूत्रा तं चैव अच्वं गायनं विमाणोचवणमा यो चारोदवडमा चारमा यो गइरहमा यो गइऩमावगा प agriठाणसं ठिएहिं जो असयसाइस्सिएहिं तावखितेहि सयसाह रिसआहिं बेउम्नचाहिं माहिरा परिसाहि महया हयणट्ट •जाब भुंजमाया सुहलेसा मन्दले - सा मन्दातवलेसा चित्तंतरलेसा श्रोणस मोगादाहिं
माहिं कुडाविव ठाडिया सम्बधी समन्ता से पसे श्रभासंति जोर्वेति पभावेन्ति च । तेसि खं भन्ते ! देवास जादे दे चुए से कदमियाधि पकरेन्ति जाव अहो एवं समयं उको सेयं धम्माता इति १५ । जहमेगं
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।
"
( ० १४१ )
'तेसिस 'मित्यादि, तेषां भदन्त ! ज्योतिष्कदेवानां यद्रा इन्द्रश्यते तदा ते देवा इदानीम् इन्द्रविरहकाले कथं प्रकु र्यन्ति ?, भगवानाह - गौतम ! तदा चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः संभूय एकबुद्धितया भूत्वेत्यर्थः तत्स्थानम् इन्द्रस्थानमुपसम्पद्य स्थान परिपालयति कियन्तं कालमिति चेदत आह-यावदन्यस्तत्र इन्द्रउपपन्नः-- उत्पन्नो भवति । इदानीमिन्द्रविरहकाले प्रश्नयनाह - 'इंदट्ठाणे ण' मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन इन्द्रोत्पादेन विरहितं प्रप्तम् ? भगवानाइ - गौतम ? जघन्येनैकं समयं यावत् उत्कर्षेण परमासान् यावत्ततः परमवश्यमन्यस्येन्द्रस्यासम्भवात् इति । सम्पति समक्षेत्रांत
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यहिश्रा ण 'मित्यादि, बहिस्ताद् भगवन् । मानुषोसरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रादयो देवास्ते किमूर्ध्वोपपना इत्यादि प्रश्न प्राग्वत् निर्वचन तु नोया नापि कल्योपगाः, किन्तु विमानोपपन्नाः तथा नो
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नो चारयुक्ताः, किन्तु चारस्थितिकाः, श्रत एव नो गतिरतयो नापि गतिसमापनका: पडेष्टकास्थान जनशतसाहखस्तापसेवेस्तान् प्रदेशान् प्राप त्यादिक्रियायोगः पयेष्टकासंस्थानचा यथा पवेष्टका श्रायामतो दीर्घा भवति विस्तरस्तु स्तोका चतुरस्रा न तेषामपि मनुष्य हृदिर्तिनां चन्द्रसूर्णसामानपत्राणि आयामतो ऽनेक योजनलक्षप्रमाणानि । मानुषेोत्तरपर्वतात् यो जनलक्षाद्धांतिक्रमे करविभावनोकरणानुसारेण प्रथमा कमेलिया पनि प्रथमपद्रिकाता स्तापक्षेत्रस्यायामः विस्तारक्ष, एकसूर्यादपरः सूर्यो लक्षलेजमातिक्रमे तेन लक्षयोजन प्रमाणः, इयं च भावना प्रथमपक्त्यपेक्षया बोद्धव्या. एवमग्रेऽपि भाव्यम. सलाइम्पिटि'
इयमत्र भावना
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अभिधानकाजेन्द्रः।
सूरमहावर प्रस्यादि प्राग्बत् , कथंभूता इत्याह-सुखतेश्याः, एतच्च सर्वासु दिक्षु समन्तात्-विदिनु एकाौँ वैती, · श्रोभाविशेषणं बग्द्वान् पति, तेन तेनातिशीतनेजसः मनुष्यालो- सेई स्यावि'वभासयन्तिपित्यकाशयनि यथा स्थूलतरमेव के व शीतकालादी, न एकान्ततः शीनरश्मय इत्यर्थः, वस्तु दृश्यते उयातयति-भृश प्रकाशयति यथा धूलमन्द लेश्या एतच्या सूर्याम् प्रति, तेन से नात्युष्णतेजसः मेव श्यते तपति-अपनीतशीतं करोति, यथा वा सू. मनुष्यलोके च निवाबसमये, न एकान्तत उभारश्मय धम पिपीलिकादिश्यत तथा करोति प्रभासयति--- इत्यर्थः, एतदेव ब्याचष्टे-मन्दातपलश्या:-मन्दा-नायुष्णस्व. तितापयोगाद्विशेषताऽपनीतशीत विध यथा का सूक्ष्म भावा प्रातपरूपा लेश्या-रश्मिसंघातो येबांते तया, तथा तरं बस्तु दृश्यते तथा करोतीति । एतन्त्रमेयाश्रिीच चित्रान्तरलेश्याः-चित्रमन्तरं लेश्या च येषां ते तथा. त्याह-तं भंते' त्यादितं भने ति--यत् क्षेत्रमवभासयति भावार्थवास्य चित्रमन्तरं सूर्याणां चन्द्रान्तरितत्वात् , चित्र. यद्योतयति तपति प्रभासयति च तत्-क्षेत्रं किं भदलेश्या चन्द्रमसा शीतरश्मिस्वात् सूर्याणामुगारश्मित्वात् , न! स्पृष्टमवभासयति अस्पृष्टमवभासयति १.हयाकाभिरवभासयन्तीश्याह-श्रन्योऽभ्यसमयगाढाभिः-परस्पर
पत्करणादिदं रश्यम्-'गोयमा ! पुटुं श्रोभासेई नो भसंश्लिष्टाभिलेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्ये
पुटुं, तं भंते ! भोगादं प्रोभासेइ अयोगादोभासेह ?, के लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराश्चन्द्रसूर्याणां च गौयमा! भोगाई, भोभासेइ नो अयोगादं, एवं अणंसूचीपयत्या व्यवस्थितामा परस्परमन्त पञ्चाशयोजनस- तरोगादं श्रोभासद नो परंपरोगाढं, भते !,किं भइस्राणि ततश्चन्द्रप्रभामिथाः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभामिश्राश्चन्द्र- गु श्रोभासद वायरं प्रोभासद?. मोयमा! अणु पि ओप्रभाः, पत्थं चन्द्रसूर्यप्रमाणां मिश्रीभावः। एषां स्थिरत्वं दृष्टा भासद बायर पि श्रोभासद, तं भंते ! शोभासा.तिम्वेत पोत यज-कूटानीच-पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव रियं श्रोभासद २, अहे प्रोभासइ ३१, गोयसा! उइंपिक ३ स्थानस्थिता:-सदेयकम स्थाने स्थिताः, सर्वतः-समन्तात् , संभंते ! आई श्रोभासद १, माझे प्रोभामह, अंते अोभातान प्रदेशान्-स्थस्थप्रत्यासमान् श्रवभासयन्ति उद्योतय. सइ ३१, मोयमा ! आई ओ०३. तं मंते !. सविसए प्रोन्ति तापयन्ति प्रभासयन्तीत्यादि प्राग्वत् । एपामपीन्द्रा- भासा अविसए ओभासद १. मोयमा! सथिसए, ओभाये व्यवस्था प्रनयनाद--लेसि णं भन्ते ! देवाण'
भामा नो अविसर ,सं भंते ! आणुपुब्धि योभामद मित्यादि प्राग्वत्। इति एता पश्चदशानुयोगद्वारीः सूर्यप्ररूप- प्रणाणुपुठिच श्रोभासद?, गोयमा ! मासुवि श्रोभामा णा। जं०७ वक्षः।
नो अणायुपुब्बितं भते! कह दिसि प्रोभासद?. गोयमा ! जावइयायो य खंभंते ! उवासंतराम्रो उदयंते सरिए मियमा इदिन्सि' ति। एतेषां च पदानां प्रथमोदेशकनारचरखफासं हव्यमागच्छति अत्थमंते वि यण सरिए ताव
काहारसत्रवत् व्याख्या दृश्यते । य एव 'ओभासा'
इत्यमेन मह सूत्रप्रपश्च उक्तः स एव उज्जोय ' स्यादिना तियाो चेव उवासंतरामो चक्खुप्फार्स हव्यमागच्छ-1 पदत्रयेण पाच्य इति दर्शयन्नाद्द-एवं'खोय' त्यादिना ति, हंता! गोयमा! जावइयाभो में उवासंतराश्रो स्पष्ट क्षेत्र प्रभासयनीन्युनम् । भ० १ ० ६ उ० । उदयंते सुरिए चक्खफासंब्यसागरलता
दिने दिने रधिमण्डल परायतं करोति , ताधिकमासि
| कं करोति !, मण्डलानि तु अयने अयने नियतासरिए जाव हवमागच्छति । जावइया ण भंते ! खितं |
भ्येय सन्ति, क्षेत्रमानमपि नियतमेवास्ति, तत्र केचन यदउदयं मूरिए आतावेणं सध्यमओ समंता प्रोभासेइ उज्जो- न्ति-दीयमानदिनपूर्तये मासवृद्धिरस्ति , दीयमानादिनपू. एइ तवेइ पभासह, अत्थमंते वि य णं मूरिए ताबडयं चेत्र तिकृते तु वृद्धिमहिनास्सन्ति , तथा श्रासाद मासे दुपया' खित्तं पायामेणं सध्यमो समंता भोभासेइ उज्जोएइ
अनेन मानेन श्रावणान्त्यदिने चतुरालवृद्धिर्पिलोक्यतें,
द्वितीयधायणात्यदिनेऽपि चत्वार्थवाङ्गलाम्युताष्टौ ? यदि संवेइ पभासेह, हंता गोयमा! जावतिय खेतं . जाव चत्वारि तदा किंवष्टिदिनेषु पुनः पुनः तत्रैव भ्राम्यति , पभासेइ । तं भंते ! किं पुढे प्रोभासेइ अपुढे प्रोभासेइ ?, येनाङ्गलमान ताहगवस्थ, सत्र मण्डलसातत्यं यथा भवति जाव छद्दिसि भोभासेति, एवं उओबेइ तवेइ पभासेइ
तथा प्रसाद्यमिति प्रश्नः,अत्रोत्त-म्-सूर्यसम्बन्धित्रिंशन्मा.
सेपु गतेषु चन्द्रसम्बन्धिन पत्रिंशन्मासा भवन्ति, तत्रैक•जाव नियमा छदिसि । (सू० ५.x)
त्रिंशत्तमो मासोऽभियति उच्यते , तेन सूर्यमण्डलाना 'जावयानो' इत्यादि, यत्परिमाणात् ' उयासंतराश्रो'त्ति नियतत्वेऽपि अधिकमासि पौरुष्यादिप्रमाण न किश्चिद'अवकाशान्तरात्' भाकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद्वा
नुपपन्नत्वं, विशेषजिज्ञासायां मण्डलप्रकरणं विलोकनीययावत्ययकाशान्तरे स्थित इत्यर्थः 'उदयंते' ति उदयम्
मिति ॥५८४ ॥ सेन० ३ उल्ला० । उद्गच्छन् 'चपखु'फासं'ति-चक्षुषो-दृष्टेः स्पर्श इय स्पर्शों न
सूरमग्ग-सूर्यमार्ग-पुं०। सूर्यमण्डलचारमार्गे,सू०प्र०१०पाहुन त स्पर्श एव चचुषोऽप्राप्तकारित्वादिति चक्षुःस्पर्शस्तं 'हव्य' ति शीघ्र , स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्त
सूर्यस्य मण्डलगत्या परिभ्र पसे, चं० प्र०१० पाहु । चरचारिंशतियोजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतपोनिषष्ठी
सूरमहामह-सूरमहाभद्र-पुं०। सीपस्य पश्चाषेचे, जी०३ ( ४७२६३ ) च साधिकायां वर्तमान उदये दृश्यते . अ. | प्रति० ४ श्री
प्रति०४ अधि। तसमयेऽप्येयम् , एवं प्रतिमण्डलं दर्शने विशेषोऽस्ति. सूरमलावर-सूरमहाधर पुंक। सूर्यसमुद्रस्य सूर्यचरसमुद्रस्य * च स्थानान्तरदिवसेयः, 'सव्यो मत' ति सर्वतः 5 बाळप्रिती द्रो, जी० ३ प्रति०४ाधिक।
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(१०७७) सूरमालिया
अभिधानराजेन्द्रः। सामालिया-सूर्यमालिका-स्त्रीका दीनाराघाकृतिमालायाम् , बदेजा ?, ता तीस राइंदियाई अवद्धभागं च राइंदियस्य औ०।
राइंदियग्गेणं आहितेति वदेआ, ता से ण केवतिए मुहुसूरमरीइ-मू(र)र्यमरीचि-पुं० श्रादित्यकिरणेषु, 'सूरमरीइक
त्तग्गणं माहितेति वदेजा, ता णव पसरस मुहुत्तसए चयं विणिम्मुयमाणेहिं' । प्रश्न०४ भाद्वार । 'सूरमरीइकचय' सूर्य-आदिस्यकिरणास्त एव मरीचयः सूर्यमरी
मुहुनग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एस णं अद्धा दुवालचयस्तेषां कवचमिव कवचं परिकरः परितोभावात् तं वि- मखुत्तकडा आदिचे संवच्छरे, ता से णं केवतिए राइंदिनिर्मुश्चद्भिर्विकिरद्भिः । प्रश्न० ४ अाश्रा द्वार ।
यग्गेणं आहितेति वदेजा ?, ता तिन्नि छावढे राइंदियसूरलेस्स मूरलेश्य--नाचतुर्थदेवलोकविमानभेदे,स०५सम।
सए राइंदियग्गेणं आहिय त्ति वइजा, ता से णं केवतिए मालि-मालि-वनस्पतिविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधिक महत्तग्गेणं आहिय त्ति वइज्जा, ता दस मुहत्तस्स सहसूरल्लिमंडवग सूरल्लिमण्डपक-पुं० । सूरल्लिर्वनस्पतिविशेष
स्साई णव अतीते मुहुत्तसते मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा। स्तम्मया मण्डपकाः सूरल्लिमण्डपकाः । सूरजिवनस्पतिमये ।
| (सू०७२ +) पु मण्डपकेषु, जी०३ प्रति०४ अधिक।
"ता पपसि ण' मित्यादि चतुर्थसूर्यसंवत्सरविषयं प्रश्नसरवण-सूर्यवर्ण-नाचतुर्थदेवलोकविमानभेदे, स०५ सम।
सूत्र, तच्च सुगमम् , भगयानाह-'ता तीस' मित्यादि , ता. सूरवर-सूर्यवर-पुंस्वनामख्याते द्वीपे,समुद्रे च । तत्र सूर्यवरे
इति पूर्ववत् , त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य रात्रिन्क्यिस्य द्वीपे सूयवरभद्रसूर्यवरमहाभद्रौ, सूर्यबरे समुद्रे सूर्यव- एकमपार्द्धभागम् , एकमर्द्धमित्यर्थः, एतावत्प्रमाणः सूर्यमारसूर्यमहावरी देवौ । सू० प्र०२० पाहु । जी० । चं० प्र०। सो रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इति वदेत् , तथाहि-सूर्यसरवरभद्द-सूरवरभद्र-पुं० । सूर्यवरद्वीपस्य पूर्वाधांधिपती दे. मासा युगे षष्टिस्ततो युगसत्कानामहोरात्राणां त्रिंशदधिव, जी० ३ प्रति०४ अधि०।
काष्टादश शतसंख्यानां षष्टया भागो हियते, लब्धाः सासूरवरमहाभद्द-सूरवरमहाभद्र-पुं० । सूर्यवरद्वीपस्य परार्धा- स्त्रिंशदहोरात्राः, 'ता से ण' मित्यादि, मुहर्त्तविषयं प्रधिपती देवे,जी० ३ प्रति०४ अधिक।
नसूत्रं सुगमम् , भगवानाह--'नवपरणर' इत्यादि नव मु
इतशतानि पञ्चदशाधिकानि मुहूर्तपरिमाणेनाल्यात इति सूरवरोभास-सूरवरावभास-पुं०। स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्र
घदेत् , तथाहि--सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशत् रात्रिन्दियानि च ।तत्र सूर्यवरावमासे द्वीपे सूर्यवरावभासभद्रसूर्यवरावभा
एकस्य च गत्रिन्दिवस्याई तच्च त्रिंशता गुण्यते समहाभद्रा देवौ । सूर्यवरावभाससमुद्रे सूर्यवरावभासवरसू जातानि नव शतानि, रात्रिन्दिया? च पञ्चदश मुहर्ता इति, र्यवरावभासमहावरी देवी । जी० ३ प्रति० ४ अधि० । 'ता पएसिण'मित्यादि, प्राग्बद भावनीयम् ।सू०प्र०१२पाहु। सूर्यवरावभाससमुद्रवेष्टित द्वीपे, सू० प्र०२० पाहु.।।
सूरसिंग-सूरशृङ्ग-न० । चतुर्थदेवलोकस्य स्वनामख्याते वि. सूरवरोभासभद्द-सूरवरावभासभद्र-पुं० । सूर्यवरावभासद्वी
| माने, स०५ सम। पस्य पूर्वार्धाधिपतो देवे, जी० ३ प्रति०४ अधि। सूरवरोभासमहाभद्द-सूरवरावभासमहाभद्र-पुं० । सूर्यवरा- |
सूरसिद्ध-सूरसिद्ध-न० । चतुर्थदेवलोकस्य स्वनामख्याते वि. वभासद्वीपस्य परार्धाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधिः ।
माने, स०५ सम०।
सूरसिरी-सूर्यश्री-स्त्री० । जम्बूद्वीपे सप्तमस्य चक्रवर्तिनी सरवरोभासमहावर--सूरवरावभासमहावर-पुं० । सूर्यवराव
भार्यायाम् , स०। भाससमुद्रस्य पश्चाद्धाधिपती देवे, जी०३ प्रति०४ अधिक।
सूरसेण--शूरसेन-पुं०। मथुराप्रतिबद्धेषु जनपदभेदेषु, स्था. सूरवरोभासवर--सूरवरावभासवर-पुं० । सूर्यवरावभाससमु
१०३ उ० । प्रशा० । सूत्र० । प्रव०। उदयसेनस्य रामः द्रस्य पूर्वार्धाधिपतौ देवे, सू० प्र० १६ पाहु।
स्वनामण्याते पुत्रे, प्राचा०१ श्रृ०४०१ उ०। परबतवर्षे सूरवाइ-शूरवादिन-पुं । शूरमात्मानं वदितुं शीलमस्यति | चतुर्विंशतितीर्थकृत्सु चतुर्दशे तीर्थकरे, स०। स्वनामख्याते शूरवादी । शूरंमन्ये, सूत्र० १ श्रु०४ अ०१ उ० ।
शत्रुञ्जयस्योद्धारके राजनि, ती०१ कल्प। सूरविमाण-सूरविमान-न०। सूर्यसत्के विमाने,प्रशा०४ पद ।
सूरादिय-सूरादिक-त्रिका सूरः-सूर्य प्रादिर्यस्य स सूरादिकः। ( बिमाण ' शब्दे षष्ठमागे वर्णकः ।) ('अंतर' शब्दे प्रथमभागे ७४ पृष्ठे चान्तरमुक्तम् ।)
सूरकारणे, 'सूरादिया अहोरत्ता' सूरादिकाः-सरकारणा, सूरसंवच्छर-सूरसंवत्सर-पुं०। श्रादित्यसंवत्सरे, सू० प्र०
तथाहि-सूर्योदयमवधिं कृत्या ऽहोरात्रारम्भकः समयों 'ग२. पाहु।
रायते नान्यथा एवमावलिकादयोऽपि सूरादिका भावनीयाः। ता एएसि णं पंचएहं संबच्छराणं चतुत्थस्स प्राइच
चं० प्र०२० पाहु० । सू० प्र०। संवच्छरस्स आइच्चे मासे तीसतिमुहुनेणं अहो
सूराभ-सूर्याभ-न० । पञ्चमदेवलोके विमानविशेषे, स.
समा रत्तेणं गणिजमाणे केवइए राइंदियग्गेणं आहितेति ।
सूरावत्त-सूर्यावर्त-न० । स्वमामख्याते चतुर्थदेवलोकस्थे १- अत्र सूर्यशम्दोऽपि बोध्यः ।
विमाने, स०५ सम।
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सुरासुरीया
सूरासूरीया - शूराशूरीया स्त्री० । भोजनेऽयं शूरोऽयञ्च शूरो भुक्तां यथेष्टमित्येवंभूतायां परिवेषयावाम् ०१ श्रु० ५ श्र० ।
सूरि सूरिन् - पुं०| सदाचार्ये, ग०१ अधि० “अनुयोगभृतां पा दान् वन्दे श्रीगौतमादियाम्। निष्कारणबन्धूनां विशेष तो धर्मम्॥२॥ अनु" ती काले केई होति गोलमा सूरी जेसि नामम्म नियमे दो ॥१॥ सेन० ३ उल्ला० ।
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(१०७८) अभिधानराजेन्द्रः ।
गुरुगुणानाद्दसम्मत्तनाणचरणा, पचेयं अट्ट अट्ट मेहल्ला |
बारस य तवो, सूरिगुणा हुंति छत्तीसं ॥५५२ ।। सम्यक्त्वस्य दर्शनाचारस्य निःशङ्कितादयः, ज्ञानस्य ज्ञानाचारस्य कालविनयादयः चरणस्य चारित्राचारस्य समित्यादयः प्रत्येकममेदमिलितुशितिः तपसश्च बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नस्य प्रत्येकं षड्विधत्वेन श्रदशनादयो द्वादश मेदाः सर्वमीस शिवन्ति । अथ भङ्ग्यन्तरेणापि गुरोः षट्त्रिंशद्गुणानाह - भागाराई भट्ट उ तहेव व दसविहो व ठिबकप्पो । बारस तव छावस्य परिगुणा हुंति बनी ॥५५३ || श्राचाराः श्रुतादयः प्राख्यावर्णितस्वरूपा श्रविवक्षितस्वस्वमेदा अष्टी गणिसंपदः तथा "ह्यालु १ ड्रेसिय २- सिजायर ३ रायपिंड ४ किकम्मे ५ वय ६ जे ७ पडिक माप
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१० ॥ १ ॥ इत्येवं वक्ष्यमाणस्वरूपो दशविधः स्थितकल्पः, तथा द्वादशविधं तपः प्रागुक्तस्वरूपं तथा पडावश्यकानि सामायिकचतुर्विंशतिस्तवबन्दनक प्रतिक्रमण कायोत्सर्गप्रत्याक्यानलचणानि तानि सर्वाण्यपि मिलितानि पशरिगुणा भवन्ति इदचैवमन्या अपि पशिका संभवति, तास्तु विस्तरभयानाभिधीयते केवलं किचित्सोपोत्यात् सुप्रतीतत्वाच्च
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सरि रामरूपेण युतो व्यायायां न भ्राम्यति ५ तिथिशिष्टमानसाला तथा पुनो नातिगहनेष्वप्यर्थेषु भ्रममुपयाति ६, अनाशंसी - श्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकाङ्क्षी ७, अविकत्थनो-नातिबहुभाषी, यथा स्वोऽपि केनचिदपरा पुस्तक विकत्थन सहितः समीपतः है, स्थिरा अतिशयेन निरन्तरायातः स्थैर्यमाचा अनु योगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटि, तस्य हि सूत्रम धान मनागपि गलति १० उपादेयवचनः तस्य हि स्वल्पमपि वचनं महार्थमिव प्रतिभाति ११, जितपर्षसून महत्यामपि पर्षदि क्षोभमुपयाति १२, जिर्तानद्रोऽल्पनिद्रः स हि रात्रौ सुत्रमर्थ वा परिभावयन् न निद्रया बाध्य
८,
१३. मध्यस्थ सर्वेषु शिष्पेषु समचितः १४ देशका भावं व जानातीति देशकालभावशः, स हि देशं कालं भावं च लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति, शिष्याणां वा श्रभिप्रायान् ज्ञात्वा तान् सुखेनानुवर्तयति १५, १६, १७, आसना तत्क्षणादेव लब्धा कर्मक्षयोपशमेनाविर्भूता प्रतिभा परी कादीनामुत्तरप्रदानशक्तिर्यस्य स असाच लब्धप्रतिभः १८, नानाविधानां देशानां भाषां जानाति नाना
सहि नानादेशयान् शिष्यान सुखेन शाखाणि प्रादयति, तत्र देशजांश्च जनान् तत्तद्भाषया धर्ममार्गेऽवतारयति १६. आवारोवारादिरूपयुक्त उ
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,
का स्वयमाचारवस्थितस्पान्यानाचारेषु प्रयर्तयितुमश यस्यात् २४ सूत्राचिता, एकस्य सूर्य मार्गः द्वितीयस्यार्थो न सूत्रं तृतीयस्य सूत्रमध्यथऽपि चतुर्थस्यार्थः तत्र तृतीयमार्थं भवततः सूत्रार्थतदुभयविधीन् जानातीति सूत्रातदुभ यविधिज्ञः तः २५, श्राहरणं दृष्ठान्तः हेतुर्द्विविधः-कारको, शापकश्च । तत्र कारको यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारः, शापकोयथा तमसि घटादीनामभिव्यञ्जकः प्रदीपः, उपनयः- उपसंहारो दृष्टान्तदृष्टस्यार्थस्य प्रकृते योजनमिति भावः - 'कार 'सि पांडे तु कारणं निमित्तं गया नैगमादयः पतेषु निपुणः आहरणहेतूपनयनयनिपुणः स हि श्रोतारम तिपस्यनुरोधतः कचिद सोपन्यासम् २६ - म्यासं करोति, २७, उपसंहारनिपुणतया सभ्यमधिकृतमर्थमुपसंहरति १० गनिया सम्यगधिकृततावसरे सम्यर्क सनिनपान २६, प्रादाकुशलः प्रतिपादन ३०. स्वमगम् ३१ परसमयम् ३२ वेतीति स्वसमयपर समयवित्, स हि परेणाक्षिसः सुखेन स्वपक्षं परपक्षं च निर्वाहयति । गम्भीरः अतुच्छस्वभावः ३३, दीप्तिमान् परवादिनामनुद्धर्षणीयः ३४. शिवःअकोपनो, यदिवा यत्र तत्र वा विहरन् कल्याणकरः ३५, सोमः- शान्तदृष्टिः ३६ इति षट्त्रिंशद्गुणोपेतो गुरुर्विज्ञेयः, उपाधीनामपरैरपि गुदाम शशधरकर निकरकमी
"देसकुलजाइरूवे, संघयणं धिईजुश्रो श्रणासंसि । अधिकत्मायी चिरपरिवाडी महिषयको ॥१॥ जिपरसो जिवनदो, मदेसकालमापन्नू । आसल पदभो, नाणाविहदे सभावन्नू ॥ २ ॥ पंचविद्दे श्रायारे, जुत्तो सुत्तत्थतदुभयचिद्दिन्नू । आहरण देउ कारण नयनि उहोगा साकुसलो ॥ ३॥ ससमय पर समयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिधो सोमो । गुणसयकलिओ एसो. पवयसारं परिकडे ||४|| " इति गाथा चतुष्टयभणिताः सूरिगुणाः पशिद्दश्यते-रा
शब्दः प्रयेकमभिसंपते. देशपुतकुत इत्यादि या मध्यदेशे जातो यश्चार्धषट्विंशतिषु जनपदेषु सदेशयुतः, सह्यादेशभणितं जानाति, ततः सुखेन तस्य समीपे शि
सर्वेऽप्यधीयन्ते इति तदुपादानम् १. कुलं पैतृकं तथा लोकव्यवहारकुजोऽयमित्यादि तेन युतः प्रवचनप्रतिपन्नार्थनिर्वाहको भवति २, जातिर्मातृकी, तथा युतो वति, तथा चाह - "गुणसयकलिलो जुत्तो, पवयसारं परिविनयादिगुणवान् भवति ३, रूपयुतो लोकानां गुणविषयबहु- कहे "ति ॥ यद्वा-गुणा मूलगुणा, उत्तरगुणाश्च तेषां शतानि मानभाग जायते, 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ती' ति प्रवादात्, तैः कलितो युक्तः समीचीनप्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य सारमकुरूपस्य अमात्यादिप्रसङ्गाच ४, संदननेन विशिष्टशाचे कथयितुम क्रम्- "गुट्टियस्स व घयपरिखितो
यदुक्तम्
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सृि
पाचच भर
गुगद्दीयम्सन सोहर हो ज ह पईचो || १ ||" इति गाथाच तुष्टार्थः ॥६४॥ प्रव० ६४ द्वारा | सूर(य) सूर्य ० " स्याद्-भय-चैत्य-समेषु यात् ॥ ८२ ॥१०७॥ इति यात्पूर्व इकारः । सूरिश्रो । सूर्यः । प्रा० । आदित्ये, अनु" । उत्त० । स्था० । ( 'सूर' शब्देऽस्मि - भागे)
ते काले तेणं समएस भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासह पासित्ता जायसड्डे० जाव समुप्पन्नको उहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ० जाव नमंसित्ता० जाव एवं वयासीतेरा मित्यादि, अचिरोद्गतम् ' उद्गतमात्रमत एव बालसूर्य जासुमाकुसुमप्यगासं ति जासुमा नाम वृक्षस्तत्कुसुमप्रकाशमत एव लोहितकमिति ।
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किमिदं भंते! सूरिए किमिदं भंते! सूरियस अड्डे | गोमा ! सुभेरिए, सुभे सूरियस्स अड्डे । किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा एवं चेत्र एवं छाया एवं लेस्सा | ( मू० ५३६ )
'किमिदं ' ति-किस्वरूपमिदं सूर्यवस्तु तथा किमिदं भद
सूर्यस्य सूर्यशब्दस्यार्थोऽम्बर्धवस्तुसुमे सुरिए त्ति-शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामा तपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयवर्त्तित्वात् लोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतज्ज्योतिष केन्द्रत्याश्च तथा शुभः सूर्यशब्दार्थः । तथाहि सुरेभ्यः क्षमातपोशनसंग्रामादिपरेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः 'भ' त्ति-दीप्तिः- छाया शोभा प्रतिविम्बं वा लेश्या - वर्णः । भ० १४ श०६ उ० । सूत्र० । चं० प्र० । ज्ञा० । सूत्र० । स्वनामख्याते द्वीपे समुद्रे च । चं० प्र० २० पाहु० ।
सूर्य पुं० शूरेभ्यः समातपोदानसंग्रामादिभ्यो हि शूरेषु वा साधुः शूर्यः । क्षमातपोदान संग्रामादिषु कुशले, भ० १४ श० उ० । सूरियत सूर्यकान्त नः पुत्रे. रा० । सूरियता सूर्यकान्ता श्री० नाम्बिकानगरीराजस्य शिनोऽयमष्याम रा० स्वनामरूपतायां सूर्यमंदि घ्याम् भ० ११ श० ६ उ० ।
राजस् प्रदेश
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मूरियपीठ-सूर्यपीठ
5-न० । सूर्यदेवतापूजनस्थाने, तत्र पूर्वमृषभदेवेन भगवता यत्र यत्र भिक्षा लब्धा तत्र तत्र श्रेयांसेन पीठानि कृतानि तानि क्रमात्सरैरायत्तीकृतानि सौरपीठत्वेन पूज्यन्ते स्म । श्रा० क० । सूरियमंडल मंतर - सूर्यमण्डलाभ्यन्तर-१० सूर्यचारकथने,
जं० ७ वक्ष० ।
रिपलेसा सूर्यलेश्या श्री सुभाष प्र० । "कस्मिन् लेश्या प्रतिमेति ततस्तद्विषयं क्षत्रमाहता कसणं सूरियस लेस्सा पडिहतेति वदेजा १, तत्व खलु इमाओ पीसं पडिवणीओ पाओ, तत्येंगे १- अस्य दन्त्यादित्वं चिन्त्यम् ।
(१०७८) अभिधानराजेन्द्रः ।
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|
"
यस्मा
एवमाहंसु ता मंदरंस से पच्यतंसि मूरियस लेस्सा पडिहता माहिता बिंदा, एगे एमाहं १ एगे पुरा एव मासु ता मेरुंसि पयसिरियस्स लेस्मा परिहता माहिता ति वदेज, एगे एवामाहंसु २ । एवं एतेयं श्रभिलावेगं भागिता मणोरमंसि पयसिता सुदंस
सिणं पव्वयंसि, ता सयंप्रभंसि पन्तंसि ता गिरिरायंसि णं पव्वतंसि ता रतणुच्चयंसि से पन्चतंसि ता सिलुचसि पयसि ता लो मज्झसि से पच्चीस ता लोय- गाभिसि से पव्वतंसि ता श्रच्छंसि गं पव्वतंसि ता सूरियावत्तंसि णं पव्वतंसि ता सूरियावरसि मव्वतंसि ता उत्तमंसि णं पव्यंसि ता दिसादिस्सि से पच्यतंसि ता अवतंसंसि णं पयसि ता धरणिखी लंसि णं पव्वयंसि ता धरणि सिंगंसि गं पन्चयंसि ता पच्चर्तिदेसि णं पव्वतंसि ता पव्त्रयरायंसि
पवयंसि सूरियस लेसा पडिहता अहिता ति देखा एगे एवमाहंस । वयं पुरा एवं वदामो-ता मंदरे वि पवुच्चति ० जाव पव्वयराया, बुच्चति, ता जे गं पुग्गला सूरेयस्स लेसं फुमंत ते पुग्गला सूरियस्स लेस पडिहरांति अदिहा वि सं पोग्गला पूरियस्ले पहिति परिमले संतरगता वि पोग्गला सूरियस लेस्सं परिहति । ( सू० २६ )
,
'ना कस्सिए ' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् अभ्यन्तरम
"
सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति कस्मियाने या प्रतिइता श्राख्याता इति वदेत् ?, अयमिह भावार्थ:- इहावश्यमभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्या कस्मिन् स्थाने प्रतिहतेत्यभ्युपगन्तव्यं यतः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाधे व मण्डले जम्बूद्वीपगतं साक्षेत्रमापात पापारियो माणमेवाख्यासमेत सर्वाभ्यन्तरमण्डलगते सूर्ये श्यामतिहतिमन्तरेण नोपपद्यते. अन्यथा निष्क्रामति सूर्ये तत्प्रतिव द्धस्य तापक्षेत्रस्यापि निष्क्रमणभावात् सर्वया मण्डले चार चरति सूर्ये हीनमायामतो भवेत् न च दीनमुक्तमतोऽवसीयते कापि लेश्या प्रतिघातमुपयाति । ततस्तदवगमाय प्रश्न इति एवं प्रश्ने कृते सति भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपतयस्तावती रुपदर्शयति- 'तत्थे' त्यादि, तत्र - सूर्यलेश्याप्रतिद्दतिविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रशप्ताः, द्यथा-तत्र तेषां विंशतेः परतीर्थिकानां मध्य एके एवमाहुमन्दरे पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता श्राख्याता इति वदेत्, वदेदिति तेषां मूलभूतं स्वशिष्यं प्रत्युपदेशः अत्रैवोपसंहारः 'ए मासु १ । एके पुनरेवमाहुः मेरो पर्वते सूर्यलेश्या प्रतिहता श्राख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः २ । ' एव ' मित्यादि, एवम् उक्लेन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्ति. विशेषभूतनालायकेन प्रतिपतिपत्तिविशेषभूतानाला पकान् दर्शयति- 'ता मणोरमंसिं इत्यादि प्रयोजनयानि तत एवं सूत्रपाठ:-पगे पचनासुता मां
त
,
·
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(१००) सुरियखेस्सा अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ ग्मंसिणं पब्वयंसि सूरियलमा पडिहया श्राहिय त्ति वहजा तथा शिलाना-पाण्डुकम्बलशिलाभृतीनाम् , उत्-ऊच शिरस एगे पथमासु ३, एगे पुण एवमासु ता सुदंससि गं प
उपरि चयः-सम्भयो यत्र स शिलोचयः८.तथा लोकस्य तियेव्वयंमि सूरियलेसा पडिया श्राहिय त्ति वरजा, पगे एव
ग्लोकस्य समस्तस्यापिमध्ये वर्तते इति लोकमध्यः,तथा लो। मासु४, एगे पुण एवमाहंसु ता सयंपहंसि णं पव्ययसि कस्य तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य नाभिरिव-स्थालमध्यगतमूरियलेसा पडिहया आहिय त्ति वइजा एगे एवमासु ५.
समुन्नतवृत्तचन्द्रक इव लोकनाभिः १०,तथा अच्छ:-स्वच्छएगे पुण एवमाहंसु ता गिरिरायसि ण पब्वयंसि सूरियलेसा
सुनिर्मलजाम्बूनदग्नबहुलत्वात् १६, तथा सूर्य उपलक्षणपडिहया श्राहिय त्ति वएज्जा.एंगे एवमासु६.एगे पुण एवमा.
मेनत् चन्द्रग्रहनत्रतारकाश्च प्रदक्षिणामावर्तन्ते यस्य स सुतारयणुञ्चयंसिण पब्वयंसि सूरियलेसा पडिहया श्राहि
सूर्यावर्तः १२, तथा मूर्यरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारयत्ति वइजाएगे एवमाहंसु ७, एगे पुण एवमासु तामिलुख
काभिश्च समन्ततः परिभ्रमणशीलरावियते स्म वेष्टयते स्मैपंसि ण पब्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वए
ति सूर्यावरणः कडुल' मिति वचनात्कर्मण्यनट्यत्ययः१३ ज्जा, एग एवमाहंसु८, एगे पुण एवमासु ता लोयमझ
तथा गिरीणामुत्तम इति उत्तमः १४, दिशामादिः-प्रभवो सिणं पव्ययंसि सूरियस्स लेसा पडिहया श्राहिय त्ति धए
दिगादिः, तथाहि-रुचकात् दिशां विदिशाच प्रभवो रुचज्जा, एगे एवमासु ६, एगे पुण एवमासु ता लोगनाभिसि पंपल्ययंसि सूरियस्स लेसा पडिहया अाहिय त्ति धइजा
कश्चाट्रप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्ती,ततो मेरुरपि दिगादिरिन्युएगे एवमासु १०, एगे पुण एक्मासु ता अच्छसि णं प.
च्यते १५, तथा गिरीणामवतंसक इवेत्यवतंसकः १६ अमीव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वइजा एग
पांच षोडशानों नास्नां संग्राहिके इमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिएषमासु ११, एगे पुण एवमासु ता सूरियावसि णं प
हे गाथे-"मंदर मेरुमणोरम सुदंसण सयंप य गिरिराया। ब्धयांस सूरियस लेसा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा एगे
रयणोच्चए सिलोच्चय-मज्मे लोगस्स णामी य ॥१॥ अच्छे एघमासु १२, एगे पुण एवमासु ता सूरियावरणसि प
य सूरियावत्ते, सूरियावरणे इ य। उत्तमे य दिसाई य, वडिसे व्ययंसि सूरियस्स लेसा पडिहया श्राहिय त्ति बएज्जा, एगे
इप सोलसे ॥२॥"तथा धरण्याः-पृथिव्याः कीलक इव धरपवमासु २३, पगे पुण एवमाहंसु ता उत्तमंसि णं पब्वयं
गिकीलकः, तथा धरण्याः शृङ्गमिव धरणि शङ्गः,पर्वतानामिसि सूरियस्स लेसा पडिहया श्राहिय ति घरज्जा ,
न्तः पर्वतेन्द्रः, पर्वतानां राजा पर्वतराजः तदेव सऽपि मन्दएगे एवमासु १४ , एगे पुण पवमासु ता दिसादिस्सि
रायः शब्दाः परमार्थत एकाधिकास्ततो भिन्नाभिप्रायतया ण पवयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय ति वए
प्रवृत्ताः प्राननाः प्रतिपत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवग ज्जा, पगे एवमासु १५, एगे पुण एवमासु ता अवतंसं
तंव्याः । याऽपि च लेश्याप्रतिहतिः सा मन्दरेऽप्यस्ति अन्य सिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिया प्राहिय त्ति वर
त्रापि च, तथा चाह--'ताजे ' इत्यादि. ना इति पूर्वजाएगे पवमाहंसु १६, एगे पुरण एबमासु ता धरणि
बत् ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता खीलसि णं पध्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय ति
सूर्यस्य लेश्यां स्पृशन्ति ते पुद्रलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, यएजा पगे पत्रमासु १७, एगे पुण एबमाईसुताधरणिसि- अभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात् , गंसिग पचसि सूरियस्स लेसा पडिहया श्राहियत्ति बए येऽपि पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुरजा एगे एवमासु १८, एगे पुण एवमासु ता पव्वइंदसि लान्तर्गताः सूक्ष्मत्वान्न चक्षुःस्पर्शमुपयान्ति ते ऽप्यदृष्टा अपि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया श्राद्दिय त्ति वरज्जा सूर्यलेश्यां प्रतिघ्नन्ति,तैरप्यभ्यन्तरं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः एगे एवमासु १६, एगे पुण एवमाहंसु ता पब्बयगयंसि णं स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात् , येऽपि मेरोरन्यत्रापि पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया चाहिय ति बपजा एगे चरमलेश्यान्तरगता:--चरमलेश्यायिशेषसंस्पर्शिनः पुदलाएयमासु २०' तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्तेऽपि सूर्यलेश्यां प्रतिघ्नन्ति, तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शितया स्वमतमुपदर्शयति-'अयं पुण' इत्यादि, वये पुनरुत्पन्न- चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात् । सू० प्र०५ पाहु) केवलज्योतिष एवं वदामः, यदुत 'ता' इति पूर्ववत् पस्मिम्
सरियसुद्धलेस्स-मर्यशद्धलेश्य--त्रि० । सूर्यसहशे तेजसि, पर्वतेऽभ्यन्तरं प्रसरन्ती सूर्यस्थ लेश्या प्रविघातमुपगच्छति स मन्दरोऽपयुच्यते यावत्पर्वतराजोऽप्युच्यते, सर्वेषामप्यतेपां शब्दानामेकार्षिकत्वात् , तशा मन्दरो नाम देवस्तत्र प-मरियाभ-सर्याभ-म० । स्वनामख्याते विमाने, रा०। स्वनामल्योपमस्थितिको महर्द्धिकः परिचसति तेन तद्योगान्मन्दर
। ख्याते देवे च । पुं०। रा० । इत्यभिधीयते १, सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान्मेरुः २, मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयती.
'नयरीए बहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकप्रन्थोक्नं सर्वति मनोरमः ३, शोभनं जाम्बूनदमयनया वज्ररत्नबहुलतया
मघसातव्यं यावत् समग्रापि राजमभृतिका परिषत्पर्युगाच मनोनिवृतिकरं दर्शनं यस्यासौ सुदर्शनः, ४, स्वयमादि
सीना अवतिष्ठते । स्यादिनिरपेक्षा रत्नबहुलतया प्रभा-प्रकाशो यस्य स स्वयं
ते णं काले ण ते ण समए ण सूरिया देवे सोहम्मे प्रभः ५ तथा सर्वेषामपि गिरीणामुश्चस्त्वेन तीर्थकर जन्मा
कप्पे सूरियाभे विमाणे मभाए सुहम्माए सूरियासि सिंभिषेकाश्रयतया च गजा गिरिराजः६.तथा रत्नानानां नानाविधानामुत्-प्राबल्येनत्रया-उपचयो यत्र स रत्नोचयः ७ हासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहि
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(२०११) सूरियाम अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम सीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणियाहि स- पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतश्वावस्थायिनो विमानाधिपतेः सूर्याभस्य
देवस्य प्राणरक्षकाः देवानामपायाभावात् तेषां लयाग्रहणत्तहिं भणियाहिवईहिं सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं
पुरस्सरमवस्थानं निरर्थकमिति चेतन, स्थितिमात्रपरिणाअन्नेहि य बहूदि मूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं
लनहेतुत्वात् प्रर्षहेतुन्याच्च , तथाहि ते समन्ततः सर्वासु देवहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे महयाऽऽहयनदृगीयवाइ-- दिक्षु गृहीतग्रहरणा ऊर्ध्व स्थिता अवतिष्ठमानाः स्वनायतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिवाई। यकशरीररक्षणपरायणाः स्वनायकैकनिषण्णदृष्टयः परेभोगभोगाई जमाणे विरहति. इमंच केवलकप्पं जं- पामसहमानानां चोभमापादयतो जनयम्ति स्वनायकस्त्र
पर्ग प्रीतिमिति, एते च नियतसङ्ख्याकाः सूर्याभस्य देबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति ।
वस्य परिवारभूता देवा उक्काः , ये तु तस्मिन् सूर्याभे वितेणे काले ण 'मित्यादि, ते इति प्राकृतशैलीवशात्तस्मि- माने पौरजनपदस्थानीगा ये त्वाभियोग्या:-दासकल्पास्ते निति द्रष्टव्य,यस्मिन्काले भगवान् वर्द्धमानस्वामी साक्षादि उतिभूयांसः प्रास्थानमण्डल्यामपि चानियनसङ्ख्याका इति हरति तस्मिन्काले 'ते ण समए णं ' ति तस्मिन् समये तेषां सामान्यत उपादानमाह-'अन्नेहिं कहहि सरियाभयस्मिन्नवसरे भगवानाम्रशालबने चैत्ये देशनां कृत्वोपरतस्त- विमाणधास्वहिं देहिं देवीहि य सद्धिं संपरिषुडे' एतैः स्मिन्नवसरे इति भावः सूर्याभो नाम्ना देवो,नामशब्दो ह्यध्य- सामानिकप्रभृतिभिः सार्द्ध संपग्वृितः-सम्यनायकैकचि - यरूपोऽप्यस्ति,नतो विभक्तिलोपः, ततो सौधर्मास्ये कल्पे त्ताराधनपरतया परिवृतः, 'महयाऽऽहये' त्यादि , महता यत्सूर्याभनामकं विमानं तस्मिन् या सभा सुधर्माभिधा रवेणेति योगः 'नाहया इति--आख्यानकप्रतिबद्धानीति तस्यां यस्सूर्याभाभिधाम सिंहासमं तत्रोपविष्टः सन्निति ग- वृद्धाः, अथवा-महतानि-अव्याहतानि अक्षतानीति भाषा, भ्यते. 'चरहिं सामाणियसाहसीहिं" इति समाने यतिथि- नाट्यगीनवादितानि च तन्त्री--धीरणा तसा-हस्ततालाः भवादी भवाः सामानिकाः,अध्यात्मादित्वादिकण , विमानां. कंसिकाः तुडितानि--शेषतूर्याणि, तथा घनो--घनसरशो धिपतिसूर्याभदेवसरशद्युतिविभवादिका देवा इत्यर्थः, ते व ध्वनिसाधयेत्यात् यो मृदङ्गो--मर्दलः पटुना--दक्षपुरुषे. मावपित गुरूपाध्यायमहत्तरवत्सूर्याभदेवस्य पूजनीयाः,केव-न ण प्रवादितः, तत एतेषां पदानां द्वन्द्वः, तेषां यो रवस्तेन , लविमायाधिपत्तित्वहीमा इति सूर्या देवं स्वामिन प्रतिपन्नाः दिव्यान्--दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः, 'भोगभोगाई' तेषां सहस्राणि सामानिकसहस्त्राणि तैश्चतुर्भिः, प्राकृतत्वाच इति--भोगार्हा ये भोगा-शब्दादयस्तान . सूत्रे नपुसकता सूत्रे सकारस्य दीयत्वं, स्त्रीत्वं च । 'चतसृभिरग्रमहिषीभिः' प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गव्यभिचारः, यवाह पाणिनिः इह कृताभियेका देवी महिवीत्युच्यते,साच स्वपरिवारभूता- स्वप्राकृतलक्षणे--'लिङ्गं व्यभिचार्यपि 'ति, भुआनो विनां सर्वासामपि देवीनामने इत्यग्राः, अग्राश्च ता महिष्यश्च हरति-आस्ते, न केवलमास्ते किंत्विम-प्रत्यक्षतया उप अप्रमहिष्यस्ताभिश्चत सृभिः, कथम्भूताभिरित्याह-'सप- लभ्यमान केवलकल्पम्-ईषदपरिसमाप्तं केवलं--केबलशाने रिवाराभिः' परिवारः सह यासां ताः सपरिवारास्ताभिः, प- केवलकल्प, परिपूर्णतया केवलसदृशमिति भावः , जम्म्या रिबारश्चैकैकस्या देव्याः सहनं २ देवीनां तथा तिमुभिः पर्ष- रत्नमय्या उत्तरकुरुवासिन्या उपलक्षितो द्वीपा जम्बूद्वीपद्भिः, तिम्रो हि विमानाधिपतेः सर्वस्यापि पर्षदः, तद्यथा- स्तं जम्बूद्वीप,भिधानं दीपं विपुलेन-विस्ती नावधिना अभ्यन्तरा मध्या बाह्या च,तत्र या यस्य मण्डलीकस्थानी. तस्य हि सूर्याभस्य देवस्यावधिरधः प्रथमां पृथिवीं याथा परममित्रसंहतिसदृशी सा अभ्यन्तरपर्षत् , तया सहाप- वत्तिर्यक असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानिति भवति विस्तीर्णर्यालोचितं स्वरूपमपि प्रयोजन न विदधाति, अभ्यन्तरपर्षदा स्तेनाभोगयन--पग्भिावयन् पश्यति , अनेन सत्यप्यवधी सह पर्यालोमिन यस्यै निवेद्यते यथेदमस्माकं पर्यालोचित यदि तं शेयविषयमाभोग न करोति तदा न किञ्चिदपि तेन सम्मतमागतं युष्माकमपीदं सम्मतं किंघा, नेति सा मध्यमा, जानाति पश्यति वत्यावदितम्।। यस्याः पुनर भ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं मध्यमया च सह दृढीकृतं यस्यै करणायैव निरूप्यते यथेदं क्रियतामिति सा
तत्थ समणं भगचं महावीरं जंबुद्दीने दीवे भारहे वासे बाह्या, तथा 'सत्तहि अणिपाहि' इति अनीकानि-सैन्या- पामलकप्पाए नयरीए पहिया अवसालवणे चेहए अहानि, तानि च सप्त, तद्यथा-हयानीकं गजानीकं रथानीक पडिरूवं उग्गह उग्गिएिहत्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं पदात्यनीकं वृषमानीकं गन्धर्वानीकं, नाट्यानीकं तत्राद्यानि,
भारेमाणं पासति , पासित्ता हतुद्दचित्तमाणंदिए पश्चानीकानि संग्रामाय कल्पयन्ते गन्धर्थनाट्यानीके पुमापभोगाय, तैः सप्तभिरनीकैः,अनीकानि स्वस्वाधिपतिव्यक्ति
पीदम परमसोमपस्सिए हरिसवसधिसप्पमाखहियर, विकेगगन सम्यक प्रयोजने समागते सत्युपकल्पयन्ते ततः
कसियघरकमलणयणे पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडसप्तानीकाधिपतयोऽपि तस्य वेदितयाःतथा चाह-'सप्त- कुंडलहारविरायंतरइयवच्छे पार्लबपलबमाणघालतभूमणहि श्रणियाहिई हिं,' तथा 'पोडशभिरात्मरक्षनेयसहस्रैखित विमानाधिपः सूर्याभस्य देवस्थात्मानं रक्षयसीत्या
धरे ससंभमं तुरियचवलं सुरवरे (जाव)-[ सौहासणाओ स्मरक्षा, 'कर्मणोऽण ' इत्यण प्रत्ययः, ते च शिरस्त्राणक
अब्भुढेइ २त्ता पायपीढाओ पञ्चोरुहति, २ हिम एगसाल्पाः, यथा हि शिाखाय शिरस्याबिई.प्राणरक्षक भवति
डिप उत्तरासंगं करेति, २ रित्ता ससदुपयाई तित्थयराभितथा ने ऽप्यामरक्षका गृहीतधनुर्दराडाविग्रहरणाः समन्ततः । मुहं अणुगच्छति, म०२च्छिता, वाम जाणुं अचेतिर चेता
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कूरियाम
(१०८२) अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहट्ट तिक्खुनो मुद्धाणं स सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत्सौमनस्य धरणितलंसि णिवेसेइ, शिवेसित्ता ईसिं परचुनमइ, ईसिं
च परमसौमनस्यं तत्सातमस्येति परमसोमनस्थितः , ए
तदेव व्यक्तीकुवैचाह-'हरिसवसविसप्पमाहियर' हर्षवबच्चुनमित्ता करतजपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थ
शेन विसपत्-विस्तारयायि हृदयं यम्य सहर्षवशए भंजलि कहु एवं वयासी-णमोऽत्थु णं अरिहंताणं
विसइदयः. हर्षयशादेव 'वियसियवरकमलनयले' विभगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं मयंसंबुद्धाणं पुरि- कसिते घरकमलयत नयने यस्य स तथा , हवंशादेव सोतमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगं- शरीरोण 'पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुडले 'ति धहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिनाणं लोगप
प्रचलितानि पराणि कटकानि-कलाचिकाभरणाणि त्रु
टितानि-बाहुपक्षकाः केयूराणि-याहाभरणविशेषरूपाणि ईवाणं लोगपीयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं म-1
मुकुटो-मौलिभूषण कुण्डले-कांभरणे यस्य स प्रगदयाणं जीवदयाणं सरणदयाणं बोहिदयाणं धम्मद
चलितवरकटकवुटितकेयूग्मुकुटकुण्डलः, तथा हारेण वियाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्म- राजमानेन रचितं-शोभितं यक्षो यस्य स हारविराजवरचाउरंतचकबट्टीणं अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं विय- मानचितवक्षः, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तदृछउमाणं जिणाशं जावयाणं तिप्लाणं तारयाणं युद्धाणं
था प्रलम्यते इति प्रलम्बा-पदकस्तं प्रक्षम्यमानम- प्रा
भरणविशेषं घोलन्ति च भूषणानि धरन्तीति प्रलम्बनबोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सम्वन्नूणं सम्बदरिसीणं सि
लम्बमानघोलद्भूषणधरः, सूत्रे च प्रलम्बमानपदस्य विबमयलमरुयमणंतमक्खयमव्याबाहमपुणरावतं सिद्धिग
शेध्यात्परतो निपातः प्राकृतत्वात् , हर्षयशादेव 'ससभमसंइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं,नमोऽन्धु णं समणस्स भगवओ
भ्रम रह विवक्षितक्रियाया बहुमानपूर्विका प्रवृत्तिः सह महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, बंदामि पं भ
सम्भ्रमो यस्य चन्दनस्य नमनम्य वा तत्ससम्भ्रम, क्रिगवन्तं तत्थगयं इह गते ] पासइ मे भगवं तत्थ
याविशेषणमेतत् . स्वरितं--शीघ्र चपलं-सम्भ्रमयशादेव
व्याकुलं यथा भवत्येवं सुरवरो--देवबरो यावत्करणात्गते इहगतं ति कह वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता
'सीहासणाश्रो अत्भुट्टेड अम्भुट्टिता गयपीढायो पचोरुहति सीहासणवरगए पुच्चाभिमुहं समिसमे । ( सू०५)
पचोरुहिता पाउयाश्री ओमुयह प्रोमुयित्ता तिस्थयराभितए णं तस्स सुरियाभस्स इमे एतारूवे अब्भ--
मुहे सन?पया अणुगच्छइ णणुगच्छित्ता वामं जागुं स्थिते चिंतिते मणोगते संकप्पे समुपजित्था
अन्चेद [ उत्पाटयति ] दाहिणं जाणु धरणितलंसि नि
हटु तिखुत्तो मुजाण धरणितलंस नमेइ नमित्ता (नितत्र-तस्मिन्विपुलेनावधिना जम्बूद्वीपविषये दर्शने प्र- येसेह२ ता) सिं पच्चुत्रमा पच्चुअमित्ता कडियबर्तमाने सति भ्रमण-धाम्यति-तपस्यति नानाविध
तुडियर्थभियभुयानो साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहिमिनि श्रमणः, भगः--समप्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च
यं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कुटु एवं क्या"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ सी-नमोऽत्थु णं अरिहंनाणं भगवंताणं • जाय ठाणं प्रयत्नस्य, पराणां भग इनीजना ॥१॥" भगोऽस्या- संपत्ताणं , नमोऽस्थु ण समणस्स भगवो महावीरस्स स्तीति भगवान् भगवन्तं 'सूर वीर' विक्रान्ती, वीरयति- आदिगरम्स तित्थयरस्स.जाव संपाविउकामस्स, चंदामि कपायान प्रति विक्रामति स्मेति वीरः महांचासी वीर- ण भगवंतं तत्थगयं इहगए ' इति परिग्रहः , पश्यति व महावीरस्तं, जम्बूद्रीये भारते वर्षे मामलकलगायां न- मां स भगवान् तत्र गत इह गतमिति कृत्वा बन्दतेगर्यो बहिराम्रशालबने चैत्ये अशोकवरपादपम्याधः पृथि
स्तौति नमस्थति-कायन मनसा च यन्दित्या घीशिलापट्टके सम्पयङ्कनिपरणं श्रमणगणसमृद्धिसंपरि- नामस्यित्वा च मयः सिंहासनबरं गतो गन्या च घृतं प्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा आत्मानं पूर्वाभिमुख सन्निपराणः ॥५॥'तए णं तस्से' त्यादि, 'ततो' भावयन्नं पश्यति, दृष्टा च-'हट्टतुट्ठमाणदिए' इति-ह. निषदनानन्तरं तस्य-सूर्याभदेवस्य अयमेतद्रपः सङ्कल्पः समुएतुशोऽतीव तुष्ट इति भावः, अथवा-टो नाम विस्म
दपद्यत , कथम्भूत इत्याह-मनोगतः-मनसि गतो-व्यवयमापनः, यथा-अहो भगवानास्ते इति, तुष्टः--सन्तो
स्थितो, नाद्यापि वचसा प्रकासितस्वरूपस्य इति भावः , पं कृतवान् , यथा-भव्यमभूत् यन्मया भगवानालोकितः, पुनः कथम्भूत इत्याह-आध्यात्मिकः अात्मन्यभ्यध्यात्म त सोपवशादेव चिनमानन्दितं--स्फीतीभूतं 'टुनदि' समृ- प्रभव आध्यात्मिकः, श्रात्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च साविति वचनात् , यस्य स चित्तानन्दितः, सुवादिदर्श द्विधा भवति-कश्चिद् ध्यानान्मकः अपरश्चिन्तात्मकः,तपाय नात्याक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वाद- चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह-चिन्तितः चिन्ता सजा. लाक्षणिक स्ततः पदत्रयम्य पददयपदद्वयमीलने कर्मधारयः ताऽस्येति चिन्तितः, चिनात्मक इति भावः. सोऽपि कश्वि'पीरमण' इति प्रीतिर्मनसि यस्यासी नीतिमनाः, भगय- মিলাদ্বামী মনি, খ্রিসথা.নামনিলাম ति यहुमानारायण इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानो- तथा चाह-प्राषितं प्रार्थनं प्रार्थी णिजन्तस्यात् अस्यत्ययः, स्क्रर्षयशात् 'परमसामपिस्सिए' इति--शोभनं मनो यस्य प्रार्थः सनातोऽस्येति प्रार्थितः, अभिलापात्मक इति भावः।
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सूरियाम
(१०८३) अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाम किंस्वरूप इत्याह
रप्पभूयस्स बिटट्ठाइस्स दसद्धवस्सस्स कुसुमस्स जाणुस्सेएवं (सेयं)(मे) खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीचे हपमाणमित्तं भोहिं वासं वासह वासित्ता कालागुरुपवर-- दीवे भारहे वासे पामलकप्पायरीए बहिया अंवसालवणे कुंदुरुकतुरुकधूवमघमतगंधुज्याभिरामं सुगंधवरगंधियं बेइए पाहापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं तवसा गंधवडिभृतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह कारवेह अप्पाणं भावमाणे विहरति , तं महाफलं खलु तहारूवाणं करित्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव (मम ) एयमाणत्तिय भगवंताणं खामगोयस्स वि सवल्याए किमंगापुण भहिंग
पञ्चप्पिणह । (सू०७) मणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए, एगस्स वि
'तं गच्छह णमि' त्यादि. यस्मादेवं भगान् विहरन् वर्तते मायरियस्स धम्गियस्स सुवयणस्स सबणयाए', किमंग!
तत्-तस्मादेवानां प्रिया! यूयं गच्छत जम्वृद्धी ही सत्रा.
पि भारत वर्ष जत्राप्यामलकल्प नगरी तत्राप्याघ्रशालवनं पुण विउलस्स अदुस्स गहणयाए, तं गच्छामि पं|
वैस्य धमण भगवन्तं महाधीरं विकृत्या-त्रीन वारान् प्रासमणं भगवं महावीरं बंदामि स्मंसामि सकारेमि स- दक्षिणप्रदक्षिणं कुरुत , पादक्षिणाद-दक्षिणहस्तादारभ्य माणेमि कलाणं मंगलं चेतिय देवयं पज्जुवासामि, एयं मे
प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण पादक्षिणप्रदक्षिणस्तं
कुरुत, कृत्या च यन्दध्यं नमस्थत, वन्दिया नमस्यिस्था च पेचा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए
'साई साई' नि-स्वानि २-प्रात्मीयानि २ नामगोत्राणि, भविस्सति त्ति कुटुएवं संपेहेइ , एवं संपेहित्ता भाभिओगे गोत्रम्-अन्यर्थस्तन युक्तानि नामानि नामगोत्राणि, राजदेवे सदावह श्राभि. सद्दावेत्ता एवं वयासी-(सू०६) दस्तादिदर्शनानामशब्दस्य पूर्वनिपातः. साधयत-कथयत, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे जंवृदीवे
कथयित्वा च भ्रमणस्य भगवतो महाचीरस्य सर्वतः--
सर्वासु दिशु समन्ततः--सर्वासु विदिचु योजनपरिमगडदीवे भारहे वासे पामलकप्पाए नयरीए बहिया अंबसा
लं परिमागडल्येन योजनप्रमाणं यत् क्षेत्र तत्र यत् तृणंलवण चइए प्रहापडिरूवं उग्गहं उग्गिरिहत्ता संजमेणं
किलिचादि काष्ठ या काष्ठशकलं या पत्रं या निम्बा बसवसा अप्पाणं भावमाणे विहरह।
स्थादिपत्रजातं कचबरं घा-श्लणतणधूल्यादिपुखरूप, क'सेयं खलु'इत्यादि.श्रेयः खलु' निश्चितं'मे' मम श्रमणं
थम्भूतमिन्याह-अशुचि-अशुविसमन्वितमचोक्षम-अप भगयम्नं महावीर-चम्मितुं कायेन मनसा न प्रणतुं सरकारयि.
वित्रं पृयिनं कुथितम् अत एव दुरभिगन्धं तत्संवर्तकयातमुं-कुसुमाञ्जलिमोचनेन पूजयितुं सम्मानयितुम-उचितप्रप्ति
विकुर्वनाहत्या हत्य एकान्ते-योजनपरिमण्डलाक्षेत्राद् पत्तिभिगराधयितुं कल्याणं कल्याणकारिस्वात् मजलं दुरि
दबीयसि देश एडयत--अगनयन पडयित्वा च नान्युदकं तोपशमकाग्त्यिात् देव-देवं त्रैलोक्याधिपतित्यात् चैत्यं
नायतिमृत्तिकं यथा भयति एवं सुरभिगम्धोदकवर्षे वयत सुप्रशस्तमनोहेतुत्यात् पयुगसितुं-सवितुम इति कृत्या-इनि
कथम्भूतमित्याह-दिव्यं-प्रधानं सुरभिगन्धोपेतत्वात् , पुनः हतोः 'ए' यथा वयमाणं तथा सम्प्रेक्षते--बुब्या परि
कथम्भूनमित्याह 'पविरलपप्फुसिय' मिति-प्रकर्षेण यावभावयति , संप्रेषय च पाभियोगिकान्-माभिमुल्येन योजन
द्रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, अभियोगः प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्यम् अभियोगेन जीयम्ती
কালি মছলি মবিলানি ঘনমাই কমিশনার स्थाभियोगिकाः 'चेतनादेधिन्ती' विकणप्रत्ययः, आभि.
प्रम्पृशशनि--प्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्मवे रेणुयोगिकाः-स्वकर्मकराम्तान् शब्दापयति आकारयति शब्दा.
स्थगनासम्भवात् यस्मिन्बर्षे तत्प्रविग्लनस्पृष्टम् , अत एव पयित्वा च तेषां सम्मुखमेवमयादीत्-एवं खलु देवानां प्रियाः!
'स्यरेणुविणासणं' श्लषणतरा रेणुयुगला-रजः त एवं इत्यादि सुगम , नवरं देवानां प्रियाः ऋजयः प्राशाः।
स्थूला रणवः,रजांसि च रेणवश्व रजोरेणवस्तेषां विनाशनम, तं गच्छह शं तुमे देवाणुप्पिया ? जंबुद्दीवं दीवं भारह
एवम्भूनं च सुरभिगन्धोदकं वर्षे वर्षिया योजनपरिमबासं अमालकप्पं णयरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं
एडलं क्षेत्र निहतरजः कुरुतेति योगः, निहतं रजो भूय
उत्थानासम्भवात् यत्र तसिहतरजः, तत्र निहतत्व रजा महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह फरेत्ता बंदह क्षणमात्रमुत्थानाभावेनापि सम्भवति, तत माह-नधरजाणमंसह बंदित्ता णमंसित्ता साइं साई नामगोयाई म सर्वथा उहश्यीभूतं रजो यत्र तनष्टरजः, तथा भ्रसाहेह साहित्ता समणस्स भगवत्रो महावीरस्स
बातोशततया योजनमात्रात् क्षेत्रात् दूरतः पलायित रजो
यस्मात्तद् भ्रष्टरजः, एतदेव एकाधिकद्वयेन प्रकटयति-- ( सव्यमो संमता) जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं
उपशान्तरजः प्रशान्तरजः कुरुत, कृत्वा च कुसुमस्य जा पा पत्तं वा कटुं वा सकरं वा असुई प्रचोक्खं वा तावेकवचनं कुसुमजातस्य जानू सेधप्रमाणमात्रमोघेन-- पूरभं दुब्भिगंधं सव्वं माहुणिय २ एगते एडेह एडे ताण- सामान्येन सर्वत्र योजनपरिमण्डले क्षेत्रे वर्ष वर्षत, किंचोयगं गाइमट्टियं पचिरलपप्फुसिय रयरेणुविणासणं
विशिष्टस्य कुसुमस्येत्याह--- जलथलयभासुरप्पभूयस्स ,
जलज च स्थलजं च जलजस्थलजं जलजं पनादि स्थलज दिवं सुरभिगंधोदयवासं वासह वासित्ता णिहयरयं णहरयं |
विकिलादिभावर-दीप्यमानं प्रभूतम्--प्रतिप्रचुरं, ततः भवरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह करिता जलथलयभासु-, कर्मधारयः, भास्वरं च तत्पभूतं च भास्वरप्रभूतं जलज
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सूरियाम
स्थलजं च तत् भाखरप्रभूतं च जलजस्थलजभास्वरप्रभूतं तस्य पुनः कथम्भूतस्येत्याह-- बिटट्टाइम्स' वृन्तेन श्र घोषाननाः तिष्ठीत्येतस्यादित
( १०८४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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इत्थम्भूतस्य
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वनपलस्येपर्य 'सवनस' दशावास पश्च दशार्द्ध वर्णा यस्य तद् दशार्द्धवर्ण तस्य पञ्चवर्णस्येति न कुसुमजातस्य वर्षे वर्षित्वा ततः योजत परिमद-प्रधान सुभगमनयोम्पं कुरुन कथम्भूत सत् कृत्या सुरबराभिगमनयोग्यं कुरुते - कलागुरुपपरकुंदुरुतुरुक्षमघमघंन गंभ रामं कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवरः-- प्रधानः कुन्दुरुक्कः-चीडा तुर्क कालागुरुबरकुन्दुरुतुरु च काला गुरुप्रवर] कुन्दुरुतुरुक्काः तेषां यो मघमघाय धूपस्य मानो गन्ध उतारारमणीयं कालागुरुप्रवेर कुन्दुरुक्कतुरुक्क धूपम घमघायमानगधाभिरामं तथा शाम गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते व ते वरगन्धाश्र - वासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः सोऽस्यास्तीति सुगन्धकम् 'अतोऽनेकस्वरादिति इकप्रत्ययः अन एच गन्धवर्तिभूर्त सातिशयान् गन्ध गुटिकाकारमिति भावः न केवल स्वयं कुरुत किये रपि कारयत कृत्वा च कारयित्वा च एतां ममाप्तिकां चिप्रमेव शमेव प्रत्ययेन यथाकार्यसम्पादन सफल कृत्या निवेदयत ।
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तं ते अभियोगिया देवा सूरियाभेां देवेखं एवं बुत्ता समाणा हट्ठतुङ • जाब हियया करयलपरिग्गहियं ( दसनई) सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवो तह त्ति आणाए विणणं वयणं पडिसुगंति, एवं देवो तह आणाए विणएं व्रयणं पडियेत्ता उत्तरपुच्छि दिसि भागं अवकमंति, उत्तरपुरच्छिम पिसिभागं अवकमित्ता asara मुग्धा एवं समोहति २ ता संखेजाई जोयणाई दंडं निस्सरन्ति, तंजा - रयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खा मसारगना हंसगम्भाणं पुग्गलार्थ सोगंधिमा जोइरमाणं अंजणपुलगा अंजणा स्पायं जावरूवा का फलिहा रिहा अावावरे पुग् परिमाति अहा ०त्ता अहासहुमे पुग्गले परियायत २ ता दोपि उस मुग्धाएणं समोहति २ त्ता उत्तर
रूपाई पिउति २ ना ताए उडाए पत्था ए) तुरियाए चवलाए चंडाए जयणाए सिघाए उयाए दिव्वए देवगइए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दा मम बीचमा २ गोत्र ही दीचे जेव भारहे वासे जेयेव आमलकप्पा गरी जेगोत्र मंत्रालयसेमेतिए जेसे समझे भंगव महावीर ने शेष उपागच्छेति शेवगा समयं मगनं महावीरं तिक्ता हिला हिसां फरेति २दना नर्म
सुरियाभ सिता एवं बदामी - अहे यं भंते! सूरयामस्य देवस्त श्राभियोगा देवा देवाणुष्प्रियाणं वंदाम्रो समंसामो मक्कारे-मोसम्ममो. कला मंगलं देवयं चेयं साम (०)
'दिनम
गिका देवाः सूयाभेन देवन एवमुक्ताः सन्तो' हेतुट्ठ जाव हियया' इति श्रत्र यावच्छेदकरणात् 'हटुटुचित्तमाणंदिया. पीइमा परमसोमस्सिया हरिसव सविसप्पमाराद्दियया इति द्रष्टव्यं करयलपरिग्गहिय' मित्यादिद्वयोर्हस्तयो रन्योऽन्यान्तरिताकुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकत्र मीलन सा अञ्जलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता निष्पादिता करतलपरिगृहीता तां दश नत्रा यस्याम् एकैकस्मिन् हस्तनखपञ्चकसम्भवात् दशनस्वा तां तथा श्रावर्त्तनमावर्त्तः शिरस्यावतों यस्याः सा शिरस्यावर्त्ता कण्ठेकाल उरसिलोमे त्यादिवत् श्रलुक्समासः, ताम्, अत एवाह मस्तके हत्या बिच सूर्याभस्य देवस्य प्रतिशृण्वन्ति - श्रभ्युपगच्छन्ति कथम्भूतेन विनयेनेत्याह
"
' एवं देवो तह ति श्रारणाए' इति हे देव ! एवं यथैव नृपमादिशत तथैवाया भवदादेशेन
'देवो' इत्यत्रौकार श्रामन्त्रणे प्राकृतलक्षणवशात्, यथा
'अ' इत्यत्र पनिस्य वचनम् उत्तरपुर
उत्त
•
4
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+
पूर्वदिग्भागम्, ईशानको रामित्यर्थः, तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वातू अपमति गच्छन्ति अपक्रम्य च वैसमुद्र घातेन वैकियकरणाय प्रयत्नविशेषेण समोहनम्ति समग्रहन्यन्तेः समवद्दता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्वात्मप्रदेशान दूरतो विक्षिपन्ति तथा चाह' संखेज्जाणि जोि दंडं मिसिरन्ति' दण्ड इव दण्ड - ऊर्ध्वाधः श्रायतः शरीरपादप जीवदेशसमूहस्तं शरीरादियेानिगो जनानि यावन्निसृजन्ति-निष्काशयन्ति, निसृज्य तथाविधान बुझ्लानाददते एतदेव दर्शयति तद्यथा रत्नानां क कैतनादीनां २ बज्राणां २ वैडूर्षाणां ३ लोहिताक्षाणां ४ मसारगल्लास ५ हंसगर्भाणां ६ पुद्गलानां ७ सुगन्धिकानां ज्योनीरसानाम् अ अनपुलकानाम् १० अञ्जनानां ११ रजतानां १२ २३१७१२नां १६ योग्यान् यथावादशन् - असान् पुछलान् परिशातयन्ति यथासूक्ष्मान् सारान् पुलाव पर्याददते पर्यादाय निर्मातासमुद्दा
तेन समवहन्यन्ते समवद्दत्य च यथोकानां रत्नादीनामयोग्यान यथावादशम् पुद्गलाब् परिशातयन्ति यथासूक्ष्मानामे आदाय यावन्ति । ननु रत्नादीनां प्रोयोग्याः पुद्गला श्रदारिका उत्तरवैकिरूपयोग्याश्च पुद्गला ग्राह्या वैक्रियास्तत् कथमेवं युक्तमिति ?, उच्यत इहे रत्नादिग्रहणं सारतामात्रप्रतिपादनाथे तो रत्नादीनामिति मितिमा अथवा श्रीवारिकाः सन्तो परमन्ते तत्तथा तथा[ परिणमनस्वभावत्वादन
यानि रूपाणि कृता उत्कृष्टया स्वागतिनामोत् प्रशस्तया शीघ्रखश्वर
६
3
"
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द
सूरियाभ (वलियट्ट) खंधे चम्मेदृगदुघण मुट्ठियसमाहयगत्ते उलंघणपणजइणपमद्दणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले रस्सबल समन्नागए तलजमलजुयल [ फलिहनिभ ] बाहू मेहावी णिउ सिप्पोवनए एग महं दंडसं पुच्छवि सलागाहत्थगं वा वेणुसलाइयं वा गहाय- रायंगणं वा रायंतेपुरं वा देवकुलं वा समं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा तुरियमचवलमसंभंते निरंतरं सुनिउणं सव्वतो समता संपमजेजा, एवामेव तेवि सूरियाभस्स देवस्स आभियोगिया देवा संवट्टबाव, चिउब्वंति, संघare बिउवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वतो समता जो परिमण्डलं जं किंचि तरी या पहतं वा तहेव सव्वं आहुखिय २ एगंते एडेंति एगंते पडित्ता खिप्पामेत्र उवसमंति, खिप्पा० २त्ता दोचं पिवेउब्वियसमुग्वाएं समोहणंति, दोच्च पि० २त्ता अन्भवद्दलए विउव्यंति अभ० २ त्ता से अहाणामर भद्दगदारए सिया तरुणे ० जाव सिप्पोवगए एग महं दगवारगं वा दुगथा
देवाइ समणे भगर्वं महावीरे देवा एवं बदासी-पोरामेयं देवा ! जीयमेयं देवा ! किच्चमेयं देवा ! करणिजमेयं देवा ! आइननेयं देवा ! अन्भसुरणाय - मेयं देवां ! जणं भवयवइवाण मंतर जे इसियवे मा शिया देवा ! अरहंते भगवं वंदति नर्मसंति वंदित्ता नर्मसित्ता तओ साईं साई खामगोयाई साधिति तं पोराणमेयं दे- 1लगं वा दगकलसगं वा दगकुंभगं वा आरामं वा ० जाव
वा ! ०जाव अन्भणुलायमेयं देवा ! | ( ० ६ )
पर्व वा अतुरिय • जांव सव्वतो समंता यावरिसेजा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स श्रभियोगिया देवा अभवद्दलए विउच्वंति अभ० २ व्वित्ता खिप्पामेव पयणुतणायन्ति० २. त्वा खिप्पामेव विज्जुयायंति २ तासमणस्स भगवओ महावीरस्स सव्वच समता जोयणपरिमंडलं णच्चोदगं खातिमट्टियं तं पविरलपष्फुसियं रयरेणुविणासणं दिवं सुरभिगंधादगं ( वासं ) वासंति वासेता णिहयरयं खट्टरयं भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेंति, २ त खिप्पामेव उवसामेति २ ताः तच्च पिवेउच्चिस मुग्धारणं समोहति २ ता पुप्फबद्दलए विउच्वंति से जहाणामए मालागारदारंए सिया तरुणे ० जाव सिप्पो गए एगं महं पुप्फपडलगं वा पुष्पचंगेरियं वा पुप्फछत्रियं वा गहाय रायंगणं वा ०जाव सव्वतो समंता कयग्गाहगहियकरयलप भविष्यमुकेणं दसद्भवने कुसुमेणं मुकपुष्कपुजे वयारकलितं करेजा, एवामेव ते सूरियास्स देवस आभियोगिया देवा पुष्कबद्दलए विउव्वंति २ ना खिप्पामेव पयगुणायन्ति खिप्पा० २ ता • जाव जोयणपरिमण्डलं जलथलयभाल सुरंप्पभूयस्स बिटट्ठ| इस्सदसद्भवन्नकुसुमस्स जागुस्सेहपमा मेति ओहिवासं वासंति वासित्ता कालागुरुपवर कुंदुरुक तुरुक धूत्रमघमiniयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्वं
(२००५) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
"सूरियाम
शोत् त्वरितया त्वरा सञ्जाता अस्या इति स्वरिता तया प्रदेशान्तरमवती चपला तया क्रोधाविष्टस्येव श्रमा
संवेदनात् चण्डे चण्डा तथा निरन्तरं शीघ्रत्यगुणयगात् शीघ्रा तथा शीघ्रया परमोत्कृष्ट वेगपरिणामोंपेता जवन तथा वातोद्धृतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा उद्धृता तथा दिव्यया-दिवि देवलोके भवा दिया तथा देवगत्या तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन मध्येनेत्यर्थः, गृहगृहेण मध्यमध्येन पदेपदेन सुखंसुखेनेत्यादयः शब्दाश्चिरन्तनव्याकरणेषु सुसाधवः प्रतिपादिता इति नायमपप्रयोगः श्रवपतन्तोऽपतन्तः समागच्छन्तः इति भाषः पूर्वान् पूर्वान् द्वीपसमुद्रान् यतिक्रामन्तो व्यतिक्रामन्तः उल्लङ्घयन्त इत्यर्थः शेषं सुगमं यावत् ।
'देवाइ समणे' त्यादि देवादियोगात् देवादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तान् देवानेवमवादीत् - पुराणेषु भवं पौराणमेतत्कर्म भो देवाः !, चिरन्तनैरपि देवैः कृतमिदं चिरन्तनान् तीर्थङ्करान् प्रतीति तात्पर्यार्थः, जी'नमेतद्-वन्दनादिकं तीर्थकृद्भयो भो देवा !, यतोऽभ्यनुज्ञातमेतत् सर्वैरपि तीर्थकृद्भिर्भो देवास्ततः कर्त्तव्यमेतद् युष्मादृशां भो देवाः !, एतदेव व्याचष्टेकरश्रीयमेतद् भो देवाः !, श्राचीर्यमेतत् कल्पभूतमेतद् भो देवाः !, किं तदित्याह 'जन्न' मित्यादि, यत् 'समि' ति पूर्वयत् भवन पतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा श्रतो भजवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्यित्वा च पश्चा• स्स्वानि २ - श्रात्मीयानि २ नामगोत्राणि कथयन्ति ततो युष्माकमपि भो देवाः ! पौराणमेतत् यावदाचीणमेतदिति ।
ते श्रभिगिया देवा समणं भगवया महावरण एवं वृत्ता समाया हड ०जाव हियया समं भगवं महावीरं वंदंति णमंसंति बंदिता मंसित्ता उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं श्रवकमंति श्रवक्कभित्ता वेउव्जियसमुग्वारणं समोहति २ खित्ता संखेजाई जोयणाई दंडे निसिरंति, तं जहा - रगणाणं ० जाव रिट्ठाणं महाबारे पोग्ले परिसाति अहाबायरे० २ डित्ता दोचं पिवेत्रियममुग्धाणं समोहति २ ता संवट्टवाए विउव्वंति, से जहानांमण भइयदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं अप्पा
[ थिरसंघ
] थिरग्गहत्थे पडिपुष्पाणिपाय -सुरवराभिगमणजागं करंति कारयति करेत्ता यः कारवेत्ता निरु [संघाय ] परिए घननिचियवट्टवलिय
य, विपामेव उसामंनि २ मित्ता जेव समगा भगवं
''''
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(१०८६) सूरियाम अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणं अतिशीघ्रगतौ प्रमदन-कठिनस्यापि वस्तुमश्चूर्णनकरण
समर्थः लहानप्लवन जवनप्रमईनसमर्थः, कचित् ' लंघणपवणभगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव बंदित्ता नमंसित्ता समण
जाणवायामणसमत्थे' इति पाठः, तत्र व्यायामने- व्यास्स भगवश्री महावीरस्स अंतियातो अंबसालवणतो
यामकरणे इति व्याख्येयम् , छेको-द्वासप्ततिकलापण्डितो, चेहयाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमिचा ताए उकिट्ठाए- दक्षः--कार्याणामविलम्बितकारी प्रष्ठा-वाग्गमी कुशलः
जान बीइवयमाणे २ जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव मूरि- सभ्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावी परस्पराव्याहतः-पूर्वायाभे विमाणे जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव मूरियाभे देवे
परानुसन्धानदक्षः, अत एव ' निपुणसिप्पावगए ' इति -
निपुणः यथा भवति पवं शिल्य-क्रियासु कौशलम् उपगतः, तेणेव उवागच्छति २त्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्ग
प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः एकं महान्तं शिलाकाहस्तकंहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडे जएणं विजएणं सरित्पर्णादिशलाकासमुदायं सरित्पर्णादिशलाकामयीं सबद्धावेति २त्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणति । (सू०१०)! म्मार्जनीमित्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थो, ' दंडसंपुच्छणि या' 'तए णमि' त्यादि सुगम, यावत् • से जहानामए भा
इति-दण्डयुक्ता सम्पुच्छनी-सन्मार्जनी दण्डसम्पुच्छनी तां
चा 'वेणुसिलागिग वा ' इति-वेणुः बंशस्तस्य शलाका पदारए सिया' इत्यादि , स वक्ष्यमाणगुणो यथानामकोनिर्दिएनामकः कश्चिद्भृतिकदारका-भृति करोति भृति
वेणुशलाकास्ताभिनिवृत्ना वेणुशलाकिकी-बेणुशलाकामयी का-कर्मकरः तस्य दारको भृतिकदारकः स्यात्, किंवि
सम्मानी तां वा गृहीत्वा राजाङ्गणं राजान्तःपुरं वा देयशिष्ट इत्याह--तरुणः प्रवईमानवयाः (ननु दारकः वर्ध
कुलं वा 'सभा वा' सन्तो भान्स्यस्यामिति सभा ग्रामप्र. मानवया) एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन?, ना
धानानां नगरप्रधानानां यथासुखमवस्थानहेतुर्मण्डपिका सन्नमृल्योः प्रवर्द्धमानवयस्वाभावात् ,न ह्यासन्नमृत्युः प्र
तां वा प्रपा चा--पानीयशालाम् श्राराम बति-श्रागत्या. वर्धमानयया भवनि, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्य सम्भवः, गत्य भोगपुरुषा वरतरुणीभिः सह यत्र रमन्ते क्रीडन्ति पासन्नमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थश्चैवम् श्रा
स आरामो नगरानातिदूरवर्ती क्रीडाश्रयः तरुखण्डः तम्, रम्भस्ततोऽर्थयाद्विशेषणम्, अम्ये तु व्याचक्षते-रह यद्रव्य 'उज्जाणं ' त्ति-ऊर्ध्व विलम्बितानि प्रयोजनाभायात् याविशिएवर्णादिगुणापतमाभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रसि- नानि यत्र तदुधान-नगरात्प्रत्यासन्नवत्ती यानवाहनक्रीवं, तथा तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स भृतिकदार- डागृहाधाश्रयस्तरुखण्डः, तथा अत्वरितमचपलमसम्भ्राकस्तरुण इति, किमुक्तं भवति ?-अभिनवो विशिष्टवर्मा- तं, स्वरायां चापल्य सम्भ्रमे वा सम्यक्कचवराद्यपगमासदिगुणोपेतश्चति, बलं--सामर्थ्य तद् यस्यातीति बलवान् , म्भवात् , निरन्तरं नत्वपान्तरालमोचनेन, सुनिपुर्ण श्लतथा युग-सुषमदुष्षमादिकालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति चाणस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन, सर्वतः-सर्वासु दिक्षु विविध म दोषदुष्टः स युगवान् , किमुक्तं भवति ?-कालोपद्रयो- समन्ततः-सामस्त्येन सम्पमार्जयेत् , 'एवमेवे' त्यादि. ऽपि सामर्थ्यविघ्नहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेत- सुगम यावत् 'खियामेव पच्चुवसमंती' त्यादि, एकान्त द्विशेषणं, युवा-यौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय तृणकाष्ठाचपनीय क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति प्रत्येक इत्येतदुपादानम् , 'अप्पायंके' इति अल्पशब्दाऽभाववाची, ते भाभियोगिका देवाः उपशाम्यन्ति-संवर्तकवायुधिअल्पः-सर्वथा अविद्यमान अातङ्का-ज्यरादिर्यस्य सांड- कुणानिवर्तन्ते, संवर्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भास्पातङ्कः स्थिरोऽग्रहस्तो यस्य स स्थिगग्रहस्तः , 'दढपा- वः, ततो 'दोश्च पि बेउब्धियसमुग्धापणं समाहणंति' संणिपायपिटुंतरोरुपरिणए' इति दृढानि प्रतिनिविडचया- वर्तकवातयिकुर्वणार्थ हि यदलायमपि चैक्रियसमदानेन पन्नानि पाणिपादपृष्ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपा- समयहननं तत्किलैकम् इदं त्वब्भ्रवादलकाबकुर्वणार्थ द्वितीणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः क्ला
यमत उक्तम्-द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्धातन समवहन्यन्ते म्तस्य परनिपातः, तथा घनम्-अतिशयेन निचितौ-निवि
(प्रन्ति ), समवहत्य चाम्भ्रवाईलकानि विकुर्वन्ति, वाःइनरचयमापन्नौ वलिताविव वलितौ वृत्तौ स्कन्धौ यस्य
पानीयं तस्य दलानि वादलानि तान्येव वादलकानि; मेघा स घननिचितलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्मेढगदुघणमुट्टियस
इत्यर्थः, अपो विभ्रतीति अम्भ्राणि-मेघाः, अम्भ्राणि सत्यमायगत्ते ' इति चर्मेटकन द्रघणन मुष्टिकया च-मुटपा स्मिन्निति 'अब्भ्रादिभ्यः' ॥१२४६॥ इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः। समाहत्य २ ये निचितीकृतगात्रास्ते चर्मेटकघणमुष्टिक
आकाशमित्यर्थः, अभ्र वादलकानि अन्ध्रवादलकानि तानि समाहतनिचितगात्रास्तषामिव गात्रं यस्य स चटकद्र
विकुर्वन्ति; आकाश मेघानि विकुर्वन्तीत्यार्थः, · से जहाघणमुष्टिकसमाइतनिचितगात्रः, 'उरस्सबलसमझागए'
नामए भइगदारंगे सिया' इत्यादि पूर्ववत् 'निउणसिइति उरसि भवम् उरस्यं तश्च तदलं च उरस्यबल तत्सम- पावगए एग महमि' त्यादि, स यथानामका भृतिकदारक भ्यागतः-समनुप्राप्तः उरस्यबलसमन्यागतः प्रान्तरोत्सा- एकं महान्तं दकवारकं वा-मृत्तिकामयभाजनविशेष हवीर्ययुक्त इति भावः, ' तलजमलयुगलबाहु' तली-ताल- 'दगकुंभग व' त्ति-दकघट, दकस्थालकं वा-कंसादिमवृक्षौ तयोर्यमलयुगलं-समश्रेणीकं युगलं तलयमलयुगलं यमदकभृतं भाजने दककलसं वा-उदकभृतं भूशारम्'श्रासद्वदतिसरली पीवरी च बाहू यस्य स तलयमलयुगल- वरिसिजा' इति-श्रावत् श्रा-समन्तासिञ्चत् , 'खिबाहुः ‘लंघणपयण जइणपमहणसमत्थे' इति लङ्घने--अति- पामेव पतणतणायं ' ति--अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षण ऋमयो सबने-मनाक पथुनरविक्रमवति गमने जवन--। स्तनितं कुर्वन्तीत्यर्थः, 'पविज्जयाईति ' ति-प्रकर्षेष
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सूरियाभ
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विद्युतं विदधति, पुप्फबद्दलए विश्वंति पुष्पवृष्टियोस्यानिवामिकानि पुष्पवाविकानि पुष्पानपान विकुर्वन्तीति भावः महं पुण्यं या एक महनीय उपरि स्यम्यते इति छाया छायाचिका पुष्पाधिका पुष्पाधिकात या कानिप्रती तानि ' कयग्गाद्दगद्दियकरयलपब्भट्टवि (प) मुक्केणं ति-इह मैथुनसंरम्भे यत् युवतेः केशेषु ग्रहणं स कन्रग्रहस्तेन गृहीतं तथा करतलाद्वि (प्र) मुलं, प्राकृतत्वात्पदत्यस्तो विशेषसमासः तेन शेषं सुगमं यावत् ' जपणं विजपणं वद्धावेति जपेन विजयेन पर्दापयन्ति जयदेवं पयर्थः तत्र जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु परेषामसहमानानाममिनोत्पाद पर्यापयित्वा च तां पूर्वोक्रामा प्रत्य पयन्ति आदिष्टकार्यसम्पादनेन निवेदयन्तीत्यर्थः । तए णं से सूरिया देवे तेसिं आभियोगियाणं देवाणं अंतिए एयमहं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठ ० जाव हियए, पाय
1
या हिवदेवं सहावेति सदावेत्ता एवं वदासी-खि - पामेव भो देवाप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्मा मेघो पर सियगंभीरमहुरसद जोषणपरिमंडल सुसरघंटं तिक्खुची उचालेमागे २ महया २ संदे उपोसेमा
,
२ एवं व्यासी-आयति भोरियामे देवे गच्छ ति से भी रिया देवे जंबूदीचे दीवे भारहे वाले आमलकप्पाए यरीए बसालवणे चेतिते समयं भगवं महावीरं अभिवंदर, तुम्भेऽवि भो देवाप्पिया ! सविडीए जावयातिपरवेणं शियगपरिवालसद्धि संपरिवुणी डा सातिं सातिं जाणविमाणाई दुरूढा समाणा अकालपरिही चैव वरियामरस देवस्स अंतियं पाउम्भवह। (सू०११) तर समित्यादि ततो मि ति पूर्ववत् स सूर्याभो देवस्लेषाम्' चाभियोगाकं हि श्रासमन्तादाभिरूपेन युज्य - प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्या अभियोगिकाः इत्यर्थः तेषामाभियोग्यानां देवानामग्निकेसभी एम् अनन्तरोकमर्थं श्रुत्वा - श्रवणविषयं कृत्वा श्रवणानन्तरं च निशम्य - परिभाव्य हनुटु "जाच हियय इति यावच्छेदकमादी परमसोमरिसवसविष्यमाणहियए' इति द्रष्टव्यं पदात्यनीकाधिप विदेश मामेदानां प्रियसभायां सुधर्मायां सुधर्माभिधानाय रसियर्गमरमरसमिति स्तस्य रसितं गर्जितं तद्वद्गम्भीरो मधुरश्च शब्दो यस्याः सा मेघम्भीरमधुरो जायपरिमंडल योजन योजनार्थ परिधानोऽयं निर्देशः पा रिमण्डल्यं यस्याः सा योजनपरिमण्डला तां सुखरां-सुस्वरामधानां घटा मुझ २ नापत्यर्थः मद्द ता २ शब्देन उद्घोषयन् - उद्घोषणां कुर्वन् एवं वदतितभी सूर्याधादेवो मतिमाः सूर्याना देवा जम्बूद्वीपं भारतं वर्षम् आमलकल्पां नगरीमाम्रशालवनं चैत्यं ।
4
मे
तर गं से पायत्ताखियाहिवती देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं चुने समाये हट्ट जाब दियए एवं देवा! तह नि आणाए दिए पयणं पडिसुखेति पडिणिता जेवरिया विमाणे जेणेव सभा सुम्मा जैसे मेघोघरसितगंभीरमहुरसद्दा जोयणपरिमंडला सुस्सरा घंटा तेणेव उवागच्छति २
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"
तं मेघोघरसित गंभीर महुरसहं जोयणपरिमंडलं सुस्सरं घं टं तिक्खुतो उन लेतितिर से तीसे मेथे घरसितगंभीरमहरसद्दाते जोययपरिमंडलाते सुस्तराते घंटाए तिक्खुतो उल्ला
"
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(१०८७) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
सूरियाम
यथा (तंत्र) भ्रमं भगवन्तं महाघीरं वग्दितुं तत् तस्मात् 'तुम्भेऽवि रामि' ति यूयमाप, 'रामि' ति पूर्ववद् देवानां शिया पूर्ववद् सर्वदर्था परिवारादिकया सपा यथाशििवस्फारितेन समस्तेन शरीरतेजसा सर्पदले सम स्तेन हस्त्यादिसैन्येन सर्वसमुदायेन स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिचारेण सर्वादग समस्यायनेन सर्व विभूत्या सर्वया अभ्यन्तरक्रियकरणादिवाह्यनादिसम्प दा सर्वविभूषया यायच्छक्रिस्फारोदारकर सम्ब सममेति ऐन सामे स्वनायकविषयमानस्यायनपरा स्वनायोपदिकार्यस स्पादनाय यावच्छक्तित्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, 'सध्यपुप्फवत्थगंधमलालंकारें अत्र गन्धा - वासाः माल्यानि - ! - पुष्पदामा नि थलङ्कारा - श्राभरणविशेषाः, नतः समाहारो द्वन्द्वस्ततः सर्वशब्देन सह विशेषणसमासः, 'सम्वदिव्वतुडियस - इसनिनारण' मिति - सर्वाणि च तानि दिव्य त्रुटितानि च सर्वानि तेषां शब्दाः सतते
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मीनः सतेन नितरां माहो महान् घोषः सर्वत्रुटितदिव्यशब्द सन्निनादस्तेन, हद्द अल्प सर्वशब्दो दृष्टः, यथा 'अनेन सर्व पीतं घृतमिति, तत आह-'महतारी इत्यादि महत्या यायच्छक्रिलियापरिवाराकिया एवं मात्भावनीयम् तथा महतां स्फूर्तिमतां पराप्रधानानां पुठितानाम् श्रतोद्यानां यमकसमकम् - एककालं पटुभिः पुरुपैः प्रवादितानां यो रवस्तेन एतदेव विशेषेणाचसंखपणच पडद्दमे रिझल्लरिखरमुद्दिहुडकमुरमुइंग कुंदुभिनिघोसणा इतरण' शंखः-- प्रतीतः पणवो - भाण्डानां पद्दतीत मेरी का भारीपना विस्तीवलयाकारा खरमुखी काला हुक्का प्रतीता महा माणो मईलो मुरजः स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां इन्सां निषा महान ध्यान नादायामियवादीभरकालभाषी समयनि तो या रस्तेन नियगपरिवारसदि संपर इति निजक:- आरमीयः आत्मीयो यः परिवारलाई त सहभावः परिवाररीतिमन्तरेणापयति
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परिसम्परिवाररीत्या परिवृताः साः 'अकालपरिहीं वेत्रे ति परिहानिः परिहीनं कालस्य परिहीनं कालविलम्ब इति भावः न विद्यते कालपरिहीनं यत्र प्रादुर्भवने तदकालपरिद्दीनं क्रियाविशेषणमेतत्, 'अतिए पा उम्भव' अति-समीपे प्राय समागच्छतेति भाषा
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(१०८) सूरियाम अभिधानराजेन्द्र:1
सृरियाम लियाए समाणीए से मूरियाभे विमाणे पासायविमाणणि- लाहलस्तेन त्वरित-शीघ्र चपलम--श्रा कुलं प्रतिबोधने कृते पखुडावडियसद्दघंटापडिसुयसयसहस्ससंकुले जाए यावि सति 'घोसपकोउहलादिनकन्नएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाहोत्था । तए णं ते सूरियाभविमाणवामिणं बहूणं
णमिति कीहा नाम घोषणं भविष्यतीत्येवं घोषणे कुतू
इलेन दत्तो करणौ यैस्ते घोषणकुतूहलदत्तकरार्णाः, तथा एवेमाणियाणं देवाण य देवीण य एगंतरइपसत्तनिच्च
काग्रं-घोषणाश्रवणैकविषय चित्तं येषां ते एकाग्रचित्ताः, प्पमविसयसुहमुच्छियाणं सुस्सरघंटारवविउलबोल (तु
एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदनुपयोगः स्यादत पाह-उपयुरियनवल ) पडिबोहणे कए समाणे घोसणकोउहलादि- नमानसाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां. पदात्यनीसकाएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिबई
काधिपतिदेवस्तस्मिन् घण्टारये 'निसंतपसंनंसी' ति नितर्ग देवे तंसि घंटारपंसि णिसंतपसंतंसि महया महया सद्देणं
शान्ती निशान्तः-अत्यन्तमन्दीभूतस्ततः प्रकपण सर्वात्मना
शान्तः प्रशान्तः, ततश्विनप्ररूढ इत्यादाविव विशेषणस-- उग्धोसेमाणे उग्रोसेमाणे एवं वदासी-हंत सुणंतु भवंतो
मासस्तस्मिन् महता २ शब्देन उद्घोषयन्नेवमयादीत्-'हन्त सूरियाभविमाणवासिणो बहवे बेमाणिया देवा य देवीओ सुणतु' इत्यादि हर्षे , उक्तं च--' हन्त हर्षेऽनुकम्पा य भूरियाभविमाणघइणो वयणं हियसुहत्थं आणवणियं यामि' न्यादि, हर्षश्च स्वामिनाऽऽदिएवात् श्रीमन्महावीरभो !,मूरियाभे देवे गच्छह ण भो ! सूरियाभे देवे जम्बूदी पादबन्दनार्थ च प्रस्थानसमारम्भात् , शरवन्तु भवन्तो बहवः दीवं भारहं वासं आमलकप्पं नयरिं अंवसालवणं चइयं
सूर्याभविमानवासिनो वैमानिकदेवा देव्यश्च, सूर्याभविमान
पतेर्वचनं हितसुखाथ हितार्थ सुखार्थ चेत्यर्थः, तत्र हितं समणं भगवं महावीरं अभिवदए, तं तुम्मेऽवि देवाणु
जन्मान्तरेऽगि कल्याणयहं तथाविधकुशलं, सुख तस्मिन् प्पिया ! सब्धिडीए अकालपरिवीणा चेव सूरियाभस्स
भवे निरुपद्रवता, आशापयति भो देवानां प्रियाः! सूर्याभो देवस्स अंतियं पाउम्भवह । (सू०१२)
देयो यथा गच्छति भोः ! सूर्याभो देवो 'जम्बूद्वीपं द्वीपमि' 'तए ण से' इत्यादि 'जाव पडिसुणित्ता' इति, पत्र त्यादि तदेव यावदन्तिक प्रादुर्भयत। यायच्छन्दकरणात्-'करयलपारिग्गहियं इसनई सिरसावतं मत्थप अंजलि कट्टु एवं देवा! तह त्ति प्राणाए विणता ण ते सूरियाभरिमाणवामिणो वहवे वेमाणिया पणे बयां परसुणे ति द्रव्य, तिखुसो उल्लाले देवा य देवी श्री य पायत्ताणियाहिवइस्स देवस्स अंतिएएति विकृत्वः-त्रीन वारान् उल्लालयति-ताडयति, ततो 'ण' यमर्दु सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ० जाब हियया अप्पेमइया मिति वाक्यालङ्कारे तस्यां मेघौघसितगम्मीरमधुग्शदायां ।
बंदणवत्तियाए अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अगइया योजन परिमण्डलायो सस्थराभिधानायां घण्टायां विकृत्वस्ताडितायां सत्यां यत् सूर्याभविमानं (तत्र) तत्प्रासाद.
सकारवत्तियाए एवं संमाणवत्तियाए कोउहलवत्तियाए निष्कुटेषु च श्रापतिताः शब्दाः-शब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः अप्पे असुयाई.सुणिस्सामो सुयाई अट्ठाई हेऊई पसिसमुच्छलितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतशतसहस्राणि-घण्टा. णाई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सुप्रतिशब्दलक्षाणि तेः संकुलमपि जातमभूत् . किमुक्तं भवति?. घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडिनायां ये विनिर्गताः शब्द
रियाभस्स देवस्स वयणमणुयत्तमाणा अप्पेगतिया अन्नपुद्गलास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिषु च दिव्यानु
मन्त्रमणुयत्तमाणा अप्पेमइया जिणभत्तिरागणं अप्पेगभावतः समुच्छेलितैः प्रतिशब्दैः सकलमपि विमानमेक- इया धम्मो ति अप्पेगइया जीपमे ति कुट्ट सब्बिड्डीए योजनलक्षमानमपि बधिरितमजायत इति , पतेन द्वादश- जाव अकालपरिहीणा चव सूरियाभरस देवस्स अंतियं भ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्र ग्राह्यो भवति. न परतः
पाउन्भवनि । ( सू०१३) तए णं से मूरियामे देवे ते ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छन्दश्रुतिरुपजायते ? इति ययोद्यते तदपाकृतमयसेय, स
सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीचैत्र दिव्यानुभावतः तथारूपप्रतिशब्दोच्छलने यथो- ओ य अकालपरिहीणा चव अंतियं पाउन्भवमाणे पासनदोषासम्भवात् । ' तए णमि " त्यादि . सतो ति पासित्ता हतुदृ०जाव हियए आभियोगियं देव स‘णमि' ति पूर्ववत् तेषां सूर्याभदेवविमानवासिनां बहुन ।
हावेति श्राभित्री सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो वैमानिकदवानां देवीनां च एकान्तेन सर्धात्मना रतौ--रमणे
देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयमंनिविढे लीलट्ठियसालप्रसक्ला एकान्तरनिग्रसका अत एव नित्य-सर्चकाल प्रमता। नित्यप्रमत्ताः, कस्मादिति चेदत श्राह-विमयसुहमुच्छि- भंजियागं हामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिनयति' विषयसुखेषु मूञ्छिता--अध्युपपन्ना विषयसुखमू- ररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गछिता यतोऽभ्युपपन्नास्ततो नित्यप्रमत्ताः, ततः पदत्रयस्य- यवग्यइरइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतपदद्वयमीलनेन विशषणसमासः तेषां 'सुस्सा घंटारवरिउल
जुत्तं पिव अचीसहस्समालिणीयं स्वगसहस्सकलियं योलतुरियचयल पडियोहणे ' इति सुस्वराभिधानाया घण्टाया रवमय यः सर्वासु दिक्षु, विदिशु च प्रतिशब्दच्छलनेन ।
भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसं सुहफार्म सस्सिरीयरूवं विपुलः-मकलविमानव्यापिन या विम्तीगो बोलः-को घटावलिचलियमहुग्मणहग्स सुहं तं दरिमणि
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सूरियाभ
सिगोचयमिसिमिर्मितमशिरवणघंटियाजालपरिक्खि जोणसहसचित्थिएवं दिव्यं गमणस सिग्धगमणं णाम दिव्वं जाणं ( जाणविमा ) विउ - ब्याहि विधिवत्ता खियामेव एयमाणतियं पचपि चाहि । (सू० १४ )
''यदि सूर्याभविमानयो वैमानिका देवा देव्यायमकाविसमीपे एनम् - अनन्तरोक्तमर्थ श्रुत्वा 'सिम्म हट्ट तुट्ट •जाव दियया' इति यावत्करणात् 'हट्ठतचित्तमासदिया पीइमा परमसोमस्सिया हरिसवससिपमासहियया' इति परिग्रह अयेगा दतिया इति प्रि सम्भावनायामेककाः केचन वन्दनमत्ययं वन्दनम्-अभिवादनं प्रशस्तकाय वाग्मनः प्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तन्मया भगवतः श्रीमन्महावीरस्य कर्त्तव्यमित्येवं निमित्तम्, अव्येककाः पूजनप्रत्ययं पूजनं- गन्धमाख्यादिभिः समअकका सरकारप्रत्यये सरकार- स्तुत्यादिगोन्नतिकरणम् अप्येककाः सन्मानो-- मानसः प्रीतिविशेषः, अध्यककाः कुतूहलजिनभक्तिरागेण कुतूहलेन कौतुकेन कीदृशो भगवान् सर्वज्ञः सर्वदर्शी श्रीमन्महावीर इत्येचरूपेण यो जिने - भगवति वर्द्धमानस्वामिनि भक्तिरागोभक्तिपूर्वको ऽनुरागोन अप्येके सूर्याभस्य वचनम् श्रावामनुयमानाः प्रत्येकका अधुतानि पूर्वमनाकरिता साधकानि वचांसि श्रोष्याम इति बुदा अप्येककाः थुनानि पूर्वमाकानि यानि शङ्कितानि जातानि तानि इहामी निःशङ्कतानि करिष्याम इति पुया श्रप्येकका जीतमेतत्-कल्प एष इति कृत्वा, 'सन्धिडीए' इत्यादि प्राग्वत् ।
(१०) अभिधान राजेन्द्रः ।
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तए गं से अभिओगिए देवे सूरियाभेणं देदेयं एवं चुने समाथे हड्डे जाप हिपए करयलपरिग्गदियं जाव पडिसुगेर जाप पडिना उत्तरपुरच्छिदिनिभार्ग अकर्मति अवकमिता उत्रियसमुग्धारणं समोहणइ २ गित्ता संखेजाई जोयणाई ०जाव अहाबारे पोग्गलेसमो० २ ता अहामुदुमे पोगले प रियाएइ २ ता दोघं पि वेउव्वयसमुग्धारणं समोह-णेइ २त्ता अणेगखंभसयसन्निविडं जाव दिव्वं जाणवि माणं विउब्विरं पवत्ते याऽवि होत्था । तए गं से भिोगिर देवे तस्स दिव्वस्स जाय विमाणस्स तिदिसि तथ्य तिसोवाणपडिरूवए विउव्वति, तं जहापुरच्छ मे दाहिणे उत्तरे तेर्सि सिसोबा पटिरूगाणं इमे एयारू वष्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - इरामया गिम्मा रिट्ठामया पतिट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवणरुपमया फलगा लोहितक्खमइयाओ सूओ बहरामया संधी गाणामणिमया अप चलचणवादाओ व पामादीया जाय पडिया से
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सूरियाभ सि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ तोरणे विउव्यति तोरणा गाणामणिभरसु मेसु उपनिविसनिविट्ठविविहमु संतरोवचिया विविहतारारूवोवचिया [ईहामियउसभतुरगस र मगर विहगवालगकिंनररुरुसर म चमरजरवलय उमलयमविचिता संग्ग [पर] बदइयापरिगताभिरामा विजाहरजमलजुयलजंत जुत्ता विव
सहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाया भिभिसमाया चक्लोयगलेगा मुद्दफासा सस्सिरी
रूवा पासाइया ] ० जाव पडिरूवा । 'तमित्यादि विट्टमिति के पुभशंषु संष्टिजियामिति लीलया स्थिता लीलास्थिताः अनेन नासां पुतलिकानां सौभाग्यमावेदयति, लीलास्थिताः शालभञ्जिकाः पुत्तलिका यत्र तत्तथापि सनमगरवालगजर रुदसरभचमरकुंजरडमलयन तिमि हिंद
मा-वृका] [व्याला स्थापईदामृगपभरनरमगरविहगव्यालकिन्न र रुरुसरभन्रम रकु अश्वनलता पद्मल-तानां भक्त्या वियित्र तत्तथा तथा स्तम्भतया सम्भो परिवर्तिग्या दि या परिगतं सत्यदभिरामेदिकाप रिगामिनं विशाल इति विद्याधरोद्यम समणी विद्यार युगयत परुषप्रतिभाडरूपं तेन युक्तं तदेव तथा श्रर्चियां किरणानां सहस्रैर्मालिनी परिवारकी मालिनीयं तथारूपसहस्रकलितं 'मिमिभिसमानं ' अतिशयेन देदीप्यमानं, 'चक्खुल्लोयणलेलं ' तिक्षुःलोक लिखतीय दर्शनीयपापीय प्र तत्तथा 'सुहफासं ति ' शुभः - कोमलः स्पर्शो यस्य ततथा सीकानि सशोभाकानि रूपाणि रूपाणि पत्र तत् सभीकरूपं घटावलिवलियम हुरमणहरसर मिति घण्टायलेटातशेतापाया मधुरा श्रोत्रियो मनोहरा मनोनितकरः स्वरो पत्र तत्तथा चलितादस्य विशेष्यात्परनिपातनात् 'शुभं यथोदितवस्तुलक्षणोपेतत्वात् कान्तं - कमनीयम् अत एव दर्शनीयं तथा 'निउणाचियमिसिमिसितमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्त' मिति निपुणक्रियमुचितानि खचितानि 'मिसिमिसित' त्ति देदीप्यमानानि मणिरत्नानि कर्मभूराजन कासमूदेन परिसमापनथा यां जनशतसहखस्सीए योजनविस्तारं दिव्यं-प्रधान गमनसज्जं - गमनप्रवणं शीघ्रगमननामधेयं जाशेषं विमाणं 'यानरूपं वाहनरूपं विमानं यानविमानं, प्राग्वत् । ' तस्स ग मित्यादि, तस्स समिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य तिदिसि' इति तिम्रो दिशः समाहृतास्त्रिदिक तस्मिन् त्रिदिशि तत्र तिसोवाणपडिरू'श्रीणि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रि
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(१००) सूरियान अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ सोपानप्रतिरूपकागि प्रति-विशिर्ष रूपं येषां नानि प्रतिरूप-! उप्पि बहवे किएहचामरज्झए जाय सुकिल्लचामरज्झए काणि त्रयाणां सोपानानां समाहारस्त्रिसोपानं त्रिसोपनानि च तानि प्रतिरूपकागि चेति विशेषणसमासः , वि- ।
अच्छ सराहे रुप्पपट्टे बहरामयदंडे जलयामलगंधिए सुरम्मे शेषणम्यात्र परनिपानः प्राकृतत्वात् । तसि गम' त्या
पासादीए दरिमणिजे अभिरूवे पडिरूवे विउव्वति । तमि दि नेपां च चिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्वपो-वक्ष्य-- ण तोरणाणं उप्पि बहव छत्तातिच्छत्ते घंटाजुगले पड़ा-- माणस्वरूपी वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रशप्तः , तद्य
। गाइपडागे उप्पलहत्थए कुमुदणलिणसुभगसागंधियपोंथा वज्रमया-बजरत्नमया 'नमी' नेमिभूमिका तत्र ऊद्ध
डरीयमहापोंडरीयततपत्तसहस्सपत्नहत्थए सबरयणामए निर्गनछुन्तः प्रदशाः रिणरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि निष्ठानानि त्रिसोपानमूलप्रदशाः वैडूर्यमयाः स्तम्माः सुवर्णरुण्य
अच्छे जाव पडिरूवे विउच्चति । तए णं मे आभिोगिए मयानि फलकानि-त्रिमापानाङ्गभनानि . लोहिताक्षमय्यः. देवे तस्स दिव्यस्स जाणविमाणस्य अंतो बहुममरमणि जं सूचयः-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहतुपादुकास्थानीयाः भमिभागं विउव्वति । वज्रमया-वज्ररत्नपूरिताः सन्धयः-फलकढ़यापान्त
'तेसि ण तोरणाणं उप्पिमि' त्यादि सुगम, नवरं 'जाव पगलप्रदेशाः नानामणिमयानि अवलम्ब्यन्ते इति अवलम्ब
डिरूवा' इति यावच्छब्दकरणात्-'घट्टा मट्टानीरया निम्मला नानि-अवतरतामुत्तरतां चालम्बन हेतुभूता अवलम्बनबाहानी विनिर्गताः केचिदवयवाः, 'अबलम्बणवाहाश्री य
निप्पका निकंकडच्छाया समिरि(स्सिरी) या स उज्जोया पा
साइया दरिसणिज्जा अभिरुवा' इति द्रष्टयम् । 'तास गमि' ति अवलम्बनबाहाश्च नानामणिमय्या, अवलम्बनबाहानाम उभयोः पार्श्वयोरवलम्बनाश्रयभूना भित्तयः, 'पा
त्यादि , तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरयुक्ता ध्वजाः साइयात्रा इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । 'तेसि ण' मि
कृष्णचामरध्वजाः , एवं बहवो नीलचामरध्वजाः , लोहितत्यादि, तपां ' गमि' ति चाक्यालङ्कार त्रिसोपानप्रतिरूप
चामरध्वजाः, हरितचामरध्वजाः .शुक्लचामरध्वजाः, कथ
म्भूता पते सर्वे उपान्यत अाह-अच्छा-श्राकाशस्फटिकवदकाणां पुरतः प्रत्येक तोरणं प्रज्ञप्तं . तेषां च तोरणानामय
तिनिर्मलाः लक्षणा-श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापिताः 'रुष्पपट्टा' मनद्रपा वर्णावासो-वरार्णकनिवेशः प्रशप्तः , तद्यथा-तो
इति रूप्यो-रूप्यमयो यजमयस्य दराडम्योपरि पट्टा यषांत रगा नानामणिमया इत्यादि , कचिदवं पाठः- तसि गं
रूप्यपट्टाः 'वरदंडा' इति वज्रो-वज्ररत्नमयो दराडो रूप्य. तिसावाणपडिम्बगाणं पुरतो तोरण विउचाइ तोरणा ना.
पट्टमध्यवर्ती येषां ते वज्रदराडाः, तथा जलजानामिव-जलणामणिया' इत्यादि , मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः , विवि- जकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो न तु कुद्रव्यगन्धसम्मिश्रो धमणिमयानि तोरणानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविः । यो गन्धः स जल जामलगन्धः स विद्यते येषां न जलजामलशानि-सामीप्यन स्थितानि, तानि च कदाचिचलानि, अ. गन्धिकाः , अत एव सुरम्याः 'प्रासादीया' इत्यादिविशेथवा-श्रपदपतितानि वाऽऽशक्येरन तत श्राह-सम्यक-। पणचतुष्टयं प्राग्वत् । तेसि रण' मित्यादि , तेषां तोरणानानिश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि , ततो विशे- मुपरि बहनि छत्रातिच्छत्राणि-छत्रात्-लोकप्रसिद्धात् एकपणसमासः , उपनिविष्टसन्निविधानि , ' विविहमतं- सङ्ख्याकात् अतिशायीन छत्राणि उपर्यधोभावन द्विसंतरी ( गरूवो ) वचियाई' इति विविधा--विवि- ख्याकानि त्रिसंख्याकानि वा छत्रातिच्छत्राणि, बाह्यपताधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्ताफलानि 'अन्तरे' ति अन्त- काभ्यो लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वन विस्तारण राशब्दाऽगृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति , अन्त च पताकाः पताकातिपताकाः, बहुनि घगटायुगलानि, बहूग२रूपापाचनानि यावता यत्र तानि तथा, 'विविहतारो नि चामरयुगलानि , वदव उत्पलहस्ताः-उत्पलाख्यजलजयचिया विविधम्तागरूपः-तारिकारूपरुपाचतानि, तोर कुसमसमूहविशेषाः, एवं बहवः पद्महस्तकाः नलिनहस्तगेपु हि शोभायं नारिका निवध्यन्त इति प्रतीनं लोकेपनि काः सुभगहस्तकाः सौगन्धिकहस्तकाः शनपत्र हस्तकाः विविधतागरूपोपचिनानि 'जाव पडिरूवा' इति यावत्कर- सहस्रपत्रहस्तकाः, पद्मादिविभागव्याख्यानं प्राग्वत्, एते च रणात्- इंद्वामिगउमभनुग्गनगमगरविहगवालगकिन्नरहरुमः। छत्रानिच्छत्रादयः सर्वेऽपि रत्नामया अच्छा-आकाशस्फरभचमरकंजरवगालयपउमलयभत्तिचित्ता वभग्गययहरवे- टिकवदतिनिर्मला यावत्करणात्-' सराहा लगदा घट्टा मट्रा इयापग्गियाभिगमा विजाहरजमलजुगलजंतजुनाविव' ए नीग्या निम्मला निप्पंका निकंकडच्छाया सप्पभा समिरिया चनामस्तम्भह यमन्निविष्ठानि नारणानि व्यवस्थितानि यः सउज्जोया पासाच्या दारसणिज्जा अभिरुवा' इति परिग्रहः। था विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयतानीव प्रतिभासत इति । 'तस्स गमि' स्यादि, 'नस्सग मिति पूर्ववत दिव्यस्य यान'अचीसहम्ममात्मगीया रुवगमहम्मकलिया भिसिमाणा विमानम्य अन्तः-मध्य बहुममः सन् रमणीया बहुरमणीभिभिममाणा चकखुल्लायरलेसा सुहफामा सस्सिरीयरू - या भूमिभागः प्रशन्त । वा पासादया दरमणिना अभिरूवा' इति परिग्रहः, क
किविशिष्ट ? इत्याहचिदनन्साक्षाल्लिखितमपि दृश्यते।
से जहाणामए आलिंगपुक्खरे ति वा मुइंगपुक्खरे इ तमि ण तोरणाणं उप्पि अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं- वा सरतले इवा करतले इ वा चंदमंडले इ वा सूरजहा-मोन्थियमिरिवच्छणदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणक - मंडले इ वा पायंसमंडल इ वा उरब्भचम्मे इ वा लममन्छदप्पणा (जाव पडिस्वा)। तसिं च ण नोरणा- (वमहचम्मे इ वा) वराहचम्मे इ वा सीहचम्मे इ वा
- Jain Education Interational
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(२०६१) श्रभिधानदराजेन्द्रः ।
सूरियाभ
सूरियाम
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areer इ वा मिगचम्मे इ वा ( छगलचम्मे इ वा ) दीवियचम्मे इ वा अगसंकुकी लगसहस्सवितए गाणाविपंचवहिं मणीहि उवसोभित आवडपच्चावडसेढिपसेढिसोत्थिय - सोबत्थिय — पूसमागम - बद्धमाणग— मच्छंडगमगरंडगजारामाराफुल्लावलिवपउमपत्तसागरतरंग- चंपछल्ली तिवा (चंपगमेए इ वा ) हलिद्दा इ वा
जीवेति वा भवेयारूवे सिया ? णो इण्डे समट्ठे, ते गं लोहिया मणी इत्तो इदुतराए चैत्र ० जाव वरणेणं पत्ता । तत्थ सं जे ते हालिदा मणी तेसि णं मणी इमेारू वावासे पम्मने से जहाणामए चंपे ति वा
हलिहागुलिया तिचा हरियालियाइ वा हरियालभेदे तिवा हरियालगुलिया ति वा चिउरे इ वा चिउरंगारते ति वा वरकण इ वा वरकणगनिघमे इवा (सुवमसिप्पाए ति वा ) वरपुरिसबसणे ति त्रा अल्लकीकुसुमे तिचा चंपाकुसुमे इ वा कुडियाकुसुमे इ वाडवाकुसुमे इ वा घोसेडियाकुसुमे इ वा सुवमकुसुमेइ वा हिरण समेति वा कोरंटवरमल्लदामे ति वा बीयो (कुसुमे ) इ वा पीयासोगे ति वा पीयकणवीरे ति वा पीयबंधुजीवेति वा भवेयारूवे सिया ?, णो इट्ठे समट्ठे, ते गं हालिया मणी एतो इट्ठतराए चेत्र ० जाव वराणं पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते सुकिल्ला मणी तेसि णं मणीणं इमेयारूवे वरणावासे पते । से जहा नाम के विसंखेति वा चंदे ति वा कुंदे इ वा दंते इवा (कुमुदोदकद यरयदहिघणगोक्खीरपुर) हंसावली इवा चालीत वा हारावली ति वा चंदावलीति वा सारतियबलाहए ति वा धतधोयरुप्पपट्टे इ वा सालिपिट्ठरासी ति वा कुंदपुप्फरासीति वा कुमुदरासी ति वा सुकच्छिवाडी तिवा पहुणमिंजिया ति वा भिसे ति सुगा लिया ति वा गयदंते ति वा लवंगदल तिवा पडरियल तिवा सेयासोगे ति वा सेयकणवीरे ति वासेयबन्धुजीवेति वा, भवेयारूये सिया ?, यो इट्ठे समट्ठे, ते णं सुकिल्ला मणी एतो इङ्कतराए चैव जाव
पत्ता ।
वसंतलयपउमलयभनिचितेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समएहिं सउजएहिं गाणाविहपंचवरणेहिं मणीहिं उवसोभिएहिं तं जहा -किरहेहिं गीलेहिं लोहिएहि हालिदेहिं सुकिल्ले, तत्थ जे ते किएहा मणी सेसि मणी इमे तारूपवासे पम्पत्ते से जहानामए जीमूत इवा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कञ्जले इ वागवले इ वा गलगुलिया इ वा भमरे इ वा भमराव - लिया इ वा भमरपतंगसारे ति वा जंबूफले ति वा
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हारट्ठे इ वा परहुते इ वा गए इ वा गयकलभे इ वा किएहसप्पे इ वा किएहकेसरे इ वा आगासथि - गले इ वा किएहातोए छटा किएहकणवीरे इ वा कि
बंधुजीवे इवा, भने एयारूत्रे सिया ? णो इड्डे समट्ठे, (ओवम्मं समणाउसो ! ते णं किएहा मणी इत्तो इतराए चैव कंततराए चैव मणामतराए चेत्र मतराए चेत्र वरणं पण्णत्ता । तत्थ गं जे ते नीला मणी तेसि णं मणीणं इमे एयारूबे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए भिंगे इ वा भिंगपत्ते इ वा सुए इ वा सुयपिच्छे इ वा चासे इ वा चासपिच्छे इ वा गीली इ वा गीलीभेदे इ वा गीलीगुलिया इ वा सामाइ वा उच्चन्ते इ वा वणराती इ वा हलधरवसणे इवा मोरग्गीवा इवा अयसिकुसुमे इ वा वाणकुसुमे इ वा अंजणक्रेसिकुसुमे इ वा नीलुप्पले इ वा पीलासोगेइ वा खीलबंधुजीवे इ वा खीलकणवीरे इवन्ने वा भवेयारूवे सिया १, णो इट्ठे समट्ठे, ते गीला मणी एतो इट्ठनराए चेव ०जाव वराणं परणता । तत्थ गं जे ते लोहियगा मणी तेसि णं मणीणं इमेera aणावासे पण्णत्ते से जदाणामए उरम्भरुहिरे इ वा ससरुहिरे इ वा नररुहिरे इ वा वराहरुहिरे इवा ( महिसरुहिरे इ वा ) बालिंदगांवे इ वा बलदिवारे वा संन्भरागे इ वा गुंजद्धरागे इवा जासुअणकुसुमे इ वा किंसुयकुसुमे इ वा पालियायकुसुमे इवा जाइ हिंगुलए ति वा सिलप्पवाले ति वा पवालअंकुरे इ वा लोहियक्खमणी इ वा लक्खारसगे तिवा मिरा कंबले ति वा चीणपिट्ठरासी ति वा रतुप्पले इवा रत्तासोगे तिवा रलकणवीरे ति वा रतबंधु -
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'से जहा नाम ए' तत्-सकललोकप्रसिद्धं 'यथे 'ति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामे' ति शिष्यामन्त्रणे 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, 'लिंगपुक्खरेइ वे' ति बालिङ्गो - मुरजनामा वाद्यविशेषः तस्य पुष्करं - धर्मपुढं तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमाक्रियते इति-शब्दाः सर्वेऽपि स्वस्थोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दाः समुन्नये मृदङ्गो लोकप्रतीतो मलस्तस्य पुष्करं मृदङ्गपुष्करं परिपूर्ण - पानीयेन भूतं तडाकं सरस्तस्य तलम् - उपरितनो भागः सरस्तलं, क रतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं च यद्यपि तवया उत्तानीकृतार्द्धकपित्थाकारं पीठप्रासादापेक्षया वृत्तालेखमिति ततो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम्, आदर्शमण्डलं सुप्रसिद्धम्, 'उरब्भवम्मे ६ वे' त्यादि, अत्र सर्वत्रापि श्रंग कीलगसहस्त्रवितते' इति विशेषणयोगः, उरभ्रः- ऊरणः, वृषभव
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सूरिणभ रासियागलाः प्रतीताः द्विपी-चित्रकः पनेषां प्रत्येकं अनेक मह ff कीलकैस्ताडित प्रायो मध्ये क्षामं भवति तथारूपताडासम्भवात् श्रतः शङ्कग्रहणं विततं तितीकृतातमिति भावः यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापिधानविमानस्यास्य भूमिमानः पुनः क
इत्याह-गागाविह मी सोनाविधा :-- जातिभेदान्नानाप्रकारा ये पञ्चवणां मणयस्तैरुपशोभितः कथम्भूतैरित्याह- 'आवडे' इत्यादि, श्रावर्त्तादीनि मणीनां लक्षणानिः प्रतीतः एकस्थावर्णस्य प्रत्यभिमुख आतिथाविचिन्दुजा पङ्किस्तस्याश्च श्रेणेर्या च निर्गता अन्य श्रेणिः सा प्रणिः खलिक प्रतिक
विशेषौ लोकान्प्रत्येतव्यौ वर्द्धमानकं - शगवसम्पुटं मत्स्य काण्डकमकर का एडके प्रतीने 'जारमारेति ' लक्षणविशेष सम्पदिनों लोकादिपादपद्मपत्र सागरतरङ्गवासन्तीलता पद्मलाः सुप्रात तासां भक्त्याया चित्रम् श्रालेखो येषु से आ अतिसौस्तकमा वर्षमानकमत्स्याएक मकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्र सागरतरङ्गवासन्तीलसापझलताभक्तिचित्रास्तैः किमुक्कं भवति ? - आवर्णादिलक्षणो पेतैः, तथा सच्छायैः सती शोभना छाया-निर्मलत्वरूपा येषां मे सच्छायाः तथा सती शोभना प्रभा-कान्तिर्येषां ते सत्यभाः तैः समवनिमय:- वहिर्विनिर्गत किरण
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( १०१२)
अभिधानराजेन्द्रः ।
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प्रकाशकास
सिभिरुपशोभितः तानेव पञ्चवानाह--' तं जहा किग़हे हिं' इत्यादि सुममे, 'तत्थ रामि'त्यादि, 'वत्र' तेषां पञ्चमलीनां मध्ये रामिति वाक्यालङ्कने, ये ते कृष्णा मयः कृमण्य इत्येव सिद्धे ये इति वचनं भाषाक्रमायें - मिति पूर्ववत् श्रयम् - अनन्तरमुद्दिश्यमान पतइप-अनन्तरमेव वागस्वरूप
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चेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा' से जहानामए इत्यादि, सयधानाम जीमूत' इति जीमूतो- बलाहकः सह प्रावृप्रारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽतिकालिमा इनिउपनामपरमा द्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सयंत्र, अञ्जनं -- सौवीराञ्जनं रत्नविशेषो वा, खञ्जनं-द्वीपमामलः, कजले म लि
साम्राजादिषु सामग्री
लिका घोलिनकज्जलगुटिका, क्वचित् मसी इति वा ममीगुलिया' इति न दृश्यते, ' गवलं ' माहिषं शृङ्गं नदपि नोपरितनयनागापसारे नवशि कालिन समयात् तथा तस्येद माहिषशृङ्गनिरि सानिया गुदा गुटिका प्रतीतः
भ्रमरपतङ्गसार- भ्रमरपक्षा
भ्रमरावली - भ्रमरपङ्कः ततो विशिष्टकालिजम्बूफ आरिष्टक: कोमल का पुष्टः कोकिलः गज १. पुरे
सुरियाभ
गजकलभश्च प्रतीतः कृष्णसर्पः-- कृष्णवर्ग सजातिविंशषः, कृष्णकेसरः-- कृष्णवकुलः, 'आकाशथिग्गलं शरदि मेघनमुनाका कृष्णमतीय प्रतिभानीति तदुपादानं शोककृष्णजीवाः अशो
पीरबन्धुजीववृक्षभेदाः अशोकादयो हि यन्ति ततः शेषवर्णैव्युदासार्थं कृष्णग्रहणं एतावत्युक्ते त्वगवानिव शिष्यः पृच्छति' भवे एपारूवे ' इति भवेत् मणीमां कृष्णो वर्णो जीमूतादिरूपः सूरिराद-'नायमर्थः समर्थः ' नायमर्थ उपपन्नो, यदुत एवम्भूतः कृष्णो निजी
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स्वेनोप्रदानमाहीम-उपमामात्रमेतत् द हे श्रमण ! आयुष्मन् ! यावता पुनस्ते कृष्णा मख्य 'इतो' जादेरिका अभीप्रा एव रात्र किचिएकान्तमपि केा दिन कान्तताध्यवस्यर्थमाद--कान्तरका
मनोहारिका लिमोजिनाक अत एव मनोज्ञतरका एव मनसा ज्ञायते - अनुकूलनया स्वप्रवृत्तिविपरीतः विवक्षायां तरण्प्रत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवेत्, ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-'मनश्रापतरका एवं द्रष्टॄणां मनांसि श्राप्नुवन्ति श्रात्मवशतां नयन्तीति मनयापास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, प्राकृतत्वाच्च पकारस्य मकारे मणामनग इति भवति । तथा मित्यादि तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते नीला मणया गांवास पर्यनिवेशन था-' से जद्दानामए इत्यादि स यथानाम मृङ्गःकीटविशेषः पचमलः ' भृङ्गपत्रं ' तस्यैव भृङ्गाभिधानस्कीटविशेषस्य पक्ष्म, शुकः-कीरः शुकपिच्छं--शुकस्य पत्रे, चापः पक्षिविशेषः चापषिच्छे-चापपक्षः, नीली दीली नीलीलिका-
तत्थ
ततोऽ प्रतिनि
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गुटिका, श्यामाको धान्यविशेषः उत दन्तरागः, वनराजी प्रतीना, हलधरो--बलदेवस्तस्य वसमं हलधरवसनं तच किल नीलं भवति सदैव तथास्वभावतया, हलधरस्य नीलवस्त्रपरिधानात् मयूरग्रीया पारापना सीमाकुसुमानि तानि इत ऊर्ध्वं क्वचित् 'इंदनीले इ वा महानीले छ वा मरते या इति दृश्यनेता
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पाः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका - वनस्पतिविशेषस्तस्य कुसुममञ्जनकेशिका कुसुमं नीलोत्पलं- कुवलयं, नीलाशोवधुजीवा अशोकादिविशेषा, भा रू' इत्यादि प्राग्वत् व्याख्येयम् । तथा तत्थमित्था दि तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये ते लोहिता मणयस्तेषामयमेतदृपणे वर्णावासः प्रत, तद्यथा-' से जहानामए इत्यादि, तद्यथानाम शशकमधियं उरश्नः - ऊरणस्तस्य रुधिरं वराहः शूकरस्तस्य रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिपरुधरं च प्रतीतम्, पतानि हि किल शेषरुधिरेभ्यो लोद्दिनवकिटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं
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वालेन्द्रगोपक:
जागो
दि
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सूरियाभ
पति ततो बालग्रहणम् इन्द्रगोपकः- प्रथमप्रावृकालभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरः - प्रथम मुद्रच्छन् सूर्यः, समध्यावरागो - वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः, गुञ्जासोता तस्थायें रागो गुरागः गुञ्जाया द्वि अ ज
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मतिर भवति पाष्णिमिति गुडा पाकुसुम सुम पारिजात जाि सिद्धाः शिलाप्रवालं - - प्रवालनामा रत्नविशेषः प्रवालातस्यैव रत्नविशेषस्य प्रयाला सहित व्यथमोहूनश्येनात्यग्लो भवति ततस्तदुपादानं लहिताक्षमणिर्नाम रत्नविशेषः, लाक्षारसकृमिरागरककम्बलश्रीनपिष्टराशिर क्लोरपलर का शोक करणवीर र बन्धुजीवाः प्रतीताः भवेयारूये ' इत्यादि प्राग्वत् । तत्थ गमि त्यादि, ' तत्र तेषां मणीनां मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तेषामेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः तद्यथा' से जहानामए' इत्यादि स बचाना चम्पकः सामान्यतः सुम्पको वृक्षः, चम्पकी त्वम्पदः-चम्पकः दरिद्रा प्रतीता हरिद्रामेदो- हरिद्राच्छेदः, हरिद्रागुटिका - हरिद्रासारनिवर्तिना गुटिका, इरितालिका - पृथिवीविकाररूपा प्रतीता हरितालिकाभेदाहरितालिकाच्छेदः, हरितालिकागुटिका- हरितालिकासानिर्तितागुलिका बिरोराद्रव्यविशेषः चिकुरा - रामः विरसंयोगनिर्मित यादी रामः वरकनकस्य यः पट्टके जिस परकनकनि वरपुरुषा- वासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुषवसनं तच्च किल पीतमेव भवतीति तदुपादानम् अनी कुसुम लोकनोसंयं चम्पक सुवर्णचम्पकपुष्पं कूष्माण्डीकुसुमं पुष्पफलीकुसुमं को पुष्पज्ञानविशेषः तस्य दाम कोरण्टकदाम तडवडा उली तस्याः कुसुमं तडबडाकुसुमं, घोशातकीकुसुमं सुवर्णयूथिकाकुसुमं च प्रतीत सु हिरण्यका- वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहिरण्यकाकुसुमं बीचको वृक्षः प्रतीतः तस्य कुसुमं दीपककुसुमं पीताशोकपीतकणवीरणीनबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'भवेया रूवे' त्यादि प्राग्वत् । तत्थ रामि' स्यादि, तत्र तेषां मशीनां मध्ये येशुकामयतेषामयमेत
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Jein Education International
(१०८३) अभिधान राजेन्द्रः ।
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प्रज्ञप्तः, तद्यथा-' से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम अडोनविशेष शेखचन्द्र दन्तकुन्द) कुमुदीदको दरजनीरपूर की चालिद्वारा हिंसार्यालयला कावलयः प्रतीताः चन्द्रावली - तडागादिषु जलमध्य प्रतिविम्बितचन्द्रपङ्क्तिः, 'सारइयबलाहगे इति वा शारदि कः शुकासा बलाहको मेघः धोरुप चेतिया निर्मीती :- भूतिखररिटतहस्त संतर्जनेन प्रतिनिशितीकृतो यो रूप्पपट्टी-रजतपत्रकं स मातधनरूप्यपट्टः अन्ये तु व्याचक्षते ध्मातेन- अग्निसंयोगेन यो धौतः-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातधोतरूण्य पट्टः शालिपिष्टराशि:- शालि क्षोदपुञ्जः कुन्दपु व्यराशिः कन्दराशिव प्रतीक, सुकदेवाडिया ६ वे ' तिवादिनामनादिफलका साच कांदेशकासी अतीव शुक्ला भवति ततस्तदुपादानं पंडु मिडियातिपेयं मयूरपिच्वं तन्मध्मी पेडु
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सूरियाभ
मिञ्जिका सा चातिशुक्लेति तदुपन्यासः, विसं - पद्मनीकन्दः, मृगाले-पतन्तु गजदन्तलचङ्गदलपुरी कलाक येतीयेजीयाः प्रतीताः भवेवावे सिया इत्यादिप्राग्यत्तदेवमुम्
सम्प्रति गन्धस्वरूपमतिपादनार्थमाद-
ते सिणं मणी इमेयारूचे गंधेपने से जहा नाम ए कोडा वा तमरपुडाग वा एलापुडास वा चोयपुडास वा चंपापुडाण वा दमणापुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदपुडा वा उसीरपुडाण वा मरुमापुडाय या जातिपुडा वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा एहामल्लिया वा केगिपुडा या पाडलिपुटारा वा गोमालियपुडास वा अगुरुपुडा या लवंगपुडास वा कप्पूरपुडा वा दासपुटाय वा अनुपायसि वा प्रोभिजमाया वा कोडिजमाखाय या मंजिजमाणास वा उकिर ज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाय वा परिभुजमाणाण या परिभाइजमावास वा भंडाओ वा भंड साइरिजमाणा
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वा ओराला मगुम्पा मगहरा पायमनिष्युतिकरा सब्वतो समंता गंधा अभिनिस्तव (रं)ति भवेयारू, सि या णो इट्ठे समट्टे ते णं मणी एतो इट्ठतराए चेव गंधेणं पन्नत्ता ।
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'खिमित्यादि तेषां मतीनाममेो गन्धः प्रशतः तद्यथा-' से जहा नाम ए' इत्यादि, प्राकृतत्वात् 'से इति बहुवन्त्रनार्थः प्रतिपत्तव्यः, ते यथा नाम गन्धा श्रभिनिर्गच्छन्तीति सम्बन्धः कोपुटाः कोष्ठपुटास्तेषां वाशब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये इद्द एकस्य पुरस्य प्रायो न तादृशो गन्ध श्रायाति द्रव्यस्यात्पत्वात् ततो बहुवचनं, नगरमपि गम्यम् लाः प्रतीताः पार्थ म्य कनकन्दनोशी रमजानी यूथिकामलिकाखानम किकेतकीपाटलीनवमालिका गुरुपङ्ग कुसुमयास कर्पूराप्रितीतानि नरमुशीबीरीले खानमशिका खानीयो मनिकाविशेषः तेषां पुडासामनुवाले साम्रायकविय क्षितपुरुषाणामनुकूले वाते याति सति उद्भिद्यमानानामुद्धाटपमानानां याशब्दः सर्वत्रापि समुचये कुट्टिमा वा' इति द्वद्द पुटैः परिमितानि यानि कोष्ठादीनि गन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटादीनीत्युच्यन्ते तेषां कुटयमानानाम् — उखले खुद्यमानानां 'भेजिजमाया या' इति नाम् एतच विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्याणामवसेयं तेषामेव प्रायः कुट्ट मलखण्डीकरणसम्भवात् न तु यूधिकादीनाम्, किरिजमाणाण वा' इति क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपुदानां कोदिया या उत्कीर्यमाणानां विकरियमाणाय चा' इति विकीर्यमाणानामितस्ततो विप्रकीर्यमाणानां प भुञ्जमा या परिभोगाव उपयुज्यमानानां कचितू 'परिभाइजमाणा वा इति पाठस्तन्त्र परिभाइजमासानां पार्श्ववर्तियां मदीयमानानां मेडाओ मे
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(१०६४) सूरियाम अभिधामराजेन्द्रः।
सूरियाम साहग्जिमाणाण वा' इति भाण्डात्-स्थानादकस्मादन्यद् | बहुसमरमणिअभूमिभाग विउबति जाव मणीणं फासो भाराई-भाजनास्तर संहिग्रमाणानाम् उदाग:-स्फारास्त चा.
तस्म णं पेच्छाघरमंडवस्म उल्लौयं विउव्यति पउमलयमनोमा अपि स्युरत आह-मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः त
भत्तिचित्तं जाव पडिरूवं । तस्स णं बहुममरमणिजस्स कच मनोज्ञत्वं कुत इत्याह-मनोहरा:-मनो हरन्ति-श्रास्मवशं नयन्तीति मनोहराः इतस्ततो विप्रकीर्यमाणेन मनो- भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं वइराहरत्वं, कुतः ? इत्याह-घ्राणमनोनिवृतिकराः, एवंभूताः | मयं अखाडगं विउच्चति । तस्म णं अक्खाडयस्स सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन गन्धा अभि
बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं मणिपेढियं विउबति निस्सरन्ति, जिघ्रतामभिमुख निस्सरन्ति , क्यचित् 'अ
अदुजोयणाई श्रायामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाह'मिनिस्सयन्तीति' पाठः, तत्रापि स एवार्थों नबरमभितः नवन्तीति शब्दसंस्कारः, पंचमुक्त शिष्यः पृच्छति- भवे
लेणं सव्वं मणिमयं अच्छं सएहं जाव पडिरूवं । तीसे यारूवे सिया' स्यादेतत् यथा भवेद् एतद्रपस्तेषां मणीनां ण मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगं सिंहासणं विउगरधः ?, सूरिराह-'नो इण? समढे ' इत्यादि प्राग्वत्। व्यइ, तस्सं णं सीहासणस्स इमेयारूवे वप्पावासे पामते
तेसिणं मणीणं इमेयारूवे फासे पामते, से जहा नाम ए| तबणिजमया चकला रययामया सीहा सावमिया पाया पाइणेति वा रूए ति वा चूरे इ वा णवणीए खाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयमयाई गत्ताई हवा हंसगम्भतूलिया इ वा सिरीसकुसुमनिचये इ वइरामया संधी णाणामाणिमये वेच्चे, से णं सीहासणे वा बालकुसुमपत्तरासी तिवा, भवे एयारूवे सिया?, णो इहामिय उसमतुरगनरमगरविहगवालकिंनररुरुसरभचमरइणडे समझे, ते ण मणी एतो इतराए चेव जाव फा- कुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं ( सं .) सारसारोवचिसेणं पन्नत्ता।
यमणिरयणपागलीढे अत्थरगमिउमसूरगणवत्तयकुसंतलि'तेसि णमि' त्यादि. तेषां ' णमि' ति प्राग्वन्मणीनाम- म्बकेसरपच्चत्थुयाभिरामे सुविरइयरयत्ताणे उबचियखोयमेतद्रूपः स्पर्शः प्रशप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि,
मदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रत्तंसुअसंवुए सुरम्मे आईणगतद्यथा-अजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रुतं-प्रतीतं बरो-वनस्प
रुय बूरणवणीयतूलफासे मउए पासाइए० ४ । तिविशेषः नवनीत-म्रक्षणं हंसगर्भतूलीशिरीषकुसुमनिचयाश्च प्रतीताः, 'बालकुमुदपत्तरासी इवा' इति बालानि- 'तए गमि' त्यादि, ततः स ाभियोगिको देवस्तस्य दिअचिरकालजातानि यानि कुमदपत्राणि तेषां राशिबलि- व्यस्य यानविमानस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्प्रेक्षागृहकुमुदपत्रराशिः, कचिद् ' बालकुसुमपत्रराशिः' इति पाठः, मण्डप बिकुति,कथम्भूतमिन्याह-अनेकस्तम्भशतसन्निवि'भवे एयारूवे ' इत्यादि प्राग्वत् ।
ष्टं तथा अभ्युद्गता-अत्युत्कटा सुकृता-सुष्ठु निष्पादिता वर. तए ण से भाभियोगिए देवे तस्स दिव्यस्स जाणवि
वेदिकानि तोरणानि वरचिताः शालभञ्जिकाश्च यत्र नद
भ्युद्गतसुकृतवरयेदिकातोरणवरचितशालभञ्जिकाकं . तथा माणस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं पिच्छाघरमंडवं
सुश्लिमा विशिष्टा लष्टसंस्थिताः-मनोज्ञसंस्थानाः प्रशम्ताः विउब्बइ अणेगखंभसयसंनिविट्ठ अब्भुग्गयमुकयवरवेइया- प्रशस्तवास्तुल क्षणपिता वैडूयविमलस्तम्भा-चैर्यरत्नमया तोरणवररइयसालभंजियागं मुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियप- विमलाः स्तम्भा यत्र तत् सुश्लिष्टविशिष्टलए संस्थितप्रशस्तसत्थवेरुलियविमलखंभं णाणामणि ( कणगरयण )
चैडूर्यविमलस्तम्भ, तथा नाना मणयः खचिता यत्र भूमि
भागे स नानामणिसचितः सुखादिदर्शनात् क्तान्तस्य पाखचियउज्जलबहुसममुविभत्तदेसमाइए ईहामियउसभ
क्षिकः परनिपातः नानामणिखचित उज्ज्वलो बहुसमःसुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय
अत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत् नानामणि खपउमलयभत्तिचितं कंचणमणिरयणभियागं णाणाधि- चितोज्ज्वलबहुसमसुविभक्तभूमिभार्ग, तथा इहामृगा-वृकाः हपंचवस्मघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं चवलं मरीतिक- ऋपभतरगनरमंगरविहगाः प्रतीताः व्यालाः-स्वापदभुजगाः वयं विणिम्मुयंत लाउल्लोइयमहियं गोसीस ( सरस )
किंनरा-ठयन्तरविशेषाः रुग्यो मृगाः सरभाः-श्राटव्या म.
हाकायाः पशवः चमग-पाटव्या गावः कुन्जरा-दन्तिन' बरत्तचंदणददरदिन्नपंचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चं
नलता-अशोकादिलताः पन्नलता-पद्मिन्यः पतासां भदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं अासत्तोसत्तविउल- त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-श्रालेखो यत्र तदीहामृगऋग्भः वट्टयग्घारियमल्लदामकलावं पंचवलसरससुरभिमुक्कपुष्फपुं- तुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नग्रुरुसरभचमरकुञ्जरधन लताजीवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदरुकतुरुकधूबमघमघंत
पद्मलताभक्तिचित्रं , तथा स्तम्मोद्गतया-स्तम्भोपरिवर्ति।
न्या वज्ररत्नमय्या बेदिकया पारंगतं सद् यदभिरामं तत् गंधुजयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्वं तुडि
स्तम्भोद्गतबज्रयेदिकापरिगताभिरामं, 'विजाहरजमलजुगयसहसंपणाइयं अच्छरगणसंघविकिम्मं पासाइयं दरिस
लजन्तजुतं पिव अश्चीसहस्समालिणीय' मिति विद्या धणिज्जं. जाव पडिरूवं । तस्स णं पिच्छाघरमंडवस्स रन्तीति विद्याधरा-विशिष्टविद्याशक्तिपन्तः तेषां यमलयु
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सूरियाभ अभिधामराजेन्द्रः।
सूरियाम गलानि-समानशीलानि द्वन्द्वानि तेषां यत्राणि-प्रपञ्च तस्य णमिति पूर्ववत् , प्रेक्षागृहमराडपम्य उल्लाकम उपरिविशेषास्नै युक्तमिव अर्चिषां मगिरत्नप्रभाज्यालानां सहस्र- भागं बिकुन्ति पद्मलताभक्तिचित्रं 'जाय पडिरूयमि' ति,
र्मालनीयं-परिचारणीयं , किमुक्तं भवति ?-एवं नाम अ- यावच्छन्दकरणात् 'अच्छं सराह ' मिन्यादिविशेषण कदम्यस्यद्भुतैमणिरत्नप्रभाजालैगकलितमिव भाति यथा नूनमिदं कपविग्रहः । तस्स गमि' त्यादि, तम्य-बहुममरमणीयम स्वाभाविक , किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषप्रपञ्चप्रभा स्य भूमिभागस्य बहुमभ्यदेशभागे अत्र 'गा' मिति पूवत् विसमिति, 'रूवगसहस्सकलितं भिसिमाणं भिग्निसमाणं | एकं महान्त बज्रमयमक्षपाटं चिकुर्वन्ति, तस्व चाक्षपाटचरखुजायणलेस सुहफासं सस्सिरीयरूव' मिति प्राम्यत क कम्य बहुमध्यदेशभागे तत्रैकां महती मणिपीठिका बिकुळचिदेतन दृश्यते , 'कञ्चमगिरयणथूभियाग' मिति काञ्च- न्ति, ही योजनान्यायामविष्कम्माभ्यां चन्यारि योजनानि मंच मणयश्व रत्नानि च काञ्चनमणिरत्नानि तेषां-तन्म- थाहल्येन उच्चस्त्येमेति भावः, कथंभूनां नां वियन्तीत्यत यी स्तृपिका-शिम्बरं यम्य तत्तथा नानाविधाभिः-नानाप- श्राह 'सर्वमणिमयी-मर्यात्मना मणिमयीं यावत्करणादकागमिः पञ्चवणाभिएटाभिः पताकाभिश्च पारे-साम- कछामित्यादिविशेषणसमूहरिग्रहः. नस्याश्च मागापीठिकाम्त्येन मण्डितमग्रं-शिखरं यस्य तन्नानाविधपञ्चय गणघण्टा- या उपयंत्र महदेक सिंहासनं विर्यन्ति, तम्य च सिंहासनपताकापरिमण्डिताग्रशिखरं , चपलं चञ्चलं चिकचिकाय
स्थायमेतद्रगो वर्णावासः प्रशप्तः, तद्यथा-तपनीयमयाः चकमानत्वात् मरीचिकवचं किरणजालपरिक्षेप विनिमुश्चत् 'ला- ला रजतमयाः सिंहास्तरुपशोभितं सिंहासनमुच्यते. सौव. उल्लोइयमहिय' मिति लाइय नाम-यद्भूगोमयादिनोपले णिका:-सुवर्णमयाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्षकार्मिपनम् उल्लाइयं--कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः सम्मृ- पादानामुपरितना अवययविशेषणः, जम्बूनदमयानि गात्राणि टीकरणं लाउल्लोइयाभ्यामिव महिनं--पूजितं लाउल्लायम- मज़मया-वज्ररत्नापूरिताः सन्धयोगात्राणां सन्धिमेलाः हितं, तथा गोशीण-- गोशीपनामकचन्दनम दरेण बह- नानामगिणमयं वे तज्जातः से ण लीहासणं' इत्यादि नन् लेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गलयस्वला-हस्तका यत्र सिंहासनमीहामृगऋषभतुरगनग्मकरव्यालकिन्नररुरुसर--- सद्गोशीपरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गलितल, तथा उपचिना- भचमरवनलतापद्मलनाभक्तिचित्रं (सं) मारमारोचियनिंबशिताः चन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यत्र तदुपचितच- मगिरयणपायपीढ 'मिति ( से ) सारसारैः-प्रधानः मणिमदनकलशं , चदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागामति' रत्नरूपचितन पादपीठन सह यत्तत्तथा. प्राकृतत्याच पदोचन्दनगरैः-चन्दनकलशः सुकृतानि-सुष्टु कृतानि शोभि
पन्यासव्यत्ययः 'अत्थरयमउमसूरगनवत्तयकुमालम्बकेनानीति तात्पर्याधः , यानि तोरणानि नानि चन्दनघटसु- सरपच्चथुयाभिरामे' इति अस्तरकम-आच्छादकं मृदु मृतानि तानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारदेशभागे
यस्य मसूरकस्य तदम्तरकमृदु, विशपणम्य परनिपातः यत्र नत् चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभाग, तथा 'श्रा.
प्राकृतत्वात् , नवा त्यक्षेपां ते नववचः कुशान्ताः-दर्भसत्तोसत्तविपुलववग्धारियमल्लदामकलाब ' मिति श्रा श्र- पर्यन्ता नवत्यश्च ते कुशान्ताश्च नवत्वकुशान्ताः-प्रत्यग्रबाङ् अधोभूमौ लग्न इत्यर्थः उत्सतम्-ऊर्ध्वसक्तं उल्लोचतले; त्यगदर्भपर्यन्तरूपाणि लिम्बानि-कोमलानि नमनशीलानि च उपरि सम्बद्ध इत्यर्थः, विपुलो-विम्तीयः वृत्तो-बर्नुलः केसगरण मध्य यस्य मसूरकस्य तत् नवत्यकुशालिम्व'घग्घारिय' इति-प्रलम्बितो माल्यदामकलापः पुष्पमालास- कसरमास्तरक मृदुना मसूरकगण नवत्यकशान्तलिम्बकसमूहो यत्र तदासकोत्सनविपुलवृत्तमलम्बितमाल्यदामकलापं रेगण प्रत्यवस्तृतम्-अाच्छादितं सत् यदभिरामं तत्तथा, नथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन क्षिप्तन विशेषणपूर्वापनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतन्यात् . ' श्राईगपुष्पपुअलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं पञ्चवर्णसरससुर- गरुअरनवणीयतलफासे' इति पूर्ववत् , तथा सुविरइयभिमुनपुरषोपचारकलितं , 'कालागुरुपवर कुन्दुरुकतुरु- रयत्ताग' तथा सुष्ठु विरचितं सुविनितं रजस्त्राणमुपरि कधूधमघमघंतगन्धुडुयाभिरामं सुगंधवगंधियं गंधयट्टिभू- यस्य नत्सुविरचितरजस्त्रागा, 'उचियखोमियदुगुल्लपट्टपय' मिति प्राग्वत् . तथा अप्परोगणानां संघः-समदाय- डिन्छयण' मिति . उपचितं-परिकामतं यक्षीम दुकृतंस्तेन सम्यग् रमणीयतया विकीराण-व्याप्तमप्यरोगणम- कापासिकं वस्त्रं परिच्छादनं रजस्त्रागाम्योपरि द्वितीयमाघविकीरा , तथा दिव्यानां त्रुटितानाम् श्रातोद्या- कछाननं यस्य तत्तथा. नत उपरि 'रत्नंसुयसंवुड' इति रमां--येणुवीणामृदङ्गादीनां ये शब्दास्तैः सम्प्रणादितं- लांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्लेन वस्त्रेण संवृतम्-श्राच्छादिपम्यक--श्रोत्रमनोहाग्तिया प्रकर्षेगा नादित--शब्द-- तमन एव सुरम्यं, 'पासाईए दरिसणिज अभिरूव पडिरूघद् दिव्यत्रुटितशब्दसम्प्रणादितम् , ' अच्छं जाब प
च' इति प्राग्वत्। डिसव' मिति यावच्छन्दकरणात- म प तस्स [ सिंहासणस्म उवरि एत्थ णं महेगं विजयदर मट्ट नीरय निम्मले निप्पं निकंकडच्छायं सप्पभं समिरियं विउव्यंति, संखंक ( संख) कुंददगरययमयमाहियफेण-- सउज्जोय पासाइयं दरिसणिज्ज अभिरूयं पडिरूव' मिति पुंजसंनिगासं सबरयणामयं अच्छं सएह पासादीयं दरिद्रएव्यम् , एतच्च प्राग्वव्याख्येयम्। 'तस्स गमि त्यादि तस्य 'णमि' ति प्राग्वत् प्रेक्षागृहमण्उपस्यान्तः-मध्ये बहुसम
सणिजं अभिरूवं पडिरूवं । तस्स णं सीहासणस्स उवरि रमणीय भूमिभाग चिकुर्वन्ति, तद्यथा--श्रालिङ्गपुष्करमिति |
विजयदुमस्स य बहुमझदेसभागे एत्थ णं ( महं एग) वे त्यादि, तदेव तायद्वक्तव्यं यावन्मणिस्पर्शसूत्रपर्यन्तः, तथा
वयरामयं अंकुम विउव्वंति, तस्सि च णं वयरामयंसि वाह-जाव मणीण फासो ' इति । तस्स णमि' त्यादि, अंकुसमि कुंभिके मुत्तादाम विउर्वति । से णं कुंमिक्के
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सूरियाम अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ मुत्तादामे मनहिं चउहिं श्रद्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं तद-|
___ 'तस्स णमि' त्यादि, तस्य सिंहासनस्योपर्युलाके 'अत्र'
अस्मिन् स्थाने महदेकं विजयदूष्यं--वनविशेषः, पाहमुश्चत्तपमाणेहिं सव्वश्रो समंता संपरिक्खित्ते । ते णं दामा
च जीवाभिगममूलटीकाकृत्-विजयदृष्यं वस्त्रविशेष :तवणिजलंबूसगा सुवलपयरगमंडियग्गा णाणामणि- ति, तं विकुन्ति-स्वशक्त्या निष्पादयन्ति, कथम्भूत-- रयणविविहहारद्वहारउवसोभियसमुदाया ईसिं अएणम- मित्याह -शकुन्ददकरजोऽमृतथितफेनपुञ्जसन्निकासम् , छमसंपत्ता बाएहिं पुधावरदाहिणुत्तरागएहिं मंदाय मंदाय
शंखः प्रतीतः, कुन्देति--कुन्दकुसुमं दकरजः--उदककणाः
अमृतस्य--क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुम्जो--डिएइजमाणाणि २ पलंबमाणाणि २ पेजंज [ पज्झंझ ]
एडीरोत्करः तत्सनिकास-तत्समप्रभ, पुनः कथम्भूतमिमाणाणि २ उरालेणं मणुनेणं मणहरेणं करणमणणि
त्याह-'सव्वरयणामय' सर्वात्मना रत्नमयम् 'अच्छे सराह म्युतिकरणं सद्देणं ते पएसे सव्वो समंता प्रापू- पामाइयमि' त्यादिविशेष गाजालं प्राग्वत् । तस्स गमि' रेमाणे सिरीए अतीच २ उबसोभेमाणा चिट्ठति । तए त्यादि, तस्य सिंहासनस्योपरि तस्य विजयदृष्यस्य बहुम
ध्यदेशभागेऽत्र महान्तमेकं यजमयं-बजरत्नमयमङ्कुशम्ण से भाभियोगिए देवे तस्स सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थ णं सूरिश्रा
अङ्कुशाकार मुक्कादामावलम्बनाश्रयं विकुर्वन्ति, तस्मिश्च
बज्रमयेऽश महदक कुम्भाग्रं-मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपभस्म देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि
रिमाणं मुक्कादाम विकुर्वन्ति । से णमि' त्यादि, नत्कुम्भाग्रं भद्दासणसाहस्सीओ विउचइ , तस्स णं सीहासण- मुक्कादाम अन्यैश्चतुर्भिः कुम्भागः- कुम्भपरिमाणमुकादामस्स पुरच्छिमे गं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चउ- भिस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैः ' सर्वतः सर्वासु दिक्षु समएहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणसा
स्तत:--सामस्त्येन सम्परिक्षिप्त-व्याप्तम् । ते पं दामा'
इत्यादि, तानि पञ्चापि दामानि तवणिज्जलबूसगा (ग-- इस्सीओ विउव्वइ, तस्स पं सीहासणस्स दाहिण
ग्गा?), तपनीयमया लम्बूसगा-श्राभरणविशेषरूपा (पाः पुरच्छिमे णं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स अभितरप- सुवर्णप्रतरकाः सुवर्णपत्राणि तैः मण्डित-शोभित अग्रंम्रिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ भद्दासणसाहस्सी- अग्रभागो ये तानि तथा अ) ग्रभागे येषां प्रलम्बमानानां मो विउचह, एवं दाहिणणं मज्झिमपरिसाए दस- तानि तथा,नानामणिरत्नैः-नानामणिरत्नमयैधिविधैः- विचि
त्रैारैरर्द्धहारैश्चोपशोभितः सामस्त्येनोपशोभितः समुदायो एहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ विउव्व
येषां तानि तथा. ईषत्-मनाक अन्योऽन्य-परस्परम् असति दाहिणपञ्चस्थिमे णं बाहिरपरिसाए वारसएहं देव
प्राप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैः (चातः ) म.साहस्सीखं बारस महासणसाहस्सीओ विउधति, प-न्दाय मन्दाय इति-मन्द । एज्जमानानि ' कम्पमानानि बस्थिमे णं सत्तएहं अणियाहिवतीणं सत्त भदासणे 'भृशाभीमायाऽविच्छेदे द्विः प्राक्तमबादे रित्यविच्छेदे द्वि
चन तथा पन्ति पचन्तीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि. ईषत्कम्पनविउव्वति, तस्स से सीहासणस्स चउद्दिसि एत्थ
पशादेव प्रकर्षत इतस्ततो मनाक चलनेन लम्बमाणं सूरियाभस्स देवस्स सोलसएहं पायरक्खदेवसाह
नानि २ ततः परस्पर सम्पर्कवशतः 'पेज्जंजमाणा पेज्जंजस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ विउव्वति, तंज- | माणा' इति शब्दायमानानि २ उदारेण स्फारण शब्देहा-पुरच्छिमेणं चत्तारि साहस्सीयो दाहिणे णं च- मेति योगः , स च स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति तारि साहस्सीमो पचत्थिमे णं चत्तारि साहस्सीमो
तत आह- मनोक्षेन' मनोऽनुकूलन, तथ मनोऽनुकूलत्वं उत्तरे णं चत्तारि साहस्सीओ। तस्स दिव्यस्स जा
लेशतोऽपि स्यादत आह-'मनोहरेण मनांसि श्रोतृणां हरति
एकान्तेनात्मवशं नयतीति मनोहरो 'लिहादेराकृतिगणरणविमाणस्स इमेयारूवे वसायासे पसत्ते, से जहा
स्वादच प्रत्ययः, तेन , तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याहनाम ए भइरुग्गयस्स वा हेमंतियवालियसरियस्स वा कर्णमनोनिवृतिकरेण ' ' निमित्त कारणहेतुषु सर्वासा खयरिंगालाण वा रतिं पञ्जलियाण वा जवाकुसुम- विभक्तीनां प्रायो दर्शन ' मिति चचनात् हेतौ . पणस वा किंसुयवणस्स वा पारियायवणस्स वा
तीया , ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोत कर्सयोर्मनसश्न निर्व
तिकरः-सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेनेथम्भूनेन शब्देन सध्यतो समंता संकुसुमियस्स, भवेयारूवे सिया ?,
तान् प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतो-दिक्षु समन्ततो सो इणढे समढे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स विदिशु पापूरयन्ति २ शत्रन्तस्य स्यादाविद रूपम् , अत एसो इहतराए चेव जाव यमेणं परमत्ते, गंधो य| एवं श्रिया-शोभया अतीयोपशोभमानानि २ तिष्ठन्ति । फासो य जहा मणीणं । तए णं से भाभिभोगि. 'नए णमि' त्यादि , ततः स श्राभियोगिको वस्तस्य ९.देवे दिव्वं जाणविमाणं विउब्वइ २ वित्ता जेणे.
