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( ८७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
सिवभर
ग्रह सेसनिवा भाँति, नियनियठाणेसु संठिया एवं । भो तिथ कोइ पुरिसो, जो तं श्रासं श्रवहरिजा ॥ ५७ ॥ भवियं चारनरेहिं, सो नरपंजरगओ सया कालं । हरि रानी ॥ ४८ ॥ जर नवरं मारिज्जर, रन्ना भणियं इमं पि ता होउ । तत्तो सो तत्थ गो, न लहद्द तुग्यस्स श्रवगासं ॥ ५६ ॥ तो ये खुदिया- सरमुहठिण वस्तुरश्र । कद्दमवि विद्धो सो ते सलिओ सुहुम सल्ले ॥ ६०॥ सोनि भुतो विजयसार तोरना सो विज-स्स दाइ ओ तेरा भणियमिं ॥ ६१ ॥ न हि कांद्र धाउखोद्दा, प्रत्थि हु अवत्त सल्लभयस्स । सो जमगमगमेसो, ६२ ॥
लपसे आसो, उरदत्त य पढममुवाओ । नाऊण तो सल्ले, नीणिय आसो कओ सज्जो ॥ ६३ ॥ अनो पुराजद भासी अनि भुपरि तद साहू विसरलो, कम्मजयं काउ असमत्यां ॥६४॥ देवायि ! सम्मं, लज्जागारवमयाइ ता मुत्तुं । आलोयसुनियसलं, मा मरसु ससज्ञमरणेण ॥ ६५ ॥ जयो
नवितं सत्यं व विसं, व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जंत व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमाइश्रो कुद्धो ॥ ६६ ॥
कुस उत्तमकालम्मि | दुल्लभवोद्दीप तं प्रणतसंसारियत्तं च ॥ ६७ ॥
सिपिडितो चरं विराहिऊं, उववन्ना भवण्वासी सु ॥ ६८ ॥ सिवमद्दो उण कंटग - पहछलगानायो कह वि जायं । ना नियमइयारे, आलीया भसि गुरुमूले ॥ ६८ ॥ पति सम्मे धारादिऊन साम
उबबन पवरसुरो, सोहम्मे हेमवन्नाभो ॥ ७० ॥ तो चइिभर, बेम गययपुरम् । सिरिकण्यकेउरन्नो, देवइनामाइ देवीए ॥ ७९ ॥ जाओ पहाणत्तो, सिवचंदो नाम पत्ततारुनो । परिसर विज्जो ॥७२॥ सिरिओवित वट्टिय, जाओ तस्सेव बंधवो लहुआ । कपसोमचंदनामो मे ॥७३॥ अह सोमचंद कुमर-स्ल पढियनिरवज्जपवरविज्जस्स । जाया कथावि बुद्धी, मायगि साहिउं विज्जं ॥ ७४ ॥ सीम कल्पण कर दिये। सावदी विदेषा, परिनियमारंग ॥ ७५ ॥
मका पिडा, पारितोषि स सुबहु खलिज्जतो वि हु. गश्री कुणालाइनयरीए ॥ ७६ ॥ तत्थ बहुदाणपुब्वं, मायंगसुयं विवाहए एगं । सिढिलिया साग - पायारो गलियसुखमई ॥७७॥ अगलियस कुलकको दूना। मी शिरलो, कमेण जावासि डिभागि इय तस्स मलीमस चिट्ठियम्स श्रयं तपावनिरयस्स । पिउभायपमुहलोए - ण संकहा दूरश्रो चत्ता ॥७६॥ दिदि हरिरिरह जोहपरियरियो | तो व पिाहयो ||5|| २१६
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सिवभूह
परमाणारूढो, सिर उवरिधरिज्ज मागसियछत्तो । पासपइडियखयरी, जगढा लिजंत सियचमरो ॥ ८१ ॥ अपमान पहुचयडियविधिसमररिविज कलकंठ कंठगायण - गिज्जंतमहंत गुनिवहो ॥ ८२ ॥ सुचिरं सुरसरिसुरगिरि-वसु नह जंबुदीवजगईए ।
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मग फीलिम ८३ ॥ कविकुलानपरी उपओ निर्मि नेहें ओरिकण सायरं भायरं भगइ ॥ ८४ ॥ किं भी बंधव! तुमए, इहेव श्रच्चंत निंदियकुलम्मि | कारण व मयगकले - वरम्मि बद्धा रद्द दूरं ॥ ८५ ॥ किं मूढ विश्वगंध-बंधनादिना । दूंरेण वयमाणं, जणं इत्रो न हु पलाएसि ? ॥ ८६ ॥ एत्थ अधिक भर ि अवरत्थ गिद्धवायस-दुपिच्छे किं न नियसि इमं ? ॥७॥ तं सोड सोमवंदो, श्रयंडतडिदंडताडिओ व दढं । विच्छाओ लज्जावस मिलतनयां भगद्द एवं ॥ ८८ ॥ भो भाय ! को न याणा, दुहमसममिमं परं कहेसु इमं । पुग्भवपिदुम्म भारदोसे केस अहं ॥ ८ ॥ मिलफलवाचिमुझे विमुकतुसरिसबंध परिसविजाइवावा र सायरे पाडिओोऽम्हि दहा ? ||६|| तो विहिना सिदो सविसरिय रोदिगि दि पुच्छरकडे भयवह मह बंधयपुण्यभयन्यरियं ॥ २१ ॥ उरुहिनामुकिडि सयपतस्त्र पुग्भवं । देवी रोहिणी फुडपवमिमं समुजविषं ॥ २२ ॥ जाइमाई पुनि सम्ममा लोइयं जमेस । तेसो तुह भाया विडंबणं परिसं पत्तो ॥ ६३ ॥ जं सुहुम बिहु खलिए, निस्सल्ला लोयणा कया तुमए । तं जाओ सिइय सुद्दी इय भणिय तिरोहिया देवी ॥ ६४ ॥ दिवं सरिया भो भाप ! | तिमि ॥ नियदुक्कयाइँ श्रालो - इऊण काऊ तिब्वतवचरणं । एयरस दुक्खनिवह स्स देसु सलिलजलि भाया ! ॥ ६६ ॥ अह भण्इ सोमचंदो, भाय ! इमा भारिया मह श्रणाहा । श्रासन्नपसवसमया, इमाई डिम्बाई लहुयाई ॥ ६७ ॥ ताकद मुमि कई इस तं मूढं निर्णय दि दूरं न धम्मजुग्ग-त्ति वयह पत्तो नियं नयरं ॥ ६८ ॥ मायाविण पिसो कदमयि चारणमुद पवित्रजनन, सिद्धि पत्ता वकिलेसो ॥ २८ ॥ इयरो विकाउ विविहं, पार्व कालम्मि कालमासज्ज । पत्तो नर घेोरे, दुद्दिश्रो भमिद्दी भवकडिल ॥ १०० ॥ वेति द्विफटना घटना निरस्त कर्मवजस्य शिवभद्रमुनश्चरित्रम् । वाचंयमा नियमिताखिलदोषजाला,
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यमदा स्खलितशुद्धिविधी व्यधत्त ॥ १०॥ इति शिवभद्रमुनिकथा । ध०र० ।
सिव
सिवभृति-पुं० परिवारासो स्य स्वनामख्यातेऽन्तेवासिनि कौत्सगौत्रे श्राचार्ये, कल्प० १ अधि०४ क्षण | म्वनामख्याते रघुवीर परवान्तध्ये साहस्रिकम
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