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सील
पिरश्यते परीवारो नित्यं कर्कभाषिकः । परिग्रह विरक् च प्रभुत्वं हीयते नृणाम् ॥ २ ॥ किंचअशिक्षितारमण ग्लानिं याति यतः प्रभुः । अतः शिक्षा प्रदातव्या, प्रत्यहं मृदुभाषया ॥ ३ ॥ स्वाधीने माधुर्ये मधुराक्षरसंभवेषु वाक्येषु । किनाम यतः पुरुषाः परुषाणि मापते ॥४॥ इत्यादि । श्रत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना महाशतकमहाश्रावकः सपिपजते प्राय चाहितम् इति मतान्तरे पुनरदुराराध्यताभिधानं पीपरुषभाषित्वेन संगृहीतमेव ।
( १०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
महाशतकसंविधान निम्
रायविहपुरखरांवर विभूसां गवई जलहरु य सिरिलो भ्रमरदियो, माल पयं महासयगो ॥ १ ॥ अडकण्यकोडी विडिवुद्धि पवित्रता दस गोसहस्सपरिंग- या तस्स (चेव) अट्ठ वया ॥ २ ॥ रेवा रख-भज्जाओ तत्यरेषां उ
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पिउगे संतिया, कोडीओ श्रट्ट कण्गस्स ॥ ३ ॥ दगो सदस्यमाया परिया। किडी सासदस्सो पुढो व वो ॥ ४ ॥ अह तत्थ समोसारियो, गुणसिलए चेइए जियो वीरो । या पदरेहि समं महासयगो ॥५॥ नमिति उपाये निविदुओ एसी । भययं पि श्रभयनिस्सं-दसुंदरं कहर हर धर्म ॥ ६ ॥ इड दुलई गिहिधम्मं सहि साज पदिवसे तस्त्र विसुद्धिनिमित्तं दिराचरिया इह विद्देयब्वा ॥ ७ ॥ तथाहिसुत्तविडोस सम्म सुमरिज पंचनवकारं । जाइकुलदेवगुरु-विनितिज्ञा ॥ ८ ॥ तो माय-मडि दाइ दिवसमुद्दे । सियवत्थो मुहकोसं काउं पूरज गिहर्बिषं ॥ ६ ॥ पश्चक्खाणं काऊ ण इडिपत्तो महाविभूईए । गच्छ जिन्दगिद्दे, पविसिज तेहि समयविहिणा ॥ १०॥ पूर्णव जिणं वंदि-ज तयणु बच्चिज्ज सुगुरुपासम्मि । काऊण तेसि विणुयं पञ्चक्खाणं च पयठेडं ॥ ११ ॥ धम्मं सुख सम्म सुद्धं विति शाश्री कुजा । म
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पुग्ण पूयं, विहिज्ज जिगनाहपडिमा ॥ १२ ॥ पडिलाभिज्ज मुशिंदे, फासूयएसणिय असगदाणेण । साहम्प्रियवर्श कर दीगाचकं ॥ १३ ॥ बहुवीयताया- इयभिषणं तथा कुजा । देवगुरु ॥ १४ ॥ तो सत्थरहरुसाई, कुसलमईहिं समं वियारिया । इगभत्तासत्तो पुरा, भुंजिन दिडुमे भागे ॥ १५ ॥ संभामा पुरा दिजा श्रवस्मयं वि हे, करिज्ज सज्झायमेगग्गो ॥ १६ ॥ नियमास ततो हिज धम्मंगहाम्रो उचिये । पातो, सीले पालिज पच्ये ॥ १७॥ कयंत्र उसरगगमाई, सावज्जं चय गंठिसाहिए । पंचनमुक्कारपरो, थवं सेविज तो निदं ॥ १८ ॥
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सील
नामिति विसय सुरसिषपुरगमगर, पर्व व मोर कु॥१८॥ सिरिअरिहंतो देवो, सुना चरणा सुसाडुणो गुरुलो । तत्तं जिपन्नत्तं भवे भवे इय मद्द दविजा ॥ २० ॥ जिम्मवासियम, बेडोस। जिधम्मेण विमुको, कथावि मा श्रवट्टी थि ॥ २१ ॥ मलमखित जरमलिनीसंग परिमु महुयरचितिपदा, कया करिस्यामि मुनिचरिये ॥ २२ ॥ च कुसीलसंगं, गुरुपयपंकयरयं परिफुसंतो । जोत का काई ॥ २३ ॥
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हरसिपमा आ बुट्टा मिगजूहपड्डू, अग्धादस्संति मं कइया ॥ २४ ॥ मिले मि-पादाये । मुक्ये मये भमिस्से का नियम ॥ ५५ ॥ एवं पदिकरिये, कुणमाणो माणवो निहियमाणो । गिडवासे वो कुरा सिद्धि ॥ २६ ॥
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सुयि महामं तुझे सांग, विहर असामी वि ॥ २७ ॥ तस्संसग्गवसे वि, पाविट्ठा रेवई न पडिबुद्धा ! मज्जरसपिसियगिद्धा, खुद्दा भणियं धणे लुद्धा ॥ २८ ॥ अविसदिगदिलासा दिसतो । इस्सरथपओगे॥ २६ ॥ दुपयच उप्पयधणकण-गभाइ तासि संतियं लहू । बहुपाख्याणी कू - रमाणा चिट्ठा साचि ॥ ३० ॥ बुट्टे य अमाघार, पलमलहंनी कयावि तो एसा । माराविय समयाओं, आणावा पाय दुगं ।। ३१ ।।
समरिसा, कुमाउ सुवं । पोससालं पविसद, विरसचित्ती महासयगो ॥ ३२ ॥ सामजपासना, दाविवादविवाद तं उवसग्गाइ बहुसो, अहियासइ सुछु स महष्णा ॥ ३३॥ सम्मं समणोषासग-पडिमा इक्कारसा वि फासेह । माऊण चरिमसमर्थ, विहिया पडिए ३५ ॥ सो सुभावव सुप्प न श्रहिनारोग लवणजलहिम्मि उत्तरवजहिसासुं नियइ पुट्ठो जोयणसहस्सं ॥ ३५ ॥ उत्तर हिमवंत, हिट्टा रयणाइलोलुयं नरयं । बुलसीवास सहरस-ट्ठिइयं जाणेह पासे ॥ ३६ ॥ इत्तो य मज्जमत्ता, सा पावा रेवई तर्हि पता । उसमा दुस्सहरागसिंहता ॥ ३७ ॥ तो किमयमेरी इस विषकमा ओहिना । नायं तीसे सयल, चरियं तह नरयगामित्तं ॥ ३८ ॥ सकुविण भणिया, हा पाषि नि!ि निम्लज्जे ! श्रज्जवि पा व पुंजमज्जेसि केवइयं ॥ ३६ ॥ सतरतो. धारपवाहिणा समभिभूषा मरिक गमिस्वसि गिरगापासम्म लोप ।। ४० ।। सुयि अगमा कवियो मे महागो मरणभवियंगी दुनिया सा गया गेहे ॥ ४१ ॥ इत्तो य तत्थ पत्ते - वीरनाद्देण गोयमो भणिश्रो । तं वच्छ गच्छ पभणसु, मह वयणं महासयगं ॥ ४२ ॥ भद्द !न कंप्पइ उत्तम गुणां सङ्काग भांसिउ फरुले ।
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