सिंहासनम्यापरोत्तरेला घायव्ये कोणे इत्यर्थः, उत्तरेण
उत्तरस्याम् ' उत्तरपुरच्छिमेणे' ईशान्याम् ' अत्र--एतासु परियाभे देवे तेणेव उवागच्छइ २ छित्ता मरिया
तिसषु दिशु सूर्याभस्य देवस्य चतुयाँ सामानिकसहस्राणां धं देवं करयल परिग्गहियं जाव पञ्चप्पिणंति । (सू०१५)' योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि विकुति, पूर्वस्यां च
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(१०६७ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
सूरिया भ
चतसृणमप्रमहिषीणां सपरिवाराणां चत्वारि भद्रासन सहस्राणि दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपदोऽष्टानां देवसहस्राणां योग्यानि श्रष्टौ भद्रासन सहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमपदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासन सहस्राणि, दक्षिणापरस्यां नैर्ऋतकोण इत्यर्थः, बाह्यपर्षदो द्वादशांनां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासन सहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि विकुर्वति । तदनन्तरं तस्य सिंहासनस्य चतसृषु दिक्षु श्रत्र सामानिकाऽऽदिदेवभद्रासनानां पृष्ठतः सूर्याभस्य देवस्य सम्बन्धिनां षोडशानामात्मरक्षकदेव सहस्राणां योग्यानि पोडश भद्रासनसहस्राणि विकुर्वति, तद्यथा चत्वारि भद्रासन सहस्रा
पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणतश्चत्वारि पश्चिमायां चत्वारि उत्तरतः, सर्वसङ्ख्यया सप्ताधिकानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि ५४००७ भद्रासनानां विकुर्वति । ' तस्स दिव्वस्से' न्यादि, 'तस्स रामि' ति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्यायम् अनन्तरं वक्ष्यमाणुस्वरूपो वर्षावासो - वर्णक निवेश, प्रशप्रः, तद्यथा--' से जहानामए 'इत्यादि, स यथानाम अचिरोद्गतस्य क्षणमात्रमुद्गतस्य हैमन्तिकस्य -- शिशिरकालभाविनो बालसूर्यस्य स ात्यन्तमारको भवति दीब्यमानश्चत्युपादानं, वाशब्दाः सर्वेऽपि समुच्चये, खादि राङ्गाराणि वा 'रति ' मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् यथा-' उय निण्यभत्तिल पूरेमसिसिरे दद्दे गए सूरे कतो रतिं सुद्ध पाणियसुद्धा सडण्याणमि त्यत्र, ततोऽयमर्थः-रात्रौ प्रज्वलितानां जपाकुसुमवनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा सर्वतः-- सर्वासु दिक्षु समस्वतः- सामस्त्येन सङ्कुसुमितस्य - सम्यक कुसुमितस्य अत्रान्तरे शिष्यः पृच्छति - यादृग्रूप पतेषां वरः भवेयारूत्रे सिया' इति स्यात्-कथञ्चिद् भवेदेतद्रूपस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य वर्णः ? । सूरिराह--' नो इण्ट्ठे समट्ठे तस्सं दिव्यस्स जाणविमाणस्स पत्तो तराप बेव कंतवराम चेव मरणुन्नतराप चेव मणामतराए चेव वरणे पण्णत्ते इति प्राग्वत् व्याख्येयम् ' गंधो फासो जहा मणीण ' मिति गन्धः स्पर्शः यथा प्राग् मणीनामुक्तस्तथा यवनः स चैवं तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स इमे पयारूचे गंधे पण्णत्ते, तं जहा से जहानामए कोटुपुडा श्वा तगरपुडाण वा' इत्यादि । ' तर से श्राभिश्राँगिए देवे' इत्यादि, यावत्करणात्- ' करयलपरिग्गहियं दसनदं सिरसावत्तं मत्थर अंजलिं कट्टु जर विजयं बद्धावेद वंद्धावित्ता एयमाणत्तियमिति द्रष्टव्यम् ।
तसे सूर देवे अभियोगस्स देवस्स अंतिए एम सोचा निसम्म हट्ठ ०जाव हियए दिव्वं जिखिँदाभिगमणजोग्गं उत्तरवेउव्त्रियरूवं विउच्चति २ वित्ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहिं श्रणी एहिं तं जहाSirfire य ट्टाणीएण य सद्धि संपरिवुडे तं दिव्यं जाणविमाणं श्रणुपयाहिणी करेमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवापडिरूवणं दुरूहति दुरूहिता जेणेव सीहासणे तेणेव जवागच्छ २ च्छित्ता सीहामणवरगए पुरस्थाभिमुद्दे
२७५
सूरियाभ समिम । तए णं तस्स सूरिभस्स देवस्स चत्तारि सामायिसाहसीओ तं दिव्यं जाणविमाणं श्रणुपयाहिणीकरेमाणा उत्तग्लेिणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंतिदुरूहित्ता पत्तेयं २ पुव्वत्थेहिं भद्दासहिं णिसीयंति, वसा देवाय देवीओ य तं दिव्वं जागविमाणं ० जाव दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंति २ हित्ता पत्तेयं २ पुम्वत्थेहिं भद्दासणेहिं निमीयंति । तए णं तस्स सूरियास्स देवस्स तं दिव्वं जाणविमाणं दुरूढस्स समाणस्स
मंगलगा पुरतो ग्रहाणुव्वीए संपत्थिता, तं जहासोत्थियसिरिवच्छ •जाव दप्पणा । तयतरं च गं पुष्पकलसभिंगारदिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसणरतिया आलोयदरिसणिज्जा वाउन्डयविजयब्रे जयंती डागा ऊसिया गगण तलम खुलिहंती पुरतो अहाणुपुच्चीए संपत्थिया । तयतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंब कोरंट मल्लदामोव सोभितं चंदमंडलनिभं समुस्सियं विमलमायवत्तं पवरसीदास च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउया जोयसमाउत्तं बहुकिंकरामरपरिग्गहियं पुरतो आहाणुपुत्रीए संपत्थियं । तयातरं च गं वइरामयवठ्ठलट्ठसंठियसु सिलिट्ठपरिघट्टम सुपतिट्ठिए विसिट्ठे अगवरपंचचमकुडभीसहस्सुस्सिए [ परिमंडियाभिरामे ] वाउयविजयवेजयं - तीपडागच्छत्तातिच्छत्त कलिते तुंगे गगणतलम खुलिहंत सिहरे जो सहस्समूसिए महतिमहालए महिंदज्झए पुरतो अहाणुपुब्बीए संपत्थिए । तयाणंतरं च णं सुरूवणेवत्थंपरिकच्छिया सुसजा सव्वालंकारभूसिया महया भडचडगद्दप्रहगरेणं पंचणियाहिवइणो पुरतो अहागुपुवीए संपत्थिया । [ तयांतरं च यं बहवे आभियोगिया देवा देवीओ य सएहिं २ रूवेहिं सएहिं २ विसेसेहिं सएहिं २ विंदेहं सएहिं २ आएहिं सएहिं २ खेवत्थहिं पुरतो आहा गुपुच्चीए संपत्थिया ] तयाणंतरं च णं सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाशिया देवा य देवीओ य सब्धिडीए ०जाव रूपेणं मूरियामं देवं पुरतो पासतो य मग्गतो य समरगच्छति । ( सू० १६ )
'तर § से सुरियाभे देवे ' इत्यादि दिव्यं प्रधानं जिनेन्द्रस्य भगवती वर्द्धमानस्वामिनो ऽभिगमनाय श्रभिमुखं गमनाय योग्यम् - उर्ति जिनेन्द्राभिगमनयोग्यमुत्तरवक्रियं रूपं
विकुर्च्चति, विकुर्वित्वा चतभिरग्रमद्विवीभिः सपरिवाराभि
भ्यामनीकाभ्यां तद्यथा गन्धर्वानीकेन माट्यानीकेन च, साई, तत्र सहभावः स्वस्वामिभावमन्तरेणापि दृष्टो यथा समानगुगविभचयोर्द्वयोर्मित्रयोः, अतः स्वस्थामिभाव प्रकटनार्थमाह- संपरिबुडे' सभ्यगाराधकभाचं विभ्राणैः परिवृतः - सम्परिवृतः तत् दिव्यं यानाद्यमानमनुप्रदत्तिणीकुर्वन्पूर्वनोरणानुकूल्येन प्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वेण तोरणेनानुप्रविश
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सूरियाम
वान
4
3
नि
ति स्वसिंहासनानुकूलं प्रविशति प्रविशन् पूर्वं ' त्रिमोपानप्रतिरूपकेगा प्रतिविशिरूपेस सोपानेन विमान 'नि श्ररोहति श्रारुहा न्र 'जेवे दुरूह ' यस्मिन्नेव देश तस्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य त्र सिंहासनवरगतः सन् पूर्वाभिमुखः अनिवरणः - सम्यक सकलसेवकजनचमत्का रकारिया उपवेशन स्थित्योपविष्टः । 'तर रामि' त्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि
( १०(८) अभिधान राजेन्द्रः |
दिव्य मानमनुदक्षिणीकुर्वन्ति उत्तर सिपापान्ति इत्यादि स सम्यर्थे तृतीया, पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, श्रवशेषाःअभ्यन्तरो देवादेदनिपात पणारोहन्ति राचस्थेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति । ' तर मि त्यादि ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य तद् दिव्यं यानविमानमारूढस्य पुरतोऽष्टाष्टमङ्गलकानि यथानुपूर्यायमाय पाठक मे साथि सत्यादिपूर्व स्वस्तिकः तदनन्तरं श्रील स्तरं पूर्णकलश] भृङ्गारविग्यानकाः सवामराः कथम्भू नाः ? इत्याह-‘दर्शनरतिका ' दर्शने अवलोकन रतियांसु ना दर्शनरतिकाः, इह दर्शनरतिकमपि किञ्चिदालोकदर्शनीयं न भवत्यमङ्गलत्वात् यथा गर्भवती युवतिः श्रत ग्राहश्रालोक - बहिः प्रस्थान समयभाविनि दर्शनीया द्रष्टुं यो ग्या मल्यत्वात्, अन्ये त्वाहुः - श्रालोके दर्शनीया न पुनरयुवा चालोकदर्शनीया तथा वातोता विजयसूनिका वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती च उत्सृता ऊर्ध्वकृता गगन
श्रम्बरतलमनुलिखन्ती
तलम् अम्बरतलखती अभियन्तीपुरयथानुपय सम्प्रस्थिता । ' तयांतरं च रामि' त्यादि तदनन्तरं वेरुलियभिसंतविमलदंड 'मिति' बैडूयों 'बैडूर्यरत्नमयमानम निर्मलो दसो पस्य
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तथापरंटदामोसीडियमिति इति लयि तेन लभ्यमानेन फोरमापदास्ना कोरपुणमालपोपशोभितं प्रसम्मकोट स्वामीपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं दीप्त्या शोभया वर्तुलतया चन्द्रमण्डलाकारं समुत्सृतं सम्यगृवकृतं विमलमानपत्रं तथा प्रवरं सिंहासनं मणिरत्नैः भक्त्या विच्छिश्या चित्रं यत् तम्मांणेरत्नभक्तिचित्रं, सह पादपीठं यस्य तत्सपादपीठं, तथा 'सपायजमानमिति योगः पादुकाद्वित तस्य समायोजनं समायुक्तं सह पादुकायोगसमायुक्तं यस्य तत्तथा 'बहुकिङ्करामरपरिग्ाहियमिति बहुभिः किङ्करैः- कि रकस्यैरमरैः परिग्रहीतुं पुरता यथानुपु सम्प्रस्थितं. न नन्तरं 'वेदरामय वट्टलट्ठसंडिय सुसिलिट्टपरिघट्टम सुपट्ठिए ति, वज्रमयो वज्ररत्नमयः तथा वृत्तं वर्त्तुलं लं मनोज्ञं संस्थिन स्थानमाकारो यस्य स स्थित तथा सुश्लए: सुषा पापययो म इत्यर्थः परिपृष्ट व परिपृष्टः खरशाळ्या पाषाणप्रतिमावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाण्या पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठिना न तु नियंतिया वक्रः ततः पंतयां पदानां पदद्वयमीलनेन कर्म्मधारयः, अत एव शेषध्वजेभ्यां विशिष्टः- अतिशायी तथा अनेकानि श्रनकसङ्ख्याकानि वराणि - प्रधानानि पञ्चवर्णानि कुडभी
त्र
सहस्राणि उत्नानि यत्र स खोरसृतः तस्य जयजयन्तीका जनसहस्रप्रमाणोच्यत्वात् तथा गगननलम् - अम्बरतलमनुलिखत् शिखरम् - अग्रभागों यस्य स तथा योजनसहस्रमुत्सृतः श्रत एव महइमहालए' इति, अतिशयेन महान् महेन्द्रध्वजः पुरती यथानुपृषी संग्रथितः तदनन्तरं सुरूपपरि कच्या' इति सुरूप परिक्षितं परि
तथा, तथा सुष्ठु श्रतिशयेन सजाः परिपूर्णाः स्वसामग्रीसमायुक्तया प्रगुणीभूताः विभविताः महना भडन डगर पहकरे ' ति महता अतिशयन भटचटकर पहकरेण पटकथानसमूहन पानीकानि पञ्चमीका धिपतयः पुरतो - यथाऽनुपूर्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं व सूर्यमानयासिन बढ्यो वैमानिका देवा यावत्करणात् सम्यई सय्यमित्यादिपरिग्रहः सूर्याभं देवं पुरतः पार्श्वतो मार्गतः पृष्ठतः समनुगच्छति । तर से से यूरिया देवे ते पंचारणीयपरिक्खिने बहूरामयबद्दलङ्कुमंठिएण० जाव जोयणसहरूमभूमि एवं मइतिमहालतां महिंदकरणं पुरतो कडिजमा च उहि सामायिमस्मेहिं जाव सोलमहिं आवरक्खदेवसाहस्सीहिं अनेहि य बहुहिं सूरियाभविमाणवासी हिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सब्बिड्डिए जात्र रखें सोहम्मस्स कप्पस्स मज्मणं तं दिध्वं देवाणुभावं देवि दिव्यं देव दिवं देवामा उपमाग २ पडिजागरेमाणे २ जेणेव सोहम्मकम्पस्स उत्तरिल्ल खिजारामग्गे तेणेव उवागच्छति २ छित्ता जोयणमयसाहस्मितेहिं विग्गहेहिं श्रवयमाणे वीतीयमाणे ताए उक्किट्ठाए जव तिरिश्रममंखिजाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमज्मेण वीइदयमा २ जेसे नंदीमरवरदीवे जगेव दाहिमपुरमिले रतिकरपच्यते तेव उवागच्छति २ दिन तं दिव्यं देविडि ०जाव दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे २ पडिमखेमा २ जेणेव जंबूदीवें दीवे जेसेच भारहे वामे जव चावलकप्पा नगरी जेणेव यंत्रमालवणे चड़ए जेणेव सम भगवं महावीर व उपागच्छ २ दिना समर्थ भगवं महावीरं तेणं दिव्येणं जाश्विमाणे तिक्खुतो
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सूरियाभ
सुखदर्शना
याहि पाहि करइ २ रेत्ता समणस्स भगवतो महावीर उत्तरपुर मे दिमांगे तं दिव्वं जागणविमा ईसि चउरंगुलमसंपर्ण धरणीस उठवित्ता चउहि अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहिं अणीयाहिं, तं जहा - गंधव्वाणिए य गट्टाखिए य सद्भि संपरिवुडे ताओ दिव्याओ जाणविमाणाओ पुरच्छिमिलेणं तिसोवाणपडिरूवएवं पच्चोरुहति । तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स वत्तारि सामाणियसाहसीओ ता
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(१०६) सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सरियाभ भो दिव्याओ जाणविमाणाओ उत्तरिलेणं तिमोवाणप
शतसहस्रकः-योजनलक्षप्रमाणैर्विग्रहैः-ऋमरवपतन्-अध
स्तादवनग्न व्यनिवजश्च गच्छंश्च तिर्यग् अमङ्ख्ययानां डिरूवएणं पच्चोरुहति , अवसेसा देवा य देवीओ य
द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन जेणेव ' त्ति नन्दीश्वरो द्वीपः ताओ दिवाओ जाणविमाणाश्रो दाहिणिलेणं तिमोबा
यस्मिन् प्रदेशे यस्मिन्नेव च प्रदेशे तस्मिन्नन्दीश्वरे दीपे णपभिरूवएणं पच्चोरुईति । तए णं से मूरियाभे देवे च- दक्षिणपूर्वः-आग्नेयकोणवर्ती रतिकरनामा पर्वतस्तस्मिन्नुउहिं अग्गमहिसीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाह
पागच्छति, उपागत्य च तां दिव्यां देवर्द्धि यायद दिव्यं ई
वानुभावं शनैः २ पतिसंहग्न २ एतदेव पर्यायण व्याचस्सीहिं अण्णेहि य बहुहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वे
ऐ प्रतिसंक्षिपन् २ यस्मिन् प्रदेश जम्बूद्वीपणे नाम द्वीपः माणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सब्बिड्डीए तत्र च जम्बूढीगे यस्मिन् प्रदेश भारतवर्ष तस्मिश्च भाजावणाइयरलेशं जेणेव समभावं महावीरे तेणेव उवा- रतवर्षे यस्मिन् प्रदेशे आमलकल्पा नगरी तस्याश्चाऽऽम -
लकल्पाया नगर्या बहियस्मिन्प्रदेशे आम्रशालवनं चैत्यं मच्छतिरछित्तासमणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण
तस्मिश्च चैत्ये यस्मिन् प्रदेश श्रमणा भगवान् महावीरः पयाहिणं करेति करित्ता वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता
'तेणेवे' ति तत्रोपागच्छति. सर्वत्र तृतीया सप्तभ्यर्थे द्रष्टव्या एवं वयासी-अहं ण भंते! मूरियाभे देवे देवाणुप्पियाणं वं- प्राकृतत्वात् उपागत्य च श्रमण भगवन्तं महावीरं तन प्रागुदामि रणमंसामि जाव पज्जुवामामि (मू०१७)मूरियाभाति
क्लस्वरूपेण दिव्येने यानविमानन सह त्रिकृत्यः श्रीन वारान
पादक्षिणप्रदक्षिणीकरोति, पादक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च श्रमण समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासी-पोराण
स्य भगवतो महावीरस्यापेक्षया य उत्तरपूर्वो दिग्भागस्तमपमेयं सरियामा! जीयमय सूरियामा ! किच्चमेयं मरिया
क्रामति-गच्छति अपक्रम्य च तद् दिव्यं यानविमानमीपद भा! करणिजमेयं सूरियाभा! प्राइममेयं सूरियामा!
एतदेव प्रकटयति-चतुरङ्कलं; चतुर्भिरङगुलैरित्यर्थः, अअब्भणुमायमेयं सूरियाभा! जे णं भवणवइवाणमंतर
संप्राप्तं सत् धरणीतले स्थापयति स्थापयित्वा चतसृभिरजोइसवेमाणिया देवा अरहते भगवते बंदंति नमसति
ग्रमहिपीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां तद्यथा
गन्धर्वानीकेन नाट्यानांकन च माई सम्परिवृतस्तस्माद् वन्दित्ता नमंसित्ता तो पच्छा साई साई नामगोत्ताई
दिव्यात् यानविमानात् पूर्वेण त्रिसोपानतिरूपण प्रत्यसाहिति, तं पोराणमेयं सूरियाभा! जाव अब्भणुनाय- बतरति, चत्वारि सामानिकदवसहस्राण्युत्तरण शेपा दक्षिमेयं सूरियाभा! (सू० १८) तए ण से सूरियाभे देवे |
णेन । 'तए णमित्यादि 'वंदामि नमसामि जाय पज्जुवामा
मी' त्यत्र यावच्छब्दकरण'- मक्कारमि सम्मामि कल्लागा समणणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ० जाव
मंगल देण्यं चेइयं पज्जुवासेमि'इति परिग्रहः ततः मूपियाभासमणं भगवं महावीरं वंदति नममति बंदित्ता नमंसित्ता इत्यादि, सूरिशभात् प्रादिः-मुख्यः पर्युपासकतया यस्य णच्चासमे णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे स सूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तं सूर्याभ देवमवविणपणं पंजलिउडे पज्जुवासति । (सू० १६)
मयादीत्-पोगणमेयमित्यादि प्राग्वत् 'मश्चासन्न इत्यादिना.
त्यासन्नः नातिनिकटोऽवग्रहपरिहारात् नान्यासन या स्थान 'तए णमित्यादि ततः स सूर्याभो देवः तेन पञ्चानीकप- वर्तमान इति गम्यम्'नाइदुरे इति न नैवानिदरः अनिविपकरिक्षिप्तन यथोक्तविशेषणविशिष्टन महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्र- होऽनौचित्यपरिहारात् नातिदूरे या 'सुस्सूसमाणे' इति भगकृष्यमाणेन चतुर्भिः सामानिकसहौश्चतसृभिः सपरि- द्वचनानि श्रोतुमिच्छन् ' अभिमुहे ' इति अभि भगवन्तं चाराभिरग्रमहिषीभिस्तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकाधि लक्षीकृत्य मुखमस्यति अभिमुखो, भगवतः सम्मुख इपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षदेवसहस्रैग्न्यैश्च बहुभिः सू- त्यर्थः, विनयन हेतुना 'पंजालउडे' इति प्रकृष्टः प्रधानी र्याभविमानवासिभिर्वैमानिकैवैर्देवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः ललाटतटघटितत्वन अञ्जलिः हस्तभ्यासविंशषः कृती मर्यद्वर्या सर्वधुत्या यावत्करणात-'सब्वबलेणं सबसम- यन स प्राञ्जलिकृतः, सुखादिदर्शनात् क्लान्तस्य पनिपातः दएणं सव्वादरेणं सवयिभूमाए सव्वविभूइए सब्यसंभ- पर्युपास्त-सेवते। मेणं सव्यपुष्फवस्थगंधमलालंकारेणं सव्यदिव्यतुडियस- तए णं समणे भगवं महावीरे मूरियाभस्म देवस्म तीमे हसचिनाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं म
य महतिमहालियाए परिसाए जाव परिसा जामेवहया समुदपणं महया वरतुडियजमगसमगपहुप्पयाय
दिसि पाउन्भृया तामेव दिसिं पडिगया ( सू० २० ) रवणं संखपणवण्डहभेरिझल्लरिखरमुहि हुडकमरयमुहंगदुंदुभिनिग्घोसनाइयरवण' मिति परिगृह्यते, सौधर्मस्य क
तए णं से मूरियाभे देवे समणस्स भगवो महावीरस्स रूपस्य मध्येन तां दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवद्युर्ति दिव्यां अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हयहियए देवानुभूति 'लालेमाणे २' इति उपलालयन् २ लीलया उ
उद्याए उद्वेति उद्वित्ता समणं भगवं महावीर वंदइ णमंसह पभुजान इति भावः, येनैव सौधर्मस्य कल्पस्योत्तराहो । निर्याणमाग्र्गो-निर्गमनमार्गस्तेनैव पायेनोपागच्छति, 'नाए |
वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अहम्नं भंते ! मूरिया देवे उकिट्ठाए' इत्यादि पूर्वयद्यावत् दिव्यया देवगत्या योजन- किं भवांसद्धिए अभवसिद्धिने ? सम्मद्दिडी मिच्छादिट्ठी?
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सूरिया
'परित्तसंसारिते अणं तसं सारिए ? सुलभवो हिए दुल्लभबोहिए? आराहते विराहते ? चरिमे अपरिमे? छरियामाइ सम भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वदासी-सूरियामा ! तुमं गं भवसिद्धिए यो अभवसिद्धिते जाव चरिमे, गो अरिमे ० ३१) तरी से परिवामे देवे सम भगवा महावीरेणं एवं बुचे समाये तुचितमादिए परमसोमणस्से समणं भगवं महावीरं वंदति नमसतिरमित्ता एवं पदासी तुम्भे भंते! सध्यं जागाह सव्वं पासह ( सव्व जाणह सच्चओ पासह ) सव्यं कालं जाणह सव्वं कालं पासह सर्व भावे जाह सच्चे भावे पासह जाति से देवाप्पिया मम पुच वा पच्छा वा ममेवरू दिव्यं देवि दिव्यं देव दिव्यं देवाभाव लई पत्तं अभिसमायं ति, तं इच्छामि देवाणुप्पियाणं भक्तिवगं गोवमातियाणं समयायं निबंधाचं दिव्वं देविडि दिव्यं देवजुई दिव्यं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीस तिसद्धं नदृवि
उपसिए । (०२२) तर यं समये भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं बुते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयमहं श्रद्धातियो परियाणति तुसिखीए संचिट्ठति । (०२३४) (०) से रिया देवे तं दिव्यं देषि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पडसाहरइ पडिसाहरित्ता स्वयं जाते एगे एगभूए तर गंग से सूरिवामे देवे सम भगवं महावीरं तिक्खुनी मायादिपाहिखं करें बंद ति
सति वंदिता मंसिता नियमपरिवालसर्द्धि संपरिवुडे तमेव दिव्वं जागरिमाणं दुरुदति दुरुहिना जामेव दिसं पाउम्भूषा तामेव दिसि पगिया (०२५)
मद्द
ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभस्य देवस्य श्वेतस्य राज्ञों धारणीप्रमुखानां च देवीनां तस् इमद्दालिताए' इति अतिशयेन महत्या 'इसिरिसाए इति ऋषयः विकालदर्शननस्तेषां पत् तस्याः अय यादिजनपद इत्यर्थः मुनिषर्षदो यथोक्रानुष्ठानानुष्ठायि साधुपदः जतिपरिसाए' इति यतन्ते उत्तरषुषिशेप इति यतो विचित्रङ्गपाद्यभिप्रायुपेताः साध यस्तेषां दो पतिपद विदुपरिखाय इति चिह्न परिषद: अनेकविज्ञानपदो देवद
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पदः कौरव्यपर्षद कथम्भूताया इत्याह-या इति अनेकानि पुरुषाणां शतानि सरुपया य स्यां सा श्रनेकशता तस्याः भगवंदा' इति श्रनेकानि वृन्दानि वासा तथा तस्याः यदपरिवारा इतिघानेपानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्याः, ' महतिमहालियाए परिसाए ' अतिशयेन महत्या पर्षदः ' श्रोडवले इति श्रघेन-प्र
-
न तु
पानिपते
5
(₹१०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सूरियाभ ति भावः' एवं जहा उवबाहर तहा भाणियव्यमिति, एवं यथा पातिके प्रन्ये तथा वये तस्वयम्-अइबले महाबले अपरिमियबलवीरयतेय माहष्यकंतिजुते सारदनवथण्यिमहुर गंभीर कुंचनग्यांस दुंदुभिस्सरे उरे विडा कंठे चट्टियाए सिरे समावन्नार अगरलाए श्रमम्साप विषमदुरगंभीरगाडिगार सरसचिवाह या गिरा समासागामिणी सम्ययए अपुणरुत्ताए सरस्सईए जोयरानीहारिणा सरें श्र 'इमागद्दार भासाए भासह, अरिहा धम्मं परिकहेइ, नंजहा - श्रत्थि लोए श्रत्थि अलोए अस्थि जीवे श्रत्थि अजीवे' त्यादि, तावत् 'तए गं सा महद्दमहालिया मनुस्सपरसा समस्त भगवतो महावीरस्स निर धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठनुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिकखुतो आपापाहि करें करिता नर्मसद् २ सा एवं वयासी- सुयक्खाएं अंत ! निथे पावसे, नत्थिं केई समणे माहरो वा परिसं ध
माइक्लिए, एवं वइत्ता जामेव दिसि पाउब्भूतातामेव दिल पडिगया । तए ये सेव राया समणस्स भगयतो महावीरस्स अंतिर धम्मं सोच्ना निवडुचित्तमादिए जाय हरिससविसमासदिय समभगवं महावीरं वेद नगंसद वंदित्ता नर्मसित्ता पसिगाई पुच्छर पुच्छित्ता अट्ठाई परियाएइ परियाइत्ता उट्ठा
उडु उडता समर्थ महा
एवं वयासी-सुगक्खाप से भंते! निगं पावय. जाव परिसं धम्ममा क्वित्तए, एवं वइत्ता हस्थि दुरुह २ हित्ता समणस्स भगवातो महावीरस्स श्रंतिया बसालयसाओ बयाओ पि दिसि पाउम्भूए नांव दिसि पडिगत' इति इदं च प्रायः सफलमपि सुगमे नवरे यामेव दिशमलव किमु म वति ? - यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः समवसरणे समागतस्तामेव दिये प्रतिगतः । सम्पति सूर्यानी देवी धर्मदेशना जातप्रभूतनरसंसारविराग
,
रोमित्यादि 'सिद्धि' इति नः सिद्धिर्यस्यासी भमितिको य इत्यर्थः तद्विपरीतोऽभवसिद्धिका अभय इत्यर्थ भव्योऽपि कश्चिमिध्यादृष्टिर्भवति कश्चित्सम्यग्दृष्टिस्तत श्रात्मनः सम्यग्दृष्टित्वनिश्चयाय पृच्छति सम्यगृहाको मि पाक सभ्य परिमिति कश्चिदपरिमित संसारः, उपशमश्रेणिशिरः प्राप्तानामपि केपचनसंसारभाबाद, अतः पृच्छति पारि कोऽनन्तसंसारिकः परीपरिमितः सवासी संसा र परित्तसंसारः सोऽस्यास्तीति परित्तसंसारिकः श्रतो नेकरवरादिती' कप्रत्ययः एवमनन्तश्चासौ संसारश्चान
सारा सोडतीति अनन्तसारिकः परीतलारिकोप सुबोधको निशा दिकः कश्चि दुर्लभबोधिकों यथा पुरोहितपुत्रजीवः, ततः पृच्छति सुलभा दोषान्तरेतिस्वामी सुलभवोधिकाधिक सुलभबोधिको क विविधपतितति
यति
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(१९०१) सुरियाभ अमिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ सम्यक पालयति बोधिमित्याराधकः, तद्विपरीतो विराध- च 'उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागमि' स्यादि सुगम , मवर कः , अाराधकोऽपि कश्चित्तद्भवमोक्षगामी न भवति ततः बहसमभमियगान प्रेक्षागृहमराठावर्गनमणिपीठिकासिंहाम: पृच्छति-चरमोऽचरमो वा?, चरमोऽनन्तरभावी भयो य नतदुपर्युलोचाङ्कशमुक्कादामवर्णनानि च प्राग्वद् भावनीयास्यासौ चरमः 'अभ्रादिभ्य' इति मत्यर्थीयोऽप्रत्ययस्तद्वि- नि। 'तए णमित्यादि. ततः सूर्याभो देवस्तीर्थकरस्य भगः पर्गतोऽचरमः, एवमुक्त सूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महा
यतः श्रालोके प्रणाम करोति,कृत्वा बानुजानातु भगवान् मा. बीरस्तं सर्याभ देवमेवमयादीत्-भोः सूर्याभ ! स्वं भवसि
मित्यनुज्ञापनां कृत्वा सिंहासनवरगतः सन् तीर्थकराभिमुखः द्धिको, नाभवसिद्धिकः । यावत्करणात्-'मम्मद्दिट्ठी नो मि- सन्निषमः। (रा०)। नाटयविधिःणशब्दे चतुर्थभागे उक्ला ।) च्छादिट्ठी परित्तसंसारिए नो अणंतसंसारिए सुलभवोहिए नो दुलभवोहिए पागहए नो विराहए' इति परिग्रहः, 'तुम्भ
__ भंते ति भयवं गोयम समणं भगवं महावीरं बंदति ण भंते!,''तुम्भे' इति यूयं णमिति'वाक्यालङ्कारे भदन्त! सर्वे नमंसति २त्ता एवं वयासी सूरियाभस्स णं भंते ! देवकेवलवेदसा जानीथ सर्व केवलदर्शनेन पश्यथ,अनेन द्रव्यप
स्स एसा दिव्या देविड्डी दिव्या देवजुत्ती दिव्वे दे रिग्रहः,तत्र सर्वशब्दो देशकात्स्न्ये ऽपि वर्तते यथा अस्य सर्व
वाणुभावे कहिं गते कहिं अणुपबिट्टे ?, गोयमा! सस्यापि ग्रामस्यायमविपतिरिति सचराचरविषयज्ञानदर्शन
रीरं गते सरीरं अणुपविटे से केणडेणं भंते ! एवं प्रतिपादनार्थमाह-सब्बतो जाणद सव्यश्रो पासह' सर्वतःसर्वत्र दिनु ऊर्ध्वमधी लोकेऽलोके चेति भावः, जानीथ
वुच्चइ ?-सरीरं गते सरीरं अणुपविटे, गोंयमा !, से जपश्यथ च, अनेन क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र सर्वद्रव्यसर्यक्षेत्रविषयं हा नाम ए.कूडागारसाला सिम दुहतो लित्ता दुहतो गुत्ता यातमानिकमात्रमपि झानं दर्शनं वा सम्भाब्येत ततः सक
गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा, तीसे णं कूडागारलकालविषयमानदर्शनप्रतिपादनार्थमाह-सर्वकालम्-अतीतमनाग वर्तमानं च जानीथ पश्यथ, पतेन कालपरिग्रहः,
सालाते अदूरसामंते एत्थ णं महेगे जणसमूहे चितत्र कश्चित् सर्वद्रव्यसर्वक्षेत्रसर्वकालविषयमपि शान स
दुति , तए णं से जणसमूहे एग महं प्रभवद्दलगं वा चपर्यायविषयं न सम्भावयेत् यथा मीमांसकादिः, श्रत ! वासबद्दलगं वा महावायं वा इञ्जमाणं पासति २ सित्ता श्राह-सर्वान् भावान-पर्यायान् प्रतिद्रव्यमात्मीयान् पर- तं कूडागारसालं अंतो अणुविसइ २ सित्ता ण चिट्ठइ, से कीयांश्च केवलबेदसा जानीथ, केवलदर्शनेन पश्यथ। अथ ।
तेणद्रेणं गोयमा! एवं बुच्चति-सरीरं अणुप विद्वे ।(सू०२६) भावा दर्शनविषया न भवन्ति ततः कथमुक्तं-'सम्बे भावे पासह' इति ?, नैष दोषः, उत्कलितरुपया हि ते भावा
भदन्तेत्यामन्त्रणपुरस्सरं भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं म दर्शनविषया न भवन्ति अनुत्कलितरूपतया तु ते भवन्त्येव,
हावीरं वदन्ते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्या 'एवं यक्ष्यमा तथा चोकम्-"निर्विशेष विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते” इति,
णप्रकारेणावादीत् . पुस्तकान्तरं रिय वाचनान्तरं रश्यते , ततो ' जाणंति' 'ण' मिति पूर्ववत् देवानांप्रियाः
'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भमयो महावीपूर्वमपि अनन्तरमुपदर्श्वमाननाट्यविधेः पश्चादपि च उपद
रस्स जितु अंतेवासी' इत्यादि , अस्य घ्याण्या-तस्मिन्
काले तस्मिन् समये शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः . श्रमणश्यमाननाट्यविधेः, उत्तरकाल मम एतद्गां दिव्यां देवर्टि
स्य भगवतो महावीरस्य 'ज्येष्ठ ' इति प्रथमोऽस्तेवासीदिव्यां देवद्युति दिव्यं देवानुभावं लब्धं ( लब्धं ) देशा
शिष्यः, अनेन पदद्वयेन तस्य सकलसवाधिपतित्वमा. स्तरगतमपि किश्चिद्भवति तत श्राह-प्राप्त, प्राप्तमपि किश्चि
वेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतं नामधेयं नामेति प्राकृदन्तरायवशादनात्मवशं भवति तत पाह-अभिसमन्वागतं, तत्वात् विभक्तिपरिणामेन नाम्नेवि द्रष्टव्यम् , एवमन्यत्रापि तत'इच्छामिणमि' त्यादि, इच्छामिणमिति-पूर्ववत् , देवानां यथायोग भावनीयम् , अन्तेवासी च किल विषक्षायो प्रियाणां पुरता भक्तिपूर्वकं-बहुमानपुरस्सरं गौतमादीनां श्र- श्रावकोऽपि स्यादतस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह- धनमणानां निर्ग्रन्थानां दिव्यां देवद्धिं दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवा- गारः , न विद्यते अगारं-गृहमस्येत्यनगारः , अयं च नुभावमुपदर्शयितुं द्वात्रिंशद्विधं-द्वात्रिंशत्प्रकारं नाटयविधि- विगीतगोत्रोऽपि सम्भाव्यत अत श्राह-गौतमो गोत्रेण गी. नाट्य विधानमुपदर्शयितुमिति। 'तए णमित्यादि. ततः श्रम- तमाह्वयगोत्रसमन्वित इत्यर्थः , श्रयं च तत्कालोचितदेहगो भगवान महावीरः सूर्याभेण देवेन पबमुक्तः सन् सूर्या- परिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत माह--सप्तो. भस्य देवस्यैनम्-अनन्तरोदितमर्थ नाद्रियते-न तदर्थक- त्सेधः--सप्तहस्तप्रमाणशरीरोछायः, अयं चेत्थभूतो लक्ष. रणायादरपरो भवति, नापि परिजानाति-अनुमन्यते, स्व-- महीनोऽपि शङ्कयेतातस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह--' समचतो वीतरागन्यात् गीतमादीनां च नाट्यविधेः स्वाध्याया- उरंससंठाणसंठिए' इति , समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्लमदिविघातकारित्वात् , केवल तूष्णीकोऽवतिष्ठते, एवं हिती- माणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽत्रयो यस्य तत् समचतुरनं यमपि वारं, तृतीयमपि वाग्मुक्तः सन् भगवानेवमयनि- अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीगवयवा द्रष्ट छति । 'नए णमि' स्यादि. ततः पारिणामिक्या बुद्धया व्याः, अन्ये त्वाः-समा-श्रन्यूनाधिकाश्चतम्रो ऽप्यनयो तत्वमवगम्य मौनमेव भगवन उचितं न पुनः किमपि वळू.. यत्र तत् समचतुरनं नश्च तत् संस्थानं च , संस्थाकेवलं मया भक्रिरात्मीयोपदर्शनीयेति प्रमोदातिशयतो' नम्--श्राकार: नश्च वामदक्षिजाम्बोग्न्तर जातपुलकः सन् सूर्याभो देवः श्रमण भगवन्तं महावीरं श्रासनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्सरं घामस्कन्ध. घन्दते-स्तौति नमस्यति-कायेन वन्दित्या नमस्थित्वा स्य दक्षिएजानुनश्चान्तरमिति, अपर वाहुः--विस्तारो
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(१९०२) भूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम स्मेधयोः समस्यात् समचतुरनं तच्च तसंस्थानं च २,
स्य तेनैव तेषां रचितत्वात् असौ चतुर्दशपूर्वी , भनेन मंस्थानम-श्राकारम्तन संस्थितो-व्ययस्थिती यः स तस्य श्रुतकवलितामाह, स चायधिशामादिबिकलोशि तथा 'जाव उट्ठाए उर्दुइ ' इति यावत्करणात्-वज्जरिस
स्यादन आह-'चउनाणोवगए 'मतितावधिमनःपर्याय हसंघयगो कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्तनवे
झानचतुष्टयसमन्वितः, उनविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न मत्ततवे महानवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घो
समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदामपि ष. रवंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखितविपुलतेयलेसे चउद्द
स्थानपतितत्वेन श्रवणादत श्राह-'सर्वाक्षरसन्निपानी' सपुची चउनाणोवगए सव्यक्खरसन्निवाई समणस्स भ
अक्षरागां सन्निपानाः-संयोगाः अक्षरसन्निपाताः सर्वे
च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य - गवतो महावीरस्स अदूरसामन्ते उहू जाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमागे विहर
याः स तथा, किमुक्कं भवति ?--या काचित् जगति पतए णं से भगवं गोयमे जायसढे जायसंसए जा
दानुपूर्थी वाक्यानुपूर्वी वा संभवति ताः सर्या अणि यकोउहल्ले उपपनसहे उम्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहलेले संजा
जानातीति, एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिय सायसड्ढे संजायसंसए संजायकोजसले समुप्पण्णसहे समू
क्षादिति कृत्वा शिष्याचारवाच्च श्रमणस्य भगवतो महाप्परणसंसए समुप्पराणकोउहल्ल उट्टाए उट्टे' इति द्रव्य,
वीरस्यादुरसामन्त विहरतीति योगः, तत्र दूर-विश्कए नत्र नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः ऋषभस्तदुपरि वेष्टनप
सामन्नं-सनिकृष्ट नत्प्रतिषेधारसामन्तंः ततो नातिदूहः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहन
रे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत नं यस्य स तथा, तथा कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुल
आह-' उहजाणू अहोसिर' ऊर्य जानुनी यस्यासावृर्ध्वको-लवस्तस्य यो निकषः-करपट्टके रेखारूपस्तथा प
जानुः अधःशिरा नोद तिर्यग्या विक्षिप्तदृष्टिः.किन्तु-नियतप्रग्रहणेन पनकेसराण्युच्यन्ते अवयवे समुदायोपचारात्
भूभागनियमितपरित्यर्थः, 'झागाकोट्टोबगए' इति ध्यानयथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽवयवोऽपि देवदत्तः, तथा
धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च तदेव कोष्ठः-कुशूलो ध्यानकोष्ठ स्तमुच देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्टा लोको वदति-स्पृष्टो भ
पगतो ध्यानकोष्ठोपगतः , यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिया देवदत्त इति, कनकपुलकनिकषवत् पनवच्च यो गौ
समविप्रसृतं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकाणेन्द्रि.. स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवा-कनकस्य यः
यान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन' पञ्चाश्रयनिरोधादिलक्ष
णेन तपसा अनशनादिना चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुप्तो द्रपुलको-द्रवत्वे सनि बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सहशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्-पम केसरवत् यो
व्यः, संयमतपोग्रहणमनयोः प्रधानमोक्षाङ्गताख्यापनार्थ, गौरः स पनगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयसमासः,
प्राधान्यं संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराण
कर्मनिर्जराहेतुत्वेन, नथाहि-अभिनवकर्मानुपादानात् पुअयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शङ्कथेत तत पाह
राणकर्मक्षपणाश्च जायते सकलकर्मक्षयलक्षणा मोक्षस्ततो 'उग्गतव' इति, उग्रम्-अधृष्यं तपः-अनशनादि यस्य
भवति संयमतपमोर्मोक्ष प्रति प्राधान्यमिति 'अप्पागं भायेस तथा , यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितु
माणे बिद्दरति' इति, भारमानं वासयन् तिष्ठति । 'तए ण' मपि मनसा तद्विधन; तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तं
मित्यादि, ततो ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं 'ण' मिनि जाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्व
वाक्यालङ्कारे स भगवान गौतमो 'जातसड्डे' इत्यादि, जात. लितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, ' तत्तनये ' -
श्रद्धादिविशेषणविशिष्टः सन् उत्तिष्ठतीति योगः,तत्र जाताति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हि तेन तपस्तपतं
प्रवृता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वावगम प्रति यस्यासी येन सर्वाण्यपि अशुभानि कर्माणि भस्मसात् कृतानीति
जातश्रद्धः तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो • महत्वे ' इति महान्-प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात्
नाम अनवधारितार्थ शानं, स चैवम्-इत्थं नाभास्य दिव्या सपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले' इति , उदार:
देवद्धिविस्तृता अभवत् , इदानी सा क्व गतेति, तथा 'जाप्रधानः, अथवा-उरालो-भीष्मः उग्रादिविशिएतपःकरण
यकुतूहल' इति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहल: जानीतः पावस्थानामल्पसत्त्वानामतिभयानक इति भावः , त
सुक्य इत्यर्थः, तथा कथममुमर्थ भगवान प्ररूपयिष्यति था घोरो-निघृणः परीषहन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधि- इति, तथा 'उप्पन्नसड्ढे' उत्पन्ना प्रागभूता सती भूता श्रद्धा कृत्य निर्दय इति यावत् , तथा घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गु
यम्यासी उत्पन्नश्रद्धः, अथ जातश्रद्ध इत्येतदवास्तु किमर्थणा मूलगुणादणे यस्य स घोग्गुणः, तथा घोरैस्तपोभि- मुत्पन्नश्रद्ध इति , प्रवृत्तश्रद्धत्येनयोरपन्नश्रद्धत्वस्य लब्धस्तपस्वी घोरतपस्वी , ' घोरबंभचेरवासी ' इति घोरं- त्वात् , न हि अनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तते इति, अत्रोच्यते-हेत. दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् ब्रह्मवयं यत् तत्र वस्तुं शी- स्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तश्रद्धः?, उच्यते-यत उलं यस्य स तथा, • उच्छूढसरीरे' इति उच्छूढम्-उ- त्पन्नश्रद्धः, इति हेतुत्वदर्शनं चोपपन्नं, तस्य काव्यालङ्कारज्झितमियोज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उ- स्वात् यथा 'प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्कर, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे कछूढशरीरः, 'संस्वित्तविउलतेउलेसे' इति संक्षिप्ता-शरी- विभावरी' मित्यत्र, अत्र हि यद्यपि प्रवृत्तदीपादित्वादेवाप्रगन्तर्गतत्वेन इस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेक- वृत्तभास्करत्यमुपगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्या. योजनप्रमाण क्षेत्राधितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या- देहेतुतयोपन्यस्तमिति सम्यक् ' उप्पन्न सहे उप्पन्न संसये' विशिएतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्याला यस्य स | इति प्राग्वत , तथा 'संजायसहे' इत्यादि पदपदकं प्राग्वत, तषा, चिउहसपुठवी' इति चतुर्दम पूर्वागिण विद्यन्ते । य- नवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो वेदितव्यः, ' उट्ठाण उद्दे'
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सूरियाम
ति उत्थानमुत्था-ऊर्ध्वं वर्त्तनं तथा उत्तिष्ठति इह 'उह इत्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयेत यथा वकुमुत्तिष्ठते तस तद्वद्यवच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तम उत्थया उत्थाय' जेव' त्यादि यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान महावीरो वर्तते 'तेवे' तितस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, उपागत्य च श्रम त्रिक्रस्वः-- त्रिवारान् श्रादक्षिणप्रदक्षिणीकरोति श्रदक्षिणप्रदक्षि गीकृत्य च वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीतू - सरियाभम्स गं भंत !' इत्यादि, 'कहिंगर' इति क गतः ? तत्र गमनमन्तर प्रवेशाभावेऽपि दृष्टुं यथा भित्तौ गतो धूलिरिति. एषोऽपि दिव्यानुभावो यद्येवं कचित्प्रत्यासन्न प्रदे शं गतः स्यात्ततो दृश्येत न चासौ दृश्यते, ततो भूयः पृच्छत्ति'कहि विट्टे' इति क्वानुप्रविष्टः क्कान्नलीन इति भावः । भगवानाह - गौतम ! शरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्टः पुनः पृच्छति' से केणट्टेल ' मित्यादि । श्रथ केनार्थेन-केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यते- शरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्टः ?, भगवानाह - गौतम !' से जहानामए' इत्यादि, कूटस्येवपर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा, यस्या उपरि श्राच्छादनं शिखराकारं सा कूटाकांरति भावः कूटाकारा चासौ शाला च कूटाकारशाला, यदिवा - कूटाकारेण शिख
(१०३) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
कृत्योपलक्षिता शाला कूटाकारशाला स्थात्, 'दुद्दनो लिना' इति वहिरन्तश्च गोमयादिना लिप्ता गुप्ता बहिः प्राकारावृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात् यदिवा --- गुप्ता गुप्तद्वारा केषाञ्चित् द्वाराणां स्थगितत्वात् केषाञ्चिच्चा स्थगितत्वादिति निवाता - वायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं निवानं प्रायो म भवति तत श्राह निधानगम्भीरा निवाता सती गम्भी
निवातगम्भीरा निवाता सती विशाला इत्यर्थः, ततस्तस्याः कूटाकारशालाया श्रदूरसामन्ते नातिदूरे निकट वा प्रदेश महान् एकोऽन्यतरो जनलमूहस्तिष्ठति स च एक महत् श्रभ्ररूपं चार्दलम् अभ्रवालं, धाराभिपातरहितं सस्भाव्यवर्ष बादलमित्यर्थः, वर्षप्रधानं वाईलकं वर्षादकं वर्षे कुर्वन्तं वार्दकं महावानं वा 'एजमाग 'मिति श्रायान्तम् आगच्छन्तं पश्यति दृष्ट्वा च तं कूडागारसालं ' द्वितीया षष्ठ्यर्थे तस्याः कूटाकारशालाया श्रन्तरं ततोऽनुप्रविश्य तिष्ठति एवं सूर्याभस्यापि देवस्य सा तथा विशाला दिव्या देवर्धिर्दिव्या देवद्युतिर्दिव्यो देवानुभावः शरीरमनुप्रविष्टः ' से एण्डेय मित्यादि, अनेन प्रकारण गौतम ! एवमुच्यते-' सूरयामस्से ' त्यादि ।
'
भूयो गौतमः पृच्छति -
कहिं णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स मृरियाभे गामं विमाणे पन्नत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीव मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो उड्डुं चंदिमसूरियगहगणणक्खनतारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुईश्रो जोयकोडीयो बहुईओ जोयणस्यसहस्सकोडीओ उड्ड दूरं बीतीवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे कप्पे नामं कप्पे पन्नत्ते, पाईपडी आयते उदीदा हिणवत्थिषे श्रद्धचंदठाणसंठिते अचिमा
सूरिया लिभासरासिवाला श्रसंखेजाओ औयणकोडाकांडी आयाम विक्खंभेणं असंखेजाओ जोयणको डाकोडीओ परिणं इत्थं सोहम्माणं देवां बत्तीस विमाणवाससमहमाई भवतीति मक्खायं, ते गं विमाणा सव्यरयणामया अच्छा ० जाव पडिरुवा, तेसि णं विमाणां बहुमज्झदे सभाएं पंच वर्डिसया पाता, तं जहा- १ श्रमोगवसिते २ सत्तवन्नवसिते ३ चंपकवर्डिसते ४ च्यगवडिंसते ५ मज्झे सोहम्मवर्डिसए, ते गं वडिंसगा सव्त्ररयणामया अच्छा ० जाव पडिरूवा, तस्स गं सोहम्मवडिंगस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखजाई जो सय सहस्साई वीईवत्ता एत्थ गं सूरियाभस्स देवस सूरिया नामं विमाणे पन्नत्ते, श्रद्धतेरस जोय
सहस्साई श्रायामविक्खंभेणं गुणयालीमं च सयसहस्साई बाचनं च सहस्साई अद्धय अडयाले जोयणसते परिक्खेवेणं, से गं एगेणं पागारेणं सव्वओो समंता संपरिक्खिते, से गं पागारे तिनि जोयणसयाई उड्ड उच्च
मूले एगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्भे पन्नासं जोयाई विक्खंभेणं उप पणवीसं जोयणाई विक्खभणं मूले वित्थिने मज्झे संखिते उप्पि तपुए गोपुच्छसंठा
संटिए सव्त्रकणगामए अच्छे ०जाव पडिरूबे से गं दागारे गाणा ( मणि ) विपंचचन्नहिं कविसीस एहिं उवसोभिते, तं जहा -किरहेहिं नीलेहिं लोहितेहि हालि - देहिं सुकिल्ले कविसीसएहिं ते गं कविसीसगा एगं जीणं आया मेणं अद्धजोगणं विक्खंभेणं देणं जोयगं उड्डूं उच्चत्तेणं सव्यमणि ( रयणा ) मया अच्छा ०जाव पडिवा, सूरियाभस्स गं विमाणस्स एगमेगाए बाहाल दारसह २ भवतीति मक्खायं, ते गं दारा पंच जोयसयाई उड्डुं उच्च तें अड्डा इजाई जोयणसयाई विक्खभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगधूभियागा ईहामियउसभतुरगर मगर विहगवालग किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय उमलयभत्तिचित्ता संभुग्गयबरवयवेड्या परिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्वमालिणीया रूवगस हस्तक लिया भिमाणा भिभिसमणा चक्खुल्लाय लेसा सुहासा ससिरीयरूवा वनों दारा सिंहोइ, तं जहा - वइरामया गिम्मा रिट्ठामया पड़डाणा वेरुलियमया सूहखंभा जायरूवोचियपवरपंचनमणिरणको मतला हंसगन्भमया एलुया गोमे
मया इंदकीला लोहियक्खमतीतो दारचेडीओो जोईरसमया उत्तरंगा लोहियक्खमईओ सूईओ वयरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वयरामया अग्गला अ
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सूरियाभ
गलपासाया रययामयाओ यावत्तणपेढियाओ कुत्तरपासमा निरंतरिषघणकवाडा भितीसु चैत्र मितिगुलिता छप्पना तिथि होति गोमायमिया तझ्या गालामगिर
वालरूवगलील अमालभंजियागा वयरामया कुड्डा रयामया उस्सेहा सव्वतवणिजमया उल्लीया खाणामगिरयणजाल पंजरमणिवंसग लोहियक्ष डिक्स गरययभोमा अंकामया पक्खा पखवाह जोहरसामा सा मकवेल्लया रामयाओ पट्टियाओ जायरूवमई श्रो ओहाडीओ वइरामईओ उचरिपुच्छाओं सम्यसेयर
माच्छा अंकामया कलाकूडतज्जिघूमियामासेया संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीर फेरययगिरपगासा तिलगरयणद्धचंद चित्ता नागामणिदामाकिया तो सराहा तवणिज्जवालुपापत्थडा सुहासा समिरीयरूपा पासाईया दरिजा अभिकथा पढिरुचा ।
क सूर्याभस्य देवस्य सूर्याभं विमानं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह - गौतम ! अस्मिन् जम्बूदीपे यो मन्दरः पर्यतस्तस्य दक्षिणतोऽम्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादू चन्द्रसूर्य ग्रहगरून तारारूपाणामपि पुरतो पनि योजना नियोजनानि ततो बुद्या बहुतयोजनायेवमेव बहूनि योजनशनसहस्राणि एवमेव व बहीयोजनकोटीरेवमेव च बहीयोजनकोटी कोटी रूर्द्ध दूरमुत्प्लुत्य श्रत्र - सार्द्धरज्जुप्रमाणे प्रदेशे सौधर्मो नाम कल्पः प्रज्ञप्तः स च प्राचीनापात्रीनायतः पूर्वापयत इत्यर्थः उत्तरस्तिः अन्द्रस्थानस्थित हि सोधशानदेयलोको समुदिनी प रिपूर्यचन्द्रमण्डलसंस्थानसंस्थितो, तयोध मे
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(१९०४) अभिधान राजेन्द्रः ।
मोधर्मकल्प उत्तरवर्ती ईशानकल्पः ततो भवति सौधर्मकल्पः चन्द्रसंस्थानसंस्थितः श्रचित्रमाली ' इति अर्चीपि-किरणानि तेषां माला अर्चिर्माला सा अस्यास्तीति
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मिली किरणमालासङ्कुल इत्यर्थः, असङ्ख्येययोजनकोटीकोटीः ' आयामविवस्त्र भें' ति आयामश्च विष्कम्भधायामविष्कम्भं समाहारो द्वन्द्वस्तेन आयामेन वचिष्कभेन चेत्यर्थः, असंख्येया योजनकोटीकोटयः 'परिक्लेवेणं' परिधिना सव्वरयणामए ' इति सर्वात्मना रत्नमयः 'जाव डि ' इति यावत्करणात्- 'अच्छे सहे घद्रे मट्ठे' इम्यादिविशेषण कदम्बकपरिग्रहः, तत्थ ' मित्यादि तत्र सीधम् कल्पे द्वात्रिंशत् विमानशतसहस्राणि भवन्ति - त्याख्यातं मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः । ' ते ं विमा दितानि विमानानि सूत्रे स्वं प्राकृतत्वात् सर्वरत्नमयानि सामरस्येन रस्मयानि 'अच्छानि' आकाशस्फटिक वदतिनिर्मलानि अत्रापि यावत्करणात् 'सरहा लढा घट्टामट्ठा नीरया' इत्यादि, विशेष जातं द्रष्टव्यं तच्च प्रागेवानेको 'सिमियादि तेषां विमानानां बहुम प्रदेशमा यो सर्वाधि
स्या
सूरियाम
स्वकल्प चरमप्रस्तरवर्तित्वात् पञ्चावतंसकाः पश्यमानाय सकाः प्रशप्ताः, तद्यथा अशोकावतंसकः - अशोकावतंसकमामास च पूर्वस्य दिशि ततो द धिमा पासक उत्तरस्यां चूतायतका मये सीधर्मावर्त का सर्व मयाः ' अच्छा ०जाव पंडिरूवा ' इति यावत्करणादशापि सरहा लहा घट्टा मट्ठा ' इत्यादि विशेषणजातमवगन्तव्यम् अस्य व सौधर्माकल्प पूर्वस्यां दिशि ति असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि व्यतिव्रज्य - अतिक्रम्यात्र सूर्याभस्य देवस्य सूर्याभं नाम विमनं प्रज्ञप्तम्, अर्द्ध त्रयोदशं वषां तानि अजेयोदशादि, सर्द्धानि द्वादशेत्यर्थः, योजनशतसहस्राण्यायामविष्कम्भन. एकोनचत्वारिंशत् योजनशतसहखाणि द्विपाशहस्राणि योजन तानि वरिष कानि परिक्षेपेपरिचित परिक्षेपपरिमार्ण 'विभग्गदहगुणकरणी वट्टम्स परिरश्रो हो ' इति करणवशात् स्वयमानेतव्यं, सुगमत्वात् । ' से एंगण' मित्यादि तद्विमानमेकन प्रकार सर्वतः सर्वास दि समन्ततः - सामस्त्येन परिक्षिप्तम् । 'से गं पागारे' इत्यादिख प्राकारः प्रयोजनानि ऊस पर्क योजना विम्मे
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दारभ्य मध्यभागं यावत् योजने योजने योजनशिक्षाम विटिया उपरि-मकेशिनियोजनानि विष्कम्भेल, मध्यभागादारभ्यापरितनमस्तकं या योजने योजने जनपद गस्य विष्कम्भतो हीमानतया लभ्यमानत्वात् अत एव मूले विस्तयो मध्ये योजना उपसि विशतियोजनमाषविस्तारात्मकत्वात् अन व गोपुच् स्थानसंस्थितः, 'सव्यरयणामए अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्, 'सें पागारे ' इत्यादि,' स प्राकारी 'खाणाविह पंच नानाविधानि च तानि पञ्चनिच नागाविषय
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यं कृष्णादिवर्णनाम्यापेक्षा या पञ्चवक यतिकरादिइत्यादि ते गं कविसीसगा इत्यादि, तानि कपिशीर्षकाणि प्रत्येकं योजनमेकमायामतो देष्णा योजनं विष्कम्मे देशोनयोजनमधे 'सम्यरामया इत्यादिविशेषावत्सुरिया सामित्यादि, एकैकस्यां बाहायां द्वारसह समिति सर्वस
यया चत्वारि द्वारसहस्राणि तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्चजनशतान्यूर्ध्वम् उच्चैस्त्वेन अतृतीयानि योजन शतानि विष्कम्भतः 'तावइयं चेवे' ति श्रर्द्धतृतीयान्येव यांजनशतानि प्रवेशतः 'सेया' इत्यादि, तानि च द्वाराणि सवायुपरि श्वेतानि श्वेतवर्णोपेतानि बाहुल्येनाङ्करत्नमयस्वात् 'दरकरामधूमियागा' इति परकनकारक तूपिका- शिखर येषां तानि तथा, 'इंडामिगाउसभतुरंगनरमरविगलगफिसरहरु सरभ चमरकुंजवालयम लयभत्तिचित्ता संभुग्गय वरवरचे हयापरिगयाभिरामा वि [ज्जारजपला विय असमीया रुगसहस्सकलिया मिसमाणा मिष्निसमाणा च खुल्ला
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम यण लेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति विशेषण जान । उपरिमागाः सर्वतपनीयमयाः-सोमना तपनीयरूपसुयानविमानबद्भावनीय' 'वन्नो दाराणं तेसिं होइ' इति तेषां | वर्णविशषमयाः 'नाणामणिरयण जालपंजरमणिवंसगलोहिद्वाराणां वर्णः-स्वरूप व्यावर्णनमयं भवति, तमेव कथय- यक्खपडिसगग्ययभोमां'इति मणयो-मणिमया वंशा ये. ति-'राजहे' त्यादि, नद्यथा-'वइरामया णिम्मा' इति नेमा पुतानि मणिमयवंशकानि लोहिताख्यानि-लोहिताख्यमयाः नाम द्वाराणां भूमिभागादूर्ध्वं निष्कामन्तः प्रदेशास्ते स- प्रतिबंशा येषु तानि लोहिताख्यप्रतिवंशकानि रजता-रजधैं वज्रमया-बजरत्नमयाः, वज्रशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृत- तमयी भूमिर्येषां तानि रजलभूमानि प्राकृतयारसमासान्तः स्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्य, 'रिट्ठामया पइट्ठाणा' रिष्ठम- मणिवंशकानि लोहिताख्यप्रतियशकानि रजतभूमानि नानाया-रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि मूलपादाः घेरुलियमया मणिरत्नानि नानामणिरत्नमयानि जालपञ्जराणि-गवाक्षापखंभा' इति चैयरत्नमयाः स्तम्भाः 'जायरूयोवचियपत्र- | रपर्यायाणि येषु नानि नथा, पदानामनन्धयोपनिपातः प्राकपंचवन्न [वर मणिरयण कुट्टिभतला' जातरूपेण-सुवर्णेन तत्वात् . ' अंकामया पक्खा पक्षबाहाम्रो' इति अकोउपचितैः-युनः प्रवर्ग:-प्रधानैः पञ्चवर्णमणिभिः-चन्द्रका- रत्नविशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः पक्षवाहयोऽपि तादिभिः रत्नैः--कतनादिभिः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं तदेकदेशभूता एवाङ्कमय्यः, श्राह च जीवाभिगममूलटीकायेषां ते तथा 'हंसगनमया एलुया' हंसगर्भमया-हंसग- कृत्-" अङ्कमयाः पक्षास्तदेकदेशभूता एवं पक्षवाहयोऽपि भाख्यरत्नमया एलुका-देहल्यः 'गोमेज्जमया ईदकीला' द्रएव्या" इति, 'जोइरसामया बंसा बंसकवेल्लुका य ' इनि इति गोमेज्जकरत्नमया इन्द्रकीलाः, लोहियक्खमई श्रो' ज्योतीरसं नाम रत्नं तन्मया बंशाः-महान्तः पृष्ठवंशा 'बंसलोहिताक्षरत्नमय्यः 'चेडाओ' इति द्वारशाखा 'जो- कबेल्लुया य' इति महतां पृष्ठवंशानामुमयतस्तिर्यक स्थाइरसमया उत्तरंगा ' इति द्वारस्योपरि तिर्यग्व्यद- प्यमाना बंशाः कवेल्लुकानि प्रनीतानि 'रययामइयो पट्टिस्थितमुत्तर तानि ज्योतीरसमयानि-ज्योतीरसाख्य- श्राओ' इति रजतमथ्यः पट्टिका-शानामुपरि कम्बास्था
नात्मकानि 'लोहियक्खमईओ' लोहिताक्षमय्यो लोहि- नीयाः 'जायरूवमईश्रो ओहाडणीश्रो' जातरूपं-सुवर्णविशेताक्षरत्नाधिकाः सूचयः-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभायहे. षस्तन्मय्यः 'श्रोहाडणा'यो' अवघाटिन्यः प्राच्छादनहतुकतुः पादुकास्थानीयाः विरामया संधी' बज्रमयाः सन्धयः म्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणीकलिञ्चस्थानीयाः, बयरामसन्धिमेलाः फलकानां , किमुक्नं भवति ?-बजरत्नपूरिताः फ ईश्रो उरि पुच्छणायो' इति वज्रमय्यो-यज्ररत्नामिका अलकानां सन्धयः, नाणामणिमया समुग्गया' इति समुद्गका व घघाटनीनामुपरि पुछन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्लधतसमुद्र काः-शूचिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि वयगमया रतृणविशेषस्थानीयः, उनं च जीवाभिगममूलटीकाकारणअगला अग्गलपासाया' अर्गलाः-प्रतीताः अर्गलाप्रासादा | "श्रोहाडणाग्रहणं महत् क्षुल्लकं च पुञ्छना" इति 'सबसेयत्रार्गला नियम्यन्ते , श्राह च जीवाभिगमूलटीकाकार:- यरययामयाच्छायणे' इति सर्वश्वेतं रजतमयं पुञ्छनीना"अर्गलाप्रासादो यत्रागला नियम्यन्त इति" पते द्वये अपि मुपरि कवेल्लुकानामधाच्छादनम् 'अंकमयकणगडतबबजरत्नमय्यो 'रययामयाश्रो पावत्तणपढियाश्रो' इति श्रा णिजथूभियागा' अङ्कमयानि बाहुल्येनारत्नमयानि पक्ष २ यर्तनपीठिका नाम यत्रन्द्रकीलको भवति , उतश्च विजय- बाहादीनामङ्करत्नात्मकत्यात् कनकानि-कनकमयानि कूद्वारचिन्तायां जीवाभिगममूलटीकाकारेण-"श्रावर्तनपीठि- टानि-महान्ति शिखराणि येषां तानि कनककृटानि तपका यत्रेन्द्रकीलको भवतीति" 'अंकुत्तरपासगा' इति श्र- नीयानि-तपनीयस्तृपिकानि, ततः पदत्रयस्यापि कर्मका-अङ्करत्नमया उत्तरपाश्वों येषां द्वाराणां तानि अको- धारयः , एतेन यत् प्राक् सामान्येन उत्क्षिप्तं ' यावत्तरपार्श्वकानि 'निरंतरियघणकवाडा' इति निर्गता अन्त- रकणगधूभियागा' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिनि । सरिका-लवन्तररूपा येषां ते निरन्तरिका अत एव घना म्प्रति तदेव श्वेतत्यमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयतिनिरन्तारका घनाः कपाटा येणं द्वाराणां तानि निरन्तरि. 'सेया' श्वेतानि, श्वतत्वमेवोपमया द्रढयति- संखतलविमकघनकपाटानि भित्तिसुचेव भित्तिगुलिया छप्पना तिन्नि लनिम्मलदधियण गोखीरफेणरययनिगरपगासा' इति विगतं होति' इति तेषां द्वागणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः भित्तिषु- मलं विमलं यत् शङ्खनल-शंखस्योपरितनो भागो यश्च भित्तिगताः भित्तिगुलिकाः-पीठफस्थानीयाः तिन पदपश्चा- निर्मलो दधिधनः--घनीभूत दधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरण शत्प्रमाणा भवन्ति 'गामाणसिया (सजा)तया' इति तद्वत् प्रकाशः-प्रतिभासो येषां तानि तथा 'तिलगरयणगोमानस्यः शरा'तइया' इति तावन्मात्रा: पदपश्चाशस्त्रि- द्धचंदचित्ता' इति तिलकरत्नानि-पुराइविशेषास्तरशचन्द्रकमायाका इत्यर्थः 'रणाणामगिरयणवालरूवगली लट्टियसाल श्व चित्राणि-मानारूपाणि तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राणि, कभंजियागा' इति इदं द्वारविशेषणमेव , नानामगिरत्नागि- चित्-शंखतलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरययनियरमानामणिरत्नमयानि व्यालरूपकाणि लीलास्थितशाल भञ्जि- प्पगासन चंदचित्ताई' इति पाठः, तत्र पूर्ववत् पृथक पृथक काश्व-लीलास्थितपुत्तलिका येषु तानि तथा 'बयरामया कू व्युत्पत्ति कृत्या पश्चात् पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, माणामडा रययामया उस्सेहा' इति कूडो-माइभाग उच्छूयः- णिदामालंकिया ति नानामणयो-मामाणिमयामि दामाशिखरम् आह च जीवाभिगममूलदीकाकत्-'कूडो माडभाग नि-मालास्तरलं कृतानि नानार्माणदामालंकृतानि अन्तउच्छ्यः शिखर 'मिति,नवरमत्र शिखराणितेषामेव माङ- बहिश्च सणानि--लक्षण पुद्गलस्कन्धनिर्मापितानि 'तबभागानां सम्बन्धीनि येदितश्यानि , द्वारशिखराणामुक्तन्वात् | णिजबालुथापत्थडा ' इति तपनीयाः-तपनीयमय्यो या यसयमागत्याच, सवतगिज नया उल्लोया' उल्लोका- चालुकाः मिकताम्तासां प्रस्तर: प्रस्तरो येषु, तानि नक्षा
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सूरियाभ अभिवानराजेन्द्रः।
सूरियाभ 'सुहफासा' इति सुखः-सुखहेतुः स्पर्श येषु तानि सु- यणलेसेहिं भन्नमय खेज्जमाणीओ (विव) पुडविपखस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत्।।
रिणामाश्रो सासयभावमुवगयाओ चन्दाणणाओ चंदनैवेधिकीप्ररूपणायाह
विलासिणीयो चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदंसतेमि ण दाराणं उभो पासे दुहनो निसी
"- सानो उक्का (विव उज्जोवेमाणाओ) विज्जुघणामिहियाए सोलस सोलम चंदणकलसपरिवाडीश्रो पन्नत्ता-रियमरदिपंततेय अहिययरसन्निकासाप्रो सिंगारागारचाभो, ते संदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवा- रुवेसायो पासादिचामो दरिसणिज्जाओ ( पडिरिपडिपुमा चंदनकयचच्चामा प्राविद्धकंठेगुणा पउमुप्प- रूवाभो अभिरुवाओं) चिट्ठति । (सू. २७) । लपिहाणा सबरयणामया अच्छा जाय पडिरूवा महया
तेषां सम्यां मत्येकमुभयोः पार्श्वयोरकैकनषेधिकीभावेन महया इंदकुंभसमाणा पन्नता समणाउसो, तेसिणं
'दुहतो' इति द्विधातो हिप्रकारायां नैधिक्या, नैषेधिदाराणं उभो पासे दुहमो णिसीहियाए सोलम २ कीनिधीवनस्थानम् , आहब जीवाभिगममूलटीकाकृत्णागदंतपरिवाडीमो पन्नत्ताओ, ते ण णागदंता "नैदेधिकी निषीदनस्थान " मिति , प्रत्येक पौडश २ मुताजालंतरुसियहेमजालगत्रक्खजालखिखिणी (घंटा)
(कलश) परिपाटयः प्राप्ताः, ते च चन्दनकलशा घरक
मलपाटाणा' इति घर-प्रधानं यन्कमलं तत् प्रतिष्ठानम्जालपरिखित्ता भन्भुग्गया अभिणिसिट्ठा तिरियसुसं
भाधारी येषां ते घरकमलप्रतिष्ठानाः , यथा सुरभिषरयापग्गहिया महेपभगवा पभगद्धसंठाणसंठिया सव्ववय. रिप्रतिपूर्णाश्चन्दनकृतवर्चाकाः-चन्दनकृतोपगगाः 'प्राधि. रामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदंत- करठेगुग्गा' इति प्राषिद्धः-आरोपितः कराठे गुगोममाणा पन्नता समणाउसो, तेसु णं णागदंतरसु
रक्तसूत्ररूपो येषां ते भाविकराठगुणाः , कराठेकालयत्
सप्तम्या आलुक. 'पउमुष्पलपिहाणा ' इति पसमुत्पलं च पहवे किएहसुत्तबद्धवढवम्घारितमलादामकलावाणीलसुत.
यथायोग पिधानं येषां ते पमोत्पलपिधानाः 'सव्यरयणा. लोहितसु० हालिहसु० सुक्किलसुत्तबढवग्धारितमल्लदाम- मया अच्छा सराहा लहा' इत्यादि यावत् 'पडिरूवगा' इति कलावा, ते दामा तवणिजलंबसगा सुवन्नमयरमं- विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् 'महया' इति अतिशयेन महान्तः डियगा जाव कन्नमणणिव्युत्तिकरेणं सद्देणं ते पदेसे
कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भी राजवन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य सवमो समंता प्रापूरेमाणा २ सिरीए अईव २ उव
पूर्वत्तिपातः महाँश्चासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकु.
म्भसमाना:-महाकलशप्रमाणाः प्रशप्ता हे श्रमण !हे श्रासोभेमाणा चिट्ठति । तेसि णं णागदंताणं उवरिं अन्ना
युष्मन् । 'तेसि णं दागण' मिति तेषां द्वागणां प्रत्येकश्रो सोलस नागदंतपरिवाडीओ पमताओ, ते णं णागदं- मुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी ता तं चव जाव महता २ गयदंतसमाणा पन्नत्ता
तस्यां प्रत्येक षोडश घोडश नागदन्तपरिपाटयः प्राप्ताः, समणाउसो ! , तेसु णं णागदंतएसु बहवे रययामया
नागदन्ता-अङ्कटकाः, ते च नागदन्ताः 'मुत्ताजालंतरुसि
यहेमजालगवक्खजालखिखिणि (घंटा ) जालपरिक्खित्ता' सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे
इति--मुक्काजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्बमानानि वेरुलियामईओ धूवघडीओ परमत्ताओ, ताओ णं धूवघडी- हमजालानि--सुवर्णमयदामसमूहा यानि च गवाक्षजालाश्रो कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुदुयाभिरा
नि गवाक्षाकृतिरत्नविशेषमालासमूहा यानि च किङ्किणी. मामो सुगंधवरगंधियातो गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं
घण्टाजालानि--सुद्रघण्टासमूहास्तैः परिक्षिप्ताः-सर्वतो मणुमणं मणहरेणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे
व्याप्ताः अब्भुग्गया' इति अभिमुखमुद्रताः अग्रिमभागे
मनाक उन्नता इति भावः 'अभिनिसिठ्ठा' इति अभिमुखसम्वत्रो समंता जाव चिट्ठति । तेसि णं दासणं उ
यहि गाभिमुखं निस्पृष्ठा निर्गता अभिनिस्पृष्टाः तिरिभो पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस साल- यसुसंपरिग्गहिया' इति तिर्यक् भित्तिप्रदेशः सुष्ठु-अ. भंजियापरिवाडीओ पन्नत्तानो , ताओ णं सालभंजि- तिशयन सम्यक्-मनागण्यचलनेन परिगृहीताः सुसम्परियाओ लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियात्रो
गृहीताः, 'अहेपन्नगद्धरूवा' इति अधः-अधस्तनं यत्
पन्नगम्य सर्वस्याई तस्येव रूपम्-श्राकारो येषां ते अध:णाणाविहरागवसथाओ णाणामल्लपिणद्धाओ मुट्ठिगिज्झ
पन्नगाईरूपाः अधःपन्नगा वदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः । सुमझाओ आमेलगजमलजुयलवट्टियअब्भुन्नयपीणर- एनदेव व्याचष्टे-'पन्नगा संस्थानसस्थिताः' अधः पन्नइयसंठियपीवरपनोहरामी रसावंगाप्रो असियकेसीओ गार्जसंस्थानाः 'सवययरामया' सर्वात्मना बज्रमया 'श्र.
च्छा सराहा' इत्यारभ्य 'जाय पडिरूया ' इति विशेषमिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ ईसिं असो
णजातं प्राग्वत् . 'महया ' इति अतिशयेन महान्तो गजदगवरपायवसमुट्ठियारो वामहत्थग्गहियग्गसालामो ईसिं
न्तसमाना-गजदन्ताकाराः प्रशप्ता हे श्रमण ! हे श्रायु प्रदच्छिकइक्खचिदिएणं लूममाणीयो विव चक्खुल्ला- मन् ! तमु ण णागदंतपसु बहवे किएहसुत्तबद्धा ' तेषु
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
- सूरियाभ नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रबद्धा' वग्घारिय' इति अध इति असिताः- कृष्णाः केशा यासांता श्रसितकेश्यः, एतदे. लम्बिता माल्यदामकलापा:--पुष्पमालासमूहा बहवो नी- व सविशेषमाचष्टे-'मिउबिसयपसत्थलक्खणसंथेल्लियग्गलसूत्रावलम्बितमाल्यदामकलापा एवं लोहितहारिद्रशुक्ल- सिरयाओ' मृदवः--कोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानिसूत्रबद्धा अणि याच्याः। 'ते ण दामा ' इत्यादि. तानि शोभनानि श्रम्फुटितानवप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशदामानि तवणिजलंबूसगा ' इति तपनीयः-तपनीयमयो स्तलक्षणाः 'संवेल्लितं ' संवृतमधे येषां ते संवेल्लितायाः शिलम्बूसगो-दाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तथा. रोजाः--केशा यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंबोल्लितानतपनीयलम्बूसकानि, 'सुवनपयरगमंडिया ' इति पावतः शिगेजाः, - ईसिं असोगवर पायवसमुट्टियानो' ईषत्--मसामस्येन सुवर्णमेतरेम--सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सु- नाक अशोकवरपादप समुपस्थिताः--प्राधिता ईषदशोकववर्णप्रतरमण्डितानि - नाणाविहमणिरयणधिविहहारउव- रपादपसमुपस्थितास्तथा । वामहत्थग्गहि यग्गसालाप्रो । सोहियसमुदया' इति नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च वामहस्तन गृहीतम शालायाः-शाखायाः अर्थादशोकपाविविधा विचित्रवर्णा हारा अपारशसरिका अर्ब हारा दपस्य यकाभिस्ता घामहस्तगृहीताप्रशालाः सिं अजूनघसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जा- च्छिक रक्खचिटिपणं लूममाणीो थिवे ' ति ईषत्-मनाक य सिरीए प्राय २ उपसोभेमाणा चिटुंति' इति अत्र याव- मई-तिर्यक पलितमक्षियेषु कटाक्षरूपेषु वेष्टितेसु सेर्मुकरणाचं परिपूर्णः पाठो द्रव्यः । इसिमरालोरणमसंपत्ता कम्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चपखुल्लोयणलेसेहि य - पुष्याबरदाहिणुत्तरागपाहिषापहि मवायं मनायं पराजमाणा अमन खिनमाणीमो थिध 'भन्योऽन्य-परस्परं चतुषां लोपाजपलंब झंझमाणा ओरालेणं मणुमेणं मणहरणं करण- कनेन--पालोकनेन ये लेशा:--संश्लेषास्तैः खिद्यमाना इय, मणनिम्वुरकरेणं सहेणं ते पएसे सब्य श्री समंता मापुरेमा- किमुक्तं भवति -पनामानस्तियंग्यलिनाशिकटातः
यस उखसोभेमाणा चिटति' एतय प्रा- परस्परमयलोकमाना अबतिष्ठन्ति , यथा नून परस्परगव यानषिमानय ने व्याख्यातमिति न भूयो व्याण्यायते ।
सौभाग्यासहमतस्तियंग्यलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्त 'तेसि णं णागवंताण' मित्यादि, तेषां मागवन्तानामुपरि
। ति , " पुढविपरिणामाप्रो' इति पृथिवीपरिणामप्रत्येकमन्याः षोडश षोडश नागदन्तपरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः ते
रूपाः शाश्वतभायमुपगता बिमानयत् 'चंदा गगानी व नागवन्ता यावत्करणात्-'मुत्ताजालमरुसियहेमजालगव.
इति चन्द्र स्थानने मुखं यास तास्तथा चंदविलाक्खजालखिखिणिघंटाजालपरिक्खिसा' इत्यादि प्रागुतं सर्षे
सिणी श्रो' इति चन्द्रवत् मनोहरं विलसन्तीत्य बंशीलाचद्रष्टव्यं यावत् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे श्रायु
न्द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाश्री' इति चन्द्रार्द्ध समम्प्मन् ! 'तेसु ण णागदंतपसु' इत्यादि , नेषु नागदन्तकेषु
अष्टमीचन्द्रसमान ललाटं यासां तास्तथा चंदाहि यसो यहूनि रजतमयानि सिककानि प्राप्तानि, तेषु सिक्केषु बह
मदसणाओ' इति चन्द्रादपि अधिकं सोम-सुभगकान्तिवो बह्यो चैडूर्यमय्यो वैडूर्यरत्नारिमका धूपघटिकाः 'का- मत् दर्शनम्-श्राकारो यासां तास्तथा उल्का य उद्योलागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंत ' त्यादि प्राग्बत् नवरं तमानाः · बिज्जुघणमरीचिसूरदिपंततेय अहिययरसन्नि'घाणमणनिव्वुइकरेण ' मिति घ्राणेन्द्रियमनोनिवृत्तिकरण । कासातो' इति विद्युतो ये घना-बहलतरा मरीच यस्तेभ्यो सिमियाविषीदाराणा प्रत्येकमायोपाययो- यच्च सूर्यस्य दीप्यमानं दीप्त-सेजस्तस्मादपि अधिकतरः रेकैकनैषेधिकीभावेन द्विधातो द्विप्रकारायां नषेधिक्यां षोड- साभकाशः-प्रकाशा यासा तास्तथा, 'सिगारागाग्चारुश षोडश शालभञ्जिकापरिपाट्यः प्रज्ञप्ता,ताश्च शालभञ्जि-। बेसामा पासाइयात्रा दरिणिजाश्रो पडिरूवाश्रो अभिका लीलया ललिताङ्गनियशरूपया स्थिता लीलास्थिताः । रुवायो चिट्ठति' इति प्राग्वत् । • सुपरट्रियायो' इति सुमनोशतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः तेसि ण दाराणं उभयो पामे दुहओ णिसीहियाए सो'सुअलंकियाओ' सुष्ठु-अतिशयेन रमणीयतया अलङ्कृताः लस सोलस जालकडगपरिवाडीओ पन्नताओ, ते ण जाम्घलंकृताः ' णाणाविहरागवसणाश्रो ' इति नानाधिधो. नानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि यस- लकडगा सवरयणामया अच्छा जाव पाडरूवा । तास नानि-वस्त्राणि यासा तास्तथा 'नानामल्लपिनद्धाश्रो, णं दाराणं उभयो पासे दहयो निसीहियाए सोलस इति नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि प्राविद्धा- सोलस घंटापरिवाडीओ पन्नत्ताओ, तासि णं घंटाणं इमेनि यासांता नानामाल्यपिनद्वाःलान्तस्य परनिपातः सुखा यारूवे वन्नावासे पन्नने, तं जहा-जेवणयामईयो घंटाभो निदर्शनात .'मट्रिगिझसुमझा श्रो' इति मुठिग्राह्य सुष्टु- वयरामयामो लालाप्रो णाणामणिमया घंटापासा तबशोभनं मध्यं-मध्यभागा यासा तास्तथा, 'श्रामेलगजमल. जुगलयाट्टियभन्भुन्नयपीणरायसाठयपीवर पोहराओं' पीनं.
णिजामइयाओ संखलाओ रययामयाओ रज्जूतो, ताभो पीवर रचितं संस्थितं-संस्थानं यकाभ्यां तो पीनरचितसं- णं घंटाश्री श्रोहस्सराओं मेहस्सराम्रो सीहस्सराम्रो दंडस्थानी पामेलकः--आपीडः शेखरक इत्यर्थः, तस्य यमल- हिस्सरानी कुंचस्सराओ णदिस्सराओ णदिघोसायो युगलं समणिकं यद्युगलं तद्वत् धर्तितौ पद्धस्वभाया
मंजुस्मराभो मंजुघोसामो सुस्सरामो सुस्सरणिग्घोसामो खुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युन्नती पीनरचितसंस्था मौ च पयोधरी यासा तास्तथा, 'रत्तायंगानो' इति रक्कोड: 3
| उरालेणं मणुओणं मणहरेणं करमणनिबुइकरेणं सहएं वे पानो-नयनोपान्तरूपो यास तास्तथा, 'असियकेसिनो'| पदेसे सन्यो समंता मापूरेमाणीसो २ जाय चिति ।
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( ११०८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरियाभ तेसि दाराणं उभओ पासे दुहओ सिसीहियाए सो लस सोलम वणमालापरिवाडीओ पन्नताओ, ताओ णं वणमालाओ णाणामणिमयदुमलयकि मलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुजमाणा सोहंतमस्सियाओ पा साईयाओ० ४ | तेसि णं दाराणं उभओ पासे दुहओ
महियाए सोम २ पगठगा पन्नत्ता, ते गं पगठगा श्रड्डू इई जोयणमयाई आयामक्खिंभेणं पणवीसं जोगणसयं बाहल्लेणं सव्ववयरामया अच्छा • जाव पडिरूवा | तेसि णं पगंठगाणं उरिं पत्तेयं २ पासायवडेंगा पन्नत्ता, ते गं पासावर्डेगा अड्डाबाई उड्ड उच्चतेणं पणवीसं जोयणसयं विवखंभेणं अन्य सिहसिया व विहिमणिरयणभत्तिचित्ता वाउडयविजयवेजयंत पडागछत्ता इछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंत सिहरा जालंतर पण पंजरुम्मिलिय व मणिकरणगधूभियागा वियसियमयवत पोंडरीया तिलगरयराद्धचंदचित्ता णाणामणिदामालंकिया अंतों हिं सहा तवज्जिवलुगापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादीया दरिसणिज्जा ०जाव दामा उवरिं पठगाणं झपा छत्ताइछना । तेसि दारागं उभयो पासे सो लस सोलस तोरणा पन्नता, गाणामणिमया खाणामलिमएस खंभे वणिविस निधिट्ठा ० जाव पउमहत्थगा, तेसि गं तोरणा पुरो दो दो सालभंजियाओ पननाओ, जहा हेडा तब तेसि णं तोरणाणं पुरनो नागंदता पत्ता, जहा हेड्डा ०जाब दामा, तेसि णं तोरणाणं पुरो दो दो हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किन्न रसंघाडा किंपुरिसघाडा महोरगसंघाडा गंधन्वसंघाडा उसभसंघाडा सुव्त्ररयणामया अच्छा ०जाव पडिरूवा, एवं यही पंती मिहुणाई । तेसि णं तोरणाणं पुरो दो दो पउमलयाओ ० जाव सामलयाओ चिं कुसुमियाओ सव्वरयणामया अच्छा ०जान पडिरूवाओ। तास णं तोरणाणं पुरओ दो दो अक्खय ( दिसा ) सोत्थिया पन्नत्ता, सव्वश्यणामया अच्छा ०जाव पडिरूवा, तेसि णं तोरणासं पुरत्र दो दो चंदणकलसा पन्नता, ते णं चंद कलसा वरकमलपड्ड्डामा तव । तेति णं तोरणाणं पुरतो दो दो भिगारा पन्नत्ता, ते गं भिंगारा वरकमलपट्टा ०जाब महा मत्तगयमुहाss कितिसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! | सेसि णं तोरणाणं पुरख दो दो आसा पन्नता, सिआसाणं इमेयारूचे वन्नावा से पन्नते, तंबह: - तवजिमया पगंठगा बेरुलियमया सुरया व
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सूरियाभ इरामया दोवारंगा खाणामणिमया मंडला श्रमुग्ध - सितनिम्मलाते छायाते समबद्धा चंदमंडलपडिणिकामा महया अद्धकायसमणा पनता समाउसो ! । तेसि खं तोरणां पुरो दो दो वरनाभथाला पत्ता अच्छतिच्छडियमालितं दुलहरा दिपडिपुत्रा चिद्वेति सव्वजंबूणयमया ०जाव पडिरूवा महया महया रहचकवालसमाणा पाता समगाउसो ! । तेसि सं तोरणा पुरश्र दो दो पातीओ, ताओ से पाईओ अच्छोदगपरिहत्थाओं खाणामपिचवन्नस् फलहरियगस्स बहुपडिनायो चित्र चिठ्ठेति सव्यरयसामईओ अच्छाओ ०जाव पडिवाओ महया महया गोकलिंजरच कस माली ओ पन्नत्ताओ समणाउसो ! । तेसि णं तोरणासं पुरओ दो दो सुपट्टा पन्नत्ता गाणाविहभंड विरया इव चिट्ठेति सव्वरयणामया - च्छा ०जाव पडिवा । तेसि णं तोरणाणं पुरश्र दो दो मणगुलियाओ पन्नत्ताओ, तासि णं मणगुलियामु बहत्रे सुचनरुप्पमया फलगा पन्नत्ता, तेसुखं सुवन्नरुप्पमएसु फलगेसु बहवे वयरामया नागर्दतया पन्नत्ता, तेसु णं वयरामएस स्वांगदंतसु बहने वयरामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसु गं वयरामer सिकनेसु किएहसुत्तसिकगवच्छता सीलसुन सिकगवच्छिया लोहियसुतक्किगवच्छिया हाशिमुत्तसिकगवच्या सुकिल्लसुत्तसिकगवच्छिया बहके कायकरगा पन्नत्ता सव्वे वेरुलियमया अच्छा ०जान पडिरुवा । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पाता, से जहाणामए रनो चाउरंतच काट्टिस्म चित्ते रयणकरंड वेरु लियम फिलिहपडल पच्चोयडे साते पहाते ते पतेसे सव्वतो समता श्रोभासति उजोत्रेति तवति भासति एवमेव ते वि चित्ता रयणकरंडगा साते प्रभाते ते पएसे सन्चो समता ओभासंति उज्जोर्वेति तवंति पगासंति, तम्सि गं तोरगाणं पुरओ दो दो हयकंठा गयकंठा नरकंठा किनरकंठा किंपुरिसकंठा महोरगकंठा गंधव्यकंठगा उसभकंठा सव्वचयरामया अच्छा ०जाव पडिरुवा, तेसुगं हयकंठएस ० जाव उसभकंठएसु दो दो पुएफचंगेरी (मल्लचंगेरीओ) चुनचंगेरीओ (गंधचंगेरीओ) वत्थचंगेरीओ आभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ पन्नत्ताओ सव्वश्यथामयाओ अच्छा ० जाव पडित्राओ, तासु गं पुप्फचंगेरिआसु ०जाव लोमहत्थगेरी दो दो पुष्कपडागाई जात्र लोमहत्थ एड. -
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(११०) सृरियाभ अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाभ लगाई सब्बरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई। ग्यत् । तेसि गंदाराण ' मित्यादि , तेषां द्वागणां तेसि णं तोरणाणं पुरभो दो दो सीहासणा पन्नत्ता,
प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनधिकीभालेन या द्विधा मेष
धिकी तस्यां षोडश षोडश प्रकण्ठकाः प्रशप्ता, प्रकण्ठको तेसि णं सीहासणाणं वन्नो जाव दामा, तेसि णं तो
नाम पीठविशेषः , आह च जीवाभिगममूलटीकाकार:रणाणं पुरमओ दो दो रुप्पमया छत्ता पन्नत्ता, ते णं 'प्रकराठी पीठविशेषा' विति , ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येछत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबृणयकन्निया वइरसंधी मु- कमद्धतृतीयानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चविंशताजालपरिगया अवसहस्सवरकचंणसलागा दद्दरमल
पञ्चविंशत्यधिक योजनशतं बाहल्येन-पिण्डाभावेन 'सयसुगंधी सब्बोउग्रसुरभी सीयलच्छाया मंगलभत्तिचि
व्ववयरामया' रति सर्वात्मना ते प्रकण्ठकाः बज्रमया
वज्ररत्नमया, 'अच्छा सराहा' इत्यादि विशेषणजातं प्राता चंदागारोवमा । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो
ग्बत् , 'तेसि णं पगठगाण' मित्यादि, तेषां प्रकण्ठका. चामराओ पन्नत्ताओ , ताओ णं चामराओ ( चंद- नाम् उपरि प्रत्येकं प्रत्येकम्-इह एक प्रति प्रत्येकमिप्पभयेरुलियवरनानामणिरयणखचियचित्तदण्डाओ)णा- त्याभिमुख्ये घर्त्तमानः प्रतिशब्दः समस्यते, ततो बी. णामणिकरणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुञ्जलविचित्तदं
प्साविवक्षायां द्विवचनं , प्रासादावतंमकाः प्रशप्ताः ,
प्रासादावतंसका नाम प्रासादविशेषाः, उनं च जीवाभिडाओ वल्लियाओ संखककुंददगरयमयमहियफेणपुंजस
गममूलटीकायां--"प्रासादावतंसको-प्रासादविशेषा 'विन्निगासातो सुहुमरययदीहवालातो सव्वरयणामयाओ ति, ते च प्रासादावतंसका अर्धतृतीयानि योजनशतानि अच्छाओ जाव पडिरूवाओ । तेसि णं तोरणाणं पुरो
ऊर्ध्वम् उच्चस्त्वेन पञ्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन , ' अदो दो तेल्लसमुभा कोट्ठसमुग्गा पत्तसमुग्गा चोयगसमुग्गा
भुग्गयमूसियपहसियाविव ' अभ्युगता--श्राभिमुख्येन स
वतो विनिर्गता उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु दिषु प्रसृता. तगरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालस० हिंगुलयस० मणो
या प्रभा तया सिता इव--बद्धा इच तिष्ठन्तीति गम्यते , सिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सयरयणामया अच्छा जाव |
अन्यथा कथमिव ते अभ्युद्गता निरालम्बाः तिष्ठन्तीति भा. पडिरूवा । ( सू० २८)
वः, 'विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधा-अनेकप्रका.
राये मणयः-चन्द्रकान्तादयो यानि च रत्नानि कर्केतना'तेसि ण 'मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्व- दीनि तेषां भक्निभिः विच्छित्तिविशेषश्चित्रा-नानारूपाः श्रायोरेकैकनषेधिकीभावेन या विधा नैषेधिकी तस्यां पो- श्चर्यवन्तो बा नानाविधमणिरत्नभक्तिचित्राः , ' बाउङ्ख्यइश षोडश जालकटकाः प्राप्ताः, जालकटको-जालक- विजयवेजयंतीपडागछत्ताहच्छत्तकलिया'वातोद्भूता-चायुककीयों रम्यसंस्थानः प्रदेशविशेषः, ते च जालकटकाः 'स- पिता विजयः अभ्युदयस्तत्सूचिका बैजयन्यभिधाना याः बरयणामया अच्छा सराहा जाय पडिरूवा' इति प्रा- पताकाः, अथवा-विजया इति बैजयन्तीनां पार्श्वकर्णिका बत् । तेसि ण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयम्त्यः, पताकास्ता पार्श्वयोर्दिधातो नैषेधिक्यां षोडश घण्टापरिपाटयः प्रक्ष- पव विजयवर्जिता छत्रातिछत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपप्ताः , तासां च घण्टानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्ण- पाणि तैः कलिता वातान्तविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिकनिवेशः प्राप्तः , तद्यथा-जम्बूनदमय्यो घण्टा बज्रमय्यो छत्रकलिताः, तुङ्गा-उच्चा उच्चैस्त्येनार्द्धतृतीययोजनशतलालाः नानामणिमया घण्टापाश्चाः तपनीयमय्यः शव ।
प्रमाणत्वात् अत एव ' गगनतलमलिहंतसिहरा' इति ला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति रजतमय्या रज्जयः
गगनतलम्-अम्बरतलम् अनुलिखन्ति-अभिलायन्ति शिख. 'ताओ ण घण्टाओ' इत्यादि , ताश्च घण्टा श्रोधेन
राणि येषां ते तथा, जालानि-जालकानि तानि च भवनभिप्रवाहेण स्वरो यासां ता श्रोधस्वरा मेघस्यवातिदीर्घः
त्तिषु लोके प्रतीतानि,तदन्तरेषु मिशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि स्वरो यासा ता मेघस्वरा. हसस्येव मधुरः स्वरो यासां
येषु ते जालान्तररत्नाः,सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्रारुतत्वात्, ता हंसस्वराः , एवं प्रौञ्चस्थराः सिंहस्थय च प्रभूतदे
तथा पारात् उन्मीलिता इव बहिष्कृता इव पअरोम्मीलिता शव्यापी स्वरा यासां ताः सिंहस्वराः एव दुन्दुभिस्वरा
व यथा किल किमपि वस्तु पञ्जगत्-वंशादिमयाच्छादनविश. द्वादशविधतूर्यसतातो नन्दिः नन्दिस्वराः नन्दिवत् घोपो
पात् बहिष्कृतमत्यन्तमविनयच्छायत्वात् शोभते एवं सेऽपि हादो यासां ता नन्दिघोषाः मजः- प्रियः स्वरो पासा
प्रासादावतंसका इति भावः,तथा मणिकनकानि-मणिकनकता मञ्जुस्वरा, एवं मजुघोषाः, किंबहुना ?, सुस्वमः
मय्यः स्तूपिका-शिम्बराणि येषां ते मणिकनकस्तृपिकाः, सुस्वरघोषाः , ' उरालेण' मित्यादि प्राग्वत् । 'तेसि ण '
तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च द्वारामित्यादि , तेषां द्वागणां प्रत्येकमुभयोः पाचयोः द्विधातो नषेधिक्यां षोडश पीडश वनमालापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, ताश्च
दो प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानि-भिस्यादिषु, पुवनमाला नानाद्माणां नानालतानां च यामि किशलया
एविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु नैश्चित्राः-तथा नानारू. नि ये च पालवास्तैः समाकुलाः-सम्मिश्राः 'छप्पयन पा वा विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नाईचन्द्रचित्राः, रिभुजमाणा सोभन्तसस्सिरीया ' इति पदपदैः परिभु- तथा नाना-अनेकरूपाणि यानि मणिवामानि-मसिमयज्यमानाः सत्यः शोभमानाः षटपदपरिभुज्यमानशोभमाना- |
पुष्पमालास्तैरलङ्कृतानि-शोभितानि नानामणिदामालअत एव सश्रीकाः पासाईया इत्यादि प्रदचतुष्टयं प्रा- कृतानि तथा अन्तर्बहिश्व श्लवणा-मशृणा , तथा तप
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
मृरियाम नीयं-सुवर्णविशेषस्तम्मच्या चालुकायाः प्रस्तट:-प्रस्तारा तरसरशाः प्राप्ताः, सेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां - येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः 'सुहफामा सरिस्मरीयरूया रतो द्वौ द्वावादर्शको प्राप्ती. तेषां चादर्शकामामयमेतद्रगो पामाईया' इत्यादि प्राग्वत्तेषां च प्रासादावतंसकानामन्त- वर्णावासो-वर्ण कनिवेशः प्राप्तः , तद्यथा-तपनीयमयाः प्रेभूमिवर्णनमुपयुल्लोकवर्णनं सिंहासनबर्शनमुपरिविजयदृष्य- कण्ठकाः-पीठविशेषाः, अङ्कमयानि--अङ्करत्नमयानि मण्डवर्णनं वज्राकुशवर्णनं मुक्कादामवर्णनं च यथा प्राक् यान- लानि यत्र प्रतिबिम्बसम्भूतिः 'अयोग्धसियनिम्मलाए' इति विमाने भावितं तथा भायनीयम् । तेमिण' मित्यादि, ते- अवघर्षणमवधर्पितं भावे प्रत्ययः तस्य निर्मलता-श्रववां द्वागणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या घर्षितनिर्मलता, भूत्यादिना निर्मार्जनमित्यर्थः अवधर्षितस्याद्विधा नैवेधिको तस्यां पोडश षोडश तोरणानि प्राप्तानि , भावोऽनवघर्पितः तेन निर्मला तया अनवधर्षितनिर्मलया तानि च तोरणानि नानामणिमयानीत्यादि तोरणवर्णन या- छायया समनुबदा-युक्का. 'चनमण्डलपडिनिकासा 'इनि मधिमानमिव निरवशेष भावनीयम् . 'तेसि ण तोरणाणं चन्द्रमण्डल शाः 'महया महया अतिशयेन महान्तोऽईपुरो' इत्यानि, तेषां तोरणाना पुरतः प्रत्येकं वे शा- कायममाना:-कायार्द्धप्रमाणाः प्राप्ता हे श्रमण !हे आयुष्मलक्षिके, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत्, सिण' मि- न् ! तसिण' मित्यादि तेषां नोरणानां पुरतो दे द्वे बजस्यादितेषां तोरसानां पुरता द्वौ द्वौ नागदन्तको प्राप्ती, नाभे--घनमयो नाभिर्ययोस्ते वज्रनामे स्थाले प्राप्तानि तेषां च नागदन्तकानां वर्णनं यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं त- च स्थालानि तिष्ठन्ति, · अच्छतिच्छडियतंदुलनहसंदट्टपथा वक्तव्यं , नवरमत्रोपरि नागदन्तका न वक्तव्या अभा- डिपुन्ना इव चिटुंति' अच्छा--निर्मलाः शुद्धाः स्फटिकव . यात् . 'तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ त् त्रिच्छटिता:-त्रीन् वारान् छटिताः अत एव 'नवसन्दहयाटौ , सहाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसंघाट । टाः'नखा:-नस्त्रिकाः सन्दष्टा मुशलादिभिः छटिता येषां त्यत्र , ततो दे द्वे हययुग्मे इत्यर्थः , एवं गजनरकिनारकि- ते तथा सुखादिदर्शनात् कान्तस्य परनिपातः अच्छै स्त्रिपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभसंघाटा अपि याच्याः , एते च क- च्छटितैः शालितण्डुलै खसन्दकैः परिपूर्णाः, पृथ्वीपरिणामथम्भूताः ? इत्याह-सव्वरयणामया अच्छा सराहा' इ- रूपाणि तानि तथा केवलमेवमाकागणीन्युपमा, तथा चाहत्यादि प्राग्बत् . यथा चामीयों हयादीनामष्टानां संघाटा
'सव्वजम्बूणयमया' सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा उनास्तथा पङ्कयोऽपि वीथयोऽपि मिथुनकानि च वाच्य
सराहा' इत्यादि प्राग्वत् 'महया महया' इति अतिशयेन मनि , तत्र संघाटाः-समानलिङ्गयुग्मरूपा पुष्पावकीर्गकाश्च हान्ति रथचक्रसमानानि प्राप्तानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! एकदिगव्यवस्थिताः श्रेणिः-पङ्किरुभयोः पाश्वयोरे कैक)- तसिण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो ' पाईओ' णिभायेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथिः स्त्रीपुरुषगुग्मं मिथुनकं । इति पाश्री प्रशप्ते, नाश्च पाव्यः 'सच्छोदगपडिहन्थाओ' 'तेसि णमित्यादि , तेषां तोरणानां पुरतो वे दे पद्य- इति स्वच्छ पाभीयपरिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स लते यावत्करणात्-द्वे द्वे नागलते द्वे वे अशोकलते द्वे द्व बहुपडिपुनाविवे' ति अत्र पष्टी तृतीयार्थे 'बहु पडिपून' ति चम्पकलते देदे चूतलते द्वे हे वासन्तीलसे हे कुन्दल- चैकवचनं प्राकृनत्वात् , नानाविधैः फलहरितै हरितफलैर्वहुते अतिमुक्कलते इति परिगृह्यते, द्वे द्वे श्यामलते , प्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठान्त न खलु तानि फलानि किन्तु ताश्च कथम्भूता इत्याह 'णि कुसुमियाओ' इत्यादि तथारूपाः शाश्वतभावमुपागताः पृथ्वीपरिणामास्ततः उपयावत्करणात्-‘नि मरलियाओ निच लवड्याश्रो निच्च मानभिति, 'सव्यायणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , 'महये 'ति थवायाभो निच्चं गुछियाश्रो निरचं जमलियाश्री निरचं अतिशयेन महत्यो गोकलिअगचक्रसमानाः प्राप्ताः हे श्रमजुयलियाओ निच्च विनमियाओ निच्चे पणमियाओ निच्वं ण! हे आयुष्मन् ! , तेन्सि ण 'मित्यादि तेषां तोरणानां पु. सुविभत्तपिण्डमजरिवडिसगरीश्रो निच्च कुसुमियमउ- रता द्वौ सुप्रतिष्ठको-आधारविशी प्रशप्ती, ते च सुतिलियलवायथवायगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभ- काः सुसर्वोपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवर्गः प्रसाधनसपरिमजरियडिंसगधरीो' इति परिगृह्यते , अस्य व्या. भाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति , उपमाभावना प्राम्बत् , ण्यानं प्राग्यत् . पुनः कथम्भूता इत्याह-'सब्बरयणामया
'सव्वरयणामांनो' इत्यादि तथैव, नेसि ण' मित्यादि ते. जाय पडिला' इति, अत्रापि यावत्करणास्-'अच्छा स
पां तोरणानां पुरतो वे द्वे मनोगुलिका नाम पीठिका. उक्तं एहास्यादियिशपरणसमूहपरिग्रहः, स च प्राग्वद्भावनीयः, च जावाभिगममूनाका
च जीवाभिगममूनटीकायाम्--"मनांगुलिका नाम पीठिक" 'तसि रण' मित्यादि . तेषां तोरणानां पुरतः प्रत्येकं द्वौ ति, ताश्च मनोगुलिकाः मचात्मना बड्यमय्यः 'अच्छा इदी विक्सौवस्तिकौ-दिक्योक्षको ते च सर्वे जाम्बूनदमयां, त्यादि प्राग्बत् । तासु णं मोगुलियासु बहंय' इत्यादि कचित्पाठः-'सब्वरयणामया अच्छा' इत्यादि.प्राग्वत् 'ने तासु मनोगुलिकासु सुवर्णमयानि रूल्यमयानि च फलकानि सिण' मित्यादि द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ.प्रशप्ती, वर्गकः चन्द प्राप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयपु फलकेषु बद्दयो यजमया नकलशानां यरकमलपाटाणा' इत्यादिरूपः सर्वः प्राक्तनो नागदन्तकाः-अटकाः (सिषकेषु) तेषु च नागदन्तके वक्तव्यः , तेसि ण' मित्यादि द्वौ द्वौ भृङ्गार्ग, तेषामपि क- बहुनि रजतमयानि सिककानि प्राप्तानि, तेपु व लशानामिव वर्णका वक्तव्या , नवरं पर्यन्ते ' महयामत्तगय- रजतमयपु बहवो यातकरफा जलशून्याः करका प्राप्ताःमहामुहागिसमारणा पन्नत्ता समणा उसो! 'इति वक्तव्यम् तद्यथा' किराहसुने' त्यादि गवच्छम्-प्रारुछादनं गवच्छा 'मत्तगयमहामुद्दागिइसमागा' इति मत्तो यो गजातस्य म | साता पब्विनि गवरिछकाः । ताः) कृष्णसूत्रमयैर्गवच्छिदत्-भसिविशाल यत् मुखं तस्याकृति-भाकारस्तत्समाना:- कै (ते) रिति गम्यते, सिककेषु गरिछताः कृष्णसूब
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सरियाम सिक्कगगवच्छिना एवं नीलसूत्रसिक्कगगवच्छिता इत्या- .' प्रतीतः अङ्को-नविशेषः 'कुंदे ति कुम्नपुर्ण एकद्यपि भावनीयं, ते च बातकरकाः सर्वात्मना पैडूर्यमया रज-उदककणाः अमृतमथिनफेणपुजा-क्षीरोदजलमधनस'अच्छा' इत्यादि प्राग्यत् । तेसिणं' तेषां तोरणानां पुर-मुत्थः फेनपुञ्जस्तेषामिष सन्निकाश:-प्रभा येषां तानि त. तो हो ही चित्री-आश्चर्यभूतौ रत्नकरणको प्रमती से था, प्रका' इत्यादि प्राग्बत् । तेसि णं तोरणास' मित्याजहा नाम ए इत्यादि. स यथा नाम राक्षश्चतुरन्तचक्रवर्ति- दि. तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सैलसमुहको-सुगन्धिनः-चतुर्प पूर्यापरदक्षिणोत्तररूपेषु अन्तेषु-पृथिवीपर्यन्ते- तैलाधारविशेषौ. उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारण-"तैपचणवर्तितं शीलं यस्य तस्यैव चित्रः-प्राश्चर्यभूतो MRATको-सन्धाधारी" कोशालिमre नानामणिमयत्वेन नानावणों वा बेरुलियनाणामणिफलि- गि बाच्याः, अत्र संग्रहसिगाथा--'तिले कोट्टसमुग्गे, पत्ते यपडलपबोयडे' इति बाहुल्येन वैडूपमणिमयः 'फलिह- चोए य तगर एला या हरियाले हिंगुलए,मणोसिला अंजणपडलपञ्चोयडे' इति स्फटिकपटलावच्छादितः 'साए प- समुग्गा ॥१॥''सम्बरयणामया' इति एते सर्वेऽपि सभाए' इत्यादि स यथा राक्षश्चतुरम्नचक्रवर्तिनः प्रत्यास- स्मिना रत्नमया 'अच्छा इत्यादि प्राग्वत् । 'मान् प्रदेशान् सर्वतः सर्वासु दिनु समन्ततः-सामस्त्येन
सूरियाभेण विमाणे एगमेगे दारे असयं चक्कझयावं अधभासयति एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति ता
अदुसयं मिगझयाणं गरूडझयाणं छत्तच्छयाणं पति प्रभासयति पयमेवे'त्यादि सुगम 'तेसि थे तोरगाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो हो हो हयकण्ठ
पिच्छज्झयाणं संउणिज्झयाणं सीहज्झयाणं उसमझप्रमाणौ रनविशेषी एवं गजनरकिनकिंपुरुषमहोरगग- याणं अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं नागवरकेऊणं एवन्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्याः, उक्नं च जीवाभिगमम्ज
मेव सपुवावरेणं सूरियाभे विमापे एगमेगे दारे असीयं टीकाकारण-"इयकण्ठी-हयकएउप्रमाणी रत्नविशेषी एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या" इति, तथा चाह-'सवग्यणा
के उसहस्सं भवतीति मक्खायं, सूरियाभे विमाणे पट्टि पमया' इति, सर्वे रस्नमया-रत्नविशेषरूपा'अच्छा' इत्या
पट्टि भोमा पन्नत्ता, तेसि णं भोमाणं भूमिभागाउलोया य दि प्राग्वत् । तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पुरतो भाणियब्बा, तेसि णं भोमाणं च बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं द्वौ द्वौ पुष्पचक्रेयौं प्राप्ते एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरण- पत्तेयं सीहामणे, सीहासणवत्रतो सपरिवारो, अवसेसेसु सिद्धार्थकलोमहस्तकचने योऽपि पलव्याः, पताश्च सर्वा
भोमेसु पत्ते के पत्तेयं भद्दासणा पन्नता । तेसि णं दाराणं अपि सर्वात्मना रत्नमया' अच्छा ' इत्यादि प्राग्वत् एवं पुष्पादीनामटाना पटलकाम्यपि द्विद्विसङ्ग्याकानि धाच्या
उत्तमागारा सोलसबिहहिं रयणे हिं उवसोभिया, तं जहानि, 'तेसि गं तारणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो रयोहिं जाब रिद्वेहि, तेसि णं दाराणं उपि भट्ठमंहे द्वे सिंहासने प्रशते, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुको गलगा सज्झया जाव छत्तातिछत्ता, एवमेव सपुवावनिरवशेषो वक्तव्यः, 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां पुरता रेणं सरियाभे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवंतीति मदेखेछ रुप्यमये प्रशते, तानि च छत्राणि चैयरत्नमर्यावमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि बासन्धीनि-बजरत्नापू
क्खायं, असोगवणे सत्तिवणे चंपगवणे चूयमवणे, रितदण्डशलाकासन्धीनि मुक्काजालपरिगतानि अधौ सह- सूरियामस्स बिमाणम्स चउद्दिसिं पंच जोयणमयाई अमाणि-असहनसंख्या वरकाञ्चनशलाका बरकाश्च- बाहाए चनारि वासडा पत्ता, तं जहा-पुरच्छिमेणं अनमय्यः शलाका येषु तानि, तथा, तथा 'दहरमलयसुग- सोगवखे दाहियेणं सत्तवनवणे पच्चत्थिमेणं चंपगवणे धिसब्याउयसुरभिसीयलच्छाया' इति दईर:-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र का था ये म
उत्तरेणं चूयगवणे, ते णं वणखंडा साइरेगाई भतेरस लय इति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्सम्बधिनः सुगन्धा य जोयणसयसहस्साई प्रायमिणं पंच जोयणसयाई विक्खंगन्धवासास्तद्वत् सर्वेषु ऋतुषु सुरभिः शीतला च छाया भेगां पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किएहा किएहोभासा मेषतानि तथा. 'मंगलभत्तिचित्ता' अष्टानां स्वस्तिका- वणखंडवनभो। (सू० २६) दीनां मङ्गलानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्रम्-मालखा 'सूरियामै णं विमाणे पगमेगे दारे अट्रसयं चकग्भयाण' येषां तानि तथा 'चंदागारोवमा 'चन्द्राकार:-चन्द्राकृतिः ।
मित्यादि, तम्मिन् सूर्यामे विमाने एकैकस्मिन् द्वारे अष्टासा उपमा येषां तानि तथा,चन्द्रमण्डलबत् वृत्तानीति भावः, धिकं शतं चक्रवजानां चक्रलेखरूपचिहोतानां ध्वजानामेवं 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतोटे द्वे चामरे प्रशते
मृगगरुड़छत्रपिच्छशकुनिसिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजातानि च चामणि 'चंदप्पभवेरुलियवयरनाणामणिरयणख- नामपि प्रत्येकम प्रशतमप्रशतं यक्क्रब्यम् ‘एवमेव स्पुयायचितचित्तदंडात्रो' इति चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्ता वज्र वैडूयेच रेणं' एवमेव-अनेनैध प्रकारेण सपूर्वापरेण-मह पूर्वैः अप्रतीतं चन्द्रप्रभय जपैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्ना- परश्च वर्तते इति सपूीपर-सस्थानं तेन सूर्याभे विभाने नि स्वचितानि येषु ते तथा एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा -1 एकैकस्मिन् द्वारे अशीतमशीतम अत्यधिक केतुबहस्त्रं गडा येषां चामराणां तानि तथा, 'सुहुमरययदीहवालाओ' भवतीत्यास्यानं मया अन्यश्च तीर्थकद्भिः. 'रोसिस - इति सदमा रजतमथा दीर्घा वाला येषां तानि तथा. 'शंख- त्यादि. तेषां हागणां संबन्धीनि प्रत्येकं पञ्चभिः२0*कुददगरयनमयपहियफेणपुंजसनिकासाो 'ति' श- | मानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रक्षतानि तेषां
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरियाभ भूमिभागा उल्लोकाश्च यानविमानबद्वक्तव्याः, तेषां च भौ-। णिग्गयवरतरुणपत्सपल्लवकोमल उजलचलंतकिसलयकुसुमपमानां बहुमध्यदेशभागे यानि प्रतिशतमानि भौमानि वालपत्रंयकरम्गसिहरा नि कसमिया निश्च मउलिया निश्चं तेषां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येक सूर्याभदेवयोग्य सिंहा- लवइया निच्च थव इया निच्च गुलया निच्चं गोच्छिसनं तेषां च सिंहासनानां वर्णकोऽपरोत्तरोत्तरपूर्वादिषु या निच्चं जमलिया निच्च जुयलिया निच्चं विर्णामया सामानिकादिदेवयोग्यानि भद्रासनानि च फ्रमेण यानवि- निञ्च पणमिया, निनचं-कुसुमियमउलिपलवइयथवइयगुलमानवद्वक्तव्यानि शेषेषु च भौमेषु प्रत्येकमकैकं सिंहासन इयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपडि. परिवारहितम् । तेसिण' मित्यादि,नेषां द्वाराणाम् उत्तमा मंजरिब सयधरा सुयवर्गहणमयणसलागाकोइलकोरकभिश्राकाग-उपरितना प्राकारा उत्तरादिरूपाः कचित् गारकोउलजीबंजीयकनंदीमुखविंजलपिंगलक्खगकारंड. • उरिमागाग' इत्येव पादः , पोडशयिधै रत्नरुपशोभि
चकवागकलहंससारसश्रणेमसउणिमिणवियरियसहइयम - साम्तद्यथा-' रयणहिंजाव रिटेहिं ' इति रत्नैः-सामान्यतः
हुरसरनाइयसंपिडियदरियभमरमठुयरिपहकरपरिलेतछप्पकर्केतनादिभिःर, यावत्करणात्-वजैः २ वैडूः ३ लोहिताक्षैः४ मसारगल्लैः ५ हंसग¥ः ६ पुलकैः ७ सौगन्धिकैः ८
यकुसुमासवलालमहुग्गुमगुमंतगुंजतदेसभागा अभितरपुज्योतीरसैः । अङ्कः १. अञ्जनैः ११ रजतैः १२ अञ्जनपु
प्फफलबाहिरपनच्छना पत्तेहि य पुप्फेहि य उवच्छन्नपलि
छना नीरोगका मउफासा अकंटगा गाणाविहगुच्छगुलकैः १३ जातरूपैः १४ स्फटिकैरिति परिग्रहः १५ षोडशै
म्ममंउवगोवसहिया विचित्तसुहके उभूया वाविपुक्खरणिरिप्टैः १६ 'तेसि ण ' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुपरि अष्टौ अधौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि इत्यादि यान
दीहियासु य सुनिवसियरम्मजालघरगा पिहिमनीहारिमसुविमानतोरणवसावद्वाच्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तका
गंधिसुसुरभिमणहरं च गंधद्धणि मुयंता सुहकेऊ केउबइति अत ऊर्च कषुचित् पुस्तकान्तरेवेवं पाठः-' एवमेव
हुला अरणेगसगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लसीयसंदमाणीपड़िसपुवावरेणं सूरियाभे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवं
मायणा सुरम्मा' इति अस्य व्याख्या-इह प्रायो वृक्षातीति मक्खाय' मिति सुगम सूरियाभस्स ण ' मित्यादि
णां मध्यम वयसि वर्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्तिसूर्याभस्य विमानस्य चतुर्दिशं-चतस्रो दिशः समाहता
ततस्तद्योगात् चनखण्डा अपि कृष्णाः , न चोपचारमात्राश्चतुर्दिक म्मिन् चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु पञ्च पश्च योज
ते कृष्णा इति व्य पदिश्यन्ते किन्तु तथा प्रतिभासनात्, नशतानि अबाहार' इति बाधनं बाधा; अाक्रमणमित्यर्थः, न
तथा चाह-'कृष्णावभासा' यावति भागे कृष्णाभासपत्रा
णि सन्ति सार्वात भागे ते वनखण्डाः कृष्णा अवभाबाधा अवाधा-अनाक्रमण तस्यामबाधायां कृत्वति गम्यते, अपान्तगलं मुक्चति भावः . चत्वारो वनखण्डाः
सन्ते , ततः कृष्णोऽवभासो येषां ते कृष्णावभासा - प्राप्ताः , अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहोव
ति, तथा हरितन्धमतिकान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पनखण्डः , उनञ्च जीवाभिगमचूर्गों- अणेगजाईहिं उत्त
त्राणि नीलानि तद्योगानखण्डा अपि नीलाः, न चैतमेहिं रुपखेहि घणखंडे ' इति , ' तद्यथे' त्यादिना तानेव
दुपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथावभासात् , तथा चाहबनखण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति-अशोकवृक्षप्रधान
नीलावभासाः , समासः प्राग्वत् , यौवने तान्येव पत्राणि वनमशोकवनमचं सप्तपर्णवचनं चम्पकवनं चूतवनमपि भाव
किसलयत्वं रक्लत्वं चातिकान्तानि पित् हरितालाभानि तीय, 'पुरच्छिमेण' मित्यादि पाठसिद्धम् , अत्र संग्रहण
पाण्डुनि सन्ति हरितानीति ब्यपदिश्यन्ते , ततस्तद्योगात् गाथा-'पुब्वेग्ण असोगवणं, दाहिणतो होइ सत्तिवरणवणं ।
बनवण्डा अपि हरिताः, न चैस दुपचारमात्रादुच्यते, किन्तु अवरेणं चंपकरणं, चूयवण उत्तरे पासे ॥१॥"तेण 'मि
तथाप्रतिभासात् , तशाचाह- हरितायभासाः, तथा बाल्यास्यादि, ते च वनखरा डाः सातिरेकाणि अर्द्ध त्रयोदशानि
दतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगासार्दानि द्वादश योजनशतसहस्राणि (आयामतः) पश्च
द्वनखण्डा अपि शीता इत्युक्ताः ,न च ते गुरगतस्तथा किन्तु योजनशतानि विष्कम्भतः प्रत्येकं २ प्राकारपरिक्षिप्ताः पु
तथैव,तथा चाह-शीतावभासाः अधोभागतिनां वैमानिक नः कथंभूतास्ते वनखण्डा ? इत्याह-'किरहा किएहो
देवानां देवीमा तद्योगीतवातसंस्पर्शतः ते शीता वनखभासा जाव पडिमोयणा सुरम्मा' इति यावत्करणादेवं एडा अवभासन्ते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा परिपूर्णः पाठः सूचितः-"नीला नीलोभासा हरिया हरियो
स्वस्मिन् स्वरूपे अत्यने स्निग्धा भण्यन्ते तीवाश्च ततः तभासा सीया सीयोभासा निडा निद्वोभासा तिव्या तिव्यो द्योगात् बनखराडा अपि स्निग्धाः तीवाश्च इत्यनाः, न चैभासा किराहा किराहच्छाया नीला नीलच्छाया हरिया तदुपचारमा किन्तु तथावभासोऽप्यस्ति तत उफ्रं-स्निहरियच्छाया सीया सीयच्छाया निळा निदच्छाया घण ग्धावभासास्तीवाचभासा इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि कडियकडियछाया रम्मा महामेहनिकुरुंबभूया , ते णं
भवति यथा भरूमरीचिकासुः जलायभासस्ती नायभापायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयमंतो पवालमंतो
समारोपदर्शनेन यथावस्थितं वस्तुस्वरूपं वर्णिनं भवति पनमंतो पुप्फमतो बीयमंतो फलमंनो आणुपुब्बसुजायरु- किन्तु तथास्वरूपप्रतिपादनेन, ततः कृष्णत्वादीनां तथाइलबट्टपरिणया पगखंधा अगसाहप्पसाहविडिमा अणे- स्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरःसरं विशेषणान्तरमाहगनरवामप्पसारियनगेज्झयणविपुलबट्टखंधा अच्छिहपसा 'किरहा किएहच्छाया' इत्यादि. कृष्णा वनखगडाः कुत अविरलपत्ता अवाइणपत्ता अणी इयत्ता निराजरढपंछ- इत्याह-कृष्णछायाः 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विभ- . पत्ता नवहरियभिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उव- कीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽय
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सरियाम अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ मर्थः-यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सर्वाविसंवादितया मणहरा करणमणनिव्वुइकरा सदा सध्यभो समंता - तेषां तस्मात् कृष्णाः, एतदुक्तं भवति-सर्वाविसंवादित
भिनिस्सवंति, भवेयारूके सिया १, णो इणद्वे समढ, से या तत्र कृष्ण श्राकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभाससंपा
जहानाम' किन्नराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा दितसत्ताका सर्वाविसंवादीभवति, ततस्तत्ववृत्त्या ते कृष्णा न भ्रान्तावभासमात्रध्यवस्थापिता इति , एवं नीला
गंधवार वा भद्दसाल गयाग वा नंदणवणगयाण नीलच्छाया इत्याद्यपि भावनीयं , नवरं शीताः शीतच्छा- वा सोमबसवणगयाण व पंडगवण गयाण वा हिमवंत-- या इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'घ
गच्छंगयमलयमंदरगिरिगुहासमभागयाण वा एगो सनकडितडियच्छाया' इति इह शरीरस्य मध्यभागे क
निहियाणं समागयाणं सन्निसन्नाणं समुवबिट्ठाणं पमुइटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यतेकटिस्तटमिव कटितटं घना-अन्योऽन्यशास्त्राप्रशाखानु
यपक्कीलियाणं गीयरइगंधवहसियमणाणं गज्जं पज्जं प्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया येषां ते तथा, कत्थं गेयं पयबद्धं पायबद्धं उक्खित्तायपयत्तायं मंदावं मध्यभागे निविडतरच्छाया इत्यर्थः, अत एव रम्यो-र- रोइयावसाणं सत्तसरसमन्नागयं छद्दोसविप्पमुकं एकारमणीयः तथा महान् जलभारायनतप्रावृट्कालभावी यो मे- सालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुंजंतवैसकुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाघनिकुरुम्बो-मेघसमूहस्तं भूता-गुणैः प्राप्ता महामंघनिकुरुम्बभूताः महामेघवृन्दोपमा इत्यर्थः। ते ण पायवा'
णकरणसुद्धं सडहरगुंजंतवंसतंतीतलताललयगहसुसंपउस इत्यादि , अशोकवरपादपपरिवारभूतप्रागुक्ततिलकादिवृक्ष- महुरं समं सुल लयमणोहरं मउयांभियपयसंचारं सुणति वर्णनवत् परिभाषनीय , नवरं 'सुयबरहिणमयणसलागा, वरचारुरूवं दिव्यं णटुं सज्जं गेयं पगीयाणं, भवेयारूचे इत्यादि विशेषणमत्रोपमया भावनीयम् , 'अणेगसगडरह
सिया ?, हंता सिया । (सू० ३१ )। जाणे' त्यादि तदाकारभावतः। तेसिं णं वणसंडागं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा
नेसि ण वणमंडाणं तत्थ तत्थ तहि तहिं देसे देसे पएणत्ता , से जहानामए आलिंगपुक्खरेति वा जात्र
बहूओ खुड्डाखुड्डियातो वावियाश्रो पुक्खरिणीओ दीहिणाणाविहपंचवएणेहिं मणीहि य तणेहि य उवसोभिया,
याओ गुंजालियाओ सरपंतिाओ विलपंतिआश्रो अ
च्छाओ सएहाश्रो रययामयकूलाओ समतीरातो वयरातेसिं गं गंधो फासो णेयव्वो जहक्कम , तेसि णं भंते !
मयपासाणातो तवणिज्जतलाओ सुवरणसुम्भरययवालुतखाण य मणीण य पुवावरदाहिणुत्तरातेहिं वातेहिं
यामो वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडामो सुनोमंदाणं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं चालियाणं फंदि
यारसुउत्तारानो णाणामणिसुबद्धाश्रो चउकोणाश्रो याणं घट्टियाणं खोभियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे
आणुपुव्वसुजातगंभीरसीयलजलाओ संछनपत्तभिसमुभवति ?, गोयमा! से जहानामए सीयाए वा संदमा
णालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयणीए वा रहस्स वा सच्छत्तस्स सज्झयस्स सघंट
सयवत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाश्रो छप्पयपस्भुिज्जमास्स सपडागस्स सतोरणवरस्स सनंदिघोसस्स सखि
णकमलाओ अच्छविमलसलिलपुरणाओ अप्पेगइयाओ खिणिहेमजालपरिक्खित्तस्स हेमवयचित्ततिणिसकणगणि- पासवोयगाो अप्पेगइयाओखोरोयगाओ अप्पेगतियातो ज्जुत्तदारुयायस्स संपिनद्धचक्कमंडलधुरागस्स कालायस- घोयगा. अप्पे० खीरोय०अप्पे०खारोय०अप्पेगइयाओ सुकयणेमिजंतकम्मस्स आइमवरतुरगसुसंपउत्तस्स कु- उयगरसेण पएणत्ताओ पासादीयाओ दरिसणिसलणरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियस्स सरसयबत्तीसतोणप- ज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाश्रो, तासिणं वावीणं रिमंडियस्स सकंकडावयंसगस्स सचावसरपहरणावरण- जाव बिलपंतीणं पत्तेयं२ चउद्दिसिं चत्तारि तिसोपाणभरियजुज्झसजस्स रायंगणंसि वा रायंतेउरंसि वा र- पडिरूवमा पएणत्ता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं मंसि वा मणिकुट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिघट्विज-! वनमओ, तोरणा झया छत्ताइछत्ता य णेयच्या, तासु माणस्स वा नियट्टिजमाणस्स वा पोरालमणुगणा - णं खुड्डाखुडियासु बावीसु जाव बिलपंतियासु तत्थ तत्थ समणनिव्वुइकरा सद्दा सव्वश्रो समंता अभिणिस्सवंति, देसेर बहवे उपायपचयगा नियइपध्वयगा जगइपव्वयगा भवेयारूचे सिया ?, णो इणड्डे समद्वे, से जहाणामए दारुइजपव्ययगा दगमंडवा दगणालगा दगमंचगा उसडा वेयालीयवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अके सुपइट्ठियाए | खुडखुड्डगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अकुसलनरनारिसुसंपरिग्गहियाते चंदणकोणपरियट्टियाए च्छा जाव पडिरूवा, तेसु ण उप्पायपव्वएसु जाव पपुव्वरत्तापरत्तकालसमयंसि मंदायरवेइयाए पवेइयाए चा- खंदोलएसु बहूइं हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई लियाए घट्टियाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुम्मा उएणयासणाई पणयासणाई दीहासणाई पक्खासणाई
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( १९१४) सूरियाभ अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाभ भद्दासणाई उसभासणाई सीहासणाई पउमासणाई दि- त्याह-उदीरितामामुत्-प्राबल्येन प्रेरितानां , कीरशः शसासोवत्थियाइं सव्वरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरू
ब्दः प्राप्तः ? भगवानाह-'गोयमे ' त्यादि , गौतम !
स यथानामकः शिबिकाया वा स्यन्नमानिकाया वा रथ. वाई, तेसु णं वणसंडेसु तत्थ तत्थ तहि तहिं देसे देसे
स्य वा , तत्र 'सिबिया' जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता बहवे आलियघरगा मालियघरगा कयलिघरगा लयाघ
कोष्ठाऽऽकारा, तथा दीघा जम्पानविशेषः पुरुषस्वप्रमाणावरगा अच्छणघरगा पिच्छणघरगा मंडणघरगा पसाहण
काशदा या स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पा घरगा गम्भघरगा मोहनघरगा सालघरगा जालघरगा टितयोः दहेमघण्टिकादिचलनवशतो वेदितव्यः , रथचेह चित्तधरगा कुसुमघरगा गंधघरगा पायंसघरगा सव्वर- संग्रामरथः प्रत्ययोऽग्रेतनविशेषणानामन्यथासंभवात . तयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसु णं आलियघरगेसु स्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले ये पुरुषास्त दपेक्षया त• जाव गंधव०तहिंरघरएसु बहई हंसासण नाव दिसासो
तिप्रमाणाऽबसेया. तस्य च रथस्य विशेषणाम्यभिधत्ते
'सच्छत्तस्स'इत्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य सघण्टाकस्य वत्थिासणाई सबरयणामयाई जाव पडिरूवाई । तेसु
उभयपाश्र्वावलम्बिमहाप्रमाणघण्टोपेतम्य सपनाकस्य सह णं वणसंडेसु तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं २ बहवे जातिमं- तोरणवरं-प्रधानतोरणं यस्य स सतोरणवरस्तस्य , सह डवगा जूहियमंडवगा शवमालियमंडबगा वासंतिमंडः | नन्दीघोषो-द्वादशतूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिघोषस्तस्य वगा मूरमल्लियमंडवगा दहिवासुयमंडवगा तंबोलिमंड
तथा सह किङ्किण्यः-क्षुद्रघण्टा येषामिति सकिङ्किणीका
नि, हेमजालानि-यानि हेममयदामसमूहास्तैः सयासु दिवगा मुद्दियमंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तयलया
शु पर्यन्तेषु-बहिःप्रदेशेषु परिक्षिप्तो--व्याप्नस्तस्य , नथा मंडवगा श्राप्फोवगा मालुयामंडवगा अच्छा सव्वरयणा हैमवतं-हिमवत्पर्वतभाविचित्र-विचित्रमनोहारिविशेषोपेतंमया जाव पडिरूवाओ, तेसु ण जालिमंडवएसु जाव तिनिशतरुसंबन्धि कनकविच्छुरितं दारु-काष्ठं. यस्य मालुयामंडवएसु बहवे पुढविसिलापट्टगा हंसासणसंठि
स हैमवतचित्रतैनिशकनकनियुक्नदारुकस्तस्य , सूत्र च या जाव दिसामोवत्थियासणसंठिया अ य बहवे मं
द्वितीयः ककारः स्वार्थिकः पूर्वस्य च दीर्घत्वं प्रा
कृतत्वात् , तथा सुष्टु-अतिशयन सम्यक पिनद्रंसलघुविसिद्वसंठाणसंठिया पुढविसिलापट्टगा पपत्ता
बद्धमरकमण्डलं धूश्च यस्य स सुसपिनद्धारकमण्डलधूकममणाउसो ! आईणगरुयबूरणवणीयतूलफासा सच- | स्तम्य, तथा कालायसेन-लोहेन सुष्टु-अतिशयन कृ-- रयणामया अच्छा जाव पडिरूका, तत्थ णं बहव वे- तं नेमेः-बाह्यपरिधर्यन्त्रस्य च--अरकोपरिफलकचक्रवामाणिया देवा य देवीओ य प्रासयंति सयंति चिदंति
लस्य कर्म, यस्मिन् स कालायसकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य , णिसीयंति तुयटृति हमति रमंति ललंति कीलंति किट्ट
तथा आकीर्णा-गुणैाप्ता ये वराः-प्रधानास्तुरगास्ते
सुष्टु--अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ना--योजिता यस्मिन् स ति मोहेंति पुरा पोराणाणं सुचिमाणं सुपडिकंताणं
पाकीर्णवरतुरगसुसंप्रयुक्तः तस्य, प्राकृतत्वात् बहुव्रीहावसुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं कजाणं फल्लविवा(यं)गं गि क्लान्तस्य परनिपातः , तथा सारथिकर्मणि ये कुश. पञ्चणुन्भवमाणा विहरति । (सू० ३२)
ला नरास्तेषां मध्ये अतिशयेन छेको-दक्षः सारथिस्तन 'तेसि णं वणसंडाण' मित्यादि , तेषां बनखण्डाना- सुष्ठु--सम्यक परिगृहीतस्य, तथा 'सरसयबत्तीसतोणमाता--मध्ये बहुसमरणीया भूमिभागाः प्रशप्ताः तेषां च | परिमंडियस्स' इति शगणां शतं प्रत्येकं येषु नानि श. भूमिभागानां ' से जहानामए ' आलिंगपुक्खरे इ वा ' रशतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत् तूगानि तैमण्डितः इत्यादि वर्णनं प्रागुनं नाचवाच्यं यावन्मणीनां स्पशी, न- शरशतद्वात्रिंशत्तूणमण्डितः, किमुक्नं भवति ?-एवं नाम वरमत्र तृणाम्यपि वक्तव्यानि, तानि चैवम्-'नाणाविह
तानि द्वात्रिंशत् शरभशतभृतानि तूपानि रथस्य सर्वतः पंचवरणाहिं मणीहि य तपेहि य उबसोभिया , तं जहा
पर्यन्तेष्ववलम्बितानि यथा तानि संग्रामायोपकल्पितस्याकिरहेहि य नीलेहि य जाय सुकिल्ले, तस्थ णं जे ते क- तीव मण्डनाय भवन्तीति , तथा कङ्कटः--कवचं सह क एहा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे वन्नावासे कटो यस्य स सकङ्कटः सकङ्कटः अवतंसः-शेखरा पत्ते, से जहानामए जीमूतेइ वा ' इत्यादि । सम्प्रति यस्य स सकङ्कटावतंसस्तस्य , तथा सह चापं येषां ते तेषां मणीनां तृणानां च बातेरितानां शब्दस्वरूपप्रतिपाद- सचापा ये शरा यानि च कुन्तभल्लिभुसुगिढप्रभृतीनि नामार्थमाह-'तेसि णं भंते ! तणाण य मणीण 'इत्या- नाप्रकाराणि प्रहरणानि यानि च कवच (ककट) प्रमुखानि वि, तेषां 'णमिति' पूर्ववत् भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् आवरणानि तैर्भूतः--परिपूर्णः, तथा योधानां युद्ध ततृणानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरगतैर्वातैर्मन्दायन्ति-मन्द मन्दम् ए निमित्तं सजा--प्रगुग्णीभूतो यः स योधयुजसजस्ततः पूजितानां-कम्पितानां व्येजिताना-विशेषतः कम्पिताना पदेन सह विशेषणसमासः तस्य इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे एतदेव पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानां चालितानाम्--- वा अन्तःपुरे वा रम्ये वा मणिकुट्टिमतले--मणिबद्धभूमितस्ततो मनाक विक्षिप्तानाम् , एतदेव पर्यायेण व्याचऐ-स्प- तले श्रमीक्षणमभीषणं कुट्टिमतलप्रदेशे वा 'अभिघट्टिजमाविताना तथा घहितानां-परस्परं संघर्षयुक्ताना, कथं घ- णस्से' ति अभिखच्यमानस्य वेगेन गच्छतो ये उदारा म. हिता स्याह-क्षोभितानां, स्वस्थानाचालनमपि कुत - नोझा कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् जीवाभिग
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सूरियाम अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ • ममूलटीकायामपि 'उप्पित्थं श्वासयुक्तमिति, तथा उत्- स्फटिकपटलमयानि च प्रत्यवतटानि-तटसमीपयर्सिनः अ. प्रावस्येन प्रतितालमस्थानतालं वा उत्तालं , श्लचरणस्वरेण त्युनतप्रदेशाः यास ता वैडूर्यमणिम्फटिकपटलप्रत्यवनटाः, काकस्वर, सानुनासिकम् अनुनासिकाविनिर्गतवरानुगत. 'सुश्रीयारसुउत्ताराउ' इति सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशमिति भावः, तथा 'अट्ठगुणोयवेय ' मिति अधाभिर्गुणैरुपे- नं यासु ताः सुखावताराः तथा सुखेन उत्तारो-जलमध्यातमगुणोपेतं, ते चाटायमी गुणाः-पूर्ण रक्रमलङ्कतं व्य
द्वहिनिगमनं यासु ताः सुखोत्तारास्ततः पूर्वपदेन विशेषक्लमविघुर मधुरं समं सललितं च. तथा चोक्तम्-" पु- णसमासः, 'नानामणितित्थसुवद्धाउ' इति नानामणिभिः झं रत्तं च अलं-कियं च यतं तहेव अविघुटुं । महुरं नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासां ता नानामसमं सललियं , अट्ठ गुणा होति गेयस्स ॥१॥" तत्र णितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुव्रीहावपि वान्तस्य परनिपातः यत् स्वरकलाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेयरागानुर- सुखानिदर्शनाद् प्राकृतशैलीवशाद्वा 'च.उकोणाउ ' इति नेन यत् गीयते तत् रकम् , अन्योऽन्यस्वरविशेषकरणेन चत्वारः कोणा यासां ताश्चतुःकोणाः, एतश्च विशेषणं वायदलकृतमिव गीयते तदलकृतम् , अक्षरस्वरम्फुटकरण- पीः कृपांच प्रति द्रष्टव्यं , तेषामेव चतुष्कोणत्यसंभवात् तो व्यक्तं. विस्वरं क्रोशतीव विघुटं न तथा अविघुष्ट, न शेषाणां, तथा आनुपूयेण-क्रमेण नीचैस्तराभावरूपण मधुरम्वरेण गीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत् , ताखवंश- सुष्टु-अतिशयेन यो आतवप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र स्वरादिसमनुगतं समं, तथा यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ल- गम्भीरम्-अलब्धस्ता, शीतलं जलं यासु ता पानुपूर्व्यसुलतीय तत् वह ललितेन-ललनेन वर्तत इति सखलि- जातयप्रगम्भीरशीतलजलाः , · संछन्नपत्तभिसमुणालाउ' सं, यदिवा-यत् धोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्य स्पर्शनमतीव सू- इति संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रबिसमृणालानि यासु चममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललित-| ताः संछन्नपत्रबिसमृणालाः , इह बिसमृणालसाहचर्यात् म् । इदानीमेतेषामेवाष्टानां मध्ये कियतो गुणान् अन्यच्च पत्राणि पश्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानि-कन्दाः मृप्रतिपिपादयिषुरिदमाह-'रसं तिट्ठाणकरणं सुद्ध' तत् 'कु- णालानि-पानालाः , तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगहरगुंजंतवंसतंतीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरं समं स- सौगन्धिकपुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरैः--केसरप्रधाललियं मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुर सुनर्ति घर- नैः फुल्लैः-विकसितैरुपचिता बहुत्पलकुमुदनलिनसुभगचारुरूवं दिव्वं नटुं सज गेयं पगीयाण' मिति यथा प्रा- सौगन्धिकपुण्डरीकशनपत्रसहस्रपत्रकेसरफुल्लोपचिताः, तक नाट्यविधौ व्याख्यातं तथा भावनीयं ' जारिसए सहे
था पदपदैः भ्रमरैः परिभुज्यमानकमलाः , तथा अच्छेनहवा' प्रगीतानां-गातुमारब्धवतां यारशः शब्दोऽतिम- स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलन-आगन्तुकमलरनोहरो भवति-स्थात्-कथंचिद्भवेदेतपस्तेषां तणानां म
हितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमलसलिलपूर्णाः, तथा पडिणीनां च शब्दः ?, एवमुक्त भगवानाह-गौतम ! स्यादेवंभूतः हत्था' अतिरेकिता; अतिप्रभूता इत्यर्थः ‘पडिहस्थमुद्धमायं शब्दः । (सू० ३१) 'तेसि णं वणसंडाण' मित्यादि, तेषां 'ण'
अतिरिययं जाणमाउरण ' मिति वचनात् , उदाहरणं मिति वाक्यालकार बनखण्डानां मध्ये तत्र तत्र देशे ' तत्र
चात्र-'घणपडिहत्थं गयणं, सगह नवसलिलउडमायाई । त' ति तस्यय देशस्य तत्र तत्र एकदेशे 'बहूई' इति व- प्रयरेड्यं मह उण,चिंताए मणतुई विरहे ॥१॥” इति , भ्र
यः, खुट्टाखुडियाओ' इति खुग्लिशुल्लिकाः; लघवो लघवार- मन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः परिहस्थभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः, त्यर्थः , वाप्यश्चतुरस्राः पुष्करिण्यो वृत्ताकाराः , अथवा तथा अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरता-इतस्ततो गमपुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यो दीर्घिका-- मेन सर्वतो व्याप्ताः अनेकशकुनिमिथुनकप्रविचरितास्ततः पू. जयो नद्यः बक्रा नद्यो गुजालिकाः , बहूनि केवलकेवला- पदेन विशेषणसमासः, पता वाप्यादयः सरस्सर-पक्लिपनि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि एकपङ्क्त्या व्यवस्थिता- र्यन्ताः 'प्रत्येकं प्रत्येक' प्रति प्रत्येकमत्राभिमुल्ये प्रतिशब्दनि सर-पक्तिः सललितास्ता बयः सरःपक्रयः स्ततो वीप्साविवक्षायां पश्चात्प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनमिति, तथा येषु सरःसु एत्या व्यवस्थितेषु कूपोवकं प्रणा- पनवरवेदिकया परिक्षिप्ताः,प्रत्येकं प्रत्येकं वनखराडपरिक्षिलिकया संचरति सा सरःपतिः ता बसपः सरःसर:- प्ताः, 'अप्पगड्याउ' इत्यादि अपिर्याढाथै वातमेककाः-कापक्रयः, तथा बिलानीव बिलानि-पास्तेषां पङ्क्तयो श्वन वाप्यादय पासवमित्र-चन्द्रहासादिपरमासयमिव उ. विलपतयः , एताश्च सर्वा अपि कथंभूता इत्याह-अच्छाः दकं यासा ता पासवादकाः,अध्येकका बारुणस्य-वारुणस्फटिकवहिनिर्मलप्रदेशाः श्लपणाः-श्लषणपुर्लनिष्पा- समुद्रस्येव उदकं यासांता बारुणोदकाः, अप्येककाः क्षीरदितबहिःप्रदेशा श्लपणदलनिष्पत्रपटबत् , तथा रजतमयं मिव उदकं यासां ताः पीरोदकाः, अप्येकका घृतमिष उदरूप्यमयं कूलं यासां ता रजतमयकूलाः, तथा समं न | कं यासांता घृतोदकाः, अप्येककाः क्षोद इय-रचुरस इव गर्ताभावात् विषम तीरं-तीरवर्तिजलापूरितं स्थानं यासा उदकं यासां ताः दोदोदकाः, अप्येककाः स्वाभाविकेन उदनाः समतीराः, तथा बजमयाः पाषाणा यासांता बाम- करसेन प्राप्ताः, 'पासाइया' इत्यादि विशेषण चतुष्टयं प्राग्य. यपाषाणाः, तथा तपनीय-हेमविशेषः तपनीयमयं तलं त् ।'तेसि ण' मित्यादि, तासां पुलिकानां पापीना यावद्धियासा तास्तपनीयतलाः, तथा "सुषम्मसुम्भरययवालुयाओ" लपक्कीनामिति यावत् शब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, प्रत्येइति सुषणे परतकान्ति हेम शुभं रुप्यविशेषः रजतं प्रतीतं के चतुर्दिशि चत्वारि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भाषासम्मया वालुका यासु ताः सुवर्णशुभारजतषालुकाः, वेरुलि-त् त्रिसोपानप्रतिकपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपायमणिफलिहपालपच्चोयडामो ' इति वैदर्यमणिमयानि | मानि, त्रयाणां सोपानानां समाहारखिसोपानं, तानि प्रम
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सूरियाभ
•
शानि तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयं वक्ष्यमाणः एतद्रूपः अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा वज्ररत्नमया 'बंगा' इत्यादि प्राग्वत् । ' तेसि गं मेषां सोपानप्रतिरूपकास प्रत्येकं तोरणानि प्लानि तोरगस्तु निरवशेषो धानविमानवद्भावात् बहवः सहस्रपत्र हस्तका इति, 'तासि ण 'मित्यादि, तासां क्षुल्लिकाक्षुल्लिकानां यावद् विलपङ्क्षीनाम् अत्रापि यावच्छमहात् पुष्करादिपरः, न त देवदेवस्य नत्र तत्र एकदेशे बहव उत्पातपवंता यत्रागत्य बहवः सूयानिवासिनो वैमानिका देवा देवचित्र निमित्तं वैकियशरीरमारत्रयन्ति नियइपव्वया ' इति नियत्या-नैयत्येन व्यवस्थिताः पर्वता नियतिपर्वताः क्वचित् 'निययपव्यया ' इति पाठः, तत्र नियताः - सदा भोग्यत्वेनायथिताः पर्वता नियतपर्वताः यत्र सूर्याभविमानयासिनो वैमानिका देवा देव्या भयधारणीयेनेव बेकियारीरेण सदा रममाणा श्रवतिष्ठन्ते इति भावः, या इति जागतपर्वनाः पर्वतविशेषपर्वतका दारु निर्माता इव पर्वतकाः, 'दगमंडवा' इति दकमण्डपा:स्फाटिका मरडया उलं च जीवाभिगममूलटीकायां'द्गमण्डपा:- स्फाटिका मण्डपा 33 इति एवं दकमञ्चकाः दकमालका दकप्रासादाः एते च दकमण्डपादयः केचित् ' उसड्डा ' इति उत्सृताः: उच्चा इत्यर्थः केचित् 'खुडा खुड ति क्षुल्लकाः क्षुल्लका इति, तथा अन्दोलका ः पदयन्दोलकाश्च इह यत्रागत्य मनुष्या श्रात्मानमन्दोलय न्ति तेऽन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण श्रागत्यात्मानमन्दोलयन्ति ते पक्ष्यन्दोलकाः, तत्र अन्दोलका ः पक्ष्यन्दोलकाश्च तेषु वनखण्डेषु तत्र २ प्रदेश देवकीडायोग्या बहवः सन्ति एते च उत्पात पर्वतादयः कथंभूता ? इत्याह--' सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः अच्छा सदा इत्यादि विशेषकम् प्राग्वत् तेसु ' मित्यादि, तेषु उत्पातपर्वतेषु यावत्पश्यन्दोलकेषु यायत्करणानियतिपर्यतकादिपरिम बनिसानादीनि आसनानि तत्र येषामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिद्धाः तानि हंसानानि ए क्रौञ्चासनानि गरुडासनानि च भावनीयानि, उन्नतासनानि उपासनानि प्रासनानि नामानि दीधीसनानि -- शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधोभागे पीठिकाबन्धः पचयासनानि येषामधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिणः एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि पद्मासनानि-पद्याकाराणि श्रासनानि दिसासोयेषामनादिकाल
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( १९१६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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जालगृ
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इत्या
सूरियांभ तिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदलीगृहकाfरण लतागृहकाणि च प्रतीतानि, अच्छण घरकाणि ' इति अवस्थानगृहाणि येषु यदा तदा वा श्रागत्य सुसियासत का वागत्य मे कानि विदधति निरीक्षन्ते च मज्जनकगृहकाणि पत्रागत्य स्वेच्छया मज्जनकं कुर्वन्ति प्रसाधनगृहकाणि ' यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति ' गर्भगृहकाणि गर्भगुदाकाराणि मोहराई इति मोहनं मैथुनसेवा रमियं मोहणरयाई इति नाममालावचनात् तप्रधानानि गृदकाणि मोहनगृहाणि वासवानीति भावः शालागृहकाणि - पट्टशालाप्रधानानि काणि -- गवाक्षयुक्तानि गृहकाणि कुसुमगृहकाणि--कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि, चित्रगृहकाणि--चित्रप्रधानानि गृहकारिण गन्धर्वगृहका गीत नृत्य योग्यानि गृहाणि आदर्शगृहका आदर्शमथानीय गृदकाणि एतानि च कथंभूतानीत्यत आह- 'सम्वरयणामया ' जगईपवदि विशेषण कदम्बकं प्राग्वत् । तसि मित्यादि तेषु आलिगृहकेषु यावदादर्शगृहकेषु श्रत्र यावच्छब्दात् मा लिगृहका दिपरिग्रहः, 'बहूनि इंसासनानि' इत्यादि प्राग्वत् । 'सिग' मित्यादि तेषु वनखण्डेषु तत्र तत्र देश तचैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बडयां जानिमा वृधिकामगडपका मनिकामहपका नवमालिकामा वासन्ती मण्डपका दधिवासुका मण्डपकाः दधिवासुका - वनस्प तिविशेषस्तन्मया मण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, सूरुलिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मया मण्डपकाः २, ताम्बूलीनागपञ्जीतमा महइपकास्ताम्बूलीमा मागद्रुमविशेषः, स एव लता नागलता इद्द यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा वा न प्रसृता सा लतेत्यभिधीयते नागलतामया मण्डपका नागलतामण्डपकाः, प्रतिमुक्तमण्डपकाः, 'अष्फोया' इति वनस्पतिविशेषस्तन्मया मण्डपका अप्फोयामण्डपकाः, मालुका-एकास्थिकफला वृक्षविशेषास्तद्युक्का मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथंभूता इत्याह-- 'सव्वरयणामया' इत्यादि प्राग्वत् ।
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खिताः सन्ति, अत्र यथाक्रममासनानां संग्रहणिगाथा - हंसे कोंचे गरुडे, उरण्य पणए य दीह भद्दे य प मयरे पउमे, सीह दिसासोत्थि बारसमे ॥ १ ॥ इति, तानि सर्वाण्यपि कथंभूतानीत्यत आह-' सम्यरयगामया' इत्यादि प्राग्वत् । ' तेसि ण' मित्यादि तेषु वनखण्डेषु मध्ये तत्र २ प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहूनि ' झालिगृहकाणि श्रालिः- वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहका आलिगृहाणि मालिरपि वनस्प
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'मित्यादि तेषु जातिमण्डपकेषु यावन्मालुकामण्डपकेषु 'जाव' शब्दात्- यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टकाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा - श्रध्येकका हंसासनवत् संस्थिता हंसासनसंस्थिता यावदयेका दिन स्थिताः, याचत्करणात् ' अप्पेगइया हंसा सणसंठिया - गइया गरुडासगसंठिया अप्येगइया उरण्यास संठिया अध्येयालाणसंडिया अणेगाना दीहालससंडिया अप्पेगइया भद्दामणसंठिया अप्येगइया पक्ख० अ० श्रासाडिया अगया उसमानगडिया अगद सीहाससंठिया अप्पेगइया पउमाससंठिया इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि विशिष्टचि दानि विशिष्टनामानि व गणि-प्रधानानि शयनानि शासनानि च तद्वत् संस्थिता वयनासनविशिष्टस्थानसंस्थिताः कांत्साहि इति पाठः, तत्रान्ये च बहवः शिलापट्टकाः मांसलाः; श्रकठिना इत्यर्थः सुघृष्टा अतिशयेन मसृणा इति भावः विशि
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(१९१७) सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ एसंस्थानसंस्थिताश्चेति , ' आईणगरूयबूरनवणीयतूलफा- 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां बनवण्डानां बहुमध्यदेशभागे समउया सब्बरयणामया अच्छा जाय पडिरूवा' इति | प्रत्येक प्रत्येक प्रासादावतंसका इति . अवतंसक रव-शम्बप्राग्वत् , तत्र तेषु उत्पादपर्वतादिगतहंसासनादिषु याव- रक इवावतंसकः प्रासादानामवतंसक इव प्रासादावतंस. नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथ्वीशिलापट्टकेषु 'ण' मिति पूर्व- कः प्रासादविशेष इति भावः , तेच प्रासादावतंसकाः पश्च चत् बहवः सूर्याभविमानवासिनो देवा देण्यश्च यथासुख- योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चैस्स्वने अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि मासते शेरते-दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रां कुर्व- विष्कम्भतः, तषां च 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाषिव' इत्या. न्ति. तेषां देवयानिकत्वेन निद्राया अभावात् , तिष्ठन्ति- दिविशेषणजातं प्राग्वत् . भूमिवर्णनम् उल्लोकवर्णनं सपरिऊर्धस्थानेन वर्तन्ते निषीदन्ति-उपविशन्ति तुयन्ति-स्व- वारं च प्राग्वत् , 'तत्थ ग'मित्यादि.नत्र-तेषु वनखण्डषु प्रत्ये. ग्वर्त्तनं कुर्वन्ति , वामपार्श्वतः परावृत्य दक्षिणपार्श्वनाव- कमेकैकदिग्भावेन चन्वारो देवा महर्द्धिका यावत्करणात्-'मतिष्ठन्ति दक्षिणपावतो वा पगवृत्य वामपावनेति भावः, हज्जुया महावला महासुक्खा महाणुभावा' इति परिग्रहः, ग्मन्ते-गतिमाबध्नन्ति ललन्ति-मनईप्सितं यथा भवति पल्योपमस्थितिकाः परियमन्ति, नद्यथा-'असोप' इत्यादि, तथा वर्तन्त इति भावः, क्रीडन्ति-यथासुखमितस्ततो ग- अशोकवने अशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चम्पकवने चम्पमनविनादेन गीतनृत्यादिविनादेन वा तिष्ठन्ति मोहन्ति- कश्चूतवने चूतः' 'ते ण ' मित्यादि , ते अशोकादयो दयाः मैथुनसेवां कुर्वन्ति इत्येचं 'पुरापोराणाण' मित्यादि पुरा- | स्वकीयस्य बनम्बराडस्य म्बकीयस्स प्रासादावतंसकम्य , पूर्व प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत सूत्रे बहुवचनं प्राकृनत्वात् , प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि एव पौराणानां सुचीणानां-सुचरितानाम् , इह सुचरितज- भवतीति , स्वस्वकीयानां सामानिकदेवानां स्वासां स्वानितं कर्मापि कार्ये कारणोपचारात् सुचरितं ततोऽयं सामग्रमहिषीणां सपरिचागगा स्वासां स्वासां परिषदां भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षा- स्वेषां स्वेषामनीकानां स्वेषां स्वेषामनीकाधिपतीसानां म्चेमयादिसुचरिताननानामिति , तथा सुपराक्रान्तानाम् , पा स्वचामात्मरक्षकाणा 'आहेवच्च पारयश्च' इत्यादि प्रा. अत्रापि कार्ये कारणोपचारात् सुपराक्रान्तिजनितानि ग्वत् . 'त्रियाभस्सण मित्यादि. सूर्याभस्य विमानस्थान्तःसुपगक्रान्तानि इन्युक्तं. किमुक्तं भवति ?-सकलस- मध्यभागे बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य ' से स्वमेत्रीसत्यभाषापरद्रव्यानपहारसुशीलादिरूपसुपराकम-: जहानामए आलिगपुक्खरह वा' इत्यादि यानविमान इव वजनितानामिति, अत एव शुभानां शुभफलानाम् . इह किञ्चि- रणने तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य बहुसमरमणीदशुभफलपि इन्द्रियतिविपर्यासात् शुभफल प्रतिभासते यस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभाग अत्र सुमहत् एकम् - नमस्तात्त्विकशुभन्यप्रति पत्त्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह-कल्या- पकारिकालयनं प्रशतं . विमानाधिप्रतिसत्कग्रासादावतंसगाना. नववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनाम्, अथवा- कादीन् उपकरोति-उपएम्नातीन्युपकारिका, विमानाधिपकल्याणानाम् अनर्थोपशमकारिणां कल्याणरूपं फलविपाकं । तिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका , अन्यत्र त्वियम• पश्चणुम्भवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्ता विहरन्ति-आसते। पकार्योपकारिकति प्रसिद्धा, उक्नं च-"गृहस्थानां स्मृतं , तमिण वणसंडाणं बहमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पाया- राशामुपकार्योपकारिके” ति, उपकारिकालयनमिव उपकायवडेंसगा पम्पचा, ते णं पासायवडेंसगा पंचजोयणसयाई
रिकालयन , तत् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भा
भ्यां त्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि । उड़ उच्चत्तणं अडाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अ- योजनशत सप्तविंशत्यधिके अशविशं धनुःशतं प्रया
भुग्गयमूसियपहसिया इव तहेव बहुममरमणिजभूमि- दश अङ्गुलान्य ङ्गुलं परिक्षेपतः , इ प परिक्षेपभागो उल्लोओ सीहासणं सपरिवारं, तत्थ ण चत्तारि प्रमाणं जम्बूद्वीपपरिक्षपप्रमाणवत् टीकातः दवा महिड्डिया जाव पलिअोवमद्वितीया परिवमंति,तं ज-,
परिभावनीयम् । हा-असोए सत्तपमे चंपए चूए । सूरियाभस्स णं देव- से णं एगाए पउमवरवइयाए एगेण य पण संडण य विमाणस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पम्मत्ते , तं सव्वतो समंता संपरिक्खिते, साण पउमवरवेइया अजहा-वणमंडविहण जाव बहवे वेमाणिया देवा देवीओ द्धजोयणं उड्डे उच्चत्तणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं उवय आसयंति जाव विहरंति, तस्स णं बहसमरमणिञ्ज- कारियलेणसमा परिक्खेवेणं, तीसे णं पउमवरवेइयाए स्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसे एत्थ णं महंगे उवगारि- । इमेयारूवे वप्पावासे पामत्ते , तं जहा-बयरामया णिम्मा यालयणे पामते, एग जोयणसयसहस्सं पायामविक्खं- रिट्ठामया पतिढाणा वेरुलियामया खंभा सुवस्मरुप्पमया भेणं तिमि जोयणमयसहस्साई सोलम सहस्साई दोस्मि फलगा लोहियाखमईओ सूईओ नाणामणिमया कडेवरा य सत्तावीसं जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च णाणामणिमया कडेवरसंघाडगा णाणामणिमया रूया धणसयं तेरस य अंगुलाई श्रद्धंगुलं च किंचिविसेसूणं णाणामणिमया रूवसंघाडगा अंकामया पक्खबाहाओ परिक्खेवणं , जोयणवाहल्लेणं, सबजंबूणयामए अच्छे। जोवरसामथा वैसा सकवेल्लुगा रइयामईओ पट्टियाओ जाव पडिरूवे । (सू० ३३)
जातरूवमई अोहाडणी वइरामया उवरिपुच्छणी सव्वर२८०
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ यणामई अच्छायणे , साणं पउमवरवेइया एगमेगेणं मेतद्रपो वर्णावासो-वर्णः-श्लाघा यथावस्थितस्वरूपकीतहेमजालेणं गवक्खजालेणं खिखिणीजालेणं घंटाजालेणं
नं तस्यावासो-निवासो ग्रन्थपद्धनिरूपो वर्णावासो; वर्णकमुत्ताजालेणं मणिजालेणं कणगजालेणं रयणजालेणं
निवेश इत्यर्थः , प्रज्ञप्तो मया शेषतीर्थकरैश्च , तद्यथेत्यादिना
तमेव दर्शयति-इह सूत्रपुस्तकेष्वन्यथाऽतिदेशबहुलः पाठो पउमजालेणं सम्बतो समंता संपरिक्खित्ता, ते ण दामा
पश्यते ततो मा भून्मतिसमाह इति विनेयजनानुग्रहाय पाठ तवणिज समा जाव चिट्ठति । तीसे ण पउमवरवेइ- उपदयते-'चयरामया णिम्मा रिट्टामया पाहाणा वेसलियाए तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे हयमंघाडा जाव यामया खंभा सुवनरुपमया फलया लोहियक्षमईमो - उसभसंघाडा सम्धरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा
श्रो यारामया सधीमानामणिमया कडेवरा हाणामणिमया
कंडयरसंघाडा नानामणिमया रुया मानामणिमया रूपसंपासादीया ४ ०जाव वाहीतो पंतीतो मिहुणाणि लयायो।
घाडा अंकामया पक्खा अंकामया पक्वबाहाम्रो जोईरसामसे केणड्डेणं भंते ! एवं वुश्चति-पउमवरवेश्या ? , गो- या बंसा धंसकयेस्तुपया रहयामश्रिो पष्टियानो जायरूमई यमा! पउमवरवेश्या णं तत्थ तरथ देसे २ तहिं २ वेड्यासु
मोहाइली चयरामी उपरिपुंछणी सम्बरयणामए माच्छाय
पतत् सबैबारबत् भावनीय , नवरं कलेवगणि-मनुष्यशबेड्यावाहामु य बेहयफलतेसु य वेदयपुडतरेसु य खंभेसु
रीराणि कलेवरसंघाटा-मनुष्यशरीरयुग्मानि कपाणि-रूपखंभवाहासु खमसीलेसु खंभपुडंतरेसु सूयीसुसूीएखेसु काणि रूपसंघाटा-रूपकयुग्मानि, 'सासं पउमवरयेश्या ईफलएसु सर्वपुडतरेसु पक्खेसु पक्खयाहासु पक्खपे- तस्थर से २ एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गयाखजालेणं. रंतेसु परखपुडंतरेसु पहुयाई उप्पलाई पउमाईसयाई
एगमेगेणं घंटाजालेणं पगमेगेणं सिलिणाजालेणं एगमेगणं
मुत्ताजालेण एगमेगेणं कणगजालणं एगमेगेणं मणिजालेणं णलिणाति सुभगाई सोगंधियाई पुंडरीयाई महापुरी
। पगमेगेणं र ययजालेणं एगमेगेण सम्बरयणजालेणं एगमेगेण या सयवत्ता सहस्सवत्ताई सध्यरयणामयाई अच्छाई उमजालणं सम्यती समता संपरिक्खित्ता,ते णं जाला तषपडिरूबाई महया वासिकयछत्तसमाणाई पमताई सम- जलंधूसगा सुषमपयरमंडिया नानामणिरयणविधिहहारहाउसो!,से एएणं प्रदेणं गोयमा ! एवं बुचा-चहारउवसोभियसमुद्रयरूया इसिमममममसंपत्ता पुग्यायपउमवरवेझ्या । पउमवरवेझ्या णं भंते ! किं सास-राहणुत्तरागपाहि यापाह मदाय मदायमेइज्जमाणा पाज
1 माणा पलंयमाणा २ पझुंझमाणा पझंझमाणा भोरालेण मणुयाकिं प०१, गोयमा! सिय,सासया मिय प्रसासया से
यात नेणं मणहरेणं करणमणणिधुइकरेणं सहेणं ते पदेसे सबकेणदेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सास सिय प्रसास- तो समंता प्रापरमाणा सिरीए उबसोभमाणा चिटुंति , ती. या ?, गोयमा ! दबट्ठयाए सासमा, पञ्जवेहिं - से पउमवरवेड्याए तत्थ २ देसे तहिं २ हयसंघाडा नरसंघाघपलबेहि रसपञ्जवहिं फासपञ्जवेहिं प्रसासया से ख- डा किंनरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधमत्रदुणं गोयमा! एवं वुचति-सिय सासया सिय प्रसास
संघाडा. उसभसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा जाय पडिरू
वा , एवं पंतिमो वि धीहियो वि मिहुणाई, तीसे णं पउमबरया। पउमवरवेइया ण भंते ! कालो केव चिर होइ?,
घड्याए तत्थ २ देसे तहिं २ बहुयाओ पउमलयात्रो णागलगोयमा !ण कयावि णासि ण कयावि गस्थि न क
यात्रो असोगलयाओ चंपगलयानो वणलयाओ वासंतिययावि न भविस्सह, मुवि च हवइ य भविस्सइ य , लयायो अरमुसगलयानो कुंदलयात्री सामलयात्री निच्चं धुवा णिइया सासया अक्खया अव्यया अवट्ठिया णिच्या कुसुमियाभो नि मउलियामोनिश्च लवड्याभोच्चि थवपउमवरवेइया । से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई च
यात्रो णिच्च गुलइयाश्रो निच्चं गोछियाप्रोणिकचं जमकवालविक्खंभेणं उबयारियालेणसमे परिक्खेवणं , व
लियाश्री निरचं जुयलियाओ निच्चं विणमियाश्री निरमं प.
णमियाओ निचं सुविभत्ताडिमंजरीवडिंसगधरीश्रा निसचं पसंडवलतो भाणितब्यो जाब विहरं ते । तस्स णं उव--
कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलायगोच्छियजमलियजुययारियालेणस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा प- लियायणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवसिगधरीोसएणत्ता वसो, तोरणा झया छत्ताइच्छत्ता , तस्स णं व्यरयणमईयो अच्छाभोव्जाव पडिरूबानो इति.अस्य व्याउवयारियालयणस्स उवारे बहसमरमणिले भूमिभागे
ख्या-'सा' एवंस्वरूपा'ण' मिति वाक्यालकारे पनवरये
दिका तत्र २ प्रदेशे एकेकेन हेमजालेन--सर्यात्मना हेममयेन पाने जाव मणीणं फासो । (५०-३४)
लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकेन गवाक्षजालेन-गवाक्षाकतब एकया पनवरयेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः-स- तिरत्नविशेषदामसमूहेन पकैकेन किरिणीजालेन , किड़िआंसु विशु समन्ततः-सामस्स्येन सम्यग् परिक्षिप्त सा एयः-बुद्रास्टकाः, एकैकेन घण्टाजालेन-किङ्किरावपेक्षयापउमयरवेड्या' इत्यादि. सा पद्मवरयेदिका अर्द्ध योजनमू- किंचिन्महत्यो घण्टा-घण्टाः, तथा एकैकन मुक्काजालेन-मुध्वमुश्चैस्त्वेन पश्च धनुःशतानि विष्कम्भतः परिक्षेपण उप- क्लाफलमयेन वामसमूहेन एकैकेन मणिजालन-मणिमयेनदाकारिकालयनसमाना-उपकारिकालयनपरिक्षेपपरिमाणाप्र- मसमूहेन एकैकन कनकजालेन-कनकः-पीतरूपः सुवर्णषिबप्ता, 'तीसे ण 'मित्यादि, तस्याः - पद्मवरवदिकाया अय-| शेषः तन्मयेन दामसमूहेन एवमेकैकेन रतजालेन पकैकेन पत्र
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मृरियाम अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाभ जालेन सर्वरत्नमयपनात्मकेन दामसमूहेन सर्वतः सर्वासु तम ! स्यात् शाश्वती स्थादशाश्वती, कथंचिनित्या कदिषु समन्ततः-सवासु विदिनु परिक्षिप्ता-व्याप्ता , एतानि थश्चिदनित्या इत्यर्थः, स्याच्छब्दो निपातः कथंचिदित्येत. च दामसमूहरूपाणि हेमजालादीमि जालानि लम्बमानानि दर्थवाची, से केण?ण' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भग. चेदितव्यानि, तथा चाह- ते ण जाला' - घानाह-गौतम ! द्रव्यार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन शास्यानि, तानि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , प्रा श्वती, द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तास्विकमभिमन्यते कृते हे लिझमनियतं , बामति वाक्यालकारे, हेम- न पर्यायान् , द्रव्यं चान्वयि परिणामित्वात् अन्वयित्वाजालादीनि जालामि, कचित् दामा इति पाठः, तत्र कच सकलकालभावीति भवति द्रव्यार्थतया शाश्वती, वतावत् हमजालादिरूपा दामान इति, 'तषणिज्जलं सगा' संपर्यायैस्तत्तवन्यसमुत्पधमानवर्षविशेषरूपैः, एवं गन्धपइत्यादि व्यसंघाटाविसूत्रं लतासूत्र व प्राग्वत् । सम्प्रति | यायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः उपलक्षणमेतत् तत्तदस्यपायरबेदिकाशवप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छनि- से पुलविचटमोच्चाटनैश्च प्रशाश्वती, किमुक्तं भवति ?-- केण्डेण भंते !' इत्यादि . सेशब्दोऽथशब्दाथै . केनायें- र्यायास्तिकनयमतेन पर्यायप्राधान्यविषक्षायामशाश्वती, एम-केन कारणेन भवम् । एवमुध्यत-पप्रवरवोरका | योयाणां प्रतिक्षणभावितया कियत्कालभाषितया विनापनवग्वेदिकात . किमुहं भवति ?-पनवरयेदिकत्येक
शित्वात् , 'से पएणरेण' मिस्याग्रुपसंहारवाक्यं सुगमम् पस्य सदस्य तत्र प्रवसौ कि निमित्तमिति , एवमुक्त इह प्रख्यास्तिकमयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह-माभगवानाह-गौतम! पायरवेविकायां तत्र तत्र एकदेशे त्यम्तासत उत्पादो नापि सतो नाशः 'नासतो बिचते तम्यैव देशस्य तत्र तत्र एकमेश बेदिकासु-उपवंशम- भाषो, नाभाषो वियते सतः' इति वचनात् , पौतु:योग्यमत्तधारणरूपासु धेविकाथाहासु-थेविकापार्येषु 'धे- श्येते प्रतिवस्तु उत्पादधिमाशी तवाषिर्भावतिरोभावमा, इयपुरंतरेसु' इति वेदिके घेदिकापुर तेषामन्तराणि- यथा सर्पस्य उत्फणस्वधिफणस्वे, तस्मात्सर्षे वस्तु निअपान्तरालामि तानि वेदिकापुटाम्तराणि तेषु, तथा स्त- स्यमिति , एवं च तम्मतचिन्तार्या संशया--किं घम्मेषु सामान्यतः स्तम्भवाहासु-स्तम्भपाश्र्वेषु खंभसीसे- टावियत् ण्यार्थतया शाश्वती उत सकलकालमेकसु' इति स्तम्भशीर्षेषु ' खम्मपुरंतरेसु 'इति चौ स्त- रुपति,ततः संशयापनोवार्थे भगवन्तं भूयः पृच्छति-पम्भौ स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि स्तम्भपुटाम्तराणि तेषु ,
उमघरबेश्या ण 'मिस्यादि, पनवरदेदिका प्राग्बत् भवन्त ! सूचीषु---फलकसंबन्धविघटनाभाषहेतुपादुकास्थानीयासु
कालतः कियचिरं-कियन्तं कालं यापयति !, एवंरूपा तासामुपरीति तात्पर्यार्थः, ' मुहेसु' इति यत्र प्रदेशे
हिकियन्तं कालमबतिष्ठत इति? , भगवानाह-गौतम ! शूची फलकं भिस्वा मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासो देशः
नकदाचिन्नासीत् सर्वदेवासीदिति भावः अनादित्वात् , तसूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेषु सूचीभिः संबन्धिमा
था न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भये फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारत् सूनिफलकानि तेषु सू
बतीति भावः सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, चीनामध उपरि वर्तमानेषु, तद्यथा 'सूईपुडतरेसु' इति द्वे
किंतु भविष्यचिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यम् , सूच्या सूचीपुटं तदन्तरेषु. पक्षाः पक्षबाहा वेदिकैकदेश
अपर्यवसितत्वात् , तदेवं कालत्रयचिम्तायां नास्तित्वत्रविशेषास्तेषु, बहुनि उत्पलानि गर्दभकानि पनानि-सूर्य
तिषेध विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति- भुवि च' विकासीमि कुमुदानि-चन्द्रयिकासीनि नलिनानि-पदर. इत्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकाकानि पनानि सुभगानि-पविशेषरूपाणि सौगन्धिका- लावस्थायित्वात् प्रवा मेर्यादिवत् ध्रुवरवादेव सदैव स्वस्थनि-कहाराणि पुण्डरीकाणि-सिताम्बुजानि तान्येव म- रूपनियता नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्वयनस्वभाहान्ति महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि--पत्रशतकलितानि या शाश्वतत्वादेय च सततं गङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्ताधषि सहनपत्राणि--पषसहस्रोपेतानि, शतपत्रसहस्रपत्रे च प- पौण्डरीकहद यानेकपुनलविचटनेऽपि तावम्मात्राम्यपुप्रविशेषौ पत्रसंख्याविशेषाच पृथगुणाते, एतानि सर्वर- ड्रलोच्चटनसंभावक्षया, न विद्यते क्षयो-यथोक्लस्वरूपानमयानि 'अच्छा' इत्यादि. विशेषणजातं प्राग्वत् , 'म- कारपरिभ्रंशो यस्याः सा अक्षया, अक्षयत्वादेव अव्ययाहया वासिक्कछत्तसमाणाई' इति महान्ति-महाप्रमाणा- अव्ययशब्दवाच्या मनागपि स्वरूपचलनस्य जातचिदनि वार्षिकाणि-वर्षाकाले पानीयरक्षार्थ यानि कृतानि घा- प्यभावात् , अव्ययस्थादेव सदैव स्वस्वप्रमाणेऽवस्थिता, पिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि प्रम- मानुषोत्तराद् बहिः समुद्रवत् , एवं स्वप्रमाणे सदावस्थानेन सानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, 'से पपणमंटुग्ण' चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् , 'सेण' मित्यादि, मित्यादि, सदेतेन अथैन--अन्वर्थेन गौतम ! एवमुच्य- सा'ण' मिति वाक्यालङ्कारे पनयरवेदिका एकेन बनखते-पनवरयेनिकेति नेषु तेषु यथोक्तरूपेषु प्रदेशेषु य एडेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्ता, स च वनखण्डो देथोक्तरूपाणि पानि पावरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्त- शोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भतः उपकारिकालयनपमिति भावः, व्युत्पत्तिश्चैवं--पप्रवग-पप्रधाना घेविका रिक्षेपपरिमाणः, बनखण्डवर्णकः 'किरहे किराहोभासे'पशवरयेदिकतिपउमघरबेश्या गं भंते ! किं सा- त्यादिरूपः समस्तोऽपि प्राग्बत् यावद्विहरन्ति, 'तस्स ण' सया' इत्यादि, गमवरयेदिका'ण' मिति पूर्ववत् किं मित्यादि, तस्य-उपकारिकालयनस्य 'चउदिसिं' ति चतुशाश्वती उताऽशाश्वती, गाय ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृ-दिशि चतसृषु दिनु एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन चत्वातत्वात् , किंनित्या उताऽनित्येति भावः, भगवानाह-गौ-रि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टरूपकाणि पिसा
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(१९२०) सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ पानानि प्राप्तानि, त्रिसोपानवर्णको यानविमानयत् वक्त-कम्मेन , तेषामपि अध्भुग्गमूसियपहसियाविवे' त्याध्यः तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकमेकै- । दि स्वरूपवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं च प्राग्वके तोरण, तारणवर्णकोऽपि तथैव, ' तस्म गा ' मित्य, दि. त् , तेषां च प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक तस्य उपकारिकालयनस्य · बहुसमरमणिज्जे भूमिभाग ' प्रत्येक सिंहासनं प्रज्ञतं, तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत् , इत्यादिना भूमिभागवर्णनकं यानविमानवर्णकवत्तावद्वाच्यं नवरमत्र शेषाणि परिवारभूतानि भद्रासनानि वक्तव्यानि यावन्नगीना स्पर्शः।
'ते णं पासायवडेंसया' इत्यादि , ते प्रासादावतंसका तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्म
अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैः तयच्चत्तप्पमाणमेत्तेहि' देसभाए एत्थ णं महेगे पासायवर्डसए परमत्ते , से णं
तेषां मूलप्रासादावतंसकपरिवारभूतानां प्रासादावतंसकामां
यदई तदुच्चत्वप्रमाणमात्रैः-मूलप्रासादावतंसकापेक्षयाचपासायवडिंसते पंच जोयणसयाई उठं उच्चत्तेणं अड्डा- तुर्भागमात्रप्रमाणैः सर्वतः समन्तात्संपरित्तिप्ताः, तदोच्चइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अभुग्गयमूसिय बसतो स्वप्रमाणमेव दर्शयति- ते ण 'मित्यादि. ते प्रासादावतं. भूमिभागो उन्लोओ सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं,
सकाः पञ्चविंश योजनशनमूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वापष्टियोजना- . अट्ठ मंगलगा झया छत्ताइच्छसा, से णं मृलपासाय
नि अद्ध योजनं च विष्कम्भतः ,तेषामपि 'अग्भुग्गयमू
सियपहसियाविवे' त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे भूमिववडेंसगे अम्पेहिं चउहिं पासायव.सएहिं तयधुञ्चत्त- नमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च सर्व प्राग्वत् . केवलप्पमाणमेनेहिं सव्यतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं पासा- मत्रापि सिंहासनं सपरिवारं वक्तव्यं, 'ते रण 'मित्यादि, यवडेंसगा अड्डाइजाई जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं पण
ते च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं जाव वप्पओ, ते णं पासा
दोच्चत्वप्रमागौ-अनन्तगतप्रासादावतंसकार्दोच्चत्वप्र
माणैर्मूलप्रासादावतंसकापेक्षया (अष्ट) भागनमारमैः सयवडिनया अमेहिं चउहिं पासायवडिसएहिं तय .. चतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, नदोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शचत्तप्पमाणमत्तेहिं सव्व ओ समंता संपरिक्खित्ता, ते णं यति- ते ण' मित्यादि, ते च प्रासादावतंसका द्वापासायव.सया पणवीसं जोयणपयं उड्डे उच्चत्तेणं बा
य जनानि अधयोजनं च ऊर्ध्वमुञ्चैम्त्वेन एकत्रिंशतं या
जनानि क्रोश च विष्कम्भतः , एपापि 'अब्भुग्गयमचर्ड्सि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्खंभेणं अब्भुग्गयमू
सिए' त्यादि स्वरूपर्णनं मध्यभागे भूमिवर्णनम् उल्लोकसिय वसो भूमिभागे उल्लोओ सीहासणं सपरिवारं वर्णन सिंहासनवर्णनं च परिवाररहितं प्राग्वत्, ‘ने ण' भाणियव्वं, अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता, ते णं मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका अन्यश्चतुर्भिःप्रासादापासायव.सगा अमेहिं चउहिं पासायवडेंसएहिं तदधु
वतंसकैस्तदर्भोच्चत्वप्रमाण:-अनन्तरोतमासादावतंसका
द्धोच्चत्वप्रमाणमूलप्रासादावतंसकारेक्षया षोडशभागप्रमावत्तप्पमाणमेत्तेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं पा
णैः सर्वतः समन्तात् संपरिशिताः, तदोश्चत्यप्रमाणमय सायवडेंसगा बावष्टुिं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डे उ- दर्शयति-एकत्रिंशद्योजनानि क्रोशं च ऊर्ध्वमुच्चस्त्येन पञ्चच्चत्तेणं एकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं वमो.। दश योजनानि अवतीयांचव कोशान् विष्कम्भतः,एउल्लोश्रो सीहासणं सपरिवार पासायउवरिं अट्ठ मंगलगा
तेषामपि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरोनं, ते ण 'मित्यादि. ते
ऽपि च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादायतसकैझया छत्तातिछत्ता । (सू० ३५) ।
स्तददोन्नत्वप्रमाणैः-अनन्तरोक्नग्रासादास पच्चित्वतस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभा- प्रमाणैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः द्वौच्चत्वप्रगे अत्र महानेको मूलप्रासादायतंसकः प्राप्तः , स च प- माणमेव दर्शयति--पञ्चदश योजनानि तीयां। क्रोश्च योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशता- शान् ऊर्ध्वमुच्चैस्वन देशोनान्यपी योजनानि विष्कम्भेन नि विष्कम्भतः 'अब्भुग्गयमूसयपहसियाविषे' त्यादि त- एषामेव स्वरूपव्यावर्णनं भूमिभागवर्णनम् उल्लोकवर्णनं सिस्य वर्णन मध्ये भूमिभागव, मम लोकवर्णनं द्वारबहिःस्थि- हासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्बत् । तपासादवद्भावनीयं , तर च भूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्ये देशभागेऽत्र महती एक मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, श्र- तस्स णं मूलपासायवडेंसयस्स उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थ टी योजनान्यायामविष्काम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाह
णं सभा सुहम्मा पएणत्ता, एगं जोयणसयं आयामेणं ख्यतः सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा' इत्यादि विशेपणकद
परमास जोयणाई विक्खंभेणं बावत्तरि जोयणाई उई उच्चम्बकं प्राग्वत् । 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं सिंहासनं प्रक्षप्तं , तस्य सिंहास
तेणं अणेगखंभसयसंनिविट्ठा अब्भुग्गयसुकयवयरवेइयानस्य वर्णनं, परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्व- सोरणवररहयसालिभंजिया जाव अच्छरगणसंघविप्पकिनव्यानि, 'से ण' मित्यादि, स मूलप्रासादावतंसको:
एणा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा सभाए भ्यश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणैः सर्वतः स
णं सुहम्माए तिदिसि तो दारा पएणत्ता, तं जहा-पुरमन्ततः परिक्षिप्तः, तदर्बोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-अर्द्धइतीयानि योजनशतान्य॒र्ध्वमुचैस्त्वेन,पञ्चविंशं योजनशतं वि. थिमेणं दाहियेणं उत्तरेणं, ते ण दारा सोलस जोयणाई
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(१९२१) सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम उडू उच्चत्तणं अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं तावतियं चेव मणिपेढियातो सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ट पवेसणं सेया वरकणगधभियागा जाव वणमालाओ. जोयणाई बाहल्लेणं सधमणिमईओ जाव पडिरूवातो, तेसि ण दाराणं उवरिं अटु मंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तासि णं मणिपेढियाण उवरिं पत्तेयं पत्तेयं चइयरुक्खे तेसि गंदाराणं पुरमो पत्तेयं २ मुहमंडवा परमत्ता, ते ग पसने , ते ण चेइयरुक्खा अट्ठ जोयणाई उम्र महमंडवा एग जोयणमयं आयामेणं पणास जोयणाई वि- उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाई उव्वेहेणं दो जोयणाई खंधा
खंभेणं साइरेगाई सोनप जोयणाई उड्डू उच्चत्तणं वमो अद्धजोयाणं विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा बहुमझसभाए सरिसो, तेसि णं मुहमंडवाणं तिदिसिं तो दारा | देसभाए अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पएणता, तं जहा-पुरस्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते णं अट्ठ जोयणाई सधग्गेणं पसत्ता, तेसि ण चेयरुक्खादारा सोलस जोयणाई उई उच्चत्तणं अङ्क जोयखाई णं इमेयारूवे वरमावासे परमते, तं जहा-वयरामया मला विक्खंभेणं तावइयं चैव परसेणं सेया वरकणगधभि- रययसुपइडिया सुविदिमा रिट्ठामयविउला कंदा वेरुलिया यागा जाव वणमालाओ । तेसि ण मुहमंडवाणं भूमि- रुइला खंधा सुजायवरजायरूवपढमगा विसालसाला नाभागा उल्लोया तेसि णं मुहमंडवाणं उवरिं अहह मंग- णामणिमयरयणविधिहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपलगा झया छत्ताइछत्ता । तेसि णं मुहमंडवाणं पुरतो त्तबिंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालसोभिया वरंकुरग्गपत्तेयं २ पेच्छाघरमंडवे पसत्ते, मुहमंडववत्तवया जाव
सिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियसादारा भूमिभागा उल्लोया। तेसि ण बहुसमरमणिज्जाणं ला अहियं मणनयणणिव्वुइकरा अमयरससमरसफला सभूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामए अ- च्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउजोया पासाईया० ४,
खाडए पम्पत्ते , तेसि णं वयगमयाणं अक्खाडगाणं तेसि ण चेझ्यरुक्खाण उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छबहुमज्झदेसभागे पत्तेयं २ मनिपेढिया पएणना, ताओ ताइछता , तेसि ण चेइयरुक्वाणं पुरतो पत्तेयं २ मणं मणिपेढियातो अटु जोयणाई आयामविक्खंभेणं णिपेढियाओ पमताओ, ताओ ण मणिपेढियाओ अट्ठ चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सध्यमणिमईओ अच्छात्रो
जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं जाव पडिरूवाओ, तासि ण मणिपेढियाणं उवरिं पत्तेयं सव्यमणिमईओ सच्छाओ .जाव पडिरूवाओ, तासि गं २ सीहासणे पणते, सीहासणवस्मयो सपरिवारो, तेसि मणिपेढियाणं उरि पत्तेयं २ महिंदज्झया परमत्ता, ते ण पेच्छाघरमंडवाणं उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छता
ण महिंदज्झया सढि जोयणाई उड्डूं उच्चत्तेणं जोयणं तिछत्ता, तेमि ण पेच्छाघरमंडवाणं पुरमओ पत्तेयं २ मणि
उबेहेणं जोयणं विक्खंभेणं वइरामया बट्टलट्ठसुसिलिटुपेढियायो पएणत्ताओ, तानो णं मणिपेढियातो सोलस
परिघट्ठमट्ठसुपतिट्ठिया विसिट्ठा अणेगवरपंचवम्मकुडभिसजोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं सध
हस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्यविजयवेजयंतीपडागा छमणिमईओ अच्छाओ पडिरूवाओ, तेसि णं उरि पत्तेयं २ |
ताइन्छत्तकलिया तुंगा गयणतलमभिलंघमाणसिहरा पाधमे पामते. ते ण थभा सोलस जोयणाई यायामविक्ख- सादीया० ४, अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि भेग साहरेगाई सोलस जोयणाई उडं उच्चत्तेणं. या संखं- ण महिंदज्झयाणं पुरतो पत्तेयं २ नंदा पुक्खरिणीप्रो ककुंददगरयअमयमहियफेण पुंजसंनिगासा सब्बरयणाम- पामताओ , ताश्रो णं पुक्खरिणीयो एग जोयणसयं या अच्छा जाव पडिरूवा, तेसि णं धुभाणं उपरि अव आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं थूभाणं चउद्दिसि उव्येहेणं अच्छाश्रो जाय वमओ एगइयाश्रो उदगरसेणं पत्तेयं २ मणिपढियातो पमताओ, तो णं मणिपे- पएणताओ, पत्तेयं २ पउमवरवेइयापरिक्खित्तानो पत्तेयं दियातो अदु जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जो- २ वणसंडपरिक्खित्ताओ, तासि ण णंदाणं पुक्खरिणीणं यणाई बाहल्लेणं सबमणिमईओ अच्छाओ जाव पडि- तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा परम ता , तिसोबाणपडिरूवातो, तेसिणं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिण- रूबगाणं वाममो, तोरणा झया छत्तातिछत्ता । सभाए पडिमातो जिणुस्खेहपमाणभेत्ताओ संपलियंकनिसन्नाओ | णं सुहम्माए अडयालीसं मणोगुलियासाहस्सीओ पगणधृभाभिमुहीमो सनिखित्तानो चिटुंति, तं जहा-उसभा १ ताो,तं जहा-पुरच्छिमेणं सोलस साहस्सीयो पञ्चच्छिबद्धमाणा २ चंदाणणा ३ वारिसेणा ४, तेसि णं धूभा- मेणं सोलस साहसीनो दाहिणेणं अट्ठ साहस्सीओ, उशं पुरतो पचेयं पत्तेयं मणिपहियातो पछताओ, ताओणं तरेणं अट्ट माइस्तीप्रो, तामु सं मणोगुलियासू बहवे
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( ११२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सुरियाम
सुवरुपमया फलगा पण्णत्ता, तेसु रंग सुवन्नरुप्पम - सुफलगेसु बहवे बहरामया गागदंता पष्मत्ता, तेसु गं वइराम सागदंतसु किएहसुत्तवदृवग्वारियमल्लदामकलावा चिट्ठेति, सभाए गं सुहम्माए श्रडयालीसं गोमाखसियासाहसीओ पन्नताओ, जहा मणोगुलिया ०जाव गागदंतगा, तेसु णं णागदंतरसु बहवे रययामया सिकगा पाता, तेसु गं रययामएस सिकगेमु बहवे वेरुलियाम धूवघडिया पम्पत्ताओ, ताओ गं धूप-घडिया कालागुरुपवर ०जाव चिट्ठेति, सभाए गं मुहमाए तो बहुममरमणिजे भूमिभागे पलते ० जाव मणीहिं उसोभए मणिफासो य उल्लोयओ य, तस्स बहुममरमणिस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ गं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता सोलस जोयणाई श्रायाविक्खंभेणं श्रट्ट जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयी जाव 'पडिवा, तीसे गं मणिपेडियाए उवरिं एत्थ गं माणवए
खंभे पण्णत्ते, सडिं जोयणाई उड्डुं उच्चतें जोयं उब्वेहेणं जोयणं विक्खंभणं श्रडयालीसं असिए अडयाली सड़कोडी अडयालीस सहविग्गहिए सेसं जहा महिंदज्यस्स, माणवगस्स गं चेहयखंभस्स उवरि बारस जोगाई श्रोगाहेता हेट्ठावि बारस जोयणाई वजेता मज्झे बत्तीसाए जोयसु, एत्थ गं बहवे सुवष्मरुप्पमया फलगा पपत्ता, तेसु णं सुत्रस्मरुप्पमएस फलएसु बहवे वइरामया गागदंता पष्मत्ता, तेसु गं वहरामएमु नागदंनेसु बहवे रगयामया सिकगा पष्पत्ता, तेसु णं रययामएस सिकएस बहवे वइरामया गोलवट्टसमुग्गया पत्ता, तेसु गं वयरामएस गोल समुग्गएसु बहवे जिणस कहा तो संनिखित्ताओ चिति । ताओ गं सूरियाभस्स देवस्स अनसिं च बहूणं देवाण य देवीण य अचणिज ● जाव पज्जुवास णिजा तो माणवगस्स चेहयखंभस्स उवारं अड्ड मंगलगा भर. छत्ताइच्छत्ता । (सू० ३६ ) 'तस्स ए' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य 'उतरपुर
मे' ति उत्तरपूर्वस्यामीशान कोणे इत्यर्थः, श्रत्र सभा सुधर्मा प्रप्ता, सुधर्मा नाम विशिष्ट छन्दको येता, सा एकं योजनशतमायामतः पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भतः द्वासप्ततियोजनानि ऊर्ध्वमुत्थेन, कथंभूता सा ? इत्याह- अणेगे' स्यादि, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा 'श्रम्भुग्गयसुकयवयरयातोरवररइयसालिभंजिया सुसिलिट्ठविसिठ्ठलसंदियपसत्थवे रुलिया विमलखंभा इति, अभ्युद्गता-प्रतिरमणीयतया द्रष्टृणां प्रत्यभिमुखं उत्- प्रावल्येन स्थिता सुकृते सुकृता निपुण शिलिपरचितेति भावः श्रभ्युद्गता बासी सुकृतः च अभ्युद्गतसुकृता वज्रवेदिका -द्वारमुसिडको वज्ररत्नमया वैदिका तोरणं च श्रभ्युङ्गतसुकृतं
For Private
सूरियाभ
यत्र सा तथा वगभिः - प्रधानाभिः रचिताभिः रतिदाभिर्वा शालिभञ्जिकाभिः सुलिष्टाः संबद्धा विशिष्ट-- प्रधानं लष्टं --मनोशं संस्थितं संस्थानं येषां ते विशिष्टलष्टसंस्थिताः प्रशस्ताः - प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यस्तम्भा- वैड्यंत्नमयाः स्तम्भा यस्यां सा तथा वररचितशालभञ्जिका सुश्लिष्टविलिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्य स्तम्भास्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स नानामकिन कर नस्वचितः क्तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात् नानामणिकनकरत्नखचित उज्ज्वलो - निर्मलो बहुसमः - अत्यन्तसमः सुविभक्तो निचितो-निविडो रमणीयश्च भूमिभागो यस्यां सा नानामणिकनकखचितरत्माज्ज्वलबहु समसुविभक्त ( निचित) भूमिभागा, 'ईहामियउसभतुरगनरम गरबिहगवाल गर्किन्नररुरु सरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ता संभुग्गयवरवेश्याभि रामा विजावरजमलजुगल जंतजुनावि य अन्त्रीसहस्समा - लिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसिमाणा भिम्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूया कंचणमणिरणधूभियागा नानाविह पंच व घंटापडागपरिमंडियग्गसिहरा धवला मरीइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोश्यमहिया गोसीससरस सुरभिरत चंद गदद्दर दिनपंचं गुलिनला उपचियचंद कलसर्वदणघडसुकय तोरण पडिदुबारदेसभागा थासत्तोसत्तविलबट्टवग्वारियमल्लदामकलावा पंचवक्षसरससु रभिमुक्क पुप्फ पुंजोवयारकलिया कालागुरुपबरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवडज्नमघम घंतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधट्टिभूया श्रच्छुरगण संघ संविकिमा दिव्यतुडिय सहसंपादि या सव्वरयणामया श्रच्छा ०जाब पडिरुवा' इति प्राग्वत् । ' सभापण ' मित्यादि, सभाया सुधर्मायास्त्रिदिशितिसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिशि एकै द्र रभावन त्रीणि द्वारारिंग प्रज्ञप्तानि तद्यथा - एक पूर्वस्य मेकं दक्षिणस्यामेकमुतरस्यां तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पो श २ योजनान्यूर्ध्वमुस्त्वेन अष्टौ योजनानि विष्कम्भतः ' तावदयं चेवे ' ति तावन्त्येवा योजनानीति भावः प्रवेशेन, 'सेया बरकरागधूभिया' इत्यादि प्रागुक्रद्वारवर्णनं तदेव तावद्वक्लव्यं यावद्वनमाला इति तेषां च दाराणां पुरतः प्रत्येकं २ मुखमण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च मुखमण्डपा एकं योजनशतमायामतः पञ्चाशत् योजनानि, विष्कम्भतः सातिरेकाणि षोडश योजनानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन एतेषामपि श्रगखंभसयसंनिविट्ठा' इत्यादि वर्णनं सुधर्मप्रभाया इव निरवशेषं द्रष्टव्यं तेषां च मुखमडपानां पुरतः प्रत्येकं २ प्रेक्षागृह मण्डपः प्रज्ञप्तः, ते च प्रेक्षागृह मण्डपा श्रायामविष्कम्भोचैस्त्वैः प्राग्वत् तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः तेषां च बहुरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं २ वज्रमयोऽक्षराटकः प्रज्ञप्तः तेषां
वज्रमयानामक्षपाटकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं २ मणिपीठिका श्रष्ट योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाल्येन - पिण्डभावेन सर्वात्मना मणिमयाः 'अच्छाओ' इत्यादि विशेषणजातं प्रागिव । तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक २ सिंहासनं प्रज्ञप्तं तेषां च सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्रायद्वक्तव्यः तेषां व प्रेक्षागृह मण्डपनामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्व
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ व, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं २ मणिपीठिका। नि पत्रवृन्तानि येषां ते तथा, ततः पूर्ववत् पदद्वय २ मीप्रज्ञप्ता,ताश्च मणिपीठिकाः प्रत्येक पोडश योजनान्यायावि- लनेन कर्मधारयः, ' जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवएकम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाहल्येन सर्वात्मना मणिमयाः वरंकुरधरा' जाम्बूनदा-जाम्बूनदसुवर्णविशेषमया रक्ता'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् . तासां च मणि- रक्तवर्णा मृदवः-मनोशाः सुकुमारा-सुकुमारस्पीः प्रपीठिकानामुपरि प्रत्येक २ चैत्यस्तपः प्रज्ञप्तः .ते च चैन्य- वाला ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवाः-संजातपरिपूर्णप्रस्तूपाः षोडश योजनान्यागामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि थमपत्रभावरूपा वगइन्कुगा-प्रथममुद्भिद्यमाना अङ्कुपोडश योजनान्युर्ध्वमुच्चस्त्वेन 'संखके' त्यादि तद्वर्णनं सु- रास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्कमृदुसुकुमारप्रवालपहलवागर्म . तेषां च चैत्यम्तूपानामुपयेष्ठावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्ग कुरधराः 'विचित्तमरिणरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियलकानि 'जाव महस्सपनहत्थया'इति यावत्कारणात् 'तेसि साला' इति विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणिं कुसुचइयथूभाग उर्षिप बहवे किराहचामरज्झया जाय सुकिल्ला- मानि फलानि च तेषां भरेण नमिताः शालाः-शाखा येषां मरझया अच्छा सराहा रुप्पपट्टवाइरदंडा जमलजामलगंधी। ते तथा, तथा सती-शोभना छाया येषां ते सच्छायाः, ससुरुवा पासाइया जाव पडिरूवा. तेसिं चेइयथूभाग उम्पि ती-शोभना प्रभा-कान्तियेषां ते सत्प्रभाः, अत एव सश्रीबहवे छनाइच्छत्ता पडागा घंटाजुगला उप्पलहत्थगा जाव काः, तथा सह उदयोनेन वर्तन्ते मणिरत्नानामुयोतभासयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वग्यणामयाजाय पांडरूवा इति. वात् सोद्योताः, अधिकं नयनमनोनिवृतिकरा अमृतरसपतच्च समस्तं प्राग्वत । तेसि ण 'मित्यादि, तेषां चत्य- समरसानि फलानि येषां ते तथा, 'पासाईया' इत्यादिविअनुपानां प्रत्येक २'च उद्दिसिं' ति चतुर्दिसि-चतसृषु दिनु शेषणचतुष्टयं प्राग्वत् । एते च चैत्यवृक्षा अन्य बहुभिस्तिएकैकस्यां दिसि एकैकर्माणपीठिकाभावेन चतम्रो मणिपीठि लकलवकच्छत्रौपगशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलुब्धकधवलचन्दकाः प्रशप्ताः अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि यो ननीपकुटजपनसतालतमालप्रियालप्रियगुपारापतराजवृक्षजनानि बाहल्येन सर्वात्मना मणिमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्य
नन्दिवृतैः सर्वतः-समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, ते च नित् , तासां च मणिपीठिकानामुपरि एकैकप्रतिमाभावेन चत
लका यावन्नन्दिवृक्षा मूलमन्तः कन्दमन्त इत्यादि सर्वमशास्रो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्राः, जिनात्सेध उत्कर्ष- कपादपवर्णनायामिव तावद्वतन्यं यावत् परिपूर्ण लताचतः पञ्च धनुःशतानि जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पश्च
णन, 'तेसि रणमित्यादि. तेषां चैत्यवृक्षाणामुार अशावणी धनुःशतानि संभाव्यन्ते, 'पलियंकसंनिसन्नाउ' इति पर्य
मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि चैत्यम्तूप इच हासनसनिपरणाः , स्तूगाभिमुख्यः संनिक्षिप्ताः , तथा ज
तावद्वक्तव्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरन्नमया गस्थितिस्वाभाव्येन सम्यग्निवेशितास्तिष्ठन्ति, तद्यथा- यावत् प्रतिरूपका इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च चैत्यऋषभा बर्द्धमाना चन्द्रानना वारिघेणा इति. 'नेसिण' मि- वृक्षाणां पुरतः प्रत्येक मणिपीठिकाः प्राप्ताः , ताश्च मणिन्यादि.तषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्यकं २ मणिपीठिकाः प्र- पीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योज्ञप्ताः ताश्च मणिपीठिकाः षोडश योजनान्यायाविष्कम्भा- जनानि, बाहल्यतः ' सव्यरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत् , भ्यामष्टौ योजनानि बाहल्यतः ' सबमणिमई प्रो' इत्यादि
तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक महन्द्रध्वजाः प्रशप्राग्वत् , तासांच मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक २ चैत्यवृक्षा
प्ताः, ते च महेन्द्रध्वजाः पष्टियोजनान्यूर्ध्वमुश्चैस्त्वेन अर्द्धअष्टौ योजनाम्यूर्धमुस्त्वेनार्द्धयोजनमुद्वधेन-उण्डत्वेन द्वे
क्रोशम्-अगव्यूतमुद्वेधेन-उण्डत्वेन अर्द्धकोशं विष्कयोजने उच्चस्त्वेन स्कन्धः स एवार्द्ध योजनं विष्कम्भतया म्भतः ' वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्रपरिघट्टमट्ठसुपइटियहुमध्यदेशभागे विडिमा-ऊर्ध्वं विनिर्गता शाखा सा ऊर्ध्व- या' इति वज्रमया-वज्ररत्नमया तथा वृनं-वर्तुलं लएं मुच्चस्त्वेन षड् योजनानि अष्टौ योजनानि विष्कम्भन सर्वा- मनोशं संस्थित-संस्थानं येषां ते वृत्तलष्ट संस्थितास्तथा प्रेण सातिरेकेणापौ योजनानि प्रज्ञप्तास्तेषां चैत्यवृक्षाणा- सुश्लिष्टा यथा भन्ति एवं परिघटा इव खरशाणया पामयमेतद्रपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तथा-' बहरामयमूला रय- पाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिपृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशाणया पायसुपरट्रियविडिमा' यज्राणि-यज्रमयानि मूलामि येषां- पाणप्रतिमावत् सुप्रतिष्ठिता मनागपि चलनासंभवात् , त. ते वज्रमयमला रजते सुप्रािता बिडिमा-बहुमध्यदे
तो विशेषणसमासः, 'अगोगवरपंचवन्नकुडभीसहस्साशभागे ऊर्ध्व विनिर्गता शाखा येषां ते रजतसुप्रतिष्ठित
रिमंडियाभिरामा वाउद्धृयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताबिडिमास्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, 'रिट्टामयकंदे चे- इच्छत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासामलियारलखंधे' रिष्ठमयो निष्ठरवमयः कन्दो येषां ते ठि- ईया जाय पडिरूवा' इति प्राग्वत्,'तेसि ण' मित्यादि, तेमयकन्दाः,तथा वैडूर्यरत्नमया रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा षां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्ट्रावणी मङ्गलकानि बहवः कृ. ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सुजायवरजायरूयपढमगविसा. एणचामरध्वजा इत्यादि तोरणवत् सर्व वक्तव्यं, तेषां च लसाला' सुजातं-मूलद्रव्यशुद्धं वरं-प्रधानं यत् जातरूपं महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रतदात्मकाः प्रथमका-मूलभूता विशालाः शाखा येषां ते शाप्ता , एकं योजनशतमायामतः पश्चाशत् योजनानि विसुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशालाः 'नानामणिरयण- एकम्भतः द्वासप्ततियोजनान्युद्धेधेन-उण्डत्वैन , तासां च विविहसाहप्पसावरुलियपत्ततपरिणज्जगत्तबिंटा' इति ना- नन्दापुष्करिणीनाम् 'अच्छापा सराहाम्रो रययामयकूलाओं' नामगिरत्नामिका विविधाः शाखाः प्रशाखा येषां ते तथा इत्यादि वर्णनं प्राग्वत्, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्यकं २ पनववैर्याणि-वेड्मयानि पत्रागियां ते तथा तपनीयमया- रवेदिकया प्रत्येक २ वनखण्डेन परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दा
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सूरियाम
पुष्करिणीनां प्रत्येकं त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणवनं प्रागिव । ' सभाएं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायामहत्वारिंशम्मनोगुलिका सहस्राणि पीठिकासहस्राणि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- पूर्वस्यां दिशि षोडश मनोगुलिकासहस्राणि षोडश सहस्राणि पूर्वतः षोडश सहआदि पश्चिमागामी सहस्राणि दक्षिष्ट सहस्राणि उत्तरतः तेष्वपि फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णन प्राग्वत् सिक्कगवर्णनं धूपघटिकावर्णनं द्वारवत् । सभाए से सुद्द - माइत्यादि सभायां सुधर्मायाम् अष्टाचत्वारिंशत् गोमानसिकाः शय्यारुपस्थान तानि
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यथा षोडश सहस्राणि पूर्वतः पोडशसहस्रादि पश्चिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, तास्यपि फलककरुन नागदन्तवर्णनं सिक्कगवर्णनं धूपघटिकावर्णनं च द्वारवत्, सभाए गं सुद्दम्माए' इत्यादिना भूमिभागवनं समाए से सुम्मा' इत्यादिना उलोकवर्णनं च प्राग्वत् ' तस्स ' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयश्व भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागेन महती एका मणिपीठिका प्रशसा षोडश योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां अष्टौ योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयी इत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महानेको माणवकनामा - स्वस्तम्भः प्रशप्तः परियोजना सधन योजनमुझेनयोजन अवारिक सह कोडीए अडयालीसह विग्गद्दिए ' इत्यादि सम्प्रदायगभ्यं वद्दरामय वट्टलट्ठसंठिए ' इत्यादि महेन्द्रध्वजवत् वनं निरवशेषं तावद्वक्लव्यं यावत् 'सहस्त्रपत्तद्दत्थगा सव्वरयणामया ०जाव पडिरूवा ' इति तस्य च माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य उपरि द्वादश योजनानि श्रवगाह्य, उपरि ननभागात् द्वादश योजनानि वर्जयित्वेति भावः, अधस्ताऋषि द्वादश योजनानि वर्जयित्वा मध्ये षट्त्रिंशति योजनेषु' बहव सुवसरुपमया फलका ' इत्यादि फलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिक्कवर्णनं च ग्राम्यत् तेषु च रजतमयेषु सिकंक बहवो वज्रमया गोलवृताः समुद्राः प्र ताः तेषु च वज्रमयेषु समुद्रकेषु बहूनि सीनि सक्षिप्तानि तिष्ठन्ति यानि सूर्याभस्य देवस्य अन्येषां हूनां वैमानिकानां देवानां देवानां यानि - मदनैः वन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना मामनीयानि बहुमानतः सत्करणीयानि खादिना कल्या मङ्गलं देवतं चैत्यमिति बुद्धया पर्युपासनीयानि, ' तस्स
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मस्स उपरि पहुंच ममेलमा इत्यादि प्राग्वत् ।
( ११२४ / अभिधान राजेन्द्रः ।
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तस्स गं माणवगस्स चेइयखं भस्म पुरच्छिमे एत्थ सं महेगा मणिपेडिया पाना अड जायगा आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई - च्छा ०जाव पडिरूवा, तसे गं मणिपेडियाए उवरिं एस्थ णं महेंगे मौदास पयतो सपरिवारो तस्स से माणवगस्स चेइयखंभस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महेगा मणिपोढिया पण्णत्ता अट्ठ जोयणाई आयाम धिक्वंभे
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सूरियाम
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चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा ०जाव पडिवा, तीसे गं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ गं रहेगे देवसयणिजे पष्यते, तस्स णं देवसयणिज्जस इमेयारूवे बणावासे पण ते तं जहा खाणामणिमया पढिपाया सोनिया पाया खाणामणिमवाई दासीवगाई जंबूणयमयाई गद गायामाणमए विच्चे रययामया तूली तवणिज्जमया गंडोवहाणया लोहियक्खमया विब्वोयणा, से सयथिजे उभओ वो दुहतो उस मज्झे गतगंभीरे सालिंगणचट्टिए गंगापुलिनवालुयाउद्दालसालिए सुरिश्वरयताखे उबचियखोमदुगुल्लपपडिच्छायणे रत्तंस्यसंवुए सुरम्मे आई गरूयबूरणवणीपतुलफासे मउले ( ० ३७ )
तरस ग ' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञता, साच अशे योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि वाइल्येन 'सम्यमणिमया' इत्यादि प्राग्वत् । तस्यामणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रशमं तस्य च देवशयनीयस्य यतो वा निवेशः प्रज्ञप्तः, नद्यथा - नानामणिमयाः प्रतिपादा-मूलपादानां प्रतिविशिष्टम्भकरणाय पादाः प्रतिपादाः सोच र्णिका:- सुवर्णमयाः पादाः - मूलपादाः, नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि जाम्बूनदमयानि पाणिपादनम या वजनापूरिताः सम्म
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नानामणिमयं व्यूतं विशिष्टवानं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि विष्वोषणा' इति उपधानकानि आ च जीवाभिगममूलटीकाकारः उपधानकान्च्य इति तपनीयमयी गोपधानिका से देवसयज्जे' इत्यादि तद्देवशयनीयं सालिङ्गनयन्त्तिकं सह श्रालिङ्गनवर्या-- शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत् तत्तथा, इति उभयतः उभी शिरोऽन्तपादान्ताचाश्रित्य विबोयणे - उपधानं यत्र तत् ' उभगतो विश्वाय'दुहतो उन ' इति उभयत उन्नतं ' मज्झे तगंभीरे ' मध्ये नतं च तत् निम्नत्वात् गम्भीरं च महत्वा
गम्भीरं गङ्गामिवालुकाया अदालो लिनं पादादिन्यासे अधोगमनमिति भावः तेन खालिद इति [सर्फ मालिनवालुकापदास. दृश्यते चायं प्रकारो मयादिविति तथा उपविष इति विशिष्टं परिकर्मितं क्षामं कार्पासिकं दुकूलं वस्त्रं तदेव पट्टः उयविपक्षीमः प्रतिनम् यस्य तन था 'आई गरूय वूरनवणीय तुलफासे ' इति प्राग्वत्, 'रतंय' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्नांशुकसंवृतम् अन एव सुरम्यं पासाइय इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् तस्स से देवसपणिज्जस्त उत्तरपुर छिमेणं महेगा मणिपेढिया परता मणिपेडिया परागचा अड जोयणाई श्रायामविवभें चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयी अच्छा
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ जाव पडिरूवा, तीसे ण मणिपेढियाए उरि एस्थ । हीमो तवणिजमयाश्रो नाभीओ रिद्रामईओ रोमराईश्रो ण महेगे खुड्डए महिंदज्झए पएणते , सद्धिं जोय- तवणिज्जमया चूचुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलणाई उई उच्चत्तेणं जायणं विक्खंभेणं वइरामया बट्ट- प्पवालमया पोट्ठा फालियामया दंता तवणिज्जमईओ लसंठियसुमिलिट्ठ जाव पडिरूवा, उवरिं अट्ठ मंगलगा जीहाओ तवणिज्जमया तालुया कणगामईओ नाझया छत्तातिच्छत्ता , तस्स णं खुड्डागमहिंदज्झयस्स
सिगात्रो अंतोलोहियक्खपडिसेगानो अंकामयाणि अपचत्थिमेणं एत्थ णं मूरियाभस्स देवस्म चोप्पाले च्छीणि अंतोलोहियक्खपडिसेगाणि रिट्ठामईमो ताराश्रो नाम पहरणकोसे पन्नत्ते सव्ववइरामए अच्छे जाव रिट्ठामयाणि अच्छिपत्ताणि रिट्ठामईओ भमुहाओ कणगापडिरूवे, तत्थ णं मूरियाभस्स देवस्स फलिहरयणख- मया कवोला कणगामया सवणा कणगामईओ णिडालग्गगयाधणुप्पमुहा बहवे पहरणरयणा संनिखित्ता चिटुंति, पट्टियातो वइरामईओ सीसघडीश्रो तवणिजमईओ कसंउजला निसिया सुतिक्खधारा पासादीया दरिसणिज्जा अ-! तकेसभूमीत्रो रिट्ठामया उवरि मुद्धया, तासि णं जिणभिरूवा पडिरूवा । सभाए णं सुहम्माए उवरि अट्ठ मं- पडिमाणं पिट्ठतो पत्तेयं २ छत्तधारगपडिमाओ पम्मत्तागलगा झया छत्तातिच्छत्ता। (सू०३८)
ओ, साओ णं छत्तधारगपडिमाओ हिमरययकुंदेंदुप्पगा' तस्स ण ' मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्व- साई सके.रेंटमनदामाई धवलाई आयवत्ताई सलीलं धारेस्यां दिशि अत्र महत्यका मणिपीठिका प्रशप्ता, सा चाष्टौ । माणीओ २ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उभी योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्यतः
पासे पत्तेयं २ चामरधारपडिमाओ पएणनायो , ताओ • सव्यमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत् , तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि शुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रशप्तः, तस्य प्रमाण वर्ण
णं चामरधारपडिमातो नानामणिकणगरयणविमलमहफश्य महेन्द्रध्यजयद्वक्तव्यं,' तस्स ण ' मित्यादि तस्य । रिह जाव सलीलं धारेमाणीश्रो २ चिटुंति, तासि ण क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजस्य पश्चिमायामत्र सूर्याभस्य देवस्य महा- जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमातो भयपडिमातो नेकः चोपालो नाम प्रहरणकोशः-प्रहरणस्थानं प्राप्त. किं
जक्खपडिमाओ कुंडधारपडिमाओ सम्वरयणामईश्रो अविशिष्ट ? इत्याह-'सध्यवाइरामए अच्छे जाव पडिरूवे' इति प्राग्वत् , ' तत्थ ण ' मित्यादि, तत्र चौपालकाभि- च्छाओ जाव चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं पुरतो अधाने प्रहरणकोशे बहनि परिघरत्नख इगगदाधनुःप्रमु- दुसयं घंटाणं अट्ठसयं कलसाणं अट्ठसयं भिंगाराणं एवं खादीनि प्रहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति , कथं
आयसाणं थालाणं पाईणं सुपइट्ठाणं मणोगुलियाणं वाभूतानीत्यत पाह-उज्ज्वलानि-निर्मलानि निशितानिअतिजितानि अत एव तीक्षणधाराणि प्रासादीयानीत्यादि
यकरगाणं चित्तगराणं रयणकरंडगाणं हयकंडाणं जाव प्राग्वत् , तस्याश्च समायाः सुधर्माया उपरि बहून्यष्टायष्टौ उसभकंडाणं पृप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फभङ्गलकानीत्यादि सर्व प्राग्वद्वक्तव्यम् ।
पडलगाणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अट्ठसयं सभाए णं सुहम्माए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महंगे धूवकडच्छुयाणं संनिखित्तं चिटुंति, सिद्धायतणस्स णं सिद्धायतणे पमने, एगं जोयणमयं पायामेणं पन्नासं उरि अट्ट मंगलगा झया छत्तातिच्छता । (सू०३६) जोयणाई विक्खंभेणं बावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाः सुधर्मायाः 'उत्तरपुरच्छिसभागमणं जाव गोमाणसियाओ भूमिभागा उल्लोया
मण ' मिति उत्तर पूर्वस्यां दिशि महदेकं सिद्धायतनं . तहेव, तस्स णं सिद्धायतणस्म बहुमज्झदेसभाए एत्थ
प्रशप्तम् , एक योजनशतमायामतः पश्चाशत् विष्कम्भ
तो द्वासप्ततिर्योजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावण भहेगा मणिपेढिया परमता,सोलस जोयणाई प्राया
त् वक्तव्यं यावत् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह-समविक्वंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं, तीमे णं मणिपे- भागमपण जाव गोमाणसियाओ इति, किमुक्तं भवति ?ढिय.ए उवरिं एत्थ णं महंगे देवछंदए पएणत्ते, सोलस
यथा सुधर्मायाः सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि जायणाई श्रायमविक्खंभेणं साइंरगाई सोलस जायणाई
हामणि नेपां च द्वागणां पुरतो मुखमगडपाः तेषां च
मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृहमण्डपाः तेषां च प्रेक्षागृहउडू उच्चत्तणं सव्वरयणामए जाच पडिरूंब,एत्थ णं अट्ठसयं
मराडपानां पुरतश्चैत्यस्तपाः सतिमाः तेषां च चैत्यजिणपडिमाणं जिणुस्सहप्पमाणमित्ताणं मंनिखित्तं संचि- स्तृपानां पुरतः चैत्यवृक्षाः तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरदृति,तामिणं जिणपडिमाणं इमयाब वामावामे पामते, तं तो महेन्द्रध्वजाः तेषामपि पुरता नन्दापुष्करिण्यस्तदन
न्तरं गुलिका गीमानस्यश्चांनाः तथाऽत्रापि सर्वमनेनैव जहा-तवणिजमया हत्थतलपायतला अंकामयाइं नक्खा
क्रमेण निग्वशषं वक्तव्यम् , उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तालोहियक्खपडि मंगाई कणगामइओ जंघात्रा कण प्राग्वत . ' तस्स ण ' मित्यादि , तस्य सिद्धायतनस्यागामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामईया गायल- तमध्यदेशभागेऽत्र मदस्यका मणिपीठिका प्रत. सा.
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सूरियाभ
षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामौ योजनानि बाहयतः मणिमयी 'त्यादि प्राग्वत् । ' तसेि 'मित्यादि, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि श्रत्र महानेको देवच्छन्दकः प्रशतः, स च पोडश योजनान्यायामविष्क माभ्यां सारिका पोडश योजनान्मुन 'सव्वरयणामए' इत्यादि प्राग्वत् तत्र च देवच्छन्दके अशतम् - अष्टाधिकं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमा मात्राणां पञ्चचतुःशतानामिति भावः सनि तिष्ठति । नासि ग जिपडिमा मित्यादि. तासां जिनानिमानासमेत सोधकनिवेशः प्रज्ञ सः, तपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि अङ्करत्नमया अन्तः - मध्ये लोहिताक्षरत्नप्रतिसेका नखाः कनकमया ज धा कनकमयानि जानुनि कनकमया ऊरवः कनकमयो गात्रयष्ट्यः तपनीयमया नाभयो रिष्ठमय्यो रोमराजयः तपनीयमयाः चूचुकाः - स्तनाग्रभागाः तपनीयमयाः शिलायालमया विद्रुमया श्रोष्ठाः स्फटिकमया दन्ताः तपनीयमया जिह्वाः तपनीयमयानि तालुकानि क नमध्ये नासिकाः अन्नलतिका, अमापीतलहिताप्रतिकानि निपानि क्षिपत्राणि रिडरत्नमथ्यो यः कनकमयाः कपोला क नकमयाः श्रवणाः कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः वज्रमय्यः शीर्षपडिका तपनीयमच्यः केशान्त केशभूमयः केशान्त भूमयः केशभूमयश्चेति भावः रिष्टमया उपरि मूईजा:केशाः तासां जनप्रतिमानां पृठन एकैका उपधार निमा डिमरजन कुदेका सकोरेलमा तपत्रं गृहीत्वा सतीनिष्ठ तथा तामां जिनानामुभयोः पाश्य हे पा मे प्रज्ञप्ते, ते च 'चंदप्यभवयरवे रुलियनानामणिरयणखचियचित्तदंडाओ' इति चन्द्रप्रभः चन्द्रकान्तो वज्रं वैये च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवरूपा- सूत्रे चित्रा नानाप्रकारादयेषां तानि तथा सूखी त्वं प्राकृतत्वात्. सुडुमरययदीहवालाउ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा बाला येषां तानि तथा 'संखंककुंद - द गरयमय महिय फेणपुंजस निकासा धवलाओ ' इति । प्रतीतं चामराणि गृहीत्वा सलील वीजयन्यस्तिष्ठति ताश्च' सव्वरयणामईओ अच्छाओ' इत्यादि प्राग्वत्, 'तासि ण ' मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो द्वे द्वे नागप्रतिम द्वे द्वे यक्षप्रति द्वे द्वे भूतप्रति द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमे तस्थि देव तासां जनप्रतिमानां श्रशतं घण्टानामप्रशतं चन्दनकलशानामशन पुरनः मङ्गलकलशानामष्टशत भृङ्गाराकामहतनादशनाम स्थालानामशतं पात्रीणामशतं सुप्रतिष्ठानामष्टशत मनोगुलिकानां पीडिकाविशेषाणामशतं वानराणाम प्रशतं चित्राणां रत्नकरण्डकानामप्रशतं हयकण्ठानामष्टशतं गजकण्ठानाम् अशतं नरकण्ठानामशतं किन्नरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषानामह महोरगकण्ठानाम नृपभकण्डानामनं पुष्पचंद्वारा मात्यां मुकुलानि पुष्पाणि प्रथितानि मास्पानि, अशतं चूर्ण
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( १९२६
अभिधानराजेन्द्रः ।
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सूरियाभ रामशतं गन्धचङ्गेरीगामप्रशनं यखममा रामशनं सिद्धार्थच लोमहलखरीणाम्, अष्टशतं लोमहस्तकानां लोमहस्तकं च मयूरपुच्छपुअनिका अप्रशनं पुष्पपटलकानामेवं माल्यचू गंगसार्थकलो मह लण्टलकानामपि प्रत्येकमर अशत वक्तव्यम् अष्टशतं सिंहासनानामशनं छत्राणामघरातं चामराणाम तेलसमुहकानामशतं कोष्ठयमु इकानामशतं पाचोकसमुद्रकानामष्टशतं तगरसमुद्ग का नाम प्रशन मेलासमुद्गकानामष्टशनं हरितालसमुद्गकानामष्टत हिलकसमुद्गानाम मनःशिलासमुद्गकानामानमञ्जन समुद्गकानां सर्वाण्यपि अनि तैलानि परमसुरभिगम्यापेतानि
म् अत्र सङ्ग्रहणिगाथा - "चंद्रणकलसा भिंगा - रगा य श्रायंसया य थाला य । पातीई सुपइट्टा, मणगुलिका वायकरगा य ॥१॥ चित्ता रयणकरंडा हयगयनरकंठगा य चंगेरी। पडलगसीहत, चामरा समुग्गक झया ॥२॥ अष्टशतं धूपकनिक्षितस्यास्य उपरि मलकानि ध्वजच्ातिष्
"
तस्य णं सिद्धायतणस्य उत्तरपुरच्छिमे से एध महेगा उबवायसभा पष्पत्ता, जहा सभाए सुहम्भाए तहेव ● जाब मणिपेडिया अ जोयमाई देवसयसि तच सवजिव मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता । तीसे उपवासभाए उत्तरपुर छिमेणं एत्थ से महंगे हरए पपत्ते एगं जोयणसयं आयामेणं पष्मासं जोयणाई विसंभेणं दस जोयसाई उपगं तहेव तस्य गं हरयस्थ उत्तरपुर मे एथ से महंगा अभिमंयसभा पाना सुहम्मागमएवं ० जाव गोमा सियाओ मणिपेडिया सीहा सणं सपरिवारं ० जाव दामा चिति, तत्थ सूरियाभस्म दे यस बहुभिसेयमंडे संनिखिने चिड, अ मंगलगा तहे, ती अभियेगसभाए उत्तरपुर एत्थ अलं मे णं गं कारियसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा मणिपढिया अ जोयणाई सीहासणं सपरिवारं तत्थ से सूरियाभस्स देवस्स सुहुबहु अलंकारय निति से तहेव, ती
अलंकारियसभा उत्तरपुर छिमे गो एरथ गं महेगा ववसायसभा पण्णत्ता, जहा उववायसभा ० जाव सीहासणं सपरिवारं मणिपेदिया अड्ड मंगलगा तत्थ से सरियामस्य देवस्स, एत्थ से महेंगे पोत्थयरयणे सन्निखित्ते चिट्ठ तस्स रंग पोत्थयरणस्स इमेयारूये बहावासे पाने तं जहा - रयणा मयाई पत्तगाई रिट्ठामईओ कंबिश्राश्रो तबजिमए दोरे नाणामणिमर गंठी वेरुलियमए लिप्पासणे रिडामए छंदणे तवणिजमई संकला रिट्ठामई मसी बहरामई लेहणी रिट्ठामाई अक्खराई धम्मिए सत्थे, व सायसभाए गं उचरिं अट्ठ मंगलगा, तीसे गं चत्रमायसभा उतरपुरच्छि मे से एस्थ से नंद सरी पत्ता पुक्खरिणी
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सूरियाभ
हरयसरिया, तीसे गंदा पुक्खरिणीए उत्तरपुर छिपी कम्यिके पृष्ठ इति भावः गं मेणं महंगे बलिपीठे पण ते सव्वरयणामए अच्छे ० जाव पडिरूपे । ०४० )
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सुरियाम रत्नमयो दयरको पत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति दानामणिमयो ग्रन्थिः इयरकवादी बेन पचाणि न निर्गच्छन्ति अङ्कारल यानि पत्राणि, नानामणिमयं लिप्पासनं मषीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मी भाजनमा रिष्ठरत्नमग्रम् उपाग्ननं तस्य छादनं रिष्ठमयी - रिष्ठरत्नमग्री मी वज्रमयी लेखनी रिष्याम्य
ख्यं क्वचित् - धम्मिए सत्' इति पाठः तत्र धार्मिकं शास्त्रमिति व्याख्येयं तस्याश्च उपपानसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि मध्ये बलिपी तथा योजनानि श्रयामविष्कम्भतः चत्वारि योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयम' श्रच्छ' मित्यादि प्राग्वत् । तस्य च वलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्वेका नन्दापुष्करिणी प्रश्ता सा च इदप्रमाण, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत् ।
नस्य च सिद्धायननस्य उत्तरपूर्वस्यामत्र महत्येका उपपात सभा प्रशप्ता तस्याश्च सुर्मागमेन यूद्वार व्यवर्णनमुखमण्डपक्षागृह उपादिवगादिकारन चक्रव्यं यावदुखी बरीभूमिभाग स्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञता, सा चाष्टौ योजनाम्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि वाहल्येन सव्वमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत् तस्याश्च मपीठिकाया उपरि श्रत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तं, तस्वरूपथा सुधर्मा सभायां स स्या अप्युपपातसभाया उपरि अष्टाष्ट मङ्गलकादीनि प्राग्वत् । तेसि ए मित्यादि, तस्या उपपात सभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महानेको दस बैकं यो जनशतमायामतः पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भतो दश योजनान्युद्वेधेन अच्छे ग्ययामयकूले ' इत्यादि नन्दापुकरिया इव वर्णनं निरवशेषं वक्तव्यं, ' से गमित्यादि. स इद एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सवतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः पद्मवरचेदिकावर्णनं वनखएडवर्णनं च प्राग्वत् तस्य हृदस्य त्रिदिशि- तिसृषु दिपिकानि तेषां त्रयोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च वर्णन प्राग्वत् तस्य चतए णं तस्स मृरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पीए इदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्वेका अभिभा प्रज्ञप्ता सा च सुधर्मसभावत् प्रभाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिप्रकरणाच्या यावद गांगासना तदनन्तरं तथैव उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावत् 'यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्या अभिषेकसभाया बहुसमरमश्री भूमिभागस्य यहुमध्यदेशमागे महत्वका मणीटिका हा साय योजनान्यायाि
तदेवं यत्र यादृग्रूपं च सूर्याभस्य देवस्य विमानं तत्र सम्प्रति सूदेव सन् यदकरोत् यथा च तस्याऽभिषेकोत् पदर्शयति-तेयं काले ते समए सरियामे देवे अदुखोवएमित्त चैव समाणे पंचविहार पञ्जत्तीए पञ्जत्तीभावं गच्छ तं जहा आहारपजनीए सरीरपञ्जर्थीए, इंदियपञ्जत्तीए, आणपाणपञ्जत्तीए, भासामणपजतीए ।
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पजातीमा गयस्स समास्म इमेयारूपे अम्भस्थि चितिए पन्थिए मणोगए कप्पे समुपखित्था - किं मे पुत्रि करगिज ? किं मे पच्छा करणिअं ? (कं मे पुत्र से? किं मे पच्छा से ? किं मे विष पच्छावि हिवा सुहाए खमाए विस्साए श्रणुगामियत्ताए भविस्सर ?, तर गं तस्स रियाभस्त देवस्य सामाणियपरिमा ववन्नगा देवा सूरियाभस्य देवस्स इमेयारूवमन्भत्थियं • जाव ममुष्य समभिजागिता जेवरिया देवे तेव आगच्छति सूरियामं देवं करयलपरिग्गड सिरसावतं मस्थर अंजलिक एवं विजय बद्धाविन्ति बढावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया गं सूरिया भे विमा सिद्धायतसि जियपडिमा जिगुस्सेहपमाणमित्ताणं असयं संनिखित्तं चिट्ठति, सभाए गं सुदम्माए माणवच संभे परामएस गोलबसमुग्गएसु बहुओ जिस कहाओ संनिखिनाओ चिति, ताओ देवागुप्पियाणं अपेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवी य अचाओ ० जाव पज्जुपासणिजाओ, तं एवं
देवापियापुवि करणिजं तं एवं गं देवाणुपियाणं पच्छा करथितं तं एवं गं देवागुप्पियां सेयं तं निषेशज्ञप्तः रिष्टमयोपुवि सेयं तं एवं यं देवापिया पच्छा से एवं
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( ११२७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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स्वारि योजनानि बाहल्यतः सव्वरयणामयी इत्यादि प्राग्वत् तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं सिंहासनवर्णकः प्राग्वत्, नवरमत्र परिवारभूसानिमानानि व वक्यानि तस्मिँश्च सिंहासने सूर्यस्य देवस्य सुद्र अभिषेकमारडम श्रमिको ग्य उपस्कारः सन्निक्षिप्तः तिष्ठति, तीसे णं श्रभिसेयसभाए - श्रष्ट्ठट्ठ मंगलगा' इत्यादि प्राग्वत् तस्याश्च श्रभिबेकसभाया उतरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्मेका अलङ्कार सभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रमुखमण्डप गृदादिचनकार तावद्रव्या
याच परियारसिंहाननं तत्र सूर्यास्य देवस्य अलंका रिकम् - अलंकारयोग्यं भाण्ड संनिक्षिप्तमस्ति शेषं प्राम्यत् । तस्याश्च अलंकारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, सा च अभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रय मुखमण्डप दिवर्णनप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावत् सिंहासनं सपरिवारं तत्र महदेकं पुस्तकरने निक्षिप्तमस्त, तस्य च पुस्तकस्य तद्रूपो 'वर्षावासो ' वर्णक
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाम णं देवाणुप्पियाणं पुवि पि पच्छा वि हियाए सुहाए ख- गिरिहत्ता सूरियाभानो विमाणाश्रो पडिनिक्खमंति माए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति । (सू०४१) पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए चबलाए जाव ति
तए णं से मूरियामे देवे तेसिं सामाणियपरिसोववनगाणं रियमसंखेजाणं जाव वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जेदेवाण अंतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म हदुतुट्ठ जाव हय
णेव खीरोदयसमुद्दे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हियए सयणिज्जाओ अब्भुटेइ २द्वित्ता उववायसभाम्रो पुर- खीरोयगं गिएहति जाई तत्थुप्पलाई ताई गएहति जा-- च्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ,जेणेव इरए तेणेव उवागच्छ- व सयसहस्सपत्त,ई गिएहति २ रिहत्ता जेणेव पुक्खरोदए ति उवागच्छित्ता हरयं अणुपयाहिणीकरमाणे अणु० करे- समुद्दे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं माणे पुरच्छिमिल्लेणं तोरणेणं अणुपविसइ अणुपविमित्ता गेएहति गिरिहत्ता जाई तत्थुप्पलाई सयसहस्सपत्ताई पुरच्छिमिल्नेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहइ पचोरुहिता ताई जाव गिएहति गिरिहत्ता जेणेव समयखेत्ते जेणव जलावगाहं जलमजणं करेइ२रित्ता जलकिई करेइररित्ता ज- भरहेरवयाई वासाई जेणेव मागहवरदामपभासाइं तित्थाई लाभिसेयं करेइ२रित्ता आयंते चोक्खे परमसुईभृए हरयाओ तेणेव उवागच्छति २ त्ता तित्थोदगं गएहति २ णिहत्ता तिपच्चुत्तरइ २ रित्ता,जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति स्थमट्टियं गएहति २ ता जेणेव गंगासिंधुरत्ताग्त्तवईयो जे०तेणेव उवागच्छित्ता अभिसेयसभं अणुपयाहिणीकरेमा- महानईओ तेणेव उवागच्छति २ ता सलिलोदगं गएहति णे अणुकरेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसह २त्ता सलिलोदगं गेरिहत्ता उभभो कूलमट्टियं गेएहति कूलजेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छह २ ता सीहासणवरगए मट्टियं गरिहत्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिवासहरपब्वपुरस्थाभिमुहे सन्निसन्ने । तए णं मूरियाभस्स देवस्स सामा- या तेणेव उवगच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता दगं गेणियपरिमोववन्नगा देवा आभिप्रोगिए दधे सद्दावेंति एहति सच्चतुयरे सव्वपुप्फे सध्यगंधे सव्वमन्ने ससद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो! देवाणप्पिया! व्वोसहिसिद्भुत्थए गिएहति गिरिहत्ता जेणेव परमसूरियाभस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभि- पुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता दहोदगं संयं उवहवेह,तण णं ते आभिागिता देवा सामाणि- गेएहति गरिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाई• जाव सययपरिसोववन्नेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठा जाव सहस्सपत्ताई ताई गेएहति गरिहत्ता जेणेव हेमवयहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि एरवयाई बासाई जेणेव रोहियरोहियंसासुबमकूलरुकटु एवं देवो! तह त्ति आणाए विणएणं चयणं पडि- प्पकूलाओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति , सलिलोमुणंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक- दगं गेएहंति २ ना उभो कूलमट्टियं गिएहति २ ता जेमंति, उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अपकमित्ता बेउब्धिय-- णेव सद्दावतिवियडापतिपरियागा बट्टवेयड्वपञ्बया तेसमुग्घारणं समोहणंति समोहणित्ता संखेन्जाई जो- णेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता सब्बतुयरे तहेव जेयणाई जाव दोच्च पि वेउब्वियसमुग्धाएणं समो- णेव महाहिमवंतरूप्पिवासहरपब्बया तेणेव उवागच्छंहणइ समोहणित्ता असहस्सं सोनियाणं कलसाणं १ ति , तहेव जेणेव महापउममहापुंडरीयद्दहा तेणेव उअट्ठसहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं २ अट्ठसहस्सं म- वागच्छंति उवागच्छित्ता दहोदगं गिरोहंति तहेव जेणिमयाणं कलसाणं ३ अट्ठसहस्सं सुवमरुप्पमयाणं णेव हरिवासरम्मगवासाई जेणेव हरिकंतनारिकताओ कलसाणं ४ अट्ठसहस्सं सुवन्नमणिमयाणं कलसा- महाणईओ तेणेव उवागच्छंति , तहेब जेणेव गंधावइणं ५ अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं ६ अ- मालवंतपरियाया बट्टवेयड्डपव्यया तेणेच तहेव जेणेदुसहस्सं सुवमरुप्पमणिमयाणं कलसाणं ७ अट्ठमह- व णिसढणीलवंतवासधरपब्वया तहेव जेखेव तिगिसं भोमिजाणं कलसाणं ८, एवं भिंगाराणं प्रा- च्छिकेसरिद्दहाभो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तयंसाणं थालीणं पाईणं सुपतिद्वाणं रयणकरंडगाणं हेव जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीतासीतोदा पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं महाणदीओ तेणेव तहेव जेणेव सब्बचकवट्टिविजया
जाव लोमहत्थपडलगाणं छत्ताणं चामराणं तेल्लस- नेणेव सब्वमागहवरदामपभासाई नित्थाई तेणेव उमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं असहस्सं धूवकडु- चागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता तिस्थोदगं गेएहंति च्छुयाणं विउव्वंति, विउव्यित्ता ते साभाविए य वि- गणिहत्ता सव्वंतरणईयो जेणेव सव्ववक्खारपव्यया तेअधिए य कलसे य .जाव कडुच्छुए य गिएइंति । णेव उवागच्छंति सव्यतुयरे तहेव जेणेव मंदरे प
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सूरियाभ
सुरियाम वयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्क धूव मघमघंतगंधुदुयाभिरामं करेंति या देवा सूरियाभं विमाणं सुगंधगंधियं गंधवट्टि -
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( ११२६ ) अभिधान राजेन्द्रः । व्वते जेणेव भदसालवणे तेणेव उवागच्छति सचतुरे सव्वपुष्फे सव्यमले सन्चोसहिसिद्धत्थए य गेरहंति गेरिहत्ता जेणेव गंदणवणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता सव्वतुरे ० जाव सव्वोस - |भूतं करेंति अप्पेगतिया देवा हिरणवासं वासंति सुवमवासं हिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं गिरहंति गिरिहत्ता वासंति रययवासं वासंति वइरवासं वासंति पुष्कवासं० जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति सव्वतुयरे ०जाव फलवासं० मल्लवासं० गंधवासं० चुसवासं० आभण - सयोस हिसिद्धत्वए य सरसगोसीसचंदणं च दिव्वं च वासं वासंति अप्पेगतिया देवा हिरणविहिं भाएंति, सुमखदामं दद्दरमलयसुगंधिए य गंधे गिरहंति गिरिहत्ता एवं सुवन्नविहिं भाएंति रयणविहिं पुष्फविहिं फलविहिं एग तो मिलायंत २ यित्ता ताए उक्किट्ठाए ०जाव जेणेव मल्लविहिं चुमविहिं वत्थविहिं गंधविहिं भाएंति, तत्थ - सोहम्मे कप्पे जेणेव सूरिया भे विमाणे जेणेव अभिसे- प्पेगतिया देवा आभरणविहिं भाएंति अप्पेगतियसमा जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति उवा- या वातं वाइति ततं विततं घणं भुगच्छित्ता सूरियामं देवं करयपरिग्गाहियं सिरसावत्तं सिरं, अप्पेगइया देवा चउव्विहं गीयं गायंति, तं जहामत्थए अंजलि कट्टु जएणं विजएणं वद्धावितिं वद्धावित्ता उक्खित्तायं पायत्तायं मंदार्य रोइतावसाणं, अप्पेगतिया तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उबट्टवेंति । देवा दुयं नट्टविहिं उपदंसिंति अप्पेगतिया बिलंबियनदृतए तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सी ओ विहिं उवदंसेंति अप्पंगतिया देवा दुतविलंचियं दृविहिं उवदति, एवं अप्पेगतिया अंचियं नट्टविहिं उवदंसेंति अप्पेगतिया देवा आरभडं भमोलं आरभडभसोलं उप्पयनिचयपमत्तं संकुचियपसारियं रियारियं भतसंभतणामं दिव्वं विहिं उवदति अप्पेगतिया देवा चउन्विहं - भिणयं अभियंति, तं जहा दिवंतियं पातियं सामंतोवशिवाइयं लोग अंतो मज्झावसाणियं अप्पेगतिया देवा वुकारेंति अप्पेगतिया देवा पीर्णेति अप्पेगतिया वार्सेति श्र प्पेगतिया हकारेंति अप्पेगतिया विर्णेति तडवेंति अप्पेगइया वग्गंति अप्फोडेंति अप्पेगतिया अफोर्डेति वति अप्पे ० तिवई छिंदंति अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, अप्पेगतिया हथियगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगतिया रहघणघ
गमसीओ सपरिवारातो तिनि परिसाओ सत्त अशियाविणो ० जाव अनेवि बहवे सूरियाभविमाणवासिणो देवा य देवीओ य तेहिं साभाविएहि य वेउच्चि - एहि य वरकमलपड्डाणेहि य सुरभिवरवारिपडिपुन्नेहिं चंदणकयचच्चिएहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पल पिहाणेहिं सुकुमालको मलकर यलपरिग्गहिएहिं श्रट्टमहस्सेणं सोव - न्नियाखं कलसाणं ०जाव अडसहस्सेणं भोमिज्जाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतुरेहिं ० जाव सव्योसहिसिद्धत्थ एहि य सब्बिड्डीए ०जाब वाइएणं महया २ इंदाभिसे अभिसिंचति, तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स महा २ इंदाभिसे वट्टमाणे अप्पेगतिया देवा मूरियाभं विमाणं बच्चोयगं नातिमट्टियं पविरलफुसियर य रेणुविणाइयं करेंति, अप्पेगतिया हयहेसियहत्थि गुलगुलांइयरखासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं वासंति अप्पेगतिया देवा हयरयं नट्ठरयं भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेंति,
गतिया देवा सूरियामं विमाणं श्रासियसंमजिओ वलित्तं सुइसंमट्ठरत्थंतरावणवीहियं करेंति, अपेगतिया देवा सूरिया विमाणं मंचाइमंचलिये करेंति अप्पेगया देवा सूरिया विमाणं गाणाविहरागोसियं भयपडागाइपडागमंडियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया विमाणं लाउल्लोइयमहियं गोसीस सरसरत्तचंदणदद्दरदि
पंगुलितलं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं उवचियचंद कलसं चंदणघडमुकयतारणपडिदुवारदेस - भागं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरिया विमाणं अस तोसत्तविउलवट्टबग्वारियमल्लदाम कलावं करेंति अप्पेतिया देवा सूरिया विमाणुं पंचम्सुरभिमुकपुष्फ पुंजो
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घणघणा इयं करेंति, अप्पेगतिया उच्छोलेंति अप्पेगतिया पच्छोलेंति अप्पेगतिया उकिट्ठियं करेंति अप्पे० उच्छोलेंति पच्छोलेंति उक्कि० अप्पेगतिया तिन्निवि,अप्पेगतिया उवयंति अप्पेगतिया उबवायंति अप्पेगतिया परित्रयंति अप्पे
या तिनिवि,अप्पेगइया सीहनायंति अप्पेगतिया दद्दरयं करेंति अप्पेगतिया भूमिचवेडं दलयंति अप्पे तिन्निवि, अप्पेगतिया गर्जति अप्पेगतिया विज्जुयायंति अप्पेगतिया वासं वासंति अप्पेगतिया तिनि वि करेंति, आप्पेगतिया जलंति अप्पेगतिया तयंति अप्पेगतिया पतवेंति अप्पेगतिया तिनि वि,अप्पेगतिया हकारेंति अप्पेगतिया धुक्कारेंति - प्पेगतिया धक्कारेंति, अगतिया साईं साई नामाई सार्हेति अप्पेगतिया चत्तारि वि अप्पेगइया देवा देवसभिवार्य कति अप्पेगतिया देवखयं करेंति, श्रप्पेगइया देबुक
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( ११३० )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरियाम
लियं करेंति, अप्पेगइया देवा कहकहगं करेंति, अप्पेगतिया देवा दुदुहगं करेंति, कप्पेगतिया चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगइया देवसन्निवार्य देवज्जोयं देवकलियं देवकह - कहगं देवदुदुहगं चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगतिया उप्पलहन्थगया • जाव सयसहस्सप सहत्थगया अप्पेगतिया कलसहत्थगया • जाव धूवकडुच्छुयहत्थगया हट्ट तुट्ट० जाव हियया सव्वतो समता आहावंति परिधावति । तए णं तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ ० जाव सोलस आरक्खदेव साहसीओ असे य बहवे सूरियाभरायहाणिवत्थव्वा देवाय देवीओ य महया इंदाभिमेगेणं अभिसिंचंति अभिसिंचित्ता पत्तेयं २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मस्थ अंजलि कट्टु एवं वयासी जय जय नंदा जय जय भहा ते अजियं जिणाहि जियं च पालेहि जियमज्भे वसाहि इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूई पलिवमाई बहूई सागरोवमाई बहूई पलिओमसागरोवमाई चउ"हं सामाणियसाहस्सीणं ०जाब आयरक्खदेव साहस्सी सूरियाभस्स विमाणस्स अन्नेसिं च बहूणं सूरियाभविमाणवासी देवाण य देवीण य आहेवच्चं ० जाव महया २ कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्टु जय २ सदं पउंजंति । नए से सूरिया देवे महया महया इंदाभियेगेणं अ भिसित्ते समाणे अभिसेयसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति निग्गच्छित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अलंकारियस अ
प्पयाहिणीकरेमाणे २ अलंकारियसभं पुरच्छिमिल्ले रां दारेणं अपवसति २ सित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति सीहासवर गते पुरस्थाभिमुद्दे सन्नियन्ने । तए ं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा अलंकारियभंडे उबवेति तए गं से सूरिया देवे तपढमयाए पहलमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाइ लूहेति लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई
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लिपति अर्लिपित्ता नासानी वासवायबोज्यं चक्खुहर वन्नफरिसजुतं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कगखचियन्तकम्मं आगास फालियसमप्पभ्रं दिव्यं देवदूसजुयलं नियंसेति नियंसेसा हारं पिद्धेति २ द्वेत्ता - हारं पिदे २ द्वेत्ता एगावलिं पिद्धेति २त्ता मुत्तावलि पिणद्धेति २ द्वेता रयणावलिं पिणद्धेइ २ द्वेत्ता एवं
गाई केयूराई कडगाई तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुदाणंतगं विकच्छसुत्तगं मुरविं पालंबं कुंडलाई चूडामणि पउडं पिणद्धेइ २ द्वेत्ता गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइ
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सूरियाभ
मेणं चउब्विणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पित्र अप्पा अलंकियंविभूसियं करेड़ २ रित्ता दद्दरमलयसुगंध गंधिएहिं गायाई भुखंडेड दिव्वं च सुमणदामं पिद्धेइ | (सू०४२ )
'
‘तेणं कालेणं तेणं समएण मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये सूर्याभो देवः सूर्याभे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदृष्यान्तरे प्रथमतोऽङ्गुला संख्येयभागमात्र याऽवगाहनया समुत्पन्नः 'तर ण मित्यादि सुगर्म, नवग्म् इह भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिसमाप्तिकालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विचक्षणमिति पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तीभावं गछ' इत्युक्तं 'नए ण मित्यादि ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभावमुपगतस्य सतोऽयमेतद्रूपः संकल्पः समुदपद्यत । 'श्रम्भथिए' इत्यादि पदव्याख्यानं पूर्ववत् किं मे मम पूर्व करणीयं किं मे पश्चात्करणीयं ? किं मे पूर्व कर्त्तुं श्रेयः ? किं मे पश्वात् कर्त्तुं श्रेयः ?, तथा किं मे पूर्वमपि च पश्वादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वाय - परिणामसुन्दरतायै सुखाय शर्मणे क्षमाय श्रयमपि भावप्रधानो निर्देशः संगतत्वाय निःश्रेयसाय निश्चितकल्यााय अनुगामिकतायै- परस्परशुभानुबन्धसुखाय भविष्य इह प्रानो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वी भूयानपि च पुर वाचनाभेदस्ततो माभूत् शिष्याणां सम्मोहन कापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थ लिखितः इत ऊर्ध्वं तु प्रायः सुगमः प्रायाख्यातस्वरूपश्च । न च वाचनाभेदोऽप्यतिवादर इति स्वयं परिभावनीयो, विषमपदव्याख्या तु विधास्यते इति । तप णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाण्यपरिसोववन्नगा देवा इममेवारूव मित्यादि श्रयते इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेन श्रचान्तो गृहीताचमनश्चोक्षः स्वल्पस्यापि शङ्किनमलस्यापनयनात् श्रत एव परमशुचिभूतो महत्थे महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेय' मिति, महान् श्रर्थीमणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थः तं तथा महान् श्रर्घः - पूजा यत्र स महार्घः तं महम्उत्सवमईतीति महार्हस्तं विस्तीर्णे शक्राभिषेकवत् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत अटुहस्सं सोणियाण क लसां विजयंति ' इत्यादि, अत्र भूयान् याचना
भेद इति यथावस्थितवाचनाप्रदर्शनाय लिख्यते— अष्टमहस्रम् - श्रष्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिकानां कलशानाम् - अष्टसहस्रं रूप्यमयानाम् २ सहस्रं मणिमयानाम् ३ सहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् ४ श्रसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानाम् ५
सहस्रं रूप्यमणिमयानाम् ६ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् ७ अष्टसहस्रं भौमेयानां कलशानाम् ८ अष्टसहस्रं भृङ्गाराणामेवमादर्शस्थालपात्री सुप्रतिष्ठितबात करक चित्ररत्नकरण्डक पुष्पचङ्गरीया वल्लो महस्तक पटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्गकध्वजधूपक दुकानां प्रत्येकं प्रत्येक मसहस्रं २ विकुर्वन्ति विकुवित्या 'ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि व्याख्यानार्थे, 'सव्व (तू) तुवरा' इत्यादि, सर्वान् तु (तू) वरान् कषायान् सर्वाणि पुष्पाणि सर्वान् गन्धान् - गन्धवासादीन् सर्वा
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(११३१), सृरियाभ अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाम णि माल्यानि अथितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीन सिद्धा- कुर्वन्ति, 'तंति त्ति ताण्डवयन्ति ताण्डवरूपं नृत्य कुर्वर्थकान्-सर्षपकान् गृह्णन्ति , इयं क्रमः-पूर्व क्षीरसमु- न्ति, 'वुकारेति' बुक्कारं कुर्वन्ति 'अप्फोडति' प्रास्फोटयन्ति, द्रे उपागच्छन्ति तत्रौदकमुत्पलादीनि च गृह्णन्ति, ततः पु- भूम्यादिकमिति गम्यते, 'उच्छलति'त्ति उच्छलयन्ति 'पोच्छकरोदे समुद्रे तत्रापि तथैव , ततो मनुष्यक्षेत्रे भरतैरा- लति' प्रोच्छलयन्ति 'उवयंति' त्ति अयपतन्ति 'उप्पयंतित्ति चनवर्षेषु मागधाविषु नीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमृतिकां च | उत्पतन्ति पग्वियंति'त्ति परिपतन्ति: नियंक निपतन्तीत्यर्थः। गृह्णन्नि, ततो गङ्गासिन्धुरस्कारक्तवतीषु नदीषु सलिलोदकं न | 'जलंति' त्ति ज्यालामालाकुला भवन्ति 'तविति ' त्ति तशुदकमुभयतटमृत्तिकां च गृहन्ति, ततः खुल्लहिमवच्छिशव- प्ता भवन्ति प्रतप्ता भवन्ति 'थुक्काति ' त्ति महता शब्देन रिषु सर्वतू (तु) वरसपुष्पसर्वमाल्यसौंपधिसिद्धार्थ- धुत्कुर्वन्ति 'देवोक्कलियं करोति' ति देवानां वातम्येवोत्ककान् , ततस्तत्रैव पद्महदपौण्डरीकहदेषु इदोदकमुत्पला- लिका देवोत्कलिका नां कुर्वन्ति, ' देवकहकहं कनि' नि दीनि च तद्वतानि . ततो हेमवतरण्यवतवर्षेषु रोहितागे- प्राकृतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैवॉलकोलाहितांशासुवर्णकुलारूप्यकूलासु महानदीषु सलिलोदकम- हलो देवकहकहकस्तं कुर्वन्ति 'दुहृदुहकं करोति दुहृदुहकभयतटमृनिकां , तदनन्तरं शब्दापातिविकटापातिवृत्तवै- मित्यनुकरणमतत् । 'तप्पढमयाए पम्हलाए सुकुमालाए साढयेषु सर्वतृवरादीन् , ततो महाहिमवदूपियवर्षधरपर्व- सुरभीए गंधकासाइयाए गायाई लूहई' इति तत्प्रथमतया-- तेषु सर्वतूबरादीन , ततो महापद्मपुण्डरीकहदेषु इदोद- तस्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पचमला च सा सुकुमाग च कादीनि . नदनन्तरं हरिबर्षरम्यकवर्षेषु हरिसलिलाहरि- पक्षमलसुकुमारा तया सुरभ्या गन्धकापायिक्या--सुरभिगकान्तानारीकान्तासु महानदीषु सलीलोदकमुभयतटम- ঘষাঘস্কিনিন লম্বুহাতি মায়ান্তি কযतिकां च , ततो गन्धापातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैनायेषु । न्ति'नासानीसासयायबोझ' मिति नासिकानिःश्वासवाततूवरादीन् , ततो निषिधनीलवर्षधरपर्वतेषु सर्वतूबरादान , वाह्यमनेन तलक्षणतामाह, चक्खुहर'मिति चक्षुईरति श्रातदनन्तरं नगतेषु तिगिन्छिकेसरिमहाइदेष हृदोदकादी- त्मवशं नर्यात विशिष्टरूपातिशयकलितत्वात् इति चढेर नि, नतः पूर्व विदेहापरविदहेषु सीतामीतोदानदीषु सलि- 'वरणफरिसजुत्त' मिति वर्णेन स्पर्शन चातिशयेनेति गम्यते लोदकमुभयतटमृत्तिकां च ततः सर्वेषु चक्रवर्तिविजेत- युक्तं वर्णस्पर्शयुक्त, 'हयलालापेलवाइरेग' मिति इयलालाव्येषु मागधादिषु तीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमृत्तिकां च , त- अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हयलालापेलयातिरेदनन्तरं वक्षस्कारपर्वतेषु सर्वतूबरादीन् , ततः सर्वासु कं नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुल' मिति समासः , अतिश्रन्तरनदीषु सलिलोदकमुभयनटमृत्तिकां च , तदनन्तरं म- विशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, धवलं-श्वेतं, तन्दरपर्वते भद्रशालधने तूवरादीन् , ततो नन्दनवने तूब- था कनकेन खचितानि--विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चगदीन् सरसं च गोशीर्षचन्दनं तदनन्तरं सौमनसवने लयोनलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्म आकाशसर्वतूबरादीन् सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनो
स्फटिकं नामातिस्वच्छः स्फटिकविशेषस्तत्समप्रभं दिव्यं दवाम गृहन्ति, ततः पराडकवने तूबरपुष्पगन्धमाल्यसरस- वदृष्ययुगलं 'नियंसेई' परिधत्ते परिधाय हारादीन्याभरणागोशीर्षचन्दनदिव्यसुमनोदामानि, 'दद्दरमलए सुगंधिए य नि पिनाति, तत्र हारः--अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवगंधे गिरहति' इति दईर:-चीवरावन कुण्डिकादिभा
सरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमजनमुखं तेन गालितं तत्र पकं वा यत् मलयोद्भवतया यी रनावली--पन्नमयमणिकात्मिका प्रालम्ब:-तपनीयमप्रसिद्धत्वात् मलयज-श्रीखराडे येषु तान् सुगन्धिकान्- यो बिचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र प्रान्मनः प्रमाणेन सुप्रमाण परमगन्धोपेनान् गन्धान गृह्णन्ति, 'आसियसंमजिश्रोवलि- श्राभरणविशषः , कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि. सं सुइसम्मटुरत्यंतरावणवीहियं करेइ' इति श्रासिक्नम्-उ- वाहुरक्षिकाः अङ्गदानि-बाहाभरणविशेषाः दशमुद्रिकानन्तक दकच्छटकेन सन्मार्जितं-संभाव्यमानकचबरशोधनेन उ- हस्ताङ्गलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं कुण्डले-करणाभरणे 'चपलिप्तमिव गोमयादिना उपलिप्तं तथा सिक्कानि जलेनात डामणि' मिति चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देएव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि-कचवरापनयनेन र- घेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्दकृतनिवासो निःशेषामङ्गलाशान्तिरोगप्रमुध्यान्तगणि आपणवीथय इव-हट्टमार्गा इवापणवीथ- खदोषापहारकारी प्रवर लक्षणोपेनः परममालभूत भाभरणयो-रध्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, 'अप्पेगड्या विशेषः 'चित्तरयणसंकडं मउडमिति' चित्राणि--मानाप्रदेवा हिरमविहिं भाएंति' अप्येककाः-केचन देवा हिर- कागणि यानि रत्नानि तैः संकटश्चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्नरायविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलभूतं प्रकारं भाजयन्ति-विश्रा- निचयोपेत इति भावः, तं 'दिव्वं सुमणदाम' ति पुष्पमाला णयन्ति,शेष देवेभ्यो ददतीति भावः , एयं सुवर्णरत्नपुष्प- 'गंथिमे' त्यादि, प्रन्थिम-ग्रन्थन ग्रन्थस्तेन निवृत्तं ग्रन्थिमं फलमाल्यगन्धचूर्णाभरणविधिभाजनमपि भावनीयम् । 'उ- 'भावादिमः॥६॥२१॥प्रत्ययः यत्सूत्रादिना प्रथ्यते तदग्रन्थिप्पायनिवयेत्यादि,उत्पातपूर्यो निपातो यस्मिन् स उत्पा- ममिति भावः,पूरिमं यत् अथितं सत् वेष्टयते,तथा पुष्पलम्बू
निपातस्तम् , एवं निपातोत्पातं संकुचितप्रसारितं 'रिया- सको; गण्डक इत्यर्थः, पूरिमं येन वंशशलाकामयं पारादि रिय' मिति गमनागमनं भ्रान्तसंभ्रान्तनामम् श्रारभटभ- पूर्यते, संघातिमं यत् परस्परतो नालसंघातेन संघात्यते । सोलं दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्ति,अप्येकका देवा 'बुकारेंति'बुकारशब्दं कुर्वन्ति, पीगंति'पीनयन्ति-पीनमारमान की तए ण से सूरियाभ देवे केसालंकारेणं मलालंकारे म्ति स्थूला भवन्तीत्यर्थः, 'लासंति लासयन्ति लास्यरूपं नृत्य आभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं चउविहेणं अलंकारणं
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्र:।
सूरियाभ अलंकियविभूसिए समाणे पडिपम्पालंकारे सीहासणाश्रो पुप्फारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणं चुणारुहणं वनारुहर्ण अन्भुवैतिरद्वित्ता अलंकारियसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारणं वत्थारुहणं आभरणारहणं करेइ करित्ता आसत्तोसत्तविपडिणिक्खमइ २ मित्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवाग- उलयट्टवग्पारियमल्लदामकलायं करेइ अासत्तोसत्त० करेत्ता च्छति ववसायसभं अणुपयाहिणीकरमाण२ पुरच्छिमिल्लेणं कयम्गाहगहियकरयलपम्भट्ठविप्पमुक्केणं दसवन्नेणं कुदारेणं अणुपविमति, जेणेव सीहासणवरगए.जाव सन्निस- सुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेति करिता जिणपडि. नं । तए णं तस्स मूरियाभस्स देवस्स सामाणियपस्सिो- माणं पुरतो अच्छेहिं सण्हेहिं रययामएहिं अच्छरसातंदुवनगा देवा पोत्थयरयणं उवणेति, तते णं से सूरिया लेहिं अट्ठ मंगले आलिहइ,तं जहा-सोत्थिय जाब दप्पदेवे पोत्थयरयणं गिएहति पोत्थ० गिणिहत्ता पोत्थयरयणं ण, तयाणंतरं च णं चंदप्पभरयणवइरवेरुलियविमलदंडं मुयइ पोत्थ० मुइत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ विहाडित्ता पो- कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूस्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएता धम्मियं ववसा- वमघमघंतगंधुत्तमाणुषिद्धं च धूववट्टि विणिम्मुयंत वेरुलियं गिण्हति गिरिहत्ता पात्थयरयणं पडिनिवखमइ सीहा- यमयं कडुच्छुयं पग्गहियं पयत्तेणं धूवं दाऊण जिणवराणं मणातो अब्भुट्ठति अम्भुट्ठत्ता ववसायसभातो पुरच्छिमि- अट्ठसयविसुद्धगन्थजुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महाविलणं दारेणं पडिनिक्खमइ २ मित्ता जेणेव नंदा पुक्खरणी त्तहि संथुणइ २ णित्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्कई २ त्ता वामं नेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता गंदापुक्खरिणीपुरच्छि- जाणुं अचइता दाहिण जाणुं धरणितलंसि निहट्ट तिमिलेणं तोरणेणं परच्छिमिलेणं तिसोवाणपडिरूवएणं प- खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ २त्ता इंसिं पच्चचोरुहइ पच्चारुहित्ता हत्थपादं पक्खालेति पक्खालिताया- ममइ २ ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलि यंति चोक्ख परमसइभए एगं मई सेयं श्ययामयं विमलं कट्ट एवं वयासी-नमोत्थु ण अरहताणं भगवंताणं. जाव मलिलपुमं मत्तगयमुहागितिकुंभसमाणं भिंगारं पगेएहति संपत्ताणं, वंदइ वंदित्ता नमसइ २ सित्ता जेणेव देवच्छंदए २ रिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्सपत्ताई ताई
जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागगेयह ति २रिहत्तागंदातो पक्खरिणीतोपच्चीसहति पच्चोरु- च्छइ २ ता लोमहत्थर्ग परामुसइ २ सित्ता सिद्धायतणस्स हित्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।(मू०४३) बहुमज्झदेसभागं लोगहत्थेणं पमञ्जति, दिव्याए दगधा
तए णं तं मूरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सी- राए अब्भुक्खेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं ओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहसीनो अन्ने य बहवे मंडलगं आलिहइ २ त्ता कयग्गाहगहियं जाव पुंजोबयामूरियाभं जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थग- रकालय करइ करता धू
। रकलियं करेइ करेत्ता धूवं दलयइ, जेणेव सिद्धायतणस्म या जाव सयसहस्सपत्तहत्थगया मुरियाभं देवं पितो २ दाहिणिल्ने दारे तेणेव उवागच्छति २त्ता लोमहत्थगं परासमणुगच्छति । तए णं बं मूरिभं देवं बहवे आभियोगि- मुसइ २ त्ता दारचेडीओ य सालभंजियायो य वालया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया कलसहत्थगया जाव
रूवए य लोमहत्थएणं पमज्जइ २ ता दियाए दगअप्पेगतिया धूवकडुच्छयहत्थगता हट्ठतुट्ठ जाव सूरियाभं धाराए अन्भुक्खेइ २त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए देवं पिट्ठतो समणुगच्छति । तए णं से सूरियामे देवे च- दलयइ दलइत्ता पुप्फारुहणं मल्ला० जाव आभरणाउहि सामाणियसाहस्सीहिं जाव अबेहि य बहहि य सरि- रुहणं करेइ करेत्ता पासत्तोसत्त जाव धूवं दलयइ २ याभं जाव देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सबिडीए ता जेणेव दाहिणिले दारे मुहमंडवे जेणव दाहिणिल्ल
जावणातियरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति२ | स्स मुहमंडवस्म बहुमझदेसभाए तेखेव उवागच्छइ २ ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुप- त्ता लोमहत्थगं परामुमइ २ ना बहुमज्झदेसभागं लोविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमाओ तेणेव उ- महत्थेणं पमजइ २ ता दिव्याए दगधाराए अभुक्खेइ २ वागच्छतिरत्ता जिणपडिमाणं पालोए पणामं करति २त्ता ता सरमण गोमीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडलगं आलोमहत्थगं गिराहतिरत्ता जिणपडिमाणं लोमहत्थरण पम- लिहइ २ ता कयग्गाहगाहय जाव धृवं दलयइ २त्ता अइ पमजित्ता जिणपडिमाओ मुरभिणा गंधोदएणं रहाणे- जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडबस्स पचत्थिमिल्ले दारे तेणेव इ एहाणित्ता सरमेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ उवागच्छ २ च्छिना लोमहत्थगं परामुसइ २ ता दारअणुलिपित्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेति लूहित्ता चेडीओ य सालिभंजियायो य वालरूवए य लोमजिण पमिमाण अहयाई देवद्मजुयलाई नियसेह नियंसित्ता हत्था पमन्नइ २ ना दियाए दगधाराए० सरसेणं
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ २ त्ता पुप्फारुहणं जावा- सा चव सव्वा पुरथिमिल्ने दारे, दाहिणिल्ला खंभपंती भरणारुहणं करेइ २ त्ता आसतोसत्त० कयग्गाहग्गहियं तंचव सव्वं, जेणेव उत्तरिल्ले मुहमंडवे जेणेव उत्तरिल्लस्स धृवं दल यइ २ ता जेणेव दाहिणिल्लमुहमंडबस्स उत्तरिल्ला मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तं चेव सव्वं, पञ्चस्थिमिल्ले खंभपती तेणेव उवागच्छइ २ च्छित्ता लोमहत्थं परामुसइ दारे तेणेव उवाग० ता उत्तरिल्ले दारे दाहिणिला खंभपंती २ ता थंभे य सालिभंजियायो य बालरूवए य लो- | सेसं तं चव सव्वं जेणेव सिद्धायतणस्स उत्तरिल्ले दारे तं महत्थरणं पम जहा चेव पच्चथिमिल्लस्स दारस्स जाव | चव , जेणेव सिद्धायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव धृवं दलयइ २ ता जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स। उवागच्छइ २ ता तं चेव, जेणेव पुरथिमिल्ले मुहमंडवे पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ २ ता लोमहत्थगं | जेणेव पुरथिमिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए परामुमति दारचेडीमो तं चेव सव्वं जेणेव दाहिणि- | तेणेव उवागच्छइ २ ता तं चेब, पुरथिमिल्लस्स मुहमंलस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ डवस्स दाहिणिल्ले दारे पच्चस्थिमिल्ला खंभपंती उत्तरित्र २त्ता दारचेडीओ तं चेव सव्वं जेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव, जेणेव, पुरथिमिल्ले दारे तं चव , जेणेव पेच्छाघरमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स ब- पुरथिमिल्ले पेच्छाघरमंडवे , एवं धूभे जिणपडिमाओ हुमज्झदेसभागे जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणि- चेइयरुक्खा महिंदज्झया णंदापुक्खरिणी तं चेव जाव पढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ ता लो- पूवं दलइ २ ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागमहत्थगं परामुसइ २ ता अक्खाडगं च मणिपेढियं च च्छति २ ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपसीहासमं च लोमहत्थएणं पमन्जइ २ ता दिव्याए दग- विसइ २ ता जेणेव माणवए चइयखंभे जेणेव बरामए धाराए सरसेणं गोसीसचंदणं चच्चए दलयइ, पुष्फारु- गोलवट्टममुग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहहणं आसत्तोसत्त जाव धूवं दलेइ २ ता जेणेव दाहिणि- स्थयं परामुसइ २ ता वइरामए गोलवट्टममुग्गए लोमहत्थेणं लस्स पेच्छाघरमंडवस्स पच्चस्थिमिल्ले दारे तेणे० उत्तरिने पमजइ २ ता वइरामए गोलबट्टसमुग्गए बिहाडेइ २ त्ता जिदारे ते चव जं चेव पुरस्थिमिल्ले दारे तं चेत्र, दाहिये णसगहाम्रो लोमहत्थेणं पमजद २त्ता सुरभिणा गंधोददारे तं चेव, जेणेव दाहिणिले चेइयथूभे तेणेव उवाग- एणं पक्खालेइ पक्खालित्ता अग्गेहिं बरेहिं गंधेहिं य च्छइ २ ता शुभं च मणिपेढियं च दिब्बाए दगधाराए मल्लेहि य अच्चेइ धृवं दलयइ २ त्ता जिणसकहानो वइअब्भु० सरमेयं गोसीस. चच्चए दलेइ २ चा पुप्फारु. रामएसु गोलवट्टममुग्गएसु पडिनिक्खमइ माणवगं चेइआसत्तो जाव 5वं दलेइ, जेणेव पच्चस्थिमिल्ला मणि- यखंभं लोमहत्थएणं पमज्जइ दिव्याए दगधारए सरसेणं पेढिया जेणेव जिणपडिमा त चव, जखेव उत्तरिल्ला जि- गोसीसचंदणणं चच्चए दलयइ, पुप्फारुहणं जाव एवं
पडिमा तं चेव मन्वं, जेगेव पुरथिमिल्ला मणिपेढिया दलयइ, जेणेव सीहासणे तं चेव , जेणेव देवसयणिज्ने जणेव पुरथिमिल्ला जिणपडिमा तेषेव उवाच्छइ २ ता तं तं चेव, जेणेष खुड्डागमहिंदज्झए तं चेव, जेणेव पहरचेव, दाहिणिला मणिपेढिया दाहिणिला जिणपडिमा तं णकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ २ ता लोमहत्थगं चव, जेणेव दाहिणिन्ले चइयरुक्खे तेणेव उवागच्छइ परामुसइ २ सित्ता पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्थएणं पम२ च्छित्ता तं चव, जेणेव महिंदज्झए जेणेव दाहिणिल्ला अइ २ जित्ता दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं तणेव उवगच्छति २त्ता लोमहत्थगं परामसति तोरणे य चच्चा दलेइ पुप्फारुहणं पासत्तोसत्त जाव धृवं दलयइ तिसोवाणपडिरूवए सालिभंजियाओ य वालरूवए य जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमझदेसभाए जेणेव मणिलोमहत्थएणं पमजइ दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसी- पेदिया जेणेव देवसयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ २ च्छिता
गुप्फारुहणं आसत्तोसत्त० धूवं दलयति, लोमहत्थगं परामुसइ देवसयणिज्जं च मणिपेढियं च सिद्धाययणं अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला लोमहत्थएणं पमजइ जाव धूवं दलयइ २ ता जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २ ता तं चेव, जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तहेव अभिसेयसभासरिसं उत्तरिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छति, जेणेव उत्तरिल्ले जाव पुरथिमिल्ला णंदापुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव चेइयथभे तहेव, जेणेव पञ्चस्विमिल्ला पेढिया जेणेव पञ्च- उवागच्छइ २ ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिभंथिमिल्ला जिणपडिमा तं चेब, उत्तरिल्ले पेच्छाघरमंडवे जियाओ य वालरूपए य तहेव , जेणेव अभितेणेव उवागच्छति २च्छिता जा चव दाहिणिलवत्तव्बया सेयसभा तेणेव उवागच्छड उवागच्छित्ता तहेव सीहा
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(१९३४) अभिधान राजेन्द्रः |
सूरियाम
सणं च मणिपेढियं च सेसं तहेव आययणसरिसं ०जाव पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छ २ च्छित्ता जहा अभिसेयसभा तहेव सव्वं जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छ २ ता तहेव लोमहत्थय परासति पोत्थयरयणं लोमहत्थएवं पमज पमजित्ता दिव्वाए दगधाराए अहिं वरेहि य गंधेहिं मलेहि य अचेति २चित्ता मणिपेटियं सीहासणं च सेसं तं वेव पुरथिमिल्ला नंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेव उवागच्छर २ ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिभंजियाओ य बालरुवए य तदेव । जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छर २ सा बलिविसजणं करेइ करिता श्रभिश्रोगिए देवे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणपिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएस तिएसु चउकेसु चचरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु पागारेसु अट्टालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेसु श्रारामेसु उजासु वणेसु पराईसु काणणेसु वणसंडेसु अच्चखियं करेह अच्चथियं करेत्ता एवमाखत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पियह तए णं ते श्रभियोगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं वृत्ता समाणा • जाव पडिणित्ता सूरियाभे विमाणे सिंघाडएस तिरसु चउक्कएस चच्चरेसु चउम्मुहेसु महापसु पागारे अट्टासु चरियासु दारेषु गोपुरेसु तोरणेसु
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रामेसु उजाणेसु बसु वणरातीसु काणणेसु व संडेसुन्वयिं करेइ २ ता जेणेव सूरिया देवे ० जाव पच्चप्पियंति, तते गं से सूरिया देवे जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ २ ता नंदापुक्खरिणी पुरस्थि मिल्लेणं तिसोवाणपाडरूवरणं पच्चोरुहति २ हित्ता हत्थ पाए पक्खाले २ लेता गंदा पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ जेणेव सभा सुधम्मा तेत्र पहारित्थगमणाए । तए से सूरिया देवे चउहिं सामाणियमाहस्सीहिं ०जाव सोलमहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अनेहि य बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि यसद्धि संपरिवुडे सब्बिडीए • जाव नाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छड़ सभं सुधम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपवसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छ २ ता सीहास गवरगए पुरत्थाभिमुद्दे समिसो (सू० ४४ )
• जेणेव ववसायसभा ' इति व्यवसायसभा नाम व्यव सायनिबन्धनभूता सभा क्षेत्रादेरपि कर्मोदयादिनिमित्तस्वात् उक्तं च-" उदयक्णयक्खोवस मोबसमा जं च कम्मुणो भणिया । दव्यं खेत्तं कालं भावं च भवं च संपप्य ॥ १ ॥ इति पोरवयरयणं मुया' इति उत्स स्था
सूरियाभ नविशेषे वा उसमे इति द्रष्टव्यं, 'बिहाडे ' इति उद्घा टयति, 'धम्मियं ववसायं वबस्सद्' इति धार्मिक-धर्मानुगतं व्यवसायं व्यवस्यति, कर्तुमभिलषतीति भावः । 'अच्छरसातंदुलेहिं ' अच्छो रसो येषु ते अच्छरसाः प्रत्ययामन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवातिनिर्मला इत्यर्थः, अच्छ रसाश्च ते तन्दुलाश्च तैः दिव्यतन्दुलैरिति भावः पुफपुंजोबयारकलिये करिता, चंदप्यभवहरवे रुलियाविमलदंड' मिति चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्यमयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कसत्केन धूपेन उत्तमगन्धिनाऽनुविद्धा कालागुरुवरकुन्दुरुक्कतुरुक्क धूपगन्धोत्तमानुविद्धा प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः धूपवर्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकच्छुयं प्रगृह्य प्रयत्नतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतत्वात् सप्ताप्रानि पदानि पश्चादपसृत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके रचयित्वा प्रयत्नतः ' अट्ठलयविसुद्ध गंथजुतेहिं ' ति विशुद्धो-निर्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थः - शब्दसंदर्भस्तन युक्तानि, अष्टशतं च तानि विशुद्ध ग्रन्थयुक्तानि च तैः अर्थयुक्तैः - अर्थसारैरपुनरुक्तैर्महावृत्तैः, तथाविधदेवलब्धिप्रभाव एषः, संस्तीति संस्तुत्य वामं जानुम् अश्ञ्चति इत्यादिना विधिना प्रणामं कुर्वन् प्रतिपातदण्डकं पठति तद्यथा - 'नमोऽ त्थु अरिहंताण' मित्यादि, नमोऽस्तु 'ए' मिति वाक्यालंकारे देवादिभ्यो ऽतिशयपूजामईन्नीत्यर्द्दन्तस्तेभ्यः सूत्र षष्ठी 'छुट्टीविभत्ती भन्नइ चउत्थी' इति प्राकृतलक्षणवशात्, ते चार्हन्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावात्यतिपत्यर्थमाह- भगवद्भधः भगः- समग्रैश्वर्यादिलक्षणः स एषामस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः श्रादिः - धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशीलाः आदिकरास्तेभ्यः तीर्यत संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थ-प्रवचनं तत्करणशीलास्तीर्थकराः तेभ्यः स्वयम् - अपरोपदेशेन सम्यग् घरबोधिप्राप्त्या बुडा-मिथ्यात्वनिद्रापगमसंबोधन स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः भगवन्तो हि संसारमध्यावसन्तः सदा परा व्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्था उचित क्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापनयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहु मानिनइनि भवन्ति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान् प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषवरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिना कर्ममलाभावतो या पुरुषेषु वरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषवरगन्धहस्तिन इव परचक्रतुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगजमिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः तथा लोको - भव्य सत्त्वलोकः तस्य सकलकल्याणैकनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः, तथा लोकस्य नाथा - योगक्षेमकृतो लोकानाथास्तेभ्यः, तत्र योगां बीजाधानो पोषणकरणं क्षेमं च तत्तदुपद्रवाद्यभावापादनं, तथा लोकस्य प्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य वा हिना - हितोपदेशेन सम्यक्प्ररूपण्या वा लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य देशनायोग्यस्य प्रदीपा देशनांशुभिर्यथावस्थितवस्तुप्रकाशका लोकप्रदीपास्तेभ्यः, तथा लोकस्य उत्कृष्टमते भव्य सत्त्वलोकस्य प्रद्योतकत्वविशिष्टा ज्ञानशक्तिस्तरकरणशीला लोकप्रद्योतकराः तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादातत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसंपत्स
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सूरियाभ
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मन्विता यद्रशाद् द्वादशाङ्गमारचयन्तीति तेभ्यः, तथा श्रभयं विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यं निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिति भावः ततः अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च कः प्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतलक्षणवएवमन्यचापि तथा विशिष्ट धारधर्मः तस्वाववोध निबन्धनः श्रद्धास्वभावः, श्रद्धाविहीनस्यासुधाकरचायोगात् तद्ददति भ्यः, तथा मार्गों - विशिष्ट गुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदाः तथा शरसंसारकान्तारगतानामतिप्रयलरागादिपनि समायामनस्थानकल्ये तस्यचिन्तरूपमयानं तीन शरणदास्तेभ्यः, तथा बोधिः- जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तस्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यग्दर्शनरूपा तो ददतीति बोधिहालेभ्यः तथा धर्म-दतीति धर्मदास्तेभ्यः कथं धर्म इत्याह-धर्मदितीति धर्मदेशकास्तेभ्यः तथा धर्मस्वनायकाः- स्वामिनीकरणभावात् तम्फलपरिभोगाच्य धर्मनायकाः तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव सम्यक प्रवर्त्तनयोगेन धर्मसारथपस्तेभ्यः तथा धर्म एप परं प्रधानं चतुरन्तहेतुत्वात् चतुरन्तं चक्रमिव चतुरन्तचक्रं तेन यतुं शीलं येषां ते तथा तेभ्यः तथा अति-तिथला परेप्रधाने शानदर्शने परस्तीति अप्रतिहतवर ज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, तथा छादयन्तीति छद्मपातिकर्म व्यावृत्तम्येभ्यस्ते व्या वृत्तच्छ्द्मानस्तेभ्यः, तथा रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपस
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घातिकर्मशत्रून स्वयं जितवन्तोऽन्यांश्च जापयन्तीति जिनाः जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः तथा भवा स्वयं ततोऽन्बोध तारयन्तीति तीर्णास्तारकास्तेभ्यः तथा केवलवेदसा अवगततस्त्वा बुद्धा श्रन्याँश्च बोधयन्तीति योधाभ्यः कृतकृत्या निता निमावस्तेभ्योऽन्यच मोचयन्तीति मोचकास्तेभ्यः सर्वज्ञेभ्यः दर्शिभ्यः शिवं सरहितत्वात् अलं स्वाभावि प्रायोगिक पापोहान् रुजं शरीरमनसोरभावे माधिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं केवलात्मनाऽनन्तत्वात् श्रक्षयं विनाशकारणाभावात् अन्यावार्थ केनापि वाधयितुमशक्यमानमात्रावृति निष्ठितार्था भवत्यस्यामिति सिद्धि:- सोकान्नला सैय गम्यमानन्यात् गतिः सिदिगतिरेव नामधेयं यस्य तत् सिद्धिगनिनामधेयं तिष्ठत्यस्मिन् इति स्थानं-यवहारतः सिद्धि नियती पथावस्थितं स्वस्वरूप स्था मख्यानिनोरमेदोपचारात् तत् सिद्विगतिनामधेयं स्थानं तत्संप्राप्तेभ्यः एवं प्रणिपात मस इति चन्दने ताः प्रतिमाधिना प्रस येन नमस्करोति पादयोत्ये अभि दधति-विरतिमतामेव येषां तथा म्युपगमपुरस्सरका सांसदेरिति यन्दते सामान्येन ममस्करोति आशय वृद्धेरभ्युत्थाननमस्कारेणेति तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति श्रत ऊर्ध्वं सूत्रं सुगमं केवलं भूयान् विधिविषयो वाचनाभेद इति यथायस्थितवाचनाप्रदर्शनार्थं विधिमात्र मुपदर्श्यते - तदनन्तरं
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(१९३४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सुरियान
लोमहस्तकेन देवच्छन्दकं प्रमार्जयति पानीयधारया श्रभ्युशतिः अभिमुनितरं गोशीनन्दनेन पञ्चालित ददाति ततः पुष्पारोहणादि धूपद करोति तदनन्तरं विदेशमा उदकधाराभ्राचन्दनपञ्चाङ्गुलिन लदान पुष्प ओपचारधूपदानादि करोति, ततः सिद्धायतनदक्षिणद्वारे समागत्य लोमहस्तकं गृहीत्वा तेन द्वारशाखे शालिभञ्जिकास्पालरूपाणि च प्र मार्जयति तत उनकधाराऽभ्युक्षणं गोशीचन्दनपुष्याद्यारोहणं धूपदानं करोति । ततो दक्षिणद्वारेण निगेल्य] दाक्षियात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभाग लामइस्तकेन प्रमापदकधाराभ्यां चन्दनपतिप्रदानपुष्पपुञ्जोपचार धूपदानादि करोति कृत्या
मागत्य पूर्ववत् द्वारार्वनिकां करोति कृत्वा च तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्तरस्यां स्तम्भ समाग पूर्ववत्तदनिकां विधत्ते, इह यस्यां दिशि सिद्धायतनादिद्वारं तवेतरस्य मुखमण्डपस्य स्तम्भपक्तिः ततस्तस्य दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्थ पूर्वद्वारे समागत्यं तत्पुंजां करोति कृत्या तस्य दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य दक्षि द्वारे समागत्य पूर्ववत्पूजां विधाय तेन द्वारेण विनिर्गप्रेक्षामण्डपस्य बहुमध्यदेशमागे समागत्यापा मणिपीठिकां सिंहासनं च लोमहस्तकेन प्रमाज्योदकधारया चन्दनचचपुष्पपूजापदानानि कृत्या स्येव प्रेक्षामण्डपस्य क्रमेण पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणद्वाराणामर्थनि कां कृत्या दक्षिणद्वारेण विनिर्गत्य चैत्यस्तूपं मणिपीडि च लोमहस्तकेन प्रमादकधारयाऽभ्युदय सरसन गोशीचन्दननातलं दस्या पुष्पाधारोह विधाय धूपं ददाति ततो यत्र पाश्चात्या मणिपीठिका तत्रागच्छ ति लोके प्रणामं करोति कृत्या लोमस्तकेन प्रमार्जनं सुरभिगम्धोदकेन स्नानं सरसेन गोश गधाले देवदृष्य युगल परिधानं पुष्याचारोह पुरतः पुष्पखोपचारं धूपदानं पुरतो दिव्यदुवेरलाखनमष्टोत्तरशतवृत्तैः स्तुतिं प्रणिपातदण्डकपाठं च कृत्या बन्दते नमस्यति तत एवमेव क्रमेण उत्तरपूर्वमा नामध्यमिक कृत्या दक्षिणद्वारे नित्थिदशिवस्व दिशि यत्र चैत्यवृक्षः तत्र समागत्य चैत्यवृक्षस्य द्वारषदनिकां करोति, ततो महेन्द्रध्वजस्य ततो यत्र दाक्षिणात्या नन्दा पुष्करिणी तत्र समागच्छति, समागत्य तो रसोपानपतिरूपकमनशालकायापोमस्तकेन प्रमार्जनं जलधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचच पुपायारोह धूपदानं च कृत्वा सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणत्योत्तरस्यां नारियां समागत्य पूर्वया अनिक करोति तत उत्तरा महेन्द्रध्वजे तदनन्तरमुत्तराहे चैत्यवृक्षे तत उत्तराहे चैत्यस्तूपे ततः पश्चिमोत्तर पूर्वदक्षिणजनप्रतिमानां पूर्ववत् पूजां विधायोचरादे प्रेक्षागृह मण्डये समागच्छति, तत्र दाक्षिणात्यप्रेक्षागृहमवत् सर्वा वक्तव्यता वक्लव्या, ततो दक्षिणस्तम्भपङ्क्त्या विनिर्गत्योसराहे मुखमण्डपे समागच्छति तथापि दाक्षिणात्यमुखमवत्सर्वे पश्चिमोत्तरपूर्वद्वारमेण कृत्वा दक्षिणस्तमत्या विनिर्गत्य सिद्धायतनस्योत्तरद्वारे समागन्य पूर्वक
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सूरियाम
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दनिकां कृत्वा पूर्वद्वारेण समागच्छति तत्रार्चनिकां पूयत् कृत्या पूर्वस्य मुखमण्डपस्य दक्षिणारे पश्चिमपोतरपूर्व विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्व प्रेक्षागृह मण्डपे समागत्य पूर्ववत् द्वारमध्यभागदक्षिणद्वारपश्चिमलम्भपङ्क्त्योत्तरपूर्वपूर्ववद वर्तिकां करोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनमतिमा चैत्यवृक्ष महेन्द्रयजनन्दापुष्करिणीनां ततः सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण प्रविशति वेश्य यत्रेय मणिपीडि का सत्रागच्छति, आलोके व जनप्रतिमानां प्रणामं क राति कृत्वा यत्र माणकचैत्यस्तम्भो यत्र वज्रमया गोलवृत्ताः समुद्गकाः तत्रागत्य समुद्गकान् गृह्णाति गृहीत्वा विघाटयति विद्याट्य च लोमस्तकं परामृश्य तेन प्रमाज्योंदकधारया श्रभ्युदय गोशीर्षचन्दनेनानु लिम्पति, ततः प्रधानैर्गन्धमाल्यैरर्चयति धूपं दहति तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमयेषु गोलवृत्तसमुद्रकेषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तान् वज्रमयान् गोलवृत्तसमुद्गकान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणानि चारोपयति तो लोमह स्तनमा यस्त प्रमाज्यों एकधाराऽभ्यन्दनत्र पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति कृत्वा च सिंहासनप्रदेशे समागत्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य च लोमस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्वयदनिकां करोति हत्या यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागस्य मणिपीठिकाया देवशनीयस्य त्र द्वारवदर्चनिकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्लकेन्द्रध्वजे पूजां करोति, ततो यत्र चोपालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहस्तकेन परिघरत्नप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति प्रमाज्यदकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, ततः सभायाः सुधर्माया बहुमध्य देशभागेऽर्चनिकां पूर्ववत् करोति कृत्या सुधर्मायाः सभाया दक्षिणद्वारे स भागत्य तस्य चर्चनिकां पूर्वयत् कुरुते ततो दक्षिणरेण विनिर्गच्छति इस ऊर्ध्व यथैव सिद्धायतनान्निष्क्रामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशतः उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता त 'तो द्वितीयद्वाराष्किामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वमन्दापुष्करि पर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्यता सैव सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वलण्या ततः पूर्वनन्दापुष्करि राया अनिकां कृत्वा उपपातसभां पूर्वद्वारेण प्रविशति प्र विश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुम
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( ११३६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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सूरियाम
मेरा पूर्ववदनिकां करोति, तत्रापि क्रमेण सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वाराऽऽदिका पूर्वनन्दापुष्करणीपर्यवसानाऽर्थनिका यलय्या ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकररनं लोमहस्तकेन पदकधारवा अभ्युश्य चन्दनेन वर्चस्वाव रगन्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं व करो । तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशमागस्य व क्रमेण पूर्ववदनि करोति तदनन्तरमन्त्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्य साना अनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो यलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागवत् अनिक करोति कृत्या चाभियोगिकदेवान् शब्दापयति शब्दापयि त्वा एवमवादीत् खिप्पामेत्रे' त्यादि सुगमं यावत् 'तमाणतियं पश्चप्पियंति' नवरं शृङ्गाटकं शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोण स्थानं त्रि-पत्र मिलति चतुष्कं चतुर्मुखं-यचतुष्पथयुक्तं चत्वरं - बहुरथ्यापातस्थानं, स्माच्चतसृष्वपि दिपस्थानो निस्सरन्ति महापथोराजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राकारः प्रतीतः, अहालिकाः प्राकारस्योपरि नृत्याश्रयविशेषा, परिका-अष्टदस्तप्रमाणो नगराकारान्तगलमार्गः द्वाराणि - प्रासा दादीनां गोपुराणि - प्राकारद्वाराणि तोरणानि द्वारादिसम्बन्धीनि आरमन्ते यत्र माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यावित्यसाचारामः पुष्पादिमय वृक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं, सामान्यपुरवृन्दनगरास काम न गरविप्रकृष्टं वनम् एका नेकजातीय समवृक्षसमूहो - नखण्डः, एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी, तर मित्यादि ततः सूर्यामदेव बलिगी
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करो ति, कृत्या चोत्तरपूर्वानन्दापुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूतोरणेनानुप्रविशति अनुप्रविश्य व इस्तो पदमा लपति प्राप नन्दापुष्करिण्याः प्रत्ययती सामानिकादिपरिवारसहितः सर्पदर्या पाय दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण सूर्याभविमाने मध्यं मध्येन समागच्छन् यत्र सुधर्मा सभा तत्रागत्य तां पूर्वद्वारण प्रवेनि प्रविश्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निपीति ।
देशभागे प्राग्यदनिकां विदधाति ततो दक्षिणद्वारे स मागत्य तस्यार्धनिकां कुरुते, अत ऊर्ध्वमत्रापि सिद्धायतयत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दपुरकरिणीपर्यवसानार्थनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य हृद समागत्य पूर्ववत् तोरणार्चनिकां करोति, कृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकसति प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्था निषेकमाएर बहुमध्यदेशभागस्य च पूर्वदति करोति ततोऽन्यत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वन न्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्लव्यता, ततः पूर्वनन्दापुकरिणीतः पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसमां प्रविशति प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च ऋ
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तए णं तरस सूरियाभस्स देवस्स अवरुतरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं दिसि भाए गं चनारि य सामाणियसाहस्सीओ चउसु भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति, तए गं तस्स पुरत्थिमिल्लेणं चत्तारि अग्गमहिसीओ चउसु भद्दाससु निसीयंति तए गं दाहिणपुर स्थिमेणं अभितरियपरिसाए
देव साहसीओ असु भद्दास साहस्सीसु निसीयंति, तए गं तस्स सूरियाभस्स देवस्स दाहिणेणं मज्झिमाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ दससु मदास साहस्सीसु निसीयं
तप यं दाणिपचरिथमे बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीतो वारससु मद्दामणस, इस्सीसु निसीयंति, तर णं देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवइणो सत्तहिं भद्दासहंसीति तं तस्म सूरियाभस्त देवस्य चउद्दि
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( ११३७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सूरियाभ
सिं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सी सोलसहि भद्दासणसाइस्सीहिं विमीयंति तं जहा - पुरथिमिल्लेणं चत्तारि साहसी दाहिणं चत्तारि साहस्सीओ पच्चत्थिमेणं चारि साहसीओ उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीचो aणं श्रयखखा सन्नद्धबङ्कवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिगद्धगेविजा बद्धश्राविद्धविमलवरचिंधपङ्कगहियाउहपहरणा तिणयाणि तिसंधियाई वयरामयाई कोडीणि धरणूई पगिज्झ पडियाइrisकलावा नीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो दंडपाणिणो | खग्गपाणिणो पासपारिणो नीलपीयरत्तचावचारुचम्मदंडखग्गपासधारा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समय वियो किंकरभूया चिति । ( सू० ४५ )
ततः प्रागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण सामानिकादय उपविशन्ति, 'ते श्रारखा' इत्यादि ते श्रात्मरक्षाः सन्नद्धवजबर्मितकथच्चा उत्पीडितशरासनपट्टिका: पिनडवेया ग्रैवेयकाभरणाः श्रविद्धविमलवर चिह्न पट्टा गृहीताऽऽयुधप्रहरणानितानि श्रादिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि श्रादिमध्यावसानेषु संधिभावात् वज्रमयकोटीनि धनूंषि अभिगृा 'परियाइयकंडकलावा' इति पर्यात्तकाएडकलापा विचित्रका एडकलापयोगात्, केऽपि नीलपा - लिगो' इति नीलः काण्डकलाप इति गम्यते पाणी येषां ते नीलपाणयः, पतिपाणयो रक्ताण्यः चापं पाणी येषां ते चापपायः चारुः - प्रहरणविशेषः पाणी येषां ते स्वरुपाण्यः चर्म अङ्गुष्ठ । गुल्योराच्छादनरूपं पाणी येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाण्यः खड्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेव व्याचष्टे - यथायोगं नीलपीतरक्तचापचारुचर्मदण्डखड्गपाशधरा आत्मरक्षाः रक्षामुपगच्छन्ति तदेकचित्ततया तत्पराय
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वर्त्तन्ते इति रक्षोपगाः गुप्ता न स्वामिभेदकारिणः, तथा गुप्ता पराप्रवेश्या पालिः सेतुर्येषां ते गुप्तपालिकाः, तथा युक्ताः- सेवकगुणोपेततया उचितास्तथा युक्ताः- परस्परसंबड़ा नतु बृहदन्तरा पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, समयतःआचारतः श्राचारेणेत्यर्थः, विनयतश्च किंकरभूता इव निष्ठन्ति न खलु ते किंकरा, किन्तु तेऽपि मान्याः, तेषामपि पृथगासननिपातनात्, केवलं ने तदानीं निजाचारपरिपालनतां विनीतत्वेन च तथाभूता इव तिष्ठन्ति तम उक्तं किंकर भूता इवेति, 'तेहि उहिं सामाणियसाहस्सीहिं इत्यादि सुगम, यावत् 'दिव्वाई भोगभोगाई भुजमासे विहरति' इति ।
सूरिया गं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पणता ?, गोयमा ! चत्तारि पलिश्रीमाई ठिती पपत्ता, सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववगाणं | देवाjaasi कालं ठिती पम्पत्ता?, गोयमा ! चत्तारि पलिमाई ठिनी पम्मना, महिड्डीए महज्जुतीए महवले
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सूरियाभ
महाजसे महासोक्खे महाणुभागे सूरियाभे देवे, अहो गं रिया देवे महिड्डी ए ० जाब महाणुभागे । (०४६) ( सूर्याभदेवस्य दिव्या देवर्द्धिः कथं प्राप्तेति 'पएस ' श दे पञ्चमभागे उक्ला 1 )
भंते! सूरिया देवे ताओ देवलगाओ आउक्खएग भक्खणं ठितिक्खणं अतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति कर्हि उववजिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाई इमाईलाई भवंति अड्डाई दित्ताई वित्थिष्मविउलाई भवणसथग्णास जाणवाहणेहिं बहुजातरूवरयगाई श्रायपयोगं संपउनाई वित्थडियपउरभत्तपाणाई बहुदासीदासगोमहिसगवलेगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूयाई तत्थ अन्नयरे सुकुमाले पुत्तत्ताए पच्चाइस्सर तए णं तंसि दारगंसि गभगमि चैव समासि अम्मापिऊणं धम्मे दढपणा भविस्सइ । तए गं तस्य दारगस्स माया नवएदं मासां बहुपडिमा अद्धमाणाणं राइंदियाणं विज्ञकंताणं सुकुमालपाणिपायं श्रहीणपडिपुष्पंचिंदियमरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माण पमाण पडिपुष्पसुजायमव्यंगसुंदरंगं ससिसोमाकारं तं पिये दंसणं सुरूवं दारयं पयाहिसित णं तस्स दारगस्स अम्मापयते पढमे दिवस ठियवडिये करिस्संति, ततिए दिवसे चंदमूरमणियं क - रिस्संति छट्ठे दिवसे जागरियं जागरिस्संति एकारसमे दिवसे विकते संपत्ते चारसमे दिवसे निव्वते सुइजाइकम्मकरणे चोक्खे संमज्जितोवलित्ते विउलं अम पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेसंति २त्ता मित्तगायनियगसयण संबंधिपरिजणं आमंतिस्संति आमंतेत्ता तो पच्छा " जाव अलंकितसरीरा भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासवरगया ते णं मित्तनाइनियगमयण संबंधि सद्धिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा वासाएमा या परिभुंजे माणा परिभाएमाणा एवं च णं विहरिस्संति । जिभि
भुत्तरागयात्रियणं समाणा आयंतो चोक्खा परिस्तुतिभूयान मित्तनाइ ० जाव परिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालङ्कारेणं सकारिस्संति तस्सेव मित्त जाव परिजास्स पुरतो एवं वदिस्संति जम्हा गं देवाप्पिया म्हं इमंसि दारगंसि
भगसि चैव समासि धम्मे दढा पतिष्ठा जाया णं होऊणं श्रम्ह एस दारंगे दडपइसे गामेणं । तए णं तस्स दहपइम्स्स दारगस्स श्रम्मापियरो नामधे करिस्संति दपइमो य । तते गं तस्स दस्म अम्मापियरो अणुपुब्विणं ठिइवडियं चंदसूरदरिम च जागरियं नामधे करणं परं गमणं च पंचमणं च पञ्चकखाणगं च जमे च पिडबद्धा च पजपमागं च कम्मवेहगागं च वच्त्ररपडिले गागं न चूलाब
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सूनियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
सूरियाभ रायणं उबणयणं च अम्मासि य बहणि य गम्भादाणज- रगं लोहाइयाओ गणिप्पहाणाम्रो सउणरुतपञ्जवसीणाओं म्मणमाइयाणं कोउयाई महया इसिक्कारसमदएणं करि- वायत्तरि कलाओ सुत्तो य अत्थो य करणो य मिम्संति, तते णं से दढपति दारए पंचधाइपरिक्खित्ते, क्खोवत्ता सहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ,तते णं तस्स दतं जहा-खीरधातीए मजणधातीए मंडणधाईए अंक- पइलस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विउलेणं धातीए कीलावणधाईए अन्नाहि य बहहिं खजाहिं चि- असणणंजाव वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारिस्संति सम्मालाइयाहिं वामणियाहि वमेभियाहि वत्थारियाहि पउमि-: णिस्संति वन्थगंधमल्ल लंकारेणं सक्कारित्ता समाणित्ता वियाई जोयणयाहि परहवियाहिं ईसिणियाहिं वारुणियाहिं! उलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति विउलं जीविलामियाहिं लउसियाहिं देमलीहिं सिंहलीहिं आरवीहिं पु- यारिहं पीइदाणं दलइत्ता पडिविसओहिति तते णं से दहलिंदीहि पजणाहि मरुडीहिं सवराहिं पारसीहिं नाणादे- पातम्म दारग उम्मुक
पतिम्ले दारगे उम्मुक्कवालभावे विणयपरिणयमत्ते जोब्बमीकि विटेयररिया मोरया सागमणुपत्ते वाबत्तरिकलापंडिते अद्रारमविहंदसिप्पगारवितियपत्थियवियाणियाहि निउणकमलीहिं विणीयाहिं म
भामाविमारते नवंगसोतोपडिबाहिए गीयरती गंधब्बलट्ट चडियाचकवालवरतरुणीवंदपरियालं परिवडे बरिस- कुसलेहि सिंगारचारुरूव संगयगयहसियभणियचट्टियविधरकंचुइजमहत्तरगविंदपरिक्खिते हत्यामो हत्थं साह
लाससलावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोहि चाहुहि रिजमाणे २ अंकामो अंकं परिभंजमाणे २ उबनविज- गयजाही बाहुप्पमही अलं भोगसामथसाहसिए वियालमाणे २ उवागाइजमाणे २ उबलालिञ्जमाणे २ उवगृहिज- .
चारी यावि भविस्मति । तए ण तं ददप दारंग अमासे २ प्रत्यासिजमाणे २ परिवंदिजमाये २ परिकच
म्मापियारो उम्मुकबालभावं जाब वियालचारगं बियाणिविजमाणे २ रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगमाणा २
त्ता विउलेहिं अन्नाभोगेहिं पाणभोगेहिं लेणभोगहिं गिरकंदरमलीसे चित्र चंपगवरपायवे निवाघायं मुहं
वत्थभोगेहिं सपण भोगेहि उवनितेहिं तते णं से दडपड़ाम
दारए तेहिं विपुलेहिं अन्नभोगेहिं जाब सयणभांगेहिं नो मुहणं परिवटिस्सह तए णं दढपइमं दारगं अ-. म्मापियरो साइरेगअहवासं जोयगं जाणित्ता सोभ
सज्जिहिति नो रजिहिति नो गिझिहिति नो मुज्झिहिति कसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुर्तसि एहायं कयव--
नो अब्भोववज्झिहिति से जहानामए उप्पलेइ वा पउमेति निकम्मे कयकोउयमंगलं पायच्छितं सब्बालंकारभू
वा जाव सहस्सपत्नइ वा पंके जाए जले संवुड नो विलिप्पइ भियं करेता महया इड्रिमकारसमुदएणं कलायरियस्स उ
पंकरएणं नो विलिप्पड़ जलरएणं, एवामेव दढपहम्म वि वणेस्संनि । तते णं से कलायरिए तं दढपएणदारमेहिं
दारंग कामेहिं जाए भोगेहिं वहिने ना विलिप्पहिइ कामरए. तियाओ गणितप्पहाणामो सउणरुतपञ्जवमाणाओ वा
ण नो बिलिप्पहिइ भोगरएण नो विलप्पहिइ मित्तनाइनिवत्तरिकलाओ सुत्ततो य अत्थो य करणो सिक्खा
यगसपणसंबंधिपरिजणण से ण तहारूवाणं थेराणं अंतिए धेहिइ सहावेहिइ, तं जहा-लेहं गणियं संनट्टीयवाइयं
केवलं बोहिं बुझिहिति केवलं मुंडे भवित्ता भगारी सरगयं पुक्खरगयं ममतालं जूयं जणवायं पामगं अट्ठावयं
। अणगारियं पव्वतिस्सति से ण अणगारं भविस्मति इरिपारेवच्चं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेव
याममिए जाव सुहुयहुयासणे इव तेयसा जलते तस्म सविहिं लयणविहिं सयणविहिं अजं पहेलियं मागहियं गा
। णं भगवो अणुत्तरेणं नाणेणं एवं दंसणेण चरित्तेणं हागाइयं सिल गं हिरम्पत्ति सवस्मजति आभरण विहिं आलएणं बिहारण अज्जवण मद्दवेणं लाघवेणं खतरूणीपडिकम्मं इथिलक्षणं पुरिसलक्खणं हय- तोए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेण सव्वं संजमतवसलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्षणं कुकुडलक्खणं छत्त- चरियफलनिवाण मग्गेणं अप्पाणं भावेमारणस्म अलक्खणं दंडलक्खणं अमिलक्खणं मणिलक्खणं का- गते अणुत्तरे निवाघाण निरावरणे कसिखे पडिगिणिलक्खणं बकुविजंतगरमाणं वेधारमाणं वारपडि- पुम्मे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जिहिति तए ण से बारवृहपडिवृहं चकवृहं गरुडवृहं सगडवृहं जुद्धं निजुद्धं भगवं अरहा केवली जिणे भविस्सइ सदेवमणुमाअसिजुद्धं मुद्विजुद्धं बाहजुद्धं लयाजुद्रं जुइजुद्धं छरुप्पवायं सुरस्स लोगस्स परियागं जाणिहिति पासिहिति , तं धोख्य हिरमपागं सुबमपागं मणिपागं धाउपागं सुत्त- जहा-आगतिगतिवित्तिचवणं उपवायतकं पच्छाकम्म खडं बट्टखेडं नालियाखेडं पत्नच्छेजं कडगच्छेजं सजीव- पुरेकडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं कडं परिसेवि प्रानिजीवस उग रुयमिति । तए णं से कलायरित दढपम दा- विकम्मं रहोकम्मं अरहा अरहस्स भागी तं तं का
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सूरियाभ अभिधानराजेन्द्रः।
मुलपाणि लं मणोषयकायजोंग बट्टमाणाणं सचलोए सच- अशोककणवीरबन्धुजीवाः समानीताः सन्ति,वृनो च प्रतीता जीवाणं सब भाव जाणमाणे पासमाणे विहरि
इति व्याख्यातं ते वृक्षाः के ?, किं च पुष्पादिकं तेषां पश्च
घराणं भवतीति प्रश्नः; अत्रोत्तरम्-अशोकादयो वृक्षा जीवाम्सइ । तए णं मे दढपइएणे केवली एयारूवेणं विहा
भिगमवृत्यादिषु पञ्चवरार्णा व्याख्याताः सन्ति न तु तत्पुरंणं विहरमाणे बहुहिं वासाइं केवलपरिश्रायं पा- शादीनि, तेन तान्यपि तदनुसारेण शेयानीति ॥ ३४७ ॥ उणिहिति पाउणित्ता अप्पणो उससं आभोएइ अ- सेन० ३ उल्ला। प्पणा आउससं आभोएता बहूई भत्ताई पच्चक्खा- मूरियावत्त--सूर्यावर्त पुं०। सूर्य उपलक्षणमेतच्चन्द्रनक्षत्रताइस्सइ पच्चक्खाइत्ता बहूहिं भत्ताई असणाए छइस्सइ
रकाश्च प्रतिक्षणमावर्त्तन्ते यस्य स सूर्यावर्तः । मेरुपर्वने,
सू० प्र०५ पाहु । स० । जं० । चं० प्र० । चतुर्थदेवलोकस्थे बहूहिं छेइत्ता जस्सद्वाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अ
विमानभेदे, स०५ सम। एहाणए अदंतधावणत्ते केसलोचे बंभवरवासे अत्थत्त
मूरियावरण--सूर्यावरण--पुं० । सूर्यैरुपलक्षणमतश्चन्द्रनक्षत्रतागं अणुवाहणगं भूमिसिज्जातो फलहसेज्जायरघरपवे-। रकाभिश्च समन्ततः परिभ्रमणशीलैरावियते श्रावेष्टयते इति सो लद्धावलद्धाई माणायमाणाई परेहिं हीलणाओ निं- सूर्यावरणः । मेरुपर्वते, चं० प्र०५ पाहु० । सू० प्र० । दणातो खिसणाओ गरहणामी तज्जणामो तालणाओ : मूरिलि-मूरिलि-पुं० । वनस्पतिविशेषे, जं० १ वक्षः परितावणाश्रो पछ्यहणाओ उच्चावयविरूवरूवा बावीसप- सूरीकंता-शरीकान्ता-स्त्री० । स्वनामण्यातायां पुरुषवधकारीसहोबसग्गा गामकंटका अहियासिज्जंति तमटुं पारा- रिकायाम् , तं०। हइ २ हित्ता चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झिहिति चु- सूरुग्गमणमुहुत्त--सूर्योद्मनमुहर्त--पुं० । उदयोपेते मुहूर्ने, जं० ज्झिहिति मुस्चिहिर परिनिवाहिइ सव्वदुक्खाणं अं- यक्षः। तं कहिइ ।
सूरोगमणपविभत्ति--सूर्योद्मनाविभक्रि--न। नाट्यविधान
। भेदे, रा०। सुखं सुखन परिवर्धिष्यते अर्थत इति व्याख्यानमलङ्करणतः प्रयोगतः ‘सेहायर सेधयिष्यति निष्पादयिष्यतिशिया- सूरोदय-सूर्योदय--पुं० । प्रथमायां पौरुष्याम् , श्रा० म० १ पयिष्यत्यभ्यासं करिष्यनिनयसोतोपनियोडिय'ति श्र० । भव० । श्रोत्रे द्वे नयने द्वे नासिके एका जिव्हा एका स्वग ए- सूरोदयादि--सूर्योदयादि--त्रि०। सूर्योदय प्रादौ यस्याः सा कं मन इति सुप्तानीव बाल्याव्यनचेतनानि प्रतिबाधि- ' सूर्योदयादिः । सूर्योदयादारभ्येत्यर्थे, पा०म०१०। नानि यौचनेन व्यचेतनावति कृतानि यस्य स तथा mmm.. ..40। सर्यस्य-सर्यविमानस्योपरागो उतञ्च व्यवहारभाध्ये-'सोसाई नब सुत्ताई' इत्यादि प्रटारसबिहदसीपयारभासाविसारए ' अष्टादविधाया--
गहुयिमानतेजसोपरञ्जनं सूर्योपरागः । प्रहणे , स्था० १० टादशभेदाया देशीप्रकाराया विशारदो-विचक्षणः तथा गी- डा० ३ उ० । उता
- डा० ३ उ० । उत्पत्तिविशेष, भ० ३ शु० ५ उ० । अनु। तरतिस्तथा गन्धर्ये गीते नाट्ये च कशलः हुयन यध्य- मूल-शल-न०1त्रि०। त्रिशूले. प्रश्न०१आश्रद्वार। उत्त। ते इनि हययोधी एवं गजयोधी रथयोधी बाहुयोधी त- एकशूले. औ०। श्रायुधभेदे. जं. ३ वक्षः । सूत्र. । श्रा था बाहुभ्यां प्रमृदनातीनि याहुप्रमी साहसिकत्वात् । थि- म०। प्रश्न रोगभेदे, शा० श्रु०१३ १०। पाका नि० चू। काल चरतीति विकालचार्ग 'सव्यसंजमनयसुचग्यिफल- मलग-पालाय--नाशूलकाम्ने, प्रश्न. ३ आश्रद्वार। नियाणमम्गेर ति सर्वसंयमः सर्वात्मना मनायाक्कायसय- मलपाणि-शलपाणि-पुं०। ईशानदेव नस्य हस्तधृत शूलत्वात् मनं तस्य सुचग्निस्य वाऽऽसंशादिदोषरहितस्थ तपसा यफलं नियांगा नन्मार्गेग, किमुक्नं भवति-सर्वसंयमेन सुच
। प्रज्ञा० २ पद । अस्तिग्रामाभिधानसन्निवशाहिः शूलपाणि
नामकयक्षायतनम । स्था. रितन च तपमा निर्वाणग्रहामनयोनिर्वाणफलन्यस्यागना 'मणोमागसियं ' ति मनसि भयं मानसिकं तच्च दााचद।
तवर्णनमाहवचमाऽपि प्रकटितं भवति तत उच्यत मनसि व्यवस्थि- 'छयस्थकाले यदा किल भगवान् त्रिकचतुष्कचत्वरचतुनं मनोमानसिकं ' खत्य ' नि क्षयिनं-बयं नीम- मुखमहापथादिषु पटुपटहप्रतिरबोद्धोषणापूर्व यथाकाममति भावः । पडिसवियं' ति प्रतिमेवितं ख्यादि अधः पहतसकल जनदारिद्रयमनवच्छिन्नमब्दं यावन्महादानं दस्वा कर्मभूमा निखाने रहः कर्म गुप्तस्थानकृतं परहिहीलगाश्री' सदेवमनुजासुरपरिषदा परिवृतः कुण्डपुराधिनत्य शासनपति हीलनानि सद्भुनासदभूतहीलनजात्याधुच्चायचा- एडबने मार्गशीर्षकृष्णदशम्यामेककः प्रवज्य मनःपर्यायशाननि । परोक्षे जुगुप्साभाषणानि खिमनानि धिमण्डे- मुपाचाटी मासान् विहस्य मयूरकाभिधानसन्निवेशयहिःनत्यादिवाक्यानि नर्जनानि अङ्गुल्या निक्षेपपुरस्सर भ- स्थानां दूयमानाभिधानानां पाखरिडकानां सम्बन्धिन्येकसनानि नानानि कशादिघाताः । रा० । श्रीराज- स्मिन्नुटजे तदनुसया वर्षावासमारभ्य अविधीयमानरक्षप्रश्नीये मर्याभस्य शीघगमननाम्नो थैक्रियधिमान- तया पशुभिरुपयमाणे उटजेऽप्रीतिकं कुर्वाणमाकलय्या स्थान्तभूमिकावनाधिकार पञ्चयगरि रनवर्णनं पञ्चवर्णा कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततो वर्षाणामईमासे गतेs
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सेंटिय
११४०) सूलपाणि
अभिधानराजेन्द्रः। काल एव निर्गत्यास्थिकग्रामाभिधानसनिवेशाद बहिः शू- सुसरवंटा-सुस्वरघण्टा-सी० । सुम्बराभिधानायां घण्टालपाणिनामकयक्षायतने शेष वर्षावाममारेभे, तत्र च यदा मंत्री शूलपाणिर्भगवतः क्षोभणाय झटिति टालिताहाल
सूसव-सुश्रव-पु० । कर्णसुखशब्दे ," सूसो वायरो मा वा; कमट्टाहासं मुश्चन लोकमुलासयामास तदा विनाश्यते स भगवान् देवेनेति भगवदालम्बना जनस्याधृति जनितवान्
निस वा परिअत्तो " श्रा० क०४ अ०। पुनहस्तिपिशाचनागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्तुमशक्नुवन् शि
समास-सोलास-त्रि० । "ऊरसोच्छासे "॥ १॥१५७॥ इति र:कर्णनासादन्तनवाक्षिपृष्ठिवेदनाः प्राकृतपुरुषस्य प्रत्यकं सोच्छासशब्दे ओत ऊन। महाले। उच्छाससहिते, प्रा० । प्रागणापहारप्रघणः सपदि सम्पादितवान् तथापि प्रचण्ड- सहव-सुभग-त्रि०। "अन्सुभगमुशले वा " ||१| ११३ ॥ पवनप्रहनसुरगिरिशिस्त्ररमिषाबिचल झावं बर्द्धमानस्वामि- इति स्वस्य दीर्घः। "ऊत्वे दुर्भग-सुभगे व: " १ । नमवलोक्य धान्तः सन्मसी जिनपतिपादपचवन्दनपुरस्स- १२॥ अनयोरुत्वे गस्य वो भवति । सूहवो । सुभगः । रमाचन-क्षमस्व क्षमाश्रमण ! इति, तथा सिद्धार्थाभि- स्त्रीभिः काम्यमाने , प्रा० १ पाद । धानो व्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव. बभाण च-अरे रे
से-से-देशी-। अव्या प्रस्तुतपरामर्श, जं०१ वक्षः। मागधीशूलपाणे अप्रार्थितप्रार्थक हीनपुण्यचतुर्दशाक ! श्रीन्हीधृति. कीर्तियजित ! दुरन्तप्रान्तलक्षण ! न जानासि सिद्धाथरा
देशीप्रसिद्धो निपातः अथ शब्दाथै, सच वाक्योपपनार्थः । जपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगजीवं जीवितसममशेषसुरासुर
प्रा०मा० । उपन्यासे, उत्त०२ अ० निश्चये, से नूनमिति । नरनिकायनायकानामेनं च भवदपगधं यदि जानाति त्रि
तन्नुनम् । उत्त०२०। से इति मागधदेशीवचनः प्रथमापशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति, श्रुत्वा चासो भीतो
म्तो निर्देशः। श्राचा०२श्रु०१०१०१ उ०। से शब्दद्विगुणतरं क्षमयति स्म, तथा सिद्धार्थश्च तस्य धर्मम
स्तच्छब्दार्थे स च वाफ्यापन्यासार्थः । आचा० १ श्रु० ६ घकथत् , स चोपशान्तो भगवन्तं भक्तिमरनिर्भरमानसो
अ०१ उ० । सूत्रका उत्तः। श्राव। जी० । दशा नि० चू। गीतनृतोपदर्शनपूर्वकमपुजत, लोकश्च चिन्तयाञ्चकार
सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तत्रशब्दार्थे अथशदेवार्यकं विनाश्येदानी देवः क्रीडतीति, स्वामी देशो
ब्दा वा द्रष्टव्यः,सच वाक्योपन्यासार्थः । दशा०४ अ० । नांश्चतुरो यामानतीव तेन परितापितः प्रभातसमये मुहर्त
निर्देशे, दशा०५०। सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दामात्रं निद्राप्रमादमुपगतवान् तत्रावसरे इति । स्था० १० ठा०
थे। अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः, परिप्रश्नार्थो वा, यदा,
अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुचयेषु,
भ०१ श०१ उ० । क्वचिदसावित्यर्थे, क्वचित्तस्येत्यथै,स्था. मूला-शला-श्री० । त्रिशूलिकायाम् ,सूत्र०१थु०५ १० १७०)
१० ठा. ३० भ०नि०चू । औ०।रा। जं० । प्राकृतमूलाइय-शुलाचित-नाशूलपोते. शा० १७०००। त्वात्से इनि बहुवचनार्थः । यथा से इति । जं. १ वक्षः । से मूत्रः । शूलारोपिते,यस्य गुदे प्रोता शूली बदने निर्गच्छति ।
इन्यात्मनिर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्ध्वाऽनेकाकायतत्ववृत्तान्तो दशा०९
ब्रवीमि । प्राचा०१ श्रृ०१०३ उ०।" वदंतदेतदो - शलायित-त्रि० । शूलसदृशे, वाचरितशूलारूपभृकुटितप
साम्भ्यां से-सिमो” ॥ ८ । ३।८१॥ इदंतदेतदित्येतेषां
स्थाने ङस् आमित्येताभ्यां सह यथासंख्यं स-सिमादेशी रिकरत्वात् । बाद श्रु० अ०।
भंवतः । तस्येत्यर्थे,अस्थेत्यर्थे च । से सील । से गुणा । प्रा० । मुलाभिमा-शुलाभित्र-न। मध्यविक्षते, स्था०६०।।
सेअ-सिच-धा। क्षरणे,“सिचेः सिच-सिम्पो" |||१६॥ सूलारोवण--शुलारोपण-नाशूलिंकाप्रोतने,सूत्र०१श्रु०८१०। सिञ्चतेरेतावादशौ भवतः । सिंचाइ । पक्षे। सेबा । प्रा० । मुलि-शूलिन-पुं० । शिवे, पाइ० ना।
सेड्या-सेतिका-स्त्रीकाद्वाभ्यां प्रसूतिभ्यां निष्पन्ने धान्यमानसूलिया-शूलिका-स्त्री० । कीलकविशेषे, प्रश्न० १ पाश्र० विशेष. तं । शा। औ०। स्था० । श्राचा। द्वार।
सेउ-सेत-पुं०। जलोपरिनिबद्धे मार्गविशषे, प्रश्न०१आश्र सब सूप-०। (दालि । सूपे,उपा० १०ासू० प्र०। आचा।
द्वार० । ज०। श्रा००। ग० । स्था० । शा० । जी० । पत्रशाके, सूत्र० १ श्रु०४०२ उ०।
औ। अलिबन्धे , औ०। प्रालबालपास्याम् , शा० १ सूवच्छेअ-सूपच्छेद्य-न० । पत्रशाकच्छदने , सूत्र. १ श्रु०४ श्रु० १ अ०। अ०२ उ.1
सेउगर-सतकर-त्रि । सेतुं मार्गमापगतानां निस्तारणोपायं सूत्रीय-सपनीत-त्रि० । सुष्टपनीते , प्राचा०१४०५० करोति यः स सेतुकरः । स्था० ६ ठा०३ उ० । मार्गप्रदर्शके,
रा। सूत्र० । ज्ञा० । औ० । सबविहिपरिमाण-सूपविधिपरिमाण-न० । दालिप्रकारपरि- मेउक्खेत-सेतुक्षेत्र-न । अरघट्टादिसेक्ये क्षेत्रे आव. ६ माणे,उपा०१० : ('आणंद' शब्द भाग विधिसका अ० । यदरघट्टादिजलेन सिच्यत । ध०२ अधिक सूस-शुष-धा० । शोषणे, "रुयादीनां दीर्घः" ॥८।४।२३६॥ सेंटिय-सटित-न । सेगटने नासिकाशब्दपिरापकरणे , इति धातोः स्वरस्य दीर्घः । मुम्बइ । शुध्यति । प्रा०४पाद ।। विशेप्रज्ञा ।
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( १९४१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सेंधव
सेंधव - सैन्धव - न० । सिन्धुदेशजे लवणे, अश्वे च । पुं० । सूत्र० १ ० ७ श्र० ।
सेखरय- शेखरक- पुं० । शिरोवेष्टने, स्था० ५ ठा० १३० ॥ सेजा - शय्या - स्त्री० । संस्तारके, संथा० । ( एतद्वक्लव्यता 'संधारण' शब्देऽस्मिमेव भागे उक्ला ) ( एवंप्रकाराः शब्दाः 'सिजादि' शब्दप्रकरणे उक्ाः । )
सेडमासव - श्वेतसर्षप - पुं० । श्वेतवर्णे सर्वपभेदे, चत्वारि मचुग्गफलानि मधुतलाः समविषये सकलजगत्प्र सिद्ध एकः श्वेतसर्षपो भवति । ज्यो० १ पाहु० । सेडियम-सेटितक न० मे मा १ प
० १
सेडिया वेतिका श्री० खटिकायाम् आचा० २ चू० १ ० ६ उ० । शुक्लमृत्तिकायाम्, दश० ५ सेडी-सेडी-खां०] लोपमे प्रा० १ पद । सेडीवह- सेडीवह- पुं० । लोमपक्षिभेदे, जी० १ प्रति० । सेडुय-सेटुक- पुं० । कर्पासे, सेडओ कप्पासो रूयं उट्टियं रूपपडले जिसमे पलितं पेलू भाति नि००५४०० कौशाम्बी नगरी वास्तवमा थिये ००४०
3
० १
० ।
( तत्कथानक 'कूणिक' शब्दे तृतीयभागे उक्तम् । ) सेदी-खि श्री की अनु० भ० अलप्रमाणे प्रतर क्षेत्रे यः श्रेणिः-राशिस्तत्र किलासंख्येयानि वर्गमूलानि ति पृन्तीति । अनु० ।
खेत्तम असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजइभागो, तासां से विसंभई अंगुलपदमवग्गमूलं मिअवग्गमूलपडुप्पणणं अहव यं अंगुल विभवम्गमूलघरापमाणमेताओ सेडीओ ।
क्षेषतस्तु प्रतरास कृष्येषभागवत्यं सत्येयधेशीनां ये प्रशास्तत्सङ्ख्यानि भवन्ति । ननु प्रतरासङ्ख्येयभागे असंख्ये या योजनकोपो ऽपि भवन्ति तत्किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभः श्रेयो भवन्ति ता इद्द गृह्यन्ते ?, नेत्याह-' तासि णं सेट वित्यादिकमचिःविस्तरति शेषः कितवा अंगुली त्यादि अप्रतक्षेत्रे यः श्रेणिः शस्त्रकिलासं येयानि वर्गमूलानि तिष्ठन्त्यतः प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्नं-गुणितं तथा च सति यावत्योऽत्र श्रेण्यो लब्धा एतावत्प्रमाणा श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्भवति; पतावस्यः श्रेयोऽत्र गृह्यन्त इत्यर्थः भवति-अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे किलास करना चाधिके ते २५६ श्रेणीनां भवतस्तद्यथा - अत्र प्रथमवर्गमूलं षोडश १६ द्वितीयं चत्वारः चतुः पा चतुःषष्टिरपि सद्भावतोयः यो मन्तव्याः पतावत्संख्या श्रेणीनां कि चिरिह प्राह्मा । ' अहवा ण ' २८६
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मेडी
3
-
मित्यादि समिति वाक्यालङ्कारे अथवा प्रत्येन प्रकारेण प्रस्तुतोऽर्थ उच्यते इत्यर्थः ' अब सि कचित्पाठः स चैवं व्याख्यायते अथवा न पूर्वोक्तः प्रकारोऽपि तु प्रकारान्तरेण प्रस्तुतोऽर्थोऽभिधीयते इति भावः समुदितो वा यशब्दोऽथवाशब्दस्यार्थे वर्तते, तदेव प्रकारान्तरमाह-'अंगुलबीयवग्गमूलधणे' त्यादि, अकुलप्रमाणप्रतरक्षेत्रवर्तिश्रेसिराशेर्यद् द्वितीय वर्गमूलमनन्तरं चतुष्ट्यरूपं दर्शितं तस्य यो घनः - चतुःषष्टिलक्ष रास्तत्प्रमाणाः- तत्संख्याः श्रेण्योऽथ गृहन्त इति प्ररूपी मते अस्तु स एवेतिसपना चतुःषष्टिकपाल सद्भावतोऽयेानांन यः प्रदेशराशिरेतावत्संक्यानि नारकाणां प्राध्यन्त इति । अनु० ।
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वैक्रियाणि
प्रेसिमरूपतायाह
सच सेटीओ पाओ, तं जहा - उज्जुभाययो सेटी एगोयओ बँका दुहतो बंका एगओ खुदा दुइओ सुहा चकवाला भचकवाला (०५८१)
'सती' स्यापि प्रदेश स्वी- सरला सा चासावायना व दीर्घा श्रृज्वायता स्थापना ( - ) 'एमओ बंका ' एकश्यां दिशि वा स्थापना ( ) यो कामयतोका स्थापना (५) 'एगओ खुदा' एकस्यां दाकारा (1) 'दुहओ खुदा' उभयतोऽङ्कुशाकारा ( 36 ) चक्रवाला वलयाहूति: (0) अर्द्धचक्रवाला अर्द्धवलयाकारति (1) एताश्चैकतो याचा लोकपर्यन्तमदेशापेक्षया समायन्ते स्था० ७ डा० ३ उ० ।
9
एगसमइएवं उज्जुभायताए सेडीए उववज्जमाणे चिग्गहे उपचलेला एगो कार सेटीए उपमाणे दुसमइएवं चिग्गहेयं उपपज्जेजा, दुहओ पंकाए सेढी उबवजमाणे तिसमइएवं विग्गहेणं उबव ओज्जा से तेरायं गोषमा ! ०जाब उपबजेजा।
तत्र 'उज्जुश्चाययाए ' ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समयां भवति तदा ज्यायता पि तया च गच्छत एकसामयिकी गतिः स्यादित्यत उच्यते'सममित्यादि या पुनरस्थानादुत्पत्तिथानमेकतरे विधे वर्त्तते तदेकतो वा श्रेणिः स्यात्, समययेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्थादित्य उच्यते-यो कार सेडीए उपजमाने दुसमा बिम्म मित्यादि यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरिसने वातरे विरायां स्यातदा द्विवका श्रेणिः स्यात् समयप्रयेण बोत्पत्तिस्थानाचातिः स्थानिय उच्यते-'दुइओ बंकार' इत्यादि । भ० ३४ श० १ उ० ।
सेदीओ णं भंते ! दव्बट्टयाए किं संखेश्रो श्रसंखेआओ अंताओ ?, गोयमा ! नो संखेश्रो नो असंखेजाओ, अता पाईणपडीयायताओं से तेसेडी
१ भगवती सूत्रे खहा ' शब्द: ।
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( ११४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सेडी
श्रो व्याए किं संखेजाओ एवं चैत्र ३, एवं दाहिणुरायताओ व एवं उड्डमहायताओ वि । लोगागाससेढीओ ं भंते ! दव्या किं संखेजाओ असंखेजाओ ताओ ?, गोयमा ! नो संखे जाओ असंखे जाओ नो अगंताओ, पाईणपडीणायताओ गं भंते ! लोगागाससेढीश्रो दव्वट्टयाए किं संखेआओ एवं चेत्र, एवं दाहिणुत्तरायएवं उड्डमहायताओ वि । अलोयागास से डीओ भंते! व्याए किं संखे जाओ, असंखेजाओ अरांताओ ?, गोमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अताओ । एवं पापडीयाययाओ वि एवं दाहिणुत्तराययाश्रो वि एवं महायता वि । सेढीओ गं भंत ! पएसट्टयाए किं संखेज्जाओ जहा दव्ययाए तहा पएसट्टयाए वि० जाव उमहायया विसव्वा अताओ। लोयागास सेढीओ
भंते! पएसड० किं संखेजाओ पुच्छा गोयमा ! सिय संखे० सिय असं० नो, अताओ, एवं पाईणपडीणायताओ दाहिणुत्तरायताओ व एवं चैवं उड्डमहायताओ विनो संखंजाओ असंखे० नो अंताओ || लोग गासडीओ खं भंते ! पएमट्टयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय संखेजाओ far असंखे सिय अताओ पाईएपडी गाययाओं भंते ! अलोया पुच्छा, गोयमा ! नो संखेजाओ नो असंखेआओ अंताओ एवं दाहिणुत्तरायताओ वि, उड्डमहायताओ पुच्छा, गोयमा ! सिय संखेजाओ सिय असंखेजाओ सिय अताओ । ( मू० ७२८ ) ।
"
'सेढी ' त्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पङ्किमात्रमुच्यते तथाऽपीद्दाकाशप्रदेशपङ्कयः श्रेणयो ग्राह्याः, तत्र श्रेणयोविवक्षित लोकालोकभेदत्वेन सामान्याः १ तथा ता एव पूर्वापरायताः २ दक्षिणोत्तरायताः ३ ऊर्ध्वाधश्रायताः ४ एवं लोक सम्बन्धिन्योऽलोकसम्बधिन्यश्चेति तत्र सामाये श्रेणीप्रश्न श्राश्रोत्ति सामान्याकाशास्तिकायस्य श्रेणीनां विवक्षितत्वादनन्तास्ताः, लोकाकाशश्रेणीप्रश्न त्वसङ्ख्याता एवं ताः श्रसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वाल्लोकाकाशस्य, श्रलोकाकाशश्रेणीप्रश्ने पुनरनन्तास्ताः श्रनन्तप्रदेशात्मकत्वादलोकाकाशस्य । तथा 'लोगागास सेढीओ रंग भंते! पट्टयाए' इत्यादी 'सिय संखेज्जाश्रो सिय अ संखेज्जानो'त्ति श्रस्येयं चूर्णिकारव्याख्या - लोकवृत्तान्निकान्तस्थालोके प्रविष्टस्य दन्तकस्य याः श्रेण्यस्ता द्वित्रादिप्रदेशा श्रपि संभवन्ति तेन ताः सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्य
शेषा असङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्त इति, टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह प्राह - "परिमंडलं जहन्नं भणियं क जुम्मवट्टियं लोए । तिरियाययसेढीग, संखेजपरसिया कि ? ॥ १ ॥ दो दो दिसासु पक्के कओ य विदिसासु ए. कडजुम्मे । पढमपरिमंडलाश्रो, बुई। किर जाव लोगंतो ॥ २ ॥ इत्यक्षिपः परिदारस्तु - " सया पसज्जद, एवं
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सेदी
लोगस्स न परिमंडलया । वट्टालेद्देण तत्रो, बुड्डी कडजुस्मिया जुत्ता ॥ ३ ॥ "
पू०
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एवं च लोकवृत्तपर्यन्तश्रेणयः संख्यातप्रदेशात्मिका भवन्तीति 'नो श्रताओ' ति लोकप्रदेशानामनन्तत्वाभावात् 'उड्डमहायया श्री " नो
0000000
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00000000000 0000000 ०००००
संखेज्जाश्रो श्रसंखेजाओ' ति यतः उ० ००००००००००० द स्तासामुच्छ्रितानामूर्ध्व लोकान्तादधोलोकान्तेऽधोकान्ता दूदूर्ध्वलोकान्ते प्रतिघातोऽतस्ता असंख्यातप्रदेश एवेति या अप्यधोलोककोरातो ब्रह्मलोकतिर्यग्मध्यप्रान्ताद्वोत्तिष्ठन्ते ता अपि न सख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते, अत एव सूत्रवचनादिति । "अलो गागाससेढीश्र णं भंते! पएसडुबाए ' इत्यादि, ' सिय संखेजाश्रो सिय श्रसंखेजाओ' ति यदुक्तं तत्स
प०
लकप्रतरप्रत्यासन्ना ऊर्ध्वाधश्रायता अधोलोकश्रेणीराश्रित्येत्यवसेयं ता हि श्रादिमाः संख्यात प्रदेशास्ततोसंख्यातप्रदेशास्ततः परं त्वनन्तप्रदेशाः तिर्यगायतास्त्वलोक श्रेण्यः प्रदेशतोऽनन्तता एवेति ।
साईयाओ अजयसि० २ अणादीयाओ सपञ्जवसियाश्रो सेडीओ भंते! किं साइयाओ सपञ्जवसियाओ - १, ३ अणादीया अप० ४, १ गोयमा ! नो सादीयाओ सप० नो सादीयाओ अप० णो णादीयाश्रो सप० अणादीयाओ अप० एवं ० जाव उड्ढमहायताओ, लोयागाससे
याओ भंते! किं सादीयाओ सप० पुच्छा, गोयमा ! सादीया सपञ्जवसियाओ नो सादीयाओ अपजवसियाओनो अणादयः सपजव०मो अगादी यात्र अपज० एवं जान उडुमहायताओ । अलोयागाससेढीओ गं भंते ! किं सादीया सप० पुच्छा, गोयमा ! सिय साईयात्रो पञ्जवसियाओ १ सिय साईयाओ अपजवसियाओ २ सियादीया सपञ्जवसियाओ ३ मिय श्राईया अपवसिया ४, पाईणपडीणाययाओ दाहिगुत्तरायताओ य, एवं चेव, नवरं नो सादीयाओ सपञ्जवसियाओ सिय साईयाओ अपजवसियाओ सेसं तं चेत्र, उड्डमहायताओ ० जाव श्रोहियाओ तहेव चउभंगो। सेठीओ णं भंते ! दव्बट्टयाए किं कडजुम्मा तेश्रोयाओ ? जुम्माओ नो कलियोगओ एवं ०जाब उड्डमहायताओ पुच्छा, गोयमा ! कडजुम्माओ नो तेश्रोयाओ नो दावर - लोगागाससेढीओ एवं चेत्र, एवं अलोगागास मेढीओ वि । सेढीओ गं भते ! पएसद्वाए किं कडजुम्माओ पुच्छा एवं चेव एवं ०जाब उड्डमहायताओ। लोगागास सेठी श्रो
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भंते! एसइयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्मा* ओ नो तेश्रोयाओ मिय दावरजुम्माश्रो नो कलियोमात्र १ अत्र दीर्घत्वं चिन्त्यम् ।
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सेढी अभिधानराजेन्द्रः।
सेढी एवं पाईणपडीणायताओ विदाहिणुत्तरायताओ वि । उड- जप्रदेशा वा. तथाहि-असद्भावस्थापनया दक्षिणपूर्वाद्
रुचकप्रदेशात्पूर्वतो यल्लोकश्रेण्य तत्प्रवेशशतमानं भवति महाययाओ णं पुच्छा, गोयमा ! कडजुम्माओ, नो ते
यश्चापरदक्षिणाद् रुचकप्रदेशादपरतो लोकश्रेण्य तदपि प्र. श्रोगाओ नो दावरजुम्माओ नो कलियोगाओ। अलोगा- देशशतमानं, नतश्च शतद्वयस्य चतुष्कापहारे पूर्वापरायतगाससेढीओ णं भंसे ! पएसट्टयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय लोकश्रेण्याः कृतयुग्मता भवति, तथा दक्षिणपूर्वाद् रुचककडजुम्माओ जाब सिय कलिओगाओ,एवं पाईणपडीणा
प्रदेशाइक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत मारभ्य पूर्वतो यलोयताओ वि एवं दाहिणुत्तरायताओ वि, उड्डमहायताओ वि
कश्रेण्य तन्नवनवतिप्रदेशमान, यशापरदक्षिणायता रुच
कप्रदेशाद्दक्षिणो यो ऽन्त्यः प्रदेशस्तत प्रारभ्यापरतो लोएवं चेव, नवरं नो कलिओगाओ सेसं तं चेव । (सू०७२६)
कश्रेण्यर्द्ध तदपि च नवनवतिप्रदेशमानं, ततश्च योनकति णं भंत! सेढीयो परम०, गोयमा सत्त सेढीओ पन्न
बनवत्योर्मीलने चतुष्कापहारे च पूर्वापरायनलोकश्रेण्या ताओ, तं जहा-उजुआयता एगो वंका दुहओ वंका ए- | द्वापरयुग्मता भवति, एवमन्यास्वपि लोकश्रेणीषु भावना गो खहा दुहश्रो खहा चक्कनाला अद्धचक्कवाला। परमा
कार्या, इह चेयं संग्रहगाथा-" तिरियाययाउ काया-य
राउ लोगस्स संखऽसंखा वा सेढीयो कडजुम्मा , उहणुपोग्गलाणं भंते ! किं अणुमेडिं गती पवत्तति विसेदि
महेपाययमसंखा ॥१" इति (तिर्यगायताः कृतयुग्माः गती पवत्तति ?, गोयमा! अणुमेदि गती पवत्तति नो विसे
लोकस्य संख्याता असंख्याता वा । श्रेण्यः कृतयुढिं गती पवत्तति । दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेटिं ग्माः ऊर्ध्वाधायताः असंख्याताः ॥ १ ॥ ) तथा गती पवत्तति विसेढिं गती पवत्तति एवं चेव , एवं जाव
'अलोगामाससेडीओ रण भंते ! प्रएसे ' त्यादी अणंतपएसियाणं खंधाणं । नेरइयाणं मैते ! किं अणुसेटिं
'सिय कडजुम्माओ ' त्ति याः मुलकातर-द्वयसा
मीयात्तिरश्चीनतयोत्थिता याश्च लोकमस्पृशन्त्यः स्थिगती पवत्तति विसेदि गती पवत्तति एवं चव, एवं जात्र
सास्ता वस्तुस्वभावात्कृतयुग्माः, यावत्करपात्-'सिवेमाणियाणं । (सू० ७३०)
य तेश्रोयाओ सिय दावरजुम्माश्रो' ति दृश्य, तत्र च
याः जुलकप्रतरद्वयस्याधस्तनादुपरितनाका प्रतरास्थिता'सढीयो भंते ! किं' साइयाओ' इत्यादिप्रश्नः , इह स्ताख्योजाः, यतः तुझकप्रतरद्वयस्याध उपरि च प्रदेच श्रेणयोऽविशेषितत्वाद्या लोके चालोके च तासां सर्वासा शतो लोकस्य वृद्धिभावेनालोकस्य प्रदेशल पर हानिभा. ग्रहणं, सर्वग्रहणाच्च ता अनादिका अपर्यवसिताश्चेत्येक वादेकैकस्य प्रदेशस्यालोकश्रेणीभ्योऽपगमो भवतीति, एवं एव भङ्गकोऽनुमन्यते शेषभङ्गकत्रयस्य तु प्रतिषेधः । 'लो- तदनन्तराभ्यामुत्थिता द्वापरयुग्माः, 'सिय कलिश्रोगाओ' गागाससेढीश्रो ण' मित्यादौ तु ' साइयाश्रो सपज्जवसि- त्ति तदनन्तराभ्यामेवोस्थिताः कस्योजाः, एवं पुनः पुनयाओ' इत्येको भङ्गका सर्वश्रेणीभेदेष्यनुमन्यते , शेषाणां स्ता एव यथासम्भवं वाच्या इति। 'उहाययाण' मित्यातु निषेधः, लोकाकाशस्य परिमितत्वादिति । अलोंगागा- दि, इह खुलकमतरद्वयमानेन या उस्थिता जीयतास्ताससेढी' त्यादौ 'सिय साइयाओ सपजवसियाओ' त्ति द्वापरयुग्माः तत ऊर्द्धमधश्चैकैकप्रदेशवृद्धपा कृतयुग्माः प्रथमो भङ्गकः तुल्लकप्रतरप्रत्यासत्तौ ऊर्ध्वायतश्रेणीराश्रि- चिकप्रदेशवृद्धयाऽन्यत्र वृद्धयभावेन ज्योजाः, कल्यो. स्थाऽबसेयः, सिय साइयाश्रो अपजवसियाओ'त्ति द्वितीयः, आस्त्विह न संभवन्ति वस्तुस्वभावात् , एतच भूमौ लो. स च लोकान्तादयधेरारभ्य, सर्वतोऽबसेयः 'सिय प्रणाइया- कमालिख्य केदाराकारप्रदेशवृद्धिमन्तं ततः सर्वे भावनीश्रो सपजवसियाओ'त्ति तृतीयः, स च लोकान्नसन्निधौ | यमिति । अथ प्रकारान्तरेण श्रेणीप्ररूपणायाह-'का ण' श्रेणीनामन्तस्य विवक्षणात् , 'सिय अणायाो अपजब- मित्यादि, श्रेणयः-प्रदेशपङ्कयो जीवपुलसचरणविशेविताः सियाओ' त्ति चतुर्थः, स च लोकं परिहत्य याः श्रेणयस्त- तत्र'उज्जुयायत' त्ति ऋजुश्वासावायता चेति ऋज्यायता दपेक्षयति । 'पाईणपडीणाययात्रो' इत्यादौ 'नो साइयाश्रो यया जीवादय ऊर्द्धलाकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यासपज्जवसियाओ' ति अलोके तिर्यकश्रेणीनां सादित्वेऽपि न्तीति, 'एगो वंक' त्ति 'एकत' एकस्यां विशि 'यङ्का' सपर्यवसितावस्याभावान्न प्रथमो भङ्गः, शेषास्तु प्रयः सं- वक्रा यया जीवपुद्रला ऋजु गत्वा वकं कुर्वन्ति श्रेभवन्त्यत एवाह-'सिय साइयाओ' इत्यादि । ' सेढीश्रो एयन्तरेण यान्तीति, स्थापना चैवम्-(-) 'दुहओ वंणं भंते ! दब्बट्ठयाए कि कडजुम्मायो ? ' इत्यादि प्रश्नः, कत्ति यस्यां वारद्वयं वकं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा, :उत्तरं तु-'कडजुम्माओ' त्ति , कथं ?, बस्तुस्वभावात् , यं चोर्ध्वक्षेत्रादानेगदिशोऽधःक्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य एवं सर्वा अपि. यः पुनर्लोकालोकश्रेणीषु प्रदेशातया वि- उत्पद्यते तस्य भवति, तथाहि-प्रथमसमये आग्रेच्याशेणेऽसावुच्यते-तत्र लोगागाससेढीश्रो भंते ! पएस- स्तिर्यग् नैर्ऋत्यां याति ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो ट्ठयाए 'इत्यादी स्यात् कृतयुग्मा अपि स्यात् द्वापरयुग्मा
वायव्यामेवेति, त्रिसमयेयं प्रसनाच्या मध्ये बहिर्वा भइत्येतदेवं भावनीयं-रुचका दारभ्य यत्पूर्व दक्षिणं वा वतीति, एगो खह'त्ति यया जीवः पुनलो वा माज्या लोकाई तदितरेण तुल्यमतः पूर्वापर श्रेणयो दक्षिणोत्तर- घामपार्खादेस्तां प्रविष्टस्तयैव गन्वा पुनस्तवामपाादावुश्रेणयश्च समसंख्यप्रदेशाः, ताश्च काश्चित् कृतयुग्माः का- स्पचते सा एकतः खा, एकस्यां दिशि घामादिपार्श्वलक्षश्चिद् द्वापरयुग्माश्च भवन्ति न पुनरुयोजनदेशाः कल्यो- । लायां खस्य-आकाशस्य लोकनाडीव्यतिरिक्तलक्षणस्य
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सेडी
भावादिति इयं च द्विषिचतुर्थकोपेनाऽपि क्षेत्रविशेषाधि सेति भेदेनोक्शा, स्थापना चयेम् दुछश्रो वह 'त्तिनाया वामपार्श्वदर्नाडीं प्रविश्य तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपार्श्वदौ ययोत्पद्यते सा द्विधा खा नाडिबहिर्भूनयो मालपोई पोराकाशाला स्वादि
विस्थापनाचेयम्-ल-मडलं ततश्च यया मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा
चक्रवाला, सा चैवम्- -श्रद्धवालत्ति चक्रवाला र्द्धरूपा, सा चैवम्- | अनन्तरं श्रेणय उक्ताः, अथता एवाधिकृत्य परमाण्वादिगतिप्रज्ञापनायाह- परमासुपोग्लां मेते इत्यादिति अनुकृता-पूर्वा दिदिभिमुखा तनुखि तद्यथा भवत्येवं गतिः प्रवर्त्तते, 'विसेदि' ति विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणी यंत्र
श्रेणि इदमपि क्रियाविशेषणम् २०२५ १०३ ३० श्रा० म० । जं० । रा० । श्रेणयो भवनपतीनां परिमाणात्रधारसाय द्रष्टव्याः । पं० सं० २ द्वार। जं० नं० । श्र० म० । सम्पति श्रेणिनिकाह नहेगरसा मेडि 'निस एव धनीकृनलोकः सप्तरज्युपमासो दधे पा मातीय प्रदेशेति सावधानत्वानिर्देशस्य एकेकाकाशप्रदेशा शूत्रिः श्रेणिरित्युच्यते । एतेन च यत्र कुत्राप्यविशेषितायाः श्रेणेः सामान्येन ग्रहणं तत्र सर्वत्रास्य घनीकृतलोकस्य संबन्धिनीयमेव सतरज्जुमा एकदे शिकी श्रेणिया । कर्म० ५ कर्म० । क० प्र० । पं० [सं० । अनन्तरे निगमागालेन यद्योजन तेन योजनासंख्येययोजनको फोटयः संवर्तित समचतुरखीकृतलोकस् का श्रेणिः । अनु० । ('किइकम्मर' शब्दे तृतीयभागे ५२० पृष्ठे संयमयः)
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(१९४४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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अथ प्रिरूपणामाद
विभागपलिच्छेया, ठाणंतरकंडए य छट्टाणा | हिड्डा पज्जवसाणे, वड्डी अप्पावहुं जीवा ।। ८३३ ॥
श्रविभागपरिच्छेदप्ररूपणा स्थानान्तरप्ररूपणा कराडकरूपणा षह्रस्थानप्ररूपणा अधः प्ररूपणा पर्यवसानप्ररूपणा वृद्धिप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा जीवप्ररूपणा चामूनि प्रतिद्वाराणि ।
तद्यथा
श्रालावगणयविरहिय-मविरहियं फासणा परूवणया । गणरायसेदिअक्खर मागेअप्पा बहुं समया ॥। ८३४ ॥ आलापकप्ररूपणा गणनाप्ररूपणा विरहितप्ररूपणा अविरूपण धेयपहारप्ररूपणा अपत्यप्ररूपणा समयप्ररूपणा चेति द्वारगाथाद्वयम् । वृ० ३ उ० । सेढियय-श्रेण्यायत- न० । प्रदेशिक श्रेणिरूप प्रायते, भ०
२५ श० ३ उ० ।
सेटिचारण-श्रेणिचारण- पुं० । चतुर्योजनशतोच्छ्रितस्य निपधस्य नीलस्य वा श्रद्वेष्टच्छिन्नां श्रेणिमुपर्यधो वा पादनिक्षेपोक्षेपपूर्वकमुत्तरातर निपुणे चारसमे
६८ द्वार । ग० |
·
सेवितव श्रेणितपस् न० श्रेणिपतिस्तदुपलक्षित । - श्रेणितपः । चतुर्थीदिक्रमेण क्रियमाणे घमासान्ते तपोभेदे, उत्त० ३० अ० । ('अणलण' शब्दे प्रथमभागे ३०३ पृष्ठे दशितमेतत् । )
सेडिसय श्रेणिशत-२० अन्यायतादिप्रधाने शं भ० ३४ श० १ उ० ।
सेण श्येनपुं । पक्षिविशेषे, सूत्र० १ श्रु० २ ० १ उ० । प्रव० | नगरानगरीवास्तव्यस्य वस्तुश्रेष्ठितः स्वनामख्याते पुत्र, ध० २ अधि० । काञ्चीनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि ध० र० ।
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मेण
श्येनश्रेष्ठिकथा देवम्
इह अस्थि पुरी कंची - कंचणचिंच इयचे इह र कलिया । तत्थ य सेणो सिट्टी, कुवलयमाला पिया तस्स ॥ १॥ ताणं तिनि पुत्ता, सिट्ठिगिहे मासखमणपारणए । भिक्खत्थमणुपविट्ठो, कयावि साहू चउन्नाणो ॥ २ ॥ गहिउं सत्तुगाल, सिट्ठी उट्ठेह भक्ति से दाडं । संसत्ता सुमजिएहि, मम न कप्पंति भणइ मुणी ॥ ३ ॥ को पचति तं - मिसिट्टिगा सए मुखी तस्स । तव्यन्नजिए उबर-त कुंभदावण्उचाए ॥ ४ ॥ तो तयनियदहियं मिटोसप तहेब जिए। अह सिट्टी से ढोएइ, मोयगाणं भरियथालं ॥ ५ ॥ सोयगामेण कहिए सभक मुशी चाह जा इह लग्गइ सामर-६ मच्छिया, पिच्छ. नरणु सिट्ठी ॥ ६ ॥ तो सो विडियो पसायद पच्चाह साहुपवरो, जा कम्मयरी मया कले ॥ ७ ॥
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किं तीइ कयमिमं इय पुट्ठे साहू भणेइ जह तुमए । सकुडुंबे वि अमुगे, श्रवराहे तजिया साउ ॥ ८ ॥ तो ती तुम् कर, पिसगुना मोयगा इमे चिड़िया । तह अत्तणो निमित्तं विसरहिया मोयगा दुनि ॥ ६ ॥ तो हावा संगतमा मोगा सीए दिसतात, पंच तथा पत्ता १० ॥ विजयंइड वाले पुरा मोयगाव दुगमेव । सेसा सच्चे सविसा, तो मज्झ इमे न कष्पति ॥ ११ ॥ जर कहवि इमे तुमए, सकुहुंबेणावि भक्खिया हुंता । तो पावेतो मरणं, नमसर धम्मपरिमुको ॥ १२ ॥ तत्तो सेलो पुच्छर, धम्मं पत्तो मुखी उ सट्टा । मग धम्मो न कहि हमसे १३॥ अह मरडे सिट्टी मि पणमिय पुरुछइ धम्मं, एवं से कहर साहू वि ॥ १४ ॥ जहसुरकरी करी अमरे हरी गिरिसु तह धम्मेसु पहाणो, दाणाई चउह जिलधम्मो ॥ १५ ॥ तर वि सुनाइयकमघम्म जलहरसमा तथा प तर विविसि सम्झाश्री जेमिं भणिये ॥ १६ ॥ कम्मम जिभ, संवेद प्रशुसमयमेव उतो अनयरंमिवि जोगे, सज्झामि य विसेले ॥ १७ ॥ बारसविहंमिवितथे, सम्भितंरबाहिरे कुसलविट्ठे । नवि अस्थिनविय होही, सज्झायसमं तयोकम्मं ॥ १८ ॥
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सेण अभिधानराजेन्द्र।।
सणि जो
जिटुसुयविलसियमिण, नायं मे निययनाणेण ॥ ४२ ॥ सज्झारण पसत्थं. माण जाणइ य सवपरमत्थं ।
तत्तो कुविएण मए, जिटुसुश्रो विहणिो सपरिवारो। सज्झाए वर्ल्डतो. खरो खणे जाइ वेरग्गं ॥१६॥
अन्नो वि वसह जो इह, रयणीह तयं हणेमि धुवं ॥ ४३ ॥ उडमह तिरियनरए, जोइसवेमाणिया य सिद्धी य।। संपह तुह सज्झायं, सोउं बुद्धो विमुक्याइरो य । सबो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पच्चक्खो ॥२०॥ तं मज्झ गुरु तो तुह, सनिहाणमिण गिह दिन्नं ॥४४॥ इय सोउं तुट्ठमणो, सेणो सम्म गहित्तु गिहिधम्म । निहिठाएं च कहेउं, खणण अमरो असणी हो। सज्झायभिग्गहजुयं, नमिउ च मुणिं गश्रो सगिई ॥२१॥ लिट्टी वि इमं गोसे, साहइ निवमंतिमाईणं ।। ४५ ।। तो धम्मकम्मनिरप, सज्झायपरे सया वि सिद्धिम्मि । तो विम्हिो नरिंदो, तुट्ठा वरसचिवसयणपमुहजणा । बहियविहवे पसरिय-पुत्तपुत्ताइसंताणे ॥२२॥
पुत्ता उपसंतप्पा, जाया जाया वि धम्मपरा ॥४६॥ बहुयायो बहुयाओ, जहा तहा करगरंति अन्नुभं । जियश्रतं रिऊसेणो, सेणो वि चिरं करेति गिहिधम्म । गलियसिणेहा तव्यय-णाश्रोण लहंति पुत्ता वि॥२३॥ गदिऊण य पव्यजं, पत्ता सासयपयं कमसो ॥४७॥ ते कलहंते दर्छ, सिट्ठी भिन्न करेइ तोते उ।
श्येनः सदैवं स्फुटशुद्धभावः , मग्गंति मूलगेहं, तयाम सिट्ठी पयच्छेद ॥२४॥
स्वाध्यायनिष्ठोऽजनि निष्ठितार्थः । श्रह सो पियाइ वुत्तो, दविणजुयं नियघरं पिपुत्ताण।
विवेकपीयूषमयूखवा , दाउं संपर कह तं, होहिसि तो भणड इय सिटी ॥२५॥
तदत्र सन्तः सततं यतन्नाम् ॥४८॥ जस्स मणालयाले, वहद जिणनाधम्मकप्पतरू।
इति श्येनश्रेष्ठिकथा ।धर०२ अधि० ३ लक्षः। भवणेण धणेण परेणं, वा वि का तस्स किर गणणा ॥२६॥ रा-माह-
नहस्त्यश्वरथपदातिलक्षणे सेनाका सा पुण तं पर पह, संपर भिक्खं भमसु गहियययं ।
१०१८ ०। तह निवसेसु सुसाणे, देवउले सुन्नगेहे वा ॥२७॥ स भगइ हवेसुधीग, इमं पि काहं कमेण नणु सुयणु।।
सेणग-श्येनक-पुं०। पक्षिविशेष, चं०प्र०४ पाहु । सू०प्र०। दंसमि ताव इहलो-इयं पि धम्मप्पभावं ते ॥ २८ ॥ सेनक-पुं० । प्रत्यन्तनगरराजस्य जितशत्रोरमात्यपुत्रे, प्रा. इय धुत्त झत्ति नियमि-त मतिगेहाम गंतु साहेछ। क०४०। प्रा०म०। कूणिकमहाराजस्य पूर्वभवजीवे , सव्यं कुडंबवत्तं, तप्पुरो मग्गइ गिह पि ॥ २६ ॥ श्रा० क०४०। (एतत्कथा ‘णिक ' शब्दें तृतीयभागे मंती वि भण्ड मह गिह-मेगं अस्थि त्ति मुग्गडपविटें। ६२६ पृष्ठे उक्ला।) कित सदोसन कया, वि कोइ निवसेहतं गिराह ॥ ३०॥
गावी चतरकरकसमडे. उत्त० ३०० । जह पुण धम्मपभावे-ण पभविही वंतरोन तुह किंचि ।
हस्त्यश्वरथपदातिसन्नाहखड़गकन्तादिसमुदाये , अनु० । सो तयणु सउणगंठिं, बंधिय पसो गिहे तम्मि ॥३१॥
विशे० । वृ० । श्राव०। श्रा० म०। सम्भवनाथजिनस्य जनिस्सीहियं करेउ, अणुजाणाविय गश्रो गिहस्संतो।
नन्याम् , “ दो चेव सयसहस्सा, सीसाण आसि सम्भपडिकमिऊण य इरियं, एवं च करेइ सज्झायं ॥३२॥
वजिनस्स । अमितवीरियजुयस्स , सेणाए जियारितणयस्स तथाहि
॥१॥" ति०। प्रव०। आव० स्थूलभद्रस्वामिनो भगिन्यागयमेश्रज्ज महामुणि-खंदगसीसाइ साहुचरियाई। म्, आर्यसम्भूतविजयस्यान्तेवासिन्याम् , ति०। प्रा० क० । सुमरंतो कह कुप्पसि, इत्तियमित्ते चरे जीव ! ॥ ३३॥
श्रा००। पिच्छसु पाणविणासे, वि नेव कुप्पंति जे महासत्ता।
सेणाकम्म-सेनाकर्मन--न । सेनायाः सैन्यस्य कर्म-व्यापारः तुझ पुण होणसत्त-स्स बयणमित्ते वि एस खमा ॥ ३४॥
शत्रुसाधनलक्षणः , सेनाविषयं वा कर्म-इतिकर्तव्यतालक्षणं रे जीव ! सुह दुहेसुं, निमित्तमित्तं परो जियाणं ति ।
सेनाकर्म । सैन्यकर्मणि, स्था०६ ठा०३ उ०। सकयफलं भुजंतो, कीस मुहा कुष्पसि परस्स ॥३५॥
सेणावइ-सेनापति-पुं० । सेनायाः पतिः सेनापतिः । प्रा० हा हा मोहविमूढा, विहवे य घरे य मुच्छिया जीवा । निहणंति पुत्तमित्त. भमंति तो चउगइभवम्मि ॥३६॥
म.१०। नृपतिनिरूपितचतुरासन्यनायके,प्रशा०१६ पद।
स्था०। भ० । कल्प० । जी०। ओघ०। श्री० । सकलानीकएवं सो सज्झायं, करेह जा जामिणीइ जामदुगं ।
नायके, प्रश्न०४ श्राश्रद्वार । जं०रा०स०। श्राव० । ता बंतरण सुणिउं, पहिचित्तेण इय भाणियं ॥ ३७॥
औ०। प्रा० म० । सूत्र। अनु० । बा० श्रा० क०। मह भवजलहिम्मि निम-जियस्स पोयाइय तए साहु।
स्था०। प्रव०। सोहं अमरो एयं, गह उवासियं जेण ॥ ३८॥ तो कहर सेणपुट्ठो, स वंतरो भद्द ! एयगेहस्स ।
सेणावइरयण-सेनापतिरत्न-न० । सेनापतिः-सम्यनाथ प्रहमासि पुरा सामी, अहेसि पुत्ता दुवे मज्झ ॥ ३६॥
स एव रत्नम् । उत्कृष्टसेनापतौ , स्था०७ ठा० ३ उ० । तेसु लहू पाइइट्ठो, दिनं सव्वं पि तस्स गिहसार।
सेणावच्च--सेनापत्य-न०। सेनापतिः-सैन्यनायकस्तस्य भावः दाऊण किंपिमए, भिन्नगिहे ठावित्रो जिट्ठो ॥ ४०॥
कर्म वा सेनापत्यम् । सैन्यनायकत्ये, औ० । विगा। जं० । तो काहेउं रायउले, तेण माराविओ अहं सहसा। सेणि--श्रेणि-स्त्री०। पनौ, आचा० १ श्रु०६ अ०३ उ० । लहुभायरं धरावियं, गेहमिणं अप्पणा गहियं ॥ ४१॥ रा०। जंग कुम्भकाराष्टादश प्रकृतयः श्रेणिशब्देनोच्यन्ते । बहुबंधू गुत्तीए, मनो महं इत्थ वंतरो जाओ।
जं०३ वक्षमा० म०।
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सेणिय अभिधानराजेन्द्र:।
सेयंबर सेणिय--श्रेणिक-पुं० । स्वनामख्याते राजगृहनगरराजे, स्था० सेयप्रासंठिइ--श्वेततासंस्थिति-स्त्री० । श्वेततायाः संस्थाने, ४ ठा० ३ उ० । कृणिकस्य पिता श्रेणिकगजः । चं० प्र० ३ पाहु० । स्था० ४ ठा० ३ उ०। श्राव० । उत्त० । राजगृहनगररा- सेयई--श्वेतवी-स्त्री० । सूर्याभपूर्वभवजीवस्य प्रदशिनो राज्ञो जस्य प्रसेनजितः पुत्रे, प्रा० क.१०। अन्त । ( श्रे- नगर्याम् . स्था०८ ठा०३ उ० णिकस्य महाराजस्य सुनन्दापेषणाद्याः पम्यः स्वस्वस्था- सेयंकर-श्रेयस्कर-पुं० । अष्टाशीतिग्रहेषु सन्मपप्रितमे महाने दर्शिताः ।) अयमुत्तरभये महापो नाम तीर्थकरो आहे. चं०प्र०२० पाहु०। भविष्यति । आ० ० ४ ० । अन्त० । ध० र० ।
दो सेयंकरा । (स.) स्था०२ ठा० ३ उ०। विशे० आव०स०। प्रा० म०। प्रव० । श्रा० क० ।। दशा । नि०० भ०। (श्रेणिकजीवो महापद्मस्तत्कथा
सेयंकरअणुप्रोग-श्रेयस्करानुयोग-पुं० । द्रव्यानुयोगभेदे , 'महापउम' शब्दे षष्ठे भागे उक्ला । ) स्थविरस्य आर्य
स्था सेयंकरे'त्ति । इहाप्यकारोऽलाक्षणिकस्तेन सेकार इति शान्तिश्रेणिकस्य शिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण । नं०। ।
तदनुयोगों यथा। से भिक्खू वा इत्यत्र सेशब्दोऽथार्थः,अथसेणी--श्येनी--स्त्री० । परिव्राजकप्रयुक्नाया मयूरविकुर्वणात्मि
शब्दश्व प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमबलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चय
वित्यानन्तर्यार्थः, सेशब्द इति क्वचिदसावित्यर्थः , क्वचित् कायाः प्रतिमन्थिन्यां श्येनविकुर्वणात्मिकायां विद्यायाम् , |
तस्येत्यर्थः, अथवा-सयकार इति श्रेय इत्येतस्य करणं श्रेय नि०१ श्रु० १ वर्ग १ अ०।
स्कारः, श्रेयस उच्चारणमित्यर्थः, तदनुयोगो यथा-'सेयं मे सेम--सैन्य--न० । 'ऐन पत्' ८१४८॥ इत्यादौ वर्तमान
अहिजो अज्झयणमि' त्यत्र सूत्र श्रेयः-अतिशयेन प्रशस्य म्यैत एवम् । सेराणं । प्रा०। हस्त्यश्वरथपदातिवृषभनर्तक- कल्याणमित्यर्थः, अथवा-'सेयकाल अकम बावि भवर' गाथकजनरूपेऽनीके, औ०।
इत्यत्र सेयशब्दो भविष्यदर्थः । स्था० १० ठा० ३ उ० । सेएहग--श्येनक-पुं० । पक्षिविशेषे, उपा०७० । जी।।
सेयंकाल-श्रेयस्काल-पुं०। छान्दसत्वात्सेयंकाल त्ति । आगा. सेत-श्वेत-त्रि० । शुक्ले, प्रज्ञा० १७ पद ।
मिनि काले, भ०५श०५ उ० । अनु। सेतई-श्वेतवी-स्त्री० । स्वनामख्यातायां नगर्याम् , प्रा० म०
सेयंगुली--श्वेताङ्गली--पुं०।भार्याप्रेम्णा चुल्ल्याः भस्मसमाकर्ष.
न श्वेतकराग्रे, पिं०। १०।
सेयंवर--श्वेताम्बर-न० । श्वेतवस्त्रे, श्वेतमम्बरं यस्येति गच्छसेधा-सेधा-स्त्री० । भुजसर्पिणीभेदे, जी० २ प्रति।
वासिनि श्वेतवस्त्रपरिधानकर्त्तरि निर्ग्रन्थसाधौ,पुं०।"संयंबरी सेफ-श्लेष्मन-न० । 'श्लेष्मणि वा' ॥२॥५॥ इति मस्य
यासं-बरो य बुद्धो य अन्ना य । समभावभावियप्पा,लहइ फः । सेफो । कफजे मुखमले, प्रा०२ पाद ।
य मुक्ख न संदेहो॥" नि० चू०। सभण्ड-तद्भाण्ड--न० । तस्य विवाक्षतस्य भाण्ड, भ० ५ निर्ग्रन्थसाधूनां श्वेतवस्त्रमेव, अन्यथा करणे प्रायश्चित्तमनंश०६ उ०।
निशीथसूत्रे चतुर्दशे उद्देशक तथा च तत्सूत्रम्-- समुसी-शेमुषी--स्त्री० । बुद्धौ, प्रा० म० १ ०। प्राचा०। जे भिक्खू नवए मे वत्थे लद्धे त्ति कह तेल्लेण वा घएण सेय--श्रेयस--न । कल्याणे, भ०२ श०१ उ०। स्था। पश्चा। गवणीएण वा वसाए वा मंखेज वा भिलिंगेज वा मंखशोभनतरे, दश०२ अ० । पो० । सूत्र० । अष्ट० । श्रा० । (मक्खं) तं वा भिलिंगतं वा साइजइ ॥ १२ ॥ एवं वृ० । अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तेषु द्वितीयो मुहूर्तः श्रेयान् ।।
लोखूण वा ककेणं वा वनेण वा चुमण वा उल्लोलेज वा जं०७ वक्ष०। पुण्ये आत्महिते, आचा० १ श्रु. ३ अ० ३ उ० । श्रेयस्करे, सूत्र० १ श्रु० ३ ० ३ उ० ।
उच्छालेज वा उल्लोलंतं वा उच्छोलतं वा साइजइ । १३ । औ० । पथ्ये, हिते सेयमित्यत्र " स्नमदामशिरोनभः".
एवं सीतोदगवियडेण वा उसिणो० साइजइ ।। १४ ।। ॥८।१ । ३२॥ इति सूत्रात्पुंस्त्वं न बहुलाधिकारात् । प्रा० । नि० चू० १४ उ०। श्वेत-त्रि०ा शुभ्रे,धवले,औ० । शक्रस्य देवेन्द्रस्य नाट्यानीका.
आचागङ्गऽपिधिपती, स्था०७ ठा० ३ उ० । दाक्षिणात्यानां कुम्भडानामि
से भिक्ख वा भिक्खुणी वा अहसणिजाई वत्थाई जान्द्र, स्था०२ ठा०३ उ०। श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य |
एजा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेजा नो धोएज्जा नीनाट्यानीकाधिपती, स्था०८ ठा० ३ उ०।
रएजा नो धोतरत्ताई वत्थाई धारेजा। सेक-पुं० । सीयन्ते वा बध्यन्ते यस्मिन्नसौ सेकः । कर्दमे, ।
टीकाकारेणापिसूत्र०२ श्रु०२०। सजले पङ्के, आव०४०।०।।
सभिर्यषणीयान्यपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत । यथा
परिगृहीतानि च धारयेन्न तत्र किश्चित्कुर्यादिति दर्शयति । स्वेद-पुं० । श्रमजे शरीरजले, प्रव० ४० द्वार । नि० चू० ।।
तद्यथा--न तद्वस्त्रं गृहीतं सत्प्रक्षालयेत् , नापि रञ्जयेत् । स्था० । तं० । दशा।
तथा नापि वा कुत्सिकतया धौतरक्तानि धारयेत् तथाभूतानि सेजस-त्रि०। सकम्प, भ० ५श. ७ उ० । १० । रा०।। न ग्रहीयादित्यर्थः। तथाभूतोऽधौतारकवस्त्रधारी च ग्रामा(सेजस्निरैजसो दराडकः 'एजणा' शब्द तृतीयभागे गतः।)। न्तरे गच्छन् 'अपलियंचमाणे ' त्ति. अगोपयन् सुखनैव
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( १९४७ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सेयंवर
गच्छेत् । यतोऽसाववमचेलिको दुःसारवस्त्रधारीत्येतस्य मिधारिणः सामसंपूर्ण भिक्षुभावो भूतस्वधारणमिति । एतच सूर्य जिनकल्पिकोडेशन द्रव्यं वस्त्रधारित्वविशेषणात् । एवं गच्छान्तर्गतऽपि चाऽविरुद्धम् ।
आचा० २ श्रु० ५ ० २३० ॥
(तीह मूलटीकाकाराभ्यां सुस्पष्टमेव वसनर जनवादननिषेधो विहितः अत्र पत्र पारित्यविशेषादिदं सूत्रं जिनकल्किस्थविरकल्पिकदेशविषयकमिति द्रव्यम् ।) अन्यदपि श्रचाग
जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिउसिते पादचउत्थेहिं तस्स यो एवं भवति । उत्थं वत्थं जाइस्सामिति आहे सणिजाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारा णो धोएज्जा यो रएज्जा, गो धोतरत्ताई बत्थाई घारेजा | अपलिउंचमाशे गामंतरेसु श्रमचेलिए । एतं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ।
टीकायामपि
"
'सो घोवेरा तो घावेत्प्रोकेनान येत् । गच्छ्वासिनो वर्षादी ग्लानावस्थायां या प्रासुकोदकेन नया धावनमनुज्ञानं नतु जिनकपिकस्येति । तथाहिनीतानि पत्राणि धारयेत् पूर्व धीतानि पश्चाद्रानि तथा प्रामान्तरेषु गोप व्रजेत् । एतदुकं भवति तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि वि
यानि गोपनीयानि न भवन्ति । तदेयमसाययमचेलिकः । श्रवमं च तत् चेलं च श्रवमचेलम्, प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च । तद्यथाऽस्यास्त्य साववमचेलिक इति । एतत्पूयकस्तुरवधारणे। एतदेव वस्त्रधारिणसामध्ये भयति । आचा० ६ श्रु० ५ ० ४ उ० ।
( इति मूलमनुसरता टीकाकारेण बारञ्जनं प्रतिषिध्यते । किंबहुना तथाभूतयामगोपनमितिका
तदेव व्याचक्षाणेन शीलङ्गाचार्येण च रञ्जितवस्त्राणां गोपनीयत्वप्रतिपादनायास्पातिपत्यमिति स्फुटमेव व्यज्यते । इति प्रतिषिद्धरञ्जितवसनधारण स्पृहया प्रधानतमसूत्रमप्युत्थापयतोरनिधारियो नियमित रेकः स्यादिति सूक्ष्मः सुधियो विभावयन्तु। ) सूत्रकृताने नवमाध्ययनेऽपि - धोरणं चैव वत्थीकम्मविरेयणं । बमसं जणपलीमं तं विजं परिजाणिया ।। १२ ।। टीकायामपि -
'घोषणमित्यादि । चाय-ज्ञानं हस्तपादयादे रञ्जनमपि तस्यैव चकारः समुच्चयार्थः । एवकारोऽवधारणे । तथा वस्तिकर्म- अनुवासनारूपम्, तथा विरेचनम्निरुहात्मकमधोथिरेको वा वमनमूर्ध्वविरेकः, तथा अखनं नयनयोरित्येवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत्सं यमपलिमन्थकारि-संयमोपघात रूपं तदेव तद्विद्वान् स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत । सूत्र० १ ० ६ श्र० ।
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सेयंवर ( एवं च वस्त्राञ्जनस्य संगमोपघातरूपतया वर्णनासत्करणे संयोपधान एव संपद्यते । )
अन्यदपि ता सप्तमाध्य जे धम्मलई विहाय मुंजे, सिाह य जे सिखाई । जे धोई मईय
अहाहु से वागहियस्स दरे | २१|
(इत्यत्र प्रासुकोदकेनापि क्षारा (साबुन) दिना वस्त्रधाघने साधूनां कुशीलित्वं टीकाकारेण भणितमिति स्वच्छदं तदाचरन्तः कुशलिनः शुद्ध जैनधर्मप्रतिकूला एय लं बहुना । )
गच्छाचारप्रकीर्णकेऽपि -
जत्थ य वारडिया, तत्तडित्राणं च तह य परिभोगो । सुविरथं का मेरा तत्थ गच्छमि ॥८६॥ तत्रैव टीकायामपि-
यत्र गच्छे' वारडियां ति' रक्तवस्त्राणाम् ' तत्तडियाएं ' तिनीधीतादिरनियां च परिभोगः कियते । कि कृत्वेत्याह । मुवा परित्यज्य किम् ? शुक्लयनं-यतियोग्याम्परमित्यर्थः । तब का मेरसिका मर्यादा नका चिदपीत्यर्थः ।
•
अन्यदपि तय
गणि ! गोतम ! जा अजा उचियं सेयवत्थं विवजिउं । सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा विश्राहिश्रा ॥ ११२ ॥ टीका-
हे गणिन् ! गीतमा उचित श्वेतवस्त्रं चित्ररूपाणि विविधानि विविचित्राणि या वस्त्रा णि सेवते उपलक्षात्पादपि चित्ररूपं गते सा आर्या न व्याहृता-न कथितेति विषमाक्षरेति गाथाच्छन्दः । ग० ।
स्थानानृतावपि
सरीरेउवा पलिया समर्थ सुलिचाणि घरे दे सच्चे सरीरम् ॥ ४ ॥
इति श्वेतवस्त्राणामेव धारणं सर्वथाऽनुज्ञाप्यते । इति पुनः सूत्रपाठमप्रमाणीकृत्य पीतपरं परितः नाम्बरविघिनो जैनमार्गानुयायिनो विचारयन्तु सूत्रार्थतात्पर्यम्त्यजन्तु स्वकीयाज्ञानताम् स्वीकुर्वन्तु श्वेताम्वरत्वम् । ) साधूनां सदचेलकत्वं तथा चोक्तं बृहत्कल्पेदुविहो होति अचेलो, संता चेलो असतचेलो य । तिरथगरतला, संता चेला भवे सेसा ॥ २८६ ॥ अन्य-मतिले अनेकत्वम् आगमे सोफे
सदसंतचेलगोऽचे-लगो य जं लोगसमयसंसिद्धो । तेषामेल थियो, संतेहि जिया असंतेहिं ॥ २६०|| किंव-परिसुद्धजुन कुत्थी, जं थोत्रा निययभोगभोगेहिं । मुखि मुच्छारहिया, संतेहि अचेलया होति ॥२६॥
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(१९४८) सेयंवर अभिधानराजेन्द्रः।
सेयंबर निरुवहयलिंगभेदे, गुरुगा कप्पंति कारणज्जाए। र्दिष्टः । च-पुनः पार्श्वजिनेन महायशमा प्रयोविंशतितमगेलामलोयरोगे, सरीरवेतावडियमादी ॥ २६२ ।। तीर्थकरेण योऽयं धर्मः सान्तरुत्तर:-पञ्चवर्णः बहुमूल्यप्रटीका-निरुपहतो नाम नीरोगस्तस्य लिङ्गभदं कुर्वत
माणरहितवस्त्रधारणात्मकः साध्याचारः प्रदर्शितः हे मेंश्चतुर्गुरुकाः। अथवा-निरुपहतं नाम यथाजातलिङ्गं तस्य भेद
धाविन् ! एककार्यप्रतिपन्नयोः श्रीवीरपाश्वयोविशेषे भेदे-कि चतुर्गुरु। वृ०(व्याख्या 'अचेलग'शब्दे भागे १८८ पृष्ठे उक्ना।)
कारण-को हेतुः। हे गौतम! द्विविध लिङ्गे-द्विप्रकारके सापुनरपि तदेवाह
धुवेषे 'ते'-तब कथं कि विप्रत्ययो न उत्पद्यते-कथं संदेहो न जे भिक्ख वणमंतं विवमं करेइ करतं वा साइज्जइ ।१०।
जायते । उभौ अपि तीर्थकरौ मोक्षसाधको कथं ताभ्यां -
पभेदः प्रकाशितः , इति कथं तवायं संशयो न भवति । जे भिक्खू विवयं वममंतं करेइ करतं वा साइञ्जइ । ११ ।। उत्त०२३ १०। (इत्युपक्रम्य महावीरसमयादनन्तरं साधना जे भिक्खू णवए मे वत्थे लद्धे ति कट्ट तेल्लेण वा घ-| श्वेतवस्त्रधारणमेयोचितमिति अचेलकपदेन सूचयता ग्रन्थएण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा भिलिंगे
कारेण तदेव व्याचक्षाणेन टीकाकारेण च स्थिरीकृतम् । अ वा मंखतं वा भिलिंगतं वा साइअइ।१२। जे भिक्खू
आवश्यकवृत्तावपिणवए मे वत्थे लद्धे त्ति कट्टु लोद्धेण वा कक्केण वा एहा- |
अचेलकश्चोकन्यायेन अविद्यमानचेलकः कुत्सितचेलको या
यो धर्मों वर्द्धमानेन देशित इत्यपेक्षते । तथा 'जो हमो त्ति । णेन वा चुम्मेण वा उल्लोलेज वा उचलेज वा उल्लोलतं
पूर्ववत् । यश्चार्य सान्तराणि वर्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रावा उव्वलंतं वा साइजइ । १३ । जे भिक्खू णवए मे व-|
पेक्षया कस्यचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतः सविशेषाणि, उत्तत्थे लढे त्ति कटु सीओदगवियडेण वा उसिणोदग- राणि च महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमावस्त्राणि यस्मि. वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएञ्ज वा उच्छोलंत या प- पसौ सान्तरुत्तरो धर्मः प्ररूपितः । (इत्यादिना स्फुटीकृतमबांयंत वा साइज्जइ ॥ १४ ॥ जे भिक्खू गवए मे व
सन्महावीरदेशनाप्रवृत्तानां साधूनां श्वेतमानोपेतवनधारण
मेवोचितमिति दिक् ।) श्राव। त्थे लद्धे त्ति कट्ट बहुदिवसिएण तेल्लेण वा पएस वा
भगवतीसूत्रेऽपिवमाए वा णवणीएण वा मंखेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा
लिंगंतरेहिं । भ० । मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइज्जइ १५,१६,१७। जेभिक्खू
तद्वत्तावपिरणवए म वत्थ लद्ध ति का बहादवासरण लाक्षण लिङ्गं साधुवेषस्तत्र च यदि मध्यमजिनर्यथालव्धयनरूपं वा कंकण वा पउमेण वा पउमचुप्मेण वा वरमेण वा उल्लो
लिङ्ग-साधूनामुपदिष्टं तदाकिमिति प्रथमचरमजिनाभ्यां सलेज वा उबट्टेज्ज वा उल्लोलंतं वा उव्वद॒तं वा साइजइ | प्रमाणधवलवसनरूपं तदेवोक्तं सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वा॥ १८ ॥ नि० चू०१४ उ० ।
दिति ? प्रश्न ऋजुजडवक्रजडऋजुप्रशशिष्यानाश्रित्य भग(पुनरपि निशीथचूणों अष्टादशे उद्देशे चतुर्दशोद्देशकवत् |
वतां तस्योपदेशस्तथैव तेषामुपकारसभवादिति । भ० । धमादिग्रहणविधिरित्युक्तम् ।)
कल्पसूत्रेऽपिकिरणावलीवृत्ती. "जो वत्थं किणति किणावति कीयमाह दिजमायं प- अचेलककल्पाधिकारे बीरजिनसाधूनां श्वेतमानाद्युपेतवडिगाहेति"
स्नाधारित्वेनाचेलकत्वमित्याद्युक्तम् । पुनस्तत्रैव श्री ऋषभवी
रतीर्थयतीनां च सर्वेषामपि श्वतमानोपेतीर्णप्रायवनधाइत्यादि सुत्ताणि पणुवीसं उच्चारेयवाणि जाव समत्तो
रित्वेनाचेलकत्वमेव । उमगा । एतेसिं प्रत्थो चोइसमे जहा , चोइसमे पाद
कल्पकिरणावलीवृत्तेः प्रशस्तौभणितं तहा अट्ठारसमे पत्थं भाणियव्यं । नि. चू. १८ उ०। ( इति तत्र'पात्र ' पदस्थाने वस्त्रपदोश्चारणपुरस्सरं
तेषां पट्टे संप्रति, विजयन्तो हीरविजयसूरीशाः । मकल सूत्रं पठितव्यम् , ततश्च पात्ररञ्जननिषेधात् वस्त्रर
ये श्वेताम्बरयतिनां, सर्वेषामाधिपत्यभृतः ॥ अनिषधः प्रतिफलति ।)
इति जैनसाधूनां श्वेतवस्रमेयोपयुज्यते। पुनरपि तदेवाह
विनयविजयकृतकररासुबोधिकायामगिअचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। प्रथमकल्प श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वेन साधूनामचेलकत्वदेसिनो बद्धमाणेण, पासेण य महायसा ॥२६॥
मपीति । तथा हेमविमलमरिकृतटब्बा-उपरपण्डितोपाध्या. एककजपवनाणं, विसेसे किं नु कारणं ।
यजनकल्पसूत्रटब्या-वालावबोधप्रमुखेषु बहुषु ग्रन्थेषु सर्वत्र
अचेलकावं श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वमिति स्थिरीकृतम्। लिगे दुविहे महावी, कहं विप्पच्चो न ते ॥ ३०॥
विवेकविलासेऽपि अष्टमोल्लासेलक्ष्मीवल्लभ्यामपि
सरजाहरणा भैक्ष-भुजो लुञ्चितमूर्धजाः । वर्धमानेन-चतुर्विंशतितमतीर्थकरेण यो धर्मोऽचेलकः ।
श्वताम्बराः क्षमाशीला, निःसङ्गा जैनसाधयः ।। प्रमाणोपेत जीर्णप्रायधवलयनधारणात्मकः साध्वाचारो नि
संबोधसत्तरीनन्थेऽपि1--पुस्तकान्तरे 'पडिग्गः' इति ।
“सेयंवरो य भारी बरो य बुद्धो य अब अन्नो वा",इत्यादि
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(११४६) सेयंवर अभिधानराजेन्द्र:।
सेरपयारि अनुयोगद्वारसूत्रेऽपि
भग्गा तेहिं ताबसेहिं रुट्रेहिं सेणियस्स रएणो कहिय, ताहे पांडुपाउरणा | अनु०।
सेणिपण गहिरो, एसा सेयणगस्स उप्पत्ती । पुण्यभषो तआवश्यकनियुक्तौ च
स्स-एगो धिजाइनो जन्नं जयइ, तस्स दासो तेण जन्नवाडे
ठविश्रा,सो भणइ-जइ सेस मम देहि तो ठामि इयरहा ण, सुकंबरा य समणा, निरंबरा मज्झ धाउरत्ताई ।
एवं होउत्ति सो वि ठिो, सेसं साहूण नेह, देवाउयं निबखं हुंतु अ मे वत्थाई, अरिहोऽम्हि कसायकलुसमई ॥४७॥ देवलोगाओ चुत्रो सेणियस्स पुत्तो नंदिसेणो जाओ.धिज्जावृत्तापि
इश्रोऽवि संसार हिंडित्ता सेयणगो जाओ। जाहे किर नंदिसे. शुक्लान्यम्बरानि येषां ते शुक्लाम्बराः शुक्लाम्बराश्च श्रमणाः। णा विलग्गइ नाहे श्रोहयमणसंकप्पो भवह, विमणो होइ, तथा निर्गतमम्बरं येभ्यस्ते निरम्बरा-जिनकल्पिकादयः ।। अहिणा जाणइ, सामी पुच्छिो , एयं सच कहेइ, एस से'मज्झि' ति मम न पते श्रमणाः । एतेन तत्कालोत्पन्नता- यणगस्स पुब्वभवो।" श्राव०४०। पसश्रमणव्युदासः, धारतुरनानि भवन्तु मम वस्त्राणि किमि सेयणवह-सेचनपथ-पुं० । सिक्नमार्गे,प्राचा०२ श्रु०२०। त्यहाँऽस्मि-योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः कलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथाक्षरार्थः । श्राव ।
सेयपड-श्वेतपट-पुं० । श्वेताम्बरे जैने, नि० चू० ३ उ० । कल्पकिरणावल्यामपि मरीचिभवप्रकरणे
सेयप्पभ-श्वेतप्रभ-त्रिका श्वेता-उज्ज्वला श्रेया वा आश्रयतथा शुक्लाम्बराः श्रमणाः निरम्बराश्च जिनकल्पिकादयः | णयोग्या प्रभा कान्तिर्यस्य स तथा । उज्ज्वलकान्तौ,कल्प०१ कपायाकलुषितमतयो यतयः, नाहमेवमतो मे कषायकलपि- अधि० ३ क्षण । रत्ना०। तस्य धातुरक्लानि वस्त्राणि भवन्तु । कल्प।
सेयबन्धुजीव-श्वेतबन्धजीव-पुं० । श्वेतवर्णपुष्प वनस्पतिसेयरिया-श्वेताम्बिका-स्त्री०। केकयजनपदार्धराजधान्याम् , भेदे, रा०। प्रक्षा०१ पद । सूत्र० । उत्त० । कल्प० । श्रा००। श्रा०म०, सयभद्द-श्वतभद्र-पु० । यक्षभद, प्रज्ञ
| सेयभद्द-श्वेतभद्र-पुं० । यक्षभेदे, प्रक्षा० १ पद । रा०। श्रा० क०। प्रव०।
सेयमलपुच्चड-श्वेतमलपुच्चट-न० । दुर्गन्धिस्वेदमलचिगसेयंस-श्रेयस-त्रि०। अतिशयेन प्रशस्ये, स्था०४ ठा०४ उ०. चिगायमाने शरीरे, तं। श्रेयांस-पुं०। बाहुबलिसुतसोमप्रभसुते,कल्प०१अधि०७क्षण। सेयमाल-श्वेतमाल-पुं० । सुषमसुषमाभाविनि कल्पवृक्षभेभगवत्प्रतिमादर्शनेन अस्य सामायिकलाभः । श्राव०४ ०। दे, जं० २ वक्षः। सेयंसा-श्रेयांसा-स्त्री०। विदिशि रुचकनिवासिन्यां तृतीया- सेयविया-श्वेतविका-स्त्री०केकयजनपदस्य स्वनामख्यातायां यां विद्युत्कुमारीमहत्तरिकायाम् , स्था०४ ठा. १ उ०। प्रधाननगर्याम् , विशे। सेयकंठ-श्वेतकण्ठ-पुंग भूतानन्दनागकुमारेन्द्रस्य महिषानी- मेयमच्चपरक्कम
ना सेयसच्चपरकम-श्रेयःसत्यपराक्रम-पुंगा श्रेयसि अतिप्रशस्ये काधिपती , स्था०५ ठा०१ उ०।
सत्ये संयमे पराक्रमः सामर्थ्य,यस्यासौ श्रेयःसत्यपराक्रमः । सेयकणवीर-श्वेतकणवीर-पुं०। श्वेतवर्णपुष्पे कणवीरे, रा०। सेयचंदण--श्वेतचन्दन--न । श्रीखण्डे, प्रश्न०५ संव० द्वार।
०५ सव० द्वार । सेयसरिसव-श्वेतसर्षप-पुं०। श्वेतवर्णे सर्पपभेदे. चत्वारि ससेयण-स्वेदन-न। सप्तधान्यादिभिः स्वदोत्पादने. मा०१
मधुरतृणफलान्येकः श्वेतः सर्षपः । सुवर्णमानभेदे, स्था० श्रु०१३ १०
८ ठा०३ उ०। सेयणग--सेचनक-पुंगा चम्पायां कृषिकस्य महाराजस्य स्व- सेयापीय-श्वेतापीत-त्रि०। रजतसुवर्णमये श्वेतपीतवणे, भ. नामख्याते गन्धहस्तिनि, भ०७ श०६ उ० । निः। श्राव। श० ३४ उ० । विपा०।। "सेयणगस्स का उप्पत्ती?, एगत्थ वणे हथिजूहं परिवसइ, | सेयावंग-श्वेतापार-त्रि०। सितनेत्रप्रान्ते,शा०१श्रु०३०। नम्मि जूहे एगो हत्थी जाए जाए हथिचेल्लए मार, एगा
| सेयावण-स्वेदापन्न-त्रि । जातस्वेदे, शा० १ श्रु० ३१०। गुब्बिणी हस्थिणिगा, सा य ओसरित्ता एक्कांलया चरह, अराण या कयाइ तणपिंडियं सीसे काऊ नावसासमं गया ,
सेयाल-एष्यत्काल-पुं० । प्रहणोत्तरकाले, भ०१२०१ उ०। तेसिं तावसाणं पाएसु पडिया,तेहिं णायं सरणागया बराई। सेयासेय--श्वेताश्वेत-न० कनकपुरनगरे स्वनामख्याते उद्याने, अण्णया नत्थ चरंती वियाया पुत्तं, हथिजूहेण सम चरंती| विपा०२ श्रु०६ अ० । (अस्य वक्तव्यता धरावा'शब्दे छिण आगंतण थण देह, एवं संवर, तत्थ तावसपत्ता - चतुर्थभागे गता।) प्फजाईप्रो सिंचंति, सो वि सोडाए पाणियं नेऊण सिंचद सेयाऽसोग-श्वेताशोक-पुं० । श्वेतवर्णपुष्पे वृक्षविशेषे, रा०। ताहे नाम कय सेयणोत्ति, संवडिओ मयगलो जाओ,ताहे | सेर-स्मेर-त्रि अधोम-न-याम्॥८२७॥ मनयां संयुक्तस्य गण जूहवाई मारिओ, अप्पणा जुहं पडिवरणो, अमया तेहिं ताबसेहि राया गामं दाहितित्ति मोयगेहिं लोभित्ता रायगिहं
अधोरतमानस्य लुम् भवति । इति मस्य लुक । स ,
प्रा०२ पाद। नीग्रो, एयर पवेसेत्ता बद्धो सालाप, अण्णया कुलवती तेण | चेव पुठवमासेण दुको किं पुत्ता ! सेयणग ! ओच्छगं
सेरडी--सरटी-स्त्री० । भुजसर्पिणीभेदे, जी० २ प्रति। च से पणामेह , तेण सो मारिओ , अणे भणति- सेरपयारि-स्वैरप्रचारिन्-पुं० । स्वच्छन्दावहारिणि, बा. १ जूहवात्तणे ठिएणं मा अण्णावि वियांति त्ति ते तावसउडया | श्रु०१८०।
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सेरिणी
अभिधानराजेन्द्रः।
सेलेसी सेरिणी-स्वैरिणी-स्त्री० । स्वेच्छाचारिणयां नर्तक्याम् , प्रा. सेलसुश्रा-शैलसुता-स्त्री० । पार्थत्याम् , को० । चा०१ श्रु०२७०२ उ०।
सेला-शैला-स्त्री० । सप्तमानां नरकपृथिवीनां मध्य तृतीयसेरियय-सरितक--पुं० । गुल्मभेदे, प्रज्ञा०१ पद।
स्या नरकपृथिव्याम् , स्था० ७ ठा० ३ उ० । भुजसर्पिणीसेरी-सेरी-स्त्री। देशीवचनमेतत् , यन्त्रमय्यां नर्तक्याम् , भेदे, जी० २ प्रति। उय०२०॥
सेलियघर-शैलिकगृह-न० । पाषाणेष्टकादिभिः कृते गृहे, सेरीस--सेरीश--पुं० । स्वनामल्याते नगरे, यत्र देवेन्द्रसरिः व्य०४ उ०। कायोत्सर्गमकार्षीत् । व्य०२ उ०।
सेलु-शैलु-पुं० । श्लेष्मान्तके कफे. प्रशा० १ पद । सेल-शैल-पुं० । शिलाया विकारः शैलः । स्था० ३ ठा० ३ सेलूस-शैलूष-पुं०। स्वनामख्याते अन्यथावादिनि नटे, शैलूणा उ०। लवणरूपे पाषाणे, स्था० ४ ठा० ३ उ० । विश०।। इवाम्यावादिनोऽन्यथाकारिणः प्राचा०१७०२ १०२उ। शिखरहानपर्वते, प्रशा०२ पन । मुण्डपर्वते. भ० ५ श० १ सेलेस-शैलेश-पुं० । मेरो, विश० । स्था० । प्रा० चू०। उ०। प्रा० क०। प्रश्न । हिमवदादिपर्वतेषु, स.। विशे। मं० । कृष्णवासुदेवसमकालिके मन्दिपुरराजे, सा०२७०१
सेलेसिपडिवालग-शैलेशीप्रतिपन्नक-पुं० । अयोग्यावस्था वर्ग १५०। पर्वतगृहे, कल्प० १ अधि०४ क्षण ।
प्राप्ते, प्रज्ञा० २२ पद। सेलग-शैलक-पुं० । अश्वरूपधारके स्वनामच्याते यक्षे, सेलेसिसत्तागा-शैलेशीसत्ताका-स्त्रीशैलेशी-अयोग्यावस्था रत्नद्वीपदेवताभितमाकदीवारकरक्षको हिसः । शा०१ तस्याः सत्ता यासां प्रकृतीनां ताः शैलेशीसत्ताकाः । तथाश्रु०६अ।धर० । स्वनामख्याते शैलकपुरराजे,शा०१७०५ विधासु कर्मप्रकृतिषु.क०प्र०१० प्रक०।ताश्च द्विधा तद्यथाअ० (थायद्यापुत्त' शम्ने चतुर्थभाग२३६८ पृष्ठे कथा।) तद्व- उदयवत्यः,अनुश्यवस्यश्च । तत्रोदयबस्यो मनुष्यगतिमनुष्याकम्यताप्रतिपादके पश्चमेशाताध्ययने च । भाष. १०। युःपञ्चेन्द्रियजातित्रससुभगादेयपर्याप्तवावरयशःकीर्तितीर्थस्था० । हा०
करोथैर्गोत्रसातासाताम्यतरवेदिनीयरूपा द्वादश तासांप्रकसेलगराय-शेलकराज-पुं० । नेमिनाथशिष्यस्यान्तिके - | तीनां तेनायोगिकालेन तुल्यानि स्पर्घकानि एकैकेनाधिकानि मणोपासकधर्मप्रतिपन्ने शैलकपुरराजे. ग०१ अधिक। पञ्चा०।
भवन्ति । क० प्र० १० प्रक० । सेलगिह-शैलगृह-न० । पर्वतमुत्कीर्यते गृहे, भ. २ श० सेलेसी-शैलेशी-खी। शैलेश इय मेरोरिव स्थिरता शैलेशी। ८उ०
दर्शक ४ तस्व । चतुर्दशगुणस्थानस्थायित्वे , उत्त. २६ सेलगुहा--शैलगहा--स्त्री० । गिरिकन्दरायाम् , शैलगुहायां १०। विशे० । आचा। कर्म०। औ०। मा० मा । प्रा० तपस्यन्तं महातपस्विनं पश्यतु । हा० २३ अष्ट।
चू०। ('अकम्मया' शब्दे प्रथमभागे पतत्फलमुक्नम् । ) सेलगोलय-शेलगोलक-पुं० । वृत्ते पाषाणगोलके, सूत्र. २
शैलेशीशब्दव्युत्पत्तिमाहश्रु०२०।
सेलेसो किल मेरू, सेलेसी होइ जा य तदचलया । सेलघर-शैलगृह-न० । पर्वतमुत्कीर्यकृते गृहे, स्था०५ ठा० होउं व असेलेसो, सेलेसी होइ भिग्याए ॥ ३०६५ ।। १३० । कल्प।
अहवा सेलु ब्व इसी, सेलेसी होइ सोऽतिथिरथाए । सेलपाय-शैलपात्र--म० । पाषाणपात्रे, प्राचा० २ श्रु० १ चू० से व असेलेसी होइ, सेलेसी हो अलोवाओ ॥३०६६॥ ६०१०।
सीलं व समाहाणं, निच्छयो सव्वसंवरो सो य । सेलपुर-शैलपूर-म० । स्वनामख्याते, मगरभवे, वृ.१ उ.
तस्सेसो सीलेसो, सेलेसी होइ तदवत्था ॥३०६७॥ ३प्रक०। सेलयपुर-शैलकपुर--न० । शैलकराजावासभूते नगरे , शैलेशो-मेरुस्तस्येवाऽचलता-स्थिरताऽस्यामवस्थायां सा मा०१७०५०।
शैलेशी। अथवा-शैलेशः शैलेश इव स्थिरतया भवसेलयय-शैलकज-पुं० । वत्सगोत्रान्तर्गतगोत्रविशेषप्रवर्त
ति शैलेशीभवति, 'भवति' इत्यध्याहारः । अथवा-प्राकृतके ऋषी, स्था०७ ठा०३ उ.।
संसामाश्रित्य स्थितिया 'सेलु व्व इसी महरिसी ' तस्थ
संबन्धिनी स्थिरतावस्थाऽप्युपचारतः शैलेशी। अथवा-प्राक़सेलवाल-शैलपाल-पुं० । धरणभूतानन्दयो गकुमारेन्द्र
तत्वादेव " से भिक्खू वा भिक्खुणी वा " इत्यादिन्यायतः योलोकपाले, स्था०४ ठा० १ उ.। कालोदाय्यादिचन्यत
'से ति सो महरिसी'अलेश्यो-लेश्यारहितो भवति यस्या. मे यूथिके, भ०७श०१० उ०।
मवस्थायां सा शैलेशी, अकारलोपादिति । अथवा-शील सेलवियारि-शैलविचारिन्-पुं० । ऋषभदेवपुत्राणामेकाशी
समाधान, तब निश्चयतः प्रकर्षप्राप्तसमाधानरूपत्वात् सर्वतितमे पुत्रे, कल्प० १ अधि०७ क्षण।
संबरः, ततस्तस्य सर्वसंवररूपस्य शीलस्येशः शीलेशस्तसेलसंक-शैलसंकट-पुं० । पर्वतः संकीर्णे, स०१४६ सम०।। स्येयमवस्था शैलेशीति । विशे।
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सेले सीकर
शैलेशा मेरुस्तस्येयं
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सेलेसीकरण - शैलेशीकरण - न० । स्थिरता साम्यावस्था शैलेशी यद्रा – सर्व्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी तस्यां करणम् । पूर्वविरचित शैलेशीसमय समानीकस्य बेदनीयनामगोत्रायानिक मंत्रितयस्यासंख्येयगुरुपा या आयुःशेषस्य तु यथास्यरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणे, कर्म० २ कर्म० । प्र० । सेलेसीमा शैलेश्वद्धा श्री० शैलेशकाले प्र० । सेलोदाइ शैलोदायिन् पुं० राजगृहनगरस्य शिलापट्टकस्यादूरे सामन्त परिवास्यन्ययूथिकभेदे. भ० ७ ० १० उ० । सेलोट्ठाण - शैलोपस्थान- न० । पाषाणमण्डपे, श्राचा० २ श्रु० १ ० २ श्र० २३० ।
मेलोवड्डायकम्मंत - शैलोपस्थानकर्मान्तन० स्थानविशेषे यत्र पाषाणपरिकर्म क्रियते । श्राचा० २ ० १ चू० १ अ० ११ उ० ।
सेलीबट्टार शैलोपस्थानगृह न० पाषाणमण्डपे, स्था०
५ ठा० १० ।
सेल - शल्य - न० । बालमये भुनिरे, सेल्लं बालमयं सिरं तं खारे बुज्जति किं खारो संजाओ न वि तत्थ असंकिलिटं कम्म भणियं । मि० चू० १ उ० । सेलग शल्यक- पुं० [भुजपरिसजन्तु, चर्मल रक्षा विधीयते प्रश्न० १ अश्र० द्वार । सेव- शैव- भि० शियो भक्तिरस्येति पाशुपते
|
|
(१९०१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
शवर्षाणि मनं कृत्वा ततः परम् । यद्यपि योगं कृत्वा व्रतेश्वरे ॥ १ ॥ ' विशे० । श्राचा० । श्रा० म० । शैवीदीक्षात एव मोक्ष इत्येवं व्यवस्थिताः । सूत्र० १ श्रु० १ ० ३ उ० । ( एतद्वक्तव्यता 'कडवाई ' शब्दे तृतीयथागे २०५) शिनिर्मिते व्याकरणमेदे कर १ अधि० १ क्षण ।
1
9
सेवग सेवक मजके प्रश्न० २ ० ४ द्वार अनुष्ठानरते, पश्चा० १२ विघ० । कारके, नि० चू० १ उ० । ०३० को शेषकर्ममोचनाय पारगो भवति । सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । सेवण-सेवन-न० । पर्युपासने, उत्त० ३५ अ० । भजने, स्था"
?
४ ठा० २३० | प्रब० । प्राय० ।
सेवा सेवना- स्त्री० । भजनायाम्, विशे० । सूत्र० । श्राश्रयणे, पञ्चा० १६ विव० । उपभोगे, श्राचा० १ ० ६ ० १३० । विशेोधी नि००१ ३०
4
•
सेवयाहिगार सेवनाधिकार पुं० [सेवनायां चीर्यादिसेना यामधिकारो नियोगः सेवनाधिकारः । गौणमैथुने, अब्रह्मप्रवृत्तो हि वीर्याद्यनर्थसेवास्यधितो भवति आह व सर्वेऽनर्था विधीयते नरेरकलालसेः अस्तु प्रार्थ प्रायः, प्रेयसी प्रेमकामिभिः ॥ १ ॥ ' प्रश्न० ४ श्र० द्वार । सेवमाण - सेवमान त्रि० । कुर्वाणे, उत्त० १२ अ० | सूत्र० । सेवा - सेवा - स्त्री० । पर्युपासनायाम्, अभ्युत्थानदण्डग्रास
,
सेह
?
नदानादौ नि० चू० १३० । शक्रस्य देवेन्द्रस्याष्टास्वग्रमहिषीषु द्वितीयायामयम् ०१००२४० । सेवाल - शैवाल - न० । तन्त्वाकारे जलरुहभेदे, प्रसिद्धं चैतत् जले भवति । प्रा० १ पद । शैवालं जलोपरि मलरूपम् । श्राचा० १ श्रु०२ श्र० । श्रा० म० अष्टापदपर्वतस्य द्वितीयमेखलायां पञ्चशतीतापसयूथाधिपती गौतमप्रव्राजिते तापसे, उस० १० अ० । पङ्के. दे० ना०८ वर्ग ४३ गाथा । सेवालोदाइ वालोदाविन् पुं० कालोदायादिषु अन्पयूथिकेष्वन्यतमे यूधिके, भ० ७ ० १० उ० । सेविय सेवित- त्रि० । जुटे, क्षिप्ते च । स्था० ४ ठा० ३ ३० ।
प्रश्न० ।
3
सेवियय-सेवितव्य त्रि० सेवनीये उन० ३२ ० सेस शेषत्रि० उक्तान्यस्मिन् पञ्चा०] [१६] विष प्रा उत्त० । स्था० । श्राव० । श्राखा० । उद्वलनासंक्रमाभिधानेऽवसरे, यत्प्रागभिहितं चरमखण्डं तत्र शेषमित्युच्यते । क० प्र० अल्पे कृते, आ० म० १ ० । नागराजे, ती० ३२ कल्प । सदविया - शेषद्रव्या- स्त्री० । गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण कृता शेषद्रव्या लेपोपावकस्य गृपने सम्बन्धिन्यानन्दाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि उदकशालायाम्, सूत्र० २ श्रु० ७ श्र० । (अत्यो विशेष दालपुरा शब्दे पञ्चमभागे उक्त ) सेसमइ शेषमति--श्री० पूर्वश्ववास्तव्यायां दिकुमारीम । दारिकायाम् द्वी० ।
शैशव०शिशोरवस्थायाम् श्राचा० १० २
-
9
4
० १ ३० । सूत्र० ।
शेष अनुमानु ''शब्दममा ४०३ पृष्ठे व्याक्यानमेतत् ।)
,
--
सेमवई शेषवती श्री० [दक्षिणायायां दिमा महत्तरिकायाम्, स्था० ८ ठा० ३ उ० प्र० म० । प्रति० । श्राव० । प्रा० क० । प्रा० चू० जं० । सप्तमवासुदेवमातरि श्र० १० | स० । भगवतो महावीरस्य दौहित्र्यां जमालिपुड्याम् श्राचा० २ श्रु० ३ चू० । श्र० चू० | कप० । 'सेसिंद-शेषेन्द्र पुं० | दर्बीकर सर्पभेदे, प्रशा० १ पद । सेसिय-शेषित-त्रि० । श्रपीकृते,'कम्मं सेसियमट्ठह ।' ‘सेसियमदृदसि ज्ञानावरका पूर्व से तस्य सितमि स्वर्थः । अथवा 'सेखियं' ति अनाभोगनिर्तित करणेन सम्यग्ज्ञानादुपायतःथ कमेण शेषित-वं स्थित्यनुभवादिभिरपीकृतम्। विशे० । सेसीकय-शेषीकृत त्रि० खित्यादिभिरपीहते १ अ० ।
4
-
०म०
सेह सेघ- पुं०/'खिघ' संराजाविति वचनात्सेध्यते निष्णाद्यते यः स सेधः । शिष्ये, स्था० ३ ठा० २ उ० । शेष पुं०] शिक्षां वाऽधीते इति शेषः स्था० ३ ०२४० अभिनयप्रव्रजिते, स्था० ५ ठा० १ उ० । सूत्र० । प्रति० । 'तिहि उत्तरादि रोहिणी कुआ उसेनिक्सम
बेहोषा
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अभिधानराजेन्द्रः।
सेहभूमि घणं कुज्जा, अणुना गणिवायए' ॥ २६ ॥ ८७२ ॥ द० प०।। भिक्खातिए गतंमि उ, हरमाणो तेणतेको उ ॥४३७॥ श्राचा० । लघुसाधी , कल्प० ३ अधिक क्षण । नि० चू०। अपडप्पन्न बालं हरंतो तेणो , से तेणो ते मंह अल्पपर्याये, दशा० ३ अ०। प्रथमकल्पिक साधी, ध०३
बाहिं गामादियाण ठवेत्ता अप्पणा भिक्खस्स पविट्ठो, अधि०। शिक्षा साधी, ध० ३ अधि० ग०।ब ।
पत्थंतरे जो तं सेहं अरणो उप्पासेत्ता हरति सो तेणतणो णश-धा० श्रदर्शने , " शेर्णिरिणास-णिवहावसह-पडि-|
(नि०चू०)(प्रतिच्छकविषयः 'पांडच्छग' शब्दे पश्चमभागे मा-सदाबहराः ॥८॥४॥ १७८ ॥ इति णश्धातोः सेह इत्यादे- गतः ।) शः । सहर । नश्यति । प्रा०४ पाद।।
सेहनिप्फेडियं करेंतस्स चउगुरुं प्राणादिया य दोसा,इमे या सेहडवणाकप्प-शैक्षस्थापनाकन्प-पुं०। अभिनवशिष्यप्रवा
गाहाजनायाम् , सेहट्ठवणाकप्पो नाम अट्ठारसपुरिससुं वीसुं- अम्मापियरो कस्स वि,विपुलं घेत्तूण अत्थसारं तु । इत्थीसु पुयभणियजीवदवियकप्पे एए जो पब्बावे सो
रायादीणं कहिए,कढणम्मि य गिराहणादीया ॥४३६।। सेहट्ठवणाकप्पो। पं चू० २ कल्प ।
कंठा। सेहण-शिक्षण-न० । ग्रहणासेवनाभ्यासे , सूत्र० १ श्रु० २
गाहाभ०१उ०।
विपरिणमेज्जा सम्मी, केई संबंधिणो भवे तस्स । सेहणिक्खमण-शैक्षनिष्क्रमण--नाशिष्यस्य प्रवजने,द०प०
विपहिणताए धम्म, सुएज कुजा व गहणादी ॥४४०॥ पढमी पञ्चमि दसमी, पनरसिक्कारसीवि य तहेव ।।
णिप्फेडण सेहस्स उ,सुयधम्मो खलु विराहितो होति । एएमय दिवसेसुं सेहे निक्खमणं करे । ८/८५४ । द०प०।
सुयधम्मस्स व लोवा, चरित्तलोवं वियाणाहि ॥४४॥ मंदे जए य पुने, सेहनिक्खमणं करे (1१०/८५५ द०५०।
सेयमवहडं नाउं सन्नी विपरिणमेजा सेहस्स वा संबंधी ते तिहि उत्तराहि, रोहिणीहिं, कुजा उ सेहनिक्खमणं । य विपरिणता धम्म सुपज्जा, रायमादिपहिं वा गहणादि
सेहोवट्ठावणं कुजा,अणुन्ना गणिवायए।२६८७२।०५० कारवेजा। से हसिप्फेडण-शैक्षनिष्फेटन-न। शिष्यापहारे, द०५०।
गाहा--
पायरिय उवज्झाया, कुलगणसंघो य धम्मो य । पढमी पंचमि दसमीए, पनरसिकाररी विय।
सम्वेऽवि परिच्चत्ता, सेहं णिप्फेडयंतेण ॥ ४४२ ।। तह एएसु दिवसेसुं, सेहणिप्फेडणं करे। द०५०।
रायादि रुटो स तेसिं कडगमई करेज तम्हा मातापियरेण सेहणिप्फेडिया-शैक्षनिष्फेटिका--स्त्री० । शैक्षकस्य दीक्षितु
अदत्ता सेहणिप्फडिया ण कायव्वा । बितियपदेण वा करेजा। मिष्टस्य निष्फेटिका-अपहरणम् । तद्योगाद्यो मातापित्रा
अतिसेसगंमि भयणति अस्य व्याख्या । दिभिरननुज्ञातोऽपहत्य दीक्षितुमिष्यते सोऽपि शैक्षनिष्फे
गाहाटिकः । ग० १ अधिः । दीक्षितुमिष्टस्यापहरणे, ध० ३ होहिति जुगप्पहाणो, दोसा वि न केवि तत्थ होहिंति । अधि० । नि० चू० । तदपहरणकर्तरि , त्रि० । ग०१ अधिक।
तेणऽतिसेसा दिक्खे, अमोहहत्थे य तत्थेव ॥४४३।। याणि सहणिप्फेडिता
जो ओहिमादीअतिसपण जाणति एस नित्थारगो जुगततियब्वयाइयारे, निप्फेडगतेणियं वियाणाहि ।
प्पहाणो होहिति,दोसा य ण केऽयि भविस्संति तेण अतिसअतिसेसियम्मि भयणा,अमढलक्खे य पुरिसम्मि।४३४।। यी दिक्खति । अह जाणति हो निति दोसा तो ण पब्बावेति । सहणिप्फेडियं जो करेति से ततियं वयं अदिरणादाणवेर- एस भयणा 'अमूढलक्खो व पायरिश्रो'श्रमोहहत्थो जं जं मणं अतिचरति, तं केरिसं कहं वा णिप्फेडतो ततियब्वतं पव्यायेति सो अवस्सं णित्थरति न य केऽवि दोसा उप्पज्जअतिचरति ?।
ति तं च नान्यत्र नयंतीत्यर्थः । सेहणिप्फेडिता अट्ठारसपुरि गाहा
सुत्ति गतं । नि०चू० ११ उ०। पं. भा०पं०चू०। तोसअपडप्पलो वालो, वरिवरिसूणो अहव अणि विट्ठो। लिपत्राचायणायरक्षिताचार्यश्चारित इति प्रथमशैक्षनिअम्मापितुअविदिमो,ण कप्पती तत्थ वाऽस्मत्थ॥४३॥ फेरितेति । प्रा० क०१०। ('मणबटुप्प' शब्दे प्रथमअपबुप्पनो अटुवरिसो किं वाऽधिको वा अट्टवरिसूर्ण वा भागे शैक्षचौर्यमुक्तम् ।) सोलसवरिसूणं वा अवंजणं जातं, अहवा-अणिविटुं अवि- सेहभूमि-शैक्षभूमि-स्त्रीला शिष्यस्य महावतारोपणकाले,व्या चाहितं तहप्पगारं अम्मापितिविदिन्नं तत्थ वा गामे अन्न- तो सेहभूमिश्रो परमत्तानो,तं जहा-सत्तराइंदिया, चाउस्थ वाण कम्पति पवावेतु । श्रह निष्फेडितो तं निप्फेडगते- .. शा घियाणादि । इमो पत्थ तेणगथिगप्पो ।
म्मासिया,छम्मासिया य। छम्मासिया उक्कोसिया,चाउम्मागाहा
सिया मज्झिमिया, सत्तराईदिया जहनिया ।। (मू. १५) तेणे य तेणतेणे, अपडिच्छग पडिच्छगे य णायव्यं ।।
अस्य संबन्धमाहएते तु सेहणिप्फे-डियाएँ चत्तारि उ विगप्पा ॥४३६॥ तुल्लाउ भूमिसंखा,ठिया व ठावेंति ते इमे हुँति । इमं वक्खाणं । गाहा
पडिवक्खतो व सुत्तं,परियाए दीहहस्से य ॥५०॥ जो तं उप्पासयए, से तेणे होति लोगउत्तरिते।
तुल्या भूमिसंख्या शैक्षकाणामिति कृत्वा , अथवा-पूर्व
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(१९५३) सेहभूमि अभिधानराजेन्द्रः।
सेहभूमि सूत्रे स्थविरा उक्नास्ते च स्वयं स्थित्वा अन्यान् स्थापयन्ति |
दृष्टान्तपरिणामकमाहते चाप्येवं स्थाप्यमाना हमे वक्ष्ययाणा भवन्तीति तत्प्रति
परोक्खं हे उगं अत्थं, पच्चक्खेण व साहियं । पादनार्थमिदं सूत्रम् । अथवा-प्रतिपक्षत इदं सूत्रमापतितम् ।
जिणेहिं एस अक्खातो, दिद्रुतपरिणामगो ॥५७।। तद्यथा-पूर्वसूत्रे स्थविराः,तेषां च प्रतिपक्षाः शैक्षाः,यदि वास्थविराणां दीर्घः पर्यायः , शैक्षकाणां शैक्षकत्वेन इस्व इति
परोसं हेतुकं हेतुना लिङ्गेन गम्यं हेतुकमर्थ प्रत्यक्षेण प्रत्यस्थविरसूत्रानन्तरं शैक्षकसूत्रम् । अस्याक्षरगमनिका प्राग्वत् ।
क्षप्रसिद्धेन दृष्टान्तेन साधयन् श्रात्मबुद्धाबारोपयन् यो व
तते दृष्टान्तपरिणामको जिनराख्यातः । दृष्टान्तेन विवक्षितसम्प्रति शैक्षकाणां यद् वक्तव्यं तत्संसूचनाय द्वारगाथामाह
मर्थ परिणमयत्यात्मबुद्धावारोपयतीति दृष्टान्तपरिणामक सेहस्स तिन्नि भूमिउ, दुविहा परिणामगा दुवे जहा।
इति व्युत्पत्तेः। तत्राज्ञापरिणामकः, श्राज्ञयैव कायान् श्रद्दधा
ति, दृष्टान्तपरिणामकस्तु दृष्टान्तेन श्रद्दधापयितव्य इति । पत्तजहंते संभु-जणा य भूमित्तियविवेगो ॥५१॥ शैक्षकस्य तिम्रो भूमयो वक्तव्याः,सूत्रोपात्तत्वात्तथा शैक्षका
तस्य कायश्रद्धानोत्पादनार्थमिदमाहद्विविधाः-परिणामका, अपरिणामकाः वक्तव्याः। द्वौच जडी।
तस्सिदियाणि पुच्वं, सीसंते जइ उ ताणि सद्दहइ । तथा पात्राणि पात्रभूतान् त्यजति दोषा वक्तव्याः, संभोजना तो से नाणावरण, सीसइ ताहे दसविहं तु ॥५॥ च तथा भूमित्रिकस्य जलमूकैलमूककरणजड (1) लक्षणस्य तस्य दृशान्तपरिणामस्य पूर्वमिन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि शिविवेकः परित्यागो चक्रव्या, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः । व्या- व्यन्ति तत्र यदि तानीन्द्रियाणि श्रद्दधाति ततः तमेतस्य सार्थवस्तु प्रतिद्वारमभिधातव्यः।
शानावरण दशविध शिक्ष्यते । तत्र प्रथमतो भूमिद्वारमाह
कथमित्याहसेहस्स तिमि भूमि, जहमॉ तह मज्झिमा य उक्कोसा । इन्दियावरणं चव, नाणावरणे इ य । राइंदिसत्त चउमा-सिया य छम्मासिया चेव ॥५२॥ । तो नाणावरणं चेव,माहियं तु दुपंचहा ।। ५६ ॥ शैक्षकस्य तिस्रो भूमयस्तद्यथा-जघन्या मध्यमा उत्कृ- इन्द्रियावरण,ज्ञानावरण च । तत्रेन्द्रियावरणं नाम इन्द्रियटा च। तत्र जघन्या सप्तरात्रिन्दिवा, मध्यमा चातुर्मासिकी, विषयशब्दादिसामान्योपयोगावरणं , ज्ञानावरणमिन्द्रियवि. उत्कृष्टा पाएमासिकी।
षयवेव शब्दादिपु विशेषोपयोगावरणम् । इन्द्रियावरणशानापुवोवट्ठपुराणे, करणजयट्ठा जहमिया भूमी ।
धरणं च श्रोत्रेन्द्रियादिभेदतः प्रत्येक पञ्चप्रकारमेव शानावरउकोसा दुम्मेहं, पडुच्च अस्सद्दहाणं च ॥५३॥
णम् । द्विपश्चधा-एवं दशप्रकारमाख्यातम् । पूर्वमुपस्थः-उपस्थितः पूर्वोपस्थः स चासौ पुराणश्च
तानव दश भेदान् विवेक्नुमाहपूर्वोपस्थपुराणस्तस्मिन् करणजयाय जघन्या भूमिर्भवति ।
सोयावरणं चव, णाणावरण होइ तस्सेव । इयमत्र भावना-यः पूर्व प्रवज्योत्प्रनजितः पश्चात्पुनरपि प्र- एवं दुयभेएणं, णायव्वं जाव फासो त्ति ॥६॥ बज्यां प्रतिपत्रवान् स सप्तमे दिवसे उपस्थापयितव्यः , श्रोत्रावरणं तथा तस्यैव श्रोत्रस्य झानावरणमेवं द्विकतस्य हि यावद्भिर्दिवसैः पूर्वविस्मृतसामाचारीकरणमत्य- भेदेन तावत् ज्ञातव्यं यावत्स्पर्शः , तद्यथा-चक्षुरिन्द्रियाम्तं दुःप्रभवति एषा जघन्या भूमिः, दुर्मेधसमश्रद्दधानं वरणम् ,चक्षुरिन्द्रियज्ञानावरणम् । घ्राणेन्द्रियावरणम् ,घाणेच प्रतीत्य उत्कृष्टा पारामासिकी भूमिः।
न्द्रियज्ञानावरणम् । रसनेन्द्रियावरणम् , रसनेन्द्रियशानाएमेव य मज्झिमिया, अणहिज्जते असद्दहंते य।। वरणम् । स्पर्शेन्द्रियावरणम् स्पर्शन्द्रियज्ञानावरणमिति । भावियमेहाविस्स वि,करणजयट्ठा य मज्झिमिया।५४॥
साम्प्रतमिन्द्रियावरणस्य विज्ञानावरणस्य एवमुक्ते उत्कृष्ट अनधीयाने अश्रद्दधानेच माध्यमिकी भूमिः
च विषयविभागार्थमिदमाहप्रतिपत्तव्या। अथवा-भावितस्यापि-श्रद्दधानस्यापि मेधावि.
बहिरस्स उ विनाणं, आवरियं न उण सोयमावरियं । नश्चापि च करणजयार्थ माध्यमिकी भूमिः। गतं भूमिद्वारम् । अपडप्पणो वालो, अतिवुड्डो तह प्रसन्नी वा ।।६१॥ अधुना द्विविधपरिणामकद्वारमाह
विनाणावरियं तेसिं, कम्हा जम्हा उ ते सुणंता वि । आणादिटुंतेण य, दुविहो परिणामगो समासेणं । न वि जाणते किमयं, सदो संखस्स पडहस्स ।। ६२ ।। आणापरिणामी खलु, तत्थ इमो होइ नायवो ॥५॥/ बधिरस्य विज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियविज्ञानमावृतम् , सामान्यतः स द्विविधः परिणामको भवति, तद्यथा-श्राशया, रष्टान्तेन शब्दमात्रश्रवणेऽपि तद्गतविशेषापरिज्ञानात् , नतु श्रोत्रमा च। तत्र समासेन-संक्षेपेण आझापरिणामः खल्वयं वक्ष्य- वृतं सामान्यतः शब्दमात्रश्रवणात् , तथा योऽपटुप्रशो-बालो माणो भवति । तमेवाह
यश्वातिवृद्धो यो वा असंशी अमनस्कः पञ्चेन्द्रियः, एतेषां तमेव सच्च नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदियं ।
विज्ञानमावृतम् । कस्मात्?, यस्मात्ते शृण्वन्तोऽपि-न विजानप्राणाएँ एस अक्खाओ, जिणेहिं परिणामगो॥५६॥
ते किमयं शब्दः शङ्कास्य, उत-पटहस्येति । तदेव सत्यं यजिनैः प्रवेदितमित्येव यो निःशहंश्रद्दधाति
किं ते जीवमजीवं, जीवा एवेति तेण उदियम्मि । न च कारणं जनयते एष प्राशया परिणामको जिनैराण्यातः। भन्मइ एवं विजाणसु, जीवा चरिदिया विति ।। ६३॥
२८९
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(१९५५) सेहभूमि अभिधानराजेन्द्रः।
सेहभृमि किंते बधिरादया जीवा, अजीवा वा ? । तत्र जीया एवेति ।। (परिणामकविषयः 'परिणामग' शब्दे पश्चमभाग गतः।) तेनोदिते भएयते-पवं वधिरादिवत् चतुरिन्द्रिया अपि जीवा | एतदर्थ सुखन जीवत्वप्रतिपत्त्यर्थमुपसंहरन्नाहइति विजानीहि धोत्रावरणमात्रेण जीवत्याप्रच्युतेः।
एम परिणामगो भणितो, अहुणा उ जहुँ बोच्छामि । एवं चक्खिदियघा-णिदियजिभिदिओवधाएहिं ।
सो दुविहो नायव्यो, भासाएँ सरीरजड्डो उ ।। ७७॥ एकेकयहाणीए, जाव उ एगिदिया नेया ॥६४॥ एष द्विविधा विपरिणामक उक्तः । अधुना ज(इं)डं यक्ष्य, एवमेकैकहान्या एकैकेन्द्रियपरिहानितः चक्षुरिन्द्रियघ्राणे
स जडो द्विविधो सातव्यः, तद्यथा-'भासाए 'त्ति भाषान्द्रियजिव्हेन्द्रियोपघातैः क्रमेण श्रीन्द्रियादयः तावत् आया
जडः, शरीरजडश्च । यावदेकेन्द्रियाः, तद्यथा-चक्षुरिन्द्रियोपघातेऽपि त्रीन्द्रियाः
जलमृगएलमूगो, मम्मणमूको य भासजड्डो य । प्राणेन्द्रियोपधातेऽपि द्वीन्द्रियाः, जिव्हेन्द्रियोपघाते प्यके- दुविहो सरीरजड्डो, थुल्लाकरणे अनिपुणो य ।। ७८ ॥ न्द्रियाः । इह पूर्व विज्ञानावरणेऽपीन्द्रियमनावृतमुक्तम् । भाषाजडविविधः, तद्यथा-जलमूकः,एलमूको,मम्मनमूकइदानीमिन्द्रियावरणेऽपि विज्ञानमनावृतमुपदर्शयति
था। शरीरजडो द्विविधस्तद्यथा-शरीरेण,क्रियायामनिपुणश्च । सन्निस्सिदियघाए वि, तन्नाणं न विरिआइ ।
पढमस्स नत्थि सदो, जलमज्झे व भासतो। विनाणं नतु सन्नीणं, विजमाणे वि इंदिए ।। ६५॥
चीयो उ एलगो चेव, अव्वत्तं बुबुयायइ ।। ७६ ।।
प्रथमस्य जलमूकस्य जलमध्ये इव भाषमाणस्य नास्तिसंक्षिन इन्द्रियघातेऽपि न मानमुपहतेन्द्रियज्ञानं नाऽऽत्रि
शब्दः, द्वितीय एडमूकः एडकमिव बुद्धदायते । यते । एतचाग्रे भावयिष्यते। असंशिनां पुनर्विद्यमाने ऽपी
मम्मणो पुण भासतो, खलए अंतरंतरा । न्द्रिये विज्ञानं नास्ति । यथोक्तं प्राक तथा चाग्रे यक्ष्यते ।
चिरेणं नीति से वायं, अविसुद्धा व भासतो ।। ८०॥ एतदेव भावयति
मन्मनः पुनर्भापमाणोऽन्तरा अन्तरा स्खलति, दिवा-'स' जो जाणइ य जच्चंधो, बने रूबे विकप्पसो। तस्य भापमाणस्य चाक चिरेण 'नीति' निर्गच्छति अविनेत्ते वाऽऽवरिते तस्स, विनाणं तं तु चिट्ठइ ॥६६॥ । शुद्धा वा। पासन्ता वि न याणंति, विसेसं वममादी णं ।
___ सम्प्रति दुवे जड' त्ति द्वारमाहपाला असन्मिणो चेव, विन्नाणावरियम्मि उ ॥६७।। दुविहेहिं जड्डदोसे हिं, विसुद्धं जो उ उज्झति । यो नाम जात्यन्धः अम्पृष्टचक्षुर्वर्णान् रूपाणि च विकल्प
कायाचत्ता भवे तेणं,मासा चत्तारि भारिया (गुरुकंत)८१ शोऽनेकप्रकार जानाति तस्य नेत्र अध्यावृते तत् विजाना- द्विविधेन जाज्यदोषण विशुद्धं य उज्झति तेन कायाः-पद ति अन्धीभूतोऽपि वर्णविशेषान् रूपविशेषांश्च; तथैव स्प- कायास्त्यक्ता भवेयुः, न संरक्षिताः, तथास्य प्रायश्चित्तं चशंतो जानातीत्वर्थः,तथा बाला असंज्ञिनश्च पश्यन्तोऽपि वि. स्यारो गुरुका मासाः। एतेन संभोजनद्वारं व्याख्यातम् । शाने आवृते घराणादीनां विशेषं न जानन्ति । तदेवमिन्द्रि
कहिए सद्दहिए चेत्र, उवति परिग्गहे । योपघातेऽपि न विज्ञानोपघातः , ज्ञानोपघातेऽपि नेन्द्रियोपघात इति विज्ञानेन्द्रिययो दः,तेनेह तयो दात्तदावरण
मंडलीए उ वढंतो, इमे दोसा उ अंतरा ।। ८२ ॥ योरपि भेद इति । ज्ञानावरणं दशधा।
अन्तराऽन्तरा पहजीवनिकाये कथिते श्रद्धितेच 'उबति' सांप्रतमेकैकेन्द्रियहान्या यत् एकेन्द्रियत्वं पूर्वमुक्तं तद्भा
पतहहे; तत्र समुद्दशाप्यते इत्यर्थः, एतदनुपस्थापितो भवति, अयति
तदा तं मण्डल्यां समुद्देशयत् अन्तरा पुनर्भधमान इमे व
क्ष्यमाणा दोषाः। इंदियउवधारणं, कमसो एगिदिओ व संवुनो।
___ तान् ( दोषान् ) एवाहअणुवहए उवकरणे, विसुज्झए ओसहादीहिं ॥६॥ भवचिजए य उवचि-जए उ जह इंदिराहि सो पुरिसो।
पायस्स वा विराहण, अतिही दट्टण उड्ड गमणं वा । एस उवमा पसस्था, संसारीणिदियविभागे ॥६६॥
सेहस्स वा दुगुंछा, सव्वे दुद्दिद्वधम्म त्ति ॥ ८३॥
उत्पाटयतो-नयत प्रानयतो वा पात्रस्य विराधना स्यात् । कोऽपि पुरुषः क्रमशः-क्रमेणेन्द्रियाणां श्रोत्रादीनामुपधा
यदिवा-अतिथीन् दृष्ट्रातस्य 'उद्दे' ति वमनं प्रवर्तते,गमनं वा तेन एकेन्द्रिय पय संवृत्तः, तत्र चानुपहते उपकरणे-3
नत एव प्रदेशात् कुर्यात् , शैक्षकस्य वा जुगुप्सा जनन क्रियपकरणन्द्रिये पुनरौषधादिभिर्विशुभ्यति--सर्वस्पटेन्द्रिया
ते, यथा केनापि दांपेण दुष्ट एषः । ततः पृथग् भुते सयान भवति । तत्र यथा स पुरुष इन्द्रियैरपचीयने उपचीयत च
वा कश्चित् जुगुप्लते, यथा-पात्रमप्येवंभूतं भोजनात् पहिः एषा उपमा संसारिणामिन्द्रियविभागे प्रशस्ता । तथैव सं
कुर्वन्ति अहो दुईएधर्माण इति । सारिणोऽपि पञ्चेन्द्रिया भून्या चतुरिन्द्रियास्त्रीन्द्रिया
___ सम्पति 'भूमितियविवेगो' इति व्याख्यानार्थमाहहीन्द्रिया एकेन्द्रिया भूत्वा पुनःन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिचियाः पश्चेन्द्रियाश्च भवन्तीत्यर्थः । (व्य०।)
जलमग एलमूगो, सरीरजहो य जो य अतिथलो।
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( १९५५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सेहभूमि
यं तु विवेगो भूमितियं ते न दिखा | ८४॥ यदुक्तं भूमित्रिकस्य विवेक इति तस्यायमर्थः जलमूक एडमूकः शरीरजा योऽतिस्थूलस्तानेतान् त्रीन् न दीक्षयेत् । दुम्मेहमणविसी, न जागती जो तु करणतो जड़ो । ते दुनि विते उ सो, दिक्खेइ सिया तो अतिसेसी | ८५ | दुर्मेधसं यश्च करणतो जडस्तमनतिशेषी अनतिशयो न जानाति तेन कारणेन ती द्वापि स दीक्षयेत् ।
अथ स्यात्सोऽतिशेषी ततो न दीक्षपतिअहव न भासाजड, जहाति परंपरागयं छउमा । इयरं पिदेसडिग असतीए वा विविचि (ठचि) आ ८६ । अथवा 'मासा' [ परंपरागतं परंपरा गुरुपरंपरागतं च इद्मस्थान त्यजन्ति, इतरमपि कदेशहिराकस्य देशना प्रसूति वा अन्यस्मिन् साधी दीक्षयेदन्यथा विवेचयेत्-न दीक्षयेत्, दीक्षयन् वा परिष्ठापयेत् ।
अत्रैव मतान्तरं दूषयति
मानुस नाणं वा, दुम्मेह तमं पि केइ इच्छति । तं न भवति पलिमंथो गया वि चरणं विणा सायं ॥ ८७॥ केचित् मनुष्यज्ञातेन दुर्मेधास्तमणि दीक्षितुमिच्छन्ति, भवति यतो दुर्मेधसः पाउने स्वयं सूत्रार्थयोः पलि मन्थः, नचापि तस्य ज्ञानं विना चरणं ततः आत्मनः प रस्य च केचलक्लेशान तीक्षणमिति ।
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नातिपुत्रं न उज्यंति, मेहावी जो अ बोच्चडो । जलमृगेलमूगं च परिडावेज दोषि वि ॥ ८८ ॥ नातिस्थूल मामन्तीत्यर्थः य मेधावी योधडी भाषाजस्तमपि नोज्झन्ति जलमूकैडमूकं द्वावप्येतौ परिछापयेत् ।
नूकरण, परिषति जान सम्माया । एक धम्मासा, जस्स व दई विविचगया || मुक्त्या करराज शेषदुर्वेध भाषा यावत् परमासा स्तावत्परिवर्णपति-अनुधर्मपन्ति ततः परमन्यस्याचार्यस्य समयते सोऽपि परमासान् परिवर्त्तयति तदनन्तरमन्यस्य सोऽपि षण्मासान् परमेकैकं तस्य परमासाः । तत्र त्रपाणां मध्ये यस्य समीपे संख्यां गृहीतवान् यावन्तं दृष् वाचते ममैनं तस्य दा शिक्षादेखि इति तस्य विवेचन नमित्यर्थः ।
अमेयार्थ स्पष्टतरमाह
तिए आयरियाणं, जो तं गाहेइ सीमो तस्सेव । जइ एत्तिएण गाहितो, तो न परिद्वावए ताहे ॥६०॥ त्रयाणामान्यार्याणां मध्ये यो प्रायति तस्येव शिष्यः दीयते, यदि एतावता श्राचार्यत्रिकेण परिपाट्या मिलित्वा प्राहितो भवति ततस्तदा न परिष्ठाप्यते ।
देति अजंगमधेरा-स वावि महवा वि दहु जो उ । मष्यति मयं कर्ज दिजति तस्सेच सो ताहे ॥ ६१ ॥ अथवा अङ्गमविराणां स वैयावृतिकाय
ते
सोइंदिय यदिया - यस्तं दृष्ट्रा भणति मम कार्यमेतेन तस्माद्दीयतामिति ततस्तस्यैव दीयते ।
जो पूरा करने जड़ो उकोर्स तस्स छोइ धम्मासा । कुलंगण संघनित्रेयण, एयं तु विहिं तहिं कुञ्ज ॥६२॥ यः पुनः करणजडः तस्योत्कृष्टं परिपालनं भवति यावपरमासाः ततः परं कुलस्य गणस्य संघस्य वा निवेदनं क्रियते स यत्करोतिविधि तत्र कुर्यादिति । व्य० १० उ० ।
"
सेहम्बदालियंत्र सिद्धाम्लदालिका १० सिद्धे आम्लस्कृतेाये दालपदार्थे, 'सेवे' सिन यानि अ जेनीमनादिना संस्क्रियन्ते तानि विदाग्लानि यानि दारूपामुद्रादिच्या निष्पादितानि तानि तानि - लिकाम्लानीति संभाव्यन्ते । उपा० १ ० । सहय- शैक्षक पुं० अभिजिते, स्था० ठा०३४० । सेहर - शेखर - पुं० । शिरोभूषणे, लोमपक्षिभेद च । जी० १
3
प्रति० ।
सेहात्रिय - शिक्षा (सेधा) यित- त्रि० । उपाध्यायादिप्रयोजनतः सेविते पा० प्रतिसमाचारमेयायाम् तस्य भ
"
गवतो हेतुभूतात्म०१४० शिक्षि शिक्षां प्राहित, उपाध्यायादिगृह विनयविशेषेषु कुशली ते ०३ अधि सेहिय सेधित ०ि निष्यादिते आचारविशेषविनय। विशेषेषु कुशलीकृते, पा०| झा० । प्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापतो निष्पादिते, भ० २ ० १ ३० ।
शिक्षित शि० गुरुभिः स्वयमेय शिक्षां प्राहिते पा
9
.
६० भ० ।
सैदिक वि० सिद्धापवर्गला भये सूत्र० १० १
,
अ० २ उ० ।
सेही शैक्षी - स्त्री० । नवशिक्षितायाम्, ग०३ अधि० १ सहोपडावस- शैचोपस्थापन १० शिष्यस्य उपस्थापनाकरणे, " तिईि उनरादि रोहिणीदि कुछ सेहनिक्समं । सेहोबट्टावणं कुज्जा, श्रणुन्ना गणिवायए । " ५० प० । सोच - शौच- - न० परद्रव्यापहारमालिन्याभावे, स० १४३
सम० ।
सोश्रणवत्तिया स्वप्नप्रत्यया श्री० [स्वप्ननिमिशविरा
।
नाया अतिचारभेदे. श्राव० १ ० ।
सोश्रण - शोचन - न० । अथुपरिपूर्णनयनस्य दैन्यं श्राव०
"
४ श्र० ।
सोममन्द्र सौकुमार्य १० तो मुकुलादिष्यत् २१०७० इत्यादेरुतोऽश्वम्। सोश्रमलं । प्रा० । “पर्यस्त पर्याण- सौकुमायें लः " ॥ ८ | २ | ६८ ॥ इति र्यस्य ज्ञः । साश्रमलं । शरीरसौष्ठवे, प्रा० २ पाद । सोश्रामिणी-सौदामिनी-स्त्री० । विद्युति, जं० ३ बक्ष० । सोईदिय-श्रोत्रेन्द्रिय न० धूयते नेति
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( १९५६) अभिधानराजेन्द्रः ।
सोदिय
च श्रोत्रेन्द्रिमम् | शब्दग्राहके इन्द्रिये, आ० म०१ श्र० । शा०|
प्रज्ञा० प्रा० क० ।
द्रिय उदाहरणम्
-3
|
गायकः पुष्पशालोऽभूसन्तपुर कर्णानन्दी स्वरस्तस्य, वैरूप्यं चाक्षिदुःखदम् ॥ १ ॥ गायता तेन सर्वोऽपि, लोको हृतमनाः कृतः । सार्थबाहो धनस्तस्मात् पुरो देशान्तरं गतः ॥ २ ॥ पचाद्भद्वाऽस्ति तद्भार्या तत्र घोषितभर्तृका । दास्यस्तस्या गता श्रसन्, बहिः कार्येण केनचित् ॥ ३ ॥ तास्तं गायन्तं शृण्वानाः, काले नाज्ञासिषुर्गतम्) चिरागताच तास्तच सा ।४॥ ऊचुस्ता देवि मा कुष्य श्रुतमस्माभिरच यत् । गीतं तत्कस्य नानन्दि, पशूनामपि वल्लभम् ॥ ५ ॥ दध्यो सा तत्कचे धायं कथं प्रयास गीत इतः पूर्ववनागारे, यात्रारम्भस्तदाऽभवत् ॥ ६ ॥ पौराः सर्वे ययुस्तत्र, साऽपि तत्र तदाऽगमत् । गाथाकः स च निःशेषां, रात्रि गीत्वा परिश्रमात् ॥ ७ ॥ मत्रैवायतमे भागे निद्रामुपागतः । पश्चाद्, सार्थवाही च तां देवीं प्रणम्याभ्यच्यं भक्तितः ॥ ८ ॥ प्रदक्षिणीकृतस्तस्याः, श्रेष्ठिभिर्दर्शितोऽथ सः । दृष्ट्राचे रूप मानेन, भावी गीतस्वरोऽपि हि ॥ ६॥ इत्युक्त्यात निष्ठीव्य साऽगमम्मन्दिर निजम् । गाथकस्य प्रबुद्धस्या- ख्यातं तच्चेष्टितं नटैः ॥ १० ॥ गाथकः सोऽथ सामर्षः, प्रातस्तस्या गृहान्तिके । जगी विरहसंबद्ध गीतं स्फीतं रसोर्मिभिः॥ १९ ॥ आसवेन प्रपीतेन तेन गीतेन पूरिता । मत्तेयास्वया साऽभूत्संनिपाततेच या ॥ १२ ॥ तदुत्थितोकडा कडा प्रियस्य सा । देवप्रेयसे जयिनः करे ॥ १३ ॥ अध्यारो सोधा तम्मागांन्वेषणाय सा ऊचे च सखि ! लेखस्य, गतस्यासन् दिना घनाः ॥ १४ ॥ स लेखदर्शनादेव, चलितः कलितं मया । अत्रैष्यति दिनैर्द्वित्रै--र्यहन्नस्त्यधुना पथि ॥ १५ ॥ अन्याय सखीनां खादिशो ऽखिलाः । श्रदर्शयत्कराग्रेण हला ! पश्यत पश्यत ॥ १६ ॥ अयमयमयि प्रेषान् यान् स एव मनोहरो नयननलिनोल्लासन्यासक्रियासु निशांपतिः । वपुषि पुलकोद्भेदस्वेदोद्वमक्षम संगमः, किमपि रमयत्यन्तः कान्तः सुखं सखि ! मेऽधुना ॥ १७ ॥ मंस्यत दुर्विनीतां मां, चेद्यास्यामि न संमुखी ।
सिद्दाप्रसौ भाषा-दिव्यात्मानं मुमोच सा ॥ १८ ॥ मृता च तत्क्षणादेवं, श्रोत्रेन्द्रिय दुरन्तता । ध्यायितुं तन्न दुष्टाङ्ग, मुच्येते करीतकौ ॥ १६ ॥
[झा० क० १ ० । ० । ० ० ( पुट्ठे सुरो सदं ' इति श्रोत्रन्द्रियस्य स्पृष्टविषयग्राहकत्वम् इंदिय शब्दे द्वितीया ५४७ पृष्ठे गतम् । )
•
- सोइंदियणिग्गह — श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह – पुं० । श्रवणेन्द्रियस्यायरोधे, उत्त० ।
सोय सोइंदियणिग्गहेणं मणुष्मामणुसेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जयइ, तप्पच्चइयं च कम्मं ण बंधइ, पुव्वबंधं निजरेह । उत्त० २६ अ० । सोइंदियत्थ-श्रोत्रेन्द्रियार्थ पुं० । श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं तच तद् इन्द्रियं च श्रोत्रेन्द्रियं तस्यार्थी-ग्राल. श्रोत्रेन्द्रियार्थः । शब्द, स्था० ५ ठा० ३ २० !
सोइंयियबल - श्रोत्रेन्द्रियबल - न० । श्रोत्रबलसामर्थ्यग्राहके,
स्था० १० ठा० ३ ३० ।
सोइंदियमुंड - श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड - पुं० । श्रोत्रेन्द्रियनिबन्धने मुराडभेदे स्था० १० ठा० ३ उ० ।
सोइंदियवसच श्रोत्रेन्द्रियवशा-त्रि विशे स्पारतयेः पीडितः अमेि
खिते भ० १२ श० २ उ० । सोइंदियविसप्पवार श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचार -पुं०
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यस्य यो विषयेष्वष्टानिष्टशब्देषु प्रचारः स श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारः । श्रवणलक्षणाप्रवृत्तौ भ० २५ श० ७ उ० ॥ सोइय- शोकित - न० | मानसे चिकारे, अनु० । सोइयव्य शोकितव्य त्रि० शोकविषय संघा० १ धि० १ प्रस्ता० ।
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सोउाय बुवा"वस्तुमायाः २१४६ इति क्त्वाप्रत्ययस्य तुत्राणादेशः । सोउश्राणं । श्राकर्येत्यर्थे प्रा० २ पाद । सोऊण- श्रुत्वा अन्य० "युवस्य गुणः॥२३॥ घरतोरिवर्णस्योवर्णस्य च ङ्कित्यपि गुणो भवति । सोऊण । प्रा० । “चि-जि-----पू-धू - स्वश्च ।” ॥ ८ । ४ । २४१ ॥ व्यादीनां धातूनामन्ते लकारागमः, एषां स्वरस्य च इस्वो भवति बहुलाधिकाराक्वचिद्विकल्पः । सोऊण । प्रा० । निशम्येत्यर्थे सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ० । श्राकर्णयितुमित्यर्थे पञ्चा २ विव० । सोएव- शोचितव्य - त्रि० । " तव्यस्य इएव्व एव्व एवाः ॥ ८६ । ४ । ४३८ ॥ इति श्रपभ्रंशे सव्यप्रत्ययस्य एवादेशः । शोचनीये, प्रा० ४ पाद ।
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सोंड- शौण्ड न० । गर्वे, स्था० १० दा० ३ उ० १ सोंडामगर - शौएडमकर- पुं० । मकरभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। सोटीर-शी एडी ० "ब्रह्मचर्य-सूर्य-सौन्दर्य शीडीयेर्यो रः २६३ | इति र्यस्य रः । सोंडीरं । प्रा० । त्यागसम्पन्नतायाम्, सूत्र० १ श्रु० ८ ० । कर्मशत्रून्प्रति शूरे, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । स्था० शीर्ष फरसन वशीकृतः पुत्रतया प्रतिपाद्यमाने दे, स्था० १० ठा० ३ उ० । चारभटे, प्रश्न० ५ संव० द्वार । सोक्ख -- सौख्य- न० । आनन्दे, स्था० २ ठा०३ उ० | सुखे, शा० १ ० १३ श्र० । गन्धरसस्पर्शलक्षण विषयसंपाद्ये, स्था० ६ ठा० ३ ३० । प्रज्ञा० । उत्त० । गधोपादाने, स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
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सोग
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ग्रहः '
सोग-शोक- पुं० । इष्टवियोगोत्थदुःखे, श्रौ० । प्रश्न० । उत्त० नि० । चित्तखेदे शा० १ ० १ अ० । दैन्ये आचू० ६० ४ ० चित्तप्र० ५१ द्वारा० म० मानसे दुःखशेषे० प्रा० स च सवितावित्तमिश्रामिष्टानां नि अनिष्टानां संयोगेन च भवति । जीतन स्थान । प्रश्न० । घ० । कृ० श्री० प्रातिविना शोद्भवे ( श्राचा० १ ० ३ ० १ उ० । श्रातु । स०) वियोगनाशादिजनिते सांगे दर्श०१ तस् । मर्ममे यदुदयेन शोकरतिस्थापि जीव स्याक्रन्दनादिः शोको जायते । स्था० ६ ठा० ३ उ० । शोशोको देयमुपलक्षत्वादेवास्य सकलमानसः परि अहः । २० १६०२ ४० । सोगधरविगमंगी शोकभरेण प्रवेपितं - कम्पितमङ्गं यस्यास्सा तथा । भ० ६ श० ० ३३ ३० । प्रियवियोगादिविकलचेतोवृत्तितयाऽऽ कन्दनादि येन करोति स शोकः । बृ० १ "उ० २ प्रक० । सौगंधिय-सौगन्धिक-न० । कहारे, जी० ३ प्रति०४ अधि० । श्रा० म० । प्रज्ञा० । रा० । जं० । रत्नविशेषे, रा० । प्रशा० ॥ श्रा० म० । ज्ञा० | सूत्र० । यः सुभगं मन्वानः स्वलिङ्गं जिघ्रति स सौगन्धिकः पुं० नपुंसकभेदे ग०१ अधि० सौगन्धिको नाम सागारिकस्य गन्धं शुभं मन्यते स च सागारिकं जिघ्रति मलयित्वा वा हस्तं जिघ्रति । वृ० ४ उ० । नि० चू० । प्रय० । पं० चू० | पं० भा० । सोगंधियकंड-सौगन्धिककाण्ड न० | रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सौगन्धिकरत्ननिभे काण्डे, स्था० १० ठा० ३ उ० । स्रोगंघिया-सौगन्धिकी-स्त्री० | स्वनामख्यातायां नगर्याम्,
शा० १ ० ५ अ० ।
सोचा रवा-य० ------झाः क चित् " ॥ ८ । २ । १५ ॥ इति त्यास्थाने च्चा - त्यादेशः । सोच्चा | प्रा० । निशम्येत्यर्थे, अवगम्येत्यर्थे सूत्र० १ ० ३ ० २ उ० । श्रचा० । गुरुमुखात्कर्णे धृत्वेत्यर्थे, उत्त० २ अ० । श्रोत्रेण निशम्बेत्यर्थे, स्था० ३ ठा० १ उ० | तं० | दश० | कल्प० भ० । श्रागमापक्षे, भ० ६ श० ३२ उ० । अवधार्येत्यर्थे, विपा० १ ० २ ० भ० ।
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( १९५७) अभिधान राजेन्द्रः ।
श्राचा० ।
२६०
। कटीसूत्रे, । सोगमन - सौकुमार्य न० अतिसुकुमारतायाम्, 'प्रायाच्या सोखिसुत-श्रोणिसूत्र १० टी २०१८०३३४० । बालकानां धर्मादिदवरकरूपे कटीसूत्रे, डा० १ ० १७ प्र० । ही चय सोगमनं ' दश० २ श्र० । सोगमोहणिज्ज-शोकमोहनीय- न० । मोहनीयकर्मभेदे, यद्व- सोणी - श्रोणी- स्त्री० । कटेरग्रभागे, जं० २ यक्ष० । कटौ शात्प्रियविप्रयोगे सोरस्ताडमाक्रन्दति परिदेवते दीर्घ च सिति भूपीडेच लुठति ताकमोहनीयम् । कर्म०
प्रश्न० ४ श्र० द्वार ।
६ कर्म० । सोगविहाण - शोकविधान - न० । प्राजमनके क्षारितादिके,
व्य० १ उ० ।
सोग्गर - सुगति - स्त्री० । मोक्षमार्गे, सुदेवत्वादिके, 'एत्थ सुग्गती खाणदंसणचरणा भवंति ' । अथवा सुग्गई सुदेवत्तादिका । श्र० चू० १ श्र० ।
सोलिंदिय
सोच्चिय- शोचित त्रि० । “ सेवादौ वा ॥८२२६६ इति द्वित्व म् शोकचिषये प्रा० २ पा
--
सोजोष सोद्योत त्रि० । उद्घोतभावसहिते, जी०३ प्रति०७ अधि० । बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरे, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
सोड-शोदन० सीधुनि आचा० २ ० १ ० १ ० ३
उ० ।
सोडसय-पोटशक-पुं० पाये समुदाये, “प्रकृतेस्ततोsहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । " आ० म० १ ० । । सोडसिगापोढशिका स्त्री० मगधदेशसिरसमाधिशेषे, रा० ।
सोड मोडत्रि० । अनुभूते, उत्त० १६० -- - ।
सोण-- शोण-- न० । दन्तकाष्टिकामध्ये रक्तवर्णे, तं० । सोखिचक-श्रोणिचक्र-१० कटितडे, कल्प० १० २
क्षण ।
सोशिय शोणित- न० पललरुधिरे, उत्त० २ अ० चाचा० । शा० | तं० | स्था० । श्रार्त्तवे रुधिरे, सामान्येन वा रुधिरे, ज्ञा० १ ० ८ अ० । शोणितं - रुधिरं द्वितीयो धातुः ।
तं० । श्राचा० । प्रा० म० ।
--
सोणियलव-- शोणितलव - पुं० । शोणितविन्दौ, तं० ॥
सोणियानुसारि - शोणितानुसारिन् -- पुं० | शोणितान्तव्यापके
धातौ स्था० ६ ठा० ३ उ० ।
सोएहग- सोयहक पुं० पक्षिविशेषे उ०५० सोहियालिंग शोणिकालिङ्गन० रायविशेषे जी० ३ प्रति० १ अधि० २ उ० ।
सोच श्रोत्र न० । श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्। शब्दमा केन्द्रिये, स्था०८ ठा० उ० । प्रशा० । अचित्तं जीवरहितं सोनं छिद्द पुणसहो भेदष्पदरिस तं श्रचित्तसोत्तं तिविहं- देहजुयं, पडिमजु, वे च वि० चू० १ ३० ।
श्रोतम्-न० । "तैलाई" ॥२॥ इति मन्तव्यञ्जनस्य द्वित्वम् । जलप्रवाहे, प्रा०२ पाद।
सोत्तबंधण-- श्रोतोबन्धन - न० । जलप्रवाहबन्धने, प्रश्न० १
आश्र० द्वार ।
सोत्तामणि सौत्रामणि स्त्री० । रुचकद्वीपभवार्या दिकुमार,
कायाम् आ० क० १ ० ।
| सोसिदिय श्रोत्रेन्द्रिय न० अवन्द्रिये ००१०
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सोमणस
(११५८) सोत्तिय
अभिधानराजेन्द्रः। सोत्तिय-सौत्रिक-त्रि० । सूत्रं पण्यमस्येति सौत्रिकः। सूत्रक- | सोभित्ता-शोभयित्वा-अव्य० । विधिवत्करणेन शोभां कृत्वेयविक्रयकारिणि , अनु । जीवा०।
त्यर्थे, कल्प० ३ अधि० ६ क्षण। शौक्तिक--पुं० । द्वीन्द्रियभेदे, प्रशा० १ पद ।
मोभिय-शोभित-त्रि० । तत्समाप्तौ गुर्वादिप्रदानशेषभोज. सोत्तियमई-शौकिकाति--स्त्री० । केकयार्द्धजनपदार्द्धराजधा- नासयनेन शोभा प्रापिते अतिचारवर्जनेन कृतशोधे, स्था भ्याम् , प्रज्ञा०१ पद ।
७ ठा० ३ उ० । रा०। प्रा० चू०। सोत्थिय--स्वस्तिक-पुंग लोकप्रसिद्ध मालिके चिहभेदे,रा। सोम-सोम-पुं० । चतुर्थबलदेववासुदेवयोः पितरि, आव०१ प्रश्न। जं० । प्रशा। श्रा०म० । अपासीतिमहाग्रहेषु षष्टित- अ० । स्था० । ति । यथेषु देवपये लताविशेषे, 'अपाम सोमे ग्रहे,स्था०२ठा०३उ०। प्रा०म०। सू०प्र०। प्रा०चूच० प्र०। मममृता अभूयम्' । श्रा० म०१०। तद्रसे, विश० । चन्द्र, दो सोत्थिया । स्था० २ ठा०३ उ० ।
जं०७ वक्ष ज्योग। चं०प्र०ा मृगशिरोनक्षत्रस्याधिपः सोमः।
ज्या०६ पाहु। सू० प्र०। अनु०। स्था०। अष्टाशीतिग्रहेषु सोत्थियकूड-स्वस्तिककूट--न । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिण।
द्वादश महाग्रहे, जं०७ वक्ष० । सू० प्र०। कल्प० । चं० प्र०। रुचकबरपर्वतस्य प्रथमे कुटे, स्था०८ ठा.३ उ० । द्वी। शक्रस्य देवेन्द्रस्येशानस्य च स्वनामख्याते उत्तरदिग्लोसोदयबंधिणी-स्वोदयबन्धिनी--स्त्री० । स्वस्योदय एव ब
कपाले चमरस्यासुरेन्द्रस्येन्द्रे, भ०३ श०७ उ०। श्रा० म०।
ग० । स्था०। (वक्तव्यताऽस्य 'लोगपाल' शब्दे पष्ठे भाग ग्धो यासां तास्तथा । तथाविधासु कर्मप्रकृतिषु , पं० सं०
गता।) (अस्याग्रमहिष्यः 'अग्गमहिसी' शब्द प्रथम३ द्वार।
भागे १७१पृष्ठे उक्ताः । ) पार्श्वस्वामिनः पश्चमे गणधरे, सोदर-सोदर--पुं० । एकमातृके , उत्त० २२० ।
कल्प०१ अधि०७ क्षण । स्था० । शान्तदृष्टी,प्रव०६५ द्वार । सोदामिन--सौदामिन-पुं० । चमरस्यासुरेन्द्रस्याश्वानीकाधि
शान्ताकृती, व्य०६ उ०। सुभगे, जं०१ वक्षः। रा० । अ
रौद्राकारे, रा०। सू० प्र० । विपा० । ०। नीरोगे च । भ. पतौ , स्था०५ ठा० १ उ०।
१२ श०६ उ०। उत्तमया कीर्त्या सहिते, कल्प०१ अधि०३ सोदामिणी-सौदामिनी-स्त्री० । विद्युति, औ०। विदिचक |
क्षण । गुर्जरधरित्रीपण्डलीमहानगर्याः श्रीमद्वीसलदेवराजवास्तव्यायां दिककुमारीमहत्तरिकायाम् , जं० ५ वक्षः । स्य पुरोहिते, ती० ४१ कल्प । चम्पावास्तव्ये स्वनामख्याते सोदास-सौदास-पुं० । स्वनामख्याते मांसप्रिये राजनि, प्रा० ब्राह्मणे , शा० १ श्रु० १६ श्र०। ('दुवई' शब्दे चवुर्थभागे
२५७७ पृष्ठ कथा गता | कोडीनगरवासिनि स्वनामख्याते चू०५०। श्रा० क० । श्रा०म०। जिह्वेन्द्रिये उदाहरणम् ।
ब्राह्मण, ती० ५५ कल्प । ('कोहंडिदेव' शब्द तृतीयभागे श्रा० चू०१०। प्राचा०1श्रा० क०।
६८४ पृष्ठे कथा ।) सोह-शौद्र-पुं० । शुष्ककाष्ठे, वृ०२ उ०।
सोमंगलग-सौमङ्गलक-पुं०।द्वीन्द्रियजीवभेदे,जी०१प्रति०। सोपारग-सोपारक-पुं० । स्वनामख्याते समुद्रतटीयनगरे , प्रशा। श्रा०म०१ अ० श्रा०क०। उजेणी नगरी, जितसत्तू राया , सोमकाइय-सोमकायिक-पुं०। सोमस्य कायो निकायो येषा. नस्स अट्टणो मल्लो,सब्बरजेसु अजेयो। इतो य समुहतडे सो.
| मस्ति ते सोमकायिकाः। सोमपरिवारभूतेषु दवेषु,भ० ३ श० पारगं नगरं तत्थ सीयगिरी राया। श्रा० चू०४०।
७ उ० सोप्पास-सोत्प्रास-न। उत्प्रासयुक्त गाने,स्था०७ ठा०३उ०
| सोमचंद-सोमचन्द्र-पुं०। भरतक्षेत्रजसुपार्श्वजिनकालिकैरवसोभग्ग-सौभाग्य-न। सुभगत्वे, प्रशा० ३४ पद।
तजे तीर्थकरे, तिका प्रयास। स्वनामख्याते शिवचन्द्रनृपसोभग्गकर-शौभाग्यकर-न०। एकचत्वारिशे कलाभेदे, स० पुत्रे, ध०र० । (अस्य वृत्तम् 'सिवभह' शब्द ऽस्मिन्नव ७२ सम।
भागे गतम् ।) स्वनामख्याते पोतनपुरराजे, श्रा०चू०१ श्र० । मोभग्गसंदरी-सौभाग्यमुंदरी-स्रो० । इभ्यश्रेष्ठिनः पुत्रस्नु- गोगटी
| सोमचंदमूरि-सोमचन्द्रमरि-पुंछ। तपागच्छीये श्रीरत्नशस्त्रर.
-मो पायाम् , प्रा० क.१०।
सूरिशिष्ये, येन विक्रम-१५०४ वर्षे कथामहोदधिनामग्रन्थो सोभग्गसेवहि-सौभाग्यसेवधि-पुं० । सौभाग्यनिधी, कल्प०१ रचितः । जै००। अधि०७ क्षण।
सोमजसा-सोमयशस्-स्त्री० । सौर्यपुरे यज्ञयशमस्तापसस्य सोभण-शोभन-न० । सुन्दरे, सूत्र०२ थु० १ ० । जी०। पुत्रस्नुषायाम् श्राव०४ अ० । आ० क० । प्रा०म० । प्रा० कल्प।
चू० । द्वी। सोभद्द-सौभद्र-पुं० । सुभद्रात्मजे चम्पानगरीवास्तव्यस्य कौ. सोमणंतिय-स्वभान्तिक-न । स्वप्नस्य स्वप्नक्रियाया अन्ते शिकाचार्यस्य शिष्ये, प्रा० चू०४०। ('अज्जव ' शब्द अवसाने भवं स्वप्नान्तिकम् । स्वप्नविशेष क्रियमाग्गे प्रतिप्रथमभागेऽस्य कथा।)
क्रमणभेदे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । मोमावाण-शोभवर्जन-नाविभूषापरित्यागे,दश०६ अ०। सोमणस-सौमनस्य-न । शोभनं मनो यस्यासी सुमनास्तस्य
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सोमणस अभिधानराजेन्द्रः।
सोमणम भावः सौमनस्यम् । शोभने मनसि,राभ। जी० प्रा०म० मेरोः परितः स्थिते वने, नपुं०।०४ वक्षः। मेरोद्वितीयसौमनस--पुंजम्बूद्वीप मन्दरस्य दक्षिणतः देवकुरुषु अश्व- मेस्खलायां स्वनामख्याते वने, जं० १ वक्षः । सूत्र। स्कन्धसरशे वक्षस्कारपर्वते,तदधिपतौ च । स्था०२ठा०३३०। कहि णं भंते ! मन्दरए पव्वए सोमणमवणे णाम वणे दो सोमणसा । स्था० २ ठा० ३ उ०।
परमत्ते ?, गोयमा! णन्दणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ निषधस्य पर्वतस्योत्तरस्यां मन्दरस्य दक्षिणपूर्वस्यामाग्न
भूमिभागाओ अद्धतेवढि जोअणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता यदिशि मङ्गलावतीविजयस्य पश्चिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां
एत्थ णं मन्दरे पच्चए सोमणसवणे हामं वणे पस्पते । सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः । ०४ वक्षः।
पञ्चजोयणसयाई चकवालविक्खम्भेणं बड़े वलयाकारकहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोम
संठाणसंठिए जे ण मन्दरं पवयं सव्वओ समंता संपरिणसे णामं वक्खारपव्यए पालते?, गोयमा! णिसहस्स वा
क्खित्ताणं चिट्ठइ, चत्तारि जोश्रणसहस्साई दुणि य सहरपव्वयस्स उत्तरेणं मन्दरस्स पबयस्स दाहिणपुर
बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इकारसभाए जोअणस्स बाहिं स्थिमेणं मंगलावईविजयस्स पचत्थिमेणं देवकुराए पुर
गिरिविक्खम्भेणं तेरस जोअणसहस्साई पंच य एकारे थिमेणं एत्थ ण जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे
जोअणसए छच्च इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिणामं वक्खारपन्चए पलत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणप
रएणं तिमि जोअणसहस्साई मिश्र बावत्तरे जोअणमए डीणवित्थिम्मे जहा मालवन्ते वक्खारपब्बए तहा णवरं
अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भेणं सव्वरययामए अच्छे जाव पडिरूवे । णिसहवासहरपन्च
दस जोअणसहस्साई तिमि अ अउणापणे जांअणमए यंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उड् उच्चत्तेणं चत्तारि
तिमि अइकारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणं ति। गाऊ(उ)असयाई उव्हेणं सेसं तहेव सव्वं णवरं अट्ठो से
| सेणं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वा गोअमा! जाव सोमणसे वक्खारपब्बए बहवे देवा य
समन्ता संपरिक्खित्ते । वएणओ किएहे किण्होभासे जाव देवीओ अ सोमा सुमणा सोमणसे अ इत्थ देवे महिड्डीए
प्रासयन्ति एवं कूडबज्जा सच्चेव णन्दणवणवत्तव्यया जाव परिवसइ, से एएणडेणं गोअमा! जाव णिच्चे।
भाणियब्वा, तं चेव ओगाहिऊण जाव पासायव.सगा (सू०+६७)
सक्कीसाणाणं ति । (मू० १०५) 'कहि ण' मित्यादि, क भदन्तेत्यादिप्रश्नः सुलभः, उत्तरसूत्रे निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां मन्दरस्य पर्वत- 'कहि ण 'मित्यादि, क्व भदन्त ! मेरी सौमनसवनं नाम स्य पूर्वदक्षिणस्याम्-आग्नेयकोण मङ्गलावतीविजयस्य पश्चि. वनं प्रसप्तम्?, गौतम! नन्दनवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां यावत् सौमनसो वक्षस्कारपर्यतः | भागाद त्रिषष्टि; सार्द्धद्वाषष्टिरित्यर्थः,योजनसहस्राण्यूर्वमु, प्राप्तः इत्यादि सर्व माल्यवद्गजदन्तानुसारेण भाव्यम् , यत्तु स्पस्याऽत्रान्तरे मन्दरपर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्त,पञ्चसप्रपञ्च प्रथमं व्याख्याते गन्धमादनेऽतिदेशयितव्ये माल्य- योजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेनेत्यादिपदानि प्राग्वत् , वतोऽतिदेशनं तदस्यासन्नवर्तित्वन सूत्रकारशैलीवैचित्र्य
यन्मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिष्य तिष्ठति. शापनार्थ, नवरं सर्वात्मना रजतमयोऽयं, माल्यवांस्तु नी- पतच्च कियता विष्कम्भेन कियता च परिक्षेपणत्याहलमणिमयः, अयं च निषधवर्षधरपर्वतान्त चत्वारि योज
'चत्तारी' त्यादि, प्रथममखलायामिव द्वितीयमस्खलायामनशतान्यूचोंच्चन्वन चत्वारि गव्यूतिशतान्युद्वेधेन माल्प
पि विष्कम्भद्वयं वाच्यं, तत्र बहिनिविष्कम्भेन चत्वारि वास्तु नीलवत्समीप इति विशेषः, अर्थे च विशेषमाह
योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विमप्तन्यधिक अzी चै‘स केटण' मित्यादि, प्राग्वत् , भगवानाह-गौतम !
कादशभागा योजनस्य, एतदुपपत्तिरवम्-धरणीतलान् सौसौमनसवक्षस्कारपर्वते बहया देवा देव्यश्च सौम्याः- काय
मनसं यावद् गमने मेरूच्छ्यम्य त्रिषष्टिसहस्रयाजनान्यनिकुचेष्टाया अभावात् , सुमनसो--मनःकालुष्याभावात् परि
कान्तानि एषां चैकादभिर्भाग लब्धम् ५७२७६ अस्मिश्च रा. वसन्ति, ततः सुमनसामयमावास इति सौमनसः, साम
शौ धरणीतलगतमेरुव्यासादशमहस्रयोजनप्रमाणाच्छोधिनसनामा चात्र देवो महर्डिकः परिवसति तेन तद्योगात्
ते जातं यथोक्तं मानमिति । बहिगिरिपरिरयण त्रयोदश योसौमनस इति । स एएणटेण' मित्यादि, प्राग्यत् , 'सौम
जनसहस्राणि पश्चयोजनशतानि एकादशानि-एकादशाधिणस' इति प्रायः सूत्रं व्यक्तम् । जं० ४ वक्षः।
कानि षट् च एकादशभागा योजनस्य, नथा उन्नगिरिविष्ककूटपृच्छा
म्भेन त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे द्वासप्तत्यधिके योजनशते जंबुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपव्वए सत्त कूडा परमत्ता, अष्टौ चकादशभागा योजनस्य, उपपत्तिम्तु बहिगिरिवितं जहा-"सिद्धे १ सोमणसे २ तह,बोधव्ये मंगलाबईकूडे३।
एकम्भात् उभयतो मेखलाद्वयव्यास पञ्चशन २ योजनरूपऽदेवकुरु ४ विमल ५ कंचण ६, विसिटकूडे ७ य बोधव्वे"
पनीते यथोक्नं मानम् . अन्तर्गिरिपरिरयेण तु दश सहस्रबो
जनानि त्रीणि च योजनशतानि एकोनपञ्चाशदधिकानि प्रय॥१॥ (सू०+५६०) स्था० ७ ठा०३ उ०।
चैकादशभागा योजनस्यति । अथास्य वर्णकसूत्रम्-‘से गं
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सोमणस अभिधानराजेन्द्रः।
सोमलच्छी एगा' इत्यादि, व्यकं , नवरम् एवमुकाभिलापेन कूटवउर्जा सोमदेव-सोमदेव-पुं० । दशपुरनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते सेव नन्दनवनवक्तव्यता भणितव्या , कियत्पर्यन्तमित्याह-त
ब्राह्मणे , यत्पुत्र आयरक्षितः सूरिरासीत्। विशे० । श्रा० देव मेरुतः पञ्चाशयोजनरूपं क्षेत्रमवगाह्य यावत्प्रासादा
म० । प्रा० क० । आ० चू०। ती० । उत्त० । पाप्रमबतंसकाः शकेशानयोरिति , वापीनामानि त्विमानि तेनैव ।
नि तनव स्य प्रथमभिक्षादायके, श्रा० म० १ ० । स०। क्रमेण, सुमनाः १ सौमनसा २ सौमनांसा सौमनस्या वा ३ | मनोरमा ४, तथा उत्तरकुरुः १ देवगुरुः २ वारिषेणा ३ सर
सोमदेवयाकाइय-सोमदेवताकायिक-पुं० । सोमदेवतास्तस्वती ४, तथा विशाला १ माघभद्रा २ अभयसेना ३गहिणी सामनिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमकायिकाः । ४, तथा भद्रोत्तरारभद्रारसुभद्रा३ भद्रायती भद्रवती वा ४। सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूतेष देवेषु , भ० ३ श० जं०४वक्षा पक्षस्य नवमे दिवसे,ज्यो०३ पाहुजंग ग्रैवेयक
५ उ०। विमानानां चतुर्थे प्रस्तटे, स्था०६ ठा०३ उ० प्रव० सनत्कुमा- सोमधम्मगणि-सोमधर्मगणिन-पुं० । उपदेशसप्ततिकाग्रन्थरस्य देवेन्द्रस्य पारियानिके विमाने, औ०।० । रुचकप- कारक तपागच्छीयचारित्रगणिशिष्ये , जै०५०। नस्य खनामण्याते देवे,सू०प्र०१६ पाहु०। चं० प्र०। जं०।
सोमप्पभ--सोमप्रभ--पुं० बाहुबलिपुत्रे, श्रेयांसभ्रातरीति केशोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनास्ततः स्वार्थे ऽण । जम्ब्यां सुदर्शनायाम् , स्त्री० जे०४ वा०। द
षांचिन्मतम् । प्रा० चू० १ ०। प्रा० क० । श्रावक्षिणपूर्वस्य रतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि स्वनाम
श्यकवृत्त्यनुसारेण बाहुबलिसुतसोमप्रभसुतः श्रेयांसो राख्यातायां राजधान्याम् , जी०३ प्रति०४ अधि०। द्वी० ।
जा । कल्प० १ अधि० ७ क्षण | चमरस्योत्पातपर्वते, ती पक्षस्य पञ्चाम्यां रात्रौ, जं. ७ वक्षःसन्तुष्टचित्तत्वे,
श्रा० म० १ अ०। " सोमस्स महारमो सोमप्पभे उप्पायनपुं० । कल्प०१ अधि०१ क्षण । ज्यो।
पव्वए" स्था० १० ठा०३ उ०। (अत्रत्यो विस्तरः उप्पासोमणसकूड-सौमनसकूट-पुंजन। सौमनसनामकस्वाधि
यपव्वय' शब्दे द्वितीयभागे ८३७ पृष्ठ गतः।) धातृदेवभवनोपखक्षिते कूटे, स्था० ७ ठा० ३ उ०। (अस्य सोमप्पभसूरि-सोमप्रभमूरि-पुं०। तपागच्छीये धर्मघोषसूरिचक्रव्यता 'सोमणस' शब्देऽनुगदमेव गता ।)
समनन्तरे प्राचार्ये, ग.१ अधि० । "श्रीसोमप्रभसूरेः, पढे सोमणसवण-सौमनसवन-न० । मेरोर्द्वितीयमेखलायां स्व
श्रीसोमतिलकसूरीन्द्राः अथ सोमप्रभसूरि-स्तस्य विनेयास्तु नामख्याते वने, स्था०४ ठा०२ उ०। (अत्रत्या वक्तव्यता
चत्वारः ॥१॥ श्रीविमलप्रभसूरिः,श्रीपरमानन्दसूरिगुरुराजः ।
श्रीपतिलकसूरि-गणितिलकः सोमतिलकगुरुः॥२॥"म०३ 'सोमणस' शब्दे गता।)
अधि०। एतज्जन्म विक्रम १३१०संवत्सरे दीक्षा१३२४सूरिपदम् दो सोमणसवणा । स्था० २ ठा० ३ उ० ।
१३३२ स्वर्गतिः १३७३ वर्षे अनेन चित्रवन्धस्तवो नाम अन्यो सोमणसा-सौमनसा-स्त्री० । पञ्चमीतिथिरात्रौ, सू० प्र० १० रचितः। द्वितीयोऽपि सोमप्रभाचार्यों विजयसिंहसूरिशिपाहु।
ध्यः, तेन हेमकुमारचरित्रं सूक्तिमुत्तावलिशृङ्गारवैराग्यतरसोमणसी-सौमनसी-स्त्री० । पक्षस्य पञ्चदश्यां तिथौ, ज्यो० ङ्गिणीत्यादयो ग्रन्था रचिताः । जै० इ० । ४ पाहु।
सोमप्पभा-सोमप्रभा-स्त्री०। सोमप्रभस्य चमरोत्पातपर्वतस्य सोमणाह-सोमनाथ-पुं० । सौराष्ट्रप्रसिद्ध महादेवे , ती० दक्षिणदिग्वतिगजधान्याम् , द्वी। १६ कल्प। (एतद्भञ्जनकथा 'सच्चउर' शब्देऽस्मिन्नेव मोमभर--मोमभति-पुं०। चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते भाग गता।)
ब्राह्मणे , शा० १ श्रु० १५ अ०। सोमतिलग-सोमतिलक-पुं० । तपागच्छे देवेन्द्रसूरिशिष्यविद्यानन्दगणिशिष्यधर्मघोषसूरिशिष्यसोमप्रभसूरिशिष्ये,त
से किं तं कुलाई १, कुलाई एवमाहिअंति,तं जहा, "पढम स्य जन्म विक्रम १३५५, संवत्सरे दीक्षा १३६६ , वर्षे सूरि- च नागभूयं, बीयं पुण सोमभूइ होइ ।" कल्प० २ पद १३७३,वर्षे स्वर्गतिः१४२४ वर्षे । अनेन यमकस्तुतिटीका- अधि०८ क्षण। शीलतरङ्गिणी नव्यक्षेत्रसमाससूत्रे जीतकल्पवृत्तिश्चेति प्रस्था रचिताः। यशस्तिलकचम्पूनामग्रन्थकारके दिगम्ब
सोममित्ता--सोममित्रा-स्त्री०। सौर्यपुरवास्तव्यस्य यहयशसो गचार्य, एकाशीत्यधिकाटशत शके ऽयमासीत्। जै० इ०।
भार्यायाम् , श्राव०४ अ० श्रा० क० । श्रा० चू०। सोमदत्त-सोमदत्त-पुं० । चन्द्रप्रभस्वामिनः प्रथमभिक्षादा
सोमय-सोमक-पुं० । कौत्सगोत्रान्तर्गते गोप्रविशेषप्रवर्तके यक , श्रा० म०१ ० । स० । कौशाम्बीनगरीस्वामि
ऋषौ , स्था०७ ठा० ३ उ० । शतानीकस्य पुरोहिते, विपा० १ ० ५ ० । भ- सोमल-सोमल--पुं० । द्वारवतीवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्मद्रबाहुस्वामिनः चतुर्थे शिष्ये, कल्प० २ अधिक क्षण। णे, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग ८ अ०।। ( 'गजसुकुमार' शब्दे सोमदिद्वि-सौम्य दृष्टि-पुषकस्याप्यनुद्वेजके साधौ, प्रव०२३६ तृतीयभागेऽस्य कथा।) द्वार । सोमलोचने , स हि सर्वस्याप्याश्रयणीयो भवति । सोमलच्छी-सौम्यलक्ष्मी-स्त्री। सौम्या-प्रशस्ता या लक्ष्मीः। दर्श० २ तत्त्व।
| प्रशस्तायां लक्ष्म्याम् , कल्प०१ अधि० ३ क्षण।
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सोमलेस्स अभिधानराजेन्द्रः।
सोमवसु सोमलेस्स-सोमलेश्य-त्रि० । अनुपतापकारिपरिणामे, स्था०
तथाहिठा०३ उ०।
मंतोसहिपमुहेहिं, जायइ जीवाण घायणं नूगं । सोमवदण-सोमवदन-त्रिका सोम-सश्रीकं वदनं येषां ते सो- तो लोगपिओ अप्पा, कह परमत्थेण इह हो ॥१८॥ मघदनाः । सश्रीकास्ये, जं. २ वक्षः ।
पापण मिट्ठमन्नं, जणे जीवाण गाढरसगिद्धि।
तत्तो भवपरिघुवी, ता परमस्येण कहुयमिणं ॥ १६॥ सोमवसु-सोमवसु-पुं०। कौशाम्बीनगरीवास्तव्ये जन्मदरिद्रे
हिमधामधामनिम्मल-सीलाण रिसी] विजियकरणाणं । विप्रे, ध०र०।
एगंतवासबद्धा, नणु सुहसिज्जा वि पडिसिद्धा ॥२०॥ तत्कथा चैवम्
तथा चोक्तम्"कोसंबी अस्थि पुरी, पभूयपब्वा सुउच्छुलट्टि व्य ।
सुखशय्यासनं वस्त्रं, ताम्बूलं स्नानमण्डनम् । आजम्म पाइदरिद्दो, सोमवसू तत्थ वरविप्पो ॥१॥
दन्तकाष्ठं सुगन्धं च, ब्रह्मचर्यस्य दृषणम् ॥२१॥ जज करेइ कम्म, तं तं सयलं पि होइ से विहलं ।
इय चितिऊण तेणं, पुट्ठो लिंगी कहेसु भह ! तुहं । ता उब्बिग्गो धणियं, जाओ धम्मुम्भुही किंचि ॥२॥
गुरुभाया कत्थ साह, अमुगग्गामंमि निवसे ॥२२॥ सो धम्मसत्थाढे-ण धम्मसालाइ अन्नदियहंमि ।
बीयदिणे सोमवसू , तत्थेव गश्रो ठिो य सुजसमडे । सिरसाण कहिजंतं, धम्मफलं इय निसामेह ॥३॥
भुत्ता दुवे वि गेहे, इकस्स महिडिसिटस्स ॥ २३ ॥ गिरिसिहरतुरंगा दंतिणो भूरिदाणा,
पुट्ठो य तेण तत्त, सुजसो कहिऊण पुग्यषुत्तंतं । जियजलहितरंगा वाउवेगा तुरंगा।
भणइ इगंतर मह य, जिममि मह होइ तो मिटुं ॥२४॥ रहवरभडकोडीलच्छिविच्छइसारा,
काणज्मयणपसंतो, जत्थ व तत्थ व सुहं सुवामि त्ति । नगरनिगममाई हुंति धम्मा जियाणं ॥४॥
लोयप्पियो निरीहु.त्ति एव पकरेमि गुरुययणं ॥ २५ ॥ अमरनियरपुजं वासवत्तं पवित्तं,
तं मुणिय दिश्रो चिंतेइ, चारुतरो एस किंतु गुरुवयणं । सयलभरहरजं भूरिभोगेहि सजं ।
अइगंभीरं को नणु, जाण गुरुयाणऽभिप्पायं ॥ ३६ ॥ हलहरनिवइत्तं जं इहं केसवत्तं,
कहवि ईइ इमीए, सुद्धं अत्थं श्रहं मुणिस्सामि । कयभुवणचमक्कं धम्मलीलाइयं तं ॥५॥
इय चिंतासंतत्तो, संपत्तो पाडलिपुरम्मि ॥२७॥ रहसवसनमंतुद्दाम देविंदविंद
सत्थपरमत्थविस्था-रवेणो जहण समय कुसलस्स । पणयमसमसुक्खं जं च तिस्थाहिवतं ।
विबुहस्स तिलोयण ना-मगस्स गिहमेस संपत्तो ॥२८॥ अवरमवि पसत्थं पाणिणो जं लहंते,
पविसंतो य निरुद्धो, जा अणवसरु ति दारवालण । तमिह फलयसेसं धम्मकप्पदुमस्स ॥६॥
पंतवणकुसुमहत्थो, ता एगो किंकरो पत्तो ॥२६॥ तं सोउ जंप दिनो, सञ्चमिणं किंतु कहसु पसिऊण ।
मग्गिज्जता वि अदा-उदंतवणमाइ सो गो मझे। कस्स सयास एसो, धम्मो मे गिरिहयव्वु ति॥७॥
निस्सरिय खरोण अम-ग्गिो वितं दाउमारद्धो ॥३०॥ सो पडिभेणे मिटुं. मुंजेयध्वं सुहं च सोयव्यं ।
एस न दितो पुर्दिब, किंमिरिह देह त्ति सोमवसुपुट्ठो। लोप्पिो य अप्पा, कायव्यो इय पए तिनि ॥८॥
पभणइ वित्ती पढम, पहुणो दिने हवाइ भत्ती ॥ ३१ ॥ जो सम्मं अबवुज्झा, अणुचिट्टा तस्स पायमूलम्मि ।
इहराऽवना तस्स उ, उद्धरियं सेसयाण सेसे व। गिरिहज तुमं धम्म, भद्दपयं भइ ! लहु लहिसि ॥६॥
इत्तो व दोहि पुरिसहि, मग्गियं तत्थ प्रायमणं ॥ ३२ ॥ को पुण एसिं अत्थु, त्ति पुच्छिो कहा धम्मपाढी वि ।
पगाए तरुणीए, दिन्नं तं वालुगाइ एगस्स । भो भह ! विमलमइणो, परमत्थं एस बुझंति ॥१०॥
बीयस्स दीहवंडग, उल्लंकणं दिएण तो ॥ ३३॥ श्रह सुद्धधम्महेउं, दंसणिणो बहुविहे वि पुच्छतो।
पुट्टो भणड दुवारी, भो भह ! इमीएँ पढमश्रो भत्ता। एगम्मि सन्निवेसे, समागो भिक्खवेलाए ॥१२॥
बीश्री उण परपुरिसो, ता एवं चेव उचियं ति ॥ ३४॥ श्रोयरिश्रो मढियाए, एगस्स व्वत्तलिंगधारिस्स।
इत्थंतरम्मि बहुभ-दृ चट्टपयडिजमारणमइविहवा । होसु अतिहित्ति तं ठवि-य अप्पणा सो गयो भिक्ख॥१२॥
वरसिवियं प्रारूढा, तत्थेगा आगया तरुणी ॥ ३५ ॥ गहिउ खणेण भिक्खं, सो पत्तो तो हुवे वि ते भुत्ता।
का एसा किं एवं, समेड इय पुच्छिए पुणो तेणं । समयमि धम्मतसं, दिएण पुट्ठो कहा लिंगी ॥१३॥
दोबारिएण भणियं, पंडियधूया इमा भद्द ! ॥ ३६॥ भद ! इह सोमगुरुणो, अम्हे जससुजसनामया सीसा।
रायउलम्मि समस्सा-पयपूरणपत्सगरुयसम्माणा।
सगिहं समेह एवं, सरसई नाम विक्खाया ॥ ३७॥ उबाटुं णे तत्तं, मिटुं भुत्तवमिचाह ॥ १४ ॥ नय अत्थो परिकहिओ, अचिरेण गो गुरू य परलोयं ।
कह पूरियं इमीप, पयं ति दियपुच्छिो भणा वित्ती। जो नियबुद्धीप, इय अाराहेमि गुरुवयणं ॥१५॥
"तेन शुद्धेन शुध्यति" मंतोसहमाईहिं, विहिओ मे लोगवलहो अप्पा ।
अवलंबियं पयमिम, रना इय पूरियमिमीप ॥ ३८ ॥ पायमि मिट्ठमन्नं, इह मदियाए सुवेमि सुहं ॥१६॥
तद्यथाअह चिंतह सोचमसू, अहो इमो गुरुवाटुतत्तस्स।
यत्सर्वव्यापकं चित्तं. मलिनं दोषरेणुभि ममायया गुरुणो, भिप्पाश्रो संभवा नेवं ॥१७॥ सद्विवेकाम्बुसंपर्कात् , तेभ शुद्धेन शुनि ॥३॥
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(१९६२) सोमवसु अभिधानराजेन्द्रः।
सोमा श्रह सा गिह पविटा, जणगेण ऽभिनदिया तो विप्पी। । नमिऊणं गुरुपाए, पत्तो धणो सयं ठाणं ॥२॥ चिंता इमस्स सयला, परिवारो वि हु अहो विवुहो ॥४०॥ | तं दठु पहिट्ठमणो, सोमवसू लद्धसुद्धधम्मवसू । लद्धावसरो य गओ, पणो य तिलोयणस्स पयकमलं । चितइ अहो भयवओ, तिजयपसिद्ध निरीहत्तं ॥६३॥ विन्नवर विबुहपुंगव!, वयंगहण काउमिच्छामि ॥४१॥
साहिनियवुनंतो, दिक्खं गिराहइ सुघोसगुरुपासे ।। ता पसिय साहसु गुरूं. कस्स सयासम्मि हं गहेमि वयं । मज्झत्थसोमदिट्ठी, कमेण जाओ सुगइभागी ॥६४n सो आह जो पयतियं, मिटुं भुत्तव्यमिच्चाइ ॥ ४२ ॥
इत्येवमुच्चस्तरबोधिलाभो, वक्खाणइ तह पालइ, तस्स सयासे गहेसु तुं दिक्खं ।
मुख्यं फलं सोमवसोर्विशिष्टम् । तो जपइ सोमवसू, को पुण एएसि परमत्था ॥ ४३ ॥
माध्यस्थ्यभाजः परिभाव्य भव्याः, भणइ बुद्दो वि महायस!, अकयमकारियमकप्पिय सुदं ।
भव्येन भावन तदेव धत्त ॥६५ ॥ महुयरवित्तीलद्धं, रागद्दोसेहि परिमुकं ॥४४॥ मणिमतमूलप्रोसह-पोगपरिवज्जियं च श्राहारं ।
(इति सोमवसुकथा समाप्ता) ध० र०१ अधि० १२ गुण । जो भुजर सो इहयं, परमत्थेण जिमइ मिटुं॥४५॥ सोमविजय-सोमविजय-पुं० । हीरविजयसूरीखां प्रथमशिध्ये, अं सुखं आहारं, भुंजतो न खलु बंधए कम्मं ।
कल्प० ३ अधि० ६ क्षण। कबुयविवाग तेणं, परिसमिह वुच्चए मिटुं॥४६॥ एयव्यिवरीयं पुण, भुजंतो हिंसगु त्ति बधेइ ।
सोमसिरि-सोमश्री--स्त्री द्वारवतीनगरीवास्तव्यस्य सोमलअसुहविवाग कम्म, तेण अमिटुं जो भणियं ।। ४७॥ स्य भार्यायाम् , अन्त०१ श्रु०३ वर्ग८अाश्रा० चू० । दर्श० । अजय भुंजमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं होइ कडुयं फलं ॥४८॥
सोमसुन्दर-सोमसुन्दर-पुं० । तपागच्छ स्वनामख्याते जो सयलश्राहिमुक्को, सज्झायज्झाणसंजमुज्जुत्तो।
देवसुन्दरसूरीणां शिष्ये , ग० ३ अधिः । श्रयमाचार्यः गुरुणुनाए विहिणा, निसि सुबह सुहेगा सो सुबइ॥४८॥
विक्रम १४३० संवत्सरे जातः १४६ स्वगतः । प्रथम प्रकणिक धणधन्नसुवन्नसुहिर-न्न रयण चउचरण पमुहदविणम्मि।
प्रत्याख्यानभाष्ये चानन टीका रचिता, योगशास्त्रोपदेशमाजो निच्चनिप्पिवासो, लायपिओ होइ सो चेव ॥ ५० ॥
लापडावश्यकनवतत्त्वादिष्वनेन टीका रचिता । जै० इ० । यतः
सोमहिंद-देशी-उदरे , दे० ना० ८ वर्ग ४५ गाथा। विश्वस्याऽपि स वल्लभो गुणगणस्तं संश्रयत्यन्वई , सोमा-सोमा-(सौम्या-स्त्री०। सोमदेवतादिक सोमा सौम्या तेनेयं समलंकृता वसुमती तस्मै नमः संततम् ।
वाभि०१०श०१ उ०। उत्तरदिशि , स्था०३ ठा०२ उ०। श्रा० तस्माद् धन्यमः समस्ति न परस्तस्यानुगा कामधुक,
म। सोमस्य लोकपालस्याग्रमहिध्याम्,भ०१० श०५ उ०। तस्मिन्नाश्रयतां यशांसि दधते संतोषभाक् यः सदा ॥ ५१॥
सोमलोकपालस्य राजधान्याम् , भ०। एयं निसामिऊणं, तिलोयण पइभणेह सोमयसू । परमत्थवत्थुपयडण-निउणस्स नमो हवउ तुज्झ ॥ ५२॥ संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे सपक्खिं पभणइ बुद्दो विभो भद्द! , तं सिद्धं नो सुलक्खणो तं सि। सपडिदिसिं असंखजाई जोयणसयसहस्साई अोगाअयितहधम्मवियारं, जो एवं नियसि मज्झत्थो॥५३॥
हित्ता एत्थ ण सक्कस्स देविंदस्स देवरलो सोमस्स महाअह पुच्छिऊण विबुह, तग्गेहाओ चिणिग्गो एस । अइसुद्धधम्मगुरुला-भलालसो नालसो जाय ॥ ५४॥
रएणो सोमा नाम रायहाणी पएणत्ता । एगं जोयणसयपुव्वुत्तजुत्तिजुतं, आहारं फासुयं गवसंत ।
सहस्सं पायामविक्खंभेण जम्बूद्वीवप्पमाणा वेमाणियाणं जुगमित्तनिहियनयणे, जिणमयसमणे नियह ताव ॥ ५५॥ पमाणस्स अद्धं नेयव्यंजाव उवरियलेणे सोलसजायणतो चिंता सो हिट्ठो, मझ पुरमा मणोरहा सव्ये ।
सहस्साई आयामविक्खंभेणं परमासं जोयणसहस्साई पंच य कप्पतरु व्व सुगुरुपाय- संगया जे इमे दिट्टा ॥ ५६ ॥ तेसि पिट्ठीर गओ, पारामे वंदिउं सुघोसगुरु ।
सत्ताणउए जोयणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं पामते । पट्रो पयतिगत्थो , कहिओ सूरीहि वितहेव ॥ ५७॥
पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयव्यानो सेसा नत्थि । माश्रो पमहपयत्थो, मुणिजणश्राहारगहणो चेव । भ० ३ श०७ उ० । दो सोमा । स्था०२ ठा०३ उ० । सेसपयजाणणत्थं, तत्थेव ठिो य सो रति ॥ ५८ ॥
द्वारपतीवास्तव्यस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य सुतायाम् , भावस्सयाइ काउं, भणिउ पोरिसिमणुनविय सूरि।
अन्त०१थु०३ वर्ग ८० प्रा००। बहुपुत्रिकाजीबरू, आगमविहिणा सुत्ता मुणिणो गुरुणो पुणुट्टित्ता ॥ ५६ ॥ 'पायां वेभेलसन्निवेशवासिन्यां स्वनामख्यातायां ब्राह्मण्याम , उपउत्ता वेसमण-ज्झयणं परियट्टि लहु पयट्टा ।
ति।ग('बहुपुत्तिया' शब्दे कथा। ) सोमप्रभशैलस्य चलियासमो कुवेरो, समागश्रो तत्थ तब्बलं ॥६॥ पौरस्त्यदिकस्थायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम् , द्वी० । तं निसुणइ एगग्गा, माणसमितीइ नमियगुरुचरणे । सप्तमतीर्थकरस्य प्रथमप्रवर्तिन्यान् , स०। प्रय० । वीरजिनजंपेह वरेसु वरं, भणइ गुरू धम्मलाहो ते ॥६१ ॥
समकालिकायां पार्श्वनाथस्वामितीर्थीयसाव्याम् , प्रा. तो माहरिसिदियो, भासुदिपंतकतरुवधगे। म०१५.1
ता
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( १९६३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सोमागार
सोमागार - सौम्याकार-त्रि० । सुन्दराकृती, कल्प० १ अधि० = क्षण | अरौद्रदर्शने, औ० । रा० । ज्ञा० ।
सोमाण - देशी- श्मशाने, दे० ना०८ वर्ग ४५ गाथा | सोमाल - सुकुमार त्रि० । “हरिद्रादौ लः ८ । १ । २५४ । इत्यसैयुक्तस्य रस्य लः | सोमालं । प्रा०| "न वा मयूख लवण-चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश चतुर्वार - सुकुमार-कुतूहलो दूखलोलूखले" || ८|१|१७१ ॥ इत्यादेः स्वरस्य परेण सखरव्यञ्जनेन सह वैकल्पिक त् । सोमालं । कोमले प्रा० १ पाद । सोमिल--सोमिल--पुं० | द्वारवत्यां नगर्यो गजसुकुमारकुमार मारके स्वनामख्याते ब्राह्मणे श्र० चू० १ श्र० । श्र न्त । दर्श० प्रा० क० । श्रा० म० । ('गजसुकुमार' शब्द तृतीयभागस्य कथा ) कुण्डग्रामे नगरे कोडालगोश्रब्राह्मणः सोमिलाभिधानोऽस्ति तस्य भार्यायामुत्पन्न इति प्रिय मित्रप्राग्भवकथा । आ० म० १ श्र० । वाराणसी वास्तव्ये पार्श्वनाथस्वामिशिष्ये, नि० १ ० ३ वर्ग ३ ० । (यो मृत्य शुक्रविमाने शुक्रो नाम महाग्रहो जातः 'सुक्क ' शब्देऽस्मिन्नेव भांगे तत्कथा । ) अपापावास्तव्ये खनामख्याते ब्राह्मणेयस्य यज्ञे समायाता इन्द्रभृत्यादयो वीरजिनान्तिके प्रब्रजिताः । श्रा० म० १ श्र० | कल्प० । उज्जयिनीवास्तव्येऽन्धब्राह्मणे, "उज्जेणी नाम नगरी तत्थ सोमिलो नाम बंभणा परिवसई, सोय अन्धलीभूश्रो । तस्स य श्रट्ट पुत्ता तसि श्रटु भज्जाश्रो सां पुत्तहिं भरणति अच्छी किरिया कीरउ, सो पडिभणति तुम्भ अट्टराहं पुत्ताणं सोलस अच्छीणि सुराहारा वि सोलस बंभणीए दोनि । एते चउतीसं अन्नरस य परियणस्स जाणि अच्छीणि ताणि सव्वणि मम। एते चेव पभूया । श्रन्नया घरं पलितं तत्थ तर्हि अप्पदत्तेहिं सो न च नीणिश्र व्रत्थेव रडंतो दो ।" बृ०१ उ०२ प्रक० । वाणियग्रामवास्तव्ये स्वनाम - ख्याते ब्राह्मणे, भ० ।
ते काले ते समणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था, वन, दूतिपलास चेतिए वन्न, तत्थ गं वाणियगा मे नगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति अड्डे० जाव अपरिभूए रिउब्वेद ० जाव सुपरिनिट्ठिए । पंचरहं खंडियसयाणं समस्त कुटुंबस्स आहेवचं० जाव विहरति, तए गं समये भगवं महावीरे० जाव समोसढे ० जाव परिमा पज्जुवासति । तर तस्स सोमिलस्म माहणस्स इमीसे कहाए लद्ध-ट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूबे ०जाव समुप्पञ्जित्था एवं खलु समणे गायपुत्ते पुव्वाणुपुच्चि चरमाणे गामाणुगामं दुइमाणे सुहं सुहेणं० जाव इहमागए० जाब दूतिपलासए चेइए श्राप डरूवं० जाव विहरइ । तं गच्छामि गं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामि इमाई च गं एयावाई अट्ठाई जाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जर इमे से इमाई एयारूबाई अट्ठाई० जाव बागरणाई वागरे हिति । ततो गं वंदीहामि नमसीहा मि० जाव पज्जुवासीहामि, श्रहमेयं से इमाई अढाई० जाव वागरणाई नो वागरेहिति ।
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सोमिल
तो गं एएहिं चैव अहिं य ० जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेस्सामीति कट्टु एवं संपेड़ २ हित्ता एहाए ० जाव सरीर साओ गिहाओ पडिनिक्खमति २ मित्ता पायविहारचारेणं एगेयं खंडियस एणं सद्धिं संपरिवुडे वाणियगामं नगरं मज्भं मज्झेणं निग्गच्छइ २ छित्ता जेव दूतिपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा२त्ता समणस्स भग०३ दूरसामंते ठिच्चा समयं भगवं महावीरं एवं वयासी - जता ते भंते! जवणिज्जं ० अव्वावाहं० फा सुयविहारं ०१, सोमिला ! जत्तावि मे जवणिजं पि म अच्चाचापि मे फायविहारं पि मे, (भ० ) किं ते भंते । जव?ि, सोमिला ! जब दुविहे पष्मत्ते, तं जहा- इंदियजवणिजे य, नोइंदियजवणिजे य। से किं तं इंदियजवणिजे १, २ जं मे सोइंदियचक्खिदियघारिंग दिय जिभिदियफासिंदियाई निवाई से वर्द्धति, सेत्तं इंदियजवणिजे । से किं तं नोइंदियजवणिजे १, २ जं मे कोहमाणमायालाभावीच्छिन्ना नो उदीरेंति । सेत्तं नोइंदियजवणिजे । सेत्तं जबगिजे । (भ०) किं ते भंते ! फासूयविहारं ?, सोमिला ! जन्न आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीपसुपंडगविवज्जियासु वसहीसु फासुएसणिज्जं पीढफलगजासंथारगं उवसंपजित्ता गं विहरामि । सेत्तं फासूयविहारं । सरिसवा ते ते किं भक्खेया अभक्खेया, सोमिला ! सरिसवा भक्या वि, अभक्खेया वि। से केणट्टे ० सरिसवा में भ क्खेया वि, अभक्खेया वि?, से नूगं ते सोमिला ! बंभन्नसु नए सु दुबिहा सरिसवा पन्नत्ता, तं जहा - मित्तसरिसवाय, धन सरिसवा यातत्थ गं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पं०, तं०सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया । ते गं समणाणं निग्गंथा अभक्खेया, तत्थ गं जे ते धन्नसरिसवा ते दुबिहा प०, तं० - सत्यपरिणया य, असत्यपरिणयाय | तत्थ रंग जे ते असत्यपरिणया ते णं समणां निरगंथाणं अभक्खेया । तत्थ गं जे से सत्यपरिणया ते दुबिहा पं० तं०, एसणिजा य, असणिजा य । तत्थ गं जे ते असणिजा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ गं जे ते एसणिजा ते दुबिहा प० तं० - जाइया य, अजाइयाय । तत्थ गंजे ते प्रजाइया ते णं समणां निग्रगंथाणं अभक्खेया, तत्थ गं जे ते जातिया ते दुबिहा प० तं० - लद्धा य, अलद्धा य । तत्थ गं जे ते अलद्धा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ गं जे ते लद्धा ने णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया से तेणट्टेणं सोमिला ! एवं बुच्च इ० जाव अभक्खेयानि । (भ०) कुलत्था ते भंते ! किं
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सोमिल अभिधानराजेन्द्रः।
सोमिलुद्देश भक्खेया अभक्खेया ?, सोमिला ! कुलत्था भक्खया वि दवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जति पडिवञ्जित्ता सअभक्खया वि, सेकेण्डेण. जाव अभक्खेया वि?, से मणं भगवं महावीरं वंदति० जाव पडिगए । तए से नूणं सोमिला! ते बंभन्नएसु नएसु दुविहा कुलत्था पं० सोमिले माहणे समणोवासए जाए अभिगयजीवा जाव तं० इत्थिकुलत्था य, धनकुलत्था य, तत्थ ण जे ते इस्थि- विहरइ मंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर कुलत्था ते तिविहा पं०, संजहा-कुलकत्रयाइ वा कुलव- वंदति वंदित्ता नमसति २ सित्ता पभू णं भंते ! सोमिले हृयाति वा कुलमाउयाइ वा, ते णं समणाणं निग्गंथाणं माहणे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जहेब संखे अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धनकुलत्था एवं जहा धन- तहेव निरवसेसं० जाव अंतं काहिति । सेवं भंते ! सेव सरिसवा से तेणद्वेणंजाब अभक्खेया वि । (सू०६४६+) भंते त्ति जाब विहरति । (मू०६४७) 'ते ण' मित्यादि, माइंच ण ' ति इमानि च वक्ष्यमाणानि यात्रायापनीयादीनि 'जत्त'त्ति यानं यात्रा-संयम
'एगे भव' मित्यादि , एको भवानित्यकत्याभ्युपगमे योगेषु प्रवृत्तिः 'जवणिज्ज' ति यापनीयं--मोक्षाध्वनि ग
भगवताऽऽत्मनः कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः 'अब्बाबाई'
नोऽनेकतोपलक्षित एकत्वं दृषयिष्यामीति बुद्धया पर्यनुनि शरीरबाधानामभावः 'फासुयविहारं ति' प्रासुकविहा
योगः सोमिलभट्टन कृतः, द्वौ भवानिति च द्वित्वाभ्युपगे-निर्जीव पाश्रय इति, 'तबनियमसंजमसज्झायमाणा
गमे ऽहमित्येकविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दबस्सयमारपसु'ति इह नपः-अनशनादि नियमाः-तद्धि
पयिष्यामीति बुद्धया पर्यनुयोगी विहितः, 'अक्खए भव' पया अभिप्रहविशेषाः यथा एतावत्तपः स्वाध्यायवैयावृत्या
मित्यादिना च पदत्रयेण नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, 'श्रणदि मयाऽवश्य रात्रिन्दिवादौ विधेयमित्यादिरूपाः संयमः
गभूयभावविए भवं' ति अनेके भूता-अतीताः भावाःप्रत्युपेक्षणादिः स्वाध्यायो-धर्मकथादि ध्यान-धर्मादिःमा
सत्तापरिणामा भब्याश्च भाविनो यस्य स तथा, अनेन वश्यक-पद्विधम् , एतेषु च यद्यपि भगवतः किञ्चिन्न तदा
चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्षः पर्यनुयुक्तः , एकनी विशेषतः संभवति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्तदस्तीत्य
तरपरिग्रहे तस्यैव दूषणायेति , तत्र च भगवता स्याद्वावगन्तव्यम् , 'जयणत्ति प्रवृत्तिः 'इंदियजयणिज्ज' ति इन्द्रि
दस्य निखिलदोषगोचरतिक्रान्तत्वात्समवलम्ब्योत्सरमदायविषयं यापनीयं-वश्यत्वमिन्द्रिययापनीयम् ,एवं नोइन्द्रि
पि-'एगेवि अह' मित्यादि, कथमित्येतत् ? इत्यत आहययापनीयं,नवरं नाशब्दस्य मिथवचनत्यादिन्द्रियर्मियाः स
'दव्यट्टयाए पगोऽहं' ति जीवद्रव्यस्यैकत्वेनैकोऽहं न त हार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः-पाया ,
प्रदेशार्थतया । तथा हि-अनेकत्वान्ममेत्यवयवादीनामनेकत्वाएषां च यात्रादिपदानां सामयिकगम्भीरार्थत्येन भग- पलम्भो न बाधकः, तथा कश्चित्स्वभावमाश्रित्यैकत्वसंचतस्तदर्थपरिक्षानमसम्भावयता तेनापभ्रजनार्थ प्रश्नः कृत
ख्याविशिष्टस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्विइति । 'सरिसव ' सि एकत्र प्राकृतशैल्या सहशवयसः
स्यमपि न विरुद्धमित्यत उक्तम्-'नाणदंसट्टयाए दुवे वि समानवयसः अन्यत्र सर्वपाः-सिद्धार्थकाः, (द्रव्यमाषवक्त- अहं' ति, न चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देव्यता कालमासवनव्यता च ' मास ' शब्दे पश्चमभागे वदत्तादिः पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वगना ।) कुलस्थ ' नि एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुल- भ्रातृयत्वादीननेकान् स्वभावाँलभत इति, तथा प्रदेशार्थस्था:- कुलानाः, अन्यत्र कुलन्थाः धाम्यविशेषाः सरिस-! तयाऽसंख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षतोऽप्यहं सर्वथा प्रदेशानां यादिपप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासार्थ कृत इति ।
क्षयाभावात् ,तथाऽव्ययोऽप्यहं कतिपयानामपि च व्ययाभाअथ च-सरि विमुच्य भगवतो वस्तुतत्व
वात् , किमुक्नं भवति?-अवस्थितोऽप्यह-नित्योऽप्यहम, ज्ञानजिज्ञासयाऽऽह
असंख्येयप्रदेशिता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यएगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अव
ताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः , तथा 'उवओगट्टयाए 'त्ति वि
विधविषयानुपयोगानाश्रित्यानकभूतभावभविकोऽप्यहम् , द्विए भवं अणेगभूयभावभविए भवं ?, सोमिला !
अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः कथपग वि अहं० जाव अणेगभृयभावभविए वि अहं, से के- शिवभिन्नानां भूतत्वाद भाविवारचेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोगणद्वेण मंते ! एवं वुच्चइ० जाव भविए वि अहं !! पायेति । एवं जहा रायप्पसगइजे' इत्यादि, अनेन मोमिला ! दबट्ठयाए एगे अहं नाणदंसणट्ठयाए दुवि
च यत्सूचितं तस्यार्थलेशो दयते-यथा देवानांप्रि
याणामन्ति के बहवो राजेश्वरतलबरादयस्त्याचा हिरण्यहै अहं पएसट्टयाए अक्खए वि अहं अब्बए वि अहं अ
सुवर्णादि मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारितां प्रवजन्ति, न खल वद्विप वि अहं, उवयोगट्ठयाए भणेगभूयभावभविए वि अहं
तथा शक्नोमि प्रवजितुमितीच्छाम्यहमणुव्रतादिकं गृहिमें नणदुर्ग जाब भविए वि अहं । एत्थ ण से सोमिले- धर्म भगवदन्ति के प्रतिपत्तम् । ततो भगवानाह-यथासुख माग मंबुद्धे समणं भगवं महावीरं जहा खंदो० जाव' देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धोऽस्तु, ततस्तमसौ प्रत्यपद्यत इति । मे जय तज्झे वदह जहाणे देवाणप्पियाणं अंतिए भ० १८ श० १० उ० । बहवं गईसर० एवं जहा रायप्पसेणइज्जे चित्तो. जाव सोमिलुद्देश-सोमिलोद्देश-पुं० । सोमिल ब्राह्मणयक्तव्यताप्र
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(१९६५) सोमिनुदेश अभिधानराजेन्द्रः।
सोयरंप तिपादके भगवत्या अष्टादशशतस्य दशमोदेशके ,भ० २५! म्बपुषाकारं द्रव्यतो भावतो भाषाद्रव्यग्रहणलग्युपयोगस्व स०७१०।
भावमिति, तेन श्रोत्रेण परिः--समन्तादटपटशब्दादिविषसोम्म-सौम्य-त्रि०। सर्वजननयनमनोरमणीयगुणशतकलिते, याणि मानानि परिक्षानानि तैः श्रोत्रपरिमानैर्जराप्रभायाप्राचा.१७०१ १०१ उ०। नीरोगे, औ० । शान्तराष्टितया
रपरिहीयमानः सद्भिस्ततोऽसौ प्राणी एकदा वृद्धावस्थाप्रीत्युत्पादके,ग०१ अधिः । दर्शनमात्रादेवाहादके, दर्श०४
यां रोगोदयावसरे वा मूढभावं-मूढतां कर्तव्याकर्तव्यातस्व । उपशाम्ते, शा०१७०१०। सुखदर्शने, शा० १
तामिन्द्रियपाटयाभावादात्मनो जनयतिः हिताहितप्राप्तिU०६ मा भरौद्रे, मा०१७.१०। शीतले , विशे० ।
परिहारविवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः, 'जनयन्तीति' चैऔ०। भोघ।
कवचनावसरे “तिङ तिको भवन्ती" ति बहुवचनमकारि । सोम्मया-सौम्यता-स्त्री० अकराकारे, करो हि लोकस्यो
अथवा-तानि वा श्रोत्रविज्ञानानि परिक्षीयमाणाम्या
रमनः सदसद्विवेकविकलतामापादयन्तीति श्रोतादिविज्ञादेगकारणं सौम्यश्च सर्वजनसुखाराभ्यो भवति । ०१
नाना च, तृतीया प्रथमार्थे सुव्यत्ययेन द्रष्टव्येति, एवं बअधि।
पुरादिविज्ञानेपि योज्यम् । प्राचा०१ ध्रु.२०१उ०। सोम्मवयस--सौम्यवदन-त्रि०सौम्य-सुन्दरं वदन-मुख
स्रोतस-म० । प्रयाहे,स्था०४ ठा०४ उ०। सूत्र० । जलावतयस्य स तथा । सुन्दास्ये , प्रश्न० ४ अाभ द्वार ।
रणद्वारे, सूत्र. १ थु०१५ १० । मिथ्यात्वविरतिप्रमादकसोय-शौच-न । शुनेर्भावः शौचम् । शुद्धौ , स्था।
पायात्मके कर्माश्रवद्वारे,सूत्र०१ श्रु० प्र०) पापोपादान, पंचविहे सोए परमत्ते, तं जहा-पुडविसोए भाउसोए प्राचा० १ श्रु०४ १०४ उ० । भाषश्रोतः शब्दादिकामगुणतेउसोए मंतसोए भसोए । (सू० ४४६)
विषयाभिलाषः। प्राचा.१ श्रु०२ १०१ उ० । "पंचबिहे' त्यादि व्यक्तं, नवरं शुचेर्भावः शौचं शुद्धिरित्यर्थः, उसोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। तब द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । तत्राचं चतुथ्यं द्रव्यशौचं , एते सोया वियक्खाता, जेहिं संगति पासहा ॥१॥ पश्चम तु भायशौचम् , तत्र पृथिव्या-मृत्तिकया शौचं-जुगु
प्राचा०१०५०६ उ०। ( व्याख्या ' लोगसार' सितमलगन्धयोरपनयनं शरीरादिभ्यो घर्षणोपलेपनादिने
शम्ने षष्ठे भागे उक्ला ।) द्विविधानि श्रोतांसि द्रव्यथोतांसि ति पृथिवीशौचम् , इह च पृथिवी शौचाभिधानेऽपि यत्पर
स्वविषये इन्द्रियवृत्तयः. भावश्रोतांसि तु शमादिश्वेव प्रस्तमाक्षणमभिधीयते, यदुत-“एका लिके गुदे तिन-स्तथैका
नुकलप्रतिकुलेषु रागद्वेषाद्भवः मानसविकारः। सूत्र० १७० करे दश। उभयोः सप्त विशेया,मृदः शुद्धौ मनीषिभिः॥१॥ एत
१६ अभावधीतः संसारपर्यटनस्थभावम् । सूच०१६० ११ उछौचं गृहस्थानां,द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं यानप्रस्थानां अभावगे, शा०१श्रु०८अ आचाइन्द्रिये, प्रा०म०१०। यसीनां च चतुर्गुणमा।" इति,तदिह नाभिमतं,गन्धाधुपघात- छिद्रे,ौ० स्थानासामुखादिरन्ध्र, प्रश्न०१ आश्रद्वार। मात्रस्य शौचत्वेन विवक्षितत्वात् , तस्यैव च युक्तियुक्तस्वात्
शोक-पुं० इटानिष्टवियोगसंप्रयोगकृते मानस दुःख, सूत्र इति १,तथा अद्भिः शौचमप्शौचं; प्रक्षालनमित्यर्थः२,तेजसा. उमिना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं तेजःशौचम् ३, एवं म-
२०१०। ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्ती तद्वियोगे व स्मृत्य
२ म्ञशौचं शुचिविद्यया ४ ब्रह्म-ब्रह्मचर्यादिकुशलानुष्ठानं तदेव |
नुबन्धे, प्राचा० १७०२ १०५ उ० । शोचं ब्रह्माशीचम् ५ , अनेन च सत्यादिशौचं चतुर्विधमपि | सोयकारि(ण)-श्रोत्रकारिन-पुं०। यथोपदेशकारिणि, सूत्र. संगृहीतं, तश्चदेम्-"सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनि
शाच, शांचीमान्द्रयान- १७०१४ ०। ग्रहः । सर्वभूतदया शौचं, जलशीचा पश्चमम् ॥१॥" स्था०मोयाय-स्रोतोगत--त्रि० । मयादिप्रवाहपतिते, दश । ५ ठा०३ उ०। ('सुई शब्दे अस्मिशेव भागे उदाहरणानि।)
अ०२०। “सोयमूले धम्मे पन्नते" परिव्राजकानां शौचमूलोधर्मः।शा.
सोयणया-शोचनता-स्त्री० । दीनतायाम् , स्था०४ ठा०१ १६०५० (अयं 'थायशापुत्त' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्या. तः।) तृतीये महाव्रते , स्था० १ ठा०३ उ० । (शौचफलं |
उ० । भ० । श्रा० चू०। 'तारा'शम्दे चतुर्थभागे गतम्।) ( शौचं कृत्वैव जिन- सोयणवत्तिया-स्वमप्रत्यया-स्त्री० । स्यानिमित्तविराधना. पूजा कर्तव्येति 'चेय' शब्दे तृतीयभागे १२७७ पृष्ठ गतम्।) याम् , आव०४०। शरीरसंस्कारे । तं० । संयमनिरुपलेपतायां निरतिचारता- सोयतत्त-शोकतप्त--त्रि०। शोकवितप्ते,सूत्र०१५० अ०३३० । याम् , ध०३ अधिश्राव० । शौचं भाषतो निरुपलेपता सोयमय-शौचमद-पुं०। स्नानचन्दनादिना पवित्रत्वविधेये अचौर्यमिति सद्भावसारतायाम् , पृ०१ उ०२ प्रक०। पश्चा०पवित्रत्वाङ्गीकारे.शीचेन बसचन्दनाभरणादिना मदो यत्र स सर्योपाधिशुचिस्व समतावतधारणे, प्राचा० १७०६ तथा। शौचजमदोपेते. तं०।। म०५ उ०।
सोयमादि-शौचादि-त्रि०। शौचमाचमनं तदादियेषाम् । श्रोत्र-न । श्रूयतेऽनेनेति धोत्रम् । कर्णे, विश० । उत्त।
आचमनप्रभृतिषु, प्रश्न १ आश्रद्वार । सं० । शृणोति भाषापरिणतान्पुरलानिति धोत्रम्। कदम्बपुणाकार शब्दप्राहके इन्द्रिये, द्वा० २६ द्वारा प्राचा
| सोयर--सोदर-पुं० । भ्रातरि,सूत्र०१ श्रु०३ १०२ उ०। अष्ट। खोति भाषापरिणतान्पुद्रलानिति श्रोत्रम् । श्राखागताकद सोयरंध-स्रोतोरन्ध्र-न । मुम्ने, स. ३. सम ।
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( १३६६ अभिधान राजेन्द्रः ।
सोरि
सोरिय - शौकरिय- त्रि० । शूकरेण शूकरवधार्थं चरन्ति भूकरान् वा प्रन्तीति शौकरिकाः । स्था० ७ ठा० ३ उ० । प्र४० | सूत्र० । शूकरमृगयोपजीविषु, स्था० ४ ठा० ३. उ० । प्रश्न० । श्वपचेषु. सूत्र० २ ० २ ० । -सोदर्य - ०/ भ्रातृभगिन्यादिषु सूत्र० १ ० १ ० १ ० । सोयविय शौच-न० | भावशौचे सर्वोपाधिशुद्धतायां बतामन्ये. सूत्र० २ ० १ ० । श्राचा० ॥ सोयामय- स्रोतोमय- त्रि० । ऐन्द्रिये विकारे, स्था०१०ठा०३३० । सोन्यामिश्री-सौदामिनी--स्त्री० | विदिश्र्चक वास्तव्यायां दिक्कुमारी महतरिकायाम्, स्था० ६ ठा० ३ ३० । श्राव० । आ० म० । विद्युनि को० । सोयावया शोकापना - स्त्री० । दैन्यमापणायाम्, २०३० ३.३० ।
सोरठ्ठ- सौराष्ट्र-- पुं० । द्वारवतीनगरी प्रतिबजे जनपद, कलप० १ अधि० ७ क्षण शा० । अनु० नि० चू० । सोरडिया - सौराष्ट्रका - स्त्री० । तुवरिकायाम्, श्राचा० २ श्रु० १ चू० १ ० ६ उ० । दश० । सोरट्टिया तुवस्मादिया भवति । नि० चू० ४ उ० । स्थविराद् ऋषिगुप्तान्निर्गतस्य माण्वगणस्य चतुर्थशास्त्रायाम्, कल्प० २ अधि०८ क्षण । सोरहपाहुडिय - षोडशप्राभृतिक पुं० । यशविशेषे, विशे० । सोरिष - शौर्य - न० " स्यान्द्रव्य चैत्य - चौर्य समेषु यात्॥८२
१०७॥ इति संयुक्तयात् पूर्व इद् । सोरियं । शूरत्वे, प्रा०२ पाद । स्वनामख्याते यक्षे, विपा० १० ८ ० ॥ सोरियदत्त - शौर्यदत्त-पुं० खनामख्याते मत्स्यबन्धपुत्रे, विपा०|
सोरियदत्त
विसराई कुत्रेमाणं अभिक्खखं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वम्ममाणं पासति । इमे अज्झथिए० ५ पुरा पोराणा • जाव विहरति । एवं संपेहेति जेणेव समणे भगवं० जाव पुव्वभवपुच्छा ०जाव वागरणं, एवं खलु गोयमा ! तेयं कालेयं तेणं समएणं इहेत्र जंबुद्दी दीवे भारहे वासे नंदिपुरे नामं लगरे होत्था मित्ते राया, तस्स गं मित्तस्स रनो सिरीए नामं महालमिए होत्था, अहम्मिए ० जाव दुष्पडियाशंदे | तस्स व सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिमा य वागुरिया य साउशिया य दिन्नमति० कल्ला कल्लं बहवे सयहमच्छाय ०जाव डागातिडागे य ए य० जाव महिसे य तित्तिरे य ०जाव मयूरे य जीविया ओ बरोवेंति, सिरीयस्स महाणसियस्स उवर्णेति । अन्ने य से बहवे तित्तिरा य ० जाव मयूरा य पंजसि संनिरुद्धा चिठ्ठति, अने य बहवे पुरिसे दिन्नभति० ते बहवे तित्तिरे य ०जाव मयूरे य जीवियाओ चैव निप्पक्खेंति सिरीयस्स महाणसियस्स उवर्णेति । तते गं म सिरीए महासिए बहूणं जलयरथलयरखहयराणं मंसाई कप्पणीयकपियाई करेंति, तं जहा सरहखंडियाणि य वट्ट खंडियाणि० दीह खंडि० हस्मखं• हिमपकाणि य जम्मघम्म (वेग) मारुयपकाणि य कालागि य हेरंगाणि य महिद्वाणि य आमलरसियाणि य मुद्दिया रसिया० कविट्ठरसि० मच्छरसि० तलियाणि य भज्जिया णि य सोल्लियाणि य उबक्खडावेंति अने य बहवे मच्छर से य एज्जरसे य तित्तिररसे य० जाव मयूररसे य अनं विउलं हरियसागं उबक्खडावेति उबक्खडावे ता मित्तस्स रनो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवर्णेति अप्पणा वि य ग से सिरिए महाग सिए तेमि च बहूहिं • जाव जलचरथलयर खहय राहें परसतेहि य हरिसागेहि व सोनेहिय तलेहिय भिज्जेोहें य सुरं च० ६ आसाएमाणे ०४ विहरति । तते गं से सिरिए महासिए एकम्मे० सुबहु पावकम्मं समज्जिखित्ता तेत्तीस वामम-याई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छडीए पुढबीए उपवनो । तते गं सा समुहदत्ता भारिया निंदू यावि होत्या, जाया जाया दारगा विणिहाय मावज्जति जह गंगदत्ताए चिता श्रपुच्छणा उवातियं दोहला ०जाब दारयं पयाता, ०जाव जम्हा गं अम्हं इमे दारण सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धे तम्हा गं होउ अम्हं दारए सोरियदते नामेणं । तए गं से सोरियदत्ते दारए पंचधार •जाव उम्मुकबालभावे विण्णयपरिणयमित्ते जोन्वणगमणुपत्तेहात्था । तते गं से समुद्ददते अनया कयाई कालधम्मुखा संजु
०
जइयां भंते । अट्टमस्स उक्खेवो एवं खलु जंबू ! तेणं कालें तेणं समएणं सोरियपुरं गगरं सोरियवडेंसगं उज्जाणं सोरियो जक्खो सोरियदत्तो राया, तस्स सं सोरिय - पुरस्स रागरस बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ गं एगे मच्छंधवाडए होत्था, तत्थ णं समुद्ददत्ते नामं मच्छेधे परिवसति अहम्मिए ०जाव दुष्पडियायंदे, तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता नामं भारिया होत्था अहीसपरिपुष्पंचिदियसरी, तस्स णं समुद्ददत्तस्स पुत्ते समुइदत्ताभारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामं दारए होत्था अहीणपडिपुष्पंचिदियसरीरे । तेणं कालेयं तेणं समएणं सामी समोसढे ०जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं ते समय जेट्टे सीसे ० जाव सोरियपुरे गगरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई महापजतं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ नगराओ पडिनिक्खमति, तस्स मच्छंधपाडगस्स अदूरसामंत बीईवयमाणे महतिम हालियाए मणुस्सप रिसाए मज्गयं पासति एगं पुरिसं सुक्कं भुक्खं नि* अडिचम्मावणद्धं किडकिडीभूयं गीलसाडगणि
यच्छं मvaiटणं गलए अलग्गेणं कट्ठाई कलुणाईते, तते गं. से सोरियद ने बहूहिं मित्तणाइ० रोयमाणे समुद्र
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( ११६७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
मोरियदत्त
दत्तस्स णीहरणं करेंति लोइयमबाई किचाई करेंति, अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधमहत्तरमत्तं उवसंपत्ति वि हरति । तए गं से सोरियए दारए मच्छंधे जाते अहम्मिए • जाव दुष्पडियाणंदे । तते गं तस्स सोरियमच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिनभति० कल्ला कल्लं एगडियाहिं जउणामहानदि श्रगाहिंति बहूहिं दहगालणेहि य दहमल हि य दहमहणेहिं दहवहणेहिं दहपवहणेहि य पुलेहिय पंचपुलेहिय मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छे हि य जंभाहि य तिसिराहि य भिसिराहि यधिसराह य विसराहि य हिल्लिरीहि य झिल्लिरीहि य जालेहि य गलेहि य कूडपासेहि य वक्कबंध रोहि य सुत्तबंधणेहि य बालबंधणेहि य बहवे सण्डमच्छे य ०जाव पडागातिपडागे य गिरहंति एगडियाओ नावा भरंति कूलं गाहंति मच्छखलए करेंति श्रायवंसि दलयंति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन भइभत्तवेयणा आयवतत्तएहिं सोले हि य तलेहि य भजेहि य रायमम्ांसि वित्तिकप्पेमाणा विहरंति | अप्पणा वि य णं सोरियदत्ते बहूहिं सहमच्छेहि य ०जाव पडागा० सोलेहि य भजेहि य सुरं च०६ आसाएमाणे० ४ विहरति । तते गं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स श्रनया कयाई ते मच्छसोल्लेतले भजे हारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्ग आविहोत्था । तए णं से सोरियमच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूते समा कोचियपुरिसे सद्दावेति २ वेत्ता एवं क्यासी- गच्छह गं तुम्हे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे नगरे सं घाडग ०जाव पसु य महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह, एवं खलु देवाप्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए ग ले लग्गे तं जो णं इच्छति विजो वा० ६ सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तते तस्स गं सोरियदत्ते विउलं अत्थसंपयाणं दलयति । तते गं ते कोटुंबिय पुरिसा जाव उग्घोसंति । तए णं तं बहवे विजा य० ६ इमेयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिअमाणं निसामेति २ मित्ता जेणेव सोरियद से गेहे जेणेव सोरियमच्छंध तेणेव उवागच्छंति बहूहि उप्पत्तियाहिं० ४ बुद्धीहि य परिणममाणा वमणेहि य छडणेहि य उन्चीलहि य कवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणेहि विलकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधे मच्छकंटयं गल ओ नीहरित्तए, नो चेत्र णं संचाएंति नीहरितए वा विसोहित्तए वा । तते गं बहवे विजा य० ६ जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ नहि रित्तर ताहे संता जाव जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिमया । तते गं से सोरिष० मच्छ० विज० प
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सोशिय डियारनिविएणे तेणं दुक्खेणं महया अभिभूते सुके •जाव विहरति । एवं खलु गोयमा ! सोरियदत्ते पुरापोराणासं • जाव विहरति । सोरिए गं भंते! मच्छंधे इओ य कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उत्रत्रजिह्निति ९, गोयमा ! सत्तरि वासाई परमाउयं पालहत्ता कालमासे कालं किवा इमी रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव पुडीओ हथियाउरे गगरे मच्छत्ताए उववशे । से गं ततो मच्छिएहिं जीविया ववरोविए तत्थेव सेडिकुलंसि बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । निक्खेवो ॥ ( सू० २६ ) विपा० १ श्रु० ८ श्र० । स्वनामख्याने अध्ययने, विपा० १ श्रु० ८ श्र० । सोरियपुर- शौर्यपुर-न० । कुशावर्तजनपदप्रधाननगरे, प्रव० २७३ द्वार | सूत्र० । उत्त० प्रा० क० विपा० । नि० चू० । आव० । ती० ।
सोलग - सोलक - पुं० । तुरगचिन्ताभियुक्ते, वृ०१ उ०२ प्रक० । सोलस षोडशन्- त्रि० । षडधिकदशसंख्यायाम्, प्रज्ञा० १५ पद | रा० । सूत्र० । आगमैकदेशत्वादस्य षोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् घोडा निक्षेपः । तत्र नामस्थापने सुरंग । द्रव्यषोडशकं शशरीभव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचितादीनि षोडश द्रव्याणि । क्षेत्र षोडशकं पोडशाकाशप्रदे शाः, कालषोडशकं षोडश समया पतत्कालावस्थायि वा द्रव्यमिति भावषोडशकमिदमेवाध्ययनघोडशकं क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वादिति । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० सालम बीसवासपरमारस" इह कदाचित्पोडशवर्षाणि कदाचि विंशतिवर्षाणि परमायुर्येषां ते तथा । भ० १ ० ५३० । षोडश - त्रि० । षोडशसंख्यापूरणे, प्रज्ञा० १५ पद । सोलमखुनो-- षोडशकत्वम् अव्य० । षोडशभेदानाश्रित्येत्यथे, भ० ३५ २० १ ३० ।
सोलसम- षोडश त्रि० । षोडशसंख्यापूरणे, स्था०३ठा०४०। सोलसिया - षोडशिका - स्त्री० । माणिकाया एव षोडशभाग
बर्त्तित्वात् षोडशपलप्रमाणा षोडशिका | अनु० | बोडशभागमान मानविशेषे भ० ७ ० ८ उ० ।
सोलहविह- षोडशविध - त्रि० । षोडशप्रकारे, स्था० १० डा०
३ उ० ।
सोल्ल- पच्-धा० । श्रोदनादिरन्धने विषा० १ ० ३ ० । "पत्रे : सोल्ल-पउझी ॥४०॥ इति पत्रेः सोलादेशः । सोलर । पचति । प्रा० । त्रिपा० ।
क्षिप - धा० । प्रेरणे, "क्षिपेर्गलत्थादुक्खसाल पेठ-गोलछुद्र हुल परीघनाः ||८|४|१४३॥ इति क्षिपतेः सोज्ञादेशः । सोल। क्षिपति । प्रा० मांसे. पुं० । ३० ना० ८ वर्ग ४४ गथा । सोलिय- शौल्य- त्रिशूल संस्कृते, शूलिभिश्च घृतादिनाऽश्री संस्कृत, उपा०८ ० शूलपके, विपा० १ ० ८ श्र० कुसुमविशेषे, नपुं० । श्र० ।
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सोष अभिधानराजेन्द्रः।
सोव्या मोव-स्वप्-धा। शयने, “ स्वपाषुध" ॥८।। ६४ ॥ इति सोवत्थ-देशी-उपकारे, ३० मा० ८ वर्ग ४५ गाथा। .
म्वपितेर्धातोरस्योत् । सोवह । सुवइ । स्वपिति । प्रा०१ पाद। सोवत्थिय-सौवस्तिक-पुं० । स्वस्तिकयांदके. पी०। मणिलमोवनोग-सोपयोग-पुं० । उपयोगसहिते,स्था०२ ठा०५३०।। क्षणविशेषे,रा। जाद्वी०जी०। पंचकमित्यम्य । प्रासा( उपयोगवक्तव्यता 'उयोग' शब्दे द्वितीयभागे द्रष्टव्या ।)। दविशेष इत्यपरे, शा०१श्रु०१० । श्रीन्द्रियभेदे. जी०१ सोवा -मोपक्रम-२० । सहोपक्रमेणापवर्तनाकरणास्येन
प्रति०१अधि० । प्रज्ञा प्रकारकादिषुहे. पंधितम
महाग्रह, सं० प्र०२० पाहु० । कल्प० । प्रश्न। वर्मत इति सापक्रमः । कर्मभेदे, उस०५ अ०। प्राचा० । कर्म विधा-सोपक्रम, निरुपक्रम च । तत्र यानि घेरादीनि । दो सोवस्थिया । स्था० २ ठा०३ उ० । मापक्रमसाध्यामि नाम्येव जिनातिशयादुपशाम्यति सदो-मोवस्थियकर-सौवस्तिककट-न० । पूर्वरुनकपर्वतस्य पष्ठ पधात्साध्यव्याधिवत् । विपा०१ श्रु० ३ ०।
कूटे. विद्युत्प्रभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य तृतीये कूटे, स्था। सोवकमाउस-सोपक्रमायुष्-त्रिक। अकालमरणधर्मसहिते, श्रा ।
सोवयार-सोपचार-पुं० । वर्णाधुमितपरिणामे, विशेाभ- सोपक्रमायुद्वारमाह
निष्ठुराविरुवालज्जनीयाभिधाने, स्था. ७ ठा० ३ उ०। देवा नेरइया वा, असंखवासाउमा अतिरिमणुया।
अग्राम्याभिधाममितानियतवर्णादिपरिणामे,प्रा०म०१०। उत्तमपुरिमा य तहा, चरमसरीरा य निरुवकमा ।।७४॥ अनु० । ग्राम्यभणितिरहिते, अनु। देखा नारकाचैते सामान्य नैव असंख्येयवर्षायुषश्च तिर्या
सोवरी-शाम्बरी--स्त्री० । शम्बरासुरीये विद्याभेद, सत्र.२ नुष्या एतेन संख्येयवर्धायुषां व्यवच्छेदः। उत्तमपुरुषाश्चवादयो गृह्यन्ते । चरमशरीराचाविशेषेणैव तीर्थकरा
श्रु०२ अ०। दयः निरुपमा इत्यते निरुपक्रमायुष एवं अकालमरणर- सावाह-सापाध:पु०। म
सोवहि-सोपधि-पुं० । मायाविनि परठयंसके, वश०१०। हिता इति ।
सोवहि-सोपधिक-त्रि० । उपधीयते संगृह्यते इत्युपधिः , समा संसारत्था, भइया सोवक्कमा व इयरे वा।
द्रव्यतो हिरण्यादि, भायतो । माया सहोपधिना वर्तत इति : सोवकमनिरुवक्कम-भेओ भणिभो समासेणं ॥७॥
सोपधिकः । आचा० १७०४०१ उ० । द्रव्यभावोप
धियुक्ने, प्राचा०१ श्रु० अ०१ उ०। पुऐ,कल्प०१ अधिक शेषाः संसारस्था अमन्तरोदिनव्यतिरिकाः संख्येयवर्षा
६क्षण। युषः, अनुत्तमपुरुषा अनरमशरीराश्च । एते भाज्या-विकसपनीयाः । कथं सोपक्रमा वा इतरे वा?, कदाचित्सोपक्रमाः
सोवाग-श्वपाक-त्रि०। चाण्डाले,स्था० ४ ठा० ४ उ० । व्य० । कदाविधिपक्रमाः, उभयमप्येतेषु संभवतीति सोपक्रमनि
| पं० चू० । मार्जारे, प्राचा० १ श्रु० १०४ उ० । रुपक्रमभेदो भणितः समासन-संक्षेपेण । न तु कर्मभूमजा- | सोवागकरंडय-श्वपाककरण्डक-पुं० । चाण्डालपेट्याम् , दिविभागविस्तरेगेति । श्रा०।।
स्था०४ठा०४उ०। मोरक्कम-सोपश-त्रि० सदुःखे गृहवासे, 'सोवक्के से गिहि-सोबागी-वपाकी-स्त्री० । स्वपाकजातिप्रसिद्ध विद्याभेदे, चासे निरुवकेसे परिश्राए' उपक्लेशैः सह सक्लेशः-गृहा- सूत्र०२ श्रु०२ १०। श्रमः । दश०१चू०।
सोवाण--सोपान-न० । उन्नतारोहणमार्गविशेष, सा। सोवञ्चल-सौवर्चल-१० । लवणभेदे, सूत्र.१७०७ १०
सोवीर-सौवीर--न । सिन्धुनदप्रतिबद्धे जमपदभेवे, सूत्र प्राचा।
१ श्रु०५ अ०१ उ०। कल्प० । प्रज्ञा प्रथाउत्त०। कालिके, सोवद्वाण-सोपस्थान-त्रिकासहोपस्थानेन धर्मचरणाभासो
दर्श०४ तस्व । ग० कल्प० । पञ्चा०र्षि० । प्रष०। प्राघमेन सह वर्तन्ते इति सोपस्थानाः । घयमपि प्रजिताः । ग्माले, आना०२५०१०१०७ उ० । उत्त०।पा। सदसद्धर्मविशेषविकला इति सावद्यारम्भतया वर्ममानेषु, अम्ले, उत्स०१५ १०। स्था० मध्यमग्रामस्य षष्ठयां मूर्छप्राचा०६ श्रु०५०६ उ०।
नायाम् , स्त्री० । स्था०७ ठा० ३ उ०। सोवण-देशी-वासगृहे, दे० ना.८ वर्ग ५८ गाथा।
सोवीरग-सौवीरक-न० । मचमेदे, " सोधीरयं पिट्टयजिये सोवणिय-शौवनिक-त्रि० । ज्यभिश्चरतीति शीवनिकः ।।
जाणे "विष्यर्जितं द्राक्षाखघुरादिभिव्यनिष्पाद्यमानं रसारमेयपरिग्रहे पुरुष, सूत्र०२७०२ १० । श्वपाके,सत्र० सौवीरकं विजानीयात् । कृ. ४ उ० । सोधीरयं रसंजणं २७०२०।
वा ते पुढविपरिणामा वलिया , जेण सुवरण पणिनदि । मोबम-सौवर्म-त्रिसुवर्णमये प्राभूषणादी,स्था०६०३उ०।। नि००४ उ० । सोवाममक्खिय-देशी-मधुमक्षिकाभेदे, दे०मा०८वर्ग४६गाथा। सोवीरिणी-सौषीरिणी-स्त्री० । रसिम्या सुरायाम् , पृ. सोवमिय-सौवणिक-त्रि० । सुवर्णमये प्राभूषणादौ, जी० ३ १०२ प्रक०। प्रति०४ अधि। रास्था।
सोयमो-देशी-पतितस्ते,दे० मा० घर्ग ४५ गाथा ।
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प
सोस अभिधानराजेन्द्रः।
सोहम्मकप्प सोस-शोष-०। स्नेहविगमने,ौ० । संथा । जी०। शरीर- कल्पवृक्ष उक्लार्थः , पयोऽयम् 'तयो'ति तपोयिशषो भवस्नेहशोषणरोगे, जी० ३ प्रति०४ अधिः।
ति कर्तव्य इति व्यकम् , इति गाथार्थः । सोसण-देशी-पवने, दे० ना०८ वर्ग ४५ गाथा ।
इहैव विधिशेषमाह
दाणं च जहासत्ति, एत्थ समत्तीऍ कप्परुक्खस्स । सोसणी-वेशी-कटपाम् , दे० ना० बर्ग ५५ गाथा।
उवणा य विविहफलहर-संणामियचित्तडालस्स ॥३६॥ सोसिम-शोषित-त्रि० ! नीरसीकृते , मा०१ श्रु०१०। दानं च साध्वादिभ्यो देयं यथाशक्ति प्रश्र तपसि , सोसियकसाय-शोषितकपाय--त्रि० । शोषिताः-कृशीकृताः
समाप्ती वाऽस्य तपसः कल्पवृक्षस्य सुवर्णतन्दुलादि
मयस्य , स्थापना चन्यासश्च । किंविधस्प ? विविधफकायाः सभेदाः क्रोधमानमायालोभाल्या येन स शोषितक
लभरण-मानाविधफलभारेण सनमिताम्यवनतीकृतानि पायः । सूक्ष्मसंपराये, ग०१ अधि० ।
चित्राणि विविधानि डालानि-शाखा यस्य स तथा सोसियप्पाण-शोषितप्राण-त्रिका शोषिताः म्लानि प्रापिताः तस्य, इति गाथार्थः। प्राणा इन्द्रियादयो येषां ते शोषितप्राणाः । तपःकृशेषु, ग०२ एए अवझोसणगा, इट्ठफलसाहगा व सहाणे । अधि०।
अमत्थजुया य तहा, विस्मेया बुद्धिमंतहि ॥३७॥ सोह-सोफ-पुं० । शरीगदिशोथे, “सोफः स्यात् पदविधो
पतानि प्रषजोषणकानि-तपोषिशेषसेवाः , फलघोरी, दोरुसिंघलक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा साधकामि स्वस्थाने-स्वविषये अव्युत्पन्नधिनेयलक्षण, रक्ताभिघातजः ॥ १॥" प्राचा० १७०६ ०१ उ०। अम्बर्थयुक्तानि च, तथा अम्बर्थश्चैषां प्राग्दर्शित एव । पिंहसोहंजणी-शोभाजनी-स्त्री०। स्वनामण्याते नगरीभेदे, विपा. यानि बुद्धिमद्भिः इति गाथार्थः । पश्चा० १६ विषः। १७०४ म०१ उ०। (तत्र शकटकुमार पासीत्।) सोहण-शोधन-न । मिरतिचारकरणे, उपा०१०। सोहंत-शोभमान-त्रि० । शोभत इति शोभमानः । शोभां। शोभन-त्रि० । प्रधाने, पश्चा०७विधा प्राव। मामा । विभति, प्रक्षा०२ पद । कल्प।
माले, मा०म०१० अन्वेषणे, 'भो वेवाणुप्पिया! सोसोहग्ग-सौभग्य-न० । सुभगत्वे, औ० । कंध पुण अस्थ इणपुरे गयरे चारगसोहणं करेह' । प्रा०५०१०। तस्थ सोहग्गं । दर्श०३ तत्व।
सोहणग-शोधनक--न० । कर्णशोधने , दम्तशोधने च ।
पृ० ३ उ० । पं०५०। सोहग्गप्परुक्खतव-सौभाग्यकल्पवृक्षतपम्-नासौभाग्य
सोहणदेव-शोभनदेव-पुं० । स्वनामख्यांत देयविशेषे, "अहो स्य सुभगतायाः संपादने कल्पवृक्ष व यः स सौभाग्यक
शोभनदेवस्य , सूत्रधारशिरोमणः। तचैत्यरचनाशिल्पा-माम रूपवृक्षस्तद्रपंतपः । लौकिकविशेषार्थे चित्रतपोभेदे, पश्चा।
लेभे यथार्थताम् ॥ १॥" ती०७ कल्प। बत्तीसं पायाम, एगंतरपारणेण सुविसुद्धो। | सोहणपुर-शोभनपुर-१० । स्थनामख्याते नगरे , प्रा० चू० तह परमभूसणो खलु, भूसणदाणप्पहाणो य ।।६॥ । १०।। द्वात्रिंशदायाम्याचाम्लानि एकान्तरपारणेम-पकायाम- सोहम्म-सौधर्म-पुं०। सकलबिमानसौधर्मावतंसकाभिधानव्ययहितभोजनेन सुषिशुद्धानि-निर्दोषाणि तथेति समु- विमानविशेषोपलक्षितस्थासौधर्मः। शकेन्द्रपालित प्रथम
चये, परमभूषणः खलूकशब्दार्थः । भूषणामप्रधाम जि. देवलोके, अनु०।०प्र०। उत्तप्रव० । जी०। ('ठाण' माय तिलकाचाभरणामसारः, इति गाथार्थः।
शम्ने चतुर्थभागे धैमानिकानां स्थाननिरूपणेऽयं वर्णितः ।) एवं मायइजणगो, विभो णवरमेस सम्बत्थ ।
'भगवती महावीरस्य पश्चमे गणधरे,स०। (अस्य वक्तव्यता
'सुहम्म' शम्मेऽस्मिन्नेव भागे गता!) अणिमूहियबलपिरिय-स्स होइ सुद्धो बिसेसेणं ॥३४॥
सोहम्मकप्प-सौधर्मकन्य--पुं० । प्रथमदेवलोके , रा० । चतुएथमिस्येकाम्तरितद्वात्रिंशदायामरूपम् , मायतिजनक
ईशपर्वधारिणो जघन्यतो लान्तकदेवलोकं यावद यान्ति , उनार्थः विज्ञयः , मबरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः ,
कार्तिकष्ठिजीवस्तु चतुर्दशपूर्व्यपि सौधर्मदेवलोक गतपणेऽयं सर्वत्र-सर्यधर्मकस्येषु अनिहितबलवीर्यस्य
स्तत्र को हेतुरिति !, प्रश्नः , अत्रोत्तरम्-तत्र पूर्वविभवति शुद्धो विशेषणेति व्यक्तम् । नवरं पलं-शारीरः प्राणाः,
स्मृतिरेव हेतुः सम्भाव्यत इति ॥ १६५ ॥ सेन. ४ उ०वीर्य-चित्तोत्साहः इति गाथार्थः।
ला | सौधादिदेवलोकेषु प्रतिप्रतरं सकलबिमानानाचित्ते एगंतरमो, सव्वरसं पारणं च विहिपुव्वं ।
माधारभूतैका भूमिरस्ति न वा ? इति प्रश्नः , अत्रोत्तरम्
सकलषिमानानामाधारभूतैका भूमिर्नास्तीत्यवसीयते - सोहग्गकप्परुक्खो, एस तबो होइ णायम्यो ।। ३५॥
तो भगवत्यादौ पृथिवीप्रश्न रत्नप्रभादय ईपत्प्राम्भारपर्यऔर मासे एकाम्लरकः-एकदिनव्यवहितः उपवास म्ता अष्टावेष पृथिव्य उनाः सन्ति नत्वधिका इति ॥३५॥ इति गम्यते । सर्वरसं। सविकृतिकमित्यर्थः , पारणं च सेन० १उला सौधर्मे किल्बिपिकाणां विमानानि भोजनम् । विधिपूर्ण गुरुदानादिपूर्वकमित्यर्थः, सौमाग्य-द्वात्रिंशलतमध्येऽम्यानि वा ? वेषां चानां च. सम्यक्त्वं
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सोहम्मकप्प
अभिवानराजेन्द्रः। भवति म बा १ तथा नत्र प्रतिमास्सन्ति नयेति । ते, तथा नृणां सा कथं न भवतीति !, प्रश्नः। अत्रोत्तरम् निप्रश्नः , अत्रोत्तरम्-सौधम्में द्वात्रिंशलक्षविमानानि.- रश्चां गुरुसमक्ष प्रायश्चित्तं विना शुद्धिर्भवति, तथाविधबलोकमध्ये , किल्बिषिकविमानानि तु स्वर्लोकावधः सं- सामध्यभावात् मनुष्याणां प्रायः तथाविधसामग्रीसद्धाप्रहिण्यादौ प्रतिपादितानि सन्ति , तथा तेषां सम्यक्त्व- वात् तद्विना न शुद्धिः, अत एव गुर्वाधयोगे तरपरिणापूजाप्रतिमाक्षराणि शारधानि न स्मरन्नीनि ॥ १३६॥ मवतां तदग्रहणेऽपि शुद्धिः , तद्योगे च तदगृहां नरपसन०३ उमा। ('डाण' शम्दे ४ भागे सौधर्मकल्पविशेषः ।)। रिणामाभायावशुद्धिरिति ॥ १०६ ॥ सेन० २ उमा० । सोहम्मवडिसय-सौधर्मावतंसक-पुoा सौधर्मदेवलोकस्य म
पाक्षिकप्रतिक्रमणमुखपत्रिकाप्रतिलेखनानन्तरं पौषधिक
बिना प्रतिक्रमणसूत्रादेशो इत्तः शुद्धपति नवा इति ? प्रश्नः, ध्यभागवर्तिनि शक्रमिवासभूते प्रधानविमाने, स०।
भत्रोत्तरम्-मुख्यवृत्या पौषधिकस्य दीयते रिशं वृद्धयचो. सोहम्मवसियस्स पं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए | ऽस्ति, परमेकाम्ती शातो नास्तीति ॥१२०॥ सेन० २ उमा। पणसहि पणसडिं भोमा पहना । (सू० ६५४) तथा-सिंहादिसस्कातित्रयमध्ये तथा पर्मितमासमध्ये 'सोहम्मे त्यादि मौधर्मावतंसक विमान सौधर्मदेवलोकस्य
कानिकर्मकार्याणि गुजयति कामिति प्रश्नः मत्रो. मध्यभागवति शनिवासभूतम् ' एगमेगाए 'सि एफैकस्या
तरम्-दीक्षाप्रतिष्ठादिमशुपति, अग्यानिशुअपम्तीदिशि प्राकाराभ्यर्णवर्तीनि भौमामि नगराकाराणि विशि
ति॥२४॥ तथा-विक्रयकारिसमुच्छेवितमामलान्छनामा प्रतिस्थानानीस्थेके । स०१५ सम । सौध करणे चतुर्विध
ष्ठिताईस्प्रतिमामा पुनर्लचमादिकरणं गुजपति मवेति ? प्रश्ना, बस्वारि विमानानि मध्ये पश्मः सौधर्मावतंसक, पुंसवंग
भत्रोत्तरम्-तासामभिधानलबमाविकरणं प्रायो न गुजपमारुतत्वात् । रा॥
नि, कदाचित्कारणे ययावश्यकं कर्तव्यं स्यात् तदा त
विधानानम्तरं प्रतिष्ठितवासक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति धीसोहम्मिद-सौधर्मेन्द्र-पुं० । शके , प्रशा०२ पद ।
भगवत्पादानामनुशिष्टिरिति ॥ २५ ॥ सन० ३ उमा० । सोहय-शोधक-त्रि०ा शोधयतीति शोधकः । भनेकजम्मभा
तथा-उपवासी श्राद्धः सन्ध्यायां सामायिकं विधाय विकर्मावितापने, मा०म०१०।
मुखपत्रिका प्रतिलिक्य प्रत्यास्यान करोस्यम्यथा वा . यदि सोहा-शोमा-स्त्री० । "ख-च-च--भाम्" ॥८1१1१७॥ तथैव तदा बम्मनकदाननिषेधः कस्मादिति ?. प्रश्ना, अत्रीइत्यनेन भस्थ हः प्रा० । झारे,मा० १५०१०। प्रभा
तरम्-सामाचारीप्रमुखप्रथेषु भोजनविषसे बननकदायाम्,शा०१०म०।
नानन्तरं प्रत्याख्यानकरणाक्षराणि सन्ति, परमुफ्षासदिने सोहि-शुद्धि-खी। राध-शौचे, नियां लिन् । शोध - बम्बमकदानानन्तरं प्रत्याख्यामकरणविधि स्ति, मुखपो
सिका तु प्रतिलेखिता युज्यते यस्माता विना प्रत्याश्याशिः। विमलीकरणे, भाय।
नंग गुरुपतीति सामाचार्यस्ति , तथोपधानेऽपि तथैव इवानी राशिः 'गुष'शीचे,मस्य खियो क्लिन् ,शोधन शुद्धिः
करणाविति ॥७६0 सेम०३ उझा। तथा-रुतगृहसाकविमलीकरणमित्यर्थः , सा च नामादिभेदतः पादेव , तथा
प्रस्थाश्यामः भाखो गृहे गस्थाऽन्यत्र भोजनं करोति न
दा शुखयति किंवा तत्र दन्तधावन विधायति ? प्रश्नः , नाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य।।
अनोतरम्-कृतगृहसत्कप्रस्याख्यानः भावको गृहे गन्या एसो खलु सुद्धीए, निक्लेवो छविहो होइ ।। १२४१ ।। पारितगृहसत्कप्रत्याख्यानो. दम्तधावनकरणमन्तराऽप्यम्यत्र नत्र नामस्थापने गतार्थे द्रव्यशुजिस्तापसानीनां स्वगु- भुक्त तदा शुद्धपतीति वृद्धाः ॥६३॥ सेन० ३ उज्ञा० । बोलोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्रऐरुपयुक्तस्य वा निव- तथा-चैत्रमासीयकायोत्सर्गविस्मृती यत् स्वयं यांगोदभ्य वनसुवर्णादेर्वा जलक्षारादिभिरिति, क्षेत्रशुद्धिर्यत्र व्या- हनं न कल्पते, तथा अन्यषां योगक्रियाप्रवेदनादिकं कारपर्यते क्रियते या क्षेत्रस्य वा कुलिकादिनाऽस्थयाविशल्यो- यितुं शुद्धपतीति न वा?, तथा कालग्रहणं दरिडकाधारण सरणमिति, कालशुद्धिर्यत्र ब्यावर्यते क्रियते वा शक्क्या- दिगालोकश्च शुद्धयतीति नवेति ? प्रश्नः, भत्रोत्तरम्-चैत्रस. दिभिर्वा कालस्य शुद्धिः क्रियते इति । भावजिबिधा- म्बन्धिकायोत्सर्गाऽकरणे तस्य योगसम्बन्धिनी क्रिया स्वयं प्रशस्ता, अप्रशस्ताव । प्रशस्ता सानादेरप्रशस्ता बाशुखम्य कर परेषां कारयितुंचन कल्पत इति ॥ १५ ॥ सेन०३ मतः क्रोधादेमस्याधानं-स्पषतापादनमित्यर्थः, अथवी- उल्ला तथा प्रयालायतमाला प्रतिक्रान्तिः शुद्धयतिम येबन एवोपयुक्तस्य सम्यग्रष्टेः प्रशस्ता, तयेहाधिकारः, ति प्रश्ना,मत्रोत्तरम्-सूत्रीयनिश्चलमणिकाक्षमालाले स्थापन. प्रतिकमणपर्यायता बास्थाः स्फुटा, एवं प्रतिक्रमणमधा पुरःसरक्रियाकरणविधिर्टश्यते परम्परयेति ॥ १२५।। सेन०३ भवतीति गाथार्थः । श्राव०१०। भा०म० प्रा०प० । उल्ला। तथा सूर्यग्रहणं यद्भवति तदस्वाध्यायिका कुत दोषविनाशने, मा००१ मा शल्योशारणे. घ.२ अधिक। भारभ्य कियद्यावयति ? तथा यौगिकानां कियन्ति प्रवेदमि००प्रायश्चित्ते, व्य० १ उ०। मालोचना व्यवहारः मानिन शुनयन्तीति ? प्रश्नः, अत्रोत्तर-यत्सूर्यग्रहणं भवति प्रायश्चितं शुचिरिति पर्यायाः। व्य० उ०मा०चा स्था। तत भारभ्याहोरात्रं यावदस्वाध्यायिका, सवनुसारेबैकं प्रवे. दुष्कर्मनाशस्वरूपायां लघुकर्मतायाम् , उत्स०१उ० विशे दनमशुखं बायत इति ॥२१॥ सेम०३ उल्ला० । तथामिथ्यास्वममस्थापगमात्सम्यकत्वं शुद्धिरुच्यते । विशे० । जिनालये प्रत्याख्यानं पारयितुं शुद्धधति नवेति',प्रश्नः मत्रो. पथा तिरश्चा गुरुसमक्षं प्रायश्चित्तं विनाऽपि शुद्धिर्जाय- | चरम्-शुद्धपतीनि सम्प्रदाय इति ॥ १८४ । सेन०२ उमा।
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( ११७१) अभिधान राजेन्द्रः ।
प्र
सोहि
जयदशमी पाप राडाविहरणं कर्म न शुद्धयतीति श्मः अत्रोतरम्-परम्परया खण्डाविहरणं निइति॥ ३१७ ॥ सेन० ३ उल्ला० । तथा कश्चिद् श्राद्ध एकाशनद्वयशनप्रत्याख्यानेन विना प्रासुकजलं पिबति पाणस्सायाकारानुचरति तस्य गयो द्विधाहारखिधाहारो या कृतः शुद्धयति किं वा चतुविधाहार इति ? प्रश्नः, अत्रोतरम् - रात्रौ चतुर्विधाहार करोतीति परस्पराऽस्ति ॥ ४ ॥ सेन० ४ उज्ञा० । तथा येम नमस्कारसहित प्रत्याक्याने कासवेलायां न फलं तस्य पश्चात्पारुष्यादिप्रत्ययानं शुनिन था ? इति प्रश्नः अत्रोसरम् नमस्कारसहित प्रत्याक्यार्थ पिना पौयादिप्रत्ययातुन विधाक्षराणि भावविधिप्रमुखप्रयेषु समीति यम् ॥३३॥ तथा - प्रतिष्ठित जनप्रतिमा विक्रयकारिभिः समुच्छेदितमामलचणाः भाईयेाः सन्ति तेन तथामोCarrer कस्य जिनस्येयं प्रतिमेति वक्तुं कथं शक्यते ततो यदि यमादिरविधि तथा प्रसाद्यमिति प्रश्नः - प्रतिनियमनाम मिधानलक्षणादि प्रायस्तु न कर्त्तव्यं पुनः प्रतिष्ठाकर ज्ञानत्वादिकारणेन पद्यावश्यक कर्तव्यं भवति तदा ति धाय प्रतिष्ठितवासोपादिना शुद्धिर्भवति ज्ञायते इति । ४१ ॥ सेन० ४ उज्ञा० । तथा-प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका या चतुर्थीप्रतिमात आारम्य चतुष्पथी कराति तदा पाक्षिकपूर्णिमाकरणाभावे पाचिकपीि भायोपवासं करोति पूर्णिमा वैकाशनके हत्या पौषधे करोति त्यति न था ? इति प्रश्नः असम्प्रति arre are after या चतुर्थीप्रतिमात भारभ्य चतुष्पदीपोषर्ध करोमि तदा मुखपृष्या पाक्षिकमि
-
चतुर्विधाहारः षष्ठ एव हतो युज्यते कदाचिय यदि सर्व्वथा शक्तिर्न भवति तदा पूणिमाया मायामालं निर्षिकृति पर कियते पविधाक्षराणि सामाचारी
परमेकाशन शास्त्रे नास्तीति ॥४२॥ सम० ४ उज्ञा०। तथा - त्रिकालपूजाकरणे प्रभाते मालादि निर्माल्यमपास्य सर्वत्रान बासपूजा क्रियतेऽन्यथा बेति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् -
मोहिय
इ
प्रभाते पुष्पमालादि निर्माल्यमनपास्य भाया बापू कु तो दृश्य, सम्मान करतो ऽच्येकान्त ज्ञानस्तपादानेन शुन्नीनि ॥ १५७ ॥ सेन० ४ ० । तथा श्राजा दन्तधावनं कृत्येय देवपूजां यानि प्रश्नः अत्रोत्रम्- 'शुचिः पुष्पामिषस्ना' गिनियांगशास्त्रादिवचनाम्मुख्यवृत्त्या दन्तधावनं कृत्वैष देवपूजां कुठति, पोपवासादिकर्तुकामाश्च दस्तधावनं विनाऽपि देवपूजां कुन्ति प्रत्याख्यानस्य बहुपक्यादिनि ॥१६८॥ सेन० ४ उज्ञा० । शोधिन्- भ० शोधपत्राविति शोधिः०१०१० |
.
सोहिकम्प शोधिकम्प-पुं० शोधिः प्रायदि उपमान कपते यत्र स शोधिकाः शुद्धाचरे মि०
चू०
-
२० उ० ।
सोहिय- सोधित त्रि०। मार्जनिकादिभिः शुद्धि मापादिने, स्था० ४ ठा० २ ७० | सूत्र० । उस० । “इस पथ का सोहिये तीरियं परियं" गुर्वादिप्रद शेयोजना राज गुरुदतादर्शनादिशेषजनसेवनयेव हेतुभूनया
०२ द्वादशा० शोधितस्तरसमाप्ता बितानुष्ठानकर तः स्था० शोधितमन्येषामपि तदुचितानां दानादतिचाग्यजनाद्वा । प्रश्न० १ संव० द्वार झा० म० । अष० । शाधितो निराकृतातिचारत्यात् २० २ ० १४० सोहियर शोधिकर- त्रि० अनानुबन्धप्रि जनक. आाखा० १ ० ६ ० १ ३० ।
सोहिल शोभावत् ०"ज्ञान-प
1
- मला मतोः ॥ ८६ । २ । १५६ ॥ इति मताः स्थान इलादेशः । सोहि शाभाविशिषे प्रा० पा सोही देशी- भूतभविष्यत्कालयोः दे० ना०८ वर्ग ५८ गाथा । सोहेउं शोधयित्वा - अव्य०। उद्धृत्येत्यर्थे, पं० ब० २ द्वार । सौधरिय-- सौदर्य पुं० । समान उदरे शेते इति सौदर्यः । महोदरभ्रातरि प्रा० १ पात्र ।
00:0
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इति श्री मस्सौधर्म बृहसपागच्छीय- कलिकाल सर्वज्ञकल्पश्रीमहारक- जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००० श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिने 'अनिधानराजेन्द्रे' सकारादिशब्दनं समाप्तम् ।
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हकार
STOLEDGOGI 007
(१९७२) अभिधानराजेन्द्रः।
प्रत्यवधारणे, कोमलामन्त्रणे,हा०१६ अधु। छा। औ०। अनु० । प्रतिः । पञ्चा। दर्श। शिष्यामन्त्रणे , प्राचा०२ श्रु० २ १०३ उ०। अभ्युपगमद्योतने , अनु० । संप्रेषणे, सूत्र०१०११०२उ० खेदे सूत्र०२२०१०) प्रति अष्टः । एषमवेत्यर्थे, औ०। निर्देश, प्रतिभा पाक्यारम्भे, जं. २ वक्षः । आमन्त्रण, प्राचा०२ श्रु०१०१०४ उ० । हर्षे, अनुकम्पायाम् , रा०। हन्त-अव्या दीर्घत्वं च मागधदेशीयस्यात् , 'हंता अस्थि णो
चेव।' अत्र भगवानाह-हत्यादि, आमन्त्रण, जं०२ यक्ष।
हतब्ब-हन्तव्य-त्रिका "हन्खनोऽन्त्यस्य" ।।४।२४४ ॥ ह-ह-अव्य० । कण्ठस्थानीय ऊष्मसंज्ञकोऽयं यः। अधि- अत्र बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि नित्यं तच्च कचिन्न क्षेपार्थे, स्था० ७ ठा०३ उ० । पादपूरणे, संयोधने, नियो
भवतीत्युक्तेन भवति । इंतव्यं । प्रा० । दण्डकशादिभिर्व. गे, क्षेणे निग्रहे , प्रसिद्धौ च । कारः पुंसि यजने,
य, श्राचा० १ श्रु० ४ अ० १ उ०। बरुण हरिहंसयो । र खायलेपचा रणरोमाजवाजि"ता-हत्वा--अव्य० । विनाश्यत्यथै, स्था०३ ठा०२ उ०। ॥६॥ एका०ाहोरे, हारे, एकालाहा स्त्रियां स्यजन गत्या, लगुडादिभिरभ्याहायेत्यर्थे भ० ८ श. ५ उ० । बीणायां वा निगचते । नपुंसक हकारस्तु, कणिते मणिरा-त-त्रि० । ताच्छ्रीलिकस्तन् मृगशूकरादिकत्रसप्राणिहन्तरि, विषु ॥६॥" एका । खेद, १०४ उ०।
सूत्र. २ ध्रु० २ म। भाचा। हा-अभ्य० । "याऽव्ययोरखाताबापदातः" ।१।६७॥
हं-हन्तुम्-अव्य० । विनाशयितुमित्यर्थे, पृ०१ उ०२प्रक०। इति प्राकारस्य वा प्रकारः । विषाद, शोके, पाडायाम् ,
हंतण-रत्वा-प्रव्य० । “इम्सनोमयस्य" ॥८।४।२४४।। कुस्सायाचा प्रा०१पाद।
भत्र बहुलाधिकारान्तेः कर्तयि बित्य , तमच कांचन हम-इत-त्रि० । हम्-क। नाशिते, प्रतिहते प्रदिवे, मासा
भवतीत्युक्तेन भवति । प्रा० । विनाश्यत्यर्थे, संथा। मातु । रहिते गुणिते ना, भाये का हनने, गुणने, म०। प्रा० ।
इंद-गृहाण-प्रय०। “हन्द च रहाणार्थे।८।२।१८॥गृहाणार्थे हत-त्रि-कात्र केचित् । स्वादिषुइस्यारब्धषम्त:
हमति प्रयोकव्यम् 'द पलोएम इमं गृहाणेस्वर्थ: । प्रा०। स तु शौरसेनीमागधीविषय पय दृश्यते इति नोच्यते ।
दन्त-अब्याक । कोमलामन्त्रणे , स्था० ५ ० १ उ०। प्राकृते हि । हतम् । हनं । प्रा०।"हन्खमोऽन्त्यस्य" .।४।२४४ ॥ इत्यन्त्यस्य द्विग्धं न, कविध भवतीत्युक्तः।
आमन्त्रण , नि० चू० ४ उ० । हर्षे, प्रा. म०१ अ०। प्रा० । अगरते, स्थानान्तरं यमितेच। प्रा०।
हंदि-हन्दि--अव्य । "इंदि-विषाद-विकल्प-पश्चात्तापहमास--हतास-त्रिव । अत्र केचित् त्वादिषु द इत्यारन्थ
निमय-सस्य" ॥12॥१०॥ हदि इति विषादादिषु प्रयोयन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव रश्यते इति मोच्यते।
क्तव्यम्। "हंदि चलस सोसो, ण माणिशो हंदि हुज्ज एप्राकृते हि-हताशा , प्रायो । प्रा० श्राशाशूम्ये, बध्ये,
साहे। हंदि ण होही भणिगी, सा सिज्जा हंदि तुह कज्जे ।" निदेये, पिशुने च । प्रा०।।
प्रा० । उपप्रदर्शने, ०४ उ० । अनु० । प्राचा० । स्था० । हद- हति-स्त्री० । हन्-किन्-हनने, मारणे, व्याघाते, अपकर्षे, दश० । पा० । सम्म० । ने। श्रा०प० । आवश्रागुणने च । प्रा०४ पाद ।
मन्त्रसे, सा० १ श्रु०१५ ० । कोमलामन्त्रणे , जीया हउ-महम-त्रिका "सायस्मदोह" ||४। ३३५॥ इत्य
१६ अधि० । चोदकामन्त्रणे, व्य० १० उ० । स्थसंयोथ
ने, पिं० । प्रत्यक्षवाक्यदर्शने, नि० चू० १२ उ० । लोकभ्रंश अस्मच्छब्दस्य सौ परे हां इत्यादेशः । तसुहउं क
साधककारणोपप्रदर्शने , वृ० ३ उ०। लिजुगि दुलहहो । प्रा० ४ पान ।
भो-हम्भो-अव्य० । श्रामन्त्रण, सा० १ श्रु० १४ अ० । हं-हुँ-अस्य हर्षे, हिंसायां च । एका।
शिष्याऽऽमन्त्रणे, दश० १ चू०। महम-त्रिका भस्मदोम्मि अम्मि अम्हि-ह-अहं अहयं सिना'
हंश-हंस-पुं० । "रसोलशौ" ८४२८॥ इति मागध्यां दस्य३१०॥ इति सिमा सहितस्य परमच्छब्दस्य ई इत्यादे
| सकारस्य तालव्यशकारः । स्वनामख्याते पक्षिभेदे , प्रा० । शः अस्मछुमस्य प्रथमैकवचनार्थ जेण है घिद्धाप्राकाहा। इंजे-हजे-अव्य० । “हंजे ट्याहाने" RE१॥ शौरसेन्यां हस-हस-१०
हंस-हंस-पुं०। चतुरिन्द्रियजीयविशषे , अनु० । स्वनामखेट्याहाने हंजे इति निपातः प्रयोकव्यः । हंजे । चतुरिके!
ख्याते पक्षिभेदे , "अम्लत्येन रसझाया , मिश्रयोः क्षी
रनीरयोः। विवेच्य पिबति क्षीर,नीरं हंसो विमुञ्चति," श्रा० मास्यक्रियायां नहाभिनय कृते चेटीसंबोधन, प्रा० ४ पाद।
क० ११०। अनुयोगे हंसोदारणमुक्तम् । प्रा० म०१०। इंडिया-हण्डिका--स्त्री०। लघुकुम्भ्याम् ,मस्तकन्यस्तदधिह
अनु०। प्रश्नका रजके."बत्थधोवा हवंति हंसा वा." वस्त्रधावरिडका । विशे।
का-वस्त्रप्रक्षालका हंसा इव रजका इव भवन्ति । सूत्र०१ इंस-दन्त-अव्या वाक्योपल्यासे,आचा०१ थु० अ० १उ। ०४ अरउवा परिमाजकमले यतिविशेषेषु, ये पर्वतकुहर
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(१९७३)
अभिधानराजेन्द्रः। पथ्याश्रमदेवकुलारामवासिनो भिक्षार्थ च प्रामं प्रविश- हक्खुप्प-उत्क्षिप्-धा। ऊचे प्रक्षेपे, "उत्पिपेर्गुलगुन्बोस्थन्ति । औ०।
घालत्योभुत्तोस्सिक-हक्खुप्पाः" ४|१४४॥ इति उत्पूर्वहंसगम्भ-हंसगर्भ-पुंग हंसः-पताश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः, स्थ क्षिपः हक्खुप्प इत्यादेशः। हक्खुपमा उक्लिप्पदान
गर्भस्तु तनिवर्तितः कोसिकारः , हंसस्य गर्भो हंसगर्भः। हगे-हम-वयम-त्रिका"अहं-षयमोहगे"८४१॥ मागहंसनिवर्तिते कोसिकारे, अनु। जं० । रत्नविशेष, जी० ३ ध्यामहंवयमोः स्थाने हगे इत्यादेशः। अस्मनस्यैकत्वे, प्रति०४ अधि०। सूत्रका रत्नप्रभायाः पृथिव्याः षष्ठे रत्नग- । बहुत्वे च । प्रा०४ पाद ।। र्भकाण्डे , प्रा० म०१०।शा० । स्था० । प्रशा० । हच्छंकर-हच्छङ्कर-पुं० । वनस्पतिभेदे, प्राचा० २ ० २ हंसगम्भमय-हंसगर्भमय-न। सगर्भाल्यरत्नमये, रा०।। च३० हंसतेल (ल)-हंसतैल-न । हंसपक्षिपाकतैले, "हंसा हट्ट-हट्ट-पुं० । आफ्णे, नानागृहाध्यासिते त्रिकोणे भूभागपकसी भमति, सो फाडेऊण मुत्सपुरीसाणि णीहरिजन्ति , विशेष, अनु० । पण्यशालायाम् , प्राचा०१ श्रु.६०२ ताह सो हंसो दब्वाण भरिजति, ताहे पुणरवि सो- | उ०। प्रा० म० । सीविजति । तेण तदवत्थेण तवं पञ्चति तं हंसतेलं भ- हद-दष्ट--त्रि० । हर्षिते, उत्त० १८० । विस्मयमापने, यमति । नि० चू०१ उ०।
था-अहो भगवान् तीर्थकरः समुत्पन्न इति। प्रा० म०१ हंसदीव-हंसद्वीप-पुं०। स्वनामख्याते तीर्थभेदे. यत्र भीसुम- १० । जी० । भ०। श्री० । रा० शा०मीरोगे, प्रव० तिनाथदेवपादुका । ती० ४३ कल्प।
४ द्वार । भ० । नि०चू० । स्था० । स० । तारुण्येन
समर्थ,तरुणा अपि केचिद्रागिरको निर्बलशरीराश्च भवन्ति । हंसलक्षण-हंसलक्षण-त्रि०। हंसस्येव लक्षणं स्वरूपं शु
कल्प० ३ अधिक क्षण । तुष्टानन्दिताः एकाते, लता हंसा वा लक्षण चिह्न यस्य सः। ज्ञा०१ शु०१०।। विपा०१ श्रु.१०।। शुक्त सचिहे, भ०६ श० ३३ उ०ा हंसवद्विशदे, जं०२ वक्षा
हृदुतुट्ठ-दृष्टतुष्ट-त्रि० । अतितुष्टे, शा०१ श्रु०१ १०मा०म० हंससर-हंसस्वर-त्रिका हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते । । १भाभा औ०। विपा।दशाभाहतुटुचित्तमाणं
ससरशमधुरस्वरयुक्नेषु , जं०२ वक्षः। ०जी०। दिप' तुओंऽतीव तुष्टः । अथवा पोनामविसबमापी हंससरिसग्गइ-हंससदृशगति-त्रि०। सस्य सरशी गतिर्ये- यथा अहो भगवानास्ते इति तुष्टस्तोपं कृतवान् यथा भन्यमपांते । हंसतुल्यगतिषु , जी०३ प्रति ४ अधिः। भूत् यन्मया भगवानवलोकितः तोषवशादेव चित्तमामन्दि
तं-स्फीतीभूतं'टुनदि'समृद्धाविति वचनात् यस्य स चित्तानइंसासन-हंसासन-न० । येषामासनानां मध्यभागे हंसा
न्दितः सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातामव्यवस्थितास्तानि हंसासनानि । हंसाकृतिव्यवस्थितेषु मा
कारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदइयमीलनेसनषु , जं० १ वक्ष० । जी०।।
न कर्मधारयः । रा० भ०। कल्प० जी० । हंसासनसंठिय-हंसासनसंस्थित-त्रि०ा सासनवत्संस्थिते,
इड-देशी--वनस्पतिविशेष, उत्त०२२ म.. जी० ३ प्रति०२ अधिक।
इत--त्रि० । अपहते, स्थानान्तरं गमिते । कल्प. १ इंडो-हहो-अव्याहमित्यव्यक्तं जहाति हा-हो। संबोधने,
अधि०४ क्षख। दर्षे, दम्भे, प्रश्ने च । प्रा०।
हडप्प-देशी-प्राभरणकरण्डके, बा०१ श्रु. १०। इम्माहक-निषिध-धा०1प्रतिषेधे,"निषेधेईकः"बा४१३४॥ इति
विभाजने, ताम्बूलार्थ पूगफलाविभाजने, भ० ६ शक ३३ निषेधतेईक इत्यादेशः । हक्का। निसेहर । प्रा० । कुमारेण स | उ.। औला करी हक्कितः । उत्त०१३ अ०।
इडाला-हडाला-पुं० । खनामख्याते प्रामें, यत्र वस्तुपालतेइकार--हाकार--पुंज हा इति हाकारलक्षणा या नीतिः-प्रवृत्तिः | जापालाश्यां निर्मिती
सा हाकारः। मा०म०१ अप्रथमद्वितीयकुलकरदण्डनी-| हडाहड-हताहत-न० । अत्यर्थे, "फुहहडाहडसीस" विषा०१ तौ, "हकारे मकारेधिकारचेव दंडनीतीनो" प्रा०म०१०॥
मा०म०प्र० शु०१०मा० दण्डनीतिस्तावत् विमलवाहनचतुष्मत्कुलकरकाले अल्पा-डि-डि-पुं०। खोटके, औ०। विपा० । कर्म० । काष्ठघोटके, पराधित्वेन हकाररूपैयाभूत्। यशस्विनोऽभिचन्द्रस्य च
दशा०६ अाकाष्ठविशेषे, प्रश्न. ३ आश्र द्वार । काले अल्पेऽपराधे हकाररूपा महति च अपराधे मक्काररूपाथ प्रसेनजिन्मरुदेवनाभिकुलकरकाले च जघन्यमध्यमो हडिबंधण-हडिबन्धन-न० । खोटाक्षेपके, प्रश्न०.५ संव० स्कृष्टापराधेषु क्रमेण हक्कारमक्कारधिक्काररूप दण्डनी- द्वार । सूत्र०। तयोऽभूवन् । कल्प०१ अधि०७क्षण । ति । श्रा० म०।हा-देशी-अस्थनि, तं०। रा० प्रा०चू०।
हद-हद-पुं० । जलसहवनस्पतिविशेषे,प्रशा१पदा प्राचा। हकोद्ध-देसी-प्रमिलपि देना वर्ग:६० गांथा ।
हढकारग-हठकारक-त्रि० । हठेन कुर्वन्ति येते ठकारकाः। हमखुत्त-देशी-उत्पाटिते , दे०८ वर्ग ६० गाथा।
। हठपूर्वककर्मकर्तरि, प्रश्न. ३ श्राद्वार।
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-(१९७४)
अभिधानराजेन्द्रः। श-भू-भाग श्रवणे,स्वादि-पर०सक अनिद् । "gणोतेह- स्यम्दं प्रतिबोध्य हस्तयुगलं श्रेयासतः कारयन,
लः"८1५८॥ इति गुणोतेहण इत्यादेशः । हह। प्रत्यग्रेचुरसेन पूर्णमृषभः पायात्स वः श्रीजिनः ॥३॥" , सुणा । शृणोति । प्रा०४ पाद ।
कल्प०१ अधि०७क्षण । (हस्तनिक्षेपी ' हत्थकम्म' शम्बे हन-भाग बधे, गतौ च । भ्वादि-पर० सका भनिद । हन्ति अनुपदमेव पच्यते। ) चतुर्विंशत्यक्गुलमाने अषमानविशेष, भवधीत् । "कुछ हन्ति कृशोदरी" इत्यादी भालङ्कारि- अनु । स्था० । 'हत्थेसु अंगुलीनो' उपा०२० । स्वनाकास्तु निहतार्थतामाहुः । वाच । प्रा०॥
क्याते नक्षत्रविशेष, जं. ७ वक्षः। स्था० । विशे। हरांत-न-त्रि० । प्राणषियोगकर्सरि, सूत्र०१५०११ मा हस्तमक्षत्रं पश्चतारम् । ज्यो०५पाहु।स।
प्रभागोधूमादिदलनेम घातयति । स्था० ठा० ३ उ०। हत्थकम्म-हस्तकर्मन्-न० । इम्ति दशति या मुखमावृत्याs हसण-हनन-१० हिंसने , सूत्र०२९०१ ०। प्राचा० । मेनेति हस्तः,शरीरैकदेशो निक्षेपादानादिसमर्थस्तेन यत्कर्म म्यापादने, सूत्र० । गुणने , विनाशने, हा० १ श्रु० १८. क्रियते तद्धस्तकर्म । ०१ उ०३ प्रकका समयप्रसिद्धे (स्था०४ म. प्रश्न जिघांसने, भा० । पीडने, सूत्र० १७०५० ठा०२ उ०) लिङ्गस्य करमर्दनन शुक्रपुद्रलनिष्काशने , जीन २301
हस्तकर्म प्रागमप्रसिद्धम् , स्था० ३ ठा०४ उ० । वेदयिकारइलावण-घातन-म० प्रनोऽनुझायाम् , स्थाठा०३ उ०।। विशेष, दशा०२म०।" णो सय पाणिणा मिलजेज्जा" । न हणु-ह(नु)---पुं० । श्री० । हन्-उन्-या-ऊ। कपोलक्यो- संबाधनं कुर्यात् यतस्तदपि हस्तसंवाधनं चारित्रं परिस्थे मुखभागे, हविलासिम्याम् , रोगे,मनविशेषे, मृतौ
शबलीकरोति । सूत्र०१श्रु०४१०२ उ० स०। ..ास्त्री।वाच । चिबुके,तं० । औला प्रश्न । अगु०। सूत्र।
हस्तकर्मकरणे प्रायश्चित्तम्हणुमंत-हनुमत-पुं०।"उधूं-हनूमत्कण्डूय-वातूले" ॥८।१ जे भिक्ख हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइज्जइ । (सू०१) १२१॥ इति ऊत्कारस्य उकारः । प्रा०।"माल्विल्लोलाल-ब- इदाणि सुत्तालावगो भणति-जे-त्ति पदं,भित्ति पर्द,खुत्ति, मत-मम्तेत्तर-मणा मतोः" 15 | २ | १५६॥ इति मतोः स्थाने पयं, इत्थति पयं, कम्मं ति पर्व, करेति पर्व, सातिजति मम्त स्यादेशः। प्रा०। रामस्य अनुचरे भजनागर्भजाते पव- त्ति पदं। मतमय वानरभेदे, प्रा०।
- इदाणि पदस्थो भएण:इणुया-हनुका--स्त्री०। दंष्ट्राविशेषे, उत्स०२०।
जे ती खलु णिसे,भि ती पुण भेदणे खुवस्स खलु । इतसंकतशा-त्रि। हास्यादियिकारविकलतया भावनी
हत्थेण जं च करणं,कीरति तं हत्थकम्मं ति ॥ १॥ यव्यलोकशके, ०३ उ०।
से इति निर्देश, खलु विशेषणे , कि विशिनधि ?, भिहतसार-हतसार-त्रि० । अपहतद्रव्ये, प्रश्न. ३ माश्रद्वार।
क्षोर्नान्यस्य , भि इति विदारणं शु इति कर्मण पाण्यान ता-हत्या-स्त्री०। विधातिते, मि०५०१० । हनने, वि- कानावरमादिकर्म भिननीति भिक्षुः । भायभिक्षार्थिशेपा०१७०७ मा
पणे पुनः 'हन्थे' त्ति हम्यते अनेनति हस्तः, हसति वा मइत्थ-हस्त-पुं०। हम्यते ऽनेनेति हस्तः, हसति वा मुखमा
समावृत्यति हस्तः, पादाननिक्षेपादिसमर्थः शरीरकदेशो
हस्तः प्रतस्तेन यरकरणं व्यापार इत्यर्थः, स च व्यापारः क्रिस्येति हस्तः । मि००१ उ० । "स्तस्य थोऽसमस्त-स्तम्छे"
या भवति,अतः सा हस्तक्रिया क्रियमाणा कर्म भवतीत्यर्थः। MEN४५ ॥ इति स्तस्य थकारः । प्रा०। 'द्वितीय-तुर्ययो
नि० चू०१ उ०। रुपरि पूर्वः"ERIEO॥ इति द्वित्वप्रसङ्गे द्वितीयस्य थकारस्यो.
हस्तकर्मादीनां त्रयाणां पदाना प्रत्येकं पृथक पृथक प्ररूपण परि प्रथमस्तकारः। प्रा० भादाननिक्षेपादिसमथै शरीरकदे
बच्ये । यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितकामो हस्तकर्मप्ररूपशे, मि००१ उ० । सूत्र । उत्त । द्वे वितस्तिः हस्तः । प्रथ० २५४ द्वार ।ज्यो । यद्ययजादीमा हस्तो न विद्यते
णां तावदाह
। नाम ठबणा हत्थो य, दबहत्थो य मावहत्थो य । तथाप्य पादी हस्त इव इस्ती । उपा० ७ ० । प्रत्रकविः
दुविहो य दबहत्थो, मूलगुणे उत्तरगुणे य ।।१२१६।। "स्वाम्याह दक्षिणं हस्तं, कथं भिक्षा मलासि भो!।। मामहस्तः स्थापनाहस्तो व्यहम्तो भावहस्तति ,
स प्राहदावहस्तम्या-धो भवामि कथं प्रभो!॥१॥" ! मतुर्धा हस्तः । तत्र मामस्थापनाहस्ती गनार्थी। द्रव्यहस्तो, पजाभोजनदानशान्तिककलापाणिग्रहस्थापना
शरीरभव्यशरीव्यतिरिक्को द्विविधो भवति । तद्यथाखोक्षप्रेक्षणहस्तकार्पणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम् । मूलगुणनियर्मिते उत्सग्गुणनिवर्तिते च यो जीवधिप्रमुक्तम्य (इस्थभिधाय दक्षिणहस्ते स्थिते)
शरीरस्य हस्तः स मूलस्य-जीवस्य गुणन-प्रयोगेण निवघामोऽहं रणसंमुखाङ्कगणनावामानशय्यादिकृत्,
सिंत इति मूलगुणनिवर्तितः । यस्तु काष्ठचित्रसेप्यकर्माविषु पूतादिव्यसनी त्यसौ स तु जगी चोक्षोऽस्मि न स्यं शुचिः॥१॥
नियर्तितो हस्तः स उत्तरगुणनिवर्सित उच्यते । ततः
अथ भावहस्तमाहराफ्यश्रीभवताउर्जितार्थिमिवहस्स्यागैः कृतार्थीकृता,
जीवो उ भावहत्थो, णेयम्बो होइ कम्मसंजुत्तो। संतुरोपि गृहाण दाममधुना नम्बम् मयां दानिषु । वितिभोचिय भादसो,जो तस्स विजाणमो पुरिसो १२२॥
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अभिघानराजेन्द्रः। •जीयो' सि-विभक्तिव्यत्ययात् यो जीयस्य हस्तः कर्म-1
संघट्टणपरितावण, लहुगुरुग तिवायणे मूलं ॥१२२६।। संयुक्त-आदाननिक्षेपादिक्रियायुक्तः स नोप्रागमतो भावहस्त
अशुषिरमनन्तरं छिनति मासलपु. शुभिरममम्तरं छिननि उच्यते । द्वितीयोऽपि चात्रादेशः समस्ति, यस्तस्य विहायकस्तदुपयुक्तः पुरुषः सोऽपि भावहस्तः प्रागमत इत्यर्थः।
अतुलघुकम् । अशुधिरं परंपरं छिन्दतो गुरुको मासः, शुपिर अत्र नोश्रागमतो भावहस्तेनहाधिकारः(१०)(कर्मपक्ष्याख्या
परपरं छिन्दतश्चतुर्गुरुका भवम्ति. शुधिरे बहुतरतोपवात् 'कम्म' शब्द तृतीयभागे २४४ पृष्ठे गता ।) एषां मध्ये अत्र
गुरुतरं परंपरे शत्रुग्रहणे संक्निष्टतरं वित्तमिति करवा गुरुकतमेनाधिकारः, इति नेदत पाह-अधिकारोऽत्र भाव
तमं प्रायश्चितम् । एवं शुद्धपदेवकायविराधनाभावे मम्नकर्मणो मोहोदयलक्षणेन शेषास्तु शिध्यमतिव्युत्पादनाचे प्र
व्यम्.अशुद्धपदे पुनरिदमपरं प्रायश्चित्तम्-"संघहमि म्यादि, रूपिताः ततो भावहस्तेन यत्कर्म क्रियते तत् हस्तकर्म
छेदनादिकं कुर्वन् द्वीन्द्रियान संघहयति चतुर्लघु, परितापभएयते इति प्रक्रमः।
यति चतुर्गुरु, उपद्राययति पडलघु, श्रीन्द्रियान् संघहयाति
चतुर्गुरु, परितापयति पदलघु. उपद्रावयति षड्गुरु मरिअथ भायकमेव व्याधिस्यासुराह
न्द्रियान संघहयति पडलघु. परितापयति षड्गुरु, उपद्रादुविहं च भावकम्मं, असंकिलिडं च संकिलिडं च ।
वयति छेदः, पञ्चेन्द्रियान् संघहयति पदगुरु, परिथप्पं तु संकिलिहूं, असंकिसिटुं तु वोच्छामि ॥१२२२॥ तापयति छेदः, पचन्द्रियमतिपातयति मूलम् । एवमिद्विविधं च भायकर्म, तद्यथा-प्रसंक्लिएच, संक्लिष्टं च । न्द्रियानुलोम्येन सविस्तरं यथा पीठिकायामुक्तं तथैचशम्दी स्वागतानेकभेदसूचकी, तत्र संक्लिष्ट स्थाप्यं-प- यात्राऽपि मन्तव्यम्। श्वाक्ष्यते । असंक्लिष्टं तु साम्प्रतमेव पक्ष्यामि ।
| অথব্রামাইয়:यथा प्रतिक्षातमेव प्रमाणयति
अझुसिरणतर लामो, गुरुगोभ परंपरे अझुमिरम्मि । छेदणे भेदणे चेव, घसणे पासणे तहा ।
झुसिराण चरे लहुगा,गुरुगा तु परंपरे महवा ।।१२२७॥ महिघाते सिणेहे य, काये खारे ति या बरे ॥१२२३॥ अशुषिरे अनन्तरे लघुको मासः, अशुपिरे परंपरे गुरुको छननं भेदनं चैव घर्षण पेषणं तथा अभिघातः स्नेहश्च मासः, शुधिरे अनन्तरे चतुर्लघु. गुषिरे परंपरे चतुर्गुरवः । काये क्षार इति या परः । एवमसंक्लिष्टस्य कर्मणोऽष्टी अथ येति प्रायश्चित्तस्य प्रकारान्तरघोतकः पवं तावच्छभेदाः भवन्ति । एतानि च छेदनादीनि शुषिरे वा कुर्यात् , दनपरंपरं व्याख्यानम्।। अशुषिरे वा।
अथ भेदनादीनि व्याख्यातुकाम दमाहपुनरकै शुधिरादिछेदनं द्विधा कथमिति चेत् दुच्यते
एमेव सेसएसु वि, करपादादी भणंतरं होई। एकेकं तं दुविहं, अणंतर परंपरं च णायम् ।
जंतु परंपरकरणं, तस्स विहाणं इमं होति ।। १२२८ ॥ भट्ठाणट्ठा य पुणो, होति प्रणडाएँ मासलहं । १२२४ ।
एयमेव छननवत् शेषेप्यपि भेदनादिषु च यक्रव्यं नवरं कर-- यत् शुषिरस्य अशुषिरस्य वा छेदनं तंदकै द्विविधम्--
पादाभ्यामादिशब्दात्-जानुकूपरादिभिः शरीरावयवः क्रियमन्तरं, परंपरं च ज्ञातव्यम् । पुनरेकैकं विधा-अर्थाद, मनधाच्च, सार्थकं निरर्थकं चेत्यर्थः । अनर्थक छेदनादिकं कुर्व
माणाभ्यां भेदनादिकमनम्तरं भवति, यत् भेदनादेः परंपराता मासलघु असमाचारीनिष्पन्नमिति भावः ।
करणं तस्य विधानमिदं भवति । कवं पुनः छेवनमनन्तरं परंपरं वा संभवतीस्याह
तद्यथानहदंतादि प्रखंतर, पिप्पलमादी परंपरे पाणा । कुवणयमादी भेदो, घसणमणिगादियाण कट्ठादी। छप्पइमादि असंजमे, छेदे परितावणादीया ॥१२२शा पगवरादिपीसण-गोप्फणधणुनादि अभिवातो।१२२६ नमोर्वन्तरादिग्रहणात्-पादेन या यच्छियते तदनन्तरछेद- कुयणयो-लगुडस्तेन प्राविशम्दादपललेणुकादिभिर्या घममुच्यते, पिप्पलकेन , आदिग्रहणात्-पाइलकछुरिकाकुठारादिभिर्यच्छिचते तत् परंपरछेदनम् , परस्परं वा छिन्दता
टादिभेदः भेदन द्विधा त्रिधा छिद्रपातनमित्यर्थः एतत्परंगगतीर्थकरबणधराणामाशा न कृता भवति। तं छिन्दतं रहा
भेदनमुच्यते । एवं घर्षणं मणिकादीमा मन्तव्यं, यथा मगिअन्येऽपि छिनम्ति इत्यमवस्था,एते तिष्ठन्तः छेदमादिकं सि.
कारा लगुख्यधान् कृत्वा मणिकान् घर्षयन्ति , आदिशटूरं कुर्वन्तिम स्वाध्यायम् , एवं शय्यातरादी चिन्तयति मि
ग्यात्प्रयालादिपरिग्रहः, 'कट्ठाइ' ति सम्बनकाष्ठफलकादिक
या यत् घर्षति तद्वा घर्षणम्, 'पट्टग' सि,गम्धपकमनत्र बगः ध्यात्यम् । विराधना द्विविधा-संयमे,मात्मनि च । तत्र वस्त्रा
प्रधानाः ये गम्धास्तवादीनां पेषणं मम्तव्यम् । गोफग्गा बर्मद ठौ छियमाने षट्पदिकादयो यद्विनाशमश्नुबते सोऽसंयमः संयमविराधनेत्यर्थः, अथ छेदन कुर्वतो हस्तस्य या पादस्य
घरकमयी प्रसिद्धा तया, धनुःप्रभृतिभिर्वा लेष्टुकमुगलं या
यत्प्रक्षिपति एषोऽभिघात उच्यते (अभिघातग्याच्या 'अवा खेदो भवति तत प्रारमविराधना । तत्रच परितापमहा
भिघाय' शब्द प्रथमभागे ७१४ पृष्ठे गता। ) ततः शरण दुःखादिनिष्पा पाराशिकाम्तं प्रायश्चित्तम् ।
परंपराकरणभूनेन पत्रछेचादिषु निवर्सयति । क्षारो लवर्ष अथ शुद्ध शुद्धन प्रायश्चिनमाह
समशुचिरे शुचिरे या कलिशादिभिः प्रक्षिपति । कलियो मुसिरबमुसिरे लहुगा,लहुगा गुरुगोय होवि गुरुगाया। वंशकारी।
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अभिधानराजेन्द्रः। एषु दोषानाह
एतेहि संकिलिहूं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥१२३६ ।। एकेकवेयणातो, आणादीया य संजमे दोसा।
वसतेोषेण वा स्त्रीणां वा मालिङ्गनादिकं विधीयमानं एवं तु अणट्टाए, कम्पह अट्ठाएँ जयणाए ॥ १२३१॥ दृष्टा, पूर्वभुक्तानि वा स्त्रीभिः सह हसितक्रीडितादीनि एकैकस्माद्वेक्मादिपदादागाढानागाढादयो दोषाः संयमे प्रा. स्मृत्वा , एतैः कारणैः संक्लिष्ट-हस्तकर्म यथोत्पद्यते तदहं स्मनि च प्रागुक्ताः; संयमात्मविराधनायामेने दोषा अनर्थकं वक्ष्ये समासेन । छेदनादिकं कुर्वती भवन्ति । अथ-अर्थ:-प्रयोजनं तस्मिन्प्राप्ते
तत्र वसतिदोषं तावदाहयतनया छननादिकं करोति तदा कल्पते ।
दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूपदोसो य । इदमेव द्वितीयपदं भावयति
दुविहो य रूक्दोसो,इत्थिगतणपुंसगो चेव ॥१२३७॥ असती अहाकडाणं, दसिगादिगछेदणं च जयणाए।
द्विविधा वसतिदोषो भवति, तद्यथा-विस्तरदोषो, रूपदोगुलमादि लाउणाले, कप्परभेदादि एमेव ।। १२३२ ।।
षश्च । तत्र विस्तरदायो घशालादिकं कुशीलाविसंसर्गतो यथाकृतानां वस्त्राणामभाचे दशिका छत्तव्या , आदिश- बा , रूपदोषः-स्त्रीरूपगतो, नपुंसकरूपगतश्च । स च दोषः प्वात्प्रमाणाधिकस्य वा वस्त्रादः छदन यतनया यथा से
एकैको द्विविधः-सचित्तः, अचित्तश्च; जीवविषयः अजीवयमात्मविराधना न भवति तथा कर्तव्यम् । भेदनद्वारे गुडा
विषयश्चत्यर्थः। दिपिण्डस्य, भेदं कुर्यात् , अलायु-तुम्बकं तस्य धानालमधि- भचित्तः पुनरपि द्विविधस्तत्रगत, आगन्तुकश्च । करण भिन्द्यात् । कर्णरं-कपालं तदादिना वा कार्यमुत्पशं त
उभयमपि व्याचगेतो घटग्रीवादेमंदमेयमेव यतनया कुर्यात्।
कढे पुत्थे चित्ते, दंतोवलमट्टियं व तत्थगतं । अक्खाणचंदणे वा, विघसण पीसणं तु अगतादी।
एमेव य आगंतुं, पालत्तय वेदिया जवणा ॥ १२३८॥ वग्यातीणऽभिघातो, प्रमतादि य ताव सुणगादी॥१२३३१
याः काष्ठकर्मणिवा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा निर्वतिघर्षणद्वारे अक्षाः प्रसिद्धास्तेषां समीकरणाथै चन्दनस्य वा
ताःखीप्रतिमाः,यद्वा-दन्तमयमुपलमयं मृत्तिकामयं वा स्त्रीग्लानादः परिहारोपशमनार्थ घर्षणं कर्तव्यम् । पेषणद्वार
रूपं यस्यां बसती अस्ति तत् तत्रगतं मन्तव्यम् । ग्लानादिनिमित्तमेवमेव अगदादः पेषणं विधेयम् । अभिघात
तद्विषयो दापोऽप्युपचारात्तत्रगत उच्यते । एवमेव चागन्तु. हार व्याघ्रादीनामभिभवतां गोफणया धनुषा वा अभि
कमपि मम्तव्यम, आगन्तुकं नाम-यदन्यत प्रागतं ततो घातः कार्यः, अगदादेर्वा प्रताप्यमानस्य शुनककाकादयो यथा तत्र गताः स्त्रीप्रतिमा भवन्ति तथा अगन्तुका अपि अभिपतन्ती लेण्टुना भेषयितव्याः।
भवेयुः, तथा चात्र पादलिप्ताचार्यकृता 'बेट्टक' त्ति राजकबितिप उज्मण जतणा, दाहे वा भूमिदेहसिंचणता। न्यकाष्टान्तः, स चायं "पा(य)लित्तायरिएहि रनो भगिणीपडिणीगासिवसमणी,पडिमा खारो तु सेनादि।।१२३४।।
सरिसिया चंकमणुम्मेसनिमेसमयी बालविटहत्था पायस्नेहहारे द्वितीयमपयादपये प्रतीत्य स्नेहमुखरितं क्षार
रियाणं पुरतो बिया राया वि ईव पा(य)लित्तगसिणेह का
रो। धिजाइपाहि पाहि रम्रो कहियं-भगिणी ते समणपणे मध्ये प्रक्षिप्य परिष्ठापयेत् , द्रव-पानकं तस्योज्झनं यतनया | विधेयम् , दहे' तिलताया उष्णस्य चा गाढतरमभिता
अभिगोगिया!राया न पत्तियति भणिोपायच्छ वंसेसुतितो
राया पागतो पासिमा पालित्तायरियाणं रुट्टो पयोसरियो। पे प्रतिश्श्रयभूमिकायामाकर्षणं कुर्यात् , तृषाभिभूतं वा देहे
तामा प्रायरिपहिं कड त्ति विगरणीकया, राया सुट्टतरं सिञ्चत् बलानं भकप्रत्याख्यायिनं वा दाहाभिभूतं सिञ्चेत् । कायद्वारे कश्चिद् गृहस्थः प्रत्यमीकस्तस्योपशमनी
आउद्यो" पवमागन्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा भवन्ति । 'जवणे' प्रतिमा कन्वा ततो यावसावनुकूलो भवति तायन्मन्त्रं ज
लि जयनविषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते । पेत. शिवप्रशमनी वा.प्रतिमा विदध्यात् । क्षारद्वारे प्र.
व्याख्यातं द्विविधमप्यचित्तम् । अथ सचित्तं व्याख्यायते , मम्तरे परंपरेवा शुगिरे वा प्रस्तृतिशमनार्थ क्षार प्रक्षिपेत्
तदपि द्विविधम्-तत्रगतम् , आगन्तुकं च । नत्र शुधिर दर्शयति "खारोतु सल्लादि" ति सेल्ले बालमयं
तदुभयमपि व्याख्यानयतिसिन्दूरं तत्र क्षारः क्षेपणीयः किं संजातं न वेति ।
पडिवेसिग एक्कघरे, सचित्तरूत्रं तु होति तस्थगतं । उपसंहरनाह
सुमसुमघरे वा, एमेव य होति आगंतू ॥१२३६ ॥ कम्म अमंकिलिहूँ, एवमियं बलियं समासेणं ।
प्रातियेश्मिकगृहे एकयोपाश्रये कारणतः स्थितानां यत् कम्मं तु संकिलिहूं,वोच्छामि पाहाणुपुबीए ॥१२३५॥
खिया रूपं श्यते सत्तागतं सचित्तरूपं भवति । अथवाएवमिदमसंक्लिए हस्तकर्म समासन वर्णितम् । साम्प्रतं
शुन्यगृहमशून्यगृहं वा प्रविष्टेन या तत्र स्थिता स्त्री बिलोसंक्लिष्टं हस्तकर्म यथानुपूर्व पक्ष्यामि ।
क्यतेलादपि सत्रगतम् । एवमेक चागन्तुकमपि समितं तदेवाह
स्त्रीरूपं भवति , प्रतिश्रये या स्त्री समागच्छति तवागन्तुकबसहीए दोसेणं, दई सरितुं च पुग्धभुत्ताई!
मिति भावः।
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इत्थकम्म
अत्र तिष्ठतां दोषानुपदर्शयति
लिंगणादी पडसेवणं वा, दवं सचितायमचेदयं वा । संदेहि रूवेहि इंषिते तु
मोहग्गी संदिष्यति हीथसचे ।। १२४० ।। मेष तथतानाम् आगन्तुकामांचा सचितानां श्रीसामानि प्रतिसेवनां कुर्वती या श्रीरूपाणि विलोक्य प्रतिसेव्यमानाया वा स्त्रियाः शब्दान् तैः तो मोहा सस्वरूप भोगिन या संदीप्यते ततः स्मृतिकरणकौतुक दोषा भवेयुः ।
कथमित्याह
( १९७७) अभिधानराजेन्द्रः ।
कुतूहलं च गम, सिंगारं कुलिकरणे व । दिट्ठे परिणय करणे, भिक्खुणों मूलं दुवे इतरे ।। १२४१ ॥ कुतूहलं तस्योत्पद्यते यथाऽत्र गत्वा पश्यामि शृणोमि शब्दम् कुहले उत्पतत्र गमनं कुर्यात् शृङ्गारे या गायी श्रुत्वा गच्छेत्, कुड्यस्य वा छिद्रं कृत्वा प्रलोकयेत्। दृष्टे च सो. ऽपि तद्भावपरिणतो भवेत् श्रहमप्येवं करोमीति । एवं तद्भापरिणतः कश्चित्तदेवालिङ्गनाऽऽदिकरणं कुर्यात्। तेषु स्वा नेषु याश्चिनम्। इतरयोपाध्यायाचार्थयोअनवस्थाप्याराचिके चरमपदे भवतः ।
संथापमं
इदमेव व्यायलहुगो लहुआ गुरुगा, छम्मासा छेदमूलदुगमेव । दिडे गणमादी, पुत्ता पच्छकम्मं वा ।। १२४२ ।। तत्र गतः शृणोति मास कुदतर मागुरु, शृङ्गारं गृगवतश्चतुर्गुरुकाः कुरुपस्य छिद्रकरणे परमासा लघवः, छिद्रेण पश्यन्नास्ते षड्गुरवः, तद्भावपरिणते छेदः, आलिङ्गनादिकरणे मूलम्, एवं भिक्षोः प्रायश्चितमुक्तम् । उपाध्यायस्य मासगुरुकादाधमनवस्थाप्ये पर्यवस्यति । श्राचार्यस्य चतुर्लघुका- | दारब्धं पाराश्चिके तिष्ठति । अन्यच्च आरक्षिकादिभिर्दष्टे सति प्रणाऽऽकर्षणादयः पूर्वोक्ता दोषाः, या प्रतिमा सा कदाचिदालिङ्गयमाना भज्येत ततः पश्चारकर्मदोषः, एष वसतिविषयो रूपदोष उक्तः ।
अथ विस्तरतो दोषमाह
अप्पो य गच्छो महती य साला, निकारणे ते य तर्हि ठिताओ । कड्डिया वा जतणाऍ हीया,
पावंति दो जतथा इयं तु ।। १२४३ ।। पचासौ गच्छत प्रतिश्रये स्थितः, शाला च सा महती विस्तीर्णा ते च साधयो निष्कारणे तोपास्थिता वर्त्तते । अथवा कार्यस्थिताः परं यतनया वक्ष्यमाणया हीनाततो वेश्याभूतिषु स्त्रीषु समागच्छन्तीषु दशेषं कौतुकस्मृतिकरणानि प्राप्त करनामियं पतना २६५
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यतना स्वरूपमाह
असिवादिकारणेहिं, अस्मासति वित्थडीऍ ठायंति । श्रोतपोतँ करिती, संथारगवत्थपादेहिं ।। १२४४।
हत्यकक्रम
,
अशियादिभिः कारवैः शेषान्तर प्रतिष्ठन्तस्तान्वस्था परभाषे विस्तृतायामपि यती विनित च संस्तारकैर्यखपात्रैश्च भूमिकाम् 'श्रोत' ति ( कुर्वन्तिः पालयन्तीत्यर्थः ।
इदमेव व्य-
भूमी संथारे, श्रद्धवियड्डे करिति तह दहुं । ठातुमणा वि दिवसम्रो, न उति रचि तिमा जयणा । १२४४ विस्तीर्णायां वसतौ तथा भूम्यां संस्तारकम विवर्द्धितं ते थाना रास्थाने मनसोऽपि न तिष्ठन्ति एण दिवसतो यतना । रात्रौ पुनरियं यतना ।
वेसत्थी आगमणे, अवारखे चउगुरू व आणादी | अलोममनिगम, ठाणं असत्थ रुक्खादी ।। १२४६ ।। बेश्या स्त्री यदि रात्राद्यागच्छति भणति च श्रहमप्यत्र सामीति सावारणीया थ न धारयन्ति ततचतुर्गुरुकम् आशादयश्च दोषाः अनुलोम' अ प्रतिषेद्धा न वरपरुः सा साधूनामभ्यारूपानं दद्यादिति कृत्वा 'निग्गमणे' त्ति यदि सा वेश्या गन्तुं नेच्छति ततः साभूमिगतय्यम् अन्यस्मिन् अन्यगृहादिस्थाने स्थातव्यम् तदभावे वृक्षमूलादावपि स्थेयं न पुनस्तत्रेति ।
"
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इदमेव करोति
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पुढची सा सभोती, हरियतसा उवहि वासे वा सावगसरीरतेयग, फरुसादी जाव ववहारो ॥१२४७॥ यद्यपि हि पृथिवीकायः सा येश्या सज्योतिष सानिका श्रन्या वसतिः हरितकायस्त्रसप्राणिनो वा तत्र सन्ति तथापि निर्यन्तम्यम् अथ यहिरुपधिस्तेनमयं वर्ष या वर्षति, स्वापदा शरीरस्तेनका वा तत्र सन्ति, ततः परुषवचनैरपि सा बेश्या भणितव्या निर्गच्छास्मदीयप्रतिश्रयात्, आदिशब्दात्तथाप्यनिर्गच्छन्त्यां बन्धनादिकमपि विधीयते यावद् व्यवहारोऽपि करणे उपस्थितायाः कर्तव्यः । इदमेव भावयति
अम्हे दाणि वि सहिमो इड्डिमपुचलचं असहयो ऽयं । सीहि अधिग, शिवको सिरिधरोहर । १२४८ साधवी भगत वर्षमा इदानीं विविधं विशिएं वा सहामहे, ततो यस्त्वाकारवान् साधुः स दर्शनीयः, अयं तु विमपुत्रो राजकुमारदियलयान सहयोधी असहन:- कोपनो बलादपि भवन्त निष्काशयिष्यति ततः
"
मेन यदि तितो अनिछति तदा सर्वेऽपि साधव एको या बलवान् तां बध्नाति ततः प्रभाते मुख्य मुच पदि सुपस्यास्तिकं साधूमाकर्षति तदा करणे गत्या कारणिकादीनां व्यवहारो दीयते । तत्र श्रीगृहोदाहरणं कर्त्तकयम । यथा-यदि राज्ञः श्रीगृहे रत्नापहार
"
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हत्थकम्म
श्रभिधानराजेन्द्रः। कुर्वन् कश्चिच्चौरः प्राप्यत ततस्तस्य कं दण्डं प्रयच्छथ? कार- स्नाऽपि पुरुषो हियते, विजले घा-कईमाकुले वजन् प्रयत्न गिका प्राहुः-शिरस्तदीयं गृह्यते । साधवी भणन्ति अस्मा- कुर्वाणोऽपि अवशः पतनं यथा प्राप्नोति, तथा श्रमणसुकमप्येषा रत्नापहारिणी अव्यापादिता मुधैव मुक्ला । ते प्राहुः विहितानां सर्वप्रयत्नेनापि निर्विकृतिकविधानवाचनाप्रदानाकानि युष्माकं रत्नानि ? , साधयो भणन्ति-शानादीनि । कथं दिना यतमानानां वसतिदोषेण अनाचारदर्शनान्मोहोदयः तेषामपहारः?, अनाचारप्रतिसेवनादपध्यानगमनादिनेति । संजायत , ततश्च कर्मोदयप्रत्ययिका कस्यचिद् नवचारित्रअथ सनीकः पुरुषः समागच्छेत् सोऽपि वारणीयः। विराधना भवेत् । पञ्चमासादुदीर्णमोहो धृतिदुर्बलश्च उदतथा चाह
यमधिसोदुमशक्को हस्तकर्म करोति । अहिकारोवारणम्मि, जत्तिय अप्फुम तत्तियावसही।
तत्र प्रायश्चित्तमाह
पढमाएँ पोरिसीए, बितियाततियाएँ तह चउत्थीए । अतिरेगदोस भगिणी,रत्तिं पारद्धे णिच्छुभणं।१२४६।
मलं छेदो छम्मा-समेव चत्तारिया गुरुगा॥१२५४ ।। यत्र केवला पुरुषमिश्रीभावा स्त्री समागच्छति तत्र सर्व- प्रथमायां पौरुध्यां हस्तकर्म करोति मूलं, द्वितीयायां छेदः, त्रापि वारणायामधिकारः, साऽपि कर्तव्येति भाव अत एव
तृतीयायां षण्मासा गुरवः , चतुर्थी चतुर्मासा गुरवः । चोत्सर्गतो घशालायां न वस्तव्यं, किंतु यावद्भिः, साधुभिः
___ एनामेव नियुक्निगाथां (भाष्यकारः) व्याचष्टेसा 'अप्फुस्म.' त्ति व्याप्ता भवति तावती-तावत्प्रमाणा वसतिरन्वेषणका । अथातिरिक्लायां वसतौ बन्ति सतो
निसि पढमपोरिसीए, अदढधिती सेवणे भवे मूलं । दोषाः पूर्वोक्ता भवन्ति । कारणतस्तस्यामपिस्थितानां कश्चि. पोरिसी पोरिसी हसणे, एकेकं ठाणगं हसई ॥१२५५।। त्पुरुषः स्त्रीसहितः समागच्छति, सचानुरकटैर्वचोभिर्वारणी- | निशि-रात्रौ प्रथमपौरुष्यां मोहाद्भवोऽजनि यतस्तस्यामेयः, वार्यमाणश्च ब्रूयात्-एषा मे भगिनी संरक्षणीया, साधू- वाढधृतिर्यदि हस्तकर्म सेवते तदा मूलम् । अथ प्रथमपौरुनां समीप वा न शङ्कनीया इति छद्मना भणित्वा स्थितः, 'पीमतीत्य द्वितीयायां सेवते छेदः, द्वे पौरुष्यावधिसह्य रात्रौ च प्रारब्धवांस्तां प्रतिसेवितुम् , ततः साधुभिर्वक्तव्यः, तृतीयायां सवते षड्गुरवः, मिश्रपौरुषगधिसह्य चतुया श्रर ! निर्लज! किमस्मान् स्थितान् न पश्यसि ,यदेवमकार्य सेवमानस्य चतुर्गुरुकाः । एवं पौरुषी पौरुषीम् एकैकपौरुषीकरोषि एवमुक्त्या निष्काशनं तस्य कर्त्तव्यम्।
हसन प्रायश्चित्तस्थानं हसति । अथासौ निष्काश्यमानो रुष्येत् , रुषश्च
वितियम्मि वि दिवसम्मि, पडिसेवंतस्स मासियं गुरुभं। श्रावरितो कम्महि, सत्तू विव ऽवद्वितो थरथरंतो। छट्टे पञ्चक्खाणं, सत्तमणे होति तेगिच्छं ।। १२५६ ।। मुंचति य मेंडिता तो, एक्केकं ते निवादमि ।। १२५०॥ एवं रात्री चतुरो यामानविसह्य द्वितीय दिवस प्रथमपौरुकर्मभिः-कषायमोहनीयादिभिरावृतः-अाच्छादितः सा- ध्यां प्रतिसेवमानस्य मांसगुरुकं,ततः परं सर्वत्रापि मासगुरूं, धूनामुपरि शत्रुरिव रोषेण 'थरथरंतो 'त्ति भृशं कम्पमानः | लघूनि तु प्रायश्चित्तानि पत्र न भवन्ति, अत एवेदं हस्तकर्म। प्रहारं दातुमुत्थितो वाग्योगेन च भेदिकां गिरं महता शब्दे- सेवनमनुद्धातिकमुच्यते, एवमसौ प्रतिसेव्य सावाटिकस्यान मुश्चति , यथा-युष्माकमेकैकं निपातयामि ।
न्यस्य वा कस्याप्यालोचयेत् । स च प्रामुक्तहस्तकर्मकारक . निग्गमणं तह चेव य, णिसे सदोसनिग्गमे जतणा। साधु पञ्चकापेक्षया पष्ठः साधुस्तं प्रति ब्रवीति । यत्कृतं
यदकृतं न भवति, संप्रति भक्तप्रत्याख्यानमङ्गीकुरु । सप्तमको - सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे य ।। १२५१॥
चैकित्स्यं भवति । इयमत्र भावना-सप्तमा चीति, अस्य मो. एवं तस्मिन् विरुद्ध तस्या धमतः साधुभिर्निर्गमन तथैव
होदयस्य निर्विकृतिका वाऽमौदरिकादिरूपा चिकित्सा कर्तव्यम्, यथा पूर्व वेश्यास्त्रियामुक्तं यदि बहिर्निदोषम् ,
कर्तव्या। श्रथ सदोषं ततः अनिर्गमे अनिर्गच्छतामियं यतना-स्वाध्या. यो महता शब्देन क्रियते. ध्यानं या ध्यायते, यस्य स्वाध्याये
पडिलाभणऽट्ठमम्मि, णवमे सड्डी उबस्सए फासे । . ध्याने वा लब्धिर्न भवति स श्रावरणं-कर्णयोः स्थगन वि। बधाति, शब्दकरणं या महता शब्देन बोली विधीयते । एव- दसमम्मि पिता पुत्ता, एक्कारसमम्मि प्रायरिए।।१२५७।। मपि यतमानस्य कस्यापि तत्प्रतिसेवनं दृष्टा कर्मोदयो भ- अष्टमसाधोः प्रतिलाभनायाः उपदेशो भवति, नवमी व्रत बत्
धाद्धिका उपाश्रय समानीयत सा भवतः शरीरं स्पृशेत् , कथम् ? इति बेदुच्यते
दशमसाधोः पितापुत्रौ युवां संज्ञानिकग्राम गवा चिकित्सा
कुरुतमित्युपदेशो भवति, एकादशस्य साक्षाटिकसाधोः श्रा वडपादवउम्मूलण , तिक्खम्मि वि विजलम्मि वचंतो।
चार्या इत्युल्लखनोपदेशो भवति । किमुक्नं भवति-एकादशाकुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं ।१२५२।। ब्रवीति-यदानायां आदिशन्ति द्विधेहि , अयं शुद्धः । तह समणसुविहियाणं, सयपयत्तेण वी जतंताणं ।।
शेषेषु प्रायश्चित्तमाहकम्मोदयपश्चइया, विराधणा कस्स वि इवेजा ॥१२५३॥ छट्ठो य सत्तमो य, अह सुद्धा तेमि मासियं लहुयं ।। यथा षटपादपस्याउनेकमूल प्रतिबद्धस्यापि गिरिनदीसलि- उवरिल्ल भणंती, थेरस्स वि मासियं गुरुग्रं ॥१२५८।। "नवेगेनोग्मूलनं भवति, यथा वा-तीपणेन नदीपूरेण कृतप्रय- षष्ठसप्तमौ यथा शुद्धौ न. , दोपयुक्नादेश ददाते; यतश्च
तथा
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हत्थकम्म
अभिधानराजेन्द्रः। गुरूणामुपदेशमन्तरेण स्वेच्छया भणतस्ततो मासिकं लघुकं | न्ति-उदकेन हस्तौ धावन्तीत्यर्थः, तत्रापि त एव चतुलघवः । तयोः प्रायश्चित्तम्। उपरितना अष्टमनवमदशमा यत्सदोषमुः | __ एसेव कमो णियमा,इत्थीसु वि होइ प्राणुपुवीए। पदेश भणन्ति तेन प्रयाणामपि मासगुरुकम् । स्थविरस्थापि पितुः पुत्रेण सह संज्ञातं प्रामं गच्छतो मासिकं गुरुकम् ।
चउरो य अणुग्घाया,पच्छाकम्मम्मि ते लहुगा।१२६३। तथा उक्लेन च षष्ठादिसाधूनामुपदेशेन विवृणोति
एष एव सारूपिकादिकः क्रमो नियमास्त्रीणामप्यानुपूर्या
वक्तव्यो भवति । तद्यथा-प्रथमो ब्रवीति सिद्धपुत्रिकया इसंघाडगादिकहणे, जंकत तं कत इयाणि पच्चक्खा ।
स्तकर्म कार्यताम् । एवं द्वितीयो गृहस्थपुराणिकया , तअविसुद्धो दुट्ठवणो,ण समिति किरिया से कायव्वा१२५६ सीयो मिथ्याष्टिगृहस्थया, चतुर्थः परतीर्थिकया चतुर्णासंघाटकस्यादिशब्दादन्यस्य वा हस्तकर्म कृतं मयेत्येवं मप्येवं भणतां स्त्रीस्पर्शकारापणप्रत्ययाश्चत्वारोऽनुद्धाता गुकथन कृते सति ब्रूयात्-यत्कृतं तस्कृतमेव इदानी भक्त |
रुका मासाः,तथैव तपःकालविशषिताः प्रायश्चित्तम् । पश्चाप्रत्याचक्ष्व, किं ते भ्रष्टप्रतिक्षस्य जीविनेनेति । सप्तमः प्राह- कर्मणिं तु एवं चत्वारो मासा लघुकाः। तदेवं गतं वसतेअविशुद्धो दुएवणोऽप्युक्तादिकां क्रियां बिना न शाम्यति अतः दषिणति द्वारम् । दृष्ट्वा स्मृत्वा पूर्वभक्तानीति द्वारद्वयं तु यक्रिया 'से' तस्य कर्तव्या, एवं भवताऽस्य मोहोदययण- था निशीथे प्रथमोद्देशक प्रथमसूत्रे व्याख्यातं तथैवात्रास्य निर्विकृतिकावमौदरिका क्रिया विधेया , येनोपशमो प्यवगन्तव्यम् । तदेवमुक्त हस्तकर्म । बृ०४ उ.। निभवति ।
चू। हस्तक्रियायां परस्परं हस्तव्यापारप्रधान कलहे, सूत्र० पडिलाभणा उ सड्डी, करसीसे बंद ऊरु दोच्चंगे।
१०१०१ उ० (हस्तकर्मविषयकं त्रयोदशं वृहत्कल्पसू
त्रम् मेहुण' शब्द षष्ठे भागे गतम् । ) मूलादिरुयपमजण ओभट्टणे सड्डिमाणेमो ॥१२६०॥ अष्टमः प्राह-'श्राद्धी श्राविका सा प्रतिलाभनां करोति,प्र
हत्थणिक्खेव-हस्तनिक्षेप-
त्रिभ्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यतिलाभयन्त्यां चोवोंः पात्रके स्थिते यथाभावेनास्यया स्य तद्धस्तनिक्षेपम् करन्यस्तद्रव्ये ,विपा०१थु०२०। चालित ऊरुमध्ये द्वितीयाङ्गादिकमवगलति,ततः सा श्राधि- हत्थताल-हस्तताल-पुं० । हस्तेन ताडने , स्था०३ ठा० का करण स्पृशन्ती वन्दते शीर्षेण वा वन्दमाना पादौ स्पृशम् , ४ उ०। ततः स्त्रीस्पर्शन बीर्यनिसर्गो भवेत् , नवमः प्राह-'मूलादि-इत्थतारण-हस्तताडन-न० । मुटयष्टयादिाभमरणानरपये' ति मूलमादिग्रहणादन्यतरद्वा तनुरूपं रुग्जातकमस्मा- क्षतयाऽऽत्मनः परस्य वा स्वपक्षमतस्य परपक्षगतस्य वा दुत्पद्यते ततः श्राद्धिका आनीयते, सा स्वतश्चेलादिकं प्रमा
घोरपरिणामतः प्रहरण, पश्चा० १६ विव०। जयति 'श्रोअट्टल 'त्ति गाढतरमुर्नयति एवं बीयनिसों भवेत् , ततः श्राद्धिकामानयामः ।
हत्थन्दुय-हस्तान्दुक-न०। हस्तयोः काष्ठादिमयवन्धनविशेषे, सम्नायपल्लिं णेहि, मेहुणि खुडंत निग्गमोवसमो।
विपा. १ श्रु० ६ ० । प्रविधितिगिच्छा एसा, पायरिकहणे विधिकारो१२६१
हत्थपाय-हस्तपाद-पुं० । करचरणरूपे युगले,प्रश्न०३ संब०
द्वार। यस्य मोहोदयः समुत्पन्नस्तस्य पितरं प्रति वशमो भातसंज्ञातकपल्लि संशातकग्रामं 'ण'मित्येनमात्मीयं पुत्रं नय त्वं
हत्थपायनिय--हस्तपादनिभृत--त्रिका हस्तौ पादौ च निभूती तत्र मैथुनिका मातुलदुहिता तया सह 'खुइंत' त्ति सोपहा
परधनादामव्यापागदुपरतौ यत्र तत् । अदत्तादानबद्ध, सवचनैभित्रकथाभिः परस्परं हस्तसंकर्षेण च क्रीडतो
प्रश्न० ३ संघ द्वार। वीर्यनिर्गमो भवेत् , ततश्च मोहोपशमो भवति । एषा सी- हत्थपायपडिच्छएण-हस्तपादतिच्छन्न-त्रिका कृत्तकरचरणे, प्यविधिचिकित्सा भणिता । यस्तु प्रवीति-प्राचार्याणां दश० अ०। गत्वा आलोचयत ततस्ते यां चिकित्सामुपदिशन्ति सा मालय-दस्तमालव--पुं०। अक्षणत्रिकाल्ये श्राभरणविकर्तव्या। एतदेवास्य साधाविधिकथनमुच्यते । अत्रैव प्रकारान्तरमाह
शषे , औ०। सारूविए गिहत्थे, परतित्थिनपुंसगे य सूयणया ।
| हत्थलिज्ज--हस्तलीय-न०। श्रार्यरोहणनिर्गतस्य उद्दहगणचउरो य हंति लहगा,पच्छाकम्मम्मि ते चेव ॥१२६।। स्य चतुर्थे कुले , कल्प० २ अधि०८ क्षण । कश्चित् धूयात्-सारूपिकः सिद्धपुत्रस्तपो यो नपुंसक- हत्थाइधोरण--हस्तादिधावन--ना करचरणप्रभृतिशरीरावस्तन हस्तकर्म कार्यताम् । द्वितीयः प्राह-गृहस्थपुराणनपुं- यावानां कारणमुद्दिश्य प्रक्षालने , पिं०। सकेन,तृतीयो भणति-मिथ्याष्टिनपुंस केन, चतुर्थी ब्रवीति
हत्थागय-हस्तागत--त्रि० । हन्ति हसति या मुखमावृत्य परतीर्थिकनपुंसकेन । एतेषां चतुर्णामपि 'सूयणय'ति हस्त
अनेनेति हस्तस्तमागताः हस्तागताः। करगतेषु, उत्त०५ कर्मकरणसूचना-प्रेरणां कुर्वाणानां चत्वारो लघवः तपःकालविशेषिता भवन्ति । तत्र प्रथमे द्वाभ्यामपि लघवा, द्वि
श्र० । हस्ते आगताः हस्तागताः । स्वाधीनतया पर्सतीये तपसा लघवः तृतीये कालेन लघवश्चतुर्थे द्वाभ्याम
मानेषु , उत्त०५०। पि गुरव इति । अथ तेस्तकर्म कृत्या पश्चात्कर्म कर्व- हस्तायत-पि। विस्तीर्णे, पं० २०२वार।
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हत्थादाण अभिधानराजेन्द्रः।
हत्थिणार हत्थादाण-हस्तादान-न० । परस्परहम्तहान, १० ४ उ०1स्थिजाम-इम्तियाम-न। नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिश (हस्तनाडनं दददनवस्थाप्यो भवतीति,' अणवटुप्प'शब्दे स्वनामख्याते वनखण्डे.सूत्र०२ श्र०७० । (विशेषस्त्वत्रत्यः प्रथमभागे गतम् ।)
'पेढालपुन' शब्दे पश्चमभागे गतः।) हत्थादान-हस्ताताड-पुं० । हस्तेनानाडनं हस्ताताः । ह
- हस्थिणाउर-हस्तिनापुर-न|कुरुजनपदे नागपुरनगरे, स्थान स्तताडने पूर्वोक्का), प्रशा०२ पद । वृ० ।
। १० ठा०३ उ० । उत्त। विपा० । प्रा० चू०। हत्थाभरण-हस्ताभरण-न० । हस्ताभरणालीयकादिके क
हस्तिनापुरकरणःरभूषणे, स्था०८ ठा०३ उ० ।
"सिरिसंतिकुंथुअरम-लिसामिणो गयउरट्रए नमिउं । हत्थामास-हस्तामर्ष--पुं० । हस्तेन हिरण्यस्यामर्षः-परामर्षों | पभणामि हस्थिणाउर-तित्थस्स समासो कप्पं ॥१॥"
सिरि आइनित्थेसरस्स दोएिण पुत्ता, भरहेसर-बाहुबली ग्रहो हस्तामर्षः । करण स्वर्णग्रहे, तत्परिमाणे सुवर्षे च । पा. १ श्रु०८१०
नामाणो आसि। भरहस्स सहोयरा अट्टाणउई कुमारा ।तस्थ
भगवया पव्ययंतेण भरहो निअपए । अभिसित्तो,पाहुबलियो इत्थालंब-हस्तालम्ब--पुं० । करालम्बने, हस्तालम्ब बह
तक्षसिला दिराणा। एवं सेसाण वितेसुतेसुरजाइंदिराणाई स्तालम्बस्तं हस्तालम्ब ददत् शिवपुररोधादौ तत्पश
अंगकुमारनामेणं अंगदेसो जात्रो, कुरुनामणं कुरुखित्तं । मनार्थमभिचारुकमन्त्रविद्यादि प्रयुआन इत्यर्थः स्था०३ ठा०
पसिद्धं, एवं बंगकलिंगसूरसेण अश्चंतमाइसु विभासा । कुक .४ उ० । (स च अनुदातिको भवतीति अणुग्घाइय' शम्दे
तस्स पुत्तो हत्थी नाम राया हुत्था,तेख हस्थिणारं विवेसिप्रथमभागे ३६४ पृष्ठे उक्तम् । )
अं तत्थ भागीरही महानई पवित्तवारिपूरा परिवहह । तत्थ हत्थि(ण)-हस्तिन-पुं० । कुञ्जरे,करिवरे,सूत्र०१ श्रु०६अ। सिरिसंतिकुंथुअरनाहा जहासंखं सोलसमसत्तरसमश्रहारअनु । प्राचा।
समा जिर्णिदा जाया । पंचम-छट्र-सत्तमा य कमेण चक्कवट्टी
होउंछखंडभरहवासरिडि भुजिंसुदिक्खागहणं केवलनाणंच चत्तारि हत्थी परमत्ता, तं जहा-भद्दे मंदे मिते संकिने।
तेसिं तत्थेव संजाय । तत्थेव संबच्छरमणसिश्रो भयवं उसमचत्तारि हत्थी परमता, तं जहा--भद्दे णाममेगे भदमणे, भद्दे । सामी, बाहुबलिननुअस्स सिजंसकुमरस्स तिहुणगुरुदंस. णाममेगे मंदमणे,भद्दे णाममेगे मियमणे,भद्दे नाममेगे सं
णाजायजाईसरणजणिअदाणविहिणो गेहे अक्खयतइयादिण
इक्खुरसेणं पढमपारणयमकासी । तत्थ पंच दिव्याई पाउ. किन्नमणे । चत्तारि हत्थी परमत्ता,तं जहा-मंदे णाममेगे भ
म्भूआई मल्लिसामी तत्थेव नयरे समोसढो, तत्थ विराहुहमणे, मंदे णाममेगे मंदमणे, मंदे णाममेगे मियमणे, मंदे
कुमारो महरिसी तवसत्तीए विउब्विश्र लक्खजोश्रणप्पणाममेगे संकिममणे । चत्तारि हत्थी परमत्ता, तं जहा-मिते माणसरीरो तिहिं पपहिं अकंततेलुको नमुई सासिस्था, णाममेगे भइमणे,मिते णाममेगे मंदमणे,मिते णाममेग मि- तत्थ पुरिसे णं कुमारमहापउमसुभूमपरसुरामाई महापरियमणे,मिते णाममेगे संकिममणे । चत्तारि हत्थी पपत्ता,तं
सा उप्पराणा। तस्थ पंच पंडवा उत्तमपुरिसा चरमसरीग
दुज्जोहणपमुहा य महाबलनिवा प्रणेगे समप्यराणा । तत्थ जहा-संकि नाममेगे भद्दमणे,संकिने नाममेगे मंदमणे,सं
सत्तकोडिसुवरणाहिई गंगवत्तसिट्टी, तहा सोहम्मिदस्म किने नाममेगे मियमणे, संकि साममेगे संकिन्नमणे । जीयोरायाभिओगेगण परिवायगस्स परिवेसणं काउंपवेरम्गे(सू० २८१४) स्था० ४ ठा० २ उ०।
णं नरगणसहस्सपडिवुडो कत्तियसिट्ठी सिरिमणिसुव्वयसा.
मिसावे निक्खतो । तत्थ महानयरे संतिकुंथअरमल्लि(अत्यधिस्तरः 'पुरिसजाय' शम्ने पश्चमभागे उक्तः ।)
जिणाणं चेड्याई, मणहराई, अंबादेवीए य देउलं आसि, पवहस्तिनापुरनगरनिवेशके कुरुपुत्रे गधि, ती०४८ कल्प ।
मणेगच्छरिश्रसहस्सनिहाग्गे तत्थ महातित्थे जे जिणस्वनामस्याले काश्यपगोत्रोत्पने स्थविरे, कल्प०२ अधिक
सासणपभाषणं कुणंति विहिपुब्वं, जनाममहसवं निम्मति क्षण।
से कइवयभवग्गणहि धुकम्मकिलेसा सिद्धिमुवगच्छति हस्थिकाम-हस्तिकर्ण-पुंकालवणसमुद्रस्थान्तर्वतिनि स्वनाम- ति"श्रीगजाह्वयतीर्थस्य , कल्पः स्वल्पतरोऽध्ययम् । सतां ख्याते अन्तीगे, स्था०५ ठा० १ उ०। ('अंतरदीय' शब्दे संकल्पसंपत्तौ , धत्तां कल्पहुकल्पताम् ॥१॥” इति श्रीप्रथमभागे ८ पृष्ठेऽयं व्याख्यातः)
हस्तिनापुरतीर्थकल्पः समाप्तः । ती० १५ कल्प।
"अभिवन्द्य जगद्वन्द्यान् श्रीमतः शान्तिकुन्थ्वरान् । हस्थिकप्प-हस्तिकम्प-न० । स्वनामस्याते सौराष्ट्रदेशमध्यगे
स्तुति वा स्तोष्यति स्तोमैः, स्तौमि तीर्थ गजायम् ॥ १॥ नगरे, यत्र मासिकी संलेखनां कृत्या शञ्जये पर्वते आरुह्य
शतपुड्यामभून्नाभि-सूनोः सूनुः कुरुनृपः । पञ्च पाण्डवाः सिद्धाः । शा० १ श्रु० १६ अ०।
कुरुक्षत्रमिति ख्यातं , राष्ट्रमेतत्तदाख्यया ॥२॥ इस्थिगुलगुलाइय-हस्तिगुलगुलायित-न० । हस्तिनो गुल
कुरोः पुत्रोऽभवद्धस्ती, तदुपमिदं पुरम्। गुलशब्दे, रा०'अप्पगड्या हस्थिगुलगुलाई करैति,' श्रा० | हस्तिनापुरमित्याहु-रनेकाश्चर्य सेवधिम् ॥ ३॥ म. १० । हस्तिनो यद् गुलगुलायितं शब्दविशेष एव । धीयुगाविप्रभोराचा. चोरिचुरसैरिह । प्रश्न. ३ मा०द्वार ।
श्रेयांसस्य गृहे पश्च, दिव्याघजनि पारणा ॥४॥
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(१९८१) हथिणार
अभिधानराजेन्द्रः। जिनारखयोऽत्र जायन्ते, शान्तिः कुन्थुररस्तथा।
हस्थिपाल-हस्तिपाल-पुं० । पापायां मध्यमायां नगर्या स्वश्राहिमाद्भसार्वभौमा, द्विभुजस्ते महीभुजः ॥५॥
नामख्याते राजनि , यस्य शालायां कीरजिनो निर्वृतः। स. मल्लिव समवासार्षी-तेन चैत्यचतुपयी।
५५ सम० । ती०। अत्र निर्मापिता श्राद्धे-/चयते महिमा ऽद्भुता ॥ ६॥ इस्थिपिप्पली-हस्तिपिप्पली-स्त्री०। गजपिप्पल्याम् , उत्त० भासतऽत्र जगन्नेत्र-पवित्रीकारकारणम् । • भवनं चाम्बिकादव्या, यात्रिकोपलवच्छिदः॥७॥
३४०।
हत्थिबंधणखंभ-हस्तिवन्धनस्तम्भ-पुं०। हस्तिनां बम्धनजाहवी क्षालयत्येत-चैत्यभित्तीः स्ववारिभिः। कल्लोलोच्छालितैर्भूयो, भक्त्या स्नात्रचिकीरिष ॥॥
भूते स्तम्भे, पाह. ना. २०३ गाथा।। सनत्कुमारः सुभूश्रो, महापद्मश्च चक्रिणः ।
हत्थिभूइ-हस्तिभूति-पुं० । हस्तिमित्रपुत्रे, उत्त०१०। अत्रासन् पाण्डवाः पञ्च. मुक्तिश्रीजीवितेश्वराः॥६॥ हस्थिमित्त- हस्तिमित्र-पुं०। उज्जयिन्यां स्वनामख्याते गृहपगादत्तः कार्तिकश्च, भ्रष्टिनी सुवतप्रभोः ।
तौ , उत्त० २ ०। शिष्यावभूनां विष्णुश्च, नमुनेत्र शासिता ॥१०॥
हत्थिमुह-हस्तिमुख--पुं०। लवणसमुद्रस्यान्तीपे, स्था० ४ कलिदाहृतं स्फीत-सङ्गीतां सद्वसुव्ययाम् ।
ठा०२ उ०। प्रशा। नं० । उत्त। ( स च . .यात्रामासूत्रयन्त्यत्र, भव्या निाजभनयः ॥ ११ ॥
अंतरदीव '
शब्दे प्रथमभागे ८६ पृष्ठे विशेषतो व्याख्यातः।) ..., शाम्तेः कुन्धोरथ चतुः-कल्याणी चात्रपत्तने। .. जज्ञ जगजनानन्दा, सम्मेताऽद्रौ च निवृतिः ॥ १२॥
हस्थिरयण-हस्तिरत्न-नाउत्कृष्ट हस्तिनि, स्था०७ठा०३उ०। भाद्रस्य सप्तमी श्यामा, नभसो नवमी शितिः ।
हत्थिराय--हस्तिराज--पुं० । हस्त्यनीकाधिपती, स्था०४ ठा० द्वितीया फाल्गुनस्यैषां , निथ्योऽभूवन् दिवश्च्युतेः॥१४॥ २ उ०। स०। ज्येष्ठे त्रयोदशी कृष्णा, माधये च चतुर्दशी।
हत्थिलावय-हस्तिलावक-पुं०। हस्ती च शालीनां लावमार्गे च दशमी शुक्ला, तिथयो जनुषस्तु वः ॥ १४ ॥ काश्च हस्तिलायकाः । करिणी बीहिच्छेदकेषु च व्याक्षेप , शुक्ला चतुर्दशी श्यामा, गंध बहुलपञ्चमी ।
व्य०६ उ०। साहस्यैकादशी शुभ्रा, जजुर्वीक्षादिनानि च ॥ १५ ॥
हत्थिवाउय-हस्तिव्यापृत-पुं० । महामात्रे, श्री.।" पौषस्य नवमी श्वेता, तृतीया धवला मधोः।. ऊर्जस्य द्वादशी श्वेता, ज्ञानोत्पत्तरहानि वः ॥ १६ ॥
हत्थिवाहण-हस्तिवाहन-पुं० । नन्दीश्वरखीपदेवे , सू० प्र० शुक्ने त्रयोदशी कृष्णा, वैशाख पक्षतिः शितिः।
१६ पाहु०। मार्ग बलक्षा दशमी, मुक्तवस्तिथयः क्रमात् ॥ १७ ॥ हत्थिसिक्खा-हत्थिशिक्षा-स्त्री० । कलाविशेषे, स० ७२ भवादशानां पुरुष-रत्नानां जन्मभूरियम् ।
सम। हस्तिदमने औ०। स्पृशाऽप्यनिष्ट शिष्टानां, पिनष्टि किमुत स्तुता ॥१८॥ हत्थिसीसग-हस्तिशीर्षक-नास्वनामख्याते नगरे, मा०११० ताहग्विधैरतिशयैः पुरुषप्रणीतै
१७ अका"इहास्ति भरतक्षेत्रे, नगरं हस्तिशीर्षकम् । सुवृत्तरविभ्राजितं जिनपरि(र)त्रितयमहैश्च ।
अमुक्नेदं,हस्तिशीर्षमिवोद्यतम् ," श्रा० क० १ ० श्रा० मा भागीरथीसलिलसलपवित्रमेत
शा। 'हत्थिसीयं नगरं तत्थ दमयन्तो राया' प्रा०म०१ अ० जीयाश्चिरं गजपुरं भुवि तीर्थरत्नम् ॥ १६ ॥ इए पृथक्त्वविषयार्कमित शकायदे,
हत्थिसुंडिया-हस्तिशुण्डिका-स्त्री० । यत्र पुताभ्यामुपविष्टः वैशाखमासि शितिपक्षगषष्ठतिथ्याम् ।
सन् एकं पादमुत्पाटपास्ते सा हस्तिशुण्डिका । निषद्याभेदे , यात्रोत्सवोपनतसङ्घयुतो यतीन्द्रः,
स्था०५ ठा०१ उ०।। ... स्तोत्रं व्यधात् गजपुरस्य जिनप्रभाख्यः॥ २०॥" हत्थिौडा-हस्तिशुण्डा-स्त्री० । त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रशा०१
श्रीहस्तिनापुरस्तवनकृतिः श्रीजिनप्रभसूरिणाम् ॥ ती० पद । जी। .४८ कल्प । स्था० । शा० । कल्प।
हत्थुनरा-हस्तोत्तरा-स्त्री० । हस्तोपलक्षिता उत्तरा, यासा
ता हस्तोत्तराः । उत्तराफाल्गुनीषु , स्था०५ ठा० १ उ० । हत्थिणिया-हस्तिनिका-स्त्री०। करेणुकायाम ,प्रा०म०१०
श्राचा० । श्रा० म०। कल्प० । हत्थितावस--हस्तितापस--पुं० । तापसविशेषेषु,ये हस्तिनं मा
हत्थुल्ल-हस्त--पुं० । “ स्वार्थे कश्च वा"॥ ८।२।१६४ ॥ ' रयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति । भ० ११ श०
इति स्वार्थे उल्लप्रत्ययः । हत्थुल्लो । करे , प्रा०२ पाद । .. उ० । १० । नि० । हस्तिनं व्यापाद्याऽऽत्मनो बृ
हदण--हदन-पुं० । स्वनामख्याते स्त्रीवशवर्तिनि , (हदत्ति कल्पयत्तु बौद्धसाधुषु, सूत्र० २ श्रु० ६ ० ।
- नव्याख्या 'माणपिंड' शब्द षष्ठे भागे गता।) (' अहगकुमार ' शब्दे प्रथमभागे ५६० पृष्ठे हस्तिता
हद्धी-अव्यक। " हद्धी, निर्वेदे"॥८।२।१९२ ॥ हद्धी इत्यपसमतं व्याख्यातम् ।) हत्थिदीव-हस्तिद्वीप-पुं०। राजगृहनगरबाहिरिकाया ना
व्ययमत एव निर्देशात् , हाधिकशब्दादेशो वा निर्वेदे प्रयो-- लन्दाभिधानाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि खराडे , स्था० । ठा०
क्लव्यम् । हद्धी । निर्वेदे , प्रा०२ पाद । हम्म-हन-धा। हिंसायाम् , "हम्खनोऽम्त्यस्य"011
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हरहरा
२४४ ॥ इति यस्य द्विरुक्लो मो वा यस्य च लुक । हम्मर । हयरस्सि हयरश्मि-पुं० । खलीने, दश० १ चू० । इम्यते । प्रा० ४ पाद ।
3
हर्म्य-५० शिखररहिते धनयां भवने जी०३ प्रति
इयलक्ख-हयलक्षण १० । दीर्घग्रीवाचिकूटेत्यादि श्वलक्षणविज्ञाने, जं० २ पक्ष० । ज्ञा० । कल्प० ।
४ अधि० ।
हयलाला - हयलाला - स्त्री० । अश्वमुखजले, जं० ३ वक्ष० । श्री० इयलाला पेलवाइरेगे जी० प्र० । हयवर- हयवर न० । अश्वानां मध्ये प्रधाने, डा० १ ०
सूत्र० १ ० १ ० १ ३० । हमियतलतल १०
हम्ममाण- हन्यमान--पुं० | कशाभिः (सूत्र० २ श्रु० १ ० ।) लिकुडारिभिः सू० १ ० अ०) सोचमाने,
० २ ० १ ० २
( ११८२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
हा
अ० १ ३० ।
हम्मीरमहम्मद--पुं० पारसीकोऽयं शब्दः, विक्रमादित्यस्य
वनराजी०३४
कापते भाद्रपदस्य मायवर सोपे दशम्यां तिथी श्रीहम्मीरमहम्देशित अन्धोऽयं
परिपूर्णता भी योगिनीपत ॥ १ ॥ ० हय--हत-त्रि० । यष्ट्यादिभिस्ताडिते, उत्त० २ ० | भावा० शा० । 'हयमहियपरवीरघाइय' भ० ७ श० ६ उ० व्यवच्डि के विशे० उ० ३२ ० "त्यू हा मार्गाः प रिहासहतास्त्रियः । मन्दबीजं हतं क्षेत्रं, हतं सैम्यमनायकम् ॥ १ ॥ " पृ० १ ३०२ प्रक० ।
,
- पुं० । अश्वे प्रश्न० १ प्राश्र० द्वार। तुरगे, अनु० । इयकंठग--हयकयठक-पुं० [ इकडप्रमाणे रामविशेषे रा०
1
--
जी० । इयका हक पु०
समुद्रस्यापविशेषेक
कर्म० ५ कर्म० । उत० नं० । स्था० (अस्य व्याख्या 'तरदीय ' शब्दे प्रथमभागे व पृष्ठे उक्ता । ) भार्यदेशविशेषे,
प्रथ० २७४ द्वार । हयगय
1 मे १३० रजामणपुराधिये
गत ५० अश्वाकडे ०।
--
|
हाय-हयूविकस्थान-१० इयोऽश्यः तेषां पर स्परतो पूर्व पत्र पश्चात्सधिक्रियते ताखाने नि० च्० १२ उ० । आचा० ।
1
हयजोह - हतयोध-- पुं० । हता- विनाशिना योधा अश्वारोहादोस्तयोधाः विनानिधेषु प्र०३ ० द्वार हयजोहि (ण) - हययोधिन्--पुं० । हयेन युध्यते इति हय्यांधी । [झा० १ ० १ ० रा० । अश्वारोहेण युध्यमाने, भौ० । इयधी- इतभी श्री० मूलो बुद्ध बहुवीहिसमासे तु तादृशबुद्धियुक्ते. त्रि० । प्रति० । हयपर इसपर पुं० [हता अथमा ये परे तीर्थान्तरीयास्ते
,
तथा । कुतीर्थिकेषु स्था० ।
पुव्व । १ हतपूर्व० पूर्वड ०१० ० ३ ० इयमहिय इतमधित त्रि० महारतो ते मानमन्धनात् मथिते शा० १५० १६ प्र० । मुख-५०
पापविशेषे उत
३६ अ० | ('अंतरदीय' शब्दे प्रथमभागे ८ पृष्ठे वक्तव्यवक्का । ) अनार्यदेशविशेषे, प्रब० २७४ द्वार
१७ अ० ।
इयविलंबिय- इयविलम्बित- म० । चतुर्विंशतितमनापदिधौ. रा०
हयवीहि हयपीथि श्री० शुक्रस्य महामहस्य भागवीथीस्वभ्यत्र प्रसिद्धे शुकारिग्रहचारयोग्यक्षेत्र भागे, ""भरणीस्थास्यानेयं नागावया वीथिरुत्तरे मार्गे " स्था० ६ ० ३ ३० । हयसंघाडग हयसंघाटक पुं० संघाटको
युग्मवाची यथा साधुसंघाटक इत्यत्र ततो द्वे द्वे इययुग्म हयसंघाटक इत्युच्यते । रा० जी० । जं० ।
हयसंठिय-हयसंस्थित-पुं० । अश्वाकारे, भ० १ ० २४० ॥ [यहसिय- इयहसित न० इयविशेषे ०१
-
अ० द्वार। औ० । प्रा० म० । जं० । इयाशीय हयानीक घटककटके, उ०१७ ० । हर-हर-० हर-कालः स मनुष्य हरति प्राणिमामायुरिति हरः । दिपसरजम्यात्म के काले, उत्त० १४ प्र० । रुद्रे, अनु० ।
-धा० | हरणे, " व्यञ्जनादनन्ते " ॥ ८ । ४ । २३६ इति अम्लेऽकारः । हरह। हरति । प्रा० ४ पात्र । ग्रह-धाग्रहणे, "ब्रो लगेर यह निवाराहिप||८४२०६॥ इति हर इत्यादेशः । हरति। गृह्णाति । प्रा० ।
-
हरडई हरीतकी स्त्री० हरीतक्यामीतोऽस्" ॥। १॥ ६२॥ इति श्रादेकारस्याऽद्भवति, " प्रत्ययादौ डः " ॥ ८ | १ | २०६ ॥ इति तस्य डः । हरड हरीतकी । स्वनामख्याते वृक्षे, तत्फले च । प्रा० १ पाद । हरण - हरण - न० । हृतौ " हारो ति या हरणं तिवा हर ति वा एगट्ठा हारः हस्तरणं हियते इति वा एकार्थः इत्यर्थः । व्य० १ ३० । परद्रव्यस्य हतौ प्रश्न०
"
,
३ आश्र० द्वार ।
हरतणु - हरतनु-पुं० । तृणाम्रव्यवस्थिते जलबिन्दी, सूत्र० २ ॐ० ३ अ० । पं० ब० । ध० । यो भुषमुद्भिद्य गौधूमाहुरामादिषु यो बिन्दुरुपजायते। बादामज्ञा० १ पत्र कल्प० । दश० जी० ।
हरय-हद-५० महागाथले आचा० १ ० ६०
|
१ उ० । उत्त० । भ० । स्था० जी० । १० ।
हरहरा - हरहरा-० अती भिक्षाप्रस्तावे "निजूम च मार्म, महिला व मीच काया ति जाम भिक्वस्स हरहरा || २०६४ || ” विशे० | ( इयं निर्युक्तिगाथा 'देसकाल ' शब्दे ४ भागे व्याख्याता । )
"
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हरि
हरि-हरि - पुं० । वासुदेवे, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । स्था० । अष्ट० । सिंहे, स्था० ४ ठा० २३०। शाखामृगे, श्राव०४ श्र० । स्था० । हरिवर्षक्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । जं०] विद्युत्कुमारेन्द्रे, श्रा० ० १ श्र० । महाग्रहे. चं० प्र० २० पाहु० । ( अत्रत्या व्याख्या 'महग्गह' शब्दे पञ्चमभागे १७१ पृष्ठे गता ) श्रीराहाणामग्निकुमाराणामिन्द्रे स्था०२४०
३ उ० ।
हरिचंद - हरिश्चन्द्र- पुं० । " श्री हरिश्चन्द्रे " ||२७|| इति अस्य लुक | हरि । सूर्यवंशजे त्रिशङ्कुपुत्रे नुपविशेषे, प्रा० हरिएस - हरिकेश-पुं० । मानने चाण्डाले उत० ।
"
( ११८३) अभिधानरराजेन्द्रः ।
हरिकेशनिक्षेपमा निर्युक्लिकृत्
हरिएसे किखेवो, चउवो दुविहो होइ दव्वम्मि । आगम नोभागमतो, नोभगमतो थ सो तिविह।।। ३१८ ।। जायणसरीरभविए, तबइरिते य सो पुणो तिविहो । एग भवियप अभिहतो नामगोए ।। ३१६ ।। हरिएसनामगो, वेतो भावओो अ हरिएसो । ततो समुट्ठियमणं, हरिए सिजं ति अज्झयणं ॥ ३२० ॥ हरिकेशे निक्षेपश्चतुर्विधो नामादिः, तत्र नामस्थापने हुसे, द्विविधो भवति इयेष श्रागमनमा गमता । तत्र भागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोश्रागमतश्च स त्रिविधो शरीरभस्यशरीरतद्वयतिरिका । स पुनः त्रिविधः - एकमधिको बज्रायुष्को ऽभिमुखनामगोत्र हरिके शनामगोत्रं बेदयन् भावतस्तु हरिकेश उच्यते ततोऽमिथेयभूतात् समुस्थितमिदं हरिकेशीयमित्यध्ययनमुच्यते इति शेष इति गाथाजपार्थः ।
--
"
"
,
,
सम्प्रति हरिकेशवशव्यतामा निर्युक्लिकृत्-goवभवे संखस्स उ, जुबरनो अंतिमं तु पव्वज्जा । जाईमयं तु कार्ड हरिकुलम आयाम ।। २२१ ।। महुराए खो खलु पुरोहिधसुश्रो अ गयउरे आयी । दद्दू पाडिहरं, हुयवहरत्थाइ निक्खतो ।। ३२२ ।। हरिएमा चंडाला सोयाम मयंग बाहिरा पाया । साधणाय मयासा, सुसाणवित्तीय नीया य । ३२३ | जम्मं मयंगतीरे, वाणारसिगंडितिदुगवणं च । कोसलिए सुभद्दा इसिवंता जनवादम्मि ॥ ३२४ ॥ बलकुट्टे बलकुड्डो, गोरी गंधारि सुविणगवसंतो । नामनिरुनी सप संभवो दुहुंडे बीओ ।। ३२५ ।। भद्दएव होअव्वं, पावइ भद्दाणि भयो ।
•
सविसो हम्म सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुलई ।। ३२६ ॥ इत्थी कहित्थ वढई, जणवयरायक हित्थ वढई | पडि गच्छह रम्मतिंदुचं, अइसहसा बहुमुंडिए जणे ॥ ३२७॥
"
एतदक्षरार्थः सुगम एव परं प्रति तु इति अन्तिकेसमीपे तु पूरणे, पाडिहरं ति प्रतिद्वारा दीवारिकस्त
4
हरिएस
इस सविताविशेषोऽपि प्रतिहारस्तस्य कर्म ताहुनहरध्यायाः शीततथा हरिके शाश्चाण्डालाः श्वपाकाः मानका बाह्याः पाणाः श्वधनाचंमृताशाः श्मशानवृत्तयश्च नीचाश्चेत्येकार्थिकाः, तथा 'मयक्रेते मृता विवक्षितम्रो नरकाखयवादिनी सा चासौ गङ्गा च मृतगङ्गा तस्यास्तीरं तस्मिन् ऋषिवान्ता
पिया था भद्र एवं इकोन
"
से, भङ्गादि कल्याणानि तथा खीणां कथा तासां नेपथ्याभरतभाषादिविषया अत्र अस्मिन् बन्याश्रमे प्रथमे जयति जनपदकथा मालवानिन्दात्मिका राजकथा च राज्ञां शौर्यादिगुणवर्णनादिरूपा, 'पडिगच्छद्द ' ति तिष्यस्ययात् प्रतिगच्छामो - निवर्त्ताबडे 'अ' स्याम सोच कोड:अपरीक्षित योग्यताविशेषो बहुतजनो 'मुण्डमात्रेवैषीः प्रायोजना गृहीतमायस्तु व पवेि भाषः । तथेहाचमाधाया एक पाय द्वितीयाचा स्पष्टी कृतं ततस्तृतीयपादः स्पष्ट एवेति शेषगाथाभिश्चतुर्थपादस्य पर्यायदर्शनस्तरसूचितार्थाभिधानयामियनम् । मा यार्थस्तु कथानकावलेयः, तत्र च सम्प्रादयः- "महुराए न यरी संखो नाम जुबराया, सो धम्मं सोउं पव्वतितो, विहरंतोय गयउरं गो, तर्हि व भिक्खं हिंडतो पगं रथं पत्तो, सायकिर प्रतीष उरहा मुम्मुरसमा, उरहकाले ए सकति कोऽषि बोले जो उ
तीखे पुरा सार्मचेच परा तेरा सामु पुरोहिनो पुति निव्यडति सो पुरोहियरस पुन विएस सोप इयरो यांतितुरियार गई
-
सो प्रकार उरणों तं रत्थे, जाव सा तस्स तब्वप्रभावेणं, सीतीभूया । प्राउट्ठो - अहो इमो महानवस्सी मए आसा दिनो उचाराद्विषं गन्तुं मति-भगम पाव यं, कहं या तस्स मुंचेंजामि ?, तेण भरणति - पन्चयह, पव्वतो, जातिमयं रूवमयं च काउं मनो । देवलोगगमणं, तो मयगंगा तीरे बलको नाम दरिएसा रेसि अहिव बलकोट्टो नाम, तर दुबे भारिप-गोरी गंध
4
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गोकु वनमा कुसुमयं चूप पे सुमिपादया कहिये तेहि भगति महणा ते पुतो भवति । समएस पसूया, दारगो जाओ कालो विरूओ पुग्वभवजाइमोसेंबलफोंस जाउ बली से नामं कर्य। भंडएसीलो असद्दणो । अरण्या तं छरोग समागया भुजांत सुरं पिति सोऽपि करेति निन्द ति समेत लोपतो, जाय अही आगतो। उडिया सहना सोही मारियो मुल मेहंडी आगतो भेडो नाम दिव्यमो भीषा पुरा हड्डिया शा दिव्वगो नि काऊ मुको । बलस्स चिंता जाबाअहो सदोण जीवा किलेसभागिणो भवति, तम्हा'होय, पावति भद्दाणि मद्दियो । सपिसी ह मति सपोमेडी तत्थ मुख्यति ॥ १ " तसे
|
·
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बुद्धो बतितो वाणासि गओ । उज्जाणं तेंदु
+
"
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हरिएस
3
यवणं, तेंदुगं नाम जक्खाययणं, तत्थ गंडीतें दुगो नाम अक्खने परिवसति सो तर अगठित उघसंतो, अरुणो जखो, अहिं वसे वसति, तत्थ वि श्रगणे बहू साहुगो ठिया, सो य मंडीजखं पुच्छति -- दीससि ?, पुरा तेण भणियं - साहुं पज्जुवासामि, तत्थ य उपसंती सोमव
(११) अभिधान राजेन्द्रः ।
बहने साइडिया, एहि पासामो, ते गया, तेऽवि समायमी साविकमा अति ततो वो जो इमं भणति --" इत्थीण कहत्थ वह, जलवयरायकइत्थ यहां पडिहरमार्ग, सहसा मुंड U2 N ग्रह अरण्या जखाययं कोसलियरामधूश्रा भद्दा नाम पुष्पमादी गद्दाय चिराहिसंकरे माणा तं दद्रा कालं विगरालं छिसि काऊ टिति जखेण रुंण श्रयण्ट्ठा कया, खीया नीयघरं, श्रावेसिया गियरं मुचामि जर
तं
,
सानिका पर सोसाइओको रात्रिसिकाउदा महत्तरियाई समे सादीया, रसि ताहि भवति च पतिसगा नि पषि जाय सो पडिमं छिति, ताहे जो विइसिसरीरं छाइ
,
दिव्यरूपं लि, पुणो मुणिरूयं, एवं सम्वरति - दामाद सिकाऊ पविसंती सपरं पुरोहिएस गया भरिओ-एसा रिसिभजा बंभणाणं कष्पलिदिए तसेच सोय जरा दिमा अरण लखा, साथि जगणपति ति काऊण दिक्खिया । " इत्युक्तः सम्प्रदायोऽवसितश्च नामनिष्वश्वनिक्षेपः । सम्पति मालाकनिष्यन्नस्यावसरः स च सूत्रे सति सम्भवत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्सोवागकुलसंभू, गुणुत्तरधरो मुखी। हरिएसबलो नाम, आसि भिक्खु जिइंदियों ॥ १ ॥ श्यपाका:- चाण्डालास्तेषां कुलम् अन्यस्तस्मिन् सग्भूतः - समुत्पन्नः श्वपाककुलसम्भूतःः, तरिक तरकुलोत्पश्यनुरूप एषाम् उस नेत्याह-गुरे पूरा:- प्रधानाः गुोत्तरा:यः तान् धारयति गुणोतरंधर, पति ब युत्तरधरे 'ति तत्र न विद्यते उत्तरम् - अभ्यस्प्रधानमेमा बानाय एव गुणास्ताम् धारयत्यनुत्तरधरः, यद्वा-अनुत्तरान् गुणान् धारयतीत्यनुत्तरघर इति मयूरव्यंसकादिषु द्रष्टव्यो मुइति प्रतिजानीतेसम्म मुखि, श्वपाककुलोपोऽपि कदाचित्संवासादिनाऽन्ययेष प्रता हरिहरिकेश प्रतीतो नाम-बलविधानसी अभूत् तस्य च मुनित्यं प्रतिमाशापि स्यादत आह-' भिक्खु 'ति भिनत्ति -- यथाप्रतिज्ञामनानुष्ठानेन सुधमविया फति मिथुन ए जिनानि पशीहमानीयादिस्पर्शनादीन्यनेनेति जितेद्रिय इति सूत्रार्थः ।
---
तथा
इरिएसगभासाथ उच्चारसमिसु य ।
नमो प्रयाण क्खेिवे, संजय सुसमाहिश्रो ॥ २ ॥
-
हरिएस ईरणमीय एष्यत इत्येषणा अनयोर्द्वन्द्वस्ततस्ताभ्यां सहिता भाष्यत इति भाषा इवाभाति मध्यपदलोपी समासः, तस्याम् तथा उच्चारम्, पुरीषपरिष्ठापनमपहोचारोपसमितिःसम्यगमनं तच सम्पनमिति यावत् उच्चारसमि तिः, तस्यां च यतत इति यतो यत्नवान् तथा श्रादानं च प्रहरां पीठफलकादेर्निक्षेपश्च-स्थापनं तस्यैव आदाननिक्षेप, तत इहापि चकारानुवृत्तेस्तस्मिञ्च, इह च 'उच्चारसमिति एकत्वेऽपि बहुवचने सूत्रस्यात् समितिशय मध्यव्ययस्थितो इमकमरियाना पि सम्बध्यते, ततश्च ईर्यासमितावेषणा समिती भाषासमितावादाननिपसमिताविति योग्यं यहा-ईचारसमितिष्वित्येकमेव पवं, ' भासाए' इति च एकारोऽ लाक्षणिक सबै कमियाह-संयतः संमतिः सुसमाहितः सुखं समाधिमानिति सूत्रार्थः ।
तथा-
मागुतो वयगुतो, कायगुत्तो विदियो । भिक्खडा भइअम्मि, जमावामुद्विभो ||३||
मनोगुण्या मनोनियन्त्रण स्मिकया गुप्तः संवृतो मनोगुप्तो, मध्यपदलोपी समासः मनोगुप्तमस्येति या मनोगु हितान्यादित्याच गुरुशब्दस्य परनिपातः पा freeप्रसरः, कायगुप्तः असत्कायक्रियाधिकलो, जितेन्द्रियः प्राग्वत् पुनरुपादानमस्य कादाचित्कन णार्थमतिशयख्यापनार्थं वा, भिक्षार्थ - भिक्षानिमित्तं, न तु निष्प्रयोजनमेव नियोजन गमनस्यागमे निषत् 'चं भाजमिति माणां ब्राह्मणानामिया यजनं परिमन् सोऽयं तस्मिन जाति पहचाडे पडणारे वा उपस्थितः प्राप्त इति सूत्रार्थः ।
तं च तत्राऽऽयान्तमवलोक्य तत्रत्यलोका पदकुस्तदाह
4
"
"
--
तं पासिऊणमितं तवेण परिसोसियं ।
पंतो वहिउबगरणं, उवहसंति भणारिया ||४|
क्ष्य
'त' मिति बलनामानं मुनिं ' पांसि ' ति उष्वा निरी 'इज्जत मागच्छन्तं तपसा पट्टामादिरूपेण परि-समन्ताषित अपवित शीतमिति यावत् परिशोषितं तथा प्रान्तं जनत्यादिभिरसारमुपधिप उपकर
- धर्मशरीरोपष्टम्भ हेतुरस्येति प्रान्तोपध्युपकरणस्तं यद्वाउपधिः स एवोपकरणम्-औपग्रहिकं, द्वन्द्वगर्भश्च बहुवीहिः, उपसंतित उपसमित
उक्तनिष्क्रान तथा साधुनिन्दारिता
"
अनार्याः यद्वा-नाले अनाथ र अनाग इति सूर्थः । कार्य पुनरनार्याः कथं पतितस्ते इत्याहजाइम परिषद्धा, हिसमा अजिदिया ।
भचारिणो बाला, इमं यशसवी ॥५॥
1
करे भगाईदिन फाले विकराले पुकनासे । श्रमचेाभ्र, संकर परिहरिय कंठे ॥ ६ ॥
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हरिएस अभिधानराजेन्द्रः।
हरिएस जातिमदो- जातिदप्पों यदुत ब्राह्मणा वयमिति तेन प्र-। घर्तते, ततोऽयमर्थः-अस्मदरएिपथादपसर,तथा किमिह स्थिनिस्तब्धाः पाठान्तरतः प्रतिबद्धा वा येते तथा. हिंसकाः- तोऽसि त्वं ?, नैवेह त्वया स्थातव्यमिति भाव इति सूत्रार्थः । प्रासयुपमईकारिणः अजितेन्द्रियाः-न वशीकृतस्पर्शनाद- एवमधिक्षिप्तेऽपि तस्मिन् मुनौ प्रशमपरतया किञ्चिदप्यजयोऽत एवाब्रह्म-मैथुनं तश्चरितुम्-प्रासेवितुं शरिल धर्मो वा
स्पति तत्सान्निध्यकारी गण्डीतिन्दुकयक्षो यदचएत तदाहयेषां तेऽमी अब्रह्मचारिणः, वर्ण्यत हि तन्मते मैथुनमपि'धर्मार्थ पुत्रकामस्य, स्वदारेष्यधिकारिणः । तुकाले वि
जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवामी, धानेन, तत्र दोषो न विद्यते ॥१॥' तथा 'अपुत्रस्य गति
ऽणुकंपभो तस्स महामुणिस्स । मास्ति' इत्यादि , अत एव बाला इव पालक्रीडितानुकारिष्य
पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, मिहोत्रादिषु तत्प्रवृत्तेः, उक्तं हि केनचिद्-"अग्निहोत्रादिकं
इमाई वयणाई उदाहरित्था ॥८॥ कर्म, बालक्रीडेति लक्ष्यंत" ईशास्त किमित्याह इदं
पक्षो-व्यन्तरविशेषः तस्मिन् अवसर इति गम्यते, तिन्दुवयमाणलक्षणं वचनं-बचः 'अब्बवि' त्ति आर्षत्वाचनव्यत्ययेन अब्रुवन्-उक्तवन्तः । किं तदित्याह-'कयरे '
को नाम वृक्षस्तद्वासी. तथा च सम्प्रदायः-"तस्स तिदुग
वणस्स मज्झे महंतोनिदुगरुक्खो, तहि सो वसति तस्सेव ति कतरः, एकारस्तु प्राकृतत्वात् , तथा च तल्लक्षणम् 'ए
हटाचे, जन्थ सो साह चिति।" 'अणुकंपो' त्ति होति अयारते' इत्यादि, एवमन्यत्रापि, प्रागच्छति-श्रा
अनुशब्दोऽनुरूपार्थे ततश्चानुरूप कम्पते-नेटत इत्यनुकम्पयाति , पठ्यते च 'कोरे पागच्छ।'त्ति. ते ह्यन्योऽन्यमा
कः-अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः, कस्येत्याह-तस्य-हरिकेशवहुः कोऽयमीहक 'रे' इति लघोरामन्त्रणं साक्षेपवचनेषु चरश्यंत, दित्तरूव' ति दीसं रूपमस्येति दीप्तरूपः, दीप्त
लस्य महामुनेः-प्रशस्यतपस्विनः प्रच्छाद्य-प्रकर्षणावृत्त्य
निजकम्-श्रात्मीयं शरीरं, कोऽभिप्रायः ? , तपस्विशरीर वचनं त्यतिबीभत्सोपलक्षकम् , अत्यन्तदाहिषु स्फोटकेषु
एबाविश्य स्वयमनुपलक्ष्यः सन्त्रिमानि वक्ष्यमाणानि-वचनाशीतलकव्यपदेशवत् , विकृततया वा दुर्दर्शमिति दीप्तमिव
नि वचसि उदाहरित्थ' ति उदाहादुदाहतवानित्यर्थः, दीप्तमुच्यते , कालो वर्णतो विकरालो दन्तुरतादिना भया
इति सूत्रार्थः। नकः पिशाचयत् स एव विकरालकः,' फोक' सि देशी
कानि पुनस्तानि ?, इत्याहपदं, ततश्च फोका अग्रे स्थूलोन्नता च नासाऽस्येति फोकनासः, अघमानि-प्रसारास्मि लघुन्यजीत्यादिना चेलानि
समणो अहं संजो बंभयारी, यस्त्राण्यस्येत्यवमचेलकः, पांशुना-रजसा-पिशाचबद्भूनो
बिरनो धणपयणपरिग्गहायो। जानः पांशुपिशाचभूतः, गमकत्वात्समासः, पिशाचो हि परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले, लौकिकानां दीर्घश्मथुनखरोमा पुनश्च पांशुभिः समयिध्वस्त
अनस्स अट्ठा इहमागमो मि ॥ ॥ इष्टः, ततः सोऽपि निष्परिकर्मतया-रजोदिग्धदेहतया चैवमुच्यते, 'संकरे' ति सङ्करः, स चेह प्रस्तावालणभस्मगोम
वियरिजइ खाइ भुजई य, याहारादिमीलक उकुकडिकेति यावत् तत्र दृष्य-वर सङ्कर
अनं पभूयं भवयाणमेयं । दृष्य, तत्र हि यदत्यन्तनिकृष्टं निरुपयोगि तल्लोकैरुत्सृज्यते
जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति, ततस्तत्प्रायमम्यदपि तथोक्न, यद्वा-उज्झितधर्मकमेवासी
सेसावसेसं लहरो तवस्सी ॥१०॥ गृहातीत्येवमभिधानं. 'परिहरिय'ति परिहत्य , निक्षिप्येस्यर्थः, क्य-कएठे-गले , स निक्षिप्तोपकरण इति
श्रमणो-मुनिः 'अह ' मित्यात्मनिर्देशः, किमभिधानत स्थमुपधिमुपादायैव भ्राम्यति, अत्र कएठेकपार्श्वः कराठशब्द
एवेत्याशपाह-सम्यग् यतः संयतः-प्रसधापारेभ्य उइति कण्ठे परिहस्येत्युख्यत इति सूत्रस्यार्थः।।
परतः, मत एव च ब्रह्मबारी-ब्रह्मचर्यवान् , तथा बिरतो
निवृत्तः, कुतो?-धनं च पचनं च परिग्रहश्च धनपचनपरिइत्थं दूरादागच्छन्नुक्तः, सन्निकृष्टं चैनं किमूरिस्याह
प्रहमिति समाहारः तस्मात् , तत्र धनं चतुष्पदादि, पचनमाकयरे तुम इय प्रदंसणिज्ले?
हारनिष्पादनं, परिग्रहो द्रव्यादिषु मूर्छा, अत एव च परस्मै काए व भासा इहमागभोऽसि ।
प्रवृत्त परैः स्वार्थ निष्पादितत्वेन परप्रवृतं तस्य, तुरषधारणे,
ततः परप्रवृत्तस्यैव, न तु मदर्थ साधितस्येति भावः, भिभोमचेलगा पंसुपिसायभूया,
शाकाले-भिक्षाप्रस्तावे,कदाचिरकालोऽयं घूयादित्येषमुक्तम् , गच्छ स्खलाहि किमिहं ठिभोऽसि ॥७॥
मनस्य-प्रशनस्य 'मह' ति सूत्रत्यावर्थाय , भोजनार्थकतरस्त्वं, पाठान्तरम-को रे त्वम्, अधिक्षेपे रेशम मिति भावः, रह-अस्मिन् यज्ञबाटके मागतोऽस्मि, भनेन 'ती' स्येवमदर्शनीयो-द्रष्टुमनईः, 'कया था' किंरूपया यदुनं-कतरस्त्वं किमिहागतोऽसि ?. तत्प्रतिषचनमुक्तम् . था?,'मासा हमागमोऽसि ' ति 'भचां सन्धिलापौ- एयमुक्त व ते कदाचिदभिवण्युः-मह किश्चित् कस्मैचिहीयपाल' मिति पचनाकारलोपो, मकारभागमिका, तत तेनषा देयमस्त्यत माह-वितीर्यते-दीयते दीनानाथादिभाशया पाम्छया बह-अस्मिभ्यापके भागतः-प्राप्तोऽ भ्यः साचते खण्डवाचादिः, भुज्यत च भनसूपादि, भात सि-भवसि, अवमचेलका पांसुपिशाचभूत इति च प्राग्बत् , इत्यनं स सर्वमपि सामान्ये नीच्यते, तदप्यल्पमेव स्यादत पुनरनयोरुपादानमत्यस्ताधिक्षेपवर्शनार्थ, गच्छ प्रवज, प्रक माह-प्रभूत-बहु, प्रभूतमपि परकीयमेव स्यात् , अत मामादितो-यावाटकात, 'खलाहि'त्ति वेशीपदमपसरेस्यस्यार्थे । -भवतां-युष्माकमेव सम्बन्धि 'एतदि' ति प्रत्यक्ष, स
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हरिएस
,
था व जानीत अवगच्छत 'मे' ति सूत्रत्वान्मां 'जायणपवनेन जीव-प्राणधारणमस्येति वाचनजीवनम् अपत्यादिकारः, पठ्यते च 'जायजीनि इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकः तत एवं स्वरूपम् पयैवमतो महामपि दध्यमिति मावः काचिदुत्कृष्टमेवासी पाचनइति तेषामाश्यः स्यादतः श्रह, अथवा जानीत मां याचन जीविनं याचनेन जीवन द्वितीयापही पाठान्तरे तु प्रथमा, 'इती' त्यस्माद्धेतोः किमित्याह शेषावशेषम् उद्वरतस्याप्युरितम् अन्तयान्तमित्यर्थः लभतां प्राप्नोतु तपस्त्री- यतिराको वा भवदभिप्रायेण श्रनेनात्मानं निर्द्दिशतीति वार्थः ।
"
1
एवं उचक्खढं भोयसे माहवा
अत्तट्ठियं सिद्धमिहेग पक्खं । नऊ वर्ष एरिसमअपार्थ,
9
वायासिनः प्रा
यक्ष आह
भले बीया वयंति कासमा,
9
दाहास तुझं किमिदं ठोऽसि || ११|| उपस्कृतं भोयण भिभोजन माहनानां ब्राह्मणानाम् श्रात्मनोऽर्थः आत्मार्थस्तस्मिन् भवमात्मार्थिक ब्रह्मात्मनैव भोज्यं न स्वयस्यै देयं किमिति ?, यतः सिद्धं - निष्पन्नंम् इह-अस्मिन् यज्ञे एकः पक्षीब्राह्मणलक्षणो यस्य तदेकपक्ष, क्रिमुक्कं भवति ? - यदस्मिन्नुपरिक्रयते न तद्यतिरिकायान्यस्मै दीयते विशेषतस्तु शूद्राय यत उक्क्रम् - " न शूद्राय मतिं दद्या-नोच्छिष्टं न इषिः कृतम्। न चास्योपदिशेद धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ १ ॥ तुमीशमुक्ररूपम् अनं खोदनादि पानं च द्राक्षापानादि पाने 'दाहामो' ति दास्यामः ' तुज्भं ' ति तुभ्यं, किमिह स्थितोऽसि ?, नैवद्वावस्थितावपि तव किञ्चिदिति भाव इति सूत्रार्थः ।
1
•
तहेव निमेसु य श्राससाए । एयाइँ सद्वाई दलाह मज्झ,
.
"
(११०६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
आराहए पुष्पमिणं खु खित्तं ॥ १२ ॥
कासग
स्थलेषु – जलावस्थितिबिरहितेषूत्र भूभागेषु बीजाविगोधूमशास्यादीनि वपन्ति संपति fe कर्षकाः कषीवलाः तथैव यथोरलेप्मेन मेषु मखभूभागेषु च झाससाद त्ति प्रशंसा' भाषि तदा स्थलेषु फलावातिरथान्यथा तदा निम्नेष्वित्येवमभिलाषात्मिकया. एतयैव एतया पनदुपमया, कोऽथे। रूपकर्षका बादलाइ दिवं महां किमु यति यद्यपि भवतां निम्नोपमत्यबुद्धिरात्मनि मयि तु स्थलतुल्यताधीः तथापि महामपि दातुमुचितम् अथ स्थापनेऽपि न फलावाप्तिरित्यादराम खुसखुश सदस्यावधारणार्थस्य मित्रादेव समग्यारसाधदेव मात्राम्ययाभाव भमिदं परिदृश्यमानं क्षेत्र क्षेत्र शस्यप्ररोहेतुतया आत्मानमेषपात्रभू
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"
1
समयमा, पठते राहगा होमि पुरा नि श्राराधका - आवर्जका गम्यमानत्वात्पुण्यस्य भवत, अनेन दानफलमाह कुन एतदित्याह - इदं पुण्यक्षेत्रं - पुण्यप्राप्तिहेतुः क्षेत्रं यत इति गम्यते इति सूत्रार्थः । यक्षवचनानन्तरं त इदमाद्दुःखित्ताणि म्हं वियाणि लोए पिकिया विरुति पुष्पा
"
जे माहना विजया
हरिएस
,
ताई तु खित्ताइँ सुपेसलाई ॥ १३ ॥
"
"
क्षेत्राणि ' इति क्षेत्रोपमानि पात्राश्यस्माकं विदितानिशानानि वर्तन्त इति गम्यते लोके जगति वचनव्यव्यवायेषु क्षेत्रेषु प्रकोनीच प्रकीयांनि-दत्तास्यशनादीनि विरोहन्ति - जन्मान्तरोपस्थानतः प्रादुर्भवन्ति पूर्णानि समस्तानि न तु तथाविदेोषसद्भावतः कानिचिदेव स्थादेतद्-अमावाद ये ब्राह्मणा-द्विजाः, तेऽपि न नामन एव, किन्तु जातिश्वब्रह्मज्ञान विद्या च चतुविनात्मिका ता स्याम् उपवेषसि उपेतान्चिता जातिविद्योगः, 'ताई तु' ति तान्येव क्षेत्राणि 'सुपेसलाणि' ति सुशलं नाम शोभनं प्रीतिकरं वा इति वृद्धाः, ततश्च सुपेशलानिशोभनानि प्रीतिकराणि वा नतु भवानि जानीि शूद्रजातियादेव बेदादिविद्यामीति यत उक्कम" सममधोत्रिये दानं द्विगुणं ब्राह्मणब्रुवे । सहस्रगुणमाचायें, अनन्तं वेदपारगे ॥ १ ॥ " इति सूत्रार्थः ।
4
यक्ष उवाच
कोहो यमाणो य वहो य जेसं, मोसं अदत्तं च परिग्गहं च ।
ते माहया जाइपिअादिहीसा,
9
•
ताई तु खिलाई सुपावयाई ।। १४ ।। क्रोधश्व - रोषः मानञ्च - गर्वः दाम्मायलोमी वधश्व -- थथ प्राणियातो येषामिति प्रमा ब्राह्मणानां 'मोस' ति पालीका ''तिपदेउपपदेशस्य दर्शनात्सत्यभामा-सत्याि
a.
4
"
"
-
मुक्रं चशब्दाधुनं परिभूयादिकारः - स्तीति सर्वत्र गम्यते 'ते' इति क्रोधाद्युपेता यूयं ब्राह्मणा जातिविद्याविना रहिना जातिविद्याविहीनाः क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वर्यव्यवस्था यत उक्तम्- "एकवर्णमिदं पूर्वमासीद्युधिष्ठिर ! क्रियाकर्मविभागेन वातुर्वरा व्यवस्थितम् ॥ १ ॥ ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पन शिक्षकः अन्यथा मादी २|| न चैपिया ब्रह्माको
यत्यतो न तावज्जाम्भितथा विद्याऽपि सच्खामि का. सात्रेषु च सर्वेष्यहिंसादिपञ्चकमेव बापत उ क्रम्- "पचैतानि पचाणि स धर्मचारिणाम्। अ हिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुन "युवं च ततज्ज्ञानादेव भवति, ज्ञानस्य तु विरतिः फलं रागाद्यभावश्च यत उक्तम् - "तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति ? शक्ति दिनकरकिर
"
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(१९८७) हरिएस अभिधानराजेन्द्रः।
हरिएम गाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" न चैवमग्न्याधारम्भिषु कोपादिम- | ततश्च घिग् भवन्तं न वयं क्षमामहे यदित्थं भवान् घूसे त्सु च भयत्सु विरते रागाद्यभावस्य च सम्भवोऽस्ति , न सकाशे-समीप 'अम्ह' ति अस्माकम् , अपिः सम्भावना. म निश्वयनयमतेन फलरहितं वस्तु सत् , तथा च निश्चयो
याम् पसत्-परिदृश्यमानं विनश्यतु-क्यथितत्वादिना यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थमदित्याह, ततः स्थित- स्वरूपहानिमाप्नोतु अन्नपानम्-श्रोदनकाञ्जिकादि, 'न च'मेतत्-'ताई तु 'त्ति तुरवधारण, भिक्रमश्च । ततश्च नैव 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे ' दाहामु 'त्ति दास्यामम्ततानि भवद्विदितानि ब्राह्मणलक्षणानि क्षेत्राणि सुपापका- वहे निग्रन्थ ! निष्किञ्चन !, गुरुप्रत्यनीको हि भवान् , न्येव, न तु सुपेशलानि, क्रोधाधुपेतत्वेनातिशयपापहेतुत्या- अन्यथा तु कदाचिदनुकम्पया किश्चिदन्तप्रान्तादि दद्यामा दिति सूत्रार्थः।
पीति भाव इति सूत्रार्थः । कदाचित्ते घदेयः-वेदविद्याविदो ययमन एव च ब्राह्मण
यक्ष पाहजातयस्तत्कथं जातिविद्याविहीना इत्युक्तवानसीत्याह
समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स, तुब्भिस्थ भो ! भारहरा गिराणं,
गुत्तीहि गुत्तस्स जिइंदियस्म । अटुं न याणाह अहिज वेए ।
जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्जं, उच्चावयाई मुणिणो चरंति,
किमज्ज जन्माण लभित्थ लाभं ?।। १७ ।। ताई तु खित्ताइँ सुपेसलाई ।। १५ ॥
समिनिभिः-ईर्यासमित्यादिभिर्मह्य सुष्टु समाहिनाय-सयूयमति-लोके - भो' इत्यामन्त्रणे भारं धरन्तीति
माधिमते सुसमाहिताय गुप्तिभिः--मनोगुप्यादिभिगुप्ताय भारधराः, पाठान्तरतो वा-'भारवहा' वा, कासां?-गि
जितेन्द्रियायेति च प्राग्बत् , सर्वत्र च चतुर्थ्यर्थे पष्ठी, रा-याचां, प्रक्रमाद्वदसम्बन्धिनीनाम् , इह च भारस्तासां
'यदीत्यभ्युपगमे' 'मे' मा 'मझ' तीत्यस्य व्यवहितत्वात् भूयस्त्वमेव, किमिति भारधग भारवहा वेति उच्यते, य
कियां प्रति पुनरुपादानमदुष्टमेव न दास्यथ-म वितरिष्यताऽर्थम्-अभिधयं न जानीथ-नावबुध्यध्धे ?, 'अहिज'
थ, 'अथे' त्युपन्यास अानन्तये वा, एपणीयम्-एपणात्ति अर्गम्यमानत्वादधीत्यापि वेदान्-ऋग्वेदादीन् ,
विशुद्धमनादिकं , किं न किञ्चिदित्यर्थः, 'अज' त्ति अद्य ये तथाहि--'आत्मा चार ज्ञातव्यो मन्तब्यो निदिध्यासि
यज्ञास्तपामिदानीमारब्धयज्ञानां.यद्वा-'अज' ति हे श्रार्या ! तव्यः' तथा "कर्मभिर्मेन्युमृपया निषेदुः, प्रजावन्तो द्रवि
यशानां 'लभित्थ' त्ति सूत्रत्वालप्म्यम्व-प्राप्स्यध्ये लाभणमन्विच्छमानाः, अथापरं कर्मभ्याऽमृतत्वमानशुः " परेण
पुगयप्राप्तिरूपं, पात्रदानादेव हि विशिष्टपुण्यावाप्तिः, अभ्यत्र. नाकं निहितं गुहायां, विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति । वेदा
तु तथाविधफलाभावेन दीयमानम्य हानिरव, उक्तं हि-"दहमेनं पुरुषं महान्तं, तमेव विदित्वा अमृतत्वमति ॥१॥"
धिमधुघृतान्यपात्र, क्षिप्तानि यथाऽशु नाशमुपयान्ति । एवनान्यः पन्थाः अयनाये' त्यादिवचनानां यद्यर्थवेत्तारः स्यु
मपात्र दत्ता-नि कवलं नाशमुपयान्ति ॥१॥” इति सूत्रार्थः । स्तत्किमित्थं यागादि कुरिन् ?, ततस्तत्त्वतो बदविद्याविदो भवन्तो न भवन्ति, तत्कथं जातिविद्यासम्पन्नन्येन क्षेत्रभूताः
इत्थं तनाले यदध्यापकप्रधान प्राह तदुच्यतस्युः ? । कानि तर्हि भवदभिप्रायेण क्षेत्राणीत्याह-'उच्चाय
के इत्थ खत्ता उपजोइया वा, याई' ति उच्चावचानि-उत्समाधमानि मुनयश्चरन्ति भिक्षा
अज्झावया वा सह खंडिएहि । निमित्तं पर्यटन्ति गृहाणि,ये इति गम्यते, न तु भवन्त इव प- एवं खु दंडेण फलेण ता, चनाचारम्भप्रवृत्तयःत एव परमार्थतो वेदार्थ विदम्ति तत्रा
कंठम्मि चित्तूण खलिज्ज जो णं ॥१८॥ पि भैक्षवृत्तेरेव समर्थितत्वात् , तथा च वेदानुवादिनः 'चरेद
के 'अत्रे' त्येतस्मिन् स्थाने क्षत्रा:-क्षत्रियजातयो वर्गमाधुकारी वृत्ति-मपि म्लेच्छकुलादपि । एकानं नैव भुजीत,
सङ्करोत्पमा घा तत्कर्मनियुक्ताः 'उबजोइय' ति ज्योतिषः बृहस्पतिसमादपि ॥ १॥" यदिवोच्चायचानि-विधाविक
समीप य त उपज्योतिषस्त एबापज्योतिएका:-अग्निसमीप्रतया नानाविधानि, तपांसीति गम्यते , उच्चवतानि बा
पवर्तिनो महानसिका ऋत्विजा वा अध्यापकाः-पाठकाः, शेषनतापेक्षया महावतानि ये मुनयश्वरन्ति-भासेबन्ते, न तु यूयमियाऽजितेन्द्रिया प्रशीला बा, तान्येव मुनिलक्षणानि ।
तया उभयत्र या विकल्प 'सहे ' ति युक्ताः कः ?-'ख
रिडकैः' छात्रैः, ये किमिन्याह-एन-श्रवणकं दराडेनक्षत्राणि सुपेशलानीति प्राग्यदिति सूत्रार्थः ।
वंशयष्ट्यादिना फलेन-यित्वादिना 'ते' ति हत्याइत्थमध्यापकं यक्षण निर्मुखी कृतमवलोक्य तच्छात्राः प्राहु:
ताडयिन्या. यद्वा-' दराडेने' ति कृपराभिधानेन फलेनअज्झावयाणं पडिकूलभासी,
च मुष्टिप्रहारेणेति वृद्धाः, ततश्च कण्ठे-गले गृहीत्यापभाससे किन्नु सगासि अम्हं ? ।
उपादाय 'खलेज' ति स्खलयेयुः-निष्काशययुः, यो' अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं,
ति वचनब्यत्ययाद्ये इत्थमतदभिघाते निष्काशने वा शक्ताः, न य णं दाहामु तुमं नियंठा! ॥ १३ ॥
* गामि' वाक्यालङ्कारे, इतिसूत्रार्थः । अध्यापयन्ति-पाठयन्तीत्यध्यापकाः-उपाध्यायास्तेषां प्रति
अत्रान्तरे यदभूतदाहफल-प्रतिलोम भाषते वक्तीत्येवंशीलः प्रतिकृलभापी सन्
अज्झावयाणं वययं सुणित्ता, प्रकर्षेण भाषसे-ब्रूप प्रभाषसे, किमिति क्षेपे, तुरित्यक्षमा यां, उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा ।
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हरिएस
(१९८८) हरिएस
अभिधानराजेन्द्रः। - दंडेहि वित्तेहि कसेहिचेव,
न्द्राश्च-अपतयो देवेन्द्राश्व-शक्रादयो नरेन्द्र देवेन्द्रास्तैरभिसमागया तं इसि तालयंति ॥ ११ ॥
आभिमुख्येन वन्दितः-स्तुतो नरेन्द्र देवेन्द्राभिवन्दितअध्यापकानाम्-उपध्यायानाम् ,एकत्वेऽपि पूज्यत्वाद्वहु
स्तेन,अनभिभ्याताऽपि नपोपरोधतः स्वीकृता स्यादत प्रावचनं , वचनम्-उकरूपं श्रुत्वा-श्राकर्ण्य उद्धाविता
ह येनास्म्यहं वान्ता-त्यक्ता ऋषिणा-मुनिमा, स एष बेंगन प्रसृताः तत्र-यत्रासौ मुनिस्तिष्ठति बहवः
युष्माभिर्यः कदर्थयितुमारब्धः, ततो न कदर्थयितुमुचित प्रभूताः कुमारा-द्वितीयवयोवर्तिनश्छात्रादय इति गम्यते ,
इति भावः । पुनरिममेवाथै समर्थयितुमाह-एसो हु सो' ते हि क्रीडनकपरा इत्यहो क्रीडनकमागतमिति रभसतो
त्ति, एष एव स न मनागयत्र संशयः, उग्रम्-उत्कटं दारुणं दण्डैः-वंशयष्टयादिभित्रैः-जलजवंशात्मकैः कशैः-वध
षा कर्मशत्रून प्रति तपः-अनशनाद्यस्येति उप्रतपाः, अत विकारः, चः समुच्चये, एवेति पूरणे. समागताः-सम्प्राप्ता
एव महान्-प्रशस्यो विशिष्टवीर्योल्लासत आत्मा अस्येति मिलिता या तमृषि-मुनि ताडयन्ति-ब्रन्ति , सर्वत्र वर्त
महात्मा, जितेन्द्रियः संयतो ब्रह्मचारी च प्रामाननिर्देशः प्राग्वत् इति सूत्रार्थः। .
ग्वत् , स इति, क ? इत्याह-यो 'मि ' सि मां सदा-त
स्मिन् विवक्षितसमये नेच्छति-नाभिलपति-दीयमाना अस्मिश्वावसरे
निसृज्यमानां , केन ? पित्रा-जनकेन स्वयम्-प्रात्मना, - रमो तहिं कोसलियस्स धूया,
न तु प्रधानप्रेषणा , तेनापि कीदृशा ? कौशलिकेन भद्द त्ति नामेण प्रणिंदियंगी।
राक्षा. न वितरजनसाधारणेन, तदनेन विभूतावपि निःस्पृतं पासिया संजय हम्ममाणं ।
हत्वमुक्तं , पुनस्तन्माहात्म्यमाह-महायसा-अपरिमित- कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ ॥ २०॥
कीर्तिः एष-प्रत्यक्षो मुनिमहानुभागः अतिशयाचित्य
शक्तिः, पाठान्तरतो महानुभावो वा, तत्र चानुभावः शाराहो-नृपतेस्तत्र-यावाटे कोशलायो भवः कौशलि
पानुग्रहसामर्थ्य , घोरव्रतो घृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः-घोकस्तस्य • घूय'ति दुहिता भद्रेति नाना-अभिधानेन
रपराक्रमश्व-कषायादिजयं प्रति रौद्रसामयों , यतोऽयमीअनिन्दितानी-कल्याणशरीरा तं-हरिकेशवलं • पा- रकततः किमित्याह 'मा' इति निषेधे एम-यतिं हीसिय' तिरष्टा 'सञ्जय'ति संयतं तस्यामप्यवस्थायां लयत-अवधूतं पश्यत अहीलनीयम्-अवज्ञातुमनुचिर्त, हिंसादेः सम्यगुपरतं हन्यमानं दण्डादिभिस्ताज्यमान किमित्यत आह-मा सर्धान् समस्तांस्तेजसा तपोमाकुलान् कोपवतः कुमारान् उकरूपान् परिनिर्वा- हात्म्येन 'भे' भवतो निर्धाक्षीद-भस्मसात्कार्षीद, अयं पयति-कोपाग्निविध्यापनात् समन्तात् शीतीकरोति-उप- हि हीलितो यदि कदाचिनुष्येत्तदा सर्वे भस्मसादेव कुर्याशमयतीति यावदिति सूत्रार्थः ।
दिति भाव इति सूत्रत्रयार्थः। साच तान् परिनिर्वापयन्ती तस्य माहा
अत्रान्तरे मा भूतस्या वचनं मृषेति यद्यक्षः . त्म्यमतिनिःस्पृहतां चाह
कृतवांस्तदाहदेवाभिभोगेण निमोइएणं,
एयाइँ तीसे वयणाई सुच्चा, दिना म रक्षा मणसा न झाया ।
पत्तीइ भत्ताइ सुभासियाई । नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं,
इसिस्स वेयावडियट्टयाए, जेणामि वंता इसिणा स एसो ॥ २१ ॥
जक्खा कुमारे विणिवारयति ॥२४॥ एसो हु सो उग्गतबो महप्पा,
ते घोररूवा ठिम अंतलिक्खे, जिइंदिभो संजमो भयारी ।
असुरा तहिं तं जण तालयति । . जो मे तया निच्छा दिजमाणी,
ते भिमदेहे रुहिरं वमंते, पिउणा सयं कोसलिएण रमा ॥२२॥
पासित्तु भत्ता इणमाहु भुजो ॥२५॥ महाजसो एस महाणुभागो,
एतानि-मनन्तरोनानि तस्याः-अनन्तरोकायाः पोरब्वभो घोरपरकमो य ।
बनानि-भाषितानि श्रुत्था-निशम्य परम्या:-यहवाट
काधिपतेः सोमदेवपुरोहितस्य, तस्यैव वा मुनेरिति गम्यमा एयं हीलह महीलणिजं,
ते, भद्राया-भद्राभिधानायाः सुभाषितानि-सूक्रानि वमा सव्वे तेएणभे निदहिजा ॥ २३ ॥ बनानीति योज्यते, ऋषेः-सस्यैव तपस्विनः घेयावधिदेवस्य अमरस्याभियोगो बलात्कारो देवाभियोगस्तेन | यट्टयाए 'त्ति सूत्रत्वाद्वैयावृस्यार्थमेतत् प्रत्यनीकमिषारणलमियोजितेन-व्यापारितेन न स्वप्रियेति कृत्वा विममु' क्षण प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमथै यक्षाः , यक्षपरिषाति दत्ताऽस्मि, अहं यस्मै इति गम्यते, दत्ता चकेन ? रा- रस्य बहुत्वात् बहुवचनं, कुमारान् प्रक्रमात्तानेवोपहन्तन हा प्रक्रमास्कोशलिकेन,तथापि मणस' जिभपेर्गम्यमा- विनिपातयन्ति-विविधं नितरां पातयन्ति-भूमौ विलोनस्यान्मनसाऽपि चित्तेनापि न ध्याना-न चिन्तिता ना- लयन्ति, पठयते च-विणिवारयति 'त्ति विशेषेणोपहर्ति भिलषितेति यावत् , प्रक्रमादेतेन मुनिना, कीहशेन ? नरे- कुर्वतो निराकुर्चम्ति , तथा 'ते' इति यक्षाः घोररूपा
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(१९८५) हरिएस अभिधानराजेन्द्र:।
हरिएस रौद्राकारधारिणः 'ठिय' त्ति स्थिताः अन्तरिक्षे-आकाशे | चास्माकं शरणमिति प्रपद्यध्वं , समागताः-सम्मिलिताः असुरा-आसुरभावान्वितत्वात् त एव यक्षाः तस्मिन्-य- सर्वजनेन-समस्तलोकेन , सहाथै तृतीया , यूयं-भवजबाटे तम्-उपसर्गकारिणं जनं--छात्रलोकं ताडयन्ति- तो. यदीच्छत-अभिलषत जीवितं-प्राणधारणात्मकंधमन्ति. ततस्तान् कुमारान् भिन्ना-विदारिताः प्रक्रमाद्यक्षप- नं वा द्रव्यं. न तस्मिन् कुपिते जीवितव्याविरक्षाक्षममन्यच्छ हारैदेहाः-शरीराणि येषां ते भिन्नदेहास्तान् रुधिरं-शोणितं । रणमस्ति, किमित्येवमत प्राइ-लोकमपि-भुवनमप्येष कुपिचमतः- उद्विरतः 'पासित्त'त्ति दृष्टा 'भद्रा' सेव कौशलिक- तः-क्रुद्धो 'दहेद्' भस्मसात्कुर्यात् , तथा च वाचक:-"कल्पा. राजहिता इदं-वक्ष्यमाणम् 'पाहु' ति वचनव्यत्ययेन न्तोमानलवत्प्रज्वलनं तेजसैकतस्तेषाम्" तथा लौकिकामपाह-ब्रूते भूयः-पुनरिति सूत्रद्वयार्थः ।
प्याहु:-" न तत् दूरं यदश्वेषु, यवाग्नी यच मारुते। विष किं तदित्याह
च रुधिरप्राप्ते, साधौ च कृतनिश्चये ॥१॥" इति सूत्रत्रयायः। गिरि नहेहिं खणह, भयं दंतेहि खायह ।
सम्प्रति तत्पतिस्तान् यारशान् ददर्श रष्ट्रा
वयवचेष्टत तदाहजायतेयं पायेहि हणह, जे भिक्खं भवममा ॥२६॥
अवहेडियपिद्रिसउत्तमंगे, पसारियाबाहुभकम्मचिट्ठे । पासीविसो उग्गतवो महेसी,
निम्भेरियच्छे रुहिरं वमते,उडमहे निग्गयजीहनिते।।२।। घोरबनो घोरपरकमो य ।
ते पासिया खडियकट्ठभूप, अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा ,
विमणो विन्नसो अह माहणो सो। जे भिक्खं भत्तकाले वहेह ॥ २७ ॥
इसिं पसाएइ सभारियायो, सीसेण एवं सरणं उवेह ,
हीलं च निंदं च खमाह भंते ! ॥३०॥ समागया सव्वजणेण तुम्हे ।
'अवे' ति अधो 'हेडिय' ति हेठितानि-बाधितानि' किमुलं जइ इच्छह जीवियं वा धणं वा ,
भवति?-अधोनामितानि, पठन्ति च-'प्रायडिए' ति लोगं पि एसो कुवित्रो डहिजा ॥ २८॥ तत्र सूत्रत्वादवकोटितानि अधस्तादामोटितानि, 'पट्टि' गिरि-पळतं नखैः-कररुहैः खनथ-विदारयथ इह च ति पृष्ठं यावत् तदभिमुखं वा सन्ति शोभनान्युक्तमानानिमुख्यखननक्रियाद्यसम्भवादिवचनमन्तरेणाप्युपमाों गम्यते येषां ते अवहेठितपृष्ठसदुत्तमाङ्गाः अवकोटितपृष्ठसतुत्तततश्च खनथेव खनथ , अयो-लोहं दन्तैः-दशनैः माझा वा प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासस्तान् , ' पसारियाखादथेव खादथ, जाततेजसम् अग्निं पादैः-चरणई थेव ह- बाहु अकम्मचिट्ट 'त्ति प्रसारिता विरलीकृता बाहयो भुजा था ताड्यथेत्यर्थः , ये वयं किं कुर्मः इत्याह-ये यूयं भिचुं
थैर्येक धा ते तथा, ततस्ते च ते अकर्मचेष्टाश्च अविचमाप्रक्रमादेनम् , 'अवमन्त्रह ति अवमन्यध्वे-अवधीरयथ,अन
नकर्महेतुव्यापारतया प्रसारितयाहुकर्मचेष्टास्तान , यहाफलस्यात् भिच्चपमानस्येति भावः, कमिदमित्याह-प्रा. क्रियन्त इति कर्माणि-अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया स्यो-दंष्ट्रास्तासुविषमस्येत्यासीविषः आसीविषलब्धिमान् । चेष्टा कर्मचष्टेच गृह्यते, 'निम्भरिय' त्ति प्रसारिताम्यक्षीशिशापानुग्रहसमर्थ इत्यर्थः, यद्वा-प्रासीविष इव आसीविषः, लोचनानि येषां ते तथोक्लास्तान् , रुधिरं चमतः-उद्भिरता यथा हि-तमत्यन्तमवजानानो मृत्युमेवामोति, एवमेनमपि 'उमुह ' ति ऊर्ध्वमुखान्-उन्मुखीभूतवक्त्रान् अत एवं मुनिमवमन्यमानानामवश्यं भावि मरणमित्याशयः, कुतः पु
निर्गतानि-निःसृतानि जिवाश्च प्रतीता नेत्राणि च-नयनामरयमेवंविधा ? , यतः-उग्रतपाः प्राग्वत् , 'महेसि' त्तिम
नि जिहानत्राणि येषां ते तथा तान् , ' तान्' इत्युक्तरूपान् हान्-पहन शेषस्वर्गाचपेक्षया मोक्षस्तमिच्छति-अभिलप- रष्टा-अवलोक्य 'खंडिय' त्ति आर्षत्वान्सुपो लुकि खरितीति महदषी महर्पि, घोरवतो घोरपराक्रमच पूर्ववत्, कान्-छात्रान् काष्ठभूनान्-अत्यन्तनिश्चेष्टतया काष्ठोपमान् यतश्चयमतः 'अगणिव' ति अग्नि-ज्वलनं, वाशद वा
विगतमिव बिगतं मन:-चित्तमस्येति विमनाः, विषाण:थों, भिन्नमश्च । ततः 'पक्खंद'त्ति प्रस्कन्दथेव-श्राकाम
कथममी प्रचणीभविष्यन्तीति चिन्तया व्याकुलितः 'प्रथे'ति ब, केय ?-"पतंगसण' त्ति उपमार्थस्य गम्यमानत्वात्प- दर्शनानन्तरं ब्राह्मणा-द्विजातिः 'स' इति सोमदेवनामा तहाना--शलभाना सेनेव सेना-महती सन्ततिः पतनसेना भूषि-तमेव हरिकेशबलनामानं मुनि प्रसादयति-प्रसति सद्वत् , तथा हि-असो तत्र निपतत्याशु घातमामोत्येवं भ. प्राहयति, सह भार्यया-परश्या तयैव भद्राभिधानया वर्तते बन्तीपीति भावः, ये यूयमनुकम्पितं भिक्षु-भियुकं भक्त- इति सभार्यकः, कथमित्याह-हीलां च अवशां निन्दा च दोकाले-भोजनसमये, तत्र दीनादेरवश्य देयमिति शिसमयो पोबहन स्वमाह' त्ति क्षमस्व-सहस्य 'भंते' ति सूत्रद्वयार्थः। यूयं तु न केवलं न यच्छत; किन्तु-तत्रापि 'वह' त्ति विध्य
पुनः स प्रसादनामेबाहथ-ताड्यथ, अयमाशयो-यतोऽयमासीविषादिविशेषणा
बालेहि मूदेहि भयाणएहिं, वितो मुनिरतो गिरिनखखननादिधायमेव यदेनं भक्नकालेऽपि भक्कानिमित्थं विध्यथ । अथ स्वकृत्योपदेशमाह-शी
जं हीलिया तस्स खमाह भंते ।। बेण-शिरसा एनं-मुनि शरणार्थ-रक्षणार्थमाश्रयमुपेत
महप्पसाया इसिणो हवंति, अभ्युपगच्छन, किमुक्नं भवति-शिरःप्रणामपूर्वकमयमे । न हु(ह) मुणी कोवपरा हवंति ॥ ३१ ॥
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हरिएस अभिधानराजेन्द्रः।
हरिएस वालैः-शिशुभिर्मू-कषायमोहनीयोदयाद्विचित्ततां गतः अत एव चाः-हिताहितविवेकविकलैः 'यद्रि' त्युपप्रदर्शने. अञ्चेमु ते महाभागा!, न ते किंचन नाश्चिमो। हीलिता:-अवज्ञानाः तस्स' ति सूत्रत्वात् तत् 'खमाह'
मुंजाहि सालिम कूर,नाणावंजणसंजुयं ॥ ३४ ॥ तसमध्वं भदन्त !, अनेनैतदाह-यतोऽमी शिशयो मूढा अज्ञानाश्च तत्किमेषामुपरि कोपेन ?; यतोऽनुकम्पनीया एवा
अर्चयामः-पूजयामः 'ते'--तब सम्बन्धि सर्व्यमपीति मी. उक्तं च केनचिद्-"आत्महममर्यादं , मूढमुज्झितसत्प
गम्यते, प्रविश पिण्डिमित्युक्ते यथा गृहमिति भक्षयति च । थम् । सुतरामनुकम्पेत, नरकार्चिष्मदिन्धनम् ॥१॥" महाभाग! अतिशयाचिन्त्यनियुक्त्यनेति, नैव 'ते' तव किं च-महान् प्रसादः-चित्तप्रसत्तिरूपी येषां ते म
किश्चिदिति चरणरएवादिकमपि नार्थयामो-म पूजयामः, अहाप्रसादा ऋषयः-साधवो भवन्ति , व्यतिरेकमाह-'न
पि तु सर्वमयामः, अस्य च पूघेणैव गतार्थत्ये पुनरभिधाहु' ति न पुनर्मुनयो-यतयः कोपपरा:-क्रोधवशगा
नमम्बयव्यतिरकाभ्यामुक्तोऽर्थः सुस्वायगमो भवतीति कृत्या। भवन्ति, भिन्नवाक्यत्वाच्च मुनिग्रहणमदुष्टमेवेति सूत्रार्थः ।
प्रथया अर्थयामस्ते इति सुव्यत्ययात्वाम् , अनेन स्वतस्तस्य मुनिगह
पूज्यत्वमुक्तम् , उत्तरेण तु तत्स्वामित्वमपि पूज्यताहेतुरिति, पुब्धि च इम्हि च अणागयं च,
तथा भुलेतो गृहीस्वेति गम्यते 'सालिमं ' ति शालिमयं
कोऽर्थः ?--शालिनिष्पन्नं कूरम्--श्रोदनं नानाध्यजनैः-भनेमणप्पश्रोसोन में अस्थि कोई।
कप्रकारैर्दध्यादिभिः संयुनं--सम्मिश्रं नामाध्यञ्जनसंयुतं ,न अक्खा हु वेयावडियं करिति,
त्वेकमेवेति सूत्रार्थः । तम्हा हु एए निहया कुमारा ॥ ३२ ॥
अन्यथ-- 'पुटिव च' ति पूर्व च पुग इदानी च-अस्मिन् काले इगं च मे अस्थि पभूयमन्नं, 'अणागयं चे' ति अनागते च भविष्यकाले मनःप्रद्वेषःचित्तानुशयलक्षणो न 'मे' ममास्तीत्युपलक्षणवादासी
तं भुजसू अम्ह अणुग्गहट्ठा। द्रविष्यति च, कोऽपी' त्यल्पोऽपि, दहच भाविनि प्रमा
बादति पडिच्छई भत्तपाणं, णाभावेऽपि 'अनागतं प्रत्याचक्षे' इति वचनादनागतस्या
मासस्स ऊ पारणए महप्पा ॥ ३५ ॥ फितस्य निषिद्धत्वाच्छतज्ञानबलतः कालश्यपरिज्ञानसम्भ- 'इदंच' प्रत्यक्षत एच रिदृश्यमानं 'मे' ममास्ति--विद्यथान्चैवमभिधानम् , पठन्ति च-पुब्बि च पच्छा व तहेय ते प्रभूतं-प्रचुरम-मण्डकखण्डखाद्यादि समस्तमपि भोमज्झे' तत्र च पूर्व वा पश्चाद्वेति विहेठनकालापेक्षं तथैव जन, यत्प्राक् पृथगोदनग्रहणं तनम्य सर्वोत्रप्रधानत्वख्यापमध्ये विहेठनकाल एव, न च कुमागवहेठनादिदर्शनात्प्र- मार्थ, तद्भुलास्माकमनुग्रहार्थ-वयमनुगृहीता भवाम इति स्यक्षविरुद्धता शङ्कनीया , यक्षा-देवविशेषा 'हु' गित हेतोः। एवं च तनोक्ने मुनिराह--'याढम् ' एवं कुर्म इतीत्येयस्माद्वैयावृत्त्यं प्रत्यनीकप्रतिघातरूपं कुर्वन्ति-विदधति , धं ब्रुधाण इति शेषः , प्रतीच्छति-द्रव्यादितः शुद्धमिति - 'तम्ह' सि तस्मात् हुरवधारणे, ततस्तस्मादेय हेतोरेते- काति, भक्तपानमुक्तरूपं. 'मासस्स उ' ति मासादेय, यद्वापुरोतिनो नितरां हताः-ताडिता' कुमाराः, न तु मम अन्त इत्यध्याहियते . ततश्च मासस्यैवान्ते यापार्यते-पर्यन्तः मनःप्रद्वेषोऽत्र हेतुरिति भाव इति सूत्रार्थः ।
क्रियते गृहीतनियमस्यानेति पारणं तदेव पारणक, भोजन - सम्पति तणाकृष्टचेतस उपाध्यायप्रमुखा इदमाहुः- मित्युक्तं भवति, तस्मिन्--तशिमित्तं , ' निमित्ताकर्मयोगे प्रत्थं च धम्मं च वियाणमाणा ,
सप्तमीति' (पा०२-३-३६ वार्तिकम् ) सप्तमी , महात्मेतुम्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना ।
ति प्राग्बत् इति सूत्रार्थः ।
सदा च तत्र यदभूतदाह-- तुभं तु पाए सरणं उवेमा, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥
तहियं गंधोदयपुष्फवासं. दिव्या तहिं वसुहारा य वुड्डा। श्रर्यत इत्यों-शयत्वात्सर्वमेव वस्तु, इह तु प्रक्रमाच्छु
पहया दंदहीओ सुरेहिं ,पागासे अहो दाणं च घुटुं॥३६॥ भाशुभकर्मविभागा रागद्वेषविपाको या परिगृह्यते, यदा
'तहियं तितम्मिन् मुनौ भक्तपानं प्रतीच्छति यज्ञबाटे या अर्थ:-अभिधेयः स चाच्छिाखाणामय तं. चशस्त- गन्ध--श्रामादस्पत्प्रधानमुदक--जल गम्धोदकं तच पुष्पाणि दतानेकभदसंसूचकः, धर्मः-सदाचारी दशयिधो वा य
च--कुसुमानि तेषां वर्ष--वर्षणं गन्धोदकपुष्पवर्ष; सुरैरिति तिधर्मस्तं च 'बियाणमारण' ति विशेषण विविध या सम्बन्धात् कृतमिति गम्पते,दिव्या-श्रेष्ठा, यदिया-दियि-गजानन्तः-अवगच्छन्तो यूयं नापि-नैव कुप्यथ-क्रोधं
गने भया दिव्या 'तहिं' ति तस्मिन्नेव नाम्यत्र, अनेन कथकुरुध्वं, भूतिप्रज्ञा इति, भूनिर्मजलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धाः, मियताकत्र कल्याणानां मीलक इत्यन्यत्रैवान्यतरस्कल्याण. प्रज्ञायते ऽनया वस्तुनस्वमिति प्रज्ञा, ततश्च भूतिः-माल न्तरं भविष्यतीत्याशङ्का निराकृता। वसु-द्रव्यं तस्य धारासर्वमङ्गलोत्तमत्वेन वृद्धिा वृद्धिविशिष्टत्वन रक्षा या प्रा-] सततपातजनिता सन्ततिर्वसुधारा सा च वृष्टे ति पातिणिरक्षकत्वेन प्रशा-बुद्धिरस्यति भूतिप्रक्षः, अतश्च 'तुम्नं ता 'सुररित्यत्रापि सम्बध्यते "तथा प्रकर्षेण हताः-ताडिताः तु 'त्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् युष्माकमेव पादी-चरगी। प्रहताः, के ते?'दुन्दुभया' देवानकाः , उपलक्षणत्वाच्छेशरणमुपमः-उपगच्छामः समागताः-मिलिताः, केन मह?- षातोद्यानि च। कैः-सुरै:-देवा, तथा रेष भाकाशेसर्वजनेम, अयमिति सूत्राधः ।
मभास'महो' इति विस्मये, विस्मयनीयमिदं दान, को
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(१९६१) हरिएस अभिधानराजेन्द्रः।
हरिएम म्यः किलैवं शक्नोति दातुम् ? , एवं दत्तं सुदत्तमिति च धुएं- प्राचमनादिषु पगमृशन्तः 'पाणाई' नि प्राणयोगात् प्रासंशब्दितमिति सूत्रार्थः ।
हिनो, यद्वा-प्रकर्षेणानन्तीति वसन्तीति प्राणाः द्वीन्द्रितेऽपि ब्राह्मणा विस्मितमनस दमाहुः--
यादयः, सम्भवन्ति हि जले पूतरकादिरूपास्त इति, 'भूसक्खं खु दीसइ तनोविसेसो ,
याई' इति भूनाम्-नन् 'भूताश्च तरयः स्मृता 'इतिव न दीसई जाइविसेसो कोई ।
चनात् , पृथिव्यायेकेन्द्रियोपलक्षणं चैतत् बिहेडयंति' सि
विहेटयन्तो-विशेषेण विविधं या बोधमानाः बिनाशयम्न सोवागपुतं हरिएससाई,
पत्यर्थः, किमित्याह-भूयोऽपि-पुनरपि . न केवलं पुरा जस्सेरिसा इङ्किमहाणुभागा ।। ३७ ॥ किन्तु विशुद्धिकालेऽपि जलानलादिजीवोपमईतो मम्दाःसाक्षात्-प्रत्यक्ष 'खु' रिति निश्चितं अनधारण या ततः जडाः प्रकुरुथ-प्रकर्षेणोपचिनुथ यूयं , किं तत् ?-पापसाक्षादेय दृश्यते-अवलोक्यते, कोऽसौ ?-तपो-लोक- | म्-अशुभकर्म, अयमाशयः-कुशला हि कर्ममलविलया. प्रसिद्धया ब्रतमुपवासादिर्वा तस्य विशेषे-विशिष्टत्वमाहा. त्मिका तात्त्विकीमेव शुद्धि मन्यन्ते, भवदभिमतयागनाने स्म्यमिति यावत्तपोधिशेषो, 'न' नैव दृश्यते जातिविशेषो- च यपादिपारे ग्रहजलस्पर्शाविनाभावियेन भूतोपमईहेतुतजानिमाहात्म्यलक्षणः , कोपी' ति स्वल्पोऽपि, किमि- या प्रत्युत कर्ममलोपचयनिबन्धने पवेति नातः तत्सम्भवस्येवमत आह-यतः स्वपाकपुत्रः-चाण्डालसुनो हरि- इति कथं तजेतुकशुद्धिमार्गणं सुष्टते यदेयुः ?, तथा च केशश्वासौ मातअत्यन प्रसिद्धत्वात् साधुश्च यतित्वाद्धरिके- चाचक:-"शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्या, भावसुद्धधात्मकं शुशसाधुः पठ्यते च-'सोवागपुतं हरिएससाहुं ' ति पत्र भम् । जलादिशौचं यत्रेएं, मूढविस्मापकं हि तत् ॥ १." च पश्यतति शपः,कदाचिदन्य एव कश्चिदत आह-यस्ये- इति सूत्रार्थः। रशी-दृश्यमानरूपा ऋद्धिः--देवसन्निधानात्मिका सम्पत् इत्थं तद्वचनतः समुत्पन्नशङ्कास्ते यागं प्रति तावदवं महानुभागा सातिशयमाहात्म्या, जातिविशेष हि सति
पप्रच्छुःसर्वोत्तमत्वाद् ब्राह्मणजातेस्तद्वतामस्माकमेव देवा वैयावृस्य कहं चरे भिक्खु ! वयं यजामो ?, कुयुरिति भाव इति सूत्रार्थः ।
पावाइँ कम्माइँ पणुल्लयामो । साम्प्रतं स एव मुनिस्तापशान्तमिथ्यात्वमोहनीयांदया
अक्खाहि णे संजय जक्खपूइभा, निव पश्यन्निदमाह
कहं सुइदं कुसला वयंति १॥ ४० ॥ किं माहणा ! जोइसमारभंता,
कथं-केन प्रकारेण चरि'त्ति “ विभाषा कमि लिङ्ग उदएण सोहि बहिया विमग्गहा ।
च" इति ( पा० ३-३-१४३ ) लिङि वचनव्यत्यजं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं,
याचरेमहि-यागार्थ प्रयतैमहि, हे भिक्षा ! मुन ! वयमित्यान तं सुदि₹ कुसला वयंति ॥३८॥
स्मनिर्देशः , तथा यजामो-यागं कुर्मः , कथमिति योगः?"
पापानि अशुभानि कर्माणि पुरोपविताऽविद्यारूपाणि.'प'कि' मिति क्षेपे, ततो न युक्तमिदं, यत् माहना-बा.
गुल्लयामा' त्ति प्रणुदामः-प्रेरयामो येनेति गम्यते, माख्याहाणा ज्योतिः-अनि समारभमाणाः-प्रस्तावाद् यागकरणतः प्रवर्त्तमानाः; यागं कुर्चन्त इत्यर्थः , उदकेन ज
हि-कथय न:-अस्माकं संयतः-पारस्थानेभ्यः सम्यलेन सोहि' ति शुद्धि निर्मलतां 'बहिय 'त्ति बाह्यां, को
गुपरतः यक्षपूजित ! यक्षार्चित !, किमुक्तं भवति ?-यो
ह्यस्मद्विदितः कर्मप्रणोदनोगायत्वेन यागः स युप्माभिईऽर्थों ? बाह्यहेतुका, यागं हि समारभमाणेजलेन या शु
पित इति भवन्त एवापरं यांगमुपदिशन्तु, कदाचिदविशिष्टद्धिार्यते तत्र यागनाने एव तत्वतो हेतुत्येने , तेच
मेव यजनमुपदिशदित्याशङ्कयाह-कथं-केन प्रकारेण स्विर्गभयदभिमते यावे एवेति विमार्गयथ-विशेषेणान्येषयथ ,
शोभनं यजनं कुशला-उक्तरूपा वदन्ति-प्रतिपादयन्ति, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-यय मार्गयथ बाह्यां-बाह्यदे
नतं ' सुदिटुं कुसला ययंति' ति कुशलमुखेनैव मुनिनासुको विशुद्धिं, न तत् सुदृष्टं सुष्टु प्रेक्षितं कुशलाः
दृषितमिति तैरपि पृष्टमिति सूत्रार्थः । तत्त्वविचारं प्रति निपुणा वदन्ति-प्रतिपादयन्तीति
मुनिराहसूत्रार्थः।
छजीवकाए असमारभंता, यथा चैतत् सुष्टं न भवति तथा स्वत वाहकुसं च जूवं तणकट्ठमारंग,
मोसं अदत्तं च अमेवमाणा।
परिग्गई इथिउ माण मायं, सायं च पायं उदयं फुसंता।
एयं परित्राय चरंति देता ॥४१॥ पाणाइँ भूयाइँ विहेडयंता,
षड्जीवकायान्-पृथिव्यादीन् 'असमारभमागा' अनुपमभुजोऽवि मंदा! पकरेह पावं ॥ ३६ ।।
ईयन्तः 'मोसं' ति मृषा अलीकभाषणम् - अदर्स चेकुशं च-दर्भ च यूप-प्रतीतमेव तवं च-बीरणादि स्यदत्तादानं चानासेवमाना:-अनाचरन्तः परिग्रहं भूछों काष्ठं-समिदादि तृणकाष्ठम् अनि प्रतीतं सर्वत्र परिगृ खियो-योषितो 'माण' ति मानम्-अहङ्कारं मायां परवइन्त इति शेषः सायं-सध्यायां, चशब्दो भिन्नमस्त- श्वनात्मिकां तत्सहचारित्वात्कोपलोभौच, एतद-अनन्ततपायं' ति प्रातच प्रभाते उदकं-जलं स्पृशन्ता- रो परिप्रहादि परिवाय-परिक्षया सर्वप्रकारं ज्ञात्वा
पा
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हरिएस अभिधानराजेन्द्रः।
हरिएस प्रत्याख्यानपरिक्षया च प्रत्याख्याय 'चरेज दन्त' ति बच
जोगा सुया सरीरं करीसंऽगं । मव्यत्ययाचरेयुर्यागे प्रवर्तेरन् , भवन्त इति गम्यते । पठन्ति
कम्म एहा संजमजोग संती, च-चरन्ति वंत' ति अत्र च यत एवं दान्ताश्चरम्स्यतो
होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ।। ४४॥ भर्वादरप्येचं चरितव्यमिति भाव इति सूत्रार्थः । प्रथमप्रश्नप्रतिवचनमुक्तं. शेषप्रश्नप्रतिवचनमाह
सपो-बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्न ज्योतिः-अमिः, यथा हिसुसंवुडा पंचहि संवरेहि,
ज्योतिरिन्धनानि भस्मीकरोत्येवं तपोऽपि भावेन्धमानि
कर्माणि , जीवो-जन्तुज्योतिः स्थान-तपोज्योतिषस्तवाश्रइह जीवियं अणवकंखमाणो।
यत्वात् , युज्यन्ते-सम्बध्यन्ते स्थकर्मणेति योगाः-मनोबोसट्ठकाभो सुइचत्तदेहो,
थाकायाः भुवः, ते हि शुभव्यापाराः हस्थानीयाः, तपा__ महाजयं जयई जनसिटुं ॥ ४२ ॥
ज्योतिषो ज्वलनहेतुभूताः तत्र संस्थाप्यन्त इति, शरीरं-कसुख संवृतः-स्थगितसमस्तानवद्वारः सुसंवृतः कः ?- रीषा, तनैव हि तपोज्योतिरुद्दीप्यते,तद्भायभावित्यासस्य, पञ्चभिः-पसंख्यैः संघरैः-प्राणातिपातयिरत्यादिवतः 'हे' कर्म-उतरूपम् पधास्तस्यैव तपसा भस्मीभायनयनात्, स्थस्मिन् मनुष्यजन्मनि, उपलक्षणत्वात्परत्र च जीवितं- 'संजमजोग ' त्ति संयमयोगाः-संयमव्यापाराः शान्तिः प्रस्तावादसंयमजीवितम् अनवकान्-अनिच्छन् , यद्वा- सर्वप्राण्युपद्रवापहारित्वात्तेषां, तथा' होम ' ति होमेन भगम्यमानस्वाज्जीवितमपि-अायुरप्यास्तामन्यनादि , शुद्दीति तपोज्योतिरिति गम्यत,ऋषीणां-मुनीनां सम्बन्धिअनवकान् यत्र हि व्रतबाधा तत्रासौ जीवितमपि न मा 'पसत्य' ति प्रशस्तेन जीवोपघातरहितत्वेन विवेकिभिः गणयति, अत एव व्युत्सृष्टो-विविधैरूपायैर्विशेषेण या लाघितेन सम्यकचारित्रेणेति भावः । अनेन च कतरेण होमे. परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः--त्यनः--कायःश- न जुहोषि ज्योतिरिति प्रत्युक्नमिति सूत्रार्थः । तदेतेन 'किं रीरमनेनेति व्युत्सृएकायः, शुचिः-अकलुपव्रतः स चासो माद्दना जोइसमारहंता' इत्यादिना लोकप्रसिद्धयज्ञानां स्नात्यनदेहश्च अत्यन्तनिष्प्रतिकर्मतया शुचिल्यनदेहः , महान् नस्य च निषिद्धत्वाद्यवस्वरूप तैः पृष्ठं कथितं च मुनिना । जयः कर्मशत्रुपराभवनलक्षणो यस्मिन् यज्ञश्रेष्ठऽसौ महा
इदानी स्नानस्वरूपं पिपृच्छिषव इदमाहुःजयस्तं, क्रियाविशेषणं वा महाजयं यथा भवत्येवं यजते
के ते हरए के य ते संतितित्थे, यतिरिति गम्यते,ततो भवन्तोऽप्येवमेव यजन्तामिति भावः' तिवचनव्यत्ययेन या · जय 'त्ति यजता, कमि
कहंसि एहारो व रयं जहासि। स्याह-'जरणसिटुं' ति प्राकृतत्वाच्छैष्ठयकं , श्रेष्ठबचनेन मायक्ख णे संजय ! जक्खपूइया,! चैतद्यजन एव स्विष्टं कुशला वदन्ति , एष एव च कर्मप्र.
इच्छामु नाउं भवो सगासे ॥४५॥ णोदनोपाय इत्युक्तं भवतीति सूधार्थः ।
कस्ते-तव इदः-नदः ?, 'के य ते संतितित्थे' त्ति किंच यदीराणः श्रेष्ठयक्षं यजते अतस्त्वमपीटग्गुण एव,तथा च ते-तब शान्त्यै-पायोपशमननिमित्तं तीर्थ-पुण्यक्षेत्रतं यजमानस्य कान्युपकरणानि को वा पजनर्वािधरित्यभि
शान्तितीर्थम् , अथवा-'कानि च' किंरूपाणि 'ते' तव सप्रायेण त एयमाहुः--
न्ति-विद्यन्ते तीर्थानि-संसारोदधितरणोपायभूतानि.लो. के ते जोई के व ते जोइठाण ?,
कप्रसिद्धतीर्थानि हि त्वया निषिद्धानीति, तथा च-क्रका ते सूया किं च ते कारिसंऽगं ।
हिसि एहाओ वे' ति बाशब्दस्य भिन्नमत्वात्कस्मिन् वा एहा य ते कयरा संति भिक्खू ,
नातः-शुचिर्भूतो रज इव रजः-कर्म जहासि-त्यजसि. कयरेण होमेण हुणासि जोई ? ॥ ४३ ॥ स्वं?, गम्भीराभिप्रायो हि भयांस्तत् किमस्माकमिव भवतो किम् , अयमर्थः-किरूपं ते--तव 'ज्योति' रिति अग्निः 'के ऽपि हदतीर्थ एव शुद्धिस्थानमन्यद्वेति न वि इति भावःबते जोइठाण'त्ति किंचा ते-तव ज्योतिःस्थान यत्र यो- भाचक्ष्व--व्यक्तं वद संयत! यक्षपूजित !इच्छामः--- तिनिधीयते, का श्रुयो ?--घृतादिप्रक्षेपिका दर्व्यः, किं च | भिलषामो सातुम्--अवगन्तुं भवतः--तष सकाशे-- त्ति किंवा करीषः--प्रतीतः स पवाङ्गम्-अग्न्युहीपनका
समीपे इति सूत्रार्थः। रण करीया येनासौ सन्धुक्ष्यते , एधाश्च-समिधो यका
मुनिराह-- भिरग्निः प्रज्याल्यते ,ते--तय कतरा इति-का ? 'संति-'त्ति धम्मे हरए मे संतितित्थे, चस्य गम्यमानत्याच्छान्तिश्च-दुरितोपशमनहेतुरध्ययनप
प्रणाविले अत्तपसनलेसे । द्धतिः कतरेति प्रक्रमः, "भिक्खु' इति भिक्षा ! कतरेण हो
जहि सि एहाश्रो विमलो विसुद्धो, मेन--हवनविधिना, समेन धावतीस्थादिवत् तृतीया जुहोपि-आहुतिभिः प्रीणसि, किं ?--ज्योतिः--अग्निम् पदजी. ___ सुसीइभूयो पजहामि दोसं ॥ ४६॥ अनिकायसमारम्भनिषेधन ह्यस्मदभिमतो होमः तदुपक- एयं सिणाणं कुसलेण दिहुँ, पणानि च पूर्व निपिडानीति कथं भवतो यजनसम्भवः ?
__ महासिणाणं इसिणं पसत्थं । इति सूत्रार्थः। मुनिराह--
जहिं सि एहाया विमला विसुद्धा, ...तयो जोई जीवो जोइठाणं, .....
__. महारिसी उत्तम ठाणे पति ॥४७॥
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हरिएस
अभिधानराजेन्द्रः। धम्मः-अहिंसाद्यात्मको हद:--कर्मरजोऽपहन्तृत्वाद ब्रह्म- गामे तं चेइयं । भज्झं पविसित्ता भग्गा भगवी पासनाहपति-ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ,तदासेवनेन हि सकलमलमूलं रा- | डिमा। तं च गाम उवद्दवित्ता चलिश्रो सट्टाणं पर मल्लारो । गद्वेषान्मूलितावेव भवतः, तदुन्मूलनाश्च न कदाचिन्मलस्य पुणो बसिनो गामो समागया गुट्टियसावया. भगवंतं भग्गं सम्भवाऽस्ति, सत्याधुपलक्षणं चैतत् , तथा चाऽऽह-"ब्रह्म
नं निरूवित्ता परुप्पर भणियोऽहिवती अहो ! भगवा चर्येण सत्येन, तपसा संयमेन च । मातङ्गर्पिर्गतः शुद्धि, न
महामहप्पस्सावि कह नाम भंगो विहिश्रो चिलापहि, कत्थ शुद्धिस्तीर्थयात्रया ॥१॥" अथवा-'ब्रह्म' ति ब्रह्मचर्यवन्तो पुण सा भगवो तारिसी कला गय त्ति ? । तो तेसिं पमतुब्लोपादभेदोपचारद्वा साधव उच्यन्ते , सुव्यत्ययाच्चै
सुत्ताणं सुमिणे श्राइटमाहिटायगसुरेहि,जहा एयाए पडिमाए कवचनं, सन्ति-विद्यन्ते तीर्थानि ममेति गम्यते , उक्तं हि
खंडाणि सव्वाणि एगट्ठीकाऊण गम्भहरे ठवित्ता दुवार"साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ पुनाति
फबाडं रुधित्ता भयं दाऊण छम्मासे जाव पडियालेयव्यं । कालेन, सद्यः साधुसमागमः ॥१॥" किं च--भवत्प्रतीत
तो परं दुवारमुग्घाडियध्वं पडिमा निरिक्खियब्वा संपुणतीर्थानि प्राण्युपमईहेतुतया प्रत्युत मलोपचयनिमित्तानीति
मंगोवंगा होहिह । गुट्टिएहिं भोग काऊण तहेव कय जाब पंकुतस्तेषां शुद्धिहेतुता?, तथा चोक्नम्-"कुर्याद्वर्षसहस्रं तु, च मासा बोलीणा, छट्ठस्स पारते उस्सुगीहोऊण गोष्टिपहिं अहन्यहनि मज्जनम्। सागरेणापि करनेन, वधको नैव शुद्धय
दुवारमुग्घाडियं . जाव विट्ठा भगवश्री संपुरणंगोति ॥१॥" हदशान्तितीर्थे एव विशिनधि--अनाविले
चंगकप्पा केवलं ठाणे ठाणे मसनिवहपूरिना। तो तत्तमिथ्यात्वगुप्तिविराधनादिभिरकलुषे अनाविलवादेवात्मनो
मबियारित्ता तेहिं पाहो सुत्तधारी । तेण टंकियाए मसा जीवस्य प्रसन्ना-मनागप्यकलुषा पीताद्यन्यतरा लेश्या यस्मि
छिदिउमारद्धा जाव निसरियं मसेहितो रुहिरं । तो भी. स्तदात्मप्रसन्नलेश्य तस्मिन् ,अथवा-श्राप्ता प्राणिनामिह परत्र
श्रा गुट्टिा भूप्रो-भूश्रो भोगाइपहि पसाए उमारद्धा, च हिता प्राप्ता वा तैरेव प्रसन्नलेश्या-उक्तरूपा यस्मिंस्तदात्म
तश्री रत्तीए सुमिणो श्राइट्टमहिट्ठायगेहि, जहा-न सोहणं प्रसन्नलश्य तस्मिन्नेवंविधे धर्महदे.ब्रह्माज्यशान्तितीर्थे च य.
कयं तुम्मे हिं जो अपुनाए विछम्मासीए दुपारमुग्घाडिदाह-ब्रह्मशब्देन ब्रह्मवर्यवन्त उच्यन्ते तत्पक्षे वचनविपरिणा
अमिति। दारे दिट्ठा पाससामिस्स पष्टिमा निरुवयअखंडिमेन विशेषणद्वयं व्याख्येयं, 'जहिंसि' त्ति यत्रास्मि स्नात व
अंगावंगा केवलं नहसुनीसु अंगुडेय मणागं तुच्छा, परिट्टिसमान:-अत्यन्तशुद्धिभवनाद्विमलो-भावमलरहितोऽत एवा
यंगुट्ठियापुवं च पूइओ पवच्चागच्छति चाउद्दिसाश्री उतियशुद्धा-गतकलङ्कः, 'सुसीतीभूत्रो' त्ति सुशीतीभूतो
संघा, करिति जत्तामहूसवं । एवं च सुकरकारी माहप्परागायुत्पत्तिविरहतः सुष्टु शैत्यं प्राप्तः , पठ्यते च--'सुसी.
निही सिरीपासनाहो" इय हरिकंखीनयरे, पारट्ठिस्सासलभूत्रो' त्ति सुष्टु--शोभनं शीलं--समाधान चारित्रं वा
एण तणयस्स । सिरिजिणपहसूरीहिं, कप्पो विहिनी सभूतः--प्राप्तः सुशीलभूतः प्रजहामि--प्रकर्षेण त्यजामि दू
मासणं ॥ १॥" इति । ती०२८ कल्प । प्रयनि-विशुद्धमप्यात्मानं विकृति नयतीति दोषः-कर्म तम्,
हरिकंत-हरिकान्त-पुं० । दाक्षिणात्यानां कुमाराणामिन्द्रे, भ० अनेनैतदाह-ममापि इदतीर्थ एव शुद्धिस्थानं परमेबंधिधे
३ श०८ उ० । स्था० स० । प्रज्ञा एवेति, निगमयितुमाह-पतदि' त्यनन्तरमुक्तं स्नानं-रजोहीनं कुशलैः-प्रागुक्तरूपैदृष्ट-प्रेक्षितमिदमेव महास्नानं, न तु युष्म
हरिकंतप्पवायद्दह-हरिकान्ताप्रपातहूद--पुं० । हरिकान्तायाः स्प्रतीतम् , अस्यैव सकलमलापहारित्वाद् , अत एव चेदं
महानद्याः प्रपातहदे, हरिकान्तोक्लरूपा महानदी यत्र निपऋषीणां प्रशस्तं-प्रशंसास्पदं. न तु जलस्नानवत्सदोषतया नि.
तति, यश्च हरित्कुण्डसमानो हरिद्वीपसमानेन हरिकान्ताभधम्, अस्यैव फलमाह-'जहिसि' ति सुब्ब्यत्ययाद येन स्ना
देवीद्वीपेन सभवनेन भूषितमध्यभागः स हरिकान्ताप्रपातता विमला विशुद्धा इति च प्राग्वत् महर्षयो-महामुनय उत्तम
इद इति । स्था०२ठा०३ उ०। स्थानं मुक्तिलक्षणं प्राप्ताः-गता इति सूत्रद्वयार्थः। इतिः परि
हरिकंता-हरिकान्ता--स्त्री० । हरिवर्षे महानद्याम् , रा० । समाप्तौ,अधीमीति पूर्ववद् , गतोऽनुगमः, सम्प्रति नयास्ते
जं० । स०। हरिकान्ता तु महापग्रहदा देवोत्तरेण तोरणेन
निर्गत्य पश्चोत्तराणि षोडश शतानि सातिरेकाणि उत्तराच प्राग्वदेव । उन० १२ श्र० । स्था। ती०। व्य० । प्रश्न । राजगृहनगरे श्रेणिकस्याध्यापक, नि० चू०१ उ० ।
भिमुखीपर्वतेन गत्वा सातिरेकयोजनशतबयप्रमाणेन प्र
पातन हरिकान्ताकुण्डे तथैव प्रपति | मकरमुखजितिहरिबोभास-हरितावभास-पुं० । हरितत्वेन अवभासमाने ,
काप्रमाणं पूर्वोक्ताद्वगुणं, ततः प्रपातकुण्डादुसरतोरणेन निरा० । जी।
गत्य हरिवर्षमध्यभागवत्तिन गन्धापातिवृत्तवैताख्यं योजहरिकंखीणयर-हरिकंखीनगर-न० । स्वनामख्याते नगरे,
नेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखीभूता षट्पश्चाशता सरित्सहर तीला "पणमिय पासजिणेस,हरिकंस्त्रीणयरचेश्यनिबिटुं । त- समया समुद्रमभिगच्छति, श्यं च हरिकान्ता प्रमाणतो रोस्सेव कप्पमपं. भणामि निद्दलिपकप्पमयं ॥ १॥" गुज्जर- हिनदीतो द्विगुणेति । स्था०२ ठा०३ उ० । धराए हरिकखी नामो अभिरामो गामो अच्छा । तत्थ जि
हरिकताकूड-हरिकान्ताकूट-पुं०। नदीदेवतासत्के कटे,स्था०८ णभवणे उगसिहरे सन्निहियपाडिहेरा सिरिपासनाहपडिमा यिविहपूमाहिं पूज्जा भधिश्रजणेणं ति काउं ।
| ठा०३ उ०। जम्बूवीपे महाहिमवतःषष्ठे कूटे, स्था०२ ठा०३उ०। अन्नया चोलुकबसपाचेण सिरिभीमबेवरज्जे तुरुकमंडलायो
हरिकरण-हरिकरण-पुं० । अपरनामके अन्तर्वीपे, नं०।। प्रागरण सबलबाहणेण अतनुचुक्काभिहाणमल्लारेण अण- हरिकूड-हरिकूट-पुं० । नीलवत्पर्वतस्य नीलवरकूटाइक्षिणतः हिलबाडयपट्टणगढं भंजित्ता चलतेण दिट्ट हरिकंखी- | सहस्रप्रमाणे विद्युमभवारिकूटे , स्था० । ठा० ३ उ० ।
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हरिकूड अभिधानराजेन्द्रः।
हरिय माझ्ययद्वक्षष्कारपर्यंतस्य कृटे, निषधवर्षधरस्य पश्चमे कूटे णि विद्याधरकुलतिलकाचायजिनदत्तशिष्ये धर्मती याच । जं० १ वक्षः।
किनीमहत्तगसूनी स्वनामख्याते प्राचार्य,श्राव०६अकादश। हरिकेसीबल-हरिकेशीवल-पुं० । स्वनामख्याते साधौ, उत्त० हरिभटसारवलेशस्य प्रभा व शागते. २२० । (अप्रत्या सर्वा वक्तव्यता'हरिएस' शब्देऽस्मिन्नेव चित्रकूटनगरे हरिभद्रा नाम विद्यागर्वाध्माती ब्राह्मण श्राभागेऽनुपदमेव गता।)
सीत् । स च यद्वाक्यं नाहं बोढुं शक्नुयाम् तस्य शिष्यः स्याहरिचंद-हरिश्चन्द्र-पुं० । अयोध्यायामिक्ष्याकुवंशे त्रिशङ्कपुत्रे | मितिकृतप्रतिज्ञः, "चक्किजुग हारपणगं. पणगं चक्कीरण केसवो उशीनग्नृपसुतायाः सुनागदेव्याः पत्यो रोहिताश्वपितरि, चक्की । केसव चक्की केसव,दुचक्की केसीय चक्की या"इति गाथा ती० । कल्प० । श्रा० म०। (वनवराहरूपधारिभ्यां देवाभ्यां
भणन्तीं याकिनी नाम महतरिकांतदर्थपरिज्ञानाय पृष्टवान् , हरिश्चन्द्रस्य परीक्षेति 'चागणारसी'शब्दे षष्ठ भाग दर्शितम् ।)
सा च तं स्वाचार्यपाय नीत्याऽदीक्षयत् । तत्र सोऽखिलं ससाकेतनगरवास्तव्ये गृहपती, अन्त०६ वर्ग ५ श्र०। (सच
मयमध्यगमत् हंसपरमहंसनामानौ च शिष्यौ अदीक्षयत्। तौ धीरान्तिके प्रवज्य दश वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य विपु
च प्रमाणशास्त्राधिजिगांसया बौद्धषु गती, नत्र जनाविति लपर्वते सिज इत्यन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य पश्चमाध्ययने
ज्ञाती मारितौ । ततः क्रुद्धेन हरिभद्रसूरिणा अग्नावाहोतुं स
परिवारो बौद्धाचार्य श्रआकृष्टः, ततो गुरुणाऽनुकम्पया माचि. सूचितम् ।)
तः। तदनु स हरिभद्रश्चतुर्दश शतानि प्रबन्धानां चक्रिरे, हरिचंदण-देशी--कुङ्कुमे, दे० ना० ८ वर्ग०६५ गाथा ।
विक्रमवर्षे ५३५ अयमास । द्वितीयोऽपि हरिभद्रसूरिः नागहरिण-हरिण-पुं० । मृगे, प्रव० २६ द्वार।
न्द्रगच्छीयाऽऽनन्दसूरिशिष्यः कलिकालगौतमविरुदधारकः हरिणंदी-हरिनन्दी-पुं० । उज्जयिनीवास्तव्ये स्वनाम- तत्त्वप्रबोधाद्यनेकग्रन्थकर्ता, अयं विक्रमवर्षे १२३५--१२६० ख्याते गृहपती, ध० र०२ अधि० ४ लक्षः। (अत्रत्या व
मध्ये श्रासीत् । तथा श्रीहरिभद्रसूरिणा सौगता हुता क्लव्यता 'उज्जुववहार' शब्दे द्वितीयभागे ७३६ पृष्ठे गता।)
एव होतुमारभ्य मुक्ता चा कुत्र वाऽयं संबन्धी वर्तते. हरिणेगमेसि(ग )-हरिनगमषिन्-पुं०। हरिरिन्द्रस्तत्सम्बन्धि- |
इत्याश्रित्य श्रीहरिभद्रसूरिभिः सौगता होतुं से श्राकृवात् हरिनैगमेषी। भ०५ श०४ उ०। शकस्य पदातिकटकनाय.
पास्तदनु गुरुभिज्ञातं साधू प्रहितौ ताभ्यां "गुणसेणि अग्गि.
सम्मा,सीहाणं दाघे" त्यादि चरित्रकथन मूलगाथात्रयं दत्तं, के, करप०१ अधि०२ क्षण । हरेरिन्द्रस्य नैगममादेशमिच्छती
ततः प्रबुद्धेन सूरिणा ते मुक्का इति तत्प्रबन्धे । प्रभावकचरित्रे ति हरिनैगमेषी । अथवा-हरग्न्द्रिस्य नैगमेषी नामा देवः यो
तु पणपूर्वकं वादे जितः सौगतगुरुः स्वयमेव तप्तकटाहतैल देवानन्दायाः कुक्षीरजिनमपहृत्य त्रिशलागर्ने प्रावेशयत् ।
प्राविदिति । तथा तत्रैव इह किल कथयन्ति केचिदित्थं श्रा०म०२०('वीर'शब्दे पष्ठ भागे वक्तव्यताऽस्य द्रव्या।)
गुरुतरमन्त्रजपप्रभावतोऽत्र सुगतमतबुधान् विकृष्य तप्तन तु शक्रस्य देवेन्द्रस्य पदात्यनीकाधिपती, स्था० ७ ठा०३ उ० ।
हरिभद्रगुरुर्जुहाव तेलेन . इत्यपि लिखितमस्तीति । ही०१ हरितग-हरितक-पुं० नीलके दुर्वादिवनस्पती, प्रश्न०३ संव०
प्रका० । पञ्चाशकाख्यप्रकरणकारके प्राचार्ये.पश्चा०१६विवा द्वार। प्रज्ञा
"प्राचार्यहरिभद्रेण, या सन्तापसङ्गता। चैत्यवन्दनसूत्रस्य, से किं तं हरिया?, हरिया अणेगविहा पहाता ,तं वृत्तिललितविस्तरा ॥१॥" ला अनुयोगद्वारटीकाकारके, तहा-"अोरुह वोडाणे , हरितग तह तंदुलेजगतणे
ज्यो०२ पाहु० । “मध्ये समस्तभूपीठं यशो यस्याभिवर्द्धते । य । वत्थल पोरग मजा-रयाइ विल्ली य पालक्का ॥३७।।
तस्मै श्रीहरिभद्राय , नमटीकाविधायिने ॥१॥" नं० । दगपिप्पली य दबी, सोत्तिय साए तहेव मंडुक्की । मृ
हरिमन्थ-हरिमन्थ-न० । धान्यविशेष, प्रव० १५६ द्वार । कृलग सरिसब अंबिल, साएय जियंतए चेव ॥३८|| तुलस
घणचणके, ध०२ अधि० । ग० । नि० चू०।। फएह पोराले,फणिजए अजए य भूयणए । वारगदमण
हरिमहाणई-हरिमहानदी-स्त्री० । निषधपर्वते पमहदनिर्गते गमरुयग, सतपुष्फिदीवरे य तहा ॥ ३९ ॥"जे या बना
महानदीभेदे. ज०४ वक्षः। ( तिगिच्छदह' शब्द चतुर्थतहप्पगारा । से तं हरिया । प्रज्ञा०१ पद ।
भागे २२४० पृष्ठे व्याख्यातेषा।) 'हरितगररिजमाणा'-हरितकाश्च ते नीलका रेरिज्यमाना- हरिमिच्छ-हरिमिच्छ-पुं० । कृष्णचणके, दश०६ श्र०। श्च देदीप्यमाना हरितकररिज्यमानाः । भ० १ श०२ उ०। हरिमेला-हरिमेला-स्त्री० । वनस्पतिविशेषे, औ० । हरिप्पवायदह-हरित्प्रपातहद-पुं०। हरिन्नद्याः प्रपापतहंदे,
हरिय-हरित-त्रि० । शुकपुच्छवद् वर्णविशषपरिणने, हरितभेस्था हरिपवायदहे चेव त्ति हरिनदी-प्रागुक्तलक्षणा यत्र नि
दे च इति वृद्धाः । औ० । उपरि बीजेषु , सूत्र० १ श्रृ० . पतति । यश्च हे शते चत्वारिंशदधिके श्रायामविष्कम्भाभ्यां
अ० । शा० । अधुरोद्भिन्नबीजे, बृ० । मधुरतृणादिविसप्तशतानि एकोनषष्टयधिकानि परिक्षेपेण यस्य च मध्य
शेषे, स्था०६ ठा० ३ ०। दूर्वादिके, भ०७ श० ६ उ०। भागे हरिदेवताद्वीपः द्वात्रिंशद्योजनायाभविष्कम्भः एकोत्तरशतपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विकोशोच्छितो हरिदेवताभवन-भूषि
प्रश्न । सूत्र० । आचा० । शार्दूले, जी०३ प्रति०४ अधिक।
हरितसूचममत्यन्ताभिनवोद्भिन्ने पृथिवीसमानवणे, स्था० तोपरितनभागोऽसौ हरित्प्रपातहद इति । स्था०२ ठा०३ उ०।
८ ठा० ३ उ । तन्दुलीयकाध्यारुहवसुलबदरकमाइरिभा--हरिभद्र--पुंका श्वेताम्बराचायजिनभद्रनिगदानुसारि | जाणाटिकाजिली
जीग्पादिकालिल्लीपालक्यादिषु, प्राचा०१ श्रु०१ १०५उ० ।
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हरिय
अभिधानराजेन्द्रः।
हरिषास करणं भंते हरियकाया हरियकायसया पणता ?, हरियालगुलिया-हरितालगुटिका-स्त्री० । हरितालिकासारगोयमा ! तो हरियकाया तो हरियकायसया परमत्ता,
निवर्तितगुटिकायाम् , जी०३ प्रति०४ अधि। रा०। फलसहस्सं च बिंटबद्धवाणं फलसहस्सं च णालबद्धाणं ,
हरियालभेय-हरितालभेद-पुं० । हरितालिकाच्छेवे, जी. ३ ते सव्वे हरितकायमेव समोयरंति ।
प्रति०४ अधिः । रा०।
हरियालिया-हरितालिका-स्त्री० । दूर्वायाम् . शा० १ श्रु०१ 'करण' मित्यादि , कति भदन्त ! हरितकायाः कति ह
अ०। देखना । कल्प० । पृथिवीविकारवर्णकद्रव्ये, रा००। रितकायशतानि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! यो ह
अया ह- हरियाहडिया-हताहतिका-स्त्री०पूर्व हृतं पश्चादाहतम् श्रामीरितकायाः प्रज्ञप्ता-जलजाः स्थलजा उभयजाः, एकैकस्मि
तं वस्त्रं हताहृतं तदेव हृनाहृतिका । स्वार्थे कप्रत्ययः, अन् शतमवान्तरभेदानामिति , त्रीणि हरितकायशतानि ।
तिवर्तन्ते स्वार्थिक प्रत्ययप्रकृतिलिङ्गवचनानीति वचनादत्र 'फलसहस्सं चे ' त्यादि, फलसहस्रं च 'वृन्त बन्धानां 'वृ
रूढितः स्त्रीलिङ्गनिर्देशः । स्तनैः पूर्व हृते पश्चादानीसे,वृ० १ म्ताकप्रभृतीनां फलसहस्रं च नालबद्धानां, 'तेऽवि सम्वे'
उ०३ प्रक०। इत्यादि, तेऽपि सर्वं भेदा अपिशब्दादन्येऽपि तथाविधाः
हरिताहतिका--त्रि० । हरितेषु वनस्पतिषु श्राहृतं हरिताहरितकायमेव समवतरन्ति-हरितकायऽन्तर्भवन्ति हरि
कृतिका । बनस्पतिष्वाहते, स्तेनानीतप्रतीच्छायां च । व्य० 'तकायोऽपि वनस्पती बनस्पतिरपि स्थावरेषु स्थावरा अपि
८ उ०। ('उबहि' शब्दे द्वितीयभागे १०७५पृष्ठे हताहतिकावजीवेषु।जी०३प्रति०९उजात्यार्यभेदे,प्रज्ञा०१पद । (वक्तव्यता
स्नग्रहणं निषिद्धम् ।) 'श्रारिय' शब्दे द्वितीयभागे ३३७ पृष्ठे उन्ला । )
हरिरेणु-हरिद्रेणु-पुं० । नीलवर्णपांशी, शा०१ श्रु०१६ अ०। हरियम-हरितक-पुं० । जीरकादिक,चं०प्र०२० पाहु० । भ० ल-दरिल- नागदत्ता-यशोमती-रत्नवतीना सू०प्र० । स्था० । इस्वतृणे, शा०१ श्रु०१०।
दत्तचक्रिभार्याणां पितरि, उत्त० १३ अ०। हरियपएणी-हरितपर्णी-स्त्री० । केचिद्गृहेषु राशो दण्डं द- हरिवंस-हरिवंश-पुंहरिः-पूर्वभववैरिसुरानीतहरिवर्षक्षेत्रस्वा देशतापहारार्थमागन्तुकः पुरुषो मार्यते गृहस्योपरिष्टात् युगलं तस्य वंशो हरिवंशः। कल्प०अधि०२ क्षण । हरेः पुरुश्रावृक्षशाखा चिई क्रियते योऽप्यन्योऽविज्ञात आगमिष्य- पविशेषस्य बंशो,हरिवंशः । हरिवर्षजातहरिनाम्नः पुरुषजाति सोऽप्येवं भविष्यतीति सूचके चिह्ने, बृ० १ उ० २ प्रक० । तायां पुत्रपौत्रादिपरम्परायाम् , स्था० १० ठा० ३ उ०॥ हरियकंति-हरितकान्ति-स्त्री० । शाकबहुलदेशे शाकभक्षणे , कल्प० । कौशाम्बीनगर केनचिद राज्ञा काचित् शालापतिवृ०१ उ०२ प्रक० । औ०।
भार्या वनमाला नाम्नी सुरुपति स्वान्तःपुरे क्षिप्ता, सशा
लापतिस्तस्या वियोगेन विकलो जातो यं कंचन पश्यति हरियभह-हरितभद्र-पुं० । यक्षभेदे , प्रशा०१ पद ।
तं वनमाला वनमालेति जल्पति । एवं च कौतुकाक्षिप्तरहरियभोयण-हरितभोजन-न० । हरितानि मधुरतणकटुभा
नेकैः लोकैः परिवृतः पुरे भ्रमन् वनमालया समं क्रीडता एडादीनि एघ, भुज्यन्ते इति भोजनानि । औ०। मधुरतपादि- राज्ञा दृष्टस्ततश्चास्माभिरनुचितं कृतम् , इति चिन्तयन्ती विशेषरूपेषु भोजनेषु . स्था०६ ठा० ३ उ० ।
तौ दम्पती तत्क्षणात् विद्युत्पातेन मृतौ हरिवर्षक्षेत्रे युगहरियभोयणा-हरितभोजना-स्त्री०ाहरितानि भोजनानि यस्यां लित्वेन समुत्पन्नौ, शालापतिश्च तौ मृतौ श्रुत्वा श्राः पासाहरितभोजना। हरितभोजनबन्याम , श्राव०४ श्र०। पिनोः पापं लगभ् , इति सावधानोऽभूत् । ततोऽसौ वैरा
ग्यात्तपस्तपत्वा व्यन्तरोऽभूत् . विभङ्गज्ञानेन च तौ दृष्टा हरियवेरुलियवण्णाभ-हरितकैडूर्यवर्णाभ-पुं० । हरितश्चासौ
चिन्तितवान् , अहो ! इमो मद्वैरिणी युगलसुखमनुभूय देवी परुलियवर्णाभश्चेति । नीलवणे वैडूर्यभेदे,भ०१६ श०६ उ०। भविष्यतस्तत इमो दुर्गती पातयामीति विचिन्त्य स्वशक्त्या हरियसाग-हरितशाक-न० । पत्रशाके, विपा०१ श्रु०८१०। संक्षिप्तदेहौ तौ इहानीतवान् , पानीय च राज्यं दत्त्या सप्त हरियसुहुम-हरितसूक्ष्म-न० । अत्यन्ताभिनवोद्भिन्ने पृथिवी. व्यसनानि शिक्षितौ, ततस्तौ तथाभूतौ नरकं गती । श्रथ
तस्य वंशो हरिवंशः । कल्प० १ अधि०२ाण । श्रा०म०। समानवणे हरितके, स्था० ८ ठा० ३ उ० । दश । कल्प।
हरिवंसकुलुप्पत्ति-हरिवंशकुलोत्पत्ति-स्त्री० । हरिबंशलक्षणसे किं तं हरियसुहुमे! हरियसुहुमे पंचविहे पएणत्ते, तं |
स्य कुलस्योत्पत्ती,स्था० १० ठा० ३ उ०1( अस्या व्याख्या जहा-किरहे जाव सुकिल्ले अस्थि हरियसुहुमे । पुढवी- 'अच्छर' शउने प्रथमभागे २०० पृष्ठे गता।) समाणवस्मए णाम पमते,जे निग्गंथाण वा निग्गंथीणं वा हरिवंसग-हरिवंशक-पुलहरिघंशजे मनुष्ये,स्था०६ठा० ३३० । .जाव पडिलेहियव्वे भवइ । सेतं हरियसुहमे । कल्प. हरिवंसगंडिया-हरिवंशगण्डिका-स्त्री० हरिवंशमात्रयक्तव्य. ३ अधि०६क्षण।
तार्थाधिकारानुगतायां घाक्यपद्धती, स। हरिया-हरिता-स्त्री० । जम्बूद्वीपे पूर्वावरेण लवणसमुद्रं स- हरिवास--हरिवास--पुं० । जम्बूद्वीपस्य भरतापेक्षया तृतीये व.
मुत्सर्पस्या स्वनामण्यातायां नद्याम् , स. १४ सम० । र्षक्षेत्रे,स्वनामख्याते तदधिपतिदेधे च । स्था० १० ठा०३ उ०। हरियाल-हरिताल-पुं० । पृथिवीकायरूपे ( जी. ३ प्रति० कहि ण भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णाम वासे ४ अधि०।)वर्णकद्रव्ये , हा० १७०१०। प्राचा० । पएणते,गोयमा णिसहस्स वासहरपब्बयस्स दक्षिणेणं
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हरिवास
महाहिमवन्तवासहरपव्ययस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलसमुदइस पञ्चत्यमेणं पञ्चत्थि मलसमुदस्स पुरस्थिमेगं एत्व जम्मूदीचे दीवे दरिवासे ग्रामं वासे पण, एवं जाव पच्चरिथमिलाए कोडीए पच्चत्थिमिम्लं लवणसमुदं पुढे अट्ठ जोअणसहस्वारं चत्तारि एगवीसे जोअणसए एगं च एसवी सहभागं जोधणस्स पिक्खम्भेयं तस्य बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं तेरस जोअणसहस्साई तिमि अ एगस जो अगए छब एगूगवीसहभाए जो अगस्स अद्वभागं च आयामेति १ । तस्स जीवा उत्तरेणं पाईपडीखापया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिलाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं •जाब लवणसमुदं पुट्ठा तेवत्तरिं जो णमहस्सा सप व एगुत्तरे जोअवसर सत्तरस य एगुणपीसभाए जोअणस्स श्रद्धभागं च आयामे २ तस्स धणुं दाहिणं चउरासीईं जो णसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसभाए जो णस्स परिक्खवेणं ३ | हरिवासस्स यं भंते! वासस्स फेरिसए आगारभाव पडीआर पाने गोमा ! बहुसमरमणि भूमिभागे पते जाव मणीहिं नहि उपसोभिए एवं मखीणं तखाय य वो गन्धो फासो सो भागियो। हरिवासे णं तत्थ तस्थ देसे तर्हि तर्हि बहवे खुड्डा खुड्डि ओ एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चैव अपरिसेसो वत्तव्यो त्ति । कहि गं भन्ते ! हरिवासे वासे विष्ठावई खामं वट्टवेअड्डपञ्चए प गोयमा हरीए महाराईए पथत्थिमेवं हरिकंताए महाराईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स वासस्स बहुमज्झदे सभाए एत्थ विटावईणामं वचेष्यनुपन्नए परगने एवं जो व सावइस्स विक्खंभुचत्तु देह परिपठाणवावासी सो Prasana भाणिश्रव्वो णवरं देवो पउमावई ० जाव विश्वावइवाभाई अरुणे इत्थदेवे महिड़ी एवं जाब दाहिनेणं रायहाथी से अव्वा, से केणट्टेणं भन्ते ! एवं बुच्चs हरिवासे, वासे १, गोथमा ! हरिवासे वासे मणुआ अरुणा अरुणो मासा च्या गं संखदलसनिकासा हरिवासे इत्थ देवे महिड़ी जाय पलिषमईए परिवस से द्वेगं गोश्रमा ! एवं बुच्चइ | ( सू० ८२ ) 'कहि भन्ते इत्यादि योजना परियोजनानि कायधि कानिएको भायोजनस्य निष्कश्येन म हाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भकत्वादिति । अधुनाऽस्य बाहावित्रयमाह--" तस्स बाहा " इत्यादि, 'तस्स जीवा' इत्यादि, 'तस्स 'मियाहि क्रम्। अथास्य स्वरूपं पिपृच्छपुरा - 'हरिवास' इत्यादि, हरिवर्षस्य वर्षस्य भ
"
.
1
(१९६६) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
و
हरिवासकूड
गवन् ! कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! बहुसमरमणीय भूमिभागः प्रशप्तः श्रत्रातिदेशवाक्यमाहपायस्मणिभिस्तृयोपशोभितः एवं मणीनां हां -
.
',
गन्धः स्पर्शः शब्दध भक्तिय्यः, गद्यवरवेदिकानुसारे त्याचे अत्र जलाशयस्वरूपं निपारिवा मित्यादि, क्षेत्रस्य सरसत्वेन तत्र तत्र देशप्रदेशेषु क्षुद्रिका - दयो जलाशया श्रखाता एव सन्तीत्यर्थः अत्रैकदेशग्रहणेन सर्वोऽपि यायादिजलाशयालापको मात्राल यामाह एवं जो सुसमा 'इस्यादि पंचम उप्रकारे माने स्मिन् क्षेत्रे यः सुमायाः असवितारकस्यानुभावः स पारिशेष-सम्पूर्ण लव्य, सुषमाप्रतिभागनाम कावस्थिनकालस्य तत्र सम्भवात् । अथास्य क्षेत्रस्य विभाजकगिरिमाह-- 'कहि ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे हरितो- हरिसलिलाया महानद्याः पश्चिमाया हरिकान्ताया महानद्याः पूर्वस्यां हरिवस्य वर्षस्य बहु मध्यदेशमागे अत्रान्तरेतिनामा वृत्तवेता पर्वतः प्रज्ञप्तः अत्र निगमयलाघवार्थमतिदेशसूत्र माह-एवं चिकटापातिवृत्तवैता व्यवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिनो विकम्मोपरिक्षेप संस्थानानां वय्यासो वर्तकग्रन्थविस्तरः चकारात्तत्रत्यप्रासादतत्स्वामिराजधान्यादिसंग्रहः, विकटाप्रातिप्रभाणि विकटापातिवर्णाभानि च तेन विकटापातीनि नाम, अरुणश्चात्र देव श्राधिपत्यं परिपालयति तेन योगादपि तथा नाम प्रसिद्धम् आह विनामदेवा विकटापासीति नाम कथमुपपद्यते, उच्यते-चिकापतिपतिरिति तत्कल्पपुस्तकादिषु सामान दीनामेव नाना प्रसिद्धिरिति सामपीति सुस्थितलवणोदाधिपतेर्गीतमाधिपतित्वाद् गौतमद्वीपे इव बृहत्वविचारादिषु हैरण्ययं चिकटापासी, हरिया पानीत्युक्तं तस्वं तु केवलिगम्यम् । एवं यावद्दक्षिणस्यां दिशि मेरो राजधामी नेता अथ दरिचनामा राह 'से केणं' हत्यादि, प्रश्नसूत्रं सुगनम् । उत्तरसूत्रे हरिवर्षे वर्षे केचन मनुजा अरुणा रक्तवर्णाः, श्ररु च त्रीनपिष्टाअरुणोदिकम् श्रासन्नवस्तूनि अरुणप्रकाश न कुरुते श्रभास्वरत्वाद् इमे च द तथा इत्याह--अरुणावभासा इति, केचनश्वेता पूर्ववत् शब्दलानि शरास्ते हि अतिश्वेताः स्युस्तेषां सन्निकाशाः--सदृशाः तेन तद्योगाद्धरि
क्षेत्र को देन सूर्यचन्द्र तत्र केचनमनुष्याः सूर्य इवारुणा श्ररुणावभासाः, सूर्या रक्ताचा उद्गच्छन् गृहाने केचन द्रा इति इरय च इरयो हनुष्याः साध्ययसामलक्षणया उमेदप्रतिपत्तिः, ततस्तद्योगात् क्षेत्रं हरय इति व्यपदिश्यते, हरयश्च तद्वर्षे च हरिवर्षे यदा च मनुष्ययोगात् हरिशब्दः क्षेत्रे वर्त्तते तदा स्वभावाद्बहुवचनान्तः प्रयुज्यते, यदाह तस्यार्थमूलटीका सम्पद्दस्ती "हरयो विदेदाख पचालादितुल्या" इति यदिवा हरिवर्षनामा श्रत्र देव अधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि हरिवर्षम् । जं० ४ वक्ष० ।
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+
दो हरिवासाई | स्था० २ ठा० ३० ।
हरिवास क्रूड - हरिवास कूट- पुं० [ जम्बूद्वीपे सन्दरस्य दक्षिणे
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(१९६७) हरिवास कूड अभिधानराजेन्द्रः।
हलधरवसण महाहिमवति वर्षधरपर्वत स्वनामख्याते कूट , स्था० ८ हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवति वर्षशतानि ठा०३ उ०। जम्बूद्वीप हरिवर्षस्य क्षेत्रविशषस्याधिष्ठातृदेवेन गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्या पालितवान् । यशवस्वीकृते निषधयर्षधरपर्वतस्य स्वनामख्याते कूटे , स्था० ६ र्षसहस्रत्वात्तदायुषकस्यति । स०६७ सम। स्वनामख्याते ठा०३ उ०।
ऋषभंदयपुत्रे, तनिवेशिते देशविशेषे च । कल्प० १ अधिक हरिवासय-हरिवासक-पुं० । हरिवर्षे जातो हरिवों वाऽस्य ७ क्षण। वासः । हरिवर्षे उत्पन्ने , अनु० ।
हरी-हरी-स्त्री०। जम्बूद्वीप पूर्वाभिसुनेन लवणसमुद्रं समुहरिवाहण-हरिवाहन-पुं०। नन्दीश्वरद्वीपस्य अपरार्धादि- सर्पन्त्यां स्वनामख्यातायां महानद्याम् , स्था०७ ठा०३ उ० । पनौ देवे , जी० ३ प्रति० ४ अधिः । द्वी०।
हरीडक-हरीतक-० । कोकणदेशप्रसिद्ध कषायबहुले पहरिवेरुलियवपाभ-हरिहर्यवर्णाभ-न०। हरिः पितो घों, थ्याफल, प्रज्ञा० १ पद। वैडूर्य मणिविशेषस्तस्य वर्णो नीलो वैडूर्यवर्णस्ततो द्वन्द
हरीयई हरीतकी-स्त्री० । स्वनामख्याने वृक्ष, हरीतकीफल स्तद्वादाभाति यत्तद्धरियडूर्यवर्णाभम् । स्था०१० ठा०३३०॥
च । विश० । " ग्रीष्म तुल्यगुडां सुसन्धवयुतां मेघायननीलवैडूर्यवर्णाभे , भ० १६ श०६ उ० ।
द्धऽम्बर, तुल्यां शकरया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । रिम-रप-धा०ा हर्ष,"वृपादानामारः" ।।८।४।२३५ ।। इति पिपल्या शिशिर वसन्तसमये नौद्रण संयोजिता, पंसा ऋतः 'अरि ' इत्यादेशः । हरिसइ । हृष्यति । प्रा०४ पाद । प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु त शत्रवः ॥ १॥" सूत्र. १ हुष-पुं०। हर्षणं हर्षः । आतुमनःप्रमोदे , ध०१ अधि। शु०८ १० प्रा०म० । शा० । मनसः प्रीतिविशेपे, विशे०। रूदिगम्या- हरे-हरे--अव्य० । क्षेपादिषु, “हरे क्षेपेच" ॥८।२।२२० ॥ भरणविशेषे, औ०। सन्तोषे, जीवा०२० अधिका"हरिसबस- क्षेपे संभाषणे रतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् । क्षेप-हर विसापमाणहियया" हर्षवशेन विसर्पद विस्तारयायिदय णिलज्ज । संभाषणे-हरे पुरिसा । रतिकलहे-हरे बहुघलह । यस्याः सा । भ०६ श० ३३ उ० । कल्प० । रा०।
प्रा०९०२ पाद । हरिमपुर-हर्षपूर-पुं० । अजमरनिकटवर्तिनि सुभटपालस- हरेडगाइ-हरीतक्यादि-पुं० । पथ्याप्रभृतो, पञ्चा० १० विषा 'म्बन्धिान स्वनामख्याते पुरे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। हरणुया-हरेणुका-स्त्री० । प्रियङ्गो , उत्त० ३ ०। हरिसप्पोमावरम -हर्षप्रद्वेषापन्न-पुं०। हर्षश्च प्रद्वेषश्च हर्षप्र- ।
द्वल-हल-पुं० । लाङ्गले, औ० । प्रश्न शा। हलधरे बलदुषं तदापनः । रागद्वेपसमाकुल. सूत्र०९ श्रु० ३ १०१. उ० दवे. नामैकदेशग्रहणात-"नचंतस्स य लीला-पातुक्खयेन हरिसह-हरिसह-पुं० । श्रालम्बिकायां वीरजिनस्य प्रिय
कंपिता वसुधा । उच्छलन्ति समुहा, सइला निपतन्ति तं हलं पृच्छके , श्रा० म०१० । दाक्षिणात्यानामग्निकुमाराणा- नमथ ॥१॥" प्रा०४ पाद । श्रेणिकराजस्य कुक्षिज पुत्रे, अणुन मिन्द्रे . स्था०२ ठा० ३ उ० ।
(सच बीरान्ति के प्रव्रज्य पांडश वर्षाणि श्रामण्यं परिणाहरिसहकूड-हरिसहकूट-न० । जम्बूद्वीप यक्षस्कारपर्यने
ख्य जयन्ते कल्पे उपपद्य महायिह सेत्स्यतीति अनुर
रोपपातिकदशानां द्वितीये वर्गे षष्ठऽध्ययने सूचितम् ।) म्घनामख्यान कटे . स्था० ६ ठा०३ उ० । उत्तग्धेणिपतिविपुत्कुमारेन्द्रस्य माल्यबद्वपंधरकूट, जं. ४ यक्षा। हलकुद्दाल-हलकुद्दाल-पुं० । हलस्योपरितने भागे, उपा० २ हरिसाह-हरिमाधु-पुं० श्राचाराङ्गमत्र कृतायोटीकाकारका
अ.।" हलकुद्दालसंठिया से हणुया गलकडियं च तस्स म्य शीलाङ्गाचार्यस्य टीकाकरणसहायके साधी, प्राचा. १
खई" उपा०२०। श्रृ० अ०४ उ.॥
हलद्दा-हरिद्रा-स्त्रीला "पाथ पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्राहरिमिह हरिशिख-पुंछ । उत्तरणिपतिविद्युत्क्रमान्द्रे स्था०
बिभीतकेयत्" ।।१।८८ ॥ इति श्रादेरितोऽकारादेशः ।
"हरिद्रादी लः " || १ | २५४ ॥ इति रस्य लः । हलहा । ४ . १ उ.।
प्रा०।"छायाहन्द्रियोः" | ३ ३४॥ इति खिंयां की। हरिसेण-हरिपेण- पुं० । काम्पिल्यनगर जाने दशमचक्रवर्ति- हलद्दी । इलद्दा । पीतवर्णे मूलभदे, प्रा०३ पान । नि , नी०२४ कल्प । म०। प्रब । प्रायः । स्था।
हलधर-हलधर-पुं० । बलदेवे , प्रथम २०६ द्वार । बा । हरिसेणे णराया चाउरंतकवडी पगूणण उई वाससयाई
प्रज्ञा । जंक । रा०। प्रा०म०। महाराया होत्था । (मू०८६)म०८६ सम।
हलधरकोसज्ज हलधरकोशेय-न। बलदेववस्त्रे,ौ० । रा०। हरिसेणे ण राया चाउरंतचक्कवट्टी दसूणाई मत्ताणउइ
हलधरवमण हलधरवसन-न । हलधरो बलदेवस्तस्य - वाससगाई अगारमझ वमित्ता मुंडे भविना ग जाव
। सनम् । बलंदयवा तच्च किल नीलं भवति । सदेव नथा
स्वभावतो हलधरस्य नीलवस्त्र परिधानात् इति, नीलापपव्वइए । (मू०६७४)
। मायामिदं वरयत । रा०। ३००
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सध्य
हलप्प - देशी - बहुभाषिणि दे० ना० ८ वर्ग ६१ गाथा | हलचल देशी- फलफले
०६४ गाथा । हलाहला - अव्य०। देशविशेषगौरवार्थ स्यामन्त्रणवचने,
(१९१८) अभिधानराजेन्द्रः ।
दश० ७ ० ।
हलेले पेशी सपा
मन्त्रये "मामिला इसे सा
या " ॥ ८६ । २ । १६५ ॥ एते सख्या श्रामन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः । "पण माणस्स इला । हले हयासस्स" प्रा० । विशेषगौरवार्थे स्त्र्यामन्त्रणे. दश० ७ श्र० । ( अत्रत्या व्याख्या 'मासा' शब्दे पञ्चमभागे गता ।) श्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा० १ पद । हलि-हली बी० पक्षिविशेषे० ३ ०
इलिन - हालिक - पुं० । “बाऽव्ययोत्खातादावदातः " ॥ ८ । १ । ६७ ॥ इति श्रादेराकारस्य श्रद्वा । हलिश्रो । हालियो । हलवाइके प्रा० १ पाद ।
"
हलिपच हरिद्रपत्र-म० चतुरिन्द्रियजी
०१
हमंत
एगमि कुंडलजुल एगम्मि वत्थजुयलं तुट्टाए गहियाणि । या अभी सामि पुरु' को अमोरायसिस' ति । सामिणा उदायो बागरिश्रो, अश्रो परं वज्रमउडा पतिता अन पच्छा सेणि चिंते ' कोणिस्स दिजिद्दि ' ति इस्स दस्थी दिनों से विशस्त्र देवदियोहारो भ विव्ययंते सुनंदार खोमजुयलं कुंडलजुयलं व हलवि हला दिनाणि । महया विहवेण अभश्रो नियजणणीसमेलिस्स देशादेवी अंगसम्भूषा तिनि य पुता कृतियों दशविला ।" नि० १ ० १ वर्ग । श्रा० क० । आव० । श्रा० म० । गोवालिका तृणसमाकारे कीटविशेषे भ० १५ श० । राजगृहे श्रेणिकराशो धारियां जाते पुत्रे, (* जयंते दोनि " जयन्ते विमाने उपपद्यसेत्स्यतीत्यादि 'महासीद्दसेण ' शब्दे षष्ठे भागे व्याख्यातम् । )
१
1
•
हल्लफ लिअ - देशी - श्राकुलत्वे, दे० ना०८ वर्ग ५६ गाथाः । हलि-देशी-चलते. दे० ना० वर्ग ६२ गाथा | इल्लीस- देशी रासे, दे० ना० व ६१ गाथा हल्लोहलिया - हल्लोहलिका स्त्री० । सरट्याम्, “हलो इलिया अहिलोडी सरडी कक्किंडी" इत्येकार्थाः । कल्प० ३ अधि०
६ क्षण
-
पद । जी० ।
हलिमच्छ हरिद्रमत्स्यपुं० मत्स्यविशेष०१ पद विपा० । हलिमलिया-दरिद्रमुनिका श्रीयादपृथिवीकाय
विशेषे, प्रशा० १ पद | हलिागुलिया हरिद्रागुटिका- स्त्री हरिहासारनिर्जिता यां गुटिकायाम्, जी० ३ प्रति० ४ अधि० । हलिदा भेष - हरिद्राभेद पुं० हरिद्रा जी०३०४ अधि० । रा० ।
9
"
इलिडुग- हरिद्रुक - पुं० । स्वनामख्याते नगरे । यत्र विहार
क्रमेण स्वामी गतः । श्र० चू० १ अ० । इलिसागर - हरिसागर - पुं० । मत्स्यविशेषे जी० १ प्रति० ।
"
प्रज्ञा० ।
| ।
इलुम लघुक न० "लघु ल हो" ८ २ १२२ ॥ - - । इति लघुकर इसे ले लोस्यो वा भवति । हलु | लहु शीधे प्रा० २ पाद ।
मुबेर्हो हुब हवाः " ॥ ८४॥
हव-भू-धा० सत्तायाम्, ६० तोह हु हवा इत्येते आदेश पर हो। होन्ति । हुवइ । हुवन्ति । हवइ । हवन्ति । भवति । भवन्ति । प्रा० ४ पाद ।
हविश्व भूत्वा अय० उत्पद्येत्यर्थे "कच इदूनी " ॥ ८ | ४ | २७१ ॥ शौरसेन्यां क्त्वाप्रत्ययस्य इय दूग इत्यादेशौ वा भवतः । हविश्र । होदूण । प्रा० । प्रक्षिते, 'हविश्रं ' म्रक्षितम् । ३० ना०८ वर्ग ६२ गाथा ।
66
-
हवे हवे - अव्य० | हवे इत्येतदपि नन्दयं हिशब्दार्थत्वाचस्मा "ये सशरीरस्य प्रियाप्रियपोरपद्दतिरस्ति" इति श्रुतिः। विशे० ।
हव्य - हव्य - न० । शीघ्र, अनु० । स्था० । आचा० । ० । जी० । श्र० । नं० । भ० । विपा० । नि० ।
- देशी सतृष्णे देना० ८ वर्ग ६२ गाथा ।
।
हलूरइल-हल्ल-पुं० । चम्पा कृषिकराजचातरि श्रेणिकस्य हव्यवाह- हव्यवाह पुं० [अम्मी आचा० १ ० ४० बेलागर्भजे पुत्रे, भ० ७० ६ उ० ।
>
३ उ० ।
"नामा विस्तादेवी अंग जाप से भायरा वि अस्थि । अहुणा हारस्स उप्पती मनइसकी यस्स भगवंत पर निष्यसि पर्ससंकरेह । तम्रो सेडुयस्स जीवदेको तम्भतिरंजिश्रो सेगिस तुट्ठो संतो अट्ठारसर्वक हार देह, दोभि य वट्टगोलके दे। सेपिणं सो हारो बेल्लणार दिनो पियति काउं, यह सुनेर अभयमंतिजरागीर तार हट्टाए किं अहं
इस इस धा० हासे, इनिष्कासने, "ते
1
-
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| ४ | २३६ ॥ इति अन्ते ऽकारः । हसइ । प्रा० । “ इसेर्मुजः ॥। ८ । ४ । १२६ ॥ इति इगुआदेश गुंजा । इसति । प्रा० । " वर्त्तमाना - पश्चमी - शत्रुषु वा " ॥ ६ । ३ । १५८ ॥ इति श्रकारस्थाने एकारो या । इसे | इस प्रा० ३ पाद ।
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रूति काऊ अच्छोडिया भग्गा, तत्थ | हसत - हसत् - त्रि० । परिहासं कुर्वति भ० १३ शु०६३० । “ईतः
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हसंत
(१९६६) अभियान राजेन्द्र |||३|२८|| इति जरासोश्च स्थाने श्राकारो वा । एसा इसतीश्रा । प्रा० ३ पाद ।
हसण - हसन - न० । हासे, स्था० ४ ठा० १ उ० । पञ्चा० । नि० चू० ।
चू० ४ उ० ।
जे भिक्खू मुहं विष्फालिय विष्फालिय हसइ हसंतं वा हसणिज - हसनीय त्रि० । हसितुं योग्ये प्राचा० १ ०२ साइज ।। २६ ।
अ० १ उ० ।
मुखं पक्कं वच एग फालेति विडानि अतीव फालेति विनिविविधैः प्रकारका निष्फलेति विवाद (डि) कारवत् । वीप्सा पुनः पुनः मोहनी हास्य, तस्स हा उप्पत्ती ।
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गाहा
पासित्ता भासित्ता, सोतुं सरितू वा विजे भिक्खू । विकासाथ सुविचार कहकहं हसती ।। २५६ ।। असा वा अतिविषयविभागम कारणसी कागसरडादिता पुस्वर
कलियाति सरिऊण मोहमुदीकं अगर या हासुपाय सविकारं महंतेण वा उक्कलियासदेव कहकहं भएपति, जो एवं हसति ।
गाहा
सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविधा | पावति जम्हा तेगं सवियारकदक ग इसे ॥ २५७ ॥ को दोसो ?,
गाहा
पुण्यामयष्यको वो अहां व धमणी गलस्य गहणं वा । असंवुडणं भवेजा, तावसमरणेण दितो || २५८ || पुवामयो सुलातिरोगो सो उवसंतो पकोवं गच्छति । कराणस्स श्रहो महंनी गुलसरणी मता भवति ता घेपेज, मुहस्सा भवेज जहा से मुका य इसमाणस्स तारिसं चैव बद्धं, ताहे जेण श्रायपिंड तावित्ता मुहस्स होइत, मंबुडं जातं किंचान्यत् पंचसता तावसा गं मोयर भक्वंति। तत्थ एगेण प्रदेसकाले दादिया मोडिया सध्ये पलिता गललग्गदि मोय सध्ये मता
गाहा
श्रासं कवेरजणगं, परपरिभवकारगं च हासं तु । संपातिमाण य वहो, इसयंत मयगदितो ॥ २५६ ॥ परस्स का प्रवेश हसितो तिच अहमण हसितोति वेरसंभवो भवति । इतेहि परपरियो को भवति संपातिमादिमुं पथिति यदि य भणिया सहदेव उचि निदेति ! म मासु ति इसति राया स संक कर या साधुरिति राया कि मो तिदेवी भणति इह भवे सव्यसुहवर्जितत्वात् मृतो मृतवत्
,
गाहा
|
बितिय पद मणप्पज्झे, उप्पात विकोविते य अप्प जाते दावि पुसो, सागरितमाइकजेसु ।। २६० ॥ सागारियमातिकजेसु लागारिधं मेहुएं का पिडिवुद्र
हार्ड
वसहीए सेवनि, ताहे इसिज्जति जे गातोऽयमिति लजियामोहो णासति । श्रहवा मा अपरिणया हरिथगाए सहं सु हेतु हिसित दिसतो कार जागरातिसु
इसमाबी इसन्ती श्री " अजातेः
॥ २३३॥
स्त्रियां वर्त्तमानात् पुल्लिङ्गात् ङीवी | इसमाणी | इसमाणा । हासं कुर्वत्याम् प्रा० ३ पाद ।
,
हसह सेऊण - जाज्वलित्वा-अव्य० । भृशमुद्दीपितो भूत्येत्यर्थे,
बृ० ३ उ० ।
-
हसावित्र हासित ० " लुगावी भाषक " ॥ ८ । ३ । १५२ ॥ इति णः स्थाने लुगावि इत्यादेशौ भवतः । हासि । हसाविश्रं । हासं प्रापिते, प्रा० ३ पाद । हम हसित वि० क्रे" । ८३ । २५६ ॥ परतो इश्वम्, हसि । हासकारिते, प्रा० ३ पाद | हसिऊण- हसित्वा-अव्य० । एच क्त्या- तुम्-तथ्य भविष्यत्सु || ८ | ३|१५७ । इति श्रत एकारः इकारश्च । इसे। हसिऊण । हासं कृत्वत्यर्थे, प्रा० ३ पाद ।
हमित - हास्यमान- प्रि० । " ईश्र इजौ क्यस्य " ||३|१६०॥ इति पस्य स्थाने इंधन इत्येतावादेशी 1 सितो दासविपक्रियमाणे प्रा० ३ पाद
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हसितून - हसित्वा श्रव्य० । क्त्वस्तूनः " ॥ ८ । ४ । ३१२ ॥ इति पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशः । हसितॄन । हासं कृत्वेत्यर्थे प्रा० ४ पाद
हसिय- हसित - न० । वक्रोक्किगर्भे हसने, प्रथ० १६६ द्वार |
दश० । ईषत् हासे, प्रश्न० ४ संव० द्वार। औ० । कपोलयिकाशिनि प्रेमसंदर्शिनि च हसने, जं० २ यक्ष० । जी० । हसितं यत् कपोलविकाशमा सूचितं नत्यदृट्टहासादि । ० । उद, विशे० । इसिरहसि ०" शीलाद्यर्थस्येः ८२ १४४ ॥ दांत शीलार्थप्रत्ययस्पेरादेशः इसनशीले प्रा०२ पा हसिरिया - देशी - हास्ये, वे० ना०८ वर्ग ६२ गाथा । हस्स - हूस्व-- त्रि० । वामनकादशै, सूत्र० २ ०१ प्र० । प्राचा० । को० । प्रश्न० ।
हस्य - २० | हसने, भ० १ ० ६ ० । प्रश्न० ।
घर्ष - पुं० । घर्षणे, प्रशा० २ पद ।
हस - ध० | इसने, “गमादीनां द्वित्वम् " ॥ ८ । ४ । २४६ ॥ - ति सकारस्य द्वित्वम् । हस्सह । इसति । प्रा०४ पाद । हहा हहा- अन्य । खेदे, स्था० ।
हा-हा--अव्य० । महत्खेदे, उत्त० २१ श्र० । सं० ।
हाउं - हापयित्वा - अभ्य० । वञ्चयित्वेत्यर्थे, बृ० ३ ० ।
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हाँसल
हांसल - हांसल - न० । श्रर्धचन्द्राकृतिगलाभरणे, अनु० । हाडहड- देशी न० | तरकाले व्य० ५ उ० | हाडहडा देशी बी० नपुगुरुवासादिपापग्रस्त
1
एव यस्यां दीयते सा हाडहडा । श्रारोपणाभेदे स्था० ५ ठा० २ उ० | ति० ० | व्य०। ( अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता ' श्रारो
,
पण शब्दे द्वितीयभागे ३६ पृष्ठे गता । )
हार
लंतरेण पिउणा लजिउमारा। पच्छिमे से निलओ को । लाधि से सुदामा मिराश्राषिमा दायंति। तेन पयाणि ममद हामि
चेव नाढायंति, नहा करेमि जयाणि त्रि बसणं पाविति । नया तेण पुता सद्दाविया, ) - पुत्ता! किं मम जीविए?, अम्ड कुलपरंपरागतं करेमि तोकाहामिद से काल गली दिएगो सो पाच पाये जा नायं सुमहियां एस कोढें ति ताहे लोमाणि उप्पाडेर फुमिति पनि ना मारेला भाग्यो, दि कोढेण गहियाणि । सो विद्वेता नट्ठो, एत्थ अडबीए पव्ययदी सालावास तयापलफलागि पर्वताणि तिफला य पडिया । सा सारएण उपदेश कक्को जाओ मिहिर, सखा जाओ। आगो सगि, जो भर कि ते नदेि मेनासिता पण हि तो वि मम सिह, सांई ताकि तुमेपि भाइ - वाढंति, सो जरोण खिसिश्रो, ताहे नो गो रायगि दारवाणि समं दारे वसा, तत्थ वारजक्खणीए सो मरुश्री भुंज. श्रण्या बहु उंडेरया खइया, सामिस्स 'समोसरणं । सो वारवालियो तं ठवेता भगवओो बंदश्रो पर । सो वारं निसारयो म बावीर को जाओ। पुण्यभयं संभरह उतिरको बाधी पहा सामि संगिय नीति सचेंगलपारा किसा
"
मनो देवो जानो, सको सेण्यिं पसंद । स समासरणे सेणिग्रस्स मूले कोढियरूयेण निधिट्टो तं चिरिका फोडिला सिद्द । तत्थ सामिया छियं भण-मर, सेणियं जीव, अभयं जीव वा मर या कालसोरियं मा मर मा जीव । कुमारओ मर मग मनुस्सा सरिया, उट्ठिए समोर पलोइश्री. न तीरद्द गाउं देवाति घरं दिसे पर सो को लि तो सेडुगतं सामी कद्देइ, जाय देवो जाओ। ता तुमेकि संसारे जिस ताथ सुहं, मी नरयं जाहिसि सि । अभयो हवि बेहसाडुवाद पुणे समजा मी लो
अच्छ्द्द
हार हार पुं० [अष्टादशसरिके, रा० जं० प० जी० शा० । श्राभरणविशेषे जी० ३ प्रति०४ अधि० । शा० । "सेस्सि किर ररागो जायतियं रज्जस्त मोल्लं तावतियं erferee हारस्स । (श्राव०) हारस्स का उत्पत्ती कोसं चीरणयरी धिजाइणी गुब्विणी परं भगह - घयमोल विद येहि मयामि भराया पुण्फेड ओलाह नय पारिजिससे फफनावी एवं कालो बच्चा, पजोश्रो य कोसंयि श्रागच्छ, सो य स - यागीश्री तम्स भरण जउगाए दाहिणं कूलं उट्ठविता उत्तरकुलं ह। सो य पजोश्रो न तरह जउ उतरि कोर्सचित य नस्ल तहारिगाई तेर्सि वायस्मिन गहिश्रो कनासादि छिंद. सयाणि य मरणुस्मा एवं परिखीणा । एगाए रलीप पालाओ. नं च तेरा पुष्कपुडियागरण दिट्ठ रराणो य निवेश्यं राश तुडो भइ कि वैमि ? भगति - मणि पुच्छामि पुना समान एवं सो जेमेह दिवसे दिवसे दारं देवद, एवं ते कुमारालो या निति- एस रो अग्गासरियो मागगीश्रो पण जाणी भणिषा सामेल - साहिसा कीरड नि ते दीगणारा वैति, खडावाणिश्रो जाश्रो, पुत्ता विनेच्छु, मारेमि ते तथा वि नेच्छइ । कालो वि. नेछु ति से जाया सो तं बहुये जेमेयब्यं न तरह। ताहे - विग्वालोभेण यमे घमंड जिमिश्रो, पच्छा से कोढो आयो, अभिन्नस्तेन ताहे कुमारास्नावि-पुते ! विसजेद्द, ताहे से पुना जेमे, ना वि तद्वैव, संतती का
कालो जर जीव दिवसे दिवसे पत्र महिललयाई बाबापड् मश्रो नगए गच्छइ । राया भगइ श्रहं तुम्मेहिं नाहिं कीस नरयं आमि ? केण उवारण वा न गच्छेजा ?, सामी भग-ज कविलं माहर्षि भिक्खं दावेसि कालसूरियंसू मोपसि तो न गच्छसि नरयं । श्रीमंसियाणि गारेति सो पकिर अभयसिओ का [कविता] न पडिय
-
"
1
,
.
भाइ-मम गुणेश पत्तिश्रो जो सुद्दिश्रो नगरं च एत्थ को दोसो ?, वहस पुलो पालो नाम सो अभारण उवसामि - श्री. कालो मरिडार से असक्षमया पाउ
•
·
। अरण्या महिसस्याणि पंच
हाथि हानि-बी०
नपादिविषायां शती पञ्चा
३ विष० । (जीवाः किं वर्द्धन्ते हीयन्ते वा इति 'विडि शब्दे मागे उम्) अवधिज्ञाने तस्व चतुविधा दानिरुक्ता ।
9
श्रा० म० १ श्र० प्रा० चू० । हाणोवाय-हानोपाय पुं० । स्यागसाध्याम् द्वा० २४ द्वा०| हाय-हायन- पुं० न० । वर्षे ध० २ अधि० । संवत्सरे, १ श्रु० १ ० ।
1
ज्ञा०
हायणी हापनी खी० पनि पुरुषमिन्द्रियति
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याणि मनाक स्वार्थग्रहणाय पहूनि करोतीति छावनी । स्त्रियाम् स्था० १० ठा० ३ उ० । दशाविशेषे, तं० ।
खड्डी उहायशी नामा, जं नरो दसमस्थियो । विरजई उ कामेसु इंदिए व हाई ।। ६ ।।
( १२००) अभिधान राजेन्द्रः ।
"
•
पीडापनी नाम्नी दशा वर्त्तते, यां छापनी दशां नर श्राश्रितः 'विरज्जर' त्ति प्रवाहेण विरक्तो भवति । केभ्यः ? कामेभ्यः काम्यन्त इति कामाः कन्दर्याभिलाषास्तेभ्यः इन्द्रियेषु श्रवण घाणचक्षुर्जिह्ना स्पर्शन लक्षणेषु हीयत-हानि गच्छतीत्यर्थः ः। तं० ।
"
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J
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अभिधानराजेन्द्रः। प्रत्तेण से पलावियाणि, तेण विभंगण दिहाणि मारियाणि माने, कल्प०१ श्रधि०२ क्षण । स्था।' हालांवरयपच्छे' य सोलस य रोगायंका पाउम्भूया, विबरीया इंदियत्था जा- हारेण विराजमानं 'वच्छ त्ति 'हृदयं यस्य । कप या, जं दुग्गंधं तं सुगंध मन्नाह । पुत्तेण य से अभयम्म कहि- १क्षण । हारविराजितं वक्षा येषां विराजिलपक्ष। यं, ताहे चंदणिउयगं दिजा । भण-श्रहो मिट्ट विण श्रा- जी०३ प्रति०४ अधि०।"हादरायर हयदछ, "हार लिप्पर पामसं पाहारो, एवं किसिऊण मो, अहं सत्तम
विराजमानेन रचित शोभित वक्षो यस्य सवारविराज गयो । ताहे सयणेएस उविजा सो नेवा मा मरग। रचितवक्षः । रा० भी। जाहस्सामिति सोलह । ताई भणंति-अम्ह विगिचिस्सा- हारि-हारिन-त्रि० । मनमाहादागिगि , माराश्र. मोतम नवरंपर्क मारेहिसेसर सब्वे परियणो मारेहिति । ०२०। पत्थीए महिसो बिए कुहाडो य रत्तचंदणेणं रत्तकणधीरे-हारिभ-हारिभट-पुंकारिभदस्यन्द हरिभदा देर हि, दोवि डंडीया मा तेण कुहाडपण अप्पा हो पडिओ
। सूरेः सम्बन्धिनि, पो० १६ विवः । बिलया, सयणं भण-पय दुक्खं अषणेह, भणंति-न सीरति । तो कह भण-अम्हे विगिचामो ति?, एयं पसंगण
हारि(री)प-हारीत-पुं०। कौत्सगोविशेषायके मामभणियं, तेण देवेण सेणियस्स तुडेण प्रडारसबंको हारो दि- | ख्याते ऋषी, स्था०७ ठा० ३ उ० ले . नाच ! एणो, बोरिण र अक्खलियबहा दियणा । सो हारो चेलणाए। प्रा० म०१०। गात्रभेदे, कर
ना । नियोपिय त्ति काउं, यहा नंदाए । ताए कट्टाए किमहं चेड- हारिरी)या-हारीता-स्त्रीश्रीगुरास रुब सि काऊण अनिरक्खिया खंभे भावडिया भग्गा,
| प्रथमशाखायाम् , कल्प०२पाधि तस्थ एगम्मि कुंडलजुयलं , एगम्मि देवदूसजुयलं , तुहाए
हारिरी)यायण-हारीतायन-पुं० । हारतायेगा . गहियाणि । एवं हारस्स उपपसी।" श्राव० ४ ० ।
| २ अधि०८क्षण। 'हारुत्थयसुकयरायपत्थे हारेण अवस्तृतम्-आच्छादितम् ।।
हारीस-हारीश-पुं० । म्लेच्छुदेश - भारत अत एव सुष्टु कृतं रतिकं धीनां प्रमोददायि एवंविधं पक्षो। रवयं यस्य स तथा । कल्प०१अधि०३क्षण । हरणं हारः ।
| ध्ये च । प्रशा० १७ पद २ उ०। हती, व्य०१ उ० । स्वनामण्याते द्वीपे , जी०३ प्रतिहारोत्थय-हारावस्तृत-त्रिक ।
हामिले, अधि०। सू० प्र०।
अधि० ३ क्षण । “हारोत्थय सुकवरहगरका " ..
स्तृतेन-हारायच्छादनेन अनुष्टु कृतरीनलमा-उरो ५ हारज्झयण-हाराध्ययन-न० । गृशिवशानां नवमाध्ययने,
औ०भ० । हारेणावस्तृतमापराविनंतने र स्था०१ ठा०३ उ०।
च यक्ष-उरो यस्याः । तं०। द्वारणिगर-हारनिकर-पुं० । पुम्जीकृतमुक्ताहारे, कल्प० १ हारोद-हारोद-पुं० । हारद्वीपमानित अधि०२क्षण।
ও আঁখি द्वारपडपाय-हारपटपात्र-म० । लोहपात्रे, भाचा०२६० १ हाल हाल--पुं०।'पणिहि' शब्दे गा मा . चू०६ ०१ उ०।
कच्छराजे, आक०४०। द्वारमह-हारभद्र-पुं० । हारद्वीपे स्वनामण्याते देवे, जी० ३ हाला-देशी-कस्मिंश्चिद्देश पुरयायामन्त्रणे, या प्रति०४ अधिक। हारमहाभ-हारमहाभद्र-पुं०। हारडीप स्वनामच्यात देव, हालाहल-हालाहाल-पुं० श्रावण मारियमी जी०३ प्रति०४ अधि।
के स्वनामख्याते कुम्भकारे , भ. १५ श० । न्द्रय जाति-- हारमहावर हारमहावर-पुं०। हारसमुद्रे स्वनामण्याते देवे, शेषे, प्रहा०१ पद । स्थावरविषद. ग.२ १०। जी० ३ प्रति०४ अधिक।
हालिञ्ज-हारीत-न । स्थविरात् श्रीगुप्ताशिरस्य नारा हारव-नश-धा० । प्रदर्शने, " नशेविउड-नासव-हारव- गणस्य तृतीये कुले, कला र विप्पगाल-पलायाः" ।।४।३१॥ इति नशधातोार-हालिद्द-हारिद्र-त्र० । हरिद्राव, पीते , कग० १ कर्म । बादेशः। हारवा नश्यति । प्रा०४ पाद ।
सू०प्र०। रा०। जी। हारवर-हारवर-पुं० । स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्र व । चं०प्र० एगे हालिद्दे । स्था० १ ठा। २० पाहु । जी० । सू०प्र० । हारवरद्वीपे स्वनामख्याते देवे, हालिदणाम-हारिद्रनामन्-न० । यदुदयात् जन्तुशरीरं हाजी०३ प्रति०४ अधिक।
| रिन्द्र-पीतं हरिद्रादिवद्भवति तद हारिद्रनाम । वर्णनामहारबरोभास-हारवरावभास-पुं०। स्वनामख्याते द्वीपे,समुद्रे भेद, कर्म०१ कर्मः। पहारवराधमासे स्वनामख्याते देवे,जी०३ प्रति०४ श्रधि हालियड-हालिकापड-न० । गृहकोलिकायाः ब्राह्मण्या वा हास्वरोभासमहाभ--हारवरावभासमहाभद्र-पुं० । हारवराय- अण्डे, कल्प० ३ अधिक क्षण । भाससमुद्रे स्वनामख्यात देवे, जी०३ प्रति०४ अधि०। । हालिय-हालिक-पुं० । हलेन व्यवहरतीति हालिका - हारविराज्य-हारविराजित--त्रि० । मौक्तिकादिमालया शोभ- | नु० लालिके,बा.श्रु०१०।
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हालिया
हामील
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हालिया हालिका श्री० [दोलिकायाम् ब्राह्मण्यां च दासंभाग- दासध्यान- १० हासो हास्यं तस्य ध्यानं च । । रुद्राचार्यशिष्यस्यैव मित्रसहितस्य यहाकुमारं प्रति सुन्दरमृषाऽस्य च वा । दुर्ध्यानभेदे, आतु० । दासकम्म दास्यकर्मन् १०
समनिमिया
इसति तत्कर्म हास्यम् । मोहनीय कर्मभेदे, स्था० ६ ० ३ उ० ॥ इासकर- हास्यकर पु० हास्योपजीविशे० ० ३३ उ० | श्र० । जं० | हास्यं च विचित्रवेषवचनैः स्वस्य परेषां हासनं भाण्डवत्पर छिद्रान्वेषणं वेति तत्करः । ध०३ अधि बेपरचनादिना स्वपरहासोपा, स्था० ४. डा० ४ ४०
कल्प० ३ अधि० १ क्षण ।
हाव- हाव- पुं० । मुखविकारलक्षणे स्त्रीयां चेष्टाविशेषे शा० १ ० १ ० रा० ।
इास दास-पुं०] इसने हाथः हास्यमोहनीयकमोि वधीयमाने दर्श० १ तस्थ भयादिनिमिले थे
"
तोविल, आचा० १ श्रु० २
०
कारे स्था० ३ ठा० १
०० । मोहोदयजनितविउ० । स्त्रीभिः सद्द हसितें, नि० चू० १ ३० । हासाद्भवन्ति हाससम्भूतत्वाद्वा हासाः। हासजेषूपसर्गेषु, स्था० ४ ठा० ४३० । दाक्षिणात्यानां महाकन्द्रव्यन्तराणामिन्द्रे, स्था० २ठा ३३०| हास्य- न० | हास्यतेऽनेनेति हासस्तद्भावो हास्यम् । हास्यमोहनीये कर्माणि दश० १ ० । इसने, ग० २ अधि० । यसनिमित्तमनिमित्तं वा इसति तद्धास्यम् । वृ० १ ३० ३ प्रक० | उत्त० । श्राचा० । प्रव० । विरुतासम्बद्धपरवचनयेषाकारादिदास्याप्रभवे मनःप्रकर्षादिवेशात्मके रसभेदे, अनु० ।
"
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(१२०१) अभिधानराजेन्द्रः ।
हास्यरसं हेतुलक्षणाभ्यामाहरूपचयवेसभासा, विवरीअपिलंपासमुप्पएको । हासो मयप्पहासो, पगासलिंगो रसो होइ ॥ १४ ॥ हाम्रो रसो जहा
पासुत्तमसीमंडित्र, पडिबुद्धं देवरं पलोत. ही जह थणभरकंपण-पणमित्रमझा इसइ सामा || १५|| पोदेवभाषाणां दास्योत्पादना वैपरीत्येन या विड स्वनानिवेना तत्समुत्पन्नो हासो रसो भवतीति संयोगः पुरुषादेयचिदादिरूपकरणं रूपवैपरीत्वं तरुया देवृद्वादिभावापादनं वयोवैपरीत्यं राजपुत्रादेर्वणिगादि
धारणं वेषवैपरीत्यं, गुर्जरादेस्तु मध्यदेशादिभाषाभिधाभाषावैपरीत्यम् चकभूतः स्यादित्याह 'मगध्या सो' लि मनकारी प्रकाश नेत्रादिविकाशस्वरूपी लिङ्गं यस्य स तथा अथवा प्रकाशानि प्रकटान्युदरप्रकअपना हट्टहासादीनि लिङ्गानि यस्येति स तथेति ॥ १४॥ असु तमसी' त्यादि निदर्शनगाथा इह कदाचिद्वध्वा प्रसुप्तो निजदेव मण्डनेन मण्डितः प्रबुद्धं साहसनितांच सीमुपलभ्यत्पश्यर्तिनं कञ्चिदामम माह-हीति कन्दर्णातिशयद्योतकं वचः पश्यत भो श्यामा स्त्री यथा हसतीति सम्बन्धः, किं कुर्वती ? देवरं प्रलोकयन्ती । कथं भूतम् ?'पासुते' त्यादि निरूढादिवत्र कर्मधारयः- पूर्व प्रसुप्तश्च सौ ततो मषीमण्डितश्वासौ तनोऽपि प्रबुद्धख स तथा तं कथंभूता ? स्तनभरकम्पनेन प्रणतं मयं यस्याः सा तथेति । अनु० । प्रहसिकाभिधाने रसविशेये प्रश्न०५ सर्व १ द्वार । "हातं खेडं कंदपणाहं वा प करेजा उबलाएं" मद्दा० १ श्र० । हास्य न सेवितव्यमिति सत्यवचनस्य पञ्चमी भावना । प्रश्न० २ संय० द्वार । (माच 'मुसावायचेरमण' शब्दे षष्ठे भागे पृथ्या । ) व्यन्तरभेदे स्था० २ ठा०३ उ० । आचा० ।
•
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"
"
হय
अथ हासकरमाह
सवयहि हासं, जणयंतो अप्पणो परेसिं च । यह हासो त भन्नई, घयणो व्त्र खले नियच्छतो । ४७०१ 'घो' भारतक निरन्तरमन्बेषयन् तादृशैरेव
क त्रैरात्मनः परेषां व प्रेक्षकाणां हास्यं जनयन् उत्पादयन्, अथैहासतो हास्यकर इति भण्यते । वृ०१ उ०२ प्रक० ० ० । दासकृय हास्यकुहक पुं० दास्यारिकुदके, 'विहा 'कुहराजे स भिक्खू' दश० १० अ० । हासणिस्तिय--हासनिश्रित- न० । मृषाभेदे यथा कन्दर्पकाणां कस्मैिधिरधिनिमित्यादि । स्था० १० ठा० ३ उ० ।
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हास बोलबहुल- -हास बोलबहुल - पुं० । हासबोलौ च बहुलावतिप्रभूतौ येषां ते हासकोलबहुलाः । हास्यकलकलप्रचुरंषु, जी० ३ प्रति० ४ अधि० ।
हास मोहणिअ - हास्यमोहनीय न० । मोहनीय कर्मभेदे, यदुदयवशात्सनिमित्तमनिमित्तं वा इसति स्मयते वा तद् हासमोहनीयम् | पं० सं० ३ द्वार । कर्म० । हासविता-हासवितृ त्रि० परिहासकार
,
प्रश्न १
आश्र० द्वार ।
--
हासण- हासन - पुं० । हास्यकरे, पं० २०५ द्वार । हासरइ--हास्यरति पुं० । औत्तराहाणां महाक्रन्दव्यन्तराणामिन्द्रे स्था० २०३ उ० दास्यरतियुगले, 'दासरकुच्छाभयभेदा " हास्यं च रतिश्व कुत्ला च भयं च हास्यरतिकुत्साभयानि तेषां भेदो व्यवच्छेदो हास्यरतिकुत्साभयभेदः । कर्म० ४ कर्म० ।
1
हासा - हासा स्त्री० । उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिक्कुमायम् आ० चू० १ ० । जं० / ० क० । हालाइक हास्यादिषट् न० हास्यरस्यरतिशोकजुगुप्सा रूपे दास्योपसते पट्टे कस्० ६ कर्म० ० ०
-
हा सावित्र हासित[- न० इस खिच् । ऐरायादेथे कृते । "अ देल्लुक्यादेरत श्राः ||३|१५३॥ इति आदेरत श्रभवति । हास्य कारिते, प्रा० ३पाद ।
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।
हासीx देशी- हास्ये, दे० ना० ८ वर्ग ६२ गाथा ।
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हासुस्सित अमिधानराजेन्द्रः।
हिंडग हासस्सित-हासोत्सत-पुं०। हासेन युक्त उम्सृतो हष्टो हासो- भवति कृत्रिमस्य तदचित्तत्वे किं वाच्यम् ? तथापि तस्य न्सृतः । हसितमुखे पहले, व्य० २ उ० । ।
सचित्तताव्यवहारः क्रियते, तत्र को हेतुरिति प्रश्नः, अत्री
त्तरम्-हिङ्गलः खानिजा योजनशतादः परत आयातत्वात्कृहाहकिय--हाहाकृत-त्रि० । धिगिति भणनपूर्वक थूकते ,
त्रिमश्व स्वत एव उभावप्यचित्तौ ज्ञायते,तद्ग्रहण तु मनाचीवृ०३ उ०।
तया तेन साम्प्रतं संवर्तितः सन् गृह्यते इति यतिव्यवहार हाहा-हाहा-अव्य० । दुःखार्तलोकवचने , जं० २ वक्षः।। इति ॥ ३३५॥ सन०३ उल्ला। विपा० । गन्धर्वविशेषे, प्रज्ञा १ पद ।
हिंगुलयसमुग्गय-हिङ्गुलकसमुद्गक-पुं०। हिङ्गुलकरक्षार्थहाहाभूत्र-हाहाभूत--पुं० । हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्त- सम्पुटे, जी० ३ प्रति०४ अ०। लोकेन करणं हाहोच्यते । तद्भसः प्राप्तो यः कालः स हिंगुसिव-हिङ्गशिव-पुं० । हिङ्गुमयशिवलिले. स्था०४ ठा०३ दाहाभूतः । हाहेप्ति शब्दं प्राप्ते काले , भ० ७ श० ६ उ०। उ० । दश०('ठवणाकम्म' शब्द चतुर्थभागे १६८४ पृष्ठे व्या
दुस्समदुसमाए समाए हाहाभूए काले भविस्सद " | ख्यातमेतत् ।) जे०२ वक्षः।
हिंगोल-हिङ्गोल-न० । मृतकभक्ते, यक्षादियात्राभोजन च । हि-हि-अव्ययस्मादर्थे. विशे० । सूत्र० । रत्ना० । निश्चिते, श्राचा०२ श्रु० १ चू० १ १०४ उ०। ध०३ अधि० । अष्ट०। प्रतिभा पुनरर्थे,विशे० । भावनासूचने, हिंडग--हिंडक-पुं० । पर्यटके साधौ,सूत्र०१ श्रु०२ १०३ उ०। पश्चा०१४ विव०। एवकारार्थे, पश्चा०२ विय० । प्रशान्तिभा
इदानी हिण्डक उच्यतवातिशये, अनु०।
उवएस अणुवएसा, दुविहा अ हिंडा समासेणं । हिप-हुत-त्रि० ।" इत्कृपादो"1८1१।१२८॥ कृपादित्वाद
उवएस देसदसण, अणुवएसा इमे होंति ॥११८॥ त इत्त्वम् । अपहते, स्थानान्तरे गमिते च । प्रा०१ पाद ।
उपदेशहिण्डका, अनुपदेशहिण्डकाश्च । एवं द्विविधा हिहित-न० । कल्याणकप्रापके, दश०५ १०१ उ० ।
राडकाः समासतः-सपेण । ' उबएस' त्ति उपदेशहिकिं कर्तव्यमित्याह
राडको यो देशदर्शनार्थ सूत्रार्थोभयनिष्पनो हिराडते-वि
हरति । 'अणुवदेस' त्ति अनुपदेशहिण्डका इमे भवन्ति अप्पहियं कायव्वं, जइ सक्का परिहियं च पयरेखा ।
वक्ष्यमाणकाःअत्तहियपरहियाणं, अत्तहियं चव कायव्वं ।। महा०४
चके धूभे पडिमा , जम्मण निक्खमण नाण निव्वाणे । अ०।
संखडि विहार आहा-र उवहि तह दंसणट्ठाए ॥११॥ हिमश्र--हृदय-न० । “स्वार्थे कश्च वा" ॥ ८।२। १६४ ॥ चक्रं-धर्मचक्रं स्तूपा-मथुरायां प्रतिमा-जीवन्त
इति प्राकृते स्वार्थिकः कप्रत्ययः । अन्तः करणे, प्रा०२ पाद। स्वामिसंबन्धिनी पुरिकायां पश्यति, 'जम्मण 'त्ति जन्महिअडड-हृदय-न० । “ योगजाश्चैषाम् " ॥८।४।४३०॥
यत्रार्हता सीरिकपुरादी व्रजति,निष्क्रमणभुवम्-उज्जयन्ता
दि द्रष्टुं प्रयाति, ज्ञानं यत्रैवात्पन्नं तत्प्रदेशदर्शनार्थ प्रयाति इति स्वार्थे डडप्रत्ययः । “फोडेति जे हिअडर्ड अप्पण।"
निर्वाणभूमिदर्शनार्थ प्रयाति । संखडीप्रकरणं तदर्थ व्रजति , अन्तःकरणे, प्रा०। हिअडा फुट्टि तड सि करिकालक्खे,
'विहारे' ति विहारार्थ व्रजति , स्थानाजीर्ण ममात्रतिकाई । प्रा०४ पद।
'आहार' ति यस्मिन् विषये स्वभावनैव चाहारः शोभनहिअपवित्ति-हितप्रवृत्ति-स्त्री० परार्थपरमार्थकरणे,पं० २०२ स्तत्र प्रयाति । ' उर्वाह ' ति अमुकत्र विषये उपधिः शाद्वार।
भनो लभ्यत इत्यतः प्रयाति, 'तह दसणटाए ' तथा रम्यहिअय-हदय-न०1" इत्कृपादौ" ॥८।१।१२८॥ इति श्रा- देशदर्शनार्थ व जति । देव॒त इत्त्वम् । हिअयं । अन्तःकरणे, प्रा० १ पाद ।
एते अक्रारणा सं-जयस्स असमत्त तदुभयस्स भवे । हितक-पुं० । हितकारिणि, कल्प० १ अधि० ३ क्षण। ते चेव कारणा पुण,गीयत्थविहारिणो भणिया ।१२०/
एतान्यकारणानि संयतस्य, किंविशिष्टस्य ?-असमत्ततहिअयगमणिजा-हृदयगमनीया-स्त्री० । हृदयप्रतादिहनत
दुभयस्य-असमाप्तसूत्रार्थोभयस्य संयतम्य भवन्ति अकाशोकायुच्छेदिकायाम् , कल्प० १ अधि० ३ क्षण ।
रणानीति । ते चेय ' त्ति तान्यव धर्मचक्रादीनि कारणानि हिंगु-हिङ्ग-नारामटदेशोद्भवे वृक्षे, हिङ्गो च। यस्य निर्यासो
भवन्ति, कस्य ?-' गीयत्थविहारिणो' गीतार्थविहारिणः हि द्रव्यम् । ल।
सूत्रार्थोभयनिष्पन्नस्य दर्शनादिस्थिरीकरणाथै विहरत इति । हिंगुरुक्ख-हिमवृक्ष-पुं० । वृक्षविशेषे , यस्य निर्यासो हित
तथा चाहभवति, भ०८ श०३ उ०।
गीयत्थो य विहारो, विइओ गीत्थमीसिओ भणियो । हिंगुलय-हिालक-न० । स्वनामख्याते वर्णकद्रव्ये,शा० १७० एत्तो तइअविहारो, नाणुनाश्रो जिणवरेहिं ॥१२१॥ १०। सूत्रः । श्राचा । उत्त० । खनिजोऽपि हिङ्गलः 'गीयत्थो' गीतार्थानां विहारः-विहरणमुक्तम् । 'वि"जोत्रणसयं तु गंतुं' इत्यक्षरबलात् प्रवहणाझगतोऽचित्ती- इता गीयत्थमीसिओ' द्वितीया विहारः-द्वितीयं विहरणं
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(१२०४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
हिंग
गीतार्थमिश्र - गीतार्थेन सह, इतस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो- मोक्लो जिनवरैः ।
किमर्थमित्यत आहसंजम प्रायविराहण, नाणे तह दंसणे चरिते अ । आणालोग जिणार्थ, कुब्बइ दीहं तु संसारं ॥ १२२ ॥ संयमविराधना आत्मविराधना तथा ज्ञानदर्शनचारित्राणां विराधना, महालोपथ जिनानां कृतो भवति, तथा अगीसार्थ एकाकी दिन करोति दीर्घ संसारमिति ।
इदानीमेव ( निर्यु)ि गाथ भाष्यकारो व्यावयानय साहसंजमतो छकाया, भाषाकंट डिजीर गेलभे । नाये नायायारो, दंसण चरगाइवुग्गाहे ।। ६७ ॥
'जमतो का संयमविराधनामङ्गीकृत्य पट्टाधिरा धना संभवति । 'आय' ति आत्मविराधना संभवति, कथं ?, 'कंट डिजी रगेलसे' कण्टकेभ्यः अस्थिशक लेभ्यः माहारस्थाजरणेन तथा ग्लानत्येन । 'नाणे' ज्ञानविराधना भवति, कथं ? स हिण्डन ज्ञानाचारं न करोति, 'दंसण चरगाहउग्गा' दर्शनविराधमा, कथं संभवति ?, सागीतार्थश्वरकार तथापति दर्शनम् किं पुनः कारणं चारित्रं न व्यापातम् उच्यते- ज्ञानदर्शनाभावे चारित्रस्याव्यभाव एव द्रष्टव्यः । द्वारम् । एवं तावदेकः कारणिको 'निकारणयो] प सोचि डाएट्टिम्रो कृतितोप भतिम्रो
"
इदानीमकान् प्रत्युपेक्षकान् प्रतिपापयन्नाहशेगावि होति दुविधा, कारण निकारणे दुरिहभेओ । जं एत्थं नाणसं, तमहं बोच्छं समासेयं ।। १२३ ॥ अनेकैपि द्विविधा भवन्ति कतमेन नियेन त आह कारण निवारण सिकारमय प्रकार बाड़ीकृत्य द्विविधाः, दुविहभेद ' ति पुनर्द्विधो भेदः से कारfरकारले स्थानस्थिता 'सूरजमाना रणिकास्तेऽपि स्थानस्थिता 'जमानाथ'कार शिक्षा तिता अडिया मते तहेव सियादिकारहिजहा एगस्स गमविहिं यस्थाते मणिशं जेवि निक्कारणिश्रा दूइजंता ठाट्टिश्रा य तेऽवि तह खेव भाइथिना' पदत्र मानावं- यो विशेषस्तमई वक्ष्ये समासतः ।
-
इदानीममन्दरगाचोक्काः सर्व एव सामान्येन चतुविधाः साधयो भवन्ति ।
"
जयमाया विदरता, मोहाणा हिंडगा चउद्धा उ । जयमाणा तत्थ तिहा, नायट्ठा दंसणचरिते ॥ १२४ ॥ 'यती' प्रयस्मे यतमानाः प्रयत्नपराः विहरन्तः -विइरमाणा मासकल्पेन पर्यटन्तः ' सोहाण ' ति अवधाव-मानाः यतोऽपइत्यर्थः तथा हिरडाभ्रमणशीलाः पयमेते चतुर्विधा हानी" निर्देशः " इति न्यायाद्यतमाना उच्यन्ते जयमाणा तत्थ तिहा ' यतमानापिकाराः कथं ? 'माणसे' तस्थ गायडाक जयति है, निरजं सुअरो पा पादि भरया य से सती प्रथा वाता
हिंडग
पिता
पति
सपना
वगाणं सत्थाएं अट्ठाए वयंति, तस्वार्थादीनां तथा चरितद्वारा देत गयाएं केसर कारवे, तत्थ जदि पुढयिकाया परं ततो न चरितं सुमर ताई निग्गति, सा परिजया खलु एवं तिविद्दा समासतो समक्खाया। दारं । इदानी बिरमाएका उपले मत आह
,
दुबिदा बिरमाएका विकास, गगता निग्गया खेव' एतदेव व्याख्यानयग्राह
6
पयबुद्ध जिसक पिया व पडिमा चैव विहरता । आयरिअथेरवसभा, भिक्खु खुड्डा न गच्छमि ।। १२५ ।। प्रत्येक जनकपिकास प्रतिमाप्रतिपसाथ मासाई सता' इत्येवमादि पते गच्छनिता विहरमाणकाः । इदानीं
प्रविष्टा उच्यते-' आयरिअ ' आचार्य:- प्रसिद्ध:, स्थविरो यः सीदम्बामा स्थिरीकरोति वृषभ-वैयाक रणसमर्थः शिवः एतरिकाका प्रसिद्ध 'एते गगता निर्गताथ' स्थमुपन्यासः प्रातः स्माजनयिकाइयो निर्गता चादी व्याख्याता, उear-जिनकल्पिकादीनां प्राधान्यख्यापनार्थम्, आह-प्रथममेव कस्मादित्थं नोपन्यासः कृतः ?, उच्यते-तेऽपि जिनefererrar rogin पूर्वा एवास्यार्थस्य ज्ञापनार्थम्, आहप्रत्येक ननितान तेपामपि जन्मान्तरेतत्वसद्भायात् (, यतस्तेषां न पूर्वाणि पूर्वाधतानि विद्यन्ते । श्रोघ० । (अवधावन वक्तव्यता 'मोहावंत' शब्दे तृतीयभागे ।) अधुना सेता हिमका लेपमेय प्रति
पादयन्नाह
पुष्पम्म मासकप्पे, वासावासासु जयणसंकम्णा । धर्मतया य भावे, सुत्थ न हायई जत्थ ।। १२८ ॥ मासको मासावस्थाने पूर्वे सति तथा याजायासासु ति वर्षायां बासो वर्षावासः तस्मिन् वा यो वास कल्पस्तस्मि न पूर्णे सति । पुनश्च यतनया-संका मण्या क्षेत्र कालिक र्त्तव्या । किं कृत्वा ? 'आमंत्रणा य' कि ग्राम णं श्राचार्यः शिष्यानामन्त्रयति पृच्छति क्षेत्रप्रत्युपेक्षक प्रेणाले, वशदादागते क्षेत्रापेक्षकेषु मया, ''सितेषु प्रत्युपकेषु भाई प्रतीक्षन कस्य किं देवं रोखते,
सर्वे महत्या पत्रार्थानि भवति तत्र ग म करिष्यस्याचार्थः ।
इदानीमेनामेव गाथा व्याख्यानयति अत्र यदुपन्यस्ते 'ज यणसंक्रमण 'ति तद् व्याख्यानयन्नाह
अप्पडिलेहियदोसा, वसही भिक्खं च दुल्लहं होआ । बालाइ गिलाणाय व पाठ अदद सम्झाओ ॥ १२६ ॥ अप्रत्युपेक्षणे दोषा भवन्ति, ते चामी -' बसहि ' ति कदा
सभा भवेत् तथा भिक्षा या दुर्लभा भवेत् तथा बालादिग्लानानां प्रायोग्यं दुर्लभं भवेत् । अथवा स्थाध्यायो दुर्लभः मांखाद्या
तस्मात् किम् ? -
सम्हा पुब्बं पडिले हिऊया पच्छा विहीएँ संक्रमणं । पेसेज अवार्ड मां तरिचमे दोसा ॥ १३० ॥
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हिंडग
तस्मात्पूर्वमेव प्रत्युषेश्य-निरूप्य पश्चादविधिना-यतनया संक्रमणं कर्त्तव्यम् । इदानीं यदुपन्यस्तम् 'आमंतणा ये' त्यवयवेन तं व्याख्यानयन्नाह - ' पेसेति जह अणापुच्छि - डं गं' प्रेषयति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् यदि गमनापृच्छय तत्रेमे दोषाः वक्ष्यमाणलक्षणाः ।
( १२०५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अरेगोवपिढिले - इणाए कत्थ वि गय चि तो पुच्छे । खेत्ते पडिलेहेउं, मुगत्थ गयति तं दुई ।। १३१ ।।
यदा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः शेषप्रवजिताननापृच्छय गतास्तदा कथं ज्ञायन्त घयाह-प्रतिरधित्यु त्यां ते पृच्छन्ति - कुत्र गतास्त इत्येवं पृच्छन्ति । आचाastra - क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुममुकत्र क्षेत्रे गता इति, सेडदुई तिन शोभनम् ।
-
यतस्तत्र गच्छताम्
लेखा सावय मसगा, ओमऽसिवे सेह इत्थिपडिणीए । थंडिल अगथि उड्डाण एवमाई भवे दोसा || १३२ ॥ बनाः पये वापदानि - उपाघ्रादीनि मशका वाऽतिदुष्टाः सोमं दुर्मिम् 'सि' देता उपयोि 'सेइ' ति अभिनवप्रब्रजितस्य स्वजना विद्यन्ते, ते चोत्प्रवाजयन्ति, 'इस्थि त्ति स्त्रियो वा मोहप्रचुराः 'पीि सि प्रत्यनीकोपद्रवध, 'थंडिज' त्तिडिलानिवा न तत्र विद्यन्ते, 'अगणि ' ति अग्निना वा दग्धः देश उडाउस्थित उद्धसित प्रदेशी या उप्रान्तराले इत्येवमादयो दोषा भवन्ति ।
"
.
"
तथापि प्राप्तस्यैते दोषाःपचतितावसीओ, सायदुखतेयपउराई | गिट्टा, फेडणहरियाइपीए ||
स हि प्रत्यन्तदेशः म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः तापस्य :-तापसप्रव्राजिकाः ताश्च प्रचुरमोहाः संयमाद् भ्रंशयन्ति स्वापददुनिया देखि नियति भिनवप्रव्रजितस्य निजः - खजनादिः स चोत्प्रव्राजयति * या तत्र कश्चित् उडायेति ध तः - उद्वसितः स कदाचिद्देशो भवेत् ' फंडण 'ति प्राक रात्र वसतिरासीत् नीता भवेत्। (हरि) 'हरितपरणीय' त्ति हरितं तंत्र शाकादि बाहुल्येन भक्ष्यते, तथ साधूनां न कल्पते दुर्भिक्षप्रायं वा हरितपर्णी ति तत्र देशे केषुचिद् गृहेषु राक्षो दण्डं दत्त्वा देवतायै बल्यर्थ पुरुषो मार्थते, स च प्रव्रजितादिर्भितार्थ प्रविष्टः सन् तत्र गृहस्योपरि आर्द्रा वृक्षशाखाचि क्रियते तच गृहीत
5
तो दूरतएव परिहरति सङ्केत विनश्यति तस्माद्गणं पृष्ट्वा गन्तव्यमिति । अथवा अन्यकर्तृकीयं गाथा, शतब्ध व पुनरुदोषः ।
इदानींस आचार्यः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् प्रेषयन् सर्व मरामालोचपति अथ तु विशेयं कजिनेकमायति शिष्या दोषा भयन्ति
4
सीसे जड़ आमंतड़, पडिच्छगा तेरा बाहिरं भावं । जइ इयरा तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छति ॥ १३४ ॥ ३०२
हिंडग
शिष्यान् विशिष्य केवलान् यथामन्त्रयति ततश्व को दोषः १ पछि ति सूत्रार्थग्रहणायें ये आयाताः सायस्ता अबाहिर भावं ति बहिर्भावं चिन्तयन्ति, बाह्या वयमत्र । अथेतरान्प्रतीच्छुकानालोचयति ततः शिष्या मते प्रतीकाश्व सूत्रार्थसमाप्तीति ततश्चाचार्य एकाकी संजय दोषपत् । अथ वृद्धान् पृच्छति ततः
तरुणा बाहिरमार्थ न य पडिलेहोवही न फिकम्मं । मूलयपचसरिसया, परिभूया पश्चिमो घेरा ।। १२५ ।। वृद्धानालोचयति तरुणा बहिर्भावं मन्यन्ते ततश्च ते तरुणाः किं कुर्वन्त्यत आह न य पडिलेहोषही ' उप-कुन्ति न च कृतिकर्मपादानादि कुर्वन्ति । अथ तरुणानेव पृच्छति ततः को दोषः । १, वृद्धा एवं चिन्तयन्ति - मूलयपत्तसरिया' मूलम् - श्रद्यं यत्पूर्ण निस्सारं परिपक्कप्रायं तत्तुल्या वयमत एव च परिभूतास्ततश्च प्रजामः इत्येवं स्थविरान्तियन्ति परिया-मूलयपत्त सरिसया मूलकपत्रतुल्याः - शाकपत्र माया वयम्,
"
अथ मतं स्थविरा न प्रष्टव्या एव ततु न यत आहजुसमहि विणं, जे जुहं होइ सुट्ट वि महलं । तं तरुण रहस पोईय-मयगुम्म सुहं हंतुं ।। १३६ ॥ जीर्णमृगैर्विहीनं यथं भवति सुष्ठपि महत्तद्यथं तरुणरसे-रागे पोतितं निममदेन गुरमतिं सुखं इ विनाशयितुं सुखेन तद्वयापाद्यते ।
यस्मादेतदेवं तस्मात्सर्व एव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः, कथम् ?
थुइमंगलमामंतण, नागन्छ जो पुछियो न कहे। तस्सुवरिं ते दोसा, तम्हा मिलिएसु पुच्छेजा ।। १३७ ॥ स्तुतिमहत्या प्रतिक्रमणस्यान्ते स्तुति पठित्वा तनश्यामन्त्रयति शाकारिने व दूरस्थो यदि नागच्छति कश्विद्यो वा पृष्टः सन्न कथयति ततस्तस्योपरि ते दोषाः, तस्मामितिंषु प्रमीयमेकीभूतेषु ।
केई भगति पुष्वं, पडिलेहि एवमेव मंतब्वं ।
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तं च न जुञ्जइ बसही, फेडण आगंतु पडिणीए ॥ १३८ ॥ केचनाचा एवं प्रयुपक्षिमि प्रागपि स्थिता शासन तस्मिन् पुनरप्रत्युपश्य मम्यते तच न युज्यते यस्मात्तत्र कदाचित् 'वसही फेडल' भिसा प्राक्तनी वसतिरपनीता, आगन्तुको वा प्रत्यनीकः संजातः, अत एव दोषभयात्युरपि वसतिः प्रत्युषा । इदं च ते प्रष्टव्याः
"
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करी दिया पसत्था ?, असभ्येसि अमई गमयं । चउदिसि ति दुगं वा, सत्तग पणगं तिग जहां ॥ १३६ ॥ करादिक प्रस्ता-शोभना सुमपचेत्यर्थः ते3याहुः अमुई अमुका दिक सुमेति । एवं सर्वेषां निमित्यर्थः यदा अनुमता - अभिरुचिता भवति तदागम कर्त्तव्यम् । तत्र चतयपि पि पूर्ववि पश्चिमोत्तरासु प्रत्युपेक्षकाः प्रयान्ति, अथवा - श्रत
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हिंडम
दिशापादिसम्भवेतिषु यान्ति तद्भावे द्वयोविंशो यति, तदभावेऽप्येकस्यां दिशि । तासु च दिक्षु व्रजन्तः कियन्तो व्रजन्त्यत श्राह - सत्तग परागं तिग जहरणं एकैकस्यां दिशि उत्कृष्टतः सप्त सप्त प्रयान्ति, सप्तानामभवे पञ्च पञ्च व्रजन्ति, पञ्चानामभावे जघन्येन त्रयस्त्रयः प्रयास्तीति ।
.
( १२०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
१४० ॥
अत्र च ये श्रभिग्रहिकास्ते प्रहेतव्याः तेषां त्वभावेअभिगहिए बाबा रा उ तत्थ उ इमे न बाबारे । बाल बुद्धमगी, जोगि यस तहा खमगं ॥ अभिगादिति चैरभिग्रहो न गृहीतस्तान् व्यापास्वेद-गमनाय चौदयेदित्यर्थः तत्र तु वा वृतम् गीता योगिनं नृपमेवैवाश्यक तथा क्षपर्क मासक्षपकादिकम्, पतान्न व्यापारयेद्गमनाय ।
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इदानी में तामेव गाथां भाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाद्दहीलेज व खेले व कजाक न पाई वालो |
सो वाऽणुकंपणिओ, न दिति वा किंचि बालस्स || ६८ || वाले प्रेष्यमाणेऽयं दोषः पिते म्लेच्छादिना कडे वा बालस्वभावत्वात् कार्याकार्य च कर्त्तव्याकर्त्तव्यं वा न जा नाति वाला, स च वाला क्षेत्रप्रत्युपेक्षयार्ये प्रदितः सन् अनुकम्पया सर्वे लभते श्रागत्य चाचार्याय कथयति यदुत सर्व लभ्यते, गतश्च तत्र गच्छो यावन किञ्चिल्लभते, चेल्लकस्वानुकम्पया लाभ आसीत्, अथवान दाति या किशाला परिवेशातस्तं न व्यापारयेत् । यो पतस्तत्रेने दोगाबुड्डोऽणुकंपणजो, चिरेण न य मग्गथंडिले पेहे ।
हवावि बालबुड्ढा, असमत्था गोयरतिस्स | ६६ | ( भा० ) वृद्धोऽनुकम्पनी स्तनासावेव लभते नान्यः, तथा 'निरेगे 'ति चिरेण प्रभूतेन कालेन गमनम् श्रागमनं च करोतिन मार्ग पन्थानं प्रत्युपदितुं समर्थः नापि परिडलागि प्रत्युपेचितुं समर्थन पोरवालो तु पदोषोद्भावनाथैसा अथवा पाला समर्था:अशक्ताः गोचरत्रिकस्य - त्रिकालभिक्षाटनस्येत्यर्थः । दारं । गीतार्थेऽपि प्रेष्यमाणे पते दोषा:
"
पंथं च मासवासं, उवस्मयं एच्चिरेण कालेणं ।
एहामो तिन याग, चउव्विहमणुस ठाणं च ७० | (भा० ) पन्थानं मार्ग न जानाति वक्ष्यमाणं मासं 'ति मासकल्पं न जानाति 'वास' ति वर्षाकल्पं न जानाति तथा उपाधयति पनि जानाति तथा शय्यातरंस पृष्टः - कदा श्रागमिष्यथ ?, ततश्च ब्रवीति - पश्चिरेण ए'हामी' सिता कामासादिना याम बदतो यो दोष अविधिनाजति न जानाति यतः कदाचिदन्या दिक शोभनतरा शुद्धा भवति तत्र गम्यते, श्रतो नैवं वक्तव्यम् - एतावता कालेनेष्यामः । तथा 'चड
मसिं पायारतुर्विधमनुज्ञाप्य ते - - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति । तत्र द्रश्यतस्तृगला अनुज्ञाप्यते क्षेत्रपालनभूमि
कालोदिया रात्री वा निस्सरसमनुज्ञाप्य भा
नस्य कस्यचिद्भावप्रधान कार्यकार्यज्ञादिनियत एतां चतुर्विधामनुज्ञामनुज्ञापयितुं न जनाति । 'ठा च' ति वसतिः कीदृशे प्रशस्ते स्थाने भवतीत्येतन्न जानाति । दारं । योगिनमपि न प्रेषयेत् कस्मात् ? -
हिंडम
तूरंतो
पेहे, पंथं पाढट्टियो न चिर हिंडे ।
विगई पडिमेहेर, तम्हा जोगिं न पेसेजा ||७१ || (भा० )
त्वरमाणः सन्न प्रत्युपेक्षते पन्थानं, तथा पाठार्थी सन्नचिरं भिक्षां हिण्डते, तथा लभ्यमाना विकृतीः- दध्यादिकाः प्रतियति तस्माद्योगिनं न प्रेषयेत् । दारं ।
वृषभोऽपि न प्रेषणीयो यत एते दोषा भयन्ति
कुलाखि न साहे सिद्धाखि न देति जा विराहलया। परितावणरणुकंपण, तिरहऽसमत्थो भवे खमगो ७२ ॥ भा० नृपभो हि प्रेष्यमाणः कदाचिदुषा स्थापनाकुलानि हे ' त्ति न कथयति, अथवा 'सिट्टाणि न देति' ति कथितान्यपि तानि स्थापनाकुलानि न ददति अन्यस्य, तस्यैव तानि परिचितानि, 'जा विराहण्य' त्ति ततश्च स्थापनाकुलेषु अलभ्यमानेषु या विराधना ग्लानादीनां सा सर्वा आचार्यस्य दोषेण कृता भवति । दारं । श्रथ क्षपकोऽपि न प्रेष्यते, यतः परितापना - दुःखासिका श्रतपादिना भवति क्षपकस्य, 'श्रणुकंपण' त्ति अनुकम्पया वा लोकः क्षपकस्यैव ददाति नान्यस्य, तथा 'तिरहऽसमत्थो भवे खमश्र ' त्रयो वारा यद्भिक्षाटनं तस्य-वारत्रयाटनस्यासमर्थः क्षपकः । दारंयदा तु पुनः प्रेषान भयएए चैव हवेजा, पडिलांमे तु पेसए विडिया। अही पेसिअंते, ते चैव तहिं तु पडिलोमं ॥ १४१ ॥ प प वाला संसद किं कर्त्तव्यमित्याह--पडि लोमे तु पेसए विहिणा' अनुलोमः - उत्सर्गस्तद्विपरीतः प्रतिलोमः -- अपवादस्तं प्रतिलोमम् अपवादमङ्गीकृत्य एतानेव बालादीन् प्रेषयेत् कथम् ? – विधिना --यतनया-चक्ष्यमाणया । यदा पुनस्त एव बालादयोऽविधिना प्रेष्यन्ते, तदा ऽविधिना प्रेष्यमाणेषु त एव दोषाः क ?, ' तहिं तु तस्मिन् ' क्षेत्र प्रेष्यमाणानां कथयन् ?--' पडिलोमं ति प्रतिलोमं अपवादङ्गीकृत्य अथवा प्रेमानेषु तएव दोषाः तत्र पडिलोमं ' ति अविधिप्रतिलोमा विधिस्तन- अप्रतिलोमविधिना प्रेपयेत् । श्रोध (हिण्डकसामाचारी' सामायारी ' शब्दे उक्तका । )
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इदानीं तेषां यमनविधिप्रतिपंथुच्चारे उदए, ठाणे भिक्खंतराय वसहीओ |
या सावगवाला, पच्चावाया य जाणविही ॥ १४३ ॥ पंथपिन्थानं मार्गे चतुविधा प्रत्युपेतायस्तो मन्ति उच्चारे सि उपचारपि
रुति 'उ'नि निरुपपति, येन बालादीनां पादयति विधामस्थानं गच्छस्य निरूपयन्तो व्रजन्ति, भिक्खे' ति भिक्षां निरूपयन्ति येषु प्रदेशेषु लभ्यते येषु वा न लभ्यत इति । 'अंतरा य वसदीउ ति अन्तराले वसतीश्व निरूपयन्तो
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हिंडग अभिधानराजेन्द्रः।
हिंडग गच्छन्ति यत्र गच्छः सुखन वसितुं याति. स्तेनाश्च यत्र न | इदानीमपराह्ने भिक्षावेला प्रतिपादयन्नाहसन्ति , यत्र व्याला तथा स्वापदान सन्ति-स्थापदभुज- चरिमे परितावियपे-ज जूस भाएस अतरणट्ठाए । गादयो न सन्ति, 'पचापाय'त्ति एकस्मिन् पथि गच्छता
एकेकगसंजुत्तं, मत्तटुं एकमेकस्स ॥ १४८ ।। दिवा प्रत्यपायः, अन्यत्र रात्रौ प्रत्यायः, ततो निरूप्य गम्त-|
चरिमे-चरमपौरुष्यामटम्ति, सत्र च परितलितानि पेया व्यम् । 'जाणविहि' त्ति अयं गमनविधिः ।
यूपश्च यदि लभ्यते ततः 'एस'त्ति प्राघूर्णकः 'अतरण' त्ति कथं पुनस्ते वजन्तीत्याह
ग्लानस्तदेषामर्थाय भवति , ततश्च तत्प्रधानम् । एवं तेऽटिसुत्तत्थं प्रकरिता, भिक्खं काउं अइंति अवररहे । त्या 'भत्तटुं' ति उदरपूरणमेकस्यानयन्ति, कथम् -'एकेबिइयदिणे सज्झाओ, पोरिसिप्रद्धाइ संघाडो ॥१४४॥ कगसंजुत्तं' एकः साधुरेकेन संयुक्तो यस्मिन्नानयने तदेकैकसूत्रपौरुषीम् अर्थपौरुषी चाकुर्वन्तो व्रजन्ति तावद्यावद
संयुक्तमानयन्ति, 'एकमेकस्स' त्ति. परस्परस्य आनयन्ति, भिमतं क्षेत्र प्राप्ता भवन्ति , पुनश्च ते किं कुर्वन्तीत्यत पा
एतदुक्तं भवति-द्वौ साधू अटतः एक प्रास्ते प्रत्युषसि पुनह-'भिक्खं काउं अति अवररहे' भिक्षां कृत्वा-त
द्वितीयवेलायां तयोईयोर्मध्यादेक प्रास्ते अपरः प्रयाति प्रथदासनग्राम तद्वहिर्वा भक्षयित्वा पुनश्चापहाहे प्रविशन्ति,
मव्यवस्थितं गृहीत्वा , तृतीयवेलायां च यो द्वितीयवेलाय ततो वसतिमन्वेषयन्ति , लब्धायां च बसती कालं गृही
रक्षपालः स्थितः स प्रथमस्थितरक्षपालेन सह व्रजति, इतस्वा द्वितीय दिवसे किञ्चिन्यूनपौरुषीमात्रं कालं स्वाध्यायं
रस्तु येन वारद्वयमटितं स तिष्ठति । एवमेव एषां त्रयाणाकुर्वन्ति । पुनश्च 'पोरिसिश्रद्धाइ संघाडो' 'पोरुसिश्रद्धा.
मेकैकस्य सहाटककल्पनया पर्यटनं श्योर्योजनीयम् । प' पौरुषीकाले सहाटकं कृत्वा भिक्षार्थे प्रविशन्ति, अथ
एवम्-
. वा-स्वाध्याय कियन्तमपि कालं कृत्वा 'पोरुसिअखाए' ओसह भेसज्जाणि अ, कालं च कुले य दाणमाईणि । अर्द्धपौरिष्यामित्यर्थः, सकाटकं कृत्वा प्रविशन्तीति। सग्गामे पेहिता, पेहंति ततो परग्गामे ॥ १४६ ॥ इवानी ते सहाटकेन प्रविष्टास्तत् क्षेत्रं त्रिधा
एवम् औषधं-हरीतक्यादि, भेषजं-पेयादि , पतच प्रार्थविभजयन्ति, एतदेवाह
नाद्वारेगा प्रत्युपेक्षते , कालं च ' त्ति कालं प्रत्युपेक्षते , 'कुले खेत्तं तिहा करेत्ता, दोसीणे नीणिअम्मि ण वयंति । य दाणमाईणि' कुलानि च दानश्राजकादीनि, “ दाणे अहि. भएणो लद्धो बहुओ, थोवंदे मा य रूसेजा ॥१४॥
गमसद्धे" एवमादि, पतानि कुलानि प्रत्युपेक्षते । एतानि
च स्वप्रामे 'पेहेत्ता' प्रत्युपेक्ष्य ततः परप्रामे प्रत्युपेक्षते। क्षेत्रं त्रिधा कृत्वा-त्रिभिर्भागैर्विभज्य एको विभागः प्रस्युषस्येव हिण्ड्यते, अपरो मध्याहे हिरड्यते, अपरोऽप
चोयगवयणं दीहं, पणीयगहणे य नणु भवे दोसा । राहे. एवं ते भिक्षामटन्ति । 'दोसणे नीणियम्मि उ वदं- जुञ्जइ तं गुरुपाहुण-गिलाणगट्ठा न दप्पट्ठा ॥ १५ ॥ ति''दोसीणे' पर्युषिते आहारे निस्सारिते सति बद- चोदकवचनं, किमित्यत आह-दीहं' दीर्घ भिक्षाटनं कुन्ति-'अरणो लडो बहुओ' अन्य आहारो लब्धः प्रचुरः, वन्ति ते 'पणीयगहणे' त्ति स्नेहबद्रव्यग्रहणे च ननु भवन्ति ततश्च 'थोव दे ' ति स्तोकं ददस्व-स्वल्पं प्रयच्छ , दोषाः। प्राचार्यस्त्वाह--'जुज्जति तं' युज्यते तत्सर्व दीर्घ 'मा य उसज्ज' ति मा वा रोषं ग्रहीष्यस्यनादरजनि- भिक्षाटनं यत् प्रणीतग्रहणं च , यतः 'गुरुपाहुणगिलाणगट्टा' तम् , एतच्चासी परीक्षार्थ करोति, किमयं लोको दानशी
गुरुप्राघूर्णकग्लानार्थमसौ प्रत्युपेक्षते न दार्थ, न चात्मार्थ लो? न वेति।
प्रणीतादेग्रहणमिति । अहव ण दोसीणं चिन, जायामो देहि दहि घयंखीरं। जइ पुण खद्धपणीए, अकारणे एकसि पि गिरहेजा। खीरे घयगुलपज्जा, थावं थोवं च सव्वत्थ ११४३॥ तहिअं दोसा तेण उ, अकारणे खद्धनिद्धाई ॥१५॥ अथवा-एतदसौ साधुब्रवीति-न वयं दासीण चिन' | यदि पुनः खद्धं-प्रचुरं प्रणीतं-स्निग्धम् , एतानि अकारणे याचयामः, किन्तु दधि याचयामः, तथा क्षीरं याचयामः, सकृदपि गृह्णीयात् 'तहिमं दोसा' ततस्तस्मिन् ग्रहणे दोषा तथा क्षीरे लब्धे सति गुडं घृतं पेयां ददस्व । सर्वत्र- भवेयुः । किं कारणम् ?-यतः 'तेण उ' तेन-साधुना सर्वेषु कुलेषु स्तोक स्तोकं गृह्णन्ति ते साधवः, एवं तावत्प्र- 'अकारणे खद्धनिद्धाई' अकारण-कारणमन्तरेणैव ' खडाई' त्युषसि भिक्षाटनं कुर्वन्ति ।
भक्षितानि स्निग्धानि-नेहवन्ति द्रव्याणि, अथवा-अकारणे अधुना मध्याह्वाटनविधिरुच्यते
'खजनिद्वाई' प्रचुरनिग्धानि नेनासवितानीति। मज्झण्हि पउरभिक्खं, परिताविअपिज्जजूसपयकढिरं ।
एवं रुहए थंडिल बसही, य देउलिअसुमहमाईणि । अोभट्ठमणोभट्ठ, लब्भइ ज जत्थ पाउग्गं ॥१४७।।
पाभोगमणुष्मावण,वियालणे तस्स परिकहणा १५२।। मध्याह्ने प्रचुरा भिक्षा लभ्यते 'परिताविय' सि परित
एवम्-उक्लन प्रकारेण 'रुचिए' ति रुचिते' अभीष्टे क्षेत्रे लितं सुकुमारिकादि, तथा पेया लभ्यते, जूषः पाटलादेः,
सति 'डिल' ति नतः स्थरिडलानि प्रत्युपेक्षन्ते, येषु मृतः [पटोलादः] तथा पयः-कथितम् 'पोट्ठभणोभटुं लम्भति' पा
H परिठाप्यते महास्थरिडलं 'वसहि' ति वसति निरूपयन्ति । प्रार्थितमप्रार्थितं वा लभ्यते 'जं जत्थ' यद्-वस्तु यत्र क्षेत्रे १-एवमित्यधिकमपि पुस्तकानुरेधात् टीकाकृता न्यासयातत्वा मूले एवं प्रायोग्यम्- तदित्थंभूतं क्षेत्र प्रधानमिति ।
गृहीतम्।
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(१२०८), हिंग अभिधानराजेन्द्रः।
हिंडग किंशले प्रदेश प्राहाश्विदंप्रशस्त-सिंगखोडादियुक्ने इति, स नियमेनैव भोजनोदकासेचनाद्यपि ददात्यनुक्नमपि सामपत्तनमध्ये शालादि, नदभाव 'देउलिश्रा' देवकुलं शून्यं प्र- यांक्षिप्तम् , एवं वसतिं प्रयच्छता उच्चारप्रश्रवणभूम्यादि त्यान्यन 'मुनगेहमादीरिण'शून्यगृहादीनि श्रादिशब्दन-स- सामाक्षिप्तं सर्वमेव दत्तं भवति । अथवा-इदमसौ शय्यातरो मा गृह्यते, नांच वसति लध्वा किं कर्तव्यम् ?-'पाउग्ग- विचारयति-कियन्तं कालमत्र स्थास्यन्ति भवन्तः ?. अम्मिन् मशुराणवणा' प्रायोग्याना-तगडगलकादीनां शय्यातरोऽनु विचारे "तस्सपरिकहणा"भागनां कार्यने-यथा उकलय पतानि वस्तूनि । अथासी
जाव गुरूण य तुज्झ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा । प्रायोग्यानि न नानानि विद्यालणे' ति विचारयति. प्रायोयं किमभिधीयते? इति, एनिधे विचारे तम्य शय्यातर
केवइकालणेहिह , सागार ठवंति अण्णे वि॥१५३।। स्य कथ्यते 'परिकहरणा' यथाऽस्माकं तृणक्षारडगलादि उ
यावद् गुरूणां 'ते'-तव च प्रतिभाति ताबदवस्थानं करि(सकलयेत्।
च्यामः,अथवमसी विचारयति-'बियालणा' यदुत 'कंवदा' एतां नियुक्निगाथां भाष्यकरो व्याख्यानयति, तत्र रुचिते कियन्त इहावस्थास्यन्ते? 'तस्स परिकहणा' क्रियते सागरेक्षेत्रे स्थण्डिले परीक्ष्यते, तश्च बहुवक्तव्यत्वादुपरिटाद्वक्ष्यति,
णोपमा, यथा हि सागरः क्वचित्काले प्रचुरसलिलो भवति बसांतस्तु कीदृशे स्थान कर्तव्या कीदृशे च न कर्त्तव्यति
क्वचित्पुनर्मर्यादावस्थ एव भवति, एवं गच्छोऽपि कदाचिध्याख्यानयनाइ
दहुप्रवजितो भवति कदाचित्स्वल्पप्रवजित इति । 'अथासौ
पुनरपि 'विशाल "त्ति विचारयति-यथा केवह कालेणेहिह' सिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नेव होइ चलणेसुं।
लिकियता कालनागमिष्यथ ?, एवमुक्ताः सन्तः साधवः तत्र अहिठाणि मोट्टरागो,पुच्छम्मि अफेडणं जाण७६(भा०)। 'सागारठविति' सविकल्पं कुर्वन्तीत्यर्थः । कथं कुर्वन्ति ?मुहमलम्मि अचारी, सिरे य कउहे य पूयसक्कारो। 'पात्र वि' अन्येऽपि साधवः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ गता एव, खंधे पट्टीएँ भरो,पोम्मि य धायो बसहो॥७७॥(भा०)
ततश्च तदालोचनेनागमिष्याम इति। तत्र चामपाो पविष्टपूर्वाभिमुखवृषभरूपं क्षत्रं बुद्धया कल्प पुबद्दिद्वे इच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइया। यित्वा तत इदमुच्यत-शृङ्गखोडे-'शृङ्गपदेशे यदि वसति क- तत्थ न कप्पइ वासो, असई खेत्ताणऽणुनाओ ॥१५४॥ गति ततः कलहो भवाति क्रियां वक्ष्यति, स्थानम्-अवस्थि- यदा स्वसौ पूर्वदृष्टानेवेच्छति यैः प्राग् मासकल्पः कृतः तिर्नास्ति चरणषु-पादप्रदेशषु , अधिष्ठाने-अपानप्रदेशे स्वभावेनालः स दृष्टप्रत्ययानिच्छति, नान्यान् , तत्र न बसतो क्रियमाणायामुदररोगा भवतीति क्रिया सर्वत्र योज. कल्पते वासः। अथवा-भरणेदसौ एतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु, नीया।'पुच्छे' पुच्छप्रदेशे फेडण' अपनयनं भवति ब- तत्र' न कल्पते वासः' न युज्यतेऽवस्थानं, यतः साधवः सत्याः । मुखमूले चारी भवति, शिरसि-शृङ्गयामध्ये क- कदाचित्स्तोकाः कदाचिद्वहया भवन्ति । अथान्यानि क्षेत्राणि कुद च पूजासत्कारी भवति, स्कन्धे पृष्ठे न भारो भवति,
न सन्ति तदा असति-क्षेत्राणामन्येषामभावे 'अणनाउ' त्ति साधुभिरागच्छद्भिगकुलो भवति, उदरप्रदशे तु नित्यं तृप्त तस्थामेव वसतावनुज्ञातो वासः। एव भवति क्षेत्रवृषभः । यसतिर्याख्याता, तद्वयाख्यानाच
शेषक्षेत्राभावे सति तत्र च नियतपरिमितायां वसतौ यदि देवकुलशून्यगृहाद्यपि व्याख्यातमेव द्रष्टव्यम् । इयं च वृषभ
प्राघूर्णका आगच्छन्ति ततः को विधिरित्यत आह-- परिकल्पना यावन्मात्रं वसतिनाऽऽक्रान्तं तस्मिन् नोपरिपात् , उपरिष्ट्रातु नदनुसारेण कर्त्तव्या वसतिः ।
सकारो सम्माणो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए । अधुना पाउग्गअणुभवणे त्यमुमेवावयवं व्याख्यानयनाह,
जइ जाणउ वसह तहिं,साहम्मिअवच्छलाऽऽणाई १५५॥ तत्र प्रायोग्यानामनुज्ञापना कर्तव्या-द्रव्यतः क्षत्रतः कालतो सत्कार:-वन्दनाभ्युत्थानादिकः सन्मानः-पादप्रतालभावतश्च, तत्र द्रव्यतः
नादिकः भिक्षाग्रहणं-भिक्षानयने च एतत्प्राघूर्णके आगते दव्ये तणडगलाई, अच्छणभागाइधोवणा खेते।
सति क्रियते । पुनश्च तस्य प्राघूर्णकस्य वसतिस्वरूपं कथ्यते
यथा-परिमितेरेबंषा लब्धा, नाम्यस्यावकाशः, ततश्च त्वयाकाले उच्चाराई, भावेण गिलाण कूरुवमा ||७८|| (भा०)
ऽन्यत्र वसितव्यम् । 'यदि जाणउ वसइ ताह' ति एघमसाद्रव्यतः-द्रव्यमङ्गीकृत्य तृणानां संस्तारकार्थ डगलानां च- वुक्तो शोऽपि सन्-यदि जाननपि तत्र वसति ततः को अधिष्ठानप्रोञ्छनार्थ लठूनामनुज्ञापना-क्रियते 'अच्छणं' ति दोषोऽत श्राह-'साहम्मिश्रवच्छलाऽऽणाई' साधर्मिकवाभास्या-यत्राऽऽस्यते यथामुखन स्वाध्यायपूर्वकं 'भाणादि- त्सल्य न कृतं भवति, यतोऽसौ शय्यातरो रुपस्तानपि निधावणा'भाजनादिधावन-क्षालनं पात्रकादेर्यत्र क्रियते सा टियति , आशाभश्च कृतः-श्राक्षालापश्चैवं कृतो भवति क्षेत्रानुज्ञा । काविषयाऽनुज्ञा दिवा रात्री वा उच्चारादिव्यु- सूत्रस्य , आदिशब्दात्तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः । सर्जनम् । भावविषयाऽनुज्ञापना ग्लानादः साम्यकरणार्थ
इदानी ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षका प्राचार्यसमीपमागच्छन्तः-- नियातप्रदशाधनुज्ञापना फियते । इदानीं ' वियाल
किं कुर्वन्तीत्यत आह-- को तस्स परिकहग ति अममवय-व्याख्यानयमाह-कृरुवमा' यदा शय्यातर एवं ब्रूते-इयति प्रदशे
जइ तिमि सधगमणं,पसुन एसुत्ति दोसु वि अदोसा। मयाऽवस्थानमनुबान भवतां नोरणात्, तदा तस्य परि
माणपहेणऽसुणंता, निययावासोऽह मा गुरुणो ॥१५६|| कथना क्रियते करदृष्टान्सन । यो दि भोजनं कस्यचिद्ददाति यदि ते क्षेत्रप्रत्युप्रेक्षकास्य एव ततः सर्व एवं गमनं कुर्व
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(१२०)
अभिधानराजेन्द्रः। न्ति अथ सप्त पशवा ततः सबाटकमेकं मुक्त्वा बजन्ति ,। 'तं चिय' ति तामेव दिशम् , 'अणुनोगतत्तिला'व्याख्याना'पसुन पसु' त्ति शय्यातरेण पपाः सातस्ते मेवं पदन्ति- र्थिन इच्छन्ति, यतस्ते सूत्रग्रहणनिरपेक्षाः केवलमर्थप्रहरणाएण्यामो न वा एण्याम इति, यत एवं भणने दोषः, किं कारणं?, र्थिनः, तेषां चार्थग्रहणप्रपञ्चो द्वितीयायां पौरुभ्यां भवतीत्ययदैवं भणन्ति यदुत प्रागमिष्यामः, ततश्च शोभनतरे क्षेत्रे तस्तामेधेच्छन्तीति। लग्धे सति नागच्छन्ति ततश्चातदोषः, अथ भणन्ति-नाग
विइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही अतइययं खेत्तं ।। मिष्यामः ततश्च कदाचिदन्यत्क्षेत्र न परिषभ्यति ततश्च पुमस्तपागच्छतां दोषोऽनतजनितः । 'अण्णपदेणं'ति ते हि
आयरिओ अचउत्थं,सो उपमाणं हवइ तत्थ ॥१६॥ क्षेत्रप्रत्युपेक्षका गुरुसमीपमागच्छन्तोऽन्येन मार्गेणागच्छ- द्वितीयां च दिशं सूत्रग्राहिण इच्छन्ति, यतः प्रथमपौरुन्ति, कदाचित्स शोभनतरो भवेत् , 'अगुणत' ति सूत्रपौ- यामेव स्वाध्यायो भवति, स च तेषामस्ति, उभयप्रालि रुषीमकुर्वन्तः प्रयान्ति,मा भून्नित्यवासो गुरोरिति, किं कारः
णश्च--सूत्रार्थग्राहिणस्तृतीय क्षेत्रमिच्छन्ति , प्राचार्यस्तु णं ?, यतस्तेषां विश्रब्धमागच्छता मासकल्पोऽधिको भवति,
चतुर्थ क्षेत्रमिच्छति यतस्तंत्र चतुर्थ्यामपि पौरुप्यां प्रापूर्णततश्च नित्यवासो गुरोरिति ।।
कादेः प्रायोग्यं लभ्यत इति, 'स एव प्रमाणम्' आचार्य एवं
सर्वेषां प्रमाणं भवति 'तत्थे ' ति तत्र शिष्यगणमध्ये । गंतूण गुरुसमी, पालोएत्ता कहेंति खेत्तगुणा।
किं पुनः कारणम् प्राचार्याश्चतुर्थमेव क्षेत्रमिच्छम्ति !, न य सेसकहण मा हो-ज संखडं रत्ति साहेति ॥१५७॥
अत माह-- गत्वा गुरुसमीपम् आलोचयित्वा ईर्यापथिकातिचारं कथ
मोहुन्भवो उ बलिए, दुबलदेहो न साहए जोए । यन्त्याचार्याय क्षेत्रगुणान् । 'न य सेसकरणं' ति न च शेषसाधुभ्यः क्षेत्रगुणान् कथयन्ति । कि कारण !-'मा होज्ज
तो मज्झबला साहू, दुदुऽस्सेणेत्थ दिईतो ॥१६२॥ संख' मा भवेत् स्वक्षेत्रपक्षपातजनिता राटिरिति, तस्मात् प्रथमद्वितीययोः क्षेत्रयोः प्रचुरभक्तपानकेभ्यः सकाशाद'रत्ति साहेति'त्ति रात्री, मिखितानां सर्वेषां साधूनां क्षेत्रगुणा- लवान् भवति, बलिनश्च मोहोद्भवो भवति-कामोद्भवो - कथयन्ति ।
भवतीत्यर्थः । श्राह-एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र ते च गत्वा एतत्कथयन्ति
प्रयान्तु , उच्यते-दुर्बलदेहः--कृशशरीरो न साधयतिपढमाएँ नत्थि पढमा, तत्थ उघयखीरकूरदहिलंभो।
नाराधयति योगान्-व्यापारान् यतस्ततो मध्यमवला:
साधव इष्यन्ते । दुष्टाश्वन चात्र रटान्तः, दुष्टाश्या-गर्दभ विदयाए बिइ तइया-ऍ दोवि तेसिं च धुवलंभो ॥१५८॥ |
उच्यते, स यथा प्रचुरभक्षणार्पितः सन् कुम्भकारारोपिओहासिमधुवलंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। तभाण्डकानि भनक्ति दोत्सेकादुत्प्लुत्य, पुनस्तेनेष कुम्भइहरावि जहिच्छाए, तिकालजोगं च सम्बेसि ॥१५६।।
कारेण निरुद्धाहारः सातिदुर्बलत्वात्प्रस्वलितः सन् भन
क्लि, स एव च गर्दभो मध्यमाहारक्रियया सम्यग् भारडानि प्रथमायां-पूर्वस्यां दिशि नास्ति प्रथमा-नास्ति सूत्रपौरु
घहति, एवं साधवोऽपि संयमक्रियां मध्यमवला वहन्ति । चीत्यर्थः किन्तु तत्र घृतक्षीरकूरदधिलाभोऽस्ति , अन्ये त्वम्यस्यां दिशि कथयन्ति , द्वितीयायां दिशि नास्ति द्वितीया
पणपषगस्स हाणी, पारेणं जेण तेख वा धरह। भास्त्यर्थपौरुषी, यतस्तत्र द्वितीयायां पौरुष्यामेव भोजनं ,
जइ तरुणा नीरोगा, वच्चंति चउत्थगं ताहे ॥१६॥ घृतादिवस्तु लभ्यत एव, 'ततिभाए दो वि' त्ति तृतीयायां अथ तस्मिन् गच्छे पञ्चपञ्चाशद्वर्षदेशीयाः त्रिंशद्वर्षा वा दिशि दे अपि सूत्रार्थपौरुष्यो विद्यते 'तेसिं च धुवलंभो' चत्वारिंशद्वर्षा वा भवन्ति,ततो गम्यते चतुर्थ क्षेत्र, यतस्ते त्ति तेषां घृतादीनां निश्चित लाभः । 'ओभासिधुवलंभो' येन केनचिद् नियन्ते-यापयन्ति तथा यदि च तरुणा नीरो. त्ति प्रार्थितस्य ध्रुवो लाभः, केषां?-प्रायोग्यानां घृतादीनाम् गाः-शक्का भवन्ति ततश्चतुर्थमेव क्षेत्रं व्रजन्तिः। ।
चउत्थीप' चतुर्थ्यां दिशि नियमात्-अवश्यम् इहरावि- मह पुष जुष्पा थेरा, रोगविमुक्का य साहुणो तरुणा। त्ति अप्रार्थितेऽपि यरच्छया त्रिकालयोग्य प्रातमध्याह्नसाया- ते अणुकूलं खेतं, पेसंति न यावि खग्गूडे ॥१६४॥ पुत्रिकालमपि' सम्वेसिं' ति सर्वेषां बालादीनां योग्य
अथ पुनर्जूर्णाः (जीर्णाः) स्थविरा भवन्ति, रोगेण न-ज्व. प्राप्यत इति।
रादिना मुक्नमात्रास्तरुणाः, नाचापि येषां साम्यं भवति शएवं तैः सर्वैः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैराख्याते सस्या
रीरस्य, ततस्ताननुकलं क्षेत्र प्रेषयन्त्याचार्याः। 'मयावि चार्यः किं करोतीत्याह
खग्गूडे' त्ति 'स्वग्गूडा' अलसा निर्धर्मप्रायास्तान प्रेषयन्ति । मयगहणं मायरिमो, कत्थ वयामोत्ति तत्व भोयरिभा। कियता पुनः कालेन वृद्धादय माप्याय्यन्ते ', उच्यतेखुभिमा भणंति पढम,तं चित्र अणुनोगतत्तिला ॥१६०॥
पश्चमात्रैविसैः, यत उक्रं वैपकेमतप्रणम् अभिप्रायग्रहणम् प्राचार्यः शिष्याणां करोति यः |
एगपणअद्धमासं, सही सुणमणुयगोणहस्थीणं । दुत भो मायुष्मन्तः! तत्क बजामः १-कया दिशा गच्छामः? | राइदिएण उपलं, पणगं तो एक दो तिमि ॥१६॥ तत्रैवमामन्त्रिते शिम्यगये प्राचार्येण तत्र श्रीदरिका. एकेन रात्रिन्दिवेन शुनो बल भवति, पथभिर्दिनर्मनुजस्य उदरभरणकचित्ताः पुभिताः-माकुला भणन्ति-यदुत बलं भवति,अर्बमासेन पलीचर्दस्य, परिभिक्निस्तिमो बलं 'पडम' ति प्रथमा विशंजामः, या प्रथमपोरया भुज्यते, भवति । एवमेतपथासंग्य योजनीयम्। ' पण तो एक
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(१२१०) हिंडग
अभिधानराजेन्द्रः। .. . ..... डिग दो तिरिण' एवमसौ तस्मिन् क्षेत्रे पञ्चकमेकं धार्यते, अथ करोति, ततश्च क्षणिकं सत् स्वगृहजासहरितच्छेदं करोति । तथाऽपि बलं म गृहाति द्वौ पश्चको धार्यते, श्रीन् या प- तथा निर्यापारत्वादेव च ता रण्डाः षट्पदीनां परस्परनिश्वकान् धार्यते, पुनरानीयत इति । एवं ते आलोचितशि- रूपणेनोपमर्द कुर्वन्ति ।' किवणं च पोत्ताणं ' ति तत्र व्यगणा प्राचार्याः शय्यातरमापृच्छय क्षेत्रान्तरं संक्रामन्ति। दिवसे क्षणिका विमुक्तकृषिलवनव्यापारा वस्त्राणि शोध
अथ न पृच्छन्ति ततो दोष उपजायते । एतदेवाह- यन्ति । “छराणयरं च पग' प्राकृतं-भोजनं छन्नं कुर्वसागरिमपुच्छगमणे,बाहि(ही)रा मिच्छ छैय कयनासी ।
म्ति, प्रगमित्यर्थः, इयरं व' ति प्रकटमेव भोजन
संयतार्थ कुर्वन्ति तत्र चच्छतामनिम्छता व दोषा भवगिहिसाह अभिधारण, तेणगसंकाइ जं चऽएणं ॥१६६।।
न्ति, कथं, यदि तद्भोजनं गृह्णन्ति, ततस्तदकल्पनीयम् , सागारिक-शय्यातरम् अनापृच्छय यदि गमनं क्रियते अथ न गृहन्ति ततो रोषभावं कदाचित्प्रतिपद्यन्ते। ततो 'बाहिर' त्ति बाह्या लोकधर्मस्यैते भिक्षवः इत्येवं
एते दोषा अनागतकथने, ततश्च का वक्ति शय्यातरः, ये च धर्म लोकधर्म न जानन्ति दृष्टं , ते कथमष्टं जानन्ति ? इत्यतः 'मिच्छ' त्ति मिथ्यात्वं प्रति
पृच्छाविधिरित्याहपद्यते, 'छेद ति अपच्छेदो वसतिदानस्य, पुनस्तेऽन्ये वा
जइया चव उ खेत्तं, गया उ पडिलेहगा तो पाए । वसतिन लभन्ते, 'कयणासि' त्ति अकृतज्ञा घेते प्रत्र- सागारियस्स मावं, तणुएंति गुरू इमेहिं तु ॥ १६६ ।। जिता इत्येवं मन्यते. 'गिहिसाधू अभिधारण' त्ति गृही
यदैव क्षेत्रं गताः प्रत्युपेक्षकाः 'ततो पाए' त्ति ततः प्रभृति कश्चिछावकस्तमाचार्यमभिधार्य-संचिन्त्यायातः प्रव्रज्याथै,
सागारिकस्य-शय्यातरस्य भावं-स्नेहप्रतिबन्ध सनतेनाप्यागत्य शय्यातरः पृष्टः-काऽऽचार्यः १, सोऽपि रुष्टः कुर्वन्ति, के?-गुरवः एभिः-वक्ष्यमाणैर्गाथाद्वयोपन्यस्तैर्वसन्नाह-यः कथयित्वा बजति स ज्ञायते ,तं तु को जा- चनैरितिनाति ? , तमाकर्ण्य स श्रावकः कदाचिदर्शनमप्युज्झति ,
उच्छू बोलिंति वई, तुंबीओ जायपुत्तभंडा य। . लोकज्ञानमध्येषां नास्ति कुतः परलोकमानमिति ? कदाचित्साधुः कश्चित्तमाचार्यम् अभिधाय--मनसि कृत्वा उप
वसभा जायत्थामा, गामा पव्वायचिक्खल्ला ।। १७०।। संपदादानार्थमायाति, सोऽपि शय्यातरं पृच्छति. शय्या- अप्पोदगा य मग्गा, वसुहा वि अपक्कमट्टिा जाया। तरोऽप्याह-न जाने क गत इति, ततः स साधुः" अना- अमकंता पंथा, साहूर्ण विहरिङ कालो ।। १७१ ॥ चारवानाचार्य इति विचिन्त्यान्यत्र गतः, सोऽपि निर्जराया __ एतगाथाद्वयं शृण्वतः शय्यातरस्य पठन्ति । ततः सोऽपि प्राचार्योऽनाभागी जात इति । तेणग' त्ति कदाचित्त
ध्रुत्वा भणति-किं यूयं गमनोत्सुकाः? द्गृहं केनचित्तस्मिन्नेव दिवसे मुष्टं भवेत्तत एवंविधा बु·
प्राचार्योऽप्याहधिर्भवत्-यदुत स्तेनास्ते इत्येवं शङ्कां करोति , आदि
समणाणं सउणाणं, भमरकुलाणं च गोउलाणं च । शब्दाद्योषित् केनचित्सह गता , ततो गृहात् तेऽप्यनाख्याय गताः ततश्च शङ्कोपजायते , ' चऽएणं ति य
अनियाओ वसहीओ, सारइयाणं च मेहाणं ॥ १७२ ॥ चान्यत् शङ्कादि जातं पत्तनगतं तत्सर्यमुपजायत इति ...
सुगमा । गछद्रिश्च शरयासर प्रापृच्छनीयः।
ततश्चैतां गाथां पठित्वा इदमाचरन्ति-- ..
श्रावस्सगकयनियमा, कल्लं गच्छाम तो उ पायरिया । स च विधिना, यतोऽविधिना पृच्छन एते दोषाः
सपरिजणं सागारिअ,बाहिरिउं दिति अणुसिद्धिं ॥१७३॥ अविहीपुच्छा उग्गा-हिएण सिञ्जातरी उ रोएजा।
श्रावश्यककृतनियमाः-कृतप्रतिक्रमणा इत्यर्थः, विकासागरियस्स संका,कलह य सएजिया खिसे ॥१६७॥
लवेलायां कृतावश्यका इदं भणन्ति-यदुत की गच्छामः । अविधिपृच्छा इयं वर्तते , यदुत-' उरगाहितेन' उरिक्ष- पुनश्च तत श्राचार्याः सपरिजनं सागारिकम् शय्यातर लेन उपकरणेन पृच्छति , नत्र 'सेज्जातरी उ रोएज्जा' पाहूय अनुशास्ति ददति-धर्मकां कुर्वन्तीत्यर्थः । तेनाकस्मिकेन गमनेन शय्यानयों रोदनं कुर्युः , ततश्च
पन्धज सावो वा, दंसणभद्द। जहमयं वसहिं । सागारिकस्य- शय्यानरस्य शङ्कोपजायते, कलहे च सति
जोगम्मि वट्टमाणे, अमुगं वेलं गमिस्सामो।। १७४ ॥ 'साइजिप्रार' सह सखिक्रियया' खिंस ' त्ति यथा न शोभना त्वं येन त्वया तत्र काले. भिक्षोर्गच्छतो रुदितम् ।
सोऽपि सागारिको धर्मकथां श्रुत्वा एवंविधो भवतिकिं.च-ते स पिता भवति? येन रोविषीीत।
प्रवज्यां प्रतिपद्यते, श्रावको वा भवति, दर्शनधरो वा भवति,
भद्रको वा भवति, सर्वथा जघन्यतो वसतिमात्रमवश्यं ददाअथानागतमेव कथयन्ति--अमुकदिवसे गमिष्यामः,
ति । पुनश्च धर्मकथां कृत्वाऽऽचार्या एवं ब्रुयते-यदुत 'योगे तत्राप्येने दोषाः
यसमाने ' योऽसौ योगों गमनाय मां प्रेरयति तस्मिन् वर्तहरिअच्छेपण छप्पइ-य घचणं किच्चणं च पोताणं । माने-भवति सति अमुकबलायां गमिष्याम इति । छगणेयरंच पगयं, इच्छमणिच्छे य दोसा.उ ॥१६८॥ इदानीं ते विकालवेलायां कथयित्वा प्रत्युषसि तद्धि शय्यानरकुटुम्ब साधवो यास्यन्तीति विमुक्नशेष
" ब्रजन्ति, किं कृत्वेत्यत आहव्यापार सत् गृह एव तिष्ठति , ऋष्यादिप्रतिजागरणं न तदुभयसुतं पडिले-हणा य उग्गयमणुग्गये वावि ।
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(१२११) हिंडग अभिधानराजेन्द्रः।
हिंडग पडिछाहिगरण तेणे, नद्दे खग्गड संगारो ॥ १७५॥ णां विज्ञानं तदप्येतेषां नास्तीति, ' आयरिया मग्गो , तदुभयं-सूत्रपौरुषीमर्थपौरू च कृत्वा बजन्ति, सुतं'
त्ति त प्राचार्या मार्गतः-पृष्ठतो निर्गच्छन्तीति । ति सूत्रपौरुषी वा कृत्वा बजन्ति, अथ दूरतरं क्षेत्रं भवति
गच्छद्भिश्च शकुना अपशकुना वा निरूपणीयाः, तत्रानतः पादानप्रहर एव पात्रप्रतिलेखनामकृत्वा बजन्ति, 'उ
. पशकुनं प्रतिपादयन्नाह-(भा०) . गय ' त्ति उद्गतम्पपत्र एव वा सूर्ये गच्छन्ति , 'अणुग्गय मइलकुचेले अभं-गिएलए साण खुजवडमे य । त्ति अनुदते वा सूर्य रात्रायेव गच्छन्ति, 'परिच्छं' ति ते
एए उ अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ निंताणं ॥२॥ माधवस्तस्माद्विनिगताः परस्परं प्रतीक्षन्ते, 'अधिकरण ' | सिप्रश्वले साधवो न प्रतीक्षन्ते नतो मार्गमजानानाः पर
नारी पीवरगम्भा, वड्डकुमारी य कट्ठभारो अ। परतः पूकुर्वन्ति, नेन च पूत्कृतेन लामो विबुध्यते, तत
कासायवत्थ कुच्चं-धरा य कजं न साहेति ।।३।। साधिकरणं भवति, 'तेण' त्ति स्तेनका वा विबुद्धाः सन्तो मलिनः शरीरकपटैः कुनेलो-जीर्णकपटः 'अम्भंगिल्लिय' मोषणार्थ पश्चाद् व्रजन्ति, 'नट्ट' त्ति कदाचित्कश्चिन्नश्यति, ति रोहाभ्यक्तशरीरः श्वा यदि वामपावा दक्षिणपाश्व प्रततश्च प्रदोष पव सकारः क्रियरे, अमुकत्र विश्रमणं करि- यानि कुब्जो-चक्रः बडभो-वामनः , एनेउप्रशस्ता:-पीवप्यामः अमुकत्र भिक्षाममुकर. वसतिमिति । ततश्च रात्री- रगर्भा-प्रासन्नप्रसवकाला । शेषं सुगमम् । - गच्छद्भिः सङ्केतः क्रियते । 'स्वग्गूडे' त्ति कश्चित् खग्गू
[चक्कयरम्मि भमाडो, भुक्खामारो य पंडुरंगम्मि । उप्रायो भवति, स इदं ब्रूते-यदुत साधूनां रात्रौ न युज्यते
तच्चन्नि रुहिरपडणं, बोडियमसिए धुवं मरणं ] एवं गन्तुं पुनः, सास्ते, ततश्च 'संगारो'त्ति सङ्केतं खग्गूहाय प्रयच्छन्ति, यदुत त्वयाऽमुकत्र देशे अागन्तव्यमिति ।
जंबू चासमऊरे, भारद्दाए तहेव नउले अ। इदानीमस्या पच गाथाया भाष्यकृत् कांश्चिदवयवान् व्या
दंसणमेव पसत्थं,पयाहिणे सव्यसंपत्ती ॥४॥ (भा.) ण्यानयति. तत्र प्रथमावयवं व्याख्यानयनाह
सुगमा। पडिलेहतच्चिा बें-टियाउ काऊण पोरिसि करिति ।
नंदी तूरं पुस्म-स्स दंसणं संखपडहमद्दो य । चरिमा उग्गाहेउं, सोचा मझरिह वच्चंति ॥७६ ॥
भिंगारछत्तचामर, धयप्पडागा पमत्थाई ।।८।। (भा०)
सुगमम् । नवरं- पूर्णकलशदर्शनं, ध्वज एक पताका ध्वजते हि साधवः प्रभातमात्र एव प्रतिलेखयित्वा उपधिकां
पताका। पुनश्च वेण्टलिकां कुर्वन्ति-संवर्तयन्तीत्यर्थः। ततश्चानिक्षिसोपधय एव 'पोरिसिं करेंति' सूत्रपौरुषी कुर्वन्ति, 'च- समणं संजय दंत, सुमणं मोयगा दहिं। रिमा उग्गाहेउ' ति चरिमलायां पादानपौरुष्यां पात्रका- मीणं घंटं पडागं च,सिद्धमत्थं विगरे ॥८६॥ (भा०) णि उहाह्य-संयन्त्रयित्वा पुनश्चानिक्षिप्तरेव पात्रकैः ‘सो
श्रमणः-लिङ्गमात्रधारी संयन:--सम्यक संयमानुष्ठाने य'त्ति श्रुत्या अर्थपौरुषी कृत्वेत्यर्थः । ततो मध्याहे वज
यतः-यत्नपर: दान्तः-इन्द्रियनोइन्द्रिः सुमनसा-पु. न्तीति । ते च शोभन एवाति वजन्तीति ।
पाणि, शषं सुगमम् । अत एवाह-(भा०)
गच्छंश्चासी- . .. तिहिकरणम्मि पसत्थे, नक्खत्ते अहिवइस्स अणुकूले।
सेजातरेऽणुभासइ, आयरिओ मेसगा चिलिमिलीए । घेत्तूण निति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता ॥८॥
अंतो गिदहन्तुवहिं, सारविअपडिस्सया पुब्धि ॥१८७।। 'तिथौ प्रशस्तायां , करणे' च बबादिके प्रशस्त नक्षत्रे
व्रजनसमय शय्यातराननुभापते-बजाम इत्येवमादि श्रावा अधिपतेः-श्राचार्यस्य अनुकूल सति गृहीत्वा अक्षा
चार्यः । सेसगा चिलिमिलीए अंतो' शेषाः साधवः विलिन प्राग् वृषभा निर्गच्छन्ति । किंकुर्वाणा अरा पाह-स
मिलिण्याः-जवनिकायाः अन्तः--अभ्यन्तरे, किम् ?-उपधि उपे परिक्खंता' शकुनान्-प्रशस्तान् परीक्षमाणाः स- गृहन्ति-संयन्त्रयन्तीत्यर्थः । 'सारविअपडिस्सया पुब्धि' न्सो वृषभा निर्गच्छन्तीति पश्चादाचार्याः।
ति किंविशिष्टाः सन्तम्त साधव उपधि गृह्णन्ति? -समार्जिकिं पुनः कारणं पश्चादाचार्या निर्गच्छति ?, तत्र कारण- तः-उपलिमः प्रतिश्रयो यैस्त समार्जितप्रतिश्रयाः 'पुदिय' माह-(भा०)
प्रागेव; प्रथम मधेत्यर्थः। वासस्स य आगमणे, अवसउणे पठिया निवत्तंति ।
इदानी कः कियदुपकरणं गृह्णातीत्याहश्रोभावणा पवयणे, पायरिया मग्गो तम्हा ॥१॥ बालाई उवगरणं, जावइयं तरति तत्तिअं गिराहं । वर्षणं वर्षस्तस्यागमनं कदाचिद्भवति. अपशकुन वा दृए जहमण जहाजायं, सेसं तरुणा विरिंचिंति ॥८८ ॥ प्रस्थिता अपि निवर्तन्ते वृषभाः । यदि पुनराचार्या पव
पालादयः, श्रादिशब्दाद्-वृद्वा गृह्यन्ते, ते हघुपकरणं यावप्राग् निर्गच्छन्ति ततोऽपशकुनदर्शने वृष्टौ च निवर्तमानस्य सतः किं भवति?. श्रत पाह- श्रोहावा .पवयणे १-चक्रधरे भ्रमणं क्षुधा मरखं च पाण्डुरा ।... . प्रवचने हीलना भवति, यदुत-यषि ज्योतिषिका- तच किन रुधिरपात वोटिकेशिते भुकं मरण!
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(२२२२) हिंडग
अभिधानराजेन्द्रः। मात्र तरन्ति-शक्नुवन्ति तावन्मात्र गृहन्ति तैश्च बाला- खुइलिश्रा' इत्येवमादि, 'छट्टै ठाणद्विी होति ' षष्ठ द्वारे दिभिः , जघन्येन-जघन्यतः 'जहाजायं' रजोहरणं चोलप- स्थामस्थितो भवति । द्वारगथियम्। कश्च, एतदशक्नुवद्भिरपि ग्राह्य, शेषम् उपकरण तरुणाः
इदानीं नियुक्तिकृतोपन्यस्तं सङ्गारद्वयं श्राभिग्रहिकाः विरिश्चन्ति-विभजन्ति बालादिसत्कम् ।
माध्यकृद् व्याख्यानयनाहयदा तु पुनराभिग्रहिका न सन्ति तदा---
आओसे संगारो, अमुई वेलाएँ निग्गए ठाणं । प्रायरिमोवहि बाला-इयाण गिदहति संघयणजुत्ता।
अमुगत्थ चसहिभिक्खं, बीओ खग्गूडसंगारी ।।६१|| दो सुत्ति उरिणसंथा-रए य गहणे कपासेणं ॥८६(भा०)
'आओसे' ति प्रदोषे 'संगारो' ति सङ्केतः आचार्येष श्राचार्योपधि 'बालाइयाण' ति बालादीनां च संबन्धिनमु- कर्तव्यः , कथम् ?-'अमुई बेलाए ' त्ति अमुकया घेलया पधि गृह्णन्ति , के ?-'लंघयणजुत्ता' येऽन्ये शेषा अनाभित्र यास्यामः, पुनश्च 'निग्गए ठाणं श्रमुगध' निर्गतानां सताम् हिकाः संहननोपेतास्त गृहन्ति, कथं पुनर्गुडन्ति ते उपाधि?- अमुकत्र स्थान-विश्रामसंस्थान करिष्यामः, 'वसहि' त्ति 'दा सुत्तिउ' त्ति द्वौ सौत्रिकी कल्पो एक पौर्णिकः कल्पः अमुकत्र वसतिर्भविष्यनि-वासको भविष्यतीत्यर्थः, 'भिसंस्तारकश्वशब्दादुत्तरपट्टकश्च, एषां ग्रहणम् 'एकपासेणं'ति- क्ख 'त्ति अमुकत्र ग्रामे भिक्षाटनं कर्तव्यम्, एकस्तावदयं ग्रहणम् एकस्मिन् पार्वे-एकत्र स्कन्धे ग्रहणं करोति, द्विती. 'सकारः' सङ्केतः । 'बितिम्रो खग्गूडसंगारो' त्ति द्वितीयः ये तु पायें स्कन्धे पात्रकाणि गृहन्ति, श्रात्मीयां तपधि | सकेतः खग्गूडस्य दीयते। विराटलिकां कृत्वा यत्र स्कन्धे उपधिः कृतस्तयैव दिशा क
स चैवमाइक्षायां करोति।
रति न चव कप्पइ, नीयदुवारे विराहण दुविहा । इदानीम् 'अधिकरणतेणे 'त्ति अमुमवयवं
पमवण बहुतरगुणे,अणिच्छ बीउब्ध उवही वा।8२०भा०) व्याख्यानयत्राह
'रतिम चेव कप्पति' ति रात्री साधनां गमनं न कल्पभाउजोवण वणिए, अगणि कुटुंबी कुगम्म कम्मरिए ।
ते, द्विविधधिराधमासंभावात्, यत उक्त-दिवा पित्तावस्ट तेणे मालागारे, उब्भामग पंथिए जंते ॥१०॥ (भा०) 'नीयदुवारे विराहणा दुविह 'त्ति दिवाऽपि तावदयं दोषः, ते हि यदि सशब्दं व्रजन्ति ततश्च लोको विबुध्यते , विधु
"नीयदुवारं तमसं,कोटुगं परिवजए" इति वचनात् नीचद्वारे द्धश्च सन् 'आउजायण' त्ति अप्काययप्राणि योज्यन्ते
द्विविधा विराधना सतमस्कत्याद् प्रास्तां तावद्रात्री, एष च बहनाय सज्जीक्रियन्ते । अथवा-'आउ' ति अकायाय यो
धर्मश्रद्धया न निर्गच्छति । 'पराणवरण बहुतरगुण' त्ति पुनश्च पितो विवुद्धा ब्रजन्ति 'जोवणं' ति धान्यप्रकरः तदर्थ लो
तस्य प्रज्ञापना-प्ररूपणा क्रियते, तत्र रात्रिगमने बहवो गुणा को याति, प्रकरो-मर्दनं धान्यस्य , लाटविषये 'जोधणं ध- |
दृश्यन्ते , बालवृद्धादयः सुखेन गच्छन्ति रात्री, न तृषा राणपहरण भएणइ', 'वणिय' त्ति वणिजो-बालम्जुका वि
बाध्यन्त इति । 'अणिन्छ' त्ति अथ तथाऽपि नेच्छति भातमिति कृत्वा व्रजन्ति । 'अगणि' ति लोहकारशालादिषु
गमनम् 'बितिओ व' त्ति द्वितीयस्तस्य दीयते-तदर्थ मुअग्निः प्रज्वाल्यते 'कुबुंबि'त्ति कुटुम्बिनः स्वकर्मणि लगन्ति
च्यत इति । 'उवही व' त्ति उपधिस्तस्य दीयते जीर्णा, 'कुगम्म' त्ति कुत्सितं कर्म येषां ते कुकर्माणः मात्सिकादयः
तदीयश्च शोभनो गृह्यत इति , मा भूतत्पाचे स्थितमुपधि कुत्सिता माराः कुमारा:-सौकरिकाः,एषां बोधो भवति रात्री |
स्तनका आच्छेत्स्यन्ति। पूकारयतां , ' तेणे 'त्ति स्तेनकानां च , 'मालाकार'त्ति इदानीमसावेकाकी यदि स्वपिति तनो दोषः प्रमादजनिमालिका विबुध्यन्ते 'उम्भामग' त्ति पारदारिका विबुध्यन्ते तस्ततश्चोपधिरुपहन्यते , उपहतश्चाकल्प्यो भवति । 'पंथिए' ति पथिका विबुध्यन्ते जंते' ति यान्त्रिकाः विबुद्धा एतदेवाहसन्तो यन्त्राणि वाहयन्ति चाक्रिकादयः।
सुवणे वीसुवघातो, पडिबझंतो जो उन मिलेगा। नत्र यदकं प्राक"नट्रे खग्गूडसिंगारो" तत्रेदमुक्तं नियुक्ति जग्गण अपडिबझण.जह विचिरेणं न उवहम्मेह३(भा०) कृता सकारकरणमात्रम् , रह पुनः स एव नियुक्तिकारःससकारः कया यतनया कर्तव्यः? कृस्यां च वलायां कर्त्तव्यः ?
स्वापे 'वीसु' एकाकिनो निद्रावशे सति, को दोषः ?इत्येदाह
'उबघाउ' ति तस्यैकाकिनः सुप्तस्य उपधिरुपहन्यते, स
ह्यकाकी स्वपन् प्रमादवान् भवति ख्याधभियोगसंभवात् , संगार बीय वसही,तइए सरणी चउत्थ साहम्मी।
ततश्च निद्रावश प्राप्तस्य उपधिरुपहन्यते , तोऽकल्पनीयो पंचमगम्मि भवसही,छड्ढे ठाणडिओ होति ।।१७६।।
भवति परिष्ठापनीयश्चासौ । गच्छे तु स्वपतोऽपि नोपहन्यते, 'संगार 'त्ति सङ्केनोऽभिधीयते, तनिधिर्वक्तव्यः, 'बिति- कि कारणम् ? , यतस्तत्र केचित्सूत्रपौरुषी कुर्वन्ति, अन्य य वसहि 'त्ति द्वितीये द्वारे वसतिः कर्तब्ध, पूर्वप्रत्युप- नितीयहरे ऽर्थानचिन्तनं कर्वन्तितृतीये त प्रहरे मौमार्य क्षिता तस्या व्याघाते वा वसतेर्ग्रहणविधिक्तव्यो, ततिए उत्तिष्ठति ध्यानापर्थे , चतुर्थे तु प्रहरे सर्व एव भिक्षय त्तिसरिण' नि तृतीये द्वारे संझी श्रावको घक्तव्यः, 'चउत्थ ष्ठन्ति, ततश्च रात्रेकोऽपि प्रहरः शून्यः , ततो नोपहन्यते साहम्मि' तिचतुर्थेद्वारे साधर्मिका वक्रव्याः, 'पंचम- उपधिः। एकाकिनस्त जागरण नास्त्यत उपघातः , 'पडिय- .. गम्मि अषसहि, ति पञ्चमे द्वारे वसतिर्वक्कठ्या-'विच्चिमा झते. व जो उ न मिखेज्ज 'ति प्रतिवध्यमानो पा.वजा- .
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(१२१३) हिंडग
अभिधानराजेन्द्र।। विष्णु शीरयाचनेच्छया प्रतियध्यमानो यो न मिलेत् तस्या- उमेन मार्गेणागन्तव्यमिति, एवं तावत् घसनि ग्रामे ' एस प्युपहन्यते उपधिः । किं कारणम् ?, एकाकिनः पर्यटन विही'। 'सुराण नवरि रिक्स' ति यदा त्वसौ शून्यो प्रानोक्तम् । एकाकी च पर्यटन प्रमादभाग् भवति अतो बजा- मस्तवा किं कर्तव्यम् ?-'नीर रिक्ख' त्ति वर्मनि-, विप्रतिबन्धेऽप्युपधिरुपहन्यते । यस्तु पुनर्जागर्ति तस्मिन् अनभिप्रेत तिरश्चीनं रेखाद्वयं पाभ्यते, येम तु वर्मना दिवसेऽभुक्तो नवजादिषु प्रतिबध्यते स एवंविधस्तस्मिन् ।
गतास्तत्र वीर्ण रेखां कुर्वन्ति । यदा तु पुनरेभिरुक्कदोविवसे मिलमपि नोपधिमुपहन्ति । · जवि चि- पैथुनो न भवति स प्रामस्तदा नत्रैय या वसतिस्तस्यां रेणं' ति किंबहुना ?, जाग्रनिशि गोकुलादिषु धाऽप्रति- प्रविशन्ति । ततश्च येते भिक्षार्थमन्तरालमामे स्थिता माबध्यमानो यद्यपि चिरेण मिलति बहुभिर्दिवसैस्तथाऽप्यु
सन् तेषां मध्ये यदि वसतिमार्गको भवति ततस्तस्यामेव पधिस्तस्य नोपहन्यते, अप्रमादपरत्वात्तस्येति ।
घसती पागच्छम्ति, न कश्चित्प्रतिपालयति । इदानी गच्छस्य गमनविधि प्रतिपादयन्नाह
एतदेवाहपुरमो मज्झे तह म-ग्गयो य ठायंति खित्तपडिलेहा। जाणंतठिऍ ता एउ, बसहीए नस्थि कोइ पडियरह। दाइंतुचाराई, भावासलाइरक्खडा ॥१७७॥
मसाएऽजाणते-सु वावि संघाड धुवकम्मी ॥१०॥ क्षत्रप्रत्युपेशाका एषु घिभागेषु भवम्ति-केचन पुरतः- 'जाणतठिए ' मार्गाभिने स्थिते तम्यां वसतावागन्छअग्रता गच्छस्थ, केचन मध्ये गच्छस्य, ते हि मार्गान- न्ति नरिथ कोइ पडियर' तिन कश्चित् तान् प्रतिपाभिक्षाः। मार्गतश्व-पृष्ठतश्च तिष्ठन्ति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः । लयति बहिः-स्थितः, 'अराणाए' ति यदा तस्याः - किमर्थं पुरत एव तिष्ठन्ति ?, 'दातुचाराई ' उच्चारप्रश्र- प्रत्युपेक्षिताया घसतेव्याघातः संजातः किम्यम्या, तस्यावरणस्थानानि दर्शयन्ति गच्छस्य , 'भावासराणादिर- मन्यस्यां बसती जातायां 'अजाणतसु धाषि,' अथवा-ये ते क्खट' ति भावासराणो-श्रणहियासमो, तद्रक्षणार्थ- भिक्षानिमित्तं स्थिताः पश्चादागमिष्यन्ति तेषु प्रजामस्सु म् । एतदुक्तं भवति-उच्चारादिना बाध्यमानस्य ते मार्ग- • संघाडधुवकम्मि' ति वसतिपरिज्ञानार्थ सााटको शाः स्थण्डिलानि दर्शयन्ति ।
बहिः स्थाप्यते, ध्रवकर्मिको-लोहकारस्तस्य कथ्यत, डहरे भिक्खग्गामे, अंतरगामम्मि ठावए तरुणे।
यदुत-साधव प्रागमिष्यन्ति तेषामियं वसतिदर्शनीया
कथनीया ति। उवगरणगहण असह, व ठावए जाणगं चेगं ॥१७८।।
दानी येते भिक्षार्थ पश्चातामे स्थापितास्तैः किं कर्तव्य'दुहरे भिक्खग्गामे' त्ति यत्र प्रामे यासकोऽभिप्रेतः भि का च अटितुमभिप्रेता तस्मिन् 'डहरे' पुल के प्रामे सति |
मत पाहकिं कर्तव्यमत माह-'अंतरगामम्मि ' अपान्तराल एव जइ अब्भासे गमणं, दूरे गंतुं दुगाउयं पेसे । यो प्रामस्तस्मिन् भिक्षार्थे तरुणान् स्थापयेत् , 'उवगर- ते वि असंथरमाणा, इंती महवा विसअंति ॥१८॥ एगहणं' ति तदीयमुपकरणमन्ये भिक्षवो गृहन्ति , 'प्र
यदि अभ्यासे-श्रासने गच्छस्ततस्ते 'गमणं' ति गच्छससहव ठायए' त्ति अथ ते तत्स्थापितेतरभिघुसत्कमुप
मीपमेष गच्छन्ति, 'दूरे' ति अथ दूर गच्छस्ततो गन्तुं द्विकरण प्रोतुं न शक्नुवन्ति ततोऽसहिष्णव एवं तत्रान्त
गव्यून-गत्वा क्रोशद्वयं, किम् ?-'पसे' त्ति एक भ्रमणं गरमामे भिक्षार्थ स्थाप्यन्ते 'जागं चेग '
तिचैकं
छसमीपे प्रेषयन्ति , ' तेवि असंथरमाणा इति' तेऽपि मार्ग चैकं तप मध्ये स्थापयेत् येन सुखनेयागच्छन्ति ।।
गच्छगताः साधयः असंस्तरमाणा:-अतृप्ताः सन्तः किं कुदुट्टिा खुलए, चर भड अगणी य पंत पडिणीए। यन्ति ?- पंति' आगछन्ति, क ?-यत्र ते साधया भिक्षया संघाडेगो धुवक-म्मिमओ व सुले नवरि रिखा ॥१७६।।
गृहीतया तिष्ठन्ति, अथ च तृप्तास्ततस्तं साधं विसर्जयन्ति अथवा-असौ वासकभिक्षार्थमभिप्रेतो प्रामो दूरे स्थितः
यदुत-पर्याप्तमस्माकं , यूयं भक्षयित्वाऽऽगच्छत । 'संस्वाद् , उस्थितो वा-उद्वसितः खुल्लको वा प्राक संपूर्णो
गारे' त्ति दारं, व्याख्यातं, तत्प्रसङ्गायातं च व्याख्यातम् ।
इदानीं वसतिद्वारमुच्यते, तत्प्रतिपादनायेदमाहरः इदानीमर्द्धमुद्धसितमतः सुन्नकः, नवः-प्राग् यस्मिन स्थाने दृष्टस्ततः स्थानादन्यत्र प्रदेशे जातः 'भड' त्ति
पढमवियाए गमणं, गहणं पडिलेहणा पवेसो उ। भटाकान्तो जातः 'अगणि' ति अग्निना वा इदानीं दग्धः काले संघाडेगो, वऽसंथरंताण तह चेव ॥१२॥ प्रान्तः-प्राक शोभनो इष्ट इदानी प्रान्तीभूतो विरूपो 'पढमति तस्यां च बसतौ गमनं-प्राप्तिः कदायित्प्रथमपोरजातः 'पडिपीए' त्ति प्रत्यनीकाक्रान्त इदानी जातः, प्राक व्यां भवति, कदाचिच 'बितियाए' त्ति द्वितीयपौरुष्यां गमप्रतिलेखनाकाले प्रत्यनीकस्तत्र नासीत् इदानीं तु पायातः, मं; प्राप्तिरित्यर्थः । 'गहणं ति 'डउंछयणदोरयचिलिमिलीपूर्वप्रतिलेखिते प्रामे एवंविधे जाते सति दरोत्थितादि. 'कृत्वा ग्रहणं वृषभाः प्रविशन्ति । पुनश्च 'पडिलेहणा' तां दोषाभिभूते सति किं कर्तव्यम् ?- संघाड'त्ति तत्र स. घसति प्रमार्जयम्ति, 'पयेसो' ति ततो गच्छः प्रविशति, काटकः स्थाप्यते, पाश्चात्यप्रवजितमीलनार्थम् 'एगोवि' त्ति 'काले' सिकदाचिदिक्षाकाल एवं प्राप्तास्तत को विधिः!, सवाटकाभावे एकः स्थाप्यते साधुः 'धुवकम्मिश्रो' त्ति श्रत पाह-सबाटक एको वसति प्रमार्जयति, अन्ये भिक्षाप्रयकर्मिको-लोहकारादिस्तस्य कथ्यते-यथा ययमन्यत्र थे ब्रजन्ति । ' एगो व ' ति.यदा सवाटको न पर्याध्यते तदा ग्रामे याम्यामः, स्यया पाश्चात्यसाधुभ्यः कथनीयं-यथा- एको गीतार्थो घसहिप्रन्युपेज्ञणा प्रध्यत, यदा तु पुनरको
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(११) 1. हिंग ! श्रभिधानराजेन्द्र: ।
हिंडग ऽपि न पर्याध्यते सदा किम् ? असंथरताण अणुघमुताम नी नस्य च पात्रकसंघट्टयितुः संबन्धिनीमुपधि प्रवेशयअंतष्यन्तः सर्व एवोटन्ति', 'यो तु वसतिः पूर्वलब्धा ता क- ति , तत उत्तरकालं गच्छ उपैति-प्रविशति सबालवृद्धथमन्विन्ति ?-तह चेव' त्ति यथा भिक्षामन्विषन्ति एवं त्वादाकुलः तदा-तस्मिन् काले । दारं । " .. वसतिमपि सर्वे पूर्वप्रप्युपेक्षितामन्विषन्ति , अविष्य च त- चोयगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होड आगमणं । वेव प्रविशन्ति । यदा तु पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतयाघाता जारसदाऽपि तहचव' त्ति यथा हि भिक्षा मार्गयन्ति तथा
संजमायकिराहण, वियालगहणे य जे दोसा ॥१०६।। वसतिमपि , लब्धायां च तत्रैव परस्परं हिराडन्तः कथयन्ति ।
पहिडन्तः कथयन्ति। चोदकस्य पृच्छा चोदकपृच्छा , चादक एवमाह-यदुन 'सहीए निअभिव्य'ति ।
बाह्यत एव भुक्त्वा प्रवेशः क्रियते, किं कारणम् ?, उपधिइदानी “पढमबिइयाए" त्ति इदं द्वारं भाष्यकृत् व्याख्यान
मानयतः 'सुधार्तस्य तृषितस्य च ईर्यापथमशोधयतः
संयमविगधना, उपधिभाराक्रान्तस्त्र कण्टकादीननिरूपययन्नाह
तात्मविराधना , ततश्च बहिरेव भुक्त्वा विकाले प्रविपढमवितियाए गमणं, बाहिं ठाणं च चिलिमिणी दोरे ।
शन्तु । श्राचार्यस्त्वाह-बहिर्भुञ्जतां दोषाः . कथं ?-मण्डलिचित्तण इंति बसहा, बसहि पडिलेहिउं पुब्बि ।। ६३ ।।
बन्धे सति आगमनं भवति सागारिकाणाम् ,तत्र च संय- प्रथमपौरुष्यां गमनं-प्राप्तिर्भवति तत्र क्षेत्रे , कदाचिद् द्वि- मात्मविराधना भवति 'वियालगहणे ति विकालघलायां तीयायां प्राप्तिस्ततः को विधिरित्यत आह-'बाहिं ठाणं च' च वसतिग्रहण ये दोषा भवन्ति ने वक्ष्यन्ते। द्वारगाथेयम् । बहिरेव तावदवस्थानं कुर्वन्ति , स्थिताश्चोत्तरकालं ततश्चि
- चोदकपृच्छति व्याख्यानयन्नाहलिमिणीं-जवनिकां दवरिकाश्च गृहीत्वा प्रविशन्ति वसती
अइभारेण उ इरिगं, न सोहए कंठगाइ आयाए । वृषभाः, ग्रहणद्वारं व्याख्यानम्। किं करें?-वसति प्रत्युपेक्षितुम् , वसतिप्रत्युपक्षणार्थ प्राग्वृषभा गृहीतचिलिमिलि.
भुत्तट्ठिय वोसिरिया, अइंतु एवं जढा दोसा ॥१८७॥ न्युपकरणा आगच्छन्ति, पडिलेहण'त्तिद्वारं भणितम् । दारं। चोदक पवमाह-यदुत गच्छसमीपादुपधि प्रवंशयन त
दतिभारेण बुभुक्षया च पीडितः सन्नीर्यापथिकां न शोधएवं तावत्पूर्वप्रत्युपक्षितायां वसतौ विधिः , यदा तु पुनः
यति यतोऽतः संयमविराधना भवति , तथा कण्टकादीपूर्वप्रत्युपेक्षिताया व्याघातस्तदा
नि च न पश्यति बुभुक्षितत्वादेव यतोऽत आत्मविराधना वाघाए अण्णं म-गिऊण चिलिमिणिपमञ्जणा वसहे।
भवति , तस्माद् 'भुत्तट्टिय' त्ति बहिरव भुक्ताः सन्तः , ततत्ताण भिक्खवेलं, संघाडेगो परिणो वा ।। १०३।। । था 'चोसिरिय' ति उच्चारग्रश्रवणं कृत्वा ततः :-अतु ' पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसंताघाते सति अन्यां वसतिं मार्ग
त्ति प्रविशन्तु , क ?-वसतो, एवं जढा दास' नि एवं यित्वा ततः किश्चित् 'चिलिमिणिपमज्जणा वसंह' ति ततो क्रियमाणे दोषः आत्मविराधनादयः परित्यक्ता भवन्ति । वृषभाश्चिलिमिलिन्यादीनि गृहीत्वा प्रमार्जयन्ति । 'पत्ताण
एवमुक्त सत्याहाचार्यः...भिक्खवेलं' यदा तु पुनर्भिक्षावेलायामेव प्राप्तास्ता किं कर्त
आयरिअवयण दोसा, दुविहा नियमा उ संजमायाए । .." ब्यम्, 'काल' त्ति भणितं, संघाडे'त्ति सङ्घाटको वसतिप्रत्यु.
बचह न तुज्झ सामी,असंखडं मंडलीए वा ॥ १८८ ।। पेक्षणार्थ प्रेष्यते, 'संघाडत्ति भणिअं' , ' एगोव' त्ति सङ्घाटकाभावे एको वा प्रेष्यत , किंविशिष्टः ?-परिणतः-गीता
...पाचाग्रस्य वचनम् , प्राचार्यवचन. किं तदित्याह-दोसा'
बाह्यता भुञ्जना दोण भवन्ति द्विविधाः नियमाद्-अर्थः, 'एमो त्ति भणिय' यदा तु पुनरेका नास्ति ता किम् ?
वश्यतया , संजम' त्ति संयमविराधनादोपः आयाए' सव्ये वा हिंडता, वसहि मग्गंति जह व समुयाणं । ति प्रामविराधनादोषः । तत्र संयविगधनादोष एवं भ- लद्धे संकलिअनिवे-अणं तु तत्थेव उ नियट्टे ॥१८४॥ यति-तत्र च भोजनस्थान सागारिका यदि बहवम्तिष्ठन्ति
सर्वे वा हिराडम्त एव वसति मार्गयन्ति-अन्विषन्ति , ततस्ते साधा भिक्षामटित्वाऽऽगताः सन्तो या कथं ?-'जह व समुदाणं' यथा समुदान-भिक्षां प्रार्थय- न्ति-यदुत 'वच्चह' हा सागारिका- गच्छनास्मास्थानात् , न्ति-निरूपयन्ति एवं वसतिमपि अन्विन्ति , 'तह चव ततश्चैवमुच्यमाने संयमविराधना भवति । आत्मविगधत्ति अवयवो भरिणतः, 'लद्धे संकलिअनिवअतु' भि- ना चैवं भवति-यदा त सागारिका उच्यमाना न गच्छन्ति , क्षामद्भिलब्धायां वसती संकलिकया निवदनं-यो यथा
किन्त्वेवं भणन्ति-'न तुझ मामी ' नाम्य प्रदेशम्य यं पश्यति स तथा तं वक्ति-यदुत इह वसतिर्लब्धा इह 'भवन्तः स्वामिनः नतश्च असंखडं भवति । 'मंडलीए व' निवसनीय , तस्मात्तस्यामेव च बसतो निवर्त्तते। ।
त्ति अथ मएडल्या जातायां सत्याम्- तत्र च प्रवेशे को विधिः?
कोऊहल आगमणं, संखोभेण अकंठगमणाई। एको धरेइ भाणं, एको दोगह वि पवेसए उवहिं।
ते चेव संखडाई, वसहिं व न देंति जे वऽन्नं ।। १०६ ॥ .. सव्यो उवछ गच्छो, सबालवुड्डाउलो ताहे।। १८३॥ . मण्डलकायां , जातायां कौतुकन सागारिका आगमनं
एको धारयति-संघट्टयति साजन पात्रकम् एकः- कुर्वन्ति, ततश्च 'संखाभणं' ति संक्षोभेण तेषां प्रवजितानां अन्यस्तस्य द्वितीयः बहिर्व्यवस्थितः गच्छात सकाशाद - अकगठगमनादि-कगठन भक्ककवलो नोपकामति, 'त चेव मिक्षामटयां भुक्तामुपधि द्वयारपीति. आत्मनः संबन्धि । संखडाईति त एच.वा संखडादया दोषा भवन्ति ' बसहिं
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.(१२१५.) हिंडग
नाभधानराजेन्द्रः। वल देति "एवं च सांगारिका रुष्टाः सन्तो वसतिं न प्रय
इदानी ‘मग्गरमे 'त्ति व्याख्यायने- च्छन्ति, तंत्र ग्रामें जं वस" ति ग्रहणाकर्षणादि कुर्वन्ति । फिडिए अप्लोमारण, तेण य राो दिया य पंथम्मि । इदानीं तस्माद् ग्रामादन्यत्र ग्रामे भोजन ।
साणाइ वेसकुत्थित्र, तवोकणं मूसिवा जं च ।।१६४॥ 4. "गृहीत्वा गन्तव्यं, तत्र चैते दोषाः। भोरण वेयणाए, न पेहए थाणुअंटायाए।
'फिडिए' ति विकालवेलायां वसतिमाणे अन्वेषणे
'फिडितः' भ्रम्रो भवेत् , नत्र अन्योऽन्य-परस्परतः हरियाइ संजमम्मि अ, परिगलमाणेण छक्काया ॥१०॥ 'भारण' संशब्दनं तच्छुत्वा स्तेनका रात्रौ मुषितुमभिलउपधिभिक्षाभारेण या वेदना सुवेदना वा तया न पहर'
या निहित त्ति न पश्यति स्थाणुकण्टकादीन् , ततश्चान्मविराधना भवति, हरियाई' ति संयमविषया विराधना ईर्यादि, तथा
तस्तान भमणान् मुष्णन्ति 'साणादि' ति रात्री वस
तेरम्वेषणे श्वादिर्दशति । 'मग्गणे' ति भणिग्रं, वेसपरिंगलमाने च पानादौ षट्कायविराधना भवति ।
थिदुगुंछिए' ति व्याख्यायतेऽवयवः,तत्राह-'वेसकुत्थिन तथा चैते चान्यत्र प्रामे गच्छता दोषा भवन्ति
तवाचणं मूसिगा चेव' रात्री वसतिलाभे न जानन्तिः किसावयतेणा दुविहा,विराहणा जा य उवहिणा उ विणा ।
मेतत्स्थानं वेश्यापाटकासन्नमनासनं वा, ते चान्धवानातणअग्गिहणसेवण, वियालगमणे इमे दोसा ॥१६१।। स्तस्यां वसतो निवसन्ति, तत्र चायं दोषः-वेश्यासमीप श्वापदभयं भवति, तथा 'तेणा दुविहा भवन्ति'-शरीराप- चसतां लोको भणति,अहो तपोवनमिति । कुत्सितछिम्पकाहारिणः, उपध्यपहारिणश्च । 'विराहणा' जा" य उबहिणा उ | दिस्थानासन्ने लोको ब्रवीति-स्वस्थाने मूषिका गताः, एतविणा' या च उपधिना-संस्तारकादिना विना विराधना ऽप्येवंजातीया एव । सित्थिकुच्छिते' त्ति गतम् । स्वाभवति, का चासो ?-'तण अग्गिगहणवणा' यथासंख्य ध्यायद्वारं व्याख्यातमेव द्रष्टव्यम् ।... तृणानां ग्रहणे संयमविराधना, अग्नेश्च सेबने संयमविराधने
इदानीं 'संथार' त्ति व्याख्यायतेति । द्वारम् । एवं तावद्ध ह्यतो भुञ्जानानामन्यग्रामे च गच्छ
अप्पडिलेहिअकंटा-बिलम्मि संधारगम्मि आयाए । तां दोपा व्याख्याताः । इदानीं तु यदुनमासीचोदेकेन यदुत |
छक्कायसंजमम्मि अ, चिलिणे सेहऽनहाभावो ॥१६॥ विकाल प्रवेष्टुं युज्यते तन्निरस्यत्राह-'बियालगम (ह) ण इमे दोसा' विकालगमने वसतौ एत-वक्ष्यमाणलक्षणा दोषा |
अप्रत्युपक्षितायां वसती कण्टका भवन्ति, बिल बा । तत्र भवन्ति । ते चामी
संस्तारक क्रियमाणे 'श्रायाए ' त्ति आत्मविराधना भवति
'छक्काय' ति षटकायस्यापि अप्रत्युपेक्षितवसतौ स्वपतः पविसणमग्गणठाणे, वेसित्थिदुगुंछिए य बोद्धव्वे ।
'संजमम्मि' ति संयमविषया विराधना भवति । 'चिलिसज्झाए संथारे, उच्चारे चेव पासवणे ॥ १६२॥ णे' त्ति तथा चिलीनम्-अशुचिकं भवति, तस्मिश्च सहस्य 'पविसस्य'त्ति तत्र ग्राम विकाले प्रविशतां ये दोषास्तान् जुगुप्सया अश्रुतार्थस्यान्यथाभावः-उन्निष्क्रमणादिर्भवति । वक्ष्यामः, 'मग्गण' त्ति वसतिमार्गणा अन्वेषणे च विकालंब- 'संथार' त्ति गयं । लायां ये दोपास्तान् वक्ष्यामः । 'ठाण वेसिथिदुगुंछिए अ' इदानीम् ' उच्चारपासवणे' त्ति व्याख्यायतेइत्यतद्वक्ष्यतीति विकालंबलायां बोद्धव्य-क्षेयम् । 'सज्झाए'
कंटगथाणुगवाला-विलम्मि नइ वोमिरेज आयाए । त्ति स्वाध्यायम् अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ अगृहीते काले
संजमो छकाया, गमणे पत्ते अइंते य ॥१६६।। कुर्वता दोषः, श्रथ न करोति तथाऽपि दोषः हानिलक्षणः ।
अप्रत्युपेक्षितायां वसतो कण्टकस्थाणुव्यालाबिल-समा'सार'त्ति अप्रत्युपेक्षितायां घसती संस्तारकभुवं गृह्णतः संयमात्मविराधनादोषः । 'उच्चारे' ति अप्रत्युप्रेक्षितायां
कुले प्रदशे व्युत्सृजत श्रात्मविराधना भवति, संजमओ'
त्ति संयमतो विराधना षट्कायोपमर्दे सति रात्रौ भवति । बसती स्थगिडलेवनिरूपितेषु व्युत्सृजना दोषः, धारण ऽपि दोषः 'पासवणे' ति अप्रत्युपेक्षितषु स्थण्डिलेषु व्युत्सृजतो
'गमण' त्ति कायिकाव्युत्सर्जनार्थ गमने दोषाः पत्ते 'त्ति दोषः, धाग्यतोऽपि दोष एव ।
'कायिकाभुवं प्राप्तस्य व्युत्सृजतः 'अयंते य' ति पुनः का
यिका व्युत्सृज्य वसतिं प्रविशता पदकायोपमर्दो भवतीति । इयं द्वारगाथा, इदानीं प्रतिपदं व्याख्यायते
अथ तु पुनर्निराधं करोति ननश्चैत दोषा भवन्निसावयतेणा दुविहा,विराहणा जा य उबहिणा उ विणा ।
मुत्तनिरोहे चक्खू, बच्चनिराहेण जीवियं चयई । गुम्मिअगहणाऽऽहणणा, गोणाईचमढणा चेव ॥१६३।।
उडनिरोहे कौटुं, गेलनं वा भवे तिसु वि ॥१७॥ विकाले प्रविशतां ग्राम श्वापदभयं भवति । स्तना द्विप्रकाराः-शरीरस्तेना, उपधिस्तेनाश्च । तद्भयं भवति विकाले
सुगमा। 'उच्चारपासवगि' त्ति गयं । प्रविशताम् , विराधना या च उपधिना विना भवति अग्नि
इदानीमपवाद उच्यतेतृणयोग्रहणसेवनादिका, सा च विकाले प्रवेशे दोषः । 'गु- जइ पुण वियालपत्ता, पए व पत्ता उवस्मयं न 'लभे । म्मिय' ति गुल्म-स्थानं तद्रक्षपाला गुल्मिकास्तै ग्रहण- सुन्नवरदे उले वा, उजाणे वा अपरिभोगे ॥१६॥ माहननं च भवति विकाले प्रविशतामयं दोषः। 'गोणादि- र्याद पुनर्विकाल एव प्राप्ताः, ततश्च तेषां विकालवलायां चमढणा' बलीवर्दादिपादप्रहारादिश्च, एवमयं विकालप्रवेश | घसतौ प्रविशतां प्रमादकृतो दोषो न भवति , ' पा व पत्तं' दोषः । " पविसणे" त्ति गयं ।
। ति प्रागय प्रत्यूषस्येव प्राप्ताः- किन्तु उपाश्रयं न लभन्ते
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( १२१६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
ततः क समुद्दिशन्तु ? शून्यगृहे देवकुले या उद्याने वा अपरिभोगरहित सम्पति
श्रारिश्रचिलिमिणीए, रमे वा निम्भए समुद्दिसणं । समए पराचास कम कुरुया संतरिया | १६६ ॥ श्रथगुहादी सागारिकाणामापातो भवति, तत श्रापाते सति चिलिमिणी- यवनिका दीयते, 'रणे व' त्ति अथ शुन्यगृहादि सागारिकाका ततः परस्य निषसहि शयिते सत्संग प्रस्य या असत
सतिसमीप एव कमढकेषु शुक्लेन लेपेन सबाह्याभ्यनितेषु भुपते कुरुक्षा यति कुरुकुला–पाइ क्षालनादिका क्रियते 'संतरित' नि सान्तराः - सावकाशा बृहदन्तराला उपविशन्ति । इदानों मुक्त्वा वहिः पुनर्विका मतिमन्विषन्ति सा च कोष्ठकादिका भवति । (ओघ० ।) धाया वसंतविधिः 'संधारण' शब्देऽस्मिनेव भागे गतः ।) दारियाख्यायते-दारे
वि य बिहरियाविहरियो उ भगाउ बिहरिए होइ । संदिट्ठी जो बिहरितो, अविहरिअविही इमो होइ ।। २१० ॥ एवं ते वजन्तः कञ्चिड्रामं प्राप्ताः, स च ग्रामो द्विविधः-वितोऽविश्वः । विहृतः साधुभिर्यः क्षुण्णः - श्रासेवित इत्ययः साधुभिः। तुशब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि ? - योऽसौ विहृतः संक्षियुक्तः संशिरहितो वा । भरणा उ विहरिए होति' नियोऽसौ विहतः संशियुक्तस्तत्र भजना --विकल्पना, धमी संशी संविभावितस्ततः प्रविशन्ति श्रथ तु पार्श्वम्यादितस्ततो न प्रविशन्ति 'संदिट्ठो जो हिरो' ि
य
विनविते संक्षिगृहे संविष्टः उक्तः यथाऽऽचार्यप्रायोग्यं न्यया संशिकुलादानयनीयमित्यतः प्रविशन्ति । अथवाऽन्यथा व्याख्यायते द्विविधः, कतरः ? संशिद्वारस्य प्रकान्तयाद संज्ञिनों वा, कतमेन द्वैविध्यमत आह-विहृतोऽविहनच साधुभिः सुरागोऽक्षुराणश्च तत्र भजना विहृते श्रावके सति यद्यप्रवेशः कियते अथ पार्श्वस्थानितीन प्रदेयम्। संदिष्टो विनो माम्भोगिकैश्च यैर्विष्टस्ततोत्राचार्य संदिष्टः प्रविशति श्राचार्यप्रायोग्यग्रहणार्थम्, 'प्रविरिविही इमो होति' ति श्र
.
"
ते ग्राम सुशिनि वा श्रयं विधिः- वक्ष्यमाणलक्षणः सप्तमगाथायाम् विहरिश्रमसंदिट्ठो वेतिन पाहुडिअ "श्र स्यां गाथायामिति ।
इदानी भाष्यकार पनामेव गाथां व्याख्यानयन्नाह - अविहरि चिहरियो वा जइ सड्डो नत्थि नत्थि उ नियोगो । नाए जुइ श्रसमा, पविसंति तथ्यो य पारस ॥ ६५॥
-8
अषितो विहती या प्रामः, तत्र विने यदि श्राद्धको नास्ति नतो नास्ति नियोग नियुज्यते साधुः श्राचार्य प्रायोग्यान यमर्थम् । गाय 'सि अथ तु ज्ञाते विज्ञाते एवं यदुनास्ति विः, तत्र च यदि ओसन्ना पविसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपि नास्ति नियोगः, श्रथ तु प्रविशन्ति 'श्री
परति पञ्चदशोद्रमनदोषा भवन्ति ते वामी- "श्राहाकमुदेखि पूर्वकम्मै यमीसजाए उड़ना पाहुडियार,
हिंडम
पाडवरीय पामिचे ॥ १ ॥ परिपट्टि अभि लोसिस भोपर सोलसमे ||२||" ननु चामी षोडश उच्यते-अज्मोयरतोय मीसजाये दोहिं त्रिएको वेव भेो ।" अथवा इयमपि गाथा संशिनमेवाध्यायं द्विविधाको हित अि तो वा "जह सही गस्थि रात्थि उ निश्रोगो तश्रो विहरितो " यदि श्राजो नास्ति ततो मास्ति नियोगः साधोः । 'गाए' सि अथति के यहुतास्ति तत्र सति ज ओसरणा पविसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपि नास्ति नियोगः । अथैवंविधेऽपि प्रविशन्ति ततश्च पञ्चदश दोषा उन्मादयो नियमापति
यद्यपि तत्रावमग्ना न गृह्णन्तिसंविग्गमाए, अति श्रहवा कुले विरिंचति ।
"
पांव सहू, एमेव य संजईवन्गे ॥ ६६ ॥ ( भा० ).
सिं
वितः ततः
"
शितैरेवानुमति - गृहे प्रविशन्तिलानि विि विभजन्ति पते चान्यसाम्भोगका संवि सहू' असं जत्थ सायगा नत्थि तहिं हिंडंति वत्थव्या । जह सह समत्था इयरे श्र पाहुणगा जम्पसरीरा ततो सावगकुलानि हिण्डन्ति । श्रह वस्थव्या जप्पसरीरंगा पाहुणगा सततोतियमेव जय एवमेव संगतीवर्गे विधिः, यदुत ताभिरनुज्ञातेषु श्रावककुलेषु प्रवेष्टव्यम् । बहुषु च कुलेषु सत्सु ता एवं विरिञ्चन्ति गाउंछं व सहू" इति श्रयं व विधिर्द्धव्यः ।
66
"
6
भोइया संभोइयाण ते पेव
एवं तु जाति निबंध, बथव्यं स उ पमाणं ॥६७ (भा० ) पचमन्यसाम्भोगको विधियः । 'संभोइयाण ते चेव ' त्ति अथ साम्भोगिकास्तत्र ग्रामे भ यन्ति ततः ' ते चेव' प्तित एव वास्तव्याः साधघो मै• क्षमानयन्ति । श्रथ तत्र साम्भोगिकसमीपे प्राप्तमात्राणां क चिच्ायक आयातः स च प्राक
"
यदुत मदीये गृहे भिक्षार्थ साधुः प्रहेतव्यः तत्रोच्यतेवास्तव्या एव गमिष्यन्ति । श्रथैवमुक्तेऽपि निब्बन्धं' ति निबन्धं करोति - आग्रहं करोत्यसौ श्रावकस्ततः 'वत्थव्वेणं' वास्तव्येन सदैकेन गन्तव्यं यतः स एव वास्तव्यः प्राधूकामपाधिकये।
"
अथासौ साम्भोगिकवसतिः संकुला भवति ततःअस बसही बी, राइगिए वसहि भोषणागम्य | अस अपरिया वा ताहे वीसुं स पियरे ॥६८॥ ( मा० ) असति - श्रभावे विस्तीर्णाया बसतेः 'वीसुं' ति पृथ-अन्यत्र बसतो अस्थानं कुर्वन्ति तत्र भोजननविधिरित्यवसहि भोषणागम' सि रत्नाधिपती भोजनमा फस्य रत्नाधिका कदाचिद्वास्तयो भवति कदाचिदागन्तुक इति राधिकाः भिक्षा प्रतिपा रिता वा साधवः सहप्राया मा भूद् रार्टि करिष्यन्ति ततः बी.
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(१२१७)
अभिधानराजेन्द्र। सुं' पृथग् वसतिर्भवति । तथा यदि च ते वास्तव्याः सा- 'चेहए' त्ति चैत्यानि च वन्दन्ते, तत्रच 'पाहुडिअमेत्तं घवः 'सहू' समस्ततो 'वियरे 'त्ति भिक्षामटित्वा प्रा-| गिराहन्ति' ति प्राभूतिकामात्र यदि सत्र लभ्यते ततो गृहघूर्णकेभ्यः प्रयच्छन्ति ।
म्त्येव । अथाचार्यप्रायोग्यं लभ्यते प्रचुर चा लभ्यते ततः तिराई एकेण सम, भत्तट्ठो अप्पणो अवडं तु।
'पाउग्गपउरलंभे सति' इदमुच्यते-'ण ऽम्हे' त्ति न वय
माचार्यप्रायोग्यग्रहणे नियुक्ताः, किन्त्वन्ये । एवमुक्ने श्राधपच्छा इयरेण सम,आगमणविरेगु सो चेव ॥६६(भा०)
कोऽप्याह-'किं वा न भुजंति ' ति किं भवद्भिनीतं न अथ तत्र त्रय प्राचार्या भवन्ति, द्वावागन्तुको एको वा- भुञ्जते प्राचार्याः ?, एवं निर्वन्धे सति त एव गृह्णन्ति । स्तव्यः तदा 'एकेण समं' ति एकेनागन्तुकाचार्यप्रवजि
कियत्पुनर्गृहन्तीत्यत पाहतेन सह वास्तव्यः पर्यटति । तावद्यावद् भत्तट्रो 'त्ति एकस्य प्राघुर्णकाचार्यस्य भक्ताओं भवति-उदरपूरणमात्रमित्य
गच्छस्स परीमाणं, नाउं घेत्तुं तो निवेयंति । र्थः, अतः अपणो अवह तु ' ति आत्माचार्यार्थ चाऽसौ
गुरुसंघाडग इयरे, लद्धं नेयं गुरुसमीवं ॥१०२॥(भा०) वास्तव्यः 'अवहूं तु' अर्धधवमात्रं श्रावककुलभ्यो गृह्णा- गच्छस्य परिमाणं ज्ञात्वा गृह्णन्ति, गृहीत्वा च ततो निति । 'पच्छा इयरेण सम' ति पश्चादितरेण द्वितीयागन्तु
वेदयन्ति, कस्मै ?, श्रत श्राह-गुरुसंघाटकाय, यदुताचाकाचार्यप्रवजितन समं पर्यटति । तत्रापि भक्तार्थों यावद्भव
र्यप्रायोग्यमन्येषां च गुडघृतादि लब्धं प्रचुरम् , ' इयरे व' ति प्राघूर्णकस्य तावत्पर्यटति, आत्मनश्वार्द्धध्रवमात्र गृहा
त्ति इतरसङ्घाटकेभ्यो वा-शेषसङ्घाटकेभ्यो निवेदयति,
'मा बच्चह' त्ति मा बजत गृहीत गुरुयोग्य, ततश्च लति, एवं पूर्णो ध्रयो भवति वास्तव्याचार्यस्य । 'भागम
ब्धमात्रमेव तद् गुरुसमीपं नेतव्यम् । ण ' ति एवं ते पर्यटित्वाऽऽत्मीयायां वसतो आगमनं कुचन्ति । 'विरेगु सा चेव 'त्ति स एव · विरेगो' विभजन
__ तथा चाहथावककुलेषु, योऽसौ भिक्षामटद्भिः कृतः, न तु पुनर्वसति
एगागिसमुद्दिसगा, भुत्ता उ पहेणएण देठंतो । कायाम् आगतानां भवतीति ।"असति बसही' चीसुं, राइ- हिंडणदब्यविणासो, निद्धं महुरं च पुव्वं तु॥१०३(भा०) णिए वसहि भोयणग्गम्म । असहू अपरिणया वा, ताये वीसुं __'एगागिसमुद्दिसगा' ये न मण्डल्युपजीविनः पृथग् भुञ्जते, सह वियरे ॥१॥"त्ति यो विधिरुनः, अयं च द्वितीया- व्याध्याद्याकान्ताश्च । तेषां भुक्तानां सतां पश्चादानीतं नोपद्याचार्येयध्यागतेषु द्रष्टव्य इति । एवं तावद्विशतक्षेत्र- युज्यत , अत्र च 'पहेणपण दिटुंतो' " काले दिएणस्स यत्र साधुषु तिष्ठत्सु यो विधिः स उलः ।
पहे-णयस्स अग्यो न तीरए काउं । तस्सेव अथकपणाइदानीमविहृते क्षेत्रे साधुरहिते च यो
मियस्स गेएहंतया नन्थि ॥१॥" तथाऽऽनयनेऽयमपरो दोविधिस्तत्प्रतिपादयन्नाह
पः-येन द्रव्येण घृतादिना गृहीतेन हिण्डतां द्रव्यविना
शो भवति, कथञ्चित्प्रमादात्पात्रकविनाश सति क्षीरादि च चइअवंदनिमंतण, गुरूहि संदिट्ठ जो वऽसंदिहो।
विनश्यत्येव । तथा 'निद्धमहुराई पुब्बि' यदुक्मागमे तश्च निबंध जोगगहणं,निवेय नयणं गुरुसगासे।१००(भा०) कृतं न भवति । “सरिण" ति दारं गयं । एवं विहरन्तः क्वचिहामादौ प्राप्ताः, तत्र च यदि स
इदानीं सार्मिकद्वार प्रतिपादयन्नाहकशी विद्यते ततश्चैत्यवन्दनार्थमाचार्यों व्रजति, ततश्च धा- भ (भु) त्तट्ठिा श्रावस्सग, सोहेउं तो अइंति अवरहे । वको गृहागतमाचार्य निमन्त्रयति, यथा-प्रायोग्यं गृहाण
अब्भुट्ठाणं दंडा-इयाण गहणेकवयणेणं ॥२१॥ ततश्च यो गुरुसंदिष्टः स गृह्णाति । 'जो वऽसंदिट्टो' ति यो
इदानीं ते साधर्मिकसमीपे प्रविशन्तः 'भ (भु) त्तट्रि'त्ति वा असंदिष्टः-अनुक्नः स वा गृद्धाति श्रावकनिबन्धे
भुक्त्वा तथा 'श्रावस्सग सोहेउ' ति आवश्यकं च कायिकोसति । एतदुक्तं भवनि-योऽसावाचार्येण संदिष्टः स याव
चारादि शोधयित्वा-कृत्येत्यर्थः,अतोऽपराहसमये पागच्छमागच्छत्येव तावत्तेन श्रावकेणान्यः सहाटको रणः, सच निर्वग्धग्रहणे कृते सति योग्यग्रहणं-प्रायोग्योपादानं क
न्ति,येन वास्तव्यानां भिक्षाटनाद्याकुलत्वं न भवति । वा
स्तव्या अपि कुर्वन्ति,किमित्यत पाह-'अब्भुट्ठाणं 'ति तेषां रोति । ततश्च 'निवेयणं' ति अन्येभ्यः सवाटकेभ्यो नि- |
प्रविशतामभ्युत्थानादि कुर्वन्ति , 'दंडादियाण गहणं ' ति वेदयति, यथा यदुत मया श्रावकगृहे प्रायोग्यं गृहीतं न
दण्डकादीनां ग्रहणं कुर्वन्ति,कथं ?-'एगवयणेणं' ति एकेनैव तत्र भवद्भिः प्रवेष्टव्यम् । ततश्च · नयणं गुरुसगासे' त्ति
वचनेन उक्नाः, सन्तः पात्रकादीन् समर्पयन्ति, वास्तव्ये नोक्ने तत्प्रायोग्यं गृहीत्वा गुरुसमीपं नयति तत्क्षणादेव येना
मुश्चस्खेति ततश्च मुञ्चन्ति । अथ न मुञ्चत्येकवचने ततो सावुपभुङ्ग इति ।
न गृह्यन्ते, मा भूत् प्रमाद इति । इदानीं यदुक्तं प्राक् “ अविहरिअविही इमो
खुडुलविगिट्ठतेणा, उएहं पावरगिह तेण उ पए वि । होति" त्ति तद्वयाख्यानयन्नाह
पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिवमुक्खित्तमोहेणं ॥२१२॥ अविहरिश्रमसंदिट्ठो, चेइय पाहुडिअमेत गएइंति।।
यदा तु पुनस्तैः साधुभिरभिप्रेतो ग्रामः स क्षुल्लकः; न तत्र पाउग्गपउरलंभे,नऽम्हे किंवा न भुजंति ?।१०१(भा०)| भिक्षा भवति ततश्च प्रत्युषस्येवागच्छन्ति, विगिट्ट 'ति अविरत प्रामादौ असंदिष्टा एव सर्वे भिक्षार्थ प्रवि-| विकृष्टमध्वानं यत्र सार्मिकास्तिष्ठन्ति ततः प्रत्यूषस्येवागटाः, तत्र च भिक्षामटन्तः श्रावकगृहे प्रविष्टाः, तत्र च। मछन्ति 'तेण' ति अथ ततः अपराहे भागच्छतां स्तेन
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सिंग
(१२१८)
अभिधानराजेन्द्रः। भयं भवेत्ततश्च प्रत्यूषस्येवागच्छन्तीति । उष्णं वा अपराहे
इदानी वसतिद्वारं प्रतिपादयत्राहभागच्छतां भवति यतोऽतः प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति । एवं ते
वित्थिमा खुइलिया, पमाणजुत्ता य तिविहँ वसहीनो। प्रत्यूपसि तस्माद् प्रामाप्रवृत्ता साधुभोजनकाले प्राप्ताः साधर्मिकसमीपं नैवेधिकीं कृत्वा प्रविशन्ति । ततश्च तेषां
पढमबियासु ठाणे, तत्थ य दोसा इमे होति ॥२१७॥ । प्रविशतां वास्तव्यसाधुभिः किं कर्तव्यमित्यत आह-पक्खित विस्तीर्णा सुलिका प्रमाणयुक्ता वा त्रिविधा वसतिः । मोलण' ति प्रक्षिप्तम्-प्रास्यगतं मुखे प्रक्षिप्तं केवलं मुक्या 'पढमबितियासु ठाणे' ति यदा प्रथमायां वसती स्थानं 'निक्खिवमुक्खितं ' ति यदुन्क्षिप्तं भाजनगतं तत् निक्षि- भवनि विस्तीर्णायामित्यर्थः, द्वितीया सुल्लिका तस्यां वसती पम्ति, मुश्चन्ति नषेधिकीश्रवणानन्तरमेव, ततस्ते प्रापर्णकाः वा यदा भवति तदा तत्र तयोर्वसत्योः एते-यक्ष्यमाणका 'मोघेणं' ति संक्षेपण आलोचनां प्रयच्छन्ति।
दोषा भवन्ति । ततो भुञ्जते मण्डल्या, सा चेयम् ,
खरकम्मित्रवाणियगा, कप्पडिअसरक्खगा य वंठा य । अप्पा मूलगुणेसुं, विराहणा अप्प उत्तरगुणेसुं।
संमीसाऽऽवासेणं, दोसा य हवंति णेगविहा ॥२१८॥ अप्पा पासस्थाइसु, दाणग्गहसंपोगोहा ।। २१३ ॥ तत्र विस्तीर्णायां वसतौ'खरकम्मिश्र'ति दण्डपासका
रात्रि भ्रान्वा स्वपन्ति, वाणिज्यकाश्च वालुअकराया श्राभल्या मूलगुणेषु, एतदुक्तं भवति-मूलगुणविषया न काचि
गत्य स्वपन्ति , तथा कार्पटिकाः स्वपन्ति, सरजस्काश्चद्विराधना, अल्पा उत्तरगुणविषया विराधना, अरु पार्श्व
भौताः स्वपन्ति , वण्ठाश्च स्वपन्त्यागत्य "अकयवियाहा स्थादिषु दानग्रहणसेवाविराधना ' संपोगो' त्ति तैरेव
भीतिजीविणो य वंठ" ति। एभिः सह यदा संमिश्र पार्श्वस्थाधिभिः संप्रयोगे-संपर्के । एतदुक्तं भवति-न पार्श्व
आवासो भवति तदा तेन समिश्रावासेन दोघा वक्ष्यमा स्वादिभिः सह संप्रयोग पासीत् । श्रोघ त्ति गयं' ओघतः
णका अनेकविधा भवन्ति। सोपत मालोचना दीयते, दत्वा चालोचना यदि तु प्रभु: कास्ततो भुञ्जते।
ते चामी। अथ भुक्तास्ते साधयस्तत इद भणन्ति
आवासगअहिकरणे, तदुभय उच्चारकाइयनिरोहे । " भुंजह भुत्ता अम्हे, जो वा इच्छे अभुत्त सह भोजं ।
संजयायविराहण, संका तेणे नपुंसित्थी ॥२१६।। ..सव्वं च तेसि दाउं, अन्नं गेएहति वत्थव्वा ।। २१४ ॥
आवश्यके-प्रतिक्रमणे क्रियमणे सागारिकाणामग्रतस्त
एव उट्टकान् कुर्वन्ति , ततश्च केचिदमहना राटि कु .. भुजीत यूयं भुक्ता वयं, 'यो वा इच्छे 'त्ति ये वा साधवो
चन्ति , ततश्चाधिकरणदोषः । तदुभए ' ति सूत्रपौरुषी, भोक्तुमिच्छन्ति ततः 'अभुन सह भोज्ज' ति तेनाभुक्तेन
करणे अर्थपौरुषीकरणे व दोषः-उकान् कुर्वन्ति । नि सह भोज्यं कुर्वन्ति । एवं यदि तेषामात्मनश्च पूर्वानीतं भक्त्रं
रोधश्च उच्चारस्य कायिकायाश्च निरोधे दोषः । अथ कपर्याप्यते ततः साध्वेव, अथ न पर्याप्यते ततः सर्वे तेभ्यः
रोति तथाऽपि दोष, संयमारमविराधनाकृतोऽप्रत्युपेक्षितप्राघूर्णकेभ्यो दत्त्वा भक्तमन्यद् गृहन्ति-पर्यटन्ति वास्तव्य
स्थण्डिले । 'संका तेणे ति स्तेनकशङ्कादापश्च-चौराशभिक्षयः।
का , नपुंसककृतदोषः संभवति ततश्च स्त्रीदोषश्च भव। एवमानीय कति दिनानि भक्तं प्रार्णकेभ्यो
तीति द्वारगाथेयम् । दीयते इत्यत आह
इदानी प्रतिपदं व्याख्यानयनाह. तिलि दिणे पाहुन, सब्वेसिं असइ बालवुडाणं । भावस्मयं करिते, पवंचए माणजोगवाघाओ ।
जे तरुणा सग्गामे, वत्थव्वा बाहि हिंडंति ।। २१५ ॥ असहण अपरिणया वा, भायणभेो य छकाया।२२०/ श्रीणि दिनानि प्राघूर्णकं सर्वेषामसति बालवृद्धानां क
आवश्यकं--प्रतिक्रमणं कुर्वताम् । पयंचए ' ति ते व्यं, ततश्च ये प्राघूर्णकास्तरुणास्ते स्वग्राम एव भिक्षा
सागारिका उद्घट्टकान् कुर्वन्ति , तथा ध्यानयोगव्याघातश्च मटन्ति, वास्तव्यास्तु बहिनीमे हिण्डन्ति।
भवति-चलनमापद्यते चेतो यतः । दारं । अहिगगां भ
राणा-असहणे' ति कश्चिद असहनः--कोपनो 'ति, अथ ते प्राघूर्णकाः केबला हिण्डितुं न जानन्ति ततः किं
अपरिणतो वा--सेहप्रायः, एते राटि सागारिकै सह कर्तव्यमित्यत आह
कुर्वन्ति, ततश्च भाजनानि-पात्रकाणि तद्भेदो-- शो संघाडगसंजोगो, भागंतुगभद्दएयरे बाहिं।
भवति, पदकायाश्च विगध्यन्ते । दारं । पागंतुगा व बाहिं, वत्थव्वगभद्दए हिंडे ।। २१६ ॥
तदुभयं' ति व्याख्यायते-- सनाटकसंयोगः क्रियते । एतदुक्तं भवति–एको वास्तव्य
सुत्तत्थकरण नामो, करणे उहुंचगाइ अहिगर । एकश्व प्राघूर्णकः, ततश्चैवं सहाटकयोगं कृत्वा भिक्षाम
पासवणिअरनिरोहे, गेलनं दिट्टि उहाहो ॥ २ ॥ टन्ति ।' आगंतुगभहएयरे ' ति अथासौ ग्राम पाग- 'सुत्तत्थप्रकरण' ति सूत्रार्थपौरुष्यकरणे नाश:- रेव तुकानामेव भद्रकस्ततः 'इयर' ति वास्तव्या ' बाहि विस्मरणम् । अथ सूत्रार्थपौरुण्यौ क्रियते ततश्च इंचति बहिमे हिण्डन्ति, आगन्तुका वा यहिमे हिण्डन्ति कादि ' उद्धट्टकादि कुर्वन्ति । ततश्चासहना राटिं कुवास्तव्यभद्रके सति प्रामे । उक्त साधर्मिकद्वारम् ।
वन्ति , ततोऽधिकरणदोष इति । दारं । " उच्चार काह
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हिंडग
अनिरोहो " त्ति व्याख्यायते ' पासवणि 'ति प्रश्रवणस्य कायिकायाः इयर' " ति पुरीषस्य च निरोहे ' गेलनं ग्लानत्वं भवति । श्रथ व्युत्सृजन्ति तत्थे ' दिट्ठे उड्डाहो ति सागारिकैर्दृटे सति उडुहः- उपघातः प्रवचनस्य भवति । 46 'संजमश्राय विराहरा " " ति व्याख्यायते-मादिच्छहिंति तो अ-पडिलिहिए दूरं गंतु वोसिरति । जमापपिराइय-गह आरखितेहिं ।। २२२ ।। अथ सांगारिका मां मा द्राक्षुरिति कृत्वाऽस्थण्डिल एव दूरे गत्यात्सृजति ततः संयमात्मनोविराधना भवति, ग्रहणं चारक्षिकाः कुर्वन्ति । ' ते ' त्ति स्तेनका वा ग्रहणं कुर्वन्ति । दारं ।
(late) अभिधान राजेन्द्रः ।
,
"का" नि व्याख्यायतेओणयपमजमाणं, दड्डुं तेथे ति श्रहणे कोई । • सागारिअ संघट्टण, अपुमेत्थी गएह साहइ वा ।। २२३ ॥ सहि रात्री कायिकाद्यर्थमुनिः प्रमार्जयन् निर्गच्छति, ततस्तमचनतकार्य दृष्ट्रा स्तेन इति मत्वा श्राहन्यात्कश्चित् । दारं 'मिस्थिति व्याख्यायते सामा सामारिक सति स हि रात्री हस्तेन परामृशन् गच्छति यतस्ततः स्पर्शने सति कश्चिसागारिका विच दितयति बहुना 'अमेय' नपुंसकं तेन कारणेन मां स्पृशति ततः सागारिकस्तं साधुं नपुंसकबुद्धया गृह्णाति । अथ कदाचित्स्त्री स्पृष्टा ततः सा शङ्कते यदुनायं मम समीपे श्रागच्छति, ततः सा इति' पनि निज सीमा क्यापयन्ती परमार्थेन था। ओलसरीरं वा इत्थि नपुंसा बला वि गेरहंति । सावाहाए ठाणे, निते आवडणपढाई ।। २२४ ॥ दारिका साधु रातो रात्री स्त्री गृहात औदारिकं पंत विस्तीर्णवसतिदोषा व्याख्याताः ॥ इदानीं क्षुल्लिकाव संतिदोषान् प्रति पादयन्नाह - सावाहाए' त्ति संकटायां वसतौ स्थान-यस्याने सति 'ते आवडत नापतिशनिच्ातपाय दोषाः।
1
,
तथा
तेणोति ममाणो, इमो वि तेणो त्ति आवडड़ जुद्धं । संजम आयविराहस- भायणमेवाइको दोसा ।। २२५ ।। एवं साधोपरिस्थति साधीयोपरि प्रस्खलितः से से स्तनकमिति मन्यमानः, अर्थ व सुप्तोत्थितः अमुं प्र स्खलितं स्तेनकं मन्यमानः सन् श्रापतति युद्धं - युद्धं भवति, ततश्च संयमात्मनोविराधना भाजनभेदादयश्च दोवाः । भाजनं - पात्रकं भण्यते । उक्ता तुलिका वसतिः । यस्मात्कायामेते दोषान्तरमात्मायुक्ता यसतिप्रथा । एतदेवाहतम्हा पमाणजुत्ता, एक्केकस्स उ तिहत्थमंथारो । भाषण संथारंतर, जह पीसं अंगुला हुति ॥ २२६ ॥ तस्मात्प्रमाणयुका वसतियांधा तंत्र साधीबहुल्यतत्रिहस्तप्रमाणः संस्तारकः कर्त्तव्यः । तुशब्दो वि
हिंदग
1
शेषाः किं विशिनां संस्तारको भूमि इति तत्र तेषु त्रिषु हस्तेषु ऊर्णामयः संस्तारको हरुनं, "तारिलाई माया रुति" इदानी संस्तारकभाजनपोवनत्यमासं प्रतिपादाभायण संथारंतर ' भाजनसंस्तागन्तरे - श्रन्तराले यथा विंशतिरहुतानि भवन्ति तथा कर्त्तव्यम् । एवं हस्तमागोऽपि संस्तारकः पूरितः।
किं पुनः कारणमिह दूरे भाजनानि नाप्यते उप्यते - मजारमूसगाइ य, वारे नवि जाणुघट्टणया । दो इत्थाय अवाहा, नियमा साहुस्स साओ ॥ २२७॥ माजीरमूषकादीन् पात्र केषु लगतो वाग्येत् । अथ कस्मादाराणि न क्रियन्ते ? उच्यते- 'नविय जारघट्टणय नितप्रदेशे तिष्ठति पात्रकेषु जाताना जानु कृतं चलनं न भवति । इदानीं प्रवजितस्य प्रब्रजितस्य नान्तराप्रतिपादशाह द्वा हस्तौ अबाधा श्रन्तरालं नियमात्साधाः साधोश्च भवति, साधुश्चात्र त्रिहस्तसंस्तारकप्रमाणां ग्रा
स्थापना "उद्या संधार
माण, संथारभायणा अंतरं वीसंगुला २० भायाणि
हत्यामा पाउंछ ठविजति ५४, एवं तिर्हि घरह सव्वे वितिरिण हत्था, साहुस्स य साहुस्स य अंतरं दो हत्था || २८ | २८ | २४ हत्था ३ हत्था २ ॥ एवमेतद्वाथाद्वयं व्याख्यातम् । श्रत्र च द्विहस्तप्रमाणायामबाधायां महदन्तरालं साधोः साधोश्च भवति ततश्च तदन्तगलं शून्यं महद् दृष्ट्रा सागारिको बलात्स्वपिति, तस्मादन्यथा व्याख्यायंत्र- "म्हा प्रमाणजुत्ता एक्केकस्स उ निहत्थसंथागे ।" श्रत्र हस्तं साधू रुचि भाजनानि संस्तारकद्विशत्यङ्गुलानि भवन्ति एतदेवाह भागणसंथारंतर जह वीस अंगुलाई हो तिनकालागि मुला परतो ऽन्यः साधुः स्वपिति । एतश्च कुतो निश्चीयते ? यदुतपत्रकार विशाम्यतीत्य साधुः स्वपिनियन उक्तम्- दो हत्थे य प्रवाहा नियमा साहुस्स साहओ | स्थापना चेयम्- 'साहू सरीरे हत्थे रुवइ २४, साहुम्म सरीरयमाणं संधारयस्स पत्तया व अंतरं वसिंगुना २० लिपित्तया ठइंति पतस्स विनिय साहुस्स य अंतरं वीसंगुलाई २० एवं एतेभ्येऽवि तिरिग हत्था एसा वितिओ साहू । २४ । २० । ६ । २० । एवं सम्वत्थ ।' अत्र चोर्णामयः संस्तारकः अष्टाविंशत्यङ्गुलप्रमाण एव बाहुल्येन द्रष्टव्यः, किन्तु साधुना श रीरेण चतुर्थिशम्यङ्गलानि रुद्धानि सम्पानिय तारकसंवन्धीनि यानि यानि विंशत्यङ्गुलानि, तत्परतः पात्रकाणि भवन्ति । अत्र हस्तइयमाधा साधुधरायावदम्यमाधुशरीरं तावद् यम् । " मज्जाय " इत्येतद्वयाख्यातमेव ।
भुताभुतसमुत्था, मंडणदोसा य वञ्जित्रा एवं । सीते तु मोनू ठावंति || २२८॥ शिलान्तरालेन मुच्यमानेन भुतामुनखमुख्या इति यो शुक्रभोगः अधुत इति यः कुमार एन अजित
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हिंडण
3
तत्र मुक्रभोगस्य ग्रासनस्य स्वपतो अन्यसाधुसंस्पर्शादन्यपूर्वक्रीडितानुस्मरणं भवति, यदुतास्मद्योषितोऽप्येवंविधः स्पर्श इति अनुक्रोवस्याप्यम्यसाधुसंस्पर्शेन सुकुमारेण कीतुकं खियं प्रति भवति । अयमभिप्रायः तस्याः सुकुभारतः स्पर्श इति, ततश्च द्विहस्ताबाधायां स्वपतामेते दोशः परिता भवन्ति । तथा भण्डनं- कलहः परस्परं हस्तस्पर्शजनित ग्रासने ते च दोषा एवं वर्जिता भवन्ति सीसंते व कुई तु इथे मोनू डायंति चि शिरो यतो यत्र कुज्यं तत्र हस्तमात्रं मुक्त्वा 'ठायंति' नि स्वपति पादान्ते ऽनुगमनमाने विमुच्य हस्तमात्रं स्वपन्ति । अथवाऽन्यथा पाठः - सीसंतेण व कुटुं तिइत्थं मोनू डायंति तत्र प्रदीर्घायां वसती स्वापविधिरुक्तः, यदि पुनश्चतुरस्रा भवति तदा' सीसंतेण व कुटुं नि शिरो यतो यत्कुज्यं तस्मात्कुड्यात् हस्तत्रयं मुक्त्वा स्वपन्ति । तत्र कुड्यं हस्तमात्रेण प्रोज्झय ततो भाजनानि स्थाप्यन्ते तानि तानि च हस्तमात्रे पादप्रोछने क्रियन्ते ततो इस्तमात्रं व्याप्नुवन्ति भाजनसाध्वीवान्तराले हस्तमात्रमेव मुच्यते ततः साधुः स्वपिति ।
9
9
,
(१२२० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
एवमनया भङ्गया स्वपतां तिर्यक् साधोः साधोश्चान्तरालं इस्तद्वयं द्रष्टव्यम्
पुष्युरिट्ठो उ विही, इह वि वसंता होइ सो चेव । श्रास तिनि वारे, निसन्न आउंटए सेसा ॥ २२६॥
अत्र स्वापकाले पूर्वोद्दिष्ट एव विधिर्द्रष्टव्यः, कश्वासौ ?, "पारिसि श्रापुच्छण्या, सामाइय उभय काय पाडलेहा । साइगिय दुवे पट्टे, पमज्ज पाए जो भूमिं ॥ १ ॥ अजायह संथारं " इत्येवमादिकः । इहापि वसतां स्वपतां भवति स एव विधिः, किं त्वयं विशेष:- ^आसज तिशिवारे निसन्नो ' सि श्रासनं त्रयो वाराः करोति 'निमनो' ति तत्रैव संस्तार के उपविष्टः सन् शेषाश्च साधवः किं कुर्वन्तीत्याहार सेसा शेषाः साधवः पादान्यति ।
पुनश्चासौ कायिकार्थे व्रजन् किं करोतीत्यत आहभावसमास, नीद पयअंतु जाव उच्छ । सागरिय तेब्भा - मए य संका तउ परे ।। २३० ॥ आवश्यकम् श्रसखं च पुनः पुनः कुर्वन् प्रमार्जयनिकि दूरं यावदित्यता" जाव उच् या वच्छरणं" यावद्वसतेरभ्यन्तरमित्यर्थः . बाह्यनश्च नैवं प्रमाजनादि कर्त्तव्यं यतः सागारिय तेम्माम व संका सागारिकाणां स्तेनशङ्कापजायते तदु परें यदुत किमयं वीरः ? उधामो ' पारदारिकस्ततजाते अतस्तरपरेख-संतो . प्रमार्जनादिकमिति । एवं प्रमाण तीव सतां विधिरुक्तः ।
•
"
•
यदा
ते पुनः-नत्थ उपमा जुत्ता खुइलिया चैव वसति जगणाए ।
पुहत्थ पपाए, पमऊ जयणायें निम्गम या प्रमायुक्ता वसति तदा सुकामेव वसन्ति यतनया । का चासौ यतना ? - 'पुरहस्थ पढछुपाए ति पुरतः तो इन परामृशति पश्चात्यादी प्रमृज्य यस्य ति, ततश्चैवं यतनया बाह्यतो निर्गच्छति । एवं तावत्कायिकाद्यर्थे गमनागमने विधिरुक्तः ।
अहागडा
इदानीं खपनविधि प्रतिपदाउस्सीसभाषणाई, मञ्छे बिसमे अहाकडा उपरिं । श्रवग्गहियो दोरो, तेरा य वेहा सिलंबण्या ॥ २३२ ॥ उपशीर्षकाणां मध्ये माजनाति पात्रकाणि क्रियन्ते । स्थापनाचेयम् । 'बिसमे' ति विषमा भूः तपता भवति, ततश्च तस्यां गर्त्तायां पावकाणि पुञ्जीक्रियन्ते । उवरिं' ति प्राशुकानि अल्पपरिकर्माणि च यानि तान्येतेषां पात्रकाणामुपरि पुजी क्रियन्ते, माङ्गलिकत्वात्तेषाम् । अथातिसङ्कटासभूमी नास्ति स्थानं पात्रका ततब्ध श्रोष डितोदोरोको यो दरको निर्य 'श्रयग्गद्दितो गच्छसाहरणो तेन विहायसि - आकाशे लंबयति तेन दवरण सम्पन्कीलिकीयते । सुलिया असई विश्विचाए उ मालया भूमी । बिलधम्मो चारभडा, साहरणेगंतकडपोत्ती ॥ २३३ ॥
हिंडग
॥२३१॥
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काया यसतरभावे 'विस्थिनाए ' नि विस्तीयां वसतौ स्थातव्यम् । तत्र को विधिरित्यत आह- 'माला भूमी बस्तीबसते भूमिमांपते म्याग्यते पुण्यकरसह स्वद्भिः, 'बिलधम्मो वारभडे' ति अवलगकादय श्राग स्य इदं भणन्ति-यदुत बिलधर्मो यस्मिन् बिले याचताभवस्थानं भवति तावन्त एव प्रविशन्ति ततः साधवः किं कुयन्ति ?,' साहरणे' ति संहृत्य उपकरणजातं विरलत्ये एत एकारले तिष्ठन्ति 'कदपीति यदि कदोऽस्ति ततस्तमन्तराले ददति अथ स नास्ति ततः 'पोति' त्रिलिमिनीं ददति ।
च
"
असई य चिलिमिलीए भए व पच्छन्न भूइए लक्खे। आहारो नीहारो, निग्गमणपवेस वजेह ।। २३४ ॥ असति श्रभावे चिलिमिलिन्याः ' भए व' ति चिलिमिमरणभये या न ददति किं वा कुर्यस्त्यत श्राद-प ततः प्रति 'भूय लक्ष्ये 'ति स च प्रदेशो भूत्या लक्ष्यते - चिह्नयते अवटोऽयं प्रदेश इति कथ्यते । इदं च तेऽभिधीयन्ते -- श्राहारानीहारो भवत्यवश्वमतो निर्गमनप्रयेशी वर्जनाति ।
इदं च कर्त्तव्यं साधुभिः -
पिंडेय सुतकरणं, आसन निसीहिये च न करिति । कासा न पमजण्या, न य हरथो जयस बेरनि ॥ २३५||
,
पिराडेन-समुदायेन सूत्र पौरुषीकरणं कर्तव्यं मा भूत् कचित्पदं वाक्यं वाकरणाहिढिस्सति'त्ति । तथा 'श्रासज निसीहि च' तत्र न कुर्वन्ति । किं वा कर्त्तव्यमित्यत श्राह - 'कास' ति काशनं - खादूकरणं करोति, न च प्रमार्जनं
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(१२२१) हिंडग
अभिधानराजेन्द्रः। करोति , 'ण य हत्थो' त्ति न च हस्तेन पुरस्तात्परामृश्य यस्मात्पूर्वमप्रत्युपेक्षितायां बसती उडाहो भवति तस्मानिर्मच्छति, यतनवा च 'वेरत्तिभं' कुर्वन्ति । 'चरत्तिो कालो स्प्रत्युपेषय प्रवेष्टव्यम् । 'दीवियम्मि' दीपिते-कथिते शय्या. घेप्पा दौरई पहगणं उबरिं, ततो सज्झानो कीरति, यदि- तराय, यदुताचार्या भागताः, 'पुग्धगय' ति पूर्वगतोवा ताए वेलाए सज्झाओ' उक्त वसतिद्वारम् ।
अप्रत्युपक्षकैः प्रमार्जितः ततः साध्वेव, 'असति' ति पूर्वइदानीं स्थानस्थितहारमुच्यत, तत्राह
गतक्षेत्रप्रत्युतकाभावे, ततः क्षेत्रप्रत्युपेक्षः प्रविश्य सापत्ताण खेत जयणा, काऊणावस्सयं ततो ठवणा।
रविते-प्रमार्जितायां वसतौ, कथं प्रवेणुव्यमित्यत माह
फडफडकैः प्रवेशः कर्तव्यः । 'कहण' ति यो धर्मकथापडणीयपत्तमामग, भद्दगसद्धे य भचियत्ते ॥२३६॥
लब्धिसंपत्रः स पूर्वमेव गत्वा शय्यातराय वसहिधएवं तेषां विहरतां प्राप्तानामभिमतक्षेत्रे 'जयणे' ति यथा मकथां करोति । 'नय उट्ट' तिन चासौ धर्मका कुर्षन् यतना कर्तव्या तथा च वक्ष्यति, 'काउं श्रावस्सकं' कृत्वा उत्तिष्ठति-अभ्युत्थानं करोति,'इयरेसि ' ति ज्येष्ठाचावश्यक प्रतिक्रमणं 'ततो ठवण' ति सतः स्थापना र्याणाम् , माह-किमाचार्यागमने धर्मकथी अभ्युस्थानकक्रियत केषाश्चिकुलानाम् , कानि च तानीत्यत पाह-प्रत्य- रोति उत नेति, प्राचार्य माह-अवश्यमेवाभ्युत्थानमानांकः शासनादेः, प्रान्तः-प्रदानशीलः मामको य एवं चार्याय करोति। बक्ति-'मा मम समणा घरमहंतु' भद्रकश्राद्धौ प्रसिद्धौ'म
यतोऽकरणे एते दोषाःचिति' ति यः साधुभिरागच्छद्भिर्दुःखेनास्त,शोभनं भवति पायरियमणुड्डाणे, पोहावण बाहिरा व ऽदक्खिापा । यद्यते नायान्ति गृहे । एतेषां कुलानां यो विभागः क्रियते
साहयवंदणिजा,प्रणालवतेऽवि मालागे।११२।(भा०) प्रतिषधाप्रतिषेधरूपः स स्थापनेत्युच्यते ।
प्राचार्यागमने सत्यनुत्थाने 'मोहावण 'सिमलना भवति, इदानी भाष्यकार एवां गाथां प्रतिपदं व्याख्यानयमाह
'बाहिर'त्ति लोकाचारस्य बाह्या एत इति ।पश्चानामध्यङ्गलीदारगाहा
मामेका महसरा भवति, 'प्रदक्विराण' तिवाक्षिण्यमबाहिरमामे वुच्छा, उज्जाणे आण वसहिपडिलेहा।
प्येषामाचार्याणां नास्तीत्येवं शय्यातरश्चिन्तयति । 'साहइहरा उगहिअभंडा,वसहीवापाय उडाहो॥१०४॥(भा०) य' ति तेन धर्मकथिनाऽऽचार्याय कथनीय, गदुतायम
स्मदसतिदाता। बंदणिज' त्ति शय्यातरोऽपि धर्मकधिएवं ते बाह्यप्रामे-आसन्नग्रामे पर्युषिताः सन्तोऽभिमतं
नेवं बायो-वन्दनीया प्राचार्याः । एवमुक्त यदि असी बक्षेत्र प्राप्य तावदतिष्ठन्ते । 'उजाणे ठाणं' ति उद्याने
दनं करोति ततः माध्वेव . अथ न करोति ततः 'प्रतावस्थान प्रास्थां कुर्वन्ति । 'वसहिपडिलेह' ति पुन
णालवतेऽवि ' तस्मिन् शय्यातरेऽनालपत्यपि प्राचार्येणाचसनिप्रत्युपेक्षकाः प्रेष्यन्ते । इहरा उ' ति यदि प्रत्युपक्षका तसतर्न प्रेष्यन्ते ततः गृहीतभाण्डाः-गृहीतोप
लापकः कर्तव्यः , यदुत कीरशा यूयम् । करणा वसतिव्याघाते सति निवर्तन्ते ततश्च उडाहा भष
अथाचार्य बालपनं न करोति तत पते दोषाःनि-उपघात इत्यर्थः।
(भा०) वुड्डा निरोक्यारा, अग्गहणं लोग जत्तवोच्छेभो। तत्र च प्रविशतां शकुनापशकुननिरूपणायाह
तम्हा खलु पालवणं,सयमेव उ तत्थ धम्मकहा।११३॥ मइल कुचेले अभं-गिएलए साण खुज बडभे य ।
तथाहि-एत प्राचार्यास्तथा निरुपकारा-उपकारमपि न
बहु मन्यन्ते, 'अग्गहणं' ति अनादारोऽस्याचार्यस्यमा प्रएए उअप्पसस्था,हवंति खिचाउ निंताणं ॥१०॥(भा०)
ति, 'अलोगजत्त' ति लोकयात्राबाद्याः ‘बोच्छेभो' ति नारी पीवरगम्भा, वडकुमारी य कटुभारो य।
व्यवच्छेदो वसतेरम्यद्रव्यस्य वा, तस्मात्सल्वालपना ककासायवत्थ कुचं-धरा य कजं न साहेति॥१०६।। (मा.) र्सव्या, स्वयमेव च तत्र धर्मकथा कर्तव्याऽऽचार्येणेति । चक्कयरम्मि भमाडो, भुस्खा मारो य पंडुरंगम्मि। वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलद्धी उ सीस वावारे । तच्चभिरुहिरपडणं,घोडियमसिए धुवं मरणं।१०७ (भा०)
पच्छा अइंति वसहि, तत्थ य भुजो इमा जयणा ।११४॥
धर्मकथां कुर्वन् वसतः फलं कथयति , ' कहणमलजी जंबृष चास मउरे, भारदाए तहेव नउले ।
उ' यदा तु पुनराचार्यस्य धर्मशालब्धिन भवति तदा दमणमेव पसत्थं,पयाहिणे सव्यसंपत्ती॥१०८॥ (110)
'सीस यावारि' ति शिष्य ब्याणरयति-निपुकके धर्मकथानदीतूरं पुण्ण-स्स दंसणं संखपडसहो य ।
कथने, शिष्य च धर्मकथायां व्यापार्य पश्चादाचार्याःप्र
विशन्ति बसतिम् , तत्र च बसतो भूयः-पुनः स्यं यतभिंगारछत्तचामर, घयप्पडाया पसत्थाई ॥१०६ (भा०)
ना वक्ष्यमाणलक्षणा कर्तव्या। समणं संजयं दंत, सुमणं मोयगा दहिं ।
(माध्यम्)मीणं घंटं पडागं च,सिद्धमत्थं विभागरे।।११०॥ (भा०) पडिलेहण संथारग, भायरिए तिमि सेस उ कमेण । एता निगदसिद्धा
विंटिउक्खेवणया, पविसह ताहे य धम्मकही ॥११॥ तम्हा पडिलहिनदी-वियम्मि पुवगय असइ सारविए।। तत्र च वसती प्रविष्टाः सम्तः पात्रका प्रत्यपक्षणां फड़यफडपसो,कहणान य उद इयरेसिं ॥११॥(भा०)। कुर्वम्ति, संस्थापकग्रहणं च क्रियते , तत प्राचार्यस्य प्रयः
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( १२२२ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
हिंडग
संस्थारका निरूप्यन्ते, शेषाणां क्रमेण यथारत्नाधिकतथा। ते च साधय आत्मीयात्मीयोपथिवे एडलिकानामुत्प कुर्वन्ति ये भूमिभागो ज्ञायते, अस्मिन्नवसरे बाह्यतो घ कधी संस्तारक ग्रहणार्थ प्रविशति ।
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( भा०) उचारे पावणे, लाउपनिवशे य अ पुब्वड्डिय तेसि कहे - कहिए आयरणवोच्छेया ॥ ११६ ॥ ते हि क्षेत्रप्रत्युपेक्षका उच्चारात भुवं दर्शयन्ति ग्लाना पति काकाभूमि दर्शाउ दर्शयन्ति निपनस्थानं च दर्शयति छुए 'त्ति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्यते, पूर्वस्थिताः, क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः एवं तेषाम् श्रागन्तुकानां कथयन्ति । कहिए ' त्ति यदि न कथयन्ति ततः 'श्रावरणवोओलि अस्थाने कायिकादेशयर सतिछेदस्यान्ययोः यतीति ।
"
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( भा० ) भत्तट्टिश्रा व खग्गा, अमंगलं चोयए जिणाहरणं । जखमगा वंदेता, दायंतियरे विहिं वोच्छं ।। ११७ ॥ ने हिमाः क्षेत्रं प्रविशन्तः कदाचिद्भक्तार्थिनः कदा चित्क्षपका, उपवासिका इत्यर्थः तत्रोपवासिकानां प्रविशताम्' अमंगलं चोति क्षेत्र - विशताम् श्रमङ्गलमिदं यदुपवासः क्रियते, तत्र 'जिनाहर
"
मिति जिनोदाहरणम् यथा हि जिना निष्क्रमणकाले उ पवासं कुर्वन्ति न च तेषां तदमङ्गले, किन्तु प्रत्युत म लं तत्तेषामधमिदमपीति । इदानीं यदि क्षपकास्तस्मिन् दिवसे साधव उपवासिकास्तत्र च सन्निवेशे यदि श्रावकाः सन्ति ततद्देषु वैत्यानि यन्दनो दर्शपति कानि १स्थापनादीनि कुलानि आगन्तुकेभ्यः, 'इयरे' त्ति भक्तार्थिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये ।
कश्वासौ विधिरित्यत श्राह - सव्वेद उग्गा-हिएण श्रयरि भयं समुप्पजे । लम्हा ति दु एगो या उग्गाहिय चेइए वंदे । ११८ (भा०) ते हि भक्तार्थिनः श्रावककुलेषु चैत्यवन्दनार्थ व्रजन्तः यदि सर्व एव पात्रकाण्युद्ग्राह्य प्रविशन्ति ततः को दोष इत्यत आह- 'मुगाहिपहिं श्रदरिश्रत्ति दृष्ट्रा तान् साधून पाचकैरुदाहिने श्रीदरिका एत इति-महत्रा - ति, एवं श्रावकश्चिन्तयति । 'भयं समुप्पजे' त्ति भयं च श्राकस्योत्पद्यते, यदुत स्याहमत्र ददामि ? कस्य वा नददामीति ? कथं वा एतावतां दास्यामीति यस्मादेवं तस्मात् 'ति दुगो वा षय उद्यान प्रविशन्ति आचार्येण सह वा को या उद्घादिन प्रविशति वैत्यन्दनार्थमिति ।
श्रुतः
सद्भाभंगोऽग्गा - हियम्मि ठवणाइया य दोसा उ । घरचे आयरिए, कवयगमणं च गहणं च ११६ ( भा० ) अधानुप्रातिपात्रका एवं प्रविशन्ति मति जीता श्राद्धस्य, ततश्च पात्रकाभावेऽग्रहणमग्रहणाच्च श्रजामो भवति । अथैवं भवन्तिपत्रकं गृहीया विश्व स्थापनादिका दोषा भवन्ति दिशाद
हिंडग
कदाचित्संस्कारमपि कुर्वन्ति तस्माद द
आचार्येण कतिपयैः साधुभिः सह गमनं कार्य, ग्रहणं घृसादेः कर्त्तव्यमिति ।
पत्ताण खेत्तजयण' त्ति व्याख्यायतेखेतम् अम्मी, तिद्वासा कर्हिति दागाई । असई चेयाणं, हिंडता चैव दायंति ॥ १२० ॥ (मा० ) यदि तत्क्षेत्रमपूर्व न तत्र मासकल्पः कृत श्रासीत् ततः 'तिद्वारा ति त्रिषु स्थानेषु श्रावकगृहचैत्यवन्दनवेलायां भिक्षाटन्तः प्रतिक्रमणावसाने वा कथयन्ति दानादीनि कुलस वाले यदा पुनस्तच आयककुलेषु चैत्यानि न सन्ति ततोऽसति चैत्यानां भिक्षामेव हिण्डन्तः कथयन्ति ।
कानि पुनस्तानि कथयन्तीत्यत आहदाणे अभिगमसद्धे, संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाई दायंति गीयत्था । १२१ | ( भा० ) दानश्राद्धकान् अभिगमश्राद्धः अभिनयसम्ययसाधुः तथा मिध्यादृष्टिकुलानि कथयन्ति शेष सुगमम् । इदानीं यदि तत्र चैत्यानि न सन्ति उपवासैर्न भिक्षा पर्यटिता, तत आवश्यकान्ते क्षेत्रप्रत्युपक्षकाः कथयन्त्याचार्याय । एतदेवाऽऽह
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(भा० ) कय उस्सग्गामंतण, पुच्छणया अकहिएगयरदोसा । ठवणकुला यठवणा, पविसइ गीयत्थसंघाडो ॥ १२२ ॥ आवश्यक कायोत्सर्गस्यान्ते 'आमंत्रण' ति श्राचार्य श्रमम्य तान् प्रत्युपेक्षकान् 'पुच्छणय' त्ति पृच्छति यदुत काम्यत्र स्थापनाकुलानि ? कानि चेतराणि ? पुनश्च ते पृष्टाः कथयन्ति 'अकदिएर क्षेत्रयुपेक्षकथित कुलेषु सत्सु एकतरः- श्रन्यतमो दोषः - संयमात्मविराधनाजनितः कथिते च सति स्थापनादिकुलानां स्थापना किवते पुनस्थापनाकुलेषु गीतार्थसारकः प्रविशति । गच्छम्म एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे । गामागरनिगमे, अइसेसी ठाव सड्डी ।। १२३१. मा० ) गच्छे एष कल्पः एष विधिरित्यर्थः यतः स्थापनाकुलानां स्थापना क्रियते, कदा ? - 'वासावासे तहेव उहुबडे' वर्षाकलि शीतकालय के पुनर नियमः कृतः इत्यत आह- 'गामागरनिगमेसुं' ग्रामः -- प्रसिद्धः श्राकरः- सुबसरित्पत्तिस्थान निगम-वाणिजरूपः शि स्थापनाकुलानि स्थापयेत् किविशिष्टानीत्यत आह'श्रतिसेसि' त्ति स्फीतानीत्यर्थः ' साह ' नि श्रद्धावन्ति कुलानि स्थापयेदिति ।
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किं कारणं चमढणा, दव्वख उग्गमोऽवि अ न सुज्झे । गच्छनिययक, आयरियगिलाण पाहु ||२३७|| किं कारणं तानि कुलानि स्थाप्यन्ते ?, < यतः चमढण् ति अन्यैरन्यैश्च साधुभिः प्रविशद्भिश्च मन्यन्ते - कदन्त इत्यर्थः, ततः को दोष इत्यत आह- दव्वखश्रो 3 आवादियोग्यानां या क्षपो भवति । उम्ममोऽचि अ न सुझे' उगमस्तत्र गृह न शुद्धयति । 'गच्छेत्ति नि
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अभिधानराजेन्द्रः। यत कार्य योग्येन, केवामिस्थत पाह-आयरिश्रगिला- जड़े महिसे चारी, मासे गोणे अतेसि जावसिभा। साहुणए' प्राचार्यग्लानमाधूर्णकानामर्थाय नित्यमेव कार्य |
एएसिं पडिबक्खे, चत्तारि उ संजया हुंति।। २३८॥ भवति इति नियुक्तिगाथेयम् । इदानी भाष्यकारो व्याख्यानयति, तत्र'चमढण' ति
जहा एक महाबीयं परिसूअं, तत्थ य चारीमो माणाविहाव्याख्यानयज्ञाह ( दारगाहा)
श्रो अस्थि , तंजहा-जइस्स-हस्थिस्स जाबोर सा तत्थ पुन्धि पि वीरमणिश्रा, छिका छिक्का पहावए तुरिअं। ।
अस्थि, महिसस्स सुकुमारा जोग्गा सावि तत्थ भरिश.
प्रासस्स महुग जोग्या सावि तत्थ अस्थि, गोणस्स सुयंधा साचमढणाएँ सिना,संतं पि न इच्छए घेत्तुं ।१२४(भा.)। जोग्गा साधि तत्थ अस्थि । तं च रायपुरिसेहि रक्सिज्जा । जहा काचित् वीरसुणिमा केणइ प्राहिंडहल्लेणं तित्तिर ताणं चच जहाईणं, जह परं कारणे घसिया भाणेति , प्रह मयूराईणं गहणे छिक्कारिया तित्तिराईणि गिण्हेर, एवं पुण तं मोकलयं मुचा ताई पट्टणगोणेहिं गामगोण चमपुणे तित्तिराईहिं विणा वि सो छिछिक्कारेर सा य प- विजा चमढिए अतस्सि महापरिसूप ताणं रायकराणं जड़ाहावित्रा जया न किंचि पेच्छा तया विअग्पिा संती ईणं असुरुवा चारी ण लम्भा विध्वंसितत्वात् गोधनस्तस्य । कज्जे विन धावति । एवं सहयकुलाई अण्णमरणेहिं च- एवं सहयकुलाणि वि जान रक्खिजंति ततो अन्नमहिं चमढिजंताई पोयणे कारणे समुप्पण्णेऽवि संतं पिन देति ।। मदिज्जनि, तेसु चमढिएसुजं जडाइसम्भावपाहुणयाण पाउकिं कारणं ', जतो अकारणा एवं निचोड्याणि तेण ग्गं तं न देति । इदानीमक्षरार्थ उच्यते-जडो-हस्ती महिषः कारणे समुप्पराणे विन देति ति । इदानी गाथाऽक्षरार्थ प्रसिद्धस्तयोरनुरूपांचारी यावसिका-घासवाहिका वदति, उच्यते-पुनरपि वीरशुनी छीत्कृता छीत्कृता प्रधावति तथा अश्वस्य गोणो-बलीबर्दस्तस्य च चारीमानयन्ति त्वरितं, पुनश्चासौ अलीकचमढणतया सिन्ना-विधान्ता | यावसिकाः । एतेषां-जहादीनां प्रतिरूपः-अनुरूपः पक्षः सदपि मयूरादि नेच्छति ग्रहीतुम् ।
प्रतिपक्ष तुल्यपक्ष इत्यर्थः , तस्मिन् चत्वारः संयताः प्रा. (भा०) एवं सङ्ककुलाई, चमढिअंताई ताई भोहिं। घूर्णका भयन्ति। निच्छति किंचि दाउं,संतं पि तयं गिलास ॥१२॥
इदानीमेतेषामेव जडादीनां यथासङ्गयेन भोजनं प्रतिपाश्यसुगमा। "चमढण" त्ति गये।
नाह“दव्वक्त्रय" त्ति व्याख्यायते
जडा वा तं वा, सुकुमारं महिसिनो महुरमासो। दव्वक्खएण पंतो, इत्थि घाएज कीस ते दिमं ।। गोणो सुगंधदब्वं,इच्छइ एमेव साहू वि ॥१३१।। (भा०) भहो हट्ठपहट्ठो,करेज मनं पि समणट्ठा ॥१२६।। (भा०)। सुगमा । नवरं साधुरप्येवमेव द्रष्टव्यः-तत्थ पढमो पाहुबहूनां साधूनां घृतादिद्रव्य दीयमाने तद्रव्वक्षयः संजा-| खसाह भणह-जं मम दोसीणं प्राहगं या जिभ या लग्भा तस्ततस्तेन द्रव्यक्षयेण यदि प्रान्तो गृहपतिस्ततः खियं | तं चेव पाणेहि, तेण पय भणिते किं-बोसीणं व माणिघातयेत् , एतच्च मणति-किमिति तेभ्यः-प्रजितेभ्यो |
अब्ध ,न घिससेणं तस्स, सोहणं तस्स भाणेयव्यं । वितिम्रो दत्तम् ? । “वव्वक्सर" ति गयं ॥ उग्गमो विप्रन सुज्झे' |
पाहुणसाह भणइ-वरं मे गहरहियावि पूपलिया सुकुमाला ति व्याख्यायते, तत्राह- भहो हट्ठपहट्ठो करेज अन्नं पि| होउ । ततीश्रो भणति-मधुरं नवरि मे होउ चउत्थो भणतिसाहूणं' भद्रो यदि गृहपतिस्ततो दत्तमपि मोदकादि पु- निप्पडिगंधं अंबपाणं वा.जोउ । एवं ताणं भणताणं जं जोग्गं नरपि कारयेत् । " उग्गमोऽवि व न सुज्झ " सि गयं ।। तं सवयकुलेहिनो वि सेसयं प्राणिजइ । एवमुक्ने सत्याह परः"गच्छम्मि निययकजं पायरिए" त्ति व्याख्यानयत्राह
यस्मादेवं तस्मान्न कदाचित्केनचित्प्रवेष्टव्यं प्राघूर्णकागमनमः मायारेणुकंपाए, गच्छो भणुकंपिनो महाभागो।
स्तरेण श्रावककुलषु , यदैव प्राघूर्णका प्रागमिष्यन्ति तदैव गच्छाणुकंपयाए,अब्बोच्छित्ती कयातित्थे।१२७(भा०)
तेषु प्रवेशो युक्तः । एवमुक्ने सत्याहाऽऽचार्यःसुगमा ।
एवं च पुणो ठविए,अप्पविसंते भवे इमे दोसा। इदानीं "गिलाण" त्ति व्याख्यायते
वीमरण संजयाणं,विसुक्खगोणी अमारामो ॥१३२॥ (भा०)परिहीणं तं दवं,चमढिजंतं तु अप्पमहि ।
एवं च पुनः ‘ठविते' स्थापिते स्थापनाकुले यदि सर्वथा न परिहीमम्मि य दब्बे,नत्थि गिलाणस्सणं जोग्गं ।१२८। प्रवेशः क्रियते तदेते दोषाः । अपविशत्सु एत दोषाः-'बीससुगमा।
रणसंजयाण' विस्मरण संयतविषयं तेषां श्रावकाणां भवति तथा चात्र राम्तो द्रष्टव्यः
तत्र च विशुष्कगोण्या-गया पारामेण चटाम्नः । जंहा चत्ता होंति गिलाणा, आयरिया बालवुड्सेहा य । एगम्स माणस्म गोणी सा कुंडदोहणी.ताहे सो चितेतिखमगा पाहुणगा वि य,मजायमइकमंतेणं॥१२६॥(भा०) एमा गावी बहुअं खीरं देह मज्मय मासगा पगरण होहिति। सारक्खिया गिलाणा, पायरिया वालवुडसेहा य ।।
तो अच्छउ ताहचेव एकबारिश्राए दुहिज्जति । एवं सो न
दुहति । ताहे सातण कालेण विसुक्का तदिवस बिंदु पिन दे.' खमगा पाहुणगा वि य,मआयं ठावयंतेणं ॥१३०॥(भा०)। । एवं संजया तसिं सडाणं प्रणल्लिअंता तसि सहाण पम्हुसुगमे।
हा ण चेव जाणति किं सजया अस्थि न था ?.तेवि संजय
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हिंडग
(१२२४)
अभिधानराजेन्द्रः। अम्मि दिवस कजं जाय तहिवसे गया जाव नस्थि ताणि - मेव क्षेत्र प्रत्युपेक्षितं यत्र सवालवृद्धस्य गच्छम्यानपानं पव्याणि, तम्हा दोगह वा तिराई वा दिवसाणं अवस्स गंत- र्याप्या भवति तत्रैव स्थीयते ततः कस्मात्तरुणा बहिर्नामे तवं । अथवा पारामदिटुंतो, एगो मालिश्रो चिंतेह-अच्छंतु हिएडन्ति, प्राचार्य आह 'दि,तऽगारीए' एकस्या अगाएयाणि पुष्पाणि अहं कोमुईग एक्कवागिश्राए उबेहामि जेण र्या दृष्धान्तो दातव्यः.तं च तृतीयगाथायां भाष्यकारो बबहणि हुंति, ताहे सो आरामे उप्फुल्लो कोमुईए न एकं पि फु- यति । मैं जायं । एवं सावगकुलसुपए चेव दोसा पकवारिश्राप प
तथा इयमपग द्वारगाथाविसणे तम्हा पविसिव्वं कर्हिचि दिवसे ति।" (ोघ०) (प्राचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरवक्तव्यता 'साहु शब्ने उना।)
पुच्छा गिहिणो चिंता. दिलुतो तत्थ खजबोरीए । __कीदृशं पुनः कारयेद्वैयावृत्यम् ? इत्यत श्राह
आपुच्छिऊण गमण, दोसा य इमे अणापुच्छे ।२३६।
'पुच्छ त्ति चोदकः पृच्छति-नन च तस्या अगार्या घृताएयद्दोसविमुकं, कडजोगि नायसीलमायारं ।
दिसंग्रहः कर्नु युक्नो भर्तृप्रदत्ततवणिमध्यात् येन प्राधूर्णकागुरुभत्तिसंविणीयं, वेयावच्चं तु कारेज्जा ॥१३४॥(भा०) ः सुखनैवोपचार. क्रियते. साधूनां पुनः स्थापनाकुलसंएभिरुक्नदोपैविमुक्त , किंविशिष्टम् ? इत्याह-' कडजोगि' रक्षणे न किञ्चित्प्रयोजनं यतस्तत्र यावन्मात्रस्याहारस्य पानि कृतो योगी-घटना ज्ञानदर्शनचारित्रैः सह येन स - कः क्रियते तत्सर्व प्रतिदिवसमुपयुज्यते, न तु तानि कुलातयोगी-गीतार्थः तं पुनरसावव विशिष्यते-शाती शीलमा- नि संचयित्वा साधुप्राघूर्णकागमने सर्वमेकमुखेनैव प्रयचारश्च यस्य तं वैयावृस्य कारयत् । गुरी भक्ति-भावप्र- च्छन्ति, एवं चोदकेनोक्ने प्राचार्य श्राद्ध-'गिहिलो चिंता' गृतिबन्धः संविनीतो-बाह्योपचारेण ।
हिणश्चिन्ता भवति, यदुत-एते साधवः प्राघूर्णकाद्यागमने (भा०)साहांत अपि अधम्मा,एसणदोसे अभिग्गहविसेसे।
आगच्छन्ति ततश्च एतेभ्यो यत्नेन देयमिति, एवंविधा
मादरपूर्विकां चिन्तां करोति । यच्चोनं-तरुणा बहिमे किएवं तु विहिग्गहणे, दवं वटुंति गीयत्था ।। १३५॥ ।
मिति हिण्डन्ति ?, 'दिटुंतो तत्थ खुजबोरीए' स च थासे चैव वैयावृत्यकराः श्राद्धकुलेषु प्रविष्टाः सन्तः कथ- तो वक्ष्यमाणः। श्रापुच्छिऊण गमण'ति तत्र च बहिायन्ति एपणादोषान्-शङ्कितादीन अभिग्रहविशेषांश्च साधुसं- मादी प्राचार्यमापृच्छय गन्तव्यं, यतः 'दोसा य इमे प्रणाबन्धिनः । कीदृशास्ते चैयावृत्त्यकराः ?-प्रिया-इटो धर्मों येषां पुच्छे'त्ति दोषा अनापृच्छायाम् ,एते च बदयमाणलक्षणा भते प्रियधर्माणः एवम्-उक्रेन प्रकारेण विधिग्रहणं द्रष्टव्यं, वन्ति । इदानी भाष्यकारः प्रतिपदमेतानि द्वाराणि व्याख्याघृतादिवृद्धि नयन्ति अव्यवच्छित्तिलाभेन, के ?-गीतार्थाः ।। नयति । तत्र च यदुक्तं दृष्टान्तोऽगार्याः, स उच्यते-"एगो तैश्च गीतार्मिक्षा गृहद्भिः श्राद्धकुले इदं ज्ञातव्यम्
बाणिो परिमि भत्तं अप्पणो महिलाए देइ. साय त
तो दिणे दिणे थोवं थोवं श्रवणे , किं निमित्तं ?, जदा दव्यप्पमाणगणणा, खारिअफोडिअ तहेव श्रद्धा य ।
एयस्स अवेलाए मित्तो वा सही वा एहस्सा तदा किं ससंविग्ग एगठाणे, अणेगसाहसु पन्त्ररस ॥१३६।। (भा०)
का प्रावणाउ आणे उं?, एवं सब्बतो संगहं करोति । अण्णया द्रव्यं-गोधूमादि तद्विय कियत्सूपकारशालाया प्रावश- तस्स अवेलाए पाहुणगो श्रागतो, ताहे सो भणइ-किं कीनि दिने दिने ततश्च तदनुरूपं गृह्णाति , 'गणण' त्ति ए
रउ ? रयणी वट्टा, गीसंचाराओ रत्थाओ, ताहे नाए भणितावन्मात्राणि घृतगुडादीनि प्रविशन्स्यस्मिन इत्येतावन्मा
अं-मा पातुरो होहि । नाहे तस्स पाहुणगस्स उवक्खडिअं, नं ग्राह्यम । ' खारिश्र'त्ति सलवणानि कानि ?-व्यञ्जना
गतो तग्गुणसहस्सहिं वईतो भत्तारोऽवि से परितट्रो । एवं नि-सलवणकरीगदीनि कियन्ति सन्ति ? इति, ततश्च मा
मायरिश्रा वि ठवरणकुलाइ ठति, जण अवेलागयस्स पाहुणत्वा यथाऽनुरूपाणि गृह्णानि ' फोडिअ' त्ति बाइंगणाणि
यस्स तेहितो प्राणेउं दिज्जा, तेण तरुणा संतेसु वि कुलेसु मत्थाफोडिआणि कत्तित्राणि घरे सिज्झिजंति नाऊण ज- बाहिरगाम हिंडति त्ति । इदाणि एलि चेव विवरीश्रो भाइ, हारूवामि घेप्पति । तथा ' श्रद्धा य' त्ति काल उच्य
अण्यो अराणाए अगारीए परिमिअंदेह सा य तो मज्माते . किमत्र प्रहरे बेला आहोश्विप्रहरद्वये इति विज्ञयं ,
ओ थोवं थोपं न गेराहइ, तो पाहुणए आगए विसूरेति । 'संविग्ग एगठाणे' त्ति संविग्नो-मोक्षाभिलाषी 'एगठाणे ' ति एकः सङ्घाटकः प्रविशति, 'अणेगसासु' नि
अमुमेवार्थ गाथाद्वयेनोपसंहरनाहअनेकेषु साधुषु प्रविशत्सु पस्मरस' त्ति पश्चदश दोषा निय
(भा०) परिमिअभत्तपदाणे, नेहादवहरइ थो थोवं तु । माद्भवन्ति " अाहाकम्मुद्देसिअ" इत्येवमादयः । अझो- पाहुणवियालागम,विसन्न आसासणादाणं ॥१३८॥ यरओ मीसजायं च पक्का भेश्रो।
परिमितभक्तप्रदाने सति साउगारी स्नेहादि-घृतादि स्तोयस्मादनेकेषु साधुषु दोषास्तस्मात्
कं स्तोकमपहरति । पुनश्च प्राघूर्णकस्य विकालागमने विसंघाडेगो ठवणा-कुलेसु सेसेसु बालवुड्डाई ।
पराणः स्त्रिया आश्वासितः 'दाण' ति तया स्त्रिया भक्तदान तरुणा बाहिरगामे,पुच्छा दिटुंतऽगारीए ॥१३७॥(भा०)
दत्तं ग्राघूर्णकायेति। सवाटकः एकः स्थापनाकुलेषु प्रविशति, शेषेषु कुलेषु बा
(भा०) एवं पीइविवुड्डी, विवरीयस्मेण होइ दिद्रुतो । ला वृद्धाश्च प्रविशन्ति, अादिशब्दात्क्षपकाश्वः। तरुणा:-श
लोउत्तरे विसेसो, असंचया जेण समणा उ ॥ १३६ ।। क्तिमन्तो बहिर्गा मे हिण्डन्ति । अत्र चोदकः पृच्छति-पूर्व एवं तयोर्दम्पत्योः प्रीति वृद्धिः संजाता, विपरीतश्चान्येन
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(१२२५) हिंडग
अभिधानराजेन्द्रः। प्रकारेण भवति रशन्तः । एवं तावदि गृहस्था अणि पकामालसडिंभा, खायंतियरे गया दूरं ॥१४३।। सायपरा भवन्ति-अनागतमेष चिन्तयन्ति, साधुना पुनः| सिग्घयरं पागमणं, तेसिएणेसिं चदति सयमेव । कुक्षिशम्बलेन सुतरामनागतमेव चिन्तनीय, यदि परं लो
खायंती एमेव उपायपरहिभावहा तरुणा ॥१४४॥ कोत्तरेऽयं विशेषः, यदुत निःसञ्चयाः सुतरा चिन्तामाचार्या पहन्तीति । "पुच्छा विटुंतगारि" ति भणिकं ।
खीरदहिमाइयाणं, लभो सिग्पतरगं च भागमणं । इदानी "पुच्छा गिहिणो चित" नि गाथायाः प्रथमाव- पइरिक उग्गमाई, विजढा अणुकंपियाइयरे ॥१४॥ यवं (भाष्यकारः) व्याख्यानयन्नाह
प्रामभ्यासे बदरी सा च निस्स्वादुकटुकफला कुम्जा छ । जणलावो परगामे, हिंडन्ताऽऽणेति बसइ इह गामे। सा च फलिता, तत्र च फलानि 'पकाम' ति तानिन दिजइबालाईण, कारणजाए य सुलभं तु ।।१४०॥
फलानि पकानि प्रामानि च पकामानि-अर्चपकानीत्यर्थः,
ये अलसा डिम्भास्ते भक्षयन्ति । 'इयर' ति भनखसाःयांदकेन पृष्ठमासीत्तत्रेदमुत्सरं-जनानामालापोजनाला
उत्साहवन्तो डिम्भास्ते दूरं गताः । तेषां च शीपो लोक एवं प्रीति, यदुत परप्रामे हिण्डयित्वाऽऽनयन्ति
व्रतरमागमनं संजातं, ततश्च बाह्यत मागस्य तेसि अत्र भुजते । वसहिहगामें लि वसतिः केवलमत्र एतेषां
भरागसिंच दिति' तेषामलसशिशूनामम्येषां च दरसाधूनाम् । ततश्च 'देवा' वालादीनां ददध्वम् , आदिश- ति, स्वयमेव च भक्षयन्ति । एवमेव तरुणा अपि मा. ब्दात्माघूर्णकादयो गृखन्ते, एवंविधा चिन्तां गृहस्थः करो- रमपरयोहितमावहन्तीति प्रात्मपरहितावहास्तरुणाः 'एवं ति । ततश्च कारखजाने य सुलभं तु'त्ति एवंविधायां चि- तरुणानां क्षीरदध्यादीनां लम्भः शीघ्रतरं चागमनम्। 'परि. म्तायां प्राघूर्णकादिकारणे उत्पन्ने घृतादि सुलभं भवतीति । के' ति प्रचुरतरं लभन्ते, उद्मादयश्च दोषाः परित्यक्ता भव(भाष्यकार) आइ-किं पुनः कारणं प्राघूर्णकानां न्ति तथाऽनुकम्पिताश्चेतरे बालादयो भवम्तीति उलः कु
दीयते?, तथा चायमपरो गुणः- . म्जबदरीहष्टान्तः। पाहुणविसेसदाणे, निञ्जर कित्ती अ इहर विवरीयं ।
इदानीम् “ मापुच्छिऊण गमयं" ति पुव्वं चमढणसिग्गा,न देंति संतं पि कजेसु ॥१४॥
(भाष्यकारः) व्याख्यानयनाहप्राघूर्णकाय विशेषदाने सति निर्जरा-कर्मक्षयो भवति , भापच्छिम उग्गाहिम, एणं गामं वयं तु वचामो। इहलाके च कीर्तिश्च भवति । 'इहर विवरीय ' ति यदि भएणं च अपञ्जत्ते, होंति अपुच्छे इमे दोसा।।१४६॥ प्राधर्षविशेषदानं नक्रियते ततश्च निर्जराकीती न भ
आपृच्छय गुरुमुनाहितपात्रका एवं भणन्ति, यदुत अन्य यतः। एवं प्राघूर्णकविशेषदानं न भवति यस्मात्पूर्व 'बम
प्रामं वयं प्रजामः, प्रगणं च अपज्जत्ते' ति यदि तस्मिन् प्रामे उपसिग्गा' ततश्च न देति संतं पि कज्जेसु गिहिलो
पर्याप्त्या न भविष्यति ततस्तस्मादपिअन्य प्रायं गमिष्यामः । चिंत' ति वक्खाणिनं।
"आपुच्छिऊण गमणं" ति भणिय, दाणि "दोसा य इमे इदानी (भाष्यकार:) कुम्जवदरीरष्टान्तं व्याख्यानयत्राह- अखापुच्छि" ति व्यायामयबाह, दोषा पतेऽमापृच्छपगगामम्भासे बयरी, नीसंदकडुप्फला य खुजाय । तानां भवन्ति । पक्कामालसडिंभा, घायंति घरे गया दूरं ॥१४२।।
के च ते दोषाः १(भाष्यकारस्तान ) व्याख्यानयत्राह"एगो गामो तत्थ खुज्जयोरी , सा य नाम निज्जासेख
तेखाएसगिलाणे, सावय इत्थी नपुंसमुच्छा य । कडया । तत्थ चेडरूवाणि भणति-वजामो बोराणि खामो। | आयरिश्रवालबुडा, सेहा खमगा परिश्चत्ता ।। १४७॥ तत्थ खुज्जबोरीविलग्गाई ताई डिभरूवाणि तृवराईणि वि कदाचिदन्यनामान्तराले बजास्तेना भवन्ति, ततश्वतनखायंति, न य पज्जत्तीए होह । गणाणि भणति-किं - हसे (तत्र गमने। ) उपधिशरीरापहरणं भवति, प्राचार्योs. एहि, ताहे अडविं गतया तत्थ बोराणि धरणीए खाऊण प्यकथितो न जानाति कया विशा गता? इति, ततश्च दुःोबहुणि पोट्टलगा बंधिऊण आगया सिग्यतरं जाव इमे नान्वेषणं करोति । अथवा-मादेशः-प्राघूर्णक आयातः, ते झाडेता चेव अच्छति न तत्तिया जाया । ताहे ते तेसि चानापृच्छप गताः,'ते य प्रायरिया एवं भणंता जहा पाहुणअनसिं च देति । एवं सेव इमं खेतं चमदिनं , पत्थ यस्स बद्दविह, अहवा गिलाणस्स पाउग्गं गेहह, महवा अंविलकरी घेणं चेव आगच्छति दिवसं च हिंडेयवं अंतराले सावयाणि अस्थि तेहि भक्सियाणि होति , अहवा एवं किलेसो अप्पगं च भत्तं होति। जहा ते प्रणालसचे- तत्थ गामे इस्थिदोसा नपुंसगदोसा वा अहवा मुरुछाए पडा (तहा जे तरुणा) आयपरहिश्रावहा ते बाहिरगाम- डेज्जा ताहेन नउजा, अपुग्छिए कयराए विसाए गय तिन भिक्खायरि जंति , ताहेते अचमटिअगामामो खीरं दहि नजति।' ततश्चानापृच्छप गच्छता बालवृक्षसेहक्षपकाः परिमाझ्या घेतूण लहुं आगया उग्गमदोसाई य जहा हो
स्यका भवन्ति । यत प्राचार्यादीमा प्रायोग्यमानं मामयन्ति प. ति, बालवुड्डा य अणुकंपिया होति , बीरियायारो यम
नुकत्वात् म सग्छनं कृतं येनोच्यन्ते । यत पते दोषाः परिएचिनो हो तम्हा गंतब्वं वाहिरगामे हिंडपहिं तरुणपहि।
त्यागजमितास्तस्मादेतदोषभयात्इदानीममुमेवार्थ (भाष्यकार:) गाथाभिरुपसंहरबाह- प्रायरिए पापुच्छा, तस्संदिदेव तम्मि उवसंते। मामम्भासे बयरी, नीसंदकडुप्फला य खुज्जा य । चेइयगिलाणकना-इएसु गुरुणो मनिग्गमणं ।। २४०॥
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(१२२६) हिंडण अभिधानराजेन्द्रः।
हिंग तस्मादानार्यमापृच्छय गन्तव्यम्।अथाचार्यः कथश्चिन्न भव | जन्ति । 'अपजत्तं ' तिन वा पर्याप्त्या तत्र भक्तजातं लतितस्संदितु वत्ति तेनाचार्येण यः संदिष्टः यथाऽमुमापृच्छय | ब्धं, पानकं वा न लब्धम् , एभिरनन्तरोक्नः कारणैरन्यग्राम गन्तव्यं ततस्तमापृच्छय ब्रजन्ति । तस्मिन्नसति-प्राचार्ये वजन्तीति । अविद्यमाने कचिनिर्गते, केन पुनः कारणनाचार्यो निर्गच्छ- पाउग्गाईणमसइ, संविग्गं सप्लिमाइ अप्पाहे । ति ? अत आह-'चाय' चैत्यवन्दनार्थ ग्लानादिकार्येषु गु.
जइ य चिरं तो इयरे, ठवित्तु साहारणं भुंजे ।। २४५॥ रोर्निर्गमनं भवति।
एवमसौ प्रायोग्यादीनाम् असति अन्यग्राम व्रजति. वजंप्रथाचार्येण गच्छना न कश्चिनियुक्तस्ततः?
श्व संविग्नं-साधुं यदि पश्यति ततस्तस्य हस्ते संदिशभनाइ पुचनिउत्ते, आपूच्छित्ता वयति ते समणा। ति. सशी-श्रावकस्तस्य हस्ते संदिशत्यन्यस्य वा आदिअणभोगे आसने, काइयउच्चारभोमाई ।। २४१ ॥ ग्रहणात्-पूर्ववच्छषम् । एवं तावाद्भक्षामटतां वा
ये पुनर्वसतौ तिष्ठन्ति साधवस्तः किं कर्तव्यमित्यत आहप्रभाणिते पूर्वनियुक्तान् कस्मिंश्चिद्भिक्षावेलायां यः प्रागेव
'जइ य चिरं' यदि च चिरं तेषां ग्रामं गतानां तत इतरनियुक्त प्रास्ते तमापृच्छय ब्रजन्ति ते श्रमणा भिक्षार्थम्। श्र
वसतिनिवासिनः साधवः 'ठवेनु साहारणं' यद्च्छसाधाणाभोग 'त्ति अनाभोगेम-अत्यन्तस्मृतिभ्रंशेन गताः ततः
रणं विशिष्ट किश्चित्तत्स्थापयित्वा शेषमपरं प्रान्तवार्य 'पास' त्ति आसने भूमिप्रदेशे यदि स्मृतं तत प्रायत्य पु.
भुञ्जते। मः कथचिश्या यान्ति, कासवति कायिकाथै यो निर्गतःसाधु
अथ तथाऽपि चिरयन्तिस्तस्मै कथयन्ति, यदुत ज्यममुकत्र गताः। 'उच्चारभोमादि'
जाएँ दिसाए उ गया, भत्तं घेतुं तो पडियरंति । त्ति संहाभूमि यो गतस्तस्मै कथयन्ति , यदुत कथनीयमह
अणपुच्छनिग्गयाणं, चउद्दिसं होइ पडिलेहा ।। २४६।। ममुकत्र गत इति । आदिग्रहणात्मथमालिकार्थ वा यो गतस्तस्य वा हस्ते संदिशन्ति ।
'जाए दिसाएं उ गया' यया दिशा भिक्षाटनार्थ गता
स्तया दिशा गृहीतभक्तपानकाः साधवः 'पडियरंति ' नि दवमाइनिग्गयं वा, सेजायर पाहुणं च अप्पाहे ।
प्रतिजागरणां-निरूपणां कुर्वन्ति । अथ तुने भिक्षारका अअसई दूरगो वि अ,नियत्त इहरा उ ते दोसा ॥२४२॥ नाभोगनाकथयित्वैव गतास्ततः किं कर्त्तव्यमित्यत पाहद्रवं-पानकं तदर्थ निर्गतो यः साधुस्तं दृष्ट्वा कथयन्ति, से
अनापृच्छय निर्गतानां भिक्षाहिएडकानां चतसृष्वपि दिछ जायर पाहुणं च अप्पाहे' त्ति शय्यातर वा राष्ट्रा संदि
प्रतिजागरण-निरूपणं कर्त्तव्यं साधुभिः । शन्ति प्राघूर्णकं वा साध्वादि दृष्ट्वा संदिशन्ति , यतः क
प्रतिजागरणगमनविधिः कः ?, थनीयं मम विस्मृतमिति । यदा स्वेतान् गच्छन्न पश्यांत पंथेणेगो दो उ-प्पहेण सर्वे करेंति बच्चंता । तदा दूरगतः 'विपणियत्ता' त्ति दूरगतः सनिवर्त्तत,'ई- अक्खरपडिसाडणया, पडियरणिअरेसि मग्गेणं।।२४७।। हरा उ 'त्ति यदि न निवर्त्तते ततः 'त दोस 'त्ति ते पू- पथा-मार्गेण प्रसिद्धेन एकः साधुः प्रश्रयति. दो साधू वोक्ताः स्तेनादयो दोषाः भवन्तीति।।
उत्पथन-उन्मार्गेण व्रजतः , वर्तम्या एक एकया दिशा अमं गामं च वए, इमाई कजाई तत्थ नाऊणं । भ्यश्चान्यया । ते च त्रयोऽपि जिन्तः शब्दं कुर्वन्ति । ते च तत्थ वि अप्पाहणया, नियत्तई वा सई काले ॥२४३।। वजस्तः स्तेनादिना नीयमानाः साधवः किं कुर्वन्तीत्यत अथासी साधुस्तस्माहामादन्यं ग्रामं व्रजेत् , एतानि का
आह-'अक्षर' त्ति वतिन्यामक्षराणि लिवन्तः पादादिर्याणि-वक्ष्यमाणलक्षणानि , कांनि?-" दरट्रिअखुड़लए'
ना प्रजन्ति, 'परिसाडणय'त्ति पग्शिातनं बादः कुर्यस्येवमादीनि 'तो' ति तस्मिन् ग्रामे योऽसावभिप्रेतो सा
न्तो ब्रजन्ति यन कश्चित्तेन मार्गेणान्वेषयन्ति । 'पडियास्वा-विज्ञाय , ततश्च किं कर्तव्यमित्यत आह-तत्रापि-1
णियसिं' ति इतरषामन्वेषणार्थ निगतानां साधूनां मार्गेण अन्यस्मिन् ग्रामे व्रजता 'अप्पाहणया' संदेशकस्तथैव दा
तत्कृतेन चिह्नन प्रतिजागरणं कर्तव्यम्। हव्यः। अथ कश्चिन्नास्ति यस्य हस्ते संदिश्यते ततो नि- गामे गंतुं पुच्छे, घरपरिवाडीऍ जत्थ उन दिट्टा । घर्तनं वा क्रियते । कदा? अत श्राह-सति काले वि- तत्थेव बोलकरणं, पिडियजणसाहणं चेव ।। २४८ ॥ छमाने 'पहुप्पंति' काले तत्तदनुष्ठीयते ।
यदा तु पुनस्तेषां स्तेननीतानां चिह्न न किञ्चित्पश्यति यदुतम् , एतानि कार्याणि तत्र ज्ञात्वाऽन्यत्र ग्रामे बजन्ति। तदाऽपि ग्राममेव गन्वा पृच्छति , कथं ? , गृहपरिपाटया, तानि दर्शयन्नाह
'जन्थ उ ण विट्ठ' ति यत्र न हस्तस्मिन् प्रामे , न च दूरहिमखुडलए, नव भड अगणी य पंत पडिणीए। तहामनिर्गतानां वार्ता, तत्रैव ' बोलकरगण' बोल कुर्वन्ति, पामोरंगकालइक्कम, एक्कगलंभो अपजतं ॥२४४॥
पश्चाच्च 'पिडितजणसाहणं' पिरिडतो-मिलितो यो जन
स्तस्य कथयन्ति, यदुत अस्मिन् ग्रामे प्रवजिता भिक्षार्थ प्रथम गाथा सुगमम् । एतानि दूरस्थितादीनि..कारणा
प्रविष्टाः न च तेषां पुनरस्मात् प्रामाद्वार्ता श्रुतति।। नि अर्शपथ एव सातानि, कदाचिगनः सन् नत्र पाउग्गा
एवं तैस्तरुणैरेतदेव च कृतं भवति अन्यनामेऽटद्भिःत्ति तत्र प्रामे प्रायोग्यमाचार्यादीनां न लब्धं ततोऽन्यत्र
एवं उग्गमदोसा, विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । ब्रजति, 'कालानिकम' त्ति भिक्षाकालस्य वाऽतिक्रमो जातः, एकस्य वा साधोस्तत्र भोजनलाभो जातस्ततोऽम्यग्राम - १-पत्र पाम्पकृत एकत्वं बहुत्वं च साधुसंघाटकपरत्वेनोक्तम् ।
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हिंडग अभिधानराजेन्द्रः ।
हिंडगं मोहतिगिच्छा अकया,विरियारीय अणुजिमो। २४८॥ नासहिष्णुर्भवति ?- पढमे' ति प्रथमपरीर्षहेण बाध्यपवम्-अन्यनामे भिक्षाटनेन उद्गमदोषाः-श्राधाकर्मा- मानः : धित इत्यर्थः । द्वितीयपरीषहेण तृषा बाध्यमादयः 'विजढा' परित्यक्ता भवन्ति । 'पारिक्कय ' त्ति नः-पिपासया पीडयमानोऽसहिष्णुर्भवति । प्रचुरस्य भक्कादाभो भवति 'अणोमारणं 'तिन वा अ
अत्राऽऽह पर:पमानम्-अनादरकृतं भवति लोके । तथा मोहचिकित्सा च (भा०) जइ एवं संसद्धं, अप्पत्ते दोसिणाइणं गहणं। , कृता भवति, श्रमाऽऽतपवैयावृत्त्यादिमिर्मोहम्य निग्रहः कृती भवति-अवकाशो दत्तो न भवतीति । ' विरियायारो या
लंबणभिक्खा दुविहा, जहासमुक्कोस तिअपणए ॥१५०।। वीर्याचारश्च अमुचीर्णः-अनुष्ठितो भवति । ......
यद्येवमसी बाह्यत एव प्रथमालिकां करोति ततो भक्तं सं
सृष्ट कृतं भवति । प्राचार्योऽप्याह 'अप्पत्ते दोसिणादिरणं अणुकंपायरियाई, दीसा पइरिक्कजयणसंसट्ठा
गहणं ' अप्राप्तायामेव भिक्षावेलायां पर्युषितान्नग्रहणं कपुरिसे काले खमणे, पढमालिय तीसु ठाणेसु ॥ २५० ॥ त्वा प्रथमालयति । कियत्प्रमाणां पुनः प्रथमालिकां करोएवमुक्ते सति चोदक आह-सत्यमाचार्यादयोऽनुकम्पिता त्यसौ? द्विविधा प्रथमालिका भवति- लबणभिक्खा दु भवन्ति किन्तु त एव खुषमाः परित्यक्ता भवन्ति । प्राचार्यो- विहा"लम्बनः-कवलैर्भिक्षाभिश्च द्विविधा प्रथमालिका भऽप्यनेनैव वाक्येन प्रत्युत्तरं ददाति काका-प्रणुकंपाय- तिहदानी जघन्योत्कएता प्रमाणप्रतिपादनायाह-'जह- . रिपाइ'त्ति एवमाचार्यादीनामनुकम्पा, यत एव परलोके
नमकोस तिप्रपणए'.यथासंख्येन जघन्यतनयः कवला. निर्जरा इहलोकै प्रशंसा । पुनरप्याह पर:-'दोसा 'इति में स्तिस्रा वा भिक्षाः, उत्कृष्टतः पञ्च कयलाः पश्च वा भिक्षाः। चतु नाम परलोकाऽ(अचार्य) नुकम्पा किन्तु पीडा .इदानीं तेन सवाटकेन किं वस्तु केषु पात्रकेषु पिपासापीडा च तदवस्थैव । श्राचार्योऽप्याह-क्रियत एवं । गृह्यते? का वा प्रथमालिकाकरणे यतना प्रथमालिका , किन्तु ?-त्रिषु स्थानेषु, कानि च तानि ? ,
क्रियते ?, एतत्प्रतिपादयत्राह- . .. अत आह-पुरिसे' त्ति पुरुषः-असहिष्णुः , पुरुषो यद्य
एगत्थ होइ भत्तं, बिइअम्मि पडिग्गहे दवं होइ। सहिष्णुस्ततः करोति,काले-उष्णकालादौ, यद्यष्णकालस्ततः करोति, 'खवण' त्ति कदाचित्क्षपको भवति अंक्षपको वा ।
पाउग्गायरियाई, मत्ते बिइए उ संस॥३५१॥ बदिक्षपकस्ततः करोति । एवमेतेषु त्रिषु स्थानकेषु प्रथ
एकस्मिन् पात्रके भक्तं गृह्णाति , द्वितीये' च पतहे द्रवं मालिकां करोति । क करोति ? प्राचार्योऽप्यनेनैव वाक्ये.
भवति । तथा ' पाउग्गायरियाई मत्ते' त्ति प्रायोग्यमाचानोत्तरं ददाति । कथं वा करोति ? ; अत आह- पतिरिक्त
र्यादीनामेकस्मिन् मात्रके भक्तं गृह्यते । 'विनिए उ संसत्तं' . जयण'त्ति प्रतिरिक्त एकान्ते यतमया करोति, पुनर प्याह द्वितीय तु मात्रके संसृष्ट किञ्चित्पानकं गृह्यते। परः-श्राचार्यादीनां तेन तद्भक्तं संसृष्टं कृतं भवति , आचा- जइ रित्तो तो दवम-त्तगम्मि पढमालियाए करणं तु । योऽप्यनेनैव वाक्येनेत्तरं ददाति- पतिरिकजयणसंसटुं' संसत्तगहण दवदु-लहे य तत्थेव जं पत्तं ॥३५२। एकान्त यतनयाऽसंसृष्टं च यथा भवति तथा ' पढमालिय' यदि रिक्तः संसक्नद्रवमात्रकस्ततस्तस्मिन् प्रथमालिकाति-मात्रके प्रथममाकृष्य भुङ्क्ते हस्तेन वा द्वितीयहस्ते
याः करणं , 'संसत्तगहण' ति अथ तस्मिन् द्रवमात्रके कृत्वा, अकारप्रश्लप प्राचार्यवाक्ये द्रष्टव्यः ।
संसक्नद्रवग्रहणं कृतं ततस्तत्रैव पात्रके यत्मान्तं तद् भुक्त। इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकारः प्रतिपदं व्याख्यानयमाह- 'वदुल्लभे य' ति अथ दुर्लभं (द्रवं ) पानकं तत्र क्षेत्र ततश्च तत्र प्रथमावयवव्याचिख्यासुराह
तत्रापि संसक्नमात्रक पानकाक्षणिके सनि 'तन्थेव' ति चोयगवयणं अप्पा-णुकंपिओ ते अभे परिच्चत्ता। , तस्मिन्नेव भक्क्रपतद्ग्रहे यत्प्रान्तं तद्धस्तनाकृष्याम्यस्मिन् आयस्यिऽणुकंपाय, परलोए इह पसंसणया ॥१४८।।
हस्ते कृत्वा समुद्दिशति । । चोदकस्य वचनं, किं तद् ? , श्रात्मैवैवमनुकम्पित प्राचा
एवं चासौ संघाटकः प्रथमालिकां करोतियण , ते च भगवता परित्यक्ता भवन्ति । प्राचार्यों
अंतरपल्लीगहि पढमागहियं व सव्य भुजेजा। प्याह-प्राचार्यानुकम्पया परलोको भवति , इहलोके धुवलंभसंखडीयँ व, जं गहिअं दोसिणं वावि ।। २५३ ।। च प्रशंसा भवति । 'अणुकंपायरियाई' चक्खाणि । अन्तरगल्ली-तस्माद् ग्रामात्परतो योऽन्य श्रामन्नग्रामम्तत्र इदानीं (भाष्यकार:) दोस' ति व्याख्यानयनाह
यद् गृहीतं तद्भुत , पुनस्तत्तत्र क्षेत्रानिकान्तवादभोज्यं एवं पि अपरिचत्ता, काले खवणे अ असहुपुरिसे य । भवति । ' पढमागहिव'नि प्रथमायां वा पौरुष्यां यद् कालो गिम्हो उ भवे, खमगो वा पढमबिइएहिं ॥१४६।।
गृहीतं तत्सर्व भुक्रे, तृतीयपौरुष्यामकल्प्य यतस्तद्भवचोदकः पुनरप्याह-पवमपि ते परित्यक्ता एव,यतः क्षुधा
ति । 'धुवलंभ संखडीयं व 'धूवी वा-अवश्यं भावी-अत्र दिना बाध्यन्ते । प्राचार्योऽप्याह-'काले' त्ति काले उष्णका
संखड्यां लाभो भविष्यतीति मत्या , ततश्च यद् गृहीतं ले करोति 'खवण' त्ति क्षपको यदि भवति ततः स करोति
'दासिग बावि ' पर्युषितमन्नं तत्सर्व भुते।। प्रथमालिकाम् असहिष्णुश्च पुरुषो यदि भवति ततः स करोति दरहिडिए व भाण, भरि भोच्चा पुणा वि हिंडिजा। प्रथमालिकाम् ,तत्र कालो-ग्रीष्मो यदि भवेतःपुरुषः क्षपको कालो वाऽइकमई, मुंजेज्जा अंतरं सव्वं ॥ २५४॥ यदि भवत्, 'पढमविइएहिं ' ति अत्र पुनः केन कार- । अहिरिडते वा यत्पात्रकं गृहीतं तद्भुतं, ततश्च तद्ध
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( १२२८) अभिधानराजेन्द्रः ।
हिंडग
कन्वा पुनरपि हिण्डेत । 'कालो वाऽतिक्कमति ' सि भाजमानानाममिति यावत स्वा वजन्ति ततश्चान्नराल एव सर्व भुक्त्वा प्रविशति । श्रोघ० । अनु० । प्रा० म० । हिण्डकत्वेन हिण्डकः । जीवे, भ० २०
श० २ उ० ।
हिंडन्त - हिण्डमान - त्रि० । इतस्ततः पर्यटति, वृ०२०
२ प्रक० ।
रिंडमारा हिण्डमान-त्रि० अधिगच्छति, प्रश्न० १ ०
द्वार ।
हिंडिऊस हिडिवा अव्य० प्रतिवेत्यर्थे, पं० ० २ द्वार इिंडिय हिण्डित - त्रि० । विहते, शा० १ ० ६ ० । हिंडु - हिन्दु-पुं० | सिन्धुनदो पलक्षितदेशवासिनि मनुष्ये, स च देशः पश्चिमायाम् चा सिन्धुनदात्याच्याम्पुदात् उत्तरस्याम् श्रा हिमालय दक्षिणश्रेणे ईक्षिणस्याम् श्रा समुदात्, सिन्धुरिति संस्कृतशब्दः । सिन्धोः पाश्चात्यात् श्रा ऐरावलपारसीकथनैले स्वदेशोबारा हिन्दुरिति व्यवहारतो जनपदपरोऽपि तात्स्थ्यादार्य मनुष्यपरोऽजामत क्रमादेतदेशप्रसिद्ध वेदमूलक लोकागमानुसारिष्यपि बोधको जातः । ती० २० कल्प । नि० चू० । हिंडोल-देशी- क्षेत्ररक्षणयन्त्रे दे० ना० ६ वर्ग ६६ गाथा । हिंडोलय- देशी मृगनिषेघरवे, दे० ० वर्ग
गाथा ।
हिंविध-देशी-पनीने दे० ना० वर्ग
,
गाथा ।
हिंस- हिंस्र त्रि । हिनस्तीत्येवं शीलो हिंस्रः । स्वभावतः प्राव्यपरोपलकृति, उत्त० पाई० ७ श्र० । हिंसनशीले, उत्त० ७० स्था० 1
हिंसग हिंसक त्रीहिसार उ० १२० हिंसष्पयास - हिंसाप्रदान- न० | हिंसाहेतुत्वादायुधानलविषा दयो हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात् तेषां प्रदानमन्यस्मै क्रोधाभिभूताय अनभिभूताय वा । श्राव० ६ श्र० । हिंस्रं हिंसाकारि शस्त्रादि, तत्प्रदानं परेषां समर्पणम् । उपा० १ अ० । हिंसनशीलानि हिंस्रकाणि, हिंसोपकरणानि श्रयुधानलविपायस्यां प्रदानम् ०२ अधि० । हिंमप्येहि (ग)- हिंसा चिन्पुं हिंसा साध्य गयेपयतीति दिसाक्षी साध्यादिवधके पाराचिता,
स्था० ५ ठा० १ ३० ।
हिंसविहिंसा - हिंसविहिंसा स्त्री० । गौराहिंसायाम्, प्रश्न० १. श्राश्र० द्वार (अस्या व्याख्या 'पाणयह' शब्दे पञ्चमभागे ८३३ पृष्ठे गता । ) हिंसा - हिंसा - खी० | हिंसनं हिंसा, हिंसि हिंसायामित्यस्य " इदितो नुम् धातो " रिति नुमि कृते स्यधिकारे टाप् । दश० १ अ० । प्रात्युपमई, सूत्र० २ ० २ श्र० । सरवबधे, विशे० | व्यापाइने, उत्त० ५ अ० । प्रास्यियोगप्रयोजके व्या
हिंसा
पारे, द्वा० २१ द्वा० | सूत्र० । प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादने, दश० ४ ०। जीवबधे कर्म०१ कर्म० प्रश्न० । प्रमततद्योगात्यारोपणे सत्वानां ववन्धनादिभिः प्रकारैः पीडायाम्, स्था० ४ ठा० १७० स० ओ० म० प्रा० चू० । पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च उच्लास निःश्वासमधापदायुः प्रायादरीने भगवा-स्पां वियोगीकर तु हिंसा ॥ १ ॥ " श्राचा० १० ५ ० ५ उ० । विशे० ।
आय० । स्था० ।
अधुना मीमांसकभेदाभिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुस्वमुपतिपुरस्सरं निरस्थश्नाह
,
す
1
न धर्महेतुविहिताऽपि हिंसा, नोत्सृष्टमन्यार्थमपोधते । स्वपुत्रपाताद् नृपतित्वलिप्सासमचार स्फुरितं परेषाम् ।। ११ ।। इदमप्रतिपक्षमाश्रिता जैमिनीयामाचक्षते या हिंसा गाडी व्यसनितया का ि सैवाऽधर्मानुबन्धहेतुः प्रमादसंपादितत्वात् शौनिकलुधकादीनामिव । वेदविहिता तु हिंसा प्रत्युत धर्महेतुः, देवताऽतिथिप्रतिपादकत्वात् तथादिपूजोप वारकत्। नच तत्प्रीतिसम्पादकत्वमसिद्धम्। कारीरीप्रभृतियज्ञानां स्वसाध्ये वृष्टद्यादिफले यः खल्वव्यभिचारः, सतत्प्रीतिदेवताविशेषानुग्रहहेतुकः । एवं त्रिपुरारीयतिलोमात् परराष्ट्रवशीकृतिरपि कृषि देवप्रसादाचा अतिथिप्रीतिस्तुधुका समाजाप्रत्ययोपलोय पितॄणामपि त
,
याचितथाविधानानविविधानं साक्षादेव वीक्ष्यते । श्रागमश्वात्र प्रमाणम् स
देवीत्यर्थमभ्यमे धगोमेचनरमेधाऽऽदिविधावाभिधायकः प्रतीत एव । अतिथिविषयस्तु महो वा महाजं वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्" इत्यादिः । पितुप्रीत्यर्थस्तु - "द्रौ मासौ मात्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु । औरक्षेणाथ चतुरः, शाकुनेनेह पञ्च तु " ॥ १ ॥ इत्यादिः । एवं पराभिप्रायं हृदि संप्रधार्याऽऽचार्यः प्रतिविधत्ते'ध' स्यादिविदितापितायदविहिता हिंसा प्राणियपरोपणरूपान धर्मदेतुन धर्मानुबन्धनिबन्धनम् । यतोऽत्र प्रकट एव स्वयमविरोधः । तथाहि हिंसा वेद् धर्मदेतुः कथम् धर्महिंसा कथम् ? "धूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् " इत्यादिः । न हि भवति माता च बन्ध्या बेति । हिंसा कारणं धर्मस्तु तत्कार्यमिति पराभिप्रायः नचाये निरपायः यतो- यद्यस्यान्ययव्यतिरेकावनुविध
9
६
तस्य कार्यम् : यथा मृत्पिण्डादेर्घटादिः । न च धर्मो हिंसातएव भवतीति प्रातीतिकम तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् । अथ न वयं सामान्येन हिंसां धर्महेतुं ब्रूमः, किन्तु विशिष्टशमेव विशिष्टा च सेव-या वेदवि हिता इति चेत्-ननु तस्या धर्महेतुत्वं किं वध्यजीवानां मरलाभावेन, मरणेऽपि तेषामार्त्तध्यानाभावात् सुगतिलाभेन वा ? | माद्यः पक्षः - प्राणत्यागस्य तेषां साक्षादवश्यमा
+
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(१२२६) हिंसा अभिधानराजेन्द्रः।
हिंसा णत्वात् । न द्वितीयः-परचेतोवृत्तीनां दुर्लक्यतयाऽऽर्तध्या- अथ विप्रेभ्यः पुरोडाशाऽऽदिप्रदानेन पुण्यानुबन्धी गुणोऽ नाभायस्य चाङ्मात्रत्वात् । प्रत्युत हा! कएमस्ति-न कोऽ स्त्येव इति चेत् , न ; पवित्रसुवर्णाऽऽदिप्रदानमात्रेणेव पुपि कारुणिकः शरणम् ? इति स्वभाषया विरसमारसत्सुतेषु रायोपार्जनसम्भवात् कृपणपशुगणव्यपरोपणसमुत्थमांसदानं पदनदैन्यनयनतरलताऽऽदीनां लिङ्गानां दर्शनाद् दुनिस्य केवलं निघृणत्वमेव व्यनक्ति । अथ न प्रदानमात्रं पस्पप्रमव निष्टाधमानत्वात् । श्रथत्थमाचक्षीथाः-यथा अय:- शुवधक्रियायाः फलं, किन्तु भूत्यादिकम् । यदाह श्रुतिःपिराडो गुरुतया मज्जनाऽऽत्मकोऽपि तनुतरपत्राऽऽदिकर- "श्वेतं वायव्यमजमालभेत् भूतिकामः" इत्यादि । एतदपि गन संस्कृतः सन् जलपरि प्लवते , यथा च मारणाऽऽत्म- व्यभिचारपिशाचग्रस्तत्वादप्रमाणमेव ; भूतेश्चौपयिकान्तरैरकमपि विर्ष मन्त्राऽऽदिसंस्कारविशिष्टं सद गुणाय जायते , पि साध्यमानत्वात् । अथ तत्र सत्रे हन्यमानानां छागादीनां यथा वा दहनस्वभावोऽप्यग्निः सत्यादिप्रभावप्रतिहतशक्तिः | प्रेत्य सद्गतिप्राप्तिरूपोऽस्त्येवोपकार इति चेत् ; वाङ्मात्रसन् नहि दहति । एवं मन्त्राऽऽदिविधिसंस्काराद् न खलु मेतत् : प्रमाणाऽभावात् ; नहि ते निहताः पशवः सद्गतिवेदविहिता हिंसा दोषपोषाय । न च तस्याः कुत्सितत्वं श लाभमुदितसनसः कस्मैचिदागत्य तथाभूतमात्मानं कथकीयम् . तत्कारिणां याशिकानां लोके पूज्यत्वदर्शनादिति । यन्ति । अथास्त्यागमाऽऽख्यं प्रमाणम् । यथा-"औषध्यः पं. तदेतद्न दक्षाणां क्षमते खोदम्। वैषम्येण दृष्टान्तानामसा शवो वृक्षा-स्तियञ्चः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः, धकतमत्वात् । अयापिण्डादयो हि पत्राऽदिभावान्तरा
प्राप्नुवन्त्युच्छ्रिनं पुनः" ॥१॥ इत्यादि । नैवम् । तस्य पी पन्नाः सन्तः सलिलतरणादिक्रियासमर्थाः, न च वैदिकम- रुषेयाऽपौरुषयविकल्पाभ्यां निराकरिध्यमाणत्वात् । न च न्त्रसंस्कारविधिनाऽपि विशस्यमानानां पशूनां काचिद् वे श्रीसेन विधिना पशुविशसनविधायिनां स्वर्गावाप्तिरुपकार दनाऽनुत्पादादिरूपा भावान्तराऽऽपतिः प्रतीयते । अथ
इति वाच्यम् , यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्राप्तिः स्यात् ,तर्हि तेषां वधाऽनन्तरं देवत्वाऽऽपत्तिर्भावान्तरमस्त्येवेति चेत्
वाढं पिहिता नरकपुरप्रतोल्या,शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्तिकिमत्र प्रमाणम् ? । म तावत् प्रत्यक्षम्-तस्य संबद्धवर्तमा
प्रसङ्गात् । तथा च पठन्ति पारमर्षाः-"यूग छित्त्वा पशून हत्या, नार्थग्राहकत्वात्-"सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना"
कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्यवं गम्यते स्वर्ग, नरके केन गम्यते ?" इति वचनात् । नोप्यनुमानम्-तत्प्रतिबद्धलिङ्गानुपलब्धेः ।
किश्च-अपरिचिताऽस्पष्टचैतन्याऽनुपकारिपशुहिंसनेनापि य नाप्यागमः-तस्या धापि विवादास्पदत्वात् । अर्थापत्त्यु- दि त्रिदिवपदवीप्राप्तिः, तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपपमानयोस्त्वनुमानान्तर्गततया तददृषणेनैव गतार्थत्वात् ।
कारिमातापित्रादिव्यापादनेन यज्ञकारिणामधिकतरपदप्राअथ भवतामाप जिनायतनादिविधाने परिणामविशे
प्तिःप्रसज्यते । अथ "अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाकर पात् पृथिव्यादिजन्तुजातघातनमपि यथा पुण्याय कल्प्यते
इति घचनाद् वैदिकमन्त्राणामचिन्त्यप्रभावत्वात् तत्संस्कृतइति कल्पना, तथा अस्माकमपि कि नेष्यते । वेदोक्लविधिः विधानरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि भावात् ।
पशुबधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिः, इति चेत् । न, इह लोके नैवम् ; परिणामविशेषोऽपि स एव शुभफलो, यत्राऽनन्योपा
विवाहगर्भाऽऽधानजातकर्माऽऽदिषु तन्मन्त्राणां व्यभियत्वन यतनयाऽप्रकृष्टप्रतनुचैतन्यानां पृथिव्यादिजीवानां व
चारोपलम्भाद्, प्रहरी स्वर्गादावपि तद्यभिचारोऽनुधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनाऽपरिमितसुकृतसंप्राप्तिः, न पुनरित
मीयते । दृश्यन्ते हि वेदोक्लमन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि रः । भवत्पक्ष तु सत्स्वपि तत्तछतिस्मृतिपुराणेतिहासप्रति
विवाहाऽऽदिभ्योऽनन्तरं वैधव्याऽल्पायुष्कतादारिया35पादिप यमनियमादिषु स्वर्गावाप्युपायेषु तांस्तान् देवानुद्दि
घुपद्रवविधुराः परःशताः । अपरे च मन्त्रसंस्कार विना
हतेभ्योऽपि तेभ्याऽनन्तरं तद्विपरीताः । श्रथ तत्र किश्य प्रतिप्रतीकं कर्तनकदर्थनया कान्दिशीकान् कृपणपश्चेन्द्रियान शौनिकाधिकं मारयतां कृत्सुकृतव्ययेन दुर्गतिमेवानु
यावैगुण्यं विसंवादहेतुः , इति चेत् । न, संशयाऽनिवृत्तेः । कूलयतां दुर्लभः शुभपरिणामविशेषः , एवं च य कञ्चन
किं तत्र क्रियावैगुण्यात् फले विसंवादः, किं वा मन्त्राणामपदार्थ किश्चित्साधर्म्यद्वारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां भवतामतिप्र
सामर्थ्याद्, इति न मिश्चयः,तेषां फलेनाविनाभावासि। सङ्गः सङ्गच्छते । न च जिमाऽऽयतनविधापनादौ पृथि
अथ यथा युष्मन्मते-"प्रारोग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तम व्यादिजीवबधऽपि न गुणः । तथाहि-तदर्शनाद गुणाऽनु दितु" इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एव फलमिष्यते, एवरागितया भव्यानां बोधिलाभः, पूजाऽतिशयविलोकना55
मस्मदभिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फलमिति किं न दिना च मनःप्रसादः, ततः समाधिः , ततश्च क्रमेण नि:) प्रतिपद्यते ? , अतश्च विवाहाऽऽदौ नोपलम्भावकाशः, इति यसप्राप्तिरिति । तथा च भगवान् पञ्चलिङ्गीकारः
चेत् । अहो ! वचनवैचित्री यथा वर्तमानजन्मनि विवाहा
उदिषु प्रयुक्तमन्त्रसंस्कारैरागामिनि जन्मनि तत्फलम् , एवं "पुढवाइयाण जइ वि हु. होइ विणासो जिणालयाहिन्तो।
द्वितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहाऽऽदीनामेवं प्रवृत्तिधर्माणां तब्बिसया वि सुदिटि-स्स णियमो अस्थि अणुकंपा ॥१॥ पयाहिंतो बुद्धा , बिरया रक्खन्ति जेण पुढवाई।
पुण्यहेतुरधाङ्गीकारेऽनन्तभवानुसन्धान प्रसज्यते , एवं च न
कदाचन संसारस्य परिसमाप्तिः, तथा च न कस्यचिदपवइत्तो निव्याणगया, अवाहिया पाभवमिमारणं ॥२॥
र्गप्राप्तिः, इति प्राप्त भवदभिमतवेदस्य पर्यवसितसंसारवल्लरागिसिराहो इव, सुविजकिरिया व सुप्पउत्ताओ। परिणामसुंदरश्चिय, चिट्ठा से बाहजोगे वि ।। ३॥" इति ।
रीमूलकन्दत्यम् । श्रारोग्याऽदिप्रार्थना तु असस्याऽमृषाभावैदिकबधविधाने तु न कश्चित्पुण्यार्जनानुगुणं पश्यामः ।
पापरिणामविशुद्धि कारणत्वाद् न दोषाय, तत्र हि-भावा55
रोग्याऽऽदिकमेव विवक्षितम् , तश्च चातुर्गतिकसंसारलक्षे-प्रत्यवयवम् ।
ण भावगपरिक्षयस्वरूपत्वाद्-उत्तमफलम् , तद्विषया च ३०८
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(१२३०) हिंसा
अभिधानराजेन्द्रः। प्रार्थना कथमिव विवेकिनामनादरणीया? । नच तजन्यपरि तादृशविप्रलम्भक-विभङ्गमानि-व्यन्तराऽऽदितमेव निणामविशुद्धेस्तत्फलं न प्राप्यते, सर्ववादिनां भावशुद्धेरपवर्ग
श्यम् । ( स्या०) (भागमविषयः ' आगम ' शब्दे द्विफलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति । नच वेदनिवेदिता हिंसा न
तीयभागे ५३ पृष्ठे उक्तः ।) नच वयमेव यागविधः सुगतिहेकुत्सिता, सम्यग्दर्शनशान सम्पनरनिर्मार्गप्रपौर्वेदान्तवादि
तुत्वं नाङ्गी कुर्महे, किन्तु भवदाप्ता अपि । यदाह व्यासमहर्षि मिश्च गर्हितत्वात् । तथा च तस्वदर्शिनः पठन्ति
"पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपदः । तपःपापवि"वोपहारव्याजेन, यशव्याजेन येऽथया।
शुद्धयर्थ, मानं ध्यानं च मुक्किदम" ॥१॥ अत्राग्निकार्यशब्दनन्ति जन्तून् गतघृणा, घोरां ते यान्ति दुर्गतिम्" ॥१॥ बाच्यस्य यागादिविधेरुपायान्तरैरपि लभ्यानां संपदामेव ... वेदान्तिका अप्याहुः
हेतुत्वं वदन्नाचार्यः-तस्य सुगतिहेतुत्वमर्थात् कदर्थितवा
नव । तथा च स एव भावाग्निहोत्रं 'ज्ञानपाली' त्यादिश्लोकैः "अन्धे तमसि मज्जामः,पशुभिर्य यजामहे ।
स्थापितवान् । तदेवं स्थिते तेषां वादिनां चेष्टामुपमया दूहिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति" ॥१॥ षयति-स्वपुत्रेत्यादि । परेषां-भवत्प्रणीतवचनपराङ्मुतथा 'अग्निर्मामेतस्माद्धिसातादेनसो मुञ्चतु' छान्दस
खानां स्फुरितं-चेष्टितं, स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सासस्वाद मोचयतु इत्यर्थः , इति ।
ब्रह्मचारि-निजसुतनिपातनेन राज्यप्राप्तिमनोरथसदृशम् ।
यथा किल कश्चिदविपश्चित् पुरुषः परुषाऽऽशयतया निव्यासेनाप्युक्तम्
जमङ्गजं व्यापाच राज्यश्रियं प्राप्तुमीहते, नच तस्य त"शानपालिपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाम्भसि ।
स्प्राप्तावपि पुत्रघातपातककलङ्कपङ्कः क्वचिदपयाति, एवं बेस्नात्वाऽतिविमले तीर्थे, पापपङ्कापहारिणि ॥१॥
दविहितहिंसया. देवताऽऽदिप्रीतिसिद्धावीप, हिंसासमुत्थं ध्यानानी जीवकुण्डस्थे. दममारुतदीपिते ।
दुष्कृतं न खलु पराहन्येत । अत्र च लिप्साशब्द प्रयुञ्जाअसत्कर्मसमिक्षप-रग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ॥२॥
नः स्तुतिकारो झापयति-यथा तस्य दुराशयस्याऽसहकषायपशुभिर्दुप्रै-धर्मकामार्थनाशकैः ।
शतादृशदुष्कर्म निर्माणनिर्मूलितसत्कर्मणो राज्यप्राप्ती केवल शममन्त्रहुतैर्यशं, विधेहि विहितं बुधैः ॥ ३॥
समीहामात्रमव.न पूनस्तत्सिद्धिः,एवं तेषां दुर्वादिनां वेदविप्राणिघातात् तु यो धर्म-मीहते मूढमानसः।
हितां हिंसामनुतिष्ठतामपि देवताऽऽदिपरितोषणे मनोगज्य. स वाग्छति सुधावृष्टि, कृष्णाऽहिमुखकोटरात्" ॥ ४॥ इत्यादि । यश्च याज्ञिकानां लोकपूज्यत्वोपलम्भादित्युक्तम् तद |
मेव, न पुनस्तेषामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्द्राऽऽदिदिवौकसां च प्यसारम् ,अबुधा एव हि पूजयन्ति तान् न तु विविक्रबुद्धयः।
तृप्तिः,प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् । इति काव्यार्थः । स्या० । अबुधपूज्यता तुन प्रमाणम् , तस्याः सारमेयाऽऽदिष्वप्यु
पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याघातःपलम्भात् : (स्या०) (अग्निहोत्रविषयः 'अग्गिहात्त'शब्द प्रथ
। तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासीमभागे) पितृणां पुनः प्रीतिरनैकान्तिकी श्राद्धाऽदिविधानेनापि भूयसां सन्तानवृद्धेरनुपलब्धेः तदविधानेऽपिच कपाश्चिद्
पुरिसेणं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ नो पुरिसे गर्दभशूकराऽजादीनामिव सुतरां तदर्शनात्। ततश्च श्रा हणइ ?, गोयमा ! पुरिसं पि हणइ नो पुरिसे वि हणति । धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव । ये हि लो- से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ पुरिमं पि हणइ नो पुरिसे वि . कान्तरं प्राप्तास्त तावत् स्वकृतसुकृत दुष्कृतकर्मानुसारेण
हणइ ?, गोयमा! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा भुजाना एवासते; ते कथमिव तनयाऽऽदिभिरावर्जितं पिराडमुपभोक्तुं स्पृहया
पुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगजीवा लयोऽपि स्युः । तथा च युष्मयूथिनः पठन्ति-"मृ- हणइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पुरिसं पि हणइ तानामपि जन्तूनां, श्राद्धं चद् तृप्तिकारणम्। तनिर्वाणप्र- नो पुरिसे वि हणति । पुरिसे णं भंते ! आसं हणमाणे किं दीपस्य, स्नेहः संवर्द्धयेच्छिखाम्" ॥१॥ इति । कथं च श्रा
आसं हणइ नो आसे वि हणइ ?, गोयमा! आसं पि हणइ सविधानाधर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु; तस्य तदन्यतत्वात् , जडत्वाद् , निश्चरणत्वाच । अथ तेषामुद्देशन श्रा
नो आसे वि हणइ, से केणद्वेणं अट्ठो तहेव, एवं हस्थि खादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादेः स्यादिति चेत। सीहं वग्धं जाव चिल्ललगं । पुरिसे णं भंते ! अन्नयरं तन्न, तेन तजन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायादुत्तारितत्वात् । तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरं तसपाणं हणइ नो अन्नयरे एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि इति-विचाल पब विलीनं
तसपाणे हणइ ?, गोयमा ! अन्नयरं पि तसपाणं हणइ त्रिशामातेन, किन्तु पापानुबन्धिपुण्यत्वात् तत्त्वतः पापमेव । अथ विप्रोपभुक्तं तेभ्य उपतिष्ठत इति चेत् 'क
नो अन्नयरे वि तसे पाणे हणइ, से केणद्वेणं भंते ! एवं बैतत्प्रत्येतु ?, विप्राणामेव मेदुरोदरतादर्शनात् , तद्वपुषि वुचइ अन्नयर पि तसं पाणं नो अनयरे वि तसे पाणे हव तेषां संक्रमः श्रद्धातुमपि न शक्यते, भोजनावसर त णइ ?, गोयमा! तस्स णं एवं भवइ, एवं खलु अहं एगं संक्रमलिङ्गस्य कस्याप्यनवलोकनात् , विप्राणामेव च तृप्तेः
अन्नयरं तसं पाणं हणामि, से णं एग अनयरं तसं पाणं साक्षात्करणात् यदि परं त एव स्थूलकवलेराकुलतरमतिगार्थ्याद् भक्षयन्तः प्रेतप्रायाः, इति मुधैव श्राद्धादिवि
हणमाणे प्रणेगे जीवे हणइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! तं धानम् । यदपि च गयाधाडादियाचनमुपलभ्यते , तदपि चेव एए सब्वे वि एकगमा । पुरिसे णं भंते ! इसि हणमा
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हिंसा अभिधानगजेन्द्रः।
हिंमा खे किं इमि इणइ नो इसिंहगड, गोयमा इसि पि हणइनो न कुर्यादिति पृथिवीकायादिशब्दषु , विस्तरत उक्तम्। )
षडजीधनिकायानां हिंसा न कर्तव्या । ग० २ अधि० । इसि पि हणइ । सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ० जाव नो इसि पि
(जिनायतननिर्माणे जिनपूजायां च कायवधदोषः चेय' हणइ १, गोयमा! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं|
शब्द तृतीयभागे १२३० पृष्ठे प्रतिक्षिप्तः ।) इसिं हणामि, से णं एग इसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ,
प्रथमहिसाभेदमाहसे तेणद्वेणं निक्खेवो । पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे
___ उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए । किं पुरिसवरेणं पुढे नो पुरिसरेणं पुढे ?, गोयमा ! नि
वावजिज कुलिंगी, मरिज तं जोगमासज्ज ।। २२३ ।। यमा ताव पुरिसवरेणं बुढे,-महवा पुरिसवरेण य णो पुरि- उच्चालिते-उत्क्षिप्ते पाद संक्रमार्थ गमनार्थमिति योगः, सवेरेण य पुढे अहवा पुरिसवरेण य नोपुरिसवरेहि य पुढे, ईसमितस्योपयुक्तस्य साधोः किं व्यापद्यत महती वेदएवं प्रासं एवं जाव चिल्ललगंजाब अहवाचिल्ललगवरेण य |
नां प्राप्नुयात् ,म्रियेत-प्राणत्यागं कुर्यात् कुलिङ्गी कुत्सि
तलिङ्गवान द्वीन्द्रियादिसत्त्वः तं योगमासाद्य-तथापयुक्साणो चिल्ललगवेरेहि य पुढे । पुरिसे णं भंते ! इसिं हणमाणे
धुव्यापारं प्राप्येति । किं इसिवरेणं पुढे, नो इसिवेरेणं ?, गोयमा! नियमा इ
न य तस्स तनिमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसियो समए । सिवरेण य नो इसिवेरेहि य पुढे । (सू० ३६१)
जम्हा सो अपमत्तो,सा उ पमानो त्ति निद्दिवा ॥२२४।। 'तण' मित्यादि, 'नो पुरिसं हणई' त्ति पुरुषव्यतिरिक्तं जी
नच तस्य साधोस्तनिमित्तः कुलिङ्गिव्यापत्तिकारणो य. वान्तरं हन्ति । 'अणेगे जीवे हणइ'त्ति अनकान् जीवान्
न्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये । किमिति ? यस्मात्सोऽप्रमत्तः यूकाषट्पदिकामिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् तच्छरी
सूत्राशया प्रवृत्तः,सा च हिंसा प्रमाद इत्ययं निर्दिष्टा तीर्थरावटब्धांस्तबुधिरप्लावितादींश्च हन्ति, अथवा-स्वकायस्या
करगणधरैरिति । इयं द्रव्यतो हिंसा न भावतः । कुञ्चनप्रसारणादिनेति , 'छणइ'त्ति क्वचित्पाठस्तत्रापि स एवार्थः,क्षणधाताहिसार्थत्वात् , बाहुल्याश्रयं चेदं सूत्रम्, तेन
साम्प्रतं भावतो न द्रव्यत इत्युच्यतेपुरुष नन् तथाविधसामग्रीवशात् कश्चित्तमेव हन्ति कश्चिदक- मंदपगासे देसे, रज्जु किएहाहिसरिसयं दहूँ । मपि जीवान्तरं हन्तीत्यपि द्रष्टव्यम्, वक्ष्यमाणभक प्रयान्य- अच्छित्तु तिक्खखग्गं, वहिज तं तप्परीणामो ॥२२॥ थाऽनुपपत्तरिति । 'पते सव्व पक्कगमा' पंत-हस्त्यादयः ए
मन्दप्रकाशे देश-ध्यामले निम्नादौ रज्जु दर्भादिविकाररूकगमाः-सदृशाभिलापाः 'इसिं' ति ऋषिम् 'अणते जीवे हमद 'त्ति ऋषि नन्ननन्तान् जीवान् हन्ति , यतस्तद्
पां कृष्णाहिसदृशी कृष्णसर्पतुल्यां दृष्ट्रा प्राकृष्य तीक्ष्णखघातेऽनन्तानां घातो भवति , मृतस्य तस्य विरतेरभावे
झं बधेत्तां-हन्यादित्यर्थः, तत्परिणामो वधपरिणाम इति । नानन्त जीवघातकत्वभावात् , अथवा-ऋषिर्जीवन बहून् प्रा
सप्पवहाभावम्मि वि, वहपरिणामा उ चेव एयस्स। णिनः प्रतिबोधयति, ते च प्रतिवुद्धाः क्रमेण मोक्षमासा- नियमेण संपराइय-बंधो खलु होइ नायब्रो ॥२२५।। दधन्ति , मुक्ताश्चानन्तानामपि संसारिणामघातका भवन्ति,
. सर्पवधाभावेऽपि तत्त्वतः वधपरिणामादेवतस्य व्यापातदधे चैतत्सर्वे न भवत्यतस्तद्वधेऽनन्तजीवषधो भवतीति, निफ्लेवो' त्ति निगमनम् । 'नियमा पुरिसरेणे' त्या
दकस्य नियमन साम्परायिको बन्धो-भवपरंपराहतुः कर्म
योगः खलु भवति ज्ञातव्य इति । दि, पुरुषस्य हतत्वानियमात्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भक्तः, तत्र च यदि प्राण्यन्तरमपि हतं तदा पुरुष
तृतीयं हिंसाभेदमाह- . धैरेण नो पुरुषवरेण चति द्वितीयः । यदि तु बहवः
'मिगवहपरिणामगओ, आयमं कट्रिऊण कोदंडं । प्राणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवरेण नो पुरुषवैरैश्चति मोत्तूणमिसुं उभओ, वहिज तं पागडो एस ।। २२७ ॥ तृतीयः । एवं सर्वत्र त्रयम् । ऋषिपक्ष तु ऋषिवै- मृगवधपरिणामपरिणतः सन्नाकर्णमाकृष्य कोदराई रंण नो ऋषिवैरैश्चयेवमेक एव, ननु या मृतो मोक्ष यास्य
धनुर्मुक्त्वा इघु-बाणं उभयतो वंधत्-हन्यात् द्रव्यतो त्यविरतो न भविष्यति तस्यर्वध ऋषिवैरमेव भवत्यतः
भावतश्च तं मृगं प्रकट एप हिंसक इति । प्रथमविकल्पसम्भवः । अथ चरमशरीरस्य निरुपक्रमायुएकस्वान हननसम्भवस्ततोऽचरमशरीरापेक्षया यथोक्नभङ्ग
चतुर्थभेदमाहकसम्भवः, नैवम् । यता यद्यपि चरमशरीरो निरुपक्रमायु
उभयाभावे हिंसा, धणिमित्तं भंगयाणुपुच्चीए । एकस्तथाऽपि तद्वधाय प्रवृत्तस्य यमुमराजस्येव वैरमस्त्ये
तह वि य दंसिजंती, सीसमइविगोवणमदुट्ठा ॥२२८॥ येति प्रथमभङ्गकसम्भव इति , सत्यम्, किन्तु यस्य ऋपः उभयाभाव-द्रव्यतो भावतश्च वधाभाव हिंसा ध्वनिमात्रं सोपक्रमायुष्कत्वात् पुरुष वधो भवति तमाश्रित्यदं
न विषयतः भङ्गकानुपायाता, तथापि च दर्श्यमाना शिसूत्रं प्रवृत्तम् , तस्यैव हनन' मुख्यवृत्त्या पुरुषकतत्वा- ध्यमतिविकोपनं विनयबुद्धिविकाशायाऽदुरैवेति । दिति । भ०६श०३४ उ० । ( एकान्तनित्येऽनित्य वाउऽत्ममि हिंसा न घटते किन्तु स्याद्वादे इति । अहिंसा "
इयपरिणामा बंधे, बालो वुड ति थोवमियमित्थ । शब्दे प्रथमभागे ५१ पृष्ठे उक्तम) पजीवनिकायव्यापादनं वाले वि सो न तिब्बो,कयाइ बुड़े वि तिब्बु त्ति ॥२२६।।
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हिंसा
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' इय' एवं परिणामाद्बन्धे सति बालो वृद्ध इति स्तोकमिद- दिसाक्रमे, किमनि वालीसीन तीव्रः परिणामः कदाचिद्वृद्धेऽपि तम इति जिघांसतामाशयवेचियादिति ।
( १२३२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ग्रह परिणामाभावे, वहे वि बंधो न पायई एवं | कहं न वहे परिणामो, तब्भावे कहँ य नो वो ॥ २३० ॥ अथैवं मन्यसे परिणामाभाये सति बधे ऽप्यबन्ध एव प्राप्नो परिकथं बधे परिणाम किं तर्हि भवत्येादृशस्य तथा सद्भावे परिणा मभावे कथं च बधे न बन्धो, बन्ध एवेति ।
न
सियन व परिणामो, अन्ना कुमत्थभावणाओ य । उभयत्थ तदेव तत्र, किलिट्ठबंघस्स हेउ ति ।। २३१ ।। स्यान बंध परिणामः क्लिष्टः अज्ञानात्, अज्ञानं व्यापादयतः कुशास्त्र भावनातश्च योगादावेतदाशङ्कयाह – उभयत्र तदेवाज्ञानमसौ परिणामः क्लिष्टबन्धस्य हेतुरिति साम्परायिकस्येति ।
जम्हा सो परिणामो, अन्नाणादवगमेण नो होइ | तुम्हा तपभावस्थी, नागाईं सह जइआ ॥ २३२ ॥
यस्मादसौ वधपरिणामः श्रज्ञानाद्यपगमेन हेतुना न भवति सनिनादी अपत्येव वस्तुतस्यैव तपत्यात् स्वार्थी परिणामामाचार्थी ज्ञानादिषु सदा - सत्यात् इति ।
;
एवं वस्तुस्थितिमभिधायाधुना परोपन्यस्तहेतोरनैकान्ति कन्बमुद्भावयति
बहुतरकम्मोचकम भावो वेगतिओ न जं केद ।
वाला विधोपाऊ, हति बुड्डा वि दीहाऊ ॥ २३३ ॥ बहुतरकर्मपक्रमभावोऽपि बालादतिको न मानवाला अपि स्नोकायुषो भवन्ति वा पि दीर्घायुषस्तथा लोके दर्शनादिनि ।
*
तुम्हा सचिव, वहम्मि पावं अपावभावेहिं ।
भणिय महिगाइभावो, परिणामविसेसओ पायं ||२३.४ || यस्मादेवं तस्मात्सर्वेषामेव वासादीनां बधे पापमपापभा चैर्वीतरागैर्भणितम्. अधिकादिभावस्तस्य पाप्मनः परिणामविशेषतः प्रायोनि इति वर्तते प्रायोपस्थीत रादिभेदसंग्रहार्थमिति ।
|
साम्प्रतमन्यद्वादशस्थानकम्
संभव वहो जेसिं, जुज तेसि निचिचिकरणं पि । श्रावडियाकरणम्मिय, सत्तिनिरोहा फलं तत्थ || २३५|| संभवति वधो येषु कृमिपिपीलिकादिषु युज्यते तेषु निवृत्तिकरणमपि विषयावृत्तेः पतिताकर चप तानासेवने च सति शक्तिनिरोधात्फलं तत्र युज्यत इति बर्ततेत्यभावस्तुतः फलमिति ।
तथा चाह
नो असि पवित्ती, तन्निवित्तीइ अचरणपाणिस्स ।
हिंसा
"
झलनाथम्मनं तत्थ फलमबहुम के ।। २३६ ।। मो अनारकादी प्रवृत्तिधक्रियायास्तथ तरि विषयप्रवृत्तिनिवृत्या अगोदुरस्य - ज्ञातधर्मतुल्यं छिन्नगोदुकरस्य मत्स्यनाशे धर्म इत्येवं कल्पम्, तंत्र निसी फल मामला केचन मन्यन्त इत्येष पूर्वपक्षः अयोत्तरमाद- संभवति वर्षा युक्तम्।
अथ कोऽयं संभव इति
किताब तब चिय, उपाहु कालंतरेण वहणं तु । किंवा चहुत्ति किंवा, सत्ती को संभवो एत्थ ॥ २३७॥ किं तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानानां वधस्तद्वधः क्रिथारूप एव, उताहो कालान्तरेण हननं जिघांसनमेव वा किमवधः - श्रव्यापादनमित्यर्थः ?, किं वा शक्तिः व्यापादकस्य व्यापाद्यविषया ? कः सम्भवोऽत्र प्रक्रम इति सर्वेऽप्यमी पक्षा दुष्टाः ।
3
तथा चाह
"
जता तव्वहुचि अलं निवित्तीइ अविसयाए उ । कातरवहम्मि वि, किं तीए नियमभंगाओ || २३८ || यदि तावन्तध एव तेषां व्यापाद्यमानवधक्रियैव संभव इति। अत्र दोषमाद अलं निवृत्या न किञ्चिधनि
,
यति हेतु निमित्तकारषु सर्वासां प्रायदर्शन' मिति वचनात् श्रविषयत्वं च वधक्रियाया एव असंभवात् सति युगमात् ततख वचक्रियानियमनाचे अधिषणा पनि भिरिति । कालान्तरद्दननेऽपि नियमतः समयेऽभ्युपगमाने किं तथा किचिदित्यर्थः कुत इत्याह-नियमभङ्गात् संभव एव सति नित्रुस्यभ्युपगमः । संभवश्च कालान्तर हननसंवेति नियमभङ्ग इति । वरमविकल्पद्वयाभिधित्सयाऽऽह
,
"
"
,
अव विनोपमा सुयरं अचिसो व विसयो से । सभी उ कजगम्मा सह तम्मिय किं पुसो ती ॥ २३६ ॥ अवधेऽपि न प्रमाणम् यद्यवधः सम्भवः इत्यत्रापि प्रमाणं न ज्ञायते एतेषामस्मादवध इति । सुष्ठुतरम् अतितराम अविषय विषयः सेता निवृतेः वासंभवात्यैव संभवत्वात् । अस्मिँश्च सति निवृत्यभ्युपगमादिति । शक्तिस्तु कार्यगम्या वधशक्तेरपि संभवो न युज्यते यतोऽसौ कार्यगस्यैवेति; न वधमन्तरेण ज्ञायते । सति च तस्मिन्वधे किं पुनस्तया निवृत्या तस्य संपादितत्वादेवेति ।
4
संयमधिय पक्षान्तरमाह
आईओ हो, तञ्जाईएस संभवो तस्स ।
तेसु सफला निवित्ती, न जुत्तमेयं पिवभिचारा ॥ २४० ॥ यजातीय एव हतः स्यात् कृभ्यादिस्तजातीयेषु सम्भवस्तस्य वधस्य : अतस्तेषु सफला निवृत्तिः सविषयत्वादिति एतदाशङ्कपादयुमेव्यभिचारात् । व्यभिचारमेवाह
मापाइ कोई दए वि मम्मि श्रमखु । १- सर्वे धूपलब्ध पुस्तकेषु एतादृशमेवेति नास्माकं मनीषोन्मेषोऽत्र ।
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हिंसा
हविय सीहाओ, दीसह वहणं पि वभिचारो। २४१ । व्यापाद्यते कश्चिदेव हतेऽपि मनुष्य सकृत् श्रन्यमनुतथा लोके दर्शनात जातीवस्तुतस्त ज्जातीयेषु सम्भवस्तस्येति नैकान्तः तेनैव श्रन्यमनुष्येणैव व्यापादनात् । तथा अहतेऽपि च सिंहादौ श्रा जन्म दृश्यंत हननं कादाचित्कमिति व्यभिचार इति ।
नियमो न संभवो इह, हंतच्या किं तु सत्तिमित्तं तु । साजेश कजगम्मा तपभावे किं न सेमेसु ।। २४२ ॥ नियमो न संभवः - इहावश्यंतया न सम्भवः, इहोच्यते-यदुत यज्जातीय एको हतस्तज्जातीयाः सर्वेऽपि हन्तव्याः, यज्जातीयस्तु न हतस्तज्जातीया न हन्तव्या एव किन्तु शक्तिमात्रमेव- तज्जातीयेतरेषु व्यापादनशक्तिमात्रमेव सभयः, तत्कथं दोषोऽनन्तो वैवेत्यभिप्राय इति न दाशङ्कयाह - 'सा येन कार्यगम्ये' तिसा - शक्तिर्यस्मात्कार्ययावर्त तो दोष इति बधमतरेण तदपरिज्ञानात् विकिंतयत्। अथ सा कार्य मन्तरेभ्यम्यते इति तदभावे-कार्या
ये किस साम्युपगम्यते तथा च सत्यविशेष निवृतिसिद्धिरिति । स्यादेतन्न सर्वसत्त्रेषु सा श्रतो नाभ्युपगम्यत इति आह चनारदेवा असंभवा समयमासमिद्धीओ। इन चिप तस्सिद्धी, अमुहासयव असमदुा ।। २४३ ।। नार कदेवादिष्वसंभवाद्व्यापादनशक्लेर्निरुपक्रमायुषस्ते इति । आदिशब्दादेवकुरुनिवदिप कुत एतदिति वत् समयमार्नासिद्धेः - श्रागमप्रामाण्यादिति । एतदाशङ्कयाह-अत समासः सरांतियानिवृति सिद्धिः " सव्वं भंत ! पाणाइवायं पञ्चक्खामि " इत्यादिवचनामा आममस्थाप्यविषयवृत्ति तदाश धनिवृत्तिः
"
( १२३३ ) अभिधानंराजेन्द्रः ।
बाद-शुभाअदृश अन्तःकरणादिसंयालयात पतीति
डियाकरणं पि हु, न अप्पमायाउ नियमओ अन्नं । भावे, विहंत विहला तई होइ ।। २४४ ॥ श्रपतिताकरणमपि पूर्वपक्षवायुपन्यस्तं नाप्रमादान्नियमतोऽन्यत् श्रपि त्वप्रमाद एव तदिति । श्रन्यत्वे - श्रप्रमादादर्थास्तर आपतितापि श्रमदवेऽपि इस विफलासी निर्मित चातिपस्या श्रप्रमत्ततायां फलमिति ।
परपीडाकरणे, ईसिं वसत्तिविष्फुरणभावे |
. जो ती निरोहो खलु आवडियाकरण मेयं तु ॥ २४५॥ ॥ अवमन्येत् परः परपीडाकर पापाय पीडा संपादने सति ईषद्वधशक्तिविस्फुरणभावे व्यापादकस्य मनाग्बधसामर्थ्याविजृम्भणवत्तायां सत्यां वस्तस्याः निरोधो-दुकरतर आपतिताकरणमेतदेवेति ।
-
एतदाशङ्कयाह
विहिउत्तरमेवे, असे सभी उ कजगम्म ति ।
३०६
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हिंम
विष्फुरणं पि हु बीए, बुहारा नो बहुम लोए ।। २४६ || विहितोत्तरमपेरमफेनेति कार्यगम्येति विस्फुरणमपि तयाः शान हु मतं लोके पिपरपीडाकर बन्द
एवं च जा निवित्ती, सा चैव बहोऽहवा कि वहहेऊ । विस विसुच्चय फुड, अणुबंधा होइ नायव्वा । २४७ एवं च व्यवस्थिते सति या अनिवृत्तिः सैव वधा निश्रयतः प्रमादरूपत्वात् श्रथवाऽपि बधहेतुरनिवृत्तितो वधप्रवृत्तः, विषयाऽपि वस्तुतो गोरो वृत्तिध
"
स्य स्फुटं व्यक्तम्, अनुबन्धात्प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणाद्भवति ज्ञातव्या, अस्या एव वधसाधकत्वप्राधान्यख्यापनार्थे देतुविषाभिधानमदुष्टमेति ।
अमुमेवार्थ समर्थयन्नाह -
हिंसाइपायगाओ, अप्पडिविरयस्स अस्थि अणुबंधो । अत्तो अणिवत्तीओ, कुलाइवेरं व नियमेण ॥ २४८ || हिंसादिपातकादादिशब्दात् मृगवादादिपरिग्रहः, श्रप्रतिविरतस्यानिवृत्तस्यास्त्यनुबन्धः प्रवृत्यय
छः उपपत्तिमाह-प्रद त्रियमेनावश्यतयेति ।
रव्याचासुराह
जेसिमिही कुलंपरं, अप्पटिविरई उ तेमित्रोनं । करिव न तं स चेद उपसमहे ॥ २४६ ॥
येषां पुरुष मिथः परस्परमपदम् अतिचिरतेः कारणानेपाम अन्योऽन्यं परस्परं भा पिपिति कि तुमने सति। ततो व मिनं इह बंधणमा जड तहा बंधो।
नाभिसंधी, जह तेसुं वस्म तो नरिथ ॥२५०३ ततश्च तस्मादनुपशंमात्तन्निमित्तं वैरनिबन्धनमिद्द बन्धनादियादि या भयति तेषां संतरेषामनिवृ नां तनिबन्धना बन्ध इति । अत्राह सर्वेषु प्राणिषु नाभि[सम्पादन]परिणाम: यथा तेषु इनिवासिषु - रवत इति तस्य प्रत्याख्यातुस्ततो नास्ति बन्धः इति । नथाहि तेऽपि न यथादर्शनमेव प्राणिनां वधादि कुर्वन्ति किरङ्गनिवासिनामे एवं प्रत्ययारपि न सर्वेषु प धाभिसंधिरिति तद्विषये बन्धाभाव इति ।
एतदाशङ्कयाह
अभिगंधी, अमिपत्रिनियो जहा तेसु । वित्तखिविती जो दिगो उ ।। २५१ ॥ अस्येवाभिसंधिरनन्ततिलक्षणः सर्वेषु कुनोऽविशेष प्रवृत्तितः सामान्येन वधप्रवृत्तेः, न यथा तेषु रिपुङ्गनिवासि पुरवतः तत्रापि बधे अनिवृतिज एवामिय घेरतां दोषः ।
एवमनिवृत्तस्य गर्भार्थों भावित एवेति श्रान्त सर्वसादिति आशङ्कबादसव्वेसि विराह, परिभोगाओ य हंत वेराई ।
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(१२३४) हिंसा अभिधानराजेन्द्रः।
हिसाणद सिद्धा प्रणाइनिहणो, ज संसारो विचित्तो य ॥२५२॥ 'दाण ' शब्दे चतुर्थभागे २६६६ पृष्ठे प्रतिपादितम् ।) सर्वेषां प्राणिनां विराधनातेन तेन प्रकारेण परिभोगाउन
(आत्मैव हिंसेति शब्दनयानां मतं प्राणातिपातेन क्रिया कि
यत इति प्रस्ताव किरिया' शब्दे तृतीयभाग ५५३ पृष्ठे उपपासकचन्दनोपकरणत्वेन हन्त ! वैरादयः सिद्धाः हन्त ! संप्रेषण
दिनम् । ('एवं खु नागिणो सारं,जन्न हिसइ किंचण । अहिमा स्थानान्तरप्रापणे सति वैरोन्माथकादयः कूटयन्त्रकादयः प्रतिष्ठिताः सर्वसत्वविषया इति । उपपत्यन्तरमाइ-अना
समयं चेव, एतावंतं वियरिणये ति 'अहिंसा' शब्दे प्रथ
मभागे ८७८ पृष्ठ व्याख्यातम् ।) (दर्षिका कल्पिका च हिंसा दिनिधनो यत्संसारो विचित्रश्चातो युज्यते सर्वमेतदिति । ।
'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे षष्ठभागे उक्का ।) उपसंहरनाह
एगो दिए पाणी एग सयमेव हत्थेण वा पाएण या ता बंधमणिच्छतो, कुजा सावजजोगविनिवित्तिं ।
अन्नयरेण वा सलागाइअहिगरणभृओवगरणजाएणं अविसयअनिवित्तीए, सुहभावा दढयरं स भवे ॥२५॥
जणं केइ संघट्टावेजा पासं पट्टियं वा अपरं समसुजायस्मादेवं तस्माद्वन्धमनिच्छन्नात्मनः कर्मणां कुर्यात् सावद्ययोगविनिवृत्तिमोघतः सपापव्यापारनिवृत्तिमित्यर्थः। अ.
णेजा से ण तक्कम्मं जया उदिमं भवेजा तया जहा विषयानिवृत्या नारकादिवधभावेऽपि तदनिवृत्त्या अशुभभा. उच्छुखंडाइ जते तहा निप्पीडिजमाणे छम्मासणं खवेजा। चादविषयेऽपि वधविरतिं न करोतीत्यशुभो भावः , तस्मात् एवं गाढे दुबालमेहिं संवच्छरहिं तं कम्मं वेदेजा । एवं हढतरं सुनगं स भवेद्वन्धो भावप्रधानत्वात्तस्यति ।
प्रगाढपरियावणे वाससहस्सं गाढपरियावणे दस वाससहइत्तो य इमा जुत्ता, योगतिगनिबंधणा पविसीओ
स्सं एवं आगाढकिलावणे वामलक्खं गाढकिलावणे दमजंता इमीइ विसओ,सन्चु चिय होइ विप्रो ॥२५४॥
वासलक्खाइं उद्दवणं वासकोडी एवं तेइंदियाइ{ पिणेयं इतश्चेयं निवृत्तिर्यका योगत्रिकनिबन्धना-मनोवाकाययो
ता एवं वियाणमाणे मा तुम्हे मुज्झह ति । (महा०६०) गपूर्षिका प्रवृत्तिर्यद्यस्मादस्या अनिवृत्तर्विषयः सर्व एव भवति विशेयः, पाठान्तरं योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मा
" परिनिवुयम्मि भग-वंते धम्मतिथंकरे । संगतार्थमवेति ।
जिणाभिहियं सुत्तत्थं. गणहरो जो परूबई । तथा चाह
ताप मालावगं एयं वक्खाणम्मि समागयं ।। किं चिंतेइ न मणसा, किं वायाए न जंपए पावं ।
पुवीकाइगमेगं, जो वावाए मो ऽसंजओ। न य इत्तो विन बंधो,ता विरई सव्वहा कुज्जा ॥२५॥ ताईसरो विचिंतेइ, सुहुमे पुढविकाइए । किं चिन्तयति न मनसा अनिरुद्धत्वात्सर्वत्राप्रतिहतत्वा
सध्वत्थ उद्दविजंति, को ताई रक्खिउं तरे । त् तस्य, किं वाचा न जल्पति पापं तस्या अपि प्रायोऽनि
लहुई करेइ अत्ताणं, एस एव महायसो । रुद्धत्वादिति । न चातोऽपि योगद्वयव्यापारात्र बन्धः किन्तु कप एव, यस्मादेवं तत्तस्माद्विरतिं सर्वथा कुर्यात् म.
असद्धेयं जणे सयले, किमट्ठ य पव्वइक्खइ । विशेषेण कुर्यादित्यर्थः।
अच्चंतकडुयं एयं, वक्खाणंतस्स वीफुड ।। एवं मिच्छादंसण, वियप्पवसोऽसमंजमं के।।।
कटुं व सोयरं लाभे, एरिसं को णु चिट्ठा।" जति जपि अनं, तं पि असारं मुणेयव्वं ।। २५३ ॥ महा०६अ। पवमुक्तप्रकारं मिथ्यादर्शनविकल्पसामर्थेन असमञ्जसम्- (विकन्द्रियहिंसायां जीतव्ययहागे 'जीयववहार'शब्दे च. अघटमानकं केचन कुवादिनो जल्पन्ति, यदप्यन्यत्-किंचि
तुर्थभाग १५६ पृष्ठ उक्तः ।। "पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापस्या तदप्यसारं मुग्मितव्यम् , उक्तम्यायानसारत एवेति । श्रा। दुष्प्रभावतः ।" इत्यादि 'वाद' शब्दे षष्ठभागे उनम् ।) श्राघाविश। स्था० । स०।(त्रिचन्वारिंशदधिकशतद्वय
दुःखितप्राणिहिंसाया धर्मत्वसाधकानां संसारमोचकानां विधा हिंसा 'पाणाइवायवरमा' शब्दे पञ्चमभागे व्या- मतं ' संसारमायग' शब्दे खरिडतम् ।) ख्याता।) ( यतनया कर्मबन्धो न भवतीति 'बंध' शब्द हिंसाज्माण-हिंसाध्यान-न० । हिंसा महिषादिजीवमारणं पश्चमभागे। 'सम्मत' शब्द ऽस्मिन्नेव भागे च उनम् । ) तस्या ध्यानं कुपक्षिप्तकालसौकरिकस्येव । मारणाध्यवसा('जले जीवाः स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि । जीव- ये , अातु। मालाकुले लोक, कथं भिक्षुरहिसकः ॥१॥ इति 'अस्थिवाय' हिमागद-हिंसानन्द-न। हिंसायामानन्दो रुचिस्मिस्तत् शब्दे प्रथमभागे ५२२ पृष्ठे सिद्धिसाधनप्रस्तावे उपापादि।) हिंसानन्दम् । श्राध्यानभेदे , सम्म० । एतदपि बाह्या(केषांनित्परतीथिकानां हिंसकानां निन्दा 'पुरिसविजय ध्यात्मिकभेदात् द्विविध, परुषनिष्ठुरबचनाक्रोशनिर्भत्सनाविभंग' शब्दे पश्चमभाग अकारि।) जिनसमवसरण बल्यु-: ताडनपरदारानिक्रमाभिनिवेशादिरूप बाह्य स्वपराभ्यां स्वपभोगे हिंसादापपरिहारः 'अहगकुमार' शब्दे प्रशमभागे । संवेदनानुमानगम्यं वाह्यम् । आध्यात्मिकं-हिंसायां संरम्भा. ५५४ पृष्ठ कृतः) (एकेन्द्रियादीनां हिंसायां सदृशं पाप- ! दिलक्षणायां नैघृगयेन प्रवर्तमानस्य संकल्पाध्यवसानं. संमिति प्रणायार' शब्दे प्रथमभागे सम्यगभ्यधायि ।) कल्पश्चिताप्रबन्धस्तस्याध्यवसानं तीवकषयानुषकत्वं प्रथम (कुरखननाद्यर्थ राजादिना पृष्ण हिंसानुमोदनपरं न वददिति हिंसानन्दं नाम । सम्म० ३ काण्ड ।
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(१२३५) हिंसाणुषंधि अभिधानराजेन्द्रः।
हिमवंत हिंसाणुबंधि-हिंसानुबन्धिन-न । हिंसां सत्स्वानां वधवेधश्न- । हिवाहिड-देशी-माकुले, दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा । न्धनादिभिः प्रकारैः पीडामनुबध्नाति सततप्रवृत्तां करो- हिदिमउवरिमगेविजग-अधस्तादपरितनौवेयक-पुं० । प्रैतीत्येवंशीलं यत् प्रणिधानं. हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तत् | वेयकदेवभेदे, स्था० ठा०३ उ० । हिंसानुबन्धि । आर्तध्यानभेदे, भ०२५ श० ७ उ० । दश० ।
हिद्विमगेविज--अधस्तनवेय-पुं० । प्रैवेयकदेवभेदे, स्था। हिंसादंड-हिंसादण्ड-पुं०। हिंसामाश्रित्य हिंसितवान् हिमस्ति हिमिष्यति वा अयं वैरिकादिौमित्येवं प्रणिधा
ठा० ३ उ० । नेन दण्डो विनाशनं हिंसादण्डः । स०१२ सम। हिंसित-हाममाज्ममगावजग-अधस्तनम
हिदिममज्झिमगेविजग-अधस्तनमध्यमवेयक-पुंगवेय. बान् हिनस्ति हिसिष्यत्ययमित्यभिसंध सर्पवैरिकादिवधे,
कदेवभेदे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । स्था०५ ठा०२ उ०।
हिडिल्ल-अधस्तन--त्रि० । नीचे, अनु० । दतीय दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमारुयायते- हिडि-धागती। भ्रमणे,भ्वादि आत्मनेपद सकर्मक सेट् इदिअहावरे तच्चे दंडसमादाये हिंसादंडवत्तिए ति आहि- त् । हिंडइ । प्रा० । जइ, से जहा णामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं वा हिडिंबा-हिडिम्बा-स्त्री० । भीमसेनस्य भार्यायां घटोअनि वा हिंसिसु वा हिंसइ वा हिसिस्सइ वा त दड। स्कघस्य मातरि स्वनामख्यातायां राक्षस्याम् , प्रा. ४ तसथावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरति अलेण वि णि- पाद।। सिरावेति अन्न पि णिसिरंतं समणुजाणइ हिंसादंडे, एवं हिड-देशी-वामने, दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा । खल तस्स तप्पत्तियं सावजं ति पाहिजइ, तच्च दंडस- तनपध्यानवत ( ० २०१०) उपकारमादाणे हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिए । (सू०१६) । के, उत्त०२०।
अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमास्यायते, तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः-पुरुषकारं वहन् स्वतो
हितपक-हृदयक-ना स्वार्थे कः। कृपादित्वात् । “तदोस्तः" मरणभीरुतया वा मामयं घातयिष्यतीत्येवं मत्वा कंस
॥४॥३०७॥ इति दस्थ तः। “हदये यस्य पः"८।४।३१०॥ इति वदेवकीसुतान् भावतो जघान, मदीयं वा पितरमन्यं वा
| यस्य पः । हितपकं । अन्तः करणे, प्रा०४ पाद । मामक ममीकारोपेतं परशुरामवत्कार्तवीर्य जघान, अन्यं वा हितमितभोजि-हितमितभोजिन--पुं०। पथ्याल्पाहाराभ्यवकंचनायं सर्पसिंहादिापादयिष्यतीति मत्वा सपदिकं हारिणि, पञ्चा०१६ विव०।। व्यापादयति, अन्यदीयस्य वा कस्यचिद्धिरण्यपश्वांदरयमु
हित्थ-त्रस्त-पुं० । “प्रस्तस्य हित्य-तट्ठी" २१३६॥ इति पद्रवकारीति कृत्वा तत्र दण्डं निसृजति सदेवमयं मां मदीयमन्यदीयं चा हिसितवान् हिनस्ति हिसिष्यतीत्य
| प्रस्तस्थाने वित्थादेशः । उद्विग्ने, प्रा० । लज्जित,दे० ना०८ वर्ग वं संभाविते त्रसे स्थावरे वा तं दण्डं प्राणव्यपरोपणल
६७ गाथा । पार०ना० । क्षणं स्वयमेव निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृजन्तं वा- दिल्या-दशी-लज्जायाम् , दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा। उन्य समनुजानीत इत्येतत्तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादएडप्रत्ययिकमाख्यातमिति । सूत्र०२ श्रु० २ ० । प्रय० ।
हिम-हिम-न । तुपारे, "तुहिणं हिमं तुसारं" पाइ० ना० हिंसाययण-हिंसायतन-न० । व्यापत्तिधामसु, ओघ०।।
१५७ गाथा । शीते, ६०१ उ०३ प्रक० । ओघ । तुहिने, ध०
२ अधि० । स्था० । स्त्यानोदके, जी० १ प्रनि । प्रज्ञा । हिंसिय हिंसित-न। हिंसाप्राप्त, सूत्र.१ श्रु० १२ १०।
हिमं तु शिशिरसमये शीतपुरलसम्पर्काजलमेव कठिनीहिक्का-देशी-रजक्याम् , दे० ना०८ वर्ग।
भूतमिति । प्राचा० १श्रु० १ ०३ उ०। हिक्कास-देशी-पङ्क, दे० ना०८ वर्ग ६६ गाथा।
हिमग-हिमक-न । हिम एव हिमकम् । तुहिने, स्था० ४ हिकिन-देशी-अश्वरवे, दे० ना०८ वर्ग ६८ गाथा ।
ठा। शिशिरादी वातेरिने हिमकणे, सूत्र०२७० ३ ०। हिच्चा-हित्वा-अव्य० । उपशमे उयित्त्वेत्यर्थे, प्राचा० । 'हि' संस्त्याने जलविन्दी, कल्प ३ अधिक सण । भ० । गतावित्यस्मात् पूर्वकाले क्त्वा । हित्वा गत्वा-प्रतिपद्ये- प्राचा० । वृ०। स्यथे, प्राचा०१ श्रृ०४०४ उ०। 'हा' त्यागे, हाधाता हिमयर-हिमकर-पुं०। चन्द्र, "मयलंछणो हिमयरो" पार क्वा । त्यक्त्वेत्यर्थे, श्राचा०१ श्रु०६ १०४ उ०॥
ना०५ गाथा। हिज--श्रव्य० । कल्ये, दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा।
हिमवंत--हिमवत-पुं० । वर्षधरपर्वतविशषे, स्था० ठा० ३ हिद-अधम-अव्य० । "अधसो हेढें ॥८।२।१४१॥ इति हे
उ०। अन्त । प्रश्न ।रा। नं० । इह जम्बूदीगे भरतटादेशः । संयोगपूर्वस्यैकारस्य द्वस्व इकारः । अधस्तादर्थे,
स्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिमनपञ्चप्रा० स्था० । श्राकुले, दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा।
विशनियोजनो योजनशनोच्छायप्रमाणो भरतक्षत्राऽपेहिदुगइ-अधस्ताद्गति-स्त्री० । नरकेष्पपाते, दश०१० ।।
त, दश १ चू० ।। क्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयः चीनपट्टयों नानावर्णवि
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हिमवंत
शिष्टयतिमणिनिकरपरिमरिडनपार्श्वः सर्वत्र तुल्यविस्ता गगनमतरत्नम का इसटोपशोभितः तपनीयमयतलविविधम किनकमण्डिततटदशयोजनावगाढ पूर्व पश्चिम जनसहस्रायामदक्षिणोत्तरयोजनविस्तुपोषकपादपरिमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां वाचजलसंस्पर्श दिययामा पर्व
तः । नं०
दो हिमवंताई । स्था० २ ठा० ३ उ० । (त्र सूत्रप्रतिद्धन्यता नदिमयन्महाहिमवन्दयोः तृतीयपष्ठभागयोरुका । ) स्कन्दिलाचार्यस्य स्वनामख्याते शिष्ये, नं० ।
(१२३६ ) अभिधान राजेन्द्रः |
हिमवाय हिमपात ० तुपाने खाना० १०० २४० "गिरिपरे विषासमयेव नामे तत्थ वि पावा पुढवी, हिमवाए होइ वरहेमं ॥” ती०३ कल्प। हिमसीयल - हिमशीतल- पुं० । अत्यन्तशीतले, अत्यन्तशीतलवेदनोत्पादकत्वात् तथाविधे नैरयिकाणामाहारे, स्था० ४ डा० ४० व गृहतो राहोः कृष्ण
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9
पिउड्डाण हृदयोडापन १० किती ० श्रु० १४ श्र० । शून्यचित्तकारके, विषा० १ श्रु० २ श्र० । हिउप्पाडिय उत्पाटितहृदय-त्रि० कालेज्यमसि
श्री० ।
-
5
प्र० २० पाहु० सू० प्र० । हिय-हित- न० । ऐहिके आमुष्मिके व पथ्ये, उत० १ अ० । आव० | दर्श० । ज्ञा० । प्रश्न० | स्था० | दशा० भ० । पध्यान्नवत् (२० २७० ३३ ३० ति०) अपरे स्था० २ ठा० ४ ३० । सद्गतिप्रापके अनर्थनिवारके च । सूत्र० १ श्रु० १२ अ० । परिणामसुखावहत्वात् सामायिके, आम० १०. | जी० । परिणामपध्ये, कुशलानुबन्धिनि, श्रा० म०२ अ० । परमार्थतो मुक्त्यवातिस्तत्कारणं वा हितं तच सम्यग्दर्शनचारित्राख्यमवगन्तव्यमिति । सूत्र० १४० ११० । उत्त० । अशेषापायरहिते, ईप्सितस्थानप्रापके च सूत्र १ श्रु० १४ प्र० । अभिप्रेतार्थसाधनात्, ( आचा० १० ०३०) जन्मान्तरेऽपि या रा० अर्धपरि हाररूपे (स० १४६ सूत्र । ) प्राणिगणानुपतापके, दर्श० ५ त
1
अनर्थनाना० १४०) अभ्युदहियय-हृदयस्थ-वि० यनिःश्रेयसयाः, नं० । उत्त (या 'कवि' शब्द मिलत-हृदयनयनकान्त त्रि० लोकानां हृद्यनय तृतीयभागे ३८६ पृष्ठे गता । आत्यन्तिकद्र क्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवृत्ती, स० १ सम० । उपकारके, विशे
।
कागे पा०
हियकंखि - हितकाङ्क्षिन् - पुं० । हिताभिलाघिणि पो०१६ विव । हितेच्छौ, घ० ३ अधि० । हिरकर हितकरण निर्यादेती, स्वा००३ ३० हियकरी हितकरी स्त्री० [ह पर तथ्यविधायिन्याम्
"
उत्त० ३ अ० ।
दियकाम हितकाम त्रि० सुखनिबन्धनं वस्तु र दितम्
ferentसेसकामय
अपायाभावात् तत्र कामोऽस्येति हितकामः । भ० १५० । प्रति० । हिताभिलार्षिणि पो० ६ विव० ।
हियएणेसि - हितान्वेषिन् हितमन्वेषयत इत्येवंशीलो हितान्वेषी । हितगवेषके, ध० ३ अधि० ।
,
हियरथ हितार्थ पुं० [हितमनर्थप्रतिपाताचैवासिरूदेवा थेः प्रार्थ्यमानत्वात् । तिलक्षणेऽर्थे, स० १४० सूत्र । उत्त० । हियभासि - हितभाषिण- त्रि०) हितं परिसामसुन्दरं तद्भाषते इत्येवंशीलो हितभाषी । हितवक्करि व्य० १ ३० । हियमियत्र फरुसवाइ - हितमितापरुषवा (च्)दिन्-पुं०1 हितस्थाभिमतस्यापरूपस्य व पांर, 'दितमिता परूपवागिति दि वाहिले परिणामसुन्दरं मितवा तो अपरूपवाक अपरूपमनिष्ठुरम् । दश० ६ ० १ उ० । हियय-हितक-त्रि० । प्रकृत्यनुकूले, झा० १ ० १७५० । हृदय - न० । श्राशये, पाइ० ना० २७० गाथा । सम्यगभिप्राये व्य०२० | मनसि, ज्ञा० १ ० १ ० ० म० । शरीरप्रदेश, द्वा० २६ द्वा० सूत्र० । हिययउट्ठ- हृदयोत्थ - न० । हृदयमांसपिण्डे, विषा० १ ०
५ अ० ।
1
हिययंगम - हृदयंगम-पुं० किन्नरविशेषे, प्रशा० १ पद । हियवगमणिञ्ज- हृदयगमनीय- जि० अर्थप्राकारीसच्चियत्वात्सुबोधे, ॐ० २ वक्ष० । श्र० । हृदये ये गच्छन्ति कोमलत्वात्सुबोधत्वाच्च । शा० १ ० १ ० भ० । हृदयंगमे, स० ३४ सम० । हिययग्गाहि (ण) - हृदयग्राहिन्
[-त्रि० । हृदयं गृह्णाति हृदये सनितिइत्येवंशीलः हृदयवादी अन्तरभिनिविष्ट व्य० १ उ० ।
*
दियम्माहिच हृदयग्रहित्वन० श्रीमनोहरतायाम् स ३५ सम० श्री दुर्गमस्याप्यर्थस्य परन्यप्रवेशकर रा०
०१२० ।
नयोर्वज्ञभे, कल्प० १ अधि० ३ क्षण । हिययद हृदयद-पुं० ति० । वल्लभे ।
हिययदइया - हृदयदयिता स्त्री० वल्लभायाम्, प्रश्न०४ श्रा
श्र० द्वारा।
हियपन्हावणिज - हृदयप्रह्लादनीय त्रि० । हृदयगतकोपशोकादिग्रन्थिविलयनकारिणि, भ०६०३३३० । श्रौ० । जं० । हिपसूल हृदयशूल - ० ० जी० ३
प्रति०४ अधि० ।
पियानंद
हृदयानन्दजनन-म० मनःसमृद्धिकारके,
भ० ६ ० ३३ उ० ।
हियमुदस्सिकामय- हितसुखनिश्शेषकामक पुं० सुख-दुःखानुमित्यर्थः निश्शेष सर्वे काम वाञ्छति यः स तथेति । सर्वेषां सुखप्रार्थके, प्रति ।
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हियाऽकारय अभिधानराजेन्द्रः।
हिल्लिया हियाऽकारय-हिताकारक-पुं०। जनहितस्याऽकर्त्तरि, शा०१ हिरमिक-हिरमिक्क-पुं० । प्राणिनां पूज्ये श्राएडवरापस्नामके श्रु०२४०।
यक्षे, व्य०७ उ०। हियाणुप्पेहि-हितानुप्रेक्षिण-त्रि०। हितं पथ्यमनुप्रेक्षते पर्या- हिरिअ-हीक-पुं० । ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयामित् लोचयतीत्येवंशीलो हितानुप्रेक्षी । हितपर्यालोचके , उत्त० ॥८।२।१०४ ॥ इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । १३ १०॥
लजायुक्त, प्रा० । उत्त०।। हियारंभ-हितारम्भ--पुं० । पारलौकिकप्रशस्तानुष्ठानप्रवृत्ती, | हिरिंव-देशी-पल्बले, दे० ना०८ वर्ग ६६ गाथा। द्वा० २२ द्वा०।
हिरिकूड-हीकूट-पुंगाना महापद्माख्यतइदनिवासिन्हीनाहियाहार-हिताहार-पुं० । हितं द्विधा-द्रव्यतो, भाक्तश्च । मकदेवतासत्के महाहिमवतः कूटे, स्था०८ ठा०३ उ०। द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि, भावत एषणीय तदाहारयन्ति हिरिमंथा-देशी-वणके, दे० ना०८ वर्ग ७० गाथा । ये ते हिताहाराः। हितभोजिषु, पिं० ।
हिरिमाणसत्त-न्हीमनःसत्त्व-पुं०।हिया हसिष्यन्ति मामुथहिरणा-देशी-लज्जायाम् , दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा।
कुलजातं जना इति लज्जया मनस्येव न काय रोमहर्षकम्पाहिरा-हिरण्य-न० । अघटिते, (जी०३ प्रति०४ अधि० प्रा० दिभयलिङ्गोपदर्शनात् सत्वं यस्य सः हीमनःसस्वः। स्था० म०१) सुवर्णे, पञ्चा०१ विव० । उत्त० । रूप्ये, शा०१ श्रु०१ ४ ठा०३ उ० । व्हियाऽपि मनस्येव सत्वं न देहे शीतादिषु कअ०। उत्त० । नि० चू० । द्रव्यजाते, सूत्र०१ थु० ३ १०२
म्पादिविकारभावात् यस्य स -हीमनःसत्वः। तथाविधसउ० । थाव० । अघटितस्वर्णात्मके द्रव्ये, दशा०६अ।
स्वशालिनि पुरुषे, स्था० ५ ठा० ३ उ० । हिरएणगम्भ-हिरण्यगर्भ-पुं० । हिरण्यं स्वर्णमयाख्यं गर्भ हिरिली-हिरिली-स्त्री० । कन्दविशेषे, उत्त० ३५ अ०भ०। उत्पत्तिस्थानमस्य । चतुर्मुख ब्रह्मणि, हिरण्यगर्भादी- हारवात्तय-न्हाप्रत्यय-न० । न्हा-लज्जा सयमा वा प्रत्यया नामनादिविवक्षितभगयोगोऽभ्युपगम्यते । उक्तं च-"शा
निमित्तं यस्य धारणस्य तत्तथा । लज्जाथै , 'हिरिवत्तिय नमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्म
वत्थं धारेजा' स्था०३ठा०३ उ०। श्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥" प्रा० म० १०॥ हिरिवेर-हीवेर-पुं० । न० । बालके, गन्धद्रव्यविशेषे च ।
क्षा०१ श्रु०१७ अ० । उत्त । पाइ० ना० २१५ गाथा । हिरएण जुत्त--हिरण्ययुक्ति--स्त्री० । रूप्यस्य यथोचितस्थाने योजने, ज्ञा० १७०१ अ० ज०।
हिरिसत्त-हीसच्च-पुं० । हिया-लज्जया सत्त्वं परीषहेषु सा.
धोः संग्रामादावितरस्य वाऽवष्टम्भोऽविचलनं यस्य स -ही- . हिरएणपाग-हिरण्यपाक-पुं० । रजतसिद्धौ , शा०१ श्रु०१
सत्त्वः । स्था० ५ ठा०३ उ० । न्हिया-लज्जया सस्वं परीषअ० ज० । स०। प्राचा।
हादिसहने रणाङ्गयो वाऽवष्टम्भो यस्य सहीसत्त्वः। तथाहिरएणपेडा-हिरण्यपेटा-स्त्रीज हिरण्यमञ्जूषायाम् , भ०१३ विधसत्वे पुरुषजाते, स्था० ४ ठा० ३ उ० । श०६ उ०।
हिरी-ही-स्त्री०। “ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयामित्" हिरएणवास-हिरण्यवर्ष-पुं० । रूप्यस्य अघटितसुवर्णस्य था।
॥८।२।१०४॥ इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । वर्षण, कल्प० २ अधि०८ क्षण । जी० भ०।
ही। हिरी । प्रा० । लज्जायाम् , अाचा०१ भु०८ भ०७ हिरमसुवरणपमाणाइकम-हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम-पुं०। उ०। स्था० । सूत्र०। द्वा० । ध० । विश०। सूत्र०। रा०पदेहिरण्यसुवर्णयोः प्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणोलचन, उपा०।
वताविशेषे, अनु । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे महापन'हिररागसुवरणपमाणाइकमे' त्ति प्रावत् । अथवा-रा
हदवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां देव्याम् , स्था०३ ठा०४ जादः सकाशालब्धं हिरण्याद्यभिग्रहोऽधधि यावदन्यस्मै प्र
उ०। उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहतरिकायाम् ,
श्रा०म०१०। जं०। श्रा० का द्वी०प्रा०चू०।सुपुयच्छतः पुनरवधेः पूतौ ग्रहीष्यामीत्यध्यवसायवतोऽयमति
रुषस्य किंपुरुषेन्द्रस्याप्रमहिष्याम् , स्था० ४ ठा० १ उ० । चारः। उपा०१०।
भ०। शक्रादिलोकसोममहाराजस्याग्रमहिष्याम्, शा० २ हिरणसुवपविहि-हिरण्यसुवर्णविधि-०। रजतस्य सुवर्ण- |
श्रु०४ वर्ग १ ०। स्य च प्रकार, उपा० । हिरण्यं-रजतं सुवर्ण प्रतीतम् हिरिवंग-देशी । लगडे, दे० ना०८वर्ग ६३ गाथा। विधिः-प्रकारः । उपा० १ अ०।
हिरीमण--हीमनस्-पुं० । हार्लजा संयमो मूलोत्तस्गुणभेदहिरस्माऽऽगर--हिरण्याऽऽकर-पुं०ाहिरण्योत्पत्तिभूमी, शा०१ |
| भिन्नस्तत्र मनो यस्यासौ हीमनाः, यदि वा-अनाचार श्रु०१६ श्र० । जी।
कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लजते स एवमुच्यते । पापभीस्तया लहिरएणुक्कडी-हिरण्योत्कटी-स्त्री०। सुगृहीतनामधेयायाःया। जालौ, सूत्र० १ श्रु०१३ १०॥ ायाः पूर्वभवजीवस्य धर्माचार्योपलब्धिस्थानभूतायां राजा |
हिल्ला-देशी-वालुकायाम् , दे० ना०८ वर्ग ६६ गाथा । धान्याम् , महा०२ चू०।
हिल्लिया-हिल्लिका-स्त्री० । त्रीन्द्रियजीबविशेषे, प्रशा०१ पद ।
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हिल्लूरी अभिधानराजेन्द्रः।
हीयमाणय हिल्लूरी-देशी-लहर्याम् , दे० ना०८ वर्ग ६७ गाथा । " रायगिहे सामी समोसढो, तत्थ एगो बिज्जाहरो बंदिङ हिलोडग-देशी-क्षेत्र मृगनिषेधकरवे, देना०८ वर्ग ६१ गाथा।
पडिनिउत्तो विजं आवाहेइ, तस्स तीए विजाए कहचि अ
क्खराणि विस्सरियाणि सो उप्पयणं पडलं च करे । हिसीय-द्वपीक-न० । इन्द्रिये,नं० । 'हषीकं करणं स्मृत'मिति
अभो तं ददळूण तस्स सगासे गो। पुच्छह-तेण सिट्टे वचनात् । प्रा०म० १ ०। द्वा० ।
अभएण जर ममं पि देसि तो बायारेमि इयरेण पडियनं । हिमोहिसा-देशी-स्पर्धने, दे० ना०८ वर्ग ६६ गाथा । तो अभो भणइ-तो खायं भण एग पयं, तेण भणिय
ताहे अभएण पयाणुसारिणा तिरिण अक्खराणि सही-हि-श्रव्य । कन्दतिशयद्योतने, सूत्र० १ श्रु० २०२
मरियाणि, विज्जाहरो उप्पइत्ता गो । अभयस्स विजं उ० । अनु० । निश्चये, अष्ट० १५ अष्टः ।
दाउं।" अक्षरगमनिका-राजगृहे विद्याधरः, कतिपयविन्ही-स्त्री० लज्जायाम् , सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०।
धाक्षरगलनात् हीनदोषेण उत्पतनं पतनं च करोति, त
तो विद्यापदानामभयस्य श्रवणात् तत्प्रवणतो अभयस्य पहीण-हीन--त्रि० । असमग्ने , शा० १ श्रु० ८० । असंपूर्ण,
दानुसारिप्रशाया विस्मृतपदानां स्मारणात्तदनन्तरं पदानुउपा०२ भ० । न्यूने, शा०१ ध्रु०१०।
सारिणोऽभयस्य विद्यादानं कृत्वा विद्याधरस्य स्वस्थाने हीणक्खर-हीनाक्षर-म० । अक्षरन्यूने, ध० ३ अधि० । प्रा- गमनम् । वृ०१ उ०१ प्रक०। (तादृशं विद्याधरं दृष्ट्रा श्रेणिको व० । । तत्र हीनं द्विधा-द्रव्यहीन, भावहीनं च।
भगवन्तमप्राक्षीत् कथमयमुत्पातनिपातं करोति ? भगवतो
नम्-अस्यैकं विद्याक्षरं विस्मृतमिति अनुयोगद्वारघूर्याद्रव्यहीने उदाहरणमाह
श्रयेण संघाचारेऽधिकम् ।) तित्त कडु भेसयाई, माणं पीलेजऊण ते देइ।।
हीणणाय-हीनज्ञात-न० । तुच्छोदाहरणे, पं.ब.२ द्वार। पउणइ ण तेहि अहिते-हि मरइ बालो तहाहारो॥२६१॥
पश्चा०। "एगाए अविरइयाए पुत्तो गिलाणा, तीए विजो पुच्छि
हीणणेत्त-हीननेत्र-पुं। अपगतचक्षुषि,सूत्र० १ श्रु०१२ अ०। ओ,तेण पोसहाणि दिनाणि । सा चिंतेह-इमाणि कडुय त्ति ताणिमाणि पीडिजत ऊगाइ एअाणि प्रवणीयानि सो हीणपुणचाउद्दस-हीनपुण्यचातुर्दश-पुं० । हीना-असम्पूतेहिं न पगुणीको मओ। तो एगा उण अहिगं देह चतुर्दशी तिथिर्जन्मकाले यस्य स हीनपुण्यचतुर्दशकः । तीसे वि मो"| अक्षरगमनिका-तत्र कटु कौषधानि मा अमुं उपा०२०। हीनायां चतुर्दश्यां जाते, भ०। बाल पीडयेयुरिति न तानि परिपूर्णानि ददाति किंवर्द्धानि । हीणपुस्मचाउद्दसे ज णं। (सू०१४४४) मच तैरोलः प्रगुणति, किन्तु म्रियते स तथा आहारे ऊने मियते,एष दृष्टान्तः।अयमर्थोपनयः-यथा तौ बालायेकभविक
'हीणपुराणचाउद्दसे' त्ति हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीदुःखं प्राप्तावेवं या भावहीनस्सूत्रमुच्चरति पठति वा; श्र
नपुण्यचातुर्दशः । किल चतुर्दशी तिथिः पुण्या जन्माश्रित्य
भवति, सा च पूर्णाऽत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति अत तरहीनमित्यर्थः, तस्य प्रायश्चित्तं मासलघु. पाशां तीर्थकराणामतिचरतश्चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्गुरु, मिथ्यात्वे
आक्रोशतोक्नं 'हीणपुराणचाउद्दसे' त्ति । भ० ३ श०२ उ०। चतुर्लघु । विराधना द्विविधा-आत्मविराधना, संयमवि-हीणमत्तया-हीनसवता-स्त्री० । सवाभाव, स्था० ४ ठा० राधना च । तत्रात्मविराधना-प्रसज्य देवता छलयेत् अन्यो
४ उ०। वा साधुर्च्यात् किंचिद्रयसि सूत्रं कलहप्रसङ्गे अस्थिभङ्गमरणादिदोषप्रसङ्गः श्रुतं हीनं कुर्वता संयमो विराधि
हीणस्सर-हीनस्वर-त्रि० । लघुध्वनी, तं० । अल्पस्वरे, भक त एव।
१ श०७ उ० । स्था। कथमित्याह
हीनायार-हीनाचार-पुं० । पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्काअक्खरपयाइपहि, हीणइरेगं च तेसु यं चेव ।
हाच्छन्दनित्यवासिषु , दर्श०४ तत्व । दोस वि अत्थविवत्ती,चरणे अत्थे य न य मुक्खो।।२१२॥
हीमंत-ड्रीमत-त्रि.। हीरसंयम प्रति लज्जा तवान् । असं
यमजुगुप्सावति, सूत्र०१ श्रु०२ १०२ उ०। हीनमक्षपदादिभिरून नैरवाक्षरपदादिभिरतिरकं साधिक
हीमाणहे-अव्य० । विस्मयनिर्वेदयोः, "हीमाणहे-विस्मयद्वयारोप होनाक्षर अधिकाक्षर चत्यर्थः । अर्थस्यापत्तिः श्रथस्य विसंवादः अनश्वार्थस्य विसंवाद चरणस्य विसंबा,
निर्वेदे " २८२॥ शौरसेन्यां हीमाणहे इत्ययं निपातो दः, चरणविसंवादान्न मोक्षः-मोक्षाभावः मोक्षाभावे सर्वा
विस्मये निवेद च प्रयोक्तव्यः । प्रा० । विस्मये-यथा उदादीक्षा निगर्थिका, एप भावहीने दोपः ।
त्तराघव राक्षस:-"हीमाण हे जीवन्त-वश्चा मे जगाणी।" नि
वेद यथा विक्रान्तभीम राक्षस:-"हीमाणहे पलिस्संता हगे तस्मिन्नव भावहीन दृष्टान्तमाह
एदण नियविधिणा दुश्ववशिदेण।" प्रा०४ पाद । विजाहग रायगिह, उपयपडणं च हीणदासणं । हीयमाणय-हीयमानक-न० । हीयते तथाविधसामध्यभावसुगणणा मुरणागमणं,दगाणुमारिस्य दाणं च ॥२६३॥ तो हानिमुपगच्छति हीयमानम् , कर्मकर्तृविवक्षायामानश्
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(१२३६) हीयमाणय अभिधानराजेन्द्रः।
हीसमण प्रत्ययः । हीयमानमेव हीयमानकम 'कुत्सिताल्पाशाते' श्रीमहावीरशिष्यधीसुधर्मस्वामिनः श्रारभ्य परम्परया क॥७।३।३३॥ (सिद्धहै।) इति कः प्रत्ययः । पूर्वावस्थातो:- लिकालयुगप्रधानसमानश्रीहरिविजयसूरयः त्रिषष्टितमण्टे धोऽधो हासमुपगच्छत्यवधिशाने, 'हीयमाणं पुवावस्थामो | केचन वदन्ति एकषष्टितमपट्टे उपाध्यायधीधसागरगणि'अहोहो हस्समाणं' इति । नं०।।
कृतपट्टावल्यां त्वष्टपञ्चाशसमपट्ट सन्तीति त्रयाणां मध्ये किं से किं तं हीयमाणयं ओहिनाणं, हीयमाणयं श्रो
प्रमाणमिति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-श्रीमहावीरशिध्यसुधर्मस्वा
मिन श्रारभ्य परम्परया श्रीहीरविजयसूरयोऽष्टपश्चाशत्तमहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसायट्ठाणेहिं वट्टमाणस्स
पट्टे सन्तीति झेयम् ॥ ७६२ ॥ सन०४ उल्ला० । वट्टमाणचरिसस्स-संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाण
हीलण-हीलन-न० । जात्याधुघट्टनतोऽवमाने, स्था० ३ ठा० चरित्तस्स सव्वश्रो समंता ओही परिहायइ । से तं हीयमा
१ उ० । सूत्र । गुरुकुलाद्युद्धाटनतः (शा०१ श्रु०३१०।) जाणयं भोहिनाणं । (सू०१३)
त्याधुद्घाटनतो वा मा०१०८ १०) अनभ्युत्थानादिके, 'से किंत' मित्यादि, अथ किं तद्धीयमानकमवधिज्ञानम् ?, अम्त।) असूयया दुष्टाभिधाने, दश०६०३ उ०। सूरिराह-हीयमानकमवधिज्ञानं कथंचिदवाप्तं सत् अप्र- हीलणा-हीलना-स्त्री० । जन्मकर्ममर्मोद्धाटने, औला श्राव। शस्तबध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्याविरतसम्यगाऐव
हीलणिज-हीलनीय-त्रि०। अवसातमुचिते, उत्त०१२ अ०। र्तमानचारित्रस्य-देशविरतादेः संक्लिश्यमानस्य उत्तरोतरं संक्लेशमासादयतः, इदं च विशेषणमविरतसम्यगदृष्टेर-हीला-हीला-स्त्री० । निन्दायाम् , सूत्र०१श्रु०२१०२ उ०॥ वसेयं तथा संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादेः सर्वतः- अवमाने, उत्त०१२ अ०। समन्तादवधिः परिहीयते पूर्वावस्थातो हानिमुपगच्छति | हीलिजमाण-हील्यमान--त्रि० । निन्द्यमाने, प्रा०म०१०। तदेतत् हीयमानकमयधिज्ञानम् । नं० । कर्म० । स्था० ।
हीलिय-हीलित--न० । कदर्थिते, प्राचा०२ श्रु०४ चू० । नि. हीर-हीर-न० । लघुकुत्सिते तृणे, जी०३ प्रति०४ अधि०।
न्दिते, वन्दनदोष, न० । वृ० । वृक्षमध्यसारे, नि० चू० १५ उ० । बज्रमणी , प्रज्ञा०१ पद ।
एकविंशतितमं दोषमाहसूचीमुखाभे दा,दिवस्तुनि, भस्मनि च। दे० ना० ८ वर्ग
गणि वायग जिट्टजति, हीलिय किन्तु मे घढम्मि । ७० गाथा। हीरग-हीरक-पुं० । सकोसकर्करिकाविशेषे, दशा०७०।
गणिन् ! वाचक! ज्येष्ठार्य ! किन्तु यो वन्दत तत्पादौ सो
प्रासं हीलयित्वा यत्र वन्दत तद् हीलितं वन्दनकम् । वृ० ३ • वज्र , मणिविशेषे, अनु० ।
उ० । आव० । श्रा० चू। ध० । हीरपसिण-हीरप्रश्न-पुं० । विमलगणिप्रभृतिकृतप्रश्नोत्तर
हीलियवयण-हीलितवचन-न। सासूयमवगणयता वाचकग्रन्थे, ही। "स्वस्ति श्रियो निदानं , जन्तूनां धर्मकारिणां ज्यष्टायेंत्यादिजल्पन, प्रव० २२५ द्वार । स्था० । सम्यक श्रीवर्धमानतीर्था-धिराजमभिमम्य सद्भक्तया ॥१॥ गीतार्थसार्थनिर्मित-पृच्छानामुत्तरासि लिख्यन्ते । श्रीहीर
अथ हीलितवचनं व्याख्यातिविजयसूरि-प्रसादितानि प्रबोधाय ॥२॥" ही०१ प्रका०।। गणिवायए बहुस्सुय, मेहावीयरियधम्मकहिवादी। हीरमाण-हियमाण-त्रि० । नीयमाने, प्राचा० २ श्रु. १ अप्पकसाए धूले, तणुए दीहे य मडहे य ॥ ३१ ॥ चू०४ अ०४ उ०।
इह गणिवाचकादिपदैः सूचया असूचया वा पर हीलयति , हीरविजय-हीरविजय-पुं०। अकबरशाहप्रतिबोधके तपाग- सूच या यथा वयं नगरवृषभाः अतः को नाम गणिवृषभैः सकछीयसूरी, द्वा०।" प्रतापार्के येषां स्फुरति विहिता:
हास्माकं विरोधः, सूचया यथा कस्वं गणी नामासि किं
या त्वया गणिना निष्पद्यत । यद्वा-गणी भवन्नपि त्वं न किंचिकब्बरमनः, सरोजप्रोल्लासे भवति कुमतध्यान्तविलयः । वि
त् जानासि केन वा त्वं गणी कृत इति , एवं वाचकारेजुः सूरीन्द्रास्त इह जयिनो हीरविजया, दयावल्लीवृद्धी ज
दिष्वपि पदेषु भावनीयम् । नवरं वाचकः पूर्वगतश्रुतधारी बलवजलधारायितगिरः ॥१॥" द्वा०३२ द्वा०। प्रति०।"येनाऽकम्बरभूधरेऽपि हि दयावलिः समारोपिता, विश्वव्याप्तिम.
हुश्रुतः-अधीतविचित्रश्रुतः, मेधावी-ग्रहणधारणामर्यादा तीवभूरि फलिता धर्मोर्जितैः कर्मभिः। हीरः क्षीरसमुद्रसा
भेदात् त्रिधा । आचार्यों गच्छाधिपतिः धर्मकथावादी च न्द्रलहरीप्रस्पर्धिकीर्तिवजः, स श्रीमान् जिनशासनोन्नति
प्रतीतः।'अप्पकसाए'त्ति बहुकषायाः वयं को नामाल्पकषायैः करस्तत्पनेताऽजनि ॥२२॥ "प्रतिकाद्वा०।"प्रख्यावान
सह विरोधः 'थूले तणुए' ति स्थूलशरीरा वयं कस्तनदेहः
सह विरोधः 'दीहे मह य'ति दीघदेहा वयं सदैवोपरि अनिष्ट हीरविजयः सूरिः सतामग्रणीः"। ध०३ अधिक। "श्रासंस्तदीयपट्टे, प्रभवश्रीविजयदानसूरीन्द्राः । सर्वत्र विजय
शिरोघट्टनं प्राप्नुमः, को मडहदेहैः सम विरोधः, एषा सचा
असूचायां तु बहुकवायत्वं स्थूलशरीरस्वमित्यादिकं परिचन्तो, नयवन्तः समयवन्तश्च ॥१॥ तेषां पट्टे सम्प्रति, विज
स्फुटमेव जलपति । एवं सूचया वा यत्परं हील यति तदेतत् यन्ते सर्वरिपारीन्द्राः । सुविहितसाधुप्रभवः,श्रीमन्तो हीरविजयाहाः शा" ग०३ अधि०। (श्रवत्यविस्तार: 'कप्पसु-|
हीलितवचनम् । बृ० ६ उ० । बोहिया' शब्दे तृतीयभागे २३८ पृष्ठे गतः।) केचन वदन्ति हीसमण-हेषित--न० । 'नाप्फुगणादयः॥८।४।२५८॥ इति
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(१२४०) हीसमण अभिधानराजेन्द्रः।
हुरत्था हेषितस्थाने हीसमणेति निपात्यते । हासमणं । अश्वशब्दे,
इनपात्यत । हासमण । अश्वशब्द, हुंतए-भवितुम-अव्य० । सत्तां लब्धुमित्यर्थे, वृ०६ उ० । प्रा० । दे० ना।
हुंतावायपगासण-भाव्यपायप्रकासन-न० । अशुद्धव्यवहारहाही-देशी-अव्या हर्षे,प्रा०"हीही विदूषकस्य" ॥८४२८५॥
कृतां भाविनोऽपायस्य प्रकटने, ' मा कृथाः पापानि चौर्याशौरसेन्या हीही इति निपातो विदुषकस्य हर्षद्योत्ये प्रयोक्त
दीनि, इह परन्त्र चानर्थकराणी' त्याश्रितं शिक्षयति, ध० २ व्यः "हीही भी सम्पन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स, " प्रा०।
अधि० । ध००। हु-हु-अव्य० । निश्चये, उत्त०१० । व्य० । प्रा० म०।
हुंबउटु-हुम्बतुष्ट-पुं० । कुण्डिकाश्रमणे, भ० ११ श० ६ उ०। यस्मादर्थे , श्राचा० १ श्रु. ६०१ उ०। सूत्र० । निक
| नि०। औ०। चू० । शब्दार्थ, विशेषणे च । सूत्र०१ श्रु० १२ अ० । श्राचा० । श्रा० म० । हेतौ, अवधारणे च । श्राचा०
हुड-देशी-मषे, दे० ना०८ वर्ग ७० गाथा । १ ध्रु०६ अ० १ उ० । सूत्र० । नि० चू० । श्रा० । सम्म० । हुडुअ-देशी-प्रवाहे, दे० ना०८ वर्ग ७० गाथा । पञ्चा० । वाक्यालङ्कारे, प्रा० म०१ अ०। सूत्र० । नं०। प्रश्न । पञ्चा०। प्राकट्य, प्रव०१द्वार । स्फुटा), पातु।
हुडुका-हुडुक्का-स्त्री० । काहलानामके तूर्यविशषे, जी. ३ पादपूरणार्थे , जीवा० २८ अधि०। पं० चू०। पयका
प्रति० ४ अधि० । प्रा० म० । औ० । रा०। रार्थ, उत्त० १० । दर्श० । श्रा० म० । पं० सं० ।
हम-देशी-पताकायाम् , दे० ना० ८ वर्ग ७० गाथा । तर्कितार्थसमर्थने, आव० २ अ० ।-"हु खु निश्चयवितर्क-संभावन-विस्मये " || ८।२।१६८॥ हु खु
पाइ० ना०। इत्येतो निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यो । निश्चये-तं पि हुअच्छिन्न । हुड्डा-हडा-स्त्री०। हुड़ा पागपतनालिकेरादिसम्बन्धिनी घिसिरी परहस्सं । वितर्क ऊहः संशयो वा । ऊहे-'न हुणवरं धत्त । द्वापष्टितमे श्रावकस्य अाशातनादोषे, प्रव० ३८ द्वार । संगहिया' बहुलाधिकारादनुस्वारात्परो हुन प्रयोक्तव्यः ।
हण-ह-धा। दानादानयोः, “चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पूप्रा०२ पाद।
धूगां णा हस्वश्च" ॥ | ४ । २४१।। इति अन्न कारागमः । हुअवह इतवह--पुं० । अम्नी, "धूमद्धो हुावहो" पाइ०
हुगइ । जुहोति । प्रा०। नि. च. !" न वा कर्मभाव ना०६ गाथा।
व्वः क्यस्य च लुक" ॥८।४।२४२ ॥ इति अन्ने द्विरुको हुअास- हुताश-पुं० । वह्नौ , आव०४०।
वकागगमो वा क्यस्य च लुक। हुब्बइ । हुणिज्ज । इयते ।
प्रा०४ पाद । हुआसण- हुताशन-पुं० । राजगृहे नगरे स्वनामख्याते द्राह्मणे, "नगरे पाटलीपुत्रे, श्रावकोऽभूत् हुताशनः । तद्भार्या-हुसहुत
हत्त-हत-त्रि० । 'सेवादी वा ॥८॥ ॥ इति अन्त्यज्वलनशिखा,दहनज्वलनी सती" ००४०। अग्रो. स्य द्वित्वं वा । हुनं । हुअं। अग्निक्षिप्ते घनादिके. प्रा० । पाइ० ना०६ गाथा।
स्था० । सूत्र० । अभिमुखे , द० ना० ८ वर्ग ६० गाथा । हुं-हुं-अव्य० । दानादिषु.प्रा० । “ हुं दानपृच्छानिवार" (अस्य व्याख्या कुसील ' शब्दे तृतीयभागे ६१० पृष्ठे । ॥ ८ ॥२॥ १६७ ॥ , हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते । दाने- उदग' शब्द द्वितीयभाग ७६६ पृष्ठ च द्रष्टव्या।) हुँगेराह अप्पणचिअपृच्छायां-हुँ साहुसु सम्भावं । निवा- हुन्त-भवत-त्रि० । " अविति हुः" ॥ ८।४। ६१ ॥ इति रणे-हुं निल्लज ! समोसर । प्रा०२ पाद ।
भुवो हु इत्यादेशः । विद्यमानार्थे, प्रा० ४ पाद । हंकन-देशी-अञ्जलो , दे० ना०८ वर्ग ७१ गाथा।
इयवह-हुतवह-पुं० । वैश्वानरे, जी. ३ प्रति० ४ अधि० । हुंकार-हुंकार-पुं० । वन्दन, हुंकारं दद्यात्-वन्दन कुर्यादि
प्रज्ञा । अग्नौ , ज्ञा०१ श्रु०१ श्र० । तं । औ० । श्रा० त्यर्थः । विश। श्रा०म० प्रा० ।नं।
म० । को० । साथ। हुयवहगिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्तहंकुरुव-दशी-अञ्जली; दे० ना०८ वर्ग ७१ गाथा।
सलतालुजीहा'हुतवहेन-अग्निना निर्मातं सत् यत् धौत हंड-हएड-नाअव्यवस्थिताङ्गावयवे,विपा०१०१०। शोधितमले तप्तं तपनीयं सुवर्णविशेषस्तद्वत् रक्त तले हस्तसर्वत्रासंस्थितं,यस्य हि प्रायणकोऽयवयवः शरीरलक्षणा
तले तालु ककुदं जिह्वा च-रसना येषां ते हुतवहनिर्माक्लप्रमाण न संवदति सर्वत्रासंस्थितं हुण्डमिति । स्था०
तधौततप्ततपनीयरक्कतलतालुजिह्वाः । जी० ३ प्रति०४ ६ ठा०३ उ० । प्रश्न । कर्म० । हुण्डं प्रायः सर्वावयवषु
अधि० । तंव। श्रादिलक्षणविसंवादापतमिति । भ०१४ श० ७ उ० । हुयहुयासण-हुतहुताशन-पु०। दाप्तबह्ना, सूत्ररथु०२ श्र तं०। अनुका प्रज्ञा० जी०। विश० । सर्यावयवप्रमाणविकल हयासण-हताशन-पुं०। वैश्वानरे, शा०१ श्रृ०५ अ० । संस्थानविशेष, विपा० १ श्रु० १ अ० । कर्म ।
अग्नी, कल्प० १ अधि०६ क्षण । देवमायाकृते वह्नौ, उत्त हुंडणाम-हुण्डनामन्-न । संस्थाननामकर्मभेद , यदुदया
१६ श्र० । माहेश्वर्या नगर्या स्वनामख्याते व्यन्तरगृहे, पश्चा० जन्तुशरीरं हुग संस्थानं भवति । कर्म०१ कर्म।
६विव० । श्रा० म०। प्रा० चूछ । हंडी-हण्डी-स्त्री० । घटिकायाम् , "हुंडी घडा" पाइ० ना हरत्था-देशी-बहिर्वा निर्गत्येत्यर्थ, श्राचा०२ श्रु०१चू०१ २६५ गाथा।
अ०३ उ० उपाश्रयाद् बहिर्वतिभ्यां वगडायाम् , वृ०२ उ०।
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(१२४१) हुरुभ
अभिधानराजेन्द्रः। हुरब्भ-हरभ-पुं० । वाद्यविशेषे, उप० २ अ० । ' हुरम्भ- ___ उक्नश्च-"अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, हेतोलक्षणमीरितम् । तदप्रवुडसंठाणसंठिए' हुरब्भो वाचविशेषस्तस्य पुटं पुष्कर
सिद्धिसंदेह-विपर्यासैस्तदाभता ॥२॥" इति । प्रागुनश्च हेतु तत्संस्थानेन संस्थितः । उपा०२०।
पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रम्-अयन्तु साध्य प्रत्यम्बया
व्यतिरेकवान् तथाविधष्टान्तस्मृततद्भाव इति । स चैकलहरुडी-देशी-विपादिकायाम् , दे० ना०८ वर्ग ७१ गाथा।
क्षणोऽपि किञ्चिद्विशेषाश्चतुर्दा । तत्र ' जावए ' त्ति इल-ति-धा०। प्रेरणे, “ क्षिपेर्गलस्थाडक्ख-सोल-पेल्ल-गो- यापयति-वादिनः कालयापनां करोति , यथा काचिल-छुह-हुल-परी-घत्ताः ॥ ८।४।१४३ ॥ इति क्षिप्स्थाने दसती एकैकरूपकेण एकैकमुष्टलिण्डं दातव्यमिति दत्तहुलेत्यादेशः । हुलइ । क्षिपति । प्रा०४ पाद।
शिक्षस्य पत्युस्तहिक्रयार्थमुज्जयनीप्रेषणोपायेन बिटसेवायां मृज-धा० । शुद्धी, "मृजेरुग्घुस-नुञ्छ-पुल-पुंस-फुस
कालयापनां कृतवतीति यापकः । उक्तश्च-"उम्भामिया य
महिला , जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई॥” इति, इह वृद्धापुस-लुह-हुल-रोसाणाः" ॥८॥४।१०५ ॥ इति मृज्धातो
ख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हुँलेत्यादेशः । हुलह । मार्टि। प्रा०४ पाद ।
हेतुः कर्तव्यों यथा कालयापना भवति , ततोऽसौ नायगहुलिय-देशी-शीघ्र, प्रश्न०१ श्राश्रद्वार। प्रागौला देना।
च्छति प्रकृतमिति , स चेदृशः संभाव्यते-सचेतना थाहलुब्ध-देशी-प्रसवपरायां स्त्रियाम् ,देख्ना०८ वर्ग ७१ गाथा। यवः अपरप्रेरणे सति तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् हुव-भू-धा० । सत्तायाम् ,"भुवहाँ-हुव-हवाः"॥८॥४॥६॥
गोशरीरचदिति । अयं हि हेतुर्विशेषणबहुलतया परस्य दुरइति भूधातोर्तुवादेशः । हुबइ । भवति । प्रा०४ पाद।।
धिगमत्वात् वादिनः कालयापनां करोति, स्वरूपमस्यान
बबुद्धधमानो हि परो न झगित्येवानैकान्तिकत्वादिषणोहुय-हुहुक-नाचतुरशीतिलक्षगुणितेषु हुहुकाङ्गेषु,अनु।
द्भावनाय प्रवर्तितुं शक्नोति , अतो भवत्यस्माद् वादिनः स्था। जी । भ० । जं० । कर्म।
कालयापनेति । अथवा-योऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधहुहुयंग-हुहुकाङ्ग-न० । चतुरशीतिलक्षगुणिते अववे , स्था० कप्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झगित्येव साध्यप्रतीर्ति करो२ ठा०४ उ० । चतुरशीतिरववशतसहस्राणि एकं हुहुका
ति, अपि तु कालक्षेपणत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कालयापङ्गम् । जी० ३ प्रति०४ अधि०। भ० । कर्म० । अनु० जं०।
नाकारित्वाद् यापकः । यथा-क्षणिकं वस्विति पक्षे बौद्धस्य हहरु-हहरु-श्रव्य० । शब्दानुकरण, प्रा० । "हुहुरु घुग्घादयः
सत्वादिति हेतुः, नहि सत्वधवणादेव क्षणिकत्वं प्रत्यति पर
इत्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुशब्दचेशानुकरणयोः" ॥८।४।४२३ ॥ अपभ्रंश हुहुर्वादयः
पकमते , तथाहि-सत्त्वं नामार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा शब्दानुकरण घुग्घादयश्चेष्टानुकरपे यथासंख्य प्रयोकव्याः । "मई जाणिउँ बुड्डासु हउँ, पम्मद्रहि हुहुरु त्ति।" प्रा०४ पाद ।
बन्ध्यासुतस्यापि सत्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया तु नित्यस्यैकरू
पत्वान्न क्रमेण , नापि योगपद्यन, क्षणान्तरे अकर्तृत्वप्रसहुहुहुहुय-हुहुहुहुक-न० । अणुकरण्यचने, "अप्पेगया
झादित्यतोऽर्थक्रियालक्षण सत्त्वमक्षणिकान्निवर्तमान क्षणिक हुहुहुहुएंति" श्रा० म०१ अ०। रा०।
एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपण साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाइअ-भूत-त्रि०।"लेहः" ॥८।४।६४ ॥ भुवःक्ने प्रत्यये हः द् यापकः सत्त्वलक्षणो हेतुरिति १। स्था०४ ठा०३ उ०। श्रादेशः । हूअं । अणुहूअं । जाते , प्रा०४ पाद ।
(द्वितीयस्थापकहेतुवक्तव्याता 'थावय' शब्दे ४ भागे २४०८ हण-हण-पुं०। अनार्यक्षेत्रविशषे, तद्वासिनि जने च । त्रिका
पृष्ठे गता।) (तृतीयव्यंसकहेतुवक्तव्यता 'बंसग' शब्दे
पष्ठ भागे द्रष्टव्या।) तथा लूसए' ति लूषयति-मुष्णाति सूत्र०१ श्रु०५०१ उ०। प्रज्ञा०1
व्यसकापादितमनिष्टमिति लूपको हेतुः, स एव शाकटिका, हीन-त्रि०) "ऊहीनविहीने वा" ॥८।१।१०३॥ इति ईत
यथा-धुर्लान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ ऊत्यम् , हूणो । हीणो । त्यक्ने, रहिते , प्रा०१ पाद । धूर्तः, तर्हि देहि मे तर्पणालोडिकामिति , ततो धूर्ने नोक्ता हम-देशी-लोहकारे, दे० ना०८ वर्ग ७१ गाथा।
स्वभार्या-देह्यस्मै सङ्कनालोड्यति , ताश्च तथा कुर्वती इयच्छी-हृताक्षी-स्त्री० । कन्दविशेषे , उत्त० ३६ अ०। तभार्या गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवादीच्च धूर्तमभि-मदीहृयमाण-हृयमान-त्रि०। मयूराकग्रामवासिषु पाखण्डिगृ
येयं तर्पणमिति सक्रूनालोइयतीति तर्पणालोडिकति भव
तैव दत्तत्वादिति । स चायं यदि जीवघटयोरस्तित्ववृत्या हिषु , पञ्चा०७ विव। हे-हे-अव्य-सम्बोधने, पाहाने, असूयादौ च । प्रा०।
एकत्वं सम्भावयसि तदा सर्वभावानामेकत्वं स्यात् , स
चैवष्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात् न चैवमिति, इहास्तित्ववृत्तरहाल-देशी-सर्पशिरःसंशेन हस्तेन निषेधे , दे० ना०
विशेषादित्ययं लूपको जीवघटयारेकत्वापादनलक्षणस्याभा. ८वर्ग २७२ गाथा।
यापत्तिलक्षणस्य वाऽनिएस्य परापादितस्यानेन लूषितत्वाहेउ-हेत-पुं० । हिनोति गमयति शेयमिति हेतुः। अन्यथा:
दिति ४ा स्था०४ ठा०३ उ० । अन्वयव्यतिरेकलक्षणे, (अनु। नुपपत्तिलक्षणे , स्था।
सूत्र । श्रा० म०। व्य०) साध्यार्थगमके युक्रिविशषे,विश० । - हेऊ चउबिहे पएणते, तं जहा-जावत १. थावते २, हेऊ अणुगमवइरे-गलक्खणो सज्झवत्थुपज्जाओ। वंसते ., लूमते ४ ।
आहरणं दिटुंतो, कारण मुवपत्तिमेत्ते तु ॥१०७७॥
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(१२४२)
अभिधानराजेन्द्रः। एवं पयाणनिवहो, हेऊदाहरणकारणत्थाणं । | वैकाऽस्तु । नानौपाधिकसम्बन्ध सति किंचिदवशिष्यते य अहवा पयनिवहो चिय, कारणमाहरणहेऊणं ॥१०७८।। दपोहाय शेषलक्षणप्रणयनमसूर्ण स्यात् , पक्षधर्मस्वाभावे यत्र साधनं तत्र साध्यं भवत्येवत्येवलक्षणः साध्यस्य रसवतीधूमोऽपि पर्वते सप्तापिं गमयत् , इत्यभिदधासाधनेन सहान्वयोऽनुगमः, साध्याभावे साधनाभावरूपों नो बौद्धो न बुद्धिमान् , यतः पक्षधर्मत्वभावेऽपि किं नैव्यतिरेकः अनुगमश्च व्यतिरकश्च तो लक्षणं-स्वरूपं यस्य स पतत्र तं गमयेत् ? ननु कौतुकमेतत्कथं हि नाम पक्षधर्मएवंभूतो हेतुः, यथा अनित्यत्वादिविशिष्ट शब्दादौ साध्ये कृ- तोपगमे रसवतीधर्मः सन् धूमो महीध्रकन्दराधिकरण तकवादिः,कथंभूतोऽयम् ?,इत्याह-साध्यस्य नित्यत्वादिवि. धनंजय शापयत्विति चेत् एवं तर्हि जलचन्द्रोऽपि नभश्चन्द्र शिष्टस्य शब्दादिवस्तुनः पर्यायः, अन्यस्य वैयधिकरण्या- मा जिज्ञपत् ,जलचन्द्रस्य जलधर्मत्वात् । श्रथ जलनभश्वदिदोषदुष्टत्वेन साध्यसाधकत्यायोगादिति । विशे। न्द्रान्तरालयतिनस्तावनो देशस्यैकस्य धर्मित्वेन जलचन्द्रहेतुस्वरूपं निरूपयन्ति
स्य तद्धर्मत्यनिश्चयात् कुतो न तत् सापकत्वमिति चेत् एवं निश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः॥११॥ तर्हि रसवतीपर्वतान्तगलवर्तिवसुंधगप्रदेशस्य धर्मकअन्यथा साध्यं विना ऽनुपपनिरव न मनागप्युपपनिः, प्र- त्यमस्तु , तथा च महानसधूमस्यापि पर्वतधर्मतानियन्नानन्तरीयकत्वे साध्य विपक्षकदेशवृत्तनित्यत्वस्यापि रणयात् जलचन्द्रवत् कथं न तत्र तगमकत्वं स्यात् ? । गक्षगमकत्वापत्तेः । ततो निश्चिता निर्णीताऽन्यथानुपपत्तिरेवैका धर्मता खलूभयत्रापि निमित्तं, ततो यथाऽसौ स्वसमीपदेशे लक्षणं यस्य स तादृशो हे तुईयः, अन्यथाऽनुपपत्तिश्चात्र हे- धूमस्य धूमध्वजं गमयतोऽम्लानतनुरास्ते तथा व्यवहितुप्रक्रमात्साध्यधर्मेणैव सार्द्ध ग्राह्या । तेन तदिरार्थान्यथा- तदेशेऽपि पर्वतादौ तदवस्थैव, अन्यथा जलचन्द्रे ऽपि नायौ नुपपनैः-प्रत्यक्षादिज्ञान तिव्याप्तिः ।
स्याद्देशव्यवधानात् । अथ नेयमेवात्र गमकत्वाचं किंतु काएनव्यवच्छेचं दर्शयन्ति
यकारणभावोऽपि । कार्य च किमपि कीदृशं, तदिह पीटन तु त्रिलक्षणकादिः ॥ १२॥
जन्मा स्वसमीपप्रदेशमेव धूमकार्यमर्जयितुमधीशानः, नश्रीणि-पक्षधर्मत्व-सपक्षसत्त्व-विपक्षसत्वानि लक्षणा
भश्चन्द्रस्तु व्यवहितदेशमपीति न महानसधूमो महीधरनि यस्यासौ गतसम्मतस्य हेतोः, श्रादिशब्दाद्योगसं
कन्दराकोणचारिमाशुशुक्षणिं गमयतीति चेत् ,नम्वेवं धूमस्तगीतपञ्चलक्षणकहैत्ववरोधः । तेनायाधितविषयत्वा
देशेनैव पावकेनान्यथानुपपन्नः , नीरचन्द्रमाः, पुनरतद्दशेसत्प्रतिपक्षत्वयोरपि तल्लक्षणत्वकथनात् , तथा हि-वह्निम- नापि नभश्चन्द्रेण, इत्यन्यथानुपपत्तिनिर्णयमात्रमद्भाबादेव वे साध्ये धूमवत्त्वं पक्षस्य पर्वतस्य धर्मः, न शब्दे चाक्षुष- साध्यसिद्धेः संभवारिक नाम जलाकाशमृगाङ्कमरा हुलान्तस्ववदतद्धर्मः स पक्षे पाकस्थाने सन् , न तु प्राभाकरेण श
रालादेर्धर्मित्यकल्पनाकदर्थनमात्रनिमित्तेन पक्षधर्मतावग्दनित्यत्वे साध्ये श्रावणत्यवत्ततो व्यावृत्तं विपक्षे पयस्वति
णनेन, योगस्याप्येवमेव च पक्षधर्मत्वानुफ्योगो दर्शनीयः । प्रदेशे सन्न तु तत्रैव साध्ये प्रमेयत्ववत् तत्र वर्तमानम् अ- सपक्षसत्वमप्यनौपयिकं सत्त्वादेरगमकत्वापत्तेः । यस्तु पबाधितविषयं, प्रत्यक्षागमाभ्यामाध्यमानसाध्यत्वात् , नतु क्षाद्वहि कृत्य किमपि कुटादिकं दृष्टान्तयति तस्यापूर्वः पाअनुष्णस्तेजोऽवयवी द्रव्यत्वाजलवाहिण सुरा गेया द्रव- रिडत्यप्रकारः, कुटस्यापि पटादिवद्विवादास्पदत्वेन पक्षात्वात् तद्वदेवेतिवत् ताभ्यां बाधितविषयम् । असत्प्रतिपक्ष, द्वहिष्कारणानुपपत्तेः । तथा च कथमयं निदर्शनत योपदसाध्यविपरीतार्थीपस्थापकानुमानरहितं न पुनर्नित्यः शब्दो- येत, प्रमाणान्तरात्तत्रैव क्षणिकत्वं प्राक् प्रसाध्य निदर्शनऽनित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुमानसमन्वितम् , अनित्यः, शब्दो तयोपादानमिति चेत्?, ननु तत्रापि कः सपक्षीकरिष्यते यदि नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुमानमिव सत्प्रतिपक्षमिति लक्षण- क्षणिकत्वप्रसाधनपूर्व पदार्थान्तरमेव तदा दुर्वारममवस्थात्रयपञ्चकसद्भावात् गमकम् । तत एतादृक्षलक्षणलक्षितमेवा- कदर्थनम् ,अन्यथा तु न स पक्षः कश्चित् ,यत एव च प्रमाणात् खूण लिङ्गम् , इति सौगतयोगयोरभिप्रायःनि चायं निरपायः।
क्षणिकत्वनिष्टङ्कनं कुटे प्रकट्यते, तत एव पटादिपदार्थाएतदुपपादयन्ति
न्तरेष्वपि प्रकट्यतां किमपरप्रमाणोपन्यासालीकप्रागल्भीतस्य हेत्वाभासस्यापि संभवात् ॥ १३ ॥
प्रकाशनेन , यस्तु साध्यधर्मवान्स सपक्ष इति सपक्ष लक्षअनेनातिव्याप्तिप्रागुक्ललक्षणस्याचख्युः-स श्यामस्तत्पुत्र- यित्वा पक्षमेव सपक्षमाचक्षीत, साध्यधर्मवत्तया हि सपत्यात् , प्रेक्ष्यमाणेतरतत्पुत्रवदित्यत्र समग्रतल्लक्षणवीक्ष- क्षत्वं साध्यन्नेष्टतया तु पक्षत्वं, न च विरोधः , वास्तणऽपि हेतुत्याभावात् । अत्र विपक्षेऽसत्वं निश्चितं नास्ति न व्यस्य सपक्षत्वस्येच्छाव्यवस्थितेन पक्षवेन निराकत्तमहि श्यामवासत्त्वे तत्पुत्रत्वेनावश्यं निवर्तनीयमित्यत्र प्र- शक्यत्वादिति। स महात्मा निश्चितं निर्विरणः सरवादेः क्षणिमाणमस्तीति सौगतः । स एवं निश्चितान्यथानुपपत्तिमेव- कत्वाचनुमाने सपक्षसत्वावसायवेलायामेव साध्यधर्मस्याशब्दान्तरोपदेशेन शठः शरणीकरोतीति सैव भगवती लक्ष- वोधेनानुमानानर्थक्यात् , पक्षो हि साध्यधर्मवत्तया मणत्वेनास्तु, यौगस्तु गर्जति-अनौपाधिकः संवन्धी व्या- पक्षधेनिश्चिक्य, हेतोश्च तत्र सत्त्वं तदा किं नाम पश्चाद्धतिः । नचायं तत्पुत्रत्वेऽस्ति , शाकाद्याहारपरिणामा- तुना साधनीयम् ? । किं चैवमनेन पक्ष लक्षयता" साध्यधुपाधिनिबन्धनत्वात् । साधनाव्यापकः साध्येन समव्याप्ति- धर्मसामान्येन समानोऽर्थः सपक्ष" इति दिग्नागस्य, कः किलोपाधिराश्रयते, तथा चात्र शाकाद्याहारपरिणाम "अनुमेये ऽथ ततुल्ये , सद्भावो नास्तिताऽसति" इति । इत्युपाधिसद्भावान तत्पुत्र विपक्षासस्वसंभव इति । धर्मकीर्तेश्च यचो निश्चितं वञ्चितमेव स्यात् , योगश्च केवसोऽपि न निश्रिताऽन्यथानुपपत्तरतिरिक्रमुक्तवानिति से- लाम्बयव्यतिरेकमनुमानमनुमन्यमानः कथं पश्चलक्षण
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अभिधानराजेन्द्रः। तां लिङ्गस्य संवाहयेत् ?, इति निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैकं दानी संवेदनात् । तृतीये तूभाभ्याम । नहि श्रूयमाणादन्येषां लिङ्गलक्षणमक्षणम् । तत्त्वमेतदेव, प्रपश्चः पुनरयमिति चेत् , 1 देशकालस्वभावव्यवहितध्वनीनां ग्राहक किश्चित् तदानीतहि सौगतेनाबाधितविषयन्वमसत्प्रतिपक्षयम् शातत्वं च: प्रमाणे प्रवर्तत इति विकल्पादेव तेषां सिद्धिः । ननु योगेन च ज्ञातत्वं लक्षणमाख्यानीयम् । अथ विपक्षानिश्चि- नास्ति विकल्पसिद्धो धर्मी , तन्मात्रेण सिद्धेः कस्यातव्यावृत्तिमात्रेणाबाधितविषयत्वम सन्प्रतिपक्षत्वं च, ज्ञा- प्यसंभवात् । अन्यथाऽहंप्रथमिकया प्रमाणपर्येषणप्रयासः पकहेत्वधिकारात्शातत्वं च लब्धमेवेति चेत् , तर्हि गमकहे- परीक्षकाणामकक्षीकरणीय एव भवेत् , प्रमाणमूलवायां पुस्वधिकारादशेषमपि लब्धमेवेति किं शेषेणापि प्रपञ्चेनेति ।। नरेतस्य प्रमाणसिद्धप्रकारेणैव गतार्थत्वादिति । सोऽयं साध्यविज्ञानमित्युक्तमिति साध्यमभिदधति
स्वयं विकल्पसिद्ध धर्मिणमाचक्षाणः परोक्नं प्रत्याचक्षाणअप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम् ।। १४ ।। श्च नियतमुत्स्वप्नायते । 'यदि हि विकल्पसिद्धो धर्मी नाअप्रतीतम्-अनिश्चितम् , अनिराकृतम्-प्रत्यक्षाद्यबाधि- स्त्येव, ‘तदा नास्ति विकल्पसिद्धो धर्मी, तन्मात्रेण सिद्धेः तम् , अभीप्सितम्-साध्यत्वेनेष्टम् ।
कस्याप्यसंभवात् ' इत्यत्र कथं तमेयायोचथाः । अप्रतीतत्वं समर्थयन्ते
परोपगमादयमस्त्येवेति चेत् । “ यदि परोपगमः प्रशङ्कितविपरीतानध्यवसितवस्तूनां साध्यताप्रतिपयर्थम
मितिस्तदा, कथमयं प्रतिषेधविधिर्मवेत् । अथ तथा
न तदापि वतोच्यता, कथम प्रतिषेधविधिर्भवेत् " ॥ १॥ प्रतीतवचनम् ।। १५ ।।
तस्मात् प्रमाणात् पृथग्भूतादपि विकल्पादस्ति काचिसएवंविधमेव हि साध्यम् , अन्यथा साधनवैफल्यात् ।
थाविधा सिद्धिः,यामनाश्रयता तार्किकेण न क्षेमेणासितुं शअनिराकृतत्वं सफलयन्ति
क्यत इति ।रत्ना०३परि०हिनोति-गमयति ज्ञानमिति हेतुः, प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसज्यतामित्यनिराक. सूत्र०२थु०५० स० हिनोति गमयति जिशासितधर्मविशिसग्रहणम् ॥ १६ ॥
टमर्थमिति हेतुः ।नं0 1 उत्त० । दश० अनुमानोत्थापक लिङ्गे, प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य धनंजयादी शैत्यादेः ।
स्था०१० ठा०३ उ० । उपचारात् (श्राव०४ १०) पञ्चाअभीप्सितत्वं व्यञ्जयन्ति
वयववाक्यरूगे (उत्त० अ०) अनुमाने,स्था० । हिनोतिअनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽभीप्सितपदोपादानम्१७ |
गमयतीति हेतुः । साध्यसद्भावतदभावाभावलक्षणेऽर्थे , अभिमतस्य-साधयितुमनिटस्य ।
स्था० १० ठा०३ उ०।। साध्यत्वं सूत्रत्रयेण विषयविभांगन संगिरन्ते
प्रागुनमेव हेतुं प्रकारतो दर्शयन्तिव्याप्तिग्रहणसमयापेक्षया साध्यं धर्म एवान्यथा तदनु- उक्तलक्षणो हेतुर्द्विप्रकारः, उपलब्ध्यनुपलब्धियां भिपपत्तेः ॥ १८ ॥
द्यमानत्वात् ।।५४॥ रत्ना० ३ परि० । धम्मो वह्निमत्त्वादिः, तस्या व्याप्तेरनुपपत्तेः ।
_हेतुप्रयोगप्रकारं दर्शयन्तिएतदेव भावयन्ति
हेतुप्रयोगस्तथोपपत्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकारः।।२।। नहि यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र चित्रभानोरिख धरित्रीध
নথ মামৰসাৰীৰাথলিনগীঘল:, অন্যথা रस्याप्यनुवृत्तिरस्ति ॥ १६ ॥
साध्याभावप्रकारेणानुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः । व्यक्रमेतत् ।
अमू एव स्वरूपतो निरूपयन्तिआनुमानिकप्रतिपयवसरापेक्षया तु पक्षाऽपरपर्यायस्त
सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः, असति साध्ये द्विशिष्टः प्रसिद्धो धर्मी ॥ २० ॥
हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः ॥ ३०॥ श्रानुमानिकी प्रतिपत्तिरनुमानोद्भवा प्रमितिः, तद्विशिष्टःव्याप्तिकालापेक्षया साध्यत्वाभिमतेन धर्मेण विशिष्टः प्रसि
निगदव्याख्यानम् । द्धो-धर्मीन्युक्नम्।
प्रयोगतोऽपि प्रकटयन्तिअथ यतोऽस्य प्रसिद्धिस्तदभिदधति
यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः सत्येव कृशानुमचे धूधर्मिणः प्रसिद्धिः क्वचिद् विकल्पतः, कुत्रचित्प्रमाणतः, मच्चस्योपपत्तेः, असत्यनुपपत्तेर्वा ॥ ३१॥ क्वापि विकल्पप्रमाणाभ्याम् ॥ २१ ॥
एतदपि तथैव । विकल्पः-अध्यवसायमात्रम् ।
अमुयोः प्रेयोगी नियमयन्तिअथात्र क्रमेगोदाहरन्ति
अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्ती द्वितीयप्रयोगस्यैयथा समस्ति समस्तवस्तुवेदी, क्षितिधरकन्धरेयं धूम
कत्रानुपयोगः ॥३२॥ ध्वजवती, ध्वनिः परिणतिमान् ।। २२ ॥
अयमर्थः , प्रयोगयुग्मे ऽपि वाक्यविन्यासः एव विशिष्यते अत्राद्योदाहरणं धर्मिणो विकल्पेन सिद्धिः । नहि हेतुप्र- नार्थः । स चान्यतरप्रयोगेणैव प्रकटीबभूवेति किमपरप्रयोगेयोगात् पूर्व विकलां विहाय विश्ववित् कुतोऽपि प्रासिध्य- ण? इति । रत्ना०३ परि०। 'उपलब्ध्यनुपलब्धी स्वस्वस्थाने त् । द्वितीये प्रमाणेन-प्रत्यक्षादिना, क्षितिधरकन्धरायास्त- व्याख्याते।) अनुभावप्रतिपादके वचसि परार्थानुमाने,श्रा०
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(१२४४)
अभिधानराजेन्द्रः। म०१०। श्रा०चा प्रा० का फलसाधनयोग्ये कारले, अथवेति हेतोः प्रकारान्तरतायोतको विकल्पार्थः,हिनोनिसंघा०१ अधि०१प्रस्ता०। कारणे , विशे० । निमित्ते , गयमति-प्रमेयम स वा हीयते-अधिगम्यते अनेनेति हेसूत्र० १ श्रु० ७ ०। नि० चू०। कल्प। उपपत्ती,
तुः-प्रमेयस्य प्रमितौ कारण; प्रमाणमित्यर्थः , स चतुर्विधः चं० प्र० १ पाहु० । हेतुर्द्विधा-कारको , झापकश्च ।
स्वरूपादिभेदात् । (तत्र प्रत्यक्षहेतुवक्तव्यता 'पञ्चक्ख 'शतत्र कारको यथा-घटस्य कर्ता कुम्भकारः, झापको
ब्दे पञ्चमभागे ७३ पृष्टे द्रष्टव्या।) अन्विति-लिङ्गदर्शनसयथा-तमसि घटादीनामभिव्य अकः प्रदीपः । ग० १. अधि० ।
बधानुस्मरणयोः पश्चान्मान-शानमनुमानम्, एतल्लक्षणप्रश्नाश्रा म० । ति। यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य
मिदम्-"साध्याविनाभुवो लिङ्गात् , साध्यनिश्चायकं स्ट हेतुरुत्तरतयाअभिधीयते स हेतुरिति । उपन्यासोपनयभेदे,
तम् । अनुमानं तदभ्रान्तं , प्रमाणत्वात् समक्षवद्॥ १॥" स्था० । तथा 'हेउ ' त्ति , यत्रोपन्यासोपनये पर्यनु
इति । एतच्च साध्याधिनाभूतहेतुजन्यत्वेनाप्युपचाराद्धेतुरि, योगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयत स हेतुरिति , यथा के
तु, तथा उपमानमुपमा,सैवौपम्यम् , अनेन गवयेन सदृशाः नापि कश्चित्पर्यनुयुक्तः-अहो ! किं यवाः क्रीयन्ते स्व
सौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपम् । उक्तश्च-"गांदृष्टाध्यमरया ?, स त्याह-येन मुधैव न लभ्यन्ते इति , तथा
एये ऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा। भूयोऽवयवसामान्य-भाजं वकस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते ? , यस्मादकृततपसां
लिकण्ठकम् ॥१॥ तस्यामेव त्ववस्थायां,यद्विशानं प्रवर्तते । नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति , इदमपि उपपत्तिमा
पशुनैतेन तुल्योऽसौ,गोपिण्ड इति सोपमा ॥२॥” इति, अथत्रमेव शातत्वेनोमर्थशापकत्वादिति । अथवाऽयमपि यथा
वा-'श्रुतातिदेशवाक्यस्य, समानार्थोपलम्भने । संहासंझिसरूढं मातमेव तथा हास्येवं प्रयोगः-कस्मात् त्वया प्रत्र
म्बन्धज्ञानमुपमानमुच्यते' इति । आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते ज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह-यतस्तां
अर्था, अने नेत्यागमः-प्राप्तयचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्यया, विना मोक्षो न भवति, एतत्समर्थनायैव साधुस्तमाह
उनश्च-"दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्या-परमार्थाभिधायिनः । तभो यवग्राहिन् ! किमिति त्वया यवाः क्रीयन्ते ? , स
स्वग्राहितयोत्पन्नं , मानं शाद प्रकीर्तितम् ॥ १॥ प्राप्तोस्वाह-येन मुधा न लभ्यन्ते, साधोश्चायमभिप्रायो यथा
पशमनुल्लहाय-मदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत् सावं, मुधा लाभाभावात् तान् क्रीणासि त्वमेवमहं तां विना
शारखं कापथघट्टनम् ॥ २॥" इति । इहान्यथातदभावात्तां करोमीति । इह च मुधा यवालाभस्य क्र
पपनत्वलक्षणहेतुजन्यत्वानुमानमेव, कार्य कारणांपचारायणे हतो: सतो रशन्ततयोपन्यस्तत्वाधतुपन्यासोपनयज्ञा.
धेतुः, स च चतुर्विधः, चतुर्भीरूपत्वात् , तत्र अम्ति-विततेति । इह च किश्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः सं
द्यते तदिति-लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इति कृत्वा अस्ति सभवन्त्यन्ये ऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः, अन्तर्भायो वा क
अग्न्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येव हेतुरित अनुमानम् । थञ्चित् गुरुभिर्विक्षितः, नच ते वये सम्यग् जानीम इति ।
तथा अस्ति तदग्न्यादिकं बसवतो नास्त्यसो तद्विरुधः स्था०४०३उ०। दश०।
शीतादिरर्थ इत्येवमपि तुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदसाम्प्रतं हेतुरुच्यते
न्यादिकमतः शीतकालऽस्ति स शीतादिरर्थः इत्येवमपि अहवा वि इमो हेऊ, विनेग्रो तत्थिमो चउविअप्पो। देतुरनुमानमिति । तथा नास्ति तद्वक्षत्वादिकमिति नास्ति जावग थावग वंसग,लूमग हेऊ चउत्थो उ ॥८६॥ शिशपत्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति । इह च शब्दे
कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्वं घटवत् , तथा धूमस्यास्तिअथवा-तिष्ठतु एष उपन्यासः , उदाहरणचरमभेदल
स्वादिहास्यनिर्महानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमान कार्याक्षणों हेतुः। अपि:--सम्भावने । किं सम्भावयति ? , 'इमो' श्रयम् अन्यद्वारे एबोपन्यस्तत्वात्तदुपन्यासनान्तरी
नुमानश्च प्रथमभङ्गकेन सूचितम् १। तथा अग्नरस्तित्वालूयकत्वेन गुणभूतत्वादहेतुरपि , किं तु ' हेऊ बिराणे श्री
मास्तित्वाद्वा नास्ति शीतस्पर्श इत्यादिविरुद्घोपलम्भानुमान तथिमो' त्ति व्यवहितोपन्यासात् तत्रायं-वक्ष्यमाणा हेतु
विरुद्धकार्योपलम्भानुमानश्च तथा अन—मस्य वाऽस्तित्वाविज्ञयः । चतुर्विकल्प ' इति चतुर्भेदः, विकल्पानुपद
नास्ति शीतस्पर्शजनितदन्तवीणारोमहर्षादिः पुरुषविकारो शयति-यापकः, स्थापकः, व्यंसकः , लूषकः हेतुश्चतुर्थ
महानमवदित्यादिकारणविरुद्धोपलम्भानुमानम् , कारणचिस्तु । अन्ये त्वेवं पठन्ति-हेउ ति दारमहुणा, चउम्विहो
रुजकार्योपलम्भानुमानं च द्वितीयभङ्गकेनाभिहितम् । तथा सा उ होइ नायव्वो' ति, अत्राप्युक्तमुदाहरणम् , हेतु
त्रादरग्नेर्वा मास्तित्वादस्ति क्वचित्कालादिविशेषे प्रातपः रियतद् द्वारमधुना तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात् स
शीतस्पर्डी वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिकं विरुद्धकारपुनर्हेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवे गमनिका क्रियते ,
णानुपलस्भानुमानं विरुद्धामुगलम्भानुमानञ्च तृतीयभड़केपश्चार्द्ध तु पूर्ववदेवेति गाथाक्षरार्थः । दश० १ ०। प्रमय
नोपात्तम्। तथा दर्शनसामध्यां सत्यां घटोपलम्भस्य नास्तिस्य प्रमिती कारणे प्रमाण , स्था०।
त्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादिस्वभावानुपलब्ध्यस च चतुर्विधः प्रत्यक्षादिभेदात्
नुमान,तथा धूमस्य नास्तित्वान्नास्त्यविकलोधूमकारणकलाअथवा हेऊ चउबिहे पएणते,तं जहा-पच्चक्खे, अणु
पःप्रदेशान्तरवदित्यादिकार्यानुपलभ्यनुमानम् ,तथा वृक्षना.
स्तित्वात् शिशपा नास्तीत्यादि व्यापकानुपलस्भानुमानम् , माणे, ओवमे, आगमे । अथवा हेऊ चउबिहे पन्नत्ते, ते
तथाऽरने स्तित्वाद् धूमो नास्तीत्यादि कारणानुपलम्भानुमाजहा-अस्थित्तं अत्थि सो हेऊ, अत्थित्तं रणस्थि सो हेऊ,
नश्च चतुर्थभक्तकेनाबरुद्धमिति । नच वाच्यं न जैनप्रक्रियेयम् पत्थितं अत्थि सो हेऊ, णत्थित्तं णत्थि सो हेऊ । (३३८), सर्वत्र जैनाभिमतान्यथानुपपन्नत्वरूपस्य द्वेतुलक्षणस्य वि
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उ
धमानत्वादिति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । हेतुषु वर्त्तमाने पुरुषे, मानन्यात् स पञ्चविधः भ०
पक्ष तथा
पंच हेऊ पाता, तं जहा देउं जागर हे पास, हेडं बुज्म, देई अभिसमागच्छ, हेर्ड उमत्थमरणं मरद्द | पंच हेऊ पणाचा, जहा देउणा जागर •जाव हेउणा तं छउमत्यमरखं मरद | पंच हेऊ परगना, तं जहा- हे न जागड़ जाप हे अमरखं मरह पंच देऊ पणता, तं जहा - हेउणा न जाइ ०जाव हेउणा अण्णाणमरणं मरइ | ( सू० २० X )
"
"पंच देऊ' इत्यादि इस हेतुषु वर्त्तमानः पुरुषो हेतुरेव तदुपयोगाबाद, पञ्चायमेदादित्यत आह'हेडं जाण' ति हेतुं साध्याविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थ जानाति, विशेषतः सम्यगवगच्छति सम्यग् दृष्टित्वात् श्रयं पअधोऽपि सम्यगृष्टिमन्तव्या मिथ्यादृष्टेः सूयात्परतो
( १२४५ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
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3
मात्यादित्येक एवं देवं पश्यति सामान्यतय धादिति द्वितीयः । एवं बुध्यते सम्यकू श्रद्धते इति बोधः सभ्य धानपर्यायवादिति तृतीयः तथा हेतुम् अभिस मागच्छति साध्यसिद्धी व्यापारणतः सम्प्राप्नोतीति चतुर्थः । तथा 'हेडं छउमत्थे' त्यादि हेतुः श्रध्यवसानादिमरणकारणं तद्योगान्मरणमपि देवरतस्तं तुम दित्यर्थः । खुशस्थमरणं न केवलिमरणं तस्या उद्देतुकाचा तू नाप्यज्ञानमरणमेतस्य सम्यग्ज्ञानित्वात्, अज्ञानमरणस्य च वक्ष्यमाणत्वाम्रियते करोतीति पञ्चमः । प्रकारान्तरेण हेतूनेवाद - पंचे' त्यादि हेतुनाऽनुमानोत्थापकेन जावाति, अनुमेयं सम्यगवति सभ्यत्यादित्येकः एवं पश्यतीति द्वितीयः एवं बुध्यते श्रद्धत्ते इति तृतीयः, एवमभिसमागच्छति प्राप्नोतीति चतुर्थः, तथा अकेलि - स्वादेतना अध्ययसानादिना एवस्थमरणं प्रियत इति पञ्च मः । अथ मिध्यादृष्टिमाश्रित्य हेतुनाहत्यादि पञ्च क्रियाभेदात् हेतवो हेतुव्यवहारित्वात् तत्र हेतुलिङ्ग न जानाति नमः कुत्सार्थत्यादसम्यगति मि थ्यादृष्टित्वात् १, एवं न पश्यति २, एवं न बुध्यते ३, एवं नाभिसमागच्छति ४ तथा हेतुम् अध्यवसानादिहेतुयुक्तम् अज्ञानमय करोति मिध्यात्वेनासम्यान स्वादिति प्रकारान्तरात्यादि देतुना लिङ्गेन न जानाति श्रसम्यगवगच्छति, एवमन्ये ऽपि चत्वारः ।
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भ० ५ ० ७ उ० । स्था० ।
उतर - हेत्वन्तर - पुं० । पञ्चमे निग्रहस्थानभेदे, स्या० । हेउ आभास हेत्वाभास ५० भासमानेषु तु
ते
च त्रयः । रत्ना० ।
हेत्वाभासागाडु:--]]
सिद्धविरुद्ध नैकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः ॥ ४७ ॥ निश्चितान्यथानुपपत्त्याख्यैकहेतु लक्षण चिकलत्वेनाहेतवोऽपि हेतुस्थाने निवेशादेवदाभासमाना हेत्वाभासाः । रत्ना०६ प (माइ खाने उक्काने हेामासा
३१२
हेडनाव
असिद्धान्तविरुद्ध हेत्वाभासाः, देवदाभासन्त इति हेत्वाभासाः, तत्र सभ्य ग्हेतूनामपि न तस्वव्यवस्थितिः किं पुन स्तदाभासानाम् । तथाहि इह यन्नियतं वस्त्वस्ति तदेव तत्त्वं भवितुमर्हति हेतुवस्तु क्वचिद्वस्तुनि साध्ये हेतवः क्वचिदहेतव इत्यनियतास्त इति । सूत्र०९ श्रु०१२० । यश्च नित्यः शब्दः श्रा
दत्यादि सपत्नियजनकत्वादसाधारणानैकान्तिकः सीमतः समास्यायते ने सूक्ष्मतामश्चति श्रावणत्वाद्धि शब्दस्य सर्वथैव नित्यत्वं यदि साध्यते त दायं विरुद्ध एव हेतुः कथंचिदनित्यत्वसाधनात्। प्राच्याश्रायत्स्वभावस्यागेनात्तरावयवयायोक नित्यत्वमन्तरेण शब्देऽनुपपत्तेः कथंचिि च्छन् साध्यते तदाऽसौ सम्यगृहेतुरेव कथंचिन्नित्यत्वेन सार्द्धमन्यथाऽनुपपत्तिसद्भावादिति नायमनैकान्तिकः, यं च
विरुवाम्यभिचारिनामानमनैकान्तिकविशेषतानिः यथा अनित्यः शब्दः, कृतकत्वाद् घटवत् । नित्यः शब्दः, श्रावणत्वाच्छन्दत्यवदितिः सोऽपि नित्यानित्यस्वरूपाने कातदपरपरिणामित्यात्सर्व
कासि पुनरुपयस्तोऽसौ भवत्येव हेत्वाभास स तु विरुद्धमा संदिग्धविपक्षतिरातिको बेतिन भिद्विरुद्धाव्यभिचारी नाम । एवं च प्रसिद्धविरुद्धानैकान्ति काय एव हेत्वाभासा इति स्थितम् । नन्वन्योऽप्यकिंचिकराख्यो हेत्वाभासः परैरुक्तः । ( स (विकरशब्दे प्रथमभाग १२६ गतः नन्वष हेतुधितान्यथानुपपया सहित स्पाइदिनों वा ? प्रथमप देतो सम्पपि प्रतीतसाध्यधर्मविशेष रामत्वशनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणागमनिराकृत साध्यधर्मविशेषादिक्षामा सानां निवारयितुमशक्यत्वाणैरेव दुष्टमनुमानम् । नच यत्र पक्षदोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्यः, दृष्टान्तादिदोषस्याप्यवश्यं वाच्यत्वप्रसक्तेः । द्वितीयपक्षे तु यथोक्तहेत्वाभा सानामन्यतमेनैवानुमानस्य दुष्टत्वं, तथा ह्यन्यथानुपपत्तेरभावो ऽनवखायाद्विपर्ययात्संख्याद्वा स्यात्प्रकारान्तरासम्भवात् ; तत्र च क्रमेण यथोक्तदेत्वाभासावतार इति नोकहेत्वाभासेभ्यो ऽभ्यधिकः कश्चिदकिंचित्करो नाम । रत्ना० ६ परि० (अत्रत्या व्याख्या 'कालवावदिट्ठ' शब्दे सुतीयभागे ४६१ पृष्ठे गता । ) ( अत्रत्या व्याख्या 'पगरणसम 'शब्दे पञ्चमभागे ७१-७२ पृष्ठे गता । )
-
हेउगोवएस हेतुकोपदेश-पुं० कारसोपदेशे प्रकर
० ० १ ० (अस्कार्यिकानि कारणोषस तृतीयभागे ४६६ पृष्ठे गतानि । ) हेउजुत-हेतुयुक्त - त्रि० । अन्वयव्यतिरेकलक्षणैर्हेतुभिर्युक्ते, अनु० । विशे० प्रा० म० । उणिज्जुत्ति--हेतुनिर्युक्ति-त्रि० । सोपपत्तिके, दश० २ ० । हेउदोस हेतुदोष पु०कान्ति भासे, स्था० १० ठा० ३ उ० ।
हेउप्पभव - हेतुप्रभव-पुं० । हेतुजन्मनि, दश० ४ अ० । हेउभाव हेतुभाव ५० कारणभावे ००१ द्वार
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हेउय अभिधारराजेन्द्रः।
हेमचंद हेउय-हैतुक-पुंग हेतुभ्यो जातो हैतुकः। कायाकारपरिणतभू- ऋतुभेदे ,जी०१ प्रतिः। पौषमाधौ हेमन्तः।०१ श्रु०१
तनिष्पादिते लोकायतिकसम्मतात्मनि,सूत्र०१श्रु०११०१उ०। अ० । ज्यो । शीतकालमासानां मध्ये चतुर्थो मासः । हेउवाय-हेतुवाद-पुं० । हेतुरनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचाराद
१ श्रु०८०। (अत्रत्या व्याख्या 'माउट्टि' शब्ने द्वितीनुमानमेव वा तद्वादो हेतुवादः। दृष्टिवादे । स्था० १० ठा०
यभागे ३० पृष्ठे गता।) ३ उ० । शुष्कतर्कवादे, पं० व० ४ द्वार | “शायेरन् हेतु- हेमंतगिम्ह-हेमन्तग्रीष्म-पुं० । शीतकालोषणकालयोः, व्या वादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनतावना प्रासः, कृतः ४ उ० । स्यात्तेषु निश्चयः।" द्वा० २४ द्वा०। (अत्रत्या व्याख्या 'आग- हेमंधर-हेमन्धर-पुं०। कलिकुण्डसरोवरसमीपविहारिणो म. म' शब्दे द्वितीयभागे ७६ पृष्ठे गता।)
हीधरस्य हस्तियूथपस्य विदेहजे पूर्वभवजीवे, ती०५३कल्प । हेउवायउवएस-हेतुवादोपदेश-पुं । हेतुर्निमित्तं कारणमि
हेमकड-हेमकृत-पुं०। स्वनामख्याते राशि,०४ उ०। (अस्य त्यनर्थान्तरं , तस्य वदनं वादः तद्विषय उपदेशः । कारणोपदेशे, प्राम. १
पुत्रस्य वेदोपघातो बभूव तइत्तम् ' उवधायपंडग ' शम्ने ० । प्रव०। ( हेतुवादोपदेशन | संशिनोऽसंघिनश्च । सरिणसुय' शब्देऽस्मिन्नेव भाग
द्वितीभागे ८८१ पृष्ठे गतम्।) दर्शिताः।)
हेमकलस-हेमकश-धर्मरत्नवृत्तिसंशोधके स्वनामख्याते हेउविजय-हेतविजय-पुं० । तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः स्याद्वाद
सूरी, "श्रीहेमकलशवाचक-पण्डितवरधर्मकीर्तिमुस्यवुधैः।
स्वपरसमयैककुशलै-स्तदैव संशोधिता चेयम् ॥१॥" प्ररूपकागमकपच्छेदतापशुद्धिसमाश्रयणीयतत्वगुणानुचि
ध०र०२ अधि। न्तने, सम्म० ३ काण्ड।
हेमकुड-हेमकूट-पुं०। हेमपुरनगरराजे हेमकुमारपितरि, निक हेउविवागा-हेतुविपाका-स्त्री० । हेतुतो हेतुमधिकृत्य विपा
| चू० ११ उ०। को निर्दिष्टो यासां ताः। 'कम्म'शब्दे उक्नासु विपाकतो भिना
हेमग-हैमक-पुं० । हिम-तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमकाः। सु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वार।
हिमपातरूपेषु जलकणेषु, स्था० ४ ठा०४ उ०। हेउसंपया-हेतुसम्पदा-स्त्री०। साधारणासाधारणरूपायां स्तो. तन्यसम्पदि, प्रव०१ द्वार।
हेमचंद-हेमचन्द्र-पुं०। कुमारपालगुरी, सिरहेमचन्द्रव्याक
रणकर्तरि स्वनामख्याते सूरी, प्रा० ४ पाद। . हेऊवपणास-हेतूपन्यास--उपन्यासभेदे, दश०अत्रत्या सर्वा बक्तव्यता 'अणुमाण' शब्ने प्रथमभागे ४०६ पृष्ठे गता।)
इय-रयण्णावलिखामो, देसीसहाण संगहो एसो।
वायरणसेसलेसो, रइयो सिरिहेमचन्दमुणिवइणा ७७४ हेचा-हित्वा-अव्य० । त्यक्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० १५१०।
इति एष देशीशम्दसंग्रहः स्वोपक्षशब्दानुशासनाष्टमाध्यायहेज-हेय-त्रि० । उप्रेक्षणीये , अनु०।
शेषलेशो रत्नावलीनामाचार्यश्रीहेमचन्द्रण विरचित इति । हेट-अघम-अव्य० । “मधसो हेटुं" ॥८॥२॥ १४॥ इति श्र- दे० ना०८ वर्ग। धमशब्दस्य हेट इत्यादेशः । हेटुं। पाताले, अधःस्थानमा
"आशीद्विापतिरमुद्रचतुःसमुद्रश्रेय अनु०। प्रा०॥
मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः ।
श्रीमूलराज इति दुर्धरवैरिकुम्भिहेद्विद्ध-अधस्तन-त्रि० । “डिल्ल-हुम्लो भवे" २१६॥ इति
कराठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावतंसः ॥१॥ भावार्थे डिलप्रत्ययः। अधोवर्तमाने, प्रा० । जं जस्स आदीए
तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रतापतं तस्स हिटिल्लं । जं जस्स उवरितं तस्स उबरिणं । नि०
तिग्मद्युतिः क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः । चू०२० उ०। स्थाअधस्तनो यत प्रारभ्य लोकस्या
येन स्ववंशसवितर्यपरं सुधांशी धोमुखा वृद्धिः । भ० १३ श०४ उ०।
श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यस्लेखि ॥२॥ हेठय-हेठक-पुं० । बाधके ऋक्संस्थानीये मन्त्रे,यथा "पद् श सम्यनिषेव्य चतुरश्चतुरोऽप्युपायान , तानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमे अहनि । अश्वमेधस्य वच, जित्योपभुज्य च भुवं चतुरधिकाञ्चीम् । ना-म्यूनानि पशुभित्रिभिः ॥१॥" सूत्र०१ २०८० । विद्या चतुष्टयविनीतमतिर्जितात्मा, हेम-हैम-न० । भेषजभेदे, जाम्बूनदे (सूत्र० १ धू० ६
काष्ठामबाप पुरुषार्थचतुष्टये यः॥३॥
तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्य१०।) सुवर्णे , द्वा० ५ द्वा० । स्वबामन्याते राज
शब्दानुशासनसमूहकदर्थितेन । पुत्र , . हेमपुरिसे नगरे हेमकडो राया हेमसंभवा
अभ्यर्थितो निरवमं विधिवद् व्यधत्त, भारिया , तस्स पुत्तो वरतिबिज्जसत्रिभो हेमो खाम
शब्दानुसनमिद मुनिहेमचन्द्रः॥४॥" प्रा० ४ पाद । कुमारों'। नि. चू० ११ उ० । पं० भा०। (अस्य -
पतचरित्रलेशस्त्वित्थम्-गुर्जरदेश बन्धुकाप्रामे चावदोपघातो बभूव तवृत्तम् 'उवधायपंडग' शब्ने द्वितीयभा
तापमान श्रेष्टिनः पाहिनीमायां भार्यायां चङ्गदेवनामा पुत्रो जातः। ग८१ पृष्ठे गतम् ।)
सचदेवचन्द्राचार्येण याचित्या दीक्षितः । वैक्रमीये सन्त-हेमन्त-पुं०। शीतकाले , व्य०४ उ० पाइ० ना.. |
११५० संवत्सरे तेनैव तर्कव्याकरणसाहित्यादि पाठितः।
मामा नौ =
मकाए
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हेमचंद अभिधानराजेन्द्रः।
हेमवय (सं० ११६६) वर्षे सूरिषदेऽभिषिक्तः हेमचन्द्र इति नाम्ना तं तैनिश-तिनिशदारुसंथन्धि कनकनियुक्त कनकविच्छुरितं प्रख्यापितः,मणहिलपहनपुरराजेन सिद्धराजेनाभ्यर्थितः सि- दारु काष्ठं यस्य स हैमवतचित्रविचित्रतैनिशकनकनियुक्तबहेमनाम व्याकरणं चके । अनेनैव प्रतिबोधितः कुमारपा- दारुकस्तस्य सूत्र च द्वितीयककारः स्वार्थिकः, पूर्वस्य च लराजः जैनो जातः, येन च महती शासनोन्नतिः कृता। प्र- दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । जी० ३ प्रति०४ अधिः १ उ० । वेन सार्द्धत्रिकोटिलोकमिता प्रन्थाः कृता इति किंवदन्ती भ०। स्था० । अनु। जं० । स०।प्रसिया । अस्य खर्गतिः (सं०१२२६ वर्षे प्रासीत् ।
अथानन वर्षधरेण विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यतामाह“यस्य मानमनन्तवस्तुविषयं यः पूज्यते दैवतैनित्यं यस्य बचो न दुर्जयकृतैः कोलाहलैलृप्यते ।
कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे परमरागद्वेषमुखद्विषां च परिपरिक्षप्ता पणाधेन सा॥
ते?, गोयमा ! महाहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिस श्रीवीरविभुर्विधूनकलुषां बुद्धि विधत्तां मम ॥१॥ निस्सीमप्रतिभैकजीवितधरौ निश्शेषभूमिस्पृशां ,
णेणं चुल्लहिमवन्तस्स वासहरपब्बयस्स उत्तरेणं पुरत्थिपुण्यौधेन सरस्वतीसुरगुरू स्वाहकरूपे धत् ।
मलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरयः स्याद्वादमसाधयनिजवपुर्दधान्ततः सोऽस्तु मे, थिमेणं एत्थ णं जंचुद्दीवे दीवे हेमवए णामं पासे पसद्बुद्यम्बुनिधिप्रबोधविधये श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ॥२॥ पत्ते , पाईणपडीणायए उदीणदाहिलवित्थिरणे पलिअंये हेमचन्द्र मुनिमेतदुक्त-प्रन्थार्थसेवामिषतःभयन्ते ।
कसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोसंप्राप्यते गौरवमुज्ज्वलानां, पदं कसानामुचितं भजन्ति॥३॥ मातर्भारति! सन्निधेहि हदि मे येनेयमाप्तस्तुति
डीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पञ्चत्थिमिल्लाए कोनिर्मातु विवृति प्रसिद्धयति जबादारम्भसंभाषना। डीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, दोएिण जोमणसहयद्वा विस्मृतगोष्ठयोः स्फुरति यत् सारस्वतः शाश्वतो, स्साइं एगं च पंचुत्तरं जोमणसयं पंच य एगृणवीसहमन्त्रः श्रीउदयप्रभेति रचनारम्यो ममाहर्निशम् ॥ ४॥"
भागे जोअणस्स विक्खंमेणं । तस्स बाहा पुरस्थिमपञ्चस्थिइह हि विषमदुःषमाररजनितिमिरतिरकारभास्करानुका
मेणं छजोअणसहस्साई सच य पणवएणे जोमणसए. रिणा वसुधातलावतीर्णसुधासारणीदेश्यदेशनावितानपरमा
तिमि अ एगूणवीसइमागे जोमणस्स पायामेणं, तस्स ईतीकृतश्रीकुमारपालदमापालप्रवर्तिताऽभयदानाभिधानजीवातुसंजीवितनानाजीवप्रदत्ताशीर्वादमाहात्म्यकल्पावधि
जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहमो लवणसदं पुट्ठा स्थायिविशदयशःशरीरेण निरवधचातुविनिर्माणैकग्रह्मणा | पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमि लवणसमुदं पुड्डा, पञ्चश्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्धीसिखसेमदिवाकरविरचि.
स्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा सत्सतीसं जोमणसहस्साई छच्च तवात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवर्दधमानजिनस्तुतिरूपमयोगव्यवच्छदाम्ययोगव्यवच्छेदाभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं
चउरुत्तरे जोअणसए सोसस य एपूणवीसइमाए जोत्रणविद्वजनमनस्तस्यायबोधनिबन्धनं विदधे । स्या। अभयदे- स्स किंचिविसेरणे भावामेणं । तस्स धगुं दाहिणणं अ. वसूरिशिष्ये स्वनामख्याते सूरौ, (पतवंशवर्णनम् 'अणुओ- दृतीसं जोमणसहस्साई सत्त प बसाले जोमणसए दस गदार' शब्द प्रथमभागे ३५६ पृष्ठे दर्शितम् ।)
य एगूणवीसए भागे जोमणस्स परिक्खेवेणं । हेमवयस्स हेमचंदवागरण-हेमचन्द्रव्याकरण-न० । हेमचन्द्ररचित
णं भंते । वासस्स केरिसए मायारभावपडोमारे पामते ! व्याकरणे, कल्प० १ अधि०१ क्षण।
गोयमा! बहुसमरमणिले भूमिभागे पस्मत्ते, एवं तइअसहेमजाल-हेमजाल-न० । सुवर्णमयदामसमूहे, रा०। औ०।
माणुभावो अश्वो ति। (सूत्र. ७६)। जीन (अत्रत्या व्याख्या 'लवलसमुद' शब्द षष्ठे भागे गता।) हेमपुरिस-हेमपुरुष-न० । स्वनामख्याते नगरे, हेमपुरिसनगरे 'कहि ण ' मित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवहमकूडो राया हेमसंभवा भारिया तस्स पुत्तोवरतिविजस
तं नामं वर्ष प्रशतम् ?, गौतम ! महाहिमवतो घर्षधरपर्वनिभो हेमो णाम कुमारो । नि० चू० ११ उ०।
तस्य 'दक्खिणणे' त्यादि, व्यक्तम् । अत्रान्तरे जम्बूद्वीप डी
पे हैमवतं नाम व प्रशसमित्यादि सर्व प्राग्वत् , नवरं पहेमप्पह-हेमप्रम--पुं० । भुयनमलपितरि कुसुमपुरीमाये,
ल्याहसंस्खामसंस्थितमायतचतुरात्वात् , तथा योजनससंघा०१ अधि०१ प्रत्ता।
हने एकंच पञ्चोसरं योजनशतं पञ्च चैकोनविंशतिभाहेमव-हेमवत-पु.। लोकोत्तररीत्या फाल्गुनमासे, चं० प्र० गान् योजनस्य यावद्विष्कम्भन , बुद्रहिमवद्भिरिविष्कम्भा१० पाहु० । ज्यो० । सू०प्र०करूप० ।
दस्य द्विगुणविष्कम्भ इत्यर्थः । अथास्य बाहाद्याह- तस्स हेमवय हेमवत-त्रि। हिमवत्पर्वतोद्भवे , मा. १ श्रु. १
बाहा' इत्यादि. व्यक्तम् 'तस्स जीवा उत्तरेण ' मित्यादि
प्राग्वत् , सप्तत्रिंशद्योजनसहस्राणि पद चतुःसप्ततीनि अ०। औ०।
योजनशतानि षोडशकलाः किंचिदना पायामेनेति , ' तहेमवयचित्तविचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुयागस्य ।। स्स धणु' मित्यादि, तस्य धनुःपृष्ठमष्टत्रिंशदयोजनसहहैमवतं हिमवत्पर्वतभावि चित्रविचित्रं मनोहारि चित्रोपे-1 स्राणि सप्त च चत्वारिंशानि-चत्वारिंशदधिकानि योजनश
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( १२४=) अभिधानराजेन्द्रः ।
हेमबय
तानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेषेणेति । श्रथ कीदृशमस्य स्वरूपमित्याह-' हेमवयस्स गु' मित्यादि, व्याख्यातप्रायम्, नवरम् 'एव' मिति-उक्लमकारेण तु तीयसमा सुपम दुष्पमारकस्तस्या भावः-स्वभावः स्वरूपमिति यावत् तथ्य: स्मृतिपर्य प्रापणीयइत्यर्थः ।
प्रथात्र क्षेत्रविभागकारिगिरिस्यरूपं निर्दिशतिकहितमा सदावा (व) ईसा प ore पम्पत्ते ?, गोयमा ! रोहियाए महाराईए पच्चत्थिमें रोहिसाए महाराईए पुरत्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्मदेसभाए, एत्थ से सदावई खामं वट्टवेअद्धप
पाने एवं जोअगसहस्वं उई उच्च अदा जाई जोया समाई उन्वेणं सव्वत्थसमे पलंग ठाणसंठिए एग जोअणसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिमि जोअणसह - स्साई एगं च बावट्ठे जो असयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवे पत्ते, सव्वरयखामए अच्छे से गं एगाए पउमवरवेड़याए एगेण य वणसंडेणं सच्चओ समता संपरिक्खिते, बेह आदमंदवाओ भाणि सहावइस्स से बचेअन्य उवरि बहुममरमणि भूमिभागे प तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमा एत्थ गं महं एगे पासायवर्डेसए पत्ते, बा
जो णाई श्रद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसं जोगाई कोर्स च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं । से केणद्वेगं भंते ! एवं बुच्चइ - सहायई ववेदपव्वए ?, गोयमा ! सदावश्वडचे अद्धपन्चए गं खुद्दाखुद्दित्र्यासु बावीसु जात्र विलपतिश्रासु बहवे उप्पलाई पउमाई सदावइप्पभाई सद्दावतिवपाभाई सदाई इत्थ दे महिदीए जाब महाणुभावे पल
aise परिसइति । से गं तत्थ चउर सामाशिसाहस्सीणं ०जाव रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं अएण म्म जम्बूददीने (०७७)
,
'कदि भंते!" इत्यादि क भदन्त हैमवतवर्षे शब्दापाती नाम्ना वृत्तवैताढद्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, वैताढयान्वर्थस्तु प्रागुक्र, असो व लाकान भरतादिवर्तिता वृत्ताकारो पर्वत पूर्वापरातस्तेन वृत्तवेता इत्युच्यते भ एव एतत्कृतः क्षेत्रविभागः पूर्वतोऽपरतश्च भवति, यथापूर्वमयनगरम मिति आद-पञ्चकाधिकधिशतिशतयोजन प्रमाणविस्तारस्य हैमवतस्य मध्यवर्ती यो जनसहस्रमान एष गिरिः कथं क्षेत्रं द्विधा विभजति ?, उच्यते - प्रस्तुत क्षेत्र व्यासो हि उभयोः पार्श्वयोः रोद्दिताराहितांशाभ्यां नदीभ्यां रुजः मध्यतस्त्वनेन । अथ नदीरुद्धक्षेत्रं वर्जयित्वाऽवशिष्ट क्षेत्रमसौ द्विधा करोतीत्यस्मिन्नन्वर्थवती चैताख्यशब्दप्रवृत्तिरिति एवं शेषेध्वपि वृत्तवैताढ्येषु
हेमवय
1
"
स्वस्वक्षेत्र नदीनामभिलापेन भाव्यम्, दिग्विभागनियमन सुलभमिति न व्याख्यायते एक योजनसहस्र ज्योंन अर्द्ध तृतीयानि योजनशतान्युद्धेधेन सर्वत्र समः - तु पोऽषु सहस्रसह सविस्तारकत्वात् श्रत एव संस्थानसंस्थितः । पप-थदो वंशदलेन निर्मारितां धान्यापारको एक जनसहस्रमायामविष्कम्भायां त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्ट्यधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषण करणवशादागतेन सूपनिनि राशिना अधिक परिक्षेपेण प्रशप्तम् । सर्वात्मना रत्नमयः केचन रजनमयान् वृत्तवैतायानाडुः परं तेषामनेन ग्रन्थेन सह विरुद्धत्वमिति । अथात्र पद्मघरवेदिकायाह से ख' मित्यादि, व्यक्तम्, 'सहावइस्स
'मित्यादि, व्यकम् । अथ नामार्थं निरूपयन्नाह से केणट्टें भंते ' इत्यादि प्रागुक्तऋषभ कूटप्रकरणवद् व्याख्येयम्, नवरम् ऋषभकूटप्रकरणे ऋषभ कूटप्रभैः ऋषभकूटकगैरुत्पलादिभिर्ऋषभ कुठनामनिरुक्तिर्देर्शिता अत्र तु शब्दापानिःशब्दापातिवर्णैः उत्पलादिभिः शब्दापा
नामनिरुकिईव्या शब्दापाती चात्र देवो महर्द्धिको या वन्महानुभावः पल्योपमस्थितिकः परिवसति । अथ शब्दापातिदेवमेव विशिनष्टि से णं तत्थ' इत्यादि. स--शब्दापाती देवस्तत्र - प्रस्तुतगिरी चतुर्थी सामानिक सहस्राणां यावत्पदाविदेसमच कियत्पर्यन्तमित्याह - राजधानी मन्दरस्य दक्षिणस्यामन्यस्मिन् जम्बूदीपे द्वीप इति जम्बूद्वीपस्यादर्शषु एतत्सुत्रोऽपि परि शः पूर्वसूत्रषु विजय त्थमेव दृष्टत्वात् । बहुग्रन्थसाम्मत्येन क्वचिदा दर्शवैगुण्यमुद्भाव्यान्यथा योजनं बहुश्रुतसम्मतमेवास्ति इत्यलं विस्त देव नतु अस्य शब्दापाततस्य विवादि ग्रन्थेषु अधिपः स्वानिनामा उक्लः; तत्कथं न तैः सह वि रोधः ?, उच्यते - नामान्तरं, मतान्तरे वा ।
अथ हैमवतवर्षस्य नामार्थ पृच्छति
से केद्वेगं भंते! एवं बुच्चर हेमवए वासे हेमवए वासे, गोयमा ! चुल्लहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपव्वएहिं दुहमो समयदे शिखं देमं दलह, शिवं हेमं दलहना णिच्चं हेमं पगासइ | हेमवए अ इत्थ देवे महिड्डीए पलि --- ओम परिसर से तेराट्ठेणं गोयमा ! एवं युच्च हेमबए बासे देव वासे (०७८)
।
'से केलट्ठेरा' मित्यादि, अथ केतार्थेन भगवन्! एयमुच्यते-हैपतं वर्ष मयतं वर्षमिति गौतम बुद्दिमयन्महाहि यद्भयां वरपर्यंतायां द्विघातो दांदणोरपार्श्वयोः समयगा तो दोरिदं मयतम् भावः सुद्दिमयतां महाहिमवतव्यापारात - श्रम ततो द्वाभ्यामपि ताभ्यां यथाक्रममुभयोईक्षिणोत्तरपार्श्वयोः कृतसीमाकमिति भवति तयोः सम्बन्धि | यदि वानित्यं कालत्रयेऽपि मदनप्रदानादिना प्रयच्छति कोऽर्थः १ तत्रत्ययुग्ममनुष्याणामुपवेशनाद्युपभोगे
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हेमवय
हेममया शिलापट्ट का उपयन्ते तत उपचारेण ददानी त्युक्तम् । नित्यं हेम प्रकाशयति ततो हेम नित्ययोगि प्रशस्यं वाऽस्यास्तीति हेमबत्, हेमवदेव हैमवतम्, प्रज्ञादेराकृतिगणतया'प्रज्ञादिभ्यः' ( श्रीसिद्ध००७०२० १६५ ) इति स्वार्थेऽण्प्रत्ययः, हैमवतश्चात्र देवो महर्द्धिकः पयोपम स्थितिकः परिवसति, तेन तद्यांगा है मचतमिति व्यपदिश्यते । तो देवः स्वामिनास्यास्तीति भ्रादित्य
चा | जं० ४ वक्ष० ।
( १२४१) अभिधानराजेन्द्रः ।
हेमवयकूड हैमवतकूट - न० । हैमवद्वर्षेशसुरकृडे. जं०४वक्ष० । जम्बूदीप हिमचधरपर्यंत स्वयामपाते फूटे, स्था०२
ठा० ३ उ० ।
विमलसर-हेमविमलरिपुं० हीरविजय गुरोः श्रानन्दविजयसूरेः गुरौ सामसुन्दरसूरिशिष्ये, ग० ३ अधि० ।
हेमसंभवा हेमसंभवा- स्त्री० | हेमकृतराजस्य भार्यायाम्, बृ० ४३० । ( बालिकासु अत्यन्तं गृद्धस्य अस्याः पुत्रस्य वेदोपघातो जातः, तद्वृत्तम् ' उवद्यापंडग' शब्दे द्वितीयभागे निरूपितम् । )
द्वा
हेमसरोवर हेमसरोवर २० स्वाती यत्र हा | स्वनामख्याते सप्ततिजिनालयाः । ती० ४३ कल्प |
हेममुत्तग- हेमसूत्रक - ० | हेमसङ्कलके, शा० १ ० १ ० ॥ हेर-हैर-पुं० | माण्डव्यगोत्रे गोत्रविशेषप्रवर्त्तके च ऋषी, तद पत्येषु च । स्था० ७ ठा० ३ उ० ।
हेरंब - देशी - महिप - डिण्डिमयोः, दे० ना०८ वर्ग ७६
गाथा। पाइ० ना० ।
"
हेरम्पक्च हैरण्यत्रत्-पुं० | जम्बूद्वीपे खनामख्याते वर्षक्षेत्रे, स्था० ६ ठा० ३ उ० । जं०] । प्रज्ञा० । रुक्मिवर्षधरे अष्टकू टानां मध्ये सप्तमे कुटे, स्था० २ ठा० ३ उ० ८७ सूत्र टी दोहराई (सूत्र - ६२+) 1 स्था० २ डा० ३३० ( श्रस्य ) व्याख्या रुप्पि शब्दे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (११२) सूत्रेण षष्ठे भागे गतार्था । | शिखरवर्षधरपर्वतस्य हेरपवयकूड हैरण्यवतकूट - न० कुंटे, स्था० २ ० ३ ० । हैरण्यवतक्षेत्राधिपसत्के रुक्मि वर्षधरकुटे, जं० ४ वक्ष० । हेरस्थिय रशियक पुं० [स्वर्गकारे ० ० १ | | हेरंबदेशी गणेश नाव ७२ गाथा हेरिय हैरिक - पुं० । उद्भ्रामके, कल्प० १ अधि० ६ क्षण । हेरुयाल- हे रुताल-पुं० | वृक्षविशेषे, शा० १ ० ६ श्र०
० नं०
जं० ।
हेला हेलास्त्री० । लीलायाम् जीवा० १६ अधि० । पाइ ना० । वेगे, दे० ना०८ वर्ग ७९ गाथा । श्रनादरे, पाइ०
ना० १६२ गाथा ।
अभ्रादिभ्यः ॥ ७ । २ । ४६ ॥
३१३
|
हेलियम
होया हेलिकामत्स्यपुं० [मत्स्यभेदे जी० प्रति हेलुअ - देशी - छिक्कायाम्, दे० ना० = वर्ग ७२ गाथा | हेलुका - देशी - हिक्कायाम्, दे० ना०८ वर्ग ७२ गाथा । हेल्लि - हेसखि - सम्बो| हेसखि इत्यस्य हेल्लि इति निपात्यते । सख्या आमन्त्रणे, 'हेलि म भंखहि आलु ' । प्रा० ४ पाद । हैवाग हेवाक-पुं० रुपमा स्था० ४ डा० ४७० अभ्यास च | नि० चू० १ उ० |
डेम्पस पुं० पारसीकः शब्दः । अलाउद्दीनसुरत्रासस्य म शिंके, "कलिकालसिंग अलाउद्दीनसुरागरस मल्लिकेण 'हेव्वस' नामे । " ती० ३५ कल्प | हेसिय-व्हेषित- - न० । हयशब्दे, अनु० । जं० ।
देहभृय हेहभूत- न० | गुणदोषपरिज्ञानविकले ऽशठभावे, व्य०
१ उ० ।
हेहय हैहय-पुं० | स्वनामख्याते क्षत्रियराजे, भाव० ४ श्र० । हो हो - अय० । विस्मये, पाइ० ना० २७४ गाथा | होयऊन भूत्वा "स्वरादनतो या " २४० ॥ होत्रऊण-भूत्वा - अभ्य• । ॥ इति अकारागमो वा होऊ । होऊण | भूत्वा । उत्पद्येत्यर्थे, प्रा०८ श्र० ४ पाद ।
46
होउकाम - भवितुकाम - पुं० । मोक्षार्थिनि भव्य सत्त्वे, पं० सू० १ सूत्र । होन्त-भवत्- त्रि० । शबानशः " ॥ ८ | ३ | १८१ ॥ इति शतृप्रत्ययस्थाने न्तः । प्रा० जायमाने, विशे० । होड-होढ - पुं० । मोघे, शा० होता- भूत्वा - अव्य० । “कत्व इति क्त्वाप्रत्ययस्य इय-दू त्यर्थे, प्रा० ८ ० ४ पाद । होत्तिय - होत्रिक- पुं० । अग्निहोत्रके भ० १ ० ५ उ० । श्री वनस्पतिविशेषे प्रा० १ पह
१
० २ ० ।
इश्र - दूणौ” ॥ ८ । ४ । २७१ ॥ वा भवतः । होत्ता । उत्पद्ये
होत्था - अभवत् क्रिया० । जात इत्यर्थे, विपा० १ श्रु० १ श्र० । हो दूण- भूत्वा - अव्य० । भू-क्वा । “क्त्व इय-दूौ” ॥८४॥ २०२० इति दुसादेशः उत्पद्येत्यर्थे प्रा० ४ पाद होतो अभविष्यत् । "मासी " ॥ ८ ३ १८० ॥ । इति स्वाऽऽदेशः । होन्ती । होमाणो । अमविष्यदित्यर्थे, प्रा०८ श्र० ३ पाद ।
। ।
होम-होम- पुं० । श्रग्निहोतुभिः क्रियमाणे श्रग्निहोमे, अनु० | नि० | पं० च० । चू०
होयव्व- भवितव्य - न० भाध्ये, पञ्चा० ४ विघ० । श्रा० म० । नि० चू० । होया-० अशी दचिप्रदातरि शा० १०
१ श्र० ।
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(१२५०) होरंभा
अभिधानराजेन्द्रः। होरंभा-होरम्भा-स्त्री० । महाढक्कायाम् , रा० । तं० । भ०। होलवाय-होलवाद-पुं० । होलेत्येवं वादो होलवादः । होलेहोरण-देशी-वस्त्रे, दे० ना० ८ वर्ग ७२ गाथा ।
त्येवं पुरुषामन्त्रणे, सूत्र० १ श्रु० अ० । होरा-होरा-स्त्री० । ज्योतिषोक्ने लग्ने राश्यीभागे होराशा-ह-ए-अव्य० । वाक्यालङ्कारे, सूत्र०२ श्रु०७०। पकशास्त्रभेदे, रेखायाश्च । द० प० । सूत्र० ।
हमा-स्नुषा-स्त्री० । पुत्रवध्वाम् , सूत्र०२ श्रु०७ अ० । होल-देशी-देशप्रसिद्ध नैष्ठुर्थे, दश० ७ अ० । झा० । होल । इति वा बोल इति वा एतौ च देशान्तरे अवज्ञासंसूचकौ। ह-हु-देशी-साङ्केतिकः शब्दः । चतुष्के,शब्दोपादानात् ना. प्राचा० २ श्रु० १ चू० ४ अ० १ उ० ।
रकतियनरदेवाश्चत्वारो ग्राह्याः । ग० २ अधि० । नि० चू०।
वासे पुंण्णरसंकचन्दपमिए चित्तम्मि मासे वरे,
हत्थे भे सुहतेरसीबुहजुए पक्खे य सुब्ने गए। सम्मं संकलित्रो य सूरयपुरे संपुरणयं संगो,
राईदायरिएण देउ नुवणे राशंदकोसो सुहं ॥१॥
अथ प्रशस्तिः -- शाखाप्रशाखा भिरतिप्रवृळे, वीरोक्तिविस्तार विधानदथे । सफर्म्य सौधर्मवृहत्तपाऽऽख्य-गच्छे जगत्यां जनितप्रतिष्ठे ॥१॥ श्रुतावगाहप्रवरा महान्तः, सच्छासनाऽशेषधुरं वदन्तः। श्रीसङ्घवाटी परिफुल्लयन्तः, सूरीन्द्रमुख्या बहवो बनवुः ॥ २ ॥ तदन्वयेऽजूद वररत्नसरिः, स्वब्रह्मतेजस्वितया करिष्णुः । जानुं ननोगं हरिमब्धिवासं, त्रिषट्तमं पट्टमलङ्करिष्णुः ॥ ३ ॥ निरन्तराऽऽचामलकरः सुखेन, क्षमा-श्रुत-प्राज्यमतिप्रवृद्धः । वृक्षमासूरिरलञ्चकार, तत्पट्टमेहं सवितेव धीरः ॥ ४ ॥
स्वपरसमयवेदी षट्सु नाषासु ददो, विजितयवनवृन्दो मेदपाटीयजर्तुः। सदसि जनसमदं श्रीलदेवेन्द्रसूरिः,
समनवदतितेजाः पट्टकेऽमुष्य जिष्णुः ॥ ५ ॥ शिश्राय तत्पट्टमशेषकाल-विन्मारजित्स्वाऽन्यशुभं करिष्णुः। नैमित्तिकानां प्रथमश्च लोके, कल्याणसूरिगणितप्रवीणः ॥ ६ ॥ अन्वर्थनामा समनृत् प्रमोद-सूरिजगजीवसुमोदहेतुः । समाधिलीनो निजकर्मदर्भ-स्तदासनेऽखएिमतशीलशाली ॥७॥ तत्पह मेरावुदियाय नानु-जनागमाब्धिं परिमथ्य कोशम् । राजेन्द्रसूरिर्जगदर्चनीयो-निधानराजेन्डमसावकार्षीत् ॥७॥
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叮叮叮
作纷代
( १२५१ ) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
अस्मत्प्रभावी धनविजय मुनिर्वादिवृन्दप्रजेता, श्री लोपाध्यायवर्यः प्रतिसमयमदाद् रिसाहाय्यमेषः । कोशाब्धेरस्य सृष्टौ सकलजनपदश्लाघनीयत्व लिप्सोः, सन्मानसान्जे दिनकरसमतां यास्यमानस्य लोके ॥ एए ॥ धन्वन्यनृत्तर्कयुगङ्गपृथ्वी वर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिः । पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे विघ्नं शून्यङ्गिनिध्येक मिते सुवर्षे ॥ १० ॥ तावन्मद्दान् प्राकृतकोश एष, यावत् क्षितौ मेरुरवीन्दवः स्युः । सज्जैन जैनेतरविज्ञवर्ग-मानन्दयेत् कोकमिवोष्णरश्मिः ॥ ११ ॥
इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय- कलिकाल सर्वज्ञकल्प
श्रीमहारक जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य श्री श्री १००८ श्री
मद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते 'श्रीनिधानराजेन्द्रप्राकृतमहाकोशे' इकारादिशब्द सङ्कलनं समाप्तम् ।
तत्समाप्तौ च समाप्तश्चायं ग्रन्थ : ।
895895555555
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张
जै
你你你你
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DEBERES MI 48X BREDCEZETERY
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अथ मुद्रणपरिचय:
निर्ग्रन्थगच्छः समभूत्सुधर्माऽऽ ख्यात्सुस्थिताऽऽर्यादथ कोटिकाऽऽह्नः । चन्द्रोऽपि चन्द्रप्रभचन्द्रसूरेः, सामन्तनद्राद् वनवासिगच्छः ॥ १ ॥ श्रीसर्वदेवाद् वटाविरासीत्, तथा जगश्चन्द्रमुनीन्द्रवर्यात् । सौधर्मसंयुक्तवृत्तपाऽख्यो, राजेन्द्रसूरेजगति प्रसिद्धः ॥ २ ॥ युग्मकम् । एतद्गच्छ सुशासनीय सुधुर प्रोद्वाद्दिसूरित्रजाऽलङ्कारायितसाधुकर्म विधिवत्संशोधकस्याऽऽज्ञया । आजन्माऽनघशीलशोजिततनो राजेन्द्रसूरीशितुः, संघातान्तिमया विनेयनित्रर्देः संशोध्य मुद्रापितः ॥ ३ ॥ व्याख्यानी सच्चरित्रः सुबुधगणनतः सेवितः साधुवर्गेजैनाचार्यः क्रियावान् दि विजयधनचन्द्रोऽस्य पट्टेऽनिषिते । दान्तेान्ते मद्दान्ते प्रशमित हृदये संयमे सञ्चरिष्णौ, सौम्ये रम्ये गभीरे सकलजनहिते वर्त्तमाने सदाप्तौ ॥ ४ ॥ चन्द्राशाङ्ककलाधिनाथसहिते वर्षेऽसिते पके, चैत्रे मासि घरासुतस्य दिवसे ज्येष्ठाख्यतारायुते । सप्तम्यां रतलाम नामकपुरे नृपेन्द्रसूरीश्वरे, राजत्येष सुसाधु मुद्रणमितो राजेन्द्रकोषः शुभः ॥५॥
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CCCCC555000090
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